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CH 9 Bhagwat Geeta Powerpoint Hindi
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इस प्रथम श्लोक का व शष्ट महत्त्व है | इदं ज्ञानम ् (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभि त के द्योतक हैं, जो
नौ प्रकार की होती है – श्रवण, कीतर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अचर्तन, व दन, दास्य, सख्य तथा
आत्म-समपर्तण | भि त के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्याित्मक चेतना अथवा
कृ ष्णभावनामृत तक उठ पाता है |
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9.2
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9.3
हे पर तप! जो लोग भि त में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे
प्राप्त नहीं कर पाते | अतः वे इस भौ तक जगत ् में
ज म-मृत्यु के मागर्त पर वापस आते रहते हैं |
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9.4
यह सम्पूणर्त जगत ् मेरे अव्य त रूप द्वारा व्याप्त है
| समस्त जीव मुझमें हैं, क तु मैं उनमें नहीं हू ँ |
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9.5
तथा प मेरे द्वारा उत्प न सारी वस्तुएँ मुझमें िस्थत नहीं रहतीं | जरा, मेरे योग-ऐश्र्वयर्त को दे खो!
यद्य प मैं समस्त जीवों का पालक (भतार्त) हू ँ और सवर्तत्र व्याप्त हू ँ, ले कन मैं इस वराट अ भव्यि त
का अंश नहीं हू ँ, मैं सृिष्ट का कारणस्वरूप हू ँ |
9.6
िजस प्रकार सवर्तत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदै व आकाश में िस्थत रहती है , उसी प्रकार समस्त उत्प न प्रा णयों
को मुझमें िस्थत जानो |
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9.8
सम्पूणर्त वराट जगत मेरे अधीन है | यह मेरी इच्छा से बारम्बार
स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अ त में वनष्ट
होता है |
9.9
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“O Dhanañjaya, all this work cannot bind Me. I am ever detached, seated as though neutral.”
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9.10
मयाध्यक्षेण प्रकृ तः सूयते सचराचरम ् |
हे तुनानेन कौ तेय जगद् वप रवतर्तते || १० ||
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9.11
अवजानि त मां मूढा मानुषीं तनुमा श्रतम ् |
परं भावमजान तो मम भूतमहे श्र्वरम ् || ११ ||
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मोघाशा मोघकमार्तणो मोघज्ञाना वचेतसः |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृ तं मो हनीं श्रताः || १२ ||
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9.13
महात्मानस्तु मां पाथर्त दै वीं प्रकृ तमा श्रताः |
भज त्यन यमनसो ज्ञात्वा भूता दमव्ययम ् || १३ ||
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9.14
सततं कीतर्तय तो मां यत तश्र्च दृढव्रताः |
नमस्य तश्र्च मां भ तया नत्ययु ता उपासते || १४ ||
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9.17
पताहमस्य जगतो माता धाता पतामहः |
वेद्यं प वत्रम ् ॐकार ऋक् साम यजुरेव च || १७ ||
मैं इस ब्रह्माण्ड का पता, माता, आश्रय तथा पतामह हू ँ | मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद् धकतार्त तथा
ओंकार हू ँ | मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुवर्वेद भी हू ँ |
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9.18
मैं ही लक्ष्य, पालनकतार्त, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा
अत्य त प्रय मत्र हू ँ | मैं सृिष्ट तथा प्रलय, सबका आधार,
आश्रय तथा अ वनाशी बीज भी हू ँ|
9.19
हे अजुन र्त ! मैं ही ताप प्रदान करता हू ँ और वषार्त को रोकता तथा
लाता हू ँ | मैं अमरत्व हू ँ और साक्षात ् मृत्यु भी हू ँ | आत्मा तथा
पदाथर्त (सत ् तथा असत ्) दोनों मुझ ही में हैं |
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9.20
जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वगर्त प्रािप्त की गवेषणा करते हु ए अप्रत्यक्ष रूप से
मेरी पूजा करते हैं | वे पापकमर्मों से शुद्ध होकर, इ द्र के प वत्र स्व गर्तक धाम में ज म लेते हैं, जहाँ वे दे वताओं का
सा आन द भोगते हैं |
9.21
इस प्रकार जब वे (उपासक) वस्तृत स्व गर्तक इि द्रयसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकमर्मों के फल
क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सद्धा तों में दृढ रहकर
इि द्रयसुख की गवेषणा करते हैं, उ हें ज म-मृत्यु का चक्र ही मल पाता है |
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9.22
अन यािश्र्च तय तो मां ये जनाः पयुप
र्त ासते
तेषां नत्या भयु तानां योगक्षेमं वहाम्यहम ् || २२ ||
क तु जो लोग अन यभाव से मेरे दव्यस्वरूप का ध्यान करते हु ए नर तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो
आवश्यकताएँ होती हैं, उ हें मैं पूरा करता हू ँ और जो कुछ उनके पास है , उसकी रक्षा करता हू ँ |
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9.23
येSप्य यदे वताभ ता यज ते श्रद्धयाि वताः |
तेS प मामेव कौ तेय यज त्य व धपूवक
र्त म ् || २३ ||
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9.25
याि त दे वव्रता दे वाि पतृ याि त पतृव्रताः |
भूता न याि त भूतज्
े या याि त मद्यािजनोS प माम ् || २५ ||
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9.26
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भ त्या प्रयच्छ त |
तदहं भ तयुपहृतमश्र्ना म प्रयतात्मनः || २६ ||
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9.27
यत्करो ष यदश्र्ना स यज्जुहो ष ददा स यत ् |
यत्तपस्य स कौ तेय तत्कुरुष्व मदपर्तणम ् || २७ ||
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9.29
समोSहं सवर्तभूतष
े ु न मे द्वेष्योSिस्त न प्रयः |
ये भजि त तु मां भ त्या म य ते तेषु चाप्यहम ् || २९ ||
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9.30
अ प चेत्सुदरु ाचारो भजते मामन यभाक् |
साधुरेव स म तव्यः सम्यग्व्यव सतो ह सः
|| ३० ||
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9.31
क्षप्रं भव त धमार्तत्मा शश्र्वच्छाि तं नगच्छ त |
कौ तेय प्र तजानी ह न मे भ तः प्रणश्य त || ३१ ||
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9.32
मां ह पाथर्त व्यपा श्रत्य येS पस्यु: पापयोनयः |
िस्त्रयोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेS पयाि तपरांग तम ् || ३२ ||
हे पाथर्त! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही नम्नज मा स्त्री, वैश्य
(व्यापारी) तथा शुद्र (श्र मक) यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं |
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9.34
म मना भव मद्भ तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्य स यु त्वैवमात्मनंम मत्परायणः || ३४ ||
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प्रभुपाद से कुछ शब्द
अतः मनुष्य को कृ ष्ण के आ द रूप में मन को िस्थर करना चा हए, उसे अपने मन में यह दृढ़ वश्र्वास करके
पूजा करने में प्रवृत्त होना चा हए क कृ ष्ण ही परम हैं | कृ ष्ण की पूजा के लए भारत में हजारों मि दर हैं, जहाँ
पर भि त का अभ्यास कया जाता है | जब ऐसा अभ्यास हो रहा हो तो मनुष्य को चा हए क कृ ष्ण को
नमस्कार करे | उसे अचर्त वग्रह के समक्ष नतमस्तक होकर मनसा वाचा कमर्तणा हर प्रकार से प्रवृत्त होना चा हए |
इससे वह कृ ष्णभाव में पूणत र्त या तल्लीन हो सकेगा | इससे वह कृ ष्णलोक को जा सकेगा | उसे चा हए क कपटी
भाष्यकारों के बहकावे में न आए | उसे श्रवण, कीतर्तन आ द नवधा भि त में प्रवृत्त होना चा हए | शुद्ध भि त
मानव समाज की चरम उपलिब्ध है |
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Chapter Summary - Chapter
9
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