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वैदिक सभ्यता
वैदिक सभ्यता
लसिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का ववकास हुआ उसे ही आयय
अथवा वैददक सभ्यता के नाम से िाना िाता है । इस काि की िानकारी हमे मख्ु यत: वेदों से
प्राप्त होती है , जिसमे ऋग्वेद सवयप्राचीन होने के कारण सवायधधक महत्वपण
ू य है । वैददक काि को
ऋग्वैददक या पव
ू य वैददक काि (1500 -1000 ई.प.ु ) तथा उत्तर वैददक काि (1000 - 600 ई.प.ु ) में
बािंटा गया है ।
ऋग्वैददक नददयााँ
कुभा काबि
ु
सिानीरा गिंडक
सव
ु स्तु स्वात
पुरुष्णी रावी
ववतस्ता झेिम
गोमती गोमि
रािनीततक
व्यवस्था
गिंगा एविं यमन
ु ा के दोआब क्षेत्र एविं उसके सीमावती क्षेत्रो पर भी आयों ने कब्ज़ा कर
लिया, जिसे ‘ब्रह्मवषय दे श’ कहा गया।
आयों ने दहमािय और ववन्ध्याचि पवयतों के बीच के क्षेत्र पर कब्ज़ा करके उस क्षेत्र का
नाम ‘मध्य दे श’ रिा।
कािािंतर में आयों ने सम्पूणय उत्तर भारत में अपने ववस्तार कर लिया, जिसे ‘आयायवतय’
कहा िाता था।
ग्राम, ववश, और िन शासन की इकाई थे। ग्राम सिंभवतः कई पररवारों का समूह होता था।
दशराज्ञ युद्ध में प्रत्येक पक्ष में आयय एविं अनायय थे। इसका उल्िेि ऋग्वेद के 10वें मिंडि
में लमिता है ।
यह युद्ध रावी (पुरुष्णी) नदी के ककनारे ि़िा गया, जिसमे भारत के प्रमुि कात्रबिे के रािा
सुदास ने अपने प्रततद्विंददयों को पराजित कर भारत कुि की श्रेष्ठता स्थावपत की।
ऋग्वेद में आयों के पािंच कबीिों का उल्िेि लमिता है - पुरु, युद्ध, तुवस
य ,ु अिु, प्रह्यु। इन्हें
‘पिंचिन’ कहा िाता था।
ऋग्वैददक कािीन रािनीततक व्यवस्था, कबीिाई प्रकार की थी। ऋग्वैददक िोग िनों या
कबीिों में ववभाजित थे। प्रत्येक कबीिे का एक रािा होता था, जिसे ‘गोप’ कहा िाता
था।
भौगोलिक ववस्तार के दौरान आयों को भारत के मूि तनवालसयों, जिन्हें अनायय कहा गया
है से सिंघषय करना प़िा।
ऋग्वेद में रािा को कबीिे का सिंरक्षक (गोप्ता िनस्य) तथा पुरन भेत्ता (नगरों पर
वविय प्राप्त करने वािा) कहा गया है ।
रािा के कुछ सहयोगी दै तनक प्रशासन में उसकी सहायता कटे थे। ऋग्वेद में सेनापतत,
पुरोदहत, ग्रामिी, पुरुष, स्पशय, दत
ू आदद शासकीय पदाधधकाररयों का उल्िेि लमिता है ।
सामाजिक व्यवस्था
सिंयक्
ु त पररवार प्रथा प्रचिन में थी।
वपत-ृ सत्तात्मक समाि के होते हुए इस काि में मदहिाओिं का यथोधचत सम्मान प्राप्त था।
मदहिाएिं भी लशक्षक्षत होती थीिं।
प्रारिं भ में ऋग्वैददक समाि दो वगों आयों एविं अनायों में ववभाजित था। ककन्तु कािािंतर में
िैसा की हम ऋग्वेद के दशक मिंडि के परु
ु ष सक्
ू त में पाए िाते हैं की समाि चार वगों-
ब्राह्मण, क्षत्रत्रय, वैश्य और शर
ू ; मे ववभाजित हो गया।
वववाह व्यजक्तगत तथा सामाजिक िीवन का प्रमुि अिंग था। अिंतरिातीय वववाह होता था,
िेककन बाि वववाह का तनषेध था। ववधवा वववाह की प्रथा प्रचिन में थी।
पुत्र प्राजप्त के लिए तनयोग की प्रथा स्वीकार की गयी थी। िीवन भर अवववादहत रहने वािी
ि़िककयों को ‘अमािू कहा िाता था।
सती प्रथा और पदाय प्रथा का प्रचिन नहीिं था।
ऋग्वैददक समाि वपतस
ृ त्तात्मक था। वपता सम्पूणय पररवार, भूलम सिंपजत्त का अधधकारी होता
था
आयों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मग
ृ -चमय के बने होते थे।
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ऋग्वैददक धमय
ऋग्वैददक धमय की सबसे महत्वपूणय ववशेषता इसका व्यवसातयक एविं उपयोधगतावादी
स्वरुप था।
आयों का धमय बहुदेववादी था। वे प्राकृततक भजक्तयों-वायु, िि, वषाय, बादि, अजग्न और सूयय
आदद की उपासना ककया करते थे।
ऋग्वेद में दे वताओिं की सिंख्या 33 करो़ि बताई गयी है । आयों के प्रमुि दे वताओिं में इिंर,
अजग्न, रूर, मरुत, सोम और सूयय शालमि थे।
ऋग्वैददक काि का सबसे महत्वपूणय दे वता इिंर है । इसे युद्ध और वषाय दोनों का दे वता
माना गया है । ऋग्वेद में इिंर का 250 सूक्तों में वणयन लमिता है ।
इिंर के बाद दस
ू रा स्थान अजग्न का था। अजग्न का कायय मनुष्य एविं दे वता के बीच
मध्यस्थ स्थावपत करने का था। 200 सूक्तों में अजग्न का उल्िेि लमिता है ।
ऋग्वैददक िोग अपनी भौततक आकािंक्षाओिं की पूततय के लिए यज्ञ और अनुष्ठान के
माध्यम से प्रकृतत का आह्वान करते थे।
ऋग्वैददक काि में मूततयपूिा का उल्िेि नहीिं लमिता है ।
ऋग्वैददक दे वता
अिंतररक्ष के दे वता- इन्र, मरुत, रूर और वाय।ु
आकाश के दे वता- सय
ू य, घौस, लमस्र, पष
ू ण, ववष्ण,ु ऊषा और सववष्ह।
पथ्
ृ वी के दे वता- अजग्न, सोम, पथ्
ृ वी, वह
ृ स्पतत और सरस्वती।
पूषण ऋग्वैददक काि में पशुओिं के दे वता थे, िो उत्तर वैददक काि में शूरों के दे वता बन
गए।
ऋग्वैददक काि में ििंगि की दे वी को ‘अरण्यानी’ कहा िाता था।
ऋग्वेद में ऊषा, अददतत, सूयाय आदद दे ववयों का उल्िेि लमिता है ।
प्रलसद्द गायत्री मन्त्र, िो सूयय से सम्बिंधधत दे वी साववत्री को सिंबोधधत है , सवयप्रथम ऋग्वेद में
लमिता है ।
ऋग्वैददक अथयव्यवस्था
1. कृवष एविं पशुपािन
ऋग्वेद में बढ़ई, सथकार, बुनकर, चमयकार, कुम्हार, आदद कारीगरों के उल्िेि से इस काि
के व्यवसाय का पता चिता है ।
तािंबे या कािंसे के अथय में ‘आपस’ का प्रयोग यह सिंके करता है , की धातु एक कमय उद्योग
था।
ऋग्वेद में वैद्य के लिए ‘भीषक’ शब्द का प्रयोग लमिता है । ‘करघा’ को ‘तसर’ कहा
िाता था। बढ़ई के लिए ‘तसण’ शब्द का उल्िेि लमिता है ।
लमटटी के बतयन बनाने का कायय एक व्यवसाय था।
स्मरणीय तथ्य
ऋग्वेद में ककसी पररवार का एक सदस्य कहता है - मैं कवव हूाँ, मेरे वपता वैद्य हैं और
माता चक्की चिने वािी है , लभन्न लभन्न व्यवसायों से िीवकोपाियन करते हुए हम एक
साथ रहते हैं।
‘पखण’ व्यापार के साथ-साथ मवेलशयों की भी चोरी करते थे। उन्हें आयों का शत्रु माना
िाता था
‘दहरव्य’ एविं ‘तनष्क’ शब्द का प्रयोग स्वणय के लिए ककया िाता था। इनका उपयोग रव्य
के रूप में भी ककया िाता था। ऋग्वेद में ‘अनस’ शब्द का प्रयोग बैिगा़िी के लिए ककया
गया है । ऋग्वैददक काि में दो अमूतय दे वता थे, जिन्हें श्रद्धा एविं मनु कहा िाता था।
वैददक िोगों ने सवयप्रथ तािंबे की धातु का इस्तेमाि ककया।
वैदिक सादित्य
ऋग्वेद स्तुतत मन्त्रों का सिंकिन है । इस मिंडि में ववभक्त 1017 सूक्त हैं। इन सूत्रों में 11
बािखिल्य सूत्रों को िो़ि दे ने पर कुि सूक्तों की सिंख्या 1028 हो िाती है ।
ऋग्वेद के रचतयता
मण्डल ऋवि
द्ववतीय गत्ृ समद
तत
ृ ीय ववश्वालमत्र
चतुर्थ धमदे व
पंचम अत्री
िष्ट भारद्वाि
सप्तम वलशष्ठ
अष्टम कण्व तथा अिंगीरम
ऋग्वेि
यजव
ु ेि
यिुः का अथय होता है यज्ञ। यिुवेद में अनेक प्रकार की यज्ञ ववधधयों का वणयन ककया
गया है ।
इसे अध्वययवेद भी कहते हैं। यह वेद दो भाग में ववभक्त है –(1) कृष्ण यिुवेद (2) शुक्ि
यिव
ु ेद, कृष्ण यिव
ु ेद की चार शािायें हैं–(1) काठक (2) कवपण्ठि (3) मैत्रायणी (4)
तैत्तरीय।
यिव
ु ेद की पािंचवी शािा को वािसनेयी कहा िाता है जिसे शक्
ु ि यिव
ु ेद के अन्तगयत
रिा िाता है ।
यिव
ु ेद कमयकाण्ड प्रधान है । इसका पाठ करने वािे ब्राह्मणों को अध्वयुय कहा गया है ।
सामवेि
साम का अथय ‘गान‘ से है । यज्ञ के अवसर पर दे वताओिं का स्तुतत करते हुए सामवेद की
ऋचाओिं का गान करने वािे ब्राह्मणों को उद्गात ृ कहते थे।
सामवेद में कुि 1810 ऋचायें हैं। इसमें से अधधकािंश ऋग्वैददक ऋचाओिं की पुनरावजृ त्त हैं
।
मात्र 78 ऋचायें नयी एविं मौलिक हैं |
सामवेद तीन शािाओिं में ववभक्त है -(1) कौथम
ु (2) राणायनीय (3) िैलमनीय।
अर्वथवेि
ब्राह्मण ग्रन्र्
वैददक सिंदहताओिं के कमयकाण्ड की व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई । इनका
अधधकािंश भाग गद्य में है ।
प्रत्येक वैददक सिंदहता के लिए अिग-अिग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं।
ऋग्वेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ– ऐतरे य एविं कौषीतकी।
यिुवेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ– तैजत्तरीय एविं शतपथ।
सामवेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ- पिंचवविंश।
अथवयवेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ- गोपथ।
ब्राह्मण ग्रन्थों से हमें परीक्षक्षत के बाद तथा त्रबजम्बसार के पव
ू य की घटनाओिं का ज्ञान
प्राप्त होता है ।
ऐतरे य ब्राह्मण में राज्यालभषेक के तनयम प्राप्त होते हैं ।
शतपथ ब्राह्मण में गन्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पािंचाि, कोसि, ववदे ह आदद के उल्िेि प्राप्त
होते हैं
आरण्यक
आरण्यकों में कमयकाण्ड की अपेक्षा ज्ञान पक्ष को अधधक महत्व प्रदान ककया गया है ।
वतयमान में सात आरण्यक उपिब्ध हैं (1) ऐतरे य आरण्यक (2) तैजत्तरीय आरण्यक (3)
शािंिायन आरण्यक (4) मैत्रायणी आरण्यक (5) माध्यजन्दन आरण्यक (6) तल्वकार
आरण्यक उपतनषद्
उपतनषदों में प्राचीनतम दाशयतनक ववचारों का सिंग्रह है । ये ववशद्ध
ु रूप से ज्ञान-पक्ष को
प्रस्तत
ु करते हैं। सजृ ष्ट के रचतयता ईश्वर, िीव आदद पर दाशयतनक वववेचन इन ग्रन्थों में
उपिब्ध होता है ।
सामास्जक स्स्र्नत
ऋग्वैददक काि में सामाजिक सिंगठन की न्यूनतम इकाई पररवार था। सामाजिक सिंरचना
का आधार सगोत्रता थी । व्यजक्त की पहचान उसके गोत्र से होती थी।
पररवार में कई पीदढ़यािं एक साथ रहती थीिं। नाना, नानी, दादा, दादी, नाती, पोते आदद सभी
के | लिए नत ृ शब्द का उल्िेि लमिता है ।
पररवार वपतस
ृ त्तात्मक होता था। वपता के अधधकार असीलमत होते थे। वह पररवार के
सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड दे सकता था।
ऋग्वेद में एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्िेि है जिसे उसके वपता ने अन्धा बना ददया
था। ऋग्वेद में ही शनु :शेष का वववरण प्राप्त होता है जिसे उसके वपता ने बेच ददया था।
|
ऋग्वेद में पररवार के लिए कुि का नहीिं बजल्क गह ृ का प्रयोग हुआ है । | िीवन में
स्थातयत्व का पुट कम था। मवेशी, रथ, दास, घो़िे आदद के दान के उदाहरण तो प्राप्त होते
हैं ककन्तु भूलमदान के नहीिं।
अचि सम्पजत्त के रूप में भूलम एविं गह
ृ अभी स्थान नहीिं बना पाये थे । समाि काफी
हद तक कबीिाई और समतावादी था।
समाि में मदहिाओिं को सम्मानपूवय स्थान प्राप्त था । जस्त्रयों की लशक्षा की व्यवस्था थी।
अपािा, िोपामुरा, ववश्ववारा, घोषा आदद नाररयों के मन्त्र रष्टा होकर ऋवषपद प्राप्त करने
का उल्िेि प्राप्त होता है । पुत्र की भााँतत पुत्री को भी उपनयन, लशक्षा एविं यज्ञादद का
अधधकार था।
एक पववत्र सिंस्कार एविं प्रथा के रूप में ‘वववाह‘ की स्थापना हो चक
ु ी थी।
बहु वववाह यद्यवप ववद्यमान था परन्तु एक पत्नीव्रत प्रथा का ही समाि में प्रचिन था।
प्रेम एविं धन के लिए वववाह होने की बात ऋग्वेद से ज्ञात होती है ।
वववाह में कन्याओिं को अपना मत रिने की छूट थी। कभी–कभी कन्यायें िम्बी उम्र तक
या आिीवन ब्रह्मचयय का पािन करती थीिं, इन्हें अमािू: कहते थे।
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भौनतक जीवन
ऋग्वैददक िोग मुख्यत: पशुपािक थे। वे स्थायी िीवन नहीिं व्यतीत करते थे।
पशु ही सम्पजत्त की वस्तु समझे िाते थे। गवेषण, गोषु, गव्य आदद शब्दों का प्रयोग युद्ध
के लिए ककया िाता था। िन–िीवन में युद्ध के वातावरण का बोिबािा था।
िोग लमट्टी एविं घास फूस से बने मकानों में रहते थे। िोग िोहे से अपररधचत थे।
कृष्ण अयस शब्द का सवयप्रथम उल्िेि िेलमनी उपतनषद (उत्तर वैददक काि) में लमिता
है ।
ऋग्वेदकािीन समाि प्रारम्भ में वगय ववभेद से रदहत था। िन के सभी सदस्यों की
सामाजिक प्रततष्ठा समान थी। ऋग्वेद में वणय शब्द कहीिं–कहीिं रिं ग तथा कहीिं–कहीिं
व्यवसाय के रूप में प्रयुक्त हुआ
प्रारम्भ में ऋग्वेद में तीनों वगों का उल्िेि प्राप्त होता है –ब्रह्म, क्षेत्र तथा ववशः ब्रमेय
यज्ञों को सम्पन्न करवाते थे, हातन से रक्षा करने वािे क्षत्र (क्षत्रत्रय) कहिाते थे। शेष
िनता ववश कहिाती थी।
इन तीनों वगों में कोई कठोरता नहीिं थी। एक ही पररवार के िोग ब्रह्म, क्षत्र या ववश हो
सकते थे।
उत्तरवैददक काि में आयों की भौगोलिक सीमा का ववस्तार गिंगा के पूवय में हुआ।
शतपथ ब्राह्मण में आयों के भौगोलिक ववस्तार की आख्यातयका के अनुसार-ववदे थ माधव
ने वैश्वानर अजग्न को माँह
ु में धारण ककया।
धत
ृ का नाम िेते ही वह अजग्न पथ् ृ वी पर धगर गया तथा सब कुछ ििाता हुआ पूवय की
तरफ बढ़ा। पीछे -पीछे ववदे थ माधव एविं उनका पुरोदहत गौतम राहूगण चिा। अकस्मात ्
वह सदानीरा (गिंडक) नदी को नहीिं ििा पाया।
रािनीततक जस्थतत
राज्य सिंस्था—कबीिाई तत्व अब कमिोर हो गये तथा अनेक छोटे –छोटे कबीिे एक–दस
ू रे
में वविीन होकर ब़िे क्षेत्रगत िनपदों को िन्म दे रहे थे। उदाहरणाथय, परु
ू एविं भरत
लमिकर कुरु और तुवस
य एविं किवव लमिकर पािंचाि कहिाए।
ऋग्वेद में इस बात के सिंकेत लमिते हैं कक राज्यों या िनपदों का आधार िातत या
कबीिा था परन्तु अब क्षेत्रीयता के तत्वों में ववृ द्ध हो रहा था। प्रारम्भ में प्रत्येक प्रदे श को
वहााँ बसे हुए कबीिे का नाम ददया गया।
आरम्भ में पािंचाि एक कबीिे का नाम था परन्तु अब उत्तरवैददक काि में यह एक
(क्षेत्रगत) प्रदे श का नाम हो गया। तात्पयय यह कक अब इस क्षेत्र पर चाहे जिस कबीिे का
प्रधान या चाहे िो भी राज्य करता, इसका नाम पािंचाि ही रहता।
ववलभन्न प्रदे शों में आयों के स्थायी राज्य स्थावपत हो गये। राष्ि शब्द, िो प्रदे श का
सूचक है , पहिी बार इसी काि में प्रकट होता है ।
रािा दे वता का प्रतीक समझा िाता था। अथवयवेद में रािा परीक्षक्षत को ‘मत्ृ युिोक का दे वता‘
कहा गया है । रािा के प्रधानकायय सैतनक और न्याय सम्बन्धी होते थे। वह अपनी प्रिा और
कानूनों का रक्षक तथा शत्रओ
ु िं का सिंहारक था। रािा स्वयिं दण्ड से मुक्त था परन्तु वह रािदण्ड
का उपयोग करता था। लसद्धान्ततः रािा तनरिं कुश होता था परन्तु राज्य की स्वेच्छाचाररता कई
प्रकार से मयायददत रहती थी। उदाहरणाथय
(1) रािा के वरण में िनता की सहमतत की उपेक्षा नहीिं हो सकती थी।
(2) अलभषेक के समय राज्य के स्वायत्त अधधकारों पर िगायी गयी मयायदाओिं का तनवायह
करना रािा का कतयव्य होता था।
(3) रािा को रािकायय के लिए मिंत्रत्रपररषद पर तनभयर रहना प़िता था।
(4) सभा और सलमतत नामक दो सिंस्थायें रािा के तनरिं कुश होने पर रोक िगाती थीिं।
(5) रािा की तनरिं कुशता पर सबसे ब़िा अिंकुश धमय का होता था। अथवयवेद के कुछ सूक्तों
से पता चिता है कक रािा िनता की भजक्त और समथयन प्राप्त करने के लिए िािातयत
रहता था। कुछ मन्त्रों से पता चिता है कक अन्यायी रािाओिं को प्रिा दण्ड दे सकती थी
तथा उन्हें राज्य से बदहष्कृत कर सकती थी। कुरुविंशीय परीक्षक्षत िनमेिय तथा पािंचाि
विंश के रािाओिं प्रवाहन, िैवालि अरुखण एविं श्वेतकेतु के समवृ द्ध के बारे में िानकारी
अथवयवेद में लमिती है ।
रािा का तनवायचन
प्रशासतनक सिंस्थायें
पदाधधकारी
पुरोदहत, सेनानी एविं ग्रालमणी के अिावा उत्तरवैददक कािीन ग्रन्थों में हमें सिंग्रदहत ृ
(कोषाध्यक्ष), भागदध
ु (कर सिंग्रह करने वािा), सूत (रािकीय चारण, कवव या रथ वाहक),
क्षतु, अक्षवाप (िुए का तनरीक्षक) गोववकतयन (आिेट में रािा का साथी) पािागि िैसे
कमयचाररयों का उल्िेि प्राप्त होता है ।
सधचव नामक उपाधध का उल्िेि भी लमिता है , िो आगे चिकर मजन्त्रयों के लिए प्रयुक्त
हुई है ।
उत्तरवैददक काि के अन्त तक में बलि और शुल्क के रूप में तनयलमत रूप से कर दे ना
िगभग अतनवायय बनता िा रहा।
रािा न्याय का सवोच्च अधधकारी होता था। अपराध सम्बन्धी मुकदमों में व्यजक्तगत
प्रततशोध का स्थान था। न्याय में दै वी न्याय का व्यवहार भी होता था।
तनम्न स्तर पर प्रशासन एविं न्यायकायय ग्राम पिंचायतों के जिम्मे था, िो स्थानीय झग़िों
का फैसिा करती थी।
उत्तरवैददक काि में सामाजिक व्यवस्था का आधार वणायश्रम व्यवस्था ही था, यद्यवप वणय
व्यवस्था में कठोरता आने िगी थी।
समाि में चार वणय–ब्राह्मण, रािन्य, वैश्य और शर
ू थे। ब्राह्मण के लिए ऐदह, क्षत्रत्रय के
लिए आगच्छ, वैश्य के लिए आरव तथा शर
ू के लिए आधव शब्द प्रयक्
ु त होते थे।
ब्राह्मण, क्षत्रत्रय तथा वैश्य इन तीनों को द्ववि कहा िाता था। ये उपनयन सिंस्कार के
अधधकारी थे।
चौथा वणय (शूर) उपनयन सिंस्कार का अधधकारी नहीिं था और यहीिं से शूरों को अपात्र या
आधारहीन मानने की प्रकिया शुरू हो गई।
आधथयक जस्थतत
उत्तरवैददक काि में कृवष आयों का मुख्य पेशा हो गया। िोहे के उपकरणों के प्रयोग से
कृवष क्षेत्र में िाजन्त आ गई।
यिुवेद में िोहे के लिए श्याम अयस एविं कृष्ण अयस शब्द का प्रयोग हुआ है ।
शतपथ ब्राह्मण में कृवष की चार कियाओिं–िुताई, बुआई, कटाई और म़िाई का उल्िेि
हुआ है ।
पशुपािन गौण पेशा हो गया। अथवयवेद में लसिंचाई के साधन के रूप में वणायकूप एविं नहर
(कुल्या) का उल्िेि लमिता है ।
हि की नािी को सीता कहा िाता था।
अथवयवेद के वववरण के अनुसार सवयप्रथम पथ्
ृ वीवेन ने हि और कृवष को िन्म ददया।
इस काि की मुख्य फसि धान और गेहूाँ हो गई।
यिुवेद में ब्रीदह (धान), यव (िौ), माण (उ़िद) मुद्ग (मूिंग), गोधम
ू (गेहूाँ), मसूर आदद
अनािों का वणयन लमिता है । अथवयवेद में सवयप्रथम नहरों का उल्िेि हुआ है ।
इस काि में हाथी को पाितू बनाए िाने के साक्ष्य प्राप्त होने िगते हैं।
जिसके लिए हजस्त या वारण शब्द लमिता है । वह
ृ दारण्यक उपतनषद् में श्रेजष्ठन शब्द तथा
ऐतरे य ब्राह्मण में श्रेष््य शब्द से व्यापाररयों की श्रेणी का अनुमान िगाया िाता है ।
तैत्तरीय सिंदहता में ऋण के लिए कुसीद शब्द लमिता है । शतपथ ब्राह्मण में महािनी
प्रथा का पहिी बार जिि हुआ है तथा सूदिोर को कुसीददन कहा गया है ।
धालमयक जस्थतत
वरुण 30
िन 275
ववश 171
वपता 335
माता 234
वणय 23
ग्राम 13
ब्राह्मण 15
क्षत्रत्रय 9
वैश्य 1
शूर 1
राष्ि 10
समा 8
सलमतत 9
ववदथ 122
गिंगा 1
यमन
ु ा 3
रािा 1
गण 46
ववष्णु 100
रूर 3
बह
ृ स्पतत 11
पथ्
ृ वी 1
मंडल रचनयता
कल्पसर
ू ववधध एवं ननयमों का प्रनतपािन
श्रौतसूर यज्ञ से सिंबिंधधत ववस्तत
ृ ववधध-ववधानों की व्याख्या
शुल्बसूत ् स्थि तथा अजग्न वेदी के तनमायण तथा माप से सिंबिंधधत तनयम है इसमें भारतीय ज्यालम
र यज्ञ तत का प्रारिं लभक रूप ददिाई दे ता है
धमथसर
ू सामाजिक धालमयक कानन
ू तथा आचार सिंदहता है
ग्रि सूर मनुष्य के िौककक एविं पारिौककक कतयव्य