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राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र

ु ीन्द्रवन्ृ दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी,


मन
प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी ।
ु ंगते,
व्रजेन्द्रभानुनन्दिनी व्रजेन्द्र सूनस
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥१॥

ृ वल्लरी वितानमण्डपस्थिते,
अशोकवक्ष
प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ ् कोमले ।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥२॥

अनंगरं गमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां,


सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः ।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥३॥

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे ,
मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदे न्दम
ु ण्ङले ।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥४॥

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि ्ते,


प्रियानुरागरं जिते कलाविलासपणि ्डते ।
अनन्यधन्यकंु जराज कामकेलिकोविदे ,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥५॥

ू ते,
अशेषहावभाव धीरहीर हार भषि
प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि ्भकुम्भसुस्तनी ।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे ,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥६॥

ृ ालबालवल्लरी तरं गरं गदोलते,


मण
लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने ।
ललल्लुलमि ्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये ,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥७॥

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरे खकम्बुकण्ठगे,


त्रिसत्र
ु मंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति ।
सलोलनीलकुन्तले प्रसन
ू गच्
ु छगम्फि
ु ते,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥८॥

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण,
प्रशस्तरत्नकिं कणी कलापमध्यमंजुले ।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥९॥

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत,्
समाजराजहं सवंश निक्वणातिग ।
विलोलहे मवल्लरी विडमि ्बचारूचं कमे,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥१०॥

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते,
हिमादिजा पुलोमजा-विरं चिजावरप्रदे ।
ृ दिग्ध -सत्पदांगुलीनखे,
अपारसिदिवदि
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम ् ॥११॥

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी,


त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी ।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी,
ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते ॥१२॥

इतीदमतभत ु नि ्दनी,
ु स्तवं निशम्य भानन
करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम ् ।
भवेत्तादै व संचित-त्रिरूपकमनाशनं,
लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम ् ॥१३॥

राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः ।


एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठे त्साधकः सध
ु ीः ॥१४॥

यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः ।


राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात ् प्रेमलक्षणा ॥१५॥

ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके ।


राधाकुण्डजले स्थिता यः पठे त ् साधकः शतम ् ॥१६॥

तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत ् ।


ऐश्वर्यं च लभेत ् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम ् ॥१७॥

तेन स तत्क्षणादे व तुष्टा दत्ते महावरम ् ।


येन पश्यति नेत्राभ्यां तत ् प्रियं श्यामसुन्दरम ् ॥१८॥

नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः ।


अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते ॥१९॥

॥ इति श्रीमदर्ध्वा
ू म्नाये श्रीराधिकायाः कृपाकटाक्षस्तोत्रं सम्पूर्णम ॥

श्रीदर्गा
ु सप्तशती
श्री दर्गा
ु सप्तशती मार्कं डेय पुराण का एक भाग है जिसमें 700 श्लोक है और यह 13 अध्यायों में विभक्त है इसे दे वी
महात्म्य नाम से भी जाना जाता है
इसकी महिमा के विषय में वेदव्यास जी लिखते हैं और मां भगवती स्वयं अपने श्री मुख से निम्नलिखित वचन कहती
है
1) जो एकाग्र चित्त होकर प्रतिदिन इसका पाठ करे गा उसकी सारी बाधाएं मैं निश्चित ही दरू कर दं ग
ू ी।
2) जो भक्ति पूर्वक अष्टमी नवमी और चतुर्द शी को एकाग्र चित्त होकर इसका पाठ करें गे उन्हें कोई पाप छू न सकेगा।
3) इसका पाठ करने वाले भक्तों पर कोई भी आपत्तियां नहीं आएगी।
4) उसके घर में कभी दरिद्रता नहीं होगी
5) उन्हें कभी प्रेमी जनों के बिछोह का कष्ट नहीं होना पड़ेगा
6) अपने शत्रओ
ु ं से अग्नि से राजा से लुटेरों से शस्त्र से जल से कोई भय नहीं होगा
7) इसके पाठ से महामारी जनित सभी उपद्रवो की शांति हो जाएगी
जहां प्रतिदिन दर्गा
ु सप्तशती का पाठ होता है उस स्थान को मैं कभी नहीं छोड़ती
9) किसके पाठ से भयंकर विघ्न व ग्रहबाधाए शान्त हो जाती है
10) इसके नित्य पाठ से बरु े सपने दिखना बंद हो जाते हैं
11) इसके पाठ मात्र से भूतों पिशाचो और राक्षसों का नाश हो जाता है
(मार्कं डेय परु ाण)
श्री सूक्त युक्त महालक्ष्मी स्तोत्र पुष्पमाला
श्रीसक्
ू त यक्
ु त महालक्ष्मी स्तोत्र
श्रीगणेशाय नमः हरि ओम तत्सत
महालक्ष्मी मंत्र
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वं ऐं ब्लंू रं ॐ महालक्ष्म्यै नमो नमः
ॐ भगवती मल
ू प्रकृति परमेश्वर्यै आद्या महालक्ष्म्यै नमः।
ॐ वं श्रीं वं ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं गह
ृ लक्ष्म्यै नमः
ॐ आद्या परमेश्वरी महाश्रियै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं श्रीं विष्णु वल्लभायै नमः
ॐ ऐं ईं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्सौ: दारिद्यविनाशिनी जगतप्रसूत्यै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालयै प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं राजराजेश्वरी महालक्ष्म्यै नमः
ॐ ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं जगदीशवर्यै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं श्रीं सिद्ध महालक्ष्म्यै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं आद्या महालक्ष्म्यै कमलधारिण्यै सिंहवाहिन्यै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं राजराजेश्वरी महालक्ष्म्यै नमः
ॐ श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ललिता महात्रिपुरसन्
ु दर्यै महालक्ष्मी ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं नमः
ॐ मणि पदमे भुवनेश्वर्यै महालक्ष्मी हूं ह्रीं।
ॐ श्रीं ह्रीं सिद्धिदात्री महालक्ष्मी शक्ति रूपायै ह्रीं श्रीं ॐ
ॐ महाकमलायै विदमहे महाश्रियै धीमहि तन्नो महालक्ष्मी प्रचोदयात ्
ॐ अमत
ृ वासिन्यै विदमहे पदमलोचन्यै धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात ्
ॐ परमशक्त्यै च विदमहे अव्यक्त महाप्रकृत्यै धीमहि तन्नो आद्या महालक्ष्मी प्रचोदयात ्।
ॐ पराश्रियै च विदमहे महाश्रियै धीमहि तन्नो श्री प्रचोदयात ्
ॐ श्रीविद्यायै च विदमहे महाश्रियै धीमहि तन्नो श्री
प्रचोदयात ्।
ध्यान
वन्दे लक्ष्मों परशिवमयों शुद्धजाम्बूनदाभां
तेजोरूपां कनकवसनां सर्वभष
ू ोज्ज्वलांगीम ्
बीजापूरं कनककलशं हे मपद्मद्घानां
माद्यां शक्तिं आद्यविष्णव
ु ामांकसंस्थिताम ्
कान्त्या काञ्चनसन्निभां हिमगिरि प्रख्यैश्चचतर्भि
ु र्गंजै
हं स्तोत्क्षिप्त हिरण्मयामत
ृ घटे रा सिंच्ययमानां श्रियम ् । बिभ्राणां वरमब्जयग्ु ममभयं हस्तं किरीटोज्ज्वलां
क्षौमा बद्धनितम्बबिम्बलसितां वन्दे रविन्दस्थिताम ् ॥
अरुण कमल संस्था तद्रज:पंज
ु वर्णा
कर कमल घत
ृ ेष्ठा भीति यग्ु माम्बु जाता।
मणिमुकट विचित्रालंकृता कल्प जालै::
सकल भुवन माता सन्ततम ् श्रीं श्रिये नमः
त्वं श्रीरूपेन्द्रसदने मदनैकमाता
ज्योत्स्नासि चन्द्रमसि चन्द्रमनोहरास्ये |
सूर्ये प्रभासित जगतित्त्रय प्रभासि
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥
त्वं जातवेदसि सदा दहनात्मशक्ति
वैधास्त्वया जगदिदं विविधं विदध्यात
विश्वम्भरोऽपि विभुयादखिलं भवत्या
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥
ॐ हिरण्यवर्णा हरिणीं सुवर्णरजतनजाम ् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मी जातवेदा म आवह ।। 1।।
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम ् ।
यस्यां हिरण्यं विन्दे यं गामश्वं पुरुषानहम ् ।।2।।
अश्वपूर्वा रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम ् ।
श्रियं दे वीमुपह्वये श्रीर्मा दे वी जुषताम ् ‌।।3।‌।
कांसोस्मितां हिरण्यप्रकारामार्द्रा ज्वलन्ती तप्ृ तां तर्पयन्ति
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम ् ।। 4 ।।
चन्द्राप्रभासांं यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके दे वजुष्टामूदाराम
तां पद्मनेमि शरणं प्रपद्ये अलक्ष्मीम्मे नश्यतां त्वां वण
ृ ै
।। 5।।‌
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव: वक्ष
ृ ोथबिल्व: तस्य फलानि तपसा नद
ु न्तु मायान्तरायाश्चबाह्या
अलक्ष्मीं:
।। 6। ।‌
उपैतु मां दे व सखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादर्भू
ु तो सरु ाष्ट्रे ऽस्मिन्कीर्तिमद्धि
ृ ददातु मे ।।7।।
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम ् ।
अभति
ू मसमद्धि
ृ च सर्वा निर्णुद में गह
ृ ात ् ।।8।।
गन्धद्वारां दरु ाधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम ् ।
ईश्वरी सर्वभत
ू ानां तामिहोपह्वये श्रियम ् ।।9।।
मनस काममाकूति वाच सत्यमशीमहि ।
पशन
ु ां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।10‌।।
कर्दमेन प्रजा भत
ू ा मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय में कुले मातरं पद्ममालिनीम ् ।।11।।
आपः स्त्रजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत बस मे गह
ृ े ।
नि च दे वीं मातरं श्रियं वासय में कुले ।।12।‌।
आर्द्रा पुष्करिणीं पुष्टि पिंगला (सुवर्णा हे म) पद्ममालिनी चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मी जातवेदा म आवह ।।13।‌।
आर्द्रा यः करिणीं यष्टिं सुवर्णा हे ममालिनीम ् । सूर्याहिरण्मयों, लक्ष्मीं जातवेदा म आवह ।।14।‌।
ता म आवह जातवेदा लक्ष्मीमनपगामिनीम ् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूति गावो दास्यो श्वान्विन्दे यं पुरूषानहम ्
।।15।‌।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम ् |
सूक्त पञ्चदशर्च च श्रीकामः सततं जपेत ् ।।16।।
पदमानने पदमिनी पदमपत्रे पदमप्रिये पदमदलयताक्षी
विश्वप्रिये विश्वमनोऽकूले त्वमत्पादपदम मयि सन्निधत्स्व
।।17।।
पदमानने पद्म उरू पदमाक्षी पदमसंभवे
तन्मे भजसि पदमाक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम।।18।।
अश्वदायी च गोदायी धनदायी महाधने
धनं में जुषताम ् दे वी सर्व कामाश्च दे ही में ।।19,।‌।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्याश्ववादि गजे रथम
प्रजानां भव सीमान्त आयुष्यन्तं करोतु माम ् ।।20।‌।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं बसु:
धनमिन्द्रो वह
ृ स्पतिर्वरूणो धनम अश्विना ।।,21‌‌।।
वैनतेयं सोमं पिबं सोमं पिबतु वत्र
ृ हा
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिन; ।।22।‌।
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशभ
ु ा मति:
भवन्ति कृतपण्
ु याणां भक्तानां सक्
ू तजापिनाम ् ।।23।।
श्रीः सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरे शभ
ु गन्धमात्यशोभे
भगवति हरिबल्लभे मनोज्ञे त्रिभव
ु नभति
ू करि प्रसीद मह्यम ्
।।24।।
विष्णु पत्नीं क्षमा दे वी माधवी माधवप्रियाम
विष्णु प्रियां सखी दे वी नमाम्य अच्युतवल्लभां ,।।25।।
ॐ महालक्ष्म्यै च विदमहे विष्णुपत्न्यै च धीमहि
तन्नौ लक्ष्मी प्रचोदयात ् ।।26।।
आनन्दः कर्दमश्चैव चिक्लीत इति विश्रत
ु ा ।
ऋषय: श्रिय: पत्र
ु ाश्च श्रीर्देवीर्देवता मता: ।।27।।
ऋणरोगादि दारिद्यं पापं च अपमत्ृ यव:
भय शोक मनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ।।28।।
श्रीर्वचस्वमायष्ु यमारोग्यमा विद्याचछोभमानं महीयते
धनं धान्यम पशुम बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सर दीर्घमायु
।।29।।
या लक्ष्मी सिंधु सम्भूता धेनु भूत पुरू वसु
पदमा विश्वावसु दे वी सदा तो च सतां गह
ृ े ।।30।।
या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी । गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनघनन मितां शभ्र
ु ा वस्त्रोत्तरीया
।।31।‌।
या लक्ष्मी दिव्यैर्गजैन्द्र मणिगण रचिता स्नापिता हे मकुम्भैः ।
नित्यं सा पदमहस्ता मम वसतु गह
ृ े सर्वमाङ्गल्ययुक्ता
।।32।।
लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम ् । दासीभत
ू समस्त दे व वनितां त्रिलोकैक दीपांकुराम ् ।।33।।
श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध यत ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम ् ।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम ्
।।34।।
या रक्ताम्बुज वासिनी विलासिनी चण्डान्शु तेजस्विनी
या रक्ता रूधिराम्बरा हरिसखी या श्रीहरिमनोऽलहादिनी
।।35।।
या रत्नाकर मंथनात्प्रकटिता विष्णोर्स्वया गेहिनी
साम ् माम ् पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्च पद्मावती
।।36।।
ॐ हरिणीन्तु हरे ः पत्नि दारिद्रय परिहारिणीम ् ।
प्रपद्ये हं हरिद्राभां हरिणाक्षीं हिरण्मयीम ् ।।37।।
वरांकुशौ पाशाम भीतिमद्र
ु ाम करै र्वहन्ती ,
कमलासनस्थामबालार्क कोटि प्रतिभां
त्रिनेत्राम भजेहं आद्या जगदीश्वरी त्वाम। ।।38।।
चन्द्रप्रभाम लक्षमीमेशानी सर्य
ू प्रभाम लक्ष्मी परमेश्वरीम
चंद्र सर्या
ू ग्नि संकाशां श्रियं दे वीमप
ु ास्महे ।।39।।
सिद्व लक्ष्मी मोक्षलक्ष्मी जयलक्ष्मीर्सरस्वती
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा ।।40।।
नमः कल्याणदे दे वि नमोऽस्तु हरिवल्लभे ।
नमो भक्तप्रिये दे वि लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तत
ु े ।।41।।
नमो मायापतिगह
ृ ीतांगी नमोस्तु हरिवल्लभे ।
सर्वेश्वरि नमस्तभ्
ु यं लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तत
ु े ।।42।।
महामाये विष्णध
ु र्मपत्नीरूपे हरिप्रिये ।
वाञ्छादात्रि सरु े शानि लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तत
ु े ।।43।।
उद्यद्भानु सहस्राभे नयनत्रयभषि
ू ते ।
रत्नाधारे सुरेशानि लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तुते ।।44।।
विचित्रवसने दे वि भवदःु खविनाशिनि ।
कुचभारनते दे वि लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तत
ु े ।।45।।
साधकाभीष्टदे दे वि अन्नदानरतेऽनधे ।
विष्ण्वानन्दप्रदे मातर्लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तुते ।।46।।
षट्कोणपद्ममध्यस्थे षडंगयुवतीमये ।
ब्रह्माण्यादिस्वरूपे व लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तुते ।।47।।
: दे वि त्वं चन्द्रवदने सर्व साम्राज्यदायिनी ।
सर्वानन्दकरे दे वि लक्ष्मीदे वि नमोऽस्तुते ।।48।।
महादे वी महालक्ष्मी नमस्ते त्वं विष्णु प्रिये ।
शक्तिदायी महालक्ष्मी नमस्ते दःु ख भंजनि ।।49।।
श्रैया प्राप्ति निमित्ताय महालक्ष्मी नमाम्यहम
पतितो द्धारीणि दे वी नमाम्यहं पुनः पुनः ।।50।।
वेदांस्त्वां संस्तुवन्ति ही शास्त्राणि च मुहपःु ।
दे वास्त्वां प्रणमन्तिही लक्ष्मीदे वी नमोऽस्तुते ।।51।।
नमस्ते महालक्ष्मी नमस्ते. भवभंजनी ।
भक्ति
ु मुक्ति न लभ्यते महादे वी त्ययि कृपा बिना ।।52।।
सुख सौभग्यं न प्राप्नोति पत्र लक्ष्मी न विधते।
न तत्फलं समाप्नोति महालक्ष्मी नमाम्यहम।" ।।53।।
दे हि सौभाग्यमारोग्यं दे हिमे परमं सुखम ् ।
नमस्ते आद्यशक्ति त्वं नमस्ते भीड़भंजनी ,।।54।।
विधेहि दे वी कल्याणं विधेहि परमां श्रियम
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मवन्तं जनं कुरु ,।।55।।
अचिन्त्य रूप-चरिते- सर्वशत्रु विनाशीनी
नमस्तेतु महामाया सर्व सख
ु प्रदायिनी ।।56।।
नमाम्यहं महालक्ष्मी नमाम्यहम सरु े श्वरी
नमाम्यहं जगद्धात्री नमाम्यहं परमेश्वरी,।।57।।
विष्णु प्रिये नमस्तुभयं नमस्तुभ्यं जगद्धात्री
आर्त हन्त्री नमस्तुभ्यं समद्ध
ृ ं कुरू में सदा ।।58।।
नमो नमस्ते महामाये श्री पीठे सरु पजि
ू ते
शंख चक्र गदा वास्ते महालक्ष्मी नमोस्तत
ु े ,।।59।।
नमस्ते गरुडारूढे कोलासरु भयंकरि ।
सर्वपापहरे दे वि महालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।60।।
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदष्ु टभयंकरि ।
सर्वदःु खहरे दे वी महालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।61।।
सिद्धिबुद्धिप्रदे दे वि भक्ति
ु मक्ति
ु प्रदायिनि ।
मन्त्रमूर्ते सदा दे वी महालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।62।।
आद्यन्तरहिते दे वि आद्यशक्तिमहे श्वरि ।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।63।।
स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे ।
महापापहरे दे वि महालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।64।।
पद्मासनस्थिते दे वि परब्रह्मस्वरूपिणि ।
परमेश्वरी जगन्मातमहालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।65।।
श्वेताम्बरधरे दे वि नानालंकारभूषिते ।
जगत्स्थिते जगन्मातमहालक्ष्मी नमोऽस्तु ते ।।66।।
जय पद्मपलाशाक्षि जय त्वं श्रीपति प्रिये
जय मातमहालक्ष्मि संसाराणंव तारिणि ॥67॥
महालक्ष्मि नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि ।
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिये ॥68॥
पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे ।
सर्वभत
ू हितार्थाय वसुवष्टि
ृ सदा कुरू।।69।।
जगन्मातनं मस्तुभ्यं नमस्तुस्यं दयानिधे
दयावति नमस्तुभ्यं विश्वेशरि नमोस्तु ते ।।70।।
नमः क्षीरार्णवसुते नमस्त्रैलोक्य धारिणि ।
वस्तुदृष्टे नमस्तुभ्यं रक्ष मां शरणागतम ् ।।71।।
रक्ष त्वं दे वदे वशि
े दे वदे वस्य वल्लभे ।
दरिद्रात्त्राहि मां लक्ष्मि कृपां कुरु ममोपरि 72।।
नमस्त्रैलोक्य जननि नमस्त्रैलोक्य पावनि ।
ब्रह्मादये नमन्ते त्वां जगदानन्द दायिनीं ।।73।।
अब्जवासे नमस्तभ्
ु यं चपलायै नमो नमः ।
चन्लायै नमस्तभ्
ु यं ललितायै नमो नमः ।।74।।
नमः प्रद्यम्
ु न जननि मातस्तभ्
ु यं नमो नमः
परिपालय भो मातर्मा तभ्
ु यं शरणागतम ्।।75।।
शरण्ये त्वां प्रपन्नोऽस्मि कमले कमलालयै
त्राहि-त्राहि महालक्ष्मी परित्राण परायणे।।76।।
सर्व मंगल मांगल्यै शिवे सर्वार्थ साधिके
शरण्यै त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तत
ु े ।।77।।
शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे
सर्वस्यार्ति हरे दे वी नारायणी नमोस्तत
ु े ।।78।।
दामोदरप्रियाम ् त्वं हि दिव्ययोगप्रदर्शिनी
दयामयी दयाध्यक्षी शिरसा प्रणमाम्हम ।।79।।
ध्यानातीता धराध्यक्षी धन-धान्य प्रदायिनी
धर्मदा धैर्यदा माता: शिरसा प्रणमाम्हम ्।। ।।80।।
नानारत्नादिभूषाढृया नानारत्न प्रदायिनी
नितम्बिनी नलिनाक्षी लक्ष्मीदे वी नमोस्तत
ु े ।।81।।
निधिवन प्रेमानन्दा निराश्रय गतिप्रदा
निर्विकारा नित्य रूपा लक्ष्मीदे वी नमोस्तुते ।।82।।
पूर्णानन्दामयी त्वं हि पूर्णब्रहम सनातनी
पराशक्ति पराभक्तिर्लक्ष्मीदे वी नमोस्तुते ।।83।।
पूर्ण चन्द्रमुखी त्वं हि परमानन्दप्रदायिनी
परमार्थप्रदा लक्ष्मी शिरसा प्रणमाम्हम ् ।।84।।
पदमा पदमासना त्वं हि पदममाला विधारिणी
प्रणवरूपिणी माता शिरसा प्रणमाम्हम ् ।।85।।
विश्वकर्त्री, विश्वभर्त्री विश्वधात्री विश्वेश्वरी
विश्वाराध्या विश्वब्राह्मा लक्ष्मीदे वी नमोस्तुते ।।86।।
विष्णु प्रिया , विष्णु शक्ति, बीज मंत्र स्वरूपिणी
वरदा वाक्यसिद्धा च शिरसा प्रणमाम्हम ् ।।87।।
नमोभीष्टप्रदा, त्वं हि महामोहविनाशिनी,
मोक्षदा मानदात्री च लक्ष्मीदे वी नमोस्तुते ।।88।।
विद्याधरी तथा विद्या वसुधां त्वं हि वन्दिता
विन्ध्याचलवासिनी च लक्ष्मीदे वी नमोस्तत
ु े।।89।।
पट्चक्रभेदनी त्वं हि षड्ऐश्वर्य प्रदायिनी
षोडशी वयसा त्वं हि लक्ष्मीदे वि नमोस्तत
ु े।90।।
सदानन्दमयी त्वं हि सर्व सम्पतप्रदायिनी
सर्वसंकट हन्त्री च सत्य सत्वगण
ु ान्विता ।।91।।
सीतापतिप्रिया दे वी शिरसा प्रणमाम्हम ्।।
संसारतारिणी दे वी , शिरसा प्रणमाम्हम ्।।92।।
समस्त सम्पतसुखदां महाश्रियम
समस्त सौभाग्यकररी महाश्रियम
समस्त कल्याणकरी महाश्रियम
भजाम्हं ज्ञानकरी महाश्रियम ।।93।।
सर्व मंगल संपर्णा
ू सर्वेश्वर्य समन्वितां
आद्यादि श्रीमहालक्ष्मी त्वत्कला मयि तिष्ठतु ।।94।।
अज्ञान तिमिरं हन्त्री शद्ध
ु ज्ञान प्रकाशिका
सर्वेश्वर्यप्रदा मेऽस्तु त्वत्कला मयि संस्थिता।।95।।
श्रीवैकुन्ठे स्थिते लक्ष्मी समागच्छ ममाग्रत:,
नारायणेन सह मां कृपाद्ष्टयावलोकय।।96।।
सत्यलोकेन स्थिते लक्ष्मी त्वां ममागच्छ सन्निधम ्,
वासुदेवेन संहिताम प्रसीद वरदा भव।।97।।
श्वेतद्बीप स्थिते लक्ष्मी शीध्रमागच्छ सुव्रते,
विष्णुना सहिते दे वी जगन्माता: प्रसीद में ।।98।।
क्षीराम्बुधिस्थिते लक्ष्मी समागच्छ समाधवे,
त्वत्कृपादृष्टिसुधयां सततं मां विलोकय।।99।।
रत्नगर्भस्थिते लक्ष्मी परिपूर्णे हिरण्यमये
समागच्छ समागच्छ स्थित्वाऽशु पुरतो मम।100।।
स्थिराभव महालक्ष्मी निश्चलाभव निर्मले
प्रसन्ने कमले दे वी प्रसन्नहृदया भव।।101।।
श्रीधरे श्रीमहाभूते त्वदन्तस्थं महानिधिम।।
शीघ्रमुदघत्ृ य पुरत: प्रदर्शय समर्पये।।102।।
विष्णु प्रिये रत्नगर्भे समस्त फलदे शिवे
त्वदगर्भगतहे मादीन सम्प्रदर्शय दर्शय।।103।।
रसातलगते लक्ष्मी शीघ्र मागच्छ में पुर:
न जाने परमं रूपं मातर्मे सम्प्रदर्शय।।104।।
समागच्छ महालक्ष्मी शुद्धजाम्बूनदप्रभे
प्रसीद पुरत: स्थित्वा प्रणतं मां विलोकय।।105।।
सादरं मस्तके हस्तं मम त्वं कृपयार्पय
सर्वराजगह
ृ े लक्ष्मी त्वत्कला मयि तिष्ठत।ु ।106।।
आद्यादि श्रीमहालक्ष्मी आद्यविष्णु वामांक संस्थिते,
प्रत्यक्षं कुरू में रूपं रक्ष मां शरणागतम।।,107।।
प्रसीद मे महालक्ष्मी सप्र
ु सीद महाशिवे
अचला भव सम्प्रीत्या सस्थि
ु रा भव मद्गह
ृ े ।।108।।
यावत्तिष्ठन्ति दे वाश्च यावत्वन्नाम तिष्ठन्ति,
यावद् विष्णुश्च यावत्तवं तावत्कुरू कृपा मयि।।109।।
चान्द्रीकला यथा शुक्ले वर्द्बते सा दिने दिने
तथा दया ते मय्यैव वर्द्बतामभिवर्द्बताम ।।110।।
यथा वैकुन्ठ नगरे यथा वै क्षीरसागरे
तथा मदभवने तिष्ठ स्थिरा श्रीविष्णन
ु ा सह।।111।।
नारायणस्य हृदये भवती यथास्ते
नारायणोऽपि तव हृत्कमले यथास्ते
नारायणस्त्वमपि नित्यमभ
ु ौ तथैव
तौ तिष्ठतां हृदि ममापि दयावति श्री:।।112।।
ॐ श्रीं दे वी तां मम गह
ृ े चिरं वासय मातरम ् ।
नमोस्तु तुभ्यं चिक्लीत श्री दे व्यै च नमो नमः।।113।।
यावद् चंंद्रश्च सर्य्य
ू श्च यावद् दे वा वसुन्धरा |
तावन्मम गह
ृ े दे वि अचला सुस्थिरा भव ।।114।।
यावद् ब्रह्मादयो दे वामनुभञ्
ु ज चतुर्द शः ।
तावन्मम गह
ृ े दे वि अचला सुस्थिरा भव ।।115,।।
यावत ् तारागणाकाशे यावद् इन्द्रादयो अप्सरा:
तावन्मम गह
ृ े दे वि अचला सुस्थिरा भव' ।।116।।
इति महामाया महालक्ष्मी स्तोत्र
पाठ फल
श्री लक्ष्मीर्वरदा विष्णुपत्नी वसुप्रदा,
हिरण्यरूपा स्वर्णमालिनी रजतस्त्रजा
स्वर्णप्रभा स्वर्णप्राकारा पदमवासिनी
पदमहस्ता पदमप्रिया मुक्तालंकारा
चन्द्रा सूर्या बिल्वप्रिया ईश्वरी
भक्ति
ु र्मुक्ति विभति
ू ऋद्धि समद्धि

वष्टि
ृ : पुष्टिर्धनदा धनेश्वरी श्रद्धा
भोगिनी भोगदा सावित्री धात्रित्यादय:
स सकल धन धान्य सत्पुत्र कलत्र हय
भ:ू गज पशु महिषी दासी दासयो ,
ज्ञानवान भवतिर्न संशय:
ज्ञानेश्वर सख
ु ारोग्य धन-धान्य जयादिकम
लक्ष्य यस्या समद्दि
ु ष्ट सा लक्ष्मीरिती गद्यते

ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्  


ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम् ब्रह्मवैवर्त, के गणपतिखण्ड 39 । 3-23 में वर्णित है। इस कवच के विषय में नारद जी द्वारा भगवान् श्री हरि से पूछने पर नारायण ने इसे बतलाया है।
नारद जी ने कहा – प्रभो ! महालक्ष्मी के मनोहर कवच का वर्णन तो आपने कर दिया । ब्रह्मन ! अब दुर्गतिनाशिनी दुर्गा के उस उत्तम कवच को बतलाइये, जो पद्माक्ष के प्राणतुल्य, जीवनदाता, बल का
हेतु, कवचों का सार-तत्त्व और दुर्गा की सेवा का मूल कारण है ।

ब्रह्माण्ड विजय दुर्गा कवचम्  


॥ नारायण उवाच ॥

श्रृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् ।

श्रीकृ ष्णेनैव यद्द त्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ॥ १॥  

ब्रह्मा त्रिपुरसंग्रामे शंकराय ददौ पुरा ।

जघान त्रिपुरं रुद्रो यद् धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ॥२॥   

हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः ।

यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ॥३॥   

यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मा ज्ञानवान् शक्तिमान् भुवि ।

शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।

शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ॥४ ॥

ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनी ॥५॥   

ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।

पुण्यतीर्थं च महतां कवचं परमाद्भुतम् ॥६॥   

ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

ॐ ह्रीं मे पातु कपालं च ॐ ह्रीं श्रीमिति लोचने ॥७॥   

पातु मे कर्णयुग्मं च ॐ दुर्गायै नमः सदा ।

ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ॥ ८ ॥

ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तानि पातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् ।

क्रीं क्रीं क्रीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतु गण्डकम् ॥९ ॥  

स्कन्धं दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा पातु निरन्तरम् ।

वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ॥१०॥   

दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।


दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष पृष्ठं मे पातु सर्वतः ॥११॥   

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वाङ्ग मे सदाऽवतु ॥१२ ॥   

प्राच्यां पातु महामाया आग्नेय्यां पातु कालिका ।

दक्षिणे दक्षकन्या च नैर्ऋ त्यां शिवसुन्दरी ॥ १३ ॥

पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा ।

कु बेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ॥ १४ ॥

ऊर्ध्वे नारायणी पातु अम्बिकाधः सदाऽवतु ।

ज्ञाने ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदाऽवतु ॥१५॥   

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ १६ ॥

सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत् फलम् ।

सर्वव्रतोपासे च तत् फलं लभते नरः ॥ १७ ॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः ।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ॥ १८ ॥

स च त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः ।

इदं कवचमज्ञात्वा भजेद् दुर्गतिनाशिनीम् ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥१९ ॥  

कवचं काण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सुन्दरम् ।

यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥२० ॥  

।।इति श्रीब्रह्म-वैवर्ते गणपतिखण्डे 39 । 3-23 ब्रह्माण्ड-विजयं नाम दुर्गा-कवचं सम्पूर्णम्।।

ब्रह्माण्ड विजय दुर्गा कवच भावार्थ सहित  


॥ नारायण उवाच ॥

श्रृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् । श्रीकृ ष्णेनैव यद्द त्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ॥

श्री नारायण बोले – नारद ! प्राचीन काल में श्रीकृ ष्ण ने गोलोक में ब्रह्मा को दुर्गा का जो शुभप्रद कवच दिया था, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो ।
ब्रह्मा त्रिपुरसंग्रामे शंकराय ददौ पुरा । जघान त्रिपुरं रुद्रो यद् धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ॥

पूर्वकाल में त्रिपुर-संग्राम के अवसर पर ब्रह्मा जी ने इसे शंकर को दिया, जिसे भक्तिपूर्वक धारण करके रुद्र ने त्रिपुर का संहार किया था ।

हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः । यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ॥

फिर शंकर ने इसे गौतम को और गौतम ने पद्माक्ष को दिया, जिसके प्रभाव से विजयी पद्माक्ष सातों द्वीपों का अधिपति हो गया ।

यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मा ज्ञानवान् शक्तिमान् भुवि । शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।

शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ॥

जिसके पढ़ने एवं धारण करने से ब्रह्मा भूतल पर ज्ञानवान और शक्तिसम्पन्न हो गये । जिसके प्रभाव से शिव सर्वज्ञ और योगियों के गुरु हुए और मुनिश्रेष्ठ गौतम शिवतुल्य माने गये ।

ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनी ॥

ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।

इस ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं । गायत्री छन्द है । दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी हैं और ब्रह्माण्डविजय के लिये इसका विनियोग किया जाता है ।

पुण्यतीर्थं च महतां कवचं परमाद्भुतम् ॥

यह परम अद्भुत कवच महापुरुषों का पुण्यतीर्थ है ।

ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् । ॐ ह्रीं मे पातु कपालं च ॐ ह्रीं श्रीमिति लोचने ॥

‘ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं’ मेरे कपाल की और ‘ॐ ह्रीं श्रीं’ नेत्रों की रक्षा करे ।

पातु मे कर्णयुग्मं च ॐ दुर्गायै नमः सदा । ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ॥

‘ॐ दुर्गायै नमः’ सदा मेरे दोनों कानों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं’ सदा सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करे ।

ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तानि पातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् । क्रीं क्रीं क्रीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतु गण्डकम् ॥  

‘ह्रीं श्रीं हूं’ दाँतों की और ‘क्लीं’ दोनों ओष्ठों की रक्षा करे । ‘क्रीं क्रीं क्रीं’ कण्ठ की रक्षा करे । ‘दुर्गे’ कपोलों की रक्षा करे ।

स्कन्धं दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा पातु निरन्तरम् । वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ॥

‘दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा’ निरन्तर कं धों की रक्षा करे ।‘विपद्विनाशिन्यै स्वाहा’ सब ओर से मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे ।

दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहा नाभिं सदाऽवतु । दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष पृष्ठं मे पातु सर्वतः ॥

‘दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहा’ सदा नाभि की रक्षा करे । ‘दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष’ सब ओर से मेरी पीठ की रक्षा करे ।

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदाऽवतु । ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वाङ्ग मे सदाऽवतु ।

‘ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा’ सदा हाथ-पैरों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा’ सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे ।

प्राच्यां पातु महामाया आग्नेय्यां पातु कालिका । दक्षिणे दक्षकन्या च नैर्ऋ त्यां शिवसुन्दरी ॥

पूर्व में ‘महामाया’ रक्षा करे । अग्निकोण में ‘कालिका’, दक्षिण में ‘दक्षकन्या’ और नैर्ऋ त्यकोण में ‘शिवसुन्दरी’ रक्षा करे ।
पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा । कु बेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ॥

पश्चिम में ‘पार्वती’, वायव्यकोण में ‘वाराही’, उत्तर में ‘कु बेरमाता’ और ईशानकोण में ‘ईश्वरी’ सदा-सर्वदा रक्षा करें ।

ऊर्ध्वे नारायणी पातु अम्बिकाधः सदाऽवतु । ज्ञाने ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदाऽवतु ॥

ऊर्ध्वभाग में ‘नारायणी’ रक्षा करें और अधोभाग में सदा ‘अम्बिका’ रक्षा करें । जाग्रत्-काल में ‘ज्ञानप्रदा’ रक्षा करें और सोते समय ‘निद्रा’ सदा रक्षा करें ।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥

वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच बतला दिया । यह परम अद्भुत तथा सम्पूर्ण मन्त्र-समुदाय का मूर्तिमान स्वरूप है ।

सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत् फलम् । सर्वव्रतोपासे च तत् फलं लभते नरः ॥

समस्त तीर्थों में भली-भाँति गोता लगाने से, सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान करने से तथा सभी प्रकार के व्रतोपवास करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल मनुष्य इस कवच के धारण करने से पा लेता है ।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ॥

जो विधिपूर्वक वस्त्र, अलंकार और चन्दन से गुरु की पूजा करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है।

स च त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः । इदं कवचमज्ञात्वा भजेद् दुर्गतिनाशिनीम् ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥

वह सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला तथा त्रिलोकविजयी होता है । जो इस कवच को न जानकर दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का भजन करता है, उसके लिए एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ।

कवचं काण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सुन्दरम् । यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥

नारद ! यह काण्वशाखोक्त सुन्दर कवच, जिसका मैंने वर्णन किया है, परम गोपनीय तथा अत्यन्त दुर्लभ है । इसे जिस किसी को नहीं देना चाहिये ।  

।।इति श्रीब्रह्म-वैवर्ते गणपतिखण्डे 39 । 3-23 ब्रह्माण्ड-विजयं नाम दुर्गा-कवचं सम्पूर्णम्।।

ब्रह्मवैवर्त गणपतिखण्ड 39 । 3-23 ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्  समाप्त।

शिव महिम्न:स्तोत्र
शिव महिम्न:स्तोत्र गंधर्वराज पुष्पदं त जी द्वारा रचित है इसमें 43 श्लोक है जिसके द्वारा भूतभवन भगवान
शंकर की स्तति
ु की गई है
इसकी निम्नलिखित महिमा शास्त्रों में प्राप्त होती है
1) यह स्तोत्र अमोघ है अर्थात ् निश्चित फल दे ने वाला है
2) इसके नित्य पाठ से ऐश्वर्य की वद्धि
ृ होती है
3) यह स्तुति शिव जी को अत्यंत प्रिय है
4) यह स्तोत्र धन और आयु की वद्धि
ृ करने वाला है
5) खोई हुई वस्तु या शक्ति कि प्राप्ति के लिए भी इसका अनुष्ठान किया जाता है
अधिक कहने से क्या लाभ शास्त्रों में साफ-साफ लिखा है
शिव महिम्न:स्तोत्र से बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है
हरि:शरणम ् मंत्र की महिमा
हरि:शरणम ् यह मंत्र पद्म परु ाण में वर्णित है नारद सनकादि संवाद में इसका वर्णन आया है
सनकादि ऋषि निरं तर इसी मंत्र का जप करते हैं जिसके प्रभाव से इन्हें जरा अवस्था प्रभावित नहीं करती है ।
अनेक सिद्ध संत महात्माओं का कथन व अनभ
ु व है कि जब घोर निराशा चारों ओर व्याप्त हो जाए कहीं कोई
रास्ता ना दिखे और अनेकों संकट उपस्थित हो जाए तब निरं तर इस मंत्र का जप व कीर्तन करने से समस्या
का समाधान व संकटों से मक्ति
ु मिल जाती है ।
रोग आदि मे भी इसका प्रभाव दे खा गया है
सकाम भाव से अपनी मनोकामनाओं की पर्ति
ू के लिए भी इस मंत्र का अनुष्ठान करने से कार्य की सिद्धि होते
दे खी गई है
यह मंत्र इतना प्रभावशाली है इसके निम्नलिखित कारण है
यह एक तरह से भगवान का शरणागत मंत्र है और शरणागत के विषय में भगवान के निम्नलिखित वचन
शास्त्रों में प्राप्त होते हैं।
1)कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता।
2) सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनम
ु ानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥
(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर दे ते हैं, वे
पामर हैं, पापमय हैं, उन्हें दे खने में भी हानि है (पाप लगता है )॥43।।
3)अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम ्
। जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरेमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम
(अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
4)सकृदे व प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥६-१८-३३॥
—रामायणम ्
‘जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरेसे रक्षाकी आचना करता है , उसको मैं सम्पूर्ण
प्राणियोंसे अभय कर दे ता हूँ’‒यह मेरा व्रत है ।’
इन सब वचनों के कारण भगवान को रक्षा करनी ही पड़ती है
#अघोरकवचम!!

ॐ घोरघोराय च विदमहे अघोरे श्वराय च धीमहि तन्नो अघोर रूद्रप्रचोदयात ्।

(ॐ नमो भगवते अघोर रूद्राय!)

भैरवी उवाच -

भगवन्करुणाम्भोधे शास्त्राम्भोनिधिपारग ।
पुराऽस्माकं वरो दत्तः तं दातुं मे क्षमो भव ॥ १॥

भैरव उवाच -

सत्यं पुरा वरो दत्तो वरं वरय पार्वति ।

यत्किञ्चिन्मनसीष्टं स्यात्तद्दातुं ते क्षमोऽस्म्यहम ् ॥ २॥

दे वी उवाच -

अघोरस्य महादे व कवचं दे वदर्ल


ु भम ् ।

शीघ्रं मे दयया ब्रूहि यद्यहं प्रेयसी तव ॥ ३॥

भैरव उवाच -

अघोरकवचं वक्ष्ये महामन्त्रमयं परम ् ।

रहस्यं परमं तत्त्वं न चाख्येयं दरु ात्मने ॥ ४॥

अस्य श्री अघोरकवचस्य महाकालभैरव ऋषिः अनुष्टुप ् छन्दः श्रीकालाग्निरुद्रो दे वता । क्ष्मीं बीजं क्ष्मां शक्तिः क्ष्मः कीलकं श्री अघोर
विद्यासिद्ध्यर्थं कवचपाठे विनियोगः ॥

अथ मन्त्रः-

अघोरे भ्योऽथ घोरे भ्यो घोरघोरतरे भ्यः

सर्वतः सर्वसर्वेभ्यो नमस्तेभ्यो रुद्ररूपेभ्यः।

ॐ अघोरो मे शिवः पातु श्री मेऽघोरो ललाटकम ् ।

ह्रीं घोरो मेऽवतां नेत्रे क्लीं घोरो मेऽवताच्छती ॥ ५॥

सौःतरे भ्योऽवताङ्गडौक्षी नासां पातु सर्वतः क्षं ।

मुखं पातु मे शर्वोऽघोरः सर्वोऽवताङ्गलम ् ॥ ६॥

घोरश्च मेऽवतात्स्कन्धौ हस्तौ ज्वलन्नमोऽवतु ।

ज्वलनः पातु मे वक्षः कुक्षिं प्रज्वलरुद्रकः ॥ ७॥

पार्श्वौ प्रज्वलरूपेभ्यो नाभिं मेऽघोररूपभत


ृ ्।

शिश्नं मे शूलपाणिश्च गह्


ु यं रुद्रः सदावतु ॥ ८॥

कटिं मेऽमत
ृ मूर्तिश्च मेढ्रेऽव्यान्नीलकण्ठकः ।

ऊरू चन्द्रजटः पातु पातु मे त्रिपुरान्तकः ॥ ६॥


जङ्घे त्रिलोचनः पातु गुल्फौ याज्ञियरूपवान ् ।

अघोरोऽङ्घ्री च मे पातु पादौ मेऽघोरभैरवः ॥ १०॥

पादादिमूर्धपर्यन्तमघोरात्मा शिवोऽवतु ।

शिरसः पादपर्यन्तं पायान्मेऽघोरभैरवः ॥ ११॥

प्रभाते भैरवः पातु मध्याहे वटुकोऽवतु ।

सन्ध्यायां च महाकालो निशायां कालभैरवः ॥ १२॥

अर्द्धरात्रे स्वयं घोरो निशान्तेऽमत


ृ रूपधत
ृ ्।

पूर्वे मां पातु ऋग्वेदो यजुर्वेदस्तु दक्षिणे ॥ १३॥

पश्चिमे सामवेदोऽव्यादत्ु तरे ऽथर्ववेदकः ।

आग्नेय्यामग्निरव्यान्मां नैरृत्यां नित्यचेतनः ॥ १४॥

वायव्यां रौद्ररूपोऽव्यादै शान्यां कालशासनः ।

ऊर्ध्वोऽव्यादर्ध्व
ू रे ताश्च पाताले परमेश्वरः ॥ १५॥

दशदिक्षु सदा पायाद्देवः कालाग्निरुद्रकः ।

अग्नेर्मां पातु कालाग्निर्वायोर्मां वायुभक्षकः ॥ १६॥

जलादौर्वामुखः पातु पथि मां शङ्करोऽवतु ।

निषण्णं योगध्येयोऽव्याद्गच्छन्तं वायरू


ु पभत
ृ ् ॥ १७॥

गह
ृ े शर्वः सदा पातु बहिः पायाद्वष
ृ ध्वजः ।

सर्वत्र सर्वदा पातु मामघोरोऽथ घोरकः ॥ १८॥

रणे राजकुले दर्गे


ु दर्भि
ु क्षे शत्रस
ु ंसदि ।

द्यूते मारीभये राष्ट्रे प्रलये वादिना कुले ॥ १६॥

अघोरे भ्योऽथ घोरे भ्योऽवतान्मां घोरभैरवः ।

घोरघोरतरे भ्यो मां पायान्मन्मथसङ्गरे ॥ २०॥

सर्वतः सर्वसर्वेभ्यो भोजनावसरे ऽवतु ।

नमस्ते रुद्ररूपेभ्योऽवतु मां घोरभैरवः ॥ २१॥

सर्वत्र सर्वदाकालं सर्वाङ्गं सर्वभीतिषु ।


हं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षः अघोरकः ॥ २२॥

अघोरास्त्राय फट् पातु अघोरो मां सभैरवः ।

विस्मारितं च यत्स्थानं स्थलं यन्नामवर्जितम ् ॥ २३॥

तत्सर्वं मामघोरोऽव्यान्मामथाघोरः सभैरवः ।

भार्यान्पुत्रान्सुहृद्वर्गान्कन्यां यद्वस्तु मामकम ् ॥ २४॥

तत्सर्वं पातु मे नित्यं अघोरो माथ घोरकः ।

स्नाने स्तवे जपे पाठे होमेऽव्यात्क्षः अघोरकः ॥ २५॥

अघोरे भ्योऽथ घोरे भ्यो घोरघोरतरे भ्यः ।

सर्वतः सर्वसर्वेभ्यो नमस्तेभ्यो रुद्ररूपेभ्यः ॥ २६॥

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं सौः क्ष्मं पातु नित्यं मां श्री अघोरकः ।

इतीदं कवचं गुह्यं त्रिषु लोकेषु दर्ल


ु भम ् ॥ २७॥

मूलमन्त्रमयं दिव्यं त्रैलोक्ये सारमुत्तमम ् ।

अदातव्यमवाच्यं च कवचं गुह्यमीश्वरि ॥ २८॥

अप्रष्टव्यमस्तोतव्यं दीक्षाहीनेन मन्त्रिणा ।

अदीक्षिताय शिष्याय पुत्राय शरजन्मने ॥ २६॥

न दातव्यं न श्रोतव्यमित्याज्ञां मामकां श‍ृणु ।

परं श्रीमहिमानं च श‍ृणु चास्य सुवर्मणः ॥ ३०॥

अदीक्षितो यदा मन्त्री विद्यागध्


ृ नुः पठे दिदम ् ।

सदीक्षित इति ज्ञेयो मान्त्रिकः साधकोत्तमः ॥ ३१॥

यः पठे न्मनसा तस्य रात्रौ ब्राह्मे मुहूर्त्तके ।

पूजाकाले निशीथे च तस्य हस्तेऽष्टसिद्धयः ॥ ३२॥

दःु स्वप्ने बन्धने धीरे कान्तारे सागरे भये ।

पठे त ् कवचराजेन्द्रं मन्त्री विद्यानिधिं प्रिये ॥ ३३॥

सर्वं तत्प्रशमं याति भयं कवचपाठनात ् ।

रजः-सत्त्व-तमोरूपमघोरकवचं पठे त ् ॥ ३४॥


वाञ्छितं मनसा यद्यत्तत्तत्प्राप्नोति साधकः ।

कुङ्कुमेन लिखित्वा च भूर्जत्वचि रवौ शिवे ॥ ३५॥

केवलेन सुभक्ष्ये च धारयेन्मूर्ध्नि वा भुजे ।

यद्यदिष्टं भवेत ् तत्तत्साधको लभतेऽचिरात ् ॥ ३६॥

यद्गह
ृ े अघोरकवचं वर्तते तस्य मन्दिरे ।

विद्या कीर्तिर्धनारोग्यलक्ष्मीवद्धि
ृ र्न संशयः ॥ ३७॥

जपेच्चाघोरविद्यां यो विनानेनैव वर्मणा ।

तस्य विद्या जपं हीनं तस्माद्धर्मं सदा पठे त ् ॥ ३८॥

अघोरमन्त्रविद्यापि जपन ् स्तोत्रं तथा मनुम ् ।

सद्यः सिद्धिं समायाति अघोरस्य प्रसादतः ॥ ३९॥

इति श्रीदे वदे वेशि अघोरकवचं स्मरे त ् ।

गोप्यं कवचराजेन्द्रं गोपनीयं स्वयोनिवत ् ॥ ४०॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रेविश्वसारोद्धारे तन्त्रेऽघोरसहस्रनामाख्ये कल्पे अघोरकवचं समाप्तम ् ॥

#बन्दीमोचन मंत्र एवं स्तोत्रम ्।।

(कारागार, जेल, बंधन से मक्ति


ु हेतु)

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबन्दीमंत्रस्य भैरव ऋषिः, त्रिष्टुप ् छन्दः,श्रीबन्दीदे वता भवबन्ध कारागार बन्धन मक्
ु तये जपे विनियोगः।

षडंगन्यासः-

ॐ हृदयाय नमः ।

ॐ हिलि शिरसे स्वाहा ।

ॐ हिलि शिखायै वषट् ।

ॐ बन्दी कवचाय हुम ् ।

ॐ दे व्यै नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ नमः अस्त्राय फट् ।

ध्यानम ्

सतोय पाथोद समान कान्तिं अम्भोज पीयष


ू करी हस्ताम ्।
सुरांगना सेवित पाद पद्मां भजामि बन्दी भवबन्ध मक्
ु तये।।

एकादशाक्षरमंत्रः-

ॐ हिलि हिलि बन्दी दे व्यै नमः ।'

अष्टादशाक्षरमंत्र:- 'ऐं ह्रीं श्रीं बन्दी अमुक (व्यक्ति का नाम ) वन्द्य मोक्षं कुरु कुरु स्वाहा।'

नवाक्षरमंत्र:-

'ॐ ह्रीं हूं बन्दी दे व्यै स्वाहा।'

इस मंत्र के कण्व ऋषि, त्रिष्टुप ् छन्द, ह्रीं बीज, हूं कीलक और बन्धनमुक्ति के लिये विनियोग किया जाता है ।

॥ यंत्रार्चनम ्।।

षट्कोण अष्टदल भुपूर बनाकर प्रत्येक आवरण की पूजा करें :-

प्रथमावरणम-्

(षट्कोणे) :- ॐ हृदयाय नमः ।

ॐ हिलि शिरसे स्वाहा ।

ॐ हिलि शिखायै वषट् ।

ॐ बन्दी कवचाय हुम ् ।

ॐ दे व्यै नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ नमः अस्त्राय फट्।

द्वितीयावरणम ् -

( अष्टदले पूर्वादि क्रमेण):- ॐ काल्यै नमः। ॐ तारायै नमः । ॐ भगवत्यै नमः । ॐ कुब्जायै नमः । ॐ शीतलायै नमः । ॐ
त्रिपुरायै नमः । ॐ मातक
ृ ायै नमः । ॐ लक्ष्म्यै नमः ।

ृ ीयावरणम-्
तत

(भुपूरे दश दिक्षु पूर्वादि क्रमेण):- ॐ इन्द्राय नमः । ॐ आग्नये नमः । ॐ यमाय नमः । ॐ निर्ऋ तये नमः ।

ॐ वरुणाय नमः । ॐ वायवे नमः । ॐ कुबेराय नमः। ॐ ईशानाय नमः । ईशान एवं पूर्व मध्ये - ॐ ब्रह्मणे नमः । नैर्ऋ त्य पश्चिम
मध्ये - ॐ अनन्ताय नमः।

चतुर्थावरणम ् -

(भप
ु रू े इन्द्रादि लोकपाल समीपे ):- ॐ वज्राय नमः । ॐ शक्तये नमः । ॐ दण्डायै नमः । ॐ खड्गाय नमः । ॐ पाशाय नमः । ॐ
अंकुशाय नमः । ॐ गदायै नमः । ॐ त्रिशूलाय नमः । ॐ पद्माय नमः । ॐ चक्राय नमः।
इसके उपरान्त ् यंत्र मध्य में दे वी का पूजन कर जपारम्भ करे ।

विधिः- दर्भा
ु ग्यवश कारागार, जेल अथवा किसी दष्ु ट व्यक्ति के बंधन में कोई अपना सम्बन्धी कैद हो तो ऐसी विकट परिस्थिति में
उसकी मुक्ति हे तु बन्दी दे वी की मंत्रोपासना करनी चाहिये। इसके प्रभाव से बंधन या जेल से कैदी को मुक्ति मिलती है। बन्दी दे वी

ु के समक्ष इस दिव्यमंत्र का जप किया जा सकता है । विधिवत ् 5 लाख जप कम से कम होम सहित करने


यंत्र अथवा भगवती दर्गा
चाहिये (लघु मंत्र है इसलिये) ।

मंत्र जप के साथ नित्य स्तोत्र के 11 पाठ करें और प्रसादरूप में भगवती को खीर एवं मालपुए का भोग लगाना चाहिये। जो व्यक्ति
स्वयं अनुष्ठान करने की पर्याप्त विधि न जानते हों या समय का अभाव हो या अनुष्ठान के अभ्यासी न हो तो ऐसी परिस्थिति में
योग्य विद्वान या गरु
ु से भी यह अनष्ु ठान करवा सकते हैं। स्वयं कैदी भी किसी कैद से मक्ति
ु हेतु मानसिक रूप से इस मंत्र का

ु त कराना धर्मार्थ कर्म है , इस शुभ कर्म के सम्पादन से कैदी को मक्ति


जप कर सकता है । कैद पक्षियों को पिंजरे से मक् ु के लिये शीघ्र
ही दै वीय सहायता मिलती है ।

*बन्दीमोचन स्तोत्रम!!

बन्दीं दे वीं नमस्कृत्य वरदाभयशोभिताम ् ।

तदग्रयां शरणं गच्छे शीघ्रं मोक्षं ददातु मे।।१।।

बन्दी कमलपत्राक्षी लोहश्रंख


ृ लभंजिनी। कुरु मे दे वि शीघ्रं मोक्षं ददातु मे।।२।।

त्वं बन्दी त्वं महामाया त्वं दर्गा


ु त्वं सरस्वती ।

त्वं दे वी रजनी चैव शीघ्रं मोक्षं ददातु मे ।।३।।

मे: प्रसादं संसारतारिणी बन्दी सर्वकामप्रदायिनी ।

सर्वलोकेश्वरी दे वी शीघ्रं मोक्षं ददातु मे।।४।।

त्वं हीस्त्वमीश्वरी दे वी ब्रह्माणी ब्रह्मवादिनी ।

त्वं वै कल्पक्षयं कर्त्री शीघ्रं मोक्षं ददातु।।५।।

दे वी धात्री धरित्री च धर्मशास्त्रार्थ भाषिणी ।

दःु श्वाम्बरागिणी दे वी शीघ्रं मोक्षं ददातु मे।।६।।

नमोऽस्तु ते महालक्ष्मि रत्नकुण्डलभूषिते ।

शिवस्यार्धांगिनी चैव शीघ्रं मोक्षं ददातु मे ।।७।।

नमस्कृत्य महादर्गां
ु भयादत्ु तारिणीं शिवाम ्।

महादःु खहरां चैव शीघ्रं मोक्षं ददातु मे ।।८।।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं यः पठे न्नित्यमेव च। सर्वबन्धविनिर्मुक्तो मोक्षं च लभते क्षणात ्।।९।।
जैसा कि अधिकांश लोग सुख में भगवान ् की कोई विशेष पूजा जपादि नहीं करते, केवल संकटकाल में ही ईश्वर की मंत्रोपासना करते
हैं। ऐसे व्यक्तियों को ईश्वरीय सहायता विलम्ब से मिलती हैं।

अधिकतर मनुष्य संकटकाल से मुक्त होने के लिये अति व्याकुलता में एक साधनाकर्म को छोड़कर दस
ू रे और दस
ू रे को छोड़कर कई
साधनाकर्मों का सम्पादन करते हैं।

साधना पद्धति की यह स्थिति सर्वदा अनुचित है । इस जल्दबाजी से कष्ट कम नहीं होते, अपितु और अधिक बढ़ते ही हैं। इसके
अतिरिक्त मनुष्य की मानसिक स्थिति भी भंग हो जाती है। हमारा कार्य केवल श्रद्धा और विश्वास से कर्म करने का हैं, फल दे ना
केवल और केवल ईश्वर के ही आधीन है । ईश्वर को ही यह निश्चित करने दें कि आपके साधनाकर्म का फल आपको कब मिलेगा।

अभी तक किसी विद्वान के पास यह शक्ति नहीं है जो कि ईश्वर को शीघ्र फल दे ने के लिये विवश कर सके। सभी लोगों का भाग्य
भिन्न-भिन्न होता है। दर्भा
ु ग्य साधारण स्तर का हो तो साधना के माध्यम से शीघ्र कार्य सम्पन्न हो जाता परं तु दर्भा
ु ग्य अत्यन्त
प्रबल हो तो पाप - श्राप स्वाहा करने के लिये कई अनुष्ठान भी करने पड़ते हैं।

मान लिजिये कि आप किसी संकट से मक्ति


ु हेतु किसी मंत्र की 11 माला नित्य करते हैं तो भी संकट का निवारण नहीं हो रहा है तो
अपनी जप माला की संख्या 21 या 31 कर दें , परं तु मंत्र या दे वता को लेकर कोई संशय न करें और साधना सम्बन्धी सम्पूर्ण विधि
का भी पालन करें ।

साधकजन से अनुरोध है कि एक ही दे वता की उपासना में उत्साहपूर्वक लीन रहें । इसी में साधक का परम कल्याण हैं । मेरे मंत्र,
दे वता और गुरु से श्रेष्ठ कोई नहीं है और मेरा मंत्र अवश्य फलीभूत होगा इसी दिव्य विचारधारा से मंत्र साधना करें । इसके साथ
नित्य दै निक कर्मों का भी धर्मपर्व
ू क सम्पादन करें । एक तरफ मंत्रसाधना रूपी शभ
ु कर्म और दस
ू री तरफ अनैतिक कार्यों को करने से
ईश्वर को असमंजस में न डालें।

वंश को बढाने वाला दिव्य दर्गा


ु पराम्बा कवच.
जिनके संतान न हो या एक ही संतान हो अवस्य करे सुरक्षा के साथ भगवती का वरदान भी है .
भुत प्रेत बाधा व ् संतान के कष्ट का निवारण करने वाला है .

॥ वंश वद्धि
ृ करं दर्गा
ु कवचम ् ॥
भगवन ् दे व दे वेशकृपया त्वं जगत ् प्रभो ।
वंशाख्य कवचं ब्रूहि मह्यं शिष्याय तेऽनघ ।
यस्य प्रभावाद्देवेश वंश वद्धि
ृ र्हिजायते ॥ १॥
॥ सूर्य ऊवाच ॥
शण
ृ ु पुत्र प्रवक्ष्यामि वंशाख्यं कवचं शभ
ु म् ।
सन्तानवद्धि
ृ र्यत्पठनाद्गर्भरक्षा सदा नण
ृ ाम ् ॥ २॥
वन्ध्यापि लभते पत्र
ु ं काक वन्ध्या सत
ु ैर्युता ।
मत
ृ वत्सा सुपुत्रस्यात्स्रवद्गर्भ स्थिरप्रजा ॥ ३॥
अपुष्पा पुष्पिणी यस्य धारणाश्च सुखप्रसूः ।
कन्या प्रजा पत्रि
ु णी स्यादे तत ् स्तोत्र प्रभावतः ॥ ४॥
भूतप्रेतादिजा बाधा या बाधा कुलदोषजा ।
ग्रह बाधा दे व बाधा बाधा शत्रु कृता च या ॥ ५॥
भस्मी भवन्ति सर्वास्ताः कवचस्य प्रभावतः ।
सर्वे रोगा विनश्यन्ति सर्वे बालग्रहाश्च ये ॥ ६॥
॥ अथ दर्गा
ु कवचम ् ॥
ॐ पुर्वं रक्षतु वाराही चाग्नेय्यां अम्बिका स्वयम ् ।
दक्षिणे चण्डिका रक्षेन्नैऋत्यां शववाहिनी ॥ १॥
वाराही पश्चिमे रक्षेद्वायव्याम ् च महे श्वरी ।
उत्तरे वैष्णवीं रक्षेत ् ईशाने सिंह वाहिनी ॥ २॥
ऊर्ध्वां तु शारदा रक्षेदधो रक्षतु पार्वती ।
शाकम्भरी शिरो रक्षेन्मख
ु ं रक्षतु भैरवी ॥ ३॥
कन्ठं रक्षतु चामुण्डा हृदयं रक्षतात ् शिवा ।
ईशानी च भुजौ रक्षेत ् कुक्षिं नाभिं च कालिका ॥ ४ ॥
अपर्णा ह्यद
ु रं रक्षेत्कटिं बस्तिं शिवप्रिया ।
ऊरू रक्षतु कौमारी जया जानुद्वयं तथा ॥ ५॥
गुल्फौ पादौ सदा रक्षेद्ब्रह्माणी परमेश्वरी ।
सर्वाङ्गानि सदा रक्षेद्दुर्गा दर्गा
ु र्तिनाशनी ॥ ६॥
नमो दे व्यै महादे व्यै दर्गा
ु यै सततं नमः ।
पुत्रसौख्यं दे हि दे हि गर्भरक्षां कुरुष्व नः ॥ ७॥
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं ऐं ऐं ऐं
महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती रुपायै
नवकोटिमूर्त्यै दर्गा
ु यै नमः ॥ ८॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं दर्गा
ु र्तिनाशिनी सन्तानसौख्यम ् दे हि दे हि
बन्ध्यत्वं मत
ृ वत्सत्वं च हर हर गर्भरक्षां कुरु कुरु
सकलां बाधां कुलजां बाह्यजां कृतामकृतां च नाशय
नाशय सर्वगात्राणि रक्ष रक्ष गर्भं पोषय पोषय
सर्वोपद्रवं शोषय शोषय स्वाहा ॥ ९॥
॥ फल श्रति
ु ः ॥
अनेन कवचेनाङ्गं सप्तवाराभिमन्त्रितम ् ।
ऋतुस्नात जलं पीत्वा भवेत ् गर्भवती ध्रुवम ् ॥ १॥
गर्भ पात भये पीत्वा दृढगर्भा प्रजायते ।
अनेन कवचेनाथ मार्जिताया निशागमे ॥ २॥
सर्वबाधाविनिर्मुक्ता गर्भिणी स्यान्न संशयः ।
अनेन कवचेनेह ग्रन्थितं रक्तदोरकम ् ॥ ३॥
कटि दे शे धारयन्ती सुपत्र
ु सुख भागिनी ।
असूत पुत्रमिन्द्राणां जयन्तं यत्प्रभावतः ॥ ४॥
गुरूपदिष्टं वंशाख्यम ् कवचं तदिदं सुखे ।
गुह्याद्गुह्यतरं चेदं न प्रकाश्यं हि सर्वतः ॥ ५॥
धारणात ् पठनादस्य वंशच्छे दो न जायते ।
बाला विनश्यन्ति पतन्ति गर्भास्तत्राबलाः कष्टयुताश्च वन्ध्याः ॥ ६ ॥
बाल ग्रहै र्भूतगणैश्च रोगैर्न यत्र धर्माचरणं गह
ृ े स्यात ् ॥
॥ इति श्री ज्ञान भास्करे वंश वद्धि
ृ करं वंश कवचं सम्पूर्णम ् ॥

।।विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र विशेष।।


विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र स्कंद पुराण पद्म पुराण महाभारत आदि अनेक शास्त्रों में वर्णित है । कल्प भेद के कारण सभी पुराणों के
विष्णुसहस्त्रनाम में थोड़ी बहुत भिन्नता है। परं तु पाठ की दृष्टि से सभी का महात्म्य और प्रभाव समान ही है इसमें किसी को भी
संशय नहीं करना चाहिए।
मुख्यतः गीता प्रेस द्वारा नित्य पाठ के लिए महाभारत में वर्णित विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र ही छापा जाता है ।
परं तु कल्याण के विभिन्न अंको में पद्म परु ाण स्कंद परु ाण आदि के विष्णु सहस्त्रनाम भी गीता प्रेस ने छापे है पाठक अपनी रूचि
और श्रद्धा के अनुसार उनका भी पाठ कर सकते हैं।
आज पद्म पुराण में वर्णित विष्णु सहस्त्रनाम के महात्म्य और उसकी साधना से संबंधित कुछ विशेष निर्देशों के बारे में यहां वर्णन
करें गे
विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र महात्म्य
1) विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र के नित्य पाठ से भक्ति की वद्धि
ृ होती है।
2) विष्णु सहस्त्रनाम विष्णुलोक तक पहुंचने के लिए अद्वितीय सीढ़ी है ।
3) यह स्तोत्र दखु -अवसाद का नाश करने वाला है।
4) विष्णु सहस्त्रनाम सब सुखों को दे ने वाला तथा शीघ्र ही परम मोक्ष प्रदान करने वाला है ।
5) काम क्रोध आदि जितने भी अंतःकरण के मल हैं उन सब का शोधन विष्णु सहस्त्रनाम के नित्य पाठ से हो जाता है ।
6) विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र शांति प्रदान करने वाला और पातकी मनष्ु यों को भी पवित्र बनाने वाला है ।
7) विष्णु सहस्त्रनाम के प्रभाव से मनुष्य की सभी मनोकामनाओ कि अति शीघ्र ही पूर्ति हो जाती है ।
विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ से समस्त विघ्नों की शांति और संपूर्ण अरिस्टो का विनाश हो जाता है ।
9) द:ु सह दरिद्रता उपस्थित हो जाने पर विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ से शीघ्र ही उसका नाश हो जाता है ।
10) विष्णु सहस्त्रनाम धन-धान्य और यश की वद्धि
ृ करने वाला है
11) सब प्रकार के ऐश्वर्य समस्त सिद्धियों और संपर्ण
ू धर्मों को दे ने वाला है विष्णु सहस्त्रनाम।
12) यह मनुष्य की विद्या की वद्धि
ृ करने वाला है
13) जो राज्य से भ्रष्ट हो गए हैं उन्हें इसके अनुष्ठान के प्रभाव से शीघ्र ही राज्य की प्राप्ति हो जाती है
14) विष्णु सहस्रनाम के अनुष्ठान से शीघ्र ही रोगियों के रोग नष्ट होने लगते हैं
15) रोगियों के लिए इसका अनुष्ठान शीघ्र ही जीवन प्रदान करने वाला है
16) इसके नित्य पाठ से आयु की वद्धि
ृ होती है
17) कलयुग में विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र तत्काल फल दे ने वाला है
विशेष सावधानी-: विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र के पाठ में उतावली नहीं करनी चाहिए उतावली की जाती है तो धन और आयु का नाश
होता है
(पद्म पुराण)
#श्रीदत्तात्रेय_अष्टचक्रबीज स्तोत्रम ्।। (चक्रजागरण में सहायक)

दिगंबरं भस्मसुगन्धलेपनं

चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदां च।

पद्मासनस्थं ऋषिदे ववन्दितं

दत्तात्रेयध्यानमभीष्टसिद्धिदम ्॥१

मूलाधारे वारिजपद्मे सचतुष्के

वंशंषंसं वर्णविशालैः सवि


ु शालैः।

रक्तं वर्णं श्रीभगवतं गणनाथं


दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि॥२

स्वाधिष्ठाने षट्दलपद्मे तनुलिग


ं े

बालान्तैस्तद्वर्णविशालैः सुविशालैः।

पीतं वर्णं वाक्पतिरूपं द्रहि


ु णं तं

दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि॥३

नाभौ पद्मे पत्रदशांके डफवर्णे

लक्ष्मीकान्तं गरूडारूढं मणिपूरे।

नीलवर्णं निर्गुणरूपं निगमाक्षं

दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि ॥४

हृत्पद्मांते द्वादशपत्रे कठवर्णे

अनाहतांते वष
ृ भारूढं शिवरूपम ्।

सर्गस्थित्यंतां कुर्वाणं धवलांगं

दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि॥५

कंठस्थाने चक्रविशुद्धे कमलान्ते

चंद्राकारे षोडशपत्रे स्वरवर्णे।

मायाधीशं जीवशिवं तं भगवंतं

दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि॥६

आज्ञाचक्रे भक
ृ ु टिस्थाने द्विदलान्ते

हं क्षं बीजं ज्ञानसमद्र


ु ं गरू
ु मर्तिं
ू ।

विद्युत्वर्णं ज्ञानमयं तं निटिलाक्षं

दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि॥७

मर्ध्नि
ू स्थाने वारिजपद्मे शशिबीजं

शुभ्रं वर्णं पत्रसहस्रे ललनाख्ये।

हं बीजाख्यं वर्णसहस्रं तूर्यांतं

दत्तात्रेयं श्रीगरू
ु मर्तिं
ू प्रणतोऽस्मि ॥८
ब्रह्मानन्दं ब्रह्ममुकुन्दं भगवन्तं

ब्रह्मज्ञानं ज्ञानमयं तं स्वयमेव।

परमात्मानं ब्रह्ममुनीद्रं भसिताङ्गं

दत्तात्रेयं श्रीगुरूमूर्तिं प्रणतोऽस्मि ॥९

।।इति श्रीमत ् शङ्कराचार्य विरचितं श्रीदत्तात्रेय अष्टचक्र बीजस्तोत्रं सम्पूर्णम ्।।

।।सुंदरकांड विशेष।।
जय सियाराम जय हनम
ु ान
काफी लोगों के मेरे पास मैसेज आ रहे थे कि किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति के लिए सुंदरकांड के पाठ किस
प्रकार किए जाते हैं और उसकी क्या विधि है बताइए
गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित कल्याण के अंकों में अनुसंधान करने पर दो विधियां सुंदरकांड के अनुष्ठान कि मुझे
प्राप्त हुई है
मनोकामना पर्ति ू के लिए सुंदरकांड के संपुटित पाठ
पाठ किए जाते हैं
संपटि
ु त पाठ का अर्थ होता है किसी विशेष चौपाई या दोहे का सुंदरकांड के हर दोहे के पहले और बाद में पाठ
करना।
किस कार्य के लिए किस विषेश चौपाई या दोहे का प्रयोग किया जाता है वह मैं अंत में बताऊंगा पहले अनुष्ठान
की विधि लिख रहा हूं यह दो विधियां कल्याण के अंक से ली गई है
विधि (1)-: हनम
ु ान जी की मर्ति
ू सामने सिहासन पर पधरा कर सिंदरू का चोला चढ़ा दे । फिर विधिवत पंचोपचार
से पज
ू न करके 5 अड़हुल(जासवान) के फूल चढ़ाएं और 5 बेसन के लड्डू का भोग लगाएं इस बात का निश्चित
नियम अवश्य रखना चाहिए जितने अडहुल के फूल चढ़ाए जाए उतने ही लड्डुओं का भोग लगाया जाए इस
प्रकार 49 दिनों तक नित्य ठीक समय पर एकांत स्थान में पाठ करें संद
ु रकांड के आरं भ और अंत में
निम्नलिखित चौपाइयों का संपट
ु दे -:
कहई रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहे हु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक विग्यान निधाना।।
कवन सो कठिन जग माहीं। जो नहीं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
विधि (2) प्रत्येक शनिवार रात्रि के 11:00 बजे तेल का दीपक जला कर श्री हनुमान जी का चित्र सामने रखकर
पूर्ण श्रद्धा एवं निष्ठा से समस्या के निवारणार्थ सुंदरकांड के नो अखंड पाठ करो तो तुम्हारी मनोकामना हनुमान
जी की कृपा से अवश्य पूरी होगी

अनुष्ठान के समय पालन करने के नियम-:


1) अनुष्ठान पूर्ण होने तक ब्रह्मचर्य का पालन
2) भमि
ू पर बिस्तर लगाकर शयन
3 )शास्त्र विरुद्ध आहार का त्याग( मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज , बैगन, मसूर की दाल, मूली ,गाजर,लिसोडा)
4) अनुष्ठान के पहले श्री गणेश जी शंकर जी और राम दरबार का पूजन अवश्य करें
5) अनष्ु ठान के पहले अपने कुल दे वता ग्राम दे वता पितर दे वता स्थान दे वता को भी याद करें
6) अनष्ु ठान के पहले संकल्प अवश्य लें
7) अनष्ु ठान संपर्ण
ू होने तक हजामत ना बनाएं

सुंदरकांड के संपुट के लिए विशेष दोहे व चौपाई निम्नलिखित है


यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये :-
“जग
ु ुति बेधि पुनि पोहिअहिं, रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर, सोभा अति अनुराग॥” (दोहा -11)
खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए :-
“गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू॥” (चौपाई -12.4)
सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये/भूत भगाने के लिये:-
“प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥” (सोरठा-17)
श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये:-
“जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥” (चौपाई -17.4)
विचार शुद्ध करने के लिये:-
“ताके जग
ु पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ॥”(चौपाई -17.4)
विपत्ति-नाश के लिये:-
“राजीवनयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सख
ु दायक ॥ ”(चौपाई -17.5)
विष नाश के लिये:-
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥” (चौपाई -18.4)
संकट से मक्ति
ु के लिये:-
“जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सख
ु ारी ॥” (चौपाई-21.3)
श्रीहनम
ु ान ् जी को प्रसन्न करने के लिये:-
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू॥” (चौपाई -25.3)
शिक्षा की सफ़लता के लिये:-
“मोरि सुधारिहि सो सब भाँती । जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥” (चौपाई -27.2)
दरिद्रता मिटाने के लिये:-
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद घन दारिद दवारि के ॥” (चौपाई -31.4)
विघ्न शांति के लिये:-
“सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही । राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥”(चौपाई -38.3)
संकट-नाश के लिये:-
“जौं प्रभु दीनदयालु कहावा । आरति हरन बेद जसु गावा ॥” (चौपाई-58.3)
परीक्षा की सफ़लता के लिये:-
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥” (चौपाई -104.3)
संशय-निवत्ति
ृ के लिये:-
“रामकथा संद
ु र कर तारी । संसय बिहग उड़ावनिहारी॥” (चौपाई -113.1)
कातर की रक्षा के लिये:-
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥” (चौपाई -131.1)
सहज स्वरुप दर्शन के लिये:-
“भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥” (चौपाई -145.4)
श्री सीताराम के दर्शन के लिये:-
“नील सरोरुह नील मनि, नील नीरधर स्याम ।
लाजहिं तन सोभा निरखि, कोटि कोटि सत काम ॥ (दोहा -146)
जीविका प्राप्ति के लिये:-
“बिस्व भरन पोषन कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ॥” (चौपाई -196.4)
नजर झाड़ने के लिये:-
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी । निरखहिं छबि जननीं तन
ृ तोरी ॥” (चौपाई -197.3)
पुत्र प्राप्ति के लिये:-
“प्रेम मगन कौसल्या, निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता, बालचरित कर गान ॥” (दोहा-200)
विद्या प्राप्ति के लिये:-
“गुरगह
ृ ँ गए पढ़न रघुराई । अलप काल बिद्या सब आई ॥” (चौपाई -203.2)
श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये:-
“केहरि कटि पट पीत धर, सुषमा सील निधान ।
दे खि भानुकुल भूषनहि, बिसरा सखिन्ह अपान॥” (दोहा-233)
आकर्षण के लिये:-
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥” (चौपाई -258.3)
वार्तालाप में सफ़लता के लिये:-
“तेहि ं अवसर सुनि सिवधनु भंगा । आयउ भग
ृ ुकुल कमल पतंगा॥” (चौपाई -267.1)
ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये:-
“अनुचित कहि सब लोग पुकारे । रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे ॥” (चौपाई -275.4)
चिन्ता की समाप्ति के लिये:-
“जय रघब
ु ंस बनज बन भानू । गहन दनज
ु कुल दहन कृसानू ॥” (चौपाई -284.1)
लक्ष्मी प्राप्ति के लिये:-
“जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ॥
तिमि सख
ु संपति बिनहिं बोलाएँ । धरमसील पहिं जाहिं सभ
ु ाएँ ॥” (चौपाई -293.1.2)
कुशल-क्षेम के लिये:-
“भव
ु न चारिदस भरा उछाहू । जनकसत
ु ा रघब
ु ीर बिआहू ॥” (चौपाई -295.2)
विवाह के लिये:-
“तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै ।
मांडवी श्रत
ु कीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै ॥” (छन्द-324.2)
उत्सव होने के लिये:-
“सिय रघबु ीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सन
ु हिं ।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जस॥ ु ” (सोरठा-361)
अयोध्याकाण्ड
खेद नाश के लिये:-
“जब तें रामु ब्याहि घर आए । नित नव मंगल मोद बधाए ॥” (चौपाई-1)
निन्दा की निवत्ति
ृ के लिये:-
राम कृपाँ अवरे ब सुधारी । बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ॥ (चौपाई-316.2)
कठिन क्लेश नाश के लिये:-
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू । महामोह निसि दलन दिनेसू ॥” (चौपाई-325.3)
विरक्ति के लिये:-
“भरत चरित करि नेमु, तुलसी जो सादर सुनहिं ।
सीय राम पद पेमु अवसि, होइ भव रस बिरति॥” (सोरठा-326)
किष्किन्धाकाण्ड
भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये:-
“राम चरन दृढ़ प्रीति करि, बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ ते, गिरत न जानइ नाग ॥” (दोहा-10)
ज्ञान-प्राप्ति के लिये:-
“छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥” (दोहा-10.2)
मुकदमा जीतने के लिये:-
“पवन तनय बल पवन समाना । बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥” (दोहा- 29.2)
मनोरथ-सिद्धि के लिये:-
“भव भेषज रघुनाथ जसु, सुनहिं जे नर अरु नारि ।
तिन्ह कर सकल मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ॥” (दोहा- 30 क)
सुन्दरकाण्ड
यात्रा सफ़ल होने के लिये:-
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । ह्रदयँ राखि कोसलपरु राजा ॥” (चौपाई-4.1)
शत्रु को मित्र बनाने के लिये:-
“गरल सध
ु ा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥” (चौपाई-4.1)
संकट दरू करने के लिए :-
“दीन दयाल बिरिद ु संभारी । हरहु नाथ सम संकट भारी ॥” (चौपाई-26.2)
अकाल मत्ृ यु निवारण के लिये:-
“नाम पाहरू दिवस निसि, ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित, जाहिं प्रान केहिं बाट ॥” (दोहा -30)
लंकाकाण्ड
मस्तिष्क की पीड़ा दरू करने के लिये:-
“हनम
ू ान अंगद रन गाजे। हाँक सन
ु त रजनीचर भाजे ॥” (चौपाई-46.3)
शत्रु के सामने जाने के लिये:-
“कर सारं ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघन
ु ाथा॥” (चौपाई-67.1)
मोक्ष-प्राप्ति के लिये:-
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥” (चौपाई-67.2)
उत्तरकाण्ड
सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये:-
“जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं । सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥” (चौपाई -14.2)
सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये:-
“सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई । लहहिं भगति गति संपति नई ॥” (चौपाई -14.3)
शत्रत
ु ानाश के लिये:-
“बयरु न कर काहू सन कोई । राम प्रताप बिषमता खोई ॥” (चौपाई -19.4)
विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये:-
“दै हिक दै विक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥” (चौपाई -20.1)
प्रेम बढ़ाने के लिये:-
“सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥” (चौपाई -20.1)
भक्ति की प्राप्ति के लिये:-
“भगत कल्पतरू प्रनत हित, कृपा सिंधु सुखधाम ।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु, दे हु दया करि राम ॥” (दोहा-84 ख)

#श्रीविष्णु_पंजरस्तोत्र!!

एकादशी तिथि पर भगवानविष्णु का स्मरण मात्र ही इच्छाओं को पूरा करने वाला माना गया है । यह विष्णु पञ्जर स्तोत्र के नाम से
भी प्रसिद्ध है । माना जाता है कि, इसके प्रभाव से ही माता रानी ने भी रक्तबीज व महिषासुर जैसे राक्षसों का अंत किया था।

॥ हरिरुवाच ॥

प्रवक्ष्याम्यधुना ह्येतद्वैष्णवं पञ्जरं शुभम ्।

नमोनमस्ते गोविन्द चक्रं गह्


ृ य सुदर्शनम ् ॥१॥

प्राच्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।

गदां कौमोदकीं गह्ृ ण पद्मनाभ नमोऽस्त ते ॥२॥

याम्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।


हलमादाय सौनन्दे नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ ३॥

प्रतीच्यां रक्ष मां विष्णो ! त्वामह शरणं गतः ।

मुसलं शातनं गह्ृ य पुण्डरीकाक्ष रक्ष माम ् ॥४॥

उत्तरस्यां जगन्नाथ ! भवन्तं शरणं गतः ।

खड्गमादाय चर्माथ अस्त्रशस्त्रादिकं हरे ! ॥५॥

नमस्ते रक्ष रक्षोघ्न ! ऐशान्यां शरणं गतः।

पाञ्चजन्यं महाशङ्खमनुघोष्यं च पङ्कजम ् ॥६॥

प्रगह्
ृ य रक्ष मां विष्णो आग्न्येय्यां रक्ष सूकर ।

चन्द्रसूर्यं समागह्
ृ य खड्गं चान्द्रमसं तथा ॥७॥

नैरृत्यां मां च रक्षस्व दिव्यमूर्ते नक


ृ े सरिन ्।

वैजयन्तीं सम्प्रगह्
ृ य श्रीवत्सं कण्ठभूषणम ् ॥८॥

वायव्यां रक्ष मां दे व हयग्रीव नमोऽस्तु ते।

वैनतेयं समारुह्य त्वन्तरिक्षे जनार्दन ! ॥ ९॥

मां रक्षस्वाजित सदा नमस्तेऽस्त्वपराजित ।

विशालाक्षं समारुह्य रक्ष मां त्वं रसातले ॥१०॥

अकूपार नमस्तभ्
ु यं महामीन नमोऽस्तु ते।

करशीर्षाद्यङ्गुलीषु सत्य त्वं बाहुपञ्जरम ् ॥११॥

कृत्वा रक्षस्व मां विष्णो नमस्ते पुरुषोत्तम ।

एतदक्
ु तं शङ्कराय वैष्णवं पञ्जरं महत ् ॥१२॥

पुरा रक्षार्थमीशान्याः कात्यायन्या वष


ृ ध्वज ।

नाशायामास सा येन चामरान्महिषासुरम ् ॥१३॥

दानवं रक्तबीजं च अन्यांश्च सरु कण्टकान ्।

एतज्जपन्नरो भक्त्या शत्रून्विजयते सदा ॥१४॥

।।इति विष्णु पंजर स्तोत्र संपूर्ण।।

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यह चौपाई आप किसी भी वाहन पर बैठने से ( आटो से लेकर हवाईजहाज तक )11 बार पढ़ लिजिए कभी भी Accident नही होगा
गुरुदे व भगवान ने अपने श्रीमुख से बताया श्रवण कीजिए पूज्यपाद श्रीजगद्गुरुदे व भगवान के श्रीमुख से ।। चौपाई:- चलत बिमान
कोलाहल होई    । जय रघुबीर कहई सब कोई      ।।

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