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भारतीय भक्ति परंपरा और मानव मूल्य
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भारतीय भक्ति परंपरा और मानव मूल्य
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ववषय सूची
इकाई I भारतीय भक्ति परं परा
(ii) आं डाल
2. मीराबाई
3. तुलसीदास
4. कबीर
5. संत रै दास
6. गुरु नानक
7. जायसी, सूरदास
8. संत नामदे व
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प्रश्न 1- भक्ति का अर्थ क्या है ? भक्ति के प्रकार एवं महत्व का वर्थन कीविए।
उत्तर – परिचय
भक्तिकाल ह िं दी का गौिवशाली काल माना जाता ै । इस काल में भक्ति का चतुमुखी विकास हुआ।
यह विकास िैविक काल से ले कर भक्तिकाल तक हुआ। भक्तिकाल का समय सिंवत् 1375 से 1700
तक माना जाता ै । इस काल खंड में भक्ति की ऐसी काव्यधारा बही वक उसके प्रिाह में हजार ं भि बह
गए। हवद्वान िं ने भगवान की सेवा क , ईश्वि के प्रहत प्रेम औि अनु िाग क भक्ति क ा ै । आचायु
शुक्ल ने त श्रद्धा और प्रेम क भक्ति की संज्ञा िी है । हजार ं संत ं और भक्ति के आचायों ने भक्ति पर
विचार करते हुए भक्ति क अपनी-अपनी दृवि से 'भक्ति' के िायरे में रखने का प्रयत्न वकया है ।
भक्ति का अर्थ -
भक्ति शब्द की व्युत्पहि 'भज्' धातु से हुई ै , हजसका अर्थ 'सेवा किना' या 'भजना' ै , अर्ाु त् श्रद्धा
और प्रेमपूिुक इि िे िता के प्रवत आसक्ति। व्यास ने पूजा में अनुराग क भक्ति कहा है। भारतीय धावमु क
सावहत्य में भक्ति का उिय िैविक काल से ही विखाई पड़ता है ।
सरल शब् ं में हम कहते हैं वक हमारी आत्मा परमात्मा की ड र से बंध गई। ईश्वि के प्रहत हनष्ठापूवथक
समहपथत ने वाला सच्चा साधक ी भि ै ।
भक्ति के प्रकाि
i. साक्तिकी- भक्ति ही जीिन का सार तत्व है। भक्ति का साक्तिक अर्थ प्रेम ता ै । अपने सभी कमों
क परमात्मा मे अपुण कर िे ना, िेि की आज्ञानुसार सत्कमु मे वनरन्तर लगे रहना चावहए ऐसा मन मे
वनवित करके कमु पूिुक भक्ति करना ही साक्तत्वक भक्ति है । भगिान राम प्राणी मात्र से प्रेम करते है ।
रामजी का जीिन विव्य िशुन है । ये बातें आचायु स्मृवत शरण महाराज ने खरौनाडीह में शवनिार क
श्रीरामचररतमानस कर्ा के आठिें विन कही। उन् न
ं े कहा वक शबरी क मतं ग ऋवि ने अपनाया
यद्यवप और ऋविय ं ने शबरी के ऊपर ि िार पण वकया। ले वकन मतं ग ऋवि ने िीक्षा िे कर शबरी क
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लालसा से युि फल पाने की इच्छा से श्रद्धा पूिुक की गयी भक्ति राजसी कहलाती है ।
iii. तामसी- िू सरे क िु ुःख पहुुँ चाने के उद्दे श्य से अहं कार पूिुक डाह एिं क्र ध मे की गई भक्ति तामसी
है ।
iv. हनगुथण- हनगुथण उपासना पद्धहत में ईश्वि के हनगुथण रूप की उपासना की जाती ै । वहन्िू ग्रंर् में
ईश्वर के वनगुुण और सगुण ि न ं रूप और उनके उपासक ं के बारे में बताया गया है । वनगुुण ब्रह्म ये
ये शब्द सिंस्कृत भाषा का शब्द ै । इस शब्द का अर्थ ै - विवशिता रवहत या गुण रवहत। जैसे वनगुुण
भक्ति का अर्ु है - ईश्वर के वनराकार स्वरूप की उपासना है । इसमें वनगुुण भक्ति ईश्वर की पूजा के अमूतु
रूप क संिवभुत करती है भक्ति की इस शाखा के अनुयायी का मानना र्ा वक ईश्वर वनराकार और विव्य
है ।
v. नवधा भक्ति - भि प्रलाद ने भक्ति के नौ भेद बताये ैं - पां चरात्र, शां वडल्य भक्ति सूत्र, तरं वगनी,
श्री मद्भागित् गीता िैष्णि ग्रन् ं में से है ।
रवत के अनुसार भक्ति के पााँ च भेद माने गये ैं - शान्त भक्ति, िास्य भक्ति, साख्य भक्ति, िात्सल्य भक्ति,
िाम्पत्य भक्ति या मधु रा भक्ति।
नवधा भक्ति के अिं तगथत प्रर्म भक्ति ै -सिंत सत्सिंग। श्रेष्ठजन ं के वजस सत्संग से जड़ता, मू ढ़ मान्यताएं
टू टती हैं िह सत्संग सिोच्च क वट का ह ता है। संत िे ह ते हैं वजनके पास बैठने पर हमारे अंत: करण में
ईश्वर के प्रवत ललक-वजज्ञासा पैिा ह ती है। प्रभु राम ने शबरी क निधा भक्ति के अनम ल िचन विए र्े।
भगिान श्रीराम ने निधा भक्ति का उपिे श शबरी क विया। शबरी जावत में मावलन है , परं तु श्रीराम शबरी
क माता कहकर संब वधत करते है । िे माता कौशल्या से अवधक महत्व उन्ें िे ते है । िे निधा भक्ति के
महत्व क बताते है । संत ं से प्रेम करते है । संत उपकारी, पर पकारी ि मृ िुभािी ह ते है । संत ं के जीिन में
कमु , ज्ञान, उपासना का य ग ह ता है। जीिन में संत ं का संग अवनिायु है ।
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भक्ति के म ि
भक्ति मािे जीवन का प्राण ै हजस प्रकाि पौधे का प षण जल तर्ा वायु द्वािा ता ै उसी प्रकाि
मािा हृदय भक्ति से ी सशि औि सुखी ता ै । भक्ति िह प्यास है ज कभी बुझती नहीं और न
कभी उसका विनाश ही ह ता है । अवपतु िह उत्तर त्तर बढ़ती ही रहती है ।
i. समस्त धमथ ग्रन् िं का साि भक्ति ी ै , भक्ति के ही बीजार पण हे तु भगिान आवि की विवभन्न
कर्ाओं का प्रचार एिं गंगा-यमु ना वत्रिेणी सरयु का वनत्य स्नान वकया जाता है । मन विज्ञान के अनुसार
प्रत्ये क लघु से लघु कायु क वजसे हम करते हैं मानस पटल पर उसका अवमट प्रभाि पड़ता है जैसे
गंगा स्नान तर्ा भगिान शंकर के अवितीय वलं ग पर गंगाजल, बेल पत्र, पुष्पावि अवपुत करने में भक्ति
की ही भािना वनवहत रहती है । अत: भक्ति क ज्ञान, कमु , य ग से श्रेष्ठ कहा गया है।’भागित’ में भी
ii. नारि समान कबीर ने भी भक्ति मागु की श्रेष्ठता प्रिवशुत करने के वलए कहा- जप, तप, संयम, व्रत सब
बाह्याडं बर है । अत: भक्ति क कमु , ज्ञान और य ग से श्रेष्ठ माना है । िे उसे मु क्ति का एक मात्र उपाय
मानते हैं ।
iii. इस प्रकार भक्ति भि के विमल मन से वनकली हुयी उज्जिल धारा है । लौवकक स्नेह ही अलौवकक
स्नेह में पररणत ह जाता है । मन और िाणी अगम-अग चर परमात्मा क मधु र भािबंधन में बां धकर
अवनिचु नीय आनन्द का आस्वािन करते हैं । ऐसी ही क्तथर्वत में आत्मा-परमात्मा एकमे ि ह जाते हैं ।
iv. ल ग जानते हैं वक भक्ति साधन ही नहीं है , िही फल भी है । भक्ति साधन है , यह त सब जानते हैं वकंतु
ग स्वामी तु लसीदास जी ने स्र्ान पि भक्ति क फल बतलाया ै -
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हनष्कषथ
मािा पिम कतथ व्य ै । प्रभु का सच्चा भि िही है ज भगिान से ही प्रेम करता है । सच्चे हृिय से उन्ें
याि करता है , वकंतु उनसे संसार की क ई िस्तु नहीं मां गता। िह प्रभु से कहता है वक हे प्रभु मु झे वसफु
आपका प्रेम चावहए। श्रीकृष्ण क ते ैं हक केवल पिमात्मा के पूजन, ध्यान, स्मिण में लगे ि ना ी
भि ने का लक्षण न ी िं ै । भि व ै , ज िे िरवहत ह , ियालु ह , सुख-िु ख में अविचवलत रहे ,
बाहर-भीतर से शुद्ध, सिाु रंभ पररत्यागी ह , वचं ता ि श क से मु ि ह , कामनारवहत ह , शत्रु -वमत्र, मान-
अपमान तर्ा स्तु वत-वनंिा और सफलता-असफलता में समभाि रखने िाला ह , मननशील ह और हर
पररक्तथर्वत में खुश रहने का स्वभाि बनाए रखे। उससे न वकसी क क ई कि या असुविधा ह और िह
वकसी से असुविधा या उिे ग का अनुभि करे ।
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प्रश्न 2 – भक्ति के वववभन्न सम्प्रदाय ं का वर्थन कीविए तर्ा इससे संबंवित वववभन्न दार्थवनक
वसद्ांत क्या हैं ?
उिि – परिचय
ऐसा माना जाता है वक भक्ति का प्रारं भ िवक्षण में हुआ और भक्ति का वनरं तर प्रचार-प्रसार ह ता गया और
भक्ति उत्तर भारत में आई। भक्ति की इस विकास यात्रा में बहुत रुकािटें आईं पर भक्ति के हवहभन्न
वै ष्णव सिंप्रदाय के आचायों ने तर्ा हवहभन्न हसद्धािं त िं की प्रहतष्ठा किने वाल िं आचायों ने भक्ति के
हवकास में अपना म त्त्वपूणथ य गदान हदया।
1. िाधावल्लभ सिंप्रदाय
इसका प्रचार करने िाले वहत हररिंश हैं ये राधा कृष्ण के युगल उपासक हैं । कृष्ण की तु लना क अवधक
महत्त्व विया है । भि राधा के सार् कृष्ण की उपासना करते हैं । इनके अनुसार कृष्ण के अंिर ही सभी
शक्तियाुँ विद्यमान हैं । कृष्ण की पराप्रकृवत राधा है , ज वचत-अवचत आल्हाविनी शक्ति है उनका मानना है
वक सारा जगत् राधा-कृष्ण युगल का प्रवतवबंब है। भगिान कृष्ण का ऐसा िणुन है वक वजसमें भगिान कृष्ण
ग प-ग वपय ं के सार् लीलारत रहते हैं । िे राधा के पवत हैं और उनके श्रृंगार की श भा बढ़ाने िाले हैं । इस
संप्रिाय के भि ं ने राधा िल्लभ के नाम से राधा कृष्ण की उपासना की है ।
2. हनम्बाकथ सिंप्रदाय
मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति के अंतगुत वनम्बाकु संप्रिाय की भी चचाु ह ती रही है । इस संप्रिाय के अंतगुत राधा
कृष्ण के िामां ग में विराजमान रहती है और भि भगिान के इस रूप की उपासना करते हैं । इनका
मानना है वक भगिान कृष्ण भि ं पर कृपा करने के वलए ही अितार ले ते हैं । इतना ही नहीं स्वयं वशि और
परब्रह्म कृष्ण के इस रूप की िंिना करते हैं । उनके भगिान चरण ं के अवतररि जीि ं का और क ई
उद्धारक नहीं है । भि िै न्य भाि से भगिान की उपासना करते हैं । और वफर प्रेम भक्ति के माध्यम से
जीिन क अमरत्व प्रिान करते हैं ।
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3. सखी सिंप्रदाय
इन भि ं के अनुसार भगिान कृष्ण सबसे ऊपर हैं । इन भि ं के भगिान कृष्ण अन्य अितार ं से एकिम
वभन्न हैं । ये भगिान कृष्ण अन्य अितार ं की तरह न त सृवि की रचना में संलग्न रहते हैं और न ही ये िु ि ं
का िलन कर सामान्य जन की रक्षा करते हैं। इन भि ं का मानना है वक भगिान कृष्ण ज परब्रह्म हैं
उनका लघु अंश सृवि की रचना और सृवि की रक्षा तर्ा संहारक का कायु करता है । ये भगिान त अपनी
श्रृंगाररक लीलाओं में रत रहते हैं । वनत्य वबहार करते हुए श्रृंगार लीलाएुँ करना इनका काम है और उन
लीलाओं का िशुन करना सखी का अभीि है ।
4. गौणीय सिंप्रदाय
गौणीय संप्रिाय क चलाने िाले स्वामी चै तन्य महाप्रभु हैं । इस ग्रंर् में इन् न
ं े राधा-कृष्ण के स्वरूप तर्ा
शक्तिय ं का ग्रंर् चै तन्य चररतामृ त है । विस्तार के सार् िणुन वकया है । श्रीकृष्ण अनंत शक्तिय ं के स्वामी
हैं । उनमें एक विवशि शक्ति आल्हाविनी शक्ति हैं । राधा इसी शक्ति का रूप है । चै तन्य महाप्रभु ने श्रीकृष्ण
क ब्रजेन्द्रकुमार कहा है। जब िे ब्रज में ग ल क की लीलाओं सवहत विचरण करते हैं त उनका परमतत्त्व
रूप विद्यमान रहता है । िे ब्रज के कृष्ण और ग ल कधाम के कृष्ण में अवभन्नता मानते हैं । राधा कृष्ण की
इन लीलाओं में उनका माधु यु भाि अर्िा कां ता भाि ही पररलवक्षत ह ता है ।
5. वल्लभ सिंप्रदाय
िल्लभ संप्रिाय क चलाने िाले स्वामी िल्लभाचायु हैं। िल्लभाचायु ने ब्रज में कृष्ण भक्ति की प्रवतष्ठा की
र्ी। िल्लभाचायु के िल्लभ संप्रिाय के अंतगुत भगिान की सेिा विवध का बड़ा महत्त्व है । इस भक्ति के
अंतगुत अियाम की सेिा पर बल विया जाता है । इस सेिा - विवध के अंतगुत मं गलाचरण, श्रृंगार, ग्वाल,
राजय ग, उत्थापन, भ ग, संध्या आरती और 'शयन' आवि विवधय ं क इस संप्रिाय में बड़े उत्सि के सार्
वकया जाता है । िल्लभ के अनुसार श्रीकृष्ण पूणु ब्रह्म हैं , परब्रह्म हैं । िे सवचिानंि हैं । िे सिुशक्तिमान, सिु ज्ञ
तर्ा आनंि प्रिावयनी शक्तिय ं के केंद्र हैं । वनत्य लीला ही उनका प्रय जन है ।
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1. शिंकिाचायथ - शिंकि का दाशथहनक हसद्धािंत अद्वै तवाद क लाता ै । उनके अनुसार ब्रह्म सत्य है और
जगत वमथ्या। आत्मा परमात्मा ि न ं एक हैं , ि न ं में क ई वभन्नता नहीं है । वकंतु सां साररक माया के
कारण मनुष्य आत्मा-परमात के अिै त का अनुभि नहीं कर पाता है ।
िवक्षण भारत में उस समय िैष्णि-आलिर ं तर्ा शैि-नायनार ं के प्रभाि में वहन्िू धमु का पुनजाु गरण ह
रहा र्ा। शंकराचायु ने तत्कालीन च ल तर्ा पाण्ड्य राज् ं की सहायता प्राप्त िवक्षण भारतीय समाज में
फैले जैन, बौद्ध, शाि, गाणपत्य तर्ा कापावलक सम्प्रिाय ं में बढ़ रहे अनाचार क र कने का सफल प्रयास
वकया। तिु परान्त िे मध्य भारत की ओर वनकल पड़े तर्ा गुजरात प्रिे श में क्तथर्त िाररकापुरी में शारिामठ
की नींि डाली। उत्तर भारत के तीर्ों की पुनयाु त्रा करते हुए िे आसाम के कामरूप-क्षे त्र में प्रविि हुये। िहाुँ
उन् न
ं े शाि ं तर्ा ताक्तिक ं से शास्त्रार्ु वकया तर्ा उन्ें अिै त िेिान्त िशुन से अिगत कराया। आसाम से
चलकर िे वहमालय पिुत के बिररकाश्रम पहुं चे तर्ा िहाुँ ज् वतमु ठ की थर्ापना की। इस मठ के प्रर्म
शिंकिाचायथ का अद्वै त हसद्धान्त- शंकराचायु ने 'ब्रह्मसूत्र' का भाष्य वलखते समय सिुप्रर्म आत्मा और
अनात्मा की सम्यक वििेचना की है तर्ा सम्पू णु प्रपञ्च क द भाग िं में बााँटा ै -
द्रिा
दृश्य
वििय हैं इनमें सम्पू णु प्रतीवतय ं का साक्षी तत्व आत्मा है तर्ा ज कुछ उसके अनुभि का वििय है , िह
अनात्मा हैं आत्मा वनत्य, वनविुकार, असंग- कूटथर्, वनिल, वनविुशेि तर्ा एक है , जबवक बुक्तद्ध सवहत
भू तपयुन्त सभी प्रपंच अनात्मा है तर्ा उसका आत्मा से सम्बन्ध नहीं है ।
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2. िामानु जाचायथ - ग्याि वी िं सदी में िामानु जाचायथ ने हवहशष्टाद्वै त नामक दाशथहनक हसद्धान्त हदया,
कालान्तर में मध्वाचायु के िै तिाि, वनम्बाकाु चायु के िै तािै त एिं िल्लभाचायु के शुिािै तिाि ने भक्ति
क ऐसी सुदृढ़ िाशुवनक भू वम िी, वजससे िाशुवनक अक्तस्मता में भी भक्ति ने अक्षु ण्ण सत्ता प्राप्त कर
ली। भक्ति के क्षेत्र में उनका प्रमु ख वसद्धां त र्ा ज कहता है वक प्रभु की शिण में खुद क पूणथत:
समहपथत कि दे ना ी मनु ष्य का पिम कतथ व्य ै ।
िामानु जाचायथ का हवहशष्टाद्वै त हसद्धान्त- रामानुज िारा प्रवतपावित वसद्धां त 'हवहशष्टाद्वै त' कहलाता है ।
श्रीरामानुजाचायु बड़े ही वििान, सिाचारी, धै युिान और उिार र्े । चररत्रबल और भक्ति में त ये अवितीय
र्े । रामानुज के अनुसार
अनुसार यद्यवप जगत् और जीिात्मा ि न ं कायुतुः ब्रह्म से वभन्न हैं वफर भी िे ब्रह्म से ही उिभू त हैं और ब्रह्म
से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा वक वकरण ं का सूयु से है , अतुः ब्रह्म एक ह ने पर भी अनेक हैं।
रामानुजाचायु ब्रह्म क सगुण मानते हैं। उसी में सब श्रुवतय ं का समन्वय करते हैं। रामानुज के मत में मु क्ति
में भी ब्रह्म का भे ि बना रहता है । तभी त कहा गया है - सगुण उपासक म क्ष न ले ही। यह वसद्धां त सगुण
ब्रह्म का उपासक है ।
3. माध्वाचायथ - मध्वाचायु (मध्व+आचायु) भारत में भक्ति आन्द लन के समय के सबसे महत्वपूणु
िाशुवनक ं में से एक र्े । िे पूणुप्रज्ञ ि आनन्दतीर्ु के नाम से भी प्रवसद्ध हैं । िे तत्विाि के प्रितु क र्े
वजसे िै तिाि के नाम से जाना जाता है । िै तिाि, िेिान्त की तीन प्रमु ख िशुन ं में एक है ।
माध्वाचायथ का द्वै तवाद हसद्धान्त- िै तिाि के अनुसार सम्पू णथ सृहष्ट के अक्तन्तम सत् द ैं । इस वसद्धान्त
के प्रर्म प्रितु क मध्वाचायु र्े । इसका एकत्वाि या अिै तिाि के वसद्धान्त से मतभे ि है ज केिल एक ही
सत् की बात स्वीकारता है। िै तिाि में जीि, जगत् , तर्ा ब्रह्म क परस्पर वभन्न माना जाता है । कहीं कहीं ि
से अवधक सत् िाले बहुत्विाि के अर्ु में भी िै तिाि का प्रय ग वमलता है ।
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िै तिाि में ईश्वर की पू जा क िशाु या गया। िै तिाि का विर ध भी वकया गया। एक तरफ ि कहते हैं वक
ईश्वर में क ई ऎसा गुण नहीं है वजसे गलत या व्यर्ु कहा जाए। ले वकन जब िह कहते हैं ईश्वर प्रसन्न ह ता है
त यहां कई बातें उठती हैं। वििाि इस बात में ह ता है की जब कहा जाता है ईश्वर अप्रसन्न ह ता है , त ि
ये स्पि नहीं करते की ि अप्रसन्न क् ं ह ता है क् वं क ये अच्छा मानिीय गुण नहीं है । िै तिाि में इसी तरह
के अन्य विर धी वसद्धां त भी बताए गए हैं ।
द्वै तवाद के सिंस्र्ापक माधवाचायथ जी र्े , वजन्ें आनंितीर्ु के नाम से भी पुकारा जाता है । कनाु टक राज्
में उनके अब भी बहुत से अनुयायी हैं । माध्वाचायु क उनके जीिनकाल में ही “िायु िे िता” का अितार
बताया जाने लगा र्ा। उनके अनुयायी और वशष्य उन्ें इसी रुप में मानते र्े।
सेिा में अपना सिुस्व अवपुत करने क कहा। िल्लभाचायु के अनुसार, वजन व्यक्तिय ं पर कृष्ण की
उनकी शुद्ध अद्वै तवाद (शुद्धाद्वै त) की िाशुवनक प्रणाली - अर्ाु त, भगिान और ब्रह्मां ड की पहचान -
विष्णुस्ववमन परं परा का बारीकी से पालन करती है ।
वल्लभाचायथ का शुद्ध अद्वै तवाद हसद्धान्त - िल्लभाचायु जी कृत ब्रह्मसूत्र का अणुभाष्य शुद्धािै त
िाशुवनक वसद्धान्त का प्रमु ख उपजीव्य ग्रन् है। शुद्धािै त का ज अिै त है िह ब्रह्म का स्वरूप वनवहत है।
ब्रह्म क ि ि रवहत सिुगुण सम्पन्न स्वतं त्र जड़ शरीर के गुण ं से रवहत कर, पाि, मु ख तर्ा उिर इत्यावि
अियि ं से आनन्द स्वरूप और वत्रविधभें ि रवहत माना है ।
शुद्धाद्वै त वल्लभाचायथ द्वािा प्रहतपाहदत दशथन ै । िल्लभाचायु पुविमागु के प्रितु क हैं। यह एक िैष्णि
सम्प्रिाय है ज श्रीकृष्ण की पूजा अचु ना करता है ।
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हनष्कषथ
इस तरह भक्ति के क्षेत्र में भक्ति के वसद्धां त वनरुपण में उसके वसद्धान्त ं का य गिान रहा त भक्ति के
रखा। भक्ति के संप्रिाय आचायों ने भगिान कृष्ण के व्यािहाररक स्वरूप का िणुन वकया जबवक भक्ति के
वसद्धां त के आचायों ने भक्ति के िाशुवनक स्वरूप क व्यि वकया है । भक्ति क संपूणुता में जानने के इन
ि न ं रूप ं क जानना आिश्यक है ।
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प्रश्न 3 – भारत की सािंस्कृहतक एकता क स्र्ावपत करने में भक्ति की अविारर्ा और महत्त्व क
स्पष्ट कीविए ।
उिि – परिचय
वकसी भी िे श की स्मृक्तद्ध एिं विकास के वलए उसकी सां स्कृवतक एकता आिश्यक ह ती है । सां स्कृवतक
एकता ही िह आधार है वजस पर उस िे श में रहने िाली विवभन्न जावतयाुँ और सम्प्रिाय एक रािर के रूप में
एकताबद्ध रहते हैं । यह एकता ही रािर प्रेम, अखण्डता और रािर के विकास के वलए चेतना जगाती है ।
संस्कृवत ही मनुष्य क परस्पर भािनात्मक स्तर पर ज ड़ती है। भौग वलक सीमाएुँ इसमें बाधक नहीं बनती।
महात्मा बुद्ध और महािीर के विचार ं ने िे श की एकता की जड़ ं क और अवधक गहरा और मज़बूत
बनाया है ।
पाश्चात्य हवचािक वी. ए. क्तस्मर् ने भाित में काफी समय व्यतीत हकया, उनके अनुसार भारत की
संस्कृवत की अपनी विवशिताएं है , ज उसे विश्व के अन्य िे श ं से पृर्क करती है , लेवकन इस विविधता का
प्रभाि भारत की सां स्कृवतक एकता पर नहीं पड़ता है ।
सिंत कहवय िं में कबीि अप्रहतम स्र्ान िखते ैं । कबीर की रचनाएुँ अनेक भािाओं और ब वलय ं में
वमलती हैं। जावत से जुलाहे कबीर वनगुुण संत कविय ं में प्रमु ख हैं ।
कबीि के य ााँ ईश्वि हनगुथण, हनिाकाि ै । व धिती के कण-कण में व्याप्त ै । उन्हें पाने के हलए
उनके अनुसार ज्ञान के मागु पर चलकर ही उस परम सत्य क जाना जा सकता है । िे हार् के मनक ं की
अपेक्षा मन के मनक ं क नाम स्मरण के वलए महत्त्व िे ते हैं -
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कबीर ने भक्ति में सिाचरण पर बल विया है । िे आचरण की शुद्धता के वलए काम, लाभ, ईष्याु और
अहं कार आवि विकार त्यागने पर बल िे ते हैं । उनके अनुसार 'मैं ' के अहं कार भाि क त्यागने पर ही
परमात्मा की प्राक्तप्त ह सकती है ;
कबीर की यह विशेिता है वक उनकी भक्तिभािना में समाज सुधार की भािना क स्पि है। अनुभूवत की
सच्चाई और अवभव्यक्ति की ईमानिारी उनकी सबसे बड़ी विशेिता है । कबीर ने समाज में व्याप्त जावत
प्रर्ा, छु आछूत, ऊुँच-नीच की भािना पर प्रहार वकया। उन् न
ं े मनुष्यता क केंद्र में रखकर मनुष्य की
समानता पर बल विया। इसके सार् ही िे तिाि की रुवििािी मान्यताओं का कड़ा विर ध करते हैं ;
कबीर ने वहं िू और मु सलमान ि न ं क बाह्य आडं बर ं और पाखंड ं के वलए फटकारा। िे साफ़ कहते हैं ,
‘अरे इन ि उन राह न पाई'। िे प्रेम, अवहं सा, सत्संग, सेिा, क्षमा, िान, धै यु, सत्य और पर पकार जैसे शाश्वत
जीिन मू ल्य ं क अपनी िाणी में महत्त्व िे ते हैं । कबीर की बानी की एक विवशिता यह भी है वक परम सत्य
की अवभव्यक्ति के वलए िे अनेक नाम ं का सहारा लेते हैं ।
भक्ति की अवधािणा
आठवी िं शताब्दी के आििं हभक वषों में अिब मुसलमान िं के भाित पर आक्रमण से भारतीय समाज
इस्लाम और अरब के संपकु में आया। हालाुँ वक अरब ं ने भारत के कुछ वहस्से पर ही शासन वकया और
अवधकां श भाग अछूता ही र्ा ले वकन वफर भी भारत में अनेक राज् छ टे -छ टे टु कड़ ं में विभि ह ने के
कारण एक केन्द्रीय शासन व्यिथर्ा तर्ा वकसी रािरीय संस्कृवत का अभाि र्ा। तत्कालीन समाज िणु-
व्यिथर्ा की रूवढ़य ं के पालन के कारण ियनीय अिथर्ा में र्ा।
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भाित में सािंस्कृहतक एकता क स्र्हपत किने के हलए भक्ति आिं द लन चलाया गया र्ा।
भक्ति आिं द लन प्राचीन भाितीय मनीषा, ज्ञान एविं दशथन की अहवहछन्न धािा ै ज अत्यं त शक्तिशाली
और व्यापक है । यहाुँ समाज के विवभन्न िगों की साझा रचनाशीलता, भक्तिभािना, िशुन और चे तना अपना
विशेि महत्त्व रखती है । भक्ति धारा हमारी साुँ स्कृवतक एकता का प्रमु ख तत्त्व है । िे श में अलग-अलग
भािाओं में भक्ति सावहत्य वलखे जाने पर भी उसकी चे तना एक है । अपनी विविधता क बनाए रखने के
बािजूि इसमें साुँ स्कृवतक एकता के स्वर क स्पि पररलवक्षत वकया जा सकता है ।
भक्ति आिं द लन का भाितीय सिंस्कृहत के हनमाथण में म त्त्वपूणथ य गदान ै । आराधना की पद्धवतय ं से
ले कर उपासना, भािा, सावहत्य, मं विर ,ं मू वतु य ,ं थर्ापत्यकला, संगीत, वचत्र आवि संस्कृवत के विवभन्न
आयाम ं पर भक्ति आं ि लन की स्पि छाप है । यह आज भी भारतीय जन-मानस क गहराई से प्रभावित
कर रही है । भक्ति आन्द लन ने प्रेम क मानिीय धरातल पर प्रवतवष्ठत करके भारतीय संस्कृवत क उिात्त
धरातल पर क्तथर्त वकया है । यह भारतीयता के तत्त्व ं और मनुष्य की पहचान क धमु, कुल, जावत, िे श,
भािा, संप्रिाय के धरातल से ऊुँचा उठाता है। उस समय के साुँ स्कृवतक सामावजक आधार से ज ड़ कर ही
हम भक्ति के अक्तखल भारतीय स्वरूप क समझ सकते हैं । इसके बहुआयामी चररत्र क भी इन्ीं संिभों में
रखकर समझा जा सकता है ।
आचायों ने भक्ति काव्य क एक हविाट आिं द लन में हववे हचत-हवश्लेहषत किते हुए य पाया ै हक
प्रर्म बार भारतीय समाज का आधार भू वम इतनी विशुद्ध ह सकी है वक जावत सम्प्रिाय, धमु एिं अन्य
सामावजक भे ि बहुत पीछे छूट गए हैं ।
भक्ति और सूफीिाि के प्रभाि से एक नई सां स्कृवतक परं परा का उिय। सार् ही वसख धमु , कबीर पंर्
आवि जैसे नए संप्रिाय ं का उिय हुआ।
िेिां त के बाि के विचार ं की ख ज माधिाचायु ने अपने िै तािै त, रामानुजाचायु ने अपने विवशि अिै त
आवि में की र्ी। एक सावहक्तत्यक आं ि लन के रूप में , इसने काव्य क राजाओं की स्तु वतगान से मु ि
एिं सुलभ शैवलय ं की शुरुआत की, तर्ा संस्कृत छं ि के आवधपत्य क समाप्त कर विया।
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भारत एक ऐसा िे श है ज “विविधता में एकता” की अिधारणा क अच्छे तरीके से सावबत करता है । भारत
एक अवधक जनसंख्या िाला िे श है तर्ा पूरे विश्व में प्रवसद्ध है क् वं क यहाुँ “विविधता में एकता” का चररत्र
ले कर उपासना, भािा, सावहत्य, मं विर ,ं मू वतु य ,ं थर्ापत्यकला, संगीत, वचत्र आवि संस्कृवत के विवभन्न
क उिात्त धरातल पर क्तथर्त वकया है । यह भारतीयता के तत्त्व ं और मनुष्य की पहचान क धमु , कुल,
भक्ति आं ि लन भारतीय सां स्कृवतक इवतहास की एक अनूठी घटना है , ज विश्व इवतहास में िु लुभ है ।
यह भक्ति आं ि लन र्ा वजसने भारतीय ं क भािनात्मक और रािरीय एकता के सूत्र में बां धा।
भक्ति आं ि लन का विकास सातिीं और बारहिीं शताब्ी के बीच तवमलनाडु में हुआ। मूल रूप से
िवक्षण भारत में 9िीं शताब्ी में शंकराचायु िारा शुरू वकया गया यह आं ि लन भारत के सभी वहस्स ं
में 16 िीं शताब्ी तक विस्तृ त हुआ और कबीर, नानक तर्ा श्री चै तन्य ने इसमें महत्त्वपूणु भू वमका
वनभाई।
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हनष्कषथ
इस तरह हम कह सकते हैं वक भक्ति आं ि लन और उसके काव्य में अवभव्यि िशुन और विचार ं ने
भारतीय संस्कृवत से प्रेरणा त ली ही है सार् ही सार् उसे गहरे और व्यापक रूप से प्रभावित भी वकया है ।
भक्ति आं ि लन का अध्ययन जब हम भारतीय सावहत्य की समे वकत भू वम पर करते हैं त उनमें कुछ ऐसी
सामान्य विशेिताएुँ पररलवक्षत ह ती हैं ज इसके केन्द्रीय मू ल स्वर के रूप में उभर कर सामने आती हैं ।
विवभन्न क्षे त्र ,ं भािाओं और सावहत्य की धाराओं से जु ड़े ह ने के कारण इनमें विविधता मौजूि है ले वकन
मानिीय मू ल्य ं और चेतना के स्तर पर एक-िू सरे से जुड़े हुए हैं । ल कमानस और ल क संिेिना से जुड़े
ह ने के कारण सामावजक-साुँ स्कृवतक स्तर पर एकता और सामं जस्य वमलता है। ितुमान समय में भी
इसकी प्रासंवगकता इस रूप में िे खी जा सकती है वक भारतीय समाज आज भी वजस मू ल्यहीनता के संकट
से गुज़र रहा है , िहाुँ भक्ति की इस साुँ स्कृवतक विरासत से पुन: चे तना ग्रहण कर सकता है ।
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प्रश्न 4 – भक्ति आं द लन का प्रसार और ववकास की चचाथ करते हुए इसके अक्तखल भारतीय स्वरूप
क दर्ाथए ।
उिि – परिचय
भक्ति आन्द लन का आरम्भ िवक्षण भारत में आलिार ं एिं नायनार ं से हुआ ज कालान्तर में (800 ई से
1700 ई के बीच) उत्तर भारत सवहत सम्पू णु िवक्षण एवशया में फैल गया। इस वहं िू क्रां वतकारी अवभयान के
नेता शंकराचायु र्े ज एक महान विचारक और जाने माने िाशुवनक रहे ।
भक्ति-आन्द लन के उद्भव औि अक्तखल भाितीय प्रसाि के बारे में अनेक वसद्धान्त वमलते हैं। इसके
विकास र्ा, त वकसी ने यह कहा वक अगर िवक्षण और उत्तर का भक्ति आन्द लन स्वाभाविक रूप से
भक्ति-आन्द लन का मूल्ािंकन करने िाले यह मानते हैं वक बारहिीं - ते रहिीं शताब्ी में
नगरीकरण की प्रवक्रया के विस्तार के सार् यह आन्द लन पहले नगर ं में फैला। िहाुँ इसक सफल
बनाने में वशल्पकार ,ं व्यापाररय ं और िस्तकार ं की भू वमका महत्त्वपूणु रही। धीरे -धीरे इस आन्द लन में
वकसान समु िाय से आने िाले भी शावमल ह ने लगे। आचायु वििेिी का मत है वक नीची समझे जाने
िाली जावतय ं के कवि वनगुुण भक्ति में अवधक आए ज मू लतुः वशल्प और कृवि से जुड़े हुए र्े। इस
तरह कृवि उत्पािन में िृक्तद्ध और वशल्प ं के विकास ने उस आवर्ु क-सामावजक संरचना क तै यार वकया
वजसमें श वित-िवमत समु िाय ं की िाणी क उनकी भािा और संिेिना में मु खरता के सार् रखने िाले
ल ग सामने आए। अक्तखल भारतीय स्तर पर इस आन्द लन के प्रसार का यही चररत्र रहा।
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भक्ति-आन्द लन की अक्तखल भाितीय हवशेषताएाँ भक्ति आन्द लन का हवकास उस िौर में हुआ र्ा,
आवर्ु क संरचना वहल गई र्ी, बक्ति ल ग ं की आथर्ाएुँ और विश्वास भी डगमगा गए र्े । जीिन और
मानिता क िे खने की एक नई समझिारी की िरकार र्ी।
हवशेषताएाँ
1. य आन्द लन अक्तखल भाितीय स्ति पि धाहमथक आविण में हियाशील हुआ और ईश्वर के
सकारात्मक आध्याक्तत्मक चे तना से सम्पन्न करने िाला प्रगवतशील आन्द लन र्ा। िस्तुतुः भक्तियुगीन
आवर्ु क-सामावजक पररक्तथर्वतय ,ं ज्ञान के प्रसार और िै चाररक चे तना का स्तर िे खते हुए यह आन्द लन
धावमु क आिरण में ही अिश्यम्भािी र्ा। सत्ता पररितु न इस आन्द लन का लक्ष्य नहीं र्ा, हालाुँ वक यह
2. इस आन्द लन का लक्ष्य र्ा सामाहजक हवकृहतय िं क अस्वीकारने की चे तना पैिा करना, मनुष्य
मात्र क एक धरातल पर रखकर िे खना और उन ल ग ं क िाणी िे ना वजनकी व्यर्ा अभी तक ठीक से
सुनी नहीं गई र्ी। अक्तखल भारतीय स्तर पर भक्ति-आन्द लन के पुर धाओं ने यही कायु वकया।
3. के. दाम दिन ने इन हवशेषताओिं का िे खािंकन किते हुए हलखा ै हक “भक्ति आन्द लन ने िे श के
वभन्न-वभन्न भाग ं में वभन्न-वभन्न मात्राओं में तीव्रता और िेग ग्रहण वकया। यह आन्द लन विवभन्न रूप ं में
प्रकट हुआ।
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2. आश्रय की ख ज
इस युग में वहन्िू अपनी राजनैवतक स्वतं त्रता ख कर पूणु रूप से इस्लामी वशकंजे में फंस चु के र्े। ऐसे समय
िे पराधीनता के बंधन से मु ि ह ने के वलए नये मागु की तलाश में र्े । िह मागु उन्ें भक्ति आं ि लन के
रूप में प्राप्त हुआ।
3. सिल मागथ
मध्य युग के धावमु क विचारक ं ने भक्ति मागु का प्रवतपािन वकया, ज अिै तिाि की अपेक्षा सरल र्ा। अतुः
इस मागु की ओर साधारण जनता ही आकृि ह गई।
िैविक धमु ि ब्राह्मणिाि की वशक्षाएुँ अव्यािहाररक ह ने के सार् सार् वसद्धां त ं पर आधाररत र्ीं ज
जनसाधारण की समझ के बाहर र्ी, इसके अलािा इस धमु में आडम्बर ं और कमु कां ड ं का ही ब लबाला
र्ा। इसवलए जनता िैविक धमु से उब गई र्ी। ऐसी पररक्तथर्वत में प्रेम वमवश्रत ईश्वर भजन के आं ि लन क
प्र त्साहन वमला।
मु क्तस्लम साम्राज् में वहन्िु ओं की प्रगवत के मागु में अिरुद्ध ह गये र्े । पररणामस्वरूप वहन्िु ओं में
वनक्तियता छाई। ऐसे समय में वहन्िु ओं क नये मागु की ख ज की आिश्यकता र्ी। पररणामस्वरूप उन् न
ं े
भगित भजन और आत्म वचं तन का मागु ढूंढ वनकाला, वजसके माध्यम से उन् न
ं े काफी शक्ति संवचत की।
तत्कालीन समय में वहन्िू धमु और समाज अनेक कुरीवतय ,ं आडम्बर ं एिं अंधविश्वास ं का वशकार बना
हुआ र्ा। इसके अलािा समाज में जावत पां वत की जवटलता बहुत अवधक बढ़ गई र्ी, तर्ा शूद्र ं की क्तथर्वत
अत्यं त श चनीय ह गई र्ी, पररणामस्वरूप अनेक धावमु क वचं तक ं ि समाज सुधारक ं ने भक्ति आं ि लन
का प्रवतपािन कर धावमु क ि सामावजक जवटलताओं क िू र करने का प्रयास वकया गया।
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हनष्कषथ
कहा जा सकता है वक भक्ति-आन्द लन एक अक्तखल भारतीय सां स्कृवतक आन्द लन र्ा, वजसकी कुछ ऐसी
विशेिताएुँ र्ीं ज सम्पू णु भारत में इसकी विवभन्न धाराओं में सामन रूप से िे खी जा सकती र्ीं । वििय के
स्तर पर यह आन्द लन समानधमाु चेतना से पूरे भारत में सवक्रय र्ा, वकन्तु बहुलतािािी दृवि से िे खने पर
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प्रश्नं 5– संत वतरुवल्लुवर के िीवनवृ त्त/ िीवन परक एवं रचनाओ की समीक्षा कीविए।
उिि – परिचय
हतरुवल्लुवि दहक्षण भाित के म ान् सिंत र्े । इन्हें दहक्षण भाित का कबीि क ा जाता ै । शैि, िैष्णि,
बौद्ध तर्ा जैन सभी वतरुिल्लुिर क अपना मतािलम्बी मानते हैं , जबवक उनकी रचनाओं से ऐसा क ई भी
आभास नहीं वमलता है । यह अिश्य है वक िे उस परम वपता में विश्वास रखते र्े । धावमु क पहचान के कारण
उनकी कालािवध के संबंध में विर धाभास है सामान्यतुः उन्ें तीसरी-चौर्ी या आठिीं-नौिीं शताब्ी का
माना जाता है। सामान्यतुः उन्ें जैन धमु से संबंवधत माना जाता है। हालाुँ वक वहं िुओं का िािा है वक
वतरुिल्लुिर वहं िू धमु से संबंवधत र्े ।
संत वतरुिल्लुिर के जन्म क ले कर पुख्ता प्रमाण त नहीं हैं , ले वकन भािाई आधार पर एक अनुमान के
मु तावबक कहव हतरुवल्लुवि का काल ईसा पूवथ 30 से 200 साल िं के बीच माना जाता है । माना जाता है
वे चेन्नई के महयलापुि से र्े, ले वकन उनका ज्ािातर समय मिु रै में बीता, क् वं क िहां पां य िंशी राजा
तवमल सावहत्य क बढ़ािा िे ते र्े । हतरुवल्लुवि हजन्हें वल्लुवि भी क ा जाता ै , एक तहमल कहव-सिंत
र्े ।
तहमल भाषा में वे द की भािंहत सम्माहनत ग्रन् “हतरुक्कुिल” के िहचयता हतरुवल्लुवि का समय आज
से लगभग ढाई जाि वषथ पूवथ माना जाता ै | जन-मानस में पीढ़ी िर पीढ़ी अंवकत उनकी छवि के
अवतररि उनके जीिन के सं बध में ओर क ई जानकारी उपलब्ध नही है | वतरुिल्लुिर अपनी पत्नी बासुही
के सार् अत्यं त सािा जीिन व्यतीत करते र्े | पत्नी चरखे पर सूत कातती और िे कपड़ा बुनकर बाजार में
बेचते | उनके शां त स्वभाि, सत्य-वनष्ठा और सहनशीलता की सिुत्र सराहना ह ती|
उनकी स नशीलता से एक धनी व्यक्ति के पुत्र के जीवन में इतना परिवतथन आया हक हपता-पुत्र
सदा के हलए उनके भि बन गये| वे हबना उनकी आज्ञा के क ई काम न ी किते र्े | अपने
ल कवहतकारी वशक्षाओं से प्रभावित एले ल वशंगन नाम के उस धनी व्यक्ति के आग्रह पर वतरुिल्लुिर ने
जीिन के तीन पहलु ओ – धमु , अर्ु और काम पर ग्रन् वलखना स्वीकार वकया| उनका कहना र्ा – म क्ष के
बारे में मै कुछ नही जानता|
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वतरुिल्लुिर ने काव्य में अपना ग्रन् वलखा वजसमे कुल 1330 छ टी छ टी कविताये है – ि हे से भी छ टी|
उस समय की प्रर्ा के अनुसार इसे तवमल वििान ं की सभा में रखा गया त सबने मु ि कंठ से इसकी
प्रशंशा की| तवमल में “वतरु” शब् का अर्ु संत ह ता है | वजस छं ि में यह ग्रन् वलखा गया, उसे “कुरल”
कहते है | इस प्रकार इस ग्रन् का नाम “वतरुक्कुरल” पड़ा और रवचयता िल्लुिर के थर्ान पर वतरुिल्लुिर
के नाम से विख्यात हुए|
धावमु क पहचान के कारण उनकी कालािवध के संबंध में विर धाभास है सामान्यतुः उन्ें तीसरी-चौर्ी
सामान्यतुः उन्ें जैन धमु से संबंवधत माना जाता है । हालाुँ वक वहं िुओं का िािा है वक वतरुिल्लुिर वहं िू
वतरुक्कुरल में 10 कविताएुँ ि 133 खंड शावमल हैं , वजनमें से प्रत्ये क क तीन पुस्तक ं में विभावजत
वकया गया है :
i. अराम- (सिगुण)
1. संत वतरुिल्लुिर क जीिन और जगत का व्यापक यर्ार्ु अनुभि र्ा। पत्नी की मृ त्यु के बाि विय ग की
उस घनीभू त पीड़ा ने गहरी जीिनानुभूवतय ं के सार् वमलकर उनकी विया उसी प्रकार का फल उनकी
म ानतम िचना 'हतरुक्कुिल' ै ।
वतरु
कुरल
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अर्ाु त वतरुिल्लुिर के िारा रवचत 'कुरल'। िरअसल कुरल तवमल भािा का एक शब् है वजसका अर्ु
'छ टा' ह ता है। यह तवमल भािा का सबसे छ टा छं ि है ज लगभग पौने ि पंक्तिय ं में ही पूरा ह जाता है ,
ठीक कुछ ि हे की तरह। वजस प्रकार कबीर ने साक्तखय ं में ि हे के माध्यम से आुँ ख ं िे खी जीिन-जगत की
प्रभािी बातें कहीं हैं , ठीक िैसे ही संत वतरुिल्लुिर ने कुरल में ।
पररपूणु विव्य जीिन जीने के वलए पररिार क छ ड़कर संन्यासी बनने की आिश्यकता नहीं है । उनकी ज्ञान
भरी बातें और वशक्षा अब एक पुस्तक के रूप में मौजूि है वजसे 'वतरुक्कुरल' के रूप में जाना जाता है।
प्राचीन: वतरुक्कुरल तीसरी शताब्ी ईसा पूिु से 5िीं शताब्ी ईसिी के मध्य कहीं से भी विनां वकत है । बाि
की वतवर् ऊपरी सीमा के रूप में अत्यवधक वनवित है क् वं क वतरुक्कुरल के एक पि क मवनमे कलाई में
शब्शुः उि् धृ त वकया गया है , ज तवमल संगम काल की पां च प्रवसद्ध रचनाओं में से एक है ।
िचना: वतरुक्कुरल में 133 अध्याय ं (अवधकरम) में 1330 ि हे हैं , वजनमें से प्रत्ये क में 10 छं ि हैं ।
भाग: इस रचना क तीन प्रमु ख भाग ं (पाल), अर्ाुत् सिाचार (अरम), समृ क्तद्ध (प रुल) एिं आनंि (कामम)
में विभावजत वकया गया है । तवमल में , मु क्ति के चौर्े तत्व (वितु ) के सार् इन तीन ं क सक्तिवलत रूप से
उरुवधप रुल कहा जाता है , ज वक “चीजें” (प रुल) हैं ज जीिन के वलए “आधारभू त आधार” (उरुवध) प्रिान
करती हैं । जबवक यह रचना वितु (मु क्ति) क संब वधत नहीं करता है क् वं क यह समाज में रहने िाले ल ग ं
के वलए है , यह मु क्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में तु रिरम (त्याग) क किर करता है । िैविक वहं िू धमु
के चार पुरुिार्ों के समान ही, अर्ाुत्, धमु , अर्ु , काम एिं म क्ष।
सनातन धमथ का एक अहनवायथ ह स्सा: वतरुक्कुरल भी इस बात की पुवि करने का एक प्रमु ख प्रमाण है
वक तवमल संस्कृवत सनातन धमु के गुलिस्ते में सिाु वधक सुंिर पुष्प ं में से एक है एिं िैविक परं परा
से पृर्क नहीं है । जैसा वक अनेक कुरल िेि ,ं ब्राह्मण ं के कतु व्य ,ं गाय ं की रक्षा एिं इं द्र, लक्ष्मी तर्ा िामन
जैसे िे िताओं का उल्लेख करते हैं ।
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इस ग्रिंर् पि ह िंदू हवचाि पद्धहत की स्पष्ट छाप ै । य ी कािण ै हक वहं िू धमु िशुन के तीन ं प्रमु ख
पुरुिार्ु धमु , अर्ु , काम तीन ं का समु वचत प्रवतपािन तीन खंड ं में वकया गया है । डॉ. रिींद्रनार् वसंह िारा
यह ग्रंर् एक मु िक काव्य है। वफर भी प्रत्ये क कुरल स्वतं त्र तौर पर न केिल अर्ु ित्तापूणु हैं , बक्ति वििय
की दृवि से भी ये पूिु के कुरल एिं अपने पूिुिती अध्याय से वतरुिल्लुिर ने महाकाव्य की भाुँ वत इस ग्रंर् के
आरम्भ में ईश्वर िंिना की है । इसके प्रर्म कुरल का भािानुिाि कुछ प्रकार वकया गया है -
हनष्कषथ
इस प्रकार कुछ प्रमु ख प्रसंग ,ं प्रकरण ,ं उक्तिय ,ं सूक्तिय ं आवि के माध्यम से संत वतरुिल्लुिर के विचार ं
क समझा जा सकता है , इसके केंद्र में ईश्वर भक्ति, सिाचार, पर पकार, भाईचारा, ल कमं गल,
जनकल्याण, धमु एिं संस्कृवत रक्षा जैसे विचार ं के सार्- सार् राजशासन, कृवि, चररत्र, सज्जनता, ज्ञानाजुन,
वनमु ल एिं पवित्र सिगृहथर् जीिन जैसे मू ल्य ं की व्यापक चचाु है । अतुः 'तवमल िेि' के सृजनकार एिं
'िवक्षण के कबीर' कहे जाने िाले संत वतरुिल्लुिर क यवि भारतीय धमु , अध्यात्म ि संस्कृवत का प्रतीक
पुरुि कहा जाय त अवतशय क्ति नहीं ह गी क् वं क उनके कालजयी ग्रंर् ं के एक-एक पि ं में विश्वकल्याण
का गायन है । िे िास्तविक अर्ों में िैवश्वक मानिता के संरक्षक अमर व्यक्तित्व हैं ।
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उिि – परिचय
सिंत हतरुवल्लुवि की भााँहत सुप्रहसद्ध द्रहवड़ भि कहवयत्री आिं डाल का सिंबिंध भी तहमलनाडु के
आश्रय ले ना पड़ता है । यह माना जाता है वक उनका जन्म सामान्य रूप से नहीं हुआ बक्ति आठिें आलिार
एिं परम िैष्णि भि पेररयाल्वार वजनका सुप्रवसद्ध संस्कृत नाम विष्णुवचत है क उनकी फुलिारी में तुलसी
पौध ं क सींचते हुए रहस्यमय ढं ग से वशशु रूप में प्राप्त हुई र्ीं। जन्म का उवचत आधार न वमल पाने के
कारण आं डाल क भी पृथ्वी तनया सीता की भाुँ वत माना गया। हजस प्रकाि सीता क 'भूहमजा' क ा
जाता ै ठीक उसी प्रकाि आिं डाल क भी 'भूदेवी का अवताि' माना जाने लगा।
िवक्षण भारत की प्रवसद्ध संत किवयत्री आं डाल का समय निीं शताब्ी ईसिी माना जाता है । इनका तवमल
सावहत्य में िही थर्ान है , ज वहं िी में मीरां का है । आिं डाल का बचपन का नाम 'कौदे ' र्ा। इनका पालन-
प िण मिु रा के विष्णुवचत्र नामक एक विष्णु भि ब्राह्मण के घर में हुआ।
1. अंिाल का जन्म विक्रम सं. 770 में हुआ र्ा। अपने समय की यह प्रवसद्ध आलिार संत र्ीं। इनकी
वतरुप्पािै
नावचयार वतरुमौली
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आिं डाल क ग दा, ग दािंबा, क दै आहद नाम िं से भी जाना जाता ै । वहं िी सावहत्य के इवतहास ग्रंर् ं में
जहाुँ आं डाल इनका तवमल नाम एिं ग िा संस्कृत नाम माना जाता है , िहीं एक मान्यता यह भी प्रचवलत है
वक बचपन में िे िी आिे श पाकर वशशु का नाम ग िा रखा गया। तवमल में ‘क िै ’ शब् का अर्ु फूल के
समान क मल एिं सुंिर ह ता है । जबवक आं डाल नाम अपने वप्रयतम इि भगिान श्री रं गनार् की
मधु र पासना के बाि वमला । आं डाल नाम के भी कई अर्ु प्रचवलत हैं वजनमें लक्ष्मी, ईश्वर िारा उद्धार,
शावसका, ईश्वर प्रेयसी आवि
आं डाल िवक्षण भारत की प्रवसद्ध आलिार या हवष्णु भि कहवयत्री ैं । उनकी साधना मीरा की भाुँ वत ही
माधु यु एिं िां पत्य भाि की है । इस कारण उनके ज्ािातर मत या विचार भक्ति के इसी क्षेत्र से संबंवधत हैं ।
आं डाल एिं मीरा समपुण, प्रपवत्त, ि कैंकयु का भाि विखता है । यवि मीरा कहतीं हैं वक -" मीरा हरर रे हार्
वबकाणी, जणम जणम री िासी।” त आं डाल ने भी वलखा है - “इरे क्कुमे लेल वपरविक्कुम उन्तन्न डु / उरोमे
याि भु नक्के नामाट् शेय्ि म् ।।” अर्ाु त हे ! रं गनार् सिा सिुिा जनम जनम में तु म्हारे सार् ही संबंध रहे ,
तु म्हारी ही सेिा करें , और तु म हमारी अपेक्षाओं की पूवतु कर । इस प्रकार आं डाल के अवभव्यक्ति क्षे त्र का
सिाु वधक संबंध आत्मवनिेिन एिं आत्मसमपुण की शै ली में वनमु ल भाि से विराटत्व में एकाकार ह ने की
भािना से ही है ।
आं डाल का यह दृढ़ विश्वास है वक भगिान सिुभूतरत है और श्री नारायण क छ ड़कर अन्य वकसी सत्ता में
संरक्षा का सामथ्यु नहीं है । अतुः आं डाल इस पर ज़ र िे कर कहती हैं वक श्रद्धा और समपुण से वकया जाने
िाला व्रत पिास आवि पुण्य कायु ही मु क्ति प्रिान करे गा ऐसा स चना भ्रम मात्र है। इसवलए आं डाल का यह
मानना है वक ज मनुष्य एकवनष्ठ परमगवत के दृढ़ विश्वास की भािना से भगिान की शरण में जाता है िहीं
उसकी कृपा का पात्र बनता है िहीं अपने प्रयत्न अर्िा अन्य िे िताओं पर आवश्रत रहने िाला व्यक्ति
भगिान कृष्ण की कृपा का पात्र नहीं ह सकता ।
भक्ति के क्षे त्र में आं डाल का यही उपिे श है वक िे ित्व का अनुभि एकां वतक रूप से नहीं करना चावहए
इसीवलए ईश्वर की अनुभूवत के बाि भी उन्ें ईश्वर के भि ं के िशुन की आकां क्षा रहती र्ी। आं डाल का
यह भी विचार है वक यवि संसारी व्यक्ति भक्ति साधना का अवभनय भी करता है त भगिान उसकी रक्षा में
तत्पर ह जाते हैं ।
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इस ग्रंर् क ‘ग िा श्री सूक्ति' भी कहा जाता है । इसमें कुल चौिह िशक एिं 143 पद्य हैं । गीवतकाव्यात्मक
शैली में वलखे गए ये पि स्वप्नद्रिा िजििा वििाह क ले कर हैं । इस 1243 में कृष्ण साक्षात्कार, अनेक लीला
िणुन, विरह-व्यर्ा कृष्ण-संय ग एिं वििाह िणुन का वनरूपण वकया गया है । आिं डाल के द्वािा तहमल
भाषा में हलखे गए ये पद “आिं डाल पासुििंगल” भी क लाते ैं । इस प्रकार आं डाल िारा वलखे हुए कुल
पि ं की संख्या 173 (30+143) है । वजसे 173 पासुरंगल भी कहते हैं।
आं डाल की रचनाओं में िेि, पुराण एिं उपवनिि ं की िाणी के रहस्यमय तत्त्व ं क िे खकर बाि में
विवशिािै त के प्रवतष्ठापक श्री रामानुजाचायु िारा भी अंडाल के गीत ं क महत्त्व विया गया। श्री
िेिान्तिे वशक आचायु ने आं डाल क आधार बनाकर 'ग िा-स्तु वत' नामक ग्रंर् वलखा है। राजा श्री
कृष्णदे विाय ने भी आिं डाल के जीवन एविं भक्ति क हवषय बनाकि ते लुगू भाषा में 'आमुिमाल्दा'
म ाकाव्य हलखा। तवमल प्रिे श के प्रत्ये क प्रमु ख विष्णु मं विर में आं डाल की मूवतु थर्ावपत ह ना यह
प्रमावणत करता है वक आं डाल ल क जीिन में िे िी के समान पूज् एिं प्रेरणा की प्रतीक र्ीं। िृंिािन क्तथर्त
श्री रं गनार् मं विर में भी 'ग िां बा उत्सि' मनाया जाता है । िस विन ं तक चलने िाले इस उत्सि में 'विव्य
प्रबंध' के पाठ के तीसरे विन आं डाल िारा वलक्तखत 143 पि ं का पाठ ह ता है ।
हनष्कषथ
पृथ्वी िे िता का अितार अंिल, अपनी पवित्र भक्ति के वलए बहुत जानी जाती है और िह एक महान कवि
र्ीं। उनकी कविताओं क स्पीकर में सबसे अवधक विष्णु मं विर ं में मगाु ज़ी महीने की शुरुआत में बजाया
जाता है , ज कान ं के वलए प्रसन्नता िे ने िाला ह ता है । महान भू वमिे िी हमें आशीिाु ि िें और भ जन, िस्त्र
एिं आश्रय जैसी सभी बुवनयािी जरूरत ं क पूरा करें और एक शां वतपूणु और खुशहाल जीिन भी िें ।
आं डाल ने अपनी रचनाओं में भक्ति के विवभन्न पक्ष ं क अवभव्यि करने के सार्- सार् अपने युग के
विविध सां स्कृवतक वचत्र एिं सामावजक पक्ष ं का भी अत्यं त सजगता से वचत्रण वकया है । उनके िणु न में
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उिि – परिचय
अक्कम ादे वी बसव (म ान सिंत) समकालीन सुप्रहसद्ध सिंत र्ी िं। कणाु टक के ितुमान वशिम ग्गा वजले
के उडतवड नामक थर्ान में सुमवत तर्ा वनमु ल िम्पवत्त के घर उनका जन्म (1150 ई.) में हुआ र्ा। िे अपने
माता-वपता की इकलौती संतान र्ीं। तवमलनाडु की आं डाल एिं राजथर्ान की प्रेमय वगनी मीरा की तरह
अक्कमहािे िी ने भी मनुष्य के थर्ान पर ईश्वर क अपना पवत चु ना। बचपन में ही उनका मन उस सल ने
चे न्न मक्तल्लकाकाजुुन (वशि) पर रीझ गया र्ा। जैसे आं डाल एिं मीरा के प्रभु नटनागर वगररधर ग पाल कृष्ण
हैं त अक्कमहािे िी के इि वशि हैं। अक्कमहािे िी का मानना है वक व्यक्ति तभी भीख माुँ गता है जब
उसका अहभाि समाप्त ह जाता है । िह वनविुकार ह जाता है । ऐसी िशा में ही ईश्वर भक्ति की जा सकती
है ।
अक्कम ादे वी ने अपने वचन िं में मन के हवहवध हवकाि िं एविं भाव िं क अहभव्यि हकया ै । उनका
कहना है वक भू ख-प्यास उसे व्याकुल न करे , नींि सताये नहीं, क्र ध उत्ते वजत ह कर उर्ल-पुर्ल न मचाये,
म ह-पाश में बां धे नहीं, ल भ ललचाये नहीं, ईष्याु जलाये नहीं, समस्त सचराचर (जड़-चे तन) प्रवणय ं क
इससे मु क्ति वमले , वजससे िे ईश्वर भक्ति कर सकें।
अक्कम ादे वी अपने वचन में ईश्वि से स्तुहत किते हुए क ती ैं हक- आप मे रे मन में विद्यमान हर
प्रकार के अहं कार क नि कर िें । तु म मे रा सब कुछ छीनकर मु झे भीख माुँ गने पर बाध्य कर ि । इस
अपना घर इस (सां साररक म ह-माया) क ही भू ल जाऊुँ । इस प्रकार मैं अपनी सभी इच्छाओं क त्यागकर
भगिान वशि के प्रवत पूरी तरह समवपुत ह जाऊुँ।
अक्कम ादे वी अपने वचन के माध्यम से क ती ैं हक- पक्षी भी तु म , हशकाि भी तु म, सभी जड़
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कवहयत्री इसी वचन में माया के आम मनु ष्य िं पर ह ने िाले प्रभाि ं क प्रिवशुत करती हैं , िे कहती हैं
वक-
छाया बनकर काया क सताया मन ने / मानस बनकर प्राण क सताया माया ने/स्मृवत बनकर मन क
सताया माया ने/विस्मृवत बनकर ज्ञान क सताया माया ने / जन समू ह क चाबुक लगाकर सताया माया
ने/चे न्नमक्तल्लकाजुुन िे ि, आपकी की रची माया पर वकसी क विजय प्राप्त करना आसान नहीं.
अक्कम ादे वी अपने अगले वचन में हमलन औि हवि के स्वरूप क बताते हुए कहती हैं -
वमलन सुख की अपेक्षा/र् ड़े समय के वलए वबछु ड़कर /वमलने का सुख बेहतर हैं , र् ड़े समय का
अलगाि / मे रे वलए सह्य नहीं, मे रे िे ि चे न्नमक्तल्लकाजुुन के वबछु ड़कर/न वबछु ड़ने का सुख कब वमले गा?
हनम्न वचन में कवहयत्री ने सूयथ के प्रतीकात्मक माध्यम से 'भक्तिवह ज्ञानवह नवहं कछु भे िा' की बात
करती हैं -
सूयु जैसा ज्ञान/सूयु वकरण जैसी भक्ति/सूयु वबना वकरणे नहीं / वकरण ं के वबना सूयु नहीं/ज्ञान रवहत
भक्ति, भक्ति रवहत ज्ञान कैसा मक्तल्लकाजुुन?
हनष्कषथ
इस प्रकार अक्कमहािे िी के विचार अपने एकवनष्ठ आराध्य वशि या चे न्नमक्तल्लकाजुुन क आधार बनाकर
विवभन्न िचन ं के माध्यम से अवभव्यि हैं । इनके केंद्र में प्रायुः अपने इि से वमलन हे तु न केिल विविध
आध्यक्तत्मक संभािनाओं की चचाु है बक्ति उसके मागु आने िाली ि आ सकने िाली सभी मायाजन्य
चु नौवतय ं एिं बाधाओं का िणुन भी है वकंतु इसके सार् ही उसके यर्ासंभि समाधान का एक यर् वचत
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उिि – परिचय
रचना की। इन्हें 'िाजस्र्ान की िाधा' भी क ा जाता ै । मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रवत अत्यं त अनुरि र्ीं,
उनका सम्पू णु काव्य कृष्ण के प्रवत भक्ति की भािना से ओतप्र त है । उनकी भक्ति माधु यु भाि की र्ी।
इन् न
ं े राग–ग विंि, गीत-ग विंि, नरसी जी का मायरा, मीरा - पिािली, राग- स रठा, ग विंि टीका इत्यावि
रचनाएुँ की। मीराबाई की पिािवलयाुँ बहुत प्रवसद्ध हैं । इनकी भक्ति में भािना एिं श्रद्धा का सामं जस्य है ।
मीराबाई का व्यक्तित्व
मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई० के लगभग िाजस्र्ान में मेड़ता के पास चौकड़ी ग्राम में हुआ र्ा।
उनके वपता का नाम रत्नवसंह र्ा तर्ा िे ज धपुर-संथर्ापक राि ज धा की प्रपौत्री र्ीं। बचपन में ही उनकी
माता का वनधन ह गया र्ा; अत: िे अपने वपतामह राि ज धा जी के पास रहती र्ीं। उन्हें सिंगीत, धमथ,
िाजनीहत औि प्राशासन जैसे हवषय िं की हशक्षा दी गयी। मीरा का लालन-पालन उनके िािा के िे ख-
रे ख में हुआ ज भगिान् विष्णु के गंभीर उपासक र्े और एक य द्धा ह ने के सार्-सार् भि-हृिय भी र्े
और साधु -संत ं का आना-जाना इनके यहाुँ लगा ही रहता र्ा। इस प्रकार मीरा बचपन से ही साधु -संत ं और
धावमु क ल ग ं के सम्पकु में आती रहीं।
2. हववा
मीिा का हववा िाणा सािंगा के पुत्र औि मेवाड़ के िाजकुमाि भ ज िाज के सार् सन 1516 में सिंपन्न
हुआ। उनके पवत भ ज राज विल्ली सल्तनत के शाशक ं के सार् एक संघिु में सन 1518 में घायल ह गए
और इसी कारण सन 1521 में उनकी मृ त्यु ह गयी। उनके पवत के मृ त्यु के कुछ ििों के अन्दर ही उनके
वपता और श्वसुर भी मु ग़ल साम्राज् के संथर्ापक बाबर के सार् युद्ध में मारे गए।
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ऐसा क ा जाता ै हक उस समय की प्रचहलत प्रर्ा के अनु साि पहत की मृत्यु के बाद मीिा क
उनके पहत के सार् सती किने का प्रयास हकया गया वकन्तु िे इसके वलए तै यार नही हुईं और धीरे -
धीरे िे संसार से विरि ह गयीं और साधु -संत ं की संगवत में कीतु न करते हुए अपना समय व्यतीत
करने लगीं।
3. हशक्षा
उन के बचपन में ही उनकी माता जी का मृत्यु ह गया र्ा वजस िजह से उनके पालन प िण में कई
परे शावनयां ह ने लगी र्ी मीराबाई के वपताजी हमे शा अपने कायों में व्यस्त रहते र्े । और मां का साया उनके
सर से हट जाने की िजह से िह अकेला महसूस करने लगी र्ी, वपता के पास िि नहीं र्ा। छ टी सी उम्र
र्ी इसीवलए उनके िािा जी राि िू िा अपने पास बुला वलए।
जब मीराबाई अपने िािाजी के पास मे ड़ता में चली गई त िहां अपने िािाजी के सार् धावमु क कायों में
हमे शा लगी रहती र्ी। उन्ीं से हशक्षा दीक्षा प्राप्त की दादा जी से ी पूजा-पाठ धमथ-कमथ के सािी
हशक्षा लेती र्ी।
जब छ टी र्ी तभी िह भगिान कृष्ण के भजन गाया करती र्ी। भगिान कृष्ण की मू वतु हमे शा अपने पास
रखती र्ी, उन्ें वगरधर कहती र्ी वगरधर क सुबह स्नान कराना मू वतु क उठाना पूजा करना मू वतु क
सुलाना भ जन कराना इसी में विन-रात व्यस्त रहती र्ी कहा जाता है वक भगिान कृष्ण की मू वतु मीराबाई
क एक साधु ने विया र्ा।
सन् 1538 में ज धपुि के शासक िाव मालदे व ने मेड़ता पि अहधकाि कि हलया वजसके बाि बीरमिे ि
ने भागकर अजमे र में शरण ली और मीरा बाई ब्रज की तीर्ु यात्रा पर वनकल पड़ीं। सन् 1539 में मीरा बाई
िृंिािन में रूप ग स्वामी से वमलीं। िृंिािन में कुछ साल वनिास करने के बाि मीराबाई सन् 1546 के
आस-पास िारका चली गईं।
4. कृष्ण भक्ति
पहत के मृत्यु के बाद इनकी भक्ति हदन -िं हदन बढ़ती गई। मीिा अक्सि मिंहदि िं में जाकि
कृष्णभि िं के सामने कृष्ण की मूहतथ के सामने नाचती ि ती र्ी िं। मीराबाई की कृष्णभक्ति और
इस प्रकार से नाचना और गाना उनके पवत के पररिार क अच्छा नहीं लगा वजसके िजह से कई बार
उन्ें विि िे कर मारने की क वशश की गई।
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मीिा बाई एक मध्यकालीन ह न्दू आध्याक्तत्मक कहवहयत्री औि कृष्ण भि र्ी िं। िे भक्ति आन्द लन
के सबसे ल कवप्रय भक्ति-संत ं में एक र्ीं। भगिान श्रीकृष्ण क समवपुत उनके भजन आज भी उत्तर
भारत में बहुत ल कवप्रय हैं और श्रद्धा के सार् गाये जाते हैं ।
मीिा बाई के जीवन के बािे में तमाम पौिाहणक कर्ाएाँ औि हकवदिं हतयािं प्रचहलत ैं । ये सभी
पाररिाररक िस्तू र ं का बहािु री से मु काबला वकया और कृष्ण क अपना पवत मानकर उनकी भक्ति में
लीन ह गयीं। उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति क राजघराने के अनुकूल नहीं माना और
तत्कालीन समाज में मीिाबाई क एक हवद्र ी माना गया क् हिं क उनके धाहमथक हिया-कलाप
हकसी िाजकुमािी औि हवधवा के हलए स्र्ाहपत पििं पिागत हनयम िं के अनु कूल न ी िं र्े । िह
अपना अवधकां श समय कृष्ण के मं विर और साधु -संत ं ि तीर्ु यावत्रय ं से वमलने तर्ा भक्ति पि ं की
मीिा बाई एक मध्यकालीन ह न्दू आध्याक्तत्मक कहवहयत्री औि कृष्ण भि र्ी िं। िे भक्ति आन्द लन
के सबसे ल कवप्रय भक्ति-संत ं में एक र्ीं। भगिान श्रीकृष्ण क समवपुत उनके भजन आज भी उत्तर
भारत में बहुत ल कवप्रय हैं और श्रद्धा के सार् गाये जाते हैं ।
मीिा बाई के जीवन के बािे में तमाम पौिाहणक कर्ाएाँ औि हकवदिं हतयािं प्रचहलत ैं । ये सभी
वकििं वतयां मीराबाई के बहािु री की कहावनयां कहती हैं और उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति क िशाु ती
हैं । इनके माध्यम से यह भी पता चलता है की वकस प्रकार से मीराबाई ने सामावजक और पाररिाररक
िस्तू र ं का बहािु री से मु काबला वकया और कृष्ण क अपना पवत मानकर उनकी भक्ति में लीन ह
गयीं। उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति क राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय
पर उनपर अत्याचार वकये।
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मीराबाई का कृवतत्व
मीिा हजन पद िं क गाती र्ी िं तर्ा भाव-हवभ ि कि नृ त्य किती र्ी िं, वे ी गेय पद उनकी िचना
क लाए। 'नरसीजी का मायरा', 'राग ग विन्द', 'राग स रठ के पि', 'गीतग विन्द की टीका', 'मीराबाई की
मल्हार', 'राग विहाग' एिं फुटकर पि, तर्ा 'गरिा गीत' आवि मीरा की प्रवसद्ध रचनाएुँ हैं ।
भाितीय पििं पिा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में हलखी गई जाि िं भक्तिपिक कहवताओिं का
सम्बन्ध मीिा के सार् ज ड़ा जाता ै पि हवद्वान ऐसा मानते ैं हक इनमें से कुछ कविताये ुँ ही मीरा िारा
रवचत र्ीं बाकी की कविताओं की रचना 18िीं शताब्ी में हुई प्रतीत ह ती है । ऐसी ढे र ं कविताये ुँ वजन्ें
मीराबाई िारा रवचत माना जाता है , िरअसल उनके प्रसंशक ं िारा वलखी मालूम पड़ती हैं । ये कविताये ुँ
‘भजन’ कहलाती हैं और उत्तर भारत में बहुत ल कवप्रय हैं ।
िाग ग हविं द
िाग स िठ
निसी का मायिा
िाग हब ाग
(क) भाव-पक्ष- मीरा कृष्णभक्ति शाखा की सगुण पावसका भि किवयत्री हैं । इनके काव्य का िण्यु -
वििय एकमात्र नटिर नागर श्रीकृष्ण का मधु र प्रेम है ।
1. हवनय तर्ा प्रार्थ ना सम्बन्धी पद - वजनमें प्रेम सम्बन्धी आतु रता और आत्मस्वरूप समपुण की भािना
वनवहत है ।
2. कृष्ण के सौन्दयथ वणथन सम्बन्धी पद - वजनमें मनम हन श्रीकृष्ण के मनम हक स्वरूप झाुँ की प्रस्तु त
की गयी है ।
3. प्रेम सम्बन्धी पद- वजनमें मीरा के श्रीकृष्ण प्रेम सम्बन्धी उत्कट प्रेम का वचत्रां कन है । इनमें संय ग और
विय ग ि न ं पक्ष ं का मावमु क िणुन हुआ है ।
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4. ि स्यवादी भावना के पद- वजनमें मीरा के वनगुुण भक्ति का वचत्रण हुआ है।
5. जीवन सम्बन्धी पद- वजनमें उनके जीिन सम्बन्धी घटनाओं का वचत्रण हुआ है ।
(ख) कला-पक्ष-
1. भाषा-शैली- मीरा के काव्य की भािा ब्रजी है वजसमें राजथर्ानी, गुजराती, भ जपुरी, पंजाबी भािाओं
के शब् हैं । मीरा की भािा भाि ं की अनुगावमनी है । उनमें एकरूपता नहीं है वफर भी स्वाभाविकता,
2. िस-छन्द-अलिंकाि - मीरा की रचनाओं में श्रृं गार रस के ि न ं पक्ष, संय ग और विय ग का बड़ा ही
मावमु क िणुन हुआ है । इसके अवतररि शान्त रस का भी बड़ा ही सुन्दर समािेश हुआ है। मीरा का
सम्पू णु काव्य गेय पि ं में है ज विवभन्न राग-रागवनय ं में बुँधे हुए हैं। अलं कार ं का प्रय ग मीरा की
रचनाओं में स्वाभाविक ढं ग से हुआ है । विशेिकर िे उपमा, रूपक, दृिान्त आवि अलं कार ं के प्रय ग से
बड़े ही स्वाभाविक हुए हैं ।
हनष्कषथ
मीरा मध्यकाल के भक्तिकालीन - काव्य की ऐसी किवयत्री हैं वजनमें कृष्ण के प्रवत अनन्य प्रेम, वनष्ठा और
भक्ति र्ी। प्रेम की इतनी तन्मयता, एकवनष्ठता उनके माधु यु भाि की भक्ति का विशेि गुण है। मीरा का
काव्य जहाुँ स्त्री की पराधीनता की कहानी कहता है , िहीं उससे मु क्ति का संकेत भी करता है । मीरा ने
सामन्ती, जड़िािी समाज की िवकयानूसी प्रिृवत्तय ं क त ड़कर स्पि और खुले रूप में अपने प्रेम के भाि
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प्रश्न 9– कबीर का पररचय बताते हुए । कबीर की सामाविक चेतना पर प्रकार् डावलए ।
उिि – परिचय
कबीिदास या कबीि 15वी िं सदी के भाितीय ि स्यवादी कहव औि सिंत र्े । वे ह न्दी साह त्य के
भक्तिकाल के हनगुथण शाखा के ज्ञानमगी उपशाखा के म ानतम कहव ैं । इनकी रचनाओं ने वहन्दी
प्रिे श के भक्ति आं ि लन क गहरे स्तर तक प्रभावित वकया। उनकी रचनाएुँ वसक् ं के आवि ग्रंर् में
सक्तिवलत की गयी हैं । कबीि के हनगुथण भक्ति मागथ के अनु यायी र्े औि वै ष्णव भि र्े । रामानंि से
वशष्यत्व ग्रहण करने के कारण कबीर के हृिय में िैष्णि ं के वलए अत्यवधक आिर र्ा। कबीि ने धाहमथक
पाखण् ,िं सामाहजक कुिीहतय िं , अनाचाि िं , पािस्परिक हवि ध िं आहद क दू ि किने का सिा नीय
कायथ हकया ै ।
कबीि का परिचय
कबीर वहं िी सावहत्य के मवहमामक्तण्डत व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक वकंििक्तन्तयाुँ हैं ।
कुछ ल ग ं के अनुसार िे रामानन्द स्वामी के आशीिाु ि से काशी की एक विधिा ब्राह्मणी के गभु से पैिा हुए
र्े , वजसक भू ल से रामानंि जी ने पुत्रिती ह ने का आशीिाु ि िे विया र्ा।
●समाज सुधािक
●जुला ा
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समु िाय का प्रितु क माना जाता है। कबीर िास जी का जन्म विक्रम संित 1455 अर्ाु त सन 1398 ईस्वी में
हुआ र्ा। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, इनका जन्म काशी के लहरतारा के आसपास हुआ र्ा।
य भी माना जाता ै हक इनक जन्म दे ने वाली, एक हवधवा ब्राह्मणी र्ी। इस विधिा ब्राह्मणी क गुरु
रामानंि स्वामी जी ने पुत्र प्राक्तप्त का िरिान विया र्ा। वजसके पररणामस्वरूप कबीर िास जी का जन्म
यह बात इन् न
ं े ही कही है । उन्ें ज ज्ञान वमला र्ा। उन् न
ं े ज राम भक्ति की र्ी। िह रामानंि जी की िे न
र्ी। राम शब् का ज्ञान, उन्ें रामानंि जी ने ही विया र्ा। इसके पीछे भी एक र चक कहानी है । रामानंि जी
उस समय एक बहुत बड़े गुरु हुआ करते र्े ।
िामानिं द जी ने कबीिदास क , अपना हशष्य बनाने से मना कि हदया र्ा। यह बात कबीर िास जी
जी घाट की सीवढ़य ं पर ले ट गए। जब िहां रामानंि जी आए। त रामानंि जी का पैर, कबीर िास के
शरीर पर पड़ गया। तभी रामानंि जी मु ख से, राम-राम शब् वनकल आया। जब कबीरिास जी ने
रामानंि के मु ख से, राम राम शब् सुना। त कबीरिास जी ने, उसे ही अपना िीक्षा मं त्र मान वलया।
सार् ही गुरु के रूप में , रामानंि जी क स्वीकार कर वलया।
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अहधकति ल ग िामानिं द जी क ी कबीि का गुरु मानते ैं लेहकन कुछ ल ग ऐसे भी मानते हैं वक
कबीर िास जी के क ई गुरु नहीं र्े उन्ें वजतना भी ज्ञान प्राप्त हुआ है उन् न
ं े अपनी ही बिौलत वकया
है कबीर िास जी पढ़े -वलखे नहीं र्े इस बात की पुवि के वलए भी ि हा वमलता है।
अर्ाु त, मैं ने त कभी कागज छु आ नहीं है । और कलम क कभी हार् में पकड़ा ही नहीं है ।
पि शैली में वसद्धां त ं का वििेचन ‘रमै नी’ कहलाता है । सबि ि रमै नी की भािा, ब्रज भािा है । इस प्रकार
कबीर की रचनाओं का संकलन बीजक नाम से प्रवसद्ध है ।
कबीि ने अपनी िचनाओिं में स्वयिं क जुला ा औि काशी का हनवासी क ा ै । आचायु हजारी प्रसाि
वििेिी ने कबीर क “िाणी का वडक्टे टर” कहा है । आचायु रामचं द्र शुक्ल जी ने कबीर की भािा क
‘पंचमे ल क्तखचड़ी’ कहा है ।
कबीि के पद िं का सिंकलन बाबू श्यामसुिंदि दास ने “कबीि ग्रिंर्ावली” शीषथक से हकया ै । कबीर
वहं िी के सबसे पहले रहस्यिािी कवि र्े । अतुः कबीर के काव्य में भािात्मक, रहस्यिाि के िशुन ह ते हैं ।
कबीर की रचनाओं में वसधि ,ं नार् ं और सूफी संत की बात ं का प्रभाि वमलता है ।
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व्याख्या– इस ि हे में कबीर मन क समझाते हुए। धैयु की पररभािा बता रहे हैं । िह कहते हैं वक हे मन
धीरे -धीरे अर्ाु त धै यु धारण करके ज करना है , िह कर। धै यु से ही सब कुछ ह ता है। समय से पहले कुछ
भी नहीं ह ता। वजस प्रकार यवि माली सौ घड़ ं के जल से पेड़ सींच िे । त भी फल त ऋतु आने पर ही
ह गा।
कबीर िास जी मू वतु पूजा का विर ध करते हैं । उनका मानना है वक ईश्वर का न क ई रं ग रूप है और न
क ई आकार । िह कण-कण में व्याप्त है।
कबीर िास जी का मानना है वक ईश्वर एक है | इसवलए वहं िू धमु में व्याप्त अितारिाि की अिधारणा का िे
खंडन करते हैं | ईश्वर के विवभन्न अितार ं की कर्ाओं क िे महज कल्पना मानते हैं ।
3. तीर्थ - ज का हवि ध
वहं िू धमु तर्ा मु क्तस्लम धमु में व्याप्त विवभन्न आडं बर ं का िे विर ध करते हैं । िे कहते हैं वक वहं िुओं की तीर्ु
यात्रा| और मु क्तस्लम ं की हज यात्रा आडं बर मात्र हैं | उनका मानना है वक ईश्वर क बाहर ढूंढना व्यर्ु है |
िास्ति में ईश्वर T मनुष्य के शरीर में ही वनिास करते हैं ।
कबीरिास जी ने ऊुँचे स्वर में ईश्वर क पुकारने, उसका गुणगान करने या प्रार्ु ना करने का विर ध वकया
है । उनका मानना है वक ईश्वर आपके घट में ही विद्यमान है तर्ा िह आपकी प्रत्ये क मन िशा क जनता
है । एक थर्ान पर िे कहते हैं -
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यह पंक्तियां स्पि रूप से इस्लाम में प्रचवलत मक्तिि में चीखने-वचल्लाने की प्रर्ा का विर ध करती हैं परन्तु
अब वहन्िू , वसख और ईसाई धमु में भी यही सब ह रहा है | लाउड स्पीकर के माध्यम से सभी धमु ध्ववन
प्रिू िण कर रहे हैं | कबीर की दृवि में ये ईश्वर क बहरा समझने के समान है ।
5. जाहत-पाहत का हवि ध
कबीरिास जी वहं िू धमु में व्याप्त जावत-पावत तर्ा ऊंच नीच का घ र विर ध करते हैं । उनकी दृवि में प्रत्ये क
मनुष्य समान है | सभी मनुष्य उस ईश्वर की रचना हैं । िे कहते हैं –
ब्राह्मण ं की श्रेष्ठता पर व्यं ग्य करते हुए िे वलखते हैं – "जै ते बामण-बामणी जाया, आन बाट है क् ं नहीं
आया।”
हनष्कषथ
इस तरह से हम िे खते हैं वक कबीर युगद्रिा महात्मा र्े । कबीर ने अपनी िाणी िारा समाज में व्याप्त अनेक
बुराईय ं क िू र करने का प्रयास वकया। उनके सावहत्य में समाज सुधार की ज भािना वमलती है । उसे हम
इस प्रकार से िे ख सकते हैं । धावमु क पाखण्ड का विर ध करते हुए कबीर कहते हैं भगिान क पाने के वलए
हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं है । वििान ल ग उन्ें वचं तक, भि, कवि, और समाज सुधारक के रूप में
िे खते रहे हैं । उनके वििय में इतना अिश्य है वक जावत, धमु से ऊपर उठे हुए संत र्े । समाज में व्याप्त हर
आडम्बर उन्ें खटकता है । समाज के बुराइय ं क िे ख िे चु प नहीं रह पाते र्े । अपनी तीखी िाणी में
उसका प्रवतकार करते र्े ।
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प्रश्न 10 – ‘रै दास ने अपनी भक्ति के माध्यम से सभी सामान्य ल ग ं के वलए भक्ति का सरल मागथ
सुझाया।‘ इस मत की समीक्षा कीविए ।
उिि – परिचय
सिंत कहव िै दास- इन् ने रै िावसया अर्िा रवििावसया पंर् की थर्ापना की। इन्ें सतगुरु अर्िा जगतगुरु
की उपावध िी जाती है। और इनके रचे गये कुछ भजन वसख ल ग ं के पवित्र ग्रंर् गुरुग्रंर् सावहब में भी
शावमल हैं । िहवदास भाित में 15वी िं शताब्दी के एक म ान सिंत, दशथनशास्त्री, कहव, समाज-सुधािक
औि ईश्वि के अनु यायी र्े । ि वनगुुण संप्रिाय अर्ाु त् संत परं परा में एक चमकते नेतृत्वकताु और प्रवसद्ध
व्यक्ति र्े तर्ा उत्तर भारतीय भक्ति आं ि लन का नेतृत्व सकया।
सिंत कहव िै दास- िै दास मध्यकाल में एक भाितीय सिंत र्े हजन्ह न
िं े जात-पात के अन्त हवि ध में कायथ
हकया। संत कवि रै िास संत रवििास के नाम से भी जाने जाते हैं । ये मध्यकालीन संत काव्य-धारा के
महत्त्वपूणु हस्ताक्षर हैं । ‘सन्तन में रवििास' कहकर कबीर ने भी सन्त कविय ं में उनके महत्त्व क स्वीकार
वकया है । रै िास सन्त, कवि, िाशुवनक, समाज सुधारक सभी र्े । इन् न
ं े समाज में फैली कुरीवतय ं के
संत कवि रै िास का जन्म 'काशी' में माघ पूवणुमा के विन संित 1433 में हुआ। इनके जन्म से संबंवधत एक
ि हा प्रचवलत है -
कहा जाता है वक इस विन रवििार र्ा, इसवलए इनका नाम रवििास रख विया गया, ज ब लने में रै िास ह
गया। इनके वपता का नाम संत ख िास तर्ा माता का नाम कलसां िे िी र्ा। उनकी पत्नी का नाम ल ना िे िी
बताया जाता है । रै िास जूता बनाने का काम करते र्े । यही उनका व्यिसाय र्ा। िे अपना काम पूरी लगन
तर्ा पररश्रम से करते र्े और समय से काम पूरा करने पर बहुत ध्यान िे ते र्े ।
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1. िै दास एक भि कहव र्े । उनकी भक्ति भािना उनके पि ं में बड़ी सरल भािा में व्यि हुई है ।
'कबीर के समान िे वकसी पर व्यं ग्य नहीं करते।' उन्ें केिल अपने आत्मज्ञान की अवभव्यक्ति की वचंता
2. 'िै दास भी 'वै ष्णव िस' औि 'हपया'की बात कबीि की ी पद्धहत पि किते ैं , वजसमें तीन बातें
सिाु वधक महत्त्वपूणु हैं - िैष्णि भक्ति के अनुरूप प्रेमतत्त्व की प्रमु खता, िाम्पत्यभाि और जावत - पाुँ वत
क महत्त्व न िे ना । सगुण ‘राम' नाम का प्रय ग रै िास भी अन्य वनगुुण संत ं के समान करते हैं , ले वकन
रूपगुण लीलाधाम के संिभु में उनका मतभे ि हैं -
3. 'िाम ि ीमा कृष्ण किीमा' की एकता क रै िास भी मानते हैं । िे वनगुुण ईश्वर क अपना आराध्य
स्वीकार करते हैं -
4. अनु भव हकया गया ै हक जीव औि जगत हकसी साधािण व्यवस्र्ा से न ी िं बक्ति हकसी हवशेष
अलौहकक शक्ति से सिं चाहलत औि सहिय ैं । क ई ऐसी परम शक्ति अिश्य है ज शाश्वत है और
सबकी वनयंता है । इस शक्ति के पीछे का सत्य क्ा है? बड़े -बड़े ऋवि-मु वन, य गीजन ने इस प्रश्न का
उत्तर ख जने का प्रयास वकया है । परं तु उसका भे ि प्राप्त करना इतना आसान नहीं है । रवििास कहते
हैं -
‘अनत बाि त ह हधयान लगावा, मुहन जहन पै पाि नह िं पावा।’
उस परमात्मा का पार पाने में कई जन्म गं िाने पड़ते हैं और अनंतकाल तक ध्यान लगाना पड़ता है । ‘वसि
सनकाविक अंत न पाया, ख जत ब्रह्मा जन्म गं िाया। ’महान य गी भी उसके स्वरूप की र्ाह नहीं पा सकते ,
‘ज गीसर पािै नहीं तू गुण कर्न अपारा।’ वफर साधारण मनुष्य में इतना सामर््ु य कहाुँ वक िह उस
परमसत्ता का भे ि पा सके।
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5. िहवदास ने पिमात्मा के साकाि व हनिाकाि द न िं रूप स्वीकाि हकए ैं और अपनी िाणी में
अनेक थर्ान ं पर उन्ें अवभव्यि वकया है। रवििास की दृवि में परमात्मा वनराकार, वनगुुण, अनिे खे,
तकु से परे , ज्ञानातीत हैं , ले वकन सगुण साकार की भां वत आनंिमय और अवितीय भी हैं :
6. ईश्वि सवे श्वि सिंसाि में सब कुछ किने वाला ै , उसके वििय में क्ा कहा जाए, िह त गुण ं के
िह वनगुुण वनरपेक्ष हैं त िे ियालु , करुणामय और रक्षक भी हैं । रवििास िशरर् सुत राम क ईश्वर नहीं
मानते , ‘राम कहत सब जगत भुलाना स यह राम न ह ई’ परं तु िू सरी ओर, िह राजा राम की सेिा न कर
पाने पर िु ख व्यि करते हैं , ‘राजा राम की सेि न वकन्ीं।’ रवििास की ि न ं मनुःक्तथर्वत वनगुुण ि सगुण
ि न ं की स्वीकार क्ति प्रकट करती है ।
हनष्कषथ
अतुः सन्त कवि रै िास वनगुुण ब्रह्म के उपासक र्े । कबीर के समान समाज में व्याप्त कुरीवतय ,ं पाखंड ,ं
आड़म्बर ं पर उन् न
ं े कठ र प्रहार नहीं वकया परन्तु जावत प्रर्ा का विर ध वकया। रै िास के काव्य की भािा
सहज सरल है । डॉ. बच्चन वसंह के अनुसार " अगर कबीर के काव्य में ओज और प्रखरता र्ी त रै िास में
शाक्तन्त, संयम और विनम्रता र्ी, कबीर की विचारधारा के केन्द्र में वहन्िु ओ,ं मु सलमान ं का श वित, प्रतावड़त
िगु र्ा त रै िास के विचार ं में चमार ं और सिणु वहन्िु ओं का भे िभाि । " पाठशाला में अक्षर ज्ञान उन् न
ं े
नहीं प्राप्त वकया परन्तु अपने सहज ज्ञान क वजस तरह उन् न
ं े प्रस्तु त वकया, िह जन-जन के हृिय की
िाणी बन गया।
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प्रश्न11– गुरु नानक दे व की भक्ति स्वरूप का वर्थन करते हुए उनके ववचार ं का प्रवतपादन
कीविए।
उिि – परिचय
गुरु नानक दे व जी हसख धमथ के सिंस्र्ापक ने के सार्-सार् हसख धमथ के प्रर्म गुरु भी र्े । गुरु
नानक जी ने अपने वशष्य ं क कुछ ऐसे उपिे श और वशक्षाएं िी ज उनके अनुयावयय ं के बीच आज भी
काफी ल कवप्रय और प्रसां वगक है । गुरु नानक िे ि जी के अध्याक्तत्मक वशक्षा के आधार पर ही वसख धमु की
थर्ापना की गई र्ी। गुरु नानक क , बाबा नानक, नानकशा , गुरु नानक दे व जी आहद के नाम िं से
भी जाना जाता ै । इसके सार् ही उन्ें धावमु क निप्रितु नक माना जाता है । वसख धमु के प्रर्म गुरु ह ने
के सार्-सार् िे एक महान िाशुवनक, समाजसुधारक, िे शभि, धमु सुधारक, य गी आवि भी र्े।
गुरु नानक दे व जी की म ान हशक्षाओिं क 974 भजन िं के रूप में अमि हकया गया र्ा, हजसे हसख
धमथ के पहवत्र पाठ ‘गुरु ग्रिंर् साह ब’ के नाम से जाना जाता ैं । गुरु नानक जी बहुमु खी प्रवतभा िाले
व्यक्तित्व र्े । उन् न
ं े अिं धहवश्वास, मूहतथ पूजा आहद का कट्टि हवि ध हकया। इसके अलािा गुरु नानक जी
ने अपने जीिन में धावमु क कुर वतय ं के क्तखलाफ अपनी आिाज उठाई र्ी। गुरु नानक जी ने िु वनया के
क ने-क ने में वसख धमु का प्रचार करने के वलए मध्य पूिु और िवक्षण एवशया में यात्रा भी की र्ी, उन् न
ं े
अपने अनुयावयय ं क ईश्वर तक पहुं चने का रास्ता बताया।
गुरु नानक हसक्ख धमथ के मूल प्रवतथ क र्े । उनके बाि गुरु परम्परा में सभी गुरुओं ने उनकी विचारधारा
क ही श्रद्धा और विश्वासपू िुक आगे बढ़ाया इसीवलए उन सभी क नानक कहा गया। िशम गुरु ग विन्द
वसंह ने इस परम्परा क बिला इसीवलए गुरु ग विन्द वसंह जी की रचना आविग्रन् में समावहत नहीं हुई। िह
अलग से ही िशम ग्रन् नाम से जानी जाती है और उनका पन् 'खालसा पन्' (थर्ापना ििु - सन् 1696)
कहलाता है । गुरू नानक ने भगित् स्मरण क ही धमु का मु ख्य आधार बताया। धमु की व्याख्या, सभी
साधु -सन्त ं ने अपने-अपने अनुसार की है । लक्ष्य सभी का एक ही है - परमतत्व का ज्ञान अर्ाुत् परमानन्द
से वमलन।
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ईश्वर एक है ।
सिै ि प्रसन्न रहना चावहए। ईश्वर से सिा अपने क क्षमाशीलता मां गना चावहये।
विसंगवतयां र्ी ज समाज मतभे ि डाल रही र्ी। वजस समय वसख धमु की थर्ापना हुई उस समय धावमु क
संकीणुता बहुत ज़्यािा र्ी। नानक जी ने ‘सिुमहान, सत्य सत्ता’ की पूजा का वसद्धां त प्रवतपावित वकयाl
हसख का शाक्तब्दक अर्थ ता ै – ‘हशष्य’ अर्ाथत् हसख ईश्वि के हशष्य ैं l वसख परं परा के अनुसार,
वसख धमु की थर्ापना गुरु नानक (1469-1539) िारा की गई र्ी और बाि में नौ अन्य गुरुओं ने इसका
नेतृत्व वकया।
नाम जपना,
कीरत करना,
िंड छकना।
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वसख धमु सभी जावतय ं के वलये खुला हुआ र्ा, यह जावतय ं से मु ि धमु है l कुछ वििान ं का मत है वक –
वसख धमु , वहं िू और मु क्तस्लम धमों का वमवश्रत रूप है , ले वकन वसख धमु के रहतनामा में खालसा धमु क
शुद्ध धमु बताया गया है।
आडिं बि ,िं पाखिंड िं औि कुिीहतय िं का कड़ा हवि ध हकयाl जबरन र् पे जाने िाले रीवत–ररिाज ं जैसे
सतीप्रर्ा, बवलप्रर्ा, मू वतु –पूजा, पिाु प्रर्ा क उन् न
ं े अस्वीकृत वकयाl िे जबरन धमाांतरण के भी सख्त
क्तखलाफ र्े l उनका मानना र्ा वक सभी प्राणी एक समान हैं और क ई छ टा -बड़ा नहीं है , सभी ल ग ं क
अपने अनुरूप जीिन जीना चावहए। नानक जी ने मनु ष्य की एकता पर ज र विया क् वं क एकता में बहुत
शक्ति ह ती है । लिंगि शब्द क हनिाकािी दृहष्टक ण से हलया गया ै , लिंगि में सभी ल ग एक ी स्र्ान
पि बैठकि भ जन किते ैं l लं गर प्रर्ा पूरी तरह से समानता के वसद्धां त पर आधाररत है , ज आज भी
समाज के विभावजत खाई क भरती हैं ।
सत्य की ख ज में गुरु नानक ने अपने हशष्य िं के सार् दे श -हवदे श की यात्राएाँ की र्ी। गुरुनानक ने
भारत की चार ं विशाओं में सभी प्रमु ख थर्ान ं की यात्राएुँ की और अंत में ईरान, अफगावनस्तान, अरब और
इराक की यात्रा की र्ी। नानक के याद में बगदाद में एक मिंहदि बनाया गया र्ा औि उस मिंहदि पि
तु की भाषा में एक हशलालेख हलखा गया र्ा ज अभी भी मौजूद ै । नानक जी की आध्याक्तत्मक यात्रा
का मू ल उद्दे श्य ितु मान समय की सामावजक, राजनीवतक और धावमु क पररक्तथर्वतय ं क समझना र्ा
वजसके आधार पर नानक एक नए समाज का वनमाु ण कर सके। वसख धमु में नानक िे ि जी की यात्रा क
उिावसयाुँ कहा जाता है ।
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मध्ययुगीन समाज क प्रभावित करने िाले संत ं में गुरू नानक िे ि का नाम अत्यंत महत्वपूणु रहा है ।
कबीर और नानक के विचार ं में बहुत समानता िे खने क वमली है । कबीर वजन सामावजक बु राइय ं का
विर ध करते हैं उन्ीं सब बुराइय ं क िू र करने का प्रयास नानक िे ि भी करते हैं । कबीर बहुिे ििाि,
अितारिाि और मू वतु पूजा क नहीं मानते र्े , नानक िे ि कबीर की भां वत ही नहीं मानते र्े । नानक िे ि पूरी
तरह से वनराकारिािी र्े । नानक िे ि अितारिाि , बहुिे ििाि, मू वतु पूजा क नहीं मानते र्े , पूरी तरह से
वनराकारिािी र्े , कबीर प्रतीकात्मक भक्ति में व्यस्त रहने की बजाय व्यक्ति क मन से वनगुुण परम ब्रह्म
की उपासना करने पर ज र िे ते हैं । नानक आचरण की शुद्धता, प्रेम और भक्ति के सार् म क्ष पर ज़ र िे ते
हैं l मनुष्य क मध्य मागु अपनाने के सार् अपने गृहथर् कतु व्य ं के सार् आध्याक्तत्मक जीिन वनिाु हन करने
पर ज़ र िे ते हैं ।
भाितीय समाज में क्तस्त्रय िं क सहदय िं से अपमाहनत हकया गया, ीन भावना से दे खा गया औि भ ग
की वस्तु समझा गया ै l अवधकां श भारतीय संत ं ने भी नारी की वनंिा की है और उसक परमार्ु का
विर धी, नरक का प्रिेश िार बताया है । मध्यकाल के घ र स्त्री – वनंिक युग में गुरु नानक जी उनके महत्व
क समझते हुए कहते है वक–
उस नारी क बुरा वकस वलये कहा जा सकता है वजसने बड़े -बड़े राजाओं, महापुरुि ,ं महान संत ं क जन्म
विया है । नानक की मानें त वकसी रािर के विकास में पुरुि ं का वजतना य गिान है , उतना ही य गिान
क्तस्त्रय ं का भी रहा है । ज सिान नानक िे ि ने स्त्री क विया है ि शायि ही वकसी ने विया है ।
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हनष्कषथ
गुरु नानक एक समाज - चे ता धमु -सुधारक के रूप में हमारे समक्ष आते हैं । रािर-वनमाु ण के क्षेत्र में उन् न
ं े
ज भाि-भू वमका वनवमु त की, िह अवितीय है । गुरु नानक के कृवतत्व एिं व्यिहार-विचार में अि् भु त साम्य
है । उन् न
ं े अपने शीलाचरण, कमु ण्यता से तत्कालीन वनजीि - वनष्प्राण जन-जीिन में प्राण-प्रवतष्ठा की है ।
नानक के समकालीन अर्िा पू िुिती वकसी भी धमु - साधक ने अपने समय की राजसत्ता के िबाि -ं प्रभाि ं
का वचत्रण इतने खुलकर नहीं वकया, वजतना नानक ने। नानक अपने समाज और इवतहास की पररक्तथर्वतय ं
क अनिे खा नहीं कर सके। इसीवलए प्रिृवत्त - मागु में वनिृवत्त - तत्त्व की प्रवतष्ठा करके उन् न
ं े उसे जीिन
के वलए उपय गी बनाया।
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प्रश्न 12– सूफी काव्यिारा में िायसी के महत्त्व क स्पष्ट करते हुए उनकी भक्ति भावना पर प्रकार्
डावलए ।
उिि – परिचय
जायसी प्रेमाश्रयी काव्य धारा के प्रवसद्ध सूफी संत एिं कवि हैं । सूवफय ं का मू लतुः संबंध इस्लाम धमु के
बेशरा शाखा से है वजन्ें मस्तमौला फकीर भी कहा जाता र्ा। ये प्रचवलत परं परागत रूवढ़य ं के थर्ान पर
अपने इि क आचरण की पवित्रता एिं प्रेममागु से प्राप्त करने पर ज र िे ते हैं । इस रूप में जायसी की
साधना पद्धवत में सूवफय ं के इसी उपासना मागु का अनुसरण विखता है । वजसमें ईश्वर क प्रेवमका तर्ा
साधक क प्रेमी मानते हुए प्रेम मागु से उसकी उपासना की जाती है । इसी साधना क केंद्र में रखकर
प्रतीकात्मक चररत्र ं िारा ज प्रेमाख्यानक सावहत्य इन कविय ं के िारा वलखा गया िही आगे चलकर सूफी
काव्यधारा के रूप में विकवसत हुआ और जायसी उसके सबसे प्रधान महाकवि हैं ।
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मसलक मोहम्मद जायसी द्वारा 16वीं सदी में रसचत पद्मावत ससंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती और
सचत्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रणयगार्ा है । कर्ा का सद्वतीय भाग ऐसतहाससक है , सजसमें सचत्तौड़ पर
अलाउद्दीन स़िलजी के आक्रमण और 'पद्मावती के जौहर' का सजीव वणथन है । 'पद्मावत' मसनवी शैली
जायसी ने ‘पद्मावत’ में सवसभन्न जासतयों का यर्ास्र्ान उल्लेख सकया है । मध्ययुग में समाज ब्राह्मण,
क्षसिय, वैश्य और अन्य वणों में बाँटा हुआ र्ा और ब्रह्मणों की श्रेष्ठता तत्कालीन समाज में भी पाई जाती
र्ी।
जायसी का पद्मावत तत्कालीन राजपूत समाज की शासन पद्सत, प्रर्ाओं, रीसत-ररवाज़ों, सववाह-
यह काव्य मध्य युग में राजपूत मसहलाओं में प्रचसलत ‘जौहर’ की परं परा की जानकारी दे ता है ।
यह काव्य तत्कालीन नारी की सुंदरता के सवलक्षण वणथन के सार्-सार् उसमें आत्म-सम्मान की रक्षा के
भाव तर्ा उसके साहस को भी प्रदसशथत करता है ।
एक मु क्तिम होते हुए भी जायसी ने पद्मावत में तमाम सहं दू परं पराओं और त्यौहारों का उल्लेख सकया
है । यह तत्कालीन समाज में सहं दू-मु क्तिम सौहार्द्थ का भी पररचायक है ।
हनष्कषथ
इस प्रकार हम भक्तिकालीन सावहत्य की एक प्रमु ख प्रिृवत्त क जायसी एिं उनके सावहत्य के माध्यम से
िे ख सकते हैं। एक तरफ जहाुँ उनका जीिन अनेक वििमताओं का चु ना हुआ उिाहरण र्ा त िहीं िू सरी
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ओर साधना एिं सावहत्य के क्षे त्र में उनका समपुण, गंभीरता एिं सरसता न केिल अवितीय बक्ति विलक्षण
र्ी। अपनी सावहक्तत्यक य गिान के कारण िे सिा स्मरणीय रहें गे।
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प्रश्न 13 – वनगुथर् भक्ति परं परा के अंतगथत संत नामदे व की भूवमका क स्पष्ट कीविए।
उिि – परिचय
नामदे व भाित के प्रहसद्ध सिंत र्े । इनके समय में नार् और महानुभाि पंर् ं का महारािर में प्रचार र्ा।
भि नामिे ि महाराज का जन्म 26 अकटु बर 1290 में महारािर के सतारा वजले में कृष्णा निी के वकनारे
बसे नरसीबामणी नामक गाुँ ि में एक वशंपी वजसे छीपा भी कहते है के पररिार में हुआ र्ा। नामदे व
बािकिी सिंप्रदाय से जुड़े हुए र्े । नामिे ि की मराठी भािा में 'अभं ग' ग्रंर् है और वहं िी में रवचत रचनाएुँ
गुरु ग्रंर् साहब में संग्रवहत हैं । नामिे ि की वहं िी में रवचत सगुण भक्ति के पि ं की भािा ब्रज है । िहीं वनगुुण
पि ं की भािा नार् पंवर्ओं िारा गृहीत खड़ीब ली या सधु क्कड़ी भािा है ।
भक्तिकाल में सिंत कहव उन कहवय िं के हलए प्रयु ि हुआ ज वनगुुण भक्ति या ज्ञानाश्रयी शाखा से
संबंवधत हैं । िहीं वनगुुण पि ं की भािा नार् पंवर्ओं िारा गृहीत खड़ीब ली या सधुक्कड़ी भािा है ।
म ािाष्टरीय सिंत पििं पिा के अनु साि इनकी हनगुथण भक्ति र्ी, वजसमें सगुण वनगुुण का क ई भे िभाि
नहीं र्ा। उन् न
ं े मराठी में कई सौ अभं ग और वहं िी में सौ के लगभग पि रचे हैं । इनके पि ं में हठय ग
ि न ं हैं ।
सिंत नामदे व का म ािाष्टर में व ी स्र्ान ै , ज भि कबीिजी अर्वा सूिदास का उििी भाित में
ै । उनका सारा जीिन मधु र भक्ति-भाि से ओतप्र त र्ा। हवट्ठल-भक्ति भि नामदे वजी क
हविासत में हमली। उनका संपूणु जीिन मानि कल्याण के वलए समवपुत रहा। मू वतु पूजा, कमु कां ड,
जातपात के वििय में उनके स्पि विचार ं के कारण वहन्दी के वििान ं ने उन्ें कबीरजी का आध्याक्तत्मक
अग्रज माना है । िास्ति में श्री गुरु सावहब में संत नामिे ि की िाणी अमृ त का िह वनरं तर बहता हुआ
झरना है , वजसमें संपूणु मानिता क पवित्रता प्रिान करने का सामथ्यु है ।
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53
नामदे व के साह क्तत्यक य गदान पर दृविपात करें त हम पाते हैं वक वसख ं के गुरुग्रंर् साहब में भि
नामिे ि जी की मु खबानी' नाम से 61 पि वमलते हैं । इसके अवतररि विवभन्न थर्ान ं से प्राप्त
हस्तवलक्तखत प वर्य ं के आधार पर वहं िी के 232 पि और 13 साक्तखयाुँ वमलती हैं । 'वहं िी क मराठी
संत ं की िे न' पुस्तक के ले खक विनय म हन शमाु कहते हैं - "यह सत्य है वक कबीर के समान नामिे ि
की वहन्दी रचनाएुँ प्रचु र मात्रा में नहीं वमलती, परन्तु ज कुछ प्राप्त हैं उनमें उत्तर भारत की संत परं परा
का पूिु आभास वमलता है और उनके परिती संत ं पर वनिय ही उनका प्रभाि पड़ा है वजसे उन् न
ं े
मु ि कंठ से स्वीकार वकया है । ऐसी िशा में उन्ें उत्तर भारत में वनगुुण भक्ति का प्रित्तु क मानने में
हमें क ई वझझक नहीं ह नी चावहये ।
नामदे व के लगभग द जाि अभिंग यानी पद उपलब्ध ैं ज 'नामदे वागार्ा' में सिंगृ ीत ैं ।
उन् न
ं े कबीर की भाुँ वत वभन्न-वभन्न वििय ं पर अभं ग रचे ज मु ख्यतुः इन िगों में विभावजत वकए गए हैं -
नामदे व की गार्ा में कृष्णचरितपिक अभिंग पाये जाते ैं । इसके सार् ही इन् न
ं े संत ज्ञानेश्वर के
चररत्र क बड़े ही भक्तिभाि से 'आवि', 'समावध' और 'तीर्ाु िली' नाम से लगभग साढ़े तीन सौ अभं ग ं में
शब्बद्ध वकया है । िस्तु तुः ज्ञानेश्वर के वशष्य विस बा र्े और विस बा के वशष्य र्े नामिे ि ।
हनष्कषथ
नामिे ि समस्त उत्तर भारत की अखंड संत-परं परा के आवि पुरुि र्े । सचमु च िे उत्तर भारत के
सां स्कृवतक एिं धावमु क जागरण के आद्य प्रणेता र्े । अपने उपिे श ं से उन् न
ं े कबीर, नानक आवि संत ं का
मागु प्रशस्त कर विया । अपनी भक्ति रस भीनी िाणी से संत नामिे ि ने ज अपूिु सामावजक, सावहक्तत्यक
एिं सां स्कृवतक सेिा की है , उसके वलए समस्त मानि जावत उनकी वचरऋणी रहे गी। समग्रतुः विठ्ठल भि
नामिे ि एकां वतक िृवत्त के सगुण पासक भि मराठी समाज में त प्रवसद्ध हुए ही सार् - सार् नाम - स्मरण
की भक्ति यानी वनगुुण भि बनकर िे उत्तर भारत में भी बड़े प्रवसद्ध हुए।
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प्रश्न 14– मानव मूल्य ं का अर्थ बताइए। मूल्य पररवतथ न ं के कारर् क बताते हुए इससे समाि पर
पड़ने वाले प्रभाव ं की चचाथ कीविए।
उिि – परिचय
मानव मूल् एक ऐसी आचाि-सिंह ता या सद् गुण िं का समू ै हजसे मानव अपने संस्कार ं तर्ा
पयाु िरण के माध्यम से अपनाकर अपने वनधाु ररत लक्ष्य ं की प्राक्तप्त हे तु अपनी जीिन-शैली का वनमाु ण
करता है तर्ा अपने व्यक्तित्व का विकास करता है ।
मानवीय मूल् ी व कड़ी ै ज व्यक्तिगत अनु भव िं औि हनणथय ,िं उद्दे श्य िं तर्ा कायों क
ज ड़ता ै । सामावजक तर्ा राजनीवतक जीिन क समझने में भी मानिीय मू ल्य इसी प्रकार की
भू वमका का वनिाु ह करते है। मू ल्य व्यक्ति ि समाज के व्यिहार ं क वनयंवत्रत ि सही मागु की ओर
मानव मूल्, समाज द्वािा स्र्ाहपत वे मान्यताएाँ ैं हजनमें ल क वहतकारी भािना समावहत रहती है ।
ये मू ल्य मनुष्य क उसके पररिार, समाज, रािर और व्यक्तिगत रूप से भी प्राप्त ह ते हैं। मू ल्य मानि
जीिन के वलए साध्य भी हैं और साधन भी । साध्य इस रूप में वक मनुष्य का जीिन मू ल्य ं के वबना
वनरर्ु क है । मानि जीिन की गररमा और अर्ु उसे इन मू ल्य ं िारा ही वमलती है इसीवलए एक बेहतर
मनुष्य बनने की यात्रा में इन मू ल्य ं क हमें अपने जीिन में लगातार बनाये रखना चावहए।
भाितीय धमथ औि सिंस्कृहत के अनु साि मनुष्य जीवन का ध्येय धमथ, अर्थ, काम औि म क्ष ै।
मानि जीिन की लक्ष्य प्राक्तप्त भी इन मू ल्य ं से ही संभि है । ये मू ल्य जीिन के औवचत्यपूणु व्यिहार से
जुड़े हैं । एक व्यक्ति के तौर पर कई बार ज हमें अपने वलए सबसे बेहतर लगता है , ह सकता है वक
िह पररिार, समाज और रािर के वलए बेहतर न ह । ऐसे समय में मानि मू ल्य मनुष्य क उस िां वछत
और औवचत्यपूणु व्यिहार और वचं तन के वलए प्रेररत करते हैं वजससे सबके वहत जुड़ें ह ते हैं । स्पि है
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भू मंडलीकरण आवि आधु वनक जीिन शैली की आप-धापी और बाजारिाि के इस युग में मानि मू ल्य ं क
िरवकनार करके आगे बढ़ने के वलए इन मू ल्य ं की उपेक्षा भी बढ़ गई है । भू मंडलीकरण की िु वनया में
आपसी संबंध उत्पािक और उपभ िा तक सीवमत रह गए हैं ।
भाितीय समाज औि सिंस्कृहत में कुछ मूल् शाश्वत ैं । जैसे; सत्य, प्रेम, वमत्रता, अवहं सा, िया, त्याग,
श्रद्धा, करुणा, पर पकार, न्याय, सत्संगवत आवि ले वकन कुछ पुराने मू ल्य अप्रासंवगक ह कर समाप्त भी
ह जाते हैं । जैसे पहले हमारे समाज में सती प्रर्ा, बाल वििाह, िहे ज़ प्रर्ा का प्रचलन र्ा ले वकन अब ये
अप्रासंवगक ह चु के हैं ।
में आपसी लगाि, आत्मीयता, स्नेह, बुढ़ापे में बच्च ं का सहय ग जैसे संकट उत्पन्न ह ग
ं े। एक सबसे बड़ा
संकट त प्रकृवत के विनाश का हम झेल ही रहे हैं । मनुष्य और प्रकृवत का संबंध अवभन्न और अटू ट है
पर मनुष्य अपने लालच के चलते सारी संपिा पा ले ने की ह ड़ में लगातार उसका ि हन कर रहा है ।
आत्म-संत ि, संतुवि जैसे मानि मू ल्य ं की उपेक्षा करते हुए उन्ें 'र् ड़ा और विश कर ' से थर्ानातं ररत
मू ल्य विकास की क्तथर्वत सामावजक आवर्ु क एिं राजनैवतक विकास क सूवचत करती है । अत: मू ल्य का
महत्त्व प्रत्ये क क्षे त्र में स्वीकार वकया जाता है। मू ल्य ं के महत्त्व क वकसी भी स्तर पर अस्वीकार नहीं
वकया जा सकता।
समान आचार-विचार, व्यिहार, मान्यताओं, रीवत-ररिाज ं िाले ल ग वमलकर समाज का वनमाु ण करते
हैं ।
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सामावजक जीिन में ह रहे तीव्र पररितु न के फलस्वरूप उत्पन्न चु नौवतय ं से वनपटने के वलये तर्ा
निीन एिं प्राचीन के मध्य स्वथर् संबंध बनाने में नैवतक मू ल्य सेतु का कायु करते हैं।
मीवडया, सामावजक समू ह ं से िाताु लाप, सह-वशक्षा विद्यालय आवि में समाज के नैवतक मापिं ड,
सामावजक गवतशीलता, पररितु न जैसे विचार ं का प्रभाि पड़ता है ।
हनष्कषथ
मानि मू ल्य ं के वबना मानि जीिन की कल्पना अधू री है । मानि सभ्यता का प्रमु ख गुण भी सह- अक्तस्तत्व
की धारणा पर वटका है । मानि मू ल्य ं का व्यक्ति के आचरण, व्यक्तित्व तर्ा कायों पर स्पि प्रभाि पड़ता
है । मू ल्य मनुष्य के आं तररक भाि ह ते हैं , ज उसके व्यक्तित्व, विचार प्रवतवबंवबत ह ते हैं। मू ल्य अमू तु ह ते
हैं , वजन्ें सीखा जा सकता है । इस प्रकार मानि मू ल्य ऐसी आचार सवहं ता है वजसे मानि अपने पररिेश,
संस्कार ,ं वशक्षा, समाज तर्ा पयाु िरण से अपनाकर लक्ष्य प्राक्तप्त हे तु अपनी जीिन शैली, नैवतकता और
आचरण का विकास करता है । मानि मू ल्य ं में संपूणु सृवि और मानि जावत के वहत वनवहत हैं । मानिीय
मू ल्य सािुजवनक वहत की ओर अग्रसर ह ते हैं ।
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उिि –
परिचय- आण्डाल, (तवमल) िवक्षण भारत की सन्त मवहला र्ीं। िे बारह आलिार सन्त ं में से एक हैं। उन्ें
िवक्षण की मीरा कहा जाता है। आं डाल िवक्षण भारत की प्रवसद्ध सन्त मवहला र्ीं। िे िैष्णि आलिार सन्त ं
में एकमात्र नारी र्ीं। उन्ें "िवक्षण की मीरा” कहा जाता है । उनका एक प्रवसद्ध नाम 'कौिे ' भी है । तवमल
किवयत्री आं डाल की ि न ं काव्य रचनाएुँ - 'वतरुप्पिै' और 'नाक्तच्चयार वतरुम वि' आज भी काफ़ी ल कवप्रय
हैं । इनका पालन-प िण मिु रा के विष्णुवचत्र नामक एक विष्णु भि ब्राह्मण के घर में हुआ।
जीिनिृत्त की भाुँ वत जन्मकाल एिं उपक्तथर्त समय क ले कर भी वििान ं में मतवभन्नता है । हालाुँ वक कुछ
मान्य मत ं में श्री िाघवय्यिं गि एविं मीिा के सार् आिं डाल पि तु लनात्मक श ध कायथ किने िाले श धार्ी
डॉ. एन. सुन्दरन इनकी जन्मवतवर् 715 ई. के आसपास मानते हैं जबवक 'वहं िी सावहत्य के इवतहास' में
आचायु रामचं द्र शुक्ल ने वलखा है - “िवक्षण में आं डाल इसी प्रकार की एक प्रवसद्ध भाि ह गयी हैं वजनका
जन्म संित् 773 में हुआ र्ा।” अतुः शुक्ल जी ने भी इनका समय 716 ई. के आसपास ही माना है।
अिं डाल क पेरियाझवाि द्वािा लाया गया र्ा, ज भगवान हवष्णु के एक सच्चे भि र्े । व ि हदन
पेरुमल क माला प नाते र्े । ऐसा माना जाता है वक एक विन, अंडाल ने माला क भगिान क समवपुत
करने से पहले पहना र्ा। श्रीििं गनार्न (भगवान हवष्णु) ने अिं दाल से हववा हकया औि ज बाद में
भगवान के सार् हवलय गई।
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ईसा की 9िी शताब्ी मे िवक्षण भारत मे एक अत्यंत प्रवसद्ध संत-किवयत्री का जन्म हुआ| इनका नाम
र्ा आं डाल| आिं डाल क दहक्षण भाित की मीिा भी क ा जाता र्ा। व भी मीिा बाई की ति ी
भगवान श्री कृष्ण की उपाहसका र्ी। ऐसा कहा जाता है की आं डाल भू िेिी की अितार र्ी| उन् ने
भी मीराबाई की तरह श्री कृष्ण पर अनेक कविताए रची।
िवक्षण भारत मे मिु रा नाम का शहर है । इसे िवक्षण मर्ु रा कहते है | यहा विष्णुवचत्त नामक विष्णु भि
ब्रां हण रहते र्े । िह श्रीकृष्ण की सेिा मे अपना अवधंकाश समय वबताते र्े | विष्णुवचत्त ने एक सुंिर
फुलिारी लगा रखी र्ी, वजसके फूल से िह श्रीकृष्ण की पुजा करते र्े | उनके क ई संतान नही र्ी| इस
कारण विष्णुवचत्त और उनकी पत्नी िु खी रहते र्े | संतान के वलए ि न ं प्रार्ु ना करते र्े |
कौिे बचपन से ही श्रीकृष्ण के अत्यं त प्रेम करती र्ी| िह श्रीकृष्ण की पूजा वकए वबना भ जन नही
करती र्ी| िह पढ़ने वलखने मे भी बहुत ह वशयार र्ी| बचपन से ही श्रीकृष्ण के बारे मे सुंिर कविताए
रचकर सुनाती र्ी| लड़की की इस अपार कृष्ण भक्ति क िे खकर माुँ बाप फुले न समाते र्े |
जब कौिे बड़ी हुई, िह र ज अकेले बैठकर घंट श्रीकृष्ण का ध्यान वकया करती| कभी अपनी बनाई
विष्णुवचत्त र ज श्रीकृष्ण क पहनाने के वलए चार-पाुँ च मालाए तै यार वकया करते र्े | कौिे वछपकर इन
मालाओ क खुि पहन ले ती और आईने मे िे खकर आनंवित ह ती| वफर उसे चु पचाप उतारकर रख
िे ती र्ी| विष्णुवचत्त क यह नही मालू म र्ा की कौिे माला पहनकर उसे जूठा कर िे ती है |
एक र ज जब कौिे भगिान की माला पहन रही र्ी, तब विष्णुवचत्त िहा आ गए, अपनी बेटी क माला
पहनता िे ख उसे मना वकया और नया माुँ ला बनाकर मं विर ले गए| जब िह नई मालाए भगिान क
पहनाने लगे तब टु कडे टु कड़े ह कर वगरने लगी| यह िे खकर विष्णुवचत्त डर गए| िह समझे की भगिान
उन पर नाराज ह गए है |
इतने मे विष्णुवचत्त क एक आिाज सुनाई िी, “मे रे भि! तु म्हारी बेटी कौिे की पहनी हुई माला ही मैं
पहनुंगा” | इस घटना के बाि विष्णुवचत्त और उनकी पत्नी कौिे क िे िी का रूप मानने लगे इधर कौिे
की भिी बढ़ गई| िह र ज सिे रे उठ नहा ध कर पूजागृह मे जाती और श्रीकृष्ण पर भक्ति भरी
कविताए रचकर गाती| इस तरह उन् ने अनवगनत कविताए रची| इन कविताओ क तवमल भािा मे
“आं डाल पासुरंगल” कहते है | इन कविताओ के भाि क िे खकर सभी विष्णुभि िं ग रह जाते र्े |
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एक रात भगिान श्री कृष्ण ने विष्णुवचत्त क स्वप्न मे िशुन विए और कहा – तु म्हारी ज पुत्री है िह मे री
लक्ष्मी है | तु म्हारी भक्ति मे अधीन ह कर मैं ने उसे तु म्हारे यहा भे ज रखा है | मे रे िे िी जल्द ही मे रे पास
िापस आ जाएगी|
उधर कौिे ने भी उसी रात एक स्वप्न िे खा की उसका श्रीकृष्ण के सार् वििाह ह गया है |
कौिे क श्रीकृष्ण प्रेम की लत लग चु की र्ी| तभी विष्णुवचत्त कौिे क ले कर िैष्ण तीर्ु की यात्रा पर
वनकले और यात्रा के िौरान िह श्री रं गम पहुचे | कहा जाता है की भगिान श्री रं गनार् की मू वतु क
िे खते ही कौिे प्रेम विभ र ह गए और मू वतु के वनकट चली गई| उसी समय ल ग ने िे खा की मू वतु मे से
एक ते ज रौशनी वनकली, वजससे सभी की आुँ खे चकचौंध ह गई| पलक झपके ही कौिे ऐसे लापता ह
गई जैसे की िह मू वतु मे समा गई ह |
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60
परिचय-
भारत के संत कसव कबीर और दसक्षण भारत के संत कसव सतरुवल्लुवर के समय में लगभग दो हजार वषथ
का अंतराल है , सकंतु इन दोनों महाकसवयों के जीवन में अद् भु त साम्य पाया जाता है । दोनों के माता-सपता ने
जन्म दे कर इन्हें त्याग सदया र्ा, दोनों का लालन-पालन सन:संतान दं पसतयों ने बड़े स्नेह और जतन से सकया
र्ा । व्यवसाय से दोनों जुलाहे र्े । दोनों ने साक्तत्वक गृहस्र् जीवन की साधना की र्ी।
1. हतरुवल्लुवि क दहक्षण का कबीि क ा जाता ै क् हिं क कबीि एविं इनके जीवन में आश्चयथजनक
समानता ै । न केवल जीवन बक्ति हवचाि िं में भी। सिुप्रर्म यवि जीिन पररचय की बात करें त
वजस प्रकार कबीर के संबंध में लहरतारा तालाब प्रकरण के सार्- सार् उनके िास्तविक माुँ -बाप के
थर्ान पर पावलत माता-वपता का नाम नीरू - नीमा ही पता चल पाता है , ठीक उसी प्रकार संत
श्रवमक िगु से संबंवधत र्ीं। इनके कुल सात पुत्र- पुवत्रयाुँ हुईं वजसमें संत वतरुिल्लुिर सबसे छ टे र्े ।
यह प्रचवलत है वक इस िं पवत ने वकसी कारणिश ऐसी प्रवतज्ञा की र्ी वक अब ज संतान ह गी उसे जहाुँ
िह पैिा ह गी ईश्वरावपुत कर िें गे। शताु नुसार जन्म के समय ही न चाहते हुए माुँ - बाप क इन्ें त्यागना
पड़ा। इसके पिात कबीर के समान ही एक वनुःसंतान जुलाहा िम्पवत्त की वनगाह इन पर पड़ी। ईश्वरीय
कृपा समझकर ि न ं ने न केिल बच्चे क स्वीकारा बक्ति बड़े यत्न और लाडपूिुक बालक क पाला।
2. सिंत हतरुवल्लुवि दहक्षण भाित के सवथ धमथ समभाव िखने वाले इसी प्रवृ हि के तहमल सिंत कहव
ैं । यवि इनके जीिन िृत्त की बात की जाए त यह वनुःसंक च कहा जा सकता है वक वजस प्रकार
कावलिास, कबीर, तु लसी, सूर आवि का प्रामावणक जीिनिृत्त ज्ञात नहीं ह पाता ठीक उसी प्रकार से
संत वतरुिल्लुिर का भी।
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3. कहठन साधना से ध्यान, य ग, हसक्तद्धयााँ आहद प्राप्त की िं हकिंतु हजस प्रकाि एक सीमा के पश्चात
ज ग तु म्हारा' ठीक उसी प्रकार कुछ समय बाि वतरुिल्लुिर का भी जी उचट गया और उन्ें यह ब ध
हुआ वक संसार या गृहथर्ी में रहकर ही सच्ची सेिा एिं साधना की जा सकती है ।
4. हववा के बाद हतरुवल्लुवि अपनी पत्नी के सार् गााँव मयलापुि में आकि ि ने लगे। हजस प्रकाि
कबीि ने अपने जीहवक पाजथन के हलए ल ई के सार् अपने पैतृक व्यिसाय बुनकरी जीिन क
अपनाया ठीक िैसे ही उनसे पूिु 'झीनी - झीनी बीनी चिररया' के तजु पर वतरुिल्लुिर ने आजीविका
हे तु अपने पैतृक व्यिसाय बुनाई के काम क आरं भ वकया। िासुकी जब तक जीवित रहीं, बड़े आनंि
से उनका गाहु थर् जीिन सािे , सहज एिं सरल तरीके से व्यतीत हुआ वकंतु िासुकी की मृत्यु ने
5. हजस प्रकाि कबीि ने साक्तखय िं में द े के माध्यम से आाँ ख िं दे खी जीवन-जगत की प्रभावी बातें
क ी िं ैं , ठीक वै से ी सिंत हतरुवल्लुवि ने कुिल में। इसीवलए डॉ. कलाम ने अपने साक्षात्कार में
एिं तवमल जावत की सम्यक समझ इस ग्रंर् के वबना नहीं की जा सकती। चक्रिती राजग पालाचारी का
भी इसके संबंध में यही मानना र्ा- "तवमल जावत की अंतरात्मा और संस्कार ठीक तरह से समझने के
वलए 'वतरुक्कुरल' का पढ़ना आिश्यक है ।
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परिचय-
नरसी मे हता हर समय कृष्ण की भक्ति में तल्लीन रहते र्े । छु आछूत वे नहीं मानते र्े और हररजनों की
बस्ती में जाकर उनके सार् कीतथ न सकया करते र्े । इससे सबरादरी ने उनका बसहष्कार तक कर सदया र्ा,
पर वे अपने मत से सडगे नहीं।
चिंडीदास की भक्ति
चं डीिास संभित: चौिहिीं-पंद्रहिीं शताब्ी के बीच पैिा हुए। चं डीिास एक तां वत्रक िैष्णि र्े और
वकसी गां ि में बाशुली िे िी के मं विर में पुजारी र्े । हालाुँ वक िह कब पैिा हुआ, कहां रहता र्ा- इसी की
जानकारी ल ग ं क नहीं ह ती। उनके जीिन प्रसंग ं की जानकारी र् ड़ी- बहुत उनके गीत ं से ही
चं डीिास के गीत ं की ल कवप्रयता के कारण उनके गीत ं से वमलते -जुलते गीत ं की रचना प्रारं भ हुई,
वजससे कवि की सुस्पि पहचान थर्ावपत करने में कवठनाई ह ती है । चं डीिास राधकृष्ण लीला संबंधी
सावहत्य का आविकवि माने जाते हैं। इनके रामी ध वबन क संब वधत प्रेमगीत मध्य काल में बेहि
ल कवप्रय र्े ।
उन् न
ं े वनम्न जावत की रामी के प्रवत अपने प्रेम क सबके सामने उि् -घ वित कर परं परा क त ड़ा र्ा।
प्रेमी उनके संबंध क विव्य प्रेवमय ,ं श्री कृष्ण और राधा के आध्याक्तत्मक वमलन के समान पवित्र मानते
र्े ।
इनकी पिािली क प्राय: कीतु वनयाुँ ल ग गाया करते र्े । इसके पिो का सिुप्रर्म आधु वनक संग्रह
जगद्बं धु भद्र िारा “महाजन पिािली” नाम से वकया गया। इस संग्रह ग्रंर् की वितीय संख्या में चं डीिास
नामां वकत ि सौ से अवधक पि संग्रहीत हैं। यह संग्रह सन् 1874 ई. में प्रकावशत हुआ र्ा।
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14िीं शती के मध्यकाल में िैष्णि सावहत्य की धारा का पुनुः आविभाु ि हुआ। इस युग के प्रमुख
वै ष्णव कहवय िं में चिंडीदास, हवद्यापहत, सुकृहत वासु झा आहद का नाम हलया जा सकता ै । इनमें
से बडु चं डीिास, विद्यापवत, मलाधर बसु ने कृष्णकाव्य की रचना की जबवक कृवतबास ओझा ने
रामायण की रचना की। इनमें चं डीिास कृत ‘श्रीकृष्ण कीतु नमाला' बां ग्ला िैष्णि सावहत्य का आरं वभक
ि प्रमु ख ग्रंर् हैं । चं डीिास कृत श्रीकृष्ण कीतु न के वििय में वििान ं में पयाु प्त मतभे ि है । चं डीिास ने
इसका आििं भ कृष्ण जन्म से ता ै और उसका अंत कृष्ण-विय ग के उपरां त राधा के करुण
विलाप से ह ता है । उन् न
ं े राधा और कृष्ण क मानि जगत की स्त्री और पुरुि के रूप में ही अवधक
वचवत्रत वकया है । िान खंड में कृष्ण िारा िािी की सहायता से मागु िान या मागु कर के रूप में राधा
का समपुण विखाया गया है । न खा खंड में मल्हार रूप में कृष्ण राधा क नाि में बैठाकर निी के बीच
िारा राधा के आिागमन पर र क ि िािी के प्रयास िारा इस बंधन से मु क्ति की बात िशाु ई गई है ।
िृंिािन खंड में राधा की ईष्याु क विखाया गया है। कालीिमन में कावलया मिु न का, यमु ना खंड में
राधा-कृष्ण की जलक्रीड़ा का हरण खंड में कृष्ण िारा राधा िह उसकी सक्तखय ं के िस्त्र के हरण का,
िंशी खंड में राधा िारा कृष्ण की िंशी चु राने का तर्ा राधा वबरहा खंड में विय ग में राधा के करुण
चिंडीदास ने िाधा-कृष्ण प्रेम में स हजया- पिहकया प्रेम क हमलाकि उसे हदव्य प्रेम की भूहम
तक पहुाँ चा हदया ै । कृष्ण के प्रेम की प्रधान अनुभूवत ने राधा क जगत से विरि और मे घ की शुभ
मयूर कंठ में कृष्ण िणु के प्रवत आसि कर विया है। राधा में प्रेम के इस उिय का स्त्र त और रूप
वजतना अलौवकक है , कवि चं डीिास उतनी ही अलौवकक अनुभूवत से उसे व्यि भी वकया है । िस्तु तुः
यह संपूणु काव्य राधा-कृष्ण के प्रेम का काव्य कहा जा सकता है ।
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निसी मे ता की भक्ति
नरसी मे हता महान कृष्ण भि र्े । कहा जाता है वक भगिान श्री कृष्ण ने उनक 52 बार साक्षात िशु न विए
र्े । नरसी मे हता का जन्म जूनागढ़, गुजरात मे हुआ र्ा। इनका सम्पू णु जीिन भजन कीतु न और कृष्ण की
म ान कृष्ण भि निसी मे ता का जन्म गु जिात प्रािंत के जूनागढ़ श ि में ब्राह्मण कुल में हुआ र्ा।
बचपन में ी इन्हें साधु ओ िं की सिंगहत हमली, हजसके प्रभाव से इनमें भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का
उदय हुआ। धीरे -धीरे भगिान श्री कृष्ण की भक्ति और भजन-कीतु न में ही इनका अवधकां श समय व्यतीत
ह ने लगा।
नरसी मे हता बचपन से ही भक्ति में डूबे रहते र्े । आगे चलकर उन्ें साधु संत ं की संगत वमल गई, वजसके
कारण िे पूरे समय भजन कीतु न वकया करते र्े । वजस कारण घर िाले उनसे परे शान र्े । घर के ल ग ं ने
इनसे घर-गृहथर्ी के कायों में समय िे ने के वलए कहा, वकन्तु नरसी जी पर उसका क ई प्रभाि न पड़ा।
एक विन इनकी भौजाई ने इन्ें ताना मारते हुए कहा वक ऐसी भक्ति उमड़ी है त भगिान से वमलकर क् ं
नहीं आते ? इस ताने ने नरसी पर जािू का कायु वकया। िह उसी क्षण घर छ ड़कर वनकल पड़े और
जूनागढ़ से कुछ िू र एक पुराने वशि मं विर में बैठकर भगिान शंकर की उपासना करने लगे उनकी
उपासना से प्रसन्न ह कर भगिान शंकर प्रकट हुए वजसपर भगत नरसी ने भगिान शंकर से कृष्णजी के
िशुन करने की इच्छा प्रकट की। उनकी इच्छा की पूवतु हे तु भगिान शंकर ने नरसीजी क श्री कृष्ण के
िशुन करिाये। वशि इन्ें ग ल क ले गए जहाुँ भगिान श्रीकृष्ण की रासलीला के िशुन करिाये। भगत
मे हता रासलीला िे खते हुए इतने ख गए की मशाल से अपना हार् जला बैठे। भगिान कृष्ण ने अपने स्पशु
से हार् पहले जैसा कर विया और नरसी जी क आशीिाु ि विया।
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एक बार नरसी मे हता की जावत के ल ग ं ने उनसे कहा वक तु म अपने वपता का श्राद्ध करके सबक भ जन
कराओ। नरसी जी ने भगिान श्री कृष्ण का स्मरण वकया और िे खते ही िे खते सारी व्यिथर्ा ह गई। श्राद्ध
के विन कुछ घी कम पड़ गया और नरसी जी बतु न लेकर बाजार से घी लाने के वलए गए। रास्ते में एक संत
मं डली क इन् न
ं े भगिान नाम का संकीतु न करते हुए िे खा। नरसी जी भी उसमें शावमल ह गए. कीतु न में
यह इतना तल्लीन ह गए वक इन्ें घी ले जाने की सुध ही न रही। घर पर इनकी पत्नी इनकी प्रतीक्षा कर
रही र्ी।
भि ित्सल भगिान श्री कृष्ण ने नरसी का िेश बनाया और स्वयं घी ले कर उनके घर पहुं चे। ब्राह्मण भ ज
का कायु सुचारू रूप से सम्पन्न ह गया। कीतु न समाप्त ह ने पर काफी रावत्र बीत चु की र्ी। नरसी जी
सकुचाते हुए घी ले कर घर पहुं चे और पत्नी से विलम्ब के वलए क्षमा मां गने लगे। इनकी पत्नी ने कहा,
‘‘स्वामी! इसमें क्षमा मां गने की कौन-सी बात है ? आप ही ने त इसके पूिु घी लाकर ब्राह्मण ं क भ जन
कराया है ।’’
निसी जी ने क ा, ‘‘भाग्यिान! तु म धन्य ह . िह मैं नहीं र्ा, भगिान श्री कृष्ण र्े . तु मने प्रभु का साक्षात
िशुन वकया है । मैं त साधु -मं डली में कीतु न कर रहा र्ा। कीतु न बंि ह जाने पर घी लाने की याि आई
और इसे ले कर आया हं ।’’ यह सुन कर नरसी जी की पत्नी आियुचवकत ह गईं और श्री कृष्ण क बारम्बार
प्रणाम करने लगी।
हनष्कषथ
वनष्किु रूप में यह कहा जा सकता है वक वहन्दी सावहत्य ही नहीं भारतीय सावहत्य में संत ं और भि-
कविय ं का बहुत बड़ा य गिान है । वहन्दी भािी कविय ं की भाुँ वत अवहन्दी भािी प्रािे वशक कविय ं ने भी
भक्तिकाव्य सृजन कर, भारतीय सावहत्य क समृ द्ध वकया है । भािागत स्तर पर चाहे सम्पू णु भक्तिकाव्य
विविध रूप में विखते ह ं ले वकन इन सबका मू ल एक ही है । इन्ीं की सुगंधी से सारा वहन्दी ही नहीं भारतीय
सावहत्य महक रहा है । उत्तर से िवक्षण, पूिु से पविम तक भारतीय सावहत्यकार ं विशेिकर भि ं और संत ं
का य गिान अप्रवतम है ।
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परिचय- निधा भक्ति में भक्ति व्यि करने या भगिान या उच्च स्व के वलए भक्ति विकवसत करने के नौ
तरीके शावमल हैं । वहं िू शास्त्र ं में उल्लेक्तखत, "श्रीमि-भागित" और "विष्णु पुराण," निविवध भक्ति क भी
भक्ति मागु के रूप में िवणुत वकया गया है ज म क्ष या मु क्ति की ओर ले जाता है। िधा भक्ति के अंतगुत
प्रर्म भक्ति है -संत सत्संग। श्रेष्ठजन ं के वजस सत्संग से जड़ता, मू ढ़ मान्यताएं टू टती हैं िह सत्संग सिोच्च
क वट का ह ता है। संत िे ह ते हैं वजनके पास बैठने पर हमारे अंत:करण में ईश्वर के प्रवत ललक-वजज्ञासा
पैिा ह ती है । प्रभु राम ने शबरी क निधा भक्ति के अनम ल िचन विए र्े ।
नवधा भक्ति- व्यक्ति अपने जीिन में कई प्रकार की भक्ति करता है । उनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतगुत
निधा भक्ति आती है । 'निधा' का अर्ु है ‘नौ प्रकार से या नौ भे ि'। अतुः ‘निधा भक्ति' यानी 'नौ प्रकार से
निधा भक्ति ि युग ं में ि ल ग ं िारा कही गई है । सतयुग में , प्रह्लाि ने वपता वहरण्यकवशपु से कहा र्ा।
वफर त्रे तायुग में , श्री राम ने माुँ शबरी से कहा र्ा। 'नवधा' का अर्थ ै 'नौ प्रकाि से या नौ भेद'। अतः
'नवधा भक्ति' यानी 'नौ प्रकाि से भक्ति'। श्री िाम की ‘नौ प्रकाि से भक्ति' प्रह्लाद जी द्वािा क ी
गयी 'नौ प्रकाि से भक्ति' से र् ड़ा-सा हभन्न ै । नवधा भक्ति िामायण (श्रीिामचरितमानस) के
अिण्यकाण् में ै । जब माता शबरी कहा वक मैं नीच, अधम, मं िबुक्तद्ध हुँ , त मैं वकस प्रकार आपकी स्तु वत
करू
ुँ ? तब श्री राम ने उनसे कहा वक मैं त केिल एक भक्ति ही का संबंध मानता हुँ । वफर श्री राम निधा
भक्ति कुछ इस तरह कहते हैं । तु लसीिास जी वलखते हैं-
श्रीिामचरितमानस अिण्यकाण्
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अर्ाथत्: - मैं तु झसे अब अपनी निधा भक्ति कहता हुँ। तू सािधान ह कर सुन और मन में धारण कर।
पहली भक्ति है संत ं का सत्संग। िू सरी भक्ति है मे रे कर्ा प्रसंग में प्रेम।
- श्रीिामचरितमानस अिण्यकाण्
अर्ाथत्:- तीसरी भक्ति है अवभमानरवहत ह कर गुरु के चरण कमल ं की सेिा और चौर्ी भक्ति यह है वक
कपट छ ड़कर मे रे गुण समू ह ं का गान करें ।
श्रीमं त शंकरिे ि ने ‘महाधमु ' नाम से वजस धमु का प्रचार वकया र्ा उसमें कृष्ण लीलाओं क प्रधान रूप से
थर्ान विया र्ा। श्रीमं त शंकरिे ि ने अपने 'भक्ति रत्नाकर' नामक ग्रंर् में कृष्ण भक्ति नानाविध लीलाओं का
गान वकया है । यह मू ल ग्रंर् संस्कृत भािा में है वजसकी असवमया अनुिाि श्री रामचरण ठाकुर ने वकया ।
िैष्णि भि ं में तीन अन्य ग्रंर् और प्रचवलत हैं वजनके नाम कीतु न, िशुन और नामघ ि हैं । इन तीन ं ग्रंर् क
ं े
नाम ं से ही िैष्णि भक्ति का संकेत वमल जाता है। निधा भक्ति में स्वीकृत श्रिण, कीतु न, स्मरण आवि क
ही इनमें प्रमु ख थर्ान विया गया है । श्रीमं त शंकरिे ि ने भागित पुराण क अपना उपजीव्य ग्रंर् बनाकर
भक्ति विियक विचार प्रस्तु त वकए हैं । आत्म-समपुण की भािना की स्वीकृवत ह ने से यह भक्ति संप्रिाय
अन्य िैष्णि ं से कुछ वभन्न लवक्षत ह ता है वकंतु मू ल विचार में भे ि नहीं है ।
श्रिण (परीवक्षत), कीतु न (शुकिे ि), स्मरण (प्रह्लाि), पािसेिन (लक्ष्मी), अचु न (पृर्ुराजा), िंिन (अक्रूर),
िास्य (हनुमान), सख्य (अजुुन) और आत्मवनिेिन (बवल राजा) - इन्हें नवधा भक्ति क ते ैं ।
श्रवण: ईश्वर की लीला, कर्ा, महत्व, शक्ति, स्र त इत्यावि क परम श्रद्धा सवहत अतृ प्त मन से वनरं तर
सुनना।
कीतथ न: ईश्वर के गुण, चररत्र, नाम, पराक्रम आवि का आनंि एिं उत्साह के सार् कीतु न करना।
स्मिण: वनरं तर अनन्य भाि से परमे श्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर
उस पर मु ग्ध ह ना।
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अचथन: मन, िचन और कमु िारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरण ं का पूजन करना।
विं दन: भगिान की मू वतु क अर्िा भगिान के अंश रूप में व्याप्त भिजन, आचायु, ब्राह्मण, गुरूजन,
माता-वपता आवि क परम आिर सत्कार के सार् पवित्र भाि से नमस्कार करना या उनकी सेिा
करना।
दास्य: ईश्वर क स्वामी और अपने क िास समझकर परम श्रद्धा के सार् सेिा करना।
सख्य: ईश्वर क ही अपना परम वमत्र समझकर अपना सिुस्व उसे समपुण कर िे ना तर्ा सच्चे भाि से
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परिचय-
भारतीय भक्ति आं ि लन की जड़ें भारतीय समाज और संस्कृवत में बहुत गहरे पैठी हैं। यह जड़ें ल कमानस
और उसकी संिेिना के सार् गहराई से जुड़ी हैं । मध्यकाल में भक्ति संपूणु भारतीय समाज क साुँ स्कृवतक
रूप से एकता के सूत्र में बाुँ धती है । समाज के सभी िगु और ईश्वर के प्रवत उनके मन भाि ं से भक्ति का
विराट कैनिास भारतीय संस्कृवत का व्यापक वचत्र प्रस्तु त करता है । भक्ति आं ि लन की यह विवशिता है
वक अलौवकक वचंतन की धारा में लौवकक समाज और उसकी प्रवतबद्धता कहीं भी पीछे नहीं छूटती बक्ति
यह सामावजक चे तना और जागरण के स्वर के रूप में मु खररत ह ती है ।
1. भक्ति आन्द लन के सन्त िं ने जात-पात का खण्न हकया तर्ा सामावजक सामनता पर बल विया।
इस आन्द लन के पररणामस्वरूप जनता में समाज सेिा की भािना उत्पन्न हुई ज भक्ति आन्द लन का
अच्छा प्रभाि र्ा। भक्ति आन्द लन के सन्त ं ने सभी धमो की आधारभू त समानता पर बल विया।
2. भक्ति आन्द लन का भाितीय इहत ास में हवशेष म ि ै । इसने भक्ति का अक्षय स्त्र त ख ल
विया। संस्कृत तर्ा क्षे त्रीय भािाओं के सावहत्य में िृक्तद्ध हुई। मध्यकाल में भक्ति आन्द लन से समाज
3. भक्ति आन्द लन के सन्त िं ने पौिाहणक धमथ के वनजीि पूजा-पाठ, व्रत, प्रभाि आवि बाह्य आडम्बर ं
अन्त ह ने लगा।
4. भक्ति आन्द लन के सन्त िं ने प्रत्येक व्यक्ति क ईश्वि की सन्तान बताते हुए सभी क आध्याक्तत्मक
अवधकार विलाने की चे िा की। भक्ति आन्द लन के उपिे शक ं एिं सुधारक ं ने भारत में चे तना तर्ा
प्रगवतशील विचार ं की नई विचारधारा क जन्म विया। सारे वहन्िू धमु पर निीन विचार ं का प्रभाि
पड़ा।
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5. ह न्दु ओिं में आशा तर्ा सा स का संचार: - भक्ति आं ि लन से वहन्िु ओं में आत्म बल का संचार
हुआ। वजसके पररणाम स्वरूप वहन्िु ओं की वनराशा िू र हुई और वहन्िू अपनी सम्यता ि संस्कृवत क
का प्रभाि मु क्तस्लम शासक पर पड़ा। विवभन्न धमों के मध्य एकता थर्ावपत हुई, वजससे मु सलमान ं के
अत्याचार कम ह गए।
7. या िी आडम्बि िं में कमी: - भक्ति आं ि लन के सभी संत ं ने अपने उपिे श ं में आडम्बर ं की वनंिा
की और पवित्रता पर बल विया। इन उपिे श ं का प्रभाि यह हुआ वक ल ग बाहरी आडम्बर ं क
8. वगीयता तर्ा सिंकीणता पि आघात: - भक्ति आं ि लन में संत ं ने ऊंच-नीच, छूत-अछूत का भे िभाि
िू र करने का प्रयत्न वकया वजसके पररणाम स्वरूप समाज में व्याप्त िगीयता और संकीणता क आघात
लगा।
9. आत्म गौिव एविं िाष्टर भावना का प्रादु भाथव: - भक्ति आं ि लन के संत ं की ओजस्वी िाणी ने मनुष्य में
आत्म गौरि एिं रािर भािना का संचार वकया वजसके पररणाम स्वरूप कालान्तर में महारािर, पंजाब
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