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अनक्र
ु मणिका
१. आवरि

२. प्रमाि ऩत्र

३. आभार प्रदर्शन

४. अनक्र
ु मणिका

५. प्रस्तावना

६. जीवन ऩररचय

७. कृततयााँ

८. हाऱावाद

९. हाऱावादी कवव हररवंर्राय बच्चन

१०. सन्दभश ग्रन्थ सच


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जीवन ऩररचय
हरयवॊशयाम फच्चन (जन्भ : २७ नवॊफय १९०७ - भत्ृ मू:१८ जनवयी २००३)
हहॊदी बाषा के के प्रभुख कववमों भें से एक हैं l उनकी सफसे प्रससद्ध कृति
भधश
ु ारा है l हारावाद के प्रवितक फच्चन हहॊदी कवविा के उ्तरय ाामावाद
कार के रेखक व कवव हैं l

फच्चन का जन्भ 27 नवम्फय 1907 को इराहाफाद से सटे प्रिाऩगढ़ जजरे के


एक ाोटे से गाॉव फाफूऩट्टी भें एक कामस्थ ऩरयवाय भें हुआ था। इनके वऩिा का
नाभ प्रिाऩ नायामण श्रीवास्िव िथा भािा का नाभ सयस्विी दे वी था। इनको
फाल्मकार भें 'फच्चन' कहा जािा था जजसका शाजददक अथत 'फच्चा' मा 'सॊिान'
होिा है । फाद भें मे इसी नाभ से भशहूय हुए। इन्होंने कामस्थ ऩाठराशा भें
ऩहरे उदत ू की सशऺा री जो उस सभम कानून की डडग्री के सरए ऩहरा कदभ भाना
जािा था। उन्होंने प्रमाग ववश्वववद्मारम से अॊग्रेजी भें एभ॰ए॰ औय कैजम्िज
ववश्वववद्मारम से अॊग्रेजी साहहत्म के ववख्माि कवव डदरू॰फी॰ मीट्स की कवविाओॊ
ऩय शोध कय ऩीएच॰ डी॰ ऩयू ी की ।

१९२६ भें १९ वषत की उम्र भें उनका वववाह श्माभा फच्चन से हुआ जो उस सभम
१४ वषत की थीॊ। रेककन १९३६ भें श्माभा की टीफी के कायण भत्ृ मु हो गई। ऩाॉच सार
फाद १९४१ भें फच्चन ने एक ऩॊजाफन िेजी सूयी से वववाह ककमा जो यॊ गभॊच िथा
गामन से जुडी हुई थीॊ। इसी सभम उन्होंने 'नीड का तनभातण कपय-कपय' जैसे
कवविाओॊ की यचना की। िेजी फच्चन से असभिाब िथा अजजिाब दो ऩत्र

हुए। असभिाब फच्चन एक प्रससद्ध असबनेिा हैं। िेजी फच्चन ने हरयवॊश याम
फच्चन द्वाया सेक्शवऩमय के अनूहदि कई नाटकों भें असबनम ककमा है ।
प्रमख
ु कृततयााँ
काव्य संग्रह :

िेया हाय (1929), भधश


ु ारा (1935), भधफ
ु ारा (1936), भधक
ु रश (1937), आत्भ
ऩरयचम (1937), प्रणम ऩत्रत्रका (1955), धाय के इधय उधय (1957), आयिी औय अॊगाये
(1958), फद्
ु ध औय नाचघय (1958), त्रत्रबॊगगभा (1961), चाय खेभे चौंसठ खॊट
ू े (1962), दो
चट्टानें (1965), फहुि हदन फीिे (1967), कटिी प्रतिभाओॊ की आवाज़ (1968), उबयिे
प्रतिभानों के रूऩ (1969), जार सभेटा (1973) l

ववववध :

फचऩन के साथ ऺण बय (1934), खय्माभ की भधश


ु ारा (1938), सोऩान (1953), भैकफेथ
(1957), जनगीिा (1958), ओथेरो (1959), उभय खय्माभ की रुफाइमाॉ (1959), कववमों के
सौम्म सॊि: ऩॊि (1960) l

आत्मकथा :

क्मा बर
ू ॉ ू क्मा माद करूॉ (1969), नीड का तनभातण कपय (1970), फसेये से दयू (1977),
दशद्वाय से सोऩान िक (1985) l

हाऱावाद
हालावाद (हाला+वाद) से ममलकर बना है. हाला का अथथ है मददरा और वाद का अथथ होता
है मसद्धान्त या मत. तो हालावाद का अथथ हुआ ’मददरावाद’. हाला, बाला, मधुशाला, प्याला आदद
का गुनानुवाद है. हालावाद जीवन की कठिनाईयों से मधुपान कर मुमि की क्षण्भंगुरता में मवश्वास है
और उसे आनंद और मस्ती से व्यतीत करने के भावना है.
हालावाद का उत्स सूदफ़योंअ का आंदोलन है मजसमें प्रेम-मादकता, शराब, प्याले आदद की
चचाथ है. सूदफ़यो का कहना था दक खुदा रोजा, नमाज़ आदद बाह्य आडम्बरों से प्राप्त नहीं हो सकता
अमपतु तादात्मय प्रेम-गहनता से यह सम्भव है. सूदफ़यों ने ममलन और आनंद की तुलना शराब के नशे
और खुमारी से की है. सूफ़ी कमव तन्मयता से मवभोर होकर कहता है:-
“मज़ा शराब का कै से कहूँ तुझसे ज़ामहद
हाय कम्बख्त तूने पी ही नहीं”.
सुरा के साथ सुन्दरी का योग आनंद का श्रीवधथन करता है. हालावाद की कमवताओं में सूफ़ी
दाशथमनकता समामहत है. आत्मा अथाथत आमशक (प्रेमी) , परमात्मा अथाथत माशूक (प्रेममका) के मवरह
में तड़पता है. मवश्व के कण-कण में उसी का हुस्न देखता है और अनेक व्यवधानों-अवरोधों को लांघता
हुआ पानी की बूूँद के समान उसी चेतना के सागर में लवलीन हो जाना चाहता है.
प्रेम, सौन्दयथ और यौवन के प्रमत आकषथण हाला के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम की कल्पना की गई
है. हालावाद का मववेचन करते हुये आलोचकों का ध्यान के वल छायावादी काव्यधारा में ही के मन्ित
होकर रह जाता है. इसका पठरणाम यह है दक वे कमव जो पूरी तरह से छायावाद के अन्तगथत नहीं आ
पाते, उपेमक्षत हो जाते हैं. अब यहाूँ पर कहा जा सकता है दक प्रणय और यौवन का मचत्रण तो
छायावादी काव्य में बड़ी तल्लीनता के साथ दकया गया है, इसमलये इन कमवयों को स्वतन्त्र रूप से
प्रेम और मस्ती की काव्यधारा के अन्तगथत रखने का क्या आधार है? छायावादी कमवयों में प्रणय का
महत्त्व सीममत है. छायावादी कमवयों ने स्थूल प्रणय-बन्धन से ऊपर उिने का प्रयास करते हुये उसे
एक व्यापक जीवन चेतना के अंग के रूप में ग्रहण दकय. पन्त ने प्रणय को साध्य न मानकर साधन के
रूप में स्वीकार दकया है.
दूसरी महत्त्वपूणथ बात यह है दक यद्यमप छायावादी चेतना भी प्रधान रूप से व्यमिवादी चेतना
है और प्रेम और मस्ती के इन कमवयों की साधना व्यमिमनष्ठ रही है, तथामप दोनों के व्यमिवाद में
मूलभूत अन्तर है. छायावादी व्यमि चेतना शरीर से ऊपर उिकर मन और दिर आत्मा का स्पशथ करने
लगती है, जबदक इन कमवयों में व्यमिमनष्ठ चेतना प्रधान रूप से शरीर और मन के धरातल पर ही
व्यि होती है. इन्होंने प्रणय को ही साध्य के रूप में स्वीकार करने का प्रयास दकया है.
छायावादी काव्य जहाूँ प्रणय को जीवन की यथाथथ-मवषम व्यापकता में संजोने का प्रयास करता है
वहाूँ प्रेम और मस्ती का यह काव्य या तो मवमुख होकर प्रणय में तल्लीन ददखाई देता है या दिर
जीवन की व्यापकता को प्रणय की सीमाओं में ही खींच लाता है. ’नवीन’ जी ने जैसे कहा है:-
“हो जाने दे गकथ नशे में, मत पड़ने दे फ़कथ नशे में
ज्ञान ध्यान पूजा पोथी के , िट जाने दे वकथ नशे में.”
हालावाद की मवशेषता तो मात्र प्रणय में तल्लीन हो जाने की कामना में है. यही इसका साध्य
प्रतीत होता है.
इसीमलय बच्चन जी कहते हैं दक:-
“वह मादकता ही क्या मजसमें बाकी रह जाये जग का भय”.
इस प्रकार कहा ज सकता है दक प्रणय का रूप छायावादी प्रेम-भावना और अवाथचीन नई कमवता की
यौन-भावना के बीच की कड़ी है.
अब यहाूँ देखना यह है दक वह ऐसा कौन सा ’जग का भय’ है जो बच्चन जी ने कहा या वह कौन सी
ऐसी अनैमतक रूदढ़याूँ हैं मजसे ये अस्वीकार कर देना चाहते हैं. दरअसल यह कमवता भी उसी युग की
उपज है मजसने छायावाद को जन्म ददया. छायावादी कमवयों ने भी नैमतकता के बोझ से अक्रान्त
प्रणय को मुि करने का प्रयास दकया दकन्तु वे उससे पूरी तरह मुि नहीं हो सके और उनकी प्रणय-
भावना आध्यामत्मकता से सम्पृि हो गई. प्रणय के इन कमवयों ने (हालावाद) नैमतकता के किोर
बन्धनों के प्रमत मविोह दकया. लौदकक स्तर पर प्रणय की तीव्रता की स्वीकृ मत का एक पठरणाम यह
हुआ दक प्रणय के साथ-साथ कमवता में मादकता, शराब, साक़ी, मैखाने आदद का भरपूर वणथन ममलने
लगा.

हाऱावादी कवव हररवंर्राय बच्चन


हालावाद के प्रवतथक हठरवंश राय बच्चन हैं. मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश इन त्रय
रचनाओं में हालावाद व्यंमजत है. सन् 1935-36 तक की अवमध में इन त्रय रचनाऒं का प्रणयन हुआ
है. इस काव्य धारा में बच्चन के अमतठरि पद्माकांत मालवीय, जगदम्बा प्रसाद ममश्र महतैषी,
बालकृ ष्ण शमाथ नवीन, हृदयनारायण पाण्डेय हृदयेश, भगवतीचरण वमाथ, नरे न्ि शमाथ, अंचल आदद
का योगदान महनीय है.
अब प्रश्न यह उि सकता है दक ये कमव इतने उदासीन क्यों थे? इसके उत्तर में कहा जा सकता
है दक जैस-े जैसे स्वाधीनता का आंदोलन बल पकड़ता जा रहा था वैसे-वैसे मिठटश साम्राज्यवाद का
दमन चक्र भी बढ़ता जा रहा था. ऐसे में जो कमव खुलकर दमन चक्र और आतंक का सामना नहीं कर
सके , वे आत्मके मन्ित होकर प्रणय के गीत गाने लगे. प्रेम और मस्ती का यह काव्य मनस्सन्देह अपनी
सीधी सच्ची अनुभूमत और कला के कारण जनता में मवशेष ख्यामत पा सका. प्रधान रूप से तो इन्होंने
समाज की मवषमताओं से परामजत और संघषथ से मवरत एकाकी व्यमि की अनुभूमतयों को ही व्यि
दकया है:-
“यहाूँ सिलता या असफ़लता, ये तो मसफ़थ बहाने हैं,
के वल इतना सत्य है दक मनज को हम ही स्वयं अनजाने हैं.”
हठरवंशराय बच्चन का जन्म सन् 1907 ई. में इलाहाबाद में हुआ. आपके मपता श्री
प्रतापनारायण सामहमत्यक रूमच सम्पन्न व्यमि थे. माता धार्ममक संस्कार प्राप्त थी. इन्होंने इलाहाबाद
मवश्वमवद्यालय से बी.ए. एवं एम.ए. परीक्षाएूँ उतीणथ कीं. कै मम्िज मवश्वमवद्यालय से डाक्टर की
उपामध प्राप्त की. आपने कु छ समय सम्पादन का कायथ भी दकया. सन् 1966 में आपको राज्यसभा के
सदस्य होने का सम्मान भी प्राप्त हुआ. युवावस्था में ये पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में कू द पड़े.
पहली पत्नी के मवयोग ने इन्हें मनराशा व दुख से भर ददया. बच्चन की प्रमुख कृ मत ’तेरा हार’
सन 1932 में प्रकामशत हुई. मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश ये तीन कृ मतयाूँ इनकी हालावाद के
रचनाएूँ कहलायीं. इन कमवताओं में प्यार और टीस मवद्यमान है. ये कमवताएूँ दुख को भुलाने में
सहयोगी हैं. इनके अलावा मनशा मनमन्त्रण, एकांत संगीत, सतरं मगणी तथा ममलनयाममनी और प्रणय
पमत्रका इनकी प्रमसद्ध रचनाएूँ हैं.
हठरवंशराय बच्चन हालावाद के प्रवतथक हैं. उनके काव्य में मनराशा, पीड़ा तथा वेदना के साथ
ही ममलन बेला के मधुठरम क्षणों की भी झांकी ममलती है. बच्चन का आरं मभक जीवन भले ही कष्टों एवं
अभावों में बीता दकन्तु इनकी कमवता जीवन से पूरी तरह मवमुख नहीं है. मधुशाला में डू बा हुआ कमव
सामामजक मवषमता से भी अनजान नहीं है. उन्होंने जीवन की मवषमताओं को एक सामान्य अनुभूमत
के स्तर पर सुलझाने का प्रयास अवश्य दकया है.
बच्चन क प्रेम समन्नपात था मजसमें व्यमि अचेतन में प्रलाप करता है. बच्चन की हाला ऐसे
भोगवाद का प्रतीक है मजसका मूलाधार है-आध्यामत्मक मविोह. मधुशाला की भूममका सम्बोधन में
बच्चन ने हालावाद के बारे में मवचार देते कहा- “आह जीवन की मददरा जो हमें मववश होकर पीनी
पड़ी है, दकतनी कड़वी है? दकतनी? यह मददरा उस मददरा के नशे को उतार देगी, जीवन की दुख
दाममनी चेतना को मवस्मृमत के गतथ में मगरायगी तथा प्रबल दैव, दुदम
थ काल, मनमथमकमथ और मनदथय
मनयमत के क्रूर, किोर, कु ठटल आघातों से रक्षा करे गी. क्षीण-क्षुि, क्षण भंगरु , दुबथल मानव के पास जग
जीवन की समस्त आमध व्यामधयों की यही एक महोषमध है........ले इसे पान कर और इस मद के
उन्माद में अपने को, अपने दुख को, अपने दुखद समय को और समय के कठिन चक्र को भूल जा.”
बच्चन के काव्य में व्यैमिकता का समावेश अमधक्य रहा. कमव बच्चन का आह्वान थ:-
“ध्यान दकए जा मन में सुमधुर-सुखकर सुन्दर साकी का
मुख से तु अमवरत कहता जा, मधु मददरा-मादक हाला”
सौन्दयथ की प्रमतमा नारी का अशरीरी सौन्दयथ इस युग के काव्य का वणथय मवषय रहा.बच्चन का
हालावाद इन्हीं प्रणय मूलक भावनाओं का छलकता जाम था मजसकी प्रबल वासना सामामजकता को
सह न सकी और िू ट पड़ी:-
“कह रहा जग वासनामय, हो रहा उदगार मेरा
मैं मछपाना जानता तो, जग मुझे साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया है, छल रमहत व्यवहार मेरा.”
कमव का मानना है दक रूदढ़यों के मवरुद्ध लड़ना उमचत है परन्तु लड़ाई का ढ़ंग एक और रूदढ़ को
जन्म दे यह शुभकर नहीं:-
“मवश्व तो चलता रहा है, थाम राह बनी बनाई
दकन्तु इन पर दकस तरह मैं- कमव चरण अपने बढ़ाऊ”
बच्चन के काव्य में राजनीमतक पठरमस्थमतयों और हलचलों का प्रभाव एक नई साहमसकता के रूप
में ददखाई देता है:-
“मैं मनज मन के उद्गार मलये दिरता हूँ,
मैं मनज उर के उपहार मलये दिरता हूँ”
सामामजक सुधार की चेतना ने इस युवा कमव की आूँखों में तत्कालीन समाज के क्षण्ग्रस्तता क
मघनौना दृश्य उपमस्थत दकया. बाधाएूँ आती हैं पर कमव उनकी मचन्ता नहीं करता. युवा कमव की
आत्ममवश्वास से दीप्त वाणी कहीं भी अकुं ि नहीं होती. बच्चन ने कई बार संसार को पागल कहा और
संसार ने बच्चन को पागल कहा.
“पागल सब संसार कह उिा
स्वगथ कह उिा ज्ञानी,
भाग्य-पटल पर मवमध ने मलख दी
कमव की जठटल कहानी”
यद्यमप वे स्वयं अपने स्वर की मवलक्षणता से चौंक गये थे दक वे जैसा अनुभव कर रहे हैं, वैसी
ही अनुभूमत उनके युग के युवा मन को अक्रान्त दकये हुये है. इस युग की स्मृमत करते उन्होंने मलखा:-
“मुझे अपने जीवन के आरम्भ में इस बात का सबूत ममल गया था दक न तो मैं ढाई चावल की मखचड़ी
पका रहा हूँ और न ही ढाई ईंट की ममस्जद उिा रहा हूँ, न तो मैं अके ले कं ि की पुकार हूँ, क्योंदक मेर
स्वर मनकल्ते ही बहुत से कं िों में प्रमतध्वमन होने लगती थी या बहुत से प्राणों की अनुगूूँज बनाता था.”
कमव मस्तीपन का संदश
े मलये कहता है:-
“मैं दुमनया का हूँ एक नया दीवाना
मैं दीवानों क वंश मलये दिरता हूँ”
हालावाद में उन्माद क दशथन समामहत है. हालावाद बच्चन का स्वप्न है, संघषथ की छलना है,
वासनाओं का मवस्िोट है, अरमानों का तांडव है, अभावों का चीत्कार-िू तकार है. कमव बच्चन को
मनराशा, मनयमत और अतृमप्त के मसवा ममला क्या? वह एकाकी हो गया:-
“कल्पना, सुरा औ साकी है- पीने वाला एकाकी है.”
आचायों ने ईश्वर का आमवष्कार दकया और बच्चन ने हाला का, यथा-
लाख पटक तू हाथ पाूँव पर, इससे सब कु छ होने का
मलखा भाग्य में तेरे जो बस-वही ममलेगी मधुशाला.”
काव्य में प्रकृ मत के पठरशीलन के मध्य से कमव मनजी भावनाओं की अमभव्यमि भी करता है;_
“अहे मैंने कमलयों के साथ,
जब मेरा चंचल बचपन था,
महा मनदथयी मेरा मन था,
अत्याचार अनेक दकये थे,
कमलयों को दुख दीघथ ददये थे,
तोड़ उन्हें बागों से लाता,
छेद-छेद कर हार बनाता,
क्रूर कायथ यह कै से करता,
सोच इसे हूँ आहें भरता,
कमलयो तुमसे क्षमा माूँगते ये अपराधी हाथ.”
कमव प्राय: दो प्रकार के उद्देश्यों से प्रतीकों का प्रयोग दकया करता है. कु छ कमव अपनी
संवेदना की जठटलता की अमभव्यमि के मलये प्रतीकों का सहारा लेते हैं और कु छ कमव अपनी अनुभमू त
को अमधक तीव्र और प्रभावशाली बनाने के मलये प्रतीकों का प्रयोग करते हैं. यहाूँ कमव मधु प्रतीकों के
रहस्य और अथथ का उदघाटन करता है. सबसे पहले कमव अपने मृदु भावों को हाला कहता है, पर
दूसरे ही क्षण वह अपने मप्रयतम का हाला मपलाने की बात करता है तो तुरन्त बाद वह खुद को
मप्रयतम रूपी हाला का प्याला भी बना देता है;-
“मृदु भावों के अंगरू ों की,
आज बना लाया हाला,
मप्रयतम अपने ही हाथों से
आज मपलाऊूँगा प्याला,
मप्रयतम तू मेरी हाला है
मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू
बनता है पीनेवाला.”
मधुशाला में बच्चन ने भावुकता का रूपान्तरीकरण करने की कोमशश की है. प्याला नामक
रचना में मानव देह के मवनाशी स्वभाव का अख्यान कमव ने बड़े ही ममथस्पशी ढंग से दकया है. इस
कमवता में सृमष्ट-प्रदक्रया के सम्बन्ध में आकमस्मकता का दृमष्टकोण अपनाया गया है. प्याले का
आत्मकथ्य कमव इसी मनयाथतवादी दृमष्टकोण को प्रस्तुत करता है;-
“ममट्टी का तन, मस्ती का मन
क्षण भर जीवन-मेरा पठरचय.
कल कल रामत्र के अंधकार
में थी मेरी सत्ता मवलीन
इस मूर्मतमान जग में महान
था मैं मवप्लुप्त कल रू-हीन”
कल मादकता थी मेरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़
दकन सरस करों का पारस आज
करता जागृत जीवन नवीन?”
इस पार और उस पार’ नामक कमवता भी हृदयग्राही है, इस कमवता में बच्चन वतथमान की
पीठिका में भमवष्य के प्रमत संदह
े प्रकट करते हैं और संददग्ध भमवष्य की तुलना में आसन्न वतथमान को
अमधक महत्वपूणथ और सागथर्मभत समझते हैं;-
“इस पार मप्रय मधु है तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा?”
मवषम पठरमस्थमतयों को झुिलाते हुये जीवन मबता देना कमव अपनी इमतश्री समझता है.
आत्म-प्रवंचना को आत्म समाधान समझ लेता है;-
“मैं मददरालय के अंदर हूँ
मेरे हाथों में प्याला”
बच्चन के काव्य में रागात्मकता तथा संगीत लय समामहत है;-
“सुन कल कल छल छल मधुर घट से
मगरती प्यालों में हाला”
अन्त में कहा जा सकता है दक बच्चन के काव्य मेम सामामजकता रूढ़वाद तथा धार्ममक
बाह्य आडम्बरों का मवरोध है. इनके काव्य में नशा-प्याला-हाला-मधुकलश आदद शब्द प्रतीक हैं. साथ
ही बच्चन के काव्य में नैमतकता का बन्धन नहीं है. उन्होंने स्वच्छ्नन्द छन्दों का प्रयोग दकया है. ईश्वर की
प्रामप्त के मलये प्रेम गहनता में तादात्मयता स्थामपत करके ईश्वर की प्रामप्त की जा सकती है.

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5- D;k Hkwyw¡ D;k ;kn d:¡ & MkW- gfjoa”kjk; cPpu
6- https://himwikipedia.org
7- Hindikaitihas.blogspot.com

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