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सराहनीय रचना भी मुख्यतया क्षत्रियों, ब्राह्मणों और गहपतियों या सेट्टियों के वर्णन में ही सिमटी

रही । निम्न वर्णों की स्थिति के प्रति इन लेखकों की अरुचि का कोई कारण नहीं हो सकता, सिवाय
इसके कि उनकी दृष्टि स्वयं उनके अपने युग के प्रबल, प्रमुख वर्ग के जीवन-दर्शन से परिसीमित थी
। शूद्रों के बारे में प्रथम स्वतंत्र रचना वी . एस . शास्त्री (922) का एक छोटा-सा निबंध है जिसमें
उन्होंने 'शूदर' शब्द के दार्शनिक आधार की चर्चा की है ।*” इसी विषय पर एक अन्य लेख में उन्होंने
यह बताने का प्रयास किया है कि शूद्र वैदिक अनुष्ठान कर सकते हैं ।”' घोषाल (947) ने हाल के
अपने एक निबंध में धर्मसूत्रों में शूद्रों के स्थान की विवेचना की है ।** इस विषय पर नवीनतम
रचना रूसी लेखक जी . एफ. इलिन ने (950) की है*” जिन्होंने धर्मशास्त्रों के आधार पर” सिद्ध किया है
कि शूद्र गुलाम नहीं थे | शूद्रों के संबंध में एकमात्र प्रबंध रचना (946) सुविख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ
अंबेडकर की है । यह शूद्रों के उदुभव के प्रश्न तक ही सीमित है ।”' लेखक ने पूरी सामग्री अनुवादों
“* से जुटाई है और इससे भी बुरी बात यह है कि उनके लेखन से यह आभास मिलता है कि उन्होंने
शूद्रों को उच्च वंश का सिद्ध करने का दृढ़ संकल्प लेकर अपनी यह पुस्तक लिखी है । यह उस
मनोवृत्ति का परिचायक है, जो हाल में नीची जाति के पढ़े -लिखे लोगों में उत्पन्न हुई है । “शांति
पर्व' के मात्र एक स्थल पर शूद्र पैजवन द्वारा किए गए यज्ञ की चर्चा को शूद्रों के मूलतया क्षत्रिय
होने का पर्याप्त प्रमाण मान लिया गया है ।** लेखक ने विभिन्न परिस्थितियों की उस पेचीदगी की
ओर कोई ध्यान नहीं दिया है जिसके कारण शूद्र नामक श्रमजीवी वर्ग बना । हमारे विषय से
संबंधित एक बहुत हाल की रचना (957) में” प्राचीन भारत के श्रमिकों से संबंधित छिटपुट सूचनाएँ
एकत्र की गई हैं किं तु इससे हमारी समझदारी में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं होती । इस पुस्तक का
प्रधान उद्देश्य है प्राचीन भारत में श्रम संबंधी अर्थशास्त्र के क्रियाकलाप की छानबीन करना । इस क्रम
में लेखक ने पाया है कि पहले भी आज की तरह पारिश्रमिक बोर्ड, मध्यस्थता, सामाजिक सुरक्षा आदि
की व्यवस्था थी । फलस्वरूप यह पुस्तक “आधुनिकता' से ग्रस्त है । इतना ही नहीं, यह पुस्तक
प्रधानतया कौटिल्य के अ्कित्त के आधार पर लिखी गई है, अपूर्ण है और इसमें ऐतिहासिक
समझदारी का अभाव है ।

विवाह उसके पूर्व ही हो जाता है; तब विधवा विवाह का प्रचलन था, अब वह बिल्कु ल उठ गया है” '
विभिन्न जातियों के लोग उन दिनों साथ मिलकर खाते थे और इस बात पर कोई रोक नहीं थी,
लेकिन अब इन असंख्य जातियों में “'' इस प्रकार का कोई पारस्परिक संपर्क नहीं है ।' भारतीय
विद्वानों ने समाज के पुराने रीति-रिवाजों को इस ढ़ंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है कि वे नए
युग के लोगों को अधिक ग्राह्म हों, पर पश्चिम के लेखकों को यह बात रुचिकर नहीं लगी है । सेनार्ट
(896) का कथन है कि अँगरेजी रंग-ढंग में पले हिंदुओं ने जातिप्रथा की तुलना यूरोपवासियों में
प्रचलित सामाजिक भेदभावों से की है, पर पश्चिमी सामाजिक वर्गों के साथ यदि उनमें कु छ समानता
दीखती भी है तो बहुत कम ही ।'” इसी प्रकार हापकिं स (88) का विचार है कि शूद्रों की स्थिति 860 के
पहले अमरीकी गृह-दासों से भिन्न नहीं थी ।'” हापकिं स के इस मंतव्य की समीक्षा करते हुए हिलब्रांट
(896) ने कहा है कि शूद्रों की तुलना पुराने. जमाने के दासों से की जानी चाहिए, न कि बाद में
विकसित ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में ।"* ः हापकिं स की आलोचना करते हुए के तकर (9) की
शिकायत है कि हब्शियों के प्रति बरते जानेवाले जातीय भेदभाव से प्रभावित होने के कारण यूरोपीय
लेखक भारतीय जातिप्रथा का नाहक बढ़ा -चढ़ाकर चित्रण करते हैं यू के तकर, दत्त, पुर्वे तथा अन्य
नवीन भारतीय लेखकों की रचनाओं की मुख्य प्रवृत्ति यह है कि जातिप्रथा को इस रूप में चित्रित
किया जाए कि वह नए ढौँचे में ढबलकर वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकू ल बन सके ।** इससे यह
आभास मिलता है कि प्राचीन भारतीय सामाजिक समस्याओं का अध्ययन अधिकतर सुधारवादियों
और कट्टरपंथियों के बीच झगड़े की पृष्ठभूमि में किया गया है । सुधार और राष्ट्रीयता की सशक्त
प्रेरणाओं ने भारत के आरंभिक सामाजिक जीवेन के बारे में निस्संदेह अनमोल रचनाओं को जन्म
दिया है । किं तु आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार जो कु छ बातें अरुचिकर और कलुषित लगीं, उनकी
या तो उपेक्षा कर दी गई या उनकी ऐसी व्याख्या की गई जो युक्तिसंगत नहीं लगती । उदाहरणार्थ,
यह कहा गया है कि अशक्तताओं के कारण शूद्ों के सुख या कल्याण में कोई कमी नहीं आई ।*”
आरंभिक सामाजिक जीवन के अनुकू ल पहलुओं पर विशेष ध्यान देने की इस प्रवृत्ति

कि उसके समय वैसे पराश्रित वर्ग अब विद्यमान नहीं थे |" इसमें संदेह नहीं कि बहुत -सी अति
पुरातन सामाजिक प्रथाएँ उन्नीसवीं शताब्दी में भी प्रचलित थीं । इंग्लैंड के विकासोन्मुख औद्योगिक
समाज और भारत के पुराने तथा पतनोन्मुख समाज के बीच की गहरी विषमता ने राष्ट्रीय भावना से
प्रेरित भारत के शिक्षित और बुदधिजीवी वर्ग का ध्यान आकर्षित किया ।” उन्होंने महसूस किया कि
सती प्रथा, आजीवन वैधव्य, बाल विवाह और सजातीय विवाह की प्रथा राष्ट्र की प्रगति में बाधक हैं ।
चूँकि ये प्रथाएँ धर्मशास्त्रों के बल पर चल रही थीं, इसलिए यह अनुभव किया गया कि उनमें
आवश्यक सुधार आसानी से लाए जा सकते हैं, यदि यह सिद किया जा सके कि वे सुधार धार्मिक
ग्रंथों के अनुरूप हैं । इस प्रकार सन्‌88 ई . में राममोहन राय ने सती -प्रथा के विरोध में प्रकाशित
अपनी प्रथम पुस्तिका (ट्रैक्ट) के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि शास्त्रों के अनुसार, नारी
के मोक्ष का सर्वोत्तम साधन सती प्रथा नहीं है ।? इसी शताब्दी के पाँचवें दशक में स्मृति ग्रंथों के
आधार पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा-विवाह का समर्थन किया ।'” सातवें दशक में आर्य समाज
के संस्थापक स्वामी दयानंद ने मूल संस्कृ त ग्रंथों के उद्धरणों का संकलन ततवार्व अक्राश के नाम से
प्रकाशित किया । उनके जरिए उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया, जन्म पर आधारित जाति
प्रथा के बहिष्कार की घोषणा की, ' ' और शुद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकारी माना ।' * हमें मालूम
नहीं कि आरंभ में श्रमाज सुधारकों को म्यूर की समकालीन रचनाओं '* से कहाँ तक प्रेरणा मिली ।.
उसने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि प्राचीन युग में यह विश्वास प्रचलित नहीं था कि
चारों वर्णों की उत्पत्ति आदि मानव से हुई है ।'* हम यह भी नहीं जानते कि वेबर की उन रचनाओं
का भी उन पर कोई प्रभाव पड़ा या नहीं जिनमें उसने ब्राह्मणों और सूत्रों के आधार पर वर्ण
व्यवस्था का प्रथम महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है।'*

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