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प्रसिद्ध उपन्यािकार जैनेंद्र कुमार का जन्म 1905 ई० में अलीगढ़ में हुआ था। बचपन में ही इनके पपता जी का दे हाांत हो गया
तथा इनके मामा ने ही इनका पालन-पोषण पकया। इनकी प्रारांभिक सिक्षा-दीक्षा हस्ततनापुर के गुरुकुल में हुई। इन्होंने उच्च सिक्षा
कािी हहिंदू पिश्वपिद्यालय, बनारि में ग्रहण की। 1921 ई० में गाांधी जी के प्रिाि के कारण इन्होंने पढ़ाई छोड़कर अिहयोग
अाााांदोलन में िाग सलया। अांत में ये तितांत्र रूप िे सलखने लगे। इनकी िापहत्य-िेिा के कारण 1984 ई० में इन्हें ‘िारत-
िारती’ िम्मान ममला। िारत िरकार ने इन्हें पद्मिूषण िे िम्मापनत पकया। इन्हें िापहत्य अकादमी पुरतकार िी प्राप्त हुआ।
इनका दे हाांत िन 1990 में ददल्ली में हुआ।
➢ साराांश
➢ लेखक अपने मित्र की कहानी बताता है कक एक बार वे बाजार िें िािल
ू ी चीज लेने गए, परं तु वापस बंडलों के
साथ लौटे । लेखक के पूछने पर उन्होंने पत्नी को दोषी बताया। लेखक के अनुसार, पुराने सिय से पतत इस
ववषय पर पत्नी की ओट लेते हैं। इसिें िनीबैग अथाात पैसे की गरिी भी ववशेष भूमिका अदा करता है। 0.
पैसा पावर है, परं तु उसे प्रदमशात करने के मलए बैंक-बैलेंस, िकान-कोठी आदद इकट्ठा ककया जाता है। पैसे की
पचेजजंग पावर के प्रयोग से पावर का रस मिलता है । लोग संयिी भी होते हैं। वे पैसे को जोड़ते रहते हैं तथा
पैसे के जुड़ा होने पर स्वयं को गवीला िहसूस करते हैं। मित्र ने बताया कक सारा पैसा खचा हो गया। मित्र की
अधिकतर खरीद पचेजजंग पावर के अनुपात से आई थी, न कक जरूरत की।
➢ लेखक का दस
ू रा मित्र दोपहर से पहले बाजार गया तथा शाि को खाली हाथ वापस आ गया। पूछने पर
बताया कक बाजार िें सब कुछ लेने योग्य था, परं तु कुछ भी न ले पाया। एक वस्तु लेने का ितलब था, दस
ू री
छोड़ दे ना। अगर अपनी चाह का पता नहीं तो सब ओर की चाह हिें घेर लेती है। ऐसे िें कोई पररणाि नहीं
होता। बाजार िें रूप का जाद ू है । यह तभी असर करता है जब जेब भरी हो तथा िन खाली हो। यह िन व
जेब के खाली होने पर भी असर करता है। खाली िन को बाजार की चीजें तनिंत्रण दे ती हैं। सब चीजें खरीदने
का िन करता है।
➢ जाद ू उतरते ही फैं सी चीजें आराि नहीं, खलल ही डालती प्रतीत होती हैं। इससे स्वामभिान व अमभिान बढ़ता
है। जाद ू से बचने का एकिात्र उपाय यह है कक बाजार जाते सिय िन खाली न रखो। िन िें लक्ष्य हो तो
बाजार आनंद दे गा। वह आपसे कृताथा होगा। बाजार की असली कृताथाता है -आवश्यकता के सिय काि आना।
िन खाली रखने का ितलब िन बंद नहीं करना है। शून्य होने का अधिकार बस परिात्िा का है जो सनातन
भाव से संपूणा है। िनुष्य अपूणा है। िनुष्य इच्छाओं का तनरोि नहीं कर सकता। यह लोभ को जीतना नहीं है ,
बजकक लोभ की जीत है।
➢ िन को बलात बंद करना हठयोग है। वास्तव िें िनुष्य को अपनी अपूणाता स्वीकार कर लेनी चादहए। सच्चा
किा सदा इस अपूणाता की स्वीकृतत के साथ होता है । अत: िन की भी सन
ु नी चादहए क्योंकक वह भी
उद्दे श्यपूणा है। िनिानेपन को छूट नहीं दे नी चादहए। लेखक के पड़ोस िें भगत जी रहते थे। वे लंबे सिय से
चूरन बेच रहे थे। चूरन उनका सरनाि था। वे प्रततददन छह आने पैसे से अधिक नहीं किाते थे। वे अपना
चूरन थोक व्यापारी को नहीं दे ते थे और न ही पेशगी ऑडार लेते थे। छह आने पूरे होने पर वे बचा चूरन
बच्चों को िुफ़्त बाँट दे ते थे। वे सदा स्वस्थ रहते थे।
➢ उन पर बाजार का जाद ू नहीं चल सकता था। वे तनरक्षर थे। बड़ी-बड़ी बातें जानते नहीं थे। उनका िन अडडग
रहता था। पैसा भीख िाँगता है कक िुझे लो। वह तनिाि व्यजक्त पैसे को अपने आहत गवा िें बबलखता ही
छोड़ दे ता है। पैसे िें व्यंग्य शजक्त होती है। पैदल व्यजक्त के पास से िूल उड़ाती िोटर चली जाए तो व्यजक्त
परे शान हो उठता है। वह अपने जन्ि तक को कोसता है , परं तु यह व्यंग्य चूरन वाले व्यजक्त पर कोई असर
नहीं करता। लेखक ऐसे बल के ववषय िें कहता है कक यह कुछ अपर जातत का तत्व है । कुछ लोग इसे
आजत्िक, िामिाक व नैततक कहते हैं।
➢ पैसे की पाॅवर –
पैसा पाॅवर है। इसका प्रिाण लोग अपने आस-पास िाल-असबाब, कोठी-िकान आदद इकट्ठा करके दे ते हैं। कुछ
संयिी लोग इस पाॅवर को सिझते हैं, ककन्तु वे प्रदशान िें ववश्वास नहीं करते। वे संयिी होते हैं। वे पैसा जोङते जाते हैं
तथा इस संग्रह को दे खकर गवा का अनुभव करते हैं। मित्र का िनी बैग खाली हो गया था। लेखक ने सिझा कक जो
सािान उन्होंने खरीदा था वह उनकी आवश्यकता के अनुरूप था। उन्होंने अपनी ’पचेजजंग पावर’ अथाात ् क्रय के अनुसार
ही सािान खरीदा था।
➢ बाजार का जाद ू –
बाजार िें आकषाण होते है। उसिें प्रदमशात वस्तुएँ ग्राहक को आकवषात करती हैं कक वह उनको खरीदे । इस आकषाण से
बहुत कि लोग बच पाते हैं। संयिहीन व्यजक्त को बाजार कािना से व्याकुल ही नहीं पागल
➢ जाद ू से रक्षा –
लेखक के एक अन्य मित्र भी बाजार गए थे। वहाँ अनेक चीजें थीं। वह बाजार िें रुके भी बहुत दे र तक। उनका सभी चीजें
खरीदने का िन हो रहा था। सोचते रहे क्या लँ ू क्या न लँ ू? उन्होंने कुछ नहीं खरीदा, खाली हाथ लौटे । बाजार का जाद ू
उसी पर चलता है जजसकी जेब भरी हो िन खाली हो िन खाली होने का ितलब यह पता न होना है उसकी आवश्यकता
की वस्तु क्या है । वह सभी चीजों को खरीद लेना चाहता है जब यह जाद ू उतरता है तो पता चलता है कक अनावश्यक
चीजें खरीदने से आराि नहीं कष्ट ही होता है। बाजार जाना हो तो खाली िन जाना ठीक नहीं। बाजार जाते सिय अपनी
आवश्यकता ठीक से पता होनी चादहए।
➢ खाली और बन्द मन –
िन खाली न रहे इसका ितलब िन का बन्द होना नहीं है। िन के बन्द होने का अथा है-शून्य हो जाना। शून्य होने का
अधिकार परिात्िा को है। वह पूणा है, िनुष्य अपूणा है। उसके िन िें इच्छा उत्पन्न होना स्वाभाववक है। िन को बलात ्
बन्द करना केवल हठ है। सच्चा ज्ञान अपूणाता के बोि को गहरा करता है । सच्चा किा इस अपूणाता को स्वीकार करके
ही होता है । अतः िन को बलात ् बन्द नहीं करना है। ककन्तु िन को चाहे सो करने की छूट नहीं दे नी है ।
➢ चूरनवाले भगत जी –
लेखक के पङोसी चूरनवाले भगत जी हैं। वे चूरन बेचते हैं। उनका चूरन प्रमसद्ि है। वह तनयत सिय पर चूरन की पेटी
लेकर तनकलते हैं। लोग उनसे सद्भाव रखते हैं। उनका चूरन तुरन्त बबक जाता है। छः आने की किाई होते ही वह शेष
चूरन बच्चों िें बाँट दे ते हैं। बाजार का जाद ू उन पर प्रभाव नहीं डालता। पैसा उनसे प्राथाना करता है कक िुझे अपनी जेब
िें आने दीजजए। ककन्तु वह तनदायतापूवाक उसका तनवेदन ठुकरा दे ते हैं। वे तनयि से चूरन बनाते हैं, बेचते हैं और उतना
ही किाते हैं, जजतने की उनको जरूरत होती है।
भगत जी बाजार से तनत्य सािान खरीदते हैं। वह बाजार िें सबसे हँसते-बोलते हैं। वह वहाँ आँखें खोलकर चलते हैं।
बाजार िें फँसी स्टोर हैं। बाजार िाल से भरा पङा है, वह सबको दे खते आगे बढ जाते हैं और पंसारी की दक
ु ान पर रुकते
हैं, काला निक तथा जीरा खरीदते हैं। इसके बाद चाँदनी चैक का आकषाण उनकेॅे मलए शून्य हो जाता है ।
➢ कवव के अनस
ु ार बाजार कब जाना चाहिए?
लेखक के अनुसार िन खाली होने का अथा है तनजश्चत लक्ष्य न होना। िन खाली हो तब बाजार नहीं जाना
चादहए क्योंकक बाजार की साथाकता उसी िें है कक लोगो की आवश्यकताएं पूरी हो। जब लोगो की जरूरत पूरी हो जाती
है तब बाजार साथाक हो जाता है । िन तब प्रसन्न होता है हैं िन िें खरीद का एक लक्ष्य तनजश्चत हो।
बाजार का आकर्शण