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अनक्र
ु मणिका
1. चन्द्रदेव से मेरी बातें ......................................................... 3
2. दलु ाईवाली .................................................................. 6
3. एक टोकरी-भर ममट्टी ...................................................... 12
4. कानों में कँ गना ............................................................ 14
5. राजा मनरबमं सया ........................................................... 19
6. मिता ....................................................................... 36
7. िररन्द्दे ...................................................................... 42
8. अमृतसर आ गया है....................................................... 63
9. चीफ की दावत ............................................................ 73
10. मसक्का बदल गया ........................................................ 81
11. इन्द््िेक्टर मातादीन चाँद िर: व्यग्ं य ....................................... 86
12. मारे गये ग़लु फाम उफफ तीसरी कसम ...................................... 95
13. लाल िान की बेगम ..................................................... 121
14. कोसी का घटवार ........................................................ 135
15. आकाशदीि ............................................................. 148
16. गैंग्रीन-(रोज) ............................................................. 161
17. उसने कहा था............................................................ 174
18. ईदगाह ................................................................... 185
19. दमु नया का सबसे अनमोल रत्न ......................................... 192
20. अिना-अिना भाग्य ..................................................... 198
21. राही ...................................................................... 204

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चन्द्रदेव से मेरी बातें
बंग मणिला
सरस्वती

भगवान चन्द्रदेव ! आपके कमलवत् कोमल चरणों में इस दासी का अनेक बार प्रणाम । आज मैं आपसे दो
चार बातें करने की इच्छा रखती हूँ । क्या मेरे प्रश्नों का उत्तर आप प्रदान करें गे ? कीजजए, - बड़ी कृ पा होगी । देखो, सनु ी
अनसनु ी सी मत कर जाना । अपने बड़प्पन की ओर ध्यान देना । अच्छा, कहती ह,ूँ सनु ो .
मैं सनु ती ह,ूँ आप इस आकाश मडं ल में जचरकाल से वास करते हैं । क्या यह बात सत्य है ? यजद सत्य है तो मैं
अनमु ान करती हूँ जक इस सृजि के साथ ही साथ अवश्य आपकी भी सृजि हुई होगी । तब तो आप ढेर जदन के परु ाने,
बढ़ू े कहे जा सकते हैं । आप इतने परु ाने हैं तो सही, पर काम सदा से एक ही, और एक ही स्थान में करते आते हैं । यह
क्यों ? क्या आपकाजडपार्टमेण्र्(महकमे) में ट्ांसफ़र (बदली) होने का जनयम नहीं है ? क्या आपकीगवरमेण्र्पेंशन भी
नहीं देती ? बड़े खेद की बात है ? यजद आप हमारी न्द्यायशीला‘गवनटमेण्र्’के जकसी जवभाग में‘सजवटस’ (नौकरी) करते
होते तो अब तक आपकी बहुत कुछ पदोन्द्नजत हो गई होती । और ऐसी ‘पोस्र्’ पर रहकर भारत के जकतने ही सरु म्य
नगर, पवटत जंगल और झाजड़यों में भ्रमण करते । अंत में इस वृद्ध अवस्था में पेंशन प्राप्त कर काशी ऐसे पनु ीत और
शाजं त - धाम में बैठकर हरर नाम स्मरण करके अपना परलोक बनाते । यह बड़ी भारी भल ू हुई । भगवान चरं देव ! क्षमा
कीजजए, क्षमा कीजजए आप तो अमर हैं ; आपको मृत्यु कहाूँ ? तब परलोक बनाना कै सा ? ओ हो !देवता भी अपनी
जाजत के कै से पक्षपाती होते हैं । देखो न‘चंरदेव’को अमृत देकर उन्द्होंने अमर कर जदया - तब यजद मनष्ु य होकर हमारे
अग्रं ेज़ अपने जाजतवालों का पक्षपात करें तो आश्चयट ही क्या है ? अच्छा, यजद आपको अग्रं ेज जाजत की सेवा करना
स्वीकार हो तो, एक‘एप्लीके शन’ (जनवेदन पत्र) हमारे आधजु नक भारत प्रभु लॉडट कज़ईन के पास भेज देवें । आशा हे
जक वे आपको आदर पवू टक अवश्य आह्वान करें गे । क्योंजक आप अधम भारतवाजसयों के भाजं त कृ ष्णागं तो हैं ही नहीं,
जो आपको अच्छी नौकरी देने में उनकी गौरांग जाजत कुजपत हो उठे गी । और जिर, आप तो एक सयु ोग्य, कायटदक्ष,
पररश्रमी, बहुदशी, कायटकुशल और सरल स्वभाव महात्मा हैं । मैं जवश्वास करती ह,ूँ जक जब लॉडट कज़टन हमारे भारत के
स्थायी भाग्य जवधाता बनकर आवेंगे, तब आपको जकसी कमीशन का मेम्बर नहीं तो जकसी जमशन में भरती करके वे
अवश्य ही भेज देवेंगे । क्योंजक उनको कजमशन औरजमशन, दोनों ही, अत्यंत जप्रय हैं .आपके चंरलोक में जो रीजत और
नीजत सृजि के आजद काल में प्रचजलत थे वे ही सब अब भी हैं । पर यहाूँ तो इतना पररवतटन हो गया है जक भतू और
वतटमान में आकाश पाताल का सा अंतर हो गया है .मैं अनमु ान करती हूँ जक आपके नेत्रों की ज्योजत भी कुछ अवश्य
ही मंद पड़ गई होगी । क्योंजक आधजु नक भारत संतान लड़कपन से ही चश्मा धारण करने लगी है ; इस कारण आप
हमारे दीन, हीन, क्षीण-प्रभ भारत को उतनी दरू से भलीभाूँजत न देख सकते होंगे । अतएव आपसे सादर कहती हूँ जक
एक बार कृ पाकर भारत को देख तो जाइये यद्यजप इस बात को जानती हूँ जक आपको इतना अवकाश कहाूँ, - पर
आठवें जदन नहीं, तो महीनें में एक जदन, अथाटत् अमावस्या को, तो आपको‘हॉजलडे’ (छुट्टी) अवश्य ही रहती है । यजद

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आप उस जदन चाहें तो भारत भ्रमण कर जा सकते हैं .इस भ्रमण में आपको जकतने ही नतू न दृश्य देखने को जमलेंगे ।
जजसे सहसा देख कर आपकी बजु द्ध ज़रूर चकराजायेगी । यजद आपसे सारे जहन्द्दोस्तान का भ्रमण शीघ्रता के कारण न
हो सके तो के वल राजधानी कलकत्ता को देख लेना तो अवश्य ही उजचत है । वहाूँ के कल कारखानों को देखकर
आपको यह अवश्य ही कहना पड़ेगा जक यहाूँ के कारीगर तो जवश्वकमाट के भी लड़कदादा जनकले । यही क्यों , आपकी
जप्रय सहयोजगनी दाजमनों, जो मेघों पर आरोहण करके आनदं से अठखेजलयां जकया करती है वह बेचारी भी यहाूँ मनष्ु य
के हाथों का जखलौना हो रही है । भगवान जनशानाथ !जजस समय आप अपनी जनमटल चजन्द्रका को बर्ोर मेघमाला
अथवा पवटतों की ओर् से जसन्द्धु के गोद में जा सकते हैं, उस समय यही नीरद- वासनी, जवश्वमोजहनी, सौदाजमनी अपनी
उज्जवल मजू तट से आलोक प्रदान कर, रात को जदन बना देती है । आपके देवलोक में जजतने देवता हैं उनके वाहन भी
उतने हैं, - जकसी का गज, जकसी का हसं , जकसी का बैल, जकसी का चहू ा इत्याजद । पर यहाूँ तो सारा बोझ आपकी
चपला और अजग्नदेव के माथे मढ़ा गया है । क्या ब्राह्मण, क्या क्षजत्रय, क्या वैश्य, क्या शरू , क्या चाण्डाल, सभी के रथों
का वाहन वही हो रही है । हमारे श्वेतांग महाप्रभु गण को, जहाूँ पर कुछ कजठनाई का सामना आ पड़ा, झर्
उन्द्होंने‘इलेजक्ट्जसर्ी’ (जबजली) को ला पर्का । बस कजठन से कजठन कायट सहज में सम्पादन कर लेते हैं और हमारे
यहाूँ के उच्च जशक्षा प्राप्त यवु क काठ के पतु लों की भाूँजत मूँहु ताकते रह जाते हैं । जजस व्योमवाजसनी जवद्यतु देवी को
स्पशट तक करने का जकसी व्यजि का साहस नहीं हो सकता । वही आज पराये घर में आजश्रता नाररयों की भाूँजत ऐसे
दबाव में पड़ी है, जक वह चंू तक नहीं कर सकती क्या करे ? बेचारी के भाग्य में जवधाता ने दासी - वृजत्त ही जलखा था
.हररपदोद्भवा त्रैलोक्यपावनी सरु सरी के भी खोर्े जदन आये हैं, वह भी अब स्थान - स्थान मेंबन्द्धनग्रस्त हो रही है ।
उसके वक्षस्थल पर जहाूँ तहाूँ मोर्े वृहदाकारखम्भ गाड़ जदए गए हैं .कलकत्ता आजद को देखकर आपके देवराज सरु े न्द्र
भी कहेंगे जक हमारी अमरावती तो इसके आगे जनरी िीकी सी जान पड़ती है । वहाूँ ईडन गाडटन तो पाररजात
पररशोजभत नन्द्दन कानन को भी मात दे रहा है । वहाूँ के जवश्वजवद्यालय के जवश्वश्रेष्ठ पंजडतों की जवश्वव्याजधनी जवद्या को
देखकर वीणापाजण सरस्वती देवी भी कहने लग जाएगीं, जक जन:सदं हे इन जवद्या जदग्गजों की जवद्याचमत्काररणीहै । वहीं
के िोर्ट जवजलयम के िौजी सामान को देखकर, आपके देव सेनापजत काजतटकेय बाबू के भी छक्के छूर् जायेंगे क्योंजक
देव सेनापजत महाशय देखने में खास बगं ाली बाबू से जूँचते हैं । और उनका वाहन भी एक सन्द्ु दर मयरू है । बस, इससे,
उनके वीरत्व का भी पररचय खबू जमलता है । वहाूँ के ‘जमंर्’ (र्कसाल) को देखकर जसन्द्धतु नया आपकी जप्रय सहोदरा
कमला देवी तथा कुबेर भी अकचका जायेंगे । भगवान चंर देव ! इन्द्हीं सब जवश्वम्योत्पादकअपवू ट दृश्यों का अवलोकन
करने के हेतु आपको सादर जनमंजत्रत तथा सजवनय आहत, करती हूँ .सम्भव है जक यहाूँ आने से आपको अनेक लाभ
भी हों । आप जो अनाजद काल से जनज उज्जवल वपु में कलंक की काजलमा लेपन करके कलकीं शशांक, शशधर,
शशलाछ ं न, आजद उपाजध - मालाओ ं से भजू ित हो रहे हैं । जसन्द्धु तनय होने पर भी जजस काजलमा को आप आज तक
नहीं धो सके हैं, वही आजन्द्म- कलंक शायद यहाूँ के जवज्ञानजवद पजण्डतों की चेिा से छूर् जाय । जब बम्बई में स्वगीय
महारानी जवक्र्ोररया देवी की प्रजतमजू तट से काला दाग छुड़ाने में प्रोिे सर गज्जर महाशय िलीभतू हुए हैं, तब क्या
आपके मख ु की काजलमा छुड़ाने में वे िलीभतू न होंगे ?
शायद आप पर यह बात भी अभी तक जवजदत नहीं हुई जक आप, और आपके स्वामी सयू ट भगवान पर जब
हमारे भमू ण्डल की छाया पड़ती है, तभी आप लोगों पर ग्रहणलगता है । पर आप का तो अब तक, वही परु ाना जवश्वास
बना हुआ है जक जब कुजर्ल ग्रह राहु आपको जनकल जाता है तभी ग्रहण होता है । पर ऐसा थोथा जवश्वास करना आप
लोगों की भारी भलू है । अतः हे देव ! मैं जवनय करती हूँ जक अब आप अपने ह्रदय से इस भ्रम को जड़ से उखाड़ कर

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िें क दें .अब भारत में न तो आपके , और न आपके स्वामी भवु नभास्कर सयू ट महाशय ही के वंशधरोंका साम्राज्य है
और न अब भारत की वह शस्य श्यामला स्वणटप्रसतू ा मजू तट ही है । अब तो आप लोगों के अज्ञात, एक अन्द्य द्वीप -
वासी परम शजिमान गौरांग महाप्रभु इस सजु वशाल भारत-विट का राज्य वैभव भोग रहे हैं । अब तक मैंने जजन बातों
का वणटन आपसे स्थल ू रूप में जकया वह सब इन्द्हीं जवद्याजवशारद गौरांग प्रभओु ं के कृ पाकर्ाक्ष का पररणाम है । यों तो
यहाूँ प्रजत विट पदवीदान के समय जकतने ही राज्य जवहीन राजाओ ं की सृजि हुआ करती है, पर आपके वश ं धरों में जो दो
चारराजा महाराजा नाम - मात्र के हैं भी, वे काठ के पतु लों की भाूँती हैं । जैसे उन्द्हें उनके रक्षक नचाते हैं, वैसे ही वे
नाचते हैं । वे इतनी भी जानकारी नहीं रखते जक उनके राज्य में क्या हो रहा है - उनकी प्रजा दख ु ी है , या सख
ु ी?
यजद आप कभी भारत - भ्रमण करने को आयें तो, अपने‘िै जमली डॉक्र्र’धन्द्वन्द्तरर महाशय को और देवताओ ं
के ‘चीि जजस्र्स’जचत्रगप्तु जी को साथ अवश्य लेते आएं । आशा है जक धन्द्वन्द्तरर महाशय यहाूँ के डॉक्र्रों के सजन्द्नकर्
जचजकत्सा सम्बन्द्धी बहुत कुछ जशक्षा लाभ कर सकें गे । यजद प्लेग - महाराज (इश्वर न करे ) आपके चन्द्रलोक या
देवलोक में घसु पड़े तो, वहाूँ से उनको जनकालना कुछ सहज बात न होगी । यहीं जब जचजकत्सा शास्त्र के बड़े -बड़े
पारदशी उन पर जवजय नहीं पा सकते, तब वहाूँ आपके ‘देवलोक’में जड़ी - बजू र्यों के प्रयोग से क्या होगा ? यहाूँ
के ‘इजण्डयन पीनल कोड’की धाराओ ं को देखकर जचत्रगप्तु जी महाराज अपने यहाूँ की दण्डजवजध (काननू ) को बहुत
कुछ सधु ार सकते हैं । और यजद बोझ न हो तो यहाूँ से वे दो चार‘र्ाइप राइर्र’भी खरीद ले जायं । जब प्लेग महाराज
के अपार अनग्रु ह से उनके ऑजिस में कायट की अजधकता होवे, तब उससे उनकी‘राइर्सट जबज्डंग’के ‘राईर्सट’के काम
में बहुत ही सजु वधा और सहायता पहुचूँ ेगी । वे लोग दो जदन का काम दो घण्र्े में कर डालेंगे
अच्छा, अब मैं आपसे जवदा होती हूँ । मैंने तो आपसे इतनी बातें कही, पर खेद है, आपने उनके अनक
ु ू ल या
प्रजतकूल एक बात का भी उत्तर न जदया । परन्द्तु आपके इस मौनावलम्ब को मैं स्वीकार का सचू क समझती हूँ । अच्छा,
तो मेरी प्राथटना को कबल
ू करके एक दिा यहाूँ आइएगा जरूर । - एक बंग मजहला
****

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दल
ु ाईवाली {1907}
बंग मजहला
काशी जी के दशाश्वमेध घार् पर स्नान करके एक मनष्ु य बड़ी व्यग्रता के साथ गोदौजलया की तरि आ रहा
था। एक हाथ में एक मैली-सी तौजलया में लपेर्ी हुई भीगी धोती और दसू रे में सरु ती की गोजलयों की कई जडजबयाूँ और
सूँघु नी की एक पजु ड़या थी। उस समय जदन के ग्यारह बजे थे, गोदौजलया की बायीं तरि जो गली है, उसके भीतर एक
और गली में थोड़ी दरू पर, एक र्ूर्े-से परु ाने मकान में वह जा घसु ा। मकान के पहले खण्ड में बहुत अूँधेरा था; पर उपर
की जगह मनष्ु य के वासोपयोगी थी। नवागत मनष्ु य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाूँ एक कोठरी में उसने हाथ की
चीजें रख दीं। और, 'सीता! सीता!' कहकर पक ु ारने लगा।
"क्या है?" कहती हुई एक दस बरस की बाजलका आ खड़ी हुई, तब उस परुु ि ने कहा, "सीता! जरा अपनी बहन को
बल
ु ा ला।"
"अच्छा", कहकर सीता गई और कुछ देर में एक नवीना स्त्री आकर उपजस्थत हुई। उसे देखते ही परुु ि ने कहा, "लो,
हम लोगों को तो आज ही जाना होगा!"
इस बात को सनु कर स्त्री कुछ आश्चयटयक्ु त होकर और झूँझु लाकर बोली, "आज ही जाना होगा! यह क्यों? भला आज
कै से जाना हो सके गा? ऐसा ही था तो सवेरे भैया से कह देते। तमु तो जानते हो जक मूँहु से कह जदया, बस छुट्टी हुई।
लड़की कभी जवदा की होती तो मालमू पड़ता। आज तो जकसी सरू त जाना नहीं हो सकता!"
"तमु आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है जक आज ही नवलजकशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आगरे से
अपनी नई बह को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्द्होंने हमें आज ही जाने के जलए इसरार जकया है। हम सब लोग मगु लसराय
से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। उनका तार मझु े घर से जनकलते ही जमला। इसी से मैं झर् नहा-धोकर लौर् आया। बस
अब करना ही क्या है! कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बाूँध-बूँधू कर, घण्र्े भर में खा-पीकर चली चलो। जब हम तम्ु हें जवदा
कराने आए ही हैं तब कल के बदले आज ही सही।"
"हाूँ, यह बात है! नवल जो चाहें करावें। क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जाएगा? अब तो जकसी तरह
रुकोगे नहीं, जरूर ही उनके साथ जाओगे। पर मेरे तो नाकों दम आ जाएगी।"
"क्यों? जकस बात से?"
"उनकी हूँसी से और जकससे! हूँसी-ठट्ठा भी राह में अच्छी लगती है। उनकी हूँसी मुझे नहीं भाती। एक रोज मैं चौक में
बैठी पजू ड़याूँ काढ़ रही थी, जक इतने में न-जाने कहाूँ से आकर नवल जच्लाने लगे, "ए बआ ु ! ए बआ ु ! देखो तम्ु हारी
बह पजू ड़याूँ खा रही है।" मैं तो मारे सरम के मर गई। हाूँ, भाभी जी ने बात उड़ा दी सही। वे बोलीं, "खाने-पहनने के जलए
तो आयी ही है।" पर मझु े उनकी हूँसी बहुत बरु ी लगी।"
"बस इसी से तमु उनके साथ नहीं जाना चाहतीं? अच्छा चलो, मैं नवल से कह दगूँू ा जक यह बेचारी कभी रोर्ी तक तो
खाती ही नहीं, पड़ू ी क्यों खाने लगी।"

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इतना कहकर बंशीधर कोठरी के बाहर चले आये और बोले, "मैं तम्ु हारे भैया के पास जाता ह।ूँ तमु रो-रुलाकर तैयार
हो जाना।"
इतना सनु ते ही जानकी देई की आूँखें भर आयीं। और असाढ़-सावन की ऐसी झड़ी लग गयी।
बंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससरु ाल है। स्त्री को जवदा कराने आये हैं। ससरु ाल में एक साले, साली
और सास के जसवा और कोई नहीं है। नवलजकशोर इनके दरू के नाते में ममेरे भाई हैं। पर दोनों में जमत्रता का खयाल
अजधक है। दोनों में गहरी जमत्रता है, दोनों एक जान दो काजलब हैं।
उसी जदन बश ं ीधर का जाना जस्थर हो गया। सीता, बहन के सगं जाने के जलए रोने लगी। माूँ रोती-धोती लड़की की जवदा
की सामग्री इकट्ठी करने लगी। जानकी देई भी रोती ही रोती तैयार होने लगी। कोई चीज भल ू ने पर धीमी आवाज से माूँ
को याद भी जदलाती गयी। एक बजने पर स्र्े शन जाने का समय आया। अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाय?
ससरु ालवालों की अवस्था अब आगे की सी नहीं जक दो-चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें। सीता के बाप के न रहने
से काम जबगड़ गया है। पैसेवाले के यहाूँ नौकर-चाकरों के जसवा और भी दो-चार खुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन
पछू े ? एक कहाररन
है; सो भी इस समय कहीं गयी है। सालेराम की तबीयत अच्छी नहीं। वे हर घड़ी जबछौने से बातें करते हैं। जतस पर भी
आप कहने लगे, "मैं ही धीरे -धीरे जाकर कोई सवारी ले आता ह,ूँ नजदीक तो है।"
बश
ं ीधर बोले, "नहीं, नहीं, तमु क्यों तकलीि करोगे? मैं ही जाता ह।ूँ " जाते-जाते बंशीधर जवचारने लगे जक इक्के की
सवारी तो भले घर की जस्त्रयों के बैठने लायक नहीं होती, क्योंजक एक तो इतने ऊूँचे पर चढ़ना पड़ता है; दसू रे पराये
परुु ि के सगं एक साथ बैठना पड़ता है। मैं एक पालकी गाड़ी ही कर लूँ।ू उसमें सब तरह का आराम रहता है। पर जब
गाड़ी वाले ने डेढ़ रुपया जकराया माूँगा, तब बंशीधर ने कहा, "चलो इक्का ही सही। पहुचूँ ने से काम। कुछ नवलजकशोर
तो यहाूँ से साथ हैं नहीं, इलाहाबाद में देखा जाएगा।"
बशं ीधर इक्का ले आये, और जो कुछ असबाब था, इक्के पर रखकर आप भी बैठ गये। जानकी देई बड़ी जवकलता से
रोती हुई इक्के पर जा बैठी। पर इस अजस्थर संसार में जस्थरता कहाूँ! यहाूँ कुछ भी जस्थर नहीं। इक्का जैसे-जैसे आगे
बढ़ता गया वैसे जानकी की रुलाई भी कम होती गयी। जसकरौल के स्र्े शन के पास पहुचूँ ते-पहुचूँ ते जानकी अपनी
आूँखें अच्छी तरह पोंछ चक ु ी थी।
दोनों चपु चाप चले जा रहे थे जक, अचानक बंशीधर की नजर अपनी धोती पर पड़ी; और 'अरे एक बात तो हम भल ू ही
गये।' कहकर पछता से उठे । इक्के वाले के कान बचाकर जानकी जी ने पछू ा, "क्या हुआ? क्या कोई जरूरी चीज भल

आये?"
"नहीं, एक देशी धोती पजहनकर आना था; सो भल ू कर जवलायती ही पजहन आये। नवल कट्टर स्वदेशी हुए हैं न! वे
बंगाजलयों से भी बढ़ गये हैं। देखेंगे तो दो-चार सनु ाये जबना न रहेंगे। और, बात भी ठीक है। नाहक जबलायती चीजें मोल
लेकर क्यों रुपये की बरबादी की जाय। देशी लेने से भी दाम लगेगा सही; पर रहेगा तो देश ही में।"
जानकी जरा भौंहें र्ेढ़ी करके बोली, "ऊूँह, धोती तो धोती, पजहनने से काम। क्या यह बरु ी है?"

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इतने में स्र्ेशन के कुजलयों ने आ घेरा। बंशीधर एक कुली करके चले। इतने में इक्के वाले ने कहा, "इधर से जर्कर् लेते
जाइए। पल ु के उस पार तो ड्योढ़े दरजे का जर्कर् जमलता है।"
बंशीधर जिरकर बोले, "अगर मैं ड्योढ़े दरजे का ही जर्कर् लूँू तो?"
इक्के वाला चपु हो रहा। "इक्के की सवारी देखकर इसने ऐसा कहा," यह कहते हुए बंशीधर आगे बढ़ गये। यथा-समय
रे ल पर बैठकर बश ं ीधर राजघार् पार करके मगु लसराय पहुचूँ े। वहाूँ पलु लाूँघकर दसू रे प्लेर्िामट पर जा बैठे। आप
नवल से जमलने की खश ु ी में प्लेर्िामट के इस छोर से उस छोर तक र्हलते रहे। देखते-देखते गाड़ी का धआ ु ूँ जदखलाई
पड़ा। मसु ाजिर अपनी-अपनी गठरी सूँभालने लगे। रे ल देवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गम्भीरता से आ खड़ी
हुई। बंशीधर एक बार चलती गाड़ी ही में शरू ु से आजखर तक देख गये, पर नवल का कहीं पता नहीं। बंशीधर जिर सब
गाजड़यों को दोहरा गये, तेहरा गये, भीतर घसु -घसु कर एक-एक जडब्बे को देखा जकंतु नवल न जमले। अंत को आप
जखजला उठे , और सोचने लगे जक मझु े तो वैसी जचट्ठी जलखी, और आप न आया। मझु े अच्छा उ्लू बनाया। अच्छा
जाएूँगे कहाूँ? भेर् होने पर समझ लूँगू ा। सबसे अजधक सोच तो इस बात का था जक जानकी सनु ेगी तो ताने पर ताना
मारे गी। पर अब सोचने का समय नहीं। रे ल की बात ठहरी, बश ं ीधर झर् गये और जानकी को लाकर जनानी गाड़ी में
जबठाया। वह पछू ने लगी, "नवल की बह कहाूँ है?" "वह नहीं आये, कोई अर्काव हो गया," कहकर आप बगल वाले
कमरे में जा बैठे। जर्कर् तो ड्योढ़े का था; पर ड्योढ़े दरजे का कमरा कलकत्ते से आनेवाले मसु ाजिरों से भरा था,
इसजलए तीसरे दरजे में बैठना पड़ा। जजस गाड़ी में बश ं ीधर बैठे थे उसके सब कमरों में जमलाकर कल दस-बारह ही स्त्री-
परुु ि थे। समय पर गाड़ी छूर्ी। नवल की बातें, और न-जाने क्या अगड़-बगड़ सोचते गाड़ी कई स्र्ेशन पार करके
जमरजापरु पहुचूँ ी।"
जमरजापरु में पेर्राम की जशकायत शरू ु हुई। उसने सझु ाया जक इलाहाबाद पहुचूँ ने में अभी देरी है। चलने के झंझर् में
अच्छी तरह उसकी पजू ा जकये जबना ही बंशीधर ने बनारस छोड़ा था। इसजलए आप झर् प्लेर्िामट पर उतरे , और पानी
के बम्बे से हाथ-मूँहु धोकर, एक खोंचेवाले से थोड़ी-सी ताजी पजू ड़याूँ और जमठाई लेकर, जनराले में बैठ आपने उन्द्हें
जठकाने पहुचूँ ाया। पीछे से जानकी की सधु आयी। सोचा जक पहले पछू लें, तब कुछ मोल लेंगे, क्योंजक जस्त्रयाूँ नर्खर्
होती हैं। वे रे ल पर खाना पसदं नहीं करतीं। पछू ने पर वही बात हुई। तब बश
ं ीधर लौर्कर अपने कमरे में आ बैठे। यजद
वे चाहते तो इस समय ड्योढ़े में बैठ जाते; क्योंजक अब भीड़ कम हो गयी थी। पर उन्द्होंने कहा, थोड़ी देर के जलए कौन
बखेड़ा करे ।
बश
ं ीधर अपने कमरे में बैठे तो दो-एक मसु ाजिर अजधक देख पड़े। आगेवालों में से एक उतर भी गया था। जो लोग थे
सब तीसरे दरजे के योग्य जान पड़ते थे; अजधक सभ्य कोई थे तो बंशीधर ही थे। उनके कमरे के पास वाले कमरे में एक
भले घर की स्त्री बैठी थी। वह बेचारी जसर से पैर तक ओढ़े, जसर झक ु ाए एक हाथ लबं ा घूँघू र् काढ़े, कपड़े की गठरी-सी
बनी बैठी थी, बंशीधर ने सोचा इनके संग वाले भर परुु ि के आने पर उनके साथ बातचीत करके समय जबतावेंगे। एक-
दो करके तीसरी घण्र्ी बजी। तब वह स्त्री कुछ अकचकाकर, थोड़ा-सा मूँहु खोल, जूँगले के बाहर देखने लगी। ज्योंही
गाड़ी छूर्ी, वह मानो काूँप-सी उठी। रे ल का देना-लेना तो हो ही गया था। अब उसको जकसी की क्या परवा? वह
अपनी स्वाभाजवक गजत से चलने लगी। प्लेर्िामट पर भीड़ भी न थी। के वल दो-चार आदमी रे ल की अंजतम जवदाई
तक खड़े थे। जब तक स्र्े शन जदखलाई जदया तब तक वह बेचारी बाहर ही देखती रही। जिर अस्पष्र् स्वर से रोने लगी।

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उस कमरे में तीन-चार प्रौढ़ा ग्रामीण जस्त्रयाूँ भी थीं। एक, जो उसके पास ही थी, कहने लगी - "अरे इनकर मनई तो नाहीं
आइलेन। हो देखहो, रोवल करथईन।"
दसू री, ''अरे दसू र गाड़ी में बैठा होंइहें।''
पहली, ''दरु बौरही! ई जनानी गाड़ी थेड़े है।''
दसू री, ''तऊ हो भलू तो कह।'' कहकर दसू री भर मजहला से पछू ने लगी, ''कौन गाूँव उतरबू बेर्ा! मीरजैपुरा चढ़ी हऊ
न?" इसके जवाब में उसने जो कहा सो वह न सनु सकी।
तब पहली बोली, "हर् हम पूँजु छला न; हम कहा काहाूँ ऊतरबू हो? आूँय ईलाहाबास?"
दसू री, ''ईलाहाबास कौन गाूँव हौ गोइयाूँ?''
पहली, ''अरे नाहीं जनूँल?ू पैयाग जी, जहाूँ मनई मकर नाहाए जाला।''
दसू री, ''भला पैयाग जी काहे न जानीथ; ले कहैके नाहीं, तोहरे पचं के धरम से चार दाूँई नहाय चक
ु ी हूँई। ऐसों हो
सोमवारी, अउर गहन, दका, दका, लाग रहा तउन तोहरे काशी जी नाहाय गइ रहे।''
पहली, ''आवे जाय के तो सब अऊते जाता बर्ले बार्ेन। िुन यह साइत तो जबचारो जवपत में न पड़ल बाजर्ली। हे हम
पंचा हइ; राजघार् जर्कस कर्ऊली; मोंगल के सरायैं उतरलीह; हो द पनु चढ़लीह।''
दसू री, ''ऐसे एक दाूँई हम आवत रहे। एक जमली औरो मोरे संघे रही। दकौने जर्सनीया पर उकर मजलकवा उतरे से जक
जरु तूँइहैं गजड़या खल
ु ी। अब भइया ऊगरा िाड़-िाड़ नररयाय, ए साहब, गजड़या खड़ी कर! ए साहेब, गजड़या तूँनी खड़ी
कर! भला गजड़यादजहनाती काहै के खड़ी होय?''
पहली, ''उ मेहररुवा बड़ी उजबक रहल। भला के ह के जच्लाये से रे लीऔ कहूँ खड़ी होला?''
इसकी इस बात पर कुल कमरे वाले हूँस पड़े। अब जजतने परुु ि-जस्त्रयाूँ थीं, एक से एक अनोखी बातें कहकर अपने-
अपने तजरुबे बयान करने लगीं। बीचबीच में उस अके ली अबला की जस्थजत पर भी द:ु ख प्रकर् करती जाती थीं।
तीसरी स्त्री बोली, "र्ीक्कजसया प्ले बाय क नाूँही। हे सहेबवा सजु न तो कलकत्ते ताूँई ले मसजु लया लेई। अरे -इहो तो
नाूँही जक दरू से आवत रहले न, िरागत के बदे उतर लेन।"
चौथी, ''हम तो इनके सगं े के आदमी के देखबो न जकहो गोइयाूँ।''
तीसरी, ''हम देखे रहली हो, मजेक र्ोपी जदहले रहलेन को।''
इस तरह उनकी बेजसर-पैर की बातें सनु ते-सनु ते बंशीधर ऊब उठे । तब वे उन जस्त्रयों से कहने लगे, "तमु तो नाहक उन्द्हें
और भी डरा रही हो। जरूर इलाहाबाद तार गया होगा और दसू री गाड़ी से वे भी वहाूँ पहुचूँ जाएूँगे। मैं भी इलाहाबाद
ही जा रहा ह।ूँ मेरे संग भी जस्त्रयाूँ हैं। जो ऐसा ही है तो दसू री गाड़ी के आने तक मैं स्र्ेशन ही पर ठहरा रहगूँ ा, तमु लोगों
में से यजद कोई प्रयाग उतरे तो थोड़ी देर के जलए स्र्े शन पर ठहर जाना। इनको अके ला छोड़ देना उजचत नहीं। यजद पता
मालमू हो जाएगा तो मैं इन्द्हें इनके ठहरने के स्थान पर भी पहुचूँ ा दगूँू ा।"

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बंशीधर की इन बातों से उन जस्त्रयों की वाक्-धारा दसू री ओर बह चली, "हाूँ, यह बात तो आप भली कही।" "नाहीं
भइया! हम पचं े काजहके के हुसे कुछ कही। अरे एक के एक करत न बाय तो दजु नया चलत कै से बाय?" इत्याजद
ज्ञानगाथा होने लगी। कोई-कोई तो उस बेचारी को सहारा जमलते देख खश ु हुए और कोई-कोई नाराज भी हुए, क्यों, सो
मैं नहीं बतला सकती। उस गाड़ी में जजतने मनष्ु य थे, सभी ने इस जविय में कुछ-न-कुछ कह डाला था। जपछले कमरे में
के वल एक स्त्री जो िरासीसी छींर् की दल ु ाई ओढ़े अके ली बैठी थी, कुछ नहीं बोली। कभी-कभी घूँघू र् के भीतर से
एक आूँख जनकालकर बंशीधर की ओर वह ताक देती थी और, सामना हो जाने पर, जिर मूँहु िे र लेती थी। बंशीधर
सोचने लगे जक, "यह क्या बात है? देखने में तो यह भले घर की मालमू होती है, पर आचरण इसका अच्छा नहीं।"
गाड़ी इलाहाबाद के पास पहुचूँ ने को हुई। बंशीधर उस स्त्री को धीरज जदलाकर आकाश-पाताल सोचने लगे। यजद तार
में कोई खबर न आयी होगी तो दसू री गाड़ी तक स्र्ेशन पर ही ठहरना पड़ेगा। और जो उससे भी कोई न आया तो क्या
करूूँगा? जो हो गाड़ी नैनी से छूर् गयी। अब साथ की उन अजशजक्षता जस्त्रयों ने जिर मूँहु खोला, "क भइया, जो के हु
जबना जर्क्कस के आवत होय तो ओकर का सजाय होला? अरे ओकं ा ई नाहीं चाहत रहा जक मेहरारू के तो बैठा
जदहलेन, अउर अपआ ु तउन जर्क्कस लेई के चल जदहलेन!" जकसी-जकसी आदमी ने तो यहाूँ तक दौड़ मारी की रात
को बंशीधर इसके जेवर छीनकर रिूचक्कर हो जाएूँगे। उस गाड़ी में एक लाठीवाला भी था, उसने ख्ु लमख्ु ला कहा,
"का बाबू जी! कुछ हमरो साझा!"
इसकी बात पर बश ं ीधर क्रोध से लाल हो गये। उन्द्होंने इसे खबू धमकाया। उस समय तो वह चपु हो गया, पर यजद
इलाहाबाद उतरता तो बंशीधर से बदला जलये जबना न रहता। बंशीधर इलाहाबाद में उतरे । एक बजु ढ़या को भी वहीं
उतरना था। उससे उन्द्होंने कहा जक, "उनको भी अपने सगं उतार लो।" जिर उस बजु ढ़या को उस स्त्री के पास जबठाकर
आप जानकी को उतारने गये। जानकी से सब हाल कहने पर वह बोली, "अरे जाने भी दो; जकस बखेड़े में पड़े हो।" पर
बंशीधर ने न माना। जानकी को और उस भर मजहला को एक जठकाने जबठाकर आप स्र्े शन मास्र्र के पास गये।
बशं ीधर के जाते ही वह बजु ढ़या, जजसे उन्द्होंने रखवाली के जलए रख छोड़ा था, जकसी बहाने से भाग गयी। अब तो
बंशीधर बड़े असमंजस में पड़े। जर्कर् के जलए बखेड़ा होगा। क्योंजक वह स्त्री बे-जर्कर् है। लौर्कर आये तो जकसी को
न पाया। "अरे ये सब कहाूँ गयीं?" यह कहकर चारों तरि देखने लगे। कहीं पता नहीं। इस पर बश ं ीधर घबराये, "आज
कै सी बरु ी साइत में घर से जनकले जक एक के बाद दसू री आित में िूँ सते चले आ रहे हैं।" इतने में अपने सामने उस
ढुलाईवाली को आते देखा। "तू ही उन जस्त्रयों को कहीं ले गयी है,'' इतना कहना था जक ढुलाई से मूँहु खोलकर
नवलजकशोर जखलजखला उठे ।
"अरे यह क्या? सब तम्ु हारी ही करततू है! अब मैं समझ गया। कै सा गजब तमु ने जकया है? ऐसी हूँसी मझ
ु े नहीं अच्छी
लगती। मालमू होता जक वह तम्ु हारी ही बह थी। अच्छा तो वे गयीं कहाूँ?"
"वे लोग तो पालकी गाड़ी में बैठी हैं। तमु भी चलो।"
"नहीं मैं सब हाल सनु लूँगू ा तब चलूँगू ा। हाूँ, यह तो कहे, तमु जमरजापरु में कहाूँ से आ जनकले?"
"जमरजापरु नहीं, मैं तो कलकत्ते से, बज्क मगु लसराय से, तम्ु हारे साथ चला आ रहा ह।ूँ तमु जब मगु लसराय में मेरे
जलए चक्कर लगाते थे तब मैं ड्योढ़े दजे में ऊपरवाले बेंच पर लेर्े तम्ु हारा तमाशा देख रहा था। जिर जमरजापुर में जब
तमु पेर् के धधं े में लगे थे, मैं तम्ु हारे पास से जनकल गया पर तमु ने न देखा, मैं तम्ु हारी गाड़ी में जा बैठा। सोचा जक

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तम्ु हारे आने पर प्रकर् होऊूँगा। जिर थोड़ा और देख लें, करते-करते यहाूँ तक नौबत पहुचूँ ी। अच्छा अब चलो, जो
हुआा उसे माि करो।"
यह सनु बंशीधर प्रसन्द्न हो गये। दोनों जमत्रों में बड़े प्रेम से बातचीत होने लगी। बंशीधर बोले, "मेरे ऊपर जो कुछ बीती
सो बीती, पर वह बेचारी, जो तम्ु हारे -से गनु वान के संग पहली ही बार रे ल से आ रही थी, बहुत तंग हुई, उसे तो तमु ने
नाहक रूलाया। बहुत ही डर गयी थी।"
"नहीं जी! डर जकस बात का था? हम-तमु , दोनों गाड़ी में न थे?"
"हाूँ पर, यजद मैं स्र्ेशन मास्र्र से इजत्तला कर देता तो बखेड़ा खड़ा हो जाता न ?"
"अरे तो क्या, मैं मर थोड़े ही गया था! चार हाथ की दल
ु ाई की जबसात ही जकतनी?"
इसी तरह बातचीत करते-करते दोनों गाड़ी के पास आये। देखा तो दोनों जमत्र-बधओ ु ं में खबू हूँसी हो रही है। जानकी
कह रही थी - "अरे तमु क्या जानो, इन लोगों की हूँसी ऐसी ही होती है। हूँसी में जकसी के प्राण भी जनकल जाएूँ तो भी
इन्द्हें दया न आवे।"
खैर, दोनों जमत्र अपनी-अपनी घरवाली को लेकर राजी-खश
ु ी घर पहुचूँ े और मझु े भी उनकी यह राम-कहानी जलखने से
छुट्टी जमली।
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एक र्ोकरी-भर जमट्टी (1900)
माधवराव सप्रे
जकसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ जवधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने
महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढानेा़ की इच्छा हुई, जवधवा से बहुतेरा कहा जक अपनी झोंपड़ी हर्ा ले, पर वह तो
कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका जप्रय पजत और इकलौता पत्रु भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोह भी एक पाूँच
बरस की कन्द्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे
अपनी पवू टजस्थजत की याद आ जाती तो मारे द:ु ख के िूर्-िूर् रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी
की इच्छा का हाल सनु ा, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था जक जबना मरे वहाूँ से
वह जनकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्न जनष्िल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की
खाल जनकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्द्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा करा जलया और जवधवा
को वहाूँ से जनकाल जदया। जबचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक जदन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास र्हल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे जक वह जवधवा हाथ में एक
र्ोकरी लेकर वहाूँ पहुचूँ ी। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा जक उसे यहाूँ से हर्ा दो। पर वह
जगड़जगड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तम्ु हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई ह।ूँ महाराज क्षमा करें तो
एक जवनती है।'' जमींदार साहब के जसर जहलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूर्ी है, तब से मेरी पोती ने खाना-
पीना छोड़ जदया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है जक अपने घर चल। वहीं रोर्ी
खाऊूँगी। अब मैंने यह सोचा जक इस झोंपड़ी में से एक र्ोकरी-भर जमट्टी लेकर उसी का च्ू हा बनाकर रोर्ी पकाऊूँगी।
इससे भरोसा है जक वह रोर्ी खाने लगेगी। महाराज कृ पा करके आज्ञा दीजजए तो इस र्ोकरी में जमट्टी ले आऊूँ!'' श्रीमान्
ने आज्ञा दे दी।
जवधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाूँ जाते ही उसे परु ानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आूँखों से आूँसू की धारा
बहने लगी। अपने आतं ररक द:ु ख को जकसी तरह सूँभालकर उसने अपनी र्ोकरी जमट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर
बाहर ले आई। जिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्राथटना करने लगी, ''महाराज, कृ पा करके इस र्ोकरी को जरा हाथ लगाइए
जजससे जक मैं उसे अपने जसर पर धर लूँ।ू '' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने
लगी और पैरों पर जगरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। जकसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं र्ोकरी उठाने
आगे बढ़े। ज्योंही र्ोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्योंही देखा जक यह काम उनकी शजि के बाहर है। जिर तो
उन्द्होंने अपनी सब ताकत लगाकर र्ोकरी को उठाना चाहा, पर जजस स्थान पर र्ोकरी रखी थी, वहाूँ से वह एक हाथ
भी ऊूँची न हुई। वह लजज्जत होकर कहने लगे, ''नहीं, यह र्ोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''
यह सनु कर जवधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक र्ोकरी-भर जमट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में
तो हजारों र्ोकररयाूँ जमट्टी पड़ा़ी है। उसका भार आप जन्द्म-भर क्योंकर उठा सकें गे? आप ही इस बात पर जवचार
कीजजए।"

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जमींदार साहब धन-मद से गजवटत हो अपना कतटव्य भल ू गए थे पर जवधवा के उपयटक्ु त वचन सनु ते ही उनकी आूँखें
खल
ु गयीं। कृ तकमट का पश्चाताप कर उन्द्होंने जवधवा से क्षमा माूँगी और उसकी झोंपड़ी वाजपस दे दी।
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कानों में कँ गना
राजा राजधकारमण प्रसाद जसंह
1

"जकरन! तम्ु हारे कानों में क्या है?"


उसके कानों से चंचल लर् को हर्ाकर कहा - "कूँ गना।"
"अरे ! कानों में कूँ गना?" सचमच
ु दो कंगन कानों को घेरकर बैठे थे।
"हाूँ, तब कहाूँ पहनूँ?ू "
जकरन अभी भोरी थी। दजु नया में जजसे भोरी कहते हैं, वैसी भोरी नहीं। उसे वन के िूलों का भोलापन समझो। नवीन
चमन के िूलों की भगं ी नहीं; जवजवध खाद या रस से जजनकी जीजवका है, जनरन्द्तर कार्-छाूँर् से जजनका सौन्द्दयट है, जो
दो घड़ी चंचल जचकने बाल की भिू ा है - दो घड़ी तम्ु हारे िूलदान की शोभा। वन के िूल ऐसे नहीं। प्रकृ जत के हाथों से
लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े हैं। चर्ुल दृजि इन्द्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्द्हें छूती नहीं। यह सरल सन्द्ु दर सौरभमय जीवन
हैं। जब जीजवत रहे, तब चारों तरि अपने प्राणधन से हरे -भरे रहे, जब समय आया, तब अपनी माूँ की गोद में झड़ पड़े।
आकाश स्वचछ था - नील, उदार सन्द्ु दर। पत्ते शान्द्त थे। सन्द्ध्या हो चली थी। सनु हरी जकरनें सदु रू पवटत की चड़ू ा से देख
रही थीं। वह पतली जकरन अपनी मृत्य-ु शैया से इस शन्द्ू य जनजवड़ कानन में क्या ढूूँढ़ रही थी, कौन कहे! जकसे एकर्क
देखती थी, कौन जाने! अपनी लीला-भजू म को स्नेह करना चाहती थी या हमारे बाद वहाूँ क्या हो रहा है, इसे जोहती थी
- मैं क्या बता सकूँू ? जो हो, उसकी उस भंगी में आकांक्षा अवश्य थी। मैं तो खड़ा-खड़ उन बड़ी आूँखों की जकरन
लर्ू ता था। आकाश में तारों को देखा या उन जगमग आूँखों को देखा, बात एक ही थी। हम दरू से तारों के सन्द्ु दर शन्द्ू य
जझकजमक को बार-बार देखते हैं, लेजकन वह सस्पन्द्द जनश्चेि ज्योजत सचमचु भावहीन है या आप-ही-आप अपनी
अन्द्तर-लहरी से मस्त है, इसे जानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आूँखें कहाूँ जक उनके सहारे उस जनगढ़ू अन्द्तर में डूबकर
थाह लें।
मैं रसाल की डोली थामकर पास ही खड़ा था। वह बालों को हर्ाकर कंगन जदखाने की भंगी प्राणों में रह-रहकर उठती
थी। जब माखन चरु ाने वाले ने गोजपयों के सर के मर्के को तोड़कर उनके भीतर जकले को तोड़ डाला या नरू -जहाूँ ने
अंचल से कबतू र को उड़ाकर शाहश ं ाह के कठोर हृदय की धजज्जयाूँ उड़ा दीं, जिर नदी के जकनारे बसन्द्त-ब््भ रसाल
प्लवों की छाया में बैठी जकसी अपरूप बाजलका की यह सरल जस्नग्ध भजं गमा एक मानव-अन्द्तर पर क्यों न दौड़े।
जकरन इन आूँखों के सामने प्रजतजदन आती ही जाती थी। कभी आम के जर्कोरे से आूँचल भर लाती , कभी मौलजसरी के
िूलों की माला बना लाती, लेजकन कभी भी ऐसी बाल-सल ु भ लीला आूँखों से होकर हृदय तक नहीं उतरी। आज क्या
था, कौन शभु या अशभु क्षण था जक अचानक वह बनैली लता मदं ार माला से भी कहीं मनोरम दीख पड़ी। कौन
जानता था जक चाल से कुचाल जाने में - हाथों से कंगन भलू कर कानों में पजहनने में - इतनी माधरु ी है। दो र्के के कूँ गने

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में इतनी शजि है। गोजपयों को कभी स्वप्न में भी नहीं झलका था जक बाूँस की बाूँ सरु ी में घूँघू र् खोलकर नचा देनेवाली
शजि भरी है।
मैंने चर्पर् उसके कानों से कंगन उतार जलया। जिर धीरे -धीरे उसकी उूँगजु लयों पर चढ़ाने लगा। न जाने उस घड़ी कै सी
खलबली थी। मूँहु से अचानक जनकल आया -
"जकरन! आज की यह घर्ना मझ
ु े मरते दम तक न भल
ू ेगी। यह भीतर तक पैठ गई।"
उसकी बड़ी-बड़ी आूँखें और भी बड़ी हो गई।ं मझु े चोर्-सी लगी। मैं तत्क्षण योगीश्वर की कुर्ी की तरि चल जदया।
प्राण भी उसी समय नहीं चल जदये, यही जवस्मय था।

एक जदन था जक इसी दजु नया में दजु नया से दरू रहकर लोग दसू री दजु नया का सख
ु उठाते थे। हररचन्द्दन के प्लवों की
छाया भल ू ोक पर कहाूँ जमले; लेजकन जकसी समय हमारे यहाूँ भी ऐसे वन थे, जजनके वृक्षों के साये में घड़ी जनवारने के
जलए स्वगट से देवता भी उतर आते थे। जजस पचं वर्ी का अनन्द्त यौवन देखकर राम की आूँखें भी जखल उठी थीं वहाूँ के
जनवाजसयों ने कभी अमरतरु के िूलों की माला नहीं चाही, मन्द्दाजकनी के छींर्ों की शीतलता नहीं ढूूँढ़ी। नन्द्दनोपवन
का सानी कहीं वन भी था! क्पवृक्ष की छाया में शाजन्द्त अवश्य है; लेजकन कदम की छजहयाूँ कहाूँ जमल सकती।
हमारी-तम्ु हारी आूँखों ने कभी नन्द्दनोत्सव की लीला नहीं देखी; लेजकन इसी भतू ल पर एक जदन ऐसा उत्सव हो चक ु ा
है, जजसको देख-देखकर प्रकृ जत तथा रजनी छह महीने तक ठगी रहीं, शत-शत देवांगनाओ ं ने पाररजात के िूलों की
विाट से नन्द्दन कानन को उजाड़ डाला।
समय ने सब कुछ पलर् जदया। अब ऐसे वन नहीं, जहाूँ कृ ष्ण गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की र्ेर दें। ऐसे कुर्ीर
नहीं जजनके दशटन से रामचन्द्र का भी अन्द्तर प्रसन्द्न हो, या ऐसे मनु ीश नहीं जो धमटधरु न्द्धर धमटराज को भी धमट में जशक्षा
दें। यजद एक-दो भल
ू े-भर्के हों भी, तब अभी तक उन पर दजु नया का परदा नहीं उठा - जगन्द्माया की माया नहीं लगी।
लेजकन वे कब तक बचे रहेंगे? लोक अपने यहाूँ अलौजकक बातें कब तक होने देगा! भवसागर की जल-तरंगों पर जथर
होना कब सम्भव है ?
हृिीके श के पास एक सन्द्ु दर वन है; सन्द्ु दर नहीं अपरूप सन्द्ु दर है। वह प्रमोदवन के जवलास-जनकंु जों जैसा सन्द्ु दर नहीं,
वरंच जचत्रकूर् या पचं वर्ी की मजहमा से मजण्डत है। वहाूँ जचकनी चाूँदनी में बैठकर कनक घूँघु रू की इच्छा नहीं होती,
वरंच प्राणों में एक ऐसी आवेश-धारा उठती है, जो कभी अनन्द्त साधना के कूल पर पहुचूँ ाती है - कभी जीव-जगत के
एक-एक तत्व से दौड़ जमलती है। गंगा की अनन्द्त गररमा - वन की जनजवड़ योग जनरा वहीं देख पड़ेगी। कौन कहे, वहाूँ
जाकर यह चचं ल जचत्त क्या चाहता है - गम्भीर अलौजकक आनन्द्द या शान्द्त सन्द्ु दर मरण।
इसी वन में एक कुर्ी बनाकर योगीश्वर रहते थे। योगीश्वर योगीश्वर ही थे। यद्दाजप वह भतू ल ही पर रहते थे, तथाजप उन्द्हें
इस लोग का जीव कहना यथाथट नहीं था। उनकी जचत्तवृजत्त सरस्वती के श्रीचरणों में थी या ब्रह्मलोक की अनन्द्त शाजन्द्त
में जलपर्ी थी। और वह बाजलका - स्वगट से एक रजश्म उतरकर उस घने जंगल में उजेला करती जिरती थी। वह लौजकक

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मायाबद्ध जीवन नहीं था। इसे बन्द्धन-रजहत बाधाहीन नाचती जकरनों की लेखा कजहए - मानो जनमटि ु चंचल मलय वायु
िूल-िूल पर, डाली-डाली पर डोलती जिरती हो या कोई मजू तटमान अमर सगं ीत बेरोकर्ोक हवा पर या जल की तरंग-
भंग पर नाच रहा हो। मैं ही वहाूँ इस लोग का प्रजतजनजध था। मैं ही उन्द्हें उनकी अलौजकक जस्थजत से इस जजर्ल मत्यट-
राज्य में खींच लाता था।
कुछ साल से मैं योगीश्वर के यहाूँ आता-जाता था। जपता की आज्ञा थी जक उनके यहाूँ जाकर अपने धमट के सब ग्रन्द्थ
पढ़ डालो। योगीश्वर और बाबा लड़कपन के साथी थे। इसीजलए उनकी मझु पर इतनी दया थी। जकरन उनकी लड़की
थी। उस कुर्ीर में एक वही दीपक थी। जजस जदन की घर्ना मैं जलख आया ह,ूँ उसी जदन सबेरे मेरे अध्ययन की पणू ाटहुजत
थी और बाबा के कहने पर एक जोड़ा पीताम्बर, पाूँच स्वणटमरु ाएूँ तथा जकरन के जलए दो कनक-कंगन आचायट के
जनकर् ले गया था। योगीश्वर ने सब लौर्ा जदये, के वल कंगन को जकरन उठा ले गई।
वह क्या समझकर चपु रह गये। समय का अद्भुत चक्र है। जजस जदन मैंने धमटग्रन्द्थ से मूँहु मोड़ा, उसी जदन कामदेव ने
वहाूँ जाकर उनकी जकताब का पहला सिा उलर्ा।
दसू रे जदन मैं योगीश्वर से जमलने गया। वह जकरन को पास जबठा कर न जाने क्या पढ़ा रहे थे। उनकी आूँखें गम्भीर थीं।
मझु को देखते ही वह उठ पड़े और मेरे कन्द्धों पर हाथ रखकर गदगद स्वर से बोले - "नरे न्द्र! अब मैं चला, जकरन तम्ु हारे
हवाले है।" यह कहकर जकसी की सक ु ोमल उूँगुजलयाूँ मेरे हाथों में रख दीं। लोचनों के कोने पर दो बूँदू ें जनकलकर झाूँक
पड़ीं। मैं सहम उठा। क्या उन पर सब बातें जवजदत थीं? क्या उनकी तीव्र दृजि मेरी अन्द्तर-लहरी तक डूब चक ु ी थी? वह
ठहरे नहीं, चल जदये। मैं काूँपता रह गया, जकरन देखती रह गई।
सन्द्नार्ा छा गया। वन-वायु भी चपु हो चली। हम दोनों भी चपु चल पड़े, जकरन मेरे कन्द्धे पर थी। हठात अन्द्तर से कोई
अकड़कर कह उठा - "हाय नरे न्द्र! यह क्या! तमु इस वनिूल को जकस चमन में ले चले? इस बन्द्धन-जवहीन स्वगीय
जीवन को जकस लोकजाल में बाूँधने चले?"
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कंकड़ी जल में जाकर कोई स्थायी जववर नहीं िोड़ सकती। क्षण भर जल का समतल भले ही उलर्-पल ु र् हो, लेजकन
इधर-उधर से जलतरंग दौड़कर उस जछर का नाम-जनशान भी नहीं रहने देती। जगत की भी यही चाल है। यजद स्वगट से
देवेन्द्र भी आकर इस लोक चलाचल में खड़े हों, जिर ससं ार देखते ही देखते उन्द्हें अपना बना लेगा। इस काली कोठरी
में आकर इसकी काजलमा से बचे रहें, ऐसी शजि अब आकाश-कुसमु ही समझो। दो जदन में राम 'हाय जानकी, हाय
जानकी' कहकर वन-वन डोलते जिरे । दो क्षण में यही जवश्वाजमत्र को भी स्वगट से घसीर् लाया।
जकरन की भी यही अवस्था हुई। कहाूँ प्रकृ जत की जनमटि
ु गोद, कहाूँ जगत का जजर्ल बन्द्धन-पाश। कहाूँ से कहाूँ आ
पड़ी! वह अलौजकक भोलापन, वह जनसगट उच््वास - हाथों-हाथ लर्ु गये। उस वनिूल की जवमल काजन्द्त लौजकक
चमन की मायावी मनोहाररता में पररणत हुई। अब आूँखें उठाकर आकाश से नीरव बातचीत करने का अवसर कहाूँ से
जमले? मलयवायु से जमलकर मलयाचल के िूलों की पछू ताछ क्योंकर हो?

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जब जकशोरी नये साूँचे में ढलकर उतरी, उसे पहचानना भी कजठन था। वह अब लाल चोली, हरी साड़ी पहनकर, सर
पर जसन्द्दरू -रे खा सजती और हाथों के कंगन, कानों की बाली, गले की कण्ठी तथा कमर की करधनी - जदन-जदन उसके
जचत्त को नचाये मारती थी। जब कभी वह सजधजकर चाूँदनी में कोठे पर उठती और वसन्द्तवायु उसके आूँचल से
मोजतया की लपर् लाकर मेरे बरामदे में भर देता, जिर जकसी मतवाली माधरु ी या तीव्र मजदरा के नशे में मेरा मजस्तष्क
घमू जाता और मैं चर्पर् अपना प्रेम चीत्कार िूलदार रंगीन जचट्ठी में भरकर जहु ी के हाथ ऊपर भेजवाता या बाजार से
दौड़कर कर्की गहने वा जवलायती चड़ू ी खरीद लाता। लेजकन जो हो - अब भी कभी-कभी उसके प्रिु्ल वदन पर
उस अलोक-आलोक की छर्ा पवू टजन्द्म की सख ु स्मृजतवत चली आती थी, और आूँखें उसी जीवन्द्त सन्द्ु दर जझकजमक
का नाज जदखाती थीं। जब अन्द्तर प्रसन्द्न था, जिर बाहरी चेिा पर प्रजतजबम्ब क्यों न पड़े।
यों ही साल-दो-साल मरु ादाबाद में कर् गये। एक जदन मोहन के यहाूँ नाच देखने गया। वहीं जकन्द्नरी से आूँखें जमलीं,
जमलीं क्या, लीन हो गई।ं नवीन यौवन, कोजकल-कण्ठा, चतरु चचं ल चेिा तथा मायावी चमक - अब जचत्त को चलाने
के जलए और क्या चाजहए। जकन्द्नरी सचमचु जकन्द्नरी ही थी नाचनेवाली नहीं, नचानेवाली थी। पहली बार देखकर उसे
इस लोक की सन्द्ु दरी समझना दस्ु तर था। एक लपर् जो लगती - जकसी नशा-सी चढ़ जाती। यारों ने मझु े और भी चढ़ा
जदया। आूँखें जमलती-जमलती जमल गई,ं हृदय को भी साथ-साथ घसीर् ले गई।ं
जिर क्या था - इतने जदनों की धमटजशक्षा, शतवत्सर की पज्ू य लक्ष्मी, बाप-दादों की कुल-प्रजतष्ठा, पत्नी से पजवत्र-प्रेम
एक-एक करके उस प्रतीप्त वासना-कुण्ड में भस्म होने लगे। अजग्न और भी बढ़ती गई। जकन्द्नरी की जचकनी दृजि,
जचकनी बातें घी बरसाती रहीं। घर-बार सब जल उठा। मैं भी जनरन्द्तर जलने लगा, लेजकन ज्यों-ज्यों जलता गया, जलने
की इच्छा जलाती रही।
पाूँच महीने कर् गये - नशा उतरा नहीं। बनारसी साड़ी, पारसी जैकेर्, मोती का हार, कर्की कणटिूल - सब कुछ लाकर
उस मायाकारी के अलिक-रंजजत चरणों पर रखे। जकरन हेमन्द्त की मालती बनी थी, जजस पर एक िूल नहीं - एक
प्लव नहीं। घर की वधू क्या करती? जो अनन्द्त सत्रू से बूँधा था, जो अनतं जीवन का सगं ी था, वही हाथों-हाथ पराये
के हाथ जबक गया - जिर ये तो दो जदन के चकमकी जखलौने थे, इन्द्हें शरीर बदलते क्या देर लगे। जदन भर बहानों की
माला गूँथू -गूँथू जकरन के गले में और शाम को मोती की माला उस नाचनेवाली के गले में सशक ं जनलटज्ज डाल देना -
यही मेरा जीवन जनवाटह था। एक जदन सारी बातें खल ु गई,ं जकरन पछाड़ खाकर भजू म पर जा पड़ी। उसकी आूँखों में
आूँसू न थे, मेरी आूँखों में दया न थी।
बरसात की रात थी। ररमजझम बूँदू ों की झड़ी थी। चाूँदनी मेघों से आूँख-मूँदु ौवल खेल रही थी। जबजली काले कपार् से
बार-बार झाूँकती थी। जकसे चंचला देखती थी तथा बादल जकस मरोड़ से रह-रहकर जच्लाते थे - इन्द्हें सोचने का मझु े
अवसर नहीं था। मैं तो जकन्द्नरी के दरवाजे से हताश लौर्ा था; आूँखों के ऊपर न चाूँदनी थी, न बदली थी। जत्रशक
ं ु ने
स्वगट को जाते-जाते बीच में ही र्ूँगकर जकस दख ु को उठाया - और मैं तो अपने स्वगट के दरवाजे पर सर रखकर जनराश
लौर्ा था - मेरी वेदना क्यों न बड़ी हो।
हाय! मेरी अूँगजु लयों में एक अूँगठू ी भी रहती तो उसे नजर कर उसके चरणों पर लोर्ता।
घर पर आते ही जहु ी को पक
ु ार उठा - "जहु ी, जकरन के पास कुछ भी बचा हो तब िौरन जाकर माूँग लाओ।"

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ऊपर से कोई आवाज नहीं आई, के वल सर के ऊपर से एक काला बादल कालान्द्त चीत्कार के जच्ला उठा। मेरा
मजस्तष्क घमू गया। मैं तत्क्षण कोठे पर दौड़ा।
सब सन्द्दक ू झाूँके, जो कुछ जमला, सब तोड़ डाला; लेजकन जमला कुछ भी नहीं। आलमारी में के वल मकड़े का जाल
था। श्रृंगार बक्स में एक जछपकली बैठी थीं। उसी दम जकरन पर झपर्ा।
पास जाते ही सहम गया। वह एक तजकये के सहारे जन:सहाय जनस्पदं लेर्ी थी - के वल चाूँद ने जखड़की से होकर उसे
गोद में ले रखा था और वायु उस शरीर पर जल से जभगोया पंखा झल रही थी। मख ु पर एक अपरूप छर्ा थी ; कौन
कहे, कहीं जीवन की शेि रजश्म क्षण-भर वहीं अर्की हो। आूँखों में एक जीवन ज्योजत थी। शायद प्राण शरीर से
जनकलकर जकसी आसरे से वहाूँ पैठ रहा था। मैं जिर पक
ु ार उठा - "जकरन, जकरन। तुम्हारे पास कोई गहना भी रहा है?"
"हाूँ," - क्षीण कण्ठ की काकली थी।
"कहाूँ हैं, अभी देखने दो।"
उसने धीरे से घूँघू र् सरका कर कहा - वही कानों का कूँ गना।
सर तजकये से ढल पड़ा - आूँखें भी जझप गई।ं वह जीवन्द्त रे खा कहाूँ चली गई - क्या इतने ही के जलए अब तक ठहरी
थी?
आूँखें मख ु पर जा पड़ीं - वहीं कंगन थे। वैसे ही कानों को घेरकर बैठे थे। मेरी स्मृजत तजड़त वेग से नाच उठी। दष्ु यन्द्त ने
अूँगठू ी पहचान ली। भलू ी शकुन्द्तला उस पल याद आ गई; लेजकन दष्ु यन्द्त सौभाग्यशाली थे, चक्रवती राजा थे - अपनी
प्राणजप्रया को आकाश-पाताल छानकर ढूूँढ़ जनकाला।
मेरी जकरन तो इस भतू ल पर न थी जक जकसी तरह प्राण देकर भी पता पाता। परलोक से ढूूँढ़ जनकालूँू - ऐसी शजि इस
दीन-हीन मानव में कहाूँ?
चढ़ा नशा उतर पड़ा। सारी बातें सझू गई ं- आूँखों पर की पट्टी खल
ु पड़ी; लेजकन हाय! खल
ु ी भी तो उसी समय जब
जीवन में के वल अन्द्धकार ही रह गया।

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राजा णनरबंणसया
कमलेश्वर
''एक राजा जनरबंजसया थे,'' मां कहानी सनु ाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पांच बच्चे अपनी मजु ियों में िूल
दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढाने के जलए उत्सक ु -से बैठ जाते थे। आर्े का सन्द्ु दर-सा चौक परु ा होता, उसी
चौक पर जमट्टी की छः गौरें रखी जातीं, जजनमें से ऊपरवाली के जबजन्द्दया और जसन्द्दरू लगता, बाकी पांचों नीचे दबी
पजू ा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती जस्थर-सी जलती रहती और मगं ल-घर् रखा रहता, जजस पर रोली
से सजथया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मख
ु पर िूल चढाने की उतावली की जगह कहानी सनु ने की सहज
जस्थरता उभर आती।
''एक राजा जनरबंजसया थे,'' मां सनु ाया करती थीं, ''उनके राज में बडी खश
ु हाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना
काम-काज देखते थे। कोई दख ु ी नहीं जदखाई पडता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चंरमा-सी सन्द्ु दर और राजा
को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सख ु -से रानी के महल में रहते। ''
मेरे सामने मेरे ख्यालों का राजा था, राजा जगपती! तब जगपती से मेरी दांतकार्ी दोस्ती थी, दोनों जमजडल स्कूल में
पढने जाते। दोनों एक-से घर के थे, इसजलए बराबरी की जनभती थी। मैं मैजट्क पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया
और जगपती कस्बे के ही वकील के यहां महु ररट र। जजस साल जगपती महु ररट र हुआ, उसी विट पास के गावं में उसकी
शादी हुई, पर ऐसी हुई जक लोगों ने तमाशा बना देना चाहा। लडकीवालों का कुछ जवश्वास था जक शादी के बाद लडकी
की जवदा नहीं होगी।
ब्याह हो जाएगा और सातवीं भांवर तब पडेगी, जब पहली जवदा की सायत होगी और तभी लडकी अपनी ससरु ाल
जाएगी। जगपती की पत्नी थोडी-बहुत पढी-जलखी थी, पर घर की लीक को कौन मेर्े! बारात जबना बह के वापस आ
गई और लडके वालों ने तय कर जलया जक अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लल ू ी से हो,
पर वह लडकी अब घर में नहीं आएगी। लेजकन साल खतम होते-होते सब ठीक-ठाक हो गया। लडकीवालों ने मािी
मागं ली और जगपती की पत्नी अपनी ससरु ाल आ गई।
जगपती को जैसे सब कुछ जमल गया और सास ने बह की बलाइयां लेकर घर की सब चाजबयां सौंप दीं, गृहस्थी का
ढंग-बार समझा जदया। जगपती की मां न जाने कब से आस लगाए बैठीं थीं। उन्द्होंने आराम की सांस ली। पजू ा-पाठ में
समय कर्ने लगा, दोपहररयां दसू रे घरों के आंगन में बीतने लगीं। पर
सासं का रोग था उन्द्ह,ें सो एक जदन उन्द्होंने अपनी अजन्द्तम घजडयां जगनते हुए चन्द्दा को पास बलु ाकर समझाया था -
''बेर्ा, जगपती बडे लाड-प्यार का पला है। जब से तम्ु हारे ससरु नहीं रहे तब से इसके छोर्े -छोर्े हठ को परू ा करती रही
हं , अब तमु ध्यान रखना।'' जिर रुककर उन्द्होंने कहा था, ''जगपती जकसी लायक हुआ है, तो ररश्तेदारों की आंखों में
करकने लगा है। तम्ु हारे बाप ने ब्याह के वि नादानी की, जो तम्ु हें जवदा नहीं जकया। मेरे दश्ु मन देवर-जेठों को मौका
जमल गया। तमू ार खडा कर जदया जक अब जवदा करवाना नाक कर्वाना है। जगपती का ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की
छाती पर सांप लोर् गया। सोचा, घर की इज्जत रखने की आड लेकर रंग में भंग कर दें। अब बेर्ा, इस घर की लाज

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तम्ु हारी लाज है। आज को तम्ु हारे ससरु होते, तो भला....'' कहते कहते मां की आंखों में आंसू आ गए, और वे जगपती
की देखभाल उसे सौंपकर सदा के जलए मौन हो गई थीं।
एक अरमान उनके साथ ही चला गया जक जगपती की सन्द्तान को, चार बरस इन्द्तजार करने के बाद भी वे गोद में न
जखला पाई।ं और चन्द्दा ने मन में सब्र कर जलया था, यही सोचकर जक कुल-देवता का अंश तो उसे जीवन-भर पजू ने को
जमल गया था। घर में चारों तरि जैसे उदारता जबखरी रहती, अपनापा बरसता रहता। उसे लगता, जैसे घर की अधं ेरी,
एकान्द्त कोठररयों में यह शान्द्त शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। घर की सब कुजण्डयों की खनक उसके कानों में बस
गई थी, हर दरवाजे की चरमराहर् पहचान बन गई थीं।
''एक रोज राजा आखेर् को गए,'' मां सनु ाती थीं, ''राजा आखेर् को जाते थे, तो सातवें रोज ज़रूर महल में लौर् आते
थे। पर उस दिा जब गए, तो सातवां जदन जनकल गया, पर राजा नहीं लौर्े। रानी को बडी जचन्द्ता हुई। रानी एक मन्द्त्री
को साथ लेकर खोज में जनकलीं । ''
और इसी बीच जगपती को ररश्तेदारी की एक शादी में जाना पडा। उसके दरू ररश्ते के भाई दयाराम की शादी थी। कह
गया था जक दसवें जदन जरूर वापस आ जाएगा। पर छठे जदन ही खबर जमली जक बारात घर लौर्ने पर दयाराम के घर
डाका पड गया। जकसी मख ु जबर ने सारी खबरें पहुचं ा दी थीं जक लडकीवालों ने दयाराम का घर सोने-चांदी से पार् जदया
है,आजखर पश्ु तैनी जमींदार की इकलौती लडकी थी। घर आए मेहमान लगभग जवदा हो चक ु े थे। दसू रे रोज जगपती भी
चलनेवाला था, पर उसी रात डाका पडा। जवान आदमी, भला खनू मानता है! डाके वालों ने जब बन्द्दक ू ें चलाई, तो
सबकी जघग्घी बंध गई पर जगपती और दयाराम ने छाती ठोककर लाजठयां उठा लीं। घर में कोहराम मच गया जफ़र
सन्द्नार्ा छा गया। डाके वाले बराबर गोजलयां दाग रहे थे। बाहर का दरवाजा र्ूर् चकु ा था। पर जगपती ने जहम्मत बढाते
हुए हांक लगाई, ''ये हवाई बन्द्दक
ू ें इन ठे ल-जपलाई लाजठयों का मुकाबला नहीं कर पाएंगी, जवानो।''
पर दरवाजे तड-तड र्ूर्ते रहे, और अन्द्त में एक गोली जगपती की जांघ को पार करती जनकल गई, दसू री उसकी जांघ
के ऊपर कू्हे में समा कर रह गई।
चन्द्दा रोती-कलपती और मनौजतयां मानती जब वहां पहुचूँ ी, तो जगपती अस्पताल में था। दयाराम के थोडी चोर् आई
थी। उसे अस्पताल से छुट्टी जमल गई थीं। जगपती की देखभाल के जलए वहीं अस्पताल में मरीजों के ररश्तेदारों के जलए
जो कोठररयां बनीं थीं, उन्द्हीं में चन्द्दा को रुकना पडा। कस्बे के अस्पताल से दयाराम का गांव चार कोस पडता था।
दसू रे -तीसरे वहां से आदमी आते-जाते रहते, जजस सामान की जरूरत होती, पहुचं ा जाते।
पर धीरे -धीरे उन लोगों ने भी खबर लेना छोड जदया। एक जदन में ठीक होनेवाला घाव तो था नहीं। जाघं की हड्डी
चर्ख गई थी और कू्हे में ऑपरे शन से छः इचं गहरा घाव था।
कस्बे का अस्पताल था। कम्पाउण्डर ही मरीजों की देखभाल रखते। बडा डॉक्र्र तो नाम के जलए था या कस्बे के बडे
आदजमयों के जलए। छोर्े लोगों के जलए तो कम्पोर्र साहब ही ईश्वर के अवतार थे। मरीजों की देखभाल करनेवाले
ररश्तेदारों की खाने-पीने की मजु श्कलों से लेकर मरीज की नब्ज तक संभालते थे। छोर्ी-सी इमारत में अस्पताल
आबाद था। रोजगयों को जसिट छः-सात खार्ें थी। मरीजों के कमरे से लगा दवा बनाने का कमरा था, उसी में एक ओर
एक आरामकुसी थी और एक नीची-सी मेज। उसी कुसी पर बडा डॉक्र्र आकर कभी-कभार बैठता था, नहीं तो

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बचनजसंह कपाउण्डर ही जमे रहते। अस्पताल में या तो िौजदारी के शहीद आते या जगर-जगरा के हाथ-पैर तोड
लेनेवाले एक-आध लोग। छठे -छमासे कोई औरत जदख गई तो दीख गई, जैसे उन्द्हें कभी रोग घेरता ही नहीं था। कभी
कोई बीमार पडती तो घरवाले हाल बताके आठ-दस रोज की दवा एक साथ ले जाते और जिर उसके जीने-मरने की
खबर तक न जमलती।
उस जदन बचनजसहं जगपती के घाव की पट्टी बदलने आया। उसके आने में और पट्टी खोलने में कुछ ऐसी लापरवाही
थी, जैसे गलत बंधी पगडी को ठीक से बाधं ने के जलए खोल रहा हो। चन्द्दा उसकी कुसी के पास ही सांस रोके खडी
थी। वह और रोजगयों से बात करता जा रहा था। इधर जमनर्-भर को देखता, जिर जैसे अभ्यस्त-से उसके हाथ अपना
काम करने लगते। पट्टी एक जगह खनू से जचपक गई थी, जगपती बरु ी तरह कराह उठा। चन्द्दा के मंहु से चीख जनकल
गई। बचनजसंह ने सतकट होकर देखा तो चन्द्दा मुख में धोती का प्ला खोंसे अपनी भयातरु आवाज दबाने की चेिा कर
रही थी। जगपती एकबारगी मछली-सा तडपकर रह गया। बचनजसहं की उंगजलयां थोडी-सी थरथराई जक उसकी बाहं
पर र्प-से चन्द्दा का आंसू चू पडा।
बचनजसहं जसहर-सा गया और उसके हाथों की अभ्यस्त जनठुराई को जैसे जकसी मानवीय कोमलता ने धीरे -से छू जदया।
आहों, कराहों, ददट-भरी चीखों और चर्खते शरीर के जजस वातावरण में रहते हुए भी वह जब्कुल अलग रहता था,
िोडों को पके आम-सा दबा देता था, खाल को आल-ू सा छील देता था। उसके मन से जजस ददट का अहसास उठ गया
था, वह उसे आज जिर हुआ और वह बच्चे की तरह िंू क-िंू ककर पट्टी को नम करके खोलने लगा। चन्द्दा की ओर
धीरे -से जनगाह उठाकर देखते हुए िुसिुसाया, ''च..च रोगी की जहम्मत र्ूर् जाती है ऐसे।''
पर जैसे यह कहते-कहते उसका मन खदु अपनी बात से उचर्ं गया। यह बेपरवाही तो चीख और कराहों की एकरसता
से उसे जमली थी, रोगी की जहम्मत बढाने की कतटव्यजनष्ठा से नहीं। जब तक वह घाव की मरहम-पट्टी करता रहा, तब
तक जकन्द्हीं दो आंखों की करूणा उसे घेरे रही।
और हाथ धोते समय वह चन्द्दा की उन चजू डयों से भरी कलाइयों को बेजझझक देखता रहा, जो अपनी खश ु ी उससे मागं
रही थीं। चन्द्दा पानी डालती जा रही थी और बचनजसंह हाथ धोते-धोते उसकी कलाइयों, हथेजलयों और पैरों को
देखता जा रहा था। दवाखाने की ओर जाते हुए उसने चन्द्दा को हाथ के इशारे से बल ु ाकर कहा, ''जदल छोर्ा मत करना
जांघ का घाव तो दस रोज में भर जाएगा, कू्हे का घाव कुछ जदन जरूर लेगा। अच्छी से अच्छी दवाई दंगू ा। दवाइयां
तो ऐसी हैं जक मदु े को चंगा कर दें। पर हमारे अस्पताल में नहीं आतीं, जिर भी..''
''तो जकसी दसू रे अस्पताल से नहीं आ सकतीं वो दवाइयां?'' चन्द्दा ने पछ
ू ा।
''आ तो सकती हैं, पर मरीज को अपना पैसा खरचना पडता है उनमें । ''बचनजसंह ने कहा।
चन्द्दा चपु रह गई तो बचनजसहं के महंु से अनायास ही जनकल पडा, ''जकसी चीज की जरूरत हो तो मझु े बताना। रही
दवाइयां, सो कहीं न कहीं से इन्द्तजाम करके ला दगंू ा। महकमे से मंगाएंगे, तो आते-अवाते महीनों लग जाएंगे। शहर के
डॉक्र्र से मंगवा दंगू ा। ताकत की दवाइयों की बडी ज़रूरत है उन्द्ह।ें अच्छा, देखा जाएगा। '' कहते-कहते वह रुक गया।

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चन्द्दा से कृ तज्ञता भरी नजरों से उसे देखा और उसे लगा जैसे आधं ी में उडते पत्ते को कोई अर्काव जमल गया हो।
आकर वह जगपती की खार् से लगकर बैठ गई। उसकी हथेली लेकर वह सहलाती रही। नाखनू ों को अपने पोरों से
दबाती रही।
धीरे -धीरे बाहर अंधेरा बढ चला। बचनजसंह तेल की एक लालर्ेन लाकर मरीज़ों के कमरे के एक कोने में रख गया।
चन्द्दा ने जगपती की कलाई दबाते-दबाते धीरे से कहा, ''कम्पाउण्डर साहब कह रहे थे '' और इतना कहकर वह
जगपती का ध्यान आकृ ि करने के जलए चपु हो गई।
''क्या कह रहे थे ?'' जगपती ने अनमने स्वर में बोला।
''कुछ ताकत की दवाइयां तुम्हारे जलए जरूरी हैं!''
''मैं जानता ह।ं ''
''पर..''
''देखो चन्द्दा, चादर के बराबर ही पैर िै लाए जा सकते हैं। हमारी औकात इन दवाइयों की नहीं है।
''औकात आदमी की देखी जाती है जक पैसे की, तमु तो..''
''देखा जाएगा।''
''कम्पाउण्डर साहब इन्द्तजाम कर देंगे, उनसे कहगं ी मैं।''
''नहीं चन्द्दा, उधारखाते से मेरा इलाज नहीं होगा चाहे एक के चार जदन लग जाए।ं ''
''इसमें तो ''
''तमु नहीं जानतीं, कजट कोढ का रोग होता है, एक बार लगने से तन तो गलता ही है, मन भी रोगी हो जाता है।''
''लेजकन..''कहते-कहते वह रुक गई।
जगपती अपनी बात की र्ेक रखने के जलए दसू री ओर मंहु घमु ाकर लेर्ा रहा।
और तीसरे रोज जगपती के जसरहाने कई ताकत की दवाइयां रखी थीं, और चन्द्दा की ठहरने वाली कोठरी में उसके
लेर्ने के जलए एक खार् भी पहुचं गई थी। चन्द्दा जब आई, तो जगपती के चेहरे पर मानजसक पीडा की असंख्य रे खाएं
उभरी थीं, जैसे वह अपनी बीमारी से लडने के अलावा स्वयं अपनी आत्मा से भी लड रहा हो । चन्द्दा की नादानी और
स्नेह से भी उलझ रहा हो और सबसे ऊपर सहायता करनेवाले की दया से जझू रहा हो।
चन्द्दा ने देखा तो यह सब सह न पाई। उसके जी में आया जक कह दे, क्या आज तक तमु ने कभी जकसी से उधार पैसे
नहीं जलए? पर वह तो खुद तमु ने जलए थे और तम्ु हें मेरे सामने स्वीकार नहीं करना पडा था। इसीजलए लेते जझझक नहीं
लगी, पर आज मेरे सामने उसे स्वीकार करते तम्ु हारा झठू ा पौरूि जतलजमलाकर जाग पडा है। पर जगपती के मख ु पर
जबखरी हुई पीडा में जजस आदशट की गहराई थी, वह चन्द्दा के मन में चोर की तरह घसु गई, और बडी स्वाभाजवकता से

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उसने माथे पर हाथ िे रते हुए कहा, ''ये दवाइयां जकसी की मेहरबानी नहीं हैं। मैंने हाथ का कडा बेचने को दे जदया था,
उसी में आई हैं।''
''मझ
ु से पछू ा तक नहीं और..'' जगपती ने कहा और जैसे खदु मन की कमजोरी को दबा गया - कडा बेचने से तो अच्छा
था जक बचनजसंह की दया ही ओढ ली जाती। और उसे ह्का-सा पछतावा भी था जक नाहक वह रौ में बडी-बडी बातें
कह जाता है, ज्ञाजनयों की तरह सीख दे देता है।
और जब चन्द्दा अंधेरा होते उठकर अपनी कोठरी में सोने के जलए जाने को हुई, तो कहते-कहते यह बात दबा गई जक
बचनजसहं ने उसके जलए एक खार् का इन्द्तजाम भी कर जदया है। कमरे से जनकली, तो सीधी कोठरी में गई और हाथ
का कडा लेकर सीधे दवाखाने की ओर चली गई, जहां बचनजसंह अके ला डॉक्र्र की कुसी पर आराम से र्ांगें िै लाए
लैम्प की पीली रोशनी में लेर्ा था। जगपती का व्यवहार चन्द्दा को लग गया था, और यह भी जक वह क्यों बचनजसंह
का अहसान अभी से लाद ले, पजत के जलए जेवर की जकतनी औकात है। वह बेधडक-सी दवाखाने में घसु गई। जदन
की पहचान के कारण उसे कमरे की मेज-कुसी और दवाओ ं की अलमारी की जस्थजत का अनमु ान था, वैसे कमरा
अधं ेरा ही पडा था, क्योंजक लैम्प की रोशनी के वल अपने वृत्त में अजधक प्रकाशवान होकर कोनों के अधं ेरे को और भी
घनीभतू कर रही थी। बचनजसंह ने चन्द्दा को घसु ते ही पहचान जलया। वह उठकर खडा हो गया। चन्द्दा ने भीतर कदम
तो रख जदया पर सहसा सहम गई, जैसे वह जकसी अंधेरे कुएं में अपने-आप कूद पडी हो, ऐसा कुआ,ं जो जनरन्द्तर पतला
होता गया है और जजसमें पानी की गहराई पाताल की पतों तक चली गई हो, जजसमें पडकर वह नीचे धसं ती चली जा
रही हो, नीचे ..अंधेरा..एकान्द्त, घर्ु न..पाप!
बचनजसहं अवाक् ताकता रह गया और चन्द्दा ऐसे वापस लौर् पडी, जैसे जकसी काले जपशाच के पजं ों से मजु ि जमली
हो। बचनजसंह के सामने क्षण-भर में सारी पररजस्थजत कौंध गई और उसने वहीं से बहुत संयत आवाज में जबान को
दबाते हुए जैसे वायु में स्पि ध्वजनत कर जदया - ''चन्द्दा!'' वह आवाज इतनी बे-आवाज थी और जनरथटक होते हुए भी
इतनी साथटक थी जक उस खामोशी में अथट भर गया। चन्द्दा रुक गई। बचनजसहं उसके पास जाकर रुक गया।
सामने का घना पेड स्तब्ध खडा था, उसकी काली परछाई की पररजध जैसे एक बार िै लकर उन्द्हें अपने वृत्त में समेर्
लेती और दसू रे ही क्षण मि
ु कर देती। दवाखाने का लैम्प सहसा भभककर रुक गया और मरीजों के कमरे से एक
कराह की आवाज दरू मैदान के छो तक जाकर डूब गई।
चन्द्दा ने वैसे ही नीचे ताकते हुए अपने को संयत करते हुए कहा, ''यह कडा तम्ु हें देने आई थी।''
''तो वापस क्यों चली जा रही थीं?''
चन्द्दा चपु । और दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कडा धीरे -से उसकी ओर बढा जदया, जैसे देने का साहस
न होते हुए भी यह काम आवश्यक था। बचनजसहं ने उसकी सारी काया को एक बार देखते हुए अपनी आख ं ें उसके
जसर पर जमा दीं, उसके ऊपर पडे कपडे के पार नरम जचकनाई से भरे लम्बे-लम्बे बाल थे, जजनकी भाप-सी महक
िै लती जा रही थी। वह धीरे -धीरे से बोला, ''लाओ।''
चन्द्दा ने कडा उसकी ओर बढा जदया। कडा हाथ में लेकर वह बोला, ''सनु ो।''

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चन्द्दा ने प्रश्न-भरी नजरें उसकी ओर उठा दी। उनमें झांकते हुए, अपने हाथ से उसकी कलाई पकडते हुए उसने वह कडा
उसकी कलाई में पहना जदया। चन्द्दा चपु चाप कोठरी की ओर चल दी और बचनजसहं दवाखाने की ओर।
काजलख बरु ी तरह बढ गई थी और सामने खडे पेड की काली परछाई गहरी पड गई थी। दोनों लौर् गए थे। पर जैसे उस
काजलख में कुछ रह गया था, छूर् गया था। दवाखाने का लैम्प जो जलते-जलते एक बार भभका था, उसमें तेल न रह
जाने के कारण बत्ती की लौ बीच से िर् गई थी, उसके ऊपर धएु ं की लकीरें बल खाती, सापं की तरह अधं ेरे में जवलीन
हो जाती थीं।
सबु ह जब चन्द्दा जगपती के पास पहुचं ी और जबस्तर ठीक करने लगी तो जगपती को लगा जक चन्द्दा बहुत उदास थी।
क्षण-क्षण में चन्द्दा के मखु पर अनजगनत भाव आ-जा रहे थे, जजनमें असमंजस था, पीडा थी और जनरीहता थी। कोई
अदृश्य पाप कर चक ु ने के बाद हृदय की गहराई से जकए गए पश्चाताप जैसी धजू मल चमक?
''रानी मन्द्त्री के साथ जब जनराश होकर लौर्ीं, तो देखा, राजा महल में उपजस्थत थे। उनकी खशु ी का जठकाना न रहा।''
मां सनु ाया करती थीं, ''पर राजा को रानी का इस तरह मन्द्त्री के साथ जाना अच्छा नहीं लगा। रानी ने राजा को
समझाया जक वह तो के वल राजा के प्रजत अर्ूर् प्रेम के कारण अपने को न रोक सकी। राजा-रानी एक-दसू रे को बहुत
चाहते थे। दोनों के जदलो में एक बात शल
ू -सी गडती रहती जक उनके कोई सन्द्तान न थी। राजवंश का दीपक बझु ने जा
रहा था। सन्द्तान के अभाव में उनका लोक-परलोक जबगडा जा रहा था और कुल की मयाटदा नि होने की शंका बढती
जा रही थी।''
दसू रे जदन बचनजसंह ने मरीजों की मरहम-पट्टी करते वि बताया था जक उसका तबादला मैनपरु ी के सदर अस्पताल में
हो गया है और वह परसों यहां से चला जाएगा। जगपती ने सनु ा, तो उसे भला ही लगा। आए जदन रोग घेरे रहते हैं,
बचनजसंह उसके शहर के अस्पताल में पहुचं ा जा रहा है, तो कुछ मदद जमलती ही रहेगी। आजखर वह ठीक तो होगा ही
और जिर मैनपरु ी के जसवा कहां जाएगा? पर दसू रे ही क्षण उसका जदल अकथ भारीपन से भर गया। पता नहीं क्यों,
चन्द्दा के अजस्तत्व का ध्यान आते ही उसे इस सचू ना में कुछ ऐसे नक
ु ीले कार्ं े जदखाई देने लगे, जो उसके शरीर में
जकसी भी समय चभु सकते थे, जरा-सा बेखबर होने पर बींध सकते थे। और तब उसके सामने आदमी के अजधकार की
लक्ष्मण-रे खाएं धएु ं की लकीर की तरह कांपकर जमर्ने लगीं और मन में छुपे सन्द्दहे के राक्षस बाना बदल योगी के रूप
में घमू ने लगे।
और पन्द्रह-बीस रोज बाद जब जगपती की हालत सधु र गई, तो चन्द्दा उसे लेकर घर लौर् आई। जगपती चलने-जिरने
लायक हो गया था। घर का ताला जब खोला, तब रात झक ु आई थी। और जिर उनकी गली में तो शाम से ही अधं ेरा
झरना शरू ु हो जाता था। पर गली में आते ही उन्द्हें लगा, जैसे जक वनवास कार्कर राजधानी लौर्े हों। नक्ु कड पर ही
जमनु ा सनु ार की कोठरी में सरु ही जिंक रही थी, जजसके दराजदार दरवाजों से लालर्े न की रोशनी की लकीर झाक ं रही
थी और कच्ची तम्बाकू का धंआ ु रूंधी गली के महु ाने पर बरु ी तरह भर गया था। सामने ही मंश
ु ीजी अपनी जजंगला
खजर्या के गङ्ढे में, कुप्पी के मजध्दम प्रकाश में खसरा-खतौनी जबछाए मीजान लगाने में मशगल ू थे। जब जगपती के
घर का दरवाजा खडका, तो अधं ेरे में उसकी चाची ने अपने जगं ले से देखा और वहीं से बैठे-बैठे अपने घर के भीतर
ऐलान कर जदया - ''राजा जनरबंजसया अस्पताल से लौर् आए कुलमा भी आई हैं।''

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ये शब्द सनु कर घर के अंधेरे बरोठे में घसु ते ही जगपती हांिकर बैठ गया, झंझु लाकर चन्द्दा से बोला, ''अंधेरे में क्या मेरे
हाथ-पैर तडु वाओगी? भीतर जाकर लालर्ेन जला लाओ न।''
''तेल नहीं होगा, इस वि जरा ऐसे ही काम..''
''तम्ु हारे कभी कुछ नहीं होगा । न तेल न..'' कहते-कहते जगपती एकदम चपु रह गया। और चन्द्दा को लगा जक आज
पहली बार जगपती ने उसके व्यथट मातृत्व पर इतनी गहरी चोर् कर दी, जजसकी गहराई की उसने कभी क्पना नहीं की
थी। दोनों खामोश, जबना एक बात जकए अन्द्दर चले गए।
रात के बढते सन्द्नार्े में दोनों के सामने दो बातें थीं। जगपती के कानों में जैसे कोई व्यग्ं य से कह रहा था - राजा
जनरबंजसया अस्पताल से आ गए!
और चन्द्दा के जदल में यह बात चभु रही थी - तम्ु हारे कभी कुछ नहीं होगा। और जससकती-जससकती चन्द्दा न जाने कब
सो गई। पर जगपती की आख ं ों में नींद न आई। खार् पर पडे-पडे उसके चारों ओर एक मोहक, भयावना-सा जाल िै ल
गया। लेर्े-लेर्े उसे लगा, जैसे उसका स्वयं का आकार बहुत क्षीण होता-होता जबन्द्द-ु सा रह गया, पर जबन्द्द ु के हाथ थे,
पैर थे और जदल की धडकन भी। कोठरी का घर्ु ा-घर्ु ा-सा अजं धयारा, मर्मैली दीवारें और गहन गिु ाओ-ं सी
अलमाररयां, जजनमें से बार-बार झांककर देखता था और वह जसहए उठता था जफ़र जैसे सब कुछ तब्दील हो गया हो।
उसे लगा जक उसका आकार बढता जा रहा है, बढता जा रहा है। वह मनष्ु य हुआ, लम्बा-तगडा-तन्द्दरूु स्त परू ु ि हुआ,
उसकी जशराओ ं में कुछ िूर् पडने के जलए व्याकुलता से खौल उठा। उसके हाथ शरीर के अनपु ात से बहुत बडे , ड़रावने
और भयानक हो गए, उनके लम्बे-लम्बे नाखनू जनकल आए वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ..आजदम, बबटर!
और बडी तेजी से सारा कमरा एकबारगी चक्कर कार् गया। जिर सब धीरे -धीरे जस्थर होने लगा और उसकी सासं ें ठीक
होती जान पडीं। जफ़र जैसे बहुत कोजशश करने पर जघग्घी बंध जाने के बाद उसकी आवाज फ़ूर्ी, ''चन्द्दा!''
चन्द्दा की नरम सांसों की ह्की सरसराहर् कमरे में जान डालने लगी। जगपती अपनी पार्ी का सहारा लेकर झक ु ा।
कापं ते पैर उसने जमीन पर रखे और चन्द्दा की खार् के पाए से जसर जर्काकर बैठ गया। उसे लगा, जैसे चन्द्दा की इन
सांसों की आवाज में जीवन का संगीत गंजू रहा है। वह उठा और चन्द्दा के मख ु पर झकु गया। उस अंधेरे में आंखें
गडाए-गडाए जैसे बहुत देर बाद स्वयं चन्द्दा के मख
ु पर आभा िूर्कर अपने-आप जबखरने लगी। उसके नक्श उज्ज्वल
हो उठे और जगपती की आंखों को ज्योजत जमल गई। वह मग्ु ध-सा ताकता रहा।
चन्द्दा के जबखरे बाल, जजनमें हाल के जन्द्मे बच्चे के गभआ
ु रे बालों की-सी महक, दधू की कचाइधं , शरीर के रस की-
सी जमठास और स्नेह-सी जचकनाहर् और वह माथा जजस पर बालों के पास तमाम छोर्े-छोर्े, नरम-नरम-नरम-से रोएं-
रे शम से और उस पर कभी लगाई गई सेंदरु की जबन्द्दी का ह्का जमर्ा हुआ-सा आभास । नन्द्ह-ें नन्द्हें जनद्वटन्द्द्व सोए
पलक! और उनकी मासमू -सी कार्ं ों की तरह बरौजनयां और सासं में घल ु कर आती हुई वह आत्मा की जनष्कपर्
आवाज की लय फ़ूल की पंखरु ी-से पतले-पतले ओठं , उन पर पडी अछूती रे खाएं, जजनमें जसिट दधू -सी महक!
उसकी आंखों के सामने ममता-सी छा गई, के वल ममता, और उसके मख
ु से अस्िुर् शब्द जनकल गया, ''बच्ची!''
डरते-डरते उसके बालों की एक लर् को बडे ज़तन से उसने हथेली पर रखा और उंगली से उस पर जैसे लकीरें खींचने
लगा। उसे लगा, जैसे कोई जशशु उसके अंक में आने के जलए छर्पर्ाकर, जनराश होकर सो गया हो। उसने दोनों

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हथेजलयों को पसारकर उसके जसर को अपनी सीमा में भर लेना चाहा जक कोई कठोर चीज उसकी उंगजलयों से र्कराई।
वह जैसे होश में आया।
बडे सहारे से उसने चन्द्दा के जसर के नीचे र्र्ोला। एक रूमाल में बंधा कुछ उसके हाथ में आ गया। अपने को संयत
करता वह वहीं जमीन पर बैठ गया, उसी अन्द्धेरे में उस रूमाल को खोला, तो जैसे सांप संघू गया, चन्द्दा के हाथों के
दोनों सोने के कडे उसमें जलपर्े थे!
और तब उसके सामने सब सृजि धीरे -धीरे र्ुकडे-र्ुकडे होकर जबखरने लगी। ये कडे तो चन्द्दा बेचकर उसका इलाज
कर रही थी। वे सब दवाइयां और ताकत के र्ॉजनक,उसने तो कहा था, ये दवाइयां जकसी की मेहरबानी नहीं हैं, मैंने हाथ
के कडे बेचने को दे जदए थे पर उसका गला बरु ी तरह सखू गया। जबान जैसे तालु से जचपककर रह गई। उसने चाहा जक
चन्द्दा को झकाझोरकर उठाए, पर शरीर की शजि बह-सी गई थी, रि पानी हो गया था। थोडा संयत हुआ, उसने वे
कडे उसी रूमाल में लपेर्कर उसकी खार् के कोने पर रख जदए और बडी मजु श्कल से अपनी खार् की पार्ी पकडकर
लढु क गया। चन्द्दा झठू बोली! पर क्यों? कडे आज तक छुपाए रही। उसने इतना बडा दरु ाव क्यों जकया? आजखर क्यों?
जकसजलए? और जगपती का जदल भारी हो गया। उसे जिर लगा जक उसका शरीर जसमर्ता जा रहा है और वह एक
सींक का बना ढांचा रह गया जनतान्द्त ह्का, जतनके -सा, हवा में उडकर भर्कने वाले जतनके -सा।
उस रात के बाद रोज जगपती सोचता रहा जक चन्द्दा से कडे मांगकर बेच ले और कोई छोर्ा-मोर्ा कारोबार ही शरू ु
कर दे, क्योंजक नौकरी छूर् चक ु ी थी। इतने जदन की गैरहाजजरी के बाद वकील साहब ने दसू रा महु ररट र रख जलया था। वह
रोज यही सोचता पर जब चन्द्दा सामने आती, तो न जाने कै सी असहाय-सी उसकी अवस्था हो जाती। उसे लगता, जैसे
कडे मागं कर वह चन्द्दा से पत्नीत्व का पद भी छीन लेगा। मातृत्व तो भगवान ने छीन ही जलया। वह सोचता आजखर
चन्द्दा क्या रह जाएगी? एक स्त्री से यजद पत्नीत्व और मातृत्व छीन जलया गया, तो उसके जीवन की साथटकता ही क्या ?
चन्द्दा के साथ वह यह अन्द्याय कै से करे ? उससे दसू री आंख की रोशनी कै से मांग ले? जिर तो वह जनतान्द्त अन्द्धी हो
जाएगी और उन कडों कोमागं ने के पीछे जजस इजतहास की आत्मा नगं ी हो जाएगी, कै से वह उस लज्जा को स्वयं ही
उधारकर ढांपेगा?
और वह उन्द्हीं खयालों में डूबा सबु ह से शाम तक इधर-उधर काम की र्ोह में घमू ता रहता। जकसी से उधार ले ले? पर
जकस सम्पजत्त पर? क्या है उसके पास, जजसके आधार पर कोई उसे कुछ देगा? और महु ्ले के लोग जो एक-एक पाई
पर जान देते हैं, कोई चीज खरीदते वि भाव में एक पैसा कम जमलने पर मीलों पैदल जाकर एक पैसा बचाते हैं, एक-
एक पैसे की मसाले की पजु डया बधं वाकर ग्यारह मतटबा पैसों का जहसाब जोडकर एकाध पैसा उधारकर, जमन्द्नतें करते
सौदा घर लाते हैं; गली में कोई खोंचेवाला िंस गया, तो दो पैसे की चीज को लड-झगडकर - चार दाने ज्यादा पाने की
नीयत से दो जगह बधं वाते हैं। भाव के जरा-से िकट पर घण्र्ों बहस करते हैं, शाम को सडी-गली तरकाररयों को
जकिायत के कारण लाते हैं, ऐसे लोगों से जकस मंहु से मांगकर वह उनकी गरीबी के अहसास पर ठोकर लगाए! पर उस
जदन शाम को जब वह घर पहुचं ा, तो बरोठे में ही एक साइजकल रखी नजर आई। जदमाग पर बहुत जोर डालने के बाद
भी वह आगन्द्तक ु की क्पना न कर पाया। भीतरवाले दरवाजे पर जब पहुचं ा, तो सहसा हसं ी की आवाज सनु कर
जठठक गया। उस हसं ी में एक अजीब-सा उन्द्माद था। और उसके बाद चन्द्दा का स्वर - ''अब आते ही होंगे, बैजठए न दो
जमनर् और! अपनी आख ं से देख लीजजए और उन्द्हें समझाते जाइए जक अभी तन्द्दरू
ु स्ती इस लायक नहीं, जो जदन-
जदन-भर घमू ना बदाटश्त कर सकें ।''

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''हां भई, कमजोरी इतनी ज्दी नहीं जमर् सकती, खयाल नहीं करें गे तो नक
ु सान उठाएंगे!'' कोई परू
ु ि-स्वर था यह।

जगपती असमजं स में पड गया। वह एकदम भीतर घसु जाए? इसमें क्या हजट है? पर जब उसने पैर उठाए, तो वे बाहर
जा रहे थे। बाहर बरोठे में साइजकल को पकडते ही उसे सझू आई, वहीं से जैसे अनजान बनता बडे प्रयत्न से आवाज
को खोलता जच्लाया, ''अरे चन्द्दा! यह साइजकल जकसकी है? कौन मेहरबान..''
चन्द्दा उसकी आवाज सनु कर कमरे से बाहर जनकलकर जैसे खश ु -खबरी सनु ा रही थी, ''अपने कम्पाउण्डर साहब आए
हैं। खोजते-खोजते आज घर का पता पाए हैं, तम्ु हारे इन्द्तजार में बैठे हैं।''
''कौन बचनजसहं ? अच्छा..अच्छा। वही तो मैं कह,ं भला कौन..'' कहता जगपती पास पहुच ं ा, और बातों में इस तरह
उलझ गया, जैसे सारी पररजस्थजत उसने स्वीकार कर ली हो। बचनजसंह जब जिर आने की बात कहकर चला गया, तो
चन्द्दा ने बहुत अपनेपन से जगपती के सामने बात शरू
ु की, ''जाने कै से-कै से आदमी होते हैं । ''
''क्यों, क्या हुआ? कै से होते हैं आदमी?'' जगपती ने पछ
ू ा।
''इतनी छोर्ी जान-पहचान में तमु मदों के घर में न रहते घस
ु कर बैठ सकते हो? तमु तो उ्र्े पैरों लौर् आओगे।'' चन्द्दा
कहकर जगपती के मख
ु पर कुछ इजच्छत प्रजतजक्रया देख सकने के जलए गहरी जनगाहों से ताकने लगी।
जगपती ने चन्द्दा की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात भी कहने की या पछू ने की है! जिर बोला, ''बचनजसंह अपनी तरह
का आदमी है, अपनी तरह का अके ला।''
''होगा,पर'' कहते-कहते चन्द्दा रुक गई।
''आडे वि काम आने वाला आदमी है, लेजकन उससे िायदा उठा सकना जजतना आसान है उतना...मेरा मतलब है
जक जज़ससे कुछ जलया जाएगा, उसे जदया भी जाएगा।'' जगपती ने आख
ं ें दीवार पर गडाते हुए कहा। और चन्द्दा उठकर
चली गई।
उस जदन के बाद बचनजसंह लगभग रोज ही आने-जाने लगा। जगपती उसके साथ इधर-उधर घमू ता भी रहता।
बचनजसहं के साथ वह जब तक रहता, अजीब-सी घर्ु न उसके जदल को बाधं लेती, और तभी जीवन की तमाम
जविमताएं भी उसकी जनगाहों के सामने उभरने लगतीं, आजखर वह स्वयं एक आदमी है,बेकार.. यह माना जक उसके
सामने पेर् पालने की कोई इतनी जवकराल समस्या नहीं, वह भख ू ों नहीं मर रहा है, जाडे में कापं नहीं रहा है, पर उसके
दो हाथ-पैर हैं,शरीर का जपंजरा है, जो कुछ मांगता है,कुछ! और वह सोचता, यह कुछ क्या है? सख ु ? शायद हां, शायद
नहीं। वह तो दःु ख में भी जी सकने का आदी है, अभावों में जीजवत रह सकने वाला आश्चयटजनक कीडा है। तो जिर
वासना? शायद हां, शायद नहीं। चन्द्दा का शरीर लेकर उसने उस क्षजणकता को भी देखा है। तो जिर धन...शायद हां,
शायद नहीं। उसने धन के जलए अपने को खपाया है। पर वह भी तो उस अदृश्य प्यास को बझु ा नहीं पाया। तो जिर? तो
जिर क्या? वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में नासरू -सा ररसता रहता है, अपना उपचार मागं ता है? शायद काम! हां,
यही, जब्कुल यही, जो उसके जीवन की घजडयों को जनपर् सनू ा न छोडे, जज़समें वह अपनी शजि लगा सके , अपना
मन डुबो सके , अपने को साथटक अनभु व कर सके , चाहे उसमें सख ु हो या दख ु , अरक्षा हो या सरु क्षा, शोिण हो या

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पोिण..उसे जसिट काम चाजहए! करने के जलए कुछ चाजहए। यही तो उसकी प्रकृ त आवश्यकता है, पहली और आजखरी
मागं है, क्योंजक वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहां जसिट जबान जहलाकर शासन करनेवाले होते हैं। वह उस घर में भी
नहीं पैदा हुआ, जहां जसिट मांगकर जीनेवाले होते हैं। वह उस घर का है, जो जसिट काम करना जानता है, काम ही
जजसकी आस है। जसिट वह काम चाहता है, काम।
और एक जदन उसकी काम-धाम की समस्या भी हल हो गई। तालाब वाले ऊंचे मैदान के दजक्षण ओर जगपती की
लकडी की र्ाल खल ु गई। बोड्ट तक र्ंग गया। र्ाल की जमीन पर लक्ष्मी-पजू न भी हो गया और हवन भी हुआ।
लकडी को कोई कमी नहीं थी। गांव से आनेवाली गाजडयों को, इस कारोबार में पैरे हुए आदजमयों की मदद से मोल-
तोल करवा के वहां जगरवा जदया गया। गांठें एक ओर रखी गई,ं चैलों का चट्टा करीने से लग गया और गद्दु े चीरने के
जलए डाल जदए गए। दो-तीन गाजडयों का सौदा करके र्ाल चालू कर दी गई। भजवष्य में स्वयं पेड खरीदकर कर्ाने का
तय जकया गया। बडी-बडी स्कीमें बनीं जक जकस तरह जलाने की लकडी से बढाते-बढाते एक जदन इमारती लकडी की
कोठी बनेगी। चीरने की नई मशीन लगेगी। कारबार बढ ज़ाने पर बचनजसंह भी नौकरी छोडकर उसी में लग जाएगा।
और उसने महससू जकया जक वह काम में लग गया है, अब चौबीसों घण्र्े उसके सामने काम है,उसके समय का उपयोग
है। जदन-भर में वह एक घण्र्े के जलए जकसी का जमत्र हो सकता है, कुछ देर के जलए वह पजत हो सकता है, पर बाकी
समय? जदन और रात के बाकी घण्र्े ,उन घण्र्ों के अभाव को जसिट उसका अपना काम ही भर सकता है और अब वह
कामदार था
वह कामदार तो था, लेजकन जब र्ाल की उस ऊंची जमीन पर पडे छप्पर के नीचे तखत पर वह ग्ला रखकर बैठता,
सामने लगे लकजडयों के ढेर, कर्े हुए पेड के तने, जडों को लढु का हुआ देखता, तो एक जनरीहता बरबस उसके जदल
को बांधने लगती। उसे लगता, एक व्यथट जपशाच का शरीर र्ुकडे-र्ुकडे करके उसके सामने डाल जदया गया है।जिर इन
पर कु्हाडी चलेगी और इनके रे शे-रे शे अलग हो जाएंगे और तब इनकी ठठररयों को सख ु ाकर जकसी पैसेवाले के हाथ
तक पर तौलकर बेच जदया जाएगा। और तब उसकी जनगाहें सामने खडे ताड पर अर्क जातीं, जजसके बडे-बडे पत्तों पर
सख ु ट गदटनवाले जगद्ध पर िडफ़डाकर देर तक खामोश बैठे रहते। ताड का काला गडरे दार तना और उसके सामने ठहरी
हुई वायु में जनस्सहाय कापं ती, भारहीन नीम की पजत्तयां चकराती झडती रहतीं धल ू -भरी धरती पर लकडी की
गाजडयोंके पजहयों की पडी हुई लीक धंधु ली-सी चमक उठती और बगलवाले मंगू ि्ली के पेंच की एकरस खरखराती
आवाज कानों में भरने लगती। बगलवाली कच्ची पगडण्डी से कोई गजु रकर, र्ीले के ढलान से तालाब की जनचाई में
उतर जाता, जजसके गदं ले पानी में कूडा तैरता रहता और सअ ू र कीचड में महंु डालकर उस कूडे को रौंदते दोपहर
जसमर्ती और शाम की धन्द्ु ध छाने लगती, तो वह लालर्ेन जलाकर छप्पर के खम्भे की कील में र्ांग देता और उसके
थोडी ही देर बाद अस्पतालवाली सडक से बचनजसहं एक काले धब्बे की तरह आता जदखाई पडता। गहरे पडते अन्द्धेरे
में उसका आकार धीरे -धीरे बढता जाता और जगपती के सामने जब वह आकर खडा होता, तो वह उसे बहुत
जवशाल-सा लगने लगता, जजसके सामने उसे अपना अजस्तत्व डूबता महससू होता।
एक-आध जबक्री की बातें होतीं और तब दोनों घर की ओर चल देते। घर पहुचं कर बचनजसहं कुछ देर जरूर रुकता,
बैठता, इधर-उधर की बातें करता। कभी मौका पड ज़ाता, तो जगपती और बचनजसंह की थाली भी साथ लग जाती।
चन्द्दा सामने बैठकर दोनों को जखलाती।

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बचनजसंह बोलता जाता, ''क्या तरकारी बनी है। मसाला ऐसा पडा है जक उसकी भी बहार है और तरकारी का स्वाद भी
न मरा। होर्लों में या तो मसाला ही मसाला रहेगा या जसिट तरकारी ही तरकारी। वाह! वाह! क्या बात है अन्द्दाज की!''
और चन्द्दा बीच-बीच में र्ोककर बोलती जाती, ''इन्द्हें तो जब तक दाल में प्याज का भनु ा घी न जमले, तब तक पेर् ही
नहीं भरता।''
या - ''जसरका अगर इन्द्हें जमल जाए, तो समझो, सब कुछ जमल गया। पहले मझु े जसरका न जाने कै सा लगता था, पर
अब ऐसा जबान पर चढा है जक '' या - ''इन्द्हें कागज-सी पतली रोर्ी पसन्द्द ही नहीं आती। अब मझु से कोई पतली रोर्ी
बनाने को कहे, तो बनती ही नहीं, आदत पड गई है, और जिर मन ही नहीं करता.. '' पर चन्द्दा की आख ं ें बचनजसहं की
थाली पर ही जमीं रहतीं। रोर्ी जनबर्ी, तो रोर्ी परोस दी, दाल खत्म नहीं हुई, तो भी एक चमचा और परोस दी। और
जगपती जसर झक ु ाए खाता रहता। जसिट एक जगलास पानी मांगता और चन्द्दा चौंककर पानी देने से पहले कहती, ''अरे
तमु ने तो कुछ जलया भी नहीं!'' कहते-कहते वह पानी दे देती और तब उसके जदल पर गहरी-सी चोर् लगती, न जाने
क्यों वह खामोशी की चोर् उसे बडी पीडा दे जाती पर वह अपने को समझा लेती, कोई मेहमान तो नहीं हैं मांग सकते
थे। भख ू नहीं होगी।
जगपती खाना खाकर र्ाल पर लेर्ने चला जाता, क्योंजक अभी तक कोई चौकीदार नहीं जमला था। छप्पर के नीचे
तख्त पर जब वह लेर्ता, तो अनायास ही उसका जदल भर-भर आता। पता नहीं कौन-कोन से ददट एक-दसू रे से जमलकर
तरह-तरह की र्ीस, चर्ख और ऐठं न पैदा करने लगते। कोई एक रग दख
ु ती तो वह सहलाता भी, जब सभी नसें
चर्खती हों तो कहां-कहां राहत का अके ला हाथ सहलाए!
लेर्े-लेर्े उसकी जनगाह ताड के उस ओर बनी पख्ु ता कब्र पर जम जाती, जजसके जसराहने कंर्ीला बबल ू का एकाकी
पेड सन्द्ु न-सा खडा रहता। जजस कब्र पर एक पदाटनशीन औरत बडे जलहाज से आकर सवेरे-सवेरे बेला और चमेली के
िूल चढा जाती, घमू -घमू कर उसके िे रे लेती और माथा र्ेककर कुछ कदम उदास-उदास-सी चलकर एकदम तेजी से
मडु कर जबसाजतयों के महु ्ले में खो जाती। शाम होते जिर आती। एक दीया बारती और अगर की बजत्तयां जलाती,
जिर मडु ते हुए ओढनी का प्ला कन्द्धों पर डालती, तो दीये की लौ कांपती, कभी कांपकर बझु जाती, पर उसके कदम
बढ चक ु े होते, पहले धीमे, थके , उदास-से और जिर तेज सधे सामान्द्य-से। और वह जिर उसी महु ्ले में खो जाती और
तब रात की तनहाइयों में बबल ू के कांर्ों के बीच, उस सांय-सांय करते ऊंचे-नीचे मैदान में जैसे उस कब्र से कोई रूह
जनकलकर जनपर् अके ली भर्कती रहती।
तभी ताड पर बैठे सखु ट गदटनवाले जगध्द मनहस-सी आवाज में जकलजबला उठते और ताड के पत्ते भयानकता से
खडबडा उठते। जगपती का बदन कांप जाता और वह भर्कती रूह जजन्द्दा रह सकने के जलए जैसे कब्र की इर्ं ों में,
बबल
ू के साया-तले दबु क जाती। जगपती अपनी र्ागं ों को पेर् से भींचकर, कम्बल से महंु छुपा औधं ा लेर् जाता।
तडके ही ठे के पर लगे लकडहारे लकडी चीरने आ जाते। तब जगपती कम्बल लपेर्, घर की ओर चला जाता
''राजा रोज सवेरे र्हलने जाते थे,'' मां सनु ाया करती थीं, ''एक जदन जैसे ही महल के बाहर जनकलकर आए जक सडक
पर झाडू लगानेवाली मेहतरानी उन्द्हें देखते ही अपना झाडूपजं ा पर्ककर माथा पीर्ने लगी और कहने लगी, ''हाय राम!
आज राजा जनरबंजसया का मंहु देखा है, न जाने रोर्ी भी नसीब होगी जक नहीं न जाने कौन-सी जवपत र्ूर् पडे!'' राजा
को इतना दःु ख हुआ जक उ्र्े पैरों महल को लौर् गए। मन्द्त्री को हुक्म जदया जक उस मेहतरानी का घर नाज से भर दें।

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और सब राजसी वस्त्र उतार, राजा उसी क्षण जंगल की ओर चले गए। उसी रात रानी को सपना हुआ जक कल की रात
तेरी मनोकामना परू ी करनेवाली है। रानी बहुत पछता रही थी। पर िौरन ही रानी राजा को खोजती-खोजती उस सराय
में पहुचं गई, जहां वह जर्के हुए थे। रानी भेस बदलकर सेवा करने वाली भजर्याररन बनकर राजा के पास रात में पहुचं ी।
रातभर उनके साथ रही और सबु ह राजा के जगने से पहले सराय छोड महल में लौर् गई। राजा सबु ह उठकर दसू रे देश
की ओर चले गए। दो ही जदनों में राजा के जनकल जाने की खबर राज-भर में िै ल गई, राजा जनकल गए, चारों तरि
यही खबर थी । ''
और उस जदन र्ोले-महु ्ले के हर आगं न में बरसात के मेह की तरह यह खबर बरसकर िै ल गई जक चन्द्दा के बाल-
बच्चा होने वाला है।
नक्ु कड पर जमनु ा सनु ार की कोठरी में जिंकती सरु ही रुक गई। मंश
ु ीजी ने अपना मीजान लगाना छोड जवस्िाररत नेत्रों
से ताककर खबर सनु ी। बसं ी जकरानेवाले ने कुएं में से आधी गई ंरस्सीं खींच, डोल मन पर पर्ककर सनु ा। सदु शटन दजी
ने मशीन के पजहए को हथेली से रगडकर रोककर सनु ा। हसं राज पंजाबी ने अपनी नील-लगी मलगजु ी कमीज की
आस्तीनें चढाते हुए सनु ा। और जगपती की बेवा चाची ने औरतों के जमघर् में बडे जवश्वास, पर भेद-भरे स्वर में सनु ाया
- ''आज छः साल हो गए शादी को न बाल, न बच्चा, न जाने जकसका पाप है उसके पेर् में। और जकसका होगा जसवा
उस मसु र्ण्डे कम्पोर्र के ! न जाने कहां से कुलच्छनी इस महु ्ले में आ गई! इस गली की तो पश्ु तों से ऐसी मरजाद
रही है जक गैर-मदट औरत की परछाई तब नहीं देख पाए। यहां के मदट तो बस अपने घर की औरतों को जानते हैं, उन्द्हें तो
पडोंसी के घर की जनाजनयों की जगनती तक नहीं मालमू ।'' यह कहते-कहते उनका चेहरा तमतमा आया और सब
औरतें देवलोक की देजवयां की तरह गम्भीर बनीं, अपनी पजवत्रता की महानता के बोझ से दबी धीरे -धीरे जखसक गई।
सबु ह यह खबर िै लने से पहले जगपती र्ाल पर चला गया था। पर सनु ी उसने भी आज ही थी। जदन-भर वह तख्त पर
कोने की ओर मंहु जकए पडा रहा। न ठे के की लकजडयां जचराई, न जबक्री की ओर ध्यान जदया, न दोपहर का खाना खाने
ही घर गया। जब रात अच्छी तरह िै ल गई, वह जहसं क पशु की भाजं त उठा। उसने अपनी अगं जु लयां चर्काई, मिु ी
बांधकर बांह का जोर देखा, तो नसें तनीं और बाह में कठोर कम्पन-सा हुआ। उसने तीन-चार परू ी सांसें खींचीं और
मजबतू कदमों से घर की ओर चल पडा। मैदान खत्म हुआ, कंकड की सडक आई,सडक खत्म हुई, गली आई। पर
गली के अन्द्धेरे में घसु ते वह सहम गया, जैसे जकसी ने अदृश्य हाथों से उसे पकडकर सारा रि जनचोड जलया, उसकी
िर्ी हुई शजि की नस पर जहम-शीतल होंठ रखकर सारा रस चसू जलया। और गली के अंधेरे की जहकारत-भरी
काजलख और भी भारी हो गई, जजसमें घसु ने से उसकी सासं रुक जाएगी,घर्ु जाएगी।
वह पीछे मडु ा, पर रुक गया। जिर कुछ संयत होकर वह चोरों की तरह जनःशब्द कदमों से जकसी तरह घर की भीतरी
देहरी तक पहुचं गया।
दाई ंओर की रसोईवाली दहलीज में कुप्पी जर्मजर्मा रही थीं और चन्द्दा अस्त-व्यस्त-सी दीवार से जसर र्ेके शायद
आसमान जनहारते-जनहारते सो गई थी। कुप्पी का प्रकाश उसके आधे चेहरे को उजागर जकए था और आधा चेहरा गहन
काजलमा में डूबा अदृश्य था। वह खामोशी से खडा ताकता रहा। चन्द्दा के चेहरे पर नारीत्व की प्रौढता आज उसे
जदखाई दी। चेहरे की सारी कमनीयता न जाने कहां खो गई थी, उसका अछूतापन न जाने कहां लप्तु हो गया था। िूला-
िूला मख
ु । जैसे र्हनी से तोडे फ़ूल को पानी में डालकर ताजा जकया गया हो, जजसकी पख ं रु रयों में र्ूर्न की सरु मई

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रे खाएं पड गई हों, पर भीगने से भारीपन आ गया हो। उसके खलु े पैर पर उसकी जनगाह पडी, तो सजू ा-सा लगा। एजडयां
भरी, सजू ी-सी और नाखनू ों के पास अजब-सा सख ू ापन। जगपती का जदल एक बार मसोस उठा। उसने चाहा जक
बढकर उसे उठा ले। अपने हाथों से उसका परू ा शरीर छू-छूकर सारा कलिु पोंछ दे, उसे अपनी सांसों की अजग्न में
तपाकर एक बार जिर पजवत्र कर ले, और उसकी आंखों की गहराई में झांककर कहे- देवलोक से जकस शापवश
जनवाटजसत हो तमु इधर आ गई, चन्द्दा? यह शाप तो अजमर् था।
तभी चन्द्दा ने हडबडाकर आंखें खोलीं। जगपती को सामने देख उसे लगा जक वह एकदम नंगी हो गई हो। अजतशय
लजज्जत हो उसने अपने पैर समेर् जलए। घर्ु नों से धोती नीचे सरकाई और बहुत सयं त-सी उठकर रसोई के अधं ेरे में खो
गई। जगपती एकदम हताश हो, वहीं कमरे की देहरी पर चौखर् से जसर जर्का बैठ गया। नजर कमरे में गई, तो लगा जक
पराए स्वर यहां गंजू रहे हैं, जजनमें चन्द्दा का भी एक है। एक तरि घर के हर कोने से, अन्द्धेरा सैलाब की तरह बढता आ
रहा था।एक अजीब जनस्तब्धता,असमजं स। गजत, पर पथभ्रि! शक्लें, पर आकारहीन।
''खाना खा लेते,'' चन्द्दा का स्वर कानों में पडा। वह अनजाने ऐसे उठ बैठा, जैसे तैयार बैठा हो। उसकी बात की आज
तक उसने अवज्ञा न की थी। खाने तो बैठ गया, पर कौर नीचे नहीं सरक रहा था। तभी चन्द्दा ने बडे सधे शब्दों में कहा,
''कल मैं गांव जाना चाहती ह।ं ''
जैसे वह इस सचू ना से पररजचत था, बोला, ''अच्छा।''
चन्द्दा जिर बोली, ''मैंने बहुत पहले घर जचिी डाल दी थी, भैया कल लेने आ रहे हैं।''
''तो ठीक है।'' जगपती वैसे ही डूबा-डूबा बोला।
चन्द्दा का बाधं र्ूर् गया और वह वहीं घर्ु नों में महंु दबाकर कातर-सी ििक-ििककर रो पडी। न उठ सकी, न जहल
सकी।
जगपती क्षण-भर को जवचजलत हुआ, पर जैसे जम जाने के जलए। उसके ओठ िडके और क्रोध के ज्वालामख ु ी को
जबरन दबाते हुए भी वह िूर् पडा, ''यह सब मझु े क्या जदखा रही है? बेशमट! बेगैरत! उस वि नहीं सोचा था,
जब..ज़ब..मेरी लाश तले..''
''तब.. तब की बात झठू है । '', जससजकयों के बीच चन्द्दा का स्वर िूर्ा, ''लेजकन जब तमु ने मझ
ु े बेच जदया...''
एक भरपरू हाथ चन्द्दा की कनपर्ी पर आग सलु गाता पडा। और जगपती अपनी हथेली दसू री से दबाता, खाना छोड
कोठरी में घसु गया और रात-भर कुण्डी चढाए उसी काजलख में घर्ु ता रहा। दसू रे जदन चन्द्दा घर छोड अपने गांव चली
गई।
जगपती परू ा जदन और रात र्ाल पर ही कार् देता, उसी बीराने में, तालाब के बगल, कब्र, बबल
ू और ताड के पडोंस में।
पर मन मदु ाट हो गया था। जबरदस्ती वह अपने को वहीं रोके रहता। उसका जदल होता, कहीं जनकल जाए। पर ऐसी
कमजोरी उसके तन और मन को खोखला कर गई थी जक चाहने पर भी वह जा न पाता। जहकारत-भरी नजरें सहता, पर
वहीं पडा रहता। कािी जदनों बाद जब नहीं रह गया, तो एक जदन जगपती घर पर ताला लगा, नजदीक के गांव में
लकडी कर्ाने चला गया। उसे लग रहा था जक अब वह पगं ु हो गया है, जबलकुल लगं डा, एक रें गता कीडा, जजसके न

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आंख है, न कान, न मन, न इच्छा। वह उस बाग में पहुचं गया, जहां खरीदे पेड कर्ने थे। दो आरे वालों ने पतले पेड के
तने पर आरा रखा और करट -करट का अबाध शोर शरू ु हो गया। दसू रे पेड पर बन्द्ने और शकूरे की कु्हाडी बज उठी।
और गांव से दरू उस बाग में एक लयपणू ट शोर शरू
ु हो गया। जड पर कु्हाडी पडती तो परू ा पेड थराट जाता।
करीब के खेत की मेड पर बैठे जगपती का शरीर भी जैसे कांप-कांप उठता। चन्द्दा ने कहा था, ''लेजकन जब तमु ने मझु े
बेच जदया'' क्या वह ठीक कहती थी! क्या बचनजसहं ने र्ाल के जलए जो रूपए जदए थे, उसका ब्याज इधर चक ु ता
हुआ? क्या जसिट वही रूपए आग बन गए, जजसकी आंच में उसकी सहनशीलता, जवश्वास और आदशट मोम-से जपघल
गए?
''शकूरे !'' बाग से लगे दडे पर से जकसी ने आवाज लगाई। शकूरे ने कु्हाडी रोककर वहीं से हांक लगाई, ''कोने के खेत
से लीक बनी है, जरा मेड मारकर नंघा ला गाडी।''
जगपती का ध्यान भगं हुआ। उसने मडु कर दडे पर आख
ं ें गडाई।ं दो भैंसा-गाजडयां लकडी भरने के जलए आ पहुचं ी थीं।
शकूरे ने जगपती के पास आकर कहा, ''एक गाडी का भतु ट तो हो गया, बज्क डेढ का,अब इस पतररया पेड को न छांर्
दें?''
जगपती ने उस पेड की ओर देखा, जजसे कार्ने के जलए शकूरे ने इशारा जकया था। पेड की शाख हरी पजत्तयों से भरी
थी। वह बोला, ''अरे , यह तो हरा है अभी इसे छोड दो।''
''हरा होने से क्या, उखर् तो गया है। न िूल का, न िल का। अब कौन इसमें िल-िूल आएगं े, चार जदन में पत्ती झरु ा
जाएंगी।'' शकूरे ने पेड की ओर देखते हुए उस्तादी अन्द्दाज से कहा।
''जैसा ठीक समझो तमु ,'' जगपती ने कहा, और उठकर मेड-मेड पक्के कुएं पर पानी पीने चला गया।
दोपहर ढलते गाजडयां भरकर तैयार हुई ंऔर शहर की ओर रवाना हो गई।ं जगपती को उनके साथ आना पडा। गाजडयां
लकडी से लदीं शहर की ओर चली जा रही थीं और जगपती गदटन झक ु ाए कच्ची सडक की धल
ू में डूबा, भारी कदमों
से धीरे -धीरे उन्द्हीं की बजती घजण्र्यों के साथ जनजीव-सा बढता जा रहा था
''कई बरस बाद राजा परदेस से बहुत-सा धन कमाकर गाडी में लादकर अपने देश की ओर लौर्े , ''मां सनु ाया करती
थीं,'' राजा की गाडी का पजहया महल से कुछ दरू पतेल की झाडी में उलझ गया। हर तरह कोजशश की, पर पजहया न
जनकला। तब एक पजण्डत ने बताया जक सकर् के जदन का जन्द्मा बालक अगर अपने घर की सपु ारी लाकर इसमें छुआ
दे, तो पजहया जनकल जाएगा। वहीं दो बालक खेल रहे थे। उन्द्होंने यह सनु ा तो कूदकर पहुचूँ े और कहने लगे जक हमारी
पैदाइश सकर् की है, पर सपु ारी तब लाएगं े, जब तमु आधा धन देने का वादा करो। राजा ने बात मान ली। बालक दौडे-
दौडे घर गए। सपु ारी लाकर छुआ दी, जिर घर का रास्ता बताते आगे-आगे चले। आजखर गाडी महल के सामने उन्द्होंने
रोक ली।
राजा को बडा अचरज हुआ जक हमारे ही महल में ये दो बालक कहां से आ गए? भीतर पहुचूँ े, तो रानी खश
ु ी से बेहाल
हो गई।

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''पर राजा ने पहले उन बालकों के बारे में पूछा, तो रानी ने कहा जक ये दोनों बालक उन्द्हीं के राजकुमार हैं। राजा को
जवश्वास नहीं हुआ। रानी बहुत दख
ु ी हुई।''
गाजडयां जब र्ाल पर आकर लगीं और जगपती तखत पर हाथ-पैर ढीले करके बैठ गया, तो पगडण्डी से गजु रते
मंश
ु ीजी ने उसके पास आकर बताया, अभी उस जदन वसल ू ी में तम्ु हारी ससरु ाल के नजदीक एक गांव में जाना हुआ, तो
पता लगा जक पन्द्रह-बीस जदन हुए, चन्द्दा के लडका हुआ है।'' और जिर जैसे महु ्ले में सनु ी-सनु ाई बातों पर पदाट
डालते हुए बोले, ''भगवान के राज में देर है, अंधेर नहीं, जगपती भैया!''
जगपती ने सनु ा तो पहले उसने गहरी नजरों से मश
ंु ीजी को ताका, पर वह उनके तीर का जनशाना ठीक-ठीक नहीं खोज
पाया। पर सब कुछ सहन करते हुए बोला, ''देर और अंधेर दोनों हैं!''
''अंधेर तो सरासर है,जतररया चररत्तर है सब! बडे -बडे हार गए हैं,'' कहते-कहते मंश
ु ीजी रुक गए, पर कुछ इस तरह, जैसे
कोई बडी भेद-भरी बात है, जजसे उनकी गोल होती हुई आख ं ें समझा देंगी। जगपती मशंु ीजी की तरि ताकता रह गया।
जमनर्-भर मनहस-सा मौन छाया रहा, उसे तोडते हुए मंश ु ीजी बडी ददट-भरी आवाज में बोले, ''सनु तो जलया होगा,
तमु ने?''
''क्या?'' कहने को जगपती कह गया, पर उसे लगा जक अभी मंश
ु ीजी उस गांव में िै ली बातों को ही बडी बेददी से कह
डालेंगे, उसने नाहक पछू ा।
तभी मशंु ीजी ने उसकी नाक के पास महंु ले जाते हुए कहा, ''चन्द्दा दसू रे के घर बैठ रही है,कोई मदसदू न है वहीं का। पर
बच्चा दीवार बन गया है। चाहते तो वो यही हैं जक मर जाए तो रास्ता खल ु े, पर रामजी की मजी। सनु ा है, बच्चा रहते
भी वह चन्द्दा को बैठाने को तैयार है।''
जगपती की सांस गले में अर्ककर रह गई। बस, आंखें मंश
ु ीजी के चेहरे पर पथराई-सी जडी थीं।
मंश
ु ीजी बोले, ''अदालत से बच्चा तम्ु हें जमल सकता है। अब काहे का शरम-जलहाज!''
''अपना कहकर जकस महंु से मागं ं,ू बाबा? हर तरि तो कजट से दबा ह,ं तन से, मन से, पैसे से, इज्जत से, जकसके बल पर
दजु नया संजोने की कोजशश करूं?'' कहते-कहते वह अपने में खो गया।
मशंु ीजी वहीं बैठ गए। जब रात झक
ु आई तो जगपती के साथ ही मश ंु ीजी भी उठे । उसके कन्द्धे पर हाथ रखे वे उसे
गली तक लाए। अपनी कोठरी आने पर पीठ सहलाकर उन्द्होंने उसे छोड जदया। वह गदटन झक ु ाए गली के अंधेरे में उन्द्हीं
ख्यालों में डूबा ऐसे चलता चला आया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। पर कुछ ऐसा बोझ था, जो न सोचने देता था और न
समझने। जब चाची की बैठक के पास से गजु रने लगा, तो सहसा उसके कानों में भनक पडी - ''आ गए सत्यानासी!
कुलबोरन!''
उसने जरा नजर उठाकर देखा, तो गली की चाची-भौजाइयां बैठक में जमा थीं और चन्द्दा की चचाट जछडी थी। पर वह
चपु चाप जनकल गया।
इतने जदनों बाद ताला खोला और बरोठे के अंधेरे में कुछ सझू न पडा, तो एकाएक वह रात उसकी आंखों के सामने
घमू गई, जब वह अस्पताल से चन्द्दा के साथ लौर्ा था। बेवा चाची का वह जहर-बझु तीर, ''आ गए राजा जनरबजं सया

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अस्पताल से।'' और आज ''सत्यानासी! कुलबोरन!'' और स्वयं उसका वह वाक्य, जो चन्द्दा को छे द गया था, ''तम्ु हारे
कभी कुछ न होगा।'' और उस रात की जशशु चन्द्दा!
चन्द्दा का लडका हुआ है। वह कुछ और जनती, आदमी का बच्चा न जनती। वह और कुछ भी जनती, कंकड-पत्थर!
वह नारी न बनती, बच्ची ही बनी रहती, उस रात की जशशु चन्द्दा। पर चन्द्दा यह सब क्या करने जा रही है? उसके जीते-
जी वह दसू रे के घर बैठने जा रही है? जकतने बडे पाप में धके ल जदया चन्द्दा को पर उसे भी तो कुछ सोचना चाजहए।
आजखर क्या? पर मेरे जीते-जी तो यह सब अच्छा नहीं। वह इतनी घृणा बदाटश्त करके भी जीने को तैयार है, या मझु े
जलाने को। वह मझु े नीच समझती है, कायर,नहीं तो एक बार खबर तो लेती। बच्चा हुआ तो पता लगता। पर नहीं, वह
उसका कौन है? कोई भी नहीं। औलाद ही तो वह स्नेह की धरु ी है, जो आदमी-औरत के पजहयों को साधकर तन के
दलदल से पार ले जाती है नहीं तो हर औरत वेश्या है और हर आदमी वासना का कीडा। तो क्या चन्द्दा औरत नहीं
रही? वह जरूर औरत थी, पर स्वयं मैंने उसे नरक में डाल जदया। वह बच्चा मेरा कोई नहीं, पर चन्द्दा तो मेरी है। एक
बार उसे ले आता, जिर यहां रात के मोहक अंधेरे में उसके िूल-से अधरों को देखता,जनद्वटन्द्द्व सोई पलकों को
जनहारता,साूँसों की दधू -सी अछूती महक को समेर् लेता।
आज का अंधेरा! घर में तेल भी नहीं जो दीया जला ले। और जिर जकसके जलए कौन जलाए? चन्द्दा के जलए पर उसे तो
बेच जदया था। जसवा चन्द्दा के कौन-सी सम्पजत्त उसके पास थी, जजसके आधार पर कोई कजट देता? कजट न जमलता तो
यह सब कै से चलता? काम पेड कहां से कर्ते? और तब शकूरे के वे शब्द उसके कानों में गजंू गए, ''हरा होने से क्या,
उखर् तो गया है। '' वह स्वयं भी तो एक उखर्ा हुआ पेड है, न िल का, न िूल का, सब व्यथट ही तो है। जो कुछ
सोचा, उस पर कभी जवश्वास न कर पाया। चन्द्दा को चाहता रहा, पर उसके जदल में चाहत न जगा पाया। उसे कहीं से
एक पैसा मांगने पर डांर्ता रहा, पर खदु लेता रहा और आज वह दसू रे के घर बैठ रही है उसे छोडकर वह अके ला है,
हर तरि बोझ है, जजसमें उसकी नस-नस कुचली जा रही हैं, रग-रग िर् गई है। और वह जकसी तरह र्र्ोल-र्र्ोलकर
भीतर घर में पहुचं ा।
''रानी अपने कुल-देवता के मजन्द्दर में पहुच
ं ीं,'' मां सनु ाया करती थीं, ''अपने सतीत्व को जसध्द करने के जलए उन्द्होंने घोर
तपस्या की। राजा देखते रहे। कुल-देवता प्रसन्द्न हुए और उन्द्होंने अपनी दैवी शजि से दोनों बालकों को तत्काल जन्द्मे
जशशओ ु ं में बदल जदया। रानी की छाजतयों में दधू भर आया और उनमें से धार िूर् पडी, ज़ो जशशओ ु ं के मंहु में जगरने
लगी। राजा को रानी के सतीत्व का सबतू जमल गया। उन्द्होंने रानी के चरण पकड जलए और कहा जक तमु देवी हो! ये
मेरे पत्रु हैं! और उस जदन से राजा ने जिर से राज-काज सभं ाल जलया। ''
पर उसी रात जगपती अपना सारा कारोबार त्याग, अिीम और तेल पीकर मर गया क्योंजक चन्द्दा के पास कोई दैवी
शजि नहीं थी और जगपती राजा नहीं, बचनजसहं कम्पाउण्डर का कजटदार था।
''राजा ने दो बातें कीं,'' मां सनु ाती थीं, ''एक तो रानी के नाम से उन्द्होंने बहुत बडा मजन्द्दर बनवाया और दसू रे , राज के
नए जसक्कों पर बडे राजकुमार का नाम खदु वाकर चालू जकया, जजससे राज-भर में अपने उत्तराजधकारी की खबर हो
जाए । ''
जगपती ने मरते वि दो परचे छोडे, एक चन्द्दा के नाम, दसू रा काननू के नाम।

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चन्द्दा को उसने जलखा था, ''चन्द्दा, मेरी अजन्द्तम चाह यही है जक तमु बच्चे को लेकर चली आना।अभी एक-दो जदन
मेरी लाश की दगु टजत होगी, तब तक तमु आ सकोगी। चन्द्दा, आदमी को पाप नहीं, पश्चाताप मारता है, मैं बहुत पहले मर
चकु ा था। बच्चे को लेकर जरूर चली आना।''
काननू को उसने जलखा था, ''जकसी ने मझु े मारा नहीं है,जकसी आदमी ने नहीं। मैं जानता हं जक मेरे जहर की पहचान
करने के जलए मेरा सीना चीरा जाएगा। उसमें जहर है। मैंने अिीम नहीं, रूपए खाए हैं। उन रूपयों में कजट का जहर था,
उसी ने मझु े मारा है। मेरी लाश तब तक न जलाई जाए, जब तक चन्द्दा बच्चे को लेकर न आ जाए। आग बच्चे से
जदलवाई जाए। बस।''
मां जब कहानी समाप्त करती थीं, तो आसपास बैठे बच्चे िूल चढाते थे।
मेरी कहानी भी खत्म हो गई, पर.....
****

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णिता
ज्ञानरंजन
उसने अपने जबस्तरे का अदं ाज लेने के जलए मात्र आध पल को जबजली जलाई। जबस्तरे िशट पर जबछे हुए थे। उसकी
स्त्री ने सोते-सोते ही बड़बड़ाया, 'आ गए' और बच्चे की तरि करवर् लेकर चपु हो गई। लेर् जाने पर उसे एक बड़ी
डकार आती मालमू पड़ी, लेजकन उसने डकार ली नहीं। उसे लगा जक ऐसा करने से उस चप्ु पी में खलल पड़ जाएगा,
जो चारों तरि भरी है, और कािी रात गए ऐसा होना उजचत नहीं है।
अभी घनश्यामनगर के मकानों के लंबे जसलजसलों के जकनारे -जकनारे सवारी गाड़ी धड़धड़ाती हुई गजु री। थोड़ी देर तक
एक बहुत साि भागता हुआ शोर होता रहा। सजदटयों में जब यह गाड़ी गजु रती है
तब लोग एक प्रहर की खासी नींद ले चक
ु े होते हैं। गजमटयों में साढ़े ग्यारह का कोई जवशेि मतलब नहीं होता। यों उसके
घर में सभी ज्दी सोया करते, ज्दी खाया और ज्दी उठा करते हैं।
आज बेहद गमी है। रास्ते-भर उसे जजतने लोग जमले, उन सबने उससे गमट और बेचनै कर देनेवाले मौसम की ही बात
की। कपड़ों की िजीहत हो गई। बदहवासी, जचपजचपाहर् और थकान है। अभी जब सवारी गाड़ी शोर करती हुई गजु री,
तो उसे ऐसा नहीं लगा जक नींद लगते-लगते र्ूर् गई हो जैसा जाड़ों में प्रायः लगता है। बज्क यों लगाजक अगर सोने
की चेिा शरू ु नहीं की गई तो सचमचु देर हो जाएगी। उसने जम्हाई ली, पंखे की हवा बहुत गमट थी और वह परु ाना होने
की वजह से जचढ़ाती-सी आवाज भी कर रहा है। उसको लगा, दसू रे कमरों में भी लोग शायद उसकी ही तरह जम्हाइयाूँ
ले रहे होंगे। लेजकन दसू रे कमरों के पंखे परु ाने नहीं हैं। उसने सोचना बदं करके अन्द्य कमरों की आहर् लेनी चाही। उसे
कोई बहुत मासमू -सी ध्वजन भी एक-डेढ़ जमनर् तक नहीं सनु ाई दी, जो सन्द्नार्े में कािी तेज होकर आ सकती हो।
तभी जपता की चारपाई बाहर चरमराई। वह जकसी आहर् से उठे होंगे। उन्द्होंने डाूँर्कर उस जब्ली का रोना चपु कराया
जो शरू
ु हो गया था। जब्ली थोड़ी देर चपु रहकर जिर रोने लगी। अब जपता ने डंडे को गच पर कई बार पर्का और
उस जदशा की तरि खदेड़नेवाले ढंग से दौड़े जजधर से रोना आ रहा था और 'हट्ट-हट्ट' जच्लाए।
जब वह घमू -जिरकर लौर् रहा था तो जपता अपना जबस्तर बाहर लगाकर बैठे थे। कनखी से उसने उन्द्हें अपनी गजं ी से
पीठ का पसीना रगड़ते हुए देखा और बचता हुआ वह घर के अंदर दाजखल हो गया। उसे लगा जक जपता को गमी की
वजह से नींद नहीं आ रही है। लेजकन उसे इस जस्थजत से रोि हुआ। सब लोग, जपता से अंदर पंखे के नीचे सोने के जलए
कहा करते हैं, पर वह जरा भी नहीं सनु ते। हमें क्या, भोगें कि!
कुछ देर पड़े रहने के बाद वह उठा और उसने उत्सक ु तावश जखड़की से झाूँका। सड़क की बत्ती छाती पर है। गजमटयों में
यह बेहद अखर जाता है। जपता ने कई बार करवर्ें बदलीं। जिर शायद चैन की उम्मीद में पार्ी पर बैठ पख ं ा झलने लगे
हैं। पंखे की डंडी से पीठ का वह जहस्सा खजु ाते हैं जहाूँ हाथ की उूँगजलयाूँ जदक्कत से पहुचूँ ती हैं। आकाश और दरख्तों
की तरि देखते हैं। ररलीि पाने की जकसी बहुत ह्की उम्मीद में जशकायत उगलते हैं - 'बड़ी भयंकर गमी है, एक पत्ता

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भी नहीं डोलता।' उनका यह वाक्य, जो जनतांत व्यथट है, अभी-अभी बीते क्षण में डूब गया। गमी-बरकरार है और रहेगी,
क्योंजक यह जाड़े-बरसात का मौसम नहीं है। जपता उठकर घमू ने लगते हैं। एक या दो बार घर का चक्कर चौकीदारों की
तरह हो...ओ... करते हए लगाते हैं, ताजक कोई सेंध-वेंध न लग सके । लौर्कर थके स्वर में 'हे ईश्वर' कहते हुए उूँ गली से
माथे का पसीना कार्कर जमीन पर चवु ाने लगते हैं।
बड़ा गजब है, कमरे की एक दीवार से जर्ककर बैठ जाने पर वह कािी तनाव में सोचने लगा। अदं र कमरों में पख ं ों के
नीचे घर के सभी दसू रे लोग आराम से पसरे हैं। इस साल जो नया पैडस्र्ल खरीदा गया हे वह आूँगन में दादी अम्मा के
जलए लगता है। जबजली का मीर्र तेज चल रहा होगा। पैसे खचट हो रहे हैं, लेजकन जपता की रात कि में ही है। लेजकन
गजब यह नहीं है। गजब तो जपता की जजद है, वह दसू रे का आग्रह-अनरु ोध मानें तब न! पता नहीं क्यों, जपता जीवन की
अजनवायट सजु वधाओ ं से भी जचढ़ते हैं। वह झ्लाने लगा।
चौक से आते वि चार आने की जगह तीन आने और तीन आने में तैयार होने पर, दो आने में चलनेवाले ररक्शे के
जलए जपता घंर्े-घंर्े खड़े रहेंगे। धीरे -धीरे सबके जलए सजु वधाएूँ जर्ु ाते रहेंगे, लेजकन खदु उसमें नहीं या कम से कम
शाजमल होंगे। पहले लोग उनकी कािी जचरौरी जकया करते थे, अब लोग हार गए हैं। जानने लगे हैं जक जपता के आगे
जकसी की चलेगी नहीं।
आज तक जकसी ने जपता को वाश-बेजसन में मूँहु -हाथ धोते नहीं देखा। बाहर जाकर बजगयावाले नल पर ही कु्ला-
दातनु करते हैं। दादा भाई ने अपनी पहली तनख्वाह में गसु लखाने में उत्साह के साथ एक खबू सरू त शावर लगवाया,
लेजकन जपता को असे से हम सब आूँगन में धोती को लूँगोर्े की तरह बाूँधकर तेल चपु ड़े बदन पर बा्र्ी-बा्र्ी पानी
डालते देखते आ रहे हैं। खल ु े में स्नान करें गे, जनेऊ से छाती और पीठ का मैल कार्ेंगे। शरू ु में दादा भाई ने सोचा,
जपता उसके द्वारा शावर लगवाने से बहुत खश ु होंगे और उन्द्हें नई चीज का उत्साह होगा। जपता ने जब कोई उत्साह
प्रकर् नहीं जकया, तो दादा भाई मन-ही-मन कािी जनराश हो गए। एक-दो बार उन्द्होंने जहम्मत करके कहा भी, 'आप
अदं र आराम से क्यों नहीं नहाते?' तब भी जपता आसानी से उसे र्ाल गए।
लड़कों द्वारा बाजार से लाई जबजस्कर्ें , महूँगे िल जपता कुछ भी नहीं लेते। कभी लेते भी हैं तो बहुत नाक-भौं
जसकोड़कर, उसके बेस्वाद होने की बात पर शरू ु में ही जोर दे देते हुए। अपनी अमावर्, गजक और दाल-रोर्ी के
अलावा दसू रों द्वारा लाई चीजों की श्रेष्ठता से वह कभी प्रभाजवत नहीं होते। वह अपना हाथ-पाूँव जानते हैं, अपना
अजटन, और उसी में उन्द्हें संतोि है। वे पत्रु , जो जपता के जलए कु्लू का सेब मूँगाने और जद्ली एंपोररयम से बजढ़या
धोजतयाूँ मूँगाकर उन्द्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेजी से जपता-जवरोधी होते जा रहे हैं। सख
ु ी बच्चे भी अब गाहे-
बगाहे मूँहु खोलते हैं और क्रोध उगल देते हैं।
लद्द-लद्द, बाहर आम के दो सीकरों के लगभग एक साथ जगरने की आवाज आई। वह जानता है, जपता आवाज से
स्थान साधने की कोजशश करें गे। र्र्ोलते-र्र्ोलते अूँधेरे में आम खोजेंगे और खाली गमले में इकट्ठा करते जाएूँगे।
शायद ही रात में एक-दो आम उसके चक ू जाते हैं, ढूूँढ़ने पर नहीं जमलते, जजनको सबु ह पा जाने के संबधं में उन्द्हें रात-
भर सदं हे होता रहेगा।
दीवार से कािी देर एक ही तरह जर्के रहने से उसकी पीठ दख्ु ने लगी थी। नीचे रीढ़ के कमरवाले जहस्से में रि की
चेतना बहुत कम हो गई। उसने मरु ा बदली। बाहर जपता ने िार्क खोलकर सड़क पर लड़ते-जचजचयाते कुत्तों का

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हड़काया। उसे यहाूँ बहुत खीज हुई। कई बार कहा, 'महु ्ले में हम लोगों का सम्मान है, चार भले लोग आया-जाया
करते हैं, आपको अदं र सोना चाजहए, ढगं के कपड़े पहनने चाजहए और चौकीदारों की तरह रात को पहरा देना बहुत ही
भद्दा लगता है।' लेजकन जपता की अड़ में कभी कोई झोल नहीं आता। उ्र्ा-सीधा, पता नहीं कहाूँ जकस दजी से कुरता-
कमीज जसलवा लेते हैं। र्ेढ़ी जेब, सदरी के बर्न ऊपर-नीचे लगा, सभा-सोसायर्ी में चले जाएूँगे। घर-भर को बरु ा
लगता है।
लोगों के बोलने पर जपता कह देते हैं, 'आप लोग जाइए न भाई, कॉिी हाउस में बैजठए, झठू ी वैजनर्ी के जलए बेयरा को
जर्प दीजजए, रहमान के यहाूँ डेढ़ रुपएवाला बाल कर्ाइए, मझु े क्यों घसीर्ते हैं!' लोगों का बोलना चर्ु की भर में धरा
रह जाता है। जपता वैसे तो चपु रहते हैं, लेजकन जब बात-बहस में उन्द्हें खींचा जाता है, तो कािी करारी और जहसं ात्मक
बात कह जाते हैं। उ्र्े, उन्द्हें घेरनेवाले हम भाई-बहन-अपराधी बन जाते हैं। कमरे से पहले एक भाई जखसके गा, जिर
दसू रा, जिर बहन और जिर तीसरा, चपु चाप सब खीजे-हारे जखसकते रहेंगे। अंदर जिर माूँ जाएूँगी और जपता, जवजयी
जपता कमरे में गीता पढ़ने लगेंगे या झोला लेकर बाजार सौदा लेने चले जाएूँगे।
होता हमेशा यही है। सब मन में तय करते हैं, आगे से जपता को नहीं घेरेंगे। लेजकन थोड़ा समय गजु रने के बाद जिर
लोगों का मन जपता के जलए उमड़ने लगता है। लोगा मौका ढूूँढ़ने लगते हैं, जपता को जकसी प्रकार अपने साथ
सजु वधाओ ं में थोड़ा बहुत शाजमल कर सकें । पर ऐसा नहीं हो पाता। वह सोचने लगा , भख ू े के सामने खाते समय
होनेवाली व्यथा सरीखी जकसी जस्थजत में हम रहा करते हैं। यद्यजप अपना खाना हम कभी स्थजगत नहीं करते , जिर भी
जपता की असंपजृ ि के कारण व्याकुल और अधीर तो हैं ही।
जपता अद्भुत और जवजचत्र हैं, वह सोचते हुए उठा। कमरे में घमू ने या जसगरे र् पी सकने की सजु वधा नहीं थी, अन्द्यथा वह
वैसा ही करता। उसने सो जाने की इच्छा की और अपने को असहाय पाया। शायद नींद नहीं आ सके गी , यह खयाल
उसे घबरानेवाला लगा। जपता अद्भुत और जवजचत्र हैं, यह बात वह भल ू नहीं रहा था। जपछले जाड़ों में वह अपने लोभ
को कुचलकर बमजु श्कल एक कोर् का बेहतरीन कपड़ा जपता के जलए लाया। पहले तो वह उसे लेने को तैयार नहीं हुए,
लेजकन माूँ के कािी घड़ु कने-िुड़कने से राजी हो गए और उसी ख्ु दाबाद के जकसी लपर्ूूँ दजी के यहाूँ जसलाने चल
जदए। सधु ीर ने कहा, 'कपड़ा कीमती है, चजलए, एक अच्छी जगह में आपका नाप जदलवा द।ूँू वह ठीक जसएगा, मेरा
पररजचत भी है।'
इस बात पर जपता ने कािी जहकारत उगली। वह जचढ़ उठे , 'मैं सबको जानता ह,ूँ वही म्यजू नजसपल माके र् के छोर्े-मोर्े
दजजटयों से काम कराते और अपना लेबल लगा लेते हैं। साहब लोग, मैंने कलकत्ते के 'हाल एडं रसन' के जसले कोर् पहने
हैं अपने जमाने में, जजनके यहाूँ अच्छे -खासे यरू ोजपयन लोग कपड़े जसलवाते थे। ये िै शन-वैशन, जजसके आगे आप
लोग चक्कर लगाया करते हैं, उसके आगे पाूँव की धल ू है। मझु े व्यथट पैसा नहीं खचट करना है।' जकतना परस्पर जवरोधी
तकट जकया जपता ने! ऐसा वह अपनी जजद को सवोपरर रखने के जलए जकया करते हैं। जिर सधु ीर ने भी कपड़ा छोड़
जदया। 'जहाूँ चाजहए जसलवाइए या भाड़ में झोंक आइए हमें क्या।' वह धीमे-धीमे बदु बदु ाया।
'ऐ,ं ' जपता बाहर अकबकाकर उठ पड़े शायद। थोड़ी देर पहले जो आम बगीचे में जगरा था , उसकी आवाज जैसे अब
सनु ाई पड़ी हो।

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वह जखड़की के बाहर देखने लगा, जकंजचत जर्का-जर्का-सा। पीठ के पसीने से बजनयाइन जचपक गई थी। बेहद घुर्ती हुई
गमी। मन उसका मथा जाता था। बीवी पड़ी आराम से सो रही है। इसे कुछ पता नहीं। शायद जपता की खार् खाली थी।
वह जगरा आम र्र्ोलने के जलए बजगया में घसु े होंगे। जपता जकतने जवजचत्र हैं। लंबे समय से वह के वल दो ही ग्रंथ पढ़ते
आ रहे हैं - यत्रं वत, जनयमवत - रामायण और गीता। लंबे पैंतीस विों तक अखंड - के वल रामायण और गीता। उसके
पहले यवु ाकाल में जो-कुछ जजतना-कुछ पढ़ा हो उन्द्होंने। उसे कभी भयावह, कभी सम्मानजनक और कभी झठू
लगता, यह देख-सोचकर जक कोई व्यजि के वल दो पस्ु तकों में जजंदगी के पैंतीस विट कार् सकता है। और कै से कार्
लेता है?
तभी उसका बच्चा कुनमनु ाकर रोने लगा। उसने तपाक से जखड़की छोड़ी और अपने जबस्तर पर झठू -मठू सो गया। ऐसा
न हो जक देवा बच्चे के रोने से उठ पड़े और उसे संजदग्धावस्था में देख बहुत-से बेकार प्रश्नों द्वारा हलकान करना शरू

कर दे। देवा बच्चे के मूँहु में स्तन दे पहले ही-सी बेखबर हो गई। वह खदु जबस्तरे पर सोता मालमू पड़कर भी जागता
रहा। स्तन चसू ने की चप-् चप् आवाज आती रही और थोड़ी देर बाद बंद हो गई।
उसने तय जकया जक वह देवा के बारे में ही कुछ सोचे अथवा उसके शरीर को छूता रहे। उसने देवा के कू्हे पर हाथ
रख जदया, लेजकन उसे तजनक भी उत्तेजना अपने अंदर महससू नहीं हुई। उसने थोड़ी देर उत्तेजना की प्रतीक्षा की। अपनी
इस हरकत से ऊब होने लगी और मन भी लांजछत करने लगा। बाहर जपता सो या जाग रहे हैं। जैसा भी हो, वह बड़े
जबरदस्त हैं इस समय। बाहर रहकर बाहरी होते जा रहे हैं। घर के अदं रूनी जहस्सों में लोग आराम से या कम आराम से
जकसी तरह सो तो गए होंगे। वह जविादग्रस्त हुआ और अनभु व करने लगा, हमारे समाज में बड़े-बढ़ू े लोग जैसे बह-
बेजर्यों के जनजी जीवन को स्वच्छंद रहने देने के जलए अपना अजधकाश ं समय बाहर व्यतीत जकया करते हैं, क्या जपता
ने भी वैसा ही करना तो नहीं शरू
ु कर जदया है? उसे जपता के बढ़ू ेपन का खयाल आने पर जसहरन हुई। जिर उसने दृढ़ता
से सोचा, जपता अभी बढ़ू े नहीं हुए हैं। उन्द्हें प्रजतक्षण हमारे साथ-साथ जीजवत रहना चाजहए, भरसक। परु ानी जीवन-
व्यवस्था जकतनी कठोर थी, उसके मजस्तष्क में एक जभचं ाव आ गया। जविाद सवोपरर था।
उसे आूँखों में ह्का जल लगने लगा। अगर कोई शीत-यद्ध ु न होता जपता और पत्रु ों के बीच, तो वह उन्द्हें जबरन खींच
के नीचे लाकर सल ु ा देता। लेजकन उसे लगा जक उसका यवु ापन एक प्रजतष्ठा की जजद कहीं चरु ाए बैठा है। वह इस
प्रजतष्ठा के आगे कभी बहुत मजबरू , कभी कमजोर हो जाता है और उसे भगु त भी रहा है। दरअसल उसका जी अक्सर
जच्ला उठने को हुआ है। जपता, तमु हमारा जनिेध करते हो। तमु ढोंगी हो, अहक ं ारी-बज्र अहकं ारी! लेजकन वह कभी
जच्लाया नहीं। उसका जच्ला सकना ममु जकन भी नहीं था। वह अनभु व करता था , उसके सामने जजदं गी पड़ी है और
जपता पर इस तरह जच्लाने में उसका नक ु सान हो सकता है। उसको लगा, जपता लगातार जवजयी हैं। कठोर हैं तो क्या,
उन्द्होंने पत्रु ों के सामने अपने को कभी पसारा नहीं।
लगता है, दीवारों पर भी पसीना चहु चहु ा आया है। खदु को छुरा भोंक देने या दीवार पर जसर पर्कने या सोती बीवी के
साथ पाजश्वक हो जाने का ढोंग सोचने के बाद भी गमी की बेचैनी नहीं कर्ी। उसने ईश्वर को बदु बदु ाना चाहा, लेजकन
वैसा नहीं जकया। के वल ह्के -ह्के हाथ के पजं ों से जसर के बालों को दबोचकर वह रह गया। मौसम की गमी से कहीं
अजधक प्रबल जपता है।

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उसके सामने एक घर्ना मजबतू ी से र्ूँग गई। उसने घर्ना को मन में दोहराया। वाय-ु सेना में नौकरी करनेवाला उसका
कप्तान भाई, बहन के यजू नवजसटर्ी के खचे के जलए दसे विट तक पचास रुपए महीना भेजता रहा था। एक बार अकस्मात
कप्तान भाई होली-अवकाश मनाने घर आ गया। जपता ने उसके हाथ में उसके नाम की बारह सौ रुपयोंवाली एक
पासबक ु थमा दी। सबको यह बड़ा आकजस्मक लगा। कप्तान भाई को हैरत हुई और ह्की खश ु ी भी जक एकाएक
कािी रुपए जमल गए। लेजकन इस बात से उसे दख ु और पराजय का भान भी हुआ। उसने अपने को छोर्ा महससू
जकया। दो विट तक बहन के जलए उसने जो थोड़ा-बहुत जकया, वह सब एक पल में घर्कर नगण्य हो गया। जिर भी वह
अनभु व कर रहा था, कप्तान भाई ज्यादा सोचते नहीं। जखलाड़ी तबीयत के हैं। यान की तरह चर्ु की में धरती छोड़ देते
हैं। जकतने मस्त हैं कप्तान भाई।
उसे लगा जपता एक बल ु ंद भीमकाय दरवाजे की तरह खड़े हैं, जजससे र्करा-र्कराकर हम सब जनहायत जपद्दी और
दयनीय होते जा रहे हैं।
इस घर्ना को याद करके और जपता के प्रजत जखन्द्न हो जाने पर भी उसने चाहा जक वह जखड़की से जपता को अंदर
आकर सो रहने के जलए आग्रहपवू टक कहे, लेजकन वह ऐसा नहीं कर सका। वह असतं ोि और सहानभु जू त, दोनों के बीच
असंतजु लत भर्कता रहा।
न लोकोशेड से उठती इजं नों की शंजर्ग ध्वजन, न कांक्रीर् की ग्रैंडट्ंक पर से होकर आती धमू नगंज की ओर इक्के -दक्ु के
लौर्ते इक्कों के घोड़ों की र्ापें, न झगड़ते कुत्तों की भोंक-भाूँक। बस कहीं उ्लू एकगजत, एकवजन और वीभत्सता में
बोल रहा है। राजत्र में शहर का आभास कुछ पलों के जलए मर-सा गया है। उसको उम्मीद हुई जक जकसी भी समय दरू या
पास से कोई आवाज अकस्मात उठ आएगी, घड़ी र्नर्ना जाएगी या जकसी दौड़ती हुई ट्क का तेज लबं ा हानट बज
उठे गा और शहर का मरा हुआ आभास पनु ः जीजवत हो जाएगा। परू ा शहर, कभी नहीं सोता या मरता। बहुत-से, सोते
हुए जान पड़नेवाले भी संजक्षप्त ध्वजनयों के साथ या लगभग ध्वजनहीनता के बीच जगे होते हैं। रात कािी बीत चक ु ी है
और इस समय यह सब (सोचना) जसवाय सोने के जकतना जनरथटक है।
शायद जपता औघं गए हैं। करवर् बदलने से उत्पन्द्न होनेवाली खार् की चरमराहर्, आम र्र्ोलते समय सख ू ी-अधसख
ू ी
पजत्तयों के कुचलने की आवाज, लाठी की पर्क, मकान के िे रे के वि की खाूँस-खूँसार, कुत्ते-जबज्लयों को
हड़काना-कुछ सनु नहीं पड़ रहा है। इस जवचार से जक जपता सो गए होंगे, उसे परम शांजत जमली और लगा जक अब वह
भी सो सके गा।
शीघ्र नींद के जलए उसने र्कर्की बाूँधकर पख ं े की तरि देखना शरू ु जकया। गमट हवा के बावजदू जदन-भर की व्यथट
थकान और सोच-जवचार से पस्त हो जाने की वजह से वह नींद में जचत्त हो गया। थोड़े समय उपरांत वह एकाएक
उचककर उठ बैठा। उसने चारों तरि कुछ देख पाने के जलए कुछ क्षणों तक गड़े हुए अूँधेरे का घरू ा। हुआ यह जक उसे
शरीर में एकाएक बहुत गमी-सी लगी थी और अजीब-सी सरसराहर् हुई। शायद पसीने से भीगी र्ाूँग पत्नी के बदन से
छू गई थी। मूँहु में बरु ा-सा स्वाद भर आया था। जकसी बरु ी बीमारी के कारण अक्सर ऐसा हो जाया करता है। उठकर
उसने दो-तीन कु्ले जकए और ढेर सारा ठंडा पानी जपया। इतना सब कुछ वह अधनींद में ही करता रहा।
आूँगन से पानी पीकर लौर्ते समय उसने इत्मीनान के जलए जखड़की के बाहर देखा। अब तक नींद , जो थोड़ी-बहुत थी,
कािूर हो गई। जपता सो नहीं गए हैं, अथवा कुछ सोकर पनु ः जगे हुए हैं। पता नहीं। अभी ही उन्द्होंने, 'हे राम तू ही

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सहारा है,' कहकर जम्हाई ली है। ऐसा उन्द्होंने कोई दबकर नहीं जकया। रात के जलहाज से कािी शोर उठाते कहा है।
शायद उन्द्हें इत्मीनान है जक घर में सभी लोग जनजश्चत रूप से सो रहे हैं।
जपता ने अपना जबस्तरा गोल मोड़कर खार् के एक जसरे पर कर जलया है और वही सरु ाही से प्याले में पानी ले-लेकर
अपनी खजर्या की बाध तर कर रहे हैं। सरु ाही से खार् तक और खार् से सरु ाही तक बार-बार आते-जाते हैं। बहुत बार
ऐसा करने पर खार् का बाध तर हुआ है। इसके बाद उन्द्होंने पानी जपया और पनु ः एक बड़ी आवाजदार जम्हाई के साथ
जलपर्े हुए जबस्तरे का जसरहाना बना जनखरी खजर्या पर लेर् गए। तड़का होने में पता नहीं जकतनी देर थी। थोड़ी देर बाद
पख
ं ा जमीन पर जगराकर उनका दायाूँ हाथ खजर्या की पार्ी से झल ू ने लगा।
चारों तरि धजू मल चाूँदनी िै लने लगी है। सबु ह, जो दरू है, के भ्रम में पजश्चम से पवू ट की ओर कौवे काूँव-काूँव करते उड़े।
वह जखड़की से हर्कर जबस्तरे पर आया। अंदर हवा वैसी ही लू की तरह गमट है। दसू रे कमरे स्तब्ध हैं। पता नहीं बाहर
भी उमस और बेचैनी होगी। वह जागते हुए सोचने लगा, अब जपता जनजश्चत रूप से सो गए हैं शायद!
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पररन्द्द(े ३० माचट २०१५)
जनमटल वमाट
अूँधेरे गजलयारे में चलते हुए लजतका जठठक गयी। दीवार का सहारा लेकर उसने लैम्प की बत्ती बढ़ा दी। सीजढ़यों पर
उसकी छाया एक बैडौल कर्ी-िर्ी आकृ जत खींचने लगी। सात नम्बर कमरे में लड़जकयों की बातचीत और हूँसी-
ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लजतका ने दरवाजा खर्खर्ाया। शोर अचानक बदं हो गया। “कौन है?"
लजतका चपु खड़ी रही। कमरे में कुछ देर तक घसु र-पसु र होती रही, जिर दरवाजे की जचर्खनी के खल ु ने का स्वर
आया। लजतका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैम्प की झपकती लौ में लड़जकयों के चेहरे जसनेमा के परदे पर ठहरे
हुए क्लोजअप की भाूँजत उभरने लगे। “कमरे में अूँधेरा क्यों कर रखा है?" लजतका के स्वर में ह्की-सी जझड़की का
आभास था। “लैम्प में तेल ही खत्म हो गया, मैडम!" यह सधु ा का कमरा था, इसजलए उसे ही उत्तर देना पड़ा। होस्र्ल
में शायद वह सबसे अजधक लोकजप्रय थी, क्योंजक सदा छुट्टी के समय या रात को जडनर के बाद आस-पास के कमरों में
रहनेवाली लड़जकयों का जमघर् उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गप़-शप, हूँसी-मजाक च़लता रहता। “तेल के
जलए करीमद्दु ीन से क्यों नहीं कहा?" “जकतनी बार कहा मैडम, लेजकन उसे याद रहे तब तो।"
कमरे में हूँसी की िुहार एक कोने से दसू रे कोने तक िै ल गयी। लजतका के कमरे में आने से अनश ु ासन की जो घर्ु न
जघर आयी थी वह अचानक बह गयी। करीमद्दु ीन होस्र्ल का नौकर था। उसके आलस और काम में र्ालमर्ोल करने
के जकस्से होस्र्ल की लड़जकयों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे। लजतका को हठात कुछ स्मरण हो आया। अूँधेरे में
लैम्प घमु ाते हुए चारों ओर जनगाहें, दौड़ाई।ं कमरे में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी थीं- पास-पास एक-दसू रे से सर्कर।
सबके चेहरे पररजचत थे, जकन्द्तु लैम्प के पीले मजद्धम प्रकाश में मानो कुछ बदल गया था, या जैसे वह उन्द्हें पहली बार
देख रही थी। “जल ू ी, अब तक तमु इस ब्लाक में क्या कर रही हो?"
जल ू ी जखड़की के पास पलूँग के जसरहाने बैठी थी। उसने चपु चाप आूँखें नीची कर ली। लैम्प का प्रकाश चारों ओर से
जसमर्कर अब के वल उसके चेहरे पर जगर रहा था। “नाइर् रजजस्र्र पर दस्तखत कर जदये?" “हाूँ, मैडम।" “जिर...?"
लजतका का स्वर कड़ा हो आया। जल ू ी सकुचाकर जखड़की से बाहर देखने लगी। जब से लजतका इस स्कूल में आयी
है, उसने अनभु व जकया है जक होस्र्ल के इस जनयम का पालन डाूँर्-िर्कार के बावजदू नहीं होता। “मैडम, कल से
छुरट्टयाूँ शरू
ु हो जायेंगी, इसजलए आज रात हम सबने जमलकर..." और सधु ा परू ी बात न कहकर हेमन्द्ती की ओर
देखते हुए मस्ु कराने लगी। “हेमन्द्ती के गाने का प्रोग्राम है, आप भी कुछ देर बैजठए न।"
लजतका को उलझन मालमू हुई। इस समय यहाूँ आकर उसने इनके मजे को जकरजकरा कर जदया। इस छोर्े -से-जहल-
स्र्ेशन पर रहते उसे खासा असाट हो गया, लेजकन कब समय पतझड़ और गजमटयों का घेरा पार कर सदी की छुरट्टयों की
गोद में जसमर् जाता है, उसे कभी याद नहीं रहता। चोरों की तरह चपु चाप वह देहरी से बाहर को गयी। उसके चेहरे का
तनाव ढ़ीला पड़ गया। वह मस्ु कराने लगी। “मेरे सगं स्नो-िॉल देखने कोई नहीं ठहरे गा?" “मैडम, छुरट्टयों में क्या आप
घर नहीं जा रही हैं?" सब लड़जकयों की आूँखे उस पर जम गयीं। “अभी कुछ पक्का नहीं है-आई लव द स्नो-िॉल!"

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लजतका को लगा जक यही बात उसने जपछले साल भी कही थी और शायद जपछले से जपछले साल भी। उसे लगा मानों
लड़जकयाूँ उसे सन्द्दहे की दृजि से देख रही है, मानों उन्द्होंने उसकी बात पर जवश्वास नहीं जकया। उसका जसर चकराने
लगा, मानों बादलों का स्याह झरु मर्ु जकसी अनजाने कोने से उठकर उसे अपने में डुबा लेगा। वह थोड़ा-सा हूँसी, जिर
धीरे -से उसने सर को झर्क जदया। “जल ू ी, तमु से कुछ काम है, अपने ब्लॉक में जाने से पहले मझु े जमल लेना- वेल गडु
नाइर्!" लजतका ने अपने पीछे दरवाज़ा बदं कर जदया।
“गडु नाइर् मैडम, गडु नाइर्, गडु नाइर्..." गजलयारे की सीजढ़याूँ न उतरकर लजतका रे जलंग के सहारे खड़ी हो गयी। लैंप
की बत्ती को नीचे घमु ाकर कोने में रख जदया। बाहर धन्द्ु ध की नीली तहें बहुत घनी हो चली थीं। लॉन पर लगे हुए चीड़
के पत्तों की सरसराहर् हवा के झोंकों के संग कभी तेज, कभी धीमी होकर भीतर बह आती थी। हवा में सदी का
ह्का-सा आभास पाकर लजतका के जदमाग में कल से शरू ु होनेवाली छुरट्टयों का ध्यान भर्क आया। उसने आूँखें मूँदू
लीं। उसे लगा जक जैसे उसकी र्ाूँगें बाूँस की लकजड़यों की तरह उसके शरीर से बूँधी हैं, जजसकी गाूँठें धीरे -धीरे खल
ु ती
जा रही हैं। जसर की चकराहर् अभी जमर्ी नहीं थी, मगर अब जैसे वह भीतर न होकर बाहर िै ली हुई धन्द्ु ध का जहस्सा
बन गयी थी।
सीजढ़यों पर बातचीत का स्वर सनु कर लजतका जैसे सोते से जगी। शॉल को कन्द्धों पर समेर्ा और लैम्प उठा जलया। डॉ.
मक
ु जी जम. ह्यबू र्ट के संग एक अंग्रेजी धनु गनु गनु ाते हुए ऊपर आ रहे थे। सीजढ़यों पर अूँधेरा था और ह्यबू र्ट को बार-
बार अपनी छड़ी से रास्ता र्र्ोलना पड़ता था। लजतका ने दो-चार सीजढ़याूँ उतरकर लैम्प को नीचे झक ु ा जदया। “गडु
ईवजनंग डाक्र्र, गडु ईवजनंग जम. ह्यबू र्ट!" “थैंक यू जमस लजतका" - ह्यबू र्ट के स्वर में कृ तज्ञता का भाव था। सीजढ़याूँ
चढ़ने से उनकी साूँस तेज हो रही थी और वह दीवार से लगे हुए हाूँि रहे थे। लैम्प की रोशनी में उनके चेहरे का
पीलापन कुछ ताूँबे के रंग जैसा हो गया था।
“यहाूँ अके ली क्या कर रही हो जमस लजतका?" - डाक्र्र ने होंठों के भीतर से सीर्ी बजायी। “चेजकंग करके लौर् रही
थी। आज इस वि ऊपर कै से आना हुआ जमस्र्र ह्यबू र्ट?" ह्यबू र्ट ने मस्ु कराकर अपनी छड़ी डाक्र्र के कन्द्धों से छुला
दी - “इनसे पछू ो, यही मझु े जबदटस्ती घसीर् लाये हैं।"
“जमस लजतका, हम आपको जनमन्द्त्रण देने आ रहे थे। आज रात मेरे कमरे में एक छोर्ा-सा-कन्द्सर्ट होगा जजसमें जम.
ह्यबू र्ट शोपाूँ और चाइकोव्स्की के कम्पोजीशन बजायेंगे और जिर क्रीम कॉिी पी जायेगी। और उसके बाद अगर समय
रहा, तो जपछले साल हमने जो गनु ाह जकये हैं उन्द्हें हम सब जमलकर कन्द्रेंस करें गे।" डाक्र्र मक
ु जी के चेहरे पर भारी
मस्ु कान खेल गयी। “डाक्र्र, मझु े माि करें , मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।"
“चजलए, यह ठीक रहा। जिर तो आप वैसे भी मेरे पास आतीं।" डाक्र्र ने धीरे -से लजतका के कंधों को पकड़कर अपने
कमरे की तरि मोड़ जदया। डाक्र्र मक
ु जी का कमरा ब्लॉक के दसू रे जसरे पर छत से जड़ु ा हुआ था। वह आधे बमी थे,
जजसके जचह्न उनकी थोड़ी दबी हुई नाक और छोर्ी-छोर्ी चंचल आूँखों से स्पि थे। बमाट पर जापाजनयों का आक्रमण
होने के बाद वह इस छोर्े से पहाड़ी शहर में आ बसे थे। प्राइवेर् प्रैजक्र्स के अलावा वह कान्द्वेन्द्र् स्कूल में हाईजीन-
जिजजयालोजी भी पढ़ाया करते थे और इसजलए उनको स्कूल के होस्र्ल में ही एक कमरा रहने के जलए दे जदया गया
था। कुछ लोगों का कहना था जक बमाट से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी, लेजकन इस सम्बन्द्ध में
जनजश्चत रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंजक डाक्र्र स्वयं कभी अपनी पत्नी की चचाट नहीं करते।

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बातों के दौरान डाक्र्र अक्सर कहा करते हैं - “मरने से पहले मैं एक दिा बमाट जरूर जाऊूँगा" - और तब एक क्षण के
जलए उनकी आूँखों में एक नमी-सी छा जाती। लजतका चाहने पर भी उनसे कुछ पछू नहीं पाती। उसे लगता जक डाक्र्र
नहीं चाहते जक कोई अतीत के सम्बन्द्ध में उनसे कुछ भी पछू े या सहानभु जू त जदखलाये। दसू रे ही क्षण अपनी गम्भीरता
को दरू ठे लते हुए वह हूँस पड़ते - एक सख
ू ी, बझू ी हुई हूँसी।
होम-जसक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जजसका इलाज जकसी डाक्र्र के पास नहीं है। छत पर मेज-कुजसटयाूँ डाल दी गई ं
और भीतर कमरे में परकोलेर्र में कॉिी का पानी चढ़ा जदया गया। “सनु ा है अगले दो-तीन विों में यहाूँ पर जबजली का
इन्द्तजाम हो जायेगा" -डाक्र्र ने जस्प्रर् लैम्प जलाते हुए कहा। “यह बात तो जपछले दस सालों से सनु ने में आ रही है।
अंग्रेजों ने भी कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम बनायी थी, पता नहीं उसका क्या हुआ" - ह्यबू र्ट ने कहा। वह आराम कुसी पर
लेर्ा हुआ बाहर लॉन की ओर देख रहा था।
लजतका कमरे से दो मोमबजत्तयाूँ ले आयी। मेज के दोनों जसरों पर जर्काकर उन्द्हें जला जदया गया। छत का अूँधेरा
मोमबत्ती की िीकी रोशनी के इदट-जगदट जसमर्ने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर जघरने लगी। हवा में चीड़ के वृक्षों
की साूँय-साूँय दरू -दरू तक िै ली पहाजड़यों और घाजर्यों में सीजर्यों की गूँजू -सी छोड़ती जा रही थी। “इस बार शायद
बिट ज्दी जगरे गी, अभी से हवा में एक सदट खश्ु की-सी महससू होने लगी है" - डाक्र्र का जसगार अूँधेरे में लाल
जबन्द्दी-सा चमक रहा था। “पता नहीं, जमस वडु को स्पेशल सजवटस का गोरखधन्द्धा क्यों पसन्द्द आता है। छुरट्टयों में घर
जाने से पहले क्या यह जरूरी है जक लड़जकयाूँ िादर ए्मण्ड का समटन सनु ें?" - ह्यबू र्ट ने कहा।
डॉक्र्र को िादर ए्मण्ड एक आूँख नहीं सहु ाते थे। लजतका कुसी पर आगे झक ु कर प्यालों में कॉिी उूँडेलने लगी। हर
साल स्कूल बन्द्द होने के जदन यही दो प्रोग्राम होते हैं - चैपल में स्पेशल सजवटस और उसके बाद जदन में जपकजनक।
लजतका को पहला साल याद आया जब डाक्र्र के संग जपकजनक के बाद वह क्लब गयी थी। डाक्र्र बार में बैठै थे।
बार रूम कुमाऊूँ रे जीमेण्र् के अिसरों से भरा हुआ था। कुछ देर तक जबजलयडट का खेल देखने के बाद जब वह वाजपस
बार की ओर आ रहे थे, तब उसने दायीं ओर क्लब की लाइब्रेरी में देखा- मगर उसी समय डाक्र्र मक ु जी पीछे से आ
गये थे। जमस लजतका, यह मेजर जगरीश नेगी है।" जबजलयडट रूम से आते हुए हूँसी-ठहाकों के बीच वह नाम दब-सा गया
था। वह जकसी जकताब के बीच में उूँगली रखकर लायब्रेरी की जखड़की से बाहर देख रहा था। “हलो डाक्र्र" - वह
पीछे मड़ु ा। तब उस क्षण...
उस क्षण न जाने क्यों लजतका का हाथ काूँप गया और कॉिी की कुछ गमट बूँदू ें उसकी साड़ी पर छलक आयी। अूँधेरे में
जकसी ने नहीं देखा जक लजतका के चेहरे पर एक उनींदा रीतापन जघर आया है। हवा के झोंके से मोमबजत्तयों की लौ
िड़कने लगी। छत से भी ऊूँची काठगोदाम जानेवाली सड़क पर य.ू पी. रोडवेज की आजखरी बस डाक लेकर जा रही
थी। बस की हैड लाइर््स में आस-पास िै ली हुई झाजड़यों की छायाएूँ घर की दीवार पर सरकती हुई गायब होने लगीं।
“जमस लजतका, आप इस साल भी छुरट्टयों में यहीं रहेंगी?“डाक्र्र ने पछ
ू ा। डाक्र्र का सवाल हवा में र्ूँगा रहा। उसी
क्षण जपयानो पर शोपाूँ का नोक्र्नट ह्यबू र्ट की उूँगजलयों के नीचे से जिसलता हुआ धीरे -धीरे छत के अूँधेरे में घल
ु ने
लगा-मानों जल पर कोमल स्वजप्नल उजमटयाूँ भूँवरों का जझलजमलाता जाल बनु ती हुई ंदरू -दरू जकनारों तक िै लती जा
रही हों। लजतका को लगा जक जैसे कहीं बहुत दरू बिट की चोजर्यों से पररन्द्दों के झण्ु ड नीचे अनजान देशों की ओर उड़े
जा रहे हैं। इन जदनों अक्सर उसने अपने कमरे की जखड़की से उन्द्हें देखा है-धागे में बूँधे चमकीले लट्टुओ ं की तरह वे

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एक लम्बी, र्ेढ़ी-मेढ़ी कतार में उड़े जाते हैं, पहाड़ों की सनु सान नीरवता से परे , उन जवजचत्र शहरों की ओर जहाूँ शायद
वह कभी नहीं जायेगी।
लजतका आमट चेयर पर ऊूँघने लगी। डाक्र्र मक ु जी का जसगार अूँधेरे में चपु चाप जल रहा था। डाक्र्र को आश्चयट हुआ
जक लजतका न जाने क्या सोच रही है और लजतका सोच रही थी-क्या वह बढ़ू ी होती जा रही है? उसके सामने स्कूल की
जप्रजं सपल जमस वडु का चेहरा घमू गया-पोपला मूँहु , आूँखों के नीचे झलू ती हुई माूँस की थैजलयाूँ, ज़रा-ज़रा सी बात पर
जचढ़ जाना, ककट श आवाज में चीखना-सब उसे ‘ओ्डमेड’ कहकर पक ु ारते हैं। कुछ विों बाद वह भी ह-ब-ह वैसी ही
बन जायेगी...लजतका के समचू े शरीर में झरू झरू ी-सी दौड़ गयी, मानों अनजाने में उसने जकसी गलीज वस्तु को छू जलया
हो। उसे याद आया कुछ महीने पहले अचानक उसे ह्यबू र्ट का प्रेमपत्र जमला था - भावक ु याचना से भरा हुआ पत्र,
जजसमें उसने न जाने क्या कुछ जलखा था, जो कभी उसकी समझ में नहीं आया। उसे ह्यबू र्ट की इस बचकाना हरकत पर
हूँसी आयी थी, जकन्द्तु भीतर-ही-भीतर प्रसन्द्नता भी हुई थी। उसकी उम्र अभी बीती नहीं है, अब भी वह दसू रों को
अपनी ओर आकजिटत कर सकती है। ह्यबू र्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी के वल ममता। वह चाहती
तो उसकी गलतिहमी को दरू करने में देर न लगती, जकन्द्तु कोई शजि उसे रोके रहती है, उसके कारण अपने पर
जवश्वास रहता है, अपने सख ु का भ्रम मानो ह्यबू र्ट की गलतिहमी से जड़ु ा है...।
ह्यबू र्ट ही क्यों, वह क्या जकसी को चाह सके गी, उस अनभु जू त के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मूँडराती
रहती है, न स्वयं जमर्ती है, न उसे मजु ि दे पाती है। उसे लगा, जैसे बादलों का झरु मर्ु जिर उसके मजस्तष्क पर धीरे -धीरे
छाने लगा है, उसकी र्ाूँगे जिर जनजीव, जशजथल-सी हो गयी हैं। वह झर्के से उठ खड़ी हुई- “डाक्र्र माि करना, मझु े
बहुत थकान-सी लग रही है...जबना वाक्य परू ा जकये ही वह चली गयी। कुछ देर तक र्ैरेस पर जनस्तब्धता छायी रही।
मोमबजत्तयाूँ बझू ने लगी थीं। डाक्र्र मक ु जी ने जसगार का नया कश जलया - “सब लड़जकयाूँ एक-जैसी होती है-बेवकूि
और सेंर्ीमेंर्ल।" ह्यबू र्ट की उूँगजलयों का दबाव जपयानो पर ढीला पड़ता गया, अजन्द्तम सरु ों की जझझकी-सी गूँजू कुछ
क्षणों तक हवा में जतरती रही।
“डाक्र्र, आपको मालमू है, जमस लजतका का व्यवहार जपछले कुछ असे से अजीब-सा लगता है।" ह्यबू र्ट के स्वर में
लापरवाही का भाव था। वह नहीं चाहता था जक डाक्र्र को लजतका के प्रजत उसकी भावनाओ ं का आभास-मात्र भी
जमल सके । जजस कोमल अनभु जू त को वह इतने समय से सूँजोता आया है, डाक्र्र उसे हूँसी के एक ठहाके में
उपहासास्पद बना देगा। “क्या तमु जनयजत में जवश्वास करते हो, ह्यबू र्ट?" डाक्र्र ने कहा। ह्यबू र्ट दम रोके प्रतीक्षा करता
रहा। वह जानता था जक कोई भी बात कहने से पहले डाक्र्र को जिलासोिाइज करने की आदत थी। डाक्र्र र्ैरेस के
जंगले से सर्कर खड़ा हो गया। िीकी-सी चाूँदनी में चीड़ के पेड़ो की छायाएूँ लॉन पर जगर रही थी। कभी-कभी कोई
जगु नू अूँधेरे में हरा प्रकाश जछड़कता हवा में गायब हो जाता था।
“मैं कभी-कभी सोचता ह,ूँ इन्द्सान जजन्द्दा जकसजलए रहता है-क्या उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं जमला ?
हजारों मील अपने म्ु क से दरू मैं यहाूँ पड़ा हूँ - यहाूँ कौन मझु े जानता है, यहीं शायद मर भी जाऊूँगा। ह्यबू र्ट, क्या तमु ने
कभी महससू जकया है जक एक अजनबी की हैजसयत से परायी जमीन पर मर जाना काफ़ी खौिनाक बात है...!"
ह्यबू र्ट जवजस्मत-सा डाक्र्र को देखने लगा। उसने पहली बार डॉक्र्र मक
ु जी के इस पहलू को देखा था। अपने सम्बन्द्ध
में वह अक्सर चपु रहते थे। “कोई पीछे नहीं है, यह बात मझु में एक अजीब जकस्म की बेजिक्री पैदा कर देती है। लेजकन

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कुछ लोगों की मौत अन्द्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे जज़न्द्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्ैजजक भी नहीं
कहा जा सकता, क्योंजक आजखरी दम तक उन्द्हें मरने का एहसास नहीं होता।" “डाक्र्र, आप जकसका जजक्र कर रहे
हैं?" ह्यबू र्ट ने परे शान होकर पछू ा। डाक्र्र कुछ देर तक चपु चाप जसगार पीता रहा। जिर मड़ु कर वह मोमबजत्तयों की
बझु ती हुई लौ को देखने लगा।
“तम्ु हें मालमू है, जकसी समय लजतका जबला नागा क्लब जाया करती थी। जगरीश नेगी से उसका पररचय वहीं हुआ था।
कश्मीर जाने से एक रात पहले उसने मझु े सबकुछ बता जदया था। मैं अब तक लजतका से उस मल ु ाकात के बारे में कुछ
नहीं कह सका ह।ूँ जकन्द्तु उस रात कौन जानता था जक वह वापस नहीं लौर्े गा। और अब...अब क्या िकट पड़ता है। लेर्
द डेड। डाई..." डाक्र्र की सख ू ी सदट हूँसी में खोखली-सी शन्द्ू यता भरी थी।
“कौन जगरीश नेगी?" “कुमाऊूँ रे जीमेंर् में कै प्र्न था।" “डाक्र्र, क्या लजतका..." ह्यबू र्ट से आगे कुछ नहीं कहा गया।
उसे याद आया वह पत्र, जो उसने लजतका को भेजा था, जकतना अथटहीन और उपहासास्पद, जैसे उसका एक-एक
शब्द उसके जदल को कचोर् रहा हो। उसने धीरे -से जपयानो पर जसर जर्का जलया। लजतका ने उसे क्यों नहीं बताया, क्या
वह इसके योग्य भी नहीं था? “लजतका... वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के सगं खदु थोड़े ही मरा जाता है।“
कुछ देर चपु रहकर डाक्र्र ने अपने प्रश्न को जिर दहु राया। “लेजकन ह्यबू र्ट, क्या तमु जनयजत पर जवश्वास करते हो?" हवा
के ह्के झोंके से मोमबजत्तयाूँ एक बार प्रज्जवजलत होकर बझु गयीं। र्ै रेस पर ह्यबू र्ट और डाक्र्र अूँधेरे में एक-दसू रे का
चेहरा नहीं देख पा रहे थे, जिर भी वे एक-दसू रे की ओर देख रहे थे। कान्द्वेंर् स्कूल से कुछ दरू मैदानों में बहते पहाड़ी
नाले का स्वर आ रहा था। अब बहुत देर बाद कुमाऊूँ रे जीमेंर् सेण्र्र का जबगल ु सनु ायी जदया, तो ह्यबू र्ट हड़बड़ाकर
खड़ा हो गया। “अच्छा, चलता ह,ूँ डाक्र्र, गडु नाइर्।"
“गडु नाइर् ह्यबू र्ट...मझ
ु े माि करना, मैं जसगार खत्म करके उठूूँगा..." सबु ह बदली छायी थी। लजतका के जखड़की
खोलते ही धन्द्ु ध का गब्ु बारा-सा भीतर घसु आया, जैसे रात-भर दीवार के सहारे सरदी में जठठुरता हुआ वह भीतर आने
की प्रतीक्षा कर रहा हो। स्कूल से ऊपर चैपल जानेवाली सड़क बादलों में जछप गयी थी, के वल चैपल का ‘क्रास’ धन्द्ु ध
के परदे पर एक-दसू रे को कार्ती हुई पेंजसल की रे खाओ-ं सा जदखायी दे जाता था।
लजतका ने जखड़की से आूँखें हर्ाई,ं तो देखा जक करीमद्दु ीन चाय की ट्े जलये खड़ा है। करीमद्दु ीन जमजलट्ी में अदटली रह
चकु ा था, इसजलए ट्े मेज पर रखकर ‘अर्ेन्द्शन’ की मरु ा में खड़ा हो गया। लजतका झर्के से उठ बैठी। सबु ह से आलस
करके जकतनी बार जागकर वह सो चक ु ी है। अपनी जखजसयाहर् जमर्ाने के जलए लजतका ने कहा - “बड़ी सदी है आज,
जबस्तर छोड़ने को जी नहीं चाहता।"
“अजी मेम साहब, अभी क्या सरदी आयी है- बड़े जदनों में देखना कै से दाूँत कर्कर्ाते हैं" - और करीमद्दु ीन अपने
हाथों को बगलों में डाले हुए इस तरह जसकुड़ गया जैसे उन जदनों की क्पना मात्र से उसे जाड़ा लगना शरू ु हो गया
हो। गंजे जसर पर दोनों तरि के उसके बाल जखजाब लगाने से कत्थई रंग के भरू े हो गये थे। बात चाहे जकसी जविय पर
हो रही हो, वह हमेशा खींचतान कर उसे ऐसे क्षेत्र में घसीर् लाता था, जहाूँ वह बेजझझक अपने जवचारों को प्रकर् कर
सके ।

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“एक दिा तो यहाूँ लगातार इतनी बिट जगरी थी जक भवु ाली से लेकर डाक बूँगले तक सारी सड़कें जाम हो गई।ं इतनी
बिट थी मेम साहब जक पेड़ों की र्हजनयाूँ तक जसकुड़कर तनों से जलपर् गयी थी - जबलकुल ऐसे," और करीमद्दु ीन नीचे
झकु कर मगु ाट-सा बन गया। “कब की बात है?" लजतका ने पछू ा।
“अब यह तो जोड़-जहसाब करके ही पता चलेगा, मेम साहब, लेजकन इतना याद है जक उस वि अंग्रेज बहादरू यहीं थे।
कण्र्ोनमेण्र् की इमारत पर कौमी झण्डा नहीं लगा था। बड़े जबर थे ये अग्रं ेज, दो घण्र्ों में ही सारी सड़कें साि करवा
दीं। उन जदनों एक सीर्ी बजाते ही पचास घोड़ेवाले जमा हो जाते थे। अब तो सारे शेड खाली पड़े हैं। वे लोग अपनी
जखदमत भी करवाना जानते थे, अब तो सब उजाड़ हो गया है"। करीमद्दु ीन उदास भाव से बाहर देखने लगा। आज यह
पहली बार नहीं है जब लजतका करीमद्दु ीन से उन जदनों की बातें सनु रही है जब अंग्रेज बहादरु ने इस स्थान को स्वगट
बना रखा था। “आप छुरट्टयों में इस साल भी यही रहेंगी मेम साहब?" “जदखता तो कुछ ऐसा ही है करीमद्दु ीन, तम्ु हें जिर
तगं होना पड़ेगा।" “क्या कहती हैं मेम साहब! आपके रहने से हमारा भी मन लग जाता है, वरना छुरट्टयों में तो यहाूँ
कुत्ते लोर्ते हैं।"
“तमु जरा जमस्त्री से कह देना जक इस कमरे की छत की मरम्मत कर जाये। जपछले साल बिट का पानी दरारों से र्पकता
रहता था।“ लजतका को याद आया जक जपछली सजदटयों में जब कभी बिट जगरती थी, तो उसे पानी से बचने के जलए
रात-भर कमरे के कोने में जसमर्कर सोना पड़ता था।
करीमद्दु ीन चाय की ट्े उठाता हुआ बोला - “ह्यबू र्ट साहब तो शायद कल ही चले जायें, कल रात उनकी तबीयत जिर
खराब हो गयी। आधी रात के वि मझु े जगाने आये थे। कहते थे, छाती में तकलीि है। उन्द्हें यह मौसम रास नहीं
आता। कह रहे थे, लड़जकयों की बस में वह भी कल ही चले जायेंगे।" करीमद्दु ीन दरवाजा बन्द्द करके चला गया।
लजतका की इच्छा हुई जक वह ह्यबू र्ट के कमरे में जाकर उनकी तबीयत की पूछताछ कर आये। जकन्द्तु जिर न जाने क्यों
स्लीपर पैरों में र्ूँगे रहे और वह जखड़की के बाहर बादलों को उड़ता हुआ देखती रही। ह्यबू र्ट का चेहरा जब उसे देखकर
सहमा-सा दयनीय हो जाता है, तब लगता है जक वह अपनी मक ू -जनरीह याचना में उसे कोस रहा है - न वह उसकी
गलतिहमी को दरू करने का प्रयत्न कर पाती है, न उसे अपनी जववशता की सिाई देने का साहस होता है उसे लगता
है जक इस जाले से बाहर जनकलने के जलए वह धागे के जजस जसरे को पकड़ती है वह खदु एक गाूँठ बनकर रह जाता है।
बाहर बूँदू ाबाूँदी होने लगी थी, कमरे की जर्न की छत खर्-खर् बोलने लगी। लजतका पलूँग से उठ खड़ी हुई। जबस्तर को
तहाकर जबछाया। जिर पैरों में स्लीपरों को घसीर्ते हुए वह बड़े आईने तक आयी और उसके सामने स्र्ूल पर बैठकर
बालों को खोलने लगी। जकंतु कुछ देर तक कंघी बालों में ही उलझी रही और वह गमु समु हो शीशे में अपना चेहरा
ताकती रही। करीमद्दु ीन को यह कहना याद ही नहीं रहा जक धीरे -धीरे आग जलाने की लकजड़याूँ जमा कर ले। इन जदनों
सस्ते दामों पर सख ू ी लकजड़याूँ जमल जाती हैं। जपछले साल तो कमरा धएु ूँ से भर जाता था जजसके कारण कूँ पकूँ पाते
जाड़े में भी उसे जखड़की खोलकर ही सोना पड़ता था।
आईने में लजतका ने अपना चेहरा देखा - वह मस्ु कुरा रही थी। जपछले साल अपने कमरे की सीलन और ठण्ड से बचने
के जलए कभी-कभी वह जमस वडु के खाली कमरे में चोरी-चपु के सोने चली जाया करती थी। जमस वडु का कमरा जबना
आग के भी गमट रहता था, उनके गदीले सोिे पर लेर्ते ही आूँख लग जाती थी। कमरा छुरट्टयों में खाली पड़ा रहता है,
जकन्द्तु जमस वडु से इतना नहीं होता जक दो महीनों के जलए उसके हवाले कर जायें। हर साल कमरे में ताला ठोंक जाती

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हैं वह तो जपछले साल़ गसु लखाने में भीतर की साूँकल देना भल
ू गयी थीं, जजसे लजतका चोर दरवाजे के रूप में
इस्तेमाल करती रही थी।
पहले साल अके ले में उसे बड़ा डर-सा लगता था। छुरट्टयों में सारे स्कूल और होस्र्ल के कमरे साूँय-साूँय करने लगते
हैं। डर के मारे उसे जब कभी नींद नहीं आती थी, तब वह करीमद्दु ीन को रात में देर तक बातों में उलझाये रखती। बातों
में जब खोयी-सी वह सो जाती, तब करीमद्दु ीन चपु चाप लैम्प बझु ाकर चला जाता। कभी-कभी बीमारी का बहाना
करके वह डाक्र्र को बल ु वा भेजती थी और बाद में बहुत जजद करके दसू रे कमरे में उनका जबस्तर लगवा देती।
लजतका के कंधे से बालों का गच्ु छा जनकाला और उसे बाहर िें कने के जलए वह जखड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर
छत की ढलान से बाररश के जल की मोर्ी-सी धार बराबर लॉन पर जगर रही थी। मेघाच्छन्द्न आकाश में सरकते हुए
बादलों के पीछे पहाजड़यों के झण्ु ड कभी उभर आते थे, कभी जछप जाते थे, मानो चलती हुई ट्ेन से कोई उन्द्हें देख रहा
हो। लजतका ने जखड़की से जसर बाहर जनकाल जलया - हवा के झोंके से उसकी आूँखें जझप गयी। उसे जजतने काम याद
आते हैं, उतना ही आलस घना होता जाता है। बस की सीर्ें ररजवट करवाने के जलए चपरासी को रुपये देने हैं जो सामान
होस्र्ल की लड़जकयाूँ पीछे छोड़े जा रही हैं, उन्द्हें गोदाम में रखवाना होगा। कभी-कभी तो छोर्ी क्लास की लड़जकयों
के साथ पैजकंग करवाने के काम में भी उसे हाथ बूँर्ाना पड़ता था।
वह इन कामों से ऊबती नहीं। धीरे -धीरे सब जनपर्ते जाते हैं, कोई गलती इधर-उधर रह जाती है, सो बाद में सधु र जाती
है। हर काम में जकचजकच रहती है, परे शानी और जदक्कत होती है, जकन्द्तु देर-सबेर इससे छुर्कारा जमल ही जाता है
जकन्द्तु जब लड़जकयों की आजखरी बस चली जाती है, तब मन उचार्-सा हो जाता है। खाली कॉरीडोर में घमू ती हुई वे
कभी इस कमरे में जाती हैं और कभी उसमें। वह नहीं जान पातीं जक अपने से क्या करें , जदल कहीं भी नहीं जर्क पाता,
हमेशा भर्का-भर्का-सा रहता है।
इस सबके बावजदू जब कोई सहज भाव में पछू बैठता है, “जमस लजतका, छुरट्टयों में आप घर नहीं जा रहीं?" तब वह
क्या कहे? जडंग-डागं -जडंग... स्पेशल सजवटस के जलए स्कूल चैपल के घर्ं े बजने लगे थे। लजतका ने अपना जसर जखड़की
के भीतर कर जलया। उसने झर्पर् साड़ी उतारी और पेर्ीकोर् में ही कन्द्धे पर तौजलया डाले गसु लखाने में घसु गयी।
लेफ्र्-राइर् लेफ्र्...लेफ्र्...
कण्र्ोनमेण्र् जानेवाली पक्की सड़क पर चार-चार की पंजि में कुमाऊूँ रे जीमेंर् के जसपाजहयों की एक र्ुकड़ी माचट कर
रही थी। िौजी बर्ू ों की भारी खुरदरी आवाजें स्कूल चैपल की दीवारों से र्कराकर भीतर ‘प्रेयर हाल’ में गूँजू रही थीं।
“ब्लेसेड आर द मीक..." िादर ए्मण्ड एक-एक शब्द चबाते हुए खूँखारते स्वर में ‘समटन आि द माउण्र्’ पढ़ रहे थे।
ईसा मसीह की मजू तट के नीचे ‘कै ण्डलजब्रयम’ के दोनों ओर मोमबजत्तयाूँ जल रही थीं , जजनका प्रकाश आगे बेंचों पर
बैठी हुई लड़जकयों पर पड़ रहा था। जपछली लाइनों की बैंचें अूँधेरे में डूबी हुई थीं, जहाूँ लड़जकयाूँ प्राथटना की मरु ा में
बैठी हुई जसर झक ु ाये एक-दसू रे से घसु र-पसु र कर रही थीं। जमस वडु स्कूल सीजन के सिलतापवू टक समाप्त हो जाने पर
जवद्याजथटयों और स्र्ाि सदस्यों को बधाई का भािण दे चक ु ी थीं- और अब िादर के पीछे बैठी हुई अपने में ही कुछ
बड़ु बड़ु ा रही थीं मानो धीरे -धीरे िादर को ‘प्रौम्र्’ कर रही हों।

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‘आमीन।’ िादर ए्मण्ड ने बाइबल मेज पर रख दी और ‘प्रेयर बक
ु ’ उठा ली। हॉल की खामोशी क्षण भर के जलए र्ूर्
गयी। लड़जकयों ने खड़े होते हुए जान-बझू कर बैंचों को पीछे धके ला - बैंचे िशट पर रगड़ खाकर सीर्ी बजाती हुई पीछे
जखसक गयीं - हॉल के कोने से हूँसी िूर् पड़ी। जमस वडु का चेहरा तन गया, माथे पर भृकुजर्याूँ चढ़ गयीं। जिर
अचानक जनस्तब्धता छा गयी। हॉल के उस घर्ु े हुए घूँधु लके में िादर का तीखा िर्ा हुआ स्वर सनु ायी देने लगा -
“जीजस सेड, आई एम द लाइर् ऑि द व्डट , ही दैर् िालोएथ मी शैल नॉर् वाक इन डाकट नेस, बर् शैल हैव द लाइर्
ऑि लाइि।"
डाक्र्र मख ु जी ने ऊब और उकताहर् से भरी जमहु ाई ली, “कब यह जकस्सा खत्म होगा?" उसने इतने ऊूँचे स्वर में
लजतका से पछू ा जक वह सकुचाकर दसू री ओर देखने लगी। स्पेशल सजवटस के समय डाक्र्र मक ु जी के होंठों पर
व्यंग्यात्मक मस्ु कान खेलती रहती और वह धीरे -धीरे अपनी मूँछू ों को खींचता रहता। िादर ए्मण्ड की वेश-भिू ा
देखकर लजतका के जदल में गदु गदु ी-सी दौड़ गयी। जब वह छोर्ी थी, तो अक्सर यह बात सेाचकर जवजस्मत हुआ करती
थी जक क्या पादरी लोग सिे द चोगे के नीचे कुछ नहीं पहनते, अगर धोखे से वह ऊपर उठ जाये तो?
लेफ्र्...लेफ्र्...लेफ्र्... माचट करते हुए िौजी बर्ू चैपल से दरू होते जा रहे थे-के वल उनकी गूँजू हवा में शेि रह गयी
थी।
‘जहम नम्बर ११७’िादर ने प्राथटना-पस्ु तक खोलते हुए कहा। हॉल में प्रत्येक लड़की ने डेस्क पर रखी हुई जहम-बक

खोल ली। पन्द्नों के उलर्ने की खड़खड़ाहर् जिसलती हुई एक जसरे से दसू रे जसरे तक िै ल गयी। आगे की बैंच से
उठकर ह्यबू र्ट जपयानो के सामने स्र्ूल पर बैठ गया। संगीत जशक्षक होने के कारण हर साल स्पेशल सजवटस के अवसर
पर उसे ‘कॉयर’ के सगं जपयानो बजाना पड़ता था। ह्यबू र्ट ने अपने रूमाल से नाक साि की। अपनी घबराहर् जछपाने के
जलए ह्यबू र्ट हमेशा ऐसा ही जकया करता था। कनजखयों से हॉल की ओर देखते हुए अपने काूँपते हाथों से जहम-बकु
खोली। लीड काइण्डली लाइर्...
जपयानो के सरु दबे, जझझकते से जमलने लगे। घने बालों से ढूँकी ह्यबू र्ट की लबं ी, पीली अूँगल
ु याूँ खल
ु ने-जसमर्ने लगीं।
‘कॉयर’ में गानेवाली लड़जकयों के स्वर एक-दसू रे से गूँथु कर कोमल, जस्नग्ध लहरों में जबंध गये। लजतका को लगा,
उसका जड़ू ा ढीला पड़ गया है, मानो गरदन के नीचे झल ू रहा है। जमस वडु की आूँख बचा लजतका ने चपु चाप बालों में
लगे जक्लपों को कसकर खींच जदया। “बड़ा झक्की आदमी है...सबु ह मैंने ह्यबू र्ट को यहाूँ आने से मना जकया था, जिर
भी चला आया" - डाक्र्र ने कहा।
लजतका को करीमद्दु ीन की बात याद हो गयी। रात-भर ह्यबू र्ट को खाूँसी का दौरा पड़ा था, कल जाने के जलए कह रहे
थे। लजतका ने जसर र्ेढ़ा करके ह्यबू र्ट के चेहरे की एक झलक पाने की जविल चेिा की। इतने पीछे से कुछ भी देख पाना
असभं व था, जपयानो पर झक ु ा हुआ के वल ह्यबू र्ट का जसर जदखायी देता था।
लीड काइण्डली लाइर्, संगीत के सरु मानों एक ऊूँची पहाड़ी पर चढ़कर हाूँिती हुई साूँसों को आकाश की अबाध
शन्द्ू यता में जबखेरते हुए नीचे उतर रहे हैं। बाररश की मल
ु ायम धपू चैपल के लम्बे-चैकोर शीशों पर जझलजमला रही है,
जजसकी एक महीन चमकीली रे खा ईसा मसीह की प्रजतमा पर जतरछी होकर जगर रही है। मोमबजत्तयों का धआ ु ूँ धपू में
नीली-सी लकीर खींचता हुआ हवा में जतरने लगा है। जपयानो के क्षजणक ‘पोज’ में लजतका को पत्तों का पररजचत ममटर
कहीं दरू अनजानी जदशा से आता हुआ सनु ायी दे जाता है। एक क्षण के जलए एक भ्रम हुआ जक चैपल का िीका-सा

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अूँधेरा उस छोर्े-से ‘प्रेयर-हॉल’ के चारों कोनों से जसमर्ता हुआ उसके आस-पास जघर आया है मानों कोई उसकी
आूँखों पर पट्टी बाूँधकर उसे यहाूँ तक ले आया हो और अचानक उसकी आूँखें खोल दी हों। उसे लगा जक जैसे
मोमबजत्तयों के धजू मल आलोक में कुछ भी ठोस, वास्तजवक न रहा हो-चैपल की छत, दीवारें , डेस्क पर रखा हुआ
डाक्र्र का सघु ड़-सडु ौल हाथ और जपयानो के सरु अतीत की धन्द्ु ध को भेदते हुए स्वयं उस धन्द्ु ध का भाग बनते जा रहे
हों।
एक पगली-सी स्मृजत, एक उदभ्र् ान्द्त भावना-चैपल के शीशों के परे पहाड़ी सखू ी हवा, हवा में झक
ु ी हुई वीजपंग जवलोज
की काूँपती र्हजनयाूँ, पैरों तले चीड़ के पत्तों की धीमी-सी जचर-पररजचत खड़....खड़...। वहीं पर जगरीश एक हाथ में
जमजलर्री का खाकी हैर् जलये खड़ा है-चौड़े, उठे हुए, सबल कन्द्धे, अपना जसर वहाूँ जर्का दो, तो जैसे जसमर्कर खो
जायेगा, चा्सट बोयर, यह नाम उसने रखा था, वह झेंपकर हूँसने लगा। “तम्ु हें आमी में जकसने चनु जलया, मेजर बन गये
हो, लेजकन लड़जकयों से भी गये बीते हो, ज़रा-ज़रा-सी बात पर चेहरा लाल हो जाता है।" यह सब वह कहती नहीं,
जसिट सोचती भर थी, सोचा था कभी कहगूँ ी, वह ‘कभी’ कभी नहीं आया, बरुु स का लाल िूल लाये हो न झठू े खाकी
कमीज के जजस जेब पर बैज जचपके थे, उसमें से मसु ा हुआ बरुु स का िूल जनकल आया। जछः सारा मरु झा गया अभी
जखला कहाूँ है? (हाउ क्लन्द्जी) उसके बालों में जगरीश का हाथ उलझ रहा है-िूल कहीं जर्क नहीं पाता, जिर उसे जक्लप
के नीचे िूँ साकर उसने कहा- देखो
वह मड़ु ी और इससे पहले जक वह कुछ कह पाती, जगरीश ने अपना जमजलर्री का हैर् धप से उसके जसर पर रख जदया।
वह मन्द्त्रमग्ु ध-सी वैसी ही खड़ी रही। उसके जसर पर जगरीश का हैर् है-माथे पर छोर्ी-सी जबन्द्दी है। जबन्द्दी पर उड़ते हुए
बाल है। जगरीश ने उस जबन्द्दी को अपने होंठों से छुआ है, उसने उसके नगं े जसर को अपने दोनों हाथों में समेर् जलया है -
लजतका
जगरीश ने जचढ़ाते हुए कहा- मैन ईर्र आि कुमाऊूँ- (उसका यह नाम जगरीश ने उसे जचढ़ाने के जलए रखा था)... वह
हूँसने लगी। “लजतका.... सनु ो!" जगरीश का स्वर कै सा हो गया था! “ना, मैं कुछ भी नहीं सनु रही।" “लजतका... मैं कुछ
महीनों में वाजपस लौर् आऊूँगा" “ना... मैं कुछ भी नहीं सनु रही" जकन्द्तु वह सनु रही है- वह नहीं जो जगरीश कह रहा
है, जकन्द्तु वह जो नहीं कहा जा रहा है, जो उसके बाद कभी नहीं कहा गया... लीड काइण्डली लाइर्...
लड़जकयों का स्वर जपयानो के सरु ों में डूबा हुआ जगर रहा है, उठ रहा है. .ह्यबू र्ट ने जसर मोड़कर लजतका को जनजमि भर
देखा, आूँखें मूँदू े ध्यानमग्ना प्रस्तर मजू तट-सी वह जस्थर जनश्चल खड़ी थी। क्या यह भाव उसके जलए है? क्या लजतका ने
ऐसे क्षणों में उसे अपना साथी बनाया है? ह्यबू र्ट ने एक गहरी साूँस ली और उस साूँस में ढेर-सी थकान उमड़ आयी।
“देखो... जमस वडु कुसी पर बैठे-बैठे सो रही है" डाक्र्र होंठों में ही िुसिुसाया। यह डाक्र्र का परु ाना मजाक था जक
जमस वडु प्राथटना करने के बहाने आूँखे मूँदू े हुए नींद की झपजकयाूँ लेती है।
िादर ए्मण्ड ने कुसी पर िै ले अपने गाउन को समेर् जलया और प्रेयर बक ु बंद करके जमस वडु के कानों में कुछ कहा।
जपयानो का स्वर क्रमशः मन्द्द पड़ने लगा, ह्यबू र्ट की अूँगजु लयाूँ ढीली पड़ने लगी। सजवटस के समाप्त होने से पवू ट जमस वडु
ने आडटर पढ़कर सनु ाया। बाररश होने की आशक ं ा से आज के कायटक्रम में कुछ आवश्यक पररवतटन करने पड़े थे।
जपकजनक के जलए झल ू ा देवी के मजन्द्दर जाना सम्भव नहीं हो सके गा, इसजलए स्कूल से कुछ दरू ‘मीडोज’ में ही सब

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लड़जकयाूँ नाश्ते के बाद जमा होंगी। सब लड़जकयों को दोपहर का ‘लंच’ होस्र्ल जकचन से ही ले जाना होगा, के वल
शाम की चाय ‘मीडोज’ में बनेगी।
पहाड़ों की बाररश का क्या भरोसा? कुछ देर पहले धआ ु ूँधार बादल गरज रहे थे, सारा शहर पानी में भीगा जठठुर रहा
था- अब धपू में नहाता नीला आकाश धन्द्ु ध की ओर् से बाहर जनकलता हुआ िै ल रहा था। लजतका ने चैपल से बाहर
आते हुए देखा-वीजपंग जबलोज की भीगी शाखाओ ं से धपू में चमकती हुई बाररश की बूँदू े र्पक रही थीं, लड़जकयाूँ
चैपल से बाहर जनकलकर छोर्े -छोर्े गच्ु छे बनाकर कॉरीडोर में जमा हो गयी हैं, नाश्ते के जलए अभी पौन घण्र्ा पड़ा
था और उनमें से अभी कोई भी लड़की होस्र्ल जाने के जलए इच्छुक नहीं थी। छुरट्टयाूँ अभी शरू ु नहीं हुई थीं, जकन्द्तु
शायद इसीजलए वे इन चन्द्द बचे-खचु े क्षणों में अनश
ु ासन के भीतर भी मि
ु होने का भरपरु आनन्द्द उठा लेना चाहती
थीं।
जमस वडु को लड़जकयों का यह गल ु -गपाड़ा अखरा, जकन्द्तु िादर ए्मण्ड के सामने वह उन्द्हें डाूँर्-िर्कार नहीं सकी।
अपनी झूँझु लाहर् दबाकर वह मस्ु कराते हुए बोली- “कल सब चली जायेंगी, सारा स्कूल वीरान हो जायेगा।" िादर
ए्मण्ड का लम्बा ओजपणू ट चेहरा चैपल की घर्ु ी हुई गरमाई से लाल हो उठा था। कॉरीडोर के जगं ले पर अपनी छड़ी
लर्काकर वह बोले - “छुरट्टयों में पीछे हॉस्र्ल में कौन रहेगा?" “जपछले दो-तीन सालों से जमस लजतका ही रह रही हैं।"
“और डाक्र्र मकु जी छुरट्टयों में कहीं नहीं जाते?" “डाक्र्र तो सदी-गमी यहीं रहते हैं।" जमस वडु ने जवस्मय से िादर
की ओर देखा। वह समझ नहीं सकी जक िादर ने डाक्र्र का प्रसगं क्यों छे ड़ जदया है!
“डाक्र्र मुकजी छुरट्टयों में कहीं नहीं जाते?" “दो महीने की छुरट्टयों में बमाट जाना कािी कजठन है, िादर!" - जमस वडु
हूँसने लगी।
“जमस वडु , पता नहीं आप क्या सोचती हैं। मझ
ु े तो जमस लजतका का होस्र्ल में अके ले रहना कुछ समझ में नहीं
आता।" “लेजकन िादर," जमस वडु ने कहा, “यह तो कान्द्वेन्द्र् स्कूल का जनयम है जक कोई भी र्ीचर छुरट्टयों में अपने
खचे पर होस्र्ल में रह सकते हैं।" “मैं जिलहाल स्कूल के जनयमों की बात नहीं कर रहा। जमस लजतका डाक्र्र के सगं
यहाूँ अके ली ही रह जायेंगी और सच पजू छए जमस वडु , डाक्र्र के बारे में मेरी राय कुछ बहुत अच्छी नहीं है।" “िादर,
आप कै सी बात कर रहे हैं? जमस लजतका बच्चा थोड़े ही है।" जमस वडु को ऐसी आशा नहीं थी जक िादर ए्मण्ड
अपने जदल में ऐसी दजकयानसू ी भावना को स्थान देंगे।
िादर ए्मण्ड कुछ हतप्रभ-से हो गये, बात पलर्ते हुए बोले- “जमस वडु , मेरा मतलब यह नहीं था। आप तो जानती हैं,
जमस लजतका और उस जमजलर्री अिसर को लेकर एक अच्छा-खासा स्कै ण्डल बन गया था, स्कूल की बदनामी होने
में क्या देर लगती है" “वह बेचारा तो अब नहीं रहा। मैं उसे जानती थी िादर! ईश्वर उसकी आत्मा को शाजन्द्त दे।" जमस
वडु ने धीरे -से अपनी दोनों बाूँहों से क्रास जकया।
िादर ए्मण्ड को जमस वडु की मख ु टता पर इतना अजधक क्षोभ हुआ जक उनसे आगे और कुछ नहीं बोला गया। डाक्र्र
मकु जी से उनकी कभी नहीं पर्ती थी, इसजलए जमस वडु की आूँखों में वह डाक्र्र को नीचा जदखाना चाहते थे। जकन्द्तु
जमस वडु लजतका का रोना ले बैठी। आगे बात बढ़ाना व्यथट था। उन्द्होंने छड़ी को जगं ले से उठाया और ऊपर साि
खल ु े आकाश को देखते हुए बोले- “प्रोग्राम आपने यूँू ही बदला, जमस वडु , अब क्या बाररश होगी।"

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ह्यबू र्ट जब चैपल से बाहर जनकला तो उसकी आूँखें चकाचैंध-सी हो गई।ं उसे लगा जैसे जकसी ने अचानक ढेर-सी
चमकीली उबलती हुई रोशनी मट्ठु ी में भरकर उसकी आूँखों में झोंक दी हो। जपयानो के सगं ीत के सरु रुई के छुई-मईु
रे शों की भाूँजत अब तक उसके मजस्तष्क की थकी-माूँदी नसों पर िड़िड़ा रहे थे। वह कािी थक गया था। जपयानो
बजाने से उसके िे िड़ों पर हमेशा भारी दबाव पड़ता, जदल की धड़कन तेज हो जाती थी। उसे लगता था जक संगीत के
एक नोर् को दसू रे नोर् में उतारने के प्रयत्न में वह एक अूँधेरी खाई पार कर रहा है।
आज चैपल में मैंने जो महससू जकया, वह जकतना रहस्यमय, जकतना जवजचत्र था, ह्यबू र्ट ने सोचा। मझु े लगा, जपयानो का
हर नोर् जचरन्द्तन खामोशी की अूँधेरी खोह से जनकलकर बाहर िै ली नीली धन्द्ु ध को कार्ता, तराशता हुआ एक भल ू ा-
सा अथट खींच लाता है। जगरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोर्ी-सी मौत है, मानो घने छायादार वृक्षों की काूँपती छायाओ ं में
कोई पगडण्डी गमु हो गयी हो, एक छोर्ी-सी मौत जो आनेवाले सरु ों को अपनी बची-खचु ी गूँजू ों की साूँसे समजपटत कर
जाती है, जो मर जाती है, जकन्द्तु जमर् नहीं पाती, जमर्ती नहीं इसजलए मरकर भी जीजवत है, दसू रे सरु ों में लय हो जाती
है।
“डाक्र्र, क्या मृत्यु ऐसे ही आती है?" अगर मैं डाक्र्र से पछ
ू ू ूँ तो वह हूँसकर र्ाल देगा। मझु े लगता है, वह जपछले कुछ
जदनों से कोई बात जछपा रहा है- उसकी हूँसी में जो सहानभु जू त का भाव होता है, वह मझु े अच्छा नहीं लगता। आज
उसने मझु े स्पेशल सजवटस में आने से रोका था - कारण पछू ने पर वह चपु रहा था। कौन-सी ऐसी बात है, जजसे मझु से
कहने में डाक्र्र कतराता है। शायद मैं शक्की जमजाज होता जा रहा ह,ूँ और बात कुछ भी नहीं है।
ह्यबू र्ट ने देखा, लड़जकयों की कतार स्कूल से होस्र्ल जानेवाली सड़क पर नीचे उतरती जा रही है। उजली धपू में उनके
रंग-जबरंगे ररबन, ह्की आसमानी रंग की रॉकें और सिे द पेजर्याूँ चमक रही हैं। सीजनयर कै जम्ब्रज की कुछ लड़जकयों
ने चैपल की वाजर्का के गुलाब के िूलों को तोड़कर अपने बालों में लगा जलया है कण्र्ोनमेण्र् के तीन-चार जसपाही
लड़जकयों को देखते हुए अश्लील मजाक करते हुए हूँस रहे हैं और कभी-कभी जकसी लड़की की ओर ज़रा झक ु कर
सीर्ी बजाने लगते हैं।
“हलो जम. ह्यबू र्ट!" ह्यबू र्ट ने चैंककर पीछे देखा। लजतका एक मोर्ा-सा रजजस्र्र बगल में दबाये खड़ी थी। “आप अभी
यहीं हैं?" ह्यबू र्ट की दृजि लजतका पर जर्की रही। वह क्रीम रंग की परू ी बाूँहों की ऊनी जैकर् पहने हुई थी। कुमाऊूँनी
लड़जकयों की तरह लजतका का चेहरा गोल था, धपू की तपन से पका गेहआ ुूँ रंग कहीं-कहीं ह्का-सा गल ु ाबी हो
आया था, मानों बहुत धोने पर भी गल ु ाल के कुछ धब्बे इधर-उधर जबखरे रह गये हों। “उन लड़जकयों के नाम नोर् करने
थे, जो कल जा रही हैं सो पीछे रुकना पड़ा। आप भी तो कल जा रहे हैं जम. ह्यबू र्ट ?" “अभी तक तो यही इरादा है। यहाूँ
रुककर भी क्या करूूँगा। आप स्कूल की ओर जा रही हैं?“ “चजलए"
पक्की सड़क पर लड़जकयों की भीड़ जमा थी, इसजलए वे दोनों पोलो ग्राउण्ड का चक्कर कार्ती हुई पगडण्डी से नीचे
उतरने लगे। हवा तेज हो चली। चीड़ के पत्ते हर झोंके के संग र्ूर्-र्ूर्कर पगडण्डी पर ढेर लगाते जाते थे। ह्यबू र्ट रास्ता
बनाने के जलए अपनी छड़ी से उन्द्हें बहु ारकर दोनों ओर जबखेर देता था। लजतका पीछे खड़ी हुई देखती रहती थी।
अ्मोड़ा की ओर से आते हुए छोर्े-छोर्े बादल रे शमी रूमालों से उड़ते हुए सरू ज के मूँहु पर जलपर्े से जाते थे, जिर
हवा में बह जनकलते थे। इस खेल में धपू कभी मन्द्द, िीकी-सी पड़ जाती थी, कभी अपना उजला आूँचल खोलकर
समचू े शहर को अपने में समेर् लेती थी।

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लजतका तजनक आगे जनकल गयी। ह्यबू र्ट की साूँस चढ़ गयी थी और वह धीरे -धीरे हाूँिता हुआ पीछे से आ रहा था।
जब वे पोलोग्राउण्ड के पवेजलयन को छोड़कर जसजमट्ी के दायीं और मडु े , तो लजतका ह्यबू र्ट की प्रतीक्षा करने के जलए
खड़ी हो गयी। उसे याद आया, छुरट्टयों के जदनों में जब कभी कमरे में अके ले बैठे-बैठे उसका मन ऊब जाता था, तो वह
अक्सर र्हलते हुए जसजमट्ी तक चली जाती थी। उससे सर्ी पहाड़ी पर चढ़कर वह बिट में ढूँके देवदार वृक्षों को देखा
करती थी। जजनकी झक ु ी हुई शाखों से रुई के गोलों-सी बिट नीचे जगरा करती थी, नीचे बाजार जानेवाली सड़क पर
बच्चे स्लेज पर जिसला करते थे। वह खड़ी-खड़ी बिट में जछपी हुई उस सड़क का अनमु ान लगाया करती थी जो िादर
ए्मण्ड के घर से गजु रती हुई जमजलर्री अस्पताल और डाकघर से होकर चचट की सीजढ़यों तक जाकर गमु हो जाती
थी। जो मनोरंजन एक दगु टम पहेली को सल ु झाने में होता है, वही लजतका को बिट में खोये रास्तों को खोज जनकालने में
होता था।
“आप बहुत तेज चलती हैं, जमस लजतका" - थकान से ह्यबू र्ट का चेहरा कुम्हला गया था। माथे पर पसीने की बूँदू े
छलक आयी थीं। “कल रात आपकी तजबयत क्या कुछ खराब हो गयी थी?" “आपने कै से जाना? क्या मैं अस्वस्थ
दीख रहा ह?ूँ " ह्यबू र्ट के स्वर में हलकी-सी खीज का आभास था। सब लोग मेरी सेहत को लेकर क्यों बात शरू ु करते
हैं, उसने सोचा। “नहीं, मझु े तो पता भी नहीं चलता, वह तो सबु ह करीमद्दु ीन ने बातों-ही-बातों में जजक्र छे ड़ जदया था।"
लजतका कुछ अप्रजतभ-सी हो आयी। “कोई खास बात नहीं, वही परु ाना ददट शरू ु हो गया था, अब जब्कुल ठीक है।"
अपने कथन की पजु ि के जलए ह्यबू र्ट छाती सीधी करके तेज कदम बढ़ाने लगा। “डाक्र्र मक ु जी को जदखलाया था?"
“वह सबु ह आये थे। उनकी बात कुछ समझ में नहीं आती। हमेशा दो बातें एक-दसू रे से उ्र्ी कहते हैं। कहते थे जक
इस बार मझु े छह-सात महीने की छुट्टी लेकर आराम करना चाजहए, लेजकन अगर मैं ठीक ह,ूँ तो भला इसकी क्या
जरूरत है?"
ह्यबू र्ट के स्वर में व्यथा की छाया लजतका से जछपी न रह सकी। बात को र्ालते हुए उसने कहा - “आप तो नाहक
जचन्द्ता करते हैं, जम. ह्यबू र्ट! आजकल मौसम बदल रहा है, अच्छे भले आदमी तक बीमार हो जाते हैं।" ह्यबू र्ट का
चेहरा प्रसन्द्नता से दमकने लगा। उसने लजतका को ध्यान से देखा। वह अपने जदल का संशय जमर्ाने के जलए जनजश्चन्द्त
हो जाना चाहता था जक कहीं लजतका उसे के वल जदलासा देने के जलए ही तो झठू नहीं बोल रही। “यही तो मैं सोच रहा
था, जमस लजतका! डाक्र्र की सलाह सनु कर मैं डर ही गया। भला छह महीने की छुट्टी लेकर मैं अके ला क्या करूूँगा।
स्कूल में तो बच्चों के संग मन लगा रहता है। सच पछू ो तो जद्ली में ये दो महीनों की छुरट्टयाूँ कार्ना भी दभू र हो जाता
है।"
“जम. ह्यबू र्ट....कल आप जद्ली जा रहे हैं?" लजतका चलते-चलते हठात् जठठक गयी। सामने पोलो-ग्राउण्ड िै ला था,
जजसके दसू री ओर जमजलर्री की ट्कें कण्र्ोनमेण्र् की ओर जा रही थीं। ह्यबू र्ट को लगा, जैसे लजतका की आूँखें
अधमूँदु ी-सी खल ु ी रह गयी हैं, मानों पलकों पर एक परु ाना भल
ू ा-सा सपना सरक आया है।
“जम.ह्यबू र्ट...आप जद्ली जा रहे हैं," इस बार लजतका ने प्रश्न नहीं दहु राया उसके स्वर में के वल एक असीम दरू ी का
भाव जघर आया। “बहुत असाट पहले मैं भी जद्ली गयी थी, जम. ह्यबू र्ट! तब मैं बहुत छोर्ी थी, न जाने जकतने बरस बीत
गये। हमारी मौसी का ब्याह वहीं हुआ था। बहुत-सी चीजें देखी थीं, लेजकन अब तो सब कुछ धूँधु ला-सा पड़ गया है।
इतना याद है जक हम कुतबु पर चढ़े थे। सबसे ऊूँची मजं जल से हमने नीचे झाूँका था, न जाने कै सा लगा था। नीचे चलते
हुए आदमी चाभी भरे हुए जखलौनों-से लगते थे। हमने ऊपर से उन पर मूँगू िजलयाूँ िें की थीं, लेजकन हम बहुत जनराश

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हुए थे क्योंजक उनमें से जकसी ने हमारी तरि नहीं देखा। शायद माूँ ने मझु े डाूँर्ा था, और मैं जसिट नीचे झाूँकते हुए डर
गयी थी। सनु ा है, अब तो जद्ली इतना बदल गया है जक पहचाना नहीं जाता"
वे दोनों जिर चलने लगे। हवा का वेग ढीला पड़ने लगा। उड़ते हुए बादल अब सस्ु ताने से लगे थे, उनकी छायाएूँ नन्द्दा
देवी और पंचचल ू ी की पहाजड़यों पर जगर रही थीं। स्कूल के पास पहुचूँ ते-पहुचूँ ते चीड़ के पेड़ पीछे छूर् गये, कहीं-कहीं
खबु ानी के पेड़ों के आस-पास बरुु स के लाल िूल धपू में चमक जाते थे। स्कूल तक आने में उन्द्होंने पोलोग्राउण्ड का
लम्बा चक्कर लगा जलया था। “जमस लजतका, आप कहीं छुरट्टयों में जाती क्यों नहीं, सजदटयों में तो यहाूँ सब कुछ वीरान
हो जाता होगा?"
“अब मझ ु े यहाूँ अच्छा लगता है," लजतका ने कहा, “पहले साल अके लापन कुछ अखरा था, अब आदी हो चक ु ी ह।ूँ
जक्रसमस से एक रात पहले क्लब में डान्द्स होता है, लार्री डाली जाती है और रात को देर तक नाच-गाना होता रहता
है। नये साल के जदन कुमाऊूँ रे जीमेण्र् की ओर से परे ड-ग्राउण्ड में कानीवाल जकया जाता है, बिट पर स्के जर्ंग होती है,
रंग-जबरंगे गब्ु बारों के नीचे िौजी बैण्ड बजता है, िौजी अिसर िै न्द्सी ड्रेस में भाग लेते हैं, हर साल ऐसा ही होता है,
जम. ह्यबू र्ट। जिर कुछ जदनों बाद जवण्र्र स्पोट््स के जलए अग्रं ेज र्ूररस्र् आते हैं। हर साल मैं उनसे पररजचत होती ह,ूँ
वाजपस लौर्ते हुए वे हमेशा वादा करते हैं जक अगले साल भी आयेंगे, पर मैं जानती हूँ जक वे नहीं आयेंगे, वे भी जानते
हैं जक वे नहीं आयेंगे, जिर भी हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं पड़ता। जिर...जिर कुछ जदनों बाद पहाड़ों पर बिट
जपघलने लगती है, छुरट्टयाूँ खत्म होने लगती हैं, आप सब लोग अपने-अपने घरों से वाजपस लौर् आते हैं - और जम.
ह्यबू र्ट पता भी नहीं चलता जक छुरट्टयाूँ कब शरू ु हुई थीं, कब खत्म हो गई"ं
लजतका ने देखा जक ह्यबू र्ट उसकी ओर आतजं कत भयाकुल दृजि से देख रहा है। वह जसर्जपर्ाकर चपु हो गयी। उसे
लगा, मानों वह इतनी देर से पागल-सी अनगटल प्रलाप कर रही हो। “मझु े माि करना जम. ह्यबू र्ट, कभी-कभी मैं बच्चों
की तरह बातों में बहक जाती ह।ूँ " “जमस लजतका..." ह्यबू र्ट ने धीरे -से कहा। वह चलते-चलते रुक गया था। लजतका
ह्यबू र्ट के भारी स्वर से चौंक-सी गयी। “क्या बात है जम. ह्यबू र्ट?" “वह पत्र उसके जलए मैं लजज्जत ह।ूँ उसे आप वाजपस
लौर्ा दें, समझ लें जक मैंने उसे कभी नहीं जलखा था।"
लजतका कुछ समझ न सकी, जदग्भ्रान्द्त-सी खड़ी हुई ह्यबू र्ट के पीले उजद्धग्न चेहरे को देखती रही। ह्यबू र्ट ने धीरे -से
लजतका के कन्द्धे पर हाथ रख जदया। “कल डाक्र्र ने मझु े सबकुछ बता जदया। अगर मझु े पहले से मालमू होता
तो...तो" ह्यबू र्ट हकलाने लगा। “जम. ह्यबू र्ट..." जकन्द्तु लजतका से आगे कुछ भी नहीं कहा गया। उसका चेहरा सिे द हो
गया था।
दोनों चपु चाप कुछ देर तक स्कूल के गेर् के बाहर खड़े रहे। मीडोज...पगडजण्डयों, पत्तों, छायाओ ं से जघरा छोर्ा-सा
द्वीप, मानों कोई घोंसला दो हरी घाजर्यों के बीच आ दबा हो। भीतर घसू ते ही जपकजनक के काले आग से झल ु से हुए
पत्थर, अधजली र्हजनयाूँ, बैठने के जलए जबछाये गये परु ाने अखबारों के र्ुकड़े इधर-उधर जबखरे हुए जदखायी दे जाते
हैं। अक्सर र्ूररस्र् जपकजनक के जलए यहाूँ आते हैं। मीडोज को बीच में कार्ता हुआ र्ेढ़ा-मेढ़ा बरसाती नाला बहता है,
जो दरू से धपू में चमकता हुआ सिे द ररबन-सा जदखायी देता है।
यहीं पर काठ के तख्तों का बना हुआ र्ूर्ा-सा पल
ु है, जजस पर लड़जकयाूँ जहचकोले खाते हुए चल रही हैं।

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“डाक्र्र मुकजी, आप तो सारा जंगल जला देंगे"। जमस वडु ने अपनी ऊूँची एड़ी के सैण्डल से जलती हुई जदयासलाई
को दबा डाला, जो डाक्र्र ने जसगार सल ु गाकर चीड़ के पत्तों के ढेर पर िें क दी थी। वे नाले से कुछ दरू हर्कर चीड़ के
दो पेड़ों से गूँथु ी हुई छाया के नीचे बैठे थे। उनके सामने एक छोर्ा-सा रास्ता नीचे पहाड़ी गाूँव की ओर जाता था, जहाूँ
पहाड़ की गोद में शकरपारों के खेत एक-दसू रे के नीचे जबछे हुए थे। दोपहर के सन्द्नार्े में भेड़-बकररयों के गलों में बूँधी
हुई धजण्र्यों का स्वर हवा में बहता हुआ सनु ायी दे जाता था। घास पर लेर्े-लेर्े डाक्र्र जसगार पीते रहे। “जगं ल की
आग कभी देखी है, जमस वडु ...एक अलमस्त नशे की तरह धीरे -धीरे िै लती जाती है।"
“आपने कभी देखी है डाक्र्र?" जमस वडु ने पछ
ू ा, “मझु े तो बड़ा डर लगता है।"
“बहुत साल पहले शहरों को जलते हुए देखा था।" डाक्र्र लेर्े हुए आकाश की ओर ताक रहे थे। “एक-एक मकान"
ताश के पत्तों की तरह जगरता जाता। दभु ाटग्यवश ऐसे अवसर देखने में बहुत कम आते हैं।
“आपने कहाूँ देखा, डाक्र्र?"
“लड़ाई के जदनों में अपने शहर रंगनू को जलते हुए देखा था।" जमस वडु की आत्मा को ठे स लगी, जकन्द्तु जिर भी उनकी
उत्सक
ु ता शान्द्त नहीं हुई।
“आपका घर, क्या वह भी जल गया था?"
डाक्र्र कुछ देर तक चपु चाप लेर्ा रहा।
“हम उसे खाली छोड़कर चले आये थे, मालमू नहीं बाद में क्या हुआ।" अपने व्यजिगत जीवन के सम्बन्द्ध में कुछ भी
कहने में डाक्र्र को कजठनाई महससू होती है।
“डाक्र्र, क्या आप कभी वाजपस बमाट जाने की बात नहीं सोचते?" डाक्र्र ने अूँगड़ाई ली और करवर् बदलकर औधं े
मूँहु लेर् गये। उनकी आूँखें मूँदु गई ंऔर माथे पर बालों की लर्ें झल
ू आयीं।
“सोचने से क्या होता है जमस वडु ... जब बमाट में था, तब क्या कभी सोचा था जक यहाूँ आकर उम्र कार्नी होगी?"
“लेजकन डाक्र्र, कुछ भी कह लो, अपने देश का सख
ु कहीं और नहीं जमलता। यहाूँ तमु चाहे जकतने विट रह लो, अपने
को हमेशा अजनबी ही पाओगे।"
डाक्र्र ने जसगार के धएु ूँ को धीरे -धीरे हवा में छोड़ जदया- “दरअसल अजनबी तो मैं वहाूँ भी समझा जाऊूँगा, जमस वडु ।
इतने विों बाद मझु े कौन पहचानेगा! इस उम्र में नये जसरे से ररश्ते जोड़ना कािी जसरददट का काम है, कम-से-कम मेरे
बस की बात नहीं है।"
“लेजकन डाक्र्र, आप कब तक इस पहाड़ी कस्बे में पड़े रहेंगे, इसी देश में रहना है तो जकसी बड़े शहर में प्रैजक्र्स शरू

कीजजए।"
“प्रैजक्र्स बढ़ाने के जलए कहाूँ-कहाूँ भर्कता जिरूूँगा, जमस वडु । जहाूँ रहो, वहीं मरीज जमल जाते हैं। यहाूँ आया था
कुछ जदनों के जलए, जिर मद्दु त हो गयी और जर्का रहा। जब कभी जी ऊबेगा, कहीं चला जाऊूँगा। जड़ें कहीं नहीं
जमतीं, तो पीछे भी कुछ नहीं छूर् जाता। मझु े अपने बारे में कोई गलतिहमी नहीं है जमस वडु , मैं सख ु ी ह।ूँ "

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जमस वडु ने डाक्र्र की बात पर जवशेि ध्यान नहीं जदया। जदल में वह हमेशा डाक्र्र को उच्छृ ं खल, लापरवाह और
सनकी समझती रही है, जकन्द्तु डाक्र्र के चररत्र में उनका जवश्वास है, न जाने क्यों, क्योंजक डाक्र्र ने जाने-अनजाने में
उसका कोई प्रमाण जदया हो, यह उन्द्हें याद नहीं पड़ता।
जमस वडु ने एक ठण्डी साूँस भरी। वह हमेशा यह सोचती थी जक यजद डाक्र्र इतना आलसी और लापरवाह न होता,
तो अपनी योग्यता के बल पर कािी चमक सकता था। इसजलए उन्द्हें डाक्र्र पर क्रोध भी आता था और दख
ु भी होता
था।
जमस वडु ने अपने बैग से ऊन का गोला और सलाइयाूँ जनकालीं, जिर उसके नीचे से अखबार में जलपर्ा हुआ चौड़ा
कॉिी का जडब्बा उठाया, जजसमें अण्डों की सैण्डजवचें और हैम्बगटर दबे हुए थे। थमटस से प्यालों में कॉिी उंडेलते हुए
जमस वडु ने कहा - “डाक्र्र, कॉिी ठण्डी हो रही है"
डाक्र्र लेर्े-लेर्े बड़ु बड़ु ाया। जमस वडु ने नीचे झक
ु कर देखा, वह कोहनी पर जसर जर्काये सो रहा था। ऊपर का होंठ
जरा-सा िै लकर मड़ु गया था, मानों जकसी से मजाक करने से पहले मस्ु करा रहा हो।
उसकी अूँगजु लयों में दबा हुआ जसगार नीचे झक ु ा हुआ लर्क रहा था। “मेरी, मेरी, वार् डू यू वाण्र्, वार् डू यू वाण्र्?"
दसू रे स्र्ैण्डडट में पढ़नेवाली मेरी ने अपनी चंचल, चपल आूँखें ऊपर उठायीं, लड़जकयों का दायरा उसे घेरे हुए कभी
पास आता था, कभी दरू जखंचता चला जाता था।
“आई वाण्र्... आई वाण्र् ब्ल"ू दोनों हाथों को हवा में घमु ाते हुए मेरी जच्लायी। दायरा पानी की तरह र्ूर् गया। सब
लड़जकयाूँ एक-दसू रे पर जगरती-पड़ती जकसी नीली वस्तु को छूने के जलए भाग-दौड़ करने लगीं। लंच समाप्त हो चकु ा
था। लड़जकयों के छोर्े-छोर्े दल मीडोज में जबखर गये थे। ऊूँची क्लास की कुछ लड़जकयाूँ चाय का पानी गमट करने के
जलए पेड़ों पर चढ़कर सख ू ी र्हजनयाूँ तोड़ रही थीं।
दोपहर की उस घड़ी में मीडोज अलसाया-ऊूँघता-सा जान पड़ता था। हवा का कोई भल ू ा-भर्का झोंका, चीड़ के पत्ते
खड़खड़ा उठते थे। कभी कोई पक्षी अपनी सस्ु ती जमर्ाने झाजड़यों से उड़कर नाले के जकनारे बैठ जाता था, पानी में जसर
डुबोता था, जिर ऊबकर हवा में दो-चार जनरुद्देश्य चक्कर कार्कर दबु ारा झाजड़यों में दबु क जाता था।
जकन्द्तु जगं ल की खामोशी शायद कभी चपु नहीं रहती। गहरी नींद में डूबी सपनों-सी कुछ आवाजें नीरवता के ह्के
झीने परदे पर सलवर्ें जबछा जाती हैं, मक ू लहरों-सी हवा में जतरती हैं, मानों कोई दबे पाूँव झाूँककर अदृश्य संकेत कर
जाता है- “देखो मैं यहाूँ ह"ूँ लजतका ने जल
ू ी के ‘बाब हेयर’ को सहलाते हुए कहा, “तम्ु हें कल रात बल ु ाया था।"
“मैडम, मैं गयी थी, आप अपने कमरे में नहीं थीं।" लजतका को याद आया जक रात वह डाक्र्र के कमरे के र्ै रेस पर देर
तक बैठी रही थी और भीतर ह्यबू र्ट जपयानो पर शोपाूँ का नौक्र्नट बजा रहा था। “जूली, तमु से कुछ पछू ना था।" उसे
लगा, वह जल ू ी की आूँखों से अपने को बचा रही है। जलू ी ने अपना चेहरा ऊपर उठाया। उसकी भरू ी आूँखों से
कौतहू ल झाूँक रहा था।
“तमु आजिससट मेस में जकसी को जानती हो?" जल
ू ी ने अजनजश्चत भाव से जसर जहलाया। लजतका कुछ देर तक जल
ू ी को
अपलक घरू ती रही।

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“जल
ू ी, मझु े जवश्वास है, तमु झठू नहीं बोलोगी।" कुछ क्षण पहले जल
ू ी की आूँखों में जो कौतहू ल था, वह भय से
पररणत होने लगा। लजतका ने अपनी जैकेर् की जेब से एक नीला जलिािा जनकालकर जल
ू ी की गोद में िें क जदया।
“यह जकसकी जचट्ठी है?"
जलू ी ने जलिािा उठाने के जलए हाथ बढ़ाया, जकन्द्तु जिर एक क्षण के जलए उसका हाथ काूँपकर जठठक गया-जलिािे
पर उसका नाम और होस्र्ल का पता जलखा हुआ था।
“थैंक यू मैडम, मेरे भाई का पत्र है, वह झाूँसी में रहते हैं।" जल
ू ी ने घबराहर् में जलिािे को अपने स्कर्ट की तहों में
जछपा जलया। “जल ू ी, ज़रा मझु े जलिािा जदखलाओ।" लजतका का स्वर तीखा, ककट श-सा हो आया।
जल
ू ी ने अनमने भाव से लजतका को पत्र दे जदया। “तम्ु हारे भाई झाूँसी में रहते हैं?" जल
ू ी इस बार कुछ नहीं बोली।
उसकी उदभ्र् ान्द्त उखड़ी-सी आूँखें लजतका को देखती रहीं। “यह क्या है?"
जल
ू ी का चेहरा सिे द, िक पड़ गया। जलिािे पर कुमाऊूँ रे जीमेण्र्ल सेण्र्र की महु र उसकी ओर घरू रही थी। “कौन है
यह?" लजतका ने पछू ा। उसने पहले भी होस्र्ल में उड़ती हुई अिवाह सनु ी थी जक जल ू ी को क्लब में जकसी जमजलर्री
अिसर के सगं देखा गया था, जकन्द्तु ऐसी अिवाहें अक्सर उड़ती रहती थीं, और उसने उन पर जवश्वास नहीं जकया था।
“जलू ी, तमु अभी बहुत छोर्ी हो" जल ू ी के होंठ काूँपे-उसकी आूँखों में जनरीह याचना का भाव जघर आया।
“अच्छा अभी जाओ, तमु से छुरट्टयों के बाद बातें करूूँगी।" जल
ू ी ने ललचाई दृजि से जलिािे को देखा, कुछ बोलने को
उद्यत हुई, जिर जबना कुछ कहे चपु चाप वाजपस लौर् गयी।
लजतका देर तक जलू ी को देखती रही, जब तक वह आूँखों से ओझल नहीं हो गयी। क्या मैं जकसी खूँसू र् बजु ढ़या से
कम ह?ूँ अपने अभाव का बदला क्या मैं दसू रों से ले रही ह?ूँ
शायद, कौन जाने... शायद जल ू ी का यह प्रथम पररचय हो, उस अनभु जू त से, जजसे कोई भी लड़की बड़े चाव से
सूँजोकर, सूँभालकर अपने में जछपाये रहती है, एक अजनवटचनीय सख ु , जो पीड़ा जलये है, पीड़ा और सख ु को डुबोती हुई
उमड़ते ज्वर की खमु ारी, जो दोनों को अपने में समो लेती है एक ददट, जो आनन्द्द से उपजा है और पीड़ा देता है।
यहीं इसी देवदार के नीचे उसे भी यही लगा था, जब जगरीश ने पछू ा था-“तमु चपु क्यों हो?" वह आूँखें मूँदू े सोच रही
थी, सोच कहाूँ रही थी, जी रही थी, उस क्षण को जो भय और जवस्मय के बीच जभचं ा था-बहका-सा पागल क्षण। वह
अभी पीछे मड़ु ेगी तो जगरीश की ‘नवटस’ मस्ु कराहर् जदखायी दे जायेगी, उस जदन से आज दोपहर तक का अतीत एक
दःु स्वप्न की माजनन्द्द र्ूर् जाएगा। वही देवदार है, जजस पर उसने अपने बालों के जक्लप से जगरीश का नाम जलखा था।
पेड़ की छाल उतरती नहीं थी, जक्लप र्ूर्-र्ूर् जाता था, तब जगरीश ने अपने नाम के नीचे उसका नाम जलखा था। जब
कभी कोई अक्षर जबगड़कर ढेढ़ा-मेढ़ा हो जाता था तब वह हूँसती थी, और जगरीश का काूँपता हाथ और भी काूँप
जाता था।
लजतका को लगा जक जो वह याद करती है, वही भल ू ना भी चाहती है, लेजकन जब सचमचु भलू ने लगती है, तब उसे
भय लगता है जक जैसे कोई उसकी जकसी चीज को उसके हाथों से छीने जलये जा रहा है, ऐसा कुछ जो सदा के जलए
खो जायेगा। बचपन में जब कभी वह अपने जकसी जखलौने को खो देती थी, तो वह गमु समु -सी होकर सोचा करती थी,
कहाूँ रख जदया मैंने। जब बहुत दौड़-धपू करने पर जखलौना
ा़ जमल जाता, तो वह बहाना करती जक अभी उसे खोज ही

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रही है, जक वह अभी जमला नहीं है। जजस स्थान पर जखलौना रखा होता, जान-बझू कर उसे छोड़कर घर के दसू रे कोने में
उसे खोजने का उपक्रम करती। तब खोई हुई चीज याद रहती, इसजलए भल ू ने का भय नहीं रहता था।
आज वह उस बचपन के खेल का बहाना क्यों नहीं कर पाती? ‘बहाना’शायद करती है, उसे याद करने का बहाना, जो
भलू ता जा रहा है...जदन, महीने बीत जाते हैं, और वह उलझी रहती है, अनजाने में जगरीश का चेहरा धूँधु ला पड़ता
जाता है, याद वह करती है, जकन्द्तु जैसे जकसी परु ानी तस्वीर के धल
ू भरे शीशे को साि कर रही हो। अब वैसा ददट नहीं
होता, जसिट उसको याद करती है, जो पहले कभी होता था, तब उसे अपने पर ग्लाजन होती है। वह जिर जान-बझू कर
उस घाव को कुरे दती है, जो भरता जा रहा है, खदु -ब-खदु उसकी कोजशशों के बावजदू भरता जा रहा है। देवदार पर
खदु े हुए अधजमर्े नाम लजतका की ओर जनस्तब्ध जनरीह भाव से जनहार रहे थे। मीडोज के घने सन्द्नार्े में नाले पार से
खेलती हुई लड़जकयों की आवाजें गूँजू जाती थीं...वार् डू यू वाण्र्? वार् डू यू वाण्र्?
जततजलयाूँ, झींगरु , जगु न.ू ..मीडोज पर उतरती हुई साूँझ की छायाओ ं में पता नहीं चलता, कौन आवाज जकसकी है?
दोपहर के समय जजन आवाजों को अलग-अलग पहचाना जा सकता था, अब वे एकस्वरता की अजवरल धारा में घल ु
गयी थीं। घास से अपने पैरों को पोंछता हुआ कोई रें ग रहा है झाजड़यों के झरु मर्ु से परों को िड़िड़ाता हुआ झपर्कर
कोई ऊपर से उड़ जाता है जकन्द्तु ऊपर देखो तो कहीं कुछ भी नहीं है। मीडोज के झरने का गड़गड़ाता स्वर, जैसे अूँधेरी
सरु ं ग में झपार्े से ट्ेन गजु र गयी हो, और देर तक उसमें सीजर्यों और पजहयों की चीत्कार गूँजू ती रही हो।
जपकजनक कुछ देर तक और चलती, जकन्द्तु बादलों की तहें एक-दसू रे पर चढ़ती जा रही थीं। जपकजनक का सामान
बर्ोरा जाने लगा। मीडोज के चारों ओर जबखरी हुई लड़जकयाूँ जमस वडु के इदट-जगदट जमा होने लगीं। अपने संग वे
अजीबोगरीब चीजें बर्ोर लायी थीं। कोई जकसी पक्षी के र्ूर्े पख
ं को बालों में लगाये हुए थी, जकसी ने पेड़ की र्हनी
को चाकू से छीलकर छोर्ी-सी बेंत बना ली थी। ऊूँची क्लास की कुछ लड़जकयों ने अपने-अपने रूमालों में नाले से
पकड़ी हुई छोर्ी-छोर्ी बाजलश्त भर की मछजलयों को दबा रखा था जजन्द्हें जमस वडु से जछपकर वे एक-दसू रे को जदखा
रही थीं।
जमस वडु लड़जकयों की र्ोली के संग आगे जनकल गयीं। मीडोज से पक्की सड़क तक तीन-चार िलाांग की चढ़ाई थी।
लजतका हाूँिने लगी। डाक्र्र मक ु जी सबसे पीछे आ रहे थे। लजतका के पास पहुचूँ कर वह जठठक गये। डाक्र्र ने दोनों
घर्ु नों को जमीन पर र्े कते हुए जसर झकु ाकर एजलजाबेथयगु ीन अंगरे् जी में कहा - “मैडम, आप इतनी परे शान क्यों नजर
आ रही हैं?" और डाक्र्र की नार्कीय मरु ा को देखकर लजतका के होंठों पर एक थकी-सी ढीली-ढीली मस्ु कराहर्
जबखर गयी। “प्यास के मारे गला सख ू रहा है और यह चढ़ाई है जक खत्म होने में नहीं आती।"
डाक्र्र ने अपने कन्द्धे पर लर्कते हुए थमटस को उतारकर लजतका के हाथों में देते हुए कहा - “थोड़ी-सी कॉफ़ी बची है,
शायद कुछ मदद कर सके ।" “जपकजनक में तमु कहाूँ रह गये डाक्र्र, कहीं जदखायी नहीं जदये?" “दोपहर भर सोता रहा-
जमस वडु के संग। मेरा मतलब है, जमस वडु पास बैठी थीं।" “मझु े लगता है, जमस वडु मझु से महु ब्बत करती हैं।" कोई
भी मजाक करते समय डाक्र्र अपनी मूँछू ों के कोनों को चबाने लगता है। “क्या कहती थीं?" लजतका ने थमटस से
कॉिी को मूँहु में उूँडेल जलया। “शायद कुछ कहतीं, लेजकन बदजकस्मती से बीच में ही मझु े नींद आ गयी। मेरी जजन्द्दगी
के कुछ खबू सरू त प्रेम-प्रसंग कम्बख्त इस नींद के कारण अधरू े रह गये हैं।"

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और इस दौरान में जब दोनों बातें कर रहे थे, उनके पीछे मीडोज और मोर्र रोड के संग चढ़ती हुई चीड़ और बाूँज के
वृक्षों की कतारें साूँझ के जघरते अूँधेरे में डूबने लगीं, मानों प्राथटना करते हुए उन्द्होंने चपु चाप अपने जसर नीचे झक
ु ा जलये
हों। इन्द्हीं पेड़ों के ऊपर बादलों में जगरजे का क्रास कहीं उलझा पड़ा था। उसके नीचे पहाड़ों की ढलान पर जबछे हुए
खेत भागती हुई जगलहररयों से लग रहे थे, जो मानों जकसी की र्ोह में स्तब्ध जठठक गयी हों। “डाक्र्र, जम. ह्यबू र्ट
जपकजनक पर नहीं आये?" डाक्र्र मक ु जी र्ाचट जलाकर लजतका के आगे-आगे चल रहे थे। “मैंने उन्द्हें मना कर जदया
था।" “जकसजलए?"
अूँधेरे में पैरों के नीचे दबे हुए पत्तों की चरमराहर् के अजतररि कुछ सनु ायी नहीं देता था। डॉक्र्र मकु जी ने धीरे -से
खाूँसा। “जपछले कुछ जदनों से मझु े संदहे होता जा रहा है जक ह्यबू र्ट की छाती का ददट शायद मामल ू ी ददट नहीं है।"
डाक्र्र थोड़ा-सा हूँसा, जैसे उसे अपनी यह गम्भीरता अरुजचकर लग रही हो।
डाक्र्र ने प्रतीक्षा की, शायद लजतका कुछ कहेगी। जकन्द्तु लजतका चपु चाप उसके पीछे चल रही थी। “यह मेरा महज
शक है, शायद मैं जब्कुल गलत होऊूँ, जकन्द्तु यह बेहतर होगा जक वह अपने एक िे िड़े का एक्सरे करा लें, इससे कम-
से-कम कोई भ्रम तो नहीं रहेगा।" “आपने जम. ह्यबू र्ट से इसके बारे में कुछ कहा है?" “अभी तक कुछ नहीं कहा। ह्यबू र्ट
जरा-सी बात पर जचजन्द्तत हो उठता है, इसजलए कभी साहस नहीं हो पाता" डॉक्र्र को लगा, उसके पीछे आते हुए
लजतका के पैरों का स्वर सहसा बन्द्द हो गया है। उन्द्होंने पीछे मड़ु कर देखा, लजतका बीच सड़क पर अूँधेरे में छाया-सी
चपु चाप जनश्चल खड़ी है। “डाक्र्र..." लजतका का स्वर भराटया हुआ था। “क्या बात है जमस लजतका, आप रुक क्यों
गयी?" “डाक्र्र-क्या जम. ह्यबू र्ट...?
डाक्र्र ने अपनी र्ाचट की मजद्धम रोशनी लजतका पर उठा दी...उसने देखा लजतका का चेहरा एकदम पीला पड़ गया है
और वह रह-रहकर पत्ते-सी काूँप जाती है। “जमस लजतका, क्या बात है, आप तो बहुत डरी-सी जान पड़ती हैं?" “कुछ
नहीं डाक्र्र, मझु े...मझु े कुछ याद आ गया था" वे दोनों जिर चलने लगे। कुछ दरू जाने पर उनकी आूँखें ऊपर उठ गयीं।
पजक्षयों का एक बेड़ा धजू मल आकाश में जत्रकोण बनाता हुआ पहाड़ों के पीछे से उनकी ओर आ रहा था। लजतका और
डाक्र्र जसर उठाकर इन पजक्षयों को देखते रहे। लजतका को याद आया, हर साल सदी की छुरट्टयों से पहले ये पररन्द्दे
मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ जदनों के जलए बीच के इस पहाड़ी स्र्ेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बिट के जदनों
की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जायेंगे।
क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डाक्र्र मक
ु जी, जम. ह्यबू र्ट, लेजकन कहाूँ के जलए, हम कहाूँ जायेंगे?
जकन्द्तु उसका कोई उत्तर नहीं जमला-उस अूँधेरे में मीडोज के झरने के भतु ैले स्वर और चीड़ के पत्तों की सरसराहर् के
अजतररि कुछ सनु ायी नहीं देता था। लजतका हड़बड़ाकर चौंक गयी। अपनी छड़ी पर झक ु ा हुआ डाक्र्र धीरे -धीरे
सीर्ी बजा रहा था।
“जमस लजतका, ज्दी कीजजए, बाररश शरू
ु होनेवाली है।" होस्र्ल पहुचूँ ते-पहुचूँ ते जबजली चमकने लगी थी। जकन्द्तु
उस रात बाररश देर तक नहीं हुई। बादल बरसने भी नहीं पाते थे जक हवा के थपेड़ों से धके ल जदये जाते थे। दसू रे जदन
तड़के ही बस पकड़नी थी, इसजलए जडनर के बाद लड़जकयाूँ सोने के जलए अपने-अपने कमरों में चली गयी थीं।

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जब लजतका अपने कमरे में गयी, तो उस समय कुमाऊूँ रे जीमेण्र् सेण्र्र का जबगुल बज रहा था। उसके कमरे में
करीमद्दु ीन कोई पहाड़ी धनु गनु गनु ाता हुआ लैम्प में गैस पम्प कर रहा था। लजतका उन्द्हीं कपड़ों में, तजकये को दहु रा
करके लेर् गयी। करीमद्दु ीन ने उड़ती हुई जनगाह से लजतका को देखा, जिर अपने काम में जर्ु गया। “जपकजनक कै सी रही
मेम साहब?" “तमु क्यों नहीं आये, सब लड़जकयाूँ तम्ु हें पछू रही थीं?" लजतका को लगा, जदन-भर की थकान धीरे -धीरे
उसके शरीर की पसजलयों पर जचपर्ती जा रही है। अनायास उसकी आूँखें नींद के बोझ से झपकने लगीं। “मैं चला
आता तो ह्यबू र्ट साहब की तीमारदारी कौन करता। जदनभर उनके जबस्तर से सर्ा हुआ बैठा रहा और अब वह गायब हो
गये हैं।" करीमद्दु ीन ने कन्द्धे पर लर्कते हुए मैचे-कुचैले तौजलये को उतारा और लैम्प के शीशों की गदट पोंछने लगा।
लजतका की अधमूँदु ी आूँखें खल ु गयी। “क्या ह्यबू र्ट साहब अपने कमरे में नहीं हैं?" “खदु ा जाने, इस हालत में कहाूँ
भर्क रहे हैं। पानी गमट करने कुछ देर के जलए बाहर गया था, वाजपस आने पर देखता हूँ जक कमरा खाली पड़ा है।"
करीमद्दु ीन बड़बड़ाता हुआ बाहर चला गया। लजतका ने लेर्े-लेर्े पलूँग के नीचे चप्पलों को पैरों से उतार जदया।
ह्यबू र्ट इतनी रात कहाूँ गये? जकन्द्तु लजतका की आूँखें जिर झपक गयीं। जदन-भर की थकान ने सब परे शाजनयों, प्रश्नों पर
कंु जी लगा दी थी, मानों जदन-भर आूँख-जमचौनी खेलते हुए उसने अपने कमरे में ‘दय्या’ को छू जलया था। अब वह
सरु जक्षत थी, कमरे की चहारदीवारी के भीतर उसे कोई नहीं पकड़ सकता। जदन के उजाले में वह गवाह थी, मजु ररम थी,
हर चीज का उससे तकाजा था, अब इस अके लेपन में कोई जगला नहीं, उलाहना नहीं, सब खींचातानी खत्म हो गयी है,
जो अपना है, वह जब्कुल अपना-सा हो गया है, जो अपना नहीं है, उसका दख ु नहीं, अपनाने की िुरसत नहीं...
लजतका ने दीवार की ओर मूँहु घमु ा जलया। लैम्प के िीके आलोक में हवा में काूँपते परदों की छायाएूँ जहल रही थीं।
जबजली कड़कने से जखड़जकयों के शीशे-चमक-चमक जाते थे, दरवाजे चर्खने लगते थे, जैसे कोई बाहर से धीमे-धीमे
खर्खर्ा रहा हो। कॉरीडोर से अपने-अपने कमरों में जाती हुई लड़जकयों की हूँसी, बातों के कुछ शब्द, जिर सबकुछ
शान्द्त हो गया, जकन्द्तु जिर भी देर तक कच्ची नींद में वह लैम्प का धीमा-सा ‘सी-सी’ स्वर सनु ती रही। कब वह स्वर
भी मौन का भाग बनकर मक ू हो गया, उसे पता न चला। कुछ देर बाद उसको लगा, सीजढ़यों से कुछ दबी आवाजें ऊपर
आ रही हैं, बीच-बीच में कोई जच्ला उठता है, और जिर सहसा आवाजें धीमी पड़ जाती हैं। “जमस लजतका, जरा
अपना लैम्प ले आइये" - कॉररडोर के जीने से डाक्र्र मक ु जी की आवाज आयी थी।
कॉरीडोर में अूँधेरा था। वह तीन-चार सीजढ़याूँ नीचे उतरी, लैम्प नीचे जकया। सीजढ़यों से सर्े जंगले पर ह्यबू र्ट ने अपना
जसर रख जदया था, उसकी एक बाूँह जंगले के नीचे लर्क रही थी और दसू री डाक्र्र के कन्द्धे पर झल ू रही थी, जजसे
डाक्र्र ने अपने हाथों में जकड़ रखा था। “जमस लजतका, लैम्प ज़रा और नीचे झक ु ा दीजजए....ह्यबू र्ट...ह्यबू र्ट..." डाक्र्र
ने ह्यबू र्ट को सहारा देकर ऊपर खींचा। ह्यबू र्ट ने अपना चेहरा ऊपर जकया। जव्हस्की की तेज बू का झोंका लजतका के
सारे शरीर को जझझं ोड़ गया। ह्यबू र्ट की आूँखों में सख ु ट डोरे जखचं आये थे, कमीज का कालर उलर्ा हो गया था और
र्ाई की गाूँठ ढीली होकर नीचे जखसक आयी थी। लजतका ने काूँपते हाथों से लैम्प सीजढ़यों पर रख जदया और आप
दीवार के सहारे खड़ी हो गयी। उसका जसर चकराने लगा था।
“इन ए बैक लेन ऑि द जसर्ी, देयर इज ए गलट ह लव्ज मी..." ह्यबू र्ट जहचजकयों के बीच गनु गनु ा उठता था।
“ह्यबू र्ट प्लीज...प्लीज," डाक्र्र ने ह्यबू र्ट के लड़खड़ाते शरीर को अपनी मजबतू जगरफ्त में ले जलया।

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“जमस लजतका, आप लैम्प लेकर आगे चजलए" लजतका ने लैम्प उठाया। दीवार पर उन तीनों की छायाएूँ डगमगाने
लगीं।
“इन ए बैक लेन ऑि द जसर्ी, देयर इज ए गलट ह लव्ज मी" ह्यबू र्ट डाक्र्र मक
ु जी के कन्द्धे पर जसर जर्काये अूँधेरी
सीजढ़यों पर उ्र्े-सीधे पैर रखता चढ़ रहा था।
“डाक्र्र, हम कहाूँ हैं?" ह्यबू र्ट सहसा इतनी जोर से जच्लाया जक उसकी लड़खड़ाती आवाज सनु सान अूँधेरे में
कॉरीडोर की छत से र्कराकर देर तक हवा में गूँजू ती रही।
“ह्यबू र्ट..." डाक्र्र को एकदम ह्यबू र्ट पर गस्ु सा आ गया, जिर अपने गस्ु से पर ही उसे खीझ-सी हो आयी और वह
ह्यबू र्ट की पीठ थपथपाने लगा। “कुछ बात नहीं है ह्यबू र्ट जडयर, तमु जसिट थक गये हो।“ ह्यबू र्ट ने अपनी आूँखें डाक्र्र
पर गड़ा दीं, उनमें एक भयभीत बच्चे की-सी कातरता झलक रही थी, मानो डाक्र्र के चेहरे से वह जकसी प्रश्न का उत्तर
पा लेना चाहता हो। ह्यबू र्ट के कमरे में पहुचूँ कर डाक्र्र ने उसे जबस्तरे पर जलर्ा जदया। ह्यबू र्ट ने जबना जकसी जवरोध के
चपु चाप जतू े-मोजे उतरवा जदये। जब डाक्र्र ह्यबू र्ट की र्ाई उतारने लगा, तो ह्यबू र्ट, अपनी कुहनी के सहारे उठा, कुछ
देर तक डाक्र्र को आूँखें िाड़ते हुए घरू ता रहा, जिर धीरे -से उसका हाथ पकड़ जलया। “डाक्र्र, क्या मैं मर जाऊूँगा?"
“कै सी बात करते हो ह्यबू र्ट!" डाक्र्र ने हाथ छुड़ाकर धीरे -से ह्यबू र्ट का जसर तजकये पर जर्का जदया। “गडु नाइर् ह्यबू र्ट"
“गडु नाइर् डाक्र्र," ह्यबू र्ट ने करवर् बदल ली। “गडु नाइर् जम. ह्यबू र्ट..." लजतका का स्वर जसहर गया। जकन्द्तु ह्यबू र्ट ने
कोई उत्तर नहीं जदया। करवर् बदलते ही उसे नींद आ गयी थी।
कॉरीडोर में वाजपस आकर डाक्र्र मक ु जी रे जलंग के सामने खड़े हो गये। हवा के तेज झोंकों से आकाश में िै ले बादलों
की परतें जब कभी इकहरी हो जातीं, तब उनके पीछे से चाूँदनी बझु ती हुई आग के धएु ूँ-सी आस-पास की पहाजड़यों पर
िै ल जाती थी। “आपको जम. ह्यबू र्ट कहाूँ जमले?" लजतका कॉरीडोर के दसू रे कोने में रे जलंग पर झक ु ी हुई थी। “क्लब के
बार में उन्द्हें देखा था, मैं न पहुचूँ ता तो न जाने कब तक बैठे रहते। डाक्र्र मकु जी ने जसगरे र् जलायी। उन्द्हें अभी एक-दो
मरीजों के घर जाना था। कुछ देर तक उन्द्हें र्ाल देने के इरादे से वह कॉरीडोर में खड़े रहे।" नीचे अपने क्वार्ट र में बैठा
हुआ करीमद्दु ीन माउथ आगटन पर कोई परु ानी जि्मी धनु बजा रहा था।
“आज जदन भर बादल छाये रहे, लेजकन खल
ु कर बाररश नहीं हुई" “जक्रसमस तक शायद मौसम ऐसा ही रहेगा।" कुछ
देर तक दोनों चपु चाप खडे रहे। कॉन्द्वेन्द्र् स्कूल के बाहर िै ले लॉन से झींगरु ों का अनवरत स्वर चारों ओर िै ली
जनस्तब्धता को और भी अजधक घना बना रहा था। कभी-कभी ऊप़र मोर्र रोड पर जकसी कुत्ते की ररररयाहर् सनु ायी
पड़ा जाती थी। “डाक्र्र... कल रात आपने जम. ह्यबू र्ट से कुछ कहा था मेरे बारे में?" “वही जो सब लोग जानते हैं और
ह्यबू र्ट, जजसे जानना चाजहए था, नहीं जानता था।" डाक्र्र ने लजतका की ओर देखा, वह जड़वत अजवचजलत रे जलंग पर
झक ु ी हुई थी। “वैसे हम सबकी अपनी-अपनी जजद होती है, कोई छोड़ देता है, कोई आजखर तक उससे जचपका रहता
है।" डाक्र्र मक ु जी अूँधेरे में मस्ु कराये। उनकी मस्ु कराहर् में सख
ू ा-सा जवरजि का भाव भरा था। “कभी-कभी मैं सोचता
हूँ जमस लजतका, जकसी चीज को न जानना यजद गलत है, तो जान-बझू कर न भल ू पाना, हमेशा जोंक की तरह उससे
जचपर्े रहना, यह भी गलत है। बमाट से आते हुए मेरी पत्नी की मृत्यु हुई थी, मझु े अपनी जजन्द्दगी बेकार-सी लगी थी।
आज इस बात को असाट गजु र गया और जैसा आप देखती हैं, मैं जी रहा हूँ उम्मीद है जक कािी असाट और जजऊूँगा।
जजन्द्दगी कािी जदलचस्प लगती है, और यजद उम्र की मजबरू ी न होती तो शायद मैं दसू री शादी करने में भी न

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जहचकता। इसके बावजदू कौन कह सकता है जक मैं अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करता था, आज भी करता ह"ूँ “लेजकन
डाक्र्र..." लजतका का गला रुूँध आया था। “क्या जमस
ा़ लजतका..."
“डाक्र्र - सबकुछ होने के बावजदू वह क्या चीज़ है जो हमें चलाये चलती है, हम रुकते हैं तो भी अपने रे ले में वह हमें
घसीर् ले जाती है।" लजतका को लगा जक वह जो कहना चाह रही है, कह नहीं पा रही, जैसे अूँधेरे में कुछ खो गया है,
जो जमल नहीं पा रहा, शायद कभी नहीं जमल पायेगा। “यह तो आपको िादर ए्मण्ड ही बता सकें गे जमस लजतका,"
डाक्र्र की खोखली हूँसी में उनका पुराना सनकीपन उभर आया था। “अच्छा चलता ह,ूँ जमस लजतका, मझु े कािी देर
हो गयी है," डाक्र्र ने जदयासलाई जलाकर घड़ी को देखा। “गडु नाइर्, जमस लजतका।" “गडु नाइर्, डाक्र्र।"
डाक्र्र के जाने पर लजतका कुछ देर तक अूँधेरे में रे जलंग से सर्ी खड़ी रही। हवा चलने से कॉरीडोर में जमा हुआ कुहरा
जसहर उठता था। शाम को सामान बाूँधते हुए लड़जकयों ने अपने-अपने कमरे के सामने जो परु ानी काजपयों, अखबारों
और रद्दी के ढेर लगा जदये थे, वे सब अब अूँधेरे कॉरीडोर में हवा के झोंकों से इधर-उधर जबखरने लगे थे।
लजतका ने लैम्प उठाया और अपने कमरे की ओर जाने लगी। कॉरीडोर में चलते हुए उसने देखा, जल ू ी के कमरे में
प्रकाश की एक पतली रे खा दरवाजे के बाहर जखचं आयी है। लजतका को कुछ याद आया। वह कुछ क्षणों तक साूँस
रोके जलू ी के कमरे के बाहर खड़ी रही। कुछ देर बाद उसने दरवाजा खर्खर्ाया। भीतर से कोई आवाज नहीं आयी।
लजतका ने दबे हाथों से हलका-सा धक्का जदया, दरवाजा खल ु गया। जल
ू ी लैम्प बझु ाना भलू गयी थी। लजतका धीरे -
धीरे दबे पाूँव जल
ू ी के पलूँग के पास चली आयी। जलू ी का सोता हुआ चेहरा लैम्प के िीके आलोक में पीला-सा
दीख रहा था। लजतका ने अपनी जेब से वही नीला जलिािा जनकाला और उसे धीरे -से जल ू ी के तजकये के नीचे
दबाकर रख जदया।
****

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अमतृ सर आ गया िै
भीष्म साहनी
गाड़ी के जडब्बे में बहुत मसु ाजिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीर् पर बैठे सरदार जी देर से मझु े लाम के जकस्से सनु ाते रहे
थे। वह लाम के जदनों में बमाट की लड़ाई में भाग ले चक ु े थे और बात-बात पर खी-खी करके हूँसते और गोरे िौजजयों
की जख्ली उड़ाते रहे थे। जडब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बथट पर
लेर्ा हुआ था। वह आदमी बड़ा हूँसमख ु था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीर् पर बैठे एक दबु ले-से बाबू के साथ
उसका मजाक चल रहा था। वह दबु ला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंजक जकसी-जकसी वि वे
आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाई ंओर कोने में, एक बजु ढ़या मूँहु -जसर ढाूँपे बैठा थी और देर से
माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मसु ाजिर भी रहे हों, पर वे स्पित: मझु े याद नहीं।
गाड़ी धीमी रफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मसु ाजिर बजतया रहे थे और बाहर गेहूँ के खेतों में ह्की-
ह्की लहररयाूँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खश ु था क्योंजक मैं जद्ली में होनेवाला स्वतत्रं ता-जदवस समारोह
देखने जा रहा था।
उन जदनों के बारे में सोचता ह,ूँ तो लगता है, हम जकसी झर्ु पर्ु े में जी रहे हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा
व्यापार ही झर्ु पर्ु े में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भजवष्य के पर् खल
ु ते जाते हैं, यह झर्ु पर्ु ा और भी गहराता चला
जाता है।
उन्द्हीं जदनों पाजकस्तान के बनाए जाने का ऐलान जकया गया था और लोग तरह-तरह के अनमु ान लगाने लगे थे जक
भजवष्य में जीवन की रूपरे खा कै सी होगी। पर जकसी की भी क्पना बहुत दरू तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे
सरदार जी बार-बार मझु से पछू रहे थे जक पाजकस्तान बन जाने पर जजन्द्ना साजहब बंबई में ही रहेंगे या पाजकस्तान में जा
कर बस जाएूँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता - बबं ई क्यों छोड़ेंगे, पाजकस्तान में आते-जाते रहेंगे, बबं ई छोड़ देने
में क्या तक ु है! लाहौर और गरु दासपरु के बारे में भी अनमु ान लगाए जा रहे थे जक कौन-सा शहर जकस ओर जाएगा।
जमल बैठने के ढगं में, गप-शप में, हूँसी-मजाक में कोई जवशेि अतं र नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़ कर जा
रहे थे, जबजक अन्द्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था जक कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा
गलत। एक ओर पाजकस्तान बन जाने का जोश था तो दसू री ओर जहदं स्ु तान के आजाद हो जाने का जोश। जगह-जगह
दगं े भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयाररयाूँ भी चल रही थीं। इस पष्ठू भजू म में लगता, देश आजाद हो जाने पर
दगं े अपने-आप बंद हो जाएूँगे। वातावरण में इस झर्ु पर्ु में आजादी की सनु हरी धल ू -सी उड़ रही थी और साथ-ही-
साथ अजनश्चय भी डोल रहा था, और इसी अजनश्चय की जस्थजत में जकसी-जकसी वि भावी ररश्तों की रूपरे खा झलक दे
जाती थी।
शायद जेहलम का स्र्ेशन पीछे छूर् चक
ु ा था जब ऊपर वाली बथट पर बैठे पठान ने एक पोर्ली खोल ली और उसमें से
उबला हुआ मांस और नान-रोर्ी के र्ुकड़े जनकाल-जनकाल कर अपने साजथयों को देने लगा। जिर वह हूँसी-मजाक के
बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का र्ुकड़ा और मांस की बोर्ी बढ़ा कर खाने का आग्रह करने लगा था -

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'का ले, बाब,ू ताकत आएगी। अम जैसा ओ जाएगा। बीवी बी तेरे सात कुश रएगी। काले दालकोर, तू दाल काता ए,
इसजलए दबु ला ए...'
जडब्बे में लोग हूँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब जदया और जिर मस्ु कराता जसर जहलाता रहा।
इस पर दसू रे पठान ने हूँस कर कहा - 'ओ जाजलम, अमारे हाथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले। खदु ा कसम
बकरे का गोश्त ए, और जकसी चीज का नईए।'
ऊपर बैठा पठान चहक कर बोला - 'ओ खंजीर के तमु , इदर तमु ें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू
अमारे साथ बोर्ी तोड़। अम तेरे साथ दाल जपएगा... '
इस पर कहकहा उठा, पर दबु ला-पतला बाबू हूँसता, जसर जहलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।
'ओ जकतना बरु ा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मूँु देखता ए...' सभी पठान मगन थे।
'यह इसजलए नहीं लेता जक तमु ने हाथ नहीं धोए हैं,' स्थल
ू काय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे!
अधलेर्ी मरु ा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीर् के नीचे लर्क रही थी - 'तमु अभी सो कर उठे हो और उठते ही
पोर्ली खोल कर खाने लग गए हो, इसीजलए बाबू जी तम्ु हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं।' और सरदार जी ने
मेरी ओर देख कर आूँख मारी और जिर खी-खी करने लगे।
'मांस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैर्ो, इदर क्या करता ए?' जिर कहकहा उठा।
डब्बे में और भी अनेक मसु ाजिर थे लेजकन परु ाने मसु ाजिर यही थे जो सिर शरू ु होने में गाड़ी में बैठे थे। बाकी
मसु ाजिर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मसु ाजिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतक्लिु ी आ गई थी।
'ओ इदर आ कर बैठो। तमु अमारे साथ बैर्ो। आओ जाजलम, जकस्सा-खानी की बातें करें गे।'
तभी जकसी स्र्ेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मसु ाजिरों का रे ला अंदर आ गया था। बहुत-से मसु ाजिर एक साथ अंदर
घसु ते चले आए थे।
'कौन-सा स्र्ेशन है?' जकसी ने पछ
ू ा।
'वजीराबाद है शायद,' मैंने बाहर की ओर देख कर कहा।
गाड़ी वहाूँ थोड़ी देर के जलए खड़ी रही। पर छूर्ने से पहले एक छोर्ी-सी घर्ना घर्ी। एक आदमी साथ वाले जडब्बे में
से पानी लेने उतरा और नल पर जा कर पानी लोर्े में भर रहा था तभी वह भाग कर अपने जडब्बे की ओर लौर् आया।
छलछलाते लोर्े में से पानी जगर रहा था। लेजकन जजस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता जदया था। नल पर
खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे - इधर-उधर अपने-अपने जडब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबरा
कर भागते लोगों को मैं देख चकु ा था। देखते-ही-देखते प्लेर्िामट खाली हो गया। मगर जडब्बे के अंदर अभी भी हूँसी-
मजाक चल रहा था।
'कहीं कोई गड़बड़ है,' मेरे पास बैठे दबु ले बाबू ने कहा।

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कहीं कुछ था, लेजकन क्या था, कोई भी स्पि नहीं जानता था। मैं अनेक दगं े देख चुका था इसजलए वातावरण में होने
वाली छोर्ी-सी तबदील को भी भाूँप गया था। भागते व्यजि, खर्ाक से बदं होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग,
चप्ु पी और सन्द्नार्ा, सभी दगं ों के जचह्न थे।
तभी जपछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेर्िामट की ओर न खल
ु कर दसू री ओर खुलता था, ह्का-सा शोर हुआ। कोई
मसु ाजिर अदं र घसु ना चाह रहा था।
'कहाूँ घस
ु ा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल जदया जगह नहीं है,' जकसी ने कहा।
'बदं करो जी दरवाजा। यों ही मूँहु उठाए घस
ु े आते हैं।' आवाजें आ रही थीं।
जजतनी देर कोई मसु ाजिर जडब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेिा करता रहे, अंदर बैठे मसु ाजिर उसका जवरोध करते
रहते हैं। पर एक बार जैसे-तैसे वह अंदर जा जाए तो जवरोध खत्म हो जाता है, और वह मसु ाजिर ज्दी ही जडब्बे की
दजु नया का जनवासी बन जाता है, और अगले स्र्ेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मसु ाजिरों पर जच्लाने लगता है -
नहीं है जगह, अगले जडब्बे में जाओ... घसु े आते हैं...
दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लर्कती मूँछ
ू ों वाला एक आदमी दरवाजे में से अदं र
घसु ता जदखाई जदया। चीकर्, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दक
ु ान करता होगा। वह लोगों की जशकायतों-
आवाजों की ओर ध्यान जदए जबना दरवाजे की ओर घमू कर बड़ा-सा काले रंग का संदक ू अंदर की ओर घसीर्ने लगा।
'आ जाओ, आ जाओ, तमु भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे जकसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाजे में एक पतली
सख
ू ी-सी औरत नजर आई और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की साूँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी
भी जच्लाए जा रहे थे। सरदार जी को कू्हों के बल उठ कर बैठना पड़ा।'
'बंद करो जी दरवाजा, जबना पछ
ू े चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घसु ने दो जी, क्या करते हो, धके ल
दो पीछे ...' और लोग भी जच्ला रहे थे।
वह आदमी अपना सामान अदं र घसीर्े जा रहा था और उसकी पत्नी और बेर्ी सडं ास के दरवाजे के साथ लग कर
खड़े थे।
'और कोई जडब्बा नहीं जमला? औरत जात को भी यहाूँ उठा लाया है?'
वह आदमी पसीने से तर था और हाूँिता हुआ सामान अंदर घसीर्े जा रहा था। संदक
ू के बाद रजस्सयों से बूँधी खार्
की पाजर्याूँ अंदर खींचने लगा।
'जर्कर् है जी मेरे पास, मैं बेजर्कर् नहीं ह।ूँ ' इस पर जडब्बे में बैठे बहुत-से लोग चपु हो गए, पर बथट पर बैठा पठान उचक
कर बोला - 'जनकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए।'
और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़ कर ऊपर से ही उस मसु ाजिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को
लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं 'हाय-हाय' करती बैठ गई।

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उस आदमी के पास मसु ाजिरों के साथ उलझने के जलए वि नहीं था। वह बराबर अपना सामान अंदर घसीर्े जा रहा
था। पर जडब्बे में मौन छा गया। खार् की पाजर्यों के बाद बड़ी-बड़ी गठररयाूँ आई।ं इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-
क्षमता चक
ु गई। 'जनकालो इसे, कौन ए ये?' वह जच्लाया। इस पर दसू रे पठान ने, जो नीचे की सीर् पर बैठा था, उस
आदमी का संदक ू दरवाजे में से नीचे धके ल जदया, जहाूँ लाल वदीवाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुचूँ ा रहा था।
उसकी पत्नी के चोर् लगने पर कुछ मसु ाजिर चपु हो गए थे। के वल कोने में बैठो बजु ढ़या करलाए जा रही थी - 'ए
नेकबख्तो, बैठने दो। आ जा बेर्ी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सिर कार् लेंगे। छोड़ो बे जाजलमो, बैठने दो।'
अभीआधा सामान ही अदं र आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।
'छूर् गया! सामान छूर् गया।' वह आदमी बदहवास-सा हो कर जच्लाया।
'जपताजी, सामान छूर् गया।' संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की जसर से पाूँव तक काूँप रही थी और जच्लाए जा
रही थी।
'उतरो, नीचे उतरो,' वह आदमी हड़बड़ा कर जच्लाया और आगे बढ़ कर खार् की पाजर्याूँ और गठररयाूँ बाहर िें कते
हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़ कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी व्याकुल बेर्ी और जिर उसकी पत्नी, कलेजे को
दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।
'बहुत बरु ा जकया है तमु लोगों ने, बहुत बरु ा जकया है।' बजु ढ़या ऊूँचा-ऊूँचा बोल रही थी -'तम्ु हारे जदल में ददट मर गया है।
छोर्ी-सी बच्ची उसके साथ थी। बेरहमो, तमु ने बहुत बरु ा जकया है, धक्के दे कर उतार जदया है।'
गाड़ी सनू े प्लेर्िामट को लाूँघती आगे बढ़ गई। जडब्बे में व्याकुल-सी चप्ु पी छा गई। बजु ढ़या ने बोलना बंद कर जदया था।
पठानों का जवरोध कर पाने की जहम्मत नहीं हुई।
तभी मेरी बगल में बैठे दबु ले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रख कर कहा - 'आग है, देखो आग लगी है।'
गाड़ी प्लेर्िामट छोड़ कर आगे जनकल आई थी और शहर पीछे छूर् रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धएु ूँ के
बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नजर आने लगे।
'दगं ा हुआ है। स्र्ेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।'
शहर में आग लगी थी। बात जडब्बे-भर के मसु ाजिरों को पता चल गई और वे लपक-लपक कर जखड़जकयों में से आग
का दृश्य देखने लगे।
जब गाड़ी शहर छोड़ कर आगे बढ़ गई तो जडब्बे में सन्द्नार्ा छा गया। मैंने घमू कर जडब्बे के अंदर देखा, दबु ले बाबू का
चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत जकसी मदु े के माथे की तरह चमक रही थी। मझु े लगा, जैसे
अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मसु ाजिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले जलया है। सरदार जी उठ कर मेरी
सीर् पर आ बैठे। नीचे वाली सीर् पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बथट पर चढ़
गया। यही जक्रया शायद रे लगाड़ी के अन्द्य जडब्बों में भी चल रही थी। जडब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बजतयाना बंद
कर जदया। तीनों-के -तीनों पठान ऊपरवाली बथट पर एक साथ बैठे चपु चाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी

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मसु ाजिरों की आूँखें पहले से ज्यादा खल
ु ी-खल
ु ी, ज्यादा शंजकत-सी लगीं। यही जस्थजत संभवत: गाड़ी के सभी जडब्बों
में व्याप्त हो रही थी।
'कौन-सा स्र्ेशन था यह?' जडब्बे में जकसी ने पछ
ू ा।
'वजीराबाद,' जकसी ने उत्तर जदया।
जवाब जमलने पर जडब्बे में एक और प्रजतजक्रया हुई। पठानों के मन का तनाव िौरन ढीला पड़ गया। जबजक जहदं -ू जसक्ख
मसु ाजिरों की चप्ु पी और ज्यादा गहरी हो गई। एक पठान ने अपनी वास्कर् की जेब में से नसवार की जडजबया जनकाली
और नाक में नसवार चढ़ाने लगा। अन्द्य पठान भी अपनी-अपनी जडजबया जनकाल कर नसवार चढ़ाने लगे। बजु ढ़या
बराबर माला जपे जा रही थी। जकसी-जकसी वि उसके बदु बदु ाते होंठ नजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी
आवाज जनकल रही है।
अगले स्र्ेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाूँ भी सन्द्नार्ा था। कोई पररंदा तक नहीं िड़क रहा था। हाूँ, एक जभश्ती, पीठ
पर पानी की मशकल लादे, प्लेर्िामट लाूँघ कर आया और मसु ाजिरों को पानी जपलाने लगा।
'लो, जपयो पानी, जपयो पानी।' औरतों के जडब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर जनकल आए थे।
'बहुत मार-कार् हुई है, बहुत लोग मरे हैं। लगता था, वह इस मार-कार् में अके ला पुण्य कमाने चला आया है।'
गाड़ी सरकी तो सहसा जखड़जकयों के प्ले चढ़ाए जाने लगे। दरू -दरू तक, पजहयों की गड़गड़ाहर् के साथ, जखड़जकयों
के प्ले चढ़ाने की आवाज आने लगी।
जकसी अज्ञात आशंकावश दबु ला बाबू मेरे पासवाली सीर् पर से उठा और दो सीर्ों के बीच िशट पर लेर् गया। उसका
चेहरा अभी भी मदु े जैसा पीला हो रहा था। इस पर बथट पर बैठा पठान उसकी जठठोली करने लगा - 'ओ बेंगैरत, तमु
मदट ए जक औरत ए? सीर् पर से उर् कर नीचे लेर्ता ए। तमु मदट के नाम को बदनाम करता ए।' वह बोल रहा था और
बार-बार हूँसे जा रहा था। जिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चपु बना लेर्ा रहा। अन्द्य सभी मसु ाजिर चपु
थे। जडब्बे का वातावरण बोजझल बना हुआ था।
'ऐसे आदमी को अम जडब्बे में नई ंबैठने देगा। ओ बाब,ू अगले स्र्ेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैर्ो।'
मगर बाबू की हाजजरजवाबी अपने कंठ में सख
ू चली थी। हकला कर चपु हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप
उठ कर सीर् पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धल ू झाड़ता रहा। वह क्यों उठ कर िशट पर लेर् गया था?
शायद उसे डर था जक बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण जखड़जकयों के प्ले चढ़ाए
जा रहे थे।
कुछ भी कहना कजठन था। ममु जकन है जकसी एक मसु ाजिर ने जकसी कारण से जखड़की का प्ला चढ़ाया हो। उसकी
देखा-देखी, जबना सोचे-समझे, धड़ाधड़ जखड़जकयों के प्ले चढ़ाए जाने लगे थे।
बोजझल अजनश्चत-से वातावरण में सिर कर्ने लगा। रात गहराने लगी थी। जडब्बे के मसु ाजिर स्तब्ध और शंजकत ज्यों-
के -त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ्तार सहसा र्ूर् कर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दसू रे की ओर देखने लगते। कभी

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रास्ते में ही रुक जाती तो जडब्बे के अंदर का सन्द्नार्ा और भी गहरा हो उठता। के वल पठान जनजश्चत बैठे थे। हाूँ, उन्द्होंने
भी बजतयाना छोड़ जदया था, क्योंजक उनकी बातचीत में कोई भी शाजमल होने वाला नहीं था।
धीरे -धीरे पठान ऊूँघने लगे जबजक अन्द्य मसु ाजिर िर्ी-िर्ी आूँखों से शन्द्ू य में देखे जा रहे थे। बजु ढ़या मूँहु -जसर लपेर्े,
र्ाूँगें सीर् पर चढ़ाए, बैठा-बैठा सो गई थी। ऊपरवाली बथट पर एक पठान ने, अधलेर्े ही, कुते की जेब में से काले
मनकों की तसबीह जनकाल ली और उसे धीरे -धीरे हाथ में चलाने लगा।
जखड़की के बाहर आकाश में चाूँद जनकल आया और चाूँदनी में बाहर की दजु नया और भी अजनजश्चत, और भी अजधक
रहस्यमयी हो उठी। जकसी-जकसी वि दरू जकसी ओर आग के शोले उठते नजर आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी
जकसी वि जचंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, जिर जकसी वि उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी
रफ्तार से ही चलती रहती।
सहसा दबु ला बाबू जखड़की में से बाहर देख कर ऊूँची आवाज में बोला - 'हरबसं परु ा जनकल गया है।' उसकी आवाज
में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख कर बोला था। जडब्बे के सभी लोग उसकी आवाज सनु कर चौंक गए। उसी वि जडब्बे
के अजधकाश ं मसु ाजिरों ने मानो उसकी आवाज को ही सनु कर करवर् बदली।
'ओ बाब,ू जच्लाता क्यों ए?', तसबीह वाला पठान चौंक कर बोला - 'इदर उतरे गा तमु ? जंजीर खींचूँ?ू ' अैर खी-खी
करके हूँस जदया। जाजहर है वह हरबंसपरु ा की जस्थजत से अथवा उसके नाम से अनजभज्ञ था।
बाबू ने कोई उत्तर नहीं जदया, के वल जसर जहला जदया और एक-आध बार पठान की ओर देख कर जिर जखड़की के
बाहर झाूँकने लगा।
डब्बे में जिर मौन छा गया। तभी इजं न ने सीर्ी दी और उसकी एकरस रफ्तार र्ूर् गई। थोड़ी ही देर बाद खर्ाक-का-सा
शब्द भी हुआ। शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाूँक कर उस जदशा में देखा जजस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी।
'शहर आ गया है।' वह जिर ऊूँची आवाज में जच्लाया - 'अमृतसर आ गया है।' उसने जिर से कहा और उछल कर
खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बथट पर लेर्े पठान को सबं ोजधत करके जच्लाया - 'ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर
तेरी माूँ की... नीचे उतर, तेरी उस पठान बनानेवाले की मैं...'
बाबू जच्लाने लगा और चीख-चीख कर गाजलयाूँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवर् बदली और बाबू की
ओर देख कर बोला -'ओ क्या ए बाब?ू अमको कुच बोला?'
बाबू को उत्तेजजत देख कर अन्द्य मसु ाजिर भी उठ बैठे।
'नीचे उतर, तेरी मैं... जहदं ू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस...।'
'ओ बाब,ू बक-बकर नई करो। ओ खजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल जदया। अम तम्ु हारा जबान खींच
लेगा।'
'गाली देता है मादर...।' बाबू जच्लाया और उछल कर सीर् पर चढ़ गया। वह जसर से पाूँव तक काूँप रहा था।
'बस-बस।' सरदार जी बोले - 'यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सिर बाकी है, आराम से बैठो।'

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'तेरी मैं लात न तोड़ूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?' बाबू जच्लाया।
'ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको जनकालता था, अमने बी जनकाला। ये इदर अमको गाली देता ए। अम इसका
जबान खींच लेगा।'
बजु ढ़या बीच में जिर बोले उठी - 'वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब जदए बदं यो, कुछ होश करो।'
उसके होंठ जकसी प्रेत की तरह िड़िड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी िुसिुसाहर् सनु ाई दे रही थी।
बाबू जच्लाए जा रहा था - 'अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनानेवाले की...।'
तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेर्िामट पर रुकी। प्लेर्िामट लोगों से खचाखच भरा था। प्लेर्िामट पर खड़े लोग झाूँक-झाूँक
कर जडब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार लोग एक ही सवाल पछू रहे थे - 'पीछे क्या हुआ है? कहाूँ पर दगं ा हुआ है?'
खचाखच भरे प्लेर्िामट पर शायद इसी बात की चचाट चल रही थी जक पीछे क्या हुआ है। प्लेर्िामट पर खड़े दो-तीन
खोमचे वालों पर मसु ाजिर र्ूर्े पड़ रहे थे। सभी को सहसा भख ू और प्यास परे शान करने लगी थी। इसी दौरान तीन-
चार पठान हमारे जडब्बे के बाहर प्रकर् हो गए और जखड़की में से झाूँक-झाूँक कर अंदर देखने लगे। अपने पठान
साजथयों पर नजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घमू कर देखा, बाबू जडब्बे में नहीं था। न जाने कब
वह जडब्बे में से जनकल गया था। मेरा माथा जठनका। गस्ु से में वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे! पर इस
बीच जडब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठा कर बाहर जनकल गए और अपने पठान साजथयों के साथ गाड़ी के
अगले जडब्बे की ओर बढ़ गए। जो जवभाजन पहले प्रत्येक जडब्बे के भीतर होता रहा था , अब सारी गाड़ी के स्तर पर
होने लगा था।
खोमचेवालों के इदट-जगदट भीड़ छूँ र्ने लगी। लोग अपने-अपने जडब्बों में लौर्ने लगे। तभी सहसा एक ओर से मझु े वह
बाबू आता जदखाई जदया। उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लर् झल ू रही थी। नजदीक
पहुचूँ ा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएूँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने वह उसे कहाूँ जमल गई थी! जडब्बे
में घसु ते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर जलया और मेरे साथ वाली सीर् पर बैठने से पहले उसने हौले से
छड़ को सीर् के नीचे सरका जदया। सीर् पर बैठते ही उसकी आूँखें पठान को देख पाने के जलए ऊपर को उठीं। पर
जडब्बे में पठानों को न पा कर वह हड़बड़ा कर चारों ओर देखने लगा।
'जनकल गए हरामी, मादर... सब-के -सब जनकल गए!' जिर वह जसर्जपर्ा कर उठ खड़ा हुआ जच्ला कर बोला - 'तमु ने
उन्द्हें जाने क्यों जदया? तमु सब नामदट हो, बजु जदल!'
पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत-से नए मसु ाजिर आ गए थे। जकसी ने उसकी ओर जवशेि ध्यान नहीं जदया।
गाड़ी सरकने लगी तो वह जिर मेरी वाली सीर् पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजजत था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा
था।
धीरे -धीरे जहचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी। जडब्बे में परु ाने मसु ाजिरों ने भरपेर् परू रयाूँ खा ली थीं और पानी पी
जलया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाूँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था।

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नए मसु ाजिर बजतया रहे थे। धीरे -धीरे गाड़ी जिर समतल गजत से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊूँघने भी लगे
थे। मगर बाबू अभी भी िर्ी-िर्ी आूँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मझु से पछू ता जक पठान जडब्बे में
से जनकल कर जकस ओर को गए हैं। उसके जसर पर जनु नू सवार था।
गाड़ी के जहचकोलों में मैं खदु ऊूँघने लगा था। जडब्बे में लेर् पाने के जलए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा जसर
कभी एक ओर को लढ़ु क जाता, कभी दसू री ओर को। जकसी-जकसी वि झर्के से मेरी नींद र्ूर्ती, और मझु े सामने की
सीर् पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खराटर्े सनु ाई देते। अमृतसर पहुचूँ ने के बाद सरदार जी जिर से सामनेवाली
सीर् पर र्ाूँगे पसार कर लेर् गए थे। जडब्बे में तरह-तरह की आड़ी-जतरछी मरु ाओ ं में मसु ाजिर पड़े थे। उनकी बीभत्स
मरु ाओ ं को देख कर लगता, जडब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नजर पड़ती तो कभी तो वह जखड़की के बाहर
मूँहु जकए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तन कर बैठा नजर आता।
जकसी-जकसी वि गाड़ी जकसी स्र्ेशन पर रुकती तो पजहयों की गड़गड़ाहर् बदं होने पर जनस्तब्धता-सी छा जाती। तभी
लगता, जैसे प्लेर्िामट पर कुछ जगरा है, या जैसे कोई मसु ाजिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झर्के से उठ कर बैठ जाता।
इसी तरह जब एक बार मेरी नींद र्ूर्ी तो गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ गई थी, और जडब्बे में अूँधेरा था। मैंने उसी तरह
अधलेर्े जखड़की में से बाहर देखा। दरू , पीछे की ओर जकसी स्र्ेशन के जसगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पित:
गाड़ी कोई स्र्ेशन लाूँघ कर आई थी। पर अभी तक उसने रफ्तार नहीं पकड़ी थी।
जडब्बे के बाहर मझु े धीमे-से अस्िुर् स्वर सनु ाई जदए। दरू ही एक धजू मल-सा काला पजंु नजर आया। नींद की खमु ारी में
मेरी आूँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, जिर मैंने उसे समझ पाने का जवचार छोड़ जदया। जडब्बे के अंदर अूँधेरा था,
बजत्तयाूँ बझु ी हुई थीं, लेजकन बाहर लगता था, पौ िर्ने वाली है।
मेरी पीठ-पीछे , जडब्बे के बाहर जकसी चीज को खरोंचने की-सी आवाज आई। मैंने दरवाजे की ओर घमू कर देखा।
जडब्बे का दरवाजा बंद था। मझु े जिर से दरवाजा खरोंचने की आवाज सनु ाई दी। जिर, मैंने साि-साि सनु ा, लाठी से
कोई जडब्बे का दरवाजा पर्पर्ा रहा था। मैंने झाूँक कर जखड़की के बाहर देखा। सचमचु एक आदमी जडब्बे की दो
सीजढ़याूँ चढ़ आया था। उसके कंधे पर एक गठरी झल ू रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन
रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी। जिर मेरी नजर बाहर नीचे की ओर आ गई। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती
चली आ रही थी, नंगे पाूँव, और उसने दो गठररयाूँ उठा रखी थीं। बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। जडब्बे के
पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मड़ु कर देख रहा था और हाूँिता हुआ कहे जा रहा था - 'आ जा, आ
जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!'
दरवाजे पर जिर से लाठी पर्पर्ाने की आवाज आई - 'खोलो जी दरवाजा, खदु ा के वास्ते दरवाजा खोलो।'
वह आदमी हाूँि रहा था - 'खदु ा के जलए दरवाजा खोलो। मेरे साथ में औरतजात है। गाड़ी जनकल जाएगी...'
सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जा कर दरवाजे में लगी जखड़की में से मूँहु
बाहर जनकाल कर बोला - 'कौन है? इधर जगह नहीं है।'
बाहर खड़ा आदमी जिर जगड़जगड़ाने लगा - 'खदु ा के वास्ते दरवाजा खोलो। गाड़ी जनकल जाएगी...'

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और वह आदमी जखड़की में से अपना हाथ अंदर डाल कर दरवाजा खोल पाने के जलए जसर्कनी र्र्ोलने लगा।
'नहीं है जगह, बोल जदया, उतर जाओ गाड़ी पर से।' बाबू जच्लाया और उसी क्षण लपक कर दरवाजा खोल जदया।
'या अ्लाह! उस आदमी के अस्िुर्-से शब्द सनु ाई जदए। दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साूँस ली हो।'
और उसी वि मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मसु ाजिर के जसर पर जकया था। मैं
देखते ही डर गया और मेरी र्ाूँगें लरज गई।ं मझु े लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ।
उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लर्कती गठरी जखसर् कर उसकी कोहनी पर
आ गई थी।
तभी सहसा उसके चेहरे पर लह की दो-तीन धारें एक साथ िूर् पड़ीं। मझु े उसके खल ु े होंठ और चमकते दाूँत नजर
आए। वह दो-एक बार 'या अ्लाह!' बदु बदु ाया, जिर उसके पैर लड़खड़ा गए। उसकी आूँखों ने बाबू की ओर देखा,
अधमूँदु ी-सी आूँखें, जो धीर-धीरे जसकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोजशश कर रही हों जक वह कौन है
और उससे जकस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अूँधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ जिर से िड़िड़ाए
और उनमें सिे द दाूँत जिर से झलक उठे । मझु े लगा, जैसे वह मस्ु कराया है, पर वास्तव में के वल क्षय के ही कारण होंठों
में बल पड़ने लगे थे।
नीचे पर्री के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालमू नहीं हो पाया था जक
क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी जक गठरी के कारण उसका पजत गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं
पा रहा है, जक उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठररयों के बावजदू अपने
पजत के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर जर्काने की कोजशश कर रही थी।
तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूर् गए और वह कर्े पेड़ की भाूँजत नीचे जा जगरा। और उसके जगरते
ही औरत ने भागना बंद कर जदया, मानो दोनों का सिर एक साथ ही खत्म हो गया हो।
बाबू अभी भी मेरे जनकर्, जडब्बे के खल
ु े दरवाजे में बतु -का-बतु बना खड़ा था, लोहे की छड़ अभी भी उसके हाथ में
थी। मझु े लगा, जैसे वह छड़ को िें क देना चाहता है लेजकन उसे िें क नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था।
मेरी साूँस अभी भी िूली हुई थी और जडब्बे के अूँजधयारे कोने में मैं जखड़की के साथ सर् कर बैठा उसकी ओर देखे जा
रहा था।
जिर वह आदमी खड़े-खड़े जहला। जकसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवाजे में से बाहर
पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे जनकलती जा रही थी। दरू , पर्री के जकनारे अूँजधयारा पंजु -सा नजर आ रहा था।
बाबू का शरीर हरकत में आया। एक झर्के में उसने छड़ को जडब्बे के बाहर िें क जदया। जिर घमू कर जडब्बे के अंदर
दाएूँ-बाएूँ देखने लगा। सभी मसु ाजिर सोए पड़े थे। मेरी ओर उसकी नजर नहीं उठी।
थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, जिर उसने घमू कर दरवाजा बंद कर जदया। उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर
देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, जिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जा कर उन्द्हें सूँघू ा,

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मानो जानना चाहता हो जक उसके हाथों से खनू की बू तो नहीं आ रही है। जिर वह दबे पाूँव चलता हुआ आया और
मेरी बगलवाली सीर् पर बैठ गया।
धीरे -धीरे झर्ु पर्ु ा छूँ र्ने लगा, जदन खल
ु ने लगा। साि-सथु री-सी रोशनी चारों ओर िै लने लगी। जकसी ने जंजीर खींच
कर गाड़ी को खड़ा नहीं जकया था, छड़ खा कर जगरी उसकी देह मीलों पीछे छूर् चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में जिर
से ह्की-ह्की लहररयाूँ उठने लगी थीं।
सरदार जी बदन खजु लाते उठ बैठे। मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ जसर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा
था। रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोर्े -छोर्े बाल उग आए थे। अपने सामने बैठा देख कर सरदार उसके साथ
बजतयाने लगा - 'बड़े जीवर् वाले हो बाब,ू दबु ले-पतले हो, पर बड़े गदु े वाले हो। बड़ी जहम्मत जदखाई है। तमु से डर कर
ही वे पठान जडब्बे में से जनकल गए। यहाूँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तमु जरूर दरुु स्त कर देते...' और सरदार
जी हूँसने लगे।
बाबू जवाब में मसु कराया - एक वीभत्स-सी मस्ु कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा।
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चीफ की दावत
भीष्म साहनी
आज जमस्र्र शामनाथ के घर चीि की दावत थी।
शामनाथ और उनकी धमटपत्नी को पसीना पोंछने की िुसटत न थी। पत्नी ड्रेजसंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जड़ू ा
बनाए मूँहु पर िै ली हुई सखु ी और पाउड़र को मले और जमस्र्र शामनाथ जसगरे र् पर जसगरे र् िूँू कते हुए चीजों की
िे हररस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दसू रे कमरे में आ-जा रहे थे।
आजखर पाूँच बजते-बजते तैयारी मक ु म्मल होने लगी। कुजसटयाूँ, मेज, जतपाइयाूँ, नैपजकन, िूल, सब बरामदे में पहुचूँ गए।
जड्रंक का इतं जाम बैठक में कर जदया गया। अब घर का िालतू सामान अलमाररयों के पीछे और पलंगों के नीचे
जछपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माूँ का क्या होगा?
इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृजहणी का ध्यान गया था। जमस्र्र शामनाथ, श्रीमती की ओर घमू कर
अग्रं ेजी में बोले - 'माूँ का क्या होगा?'
श्रीमती काम करते-करते ठहर गई,ं और थोडी देर तक सोचने के बाद बोलीं - 'इन्द्हें जपछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज
दो, रात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएूँ।'
शामनाथ जसगरे र् मूँहु में रखे, जसकुडी आूँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, जिर जसर जहला
कर बोले - 'नहीं, मैं नहीं चाहता जक उस बजु ढ़या का आना-जाना यहाूँ जिर से शरू ु हो। पहले ही बड़ी मजु श्कल से बंद
जकया था। माूँ से कहें जक ज्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएूँ। मेहमान कहीं आठ बजे
आएूँगे इससे पहले ही अपने काम से जनबर् लें।'
सझु ाव ठीक था। दोनों को पसंद आया। मगर जिर सहसा श्रीमती बोल उठीं - 'जो वह सो गई ंऔर नींद में खराटर्े लेने
लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहाूँ लोग खाना खाएूँगे।'
'तो इन्द्हें कह देंगे जक अंदर से दरवाजा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूँगू ा। या माूँ को कह देता हूँ जक अंदर जा कर
सोएूँ नहीं, बैठी रहें, और क्या?'
'और जो सो गई, तो? जडनर का क्या मालमू कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तमु जड्रंक ही करते रहते हो।'
शामनाथ कुछ खीज उठे , हाथ झर्कते हुए बोले - 'अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तमु ने यूँू ही खदु अच्छा
बनने के जलए बीच में र्ाूँग अड़ा दी!'
'वाह! तमु माूँ और बेर्े की बातों में मैं क्यों बरु ी बनूँ?ू तमु जानो और वह जानें।'
जमस्र्र शामनाथ चपु रहे। यह मौका बहस का न था, समस्या का हल ढूूँढ़ने का था। उन्द्होंने घमू कर माूँ की कोठरी की
ओर देखा। कोठरी का दरवाजा बरामदे में खल
ु ता था। बरामदे की ओर देखते हुए झर् से बोले - मैंने सोच जलया है, -

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और उन्द्हीं कदमों माूँ की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। माूँ दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दपु ट्टे में मूँहु -जसर लपेर्े,
माला जप रही थीं। सबु ह से तैयारी होती देखते हुए माूँ का भी जदल धड़क रहा था। बेर्े के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर
आ रहा है, सारा काम सभु ीते से चल जाय।
माूँ, आज तमु खाना ज्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएूँगे।
माूँ ने धीरे से मूँहु पर से दपु ट्टा हर्ाया और बेर्े को देखते हुए कहा, आज मझु े खाना नहीं खाना है, बेर्ा, तमु जो जानते
हो, मांस-मछली बने, तो मैं कुछ नहीं खाती।
जैसे भी हो, अपने काम से ज्दी जनबर् लेना।
अच्छा, बेर्ा।
और माूँ, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तमु यहाूँ बरामदे में बैठना। जिर जब हम यहाूँ आ जाएूँ, तो तमु
गसु लखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।
माूँ अवाक बेर्े का चेहरा देखने लगीं। जिर धीरे से बोलीं - अच्छा बेर्ा।
और माूँ आज ज्दी सो नहीं जाना। तम्ु हारे खराटर्ों की आवाज दरू तक जाती है।
माूँ लजज्जत-सी आवाज में बोली - क्या करूूँ, बेर्ा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी ह,ूँ नाक से साूँस
नहीं ले सकती।
जमस्र्र शामनाथ ने इतं जाम तो कर जदया, जिर भी उनकी उधेड़-बनु खत्म नहीं हुई। जो चीि अचानक उधर आ
जनकला, तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अिसर, उनकी जस्त्रयाूँ होंगी, कोई भी गसु लखाने की तरि जा सकता है।
क्षोभ और क्रोध में वह झूँझु लाने लगे। एक कुसी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले - आओ माूँ,
इस पर जरा बैठो तो।
माूँ माला सूँभालतीं, प्ला ठीक करती उठीं, और धीरे से कुसी पर आ कर बैठ गई।
यूँू नहीं, माूँ, र्ाूँगें ऊपर चढ़ा कर नहीं बैठते। यह खार् नहीं हैं।
माूँ ने र्ाूँगें नीचे उतार लीं।
और खदु ा के वास्ते नगं े पाूँव नहीं घमू ना। न ही वह खड़ाऊूँ पहन कर सामने आना। जकसी जदन तम्ु हारी यह खड़ाऊूँ उठा
कर मैं बाहर िें क दगूँू ा।
माूँ चपु रहीं।
कपड़े कौन से पहनोगी, माूँ?
जो है, वही पहनूँगू ी, बेर्ा! जो कहो, पहन लूँ।ू
जमस्र्र शामनाथ जसगरे र् मूँहु में रखे, जिर अधखल
ु ी आूँखों से माूँ की ओर देखने लगे, और माूँ के कपड़ों की सोचने
लगे। शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूँजू र्याूँ कमरों में कहाूँ

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लगाई जाएूँ, जबस्तर कहाूँ पर जबछे , जकस रंग के पदे लगाएूँ जाएूँ, श्रीमती कौन-सी साड़ी पहनें, मेज जकस साइज की
हो... शामनाथ को जचतं ा थी जक अगर चीि का साक्षात माूँ से हो गया, तो कहीं लजज्जत नहीं होना पडे। माूँ को जसर से
पाूँव तक देखते हुए बोले - तमु सिे द कमीज और सिे द सलवार पहन लो, माूँ। पहन के आओ तो, जरा देखूँ।ू
माूँ धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गई।ं
यह माूँ का झमेला ही रहेगा, उन्द्होंने जिर अग्रं ेजी में अपनी स्त्री से कहा - कोई ढगं की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर
कहीं कोई उ्र्ी-सीधी बात हो गई, चीि को बरु ा लगा, तो सारा मजा जाता रहेगा।
माूँ सिे द कमीज और सिे द सलवार पहन कर बाहर जनकलीं। छोर्ा-सा कद, सिे द कपड़ों में जलपर्ा, छोर्ा-सा सख ू ा
हुआ शरीर, धूँधु ली आूँखें, के वल जसर के आधे झड़े हुए बाल प्ले की ओर् में जछप पाए थे। पहले से कुछ ही कम
कुरूप नजर आ रही थीं।
चलो, ठीक है। कोई चजू ड़याूँ-वजू ड़याूँ हों, तो वह भी पहन लो। कोई हजट नहीं।
चजू ड़याूँ कहाूँ से लाऊूँ, बेर्ा? तमु तो जानते हो, सब जेवर तम्ु हारी पढ़ाई में जबक गए।
यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। जतनक कर बोले - यह कौन-सा राग छे ड़ जदया, माूँ! सीधा कह दो, नहीं हैं
जेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअ्लुक है! जो जेवर जबका, तो कुछ बन कर ही आया ह,ूँ जनरा लूँडूरा तो नहीं
लौर् आया। जजतना जदया था, उससे दगु ना ले लेना।
मेरी जीभ जल जाय, बेर्ा, तमु से जेवर लूँगू ी? मेरे मूँहु से यूँू ही जनकल गया। जो होते, तो लाख बार पहनती!
साढ़े पाूँच बज चकु े थे। अभी जमस्र्र शामनाथ को खदु भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में
जा चकु ी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार जिर माूँ को जहदायत करते गए - माूँ, रोज की तरह गमु समु बन के नहीं बैठी
रहना। अगर साहब इधर आ जनकलें और कोई बात पछू ें , तो ठीक तरह से बात का जवाब देना।
मैं न पढ़ी, न जलखी, बेर्ा, मैं क्या बात करूूँगी। तमु कह देना, माूँ अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।
सात बजते-बजते माूँ का जदल धक-धक करने लगा। अगर चीि सामने आ गया और उसने कुछ पछू ा, तो वह क्या
जवाब देंगी। अंग्रेज को तो दरू से ही देख कर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालमू क्या पछू े । मैं क्या कहूँगी।
माूँ का जी चाहा जक चपु चाप जपछवाड़े जवधवा सहेली के घर चली जाएूँ। मगर बेर्े के हुक्म को कै से र्ाल सकती थीं।
चपु चाप कुसी पर से र्ाूँगें लर्काए वहीं बैठी रही।
एक कामयाब पार्ी वह है, जजसमें जड्रंक कामयाबी से चल जाएूँ। शामनाथ की पार्ी सिलता के जशखर चमू ने लगी।
वाताटलाप उसी रौ में बह रहा था, जजस रौ में जगलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावर् न थी, कोई अड़चन न थी।
साहब को जव्हस्की पसंद आई थी। मेमसाहब को पदे पसंद आए थे, सोिा-कवर का जडजाइन पसंद आया था, कमरे
की सजावर् पसदं आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाजहए। साहब तो जड्रंक के दसू रे दौर में ही चर्ु कुले और कहाजनयाूँ
कहने लग गए थे। दफ्तर में जजतना रोब रखते थे, यहाूँ पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री, काला गाउन
पहने, गले में सिे द मोजतयों का हार, सेंर् और पाउड़र की महक से ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी जस्त्रयों की

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आराधना का कें र बनी हुई थीं। बात-बात पर हूँसतीं, बात-बात पर जसर जहलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें
कर रही थीं, जैसे उनकी परु ानी सहेली हों।
और इसी रो में पीते-जपलाते साढ़े दस बज गए। वि गजु रते पता ही न चला।
आजखर सब लोग अपने-अपने जगलासों में से आजखरी घूँर्ू पी कर खाना खाने के जलए उठे और बैठक से बाहर
जनकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता जदखाते हुए, पीछे चीि और दसू रे मेहमान।
बरामदे में पहुचूँ ते ही शामनाथ सहसा जठठक गए। जो दृश्य उन्द्होंने देखा, उससे उनकी र्ाूँगें लड़खड़ा गई, और क्षण-भर
में सारा नशा जहरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माूँ अपनी कुसी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाूँव
कुसी की सीर् पर रखे हुए, और जसर दाएूँ से बाएूँ और बाएूँ से दाएूँ झल ू रहा था और मूँहु में से लगातार गहरे खराटर्ों
की आवाजें आ रही थीं। जब जसर कुछ देर के जलए र्ेढ़ा हो कर एक तरि को थम जाता, तो खराटर्ें और भी गहरे हो
उठते। और जिर जब झर्के -से नींद र्ूर्ती, तो जसर जिर दाएूँ से बाएूँ झल ू ने लगता। प्ला जसर पर से जखसक आया था,
और माूँ के झरे हुए बाल, आधे गंजे जसर पर अस्त-व्यस्त जबखर रहे थे।
देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे । जी चाहा जक माूँ को धक्का दे कर उठा दें, और उन्द्हें कोठरी में धके ल दें, मगर ऐसा
करना संभव न था, चीि और बाकी मेहमान पास खड़े थे।
माूँ को देखते ही देसी अिसरों की कुछ जस्त्रयाूँ हूँस दीं जक इतने में चीि ने धीरे से कहा - पअ
ु र जडयर!
माूँ हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई जक कुछ कहते न बना। झर् से प्ला जसर पर
रखती हुई खड़ी हो गई ंऔर जमीन को देखने लगीं। उनके पाूँव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उूँगजलयाूँ थर-थर काूँपने
लगीं।
माूँ, तमु जाके सो जाओ, तमु क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं? - और जखजसयाई हुई नजरों से शामनाथ चीि के मूँहु की
ओर देखने लगे।
चीि के चेहरे पर मस्ु कराहर् थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, नमस्ते!
माूँ ने जझझकते हुए, अपने में जसमर्ते हुए दोनों हाथ जोड़े, मगर एक हाथ दपु ट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए था, दसू रा
बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस पर भी जखन्द्न हो उठे ।
इतने में चीि ने अपना दायाूँ हाथ, हाथ जमलाने के जलए माूँ के आगे जकया। माूँ और भी घबरा उठीं।
माूँ, हाथ जमलाओ।
पर हाथ कै से जमलातीं? दाएूँ हाथ में तो माला थी। घबराहर् में माूँ ने बायाूँ हाथ ही साहब के दाएूँ हाथ में रख जदया।
शामनाथ जदल ही जदल में जल उठे । देसी अिसरों की जस्त्रयाूँ जखलजखला कर हूँस पडीं।
यूँू नहीं, माूँ! तमु तो जानती हो, दायाूँ हाथ जमलाया जाता है। दायाूँ हाथ जमलाओ।
मगर तब तक चीि माूँ का बायाूँ हाथ ही बार-बार जहला कर कह रहे थे - हाउ डू यू डू?
कहो माूँ, मैं ठीक ह,ूँ खैररयत से ह।ूँ

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माूँ कुछ बडबड़ाई।
माूँ कहती हैं, मैं ठीक ह।ूँ कहो माूँ, हाउ डू यू डू।
माूँ धीरे से सकुचाते हुए बोलीं - हौ डू डू ..
एक बार जिर कहकहा उठा।
वातावरण ह्का होने लगा। साहब ने जस्थजत सूँभाल ली थी। लोग हूँसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी
कुछ-कुछ कम होने लगा था।
साहब अपने हाथ में माूँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और माूँ जसकुड़ी जा रही थीं। साहब के मूँहु से शराब की बू आ
रही थी।
शामनाथ अंग्रेजी में बोले - मेरी माूँ गाूँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाूँव में रही हैं। इसजलए आपसे लजाती है।
साहब इस पर खशु नजर आए। बोले - सच? मझु े गाूँव के लोग बहुत पसदं हैं, तब तो तम्ु हारी माूँ गाूँव के गीत और
नाच भी जानती होंगी? चीि खश
ु ी से जसर जहलाते हुए माूँ को र्कर्की बाूँधे देखने लगे।
माूँ, साहब कहते हैं, कोई गाना सनु ाओ। कोई परु ाना गीत तम्ु हें तो जकतने ही याद होंगे।
माूँ धीरे से बोली - मैं क्या गाऊूँगी बेर्ा। मैंने कब गाया है?
वाह, माूँ! मेहमान का कहा भी कोई र्ालता है?
साहब ने इतना रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बरु ा मानेंगे।
मैं क्या गाऊूँ, बेर्ा। मझु े क्या आता है?
वाह! कोई बजढ़या र्प्पे सनु ा दो। दो पत्तर अनाराूँ दे ...
देसी अिसर और उनकी जस्त्रयों ने इस सझु ाव पर ताजलयाूँ पीर्ी। माूँ कभी दीन दृजि से बेर्े के चेहरे को देखतीं, कभी
पास खड़ी बह के चेहरे को।
इतने में बेर्े ने गभं ीर आदेश-भरे जलहाज में कहा - माूँ!
इसके बाद हाूँ या ना सवाल ही न उठता था। माूँ बैठ गई ंऔर क्षीण, दबु टल, लरजती आवाज में एक परु ाना जववाह का
गीत गाने लगीं -
हररया नी माए, हररया नी भैणे
हररया ते भागी भररया है!
देसी जस्त्रयाूँ जखलजखला के हूँस उठीं। तीन पंजियाूँ गा के माूँ चपु हो गई।ं
बरामदा ताजलयों से गूँजू उठा। साहब ताजलयाूँ पीर्ना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्द्नता और गवट में बदल
उठी थी। माूँ ने पार्ी में नया रंग भर जदया था।

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ताजलयाूँ थमने पर साहब बोले - पंजाब के गाूँवों की दस्तकारी क्या है?
शामनाथ खश ु ी में झमू रहे थे। बोले - ओ, बहुत कुछ - साहब! मैं आपको एक सेर् उन चीजों का भेंर् करूूँगा। आप
उन्द्हें देख कर खशु होंगे।
मगर साहब ने जसर जहला कर अंग्रेजी में जिर पछू ा - नहीं, मैं दक
ु ानों की चीज नहीं माूँगता। पंजाजबयों के घरों में क्या
बनता है, औरतें खदु क्या बनाती हैं?
शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले - लड़जकयाूँ गजु ड़याूँ बनाती हैं, और िुलकाररयाूँ बनाती हैं।
िुलकारी क्या?
शामनाथ िुलकारी का मतलब समझाने की असिल चेिा करने के बाद माूँ को बोले - क्यों, माूँ, कोई परु ानी िुलकारी
घर में हैं?
माूँ चपु चाप अदं र गई ंऔर अपनी परु ानी िुलकारी उठा लाई।ं
साहब बड़ी रुजच से िुलकारी देखने लगे। परु ानी िुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे र्ूर् रहे थे और कपड़ा िर्ने
लगा था। साहब की रुजच को देख कर शामनाथ बोले - यह िर्ी हुई है, साहब, मैं आपको नई बनवा दगूँू ा। माूँ बना
देंगी। क्यों, माूँ साहब को िुलकारी बहुत पसंद हैं, इन्द्हें ऐसी ही एक िुलकारी बना दोगी न?
माूँ चपु रहीं। जिर डरते-डरते धीरे से बोलीं - अब मेरी नजर कहाूँ है, बेर्ा! बढ़ू ी आूँखें क्या देखेंगी?
मगर माूँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले - वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर खश
ु होंगे।
साहब ने जसर जहलाया, धन्द्यवाद जकया और ह्के -ह्के झमू ते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए। बाकी मेहमान भी
उनके पीछे -पीछे हो जलए।
जब मेहमान बैठ गए और माूँ पर से सबकी आूँखें हर् गई,ं तो माूँ धीरे से कुसी पर से उठीं, और सबसे नजरें बचाती हुई
अपनी कोठरी में चली गई।ं
मगर कोठरी में बैठने की देर थी जक आूँखों में छल-छल आूँसू बहने लगे। वह दपु ट्टे से बार-बार उन्द्हें पोंछतीं, पर वह
बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बाूँध तोड़ कर उमड़ आए हों। माूँ ने बहुतेरा जदल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान
का नाम जलया, बेर्े के जचरायु होने की प्राथटना की, बार-बार आूँखें बदं कीं, मगर आूँसू बरसात के पानी की तरह जैसे
थमने में ही न आते थे।
आधी रात का वि होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चक ु े थे। माूँ दीवार से सर् कर बैठी आूँखें िाड़े
दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चकु ा था। महु ्ले की जनस्तब्धता शामनाथ के घर भी
छा चकु ी थी, के वल रसोई में प्लेर्ों के खनकने की आवाज आ रही थी। तभी सहसा माूँ की कोठरी का दरवाजा जोर से
खर्कने लगा।
माूँ, दरवाजा खोलो।

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माूँ का जदल बैठ गया। हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मझु से जिर कोई भल ू हो गई? माूँ जकतनी देर से अपने आपको कोस
रही थीं जक क्यों उन्द्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊूँघने लगीं। क्या बेर्े ने अभी तक क्षमा नहीं जकया? माूँ उठीं और काूँपते
हाथों से दरवाजा खोल जदया।
दरवाजे खुलते ही शामनाथ झमू ते हुए आगे बढ़ आए और माूँ को आजलंगन में भर जलया।
ओ अम्मी! तमु ने तो आज रंग ला जदया! ...साहब तमु से इतना खश
ु हुआ जक क्या कह।ूँ ओ अम्मी! अम्मी!
माूँ की छोर्ी-सी काया जसमर् कर बेर्े के आजलंगन में जछप गई। माूँ की आूँखों में जिर आूँसू आ गए। उन्द्हें पोंछती हुई
धीरे से बोली - बेर्ा, तमु मझु े हररद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही ह।ूँ
शामनाथ का झमू ना सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर जिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाूँहें माूँ के शरीर
पर से हर् आई।ं
क्या कहा, माूँ? यह कौन-सा राग तमु ने जिर छे ड़ जदया?
शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गए - तमु मझु े बदनाम करना चाहती हो, ताजक दजु नया कहे जक बेर्ा माूँ को
अपने पास नहीं रख सकता।
नहीं बेर्ा, अब तमु अपनी बह के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन जलया। अब यहाूँ क्या करूूँगी। जो
थोड़े जदन जजंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगू ी। तमु मझु े हररद्वार भेज दो!
तमु चली जाओगी, तो िुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तम्ु हारे सामने ही िुलकारी देने का इकरार जकया है।
मेरी आूँखें अब नहीं हैं, बेर्ा, जो िुलकारी बना सकूँू । तमु कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।
माूँ, तमु मझु े धोखा देके यूँू चली जाओगी? मेरा बनता काम जबगाड़ोगी? जानती नही, साहब खश
ु होगा, तो मझु े तरक्की
जमलेगी!
माूँ चपु हो गई।ं जिर बेर्े के मूँहु की ओर देखती हुई बोली - क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा?
क्या उसने कुछ कहा है?
कहा नहीं, मगर देखती नहीं, जकतना खश ु गया है। कहता था, जब तेरी माूँ िुलकारी बनाना शरू
ु करें गी, तो मैं देखने
आऊूँगा जक कै से बनाती हैं। जो साहब खशु हो गया, तो मझु े इससे बड़ी नौकरी भी जमल सकती है, मैं बड़ा अिसर बन
सकता ह।ूँ
माूँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे -धीरे उनका झरु रट यों-भरा मूँहु जखलने लगा, आूँखों में ह्की-ह्की चमक आने
लगी।
तो तेरी तरक्की होगी बेर्ा?
तरक्की यूँू ही हो जाएगी? साहब को खश
ु रखूँगू ा, तो कुछ करे गा, वरना उसकी जखदमत करनेवाले और थोड़े हैं?
तो मैं बना दगूँू ी, बेर्ा, जैसे बन पड़ेगा, बना दगूँू ी।

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और माूँ जदल ही जदल में जिर बेर्े के उज्ज्वल भजवष्य की कामनाएूँ करने लगीं और जमस्र्र शामनाथ , अब सो जाओ,
माूँ, कहते हुए, तजनक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घमू गए।
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णसक्का बदल गया
कृ ष्णा सोबती
खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला जलए शाहनी जब दररया के जकनारे पहुचं ी तो पौ िर् रही थी। दरू -दरू आसमान के
परदे पर लाजलमा िै लती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और 'श्रीराम, श्रीराम' करती पानी में हो
ली। अंजजल भरकर सयू ट देवता को नमस्कार जकया, अपनी उनीदी आंखों पर छींर्े जदये और पानी से जलपर् गयी!
चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सदट था, लहरें लहरों को चमू रही थीं। वह दरू सामने काश्मीर की पहाजड़यों से
बंिट जपघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भंवरों से र्कराकर कगारे जगर रहे थे लेजकन दरू -दरू तक जबछी रे त
आज न जाने क्यों खामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं जकसी की परछाई तक न थी। पर
नीचे रे त में अगजणत पांवों के जनशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी!
आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह जपछले पचास विों से यहां नहाती
आ रही है। जकतना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक जदन इसी दजु नया के जकनारे वह दल ु जहन बनकर उतरी थी।
और आज...आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-जलखा लड़का नहीं, आज वह अके ली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी
हवेली में अके ली है। पर नहींयह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दजु नयादारी से मन नहीं जिरा उसका!
शाहनी ने लम्बी सांस ली और 'श्री राम, श्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं जलपे-पतु े
आंगनों पर से धआ ु ं उठ रहा था। र्नर्नबैलों, की घंजर्यां बज उठती हैं। जिर भी...जिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा
है। 'जम्मीवाला' कुआं भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असाजमयां हैं। शाहनी ने नजं र उठायी। यह मीलों िै ले
खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नई िसल को देखकर शाहनी जकसी अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की
बरकतें हैं। दरू -दरू गांवों तक िै ली हुई जमीनें, जमीनों में कुएं सब अपने हैं। साल में तीन िसल, जमीन तो सोना
उगलती है। शाहनी कुएं की ओर बढ़ी, आवांज दी, ''शेरे, शेरे, हसैना हसैना...।''
शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा! अपनी मां जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर
बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गडं ासा 'शर्ाले' के ढेर के नीचे सरका जदया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला''ऐ हैसैना-
सैना...।'' शाहनी की आवांज उसे कै से जहला गयी है! अभी तो वह सोच रहा था जक उस शाहनी की ऊंची हवेली की
अधं ेरी कोठरी में पड़ी सोने-चादं ी की सन्द्दक
ू जचयां उठाकर...जक तभी 'शेरे शेरे...। शेरा गस्ु से से भर गया। जकस पर
जनकाले अपना क्रोध? शाहनी पर! चीखकर बोला''ऐ मर गयीं एं एब्ब तैनू मौत दे''
हसैना आर्ेवाली कनाली एक ओर रख, ज्दी-ज्दी बाजहर जनकल आयी। ''ऐ आयीं आं क्यों छावेले (सबु ह-सबु ह)
तड़पना एं?''
अब तक शाहनी नंजदीक पहुचं चक ु ी थी। शेरे की तेजी सनु चक
ु ी थी। प्यार से बोली, ''हसैना, यह वि लड़ने का है?
वह पागल है तो तू ही जजगरा कर जलया कर।''

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''जजगरा !'' हसैना ने मान भरे स्वर में कहा''शाहनी, लड़का आंजखर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पछ ू ा है जक मंहु अंधेरे
ही क्यों गाजलयां बरसाई हैं इसने?'' शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ िे रा, हसं कर बोली''पगली मझु े तो लड़के
से बह प्यारी है! शेरे''
''हां शाहनी!''
''मालमू होता है, रात को कु्लूवाल के लोग आये हैं यहां?'' शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।
शेरे ने जरा रुककर, घबराकर कहा, ''नहीं शाहनी...'' शेरे के उत्तर की अनसनु ी कर शाहनी जरा जचजन्द्तत स्वर से बोली,
''जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...'' शाहनी कहते-
कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को जबछुड़े कई साल बीत
गये, परपर आज कुछ जपघल रहा है शायद जपछली स्मृजतयां...आंसओ ु ं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर
देखा और ह्के -से हसं पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी
कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्द्दों से सदू ले-लेकर शाहजी सोने की बोररयां तोला
करते थे। प्रजतजहसं ा की आग शेरे की आख ं ों में उतर आयी। गड़ं ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखानहीं-नहीं,
शेरा इन जपछले जदनों में तीस-चालीस कत्ल कर चक ु ा है परपर वह ऐसा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के
हाथ उसकी आंखों में तैर गये। वह सजदटयों की रातें कभी-कभी शाहजी की डांर् खाके वह हवेली में पड़ा रहता था।
और जिर लालर्ेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दधू का कर्ोरा थामे हुए 'शेरे-शेरे, उठ, पी
ले।' शेरे ने शाहनी के झरु रट यां पड़े मंहु की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मस्ु करा रही थी। शेरा जवचजलत हो गया। 'आंजखर
शाहनी ने क्या जबगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को जरूर बचाएगा। लेजकन कल
रात वाला मशवरा! वह कै से मान गया था जिरोंज की बात! 'सब कुछ ठीक हो जाएगासामान बांर् जलया जाएगा!'
''शाहनी चलो तम्ु हें घर तक छोड़ आऊं!''
शाहनी उठ खड़ी हुई। जकसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे -पीछे मजं बतू कदम उठाता शेरा चल रहा है।
शंजकत-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साजथयों की बातें उसके कानों में गंजू रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को
मारकर?
''शाहनी!''
''हां शेरे।''
शेरा चाहता है जक जसर पर आने वाले खतरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कै से कहे?''
''शाहनी''
शाहनी ने जसर ऊंचा जकया। आसमान धएु ं से भर गया था। ''शेरे''
शेरा जानता है यह आग है। जबलपरु में आज आग लगनी थी लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते ररश्ते
सब वहीं हैं

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हवेली आ गयी। शाहनी ने शन्द्ू य मन से डयोढ़ी में कदम रक्खा। शेरा कब लौर् गया उसे कुछ पता नहीं। दबु टल-सी देह
और अके ली, जबना जकसी सहारे के ! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दपु हर आयी और चली गयी। हवेली
खलु ी पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अजधकार आज स्वयं ही उससे छूर् रहा है! शाहजी के घर
की मालजकन...लेजकन नहीं, आज मोह नहीं हर् रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े -पड़े सांझ हो गयी, पर उठने की बात
जिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसल ू ी की आवाजं सनु कर चौंक उठी।
''शाहनी-शाहनी, सनु ो ट्कें आती हैं लेने?''
''ट्के ...?'' शााहनी इसके जसवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दसू रे को थाम जलया। बात की बात में खबर गावं
भर में िै ल गयी। बीबी ने अपने जवकृ त कण्ठ से कहा''शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सनु ा। गजब हो
गया, अंधेर पड़ गया।''
शाहनी मजू तटवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा''शाहनी, हमने तो कभी न सोचा था!''
शाहनी क्या कहे जक उसीने ऐसा सोचा था। नीचे से पर्वारी बेगू और जैलदार की बातचीत सनु ाई दी। शाहनी समझी
जक वि आन पहुचं ा। मशीन की तरह नीचे उतरी, पर डयोढ़ी न लाघं सकी। जकसी गहरी, बहुत गहरी आवाजं से
पछू ा''कौन? कौन हैं वहां?''
कौन नहीं है आज वहां? सारा गांव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असाजमयां हैं जजन्द्हें उसने अपने
नाते-ररश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेजकन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अके ली है! यह भीड़ की भीड़,
उनमें कु्लूवाल के जार्। वह क्या सबु ह ही न समझ गयी थी?
बेगू पर्वारी और मसीत के म्ु ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के जनकर् आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की
ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से जरा गला सांि करते हुए कहा''शाहनी, रब्ब नू एही मंजरू सी।''
शाहनी के कदम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी जदन के जलए छोड़ गये थे शाहजी उसे ?
बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है 'क्या गजंु र रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! जसक्का
बदल गया है...'
शाहनी का घर से जनकलना छोर्ी-सी बात नहीं। गांव का गावं खड़ा है हवेली के दरवाजे से लेकर उस दारे तक जजसे
शाहजी ने अपने पत्रु की शादी में बनवा जदया था। तब से लेकर आज तक सब िै सले, सब मशजवरे यहीं होते रहे हैं।
इस बड़ी हवेली को लर्ू लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं जक शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी
अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। जकसी का बरु ा नहीं जकया। लेजकन बढ़ू ी शाहनी यह नहीं जानती जक
जसक्का बदल गया है...
देर हो रही थी। थानेदार दाऊद खां जरा अकड़कर आगे आया और डयोढ़ी पर खड़ी जड़ जनजीव छाया को देखकर
जठठक गया! वही शाहनी है जजसके शाहजी उसके जलए दररया के जकनारे खेमे लगवा जदया करते थे। यह तो वही
शाहनी है जजसने उसकी मंगेतर को सोने के कनिूल जदये थे मंहु जदखाई में। अभी उसी जदन जब वह 'लीग' के
जसलजसले में आया था तो उसने उद्दडं ता से कहा था'शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा!'
शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये जदये थे। और आज... ?

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''शाहनी!'' डयोढ़ी के जनकर् जाकर बोला''देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ
बाधं जलया है? सोना-चादं ी''
शाहनी अस्िुर् स्वर से बोली''सोना-चांदी!'' जरा ठहरकर सादगी से कहा''सोना-चांदी! बच्चा वह सब तमु लोगों के
जलए है। मेरा सोना तो एक-एक जमीन में जबछा है।''
दाऊद खां लजज्जत-सा हो गया। ''शाहनी तमु अके ली हो, अपने पास कुछ होना जरूरी है। कुछ नकदी ही रख लो। वि
का कुछ पता नहीं''
''वि?'' शाहनी अपनी गीली आख
ं ों से हसं पड़ी। ''दाऊद खां, इससे अच्छा वि देखने के जलए क्या मैं जजन्द्दा रहगं ी!''
जकसी गहरी वेदना और जतरस्कार से कह जदया शाहनी ने।
दाऊद खां जनरुत्तर है। साहस कर बोला''शाहनी कुछ नकदी जरूरी है।''
''नहीं बच्चा मझ
ु े इस घर से''शाहनी का गला रुंध गया''नकदी प्यारी नहीं। यहां की नकदी यहीं रहेगी।''
शेरा आन खड़ा गजु रा जक हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। ''खां साजहब देर हो रही है''
शाहनी चौंक पड़ी। देरमेरे घर में मझु े देर ! आसं ओ
ु ं की भूँवर में न जाने कहाूँ से जवरोह उमड़ पड़ा। मैं परु खों के इस बड़े
घर की रानी और यह मेरे ही अन्द्न पर पले हुए...नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक हैदरे हो रही हैपर नहीं, शाहनी रो-रोकर
नहीं, शान से जनकलेगी इस परु खों के घर से, मान से लाूँघेगी यह देहरी, जजस पर एक जदन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई
थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को सभं ालकर शाहनी ने दपु ट्टे से आख ं ें पोछीं और डयोढ़ी से बाहर हो गयी। बडी-बजू ढ़याूँ
रो पड़ीं। जकसकी तल
ु ना हो सकती थी इसके साथ! खदु ा ने सब कुछ जदया था, मगरमगर जदन बदले, वि बदले...
शाहनी ने दपु ट्टे से जसर ढाूँपकर अपनी धधंु ली आख
ं ों में से हवेली को अजन्द्तम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी
जजस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ जलए यही
अजन्द्तम दशटन था, यही अजन्द्तम प्रणाम था। शाहनी की आंखें जिर कभी इस ऊंची हवेली को न देखी पाएंगी। प्यार ने
जोर मारासोचा, एक बार घमू -जिर कर परू ा घर क्यों न देख आयी मैं? जी छोर्ा हो रहा है, पर जजनके सामने हमेशा बड़ी
बनी रही है उनके सामने वह छोर्ी न होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चक ु ा। जसर झक ु ाया। डयोढ़ी के आगे कुलवधू की
आख ं ों से जनकलकर कुछ बन्द्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दीऊंचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद खां, शेरा, पर्वारी,
जैलदार और छोर्े-बड़े, बच्चे, बढ़ू े-मदट औरतें सब पीछे -पीछे ।
ट्कें अब तक भर चक ु ी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धआ
ंु उठ रहा है। शेरे, खनू ी शेरे
का जदल र्ूर् रहा है। दाऊद खां ने आगे बढ़कर ट्क का दरवाजं ा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी
आवांज से कहा'' शाहनी, कुछ कह जाओ। तम्ु हारे मंहु से जनकली असीस झठू नहीं हो सकती!'' और अपने सािे से
आख ं ों का पानी पोछ जलया। शाहनी ने उठती हुई जहचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, ''रब्ब तहु ानू सलामत रक्खे
बच्चा, खजु शयां बक्शे...।''
वह छोर्ा-सा जनसमहू रो जदया। जरा भी जदल में मैल नहीं शाहनी के । और हमहम शाहनी को नहीं रख सके । शेरे ने
बढ़कर शाहनी के पावं छुए, ''शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलर् गया'' शाहनी ने कापं ता हुआ हाथ शेरे के

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जसर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा''तैनू भाग जगण चन्द्ना!'' (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद खां ने हाथ का संकेत
जकया। कुछ बड़ी-बजू ढ़यां शाहनी के गले लगीं और ट्क चल पड़ी।
अन्द्न-जल उठ गया। वह हवेली, नई बैठक, ऊंचा चौबारा, बड़ा 'पसार' एक-एक करके घमू रहे हैं शाहनी की आंखों में!
कुछ पता नहींट्क चल जदया है या वह स्वयं चल रही है। आंखें बरस रही हैं। दाऊद खां जवचजलत होकर देख रहा है
इस बढ़ू ी शाहनी को। कहां जाएगी अब वह?
''शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वकत ही ऐसा है। राज पलर् गया है, जसक्का बदल गया
है...''
रात को शाहनी जब कैं प में पहुचं कर जमीन पर पड़ी तो लेर्े-लेर्े आहत मन से सोचा 'राज पलर् गया है...जसक्का क्या
बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी।...'
और शाहजी की शाहनी की आख
ं ें और भी गीली हो गयीं!
आसपास के हरे -हरे खेतों से जघरे गांवों में रात खनू बरसा रही थी।
शायद राज पलर्ा भी खा रहा था और जसक्का बदल रहा था..
****

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इन्द््िेक्टर मातादीन चाँद िर: व्यग्ं य
(हररशंकर परसाई)
वैज्ञाजनक कहते हैं ,चाूँद पर जीवन नहीं है
सीजनयर पजु लस इस्ं पेक्र्र मातादीन (जडपार्टमेंर् में एम. डी. साब) कहते हैं- वैज्ञाजनक झठू बोलते हैं, वहाूँ हमारे जैसे ही
मनष्ु य की आबादी है.
जवज्ञान ने हमेशा इन्द्स्पेक्र्र मातादीन से मात खाई है. जिंगर जप्रर्ं जवशेिज्ञ कहता रहता है- छुरे पर पाए गए जनशान
मल
ु जजम की अूँगजु लयों के नहीं हैं. पर मातादीन उसे सजा जदला ही देते हैं.
मातादीन कहते हैं, ये वैज्ञाजनक के स का परू ा इन्द्वेस्र्ीगेशन नहीं करते. उन्द्होंने चाूँद का उजला जहस्सा देखा और कह
जदया, वहाूँ जीवन नहीं है. मैं चाूँद का अूँधेरा जहस्सा देख कर आया ह.ूँ वहाूँ मनष्ु य जाजत है.
यह बात सही है क्योंजक अूँधेरे पक्ष के मातादीन माजहर माने जाते हैं.
पछू ा जाएगा, इस्ं पेक्र्र मातादीन चाूँद पर क्यों गए थे? र्ूररस्र् की हैजसयत से या जकसी िरार अपराधी को पकड़ने?
नहीं, वे भारत की तरफ़ से सांस्कृ जतक आदान-प्रदान के अंतगटत गए थे. चाूँद सरकार ने भारत सरकार को जलखा था-
यों हमारी सभ्यता बहुत आगे बढ़ी है. पर हमारी पजु लस में पयाटप्त सक्षमता नहीं है. वह अपराधी का पता लगाने और
उसे सजा जदलाने में अक्सर सिल नहीं होती. सनु ा है, आपके यहाूँ रामराज है. मेहरबानी करके जकसी पजु लस अिसर
को भेजें जो हमारी पजु लस को जशजक्षत कर दे.
गृहमत्रं ी ने सजचव से कहा- जकसी आई. जी. को भेज दो.
सजचव ने कहा- नहीं सर, आई. जी. नहीं भेजा जा सकता. प्रोर्ोकॉल का सवाल है. चाूँद हमारा एक क्षरु उपग्रह
है. आई. जी. के रैं क के आदमी को नहीं भेजेंगे. जकसी सीजनयर इस्ं पेक्र्र को भेज देता ह.ूँ
तय जकया गया जक हजारों मामलों के इन्द्वेजस्र्गेजर्ंग ऑजिसर सीजनयर इस्ं पेक्र्र मातादीन को भेज जदया जाय.
चाूँद की सरकार को जलख जदया गया जक आप मातादीन को लेने के जलए पृथ्वी-यान भेज दीजजये.
पजु लस मत्रं ी ने मातादीन को बल
ु ाकर कहा- तमु भारतीय पजु लस की उज्ज्वल परंपरा के दतू की हैजसयत से जा रहे
हो. ऐसा काम करना जक सारे अंतररक्ष में जडपार्टमेंर् की ऐसी जय-जयकार हो जक पी.एम. (प्रधानमन्द्त्री) को भी सनु ाई
पड़ जाए.
मातादीन की यात्रा का जदन आ गया. एक यान अंतररक्ष अड्डे पर उतरा. मातादीन सबसे जवदा लेकर यान की
तरफ़ बढ़े. वे धीरे -धीरे कहते जा रहे थे, ‘प्रजवजस नगर कीजै सब काजा, ह्रदय राजख कौसलपरु राजा.’
यान के पास पहुचूँ कर मातादीन ने मश
ंु ी अब्दल
ु गिूर को पक
ु ारा- ‘मश
ंु ी!’

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गिूर ने एड़ी जमलाकर से्यर्ू िर्कारा. बोला- जी, पेक्र्सा !
एि. आई. आर. रख दी है?
जी , पेक्र्सा.
और रोजनामचे का नमनू ा?
जी, पेक्र्सा !
वे यान में बैठने लगे. हवलदार बलभद्दर को बल
ु ाकर कहा- हमारे घर में जचकी के बखत अपने खर्ला (पत्नी)
को मदद के जलए भेज देना.
बलभद्दर ने कहा- जी, पेक्र्सा.
गिूर ने कहा – आप बेजिक्र रहे पेक्र्सा ! मैं अपने मकान (पत्नी) को भी भेज दगंू ा जखदमत के जलए.
मातादीन ने यान के चालक से पछू ा – ड्राइजवगं लाइसेंस है?
जी, है साहब !
और गाड़ी में बत्ती ठीक है?
जी, ठीक है.
मातादीन ने कहा, सब ठीकठाक होना चाजहए, वरना हरामजादे का बीच अंतररक्ष में चालान कर दूँगू ा.
चन्द्रमा से आये चालक ने कहा- हमारे यहाूँ आदमी से इस तरह नहीं बोलते.
मातादीन ने कहा- जानता हूँ बे ! तम्ु हारी पजु लस कमज़ोर है. अभी मैं उसे ठीक करता ह.ूँ
मातादीन यान में कदम रख ही रहे थे जक हवलदार रामसजीवन भागता हुआ आया. बोला- पेक्र्सा, एस.पी.
साहब के घर में से कहे हैं जक चाूँद से एड़ी चमकाने का पत्थर लेते आना.
मातादीन खश
ु हुए. बोले- कह देना बाई साब से, ज़रूर लेता आऊंगा.
वे यान में बैठे और यान उड़ चला. पृथ्वी के वायमु डं ल से यान बाहर जनकला ही था जक मातादीन ने चालक से
कहा- अबे, हॉनट क्यों नहीं बजाता?
चालक ने जवाब जदया- आसपास लाखों मील में कुछ नहीं है.
मातादीन ने डांर्ा- मगर रूल इज रूल. हॉनट बजाता चल.
चालक अंतररक्ष में हॉनट बजाता हुआ यान को चाूँद पर उतार लाया. अंतररक्ष अड्डे पर पजु लस अजधकारी
मातादीन के स्वागत के जलए खड़े थे. मातादीन रोब से उतरे और उन अिसरों के कन्द्धों पर नजर डाली. वहाूँ जकसी के
स्र्ार नहीं थे. िीते भी जकसी के नहीं लगे थे. जलहाज़ा मातादीन ने एड़ी जमलाना और हाथ उठाना ज़रूरी नहीं समझा.
जिर उन्द्होंने सोचा, मैं यहाूँ इस्ं पेक्र्र की हैजसयत से नहीं, सलाहकार की हैजसयत से आया ह.ूँ

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मातादीन को वे लोग लाइन में ले गए और एक अच्छे बंगले में उन्द्हें जर्का जदया.
एक जदन आराम करने के बाद मातादीन ने काम शरू
ु कर जदया. पहले उन्द्होंने पजु लस लाइन का मल
ु ाहज़ा जकया.
शाम को उन्द्होंने आई.जी. से कहा- आपके यहाूँ पजु लस लाइन में हनमु ानजी का मंजदर नहीं है. हमारे रामराज में
पजु लस लाइन में हनमु ानजी हैं.
आई.जी. ने कहा- हनमु ान कौन थे- हम नहीं जानते.
मातादीन ने कहा- हनमु ान का दशटन हर कतटव्यपरायण पजु लसवाले के जलए ज़रूरी है. हनमु ान सग्रु ीव के यहाूँ
स्पेशल ब्राचं में थे. उन्द्होंने सीता माता का पता लगाया था.’एबडक्शन’का मामला था- दिा 362. हनमु ानजी ने रावण
को सजा वही ूँ दे दी. उसकी प्रॉपर्ी में आग लगा दी. पजु लस को यह अजधकार होना चाजहए जक अपराधी को पकड़ा
और वही ूँ सज़ा दे दी. अदालत में जाने का झंझर् नहीं. मगर यह जसस्र्म अभी हमारे रामराज में भी चालू नहीं हुआ है.
हनमु ानजी के काम से भगवान राम बहुत खश ु हुए. वे उन्द्हें अयोध्या ले आए और ‘र्ौन ड्यर्ू ी’ में तैनात कर जदया.
वही हनमु ान हमारे अराध्य देव हैं. मैं उनकी िोर्ो लेता आया ह.ूँ उसपर से मजू तटयाूँ बनवाइए और हर पजु लस लाइन में
स्थाजपत करवाइए.
थोड़े ही जदनों में चाूँद की हर पजु लस लाइन में हनमु ानजी स्थाजपत हो गए.
मातादीनजी उन कारणों का अध्ययन कर रहे थे, जजनसे पजु लस लापरवाह और अलाल हो गयी है. वह अपराधों
पर ध्यान नहीं देती. कोई कारण नहीं जमल रहा था. एकाएक उनकी बजु द्ध में एक चमक आई.उन्द्होंने मश
ंु ी से कहा- ज़रा
तनखा का रजजस्र्र बताओ.
तनखा का रजजस्र्र देखा, तो सब समझ गए. कारण पकड़ में आ गया.
शाम को उन्द्होंने पजु लस मंत्री से कहा, मैं समझ गया जक आपकी पजु लस मस्ु तैद क्यों नहीं है. आप इतनी बड़ी
तनख्वाहें देते हैं इसीजलए. जसपाही को पांच सौ, थानेदार को हज़ार- ये क्या मज़ाक है. आजखर पजु लस अपराधी को
क्यों पकड़े? हमारे यहाूँ जसपाही को सौ और इस्ं पेक्र्र को दो सौ देते हैं तो वे चौबीस घर्ं े जमु ट की तलाश करते हैं. आप
तनख्वाहें फ़ौरन घर्ाइए.
पजु लस मत्रं ी ने कहा- मगर यह तो अन्द्याय होगा. अच्छा वेतन नहीं जमलेगा तो वे काम ही क्यों करें गे?
मातादीन ने कहा- इसमें कोई अन्द्याय नहीं है. आप देखेंगे जक पहली घर्ी हुई तनखा जमलते ही आपकी पजु लस
की मनोवृजत में क्रांजतकारी पररवतटन हो जाएगा.
पजु लस मत्रं ी ने तनख्वाहें घर्ा दीं और 2-3 महीनों में सचमचु बहुत िकट आ गया. पजु लस एकदम मस्ु तैद हो गई.
सोते से एकदम जाग गई. चारों तरफ़ नज़र रखने लगी. अपराजधयों की दजु नया में घबड़ाहर् छा गई. पजु लस मंत्री ने
तमाम थानों के ररकॉडट बल ु ा कर देखे. पहले से कई गनु े अजधक के स रजजस्र्र हुए थे. उन्द्होंने मातादीन से कहा- मैं
आपकी सझू की तारीफ़ करता ह.ूँ आपने क्रांजत कर दी. पर यह हुआ जकस तरह?
मातादीन ने समझाया-बात बहुत मामल ू ी है.कम तनखा दोगे, तो मल ु ाजज़म की गजु र नहीं होगी. सौ रुपयों में
जसपाही बच्चों को नहीं पाल सकता. दो सौ में इस्ं पेक्र्र ठाठ-बार् नहीं मेनर्ेन कर सकता. उसे ऊपरी आमदनी करनी

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ही पड़ेगी. और ऊपरी आमदनी तभी होगी जब वह अपराधी को पकड़ेगा. गरज़ जक वह अपराधों पर नज़र रखेगा.
सचेत, कतटव्यपरायण और मस्ु तैद हो जाएगा. हमारे रामराज के स्वच्छ और सक्षम प्रशासन का यही रहस्य है.
चंरलोक में इस चमत्कार की खबर फ़ै ल गयी. लोग मातादीन को देखने आने लगे जक वह आदमी कै सा है
जो तनखा कम करके सक्षमता ला देता है. पजु लस के लोग भी खश ु थे. वे कहते- गरुु , आप इधर न पधारते तो हम सभी
कोरी तनखा से ही गजु र करते रहते. सरकार भी खश
ु थी जक मनु ािे का बजर् बनने वाला था.
आधी समस्या हल हो गई. पजु लस अपराधी पकड़ने लगी थी. अब मामले की जाूँच-जवजध में सधु ार करना रह
गया था. अपराधी को पकड़ने के बाद उसे सजा जदलाना. मातादीन इतं ज़ार कर रहे थे जक कोई बड़ा के स हो जाए तो
नमनू े के तौर पर उसका इन्द्वेजस्र्गेशन कर बताएूँ.
एक जदन आपसी मारपीर् में एक आदमी मारा गया. मातादीन कोतवाली में आकर बैठ गए और बोले - नमनू े के
जलए इस के स का ‘इन्द्वेजस्र्गेशन’ मैं करता ह.ूँ आप लोग सीजखए. यह कत्ल का के स है. कत्ल के के स में ‘एजवडेंस’
बहुत पक्का होना चाजहए
कोतवाल ने कहा- पहले काजतल का पता लगाया जाएगा, तभी तो एजवडेंस इकिा जकया जायगा.
मातादीन ने कहा- नहीं, उलर्े मत चलो. पहले एजवडेंस देखो. क्या कहीं खनू जमला? जकसी के कपड़ों पर या और
कहीं?
एक इस्ं पेक्र्र ने कहा- हाूँ, मारनेवाले तो भाग गए थे. मृतक सड़क पर बेहोश पड़ा था. एक भला आदमी वहाूँ
रहता है. उसने उठाकर अस्पताल भेजा. उस भले आदमी के कपड़ों पर खनू के दाग लग गए हैं.
मातादीन ने कहा- उसे फ़ौरन जगरफ्तार करो.
कोतवाल ने कहा- मगर उसने तो मरते हुए आदमी की मदद की थी.
मातादीन ने कहा- वह सब ठीक है. पर तमु खनू के दाग ढूूँढने और कहाूँ जाओगे? जो एजवडेंस जमल रहा है, उसे तो
कब्ज़े में करो.
वह भला आदमी पकड़कर बल
ु वा जलया गया. उसने कहा- मैंने तो मरते आदमी को अस्पताल जभजवाया था. मेरा
क्या कसरू है?
चाूँद की पजु लस उसकी बात से एकदम प्रभाजवत हुई. मातादीन प्रभाजवत नहीं हुए. सारा पजु लस महकमा उत्सक
ु था
जक अब मातादीन क्या तकट जनकालते हैं.
मातादीन ने उससे कहा- पर तमु झगडे की जगह गए क्यों?
उसने जवाब जदया- मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहाूँ मकान है. झगड़ा मेरे मकान के सामने हुआ.
अब जिर मातादीन की प्रजतभा की परीक्षा थी. सारा महकमा उत्सक
ु देख रहा था.
मातादीन ने कहा- मकान तो ठीक है. पर मैं पछू ता ह,ूँ झगड़े की जगह जाना ही क्यों?

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इस तकट का कोई ज़वाब नहीं था. वह बार-बार कहता- मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वही ूँ मकान है.
मातादीन उसे जवाब देते- सो ठीक है, पर झगड़े की जगह जाना ही क्यों? इस तकट -प्रणाली से पजु लस के लोग
बहुत प्रभाजवत हुए.
अब मातादीनजी ने इन्द्वेजस्र्गेशन का जसद्धांत समझाया-
देखो, आदमी मारा गया है, तो यह पक्का है जकसी ने उसे ज़रूर मारा. कोई काजतल है.जकसी को सज़ा होनी है.
सवाल है- जकसको सज़ा होनी है? पजु लस के जलए यह सवाल इतना महत्त्व नहीं रखता जजतना यह सवाल जक जमु ट
जकस पर साजबत हो सकता है या जकस पर साजबत होना चाजहए. कत्ल हुआ है, तो जकसी मनष्ु य को सज़ा होगी ही.
मारनेवाले को होती है, या बेकसरू को – यह अपने सोचने की बात नहीं है. मनष्ु य-मनष्ु य सब बराबर हैं. सबमें उसी
परमात्मा का अंश है. हम भेदभाव नहीं करते. यह पजु लस का मानवतावाद है.
दसू रा सवाल है, जकस पर जमु ट साजबत होना चाजहए. इसका जनणटय इन बातों से होगा- (1) क्या वह आदमी
पजु लस के रास्ते में आता है? (2) क्या उसे सज़ा जदलाने से ऊपर के लोग खश
ु होंगे?
मातादीन को बताया गया जक वह आदमी भला है, पर पजु लस अन्द्याय करे तो जवरोध करता है. जहाूँ तक ऊपर
के लोगों का सवाल है- वह वतटमान सरकार की जवरोधी राजनीजत वाला है.
मातादीन ने र्ेजबल ठोंककर कहा- िस्र्ट क्लास के स. पक्का एजवडेंस. और ऊपर का सपोर्ट.
एक इस्ं पेक्र्र ने कहा- पर हमारे गले यह बात नहीं उतरती है जक एक जनरपराध-भले आदमी को सजा जदलाई
जाए.
मातादीन ने समझाया- देखो, मैं समझा चक ु ा हूँ जक सबमें उसी ईश्वर का अश
ं है. सज़ा इसे हो या काजतल को,
िांसी पर तो ईश्वर ही चढ़ेगा न ! जिर तम्ु हे कपड़ों पर खून जमल रहा है. इसे छोड़कर तमु कहाूँ खनू ढूंढते जिरोगे ? तमु
तो भरो एि. आई. आर. .
मातादीन जी ने एि.आई.आर. भरवा दी. ‘बखत ज़रुरत के जलए’ जगह खाली छुड़वा दी.
दसू रे जदन पजु लस कोतवाल ने कहा- गरुु देव, हमारी तो बड़ी आित है. तमाम भले आदमी आते हैं और कहते है,
उस बेचारे बेकसरू को क्यों िंसा रहे हो? ऐसा तो चंरलोक में कभी नहीं हुआ ! बताइये हम क्या जवाब दें? हम तो
बहुत शजमांदा हैं.
मातादीन ने कोतवाल से कहा- घबड़ाओ मत. शरू ु -शरू
ु में इस काम में आदमी को शमट आती है. आगे तम्ु हें
बेकसरू को छोड़ने में शमट आएगी. हर चीज़ का जवाब है. अब आपके पास जो आए उससे कह दो, हम जानते हैं वह
जनदोि है, पर हम क्या करें ? यह सब ऊपर से हो रहा है.
कोतवाल ने कहा- तब वे एस.पी. के पास जाएूँगे.
मातादीन बोले- एस.पी. भी कह दें जक ऊपर से हो रहा है.
तब वे आई.जी. के पास जशकायत करें गे.

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आई.जी. भी कहें जक सब ऊपर से हो रहा है.
तब वे लोग पजु लस मंत्री के पास पहुचं ेंगे.
पजु लस मत्रं ी भी कहेंगे- भैया, मैं क्या करूं? यह ऊपर से हो रहा है.
तो वे प्रधानमंत्री के पास जाएंगे.
प्रधानमत्रं ी भी कहें जक मैं जानता ह,ूँ वह जनदोि है, पर यह ऊपर से हो रहा है.
कोतवाल ने कहा- तब वे…
मातादीन ने कहा- तब क्या? तब वे जकसके पास जाएूँगे? भगवान के पास न ? मगर भगवान से पछू कर कौन
लौर् सका है?
कोतवाल चपु रह गया. वह इस महान प्रजतभा से चमत्कृ त था.
मातादीन ने कहा- एक महु ावरा ‘ऊपर से हो रहा है’ हमारे देश में पच्चीस सालों से सरकारों को बचा रहा है.
तमु इसे सीख लो.
के स की तैयारी होने लगी. मातादीन ने कहा- अब 4-6 चश्मदीद गवाह लाओ.
कोतवाल- चश्मदीद गवाह कै से जमलेंगे? जब जकसी ने उसे मारते देखा ही नहीं, तो चश्मदीद गवाह कोई कै से
होगा?
मातादीन ने जसर ठोंक जलया, जकन बेवकूिों के बीच िंसा जदया गवनटमेंर् ने. इन्द्हें तो ए-बी-सी-डी भी नहीं
आती.
झ्लाकर कहा- चश्मदीद गवाह जकसे कहते हैं, जानते हो? चश्मदीद गवाह वह नहीं है जो देखे- बज्क वह है
जो कहे जक मैंने देखा.
कोतवाल ने कहा- ऐसा कोई क्यों कहेगा?
मातादीन ने कहा- कहेगा. समझ में नहीं आता, कै से जडपार्टमेंर् चलाते हो ! अरे चश्मदीद गवाहों की जलस्र्
पजु लस के पास पहले से रहती है. जहाूँ ज़रुरत हुई, उन्द्हें चश्मदीद बना जदया. हमारे यहाूँ ऐसे आदमी हैं, जो साल में 3-4
सौ वारदातों के चश्मदीद गवाह होते हैं. हमारी अदालतें भी मान लेती हैं जक इस आदमी में कोई दैवी शजि है जजससे
जान लेता है जक अमक ु जगह वारदात होने वाली है और वहाूँ पहले से पहुचूँ जाता है. मैं तम्ु हें चश्मदीद गवाह बनाकर
देता ह.ूँ 8-10 उठाईगीरों को बल
ु ाओ, जो चोरी, मारपीर्, गंडु ागदी करते हों. जआ ु जखलाते हों या शराब उतारते हों.
दसू रे जदन शहर के 8-10 नवरत्न कोतवाली में हाजजर थे. उन्द्हें देखकर मातादीन गद्गद हो गए. बहुत जदन हो गए
थे ऐसे लोगों को देखे. बड़ा सनू ा-सनू ा लग रहा था.
मातादीन का प्रेम उमड़ पड़ा. उनसे कहा- तमु लोगों ने उस आदमी को लाठी से मारते देखा था न?
वे बोले- नहीं देखा साब ! हम वहाूँ थे ही नहीं.

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मातादीन जानते थे, यह पहला मौका है. जिर उन्द्होंने कहा- वहाूँ नहीं थे, यह मैंने माना. पर लाठी मारते देखा तो
था?
उन लोगों को लगा जक यह पागल आदमी है. तभी ऐसी उर्पर्ांग बात कहता है. वे हूँसने लगे.
मातादीन ने कहा- हूँसो मत, जवाब दो.
वे बोले- जब थे ही नहीं, तो कै से देखा?
मातादीन ने गरु ाटकर देखा. कहा- कै से देखा, सो बताता ह.ूँ तमु लोग जो काम करते हो- सब इधर दज़ट है. हर
एक को कम से कम दस साल जेल में डाला जा सकता है. तमु ये काम आगे भी करना चाहते हो या जेल जाना चाहते
हो?
वे घबड़ाकर बोले – साब, हम जेल नहीं जाना चाहते .
मातादीन ने कहा- ठीक. तो तमु ने उस आदमी को लाठी मारते देखा. देखा न ?
वे बोले- देखा साब. वह आदमी घर से जनकला और जो लाठी मारना शरू
ु जकया, तो वह बेचारा बेहोश होकर
सड़क पर जगर पड़ा.
मातादीन ने कहा- ठीक है. आगे भी ऐसी वारदातें देखोगे ?
वे बोले- साब , जो आप कहेंगे, सो देखेंगे.
कोतवाल इस चमत्कार से थोड़ी देर को बेहोश हो गया. होश आया तो मातादीन के चरणों पर जगर पड़ा.
मातादीन ने कहा- हर्ो. काम करने दो.
कोतवाल पाूँवों से जलपर् गया. कहने लगा- मैं जीवन भर इन श्रीचरणों में पड़ा रहना चाहता ह.ूँ
मातादीन ने आगे की सारी कायटप्रणाली तय कर दी. एि.आई.आर. बदलना, बीच में पन्द्ने डालना, रोजनामचा
बदलना, गवाहों को तोड़ना – सब जसखा जदया.
उस आदमी को बीस साल की सज़ा हो गई.
चाूँद की पजु लस जशजक्षत हो चकु ी थी. धड़ाधड़ के स बनने लगे और सज़ा होने लगी. चाूँद की सरकार बहुत
खशु थी. पजु लस की ऐसी मस्ु तैदी भारत सरकार के सहयोग का नतीजा था. चाूँद की संसद ने एक धन्द्यवाद का प्रस्ताव
पास जकया.
एक जदन मातादीनजी का सावटजजनक अजभनंदन जकया गया. वे िूलों से लदे खल ु ी जीप पर बैठे थे. आसपास
जय-जयकार करते हजारों लोग. वे हाथ जोड़कर अपने गृहमत्रं ी की स्र्ाइल में जवाब दे रहे थे
जज़ंदगी में पहली बार ऐसा कर रहे थे, इसजलए थोड़ा अर्पर्ा लग रहा था. छब्बीस साल पहले पजु लस में भरती
होते वि जकसने सोचा था जक एक जदन दसू रे लोक में उनका ऐसा अजभनदं न होगा. वे पछताए- अच्छा होता जक इस
मौके के जलए कुरता, र्ोपी और धोती ले आते.

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भारत के पजु लस मंत्री र्ेलीजवजन पर बैठे यह दृश्य देख रहे थे और सोच रहे थे, मेरी सद्भावना यात्रा के जलए
वातावरण बन गया.
कुछ महीने जनकल गए.
एक जदन चाूँद की संसद का जवशेि अजधवेशन बल ु ाया गया. बहुत तफ़ू ान खड़ा हुआ. गप्तु अजधवेशन था,
इसजलए ररपोर्ट प्रकाजशत नहीं हुई पर ससं द की दीवारों से र्कराकर कुछ शब्द बाहर आए.
सदस्य गस्ु से से जच्ला रहे थे-
कोई बीमार बाप का इलाज नहीं कराता.
डूबते बच्चों को कोई नहीं बचाता.
जलते मकान की आग कोई नहीं बझु ाता.
आदमी जानवर से बदतर हो गया . सरकार फ़ौरन इस्तीफ़ा दे.
दसू रे जदन चाूँद के प्रधानमंत्री ने मातादीन को बल
ु ाया. मातादीन ने देखा – वे एकदम बढ़ू े हो गए थे. लगा, ये
कई रात सोए नहीं हैं.
रुूँआसे होकर प्रधानमंत्री ने कहा- मातादीनजी , हम आपके और भारत सरकार के बहुत आभारी हैं. अब आप
कल देश वापस लौर् जाइये.
मातादीन ने कहा- मैं तो ‘र्मट’ खत्म करके ही जाऊूँगा.
प्रधानमंत्री ने कहा- आप बाकी ‘र्मट’ का वेतन ले जाइये- डबल ले जाइए, जतबल ले जाइये.
मातादीन ने कहा- हमारा जसद्धातं है: हमें पैसा नहीं काम प्यारा है.
आजखर चाूँद के प्रधानमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री को एक गप्तु पत्र जलखा.
चौथे जदन मातादीनजी को वापस लौर्ने के जलए अपने आई.जी. का आडटर जमल गया.
उन्द्होंने एस.पी. साहब के घर के जलए एड़ी चमकाने का पत्थर यान में रखा और चाूँद से जवदा हो गए.
उन्द्हें जाते देख पजु लसवाले रो पड़े.
बहुत अरसे तक यह रहस्य बना रहा जक आजखर चाूँद में ऐसा क्या हो गया जक मातादीनजी को इस तरह
एकदम लौर्ना पड़ा. चाूँद के प्रधान मंत्री ने भारत के प्रधान मंत्री को क्या जलखा था?
एक जदन वह पत्र खल
ु ही गया. उसमें जलखा था-
इस्ं पेक्र्र मातादीन की सेवाएूँ हमें प्रदान करने के जलए अनेक धन्द्यवाद. पर अब आप उन्द्हें फ़ौरन बल
ु ा लें.
हम भारत को जमत्रदेश समझते थे, पर आपने हमारे साथ शत्रुवत व्यवहार जकया है. हम भोले लोगों से आपने
जवश्वासघात जकया है.

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आपके मातादीनजी ने हमारी पजु लस को जैसा कर जदया है, उसके नतीज़े ये हुए हैं:
कोई आदमी जकसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से जक वह कत्ल के मामले में िंसा जदया
जाएगा. बेर्ा बीमार बाप की सेवा नहीं करता. वह डरता है, बाप मर गया तो उस पर कहीं हत्या का आरोप नहीं लगा
जदया जाए. घर जलते रहते हैं और कोई बझु ाने नहीं जाता- डरता है जक कहीं उसपर आग लगाने का जमु ट कायम न कर
जदया जाए. बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्द्हें नहीं बचाता, इस डर से जक उस पर बच्चों को डुबाने का आरोप
न लग जाए. सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं. मातादीनजी ने हमारी आधी संस्कृ जत नि कर दी है. अगर वे यहाूँ रहे
तो परू ी सस्ं कृ जत नि कर देंगे. उन्द्हें फ़ौरन रामराज में बल
ु ा जलया जाए.
****

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मारे गये ग़ुलफाम उफफ तीसरी कसम
िणीश्वरनाथ रे णु
जहरामन गाड़ीवान की पीठ में गदु गदु ी लगती है...
जपछले बीस साल से गाड़ी हाूँकता है जहरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो
चकु ा है। कंट्ोल के जमाने में चोरबाजारी का माल इस पार से उस पार पहुचूँ ाया है। लेजकन कभी तो ऐसी गदु गुदी नहीं
लगी पीठ में!
कंट्ोल का जमाना! जहरामन कभी भल ू सकता है उस जमाने को! एक बार चार खेप सीमेंर् और कपड़े की गाूँठों से भरी
गाड़ी, जोगबानी में जवरार्नगर पहुचूँ ने के बाद जहरामन का कलेजा पोख्ता हो गया था। िारजबसगंज का हर चोर-
व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता। उसके बैलों की बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी खदु करते, अपनी भािा में।
गाड़ी पकड़ी गई पाूँचवी बार, सीमा के इस पार तराई में।
महाजन का मनु ीम उसी की गाड़ी पर गाूँठों के बीच चक्ु की-मक्ु की लगा कर जछपा हुआ था। दारोगा साहब की डेढ़
हाथ लंबी चोरबत्ती की रोशनी जकतनी तेज होती है, जहरामन जानता है। एक घंर्े के जलए आदमी अंधा हो जाता है, एक
छर्क भी पड़ जाए आूँखों पर! रोशनी के साथ कड़कती हुई आवाज - 'ऐ-य! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगे?'
बीसों गाजड़याूँ एक साथ कचकचा कर रुक गई।ं जहरामन ने पहले ही कहा था, 'यह बीस जविावेगा!' दारोगा साहब
उसकी गाड़ी में दबु के हुए मनु ीम जी पर रोशनी डाल कर जपशाची हूँसी हूँसे - 'हा-हा-हा! मनु ीम जी-ई-ई-ई! ही-ही-ही!
ऐ-य, साला गाड़ीवान, मूँहु क्या देखता है रे -ए-ए! कंबल हर्ाओ इस बोरे के मूँहु पर से!' हाथ की छोर्ी लाठी से मनु ीम
जी के पेर् में खोंचा मारते हुए कहा था, 'इस बोरे को! स-स्साला!'
बहुत परु ानी अखज-अदावत होगी दारोगा साहब और मनु ीम जी में। नहीं तो उतना रूपया कबल ू ने पर भी पजु लस-
दरोगा का मन न डोले भला! चार हजार तो गाड़ी पर बैठा ही दे रहा है। लाठी से दसू री बार खोंचा मारा दारोगा ने। 'पाूँच
हजार!' जिर खोंचा - 'उतरो पहले... '
मनु ीम को गाड़ी से नीचे उतार कर दारोगा ने उसकी आूँखों पर रोशनी डाल दी। जिर दो जसपाजहयों के साथ सड़क से
बीस-पच्चीस रस्सी दरू झाड़ी के पास ले गए। गाड़ीवान और गाजड़यों पर पाूँच-पाूँच बंदक ू वाले जसपाजहयों का पहरा!
जहरामन समझ गया, इस बार जनस्तार नहीं। जेल? जहरामन को जेल का डर नहीं। लेजकन उसके बैल? न जाने जकतने
जदनों तक जबना चारा-पानी के सरकारी िार्क में पड़े रहेंगे - भख
ू े-प्यासे। जिर नीलाम हो जाएूँगे। भैया और भौजी को
वह मूँहु नहीं जदखा सके गा कभी। ...नीलाम की बोली उसके कानों के पास गूँजू गई - एक-दो-तीन! दारोगा और मनु ीम
में बात पर् नहीं रही थी शायद।
जहरामन की गाड़ी के पास तैनात जसपाही ने अपनी भािा में दसू रे जसपाही से धीमी आवाज में पछू ा, 'का हो? मामला
गोल होखी का?' जिर खैनी-तबं ाकू देने के बहाने उस जसपाही के पास चला गया।

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एक-दो-तीन! तीन-चार गाजड़यों की आड़। जहरामन ने िै सला कर जलया। उसने धीरे -से अपने बैलों के गले की रजस्सयाूँ
खोल लीं। गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों को जड़ु वाूँ बाूँध जदया। बैल समझ गए उन्द्हें क्या करना है। जहरामन उतरा, जतु ी हुई
गाड़ी में बाूँस की जर्कर्ी लगा कर बैलों के कंधों को बेलाग जकया। दोनों के कानों के पास गदु गदु ी लगा दी और मन-
ही-मन बोला, 'चलो भैयन, जान बचेगी तो ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत जमलेगी।' ...एक-दो-तीन! नौ-दो-ग्यारह! ..
गाजड़यों की आड़ में सड़क के जकनारे दरू तक घनी झाड़ी िै ली हुई थी। दम साध कर तीनों प्राजणयों ने झाड़ी को पार
जकया - बेखर्क, बेआहर्! जिर एक ले, दो ले - दल ु की चाल! दोनों बैल सीना तान कर जिर तराई के घने जंगलों में
घसु गए। राह सूँघू ते, नदी-नाला पार करते हुए भागे पूँछू उठा कर। पीछे -पीछे जहरामन। रात-भर भागते रहे थे तीनों जन।
घर पहुचूँ कर दो जदन तक बेसधु पड़ा रहा जहरामन। होश में आते ही उसने कान पकड़ कर कसम खाई थी - अब कभी
ऐसी चीजों की लदनी नहीं लादेंगे। चोरबाजारी का माल ? तोबा, तोबा!... पता नहीं मनु ीम जी का क्या हुआ! भगवान
जाने उसकी सग्गड़ गाड़ी का क्या हुआ! असली इस्पात लोहे की धरु ी थी। दोनों पजहए तो नहीं, एक पजहया एकदम
नया था। गाड़ी में रंगीन डोररयों के िूँु दने बड़े जतन से गूँथू े गए थे।
दो कसमें खाई हैं उसने। एक चोरबाजारी का माल नहीं लादेंगे। दसू री - बाूँस। अपने हर भाड़ेदार से वह पहले ही पछू
लेता है - 'चोरी- चमारीवाली चीज तो नहीं? और, बाूँस? बाूँस लादने के जलए पचास रूपए भी दे कोई, जहरामन की
गाड़ी नहीं जमलेगी। दसू रे की गाड़ी देखे।
बाूँस लदी हुई गाड़ी! गाड़ी से चार हाथ आगे बाूँस का अगआ ु जनकला रहता है और पीछे की ओर चार हाथ जपछुआ!
काबू के बाहर रहती है गाड़ी हमेशा। सो बेकाबवू ाली लदनी और खरै जहया। शहरवाली बात! जतस पर बाूँस का अगआ ु
पकड़ कर चलनेवाला भाड़ेदार का महाभकुआ नौकर, लड़की-स्कूल की ओर देखने लगा। बस, मोड़ पर घोड़ागाड़ी से
र्क्कर हो गई। जब तक जहरामन बैलों की रस्सी खींचे, तब तक घोड़ागाड़ी की छतरी बाूँस के अगआ ु में िूँ स गई।
घोड़ा-गाड़ीवाले ने तड़ातड़ चाबक ु मारते हुए गाली दी थी! बाूँस की लदनी ही नहीं, जहरामन ने खरै जहया शहर की
लदनी भी छोड़ दी। और जब िारजबसगजं से मोरंग का भाड़ा ढोना शरू ु जकया तो गाड़ी ही पार! कई विों तक जहरामन
ने बैलों को आधीदारी पर जोता। आधा भाड़ा गाड़ीवाले का और आधा बैलवाले का। जहस्स! गाड़ीवानी करो मफ्ु त!
आधीदारी की कमाई से बैलों के ही पेर् नहीं भरते। जपछले साल ही उसने अपनी गाड़ी बनवाई है।
देवी मैया भला करें उस सरकस-कंपनी के बाघ का। जपछले साल इसी मेले में बाघगाड़ी को ढोनेवाले दोनों घोड़े मर
गए। चंपानगर से िारजबसगंज मेला आने के समय सरकस-कंपनी के मैनेजर ने गाड़ीवान-पट्टी में ऐलान करके कहा -
'सौ रूपया भाड़ा जमलेगा!' एक-दो गाड़ीवान राजी हुए। लेजकन, उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दरू ही डर से जडकरने
लगे - बाूँ-आूँ! रस्सी तड़ु ा कर भागे। जहरामन ने अपने बैलों की पीठ सहलाते हुए कहा, 'देखो भैयन, ऐसा मौका जिर
हाथ न आएगा। यही है मौका अपनी गाड़ी बनवाने का। नहीं तो जिर आधेदारी। अरे जपजं ड़े में बदं बाघ का क्या डर?
मोरंग की तराई में दहाड़ते हुइ बाघों को देख चक ु े हो। जिर पीठ पर मैं तो ह।ूँ ...'
गाड़ीवानों के दल में ताजलयाूँ पर्पर्ा उठीं थीं एक साथ। सभी की लाज रख ली जहरामन के बैलों ने। हुमक कर आगे
बढ़ गए और बाघगाड़ी में जर्ु गए - एक-एक करके । जसिट दाजहने बैल ने जतु ने के बाद ढेर-सा पेशाब जकया। जहरामन
ने दो जदन तक नाक से कपड़े की पट्टी नहीं खोली थी। बड़ी गद्दी के बडे सेठ जी की तरह नकबंधन लगाए जबना बघाइन
गधं बरदास्त नहीं कर सकता कोई।

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बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है जहरामन ने। कभी ऐसी गदु गुदी नहीं लगी पीठ में। आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा
का िूल महक उठता है। पीठ में गदु गदु ी लगने पर वह अूँगोछे से पीठ झाड़ लेता है।
जहरामन को लगता है, दो विट से चंपानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्द्न है। जपछले साल बाघगाड़ी जर्ु गई।
नकद एक सौ रूपए भाड़े के अलावा बतु ाद, चाह-जबस्कुर् और रास्ते-भर बंदर-भालू और जोकर का तमाशा देखा सो
िोकर् में!
और, इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का िूल! जब से गाड़ी मह-मह महक रही है।
कच्ची सड़क के एक छोर्े -से खड्ड में गाड़ी का दाजहना पजहया बेमौके जहचकोला खा गया। जहरामन की गाड़ी से एक
ह्की 'जसस' की आवाज आई। जहरामन ने दाजहने बैल को दआ ु ली से पीर्ते हुए कहा, 'साला! क्या समझता है, बोरे
की लदनी है क्या?'
'अहा! मारो मत!'
अनदेखी औरत की आवाज ने जहरामन को अचरज में डाल जदया। बच्चों की बोली जैसी महीन , िे नजू गलासी बोली!
मथरु ामोहन नौर्ंकी कंपनी में लैला बननेवाली हीराबाई का नाम जकसने नहीं सनु ा होगा भला! लेजकन जहरामन की बात
जनराली है! उसने सात साल तक लगातार मेलों की लदनी लादी है, कभी नौर्ंकी-जथयेर्र या बायस्कोप जसनेमा नहीं
देखा। लैला या हीराबाई का नाम भी उसने नहीं सनु ा कभी। देखने की क्या बात! सो मेला र्ूर्ने के पंरह जदन पहले
आधी रात की बेला में काली ओढ़नी में जलपर्ी औरत को देख कर उसके मन में खर्का अवश्य लगा था। बक्सा
ढोनेवाले नौकर से गाड़ी-भाड़ा में मोल-मोलाई करने की कोजशश की तो ओढ़नीवाली ने जसर जहला कर मना कर
जदया। जहरामन ने गाड़ी जोतते हुए नौकर से पछू ा, 'क्यों भैया, कोई चोरी चमारी का माल-वाल तो नहीं?' जहरामन को
जिर अचरज हुआ। बक्सा ढोनेवाले आदमी ने हाथ के इशारे से गाड़ी हाूँकने को कहा और अूँधेरे में गायब हो गया।
जहरामन को मेले में तंबाकू बेचनेवाली बढ़ू ी की काली साड़ी की याद आई थी।
ऐसे में कोई क्या गाड़ी हाूँके!
एक तो पीठ में गदु गदु ी लग रही है। दसू रे रह-रह कर चंपा का िूल जखल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डाूँर्ो तो
'इस-जबस' करने लगती है उसकी सवारी। उसकी सवारी! औरत अके ली, तबं ाकू बेचनेवाली बढ़ू ी नहीं! आवाज सनु ने
के बाद वह बार-बार मड़ु कर र्प्पर में एक नजर डाल देता है, अूँगोछे से पीठ झाड़ता है। ...भगवान जाने क्या जलखा है
इस बार उसकी जकस्मत में! गाड़ी जब परू ब की ओर मड़ु ी, एक र्ुकड़ा चाूँदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की
नाक पर एक जगु नू जगमगा उठा। जहरामन को सबकुछ रहस्यमय - अजगतु -अजगतु - लग रहा है। सामने चपं ानगर से
जसंजधया गाूँव तक िै ला हुआ मैदान... कहीं डाजकन-जपशाजचन तो नहीं?
जहरामन की सवारी ने करवर् ली। चाूँदनी परू े मख
ु ड़े पर पड़ी तो जहरामन चीखते-चीखते रूक गया - अरे बाप! ई तो परी
है!

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परी की आूँखें खलु गई।ं जहरामन ने सामने सड़क की ओर मूँहु कर जलया और बैलों को जर्र्कारी दी। वह जीभ को
तालू से सर्ा कर जर्-जर्-जर्-जर् आवाज जनकालता है। जहरामन की जीभ न जाने कब से सख
ू कर लकड़ी-जैसी हो गई
थी!
'भैया, तम्ु हारा नाम क्या है?'
ह-ब-ह िे नजू गलास! ...जहरामन के रोम-रोम बज उठे । मूँहु से बोली नहीं जनकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके
इस बोली को परखते हैं।
'मेरा नाम! ...नाम मेरा है जहरामन!'
उसकी सवारी मस्ु कराती है। ...मस्ु कराहर् में खश
ु बू है।
'तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं। - मेरा नाम भी हीरा है।'
'इस्स!' जहरामन को परतीत नहीं, 'मदट और औरत के नाम में िकट होता है।'
'हाूँ जी, मेरा नाम भी हीराबाई है।'
कहाूँ जहरामन और कहाूँ हीराबाई, बहुत िकट है!
जहरामन ने अपने बैलों को जझड़की दी - 'कान चजु नया कर गप सनु ने से ही तीस कोस मंजजल कर्ेगी क्या? इस बाएूँ नार्े
के पेर् में शैतानी भरी है।' जहरामन ने बाएूँ बैल को दआ
ु ली की ह्की झड़प दी।
'मारो मत, धीरे धीरे चलने दो। ज्दी क्या है!'
जहरामन के सामने सवाल उपजस्थत हुआ, वह क्या कह कर 'गप' करे हीराबाई से? 'तोहे' कहे या 'अहाूँ'? उसकी भािा में
बड़ों को 'अहाूँ' अथाटत 'आप' कह कर सबं ोजधत जकया जाता है, कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता
है, जदल-खोल गप तो गाूँव की बोली में ही की जा सकती है जकसी से।
आजसन-काजतक के भोर में छा जानेवाले कुहासे से जहरामन को परु ानी जचढ़ है। बहुत बार वह सड़क भल ू कर भर्क
चकु ा है। जकंतु आज के भोर के इस घने कुहासे में भी वह मगन है। नदी के जकनारे धन-खेतों से िूले हुए धान के पौधों
की पवजनया गंध आती है। पवट-पावन के जदन गाूँव में ऐसी ही सगु ंध िै ली रहती है। उसकी गाड़ी में जिर चंपा का िूल
जखला। उस िूल में एक परी बैठी है। ...जै भगवती।
जहरामन ने आूँख की कनजखयों से देखा, उसकी सवारी ...मीता ...हीराबाई की आूँखें गजु रु -गजु रु उसको हेर रही हैं।
जहरामन के मन में कोई अजानी राजगनी बज उठी। सारी देह जसरजसरा रही है। बोला, 'बैल को मारते हैं तो आपको बहुत
बरु ा लगता है?'
हीराबाई ने परख जलया, जहरामन सचमचु हीरा है।
चालीस साल का हट्टा-कट्टा, काला-कलर्ू ा, देहाती नौजवान अपनी गाड़ी और अपने बैलों के जसवाय दजु नया की
जकसी और बात में जवशेि जदलचस्पी नहीं लेता। घर में बड़ा भाई है, खेती करता है। बाल-बच्चेवाला आदमी है।
जहरामन भाई से बढ़ कर भाभी की इज्जत करता है। भाभी से डरता भी है। जहरामन की भी शादी हुई थी, बचपन में ही

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गौने के पहले ही दल
ु जहन मर गई। जहरामन को अपनी दल ु जहन का चेहरा याद नहीं। ...दसू री शादी? दसू री शादी न करने
के अनेक कारण हैं। भाभी की जजद, कुमारी लड़की से ही जहरामन की शादी करवाएगी। कुमारी का मतलब हुआ पाूँच-
सात साल की लड़की। कौन मानता है सरधा-काननू ? कोई लड़कीवाला दोब्याह को अपनी लड़की गरज में पड़ने पर
ही दे सकता है। भाभी उसकी तीन-सत्त करके बैठी है, सो बैठी है। भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती! ...अब
जहरामन ने तय कर जलया है, शादी नहीं करे गा। कौन बलाय मोल लेने जाए! ...ब्याह करके जिर गाड़ीवानी क्या करे गा
कोई! और सब कुछ छूर् जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता जहरामन।
हीराबाई ने जहरामन के जैसा जनश्छल आदमी बहुत कम देखा है। पछू ा, 'आपका घर कौन जज्ला में पड़ता है?' कानपरु
नाम सनु ते ही जो उसकी हूँसी छूर्ी, तो बैल भड़क उठे । जहरामन हूँसते समय जसर नीचा कर लेता है। हूँसी बंद होने पर
उसने कहा, 'वाह रे कानपुर! तब तो नाकपरु भी होगा? 'और जब हीराबाई ने कहा जक नाकपरु भी है, तो वह हूँसते-हूँसते
दहु रा हो गया।
'वाह रे दजु नया! क्या-क्या नाम होता है! कानपरु , नाकपरु !' जहरामन ने हीराबाई के कान के िूल को गौर से देखा। नाक
की नकछजव के नग देख कर जसहर उठा - लह की बूँदू !
जहरामन ने हीराबई का नाम नहीं सनु ा कभी। नौर्ंकी कंपनी की औरत को वह बाईजी नहीं समझता है। ...कंपनी में
काम करनेवाली औरतों को वह देख चक ु ा है। सरकस कंपनी की मालजकन, अपनी दोनों जवान बेजर्यों के साथ
बाघगाड़ी के पास आती थी, बाघ को चारा-पानी देती थी, प्यार भी करती थी खबू । जहरामन के बैलों को भी
डबलरोर्ी-जबस्कुर् जखलाया था बड़ी बेर्ी ने।
जहरामन होजशयार है। कुहासा छूँ र्ते ही अपनी चादर से र्प्पर में परदा कर जदया -'बस दो घर्ं ा! उसके बाद रास्ता चलना
मजु श्कल है। काजतक की सबु ह की धल ू आप बदाटस्त न कर सजकएगा। कजरी नदी के जकनारे तेगजछया के पास गाड़ी
लगा देंगे। दपु हररया कार् कर...।'
सामने से आती हुई गाड़ी को दरू से ही देख कर वह सतकट हो गया। लीक और बैलों पर ध्यान लगा कर बैठ गया। राह
कार्ते हुए गाड़ीवान ने पछू ा, 'मेला र्ूर् रहा है क्या भाई?'
जहरामन ने जवाब जदया, वह मेले की बात नहीं जानता। उसकी गाड़ी पर 'जबदागी' (नैहर या ससरु ाल जाती हुई लड़की)
है। न जाने जकस गाूँव का नाम बता जदया जहरामन ने।
'छतापुर-पचीरा कहाूँ है?'
'कहीं हो, यह ले कर आप क्या कररएगा ?' जहरामन अपनी चतरु ाई पर हूँसा। परदा डाल देने पर भी पीठ में गदु गदु ी
लगती है।
जहरामन परदे के छे द से देखता है। हीराबाई एक जदयासलाई की जडब्बी के बराबर आईने में अपने दाूँत देख रही है।
...मदनपरु मेले में एक बार बैलों को नन्द्हीं-जचत्ती कौजड़यों की माला खरीद दी थी। जहरामन ने, छोर्ी-छोर्ी, नन्द्हीं-नन्द्हीं
कौजड़यों की पाूँत।

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तेगजछया के तीनों पेड़ दरू से ही जदखलाई पड़ते हैं। जहरामन ने परदे को जरा सरकाते हुए कहा, 'देजखए, यही है तेगजछया।
दो पेड़ जर्ामासी बड़ है और एक उस िूल का क्या नाम है, आपके कुरते पर जैसा िूल छपा हुआ है, वैसा ही, खबू
महकता है, दो कोस दरू तक गंध जाती है, उस िूल को खमीरा तंबाकू में डाल कर पीते भी हैं लोग।'
'और उस अमराई की आड़ से कई मकान जदखाई पड़ते हैं, वहाूँ कोई गाूँव है या मंजदर?'
जहरामन ने बीड़ी सल ु गाने के पहले पछू ा, 'बीड़ी पीएूँ? आपको गधं तो नहीं लगेगी? ...वही है नामलगर ड्योढ़ी। जजस
राजा के मेले से हम लोग आ रहे हैं, उसी का जदयाद-गोजतया है। ...जा रे जमाना!'
जहरामन ने जा रे जमाना कह कर बात को चाशनी में डाल जदया। हीराबाई ने र्प्पर के परदे को जतरछे खोंस जदया।
हीराबाई की दंतपंजि।
'कौन जमाना?' ठुड्डी पर हाथ रख कर साग्रह बोली।
'नामलगर ड्योढ़ी का जमाना! क्या था और क्या-से-क्या हो गया!'
जहरामन गप रसाने का भेद जानता है। हीराबाई बोली, 'तमु ने देखा था वह जमाना?'
'देखा नहीं, सनु ा है। राज कै से गया, बड़ी हैिवाली कहानी है। सनु ते हैं, घर में देवता ने जन्द्म ले जलया। कजहए भला,
देवता आजखर देवता है। है या नहीं? इदं रासन छोड़ कर जमरतभू वु न में जन्द्म ले ले तो उसका तेज कै से सम्हाल सकता है
कोई! सरू जमख ु ी िूल की तरह माथे के पास तेज जखला रहता। लेजकन नजर का िे र, जकसी ने नहीं पहचाना। एक बार
उपलैन में लार् साहब मय लार्नी के , हवागाड़ी से आए थे। लार् ने भी नहीं, पहचाना आजखर लर्नी ने। सरु जमख ु ी
तेज देखते ही बोल उठी - ए मैन राजा साहब, सनु ो, यह आदमी का बच्चा नहीं है, देवता है।'
जहरामन ने लार्नी की बोली की नकल उतारते समय खबू डैम-िै र्-लैर् जकया। हीराबाई जदल खोल कर हूँसी। हूँसते
समय उसकी सारी देह दल ु कती है।
हीराबाई ने अपनी ओढ़नी ठीक कर ली। तब जहरामन को लगा जक... लगा जक...
'तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?'
'इस्स! कथा सनु ने का बड़ा सौक है आपको? ...लेजकन, काला आदमी, राजा क्या महाराजा भी हो जाए, रहेगा काला
आदमी ही। साहेब के जैसे अजक्कल कहाूँ से पाएगा! हूँस कर बात उड़ा दी सभी ने। तब रानी को बार-बार सपना देने
लगा देवता! सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो, नहीं, रहेंगे तम्ु हारे यहाूँ। इसके बाद देवता का खेल शरू
ु हुआ। सबसे
पहले दोनों दतं ार हाथी मरे , जिर घोड़ा, जिर पर्पर्ांग...।'
'पर्पर्ागं क्या है?'
जहरामन का मन पल-पल में बदल रहा है। मन में सतरंगा छाता धीरे -धीरे जखल रहा है, उसको लगता है। ...उसकी गाड़ी
पर देवकुल की औरत सवार है। देवता आजखर देवता है!
'पर्पर्ांग! धन-दौलत, माल-मवेसी सब साि! देवता इदं रासन चला गया।'
हीराबाई ने ओझल होते हुए मंजदर के कूँ गरू े की ओर देख कर लंबी साूँस ली।

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'लेजकन देवता ने जाते-जाते कहा, इस राज में कभी एक छोड़ कर दो बेर्ा नहीं होगा। धन हम अपने साथ ले जा रहे हैं,
गनु छोड़ जाते हैं। देवता के साथ सभी देव-देवी चले गए, जसिट सरोसती मैया रह गई। उसी का मजं दर है।'
देसी घोड़े पर पार् के बोझ लादे हुए बजनयों को आते देख कर जहरामन ने र्प्पर के परदे को जगरा जदया। बैलों को
ललकार कर जबदेजसया नाच का बंदनागीत गाने लगा -
'जै मैया सरोसती, अरजी करत बानी,
हमरा पर होखू सहाई हे मैया, हमरा पर होखू सहाई!'
घोड़लद्दे बजनयों से जहरामन ने हुलस कर पछू ा, 'क्या भाव पर्ुआ खरीदते हैं महाजन?'
लूँगड़े घोड़ेवाले बजनए ने बर्गमनी जवाब जदया - 'नीचे सताइस-अठाइस, ऊपर तीस। जैसा माल, वैसा भाव।'
जवान बजनये ने पछू ा, 'मेले का क्या हालचाल है, भाई? कौन नौर्ंकी कंपनी का खेल हो रहा है, रौता कंपनी या
मथरु ामोहन?'
'मेले का हाल मेलावाला जाने?' जहरामन ने जिर छतापरु -पचीरा का नाम जलया।
सरू ज दो बाूँस ऊपर आ गया था। जहरामन अपने बैलों से बात करने लगा - 'एक कोस जमीन! जरा दम बाूँध कर चलो।
प्यास की बेला हो गई न! याद है, उस बार तेगजछया के पास सरकस कंपनी के जोकर और बंदर नचानेवाला साहब में
झगड़ा हो गया था। जोकरवा ठीक बंदर की तरह दाूँत जकर्जकर्ा कर जकजक्रयाने लगा था, न जाने जकस-जकस देस-
मल ु क
ु के आदमी आते हैं!'
जहरामन ने जिर परदे के छे द से देखा, हीराबई एक कागज के र्ुकड़े पर आूँख गड़ा कर बैठी है। जहरामन का मन आज
ह्के सरु में बूँधा है। उसको तरह-तरह के गीतों की याद आती है। बीस-पच्चीस साल पहले, जबदेजसया, बलवाही,
छोकरा-नाचनेवाले एक-से-एक गजल खेमर्ा गाते थे। अब तो, भोंपा में भोंप-ू भोंपू करके कौन गीत गाते हैं लोग! जा रे
जमाना! छोकरा-नाच के गीत की याद आई जहरामन को -
'सजनवा बैरी हो ग' य हमारो! सजनवा.....!
अरे , जचजठया हो ते सब कोई बाूँचे, जचजठया हो तो....
हाय! करमवा, होय करमवा....
गाड़ी की ब्ली पर उूँगजलयों से ताल दे कर गीत को कार् जदया जहरामन ने। छोकरा-नाच के मनवु ाूँ नर्ुवा का मूँहु
हीराबाई-जैसा ही था। ...कहाूँ चला गया वह जमाना? हर महीने गाूँव में नाचनेवाले आते थे। जहरामन ने छोकरा-नाच
के चलते अपनी भाभी की न जाने जकतनी बोली-ठोली सनु ी थी। भाई ने घर से जनकल जाने को कहा था।
आज जहरामन पर माूँ सरोसती सहाय हैं, लगता है। हीराबाई बोली, 'वाह, जकतना बजढ़या गाते हो तमु !'
जहरामन का मूँहु लाल हो गया। वह जसर नीचा कर के हूँसने लगा।

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आज तेगजछया पर रहनेवाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं जहरामन पर। तेगजछया के नीचे एक भी गाड़ी नहीं। हमेशा
गाड़ी और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती हैं यहाूँ। जसिट एक साइजकलवाला बैठ कर सस्ु ता रहा है। महावीर स्वामी को
समु र कर जहरामन ने गाड़ी रोकी। हीराबाई परदा हर्ाने लगी। जहरामन ने पहली बार आूँखों से बात की हीराबाई से -
साइजकलवाला इधर ही र्कर्की लगा कर देख रहा है।
बैलों को खोलने के पहले बाूँस की जर्कर्ी लगा कर गाड़ी को जर्का जदया। जिर साइजकलवाले की ओर बार-बार घरू ते
हुए पछू ा, 'कहाूँ जाना है? मेला? कहाूँ से आना हो रहा है? जबसनपरु से? बस, इतनी ही दरू में थसथसा कर थक गए? -
जा रे जवानी!'
साइजकलवाला दबु ला-पतला नौजवान जमनजमना कर कुछ बोला और बीड़ी सल ु गा कर उठ खड़ा हुआ। जहरामन
दजु नया-भर की जनगाह से बचा कर रखना चाहता है हीराबाई को। उसने चारों ओर नजर दौड़ा कर देख जलया - कहीं
कोई गाड़ी या घोड़ा नहीं।
कजरी नदी की दबु ली-पतली धारा तेगजछया के पास आ कर परू ब की ओर मड़ु गई है। हीराबाई पानी में बैठी हुई भैसों
और उनकी पीठ पर बैठे हुए बगल
ु ों को देखती रही।
जहरामन बोला, 'जाइए, घार् पर मूँहु -हाथ धो आइए!'
हीराबाई गाड़ी से नीचे उतरी। जहरामन का कलेजा धड़क उठा। ...नहीं, नहीं! पाूँव सीधे हैं, र्ेढ़े नहीं। लेजकन, तलवु ा
इतना लाल क्यों हैं? हीराबाई घार् की ओर चली गई, गाूँव की बह-बेर्ी की तरह जसर नीचा कर के धीरे -धीरे । कौन
कहेगा जक कंपनी की औरत है! ...औरत नहीं, लड़की। शायद कुमारी ही है।
जहरामन जर्कर्ी पर जर्की गाड़ी पर बैठ गया। उसने र्प्पर में झाूँक कर देखा। एक बार इधर-उधर देख कर हीराबाई के
तजकए पर हाथ रख जदया। जिर तजकए पर के हुनी डाल कर झक ु गया, झक ु ता गया। खश
ु बू उसकी देह में समा गई।
तजकए के जगलाि पर कढ़े िूलों को उूँगजलयों से छू कर उसने सूँघू ा, हाय रे हाय! इतनी सगु ंध! जहरामन को लगा, एक
साथ पाूँच जचलम गाूँजा िूँू क कर वह उठा है। हीराबाई के छोर्े आईने में उसने अपना मूँहु देखा। आूँखें उसकी इतनी
लाल क्यों हैं?
हीराबाई लौर् कर आई तो उसने हूँस कर कहा, 'अब आप गाड़ी का पहरा दीजजए, मैं आता हूँ तरु ं त।'
जहरामन ने अपना सिरी झोली से सहेजी हुई गंजी जनकाली। गमछा झाड़ कर कंधे पर जलया और हाथ में बालर्ी
लर्का कर चला। उसके बैलों ने बारी-बारी से 'हुक ूँ -हुक
ूँ ' करके कुछ कहा। जहरामन ने जाते-जाते उलर् कर कहा,
'हाूँ,हाूँ, प्यास सभी को लगी है। लौर् कर आता हूँ तो घास दगूँू ा, बदमासी मत करो!'
बैलों ने कान जहलाए।
नहा-धो कर कब लौर्ा जहरामन, हीराबाई को नहीं मालमू । कजरी की धारा को देखते-देखते उसकी आूँखों में रात की
उचर्ी हुई नींद लौर् आई थी। जहरामन पास के गाूँव से जलपान के जलए दही-चड़ू ा-चीनी ले आया है।
'उजठए, नींद तोजड़ए! दो मट्ठु ी जलपान कर लीजजए!'

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हीराबाई आूँख खोल कर अचरज में पड़ गई। एक हाथ में जमट्टी के नए बरतन में दही, के ले के पत्ते। दसू रे हाथ में
बालर्ी-भर पानी। आूँखों में आत्मीयतापणू ट अनरु ोध!
'इतनी चीजें कहाूँ से ले आए!'
'इस गाूँव का दही नामी है। ...चाह तो िारजबसगंज जा कर ही पाइएगा।
जहरामन की देह की गदु गुदी जमर् गई। 'हीराबाई ने कहा, 'तमु भी पत्तल जबछाओ। ...क्यों? तमु नहीं खाओगे तो समेर्
कर रख लो अपनी झोली में। मैं भी नहीं खाऊूँगी।'
'इस्स!' जहरामन लजा कर बोला, 'अच्छी बात! आप खा लीजजए पहले!'
'पहले-पीछे क्या? तमु भी बैठो।'
जहरामन का जी जड़ु ा गया। हीराबाई ने अपने हाथ से उसका पत्तल जबछा जदया, पानी छींर् जदया, चड़ू ा जनकाल कर
जदया। इस्स! धन्द्न है, धन्द्न है! जहरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है। लाल होठों पर गोरस का परस!
...पहाड़ी तोते को दधू -भात खाते देखा है?
जदन ढल गया।
र्प्पर में सोई हीराबाई और जमीन पर दरी जबछा कर सोए जहरामन की नींद एक ही साथ खल
ु ी। ...मेले की ओर
जानेवाली गाजड़याूँ तेगजछया के पास रूकी हैं। बच्चे कचर-पचर कर रहे हैं।
जहरामन हड़बड़ा कर उठा। र्प्पर के अदं र झाूँक कर इशारे से कहा - जदन ढल गया! गाड़ी में बैलों को जोतते समय
उसने गाड़ीवानों के सवालों का कोई जवाब नहीं जदया। गाड़ी हाूँकते हुए बोला, 'जसरपरु बाजार के इसजपताल की
डागडरनी हैं। रोगी देखने जा रही हैं। पास ही कुड़मागाम।'
हीराबाई छत्तापुर-पचीरा का नाम भल
ू गई। गाड़ी जब कुछ दरू आगे बढ़ आई तो उसने हूँस कर पछू ा, 'पत्तापरु -छपीरा?'
हूँसते-हूँसते पेर् में बल पड़ जाए जहरामन के - 'पत्तापरु -छपीरा! हा-हा। वे लोग छत्तापरु -पचीरा के ही गाड़ीवान थे, उनसे
कै से कहता! ही-ही-ही!'
हीराबाई मस्ु कराती हुई गाूँव की ओर देखने लगी।
सड़क तेगजछया गाूँव के बीच से जनकलती है। गाूँव के बच्चों ने परदेवाली गाड़ी देखी और ताजलयाूँ बजा-बजा कर रर्ी
हुई पंजियाूँ दहु राने लगे -
'लाली-लाली डोजलया में
लाली रे दल
ु जहजनया
पान खाए...!'
जहरामन हूँसा। ...दल
ु जहजनया ...लाली-लाली डोजलया! दल ु जहजनया पान खाती है, दलु हा की पगड़ी में मूँहु पोंछती है।
ओ दल ु जहजनया, तेगजछया गाूँव के बच्चों को याद रखना। लौर्ती बेर गड़ु का लड्डू लेती आइयो। लाख बररस तेरा

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हुलहा जीए! ...जकतने जदनों का हौसला परू ा हुआ है जहरामन का! ऐसे जकतने सपने देखे हैं उसने! वह अपनी दल ु जहन
को ले कर लौर् रहा है। हर गाूँव के बच्चे ताजलयाूँ बजा कर गा रहे हैं। हर आूँगन से झाूँक कर देख रही हैं औरतें। मदट
लोग पछू ते हैं, 'कहाूँ की गाड़ी है, कहाूँ जाएगी? उसकी दल
ु जहन डोली का परदा थोड़ा सरका कर देखती है। और भी
जकतने सपने...
गाूँव से बाहर जनकल कर उसने कनजखयों से र्प्पर के अदं र देखा, हीराबाई कुछ सोच रही है। जहरामन भी जकसी सोच में
पड़ गया। थोड़ी देर के बाद वह गनु गनु ाने लगा-
'सजन रे झठू मजत बोलो, खदु ा के पास जाना है।
नहीं हाथी, नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी -
वहाूँ पैदल ही जाना है। सजन रे ...।'
हीराबाई ने पछू ा, 'क्यों मीता? तम्ु हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या?'
जहरामन अब बेखर्क हीराबाई की आूँखों में आूँखें डाल कर बात करता है। कंपनी की औरत भी ऐसी होती है?
सरकस कंपनी की मालजकन मेम थी। लेजकन हीराबाई! गाूँव की बोली में गीत सनु ना चाहती है। वह खल
ु कर
मस्ु कराया - 'गाूँव की बोली आप समजझएगा?'
'ह-ूँ ऊूँ-ऊूँ !' हीराबाई ने गदटन जहलाई। कान के झमु के जहल गए।
जहरामन कुछ देर तक बैलों को हाूँकता रहा चपु चाप। जिर बोला, 'गीत जरूर ही सजु नएगा? नहीं माजनएगा? इस्स! इतना
सौक गाूँव का गीत सनु ने का है आपको! तब लीक छोड़ानी होगी। चालू रास्ते में कै से गीत गा सकता है कोई!'
जहरामन ने बाएूँ बैल की रस्सी खींच कर दाजहने को लीक से बाहर जकया और बोला , 'हररपरु हो कर नहीं जाएूँगे तब।'
चालू लीक को कार्ते देख कर जहरामन की गाड़ी के पीछे वाले गाड़ीवान ने जच्ला कर पछू ा, 'काहे हो गाड़ीवान, लीक
छोड़ कर बेलीक कहाूँ उधर?'
जहरामन ने हवा में दआ
ु ली घमु ाते हुए जवाब जदया - 'कहाूँ है बेलीकी? वह सड़क नननपरु तो नहीं जाएगी।' जिर अपने-
आप बड़बड़ाया, 'इस मल ु क
ु के लोगों की यही आदत बरु ी है। राह चलते एक सौ जजरह करें गे। अरे भाई, तमु को जाना
है, जाओ। ...देहाती भच्ु च सब!'
नननपरु की सड़क पर गाड़ी ला कर जहरामन ने बैलों की रस्सी ढीली कर दी। बैलों ने दल
ु की चाल छोड़ कर कदमचाल
पकड़ी।
हीराबाई ने देखा, सचमचु नननपरु की सड़क बड़ी सनू ी है। जहरामन उसकी आूँखों की बोली समझता है - 'घबराने की
बात नहीं। यह सड़क भी िारजबसगंज जाएगी, राह-घार् के लोग बहुत अच्छे हैं। ...एक घड़ी रात तक हम लोग पहुचूँ
जाएूँगे।'
हीराबाई को िारजबसगंज पहुचूँ ने की ज्दी नहीं। जहरामन पर उसको इतना भरोसा हो गया जक डर-भय की कोई बात
नहीं उठती है मन में। जहरामन ने पहले जी-भर मस्ु करा जलया। कौन गीत गाए वह! हीराबाई को गीत और कथा दोनों का

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शौक है ...इस्स! महुआ घर्वाररन? वह बोला, 'अच्छा, जब आपको इतना सौक है तो सजु नए महुआ घर्वाररन का
गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है।'
...जकतने जदनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी परू ा कर जदया। जै भगवती! आज जहरामन अपने मन को खलास कर
लेगा। वह हीराबाई की थमी हुई मस्ु कुराहर् को देखता रहा।
'सजु नए! आज भी परमार नदी में महुआ घर्वाररन के कई परु ाने घार् हैं। इसी मल
ु क
ु की थी महुआ! थी तो घर्वाररन,
लेजकन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पी कर जदन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली माूँ साच्छात
राकसनी! बहुत बड़ी नजर-चालक। रात में गाूँजा-दारू-अिीम चरु ा कर बेचनेवाले से ले कर तरह-तरह के लोगों से
उसकी जान-पहचान थी। सबसे घट्टु ा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेजकन काम कराते-कराते उसकी हड्डी
जनकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सजु नए!'
जहरामन ने धीरे -धीरे गनु गनु ा कर गला साि जकया -
हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के - र- उमड़ल नजदया -गे-में-मैं-यो-ओ-ओ,
मैयो गे रै जन भयावजन-हे-ए-ए-ए;
तड़का-तड़के -धड़के करे ज-आ-आ मोरा
जक हमहूँ जे बार-नान्द्ही रे -ए-ए ...।'
ओ माूँ! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, जबजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्द्ही बच्ची, मेरा कलेजा
धड़कता है। अके ली कै से जाऊूँ घार् पर? सो भी परदेशी राही-बर्ोही के पैर में तेल लगाने के जलए! सत-माूँ ने अपनी
बज्जर-जकवाड़ी बदं कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहरा कर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी
माूँ को याद करके । आज उसकी माूँ रहती तो ऐसे दरु जदन में कलेजे से सर्ा कर रखती अपनी महुआ बेर्ी को। गे मइया,
इसी जदन के जलए, यही जदखाने के जलए तमु ने कोख में रखा था? महुआ अपनी माूँ पर गस्ु साई - क्यों वह अके ली मर
गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली।
जहरामन ने लक्ष्य जकया, हीराबाई तजकए पर के हुनी गड़ा कर, गीत में मगन एकर्क उसकी ओर देख रही है। ...खोई हुई
सरू त कै सी भोली लगती है!
जहरामन ने गले में कूँ पकूँ पी पैदा की -
'ह-ूँ ऊूँ-ऊूँ-रे डाइजनयाूँ मैयो मोरी-ई-ई,
नोनवा चर्ाई काहे नाजहं मारजल सौरी-घर-अ-अ।
एजह जदनवाूँ खाजतर जछनरो जधया
तेंहु पोसजल जक नेन-ू दधू उगर्न ..।
जहरामन ने दम लेते हुए पूछा, 'भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सनु ती हैं?'

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हीरा बोली, 'समझती ह।ूँ उगर्न माने उबर्न - जो देह में लगाते हैं।'
जहरामन ने जवजस्मत हो कर कहा, 'इस्स!' ...सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने परू ा दाम चक
ु ा जदया था महुआ का।
बाल पकड़ कर घसीर्ता हुआ नाव पर चढ़ा और माूँझी को हुकुम जदया, नाव खोलो, पाल बाूँधो! पालवाली नाव
परवाली जचजड़या की तरह उड़ चली। रात-भर महुआ रोती-छर्पर्ाती रही। सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया
- चपु रहो, नहीं तो उठा कर पानी में िें क देंगे। बस, महुआ को बात सझू गई। भोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर
आया, जिर जछप गया। इधर महुआ भी छपाक से कूद पड़ी पानी में। ...सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही
मोजहत हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलर्ी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में।
महुआ असल घर्वाररन की बेर्ी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सिरी मछली-जैसी िरिराती, पानी चीरती
भागी चली जा रही है। और उसके पीछे सौदागर का नौकर पक ु ार-पक
ु ार कर कहता है - 'महुआ जरा थमो, तमु को
पकड़ने नहीं आ रहा, तम्ु हारा साथी ह।ूँ जजदं गी-भर साथ रहेंगे हम लोग।' लेजकन...।
जहरामन का बहुत जप्रय गीत है यह। महुआ घर्वाररन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है,
अमावस्या की रात और घने बादलों में रह-रह कर जबजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-
कुमारी महुआ की झलक उसे जमल जाती है। सिरी मछली की चाल और तेज हो जाती है। उसको लगता है, वह खदु
सौदागर का नौकर है। महुआ कोई बात नहीं सनु ती। परतीत करती नहीं। उलर् कर देखती भी नहीं। और वह थक गया
है, तैरते-तैरते।
इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा जदया। खदु ही पकड़ में आ गई है। उसने महुआ को छू जलया है, पा जलया
है, उसकी थकन दरू हो गई है। परं ह-बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उलर्ी धारा में तैरते हुए उसके मन को जकनारा
जमल गया है। आनंद के आूँसू कोई भी रोक नहीं मानते।
उसने हीराबाई से अपनी गीली आूँखें चरु ाने की कोजशश की। जकंतु हीरा तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब कुछ
देख रही थी। जहरामन ने अपनी काूँपती हुई बोली को काबू में ला कर बैलों को जझड़की दी - 'इस गीत में न जाने क्या है
जक सनु ते ही दोनों थसथसा जाते हैं। लगता है, सौ मन बोझ लाद जदया जकसी ने।'
हीराबाई लबं ी साूँस लेती है। जहरामन के अगं -अंग में उमगं समा जाती है।
'तमु तो उस्ताद हो मीता!'
'इस्स!'
आजसन-काजतक का सरू ज दो बाूँस जदन रहते ही कुम्हला जाता है। सरू ज डूबने से पहले ही नननपरु पहुचूँ ना है, जहरामन
अपने बैलों को समझा रहा है - 'कदम खोल कर और कलेजा बाूँध कर चलो ...ए ...जछ ...जछ! बढ़के भैयन! ले -ले-ले-
ए हे -य!'
नननपरु तक वह अपने बैलों को ललकारता रहा। हर ललकार के पहले वह अपने बैलों को बीती हुई बातों की याद
जदलाता - याद नहीं, चौधरी की बेर्ी की बरात में जकतनी गाजड़याूँ थीं, सबको कै से मात जकया था! हाूँ, वह कदम
जनकालो। ले-ले-ले! नननपरु से िारजबसगजं तीन कोस! दो घर्ं े और!

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नननपरु के हार् पर आजकल चाय भी जबकने लगी है। जहरामन अपने लोर्े में चाय भर कर ले आया। ...कंपनी की
औरत जानता है वह, सारा जदन, घड़ी घड़ी भर में चाय पीती रहती है। चाय है या जान!
हीरा हूँसते-हूँसते लोर्-पोर् हो रही है - 'अरे , तमु से जकसने कह जदया जक क्वारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाजहए?'
जहरामन लजा गया। क्या बोले वह? ...लाज की बात। लेजकन वह भोग चक
ु ा है एक बार। सरकस कंपनी की मेम के
हाथ की चाय पी कर उसने देख जलया है। बडी गमट तासीर!
'पीजजए गरू
ु जी!' हीरा हूँसी!
'इस्स!'
नननपरु हार् पर ही दीया-बाती जल चक ु ी थी। जहरामन ने अपना सिरी लालर्ेन जला कर जपछवा में लर्का जदया।
आजकल शहर से पाूँच कोस दरू के गाूँववाले भी अपने को शहरू समझने लगे हैं। जबना रोशनी की गाड़ी को पकड़
कर चालान कर देते हैं। बारह बखेड़ा !
'आप मझ
ु े गरू
ु जी मत कजहए।'
'तमु मेरे उस्ताद हो। हमारे शास्तर में जलखा हुआ है, एक अच्छर जसखानेवाला भी गरू
ु और एक राग जसखानेवाला भी
उस्ताद!'
'इस्स! सास्तर-परु ान भी जानती हैं! ...मैंने क्या जसखाया? मैं क्या ...?'
हीरा हूँस कर गनु गनु ाने लगी - 'हे-अ-अ-अ- सावना-भादवा के -र ...!'
जहरामन अचरज के मारे गूँगू ा हो गया। ...इस्स! इतना तेज जेहन! ह-ब-ह महुआ घर्वाररन!
गाड़ी सीताधार की एक सख ू ी धारा की उतराई पर गड़गड़ा कर नीचे की ओर उतरी। हीराबाई ने जहरामन का कंधा धर
जलया एक हाथ से। बहुत देर तक जहरामन के कंधे पर उसकी उूँ गजलयाूँ पड़ी रहीं। जहरामन ने नजर जिरा कर कंधे पर
कें जरत करने की कोजशश की, कई बार। गाड़ी चढ़ाई पर पहुचूँ ी तो हीरा की ढीली उूँ गजलयाूँ जिर तन गई।ं
सामने िारजबसगजं शहर की रोशनी जझलजमला रही है। शहर से कुछ दरू हर् कर मेले की रोशनी ...र्प्पर में लर्के
लालर्ेन की रोशनी में छाया नाचती है आसपास।... डबडबाई आूँखों से, हर रोशनी सरू जमख
ु ी िूल की तरह जदखाई
पड़ती है।
िारजबसगंज तो जहरामन का घर-दआ
ु र है!
न जाने जकतनी बार वह िारजबसगंज आया है। मेले की लदनी लादी है। जकसी औरत के साथ? हाूँ, एक बार। उसकी
भाभी जजस साल आई थी गौने में। इसी तरह जतरपाल से गाड़ी को चारों ओर से घेर कर बासा बनाया गया था।
जहरामन अपनी गाड़ी को जतरपाल से घेर रहा है, गाड़ीवान-पट्टी में। सबु ह होते ही रौता नौर्ंकी कंपनी के मैनेजर से बात
करके भरती हो जाएगी हीराबाई। परसों मेला खलु रहा है। इस बार मेले में पालचट्टी खबू जमी है। ...बस, एक रात।
आज रात-भर जहरामन की गाड़ी में रहेगी वह। ...जहरामन की गाड़ी में नहीं, घर में!

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'कहाूँ की गाड़ी है? ...कौन, जहरामन! जकस मेले से? जकस चीज की लदनी है?'
गाूँव-समाज के गाड़ीवान, एक-दसू रे को खोज कर, आसपास गाड़ी लगा कर बासा डालते हैं। अपने गाूँव के
लालमोहर, धन्द्ु नीराम और पलर्दास वगैरह गाड़ीवानों के दल को देख कर जहरामन अचकचा गया। उधर पलर्दास
र्प्पर में झाूँक कर भड़का। मानो बाघ पर नजर पड़ गई। जहरामन ने इशारे से सभी को चपु जकया। जिर गाड़ी की ओर
कनखी मार कर िुसिुसाया - 'चपु ! कंपनी की औरत है, नौर्ंकी कंपनी की।'
'कंपनी की -ई-ई-ई!'
' ? ? ...? ? ...!
एक नहीं, अब चार जहरामन! चारों ने अचरज से एक-दसू रे को देखा। कंपनी नाम में जकतना असर है! जहरामन ने लक्ष्य
जकया, तीनों एक साथ सर्क-दम हो गए। लालमोहर ने जरा दरू हर् कर बजतयाने की इच्छा प्रकर् की, इशारे से ही।
जहरामन ने र्प्पर की ओर मूँहु करके कहा, 'होजर्ल तो नहीं खल
ु ा होगा कोई, हलवाई के यहाूँ से पक्की ले आवें!'
'जहरामन, जरा इधर सनु ो। ...मैं कुछ नहीं खाऊूँगी अभी। लो, तमु खा आओ।'
'क्या है, पैसा? इस्स!' ...पैसा दे कर जहरामन ने कभी िारजबसगंज में कच्ची-पक्की नहीं खाई। उसके गाूँव के इतने
गाड़ीवान हैं, जकस जदन के जलए? वह छू नहीं सकता पैसा। उसने हीराबाई से कहा, 'बेकार, मेला-बाजार में हुज्जत मत
कीजजए। पैसा रजखए।' मौका पा कर लालमोहर भी र्प्पर के करीब आ गया। उसने सलाम करते हुए कहा, 'चार आदमी
के भात में दो आदमी खसु ी से खा सकते हैं। बासा पर भात चढा हुआ है। हें-हें-हें! हम लोग एकजह गाूँव के हैं। गौंवाूँ-
जगराजमन के रहते होजर्ल और हलवाई के यहाूँ खाएगा जहरामन?'
जहरामन ने लालमोहर का हाथ र्ीप जदया - 'बेसी भचर-भचर मत बको।'
गाड़ी से चार रस्सी दरू जाते-जाते धन्द्ु नीराम ने अपने कुलबल
ु ाते हुए जदल की बात खोल दी - 'इस्स! तमु भी खबू हो
जहरामन! उस साल कंपनी का बाघ, इस बार कंपनी की जनानी!'
जहरामन ने दबी आवाज में कहा, 'भाई रे , यह हम लोगों के मल
ु क
ु की जनाना नहीं जक लर्पर् बोली सनु कर भी चपु रह
जाए। एक तो पजच्छम की औरत, जतस पर कंपनी की!'
धन्द्ु नीराम ने अपनी शंका प्रकर् की - 'लेजकन कंपनी में तो सनु ते हैं पतरु रया रहती है।'
'धत!् ' सभी ने एक साथ उसको दरु दरु ा जदया, 'कै सा आदमी है! पतरु रया रहेगी कंपनी में भला! देखो इसकी बजु द्ध। सनु ा
है, देखा तो नहीं है कभी!'
धन्द्ु नीराम ने अपनी गलती मान ली। पलर्दास को बात सझू ी - 'जहरामन भाई, जनाना जात अके ली रहेगी गाड़ी पर?
कुछ भी हो, जनाना आजखर जनाना ही है। कोई जरूरत ही पड़ जाए!'
यह बात सभी को अच्छी लगी। जहरामन ने कहा, 'बात ठीक है। पलर्, तमु लौर् जाओ, गाड़ी के पास ही रहना। और
देखो, गपशप जरा होजशयारी से करना। हाूँ!'

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जहरामन की देह से अतर-गल
ु ाब की खश ु बू जनकलती है। जहरामन करमसाूँड़ है। उस बार महीनों तक उसकी देह से
बघाइन गधं नहीं गई। लालमोहर ने जहरामन की गमछी सूँघू ली - 'ए-ह!'
जहरामन चलते-चलते रूक गया - 'क्या करें लालमोहर भाई, जरा कहो तो! बड़ी जजद्द करती है, कहती है, नौर्ंकी
देखना ही होगा।'
'िोकर् में ही?'
'और गाूँव नहीं पहुच
ूँ ेगी यह बात?'
जहरामन बोला, 'नहीं जी! एक रात नौर्ंकी देख कर जजदं गी-भर बोली-ठोली कौन सनु े? ...देसी मगु ी जवलायती चाल!'
धन्द्ु नीराम ने पछू ा, 'िोकर् में देखने पर भी तम्ु हारी भौजाई बात सनु ाएगी?'
लालमोहर के बासा के बगल में, एक लकड़ी की दक ु ान लाद कर आए हुए गाड़ीवानों का बासा है। बासा के मीर-
गाड़ीवान जमयाूँजान बढ़ू े ने सिरी गड़ु गड़ु ी पीते हुए पछू ा, 'क्यों भाई, मीनाबाजार की लदनी लाद कर कौन आया है?'
मीनाबाजार! मीनाबाजार तो पतरु रया-पट्टी को कहते हैं। ...क्या बोलता है यह बढ़ू ा जमयाूँ? लालमोहर ने जहरामन के
कान में िुसिुसा कर कहा, 'तम्ु हारी देह मह-मह-महकती है। सच!'
लहसनवाूँ लालमोहर का नौकर-गाड़ीवान है। उम्र में सबसे छोर्ा है। पहली बार आया है तो क्या? बाब-ू बबआ
ु इनों के
यहाूँ बचपन से नौकरी कर चक
ु ा है। वह रह-रह कर वातावरण में कुछ सूँघू ता है, नाक जसकोड़ कर। जहरामन ने देखा,
लहसनवाूँ का चेहरा तमतम गया है। कौन आ रहा है धड़धड़ाता हुआ? - 'कौन, पलर्दास? क्या है?'
पलर्दास आ कर खड़ा हो गया चपु चाप। उसका मूँहु भी तमतमाया हुआ था। जहरामन ने पछू ा, 'क्या हुआ? बोलते क्यों
नहीं?'
क्या जवाब दे पलर्दास! जहरामन ने उसको चेतावनी दे दी थी, गपशप होजशयारी से करना। वह चपु चाप गाड़ी की
आसनी पर जा कर बैठ गया, जहरामन की जगह पर। हीराबाई ने पछू ा, 'तमु भी जहरामन के साथ हो?' पलर्दास ने गरदन
जहला कर हामी भरी। हीराबाई जिर लेर् गई। ...चेहरा-मोहरा और बोली-बानी देख-सनु कर, पलर्दास का कलेजा
काूँपने लगा, न जाने क्यों। हाूँ! रामलीला में जसया सक
ु ु मारी इसी तरह थकी लेर्ी हुई थी। जै! जसयावर रामचंर की जै!
...पलर्दास के मन में जै-जैकार होने लगा। वह दास-वैस्नव है, कीतटजनया है। थकी हुई सीता महारानी के चरण र्ीपने
की इच्छा प्रकर् की उसने, हाथ की उूँगजलयों के इशारे से, मानो हारमोजनयम की पर्ररयों पर नचा रहा हो। हीराबाई
तमक कर बैठ गई - 'अरे , पागल है क्या? जाओ, भागो!...'
पलर्दास को लगा, गस्ु साई हुई कंपनी की औरत की आूँखों से जचनगारी जनकल रही है - छर्क्-छर्क्! वह भागा।
पलर्दास क्या जवाब दे! वह मेला से भी भागने का उपाय सोच रहा है। बोला, 'कुछ नहीं। हमको व्यापारी जमल गया।
अभी ही र्ीसन जा कर माल लादना है। भात में तो अभी देर हैं। मैं लौर् आता हूँ तब तक।'
खाते समय धन्द्ु नीराम और लहसनवाूँ ने पलर्दास की र्ोकरी-भर जनंदा की। छोर्ा आदमी है। कमीना है। पैसे-पैसे का
जहसाब जोड़ता है। खाने-पीने के बाद लालमोहर के दल ने अपना बासा तोड़ जदया। धन्द्ु नी और लहसनवाूँ गाड़ी जोत

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कर जहरामन के बासा पर चले, गाड़ी की लीक धर कर। जहरामन ने चलते-चलते रूक कर, लालमोहर से कहा, 'जरा मेरे
इस कंधे को सूँघू ो तो। सूँघू कर देखो न?'
लालमोहर ने कंधा सूँघू कर आूँखे मूँदू लीं। मूँहु से अस्िुर् शब्द जनकला - ए - ह!'
जहरामन ने कहा, 'जरा-सा हाथ रखने पर इतनी खश ु ब!ू ...समझे!' लालमोहर ने जहरामन का हाथ पकड़ जलया - 'कंधे पर
हाथ रखा था, सच? ...सनु ो जहरामन, नौर्ंकी देखने का ऐसा मौका जिर कभी हाथ नहीं लगेगा। हाूँ!'
'तमु भी देखोगे?' लालमोहर की बत्तीसी चौराहे की रोशनी में जझलजमला उठी।
बासा पर पहुचूँ कर जहरामन ने देखा, र्प्पर के पास खड़ा बजतया रहा है कोई, हीराबाई से। धन्द्ु नी और लहसनवाूँ ने एक
ही साथ कहा, 'कहाूँ रह गए पीछे ? बहुत देर से खोज रही है कंपनी...!'
जहरामन ने र्प्पर के पास जा कर देखा - अरे , यह तो वही बक्सा ढोनेवाला नौकर, जो चंपानगर मेले में हीराबाई को
गाड़ी पर जबठा कर अूँधेरे में गायब हो गया था।
'आ गए जहरामन! अच्छी बात, इधर आओ। ...यह लो अपना भाड़ा और यह लो अपनी दजच्छना! पच्चीस-पच्चीस,
पचास।'
जहरामन को लगा, जकसी ने आसमान से धके ल कर धरती पर जगरा जदया। जकसी ने क्यों, इस बक्सा ढोनेवाले आदमी ने।
कहाूँ से आ गया? उसकी जीभ पर आई हुई बात जीभ पर ही रह गई ...इस्स! दजच्छना! वह चपु चाप खड़ा रहा।
हीराबाई बोली, 'लो पकड़ो! और सनु ो, कल सबु ह रौता कंपनी में आ कर मझु से भेंर् करना। पास बनवा दगूँू ी। ...बोलते
क्यों नहीं?'
लालमोहर ने कहा, 'इलाम-बकसीस दे रही है मालजकन, ले लो जहरामन! जहरामन ने कर् कर लालमोहर की ओर देखा।
...बोलने का जरा भी ढंग नहीं इस लालमोहरा को।'
धन्द्ु नीराम की स्वगतोजि सभी ने सनु ी, हीराबाई ने भी - गाड़ी-बैल छोड़ कर नौर्ंकी कै से देख सकता है कोई गाड़ीवान,
मेले में?
जहरामन ने रूपया लेते हुए कहा, 'क्या बोलेंगे!' उसने हूँसने की चेिा की। कंपनी की औरत कंपनी में जा रही है। जहरामन
का क्या! बक्सा ढोनेवाला रास्ता जदखाता हुआ आगे बढ़ा - 'इधर से।' हीराबाई जाते-जाते रूक गई। जहरामन के बैलों
को संबोजधत करके बोली, 'अच्छा, मैं चली भैयन।'
बैलों ने, भैया शब्द पर कान जहलाए।
'? ? ..!'
'भा-इ-यो, आज रात! जद रौता सगं ीत कंपनी के स्र्ेज पर! गल
ु बदन देजखए, गलु बदन! आपको यह जान कर खश
ु ी होगी
जक मथरु ामोहन कंपनी की मशहर एक्ट्ेस जमस हीरादेवी, जजसकी एक-एक अदा पर हजार जान जिदा हैं, इस बार हमारी
कंपनी में आ गई हैं। याद रजखए। आज की रात। जमस हीरादेवी गल ु बदन...!'

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नौर्ंकीवालों के इस एलान से मेले की हर पट्टी में सरगमी िै ल रही है। ...हीराबाई? जमस हीरादेवी? लैला, गल
ु बदन...?
जिजलम एक्ट्ेस को मात करती है।
तेरी बाूँकी अदा पर मैं खदु हूँ जिदा,
तेरी चाहत को जदलबर बयाूँ क्या करूूँ!
यही ख्वाजहश है जक इ-इ-इ तू मझु को देखा करे
और जदलोजान मैं तमु को देखा करूूँ।
...जकरट -रट -रट -रट ...कडड़ड़ड़डड़ड़रट -ई-घन-घन-धड़ाम।
हर आदमी का जदल नगाड़ा हो गया है।
लालमोहर दौड़ता-हाूँिता बासा पर आया - 'ऐ, ऐ जहरामन, यहाूँ क्या बैठे हो, चल कर देखो जै-जैकार हो रहा है! मय
बाजा-गाजा, छापी-िाहरम के साथ हीराबाई की जै-जै कर रहा ह।ूँ '
जहरामन हड़बड़ा कर उठा। लहसनवाूँ ने कहा, 'धन्द्ु नी काका, तमु बासा पर रहो, मैं भी देख आऊूँ।'
धन्द्ु नी की बात कौन सनु ता है। तीनों जन नौर्ंकी कंपनी की एलाजनया पार्ी के पीछे -पीछे चलने लगे। हर नक्ु कड़ पर
रूक कर, बाजा बंद कर के एलान जकया जाना है। एलान के हर शब्द पर जहरामन पुलक उठता है। हीराबाई का नाम,
नाम के साथ अदा-जिदा वगैरह सनु कर उसने लालमोहर की पीठ थपथपा दी - 'धन्द्न है, धन्द्न है! है या नहीं?'
लालमोहर ने कहा, 'अब बोलो! अब भी नौर्ंकी नहीं देखोगे?' सबु ह से ही धन्द्ु नीराम और लालमोहर समझा रहे थे,
समझा कर हार चक ु े थे - 'कंपनी में जा कर भेंर् कर आओ। जाते-जाते परु जसस कर गई है।' लेजकन जहरामन की बस एक
बात - 'धत्त, कौन भेंर् करने जाए! कंपनी की औरत, कंपनी में गई। अब उससे क्या लेना-देना! चीन्द्हेगी भी नहीं!'
वह मन-ही-मन रूठा हुआ था। एलान सनु ने के बाद उसने लालमोहर से कहा, 'जरूर देखना चाजहए, क्यों लालमोहर?'
दोनों आपस में सलाह करके रौता कंपनी की ओर चले। खेमे के पास पहुचूँ कर जहरामन ने लालमोहर को इशारा
जकया, पछू ताछ करने का भार लालमोहर के जसर। लालमोहर कचराही बोलना जानता है। लालमोहर ने एक काले
कोर्वाले से कहा, 'बाबू साहेब, जरा सजु नए तो!'
काले कोर्वाले ने नाक-भौं चढ़ा कर कहा - 'क्या है? इधर क्यों?'
लालमोहर की कचराही बोली गड़बड़ा गई - तेवर देख कर बोला, 'गल
ु गल
ु ..नहीं-नहीं ...बल
ु -बल
ु ...नहीं ...।'
जहरामन ने झर्-से सम्हाल जदया - 'हीरादेवी जकधर रहती है, बता सकते हैं?' उस आदमी की आूँखें हठात लाल हो गई।
सामने खड़े नेपाली जसपाही को पक ु ार कर कहा, 'इन लोगों को क्यों आने जदया इधर?'
'जहरामन!' ...वही िे नजू गलासी आवाज जकधर से आई? खेमे के परदे को हर्ा कर हीराबाई ने बल
ु ाया - यहाूँ आ जाओ,
अदं र! ...देखो, बहादरु ! इसको पहचान लो। यह मेरा जहरामन है। समझे?'

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नेपाली दरबान जहरामन की ओर देख कर जरा मस्ु कराया और चला गया। काले कोर्वाले से जा कर कहा, 'हीराबाई
का आदमी है। नहीं रोकने बोला!'
लालमोहर पान ले आया नेपाली दरबान के जलए - 'खाया जाए!'
'इस्स! एक नहीं, पाूँच पास। चारों अठजनया! बोली जक जब तक मेले में हो, रोज रात में आ कर देखना। सबका खयाल
रखती है। बोली जक तम्ु हारे और साथी है, सभी के जलए पास ले जाओ। कंपनी की औरतों की बात जनराली होती है! है
या नहीं?'
लालमोहर ने लाल कागज के र्ुकड़ों को छू कर देखा - 'पा-स! वाह रे जहरामन भाई! ...लेजकन पाूँच पास ले कर क्या
होगा? पलर्दास तो जिर पलर् कर आया ही नहीं है अभी तक।'
जहरामन ने कहा, 'जाने दो अभागे को। तकदीर में जलखा नहीं। ...हाूँ, पहले गरू
ु कसम खानी होगी सभी को, जक गाूँव-घर
में यह बात एक पछं ी भी न जान पाए।'
लालमोहर ने उत्तेजजत हो कर कहा, 'कौन साला बोलेगा, गाूँव में जा कर? पलर्ा ने अगर बदनामी की तो दसू री बार से
जिर साथ नहीं लाऊूँगा।'
जहरामन ने अपनी थैली आज हीराबाई के जजम्मे रख दी है। मेले का क्या जठकाना! जकस्म-जकस्म के पाजकर्कार् लोग
हर साल आते हैं। अपने साथी-संजगयों का भी क्या भरोसा! हीराबाई मान गई। जहरामन के कपड़े की काली थैली को
उसने अपने चमड़े के बक्स में बदं कर जदया। बक्से के ऊपर भी कपड़े का खोल और अदं र भी झलमल रे शमी अस्तर!
मन का मान-अजभमान दरू हो गया।
लालमोहर और धन्द्ु नीराम ने जमल कर जहरामन की बजु द्ध की तारीि की, उसके भाग्य को सराहा बार-बार। उसके भाई
और भाभी की जनंदा की, दबी जबान से। जहरामन के जैसा हीरा भाई जमला है, इसीजलए! कोई दसू रा भाई होता तो...।'
लहसनवाूँ का मूँहु लर्का हुआ है। एलान सनु ते-सनु ते न जाने कहाूँ चला गया जक घड़ी-भर साूँझ होने के बाद लौर्ा है।
लालमोहर ने एक माजलकाना जझड़की दी है, गाली के साथ - 'सोहदा कहीं का!'
धन्द्ु नीराम ने च्ू हे पर जखचड़ी च्ढ़ाते हुए कहा, 'पहले यह िै सला कर लो जक गाड़ी के पास कौन रहेगा!'
'रहेगा कौन, यह लहसनवाूँ कहाूँ जाएगा?'
लहसनवाूँ रो पड़ा - 'ऐ-ए-ए माजलक, हाथ जोड़ते हैं। एक्को झलक! बस, एक झलक!'
जहरामन ने उदारतापूवटक कहा, ‘अच्छा-अच्छा, एक झलक क्यों, एक घंर्ा देखना। मैं आ जाऊूँगा।‘
नौर्ंकी शरू
ु होने के दो घर्ं े पहले ही नगाड़ा बजना शरू
ु हो जाता है। और नगाड़ा शरू
ु होते ही लोग पजतगं ों की तरह
र्ूर्ने लगते हैं। जर्कर्घर के पास भीड़ देख कर जहरामन को बड़ी हूँसी आई –‘लालमोहर, उधर देख, कै सी
धक्कमधक्ु की कर रहे हैं लोग!’
जहरामन भाय!’

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‘कौन, पलर्दास! कहाूँ की लदनी लाद आए?’लालमोहर ने पराए गाूँव के आदमी की तरह पछ
ू ा।

पलर्दास ने हाथ मलते हुए मािी माूँगी –‘कसरू बार हैं, जो सजा दो तमु लोग, सब मजं रू है। लेजकन सच्ची बात कहें
जक जसया सकु ु मारी...।‘

जहरामन के मन का पुरइन नगाड़े के ताल पर जवकजसत हो चक ु ा है। बोला, ‘देखो पलर्ा, यह मत समझना जक गाूँव-घर
की जनाना है। देखो, तम्ु हारे जलए भी पास जदया है, पास ले लो अपना, तमासा देखो।‘

लालमोहर ने कहा, ‘लेजकन एक सतट पर पास जमलेगा। बीच-बीच में लहसनवाूँ को भी...।‘

पलर्दास को कुछ बताने की जरूरत नहीं। वह लहसनवाूँ से बातचीत कर आया है अभी।

लालमोहर ने दसू री शतट सामने रखी –‘गाूँव में अगर यह बात मालमू हुई जकसी तरह...!’

‘राम-राम!’दाूँत से जीभ को कार्ते हुए कहा पलर्दास ने।

पलर्दास ने बताया –‘अठजनया िार्क इधर है!’िार्क पर खड़े दरबान ने हाथ से पास ले कर उनके चेहरे को बारी-
बारी से देखा, बोला, ‘यह तो पास है। कहाूँ से जमला?’

अब लालमोहर की कचराही बोली सनु े कोई! उसके तेवर देख कर दरबान घबरा गया –‘जमलेगा कहाूँ से? अपनी
कंपनी से पछू लीजजए जा कर। चार ही नहीं, देजखए एक और है।‘जेब से पाूँचवा पास जनकाल कर जदखाया लालमोहर
ने।

एक रूपयावाले िार्क पर नेपाली दरबान खड़ा था। जहरामन ने पक


ु ार कर कहा, ‘ए जसपाही दाज,ू सबु ह को ही
पहचनवा जदया और अभी भल ू गए?’

नेपाली दरबान बोला, ‘हीराबाई का आदमी है सब। जाने दो। पास हैं तो जिर काहे को रोकता है?’

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अठजनया दजाट!

तीनों ने ‘कपड़घर’को अदं र से पहली बार देखा। सामने कुरसी-बेंचवाले दजे हैं। परदे पर राम-बन-गमन की तसवीर है।
पलर्दास पहचान गया। उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार जकया, परदे पर अंजकत रामजसया सक ु ु मारी और लखनलला को।
‘जै हो, जै हो!’पलर्दास की आूँखें भर आई।

जहरामन ने कहा, ‘लालमोहर, छापी सभी खड़े हैं या चल रहे हैं?’

लालमोहर अपने बगल में बैठे दशटकों से जान-पहचान कर चक


ु ा है। उसने कहा, ‘खेला अभी परदा के भीतर है। अभी
जजमनका दे रहा है, लोग जमाने के जलए।‘

पलर्दास ढोलक बजाना जानता है, इसजलए नगाड़े के ताल पर गरदन जहलाता है और जदयासलाई पर ताल कार्ता है।
बीड़ी आदान-प्रदान करके जहरामन ने भी एकाध जान-पहचान कर ली। लालमोहर के पररजचत आदमी ने चादर से देह
ढकते हुए कहा, ‘नाच शरूु होने में अभी देर है, तब तक एक नींद ले लें। ...सब दजाट से अच्छा अठजनया दजाट। सबसे
पीछे सबसे ऊूँची जगह पर है। जमीन पर गरम पआ ु ल! हे-हे! कुरसी-बेंच पर बैठ कर इस सरदी के मौसम में तमासा
देखनेवाले अभी घचु -घचु कर उठें गे चाह पीने।‘

उस आदमी ने अपने संगी से कहा, ‘खेला शरू


ु होने पर जगा देना। नहीं-नहीं, खेला शरू
ु होने पर नहीं, जहररया जब स्र्ेज
पर उतरे , हमको जगा देना।‘

जहरामन के कलेजे में जरा आूँच लगी। ...जहररया! बड़ा लर्पजर्या आदमी मालमू पड़ता है। उसने लालमोहर को आूँख
के इशारे से कहा, ‘इस आदमी से बजतयाने की जरूरत नहीं।‘

घन-घन-घन-धड़ाम! परदा उठ गया। हे-ए, हे-ए, हीराबाई शरू


ु में ही उतर गई स्र्ेज पर! कपड़घर खचमखच भर गया
है। जहरामन का मूँहु अचरज में खल
ु गया। लालमोहर को न जाने क्यों ऐसी हूँसी आ रही है। हीराबाई के गीत के हर पद
पर वह हूँसता है, बेवजह।

गल
ु बदन दरबार लगा कर बैठी है। एलान कर रही है, जो आदमी तख्तहजारा बना कर ला देगा, मूँहु माूँगी चीज इनाम में
दी जाएगी। ...अजी, है कोई ऐसा िनकार, तो हो जाए तैयार, बना कर लाए तख्तहजारा-आ! जकड़जकड़-जकररट -!

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अलबत्त नाचती है! क्या गला है! मालमू है, यह आदमी कहता है जक हीराबाई पान-बीड़ी, जसगरे र्-जदाट कुछ नहीं
खाती! ठीक कहता है। बड़ी नेमवाली रंडी है। कौन कहता है जक रंडी है! दाूँत में जमस्सी कहाूँ है। पौडर से दाूँत धो लेती
होगी। हरजगज नहीं। कौन आदमी है, बात की बेबात करता है! कंपनी की औरत को पतरु रया कहता है! तमु को बात
क्यों लगी? कौन है रंडी का भड़वा? मारो साले को! मारो! तेरी...।

हो-ह्ले के बीच, जहरामन की आवाज कपड़घर को िाड़ रही है –‘आओ, एक-एक की गरदन उतार लेंगे।‘

लालमोहर दलु ाली से पर्ापर् पीर्ता जा रहा है सामने के लोगों को। पलर्दास एक आदमी की छाती पर सवार है –
‘साला, जसया सक
ु ु मारी को गाली देता है, सो भी मसु लमान हो कर?’

धन्द्ु नीराम शरू


ु से ही चपु था। मारपीर् शरू
ु होते ही वह कपड़घर से जनकल कर बाहर भागा।

काले कोर्वाले नौर्ंकी के मैनेजर नेपाली जसपाही के साथ दौड़े आए। दारोगा साहब ने हर्ं र से पीर्-पार् शरूु की। हर्ं र
खा कर लालमोहर जतलजमला उठा, कचराही बोली में भािण देने लगा –‘दारोगा साहब, मारते हैं, माररए। कोई हजट
नहीं। लेजकन यह पास देख लीजजए, एक पास पाजकर् में भी हैं। देख सकते हैं हुजरू । जर्कर् नहीं, पास! ...तब हम लोगों
के सामने कंपनी की औरत को कोई बरु ी बात करे तो कै से छोड़ देंगे?’

कंपनी के मैनेजर की समझ में आ गई सारी बात। उसने दारोगा को समझाया –‘हुजूर, मैं समझ गया। यह सारी बदमाशी
मथरु ामोहन कंपनीवालों की है। तमाशे में झगड़ा खड़ा करके कंपनी को बदनाम ...नहीं हुजरू , इन लोगों को छोड़
दीजजए, हीराबाई के आदमी हैं। बेचारी की जान खतरे में हैं। हुजरू से कहा था न!’

हीराबाई का नाम सनु ते ही दारोगा ने तीनों को छोड़ जदया। लेजकन तीनों की दआ


ु ली छीन ली गई। मैनेजर ने तीनों को
एक रूपएवाले दरजे में कुरसी पर जबठाया –‘आप लोग यहीं बैजठए। पान जभजवा देता ह।ूँ ‘कपड़घर शातं हुआ और
हीराबाई स्र्ेज पर लौर् आई।

नगाड़ा जिर घनघना उठा।

थोड़ी देर बाद तीनों को एक ही साथ धन्द्ु नीराम का खयाल हुआ – अरे , धन्द्ु नीराम कहाूँ गया?

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‘माजलक, ओ माजलक!’लहसनवाूँ कपड़घर से बाहर जच्ला कर पक
ु ार रहा है, ‘ओ लालमोहर मा-जल-क...!’

लालमोहर ने तारस्वर में जवाब जदया –‘इधर से, उधर से! एकर्जकया िार्क से।‘सभी दशटकों ने लालमोहर की ओर
मड़ु कर देखा। लहसनवाूँ को नेपाली जसपाही लालमोहर के पास ले आया। लालमोहर ने जेब से पास जनकाल कर
जदखा जदया। लहसनवाूँ ने आते ही पछू ा, ‘माजलक, कौन आदमी क्या बोल रहा था? बोजलए तो जरा। चेहरा जदखला
दीजजए, उसकी एक झलक!’

लोगों ने लहसनवाूँ की चौड़ी और सपार् छाती देखी। जाड़े के मौसम में भी खाली देह! ...चेले-चार्ी के साथ हैं ये
लोग!

लालमोहर ने लहसनवाूँ को शांत जकया।

तीनों-चारों से मत पछू े कोई, नौर्ंकी में क्या देखा। जकस्सा कै से याद रहे! जहरामन को लगता था, हीराबाई शरूु से ही
उसी की ओर र्कर्की लगा कर देख रही है, गा रही है, नाच रही है। लालमोहर को लगता था, हीराबाई उसी की ओर
देखती है। वह समझ गई है, जहरामन से भी ज्यादा पावरवाला आदमी है लालमोहर! पलर्दास जकस्सा समझता है।
...जकस्सा और क्या होगा, रमैन की ही बात। वही राम, वही सीता, वही लखनलाल और वही रावन! जसया सक ु ु मारी
को राम जी से छीनने के जलए रावन तरह-तरह का रूप धर कर आता है। राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं। यहाूँ भी
तख्त-हजारा बनानेवाला माली का बेर्ा राम है। गल ु बदन जमया सक ु ु मारी है। माली के लड़के का दोस्त लखनलला है
और सल ु तान है रावन। धन्द्ु नीराम को बख ु ार है तेज! लहसनवाूँ को सबसे अच्छा जोकर का पार्ट लगा है ...जचरै या
तोंहके लेके ना जइवै नरहर् के बजररया! वह उस जोकर से दोस्ती लगाना चाहता है। नहीं लगावेगा दोस्ती , जोकर
साहब?

जहरामन को एक गीत की आधी कड़ी हाथ लगी है –‘मारे गए गल ु िाम!’कौन था यह गल


ु िाम? हीराबाई रोती हुई गा
रही थी –‘अजी हाूँ, मरे गए गुलिाम!’जर्जड़जड़जड़... बेचारा गल
ु िाम!

तीनों को दआ
ु ली वापस देते हुए पजु लस के जसपाही ने कहा, ‘लाठी-दआ
ु ली ले कर नाच देखने आते हो?’

दसू रे जदन मेले-भर में यह बात िै ल गई – मथरु ामोहन कंपनी से भाग कर आई है हीराबाई, इसजलए इस बार
मथरु ामोहन कंपनी नहीं आई हैं। ...उसके गडंु े आए हैं। हीराबाई भी कम नहीं। बड़ी खेलाड़ औरत है। तेरह-तेरह देहाती
लठै त पाल रही है। ...वाह मेरी जान भी कहे तो कोई! मजाल है!

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दस जदन... जदन-रात...!

जदन-भर भाड़ा ढोता जहरामन। शाम होते ही नौर्ंकी का नगाड़ा बजने लगता। नगाड़े की आवाज सनु ते ही हीराबाई की
पकु ार कानों के पास मूँडराने लगती – भैया ...मीता ...जहरामन ...उस्ताद गरू
ु जी! हमेशा कोई-न-कोई बाजा उसके मन
के कोने में बजता रहता, जदन-भर। कभी हारमोजनयम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी। उन्द्हीं
साजों की गत पर जहरामन उठता-बैठता, चलता-जिरता। नौर्ंकी कंपनी के मैनेजर से ले कर परदा खींचनेवाले तक
उसको पहचानते हैं। ...हीराबाई का आदमी है।

पलर्दास हर रात नौर्ंकी शरूु होने के समय श्रद्धापवू टक स्र्ेज को नमस्कार करता, हाथ जोड़ कर। लालमोहर, एक जदन
अपनी कचराही बोली सनु ाने गया था हीराबाई को। हीराबाई ने पहचाना ही नहीं। तब से उसका जदल छोर्ा हो गया है।
उसका नौकर लहसनवाूँ उसके हाथ से जनकल गया है, नौर्ंकी कंपनी में भती हो गया है। जोकर से उसकी दोस्ती हो गई
है। जदन-भर पानी भरता है, कपड़े धोता है। कहता है, गाूँव में क्या है जो जाएूँगे! लालमोहर उदास रहता है। धन्द्ु नीराम घर
चला गया है, बीमार हो कर।

जहरामन आज सबु ह से तीन बार लदनी लाद कर स्र्ेशन आ चक ु ा है। आज न जाने क्यों उसको अपनी भौजाई की याद
आ रही है। ...धन्द्ु नीराम ने कुछ कह तो नहीं जदया है, बख
ु ार की झोंक में! यहीं जकतना अर्र-पर्र बक रहा था –
गलु बदन, तख्त-हजारा! लहसनवाूँ मौज में है। जदन-भर हीराबाई को देखता होगा। कल कह रहा था, जहरामन माजलक,
तम्ु हारे अकबाल से खबू मौज में ह।ूँ हीराबाई की साड़ी धोने के बाद कठौते का पानी अत्तरगल ु ाब हो जाता है। उसमें
अपनी गमछी डुबा कर छोड़ देता ह।ूँ लो, सूँघू ोगे? हर रात, जकसी-न-जकसी के मूँहु से सनु ता है वह – हीराबाई रंडी है।
जकतने लोगों से लड़े वह! जबना देखे ही लोग कै से कोई बात बोलते हैं! राजा को भी लोग पीठ-पीछे गाली देते हैं!
आज वह हीराबाई से जमल कर कहेगा, नौर्ंकी कंपनी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग। सरकस कंपनी में क्यों
नही काम करती? सबके सामने नाचती है, जहरामन का कलेजा दप-दप जलता रहता है उस समय। सरकस कंपनी में
बाघ को ...उसके पास जाने की जहम्मत कौन करे गा! सरु जक्षत रहेगी हीराबाई! जकधर की गाड़ी आ रही है?

‘जहरामन, ए जहरामन भाय!’लालमोहर की बोली सनु कर जहरामन ने गरदन मोड़ कर देखा। ...क्या लाद कर लाया है
लालमोहर?

‘तमु को ढूूँढ़ रही है हीराबाई, इजस्र्सन पर। जा रही है।‘एक ही साूँस में सनु ा गया। लालमोहर की गाड़ी पर ही आई है
मेले से।

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‘जा रही है? कहाूँ? हीराबाई रे लगाड़ी से जा रही है?’

जहरामन ने गाड़ी खोल दी। मालगदु ाम के चौकीदार से कहा, ‘भैया, जरा गाड़ी-बैल देखते रजहए। आ रहे हैं।‘

‘उस्ताद!’जनाना मस
ु ाजिरखाने के िार्क के पास हीराबाई ओढ़नी से मूँहु -हाथ ढक कर खड़ी थी। थैली बढ़ाती हुई
बोली, ‘लो! हे भगवान! भेंर् हो गई, चलो, मैं तो उम्मीद खो चक
ु ी थी। तमु से अब भेंर् नहीं हो सके गी। मैं जा रही हूँ
गरू
ु जी!’

बक्सा ढोनेवाला आदमी आज कोर्-पतलनू पहन कर बाबसू ाहब बन गया है। माजलकों की तरह कुजलयों को हुकम दे
रहा है –‘जनाना दजाट में चढ़ाना। अच्छा?’

जहरामन हाथ में थैली ले कर चपु चाप खड़ा रहा। कुरते के अंदर से थैली जनकाल कर दी है हीराबाई ने। जचजड़या की देह
की तरह गमट है थैली।

‘गाड़ी आ रही है।‘बक्सा ढोनेवाले ने मूँहु बनाते हुए हीराबाई की ओर देखा। उसके चेहरे का भाव स्पि है – इतना
ज्यादा क्या है?

हीराबाई चचं ल हो गई। बोली, ‘जहरामन, इधर आओ, अदं र। मैं जिर लौर् कर जा रही हूँ मथरु ामोहन कंपनी में। अपने
देश की कंपनी है। ...वनैली मेला आओगे न?’

हीराबाई ने जहरामन के कंधे पर हाथ रखा, …इस बार दाजहने कंधे पर। जिर अपनी थैली से रूपया जनकालते हुए बोली,
‘एक गरम चादर खरीद लेना...।‘

जहरामन की बोली िूर्ी, इतनी देर के बाद –‘इस्स! हरदम रूपैया-पैसा! रजखए रूपैया! क्या करें गे चादर?’

हीराबाई का हाथ रूक गया। उसने जहरामन के चेहरे को गौर से देखा। जिर बोली, ‘तुम्हारा जी बहुत छोर्ा हो गया है।
क्यों मीता? महुआ घर्वाररन को सौदागर ने खरीद जो जलया है गरू
ु जी!’

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गला भर आया हीराबाई का। बक्सा ढोनेवाले ने बाहर से आवाज दी –‘गाड़ी आ गई।‘जहरामन कमरे से बाहर जनकल
आया। बक्सा ढोनेवाले ने नौर्ंकी के जोकर जैसा मूँहु बना कर कहा, ‘लार्िारम से बाहर भागो। जबना जर्कर् के
पकड़ेगा तो तीन महीने की हवा...।‘

जहरामन चपु चाप िार्क से बाहर जा कर खड़ा हो गया। ...र्ीसन की बात, रे लवे का राज! नहीं तो इस बक्सा ढोनेवाले
का मूँहु सीधा कर देता जहरामन।

हीराबाई ठीक सामनेवाली कोठरी में चढ़ी। इस्स! इतना र्ान! गाड़ी में बैठ कर भी जहरामन की ओर देख रही है, र्ुकुर-
र्ुकुर। लालमोहर को देख कर जी जल उठता है, हमेशा पीछे -पीछे , हरदम जहस्सादारी सझू ती है।

गाड़ी ने सीर्ी दी। जहरामन को लगा, उसके अंदर से कोई आवाज जनकल कर सीर्ी के साथ ऊपर की ओर चली गई –
कू-ऊ-ऊ! इ-स्स!

-छी-ई-ई-छक्क! गाड़ी जहली। जहरामन ने अपने दाजहने पैर के अूँगठू े को बाएूँ पैर की एड़ी से कुचल जलया। कलेजे की
धड़कन ठीक हो गई। हीराबाई हाथ की बैंगनी सािी से चेहरा पोंछती है। सािी जहला कर इशारा करती है ...अब
जाओ। आजखरी जडब्बा गजु रा, प्लेर्िामट खाली सब खाली ...खोखले ...मालगाड़ी के जडब्बे! दजु नया ही खाली हो गई
मानो! जहरामन अपनी गाड़ी के पास लौर् आया।

जहरामन ने लालमोहर से पछू ा, ‘तमु कब तक लौर् रहे हो गाूँव?’

लालमोहर बोला, ‘अभी गाूँव जा कर क्या करें गे? यहाूँ तो भाड़ा कमाने का मौका है! हीराबाई चली गई, मेला अब
र्ूर्ेगा।‘

- ‘अच्छी बात। कोई समाद देना है घर?’

लालमोहर ने जहरामन को समझाने की कोजशश की। लेजकन जहरामन ने अपनी गाड़ी गाूँव की ओर जानेवाली सड़क की
ओर मोड़ दी। अब मेले में क्या धरा है! खोखला मेला!

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रे लवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दरू तक। जहरामन कभी रे ल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में
जिर परु ानी लालसा झाूँकी, रे लगाड़ी पर सवार हो कर, गीत गाते हुए जगरनाथ-धाम जाने की लालसा। उलर् कर अपने
खाली र्प्पर की ओर देखने की जहम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गदु गदु ी लगती है। आज भी रह-रह कर चंपा का
िूल जखल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की र्ूर्ी कड़ी पर नगाड़े का ताल कर् जाता है, बार-बार!

उसने उलर् कर देखा, बोरे भी नहीं, बाूँस भी नहीं, बाघ भी नहीं – परी ...देवी ...मीता ...हीरादेवी ...महुआ घर्वाररन –
को-ई नहीं। मरे हुए महु तों की गूँगू ी आवाजें मख
ु र होना चाहती है। जहरामन के होंठ जहल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम
खा रहा है – कंपनी की औरत की लदनी...।

जहरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को जझड़की दी, दआ


ु ली से मारते हुए बोला, ‘रे लवे लाइन की ओर उलर्-उलर् कर
क्या देखते हो?’दोनों बैलों ने कदम खोल कर चाल पकड़ी। जहरामन गनु गनु ाने लगा –‘अजी हाूँ, मारे गए गल
ु िाम...!’
****

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लाल िान की बेगम
िणीश्वरनाथ 'रे ण'ु
'क्यों जबरजू की माूँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?'
जबरजू की माूँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आूँगन में। सात साल का लड़का जबरजू
शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आूँगन में लोर्-पोर् कर सारी देह में जमट्टी मल रहा था। चंजपया के जसर भी चड़ु ैल
मूँडरा रही है... आधे-आूँगन धपू रहते जो गई है सहुआन की दक
ु ान छोवा-गड़ु लाने, सो अभी तक नहीं लौर्ी, दीया-
बाती की बेला हो गई। आए आज लौर्के जरा! बागड़ बकरे की देह में कुकुरमाछी लगी थी, इसजलए बेचारा बागड़
रह-रह कर कूद-िाूँद कर रहा था। जबरजू की माूँ बागड़ पर मन का गस्ु सा उतारने का बहाना ढूूँढ़ कर जनकाल चक ु ी थी।
...जपछवाड़े की जमचट की िूली गाछ! बागड़ के जसवा और जकसने कलेवा जकया होगा! बागड़ को मारने के जलए वह
जमट्टी का छोर्ा ढेला उठा चक
ु ी थी, जक पड़ोजसन मखनी िुआ की पक ु ार सनु ाई पड़ी - 'क्यों जबरजू की माूँ, नाच देखने
नहीं जाएगी क्या?'

'जबरजू की माूँ के आगे नाथ और पीछे पगजहया न हो तब न, िुआ!'

गरम गस्ु से में बझु ी नक


ु ीली बात िुआ की देह में धूँस गई और जबरजू के माूँ ने हाथ के ढेले को पास ही िें क जदया -
'बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परे शान कर रही है। आ-हा, आय... आय! हरट -र-र! आय-आय!'

जबरजू ने लेर्े-ही-लेर्े बागड़ को एक डंडा लगा जदया। जबरजू की माूँ की इच्छा हुई जक जा कर उसी डंडे से जबरजू का
भतू भगा दे, जकंतु नीम के पास खड़ी पनभरजनयों की जखलजखलाहर् सनु कर रुक गई। बोली, 'ठहर, तेरे बप्पा ने बड़ा
हथछुट्टा बना जदया है तझु े! बड़ा हाथ चलता है लोगों पर। ठहर!'

मखनी िुआ नीम के पास झक ु ी कमर से घड़ा उतार कर पानी भर कर लौर्ती पनभरजनयों में जबरजू की माूँ की बहकी
हुई बात का इसं ाि करा रही थी - 'जरा देखो तो इस जबरजू की माूँ को! चार मन पार्(जर्ू )का पैसा क्या हुआ है, धरती
पर पाूँव ही नहीं पड़ते! जनसाि करो! खदु अपने मूँहु से आठ जदन पहले से ही गाूँव की गली-गली में बोलती जिरी है,
'हाूँ, इस बार जबरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर जबठा कर बलरामपरु का नाच जदखा लाऊूँगा। बैल अब अपने घर
है, तो हजार गाड़ी मूँगनी जमल जाएूँगी।' सो मैंने अभी र्ोक जदया, नाच देखनेवाली सब तो औन-पौन कर तैयार हो रही
हैं, रसोई-पानी कर रहे हैं। मेरे मूँहु में आग लगे, क्यों मैं र्ोकने गई! सनु ती हो, क्या जवाब जदया जबरजू की माूँ ने?'

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मखनी िुआ ने अपने पोपले मूँहु के होंठों को एक ओर मोड़ कर ऐठती हुई बोली जनकाली - 'अर-् रे -हाूँ-हाूँ! जब-र-र-
ज्जू की मै...या के आगे नाथ औ-रट पीछे पगजहया ना हो, तब ना-आ-आ !'

जंगी की पतु ोह जबरजू की माूँ से नही डरती। वह जरा गला खोल कर ही कहती है, 'िुआ-आ! सरबे जसत्तलजमटर्ी (सवे
सेर््लमेंर्) के हाजकम के बासा पर िूलछाप जकनारीवाली साड़ी पहन के तू भी भर्ा की भेंर्ी चढ़ाती तो तम्ु हारे नाम से
भी द-ु तीन बीघा धनहर जमीन का पचाट कर् जाता! जिर तम्ु हारे घर भी आज दस मन सोनाबगं पार् होता, जोड़ा बैल
खरीदता! जिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ो पगजहया झल ू ती!'

जगं ी की पतु ोह मूँहु जोर है। रे लवे स्र्ेशन के पास की लड़की है। तीन ही महीने हुए, गौने की नई बह हो कर आई है और
सारे कुमाटर्ोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोरचा ले चक ु ी है। उसका ससरु जंगी दागी चोर है, सी-जकलासी है।
उसका खसम रंगी कुमाटर्ोली का नामी लठै त। इसीजलए हमेशा सींग खजु ाती जिरती जंगी की पतु ोह!

जबरजू की माूँ के आूँगन में जगं ी की पतु ोह की गला-खोल बोली गल


ु ेल की गोजलयों की तरह दनदनाती हुई आई थी।
जबरजू के माूँ ने एक तीखा जवाब खोज कर जनकाला, लेजकन मन मसोस कर रह गई। ...गोबर की ढेरी में कौन ढेला
िें के !

जीभ के झाल को गले में उतार कर जबरजू की माूँ ने अपनी बेर्ी चंजपया को आवाज दी - 'अरी चंजपया-या-या, आज
लौर्े तो तेरी मड़ू ी मरोड़ कर च्ू हे में झोंकती ह!ूँ जदन-जदन बेचाल होती जाती है! ...गाूँव में तो अब ठे ठर-बैसकोप का
गीत गानेवाली पतरु रया-पतु ोह सब आने लगी हैं। कहीं बैठके 'बाजे न मरु जलया' सीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई! अरी
चंजपया-या-या!'

जगं ी की पतु ोह ने जबरजू की माूँ की बोली का स्वाद ले कर कमर पर घड़े को सूँभाला और मर्क कर बोली, 'चल
जदजदया, चल! इस महु ्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-जदन और चौपहर-रात जबजली की
बत्ती भक्-भक् कर जलती है!'

भक्-भक् जबजली-बत्ती की बात सनु कर न जाने क्यों सभी जखलजखला कर हूँस पड़ी। िुआ की र्ूर्ी हुई दतं -पंजियों
के बीच से एक मीठी गाली जनकली - 'शैतान की नानी!'

जबरजू की माूँ की आूँखो पर मानो जकसी ने तेज र्ाचट की रोशनी डाल कर चौंजधया जदया। ...भक्-भक् जबजली-बत्ती!
तीन साल पहले सवे कैं प के बाद गाूँव की जलनडाही औरतों ने एक कहानी गढ़ के िै लाई थी , चंजपया की माूँ के

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आूँगन में रात-भर जबजली-बत्ती भक
ु भक
ु ाती थी! चंजपया की माूँ के आूँगन में नाकवाले जतू े की छाप घोड़े की र्ाप की
तरह। ...जलो, जलो! और जलो! चजं पया की माूँ के आूँगन में चाूँदी-जैसे पार् सख
ू ते देख कर जलनेवाली सब औरतें
खजलहान पर सोनोली धान के बोझों को देख कर बैंगन का भतु ाट हो जाएूँगी।

जमट्टी के बरतन से र्पकते हुए छोवा-गड़ु को उूँगजलयों से चार्ती हुई चंजपया आई और माूँ के तमाचे खा कर चीख पड़ी
- 'मझु े क्यों मारती है-ए-ए-ए! सहुआइन ज्दी से सौदा नहीं देती है-एूँ-एूँ-एूँ-एूँ!'

'सहुआइन ज्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की दक ु ान पर मोती झरते हैं, जो जड़ गाड़ कर बैठी हुई थी!
बोल, गले पर लात दे कर क्ला तोड़ दूँगू ी हरजाई, जो जिर कभी 'बाजे न मरु जलया' गाते सनु ा! चाल सीखने जाती है
र्ीशन की छोकररयों से!'

जबरजू के माूँ ने चपु हो कर अपनी आवाज अंदाजी जक उसकी बात जंगी के झोंपड़े तक साि-साि पहुचूँ गई होगी।

जबरजू बीती हुई बातों को भल ू कर उठ खड़ा हुआ था और धल ू झाड़ते हुए बरतन से र्पकते गड़ु को ललचाई जनगाह
से देखने लगा था। ...दीदी के साथ वह भी दक ु ान जाता तो दीदी उसे भी गड़ु चर्ाती, जरुर! वह शकरकंद के लोभ में
रहा और माूँगने पर माूँ ने शकरकंद के बदले...

'ए मैया, एक अूँगल


ु ी गड़ु दे दे जबरजू ने तलहथी िै लाई - दे ना मैया, एक रत्ती भर!'

'एक रत्ती क्यों, उठाके बरतन को िें क आती हूँ जपछवाड़े में, जाके चार्ना! नहीं बनेगी मीठी रोर्ी! ...मीठी रोर्ी खाने
का मूँहु होता है जबरजू की माूँ ने उबले शकरकंद का सपू रोती हुई चंजपया के सामने रखते हुए कहा, बैठके जछलके
उतार, नहीं तो अभी...!'

दस साल की चजं पया जानती है, शकरकंद छीलते समय कम-से-कम बारह बार माूँ उसे बाल पकड़ कर झकझोरे गी,
छोर्ी-छोर्ी खोर् जनकाल कर गाजलयाूँ देगी - 'पाूँव िै लाके क्यों बैठी है उस तरह, बेल्जी!' चंजपया माूँ के गस्ु से को
जानती है।

जबरजू ने इस मौके पर थोड़ी-सी खश


ु ामद करके देखा - 'मैया, मैं भी बैठ कर शकरकंद छीलूँ?ू '

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'नहीं?' माूँ ने जझड़की दी, 'एक शकरकंद छीलेगा और तीन पेर् में! जाके जसद्धू की बह से कहो, एक घंर्े के जलए कड़ाही
माूँग कर ले गई तो जिर लौर्ाने का नाम नहीं। जा ज्दी!'

मूँहु लर्का कर आूँगन से जनकलते-जनकलते जबरजू ने शकरकंद और गड़ु पर जनगाहें दौड़ाई। चंजपया ने अपने झबरे के श
की ओर् से माूँ की ओर देखा और नजर बचा कर चपु के से जबरजू की ओर एक शकरकंद िें क जदया। ...जबरजू भागा।

'सरू ज भगवान डूब गए। दीया-बत्ती की बेला हो गई। अभी तक गाड़ी...

'चंजपया बीच में ही बोल उठी - 'कोयरीर्ोले में जकसी ने गाड़ी नहीं दी मैया! बप्पा बोले, माूँ से कहना सब ठीक-ठाक
करके तैयार रहें। मलदजहयार्ोली के जमयाूँजान की गाड़ी लाने जा रहा ह।ूँ '

सनु ते ही जबरजू की माूँ का चेहरा उतर गया। लगा, छाते की कमानी उतर गई घोड़े से अचानक। कोयरीर्ोले में जकसी ने
गाड़ी मूँगनी नहीं दी! तब जमल चक ु ी गाड़ी! जब अपने गाूँव के लोगों की आूँख में पानी नहीं तो मलदजहयार्ोली के
जमयाूँजान की गाड़ी का क्या भरोसा! न तीन में न तेरह में! क्या होगा शकरकंद छील कर! रख दे उठा के ! ...यह मदट
नाच जदखाएगा। बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच जदखाने ले जाएगा! चढ़ चक ु ी बैलगाड़ी पर, देख चक ु ी जी-भर नाच...
पैदल जानेवाली सब पहुचूँ कर परु ानी हो चक ु ी होंगी।

जबरजू छोर्ी कड़ाही जसर पर औधं ा कर वापस आया - 'देख जदजदया, मलेर्री र्ोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी
कुछ नहीं होता।'

चंजपया चपु चाप बैठी रही, कुछ बोली नहीं, जरा-सी मस्ु कराई भी नहीं। जबरजू ने समझ जलया, मैया का गस्ु सा अभी
उतरा नहीं है परू े तौर से।

मढ़ैया के अदं र से बागड़ को बाहर भगाती हुई जबरजू की माूँ बड़बड़ाई - 'कल ही पूँचकौड़ी कसाई के हवाले करती हूँ
राकस तझु े! हर चीज में मूँहु लगाएगा। चंजपया, बाूँध दे बागड़ को। खोल दे गले की घंर्ी! हमेशा र्ुनरु -र्ुनरु ! मझु े जरा
नहीं सहु ाता है!'

'र्ुनरु -र्ुनुर' सनु ते ही जबरजू को सड़क से जाती हुई बैलगाजड़यों की याद हो आई - 'अभी बबआ
ु नर्ोले की गाजड़याूँ नाच
देखने जा रही थीं... झनु रु -झनु रु बैलों की झमु की, तमु ने स.ु ..'

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'बेसी बक-बक मत करो!' बागड़ के गले से झमु की खोलती बोली चंजपया।

'चजं पया,डाल दे च्ू हे में पानी! बप्पा आवे तो कहना जक अपने उड़नजहाज पर चढ़ कर नाच देख आएूँ! मझ
ु े नाच
देखने का सौख नहीं! ...मझु े जगैयो मत कोई! मेरा माथा दख ु रहा है।'

मढ़ैया के ओसारे पर जबरजू ने जिसजिसा के पछू ा, 'क्यों जदजदया, नाच में उड़नजहाज भी उड़ेगा?'

चर्ाई पर कथरी ओढ़ कर बैठती हुई चजं पया ने जबरजू को चपु चाप अपने पास बैठने का इशारा जकया, मफ्ु त में मार
खाएगा बेचारा!

जबरजू ने बहन की कथरी में जहस्सा बाूँर्ते हुए चक्ु की-मक्ु की लगाई। जाड़े के समय इस तरह घर्ु ने पर ठुड्डी रख कर
चक्ु की-जमक्की लगाना सीख चक ु ा है वह। उसने चंजपया के कान के पास मूँहु ले जा कर कहा, 'हम लोग नाच देखने
नहीं जाएूँगे? ...गाूँव में एक पंछी भी नहीं है। सब चले गए।'

चंजपया को जतल-भर भी भरोसा नहीं। संझा तारा डूब रहा है। बप्पा अभी तक गाड़ी ले कर नहीं लौर्े। एक महीना पहले
से ही मैया कहती थी, बलरामपरु के नाच के जदन मीठी रोर्ी बनेगी, चंजपया छींर् की साड़ी पहनेगी, जबरजू पैंर् पहनेगा,
बैलगाड़ी पर चढ़ कर-

चंजपया की भीगी पलकों पर एक बूँदू आूँसू आ गया।

जबरजू का भी जदल भर आया। उसने मन-ही-मन में इमली पर रहनेवाले जजनबाबा को एक बैंगन कबल ू ा, गाछ का
सबसे पहला बैंगन, उसने खदु जजस पौधे को रोपा है! ...ज्दी से गाड़ी ले कर बप्पा को भेज दो, जजनबाबा!

मढ़ैया के अंदर जबरजू की माूँ चर्ाई पर पड़ी करवर्ें ले रही थी। उूँह, पहले से जकसी बात का मनसबू ा नहीं बाूँधना
चाजहए जकसी को! भगवान ने मनसबू ा तोड़ जदया। उसको सबसे पहले भगवान से पछू ना है, यह जकस चक ू का िल दे
रहे हो भोला बाबा! अपने जानते उसने जकसी देवता-जपत्तर की मान-मनौती बाकी नहीं रखी। सवे के समय जमीन के
जलए जजतनी मनौजतयाूँ की थीं... ठीक ही तो! महाबीर जी का रोर् तो बाकी ही है। हाय रे दैव!... भल ू -चकू माि करो
महाबीर बाबा! मनौती दनू ी करके चढ़ाएगी जबरजू की माूँ!...

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जबरजू की माूँ के मन में रह-रह कर जंगी की पतु ोह की बातें चभु ती हैं, भक्-भक् जबजली-बत्ती!... चोरी-चमारी
करनेवाली की बेर्ी-पतु ोह जलेगी नहीं! पाूँच बीघा जमीन क्या हाजसल की है जबरजू के बप्पा ने, गाूँव की भाईखौजकयों
की आूँखों में जकरजकरी पड़ गई है। खेत में पार् लगा देख कर गाूँव के लोगों की छाती िर्ने लगी, धरती िोड़ कर पार्
लगा है, बैसाखी बादलों की तरह उमड़ते आ रहे हैं पार् के पौधे! तो अलान, तो िलान! इतनी आूँखों की धार भला
िसल सहे! जहाूँ परं ह मन पार् होना चाजहए, जसिट दस मन पार् काूँर्ा पर तौल के ओजन हुआ भगत के यहाूँ।...

इसमें जलने की क्या बात है भला!... जबरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुमाटर्ोली के एक-एक आदमी को समझा के
कहा, 'जजदं गी-भर मजदरू ी करते रह जाओगे। सवे का समय हो रहा है, लाठी कड़ी करो तो दो-चार बीघे जमीन हाजसल
कर सकते हो।' सो गाूँव की जकसी पतु खौकी का भतार सवे के समय बाबसू ाहेब के जखलाि खाूँसा भी नहीं।... जबरजू
के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबसू ाहेब गस्ु से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए। उनका बड़ा बेर्ा घर
में आग लगाने की धमकी देकर गया।... आजखर बाबसू ाहेब ने अपने सबसे छोर्े लड़के को भेजा। जबरजू की माूँ को
'मौसी' कहके पक ु ारा - 'यह जमीन बाबू जी ने मेरे नाम से खरीदी थी। मेरी पढ़ाई-जलखाई उसी जमीन की उपज से
चलती है।' ...और भी जकतनी बातें। खबू मोहना जानता है उत्ता जरा-सा लड़का। जमींदार का बेर्ा है जक...

'चंजपया, जबरजू सो गया क्या? यहाूँ आ जा जबरज,ू अंदर। तू भी आ जा, चंजपया!... भला आदमी आए तो एक बार
आज!'

जबरजू के साथ चजं पया अदं र चली गई ।

'जढबरी बझ
ु ा दे।... बप्पा बल
ु ाएूँ तो जवाब मत देना। खपच्ची जगरा दे।'

भला आदमी रे , भला आदमी! मूँहु देखो जरा इस मदट का!... जबरजू की माूँ जदन-रात मझं ा न देती रहती तो ले चक ु े थे
जमीन! रोज आ कर माथा पकड़ के बैठ जाएूँ, 'मझु े जमीन नहीं लेनी है जबरजू की माूँ, मजरू ी ही अच्छी।'...जवाब देती
थी जबरजू की माूँ खबू सोच-समझके , 'छोड़ दो, जब तम्ु हारा कलेजा ही जस्थर नहीं होता है तो क्या होगा? जोरु-जमीन
जोर के , नहीं तो जकसी और के !...

जबरजू के बाप पर बहुत तेजी से गस्ु सा चढ़ता है। चढ़ता ही जाता है। ...जबरजू की माूँ का भाग ही खराब है, जो ऐसा
गोबरगणेश घरवाला उसे जमला। कौन-सा सौख-मौज जदया है उसके मदट ने? को्ह के बैल की तरह खर् कर सारी उम्र
कार् दी इसके यहाूँ, कभी एक पैसे की जलेबी भी ला कर दी है उसके खसम ने! ...पार् का दाम भगत के यहाूँ से ले

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कर बाहर-ही-बाहर बैल-हर्र्ा चले गए। जबरजू की माूँ को एक बार नमरी लोर् देखने भी नहीं जदया आूँख से। ...बैल
खरीद लाए। उसी जदन से गाूँव में जढढं ोरा पीर्ने लगे, जबरजू की माूँ इस बार बैलगाड़ी पर चढ़ कर जाएगी नाच देखने!
...दसू रे की गाड़ी के भरोसे नाच जदखाएगा!...

अतं में उसे अपने-आप पर क्रोध हो आया। वह खदु भी कुछ कम नहीं! उसकी जीभ में आग लगे! बैलगाड़ी पर चढ़
कर नाच देखने की लालसा जकसी कुसमय में उसके मूँहु से जनकली थी, भगवान जानें! जिर आज सबु ह से दोपहर तक,
जकसी-न-जकसी बहाने उसने अठारह बार बैलगाड़ी पर नाच देखने की चचाट छे ड़ी है। ...लो, खबू देखो नाच! कथरी के
नीचे दशु ाले का सपना! ...कल भोरे पानी भरने के जलए जब जाएगी, पतली जीभवाली पतरु रया सब हूँसती आएूँगी,
हूँसती जाएूँगी। ...सभी जलते है उससे, हाूँ भगवान, दाढ़ीजार भी! दो बच्चो की माूँ हो कर भी वह जस-की-तस है।
उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी जमीन है। है जकसी के
पास एक घरू जमीन भी अपने इस गाूँव में! जलेंगे नहीं, तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी। लोगों की जबखदीठ से
बचे, तब तो!

बाहर बैलों की घजं र्याूँ सनु ाई पड़ीं। तीनों सतकट हो गए। उत्कणट होकर सनु ते रहे।

'अपने ही बैलों की घंर्ी है, क्यों री चंजपया?'

चंजपया और जबरजू ने प्राय: एक ही साथ कहा, 'ह-ूँ ऊूँ-ऊूँ!'

'चपु जबरजू की माूँ ने जिसजिसा कर कहा, शायद गाड़ी भी है, घड़घड़ाती है न?'

'ह-ूँ ऊूँ-ऊूँ!' दोनों ने जिर हुक


ूँ ारी भरी।

'चपु ! गाड़ी नहीं है। तू चपु के से र्ट्टी में छे द करके देख तो आ चपं ी! भागके आ, चपु के -चपु के ।'

चंजपया जब्ली की तरह हौले-हौले पाूँव से र्ट्टी के छे द से झाूँक आई - 'हाूँ मैया, गाड़ी भी है!'

जबरजू हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसकी माूँ ने उसका हाथ पकड़ कर सल


ु ा जदया - 'बोले मत!'

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चंजपया भी गदु ड़ी के नीचे घसु गई।

बाहर बैलगाड़ी खोलने की आवाज हुई। जबरजू के बाप ने बैलों को जोर से डाूँर्ा - 'हाूँ-हाूँ! आ गए घर! घर आने के
जलए छाती िर्ी जाती थी!'

जबरजू की माूँ ताड़ गई, जरुर मलदजहयार्ोली में गाूँजे की जचलम चढ़ रही थी, आवाज तो बड़ी खनखनाती हुई जनकल
रही है।

'चंजपया-ह!' बाहर से पक
ु ार कर कहा उसके बाप ने, 'बैलों को घास दे दे, चंजपया-ह!'

अदं र से कोई जवाब नहीं आया। चजं पया के बाप ने आूँगन में आ कर देखा तो न रोशनी, न जचराग, न च्ू हे में आग।
...बात क्या है! नाच देखने, उतावली हो कर, पैदल ही चली गई क्या...!

जबरजू के गले में खसखसाहर् हुई और उसने रोकने की परू ी कोजशश भी की, लेजकन खाूँसी जब शरुु हुई तो परू े पाूँच
जमनर् तक वह खाूँसता रहा।

'जबरज!ू बेर्ा जबरजमोहन!' जबरजू के बाप ने पच


ु कार कर बल
ु ाया, मैया गस्ु से के मारे सो गई क्या? ...अरे अभी तो लोग
जा ही रहे हैं।'

जबरजू की माूँ के मन में आया जक कस कर जवाब दे, नहीं देखना है नाच! लौर्ा दो गाड़ी!

'चजं पया-ह! उठती क्यों नहीं? ले, धान की पूँचसीस रख दे। धान की बाजलयों का छोर्ा झब्बा झोंपड़े के ओसरे पर रख
कर उसने कहा, 'दीया बालो!'

जबरजू की माूँ उठ कर ओसारे पर आई - 'डेढ़ पहर रात को गाड़ी लाने की क्या जरुरत थी? नाच तो अब खत्म हो रहा
होगा।'

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जढबरी की रोशनी में धान की बाजलयों का रंग देखते ही जबरजू की माूँ के मन का सब मैल दरू हो गया। ...धानी रंग
उसकी आूँखों से उतर कर रोम-रोम में घल
ु गया।

'नाच अभी शरुु भी नहीं हुआ होगा। अभी-अभी बलमपरु के बाबू की संपनी गाड़ी मोहनपरु होजर्ल-बूँगला से हाजकम
साहब को लाने गई है। इस साल आजखरी नाच है।... पूँचसीस र्ट्टी में खोंस दे, अपने खेत का है।'

'अपने खेत का? हुलसती हुई जबरजू की माूँ ने पछ


ू ा, पक गये धान?'

'नहीं, दस जदन में अगहन चढ़ते-चढ़ते लाल हो कर झक ु जाएूँगी सारे खेत की बाजलयाूँ! ...मलदजहयार्ोली पर जा रहा
था, अपने खेत में धान देख कर आूँखें जड़ु ा गई।ं सच कहता ह,ूँ पूँचसीस तोड़ते समय उूँगजलयाूँ काूँप रही थीं मेरी!'

जबरजू ने धान की एक बाली से एक धान ले कर मूँहु में डाल जलया और उसकी माूँ ने एक ह्की डाूँर् दी - 'कै सा
लक्ु क्ड़ है तू रे ! ...इन दश्ु मनों के मारे कोई नेम-धरम बचे!'

'क्या हुआ, डाूँर्ती क्यों है?'

'नवान्द्न के पहले ही नया धान जठु ा जदया, देखते नहीं?'

'अरे ,इन लोगों का सब कुछ माि है। जचरई-चरु मनु हैं यह लोग! दोनों के मूँहु में नवान्द्न के पहले नया अन्द्न न पड़े ?'

इसके बाद चंजपया ने भी धान की बाली से दो धान लेकर दाूँतों-तले दबाए - 'ओ मैया! इतना मीठा चावल!'

'और गमकता भी है न जदजदया ?' जबरजू ने जिर मूँहु में धान जलया।

'रोर्ी-पोर्ी तैयार कर चक
ु ी क्या?' जबरजू के बाप ने मस्ु कराकर पछू ा।

'नहीं!' मान-भरे सरु में बोली जबरजू की माूँ, 'जाने का ठीक-जठकाना नहीं... और रोर्ी बनाती!'

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'वाह! खबू हो तमु लोग!...जजसके पास बैल है, उसे गाड़ी मूँगनी नहीं जमलेगी भला? गाड़ीवालो को भी कभी बैल की
जरुरत होगी। ...पछू ू ूँ गा तब कोयरीर्ोलावालों से! ...ले, ज्दी से रोर्ी बना ले।'

'देर नहीं होगी!'

'अरे , र्ोकरी भर रोर्ी तो तू पलक मारते बना देती है, पाूँच रोजर्याूँ बनाने में जकतनी देर लगेगी! '

अब जबरजू की माूँ के होंठों पर मस्ु कराहर् खुल कर जखलने लगी। उसने नजर बचा कर देखा, जबरजू का बप्पा उसकी
ओर एकर्क जनहार रहा है। ...चंजपया और जबरजू न होते तो मन की बात हूँस कर खोलने में देर न लगती। चंजपया और
जबरजू ने एक-दसू रे को देखा और खश ु ी से उनके चेहरे जगमगा उठे - 'मैया बेकार गस्ु सा हो रही थी न!'

'चंपी! जरा घैलसार में खड़ी हो कर मखनी िुआ को आवाज दे तो!'

'ऐ िू-आ-आ! सनु ती हो िूआ-आ! मैया बल


ु ा रही है!'

िुआ ने कोई जवाब नहीं जदया, जकंतु उसकी बड़बड़ाहर् स्पि सनु ाई पड़ी - 'हाूँ! अब िुआ को क्यों गहु ारती है? सारे
र्ोले में बस एक िुआ ही तो जबना नाथ-पगजहयावाली है।'

'अरी िुआ!' जबरजू की माूँ ने हूँस कर जवाब जदया, 'उस समय बरु ा मान गई थी क्या? नाथ-पगजहयावाले को आ कर
देखो, दोपहर रात में गाड़ी लेकर आया है! आ जाओ िुआ, मैं मीठी रोर्ी पकाना नहीं जानती।'

िुआ काूँखती-खाूँसती आई - 'इसी के घड़ी-पहर जदन रहते ही पछू रही थी जक नाच देखने जाएगी क्या? कहती, तो मैं
पहले से ही अपनी अूँगीठी यहाूँ सल
ु गा जाती।'

जबरजू की माूँ ने िुआ को अूँगीठी जदखला दी और कहा, 'घर में अनाज-दाना वगैरह तो कुछ है नहीं। एक बागड़ है
और कुछ बरतन-बासन, सो रात-भर के जलए यहाूँ तबं ाकू रख जाती ह।ूँ अपना हुक्का ले आई हो न िुआ?'

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िुआ को तंबाकू जमल जाए, तो रात-भर क्या, पाूँच रात बैठ कर जाग सकती है। िुआ ने अूँधेरे में र्र्ोल कर तंबाकू का
अदं ाज जकया... ओ-हो! हाथ खोल कर तबं ाकू रखा है जबरजू की माूँ ने! और एक वह है सहुआइन! राम कहो! उस
रात को अिीम की गोली की तरह एक मर्र-भर तंबाकू रख कर चली गई गल ु ाब-बाग मेले और कह गई जक जडब्बी-
भर तंबाकू है।

जबरजू की माूँ च्ू हा सल


ु गाने लगी। चजं पया ने शकरकंद को मसल कर गोले बनाए और जबरजू जसर पर कड़ाही औधं ा
कर अपने बाप को जदखलाने लगा - 'मलेर्री र्ोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होगा!'

सभी ठठा कर हूँस पड़े। जबरजू की माूँ हूँस कर बोली, 'ताखे पर तीन-चार मोर्े शकरकंद हैं, दे दे जबरजू को चजं पया,
बेचारा शाम से ही...'

'बेचारा मत कहो मैया, खबू सचारा है' अब चंजपया चहकने लगी, 'तमु क्या जानो, कथरी के नीचे मूँहु क्यों चल रहा था
बाबू साहब का!'

'ही-ही-ही!'

जबरजू के र्ूर्े दधू के दाूँतो की िाूँक से बोली जनकली, 'जबलैक-मारजर्न में पाूँच शकरकंद खा जलया! हा-हा-हा!'

सभी जिर ठठा कर हूँस पड़े। जबरजू की माूँ ने िुआ का मन रखने के जलए पछू ा, 'एक कनवाूँ गड़ु है। आधा दूँू िुआ?'

िुआ ने गदगद हो कर कहा, 'अरी शकरकंद तो खदु मीठा होता है, उतना क्यों डालेगी?'

जब तक दोनों बैल दाना-घास खा कर एक-दसू रे की देह को जीभ से चार्ें, जबरजू की माूँ तैयार हो गई। चंजपया ने छींर्
की साड़ी पहनी और जबरजू बर्न के अभाव में पैंर् पर पर्सन की डोरी बूँधवाने लगा।

जबरजू के माूँ ने आूँगन से जनकल गाूँव की ओर कान लगा कर सनु ने की चेिा की - 'उूँहु,ूँ इतनी देर तक भला पैदल
जानेवाले रुके रहेंगे?'

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पजू णटमा का चाूँद जसर पर आ गया है। ...जबरजू की माूँ ने असली रुपा का मूँगजर्क्का पहना है आज, पहली बार। जबरजू
के बप्पा को हो क्या गया है, गाड़ी जोतता क्यों नहीं, मूँहु की ओर एकर्क देख रहा है, मानो नाच की लाल पान की...

गाड़ी पर बैठते ही जबरजू की माूँ की देह में एक अजीब गदु गदु ी लगने लगी। उसने बाूँस की ब्ली को पकड़ कर कहा,
'गाड़ी पर अभी बहोत जगह है। ...जरा दाजहनी सड़क से गाड़ी हाूँकना।'

बैल जब दौड़ने लगे और पजहया जब च-ूँू चूँू करके घरघराने लगा तो जबरजू से नहीं रहा गया - 'उड़नजहाज की तरह
उड़ाओ बप्पा!'

गाड़ी जगं ी के जपछवाड़े पहुचूँ ी। जबरजू की माूँ ने कहा, 'जरा जगं ी से पछू ो न, उसकी पतु ोह नाच देखने चली गई क्या?'

गाड़ी के रुकते ही जंगी के झोंपड़े से आती हुई रोने की आवाज स्पि हो गई। जबरजू के बप्पा ने पछू ा, 'अरे जंगी भाई,
काहे कन्द्न-रोहर् हो रहा है आूँगन में?'

जगं ी घरू ताप रहा था, बोला, 'क्या पछू ते हो, रंगी बलरामपरु से लौर्ा नहीं, पतु ोजहया नाच देखने कै से जाए! आसरा
देखते-देखते उधर गाूँव की सभी औरतें चली गई।'

'अरी र्ीशनवाली, तो रोती है काहे!' जबरजू की माूँ ने पक


ु ार कर कहा, 'आ जा झर् से कपड़ा पहन कर। सारी गाड़ी पड़ी
हुई है! बेचारी! ...आ जा ज्दी!'

बगल के झोंपड़े से राधे की बेर्ी सनु री ने कहा, 'काकी, गाड़ी में जगह है? मैं भी जाऊूँगी।'

बाूँस की झाड़ी के उस पार लरे ना खवास का घर है। उसकी बह भी नहीं गई है। जगलर् का झमु की-कड़ा पहन कर
झमकती आ रही है।

'आ जा! जो बाकी रह गई हैं, सब आ जाएूँ ज्दी!'

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जंगी की पतु ोह, लरे ना की बीवी और राधे की बेर्ी सनु री, तीनों गाड़ी के पास आई। बैल ने जपछला पैर िें का। जबरजू के
बाप ने एक भद्दी गाली दी - 'साला! लताड़ मार कर लूँगड़ी बनाएगा पतु ोह को!'

सभी ठठा कर हूँस पड़े। जबरजू के बाप ने घूँघू र् में झक


ु ी दोनों पतु ोहओ ं को देखा। उसे अपने खेत की झक
ु ी हुई बाजलयों
की याद आ गई।

जगं ी की पतु ोह का गौना तीन ही मास पहले हुआ है। गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-जसदं रू की गधं आ
रही है। जबरजू की माूँ को अपने गौने की याद आई। उसने कपड़े की गठरी से तीन मीठी रोजर्याूँ जनकाल कर कहा, 'खा
ले एक-एक करके । जसमराह के सरकारी कूप में पानी पी लेना।'

गाड़ी गाूँव से बाहर हो कर धान के खेतों के बगल से जाने लगी। चाूँदनी, काजतक की! ...खेतों से धान के झरते िूलों
की गंध आती है। बाूँस की झाड़ी में कहीं दद्धु ी की लता िूली है। जंगी की पतु ोह ने एक बीड़ी सल
ु गा कर जबरजू की माूँ
की ओर बढ़ाई। जबरजू की माूँ को अचानक याद आई चजं पया, सनु री, लरे ना की बीवी और जगं ी की पतु ोह, ये चारों ही
गाूँव में बैसकोप का गीत गाना जानती हैं। ...खबू !

गाड़ी की लीक धनखेतों के बीच हो कर गई। चारों ओर गौने की साड़ी की खसखसाहर्-जैसी आवाज होती है।
...जबरजू की माूँ के माथे के मूँगजर्क्के पर चाूँदनी जछर्कती है।

'अच्छा, अब एक बैसकोप का गीत गा तो चंजपया! ...डरती है काहे? जहाूँ भल


ू जाओगी, बगल में मासर्रनी बैठी ही
है!'

दोनों पतु ोहुओ ं ने तो नहीं, जकंतु चंजपया और सनु री ने खूँखार कर गला साि जकया।

जबरजू के बाप ने बैलों को ललकारा - 'चल भैया! और जरा जोर से!... गा रे चजं पया, नहीं तो मैं बैलों को धीरे -धीरे
चलने को कहगूँ ा।'

जंगी की पतु ोह ने चंजपया के कान के पास घूँघू र् ले जा कर कुछ कहा और चंजपया ने धीमे से शरुु जकया - 'चंदा की
चाूँदनी...'

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जबरजू को गोद में ले कर बैठी उसकी माूँ की इच्छा हुई जक वह भी साथ-साथ गीत गाए। जबरजू की माूँ ने जंगी की
पतु ोह को देखा, धीरे -धीरे गनु गनु ा रही है वह भी। जकतनी प्यारी पतु ोह है! गौने की साड़ी से एक खास जकस्म की गधं
जनकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने! जबरजू की माूँ बेगम है, लाल पान की बेगम! यह तो कोई बरु ी बात नहीं। हाूँ,
वह सचमचु लाल पान की बेगम है!

जबरजू की माूँ ने अपनी नाक पर दोनों आूँखों को कें जरत करने की चेिा करके अपने रुप की झाूँकी ली, लाला साड़ी की
जझलजमल जकनारी, मूँगजर्क्का पर चाूँद। ...जबरजू की माूँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं। उसे नींद आ रही है।

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कोसी का घटवार
शेखर जोशी
अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अजधक गेहं शेि था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यथट ही उलर्ा-पलर्ा और
चक्की के पार्ों के वृत्त में िै ले हुए आर्े को झाडकर एक ढेर बना जदया। बाहर आते-आते उसने जिर एक बार और
खप्पर में झांककर देखा, जैसे यह जानने के जलए जक इतनी देर में जकतनी जपसाई हो चक ु ी हैं, परंतु अंदर की जमकदार में
कोई जवशेि अतं र नहीं आया था। खस्स-खस्स की ध्वजन के साथ अत्यतं धीमी गजत से ऊपर का पार् चल रहा था। घर्
का प्रवेशद्वार बहुत कम ऊंचा था, खबू नीचे तक झक ु कर वह बाहर जनकला। सर के बालों और बांहों पर आर्े की एक
हलकी सिे द पतट बैठ गई थी।

खभं े का सहारा लेकर वह बदु बदु ाया, ‘’जा, स्साला! सबु ह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सरू ज कहां का कहां
चला गया है। कै सी अनहोनी बात!’’

बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों का नाम-जनशान ही नहीं। अन्द्य विों अब तक लोगों
की धान-रोपाई परू ी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सख ू े पडे हैं। खेतों की जसंचाई ंतो दरजकनार, बीज की
क्याररयां सख
ू ी जा रही हैं। छोर्े नाले-गल
ू ों के जकनारे के घर् महीनों से बंद हैं। कोसी के जकनारे हैं गसु ाई ं का यह घर्।
पर इसकी भी चाल ऐसी जक लद्दू घोडे की चाल को मात देती हैं।

चक्की के जनचले खंड में जछच्छर-जछच्छर की आवाज के साथ पानी को कार्ती हुई मथानी चल रही थी। जकतनी
धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर
होता था जक आदमी को अपनी बात नहीं सनु ाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहां सनु ाई दे
जाय।

छप्प ..छप्प ..छप्प ..परु ानी िौजी पैंर् को घर्ु नों तक मोडकर गसु ांई ंपानी की गल
ू के अंदर चलने लगा। कहीं कोई
सरू ाख-जनकास हो, तो बंद कर दे। एक बंदू पानी भी बाहर न जाए। बंदू -बंदू की कीमत है इन जदनों। प्रायः आधा िलांग
चलकर वह बाधं पर पहुचं ा। नदी की परू ी चौडाई को घेरकर पानी का बहाव घर् की गल ू की ओर मोड जदया गया था।
जकनारे की जमट्टी-घास लेकर उसने बांध में एक-दो स्थान पर जनकास बंद जकया और जिर गल ू के जकनारे -जकनारे
चलकर घर् पर आ गया।

अदं र जाकर उसने जिर पार्ों के वृत्त में िै ले हुए आर्े को बहु ारकर ढेरी में जमला जदया। खप्पर में अभी थोडा-बहुत गेहं
शेि था। वह उठकर बाहर आया।

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दरू रास्ते पर एक आदमी सर पर जपसान रखे उसकी ओर जा रहा था। गसु ांई ंने उसकी सजु वधा का ख्याल कर वहीं से
आवाज दे दी, ‘’हैं हो! यहां लबं र देर में आएगा। दो जदन का जपसान अभी जमा है। ऊपर उमेदजसहं के घर् में देख लो।‘’

उस व्यजि ने मडु ने से पहले एक बार और प्रयत्न जकया। खबू ऊंचे स्वर में पक
ु ारकर वह बोला,’’जरूरी है, जी! पहले
हमारा लंबर नहीं लगा दोगे?’’

गसु ाईं ंहोंठों-ही-होठों में मस्ु कराया, स्साला कै से चीखता है, जैसे घर् की आवाज इतनी हो जक मैं सनु न सकंू ! कुछ कम
ऊंची आवाज में उसने हाथ जहलाकर उत्तर दे जदया, ‘’यहां जरूरी का भी बाप रखा है, जी! तमु ऊपर चले जाओ!’’

वह आदमी लौर् गया।


जमहल की छांव में बैठकर गसु ांई ंने लकडी के जलते कंु दे को खोदकर जचलम सल
ु गाई और गडु -गडु करता धआ
ु ं
उडाता रहा

खस्सर-खस्सर चक्की का पार् चल रहा था।


जकर्-जकर्-जकर्-जकर् खप्पर से दाने जगरानेवाली जचजडया पार् पर र्करा रही थी।

जछच्छर-जछच्छर की आवाज के साथ मथानी पानी को कार् रही थी। और कहीं कोई आवाज नहीं। कोसी के बहाव में
भी कोई ध्वजन नहीं। रे ती-पाथरों के बीच में र्खने-र्खने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश को जनहार रहे थे। दोपहरी
ढलने पर भी इतनी तेज धपू ! कहीं जचरै या भी नहीं बोलती। जकसी प्राणी का जप्रय-अजप्रय स्वर नहीं।

सख ू ी नदी के जकनारे बैठा गसु ांई ंसोचने लगा, क्यों उस व्यजि को लौर्ा जदया? लौर् तो वह जाता ही, घर् के अंदर
र्च्च पडे जपसान के थैलों को देखकर। दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।

कभी-कभी गसु ाईं ंको यह अके लापन कार्ने लगता है। सख ू ी नदी के जकनारे का यह अके लापन नहीं, जजदं गी-भर साथ
देने के जलए जो अके लापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जजसे अपना कह सके , ऐसे जकसी प्राणी का
स्वर उसके जलए नहीं। पालतू कुत्ते-जब्ली का स्वर भी नहीं। क्या जठकाना ऐसे माजलक का, जजसका घर-द्वार नहीं,
बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का जठकाना नहीं ..

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घर्ु नों तक उठी हुई परु ानी िौजी पैंर् के मोड को गसु ांई ंने खोला। गल
ू में चलते हुए थोडा भाग भीग गया था। पर इस
गमी में उसे भीगी पैंर् की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंर् की सलवर्ों को ठीक करते -करते गसु ांई ंने हुक्के की नली से
मंहु हर्ाया। उसके होठों में बांएं कोने पर हलकी-सी मस्ु कान उभर आई। बीती बातों की याद गसु ांई ंसोचने लगा, इसी
पैंर् की बदौलत यह अके लापन उसे जमला है ..नहीं, याद करने को मन नहीं करता। परु ानी,बहुत परु ानी बातें वह भल ू
गया है, पर हवालदार साहब की पैंर् की बात उसे नहीं भल ू ती।

ऐसी ही िौजी पैंर् पहनकर हवालदार धरमजसंह आया था, लॉन्द्ड्री की धल ु ी, नोकदार, क्रीजवाली पैंर्! वैसी ही पैंर्
पहनने की महत्वाकाक्ष
ं ा लेकर गसु ाईं ंिौज में गया था। पर िौज से लौर्ा, तो पैंर् के साथ-साथ जजदं गी का अके लापन
भी उसके साथ आ गया।

पैंर् के साथ और भी जकतनी स्मृजतयां संबध्द हैं। उस बार की छुरट्टयों की बात ..

कौन महीना? हां, बैसाख ही था। सर पर क्रास खख ु री के क्रेस्र् वाली, काली, जकश्तीनमु ा र्ोपी को जतरछा रखकर,
िौजी वदी वह पहली बार एनअ ु ल-लीव पर घर आया, तो चीड वन की आग की तरह खबर इधर-उधर िै ल गई थी।
बच्चे-बढू ,े सभी उससे जमलने आए थे। चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। जबस्तर की नई, एकदम साि,
जगमग, लाल-नीली धाररयोंवाली दरी आंगन में जबछानी पडी थी लोगों को जबठाने के जलए। खबू याद है, आंगन का
गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बढू े, सभी आए थे। जसिट चना-गडु या ह्द्वानी के तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल
के शमीले गसु ाईं ंको इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गसु ाईं ंकी आख ं ें उस भीड में जजसे खोज रही थीं,
वह वहां नहीं थी।

नाला पार के अपने गावं से भैंस के कर्या को खोजने के बहाने दसू रे जदन लछमा आई थी। पर गसु ाईं उस जदन उससे
जमल न सका। गांव के छोकरे ही गसु ांई ंकी जान को बवाल हो गए थे। बढु ्ढे नरजसंह प्रधान उन जदनों ठीक ही कहते थे,
आजकल गसु ांई ंको देखकर सोबजनयां का लडका भी अपनी िर्ी घेर की र्ोपी को जतरछी पहनने लग गया है। जदन-
रात जब्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, जसगरे र्-बीडी या गपशप के लोभ में।

एक जदन बडी मजु श्कल से मौका जमला था उसे। लछमा को पात-पतेल के जलए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से
काक
ं ड के जशकार का बहाना बनाकर अके ले जगं ल को चल जदया था। गांव की सीमा से बहुत दरू , कािल के पेड के
नीचे गसु ांई ंके घर्ु ने पर सर रखकर, लेर्ी-लेर्ी लछमा कािल खा रही थी। पके , गदराए, गहरे लाल-लाल कािल।
खेल-खेल में कािलों की छीना-झपर्ी करते गसु ांई ंने लछमा की मिु ी भींच दी थी। र्प-र्प कािलों का गाढा लाल
रस उसकी पैंर् पर जगर गया था। लछमा ने कहा था, ‘’इसे यहीं रख जाना, मेरी परू ी बाहं की कुती इसमें से जनकल
आएगी।‘’वह जखलजखलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हसं दी थी।

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परु ानी बात – क्या कहा था गसु ांई ंने, याद नहीं पडता ..तेरे जलए मखमल की कुती ला दगंू ा, मेरी सवु ा! या कुछ ऐसा
ही।

पर लछमा को मखमल की कुती जकसने पहनाई होगी – पहाडी पार के रमुवां ने, जो तरु ी-जनसाण लेकर उसे ब्याहने
आया था?

‘’जजसके आगे-पीछे भाई-बजहन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बदं क


ू की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कै से दे दें
हम?’’लछमा के बाप ने कहा था।

उसका मन जानने के जलए गसु ाईं ंने र्ेढे-जतरछे बात चलवाई थी।
उसी साल मंगजसर की एक ठंडी, उदास शाम को गसु ांई ंकी यजू नर् के जसपाही जकसनजसंह ने क्वार्टर-मास्र्र स्र्ोर के
सामने खडे-खडे उससे कहा था, ‘’हमारे गांव के रामजसंह ने जजद की, तभी छुरट्टयां बढानी पडीं। ऌस साल उसकी
शादी थी। खबू अच्छी औरत जमली है, यार! शक्ल-सरू त भी खबू है,एकदम पर्ाखा! बडी हसं मख ु है। तमु ने तो देखा ही
होगा, तम्ु हारे गांव के नजदीक की ही है। लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।‘’

गसु ाईं को याद नहीं पडता, कौन-सा बहाना बनाकर वह जकसनजसहं के पास से चला आया था, रम-डे थे उस जदन।
हमेशा आधा पैग लेनेवाला गसु ांई ंउस जदन पेशी करवाई थी – मलेररया जप्रकॉशन न करने के अपराध में। सोचते-
सोचते गसु ांई ंबदु बदु ाया, ‘’स्साल एडजर्ु ेन्द्र्!’’

गसु ांई ंसोचने लगा, उस साल छुरट्टयों में घर से जबदा होने से एक जदन पहले वह मौका जनकालकर लछमा से जमला था।

‘’गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तमु कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी!’’आंखों में आंसंू भरकर लछमा ने कहा था।

विों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंर् होगी, तो वह अवश्य कहेगा जक वह गगं नाथ का जागर लगाकर
प्रायजश्चत जरूर कर ले। देवी-देवताओ ं की झठू ी कसमें खाकर उन्द्हें नाराज करने से क्या लाभ? जजस पर भी गंगनाथ का
कोप हुआ, वह कभी िल-िूल नहीं पाया। पर लछमा से कब भेंर् होगी, यह वह नहीं जानता। लडकपन से संगी-साथी
नौकरी-चाकरी के जलए मैदानों में चले गए हैं। गांव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में जकसी से
पछू ना उसे अच्छा नहीं लगता।

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जजतने जदन नौकरी रही, वह पलर्कर अपने गांव नहीं आया। एक स्र्ेशन से दसू रे स्र्ेशन का वालंजर्यरी ट्ांसिर
लेनेवालों की जलस्र् में नायक गसु ाईं जसहं का नाम ऊपर आता रहा – लगातार परं ह साल तक।

जपछले बैसाख में ही वह गांव लौर्ा, पंरह साल बाद, ररजवट में आने पर। काले बालों को लेकर गया था, जखचडी बाल
लेकर लौर्ा। लछमा का हठ उसे अके ला बना गया।

आज इस अके लेपन में कोई होता, जजसे गसु ाईं ंअपनी जजदं गी की जकताब पढकर सुनाता! शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर
जकतना देखा, जकतना सनु ा और जकतना अनभु व जकया है उसने ..

पर नदी जकनारे यह तपती रे त, पनचक्की की खर्र-पर्र और जमहल की छाया में ठंडी जचलम को जनष्प्रयोजन
गडु गडु ाता गसु ांई।ं और चारों ओर अन्द्य कोई नहीं। एकदम जनजटन, जनस्तब्ध, सनु सान –

एकाएक गसु ांई ंका ध्यान र्ूर्ा।


सामने पहाडी के बीच की पगडंड़ी से सर पर बोझा जलए एक नारी आकृ जत उसी ओर चली आ रही थी। गसु ाईं ंने सोचा
वहीं से आवाज देकर उसे लौर्ा दे। कोसी ने जचकने, काई लगे पत्थरों पर कजठनाई से चलकर उसे वहां तक आकर
के वल जनराश लौर् जाने को क्यों वह बाध्य करे । दरू से जच्ला-जच्लाकर जपसान स्वीकार करवाने की लोगों की
आदत से वह तंग आ चक ु ा था। इस कारण आवाज देने को उसका मन नहीं हुआ। वह आकृ जत अब तक पगडंडी
छोडकर नदी के मागट में आ पहुचं ी थी।

चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर गसु ांई ंघर् के अंदर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चक ु ा था।
खप्पर में एक कम अन्द्नवाले थैले को उलर्कर उसने अन्द्न का जनकास रोकने के जलए काठ की जचजडयों को उलर्ा कर
जदया। जकर्-जकर् का स्वर बदं हो गया। वह ज्दी-ज्दी आर्े को थैले में भरने लगा। घर् के अदं र मथानी की
जछच्छर-जछच्छर की आवाज भी अपेक्षाकृ त कम सनु ाई दे रही थी। के वल चक्की ऊपरवाले पार् की जघसर्ती हुई
घरघराहर् का ह्का-धीमा संगीत चल रहा था। तभी गसु ांई ंने सनु ा अपनी पीठ के पीछे , घर् के द्वार पर, इस संगीत से
भी मधरु एक नारी का कंठस्वर, ‘’कब बारी आएगी, जी? रात की रोर्ी के जलए भी घर में आर्ा नहीं है।‘’

सर पर जपसान रखे एक स्त्री उससे यह पछू रही थी। गसु ांई ंको उसका स्वर पररजचत-सा लगा। चौंककर उसने पीछे
मडु कर देखा। कपडे में जपसान ढीला बधं ा होने के कारण बोझ का एक जसरा उसके मख ु के आगे आ गया था। गसु ाईं ं
उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेजकन तब भी उसका मन जैसे आशंजकत हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के

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जलए वह बाहर आने को मडु ा, लेजकन तभी जिर अंदर जाकर जपसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की
जचजडयां जकर्-जकर् बोल रही थीं और उसी गजत के साथ गसु ाईं ंको अपने हृदय की धडकन का आभास हो रहा था।

घर् के छोर्े कमरे में चारों ओर जपसे हुए अन्द्य का चणू ट िै ल रहा था, जो अब तक गसु ांई ंके परू े शरीर पर छा गया था।
इस कृ जत्रम सिे दी के कारण वह वृध्द-सा जदखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।

उसने दबु ारा वे ही शब्द दहु राए। वह अब भी तेज धपू में बोझा सर पर रखे हुए गसु ाईं ंका उत्तर पाने को आतरु थी।
शायद नकारात्मक उत्तर जमलने पर वह उलर्े पांव लौर्कर जकसी अन्द्य चक्की का सहारा लेती।

दसू री बार के प्रश्न को गसु ाईं ंन र्ाल पाया, उत्तर देना ही पडा, ‘’यहां पहले ही र्ीला लगा है, देर तो होगी ही।‘’उसने
दबे-दबे स्वर में कह जदया।

स्त्री ने जकसी प्रकार की अननु य-जवनय नहीं की। शाम के आर्े का प्रबंध करने के जलए वह दसू री चक्की का सहारा लेने
को लौर् पडी।

गसु ांई ंझक


ु कर घर् से बाहर जनकला। मडु ते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदहे जवश्वास में बदल गया था।
हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और जिर अपने हाथों तथा जसर पर जगरे हुए आर्े को झाडकर
एक-दो कदम आगे बढा। उसके अंदर की जकसी अज्ञात शजि ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बल ु ाने को
बाध्य कर जदया। आवाज देकर उसे बल ु ा लेने को उसने मंहु खोला, परंतु आवाज न दे सका। एक जझझक, एक
असमथटता थी, जो उसका महंु बदं कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुचं चक ु ी थी। गुसाईं ंके अतं र में तीव्र उथल-पथु ल
मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था जक वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लडखडाती आवाज में उसने पक ु ारा,
‘’लछमा!’’

घबराहर् के कारण वह परू े जोर से आवाज नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज नहीं सनु ी। इस बार गसु ांई ंने स्वस्थ
होकर पनु ः पक
ु ारा, ‘’लछमा!’’

लछमा ने पीछे मडु कर देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से पक ु ारते थे, यह सबं ोधन उसके जलए स्वाभाजवक था। परंतु
उसे शंका शायद यह थी जक चक्कीवाला एक बार जपसान स्वीकार न करने पर भी दबु ारा उसे बल ु ा रहा है या उसे
के वल भ्रम हुआ है। उसने वहीं से पछू ा, ‘’मझु े पक
ु ार रहे हैं, जी?

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गसु ांई ंने संयत स्वर में कहा, ‘’हां, ले आ, हो जाएगा।‘’

लछमा क्षण-भर रूकी और जिर घर् की ओर लौर् आई।


अचानक साक्षात्कार होने का मौका न देने की इच्छा से गसु ांई ंव्यस्तता का प्रदशटन करता हुआ जमहल की छांह में
चला गया।

लछमा जपसान का थैला घर् के अंदर रख आई। बाहर जनकलकर उसने आचं ल के कोर से महंु पोंछा। तेज धपू में चलने
के कारण उसका मंहु लाल हो गया था। जकसी पेड की छाया में जवश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा।
जमहल के पेड की छाया में घर् की ओर पीठ जकए गसु ाईं ंबैठा हुआ था। जनकर् स्थान में दाजडम के एक पेड की छाहं
को छोडकर अन्द्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।

गसु ांई ंकी उदारता के कारण ॠणी-सी होकर ही जैसे उसने जनकर् आते-आते कहा, ‘’तम्ु हारे बाल-बच्चे जीते रहें,
घर्वारजी! बडा उपकार का काम कर जदया तुमने! ऊपर के घर् में भी जाने जकतनी देर में लबं र जमलता।‘’

अजाज संतजत के प्रजत जदए गए आशीवटचनों को गसु ांई ंने मन-ही-मन जवनोद के रूप में ग्रहण जकया। इस कारण उसकी
मानजसक उथल-पथु ल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखें, इससे पवू ट ही उसने कहा, ‘’जीते रहे तेरे बाल-बच्चे
लछमा! मायके कब आई?’’

गसु ांई ंने अंतर में घमु डती आंधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में जकया, जैसे वह भी अन्द्य दस आदजमयों की
तरह लछमा के जलए एक साधारण व्यजि हो।

दाजडम की छाया में पात-पतेल झाडकर बैठते लछमा ने शंजकत दृजि से गसु ांई ंकी ओर देखा। कोसी की सख ू ी धार
अचानक जल-प्लाजवत होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चयट न होता, जजतना अपने स्थान से के वल
चार कदम की दरू ी पर गसु ांई ंको इस रूप में देखने पर हुआ। जवस्मय से आंखें िाडकर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे
अब भी उसे जवश्वास न हो रहा हो जक जो व्यजि उसके सम्मख ु बैठा है, वह उसका पवू ट-पररजचत गसु ांई ंही है।

‘’तमु ?’’जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेि शब्द उसके कंठ में ही रह गए।
‘’हां, जपछले साल प्र्न से लौर् आया था, वि कार्ने के जलए यह घर् लगवा जलया।‘’गस
ु ांई ंने ही पछू ा, ‘’बाल-
बच्चे ठीक हैं?’’

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आंखें जमीन पर जर्काए, गरदन जहलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सचू ना दे दी। जमीन पर जगरे एक
दाजडम के िूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पखं जु डयों को एक-एक कर जनरूद्देश्य तोडने लगी और गसु ाईं ंपतली
सींक लेकर आग को कुरे दता रहा।

बातों का क्रम बनाए रखने के जलए गसु ांई ंने पछू ा, ‘’तू अभी और जकतने जदन मायके ठहरनेवाली है?’’

अब लछमा के जलए अपने को रोकना असभं व हो गया। र्प-् र्प-् र्प,् वह सर नीचा जकए आसं ंू जगराने लगी। जससजकयों
के साथ-साथ उसके उठते-जगरते कंधों को गसु ांई ंदेखता रहा। उसे यह नहीं सझू रहा था जक वह जकन शब्दों में अपनी
सहानभु जू त प्रकर् करे ।

इतनी देर बाद सहसा गसु ांई ंका ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में चरे ऊ (सहु ाग-जचह्न) नहीं था।
हतप्रभ-सा गसु ांई ंउसे देखता रहा। अपनी व्यावहाररक अज्ञानता पर उसे बेहद झंझु लाहर् हो रही थी।

आज अचानक लछमा से भेंर् हो जाने पर वह उन सब बातों को भल ू गया, जजन्द्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में
वह के वल-मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गसु ांई ंकी सहानभु जू तपणू ट दृजि पाकर लछमा आंसंू पोंछती हुई
अपना दख ु डा रोने लगी, ‘’जजसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जेठानी से जकसी तरह जपडं छुडाकर
यहां मां की बीमारी में आई थी, वह भी मझु े छोडकर चली गई। एक अभागा मझु े रोने को रह गया है, उसी के जलए
जीना पड रहा है। नहीं तो पेर् पर पत्थर बांधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कर्ता।‘’
‘’यहां काका-काकी के साथ रह रही हो?’’गस
ु ाईं ंने पछू ा।
‘’मजु श्कल पडने पर कोई जकसी का नहीं होता, जी! बाबा की जायदाद पर उनकी आंखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक
न जमा ल।ंू मैंने साि-साि कह जदया, मझु े जकसी का कुछ लेना-देना नहीं। जगं लात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गजु र
कर लंगू ी, जकसी की आंख का कांर्ा बनकर नहीं रहंगी।‘’

गसु ांई ंने जकसी प्रकार की मौजखक संवेदना नहीं प्रकर् की। के वल सहानभु जू तपणू ट दृजि से उसे देखता-भर रहा। दाजडम के
वृक्ष से पीठ जर्कार लछमा घुर्ने मोडकर बैठी थी। गसु ाईं ंसोचने लगा, परं ह-सोलह साल जकसी की जजदं गी में अतं र
लाने के जलए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड गया था, पर उसे लगा, उस
छाप के नीचे वह आज भी परं ह विट पहले की लछमा को देख रहा है।

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‘’जकतनी तेज धपू है, इस साल!’’लछमा का स्वर उसके कानों में पडा। प्रसंग बदलने के जलए ही जैसे लछमा ने यह
बात जान-बझू कर कही हो।

और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहां लछमा बैठी थी। दाजडम की िै ली-िै ली अधढंकीं डालों से
छनकर धपू उसके शरीर पर पड रही थी। सरू ज की एक पतली जकरन न जाने कब से लछमा के माथे पर जगरी हुई एक
लर् को सनु हरी रंगीनी में डूबा रही थी। गसु ाईं ंएकर्क उसे देखता रहा।

‘’दोपहर तो बीत चक
ु ी होगी,’’लछमा ने प्रश्न जकया तो गसु ांई ं का ध्यान र्ूर्ा, ‘’हां, अब तो दो बजनेवाले होंगे,’’उसने
कहा, ‘’उधर धपू लग रही हो तो इधर आ जा छावं में।‘’कहता हुआ गसु ाईं ंएक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।
‘’नहीं, यहीं ठीक है,’’कहकर लछमा ने गस
ु ांई ंकी ओर देखा, लेजकन वह अपनी बात कहने के साथ ही दसू री ओर
देखने लगा था।

घर् में कुछ देर पहले डाला हुआ जपसान समाजप्त पर था। नबं र पर रखे हुए जपसान की जगह उसने जाकर ज्दी-ज्दी
लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर जदया।

धीरे -धीरे चलकर गसु ाईं ंगल


ु के जकनारे तक गया। अपनी अजं ल
ु ी से भर-भरकर उसने पानी जपया और जिर पास ही
एक बंजर घर् के अंदर जाकर पीतल और अलमजु नयम के कुछ बतटन लेकर आग के जनकर् लौर् आया।

आस-पास पडी हुई सख ू ी लकजडयों को बर्ोरकर उसने आग सल


ु गाई और एक काजलख पतु ी बर्लोई में पानी रखकर
जाते-जाते लछमा की ओर महंु कर कह गया, ‘’चाय का र्ै म भी हो रहा है। पानी उबल जाय, तो पत्ती डाल देना,
पजु डया में पडी है।‘’

लछमा ने उत्तर नहीं जदया। वह उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।

सडक जकनारे की दक
ु ान से दधू लेकर लौर्ते-लौर्ते गसु ांई ंको कािी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा,
एक छः-सात विट का बच्चा लछमा की देह से सर्कर बैठा हुआ है।

बच्चे का पररचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, ‘’इस छोकरे को घडी-भर के जलए भी चैन नहीं जमलता। जाने
कै से पछू ता-खोजता मेरी जान खाने को यहां भी पहुचं गया है।‘’

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गसु ांई ने लक्ष्य जकया जक बच्चा बार-बार उसकी दृजि बचाकर मां से जकसी चीज के जलए जजद कर रहा है। एक बार
झझंु लाकर लछमा ने उसे जझडक जदया, ‘’चपु रह! अभी लौर्कर घर जाएगं े, इतनी-सी देर में क्यों मरा जा रहा है?’’

चाय के पानी में दधू डालकर गसु ांई ंजिर उसी बंजर घर् में गया। एक थाली में आर्ा लेकर वह गल
ू के जकनारे बैठा-
बैठा उसे गंथू ने लगा। जमहल के पेड की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बतटन और ले जलए।

लछमा ने बर्लोई में दधू -चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक जगलास, एक एनेमल का मग और एक
अलमजु नयमके मैसजर्न में गसु ांई ंने चाय डालकर आपस में बांर् ली और पत्थरों से बने बेढंगे च्ू हे के पास बैठकर
रोजर्यां बनाने का उपक्रम करने लगा।

हाथ का चाय का जगलास जमीन पर जर्काकर लछमा उठी। आर्े की थाली अपनी ओर जखसकाकर उसने स्वयं रोर्ी
पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकर् की जक गसु ांई ंना न कह सका। वह खडा-खडा उसे रोर्ी पकाते हुए देखता रहा।
गोल-गोल जडजबया-सरीखी रोजर्यां च्ू हे में जखलने लगीं। विों बाद गसु ाईं ंने ऐसी रोजर्यां देखी थीं, जो अजनजश्चत
आकार की िौजी लंगर की चपाजतयों या स्वयं उसके हाथ से बनी बेडौल रोजर्यों से एकदम जभन्द्न थीं। आर्े की लोई
बनाते समय लछमा के छोर्े -छोर्े हाथ बडी तेजी से घमू रहे थे। कलाई में पहने हुए चादं ी के कडे ज़ब कभी आपस में
र्करा जाते,तो खन-् खन् का एक अत्यंत मधरु स्वर जनकलता। चक्की के पार् पर र्करानेवाली काठ की जचजडयों का
स्वर जकतना नीरस हो सकता है, यह गसु ांई ंने आज पहली बार अनभु व जकया।

जकसी काम से वह बंजर घर् की ओर गया और बडी देर तक खाली बतटन-जडब्बों को उठाता-रखता रहा।
वह लौर्कर आया, तो लछमा रोर्ी बनाकर बतटनों को समेर् चक
ु ी थी और अब आर्े में सने हाथों को धो रही थी।

गसु ाईं ंने बच्चे की ओर देखा। वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे र्कर्की लगाकर गसु ाईं ंको देखे जा रहा था।
लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, ‘’चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। जिर ठंडी हो जाएंगी।‘’
‘’मैं तो अपने र्ैम से ही खाऊंगा। यह तो बच्चे के जलए ..’’स्पि कहने में उसे जझझक महसस
ू हो रही थी, जैसे बच्चे के
सबं धं में जचजं तत होने की उसकी चेिा अनजधकार हो।
‘’न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोजर्यां बनाकर रख आई थी,’’अत्यंत संकोच के साथ लछमा
ने आपजत्त प्रकर् कर दी।

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‘’अैंऽऽ, यों ही कहती है। कहां रखी थीं रोजर्यां घर में?’’बच्चे ने रूआंसी आवाज में वास्तजवक व्यजि की बतें सनु रहा
था और रोजर्यों को देखकर उसका सयं म ढीला पड गया था।
‘’चपु !’’आंखें तरे रकर लछमा ने उसे डांर् जदया। बच्चे के इस कथन से उसकी जस्थजत हास्यास्पद हो गई थी, इस कारण
लज्जा से उसका मंहु आरि हो उठा।
‘’बच्चा है, भख
ू लग आई होगी, डार्ं ने से क्या िायदा?’’गसु ाईं ंने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोजर्यां उसकी ओर बढा
दीं। परंतु मां की अनुमजत के जबना उन्द्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था। वह ललचाई दृजि से कभी
रोजर्यों की ओर, कभी मां की ओर देख लेता था।

गसु ांई ंके बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोजर्यां लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे जझडक जदया, ‘’मर!
अब ले क्यों नहीं लेता? जहां जाएगा, वहीं अपने लच्छन जदखाएगा!’’

इससे पहले जक बच्चा रोना शरूु कर दें, गसु ाईं ंने रोजर्यों के ऊपर एक र्ुकडा गडु का रखकर बच्चे के हाथों में जदया।
भरी-भरी आंखों से इस अनोखे जमत्र को देखकर बच्चा चपु चाप रोर्ी खाने लगा, और गसु ांई ंकौतक ु पणू ट दृजि से उसके
जहलते हुए होठों को देखता रहा।

इस छोर्े-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जजसे गसु ांई और
ं लछमा दोनों ही अनभु व कर रहे
थे।
स्वयं भी एक रोर्ी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गसु ाईं ंने जैसे इस तनाव को कम करने की कोजशश में ही मस्ु कराकर
कहा, ‘’लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोजर्यों में स्वाद ही दसू रा होता है।‘’

लछमा ने करूण दृजि से उसकी ओर देखा। गसु ाईं ंहो-होकर खोखली हसं ी हसं रहा था।
‘’कुछ साग-सब्जी होती, तो बेचारा एक-आधी रोर्ी और खा लेता।‘’गस
ु ांई ंने बच्चे की ओर देखकर अपनी जववशता
प्रकर् की।
‘’ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पडता ? दो जदन से घर में तेल-नमक नहीं
है। आज थोडे पैसे जमले हैं,आज ले जाऊंगी कुछ सौदा।‘’

हाथ से अपनी जेब र्र्ोलते हुए गसु ाईं ंने सक


ं ोचपणू ट स्वर में कहा, ‘’लछमा!’’
लछमा ने जजज्ञासा से उसकी ओर देखा। गसु ांई ंने जेब से एक नोर् जनकालकर उसकी ओर बढाते हुए कहा, ‘’ले, काम
चलाने के जलए यह रख ले,मेरे पास अभी और है। परसों दफ्तर से मनीआडटर आया था।‘’

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‘’नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोडे कह रही थी। यह तो बात चली थी , तो मैंने
कहा,’’कहकर लछमा ने सहायता लेने से इन्द्कार कर जदया

गसु ांई ंको लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज में वह बोला, ‘’दःु ख-तकलीि के वि ही आदमी
आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! जकतना कमाया, जकतना िंू का हमने इस जजंदगी में। है कोई जहसाब!
पर क्या िायदा! जकसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो जमट्टी है स्साला! जकसी के काम
नहीं आया तो जमट्टी, एकदम जमट्टी!’’

परन्द्तु गसु ाईं ं के इस तकट के बावजदू भी लछमा अडी रही, बच्चे के सर पर हाथ िे रते हुए उसने दाशटजनक गभं ीरता से
कहा, ‘’गंगनाथ दाजहने रहें, तो भले-बरु े जदन जनभ ही जाते हैं, जी! पेर् का क्या है, घर् के खप्पर की तरह जजतना डालो,
कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम से हसं -बोल दें, तो वह बहुत है जदन कार्ने के जलए।‘’

गसु ाईं ंने गौर से लछमा के मख


ु की ओर देखा। विों पहले उठे हुए ज्वार और तिू ान का वहां कोई जचह्न शेि नहीं था।
अब वह सागर जैसे सीमाओ ं में बधं कर शांत हो चकु ा था।

रूपया लेने के जलए लछमा से अजधक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असतं ोि के कारण बझु ा-
बझु ा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहां से हर् गया। सहसा उसकी चाल तेज हो गई और घर् के अंदर जाकर उसने
एक बार शंजकत दृजि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ जकए बैठी थी। उसने ज्दी-ज्दी अपने नीजी
आर्े के र्ीन से दो-ढाई सेर के करीब आर्ा जनकालकर लछमा के आर्े में जमला जदया और सतं ोि की एक सासं लेकर
वह हाथ झाडता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा। ऊपर बांध पर जकसी को घमू ते हुए देखकर उसने हांक
दी। शायद खेत की जसचं ाई के जलए कोई पानी तोडना चाहता था।

बाधं की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के जनकर् गया। जपसान जपस जाने की सचू ना उसे देकर वापस लौर्ते
हुए जिर जठठककर खडा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे जझझक हो रही हो। अर्क-अर्ककर वह बोला,
‘’लछमा ..।‘’

लछमा ने जसर उठाकर उसकी ओर देखा। गसु ांई ंको चपु चाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह
न जाने क्या कहना चाहता है,इस बात की आशक ं ा से उसके महंु का रंग अचानक िीका होने लगा। पर गसु ाईं ंने
जझझकते हुए के वल इतना ही कहा, ‘’कभी चार पैसे जडु ज़ाएं, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भल ू -चकू की मािी मांग
लेना। पतू -पररवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाजहए।‘’लछमा की बात सनु ने के जलए वह नहीं रूका।

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पानी तोडनेवाले खेजतहार से झगडा जनपर्ाकर कुछ देर बाद लौर्ते हुए उसने देखा, सामनेवाले पहाड की पगडंडी पर
सर पर आर्ा जलए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे -धीरे चली जा रही थी। वह उन्द्हें पहाडी के मोड तक पहुचं ने तक
र्कर्की बांधे देखता रहा।

घर् के अंदर काठ की जचजडयां अब भी जकर्-जकर् आवाज कर रही थीं, चक्की का पार् जखस्सर-जखस्सर चल रहा था
और मथानी की पानी कार्ने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सनु सान, जनस्तब्ध!

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आकाशदीि
जयशंकर ‘प्रसाद’

“बंदी!’’

‘’क्या है? सोने दो।‘’

‘’मि
ु होना चाहते हो?’’

‘’अभी नहीं, जनरा खल


ु ने पर, चपु रहो।‘’

‘’जिर अवसर न जमलेगा।‘’

‘’बडा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मि


ु करता।‘’

‘’आंधी की संभावना है। यही एक अवसर है। आज मेरे बंधन जशजथल हैं।‘’

‘’तो क्या तमु भी बंदी हो?’’

‘’हां, धीरे बोलो, इस नाव पर के वल दस नाजवक और प्रहरी है।‘’

‘’शस्त्र जमलेगा?’’

‘’जमल जाएगा। पोत से सबं द्ध रज्जु कार् सकोगे?’’

‘’हां।‘’

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समरु में जहलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में र्कराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर जलया। दसू रे का बंधन
खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दसू रे को स्पशट से पल ु जकत कर रहे थे। मजु ि की आशा-स्नेह का
असंभाजवत आजलंगन। दोनों ही अंधकार में मि ु हो गए। दसू रे बंदी ने हिाटजतरे क से उसको गले से लगा जलया। सहसा
उस बंदी ने कहा-‘’यह क्या? तमु स्त्री हो?’’

‘’क्या स्त्री होना कोई पाप है?’’–अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।

‘’शस्त्र कहां है – तम्ु हारा नाम?’’

‘’चपं ा।‘’

तारक-खजचत नील अंबर और समरु के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अंधकार से जमलकर पवन दिु हो रहा
था। समरु में आंदोलन था। नौका लहरों में जवकल थी। स्त्री सतकट ता से लढु कने लगी। एक मतवाले नाजवक के शरीर से
र्कराती हुई सावधानी से उसका कृ पाण जनकालकर, जिर लढु कते हुए, बन्द्दी के समीप पहुचं गई। सहसा पोत से पथ-
प्रदशटक ने जच्लाकर कहा –‘’आंधी!’’

आपजत्त-सचू क तयू ट बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बदं ी यवु क उसी तरह पडा रहा। जकसी ने रस्सी पकडी, कोई
पाल खोल रहा था। पर युवक बंदी ढुलककर उस रज्जु के पास पहुचं ा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढंक गए। तरंगे
उद्वेजलत हुई, समरु गरजने लगा। भीिण आधं ी, जपशाजचनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कंदक ु -क्रीडा और
अट्टहास करने लगी।

एक झर्के के साथ ही नाव स्वतंत्र थी। उस संकर् में भी दोनों बंदी जखलजखला कर हसं पडे। आंधी के हाहाकार में उसे
कोई न सनु सका।

अनतं जलजनजध में उिा का मधरु आलोक िूर् उठा। सनु हली जकरणों और लहरों की कोमल सृजि मस्ु कराने लगी।
सागर शातं था। नाजवकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बदं ी मि
ु हैं।

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नायक ने कहा –‘’बधु गप्तु ! तमु को मि
ु जकसने जकया?’’

कृ पाण जदखाकर बधु गप्तु ने कहा –‘’इसने।‘’

नायक ने कहा –‘’तो तम्ु हें जिर बंदी बनाऊूँगा।‘’

‘’जकसके जलए? पोताध्यक्ष मजणभर अतल जल में होगा – नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं ह।ं ‘’

‘’तमु ? जलदस्यु बध
ु गप्तु ? कदाजप नहीं।‘’–चौंककर नायक ने कहा और अपना कृ पाण र्र्ोलने लगा! चंपा ने इसके
पहले उस पर अजधकार कर जलया था। वह क्रोध से उछल पडा।

‘’तो तमु द्वद्वं यद्ध


ु के जलए प्रस्ततु हो जाओ; जो जवजयी होगा, वह स्वामी होगा।‘’–इतना कहकर बधु गप्तु ने कृ पाण देने
का संकेत जकया। चंपा ने कृ पाण नायक के हाथ में दे जदया।

भीिण घात-प्रजतघात आरंभ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वररत गजतवाले थे। बडी जनपणु ता से बधु गप्तु ने अपना कृ पाण
दाूँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर जलए। चंपा भय और जवस्मय से देखने लगी। नाजवक प्रसन्द्न हो गए। परंतु
बधु गप्तु ने लाघव से नायक का कृ पाणवाला हाथ पकड़ जलया और जवकर् हुक ं ार से दसू रा हाथ कजर् में डाल, उसे जगरा
जदया। दसू रे ही क्षण प्रभात की जकरणों में बधु गप्तु का जवजयी कृ पाण उसके हाथों में चमक उठा। नायक की कातर
आूँखें प्राण-जभक्षा माूँगने लगीं।

बधु गप्तु ने कहा –‘’बोलो, अब स्वीकार है जक नहीं?’’

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‘’मैं अनच
ु र ह,ं वरूणदेव की शपथ। मैं जवश्वासघात नहीं करूूँगा।‘’बधु गप्तु ने उसे छोड़ जदया।

चपं ा ने यवु क जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी जस्नग्ध दृजि और कोमल करों से वेदना-जवहीन कर
जदया। बधु गप्तु के सगु जठत शरीर पर रि-जबंद ु जवजय-जतलक कर रहे थे।

जवश्राम लेकर बधु गप्तु ने पछू ा,’’हम लोग कहाूँ होंगे?’’

‘’बालीद्वीप सें बहुत दरू , संभवतः एक नवीन द्वीप के पास, जजसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है।
जसंहल के वजणकों का वहाूँ प्राधान्द्य है।‘’

‘’जकतने जदनों में हम लोग वहाूँ पहुच


ूँ ेंगे?’’

‘’अनुकूल पवन जमलने पर दो जदन में। तब तक के जलए खाद्य का अभाव न होगा। ‘’

सहसा नायक ने नाजवकों को डाूँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़कर बैठ गया। बधु गप्तु के पछू ने पर
उसने कहा –‘’यहाूँ एक जलमग्न शैलखंड है। सावधान न रहने से नाव र्कराने का भय है।‘’

‘’तम्ु हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?’’

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‘’वाजणक् मजणभर की पाप-वासना ने।‘’

‘’तम्ु हारा घर कहाूँ है?’’

‘’जाह्नवी के तर् पर। चंपा-नगरी की एक क्षजत्रय बाजलका ह।ूँ जपता इसी मजणभर के यहाूँ प्रहरी का काम करते थे। माता
का देहावसान हो जाने पर मैं भी जपता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समरु ही मेरा घर है। तम्ु हारे
आक्रमण के समय मेरे जपता ने ही सात दस्यओ ु ं को मारकर जल-समाजध ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे,
नील जलजनजध के ऊपर, एक भयानक अनंतता में जनस्सहाय हूँ -अनाथ ह।ूँ मजणभर ने मझु से एक जदन घृजणत प्रस्ताव
जकया। मैंने उसे गाजलयाूँ सनु ाई। उसी जदन से बदं ी बना दी गई।‘’–चपं ा रोि से जल रही थी।

‘’मैं भी ताम्रजलजप्त का एक क्षजत्रय ह,ूँ चंपा! परंतु दभु ाटग्य से जलदस्यु बनकर जीवन जबताता ह।ूँ अब तमु क्या करोगी?’’

‘’मैं अपने अदृि को अजनजदटि ही रहने दगंू ी। वह जहाूँ ले जाए।‘’–चंपा की आूँखें जनस्सीम प्रदेश में जनरूद्देश्य थीं। जकसी
आकाक्ष ं ा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश जवश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर
काूँप गया। उसके मन में एक संभ्रमपणू ट श्रध्दा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समरु -वृक्ष पर जवलंबमयी राग-
रंजजत सध्ं या जथरकने लगी। चपं ा के असयं त कंु तल उसकी पीठ पर जबखरे थे। ददु ाटन्द्त दस्यु ने देखा, अपनी मजहमा में
अलौजकक एक तरूण बाजलका! वह जवस्मय से अपने हृदय को र्र्ोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह
थी – कोमलता!

उसी समय नायक ने कहा –‘’हम लोग द्वीप के पास पहुचूँ गए।‘’

बेला से नाव र्कराई। चंपा जनभीकता से कूद पडी। माूँझी भी उतरे । बधु गप्तु ने कहा –‘’जब इसका कोई नाम नहीं है, तो
हम लोग इसे चपं ा-द्वीप कहेंगे।‘’

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चंपा हूँस पडी।

पाूँच बरस बाद –

शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चंर की उज्ज्वल जवजय पर अंतररक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीवाटद
के िूलों और खीलों को जबखेर जदया।

चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरूणी चंपा दीपक जला रही थी।

बडे यत्न से अभ्रर् क की मंजिु ा में दीप धर कर उसने अपनी सक


ु ु मार ऊूँगजलयों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर
चढने लगा। भोली-भोली आूँखें उसे ऊपर चढते हिट से देख रही थीं। डोरी धीरे -धीरे खींची गई। चपं ा की कामना थी जक
उसका आकाशदीप नक्षत्रों से जहलजमल जाए; जकंतु वैसा होना असंभव था। उसने आशाभरी आूँखें जिरा लीं।

सामने जल-राशी का रजत श्रृगं ार था। वरूण बाजलकाओ ं के जलए लहरों से हीरे

और नीलम की क्रीडा शैल-मालाएूँ बन रही थीं – और वे मायाजवनी छलनाएूँ –

अपनी हूँसी का कलनाद छोड़कर जछप जाती थीं। दरू -दरू से धीवरों का

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वश
ं ी-झनकार उनके संगीत-सा मख ु ररत होता था। चंपा ने देखा जक तरल संकुल जलराजश में उसके कंदील का प्रजतजबंब
अस्तव्यस्त था! वह अपनी पणू टता के जलए सैंकड़ो चक्कर कार्ता था। वह अनमनी होकर उठ खडी हुई। जकसी को
पास न देखकर पक ु ारा –‘’जया!’’

एक श्यामा यवु ती सामने आकर खडी हुई। वह जंगली थी। नील नभोमंडल – से मख ु में शद्ध
ु नक्षत्रों की पंजि के समान
उसके दाूँत हूँसते ही रहते। वह चपं ा को रानी कहती; बधु गप्तु की आज्ञा थी।

‘’महानाजवक कब तक आयेंगे, बाहर पछ


ू ो तो।‘’चंपा ने कहा। जया चली गई।

दरू ागत पवन चपं ा के अचं ल में जवश्राम लेना चाहता था। उसके हृदय में गदु गदु ी हो रही थी। आज न जाने क्यों वह
बेसधु थी। एक दीघटकाय दृढ परू ु ि ने उसकी पीठ पर हाथ रख चमत्कृ त कर जदया। उसने जिर कर कहा –‘’बधु गप्तु !’’

‘’बावली हो क्या? यहाूँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तम्ु हें यह काम करना है?’’

‘’क्षीरजनजधशायी अनंत की प्रसन्द्नता के जलए क्या दाजसयों से आकाशदीप जलवाऊूँ?’’

‘’हूँसी आती है। तमु जकसको दीप जलाकर पथ जदखलाना चाहती हो? उसको, जजसको तमु ने भगवान मान जलया है?’’

‘’हाूँ, वह भी कभी भर्कते हैं, भल


ू ते हैं; नहीं तो, बधु गप्तु को इतना ऐश्वयट क्यों देते?’’

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‘’तो बरु ा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपारानी! ’’

‘’मझ
ु े इस बदं ीगृह से मि
ु करो। अब तो बाली, जावा और समु ात्रा का वाजणज्य के वल तम्ु हारे ही अजधकार में है
महानाजवक! परंतु मझु े उन जदनों की स्मृजत सहु ावनी लगती है, जब तम्ु हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में
पण्य लाद कर हम लोग सख ु ी जीवन जबताते थे – इस जल में अगजणत बार हम लोगों की तरी आलोकमय प्रभात में
ताररकाओ ं की मधरु ज्योजत में – जथरकती थी। बधु गप्तु ! उस जवजन अनतं में जब माूँझी सो जाते थे, दीपक बझु जाते थे,
हम-तमु पररश्रम से थककर पालों में शरीर लपेर्कर एक-दसू रे का मूँहु क्यों देखते थे? वह नक्षत्रों की मधरु छाया ... ‘’

‘’तो चपं ा! अब उससे भी अच्छे ढगं से हम लोग जवचर सकते हैं। तमु मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सवटस्व हो।‘’

‘’नहीं – नहीं, तमु ने दस्युवजृ त्त छोड़ दी परंतु हृदय वैसा ही अकरूण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। तमु भगवान के नाम
पर हूँसी उडाते हो। मेरे आकाशदीप पर व्यगं कर रहे हो। नाजवक! उस प्रचडं आूँधी में प्रकाश की एक-एक जकरण के
जलए हम लोग जकतने व्याकुल थे। मझु े स्मरण है, जब मैं छोर्ी थी, मेरे जपता नौकरी पर समरु में जाते थे – मेरी माता,
जमट्टी का दीपक बाूँस की जपर्ारी में भागीरथी के तर् पर बाूँस के साथ ऊूँचे र्ाूँग देती थी। उस समय वह प्राथटना करती
–‘’भगवान!् मेरे पथ-भ्रि नाजवक को अधं कार में ठीक पथ पर ले चलना।‘’और जब मेरे जपता बरसों पर लौर्ते तो
कहते –‘’साध्वी! तेरी प्राथटना से भगवान् ने संकर्ों में मेरी रक्षा की है।‘’वह गद्गद हो जाती। मेरी माूँ? आह नाजवक! यह
उसी की पण्ु य-स्मृजत है। मेरे जपता, वीर जपता की मृत्यु के जनष्ठु र कारण, जल-दस्य!ु हर् जाओ।‘’–सहसा चपं ा का मख ु
क्रोध से भीिण होकर रंग बदलने लगा। महानाजवक ने कभी यह रूप न देखा था। वह ठठाकर हूँस पडा।

‘’यह क्या, चंपा? तमु अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो।‘’–कहता हुआ चला गया। चंपा मिु ी बाूँधे उन्द्माजदनी-सी घमू ती
रही।

जनजटन समरु के उपकूल में वेला से र्करा कर लहरें जबखर जाती थीं। पजश्चम का पजथक थक गया था। उसका मख ु
पीला पड़ गया। अपनी शातं गभं ीर हलचल में जलजनजध जवचार में जनमग्न था। वह जैसे प्रकाश की उन्द्मजलन जकरणों से
जवरि था।

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चंपा और जया धीरे -धीरे उस तर् पर आकर खडी हो गई। तरंग से उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर
जदया। जया के सक ं े त से एक छोर्ी-सी नौका आई। दोनों के उस पर बैठते ही नाजवक उतर गया। जया नाव खेने लगी।
चंपा मग्ु ध-सी समरु के उदास वातावरण में अपने को जमजश्रत कर देना चाहती थी।

‘’इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बझ


ु ी। पी सकूँू गी? नहीं! तो जैसे वेला में चोर् खाकर जसंधु जच्ला
उठता है, उसी के समान रोदन करूूँ?

या जलते हुए स्वणट-गोलक सदृश अनंत जल में डूबकर बझु जाऊूँ?’’–चंपा के देखते-देखते पीडा और ज्वलन से
आरि जबबं धीरे -धीरे जसधं ु में चौथाई-आधा, जिर सपं णू ट जवलीन हो गया। एक दीघट जनश्वास लेकर चपं ा ने मूँहु िे र
जलया। देखा, तो महानाजवक का बजरा उसके पास है। बधु गप्तु ने झक ु कर हाथ बढाया। चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ
गई।दोनों पास-पास बैठ गए।

‘’इतनी छोर्ी नाव पर इधर घमू ना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न शैलखंड है। कहीं नाव र्करा जाती या ऊपर चढ
ज़ाती, चंपा तो?’’

‘’अच्छा होता, बध
ु गप्तु ! जल में बदं ी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है।‘’

‘’आह चंपा, तमु जकतनी जनदटय हो! बध ु गप्तु को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तम्ु हारे जलए नए
द्वीप की सृजि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नए राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो... कहो,
चंपा! वह कृ पाण से अपना हृदय-जपंड जनकाल अपने हाथों अतल जल में जवसजटन कर दे।‘’–महानाजवक – जजसके
नाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश गूँजू ता था, पवन थराटता था – घुर्नों के बल चंपा के सामने छलछलाई
आूँखों से बैठा था।

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सामने शैलमाला की चोर्ी पर हररयाली में जवस्तृत जल-देश में नील जपंगल संध्या, प्रकृ जत की सहृदय क्पना, जवश्राम
की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी।उस मोजहनी के रहस्यपणू ट नीलजाल का कुहक स्िुर् हो उठा। जैसे
मजदरा से सारा अंतररक्ष जसि हो गया। सृजि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से पागल चंपा ने बधु गप्तु के दोनों हाथ
पकड़ जलए। वहाूँ एक आजलंगन हुआ, जैसे जक्षजतज में आकाश और जसंधु का। जकंतु उस परररंभ में सहसा चैतन्द्य होकर
चपं ा ने अपनी कंचक
ु ी से एक कृ पाण जनकाल जलया।

‘’बध
ु गप्तु ! आज मैं अपने प्रजतशोध का कृ पाण अतल जल में डुबा देती ह।ूँ हृदय ने छल जकया, बार-बार धोखा
जदया!’’–चमककर वह कृ पाण समरु का हृदय वेधता हुआ जवलीन हो गया।

‘’तो आज से मैं जवश्वास करूूँ, क्षमा कर जदया गया?’’–आश्चयट-कंजपत कंठ से महानाजवक ने पछ


ू ा।

‘’जवश्वास? कदाजप नहीं, बध ु गप्तु ! जब मैं अपने हृदय पर जवश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा जदया, तब मैं कै से कह?ूँ
मैं तम्ु हें घृणा करती हूँ जिर भी तम्ु हारे जलए मर सकती ह।ूँ अंधेर है जलदस्य।ु तम्ु हें प्यार करती ह।ूँ ‘’–चंपा रो पडी।

वह स्वप्नों की रंगीन संध्या, तम से अपनी आूँखें बंद करने लगी थी। दीघट जनश्वास लेकर महानाजवक ने कहा –‘’इस
जीवन की पण्ु यतम घडी की स्मृजत में एक प्रकाश-गृह बनाऊंगा, चपं ा! यहीं उस पहाडी पर। सभं व है जक मेरे जीवन की
धूँुुधली संध्या उससे आलोकपणू ट हो जाए!’’

चपं ा के दसू रे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दरू तक जसधं -ु जल में जनमग्न थी। सागर का चचं ल जल उस
पर उछलता हुआ उसे जछपाए था। आज उसी शैलमाला पर चंपा के आजद-जनवाजसयों का समारोह था। उन सबों ने
चंपा को वनदेवी-सा सजाया था। ताम्रजलजप्त के बहुत-से सैजनक नाजवकों की श्रेणी में वन-कुसमु -जवभजू िता चंपा
जशजवकारूढ़ होकर जा रही थी।

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शैल के एक ऊूँचे जशखर पर चंपा के नाजवकों को सावधान करने के जलए सदृु ढ दीप-स्तंभ बनवाया गया था। आज
उसी का महोत्सव है। बधु गप्तु स्तभं के द्वार पर खडा था। जशजवका से सहायता देकर चपं ा को उसने उतारा। दोनों ने
भीतर पदापटण जकया था जक बाूँसरु ी और ढोल बजने लगे। पंजियों में कुसमु -भिू ण से सजी वन-बालाएूँ िूल उछालती
हुई नाचने लगी।

दीप-स्तभं की ऊपरी जखडकी से यह देखती हुई चपं ा ने जया से पछू ा –‘’यह क्या है जया? इतनी बाजलकाएूँ कहाूँ से
बर्ोर लाई?’’

‘’आज रानी का ब्याह है न?’’–कहकर जया ने हूँस जदया।

बधु गप्तु जवस्तृत जलजनजध की ओर देख रहा था। उसे झकझोरकर चंपा ने पछू ा –‘’क्या यह सच है?’’

‘’यजद तम्ु हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चपं ा! जकतने विों से मैं ज्वालामख
ु ी को अपनी छाती में दबाए
ह।ूँ ‘’

‘’चपु रहो, महानाजवक! क्या मझ


ु े जनस्सहाय और कंगाल जानकर तमु ने आज सब प्रजतशोध लेना चाहा?’’

‘’मैं तम्ु हारे जपता का घातक नहीं ह,ूँ चपं ा! वह एक दसू रे दस्यु के शस्त्र से मरे !’’

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‘’यजद मैं इसका जवश्वास कर सकती। बध ु गप्तु , वह जदन जकतना संदु र होता, वह क्षण जकतना स्पृहणीय! आह! तमु इस
जनष्ठु रता में भी जकतने महान् होते!’’

जया नीचे चली गई थी। स्तंभ के संकीणट प्रकोष्ठ में बधु गप्तु और चंपा एकांत में एक-दसू रे के सामने बैठे थे।

बधु गप्तु ने चंपा के पैर पकड़ जलए। उच््वजसत शब्दों में वह कहने लगा –‘’चंपा, हम लोग जन्द्मभजू म- भारतविट से
जकतनी दरू इन जनरीह प्राजणयों में इरं और शची के समान पजू जत हैं। स्मरण होता है वह दाशटजनकों का देश! वह मजहमा
की प्रजतमा! मझु े वह स्मृजत जनत्य आकजिटत करती है; परंतु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्व प्राप्त करने पर
भी मैं कंगाल ह!ूँ मेरा पत्थर-सा हृदय एक जदन सहसा तम्ु हारे स्पशट से चरं कातं मजण ही तरह रजवत हुआ।

‘’चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में जवश्वास नहीं
करता। पर मझु े अपने हृदय के एक दबु टल अश ं पर श्रध्दा हो चली है। तमु न जाने कै से एक बहकी हुई ताररका के समान
मेरे शन्द्ू य में उजदत हो गई हो। आलोक की एक कोमल रे खा इस जनजवड़तम में मस्ु कुराने लगी। पश-ु बल और धन के
उपासक के मन में जकसी शांत और एकांत कामना की हूँसी जखलजखलाने लगी; पर मैं न हूँस सका!

‘’चलोगी चपं ा? पोतवाजहनी पर असख्


ं य धनराजश लादकर राजरानी-सी जन्द्मभजू म के अक
ं में? आज हमारा पररणय हो,
कल ही हम लोग भारत के जलए प्रस्थान करें । महानाजवक बधु गप्तु की आज्ञा जसधं ु की लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस
पोत-पंजु को दजक्षण पवन के समान भारत में पहुचूँ ा देंगी। आह चंपा! चलो।‘’

चंपा ने उसके हाथ पकड़ जलए। जकसी आकजस्मक झर्के ने एक पलभर के जलए दोनों के अधरों को जमला जदया।
सहसा चैतन्द्य होकर चंपा ने कहा –‘’बधु गप्तु ! मेरे जलए सब भजू म जमट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई
जवशेि आकाक्ष ं ा हृदय में अजग्न के समान प्रज्वजलत नहीं। सब जमलाकर मेरे जलए एक शन्द्ू य है। जप्रय नाजवक! तमु
स्वदेश लौर् जाओ, जवभवों का सख ु भोगने के जलए, और मझु े, छोड़ दो इन जनरीह भोले-भाले प्रजणयों के दख ु की
सहानभु जू त और सेवा के जलए।‘’

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‘’तब मैं अवश्य चला जाऊूँगा, चंपा! यहाूँ रहकर मैं अपने हृदय पर अजधकार रख सकूँू – इसमें संदहे है। आह! उन
लहरों में मेरा जवनाश हो जाए।‘’–महानाजवक के उच््वास में जवकलता थी। जिर उसने पछू ा –‘’तमु अके ली यहाूँ क्या
करोगी?’’
‘’पहले जवचार था जक कभी-कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जलाकर अपने जपता की समाजध का इस जल से
अन्द्वेिण करूूँगी। जकन्द्तु देखती हूँ ,मझु े भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाशदीप।‘’
एक जदन स्वणट-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तंभ पर से देखा – सामजु रक नावों की एक श्रेणी चम्पा का
उपकूल छोड़कर पजश्चम-उत्तर की ओर महाजल-व्याल के समान सतं रण कर रही है। उसकी आूँखों से आूँसू बहने लगे।

यह जकतनी ही शताजब्दयों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उस दीप-स्तंभ में आलोक जलाती रही। जकंतु उसके बाद
भी बहुत जदन, द्वीपजनवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाजध-सदृश पजू ा करते थे।

एक जदन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चचं लता से जगरा जदया।

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गैंग्रीन-(रोज)
(डलहौजी, मई 1934) अज्ञेय
दोपहर में उस सनू े आूँगन में पैर रखते हुए मझु े ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर जकसी शाप की छाया मूँडरा रही हो, उसके
वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, जकन्द्तु जिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा िै ल रहा था...

मेरी आहर् सनु ते ही मालती बाहर जनकली। मझु े देखकर, पहचानकर उसकी मरु झायी हुई मख
ु -मरु ा तजनक से मीठे
जवस्मय से जागी-सी और जिर पवू टवत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और जबना उत्तर की प्रतीक्षा जकये भीतर की
ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो जलया।

भीतर पहुचूँ कर मैंने पछू ा, ‘वे यहाूँ नहीं है?’’

‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएूँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’

‘‘कब के गये हुए हैं?’’

‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’

‘‘मैं ‘ह’ूँ कर पछ
ू ने को हुआ, ‘‘और तमु इतनी देर क्या करती हो?’’ पर जिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं
हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मझु े हवा करने लगी। मैंने आपजत्त करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मझु े नहीं चाजहए।’’ पर
वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाजहए कै से नहीं? इतनी धपू में तो आये हो। यहाूँ तो...’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मझु े दे दो।’’
वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दसू रे कमरे से जशशु के रोने की आवाज़ सनु कर उसने चपु चाप पंखा मझु े दे
जदया और घर्ु नों पर हाथ र्े ककर एक थकी हुई ‘हुहं ’ करके उठी और भीतर चली गयी।
मैं उसके जाते हुए, दबु ले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है... यह कै सी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है...
मालती मेरी दरू के ररश्ते की बहन है, जकन्द्तु उसे सखी कहना ही उजचत है, क्योंजक हमारा परस्पर सम्बन्द्ध सख्य का ही
रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और जपर्े हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे

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व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्द्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोर्ेपन के बन्द्धनों में नहीं
जघरा...

मैं आज कोई चार विट बाद उसे देखना आया ह।ूँ जब मैंने उसे इससे पवू ट देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह
जववाजहता है, एक बच्चे की माूँ भी है। इससे कोई पररवतटन उसमें आया होगा और यजद आया होगा तो क्या , यह मैंने
अभी तक सोचा नहीं था, जकन्द्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कै सी छाया इस घर पर
छायी हुई है... और जवशेितया मालती पर...

मालती बच्चे को लेकर लौर् आयी और जिर मझु से कुछ दरू नीचे जबछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी
घमु ाकर कुछ उसकी ओर उन्द्मख
ु होकर पछू ा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर जदया, ‘‘नाम तो कोई जनजश्चत नहीं जकया, वैसे जर्र्ी कहते हैं।’’

मैंने उसे बल
ु ाया, ‘‘जर्र्ी, र्ीर्ी, आ जा,’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आूँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माूँ से जचपर्
गया, और रुआूँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहु-ं उहु-ं उहु-ं ऊं...’’

मालती ने जिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और जिर बाहर आूँगन की ओर देखने लगी...

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकजस्मक ही था, जजसमें मैं प्रतीक्षा में था जक मालती कुछ पछू े , जकन्द्तु
उसके बाद एकाएक मझु े ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की... यह भी नहीं पछू ा जक मैं कै सा ह,ूँ कै से आया
ह.ूँ .. चपु बैठी है, क्या जववाह के दो विट में ही वह बीते जदन भल
ू गयी? या अब मझु े दरू -इस जवशेि अन्द्तर पर-रखना
चाहती है? क्योंजक वह जनबाटध स्वच्छन्द्दता अब तो नहीं हो सकती... पर जिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं
होना चाजहए...

मैंने कुछ जखन्द्न-सा होकर, दसू री ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तम्ु हें मेरे आने से जवशेि प्रसन्द्नता नहीं हुई-’’

उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘ह?ूँ ’’

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यह ‘ह’ूँ प्रश्न-सचू क था, जकन्द्तु इसजलए नहीं जक मालती ने मेरी बात सनु ी नहीं थी, ‘के वल जवस्मय के कारण। इसजलए
मैंने अपनी बात दहु रायी नहीं, चपु बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह
एकर्क मेरी ओर देख रही थी, जकन्द्तु मेरे उधर उन्द्मखु होते ही उसने आूँखें नीची कर लीं। जिर भी मैंने देखा, उन आूँखों
में कुछ जवजचत्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेिा कर रहा हो, जकसी बीती हुई बात को याद करने
की, जकसी जबखरे हुए वायमु डं ल को पनु ः जगाकर गजतमान करने की, जकसी र्ूर्े हुए व्यवहार-तन्द्तु को पनु रुज्जीजवत
करने की, और चेिा में सिल न हो रहा हो... वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यजि एकाएक उठाने लगे
और पाये जक वह उठता ही नहीं है, जचरजवस्मृजत में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यजप वह सारा प्राप्य बल है)
उठ नहीं सकता... मझु े ऐसा जान पड़ा, मानो जकसी जीजवत प्राणी के गले में जकसी मृत जन्द्तु का तौक डाल जदया गया
हो, वह उसे उतारकर िें कना चाहे, पर उतार न पाये...

तभी जकसी ने जकवाड़ खर्खर्ाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह जहली नहीं। जब जकवाड़ दसू री बार खर्खर्ाये
गये, तब वह जशशु को अलग करके उठी और जकवाड़ खोलने गयी।

वे, यानी मालती के पजत आये। मैंने उन्द्हें पहली बार देखा था, यद्यजप फ़ोर्ो से उन्द्हें पहचानता था। पररचय हुआ।
मालती खाना तैयार करने आूँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे
में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्द्य जवियों के बारे में जो पहले पररचय पर उठा करते हैं,
एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर...

मालती के पजत का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाूँव में सरकारी जडस्पेन्द्सरी के डॉक्र्र हैं, उसी हैजसयत से इन
क्वार्ट रों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे जडस्पेन्द्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौर्ते हैं, उसके बाद दोपहर-भर
छुट्टी रहती है, के वल शाम को एक-दो घंर्े जिर चक्कर लगाने के जलए जाते हैं, जडस्पेन्द्सरी के साथ के छोर्े -से
अस्पताल में पड़े हुए रोजगयों को देखने और अन्द्य ज़रूरी जहदायतें करने... उनका जीवन भी जबलकुल एक जनजदटि ढरे
पर चलता है, जनत्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही जहदायतें, वही नस्ु खे, वही दवाइयाूँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं
और इसीजलए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सस्ु त ही रहते हैं...

मालती हम दोनों के जलए खाना ले आयी। मैंने पछू ा, ‘‘तमु नहीं खोओगी? या खा चक
ु ीं?’’

महेश्वर बोले, कुछ हूँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है...’’ पजत ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसजलए पत्नी तीन बजे
तक भख ू ी बैठी रहेगी!

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महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा
रहे हैं?’’

मैंने उत्तर जदया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भख


ू बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बजहन को
कि होगा।’’

मालती र्ोककर बोली, ‘‘ऊूँह, मेरे जलए तो यह नयी बात नहीं है... रोज़ ही ऐसा होता है...’’

मालती बच्चे को गोद में जलये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’

मालती बोली, ‘‘हो ही गया है जचड़जचड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’

जिर बच्चे को डाूँर्कर कहा, ‘‘चपु कर।’’ जजससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भजू म पर बैठा जदया। और बोली,
‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोर्ी लेने आूँगन की ओर चली गयी!

जब हमने भोजन समाप्त जकया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया जक उन्द्हें आज ज्दी अस्पताल जाना है, यहाूँ
एक-दो जचन्द्ताजनक के स आये हुए हैं, जजनका ऑपरे शन करना पड़ेगा... दो की शायद र्ाूँग कार्नी पड़े , गैंग्रीन हो गया
है... थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती जकवाड़ बन्द्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी जक मैंने कहा , ‘‘अब
खाना तो खा लो, मैं उतनी देर जर्र्ी से खेलता ह।ूँ ’’

वह बोली, ‘‘खा लूँगू ी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ जकन्द्तु चली गयी। मैं जर्र्ी को हाथ में लेकर झल
ु ाने लगा, जजससे
वह कुछ देर के जलए शान्द्त हो गया।

दरू ...शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के । एकाएक मैं चौंका, मैंने सनु ा, मालती वहीं आूँगन में बैठी अपने-आप ही एक
लम्बी-सी थकी हुई साूँस के साथ कह रही है ‘‘तीन बज गये...’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कायट सम्पन्द्न हो गया
हो...

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थोड़ी ही देर में मालती जिर आ गयी, मैंने पछू ा, ‘‘तम्ु हारे जलए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो...’’

‘‘बहुत था।’’

‘‘हाूँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाूँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ जक बहुत था।’’
मैंने हूँसकर कहा।

मालती मानो जकसी और जविय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाूँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-
जाता है, तो नीचे से मूँगा लेते हैं; मझु े आये पन्द्रह जदन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है...

मैंने पछू ा, ‘‘नौकर कोई नहीं है?’’

‘‘कोई ठीक जमला नहीं, शायद एक-दो जदन में हो जाए।’’

‘‘बरतन भी तम्ु हीं माूँजती हो?’’

‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आूँगन में जाकर लौर् आयी।

मैंने पछू ा, ‘‘कहाूँ गयी थीं?’’

‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कै से मूँजेंगे?’’

‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’

‘‘रोज़ ही होता है... कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मूँजेंगे।’’

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‘‘चलो, तम्ु हें सात बजे तक छुट्टी हुई,’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम
करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता जर्र्ी ने की, एकाएक जिर रोने लगा और मालती के
पास जाने की चेिा करने लगा। मैंने उसे दे जदया।

थोड़ी देर जिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोर्बक


ु जनकाली और जपछले जदनों के जलखे हुए नोर् देखने लगा, तब
मालती को याद आया जक उसने मेरे आने का कारण तो पछू ा नहीं, और बोली, ‘‘यहाूँ आये कै से?’’

मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तमु से जमलने आया था, और क्या करने?’’

‘‘तो दो-एक जदन रहोगे न?’’

‘‘नहीं, कल चला जाऊूँगा, ज़रूरी जाना है।’’

मालती कुछ नहीं बोली, कुछ जखन्द्न सी हो गयी। मैं जिर नोर्बक
ु की तरफ़ देखने लगा।

थोड़ी देर बाद मझु े भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से जमलने जकन्द्त,ु यहाूँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़
रहा ह,ूँ पर बात भी क्या की जाये? मझु े ऐसा लग रहा था जक इस घर पर जो छाया जघरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी
मानो मझु े भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस जनजीव-सा हो रहा ह,ूँ जैसे-हाूँ, जैसे यह घर, जैसे मालती...

मैंने पछू ा, ‘‘तमु कुछ पढ़ती-जलखती नहीं?’’ मैं चारों और देखने लगा जक कहीं जकताबें दीख पड़ें।

‘‘यहाूँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हूँस दी। वह हूँसी कह रही थी, ‘यहाूँ पढ़ने को है क्या?’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पस्ु तकें भेजूँगू ा...’’ और वाताटलाप जिर समाप्त हो गया...

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थोड़ी देर बाद मालती ने जिर पूछा, ‘‘आये कै से हो, लारी में?’’

‘‘पैदल।’’

‘‘इतनी दरू ? बड़ी जहम्मत की।’’

‘‘आजखर तमु से जमलने आया ह।ूँ ’’

‘‘ऐसे ही आये हो?’’

‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर। मैंने सोचा, जबस्तरा ले ही चलूँ।ू ’’

‘‘अच्छा जकया, यहाूँ तो बस...’’ कहकर मालती चपु रह गयी जिर बोली, ‘‘तब तमु थके होगे, लेर् जाओ।’’

‘‘नहीं, जबलकुल नहीं थका।’’

‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’

‘‘और तमु क्या करोगी?’’

‘‘मैं बरतन माूँज रखती ह,ूँ पानी आएगा तो धल


ु जाएूँगे।’’

मैंने कहा, ‘‘वाह!’’ क्योंजक और कोई बात मझु े सझू ी नहीं...

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, जर्र्ी को साथ लेकर। तब मैं भी लेर् गया और छत की ओर देखने लगा...
मेरे जवचारों के साथ आूँगन से आती हुई बरतनों के जघसने की खन-खन ध्वजन जमलकर एक जवजचत्र एक-स्वर उत्पन्द्न
करने लगी, जजसके कारण मेरे अंग धीरे -धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊूँघने लगा...

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एकाएक वह एक-स्वर र्ूर् गया – मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी र्ूर्ी, मैं उस मौन में सनु ने लगा...

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घर्ं ा सनु कर मालती रुक गयी थी... वही तीन बजेवाली बात मैंने जिर देखी,
अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सनु ा, मालती एक जबलकुल अनैजच्छक, अनभु जू तहीन, नीरस, यन्द्त्रवत् – वह भी थके हुए
यन्द्त्र के से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’, मानो इस अनैजच्छक समय को जगनने में ही उसका मशीन-त्ु य जीवन
बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोर्र का स्पीडो मीर्र यन्द्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्द्त्रवत् जवश्रान्द्त स्वर में कहता
है (जकससे!) जक मैंने अपने अजमत शन्द्ू यपथ का इतना अंश तय कर जलया... न जाने कब, कै से मझु े नींद आ गयी।

तब छह कभी के बज चक ु े थे, जब जकसी के आने की आहर् से मेरी नींद खल ु ी, और मैंने देखा जक महेश्वर लौर् आये हैं
और उनके साथ ही जबस्तर जलये हुए मेरा कुली। मैं मूँहु धोने को पानी माूँगने को ही था जक मझु े याद आया, पानी नहीं
होगा। मैंने हाथों से मूँहु पोंछते-पोंछते महेश्वर से पछू ा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’

उन्द्होंने जकंजचत् ग्लाजन-भरे स्वर में कहा, ‘‘हाूँ, आज वह गैंग्रीन का आपरे शन करना ही पड़ा, एक कर आया ह,ूँ दसू रे
को एम्बल ु ेन्द्स में बड़े अस्पताल जभजवा जदया है।’’

मैंने पछू ा’’ गैंग्रीन कै से हो गया।’’

‘‘एक काूँर्ा चभ
ु ा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाूँ के ...’’

मैंने पछू ा, ‘‘यहाूँ आपको के स अच्छे जमल जाते हैं? आय के जलहाज से नहीं, डॉक्र्री के अभ्यास के जलए?’’

बोले, ‘‘हाूँ, जमल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दसू रे -चौथे जदन एक के स आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी...’’

मालती आूँगन से ही सनु रही थी, अब आ गयी, ‘‘बोली, ‘‘हाूँ, के स बनाते देर क्या लगती है? काूँर्ा चभु ा था, इस पर
र्ाूँग कार्नी पड़े, यह भी कोई डॉक्र्री है? हर दसू रे जदन जकसी की र्ाूँग, जकसी की बाूँह कार् आते हैं, इसी का नाम है
अच्छा अभ्यास!’’

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महेश्वर हूँसे, बोले, ‘‘न कार्ें तो उसकी जान गूँवाएूँ?’’

‘‘हाूँ, पहले तो दजु नया में काूँर्े ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सनु ा नहीं था जक काूँर्ों के चभ
ु ने से मर जाते हैं...’’

महेश्वर ने उत्तर नहीं जदया, मस्ु करा जदये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं, डॉक्र्र, सरकारी अस्पताल
है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सनु ती ह!ूँ अब कोई मर-मरु जाए तो खयाल ही नहीं होता। पहले तो रात-
रात-भर नींद नहीं आया करती थी।’’

तभी आूँगन में खल


ु े हुए नल ने कहा – जर्प् जर्प् जर्प-् जर्प-् जर्प-् जर्प.् ..

मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहर् से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं...

जर्र्ी महेश्वर की र्ाूँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्द्हें छोड़कर मालती की ओर जखसकता
हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा जलया, वह मचलने और जच्ला-जच्लाकर रोने
लगा।

महेश्वर बोले, ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’

मैंने पछू ा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’

‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएूँगे तो
चारपाइयाूँ ले आएूँगे।’’ जिर कुछ रुककर बोले, ‘‘आज तो बाहर ही सोएूँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’

जर्र्ी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर जबठा जदया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा,
‘‘मैं मदद करता ह’ूँ ’, और दसू री ओर से पलंग उठाकर जनकलवा जदये।

अब हम तीनों... महेश्वर, जर्र्ी और मैं, दो पलगं ों पर बैठ गये और वाताटलाप के जलए उपयि
ु जविय न पाकर उस कमी
को छुपाने के जलए जर्र्ी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चपु हो गया था, जकन्द्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई

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भल
ू ा हुआ कत्तटव्य याद करके रो उठता या, और जिर एकदम चपु हो जाता था... और कभी-कभी हम हूँस पड़ते थे, या
महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे...

मालती बरतन धो चक ु ी थी। जब वह उन्द्हें लेकर आूँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने
कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया ह,ूँ वह भी धो लेना।’’

‘‘कहाूँ हैं?’’

‘‘अूँगीठी पर रखे हैं, कागज़ में जलपर्े हुए।’’

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आूँचल में डाल जलये। जजस कागज़ में वे जलपर्े हुए थे वह जकसी परु ाने
अखबार का र्ुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्द्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी... वह नल के
पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चक ु ी, तब एक लम्बी साूँस लेकर उसे िें ककर आम धोने लगी।

मझु े एकाएक याद आया...बहुत जदनों की बात थी... जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा
सख ु , सबसे बड़ी जवजय थी हाजज़री हो चक ु ने के बाद चोरी से क्लास से जनकल भागना और स्कूल से कुछ दरू ी पर
आम के बगीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आजमयाूँ तोड़-तोड़ खाना। मझु े याद आया... कभी जब मैं भाग आता और
मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी जखन्द्न-मन लौर् आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-जपता तंग थे, एक जदन उसके जपता ने उसे एक पस्ु तक लाकर दी और कहा जक
इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँू जक इसे समाप्त कर चक ु ी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़
दगूँू ा। मालती ने चपु चाप जकताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह जनत्य ही उसके दस पन्द्ने, बीस पेज, िाड़ कर िें क
देती, अपने खेल में जकसी भाूँजत फ़कट न पड़ने देती। जब आठवें जदन उसके जपता ने पछू ा, ‘‘जकताब समाप्त कर ली?’’
तो उत्तर जदया...‘‘हाूँ, कर ली,’’ जपता ने कहा, ‘‘लाओ, मैं प्रश्न पछू ू ूँ गा, तो चपु खड़ी रही। जपता ने कहा, तो उद्धत स्वर
में बोली, ‘‘जकताब मैंने िाड़ कर िें क दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी।’’

उसके बाद वह बहुत जपर्ी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था जक वह उद्धत और चंचल मालती
आज जकतनी सीधी हो गयी है, जकतनी शान्द्त, और एक अखबार के र्ुकड़े को तरसती है... यह क्या, यह...

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तभी महेश्वर ने पछू ा, ‘‘रोर्ी कब बनेगी!’’

‘‘बस, अभी बनाती ह।ूँ ’’

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब जर्र्ी की कत्तटव्य-भावना बहुत जवस्तीणट हो गयी, वह मालती की
ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से
उसे थपकने और दसू रे से कई छोर्े-छोर्े जडब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी...

और हम दोनों चपु चाप राजत्र की, और भोजन की और एक-दसू रे के कुछ कहने की, और न जाने जकस-जकस न्द्यनू ता
की पजू तट की प्रतीक्षा करने लगे।

हम भोजन कर चक ु े थे और जबस्तरों पर लेर् गये थे और जर्र्ी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा
जबछाकर उसे उस पर जलर्ा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ
भी गया था, पर तरु न्द्त ही लेर् गया।

मैंने महेश्वर से पछू ा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइये।’’

वह बोले, ‘‘थके तो आप अजधक होंगे... अठारह मील पैदल चल कर आये हैं।’’ जकन्द्तु उनके स्वर ने मानो जोड़
जदया... थका तो मैं भी ह।ूँ ’’

मैं चपु रहा, थोड़ी देर में जकसी अपर संज्ञा ने मझु े बताया, वह ऊूँघ रहे हैं।

तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह जकसी जवचार में – यद्यजप बहुत गहरे जवचार में नहीं, लीन हुई धीरे -धीरे
खाना खा रही थी, जिर मैं इधर-उधर जखसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।

पजू णटमा थी, आकाश अनभ्र था।

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मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की जदन में अत्यन्द्त शष्ु क और नीरस लगने वाली स्लेर् की छत भी चाूँदनी में चमक रही
है, अत्यन्द्त शीतलता और जस्नग्धता से छलक रही है, मानो चजन्द्रका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो...

मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष... गरमी से सख


ू कर मर्मैले हुए चीड़ के वृक्ष... धीरे -धीरे गा रहे हों... कोई राग जो
कोमल है, जकन्द्तु करुण नहीं, अशाजन्द्तमय है, जकन्द्तु उद्वेगमय नहीं...

मैंने देखा, प्रकाश से धूँधु ले नीले आकाश के तर् पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर कार् रहे हैं, वे भी सन्द्ु दर
दीखते हैं...

मैंने देखा – जदन-भर की तपन, अशाजन्द्त, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जजसे
ग्रहण करने के जलए पवटत-जशशओ ु ं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भजु ाएूँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं...

पर यह सब मैंने ही देखा, अके ले मैंने... महेश्वर ऊूँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से जनवृत्त होकर दही जमाने के
जलए जमट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी...‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही
जक ‘‘ग्यारह बजने वाले हैं,’’ धीरे से जसर जहलाकर जता रही थी जक रोज़ ही इतने बज जाते हैं... मालती ने वह सब-
कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की जनयत गजत से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चजन्द्रका के
जलए, एक संसार के जलए रुकने को तैयार नहीं था...

चाूँदनी में जशशु कै सा लगता है इस अलस जजज्ञासा से मैंने जर्र्ी की ओर देखा और वह एकाएक मानो जकसी
शैशवोजचत वामता से उठा और जखसक कर पलंग से नीचे जगर पड़ा और जच्ला-जच्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने
चौंककर कहा – ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपर् कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर जनकल आयी, मैंने उस ‘खर््’
शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोर् बहुत लग गयी बेचारे के ।’’

यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही जक्रया की गजत में हो गया।

मालती ने रोते हुए जशशु को मझु से लेने के जलए हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोर्ें लगती ही रहती है, रोज़ ही जगर
पड़ता है।’’

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एक छोर्े क्षण-भर के जलए मैं स्तब्ध हो गया, जिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समचू े अजस्तत्व ने, जवरोह के स्वर में कहा –
मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं जनकला – ‘‘माूँ, यवु ती माूँ, यह तम्ु हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तमु
अपने एकमात्र बच्चे के जगरने पर ऐसी बात कह सकती हो – और यह अभी, जब तम्ु हारा सारा जीवन तम्ु हारे आगे
है!’’

और, तब एकाएक मैंने जाना जक वह भावना जमथ्या नहीं है, मैंने देखा जक सचमचु उस कुर्ुम्ब में कोई गहरी भयक ं र
छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घनु की तरह लग गयी है, उसका इतना अजभन्द्न अंग हो
गयी है जक वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की पररजध में जघरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख
भी जलया...

इतनी देर में, पवू टवत् शाजन्द्त हो गयी थी। महेश्वर जिर लेर् कर ऊूँघ रहे थे। जर्र्ी मालती के लेर्े हुए शरीर से जचपर् कर
चपु हो गया था, यद्यजप कभी एक-आध जससकी उसके छोर्े -से शरीर को जहला देती थी। मैं भी अनभु व करने लगा था
जक जबस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चपु चाप ऊपर आकाश में देख रही थी, जकन्द्तु क्या चजन्द्रका को या तारों
को?

तभी ग्यारह का घंर्ा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् जकसी अस्पि प्रतीक्षा से मालती की
ओर देखा। ग्यारह के पहले घंर्े की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक ििोले की भाूँजत उठी और धीरे -
धीरे बैठने लगी, और घर्ं ा-ध्वजन के कम्पन के साथ ही मकू हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये...’’
****

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उसने किा था
चरं धर शमाट गल
ु ेरी
बड़े-बड़े शहरों के इक्के -गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जजनकी पीठ जछल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे
हमारी प्राथटना है जक अमृतसर के बबं क ू ार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर
घोड़े की पीठ चाबक ु से धनु ते हुए, इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना जनकर्-संबंध जस्थर करते हैं, कभी राह
चलते पैदलों की आूँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अूँगजु लयों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को
सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लाजन, जनराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब
अमृतसर में उनकी जबरादरीवाले तंग चक्करदार गजलयों में, हर-एक लड्ढीवाले के जलए ठहर कर सब्र का समरु उमड़ा
कर बचो खालसा जी। हर्ो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हर्ो बाछा, कहते हुए सिे द िें र्ों, खच्चरों और
बत्तकों, गन्द्नें और खोमचे और भारे वालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है जक जी और साहब जबना सनु े
जकसी को हर्ना पड़े। यह बात नहीं जक उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यजद
कोई बजु ढ़या बार-बार जचतौनी देने पर भी लीक से नहीं हर्ती, तो उनकी बचनावली के ये नमनू े हैं - हर् जा जीणे
जोजगए; हर् जा करमाूँवाजलए; हर् जा पत्तु ां प्याररए; बच जा लंबी वाजलए। समजि में इनके अथट हैं, जक तू जीने योग्य है,
तू भाग्योंवाली है, पत्रु ों को प्यारी है, लबं ी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पजहए के नीचे आना चाहती है? बच जा।

ऐसे बंबक
ू ार्टवालों के बीच में हो कर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दक ु ान पर आ जमले। उसके बालों
और इसके ढीले सथु ने से जान पड़ता था जक दोनों जसख हैं। वह अपने मामा के के श धोने के जलए दही लेने आया था,
और यह रसोई के जलए बजड़याूँ। दक ु ानदार एक परदेसी से गथु रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को जगने
जबना हर्ता न था।
'तेरे घर कहाूँ है?'
'मगरे में; और तेरे?'
'माूँझे में; यहाूँ कहाूँ रहती है?'
'अतरजसहं की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।'
'मैं भी मामा के यहाूँ आया ह,ूँ उनका घर गरुु बजार में हैं।'

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इतने में दक
ु ानदार जनबर्ा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दरू जा कर लड़के ने
मसु करा कर पछ ू ा, - 'तेरी कुड़माई हो गई?' इस पर लड़की कुछ आूँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मूँहु
देखता रह गया।

दसू रे -तीसरे जदन सब्जीवाले के यहाूँ, दधू वाले के यहाूँ अकस्मात दोनों जमल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन
बार लड़के ने जिर पछू ा, तेरी कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही 'धत'् जमला। एक जदन जब जिर लड़के ने वैसे ही हूँसी
में जचढ़ाने के जलए पछू ा तो लड़की, लड़के की संभावना के जवरुद्ध बोली - 'हाूँ हो गई।'
'कब?'
'कल, देखते नहीं, यह रे शम से कढ़ा हुआ साल।ू ' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को
मोरी में ढके ल जदया, एक छावड़ीवाले की जदन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के
ठे ले में दधू उूँड़ेल जदया। सामने नहा कर आती हुई जकसी वैष्णवी से र्करा कर अधं े की उपाजध पाई। तब कहीं घर
पहुचूँ ा।

'राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। जदन-रात खंदकों में बैठे हड्जडयाूँ अकड़ गई।ं लजु धयाना से दस गनु ा जाड़ा और मेंह
और बरि ऊपर से। जपंडजलयों तक कीचड़ में धूँसे हुए हैं। जमीन कहीं जदखती नहीं; - घंर्े-दो-घंर्े में कान के परदे
िाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खंदक जहल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो
कोई लड़े। नगरकोर् का जलजला सनु ा था, यहाूँ जदन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खदं क से बाहर सािा या
कुहनी जनकल गई, तो चर्ाक से गोली लगती है। न मालमू बेईमान जमट्टी में लेर्े हुए हैं या घास की पजत्तयों में जछपे रहते
हैं।'

'लहनाजसंह, और तीन जदन हैं। चार तो खंदक में जबता ही जदए। परसों ररलीि आ जाएगी और जिर सात जदन की छुट्टी।
अपने हाथों झर्का करें गे और पेर्-भर खा कर सो रहेंगे। उसी जिरंगी मेम के बाग में - मखमल का-सा हरा घास है।
िल और दधू की विाट कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तमु राजा हो, मेरे म्ु क को बचाने आए
हो।'

'चार जदन तक एक पलक नींद नहीं जमली। जबना िे रे घोड़ा जबगड़ता है और जबना लड़े जसपाही। मझ ु े तो सगं ीन चढ़ा कर
माचट का हुक्म जमल जाय। जिर सात जरमनों को अके ला मार कर न लौर्ूूँ, तो मझु े दरबार साहब की देहली पर मत्था
र्ेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के , कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मूँहु िाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों

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अूँधेरे में तीस-तीस मन का गोला िें कते हैं। उस जदन धावा जकया था - चार मील तक एक जमटन नहीं छोडा था। पीछे
जनरल ने हर् जाने का कमान जदया, नहीं तो - '

'नहीं तो सीधे बजलटन पहुच


ूँ जाते! क्यों?' सबू ेदार हजाराजसंह ने मसु करा कर कहा -'लड़ाई के मामले जमादार या नायक
के चलाए नहीं चलते। बड़े अिसर दरू की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरि बढ़ गए तो क्या होगा?'

'सबू ेदार जी, सच है,' लहनजसहं बोला - 'पर करें क्या? हड्जडयों-हड्जडयों में तो जाड़ा धूँस गया है। सयू ट जनकलता नहीं,
और खाई ंमें दोनों तरि से चंबे की बावजलयों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।'

'उदमी, उठ, जसगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तमु चार जने बालजर्याूँ ले कर खाई ंका पानी बाहर िें को। महाजसहं , शाम
हो गई है, खाई ंके दरवाजे का पहरा बदल ले।' - यह कहते हुए सबू ेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।

वजीराजसंह पलर्न का जवदिू क था। बा्र्ी में गूँदला पानी भर कर खाई ं के बाहर िें कता हुआ बोला - 'मैं पाधा बन
गया ह।ूँ करो जमटनी के बादशाह का तपटण !' इस पर सब जखलजखला पड़े और उदासी के बादल िर् गए।

लहनाजसंह ने दसू री बा्र्ी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा - 'अपनी बाड़ी के खरबजू ों में पानी दो। ऐसा खाद का
पानी पजं ाब-भर में नहीं जमलेगा।'

'हाूँ, देश क्या है, स्वगट है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घमु ा जमीन यहाूँ माूँग लूँगू ा और िलों के बर्ू े लगाऊूँगा।'

'लाड़ी होराूँ को भी यहाूँ बल


ु ा लोगे? या वही दधू जपलानेवाली िरंगी मेम - '
'चपु कर। यहाूँवालों को शरम नहीं।'
'देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका जक जसख तंबाखू नहीं पीते। वह जसगरे र् देने में हठ करती है,
ओठों में लगाना चाहती है,और मैं पीछे हर्ता हूँ तो समझती है जक राजा बरु ा मान गया, अब मेरे म्ु क के जलए लड़ेगा
नहीं।'
'अच्छा, अब बोधजसंह कै सा है?'
'अच्छा है।'

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'जैसे मैं जानता ही न होऊूँ ! रात-भर तमु अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप जसगड़ी के सहारे गज ु र करते हो। उसके
पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सख ू े लकड़ी के तख्तों पर उसे सल
ु ाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तमु
न माूँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और जनमोजनया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं जमला करते।'

'मेरा डर मत करो। मैं तो बल


ु ेल की खड्ड के जकनारे मरूूँगा। भाई कीरतजसंह की गोदी पर मेरा जसर होगा और मेरे हाथ
के लगाए हुए आूँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।'

वजीराजसंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जमटनी और तरु क! हाूँ भाइयों, कै से -

जद्ली शहर तें जपशोर नंु जाजं दए,


कर लेणा लौंगां दा बपार मजड़ए;
कर लेणा नाड़ेदा सौदा अजड़ए -
(ओय) लाणा चर्ाका कदएु नूँ।ु
कद्दू बणाया वे मजेदार गोररए,
हुण लाणा चर्ाका कदएु नूँ।ु ।

कौन जानता था जक दाजढ़योंवाले, घरबारी जसख ऐसा लच्ु चों का गीत गाएूँगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूँजू उठी और
जसपाही जिर ताजे हो गए, मानों चार जदन से सोते और मौज ही करते रहे हों।

दोपहर रात गई है। अूँधेरा है। सन्द्नार्ा छाया हुआ है। बोधाजसहं खाली जबसकुर्ों के तीन जर्नों पर अपने दोनों कंबल
जबछा कर और लहनाजसंह के दो कंबल और एक बरानकोर् ओढ़ कर सो रहा है। लहनाजसंह पहरे पर खड़ा हुआ है।
एक आूँख खाई ंके मूँहु पर है और एक बोधाजसहं के दबु ले शरीर पर। बोधाजसहं कराहा।

'क्यों बोधा भाई, क्या है?'

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'पानी जपला दो।'

लहनाजसहं ने कर्ोरा उसके मूँहु से लगा कर पछू ा - 'कहो कै से हो?' पानी पी कर बोधा बोला - 'कूँ पनी छुर् रही है। रोम-
रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाूँत बज रहे हैं।'
'अच्छा, मेरी जरसी पहन लो !'
'और तमु ?'
'मेरे पास जसगड़ी है और मझ
ु े गमी लगती है। पसीना आ रहा है।'
'ना, मैं नहीं पहनता। चार जदन से तमु मेरे जलए - '
'हाूँ, याद आई। मेरे पास दसू री गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। जवलायत से बनु -बनु कर भेज रही हैं मेमें, गरुु
उनका भला करें ।' यों कह कर लहना अपना कोर् उतार कर जरसी उतारने लगा।
'सच कहते हो?'
'और नहीं झठू ?' यों कह कर नाूँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोर् और जीन
का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा के वल कथा थी।

आधा घंर्ा बीता। इतने में खाई ंके मूँहु से आवाज आई - 'सबू ेदार हजाराजसंह।'
'कौन लपर्न साहब? हुक्म हुजरू !' - कह कर सबू ेदार तन कर िौजी सलाम करके सामने हुआ।

'देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दरू ी पर परू ब के कोने में एक जमटन खाई ंहै। उसमें पचास से ज्यादा
जमटन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत कार् कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाूँ मोड़ है वहाूँ पंरह जवान खड़े
कर आया ह।ूँ तमु यहाूँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा जमलो। खदं क छीन कर वहीं, जब तक दसू रा
हुक्म न जमले, डर्े रहो। हम यहाूँ रहेगा।'

'जो हुक्म।'

चपु चाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनाजसंह ने उसे रोका। लहनाजसंह आगे हुआ
तो बोधा के बाप सबू ेदार ने उूँगली से बोधा की ओर इशारा जकया। लहनाजसंह समझ कर चपु हो गया। पीछे दस
आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बझु ा कर सबू ेदार ने माचट जकया। लपर्न

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साहब लहना की जसगड़ी के पास मूँहु िे र कर खड़े हो गए और जेब से जसगरे र् जनकाल कर सल
ु गाने लगे। दस जमनर्
बाद उन्द्होंने लहना की ओर हाथ बढा कर कहा - 'लो तमु भी जपयो।'

आूँख मारते-मारते लहनाजसंह सब समझ गया। मूँहु का भाव जछपा कर बोला - 'लाओ साहब।' हाथ आगे करते ही
उसने जसगड़ी के उजाले में साहब का मूँहु देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपर्न साहब के परट्टयों वाले
बाल एक जदन में ही कहाूँ उड़ गए और उनकी जगह कै जदयों से कर्े बाल कहाूँ से आ गए ?' शायद साहब शराब जपए
हुए हैं और उन्द्हें बाल कर्वाने का मौका जमल गया है? लहनाजसंह ने जाूँचना चाहा। लपर्न साहब पाूँच विट से उसकी
रे जजमेंर् में थे।

'क्यों साहब, हमलोग जहदं स्ु तान कब जाएूँगे?'

'लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?'

'नहीं साहब, जशकार के वे मजे यहाूँ कहाूँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जजले में जशकार
करने गए थे -

'हाूँ, हाूँ - '

'वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्द्ु ला रास्ते के एक मंजदर में जल चढ़ाने को रह
गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय जनकली जक ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी
एक गोली कंधे में लगी और पट्ठु े में जनकली। ऐसे अिसर के साथ जशकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, जशमले से
तैयार होकर उस नील गाय का जसर आ गया था न? आपने कहा था जक रे जमेंर् की मैस में लगाएूँगे।'

'हाूँ पर मैंने वह जवलायत भेज जदया - '

'ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो िुर् के तो होंगे?'

'हाूँ, लहनाजसहं , दो िुर् चार इच


ं के थे। तमु ने जसगरे र् नहीं जपया?'

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'पीता हूँ साहब, जदयासलाई ले आता ह'ूँ - कह कर लहनाजसंह खंदक में घस
ु ा। अब उसे संदहे नहीं रहा था। उसने झर्पर्
जनश्चय कर जलया जक क्या करना चाजहए।

अूँधेरे में जकसी सोनेवाले से वह र्कराया।

'कौन? वजीराजसंह?'

'हाूँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आूँख लगने दी होती?'

'होश में आओ। कयामत आई है और लपर्न साहब की वदी पहन कर आई है।'

'क्या?'
'लपर्न साहब या तो मारे गए है या कै द हो गए हैं। उनकी वदी पहन कर यह कोई जमटन आया है। सबू ेदार ने इसका मूँहु
नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साि उदटू बोलता है, पर जकताबी उदट।ू और मझु े पीने को जसगरे र् जदया है?'
'तो अब!'
'अब मारे गए। धोखा है। सबू ेदार होराूँ, कीचड़ में चक्कर कार्ते जिरें गे और यहाूँ खाई ंपर धावा होगा। उठो, एक काम
करो। प्र्न के पैरों के जनशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दरू न गए होंगे।

सबू ेदार से कहो एकदम लौर् आएूँ। खंदक की बात झठू है। चले जाओ, खंदक के पीछे से जनकल जाओ। पत्ता तक न
खड़के । देर मत करो।'

'हुकुम तो यह है जक यहीं - '

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'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनाजसंह जो इस वि यहाूँ सब से बड़ा अिसर है, उसका हुकुम है। मैं
लपर्न साहब की खबर लेता ह।ूँ '

'पर यहाूँ तो तमु आठ है।'

'आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकाजलया जसख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।'
लौर् कर खाई ंके महु ाने पर लहनाजसहं दीवार से जचपक गया। उसने देखा जक लपर्न साहब ने जेब से बेल के बराबर
तीन गोले जनकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घसु ेड़ जदया और तीनों में एक तार सा बाूँध जदया। तार
के आगे सतू की एक गत्ु थी थी, जजसे जसगड़ी के पास रखा। बाहर की तरि जा कर एक जदयासलाई जला कर गत्ु थी पर
रखने -
इतने में जबजली की तरह दोनों हाथों से उ्र्ी बंदक
ू को उठा कर लहनाजसंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा।
धमाके के साथ साहब के हाथ से जदयासलाई जगर पड़ी। लहनाजसहं ने एक कंु दा साहब की गदटन पर मारा और साहब
'ऑख! मीन गौट्ट' कहते हुए जचत्त हो गए। लहनाजसंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर िें के और साहब को
घसीर् कर जसगड़ी के पास जलर्ाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार जलिािे और एक डायरी जनकाल कर उन्द्हें अपनी
जेब के हवाले जकया।
साहब की मछू ाट हर्ी। लहनाजसंह हूँस कर बोला - 'क्यों लपर्न साहब? जमजाज कै सा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं।
यह सीखा जक जसख जसगरे र् पीते हैं। यह सीखा जक जगाधरी के जजले में नीलगाएूँ होती हैं और उनके दो िुर् चार इचं
के सींग होते हैं। यह सीखा जक मसु लमान खानसामा मजू तटयों पर जल चढ़ाते हैं और लपर्न साहब खोते पर चढ़ते हैं।
पर यह तो कहो, ऐसी साि उदटू कहाूँ से सीख आए? हमारे लपर्न साहब तो जबन डेम के पाूँच लफ्ज भी नहीं बोला
करते थे।'
लहना ने पतलनू के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के जलए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहनाजसहं कहता गया - 'चालाक तो बड़े हो पर माूँझे का लहना इतने बरस लपर्न साहब के साथ रहा है। उसे चकमा
देने के जलए चार आूँखें चाजहए। तीन महीने हुए एक तरु की मौलवी मेरे गाूँव आया था। औरतों को बच्चे होने के
ताबीज बाूँर्ता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मजं ा जबछा कर हुक्का पीता रहता था और
कहता था जक जमटनीवाले बड़े पंजडत हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से जवमान चलाने की जवद्या जान गए हैं। गौ को नहीं
मारते। जहंदस्ु तान में आ जाएूँगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बजनयों को बहकाता जक डाकखाने से रूपया जनकाल
लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पो्हराम भी डर गया था। मैंने म्ु लाजी की दाढ़ी मड़ू दी थी। और
गाूँव से बाहर जनकाल कर कहा था जक जो मेरे गाूँव में अब पैर रक्खा तो - '
साहब की जेब में से जपस्तौल चला और लहना की जाूँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी माजर्टन के दो िायरों ने
साहब की कपाल-जक्रया कर दी। धड़ाका सनु कर सब दौड़ आए।

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बोधा जच्लया - 'क्या है?'
लहनाजसहं ने उसे यह कह कर सल ु ा जदया जक एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार जदया और, औरों से सब हाल कह
जदया। सब बंदक ू ें ले कर तैयार हो गए। लहना ने सािा िाड़ कर घाव के दोनों तरि परट्टयाूँ कस कर बाूँधी। घाव मांस
में ही था। परट्टयों के कसने से लह जनकलना बंद हो गया।
इतने में सत्तर जमटन जच्ला कर खाई ंमें घसु पड़े। जसक्खों की बदं कू ों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दसू रे को रोका।
पर यहाूँ थे आठ (लहनाजसंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेर्े हुए थे) और वे सत्तर। अपने
मदु ाट भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जमटन आगे घसु े आते थे। थोडे से जमजनर्ों में वे - अचानक आवाज आई, 'वाह गरुु जी
की ितह? वाह गरुु जी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदक ू ों के िायर जमटनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जमटन
दो चक्की के पार्ों के बीच में आ गए। पीछे से सबू ेदार हजाराजसंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनाजसंह के
साजथयों के सगं ीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी सगं ीन जपरोना शरू ु कर जदया।
एक जकलकारी और - अकाल जसक्खाूँ दी िौज आई! वाह गरुु जी दी ितह! वाह गुरुजी दा खालसा ! सत श्री
अकालपरुु ख!!! और लड़ाई खतम हो गई। जतरे सठ जमटन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। जसक्खों में परं ह के प्राण
गए। सबू ेदार के दाजहने कंधे में से गोली आरपार जनकल गई। लहनाजसंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को
खंदक की गीली मट्टी से परू जलया और बाकी का सािा कस कर कमरबंद की तरह लपेर् जलया। जकसी को खबर न
हुई जक लहना को दसू रा घाव - भारी घाव लगा है।
लड़ाई के समय चाूँद जनकल आया था, ऐसा चाूँद, जजसके प्रकाश से संस्कृ त-कजवयों का जदया हुआ क्षयी नाम साथटक
होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भािा में 'दतं वीणोपदेशाचायट' कहलाती। वजीराजसहं कह रहा
था जक कै से मन-मन भर रांस की भजू म मेरे बर्ू ों से जचपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सबू ेदार के पीछे गया था। सबू ेदार
लहनाजसंह से सारा हाल सनु और कागजात पा कर वे उसकी तरु त-बजु द्ध को सराह रहे थे और कह रहे थे जक तू न होता
तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाजहनी ओर की खाईवालों ं ने सनु ली थी। उन्द्होंने पीछे र्ेलीिोन कर जदया था। वहाूँ
से झर्पर् दो डाक्र्र और दो बीमार ढोने की गाजड़याूँ चलीं, जो कोई डेढ़ घर्ं े के अंदर-अदं र आ पहुचूँ ी। िी्ड
अस्पताल नजदीक था। सबु ह होते-होते वहाूँ पहुचूँ जाएूँगे, इसजलए मामल ू ी पट्टी बाूँध कर एक गाड़ी में घायल जलर्ाए
गए और दसू री में लाशें रक्खी गई।ं सबू ेदार ने लहनाजसंह की जाूँघ में पट्टी बूँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर र्ाल
जदया जक थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा। बोधाजसहं ज्वर में बराट रहा था। वह गाड़ी में जलर्ाया गया। लहना को छोड़
कर सबू ेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा - 'तम्ु हें बोधा की कसम है, और सबू ेदारनीजी की सौगंध है जो इस
गाड़ी में न चले जाओ।'
'और तमु ?'
'मेरे जलए वहाूँ पहुच
ूँ कर गाड़ी भेज देना, और जमटन मरु दों के जलए भी तो गाजड़याूँ आती होंगी। मेरा हाल बरु ा नहीं है।
देखते नहीं, मैं खड़ा ह?ूँ वजीराजसहं मेरे पास है ही।'
'अच्छा, पर - '

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'बोधा गाड़ी पर लेर् गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सजु नए तो, सबू ेदारनी होराूँ को जचिी जलखो, तो मेरा मत्था र्ेकना
जलख देना। और जब घर जाओ तो कह देना जक मझु से जो उसने कहा था वह मैंने कर जदया।'
गाजड़याूँ चल पड़ी थीं। सबू ेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा - 'तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं।
जलखना कै सा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सबू ेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?'
'अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह जलख देना, और कह भी देना।'
गाड़ी के जाते लहना लेर् गया। 'वजीरा पानी जपला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।'
5
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृजत बहुत साि हो जाती है। जन्द्म-भर की घर्नाएूँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे
दृश्यों के रंग साि होते हैं। समय की धंधु जब्कुल उन पर से हर् जाती है।

** ** **

लहनाजसंह बारह विट का है। अमृतसर में मामा के यहाूँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाूँ, सब्जीवाले के यहाूँ, हर कहीं,
उसे एक आठ विट की लड़की जमल जाती है। जब वह पछू ता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती
है। एक जदन उसने वैसे ही पछू ा, तो उसने कहा - 'हाूँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रे शम के िूलोंवाला साल?ू सनु ते ही
लहनाजसहं को दःु ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
'वजीराजसंह, पानी जपला दे।'
** ** **
पचीस विट बीत गए। अब लहनाजसंह नं 77 रै ि्स में जमादार हो गया है। उस आठ विट की कन्द्या का ध्यान ही न रहा।
न-मालमू वह कभी जमली थी, या नहीं। सात जदन की छुट्टी ले कर जमीन के मक ु दमें की पैरवी करने वह अपने घर गया।
वहाूँ रे जजमेंर् के अिसर की जचिी जमली जक िौज लाम पर जाती है, िौरन चले आओ। साथ ही सबू ेदार हजाराजसंह
की जचिी जमली जक मैं और बोधाजसहं भी लाम पर जाते हैं। लौर्ते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सबू ेदार
का गाूँव रास्ते में पड़ता था और सबू ेदार उसे बहुत चाहता था। लहनाजसंह सबू ेदार के यहाूँ पहुचूँ ा।
जब चलने लगे, तब सबू ेदार बेढे में से जनकल कर आया। बोला - 'लहना, सबू ेदारनी तमु को जानती हैं, बल ु ाती हैं। जा
जमल आ।' लहनाजसंह भीतर पहुचूँ ा। सबू ेदारनी मझु े जानती हैं? कब से? रे जजमेंर् के क्वार्टरों में तो कभी सबू ेदार के घर
के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था र्ेकना कहा। असीस सनु ी। लहनाजसंह चपु ।
'मझ
ु े पहचाना?'
'नहीं।'
'तेरी कुड़माई हो गई - धत् - कल हो गई - देखते नहीं, रे शमी बर्ू ोंवाला सालू -अमृतसर में -

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भावों की र्कराहर् से मछू ाट खल
ु ी। करवर् बदली। पसली का घाव बह जनकला।
'वजीरा, पानी जपला' - 'उसने कहा था।'
** ** **
स्वप्न चल रहा है। सबू ेदारनी कह रही है - 'मैंने तेरे को आते ही पहचान जलया। एक काम कहती ह।ूँ मेरे तो भाग िूर्
गए। सरकार ने बहादरु ी का जखताब जदया है, लायलपरु में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर
सरकार ने हम तीजमयों की एक घूँघररया प्र्न क्यों न बना दी, जो मैं भी सबू ेदारजी के साथ चली जाती? एक बेर्ा है।
िौज में भती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जजया। सबू ेदारनी रोने लगी। अब
दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तम्ु हें याद है, एक जदन ताूँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दक
ु ान के पास जबगड़ गया था। तमु ने
उस जदन मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मझु े उठा कर दक ु ान के तख्ते पर खड़ा कर जदया
था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी जभक्षा है। तम्ु हारे आगे आूँचल पसारती हूँ।
रोती-रोती सबू ेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आूँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
'वजीराजसंह, पानी जपला' -'उसने कहा था।'
** ** **
लहना का जसर अपनी गोद में रक्खे वजीराजसहं बैठा है। जब माूँगता है, तब पानी जपला देता है। आध घर्ं े तक लहना
चपु रहा, जिर बोला - 'कौन ! कीरतजसंह?'
वजीरा ने कुछ समझ कर कहा - 'हाूँ।'
'भइया, मझ
ु े और ऊूँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा जसर रख ले।' वजीरा ने वैसे ही जकया।
'हाूँ, अब ठीक है। पानी जपला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खबू िलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम
खाना। जजतना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जजस महीने उसका जन्द्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे
लगाया था।' वजीराजसंह के आूँसू र्प-र्प र्पक रहे थे।
** ** **
कुछ जदन पीछे लोगों ने अखबारों में पढा -
रासं और बेलजजयम - 68 वीं सचू ी - मैदान में घावों से मरा - नं 77 जसख राइि्स जमादार लहनाजसहं

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ईदगाि
मंश
ु ी प्रेमचंद
रमजान के परू े तीस रोजों के बाद ईद आई है। जकतना मनोहर, जकतना सहु ावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हररयाली है,
खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लाजलमा है। आज का सयू ट देखो, जकतना प्यारा, जकतना
शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में जकतनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयाररयां हो रही हैं।
जकसी के कुरते में बर्न नहीं है, पड़ोस के घर में सईु -धागा लेने दौड़ा जा रहा है। जकसी के जतू े कड़े हो गए हैं, उनमें तेल
डालने के जलए तेली के घर पर भागा जाता है। ज्दी-ज्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौर्ते-लौर्ते दोपहर
हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, जिर सैकड़ों आदजमयों से जमलना-भेंर्ना, दोपहर के पहले लौर्ना असंभव है।
लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्द्न हैं। जकसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, जकसी ने वह भी नहीं, लेजकन ईदगाह
जाने की खश ु ी उनके जहस्से की चीज है। रोजे बड़े-बढ़ू ो के जलए होंगे। इनके जलए तो ईद है। रोज ईद का नाम रर्ते थे,
आज वह आ गई। अब ज्दी पड़ी है जक लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्द्हें गृहस्थी जचंताओ ं से क्या प्रयोजन! सेवैयों
के जलए दधू और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाएगं े। वह क्या जानें जक अब्बाजान क्यों
बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्द्हें क्या खबर जक चौधरी आंखें बदल लें, तो यह सारी ईद महु रट म
हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना जनकालकर जगनते हैं
और खश ु होकर जिर रख लेते हैं। महमूद जगनता है, एक-दो, दस-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनजसन के पास
एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंरह पैसे हैं। इन्द्हीं अनजगनती पैसों में अनजगनती चीजें लाएंगे- जखलौने, जमठाइयां, जबगल ु , गेंद
और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्द्न है हाजमद। वह चार-पाचं साल का गरीब सरू त, दबु ला-पतला लड़का,
जजसका बाप गत विट हैजे की भेंर् हो गया और मां न जाने क्यों पीली होती-होती एक जदन मर गई। जकसी को पता क्या
बीमारी है। कहती तो कौन सनु ने वाला था? जदल पर जो कुछ बीतती थी, वह जदल में ही सहती थी ओर जब न सहा
गया, तो संसार से जवदा हो गई। अब हाजमद अपनी बढ़ू ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्द्न है।
उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैजलयां लेकर आएंगे। अम्मीजान अ्लहा जमयां के घर से उसके जलए
बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसजलए हाजमद प्रसन्द्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और जिर बच्चों की आशा!
उनकी क्पना तो राई का पवटत बना लेती हे। हाजमद के पांव में जतू े नहीं हैं, जसर पर एक परु ानी-धरु ानी र्ोपी है,
जजसका गोर्ा काला पड़ गया है, जिर भी वह प्रसन्द्न है। जब उसके अब्बाजान थैजलयां और अम्मीजान जनयमतें लेकर
आएंगी, तो वह जदल से अरमान जनकाल लेगा। तब देखेगा, मोहजसन, नरू े और सम्मी कहां से उतने पैसे जनकालेंगे।
अभाजगन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का जदन, उसके घर में दाना नहीं! आज आजबद होता, तो
क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अधं कार और जनराशा में वह डूबी जा रही है। जकसने बल ु ाया था इस
जनगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेजकन हाजमद! उसे जकसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अंदर
प्रकाश है, बाहर आशा। जवपजत्त अपना सारा दलबल लेकर आए, हाजमद की आनदं -भरी जचतबन उसका जवध्वसं कर
देगी। हाजमद भीतर जाकर दादी से कहता है-तमु डरना नहीं अम्मां, मै सबसे पहले आऊंगा। जब्कुल न डरना। अमीना
का जदल कचोर् रहा है। गांव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हाजमद का बाप अमीना के जसवा और कौन

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है! उसे के से अके ले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने
देगी। नन्द्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कै से? पैर में छाले पड़ जाएगं े। जतू े भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दरू पर उसे
गोद में ले लेती, लेजकन यहां सेवैयां कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौर्ते-लोर्ते सब सामग्री जमा करके चर्पर् बना
लेती। यहां तो घंर्ों चीजें जमा करते लगेंगे। मांगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस जदन िहीमन के कपड़े जसले थे। आठ
आने पैसे जमले थे। उस उठन्द्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के जलए लेजकन कल ग्वालन जसर
पर सवार हो गई तो क्या करती? हाजमद के जलए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दधू तो चाजहए ही। अब तो कुल दो आने
पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हाजमद की जेब में, पाचं अमीना के बर्ुवे में। यही तो जबसात है और ईद का त्यौहार, अ्ला
ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन और मेहतरानी और चजु ड़हाररन सभी तो आएगं ी। सभी को सेवेयां चाजहए और
थोड़ा जकसी को आंखों नहीं लगता। जकस-जकस से मंहु चरु ाएगी? और मंहु क्यों चरु ाए? साल-भर का त्योहार हैं। जजंदगी
खैररयत से रहे, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खदु ा सलामत रखे, यें जदन भी कर् जाएगं े। गावं से
मेला चला। और बच्चों के साथ हाजमद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे जनकल जाते। जिर जकसी पेड़ के
नींचे खड़े होकर साथ वालों का इतं जार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे -धीरे चल रहे हैं? हाजमद के पैरो में तो जैसे पर
लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की
चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीजचयां लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर
जनशान लगाता हे। माली अदं र से गाली देता हुआ जनकलता है। लड़के वहां से एक िलागं पर हैं। खबू हसं रहे हैं।
माली को कै सा उ्लू बनाया है। बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने
बड़े कालेज में जकतने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े -बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मछ ंू े हैं।
इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करें गे इतना पढ़कर! हाजमद के मदरसे में
दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, जब्कुल तीन कौड़ी के । रोज मार खाते हैं, काम से जी चरु ाने वाले। इस जगह भी उसी तरह
के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जाद ू होता है। सनु ा है, यहां मदु ों की खोपजड़यां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे
होते हें, पर जकसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहां शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े -बड़े आदमी खेलते हें, मंछू ो-
दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मां को यह दे दो, क्या नाम है, बैर्, तो उसे पकड़ ही न सके । घमु ाते
ही लढ़ु क जाएं। महमदू ने कहा- हमारी अम्मीजान का तो हाथ कांपने लगे, अ्ला कसम। मोहजसन बोल- चलों, मनों
आर्ा पीस डालती हैं। जरा-सा बैर् पकड़ लेगी, तो हाथ कांपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज जनकालती हैं। पांच घड़े
तो तेरी भैंस पी जाती है। जकसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े , तो आख ं ों तक अधं ेरी आ जाए। महमदू - लेजकन
दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं। मोहजसन- हॉूँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेजकन उस जदन मेरी गाय खल ु
गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मां इतना तेज दौड़ीं जक में उन्द्हें न पा सका, सच। आगे चले। हलवाइयों
की दक ु ानें शरू
ु हुई। आज खबू सजी हुई थीं। इतनी जमठाइयां कौन खाता? देखो न, एक-एक दक ू ान पर मनों होंगी। सनु ा
है, रात को जजन्द्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे जक आधी रात को एक आदमी हर दक ू ान पर जाता है
और जजतना माल बचा होता है, वह तल ु वा लेता है और सचमचु के रूपये देता है, जब्कुल ऐसे ही रूपये। हाजमद को
यकीन न आया- ऐसे रुपये जजन्द्नात को कहां से जमल जाएंगी? मोहजसन ने कहा- जजन्द्नात को रुपये की क्या कमी? जजस
खजाने में चाहें चले जाए।ं लोहे के दरवाजे तक उन्द्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं जकस िे र में! हीरे -जवाहरात तक
उनके पास रहते हैं। जजससे खश ु हो गए, उसे र्ोकरों जवाहरात दे जदए। अभी यहीं बैठे हें, पांच जमनर् में कलकत्ता पहुचं
जाएं। हाजमद ने जिर पछू ा- जजन्द्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं? मोहजसन- एक-एक जसर आसमान के बराबर होता है जी!

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जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका जसर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोर्े में घसु जाए। हाजमद- लोग उन्द्हें
कै से खश ु करते होंगे? कोई मझु े यह मतं र बता दे तो एक जजनन को खश ु कर लूँ।ू मोहजसन- अब यह तो न जानता,
लेजकन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जजन्द्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर
चोर का नाम बता देगें। जमु राती का बछवा उस जदन खो गया था। तीन जदन हैरान हुए, कहीं न जमला तब झख मारकर
चौधरी के पास गए। चौधरी ने तरु न्द्त बता जदया, मवेशीखाने में है और वहीं जमला। जजन्द्नात आकर उन्द्हें सारे जहान की
खबर दे जाते हैं। अब उसकी समझ में आ गया जक चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पजु लस लाइन है। यहीं सब काजनसजर्जबल कवायद करते हैं। रै र्न! िाय िो! रात को बेचारे घमू -घमू कर
पहरा देते हैं, नहीं चोररयां हो जाएं। मोहजसन ने प्रजतवाद जकया- यह काजनसजर्जबल पहरा देते हें? तभी तमु बहुत जानते
हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जजतने चोर-डाकू हें, सब इनसे महु ्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते
रहो!’पक ु ारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में काजनसजर्जबल हें। बरस रुपया महीना
पाते हें, लेजकन पचास रुपये घर भेजते हैं। अ्ला कसम! मैंने एक बार पछू ा था जक माम,ू आप इतने रुपये कहां से पाते
हैं? हसं कर कहने लगे- बेर्ा, अ्लाह देता है। जिर आप ही बोले- हम लोग चाहें तो एक जदन में लाखों मार लाएं। हम
तो इतना ही लेते हैं, जजसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए। हाजमद ने पछू ा- यह लोग चोरी करवाते हैं,
तो कोई इन्द्हें पकड़ता नहीं? मोहजसन उसकी नादानी पर दया जदखाकर बोला... अरे , पागल! इन्द्हें कौन पकड़ेगा!
पकड़ने वाले तो यह लोग खदु हैं, लेजकन अ्लाह, इन्द्हें सजा भी खबू देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े
ही जदन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पंजू ी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई जदन पेड़ के नीचे सोए,
अ्ला कसम, पेड़ के नीचे! जिरन जाने कहां से एक सौ कजट लाए तो बरतन-भाड़े आए। हाजमद- एक सौ तो पचास से
ज्यादा होते है? ‘कहां पचास, कहां एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैजलयों में भी न आएं? अब बस्ती
घनी होने लगी। ईदगाह जाने वालो की र्ोजलयां नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के -तांगे
पर सवार, कोई मोर्र पर, सभी इत्र में बसे, सभी के जदलों में उमगं । ग्रामीणों का यह छोर्ा-सा दल अपनी जवपन्द्नता से
बेखबर, संतोि ओर धैयट में मगन चला जा रहा था। बच्चों के जलए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जजस चीज की
ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आनट की आवाज होने पर भी न चेतते। हाजमद तो मोर्र के नीचे जाते -
जाते बचा। सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का िशट है, जजस पर जाजम
जढछा हुआ है। और रोजेदारों की पंजियां एक के पीछे एक न जाने कहां वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक,
जहां जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहां कोई धन
और पद नहीं देखता। इस्लाम की जनगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू जकया ओर जपछली पंजि में खड़े हो
गए। जकतना सन्द्ु दर सचं ालन है, जकतनी सन्द्ु दर व्यवस्था! लाखों जसर एक साथ जसजदे में झक ु जाते हैं, जिर सबके सब
एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झक ु ते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ
झक ु ते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही जक्रया होती हे, जैसे जबजली की लाखों बजत्तयाूँ एक साथ प्रदीप्त
हों और एक साथ बझु जाएं, और यही ग्रम चलता, रहे। जकतना अपवू ट दृश्य था, जजसकी सामजू हक जक्रयाएं, जवस्तार
और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गवट और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सत्रू इन समस्त आत्माओ ं को
एक लड़ी में जपरोए हुए हैं। नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले जमल रहे हैं। तब जमठाई और जखलौने की दक ू ान पर
धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस जविय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, जहडं ोला है एक पैसा देकर
चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालमू होगें, कभी जमीन पर जगरते हुए। यह चखी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े,

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ऊूँर्, छड़ो में लर्के हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओ ं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमदू और मोहजसन ओर
नरू े ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊंर्ो पर बैठते हें। हाजमद दरू खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोि का एक
जतहाई जरा-सा चक्कर खाने के जलए नहीं दे सकता। सब चजखटयों से उतरते हैं। अब जखलौने लेंगे। अधर दक ू ानों की
कतार लगी हुई है। तरह-तरह के जखलौने हैं- जसपाही और गजु ररया, राज ओर वकी, जभश्ती और धोजबन और साध।ु
वाह! जकत्ते सन्द्ु दर जखलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमदू जसपाही लेता हे, खाकी वदी और लाल पगड़ीवाला,
कंधें पर बंदक ू रखे हुए, मालमू होता हे, अभी कवायद जकए चला आ रहा है। मोहजसन को जभश्ती पसंद आया। कमर
झक ु ी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का महंु एक हाथ से पकड़े हुए है। जकतना प्रसन्द्न है! शायद कोई गीत गा रहा
है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नरू े को वकील से प्रेम हे। कै सी जवद्वत्ता हे उसके मख ु पर! काला चोगा,
नीचे सिे द अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सनु हरी जंजीर, एक हाथ में काननू का पौथा जलए हुए। मालूम
होता है, अभी जकसी अदालत से जजरह या बहस जकए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के जखलौने हैं। हाजमद के
पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महगं े जखलौन वह के से ले? जखलौना कहीं हाथ से छूर् पड़े तो चरू -चरू हो जाए। जरा पानी
पड़े तो सारा रंग घल ु जाए। ऐसे जखलौने लेकर वह क्या करे गा, जकस काम के ! मोहजसन कहता है- मेरा जभश्ती रोज
पानी दे जाएगा सांझ-सबेरे महमदू - और मेरा जसपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो िौरन बंदक ू से िै र कर
देगा। नरू े - ओर मेरा वकील खबू मक ु दमा लड़ेगा। सम्मी- ओर मेरी धोजबन रोज कपड़े धोएगी। हाजमद जखलौनों की
जनदं ा करता है- जमट्टी ही के तो हैं, जगरे तो चकनाचरू हो जाएं, लेजकन ललचाई हुई आख ं ों से जखलौनों को देख रहा है
और चाहता है जक जरा देर के जलए उन्द्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेजकन लड़के इतने
त्यागी नहीं होते हें, जवशेिकर जब अभी नया शौक है। हाजमद ललचता रह जाता है। जखलौने के बाद जमठाइयां आती
हैं। जकसी ने रे वजड़यां ली हें, जकसी ने गल ु ाबजामनु जकसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हाजमद जबरादरी से पृथक
है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आंखों से सबक ओर देखता है। मोहजसन कहता
है- हाजमद रे वड़ी ले जा, जकतनी खश ु बदू ार है! हाजमद को सदेंह हुआ, ये के वल क्रूर जवनोद है, मोहजसन इतना उदार नहीं
है, लेजकन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहजसन दोने से एक रे वड़ी जनकालकर हाजमद की ओर बढ़ाता है।
हाजमद हाथ िै लाता है। मोहजसन रे वड़ी अपने मूँहु में रख लेता है। महमदू नरू े ओर सम्मी खबू ताजलयां बजा-बजाकर
हसं ते हैं। हाजमद जखजसया जाता है। मोहजसन- अच्छा, अबकी जरूर देंगे हाजमद, अ्लाह कसम, ले जा। हाजमद- रखे
रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है? सम्मी- तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे? महमदू - हमसे गल ु ाबजामनु ले
जाओ हाजमद। मोहजमन बदमाश है। हाजमद- जमठाई कौन बड़ी नेमत है। जकताब में इसकी जकतनी बरु ाइयां जलखी हैं।
मोहजसन- लेजकन जदन मे कह रहे होगे जक जमले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं जनकालते? महमदू - इस समझते हैं,
इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खचट हो जाएगं े, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा। जमठाइयों के बाद कुछ दक ू ानें
लोहे की चीजों की, कुछ जगलर् और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के जलए यहां कोई आकिटण न था। वे सब आगे
बढ़ जाते हैं, हाजमद लोहे की दक ु ान पर रूक जात है। कई जचमर्े रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास जचमर्ा
नहीं है। तबे से रोजर्यां उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह जचमर्ा ले जाकर दादी को दे दे तो वह जकतना
प्रसन्द्न होगी! जिर उनकी ऊगजलयां कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। जखलौने से क्या िायदा?
व्यथट में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खश ु ी होती है। जिर तो जखलौने को कोई आख ं उठाकर नहीं देखता। यह तो
घर पहुचं ते-पहुचं ते र्ूर्-िूर् बराबर हो जाएंगे। जचमर्ा जकतने काम की चीज है। रोजर्यां तवे से उतार लो, च्ू हें में सेंक
लो। कोई आग मांगने आए तो चर्पर् च्ू हे से आग जनकालकर उसे दे दो। अम्मां बेचारी को कहां िुरसत है जक

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बाजार आएं और इतने पैसे ही कहां जमलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं। हाजमद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर
सबके सब शबटत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी जमठाइयां लीं, मझु े जकसी ने एक भी न दी। उस पर कहते
है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर जकसी ने कोई काम करने को कहा , तो पछू ू ं गा। खाएं जमठाइयां, आप
मंहु सड़ेगा, िोड़े-िुजन्द्सयां जनकलेंगी, आप ही जबान चर्ोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चरु ाएंगे और मार खाएंगे।
जकताब में झठू ी बातें थोड़े ही जलखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मां जचमर्ा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले
लेंगी और कहेंगी- मेरा बच्चा अम्मां के जलए जचमर्ा लाया है। जकतना अच्छा लड़का है। इन लोगों के जखलौने पर
कौन इन्द्हें दआु एं देगा? बड़ों का दआु एं सीधे अ्लाह के दरबार में पहुचं ती हैं, और तरु ं त सनु ी जाती हैं। मैं भी इनसे
जमजाज क्यों सह?ं मैं गरीब सही, जकसी से कुछ मांगने तो नहीं जाते। आजखर अब्बाजान कभीं न कभी आएंगे। अम्मा
भी आएंगी ही। जिर इन लोगों से पछू ू ं गा, जकतने जखलौने लोगे? एक-एक को र्ोकररयों जखलौने दंू और जदखा हं जक
दोस्तों के साथ इस तरह का सलक ू जकया जात है। यह नहीं जक एक पैसे की रे वजड़यां लीं, तो जचढ़ा-जचढ़ाकर खाने लगे।
सबके सब हसं ेंगे जक हाजमद ने जचमर्ा जलया है। हसं ें! मेरी बला से! उसने दक ु ानदार से पछू ा- यह जचमर्ा जकतने का है?
दक ु ानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा- तम्ु हारे काम का नहीं है जी! ‘जबकाऊ है जक
नहीं?’‘जबकाऊ क्यों नहीं है? और यहां क्यों लाद लाए हैं?’‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’‘छ: पैसे लगेंगे।‘हाजमद
का जदल बैठ गया। ‘ठीक-ठीक पॉूँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘हाजमद ने कलेजा मजबतू करके कहा
तीन पैसे लोगे? यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया जक दक ु ानदार की घड़ु जकयां न सनु े। लेजकन दक ु ानदार ने घड़ु जकयां
नहीं दी। बल ु ाकर जचमर्ा दे जदया। हाजमद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदक ू है और शान से अकड़ता हुआ
सजं गयों के पास आया। जरा सनु ें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएं करते हैं! मोहजसन ने हसं कर कहा- यह जचमर्ा क्यों
लाया पगले, इसे क्या करे गा? हाजमद ने जचमर्े को जमीन पर पर्कर कहा- जरा अपना जभश्ती जमीन पर जगरा दो। सारी
पसजलयां चरू -चरू हो जाएं बचा की। महमदू बोला- तो यह जचमर्ा कोई जखलौना है? हाजमद- जखलौना क्यों नही है!
अभी कन्द्धे पर रखा, बदं क ू हो गई। हाथ में ले जलया, िकीरों का जचमर्ा हो गया। चाहं तो इससे मजीरे का काम ले
सकता ह।ं एक जचमर्ा जमा द,ंू तो तमु लोगों के सारे जखलौनों की जान जनकल जाए। तम्ु हारे जखलौने जकतना ही जोर
लगाएं, मेरे जचमर्े का बाल भी बाक ं ा नही कर सकतें मेरा बहादरु शेर है जचमर्ा। सम्मी ने खजं री ली थी। प्रभाजवत
होकर बोला- मेरी खंजरी से बदलोगे? दो आने की है। हाजमद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा- मेरा जचमर्ा चाहे तो
तम्ु हारी खंजरी का पेर् िाड़ डाले। बस, एक चमड़े की जझ्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए
तो खत्म हो जाए। मेरा बहादरु जचमर्ा आग में, पानी में, आधं ी में, तिू ान में बराबर डर्ा खड़ा रहेगा। जचमर्े ने सभी को
मोजहत कर जलया, अब पैसे जकसके पास धरे हैं? जिर मेले से दरू जनकल आए हें, नौ कब के बज गए, धपू तेज हो रही
है। घर पहुचं ने की ज्दी हो रही हे। बाप से जजद भी करें , तो जचमर्ा नहीं जमल सकता। हाजमद है बड़ा चालाक।
इसीजलए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे। अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहजसन , महमद, सम्मी और नरू े एक
तरि हैं, हाजमद अके ला दसू री तरि। शास्त्रथट हो रहा है। सम्मी तो जवधमी हा गया! दसू रे पक्ष से जा जमला, लेजकन
मोहजसन, महमदू और नरू े भी हाजमद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हाजमद के आघातों से आतजं कत हो उठे
हैं। उसके पास न्द्याय का बल है और नीजत की शजि। एक ओर जमट्टी है, दसू री ओर लोहा, जो इस वि अपने को
िौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए जमयां जभश्ती के छक्के छूर् जाएं, जो जमयां
जसपाही जमट्टी की बंदक ू छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मंहु जछपाकर जमीन पर लेर् जाएं।
मगर यह जचमर्ा, यह बहादरु , यह रूस्तमे-जहदं लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी आंखे जनकाल

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लेगा। मोहजसन ने एड़ी-चोर्ी का जोर लगाकर कहा- अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता? हाजमद ने जचमर्े को सीधा
खड़ा करके कहा- जभश्ती को एक डार्ं बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर जछड़कने लगेगा। मोहजसन
परास्त हो गया, पर महमदू ने कुमुक पहुचं ाई- अगर बचा पकड़ जाएं तो अदालम में बंधे-बधं े जिरें गे। तब तो वकील
साहब के पैरों पड़ोगे। हाजमद इस प्रबल तकट का जवाब न दे सका। उसने पछू ा- हमें पकड़ने कौने आएगा? नरू े ने
अकड़कर कहा- यह जसपाही बदं क ू वाला। हाजमद ने महंु जचढ़ाकर कहा- यह बेचारे हम बहादरु रूस्तमे-जहदं को
पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सरू त देखकर दरू से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे ! मोहजसन को
एक नई चोर् सझू गई- तम्ु हारे जचमर्े का महंु रोज आग में जलेगा। उसने समझा था जक हाजमद लाजवाब हो जाएगा,
लेजकन यह बात न हुई। हाजमद ने तुरंत जवाब जदया- आग में बहादरु ही कूदते हैं जनाब, तम्ु हारे यह वकील, जसपाही
और जभश्ती लैजडयों की तरह घर में घसु जाएंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-जहन्द्द ही कर सकता है। महमदू ने
एक जोर लगाया-वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेगे, तम्ु हारा जचमर्ा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के जसवा
और क्या कर सकता है? इस तकट ने सम्मी और नरू े को भी सजी कर जदया! जकतने जठकाने की बात कही है पट्ठे ने!
जचमर्ा बावरचीखाने में पड़ा रहने के जसवा और क्या कर सकता है? हाजमद को कोई िड़कता हुआ जवाब न सझू ा, तो
उसने धांधली शरू ु की- मेरा जचमर्ा बावरचीखाने में नहीं रहेगा। वकील साहब कुसी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्द्हें जमीन
पर पर्क देगा और उनका काननू उनके पेर् में डाल देगा। बात कुछ बनी नहीं। खाल गाली-गलौज थी, लेजकन काननू
को पेर् में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई जक तीनों सरू मा महंु ताकते रह गए मानों कोई धेलचा कान-कौआ
जकसी गंडेवाले कनकौए को कार् गया हो। काननू मंहु से बाहर जनकलने वाली चीज हे। उसको पेर् के अंदर डाल जदया
जाना बेतक ु ी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हाजमद ने मैदान मार जलया। उसका जचमर्ा रूस्तमे-जहन्द्द है।
अब इसमें मोहजसन, महमदू नरू े , सम्मी जकसी को भी आपजत्त नहीं हो सकती। जवजेता को हारनेवालों से जो सत्कार
जमलना स्वभाजवक है, वह हाजमद को भी जमल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खचट जकए, पर कोई काम की
चीज न ले सके । हाजमद ने तीन पैसे में रंग जमा जलया। सच ही तो है, जखलौनों का क्या भरोसा? र्ूर्-िूर् जाएगं ी। हाजमद
का जचमर्ा तो बना रहेगा बरसों? संजध की शते तय होने लगीं। मोहजसन ने कहा- जरा अपना जचमर्ा दो, हम भी देखें।
तमु हमार जभश्ती लेकर देखो। महमदू और नरू े ने भी अपने-अपने जखलौने पेश जकए। हाजमद को इन शतो को मानने में
कोई आपजत्त न थी। जचमर्ा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके जखलौने बारी-बारी से हाजमद के हाथ में
आए। जकतने खबू सरू त जखलौने हैं। हाजमद ने हारने वालों के ऑसं ू पोंछे- मैं तम्ु हें जचढ़ा रहा था, सच! यह जचमर्ा भला,
इन जखलौनों की क्या बराबर करे गा, मालमू होता है, अब बोले, अब बोले। लेजकन मोहजसन की पार्ी को इस जदलासे
से संतोि नहीं होता। जचमर्े का जस्का खबू बैठ गया है। जचपका हुआ जर्कर् अब पानी से नहीं छूर् रहा है। मोहजसन-
लेजकन इन जखलौनों के जलए कोई हमें दआ ु तो न देगा? महमदू - दआु को जलए जिरते हो। उ्र्े मार न पड़े। अम्मां
जरूर कहेंगी जक मेले में यही जमट्टी के जखलौने जमले? हाजमद को स्वीकार करना पड़ा जक जखलौनों को देखकर जकसी
की मां इतनी खश ु न होगी, जजतनी दादी जचमर्े को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन
पैसों के इस उपायों पर पछतावे की जब्कुल जरूरत न थी। जिर अब तो जचमर्ा रूस्तमें-जहन्द्द हे ओर सभी जखलौनों
का बादशाह। रास्ते में महमदू को भख ू लगी। उसके बाप ने के ले खाने को जदए। महमदू ने के वल हाजमद को साझी
बनाया। उसके अन्द्य जमत्र महंु ताकते रह गए। यह उस जचमर्े का प्रसाद था। ग्यारह बजे गावं में हलचल मच गई।
मेलेवाले आ गए। मोहजसन की छोर्ी बहन दौड़कर जभश्ती उसके हाथ से छीन जलया और मारे खश ु ी के जा उछली, तो
जमयां जभश्ती नीचे आ रहे और सरु लोक जसधारे । इस पर भाई-बहन में मार-पीर् हुई। दानों खबु रोए। उसकी अम्मां यह

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शोर सनु कर जबगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चांर्े और लगाए। जमयां नरू े के वकील का अंत उनके प्रजतष्ठानक ु ूल
इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मयाटदा का जवचार तो करना ही
होगा। दीवार में खूँजू र्यां गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पर्रा रखा गया। पर्रे पर कागज का कालीन जबदाया गया।
वकील साहब राजा भोज की भांजत जसंहासन पर जवराजे। नूरे ने उन्द्हें पंखा झलना शुरू जकया। आदालतों में खर की
र्रट्टयां और जबजली के पख ं े रहते हें। क्या यहां मामल
ू ी पखं ा भी न हो! काननू की गमी जदमाग पर चढ़ जाएगी जक नहीं?
बांस का पंखा आया ओर नरू े हवा करने लगें मालमू नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोर् से वकील साहब
स्वगटलोक से मृत्यल ु ोक में आ रहे और उनका मार्ी का चोला मार्ी में जमल गया! जिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ
और वकील साहब की अजस्थ घरू े पर डाल दी गई। अब रहा महमदू का जसपाही। उसे चर्पर् गांव का पहरा देने का
चाजट जमल गया, लेजकन पजु लस का जसपाही कोई साधारण व्यजि तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा।
एक र्ोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के िर्े-परु ाने जचथड़े जबछाए गए जजसमें जसपाही साहब आराम से लेर्े। नरू े ने
यह र्ोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोर्े भाई जसपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते
लहो’पक ु ारते चलते हें। मगर रात तो अधं ेरी होनी चाजहए, नरू े को ठोकर लग जाती है। र्ोकरी उसके हाथ से छूर्कर जगर
पड़ती है और जमयां जसपाही अपनी बन्द्दक ू जलये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक र्ांग में जवकार आ जाता है।
महमदू को आज ज्ञात हुआ जक वह अच्छा डाक्र्र है। उसको ऐसा मरहम जमला गया है जजससे वह र्ूर्ी र्ांग को
आनन-िानन जोड़ सकता हे। के वल गल ू र का दधू चाजहए। गल ू र का दधू आता है। र्ागं जावब दे देती है। श्य-जक्रया
असिल हुई, तब उसकी दसू री र्ांग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक
र्ागं से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह जसपाही सन्द्ं यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा
देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके जसर का झालरदार सािा खरु च जदया गया है। अब उसका जजतना
रूपांतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बार् का काम भी जलया जाता है। अब जमयां हाजमद का हाल सजु नए।
अमीना उसकी आवाज सनु ते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में जचमर्ा देखकर
वह चौंकी। ‘यह जचमर्ा कहॉं था?’‘मैंने मेले से जलया है।‘‘कै पैसे में’‘तीन पैसे जदये।‘अमीना ने छाती पीर् ली। यह
कै सा बेसमझ लड़का है जक दोपहर हुआ, कुछ खाया न जपया। लाया क्या, जचमर्ा! ‘सारे मेले में तझु े और कोई चीज न
जमली, जो यह लोहे का जचमर्ा उठा लाया?’हाजमद ने अपराधी-भाव से कहा- तम्ु हारी उूँगजलयॉूँ तवे से जल जाती थीं,
इसजलए मैने इसे जलया। बजु ढ़या का क्रोध तरु न्द्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रग्भ होता हे और
अपनी सारी कसक शब्दों में जबखेर देता है। यह मक ू स्नेह था, खबू ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में जकतना
व्याग, जकतना सदभाव और जकतना जववेक है! दसू रों को जखलौने लेते और जमठाई खाते देखकर इसका मन जकतना
ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कै से? वहां भी इसे अपनी बजु ढ़या दादी की याद बनी रही। अमीना का मन
गदगद हो गया। और अब एक बड़ी जवजचत्र बात हुई। हाजमद के इस जचमर्े से भी जवजचत्र। बच्चे हाजमद ने बढ़ू े हाजमद
का पार्ट खेला था। बजु ढ़या अमीना बाजलका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन िै लाकर हाजमद को दआ ु एं देती
जाती थी और आसं ू की बड़ी-बड़ी बदंू े जगराती जाती थी। हाजमद इसका रहस्य क्या समझता!

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दुणनया का सबसे अनमोल रत्न
प्रेमचंद
जदलजफ़गार एक कूँ र्ीले पेड़ के नीचे दामन चाक जकये बैठा हुआ खनू के आूँसू बहा रहा था। वह सौन्द्दयट की देवी यानी
मलका जदलफ़रे ब का सच्चा और जान देने वाला प्रेमी था। उन प्रेजमयों में नहीं, जो इत्र-िुलेल में बसकर और शानदार
कपड़ों से सजकर आजशक के वेश में माशजू कयत का दम भरते हैं। बज्क उन सीधे-सादे भोले-भाले जफ़दाइयों में जो
जंगल और पहाड़ों से सर र्कराते हैं और फ़ररयाद मचाते जिरते हैं। जदलफ़रे ब ने उससे कहा था जक अगर तू मेरा सच्चा
प्रेमी है, तो जा और दजु नया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ तब मैं तझु े अपनी गल ु ामी में कबलू
करूूँगी। अगर तझु े वह चीज़ न जमले तो खबरदार इधर रुख न करना, वनाट सल ू ी पर जखंचवा दूँगू ी। जदलजफ़गार को
अपनी भावनाओ ं के प्रदशटन का, जशकवे-जशकायत का, प्रेजमका के सौन्द्दयट-दशटन का तजनक भी अवसर न जदया गया।
जदलफ़रे ब ने ज्यों ही यह फ़ै सला सनु ाया, उसके चोबदारों ने गरीब जदलजफ़गार को धक्के देकर बाहर जनकाल जदया।
और आज तीन जदन से यह आफ़त का मारा आदमी उसी कूँ र्ीले पेड़ के नीचे उसी भयानक मैदान में बैठा हुआ सोच
रहा है जक क्या करूूँ। दजु नया की सबसे अनमोल चीज़ मझु को जमलेगी? नाममु जकन! और वह है क्या? कारूूँ का
खजाना? आबे हयात? खसु रो का ताज? जामे-जम? तख्तेताऊस? परवेज़ की दौलत? नहीं, यह चीज़ें हरजगज़ नहीं।
दजु नया में ज़रूर इनसे भी महूँगी, इनसे भी अनमोल चीज़ें मौजदू हैं मगर वह क्या हैं। कहाूँ हैं? कै से जमलेंगी? या खदु ा,
मेरी मजु श्कल क्योंकर आसान होगी?

जदलजफ़गार इन्द्हीं खयालों में चक्कर खा रहा था और अक़्ल कुछ काम न करती थी। मनु ीर शामी को हाजतम-सा
मददगार जमल गया। ऐ काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता, ऐ काश मझु े भी उस चीज़ का जो दजु नया की सबसे
बेशकीमत चीज़ है, नाम बतला जदया जाता! बला से वह चीज़ हाथ न आती मगर मझु े इतना तो मालमू हो जाता जक
वह जकस जकस्म की चीज़ है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता ह।ूँ मैं समन्द्ु दर का गीत, पत्थर का जदल, मौत
की आवाज़ और इनसे भी ज्यादा बेजनशान चीज़ों की तलाश में कमर कस सकता ह।ूँ मगर दजु नया की सबसे अनमोल
चीज़! यह मेरी क्पना की उड़ान से बहुत ऊपर है।

आसमान पर तारे जनकल आये थे। जदलजफ़गार यकायक खदु ा का नाम लेकर उठा और एक तरि को चल खड़ा हुआ।
भख
ू ा-प्यासा, नंगे बदन, थकन से चरू , वह बरसों वीरानों और आबाजदयों की खाक छानता जिरा, तलवे काूँर्ों से
छलनी हो गये, शरीर में हड्जडयाूँ ही हड्जडयाूँ जदखायी देने लगीं मगर वह चीज़ जो दजु नया की सबसे बेश-कीमत चीज़
थी, न जमली और न उसका कुछ जनशान जमला।

एक रोज़ वह भलू ता-भर्कता एक मैदान में जा जनकला, जहाूँ हजारों आदमी गोल बाूँधे खड़े थे। बीच में कई अमामे
और चोगे वाले दजढय़ल काजी अफ़सरी शान से बैठे हुए आपस में कुछ सलाह-मशजवरा कर रहे थे और इस जमात से

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ज़रा दरू पर एक सल ू ी खड़ी थी। जदलजफ़गार कुछ तो कमजोरी की वजह से कुछ यहाूँ की कै जियत देखने के इरादे से
जठठक गया। क्या देखता है, जक कई लोग नंगी तलवारें जलये, एक कै दी को जजसके हाथ-पैर में ज़जं ीरें थीं, पकड़े चले
आ रहे हैं। सल ू ी के पास पहुचूँ कर सब जसपाही रुक गये और कै दी की हथकजडय़ाूँ, बेजडय़ाूँ सब उतार ली गयीं। इस
अभागे आदमी का दामन सैकड़ों बेगनु ाहों के खनू के छींर्ों से रंगीन था, और उसका जदल नेकी के खयाल और रहम
की आवाज़ से ज़रा भी पररजचत न था। उसे काला चोर कहते थे। जसपाजहयों ने उसे सल ू ी के तख़्ते पर खड़ा कर जदया,
मौत की िाूँसी उसकी गदटन में डाल दी और ज्लादों ने तख़्ता खींचने का इरादा जकया जक वह अभागा मजु ररम
चीखकर बोला-खदु ा के वास्ते मझु े एक पल के जलए िाूँसी से उतार दो ताजक अपने जदल की आजखरी आरजू जनकाल
लूँ।ू यह सनु ते ही चारों तरि सन्द्नार्ा छा गया। लोग अचम्भे में आकर ताकने लगे। काजजयों ने एक मरने वाले आदमी
की अंजतम याचना को रद्द करना उजचत न समझा और बदनसीब पापी काला चोर ज़रा देर के जलए िाूँसी से उतार
जलया गया।
इसी भीड़ में एक खबू सरू त भोला-भोला लडका एक छड़ी पर सवार होकर अपने पैरों पर उछल-उछल फ़जी घोड़ा
दौड़ा रहा था, और अपनी सादगी की दजु नया में ऐसा मगन था जक जैसे वह इस वि सचमचु जकसी अरबी घोड़े का
शहसवार है। उसका चेहरा उस सच्ची खश ु ी से कमल की तरह जखला हुआ था जो चन्द्द जदनों के जलए बचपन ही में
हाजसल होती है और जजसकी याद हमको मरते दम तक नहीं भल ू ती। उसका जदल अभी तक पाप की गदट और धल ू से
अछूता था और मासजू मयत उसे अपनी गोद में जखला रही थी।

बदनसीब काला चोर िाूँसी से उतरा। हज़ारों आूँखें उस पर गड़ी हुई थीं। वह उस लड़के के पास आया और उसे गोद में
उठाकर प्यार करने लगा। उसे इस वि वह ज़माना याद आया जब वह खदु ऐसा ही भोला-भाला, ऐसा ही खश ु -व-
खरु ट म और दजु नया की गन्द्दजगयों से ऐसा ही पाक साफ़ था। माूँ गोजदयों में जखलाती थी, बाप बलाएूँ लेता था और सारा
कुनबा जान न्द्योछावर करता था। आह! काले चोर के जदल पर इस वक़्त बीते हुए जदनों की याद का इतना असर हुआ
जक उसकी आूँखों से, जजन्द्होंने दम तोड़ती हुई लाशों को तड़पते देखा और न झपकीं, आूँसू का एक कतरा र्पक पड़ा।
जदलजफ़गार ने लपककर उस अनमोल मोती को हाथ में ले जलया और उसके जदल ने कहा-बेशक यह दजु नया की सबसे
अनमोल चीज़ है जजस पर तख़्ते ताऊस और जामेजम और आबे हयात और ज़रे परवेज़ सब न्द्योछावर हैं।
इस खयाल से खश ु होता कामयाबी की उम्मीद में सरमस्त, जदलजफ़गार अपनी माशूका जदलफ़रे ब के शहर मीनोसवाद
को चला। मगर ज्यो-ज्यों मंजजलें तय होती जाती थीं उसका जदल बैठ जाता था जक कहीं उस चीज़ की, जजसे मैं दजु नया
की सबसे बेशकीमत चीज़ समझता ह,ूँ जदलफ़रे ब की आूँखों में कर न हुई तो मैं िाूँसी पर चढ़ा जदया जाऊूँगा और इस
दजु नया से नामरु ाद जाऊूँगा। लेजकन जो हो सो हो, अब तो जकस्मत-आज़माई है। आजखरकार पहाड़ और दररया तय
करते शहर मीनोसवाद में आ पहुचूँ ा और जदलफ़रे ब की ड्योढ़ी पर जाकर जवनती की जक थकान से र्ूर्ा हुआ
जदलजफ़गार खदु ा के फ़ज़ल से हुक्म की तामील करके आया है, और आपके कदम चमू ना चाहता है। जदलफ़रे ब ने
फ़ौरन अपने सामने बल ु ा भेजा और एक सनु हरे परदे की ओर् से फ़रमाइश की जक वह अनमोल चीज़ पेश करो।
जदलजफ़गार ने आशा और भय की एक जवजचत्र मन:जस्थजत में वह बूँदू पेश की और उसकी सारी कै जफ़यत बहुत
परु असर लफ्ज़ों में बयान की। जदलफ़रे ब ने परू ी कहानी बहुत गौर से सनु ी और वह भेंर् हाथ में लेकर ज़रा देर तक गौर
करने के बाद बोली-जदलजफ़गार, बेशक तनू े दजु नया की एक बेशकीमत चीज़ ढूूँढ़ जनकाली, तेरी जहम्मत और तेरी

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सझू बझू की दाद देती ह!ूँ मगर यह दजु नया की सबसे बेशकीमत चीज़ नहीं, इसजलए तू यहाूँ से जा और जिर कोजशश
कर, शायद अब की तेरे हाथ वह मोती लगे और तेरी जकस्मत में मेरी गल ु ामी जलखी हो। जैसा जक मैंने पहले ही बतला
जदया था मैं तझु े िाूँसी पर चढ़वा सकती हूँ मगर मैं तेरी जाूँबख्शी करती हूँ इसजलए जक तझु में वह गणु मौजदू हैं, जो मैं
अपने प्रेमी में देखना चाहती हूँ और मझु े यकीन है जक तू जरूर कभी-न-कभी कामयाब होगा।
नाकाम और नामरु ाद जदलजफ़गार इस माशक ू ाना इनायत से ज़रा जदलेर होकर बोला-ऐ जदल की रानी, बड़ी मद्दु त के बाद
तेरी ड्योढ़ी पर सजदा करना नसीब होता है। जिर खदु ा जाने ऐसे जदन कब आएूँगे, क्या तू अपने जान देने वाले
आजशक के बरु े हाल पर तरस न खाएगी और क्या अपने रूप की एक झलक जदखाकर इस जलते हुए जदलजफ़गार को
आने वाली सजख़्तयों के झेलने की ताकत न देगी? तेरी एक मस्त जनगाह के नशे से चरू होकर मैं वह कर सकता हूँ जो
आज तक जकसी से न बन पड़ा हो।
जदलफ़रे ब आजशक की यह चाव-भरी बातें सनु कर गस्ु सा हो गयी और हुक्म जदया जक इस दीवाने को खड़े -खड़े दरबार
से जनकाल दो। चोबदार ने फ़ौरन गरीब जदलजफ़गार को धक्के देकर यार के कूचे से बाहर जनकाल जदया।

कुछ देर तक तो जदलजफ़गार अपनी जनष्ठु र प्रेजमका की इस कठोरता पर आूँसू बहाता रहा, और सोचने लगा जक कहाूँ
जाऊूँ। मद्दु तों रास्ते नापने और जंगलों में भर्कने के बाद आूँसू की यह बूँदू जमली थी, अब ऐसी कौन-सी चीज है
जजसकी कीमत इस आबदार मोती से ज्यादा हो। हज़रते जखज्र! तमु ने जसकन्द्दर को आबेहयात के कुएूँ का रास्ता
जदखाया था, क्या मेरी बाूँह न पकड़ोगे? जसकन्द्दर सारी दजु नया का माजलक था। मैं तो एक बेघरबार मसु ाजफ़र ह।ूँ तमु ने
जकतनी ही डूबती जकजश्तयाूँ जकनारे लगायी हैं, मझु गरीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ आलीमक ु ाम जजबरील! कुछ तम्ु ही
इस नीमजान, दख ु ी आजशक पर तरस खाओ। तमु खदु ा के एक खास दरबारी हो, क्या मेरी मजु श्कल आसान न करोगे!
गरज़ यह जक जदलजफ़गार ने बहुत फ़ररयाद मचायी मगर उसका हाथ पकडऩे के जलए कोई सामने न आया। आजखर
जनराश होकर वह पागलों की तरह दबु ारा एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ।
जदलजफ़गार ने परू ब से पजच्छम तक और उत्तर से दजक्खन तक जकतने ही जगं लों और वीरानों की खाक छानी, कभी
बजफ़ट स्तानी चोजर्यों पर सोया, कभी डरावनी घाजर्यों में भर्कता जिरा मगर जजस चीज़ की धनु थी वह न जमली, यहाूँ
तक जक उसका शरीर हड्जडयों का एक ढाूँचा रह गया।
एक रोज वह शाम के वि जकसी नदी के जकनारे खस्ताहाल पड़ा हुआ था। बेखदु ी के नशे से चौंका तो क्या देखता है
जक चन्द्दन की एक जचता बनी हुई है और उस पर एक यवु ती सहु ाग के जोड़े पहने सोलहों जसंगार जकये बैठी हुई है।
उसकी जाूँघ पर उसके प्यारे पजत का सर है। हज़ारों आदमी गोल बाूँधे खड़े हैं और िूलों की बरखा कर रहे हैं।
यकायक जचता में से खदु -ब-खदु एक लपर् उठी। सती का चेहरा उस वि एक पजवत्र भाव से आलोजकत हो रहा था।
जचता की पजवत्र लपर्ें उसके गले से जलपर् गयीं और दम-के -दम में वह िूल-सा शरीर राख का ढेर हो गया। प्रेजमका ने
अपने को प्रेमी पर न्द्योछावर कर जदया और दो प्रेजमयों के सच्चे, पजवत्र, अमर प्रेम की अजन्द्तम लीला आूँख से ओझल
हो गयी। जब सब लोग अपने घरों को लौर्े तो जदलजफ़गार चपु के से उठा और अपने चाक-दामन कुरते में यह राख का
ढेर समेर् जलया और इस मट्ठु ी भर राख को दजु नया की सबसे अनमोल चीज़ समझता हुआ, सिलता के नशे में चरू , यार
के कूचे की तरि चला। अबकी ज्यों-ज्यों वह अपनी मंजजल के करीब आता था, उसकी जहम्मतें बढ़ती जाती थीं। कोई

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उसके जदल में बैठा हुआ कह रहा था-अबकी तेरी जीत है और इस खयाल ने उसके जदल को जो-जो सपने जदखाए
उनकी चचाट व्यथट है। आजखकार वह शहर मीनोसवाद में दाजखल हुआ और जदलफ़रे ब की ऊूँची ड्योढ़ी पर जाकर
खबर दी जक जदलजफ़गार सख ु ट-रू होकर लौर्ा है और हुजरू के सामने आना चाहता है। जदलफ़रे ब ने जाूँबाज़ आजशक
को फ़ौरन दरबार में बल ु ाया और उस चीज के जलए, जो दजु नया की सबसे बेशकीमत चीज़ थी, हाथ िै ला जदया।
जदलजफ़गार ने जहम्मत करके उसकी चाूँदी जैसी कलाई को चमू जलया और मिु ी भर राख को उसकी हथेली में रखकर
सारी कै जफ़यत जदल को जपघला देने वाले लफ़्जों में कह सनु ायी और सन्द्ु दर प्रेजमका के होठों से अपनी जकस्मत का
मबु ारक फ़ै सला सनु ने के जलए इन्द्तज़ार करने लगा। जदलफ़रे ब ने उस मिु ी भर राख को आूँखों से लगा जलया और कुछ
देर तक जवचारों के सागर में डूबे रहने के बाद बोली-ऐ जान जनछावर करने वाले आजशक जदलजफ़गार! बेशक यह राख
जो तू लाया है, जजसमें लोहे को सोना कर देने की जसफ़त है, दजु नया की बहुत बेशकीमत चीज़ है और मैं सच्चे जदल से
तेरी एहसानमन्द्द हूँ जक तनू े ऐसी अनमोल भेंर् मझु े दी। मगर दजु नया में इससे भी ज्यादा अनमोल कोई चीज़ है, जा उसे
तलाश कर और तब मेरे पास आ। मैं तहेजदल से दआ ु करती हूँ जक खदु ा तझु े कामयाब करे । यह कहकर वह सनु हरे
परदे से बाहर आयी और माशक ू ाना अदा से अपने रूप का जलवा जदखाकर जिर नजरों से ओझल हो गयी। एक
जबजली थी जक कौंधी और जिर बादलों के परदे में जछप गयी। अभी जदलजफ़गार के होश-हवास जठकाने पर न आने
पाये थे जक चोबदार ने मल ु ायजमयत से उसका हाथ पकडकर यार के कूचे से उसको जनकाल जदया और जिर तीसरी बार
वह प्रेम का पजु ारी जनराशा के अथाह समन्द्ु दर में गोता खाने लगा।
जदलजफ़गार का जहयाव छूर् गया। उसे यकीन हो गया जक मैं दजु नया में इसी तरह नाशाद और नामरु ाद मर जाने के जलए
पैदा जकया गया था और अब इसके जसवा और कोई चारा नहीं जक जकसी पहाड़ पर चढकर नीचे कूद पड़ूँ , ताजक
माशक ू के ज्ु मों की फ़ररयाद करने के जलए एक हड्डी भी बाकी न रहे। वह दीवाने की तरह उठा और जगरता-पड़ता
एक गगनचम्ु बी पहाड़ की चोर्ी पर जा पहुचूँ ा। जकसी और समय वह ऐसे ऊूँचे पहाड़ पर चढऩे का साहस न कर
सकता था मगर इस वक़्त जान देने के जोश में उसे वह पहाड़ एक मामल ू ी र्ेकरी से ज्यादा ऊूँचा न नजर आया। करीब
था जक वह नीचे कूद पड़े जक हरे -हरे कपड़े पहने हुए और हरा अमामा बाूँधे एक बजु गु ट एक हाथ में तसबीह और दसू रे
हाथ में लाठी जलये बरामद हुए और जहम्मत बढ़ाने वाले स्वर में बोले-जदलजफ़गार, नादान जदलजफ़गार, यह क्या
बज़ु जदलों जैसी हरकत है! तू महु ब्बत का दावा करता है और तझु े इतनी भी खबर नहीं जक मजबतू इरादा महु ब्बत के
रास्ते की पहली मंजज़ल है? मदट बन और यों जहम्मत न हार। परू ब की तरफ़ एक देश है जजसका नाम जहन्द्दोस्तान है, वहाूँ
जा और तेरी आरजू परू ी होगी।
यह कहकर हज़रते जखज्र गायब हो गये। जदलजफ़गार ने शजु क्रये की नमाज अदा की और ताज़ा हौसले, ताज़ा जोश और
अलौजकक सहायता का सहारा पाकर खश ु -खश
ु पहाड़ से उतरा और जहन्द्दोस्तान की तरि चल पड़ा।
मद्दु तों तक काूँर्ों से भरे हुए जंगलों, आग बरसाने वाले रे जगस्तानों, कजठन घाजर्यों और अलंघ्य पवटतों को तय करने के
बाद जदलजफ़गार जहन्द्द की पाक सरज़मीन में दाजखल हुआ और एक ठण्डे पानी के सोते में सफ़र की तकलीिें धोकर
थकान के मारे नदी के जकनारे लेर् गया। शाम होते-होते वह एक चजर्यल मैदान में पहुचूँ ा जहाूँ बेशमु ार अधमरी और
बेजान लाशें जबना कफ़न के पड़ी हुई थीं। चील-कौए और वहशी दररन्द्दे मरे पड़े हुए थे और सारा मैदान खनू से लाल
हो रहा था। यह डरावना दृश्य देखते ही जदलजफ़गार का जी दहल गया। या खदु ा, जकस मसु ीबत में जान िूँ सी, मरने
वालों का कराहना, जससकना और एजडय़ाूँ रगडकर जान देना, दररन्द्दों का हड्जडयों को नोचना और गोश्त के लोथड़ों

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को लेकर भागना, ऐसा हौलनाक सीन जदलजफ़गार ने कभी न देखा था। यकायक उसे ख्याल आया, यह लड़ाई का
मैदान है और यह लाशें सरू मा जसपाजहयों की हैं। इतने में करीब से कराहने की आवाज़ आयी। जदलजफ़गार उस तरफ़
जिरा तो देखा जक एक लम्बा-तड़ंगा आदमी, जजसका मदाटना चेहरा जान जनकालने की कमज़ोरी से पीला हो गया है,
ज़मीन पर सर झक ु ाये पड़ा हुआ है। सीने से खनू का िौव्वारा जारी है, मगर आबदार तलवार की मठू पंजे से अलग
नहीं हुई। जदलजफ़गार ने एक चीथड़ा लेकर घाव के मूँहु पर रख जदया ताजक खनू रुक जाए और बोला-ऐ जवाूँमदट, तू
कौन है? जवाूँमदट ने यह सनु कर आूँखें खोलीं और वीरों की तरह बोला-क्या तू नहीं जानता मैं कौन ह,ूँ क्या तनू े आज
इस तलवार की कार् नहीं देखी? मैं अपनी माूँ का बेर्ा और भारत का सपतू ह।ूँ यह कहते-कहते उसकी त्योररयों पर
बल पड़ गये। पीला चेहरा गस्ु से से लाल हो गया और आबदार शमशीर जिर अपना जौहर जदखाने के जलए चमक
उठी। जदलजफ़गार समझ गया जक यह इस वि मझु े दश्ु मन समझ रहा है, नरमी से बोला-ऐ जवाूँमदट, मैं तेरा दश्ु मन नहीं
ह।ूँ अपने वतन से जनकला हुआ एक गरीब मसु ाजफ़र ह।ूँ इधर भल ू ता-भर्कता आ जनकला। बराय मेहरबानी मझु से यहाूँ
की कुल कै जफ़यत बयान कर।
यह सनु ते ही घायल जसपाही बहुत मीठे स्वर में बोला-अगर तू मसु ाजफ़र है तो आ मेरे खनू से तर पहलू में बैठ जा
क्योंजक यही दो अंगलु ज़मीन है जो मेरे पास बाकी रह गयी है और जो जसवाय मौत के कोई नहीं छीन सकता।
अफ़सोस है जक तू यहाूँ ऐसे वक़्त में आया जब हम तेरा आजतथ्य-सत्कार करने के योग्य नहीं। हमारे बाप-दादा का देश
आज हमारे हाथ से जनकल गया और इस वि हम बेवतन हैं। मगर (पहलू बदलकर) हमने हमलावर दश्ु मन को बता
जदया जक राजपतू अपने देश के जलए कै सी बहादरु ी से जान देता है। यह आस-पास जो लाशें तू देख रहा है, यह उन
लोगों की है, जो इस तलवार के घार् उतरे हैं। (मस्ु कराकर) और गोया जक मैं बेवतन ह,ूँ मगर गनीमत है जक दश्ु मन की
ज़मीन पर मर रहा ह।ूँ (सीने के घाव से चीथड़ा जनकालकर) क्या तूने यह मरहम रख जदया? खनू जनकलने दे, इसे रोकने
से क्या फ़ायदा? क्या मैं अपने ही देश में गल
ु ामी करने के जलए जज़न्द्दा रह?ूँ नहीं, ऐसी जज़न्द्दगी से मर जाना अच्छा।
इससे अच्छी मौत ममु जकन नहीं।
जवाूँमदट की आवाज़ मजद्धम हो गयी, अंग ढीले पड़ गये, खनू इतना ज्यादा बहा जक खदु -ब-खदु बन्द्द हो गया, रह-
रहकर एकाध बूँदू र्पक पड़ता था। आजखरकार सारा शरीर बेदम हो गया, जदल की हरकत बन्द्द हो गयी और आूँखें मूँदु
गयीं। जदलजफ़गार ने समझा अब काम तमाम हो गया जक मरने वाले ने धीमे से कहा-भारतमाता की जय! और उसके
सीने से खनू का आजखरी कतरा जनकल पड़ा। एक सच्चे देशप्रेमी और देशभि ने देशभजि का हक अदा कर जदया।
जदलजफ़गार पर इस दृश्य का बहुत गहरा असर पड़ा और उसके जदल ने कहा, बेशक दजु नया में खनू के इस कतरे से
ज़्यादा अनमोल चीज कोई नहीं हो सकती। उसने फ़ौरन उस खनू की बूँदू को जजसके आगे यमन का लाल भी हेच है,
हाथ में ले जलया और इस जदलेर राजपतू की बहादरु ी पर हैरत करता हुआ अपने वतन की तरफ़ रवाना हुआ और
सजख्तयाूँ झेलता आजखरकार बहुत जदनों के बाद रूप की रानी मलका जदलफ़रे ब की ड्योढ़ी पर जा पहुचूँ ा और पैगाम
जदया जक जदलजफ़गार सख ु टरू और कामयाब होकर लौर्ा है और दरबार में हाजज़र होना चाहता है। जदलफ़रे ब ने उसे
फ़ौरन हाजज़र होने का हुक्म जदया। खुद हस्बे मामल
ू सनु हरे परदे की ओर् में बैठी और बोली-जदलजफ़गार, अबकी तू
बहुत जदनों के बाद वापस आया है। ला, दजु नया की सबसे बेशकीमत चीज कहाूँ है?
जदलजफ़गार ने मेंहदी-रची हथेजलयों को चमू ते हुए खून का वह कतरा उस पर रख जदया और उसकी परू ी कै जफ़यत
परु जोश लहजे में कह सनु ायी। वह खामोश भी न होने पाया था जक यकायक वह सनु हरा परदा हर् गया और

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जदलजफ़गार के सामने हुस्न का एक दरबार सजा हुआ नज़र आया जजसकी एक-एक नाज़नीन जल ु ेखा से बढकर थी।
जदलफ़रे ब बड़ी शान के साथ सनु हरी मसनद पर सश ु ोजभत हो रही थी। जदलजफ़गार हुस्न का यह जतलस्म देखकर
अचम्भे में पड़ गया और जचत्रजलजखत-सा खड़ा रहा जक जदलफ़रे ब मसनद से उठी और कई कदम आगे बढकर उससे
जलपर् गयी। गानेवाजलयों ने खशु ी के गाने शरू
ु जकये, दरबाररयों ने जदलजफ़गार को नज़रें भेंर् कीं और चाूँद-सरू ज को
बड़ी इज्जत के साथ मसनद पर बैठा जदया। जब वह लभु ावना गीत बन्द्द हुआ तो जदलफ़रे ब खड़ी हो गयी और हाथ
जोडकर जदलजफ़गार से बोली-ऐ जाूँजनसार आजशक जदलजफ़गार! मेरी दआ ु एूँ बर आयीं और खदु ा ने मेरी सनु ली और
तझु े कामयाब व सखु टरू जकया। आज से तू मेरा माजलक है और मैं तेरी लौंडी!
यह कहकर उसने एक रत्नजजर्त मंजिू ा मूँगायी और उसमें से एक तख्ती जनकाली जजस पर सनु हरे अक्षरों में जलखा
हुआ था-
‘खनू का वह आजखरी कतरा जो वतन की जहफ़ाजत में जगरे दजु नया की सबसे अनमोल चीज़ है।’

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अिना-अिना भाग्य
जैनेंर कुमार
बहुत कुछ जनरुद्देश्य घमू चक
ु ने पर हम सड़क के जकनारे की एक बेंच पर बैठ गए। नैनीताल की संध्या धीरे -धीरे उतर
रही थी। रूई के रे शे-से भाप-से बादल हमारे जसरों को छू-छूकर बेरोक-र्ोक घमू रहे थे। ह्के प्रकाश और अंजधयारी से
रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सिे द और जिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।
पीछे हमारे पोलो वाला मैदान िै ला था। सामने अग्रं ेजों का एक प्रमोदगृह था, जहां सहु ावना, रसीला बाजा बज रहा था
और पाश्वट में था वही सरु म्य अनपु म नैनीताल।
ताल में जकजश्तयां अपने सिे द पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज याजत्रयों को लेकर, इधर से उधर और उधर से इधर खेल
रही थीं। कहीं कुछ अग्रं ेज एक-एक देवी सामने प्रजतस्थाजपत कर, अपनी सईु -सी शक्ल की डोंजगयों को, मानो शतट
बांधकर सरपर् दौड़ा रहे थे। कहीं जकनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैयट, एकाग्र, एकस्थ, एकजनष्ठ मछली-
जचन्द्तन कर रहे थे। पीछे पोलो-लान में बच्चे जकलकाररयां मारते हुए हॉकी खेल रहे थे।
शोर, मार-पीर् गाली-गलौच भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक
अपना सारा मन, सारी देह, समग्र बल और समचू ी जवधा लगाकर मानो खत्म कर देना चाहते थे। उन्द्हें आगे की जचन्द्ता
न थी, बीते का ख्याल न था। वे शद्ध
ु तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की सम्पणू ट सच्चाई के साथ जीजवत थे।
सड़क पर से नर-नाररयों का अजवरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहां जा
रहा था, और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है? सब उम्र के , सब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनष्ु यता के
नमनू ों का बाजार सजकर सामने से इठलाता जनकला चला जा रहा हो।
अजधकार-गवट में तने अंग्रेज उसमें थे और जचथड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे वे पहाड़ी उसमें थे, जजन्द्होंने अपनी
प्रजतष्ठा और सम्मान को कुचलकर शन्द्ू य बना जलया है और जो बड़ी तत्परता से दमु जहलाना सीख गए हैं।
भागते, खेलते, हसं ते, शरारत करते लाल-लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आंखें िाड़े, जपता की उंगली
पकड़कर चलते हुए अपने जहन्द्दस्ु तानी नौजनहाल भी थे। अग्रं ेज जपता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हसं रहे
थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय जपतृदवे भी थे, जो बजु गु ी को अपने चारों तरि लपेर्े धन-संपन्द्नता के लक्षणों का
प्रदटशन करते हुए चल रहे थे।
अग्रं ेज रमजणयां थीं, जो धीरे -धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थीं। उन्द्हें न चलने में थकावर् आती थी, न हसं ने में मौत
आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ सकती थीं और घोड़े के साथ ही साथ , जरा जी होते ही जकसी-जकसी
जहन्द्दस्ु तानी पर कोड़े भी िर्कार सकती थीं। वे दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की र्ोजलयों में, जन:शक ं , जनरापद इस प्रवाह
में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर चली जा रही थीं।
उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के जब्कुल जकनारे दामन बचाती और संभालती हुई, साड़ी की कई तहों में
जसमर्-जसमर्कर, लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गररमा के आदशट को अपने पररवेिनों में जछपाकर सहमी-सहमी
धरती में आंख गाड़े, कदम-कदम बढ़ रही थीं।

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इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमनू ा था। अपने कालेपन को खुरच-खरु चकर बहा देने की इच्छा करनेवाला
अग्रं ेजीदां परुु िोत्तम भी थे, जो नेजर्वों को देखकर महंु िे र लेते थे और अग्रं ेज को देखकर आख
ं े जबछा देते थे और दमु
जहलाने लगते थे। वैसे वे अकड़कर चलते थे-मानो भारतभजू म को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्द्हें
अजधकार जमला है।
घण्र्े के घण्र्े सरक गए। अधं कार गाढ़ा हो गया। बादल सिे द होकर जम गए। मनष्ु यों का वह तातं ा एक-एक कर क्षीण
हो गया। अब इक्का-दक्ु का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर जनकल रहा था। हम वहीं के वहीं बैठे थे। सदी-सी मालमू
हुई। हमारे ओवरकोर् भीग गए थे। पीछे जिरकर देखा। यह लाल बिट की चादर की तरह जब्कुल स्तब्ध और सन्द्ु न
पड़ा था।
सब सन्द्नार्ा था। त्लीलाल की जबजली की रोशजनयां दीप-माजलका-सी जगमगा रही थीं। वह जगमगाहर् दो मील
तक िै ले हुए प्रकृ जत के जलदपटण पर प्रजतजबजम्बत हो रही थी और दपटण का कापं ता हुआ, लहरें लेता हुआ, वह जल
प्रजतजबम्बों को सौगनु ा, हजारगनु ा करके , उनके प्रकाश को मानो एकत्र और पंजू ीभतू करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों
के जसर पर की रोशनाईयां तारों-सी जान पड़ती थीं।
हमारे देखते-देखते एक घने पदे ने आकर इन सबको ढक जदया। रोशजनयां मानो मर गई।ं जगमगाहर् लप्तु हो गई।ं वे
काले-काले भतू -से पहाड़ भी इस सिे द पदे के पीछे जछप गए। पास की वस्तु भी न दीखने लगी। मानो यह घनीभतू
प्रलय था। सब कुछ इस घनी गहरी सिे दी में दब गया। एक शभ्रु महासागर ने िै लकर सस्ं कृ जत के सारे अजस्तत्व को
डुबो जदया। ऊपर-नीचे, चारों तरि वह जनभेद्य, सिे द शन्द्ू यता ही िै ली हुई थी।
ऐसा घना कुहरा हमने कभी न देखा था। वह र्प-र्प र्पक रहा था। मागट अब जब्कुल जनजटन-चपु था। वह प्रवाह न
जाने जकन घोंसलों में जा जछपा था। उस वृहदाकार शभ्रु शन्द्ू य में कहीं से, ग्यारह बार र्न-र्न हो उठा। जैसे कहीं दरू कब्र
में से आवाज आ रही हो। हम अपने-अपने होर्लों के जलए चल जदए। रास्ते में दो जमत्रों का होर्ल जमला। दोनों वकील
जमत्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों आगे बढ़े। हमारा होर्ल आगे था।
ताल के जकनारे -जकनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोर् तर हो गए थे। बाररश नहीं मालमू होती थी, पर वहां तो
ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बाररश थी। सदी इतनी थी जक सोचा, कोर् पर एक कम्बल और होता तो अच्छा होता।
रास्ते में ताल के जबलकुल जकनारे पर बेंच पड़ी थी। मैं जी में बेचैन हो रहा था। झर्पर् होर्ल पहुचं कर इन भीगे कपड़ों
से छुट्टी पा, गरम जबस्तर में जछपकर सोना चाहता था पर साथ के जमत्रों की सनक कब उठे गी, कब थमेगी-इसका पता न
था। और वह कै सी क्या होगी-इसका भी कुछ अन्द्दाज न था। उन्द्होंने कहा-”आओ, जरा यहां बैठें।”
हम उस चतू े कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के जकनारे उस भीगी बिट -सी ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ
गए।
पांच, दस, पन्द्रह जमनर् हो गए। जमत्र के उठने का इरादा न मालमू हुआ। मैंने जखजसयाकर कहा-
”चजलए भी।”
”अरे जरा बैठो भी।”

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हाथ पकड़कर जरा बैठने के जलए जब इस जोर से बैठा जलया गया तो और चारा न रहा- लाचार बैठे रहना पड़ा। सनक
से छुर्कारा आसान न था, और यह जरा बैठना जरा न था, बहुत था।
चपु चाप बैठे तंग हो रहा था, कुढ़ रहा था जक जमत्र अचानक बोले-
”देखो… वह क्या है?”
मैंने देखा-कुहरे की सिे दी में कुछ ही हाथ दरू से एक काली-सी सरू त हमारी तरि बढ़ी आ रही थी। मैंने कहा- ”होगा
कोई।”
तीन गज की दरू ी से दीख पड़ा, एक लड़का जसर के बड़े-बड़े बालों को खजु लाता चला आ रहा है। नगं े पैर है, नगं ा
जसर। एक मैली-सी कमीज लर्काए है। पैर उसके न जाने कहां पड़ रहे हैं, और वह न जाने कहां जा रहा है- कहां जाना
चाहता है। उसके कदमों में जैसे कोई न अगला है, न जपछला है, न दायां है, न बायां है।
पास ही चगंु ी की लालर्ेन के छोर्े-से प्रकाशवृत्त में देखा-कोई दस बरस का होगा। गोरे रंग का है, पर मैल से काला पड़
गया है। आंखें अच्छी बड़ी पर रूखी हैं। माथा जैसे अभी से झरु रट यां खा गया है। वह हमें न देख पाया। वह जैसे कुछ भी
नहीं देख रहा था। न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरि िै ला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाकी दजु नया।
वह बस, अपने जवकर् वतटमान को देख रहा था।
जमत्र ने आवाज दी-”ए!”
उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।
”तू कहां जा रहा है?”
उसने अपनी सनू ी आख
ं ें िाड़ दीं।
”दजु नया सो गई, तू ही क्यों घमू रहा है?”
बालक मौन-मक
ू , जिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा रहा।
”कहां सोएगा?”
”यहीं कहीं।”
”कल कहां सोया था?”
”दक
ु ान पर।”
”आज वहां क्यों नहीं?”
”नौकरी से हर्ा जदया।”
”क्या नौकरी थी?”
”सब काम। एक रुपया और जठू ा खाना!”

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”जिर नौकरी करे गा?”
”हा।ं ”
”बाहर चलेगा?”
”हां।”
”आज क्या खाना खाया?”
”कुछ नहीं।”
”अब खाना जमलेगा?”
”नहीं जमलेगा!”
‘यों ही सो जाएगा?”
”हा।ं ”
”कहां।”
”यहीं कहीं।”
”इन्द्हीं कपड़ों में?”
बालक जिर आंखों से बोलकर मक
ू खड़ा रहा। आंखें मानो बोलती थीं-यह भी कै सा मख
ू ट प्रश्न!
”मा-ं बाप हैं?”
”हैं।”
”कहां?”
”पन्द्रह कोस दरू गांव में।”
”तू भाग आया?”
”हा!ं ”
”क्यों?”
”मेरे कई छोर्े भाई-बजहन हैं-सो भाग आया वहां काम नहीं, रोर्ी नहीं। बाप भख
ू ा रहता था और मारता था मां भख
ू ी
रहती थी और रोती थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गांव का। मझु से बड़ा था। दोनों साथ यहां आए। वह
अब नहीं हैं।,
”कहां गया?”
”मर गया।”

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”मर गया।”
”मर गया?”
”हां, साहब ने मारा, मर गया।”
”अच्छा, हमारे साथ चल।”
वह साथ चल जदया। लौर्कर हम वकील दोस्तों के होर्ल में पहुचं े।
”वकील साहब!”
वकील लोग होर्ल के ऊपर के कमरे से उतरकर आए। कश्मीरी दोशाला लेपेर्े थे , मोजे-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में
ह्की-सी झंझु लाहर् थी, कुछ लापरवाही थी।
”आ-हा जिर आप! कजहए।”
”आपको नौकर की जरूरत थी न? देजखए, यह लड़का है।”
”कहां से ले आए? इसे आप जानते हैं?”
”जानता ह-ं यह बेईमान नहीं हो सकता।”
”अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गल
ु जछपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से-लो
जी, यह नौकर लो।”
”माजनए तो, यह लड़का अच्छा जनकलेगा।”
”आप भी… जी, बस खबू है। ऐरे -गैरे को नौकर बना जलया जाए, अगले जदन वह न जाने क्या-क्या लेकर चम्पत हो
जाए!”
”आप मानते ही नहीं, मैं क्या करूं?’
”मानें क्या, खाक? आप भी… जी अच्छा मजाक करते हैं।… अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।” और वे चार रुपये रोज
के जकराये वाले कमरे में सजी मसहरी पर सोने झर्पर् चले गए।
वकील साहब के चले जाने पर, होर्ल के बाहर आकर जमत्र ने अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ र्र्ोला। पर झर् कुछ
जनराश भाव से हाथ बाहर कर मेरी ओर देखने लगे।
”क्या है?”
”इसे खाने के जलए कुछ-देना चाहता था” अंग्रेजी में जमत्र ने कहा-”मगर, दस-दस के नोर् हैं।”
”नोर् ही शायद मेरे पास हैं, देखं?ू ”
सचमचु मेरे पाजकर् में भी नोर् ही थे। हम जिर अंग्रेजी में बोलने लगे। लड़के के दांत बीच-बीच में कर्कर्ा उठते थे।
कड़ाके की सदी थी।

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जमत्र ने पछू ा-”तब?”
मैंने कहा-”दस का नोर् ही दे दो।” सकपकाकर जमत्र मेरा महंु देखने लगे-”अरे यार! बजर् जबगड़ जाएगा। हृदय में
जजतनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।”
”तो जाने दो, यह दया ही इस जमाने में बहुत है।” मैंने कहा। जमत्र चपु रहे। जैसे कुछ सोचते रहे। जिर लड़के से बोले-
”अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कल जमलना। वह ‘होर्ल डी पब’ जानता है? वहीं कल दस बजे जमलेगा?”
”हां, कुछ काम देंगे हुजरू ?”
”हा,ं हा,ं ढूढं दगंू ा।”
”तो जाऊं?”
”हां,” ठंडी सांस खींचकर जमत्र ने कहा-”कहां सोएगा?”
”यहीं कहीं बेंच पर, पेड़ के नीचे जकसी दक
ु ान की भट्ठी में।”
बालक जिर उसी प्रेत-गजत से एक ओर बढ़ा और कुहरे में जमल गया। हम भी होर्ल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी-
हमारे कोर्ों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।
जसकुड़ते हुए जमत्र ने कहा-”भयानक शीत है। उसके पास कम-बहुत कम
कपड़े…”
”यह सस
ं ार है यार!” मैंने स्वाथट की जिलासिी सनु ाई-”चलो, पहले जबस्तर में गमट हो लो, जिर जकसी और की जचन्द्ता
करना।”
उदास होकर जमत्र ने कहा-”स्वाथट!-जो कहो, लाचारी कहो, जनष्ठु रता कहो, या बेहयाई!”
दसू रे जदन नैनीताल- स्वगट के जकसी काले गल
ु ाम पशु के दल
ु ारे का वह बेर्ा- वह बालक, जनजश्चत समय पर हमारे
‘होर्ल डी पब’ में नहीं आया। हम अपनी नैनीताल की सैर खश ु ी-खश
ु ी खत्म कर चलने को हुए। उस लड़के की आस
लगाते बैठे रहने की जरूरत हमने न समझी।
मोर्र में सवार होते ही थे जक यह समाचार जमला जक जपछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के जकनारे , पेड़ के नीचे,
जठठुरकर मर गया!
मरने के जलए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले जचथड़ों की कमीज जमली। आदजमयों की दजु नया ने
बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।
पर बताने वालों ने बताया जक गरीब के महंु पर, छाती मट्ठु ी और पैरों पर बरि की ह्की-सी चादर जचपक गई थी।
मानो दजु नया की बेहयाई ढकने के जलए प्रकृ जत ने शव के जलए सिे द और ठण्डे किन का प्रबन्द्ध कर जदया था।
सब सनु ा और सोचा, अपना-अपना भाग्य।
****

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रािी
सभु राकुमारी चौहान
-तेरा नाम क्या है ?
- राही ।
- तझ
ु े जकस अपराध में सज़ा हुई ?
- चोरी की थी, सरकार ।
- चोरी ?क्या चरु ाया था ?
- नाज की गठरी ।
- जकतना नाज था ?
- होगा पाूँच-छः सेर ।
- और सज़ा जकतने जदन की है ?
- साल भर की ।
- तो तनू े चोरी क्यों की ?मज़दरू ी करती तब भी तो जदन भर में तीन-चार आने पैसे जमल जाते ।
- हमें मज़दरू ी नहीं जमलती सरकार । हमारी जाजत माूँगरोरी है । हम के वल माूँगते-खाते हैं ।
- और भीख न जमले तो ?
- तो जिर चोरी करते हैं । उस जदन घर में खाने को नहीं था । बच्चे भख
ू से तड़प रहे थे ।बाजार में बहुत देर तक माूँगा ।
बोझा ढोने के जलए र्ोकरा लेकर भी बैठी रही । पर कुछ न जमला । सामने जकसीका बच्चा रो रहा था, उसे देखकर मझु े
अपने भखू े बच्चों की याद आ गई । वहीं पर जकसी की नाज की गठरी रखी हुई थी । उसे लेकर भागी ही थी जक
पजु लसवाले ने पकड़ जलया ।
अजनता ने एक ठंडी साूँस ली । बोली - जिर तनू े कहा नहीं जक बच्चे भख
ू े थे , इसजलए चोरी की । संभव है इस बात से
मजजस्ट्ेर् कम सज़ा देता ।
- हम गरीबों की कोई नहीं सनु ता, सरकार ! बच्चे आये थे कचहरी में । मैंने सब-कुछ कहा , पर जकसी ने नहीं सनु ा ।
राही ने कहा ।
- अब तेरे बच्चे जकसके पास हैं ?उनका बाप है ? अजनता ने पछ
ू ा।
राही की आूँखों में आूँसू आ गए । वह बोली उनका बाप मर गया, सरकार !

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जेल में उसे मारा था और वहीं अस्पताल में वह मर गया । अब बच्चों का कोई नहीं है ।
“तो तेरे बच्चों का बाप भी जेल में ही मरा । वह क्यों जेल आया था ?” अजनता ने प्रश्न जकया ।
- उसे तो जबना कसरू के ही पकड़ जलया था ,सरकार , राही ने कहा - ताड़ी पीने को गया था । दो-चार दोस्त भाई उसके
साथ थे । मेरे घरवाले का एक वि पजु लसवाले से झगड़ा हो गया था , उसी का बदला उसने जलया । 109 में उसका
चालान करके साल भर की सज़ा जदला दी । वहीं वह मर गया ।
अनीता ने एक दीधट जनःश्वास के साथ कहा अच्छा जा, अपना काम कर । राही चली गई ।
अनीता सत्याग्रह करके जेल आई थी । पजहले उसे ‘बी’क्लास जदया था जिर उसके घरवालों ने जलखा-पढ़ी करके उसे
‘ए’क्लास जदलवा जदया ।
अनीता के सामने आज एक प्रश्न था । वह सोच रही थी, जक देश की दरररता और इन जनरीह गरीबों के किों को दरू
करने का कोई उपाय नहीं है ? हम सभी परमात्मा की सतं ान हैं । एक ही देश के जनवासी । कम-से-कम हम सबको खाने
पजहनने का समान अजधकार है ही ? जिर यह क्या बात है जक कुछ लोग तो बहुत आराम से रहते हैं और कुछ लोग पेर्
के अन्द्न के जलए चोरी करते हैं ? उसके बाद जवचारक की अदरू दजशटता के कारण या सरकारी वकील के चातयु टपणू ट
जजरह के कारण छोर्े - छोर्े बच्चों की मातायें जेल भेज दी जाती हैं । उनके बच्चें भख
ू ों मरने के जलए छोड़ जदये जाते
हैं । एक ओर तो यह कै दी है , जो जेल आकर सचमचु जेल जीवन के कि उठाती है, और दसू री ओर हैं हम लोग जो
अपनी देशभजि और त्याग का जढढं ोरा पीर्ते हुए जेल आते हैं । हमें आमतौर से दसू रे कै जदयों के मक ु ाजबले में अच्छा
बरताव जमलता है जिरभी हमें संतोि नहीं होता । हम जेल आकर ‘ए’और ‘बी’क्लास के जलए झगड़ते हैं । जेल आकर
ही हम कौन-सा बड़ा त्याग कर देते हैं ? जेल में हमें कौन-सा कि रहता है ? जसवा इसके जक हमारे माथे पर नेतत्ृ व की
सील लग जाती है । हम बड़े अजभमान से कहते हैं, ‘यह हमारी चौथी जेल यात्रा है ‘यह हमारी पांचवीं जेल यात्रा
है,’और अपनी जेल यात्रा के जकस्से बार-बार सनु ा-सनु ाकर आत्मगौरव अनभु व करते हैं ; तातपयट यह जक हम जजतने
बार जेल जा चक ु े होते हैं उतनी ही सीढ़ी हम देशभजि और त्याग से दसू रों से ऊपर उठ जाते हैं और इसके बल पर
जेल से छूर्ने के बाद, कांग्रेस को राजकीय सत्ता जमलते ही, हम जमजनस्र्र, स्थाजनक संस्थाओ ं के मेम्बर और क्या क्या
हो जाते हैं ।
अनीता सोच रही थी - कल तक जो खद्दर भी न पजहनते थे, बात-बात पर कांग्रेस का मजाक उड़ाते थे, कांग्रेस के हाथों
में थोड़ी शजि आते ही वे कांग्रेस भि बन गए । खद्दर पजहनने लगे । यहाूँ तक जक जेल में भी जदखाई पड़ने लगे ।
वास्तव में यह देशभजि है या सत्ताभजि !
अनीता के जवचारों का ताूँता लगा हुआ था । वह दाशटजनक हो रही थी । उसे अनभु व हुआ जैसे कोई भीतर-ही-भीतर
उसे कार् रहा हो । अनीता की जवचारावजल अनीता को ही खाये जा रही थी । उसी बार-बार यह लग रहा था जक
उसकी देशभजि सच्ची देशभजि नहीं वरन् मज़ाक है । उसे आत्मग्लाजन हुई और साथ-ही-साथ आत्मानभु जू त भी ।
अनीता की आत्मा बोल उठी - वास्तव में सच्ची देशभजि तो इन गरीबों के कि- जनवारण में है । ये कोई दसू रे नहीं,
हमारी ही भारतमाता की सतं ानें हैं । इन हज़ारों, लाखों भख
ू े-नगं े भाई-बजहनों की यजद हम कुछ भी सेवा कर सकें , थोड़ा
भी कि-जनवारण कर सकें तो सचमचु हमने अपने देश की कुछ सेवा की । हमारा वास्तजवक देश तो देहातों में ही है ।

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जकसानों की ददु श ट ा से हम सभी थोड़े-बहुत पररजचत हैं, पर इन गरीबों के पास न घर है , न द्वार । अजशक्षा और अज्ञान
का इतना गहरा पदाट इनकी आूँखों पर है जक होश सूँभालते ही माता पत्रु ी को और सास बह को चोरी की जशक्षा देती है
। और उनका यह जवश्वास है जक चोरी करना और भीख माूँगना ही उनका काम है । इससे अच्छा जीवन जबताने की वह
क्पना ही नहीं कर सकते । आज यहाूँ डे रा डाल के रहे तो कल दसू री जगह चोरी की । बचे तो बचे , नहीं तो जिर
साल दो साल के जलए जेल । क्या मानव जीवन का यही लक्ष्य है ? लक्ष्य है भी अथवा नहीं ? यजद नहीं है तो
जवचारादशट की उच्च सतह पर जर्के हुए हमारे जन-नायकों और यगु -परुु िों की हमें क्या आवश्यकता ? इजतहास, धमट-
दशटन, ज्ञान-जवज्ञान का कोई अथट नहीं होता ? पर जीवन का लक्ष्य है, अवश्य है । ससं ार की मृगमरीजचका में हम् लक्ष्य
को भल ू जाते हैं ।सतह के ऊपर तक पहुचूँ पानेवाली कुछे क महान आत्माओ ं को छोड़कर सारा जान-समदु ाय संसार में
अपने को खोया हुआ पाता है , कत्तटव्याकत्तटव्य का उसे ध्यान नहीं , सत्यासत्य की समझ नहीं , अन्द्यथा मानवीयता से
बढ़कर कौन-सा मानव धमट है ? पजतत मानवता को जीवन-दान देने की अपेक्षा भी कोई महत्तर पण्ू य है ? राही जैसी
भोली-भाली जकन्द्तु गुमराह आत्माओ ं के क्याण की साधना जीवन की साधना होनी चाजहए । सत्याग्रही की यह
प्रथम प्रजतज्ञा क्यों न हो ? देशभजि का यही मापदडं क्यों न बने ? अनीता जदन भर इन्द्हीं जवचारों में डूबी रही । शाम को
भी वह इसी प्रकार कुछ सोचते-सोचते सो गई ।
रात में उसने सपना देखा जक जेल से छुर्कार वह इन्द्हीं माूँगरोरी लोगों के गाूँव में पहुूँच गई है । वहाूँ उसने एक छोर्ा-सा
आश्रम खोल जदया है । उसी आश्रम में एक तरि छोर्े -छोर्े बच्चे पढ़ते हैं और जस्त्रयाूँ सतू कार्ती हैं । दसू री तरफ़ मदट
कपड़ा बनु ते हैं और रूई धनु कते हैं । शाम को रोज़ उन्द्हें धाजमटक पस्ु तकें पढ़कर सनु ाई जाती हैं और देश में कहाूँ क्या
हो रहा है यह सरल भािा में समझाया जाता है । वही भीख माूँगने और चोरी करनेवाले आदशट ग्रामवासी हो चले हैं ।
रहने के जलए उन्द्होंने छोर्े -छोर्े घर बना जलए हैं । राही के अनाथ बच्चों को अनीता अपने साथ रखने लगी है । अनीता
यही सख ु -स्वप्न देख रही थी । रात में वह देर से सोई थी । सबु ह सात बजे तक उसकी नींद न खल ु पाई । अचानक स्त्री
जेलर ने आकर उसे जगा जदया और बोली - आप घर जाने के जलए तैयार हो जाइए । आपके जपता बीमार हैं । आप
जबना शतट छोड़ी जा रही हैं ।
अनीता अपने स्वप्न को सच्चाई में पररवजतटत करने की एक मधरु क्पना ले घर चली गई ।
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