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अध्याय 9

राज गुह्य योग

परम गुह्य ज्ञान


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श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे |
ज्ञानं वज्ञानस हतं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSश्रुभात ् || १ ||

श्रीभगवान ् ने कहा – हे अजुन


र्त ! चूँ क तुम मुझसे कभी ईष्यार्त
नहीं करते, इसी लए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा
अनुभू त बतलाऊँगा, िजसे जानकर तुम संसार के सारे
लेशों से मु त हो जाओगे |

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इस प्रथम श्लोक का व शष्ट महत्त्व है | इदं ज्ञानम ् (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभि त के द्योतक हैं, जो
नौ प्रकार की होती है – श्रवण, कीतर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अचर्तन, व दन, दास्य, सख्य तथा
आत्म-समपर्तण | भि त के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्याित्मक चेतना अथवा
कृ ष्णभावनामृत तक उठ पाता है |

इस श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्य त महत्त्वपूणर्त है | बहु श्रुत वद्वान भी भगवद्गीता के


वषय में अशुद्ध व्याख्या करते हैं | चूँ क वे कृ ष्ण के प्र त ईष्यार्त रखते हैं, अतः उनकी टीकाएँ व्यथर्त
होती हैं | केवल कृ ष्णभ तों द्वारा की गई टीकाएँ ही प्रामा णक हैं | कोई भी ऐसा व्यि त, जो कृ ष्ण
के प्र त ईष्यार्तलु है , न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है , न पूणज्ञ र्त ान प्रदान कर सकता है |
अतः ऐसी टीकाओं से सावधान रहना चा हए | जो व्यि त यह समझते हैं क कृ ष्ण भगवान ् हैं और
शुद्ध तथा दव्य पुरुष हैं, उनके लए ये अध्याय लाभप्रद होंगे |

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9.2

राज वद्या राजगुह्यं प वत्र मदमुत्तमम ् |


प्रत्यक्षावगमं धम्यर्म्यं सुसुखं कतुम
र्त व्ययम ् || २ ||

यह ज्ञान सब वद्याओं का राजा है , जो समस्त रहस्यों


में सवार्त धक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँ क
यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभू त कराने वाला है , अतः यह
धमर्त का सद्धा त है | यह अ वनाशी है और अत्य त
सुखपूवक
र्त सम्प न कया जाता है |

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9.3
हे पर तप! जो लोग भि त में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे
प्राप्त नहीं कर पाते | अतः वे इस भौ तक जगत ् में
ज म-मृत्यु के मागर्त पर वापस आते रहते हैं |

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9.4
यह सम्पूणर्त जगत ् मेरे अव्य त रूप द्वारा व्याप्त है
| समस्त जीव मुझमें हैं, क तु मैं उनमें नहीं हू ँ |

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9.5
तथा प मेरे द्वारा उत्प न सारी वस्तुएँ मुझमें िस्थत नहीं रहतीं | जरा, मेरे योग-ऐश्र्वयर्त को दे खो!
यद्य प मैं समस्त जीवों का पालक (भतार्त) हू ँ और सवर्तत्र व्याप्त हू ँ, ले कन मैं इस वराट अ भव्यि त
का अंश नहीं हू ँ, मैं सृिष्ट का कारणस्वरूप हू ँ |

9.6
िजस प्रकार सवर्तत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदै व आकाश में िस्थत रहती है , उसी प्रकार समस्त उत्प न प्रा णयों
को मुझमें िस्थत जानो |

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9.8
सम्पूणर्त वराट जगत मेरे अधीन है | यह मेरी इच्छा से बारम्बार
स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अ त में वनष्ट
होता है |

9.9

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“O Dhanañjaya, all this work cannot bind Me. I am ever detached, seated as though neutral.”
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9.10
मयाध्यक्षेण प्रकृ तः सूयते सचराचरम ् |
हे तुनानेन कौ तेय जगद् वप रवतर्तते || १० ||

हे कु तीपुत्र! यह भौ तक प्रकृ त मेरी शि तयों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में


कायर्त करती है , िजससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्प न होते हैं | इसके शासन में
यह जगत ् बारम्बार सृिजत और वनष्ट होता रहता है

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9.11
अवजानि त मां मूढा मानुषीं तनुमा श्रतम ् |
परं भावमजान तो मम भूतमहे श्र्वरम ् || ११ ||

जब मैं मनुष्य रूप में अवत रत होता हू ँ, तो मूखर्त


मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दव्य
स्वभाव को नहीं जानते |

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मोघाशा मोघकमार्तणो मोघज्ञाना वचेतसः |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृ तं मो हनीं श्रताः || १२ ||

जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नािस्तक


वचारों के प्र त आकृ ष्ट रहते हैं | इस मोहग्रस्त अवस्था में
उनकी मुि त-आशा, उनके सकाम कमर्त तथा ज्ञान का अनुशीलन
सभी नष्फल हो जाते हैं |

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9.13
महात्मानस्तु मां पाथर्त दै वीं प्रकृ तमा श्रताः |
भज त्यन यमनसो ज्ञात्वा भूता दमव्ययम ् || १३ ||

हे पाथर्त! मोहमु त महात्माजन दै वी प्रकृ त के संरक्षण में


रहते हैं | वे पूणत
र्त ः भि त में नमग्न रहते हैं यों क वे मुझे
आ द तथा अ वनाशी भगवान ् के रूप में जानते हैं |

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9.14
सततं कीतर्तय तो मां यत तश्र्च दृढव्रताः |
नमस्य तश्र्च मां भ तया नत्ययु ता उपासते || १४ ||

ये महात्मा मेरी म हमा का नत्य कीतर्तन करते हु ए


दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हु ए, मुझे नमस्कार
करते हु ए, भि तभाव से नर तर मेरी पूजा करते हैं|

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9.17
पताहमस्य जगतो माता धाता पतामहः |
वेद्यं प वत्रम ् ॐकार ऋक् साम यजुरेव च || १७ ||

मैं इस ब्रह्माण्ड का पता, माता, आश्रय तथा पतामह हू ँ | मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद् धकतार्त तथा
ओंकार हू ँ | मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुवर्वेद भी हू ँ |

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9.18
मैं ही लक्ष्य, पालनकतार्त, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा
अत्य त प्रय मत्र हू ँ | मैं सृिष्ट तथा प्रलय, सबका आधार,
आश्रय तथा अ वनाशी बीज भी हू ँ|

9.19
हे अजुन र्त ! मैं ही ताप प्रदान करता हू ँ और वषार्त को रोकता तथा
लाता हू ँ | मैं अमरत्व हू ँ और साक्षात ् मृत्यु भी हू ँ | आत्मा तथा
पदाथर्त (सत ् तथा असत ्) दोनों मुझ ही में हैं |

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9.20
जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वगर्त प्रािप्त की गवेषणा करते हु ए अप्रत्यक्ष रूप से
मेरी पूजा करते हैं | वे पापकमर्मों से शुद्ध होकर, इ द्र के प वत्र स्व गर्तक धाम में ज म लेते हैं, जहाँ वे दे वताओं का
सा आन द भोगते हैं |

9.21
इस प्रकार जब वे (उपासक) वस्तृत स्व गर्तक इि द्रयसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकमर्मों के फल
क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सद्धा तों में दृढ रहकर
इि द्रयसुख की गवेषणा करते हैं, उ हें ज म-मृत्यु का चक्र ही मल पाता है |

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9.22
अन यािश्र्च तय तो मां ये जनाः पयुप
र्त ासते
तेषां नत्या भयु तानां योगक्षेमं वहाम्यहम ् || २२ ||

क तु जो लोग अन यभाव से मेरे दव्यस्वरूप का ध्यान करते हु ए नर तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो
आवश्यकताएँ होती हैं, उ हें मैं पूरा करता हू ँ और जो कुछ उनके पास है , उसकी रक्षा करता हू ँ |

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9.23
येSप्य यदे वताभ ता यज ते श्रद्धयाि वताः |
तेS प मामेव कौ तेय यज त्य व धपूवक
र्त म ् || २३ ||

हे कु तीपुत्र! जो लोग अ य दे वताओं के भ त हैं और उनकी


श्रद्धापूवक
र्त पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी पूजा करते हैं,
क तु वे यह त्रु टपूणर्त ढं ग से करते हैं |

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9.25
याि त दे वव्रता दे वाि पतृ याि त पतृव्रताः |
भूता न याि त भूतज्
े या याि त मद्यािजनोS प माम ् || २५ ||

जो दे वताओं की पूजा करते हैं, वे दे वताओं के बीच ज म लेंगे,


जो पतरों को पूजते हैं, वे पतरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों
की उपासना करते हैं, वे उ हीं के बीच ज म लेते हैं और जो
मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ नवास करते हैं |

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9.26
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भ त्या प्रयच्छ त |
तदहं भ तयुपहृतमश्र्ना म प्रयतात्मनः || २६ ||

य द कोई प्रेम तथा भि त के साथ मुझे


पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है ,
तो मैं उसे स्वीकार करता हू ँ |

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9.27
यत्करो ष यदश्र्ना स यज्जुहो ष ददा स यत ् |
यत्तपस्य स कौ तेय तत्कुरुष्व मदपर्तणम ् || २७ ||

हे कु तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो


कुछ अ पर्तत करते हो या दान दे ते हो और जो भी तपस्या
करते हो, उसे मुझे अ पर्तत करते हु ए करो |

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9.29
समोSहं सवर्तभूतष
े ु न मे द्वेष्योSिस्त न प्रयः |
ये भजि त तु मां भ त्या म य ते तेषु चाप्यहम ् || २९ ||

मैं न तो कसी से द्वेष करता हू ँ, न ही कसी के साथ


पक्षपात करता हू ँ | मैं सबों के लए समभाव हू ँ | क तु
जो भी भि तपूवक
र्त मेरी सेवा करता है , वह मेरा मत्र है ,
मुझमें िस्थत रहता है और मैं भी उसका मत्र हू ँ |

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9.30
अ प चेत्सुदरु ाचारो भजते मामन यभाक् |
साधुरेव स म तव्यः सम्यग्व्यव सतो ह सः
|| ३० ||

य द कोई जघ य से जघ य कमर्त करता है ,


क तु य द वह भि त में रत रहता है तो उसे
साधु मानना चा हए, यों क वह अपने
संकल्प में अ डग रहता है |

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9.31
क्षप्रं भव त धमार्तत्मा शश्र्वच्छाि तं नगच्छ त |
कौ तेय प्र तजानी ह न मे भ तः प्रणश्य त || ३१ ||

वह तुर त धमार्तत्मा बन जाता है और स्थायी शाि त


को प्राप्त होता है | हे कु तीपुत्र! नडर होकर घोषणा
कर दो क मेरे भ त का कभी वनाश नहीं होता है |

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9.32
मां ह पाथर्त व्यपा श्रत्य येS पस्यु: पापयोनयः |
िस्त्रयोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेS पयाि तपरांग तम ् || ३२ ||

हे पाथर्त! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही नम्नज मा स्त्री, वैश्य
(व्यापारी) तथा शुद्र (श्र मक) यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं |

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9.34
म मना भव मद्भ तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्य स यु त्वैवमात्मनंम मत्परायणः || ३४ ||

अपने मन को मेरे नत्य च तन में लगाओ, मेरे


भ त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा
करो | इस प्रकार मुझमें पूणत
र्त या तल्लीन होने पर
तुम निश्चत रूप से मुझको प्राप्त होगे |

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प्रभुपाद से कुछ शब्द

इस श्लोक से स्पष्ट है क इस भौ तक जगत ् से छुटकारा पाने का एकमात्र साधन


कृ ष्णभावनामृत है |ले कन कृ ष्णतत्त्व को न जानने के कारण भाष्यकार कृ ष्ण को
छपाते हैं और उनको उनके मन या शरीर से पृथक् बताते हैं | यद्य प यह कृ ष्णतत्त्व
के प्र त नरी अज्ञानता है , क तु कुछ लोग जनता को भ्र मत करके धन कमाते हैं |

अतः मनुष्य को कृ ष्ण के आ द रूप में मन को िस्थर करना चा हए, उसे अपने मन में यह दृढ़ वश्र्वास करके
पूजा करने में प्रवृत्त होना चा हए क कृ ष्ण ही परम हैं | कृ ष्ण की पूजा के लए भारत में हजारों मि दर हैं, जहाँ
पर भि त का अभ्यास कया जाता है | जब ऐसा अभ्यास हो रहा हो तो मनुष्य को चा हए क कृ ष्ण को
नमस्कार करे | उसे अचर्त वग्रह के समक्ष नतमस्तक होकर मनसा वाचा कमर्तणा हर प्रकार से प्रवृत्त होना चा हए |
इससे वह कृ ष्णभाव में पूणत र्त या तल्लीन हो सकेगा | इससे वह कृ ष्णलोक को जा सकेगा | उसे चा हए क कपटी
भाष्यकारों के बहकावे में न आए | उसे श्रवण, कीतर्तन आ द नवधा भि त में प्रवृत्त होना चा हए | शुद्ध भि त
मानव समाज की चरम उपलिब्ध है |

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Chapter Summary - Chapter
9

Topics Reference Keywords

1.Bhagavat Aishvarya Jnana 9.1 - 9.10 rāja-vidyā rāja-guhyaṁ

2. Ways to approach Krishna 9.11 - 9.25 satataṁ kīrtayanto māṁ

3. Sweetness of Exclusive Devotion 9.26 - 9.34 man-manā bhava


mad-bhakto

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