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इसे सुनते हुए करना दिव्य वृंदावन की परिक्रमा

श्री वृंदावन महिमा रसमृत


भाग -1
शीतल श्रीयमुना के तीर पर कदम्ब वृक्ष के मूल का
अवलम्बन लिये हुए सुन्दर पीताम्बरधारी, श्याम वर्ण,
काम प्रकृ ति-विशिष्ट कोई एक दिव्य किशोर श्री
राधामुख-कमल दर्शन करते-करते जहाँ आनन्दपूर्वक
वेणु बजाता है, उसी श्रीवृन्दावन में सबकी प्रीति हो
....
यदि श्रीवृन्दावन में तेरा जीवन हो, तो दुखों को तू सुख
समूह जान, अपयश को परमा-कीर्त्ति मान, अधम पुरुषों
के द्वारा अत्यन्त अपमानित होने पर उसे ही तू साधु पुरुषों
के द्वारा किये हुए सम्मानवत् जान, दरिद्रता-राशि को महा
विभूति स्वरूप, अत्युत्तम (मायिक) लाभों की महाक्षति-
स्वरूप एवं पाप समूह को पुण्य रूप प्रतीत कर .....
श्री कृ ष्ण में एकान्त भाव अनायास सब जीवों को निश्चय रूप
से कहाँ प्राप्त होता है ? परम भगवान श्रीकृ ष्ण का महाश्चर्य
जनक के वल लीला विग्रह कहाँ दीख पड़ता है? और फिर
श्रीकृ ष्ण के पाद पद्मों के भजन से उत्पन्न होने वाले महानन्द
की पराकाष्ठा कहाँ देखी जा सकती है? भाई मैं कहता हूँ,
रहस्यमय कथा सुन, इसी श्री वृन्दावन में ही ये समस्त वस्तुए
प्राप्त होती हैं .....
हे सखे! वेदों की आज्ञा को भंग करने में भय मत कर, गुरुजनों
(माता-पितादि) के वचनों को मत मान, लोक-व्यवहार में प्रवेश
(लोकोपेक्षा) न कर, दीनचित्त कु टुम्बियों के प्रति करुणा से
द्रवित न हो, स्नेह में आकर बारम्बार संसार में आबद्ध न हो, श्री
वृन्दावन के लिये शीघ्र ही धावित हो .....
महा दारिद्रय में अथवा परम विभुत्व में, महान सुख में अथवा
विषम दुख में, बहुत यश में अथवा अपयश में, मणि में अथवा
मिट्टी के डेले में, परम बन्धु में अथवा परम शत्रु में वृन्दावन-वास
करते हुए मेरी नित्य समान दृष्टि हो .....
हे साधो! यदि तू इन समस्त स्वप्रकल्पित वस्तुओं का सहसा
त्याग नहीं कर सकता, तो श्री वृन्दावन के युगल-किशोर की
उपासना करते हुए निरन्तर श्री वृन्दावन का ध्यान कर। प्रति
क्षण उनके नामों का जप कर, निरन्तर उनकी कथाओं
(लीलाओं) को श्रवण कर और सब वृन्दावन वासियों को
भोजन वस्त्रादि देकर उनकी सेवा कर .....
जो वस्त्र-अन्न या वास स्थानादि के द्वारा तीर्थ (श्रीवृन्दावन) में किसी को वास
कराता है, वह श्री वृन्दावन में वास करने वाले से भी कोटिगुण-अधिक पुण्य का
पात्र होता है, क्योंकि जो वास करता है, वह तो के वल स्वयं उत्तीर्ण होता है, और
जो दूसरे को वास कराता है, वह अपना एवं जिसको वास कराता है- उसका
उद्धार करता है। श्रेष्ठ प्रेमानन्द-रसस्वरूप श्री धाम वृन्दावन में जो दूसरे को वास
कराता है, वह श्री वृषभानु राधिका के प्रिय बाँके बिहारी में आश्चर्य मय रति को
अनायास ही प्राप्त कर लेता है ..
निष्किञ्चन, कृ ष्ण रस में मग्न चित्त एवं महानिरीह (वासना
रहित) तथा जन-संग-भीत (एकान्त-प्रिय) श्री वृन्दावन में
वास करने वाले महात्माओं की जो वस्त्र एवं भोजनादि के
द्वारा सेवा करता है, वह श्री युगल किशोर को ही वशीभूत कर
लेता है ..
श्री वृन्दावन में (जो) दिव्य-दिव्य अनेक विचित्र पुष्प एवं फलशाली
वृक्ष-लताओं का समूह है, दिव्य-दिव्य अनेक मोरों कोकिलाओं एवं
शुकादि पक्षियों की (जो) आनन्द-उन्मत्त ध्वनि है, दिव्य-दिव्य अनेक
सरोवरों, नदियों, पर्वतों से शोभित (जो) नवीन-नवीन कु ञ्ज समूह हैं
एवं दिव्य स्वर्णमयी (जो) रत्न भूमि है- (इन्होंने) मुझे मोहित कर लिया
है ....
श्री वृन्दावन-वासियों की चरण-धूलि में सर्वांगों को धूसरित
करके एक मात्र उज्ज्वलतम श्री वृन्दावन को ही सर्वोपरि
जानते हुए, श्री वृन्दावन के माधुर्य में सर्वदा श्री राधा कृ ष्ण
का आवेश अनुस्मरण करते-करते श्री धाम वृन्दावन में ही
वास कर ....
हे श्री वृन्दावन! आपके वन की शोभा सर्वोत्कृ ष्ट है, हे परानन्द!
आपके मधुर गुणों को जो निशिदिन गान करता है एवं हे वृन्दावन!
जो कोटि जीवन भी आपके सामने तुच्छ जानता है, फिर उसके लिये
संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है जिसकी वह तृण के समान उपेक्षा
नहीं कर सकता ?
कोई-कोई गोप बाला उत्तम कुं कु म सहित चन्दन घर्षण कर रही है, कोई
माला रचने में संलग्न हैं, कोई कोई के लिनिकु ञ्ज सुसज्जित कर रही हैं तो
कोई जल ला रही हैं, कोई नवीन-नवीन अलंकारों को संग्रह कर रही हैं,
और कोई-कोई व्यग्रचित्त से खाने पीने आदि की चेष्टा में बहुत देर से लगी
हुई हैं .....
कोई कोई नवीना गोप बाला उत्तम ताम्बूल वीटिका आदि के निर्माण
करने में संलग्न है, कोई नृत्य, गीत, वाद्यादि की उत्तम-उत्तम कला
विद्या दिखाने वाली वस्तुओं का आयोजन कर रही हैं, और कोई कोई
स्नान-उबटनादि की सामग्री संग्रह कर रही हैं, और कोई पंख हाथ में
लेकर पास में खड़ी होकर श्री अंक की सेवा के लिये अतिशय मुदित
हो रही हैं तथा और कोई सब विषयों की देखभाल कर रही हैं .....
कोई कोई अपने प्रियतम युगलकिशोर की चेष्टा को देख कर अपने
कार्य को भूल चुकी हैं, और कोई गोपी अपर सखि के अनुयोग से
अपने कार्य में प्रवत हो रही है एवं प्यारे युगल किशोर की सुन्दर
क्रीड़ा में सहयोग कर रही है। इस प्रकार श्री राधा कृ ष्ण के अत्यन्त
प्रेम में विभोर अद्भुत रूप-कान्ति-अवस्था युक्त सखियों का श्री
वृन्दावन में अन्वेषण कर .....
एक तो अद्भुत मोर पुच्छ का चूड़ा धारण किये हुए हैं, दूसरे के सिर
पर श्री वेणी की चमत्कारी शोभा है, एक का वक्ष स्थल चन्दन-
चित्रित है, एवं दूसरे के वक्ष स्थल पर विचित्र काञ्चुलि शोभित है,
एक विचित्र पीताम्बरधारी है एवं दूसरा जंघा पर्यन्त विस्तृत वस्त्र
के ऊपर बहुरत्नमय विचित्र लाल वस्त्र से सुशोभित है .....
इस प्रकार दिव्य विचित्र वेश-माधुर्य से मण्डित चारों दिशाओं
में विचित्र कान्ति विस्तार करते हुए गौर-नील वपुधारी वे युगल
किशोर- जो परस्पर प्रेमावेश में हास्य युक्त हैं, महासौन्दर्यशाली
रंग में श्रीवृन्दावन की स्थावर-जंगमात्मक चिद्घन वस्तु मात्र को
ही काञ्ची, नूपुर झंकार में एवं मुरली के मनोहर गीत में सम्यक
प्रकार से मुग्ध करते हुए विराजमान हैं .....
इस श्रीवृन्दावन में प्रीति करने वाला पुरुष, धनसम्पत्ति के द्वारा
कोटि-कोटि कु बेरों का भी उपहास करता है, बुद्धि-सम्पत्ति के
द्वारा देवताओं के गुरु वृहस्पति का भी तिरस्कार कर सकता है,
और स्त्री-पुत्रादि कु टुम्बी भी उसके लिये शोक नहीं करते हैं, वह
श्री हरि-रस विषय में श्री शुक-प्रह्लादादिकों द्वारा भी प्रशंसनीय
है .....
जो कहीं अति सुन्दर छोटे छोटे वृक्ष-लताओं में जल सिंचित कर रहे हैं
और कहीं तोता-मैंना को पाठ पढ़ा रहे हैं, कहीं मयूर मयूरी को
ताण्डवनृत्य शिक्षा कर रहे हैं तो कहीं नवागत दासी के द्वारा प्रदर्शित
सुन्दर सुन्दर कला-विद्या का दर्शन कर रहे हैं, इस प्रकार से दिव्यलीला
विनोदी वे श्रीवृन्दानेश्वर श्रीयुगलकिशोर मेरे मन में सर्वदा क्रीड़ा करें
.........
श्रीराधिका-रसिक (श्रीश्यामसुन्दर) के युगल चरणों की मधुगन्ध में
विमुग्ध होकर जिनकी बुद्धिरूप मधुकरी नित्य अति रसपूर्णता से
विह्वला होकर श्रीवृन्दावन में ही भ्रमण करती है, उनके चरणों में
भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर बारबार वन्दना कर .....
श्रीवृन्दावन में क्षण क्षण में शरद आ जाती है, क्षण में फिर
वर्षा आ जाती है क्षण में बसन्त शोभा देता है तो क्षण पीछे
किसी अन्य ऋतु का आगमन होता है। इस प्रकार सर्वदा
श्रीराधाकृ ष्ण के किसी न किसी (अनिर्वचनीय) कौतुक को
सम्पादन करने वाले एवं पद-पद पर आनन्द विधान करने
वाले श्रीवृन्दावन को ही स्मरण कर ....
हे वृन्दावन! जो मुख सदा आपकी स्तुति नहीं करता है, उसकी क्या
सुन्दरता? गृह ममता को परित्याग करके जो देह तुम्हारे में पात नहीं
करता है, वह देह कै सा? स्ववीर्य पुत्र को भी बेचकर जो वृन्दावन वास
नहीं करता, तो उसका पुरुषार्थ ही कै सा? वह क्या तत्त्ववेत्ता कहा जा
सकता है, जो श्रीवृन्दावन के तृण का भी आश्रय नहीं ले सकता
?.......
श्रीवृन्दावन में भ्रमरों की गुंजार का, कोयल-समूह के ‘‘कु हू
कु हू’’ मधुर शब्द का, नृत्य परायण मोर समूह की के का-
ध्वनि एवं ताण्डव नृत्य का, कलहंस युगल की सुललित गति
का, नवीन वृक्ष-लताओं के आलिंगन का एवं डरे हुए
हरिणसमूह की नयन-भंगिमा आदि का अनुकरण करने
वाले प्राणप्रियतम-युगल का अनुसरण कर ......
अहो! श्रीवृन्दावन में मोर अपनी के का-ध्वनि से दशों
दिशाओं को मुखरित कर नृत्य करते हैं, कोकिलाएँ
आम्रवृक्षों पर बार-बार कु हु कु हु शब्द कर रही हैं, भँवरे
इधरा-उधर प्रति पुष्पलता पर मधुर गान कर रहे हैं,
विचित्र दिव्य फु लों की सुगन्ध चारों दिशाओं को
सुवासित कर रही है .....
जहाँ से मुक्ति सन्मार्जनी (बुहारी) की चोट खाकर दूर से अति
दूर जा पड़ती है, जिसकी सेवा करने के लिए श्रेष्ट
अष्टसिद्धियाँ विनय-प्रार्थना करने में भी भयभीत होती है,
अहो! जिसका नाम सुनते ही माया दूर जा पड़ती है एवं नाश
हो जाती है, उस अति अचिन्त्य माहिमायुक्त श्रीवृन्दावन का
देहपात-पर्यन्त आश्रय कर .....
जिन्होंने श्री वृन्दावन भूमि को भली प्रकार प्राप्त कर
लिया है, उनको सत्कर्मों के करने या न करने में कु छ
भी दुखः नहीं, एवं काले सर्प से शरीर के नाश होने में
भी उन्हें कु छ भय नहीं है, ब्रह्मादि से अधिक सम्पत्ति के
प्राप्त होने में और परमामृत ब्रह्मानन्द की प्राप्ति में भी
उनको कु छ आनन्द नहीं मिलता ......
श्रीराधाकृ ष्ण के विलास से रंजित लतागृहों एवं तड़ागों से,
श्रीकालिन्दी के किनारों पर स्थित चन्दन-वनादिकों से, एवं
श्रीगिरिराज की सुन्दर-सुन्दर गुफाओं से जो सुशोभित है, जो
एकमात्र सौभाग्य एवं चमत्कार की वर्षा करता है, तथा जो नित्य
स्वतन्त्ररूप से वर्धनशील परम आश्चर्य की समृद्धि से पूर्ण है ऐसा
श्रीवृन्दावन मेरी जीवन- औषध है ....
शरीर को सदा श्रीवृन्दावन भूमि में स्थिर रख, मन को
श्रीवृन्दावन रसिकयुगल (श्रीराधाकृ ष्ण) के निकट भजन में
लगा, उनकी लीला गान में निरन्तर वाणी का प्रयोग कर एवं
प्रेम से व्याकु ल कानों को उनके कथामृत से तृप्त कर .....
श्रीवृन्दावन से संयुक्त उस श्रीयमुनाजी को मैं नमस्कार करता हूँ, जो
अनेक प्रकार के रत्नमय कमलों से नित्य मनोहर हो रही है, एवं आनन्द-
समुद्र की कन्या है, अन्यान्य विचित्र दिव्य कु सुमों से सुशोभिता है, ऋग्,
साम, यजु-वेदत्रय-शिरोमणि भी जिसकी सम्यक महिमा को नहीं जान
सकते एवं मत्त मधुकरों तथा विविध पक्षियों के कोलाहल से मुखारित
हो रही हैं .....
वह कालिन्दी के विशाल पुलिन, वह वृन्दावन की शोभा,
वह सुन्दर कदम्ब वृक्षों की घनी घनी सुशीतल छाया, वह
वैदग्धीमय यौवनयुक्त शोभामय सखी-मण्डली, एवं वह
गौरश्याम रसिक युगलकिशोर किसका मन नहीं मोहित
करते-सबका मन मोहित करते हैं .....
आनन्दघनरस के मूल श्रीवृन्दावन में भी यदि मेरा
चित्त अनुरक्त नहीं होता, तो ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य
आदि मेरा क्या करेंगे?।।
विद्वान, कु लीन, सुशील, गुणी, एवं रूपवान होते
हुए भी मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!! क्योंकि
श्रीवृन्दावन के प्रेम-रूप प्राणों से रहित व्यक्ति तो
शव (मृतक) ही है।
हाय! श्रीवृन्दावन त्यागकर जो और कार्यों में मेरा
उत्साह होता है तो जानबूझ कर परमामृत को थुत्कार
कर विष का ही भोजन करना चाहता हूँ।।3
कोई यदि मुझे ‘‘यह चोर है’’, ‘‘पतित है’’ इत्यादि वाक्यों से कठोर
भर्त्सना करे, तर्ज्जना गर्ज्जनपूर्वक अच्छी तरह ताड़ना करे, बाँध
दे, सब लोग निरपराधी मुझको सर्वत्र उद्विग्न करें अथवा यदि
मुझको अतीव असह्य मनःपीड़ा ही प्राप्त हो, किंवा अनेक प्रकार
के दुखों के द्वारा उत्पीड़ित कभी होऊँ , फिर भी मेरी यह शरीर तो
इसी श्रीवृन्दावन में ही पात हो- यही मेरी प्रार्थना है .....
हृदय पर शत शत वाक्य-बाणों के प्रहार हों, चाहे सिर
पर शत-शत पद-प्रहार ही हों, शत शत उपवास निश्चय
ही होते रहें, तो भी उन जीवन-धन गौर नील रसघन-
समुद्र मूर्त्ति श्रीयुगल किशोर को स्मरण करते हुए
श्रीवृन्दावन में आनन्दपूर्वक वास करूँ गा ....
तुम ने जनम जन्म में प्रिय वधू के माला-चन्दनादि का भोग
किया है- किन्तु अंहकार तो शान्त नहीं हुआ, बहुत सुयश
प्राप्त कर लिया- तथा समस्त शास्त्रों का भी तुमने अभ्यास
या अध्ययन कर लिया है, किन्तु मोह तो नाश हुआ नहीं,
अतएवं समस्त विषयों से वैराग्य करके महानन्द की प्राप्ति के
लिये श्रीवृन्दावन का भजन कर ....
जहाँ सदा काम-चंचल राधामधुपति नित्य क्रीड़ा करते हैं,
जो धाम विद्यामय एवं अविद्यामय समस्त धामों के ऊपर
प्रकाशित हैं, अपने माधुर्य, उज्ज्वलता आदि के द्वारा
जिसने और सब धामों को पराजित कर दिया है- अहो
ऐसे भौम श्रीवृन्दावन को कौन नहीं भजता ?
जो स्वयं प्रकाश एवं शुद्धचिद्-रसात्मक है, जिसमें स्थित
समस्त (स्थावर-जंगमादि भी) उसी की भाँति (स्वयं प्रकाश व
शुद्धि चिद्रसघन) हैं एवं कृ ष्ण-प्रेम-रस समुद्र में मग्न है, जो
वेदान्तियों की दृष्टि के अगोचर है, ऐसी अविचिन्त्य-महिमायुक्त
इस भौम-श्रीवृन्दावन में यदि मूर्ख लोग दोषों को देखें तो उससे
अन्तर्दृष्टियुक्त (हृदय के नेत्र जिनके खुल चुके है) पुरुषों की
क्या हानि ?
(यह श्रीवृन्दावन) सौन्दर्य में आनन्त है, मायुर्यपूर्णता में
अनन्त है, ज्योति विस्तार करने में अनन्त एवं कृ ष्ण-
प्रीतिरस में भी अनन्त है- कृ पा और उदारता में अनन्त है,
अपनी महिमा में भी अनन्त है- इस श्रीवृन्दावन को यदि
कोई भजता है, जो उसके भाग्य अनन्त हैं .....
हे प्रियतम् परमानन्दमय श्रीवृन्दावन! यदि आज में लाख दिन्य
नेत्रों से तुम्हारे स्थावर-जंगमों की शोभा दर्शन करूँ , लाख
नासिकाओं के द्वारा तुम्हारी सुगन्धि सेवन करूँ , अनेक कानों
से यदि तुम्हारी अति उदार गुणावली श्रवण करूँ , करोड़ों चरणों
से यदि तुम्हारे बीच भ्रमण कर सकूं तथा कोटि कोटि हाथों एवं
मस्तकों से तुम्हें नमस्कार करूं - तो भी मेरी तृप्ति नहीं होगी ....
यदि कान इस (श्रीवृन्दावन) के दोषों को सुनों, तो उनमें कील गड़वा
देना उचित है, यदि जिह्व भूल कर उन (दोषों) का उच्चारण करे, तो हव
काट देने योग्य है, यदि नेत्र उन (दोषों) को देखें, तो उनको निकलवा
देना चाहिये, यदि मन में इन (दोषों) का विश्वास जम जाये, तो प्राण
त्याग करना ही कर्तव्य है, वे समस्त कानादि (इन्द्रियगण) चण्डालीवत्
अस्पृश्य एवं त्यागने योग्य हैं- क्योंकि यह श्रीवृन्दावन-धाम तो
परमतम-महत्तम वस्तु है ....
जो प्रबल अनुराग से श्रीवृन्दावन के गुणों को वर्णन करता है एवं सुनता है,
वह श्री बाँके बिहारी को ही ऋणी करता है।
श्रीवृन्दावन के प्राणी यदि हर क्षण मेरे लिये महा घोर उपद्रव भी करें,
तो भी तत्त्व की ओर देखते हुए मेरी उनके प्रति सदा भक्ति बनी रहे
श्रीराधा-मुरलीमनोहर के चरणविलास से धन्य
हुई इस श्रीवृन्दावन भूमि में यदि किंचिन्मात्र भी प्रीति हो
तो मैं उसे ही परम पुरुषार्थ मानता हूँ
श्रीकृ ष्णानुराग की परम पराकाष्ठा-प्राप्त एवं उनके रूप शोभादि से
परम कान्तियुक्त तथा श्रीराधिका के परम अधिक सौन्दर्य से
मण्डित मुख्यधाम श्रीवृन्दावन का ही मैंने आश्रय कर लिया है
हे श्रीवृन्दावन! मैं धन्य हूँ! आपके अति महाप्रेम का पात्र हुआ हूँ!!
क्योंकि ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादि भी जिसके लिये प्रार्थना करते हैं-
वह अपना स्थान मुझे (वास करने के लिए) दिया है एवं नित्यकै शौर
वेश से भूषित तथा नित्य एममात्र काम-रंग-परायण गौरश्याम
महामोहन श्रीयुगल-किशोर की सेवा की करने की आशा भी मुझे
प्रदान की है ...
जिसके एक बिन्दु मे ही सर्वानन्द-रस भरा हुआ है- ऐसे एक महा
आनन्द के समुद्र को प्रवाहित करने वाला, साक्षात् लक्ष्मीदेवी के भी
हृदय एवं नेत्रों को आकर्षण करने वाले सौन्दर्य से मण्डित, एवं
विशुद्धानन्द-रस के एकमात्र सार की सुचमत्कारी वर्षा करने वाला-
सुगन्धि, उज्ज्वलता, स्वच्छता, कोमलता एवं माधुर्य के आधिक्य में
सर्वाश्चर्यमयस यह श्रीवृन्दावन अद्भुत है।
जिसका जल स्पर्श करने से शुद्धचित्त में किसी एक अद्भुत
रसमयी वृत्ति का तत्काल की उदय होता है, जो के वल विशुद्ध
अनंग रस के प्रवाह से सुशोभित है एवं सुन्दर गौर-उज्ज्वल कांति
युक्त है, उसमें आनन्दमय श्रीयगुगलकिशोर नित्य विहार करते हैं,
अतएव परम रमणीय श्रीवृन्दावन के भूषणस्वरूप श्रीश्यामकु ण्ड
की मैं शरण लेत हूँ ...
श्रीवृन्दावन में विराजमान के लि-उन्मत्त
वृन्दावनेश्वरी श्रीराधाजी के प्रिय उस
दिव्यकु ण्ड (श्रीराधाकु ण्ड) की मैं स्तुति
करता हूँ
जो श्रीवृन्दावन अपने अनन्त विचित्र वैभवरस से
वैकु ण्ठपति को भी मोहित करता है, एवं श्रीराधा-हृदय-
बन्धु श्रीश्यामसुसन्दर के मधुर प्रेम द्वारा निखिल वस्तुओं
को उन्मत तथा मदान्ध कर देता है और इस पृथ्वी पर
विद्यानन्द-सुधा के एकमात्र समुद्र के परे परम उज्ज्वल जो
यह असीम रसदायक श्रीवृन्दावन है- उसे प्राप्त करके कोई
फिर अन्य वस्तुओं को देखना चाहता है क्या ? ....
हे परमानन्द स्वरूप श्रीवृन्दावन! आपके अनेक मनोरस रूप
समूह मुक्त और ब्रज-गोपीगणों पर्यन्त भगवतप्रिय भक्तों से
सेवित हों, किंतु श्रीराधामुरलीमनोहर के महामाधुर्य की चरम
सीमा को प्राप्त हुआ अतिरसमय जो अत्युत्कृ ष्टरूप है, उसकी
स्मृति आने पर भी मैं कृ तकृ त्य हो जाता हूँ ....
जिनको एक बार मात्र स्पर्श करने से एवं जिनकी कथा एक
बार मात्र सुनने, कहने या स्मरण करने से ही वे करुणावश
होकर (धर्म-अर्थ-काम-मोक्षादि) सब पुरुषार्थों को प्रदान कर
देते हैं और जो प्रकृ ति रस सारात्मक ज्योति से परे विराजमान
हैं, श्रीवृन्दावन के उन तरु-लताओं को मैं नित्य नमस्कार
करता हूँ .....
पण्डितगण प्रेमभक्ति पर्यन्त पुरुषार्थों का वृथा ही
अन्वेषण कर रहे है, वे तो श्रीवृन्दावन के तृण मात्र
का आश्रय ग्रहण करने से ही कृ तार्थ हो सकते हैं।।
जो अपराधी होकर भी चित्त में श्रीराधापदपद्मों
को धारण करते हुए श्रीवृन्दावन में वास करते हैं,
उन बड़भागी भक्तगणों को मैं नमस्कार करता
हूँ।।
अनन्त सुषमा समुद्र, अनन्त माधुर्य भूमि अनन्त चित
चन्द्रिका समुद्र, सौभाग्यभूमि एवं अनन्त भगवत रस के
सर्वश्रेष्ठ रहस्य की मूलस्थली यह अनन्त श्रीवृन्दावन
मेरी सब चेष्टाओं को अनन्तत्त्व दान करे अर्थात मैं
अनन्त भाव से श्रीवृन्दावन का आस्वादन कर सकूँ ....
जो लता ‘हे वरांगिणि-नृत्य कर’ -श्रीराधा की इस
उक्तिमात्र से ही नृत्य करने लगती है, ‘‘गान कर’’ ऐसा
कहने से भ्रमर की झंकरवत् मनोमद गान करती है,
‘‘क्रन्दन कर’’-इस वचन से मधु बरसाने लगती है एवं
‘‘हास्य कर’’- इस वाक्य से प्रफु ल्लित हो उठती है और
‘‘वृक्ष को आलिंगन कर’’ इस उक्ति से पुलकित गुच्छ
होकर वृक्ष को आलिंगन करती है’-
‘‘मेरे प्राणेश्वर को प्रणाम कर’’- यह वाक्य सुनते ही भूमि पर पड़
जाती है, इस प्रकार श्रीराधा की आज्ञावशवर्तिनी होकर श्रीवृन्दावन
की कोई एक लता बनने की छह रख , जिससे श्रीराधा के अपने कर
कमलों से सुन्दर जल द्वारा सिंचित होकर पुष्टिलाभ ले एवं श्रीहरि
सन्तुष्ट होकर ‘‘मेरी कान्ता बनो’’ बोल कर श्रेष्ठ आशीर्वाद करेंगे ...
ये समस्त भ्रमर नित्य मुक्तिपद में अवस्थान करते हैं, जो तुलसी
आदि की सुगन्धि में अतिशय आनन्दास्वादन करते हैं, जो
नन्दनवन में महा सुगन्धियुक्त पारिजातादि कु सुममूह में
आनन्दलुब्ध रहते हैं एवं जिन्हे कहीं दूसरे वनों में भी आनन्द
प्राप्त होता है- वे समस्त भ्रमरवृन्द अनन्त अनन्त यूथों में नित्य
जिस वृन्दावन में मुग्ध होकार पड़ते हैं, उस श्रीवृन्दावन को मैं
नमस्कार करत हूँ
श्रीमद्वृन्दावन का यही अद्भुत प्रभाव है कि, जहाँ उसके
सम्बन्ध की लेशमात्र भी गन्ध है वहाँ वह रस, समुद्र प्रदान
करने के लिए उसे चिर बन्धन में आबद्ध किए रखता है
श्रीवृन्दावन के निकुं जों में नित्य-विहार करने वाले
गौरश्यामात्मक महाश्चर्यमय श्रीयुगलकिशोर ही मेरे
जीवन हैं
श्रीवृन्दावन में श्रीराधाकृ ष्ण की भावनायुक्त हुआ,
मुझे न लोक चिंता है और न धर्म चिंता और न देहादि
की चिंता है
महाज्योतिस्वरूप, प्रति पद पद मे महानन्द मधुर,
महोच्च शाखा विस्तारपूर्वक महार्थ अर्थात् धर्म,
अर्थ, काम मोक्ष एवं प्रेमादि को वर्षण करने वाले
महा मतातम श्रीवन्दावन के वृक्ष शोभित हो रहे हैं ....
हरि! हरि!! इस श्रीवृन्दावन में महाविभूतिशाली एवं
माता के सदृश अतिशय स्नेहार्द्र चित्तयुक्त इन लताओं में
बाह्य वस्तु बुद्धि त्याग कर जो बुद्धिमान पुरुष इनका
निरन्तर आश्रय ग्रहण करते हैं वे सब इस लोक में एवं
परलोक में कृ तार्थ हो जाते हैं
कोटि-कोटि दुर्बुद्धि आवें अथवा कोटि-कोटि
दुश्चेष्टाएँ हो जाएँ या कोटि-कोटि अपयश ही क्यों
न हो जाएँ, तथापि हे श्रीवृन्दावन! मुझे आपका
विरह कभी न हो- यही मेरी प्रार्थना है
जिसने श्रीवृन्दावन का आसरा लिया है, उसे कर्म या
अकर्म तापित नहीं कर सकते, उसे माया स्पर्श नहीं कर
सकती, एवं सकल महागुण राशि उसका भजन करते
हैं। सब सम्पदा उसी की आकाँक्षा करती हैं, ब्रह्मादि
देवता उसकी स्तुति करते हैं। और श्रीराधाबाँके बिहारी
आनन्दपूर्वक उसे अपने निकटवर्ती गणों में अन्यतम
गणना करते हैं।
जो अनेक जन्मों की संचित दुर्वासनाओं को नाश करने
वाला है, जो लक्ष्मी-नारायण, ब्रह्मादि देवताओं को
दुर्गम महा-माधुर्य भली प्रकार ज्ञापन कराने वाला है, जो
मातृवत् अपने अनन्य भक्तों के अपराधों को क्षमा करने
वाला है, वह मनोहर श्रीवृन्दावन श्रीराधा के चराण-
कमलों को (हृदय में) धारण कर आनन्द प्राप्त कर रहा
है, उसकी जय हो

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