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हिंदी ख हिंदी भाषा और साहित्य by Radhika
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i. कबीर
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उत्तर – पररचय
ह न्दी भाषा के हिकास क्रम को 1000 ई. से माि गया ै । ह मािय से हवन्ध्याचि व राजस्थाि से िे कर
बिंगाि िक इसका िे ि मािा गया ै । 18 बोहियोिं के सिंयुि रूप से इस भाषा का गठि हुआ ै । पहिम के
प्रदे श गुजरािी, राजस्थािी एविं इहिण-पहिमी भाषा मराठी िक इसका प्रसार ै। इसी प्रकार उत्तरी िे ि में
ह माचि प्रदे श व जम्मू िक िथा दहिण के प्रदे श में ै दराबाद ( दकिी ह न्दी ) िक इसका प्रसार ै ।
ह िं दी शब्द की व्यु त्पहत्त भारि के उत्तर-पहिम में प्रवा माि हसिंधु िदी से सिंबिंहधि ै । इससे य हिहदि( हिसे
िािा-समझा िा चुका ो) ै हक अहधकािं श हवदे शी यािी और आक्रान्ता (आक्रमण करिे िाला व्यक्ति)
उत्तर-पहिम के हसिं द्वार से ी भारि आए थे । भारि में आिे वािे इि हवदे हशयोिं को हजस दे श का दशयि हुआ
व हसिंधु दे श था। ईराि (फारस) के साथ भारि के प्राचीि काि से ी सिंबिंध थे । ईरािी ‘हसिंधु’ को ‘ह िं दू’
क िे िे अिः ‘ह िंदू’ से ‘ह िं द’ और ‘ह िं द’ में सिंबिंध कारक प्रत्यय ‘ई’ लगिे से ‘ह िं दी’ बि गया। इस
िर ‘ह िं दी’ का अथय ‘ह िं द का’ ो गया। इस प्रकार ह िं दी शब्द की उत्पहत्त ह िं द दे श के हिवाहसयोिं के अथय में
हुई।
आचायय धीरे न्द्र िमाय िे ह िं दी भाषा का उद्भि 1000 ई.पू. के लगभग स्वीकार हकया ै , परविी अहधकािं श
भाषा शास्त्री इस िथ्य से स मि ै । कुछ उत्सा ी अिु सिंधािाओिं िे य हसद्ध करिे का प्रयास हकया ै हक
1000 ई. के पूवय ी ह िं दी का प्रारक्तिक रूप हमि जािा ै ।
डॉ. पीिाम्बर दत्त बड़थ्वाल का अिुमाि ै हक सि् 778 ई. के पूिय से ी ह िं दी बोली िािी र ी ोगी।
डॉ. रामकुमार िमाय, म ापक्तिि राहुि सािं कृत्यायि और ठाकुर हशवहसिं सेंगर िे सािवीिं शिी ई. की कहविा
में ह िं दी भाषा के शब्दोिं के प्रमाण प्रस्तु ि हकए ैं । य ी कारण ै हक डॉ. रामकुमार वमाय िे अपिे
आिोचिात्मक इहि ास में चिं द्रधर शमाय गुिेरी और राहुि सािं कृत्यायि के मिोिं का परीिण करिे हुए 'उत्तर
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आहदकािीि ह िं दी सभी बािोिं में अपभ्रिं श से बहुि करीब थी। इस काि की ह िं दी में कई बोहियोिं का हमश्रण
हमििा ै । स्वर और व्यिं जि की दृहि से आहदकािीि ह िं दी अपभ्रिं श की ऋणी ै । कुछ िई ध्वहियोिं का
हिकास भी इस काल में ो गया िा जैसे – ‘ऐ’ और ‘औ’ ये दोिोिं सिंयुि स्वर अपभ्रिं श में ि ीिं थे ।
आहदकािीि ह िं दी में इि दोिोिं स्वरोिं का उच्चारण ‘अए’ और ‘अओ’ की िर ोिा था। च, छ, ज, झ, सिंस्कृि
इसी रूप में प्रयुि ो र े ैं । ड़, ढ़ व्यिं जि अपभ्रिं श में ि ीिं थे हकन्तु इस काि के ह िं दी में इसका हवकास ो
गया। अपभ्रिं श में न्ह, म्ह, ल्ह सिंयुि व्यिं जि थे हकन्तु इस काि में आकर ये क्रमशः ि, म, ि के म ाप्राण के
व्याकरण की दृहि से भी आहदकालीि ह िं दी अपभ्रिंश से बहुि हिकि िी। धीरे -धीरे अपभ्रिं श के
व्याकरहणक रूप कम ोिे गए और 1500 ई. िक आिे -आिे ह िं दी अपिे पैरोिं पर खड़ी ो गई। अपभ्रिं श
भाषा काफी द िक सिंयोगात्मक थी िे हकि आहदकािीि ह िं दी में हवयोगात्मक रूप में प्रधाि ो गई।
मुसलमािोिं के सिंपकय में आिे से ह िं दी भाषा में अरबी, फारसी, िु की आहद शब्ोिं की सिंख्या भी बढ़िे
लगी। ह िं दी के प्रारिं हभक काि में हडिं गि, हपिंगि ब्रज अवधी मै हथिी आहद भाषाओँ में साह त्य हिखा जािे
िगा था। इस युग में गोरखिाथ, चिं दबरदाई, हवद्यापहि, कबीर आहद साह त्यकारोिं िे रचिाएँ रची। कबीर हक
भाषा में ह िं दी के अिेक बोहियोिं का हमश्रण ै । इस प्रकार आहदकािीि ह िं दी हवहभन्न प्रभावोिं से शक्ति प्राप्त
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कर हवकहसि ो र ी थी। सिंस्कृि के समाि य व्याकरण के कठोर हियमोिं से जकड़ी हुई ि ीिं थी हजसके
ह िं दी भाषा के हवकास के इस काि को सवोत्तम काि क ा जािा ै इसे स्वणय युग भी क ा गया ै। भाषा
और साह त्य दोिोिं की दृहि से इस युग का हिशेष म त्व ै । व्याकरण की दृहि से मध्यकािीि ह िं दी पूरी
िर अपिे पैरोिं पर खड़ी ो गई। इस काि में अरबी-फारसी, पश्तो, िु कय आहद हवदे शी भाषाओँ के शब्द
प्रयुि ोिे िगे। यूरोप वाहसयोिं से सिंपकय में आिे से अिंग्रेजी, पुियगािी, स्पेिी, फ्ािं सीसी, भाषाओँ के शब्दोिं से
भी ह िं दी प्रभाहवि हुई। मध्यकाि में धमय की भाविा प्रबि ोिे के कारण ित्सम शब्दोिं का प्रयोग खूब बढ़
गया क्ोिंहक साह त्य में गद्य की अपेिा पद्य की ओर कहवयोिं का हवशेष झुकाव र ा। ब्रज और अवधी इस
काि की समृ द्ध भाषा बि गई। ब्रज में कृष्ण-साह त्य और अवधी में राम साह त्य रचा गया। सिंिेप में
मध्यकािीि ह िं दी में ब्रज अवधी आहद बोहियाँ साह क्तत्यक बिकर आगे बढ़ी और भाषा के रूप में खड़ी बोिी
प्रहिहिि र ी।
ह िं दी भाषा के इहि ास में इस काि का जन्म सिंघषय िथा क्रािं हि में हुआ। ब्रज और अवधी का स्थाि धीरे -धीरे
खड़ी बोिी िे र ी थी। शासि-सत्ता अपिे ाथ में िे िे ी अिंग्रेजोिं को भारि की जििा से सिंपकय करिे के
हिए य ाँ की भाषा को सीखिा आवश्यक ो गया। 1800ई. में अिंग्रेजोिं िे किकत्ता में फोटय हवहियम कॉिे ज
की स्थापिा करके ह िं दी के हवकास का प्रारिं भ हकया। कॉलेि के अध्यि डॉ हगलक्राइस्ट िे 1803ई. में
िल्लूिाि िथा सदि हमश्र की हियुक्ति हुई। इन्होिंिे ‘प्रेमसागर’ और ‘िाहसकेिोपाख्याि’ की रचिा हकया।
19वीिं शिाब्दी के उिराद्धय में भारिें दु युग से खड़ी बोिी में गद्य हिखा जािे िगा था। इस समय कहविा की
भाषा ब्रज थी। आगे चिकर कहविा की भाषा भी खड़ी बोिी ो गई। हदवेदी युग से खड़ी बोिी के साह त्य
में स्वणययुग का आगमि ो गया। आधु हिक युग में ररऔिंध, मै हथिीशरण गुप्त, प्रसाद, हिरािा, पिंि, प्रेमचिं द,
म ादे वी वमाय आहद के साह त्य िे ह िं दी को पररहिहिि और सिंपन्न भाषा के रूप में प्रहिहिि कर हदया। आज
ह िं दी वाहणज्य, हवज्ञाि, हवहध, िकिीकी की भी भाषा ै । शब्दकोष िथा साह त्य की दृहि से ह िं दी भाषा की
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गणिा आज हवश्व की उन्नि भाषाओँ में ोिे िगी ै । कुि हमिाकर म क सकिे ैं हक आधु हिक ह िं दी
हिष्कषय
हिष्कषयिः य क ा जा सकिा ै हक 7वीिं शिी ई. के पूवय से ी ह िं दी के कुछ व्याव ाररक रूप हमििे ैं
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प्रश्न 2 – ह िं दी भाषा िे त्र से आप क्या समझिे ैं ? ह िंदी िे त्र की बोहलयोिं को हकििे िगों में हिभाहिि
हकया गया ै ।
उत्तर – पररचय
ह न्दी भाषा के िे त्रीय प्रसार को 'ह न्दी भाषी िे त्र क ा गया ै । इसमें हदल्ली, उत्तर प्रदे श, हब ार,
झारखि, मध्य प्रदे श, छत्तीसगढ़, उत्तराखि, ह मािं चि प्रदे श, ररयाणा, राजस्थाि इत्याहद प्रदे श आिे ैं ।
इि प्रदे श में बोिी जािे वािी बोहियोिं को हमिाकर ह न्दी भाषी प्रदे श बििा ै ।
5 उपभाषाओिं एििं 18बोहलयोिं में हवभि ह न्दी भाषा भारिीय सिंस्कृहि की प्रहिहिहध भाषा र ी ै । अब
म ह न्दी की प्रमु ख बोहियोिं एविं उपभाषाओिं का अध्ययि करें गे।
1. पहिमी ह न्दी
ह न्दी का उप-भाषाओिं में से सवाय हधक प्रमु ख उप-भाषा के रूप में पहिमी ह न्दी की गणिा की जािी ै। इस
उपभाषा का िे ि हदल्ली, ब्रज, ररयाणा, कन्नौज व बुिंदेिखि के िे िोिं को अपिे में समे टे हुए ैं । खड़ी बोिी
1. खड़ी बोली
खड़ी बोिी का िे ि मे रठ, हबजिौर, मु जफ्फर, स ारिपुर, मु रादाबाद, रामपुर आहद हजिे ै । साह त्य की
2. ब्रि
ब्रजभू हम में बोिी जािे वािी भाषा का िाम ब्रजभाषा ै । मथु रा, वृिंदावि के आस-पास का िे ि, आगरा मथु रा,
एटा, मै िपुरी, फर्रयखाबाद, बुििंदश र, बदायूँ आहद हजिोिं में ब्रजभाषा बोिी जािी ै । सूर, अिछाप का
साह त्य, हब ारी, दे व, घिििंद समे ि पूरा रीहिकाि, जगन्नाथदास रत्नाकर, ररऔध जैसे कहवयोिं के साह त्य से
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ब्रजभाषा समृ द्ध ै । व्याकरहणक दृहि से ओ / औ करािं ि इसी हवशेषिा ै । गयो, भिो, क यो इत्याहद शब्द
इसके उदा रण ैं ।
3. कन्नौिी
कन्नौजी का िे ि पहिमी उत्तर प्रदे श के इटावा, फर्रयखाबाद, शा ज ाँ पुर आहद हजिे ैं । कािपु र, रदोई के
ह स्से भी कन्नौजी के िेि ैं। य ब्रजभाषा और बुन्देिी के बीच का िेि ै। खोटो, छोटो, मे रो, भयो, बइठो
इत्याहद 'ओ' कारान्त भाषा के रूप में कन्नौजी को दे खा जा सकिा ै ।
4. बुन्देली
बुन्देिखि जिपद की बोिी को बुन्देिी क ा गया ै। इस बोिी का िे िझाँ सी, जािौि, सागर, ोशिंगाबाद,
भोपाि इत्याहद ै ।
5. बााँगरू ( ररयाणिी )
ररयाणा प्रदे श की बोिी को ररयाणवी क ा य बोिी हदल्ली के कुद ह स्सोिं में , करिाि, रो िक अिंबािा
आहद हजिोिं में बोिी के जािी ै । को के हिए िे का प्रयोग ररयाणवी की हवशेषिा ै ।
पूिी ह न्दी में िीि बोहलयााँ ैं - अवधी, बघेिी एविं छत्तीसगढ़ी पूवी ह न्दी उपभाषा, ह न्दी में हवहशि स्थाि
रखिा ै , क्ोिंहक इसमें िुिसीदास व रामचररिमािस जैसी कृहियाँ ैं । आइए पूवी ह न्दी की बोहियोिं से
पररहचि ोिं।
1. अिधी
अवध मिि की बोिी को अवधी क ा गया ै । इस भाषा का प्रमु ख िे ि िखिऊ, उन्नाव, रायबरे िी,
फैजाबाद, प्रिापगढ़, इिा ाबाद, फिे पुर आहदहजिे आिे ैं रामभक्ति शाखा का केंन्द्र अवध मिि ी
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2. बघेली
बघेिखि की बोिी को वघेिी क ा गया ै । बघेिी में रीवा, जबिपुर, माँडवा, बािाघाट आहद हजिे आिे
3. छिीसगढ़ी
छिीसगढ़ की बोिी को छिीसगढ़ी क ा गया ै । मध्यप्रदे श के रायपुर, हविासपुर हजिे इसके प्रमु ख केन्द्र
ैं ।
राजस्थािी, ह न्दी का प्रमु ख उपभाषा ै । राजस्थािी उपभाषा में चार बोहियाँ ैं । मारवाड़ी, मे गिी, जयपुरी
एविं मािवी । रासो साह त्य से िे कर आधु हिक काि िक राजस्थािी साह त्य का ह न्दी पर प्रभाव दे खा जा
सकिा ै ।
1. ियपुरी
जयपुर केन्द्र ोिे के कारण इसे जयपु री क ा गया ै । इस बोिी को ढूँढािी भी क िे ैं । ाडै िी इसकी
उपबोिी ै । जयपुरी बोिी के िे ि कोटा, बूँदी के हजिे एविं जयपुर ैं ।
2. मेिािी
य राजस्थािी के उत्तर सीमा के अिंिगयि बोिी जािी ै । इसकी प्रमु ख उपबोिी अ ीरवाटी ै । मे वािी
अिबर, भरिपुर और गुड़गाँ व के हजिोिं में बोिी जािी ै ।
3. मालिी
दहिणी राजस्थाि की बोिी को मािवी क ा जािा ै । मािवी का मु ख्य िे ि दहिणी राजस्थाि के बूँदी,
झािावाड़ हजिे िथा उत्तरी मध्यप्रदे श के मिं दसौर, इिं दौर, रििाम आहद हजिे आिे ैं । य बोिी गुजरािी
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4 मारिाड़ी
राजस्थािी की पहिमी बोिी का िाम मारवाड़ी ै। इसका केन्द्र मारवाड़ ै । इसका केन्द्र मारवाड़ ै । इस
बोिी का केन्द्र जोधपुर, बीकािेर, जैसिमे र, उदयपुर आहद हजिे ैं । ह न्दी साह त्य की वीरगाथाएँ मारवाड़ी
में ी हिखी गयी थीिं। मीरा का काव्य मारवाड़ी में ी रहचि े । इस प्रकार राजस्थािी की बोहियोिं में मारवाड़ी
साह क्तत्यक दृहि से सवाय हधक पररष्कृि ै ।
इस उपभाषा का केन्द्र हब ार ोिेके कारण इसका िाम हब ारी पड़ा ै । हब ारी उपभाषा में िीि बोहियाँ
ै - भोजपुरी, मग ी एविं मै हथिी ।
1. भोिपुरी
भोजपुरी, हब ारी की सवाय हधक बोिी जािे वािी बोिी ै । हब ार का भोजपुर हजिा इस बोिी का केन्द्र ै ।
इस बोिी के प्रमु ख िे िोिं में बहिया, बस्ती, गोरखपुर, आजमगढ़, गाजीपुर, जौिपु र, बाराणसी, हमजाय पुर,
सोिभद्र, चिं पारि, स ारि, भोजपु र, पािामऊ आहद आिे ैं । इस प्रकार इस बोिी का केन्द्र मु ख्य रूप से
हब ार एविं पूवी उत्तर प्रदे श ै। भोजपुरी भाषा में पयायप्त िोक साह त्य हमििा ै । कबीर जैसे बड़े कहव के
ऊपर भी भोजपुरी का प्रभाव ै । आज भोजपु री हफल्ोिं िे इस बोिी को रािरीय एविं अिंिराय िरीय प्रहसक्तद्ध दी ै ।
2. मग ी
मगध प्रदे श की भाषा ोिे के कारण इसका िाम मागधी पड़ा ै । य बोिी मु ख्य रूप से हब ार के पटिा,
3. मैहिली
हमहथिा प्रदे श की भाषा ोिे केकारण इस भाषा का िाम मै हथिी ै य बोिी प्रमु ख रूप से उत्तरी हब ार
एविं पूवी हब ार के चिं पारि, मु जफ्फरपु र, मुिं गरे , भागिपुर, दरभिं गा, पूहणयया आहद हजिोिं में बोिी जािी ै ।
मै हथिी ह न्दी की भाषा ै या ि ीिं? इस प्रश्न को िे कर मिै क् ि ीिं ै / वैसे परम्परागि रूप से मै हथिी को
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ह न्दी भाषा की बोिी के रूप में ी स्वीकृहि हमिी हुई ै । साह क्तत्यक दृहि से मै हथिी, हब ारी उपभाषा की
बोहियोिं में सवाय हधक सिंपन्न ै। मै हथि कोहकि हवद्यापहि िो ह न्दी भाषा के गौरव ै ीिं । आधु हिक कहवयोिं
इस उपभाषा का सिंबिंध प ाड़ी अिंचि की बोहियोिं से जुड़ा हुआ ै , इसहिए इसे प ाड़ी िाम हदया गया ै ।
ह न्दी भाषा के प ाड़ी अिंचि में उत्तराखि व ह मािं चि प्रदे श का िेि आिा ै । हग्रयसयि िे िेपािी को भी
प ाड़ी के अिंिगयि मािा था । इस उपभाषा के दो भाग हकये गये ैं - पहिमी और मध्यविी । पहिमी प ाड़ी
में जौिसारी, चमोिी, भद्रवा ी आहद बोहियाँ आिी ै िथा मध्यविी प ाड़ी में कुमाऊँिी एविं गढ़वािी।
कुमाऊँ खि में जािे कारण इस बोिी का िाम कुमाऊँ पड़ा ै। उत्तराखि के उत्तरी सीमा िे ि इसका
केन्द्र ै । य बोिी उत्तराखि के उत्तरकाशी, िैिीिाि, अल्ोड़ा, हपथौरागढ़, चम्पावि आहद हजिोिं में बोिी
जािी ै । कुमाऊँ बोिी में समृ द्ध साह त्य हमििा ै । कुमाऊँ िे ह न्दी साह त्य को सुहमिाििंदि पिंि , शेखर
जोशी, मिो रश्याम जोशी, इिाचन्द्र जोशी जैसे बड़े साह त्यकार हदये ैं ।
गढ़िाली
उत्तराखि के गढ़वाि खि की बोिी ोिे के कारण इसका िाम गढ़वािी पड़ा ै । य बोिी प्रमु ख रूप
से उत्तरकाशी, टे री गढ़वाि, पौड़ी गढ़वाि, दहिणी िैिीिाि, िराई दे रादू ि, स ारिपुर, , हबजिौर हजिोिं
में बोिी जािी ै । गढ़वािी में समृ द्ध िोक साह त्य हमििा ै । गढ़वािी की उपभाषाओिं में राठी, श्रीिगरररया
आहद ैं । गढ़वाि मिं डि िे ह न्दी साह त्य को पीिाम्बर दत्त बथय वाि, वीरे ि डिं गवाि और मिं गिे श डबराि
हिष्कषय
ह न्दी सिंवैधाहिक रूप से भारि की राजभाषा और भारि की सबसे अहधक बोिी और समझी जािे वािी
भाषा ै । ह न्दी भारि की रािरभाषा ि ीिं ै क्ोिंहक भारि के सिंहवधाि में हकसी भी भाषा को ऐसा दजाय ि ीिं
हदया गया ै ।
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उत्तर - पररचय
ह न्दी साह त्य के इहि ास में िगभग 10वीिं शिाब्दी से िे कर 14वीिं शिाब्दी के मध्य िक के काि को
आहदकाि क ा जािा ै । य िाम (आहदकाल) डॉ० िारी प्रसाद हििे दी से हमला ै । आचायय रामचिं द्र
शुक्ल िे इस काि को "वीरगाथा काि" िथा हवश्विाथ प्रसाद हमश्र िे इस काि को "वीरकाि" िाम हदया ै ।
आहदकाि के आधार पर साह त्य का इहि ास हिखिे वािे हमश्र बिंधुओिं िे इसका िाम प्रारिं हभक काि हकया
और आचायय म ावीर प्रसाद हद्ववेदी िे "बीजवपि काि" डॉ० रामकुमार वमाय िे भी इस काि की प्रमु ख
आहदकाल का िामकरण
हिहभन्न िामकरण
ह न्दी साह त्य के प्रारक्तिक युग के सम्बन्ध में जो िाम प्रस्ताहवि हकये गये ैं वे इस प्रकार ैं -
िीरगािा काल
ह न्दी साह त्य के प्रारक्तिक युग को आचायय शुक्ल िे वीरगाथा काि का िाम हदया ै । उन्होिंिे इस िाम को
सवाय हधक उपयुि व साथय क बिािे हुए जो प्रमाण हदए ैं ,िे इस प्रकार ैं -
1. आिोच्य युग में वीरगाथाओिं की प्रधाििा ै । इसमें जो प्रन्थ उपिब्ध ोिे ैं , वे वीरगाथात्मक और भी
रसात्मक ैं ।
2. आिोच्य युग में जो प्रामाहणक ग्रन्थ ैं उन्हीिं के आधार पर हिष्कषय हिकाि कर िामकरण हकया जा
सकिा ै ।
3. वीरगाथा काि में जो भाषा प्रयुि हुई ै व अपभ्रिं श और ह न्दी का हमिा रूप ै । अपभ्रिं श की प्रकृहि
या िो धाहमय क और आध्याक्तत्मक हवशयोिं के अिुकूि ैं , अथवा हफर वीरगाथाओिं के। ऐसी क्तस्थहि में
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आिोच्य युग में वीरगाथाओिं के अहिररि जो धाहमय क साह त्य हमििा ै , व आचायय शुक्ल जी की दृहि में
उपेिणीय ै क्ोिंहक उिके अिु सार धाहमय क रचिाएँ साह क्तत्यक िे ि में ि ीिं आिी ैं।
शुक्ल िी के मि की समीिा
आचायय शुक्ल िे ह न्दी साह त्य के प्रारक्तिक युग को िीरगािा काल िाम दे िो हदया,हकन्तु उन्होिंिे
य भी हवचार ि ीिं हकया हक मैं हजि रचिाओिं को आिोचिा का आधार माि र ा हँ , वे प्रमाहणक ैं
अथवा ि ीिं। आचायय शुक्ल िे हजि रचिाओिं को प्रामाहणक मािा ै , उिमें आठ पुस्तकें िो ऐसी ी ैं जो
दे शी भाषा में हिखी हुई ैं बीसिदे व रासो, खुमाि रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचन्द प्रकाश, जयमयिंक जस
इि आठ रचिाओिं के अहिररि चार रचिाएाँ ऐसी भी ैं हिन्हें आचायय शुक्ल िे साह क्तत्यक रचिाएाँ
मािा ै । चार रचिाएँ हवजयपाि रासो, मीर रासो, काहिय ििा और कीहिय पिाका। ये चारोिं रचिाएँ शुक्ल
िामकरण हकया ै । ध्याि दे िे की बाि य ै हक शुक्ल जी िे हजि रचिाओिं को आधार बिाया ै , उिमें
2. आहदकाल िामकरण
िकय- ह न्दी साह त्य के आिोच्यय युग को आचायय जारी प्रसाद हद्ववेदी िे वीरगाथा काि िाम की अपेिा
आहदकाि क िा अहधक उपयुि समझा ै , उन्होिंिे इस िामकरण के पीछे जो िकय प्रस्तु ि हकये ैं , उिमें
हिम्ािंहकि प्रमुख ैं -
ह न्दी साह त्य के प्रारक्तिक युग को आहदकाल क िा इसहलए सािय क ै हक उसमें युग के
प्रारक्तिक समय की सूचिा व सिंवेदिा का भाव ै , य ी व काि ै ज ाँ से ह न्दी साह त्य का इहि ास
प्रारि ोिा ै , जो प्रारि ै , उसे अन्य हववादोिं से अिग-अिग रखकर आहद काि क िा समीचीि ी
ै।
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आचायय हििे दी की धारणा ै हक धमय और साह त्य दोिोिं का प्रिा सम्बक्तिि र ा ै । धमय िे साह त्य
को गहि दी ै , िो साह त्य िे धमय को प्रचाररि, प्रसाररि एविं शक्तिमत्ता से सम्बद्ध हकया ै । जब धमय और
साह त्य स चर ैं िो हफर धाहमय क रचिाओिं को साह त्य िे ि से बह ष्कृि करिे का क्ा औहचत्य ै ?
आचायय शुक्ल िे धाहमय क ग्रन्थोिं को साह त्य की सीमा में प्रहवि ि ीिं ोिे हदया। उन्होिंिे आहदकाि साह त्य
प्रवचि साह त्य की रस पेशििा में बाधक ैं। आचायय हद्ववेदी िे शुक्ल के इस मि की कटु आिोचिा की
ै।
आचायय हििे दी िे हिि रचिाओिं को प्रामाहणक मािा ै ,उिमें धाहमय क ग्रन्थोिं के साथ-साथ उि ग्रन्थोिं
को भी माि-सम्माि हदया गया ै , जो रासो साह त्य िौहकक साह त्य, या कहिपय अन्य फुटकर हवषयोिं
करे और हिभ्रान्त दृहि से ऐसा मि प्रस्तुि करे हक कोई अन्य व्यक्ति अथवा समीिक उस पर प्रहश्नि दृहि
ि जमा सके। आचायय जारी प्रसाद हद्ववेदी का मन्तव्य ऐसा ी ै हजसमें हकसी अन्य के प्रहि अवमाििा
3. चारणकाल और सक्तिकाल
ह न्दी साह त्य के आहदकाल के िामकरण के सम्बि में डॉ. रामकुमार िमाय िे अपिा मि प्रस्तु ि
हकया ै । उन्होिंिे इसे दो भागोिं में हवभाहजि करके सक्तन्धकाि और चारणकाि िाम हदया ै । डॉ. वमाय िे
ह न्दी भाषा के हमिि हबन्दु को ी सक्तन्धकाि और चारण भाटोिं की रचिाओिं को चारणकाि के अन्तगयि
रखा ै । सामान्यिः डॉ. रामकुमार वमाय की उपक्तस्थहियाँ ि केवि मौहिक ैं , अहपिु सत्य के हिकट भी
हदखाई दे िी ैं , ऐसी क्तस्थहि में वे एक सूक्ष्मचे िा समीिक के रूप में मारे सामिे आिे ैं। उन्होिंिे चारण
अिौहचत्य ि ीिं िगिा, हकन्तु आियय की बाि य ै हक डॉ. वमाय िे एक चारण कृहि का उल्लेख ि ीिं
हकया ै । िगिा ै हक उन्होिंिे य माि हिया ै हक इस काि में राजाओिं के आश्रय में चारण भाट र ा
करिे थे ।
कल्पिा कुछ उपयुि िगिी ै । क्ोिंहक उसमें दो भाषाओिं में एक के स्थाि त्याग और दू सरे के ग्र ण
की ध्वहि हदखिाई दे िी ै । इििे पर भी इस काि के हिए डॉ. वमाय द्वारा हकया गया, िामकरण इसहिए
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उपयुि ि ीिं िगिा हक उस यु ग हवशेष की प्रमु ख प्रवृहत्तयोिं का पररज्ञाि इस िाम से ि ीिं ो पािा ै ।
इसके साथ ी सक्तन्धकाि और चारणकाि िाम से युग की आत्मा में स्पक्तन्दि, अध्यात्म, दशयि और रस
समस्याएाँ और समाधाि
उपयुयि सभी िामोिं में आचायय िारी प्रसाद हििे दी िारा हदया गया आहदकाि कुछ अहधक सिंगि
र िा ै । हद्ववेदी जी िे इस काि को अन्तर हवरोधी का साह त्य क ा ै । उन्होिंिे एक साह क्तत्यक प्रवृहत्त
हकया ै । इस िाम के प्रयोग के साथ ी उन्होिंिे य भी स्वीकार हकया ै हक “वस्तु िः ह न्दी साह त्य का
आहदकाि शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृहि करिा ै और श्रोिा के हचत्त में य भाव पैदा
करिा ै हक य काि कोई आहदम मिोभावापन्न, परम्परा हविगयमयुि काव्य रूहढ़योिं से अछूिे साह त्य
य काल बहुि अहधक परम्परा प्रेमी, रूहिग्रस्त, हकन्तु सचेि कहियोिं का काल ै । यहद पाठक इस
धारणा से सावधाि र ीिं िो य िाम “बु रा ि ीिं ै ।” आचायय हद्ववेदी जी मि का बु रा ि ीिं ै प्रयोग य
ध्वहिि करिा ै हक वे भी इस िाम को अधू रे मि से स्वीकार करिे ैं । ऐसी क्तस्थहि में इस काि को
मारी दृहि में प्रारक्तिक काि क िा ी अहधक उहचि ै । हकसी काि का प्रारि हकसी एक साँ चे से
बिंधा बिंधाया ि ीिं ोिा ै । य काि भी ऐसा ी ै । इसमें भी अिेकिा और हवहवधिा ै। अिः ह न्दी
साह त्य का प्रारक्तिक काि िाम मारी दृहि में अन्य िामोिं की अपेिा ै अहधक उपयुि ै ।
आहदकाल की पररक्तस्िहि
राििीहिक पररक्तस्िहि
उत्तर भारि में षयवधय ि का हवशाि साम्राज्य उिकी मृ त्यु (647-48 ई.) के बाद हवघहटि ो गया ै । राजपूिोिं
का अभ्युदय हुआ और अिेक छोटे -छोटे राज्य स्थाहपि ो गए, जो हिरिं िर युद्ध या सिंघषय में अपिी शक्ति
िीण करिे र े । 1200 ई. िक राजिीहि का केंद्र कान्यकुब्ज प्रदे श र ा । 1175 ई. में मु म्मद गोरी िे
मु ििाि पर अहधकार कर हिया । 1193 ई. में पृथ्वीराज की पराजय के बाद आक्रािंिाओिं के हिए भारि का
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द्वार खुि गया । 1194 ई. में कन्नौज का केंद्र टू ट गया । 1206 ई. िक बिंगाि सह ि उत्तर भारि में एक िये
पृथ्वीराज की पराजय के बाद गुजराि के स्वाधीि जैि - किौज राजाओिं िे िब िक साह त्य और सिंस्कृहि
को सिंरिण हदया जब 1299 ई. में अिाउद्दीि क्तखिजी के आक्रमण के कारण स्वयिं गुजराि पराधीि ि ीिं ो
गया। गुजराि का य सिं रिण केंद्र कुमारपाि (1145-1171 ई.) के समय से ी प्रारिं भ ो गया था। जैिाचायय
े मचिं द का प्रभाव और उिकी कृहियाँ इस िथ्य की सािी ैं । दास, क्तखिजी और िु गिक विंश के पठािोिं का
समस्त शासि काि (1206 ई.-1414 ई.) मिं हदरोिं, पुस्तकाियोिं और सिंस्कृहि के केंद्रोिं के िि हकए जािे का
काि ै । उत्तर भारि में सिंघषय और सुरिा के इस काि की साह क्तत्यक कृहियोिं की अिुपिक्तब्ध अहधक आियय
की बाि ि ीिं ै ।
सामाहिक
राजिीहिक और धाहमय क हिशिंखलिा (हिसकी कोई शिंखला ि ो) एविं उथि-पुथि युग में सुसिंगहठि एविं
व्यवक्तस्थि समाज की आशा ि ीिं की जा सकिी। सािवीिं से दसवीिं शिी िक बा र से आई हुई अिे क जाहियोिं
को ह िं दू- समाज आत्मसाि करिा र ा । वणय व्यवस्था िाममाि की र गई। िई-िई जाहियोिं का उद्भव हुआ
और ह िं दू-समाज के पुरािे सिंगठि का ढाँ चा बदि गया ै । ब्राह्मण और िहियोिं के ी ि ीिं, वैश्योिं और शूद्रोिं
के भी भे दोपभे द बि गये । ब्राह्मणोिं की अिेक जाहियोिं के समाि िहियोिं की भी अिेक जाहियाँ ो गईिं। इस
जाहि-भे द िे खाि-पाि और वैवाह क सिंबिंधोिं में िई-िई मान्यिाओिं का समावेश कर हदया ।
हिष्कषय
समग्र (सारा) हववेचि के पिाि् क सकिे ैं हक, ह न्दी साह त्य के इस काि को प्रारक्तिक काि क िा
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उत्तर – पररचय
ह िं दी साह त्य का भक्तिकाि मध्य भाग का प्रारक्तिक भाग ै । य व काि ै जो वैचाररक समृ द्धिा और
किा वैभव के हिए हवख्याि र ा ै । इस काि में ह िं दी काव्य में हकसी एक दृहि से ि ीिं अहपिु अिेक दृहियोिं
से उत्कृििा पायी जािी ै । इसी कारण हवद्वािोिं िे भक्तिकाि को हवहभन्न िामोिं से अििं कृि हकया। िॉिय
हग्रयसयि िे स्वणयकाल, श्यामसुन्दर दास िे स्वणय युग, आचायय रामचन्द्र शुक्ल िे भक्ति काि एविं जारीप्रसाद
ऐहि ाहसक दृहि से भक्ति आिं दोलि के हिकास को दो चरणोिं में दे ख सकिे ैं । प्रिम चरण के अन्तगयि
दहिण भारि का भक्ति - आिं दोिि आिा ै । इस आिं दोिि का काि छठी शिाब्दी से िे कर िे र वीिं शिाब्दी
िक का ै । हििीय चरण में उत्तर भारि का भक्ति आिं दोिि आिा ै । इसकी समय सीमा िे र वीिं शिाब्दी
के बाद से सि वीिं शिाब्दी िक ै । इसी चरण में भारि इस्लाम के सम्पकय में आया। ह िं दी साह त्य के
भक्तिकाि का सिंबिंध उत्तरी भारि भक्ति-आिं दोिि से ै । आचायय रामचन्द्र शुक्ल िे भक्तिकाि की समय
इस काि का केंद्रीय हवषय और प्रमु ख प्रवृहत्त ‘भक्ति’ ी ै और उसी को आधार बिाकर साह त्य की रचिा
आहदकाि के बाद ह िं दी में भक्ति साह त्य का उदय हुआ । राजिैहिक और सामाहजक कारणोिं से भक्ति की
प्रवृहत्त बढ़ी, जो भक्ति साह त्य में हुई । य भक्ति काव्य उसके हवषय के आधार पर दो वगों में हवभाहजि
हकया गया ै - हिगुयण भक्ति काव्य, सगुण भक्तिकाव्य / भक्ति की हिगुयण धारा की भी दो शाखाएँ ैं -ज्ञािाश्रयी
और प्रेमाश्रयी । इसी प्रकार सगुण भक्तिधारा की भी दो शाखाएँ ैं - रामभक्ति शाखा और कृष्णाभक्ति शाखा
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हिगुयण भक्ति - हिगुयण भक्ति का अिय ईश्वर के हिराकार स्वरूप की उपासिा ै। हिगुयण भक्ति ईश्वर की
पूजा के अमू िय रूप को सिंदहभय ि करिी ै भक्ति की इस शाखा के अिुयायी का माििा था हक ईश्वर हिराकार
और हदव्य ै । कबीर और गुर्र िािक प्रहसद्ध हिगुय ण सिंि ैं , वे मू हिय पूजा और अन्य अवैज्ञाहिक अिु िािोिं में
हवश्वास ि ीिं करिे थे । इसके हवपरीि सगुण भक्ति में ईश्वर के रूप िथा अविार की पूजा करी जािी ै ।
(i) ज्ञािाश्रयी शाखा- ज्ञािाश्रयी शाखा के भि-कहव 'हिगुयणवादी' थे , और िाम की उपासिा करिे थे । गुर्र
का वे बहुि सम्माि करिे थे , और जाहि-पाहि के भे दोिं को ि ीिं माििे थे । वैयक्तिक साधिा को व प्रमु खिा
दे िे थे । हमथ्या आडिं बरोिं और रूहढयोिं का हवरोध करिे थे । िगभग सभी सिंि अिपढ़ थे , िे हकि अिुभव की
दृहि से बहुि ी समृ ध्द थे । प्रायः सभी सत्सिंगी थे और उिकी भाषा में बहुि सी बोहियोिं का घािमे ि था,
इसीहिए इस भाषा को सधु क्कड़ी क ा गया। साधारण जििा पर इि सिंिोिं की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव
पड़ा। इि सिंिोिं में प्रमु ख कबीरदास थे। अन्य मु ख्य सिंि कहव िािक, रै दास, दादू दयाि, सुिंदरदास िथा
मिू कदास ैं ।
ज्ञािाश्रयी शाखा को 'हिगुयण काव्यधारा' या 'हिगुयण सम्प्रदाय' िाम भी हदया गया ै । इस शाखा की
हवशेषिा य थी हक इसिे अहधकिर प्रेरणा भारिीय स्रोिोिं से ग्र ण की। इसमें ज्ञािमागय की प्रधाििा थी।
इसहिए पिं. रामचिं द्र शुक्ल िे इसे 'ज्ञािाश्रयी शाखा' क ा ै । इस शाखा के कहवयोिं िे भक्ति-साधिा के रूप
में योग-साधिा पर बहुि बि हदया ै। इस शाखा के प्रहिहिहध कहव कबीरदास हुए ैं ।
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(ii) प्रेमाश्रयी शाखा के मु क्तस्लम सूफी कहवयोिं की काव्य-धारा को 'प्रेममागी' मािा गया, क्ोिंहक प्रेम से ी
प्रभु हमििे ैं , ऐसी उिकी मान्यिा थी। ईश्वर की िर प्रेम भी सवयव्यापी ै , और ईश्वर का जीव के साथ प्रे म
इस शाखा के भि कहियोिं की भक्ति-भाििा पर हिदे शी प्रभाि अहधक ै । इस प्रसिंग में य बाि ध्याि
आकहषयि हकए हबिा ि ीिं र िी हक इस शाखा के महिक मु म्मद जायसी आहद कहव मु सिमाि थे । इसहिए
उन्होिंिे अपिे सिंस्कारोिं के अिुसार भक्ति का हिरूपण हकया। वे भारिीय थे , इसहिए उन्होिंिे अपिे प्रेमाख्यािोिं
के हिए भारिीय हवषय चु िे, भारिीय हवचारधारा को भी अपिाया, परिं िु उस पर हवदे शी रिं ग भी चढ़ा हदया।
रसखाि भी मु सिमाि थे । अिएव उि पर इस्लाम का प्रभाव बहुि था। साथ ी सूफी प्रेम -पद्धहि का प्रभाव
भी स्पि रूप से हमििा ै। वे हकसी मिवाद में बिंधे ि ीिं। उिका प्रेम स्वच्छिं द था, जो उन्हें अच्छा िगा, उन्होिंिे
हबिा हकसी सिंकोच के उसे आधार बिाया। अिएव उिकी कहविा में भारिीय भक्ति-पद्धहि और सूफी इश्क-
कीकी का सक्तम्मश्रण हमििा ै । उिकी भक्ति का ढािं चा या शरीर भारिीय ै हकिंिु आत्मा इस्लामी एविं
सगु ण भक्ति - सगुण भक्ति का अथय आराध्य के रूप–गुण, आकर की कल्पिा अपिे भावािुरूप कर
उसे अपिे बीच व्याप्त दे खिा ै । सगुण भक्ति में ब्रह्म के अविार रूप की प्रहििा ै और अविारवाद पुराणोिं
के साथ प्रचार में आया। इसी से हवष्णु अथवा ब्रह्म के दो अविार राम और कृष्ण के उपासकोिं के बीच य
िोकहप्रय परिं परा हवकहसि हुई। भक्तिकाि की सगुण काव्य धारा के अिंिगयि आराध्य दे विाओिं में श्रीकृष्ण
का स्थाि सवोपरर ै । वैष्णव भक्ति सम्प्रदायोिं में वल्लभाचाययपुहिमागय। हििंबाकाय चायय - हििंबाकय, श्री ह ि ररविंश
- राधावल्लभ, स्वामी ररदास ररदासी, चै िन्य म ाप्रभु - गौडीय सिंप्रदाय सभी सिंप्रदायोिं में पूणय ब्रह्म श्री कृष्ण
िथा श्री राधा उिकी आह्लाहदिी शक्ति की उपासिा की गयी। व ीिं िुिसीदास राम की आराधिा के हिए
जािे जािे ैं ।
(i) रामभक्ति शाखा -हजि भि कहवयोिं िे हवष्णु के अविार के रूप में राम की उपासिा को अपिा िक्ष्य
बिाया वे 'रामाश्रयी शाखा' या 'राम काव्य धारा' के कहव क िाए। हजि भि कहवयोिं िे हवष्णु के अविार के
रूप में राम की उपासिा को अपिा िक्ष्य बिाया वे 'रामाश्रयी शाखा' या 'राम काव्य धारा' के कहव क िाए।
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कुछ उल्लेखिीय राम भि कहि ैं - रामाििंद, अग्रदास, ईश्वर दास, िु िसी दास, िाभादास, केशवदास,
िर ररदास आहद ।
राम भक्ति काव्य धारा के सबसे बड़े और प्रहिहिहध कहव ैं िु िसी दास। राम भि कहवयोिं की सिंख्या
रामकाव्य धारा का प्रविय ि वैष्णव सिंप्रदाय के स्वामी रामाििंद से स्वीकार हकया जा सकिा ै । यद्यहप
राम का स्वरूप : रामािुजाचायय की हशष्य परम्परा में श्री रामाििंद के अिुयायी सभी रामभि कहव हवष्णु
के अविार दशरथ-पुि राम के उपासक ैं । अविारवाद में हवश्वास ै । उिके राम परब्रह्म स्वरूप ैं ।
उिमें शीि, शक्ति और सौिंदयय का समन्वय ै । सौिंदयय में वे हिभु वि को िजावि ारे ैं । शक्ति से वे
दु िोिं का दमि और भिोिं की रिा करिे ैं िथा गुणोिं से सिंसार को आचार की हशिा दे िे ैं । वे
मयाय दापुर्रषोत्तम और िोकरिक ैं ।
भक्ति का स्वरूप : इिकी भक्ति में सेवक-सेव्य भाव ै । वे दास्य भाव से राम की आराधिा करिे ैं ।
वे स्वयिं को िु द्राहििु द्र िथा भगवाि को म ाि बििािे ैं । िु िसीदास िे हिखा ै : सेवक-सेव्य भाव
हबि भव ि िररय उरगारर । राम-काव्य में ज्ञाि, कमय और भक्ति की पृथक-पृथक म त्ता स्पि करिे हुए
भक्ति को उत्कृि बिाया गया ै । िुिसी दास िे भक्ति और ज्ञाि में अभे द मािा ै : भगिह िं ज्ञािह िं िह िं
कुछ भे दा । यद्यहप वे ज्ञाि को कहठि मागय िथा भक्ति को सरि और स ज मागय स्वीकार करिे ैं ।
लोक-मिंगल की भाििा : रामभक्ति साह त्य में राम के िोक-रिक रूप की स्थापिा हुई ै । िु िसी के
राम मयाय दापुर्रषोत्तम िथा आदशों के सिंस्थापक ैं । इस काव्य धारा में आदशय पािोिं की सजयिा हुई ै ।
राम आदशय पुि और आदशय राजा ैं , सीिा आदशय पत्नी ैं िो भरि और िक्ष्मण आदशय भाई ैं । कौशल्या
आदशय मािा ै , िुमाि आदशय सेवक ैं । इस प्रकार रामचररिमािस में िुिसी िे आदशय गृ स्थ, आदशय
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(ii) कृष्णभक्ति शाखा- कृष्ण काव्यधारा या कृष्णाश्रयी शाखा हजि भि कहवयोिं िे हवष्णु के अविार के
रूप में कृष्णा की उपासिा को अपिा िक्ष्य बिाया वे 'कृष्णाश्रयी शाखा' या 'कृष्ण काव्यधारा' के कहव
क िाए। कृष्णकाव्य धारा के प्रहिहिहध कहव सूरदास मािे जािे ैं । मध्य युग में कृष्ण भक्ति का प्रचार ब्रज
मिि में बड़े उत्सा और भाविा के साथ हुआ।
कृष्णाश्रयी शाखा कृष्ण भक्ति शाखा के कहव कृष्ण भक्ति शाखा की प्रवृहत्तयाँ - 8वीिं शदी में दहिण भारि में
श्रीकृष्ण भक्ति का अत्यहधक प्रचार- प्रसार था। प्राचीि सिंस्कृि काव्योिं में भी श्रीकृष्ण सम्बन्धी कथाएँ हमििी
ैं । जयदे व के गीि गोहवन्द िथा हवद्यापहि की पदाविी में राधाकृष्ण का श्रृिंगाररक वणयि ै प्रचार 15वीिं
इस क्रम में ह िं दी कृष्ण काव्य का सृजि हुआ कुछ िोग ह िं दी में कृष्ण काव्य का प्रारिं भ हवद्यापहि से माििे ैं
परन्तु स ी अथों में कृष्ण काव्य का प्रचार 15वीिं शिाब्दीिं में बल्लभाचायय के माध्यम से हुआ । अिेक वैष्णव
कहव उिके हशष्य हुए उिके हशष्य हवट्ठिदास िे इस परिं परा को कायम रखा। इसी परिं परा में दीहिि अिछाप
कहवयोिं में सूरदास का मु ख्य हवषय श्रीकृष्ण की िीिाओिं का वणयि करिा ै । इस भक्ति में वात्सल्य, सरि
एविं माधु यय भावोिं की प्रधाििा ै । सम्पू णय कृष्णकाव्य ब्रजभाषा में हिखा गया ै । इिमें श्रृिंगार रस िथा वात्सल्य
रस की प्रधाििा ै ।
हिष्कषय
भक्ति का उद्भव दहिण भारि में हुआ हकिंिु उसका पूणय हवकास उत्तर भारि में हुआ। आिं दोिि द्वारा समाज
में चे ििा फैिािे का सफि प्रयोग हुआ। ईश्वर के हिराकार और साकार रूप की पूजा का प्रचिि बहुि प िे
से था। भि कहवयोिं में भी हकसी िे हिगुयण ईश्वर की आराधिा की िो हकसी िे सगुण रूप की। कोई राम का
भि था िो कोई कृष्ण का और कोई सूफी सिंप्रदाय से जुड़ा था। इस प्रकार ईश्वर की कई रूपोिं में अराधिा
हुई। कबीर, िािक आहद सिंि कहवयोिं िे ईश्वर के हिराकार रूप की उपासिा की। सूहफयोिं िे ईश्वर को प्रेम
के रूप में दे खा । सगुणोपासक भि कहवयोिं िे हवष्णु के अविारी रूपोिं में राम और कृष्ण की उपासिा की।
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प्रश्न 5 – रीहिकाल के िामकरण सिंबिंधी हििाद का हिश्लेष्ण कीहिए ििा साि ी इसके साह क्तत्यक
उत्तर – पररचय
आचायय रामचिंद्र शुक्ल िे सम्वि् 1700 हि. से 1900 हि. (1643-1843 ई.) िक के कालखिंड को
रीहिकाल की सिंज्ञा प्रदाि की ै । उिके अिुसार इस काि में 'रीहि ित्व' की प्रधाििा को ध्याि में रखिे
हुए इसका िामकरण रीहिकाि हकया गया ै । इस काि के अहधकािं श कहवयोिं िे आचाययत्व का हिवाय करिे
हुए ििण ग्रिंथोिं की पररपाटी पर रीहि ग्रिंथोिं की रचिा की हजिमें अििं कार, रस, िाहयका भे द, आहद काव्यािं गोिं
रीहिकाि के िामकरण को िे कर ह िं दी साह त्य के इहि ासकारोिं में काफी मिभे द र ा ै । इस कािखिंड
का िामकरण उस युग की केंद्रीय प्रवृहत्त के आधार पर करिे का प्रयास हकया जािा ै । रीहिकाि के
िामकरण के सिंबिंध में सबसे प्राचीि मि डॉ. हग्रयसयि का हमलिा ै । डॉ. हग्रयसयि को ह िं दी साह त्य के
इहि ास िे खकोिं में अहधकारी हवद्वाि मािा जािा ै। उन्होिंिे सि् 1889 में 'द माडिय ििायक्युलर हलिरे चर
ऑफ के िाम से ह िं दी साह त्य का इहि ास हलखा । य एक बृ दाकार ग्रिंथ ै । इसके सािवें अध्याय में
रीहिकाि को 'काव्य-किा' के िाम से प्रकाहशि हकया ै । उन्होिंिे मािा ै हक सोि वीिं शिाब्दी के अिंि से
िे कर पूरी सि वीिं शिाब्दी िक का समय जो हक इहि ास में मु गि साम्राज्य के उत्थाि का समय था, उसमें
उल्लेखिीय काव्य-किा प्रस्तु ि हुई ै ।
मुख्य हििाद रीहिकाल और श्रृिंगार काल को ले कर ै । आचायय शुक्ल के मि में रीहिकाि का िामकरण
करिे हुए भी श्रृिंगार काि का हवकल्प उपिब्ध था। उन्होिे हिखा ै ‘‘ वास्तव में श्रृिंगार और वीर इन्हीिं दो रसो
हमश्रबिुओ िं िे इस काल को अलिंकृि काल इसहलए क ा, क्ोिंहक इस काि की रचिाओिं में काव्य के
अििं करण पर ी अहधक ध्याि केक्तन्द्रि र ा । आचायय रामचन्द्र शुक्ल द्वारा सुझाये गये िामोिं के हवषय में क
सकिे ैं हक उन्होिंिे मिोहवज्ञाि िथा ित्कािीि साह त्य की हवशेष अहभरूहच िथा प्रवहत्त हवशेष को ध्याि में
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रखिे हुए िीि िाम सुझाए । आचायय शुक्ल िे ित्कािीि काव्य पद्धहि हवशेष अथाय ि् रीहि-हवशेष के आधार
रीहिकाल के िामकरण के सिंबिंध में और भी हिचार सामिे आिे ैं । हमश्रबन्धु ओिं िे अपिे 'हमश्रबन्धु
हविोद' िामक ह िं दी साह त्य के इहि ास में इस काि को 'अििं कृि काि' िाम हदया था। उिका क िे का
आशय य था हक इस युग में कहविा को अििं कृि काि िाम हदया जािा चाह ए। हमश्रबन्धु ओिं का िकय बहुि
सशि ि ीिं मािा गया। उन्होिंिे इस युग की कहविाओिं के आधार पर य हिष्कषय हिकािा हक य कहविा
रसािु भूहि की दृहि से इस काल की कहििा का मूल्य हकसी से कम ि ी िं ै । ध्वहि और वक्रिा भी उसमें
पयाय प्त मािा में हमििी ै । इसहिए केवि अििं कारोिं का आग्र इिं हगि करिा, इििा अहधक उहचि ि ीिं ै
हजसके कारण हक इस युग का िामकरण ी उस आधार पर कर हदया जाए। दू सरी बाि य ै हक इस काि
से प िे या बाद में भी ज ाँ अहधक अििं कृि कहविाएँ सामिे आिी ैं िो उिका िामकरण भी क्ा अििं कारोिं
के आधार पर करिे की सोच सकिे ैं । इसहिए हमश्र - बन्धु ओिं िे हजस प्रवहत्त का अहभयाि करके इस काि
1. डा० रमाशिंकर शुक्ल ‘रसाि' िे रीहिकाि का िाम 'किा - काि' मािा ै। ‘किा-काि से िात्पयय उस
काि से ै , हजसमें ह िं दी िे ि में काव्य को किापूणय हकया गया, अथायि् उसमें काव्य के चमत्कृि एविं
चािु ययपूणय गुणोिं को ध्याि में रखकर रचिाएँ की गई और साथ ी किा के हियम से सिंबिंध रखिे वािे
रीहि या ििण ग्रन्थोिं की रचिा हुई। इस िाम के दे िे में रीहिकाि काव्य के बाह्य पि पर िो प्रकाश
पड़िा ै पर उसकी एक बड़ी हवशेषिा श्रिं गाररकिा की उपेिा ो जािी ै । य िाम प्रायः उसी िर का
ै जैसे ग्रीव्ज या हमश्रबन्धु ओिं िे हदया ै । ह िं दी साह त्य में इसे भी स्वीकार ि ीिं हकया ै ।
2. डा० भागीरि हमश्र : डा० भागीरथ हमश्र िे ह िं दी साह त्य के इस युग का िाम 'रीहि श्रिंगार' काि रखा ै ।
वे माििे ैं हक श्रिंगार की प्रवहत्त रीहिकाि की एक हवशेषिा ै हजसे सभी स्वीकार करिे ैं पर उसके
साथ ी उस युग के साह त्य की चे ििा ै ‘पद्धहि परकिा' एक पैटिय के काव्य की रचिा करिे की पद्धहि
परकिा से अिग भी कुछ कहव रीहिकाि में थे । घिाििंद, बोधा, आिक, ठाकुर आहद की कहविा को
उस रीहिकाि पद्धहि से अिग कर पािे ैं। हब ारी और घिाििंद पद्धहि एक ि ीिं ै । अिः रीहि श्रिं गार
िामकरण की बाि भी हवद्वािोिं को उसी प्रकार स्वीकायय ि ीिं ै जैसे 'किा - साह त्य' की ।
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3. पिंहडि हिश्विाि प्रसाद हमश्र : इस काि को पिं० हवश्विाथ प्रसाद हमश्र िे 'श्रिंगार काि' के िाम से अहभह ि
हकया ै । उिकी मान्यिा य ै हक इस युग की एक बड़ी प्रवहत्त श्रिंगार की थी। इसहिए इस युग को
'श्रिंगार काि' के िाम से पुकारा जािा चाह ए। ‘श्रिंगार काि’ की मीमािं सा करिे पर भी य ी हसद्ध ोिा ै
हक य िाम भी उपयुि ि ीिं ै । पिं ० हमश्र िे य दे खकर इस काि का िाम श्रिंगार काि हदया ै क्ोिंहक
प्रत्ये क युग के साह त्य पर पूवयविी िथा समकािीि पररक्तस्थहियोिं का प्रभाव पड़िा ै । रीहिकािीि साह त्य
धाहमयक पररक्तस्िहियााँ - भक्तिकाि में सगुण भक्ति का हवशेष प्रचार हुआ। राम िोक रिक के रूप में पूजे
गए और कृष्ण का िोकरिं जक रूप सवाय हधक हप्रय र ा। िोकरिं जकिा के कृष्ण-िीिा भिोिं का आकषयण-
कृष्ण-भि कहवयोिं के काव्य में राधा-कृष्ण और गोहपयोिं केंद्र बिी। राधा-कृष्ण िथ गोहपयोिं के राग, हव ार,
क्रीड़ाएँ आध्याक्तत्मक धरािि पर प्रकट हुए, िे हकि रीहिकाि िक अपिा आध्याक्तत्मक अथय खो हदया और वे
िौहकक अथों में िायक-िाहयका, सखी, दू िी आहद बि गए। ऐसा क्ोिं हुआ? इसका एक कारण ै कृष्ण-
भक्ति के प्रचारक म ाप्रभु बल्लभाचायय द्वारा कृष्ण-भक्ति के हिए पुहिमागय का प्रवत्तय ि । पुिमागय प्रेममागय ी
ै दाम्पत्यभाव का प्रवेश ो जािे के कारण कृष्ण-भक्ति सरस ो गयी थी । अिछाप के कहवयोिं राधा और
कृष्ण के प्रेम को कािंि - रीहि के रूप में प्रस्तु ि हकया। रीहिकािीि हविाहसिापूणय वािावरण िे ऐसे सरस
प्रसिंगोिं को अपिािे में कोई ह चक ि ीिं हदखिाई। रीहिकाव्य के 'कृष्ण' हवहभन्न ररयासिोिं के स्वामी खुद ी
ैं और कृष्ण राधा के प्रेम में िारी के प्रहि इि सामन्तोिं की र्रग्ण िािसा ी प्रकट हुई ै ।
साह क्तत्यक पररक्तस्िहियााँ - रीहिकाि के काव्यशास्त्र िथा शिंगारपूणय काव्य का बहुि अहधक सृजि
आकक्तिक रूप से ि ीिं हुआ । उपयुयि पररक्तस्थहियाँ रीहिकािीि काव्य को जन्म दे िे का कारण र ीिं, िे हकि
हजि ित्त्वोिं से य काव्य हिहमय ि हुआ, उिकी परम्परा बहुि पुरािी ै । सिंस्कृि में हिक्तखि भरि का
'िाट्यशास्त्र' सवयप्रथम उपिब्ध काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ ैं । इसके बाद उिके मििादोिं (ि मि िो िाद या
हसद्धािंि के रूप में प्रयोग ोिा ो) के आधार पर प्रचु र मािा में काव्यशास्त्रीय ग्रिंथ हिखे गये। िे हकि
रीहिकाि में सबसे अहधक अिुकरण भािुदत्त द्वारा सिं स्कृि में रहचि काव्यशास्त्रीय ग्रिंथोिं ‘रस-मिं जरी' और
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'रसिरिं हगणी' - का हकया गया। क ीिं-क ीिं 'साह त्यदपयण', 'ध्वन्यािोक' और 'काव्यादशय' आहद का प्रभाव भी
काव्यशास्त्रीय ग्रिंिोिं के अहिररि सिंस्कृि और प्राकृि में श्रृिंगाररस - पूणय मुिक काव्य हलखिे की
परिं परा भी चल र ी िी । प्राकृि में 'गा ा सत्तसई' (गाथा सप्तशिी) की रचिा िे सिंस्कृि कहवयोिं को बड़ा
प्रभाहवि हकया। सिंस्कृि के 'अमर्रकशिक' आहद इसी प्रभाव की दे ि ै । इि मु िकाव्योिं में प्रमु ख रूप से
श्रृिंगार को आधार बिाया गया ै और गौणरूप से भक्ति और िीहि पर भी हिखा गया ै । य ी परम्परा में
रीहिकाि में हदखाई पड़िी ै ।रीहिकाि से पूवय ह िं दी में भी कुछ कृहियाँ हमििी ैं , जो रीहिकाि की शैिी
में रची गयी ैं । भक्तिकाि में उिकी रचिा हुई थी । कृपाराम, ब्रह्म ( बीरबि), गिंग, बिभद्र, केशवदास,
र ीम िथा मु बारक कािक्रम की दृहि से यद्यहप भक्तिकाि के अिंिगयि आिे ैं । परिं िु उिकी काव्य-पद्धहि
प्रायः रीहि-प्रधाि ी थी। सूर की ‘साह त्य ि री' और ििंददासकृि 'रसमिं जरी' रीहि-परिं परा में ी हिखे गए
काव्य ैं । रीहिकाि आचायों िथा कहवयोिं िे अपिे पूवयविी कहवयोिं से प्रभाव िे िे में सिंकोच ि ीिं हकया।
हिष्कषय
इस प्रकार म क सकिे ैं हक रीहिकाि सिंवि् 1700 से 1900 िक का व ऐहि ाहसक काि ै हजसमें
रीहिबद्ध, रीहिमु ि िथा रीहिहसद्ध साह त्य हिखा गया। इस युग के साह त्य में 'रीहि' अथायि् 'पद्धहि' हवशेष
के आधार पर वगीकृि हकया गया ै । युग की पररक्तस्थहियाँ साह त्यकार िथा साह त्य को प्रभाहवि भी करिी
ैं िथा उिसे प्रभाहवि भी ोिी ै । रीहिकाि के िामकरण को िे कर ह िं दी साह त्य के इहि ासकारोिं में
काफी मिभे द र ा ै ।
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प्रश्न 6 – आधु हिक काल की हिहभन्न पररक्तस्िहियोिं की व्याख्या कीहिए ििा भारिें दु-युगीि कहििा
उत्तर – पररचय
भारिें दु युग के कहवयोिं िे दे श-प्रेम की रचिाओिं के माध्यम से जि-मािस मे रािरीय भाविा का बीजारोपण
हकया। भारिें दु युग काव्य सामाहजक चे ििा का काव्य ै। इस युग के कहवयोिं िे समाज मे व्याप्त अिंधहवश्वासोिं
एविं सामाहजक रूहढ़योिं को दू र करिे े िु कहविाएँ हिखीिं।
(1) राििीहिक पररक्तस्िहियािं : आधु हिक काि का आरिं भ सिंवि 1900 या 1843 ई० से मािा जािा ै | य
समय अिंग्रेजोिं के हवर्रद्ध बढ़ र े असिंिोष का समय था | अिंग्रेजोिं द्वारा हकए गए सामाहजक व धाहमय क सुधार
रूहढ़वादी भारिीय स्वीकार ि ीिं कर पाये | िॉडय डि ौजी की िै प्स की िीहि िथा िाडय वेिेजिी की स ायक
साम्राज्य में हमिािा चा िे ैं | अि: 1857 ई० में अिंग्रेजोिं के हवर्रद्ध का क्रािं हि का हबगु ि बज गया |
अिंग्रेजोिं िे दमि-चक्र चिाकर चिा कर 1857 की क्रािं हि को िो दबा हदया िे हकि भारहियोिं के असिंिोष को
शािं ि ि ीिं कर पाए । भारिीय अिंग्रेजोिं के हवर्रद्ध सिंगहठि ोिे र े | इसी बीच 1885 ई० में भारिीय रािरीय
कािंग्रेस की स्िापिा हुई । आरिं भ में भिे ी कािं ग्रेस की स्थापिा अिंग्रेजोिं के स योग से और अिंग्रेजोिं के
स योग के हिए ी की गई थी परिं िु धीरे -धीरे इसका स्वरूप बदििे िगा | धीरे -धीरे रािरवादी िेिाओिं िे
कािं ग्रेस पर अपिा अहधकार जमा हिया | आरिं भ में कािंग्रेस प्रािय िा के माध्यम से छोिे -छोिे सुधारोिं की
मािंग करिी िी परिं िु बाद में उसिे भारिीयोिं के मू िभू ि अहधकारोिं की मािं ग करिा शुरू कर हदया व इसके
हिए दबाव की िीहि अपिायी जािे िगी बाद में एक ऐसा समय भी आया जब कािं ग्रेस िे पूणय स्वराज्य ( 1929
गााँधी िी के आगमि से भारिीय स्वििं त्रिा आिं दोलि में एक िया मोड़ आया | उिके द्वारा चिाये गए
चम्पारण आिं दोिि, अस योग आिं दोिि, सहविय आिं दोिि व भारि छोड़ो आिं दोिि जैसे आिं दोिि िे पू रे
भारि में दे शभक्ति की धारा ब िे िगी | ज ाँ एक िरफ अिंग्रेजोिं के हवर्रद्ध आिं दोिि से पूरे दे श में एकजुटिा
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के अिेक उदा रण हमििे ैं व ीिं अिं ग्रेिोिं की 'फूि डालो और राि करो' की िीहि के कारण साम्प्रदाहयक
खाई भी बढ़िी जा र ी थी | हजसके भयिंकर पररणाम भारि की स्वििं ििा के समय हुए हजसमें मिे ि केवि
भारि की अखिंडिा को खो हदया बक्ति मािविा के उि मू ल्योिं को भी खो हदया हजस पर म गवय हकया करिे
थे | इस प्रकार की राजिीहिक पररक्तस्थहियािं में आधु हिक साह त्य रचा गया |
(2) आहिय क पररक्तस्िहियािं : भारि में इिं ग्लैंड सरकार की आहथय क िीहियािं शोषणकारी थी | उिका मु ख्य
उद्दे श्य भारि के आहथय क सिंसाधिोिं का अहधक से अहधक दो ि करिा था | वे य ािं से कच्चा माि सस्ते दामोिं
में इिं ग्लैंड के जा र े थे और व ािं पर िै यार माि भारि में म िं गे दामोिं में बेच र े थे । इस प्रहिस्पधाय के सामिे
भारिीय उद्योग धिं धे हटक ि ीिं पा र े थे । पररणाम स्वरूप भारिीय कारीगर बेकार ो र े थे और रोजगार
की ििाश में श रोिं की ओर भाग र े थे , श रोिं में जिसिंख्या बढ़िे िगी थी | भारिीय हकसाि, मजदू र,
व्यापारी, कारीगर आहद सभी अिंग्रेजोिं के शोषण का हशकार थे | अिः सभी सिंगहठि ोकर अिंग्रेजोिं के हवर्रद्ध
खड़े ोिे िगे थे | भारिीय अथय व्यवस्था को दु र्रस्त करिे के हिए स्वदे शी आिं दोिि की शुर्रआि हुई । खादी
(3) सामाहिक और धाहमयक पररक्तस्िहियािं : अिंग्रेजी शासि और उसकी िीहियोिं का प्रभाव भारि की
सामाहजक धाहमय क पररक्तस्थहियोिं पर भी पड़ र ा था | इस युग में दोिोिं िरफ से समाज सुधार और धाहमय क
सुधार की बाि ोिे िगी । एक िरफ भारिीय समाज सुधारक समाज सुधार और धमय सुधार की अिख जगा
र े थे िो दू सरी िरफ अिंग्रेज सरकार भी भारि की रूहढ़वादी परिं पराओिं को अवैध घोहषि करिे पर िगी थी।
लॉडय हिहलयम बेंहिक िे सिी प्रिा कन्या वध जैसी सामाहजक बुराइयोिं को अवैध घोहषि कर हदया ।
हवधवा पुिहवयवा अहधहियम पाररि हकया गया। दू सरी िरफ भारिीय समाज सुधारक भी इस हदशा में अग्रसर
थे । राजा राममो ि राय, स्वामी दयाििंद और स्वामी हववेकाििंद म ादे व गोहविंद रािाडे आहद िे भारिीय
समाज और धमय की रूहढ़योिं के हवर्रद्ध आवाज उठाई | म ात्मा ज्योहिबा फुिे िे दहिि उद्धार के मु द्दे को
साहित्रीबाई फुले िे हशिा के िे त्र में सबसे म त्वपूणय कायय हकया और प्रथम मह िा हवद्यािय की स्थापिा
की । य उस समय की बाि ै जब मह िाओिं के हिए घर की द िीज पार करिा भी एक बहुि बड़ी चु िौिी
था| िोगोिं िे मािा ज्योहिबा बाई फुिे का मजाक उड़ाया उिके ऊपर िर -िर के िािंछि िगाए इसके
बावजूद उन्होिंिे िारी हशिा के मु द्दे को इििी प्रमु खिा से उठाया हक आिे वािे समय में सभी भारिीय िेिाओिं
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व समाज सुधारकोिं को इसे स्वीकार करिा पड़ा | डॉक्टर भीमराव अिंबेडकर के प्रयास दहििोिं, विंहचिोिं पीहड़िोिं
हवर्रद्ध बड़ी बेबाकी से आवाजें उठिे िगी | समाज और धमय के िे ि में हुए इि पररविय िोिं का प्रभाव साह त्य
पर पड़िा स्वाभाहवक था ।
(4) साह क्तत्यक पररक्तस्िहियािं : आधु हिक युग का साह त्य बदििे युग का साह त्य ै | इसी युग के आरिं भ
में ज ािं समाज सुधार, धमय सुधार और स्वििं ििा म त्वपूणय मु द्दे थे ; बाद में य मु द्दा व्यक्ति की समस्याओिं पर
केंहद्रि ोिे िगे। आधु हिक युग का साह त्य आम आदमी का साह त्य बि गया । अब साह त्य का मु ख्य
उद्दे श्य राजाओिं के गुणगाि और राज दरबार की शोभा का वणयि करिा ि ीिं बक्ति समाज की यथाक्तस्थहि
का वणयि करिा बि गया। भारिें दु युग ज ािं पुिजाय गरण और दे श प्रेम की भाविा को िे कर आया व ीिं हद्ववेदी
युग में इि भाविाओिं के साथ साथ भाषागि शुद्धिा पर बि हदया जािे िगा ।
छायािाद मिु ष्य के अिं िमयि की भाििाओिं को अहभव्यक्ति दे िे लगा और प्रगहिवाद साम्यवादी
हवचारधारा के साथ हिखा गया हजसमें मजदू रोिं, दहििोिं और हकसािोिं की बाि क ीिं गई । प्रयोगवाद और िई
कहविा किा व हशल्प िे िोिं में एक िवीि पररविय ि िे कर आई। इस युग में उपन्यास, क ािी, हिबिंध, िाटक,
ररपोिाय ज, रे खाहचि आहद गद्य हवधाओिं का आहवभाय व हुआ य ी कारण ै हक इस काि को गद्य काि के िाम
से भी जािा जािा ै ।
प्रमुख कहि
भारिें दु ररििंद्र
'बद्रीिारायण चौधरी प्रेमघि
अिंहबकादत्त व्यास
राधा कृष्ण दास
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1. रािरीयिा
भारिे न्दु युग की राजिीहि में दे शभक्ति की प्रबि धारा हदखाई दे िी ै । ऐसी ी भािधारा इस काल के
काव्य में हमलिी ै । इस काि की कहविा में यहद हवदे शी शासि के प्रहि रोष ै िो प्राचीि भारिीय
आदशय पर गवय ै ।
इस काल का कहि भारिीय राििीहि, धाहमय क, सामाहजक और सािं स्कृहिक भाविाओिं में अिुकूि
उत्कषय दे खिा चा िा ै । अिीि के प्रेरक प्रसिंगोिं को प्रस्तु ि कर कहव िवयुवकोिं में िव भाव सिंचार करिा
चा िा ै । भारिे न्दु , प्रेमधि, मै हथिीशरण गुप्त आहद की कहविाओिं में दे शभक्ति की प्रबि भाविा
2. सामाहिक चेििा
इस काल की कहििा में एक िरफ मध्य िगीय समाि की हिषमिाओिं को रूपाहयि हकया गया
ै िो दू सरी िरफ समाज की रूहढ़योिं और अिंधहवश्वासोिं का मु खर स्वर से हवरोध हकया गया ै । इस काि
की कहविा में ब्रह्म समाज और आयय समाज की िवीि सामाहजक चे ििा उभरी ै । सुधारवादी दृहिकोण
भारिे न्दु िे अिं धेर िगरी', 'भारि दु दयशा' िाटक में वणय व्यवस्था और सामाहजक अिंधेर के सिंकीणय हवचारोिं
3. भक्ति भाििा
भारिे न्दु युग में भक्ति भाविा का सीहमि और सामान्य रूप सामिे आिा ै।
रूप हदखाई दे िा ै ।
इस काि की भक्ति में हिगुयण, वैष्णव और स्वदे शािुराग समक्तन्वि िीि धाराएँ हमििी ैं । भक्ति भाविा
में उपदे शात्मक रूप ै । ऐसी भक्ति भाविा में माधु यय भक्ति के साथ रीहि पद्धहि भी उभर आई ै । यि
िि राम और कृष्ण पर आधाररि रचिाएिं हमििी ैं । 'भारिे न्दु ररिन्द्र' िे हिगुयण भक्ति का पुट प्रस्तु ि
हकया ै ।
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4. श्रिंगाररकिा
भारिे न्दु काल में रस को काव्य की आत्मा मािकर रचिा की िािी र ी ै । श्रिंगार रस हवहवध रिं गोिं
के साथ सवयि अल्पाहधक रूप में प्रयुि हुआ ै। कृष्ण सन्दभय में िो सौन्दयय और भिं गार का वणयि अत्यन्त
प्रभावोत्पादक ो गया ै ।
इस काि की श्रिंगार भाविा में सिंहिप्त िखहशख वणयि ै और षड़ ऋिु वणयि और िाहयका भे द के साथ
भारिे न्दु की प्रेम सरोवर प्रेम माधु री, प्रेम िरिं ग, प्रेम फुिवारी में भक्ति और भिं गार दोिोिं ी भावोिं का
समावेश हुआ ै ।
5. िििीिि हचत्रण
भारिे न्दु युग का काव्य िि सामान्य के मध्य रखा गया ै । उसमें जि सामान्य की समस्याओिं का हवशद
और हवस्ति हचिण हमििा ै। इस युग का प्रत्ये क कहव रूहढ़योिं कुरीहियोिं और अत्याचार आहद को समाप्त
करिे का प्रे रक स्वर प्रस्तु ि करिा ै । क्ोिंहक रीहिकाि का कहव राजा को प्रसन्न दे खिा चा िा था िो
भारिे न्दु युग का कहव जिसामान्य को प्रसन्न करिे का प्रयत्न करिा था। व स्वस्थ समाज और प्रसन्न मिुष्योिं
को दे खिे की इच्छा रखिा ै । य ी कारण ै हक इस युग की कहविा में युगीि यथाथय के साथ प्राचीि सिंस्कृहि
6. प्रकृहि हचत्रण
भारिे न्दु युग के कहियोिं िे उत्तर मध्य युग की उसी कमी को पूरा हकया हजसमें प्रकृहि के स्विन्त्र
और प्रेरक हचिण का अभाव था। इस युग की कहविा में प्रकृहि-सौन्दयय का स्वच्छन्द रूप हमििा ै ।
प्रकृहि के माध्यम से िायक िाहयकाओिं की मिोदशा का सुन्दर हचिण हकया गया ै । प्रकृहि के हवहभन्न
दश्योिं के हचिण में इस काि का कहव सरा िीय रूप में सफि हुआ ै।
प्रकृहि का रा भरा रूप, वीराि रूप, उत्प्रेरक रूप हवहभन्न कहविाओिं में अपिी हवशेषिाओिं के साथ
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7. काव्य रूप
ररिाथ पाठक' की 'श्री िहिि रामायण और 'प्रेमधि' की जीणय जिपद आहद कुछ एक प्रबन्धात्मक
प्रस्तु ि हकया ै ।
भारिे न्दु जैसे कुछ कहवयोिं िे गज़ि के रूप में भी रचिाएिं प्रस्तुि की ैं । इिकी ह न्दी रचिाओिं में उदू य
साथ गद्य की हिबन्ध, समीिा, उपन्यास, क ािी, िाटक, एकािं की, प्र सि आहद हवधाओिं का सुन्दर हवकास
हुआ ै ।
इस युग का काव्य परम्परागि मु िकोिं के साथ िवीि प्रयोग भी सामिे आया ै । इस काि में काव्य के
साथ गद्य की हिबन्ध, समीिा, उपन्यास, क ािी, िाटक, एकािं की, प्र सि आहद हवधाओिं का सुन्दर हवकास
हुआ ै ।
हिष्कषय
अिः य क ा जा सकिा ै की इस काि का कहव स ज, सुगम और उदू य हमहश्रि ह न्दी भाषा का प्रयोग
करिा था। भारिे न्दु ररिन्द्र की भाषा में भी उदू य ी ि ीिं अिेक िे िीय भाषाओिं के शब्दोिं का प्रयोग हमििा
ै । सरििा और स जिा के साथ भाषा में प्रभावोत्पादक रूप िािे के हिए िोकोक्ति और मु ावरोिं का भी
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उत्तर - पररचय
ह िं दी िाटक का हवकास भारिें दु युग में हुआ। भारिें दु और भारिें दु मिं डि के अन्य साह त्यकारोिं िे गद्य की
अन्य हवधाओिं की अपेिा िाट्य हवधा पर जमकर हिखा और उन्हें आशािीि (आशा से बहुि अहधक)
सफििा भी हमिी। सिंस्कृि साह त्य में समृ क्तद्ध िाट्य परिं परा थी िे हकि ह िं दी िाटक का हवकास आधु हिक
ह िं दी िािक का उद्भि
ह िं दी में िािक हलखिे का हिकास आधु हिक युग में हुआ। क्ोिंहक इससे पूवय के ह िं दी िाटकोिं में
िाट्यकिा के ित्वोिं का अभाव ै । इसमें अहधकिर िाटकीय काव्य ैं या सिंस्कृि िाटकोिं के अिुवाद। प्राणचिं द
चौ ाि कृि 'रामायण म ािाटक’ (1610 ई.) िथा कहव उदय कृि ' िुमाि िाटक' (1840 ई.) पद्यात्मक
प्रबिंध ैं , िाट्य रचिाएिं ि ीिं। अन्य िाटककारोिं में भारिें दु जी के हपिा गोपािचिं द्र (हगरधरदास) िे 'िहुष'
(1857 ई.), गणेश कहव िे 'प्रद् युम्न हवजय' (1863 ई.) िथा शीििा प्रसाद हिपाठी िे जािकी मिं गि (1868
ई.) आहद िाटकोिं की रचिा की। 'जािकी मिं गि' ी िाट्यगुणोिं से सिंपन्न ै , हजसका मिं चि बिारस में हुआ
और इसके एक अहभिेिा भारिें दु खुद थे । परिं िु िब िक भारिें दुजी का हवद्यासुन्दर (1868 ई.) िाटक
प्रकाहशि ो चु का था जो सिंस्कृि की 'चौरपिंचाहशका' कृि के बिंगिा सिंस्करण का छाया अिुवाद ै । इसीहिए
खड़ी बोली में हलखा गया प ला िािक रािा हशि प्रसाद हसिं का 'शकिंु िला' (1863 ई.) ै जो
का प्रथम, 'शकुिंििा' को हद्विीय और हवद्यासुिंदर' को िृिीय िाटक स्वीकार हकया ै। व ीिं दशरथ ओझा िे
13वीिं सदी के िाटक 'गाय कुमार रास' को ह िं दी का प्रथम िाटक मािा ै।
भारिें दु िी िे ि केिल ह िं दी में मौहलक िािकोिं की रचिा की अहपिु उन्होिंिे दू सरी भाषाओिं की श्रेष्ठ
िाट्य रचिाओिं के अिु िाद भी हकए। य ी ि ीिं उन्होिंिे िाट्य हशल्प पर प्रकाश डाििे े िु 'िाटक' िामक
आिोचिात्मक रचिा में िाट्यकिा के ित्वोिं का उल्लेख करिे हुए िए िाटककारोिं को हदशा हिदे श हदया
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हजससे वे जिर्रहच के अिुकूि िाटकोिं की रचिा कर सके। उन्होिंिे युगीि पररक्तस्थहियोिं को ध्याि में रखकर
ऐसे िाटकोिं की रचिा का मागय प्रशस्त हकया जो भारिीय एविं पिात्य िाट्यकिा का समन्वयात्मक रूप प्रस्तु ि
करिे थे । शुक्लजी िे हिखा ै - "हवििण बाि य हक आधु हिक गद्य साह त्य की परिं परा का प्रविय ि िाटकोिं
से हुआ।”
ह िं दी िािक का हिकास
ह िं दी िािकोिं के हिकास की परम्परा का अध्ययि करिे े िु उसे हिम् कालोिं में िगीकृि हकया िा
सकिा ै :
भारिें दु युग में मौहिक और अिूहदि दोिोिं प्रकार के िाटक बहुिायि में हिखे गये । अिूहदि िाटक मु ख्यिः
बिंगिा, सिंस्कृि, अिंग्रेजी भाषाओिं की िाट्य कृहियोिं पर आधाररि ैं । इि अिुहदि िाटकोिं से ह िं दी िाट्य
साह त्य को िवीि दृहि प्राि हुई और ह िं दी में िाट्य रचिा का सूिपाि हुआ। स्वयिं भारिें दु जी िे अिूहदि
िाटकोिं की रचिा की।
भारिें दु िे सिंस्कृि, बिंगला और अिं ग्रेिी के िािकोिं का अिु िाद हकया और मौहलक िािकोिं की रचिा
भी की। हवद्यासुिंदर (1608), रत्नाविी (1868), धििंजय हवजय ( 1873), कपूयर मिं जिी (1875), पाखिंड हवडम्बि
(1872), मु द्राराि (1818), दु ियभ बिंधु (1880) आहद अिुहदि और वैहदकी ह िं सा ह िं सा ि भवहि (1873), सत्य
ररििंद्र (1875), श्री चन्द्राविी (1876), हवषस्य हवषमौषधम् (1876), भारि दु दयशा (1880), िीि दे वी (1881),
अिंधेर िगरी (1881), सिी प्रिाप (1883), प्रेम जोहगिी (1875), भारि जििी (1877) आहद मौहिक िाटकोिं
की रचिा की।
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"उिके मौहिक िाटकोिं में अिीि का गौरव गाि भी ै और युगािुरूप ियी िाट्य-परिं परा की शुर्रआि भी ।"
'वैहदकी ह िं सा ह िं सा ि भवहि' में उन्होिंिे धमय के िाम पर को जािे वािी पशुबहि का हवरोध हकया ै िो 'हवषस्य
हवषमौषधम' में उन्होिंिे दे शी राजाओिं की दु दयशा का हचिण हकया ै । 'भारि दु दयशा' में अिंग्रेजी राज्य में भारि
की दु दयशा का हिरूपण हकया गया ै िथा 'िीिदे वी' में भारिीय िारी के आदशय को प्रहिपाहदि हकया गया
ै । अिंधेर िगरी में भ्रि शासि ििं ि पर प्र ार हकया गया ै जबहक 'चिं द्राविी िाहटका' में प्रेमा भक्ति को
भारिें दु िे अपिे िािकोिं के माध्यम से रािरीय सािंस्कृहिक चेििा का ििोन्मेष हकया और मिोरिं िि
के साि िििा को हशहिि करिे का भी प्रयास हकया। उन्होिंिे अपिे िाटकोिं द्वारा युगीि समस्याओिं को
जििा िक पहुिं चािे का प्रयास हकया ै । इि िाटकोिं में सुधारवादी दृहिकोण के साथ रािरीय चे ििा की भी
अहभव्यक्ति हुई ै । उिके िाटक जिकल्याण की भाविा से ओि-प्रोि ैं िथा उिका प्रधाि स्वर
उपदे शात्मक ै । अिीि गौरव एविं ऐहि ाहसक श्रेििा का प्रहिपादि करिे का बीज भारिें दु युग में ी पड़
भारिें दु जी िे ह िं दी िाट्य साह त्य को जो साह क्तत्यक भू हमका प्रदाि की, उसे कािान्तर में जयशिंकर पसाद
िे पल्लहवि हकया। ह िं दी िाट्य िे ि में प्रसाद जी का आगमि वस्तु िः युगािं िर प्रस्तु ि करिा ै। प्रसादजी के
समय िक ह िं दी रिं गमिं च का पूणय हवकास ि ीिं ो सका था, फिि: वे ऐसे िाटकोिं की रचिा में प्रवृत्त हुए जो
पाठ्य अहधक ैं , अहभिेय कम। प्रहसद्ध समािोचक डॉ. गोपाि राय के अिुसार- 'प्रसाद जी की कहठिाई
य थी वे हजस प्रकार के िाटक हिखिा चा िे थे , उिके अिुरूप रिं गमिं च ह िं दी में ि ीिं था ।... ह िं दी का
शौहकया रिं गमिं च हििािं ि अहवकहसि था, फिि: प्रसाद िे साह क्तत्यक रिं गमिं च की स्वयिं कल्पिा की और इस
मािहसक रिं गमिं च की पृिभू हम में ी अपिे िाटक हिखे। प्रसादजी अपिे काल्पहिक रिं गमिं च को व्याव ाररक
रूप ि ीिं दे सके, हजसका पररणाम य हुआ हक उिके िाटक अन्य सभी दृहियोिं से उत्कृि ोिे पर भी
प्रसादिी ऐहि ाहसक िािकोिं की रचिा करिे िाले ह िं दी के प्रमुख िािककार मािे िािे ैं । भारि के
अिीि गौरव का हचिण करिे के साथ-साथ उन्होिंिे रािरीयिा की भाविा उत्पन्न करिे का प्रयास अपिे िाटकोिं
के माध्यम से हकया ै । स्वयिं प्रसादजी िे अपिे िाटक 'हवशाख' की भू हमका में स्वीकार हकया ै - मे री इच्छा
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भारिीय इहि ास के अप्रकाहशि अिंश में से उि प्रकाि घटिाओिं का हदग्दशयि करािे की ै , हजन्होिंिे मारी
विय माि क्तस्थहि को बिािे का बहुि कुछ प्रयत्न हकया ै । ' प्रसादजी िे अपिे िाटकोिं के हवषय बौद्धकाि,
1. हवशाख 1921 ई.
2. अजािशिु 1922 ई.
5. स्कन्दगुप्त 1928 ई.
6. एक घूिंट 1930 ई.
सिंिुहिि समन्वय करिे में उन्हें सफििा प्राप्त हुई ै । ध्रु वस्वाहमिी में प्रसाद जी िे िारी समस्या को प्रस्तु ि
हकया ै । ििाक (हववा - मु क्ति) एविं पुिहवयवा का अहधकार ह न्दू स्त्री को ै या ि ीिं इस समस्या को बड़े
कौशि से उन्होिंिे प्रस्तु ि हकया ै । प्रसादजी िे अपिे ऐहि ाहसक िाटकोिं की भू हमका में िाटक की कथावस्तु
के ऐहि ाहसक स्रोिोिं िथा अन्य हववरणोिं पर हवस्तार से प्रकाश डािा ै । उन्होिंिे अपिे िाटकोिं में भारिीय
सिंस्कृहि, जािीय गौरव एविं रािरीयिा के गौरवपूणय हचि अिंहकि हकए ैं िारीपाि आदशय भारिीय रमणी के
िाट्य हशल्प की दृहि से प्रसादिी के िािक बेिोड़ ैं । उिमें भारिीय एविं पािात्य िाट्यकिा का सन्तु हिि
समन्वय हुआ ै । एक ओर िो उिमें कथावस्तु , गीि योजिा, रस योजिा, उदात्त िायक, हवदू षक, आहद
भारिीय िाट्यकिा से हिए गए ैं िो दू सरी ओर कायय व्यापार, अिंिद्वय द्व, सिंघषय एविं व्यक्ति वैहचि जैसे ित्व
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भोिा ि ीिं बि पािा और हवषाद की एक छाया पाठकोिं के मि पर छूट जािी ै । उदा रण के हलए,
स्कन्दगुप्त िाटक को हिया जा सकिा ै । स्कन्दगुप्त अपिे मागय में आिे वािी सारी हवघ्न बाधाओिं पर हवजय
प्राप्त करिे के उपरािं ि भी अन्त में िाहयका दे वसेिा को प्राप्त ि ीिं कर पािा। दे वसेिा य क कर उसके
प्रसादिी प्रयोगधमी (प्रयोगोिं पर हिश्वास करिे िाला) िािककार िे । उन्होिंिे अपिे परविी िाटकोिं में
हवषय और हशल्प दोिोिं ी दृहियोिं से प्रयोग हकए और अन्तिः ध्रु वस्वाहमिी के रूप में एक ऐसा सशि िाटक
हिखा जो पूरी िर अहभिीि हकए जािे योग्य ै , क्ोिंहक इसमें वे िु हटयािं ि ीिं ैं जो उिके अन्य िाटकोिं की
अहभिेयिा में बाधक मािी गई ैं । उन्होिंिे ि केवि ऐहि ाहसक िाटक हिखे अहपिु कामिा िामक िाट्यकृहि
प्रसादोत्तर िािकोिं का प्रारि सि् 1950 ई. से मािा िािा ै । इस काि के िाटक जीवि के यथाथय से
अहधक जुड़े हुए ैं िथा उिमें रिं गमिं चीयिा एविं अहभिेयिा का हवशेष ध्याि रखा गया ै । दे श में स्वििं ििा के
उपरान्त एक िई चे ििा का हवकास हुआ िथा जिमािस िे जो अपेिाएिं की थीिं वे भी पूरी ि ीिं ो सकीिं।
सवयि स्वाथय परिा, छि-कपट, भ्रिाचार, अवसरवाहदिा का बोिबािा ो गया। युवा पीढ़ी हदग्भ्भ्रहमि ो गई।
बढ़िी हुई बेरोजगारी िे ििाव, सिंघषय एविं आपराहधक प्रवृहत्तयोिं को जन्म हदया। मू ल्योिं में पररविय ि हुआ और
समाज का ढािं चा हबखरिे िगा। म ािगरीय जीवि, यािं हिकिा, औद्योगीकरण के कारण जीवि और जगि में
हिष्कषय
इस काि में िाटकोिं की हवषय-वस्तु का चयि इहि ास-पुराण के साथ-साथ समसामहयक जीवि से हकया
गया िथाहप अब हवषय-वस्तु एविं हशल्प में बदिाव िजर आिे िगा। जहटि जीविािुभूहियोिं को अब िाटक
में प्रस्तु ि हकया जािे िगा।
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प्रश्न 8 – कबीर का म त्व एििं ह िंदी सह त्य में योगदाि को बिािे हुए, उिके धाहमयक और
उत्तर – पररचय
कबीर भक्तिकािीि सिंि काव्यधारा के आधार स्तिं भ ैं । वे ऐसे युग में उत्पन्न हुए जो राजिीहिक, सामाहजक,
धाहमय क दृहियोिं से ि केवि अव्यवक्तस्थि था बक्ति अिेकािेक हवकृहियोिं, अिंिहवयरोधोिं, अिंधहवश्वासोिं, हवडिं बिाओिं
आहद से ग्रस्त था। ऐसे समय में भारिीय जििा की अिं िहियह ि शक्ति और अिंिदृयहि से सिंपन्न कबीर का
प्रादु भाय व अिंधकार के जन्मजाि शिु सूयय की िर हुआ। उन्होिंिे उपासिा का ऐसा मागय चिाया जो ह िं दू और
मु सिमाि दोिोिं के आडिं बर एविं अिंधहवश्वासपूणय, िकय ीि मान्यिाओिं का खिंडि करिा था और उन्हें प्रेम और
कबीर दास िे बोिचाि की भाषा का ी प्रयोग हकया ै । भाषा पर कबीर का जबरदस्त अहधकार था। वे
वाणी के हडक्टे टर थे । हजस बाि को उन्होिंिे हजस रूप में प्रकट करिा चा ा ै , उसे उसी रूप में क िवा
हिया- बि गया ै िो सीधे -सीधे , ि ीिं दरे रा दे कर। उसमें मािो ऐसी ह म्मि ी ि ीिं ै हक इस िापरवा
िो जैसी िाकि कबीर की भाषा में ै वैसी बहुि ी कम िे खकोिं में पाई जािी ै।
कबीर स ि हचिंिक, भािु क भि कहि और सिंि ोिे के साि ी हबखरे समाि को सिंगहठि करिे
हुआ और कबीर के समय िक राजिीहिक पराभव, धाहमय क असह ष्णुिा और सामाहजक हवशिंखििा बहुि
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कबीरदास युगद्रिा म ात्मा िे । उन्होिंिे दे खा हक भे द िीहि िथा बा याचारोिं की अहधकिा ह िं दू- मु क्तस्लम
एकिा में बाधक ै । दोिोिं एक ईश्वर के उपासक ैं , अिंिर इििा ी ै हक ह िं दू ईश्वर को राम और मु सिमाि
उसे र ीम क िे ैं। इस ित्त्व को ि समझिे के कारण ी दोिोिं िड़िे ैं। कबीर िे सभी को एक ी ईश्वर
की सिंिाि बिाया और उिके अिंधहवश्वास को दू र हकया- 'कोई ह िं दू, कोई िु र्रक - क ावै, एक जमीिं पर
कबीर िे ब्रह्माचारोिं एििं हिहध हिधािोिं की िहिलिा से रह ि उपासिा के उस सरल मागय का प्रििय ि
हकया, हजस पर चििे के हिए हकसी हवशेष जाहि या वगय का सदस्य ोिा आवश्यक ि ीिं। हृदय में भक्ति -
भाविा और आचरण की शुद्धिा रखिे वािा प्रत्ये क व्यक्ति इसे अपिा सकिा ै ।
कबीर से प ले भी युगदशी म ात्मा हुए िे ; परिं िु उिमें से हकसी में पूरी िीव्रिा के साथ जाहि-पाँ हि िथा
ब्रह्माचारोिं का खिंडि कर समाज के मागय प्रदशयि का सा स ि ीिं था। कबीर के इसी प्रभावशािी व्यक्तित्व
को दृहि में रखकर आचायय जारी प्रसाद हद्ववेदी िे क ा ै - 'ह िं दी साह त्य के जारोिं वषों के इहि ास में
कबीर जैसा व्यक्तित्व िे कर कोई िे खक उत्पन्न ि ीिं हुआ। मह मा में व व्यक्तित्व एक ी प्रहिद्विं दी जाििा
ै — िु िसीदास।'
कबीर-साह त्य में सिय -धमय समन्वय के ित्त्व हमल िािे ैं । उिमें अपिे हसद्धािंिोिं के प्रहि अहवचि हििा
समन्वय के ित्त्व हमि जािे ैं , परिं िु वे मूििः भि थे । इसी कारण कबीर िे अपिे उपदे शोिं को हकसी पर
जबरदस्ती िादिे का प्रयास ि ीिं हकया। कबीर के काव्य िे ित्कािीि धाहमय क अव्यवस्था को दू र हकया,
धमाां ध शासकोिं के मद का शमि हकया िथा मािवमाि को समिा का म ाि् सिंदेश हदया। य सिंभव ै हक
काव्यमयिा ढूँढ़िे वािे कहिपय समीिकोिं को कबीर के काव्य में उच्चकोहट की साह क्तत्यकिा ि हमिे परिं िु
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धाहमयक हिचारधारा
कबीर िे अपिे हवचारोिं द्वारा जि मािस की आँ खोिं पर धमय िथा सिंप्रदाय के िाम पर पड़े परदे को खोििे का
प्रयास हकया ै । उन्होिंिे ह िं दु- मु क्तस्लम एकिा का समथय ि हकया िथा धाहमय क कुप्रथाओिं जैसे मू हिय पूजा का
हवरोध हकया ै । ईश्वर मिं हदर, मक्तिद िथा गुर्रद्वारे में ि ीिं ोिे ैं बक्ति मिुष्य की आत्मा में व्याप्त ैं।
सामाहिक हिचारधारा
कबीर भि और कहव ोिे के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे । उन्होिंिे अपिी साक्तखयोिं एविं पदोिं में उस
समय के समाज में फैिे ढोिंग- आडिं बरोिं पर करारी चोट की ै । उन्होिंिे धमय के बा री हवहध-हवधािोिं, कमय कािं डोिं,
जैसे- जप, मािा, छापा, मू हिय पूजा, रोजा, िमाज आहद का हवरोध हकया। उन्होिंिे ढोिंग, आडिं बरोिं के हिए ह न्दू
कबीर भि और कहि ोिे के अहिररि समाि सुधारक भी िे । समाज की कमजोरी, उसकी हवषमिा
को कबीरदास िे प चािा और अपिी पू री ईमािदारी के साथ उसे दू र करिे का प्रयास हकया। समाज के
अिंिगयि हकसी प्रकार की जाहिगि भे दभाव कबीर को मान्य ि था। समाज में प्रचहिि रूहढ़योिं और
हमथ्याडिं बरोिं की उन्होिंिे कटु आिोचिा की। उस समय का धमय बाह्यचारोिं और कुसिंस्कारोिं से जकड़ा हुआ
था। उन्होिंिे धमय के बा री हवहध-हवधाि ( जप, मािा, छापा, ज, हििक, रोजा, िमाज आहद) का हवरोध
हकया। व्यक्तिगि पहवििा और आचरण को म त्त्व दे िे हुए भी कबीर की साधिा पद्धहि समाज की उपेिा
ि ीिं करिी। उन्होिंिे समाज से दू र टकर जप-िप को प्रशिंसिीय ि ीिं मािा। प्रवृहत्त (िगाव) और हिवृहत्त
ित्कालीि समाि में ह िं दू ओर मुसलमाि दोिोिं ी बा री आचारोिं में हिश्वास रखिे िे । ह िं दू मािा,
हििक, िीथय - स्थाि आहद के पिपािी थे , िो मु सिमाि रोजा, िमाज और अजाि के । कबीर िे पू री दृढ़िा
के साथ कटु -व्यिं ग्य करिे हुए दोिोिं को सचे ि करिे ओर सत्य का ज्ञाि करािे का प्रयास हकया ै । उन्होिंिे
ह िं दू- मु सिमािोिं में प्रचहिि आडिं बरोिं-मू हिय -पूजा, छु आ-छूि, िीथय स्थाि िथा ज्ज, अजाि आहद का घोर
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हवरोध हकया, क्ोिंहक कबीर का य दृढ़ मि था हक ये धमय की ऊपरी बािें ह िं दू और मु सिमाि को आपस में
िडािे वािी ैं ।
प्राणी मात्र की एकिा और समिा का सिंदेश सुिािे िाले कबीर िे अह िं सा को आदशय बिाया।
बाह्यडिं बरोिं को त्यागकर काम, क्रोध, िोभ, मो आहद मिोहवकारोिं के दमि को व्यक्तिगि आचरण और
शुद्धिा का आधार बिाया। उन्होिंिे ह िं दू और मु सिमािोिं दोिोिं को एकिा और बिंधुत्व का सिंदेश दे कर
हिष्कषय
स्वयिं के हवचार शुद्ध रखो य ी सबसे बड़ी भक्ति ै। सत्य सबसे बड़ा िप: उिका क िा था की दु हिया में
सत्य से बढ़ कर कुछ ि ीिं ोिा और य ी सबसे बड़ा िप ै हजसे कोई झुटिा ि ीिं सकिा।
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प्रश्न 9 – मैहिलीशरण गुप्त का साह क्तत्यक पररचय दिे हुए, उिकी कहििा 'िर ो ि हिराश करो मि
उत्तर – पररचय
मै हथिीशरण गुप्त ह न्दी के प्रहसद्ध कहव थे । ह न्दी साह त्य के इहि ास में वे खड़ी बोिी के प्रथम म त्त्वपूणय
कहव ैं । उन्हें साह त्य िगि में 'दद्दा' िाम से सम्बोहधि हकया िािा िा। इिके काव्य में रािरीय चे ििा,
धाहमय क भाविा और मािवीय उत्थाि प्रहिहबक्तम्बि ै ।
गुप्त जी का झुकाव गीहिकाव्य की ओर था और रािरप्रेम इिकी कहविा का प्रमु ख स्वर र ा इिके काव्य में
भारिीय सिंस्कृहि का प्रेरणाप्रद हचिण हुआ ै । इन्होिे अपिी कहविाओ द्वारा रािर में जागृहि िो उत्पन्न की ै
साकेि म ाकाव्य पर इन्हें ह न्दी साह त्य सम्मेिि प्रयाग से मिं गिाप्रसाद पाररिोहषक भी हमिा भारि सरकार
रचिाएाँ
गुप्त जी की प्रमु ख मौहिक काव्य रचिाएँ हिम्नवि् ै - साकेि, भारि- भारिी यशोधरा, द्वापर, जयभारि
हवष्णुहप्रया आहद ।
रिं ग में भिं ग, जयद्रथ वध, हकसाि, पिंचवटी, ह न्दू सैररन्ध्री, हसद्धराज, िहुष, ह हडम्बा हिपथगा कािा और
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मै हथिी शरण गुप्त िे बाल्यावस्था में सिंस्कृि, इिं क्तग्लश और बिंगािी का अभ्यास हकया था। उस समय
म ावीर प्रसाद हद्ववेदी उिके हवश्वसिीय सिा कार थे । बहुि सी पहिकाओ में ह िं दी कहविाएिं हिखकर
गुप्त िे ह िं दी साह त्य में प्रवेश हकया था, हजिमे सरस्विी भी शाहमि ै। 1910 में उिका प िा मु ख्य
कायय, रिं ग में भिं ग था हजसे इिं हडयि प्रेस िे पक्तिश हकया था। इसके बाद भारि-भारिी की रचिा के साथ
ी उिकी राहिरय कहविाएिं भारिीयोिं के बीच काफी प्रहसद्ध हुई, साथ ी जो भारिीय आज़ादी के हिए
मै हथिी शरण गुप्त का ह िं दी साह त्य में एक बहुि ी बहढ़या कररयर था, हजसका मु ख्य कारण ह िं दी
बार साि की उम्र में उन्होिंिे कहविाएिं हिखिा शुरू कर हदया था। उन्होिंिे सरस्विी सह ि हवहभन्न
'िर ो, ि हिराश करो मि को कहििा श्री मैहिलीशरण गुप्त िारा रहचि एक प्रेरणादायक कहििा
ै । इस कहविा में गुप्त जी िे मािव को मािव-जीवि को कमय ठ (कमय शीि) बिाकर साथय क करिे की प्रेरणा
दी ै । उिके अिुसार इस दु िभय मािव-जीवि को साथय क, सोद्दे श्य बिािे के हिए कमय करिा आवश्यक ै
कहि इसी िथ्य को और अहधक हिस्तार दे िे हुए आगे क िा ै हक जब िु म्हें मािव जीवि उपिब्ध ो
ी गया ै िो िु म कुछ ऐसा कायय करो हजससे िु म्हें इस सिंसार में ख्याहि हमि सके। िोग अच्छे कामोिं के
हिए िु म्हारा िरण करें । िे हकि एक बाि य ै हक िुम्हें िु म्हारे जीवि का उद्दे श्य ज्ञाि ोिा चाह ए हजससे
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िु म्हारा जीवि व्यथय िि ि ो जाय । िु म अपिे को इििा सामथ्ययवाि बिा दो हक िु म्हारी आशा आकािं िाओिं
िीिि को सािय क बिािे के उद्दे श्य से कमय -पथ पर आगे बढ़िे हुए अगर असफििा भी ाथ आिी ै िो
मि में िैराश्यपूणय भाविाओिं का पररत्याग कर कमय करिे जािा चाह ए, क्ोिंहक िु म मिुष्य ो और मिुष्य को
'अकमय ण्यिा' ोिा शोभा ि ीिं दे िा। िु म्हें मािव जीवि के रूपमें एक सुअवसर हमिा ै , उसका िाभ उठाकर
सत्कमय करिा चाह ए। सत्कमय (अच्छे उपाय) कभी व्यथय ि ीिं जािे । य ी ि ीिं इस जीवि को िश्वर समझकर
अकमय ण्य बिकर ि ीिं बैठिा चाह ए, अहपिु अपिे जीवि का िक्ष्य हिधाय ररि कर कमय करिे हुए उस पथ पर
आगे बढ़िे जािा चाह ए। अपिी स ायिा खुद करिे वािोिं की ईश्वर भी स ायिा करिे ैं। अगर दे खा जाय
िो इस सिंसार में मिुष्य को आवश्यक पदाथय प्राप्त ैं , िेहकि उन्हें उि मू ि ित्त्वोिं का उपभोग अमरत्व प्राप्त
करिे के हिए ी हकया जािा चाह ए, क्ोिंहक स्वप्रेरणा से साथय क कायय करिे हुए सािं साररक बिंधिोिं को िोड़कर
कहििा के अिं ि में कहि य क िा चा िा ै हक मिुष्य को अपिे अक्तस्तत्व की सटीक प चाि कर ऐसे
कायय करिे चाह ए हक आत्मसम्माि, आत्मगौरव और अमरत्व की प्राक्तप्त ो सके और ऐसा िभी सिंभव ै जब
व्यक्ति अपिे मि की हिराशाओिं को त्यागकर कमय -पथ पर आगे बढ़िा र े और उि साधिोिं का पररत्याग
हिष्कषय
म क सकिे ैं हक गुप्त जी ह िं दी साह त्य जगि के एक म ाि कहव थे। हद्ववेदी युगीि रचिा-सिंसार में
इिके म त्त्वपूणय योगदाि को कभी भी िकारा ि ीिं जा सकिा ै । इन्होिंिे अपिी रचिाओिं में दे श की प्रत्ये क
हवचारधारा, सिंस्कृहि और साह क्तत्यक चे ििाओिं का समन्वय कर जि-जीवि में एक िई चेििा स्पिंहदि करिे
का सिि् प्रयास हकया ै। इन्हीिं सब कारणोिं से ये ह िं दी साह त्य जगि में सदा ी िरणीय र ें गे।
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प्रश्न 10 – हिराला हकस हिचारधारा के कहि िे ? 'हिराला शोहषि और दहलि िगय के मसी ा मािे
उत्तर - पररचय
क्रािं हिकारी कहव सूययकािं ि हिपाठी हिरािा छायावाद के मु ख्य आधार स्तिं भ
थे । उन्होिंिे समाज में घटिे वािी सभी समस्याओिं, हवषमिाओिं िथा धमय के िाम पर ोिे वािे अत्याचारोिं के
1. प्रगहिशील हिचारधारा
हिरािा केवि छायावादी कहव ी ि ीिं थे अहपिु वे प्रगहिवादी कहव भी थे । उिका काव्य दहििोिं और
कमजोर वगों के प्रहि हवशेष स ािुभूहि रखिा ै । हिरािा के हृदय का कर्रण भाव समाज के उपेहिि,
कमजोर, पीहड़ि एविं शोहषि वगों की रिा को अहपयि ै । ‘हवधवा’ की पीड़ा उन्हें द्रहवि करिी ै िो
‘हभखारी’ की दीििा एविं भू ख उन्हें कर्रणा से भर जािी ै । कड़कड़ािी धू प में इिा ाबाद के पथ पर
2. साम्यिादी हिचारधारा
कण्ठ से हकया ै ।
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प्रगहिवादी ोिे के िािे हिरािा भी सामाहजक हवषमिाओिं को दू र करिे के पि में थे । उिकी अिेक
कहविाएिं इसका उदा रण ैं । उिकी कहविाओिं में पूिंजीपहियोिं को फटकार साफ हदखाई दे िी ै। हिरािा
हिरािा की अिेक कहविाओिं में शोहषिवगय के प्रहि ाहदय क स ािुभूहि हदखाई दे िी ै। हिरािा स्वयिं
भु िभोगी थे इस हिए उिकी स ािुभूहि में स जिा अिुभव ोिी ै । अल्पायु में ी दु खोिं से युद्ध के
कारण उिका स्वर बड़ा ककयश ै । समाज के उपेहिि, शोहषि एविं पड़िाररि वगय के साथ उन्होिंिे
सािात्कार हकया था य ी कारण ै हक उिके काव्य मे शोहषि वगय के प्रहि हवशेष स ािुभूहि हदखाई दे िी
ै।
थी हक सभी को समाि अहधकार प्राप्त ोिं िथा सम्पू णय समाज का कल्याण ो। इस व्यवस्था के हिमाय ण
काव्यगि हिशेषिा
1. काव्य रचिाएिं
‘पररमि’, ‘गीहिका’, ‘अिाहमका’, ‘िु िसीदास’, ‘कुकुरमु त्ता’, ‘अहणमा’, ‘िए पत्ते ’, ‘अचय िा’, ‘आराधिा’,
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काव्य ै । ‘वीणा वाहदिी वर दे ’ िामक कहविा में कहव समाज में िवीि शक्ति का प्रादु भाय व दे खिा चा िा
ै । व समाज के शोहषि और उपेहििोिं की कथा को व्यि करिा ै। अन्य छायावादी कहवयोिं की अपेिा
हिरािा अहधक हवरोधी और स्वच्छिं दिावादी हदखाई दे िे ैं । हिरािा उि पुरािी रूहढ़योिं और जड़
परिं पराओिं को िि करिा चा िे थे जो समाज को खोखिा करिी जा र ी ै। काव्य जगि में मु ि छिं द
3. प्रकृहि हचत्रण
अन्य छायावादी कहवयोिं के समाि हिरािा िे भी प्रकृहि का बड़ा सुिंदर एविं मिो ारी वणयि हकया ै । वे
प्रकृहि के अद् भु ि हचिे रे थे। उिकी कहविा में प्रकृहि हिजीव पदाथय की िर अिंहकि ि ीिं ै बक्ति व
सजीव एविं प्राणवाि ै । बसिंि ो या वषाय , ग्रीष्म ो या शरद ऋिु उिकी कहविा समाि रूप से प्रकृहि
के भव्य रूपोिं का अिंकि करिी ै।
हिरािा छायावादी कहवयोिं में ऐसे कहव ैं हजन्होिंिे अपिी रचिाओिं में अपिे व्यक्ति गि सुख-दु ख की
अिुभूहियोिं को व्यि हकया ै । उिका पूणय जीवि दु ख, कर्रणा एविं हिराशा के साथ साथ सिंघषय एविं
हवषमिाओिं के साथ बीिा, इन्हीिं सभी की अहभव्यक्ति उन्होिंिे अपिे काव्य में की ै । ‘जू ी की किी’, ‘मैं
अकेिा’, ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘स्ने हिझयर ब गया’, ‘सरोज-िृहि’ असिंख्य उिकी ऐसी रचिाएिं ैं
5. रािरीय भाििा
म ाकहव हिरािा के काव्य में रािरप्रेम का स्वर अत्यिंि प्रखर ै ।उन्होिंिे भारि की म ाि परिं पराओिं को
कहविा में स्थाि हदया और भारिीय इहि ास के स्वहणयम पृि को काव्य में अिंहकि हकया ै । ‘खूि की
ोिी जो खेिी’’, ‘जागो हफर एक बार’, ‘भारिी विंदि’, ‘वीणा वाहदिी वर दे ’, आहद कहविाओिं में कहव िे
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हिरािा की आरिं हभक रचिाओिं में प्रेम और सौिंदयय का प्रभावशािी वणयि हुआ ै । कई स्थािोिं पर उिका
7. कला पि
काव्य जगि में मु ि छिं द को प्रहिहिि करिे का श्रेय हिरािा को ी जािा ै । उन्होिंिे कहविा को छिं दोिं
की कैद से मु ि करवाया। उिकी काव्य भाषा भावपूणय एविं हवषय अिुकूि ै । क ीिं पर भी उदू य हमहश्रि
भाषा का प्रयोग करिे ैं िो क ीिं सिंस्कृि हिहिि ित्सम शब्दाविी का। खड़ी बोिी ह िं दी को काव्य की
श्रेि भाषा हसद्ध करिे का श्रेय भी हिरािा को ी जािा ै ।हिरािा जी िगािार भाषा से जििे र े उन्होिंिे
भाषा को अिुभूहि से जोडा शब्द की आत्मा से िादात्म्य स्थाहपि हकया। उिके काव्य प्रयोगोिं की हवहवधिा
और मौहिकिा िे अिेक काव्य आयाम को जन्म हदया और एक ी स्तर पर हवहवध भाषा प्रयोग कर सके।
भाव के अिुसार भाषा और िय का हिवाय करिे वािे हिरािा प्रचिं ड प्राण शक्ति , दु दयमिीय हजजीहवषा
िथा सूक्ष्म सिंवेदि के कहव ै ।
हिरािा जी वेदािं ि दशयि से अहधक प्रभाहवि थे और वे भक्ति को सवोपरर माििे थे । ‘पिंचवटी प्रसिंग’ में
उन्होिंिे मु क्ति और भक्ति पर गिंभीर हवचार हकया ै , साथ ी इस कहविा में उन्होिंिे भक्ति, योग, कमय ,
हिष्कषय
सुव्यवक्तस्थि हकया गया ै । उिके काव्य में सुख-दु ख, ास्य-कर्रणा, राग-हवराग, शािं हि-हवद्रो , अध्यात्म-
श्रृिंगार, आदशय और यथाथय जैसे बहुरिं गी हचि अिंहकि ै । उिकी आस्था मािविावाद में थी और मािव जीवि
को सुखमय एविं गौरवमय बिािे के हिए ी उन्होिंिे साह त्य सृजि का काम हकया। हिःसिंदे वे म ाि व्यक्ति
ोिे के साथ-साथ एक म ाि साह त्यकार थे इसीहिए उन्हें म ाप्राण हिरािा के िाम से सिंबोहधि हकया जािा
ै।
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उत्तर-
सिंदभय एििं प्रसिंग - उपयुयि साखी कबीर ग्रिंथाविी में सिंकहिि 'गुरुदै ि कौ अिं ग' से िी गई ै , इस साखी में
कबीर िे गुर्र और ईश्वर की िु ििा की ै ।
व्याख्या - कबीर क िे ैं हक ईश्वर और गुर्र दोिोिं एक ी ैं , इिमें अिंिर हसफय उिके बाह्य रूप और आकार
में ै । इि दोिोिं अिंिरोिं को खत्म करके जो हशष्य ईश्वर का सुहमरि करिे ैं व ी ईश्वर को पा सकिे ैं । शिय
य ै हक हशष्य को अपिे अ िं कार अथायि् अ म् को हमटािा ोगा। जब व्यक्ति माया से दू र ोकर अपिे
को पूणय रूप से ईश्वर को समहपयि कर दे िा ै िभी व उस हिराकार ब्र म में समा पािा ै।
हिशेष -
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अििा
उत्तर-
सिंदभय एििं प्रसिंग - 'धू प' कहििा प्रगहििादी कहि केदारिाि अग्रिाल िारा रहचि ै । य उिके सिंकिि
'फूि ि ीिं रिं ग बोििे ैं ' में सिंकहिि ै । इस कहविा में गाँ व में धू प हिकििे के बाद के वािावरण की छहवयाँ
प्रस्तु ि की गई ैं । धू प का मािवीकरण हुआ ै उसे मिुष्य की हक्रयाओिं के साथ जोड़कर दे खा गया ै ।
कोई बेटी अपिे मायके में आयी ै। मै के में बेटी स्वच्छिं द ोिी ै , व ससुराि की औपचाररकिाओिं से स्वििं ि
ोिी ै । उसी प्रकार क्तखिी हुई धू प भी मगि और बेपरवा सी प्रिीि ो र ी ैं धू प री-भरी फूिी हुई पीिी
सरसोिं पर पड़ र ी ै िो दोिोिं एक-दू सरे के रिं ग में घुि-हमि गई ै , हजसको दे खकर ऐसा िग र ा ै मािोिं
वे आहििं गि कर र ी ो जैसे मायके आकर बेटी अपिी हबछड़ी हुई स े हियोिं से हमििी ैं । साथ ी जो वा
चि र ी ै व ऐसी प्रिीि ो र ी ै मािोिं भाभी आिं गि में िाज के मारे भाई से अपिे को छु ड़ा कर भाग र ी
ो िो उसका ि ँ गा ि ि ा र ा ै ।
हिशेष
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ि िोड़िी पत्थर
ि िोड़िी पत्थर।
कोई ि छायादार
उत्तर-
सिंदयभ एििं प्रसिंग - ि िोड़िी पत्थर' प्रहसद्ध छायािादी कहि सूयय कान्त हत्रपाठी 'हिराला' िारा रहचि
ै । व िोड़िी पत्थर एक ममय स्पशी कहविा ै । इस कहविा में कहव हिरािा' जी िे एक पत्थर िोड़िे वािी
मजदू ररि के माध्यम से शोहषि समाज के जीवि की हवषमिा का वणयि हकया ै
व्याख्या - कहव क िे ै , मै िे एक मह िा को पत्थर िोड़िे हुए दे खा। कहव इिा ाबाद के हकसी रास्ते पर
उस मह िा को पत्थर िोड़िे हुए दे खिे ै । व एक ऐसे पेड़ के िीचे बैठी ै , ज ा छाया ि ीिं हमि र ी आस
पास भी कोई छायादार जग ि ीिं ैं । इस प्रकार कहव शोहषि समाज की हवषमिा का वणय ि करिे ै । ओर
बिािे ै की मजदू र वगय अपिा काम पूरी िग्न के साथ करिे ै । कवी मह िा के रूप का वणयि करिे हुए
क िे ै , की मह िा का रिं ग साविा ै , पररपक्व अथाय ि् युवा काि में आ गई ै ।
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50
आिं खो में चमक, और मि अपिे कायय में िगा रखा ैं । और पत्थर िोड़ र ी ैं । सूरज अपिे चरम पर जा
पहुिं चा ै , गमी बढ़िी जा र ी ै। कहव बिािे ै हदि में सबसे किदायक समय य ी ैं । धरिी - आसमाि
उसिे अभी िक अपिी ह म्मि ि ीिं ारी ै । अचािक मह िा को अपिे कायय का िरण ोिा ै और
एकाएक एक हफर से अपिे कायय में िग जािी ै। ओर के री ै , में िोड़िी पत्थर ।
हिशेष
2. माहमय क कहविा ै ।
3. शोहषि वगय की दयिीय क्तस्तहथ को दशाय य गया ै।
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उत्तर -
पररचय
आधु हिक ह िं दी गद्य-हवधाओिं में हिबिंध का म त्वपूणय स्थाि ै । इसका उद्भव भी भारिे न्दु युग से ी स्वीकार
हकया जािा ै । कहिपय समीिक सदासुख िाि अथवा राजा हशवप्रसाद हसिारे ह िं द को ह िं दी का प िा
हिबिंधकार माििे ैं , परन्तु एक सुव्यवक्तस्थि एविं सुहिहिि हिबिंध-परम्परा का सूिपाि भारिे न्दु ररिन्द्र और
ह िं दी हिबिंध का हिकास
2. हद्ववेदी युग
3. शुक्ल युग
4. शुक्लोत्तर युग
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गद्य की अन्य हवधाओिं के साथ ी भारिे न्दु युग से ह िं दी हिबिंध का सूिपाि एविं हवकास ोिा ै । इस युग के
हिबिंधकारोिं में भारिे न्दु ररिन्द्र प्रिापिारायण हमश्र, बािकृष्ण भट्ट, बद्रीिारायण चौधरी प्रेमघि, श्री
हिवासदास आहद के िाम उल्लेखिीय ैं । भारिे न्दु ररिन्द्र आधु हिक ह िं दी गद्य के िन्मदािा ैं । वे इस
युग के प्रहिभा सम्पन्न हिबिंधकार ैं । उन्होिंिे समाज, राजिीहि, धमय , इहि ास, साह त्य आहद हवहवध हवषयोिं
पर हिबिंध-रचिा की ै । इिके यािा सिंबिंधी हिबिंध भी हवशेष म त्त्व रखिे ैं । हजन्दाहदिी, आत्मीयिा एविं
बािकृष्ण भट्ट भारिे न्दु युग के सवयश्रेि हिबिंधकार क े जा सकिे ैं । भट्ट जी ह िं दी प्रदीप पहिका के सम्पादक
थे । इिके हिबिंध भट्ट हिबिंधमािा भट्ट हिबिंधाविी िथा साह त्य सुमि सिंग्र ोिं में सिंकहिि ैं। हवचारात्मक एविं
भावात्मक दोिोिं प्रार के हिबिंधोिं की रचिा में भट्ट जी सफि र े ैं । प्रिापिारायण हमश्र इस युग के स्वच्छन्द
एविं मस्तजीवी हिबिंधकार ैं । इिके हिबिंध ब्राह्मण पहिका में प्रकाहशि ोिे थे । प्रिापिारायण हमश्र ग्रिंथाविी
में इिके हिबिंध सिंग्र ीि ैं । मिोरिं जि िथा व्यिं ग्य इिके हिबिंधोिं की हवशेषिाएँ ैं । समग्र रूप से भारिे न्दु युग
के हिबिंधोिं में ास्य - व्यिं ग्य, दे श- प्रेम, समाज- सुधार और मिोरिं जि जैसी हवशेषिाएँ प्रधाि रूप से पाई जािी
ैं ।
हद्ववेदी युग के प्रविय क म ावीर प्राद हद्ववेदी आचायय , समीिक और हिबिंधकार के रूप में प्रहसद्ध ैं । आचायय
हद्ववेदी िे सरस्विी के सम्पादक र िे हुए हवहवध हवषयोिं पर हिबिंधोिं की रचिा की थी। उन्होिंिे सिंस्कृहि,
साह त्य, समाज, धमय , हशिा, इहि ास आहद हवषयोिं पर हवचारात्मक एविं आिोचिात्मक हिबिंधोिं की रचिा की
थी। उिके हिबिंधोिं में हिबिंध-किा के उत्कषय के स्थाि पर हवचारोिं एविं िथ्योिं को प्रधाििा ै । अिः उिके हिबिंध
बािोिं का सिंकिि बि गए ैं । चन्द्रधर शमाय गुिेरी, पद्म हसिं शमाय, बािमु कुन्द गुप्त, गोहवन्दिारायण हमश्र,
श्यामसुन्दरदास, चन्द्रधर शमाय गुिेरी, अध्यापक पूणयहसिं इस युग के प्रहसद्ध हिबिंध कार ैं । इस युग के
हिबिंधोिं से हिबिंध का हिचार िे त्र व्यपक हुआ ै । हवचार - प्रधाि हिबिंधोिं की रचिा में इस युग के िे खक
को सफििा हमिी ै , परन्तु भारिे न्दु युगीि आत्मीयिा हजन्दाहदिी िथा सजीविा का इस युग के हिबिंध में
अयाव ै ।
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शुक्ल युग के हिबिंधकारोिं में आचायय रामचन्द्र शुक्ल शीषयस्थ ै । आचायय शुक्ल िे मिोवैज्ञाहिक, साह क्तत्यक
एविं आिोचिात्मक हिबिंधोिं की रचिा की ै , जो हचन्तामहण (दो भाग) में सिंगृ ीि ैं । शुक्ल जी के हिबिंध
हवचारात्मक हिबिंधोिं का आदशय प्रस्तु ि करिे ैं । इिमें बुक्तद्ध और भाव का सन्तु हिि समन्वय हमििा ै।
उत्सा , कर्रणा, भय आहद शुक्ल जी के मिोभाव सिंबिंधी प्रहसद्ध हिबिंध ैं । इिके साह क्तत्यक एविं समीिात्मक
शुक्ल युग के हिबिंधकारोिं में बाबू गु िाबराय, पदु मिाि पुन्नािाि बख्शी, शाक्तन्तहप्रय हद्ववेदी, म ादे वी वमाय ,
राहुि सािं कृत्यायि आहद उल्लेखिीय ैं । इि हिबिंधकारोिं की अपिी मौहलक हिशेषिाएाँ ैं । बाबू गुिाबराय
िे आत्म- परक हिबिंधोिं की रचिा की ै । म ादे वी के हिबिंध सिंिरणात्मक ैं । राहुि के हिबिंधोिं में हवषय-
वैहवध्य ै । हसयारामशरण गुप्त के हिबिंध वैयक्तिक ै । इस युग में श्रीराम शमाय िे आखेट हवषयक हिबिंध हिखे
ैं । डॉ. रघुिीर हसिं के भावात्मक हिबिंध भी प्रहसद्ध ैं । शुक्ल युग के इि हिबिंधकारोिं में हवचारोिं की गिीरिा
शुक्लोत्तर युग के हिबिंधकारोिं में जारीप्रसाद हद्ववेदी अपिे िहिि हिबिंधोिं के हिए प्रहसद्ध ैं । उन्हें सािं स्कृहिक
चे ििा का हिबिंधकार मािा जा सकिा ै । प्राचीि और िवीि का सामिं जस्य उिकी उल्लेखिीय हवशेषिा ै ।
अशोक के फूि, कुटज, कल्पििा, आिोक पवय आहद सिंग्र ोिं में हद्ववेदी जी के हिबिंध सिंगृ ीि ैं । उिकी भाषा
प्रौढ़ ै और शैिी में व्यिं ग्य-हविोद । इस युग के अन्य हिबिंधकारोिं में वासुदेवशरण अग्रवाि, आचायय िन्ददु िारे
वाजपेयी, डॉ. िगेन्द्र, भगिशरण उपाध्याय, जैिेन्द्र, रामहविास शमाय , प्रभाकर माचवे, डॉ. इन्द्रिाि मदाि,
हवगि चार दशकोिं में ह िं दी हिबिंध के िे ि में कहिपय िई प्रहिभाओिं का आहवभाय व हुआ ै । इन्होिंिे िहिि
हिबिंध के मागय को प्रशस्त हकया ै । इि हिबिंधकारोिं में डॉ. हवद्याहिवास हमश्र, धमय वीर भारिी, िामवर हसिं ,
हशवप्रसाद हसिं , श्रीिाि शुक्ल, कन्है यािाि हमश्र प्रभाकर, ररशिंकर परसाई, कुबेरिाथ राय, हववेकी राय
आहद के िाम उल्लेखिीय ैं ।
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पररचय
उत्तर प्रदे श के बाँ दा िगर के कमाहसि गाँ व में एक मध्यवगीय पररवार में हुआ था। इिके हपिाजी िु माि
प्रसाद अग्रिाल और मािाजी घहसट्टो दे िी थी। केदार जी के हपिाजी स्वयिं कहव थे और उिका एक काव्य
सिंकिि ‘मधु ररम’ के िाम से प्रकाहशि भी हुआ था। केदार जी का आरिं हभक जीवि कमाहसि के ग्रामीण
मा ौि में बीिा और हशिा दीिा की शुरूआि भी व ीिं से हुई।
काव्यकला और हिचारधारा
केदारिाि अग्रिाल पर छायािाद का अपेहिि प्रभाि र ा इसी कारण इन्होिंिे एक रोमािी गीिकार के
रूप में ी ह िं दी काव्य जगि् में प्रवेश हकया। िे हकि इिकी कहविाओिं िे समय के अिुसार ी करवट बदिी
और ये प्रगहिवादी प्रयोगवाद, ियी कहविा को िे ि में भी अपिी प चाि बिा सके। हवशे ष रूप से प्रगहिवादी
काव्यधारा के सशि स्तािर के रूप में इिकी प्रहसक्तद्ध र ी ै । अपिी हजिंदगी के हिए इन्होिंिे स्वयिं ी िए
मु ावरोिं की खोज कीिं। इिकी कहविाओिं में जीवि के हवहवध हचिोिं के साथ-साथ समय भी बँधा हुआ चििा
ै । समय की आवश्यकिा के अिुरूप स्वयिं ढाि िे िे की अपूवय िमिा केदारिाथ जी में र ी।
केदारिाि अग्रिाल की काव्यकला का हिकास मु ख्य रूप िीि चरणोिं में दे खा िा सकिा ै । सि्
1934 से प िे , सि् 1934 से 1955-56 िथा सि् 1955-56 से आक्तखर िक प िे चरण में सि् 1934 से
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कहविायें इन्होिंिे इसी दौर में हिखीिं। अपिे प्रेम हिजी अिु भूहि को भी इन्होिंिे हिदय ध्व भाव से अपिी कहविाओिं
में अहभव्यि हकया। इिके प्रेम में कुिंठा का भाव क ीिं भी ि ीिं ै इसीहिए कहव उसे स ज भाव से स्वीकार
करिा ै ।
रोमाहियि इिकी कहििा की हिहशि प चाि ै । इन्होिंिे प्रेम को जीवि का मू ि स्वीकार करिे हुए
प्राकृहिक उपादािोिं को प्रेम की अिुभूहि को अहभव्यक्ति दी ै । इिकी कहविाओिं में प्रेम के साथ-साथ प्रकृहि
के भी सुिंदर हचि हमििे ैं । बाँ दा के ग्रामीण पररवेश और व ाँ की सिंस्कृहि इिकी कहविाओिं में साकार हुए
ैं । प्रकृहि के मािवीकरण प्रकृहि की अद् भु ि छहवयोिं का हचिण इिकी कहविाओिं में हमििा ै ।
केदारिाि सौिंदययिादी कहि क े िािे ैं । इिकी आरिं हभक कहविाओिं में प्रकृहि और प्रेम का सौिंदययपरक
वणयि वास्तव में ी अद् भु ि ै । इिका हकसािी मि ी प्रकृहि की रम्य वाहदयोिं के साथ आत्मीय रूप से जुड़
जािा ै । 'बसिंिी वा' और चिं द्र ग िा से िौटिी बेर जैसी चहचय ि कहविाएँ इसी दौर में ी हिखी गयीिं।
केदारिाि अग्रिाल का माििा र ा ै हक कहविा की साथय किा िभी ै जब उसमें मािव मू ल्योिं की प्रहििा
ो । अपिे काव्य-हवकास के िीसरे चरण सि् 1955-56 के पिाि् केदार की कहविाओिं में प्रगहिशीि साह त्य
आिं दोिि के हवघटि और सामाहजक मू ल्योिं के पिि के फिस्वरूप अवसाद और हिराशा का स्वर हमििा
ै । िे हकि इि स्वरोिं के बीच भी कहव की कहविा में मािव मू ल्योिं की प्रहििा के हिए सिंघषय का प्रभाव िहिि
ोिा ै । जीवि के अिुभव और हचिं िि िे कहव की दृहि को दाशयहिक बिा हदया। व आत्मसिंघषय द्वारा जीवि-
जगि के सत्य का आत्मसािात्कार करिा ै । प्रो. अिय हििारी के अिुसार "वे खूब अच्छी िर दे खिे ैं
हक जीवि की िर प्रकृहि में भी दोिोिं प्रहक्रयाएँ घहटि ोिी र िी ैं समु द्र भाप बिकर उड़िा भी ै और
जवाि र कर ह िोरें भी िे िा ै ।
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श्रीमिी सुभद्रा कुमारी चौ ाि िारा हिहमयि कहििा ‘बाहलका का पररचय’ मािा के हृदय के भािोिं को
प्रकि करिे िाली एक ज्ञाििद्धय क कहििा ै । इस कहविा का प्रहिपाद्य इस प्रकार ै कवहयिी अपिी बेटी
के प्रहि अपिे वात्सल्य भावोिं को उडे ििी हुई क र ी ै हक व उिकी गोदी की शोभा और सुख-सु ाग
की िाहिमा ै । व अिंधकार की दीपहशखा, घिी घटाओिं की चमक, उषा काि में कमि-भिं गोिं (भौरी) की
िर सुखदायक ै ,िो पिझड़ की ररयािी ै । िीरस और उदास दय में अमृि की धारा ब ािे वािी ै िो
सुभद्राकुमारी चौ ाि की रचिाओिं में रािर प्रेम, पाररिाररक िीिि ििा िात्सल्य भाि की सुिंदर
अहभव्यक्ति हुई ै । 'बाहिका का पररचय उिकी वात्सल्य भाव से पूणय एक सुिंदर कहविा ै । इसमें कवहयिी
िे माँ की ममिा को, जो बािक-बाहिका में कोई भे द ि ीिं रखिी, साकार कर हदया ै । बाहिका के प्रहि माँ
के स्ने पूणय हृदय में उठिे वािी भाव िरिं गोिं की य ाँ सुिंदर झाँ की दे खी जा सकिी ै । व माँ के जीवि की
ज्योहि, पुिी, सुख-सिंपदा सब कुछ ै । व उसके सूिे जीवि को सरस बिािे वािी िथा बीिे हुए बचपि का
पुिः िरण करािे वािी ै । य मिं हदर-मक्तिद, काबा - काशी सब कुछ ै । व ी माँ के हिए जप-िप, पूजा-
पाठ िथा घट-घट वासी भगवाि ै । अथायि् माँ के हिए बाहिका सवयस्व ै । उसका पररचय दे िा बहुि कहठि
ै । उसे िो एकमाि व ी समझ सकिा ै , हजसके पास मािृ -हृदय ै । उस प्रकार य कहविा सन्ताि के प्रहि
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पररचय
िु िसीदास की िोकहप्रयिा का कारण य ै हक उन्होिंिे अपिी कहविा में अपिे दे खे हुए जीवि का बहुि
ग रा और व्यापक हचिण हकया ै । उन्होिंिे राम के परिं परा-प्राप्त रूप को अपिे युग के अिुरूप बिाया ै ।
उन्होिंिे राम की सिंघषय -कथा को अपिे समकािीि समाज और अपिे जीवि की सिंघषय -कथा के आिोक में
दे खा ै ।
रामचररि मािस
िु िसीदास ऐसे सिंवेदिशीि म ाकहव ैं , जो रामचररि मािस जैसी म ाि कृहि का उद् घाटि करिे में सफि
हसद्ध ोिे ैं । रामचररि मािस ऐसी िोकग्राह्य कृहि ै हजसमें समाज के िगभग र एक वगय के रे खािं कि
करिे ैं । उिके राम स्वगय में हवचरण करिे वािे दे विा ि ीिं ैं बक्ति समाज में र िे वािे राम ैं । िुिसी के
राम का माििीय व्यि ार सबको लुभािा ै , आियय में डाििा ै । राम आदशय भाई, आदशय हमि, आदशय
पहि और आदशय दु श्मि भी ैं । िुिसी की िोक-साधिा ऊपर से दे खिे में भिे ी भक्तिपरक िगिी ै , पर
उिके भीिर के आदशय समाज का सपिा एक आदशय मािव का चररि ै । वस्तु ि: िु िसी के राम वस्तुि: एक
ैं । वे ी हिगुयण और सगुण, हिराकार और साकार, अव्यि और व्यि, अिंिरयामी और बह याय मी, गुणािीि
और गुणाश्रय ैं । हिगुयण राम ी भिोिं के प्रेमवश सगुण रूप में प्रकट ोिे ैं ।
िु लसी िे िै ििादी और अिै ििादी मिोिं का समन्वय हकया ै । राम और जगि में ित्वि: अभे द ै , हकिंिु
प्रिीयमाि व्याव ाररक भे द भी ै । िु िसी िे भे दवाद और अभे दवाद दोिोिं का समन्वय हकया ै । स्वरूप की
दृहि से जीव और इय श्वर में अभे द ै । य इय श्वर का अिंग ै अि: इय श्वर की भािं हि ी सत्य, चे िि और आििंदमय
ै।
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मािस के अिंिस में एक हिणाययक सिंघषय का हिन्यास ै , जो ऊपर के बजबजािे पािी के शोर में सुिाई
ि ीिं दे िा। मािस में अिंिरगुक्तफफि य सिंघषय बेजोड़ ै और बेजोड़ ै िु िसी का रण-कौशि। य सिंघषय ै -
मयाय दा और अमयाय दा के बीच, शुद्ध और अशुद्ध भाविा व हवचार के बीच, स ज और प्रपिंची भक्ति के बीच,
सरि और जहटि जीवि-दशयि के बीच।
‘मािस’ कोरे आदशय को स्थाहपि करिे वािा ग्रिंथ ि ीिं ै । य ािं राम के साथ रावण भी ै । सीिा के साथ मिं थरा
भी ै । िु िसी सिंपूणय समाज को एकसाथ हचहिि करिे ैं । राम का रामत्व उिकी सिंघषयशीििा में ै , ि हक
दे वत्व में । राम के सिंघषय से साधारण जििा को एक िई शक्ति हमििी ै । कभी ि ारिे वािा मि, हवपहत्तयािं
जार ैं , िक्ष्मण को ‘शक्ति’ िगी ै , पत्नी दु श्मिोिं के घेरे में ै , राम रोिे ैं , हबिखिे ैं , पर ह म्मि ि ीिं ारिे
ैं ।
रामचररि मािस िु लसीदासिी का सुदृढ़ कीहिय स्तिंभ ै हजसके कारण वे सिंसार में श्रेि कहव के रूप में
जािे जािे ै , क्ोिंहक मािस का कथाहशल्प, काव्यरूप, अििं कार सिंयोजिा, छिं द हियोजिा और उसका
प्रयोगात्मक सौिंदयय, िोक-सिंस्कृहि िथा जीवि-मू ल्योिं का मिोवैज्ञाहिक पि अपिे श्रेि रूप में ै ।
मुक्ति और भक्ति व्यक्तिगि िस्तुएिं ैं । िु लसी का मुख्य प्रहिपाद्य भक्ति ै , परिं िु उन्होिंिे इस बाि का
ध्याि रखा ै हक मिुष्य सामाहजक प्राणी ै । समाज के प्रहि भी व्यक्ति के कुछ किय व्य ैं अिएव अपिी
वृहत्तयोिं के उदात्तीकरण के साथ ी उसे समाज का भी उन्नयि करिा चाह ए। िु िसी के सभी पाि इसी प्रकार
का आदशय प्रस्तु ि करिे ैं । व्यक्ति और समाज, आत्मपि और िोकपि के समन्वय द्वारा िु िसी िे धमय की
रामचररि मािस िु लसी की उदारिा, अिं ि:करण की हिशालिा एििं भारिीय चाररहत्रक आदशय की
साकार प्रहिमा ै । िु िसी िे राम के रूप में भारिीय सिंस्कृहि एविं सभ्यिा की ऐसी आदशयमयी ओर जीविंि
प्रहिमा प्रहिहिि की ै , जो हवश्वभर में अिौहकक, असाधारण, अिुपम एविं अद् भु ि ै , जो धमय एविं िैहिकिा
की दृहि से सवोपरर ै ।
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