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इस पी डी एफ फाइल को बनाने में काफ़ी वक्त और मेहनत

लगी है कही कु छ भी टाइपिंग वगैरा या दिगर किसी तरह कि


गलती हुई हो तो अपना छोटा भाई समझकर माफ करें।
अल्लाह हमारी इस मेहनत को क़बूल फ़रमाएं।

हिन्द में इस्लाम की आमद :

अरब ताजिरों मालावर, कोकन और श्रीलंका से आने वाले लोगों के


ज़रीये हिन्दुस्तान वालों को पहली दफ़अ हुजूर‫ ﷺ‬की नबुवत का इल्म
हुआ। इस्लाम की आमद के बाद इन अरब ताजिरों की हैसियत
मुबल्लीगीन इस्लाम और दाईयान हक की भी हो गई, इस दौरान इन
अरब ताजिरों ने जो ज़्यादातर बुसरा, खलीज अरब और यमन वगैरा से
ताल्लुक रखते थे मग़रिबी साहिब पर आबाद हिन्दुस्तानी औरतों से जो
जैन मज़हब से ताल्लुक रखती थी शादियां भी की, के रला, कर्नाटक के
शुमाली व जुनूबी के नरा के इजलाह ठटकल और कोकन वगैरा के
साहिलों पर इस वक़्त आबाद शाफई उल मसलक मुसलमान नस्ली
ऐताबर से उनही अरबों से ताल्लुक रखते है जिसकी वजह से उनकी
तहजीब व सकाफत भी अरबों से मिलती जुलती है।

उस वक्त के रला में हिन्दुओं के दो बड़े तबकात नायर और पोलिया रहते


थे "नायर" ऊं ची जात के थे और वोह "पोलिया" को हक़ीर समझते थे
चुनांचे जात पात के इस निज़ाम से तंग आकर पोलियों की एक बड़ी
तादाद ने इस्लाम कु बूल किया और इन मुसलमान ताजिरों के अलावा
बहुत से अरब मुसलमान सिर्फ इशाअत इस्लाम और तबलीग़े दींन की
गर्ज़ से भी हिन्दुस्तान आये। उन्ही सहाबा किराम रिजवानअल्लाह
अलैहिम अजमईन की बरकत से इस्लाम इन इलाकों से आगे दूसरे
बैरूनी इलाकों मसलन श्रीलंका, मालदीप और लक्शदीप वग़ैरा जैसे
जज़ायर मे भी फे ल गया।

बाज़ तारीखीं हवालों से मालूम होता है के हुजूर‫ ﷺ‬के मुअजिजा चांद


के दो टुकड़े वाले वाकिए का हिन्दुस्तान में मालाबार यानी के रला का
राजा "जमरून सामरी" भी ऐनी शाहिद था, इस वाक़िआ से मुतास्सिर
होकर वोह अपनी रिआया की एक बड़ी तादाद के साथ मुशर्रफ ब
इस्लाम हुआ और खुद हुजूर‫ ﷺ‬से मुलाकात की गर्ज़ से मक्का
मुकरर्रमा की तरफ चल पड़ा लेकिन रास्ते ही में उसकी वफ़ात हुई।

खुलफा-ए-राशीदीन के ज़माने में खुद श्रीलंका के राजा के अलावा


जुनूबी हिन्द के एक और राजा भी मुसलमान हो चुके थे जिनमे सर
फे हरिस्त मालाबार का राजा "चीरामन पेरामल" भी था। जिसके बाद
इस्लाम आगे के मुमालिक इंडोनेशिया, मलेशिया वगैरा में भी पहुँच
गया और वहां के लोग भी बड़ी तादाद में मुसलमान हो गये।
मशहूर मुअर्रिख इस्लाम काजी अतहर मुबाकरपुरी की तहकीक के
मुताबिक 17 सहाबा किराम की हिन्दुस्तान में आमद का सबूत मिलता
है, उसके अलावा 44 ताबईन का भी हिन्दुस्तान आना साबित है।
जिसमे सरफे हरिस्त हज़रत मालिक बिन दीनार रह़मतुल्लाह अलैह,
मालिक बिन हबीब रह़मतुल्लाह अलैह और मशरूफ बिन मालिक
रह़मतुल्लाह अलैह है।

पहली सदी हिजरी में इनकी तामीर कर्दा मसाजिद और


उनके मज़ारात सूबा-ए-के रला के मुख्तलिफ साहिली इलाकों में आज
भी मौजूद है।

वसीम खान ✍️

हिंद से अरबों के तिजारती


ताल्लुकात:

अहले हिन्द और अरबों के दर्मियान इस्लाम की आमद से क़ब्ल


ज़माना-ए-क़दीम ही से तिजारती ताल्लुकात थे, मगर मसाले, चमड़े,
नारियल, हाथी दॉत, रेशम, जाफरान मलमल के कपडे वगैरह की
तिजारत के सिलसिले में हिन्दुस्तान के मग़रिबी साहिल के रला यानी
मालबार वग़ैरा के इलाकों में समुन्द्री रास्तों से मुसलसल उनकी आमद
व रफ़्त रहती थी, हिन्दुस्तान में अरबी घोड़ों की . बड़ी मांग थी और
घोड़ों से लदे बड़े बड़े बहरी जहाजों की आमद का सिलसिला मुल्क के
मग़रिबी साहिलों पर साल भर जारी रहता था।
समुन्द्री रास्तों में हिन्दुस्तान के मगरिबी साहिलों मंगलोर, के रला वग़ैरा
से अपना तिजारती माल अरब ताजिर पहले यमन फिर वहाँ से बहरे
हरम के रास्ते शाम और फिर वहाँ से मिस्र और आगे यूरोप वग़ैरा ले
जाते थे, ये लोग जहाज़रानी में भी माहिर थे।

खुशकी के रास्तों से भी इन अरबों की हिन्दुस्तान से तिजारत जारी थी,


इसलिये वोह सिंध और बलूचिस्तान से अपना माल ईरान ले जाते और
फिर वहाँ शाम पहुँचाते। जारी‫۔۔۔‬

वसीम खान ✍️

हिंद में मुसलमानों का


फातेहाना दाखिला:

सन् 15 हि0 मुताबिक सन् 636 ई० में खलीफा-ए-दोम हज़रत उमर


फारूक रदियअल्लाह तआला अन्हो के अहदे खिलाफत में औमान
और बहरीन के गवर्नर हज़रत उस्मान बिन अबुलआस के हुक्म पर
इनके भाई हज़रत हक्म इब्ने अबुलआस सकफी रदियअल्लाह तआला
अन्हूम की कयादत में बम्बई के करीब थाना के इलाका पर मुसलमानों
का पहला हमला हुआ, उसके बाद गुजरात के इलाके भरूच और
काठियावाड़ पर भी दरिया के रास्ते मुसलमानों ने फोज कशी की,
इसके अलावा हज़रत अली रदियअल्लाह तआला अन्हो के अहदे
ख़िलाफ़त में भी बाज़ मुसलमानों ने जिसमें सिरे फे हरिस्त हारिस बिन
मरह अब्दी थे। सिस्तान के रास्ते से भी सिंध की तरफ कु छ पेश कदमी
की ।

सिंध पर मुसलमानों का कब्जा हज़रत अली रदियअल्लाह तआला


अन्हो के अहद में हुआ उस वक़्त हज़रत हारिस अब्दी इन सरहदी
इलाकों के गवर्नर ना थे, उन्होंने सिंध पर कामयाब हमला किया।

याद रहे के इस ज़माने में सिंध का इत्तिफाक किसी एक सूबे के बजाये


एक वसीअ खित्ते पर होता था, जिसमें शामिल मौजूदा सिंध, जुनूबी
पंजाब, सरहद, बलूचिस्तान और गुजरात का शुमाली हिस्सा शामिल
था, दूसरे अल्फ़ाज़ में सिंध का मतलब था जुनूब में बजीरा अरब व
गुजरात और शामिल में जुनूबी पंजाब तक और मशरिक में मालवा
और मग़रिब में मकरान तक का इलाका, हज़रत मुआविया
रदियअल्लाह तआला अन्हो के ज़माने में सन् 44 हि0 में सिंध गवर्नरी
की ये जिम्मेदारी महलब इब्ने अबी सफरा को सोंपी गई, उन्होंने मुल्तान
तक का इलाका फतेह किया ।

वसीम खान ✍️
हिंद में मुसलमानों की
बा ज़ाब्ता हुकू मत:

हिन्दुस्तान पर मुसलमानों की पहली बाजाब्ता हुकू मत सन् 93 हि०


मुताबिक सन् 713 ई0 में अहद बनी उमैया में वलीद बिन अब्दुल
मालिक की खिलाफत के दौरान इराक के हाकिम हज्जाज बिन यूसुफ
के हुक्म से कबीले बनूसकीफ से ताल्लुक रखने वाले इसके भतीजे
और दामाद मौहम्मद बिन कासिम सकफ़ी के सिध पर हमले व क़ब्जे
के बाद कायम हुई, ये हमले भी दरअसल अल सिंध को उसके राजा
दाहिर के जुल्म व सितम से निजात दिलाने के लये और एक बहन कि
मदद की पुकार पर किया गया था ।

एक वजह ये भी थी के हज़रत उमर फारूक रदियअल्लाह


तआला अन्हो के अहद में ईरान के फतेह होने के बाद सिंध और ईरान
की सरहदें मिल गई थीं जिसके नतीजे में इस्लामी सल्तनत के बागी व
मुजरिम भाग भाग कर सिंध में पनाह लेने लगे थे और सिंध का राजा
दाहिर उनको रोक ना सका था, इसके अलावा सिंध और काठयावाड़
के डाकू मुसलमानों के बहरी जहाजों पर हमला भी करते थे, हज्जाज
बिन युसूफ ने जब उनकी सरकोबी के लिये फौजी टोली रवाना की तो
उसके दो फोजी सरदार उस मुहिम के दौरान मारे गये ।

सन् 85 हि0 मुताबिक सन् 704 ई0 में इन बागियों ने


मकरान के मुस्लिम गवर्नर को भी कत्ल कर दिया चुनोंचे हज्जाज बिन
युसूफ़ ने एक बड़ी मुहिम मौहम्मद बिन क़ासिक की कयादत में सिंध
रवाना की जिनकी उमर उस वक़्त महज़ 17 साल थी, मुस्लिम
अफवाज ने सिस्तान के रास्ते से मौहम्मद बिन क़ासिम की क़यादत में
और दीगर अफवाज़ ने इराक के रास्ते से सिंध व मुल्तान पर हमला
किया, राजा दाहिर को शिकस्त हुई और वोह मारा गया, सिंध में
मौहम्मद बिन कासिम का कयाम सिर्फ तीन साल रहा लेकिन सिंध का
ये इलाका बलूचिस्तान वग़ैरा के साथ इराक के गवर्नर हज्जाज बिन
युसूफ के ज़ैरे इन्तिज़ाम ही रहा, वलीद बिन अब्दुल मालिक की वफ़ात
के बाद सुलेमान के अहदे खिलाफत में मौहम्मद बिन कासिम को
माजूल करके खलीफा-ए-वक्त के खिलाफ साजिश के जुर्म में कू फा में
कै द कर दिया गया, वहीं उनका इन्तिकाल हुआ, सिंध में मुसलमानों की
हुकू मत अब्बासी खलीफा मुआतसिम बिल्लाह के ज़माने तक रही
जहाँ बग़दाद से मुस्लिम खलीफा की तरफ से गवर्नरों की ताअयीन
होती थी, ये सिलसिला तक़रीबन 300 साल तक जारी रहा, बाद में यहाँ
के मुस्लिम हुक्मरानों ने अपनी खुद मुख़्तार हुकू मतें कायम की।

सन् 140 हि० मुताबिक सन् 757 ई0 में हाकिम हिशाम के ज़माने में
मुसलमानों ने गुजरात में भरूच के क़रीब बन्दरगाहों पर हमला किया
ओर उसको फतेह करके इस्लामी सल्तनत में शामिल किया और यहाँ
एक मस्जिद भी तामीर की जो पूरे गुजरात. की पहली मस्जिद थी,
खलीफा मेहदी के ज़माने में भी गुजरात पर मुसलमानों के हमले हुये।

सिंध में इस्लामी हुकू मत के क्याम के बाद लाखों की तादाद में हिन्दुओं
बिलखुसूस जाट तबके ने मुसलमानों के अख़लाक़ से मुतास्सिर होकर
इस्लाम कु बूल किया और ये सिलसिला बाद में भी बराबर बढ़ता रहा,
चुनांचे आज भी सिंध और जुनूबी पंजाब का ये इलाका मुस्लिम
अकसरीयत इलाके की हैसियत से जाना जाता है।

वसीम खान ✍️
हिंद के इस्लामी दौर में (सन् 713 ई
ता सन् 1857) तक की जानकारी
आगे की पोस्टो में आपको पढ़ने
को मिलेंगी दिलचस्पी के साथ जुड़े
रहिए।।

गज़नवी खानदान:

अफगानिस्तान में एक तारीखी शहर का नाम गजना है जिसकी


मुनासबत से वहाँ के हुक्मरानों को ग़ज़नवी कहा जाता था। हिंद की
पूरी तारीख में बाजाब्ता हुकू मत करने वाला ग़ज़नवी खानदान ही
सबसे पहला मुस्लिम खानदान था।

सन् 93 हि0 मुताबिक सन् 713 ई0 में मौहम्मद बिन कासिम के हमले
के बाद से चौथी सदी हिजरी के अवआखिर तक तकरीबन 300 साल
सिंध और मुलतान पर अरबों ही की हुकू मतें रही, 300 साल के इस
तवील वक्फे के बाद अफगानिस्तान में दुर्रह खैबर के रास्ते से वहाँ के
मुस्लिम तुर्क हुकमरां नासिरूद्दीन सुबुकतगीन के बैटे महमूद गजनवी
ने सन् 1001 ई0 में हिन्दुस्तान पर हमला किया ओर पंजाब, मुल्तान व
सिंध वग़ैरा पर कबजा किया जिसके बाद कशमीर, कन्नोज, ग्वालियर
और गुजरात वग़ैरा के राज्यों ने भी उनको खिराज यानी टेक्स देना
शुरू किया, उस वक़्त पंजाब पर राजा जयपाल की हुकू मत थी ।

महमूद गज़नवी:

महमूद गजनवी ने सन् 1001 से सन् 1027 तक हिंद पर 17 बार


हमला किया सन् 1025 ई0 में गुजरात के काठयावाड़ खित्ते मे समुन्द्र
के किनारे वाके अ सोमनाथ शहर पर हमला किया जो अपनी बेपनाह
दौलत व खूबसूरती और वहां मौजूद एक बड़े मन्दिर की वजह से
मशहूर था उन्होने उस पर अपने क़बजे के बावजूद हुकू मत नही की
बल्के वहां के हिन्दु हुक्मरां को ही बहाल रखा, उन्होने हिन्दुस्तान पर
अपने हर हमले में कोई ना कोई नया शहर फतेह किया लेकिन उसके
बावजूद उन्होने अपनी सल्तनत पंजाब, सिंध और मुल्तान ही तक
महदूद रखी। महमूद ग़ज़नवी के हिंद पर हमले के वक़्त हमारा मुल्क
मुख्तलिफ छोटी छोटी रियासतों और सल्तनतों में बटा हुआ था, शुमाल
में लाहोर, अजमेर, कन्नोज और मग़रिब में गुजरात वग़ैरा पर गुज्जर
यानी राजपूतों की हुक्मरानी थी, इसी तरह जुनूबी हिन्द में पांडया और
चालोक्या खानदान की हुकू मत थी।

महमूद ग़ज़नवी की वफ़ात ग़ज़ना


में सन् 1030 ई0 में हुई उनका जानशीन उनका बेटा मुहम्मद गज़नवी
हुआ, सात साल के बाद हुकू मत उनके छोटे भाई मसऊद गज़नवी के
पास आई, फिर दोबारा उनका बेटा महमूद ग़ज़नवी बादशाह हुआ, सन्
1187 ई0 में इस खानदान की हुकू मत खत्म हुई, इस खानदान का
आखरी हुक्मरान खुसरू मुल्क . था जिसको शहाबुद्दीन गौरी गिरफ्तार
करके ग़ज़ना ले गये, वहीं उसकी वफात हुई. महमूद ग़ज़नवी इसलामी
तारीखी के वोह मुस्लिम हुक्मरां थे जिन्होंने कभी शिकस्त का सामना
नही किया । मुअर्रिखीन आम तौर पर महमूद गजनवी कि तुलना
मशहूर फलसफी अरस्तू के शार्गिद और यूनान के बादशाह सिकन्दर ए
आज़म से करते है, उनके मुताल्लिक अंग्रेज मुअर्रिखीन ने ये ग़लत
फहमी फे लाई के हिन्दुस्तान पर अपनी हुक्मरानी के दौरान उन्होंने
हिन्दुओं पर ग़ैर मामूली जुल्म किया और उनको जबरन इस्लाम में
दाखिल किया जब के हक़ीकत ये थी के उनको अपनी हिन्दु रिआया से
भी बड़ी मौहब्बत थी, खुद उनकी फौज में हिन्दु बड़े मनसब पर फ़ाईज
थे।।

वसीम खान ✍️

गौरी खानदान:

गौर अफगानिस्तान में गज़ना शहर के क़रीब एक पहाड़ी का


नाम है जिसकी मुनासबत से वहां के लोग गौरी कहलाते है।
बारहवीं सदी ई० के अवआखिर यानी सन् 1187 ई0 से सन् 1206 ई०
तक हिंद पर गौरी खानदान हुक्मरां रहा, उनके सबसे पहले हुक्मरां
शाहबुद्दीन मौहम्मद गौरी थे जिन्होंने शुमाली हिन्द में सबसे पहले
इस्लामी सल्तनत की बुनियाद रखी, वोह बड़े दीनदार, रहम दिल
खुदातरस बादशाह थे।

उन्होंने सबसे पहले मुल्तान पर कब्ज़ा किया और फिर लाहेर व देहली


पर, सन् 1191 ई0 में अजमेर व देहली के हुक्मरां पृथवी राज चौहान
के साथ लडाई में उनको शिकस्त हुई इसलिये के पृथ्वी राज के पास
ढ़ाई लाख की फौज़ थी और मुहम्मद गौरी के पास सिर्फ तीन हज़ार की
फौज थी।

लेकिन अगले ही साल मौहम्मद गौरी ने एक लाख बीस हजार की


फौज के साथ प्रथ्वीराज की तीन लाख की फौज का मुक़ाबला करते
हुये अपनी इस शिकस्त का बदला तरायन के मक़ाम पर ले लिया और
पृथवीराज चोहान को गिरफ़्तार कर लिया। देहली व अजमेर पर
राजपूतों की हुकू मत का खातिमा कर दिया और देहली पर कब्ज़ा कर
लिया।

उसके बाद उन्होंने कन्नोज के राजा को भी शिकस्त देकर अपनी


सल्तनत का दायरा बनारस तक वसीअ कर दिया, लेकिन इस मरतबा
उन्होंने हिन्दुस्तान में क़याम नही किया बल्कि मफतूहा इलाका अपने
गुलाम कु तबुद्दीन ऐबक के हवाले करके खुद गौर वापस चले गये।
उनकी कोई नरीना औलाद नही थी, सन् 1206 ई0 में वोह हिन्दुस्तान
आकर वापस जा रहे थे के झीलम के करीब नमाज़ की हालत में उनको
शहीद कर दिया गया।

शहाबुद्दीन गौरी की हुकू मत मशरिक में दरिया-ए-गंगा के


किनारे से जुनूब में पेशावर तक फे ली हुई थी, यही वोह ज़माना था जब
मशहूर बुजुर्ग हज़रत खवाजा मुईनुद्दीन चिशती रह़मतुल्लाह अलैह
अजमेर तशरीफ़ लाये। और वहां से हिन्दुस्तान में अपने दावत व
तबलीग़ ए दींन का आगाज किया।

वसीम खान ✍️

गुलामो कि हुकू मत:

गौरी खानदान के बाद सन् 1206 ई० में पूरे शुमाली हिन्द में शुमाल से
दरिया-ए-ब्रहमपुत्र और सिंध तक गुलामों की 84 साल हुकू मत रही,
सन् 1206 ई० में मौहम्मद गोरी का इन्तिकाल हुआ, चूँके उनकी कोई
नरीना औलाद नही थी इसलिये मुख़तलिफ़ सूबों में उनके मुख्तलिफ
गुलामों ने अपनी खुद मुख्तारी का ऐलान कर दिया लेकिन जल्द ही उन
सब पर काबू पाकर पूरे शुमाली हिन्द में उनके गुलाम कु तबुद्दीन ऐबक
हुक्मरां बने,।
ये वही हुक्मरां थे जिसने देहली में उस वक़्त दुनिया के सबसे बुलन्द
दो सौ बयालीस फु ट ऊँ चे कु तुब मीनार का काम शुरू किया जो
दरअसल मस्जिद कु व्वतुल इस्लाम का मीनार था।सन् 1210 ई० में
शमसुद्दीन अलतमश उनके जानशीन हुए, जो खुद एक तुर्क गुलाम
और कु तबुद्दीन ऐबक के दामाद थे।

वोह बड़े ही रहम दिल और नेक थे, उन्होंने अपनी सल्तनत में सिंध,
उज्जैन, मालवा और ग्वालियर वगैरा शामिल किये और सन् 1228 ई0
में कु तुब मीनार की तामीर मुकम्मल की।

मशहूर बुजुर्ग कु तबुद्दीन बख्तियार कअकी रह़मतुल्लाह अलैह उसी


ज़माने के थे, अलतमश बड़े मज़हबी और नेक बादशाह थे, उनके
मुताल्लिक कहा जाता है के उनकी तकबीर ए ऊला और तहज्जुद
कभी फोत नही हुई, सन् 1236 ई0 में अलतमश की वफात के बाद
उनकी बैटी रज़िया सुल्ताना ने इक्तिदार संभाला, वोह हिन्दुस्तान पर
हुकू मत करने वाली पहली मुस्लिम मुक्मरां खातून थी लेकिन सन्
1240 ई0 में वोह भी एक बगावत में मारी गई।

, सन् 1246 ई0 ता सन् 1266 ई0 मुसलसल बीस साल अलतमश के


छोटे बैटे नासिरूद्दीन महमूद की हुक्मरानी रही, वोह निहायत दीनदार,
काबिल और सालेह हुक्मरां थे।किताबें अपने हाथ से लिखकर उसकी
आमदनी पर गुज़ारा करते थे, हुजूर‫ ﷺ‬से उनको निहायत मौहब्बत थी,
उनके एक दरबारी का नाम मौहम्मद था, बगैर वुजू उसको वोह
मौहम्मद कहकर नही पुकारते थे, उनका ज़माना बड़ा ही पुरअमन रहा,
वोह लाऔलद थे, इसलिये उनके बाद हुक्मरानी अलतमश के तुर्क
गुलाम और दामाद गयासुद्दीन बलबन क हिस्से में आई, मशहूर शायर
अमीर खुन वासी ज़माना ने सन् 1266 ई० ता सन् 1286 ई0 बीस
साल हुकू मत की।

उसने हिन्दुस्तान की शुमाली व मग़रिबी सरहदों की हिफाज़त की,


तातारियों के मुसलसल हमलों को नाकाम बना दिया और अपनी
हुकू मत मुस्तहकम की, गुलामों के इस खानदान में कु ल दस बादशाह
हुये, उनका आखरी बादशाह कै कबाद था जिसको खिलजियों ने क़त्ल
कर दिया था, उन गुलामों की हुकू मत इस ऐतबार से मुमताज़ रही के
उनकी हुकू मत में तमाम गैर मुल्की हमलों को उन्होंने नाकाम कर दिया
था।

वसीम खान ✍️

ख़िलज़ी खानदान:

तुरकिस्तान से ताल्लुक रखने वाले अफगानिस्तान में बरसों से मुकीम


एक खानदान का नाम खिलजी था जिसने हिन्दुस्तान पर सन् 1290
ई0 से सन् 1321 ई० तक 31 साल हुकू मत की, तुर्क गुलामों की हिंद
पर हुक्मरानी के आखरी ज़माने में इस खानदान का एक शख़्स
फिरोज़ खिलज़ी वज़ीर बन गया था।
उसने सन् 1290 ई0 में गुलाम खानदान से हुकू मत छीन कर उस पर
कब्ज़ा किया और अपना नाम जलालुद्दीन रखकर हुकू मत शुरू की।
पंजाब पर मंग़ोलों से हमलों में हजारों मंगोल कै द हुये, जलालुद्दीन ने
सबको माफ करके आजाद किया तो वोह उसके अखलाक से
मुसलमान हो गये, वोह बड़ा नेक दिल और सालेह बादशाह थे, सन्
1296 ई0 में उनके भतीजे और दामाद अलाउद्दीन खिलजी ने उनको
क़त्ल करके इक्तिदार अपने हाथ में ले लिया, अलाउद्दीन खिलजी एक
बहादुर हुक्मरां थे, सन् 1297 ई0 में दो लाख की मंग़ोल फ़ौज ने जब
देहली पर हमला किया तो उन्होने उनका कामयाब मुकाबला किया
और उनको शिकस्त दी। उनकी सल्नतन पंजाब से दकन और गुजरात
तक फे ली हुई थी और पूरे हिन्दुस्तान में अब तक की सबसे बड़ी
इस्लामी हुकू मत थी, उन्ही के ज़माने में मुसलमानों की हुकू मत का
दायरा शुमाली हिन्द से जुनूबी हिन्द तक फे ल गया।

हिन्दुस्तान की तारीख में अशोका के बाद अलाउद्दीन खिलजी ही


सबसे बड़ी ममलिकत के मालिक थे, उस खानदान का आखरी
बादशाह खुश्व खान था जो गुजरात से ताल्लुक रखने वाला एक नया
मुस्लिम था जिसको खत्म करके गयासुद्दीन तुगलक ने तुग़लक़
खानदान की सल्तनत की बुनियाद डाली। मशहूर बुजुर्गाने दीन हज़रत
फरीदुद्दीन गंज शकर रह़मतुल्लाह अलैह और हज़रत निज़ामुद्दीन
औलिया रह़मतुल्लाह अलैह इसी अहद के थे जिनके जरीये हिन्दुस्तान
में बड़ी तेजी से इस्लाम की दावत फे ली और लाखों लोग इस्लाम में
दाखिल हुये, पहली दफा जुनूबी हिन्द में दकन और कर्नाटक के इलाकों
गुलबरगा, राईचूर वग़ैरा में मुसलमानों की हुकू मत भी सन् 711 हि0
मुताबिक़ 1311 ई0 में अलाउद्दीन खिलजी के सिपहसालार मुल्क
काफू र के ज़रीये ही कायम हुई।
सन् 1316 ई0 में अलाउद्दीन खिलजी की वफात के बाद खिलजी
खानदान की हुकू मत कमज़ोर हो गई थी और सन् 1321 ई0 में
बिलआखिर उस खानदान की हुकू मत का ही खातिमा हो गया।

वसीम खान ✍️

तुगलक खानदान:

सन् 1321 ई0 ता सन् 1413 ई0 मुसलसल 92 साल तुग़लक़ खानदान


की हिन्दुस्तान पर हुक्मरानी रही, सन् 1321 ई0 में गयासुद्दीन तुगलक
ने जिनका असली नाम गाज़ी मुल्क तुगलक था और जो खिलजी
हुकू मत में सिपाही थे उन्होने खिलजी खानदान के आखरी हुक्मरां
खुश व खान को क़त्ल करके हुकू मत पर कब्ज़ा किया, गयासुद्दीन बड़े
खुदातरस और नेक हाकिम थे।

मौहम्मद तुगलक:
सन् 1324 ई0 में गयासुद्दीन के बैटे मौहम्मद तुगलक हुक्मरां बने जो
निहायत मुत्तकी परहेज़गार और इंसाफ पसन्द बादशाह थे, वोह
हाफिज़ कु रान भी थे, उन्होंने सैंकड़ों दींनी मदारिस कायम किये,
उन्होंने ही सबसे पहले हमारे मुल्क में तांबे के सिक्के जारी किये,
उन्होने 26 साल हुकू मत की, उन्ही की हुकू मत में पहली दफा शुमाली
हिन्द से मुसलमान हुक्मरानों के क़दम जुनूबी हिन्द में जमे, उन्होंने
कोशिश की के जुनूब के बादशाहों की बार बार की बगावतों का
सामना करने के लिये वहीं दारुस्सल्तनत और सियासी मरकज़ कायम
किया जाये ताके दकन में भी मुसलमानों का तसल्लुत बरक़रार रहे,
चुनांचे उन्होंने कु छ मुद्दत के लिये अपना पाया तख़्त देहली से दकन में
दौलताबाद मुन्तकिल किया जिसका नाम पहले देवगढ़ था, बाद में
देहली ही दोबारा पाया तख़्त हो गया।

उन्होंने चीन, तिब्बत, खुरासान वग़ैरा को फतेह करने के लिये


हिन्दुस्तान से अपनी फौज रवाना की लेकिन उनको उसमें कामयाबी
नही मिल सकी, उनके ज़माने में मुल्क के कई सूबों में बगावतें हुई
जिनमें मौजूदा सूबे कर्नाटक का गुलबरगा सरे फे हरस्ति था जहाँ
अलाउद्दीन हसन बहमनी ने अपनी अलग हुकू मत कायम की थी.
गुजरात के अलावा दीगर सूबों में भी बगावतें हुई। और उन्होंने कु ल
मिलाकर 27 साल हुक्मरानी की।

तुग़लक़ खानदान के दीगर हुक्मरां:

सन् 1351 ई0 ता 1388 ई0 37 साल फिरोज शाहॅ तुग़लक़ तन्हा


बादशाह रहे, वोह मैहम्मद तुग़लक के चचाजाद भाई थे, उत्तर प्रदेश का
मौजूदा शहर जोनपूर उन्ही का बसाया हुआ है, देहली के क़रीब
फिरोज़ाबाद के नाम से भी उन्होंने एक अलग शहर बसाया था, उनके
इन्तिकाल के बाद सल्तनत पर कब्जे के लिये उनके खानदान में खाना
जंगी शुरू हुई, पहले गयासुद्दीन तुगलक दोम वारिस बना, कु छ मुद्दत के
बाद अबू बकर तुगलक ने उस पर कब्जा किया। उसके बाद मौहम्मद
बिन फिरोजशाह ने इक्तिदार संभाला, उसके बाद सिकन्दर ने हुकू मत
की, फिरोज तुगलक बड़ा क़ाबिल इंसाफ पसन्द, रहम दिल और
निहायत दीनदार बादशाह थे हिन्दुस्तान में अपनी हुकू मत को इस्लामी
सांचे में ढ़ालने की कोशिश सबसे पहले उन्होंने ही की, और उल्मा के
हुक्म पर गैर मुसलमानों को ज़िम्मी करार देकर जिज़या लेना शुरू
किया और दूसरे तमाम टैक्स माफ कर दिये, मशहूर बुजुर्ग शैख
शरफु द्दीन यहया मुरैनी उस अहद के थे।

आले तुग़लक़ की हुक्मरानी का मजमुई दोर बड़ा अच्छा रहा, पूरे मुल्क
में बेशुमार सड़कें तामीर हुई, डाक का निज़ाम वसी व मुस्तहकम हुआ,
मशहूर आलमी सियाह इब्ने बतूता उन्ही के अहद में जब मौहम्मद
तुगलक हुक्मरां थे हिन्दुस्तान आये और देहली के आस पास में आठ
साल क्याम किया।सन 1398 ई० में इसी खानदान के आखरी हुक्मरां
महमूद तुगलक के दौर में चंगेज खान की नस्ल से ताल्लुक रखने वाले
मंगोल बादशाह अमीर तेमूरलंग ने समरक़न्द से आकर हिन्दुस्तान पर
हमला किया और देहली पर कब्ज़ा कर लिया, महमूद तुगलक गुजरात
भाग गया, लेकिन चन्द दिनों के बाद जब तैमूर लंग वापस चला गया तो
महमूद तुग़लक देहली वापस आ गया, सन् 1412 इ0 में उसकी वफ़ात
हुई और इसी के साथ तुगलक खानदान की हुक्मरानी का बाब भी बन्द
हो गया।

वसीम खान ✍️
सैय्यद खानदान:

38 साल के वक्फे के लिये हुकू मत सन् 1413 ई0 ता सन् 1451 ई0


38 साल के वक्फे के लिये #देहली۰ पर सैय्यद खानदान की हुकू मत
रही।

उनका पहला बादशाह सैय्यद हज़रत खान था जो पंजाब का हाकिम


था, उसने दौलत खान से जो तुग़लक़ खानदान का वज़ीर था और
उनके बाद देहली पर उसका कब्ज़ा था उससे हुकू मत छीन कर देहली
पर खुद कब्ज़ा कर लिया, उसने सात साल हुकू मत की।

उसके बाद उसका लड़का मुबारक खान बादशाह हुआ, जिसकी


हुकू मत देहली के अलावा पंजाब और मुल्तान पर भी थी, उसने लाहोर
तक पहुँचने वाली अफ़गान फोजों को शिकस्त देकर वापस काबूल
भेज दिया, लेकिन सन् 1435 ई0 में वोह एक साजिश में कत्ल कर
दिया गया जिसके बाद ख़िज़्र खान का पोता मौहम्मद शाह बादशाह
बना, उसने बारह साल हुकू मत की, देहली पर जोनपुर के हाकिम ने
जब कब्ज़ा करना चाहा तो पंजाब के बादशाह बहलोल लोधी ने उसकी
मदद की, सन् 1445 ई0 में उसकी वफात के बाद उसक लड़के
अलाउद्दीन से हुकू मत संभाली नही जा सकी जिसके बाद बहलाल
लोधी ने देहली पर अपना कब्ज़ा कर लिया।
वसीम खान ✍️

लोधी खानदान:

सन् 1451 ई0 ता 1526 ई0 हिन्दुस्तान की मुस्लिम हुकू मत लोधी


खानदान में रही जो असलन पठान थे और तुग़लक़ खानदान की
हुकू मत में मुलाज़मत करते थे, इनका इक्तिदार 75 साल तक रहा।

इनके पहले बादशाह सन् 1451 ई0 में बहलोल लोधी थे, जिसने सन्
1488 ई० तक तन्हा 38 साल हुकू मत की, सन् 1479 ई0 में उन्होंने
अपनी सल्तनत का दायरा शुमाल में जोनपुर और बुंदेलखंड तक बहुत
बड़ा कर दिया।

वोह बड़े नेक बादशाह थे, उन्होंने हिन्दुस्तान में मुसलमानों की अज़मत
को बहाल किया, इस खानदान के सबसे मशहूर बादशाह बहलोल
लोधी के बैटे सिकन्दर लोधी थे जिसने 28 साल हुकू मत की, उन्होंने ही
"आगरा" शहर बसाया और उसको अपना दारूल हुकू मत बनाया।
सिकन्दर लौधी के बैटे इब्राहीम लोधी इनके आखरी हुक्मरां थे जो सन्
1526 ई0 में पानीपत के मैदान में मुग़ल बादशाह बाबर के हाथ जंग में
मारे गये, इन्हीं के साथ लोधी खानदान की हुकू मत का भी खात्मा हो
गया ।

वसीम खान ✍️

मुगलिया खानदान:

मुग़ल दरअसल मंगोल का बिगड़ा हुआ नाम है, मुल्क मंगालियां के


रहने वालों को मंगोल कहा जाता था जो वस्त ऐशया में रूस और चीन
के दर्मियान वाके अ है, ये बड़ी जंगजू कौम थी, उनको तातारी और
तैमूरी भी कहा जाता था, याद रहे के हिन्दुस्तान की क़दीम अक़वाम में
शुमाल मशरिक से आने वाली एक और कौम का नाम भी मंगोल है जो
आज कल तिब्बी, नेपाली और भूटानी कहलाते है।

अमीर तैमूर इस खानदान का बानी था जिसका इन्तिकाल सन् 1405


ई0 में हुआ उसकी हुकू मत का दायरा दरिया-ए-फु रात से दरिया-ए-
जमना तक फै ला हुआ था, चंगेज खान भी इसी कबिले से ताल्लुक
रखता था जिसने लाखों इन्सानों को क़त्ल करके चीन, तुरकिस्तान,
रूस, ईरान, अफगानिस्तान और जुनूब व मशरिकी यूरोपी मुमालिक
को फतेह किया था ।

हिन्दुस्तान पर मुगलिया खानदान ने 300 साल से जाईद अरसे तक


यानी सन् 1526 ई0 ता सन् 1857 ई0 तवील हुक्मरानी के फराईज़
अंजाम दिये। मुग़लया खानदान के अलावा इतने तवील अरसे तक
बर्रेसगीर की तारीख में किसी एक खानदान की हुक्मरानी की मिसाल
नही मिलती, हिन्दुस्तान में मुसलमानों की यही आखरी हुकू मत भी थी।

मुगलिया सल्तनत का क्याम:

सन् 1526 ई0 में अफगानिस्तान में काबूल के तैमूर खानदान से


ताल्लुक रखने वाले हुक्मरां ज़हीरूद्दीन बाबर ने पानीपत के मैदान में
देहली के उस वक़्त के हुक्मरां इब्राहीम लोधी को खत्म करके और
उसकी एक लाख की फौज को शिकस्त देकर मुगलिया सल्तनत की
बुनियाद डाली और मालवा से बंगाल तक कब्ज़ा कर लिया हालांके
बाबर के साथ सिर्फ 12 हज़ार की फौज थी ।

बाबर बड़े बहादुर शख्स थे, वोह सिर्फ ग्यारह साल की उम्र में
तुरकिस्तान में फ़रग़ाना के बादशाह बन गए थे, उसके बाद उन्होंने
काबुल में अपनी हुकू मत कायम की, फिर वहां से हिन्दुस्तान पर हमला
आवर हुए।
सन् 1529 ई0 में शुमाली हिन्द के मुख्तलिफ राजाओं के साथ जिसमें
सिरे फे हरिस्त राना सांगा भी था जिनसे बाबर की संख्त लडाई हुई
जिसमें बाबर को फतेह मिली, हालांके उनके मुकाबले में सामने पौने दो
लाख फौज थी फिर भी बाबर ने उनको शिकस्त दी। बाबर ने 38 साल
हुकू मत की जिसमें हिन्दुस्तान की हुकू मत के चार साल भी शामिल है।

सन् 1530 ई0 में पचास साल की उम्र में बाबर की वफ़ात हुई, उनकी
वसीयत के मुताबिक काबुल (अफगानिस्तान) में उनको दफ़न किया
गया।

वसीम खान ✍️

सूरी खानदान :

बाबर की वफात के बाद उनका नोजवान बैटा हुमायू सिर्फ तीस साल
की उम्र में अपने बाप का जानशीन बना लेकिन जल्द ही उसको एक
दूसरे अफ़ग़ान सरदार शेरशाह सूरी से जिनका नाम फरीद खान था
और बहार में सहसराम के ज़मीनदार थे उनसे शिकस्त का सामना
करना पड़ा, हुमायू ईरान भागा और सन् 1555 ई० तक हिन्दुस्तान से
बाहर रहा।
शेरशाह सूरी बड़े काबिल हुक्मरां थे, उन्होंने जोनपुर के दींनी मदरसे में
तालीम हासिल की थी, अफगानिस्तान में पठानों के क़बीले सूर से
उनका ताल्लुक था।

उनकी हुकू मत बिहार, बंगाल और देहली से सिंध व पंजाब तक फे ली


हुई थी उन्होने अपनी पांच साला हुकू मत में पूरे मुल्क में सड़कों का
जाल बिछाया, पंजाब से बंगाल तक उन्होने मुल्क की सबसे बड़ी
1300 मील की नई सड़क बनवाई।

वोह बड़े बाहदुर थे, उन्होंने कभी शिकस्त का सामना नही किया,
उन्होंने बेशुमार मस्जिदें तामीर कीं और देहली के बजाये सहसराम को
अपना पाया तख़्त बनाया।

सन् 1545 ई0 में उनका इन्तिकाल हुआ, लेकिन उनके जानशीन


सलीम शाह, फिरोजशाह मौहम्मद शाह आदिल, इब्राहीम शाह और
सिकन्दर शाह वग़ैरा ना अहल और अय्याश निकले और उनसे हुकू मत
संभाली नही जा सकी।

वसीम खान ✍️
मुगलिया खानदान की वापसी:

सूरी खानदान की नाअहली का फायदा उठाकर हुमायू ने सन् 1555


ई0 में शाह ईरान की मदद से अपनी पन्द्रह हजार फौज़ के साथ
सिकन्दर शाह की अस्सी हज़ार फौज को शिकस्त देकर देहली पर
दोबारा कब्ज़ा कर लिया लेकिन दूसरे साल ही हुमायू की वफात हो गई,
वोह देहली में मदफू न हुआ, ये जगह अब हुमायू के मकबरे के नाम से
मशहूर है और उसका शुमार देहली के तारीखी मकामात में होता है।

जलालुद्दीन अकबर:

हुमायू के बाद उसका बड़ा बैटा जजालुद्दीन अकबर सिर्फ चौदह साल
की उम्र में उसका जानशीन हुआ, बेरमखान उसका उस्ताद था जो उमूरे
सल्तनत में उसकी रहनुमाई करता था लेकिन कु छ सालों के बाद हज
को जाते हुये गुजरात में वोह भी कत्ल कर दिया गया।

अकबर को शुरू में मुख्तलिफ सूबों मसलन अवध, पंजाब और


मालवा वग़ैरा में बगावतों का सामना करना पड़ा लेकन उसने इन
सबका कामयाब मुकाबला किया और सिंध कन्धार, कशमीर, बिहार,
बंगाल, मालवा, गुजरात, उडीसा, बलूचिस्तान और दकन वग़ैरा को
उसने अपनी सल्तनत में शामिल किया और दोबारह मुत्ताहिदा
हिन्दुस्तानी हुकू मत कायम की, उसने तक्रीबन पचास साल हुकू मत की,
मुसलसल इतने तवील अरसे तक हिन्दुस्तान पर किसी भी मुस्लिम
हुक्मरां ने हुकू मत नही की।

, सन् 1605 ई0 में 63 साल की उम्र में उसका इन्तिकाल हुआ। वोह
पढ़ा लिखा नही था, उसके बावजूद उसने उलूम व फनून, और तिजारत
को तरक्की दी, उसने तमाम मज़ाहिब को मिलाकर एक खुद साख्ता
मज़हब दींने इलाही की बुनियाद रखी, उसको जिलुल्लाह कहकर
पुकारा जाता और सजदा ताज़ीमी किया जाता, उसने महाभारत,
रामायण और भगवत गीता के फ़ारसी तर्जुमे कराये और गाय ज़िब्ह
करने पर पाबन्दी लगाई।

उसकी बददींनी और इस्लाम से दूरी व बदगुमानी में उस वक़्त के


दरबारी उलमा की ग़लत सोहबत और खुशामद शायरो वग़ैरा का बड़ा
दखल था, उनमे मुल्ला मुबारक के दो लड़के अबू फजल और अबू
फै सल फै ज़ी वगैरा सिरफे हरिस्त थे, मशहूर बुजुर्ग शैख अहमद
सरहिन्दी यानी हज़रत मुजद्दिद अल्फ सानी रह़मतुल्लाह अलैह उसी
ज़माने के थे जिन्होंने बड़ी हिकमत के साथ उसके खुद साख़्ता दीने
इलाही का मुकाबला किया और उसकी बैखकु नी में अहम रोल अदा
किया।

वसीम खान ✍️
जहाँगीर:

सन् 1605 ई0 में अकबर के बड़े बैटे सलीम नुरुद्दीन जहाँगीर हुक्मरां
बने, उनका असल नाम शहज़ादगी में सलीम था, वोह बड़े आली
होसला, रहमदिल और इल्मी ज़ौक रखने वाले बादशाह थे ।

उनकी किताब " तुजक जहाँगिरी" ने बड़ी शोहरत हासिल


की, उन्होने कशमीर में उम्दा सेरगाहे बनवाई, उनकी हुकू मत में उनकी
बीवी नूर जहाँ का बड़ा अमल दखल था सन् 1628 ई0 में उनकी
वफात हुई और लाहोर मे अपनी बीवी नूर जहाँ के बाग़, "बाग़
दिलकश" में तदफीन हुई।

शाहजहाँ:

जहाँगीर के बाद उनके बैटे शहजादा खुर्रम यानी शाहजहाँ ने इक्तिदार


संभाला जिसने देहली में लाल किला और जामा मस्जिद तामीर की
और अपनी बीवी अरजुमन्द बानो मुमताज़ महल की याद में आगरा में
दरिया-ए-जमना के किनारे उसकी कब्र पर अपने उस्ताद ऐसीशिराजी
की निगरानी में बीस हज़ार मजदूरों के ज़रिये उस वक़्त के तीन करोड़
रूपरे खर्च करके सन् 1848 ई0 में दुनिया की सबसे खूबसूरत फन
तामीन का नमूना ताजमहल तामीर कराया, उसी में बाद में उसको भी
दफन किया गया, उसके अलावा उन्होंने तख़्त ताऊस भी बनाया था
जिसको बनाने में सात साल लगे थे, उस वक्त के दो करोड़ रूपये के
हीरे जवाहरात और मोती उसमें जड़े हुये थे और उसमे ढ़ाई लाख
मिसकाल सोना इस्तेमाल किया गया था. बाद में ये तख़्त नादिरशाह के
पास चला गया।

शाहजहाँ के ज़माने में दकन, अहमदनगर और बेजापुर वग़ैरा का


इलाका सल्तनत मुगलिया में शामिल किया गया, शाहजहां ने तीस
साल हुकू मत की, उस वक्त उनकी हुकू मत मुसलमानों की सबसे बड़ी,
वसीअ और चीन के बाद दूसरी बड़ी आलमी हुकू मत थी।

वसीम खान ✍️

हज़रत औरंगजैब आलमगीर


रह़मतुल्लाह अलैह:

शाहजहाँ की बीमारी के बाद उनके बैटों औरंगजैब, दारा शिकोह और


शुजाअ में खाना जंगी शुरू हुई जिसमें हज़रत औरंगजैब आलमगीर
को कामयाबी हासिल हुई। और दारा शिकोह मारा गया, सन् 1658 ई०
में हज़रत औरंगजेब ने इक्तिदार संभाला और उसके बाद सियासी
मसलेहत के पेशे नज़र अपने वालिद शाहजहाँ को आगरा के किले में
नज़र बंद कर दिया जहाँ आठ साल के बाद सन् 1666 ई0 में उनकी
वफ़ात हुई उसकी वजह ये बताई जाती है के दारा शिकोह बदमिजाज,
बद्दीन और बड़ा बदअखलाक था शाहजहाँ उसकी हिमायत करके उसी
को अपना जानशीन बनाना चाहता था, औरंगजैब के साथ शाहजहाँ
का रवैय्या जानिबदारा और जालिमाना था, उसके बावजूद किले में
नज़र बंदी के दौरान उन्होंने अपने वालिद के साथ हुस्ने सुलुक का
मामला किया।

हालांके शाहजहाँ उनको कत्ल करने का भी इरादा कर चुका था, किले


में उसको हर तरह की आज़ादी थी बल्के बवक़्त ज़रूरत उमूरे सल्तनत
में हज़रत औरंगजैब उनसे से मशवरा भी करते थे औरंगजैब निहायत
दीनदार शख्स थे, बैतुलमाल से अपने जाती खर्च के लिये भी कोई
रकम नही लेते थे, टोपियां सीकर और कु रान मजीद की किताबत
करके अपना गुजारा करते थे, वोह हिन्दुस्तान की पूरी इस्लामी तारीख
के सबसे बेहतरीन और नेक बादशाह थे, इसीलिये ग़ैर मुस्लिम
मुअर्रिखीन ने हिन्दुस्तानी तारीख में उनको इस्लाम के हवाले से बहुत
बदनाम किया और उन पर हिन्दु रिआया के साथ बदसलूकी का
इल्ज़ाम लगाया। हालांके सिखों, शिवाजी और मराठों के साथ उनकी
जंग का मज़हब से कोई ताल्लुक नही था बल्कि वोह खालिस सियासी
जंगें थीं, खुद उनकी फौज में आला मनासिब पर हिन्दू व सिख फायज़
थे।

उन्होंने अपनी मुमालिकत में शराब और जूवे पर पाबन्दी लगा दी थी


और इस्लामी उसूलों के मुताबिक हुकू मत चलाने की कोशिश की थी,
दूसरे अल्फाज़ में उन्होंने हिन्दुस्तान में खिलाफत राशिदा के तर्ज़ पर
इस्लामी हुकू मत के कयाम की कोशिश की।
उन्हें अपने जमाने में पंजाब में सिखों और दकन में मराठों की बड़ी
बगावत का सामना करना पड़ा, उनकी हुकू मत का दायरा आसाम से
सिंध और कशमीर से के रला तक फै ला हुआ था, उनके इन्तिकाल के
वक़्त चीन के बाद पूरी दुनिया की दूसरी बड़ी हुकू मत हिन्दुस्तान में
मुसलमानों के पास थी जिसकी नज़रें पूरी तारिख ए हिन्द में अशोका
के बाद किसी के ज़माने में नही मिलती जिसका रकबा गौरे काबिल है
जो कि कन्या कु मारी तक पन्द्रह लाख मुरब्बा मील यानी चौबीस लाख
मुरब्बा किलो मीटर था और आबादी में करोड़ों था।

हज़रत औरंगजैब बड़े इल्म परवस्था, फिकह हनफी की मशहूर किताब


फ़तावा अलामगीरी की तालीफ उनका सबसे बड़ा इल्मी कारनाम था,
ये किताब उन्होंने मुल्क के काबिल उलमा के जरीये आठ साल में
लिखवाई और पूरी किताब खुद उन्होंने हुरूफ बा हुरूफ पढ़वाकर
सुनी, उन्होंने वसीयत की थी के टोपियां सीकर उन्होंने जो चार रूपये
दो आने जमा कर रखे है। उससे उनके कफ़न का इन्तिज़ाम किया जाये
और कु रान शरीफ़ की किताबत के जो रूपये जमा है उसको मिसकीनों
में तकसीम कया जाये।

इन्होंने लखनऊ में मुल्ला कु तबुद्दीन को एक बड़ी इमारत एक दींनी


मदरसे के लिये दी थी जहाँ से उनके फ़रजन्द निजामुद्दीन का राईज़
कर्दा दर्से निज़ामी आज बर्रेसगीर के अक्सर दींनी मदारिस में राईज है,
इस दर्से निज़ामी की अकसर किताबें भी हज़रत औरंगजैब ही के
ज़माने में लिखी गई थीं।

हज़रत औरंगजैब बड़े खत्तात भी थे, उनके हाथ के लिखे हुये कु रान
मजीद के नमूने आज भी मौजूद है, उसी पर उनका गुजर बसर था,
उनकी गैर मामूली- दींनदारी में अल्फ सानी रह़मतुल्लाह अलैह के
साहिबजादे हज़रत ख्वाजा मौहम्मद मासूम की सोहबत और तरबीयत
का बड़ा असर था जिनसे वोह बेअत भी थे, वोह हमेशा बावजू रहते
पहली सफ़ में मस्जिद में बाजमाअत नमाज़ अदा करते, पीर और
जुमेरात के रोज़े रखते रमज़ान के आखरी अशरा का ऐतिकाफ् करते,
वोह हाफिज़ कु रान भी थे, 43 साल की उम्र में बादशाह बनने के बाद
उन्होंने हिफ़्ज़ शुरू किया और एक ही साल में हिफ़्ज मुकम्मल कर
लिया।

वसीम खान ✍️

दीगर मुग़ल हुक्मरां :

सन् 1707 ई0 मे अहमद नगर में हज़रत औरंगजैब आलमगी़र


रह़मतुल्लाह अलैह की वफात के बाद उनका बैटा मुअज्जम शाह उर्फ
शाह आलम बहादुर उनका जानशीन हुआ, उनके भाई आजम और
उसमें सल्तनत के लिये सख़्त लड़ाई हुई जिसमें आजम मारा गया, यही
से मुग़लया सल्तनत का जवाल शुरू हुआ और मुगल बादशाहों की
हुक्मरानी बराये नाम रह गई।
शाह आलम का जानशीन मुईजु जहाँनिदार हुआ लेकिन एक ही साल
में उसके भतीजे अजीमुश्शान के लड़के के फर्खसेर ने सन् 1721 ई0
इक्तिदार अपने हाथ में ले लिया ओर झानदार का कत्ल कर दिया कु छ
मुद्दत के बाद फर्खसेर भी मारा गया, उसके बाद रफीउद्दरजात और
रफीउद्दोला ने तख़्त संभाला जिसके बाद इक्तिदार मौहम्मद शाह के
पास आया, उसी के ज़माने में सन् 1738 ई0 में ईरान के बादशाह
नादिरशाह ने हिन्दुस्तान पर हमला कर दिया जिसमें खून की नदियाँ
बही, मुग़ल सल्तनत की चूलें हिल गई और बिहार, उडीसा, सिंध, दकन
और कशमीर वग़ैरा में अलग अलग खुद मुख्तार सल्तनतें कायम हुई,
मराठों ने गुजरात और महाराष्ट्र पर कब्ज़ा कर लिया।

सन् 1748 ई0 में मौहम्मद शाह की वफ़ात हुई और उसका लड़का


अहमद शाह उसका जानशीन बना लेकिन पाँच साल के बाद उसको
तख़्त से उतार कर मुअज्जम शाह के पोते आलमगीर सानी ने देहली
हुकू मत पर कब्ज़ा कर लिया, उधर अफगानिस्तान में नादिरशाह के
बाद अहमद शाह अबदाली बादशाह बने और उन्होंने पंजाब पर कब्ज़ा
कर लिया, इस जंग के बाद अहमद शाह अबदाली अफगानिस्तान
वापस चले गये और देहली की हुक्मरानी मुग़ल बादशाह शाहआलम
सानी के हवाले की जिसने बाद में अवध के हाकिम शुजाउद्दोला के
साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करने की कोशिश की , शाह
आलम सानी के बाद उसका लड़का अकबर सानी उसका जानशनी
हुआ जो अंग्रेजों का वज़ीफा ख़वार था।

वसीम खान ✍️
बहादुरशाह जफर:

मुग़ल खानदान के आखरी बादशाह इत्तिफाक से हिन्दुस्तान में इस्लामी


हुकू मत के भी आखरी बादशाह अकबर सानी के लड़के बहादुरशाह
जफर थे।

जो सन् 1837 ई0 से बराये नाम देहली के बादशाह थे, इनको अंग्रेजों


की तरफ से वज़ीफा मिलता था और उनकी हुकू मत लाल किले की
चार दीवारी तक महदूद थी वोह एक बेहतरीन अदीब और शाईर भी थे,
उनकी शाईरी में मुगलिया सल्ततनत के ज़वाल और हवादिस ज़माने
की तसवीरकशी मिलती है।

उनका मजमूआ कलाम चार जिल्दों में है जिसमे तीस हज़ार से ज़ाईद
अशआर है, बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके रंगून
(बरमा) में सन् 1857 ई0 में कै द कर दिया, वहाँ बड़ी कसमपुर्सी की
हालत में सन् 1862 ई0 में उनका इन्तिकाल हुआ, मशहूर शुअरा जौक
और ग़ालिब को उनकी शार्गिदी हासिल थी, उनका मशहूर शेर ये था
जो उन्होंने अपनी जिलावतीनी और कसमपुर्री की हालत में कहा था ।

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए ।


दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू -ए-यार में।।

इनका का मज़ार रंगून (बरमा) में है। और इस तरह मुग़लया सल्तनत


के ज़वाल के साथ ही हिन्दुस्तान से इस्लामी हुकू मत का भी खातमा हो
गया।

वसीम खान ✍️

अहमदशाह अब्दाली का देहली


पर हमला और पानीपत की
तीसरी जंग:

सन् 1738 ई० में ईरान के बादशाह नादिरशाह ने काबुल, सिंध और


पेशावर वगैरा पर कब्ज़ा करते हुए जो उस वक़्त मुगलिया सल्तनत में
शामिल थे लाहोर के रास्ते देहली पर हमला किया था और नसीर के
मकाम पर तीन दिन के मुसलसल क़त्ल आम में एक लाख से ज़ाईद
लोगों को खत्म किया।
उस वक़्त देहली पर मौहम्मद शाह की हुक्मरानी थी, नादिरशाह
पचास करोड़ की दौलत लूट कर वापस ईरान चला गया, उसका
मकसद सिर्फ मुगलिया सल्तनत में शामिल काबुल में पनाह लेने वाले
अफगानों को उसके हवाले ना करने पर मौहम्मद शाह को सबक
सिखाना था।

सन् 1747 ई0 में नादिरशाह को कत्ल करके अफगानिस्तान पर


अहमदशाह अबदाली काबिज हुए जिसके बाद उन्होंने हिन्दुस्तान का
रूख किया और चार बार शुमाली हिन्दुस्तान पर हमला किया और
मुग़लों से पंजाब, सिंध और कशमीर वग़ैरा के इलाके अपने कब्ज़े में
लिये और वापस अफगानिस्तान चले गए।

सन् 1761 ई0 में पानीपत के मैदान में अहमदशाह अबदाली और


मराठों के दर्मियान सख्त जंग हुई क्योंकि उस वक्त मराठों का जुल्मो
सितम मुसलमानों पर बहुत ज़्यादा बड़ गया था इसलिए शाह वली
उल्लाह मुहद्दीस ए देहलवी रह़मतुल्लाह अलैह ने अहमद शाह अब्दाली
को ख़त के ज़रिए मुसलमानों के खिलाफ मराठों के क़त्ले आम से
आगाह किया और अहमद शाह अब्दाली को हिंद वापस बुलाया और
उन्होंने हिंद आकर मराठों की‌ईंट से ईंट बजा कर उन्हें मैदान जंग में
क़त्ल भी किया और मैदान जंग से भागने पर मजबूर भी कर दिया।
और इस तरह अहमद‌शाह अब्दाली ने पानीपत कि ये तीसरी जंग को
जीत लिया।

इस जंग में जिसमें मराठों को शिकस्त हुई, दौ लाख मराठे मारे गये, इस
जंग को तारीख में पानीपत की तीसरी जंग से याद किया जाता है, इस
फतेह के बाद अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब, सिंध और कशमीर को
अपनी हुकू मत में शामिल किया और अफगानिस्तान वापस चले गए
और देहली में हुकू मत शाह आलम सानी के सुपुर्द की।

वसीम खान ✍️

हिन्द की खुदमुख्तार हुकु मतें :

[बंगाल की खुद मुख्तार सल्तनत]

यूँ तो सुल्तान शहाबुद्दीन के ज़माने ही से बंगाल मुस्लिम हुक्मरानों के


कब्जे में रहा।

लेकिन देहली में लोधी खानदान की हुकू मत के दौरान पूरे मुल्क में जो
मुख़्तलिफ खुद मुख्तार रियासतें कायम हुई उनमें एक अहम हुकू मत
बंगाल की भी थी जिसके बाद बंगाल मुत्तेहदा हिन्दुस्तान से अलग हो
गया, इस सल्तनत के बानी सुल्तान शमसुद्दीन थे।
सन् 1340 ई0 से 16 साल उन्होंने मुसलसल बंगाल पर हुकू मत की
जिसके बाद उनका बैटा सिकन्दर 9 साल हुक्मरां रहा, उसके बाद
मुख्तलिफ़ खानदानों की यहाँ हुकू मत रही, यहाॅ तक के सन् 1538 ई0
में मुग़ल बादशाह हुमायू ने बंगाल को अपनी सल्तनत में शामिल
किया। उसके बाद बंगाल शेरशाह सूरी के कब्जे में रहा, फिर सन् 1594
ई0 में मुग़ल बादशाह अकबर ने बंगाल को दोबारा मुगलिया सल्तनत मे
शामिल किया ।

वसीम खान ✍️

मुमलिकत आसफ़िया
(सल्तनत हैदराबाद)

मुग़ल बादशाह औरंगजैब ने अपने अहदे इक्तिदार में जुनूब में वाके अ
मुख़्तलिफ हुकू मतों यानी गोल कुं ड़ा की "कु तुब शाही" बेजापूर की
"आदिल शाही" अहमद नगर की "निज़ाम शाही" और बैदर की "बुरैद
शाही" सल्तनतों को ज़म करके उन सबको सियासी ऐतबार से सूबा-ए-
दकन के नाम से देहली हुकू मत के मातहत कर दिया था जिसको
"निज़ाम शाही" हुकू मत भी कहा जाता था लोग उसको मुमालकत
हैदराबाद भी कहते थे और उसके बादशाह निजामुलमुल्क या
निज़ामुद्दोला या आसिफ जाह कहलाते थे, उनकी हुकू मत यूँ तो सन्
1800 ई0 में अंग्रेजों ने खत्म कर दी थी लेकिन रस्मी तौर पर ये
सिलसिला हिन्द की आज़ादी तक जारी रहा।

सन् 1707 ई0 में हज़रत औरंगजैब की वफ़ात के बाद जब मुगलिया


सल्तनत कमजोर हुई तो देहली की तरफ से सूबा दकन के नज़्म व
नस्क को संभालने के लिये मीर कमरूद्दीन चैन कलैचुलमारूफ
निजामुलमुल्क को मुकर्र किया गया जो शाहजहाँ के वज़ीर
सअदुल्लाह खां का नवासा था और जिसका खानदान बुखारा से
हिजरत करके हिन्द में आबाद हो गया था और शहादुद्दीन सहवर्दी के
खानदान से ताल्लुक रखता था, सन् 1724 ई0 में निजामुल मुल्क ने
मुगलया सल्तनत से बगावत करके हैदराबाद को अपनी सल्तनत का
दारूलहुकू मत करार देकर अपनी खुद मुख्तारी का ऐलान कर दिया,
बिलआखिर उसको मुगलिया सल्तनत ने भी तसलीम कर लिया और
उसको "आसिफ जाह" का खिताब दिया गया जिससे उसकी सल्तनत
मुमलिकत आसफिया कहलाई।

सन् 1748 ई0 में 78 साल की उम्र में निज़ाम की मौत के बाद उसकी
जानशीनी को लेकर इख़्तिलाफ़ हो गया, उसके बैटे "नासिर जंग" और
नवासा "मुजफ्फर जंग" में उसके लिये लड़ाई हुई, उस वक्त हिंद में
मौजूद फ्रांसिसीयों की मदद से मुजफ्फर जंग को कामयाबी मिली,
नासिर जंग मारा गया, लेकिन जल्द ही मुजफ्फर जंग को भी क़त्ल कर
दिया गया सन् 1753 ई0 में उसकी जगह निज़ाम के तीसरे बेटे
सुलाबत जंग ने इक्तिदार संभाला। सन् 1756 ई0 में उसके भाई
निज़ाम अली के पास हुकू मत आई जिसके बाद मुमलिकत आसफिया
के एक बड़े • हिस्से पर मराठों ने कब्ज़ा कर लिया लेकिन सन् 1761
ई0 में पानीपत के मैदान में अहमद शाह अबदाली के हाथों मराठों की
शिकस्त के बाद निजाम अली मराठों से अपना ये मक़बूज़ा इलाका
वापस लेने में कामयाब हुआ।
सल्तनत खुदादाद मैसूर के कयाम के बाद जब निज़ाम को नवाब हैदर
अली से खतरा महसूस हुआ तो उसने औरंगजैब के सियासी हलीफ़
बनने में आफियत समझी और सन् 1768 ई0 में कर्नाटक यानी दकन
का एक बड़ा इलाका सात लाख रूपये सालाना के बदले अंग्रेजों को दे
दिया जिसके नतीजे में निज़ाम की हुकू मत जो दरिया-ए-नरमदा से रास
कु मारी और महाराष्ट्र के शुमाली जुनूबी हिस्सों तक फै ली हुई थी और
तीन लाख मुरब्बा मील थी वो सिमटकर सिर्फ हैदराबाद के आस पास
चन्द हज़ार मुरब्बाअ मील तक महदूद हो गई, टीपू सुल्तान कि शहादत
के बाद सन् 1800 ई0 में अंग्रेजों ने निज़ाम की बराये नाम हुकू मत का
भी खात्मा कर दिया और हैदराबाद को भी अपने मकबूज़ा इलाकों में
शामिल कर लिया जिसके बाद रस्मी तौर पर महदूद इख्तियारात के
साथ निजाम शाही हुकू म अंग्रेजों के ज़ैरे सरपरसती चलती रही यहाँ
तक के सन् 1947 ई0 में हिंद अंग्रेजों के कब्ज़े से आज़ाद हुआ तो उस
वक़्त के आसिफ जाह हफ़्तुम मीर उस्मान अली खान ने चाहा के
हैदराबाद की ये मुस्लिम हुकू मत आज़ाद ही रहे लेकिन सन् 1947 ई0
में हिन्द ने फोजी कारवाई के जरीये जिसको पुलिस एकशन कहा
जाता है उसको हिन्द में शामिल किया।

मीर उस्मान अली खान इल्म के बडे कद्रदान थे, हैदराबाद की मौजूदा
उस्मानियां यूनीवर्सिटी उन्होंने ही कायम की थी जिसका ज़रीया ए
तालीम उर्दू था, मुख्तलिफ़ ज़बानों की इस्लामी किताबों के तर्जुमे के
लिये उन्होंने दारूत्तर्जुमा भी कायम किया था।

वसीम खान ✍️
जोनपुर की सल्तनत
(सल्तनत शर्की) :

तुगलक खानदान के बादशाह महमूद शाह ने बंगाल के मग़रिबी जानिब


वाके अ जोनपुर में "मुल्क सिर ख़्वाजा सरा" को सन् 1393 ई0 में
गवर्नर के ओहदे पर फायज किया था लेकिन चार साल के बाद उसने
बगावत करके अपनी एक खुद मुख़्तार हुकू मत कायम की जो सल्तनत
जोनपुर कहलाई और सन् 1397 ई0 से 1478 ई० तक कायम रही ।

इसका पाया ऐ तख़्त उत्तर प्रदेश का शहर जोनपुर था जो अपने दीनी


मदारिस की वजह से पूरे मुल्क में शोहरत रखता था, यहीं के दीनी
मदरसा से मशहूर बादशाह शेरशाह सूरी ने भी तालीम हासिल की थी,
अपनी इल्मी शोहरत की वजह से पन्द्रहवीं सदी ई0 में पूरे हिन्द में
जोनपुर को बड़ी शोहरत हासिल थी और उसको "शिराज़ हिन्द" कहा
जाता था ।

इस सल्तनत के सबसे मशहूर बादशाह "इब्राहीम" थे जिन्होने तन्हा


मुसलसल चालीस साल तक जोनपुर का इक्तिदार संभाला। वोह उलमा
के बड़े कद्रदान थे, उनके ज़माने में पूरे हिन्द में जोनपुर इल्म व अदब के
मरकज़ की हैसियत से शोहरत रखता था, उन्होंने बेशुमार मदारिस और
मसाजिद भी तामीर की।
इस खानदान की हुकू मत अस्सी बरस रही, उनका आखरी बादशाह
"सुल्तान हुसैन शरकी" था। सन् 1476 ई0 में जोनपुर की इस सल्तनत
का खातमा हुआ ।

वसीम खान ✍️

बहमनी सल्तनत :

शुमाली हिन्द मे दकन के इलाके में सन् 1347 ई0 में मौहम्मद तुग़लक़
कि देहली पर हुक्मरानी के ज़माने में एक बगावत के जरीये अलाउद्दीन
हसन नामी एक शख़्स ने इस बहमनी सल्तनत को कायम किया, ये
सल्तनत तकरीबन 200 साल कायम रही, इसका पाया तख़्त मोजूदा
रियासत कर्नाटक का तारीखी शहर "गुलबरगा" था जिसका नाम उस
वक़्त उन्होंने "हुसनाबाद" रखा था, उसके बाद पाया तख्त "बैदर"
मुन्तकिल हो गया, इस खानदान में दस बादशाह हुये पहला
"अलाउद्दीन हसन" और आखरी "कलीमुल्लाह बहमनी" था जिसका
इन्तिकाल सन् 1527 ई0 में हुआ और उसके साथ ही बहमनी सल्तनत
का भी खात्मा हो गया।हज़रत नसीरूद्दन चिराग़ देहलवी के खलीफा
और मशहूर बुजुर्ग हज़रत ख्वाजा बन्दा नवाज़ा गैसूदराज़ का मजार
उसी गुलबरगा में है जिनसे इस मुल्क में ईशाअत इस्लाम का बड़ा काम
अंजाम पाया।

ने के नी पाँ
अपने ज़वाल के बाद बहमनी हुकू मत पाँच
छोटी छोटी सल्तनतों में तकसीम हो गई: 👇
(1) निज़ाम शाही ( अहमद नगर) (2) कु तुब शाही (गोलकं ड़ा) (3)
आदिल शाही (बेजापुर) (4) इमाद शाही (बुरार) (5) बुरैद शाही (बैदर)

इन सब बिखरी हुई सल्तनतो कि तफ़सीलात इंशा अल्लाह हम आगे


पढ़ेंगे।।

वसीम खान ✍️

निज़ाम शाही सल्तनत :

ये मुस्लिम हुकू मत सन् 1489 ई0 ता सन् 1636 ई० तकरीबन डेढ़ सौ


साल कायम रही, उसका पाया ऐ तख़्त मौजूदा सूबा महाराष्ट्र में अहमद
नगर शहर था जिसको उन्होंने बसाया था, उस सल्तनत का बानी
निज़ाम शाह नया नया मुस्लिम था।
सन् 1508 ई0 में उसकी वफ़ात के बाद उसका लड़का बुरहान निज़ाम
शाह उसका जानशीन हुआ जिसने शिआ मज़हब इख़्तियार कर लिया
था लेकिन रिआया सुन्नी ही थी।उसके बैटे हसन निज़ाम शाह ने
तालीकोट के मैदान में विजयनगर की हिन्दु सल्तनत के खातमा के
लिये मुत्तेहदा मुस्लिम हुकू मतों के मुहाज़ में शिकरत की थी सन् 1536
ई0 में ये हुकू मत मुग़ल हुक्मरां शाहजहाँ के ज़माने में मुगलया सल्तनत
में शामिल कर ली गई, इनका आखरी बादशाह मुस्तजा निजाम शाह
सोम था।

कु तुबशाही सल्तनत :

इस सल्तनत का पाया ऐ तख़्त आंध्रा प्रदेश में गोलकुं डा था और


हुकू मत पूरे तेलंगाना खित्ते पर थी जहाँ तेलगू जबान बोली जाती थी,
उनकी हुकू मत दो सौ साल से ज़्यादा रही। इस सल्तनत का बानी
सुल्तान कु तुबशाह था जो खुद शिआ था । वोह मौहम्मद शाह बहमनी
की हुकू मत में तेलंगाना का गवर्नर था, सन् 1543 ई0 में 90 साल की
उम्र में उसको कत्ल कर दिया गया जिसके बाद उसका लडका जमशेद
कु तुब शाह उसका जानशीन हुआ, सन् 1686 ई0 में हज़रत औरंगजैब
आलमगी़र ने उसको मुगलिया सल्तनत में शामिल कर दिया, उनका
आखरी बादशाह अबुलहसन तानाशाह था, हैदराबाद की मशहूर
मक्का मस्जिद, चार मीनार और हुसैन सागर की झील वग़ैरा उन्ही के
अहद की यादगारें हैं।

वसीम खान ✍️
आदिलशाही सल्तनत

मौजूदा कर्नाटक में बेजापुर के इलाके में ये सल्तनत कायम थी। शहर
बेजापूर उसका पाया तख़्त था, इस सल्तनत का कयाम बहमनी
सल्तनत के आखरी अहद में सन् 1489 में अमल में आया, इसका
बानी आदिल शाह था जो बहमनी सल्तनत में बेजापुर का सूबेदार था,
उसने शिआ मज़हब इख़्तियार कर लिया था।

उसने सन् 1509 ई0 में पुर्तगालियों को शिकस्त देकर गोवा पर भी


कब्ज़ा कर लिया, सन् 1510 में उसकी वफ़ात के बाद उसके बैटे
इस्माईल आदिल शाह ने इक्तिदार संभाला, उसके बाद मलू आदिल
शाह ने, फिर उसके बाद उसे भाई इब्राहीम आदिल शाह ने जिसने
शिईयत से तोबा करके सुन्नी हनफी मस्लिक इख़्तियार कर लिया था
लेकिन उसके बैटे अली आदिल शाह ने दोबारह शिआ मज़हब
इख़्तियार कर लिया। उसी के ज़माने में आस पास की मुस्लिम हुकू मतों
ने मुत्तेहदा महाज़ कायम करके विजयनगर की गैर मुस्लिम हुकू मत का
तालीकोट के मैदान में सन् 1564 ई0 में खात्मा किया था।

सन् 1685 ई0 में हज़रत औरगजैब के ज़माने में बेजापुर की इस


आदिलशाही सल्तनत को सल्तनते मुग़लया में शामिल किया गया,
बेजापुर के मुस्लिम बादशाहों को मसाजिद और खूबसूरत तामीरात का
बड़ा अच्छा जौक था जिसके नमूने आज भी इन इलाकों में देखे जा
सकते है।
वसीम खान ✍️

इमादशाही सल्तनत:

ये बहुत छोटी हुकू मत थी जो सन् 1475 ई0 से सन् 1576 ई0 तक


तकरीबन सौ साल रही, बरार (महाराष्ट्र) इसका पाया तख़्त था, इस
सल्तनत का बानी फतेहुल्लाह इमादुल्मुल्क था इसी निसबत से उसकी
हुकू मत इमाद शाही कहलाई, वोह महमूद शाही बहमनी के अहद में
बरार का गवर्नर था और नया नया मुस्लिम था, उसका जानशीन उसी
का लड़का अलाउद्दीन इमादशाह हुआ, उनका आखरी बादशाह
बुरहान इमादशाह था।

बहमनी सल्तनत के ज़वाल के बाद सबसे पहले अपनी खुद मुख्तारी


का ऐलान करने वाली यही इमादशाही हुकू मत थी, अहमद नगर
निज़ाम शाही हुकू मत ने सन् 1576 ई0 में उसको अपनी सल्तनत में
जम कर दिया, विजय नगर हिन्दु सल्तनत के खिलाफ मुस्लिम हुकू मतों
के मुत्तहदा मुहाज़ में ये हुकू मत शरीक नही थी।

बुरैदशाही सल्तनत
महमूद शाह बहमनी के ज़माने में मराठ खित्ते का गवर्नर महमूद
कासिब बुरैद था जिसने मौका पाकर सन् 1526 ई0 में अपनी खुद
मुख्तारी का ऐलान कर दिया, इस सल्तनत का पाया तख़्त मौजूदा
कर्नाटक में बैदर शहर था, सन् 1609 ई0 में इस सल्तनत का खातमा
हुआ, उनका आखरी बादशाह अमीर बुरैद दोम था, इस खानदान की
हुकू मत तक़रीबन तिरासी (83) साल रही।

वसीम खान ✍️

हनूर की अरबी इस्लामी सल्तनत

जुनूबी हिन्द में हिन्दुओं की खालिस मज़हबी सल्तनत विजयनगर के


ज़माने में बुहैरा अरब के साहिली इलाके में आठवीं सदी हिजरी यानी
सन् 630 हि0 में मौजूदा सूबा गोवा से जुनूबी जानिब मग़रिबी घाट में
सूबा कर्नाटक के मौजूदा ज़िला कारवार में भटकल से क़रीब हनूर
(हिनावर) शहर के साहिली खित्ते में खालिस अरबों से नसली ताल्लुक
रखने वाले कबीले नवाईत के मुसलमानों की एक अलग इस्लामी
हुकू मत कायम थी जिसको मुअर्रिखीन सल्तनत हनूर के नाम से याद
करते है।
उसका बादशाह सुल्तान जमालुद्दीन बिन हसन था जिसके पास एक
मजबूत बहरी बेड़े के अलावा छः हज़ार की फौज थी, पडोस की
हिन्दुओं की गोवा की सल्तनत के साथ एक जंग में इस मुस्लिम
सल्तनत का खातमा हुआ, इस सल्तनत के क़याम के दौरान मशहूर
आलमी सियाह इब्ने बतूता हिन्द में मुक़ीम था, वोह यहाँ भी पहुँचा
और अपने सफर नामा में इस जगह का खुसूसयित के साथ ज़िक्र
करते हुये तहरीर किया के यहाॅ मैंने 23 दीनी मदरसे देखे जिसमें सिर्फ
लडकियों के लिये 13 मदरसे खास थे, हिफ़्ज़ कु रान का यहाँ के
बाशिन्दों में आम रिवाज था, मुसलमानों के आईली मसाईल के हल के
लिये दारूक्कु जा कायम था, यहाॅ के मुसलमान अरबी असलन, शाफई
उल मसलक और तिजारत पैशा थे, गैर मुसलमानों की आबादी जैनमत
से ताल्लुक रखती थी, आज कल भटकल (कर्नाटक) व आस पास में
आबाद मुसलमान इसी अरबी अलनसल कबिला नवाईत से ताल्लुक
रखते है।

वसीम खान ✍️

सल्तनत खुदादाद
(सल्तनते मैसूर)

मक्का मुकर्रमा से सतरहवीं सदी के अवाईल में एक अरब खानदान


तलाशे रोज़गार में इराक व ईरान होते हुये पंजाब आया, फिर वहाँ से
जुनूबी हिन्द में हिन्दु सल्तनत विजयनगर के ज़वाल के बाद मौजूद
कर्नाटक में मैसूर शहर के क़रीब आकर बस गया, उसी खानदान के
एक फर्द हैदर अली ने मैसूर के राजा कृ ष्णाराज के पास फौजी
मुलाज़मत शुरू की, सन् 1752 ई0 में वोह मैसूर के करीब डंडेगल के
गवर्नर बने जिसके बाद अपने खिलाफ होने वाली बगावत को नाकाम
करके उन्होंने सन् 1761 ई0 में सल्तनत मैसूर पर कब्ज़ा कर लिया
और उसका नाम सल्तनत खुदादाद रखा।

मैसूर व श्री रंगापटन पर हैदर अली के कब्जे के वक़्त उनके पास सिर्फ
33 गांव थे, लेकिन 1782 ई0 में उनकी वफ़ात के वक्त उस हुकू मत का
दायरा 80 हज़ार मुरब्बा मील तक पहुँच गया था, उनकी वफ़ात के बाद
से सन् 1799 ई० तक सल्तनत खुदादाद पर उनके साहिबजादे हज़रत
सुल्तान टीपू का कब्जा रहा ।

इस दौरान हैदर अली व हज़रत टीपू सुल्तान की अंग्रेजों के साथ चार


बड़ी जंगें हुई, पहली जंग में अंग्रेजों का हैदाराबाद के निज़ाम, अरकाट
के नवाब मौहम्मद अली और मराठों ने साथ दिया, उसमें अंग्रजों को
पस्पा होना पड़ा दूसरी जंग सन् 1780 ई0 में हुई और ये सिलसिला
सन् 1784 ई0 तक चला, इसमें अगरचे सल्तनत खुदादाद का पलड़ा
भारी रहा लेकिन आखिर में दोनों फ़ीक़ों के दर्मियान सलह हुई, तीसरी
जंग सन् 1790 ई0 से 1792 ई० तक जारी रही, उसमें भी आखिर में
सुलह हुई और सल्तनत खुदादाद का निस्फ़ हिस्सा मअ तीन करोड़
रूपये अंग्रेजों को मिला, चौथी जंग सन् 1799 ई0 में हुई जिसमें
सुल्तान टीपू शहीद की शहादत का अज़ीम सांहा पेश आया और
हिन्दुस्तान की आज़ादी का परचम गिर गया और पहल दफा हज़रत
टीपू की शहादत के बाद अंग्रेजों की ज़बान से ये जुमला निकला के

"आज से हिन्दुस्तान हमारा है"


इसके बाद रस्मी तौर पर सल्तनत मैसूर के तख़्त पर साबिक़ राजा के
पाँच साला बैटे शनाराज सोम को बैठाया दिया गया और अमलन
अंग्रेजों ही का इस पर कब्ज़ा हो गया।

वसीम खान ✍️

मद्रास की खुद मुख्तार


मुस्लिम सल्तनत

जुनूबी हिन्द के मशरिकी इलाके को अरब माबर कहते थे, इस इलाके में
मौहम्मद तुग़लक़ के ज़माने में पंजाब के सैय्यद खानदान से ताल्लुक
रखने वाले एक फौजी अफसर सैय्यद हसन को गवर्नर मुकर्रर किया
गया था जिसने सन् 1334 ई0 में तुग़लक़ खानदान से बगावत करते
हुये यहाँ अपनी खुद मुख़्तारी का ऐलान कर दिया और अपना नाम
जलालुद्दीन हसन शाह रखा, पाँच साल के बाद उसको क़त्ल कर दिया
गया जिसके बाद उसके एक वज़ीर अलाउद्दीन ओध जी ने सल्तनत
पर कब्ज़ा कर लिया।
सन् 780 हि० मुताबिक सन् 1378 ई0 में इस सल्तनत का खात्म हो
गया, इस सल्तनत का पाया तख़्त मौजूदा तामिलनाडू में मदोराये थे।

सल्तनत गुजरात

मौहम्मद शाह तुगलक की देहली पर हुक्मरानी क ज़माने में ज़फर खान


गुजराती को गुजरात का हाकिम बनाया गया था जिसने सन् 1407 ई०
सल्तनत देहली के खिलाफ बगावत करके अपनी खुद मुखतारी का
ऐलान कर दिया ओर अपना नाम मुजफ्फर शाह रखा, सन् 1410 ई0
में उसके इन्तिकाल के बाद उसका पोता अहमद शाह उसका जानशीन
हुआ, उसी ने गुजरात में दरिया-ए-साबरमती के किनारे अहमदाबाद का
शहर अपने नाम से बसाया, वोह बड़ा दीनदार था, उसने 33 साल
मुसलसल हुकू मत की, उसके पास बहरी बेड़ा भी था, उसके बाद उसके
लड़के मौहम्मद शाह ने हुकू मत संभाली, सन् 1458 ई0 में उसके
इन्तिकाल के बाद उसके भाई फतेह खान महमूद शाह ने मूसलसल
पचास साल हुकू मत की, इसी का बैटा मुजफ़्फ़र हलीम गुजराती था जो
इन तमाम बादशाहों में सबसे ज़्यादा दीनदार और हाफिजे कु रान भी
था, सन् 1572 ई० में मुग़ल बादशाह अकबर ने गुजरात पर क़ब्ज़ा
करके उसको अपनी सल्तनत में शामिल किया और गुजरात की इस
165 साला हुकू मत का खातमा हो गया, इन बादशाहों ने अहमदाबाद
के अलावा दूसरे मतअदद नये शहर भी बनाये जिसमें अहमद नगर,
महमूदाबाद, मुजफ़्फ़राबाद और सुल्तानपुर वग़ैरा शामिल है।

उनके अहद में तिजारत ओर ज़राअत को बड़ी तरक्की मिली, यहाॅ की


बन्दरगाहो से इराक, ईरान, यमन, मिस्र और अफरीका के मुमालिक को
हिन्दुस्तानी सामान तिजारत से बरामद किया जाता था ।
वसीम खान ✍️

सल्तनत कशमीर

सन् 1346 ई0 ता सन् 1584 ई0 कशमीर में मुख़्तलिफ बादशाहों की


खुदमुख़्तार हुकू मतें रही कशमीर की सल्तनत का बानी शाहमीर था
जिसने कशमीर के राजा औधन के इन्तिकाल के बाद शमसुद्दीन के
लकब से हुकू मत पर कब्ज़ा कर लिया जिसके बाद इसके लडके
जमशेद ने फिर उसके भाई सुल्तान अलाउद्दीन ने इक्तिदार संभाला,
उसके बाद उसके लडके शहाबुद्दीन के पास हुकू मत रही, सन 1382 ई0
में उसके इन्तिकाल के बाद उसका भाई कु तबुद्दीन उसका जानशीन
हुआ, उसी के ज़माने में मशहूर बुजुर्ग और सूफी व आम हज़रत मीर
सैय्यद अली हमदानी रह0 कशमीर तशरीफ लाये जिनके हाथों पर
हज़ारों लोगों ने इस्लाम कबूल किया, इसके बाद मुख्तलिफ़ बादशाहों
की यहाँ खुद मुख्तार हुकू मत रही यहाॅ तक के सन् 1584 ई0 में मुग़ल
बादशाह जलालुद्दीन अकबर ने कशमीर को मुगलिया सल्तनतन में
शामिल कर लिया ।

मालवा की सल्तनत
मालवा मौजूदा सूबा मध्य प्रदेश में एक तारीखी खित्ता है जहाँ
मुसलमानों की तक़रीबन पौने दो सौ साल तक खुद मुख्तार मुस्लिम
हुकू मत रही, इसी का पाया तख़्त मांड़ो था उसका पहला बादशाह
दिलावर खान गोरी था जो मौहम्मद शाह के ज़माने में सन् 1388 ई0 में
यहाँ का गवर्नर था, उसका लड़का होशंग उसका जानशीन हुआ, उसके
बाद मुख्तलिफ लोग हुक्मरां रहे, सन् 1542 ई0 में शेरशाह सूरी ने इस
पर कब्ज़ा कर लिया, सन् 1562 ई0 में मुग़ल बादशाह अकबर ने
उसको मुगलिया सल्तनत में शामिल कर लिया, मालवा की सल्तनत में
खूबसूरत महलातात, आलीशान मसाजिद और मजबूत किले तामीर
हुये, उसमें एक ऐसी मस्जिद भी थी जिसकी तीन सौ साठ मेहराबें और
दो सौ तीस मीनार थे, उसके निशानात आज भी वहाँ मौजूद है।

अरकाट की सल्तनत

जुनूबी हिन्द में सल्तनत मैसूर के करीब अपने मकबूज़ा इलाके का नाम
मुगल हुक्मरां ने कर्नाटक रखा था, जिसको अरकाट भी कहा जाता
था, यहाॅ के बाशिन्दे तामिल ज़बान बोलते थे, उसी से मुतसल एक
दूसरे सूबे का नाम सरा था. (अरकाट अब मौजूदा सूबे तामिलनाडू में
चेन्नई (मद्रास) के करीब सिर्फ एक शहर का नाम रह गया है) सन्
1743 ई0 में अनवारूद्दीन नाम के एक शख़्स ने अरकाट की हुकू मत
वहाँ के हुक्मरां खानदान से छीन ली, सन् 1751 ई0 में अरकाट के
नवाब अनवारूद्दीन के बैटे मौहम्मद अली और पुराने हुक्मरां खानदान
के एक शख़्स चन्दां साहब के दर्मियान अरकाट के इक्तिदार के लिये
जंग हुई, नवाब मौहम्मद अली का अंग्रेजों ने साथ दिया और चन्दां
साहब का फ्रांसीसियों ने, उसमें अंग्रेजों को फतेह हुई, चन्दां साहब मारा
गया जिसके बाद अंग्रेजों ने नवाब मौहम्मद अली को कठपुतली
बनाकर बहाल रखा और खुद अरकाट पर हुकू मत करने लगे, इसके
इवज़ उन्होनं देहली से मौहम्मद अली को अरकाट की नवाबी का
फरमान दिलाया, सन् 1795 ईन में नवाब मौहम्मद अली का इन्तिकाल
हो गया और बराये नाम हुकू मत इसके खानदान में रही यहीं से
हिन्दुस्तान में फ्रांसीसियों का जवाल शुरू हुआ।

वसीम खान ✍️

हिन्दुस्तान पर मुसलमानों की
हुक्मरानी की खुसूसियात

मजमूई तौर पर मुसलमानों ने सन् 713 ई0 से 1857 ई0 तक तक़ीबन


साढ़े ग्यारह सौ साल तक हिन्दुस्तान पर हुकू मत की, मुल्क में अपनी
हुक्मरानी के दौरान मुसलमानों ने बिलखुसूस उनके हुक्मरां ने अपने
हम वतनों के साथ गैर मामूली रवादारी का मुज़ाहिरा किया, किसी को
जबरन मुसलमान नही बनाया, हर एक को मज़हबी आज़ादी दी, यहाँ
तक के लोगों को तहज़ीब व सकाफ़त से आशना किया, अदल व
इंसाफ और हुकू मत करने का तरीका सिखाया, ताज महल, कु तुब
मीनार, लाल किला और गोल गुंबद की शकल में फल तामीर का आल
नमूना दिया, गर्ज़ ये के सकाफत व सियासत, सनअत व हरफ़्त और
तिजारत व ज़राअत में पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान का सर बुलन्द किया,
लेकिन अफसोस के आज़ादी के बाद मुल्क की जो तारीख लिखी गई
और जिसको सरकारी निसाब में शामिल भी किया गया है उसमें
सरासर बेइमानी से काम लिया गया, उन किताबों के मुतालआ से एक
आम और गैर जानिबदार तालिबे इल्म और कारी को ये तास्सुर मिला
के हिन्दुस्तान पर हुक्मरानी करने वाले मुसलमानों का सलूक हम वतन
रिआया के साथ गैर इन्सानी था, हालांके गैर जानिबदार गैर मुस्लिम
मुअर्रिखीन ने जो सही तारीख बाद में मुरत्तिब की उन्होंने उसमें इन
हुक्मरानों की अपने हम वतनों के साथ मज़हबी रवादारी और अदल व
इंसाफ की ऐसी मिसालें ज़िक्र की है जो इन मुतासिब मुअर्रिखीन के
इस इल्ज़ाम से मेल नही खाते।

हिन्दुस्तान के बाशिन्दों पर यहाॅ के मुसलमानों का सबसे बड़ा अहसान


ये था के उन्होंने उनको तोहीद जैसी अजीम नेअमत से आगाह किया,
खुदा शनासी से सरफराज़ किया और उनकी एक बहुत बड़ी तादाद को
इस्लाम और ईमान की दोलत से बहरूर किया।

हिन्दुस्तान में इस्लाम की इशाअत में इन मुस्लिम हुक्मरां से ज़्यादा इन


मुख्तलिफ बुजुर्गाने दीन और अहलुल्लाह व उलमा हक का हिस्सा था
जिनकी कोशिशों से हिन्दुस्तान के गोशा गोशा में इस्लाम फे ला, उन्ही
उल्मा रबानिय्यीन के अख़लाक़ व किरदार से मुतास्सिर होकर लाखों
अफराद हलका बगोश इस्लाम हुये, उनमें सर फे हरिस्त हज़रत ख़्वाजा
मुईनुद्दीन चिशती रह़मतुल्लाह अलैह हज़रत शरफु द्दीन यहया मंत्री
रह़मतुल्लाह अलैह हज़रत बू अली शाह कलन्द्र पानीपती रह़मतुल्लाह
अलैह हज़रत बाबागंज शकर रह़मतुल्लाह अलैह बू हज़रत दाता गंज
बख्श रह़मतुल्लाह अलैह हज़रत मुजद्दिद अल्फे सानी रह़मतुल्लाह
अलैह, हज़रत शाह वलीअल्लाह रह़मतुल्लाह अलैह वग़ैरा हुए है।
अल्लाह तआला इन सबको पूरी मिल्लत की तरफ से जजा-ए-ख़ैर
अता फरमाये । आमीन

वसीम खान ✍️

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