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लैंगिक विभेद का अर्थ (Meaning of Gender Bias)

लैंगिक विभेद से हमारा अभिप्राय बालक एवं बालिका में व्याप्त लैंगिक

असमानता से हैं. बालक एवं बालिकाओं में उनके लिंग के आधार पर

विभेद किया जाता है जिसके कारण बालिकाओं को समाज में, शिक्षा में

एवं पालन-पोषण में बालकों से कम रखा जाता है जिससे वे पिछड़ जाती

हैं. यही लैंगिक विभेद है क्योंकि बालिकाओं एवं बालकों में यह विभेद

उनके लिंग को लेकर किया जाता है. प्राचीन काल से ही बालकों को

श्रेष्ठ, कु ल का तारनहार, कु ल का नाम आगे बढ़ाने वाला माना जाता है

जिसके कारण बालिकाएं उपेक्षा का पात्र बनती हैं. इस प्रकार प्राचीन

मान्यताओं, सामाजिक कु प्रथाओं आदि के कारण लिंग के आधार पर

किया जाने वाला विभेदभाव लिंगीय विभेद कहलाता है.

प्रोफे सर एस.के . दुबे के अनुसार, "लैंगिक विभेद का आशय उन कल्पनाओं,

विचारों झुकाव एवं प्रवृत्तियों से होता है जो समाज के द्वारा रूढ़िवादिता

एवं प्राचीन परंपराओं के रूप में स्वीकृ त होती हैं एवं उनका कोई
वैज्ञानिक आधार नहीं होता है. यह पुरुष प्रधानता की ओर संके त करती

है."

श्रीमती आर.के . शर्मा के अनुसार, "लैंगिक विभेद स्त्री पुरुष के मध्य

अधिकार तथा शक्तियों का अवैज्ञानिक तथा तार्कि क विभाजन है जो कि

स्त्री वर्ग को दुर्बल तथा निम्न स्तरीय बताने का प्रयास करते हैं एवं

पुरुष वर्ग को प्रधानता की ओर प्रवृत करते हैं."

लैंगिक विभेद के कारण (Reason behind Gender Bias)

समाज में लैंगिक विभेद आज से नहीं वरन प्राचीन काल से चला आ

रहा है. यह विभेद मात्र भारत में ही नहीं वरन् विश्व के तमाम देशों में

चल रहा है. समान्यतः विभेद कई प्रकार के होते हैं जैसे- जातिगत विभेद,

लिंगीय विभेद, भाषाई विभेद, प्रजातीय विभेद, रंगगत विभेद, सांस्कृ तिक

विभेद, स्थानगत विभेद, आर्थिक विभेद आदि. वस्तुतः सभी प्रकार के

विभेद मानवता के लिए खतरा है क्योंकि इन विभेदों के कारण ही मानव


में एकता स्थापित करने में समस्या आती है. लैंगिक वि विभेद कि बहुत

से कारण है जो निम्नलिखित हैं-

(1). प्राचीन मान्यताएं:- अथर्ववेद में या कहा गया है कि स्त्री को

बाल्यावस्था में पिता के , युवावस्था मे पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के

अधीन रहना चाहिए. मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों को हमेशा पति व पुत्र

के अधीन रखा गया है. भारत में माता-पिता का अंतिम संस्कार करने के

लिए भी पुत्र की आवश्यकता पड़ती है. इन सब मान्यताओं के कारण

माता-पिता पुत्र की चाह करते हैं.

(2). पुरुष प्रधान समाज:- भारतीय समाज पुरुष प्रधान है. जहां पर पुत्रों

को पिता का उत्तराधिकारी माना जाता है. बच्चों के नाम के आगे पिता

का नाम ही लगाया जाता है. वंश परंपरा बढ़ाने के लिए माता-पिता, दादा-

दादी आदि को पुत्र की आवश्यकता होती है. लड़की को शादी के बाद पति

के घर पर ही जाकर रहना पड़ता है. उसके नाम के आगे उसके पति का

नाम ही लगता है. यहां तक कि अंतिम संस्कार, पिंड, मोक्ष आदि के लिए

भी पुत्र की आवश्यकता होती है. पिता की संपत्ति भी पुत्रों को मिलती है.


इन सब कारणों से बालिकाओं का महत्व बालकों से कम आंका जाता है

और लिंग विभेदभाव में वृद्धि होती है.

(3). सांस्कृ तिक कु प्रथाएं:- प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृ ति पुरुष-

प्रधान रही है. भारतीय संस्कृ ति में धार्मिक एवं यज्ञीय कार्यों में भी पुरुष

की उपस्थिति अपरिहार्य है एवं कु छ कार्य में तो स्त्रियों के लिए पूर्णतया

निषेध है. अतः ऐसी स्थिति में पुरुष प्रधान हो जाता है तथा इस स्त्री का

स्थान गौण हो जाता है.

(4). मनोवैज्ञानिक कारक:- मनोवैज्ञानिक कारकों की भी लैंगिक विभेद में

महत्वपूर्ण भूमिका है. प्रारंभ से ही स्त्रियों के मन मस्तिष्क में यह बात

बिठा दी जाती है कि पुरुष, महिलाओं से अधिक श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें

पुरुषों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए. पुरुष के बिना स्त्रियों

का कोई अस्तित्व नहीं है तथा उनसे ही उनकी पहचान तथा सुरक्षा है.

इस प्रकार महिलाओं में यह मनोवैज्ञानिक धारणा बैठ जाती है कि पुरुष

उनसे श्रेष्ठ हैं तथा वे स्वयं महिला होकर भी बालिकाओं के जन्म एवं

उनके सर्वांगीण विकास का विरोध करती हैं.


(5). दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली:- भारतीय शिक्षा प्रणाली अत्यंत दोषपूर्ण है

जिसके कारण व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन से शिक्षा का संबंध नहीं हो

पाता. विशेष रूप से बालिकाओं के संबंध में शिक्षा अव्यावहारिक होने से

शिक्षा पर किए गए व्यय एवं समय की भरपाई नहीं हो पाती. अतः

बालिकाओं की शिक्षा ही नहीं, अपितु इस लिंग के प्रति भी लोगों में बुरी

भावना व्याप्त हो जाती है.

(6). संकीर्ण विचारधारा:- लोगों की संकीर्ण विचारधारा लड़के तथा लड़की

में विभेद का एक कारण है. लोगों का मानना है कि लड़के मां-बाप की

वृद्धावस्था का सहारा बनेंगे, वंश को आगे बढ़ाएंगे, उन्हें पढ़ाने-लिखाने से

घर की उन्नति होगी जबकि लड़की को पढ़ाने लिखाने में धन एवं समय

की बर्बादी होगी. यद्यपि वर्तमान में बालिकाएं लोगों की सकीर्ण सोच को

तोड़ने का कार्य कर रही है. इसके बावजूद बालिकाओं के कार्यक्षेत्र चौका-

बर्तन तक ही सीमित माना जाता है. अतः बालिकाओं की भागीदारी को

स्वीकार न किए जाने के कारण बालकों के अपेक्षा बालिकाओं के महत्व

को कम माना जाता है जिससे लैंगिक विभेद में वृद्धि होती है.


(7). जागरूकता का अभाव:- शिक्षा की कमी के कारण अभी भी ग्रामीण

इलाकों में जागरूकता का अभाव है और ऐसा माना जाता है कि स्त्रियों

का क्षेत्र घर व बच्चों की देखभाल तक ही है इसलिए उन्हें ज्यादा शिक्षा

दिलाने की आवश्यकता नहीं है. लड़कियों को घर पर ही रहना है, अतः

उन्हें अतिरिक्त पोषण की आवश्यकता भी नहीं है इसलिए बालक व

बालिकाओं में शिक्षण तथा पोषण आदि स्तरों पर भी भेदभाव किया

जाता है.

(8). सामाजिक कु प्रथाएँ:- सूचना एवं तकनीकी के इस युग में भी भारतीय

समाज में विभिन्न प्रकार की कु प्रथाएं एवं अंधविश्वास व्याप्त है जो इस

प्रकार हैं-

 (i). बाल विवाह:- बाल विवाह जैसी कु प्रथाओं के चलते बालिकाओं

को कम उम्र में शादी करके विदा कर दिया जाता था और उनसे

पढ़ने व आगे बढ़ने के अधिकार छीन ले जाते थे. बाल विवाह तो

अब संविधान द्वारा समाप्त हो गए हैं फिर भी अधिकतर माता-

पिता का जोर लड़की का जल्दी से जल्दी विवाह करने पर होता है.


उसके लिए पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने के अवसर सीमित हो जाते हैं.

उसके जीवन का ध्येय घर तथा बच्चों की देखभाल तक सीमित

रह जाता है.

 (ii). दहेज प्रथा:- प्राचीन समय में माता-पिता जब बेटी का विवाह

करते थे तो यह सोच कर कि वह नए घर में संकोच करेगी, उसकी

जरूरत का सामान उसके साथ भेजते थे. यह माता-पिता का संतान

के प्रति वात्सल्य का प्रदर्शन था. धीरे-धीरे दिखावे ने जोर पकड़ा

और यह प्रथा अपनी संपदा का प्रदर्शन करने के लिए काम आने

लगी. लड़के वाले लालच में आकर दहेज की मांग रखने लगे. हद

तो तब हुई जब लालच पुरा न होने पर वधू के साथ मारपीट, यहां

तक कि उसकी हत्या भी होने लगी.

 (iii). सुरक्षा के कारण:- प्रकृ ति ने स्त्री को मानसिक तौर पर बहुत

मजबूत बनाया है फिर भी शारीरिक तौर पर पुरुषों से कमजोर है

इसलिए समझा जाता है कि स्त्री को हमेशा पुरुष के सहारे की

आवश्यकता होती है. वह अपनी सुरक्षा अपने आप नहीं कर सकती.


15 साल की बहन के साथ 10 साल का भाई उसकी सुरक्षा के लिए

भेजकर माता-पिता निश्चिंत हो जाते हैं. प्रायः लड़कियों को पढ़ने

या नौकरी के लिए अलग शहर में भेजने में माता-पिता घबराते हैं.

दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड जैसी घटनाओं से यह डर दिन व रात

बढ़ता चला जा रहा है.

 (iv). गरीबी:- गरीबी भारत का बहुत बड़ा अभिशाप है. बालकों को

बालिकाओं से अधिक प्राथमिकता इसलिए दी जाती है क्योंकि वे

बड़े होकर आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बांटने का कार्य करेंगे,

दूसरी तरफ लड़की के बड़े होने पर दहेज के रूप में बड़ा खर्च

करना पड़ेगा, आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता को इन

परिस्थितियों में लड़की बोझ व लड़का बुढ़ापे का सहारा लगता है.

यह समस्या एक क्षेत्र की नहीं बल्कि भारत में सभी जगह व्याप्त

है क्योंकि एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर

रही है. अतः गरीबी कम होने पर रोक लगाई जा सकती है.

लैंगिक विभेद का प्रभाव (Effect of Gender Bias)


इन सब बातों के कारण समाज पर बहुत से कु प्रभाव पड़ रहे हैं जो इस

प्रकार हैं-

(1). कन्या भ्रूणहत्या (Female Foeticide):- तकनीकी में सुधार के साथ

भ्रूण के स्वास्थय के विषय में जानने के लिए सोनोग्राफी आदि की

तकनीकी का विकास हुआ जिससे बच्चे के विकास, वंशानुगत बीमारी के

साथ-साथ लिंग का पता भी चल जाता है. यह तकनीकी इसलिए

विकसित हुई थी कि अविकसित या कमजोर भ्रूण को जन्म देने से रोका

जा सके परंतु उसका दुरुपयोग तब होने लगा जब जन्म से पूर्व लिंग

जांच कर कन्या भ्रूणों को जन्म से पूर्व खत्म किया जाने लगा.

(2). असंतुलित लिंगानुपात (Imbalance Gender Ratio):- कन्या भ्रूण

हत्या के बढ़ते चलन के कारण धीरे-धीरे समाज में स्त्रियों की संख्या

कम होने लगी. जनगणना के अनुसार 1991 में हजार लड़कों पर 945

लड़कियां थी और 2001 में यह और कम होकर 927 लड़कियां ही रह

गई. हरियाणा, राजस्थान जैसे राज्यों में यह अनुपात और कम है. स्थिति


ऐसी है कि बड़े-बड़े शहरों में नवरात्रि के समय होने वाले कन्या भोज के

लिए भी लड़कियां नहीं मिलती.

(3). मानसिक कु प्रभाव (Mental Ill-Effect):- हर जगह भेदभाव को सहन

कर महिलाएं मानसिक रूप से कुं ठित हो जाती हैं. उनके मानसिक

स्वास्थ्य पर इसका कु प्रभाव पड़ता है और वह स्वयं मानने लगती हैं कि

पुरुष उनसे श्रेष्ठ हैं. स्वयं स्त्री होकर अपने बेटे-बेटी में भेदभाव करने

लगती हैं. इस प्रकार यहां तक कि वे प्रथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती

हैं.

लैंगिक विभेद की समाप्ति के उपाय (Measures to Eliment Gender


Bias)

लैंगिक विभेद की समाप्ति के निम्नलिखित उपाय हैं-

(1). जागरूकता का प्रचार (Spreading Awareness):- किसी भी तरह की

सामाजिक बुराई को दूर करने का एकमात्र उपाय सामान्य जन में

जागरूकता लाना है. इसके लिए सरकार शिक्षण संस्थान, जनशिक्षा के


माध्यम जैसे- अखबार, टी.वी. रेडियो आदि को मिलकर काम करना पड़ेगा

जिससे लड़के लड़कियों के लिंग को लेकर पीढ़ियों से चले आ रहा है

विभेद को दूर किया जा सके गा. लेखक, गीतकार, टी.वी. प्रोग्राम बनाने

वाले, फिल्मकार आदि इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. ये लोग

अपनी रचनाओं में नारी का महत्व तथा ईश्वर द्वारा बनाए नारी-पुरुष

दोनों रूपों की बराबरी को दर्शा सकें . इस प्रकार जन शिक्षा के माध्यमों

का जनमानस पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है. समाज में इन विषयों पर

जागरूकता पैदा करने के लिए लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभाव को बताना

बहुत जरूरी है.

(2). बालिका शिक्षा का प्रचार (Spreading Girl Child Education):- लिंग

विभेद का बहुत बड़ा कारण लड़कियों को कम शिक्षित होना या

व्यवसायिक के रूप से शिक्षित ना होना होता है. बालिकाओं के लिए

अलग से स्कू ल, कॉलेज तथा व्यवसायिक कॉलेज खोले जाने चाहिए जहां

वह आसानी से एवं सुरक्षित रूप से पहुंच सके . अगर लड़कियां पढ़-लिख


कर अपने पैरों पर खड़ी होंगी तो उनमें आत्मविश्वास का संचार होगा

और समाज में उनका महत्व बढ़ेगा.

(3). शिक्षा व्यवस्था में सुधार (Improvement in Educational

System):- शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार से सुधार हो जिससे बालिकाओं

के लिए समस्याएं कम हों. ऐसा पाठ्यक्रम हो जिसमें बालिकाओं की रूचि

हो. शिक्षा बालिकाओं के वास्तविक जीवन से जुड़ी हो. महिला शिक्षा भी

व्यवसाय कें द्रित हो जिसे पढ़कर उन्हें रोजगार प्राप्त हो. इससे परिवार

भी उन्हें पढ़ाने में विशेष रूचि लेगा. विद्यालयों में लिंग आधारित

विभेदभाव बिल्कु ल खत्म होना आवश्यक है.

(4). सामाजिक कु प्रथाओं पर रोक (Ban on Social Malpractices):- सती

प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह जैसी कु प्रथाएं जो महिलाओं के प्रगति में

बाधक हैं उन्हें समाप्त कर मुख्यधारा को मुख्य धारा में जोड़ा जाना

चाहिए. कु छ धार्मिक कर्मकांड ऐसे हैं जो सिर्फ पुरुष आधारित हैं. अभी

हाल में कु छ मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर हंगामा हुआ.


महिलाएं भी पुरुषों की तरह भगवान की अनुपम कृ ति हैं. उन्हें सभी

प्रकार के कर्मकांड करने का अधिकार मिलनी चाहिए.

(5). सुरक्षात्मक वातावरण (Protective Atmosphere):- महिलाओं के

खिलाफ दिन प्रतिदिन अपराध जैसे- बालात्कार, एसिड से हमला, अपहरण

आदि बढ़ने से माता-पिता की लड़कियों को लेकर चिंता बढ़ती रहती है.

सुरक्षात्मक वातावरण होने से लड़कियों को न के वल असुरक्षा की भावना

की वजह से पीछे रहना पड़ेगा बल्कि अभिभावक भी निः शंक रह सकें गे.

(6). समानता और समता (Equality and Equity):- महिलाओं को सभी

प्रकार के अधिकार पुरुषों के समान मिलने चाहिए और इसके लिए उन्हें

विशेषाधिकार भी मिलना चाहिए जिससे कि वह पुरुषों की बराबरी कर

सकें . भारतीय संविधान में स्त्रियों के विकास तथा उनकी क्षमता के लिए

अनेक प्रयास किए गए हैं. जरूरत है तो इन सबको मानस तक पहुंचाने

की.
(7). गलत सामाजिक परंपराओं एवं मान्यताओं की समाप्ति (Abolition

of Fals Social Traditions and Beliefs):- प्राचीन काल से ही हमारे

समाज में कु छ मान्यताएं एवं परंपराओं का पालन किया जा रहा है.

इनके पालन के पीछे व्यक्तियों में सामाजिक एवं धार्मिक भय व्याप्त है.

इन गलत परंपराओं व मान्यताओं को धीरे-धीरे समाप्त करने की

आवश्यकता है क्योंकि सभी स्त्री एवं पुरुष दोनों लिंगों की समानता की

बात पर विचार कर सकते हैं.

(8). प्रशासनिक प्रयास (Administrative Efforts):- लैंगिक विभेद को

समाप्त करने में प्रशासनिक प्रयासों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है.

अतः सरकार के द्वारा जो भी नियम कानून बनाए गए हैं उनका कड़ाई

से पालन किया जाना चाहिए. लैंगिक विभेद को कम करने के लिए

प्रशासन द्वारा साहसी एवं प्रतिभावन महिलाओं एवं बालिकाओं को

प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे जनसामान्य की बालिकाओं के

विषय में धारणा परिवर्तित हो सके .


लैंगिक भेदभाव और इसका प्रभाव

लैंगिक भेदभाव का अर्थ, इसके पीछे के कारण और अंत में समाज में

इस तरह के पूर्वाग्रह को खत्म करने के कदमों के बारे में जानने के लिए

और पढ़ें।

समाज में सामाजिक उथल-पुथल के विभिन्न रूप मौजूद हैं और उनमें

से लैंगिक भेदभाव सबसे आम तत्व है। यह अनुचितता या पक्षपाती

भावना है, जो किसी विशेष लिंग द्वारा किसी भी संदर्भ में दूसरे लिंग के

विपरीत अनुभव की जाती है। लैंगिक भेदभाव एक व्यक्ति को जीवन के

चुने हुए मार्ग में फलने-फू लने के समान अवसरों से वंचित कर सकता

है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तुत मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स में लैंगिक

समानता शामिल है, जो विश्व स्तर पर चर्चा और सुधार के लिए सबसे

प्रासंगिक विषयों में से एक है। लैंगिक असमानता का उन्मूलन निस्संदेह

विभिन्न पर्यावरणीय सेटिंग्स में वांछित सहस्राब्दी और सतत विकास

लक्ष्यों तक पहुंचने में बाधाओं को दूर करेगा।

लैंगिक भेदभाव
लैंगिक भेदभाव की अवधारणा को बहुत महत्व मिला है क्योंकि समाज

के कई नुक्कड़ और कोनों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले

सामने आए हैं। ऐतिहासिक रूप से, पुरुषों की स्थिति महिलाओं की तुलना

में बेहतर आर्थिक, सामाजिक और साथ ही राजनीतिक पदानुक्रम में

थी। हालाँकि, इस स्थिति पर अंकु श लगाने और महिलाओं को दोयम दर्जे

की स्थिति से हटाने के लिए प्रशासनिक निकायों द्वारा कई पहल की

गई हैं। हालांकि अग्रिम मोर्चे पर काफी कु छ किया जा चुका है, फिर भी

भारत को एक भेदभाव मुक्त देश बनाने के लिए अभी भी कई अंतराल

हैं जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए। लैंगिक भेदभाव की जड़ें बचपन से ही

बो दी जाती हैं, और समय बीतने के साथ-साथ यह मजबूत होती जाती

है। ऐसे कई कारण हैं जो जीवन के विभिन्न चरणों में उनके अवसरों को

सीमित करके देश की महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करते हैं।

लिंग भेदभाव के कारण

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, भेदभाव के बीज बचपन के चरण

से ही बढ़ने लगते हैं, जहां परिवार और करीबी रिश्तेदार अवसरों के साथ-

साथ संसाधनों के संबंध में पहले से मौजूद मानदंडों के आधार पर लड़के


और लड़कियों में अंतर करते हैं। . लैंगिक भेदभाव और उसके प्रभाव के

बारे में जागरूकता इस सामाजिक बुराई का मुख्य कारण है। लड़कों को

अक्सर शारीरिक गतिविधियों, शिक्षा, बाहर के काम आदि में भाग लेने के

लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जबकि लड़कियों को ज्यादातर ऐसी

गतिविधियों को करने से प्रतिबंधित किया जाता है जिसमें भागदौड़

शामिल होती है। लड़कियों को आमतौर पर घर के बड़ों द्वारा दिए गए

निर्देशों का पालन करते हुए घर के कामों में हाथ बँटाने और घर के

अंदर रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यह ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों

में देखा जाता है, जहां लोग अभी भी महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रही

विचार और विश्वास रखते हैं।

भारत और विदेशों में लैंगिक भेदभाव के उदाहरण

शिक्षण संस्थानों में, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, लड़कों की तुलना में

लड़कियों का नामांकन स्कू लों में कम है। पैसे, स्टेशनरी, इंफ्रास्ट्रक्चर

आदि जैसे संसाधनों की कमी इस कारण को और भी बढ़ा देती है। जिन

देशों में सामाजिक संघर्ष चर्चा का एक नियमित विषय है, वहां लड़कों की

तुलना में लड़कियों के शिक्षा छोड़ने की संभावना अधिक है। एक व्यापक


रूप से ज्ञात सामाजिक बुराई, यानी बाल विवाह, एक प्रेरक कारण है जो

लड़कियों को शिक्षा से छु टकारा पाने के लिए मजबूर करता है। “सेव द

चिल्ड्रेन ऑर्गनाइजेशन” द्वारा एक सर्वेक्षण किया गया था और इसमें

पाया गया है कि वर्ष 2025 तक लगभग 2.5 मिलियन युवा लड़कियों की

शादी होने का खतरा है। महामारी के कारण बाल-विवाह प्रथाओं में यह

उछाल प्रचलित हो गया है। यह बहुत कम संभावना है कि किसी ने लिंग

के आधार पर हिंसा के बारे में नहीं सुना हो।

लैंगिक असमानता को दूर करना

लैंगिक समानता पुरुषों, महिलाओं और LGBTQ समूहों के लिए भी एक

मौलिक अधिकार है। लैंगिक समानता के लक्ष्यों को प्राप्त करना दुनिया

को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण

कदम है। गलत प्रथाओं को छोड़ना और सभी लिंगों को समान रूप से

उनके मौलिक अधिकारों का आनंद लेने के लिए समर्थन करना 21 वीं

सदी में सही काम है। प्रशासनिक निकायों को समाज में एक

सम्मानजनक स्थान हासिल करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचा,

उपकरण और कौशल प्रदान करके व्यक्तियों को सशक्त बनाने में आगे


बढ़ना चाहिए। एक भेदभाव मुक्त देश प्राप्त करने की दिशा में सही

कदम शून्य से शुरू करना होगा। छोटे बच्चों तक पहुंचना, उन्हें शिक्षित

करना, अच्छे कारण को बढ़ावा देना कु छ ऐसे सही उपाय हैं जो देश से

लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए किए जाने चाहिए।

निष्कर्ष

पुरुषों और महिलाओं का सामाजिक सीमांकन शायद लैंगिक भेदभाव की

प्रज्वलित शक्ति है। सभी लिंगों के प्रति सही मानसिकता और दृष्टिकोण

होना व्यक्तियों और राष्ट्र के बड़े पैमाने पर विकास के लिए अत्यंत

महत्वपूर्ण है। भारत को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा हो चुके

हैं। हालाँकि, कु छ रिक्तियाँ अभी भी राष्ट्र के सामाजिक विकास में बाधक

हैं। भारत में लैंगिक भेदभाव एक ऐसा बड़ा शून्य है जिसे अच्छी

आशाओं, सकारात्मकता और सभी के लिए समान अवसरों से भरने की

आवश्यकता है। इस प्रकार, राष्ट्र का भविष्य युवाओं के हाथों में है, जो

पहले से मौजूद मानदंडों को तोड़कर और दुनिया भर में सकारात्मकता

फै लाकर समाज में योगदान दे सकते हैं।

लैंगिक भेदभाव को कम करने के लिए कु छ कदम क्या हैं?


उत्तर: सभी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षा, रोजगार जैसे सही

कारणों का समर्थन करना, लिंग भेदभाव को खत्म करने की दिशा में

पहला कदम होगा। लोगों को सभी लिंगों का सम्मान करना चाहिए और

किसी भी स्थान और समय पर उचित व्यवहार करना

चाहिए। विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों को देश के गरीब तबके की मदद

करके और उन सामाजिक उथल-पुथल के बारे में जागरूकता फै लाकर

अपनी भूमिका निभानी चाहिए जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके दुख

के लिए जिम्मेदार हैं।

लैंगिक भेदभाव का क्या कारण है?

उत्तर: रूढ़िवादी मानसिकता जो एक विशेष लिंग के प्रति पूर्वाग्रह रखती

है और सुझाव देती है कि जीवन के विभिन्न चरणों में एक लिंग दूसरे

से ऊपर है, लिंग भेदभाव के पीछे वास्तविक कारण है। लैंगिक भेदभाव के

कु छ मुख्य कारण हैं महिलाओं के लिए काम के कम अवसर, नौकरी में

अलगाव, शैक्षिक बुनियादी ढांचे की कमी, प्रशासनिक और प्रबंधकीय पदों

या नेतृत्व में महिलाओं की कमी, धार्मिक समूहों में महिलाओं की कमी,


ग्रामीण क्षेत्रों में खराब स्वास्थ्य सेवा और ऐसे अन्य। जिन अवसरों की

कमी है, वे महिलाओं के विकास को ख़राब करते हैं और प्रत्यक्ष या

अप्रत्यक्ष रूप से लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देते हैं।

लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए सरकार क्या कर सकती है?

उत्तर: लैंगिक भेदभाव में भाग लेने और उसे बढ़ावा देने वालों के

खिलाफ सख्त कानून और सभी के लिए समान अवसर प्रदान करना, दो

महत्वपूर्ण पहल हैं जो सरकार लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव को खत्म

करने के लिए कर सकती है। प्रशासनिक शक्ति का उपयोग महिला

सशक्तिकरण के लिए योजनाएं बनाने और उन्हें जमीनी स्तर पर लागू

करने के लिए किया जा सकता है।

लैंगिक असमानता का कारण[संपादित करें]

हम २३वीं शताब्दी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं जो एक बेटा पैदा

होने पर खुशी का जश्न मनाते हैं और यदि एक बेटी का जन्म हो जाये

तो शान्त हो जाते हैं यहाँ तक कि कोई भी जश्न नहीं मनाने का नियम

बनाया गया हैं। लड़के के लिये इतना ज्यादा प्यार कि लड़कों के जन्म
की चाह में हम प्राचीन काल से ही लड़कियों को जन्म के समय या

जन्म से पहले ही मारते आ रहे हैं, यदि सौभाग्य से वो नहीं मारी जाती

तो हम जीवनभर उनके साथ भेदभाव के अनेक तरीके ढूँढ लेते हैं।

लैंगिक असमानता की परिभाषा और संकल्पना

‘लिंग’ सामाजिक-सांस्कृ तिक शब्द हैं, सामाजिक परिभाषा से संबंधित

करते हुये समाज में ‘पुरुषों’ और ‘महिलाओं’ के कार्यों और व्यवहारों को

परिभाषित करता हैं, जबकि, 'सेक्स' शब्द ‘आदमी’ और ‘औरत’ को

परिभाषित करता है जो एक जैविक और शारीरिक घटना है। अपने

सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृ तिक पहलुओं में, लिंग पुरुष और

महिलाओं के बीच शक्ति के कार्य के संबंध हैं जहाँ पुरुष को महिला से

श्रेंष्ठ माना जाता हैं। इस तरह, ‘लिंग’ को मानव निर्मित सिद्धान्त

समझना चाहिये, जबकि ‘सेक्स’ मानव की प्राकृ तिक या जैविक विशेषता

हैं।

लिंग असमानता को सामान्य शब्दों में इस तरह परिभाषित किया जा

सकता हैं कि, लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव। समाज में
परम्परागत रुप से महिलाओं को कमजोर जाति-वर्ग के रुप में माना

जाता हैं।

धर्मों में स्त्री असमानताएं।

किसी भी धर्म में स्त्री के बारेमे बहोत कम तारीफे की गई है।

सावित्री बाई फु ले

जो पहिली महिला शिक्षिका थी।

जिन्होंने महिलाओं को शिक्षित किया।

इनका भी स्त्री शिक्षा में बड़ा योगदान है।

लैंगिक असमानता से तात्पर्य

 लैंगिक असमानता का तात्पर्य लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ

भेदभाव से है। परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर

वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है।


 वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेद-भाव से

पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह

प्रचलित है।

 वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 में भारत 153 देशों में 112 वें

स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि

हमारे देश में लैगिंक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी है।

 लैंगिक असमानता का जन्म समाज और परिवार के मध्य होता है ।

लैंगिक असमानता के विभिन्न क्षेत्र

 सामाजिक क्षेत्र में- भारतीय समाज में प्रायः महिलाओं को घरेलू कार्य

के ही अनुकू ल माना गया है। घर में महिलाओं का मुख्य कार्य भोजन

की व्यवस्था करना और बच्चों के लालन-पालन तक ही सीमित है।

अक्सर ऐसा देखा गया है कि घर में लिये जाने वाले निर्णयों में भी

महिलाओं की कोई भूमिका नहीं रहती है। महिलाओं के मुद्दों से

संबंधित विभिन्न सामाजिक संगठनों में भी महिलाओं की न्यूनतम

संख्या लैंगिक असमानता के विकराल रूप को व्यक्त करती है।


 आर्थिक क्षेत्र में- आर्थिक क्षेत्र में कार्यरत महिला और पुरुष के

पारिश्रमिक में अंतर है। औद्योगिक क्षेत्र में प्रायः महिलाओं को पुरुषों

के सापेक्ष कम वेतन दिया जाता है। इतना ही नहीं रोज़गार के

अवसरों में भी पुरुषों को ही प्राथमिकता दी जाती है।

 राजनीतिक क्षेत्र में- सभी राजनीतिक दल लोकतांत्रिक होते हुए

समानता का दावा करते हैं परंतु वे न तो चुनाव में महिलाओं को

प्रत्याशी के रूप में टिकट देते हैं और न ही दल के प्रमुख पदों पर

उनकी नियुक्ति करते हैं।

 विज्ञान के क्षेत्र में- जब हम वैज्ञानिक समुदाय पर ध्यान देते हैं तो

यह पाते हैं कि प्रगतिशीलता की विचारधारा पर आधारित इस

समुदाय में भी स्पष्ट रूप से लैंगिक असमानता विद्यमान है।

वैज्ञानिक समुदाय में या तो महिलाओं का प्रवेश ही मुश्किल से होता

है या उन्हें कम महत्त्व के प्रोजेक्ट में लगा दिया जाता है। यह

विडंबना ही है कि हम मिसाइल मैन के नाम से प्रसिद्ध स्वर्गीय ए.

पी.जे अब्दुल कलाम से तो परिचित हैं लेकिन मिसाइल वुमेन ऑफ

इंडिया टेसी थॉमस के नाम से परिचित नहीं हैं।


 मनोरंजन क्षेत्र में- मनोरंजन के क्षेत्र में अभिनेत्रियों को भी इस

भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। अक्सर फिल्मों में अभिनेत्रियों को

मुख्य किरदार नहीं समझा जाता और उन्हें पारिश्रमिक भी

अभिनेताओं की तुलना में कम मिलता है।

 खेल क्षेत्र में- खेलों में मिलने वाली पुरस्कार राशि पुरुष खिलाड़ियों की

बजाय महिला खिलाड़ियों को कम मिलती हैं। चाहे कु श्ती हो या

क्रिके ट हर खेल में भेदभाव हो रहा है। इसके साथ ही, पुरुषों के खेलों

का प्रसारण भी महिलाओं के खेलों से ज्यादा है।

भारत में लैंगिक असमानता के कारण और प्रकार[संपादित करें]

भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया

वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्तात्मकता सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया

और व्यवस्था हैं, जिसमें आदमी औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता हैं,

उसका दमन करता हैं और उसका शोषण करता हैं।” महिलाओं का

शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृ तिक घटना है।

पितृसत्तात्मकता व्यवस्था ने अपनी वैधता और स्वीकृ ति हमारे धार्मिक


विश्वासों, चाहे वो हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हों,

से प्राप्त की हैं।I

उदाहरण के लिये, प्राचीन भारतीय हिन्दू कानून के निर्माता मनु के

अनुसार, “ऐसा माना जाता हैं कि औरत को अपने बाल्यकाल में पिता के

अधीन, शादी के बाद पति के अधीन और अपनी वृद्धावस्था या विधवा

होने के बाद अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिये। किसी भी परिस्थिति में

उसे खुद को स्वतंत्र रहने की अनुमति नहीं हैं।”

मुस्लिमों में भी समान स्थिति हैं और वहाँ भी भेदभाव या परतंत्रता के

लिए मंजूरी धार्मिक ग्रंथों और इस्लामी परंपराओं द्वारा प्रदान की जाती

है। इसी तरह अन्य धार्मिक मान्याताओं में भी महिलाओं के साथ एक

ही प्रकार से या अलग तरीके से भेदभाव हो रहा हैं।महिलाओं के समाज

में निचला स्तर होने के कु छ कारणों में से अत्यधिक गरीबी और शिक्षा

की कमी भी हैं। गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण बहुत सी महिलाएं

कम वेतन पर घरेलू कार्य करने, संगठित वैश्यावृति का कार्य करने या

प्रवासी मजदूरों के रुप में कार्य करने के लिये मजबूर होती हैं
लड़की को बचपन से शिक्षित करना अभी भी एक बुरा निवेश माना

जाता हैं क्योंकि एक दिन उसकी शादी होगी और उसे पिता के घर को

छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। इसलिये, अच्छी शिक्षा के अभाव में

वर्तमान में नौकरियों कौशल माँग की शर्तों को पूरा करने में असक्षम हो

जाती हैं, वहीं प्रत्येक साल हाई स्कू ल और इंटर मीडिएट में लड़कियों का

परिणाम लड़कों से अच्छा होता हैं।अतः उपर्युक्त विवेचन के आझार पर

कहा जा सकता हैं कि महिलाओं के साथ असमानता और भेदभाव का

व्यवहार समाज में, घर में, और घर के बाहर विभिन्न स्तरों पर किया

जाता हैं।

लैंगिक असमानता के कारक[संपादित करें]

 सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद वर्तमान

भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता जटिल रूप में व्याप्त

है। इसके कारण महिलाओं को आज भी एक ज़िम्मेदारी समझा जाता

है। महिलाओं को सामाजिक और पारिवारिक रुढ़ियों के कारण विकास

के कम अवसर मिलते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास


नहीं हो पाता है। सबरीमाला और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर

सामाजिक मतभेद पितृसत्तात्मक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता

है।

 भारत में आज भी व्यावहारिक स्तर (वैधानिक स्तर पर सर्वोच्च

न्यायालय के आदेशानुसार संपत्ति पर महिलाओं का समान अधिकार

है) पर पारिवारिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार प्रचलन में नहीं

है इसलिये उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया जाता है।

 राजनीतिक स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़कर उच्च वैधानिक

संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था

नहीं है।

 वर्ष 2017-18 के नवीनतम आधिकारिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण

(Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था

में महिला श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work

Participation) दर कम है। ऐसी परिस्थितियों में आर्थिक मापदंड पर

महिलाओं की आत्मनिर्भरता पुरुषों पर बनी हुई है। देश के लगभग

सभी राज्यों में वर्ष 2011-12 की तुलना में वर्ष 2017-18 में महिलाओं
की कार्य सहभागिता दर में गिरावट देखी गई है। इस गिरावट के

विपरीत के वल कु छ राज्यों और कें द्रशासित प्रदेशों जैसे मध्य प्रदेश,

अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़ और दमन-दीव में महिलाओं की कार्य

सहभागिता दर में सुधार हुआ है।

 महिलाओं के रोज़गार की अंडर-रिपोर्टिंग (Under-Reporting) की

जाती है अर्थात् महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और उद्यमों पर

कार्य करने को तथा घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्यों

को सकल घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता है।

 शैक्षिक कारक जैसे मानकों पर महिलाओं की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा

कमज़ोर है। हालाँकि लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में पिछले दो

दशकों में वृद्धि हुई है तथा माध्यमिक शिक्षा तक लैंगिक समानता की

स्थिति प्राप्त हो रही है लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा तथा

व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का नामांकन पुरुषों की

तुलना में काफी कम है।


लैंगिक असमानता के खिलाफ कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा

उपाय[संपादित करें]

लिंग असमानता को दूर करने के लिये भारतीय संविधान ने अनेक

सकारात्मक कदम उठाये हैं; संविधान की प्रस्तावना हर किसी के लिए

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने के लक्ष्यों के साथ

ही अपने सभी नागरिकों के लिए स्तर की समानता और अवसर प्रदान

करने के बारे में बात करती है। इसी क्रम में महिलाओं को भी वोट

डालने का अधिकार प्राप्त हैं।

संविधान का अनुच्छे द 15 भी लिंग, धर्म, जाति और जन्म स्थान पर

अलग होने के आधार पर किये जाने वाले सभी भेदभावों को निषेध

करता हैं। अनुच्छे द 15(3) किसी भी राज्य को बच्चों और महिलाओं के

लिये विशेष प्रावधान बनाने के लिये अधिकारित करता हैं। इसके अलावा,

राज्य के नीति निदेशक तत्व भी ऐसे बहुत से प्रावधानों को प्रदान करता

हैं जो महिलाओं की सुरक्षा और भेदभाव से रक्षा करने में मदद करता

हैं।
भारत में महिलाओं के लिये बहुत से संवैधानिक सुरक्षात्मक उपाय बनाये

हैं पर जमीनी हकीकत इससे बहुत अलग हैं। इन सभी प्रावधानों के

बावजूद देश में महिलाएं के साथ आज भी द्वितीय श्रेणी के नागरिक के

रुप में व्यवहार किया जाता हैं, पुरुष उन्हें अपनी कामुक इच्छाओं की

पूर्ति करने का माध्यम मानते हैं, महिलाओं के साथ अत्याचार अपने

खतरनाक स्तर पर हैं, दहेज प्रथा आज भी प्रचलन में हैं, कन्या भ्रूण

हत्या हमारे घरों में एक आदर्श है।

हम लैंगिक असमानता कै से समाप्त कर सकते हैं[संपादित करें]

संवैधानिक सूची के साथ-साथ सभी प्रकार के भेदभाव या असमानताएं

चलती रहेंगी लेकिन वास्तिविक बदलाव तो तभी संभव हैं जब पुरुषों की

सोच को बदला जाये। ये सोच जब बदलेगी तब मानवता का एक प्रकार

पुरुष महिला के साथ समानता का व्यवहार करना शुरु कर दे न कि

उन्हें अपना अधीनस्थ समझे। यहाँ तक कि सिर्फ आदमियों को ही नहीं

बल्कि महिलाओं को भी आज की संस्कृ ति के अनुसार अपनी पुरानी

रुढ़िवादी सोच बदलनी होगी और जानना होगा कि वो भी इस


शोषणकारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक अंग बन गयी हैं और पुरुषों

को खुद पर हावी होने में सहायता कर रहीं हैं।

हम के वल उम्मीद कर सकते हैं कि हमारा सहभागी लोकतंत्र, आने वाले

समय में और पुरुषों और महिलाओं के सामूहिक प्रयासों से लिंग

असमानता की समस्या का समाधान ढूंढने में सक्षम हो जाएगा और हम

सभी को सोच व कार्यों की वास्तविकता के साथ में सपने में पोषित

आधुनिक समाज की और ले जायेगा।

असमानता को समाप्त करने के प्रयास:

 समाज की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है जिसके

परिणामस्वरूप महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर गंभीरता से विमर्श

किया जा रहा है। तीन तलाक, हाज़ी अली दरगाह में प्रवेश जैसे मुद्दों

पर सरकार तथा न्यायालय की सक्रियता के कारण महिलाओं को

उनका अधिकार प्रदान किया जा रहा है।

 राजनीतिक प्रतिभाग के क्षेत्र में भारत लगातार अच्छा प्रयास कर रहा

है इसी के परिणामस्वरुप वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 के


राजनीतिक सशक्तीकरण और भागीदारी मानक पर अन्य बिंदुओं की

अपेक्षा भारत को 18 वाँ स्थान प्राप्त हुआ। मंत्रिमंडल में महिलाओं की

भागीदारी पहले से बढ़कर 23% हो गई है तथा इसमें भारत, विश्व में

69 वें स्थान पर है।

 भारत ने मैक्‍सिको कार्ययोजना (1975), नैरोबी अग्रदर्शी (Provident)

रणनीतियाँ (1985) और लैगिक समानता तथा विकास एवं शांति पर

संयुक्त‍राष्‍ट्र महासभा सत्र द्वारा 21 वीं शताब्‍दी के लिये अंगीकृ त

"बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्‍लेटफार्म फॉर एक्‍शन को कार्यान्‍वित करने

के लिये और कार्रवाइयाँ एवं पहलें" जैसी लैंगिक समानता की वैश्विक

पहलों की अभिपुष्टि की है।

 ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं’, ‘वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन

योजना’ और ‘महिला शक्ति कें द्र’ जैसी योजनाओं के माध्यम से

महिला सशक्तीकरण का प्रयास किया जा रहा है। इन योजनाओं के

क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप लिंगानुपात और लड़कियों के शैक्षिक

नामांकन में प्रगति देखी जा रही है।


 आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हेतु मुद्रा और अन्य महिला कें द्रित

योजनाएँ चलाई जा रही हैं।

 लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा

किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के

लिये किये जाने वाले धन आवंटन के उल्लेख को जेंडर बजटिंग कहा

जाता है। दरअसल जेंडर बजटिंग शब्द विगत दो-तीन दशकों में

वैश्विक पटल पर उभरा है। इसके ज़रिये सरकारी योजनाओं का लाभ

महिलाओं तक पहुँचाया जाता है।

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