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Jyotsna varshney

Head PS Dhankar
Khurja
चेतक की वीरता

चढ़ चैतक पर तलवार उठा, करता था भतू ल पानी को।


राणा प्रताप सर काट- काट करता था सफल जवानी।।

भारत भमि ू केवल सरू वीरों की ती भमिू नहीं रहीं हैं अधिक दे श की मिट्टी भी जीव जन्तओु ं को की स्वामी भक्ति व
दे श भक्ति से जानी जाती है । ऐसी ही शरू वीरता से भरी हुई है चेतक की कहानी। चेतक एक ऐसा अश्व था जिसने
अपने स्वामी व दे श की इस मिट्टी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। चेतक ने हल्दी घाटी (1937-1939)
के यद्
ु ध में अपनी स्वामीभक्ति व वीरता का परिचा दिया। अंततः वह मत्ृ यु को प्राप्त हुआ। चेतक का वर्णन एक
ऐसे घोड़े के रूप में किया जाता है जो नीले रं ग का घोड़ा था। उसका आकार सामान्य घोड़े से कहीं ज्यादा था। उसके
सिर के ऊपर एक नकली सँड ू लगाई जाती की जिससे चेतक को दे खकर शत्रु सेना के हाथी भी भयभीत हो जाते थे।

चेतक महाराणा को किस प्रकार मिला? इसकी कहानी भी बहुत ही रोचक है । एक बार एक घोड़ों का व्यापारी तीन
घोड़ो को लेकर आया । उसने तीनों घोड़े महाराणा को बेचना चाहा पर महाराणा किसी अपरिचित से घोड़े नहीं
खरीदना चाहते थे। व्यापारी के बार-बार आग्रह कसे पर महाराणा - ने घोड़े की स्वामीभक्ति का साक्ष्य दे ने के लिये
व्यापारी से कहा तब व्यापारी ने अटक नाम के एक घोड़े को एक स्थान पर खड़ा कर दिया और उसके पैरों के नीचे
पिछला शीशा डाल दिया जिससे घोडे के पैर चिपक जाये और वह हिल न सके। फिर. व्यापारी ने थोडा दरू जाकर
इस प्रकार आवाज लगाई जैसे वह संकट में हों। घोड़ा अपने स्थान से इतनी तेजी से उछला उसके पैर वहीं चिपके रह
गये। और थोड़ा उछल कर दरू गया। यह दे ख महाराणा घोड़े की मत्ृ यु से बहुत दःु खी हुए तथा उन्होंने बाकी के दोनों
घोड़े खरीद लिये। इन दोनो घोड़ो में से चेतक उनका प्रिय घोड़ा बन गया ।

महाराणा प्रताप ने अपने इसी घोड़े पर बैठकर अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था। हल्दी घाटी के प्रवेश
द्वरा पर अपने चनु े हुये सैनिकों के साथ शत्रु की प्रतीक्षा कर रहे थे। दोनों ओर की सेनाओं मिलते ही भीषण यद् ु ध
शरू
ु कर हो गया। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रतु गति से शत्र ु से ना के भीतर पहु ँ च गये और राजपतू ों के शत्रु
मान सिंह को खोजने लगे। मान सिंह तो नहीं मिले पर प्रताप जहांगीर तक पहुँच गये। प्रताप के छोड़े ने स्वामी की
इच्छा जानकर परू ा प्रयास किया । हाथी पर चढ़कर जहांगीर तक पहुँचने का पर हाथी के भाग जाने से जहाँगीर बच
गया। इसके बाद प्रताप बिना किसी सहायक अपने पराक्रमी घोड़े पर बैठ कर पहाड़ की तरफ बढ़े । उनके पीछे मग ु ल
सैनिक लगे थे चेतक यद् ु धं में बरु ी तरह से घायल होने के बाद भी पहाड़ी पर पड़ने वाले नाले को लाँघ कर महाराणा
को बचा लिया पर स्वय बचा न सका। उस स्थान पर जहाँ चेतक के अपने प्राण त्यागे थे वहाँ पर चेतक की समाधि
बनाई गयी। यह समाधि आज भी चैतक की वीरता और स्वामीभक्ति की कहानी कहती हुई प्रतीत होती है । चेतक
की वीरता का वर्णन करते हुए श्याम नारायण पांडय े ने लिखा है -

"था यहीं रहा अब यहाँ नहीं


वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं
बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया
भाला गिर गया गिरा निसंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दं ग
घोड़े का ऐसा दे ख रं ग। "

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