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सृजन प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यानुभूति
सृजन प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यानुभूति
सृजन प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यानुभूति
प्रत्येक कला का किसी न किसी भौतिक वस्तु से वास्ता रहता है। वह भौतिक
वस्तु चाहे शरीर हो या शरीर से परे अन्य वस्तु। चाहे कोई उपकरण का इस्तेमाल
हो या नहीं निर्माण अवश्य होता है। यह निर्माण एक ओर वास्तविक जगत का
होकर भी उससे स्वतंत्र होता है तो दूसरी ओर कलात्मक एवं सांस्कृ तिक परंपरा से
संघटित होकर भी स्वकीय होता है। इसलिए सृजन प्रक्रिया में मौलिकता एवं
परंपरा, वैयक्तिकता एवं सामूहिकता द्वंदात्मक रूप से साथ-साथ होता है। यह भी
माना जाता है की सृजन प्रक्रिया अवचेतन का आवेश मात्र होता होता है जिसमें
संवेग ही प्रमुख होते हैं। वास्तव में पूरा सृजनात्मक कार्य अचेतन के क्षेत्र से
गुजरकर ही चेतना में साकार होती है। यह कार्य चिंतन के द्वारा सम्पन्न होता है।
इस तरह यह सिर्फ मानसिक कार्य कहा जा सकता है लेकिन वास्तव में शरीर और
मस्तिष्क का उचित समन्वय इसे जीवंत और पूर्ण बनाता है।
सृजन प्रक्रिया चाहे करने से संबन्धित हो या फिर रचने से इसमें आंतरिक तथा
बाह्य संप्रेषणीयता और पर्यावरण की भूमिका संतुलित करके प्रत्यक्षीकरण का कर्ता
कलाकार होता है। कलाकार किसी प्रयोजन के लिए पदार्थ को जिस ढंग से आकृ ति
देने की कोशिश करता है वह कोशिश उसके कौशल पर आश्रित होता है। कौशल के
माध्यम से ही पदार्थ को आकृ ति देने में सृजनात्मक व्यवस्था का निवेश करता है।
यह सृजनात्मक व्यवस्था परम्परावर्ती न होकर मौलिक होती है।
संदर्भ :
कला के किसी भी प्रकार में शास्त्रीय और लोक दोनों स्वरूप होते हैं। लोक-
कलाओं की अपनी विशेषताएँ होती है। इसमें शास्त्रीय नियमों की बाध्यता नहीं होने
से नवीनता के समावेश का पर्याप्त अवसर होता है। लोक-कला जन-समान्य के
जीवन से जुड़ी होती है और मूल संस्कृ ति का प्रतिनिधित्व करती है। जन-समुदाय
का रंग-ढंग और रहन-सहन, देश-काल और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार अलग-
अलग होता है। इसलिए लोक-कलाओं में भी क्षेत्रीयता होती है। किसी भी सभ्यता
में कला का प्रारम्भिक विकास के बाद ही उसे शास्त्र में आबध्द किया जाता है।
इस आधार पर लोक-कला को शास्त्रीय कला की जननी भी कहा जा सकता है।
भारत में हमेशा से ही कलाएँ और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृ तिक और
परंपरागत प्रभाव को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। यहाँ के हर राज्य
और संघक्षेत्रों में विभिन्न कला रूपों के अंतर्गत लोक-कलाओं की बहुत अधिक
संख्यां है। सभी लोककलाओं के स्वरूपों की जानकारी, वर्णन और विश्लेषण एक बड़े
प्रबंध की अपेक्षा रखता है। लेकिन मोटे तौर पर उन्हें चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य,
नाट्य, संगीत, साहित्य आदि में बांटकर विचार किया जा सकता है.
नाटक : भारत के सभी प्रदेशों में लोक-नाटकों के विभिन्न रूप हैं। कश्मीर में
भांडजशन और भांडपथर, हिमाचल प्रदेश में करियाल, हरियाणा में स्वांग, उत्तर प्रदेश
में नौटंकी, बंगाल में जात्रा, असम में अंकिया, मणिपुर में थंगटा, मध्य प्रदेश में माच,
महाराष्ट्र में तमाशा, आंध्रप्रदेश में भागवतमेल, उड़ीसा में पाला, के रल में थैयम,
कर्नाटक में यक्षगान, गुजरात में गरबा आदि। इसके अतिरिक्त रामलीला और
रासलीला किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है।
नृत्य : लोक नृत्य सहज उल्लास की अभिव्यक्ति होते हैं. भारत के सभी राज्यों में
लोकनृत्यों की संख्यां को मिला दिया जाए तो इनकी संख्यां सैकड़ों होंगी. ये
लोकनृत्य कृ षि कार्य की समाप्ति, जन्म, विवाह और त्योहार आदि के अवसर पर
किए जाते हैं। इनमे से अधिकांश अब मृतप्राय हो गई हैं. आज प्रचलित लोकनृत्य
हैं− छऊ, बिहू, पंथी, भांगड़ा, गिद्धा, लौंडानाच, डांडिया, सरहुल, कर्मा, गरबा, घूमर,
कलबेलिया आदि।
बाँस-कला : आदिवासी कला में बाँसकला का महत्वपूर्ण स्थान है। बाँस के द्वारा
उपयोगी सामग्री जैसे- टोकरी आदि के अतिरिक्त सजावटी सामान जैसे कलम स्टैंड,
फू लदान, नाव के आकार की टोकरियाँ, चटाईयाँ, रंगारंग बक्से, मंजूषा आदि का
निर्माण किया जाता है। बाँस से उपयोगी सामग्री का निर्माण आदिवासियों की
जीविका से सीधे जुड़ा है। साप्ताहिक हाट में उन्हें बेचकर कमाए गए पैसे उनके
जीवन का आधार है। सजावटी सामान आदिवासी कला को प्रसिद्ध बनाती है। फै शन
के बदले प्रारूप ने आदिवासी कला को सजावटी सामान के कारण, अंतर्राष्ट्रीय
प्रसिद्धि दिलाया है।