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वैदिक सभ्यता

लसिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का ववकास हुआ उसे ही आयय
अथवा वैददक सभ्यता के नाम से िाना िाता है । इस काि की िानकारी हमे मख्ु यत: वेदों से
प्राप्त होती है , जिसमे ऋग्वेद सवयप्राचीन होने के कारण सवायधधक महत्वपण
ू य है । वैददक काि को
ऋग्वैददक या पव
ू य वैददक काि (1500 -1000 ई.प.ु ) तथा उत्तर वैददक काि (1000 - 600 ई.प.ु ) में
बािंटा गया है ।

ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.)


 वैददक सभ्यता की िानकारी के स्रोत वेद हैं। इसलिए इसे वैददक सभ्यता के नाम से
िाना िाता है ।
 याकोबी एविं ततिक ने ग्रहादद सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर भारत में आयों का
आगमन 4000 ई० पू० तनधायररत ककया है ।
 मैक्समूिर का अनुमान है कक ऋग्वेद काि 1200 ई० पू० से 1000 ई० पू० तक है ।
 मान्यततधथ– भारत में आयों का आगमन 1500 ई० पू० के िगभग हुआ।
 आयों का मूि स्थान आयय ककस प्रदे श के मूि तनवासी थे, यह भारतीय इततहास का एक
वववादास्पद प्रश्न है । इस सम्बन्ध में ववलभन्न ववद्वानों द्वारा ददए गए मत सिंक्षेप में
तनम्नलिखित हैं।
 यूरोप 5 िातीय ववशेषताओिं के आधार पर पेनका, हटय आदद ववद्वानों ने िमयनी को आयों
का आदद दे श स्वीकार ककया है ।
 गाइल्स ने आयों का आदद दे श हिं गरी अथवा डेन्यूब घाटी को माना है ।
 मेयर, पीक, गाडयन चाइल्ड, वपगट, नेहररिंग, बैण्डेस्टीन ने दक्षक्षणी रूस को आयों का मूि
तनवास स्थान माना है । यह मत सवायधधक मान्य है ।
 आयय भारोपीय भाषा वगय की अनेक भाषाओिं में से एक सिंस्कृत बोिते थे।
 भाषा वैज्ञातनकों के अनुसार भारोपीय वगय की ववलभन्न भाषाओिं का प्रयोग करने वािे
िोगों का सम्बन्ध शीतोष्ण ििवायु वािे ऐसे क्षेत्रों से था िो घास से आच्छाददत ववशाि
मैदान थे।
 यह तनष्कषय इस मत पर आधाररत है कक भारोपीय वगय की अधधकािंश भाषाओिं में भेड़िया,
भाि,ू घो़िे िैसे पशओ
ु िं और किंरि (बीच) तथा भोिवक्ष
ृ ों के लिए समान शब्दाविी है ।

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 प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर इस क्षेत्र की पहचान सामान्यतया आल्पस पवयत के पूवी क्षेत्र
यरू ाि पवयत श्रेणी के दक्षक्षण में मध्य एलशयाई इिाके के पास के स्टे प मैदानों (यरू े लशया)
से की िाती है ।
 परु ाताजत्वक साक्ष्यों के आधार पर इस क्षेत्र से एलशया और यरू ोप के ववलभन्न भागों की
ओर वदहगायमी प्रवासन प्रकिया के धचह्न भी लमिते हैं।
 सवयप्रथम िे० िी० रोड ने 1820 में ईरानी ग्रन्थ िेन्दा–अवेस्ता के आधार पर आयों को
बैजक्िया का मि
ू तनवासी माना।
 1859 में प्रलसद्ध िमयन ववद्वान मैक्समि
ू र ने मध्य एलशया को आयों का आदद दे श
घोवषत ककया।
 प्रोफेसर सेिस तथा एडवडय मेयर ने भी एलशया को ही आदद दे श स्वीकार ककया है ।ओल्डेन
बगय एविं कीथ कम भी यही मत है ।
 मध्य एलशया से प्राप्त पुराताजत्वक साक्ष्य एलशया माइनर में बोगिकोई नामक स्थान से
िगभग 1400 ई० पू० का एक िेि लमिा है जिसमें लमत्र, इन्र, वरुण और नासत्य नामक
वैददक दे वताओिं का नाम लििा हुआ है ।
 डा० अववनाश चन्र ने सप्त सैन्धव प्रदे श को आयों का मूि तनवास स्थान माना।
 गिंगानाथ झा के अनुसार आयों का आदद दे श भारतवषय का ब्रह्मवषय दे श था।
 ए० डी० कल्िू ने कश्मीर, डी० एस० त्रत्रदे व ने मुल्तान के दे ववका प्रदे श तथा डा० रािबिी
पाण्डेय ने मध्य प्रदे श को आयों का आदद–दे श माना है ।
 दयानिंद सरस्वती ने ततब्बत‘ को आयो का मूि तनवास स्थान माना।
 बाि गिंगाधर ततिक के अनुसार आयों का आदद दे श उत्तरी ध्रव
ु था।
 आयों ने ऋग्वेद की रचना की, जिसे मानव िाती का प्रथम ग्रन्थ माना िाता है । ऋग्वेद
द्वारा जिस काि का वववरण प्राप्त होता है उसे ऋग्वैददक काि कहा िाता है ।
 ‘अस्तों मा सद्गमय’ वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है ।
 वैददक सभ्यता के सिंस्थापक आयों का भारत आगमन िगभग 1500 ई.पू. के आस-पास
हुआ। हािााँकक उनके आगमन का कोई ठोस और स्पष्ट प्रमाण उपिब्ध नहीिं है ।
 वैददक सभ्यता के सिंस्थापक आयय थे। आयों का आरिं लभक िीवन मुख्यतः पशुचारण था।
वैददक सभ्यता मूितः ग्रामीण थी।
 आयों के मि
ू तनवास के सन्दभय में ववलभन्न ववद्वानों ने अिग-अिग ववचार व्यक्त ककये
हैं।
 ऋग्वेद भारत-यरू ोपीय भाषाओँ का सबसे परु ाना तनदशय है । इसमें अजग्न, इिंर, लमत्र, वरुण,
आदद दे वताओिं की स्ततु तयााँ सिंगदृ हत हैं।
 ‘अस्तों मा सद्गमय’ वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है ।

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भौगोललक ववस्तार
 भारत में आयय सवयप्रथम सप्तसैंधव प्रदे श में आकर बसे इस प्रदे श में प्रवादहत होने वािी
सैट नददयों का उल्िेि ऋग्वेद में लमिता है ।
 ऋग्वेद में नददयों का उल्िेि लमिता है । नददयों से आयों के भौगोलिक ववस्तार का पता
चिता है ।
 ऋग्वेद की सबसे पववत्र नदी सरस्वती थी। इसे नदीतमा (नददयों की प्रमुि) कहा गया है ।
 ऋग्वैददक काि की सबसे महत्वपूणय नदी लसन्धु का वणयन कई बार आया है । ऋग्वेद में
गिंगा का एक बार और यमुना का तीन बार उल्िेि लमिता है ।
 सप्तसैंधव प्रदे श के बाद आयों ने कुरुक्षेत्र के तनकट के प्रदे शों पर भी कब्ज़ा कर लिया,
उस क्षेत्र को ‘ब्रह्मवतय’ कहा िाने िगा। यह क्षेत्र सरस्वती व दृशद्वती नददयों के बीच
प़िता है ।
 इस क्षेत्र की सातों नददयों का उल्िेि ऋग्वेद में प्राप्त होता है –लसन्धु, सरस्वती, शतुदर
(सतिि), ववपासा (व्यास), परुष्णी (रावी), अलसक्नी (धचनाब), और ववतस्ता (झेिम) ऋग्वेद
में गिंगा नदी का एक बार तथा यमन
ु ा नदी का तीन बार उल्िेि हुआ है ।

ऋग्वैददक नददयााँ

प्राचीन नाम आधनु नक नाम


शुतुदि सतिि
अस्स्कनी धचनाब
ववपाशा व्यास

कुभा काबि

सिानीरा गिंडक
सव
ु स्तु स्वात

पुरुष्णी रावी

ववतस्ता झेिम
गोमती गोमि

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दृशद्वती घग्घर
कृमु कुरय म

 रािनीततक
व्यवस्था

 गिंगा एविं यमन
ु ा के दोआब क्षेत्र एविं उसके सीमावती क्षेत्रो पर भी आयों ने कब्ज़ा कर
लिया, जिसे ‘ब्रह्मवषय दे श’ कहा गया।
 आयों ने दहमािय और ववन्ध्याचि पवयतों के बीच के क्षेत्र पर कब्ज़ा करके उस क्षेत्र का
नाम ‘मध्य दे श’ रिा।
 कािािंतर में आयों ने सम्पूणय उत्तर भारत में अपने ववस्तार कर लिया, जिसे ‘आयायवतय’
कहा िाता था।

 सभा, सलमतत, ववदथ िैसी अनेक पररषदों का उल्िेि लमिता है ।

 ग्राम, ववश, और िन शासन की इकाई थे। ग्राम सिंभवतः कई पररवारों का समूह होता था।
 दशराज्ञ युद्ध में प्रत्येक पक्ष में आयय एविं अनायय थे। इसका उल्िेि ऋग्वेद के 10वें मिंडि
में लमिता है ।
 यह युद्ध रावी (पुरुष्णी) नदी के ककनारे ि़िा गया, जिसमे भारत के प्रमुि कात्रबिे के रािा
सुदास ने अपने प्रततद्विंददयों को पराजित कर भारत कुि की श्रेष्ठता स्थावपत की।
 ऋग्वेद में आयों के पािंच कबीिों का उल्िेि लमिता है - पुरु, युद्ध, तुवस
य ,ु अिु, प्रह्यु। इन्हें
‘पिंचिन’ कहा िाता था।
 ऋग्वैददक कािीन रािनीततक व्यवस्था, कबीिाई प्रकार की थी। ऋग्वैददक िोग िनों या
कबीिों में ववभाजित थे। प्रत्येक कबीिे का एक रािा होता था, जिसे ‘गोप’ कहा िाता
था।
 भौगोलिक ववस्तार के दौरान आयों को भारत के मूि तनवालसयों, जिन्हें अनायय कहा गया
है से सिंघषय करना प़िा।
 ऋग्वेद में रािा को कबीिे का सिंरक्षक (गोप्ता िनस्य) तथा पुरन भेत्ता (नगरों पर
वविय प्राप्त करने वािा) कहा गया है ।
 रािा के कुछ सहयोगी दै तनक प्रशासन में उसकी सहायता कटे थे। ऋग्वेद में सेनापतत,
पुरोदहत, ग्रामिी, पुरुष, स्पशय, दत
ू आदद शासकीय पदाधधकाररयों का उल्िेि लमिता है ।

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 शासकीय पदाधधकारी रािा के प्रतत उत्तरदायी थे। इनकी तनयुजक्त तथा तनििंबन का
अधधकार रािा के हाथों में था।
 ऋग्वैददक काि में मदहिाएिं भी रािनीती में भाग िेती थीिं। सभा एविं ववदथ पररषदों में
मदहिाओिं की सकिय भागीदारी थी।
 सभा श्रेष्ठ एविं अलभिात्य िोगों की सिंस्था थी। सलमतत केन्रीय राितनततक सिंस्था थी।
सलमतत रािा की तनयजु क्त, पदच्यत
ु करने व उस पर तनयिंत्रण रिती थी। सिंभवतः यह
समस्त प्रिा की सिंस्था थी।
 ऋग्वेद में तत्कािीन न्याय वयवस्था के ववषय में बहुत कम िानकारी लमिती है । ऐसा
प्रतीत होता है की रािा तथा पुरोदहत न्याय व्यवस्था के प्रमुि पदाधधकारी थे।
 वैददक कािीन न्यायधीशों को ‘प्रश्नववनाक’ कहा िाता था।
 ववदथ आयों की प्राचीन सिंस्था थी।
 न्याय वयवस्था वगय पर आधाररत थी। हत्या के लिए 100 ग्रिंथों का दान अतनवायय था।
 रािा भूलम का स्वामी नहीिं होता था, िबकक भूलम का स्वालमत्व िनता में तनदहत था।
 ववश कई गावों का समूह था। अनेक ववशों का समूह ‘िन’ होता था।

सामाजिक व्यवस्था
 सिंयक्
ु त पररवार प्रथा प्रचिन में थी।
 वपत-ृ सत्तात्मक समाि के होते हुए इस काि में मदहिाओिं का यथोधचत सम्मान प्राप्त था।
मदहिाएिं भी लशक्षक्षत होती थीिं।
 प्रारिं भ में ऋग्वैददक समाि दो वगों आयों एविं अनायों में ववभाजित था। ककन्तु कािािंतर में
िैसा की हम ऋग्वेद के दशक मिंडि के परु
ु ष सक्
ू त में पाए िाते हैं की समाि चार वगों-
ब्राह्मण, क्षत्रत्रय, वैश्य और शर
ू ; मे ववभाजित हो गया।
 वववाह व्यजक्तगत तथा सामाजिक िीवन का प्रमुि अिंग था। अिंतरिातीय वववाह होता था,
िेककन बाि वववाह का तनषेध था। ववधवा वववाह की प्रथा प्रचिन में थी।
 पुत्र प्राजप्त के लिए तनयोग की प्रथा स्वीकार की गयी थी। िीवन भर अवववादहत रहने वािी
ि़िककयों को ‘अमािू कहा िाता था।
 सती प्रथा और पदाय प्रथा का प्रचिन नहीिं था।
 ऋग्वैददक समाि वपतस
ृ त्तात्मक था। वपता सम्पूणय पररवार, भूलम सिंपजत्त का अधधकारी होता
था
 आयों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मग
ृ -चमय के बने होते थे।

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 ऋग्वैददक काि में दास प्रथा का प्रचिन था, परन्तु यह प्राचीन यूनान और रोम की भािंतत
नहीिं थी।
 आयय मािंसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार का भोिन करते थे।

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ऋग्वैददक धमय
 ऋग्वैददक धमय की सबसे महत्वपूणय ववशेषता इसका व्यवसातयक एविं उपयोधगतावादी
स्वरुप था।
 आयों का धमय बहुदेववादी था। वे प्राकृततक भजक्तयों-वायु, िि, वषाय, बादि, अजग्न और सूयय
आदद की उपासना ककया करते थे।
 ऋग्वेद में दे वताओिं की सिंख्या 33 करो़ि बताई गयी है । आयों के प्रमुि दे वताओिं में इिंर,
अजग्न, रूर, मरुत, सोम और सूयय शालमि थे।
 ऋग्वैददक काि का सबसे महत्वपूणय दे वता इिंर है । इसे युद्ध और वषाय दोनों का दे वता
माना गया है । ऋग्वेद में इिंर का 250 सूक्तों में वणयन लमिता है ।
 इिंर के बाद दस
ू रा स्थान अजग्न का था। अजग्न का कायय मनुष्य एविं दे वता के बीच
मध्यस्थ स्थावपत करने का था। 200 सूक्तों में अजग्न का उल्िेि लमिता है ।
 ऋग्वैददक िोग अपनी भौततक आकािंक्षाओिं की पूततय के लिए यज्ञ और अनुष्ठान के
माध्यम से प्रकृतत का आह्वान करते थे।
 ऋग्वैददक काि में मूततयपूिा का उल्िेि नहीिं लमिता है ।

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 दे वताओिं में तीसरा स्थान वरुण का था। इसे िाि का दे वता माना िाता है । लशव को
त्रयम्बक कहा गया है ।
 ऋग्वैददक िोग एकेश्वरवाद में ववश्वास करते थे।

ऋग्वैददक दे वता
 अिंतररक्ष के दे वता- इन्र, मरुत, रूर और वाय।ु
 आकाश के दे वता- सय
ू य, घौस, लमस्र, पष
ू ण, ववष्ण,ु ऊषा और सववष्ह।
 पथ्
ृ वी के दे वता- अजग्न, सोम, पथ्
ृ वी, वह
ृ स्पतत और सरस्वती।
 पूषण ऋग्वैददक काि में पशुओिं के दे वता थे, िो उत्तर वैददक काि में शूरों के दे वता बन
गए।
 ऋग्वैददक काि में ििंगि की दे वी को ‘अरण्यानी’ कहा िाता था।
 ऋग्वेद में ऊषा, अददतत, सूयाय आदद दे ववयों का उल्िेि लमिता है ।
 प्रलसद्द गायत्री मन्त्र, िो सूयय से सम्बिंधधत दे वी साववत्री को सिंबोधधत है , सवयप्रथम ऋग्वेद में
लमिता है ।

ऋग्वैददक अथयव्यवस्था
1. कृवष एविं पशुपािन

 गें हू की िेती की िाती थी।


 इस काि के िोगों की मुख्य सिंपजत्त गोधन या गाय थी।
 ऋग्वेद में हि के लिए िािंगि अथवा ‘सीर’ शब्द का प्रयोग लमिता है ।
 उपिाऊ भलू म को ‘उवयरा’ कहा िाता था।
 ऋग्वेद के चौथे मिंडि में सम्पूणय मन्त्र कृवष कायों से सम्बद्ध है ।
 ऋग्वेद के ‘गव्य’ एविं ‘गव्यपतत’ शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त हैं।
 लसिंचाई का कायय नहरों से लिए िाता था। ऋग्वेद में नाहर शब्द के लिए ‘कुल्या’ शब्द का
प्रयोग लमिता है ।
 भूलम तनिी सिंपजत्त नहीिं होती थी उस पर सामूदहक अधधकार था।
 ऋग्वैददक अथयव्यवस्था का आधार कृवष और पशुपािन था।
 घोडा आयों का अतत उपयोगी पशु था।

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2. वाखणज्य- व्यापार

 वाखणज्य-व्यापार पर पखणयों का एकाधधकार था। व्यापार स्थि और िि मागय दोनों से


होता था।
 सूदिोर को ‘वेकनाट’ कहा िाता था। िय वविय के लिए ववतनमय प्रणािी का अववभायव
हो चक
ु ा था। गाय और तनष्क ववतनमय के साधन थे।
 ऋग्वेद में नगरों का उल्िेि नहीिं लमिता है । इस काि में सोना तािंबा और कािंसा धातुओिं
का प्रयोग होता था।
 ऋण िेने व बलि दे ने की प्रथा प्रचलित थी, जिसे ‘कुसीद’ कहा िाता था।

3. व्यवसाय एविं उद्योग धिंधे

 ऋग्वेद में बढ़ई, सथकार, बुनकर, चमयकार, कुम्हार, आदद कारीगरों के उल्िेि से इस काि
के व्यवसाय का पता चिता है ।
 तािंबे या कािंसे के अथय में ‘आपस’ का प्रयोग यह सिंके करता है , की धातु एक कमय उद्योग
था।
 ऋग्वेद में वैद्य के लिए ‘भीषक’ शब्द का प्रयोग लमिता है । ‘करघा’ को ‘तसर’ कहा
िाता था। बढ़ई के लिए ‘तसण’ शब्द का उल्िेि लमिता है ।
 लमटटी के बतयन बनाने का कायय एक व्यवसाय था।

स्मरणीय तथ्य

 ऋग्वेद में ककसी पररवार का एक सदस्य कहता है - मैं कवव हूाँ, मेरे वपता वैद्य हैं और
माता चक्की चिने वािी है , लभन्न लभन्न व्यवसायों से िीवकोपाियन करते हुए हम एक
साथ रहते हैं।
 ‘पखण’ व्यापार के साथ-साथ मवेलशयों की भी चोरी करते थे। उन्हें आयों का शत्रु माना
िाता था
 ‘दहरव्य’ एविं ‘तनष्क’ शब्द का प्रयोग स्वणय के लिए ककया िाता था। इनका उपयोग रव्य
के रूप में भी ककया िाता था। ऋग्वेद में ‘अनस’ शब्द का प्रयोग बैिगा़िी के लिए ककया
गया है । ऋग्वैददक काि में दो अमूतय दे वता थे, जिन्हें श्रद्धा एविं मनु कहा िाता था।
 वैददक िोगों ने सवयप्रथ तािंबे की धातु का इस्तेमाि ककया।

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 िब आयय भारत में आये, तब वे तीन श्रेखणयों में ववभाजित थे- योद्धा, पुरोदहत और
सामान्य। िन आयों का प्रारिं लभक ववभािन था। शुरो के चौथे वगय का उद्भव ऋग्वैददक
काि के अिंततम दौर में हुआ।
 ऋग्वेद में सोम दे वता के बारे में सवायधधक उल्िेि लमिता है ।
 इस काि में रािा की कोई तनयलमत सेना नहीिं थी। यद्ध
ु के समय सिंद्धथत की गयी सेना
को ‘नागररक सेना’ कहते थे।
 अजग्न को अधथतत कहा गया है क्योंकक मातररश्वन उन्हें स्वगय से धरती पर िाया था।
 यज्ञों का सिंपादन कायय ‘ऋद्ववि’ करते थे। इनके चार प्रकार थे- होता, अध्वय,ुय उद्गाता
और ब्रह्म।
 सिंतान की इचक
ु मदहिाएिं तनयोग प्रथा का वरण करती थीिं, जिसके अिंतगयत उन्हें अपने
दे वर के साथ साहचयय स्थावपत करना प़िता था।
 आयों का मुख्य व्यवसाय पशुपािन था। वे गाय, बैि, भैंस घो़िे और बकरी आदद पािते
थे।

वैदिक सादित्य
 ऋग्वेद स्तुतत मन्त्रों का सिंकिन है । इस मिंडि में ववभक्त 1017 सूक्त हैं। इन सूत्रों में 11
बािखिल्य सूत्रों को िो़ि दे ने पर कुि सूक्तों की सिंख्या 1028 हो िाती है ।

ऋग्वेद के रचतयता

मण्डल ऋवि
द्ववतीय गत्ृ समद

तत
ृ ीय ववश्वालमत्र
चतुर्थ धमदे व
पंचम अत्री
िष्ट भारद्वाि

सप्तम वलशष्ठ
अष्टम कण्व तथा अिंगीरम

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 दशराज्ञ युद्ध का वणयन ऋग्वेद में लमिता है । यह ऋग्वेद की सवयधधक प्रलसद्द ऐततहालसक
घटना मानी िाती है ।
 ऋग्वेद का नाम मिंडि पूरी तरह से सोम को समवपयत है ।
 ऋग्वेद में 2 से 7 मण्डिों की रचना हुई, िो गुल्समद, ववश्वालमत्र, वामदे व, अलभ, भारद्वाि
और वलशष्ठ ऋवषयों के नाम से है ।
 प्रथम एविं दसवें मण्डि की रचना सिंभवतः सबसे बाद में की गयी। इन्हें सतधचयन कहा
िाता है ।
 गायत्री मिंत्र ऋग्वेद के दसवें मिंडि के पुरुष सूक्त में हुआ है ।
 ऋग्वेद के दसवें मण्डि के 95वें सूक्त में पुरुरवा,ऐि और उवयशी बुह सिंवाद है ।
 10वें मिंडि में मत्ृ यु सूक्त है , जिसमे ववधवा के लिए वविाप का वणयन है ।
 ऋग्वेद के नदी सूक्त में व्यास (ववपाशा) नदी को ‘पररगखणत’ नदी कहा गया है ।
 वैददक सादहत्य के अन्तगयत चारों वेद–ऋग्वेद, सामवेद, यिुवेद एविं अथवयवेद–ब्राह्मण ग्रन्थ,
आरण्यक एविं उपतनषदों का पररगणन ककया िाता है । वेदों का सिंकिनकताय महवषय कृष्ण
द्वैपायन व्यास को माना िाता है । ‘वेद‘ शब्द सिंस्कृत के ववद् धातु से बना है जिसका
अथय है ‘ज्ञान‘ प्राप्त करना या िानना।
 वेदत्रयी के अन्तगयत प्रथम तीनों वेद अथायत ् ऋग्वेद, सामवेद तथा यिुवेद आते हैं। वेदों
को अपौरुषेय कहा गया है । गुरु द्वारा लशष्यों को मौखिक रुप से कण्ठस्थ कराने के
कारण वेदों को श्रतु त की सिंज्ञा दी गयी है ।

ऋग्वेि

 ऋग्वेद दे वताओिं की स्तुतत से सम्बजन्धत रचनाओिं का सिंग्रह है । ऋग्वेद मानव िातत की


प्राचीनतम रचना मानी िाती है ।
 ऋग्वेद 10 मण्डिों में सिंगदठत है । इसमें 2 से 7 तक के मण्डि प्राचीनतम माने िाते हैं।
 प्रथम एविं दशम मण्डि बाद में िो़िे गये माने िाते हैं।
 इसमें कुि 1028 सूक्त हैं।
 गत्ृ समद, ववश्वालमत्र, वामदे व, भारद्वाि, अत्रत्र और वलशष्ठ आदद के नाम ऋग्वेद के मन्त्र
रचतयताओिं के रूप में लमिते हैं।
 मन्त्र रचतयताओिं में जस्त्रयों के भी नाम लमिते हैं, जिनमें प्रमुि हैं–िोपामुरा, घोषा, शची,
पौिोमी एविं कक्षावत
ृ ी आदद।

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 ववद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की रचना पिंिाब में हुई थी।
 ऋग्वेद की रचना–काि के सम्बन्ध में ववलभन्न ववद्वानों ने लभन्न–लभन्न मत प्रस्तत

ककये हैं।
 मैक्समि
ू र 1200 ई० पू० से 1000 के बीच, िौकोबी–तत
ृ ीय सहस्राब्दी ई० प०
ू , बाि गिंगाधर
ततिक–6000 ई० पू० के िगभग, ववण्टरतनत्ि–2500–2000 11500 1000 के बीच की अवधध
ऋग्वैददक काि की प्रामाखणक रचना अवधध के रूप में स्वीकृत है ।
 ऋग्वेद का पाठ करने वािे ब्राह्मण को होत ृ कहा गया है । यज्ञ के समय यह ऋग्वेद की
ऋचाओिं का पाठ करता था।
 ‘असतो मा सद्गमय‘ वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है |

यजव
ु ेि
 यिुः का अथय होता है यज्ञ। यिुवेद में अनेक प्रकार की यज्ञ ववधधयों का वणयन ककया
गया है ।
 इसे अध्वययवेद भी कहते हैं। यह वेद दो भाग में ववभक्त है –(1) कृष्ण यिुवेद (2) शुक्ि
यिव
ु ेद, कृष्ण यिव
ु ेद की चार शािायें हैं–(1) काठक (2) कवपण्ठि (3) मैत्रायणी (4)
तैत्तरीय।
 यिव
ु ेद की पािंचवी शािा को वािसनेयी कहा िाता है जिसे शक्
ु ि यिव
ु ेद के अन्तगयत
रिा िाता है ।
 यिव
ु ेद कमयकाण्ड प्रधान है । इसका पाठ करने वािे ब्राह्मणों को अध्वयुय कहा गया है ।

सामवेि

 साम का अथय ‘गान‘ से है । यज्ञ के अवसर पर दे वताओिं का स्तुतत करते हुए सामवेद की
ऋचाओिं का गान करने वािे ब्राह्मणों को उद्गात ृ कहते थे।
 सामवेद में कुि 1810 ऋचायें हैं। इसमें से अधधकािंश ऋग्वैददक ऋचाओिं की पुनरावजृ त्त हैं

 मात्र 78 ऋचायें नयी एविं मौलिक हैं |
 सामवेद तीन शािाओिं में ववभक्त है -(1) कौथम
ु (2) राणायनीय (3) िैलमनीय।

अर्वथवेि

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 अथवयवेद की रचना अथवाय ऋवष ने की थी। इसकी दो शािायें हैं –(1) शौनक (2) वपप्िाद
 अथवयवेद 20 अध्यायों में सिंगदठत है । इसमें 731 सक्
ू त एविं 6000 के िगभग मन्त्र हैं।
 इसमें रोग तनवारण, रािभजक्त, वववाह, प्रणय–गीत, मारण, उच्चारण, मोहन आदद के मन्त्र,
भत
ू –प्रेतों, अन्धववश्वासों का उल्िेि तथा नाना प्रकार की औषधधयों का वणयन है ।
 अथवयवेद में ववलभन्न राज्यों का वणयन प्राप्त होता है जिसमें कुरु प्रमि
ु है ।
 इसमें परीक्षक्षत को कुरुओिं का रािा कहा गया है एविं कुरु दे श की समवृ द्ध का वणयन प्राप्त
होता है ।

ब्राह्मण ग्रन्र्

 वैददक सिंदहताओिं के कमयकाण्ड की व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई । इनका
अधधकािंश भाग गद्य में है ।
 प्रत्येक वैददक सिंदहता के लिए अिग-अिग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं।
 ऋग्वेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ– ऐतरे य एविं कौषीतकी।
 यिुवेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ– तैजत्तरीय एविं शतपथ।
 सामवेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ- पिंचवविंश।
 अथवयवेद से सम्बजन्धत ब्राह्मण ग्रन्थ- गोपथ।
 ब्राह्मण ग्रन्थों से हमें परीक्षक्षत के बाद तथा त्रबजम्बसार के पव
ू य की घटनाओिं का ज्ञान
प्राप्त होता है ।
 ऐतरे य ब्राह्मण में राज्यालभषेक के तनयम प्राप्त होते हैं ।
 शतपथ ब्राह्मण में गन्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पािंचाि, कोसि, ववदे ह आदद के उल्िेि प्राप्त
होते हैं

आरण्यक

 आरण्यकों में कमयकाण्ड की अपेक्षा ज्ञान पक्ष को अधधक महत्व प्रदान ककया गया है ।
वतयमान में सात आरण्यक उपिब्ध हैं (1) ऐतरे य आरण्यक (2) तैजत्तरीय आरण्यक (3)
शािंिायन आरण्यक (4) मैत्रायणी आरण्यक (5) माध्यजन्दन आरण्यक (6) तल्वकार
आरण्यक उपतनषद्
 उपतनषदों में प्राचीनतम दाशयतनक ववचारों का सिंग्रह है । ये ववशद्ध
ु रूप से ज्ञान-पक्ष को
प्रस्तत
ु करते हैं। सजृ ष्ट के रचतयता ईश्वर, िीव आदद पर दाशयतनक वववेचन इन ग्रन्थों में
उपिब्ध होता है ।

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 अपनी सवयश्रेष्ठ लशक्षा के रूप में उपतनषद हमें यह बताते हैं कक िीवन का उद्देश्य मनुष्य
की आत्मा का ववश्व की आत्मा, से लमिना है ।
 मख्
ु य उपतनषद हैं-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मण्
ु डक, माण्डूक्य, तैजत्तरीय, ऐतरे य, छान्दोग्य,
वह
ृ दारण्यक, श्वेताश्वर, कौषीतकी आदद।
 भारत का प्रलसद्ध आदशय राष्िीय वाक्य ‘सत्यमेव ियते’ मण्
ु डकोपतनषद से लिया गया है ।

सामास्जक स्स्र्नत

 ऋग्वैददक काि में सामाजिक सिंगठन की न्यूनतम इकाई पररवार था। सामाजिक सिंरचना
का आधार सगोत्रता थी । व्यजक्त की पहचान उसके गोत्र से होती थी।
 पररवार में कई पीदढ़यािं एक साथ रहती थीिं। नाना, नानी, दादा, दादी, नाती, पोते आदद सभी
के | लिए नत ृ शब्द का उल्िेि लमिता है ।
 पररवार वपतस
ृ त्तात्मक होता था। वपता के अधधकार असीलमत होते थे। वह पररवार के
सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड दे सकता था।
 ऋग्वेद में एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्िेि है जिसे उसके वपता ने अन्धा बना ददया
था। ऋग्वेद में ही शनु :शेष का वववरण प्राप्त होता है जिसे उसके वपता ने बेच ददया था।
|
 ऋग्वेद में पररवार के लिए कुि का नहीिं बजल्क गह ृ का प्रयोग हुआ है । | िीवन में
स्थातयत्व का पुट कम था। मवेशी, रथ, दास, घो़िे आदद के दान के उदाहरण तो प्राप्त होते
हैं ककन्तु भूलमदान के नहीिं।
 अचि सम्पजत्त के रूप में भूलम एविं गह
ृ अभी स्थान नहीिं बना पाये थे । समाि काफी
हद तक कबीिाई और समतावादी था।
 समाि में मदहिाओिं को सम्मानपूवय स्थान प्राप्त था । जस्त्रयों की लशक्षा की व्यवस्था थी।
 अपािा, िोपामुरा, ववश्ववारा, घोषा आदद नाररयों के मन्त्र रष्टा होकर ऋवषपद प्राप्त करने
का उल्िेि प्राप्त होता है । पुत्र की भााँतत पुत्री को भी उपनयन, लशक्षा एविं यज्ञादद का
अधधकार था।
 एक पववत्र सिंस्कार एविं प्रथा के रूप में ‘वववाह‘ की स्थापना हो चक
ु ी थी।
 बहु वववाह यद्यवप ववद्यमान था परन्तु एक पत्नीव्रत प्रथा का ही समाि में प्रचिन था।
 प्रेम एविं धन के लिए वववाह होने की बात ऋग्वेद से ज्ञात होती है ।
 वववाह में कन्याओिं को अपना मत रिने की छूट थी। कभी–कभी कन्यायें िम्बी उम्र तक
या आिीवन ब्रह्मचयय का पािन करती थीिं, इन्हें अमािू: कहते थे।

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 ऋग्वेद में अन्तिायतीय वववाहों पर प्रततबन्ध नहीिं था। वयस्क होने पर वववाह सम्पन्न
होते थे।
 वववाह ववच्छे द सम्भव था। ववधवा वववाह का भी प्रचिन था।
 कन्या की ववदाई के समय उपहार एविं रव्य ददए िाते थे जिसे वहतु‘ कहते थे। जस्त्रयााँ
पन
ु ववयवाह कर सकती थीिं।
 ऋग्वेद में उल्िेि आया है कक वलशष्ठ उनके परु ोदहत हुए और त्रत्रत्सओ
ु िं ने उन्नतत की।
 भरत िोगों के रािविंश का नाम त्रत्रत्सु मािम
ु प़िता है । जिसके सबसे प्रलसद्ध प्रतततनधध
ददवोदास और उसका पत्र
ु या पौत्र सद
ु ास
 ऋग्वेद महत्वपूणय नदी तथा िमश: लसन्धु एविं सरस्वती सवायधधक पववत्र नदी एक मात्र
पवयत मूिवन्त (दहमाचि) प्रमुि दे वता इन्र
 यज्ञ में बलि - यज्ञों में पशुओिं के बलि का उल्िेि लमिता है ।
 समाि वपतस
ृ त्तात्मक वणय व्यवस्था नहीिं जस्त्रयों की दशा बेहतर, यज्ञों में भाग िेने एविं
लशक्षा ग्रहण करने का अधधकार था।
 सामाजिक जस्थतत ववधवा वववाह, अन्तिायतीय वववाह, पुनववयवाह, तनयोग, प्रथा का प्रचिन
था। पदाय प्रथा का प्रचिन नहीिं था।
 वास अधधवास और नीवी िन आयय िोग िनों में ववभक्त थे जिसका मुखिया रािा होता
था।
 रािा िनता चन ु ती थी मुि पदाधधकारी पुरोदहत, सेनानी सभा वद्ध
ृ िनों की छोटी चन
ु ी हुई
|
 मत्ृ यद
ु ण्ड प्रचलित था परन्तु अधधकतर शारीररक दण्ड ददया िाता था। अजग्न परीक्षा, िि
परीक्षा, सिंतप्त पर परीक्षा के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं।
 ऋग्वेद में िातीय यद्ध
ु के अनेक उदाहरण प्राप्त होते है ।
 एक यद्ध
ु में सि
ू यों ने तव
ु श
य ों और उनके लमत्र वच
ृ ीवतों की सेनाओिं को तछन्न–लभन्न कर
ददया।
 दाशराज्ञ युद्ध दाशराज्ञ युद्ध में भरत िन के रािन सुदास ने दस रािाओिं के एक सिंघ को
पराजित ककया था। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के ककनारे हुआ था।
 युद्ध का कारण यह था कक प्रारम्भ में ववश्वालमत्र भरत िन के पुरोदहत थे। ववश्वालमत्र की
ही प्रेरणा से भरतों ने पिंिाब में ववपासा और शतुरी को िीता था।
 परिं तु बाद में सुदास ने वलशष्ठ को अपना पुरोदहत तनयुक्त ककया। ववश्वालमत्र ने दस
रािाओिं का एक सिंघ बनाया और सुदास के खििाफ युद्ध घोवषत कर ददया। इस युद्ध में
पािंच आयय िाततयों के कबीिे थे और पााँच आयेतर िनों के। इसी युद्ध में वविय के

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पश्चात भरत िन, जिनके आधार पर इस दे श का नाम भारत प़िा, की प्रधानता स्थावपत
हुई। ऋग्वैददक रािनीततक अवस्था रािनीततक सिंगठन
 ऋग्वेद में अनेक रािनीततक सिंगठनों का उल्िेि लमिता है यथा राष्ि, िन, ववश एविं
ग्राम। ऋग्वेद में यद्यवप राष्ि शब्द का उल्िेि प्राप्त होता है , परन्तु ऐसा माना गया है
कक भौगोलिक क्षेत्र ववशेष पर आधाररत स्थायी राज्यों का उदय अभी नहीिं हुआ था।
 राष्ि में अनेक िन होते थे।िनों में पिंचिन–अन,ु रय,ु यद,ु तव
ु स
य एविं परु
ु प्रलसद्ध थे। अन्य
िन थे भारत, त्रत्रत्सु, सिंि
ु य, त्रत्रवव आदद।
 िन सम्भवतः ववश में ववभक्त होते थे। ववश 1(कैंटन या जििा) के प्रधान को ववशाम्पतत
कहा गया है ।
 ववश ग्रामों में ववभक्त रहते थे। ग्राम का मुखिया ग्रामणी होता था।
 रािा ऋग्वेद में रािा के लिए रािन ्, सम्राट, िनस्य गोप्ता आदद शब्दों का व्यवहार हुआ
है ।
 ऋग्वैददक काि में सामान्यत: राितन्त्र का प्रचिन था। रािा का पद दै वी नहीिं माना
िाता था।
 ऋग्वैददक काि में रािा का पद आनुविंलशक होता था। परन्तु हमें सलमतत अथवा कबीिाई
सभा द्वारा ककए िाने वािे चन
ु ावों के बारे में की सूचना लमिती है ।
 ऋग्वैददक काि में रािन ् एक प्रकार से कबीिे का मुखिया होता था ।रािपद पर रािा
ववधधवत अलभवषक्त होता था।
 रािा को िनस्य गोपा (कबीिे का रक्षक) कहा गया है । वह गोधन की रक्षा करता था,
युद्ध का नेतत्ृ व करता था तथा कबीिे की ओर से दे वताओिं की आराधना करता था। |
 सभा, सलमतत एविं गण ऋग्वेद में हमें सभा, सलमतत, ववदथ और गण िैसे कबीिाई पररषदों
के उल्िेि लमिते हैं। इन पररषदों में िनता के दहतों, सैतनक अलभयानों और धालमयक
अनुष्ठानों के बारे में ववचार–ववमशय होता था। सभा एविं सलमतत की काययवाही में जस्त्रयााँ
भी भाग िेती थीिं।
 पदाधधकारी पुरोदहत, सेनानी, स्पश (गुप्तचर) दै तनक कायों में रािा की सहायता करते थे।
तनयलमत कर व्यवस्था की शुरुआत नहीिं हुई थी।
 िोग स्वेच्छा से अपनी सम्पजत्त का एक भाग रािन ् को उसकी सेवा के बदिे में दे दे ते
थे।इस भें ट को बलि कहते थे। कर वसि
ू ने वािे ककसी अधधकारी का नाम नहीिं लमिता
है । गोचर–भलू म के अधधकारी को व्रािपतत कहा गया है ।
 कुिप पररवार का मखु िया होता था। |
 ऋग्वैददक काि में रािा तनयलमत सेना नहीिं रिता था। यद्ध
ु के अवसर पर सेनायें
ववलभन्न कबीिों से एकत्र कर िी िाती थी।

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 युद्ध के अवसर पर िो सेना एकत्र की िाती थी उनमें व्रात, गण, ग्राम और शधय नामक
ववववध कबीिाई सैतनक सजम्मलित होते थे।
 ऋग्वैददक प्रशासन मुख्यत: एक कबीिाई व्यवस्था वािा शासन था जिसमें सैतनक भावना
प्रधान होती थी।
 नागररक व्यवस्था अथवा प्रादे लशक प्रशासन िैसी ककसी चीि का अजस्तत्व नहीिं था,
क्योंकक िोग ववस्तार कर अपना स्थान बदिते िा रहे थे।
 ऋग्वेद में न्यायाधीश का उल्िेि नहीिं प्राप्त होता है । समाि में कई प्रकार के अपराध
होते थे। गायों की चोरी आम बात थी । इसके अततररक्त िेन–दे न के झग़िे भी होते थे।
सामाजिक परम्पराओिं का उल्ििंघन करने पर दण्ड ददया िाता था।

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भौनतक जीवन
 ऋग्वैददक िोग मुख्यत: पशुपािक थे। वे स्थायी िीवन नहीिं व्यतीत करते थे।
 पशु ही सम्पजत्त की वस्तु समझे िाते थे। गवेषण, गोषु, गव्य आदद शब्दों का प्रयोग युद्ध
के लिए ककया िाता था। िन–िीवन में युद्ध के वातावरण का बोिबािा था।
 िोग लमट्टी एविं घास फूस से बने मकानों में रहते थे। िोग िोहे से अपररधचत थे।
 कृष्ण अयस शब्द का सवयप्रथम उल्िेि िेलमनी उपतनषद (उत्तर वैददक काि) में लमिता
है ।

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 ऋग्वैददक िोग कोर वािी कुल्हाड़ियािं, कािंसे की कटारें और ि़िग का इस्तेमाि करते थे।
तािंबा रािस्थान की िेत्री िानों से प्राप्त ककया िाता था।
 भारत में आयों की सफिता के कारण थे–घो़िे, रथ और तााँबे के बने कुछ हधथयार ।
 कृवष कायों की िानकारी िोगों को थी।
 भलू म को सतु नयोजित पद्धतत का तनयोजित सिंपजत्त का रूप नहीिं ददया गया था।
 ववलभन्न लशल्पों की िानकारी भी प्राप्त होती है ।
 ऋग्वेद से बढ़ई, रथकार, बन
ु कर, चमयकार एविं कारीगर आदद लशल्पवगय की िानकारी प्राप्त
होती है ।
 हररयाणा के भगवान पुरा में तेरह कमरों वािा एक मकान प्राप्त हुआ है , यहााँ तेरह कमरों
वािा एक लमट्टी का घर प्रकाश में आया है । यहााँ लमिी वस्तुओिं की ततधथ का तनधायरण
1600 ई० पू० से 1000 ई० पू० तक ककया गया है ।
 ऋग्वेदकािीन सिंस्कृतत ग्राम–प्रधान थी। नगर स्थापना ऋग्वेद काि की ववशेषता नहीिं है ।
 तनयोग प्रथा के प्रचिन के सिंकेत भी ऋग्वेद से प्राप्त होते हैं जिसके अन्तगयत पुत्र ववहीन
ववधवा पुत्र प्राजप्त के तनलमत्त अपने दे वर के साथ यौन सम्बन्ध स्थावपत करती थी।
 ऋग्वैददक काि में बाि वववाह नहीिं होते थे, प्राय: 16–17 वषय की आयु में वववाह होते थे।
 पदाय प्रथा का प्रचिन नहीिं था। सती प्रथा का भी प्रचिन नहीिं था।
 जस्त्रयों को रािनीतत में भाग िेने का अधधकार नहीिं था।
 अन्त्येजष्ट किया पुत्रों द्वारा ही सम्पन्न की िाती थी, पुत्रत्रयों द्वारा नहीिं।
 जस्त्रयों को सम्पजत्त सम्बन्धी अधधकार नहीिं थे।
 वपता की सम्पजत्त का अधधकारी पुत्र होता था, पुत्री नहीिं। वपता, पुत्र के अभाव में गोद िेने
का अधधकारी था।

वणथ व्यवस्र्ा एवं सामास्जक वगीकरण

 ऋग्वेदकािीन समाि प्रारम्भ में वगय ववभेद से रदहत था। िन के सभी सदस्यों की
सामाजिक प्रततष्ठा समान थी। ऋग्वेद में वणय शब्द कहीिं–कहीिं रिं ग तथा कहीिं–कहीिं
व्यवसाय के रूप में प्रयुक्त हुआ
 प्रारम्भ में ऋग्वेद में तीनों वगों का उल्िेि प्राप्त होता है –ब्रह्म, क्षेत्र तथा ववशः ब्रमेय
यज्ञों को सम्पन्न करवाते थे, हातन से रक्षा करने वािे क्षत्र (क्षत्रत्रय) कहिाते थे। शेष
िनता ववश कहिाती थी।
 इन तीनों वगों में कोई कठोरता नहीिं थी। एक ही पररवार के िोग ब्रह्म, क्षत्र या ववश हो
सकते थे।

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 ऋग्वैददक काि में सामाजिक ववभेद का सबसे ब़िा कारण था आयों का स्थानीय
तनवालसयों पर वविय ।
 आयों ने दासों और दस्युओिं को िीतकर उन्हें गि
ु ाम और शर
ू बना लिया।
 शर ू ों का सवयप्रथम उल्िेि ऋग्वेद के दशवें मण्डि (परु ु ष सक्
ु त) में हुआ है । अत: यह
प्रतीत होता है कक शर ू ों की उत्पजत्त ऋग्वैददक काि के अिंततम चरण में हुई।
 डा० आर० एस० शमाय का ववचार है कक शर ू वगय में आयय एविं अनायय दोनों ही वगों के
िोग सजम्मलित थे। आधथयक तथा सामाजिक ववषमताओिं के फिस्वरूप समाि में उददत
हुए। |
 श्रलमक वगय की ही सामान्य सिंज्ञा शूर हो गयी। | ऋग्वेद के दशवें मण्डि (पुरुष सूक्त) में
वणय व्यवस्था की उत्पजत्त के दै वी लसद्धान्त का वणयन प्राप्त होता है । इसमें शूर शब्द का
सवयप्रथम उल्िेि करते हुए कहा गया है कक ववराट पुरुष के मुि से ब्राह्मण, उसकी
बाहुओिं से क्षत्रत्रय, ििंघाओिं से वैश्य तथा पैरों से शूर उत्पन्न हुए। परन्तु इस समय वगों
में िदटिता नहीिं आई थी तथा समाि के ववलभन्न वगय या वणय या व्यवसाय पैतक ृ नहीिं
बने थे।
 वणय व्यवस्था िन्मिात न होकर व्यवसाय पर आधाररत थी। व्यवसाय पररवतयन सम्भव
था। एक ही पररवार के सदस्य ववलभन्न प्रकार अथवा वगय के व्यवसाय करते थे। एक
वैददक ऋवष अिंधगरस ने ऋग्वेद में कहा है , ‘मैं कवव हूाँ। मेरे वपता वैद्य हैं और मेरी मााँ
अन्न पीसने वािी है । अत: वणय व्यवस्था पाररवाररक सदस्यों के बीच भी
अन्त:पररवतयनीय थी।
 समाि में कोई भी ववशेषाधधकार सम्पन्न वगय नहीिं था।
 शूरों पर ककसी तरह की अपात्रता नहीिं िगाई गयी थी। उनके साथ वैवादहक सम्बन्ध
अन्य वगों की तरह सामान्य था। ववलभन्न वगों के साथ सहभोि पर कोई प्रततबन्ध नहीिं
था। अस्पश्ृ यता भी ववद्यमान नहीिं थी।
 ऋग्वैददक काि में दास प्रथा ववद्यमान थी। गायों, रथों, घो़िों के साथ–साथ दास दालसयों
के दान दे ने के उदाहरण प्राप्त होते हैं।
 धनी वगय में सम्भवत: घरे िू दास प्रथा ऐश्वयय के एक स्रोत के रूप में ववद्यमान थी
ककन्तु आधथयक उत्पादन में दास प्रथा के प्रयोग की प्रथा प्रचलित न थी।
 ऋग्वैददक आयय मािंसाहारी एविं शाकाहारी दोनों प्रकार के भोिन करते थे। भोिन में दध
ू ,
घी, दही, मध,ु मािंस आदद का प्रयोग होता था।
 नमक का उल्िेि ऋग्वेद में अप्राप्य है । पीने के लिए िि नददयों, तनघयरों (उत्स) तथा
कृत्रत्रम कूपों से प्राप्त ककया िाता था।

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 सोम भी एक पेय पदाथय के रूप में प्रलसद्ध था।इस अह्िादक पेय की स्तुतत में ऋग्वेद का
नौवााँ मण्डि भरा प़िा है ।
 सोम वस्तत
ु : एक पौधे का रस था िो दहमािय के मि
ू वन्त नामक पवयत पर लमिता
था। इसका प्रयोग केवि धालमयक उत्सवों पर होता था। सरु ा भी पेय पदाथय था परन्तु
इसका पान वजियत था।
 वस्त्र कपास, ऊन, रे शम एविं चम़िे के बनते थे। आयय लसिाई से पररधचत थे।
 गन्धार प्रदे श भें ़ि की ऊनों के लिए प्रलसद्ध था। पोशाक के तीन भाग थे–नीवी अथायत ्
कमर के नीचे पहना िाने वािा वस्त्र, वास–अथायत ् कमर के ऊपर पहना िाने वािा वस्त्र,
अधधवास या अत्क या रावप–अथायत ् ऊपर से धारण ककया िाने वािा चादर या ओढ़नी।
 िोग स्वणायभूषणों का प्रयोग करते थे। स्त्री और पुरुष दोनों ही पग़िी का प्रयोग करते थे।
 ऋग्वेद में नाई को वत ृ कहा गया है । आमोद–प्रमोद 6 रथ दौ़ि, आिेट, युद्ध एविं नत्ृ य
आयों के वप्रय मनोववनोद थे। िुआ भी िेिा िाता था।
 वाद्य सिंगीत में वीणा, दन्ु दभ
ु ी, करताि, आधार और मद
ृ िं ग का प्रयोग ककया िाता था।

उत्तरवैदिक काल(1000 - 600 ई.पु.)


स्रोत

 उत्तरवैददक कािीन सभ्यता की िानकारी के स्रोत तीन वैददक सिंदहताएाँ—यिुवेद, सामवेद,


अथवयवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ एविं उपतनषद ग्रन्थ हैं।
 यहााँ यह ध्यातव्य है कक वेदािंग वैददक सादहत्य के अन्तगयत पररगखणत नहीिं होते हैं।

उत्तरवैददक आयों का भौगोलिक ववस्तार

 उत्तरवैददक काि में आयों की भौगोलिक सीमा का ववस्तार गिंगा के पूवय में हुआ।
 शतपथ ब्राह्मण में आयों के भौगोलिक ववस्तार की आख्यातयका के अनुसार-ववदे थ माधव
ने वैश्वानर अजग्न को माँह
ु में धारण ककया।
 धत
ृ का नाम िेते ही वह अजग्न पथ् ृ वी पर धगर गया तथा सब कुछ ििाता हुआ पूवय की
तरफ बढ़ा। पीछे -पीछे ववदे थ माधव एविं उनका पुरोदहत गौतम राहूगण चिा। अकस्मात ्
वह सदानीरा (गिंडक) नदी को नहीिं ििा पाया।

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 सप्तसैंधव प्रदे श से आगे बढ़ते हुए आयों ने सम्पूणय गिंगा घाटी पर प्रभुत्व िमा लिया।
इस प्रकिया में कुरु एविं पािंचाि ने अत्यधधक प्रलसवद्ध प्राप्त की। कुरु की रािधानी
आसन्दीवत तथा पािंचाि की कािंवपल्य थी।
 कुरु िोगों ने सरस्वती और दृषद्वती के अग्रभाग (‘कुरुक्षेत्र,-और ददल्िी एविं मेरठ के
जििों) को अधधकार में कर लिया।’
 पािंचाि िोगों ने वतयमान उत्तर प्रदे श के अधधकािंश भागों (बरे िी, बदायाँू और फरुय िाबाद
जििों) पर अधधकार कर लिया।
 कुरु िातत कई छोटी-छोटी िाततयों के लमिने से बनी थी, जिनमें परु
ु ओिं और भरतों के भी
दि थे। पािंचाि िातत कृवष िातत से तनकिी थी जिसका सुिंियों और तुवश
य ों का सम्बन्ध
था।
 कुरुविंश में कई प्रतापी रािाओिं के नाम अथवयवेद एविं ववलभन्न उत्तरवैददक कािीन ग्रन्थों
में लमिते हैं। अथवयवेद में प्राप्त एक स्तुतत का नायक परीक्षक्षत है । जिसे ववश्विनीन
रािा कहा गया है इसका पुत्र िनमेिय था।
 पािंचाि िोगों में भी प्रवाहण, िैवालि एविं ऋवष आरुखण-श्वेतकेतु िैसे प्रतापी नरे शों के नाम
लमिते हैं, ये उच्च कोदट के दाशयतनक थे।
 उत्तरवैददक काि में कुरु, पन्चाि कोशि, काशी तथा ववदे ह प्रमुि राज्य थे। आयय सभ्यता
का ववस्तार उत्तरवैददक काि में ववन्ध्य में दक्षक्षण में नहीिं हो पाया था।

रािनीततक जस्थतत

 राज्य सिंस्था—कबीिाई तत्व अब कमिोर हो गये तथा अनेक छोटे –छोटे कबीिे एक–दस
ू रे
में वविीन होकर ब़िे क्षेत्रगत िनपदों को िन्म दे रहे थे। उदाहरणाथय, परु
ू एविं भरत
लमिकर कुरु और तुवस
य एविं किवव लमिकर पािंचाि कहिाए।
 ऋग्वेद में इस बात के सिंकेत लमिते हैं कक राज्यों या िनपदों का आधार िातत या
कबीिा था परन्तु अब क्षेत्रीयता के तत्वों में ववृ द्ध हो रहा था। प्रारम्भ में प्रत्येक प्रदे श को
वहााँ बसे हुए कबीिे का नाम ददया गया।
 आरम्भ में पािंचाि एक कबीिे का नाम था परन्तु अब उत्तरवैददक काि में यह एक
(क्षेत्रगत) प्रदे श का नाम हो गया। तात्पयय यह कक अब इस क्षेत्र पर चाहे जिस कबीिे का
प्रधान या चाहे िो भी राज्य करता, इसका नाम पािंचाि ही रहता।
 ववलभन्न प्रदे शों में आयों के स्थायी राज्य स्थावपत हो गये। राष्ि शब्द, िो प्रदे श का
सूचक है , पहिी बार इसी काि में प्रकट होता है ।

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 उत्तरवैददक काि में मध्य दे श के रािा साधारणतः केवि रािा की उपाधध से ही सन्तुष्ट
रहते थे। पव
ू य के रािा सम्राट, दक्षक्षण के भोि पजश्चम के स्वरा, और उत्तरी िनपदों के
शासक ववराट कहिाते थे।
 उत्तरवैददक काि के प्रमुि राज्यों में कुरु-पािंचाि (ददल्िी-मेरठ और मथरु ा के क्षेत्र) पर
कुरु िोग हजस्तनापरु से शासन करते थे। गिंगा-यमन
ु ा के सिंगम के पव
ू य कोशि का राज्य
जस्थत था। कोसि के पव
ू य में काशी राज्य था।
 ववदे ह नामक एक अन्य राज्य था जिसके रािा िनक कहिाते थे। गिंगा के दक्षक्षणी भाग
में ववदे ह के दक्षक्षण में मगध राज्य था।
 राज्य के आकार में ववृ द्ध के साथ ही साथ रािा के शजक्त और अधधकार में ववृ द्ध हुई।
 अब रािा अपनी सारी प्रिा का स्वतिंत्र स्वामी होने का दावा करता था।
 शासन पद्धतत राितन्त्रात्मक थी। रािा का पदिं विंशानुगत होता था। यद्यवप िनता द्वारा
रािा के चन
ु ाव के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं।
 रािा अब केवि िन या कबीिे का रक्षक या नेता न होकर एक ववस्तत
ृ भाग का
एकछत्र शासक होता था।

राि पद की उत्पजत्त के लसद्धान्त

 उत्तरवैददक सादहत्य में राज्य एविं रािा के प्रादभ


ु ायव के ववषय में अनेक लसद्धान्त लमिते
हैं–रािा के पद के िन्म के बारे में ऐतरे य ब्राह्मण से सवयप्रथम िानकारी लमिती है ।
 (1) सैतनक आवश्यकता का लसद्धान्त–ऐतरे य ब्राह्मण का उल्िेि है कक एक बार दे वासरु –
सिंग्राम हुआ। बार–बार पराजित होने के पश्चात सब इस तनष्कषय पर पहुाँचे कक रािाववहीन
होने के कारण ही हमारी परािय होती है । अतः उन्होंने सोम को अपना रािा बनाया और
पुन: युद्ध ककया। इस बार उनकी वविय हुई। अतः इससे ज्ञात होता है कक रािा का
प्रादभ
ु ायव सैतनक आवश्यकताओिं की पूततय के लिए हुआ था। तैजत्तरीय ब्राह्मण में भी इसी
मत से सम्बजन्धत एक उल्िेि प्राप्त होता है , इसमें यह कहा गया है कक समस्त
दे वताओिं ने लमिकर इन्र को रािा बनाने का तनश्चय ककया, क्योंकक वह सबसे अधधक
सबि और प्रततभाशािी दे वता था। |
 (2) समझौते का लसद्धान्त–शतपथ ब्राह्मण में एक उल्िेि के अनुसार िब कभी अनावजृ ष्ट
काि होता है तो सबि तनबयि का उत्पी़िन करते हैं। इस दव
ु ह
य पररजस्थतत को दरू करने
के लिए समाि ने अपने सबसे सबि और सुयोग्य सदस्य को रािा बनाया था और
समझौते के अनुसार अपने असीम अधधकारों को रािा के प्रतत समवपयत कर ददया।

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 (3) दै वी लसद्धान्त–उत्तरवैददक काि में रािा को दै व पद भी ददया िाने िगा था। रािा के
शजक्त और अधधकार ववलभन्न प्रकार के अनष्ु ठानों ने रािा की शजक्त को बढ़ाया। कई
तरह के ििंबे और रािकीय यज्ञानष्ु ठान प्रचलित हो गये। रािाओिं का राज्यालभषेक होता
था। राज्यालभषेक के समय रािा रािसय
ू यज्ञ करता था। यह यज्ञ सम्राट का पद प्राप्त
करने के लिए ककया िाता था, तथा इससे यह माना िाता था कक इन यज्ञों से रािाओिं
को ददव्य शजक्त प्राप्त होती है ।रािसय
ू यज्ञ में रलिन नामक अधधकाररयों के घरों में
दे वताओिं को. बलि दी िाती थी। है अश्वमेध यज्ञ तीन ददनों तक चिने वािा यज्ञ होता
था। समझा िाता था कक अश्वमेध–अनष्ु ठान से वविय और सम्प्रभत
ु ा की प्राजप्त होती है ।
अश्वमेध यज्ञ में घो़िा प्रयुक्त होता था। वािपेय यज्ञ में , िो सत्रह ददनों तक चिता था,
रािा की अपने सगोत्रीय बन्धओ
ु िं के साथ रथ की दौ़ि होती थी।

रािा दे वता का प्रतीक समझा िाता था। अथवयवेद में रािा परीक्षक्षत को ‘मत्ृ युिोक का दे वता‘
कहा गया है । रािा के प्रधानकायय सैतनक और न्याय सम्बन्धी होते थे। वह अपनी प्रिा और
कानूनों का रक्षक तथा शत्रओ
ु िं का सिंहारक था। रािा स्वयिं दण्ड से मुक्त था परन्तु वह रािदण्ड
का उपयोग करता था। लसद्धान्ततः रािा तनरिं कुश होता था परन्तु राज्य की स्वेच्छाचाररता कई
प्रकार से मयायददत रहती थी। उदाहरणाथय

 (1) रािा के वरण में िनता की सहमतत की उपेक्षा नहीिं हो सकती थी।
 (2) अलभषेक के समय राज्य के स्वायत्त अधधकारों पर िगायी गयी मयायदाओिं का तनवायह
करना रािा का कतयव्य होता था।
 (3) रािा को रािकायय के लिए मिंत्रत्रपररषद पर तनभयर रहना प़िता था।
 (4) सभा और सलमतत नामक दो सिंस्थायें रािा के तनरिं कुश होने पर रोक िगाती थीिं।
 (5) रािा की तनरिं कुशता पर सबसे ब़िा अिंकुश धमय का होता था। अथवयवेद के कुछ सूक्तों
से पता चिता है कक रािा िनता की भजक्त और समथयन प्राप्त करने के लिए िािातयत
रहता था। कुछ मन्त्रों से पता चिता है कक अन्यायी रािाओिं को प्रिा दण्ड दे सकती थी
तथा उन्हें राज्य से बदहष्कृत कर सकती थी। कुरुविंशीय परीक्षक्षत िनमेिय तथा पािंचाि
विंश के रािाओिं प्रवाहन, िैवालि अरुखण एविं श्वेतकेतु के समवृ द्ध के बारे में िानकारी
अथवयवेद में लमिती है ।

रािा का तनवायचन

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 अनेक वैददक साक्ष्यों से हमें रािा के तनवायचन की सूचना प्राप्त होती है । अथवयवेद में एक
स्थान पर रािा के तनवायचन की सच
ू ना प्राप्त होती है ।
 राज्यालभषेक के अवसरों पर रािा रजत्नयों के घर िाता था।
 शतपथ ब्राह्मण में रजत्नयों की सिंख्या 11 दी गई है –(1) सेनानी (2) परु ोदहत (3) यव
ु राि
(4) मदहषी (5) सत
ू (6) ग्रालमणी (7) क्षत्ता (8) सिंग्रहीता (कोषाध्यक्ष) (9) भागद्ध (कर
सिंग्रहकताय) (10) अक्षवाप (पासे के िेि में रािा का सहयोगी) (11) पािागि (रािा का
लमत्र और ववदष
ू क)।
 राज्यालभषेक में 17 प्रकार के ििों से रािा का अलभषेक ककया िाता था।

प्रशासतनक सिंस्थायें

 उत्तरवैददक काि में िन पररषदों, सभा, सलमतत, ववदथ का महत्व कम हो गया।


 रािा की शजक्त बढ़ने के साथ ही साथ इनके अधधकारों में काफी धगरावट आयी।
 ववदथ पूणत
य या िुप्त हो गये थे। सभा–सलमतत का अजस्तत्व था परन्तु या तो इनके पास
कोई अधधकार शेष नहीिं था या इन पर सम्पजत्तशािी एविं धनी िोगों का अधधकार हो
गया था।
 जस्त्रयााँ अब सभा सलमतत में भाग नहीिं िे पाती थीिं।

पदाधधकारी

 पुरोदहत, सेनानी एविं ग्रालमणी के अिावा उत्तरवैददक कािीन ग्रन्थों में हमें सिंग्रदहत ृ
(कोषाध्यक्ष), भागदध
ु (कर सिंग्रह करने वािा), सूत (रािकीय चारण, कवव या रथ वाहक),
क्षतु, अक्षवाप (िुए का तनरीक्षक) गोववकतयन (आिेट में रािा का साथी) पािागि िैसे
कमयचाररयों का उल्िेि प्राप्त होता है ।
 सधचव नामक उपाधध का उल्िेि भी लमिता है , िो आगे चिकर मजन्त्रयों के लिए प्रयुक्त
हुई है ।
 उत्तरवैददक काि के अन्त तक में बलि और शुल्क के रूप में तनयलमत रूप से कर दे ना
िगभग अतनवायय बनता िा रहा।
 रािा न्याय का सवोच्च अधधकारी होता था। अपराध सम्बन्धी मुकदमों में व्यजक्तगत
प्रततशोध का स्थान था। न्याय में दै वी न्याय का व्यवहार भी होता था।
 तनम्न स्तर पर प्रशासन एविं न्यायकायय ग्राम पिंचायतों के जिम्मे था, िो स्थानीय झग़िों
का फैसिा करती थी।

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सामाजिक जस्थतत

 उत्तरवैददक काि में सामाजिक व्यवस्था का आधार वणायश्रम व्यवस्था ही था, यद्यवप वणय
व्यवस्था में कठोरता आने िगी थी।
 समाि में चार वणय–ब्राह्मण, रािन्य, वैश्य और शर
ू थे। ब्राह्मण के लिए ऐदह, क्षत्रत्रय के
लिए आगच्छ, वैश्य के लिए आरव तथा शर
ू के लिए आधव शब्द प्रयक्
ु त होते थे।
ब्राह्मण, क्षत्रत्रय तथा वैश्य इन तीनों को द्ववि कहा िाता था। ये उपनयन सिंस्कार के
अधधकारी थे।

 चौथा वणय (शूर) उपनयन सिंस्कार का अधधकारी नहीिं था और यहीिं से शूरों को अपात्र या
आधारहीन मानने की प्रकिया शुरू हो गई।

आधथयक जस्थतत

 उत्तरवैददक काि में कृवष आयों का मुख्य पेशा हो गया। िोहे के उपकरणों के प्रयोग से
कृवष क्षेत्र में िाजन्त आ गई।
 यिुवेद में िोहे के लिए श्याम अयस एविं कृष्ण अयस शब्द का प्रयोग हुआ है ।
 शतपथ ब्राह्मण में कृवष की चार कियाओिं–िुताई, बुआई, कटाई और म़िाई का उल्िेि
हुआ है ।
 पशुपािन गौण पेशा हो गया। अथवयवेद में लसिंचाई के साधन के रूप में वणायकूप एविं नहर
(कुल्या) का उल्िेि लमिता है ।
 हि की नािी को सीता कहा िाता था।
 अथवयवेद के वववरण के अनुसार सवयप्रथम पथ्
ृ वीवेन ने हि और कृवष को िन्म ददया।
 इस काि की मुख्य फसि धान और गेहूाँ हो गई।
 यिुवेद में ब्रीदह (धान), यव (िौ), माण (उ़िद) मुद्ग (मूिंग), गोधम
ू (गेहूाँ), मसूर आदद
अनािों का वणयन लमिता है । अथवयवेद में सवयप्रथम नहरों का उल्िेि हुआ है ।
 इस काि में हाथी को पाितू बनाए िाने के साक्ष्य प्राप्त होने िगते हैं।
 जिसके लिए हजस्त या वारण शब्द लमिता है । वह
ृ दारण्यक उपतनषद् में श्रेजष्ठन शब्द तथा
ऐतरे य ब्राह्मण में श्रेष््य शब्द से व्यापाररयों की श्रेणी का अनुमान िगाया िाता है ।
 तैत्तरीय सिंदहता में ऋण के लिए कुसीद शब्द लमिता है । शतपथ ब्राह्मण में महािनी
प्रथा का पहिी बार जिि हुआ है तथा सूदिोर को कुसीददन कहा गया है ।

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 तनष्क, शतमान, पाद, कृष्णि आदद माप की ववलभन्न इकाइयााँ थीिं। रोण अनाि मापने के
लिए प्रयक्
ु त ककए िाते थे। के उत्तरवैददक काि के िोग चार प्रकार के मद्भ
ृ ाण्डों से
पररधचत थे—कािा व िाि मभ
ृ ाण्ड, कािे पॉलिशदार मद्भ
ृ ाण्ड, धचत्रत्रत धस
ू र मद्भ
ृ ाण्ड और
िाि मद्भ
ृ ाण्ड।
 उत्तरवैददक आयों को समर
ु का ज्ञान हो गया था। इस काि के सादहत्य में पजश्चमी और
पव
ू ी दोनों प्रकार के समर
ु ों का वणयन है । वैददक ग्रन्थों में समर
ु यात्रा की भी चचाय है ,
जिससे वाखणज्य एविं व्यापार का सिंकेत लमिता है ।
 लसक्कों का अभी तनयलमत प्रचिन नहीिं हुआ था। उत्तरवैददक ग्रन्थों में कपास का
उल्िेि नहीिं हुआ है , बजल्क ऊनी (ऊन) शब्द का प्रयोग कई बार आया हैं। बुनाई का काम
प्रायः जस्त्रयााँ करती थीिं।
 कढ़ाई करने वािी जस्त्रयों को पेशस्करी कहा िाता था। तैतरीय अरण्यक में पहिी बार
नगर की चचाय हुई हैं। उत्तरवैददक काि के अन्त में हम केवि नगरों का आभास पाते
हैं।
 हजस्तनापुर और कौशाम्बी प्रारजम्भक नगर थे, जिन्हें आद्य नगरीय स्थि कहा िा सकता
है ।

धालमयक जस्थतत

 उत्तरवैददक आयों के धालमयक िीवन में मख्


ु यत: तीन पररवतयन दृजष्टगोचर होते हैं–
दे वताओिं की महत्ता में पररवतयन, अराधना की रीतत में पररवतयन तथा धालमयक उद्देश्यों में
पररवतयन। * उत्तरवैददक काि में इन्र के स्थान पर सि
ृ न के दे वता ।
 प्रिापतत को सवोच्च स्थान लमिा। रूर और ववष्णु दो अन्य प्रमि
ु दे वता इस काि के
माने िाते हैं। वरुण मात्र िि के दे वता माने िाने िगे, िबकक पूषन अब शूरों के दे वता
हो गए।
 इस काि में प्रत्येक वेद के अपने पुरोदहत हो गए। ऋग्वेद का पुरोदहत होता, सामवेद का
उद्गाता, यिुवेद का अध्वयुय एविं अथवयवेद का ब्रह्मा कहिाता था। उत्तरवैददक काि में
अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे, जिनमें सोमयज्ञ या अजग्नष्टोम यज्ञ, अश्वमेघ यज्ञ,
वािपेय यज्ञ एविं रािसूय यज्ञ महत्त्वपूणय थे।
 मत्ृ यु की चचाय सवयप्रथम शतपथ ब्राह्मण तथा मोक्ष की चचाय सवयप्रथम उपतनषद् में
लमिती है । पुनियन्म की अवधारणा वह
ृ दराण्यक उपतनषद् में लमिती है ।
 तनष्काम कमय के लसद्धान्त का प्रततपादन सवयप्रथम ईशोपतनषद् में ककया गया है ।

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 प्रमुि यज्ञ अजग्नहोत ृ यज्ञ पापों के क्षय और स्वगय की ओर िे िाने वािे नाव के रूप में
वखणयत सोत्रामखण यज्ञ यज्ञ में पशु एविं सरु ा की आहुतत, परु
ु षमेघ यज्ञ परु
ु षों की बलि,
सवायधधक 25 यप ू ों (यज्ञ स्तम्भ) का तनमायण, अश्वमेध यज्ञ
 सवायधधक महत्त्वपण
ू य यज्ञ, रािा द्वारा साम्राज्य की सीमा में ववृ द्ध के लिए, सािंडों तथा
घो़िों की बलि।। रािसय
ू यज्ञ रािा के राज्यालभषेक से सम्बजन्धत वािपेय यज्ञ रािा
द्वारा अपनी शजक्त के प्रदशयन के लिए, रथदौ़ि का आयोिन।

ऋगवेद में उजल्िखित शब्द


शब्द सिंख्या
इन्र 250 बार
अजग्न 200

वरुण 30

िन 275

ववश 171

वपता 335

माता 234

वणय 23

ग्राम 13

ब्राह्मण 15

क्षत्रत्रय 9

वैश्य 1

शूर 1

राष्ि 10

समा 8

सलमतत 9

ववदथ 122

गिंगा 1

यमन
ु ा 3

रािा 1

सोम दे वता 144

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कृवष 24

गण 46

ववष्णु 100

रूर 3

बह
ृ स्पतत 11

पथ्
ृ वी 1

ऋग्वेद के मिंडि और उनके रचतयता

मंडल रचनयता

द्ववतीय मंडल गत्ृ समद


तत
ृ ीय मंडल ववश्वालमत्र
चतुर्थ मंडल वामदे व

पांचवा मंडल आत्रत्र


छठा मंडल भारद्वाि

सातवां मंडल वलशष्ठ


आठवां मंडल कणव व अिंगीरा

वैददक कािीन सूत्र सादहत्य

कल्पसर
ू ववधध एवं ननयमों का प्रनतपािन
श्रौतसूर यज्ञ से सिंबिंधधत ववस्तत
ृ ववधध-ववधानों की व्याख्या
शुल्बसूत ् स्थि तथा अजग्न वेदी के तनमायण तथा माप से सिंबिंधधत तनयम है इसमें भारतीय ज्यालम
र यज्ञ तत का प्रारिं लभक रूप ददिाई दे ता है
धमथसर
ू सामाजिक धालमयक कानन
ू तथा आचार सिंदहता है
ग्रि सूर मनुष्य के िौककक एविं पारिौककक कतयव्य

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वैददक कािीन दे वता
मरुत आिंधी तूफान के दे वता
पियन्य वषाय के दे वता
सरस्वती नदी दे वी (बाद में ववद्या की दे वी)
पूषन पशुओिं के दे वता (उत्तर वैददक काि में शूरों के दे वता)
अरण्यानी ििंगि की दे वी
यम मत्ृ यु के दे वता
लमत्र शपथ एविं प्रततज्ञा के दे वता

आजश्वन धचककत्सा के दे वता


सय
ू य िीवन दे ने वािा (भव
ु न चक्षु)
त्वष्क्षा धातुओिं के दे वता
आषय वववाह और सिंधध के दे वता
वववस्तान दे वताओिं िनक
सोम वनस्पतत के दे वता

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