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Savitri BK 1 C 1 Part2
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Book 1, canto 1
Part 2
असीमता के दस
ू रे तट से िहां आ पहुंची
एक दे िदण्ृ ष्ट ण्जसने मूक गहनताओं के अन्तर में िांका;
यह सूयद
म े ि का एक सिेक्षणकारी बालचर,
उसे ऐसा लगा था मानों विश्ि के तामशसक विश्राम के मध्य
एक रोचगणी और थककत जगती की बेसुधी में,
िह खोजने आया हो एक एकाकी विषडण आत्म सत्ता को
जो इतनी पछतता थी कक विस्मत
ृ सुख को याद करने में असमथम थी।
उस शब्दहीन महाशन्
ू य में एक बीज-विचार बो हदया गया;
उस अन्धकार की गहनताओं के अन्तर में एक संिेदन जन्मा,
त्रत्रकालदे ि के अन्तर में एक स्मछृ त लहराई
जैसे कक दीघमकाल से मत
ृ एक अन्तरात्मा जीने को संचररत हो उठी;
ककन्तु उस पतन के बाद आयी विस्मछृ त ने,
अतीत की स्मछृ तयों से भरी पट्हटयां पोंि िाली थीं,
पर अब जो सब नष्ट हो चुका था उसे पुनः रचना होगा
और पुराना अनुभि एक बार किर पररश्रम में जुट गया।
जहां भागित स्पशम होता है िहां समस्त असाध्य कायम शसद्ध हो जाते हें ।