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• दोपहर का भोजन कहानी की मूल संवेदना

अमरकान्त की कहानी ‘दोपहर का भोजन’ में ननम्न मध्यवर्गीय पररवार


की आर्थिक तंर्गी, भुखमरी, बेकारी का मार्मिक र्ित्रण ककया है। पररवार
की स्थथनत इतनी अर्िक र्गरीब है कक सबके खाने के र्िए पूरा भोजन भी
नहीं है ककन्तु र्सद्िेश्वरी ककसी प्रकार से सब को भोजन करा ही देती है
और थवयं आिी रोटी खाकर र्गुजारा करती है।

Related: दोपहर का भोजन कहानी का उद्दे श्य

कहानी मुंशी िस्न्िका प्रसाद के पररवार की है। उनकी उम्र पैंतािीस वर्ि
के िर्गभर्ग थी, ककन्तु पिास-पिपन के िर्गते थे। शरीर के िमड़े झूि रहे
थे और र्गंजी खोपड़ी आईने की भााँनत िमक रही थी। डेढ़ महीने पूवि मुंशी
जी की मकान-ककराया-ननयन्त्रण ववभार्ग से क्िकी से छं टनी हो र्गयी है।
उनके पररवार में उनकी पत्नी र्सद्िेश्वरी तथा तीन िड़के रामिन्ि, मोहन
और प्रमोद क्रमशः इक्कीस, अठारह और छः वर्ि के थे। रामिन्ि समािार-
पत्र के कायाििय में प्रूफ रीडडंर्ग सीख रहा है तथा मोहन ने दसवीं की
प्राइवेट परीक्षा दे नी है।

र्सद्िेश्वरी दोपहर का खाना बनाकर सब की प्रतीक्षा कर रही है। घर के


दरवाजे पर खड़ी दे खती है कक र्गमी में कोई-कोई आता जाता ददखाई दे
रहा है। वह भीतर की ओर आती है, तो तभी उसका बड़ा बेटा रामिन्द
घर में आता है। वह भय और आतंक से िुप एक तरफ बैठ जाती है।
र्िपे पुते आंर्गन में पड़े पीढ़े पर आकर रामिन्द बैठ जाता है। वह उसे दो
रोदटयााँ दाि और िने की तरकारी खाने के र्िए दे ती है। मााँ के कहने पर
भी और रोटी नहीं िेता क्योंकक वह जानता है कक अभी औरों ने भी खाना
है। मोहन को भी वह दो रोटी, दाि और तरकारी दे ती है और रोटी िेने
से वह भी मना कर दे ता है पर दाि मांर्ग कर पी िेता है। आखखर में मुंशी
जी आते हैं। उन्हें भी वह दो रोटी, दाि और िने की तरकारी दे ती है।
जब और रोटी के र्िए पूछती है तो वे घर की दशा से पररर्ित होने के
कारण रोटी िेने से मना कर दे ते हैं ककन्तु र्गुड़ का ठड़ा रस पीने के र्िए
मांर्गते हैं। इस प्रकार सब को भोजन कराने के बाद वह थवयं खाने बैठती
है तो शेर् एक मोटी, भद्दी और जिी हुई रोटी बिी होती है स्जसमें से
आिी प्रमोद के र्िए बिा कर, आिा कटोरा दाि और बिी हुई िने की
तरकारी से अपना पेट भरने का प्रयास करती है।

घर में र्गरीबी इतनी है कक सब को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हो रहा।


रामिन्ि इण्टर पास है कफर भी उसे कहीं काम नहीं र्मिता। रामिन्ि को
खाना-खखिाते र्सद्िेश्वरी पूछती है, “वहााँ कुछ हुआ क्या?” रामिन्ि
भावहीन आाँखो से मााँ की ओर दे खकर कहता है, “समय आने पर सब कुछ
हो जाएर्गा। जब रामिन्ि मोहन के बारे में मााँ से पूछता है तो मोहन ददन
भर इिर-उिर र्गर्ियों में घूमता रहता है” पर वह रामिन्ि के सामने यही
कहती है कक अपने ककसी र्मत्र के घर पढ़ने र्गया हुआ है।
“मुंशी िस्न्िका प्रसाद के पास पहनने के र्िए तार-तार बाननयाइन है।
आाँर्गन की अिर्गनी पर कई पैबन्द िर्गी र्गन्दी साड़ी टाँर्गी हुई हैं। दाि
पननऔिा बनती है। प्रमोद अि-टूटे खटोिे पर सोया है। वह हड्डडयों का
ढांिा मात्र रह र्गया है। मुंशी जी पैंतािीस के होते हुए भी पिास पिपन
के िर्गते हैं। र्सद्िेश्वरी ने खाना बनाने के बाद िूल्हे को बुझा ददया और
दोनों घुटनों के बीि र्सर रखकर शायद पैर की अाँर्गुर्ियों या जमीन पर
ििते िींटे-िींदटयों को दे खने िर्गी। अिानक उसे मािूम हुआ कक बहुत
दे र से उसे प्यास िर्गी है। वह मतवािे की तरह उठी और र्गर्गरे से िौटा-
भर पानी िेकर र्गटर्गट िढ़ा र्गयी। खािी पानी उसके किेजे में िर्ग र्गया
और वह ‘हाय राम’ कहकर वहीं जमीन पर िेट र्गयी। िर्गभर्ग आिे घण्टे
तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया।“

इस प्रकार कहा जा सकता है कक ‘दोपहर का भोजन’ कहानी में अमरकान्त


ने ननम्न मध्यम वर्गीय जीवन की त्रासद स्थथनत का जीवन्त ननरूपण
ककया है। पररवार का मुखखया बेरोजर्गार है कफर भी उसकी पत्नी खींितान
कर के घर का खिाि ििा रही है परन्तु खाना खाने के बाद मुंशी जी औंिे
मुाँह घोड़े बेिकर ऐसे सो रहे थे जैसे उन्हें काम की तिाश में कहीं जाना
ही नहीं है। अभावों में जीने के कारण र्सद्िेश्वरी िाहकर भी ककसी से
खुिकर नहीं बोि पाती। मुंशी जी भी िुपिाप दब
ु के हुए खाना खाते हैं।
इन सब से इस पररवार की घोर ववपन्नता का ज्ञान होता है जो इस
पररवार की ही नहीं जैसे ननम्न मध्यम वर्गीय जीने वािे सभी पररवारों की
त्रासदी है।

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