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हिंद कि तारिख़ में इस्लाम
हिंद कि तारिख़ में इस्लाम
वसीम खान ✍️
वसीम खान ✍️
वसीम खान ✍️
हिंद में मुसलमानों की
बा ज़ाब्ता हुकू मत:
सन् 140 हि० मुताबिक सन् 757 ई0 में हाकिम हिशाम के ज़माने में
मुसलमानों ने गुजरात में भरूच के क़रीब बन्दरगाहों पर हमला किया
ओर उसको फतेह करके इस्लामी सल्तनत में शामिल किया और यहाँ
एक मस्जिद भी तामीर की जो पूरे गुजरात. की पहली मस्जिद थी,
खलीफा मेहदी के ज़माने में भी गुजरात पर मुसलमानों के हमले हुये।
सिंध में इस्लामी हुकू मत के क्याम के बाद लाखों की तादाद में हिन्दुओं
बिलखुसूस जाट तबके ने मुसलमानों के अख़लाक़ से मुतास्सिर होकर
इस्लाम कु बूल किया और ये सिलसिला बाद में भी बराबर बढ़ता रहा,
चुनांचे आज भी सिंध और जुनूबी पंजाब का ये इलाका मुस्लिम
अकसरीयत इलाके की हैसियत से जाना जाता है।
वसीम खान ✍️
हिंद के इस्लामी दौर में (सन् 713 ई
ता सन् 1857) तक की जानकारी
आगे की पोस्टो में आपको पढ़ने
को मिलेंगी दिलचस्पी के साथ जुड़े
रहिए।।
गज़नवी खानदान:
सन् 93 हि0 मुताबिक सन् 713 ई0 में मौहम्मद बिन कासिम के हमले
के बाद से चौथी सदी हिजरी के अवआखिर तक तकरीबन 300 साल
सिंध और मुलतान पर अरबों ही की हुकू मतें रही, 300 साल के इस
तवील वक्फे के बाद अफगानिस्तान में दुर्रह खैबर के रास्ते से वहाँ के
मुस्लिम तुर्क हुकमरां नासिरूद्दीन सुबुकतगीन के बैटे महमूद गजनवी
ने सन् 1001 ई0 में हिन्दुस्तान पर हमला किया ओर पंजाब, मुल्तान व
सिंध वग़ैरा पर कबजा किया जिसके बाद कशमीर, कन्नोज, ग्वालियर
और गुजरात वग़ैरा के राज्यों ने भी उनको खिराज यानी टेक्स देना
शुरू किया, उस वक़्त पंजाब पर राजा जयपाल की हुकू मत थी ।
महमूद गज़नवी:
वसीम खान ✍️
गौरी खानदान:
वसीम खान ✍️
गौरी खानदान के बाद सन् 1206 ई० में पूरे शुमाली हिन्द में शुमाल से
दरिया-ए-ब्रहमपुत्र और सिंध तक गुलामों की 84 साल हुकू मत रही,
सन् 1206 ई० में मौहम्मद गोरी का इन्तिकाल हुआ, चूँके उनकी कोई
नरीना औलाद नही थी इसलिये मुख़तलिफ़ सूबों में उनके मुख्तलिफ
गुलामों ने अपनी खुद मुख्तारी का ऐलान कर दिया लेकिन जल्द ही उन
सब पर काबू पाकर पूरे शुमाली हिन्द में उनके गुलाम कु तबुद्दीन ऐबक
हुक्मरां बने,।
ये वही हुक्मरां थे जिसने देहली में उस वक़्त दुनिया के सबसे बुलन्द
दो सौ बयालीस फु ट ऊँ चे कु तुब मीनार का काम शुरू किया जो
दरअसल मस्जिद कु व्वतुल इस्लाम का मीनार था।सन् 1210 ई० में
शमसुद्दीन अलतमश उनके जानशीन हुए, जो खुद एक तुर्क गुलाम
और कु तबुद्दीन ऐबक के दामाद थे।
वोह बड़े ही रहम दिल और नेक थे, उन्होंने अपनी सल्तनत में सिंध,
उज्जैन, मालवा और ग्वालियर वगैरा शामिल किये और सन् 1228 ई0
में कु तुब मीनार की तामीर मुकम्मल की।
वसीम खान ✍️
ख़िलज़ी खानदान:
वसीम खान ✍️
तुगलक खानदान:
मौहम्मद तुगलक:
सन् 1324 ई0 में गयासुद्दीन के बैटे मौहम्मद तुगलक हुक्मरां बने जो
निहायत मुत्तकी परहेज़गार और इंसाफ पसन्द बादशाह थे, वोह
हाफिज़ कु रान भी थे, उन्होंने सैंकड़ों दींनी मदारिस कायम किये,
उन्होंने ही सबसे पहले हमारे मुल्क में तांबे के सिक्के जारी किये,
उन्होने 26 साल हुकू मत की, उन्ही की हुकू मत में पहली दफा शुमाली
हिन्द से मुसलमान हुक्मरानों के क़दम जुनूबी हिन्द में जमे, उन्होंने
कोशिश की के जुनूब के बादशाहों की बार बार की बगावतों का
सामना करने के लिये वहीं दारुस्सल्तनत और सियासी मरकज़ कायम
किया जाये ताके दकन में भी मुसलमानों का तसल्लुत बरक़रार रहे,
चुनांचे उन्होंने कु छ मुद्दत के लिये अपना पाया तख़्त देहली से दकन में
दौलताबाद मुन्तकिल किया जिसका नाम पहले देवगढ़ था, बाद में
देहली ही दोबारा पाया तख़्त हो गया।
आले तुग़लक़ की हुक्मरानी का मजमुई दोर बड़ा अच्छा रहा, पूरे मुल्क
में बेशुमार सड़कें तामीर हुई, डाक का निज़ाम वसी व मुस्तहकम हुआ,
मशहूर आलमी सियाह इब्ने बतूता उन्ही के अहद में जब मौहम्मद
तुगलक हुक्मरां थे हिन्दुस्तान आये और देहली के आस पास में आठ
साल क्याम किया।सन 1398 ई० में इसी खानदान के आखरी हुक्मरां
महमूद तुगलक के दौर में चंगेज खान की नस्ल से ताल्लुक रखने वाले
मंगोल बादशाह अमीर तेमूरलंग ने समरक़न्द से आकर हिन्दुस्तान पर
हमला किया और देहली पर कब्ज़ा कर लिया, महमूद तुगलक गुजरात
भाग गया, लेकिन चन्द दिनों के बाद जब तैमूर लंग वापस चला गया तो
महमूद तुग़लक देहली वापस आ गया, सन् 1412 इ0 में उसकी वफ़ात
हुई और इसी के साथ तुगलक खानदान की हुक्मरानी का बाब भी बन्द
हो गया।
वसीम खान ✍️
सैय्यद खानदान:
लोधी खानदान:
इनके पहले बादशाह सन् 1451 ई0 में बहलोल लोधी थे, जिसने सन्
1488 ई० तक तन्हा 38 साल हुकू मत की, सन् 1479 ई0 में उन्होंने
अपनी सल्तनत का दायरा शुमाल में जोनपुर और बुंदेलखंड तक बहुत
बड़ा कर दिया।
वोह बड़े नेक बादशाह थे, उन्होंने हिन्दुस्तान में मुसलमानों की अज़मत
को बहाल किया, इस खानदान के सबसे मशहूर बादशाह बहलोल
लोधी के बैटे सिकन्दर लोधी थे जिसने 28 साल हुकू मत की, उन्होंने ही
"आगरा" शहर बसाया और उसको अपना दारूल हुकू मत बनाया।
सिकन्दर लौधी के बैटे इब्राहीम लोधी इनके आखरी हुक्मरां थे जो सन्
1526 ई0 में पानीपत के मैदान में मुग़ल बादशाह बाबर के हाथ जंग में
मारे गये, इन्हीं के साथ लोधी खानदान की हुकू मत का भी खात्मा हो
गया ।
वसीम खान ✍️
मुगलिया खानदान:
बाबर बड़े बहादुर शख्स थे, वोह सिर्फ ग्यारह साल की उम्र में
तुरकिस्तान में फ़रग़ाना के बादशाह बन गए थे, उसके बाद उन्होंने
काबुल में अपनी हुकू मत कायम की, फिर वहां से हिन्दुस्तान पर हमला
आवर हुए।
सन् 1529 ई0 में शुमाली हिन्द के मुख्तलिफ राजाओं के साथ जिसमें
सिरे फे हरिस्त राना सांगा भी था जिनसे बाबर की संख्त लडाई हुई
जिसमें बाबर को फतेह मिली, हालांके उनके मुकाबले में सामने पौने दो
लाख फौज थी फिर भी बाबर ने उनको शिकस्त दी। बाबर ने 38 साल
हुकू मत की जिसमें हिन्दुस्तान की हुकू मत के चार साल भी शामिल है।
सन् 1530 ई0 में पचास साल की उम्र में बाबर की वफ़ात हुई, उनकी
वसीयत के मुताबिक काबुल (अफगानिस्तान) में उनको दफ़न किया
गया।
वसीम खान ✍️
सूरी खानदान :
बाबर की वफात के बाद उनका नोजवान बैटा हुमायू सिर्फ तीस साल
की उम्र में अपने बाप का जानशीन बना लेकिन जल्द ही उसको एक
दूसरे अफ़ग़ान सरदार शेरशाह सूरी से जिनका नाम फरीद खान था
और बहार में सहसराम के ज़मीनदार थे उनसे शिकस्त का सामना
करना पड़ा, हुमायू ईरान भागा और सन् 1555 ई० तक हिन्दुस्तान से
बाहर रहा।
शेरशाह सूरी बड़े काबिल हुक्मरां थे, उन्होंने जोनपुर के दींनी मदरसे में
तालीम हासिल की थी, अफगानिस्तान में पठानों के क़बीले सूर से
उनका ताल्लुक था।
वोह बड़े बाहदुर थे, उन्होंने कभी शिकस्त का सामना नही किया,
उन्होंने बेशुमार मस्जिदें तामीर कीं और देहली के बजाये सहसराम को
अपना पाया तख़्त बनाया।
वसीम खान ✍️
मुगलिया खानदान की वापसी:
जलालुद्दीन अकबर:
हुमायू के बाद उसका बड़ा बैटा जजालुद्दीन अकबर सिर्फ चौदह साल
की उम्र में उसका जानशीन हुआ, बेरमखान उसका उस्ताद था जो उमूरे
सल्तनत में उसकी रहनुमाई करता था लेकिन कु छ सालों के बाद हज
को जाते हुये गुजरात में वोह भी कत्ल कर दिया गया।
, सन् 1605 ई0 में 63 साल की उम्र में उसका इन्तिकाल हुआ। वोह
पढ़ा लिखा नही था, उसके बावजूद उसने उलूम व फनून, और तिजारत
को तरक्की दी, उसने तमाम मज़ाहिब को मिलाकर एक खुद साख्ता
मज़हब दींने इलाही की बुनियाद रखी, उसको जिलुल्लाह कहकर
पुकारा जाता और सजदा ताज़ीमी किया जाता, उसने महाभारत,
रामायण और भगवत गीता के फ़ारसी तर्जुमे कराये और गाय ज़िब्ह
करने पर पाबन्दी लगाई।
वसीम खान ✍️
जहाँगीर:
सन् 1605 ई0 में अकबर के बड़े बैटे सलीम नुरुद्दीन जहाँगीर हुक्मरां
बने, उनका असल नाम शहज़ादगी में सलीम था, वोह बड़े आली
होसला, रहमदिल और इल्मी ज़ौक रखने वाले बादशाह थे ।
शाहजहाँ:
वसीम खान ✍️
हज़रत औरंगजैब बड़े खत्तात भी थे, उनके हाथ के लिखे हुये कु रान
मजीद के नमूने आज भी मौजूद है, उसी पर उनका गुजर बसर था,
उनकी गैर मामूली- दींनदारी में अल्फ सानी रह़मतुल्लाह अलैह के
साहिबजादे हज़रत ख्वाजा मौहम्मद मासूम की सोहबत और तरबीयत
का बड़ा असर था जिनसे वोह बेअत भी थे, वोह हमेशा बावजू रहते
पहली सफ़ में मस्जिद में बाजमाअत नमाज़ अदा करते, पीर और
जुमेरात के रोज़े रखते रमज़ान के आखरी अशरा का ऐतिकाफ् करते,
वोह हाफिज़ कु रान भी थे, 43 साल की उम्र में बादशाह बनने के बाद
उन्होंने हिफ़्ज़ शुरू किया और एक ही साल में हिफ़्ज मुकम्मल कर
लिया।
वसीम खान ✍️
वसीम खान ✍️
बहादुरशाह जफर:
उनका मजमूआ कलाम चार जिल्दों में है जिसमे तीस हज़ार से ज़ाईद
अशआर है, बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके रंगून
(बरमा) में सन् 1857 ई0 में कै द कर दिया, वहाँ बड़ी कसमपुर्सी की
हालत में सन् 1862 ई0 में उनका इन्तिकाल हुआ, मशहूर शुअरा जौक
और ग़ालिब को उनकी शार्गिदी हासिल थी, उनका मशहूर शेर ये था
जो उन्होंने अपनी जिलावतीनी और कसमपुर्री की हालत में कहा था ।
वसीम खान ✍️
इस जंग में जिसमें मराठों को शिकस्त हुई, दौ लाख मराठे मारे गये, इस
जंग को तारीख में पानीपत की तीसरी जंग से याद किया जाता है, इस
फतेह के बाद अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब, सिंध और कशमीर को
अपनी हुकू मत में शामिल किया और अफगानिस्तान वापस चले गए
और देहली में हुकू मत शाह आलम सानी के सुपुर्द की।
वसीम खान ✍️
लेकिन देहली में लोधी खानदान की हुकू मत के दौरान पूरे मुल्क में जो
मुख़्तलिफ खुद मुख्तार रियासतें कायम हुई उनमें एक अहम हुकू मत
बंगाल की भी थी जिसके बाद बंगाल मुत्तेहदा हिन्दुस्तान से अलग हो
गया, इस सल्तनत के बानी सुल्तान शमसुद्दीन थे।
सन् 1340 ई0 से 16 साल उन्होंने मुसलसल बंगाल पर हुकू मत की
जिसके बाद उनका बैटा सिकन्दर 9 साल हुक्मरां रहा, उसके बाद
मुख्तलिफ़ खानदानों की यहाँ हुकू मत रही, यहाॅ तक के सन् 1538 ई0
में मुग़ल बादशाह हुमायू ने बंगाल को अपनी सल्तनत में शामिल
किया। उसके बाद बंगाल शेरशाह सूरी के कब्जे में रहा, फिर सन् 1594
ई0 में मुग़ल बादशाह अकबर ने बंगाल को दोबारा मुगलिया सल्तनत मे
शामिल किया ।
वसीम खान ✍️
मुमलिकत आसफ़िया
(सल्तनत हैदराबाद)
मुग़ल बादशाह औरंगजैब ने अपने अहदे इक्तिदार में जुनूब में वाके अ
मुख़्तलिफ हुकू मतों यानी गोल कुं ड़ा की "कु तुब शाही" बेजापूर की
"आदिल शाही" अहमद नगर की "निज़ाम शाही" और बैदर की "बुरैद
शाही" सल्तनतों को ज़म करके उन सबको सियासी ऐतबार से सूबा-ए-
दकन के नाम से देहली हुकू मत के मातहत कर दिया था जिसको
"निज़ाम शाही" हुकू मत भी कहा जाता था लोग उसको मुमालकत
हैदराबाद भी कहते थे और उसके बादशाह निजामुलमुल्क या
निज़ामुद्दोला या आसिफ जाह कहलाते थे, उनकी हुकू मत यूँ तो सन्
1800 ई0 में अंग्रेजों ने खत्म कर दी थी लेकिन रस्मी तौर पर ये
सिलसिला हिन्द की आज़ादी तक जारी रहा।
सन् 1748 ई0 में 78 साल की उम्र में निज़ाम की मौत के बाद उसकी
जानशीनी को लेकर इख़्तिलाफ़ हो गया, उसके बैटे "नासिर जंग" और
नवासा "मुजफ्फर जंग" में उसके लिये लड़ाई हुई, उस वक्त हिंद में
मौजूद फ्रांसिसीयों की मदद से मुजफ्फर जंग को कामयाबी मिली,
नासिर जंग मारा गया, लेकिन जल्द ही मुजफ्फर जंग को भी क़त्ल कर
दिया गया सन् 1753 ई0 में उसकी जगह निज़ाम के तीसरे बेटे
सुलाबत जंग ने इक्तिदार संभाला। सन् 1756 ई0 में उसके भाई
निज़ाम अली के पास हुकू मत आई जिसके बाद मुमलिकत आसफिया
के एक बड़े • हिस्से पर मराठों ने कब्ज़ा कर लिया लेकिन सन् 1761
ई0 में पानीपत के मैदान में अहमद शाह अबदाली के हाथों मराठों की
शिकस्त के बाद निजाम अली मराठों से अपना ये मक़बूज़ा इलाका
वापस लेने में कामयाब हुआ।
सल्तनत खुदादाद मैसूर के कयाम के बाद जब निज़ाम को नवाब हैदर
अली से खतरा महसूस हुआ तो उसने औरंगजैब के सियासी हलीफ़
बनने में आफियत समझी और सन् 1768 ई0 में कर्नाटक यानी दकन
का एक बड़ा इलाका सात लाख रूपये सालाना के बदले अंग्रेजों को दे
दिया जिसके नतीजे में निज़ाम की हुकू मत जो दरिया-ए-नरमदा से रास
कु मारी और महाराष्ट्र के शुमाली जुनूबी हिस्सों तक फै ली हुई थी और
तीन लाख मुरब्बा मील थी वो सिमटकर सिर्फ हैदराबाद के आस पास
चन्द हज़ार मुरब्बाअ मील तक महदूद हो गई, टीपू सुल्तान कि शहादत
के बाद सन् 1800 ई0 में अंग्रेजों ने निज़ाम की बराये नाम हुकू मत का
भी खात्मा कर दिया और हैदराबाद को भी अपने मकबूज़ा इलाकों में
शामिल कर लिया जिसके बाद रस्मी तौर पर महदूद इख्तियारात के
साथ निजाम शाही हुकू म अंग्रेजों के ज़ैरे सरपरसती चलती रही यहाँ
तक के सन् 1947 ई0 में हिंद अंग्रेजों के कब्ज़े से आज़ाद हुआ तो उस
वक़्त के आसिफ जाह हफ़्तुम मीर उस्मान अली खान ने चाहा के
हैदराबाद की ये मुस्लिम हुकू मत आज़ाद ही रहे लेकिन सन् 1947 ई0
में हिन्द ने फोजी कारवाई के जरीये जिसको पुलिस एकशन कहा
जाता है उसको हिन्द में शामिल किया।
मीर उस्मान अली खान इल्म के बडे कद्रदान थे, हैदराबाद की मौजूदा
उस्मानियां यूनीवर्सिटी उन्होंने ही कायम की थी जिसका ज़रीया ए
तालीम उर्दू था, मुख्तलिफ़ ज़बानों की इस्लामी किताबों के तर्जुमे के
लिये उन्होंने दारूत्तर्जुमा भी कायम किया था।
वसीम खान ✍️
जोनपुर की सल्तनत
(सल्तनत शर्की) :
वसीम खान ✍️
बहमनी सल्तनत :
शुमाली हिन्द मे दकन के इलाके में सन् 1347 ई0 में मौहम्मद तुग़लक़
कि देहली पर हुक्मरानी के ज़माने में एक बगावत के जरीये अलाउद्दीन
हसन नामी एक शख़्स ने इस बहमनी सल्तनत को कायम किया, ये
सल्तनत तकरीबन 200 साल कायम रही, इसका पाया तख़्त मोजूदा
रियासत कर्नाटक का तारीखी शहर "गुलबरगा" था जिसका नाम उस
वक़्त उन्होंने "हुसनाबाद" रखा था, उसके बाद पाया तख्त "बैदर"
मुन्तकिल हो गया, इस खानदान में दस बादशाह हुये पहला
"अलाउद्दीन हसन" और आखरी "कलीमुल्लाह बहमनी" था जिसका
इन्तिकाल सन् 1527 ई0 में हुआ और उसके साथ ही बहमनी सल्तनत
का भी खात्मा हो गया।हज़रत नसीरूद्दन चिराग़ देहलवी के खलीफा
और मशहूर बुजुर्ग हज़रत ख्वाजा बन्दा नवाज़ा गैसूदराज़ का मजार
उसी गुलबरगा में है जिनसे इस मुल्क में ईशाअत इस्लाम का बड़ा काम
अंजाम पाया।
ने के नी पाँ
अपने ज़वाल के बाद बहमनी हुकू मत पाँच
छोटी छोटी सल्तनतों में तकसीम हो गई: 👇
(1) निज़ाम शाही ( अहमद नगर) (2) कु तुब शाही (गोलकं ड़ा) (3)
आदिल शाही (बेजापुर) (4) इमाद शाही (बुरार) (5) बुरैद शाही (बैदर)
वसीम खान ✍️
कु तुबशाही सल्तनत :
वसीम खान ✍️
आदिलशाही सल्तनत
मौजूदा कर्नाटक में बेजापुर के इलाके में ये सल्तनत कायम थी। शहर
बेजापूर उसका पाया तख़्त था, इस सल्तनत का कयाम बहमनी
सल्तनत के आखरी अहद में सन् 1489 में अमल में आया, इसका
बानी आदिल शाह था जो बहमनी सल्तनत में बेजापुर का सूबेदार था,
उसने शिआ मज़हब इख़्तियार कर लिया था।
इमादशाही सल्तनत:
बुरैदशाही सल्तनत
महमूद शाह बहमनी के ज़माने में मराठ खित्ते का गवर्नर महमूद
कासिब बुरैद था जिसने मौका पाकर सन् 1526 ई0 में अपनी खुद
मुख्तारी का ऐलान कर दिया, इस सल्तनत का पाया तख़्त मौजूदा
कर्नाटक में बैदर शहर था, सन् 1609 ई0 में इस सल्तनत का खातमा
हुआ, उनका आखरी बादशाह अमीर बुरैद दोम था, इस खानदान की
हुकू मत तक़रीबन तिरासी (83) साल रही।
वसीम खान ✍️
वसीम खान ✍️
सल्तनत खुदादाद
(सल्तनते मैसूर)
मैसूर व श्री रंगापटन पर हैदर अली के कब्जे के वक़्त उनके पास सिर्फ
33 गांव थे, लेकिन 1782 ई0 में उनकी वफ़ात के वक्त उस हुकू मत का
दायरा 80 हज़ार मुरब्बा मील तक पहुँच गया था, उनकी वफ़ात के बाद
से सन् 1799 ई० तक सल्तनत खुदादाद पर उनके साहिबजादे हज़रत
सुल्तान टीपू का कब्जा रहा ।
वसीम खान ✍️
जुनूबी हिन्द के मशरिकी इलाके को अरब माबर कहते थे, इस इलाके में
मौहम्मद तुग़लक़ के ज़माने में पंजाब के सैय्यद खानदान से ताल्लुक
रखने वाले एक फौजी अफसर सैय्यद हसन को गवर्नर मुकर्रर किया
गया था जिसने सन् 1334 ई0 में तुग़लक़ खानदान से बगावत करते
हुये यहाँ अपनी खुद मुख़्तारी का ऐलान कर दिया और अपना नाम
जलालुद्दीन हसन शाह रखा, पाँच साल के बाद उसको क़त्ल कर दिया
गया जिसके बाद उसके एक वज़ीर अलाउद्दीन ओध जी ने सल्तनत
पर कब्ज़ा कर लिया।
सन् 780 हि० मुताबिक सन् 1378 ई0 में इस सल्तनत का खात्म हो
गया, इस सल्तनत का पाया तख़्त मौजूदा तामिलनाडू में मदोराये थे।
सल्तनत गुजरात
सल्तनत कशमीर
मालवा की सल्तनत
मालवा मौजूदा सूबा मध्य प्रदेश में एक तारीखी खित्ता है जहाँ
मुसलमानों की तक़रीबन पौने दो सौ साल तक खुद मुख्तार मुस्लिम
हुकू मत रही, इसी का पाया तख़्त मांड़ो था उसका पहला बादशाह
दिलावर खान गोरी था जो मौहम्मद शाह के ज़माने में सन् 1388 ई0 में
यहाँ का गवर्नर था, उसका लड़का होशंग उसका जानशीन हुआ, उसके
बाद मुख्तलिफ लोग हुक्मरां रहे, सन् 1542 ई0 में शेरशाह सूरी ने इस
पर कब्ज़ा कर लिया, सन् 1562 ई0 में मुग़ल बादशाह अकबर ने
उसको मुगलिया सल्तनत में शामिल कर लिया, मालवा की सल्तनत में
खूबसूरत महलातात, आलीशान मसाजिद और मजबूत किले तामीर
हुये, उसमें एक ऐसी मस्जिद भी थी जिसकी तीन सौ साठ मेहराबें और
दो सौ तीस मीनार थे, उसके निशानात आज भी वहाँ मौजूद है।
अरकाट की सल्तनत
जुनूबी हिन्द में सल्तनत मैसूर के करीब अपने मकबूज़ा इलाके का नाम
मुगल हुक्मरां ने कर्नाटक रखा था, जिसको अरकाट भी कहा जाता
था, यहाॅ के बाशिन्दे तामिल ज़बान बोलते थे, उसी से मुतसल एक
दूसरे सूबे का नाम सरा था. (अरकाट अब मौजूदा सूबे तामिलनाडू में
चेन्नई (मद्रास) के करीब सिर्फ एक शहर का नाम रह गया है) सन्
1743 ई0 में अनवारूद्दीन नाम के एक शख़्स ने अरकाट की हुकू मत
वहाँ के हुक्मरां खानदान से छीन ली, सन् 1751 ई0 में अरकाट के
नवाब अनवारूद्दीन के बैटे मौहम्मद अली और पुराने हुक्मरां खानदान
के एक शख़्स चन्दां साहब के दर्मियान अरकाट के इक्तिदार के लिये
जंग हुई, नवाब मौहम्मद अली का अंग्रेजों ने साथ दिया और चन्दां
साहब का फ्रांसीसियों ने, उसमें अंग्रेजों को फतेह हुई, चन्दां साहब मारा
गया जिसके बाद अंग्रेजों ने नवाब मौहम्मद अली को कठपुतली
बनाकर बहाल रखा और खुद अरकाट पर हुकू मत करने लगे, इसके
इवज़ उन्होनं देहली से मौहम्मद अली को अरकाट की नवाबी का
फरमान दिलाया, सन् 1795 ईन में नवाब मौहम्मद अली का इन्तिकाल
हो गया और बराये नाम हुकू मत इसके खानदान में रही यहीं से
हिन्दुस्तान में फ्रांसीसियों का जवाल शुरू हुआ।
वसीम खान ✍️
हिन्दुस्तान पर मुसलमानों की
हुक्मरानी की खुसूसियात
वसीम खान ✍️