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दुविधा - कहानी हिन्दवी
दुविधा - कहानी हिन्दवी
दुविधा - कहानी हिन्दवी
!वजयदान दे था
एक धनी सेठ था। उसके इकलौते बेटे की बरात धूमधाम से शादी संप; कर
वापस लौटते =ए जंगल म@ िवBाम करने के िलए Dकी। घनी खेजड़ी की
ठHी छाया। सामने िहलोर@ भरता तालाब। कमल के फूलP से आRािदत
िनमSल पानी। सूरज सर पर चढ़ने लगा था। जेठ की तेज चलती गमS लू से
जंगल चीVार कर रहा था। खाना-वाना खाकर चल@ तो बेहतर। दूWे के
िपता ने अिधक मनुहार की तो सभी बराती खुशी-खुशी वहाँ ठहर गए।
दुWन के साथ पाँच दािसयाँ थ\। वे सभी उस खेजड़ी की छाया म@ दरी
िबछाकर बैठ ग^। पास ही एक िवशाल बबूल था पीले फूलP से अटा =आ।
चाँदी के समान सफ़ेद िहलािरयाँ। शेष बराती उसकी छाया म@ बैठ गए। कुछ
देर िवBाम करने के बाद खाने का इं तजाम होने लगा।
दुWन की देह म@ nवेश करने का िवचार आने पर उसे वापस होश आया।
इससे तो यह तकलीफ पाएगी। ऐसे kप को तकलीफ कैसे दी जा सकती
है ! वो असमंजस म@ पड़ गया। यह तो अभी देखते-देखते चली जाएगी। िफर?
न उसम@ nवेश कर सताने को मन करता है और न छोड़े ही बनता है । ऐसा
तो कभी नह\ =आ। तो hा दूWे को लग जाऊँ? पर दूWे को लगने पर भी
दुWन का मन तो तड़फेगा ही! इस kप के तड़फने पर न बादल बरस@गे, न
िबजिलयाँ चमक@गी। न सूरज उगेगा,न चाँद। कुदरत का सारा नजारा ही
िबगड़ जाएगा। उसके मन म@ इस तरह की दया पहले तो कभी नह\ आई।
इस kप को दुख देने की बजाए तो खुद दुख उठाना कह\ अRा है । ऐसा
दुख भी कहाँ नसीब होता है ! इस दुख के परस से तो भूत का जीवन सफल
हो जाएगा।
दूWा इं सान जैसा इं सान था। न अिधकं सुंदर और न अिधक कुkप। िववाह
तो भरी जवानी म@ ही =आ था, पर उसे कोई खास खुशी नह\ =ई। पाँच
बरस बाद होता तो भी चल जाता और हो गया तो भी अRा। कभी न कभी
तो होना ही था। बड़ा काम िनबंट गया। नौलखे हार पर हाथ िफराते बोला,
'ये ढालू तो ढे ठ गँवारP की पसंद है । तुÜ@ इसकी áािहश कैसे =ई? खाने
की इRा हो तो गाँठ खोलकर छु हारे दूँ। नािरयल दूँ। जी-भरकर खाओ।
दुWन भी िनपट गँवार िनकली। हठ करती =ई-सी बोली, 'नह\, मुझे तो बस
ढालू ला दो। आपका एहसान मानूँगी। आप तकलीफ़ न उठाना चाह@ तो मुझे
इजाज़त द@, मÉ तोड़ लाती âँ।
दूWे ने तो िफर वही बात की। कहा, 'इन काँटP से कौन उलझे! जो एकदम
जंगली होते हÉ , वे ही ढालू तोड़ते हÉ और वे ही खाते हÉ । मखाने खाओ,
बताशे खाओ। चाहो तो िमBी खाओ। इन िनं बोली व ढालुओं की तो घर पर
बात ही मत करना। लोग हँ स@गे।
‘हँ सने दो।' दुWन तो यह बात कहकर तुरंत रथ से कूद पड़ी। िततली की
तरह केर-केर पर उड़ती रही। कुछ ही देर म@ ओढ़नी भरकर सुखS ढालू ले
आई। घड़े के पानी से उã@ अRी तरह धोया। ठं डा िकया। हPठP और ढालुओं
का रं ग एक सा, पर दूWे को न ढालुओं का रं ग अRा लगा, न हPठP का।
वो तो िहसाब म@ उलझा =आ था। दुWन ने काफी िनहोरे िकए,पर वो ढालू
खाने के िलए राजी नह\ =आ।
दुMन ने िफर कोई बात नह4 की। बात करने से मतलब ही ;ा था!
एक-एक करके सारे ढालू बाहर फGक िदए। दूMे ने मु_राकर कहा, 'मLने तो
तु`G पहले ही कह िदया था िक ये ढालू तो गँवारP के खाने की चीज है !
अपन बड़े आदिमयP को ये अUे नह4 लगते। आिखर खाते नह4 बने तो तु`G
भी फGकने पड़े। तेज धूप मG जली सो अलग!' यह बात कहकर दूMा धूप का
तख़मीना लगाने के िलए रथ से बाहर देखने लगा। नज़र सुलग उठे , ऐसी
तेज धूप! पीले फूलP से लदी ह4गािनयP की अनिगनत झािड़याँ उसे ऐसी
लग4 मानो ठौर-ठौर आग की लपटG उठ रही हP। दूMे ने पिरहास करते 5ए
कहा, 'अब इन ह4गािनयP की खाितर तो िज़द नह4 करोगी! इनमG अUाई
होती तो भला गड़िरए कब छोड़ते!
दुMन ने कोई जवाब नह4 िदया। चुपचाप सर झुकाए बैठी रही। सोचने लगी
िक इस पित के भरोसे घर का आँगन छोड़ा। माँ-बाप की जुदाई सही।
सहे िलयP का झुंड, भाई-भतीजे, तालाब का िकनारा, गीत, गुlा-गुlी का
खेल, झुरनी, आँख-िमचौनी, धमा-चौकड़ी ये तमाम सुख िछटकाकर इस पित
का हाथ थामा। माँ की गोद छोड़कर पराए घर की आस की और ये ठीक
तीज के िदन शुभ मुYतW की वेला <ापार के िलए िदसावर जाना चाहते है !
िफर यह बेशुमार दौलत िकस सुख के िलए है ? जीते-जी काम आती नह4।
मरने पर कफन की गजW भी पूरी करती नह4। िकस सुख की आशा मG इनके
पीछे आई? िकस अmn हषW और संतोष के भरोसे पराई ठौर का िनवास
कबूल िकया? कमाई, ितजारत, जायदाद और दौलत िफर िकस िदन के िलए
हL ?
दूMा अपने िहसाब मG डू बा था, दुMन अपने ख़यालP मG गोता लगा रही थी
और बैल अपनी चाल मG मगन थे। चलनेवाला मंिजल पर प5ँचेगा ही।
आिखर सेठ की हवेली के सामने बरात आकर rकी। गाजे-बाजे और
ढोल-नगारP के Nागत के साथ दुMन रिनवास मG प5ँची। िजसने भी देखा,
सराहे बगैर न रह सका। sप हो तो ऐसा! रं ग हो तो ऐसा!
शाम को रिनवास मG घी के दीए जलाए गए। रािt के दूसरे पहर दूMा
रिनवास मG आया। आते ही दुMन को नसीहत देने लगा िक वह घर की
इuत का पूरा-पूरा खयाल रखे। सास-ससुर की सेवा करे। अपनी आबs
अपने हाथ मG। दो िदन के िलए शरीर की चाह ;ूँ जगाई जाए! दो िदन का
सहवास पाँच साल तक तकलीफ देगा वv बीतते ;ा देर लगती है !
देखते-देखते पाँच साल गुजर जाएँगे। िफर िकस बात की कमी। यही
रिनवास। ये ही िचराग़। ये ही रातG और ये ही सेज।
तु`G तड़फाकर मुझे }ीत का आनंद नह4 चािहए। िफर भी उâ-भर तु`ारा
एहसान मानूँगा िक तु`ारी }ीत की वजह से मेरे ´दय का जहर, अमृत मG
बदल गया। औरत के sप और मदW के }ेम की यही तो सवû° मयाWदा है ।
sप की पुतली के हPठ खुले। बोली, 'अभी तक यह बात मेरी समझ मG नह4
आई िक यह भेद }कट होने से ठीक रहा या }कट न होने से ठीक रहता।
कभी
पहली बात ठीक लगती है और कभी दूसरी! दुMन की आँखP मG नजर
गड़ाकर भूत कहने लगा, ‘}सव-वेदना को भला बाँझ ;ा समझे! इस पीड़ा
मG ही कोख का चरम आनंद िनवास करता है । स°ाई और कोख के सृजन
की पीड़ा एक-सी होती है । इस स°ाई को िछपाने मG न तो पीड़ा थी, और
न ही आनंद। वो तो फ़कत हक़ीक़त का -म होता। आनंद का ढPग।
छोटी को बहन और बड़ी को माँ के समान मानता था। उसका नाम लेते ही
लोगP का मन ¹ºा से भर जाता था। उसमG फ़क़त एक बात की कमी थी
िक परदेश से सेठ के लड़के का पt आता तो फाड़कर फGक देता। वापस
कोई जवाब नह4। इस आनंद और यश के बीच देखते-देखते तीन बरस गुजर
गए-गोया मीठा सपना बीता हो। भूत भी उस हवेली मG रस-बस गया। मानो
सेठ का सगा बेटा ही हो। बY भी रिनवास के नशे मG िवभोर थी। रिनवास
के इं तज़ार मG उगते ही िदन अ• हो जाता। रिनवास मG घुसते ही पल भर मG
रात ढल जाती।
िचकने रेशमी बालP पर अँगुिलयाँ िफराते-िफराते रात िफसल गई। उधर सुदूर
िदसावर मG बY का पिरणेता रात के अंितम पहर मG उठ बैठा। आलस मरोड़,
ज`ाई लेकर घड़े से ठं डा पानी पीया। चारP ओर देखा। एक-सा अँधेरा।
िझलिमलाते 5ए एक से तारे। िकसी भी िदशा मG रोशनी नह4। सोचने लगा
िक यह रात और भी छोटी होती तो िकतना अUा रहता! ;ा जsरत है
इतनी लंबी रातP की! सोने-सोने मG ही आधी िजं दगी गुजर जाती है । न4द मG
तो <ापार और लेन-देन हो नह4 सकता, वरना दूनी कमाई होती। िफर भी
दौलत कम इकºी नह4 की! बापू बेहद खुश हPगे। बीच-बीच मG आसपास के
<ापारी िमलते रहते थे। उसे वहाँ पाकर उõG ब5त आÅयW होता था। एक
दफा पूछ ही िलया िक वो गाँव से वापस कब आया? यह सुनकर उसे भी
कम आÅयW नह4 5आ था। जवाब िदया िक उसने तो अभी गाँव की तरफ
मुँह भी नह4 िकया। वे पागल तो नह4 हो गए। लोगP ने जोर देकर
कहा,िव•ार से सारी बात बताई,िफर भी उसे िव3ास नह4 5आ। वो जब
यहाँ है तो वहाँ कैसे हो सकता है ! कमाई सहन नह4 होती, अतः ई½ाWलु
लोग उसे चæर मG डालना चाहते हL । पर वो ऐसा नासमझ नह4 है । उनके
भी कान-कतरे जैसा है । कमाई और <ापार मG और अिधक मन लगाने
लगा। पर आज अ£-सवेरे ही एक भरोसेमंद पड़ोसी ने ख़बर दी िक बY के
तो ब°ा होनेवाला है । शायद हो गया हो। सेठ का लड़का बीच ही मG बोला,
'अगर ऐसी बात होती तो घरवाले मुझे ज़sर खबर करते। मLने पाँच-सात
िचिºयाँ दी, पर एक का भी जवाब नह4 आया। पड़ोसी ने कहा, 'भले आदमी,
ज़रा सोचो तो सही िक घरवाले ;ूँ ख़बर करते? िकसको करते? उनका
लड़का तो बीच राह से तीसरे ही िदन वापस आ गया था। एक महाôा के
िदए 5ए मंt से सेठजी को रोजाना पाँच मोहरG देता है । हवेली पर तो राम
की मेहर है । गाजP-बाजP व उøवP के ठाट हL । रिनवास मG घी के दीए जलते
हL । हाँ,अब मालूम 5आ िक आपकी श§ Y-ब-Y सेठजी के लड़के से
िमलती है । िवधाता का खेल! खुद सेठजी देखG तो भी पहचान नह4 सकG।
अब बातचीत करने पर मालूम 5आ िक श§ तो जsर िमलती है , पर आप
दूसरे हL ।
}ीतवाले पित के कानP मG तो फकत ज°ा का कराहना गूँज रहा था। उसे
तो िकसी दूसरी बात का होश ही नह4 था। हवा थम गई थी। सूरज थम
गया था। कब यह कराहना बंद हो और कब कुदरत का बंधन खुले! बापू के
मुँह की ओर देखते 5ए बेटा बोला, 'मL तो चार साल से दूर िदसावर मG था,
िफर समझ मG नह4 आता िक बY के गभW कैसे रह गया? तु`G कुछ तो अ§
से काम लेना था! सेठ ने मन-ही-मन सारा िहसाब लगा िलया। बोला, 'तू है
कौन? मेरा लड़का तो तीसरे ही िदन वापस आ गया था। यहाँ ऐयारी की तो
दाल नह4 गलेगी! बापू के मुँह से यह बोल सुनकर बेटे को बेहद आÅयW
5आ। चुप रहने पर तो सारी बात ही िबगड़ जाएगी। तुरंत बोला,'चार साल
तक बेशुमार कमाई करके िदसावर से बाप के घर आया। इसमG ऐयारी की
कौन-सी बात है ! तु`4 ने तो जबरन भेजा था।
सेठ ने कहा, 'नह4 चािहए मुझे ऐसी कमाई। तू मुझे कमाई का ;ा लालच
िदखा रहा है ! िजस राह आया, उसी राह सीधे-सीधे चलता बन, वरना बुरी
बीतेगी। बापू का तो िदमाग ही िफर गया लगता है । उसने माँ के मुँह की
ओर देखकर पूछा, 'माँ,;ा तू भी अपनी कोख के बेटे को नह4 पहचानती?
माँ इस सवाल का ;ा जवाब देती! उसकी ज़बान मानो तालू से िचपक गई
हो। वह टु कुर-टु कुर पित के चेहरे की तरफ देखने लगी। माँ ने कुछ जवाब
जश्न-ए-रेख़्ता (2022) उदू र् भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।
नह4 िदया तो बेटा भी असमंजस मG पड़ गया। सहसा उसे ढालुओं की बात
याद आ गई। काँपते हाथP से तुरंत अँगोछा खोल, लाल-लाल ढालुओं को
बापू के सामने करते बोला, 'बY को उस िदन के ढालुओं की बात तो पूछो।
वह
िकùा
सारा बता देगी। उस िदन उसने Nयं ही ढालू तोड़कर खाए थे।
आज मL अपने हाथP से तोड़कर लाया Yँ। एक दफ़ा उससे पूछो तो सही।
आप फरमाएँ तो मL बाहर खड़े-खड़े ही पूछ लूँ।
वृºाएँ मुँह िबगाड़ती 5ई बाहर आ©। बोल4, 'ऐसी बातP मG औरतG सच नह4
बोलत4? हमG तो दूध मG कािलख नजर आती है । िफर जो तु`ारी समझ मG
आए, सो करो। ऐसे मौकP पर ही तो समझ की धार तेज होती है । सूत तो
खूब ही उलझा। बुजुगÆ ने िफर समझ से काम िलया। कहा, 'यह ƒाय राजा
के िबना नह4 िनबट सकता। िकसी और ने इसमG टाँग अड़ाई तो समूची ब•ी
को उनके गुùे का िशकार होना पड़ेगा। अपना भला-बुरा तो सोचना ही
पड़ता है । एक दफा इन दोनP पितयP को राजा के हवाले कर दG। िफर राजा
जानG और सेठ जानG। अपन बीच मG नाहक ;ूँ थूक उछालG। िफर ब•ी राम
है । जो सबकी इUा हो, सो करो। त¶Åात ब•ी की इUानुसार ही 5आ।
भला अपना राम-पद वह ;ूँ छोड़ती। दोनP पितयP को रिùयP से बाँधकर
ले चलने का फैसला 5आ। रिनवास के बाहर खड़े पित को बाँधने लगे तब
उसे होश आया िक आिखर बात कहाँ तक प5ँच चुकी है । उसने कुछ भी
आनाकानी नह4 की। सीिढ़याँ उतरते 5ए कलेजा हPठP तक लाकर बोला,
'मुझे एक दफा सौरी मG जाने दो। माँ-बेटी की ख़ैिरयत तो पूछ लूँ। न जाने
कैसी तिबयत है ? पर लोग नह4 माने। कहा, 'फैसला होने के बाद सारी उâ
ख़ैिरयत पूछनी ही है । इतनी जÖी ;ा है ? लोगP का बवंडर पैरP-पैरP आगे
बढ़ा। दोनP पित बँधे 5ए साथ-साथ चल रहे थे। सेठ भी जूितयाँ फटकारते
5ए साथ िघसट रहा था। पगड़ी खुलकर गले मG झूल रही थी। तेज हवा के
झPके पáे पáे को झकझोर रहे थे। चलते-चलते उसी खेजड़ी पर भूत की
नजर पड़ी। सारे शरीर मG िबजली दौड़ गई। उसके पाँव वह4 िचपक गए। सर
मG उफान उठने लगा। आँखP के सामने यादP के िचt फड़फड़ाने लगे ही थे
िक रùी का झटका लगने पर उसे होश आया। पैर आप ही बढ़ने लगे।
बायाँ-दायाँ, बायाँ-दायाँ। इं सान के िदल मG यादP का झंझट न रहे तो िकतना
अUा हो! यह याद तो मानो खून ही िनचोड़ डालेगी। साथ बँधे कारोबारवाले
पित का मन तो िन ल था। पर आज साँच को यह आँच कैसी लगी! वो
खुद -म मG पड़ गया। यह ;ा लीला 5ई? साथ-साथ चलता यह शÀ
ऐसा लग रहा है गोया वो शीशे मG अपना ही }ितिबं ब देख रहा हो।
इससे पूछने पर ही -म िमट सकता है । उसके गले मG फँसते-फँसते
बमुि³ल ये शÃ बाहर िनकल पाए, ‘भाई मेरे, ƒाय तो राम जाने ;ा
होगा, पर तू यह अUी तरह जानता है िक मL ही सेठजी का लड़का Yँ। सात
फेरे खानेवाला असली पित Yँ। पर तू कौन है , यह तो बता? यह कैसा
इं Õजाल है ? बैठे-िबठाए,यह कैसी मुसीबत आ पड़ी! बता, मुझे तो बता िक तू
है कौन?
रùी को समेटते 5ए गड़िरया कहने लगा, 'समझ गया, समझ गया। बोलना
जानते हL , पर साथ-ही-साथ झूठ बोलना भी सीख गए। पर कोई बात नह4।
सच को बाहर िनकालना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है । गले मG तड़ा डालकर
आँतP मG फँसा 5आ सच अभी बाहर ला पटकता Yँ। देर िकस बात की!
खेजड़ी की डािलयाँ भी इस तड़े के सामने नह4 िटक सकती, िफर बेचारे सच
की तो औकात ही ;ा है ! बोलो िकसके गले मG तड़ा घुसेडूँ। जो पहले मुँह
खोलेगा,वो ही स°ा है । भूत ने सोचा अगर अकेले उसी की बात होती तो
कोई भी जोिखम और मुसीबत उठा लेता। पर अब भेद जािहर होने पर तो
रिनवास की मालिकन को दुख उठाना पड़ेगा। ऐसा मालूम होता तो खेजड़ी
के काँटP मG िबं धा रहना ही ठीक था।
मुँह फाड़ने वाले पित की पीठ ठPकते 5ए गड़िरया बोला,वाह रे प¥े , तुझ जैसे
सèवादी आदमी को इन मूखW लोगP ने इतना परेशान िकया! पर मन की
तस£ी बड़ी बात है । थोड़ी-ब5त भी शक की गुंजाइश ;ूँ रहे ! उसकी भेड़G
काफी दूरी पर अलग-अलग चर रही थ4। उनकी ओर हाथ का इशारा करते
गड़िरया कहने लगा, 'मL सात तािलयाँ बजाऊँ, तब तक इन तमाम भेड़P को
घेरकर इस खेजड़ी के चारP ओर जो इकºा कर दे,वो ही स°ा है । गड़िरए के
कहते ही उस भूत ने बवंडर का sप धरकर पाँचव4 ताली बजने से पहले ही
तमाम भेड़P को इक¥ा कर िदया। सेठ का लड़का मुँह लटकाए खड़ा रहा।
वहाँ से िहला तक नह4। जैसी गड़िरयP की जािहल कौम, वैसा ही जािहल
उनका ƒाय। मानना और न मानना तो उसकी मजò पर है ।
गड़िरया बोला, 'शाबास! स°े पित के अलावा इतना जोश और इतनी ताकत
भला िकसकी हो सकती है ! अब एक आिखरी परख और कsँ गा। थोड़ा
सु•ा लो। तड़ा बगल मG दबाकर छागल का मुँह खोला। एक ही साँस मG
गटगट सारा पानी मुँह मG उड़ेलकर जोर से डकार खाई। िफर पेट पर हाथ
िफराते कहने लगा,‘सात चुटिकयP के साथ ही जो इस छागल के अंतर घुस
जाएगा, वो ही रिनवास का असली, मािलक हL । जो मेरे ƒाय को गलत
बताएगा, उसके गले की खाितर मेरे तड़े का एक ही झटका काफी है , यह
खयाल रखना।
लोगP ने तड़े के मुँह पर बँधे हँ िसए की तरफ देखाधार लगा 5आ। एकदम
तीखा। एक झटका लगने पर दूसरे की जsरत ही नह4। खोपड़ी सीधी धूल
चाटती नजर आएगी! लोगP को हँ िसए की ओर देखने मG तो वv लगा, पर
भूत को छागल के अंदर घुसने मG कुछ भी वv नह4 लगा। ये करतब तो वो
ज° से ही जानता था गड़िरए ने तो आज इuत रख ली। भूत के अंतर
घुसते ही गड़िरए ने िफर एक पल की भी ढील नह4 की। तुरंत छागल का
मुँह दुहराकर रùी से कसकर बांध िदया! िफर पंचP के मुँह की तरफ देखते
गवW से बोला, 'ƒाय करने मG यह देर लगी!
छागल तो मेरी भी जाएगी,पर ƒाय करना मंजूर िकया तो कुछ
सोच-िवचारकर ही िकया था। चलो, अब सभी चलकर इस छागल को नदी
के हवाले कर दG। उमड़ती उथेले खाती नदी इसे आप ही रिनवास की सेज
पर प5ँचा देगी। बोलो, 5आ िक नह4 खरा ƒाय? सभी ने एक साथ सर
िहलाकर सहमित दरसाई। सेठ का लड़का तो खुशी के मारे बौरा-सा गया।
िववाह से भी हज़ार गुना अिधक आनंद उसके िदल मG िहलोरG लेने लगा।
मारे खुशी के काँपते हाथ नग-जड़ी अँगूठी खोलकर गड़िरए के सामने की।
गड़िरया बगैर कहे ही उसके िदल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नह4
की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतP की हँ सी हँ सते बोला, 'मL कोई राजा
नह4 Yँ, जो ƒाय की कीमत वसूल कsँ । मLने तो अटका काम िनकाल
िदया। और यह अँगूठी मेरे िकस काम की! न अँगुिलयP मG आती है , न तड़े
मG। मेरी भेड़G भी मेरी तरह गँवार हL । घास तो खाती हL , पर सोना सूँघती तक
नह4। बेकार की व•ुएँ तुम अमीरP को ही शोभा देती हL ।
िदल की सारी भड़ास िनकालने के बाद वो कहने लगा, ‘पर तुम इस कदर
परेशानी मG ;ूँ पड़ गई? ज° देनेवाले माँ बाप भी जब नह4 पहचान सके
तो भला तुम कैसे पहचानती? इसमG तु`ारी कुछ भी गलती नह4 है । पर
नालायक भूत मG तो लUन मुतािबक खूब बीती। छागल मG घुसने के बाद
ब5त िगड़िगड़ाया, ब5त रोया पर िफर तो राम का नाम लो। हम ऐसे नादान
कहाँ! आिख़र नदी मG फGकने पर उससे िपí छूटा और उसका िच£ाना बंद
5आ। हरामजादा, िफर कभी छल करेगा! त¶Åात घरवालP ने जैसा कहा,
ज°ा ने वैसा ही िकया। कभी िकसी बात का उलटकर जवाब नह4 िदया।
िकसी भी काम मG आनाकानी नह4 की। उसकी खाितर सास ने िजतने भी
लlू वगैरह बनाए, उसने चुपचाप खा िलए। जब सास ने कहा, तब सर
धोया। सूरज पूजा। êाëण ने हवन िकया। औरतP ने गीत गाए। गुड़ की
मांगिलक लपसी बनी। तालाब पर जाकर जल-देवता की पूजा की। पीली
चुंदरी ओढ़ी।
/ोत : पु3तक : "#वधा (पृ* 229) संपादक : कैलाश कबीर रचनाकार : #वजयदान दे था