Tao 37

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अभी आकाश खाली है, जल्दी ही बादलों से भर जाएगा । बादल आएँगे, घने होंगे, वर्ष करेंगे और फिर समाप्त हो जाएगी । आकाश फिर भी वैसा ही
बना रहेगा । आकाश एक निष्क्रियता है, सिटी बादल एक सक्रियता है, एक्टिविटी बादल बनते हैं । मिटते आकाश बनता भी नहीं, मिटता भी नहीं ।
बादल कभी होते हैं कभी नहीं होते । आकाश सदा होता है । बादलों का अस्तित्व, जन्म और मृत्यु के बीच में आकाश के अस्तित्व के लिए ना कोई
जन्म है ना कोई मृत्यु । आकाश समय के बाहर है । बादल समय के भीतर बनते हैं और बिखर जाते आकाश शास्वत इस सूत्र का नाम है शास्वत नियम
का ज्ञान नोनिंग दी इटरनल ना जहाँ भी सक्रियता है वहाँ शाश्वतता नहीं होगी क्योंकि क्रिया को तो विश्राम में जाना ही पडेगा । कोई भी क्रिया कोई भी
एक्टिविटी शास्वत सादा नहीं हो सकती । थके गी और विश्राम में लेन होना सिर्फ निष्क्रियता शास्वत हो सकती है । इस पुत्र को समझ लेना बहुत जरूरी है
। धर्म ने कहा है ईश्वर सृष्टा है, गॉड उं क्रीएट लौं राजी नहीं लाओ से कहता है सृजन तो एक क्रिया है और अगर ईश्वर श्रेष्ठा है तो कभी तो थक
ही जाएगी । क्रिया और हर करने से विश्राम लेना ही होता है । करने का अंतिम परिणाम सादा ना करना है तो अगर ईश्वर श्रेष्टा है, अगर सृजन ही
उसका स्वरूप है तो इस वर्ष शास्वत नहीं हो सकता । सास्वत तो सिर्फ अत्यंत इक निष्क्रियता ही हो सकती है । अगर आकाश भी बनता हो, सक्रिय
होता हो । आकाश भी अगर कु छ करता हो तो बादलों की तरह ही कभी ना कभी विलीन हो जाए । आकाश कु छ भी नहीं करता । बादल कु छ करते
हैं, करते हैं तो हो जाते हैं । अभी वर्ष से भरे आएंगे । उमडेंगे घूम लेंगे । शोरगुल होगा, बडी गति बिजलियां चमकें गी फिर पानी घर जाएगा । बादल
रिक्त हो जाएंगे, खो जाएंगे । सभी क्रिया रिक्त हो जाती है । हो ही जाएगी क्योंकि सभी क्रियाएं प्रारंभ होते हैं और जो भी प्रारंभ होता है वो अंत भी
होगा । जो प्रारंभ नहीं होता वही अंत से बच सकता है । लास्ट का इश्वर निष्क्रियता है इसलिए लाओ से उसे ईश्वर भी नहीं कहता । वो उसे शास्वत
नियम कहता है । जीवन के बहुत पहलुओं में हम इसे देखें तो फिर स्वयं के भीतर भी देखना आसान हो जाएगा और तब लाओ से की साधना हमारे
ख्याल में आ जाएगी । वो क्या चाहता है और कै से आदमी उस परम शाश्वतता को उपलब्ध हो सकता है । एक बीज हम वो देते हैं वृक्ष जान में जाता
है । शाखाएँ प्रशाखा फै लती है, फू ल खेलते हैं और फिर एक दिन वह वृक्ष उसी मिटटी में वापिस तरह के खो जाता है । एक व्यक्ति पैदा होता है और
फिर एक दिन हम उसे कब्र में सुलाकर वापिस मिट्टी में वापिस मिट्टी में मिल जाने देते हैं । सुबह आप जागते हैं, थक जाते हैं और नींद में खो जाते
हैं । जन्म भी एक जागना है और मृत्यु भी । एक सांझे फिर वापिस हम वहीं गिर जाते हैं जहाँ से हम आते हैं । लेकिन क्या हमारे भीतर भी ऐसा कु छ
है जैसा बादलों के साथ आकाश वृक्ष जनमा मिट्टी उठी आकास की तरफ मिट्टी वृक्ष के पत्ते बनी मिट्टी ने वृक्ष में फू ल खिलाए फिर फु ल गिर गए पत्ते गिर
गए । वृक्ष गिर गया, मिट्टी वापस मिट्टी में मिल गई क्या वृक्ष में ऐसा भी कु छ था जो आकाश जैसा था ये तो बादल जैसा हुआ । वृक्ष का होना, पत्तों
का फै लना सक्रियता ये तो बादलों जैसा था वृक्ष में क्या कु छ ऐसा भी था जो आकाश जैसा था जो तब भी था जब बीज अंकु रित ना हुआ और तब भी
है जब बृक्ष वापिस में टीम में खो गया । एक आदमी जन्म एक बादल का जन्म है, उमडेगा घूमेगा, युवा होगा वासनाएं पकडेंगी दौडाएगी जीवन एक गहन
सक्रियता बन जाएगी । चिंता और तनाव और बेचैनी, सफलताएं और असफलताएं और एक लंबी कथा होगी और फिर से मिट्टी में गिर जाएगा । उम्र ने
कहा डस्ट टू डस्ट फिर मिट्टी वापस मिट्टी में गिर जाएगी । क्या इस आदमी में बादल ही बादल थे या आकाश जैसा भी कु छ था? ये वासनाएं तो बादल
है और कभी बहुत भरी होती है । एक जवान आदमी को देखें वो पानी से भरा हुआ बादल एक बूढे आदमी को देखें । वर्ष हो गयी बादल हो गया है,
जो भरा था वो बिखर गया, एक बुरा आदमी सुख गया बादल है । लेकिन क्या इस आदमी की वासनाओं क्रियाओं, इसकी दौर, इस की उपलब्धियों इन
सब के पीछे कु छ आकाश भी है या नहीं । अगर कोई आकाश पीछे नहीं तो कोई आत्मा नहीं और अगर पीछे कोई आकाश है तो ही आत्मा है जो
मानते हैं मनुष्य के भीतर कोई आत्मा नहीं है । वो कह रहे हैं कि बादल तो उठते हैं लेकिन आकाश नहीं लेकिन आकाश के बिना बादल उठ भी नहीं
सकते । आकाश तो हो सकता है बाद लोगों के बिना लेकिन बादल आकाश के बिना नहीं हो सकते याकि हो सकते हैं आकाश के होने में कोई भी अर्चन
नहीं है बादल नहीं हो आकाश के होने में जरा भी कमी नहीं पडती ना होने से आकाश में कु छ बढती होती है न होने से कु छ घटता है आकाश होता है
बादलों के बिना भी बादल एक दुर्घटना या कहें एक घटना आकाश एक अस्तित्व है बादल संयोग ऍन टल है किन्ही कारणों पर निर्भर हैं इससे थोडा समझे
आकाश में बादल बनते हैं तो किन्ही कारणों पर निर्भर है संयोग आत्मक है सूरज निकलेगा पानी भाप बनेगा, आकाश की तरफ उठेगा तो बादल बनेंगे अगर
सूरज ठंडा हो जाए धूप ना पानी उबले नहीं तो बादल नहीं बनेंगे सूरज तपता रहे आग बरसाता रहे पानी ना हो तो बादल नहीं बनेंगे आकाश अकारण
सूरज हो या ना हो पानी हो या ना हो बादल बने या ना बने चाँद तारे रहे या ना रहे पृथ्वी बच्चे ना बच्चे आदमी हो ना हो आकाश अकारण अनपढ
एडिशनल उसके होने में कु छ भी अंतर ना पडेगा । इसका अर्थ हुआ कि जिन चीजों का भी कारण होता है ये चीजें बादलों की तरह होती है और जिन
का कोई कारण नहीं होता अकारण वे चीजें आकाश की तरह होती है । आप पैदा हुए आपके पैदा होने में दो हिस्से हैं । एक बादल जैसा आपके माता
पिता ना होते तो आपको ये शरीर नहीं मिल सकता था । हजार हजार कारण है जिनसे आपको ये शरीर मिला । लेकिन आप कारण में ही समाप्त अगर
हो जाए तो फिर आप नहीं है आपके भीतर कोई आकाश नहीं । आपके माता पिता भी ना होते हैं । आपका शरीर भी ना होता तो भी आप होते तो ही
आप के भीतर आत्मा है अन्यथा आत्मा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है । फॅ से कहता है, हमारे सबके भीतर बादल भी है और आकाश भी है और जैसे
बादल नहीं हो सकते, आकाश के बिना आपकी वासनाएं भी नहीं हो सकती । आत्मा के बिना जैसे आकाश चाहिए बादलों को तैरने के लिए वैसे ही
आत्मा भी चाहिए । वासनाओं को तैरने के लिए आत्मा हो सकती है । बिना वासनाओं की वासनाएं नहीं हो सकती बिना आत्मा लेकिन जब आकाश बादलों
से घिरा होता है तो आकाश बिलकु ल दिखाई नहीं पडता । बादल ही दिखाई पडते हैं और जब मनुष्य भी वासनाओं से गिरा होता है तो आत्मा बिल्कु ल
दिखाई नहीं पडती । वासनाएं ही दिखाई पडती है और हर वासना सक्रियता में ले जाती है । जिन्होंने कहा है कि जब तक आदमी निर्वास ना में ना पहुँच
जाए । डी उं इसमें ना पहुँच जाए तब तक आत्मा को न पा सके गा । उनका प्रयोजन यही है क्योंकि जब तक निर्वास ना में ना पहुंचे तब तक निष्क्रियता
में ना पहुँचेंगे । हर वासना क्रिया का जन्म है । यहाँ वासना के पैदा होने का अर्थ यह है कि आप एक क्रिया की यात्रा पर निकल गए । चाहे स्वप्न में
ही सही, चाहे वस्तु था आप कु छ करने में संलग्न हो गए । वासना जन्मी की क्रिया शुरू हो गई । बादल गिर गए । जितने होंगे ज्यादा बादल उतना ही
आकाश दिखाई नहीं पडेगा । बादल बिल्कु ल ना हो तब आकाश दिखाई पडता है या दो बादलों के बीच में दिखाई पडता है । दो वासनाओं के बीच में जो
अंतराल होता है उसमें कभी भीतर की आत्मा दिखाई पडती है । लेकिन हमारी वासनाएं ऐसी है कि अंतराल बिल्कु ल नहीं । एक वासना समाप्त नहीं हो
पाती । उसके पहले हम हजार पैदा कर लेते हैं । ऐसा कभी नहीं होता कि एक वासना समाप्त हो जाए और दूसरी अभी पैदा ना हो और बीच में खाली
जगह छू ट जाए । जिसमें से हम अपने आकाश में जान ले एक वासना पूरी नहीं होती कि हजार को हम वो देते हैं । एक मरती है दो हजार जनजाती
आकाश हमारा सादा ही बादलों से भरा रह जाते हैं । इसलिए आदमी अगर अपने को समझने की कोशिश करें तो पायेगा । मैं सिर्फ क्रियाओं का एक जोड
हूँ और हम सब ऐसा ही अपने को मानते हैं । अगर कोई आपसे पूछे कि आप क्या है तो आप क्या बताएंगे? बताएँगे कि आपने क्या क्या किया है,
कितने मकान खडे किए, कितना धन अर्जित किया है, कितनी उपाधियां इकट्ठे किए हैं आपने क्या किया है वही आपका जो है तो आप अपने को बादल
समझ रहे हैं । आकाश का आपको कोई पता नहीं क्योंकि आकाश का करने से कोई संबंध नहीं । आकाश तो सिर्फ है और उसके होने के लिए आपको
कु छ भी करने की जरूरत नहीं । उसका होना किसी कर्म पर निर्भर नहीं है । प्रत्येक घटना में ये दोनों सूत्र एक साथ मौजूद है, क्रियाओं का जगत है
और निष्क्रियता की आत्मा है । लाल से कहता है इस निष्क्रियता को जान लेना ही शास्वत नियम को जान लेना । उसके सूत्र को हम समझे निष्क्रियता
की चरम स्थिति को उपलब्ध करें और प्रशांति के आधार से दबता से जुडे रहे । अपने ही भीतर निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें, इसका ये
अर्थ नहीं है कि आप कु छ करे नहीं । जीवन है तो कर्म तो होगा ही । जीवन है तो कु छ ना । कु छ तो आप करते ही रहेंगे । अगर आप बिल्कु ल ही
मूर्ति भी बैठ जाएं तो वो बैठना भी कर्म ही है और आप मुर्दे की तरह शवासन में लेट जाएं वो लेट जाना भी कर्म ही है और आप सब जंगल में भाग
जाएँ वो भाग जाना भी कर्म ही है । मुँह हुई हाई के पास एक युवक आया है और उस युवक से कहता है लव से का ये सूत्र याद रखो फॅ स टिन पस
इटी उस चरम को निष्क्रियता में उपलब्ध करो । वो युवक सब तरह के उपाय करता है । वो दूसरे दिन सुबह आकर बिल्कु ल बुद्ध की पत्थर की मूर्ति
होकर बैठ जाता है । हुई हाई उसे हिलाता है और वो कहता है हमारे मंदिर में पत्थर के बुद्ध काफी है और ज्यादा जरूरत नहीं है । ऐसे नहीं चलेगा
फॅ स निष्क्रियता में उसकी चरमरा में प्रवेश करो ये तो तुम ही बैठे हुए हो और इस बैठने में तुम्हें कर्म करना पड रहा है और आदमी साधारण बैठा हो
तो कम कम कर्म करना है । ठीक बुद्ध जैसा बन के बैठ जाए तो बहुत कर्म करना है । वो कई तरह के उपाय करता है । सब असफल हो जाते है
क्योंकि कोई भी उपाय निष्क्रियता पाने में सफल नहीं हो सकता । उपाय का अर्थ ही है कर्म तो कर्म अकर्म को पानी में कै से होगा सफल । कोई रुकना
चाहता हो तो दौडने से कै से रुकने तक पहुँचेगा और कोई मारना चाहते हो । कोई मारना चाहता हो तो जीवन उसके लिए रास्ता नहीं । कर्म से कोई
कै से अकर्म को पाएगा तो युवक परेशान हो गया । उसने हुई हाई के आश्रम में वृद्धजनों को जाकर पूछा की मैं क्या करूँ ? मैं परेशान हो गया । मेरी
बुद्धि तो अंत पर आ गयी । मेरा तो समाप्त हो गया । सोच समझ सब सब उपाय करके देख चुका हूँ । आप है पुराने आप गुरू के साथ बहुत दिन रहे
हैं और निश्चित ही आप भी ये परीक्षा से गुजरे होंगे । मुझे कु छ सलाह दे ये मैं निष्क्रियता कै से प्राप्त करूँ तो जिस से उसने पूछा था उसने कहा कि
जब तक मार ही ना जाओ तब तक निष्क्रियता प्राप्त नहीं होती । जीते जी कै सी निष्क्रियता जियो गे तो कर्म तो होगा ही । जीना क्रिया का ही नाम है
जीवन अर्थात सक्रियता मार ही जाओ तो वही परीक्षा से पास हो सकते हो । उस युवक ने सोचा ये भी कोशिश कर ले जाए वो दूसरे दिन सुबह जब
गुरु के पास गया तो गुरु ने पूछा कि पा लिया वो सूत्र वो तक्षण । वहीं गुरु के सामने गिर के मर गया । गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि
जरा एक खोलो । उसने एक आँख खोलकर गुरु को देखा तो गुरु ने कहा कि मरे हुए लोग हाँ खोल के देखा नहीं करते, ये तुम किस से सीख के आ
गए हो और सिखावन से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहीं होता तो वो करो नहीं लगा । उसने कहा कि मैं सब उपाय कर चूका हूँ । ये आखिरी उपाय
था, अब कु छ करने को बचा नहीं है । निष्क्रियता कै से उपलब्ध हो? उसके गुरु ने कहा कि जब तक तुम पूछते हो कै से हाॅल तब तक तुम कभी
उपलब्ध हो सकोगे क्योंकि कै से का मतलब ही क्या होता है । उसका मतलब होता है किस प्रकार
किस विधि से, किस प्रकार से किस काम से मैं पा सकूं गा । तुम कर्म को ही पूछे चले जाते हो । निष्क्रियता हुई । हाई ने कहा है पाई नहीं जाती ।
निष्क्रियता मौजूद है और निष्क्रियता पानी का कोई उपाय नहीं वो मौजूद है । सिर्फ सक्रियता से ध्यान निष्क्रियता पर हट जाए ये सिर्फ ध्यान के हटने की
बात है । बादल से ध्यान आकाश पे हट जाए, आकाश को पाना नहीं है, आकाश है और हमने उसे कभी खोया भी नहीं है । ज्यादा से ज्यादा हम
भूल सकते हैं और आकाश को बनाना भी नहीं है और हमारे किसी प्रकार से वो बन भी ना सके गा और हमारे प्रति जो बन जाए वो आकाश नहीं होगा ।
इसलिए आत्मा को पाने के लिए कोई भी प्रयास नहीं और आत्मा को पाने के लिए कोई भी साधना नहीं । सारी साधनाएं और सारे प्रयास वो जो हमारे
भीतर बादलों का जगत है उस जगह से ध्यान को हटाने के लिए ही लास्ट का ये सूत्र निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें । शब्दों के कारण
भ्रांति पैदा करता है । ऐसे लगता है उपलब्ध करें कु छ पाने को है लेकिन ये भाषा की मजबूरी है और लाओ से पहले ही कह चुका है कि जो मैं कहना
चाहता हूँ वो कहा नहीं जा सकता है और जो मैं कहूंगा उसमें भूल हो जानी अनिवार्य हमारी सारी की सारी भाषा क्रिया पर निर्भर है । अगर एक आदमी
मर जाता है तो भी हम कहते हैं वो आदमी मर गया जैसे मारना उनका कोई काम हो । मारना एक क्रिया है, हम कहते है फला आदमी मर गया जैसे
कि मरने का कोई काम उन्होंने किया हो । मरने के लिए आपको कु छ करना नहीं पडता है लेकिन हमारी पूरी भाषा क्रिया पर चलती चलेगी ही । हम
जीवन को बादलों से ही जानते हैं और वहाँ तो सब कर्म है । गति जो भी हम हम किसी किसी कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ । जैसे की प्रेम कोई
कर्म हो । अब तक दुनिया में कोई प्रेम कर नहीं सकता है । प्रेम कोई कृ त्य नहीं है कि आप कर ले । प्रेम या तो होगा या नहीं होगा करने का कोई
सवाल नहीं है । अगर है तो ठीक नहीं है तो ठीक है । चेष्टा करके आप प्रेम नहीं कर सकते । प्रेम का क्रिया से कोई भी संबंध नहीं लेकिन भाषा में
प्रेम भी क्रिया हम कहते हैं । माँ बेटे को प्रेम करती माँ बेटे के बीच प्रेम होता है करती नहीं करने का तो कोई उपाय ही नहीं । हम तो प्रेम जैसी
घटना को भी क्रिया बना लेते हैं । ठीक ऐसे ही हमने ध्यान को भी क्रिया बना लिया । एक आदमी कहता है मैं ध्यान करता हूँ, मजबूरी है । भाषा
सभी चीजों को क्रिया में बदल देती है । स्थितियों को भी क्रिया में बदल देती है । इसलिए बडा विपरीत है ये सूत्र निष्क्रियता की चरम स्थिति को
उपलब्ध करें । उपलब्ध करने में क्रिया है और निष्क्रियता की स्थिति । पानी, निष्क्रियता, पानी तो उपलब्धि तो नहीं हो सकती । सब उपलब्धियां,
क्रियाएं, धन पा सकते हैं । आप धान की उपलब्धि हो सकती है, यह पा सकते हैं । पद पा सकते हैं ये सब क्रियाएं । लेकिन निष्क्रियता कै से पाई?
लालच का मतलब है कि हमारे भीतर दो तल है । एक तल पर क्रियाएं है, बादल है, लहरें है तरंगे । ठीक उसी की नीचे गहराई में कहाँ से? उसी
में ये सारे बादल घिरे और वो आकाश असीम और ये बादल बडे सीमित थे । इन बादलों को पार करके देखने की क्षमता ही निष्क्रियता की उपलब्धि हो
जाती है । इसलिए दूसरे ही सूत्र में वो कहता है इसी सूत्र के दूसरे हिस्से में निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें और प्रशांति के आधार से से
जुडे रहे । और जब आपको दिखाई पड जाए आपके ही भीतर की आकाश भी है तो फिर बादलों में मत भटके और चाहे कितनी ही बादलों में यात्रा करें
लेकिन आकाश से सतत जुडे रहें, स्मरण आकाश का ही रखें, कितने ही दूर निकल जाए लेकिन ध्यान सादा उस आकाश का ही रखे जो भीतर अनुभव
में हुआ है । कितना ही कर्म करें, कितने ही दौड रहे लेकिन ध्यान उसका ही रखें जो भीतर नहीं रहा । कभी नहीं जिसके दौडने का कोई उपाय ही
नहीं । कभी आपने कोशिश की, कभी दौड के देखें । आप ट्रेन पर सवार होते हैं । आप के भीतर कु छ ऐसा भी है जो ट्रेन पर सवार नहीं होता । ट्रेन
चलती है । आप भी ट्रेन के साथ गतिमान होते हैं । आपके भीतर कु छ ऐसा भी है जिसमें कोई गति नहीं होती । आप एक स्थान से दूसरे स्थान पर
पहुंच जाते हैं । लेकिन आपके भीतर कु छ ऐसा भी है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता । आप कितने ही चलते फिरते रहे आपके भीतर एक अचल तत्व भी
है । उस अचल निष्क्रिय आकाश को ही सादा ध्यान में रखें । आपके ऊपर क्रॉफ्ट के बादल आ गए । यह कामवासना ने मन को धुएं से भर दिया या
लोभ का जहर फै ल गया । तब भी इन बादलों के बीच पीछे छिपे आकाश को स्मरण रखें क्योंकि बादल अभी नहीं थे, अभी है अभी फिर नहीं हो जाएंगे
और जो क्षण भर को आया है और क्षण भर में चला जाएगा, उसके कारण विचलित होने का कोई भी कारण नहीं । उस से विचलित वही होता है जो
भीतर के शांति के प्रगाढ आधार को भूल जाता है । एक खता है एक सम्राट बुरा हुआ । उसने अपने मंत्री मंडल को बुलाया और उनसे कहा कि मैं बूढा
हुआ और मौत करीब आते हैं । अब तक मैंने ज्ञान की कोई कभी चिंता नहीं की लेकिन मौत करीब आती है तो ज्ञान की भी चिंता पैदा होती है ।
अगर मौत ना होती तो शायद दुनिया में ज्ञानी ही मुश्किल से होते हैं । अगर मौत ना होती तो शायद धर्मों का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता था । अगर
मौत होती तत्व चिंतन की कोई जगह नहीं बन सकती थी । उस बुरे सम्राट ने कहा कि मन बहुत घबराता है और अब मैं कोई ऐसा आधार चाहता हूँ
जहाँ इस घबराहट से मैं बच सकूँ और अब तक मैंने जो भी इंतजाम किए वह सब व्यर्थ हुए जाते हैं । अब तक उनका भरोसा था, बहुत थी तो पे
थी, महल है, अके ले थे, सुरक्षित था लेकिन अब ये फौजी और ये पत्थर की दीवाने कु छ भी नहीं कर पाएंगे । मौत करीब आये चली जाती है । मुझे
कोई ऐसा सूत्र चाहिए की मौत मुझे भयभीत ना करें । ये बुढापा द्वार पर दस्तक देता है । बहुत कप्ता है मन । मंत्रियों ने कहा हम सलाह दे सकते थे
और बडा किला कै से बनाया जाए । हम सलाह दे सकते थे । फौजी और बडी कै से की जाए लेकिन जिस संबंध में आप पूछ रहे हैं उस संबंध में तो
हमें कु छ भी पता नहीं तो सारे राज्य में खबर खोजबीन की गई । एक बूढे ने आकर कहा कि मैं एक सूत्र दिए देता हूँ जो वक्त पर काम लेकिन जब
तक वक्त ना आ जाए तब तक इसे खोलकर देखना मत । जब तुम्हें ऐसा लगे कि सब उपाय व्यर्थ हो गए । तुम जो भी कर सकते थे अब किसी काम
का नारा जब तक तुम कर सको तब तक तुम कर लेना । जब तुम पाओगे तुम्हारी करने की क्षमता छु प गई । अब तुम कु छ भी नहीं कर पाओगे । तभी
इस सूत्र को उसने ताबिज में बंद करके वो सूत्र दे दिया । संभालना होता बिच अपनी बात पर बांध लिया । कई मौके आए जब मन हुआ कि खोल के
ताबीज देख ले लेकिन तब उसे पता चला कि अभी तो मैं कु छ कर सकता हूँ । वर्षों बीत गए फिर दुश्मन का हमला हुआ और वो राज्य हार गया और
हारा हुआ घोडे पर भागा जा रहा है दुश्मन उसके पीछे । तब अचानक उसे ताबीज का ख्याल आया और उसे लगा अभी तो मैं कु छ कर ही सकता हूँ ।
अभी दुश्मन दूर है । तेज घोडा मेरे पास है । अभी मैं इन सीमाओं के बाहर निकल ही जा सकता हूँ । वो भागता रहा लेकिन अचानक ऐसे मोड पर
पहुंचा । पहाड के आगे रास्ता समाप्त था । गड्ढा गया पीछे लौटने का कोई उपाय ना रहा । पीछे दुश्मन उनके गोलों की टाप प्रतिपल बढती चली जाती है
और आगे खट है और आगे जाया नहीं जा सकता । रास्ता बस एक छोटी पगडंडी आखरी घोडे की मालूम पडने लगी कि बस अब छाती पर ही पड रही
सिर पर ही पड रही । तब उसने तोड के ताबीज पढा । उसमें छोटा सा वाक्य लिखा था लिखा था यह भी बीत जायेगा दिस टू विल पॅन और कु छ भी
नहीं कोई उपाय भी नहीं था करने का ताबीज हाथ में लिए वो खडा रहा बुद्धि को साथ ना देती । मालूम पडी ये भी क्या धोखा दिया सोचता था कोई
मंत्र होगा, कोई जादू होगा, कोई चमत्कार की ताकत होगी की कु छ भी कर लूँगा इसमें कु छ भी नहीं था । कागज के छोटे से टुकडे पर लिखा था यह
भी बीत जाए खडा रहा आसान घोडों की टापों की आवाज बढती गई बढती गई बढती गई और फिर धीमी पडने लगी । उन्होंने कोई दूसरा रास्ता पकड
लिया था । फिर घोडे दूध निकल गए । फिर उसमें ताबीज उसको वापस बांध लिया । वापिस उसकी फौजी जीत गयी । वो अपने राज्य में लौट आया ।
लेकिन तब से वो हर घडी ताबिज को खोल के और पढने लगा । हर घडी किसी ने उसे गाली दे दी है । अपमान कर दिया । अब वो कागज को पढ
लेता और मुस्कु राता ताबीज को बंद कर लेता । उस दिन से उसे किसी ने चिंतित नहीं देखा । उस दिन से उसे किसी ने दुखी नहीं पाया । उस दिन
से किसी ने उसे क्रोधी नहीं पाया । उस दिन से मौत जीवन कोई चिंता उसकी ना रह गई । उसके मंत्री उसके आस पास घूमते थे कि कभी उसके
कागज में जान ले । क्या है मंत्र आदमी बिल्कु ल ही बदल गया । क्या है जादू? उस मंत्र में बस एक छोटा सा सूत्र था । यह भी बीत जाएगा । अगर
ठीक से समझे तो जो भी बीत जाता है वो आपके भीतर बादल है और जो नहीं बीतता वही आप जो भी आता है और बीत जाता है वो आप नहीं ।
इस बात की स्मृति गहरी हो जाए तो आप प्रशांति के आधार से जुड गए । वो सम्राट जुड गया प्रशांति के आधार जो मेरे भीतर नहीं बीतता है कभी वही
मैं लेकिन मेरी सब क्रियाएं बीत जाती है मैं कु छ भी करूं वो बीत जाता है तो मेरे करने से शास्वत नियम से कोई जोड नहीं वरन मेरे ना करने की जो
अवस्था है वही शास्वत से संयुक्त सभी चीजें रूपायित होकर सक्रिय होती है । सभी चीजें रूप लेती हैं, सक्रिय हो जाती है बादल रूप लेता है, सक्रिय
हो जाता है, वृक्ष रूप लेता है सक्रिय हो जाता वासना आपके भीतर रूप लेती है, सक्रिय हो जाती है । सभी चीजें रूपायित होके सक्रिय होती है लेकिन
हम उन्हें विश्रांति में पुनः वापस लौटते भी देखते हैं । लाल से कहता है सभी कु छ बनता है निर्मित होता है फिर हम इन्हें लौटते भी देखते हैं वापिस
विश्रांति में गिरते भी देखते हैं जब सभी बनके गिर जाता है अगर ये दिखाई पढना शुरू हो जाए । अगर ये दिखाई शुरू हो जाए कि सभी रूप चाहे वो
सुंदर हो या कु रु, चाहे वे प्रीतिकर हो या प्रीतिकर बनते हैं और बिखर जाते हैं । बिखरना अनिवार्य नियम है, बनने का ही हिस्सा है बिखर जाना जो
आज पैदा हुआ है वह मरने को ही पैदा हुआ है और जो फू ल खेला है । वो गिरने को ही खिला । वो गिरना कु म लाना बिखर जाना खेलने का ही
दूसरा हिस्सा है । अगर इतना आरपार दिखाई पढना शुरू हो जाए तो आपके पास धर्म की आँख पैदा हो गयी । बुद्ध कहते थे धर्म चक्षु इसको वो कहते
थे सब अनित्य है, सब मरन धर्म है, कु छ भी टिके गा नहीं, कु छ भी बचेगा नहीं । जिसका भी आदि है उसका अंत है । इसे जो देख लेता है उसे
धर्म चक्षु उपलब्ध हो जाता है । उसे वो आँख मिल जाती है जिसको हम धर्म की आँख कहे, कु रान को कोई काॅस्ट कर ले तो वो आँख नहीं मिलती
और न गीता को काॅस्ट करने से मिलती है वो आँख मिलती है । इस अनुभव से हमें तो रूप दिखाई है । आकाश में बादल बना तो हमें बादल दिखाई
पडता है, आकाश खो जाता है जो सादा था और जो अभी भी है और जो आगे भी होगा वो भूल जाता है और बादल सब कु छ हो जाता है और जब
बादल होता है तो हम ये भूल ही जाते हैं कि थोडी देर में बादल बिखर जाएगा । ये बादल कु छ भी नहीं सिर्फ घनी हो गयी । भाप सिर्फ शगुन हो
गई, सगन हो गया धुआँ है ये खो जाएगा । जो व्यक्ति बादल घिरे हो तब भी ये देख पाता है । जिस व्यक्ति के लिए जब बादल घिरे हो तब भी
आकाश स्वच्छ दिखाई पडता है । उसे धर्म की आँख उपलब्ध हो गई, सब रोग निर्मित होते हैं, बिखर जाते हैं लेकिन रूप मन को बडा पकड लेते हैं ।
वास्तविक रूपों को तो हम छोड दें । अगर एक सुंदर शरीर की तस्वीर भी है तो लोग उसको भी उसको भी छापी से लगाए देखे जाते हैं । कागज के
टुकडे पर कागज के टुकडे पर शाही की रेखाएं एक रुक बन जाते हैं । लोग उससे भी आंदोलित होते हैं । लोग उससे भी प्रभावित होते हैं । लोग उससे
भी जगह जाते हैं तो जो कागज पर खींची गई रेखाओं से आंदोलित हो जाते हैं वे अगर मांस, मज्जा और हड्डी की रेखाओं से प्रभावित हो जाते हो तो
आश्चर्य तो नहीं
लेकिन जो कागज पर खिंची रेखाओं से आंदोलित होते हैं अगर थोडा गौर से देख पाए तो पीछे कोरा कागज ही दिखाई पडेगा और जो हड्डी मास मजा
से भी प्रभावित होते हैं वे भी थोडा गहरा देख पाए तो उन्हें भी पीछे पीछे कोरा आकाश से दिखाई पडेगा । सभी रूप सही से खींची गई रेखाओं कही
रूप है । सभी रूप चाहे एक वृक्ष निर्मित हो रहा हो और चाहे एक व्यक्ति निर्मित हो रहा हो और चाहे एक सूर्या निर्मित हो रहा हूँ । सभी रूप बुद्ध ने
कहा है, सभी चीजें संघा थे जोड सभी जो बिखर जाते हैं । बुद्ध की मृत्यु करीब आई है । भिक्षु रो रहे हैं । एक भिक्षु बुद्ध से पूछता है कि अब आप
अब आपका क्या होगा? आप कहाँ जायेंगे? किस मोक्ष में बुद्ध का मैं कहीं भी नहीं चाहूँगा और जिसे तुम समझते थे मेरा होना, वो तो सिर्फ संघात वो
तो के वल रेखाओं का जो है वो तुम्हारे सामने बिखर कर यही मिट्टी में मिल जाएगा । तुम ही उसे दफनाओगे जिससे तुम समझते हो मेरा होना । वो तो
यही मिट्टी में मिल जाएगा । वो रूप तो इसी मिट्टी से निर्मित हुआ है और जो मैं हूँ उसका कहीं कोई आना जाना नहीं है । लेकिन उसे तुम नहीं जानते
हो । प्रत्येक रूप के भीतर अरूप छिपा है, बिना आरोप के रूप नहीं हो सकता । जैसा मैंने कहा बिना आकाश के बादल नहीं हो सकते । आरोप
अनिवार्य है रूप के लिए लेकिन रूप हमें दिखाई पडता है । आरोप हमें दिखाई नहीं पडता से कहता है सभी चीजें रुपाय तो के सक्रिय होती है लेकिन
हम उन्हें विश्रांति में पुणे वापस लौटते भी देखते हैं । यही देख लेना धर्म है जैसे वनस्पति जगत लहलहाती वृद्धि को पाकर फिर अपनी उद्गम भूमि में लौट
जाता है । एक पौधा निर्मित होता है, फू ल खिलते हैं, सुगंध आती हवाओं से टक्कर लेता है । सूरज को छू ने की आकांक्षा से आकाश की यात्रा पर
निकलता है । कितना रंग, कितना रुक, कितनी आकांक्षा, कितना विश्वास फिर सब खो जाता है । फिर साल छह महीने बाद वहाँ जाकर देखें तो कु छ
भी नहीं । मिट्टी वापस मिट्टी में गिर गई । जैसे एक लहर ने छलांग ली हो, फिर वापस गिर गई हो । लेकिन जब ये पौधा होता है और जब इसमें
फू ल खेलते हैं, जब ये रूपायित होता है, तब हमें पीछे का खाली आकाश दिखाई नहीं पडता । लाओ से वही कह रहा है लेकिन सब चीजें वापस लौट
जाती है । जिस व्यक्ति को चीजों का वापस लौटना भी दिखाई पढने लगता है, वही व्यक्ति निष्क्रियता की चरम सीमा को छू पाएगा और वही व्यक्ति
विश्रांति के अत्यंत इक आधार के साथ जुड जायेगा । उदगम को लौट जाना विश्रांति ये तो दृष्टि की बात हुई ये तो दृष्टि उपलब्ध होनी चाहिए । दिखाई
पढना चाहिए एक पौधे को तो हम देख भी सकते हैं । हाँ हाँ कि कल ये मिट जायेगा लेकिन ये पौधे को हम देख रहे हैं । एक बादल को तो हम देख
भी सकते हैं की घडी बर्बाद बिखर जाएगा लेकिन ये बादल को हम देख रहे हैं । जिस दिन कोई व्यक्ति इस अंतर्दृष्टि को स्वयं पर भी लागू कर लेता है
। जिस दिन वो कहता है कि मुझे भी जो दिखाई पड रहा है ये मेरी देह और ये मेरा मन और ये मेरे विचार और ये मेरी अस्मिता मेरा अहंकार ये मेरी
बुद्धि, ये जो कु छ भी मुझे दिखाई पड रहा है मुझे ये भी वापिस उद्गम में गिर जाएगा । वैसे ही जैसे सब रूप गिर जाते हैं जब कोई व्यक्ति दृष्टि को
अपने पर भी लौटा लेता है । तब लाओ से कहता उद्गम को लौट जाना विश्रांति है और ऐसे अनुभव में जो भर जाता है वो लौट गया अपने उद्गम
जिससे यह दिखाई पड गया अपने भीतर की मेरा भी सब जो भी रूप आए थे वो सब बिखर जाएगा । वो आज ही अपनी विश्रांति में लौट गया । ये
वचन बहुत कीमती तो रिटर्न टो रूट रिपोर्ट्स वो जो मूल उद्गम है, जो जडें हैं, वहां लौटने का जो बोध है वो लौट जाना है और अपनी जडों को
अपने उद्गम को पा लेना । परम विश्रांति वो जो बुद्ध के चेहरे पर शांति की छाया है वो किसी ध्यान का परिणाम नहीं । वो किसी मंत्र जब का परिणाम
नहीं । अगर एक व्यक्ति मंतर को जब पता रहे तो भी चेहरे पर एक शांति आनी शुरु हो जाती है । कल टिवेट इड जेठ से निर्मित अगर एक व्यक्ति को
ऍम िकली शांत करना हो तो किया जा सकता है । उसके सारे खून में अगर ट्रेन करुँ गी डाल दिए जाए तो चेहरे पर एक शांति आ जाएगी । लेकिन
मुर्दा मरी हुई मरघट की शांति बुद्ध के चेहरे पर जो जीवित शांति है वो किसी क्रिया का फल नहीं है । वो उस उद्गम में लौट जाने से जो रिपोर्ट उं जो
विश्रांति मिलती है वही है । बुद्ध को बैठा हुआ देखें उनकी मूर्ति को देखो तो जो भी उनकी मूर्ति को गौर से देखेगा उसे लगेगा जैसे इस मूर्ति के भीतर
भी कोई सेंटर है जिस पर ये पूरी मूर्ति उस कें द्र से जुडी ये पूरी मूर्ति भी जैसे किसी कें द्र से जुडी कोई कें द्र सब चीजों को सम्भाले हुए अगर आपको
कोई देखे चलते उठते बैठते । ऐसा पता चले कि आपके भीतर कोई कें द्र नहीं या बहुत कें द्र एक साथ एक भीर आपके भीतर एक बाजार भरा उसमें कई
तरह के लोग बडे विपरीत स्वर जो बादलों से अपने को जोडेगा उसकी यही हालत हो जाएगी । आकाश तो एक है बादल अनेक और जो अभी छोटा
बादल है थोडी देर बाद बडा हो जाए और जब ये बडा बादल है थोडी देर बाद टुकडे टुकडे में बिखर जाएगा और बादल के रूपों का भी कोई भरोसा है
। अभी जो बादल बहुत सुन्दर लग रहा था छठ बर्बाद हो जाए बादल तो धुआँ है वो प्रतिपल रूप बदल रहा है तो जो व्यक्ति भी अपने को अपनी
क्रियाओं से जोडता है जो व्यक्ति भी अपने को अपनी उपलब्धियों से जोडता है, जो व्यक्ति भी अपने भीतर बादलों का ही इकट्ठा अहंकार है वो व्यक्ति
प्रतिपल एक भीड में डाल रहा है । जैसे ही किसी व्यक्ति को ये ख्याल में आना शुरू हो जाता है कठिन है ये ख्याल में आना और सिर्फ तात्विक चिंतन
से नहीं ख्याल में आएगा । मैं ये भी देख सकता हूँ कि ये वृक्ष कल गिरेगा । ये देखना बहुत कठिन है कि कल मैं गिरूं सभी लोग जानते हैं कि सभी
लोग मारेंगे स्वयं को छोड कर । सभी लोग जानते हैं कि सभी हड्डी मास मत जा के पुतले स्वयं को छोड कर स्वयं को हम जोडते ही नहीं कभी वो
हिसाब में ही नहीं उसे हम बचा के ही चलते हैं ये ख्याल में ही नहीं आता । इस सारे बदलते हुए रूप के जगत में मैं भी एक रूप हूँ बहुत पीरा होगी
ये ख्याल में लाना, उस पीडा को ही तपश्चर्या कहें ये मानना कि मैं भी हड्डी मास मत जाऊँ ये जानना की मैं भी कागज पर खिंची गई रेखाओं का एक
आकृ ति हूँ ये अनुभव करना । प्रतिपल इस अनुभव को स्मरण रखना कि धुएं का एक बादल हूँ अति कठिन क्योंकि ये अगर ख्याल में रहे तो अहंकार को
खडे होने की जगह कहाँ? फिर मैं अपनी प्रतिमा कै से बनाऊँ ? मेरा फिर इमेज कहाँ बने? फिर मैं कौन हूँ? खाली जिब्रान ने कहा है कि जब तक अपने
को नहीं जानता था तब तक समझता था एक ठोस प्रतिमा और जब अपने को जाना और मुट्ठी खोली तो पाया कि हाथ में सिर्फ धुएं को मुट्ठी में बंद
करके बैठा था हम सबकी मुठ्ठियों में भी धुआं बंद है, लेकिन इससे सुन लेते हैं । बौद्धिक रूप से समझ में भी आ जाए, लेकिन अंत स्थल में प्रवेश
नहीं होता क्यों नहीं होता क्योंकि हमने जो भी आपने चारों तरफ जिंदगी बना कर रखी है, अगर मैं ये जान लू की मैं मुट्ठी में बंद एक धुँआ टुकडा हूँ
तो मेरे चारों तरफ जो मैंने बना के रखा है वो अभी बिखर जाए । किसी ने मुझसे कहा है कि आप बहुत सुंदर है और मुझे आप से प्रेम है और अगर
मुझे आज पता चले कि मैं एक दुनिया का टुकडा हूँ तो मेरे प्रेम का क्या होगा? और किसी से मैंने कहा है कि मेरा प्रेम कोई कथा कहानियों का प्रेम
नहीं । ये शास्वत प्रेम मैंने किया है तो सादा करूँ गा । अगर मुझे पता चले कि जिसने ये आश्वासन दिया है वो खुद ही धुएं का एक पिंड है । उसके
आश्वासनों का कोई भरोसा नहीं है तो मेरे प्रेम का क्या होगा? मैंने अपने चारों तरफ जो इन्वेस्ट मिंट किए हैं, जिंदगी में वो सब मुझे कहेंगे की ऐसी
बातें मत सोचो । तुम ठोस हो, तुम्हारे वचनों का अर्थ है तुम्हारे वक्तव्य टिकें गे । लोग गीत गाते हैं कि चाँद तारे नहीं रहेंगे तब भी उनका प्रेम रहेगा ।
वो सब का क्या होगा वो जो दूर अनंत पर हमने सपने फै ला रखे । अगर मैं ही धुँआ हूँ तो मेरे प्रेम का क्या अर्थ है और अगर मैं ही धोता हूँ तो
मेरे वचन का क्या मूल्य है? और जब मैं ही मिट जाऊं गा तो मेरे वचन न मेरे कृ प उन सब को किस तरह तो बोलने का उपाय है । कोई उपाय नहीं
है इसलिए इसलिए कठिनाई होती बात कभी समझ में भी आ जाती है । किन्हीं क्षणों में लगने भी लगता है ये सब पानी पर खींची गई लकीरें । लेकिन
तब भय मन को पकडता है क्योंकि वो चारों तरफ जो जाल हमने फै ला के रखा है उसका क्या होगा? घबरा के हम वापस जैसे जिंदगी चलती है, उस
ढांचे मुझसे चलने देते हैं । हर ढांचा हमारी दृष्टि पर निर्मित है । अगर हमारी दृष्टि बदलती है तो पूरा ढांचा बदलना पडेगा । पूरा पॅन जिंदगी का बदलना
पडेगा । लिन तंग ने एक संस्मरण लिखा है चीन से किसी मित्र ने एक जर्मन विचारक को एक छोटी सी लकडी की पेटी भेंट की । बहुत खूबसूरत, बहुत
कलात्मक, हजारों वर्ष पुरानी लेकिन जिसने भी उस बेटी को निर्मित किया था, उसपे एक शर्त खुदी थी की बेटी का मुंह सूरज की तरफ ही होना चाहिए
और हजारों वर्षों में जितने लोग उस पे टी के मालिक रहे थे, उन्होंने उस शर्त को पाला था । चीनी मित्र ने कहा कि मैं ये भेंट तो कर रहा हूँ लेकिन
एक शर्त के साथ सूरज की तरफ इस पे टी का मुँह होना चाहिए । इसे किसी हालत में न तोडा जाए । हजारों वर्ष की वसीयत है । मित्र ने कहा ऐसी
क्या कठिनाई है इसका हम पालन करेंगे । लेकिन जब मित्र ने आके आपने बैठक खाने में पेटी रखी और उसका मुँह सूरज की क्या? तो पूरा बैठक खाना
बेजोड मालूम पडने लगा तो उसमें बजाय पेटी को बदलने के पूरे बैठ खाने को बदलवा दिया । खर्चीला था काम सब फर्निचर फिर से बनाया गया । दीवारों
का रुख ठीक किया गया । दरवाजे बदले गए लेकिन तब बैठक खाना पूरे घर में गैरमौजूद हो गया । हिम्मतवर आदमी था । उसने पूरे घर को बदलवा के
बैठक खाने के हिसाब से बनवाया । लेकिन तब उसने पाया कि उसका घर पूरे पडोस से बे मौजूद हो गए । पर उसने कहा अब तो मेरी सीमा के बाहर
है । मामला एक छोटी सी बदलाहट चारों तरफ बदलाहट लाना शुरू कर देती है और दृष्टि की बदलाहट छोटी बदलाहट नहीं । दृष्टि की बदलाहट गहरी से
गहरी बदलाहट जैसे ही दृष्टि बदलती है । आप वही आदमी नहीं रहे जो एक क्षण पहले थे । आपका सब बदलेगा वो घबराहट की ये सब को कै से बदला
जाएगा, आदमी को रोक लेती है और यही साहस ना हो तो आदमी जीवन भर धर्म की बाते सुनता रहे, धार्मिक नहीं हो पाता । लाउड से कहता है
उदगम को लौट जाना विश्रांति वो जो मूल आकाश वो जो शून्य छिपा है भीतर और आकाश का शून्य है । आकाश का अर्थ है नथिंग आकाश कोई वस्तु
तो नहीं है । आकाश है अस्तित्व वस्तु नहीं, आकाश का कोई रूप तो नहीं । आकाश में कोई ठोसपन तो नहीं फिर भी आकाश है रिक्त स्थान है ।
आकाश, अवकाश, स्पेस सब कु छ उसी में होता है और मिटता है और वो अछू ता अस्पर्शित बना रहता है । इसे ही अपनी नियति में वापस लौटना
कहते हैं । फॅ स में कहता है इस उदगम में गिर जाना, मूल स्रोत में गिर जाना या मूल स्रोत के साथ अपने को एक अनुभव कर लेना ही नियति में
वापस लौटना, सभाओं में, प्रकृ ति में वही हमारी डेस्टिनी है । वही हमारी नियति है और जब तक कोई व्यक्ति इस मूल उद्गम के साथ एक नहीं हो जाता
तब तक भटकता ही रहता है, जन्मों जन्मों भटक सकता है । जब तक किसी ने रूप के साथ अपने को जोडा आकृ ति के साथ अपने को जोडा तब
तक भटकता ही रहेगा । ये जो जन्मों की इतनी लंबी यात्रा है ये रूप के पीछे आकार के पीछे उपलब्ध कराना शास्वत नियम को पा लेना है तो जगत में
दो नियम है एक जिसे हम जगत कहते हैं वहाँ परिवर्तन नियम है चेंज उं जिससे हम जगत कहते हैं वहाँ परिवर्तन नियम सब कु छ नदी की तरह बाहर
जाता है । वहाँ कु छ भी पंद्रह नहीं होता और वहाँ कु छ भी ठहरा हुआ नहीं । विज्ञान इसी परिवर्तन के जगत की खोज और इसलिए विज्ञान को रोज
अपने नियम बदलने पडते हैं । एक मजाक वैज्ञानिकों में चलती है । जैसा कि बाइबल में कहा है कि ईश्वर ने कहा
प्रकाश हो जा और प्रकाश हो गया तो वैज्ञानिकों में एक पुराना मजाक था कि जब नूंह पैदा हुआ तो उन के साथ ऐतिहासिक नया मोड लेता है ।
विज्ञान के जगत में नौं ज्यादा कीमती आदमी दूसरा नहीं तो वैज्ञानिक कोई मजाक प्रचलित हुआ कि ईश्वर ने कहा हो जाए और हो गया और फिर दुनिया
कभी वैसी नहीं हो सकी जैसी न्यूटन के पहले थी । फिर हुआ इंस्टिंक्ट तो किसी ने उस मजाक में थोडी बात और जोड दी क्योंकि न्यूटन के साथ पैदा
हुआ कानून नियम और ने जगत को समझाने के तीन नियम स्थापित किए और सब चीजें व्यवस्थित हो गई, पैदा हुआ और सब चीजें व्यवस्थित हो गई ।
तीन नियम सुनिश्चित रूप से निर्धारित हो गए और सारा जगत के पहले क्या था एक अराजकता के बाद एक व्यवस्था हो गई । फिर मजाक में किसी
और दूसरे ने जोड दिया है कि फिर इस पर से परेशान हो गया और उसकी व्यवस्था क्योंकि सब व्यवस्थाएं उबाने वाली हो जाए तो ईश्वर ने कहा कि
आइंस्टीन हो, आइंस्टीन हो जाए और आइंस्टीन हुआ ऍम और वो जो पुरानी अराजकता थी के पहले आइंस्टीन वापस खडी कर दी । उसने सब नियम
डगमगा दिए । सब अस्त व्यस्त हो गया । न्यूटन ने बमुश्किल दो दो चार होते हैं ये सिद्ध किया और आइंस्टाइन ने कहा कि दो दो चार कभी हो ही
नहीं सकते । सब अस्त व्यस्त हो गए और आइंस्टीन ने भी जो कहा वो रोज बदलना पडता है । रोज बदलना पडता है । विज्ञान रोज बदलता रहेगा
क्योंकि विज्ञान जिसकी खोज करता है वो जगत हीरोज बदलता चला जाता है । जिस चीज की हम खोज कर रहे हो अगर वो रोज बदलता जाता हो तो
उसका कोई भी फोटो ऍफ ज्यादा देर तक काम का नहीं रहेगा । दो चार दिन बाद हमें पता चलेगा की तो किसी और का चित्र चित्र तो ठहर जाएंगे और
जगत चलता चला जाएगा । इसलिए जगत का कोई चित्र अत्यंत एक अल्टीमेट नहीं हो सकता । आइंस्टाइन ने कहा है कि जगत का ज्ञान कभी भी पूर्ण
नहीं हो सकता क्योंकि वो रोज बदलता चला जा रहा है । ये मामला कु छ ऐसा है कि आपके गाँव का जो रास्ता है, स्टेशन पहुँच जाता है क्योंकि
स्टेशन चलती फिरती नहीं । कल आप जिस रास्ते से गए आज भी जाएंगे वही मिल जाएगा । लेकिन अगर स्टेशन चलती फिरती हो तो फिर रास्ते तय
नहीं रह जाते हैं । तब कभी गलत रास्ते से चला हुआ आदमी भी पहुँच सकता है और कभी सही रास्ते से चला हुआ आदमी भी ना पहुँचे वो तो
स्टेशन फिर है । इसलिए रास्ते ते अगर जगत ही एक अस्थिरता है । एक परिवर्तन तो उसके कोई नियम फिर नहीं हो सकते । इसलिए विज्ञान को हर
दो चार पाँच वर्षों में करवट बदल लेनी पडती है । तो विज्ञान आज से तीन सौ साल पहले तो कहता था की शक्ति की हमारी खोज बट नसल ने अभी
कु छ वर्ष पहले कहा था सत्य की बात बंद कर दो, सिर्फ सत्य के निकट पहुंचने की खोज काफी डोंट टॉक अबाउट ऍप्स लुटरू ओनली अप रोक सिमिट्री
उं बस करीब करीब सत्य । लेकिन ध्यान रहे करीब करीब सत्य कु छ होता है करीब करीब प्रेम कु छ होता है । करीब करीब चोरी कु छ होती है । करीब
करीब सत्य कु छ भी नहीं होता । करीब करीब सत्य का मतलब ये है ऐसा असत्य जो अभी कम दे रहा है । कल पता चल जाएगा, काम नहीं देगा तब
दूसरे असत्य से काम लेना पडेगा । परसों पता चल जाएगा । फिर तीसरे असत्य से कम करीब करीब सत्य का अर्थ होता है जो असत्य अभी असत्य
सिद्ध नहीं किया जा सकता है । लेकिन ये स्वाभाविक है । ये स्वाभाविक है क्योंकि जिस विषय से विज्ञान का संबंध है वही बदलता चला जाता है । लाल
से कहता है एक शास्वत नियम भी है । एक इटरनल लाभ भी वो नहीं बदलता लेकिन उसके लिए फिर जो जो बदलता है उसे छोडकर खोजना पडेगा ।
जो भी बदलता है उसे छोडकर खोजना पडेगा इसलिए धर्म के नियम बदलते नहीं । पश्चिम में कई विचारकों को चिंता जन्मती । बुद्ध ने कु छ कहा कृ ष्ण ने
कु छ कहा या क्राइस् ने कु छ कहा और आज तो हमारे मुल्क में भी बहुत लोगों को पश्चिम का ख्याल महत्वपूर्ण मालूम होगा । बुद्ध को मारे ढाई हजार
वर्ष हो गए । बुद्ध का सत्य आज भी सत्य कै से हो सकता है? ठीक है अगर सौ वर्ष पहले के विज्ञान का सत्य सौ वर्ष बाद सत्य नहीं रह जाता है ।
दस वर्ष पहले का विज्ञान का दस वर्ष बाद सत्य नहीं रह जाता तो ढाई हजार साल पहले हुए कृ ष्ण या बुद्ध या महावीर का सत्य कै से सत्य रह जायेगा
और उनका कहना ठीक है । क्योंकि जो भी जो भी सत्य की तरह ये जानते हैं वो रोज बदलता चला जाता है । लेकिन उन्हें कृ ष्ण के सत्य का कोई
पता नहीं । उन्हें लव से के सत्य का कोई पता नहीं । लव से उस सत्य की ही बात कर रहे हैं जहां परिवर्तित होने वाला सब छोड दिया गया है ।
वो शर्त पहले ही पूरी कर दी गई है । जो बदलने की धारा है उस धारा को छोड दिया गया । धर्म से उसका कोई लेना देना नहीं है । धर्म का तो
उस से लेना देना है जिसमें ये बदलती धारा बह रही थी । बादलों से कोई प्रयोजन नहीं आकाश कि खोज है जिसमें आप बादल बनते हैं और बिगडते
निश्चित ही कोई आदमी कह सकता है कि बादल सुबह देखो दोपहर वही नहीं रह जाते हैं । सांझ महीने रह जाते हैं और एक से बादल तो दोबारा कभी
देखे नहीं जा सकते । ये तुम किस आकाश की बात कर रहे हो? जब बादल बादल जाते हैं तो आकाश भी बदल जाता होगा । तुम उसी आकर्ष की
बात किये चले जाते हो । लेकिन आकाश सनातन जो भी बदलता है वो आकाश में है लेकिन आकाश नहीं है । वो जो भी बदलता है वो आकाश में ही
बदलता है । पर आकाश नहीं बदलता है इस आकाश की जो खोज है इस इनर स्पेस की अंतर की जो इसलिए लाओ से कहता है । जब भी कोई पा
लेता है तो उसने अपनी नियति पाली उसने पा लिया जिसे पाने पर सब सब मिल जाता है और जिसे ना पाने पर कु छ भी नहीं मिलता है । उसने
अपना घर पा लिया । उसने खोज लिया घर अब सरायों में ठहरने की जरुरत ना रही । अब वो अपने घर आ गया है । अब कहीं जाने का कोई सवाल
नहीं है । अब वो जगह मिल गई जिसकी तलाश थी हर आदमी तलाश में है । पता हो उसे ना हो पता हो सकता है ये भी पता नहीं हो क्या खोज
रहा है । सच तो यही है कि पता नहीं है कि क्या खोज रहे हैं । अगर कोई आदमी आपसे पूछे कि कहीं ईमानदारी से क्या खोज रहे हैं? आपको बडी
बेचैनी मालूम होगी और इसीलिए इस तरह के अशिष्ट प्रश्न कोई किसी से पूछता नहीं क्योंकि ये ये बेचैनी पैदा करते हैं और अगर कोई जोर से पूछता
चला जाए तो थोडी देर में घबराहट शुरू हो जाए कि आप क्या खोज रहे हैं । दूसरे दिन सुबह बिस्तर से उठना मुश्किल हो जायेगा । किस लिए उठ
रहे? क्या है? कोच कु छ पता नहीं क्या खोज रहे है लेकिन खोज जरूर रहे हैं । कु छ कु छ अनजान कोई चीज ढक आए चली जाती है और फिर ऐसा
भी नहीं है कि ये खोज कु छ मिलता ना हो । बहुत कु छ मिलता है और तृप्ति बिल्कु ल नहीं होती । इस जगत का मजा यही है कि यहाँ जो भी चाहो वो
कोशिश करने से मिल ही जाता है । आज नहीं कल कल नहीं, परसों कोशिश करने से मिल ही जाता है । और जब मिल जाता है तब पता चलता है
कि कोशिश व्यर्थ भी मिल तो गया कु छ मिला नहीं । जो आदमी अपनी सब आकांक्षाएं पाले उससे ज्यादा दुखी आदमी खोजना फिर मुश्किल है । थोडा
सोचे अगर परमात्मा एकदम प्रकट हो जाए आज इस भवन में और आपसे कहेगा आपकी सभी इच्छाएं पूरी हो गई । आप से ज्यादा दुखी आदमी इस पृथ्वी
पर फिर दूसरे नहीं होंगे । क्या करियेगा कहाँ जाइएगा? फिर सांस लेने की भी तो जरूरत ना रह जाएगी । मरने के सिवा कोई उपाय नहीं बचेगा । यही
होती है हालत जो भी पा लेता है अपनी आकांक्षाओं को वो अचानक पाता है कि कु छ बचा नहीं । अब क्या करना है और तृप्ति बिल्कु ल नहीं होगी ।
सब मिल जाए तो भी तृप्ति नहीं होगी क्योंकि अभी तक हमने उसे तो खोजने की शुरुआत ही नहीं किया जो नियति है । नियति का अर्थ होता है
डेस्टिनी का अर्थ होता है जिससे पालने पर तृप्ति हो जाए । इस फर्क को ठीक से समझ लेना उसे नियति नहीं कहते हैं जिससे आप पाना चाहते हैं ।
आप जिसे पाना चाहते हैं वो नियति हो भी सकती है । ना भी हो पता तो तब चलता है जब वो आपको मिल जाए । जब आपको मिल जाए तब अगर
आपको कोई तृप्ति ना हो तो समझना की वो नियत ही नहीं । नियति का अर्थ ही ये है कि उस चाँद आप उस परम बिंदु पर पहुँच गए जहाँ फिर कोई
और इच्छा नहीं । जहाँ फिर कोई खोज नहीं और तृप्ति है जहाँ कोई भविष्य नहीं है और परम तृप्ति लेकिन हम जो जो चाहते हैं, एक आदमी यश चाहता
है, यश मिल जाता है एक दिन और तब वो पता है की क्या है । मेरे हाथ में कु छ भी नहीं । पास पडोस के लोग मेरे संबंध में अच्छा सोचते हैं ।
बस यही मेरी मुट्ठी में है और तो कु छ भी नहीं । एक आदमी धन इकट्ठा कर लेता है और एकदम से धन को देखता है और पाता है कि पूरा जीवन
चुका दिया । इन इन टुकडों को इकट्ठा करने अब ये इकट्ठे हो गए । अब इनको गले में बांधकर फांसी लगाई जा सकती है और कु छ नहीं किया जा
सकता है । बानर सा ने लिखा है कि जिन लोगों ने कहा है कि नरक में बहुत सताए जाओगे वे बहुत कल्पना सील नहीं थे । बंसा ने कहा अगर मेरे
बस में हो नर्क की तस्वीर देनी तो मैं दूँगा । ऐसी तस्वीर की जहाँ तुम जो चाहोगे वो उसी वक्त मिल जाए । इससे बडा नर्क दूसरा नहीं हो सकता है
तुमने चाह नहीं मिला नहीं । इधर चाय और उधर पूरी हो गई और तृप्ति बिल्कु ल नहीं होगी क्योंकि हमारी कोई भी चाह नियति की चाह नहीं । हम जो
भी चाह रहे हैं वो शायद हमारी चाहे ही नहीं एक पडोस का आदमी एक कार खरीद लाता है और आपने भी एक चाय पैदा हो जाती है कि हाँ मेरे पास
भी हो जाएगा । एक पडोस खाद में एक मकान बना लेता है और आपके विचार हो जाती है । आपकी एक मकान बना, हम उधार जी रहे चाहे भी
हमारी उधार है वो भी हमारी अपनी नहीं । नियति का अर्थ है वो चार है जो आपके स्वभाव में जिसको आपने किसी से सीख नहीं लिया । इसलिए आज
आज भलीभांति बाजार में जो व्यापार की कला को जानते हैं वो भलीभांति जानते हैं कि वो पुराना अर्थशास्त्र का नियम गलत है कि जब लोगों में मांग
होती है तो ही तुम चीजें पैदा करो तो वो बिकें गी । अब तो लोग भलीभांति जानते है कि लोगों की कोई मांग तो है ही नहीं । तुम पहले मांग पैदा
करवाओ इसलिए बाजार में दस साल बाद अगर उत्पत्ति आने वाली हो आप की आप का सामान आने वाला दस साल पहले सर्वे टाइप करो । अभी
बाजार में कोई चीज ही नहीं है । पहले वासना पैदा कर दो और लोग उधार वासना से जीते दूसरा उनको पकडा देते हैं । फिर वो उसी के पीछे दौडने
लगते हैं और जीवन भर आदमी ऐसा दौडता रहता है । इसलिए जब आपकी आपकी वासना पूरी होती है तब आप पाते हैं ये तो कु छ भी नहीं हुआ । ये
तो रह हाथ लग गई । अब मैं क्या करूँ ? लेकिन सोचने का भी फु र्सत नहीं है क्योंकि तब तक और लोग कु छ और पकडा देते हैं और आप आगे चले
जाते । हर आदमी मारते जानता है कि मैं ना मालूम किन किन के पीछे दौडता रहा । ना मालूम किन किन की इच्छाएं मैं पूरी करने की कोशिश करता
रहा हूँ । मेरी भी कोई अपनी नियति थी । मैं भी कु छ पानी को इस जगत में था । मेरा भी कोई होने का क्रम था । अवसर तो खो गया । समय तो
व्यतीत हो गया कभी कपडे जुटाने में, कभी माकन बनाने में, कभी नाम यश कमाने में लेकिन मेरी नियति क्या थी? मैं क्या पानी को था? लाल से
कहता है । नियति तो उसी दिन उपलब्ध होती है जिस दिन कोई इस शास्वत नियम को इस आकाश को अपने भीतर पा लेता है । स्वयं की नियति को
पुनः उपलब्ध हो जाना, शास्वत नियम को पा लेना । सास्वत नियम को जानना ही ज्ञान से आलोकित होना है और शास्वत नियम का अज्ञान ही समस्त
विपत्तियों का जनक ये बादलों के पीछे जो भागने से विपत्तियां पैदा हो रही है । ये जो इतना दुःख आदमी उठाता है उन सुखों को पाने के लिए जिनमें
पाने पर कोई सुख नहीं मिलता । इतना जो दुःख उठाता है उन मंजिलों पर पहुंचने के लिए, जहाँ पहुँच के सिवाय थकान के कु छ हाथ नहीं लगता है
और हर मंजिल एक पडाव होती है । फिर किसी नई मंजिल की खोज के लिए ये इतना दुख लॉस से कहता है उस शास्वत नियम को न जानने का
परिणाम काश हम जान सके कि हमारे भीतर कोई एक ऐसा तत्व भी है अब परिवर्तनी, अमृत सादा और हम उसके साथ अपना संबंध जोड लें । एक हो
जाए फिर कितने ही बादल घिरे तो कितने ही आंधियां उठे फिर कोई अंतर
ना पडेगा । फिर कोई अंतर ना पडेगा । फिर जरा सा कं पन भी भीतर पैदा ना होगा । बादल आएँगे और चले जाएँगे, उठेंगे और बिखर जाएँगे और
भीतर शांति बनी रहेगी । इस शांति के सूत्र को पानी के लिए तीन बातें आखिर मैं आपसे कहूँ एक सादा अपने भीतर और अपने बाहर भी क्या परिवर्तित
हो रहा है वो और क्या परिवर्तित नहीं होता इसमें विवेक को डिस्क्रिमिनेशन को बनाए रखें । निरंतर ये ख्याल रखें की महत्वपूर्ण वही है जो बदलता नहीं
है । जब बदल जाता है वो महत्वपूर्ण नहीं वो गैर महत्वपूर्ण है । अपने भीतर भी जो बदल जाता है उसका कोई मूल्य नहीं है । जो नहीं बदलता वही
मूल्यवान उठते बैठते चलते उसका ही स्मरण रखें । रास्ते पे चल रहे है तो ध्यान रखें भीतर उसका जो नहीं चलता है । जो चल रहा है वो ठीक है,
भोजन कर रहे है । ध्यान रखे उसका जो भोजन नहीं करता और जिस से भूख भी नहीं लगती ठीक है शरीर को भोजन देना है उसे देते रहे । रात
सोते हुए बिस्तर पर गए है सोने को जाने की शरीर थक गया और सोने जा रहा है लेकिन वो भी है भीतर जो कभी नहीं सोता है । हर क्रिया में
उसका इस मान रखे । जो साक्षी जो देख रहा है भूख लगती है । काम तत्काल कहते हैं मुझे भूख लगी लेकिन भला बाहर ऐसा कहना पडे । भीतर ऐसा
है । सामान रखें कि मुझे पता चल रहा है कि शरीर को भूख लगी । मुझे पता चल रहा है कि पेट को भूख लगी अपने को द्रष्टा से ज्यादा नहीं करता
। कभी ना माने क्योंकि जैसे ही करता मना कर्म से संबंध जुड गया । जब आपको भूख लगेगी तो फिर आपको ही भोजन भी करना पडेगा । जब आप
जानेंगे कि शरीर को भूख लगी तो आप भोजन में भी जानेंगे कि शरीर नहीं भोजन किया और पीछे एक रिक्त दृष्टा एक लोकर एक दर्शक भीतर देखने वाला
पैदा हो जाए और तब सारी जिंदगी एक नाटक हो जाती है । तब क्रिया का जगत एक नाटक हो जाता है और वो निष्क्रियता ही आप का अस्तित्व बन
जाती है । निष्क्रियता को उपलब्ध करें निष्क्रियता को सदा स्मरण रखें । ध्यान को सादा निष्क्रियता पर दौडाते रहे । ध्यान जिस चीज पे दे वो दिखाई
पडने लगता है । इस कमरे में हम बैठे हैं इसको मनोविज्ञानिक ऍम कहते हैं । इस मकान में हम बैठे एक बार इस तरह देखें कि ये मकान दीवारों से
बना ध्यान दीवारों पे दे । बीच बीच में दरवाजे भी दिखाई पडेंगे लेकिन वो के वल दीवानों के बीच बीच में होंगे । दिवाली महत्वपूर्ण है । ध्यान दीवालों पर्दे
फिर अचानक ख्याल भूल जाये कि मकान दीवारों से बना है । ख्याल करे कि मकान तो एक रिक्तता है, दरवाजों से बना है । दीवाल ने बीच बीच में है
और तब आप पाएँगे कि इसी कमरे के भीतर आपको दो तरह के अनुभव होंगे । शायद ही कठिन मालूम पडे तो कु छ ऐसा करे । अपनी तीन उंगलियां
अपने आँखों के सामने कर ले और ध्यान दे की बीच की उंगली कें द्र है । बीच की उंगली पर ध्यान देके वो कें द्र है दोनों उंगलियाँ उसके आजू बाजू
और देखो एक दो मिनिट ऐसा देखो फिर अचानक ध्यान को बदले वही आँख रखे । दोनों उंगलियों पर ध्यान दे की दोनों उंगलियाँ महत्वपूर्ण है बीच में
उंगली बस बीच में तब आपको पता चलेगा कि इतने से फर्क से आपके भीतर सब बदलाहट हो जाती है । जब आप बीच की अंगुली पे ध्यान देंगे तो दो
नांगलिया बिल्कु ल फीकी मुर्दा मालूम पडेंगे जैसे है नहीं कहीं दूर मालूम पडेगी जब आप दोनों उंगलियों पर ध्यान देंगे तो बीच की उंगली कौन हो जाएगी या
ऐसा करें । एक हाथ नीचे रखें । अपना दूसरा हाथ ऊपर रखें और दूसरे हाथ को चला और ध्यान दे कि मैं जो हाथ चल रहा है उस में हूँ तो आपको
दूसरा हाथ बिल्कु ल पराया मालूम पडेगा अपना नहीं । फिर ध्यान को बदल दें और ख्याल करे की जो हाँ ठहरा हुआ है वो मैं हूँ और हाथ को चलाए ।
तब आप पाएँगे कि जो हाँ ठहरा हुआ है वो आप जो हाँ चल रहा है वो किसी और का ये इसलिए कह रहा हूँ कि ध्यान के बदलाव सिर्फ फोकस
बदलने की बात सिर्फ फोकस बदलने । ये दोनों साथ मेरे हैं और आपको पता भी नहीं चलेगा कि मैं इस समय किस हाथ से अपने को जोडे हुए हूँ ।
जो हाथ ऊपर चल रहा है अगर मैंने उससे अपने को जोडा है तो नीचे का हाथ पराया हो गए । वो मैं नहीं और आप बराबर अनुभव करेंगे कि नीचे का
हाथ आप नहीं जो चल रहा है वो फिर ठहरे हुए के साथ ध्यान को बदल दे । बाहर कोई बदलाहट नहीं हो रही लेकिन भीतर फोकस बदल गया ।
ध्यान कीधारा ऊपर के हाथ में बह रही थी । वो नीचे के हाथ में चली गयी । ऊपर का हाथ दूसरे का मालूम पडने लगी । जब आप भोजन कर रहे हैं
और सोचते हैं मैं भोजन कर रहा हूँ तब एक हालत है ध्यान की । और जब आप कहते हैं अनुभव करते है कि भोजन शरीर कर रहा है, मैं देख रहा
हूँ तब ध्यान का फोकस बदल गया । ध्यान दूसरा हो गया । जब आप रास्ते पे चलते सोचते हैं, मैं चल रहा हूँ तो ध्यान एक है । अगर आप ऐसा
ध्यान कर पाए की मैं देख रहा हूँ और शरीर चल रहा है । तत्काल फोकस बदल गया । ॅ बदल गया । पूरा ढांचा बदल गया । लव से की निष्क्रियता
को अगर अनुभव करना हो तो अपने भीतर जो आकाश है सादा उस पर ध्यान रखें और जो जो बादल है उनपे ध्यान मत रखें उनको उडने दे चलने दे
लेकिन ध्यान आकाश

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