KC - TYS - कृष्णभावनामृत - सर्वोत्तम योग पद्धति

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

कृष्णभावनामतृ सवोत्तम योग-


पद्धतत

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

तवषय-सचू ी

अध्याय एक - योग की पणू णता .........................................................................................


अध्याय दो - योग तथा योगेश्वर ......................................................................................
अध्याय तीन - प्रकृ तत के तनयमों से परे ..............................................................................
अध्याय चार - योग का लक्ष्य .........................................................................................
अध्याय पााँच - हमर वास्ततवक जीवन ...............................................................................
अध्याय छह - हरे कृ ष्ण मन्त्र ..........................................................................................
अध्याय सात - भतियोग की कायण-पद्धतत ..........................................................................
अध्याय आठ - परम ज्ञान के स्रोत .....................................................................................
अध्याय नौ - वास्ततवक शातन्त्त-सरू ...............................................................................
लेखक-पररचय ...........................................................................................

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय एक
योग की पणू णता
पणू ण परुु षोत्तम भगवान् कृ ष्ण भगवद-् गीता के छठे अध्याय में सवोत्तम योग पद्धतत का वणणन करते हैं। वहााँ पर उन्त्होंने
हठयोग पद्धतत की व्याख्या की है। कृ पया स्मरण रखें तक हम भगवद-् गीता के आधार पर ही इस कृ ष्णभावनामृत आन्त्दोलन
का प्रचार कर रहे हैं। यह मनगढ़न्त्त नहीं है। भतियोग एक प्रामातणक पद्धतत है और यतद आप भगवान् के तवषय में ज्ञान प्राप्त
करना चाहते हैं, तो आपको इस भतियोग पद्धतत को अपनाना होगा, क्योंतक भगवद-् गीता के छठे अध्याय में यह तनष्कषण
तनकाला गया है तक श्रेष्ठ योगी वही है, जो अपने अन्त्तर में सदैव कृ ष्ण का स्मरण करता रहता है।
परम अतधकारी कृ ष्ण ने अष्ाांगयोग पद्धतत की सांस्ततु त की है। इस योग-पद्धतत का पहला चरण है, अत्यन्त्त पतवर
और एकान्त्त स्थान का चनु ाव करना। अष्ाांग ध्यानयोग का अभ्यास फै शन से प्रभातवत आधतु नक महानगरों में नहीं तकया
जा सकता। यह सम्भव नहीं है। यही कारण है तक भारत में जो मनष्ु य योगाभ्यास करने में गम्भीर हैं, वे दरू तहमालय में बसे
अत्यन्त्त एकान्त्त स्थान हररद्वार में चले जाते हैं। वहााँ जाकर वे एकान्त्त में रहते हैं एवां आहार तथा तनद्रा की सांयतमत प्रतिया
का पालन करते हैं। कामसख ु का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उन तवतध-तवधानों का दृढ़तापवू णक पालन करना पड़ता है। मार
व्यायाम का प्रदशणन करना योग की पणू णता नहीं है। योग का अथण है इतन्त्द्रय-तनग्रह। यतद आप अतनयतन्त्रत रूप से इतन्त्द्रयों को
तवषय-भोग में सांलग्न करें ग,े तकन्त्तु साथ ही साथ योगाभ्यास का प्रदशणन करें गे, तो आप कभी सफल नहीं होंगे। पहले आपको
एकान्त्त स्थान का चनु ाव करना होगा और तफर बैठकर अधणतनमीतलत नेरों से नातसका के अग्रभाग में दृतष् एकाग्र करनी
होगी। आप अपनी मद्रु ा नहीं बदल सकते। ऐसे अनेक तवतध-तवधान हैं, सम्भवतया तजनका पालन आज के समय में नहीं
तकया जा सकता।
आज से 5,000 वषण पवू ण भी, जब तवश्व की पररतस्थततयााँ तभन्त्न थीं, तब भी यह योग-पद्धतत व्यावहाररक नहीं थी।
यहााँ तक तक अजणनु जैसे महापरुु ष, जो राजकुल के महान योद्धा थे एवां भगवान् कृ ष्ण के अन्त्तरांग सखा थे और तनरन्त्तर उनके
साथ रहते थे, स्वयां कृ ष्ण के मख ु से योग-पद्धतत का वणणन सनु कर कहने लगे, "हे कृ ष्ण! मैं इसका पालन करने में असमथण
ह।ाँ ” उन्त्होंने स्पष् रूप से कह तदया, 'मेरे तलए ये तवतध-तवधान एवां मन को तनयतन्त्रत करने के तलए यह अभ्यास करना सम्भव
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

नहीं है।” तब हमें तवचार करना होगा : जब 5,000 वषण पवू ण अजणनु जैसे परुु ष ने इस अष्ागां योग पद्धतत का अभ्यास करने में
अपनी असमथणता प्रकट की, तब आज हम इसका अभ्यास कै से कर सकते हैं?
इस यगु में लोग अल्पायु हैं। भारत में मनष्ु य की औसत आयु के वल पैंतीस वषण ही है। आपके देश में यह इससे
अतधक हो सकती है। परन्त्तु वास्तव में, जबतक आपके दादा सौ वषों तक जीतवत रहे, आप इतनी लम्बी आयु नहीं जी
सकते। ये वस्तएु ाँ पररवततणत हो रही हैं। आयु घटती ही जायेगी। शास्त्रों में भतवष्यवातणयााँ की गयी हैं तक इस यगु में मनष्ु य की
आय,ु उसकी दया और उसकी बतु द्ध का तनरन्त्तर ह्रास ही होता जाएगा। मनष्ु य बहुत शतिशाली नहीं हैं, उनकी जीवन-
अवतध बहुत ही कम है। हम हमेशा तचतन्त्तत रहते हैं और हमें वास्तव में अध्यात्म-तवज्ञान की कोई जानकारी नहीं है।
उदाहरणाथण, तवश्व भर में फै ले सैकड़ों और हजारों तवश्वतवद्यालयों में ज्ञान का ऐसा कोई भी तवभाग नहीं है, जहााँ
आत्मा के तवज्ञान की तशक्षा दी जाती हो। वास्तव में , हम सभी आत्मा हैं। भगवद-् गीता से हमें ज्ञात होता है तक वतणमान
जीवन में भी हम एक शरीर से दसू रे शरीर में देहान्त्तरण कर रहे हैं। एक समय हम सबका शरीर एक तशशु का शरीर था। कहााँ
गया वह शरीर ? वह अब नहीं रहा। इस समय मैं एक वृद्ध मनष्ु य ह,ाँ परन्त्तु मझु े अभी भी स्मरण है तक मैं एक समय छोटा
तशशु था। मझु े अभी भी स्मरण है तक जब मैं लगभग छह महीने का था, तो अपनी दीदी की गोद में लेटा था और वह कुछ
बनु ती थी और मैं खेलता था। जब मैं इसे स्मरण रख सकता हाँ तो प्रत्येक व्यति यह स्मरण रख सकता है तक एक समय
उसका शरीर तशश-ु शरीर था। तशश-ु शरीर के बाद मझु े बालक का शरीर प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् मझु े यवु ा-शरीर प्राप्त हुआ एवां
अब मैं इस (वृद्ध) शरीर में ह।ाँ वे शरीर कहााँ गये ? वे अब नहीं रहे। मेरा यह शरीर तभन्त्न है। भगवद-् गीता में वणणन तकया गया
है तक जब मैं इस शरीर का त्याग करूाँगा, तब मझु े एक अन्त्य शरीर स्वीकार करना पड़ेगा। यह समझना बहुत सरल है। मैंने
कई शरीर पररवततणत तकये हैं, के वल बाल्यावस्था से कौमायण और यौवन तक ही नहीं, परन्त्तु तचतकत्सा तवज्ञान की दृतष् से
हम हर क्षण अगम्य रूप से शरीर पररवततणत करते रहते हैं। यह प्रतिया सतू चत करती है तक आत्मा सनातन है। यद्यतप मैंने
अनेक शरीर पररवततणत तकये हैं, तथातप मझु े अपने तशश-ु शरीर तथा बाल्य-शरीर का स्मरण है-मैं वही व्यति ह,ाँ वही आत्मा
ह।ाँ उसी प्रकार, अन्त्ततः जब मैं यह शरीर पररवततणत करूाँगा, तब मझु े दसू रा शरीर ग्रहण करना पड़ेगा। यह सरल तसद्धान्त्त
भगवद-् गीता में वतणणत तकया गया है। हर व्यति इस पर तवचार कर सकता है, एवां इस क्षेर में वैज्ञातनक अनसु न्त्धान तकया
जाना चातहए।
हाल ही में मझु े टोरांटो से एक तचतकत्सक का पर तमला। उन्त्होंने सझु ाव तदया तक शरीर भी है और आत्मा भी है। मैंने
उनके साथ पर-व्यवहार तकया। वस्ततु ः यह एक तथ्य है। आत्मा का अतस्तत्व है। इस तवषय में अनेक प्रमाण न के वल
वैतदक सातहत्य से बतल्क सामान्त्य अनभु व से भी तदये जा सकते हैं। आत्मा है और यह आत्मा एक शरीर से दसू रे शरीर में
प्रवेश करता है, तकन्त्तु दभु ाणग्यवश तवश्वतवद्यालयों में इस तवषय पर गम्भीर अध्ययन की व्यवस्था नहीं है। यह बहुत अच्छी

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

बात नहीं है। वेदान्त्त-सरू में कहा है, “इस मनष्ु य शरीर का उद्देश्य आत्मा, परम सत्य की खोज करना है।” इस भौततक जगत्
में योगपद्धतत का अभ्यास आध्यातत्मक तसद्धान्त्तों की खोज करने के तलए ही तकया जाता है। स्वयां भगवान् कृ ष्ण ने भगवद-्
गीता में खोज की इस प्रतिया की सस्ां ततु त की है। जब अजणनु ने कहा, “तजस हठयोग-पद्धतत की है,” तो कृ ष्ण उसे आश्वस्त
करते हुए कहते हैं तक वह योतगयों में सवणश्रेष्ठ है। उन्त्होंने उसे यह कहकर आश्वस्त तकया तक वह हठयोग का अभ्यास करने
में असमथण होने की तचन्त्ता न करे । उन्त्होंने उसे कहा, “तवतभन्त्न प्रकार के सभी योतगयों में-अथाणत् कमणयोतगयों में से तम्ु हीं
सवणश्रेष्ठ योगी हो।” कृ ष्ण कहते हैं, “सारे योतगयों में से जो हृदय में मेरा ध्यान करते हुए अपने भीतर तनरन्त्तर मेरा स्मरण करता
है, वह प्रथम श्रेणी का योगी है।”
वह कौन है, जो हमेशा अपने अन्त्तमणन में कृ ष्ण का ध्यान कर सके ? यह समझना अत्यन्त्त सरल है। यतद आप तकसी
से प्रेम करते हैं, तो आप सदैव उसी के ध्यान में मग्न रह सकते हैं, अन्त्यथा यह सम्भव नहीं है। यतद आप तकसी से प्रेम करते
हों, तो स्वाभातवक है तक आप सदैव उसी के तवषय में सोचेंगे। यह ब्रह्म-सतां हता में बताया गया है। जो भगवान् से, कृ ष्ण से
प्रेम करते हैं, वे सदैव उन्त्हीं के ध्यान में तल्लीन रह सकते हैं। जब भी मैं कृ ष्ण के तवषय में कुछ कहाँ तो आपको समझना
चातहए तक वे भगवान् हैं। कृ ष्ण का दसू रा नाम है, श्यामसन्त्ु दर। इसका अथण यह है तक वे मेघ के समान श्याम हैं, लेतकन
अत्यन्त्त सन्त्ु दर हैं। ब्रह्म-सतां हता के एक श्लोक में तलखा है तक जो भी सन्त्त श्यामसन्त्ु दर कृ ष्ण से प्रेम करते हैं, वे हमेशा अपने
हृदय में भगवान् का ही ध्यान करते हैं। वस्ततु ः जब कोई व्यति योग पद्धतत के अनसु ार समातध की अवस्था तक पहुचाँ ता
है, तो वह तबना रुके तनरन्त्तर अपने हृदय में भगवान् तवष्णु के स्वरूप का ही ध्यान करता है। वह उसी ध्यान में मग्न रहता है।
श्यामसन्त्ु दर कृ ष्ण आतद तवष्णु हैं। यह भगवद-् गीता में कहा गया है। ब्रह्मा, तवष्णु और तशव तथा अन्त्य सभी भगवान्
कृ ष्ण में सतम्मतलत हैं। वैतदक ग्रन्त्थों के अनसु ार पहले वे बलदेव के रूप में अपना तवस्तार करते हैं-बलदेव सांकषणण के रूप
में, सक
ां षणण नारायण के रूप में तथा नारायण तवष्णु (महातवष्ण,ु गभोदकशायी तवष्णु और क्षीरोदकशायी तवष्ण)ु के रूप में
तवस्तार करते हैं। ये वैतदक कथन हैं। हम समझ सकते हैं तक कृ ष्ण ही आतद तवष्णु श्यामसन्त्ु दर हैं।
यह पणू ण पद्धतत है। जो हमेशा अपने भीतर कृ ष्ण के तवषय में सोचता है, वह श्रेष्ठ योगी है। यतद आप योग में पणू णता
प्राप्त करना चाहते हैं, तो मार तवतध-तवधान के पालन से सांतष्ु न रहें। आपको और आगे जाना होगा। वास्तव में योग की
पणू णता तब प्राप्त होती है, जब आप समातध की अवस्था में पहुचाँ कर अपने हृदय में सदैव भगवान् के तवष्णु रूप का अतवचल
भाव से ध्यान करते हैं। इसतलए योगी एकान्त्त स्थान में चले जाते हैं और वहााँ जाकर सभी इतन्त्द्रयों और मन को सयां तमत
करते हुए और भगवान् तवष्णु पर पणू ण रूप से ध्यान एकाग्र करते हुए समातध की अवस्था में पहुचाँ जाते हैं। यही योग की
पणू णता कहलाती है। वास्तव में यह योग-पद्धतत अत्यन्त्त कतठन है। कुछ तवरले व्यतियों के तलए ही यह सम्भव हो सकती है,
तकन्त्तु सामान्त्य लोगों के तलए शास्त्रों में इसकी सस्ां ततु त नहीं की गई है-

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

हरे नाणम हरे नाणम हरे नाणमैव के वलम् ।


कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गततरन्त्यथा ॥
अथाणत् “इस कतलयगु में मतु ि का एकमार साधन भगवान् के नामों का कीतणन करना है। अन्त्य कोई मागण नहीं है,
अन्त्य कोई मागण नहीं है, अन्त्य कोई मागण नहीं है।” (बृहन्त्नारदीय परु ाण)
योग-पद्धतत के तलए स्वणण यगु सतयगु में तजस रूप की सांस्ततु त की गई थी, वह था-तनरन्त्तर तवष्णु पर ध्यान करना।
रेतायगु में महान् यज्ञों को सम्पन्त्न करके व्यति योगाभ्यास कर सकता था। इसके अगले यगु द्वापर में व्यति श्रीतवग्रह की
अचणना से पणू णता प्राप्त कर सकता था। वतणमान यगु कतलयगु कहलाता है। कतलयगु का अथण है कलह और मतभेद का यगु ।
हर व्यति का एक दसू रे से मतभेद है। सबके अपने तसद्धान्त्त हैं, अपना दशणन है। यतद मैं आपसे सहमत नहीं हाँ तो आप मझु से
झगड़ते हैं। यही कतलयगु का लक्षण है। इसतलए इस यगु में के वल पतवर नाम के कीतणन की प्रतिया की सांस्ततु त की गई है।
भगवान् के पतवर नाम के कीतणन मार से ही मनष्ु य पणू ण आत्म-साक्षात्कार की उसी अवस्था को प्राप्त कर सकता है, तजसे
सतयगु में योग-पद्धतत से, रेता यगु में महान् यज्ञों के अनष्ठु ान से और द्वापर यगु में तवशाल स्तर पर मतन्त्दर में श्रीतवग्रह की
अचणना से प्राप्त तकया जा सकता था। वही पणू णता आज हरर-कीतणन की सरल तवतध से प्राप्त की जा सकती है। हरर का अथण है
पणू ण परुु षोत्तम भगवान् और कीतणन का अथण है गणु गान करना।
शास्त्रों में इस तवतध की सांस्ततु त की गयी है और आज से 500 वषण पवू ण चैतन्त्य महाप्रभु ने हमें यही तवतध प्रदान की
थी। वे नवद्वीप नामक एक नगर में प्रकट हुए थे। यह स्थान कलकत्ता के उत्तर में लगभग साठ मील की दरू ी पर है। लोग आज
भी वहााँ जाते हैं। वहााँ हमारा एक मतन्त्दर भी है। यह एक पतवर तीथण स्थल है। चैतन्त्य महाप्रभु वहीं प्रकट हुए थे और उन्त्होंने
वहााँ तवशाल सामतू हक सांकीतणन आन्त्दोलन का प्रारम्भ तकया था, जो तक तबना तकसी भेदभाव के सम्पन्त्न तकया जाता है।
उन्त्होंने भतवष्यवाणी की थी तक यह सांकीतणन आन्त्दोलन एक तदन सारे तवश्व में फै ल जायेगा और हरे कृ ष्ण महामन्त्र इस पृथ्वी
के प्रत्येक गााँव और शहर में गाया जाएगा। भगवान् चैतन्त्य महाप्रभु के आदेशों के अनरू ु प उनके चरण-तचह्नों पर चलते हुए
हम हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन करते हुए इस सांकीतणन आन्त्दोलन का प्रचार करने का प्रयास कर रहे हैं और यह सवणर
सफल प्रमातणत हो रहा है। मैं इसका प्रचार तवशेष रूप से तवदेशों में, यरू ोप के सभी देशों में, अमेररका, जापान, कनाडा,
आस्रेतलया और मलेतशया आतद देशों में कर रहा ह।ाँ मैंने इस सांकीतणन-आन्त्दोलन का आरम्भ तकया है और अब इसके
के न्त्द्र तवश्व भर में स्थातपत हो गये हैं। हमारे सभी 80 के न्त्द्रों को महान् उत्साह से स्वीकारा जा रहा है। मैंने भारत से इन यवु क-
यवु ततयों का आयात नहीं तकया है, परन्त्तु ये लोग इस आन्त्दोलन को गम्भीरता से अपना रहे हैं, क्योंतक यह उनके आत्मा
को सीधे प्रभातवत करता है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

हमारे जीवन के तवतभन्त्न सोपान हैं, शारीररक पक्ष, मानतसक पक्ष, बौतद्धक पक्ष और आध्यातत्मक पक्ष। वस्ततु :
हमारा सम्बन्त्ध आध्यातत्मक पक्ष से है। जो लोग शारीररक पक्ष के प्रलोभन में आ जाते हैं, वे कुत्ते-तबल्लीयों से बेहतर नहीं
हैं। यतद हम यह स्वीकार करते हैं तक “मैं यह शरीर ह,ाँ ” तो हम कुत्ते-तबतल्लयों से बेहतर नहीं हैं, क्योंतक उनकी तवचारधारा
ऐसी ही होती है। हमें यह समझना होगा तक, “मैं यह शरीर नहीं ह।ाँ ” जैसे भगवान् कृ ष्ण भगवद-् गीता में अपने उपदेश के
आरम्भ में अजणनु को इसी बात पर बल देना चाहते थे, 'सबसे पहले यह समझने का प्रयत्न करो तक तमु कौन हो। तमु इस
देहात्मबतु द्ध में क्यों शोक कर रहे हो? तम्ु हें लड़ना है। तनश्चय ही, तम्ु हें अपने बन्त्ध-ु बान्त्धवों और भतीजों से भी लड़ना है और
तमु शोक कर रहे हो। तकन्त्तु पहले तो तम्ु हें यही समझना होगा तक तमु यह शरीर हो या नहीं।” यहीं से भगवद-् गीता का
आरम्भ होता है। कृ ष्ण अजणनु को यह समझाने का प्रयत्न तकया तक वह शरीर नहीं है। यह उपदेश मार अजणनु के तलए ही
नहीं, मानवमार के तलए था। सबसे पहले हमें यही सीखना होगा, “मैं यह शरीर नहीं ह,ाँ ” “मैं जीवात्मा ह”ाँ और यही वेदों
का उपदेश है।
जैसे ही आप इस तथ्य से परू ी तरह आश्वस्त होते हैं तक आप शरीर नहीं हैं, तो वह ब्रह्म-साक्षात्कार की ब्रह्मभतू
अवस्था कहलाती है। यही वास्ततवक ज्ञान है। आहार, तनद्रा और मैथनु के ज्ञान में प्रगतत करना पाशतवक ज्ञान है। एक कुत्ता
भी जानता है तक आहार, तनद्रा और मैथनु कै से तकया जाता है और अपनी रक्षा कै से की जाती है। यतद हमारी तशक्षा इसी
सीमा तक है (कुत्ता अपने स्वभाव के अनसु ार भोजन करता है, तकन्त्तु हम एक सन्त्ु दर स्थान पर सन्त्ु दर टेबल पर स्वातदष्
पकवान खाते हैं), तो यह प्रगतत नहीं है। तफर भी तसद्धान्त्त तो भोजन करने का ही है। इसी तरह आप 6 मांतजले या 122
मांतजले भवन के सन्त्ु दर कक्ष में सो सकते हैं और कुत्ता सड़क पर सो सकता है, तकन्त्तु जब आप सोते हैं और कुत्ता सोता है,
तो इसमें कोई अन्त्तर नहीं है। आपको यह मालमू नहीं पड़ता तक आप तकसी गगनचांबु ी भवन में सो रहे हैं या जमीन पर,
क्योंतक आप तो अपने तबस्तर से कहीं दरू सपनों की दतु नया में खोये रहते हैं। आप भल ू चक ु े होते हैं तक आपका शरीर तबस्तर
पर है और आप सपनों की दतु नया में हवा में उड़ रहे हैं। इसतलए सोने की बेहतर व्यवस्था करना प्रगतत की पररचायक नहीं
हो सकती। इसी प्रकार कुत्ते के तलए मैथनु की कोई सामातजक रीतत नहीं है। जब भी वह कुततया को देखता है, वह वहीं
सड़क पर मैथनु करने लगता है। आप एकान्त्त स्थल में शान्त्त भाव से मैथनु कर सकते हैं (हालााँतक अब तो लोग कुत्ते की
तरह मैथनु करना भी सीखने लगे हैं), तकन्त्तु तसद्धान्त्त तो मैथनु का ही है। यही बात आत्मरक्षा पर भी लागू होती है। कुत्ता
अपने बचाव के तलए दााँतों और नाखनू ों का प्रयोग करता हैं और आप के पास अणु बम है। तकन्त्तु उद्देश्य है आत्मरक्षा।
इसतलए शास्त्र कहता है तक मानव-जीवन शारीररक मााँगों के इन चार मल ू भतू तसद्धान्त्तों के तलए ही नहीं है। एक दसू री बात
भी है, तक मनष्ु य को परम सत्य को जानने की तजज्ञासा रखनी चातहए। और इसी तशक्षा की आज कमी है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

वैतदक सभ्यता के अनसु ार ब्राह्मण वही है, जो सतु शतक्षत हो और आत्मतत्व का ज्ञान रखता हो। भारतवषण में ब्राह्मणों
को पतडडत कहकर सम्बोतधत तकया जाता है। तकन्त्तु वस्ततु : वे जन्त्मना ब्राह्मण नहीं हो सकते। ब्राह्मण होने के तलए उनसे
अपेक्षा की जाती है तक आत्मा क्या है, इसका ज्ञान उन्त्हें हो।
जन्त्म से प्रत्येक व्यति एक शद्रू -चौथी श्रेणी का मनष्ु यहोता है, तकन्त्तु पतवरीकरण की प्रतिया से उसका सधु ार तकया
जा सकता है। पतवरीकरण की प्रतियाओ ां के दस प्रकार हैं। व्यति इन सभी प्रतियाओ ां का पालन करता हुआ आध्यातत्मक
गरुु के पास जाता है, जो उसके दसू रे जन्त्म की मान्त्यता के रूप में उसे यज्ञोपवीत प्रदान करते हैं। पहला जन्त्म उसके माता-
तपता से होता है और दसू रा आध्यातत्मक गरुु एवां वैतदक ज्ञान से होता है। यही दसू रा जन्त्म कहलाता है। उस समय तशष्य को
वेद से ज्ञान का अध्ययन करने का तथा उसे समझने का अवसर तदया जाता है। सभी वेदों का अच्छी तरह से अध्ययन करने
से वह वास्तव में अनभु व करता है तक आत्मा क्या है और भगवान् के साथ उसका सम्बन्त्ध क्या है। उसके बाद वह ब्राह्मण
हो जाता है। तनराकार ब्रह्मज्योतत के ज्ञान की उस तस्थतत से ऊपर उठकर वह भगवान् तवष्णु को जानने के स्तर पर आ जाता
है; तब वह वैष्णव बन जाता है। यही पणू णता की प्रतिया है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय दो
योग तथा योगेश्वर
योग का अथण है आत्मा और परमात्मा या परम तत्व और सक्ष्ू म जीवों का जड़ु ना। भगवान् श्रीकृ ष्ण ही वे परम
भगवान् हैं। इसतलए योग के अतन्त्तम लक्ष्य होने के कारण कृ ष्ण का नाम योगेश्वर है योग के स्वामी।
भगवद-् गीता के अन्त्त में कहा गया है, “जहााँ कृ ष्ण हैं और सवणश्रेष्ठ धनधु ाणरी अजणनु है, वहााँ तवजय तनतश्चत है।”
भगवद-् गीता महाराज धृतराष्र के सतचव सजां य द्वारा तकया गया आख्यान है। यह रे तडयो की वाय-ु तरांगों के समान
है। प्रेक्षागृह में नाटक खेला जा रहा है, लेतकन आप अपने कमरे में बैठे उसे सनु सकते हैं। आज तजस प्रकार हमारे पास ऐसी
यातन्त्रक व्यवस्था है, उसी तरह उस काल में भी ऐसी कोई व्यवस्था थी, यद्यतप उस समय कोई यन्त्र नहीं था। तफर भी धृतराष्र
का सतचव महल में बैठे हुए यद्ध ु भतू म की गतततवतधयों को देख रहा था और महाराज धृतराष्र को, जो अन्त्धे थे, यद्ध ु का
वणणन सनु ा रहा था। अन्त्त में सजां य तनष्कषण देते हुए कहता है तक कृ ष्ण पणू ण परुु षोत्तम भगवान् हैं।
योग-पद्धतत का वणणन करते हुए कहा गया है तक कृ ष्ण का नाम योगेश्वर है। योगेश्वर से बड़ा योगी भला कौन हो
सकता है और कृ ष्ण योगेश्वर हैं। योग के अनेक तवतभन्त्न प्रकार हैं। योग का अथण है पद्धतत और योगी का अथण है वह व्यति,
जो उस पद्धतत का अभ्यास करता हो। योग का अतन्त्तम लक्ष्य है भगवान् कृ ष्ण को समझना। इसतलए कृ ष्णभावनामृत का
अथण है, योग की सवोत्तम पद्धतत का अभ्यास करना।
भगवान् कृ ष्ण ने गीता में अपने अन्त्तरांग सखा अजणनु को सवोत्तम योग-पद्धतत के बारे में बतलाया था। आरम्भ में
भगवान् ने कहा तक यह पद्धतत के वल उसी व्यति के द्वारा अपनायी जा सकती है, तजसने इससे लगाव तवकतसत कर तलया
हो। यह कृ ष्णभावनामय योग-पद्धतत कोई ऐसे सामान्त्य व्यति द्वारा नहीं अपनायी जा सकती, तजसमें कृ ष्ण के तलए अनरु ाग
न हो, क्योंतक यह एक तवतशष् और सवोत्तम योग-पद्धतत है-भतियोग।
प्रत्यक्ष आसति के पााँच प्रकार हैं और परोक्ष आसति के सात प्रकार हैं। परोक्ष आसति भति नहीं है। प्रत्यक्ष
आसति भति कहलाती है। यतद कृ ष्ण के प्रतत आपकी आसति प्रत्यक्ष तवतध से है, तो इसे भति कहेंगे और यतद आपकी

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

आसति परोक्ष तवतध से है, तो यह भति नहीं कहलायेगी, परन्त्तु आसति तो यह भी है। जैसे राजा कांस कृ ष्ण का मामा था
और यह चेतावनी दी गयी थी तक कांस का सहां ार उसकी बहन के एक लड़के द्वारा तकया जाएगा। इसतलए वह अपनी बहन
के लड़कों के प्रतत अत्यन्त्त तचतां तत हो उठा और उसने अपनी बहन को जान से मार डालने का तनश्चय तकया। परन्त्तु कृ ष्ण
की मााँ देवकी को उसके पतत वसदु वे ने बचा तलया। उन्त्होंने कांस के साथ समझौता तकया और कांस के सामने प्रस्ताव रखा,
“तमु अपनी बहन के बेटे से भयभीत हो, अत: तम्ु हारी बहन तो तम्ु हें खदु मारने वाली नहीं है।” इसतलए उन्त्होंने प्राथणना की
तक, “तमु अपनी बहन की हत्या न करो और मैं तम्ु हें वचन देता हाँ तक उसके तजतने भी परु होंगे, वे तम्ु हारे पास लाये जाएाँगे।
और यतद तमु चाहो तो उन्त्हें तमु मार सकते हो।”
वसदु वे ने यह प्रस्ताव इसतलए रखा था तक इससे शायद उनकी पत्नी के प्राण बच जााँए और वसदु वे जी ने तवचार
तकया, "जब देवकी का परु उत्पन्त्न होगा, तब कांस का हृदय शायद पररवततणत हो। जाए।” तकन्त्तु कांस इतना िूर असरु था
तक उसने देवकी के सभी परु ों को मौत के घाट उतार तदया। ऐसा कहा गया था तक उसकी बहन का आठवााँ परु उसका सहां ार
करे गा। इसतलए जब कृ ष्ण मााँ के गभण में थे, तो कांस हमेशा कृ ष्ण के बारे में सोचता रहता था। आप कह सकते हैं तक वह
कृ ष्णभावनाभातवत नहीं था, तकन्त्तु वास्तव में वह था। प्रत्यक्ष रूप से नहीं, प्रेम के कारण नहीं, बतल्क शरु के रूप में। वह
शरु के रूप में कृ ष्णभावनाभातवत था। इसतलए यह भति नहीं है। भति में लगा हुआ व्यति कृ ष्ण के सखा के रूप में, उनके
सेवक, उनके माता-तपता या उनकी तप्रयतमा के रूप में कृ ष्णभावनाभातवत हो सकता है।
आप कृ ष्ण से अपने प्रेमी या परु के रूप में, तमर या स्वामी के रूप में या तफर परम उत्कृ ष् के रूप में प्रेम कर सकते
हैं। कृ ष्ण के साथ इन पााँच प्रकार के प्रत्यक्ष सम्बन्त्धों को भति कहा गया है। इनसे भौततक लाभ की प्रातप्त नहीं होती।
भगवान् को परु के रूप में स्वीकार करना उनको तपता के रूप में स्वीकार करने से कहीं अतधक श्रेष्ठ है। इसमें अन्त्तर
भी है। तपता और परु के सम्बन्त्धों के अन्त्तगणत परु तपता से कुछ पाने की इच्छा रखता है। तपता का परु के साथ सम्बन्त्ध यह
होता है तक तपता हमेशा परु को कुछ देना चाहता है। इसतलए भगवान् अथाणत् कृ ष्ण के साथ परु का सम्बन्त्ध तपता के सम्बन्त्ध
की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ है, क्योंतक वह सोचता है तक, “यतद मैं भगवान् को तपता के रूप में स्वीकार करता ह,ाँ तो मैं अपनी
आवश्यकताओ ां के तलए तपता के सामने हाथ फै लाऊाँगा। परन्त्तु यतद मैं श्रीकृ ष्ण को परु के रूप में स्वीकार करूाँगा, तो उनके
बचपन के प्रारम्भ से ही मेरा कायण होगा-उनकी सेवा करना।” तपता परु के जन्त्म से ही उस का अतभभावक होता है, इसतलए
वसदु वे और देवकी की इस सम्बन्त्ध की भावना उदात्त है।
कृ ष्ण की धारी मााँ यशोदा सोचती हैं, “यतद मैं कृ ष्ण को पयाणप्त भोजन नहीं दगाँू ी, तो वह मर जाएगा।” वे यह भल

जाती हैं तक कृ ष्ण परमेश्वर हैं और तीनों लोकों के आधार हैं। वे यह भी भल ू जाती हैं तक भगवान् कृ ष्ण ही सारे जीवों की
सभी आवश्यकताओ ां की पतू तण करते हैं। वही भगवान् यशोदा के परु के रूप में अवतररत हुए हैं और यशोदा सोच रही हैं,
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

“यतद मैं उसे अच्छी तरह तखलाउांगी नहीं, तो वह मर जाएगा।” यही प्रेम है; वे यह भल
ू गई हैं तक पणू ण परुु षोत्तम भगवान् ही
एक तशशु के रूप में उनके सामने प्रकट हुए हैं।
आसति का यह सम्बन्त्ध अत्यन्त्त उत्कृ ष् एवां पतवर है। इसे समझने में समय लगता है, परन्त्तु एक ऐसी तस्थतत होती
है, जहााँ हम भगवान् से यह कहने के बदले तक, "हे भगवान,् हमें प्रतततदन की रोटी दीतजए,” हम यह सोच सकते हैं तक यतद
आप उन्त्हें रोटी नहीं देंगे, तो भगवान् मर जाएाँगे। यह उत्कृ ष् प्रेम का भाव है। कृ ष्ण के प्रेतमयों में से उनकी सवोच्च भि
प्रेतमका श्रीमती राधारानी तथा कृ ष्ण के बीच भी ऐसा ही सम्बन्त्ध है। यशोदा मैया उन्त्हें मातृभाव से प्रेम करती हैं, सदु ामा
तमर के रूप में उनके प्रेमी हैं। अजणनु भी तमर के रूप में उनके प्रेमी हैं। कृ ष्ण के तवतभन्त्न प्रकार के कोतट-कोतट अन्त्तरांग भि
हैं।
इसतलए यहााँ वतणणत योग-पद्धततयााँ भति मागण की ओर ले जाती हैं और भति योग का अभ्यास उन सभी व्यतियों
के द्वारा तकया जा सकता है, तजन्त्होंने कृ ष्ण के प्रतत अनरु ाग का तवकास कर तलया हो। अन्त्य व्यतियों के तलए यह सम्भव
नहीं है। और यतद कोई कृ ष्ण के साथ अनरु ति का यह भाव तवकतसत कर लेता है, तो यह सम्बन्त्ध ऐसा होगा तक वह भगवान्
को, कृ ष्ण को परू ी तरह जान लेगा। हम भगवान् को अपने अनेक तसद्धान्त्तों और अनमु ानों से समझने का प्रयत्न कर सकते
हैं, लेतकन वह अपने आप में एक कतठन काम है। हम कह सकते हैं तक हमने भगवान् को जान तलया है, परन्त्तु उनको यथाथण
रूप में जानना सम्भव नहीं है, क्योंतक हमारी इतन्त्द्रयााँ सीतमत हैं और वे असीम हैं।
श्रीमद-् भागवत् में कहा गया है तक हमारी सभी इतन्त्द्रयााँ अपणू ण हैं। हम भौततक जगत को भी परू ी तरह से नहीं जान
सकते। आपने रात में आकाश में तकतने ही ग्रह-नक्षर देखे होंगे, तकन्त्तु आप जानते नहीं हैं तक वे क्या हैं। आप तो यह भी
नहीं जानते तक चन्त्द्रमा क्या है? जबतक मनष्ु य तकतने ही वषों से स्पतु तनक द्वारा वहााँ जाने की कोतशश कर रहा है। इस पृथ्वी
ग्रह के तवषय में भी हम यह नहीं जानते तक यहााँ पर तकतनी तवतवध प्रकार की वस्तएु ाँ हैं! आप समद्रु या आकाश की ओर
देख,ें तो मालमू पड़ेगा तक हमारी अनभु तू त तकतनी सीतमत है। इसतलए हमारा ज्ञान सदैव अपणू ण हैं । इस बात पर हमें सहमत
होना ही पड़ेगा। यतद हम मख ू णतापणू ण ढांग से यह सोचें तक हमने हर प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर तलया है और तवज्ञान के क्षेर में
काफी उन्त्नतत कर ली है, तो यह हमारी एक और मख ू णता है। पणू ण ज्ञान प्राप्त करना सम्भव ही नहीं है।
और जब भौततक जगत को ही जानना सम्भव नहीं है, तजसे हम प्रतततदन अपनी आाँखो से देखते हैं, तो आध्यातत्मक
जगत और पणू ण परुु षोत्तम भगवान् कृ ष्ण के बारे में क्या कह सकते हैं? वे सवोपरर आध्यातत्मक रूप हैं और उन्त्हें हमारी
सीतमत इतन्त्द्रयों से जान पाना सम्भव नहीं है। तो तफर हम कृ ष्णभावनामृत के तलए क्यों इतना कष् उठा रहे हैं, जब यह सम्भव
ही नहीं है? यतद ये अपणू ण इतन्त्द्रयााँ भगवान् कृ ष्ण का यथारूप साक्षात्कार नहीं कर सकतीं? तो इसका उत्तर यह है तक यतद
आप तवनम्र बनते हैं, यतद आप कृ ष्ण का अनश ु ीलन करने की आध्यातत्मक भावना को तवकतसत कर लेते हैं और आप
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

उनके दास, तमर, माता-तपता या तप्रयतमा की तस्थतत स्वीकार कर सकते हैं, यतद आप भगवान् की सेवा करना प्रारम्भ करते
हैं, तब आप उन्त्हें जानना प्रारम्भ कर सकते हैं।
आपकी सेवा का आरम्भ तजह्वा से होता है। कै से? तजह्वा से आप हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन कर सकते हैं और
तजह्वा से ही आप कृ ष्ण-प्रसाद के रूप में आध्यातत्मक आहार का आस्वादन भी कर सकते हैं। इसतलए इस प्रतिया का
प्रारम्भ बहुत अच्छे ढांग से होता है। आप हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन कर सकते हैं।
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
और जब कृ ष्ण की कृ पा से आपको प्रसाद तदया जाय, तो आप श्रद्धा भाव से उसे ग्रहण करें । इसका पररणाम यह
होगा तक यतद आप तवनम्र हो जाते हैं और यतद आप कीतणन और प्रसाद ग्रहण करने की इस सेवा को आरम्भ करें गे, तो
भगवान् कृ ष्ण स्वयां को आपके समक्ष प्रकट कर देंगे।
आप कृ ष्ण को तकण -तवतकण द्वारा नहीं जान सकते। यह सम्भव नहीं है, क्योंतक आपकी इतन्त्द्रयााँ अपणू ण है। तकन्त्तु यतद
आप सेवा का यह िम प्रारम्भ करें गे, तो यह सम्भव हो जाएगा-एक तदन भगवान् कृ ष्ण स्वयां को आपके समक्ष प्रकट कर
देंगे : “मैं ऐसा ह।ाँ ” ठीक उसी तरह, जैसे कृ ष्ण अजणनु के सामने प्रकट हुए थे। अजणनु एक भि है और वह तवनम्र है और
उसका कृ ष्ण के साथ तमर का सम्बन्त्ध है। इसतलए कृ ष्ण उसके सामने प्रकट हो जाते हैं।
उन्त्होंने भगवद-् गीता का प्रवचन अजणनु को सनु ाया, न तक तकसी वेदान्त्ती दाशणतनक तकण वादी की। आप पाएाँगे तक
चौथे अध्याय के आरम्भ में कृ ष्ण कहते हैं, "वही प्राचीन योग पद्धतत मैंने आज तमु से कही है।” इसमें कहा गया है “तमु
से।” अजणनु एक क्षतरय योद्धा थे। वे गृहस्थ थे, सन्त्ां यासी भी नहीं थे-परन्त्तु ये सब भगवान् कृ ष्ण को जानने की योग्यताएाँ नहीं
हैं। मान लीतजए, मैं कहाँ तक मैं सन्त्ां यासी हो गया ह,ाँ परन्त्तु यह वह योग्यता नहीं है तक तजससे मैं कृ ष्ण को जान सकाँू गा। तो
तफर आवश्यक योग्यता क्या है? वह यह है, “तजसने स्वयां में प्रेम और भति से सेवा करने की भावना को तवकतसत तकया
है, के वल वही मझु े जान सकता है।” अन्त्य और कोई नहीं। बड़े-बड़े मीमासां क और तवद्वान भी नहीं, परन्त्तु एक बालक कृ ष्ण
को समझ सकता है, यतद उसमें कृ ष्ण के प्रतत परू ी श्रद्धा है। इसतलए श्रद्धा और भति व्यति को वे योग्यताएाँ प्रदान करती हैं।
के वल ऐसी श्रद्धा और सेवा से आप यह जान पाएाँगे तक कृ ष्ण पणू ण परुु षोत्तम भगवान् हैं। इसतलए कृ ष्णभावनामृत
का प्रचार करते हुए हम आपका और अपना समय बबाणद नहीं कर रहे हैं, क्योंतक हमें पणू ण तवश्वास है तक कृ ष्ण पणू ण परुु षोत्तम
भगवान् हैं। सैद्धातन्त्तक या व्यावहाररक रूप में आपको यह स्वीकार करना चातहए तक कृ ष्ण परम परुु ष हैं। सैद्धातन्त्तक रूप से
समझने के तलए धमणग्रन्त्थ हैं। वैतदक सातहत्य से अथवा प्राचीन और अवाणचीन काल के महान् भिों से आप यह जान सकें गे।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

वतणमान काल के तलए चैतन्त्य महाप्रभु हैं। चैतन्त्य महाप्रभु ही महान् प्रमाण हैं। उनसे महान् अन्त्य कोई नहीं है। वे कृ ष्ण
के तलए पागल से हो गए थे और उनके बाद उनके छह तशष्य, गोस्वामी, तवशेष रूप से जीव गोस्वामी, हमारे तलए अत्यन्त्त
मल्ू यवान सातहत्य अपने पीछे छोड़ गये हैं। उन्त्होंने कृ ष्ण के तवषय में तवपल ु सातहत्य की रचना की है। इसतलए गरुु -तशष्य
परम्परा से आज हम इस तस्थतत तक पहुचाँ े हैं और यतद आप प्राचीन इततहास को पसदां करते हैं, तो बहुत प्राचीन काल में
व्यासदेव तक जा सकते हैं। वे श्रीमद्भागवत और कृ ष्ण सम्बन्त्धी अन्त्य सातहत्य के रचतयता के रूप में जानेमाने हैं। श्रीमद्भागवत
कृ ष्ण के वणणन के अततररि और कुछ नहीं है। व्यासदेव भगवद-् गीता के भी रचतयता हैं। गीता भगवान् कृ ष्ण ने कही थी
और व्यासजी ने उसे तलतपबद्ध करके महाभारत में सतम्मतलत कर ली।
इस प्रकार व्यासदेव भगवान् कृ ष्ण को परम परुु ष के रूप में स्वीकार करते हैं। श्रीमद्भ-भागवत में उन्त्होंने कृ ष्ण के
अनेक अवतारों का वणणन तकया है। उनके अनसु ार कृ ष्ण के बाईस अवतार थे। और तनष्कषण के रूप में वे कहते हैं तक जो
तभन्त्न-तभन्त्न अवतार उसमें वतणणत तकये गये हैं, वे सब भगवान् के अश ां रूप हैं। तकन्त्तु कृ ष्ण स्वयां पणू ण परुु षोत्तम भगवान् हैं।
वे अश ां नहीं हैं, तकन्त्तु शतप्रततशत भगवान् हैं। तो इस प्रकार यहााँ प्रामातणक अतधकारी का प्रमाण है।
और व्यावहाररक रूप में यतद हम शास्त्रों को मानते हैं, तो हम यह भी जान सकते हैं तक कृ ष्ण से अतधक शतिमान
और कौन हो सकता है? कृ ष्ण से अतधक सन्त्ु दर और कौन हो सकता है? कृ ष्ण से अतधक यशस्वी और कौन हो सकता है?
कृ ष्ण आज से 5,000 वषण पवू ण अवतररत हुए थे, परन्त्तु श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उनके ज्ञान की उपासना आज भी होती है।
के वल तहन्त्दू या भारतीय ही इसकी उपासना नहीं करते, प्रत्यतु सारे तवश्व में इसका अध्ययन तकया जाता है। आपके देश में
तभन्त्न-तभन्त्न व्यतियों द्वारा तलखे गये भगवद-् गीता के लगभग पचास सस्ां करण तमलते हैं। इसी प्रकार, इगां लैंड, जमणनी, फ्ासां ,
और दसू रे सभी देशों में आपको गीता के सैकड़ों सस्ां करण तमल जाएाँगे। अत: कृ ष्ण से अतधक प्रतसद्ध और कौन हो सकता
है? इसके अनेक अन्त्य प्रमाण भी तमलते हैं। यतद आप शास्त्रों को मानते हैं, तो कृ ष्ण ने 16,108 पत्नीयों से तववाह तकया
था। और प्रत्येक पत्नी को रहने के तलए एक-एक महल तदया था। प्रत्येक पत्नी के दस-दस सन्त्तानें हुई थीं। और उन दसदस
सतां ानों से अनेक सन्त्तानें उत्पन्त्न हुई थीं। इस प्रकार हमारे पास शास्त्रों के प्रमाण भी हैं। ब्रह्म-सतां हता में भी कृ ष्ण को भगवान्
के रूप में स्वीकार तकये गये हैं। यह अत्यन्त्त प्राचीन धमणग्रन्त्थ है और इसकी रचना ब्रह्माडड के पहले जीव ब्रह्माजी द्वारा की
गई मानी जाती है।
इस ब्रह्म-सतहता में तलखा है, ईश्वर: परम, कृ ष्ण: / ईश्वर का अथण है भगवान।् भगवान् भी अनेक हैं। कहते हैं, देवी-
देवता अनेक हैं और परमेश्वर भी हैं। इसतलए ब्रह्म-सतहता में कहा गया है, ईश्वरः परम: कृ ष्णः । अथाणत् वे ईश्ववरों के भी ईश्वर
हैं। ईश्वर परम: कृ ष्ण: और सतच्चदानन्त्द तवग्रह: । अथाणत् उनका देह सनातन है, आनन्त्द और ज्ञान से पररपणू ण है। आगे कहा

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

गया है तक वे अनातद हैं-उनका कोई आतद नहीं है, बतल्क वे सभी के आतद हैं। अनातदरातदगोतवन्त्द: / गो का अथण है इतन्त्द्रयााँ
गाय और भतू म। वे सारे भलू ोक के स्वामी और सारी गायों के भी स्वामी हैं और सारी इतन्त्द्रयों के स्त्रष्ा हैं।
हम इतन्त्द्रय-सख
ु के पीछे लगे हुए हैं, परन्त्तु हम इतन्त्द्रय-सख
ु की पणू णता तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब हम अपने आनन्त्द
का आदान-प्रदान कृ ष्ण के साथ करें । इसतलए कृ ष्ण का नाम गोतवन्त्द है अथाणत् आतद-परुु ष भगवान।्
वही भगवान् गीता में स्वयां अपने मख
ु से अपने तवषय में अजणनु को बताते हैं। आप कै से कह सकते हैं तक यतद कोई
व्यति अपनी सोच से, अपने तकण से भगवान् के तवषय में कुछ कहे, तो वह उससे भी अतधक महत्वपणू ण हो सकता है, जो
भगवान् कृ ष्ण स्वयां कहते हैं? यह सम्भव नहीं है। भगवान् के तवषय में कृ ष्ण से अतधक जानकारी और कोई नहीं दे सकता,
क्योंतक भगवान् स्वयां बोल रहे हैं। जैसे आपके अपने बारे में आपसे अच्छा और कोई नहीं बता सकता। इसतलए यतद
आपको तवश्वास है और आप सैद्धातन्त्तक या व्यावहाररक रूप में कृ ष्ण को पणू ण परुु षोत्तम भगवान् मानते हैं, तो कृ ष्ण द्वारा
भगवद-् गीता में तकये गये वणणन से आप भगवान् को जान सकते हैं। इसमें कोई कतठनाई नहीं है।
और यतद आप कृ ष्ण में तवश्वास करते हैं, तो इसके पररणामस्वरूप आप भगवान् को जान सकते हैं तक वे कै से कायण
करते हैं, उनकी शतियााँ कै से कायण करती हैं, वे कै से प्रकट होते हैं, यह भौततक जगत क्या है, आध्यातत्मक जगत क्या है,
जीव क्या है, जीव और भगवान् का सम्बन्त्ध क्या है-इस प्रकार की कई बातें भगवत् सातहत्य में पायी जाती है।
सम्पणू ण वैतदक सातहत्य में तीन बातें प्रथम हैं-भगवान् के साथ आपका सम्बन्त्ध, तब दसू री बात, भगवान् के साथ
अपने सम्बन्त्ध को समझने के बाद आप वैसा आचरण कर सकते हैं। जैसे तक एक स्त्री या परुु ष आपस में सम्बतन्त्धत न हों,
परन्त्तु ज्योंही यह सम्बन्त्ध स्थातपत हो जाता है तक एक पतत है और दसू री पत्नी, उनका व्यवहार आरम्भ हो जाता है।
एक बार भगवान् के साथ अपना सम्बन्त्ध जान लेने पर सामान्त्यत: लोग मानने लगते हैं तक भगवान् उनके तपता हैं
और परु का काम है तक वह अपने तपता से आवश्यकता की वस्तओ ु ां की मााँग करे । परन्त्तु यह सम्बन्त्ध वस्ततु : तनकृ ष् कोतट
का है। यतद आप भगवान् को पणू णतया जान लेते हैं, तब उनसे आपके अतधक तनकट के सम्बन्त्ध भी बनते हैं। आपका अन्त्तरांग
सम्बन्त्ध तभी प्रकट होगा, जब आप पणू णतया मि ु हो जाएाँगे। प्रत्येक प्राणी का भगवान् के साथ एक तवशेष सम्बन्त्ध होता
है, परन्त्तु हम अभी उसे भल
ू गए हैं। जब कृ ष्णभावनामृत या भति की प्रतिया में यह सम्बन्त्ध प्रकट हो जाता है, तब आप
जान लेंगे तक यही आपके जीवन की पणू णता है। कृ ष्णभावना एक महान् तवज्ञान है। यह कोई प्रेम सम्बन्त्धी भावक ु तापणू ण
कल्पना मार नहीं है। यह भगवद-् गीता, वेदों और ब्रह्म-सांतहता में वतणणत वैज्ञातनक तसद्धान्त्तों पर आधाररत है, तथा इसे चैतन्त्य
महाप्रभ,ु रामानजु ाचायण, मध्वाचायण, नारद, अतसत तथा वेदव्यासजी जैसे महान् अतधकाररयों ने स्वीकार तकया है।
कृ ष्णभावना कोई सामान्त्य प्रेम की या धनोपाजणन की तिया नहीं है; यह एक वास्ततवकता है और यतद आप इसे गम्भीरता
से अपनायेंगे, तो आपका जीवन पणू ण हो जाएगा।
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

भगवद-् गीता में कृ ष्ण कहते हैं, "जो मनष्ु य मझु े तत्व से जान लेता है, वह इस देह को त्याग करने के बाद भौततक
जगत में दसू रा भौततक शरीर लेने के तलए तफर जन्त्म नहीं लेता।” तो उसका क्या होता है? वह कृ ष्ण के पास अपने घर, उनके
परम धाम में चला जाता है। यह कृ ष्णभावनामृत आन्त्दोलन प्रत्यक्ष रूप से लोगों को कृ ष्ण का ज्ञान कराता है। हम भगवद-्
गीता और वेदों जैसे प्रमातणत ग्रन्त्थों पर आधाररत कृ ष्ण के ज्ञान का प्रचार कर रहे हैं। वेद का अथण है, "ज्ञान" और वेदान्त्त
का अथण है, "ज्ञान का आतखरी अन्त्त।” ज्ञान का यह आखरी अन्त्त क्या है? वह है कृ ष्ण। वेदश्च ै सवेरहमेव वेद्य: /सभी वेदों
को जानने का अतन्त्तम लक्ष्य कृ ष्ण हैं। यह लक्ष्य कई जन्त्मों के बाद प्राप्त होता है। अनेक जन्त्मों से ज्ञान का अनश
ु ीलन करके
जब कोई जीव वास्तव में ज्ञानी बनता है, तभी वह कृ ष्ण के प्रतत अपने आपको समतपणत करता है। वह कै से समपणण कर
सकता है? वह जानता है तक वासदु वे , कृ ष्ण ही सवणस्व हैं। हम जो कुछ भी देखते हैं, वह के वल वासदु वे की शति का व्यि
रूप है। व्यति को पहले इस बात का तनश्चय होना चातहए, तब वह भि बनता है। इसतलए कृ ष्ण परामशण देते हैं तक आप
भले ही समझे या न समझे, मार उनके प्रतत अपने आपको समतपणत कर दें। कृ ष्ण ने भगवद-् गीता में जो कुछ तसखाया है, उसे
हम भी अपनी तरफ से तबना कोई मनगढ़न्त्त बात जोड़े वही तसखा रहे हैं। यही हमारा कृ ष्णभावनामृत आन्त्दोलन है। इसके
द्वार सबके तलए खल ु े हैं और इसकी तवतध बहुत ही सरल है। हमारे अपने के न्त्द्र हैं। यतद आप इस आन्त्दोलन का लाभ उठाना
चाहते हैं, तो आपका स्वागत है। आप सख ु ी होंगे।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय तीन
प्रकृतत के तनयमों से परे
भौततकतावादी जीवन में हम अपने मन और इतन्त्द्रयों पर तनयन्त्रण नहीं रख सकते। मन आज्ञा देता है, "अपनी इतन्त्द्रयों
द्वारा इस प्रकार से सख ु भोग करो" और हम अपनी इतन्त्द्रयों से सख ु भोग करते हैं। भौततक जीवन का अथण है इतन्त्द्रयतृतप्त। यह
इतन्त्द्रयतृतप्त की प्रतिया जन्त्म-जन्त्मान्त्तर से चलती आ रही है। तवतभन्त्न प्रकार की अनेक योतनयों में इतन्त्द्रयतृतप्त के तवतभन्त्न
प्रकार के स्तर हैं। भगवान् कृ ष्ण इतने दयालु हैं तक उन्त्होंने हमें अपनी इतन्त्द्रयतृतप्त करने के तलए पणू ण स्वतन्त्रता दे रखी है।
हम कृ ष्ण के अश ां हैं। हममें कृ ष्ण की सभी कामनाओ ां के सक्ष्ू म अांश तवद्यमान हैं। हमारा अतस्तत्व भगवान् के ही
एक लघु कण के समान है; ठीक वैसे ही जैसे स्वणण के एक लघ-ु कण में मल ू स्वणण के सभी गणु तवद्यमान होते हैं। कृ ष्ण में
इतन्त्द्रयतृतप्त की प्रवृतत्त है। वे आतद भोिा हैं। भगवद-् गीता में यह कहा गया है तक कृ ष्ण परम भोिा हैं। हमारे में सख ु भोगने
की प्रवृतत्त का कारण भी यही है तक यह मल ू रूप से भगवान् कृ ष्ण में तवद्यमान है।
वेदान्त्त-सरू कहता है तक सभी वस्तओ ु ां का उद्भव कृ ष्ण से होता है। परम ब्रह्म या परम सत्य का अथण है-वे, तजनसे
सभी वस्तओ ु ां की उत्पतत्त होती है। इसतलए हमारी इतन्त्द्रयतृतप्त की इच्छा भी भगवान् कृ ष्ण से आती है। इतन्त्द्रयों की पणू ण तृतप्त
यहााँ पाई जाती है-कृ ष्ण और राधारानी। यवु क और यवु ततयााँ भी उसी प्रकार अपनी इतन्त्द्रयों से आनन्त्द प्राप्त करने की चेष्ा
करते हैं, परन्त्तु उनकी यह प्रवृतत्त कहााँ से आती है? यह भगवान् कृ ष्ण से आती है। चाँतू क हम कृ ष्ण के अांश हैं, अत: हमारे
अन्त्दर इतन्त्द्रयतृतप्त की इच्छा का गणु तवद्यमान है। परन्त्तु अन्त्तर यह है तक हम अपनी इतन्त्द्रयतृतप्त इस भौततक जगत में करना
चाहते हैं; इसतलए हम तवकृ त रूप से ऐसा करते हैं। कृ ष्णभावनामृत में मनष्ु य अपनी इतन्त्द्रयों की तृतप्त कृ ष्ण के साहचयण में
करता है। तब यह पणू ण होता है।
उदाहरण के तलए, यतद कोई स्वातदष् रसगल्ु ला या अच्छा व्यजां न हो, तो अगां तु लयााँ उसे उठा लेती है, पर ये उसका
आनन्त्द नहीं ले सकतीं। पहले यह भोजन पेट में पहुचाँ ाना होगा, तब अांगल ु ी भी इसका आनन्त्द ले सकती है। उसी प्रकार,
हम सीधे इतन्त्द्रयतृतप्त नहीं कर सकते। परन्त्तु जब हम कृ ष्ण का साहचयण करते हैं और जब कृ ष्ण आनतन्त्दत होते हैं, तब हम
भी आनन्त्द का अनभु व कर सकते हैं। यह हैं हमारी तस्थतत। अांगतु लयााँ स्वतन्त्रतापवू णक कोई वस्तु नहीं खा सकतीं। ये अांगतु लयााँ
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

रसगल्ु ला का आनन्त्द नहीं ले सकतीं। अगां तु लयााँ तमठाई को उठाकर पेट में डाल सकती है, और जब पेट को आनन्त्द तमलता
है, तो अगां तु लयााँ भी आनतन्त्दत होती हैं।
हमें भौततक इतन्त्द्रयतृतप्त की अपनी प्रवृतत्त को शद्ध
ु करना होगा। यही कृ ष्णभावना है। कृ ष्णभावना के तलए हमें शद्ध

होना पड़ेगा। वह शतु द्ध क्या है? हम आनन्त्द का उपभोग सीधे नहीं कर सकते, इसतलए हमें कृ ष्ण के माध्यम से आनन्त्द का
उपभोग करना है। उदाहरण के तलए, हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। बहुत ही उत्तम प्रसाद; यहााँ जो प्रसाद बनाया जाता है, वह
सीधे नहीं ग्रहण तकया जाता, हम इसे कृ ष्ण के माध्यम से ग्रहण करते हैं। सवणप्रथम, हम प्रसाद कृ ष्ण को अतपणत करते हैं,
और तब हम इसे ग्रहण करते हैं।
कतठनाई क्या है? कोई कतठनाई नहीं है, तकन्त्तु आप शद्ध
ु हो जाते हैं। भोजन करने की प्रतिया वही है, तकन्त्तु यतद
आप सीधे ग्रहण करते हैं, तो आप भौततकता से ग्रस्त हो जाते हैं। और यतद आप कृ ष्ण को अतपणत करते हैं, और उसके बाद
ग्रहण करते हैं, तो आप इस भौततक जीवन के सभी दोषों से मि ु हो जाते हैं। भगवद-् गीता में यही कहा गया है। भि कृ ष्ण
को अतपणत करने के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं; इसे यज्ञ कहा गया है। कृ ष्ण या तवष्णु को हम जो अतपणत करते हैं, वह यज्ञ
कहलाता है। इस भौततक जगत में हम जो कुछ भी करते हैं, वह तकसी-न-तकसी प्रकार का पापकमण होता है, भले ही हम इसे
न जानते हों। हत्या करना पापकमण है, भले ही हम जान-बझू कर हत्या न करते हों। जब आप सड़क पर चलते हैं, तो आप
बहुत सारे जीवों की हत्या करते हैं। जब आप जल पीते हैं, उस समय भी आप हत्या करते हैं। पानी के बतणन के नीचे बहुत
सारी चींतटयााँ तथा जीवाणु मारे जाते हैं। जब आप आग जलाते हैं, उस समय भी अनेक जीवाणु आग में जल जाते हैं। जब
आप ओखली में मसाले कूटते हैं, तब अनेक छोटे जीवाणु मारे जाते हैं।
हम लोग इसके तलए उत्तरदायी हैं। इच्छापवू णक या अतनच्छापवू णक हम अनेक पापकमों में उलझते जा रहे हैं। इसतलए
भगवद-् गीता में कहा गया है तक यतद आप भगवान् को अतपणत भोजन का अवशेष ग्रहण करते हैं, तो आप सभी दोषों से
मि ु हो जाते हैं। अन्त्यथा कृ ष्ण को अतपणत तकये तबना जो स्वयां खाने के तलए भोजन बनाता है, वह पाप कमों के फल मार
खाता है। यही हमारी तस्थतत है। इसतलए, यह कहा गया है तक चाँतू क प्राय: लोग अपनी इतन्त्द्रयों पर तनयन्त्रण नहीं रख सकते,
अत: वे भौततकतावादी जीवन में लगे रहते हैं और बारम्बार जन्त्म-मृत्यु के चि में फाँ सकर तवतभन्त्न योतनयों में भटकते रहते
हैं।
मैं नहीं जानता तक मेरा अगला जन्त्म क्या है, तकन्त्तु अगला जन्त्म अवश्य होगा। हमारे सामने अनेक योतनयााँ हैं; उनमें
से मैं तकसी भी योतन में जन्त्म ले सकता ह।ाँ मैं एक देवता बन सकता ह,ाँ मैं एक तबल्ली बन सकता ह,ाँ मैं एक कुत्ता बन सकता
ह,ाँ मैं ब्रह्मा बन सकता ह-ाँ जीवन के अनेक रूप हैं। अगले जन्त्म में मझु े इनमें से एक रूप स्वीकार करना होगा, भले ही मैं ऐसा
न चाह।ाँ मानों कोई मझु से पछू े , “अगले जन्त्म में क्या आप कुत्ता या सअ ू र का रूप स्वीकार करना पसन्त्द करें गे?” मैं इसे
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

पसन्त्द नहीं करूाँगा। परन्त्तु प्रकृ तत का तनयम कहता है तक यह शरीर छोड़ने के बाद, जब मैं इस शरीर में नहीं रहगाँ ा, तब मझु े
अपने कमाणनसु ार दसू रा शरीर ग्रहण करना ही पड़ेगा। यह प्रकृ तत के हाथों में है। इसकी व्यवस्था श्रेष्ठ अध्यक्षता में होती है।
आप आज्ञा नहीं दे सकते, “मझु े ब्रह्मा का शरीर दो, मझु े इन्त्द्र का शरीर दो, मझु े राजा का या कोई और अन्त्य उच्च शरीर
दो।” यह आपके या हमारे हाथ में नहीं है। इसका तनणणय कृ ष्ण की श्रेष्ठ शति द्वारा तकया जाता है और आपको शरीर प्रदान
तकया जाएगा। इसतलए हमारा कतणव्य यह है तक हम ऐसा शरीर तैयार करें , जो हमें भगवान् कृ ष्ण की ओर ले जाने में सहायक
हो। यही कृ ष्णभावनामृत है।
महान् अतधकारी प्रह्लाद महाराज कहते हैं तक व्यति को दसू रों से आदेश ग्रहण करना चातहए। तकसी भी व्यति के
तलए आध्यातत्मक गरुु से उपदेश लेना आवश्यक है। व्यति को तकसी से भी उपदेश तब तक नहीं लेना चातहए, जब तक
तक वह उसे गरुु के रूप में स्वीकार न कर ले। परन्त्तु वह भी, तजसका कोई उत्तम गरुु है, कृ ष्णभावनाभातवत नहीं बना रह
सकता, यतद वह इस भौततक ससां ार में रहने के तलए दृढ़ तनश्चय तकए हुए है। यतद मेरा दृढ़ तनश्चय भौततक आनन्त्द लेने के
तलए भौततक जगत में रहने का है, तो मेरे तलए कृ ष्णभावनाभातवत होना असम्भव है।
भौततक जगत में प्रत्येक मनष्ु य अपने भौततक जीवन को सख ु ी और समृद्ध बनाने के तलए हर प्रकार की राजनैततक,
लोकोपकारी और मानवीय गतततवतधयों में लगा हुआ है, तकन्त्तु उसके तलए यह सम्भव नहीं है। यह बात मनष्ु य को समझ
लेनी चातहए तक भौततक जगत में मनष्ु य तकतनी भी जोड़-तोड़ करे , वह सख ु ी नहीं हो सकता। इस सम्बन्त्ध में एक दृष्ाांत देता
ह,ाँ तजसे मैं कई बार दोहरा चक ु ा ह।ाँ यतद आप मछली को पानी से बाहर तनकाल दें और कोमल मखमली गद्दे पर आराम से
तलटा दें, तो भी मछली सख ु ी नहीं रह सकती। वह मर जाएगी। चाँतू क मछली पानी का जीव है, इसतलए वह पानी के तबना
सख ु ी नहीं रह सकती। इसी प्रकार हम भी आत्मा हैं और जब तक हम आध्यातत्मक जीवन में या आध्यातत्मक जगत में नहीं
रहते, तब तक हम सख ु ी नहीं हो सकते। यही हमारी तस्थतत है।
प्रत्येक मनष्ु य ऐसी आध्यातत्मक अनभु तू त प्राप्त करने के तलए प्रयत्नशील है, तकन्त्तु हम अज्ञानी हैं और यही कारण
है तक हम भौततक पररतस्थततयों में यहााँ सख ु ी होने का प्रयत्न करते हैं। हम तनराश हो जाते हैं और दतु वधा में पड़ जाते हैं।
इसतलए हमें अपने इस अज्ञान को तमटाना होगा तक हम इस भौततक जगत में ही जोड़-तोड़ करके अत्यन्त्त सख ु ी रह सकते
हैं। तभी कृ ष्णभावना प्रभावकारी हो सकती है।
हमारे तशष्य और तशष्याएाँ जीवन के भौततक रूप को घृणा की दृतष् से देखते हैं। उनके तपता तथा अतभभावक तनधणन
नहीं हैं। इनके पास खाद्य सामग्री या भौततक सखु ों की कोई कमी नहीं है, तफर वे तनराश क्यों है? आप कह सकते हैं तक चाँतू क
भारत एक गरीब देश है, इसतलए यहााँ के तनवासी तनराश हैं, तकन्त्तु अमरीकी लड़के और लड़तकयााँ क्यों तनराश हैं? यह इस
बात का प्रमाण है तक जीवन की भौततकतावादी रीतत आपको सख ु ी नहीं बना सकती। आप अपने जीवन को सख ु ी बनाने
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

के तलए तकतना भी प्रयत्न क्यों न करें , तकन्त्तु भौततक जीवन से आपको सख ु प्राप्त नहीं हो सकता। यह एक हकीकत है। जो
लोग भौततक जीवन को जोड़-तोड़ करके सख ु ी होने का प्रयत्न करते हैं, वे कृ ष्णभावना नहीं अपना सकते। भौततक जीवन
से उत्पन्त्न तनराशा और भ्रम कृ ष्णभावनाभातवत बनने की योग्यता बन सकते हैं। ये लड़के लड़तकयों में एक अच्छा गणु है-
वे कृ ष्णभावना अपना रहे हैं। श्रीमद्भागवत में एक श्लोक आता है तक कभी-कभी अपने भिों पर तवशेष कृ पा-दृतष् करने के
तलए भगवान् कृ ष्ण उन्त्हें सभी भौततक समृतद्धयों से वांतचत कर देते हैं। जैसे पाडडवों को उनके राज्य से वांतचत कर तदया गया
था, यद्यतप कृ ष्ण वहााँ स्वयां तवद्यमान थे। कृ ष्ण उनके तमर के रूप में उपतस्थत थे, तफर भी पाडडवों को उनके राज्य से वतां चत
तकया गया था। उनकी सम्पतत्त तछन गयी थी, उनकी पत्नी को अपमातनत तकया गया था और उन्त्हें वन में भेज तदया गया
था।
यतु धतष्ठर महाराज ने कृ ष्ण से यह प्रश्न पछू ा था, "आप हमारे तमर हैं, तफर भी हमें इतनी कतठनाइयों का सामना क्यों
करना पड़ रहा है?” कृ ष्ण यतु धतष्ठर महाराज को उत्तर देते हैं, “यह मेरी तवशेष कृ पा है।” कभी-कभी हम कृ ष्ण की तवशेष
कृ पा को समझ नहीं पाते।
जीवन की भौततक दृतष् के प्रतत अमरीकी और अाँग्रेज लड़कों की यह हताशा कृ ष्णभावनामृत को स्वीकार करने के
तलए अच्छी भतू मका है। तनस्सन्त्दहे , कृ ष्णभावनाभातवत होने के तलए तकसी को गरीब बनने की आवश्यकता नहीं है, तकन्त्तु
यतद कोई चाहे तक वह भौततक जीवन के सख ु ों का भोग करते हुए आध्यातत्मक दृतष् से भी उन्त्नतत करता रहे, तो यह सम्भव
नहीं है। ये दोनों परस्पर तवरोधी आकाक्ष ां ाएाँ हैं। मनष्ु य को आध्यातत्मक जीवन में ही सख
ु ी होने के तलए कृ तसक ां ल्प होना
होगा। यही वास्ततवक सख ु है।
यह मनष्ु य जीवन तवशेषतया तपस्या के द्वारा आध्यातत्मक जीवन की ऊाँचाइयों को प्राप्त करने के तलए हमें तमला है,
तजसका अथण है, जीवन के भौततकतावादी रूप को स्वेच्छा से त्याग देना। भारत के इततहास में भरत महाराज जैसे अनेक
महान् राजा हुए हैं, तजन्त्होंने छोटी आयु में ही तपस्या शरू
ु कर दी थी। भरत महाराज के वल 24 वषण की अवस्था में ही अपनी
यवु ा पत्नी, छोटे बच्चों और भारतवषण के सम्पणू ण साम्राज्य को ठुकराकर ध्यान के तलए जांगल में चले गये थे। ऐसे अनेक
उदाहरण हैं। प्रह्वाद महाराज से उनके तपता तहरडयकतशपु ने पछू ा था, “तम्ु हें कृ ष्णभावनामृत का यह उपदेश तकसने तदया है?”
राजकुमार तकसी से तमलता-जल ु ता नहीं, वह के वल अपने तनयि ु अध्यापकों से ही तशक्षा ग्रहण करता है। तफर यह कै से
हुआ तक 5 वषण का एक बालक इतना कृ ष्णभावनाभातवत हो गया? उनका तपता तवतस्मत हो उठा और उसने बालक से पछ ू ा,
“तमु ने कृ ष्णभावनामृत की सीख कहााँ से प्राप्त की?” बालक ने उत्तर तदया, “मेरे तप्रय तपताजी, कृ ष्णभावनामृत आप जैसे
व्यतियों द्वारा प्राप्त नहीं तकया जा सकता, तजनका एक मार काम यह होता है तक इस भौततक जगत का भोग करना।” तहरडय
का अथण है स्वणण और कतशपु का अथण है। गद्देदार कोमल तबस्तर।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

भौततक जीवन चबाए हुए पदाथों को तफर से चबाने में ही व्यतीत हो जाता है। उदाहरण के तलए एक तपता को देखें।
एक तपता जानता है तक उस पर उत्तरदातयत्व है, इसतलए अपने पररवार के भरण-पोषण के तलए वह कड़ी मेहनत करता है।
इस यगु में जीवन का ऊाँचा स्तर बनाये रखना बहुत कतठन है, इसतलए मनष्ु य को बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और
तफर वह अपने परु को भी इसी तरह लगा देता है। भौततक जीवन के अपने कटु अनभु वों के होते हुए भी मनष्ु य अपने परु
को उसी मागण पर ले जाता है। यह प्रतिया लगातार चलती रहती है, इसतलए यह चबाए हुए को तफर से चबाने के समान है।
एक बार गन्त्ने का रस चसू लेने के बाद हम उसे बाहर सड़क पर फें क देते हैं और यतद कोई मनष्ु य उसका स्वाद जानने के
तलए तफर से उसे चसू ता है, तो वह चबाए हुए को ही तफर से चबाने जैसा है। इसी प्रकार जीवन के इस सघां षणमय भौततक
जगत के हमारे अनभु व बहुत मधरु नहीं हैं, तकन्त्तु श्रीमद्भागवत में कहा गया है तक मनष्ु य रजोगणु से ही उत्पन्त्न हुआ है।
भौततक जगत में तीन प्रकार के गणु हैं, सत्वगणु , रजोगणु और तमोगणु । क्योंतक मनष्ु य रजोगणु में तस्थत होते हैं, इसतलए वे
कठोर पररश्रम करना चाहते हैं। इसी प्रकार के पररश्रम को सख ु माना जाता है। लन्त्दन में आप प्रत्येक मनष्ु य को कठोर श्रम
में लगे हुए देखते हैं। सबु ह के समय सभी बसें और रकें तेज गतत से दौड़ते हैं और लोग सबु ह से देर रात तक कायाणलय या
कारखानों में जाते रहते हैं। वे कठोर पररश्रम करते हैं और इसे सभ्यता की उन्त्नतत कहा जाता है। उनमें से कुछ तनराश हैं और
इसे तबलकुल पसन्त्द नहीं करते। तनराश तो होंगे ही, आतखर वे कठोर पररश्रम करते हैं। सअ ू र भी तदन-रात कठोर श्रम करता
है और ढूाँढ़ता रहता है, 'मल कहााँ है? मल कहााँ है?” उसका यही काम है। इसतलए एक प्रकार से यह सभ्यता सअ ू र और
कुत्ते की सभ्यता है। यह मानव-सभ्यता नहीं है। मानव-सभ्यता का अथण है, गम्भीरता। प्रत्येक मनष्ु य को तजज्ञासु होना चातहए।
प्रत्येक मनष्ु य को यह जानने के तलए उत्सक ु रहना चातहए तक मैं कौन ह?ाँ मझु े अनाज के कुछ दानों के तलए इतनी कठोर
मेहनत करने के तलए बाध्य क्यों तकया जा रहा है? मैं क्यों इस कष्दायक तस्थतत में पड़ा ह?ाँ मैं कहााँ से आया ह?ाँ मझु े कहााँ
जाना है? वेदान्त्त-सरू के आरम्भ में तलखा है तक मनष्ु य को यह जानने के तलए उत्सक ु रहना चातहए तक वह कौन है, कहााँ
से आया है और उसे कहााँ जाना है। कृ ष्णभावनामृत उन लोगों के तलए है, जो इस भौततक जगत से घृणा करने लगते हैं। वे
कृ ष्णभावनामृत के तवकास के तलए सबसे अतधक उपयि ु सदस्य हैं। वे यह जानना चाहेंगे तक क्यों ये लोग इतनी कड़ी
मेहनत करते हैं और उनके जीवन का लक्ष्य क्या है?
श्रीमद्भागवत में इसका उत्तर तदया गया है। लोग इसतलए इतनी मेहनत करते हैं, क्योंतक वे वास्तव में यह नहीं जानते
तक उनके जीवन का लक्ष्य क्या है। प्रत्येक व्यति का कहना है तक वह अपने स्वाथण में लगा है, तकन्त्तु वह जानता नहीं तक
उसका स्वाथण क्या है। न ते तवदःु स्वाथणगततां तह तवष्णु । उसे यह जानना चातहए तक उसका वास्ततवक स्वाथण पणू ण परुु षोत्तम
भगवान् तवष्णु को प्राप्त करना है। वे यह नहीं जानते। वे यह क्यों नहीं जानते ? क्योंतक वे ऐसी आशा लगाये बैठे हैं, तजसकी
पतू तण करनी सम्भव नहीं है। मझु े उतनी ही आशा रखनी चातहए, तजसकी पतू तण करनी सम्भव हो; यह उतचत भी है। तकन्त्तु यतद
हम ऐसी आशा लगाये बैठेगे, तजसकी पतू तण कभी सम्भव नहीं है, तो ऐसी आशा कभी परू ी नहीं होगी।
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

हम भगवान् की अन्त्तरांगा और बतहरांगा शतियों के तमश्रण हैं। स्थल ू बतहरांगा शति यह स्थल
ू भौततक शरीर है तथा
सक्ष्ू म बतहरांगा शति मन, बतु द्ध और अहक ां ार है। दोनों शतियों-स्थलू बतहरांगा शति और सक्ष्ू म बतहरांगा शति-के पीछे
आत्मा है, जो अतां रांगा शति है। यह शरीर भतू म, जल, अतग्न, वायु और आकाश से बना है। यह स्थल ू बतहरांगा शति
कहलाती है। और मन, बतु द्ध और अहक ां ार की सक्ष्ू म बतहरांगा शति भी है। और उसके पीछे आत्मा है।
मैं इस शरीर का स्वामी ह।ाँ जैसे एक व्यति कमीज और कोट से ढका है, जो उसके वास्तवतक शरीर के बाहर है,
उसी प्रकार हम भी भतू म, जल, अतग्न, वायु और आकाश से बने स्थल ू शरीर से ढके हैं। ये भगवान् या कृ ष्ण की स्थल

बतहरांगा शतियााँ हैं और मन, बतु द्ध और अहक ां ार सक्ष्ू म शतियााँ हैं। इस प्रकार हम आवरण से ढके हैं।
यतद मैं सोचाँू तक अच्छी कमीज और कोट पहनने मार से मैं सख ु ी हो सकता ह,ाँ तो क्या यह सम्भव होगा? जब तक
आप अच्छी तरह से खा नहीं लेते, अच्छी तरह से सो नहीं लेते, अपनी इतन्त्द्रयतृतप्त नहीं कर लेते, तब क्या मार कीमती
कमीज और कोट पहनने से ही आप सख ु ी हो सकते हैं? नहीं, यह सम्भव नहीं है। हम इस बतहरांगा शति की जोड़-तोड़ से
सख
ु ी होना चाहते हैं। यह नहीं हो सकता। आप आत्मा हैं-आपको आध्यातत्मक आहार प्राप्त करना आवश्यक है। आपका
जीवन आध्यातत्मक होना आवश्यक है, तभी आप सख ु ी हो सकते हैं। जैसे आप अच्छी कमीज और कोट पहनने मार से
सखु ी नहीं हो सकते, इसी प्रकार भौततकतावादी जीवन भी आपको सख ु ी नहीं कर सकता। पदाथण दो प्रकार के होते हैं, स्थल

और सक्ष्ू म। स्थल ू पदाथण हैं ऊाँचे गगनचम्ु बी सक्ष्ू म पदाथण हैं गीत, काव्य, दशणन इत्यातद। लोग इन स्थल ू और सक्ष्ू म पदाथों की
सहायता से सख ु ी होने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा हो नहीं सकता।
लोगों ने इस प्रकार की सभ्यता क्यों स्वीकार की है? क्योंतक उनका नेतत्ृ व अन्त्धे नेताओ ां द्वारा तकया जाता है। हम
यह कृ ष्णभावनामृत आन्त्दोलन चला रहे हैं, तकन्त्तु इसमें बहुत थोडे लोगों की रुतच हैं तकन्त्तु यतद हम इस झठु का प्रचार करें ,
“यतद आप हमारा अनसु रण करें गे, तो छह महीने में आप स्वयां भगवान् बन जायेंगे और आप सवणशतिमान हो जाएाँगे।” तो
अनेक लोग हमारा अनसु रण करें गे। वास्तव में यह ऐसा है, जैसे एक अन्त्धा व्यति दसू रे अन्त्धों का नेतत्ृ व कर रहा हो। मान
लीतजए कोई अन्त्धा व्यति कहे, "ठीक है, आइए, मेरा अनसु रण कीतजए। मैं यह भीड़-भाड़ भरा मागण पार कराने में आपकी
सहायता करूाँगा।” वह स्वयां अन्त्धा है और उसके अनयु ायी भी अन्त्धे हैं। पररणाम यह होगा तक वे सब तकसी कार या रक
से टकराकर मृत्यु की गोद में सो जाएाँगे।
हम नहीं जानते हैं तक हम भौततक प्रकृ तत के कड़े तनयमों से तकस प्रकार बाँधे हैं। हम इस भौततक बन्त्धन से कै से मि

हो सकते खल ु चकु ी हैं और जो इस भौततक बन्त्धन से मि ु हैं। प्रत्येक व्यति को ऐसे व्यतियों से ही सीख लेनी चातहए।
तभी वह अपने स्वाथण को समझ पाएगा। अन्त्यथा यतद एक अन्त्धा दसू रे अन्त्धे व्यति से ही सीख लेता है, तो वह भौततक
बन्त्धन से मि
ु नहीं हो सकता।
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

स्वाथण क्या है? बच्चा जब रोता है, तो उसका स्वाथण क्या होता है? वह अपनी मााँ के स्तन को ढूाँढ़ रहा होता है। जो
व्यति यह जानता है, वह उसे तरु न्त्त उसकी मााँ के पास ले जाता है-"अपने बच्चे का ध्यान रखो, वह रो रहा है।” मााँ उसे
छाती से लगा लेती है और बच्चा तरु न्त्त सख ु ी हो जाता है। बच्चा नहीं बता सकता तक वह क्या चाहता है, इसतलए वह
के वल रोता है; तकन्त्तु जो व्यति जानता है तक वह क्यों रो रहा है, वह उसकी सहायता करता है और बच्चा सख ु ी हो जाता
है। इसी प्रकार चाँतू क हम पणू ण परुु षोत्तम भगवान कृ ष्ण के अतभन्त्न अांश हैं, अत: हम वास्तव में कृ ष्ण से तमलने के तलए ही रो
रहे हैं। तकन्त्तु ये झठू े नेता, अन्त्धे नेता, जो यह नहीं जानते, हमें रोटी के बदले खाने के तलए पत्थर दे रहे हैं।
हम कै से सख ु ी रह सकते हैं? मैं स्थलू और सक्ष्ू म बतहरांगा शतियों के बारे में पहले ही बता चक
ु ा ह।ाँ इन स्थल
ू और
सक्ष्ू म बतहरांगा शतियों में आसि लोगों की इच्छाएाँ कभी परू ी नहीं हो सकतीं। तजनकी आसति तवष्णु में है और जो तवष्ण-ु
मागण के प्रदशणक हैं, वे सच्चे तमर हैं। जो कृ ष्णभावनामृत का दान कर रहे हैं, वे ही तवश्व के सच्चे तमर हैं। और कोई मानव
समाज को सख ु ी नहीं बना सकता। यह प्रह्वाद महाराज द्वारा समझाया गया है।
आप इस भौततक शति से जझू ते हुए सख ु की प्रतिया का तनमाणण नहीं कर सकते। यह सम्भव नहीं है, क्योंतक
भौततक शति पर आपका तनयन्त्रण नहीं है। इसका तनयन्त्रण भगवान् के हाथ में है। आप भौततक शति पर कै से तवजय प्राप्त
कर सकते हैं? यह सम्भव नहीं है। यह भगवद-् गीता में कहा गया है। प्रकृ तत के कठोर तनयमों का अततिमण करना सम्भव
नहीं है। कृ ष्ण कहते हैं, “यह मेरी शति है, मैं इसका तनयन्त्रक ह।ाँ तकन्त्तु मनष्ु य अपने आपको मेरे प्रतत समतपणत कर सकता
है।”
ब्रह्माडड की सारी भौततक गतततवतधयााँ तवद्रोही आत्माओ ां को परमेश्वर के परम धाम में वापस लाने में लगी हैं। यही
तस्थतत है। माया के कठोर तनयम भी तवद्यमान हैं। क्यों? पतु लस या सैतनक शति का उद्देश्य क्या है? इनका उद्देश्य है, नागररकों
को राज्य के तनयमों का पालन करने के तलए तनयतन्त्रत करना। यतद कोई नागररक राज्य के तनयम की अवज्ञा करता है, तो
उसे तरु न्त्त पतु लस की देखरे ख में ले तलया जाता है। इसी प्रकार यतद कोई जीव, भगवत् सत्ता के तवरुद्ध तवद्रोह करता है, तो
उसे भौततक प्रकृ तत के कठोर तनयमों के अन्त्तगणत रखा जाता है और वह अवश्य दख ु पायेगा। यही तस्थतत है। इसतलए हमारी
स्वाथणतसतद्ध इसी में है तक हम पणू ण परुु षोत्तम भगवान् की खोज में लगें और अपने-आपको उनके प्रतत समतपणत कर दें। इसीसे
हम सख ु ी होंगे, अन्त्यथा यतद हम भौततक वस्तओ ु ां को स्वीकार करते हुए सख
ु ी रहने का प्रयत्न करें गे, तो यह सम्भव नहीं हो
पाएगा।
प्रह्वाद महाराज बताते हैं तक भगवान् तवष्णु के पथ या कृ ष्णभावनामृत की खोज कै से की जा सकती है। वे कहते हैं
तक हमने अनेक अनावश्यक चीजें गढ़ ली हैं और हम उनके जाल में फैं स गये हैं। श्रीमद्भागवत के आरम्भ में कहा गया है
तक हमें इन अनावश्यक कतठनाइयों से बाहर आने और स्वतनतमणत समस्याओ ां के घेरे से तनकलने की कोतशश करनी चातहए।
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

आज सबु ह मैंने बतलणन नगर की एक तस्वीर देखी, तजसे मेरे एक तशष्य ने तभजवाया था। मैं बतलणन और मास्को दोनों शहरों
में रहा हाँ और दोनों ही बहुत सन्त्ु दर नगर हैं। बतलणन सन्त्ु दर नगर है, और लन्त्दन भी सन्त्ु दर नगर है। तफर लोग क्यों झगड़े में पड़े
हैं और हर दसू रे नगर पर बमवषाण करने पर तल ु े हैं? ऐसा क्यों हुआ है? क्योंतक उनकी रुतच भगवान् तवष्णु में नहीं रही।
इसीतलए वे सोचते हैं, “तमु मेरे शरु हो, मैं तम्ु हारा शरु ह,ाँ ” और तफर हम कुत्ते-तबतल्लयों की तरह लड़ते हैं। तकन्त्तु यतद हम
तवष्णु या भगवान कृ ष्ण को जान लें, तो ये उन्त्नत राज्य, उन्त्नत सभ्यताएाँ अच्छी तरह बनी रह सकती हैं। आप तजयेंगे और
भगवान् के परम धाम में वापस चले जाएाँगे। इहलोक में आनन्त्द प्राप्त करें और परलोक में भी। यही हमारी प्राथणना है।
प्रत्येक व्यति को कृ ष्णभावनामृत आन्त्दोलन गम्भीरता से अपनाना चातहए और इसे अच्छी तरह समझने का प्रयत्न
करना चातहए। यह वैतदक तसद्धान्त्त के आधार पर प्रमातणत है। यह कोई मनगढांत या अप्रामातणक नहीं है। हम तवश्व के अनेक
भागों में के न्त्द्र खोल रहे हैं, तातक लोग अपने वास्तवतक तहत को अथाणत् तवष्णु और कृ ष्ण को पहचान सकें । यही हमारा
उद्देश्य है। कृ पया हमारी सहायता करें और हमारे साथ सतम्मतलत हों।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय चार
योग का लक्ष्य
भगवद-् गीता में सांस्कृ त शब्द मामू का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इस शब्द का अथण है “मेरे को।” पणू ण परुु षोत्तम
भगवान् कृ ष्ण कहते हैं, “मेरे को” अथाणत् कृ ष्ण को। हम इसकी व्याख्या तकसी और रूप में नहीं कर सकते। जब मैं कहता
ह,ाँ “मझु े पानी का एक तगलास ला दी,” तो इसका अथण यह है तक मैं वह व्यति ह,ाँ तजसे पानी के तगलास की आवश्यकता
है और इसतलए यतद आप पानी का यह तगलास मझु े देंगे, तकसी अन्त्य को नहीं, तो यह ठीक ही होगा। जब कृ ष्ण कहते हैं,
“मेरे को” तो इसका अथण होता है, कृ ष्ण की। तकन्त्तु अनेक दाशणतनक तफर भी इसकी व्याख्या करते हैं, "तकसी अन्त्य को।”
व्याकरण की दृतष् से भी यह अथण गलत है।
जो मनष्ु य कृ ष्ण के प्रतत अनरु ि है, वह कृ ष्णभावनाभातवत है। उनका कहना है तक यतद आप अपनी प्रेतमका के
प्रतत आसि हैं, तो आप सदैव उसका तचन्त्तन करते रहते हैं। यह प्रेमभावना है। यह स्वाभातवक है। कहा जाता है तक एक
स्त्री, जो अपने पतत के अततररि तकसी अन्त्य प्रेमी से भी प्रेम करती है, वह अपने गृहस्थी के कतणव्यों के प्रतत बहुत सचेत
रहती है, तकन्त्तु सदा इसी ध्यान में डूबी रहती है, “कब मैं अपने प्रेमी से रात को तमलेंगी?” यह एक उदाहरण है। यतद हम
तकसी से प्रेम करते हैं, तो झूठा सम्बन्त्ध होने पर भी यह सम्भव है तक हम हमेशा उसी का ध्यान करते रहें। यतद भौततक रूप
में यह सम्भव है, तो आध्यातत्मक रूप में यह सम्भव क्यों नहीं हो सकता? भगवद-् गीता की सम्पणू ण तशक्षा का यही सार है।
गीता में कृ ष्ण अजणनु से कहते हैं, “एक योद्धा के रूप में तम्ु हें लड़ना होगा। तमु यद्ध
ु से तवरत नहीं हो सकते। यह
तम्ु हारा कतणव्य है।” आजकल मेरा यह व्यावहाररक अनभु व रहा है तक आपके देश का "ड्राफ्ट बोडण" यवु कों को सेना में
प्रवेश करने के तलए आमांतरत कर रहा है। तकन्त्तु यवु क इसके तलए राजी नहीं हैं। वे राजी इसतलए नहीं हैं, क्योंतक उनका
प्रतशक्षण क्षतरय योद्धाओ ां के रूप में नहीं हुआ है। उनका प्रतशक्षण शद्रू ों अथाणत् श्रतमकों के रूप में हुआ है। इसतलए वणण-
व्यवस्था बहुत वैज्ञातनक है। कुछ लोगों का प्रतशक्षण ब्राह्मणों अथाणत् ज्ञातनयों के रूप में होना चातहए। जो समाज में बतु द्धमान
व्यति हैं, उन्त्हें छााँटकर उच्च दाशणतनक तवज्ञान की तशक्षा दी जानी चातहए और जो लोग ब्राह्मणों से कम बतु द्धमान हैं, उन्त्हें
सैतनक प्रतशक्षण तदया जाना चातहए। हमें इस समाज में के वल सैतनक ही नहीं, सभी वणण के व्यतियों की आवश्यकता है।
प्रत्येक व्यति सैतनक कै से बन सकता है? चाँतू क ये लोग शद्रू ों को अथाणत् सामान्त्य श्रतमकों को तवयतनाम भेज रहे हैं, इसतलए

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

वे अकारण ही मारे जा रहे हैं। जो देश अपनी वैज्ञातनक उन्त्नतत के तलए अतभमान करता है और इतना भी नहीं जानता तक
अपने समाज को कै से सांगतठत तकया जाना चातहए, वह देश मख ू ों का समाज है।
भगवद-् गीता में कृ ष्ण कहते हैं तक समाज में चार वणण होते हैं, ब्राह्मण, क्षतरय, वैश्य और शद्रू । यह स्वाभातवक है।
कुछ मनष्ु यों का झक ु ाव आध्यातत्मक उन्त्नतत की ओर होता है और ऐसे लोग ब्राह्मण कहलाते हैं। अब हम ऐसे यवु कों को
प्रतशतक्षत कर रहे हैं, तजनमें आध्यातत्मक रुतच है। तकन्त्तु उन्त्हें अनावश्यक रूप से सैतनक सेवा में भती होने के तलए बाध्य
तकया जा रहा है। मख ू ों को यह ज्ञान नहीं है तक तकसी यवु क को उच्चकोतट के तवज्ञान की तशक्षा दी जा रही है। जब उसको
पणू ण बनाया जा रहा है, तो उसे क्यों नष् तकया जाए? ऐसे बतु द्धमान व्यतियों को, तजनमें ब्राह्मणोतचत योग्यता है, ब्रह्मचारी
आश्रम में भेजकर सयां म तसखाया जा रहा है। ये यवु क न तो मासां भक्षण करते हैं और न ही अनैततक यौनाचार करते हैं। इन्त्हें
पणू ण ब्राह्मण अथाणत् उच्चकोतट के बतु द्धजीतवयों और समाज के शद्ध ु तम व्यतियों के रूप में तशक्षा दी जाती है। यतद एक
पररवार में एक ब्राह्मण हो, तो सारा पररवार, यहााँ तक तक सारा समाज पतवर हो जाता है। तकन्त्तु आज उन्त्हें यह ज्ञान नहीं है
तक ब्राह्मण को कै से तशक्षा दी जाय, क्षतरय को कै से प्रतशतक्षत तकया जाय। जीवन के अन्त्य क्षेरों में शद्रू ों और वैश्यों के तलए
अच्छे प्रतशक्षण की व्यवस्था है। यतद कोई व्यावसातयक प्रतशक्षण पाना चाहता है, तो उसके तलए कॉलेज या तकनीकी
तवद्यालय हैं। यह अच्छी बात है। तकन्त्तु हर व्यति को तकनीकी में ही क्यों घसीटा जाए? जैसे हमारे शरीर में सचु ारु व्यवस्था
के तलए एक तसर है, बाहें है, पेट और टााँगें हैं। शरीर के ये सभी अवयव आवश्यक हैं। मख ू णता है। हमें सभी अवयवों की
आवश्यकता है। मान लीतजये तक एक शरीर है, तजसमें तसर नहीं है, तो यह मृत शरीर ही होगा। यतद शरीर तो सरु तक्षत है,
तकन्त्तु उसमें तसर नहीं है, तो भी यह मृत शरीर ही कहलाएगा। तसर शरीर का एक बौतद्धक अवयव माना जाता है। इसी
प्रकार यतद समाज में कोई ब्राह्मण नहीं है, तो समाज का स्वरूप मृत शरीर के समान होगा। यतद समाज में कोई आध्यातत्मक
व्यति नहीं है, तो वह मृत समाज कहलाएगा।
इसतलए कृ ष्ण कहते हैं, “मैंने समाज को गणु और कमण के आधार पर चार भागों में तवभातजत तकया है।” यतद कोई
ब्रह्मचारी ब्राह्मण के रूप में कायण करता है और उसने भगवान् कृ ष्ण को जानने का गणु अतजणत कर तलया है, तो उसे सैतनक
कारण वाई के तलए क्यों बल ु ाया जाय? शरीर की भजु ाएाँ क्षतरय है। समाज और देश की रक्षा के तलए तनश्चय ही सैतनक व्यवस्था
आवश्यक है। इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। तकन्त्तु इस कायण के तलए ब्राह्मणों की आवश्यकता नहीं है। यह तो ऐसा
हुआ, जैसे माल ढोनेवाली गाड़ी के आगे घड़ु दौड़ का घोड़ा लगा तदया जाय। घड़ु दौड़ के घोड़े का प्रयोजन अलग है, अन्त्य
भार ढोने वाले अन्त्य जानवर, जैसे गधे, खच्चर और बैल गाड़ी खींचने के तलए आवश्यक हैं।
मैं यह बात स्पष् कहता ह-ाँ प्रत्येक व्यति इसे समझे-तक ऐसा समाज तजसमें कोई आध्यातत्मक व्यति या
कृ ष्णभावनाभातवत व्यति नहीं है, मढ़ू समाज है, क्योंतक उसका तसर नहीं है। यतद तसर के तबना कोई व्यति है, तो वह मृत

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

शरीर ही है और यतद मतस्तष्क नहीं है, तो तसर भी नहीं है और यतद मतस्तष्क ठीक ढांग से काम नहीं करता, तो वह पागल
आदमी है। यतद उसका तसर ही नहीं है, तो वह मृत व्यति है।
क्या आप सोचते हैं तक एक मृत समाज में या पागलों के समाज में कभी शातन्त्त रह सकती है? नहीं। यतद समाज में
पागल ही पागल हैं, तो शातन्त्त का प्रश्न ही कहााँ उठता है? इसतलए कृ ष्णभावनामृत का अध्ययन वतणमान समाज के तलए
अत्यन्त्त महत्वपणू ण है। समाज का नेतत्ृ व करनेवाले राष्रपतत और रक्षा सतचव जैसे व्यतियों को आत्मा के तवज्ञान की समझ
होनी चातहए।
हाल ही में, जब मैं आपके देश में आ रहा था, मेरी भेंट टोतकयो में जापान सरकार के एक सतचव से हुई। मैंने उसे
समझाना चाहा तक उसे इस आन्त्दोलन को सहयोग प्रदान करना चातहए, तो उसने कहा, "ओह, हम तकसी धातमणक आन्त्दोलन
को सहयोग नहीं दे सकते।” वह सरकार के मख्ु य सतचवों में से एक है और इतना मख ू ण है। वह इस आन्त्दोलन को एक धातमणक
आन्त्दोलन समझता है। वह इसे भी अन्त्य अनेक भावक ु धमों के समान ही समझता है। तकन्त्तु यह आन्त्दोलन कोरा भावक ु
आन्त्दोलन नहीं है। यह समाज की आवश्यकता है। समाज के एक वगण के तलए कृ ष्णभावनाभातवत होना आवश्यक है,
अन्त्यथा समाज नष्प्राय है और नरक में जा रहा है। जब ऐसे मढ़ू लोग सरकारी तवभागों के प्रमख ु हैं, तो शातन्त्त कै से हो सकती
है? आप कुत्तों के समाज में शातन्त्त की अपेक्षा कै से कर सकते हैं? कुत्ते का स्वभाव दसू रे कुत्ते को देखकर भौंकने का है-
"भौं! भौं! भीं!” तो आपके कहने का तात्पयण यह है तक यतद मानव समाज कुत्तों के समाज के रूप में, तबतल्लयों के समाज
के रूप में या शेर-चीतों के समाज के रूप में पररणत हो जाय, तो शातन्त्त स्थातपत हो सकती है? बाघ बहुत शतिशाली
जानवर है; वह अन्त्य अनेक जानवरों को मार सकता है, तकन्त्तु क्या इसका मतलब यह होगा तक वह सबसे महत्वपणू ण जानवर
है? नहीं, उसका समाज में कोई उपयोग नहीं है। अब हम बहुत शतिशाली हो गये हैं और लड़ने के तलए हमारे पास अच्छे
हतथयार भी हैं और हम बहुत से लोगों को मार सकते हैं, तकन्त्तु ये भद्र व्यतियों या भद्र-समाज के लक्षण नहीं हैं।
हमारा उद्देश्य बन्त्दरों, व्याघ्रों, गधों या दष्ु ों के ऐसे समाज का तनमाणण करना नहीं है, जो के वल कठोर पररश्रमी हैं।
क्या आप समझते हैं तक गधों का समाज जीवन से कोई लाभ प्राप्त कर सकता है? नहीं।
तजन व्यतियों में कृ ष्ण के प्रतत आसति-भाव तवकतसत हो गया है, उनकी आसति और भी बढ़ सकती है। मेरे
पतश्चम में आने से पवू ण कृ ष्णभावनामृत जैसा कोई आन्त्दोलन नहीं था, तकन्त्तु अब यह आन्त्दोलन तवकतसत हो रहा है। कृ ष्ण
का जन्त्म आपके देश में नहीं हुआ था और न ही आप कृ ष्ण को अपने धातमणक भगवान् के रूप में मानते हैं। परन्त्तु कृ ष्ण इतने
आकषणक हैं तक तवदेशी होते हुए भी आप अपररतचत नहीं हैं। कृ ष्ण के तलए आप तवदेशी नहीं हैं। वे सबके हैं। यतद हम उन्त्हें
तवदेशी बना लेते हैं, तो यह हमारी मख ू णता है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

गीता में कृ ष्ण कहते हैं, “मेरे तप्रय अजणनु , इसमें सन्त्दहे नहीं है तक जीवन के अनेक तवतभन्त्न रूप और अनेक योतनयााँ
हैं। परन्त्तु मैं ही उनका तपता ह।ाँ ” जरा देतखए तक कृ ष्ण तकस प्रकार तवश्वव्यापी हैं। न के वल मानव-समाज बतल्क पश-ु समाज,
पक्षी-समाज और जन्त्तु समाज भी उन्त्हीं का है। कृ ष्ण कहते हैं, “मैं उनका तपता ह।ाँ ” तो कृ ष्ण तवदेशी कै से हुए? यह एक
मानतसक मनगढांत बात है। कुछ लोग कहते हैं तक कृ ष्ण भारतीय हैं या कृ ष्ण की पजू ा तहन्त्दओ ु ां द्वारा की जाती है, इसतलए
वे तहन्त्दू देवताओ ां में से एक हैं और वे सोचते हैं तक कृ ष्ण कह रहे हैं, “हााँ, मैं तहन्त्दू देवता ह।ाँ हााँ, मैं भारतीय ह।ाँ ” परन्त्तु कृ ष्ण
तो सयू ण के समान हैं। क्या सयू ण भी कभी अमरीकी और भारतीय होता है? कोई भी वस्तु अमरीकी या भारतीय नहीं है; यह
सब कृ तरम है।
“यह ग्रह मानवमार के तलए है। बस इतनी ही।” यही हमारा साम्यवाद है। वतणमान साम्यवाद दोषपणू ण है, क्योंतक
रूसी कहते हैं तक रूस रूतसयों के तलए है या चीन चीतनयों के तलए है। अन्त्य व्यतियों के तलए क्यों नहीं? मानव-साम्यवाद
के रूप में सोचकर देखें! मानव साम्यवाद ही क्यों? प्राणी मार का साम्यवाद! यतद आप इस तवश्व को मानव-समाज की
सम्पतत समझते हों, तो यह भी दोषपणू ण है। यह तवश्व सभी के तलए है। यह वृक्ष-समाज के तलए भी है, पश-ु समाज के तलए भी
है। उन्त्हें भी जीने का अतधकार है। आप पेड़ क्यों काटते हैं? क्यों आप बैलों को वधशाला में भेजते हैं? यह अन्त्याय है। जब
आप स्वयां अन्त्याय करते हैं, तो अपने तलए न्त्याय की अपेक्षा कै से कर सकते हैं? हम कृ ष्णभावनाभातवत नहीं हैं। हम नहीं
जानते तक कृ ष्ण ही हमारे आतद तपता हैं और हम सब उनके परु हैं। वृक्ष मेरा भाई है, चींटा मेरा भाई है, बैल मेरा भाई है।
अमरीकी मेरा भाई है, भारतीय मेरा भाई है और चीनी भी मेरा भाई है। इसतलए हमें कृ ष्णभावनामृत का तवकास करना होगा।
हम तवश्वबन्त्धत्ु व और सयां ि ु राष्र की मख ू णतापणू ण बात करते हैं। यह सब मख ू णता है। या तो आप तपता को स्वीकार करें ,
अन्त्यथा यह कहा जायेगा तक मानवता या भाईचारे की अनभु तू त कै से की जाय, इस तवषय में आपको कोई ज्ञान नहीं है।
इसतलए वे वषों से के वल बात ही कर रहे हैं, ये मख ू ण के मख ू ण ही हैं। क्या आप सांयि ु राष्र सांघ को नहीं देखते? उसका
मख्ु यालय न्त्ययू ाकण में है। वहााँ से वे के वल मखू णतापणू ण बातें करते हैं। बस यही उनका काम है। इसतलए जब तक तक पणू ण रूप
से कृ ष्णभावना स्थातपत नहीं हो जाती है, तब तक तवश्व की तस्थतत में कोई सधु ार नहीं हो सकता।
कृ ष्ण कहते हैं तक आपको उनके प्रतत अनरु ाग का तवकास करना होगा। शरू ु से इसका आरम्भ करें । आप ऐसा कर
सकते हैं; क्योंतक यह कृ तरम नहीं है। यहााँ मेरे कुछ तनष्ठावान तवद्याथी हैं, तजनमें यह भावना तवकतसत हो रही है। वे अभी
तक पणू ण तो नहीं हैं। परन्त्तु वे कृ ष्ण के प्रतत अनरु ति में वृतद्ध कर रहे हैं। अन्त्यथा हरे कृ ष्ण मन्त्र का कीतणन करने में वे अपना
समय क्यों नष् करते? वे ऐसा कर रहे हैं और ऐसा तकया जाना सम्भव है। यतद आप प्रयत्न करें तो तकसी भी वस्तु के तलए
प्रेम तवकतसत कर सकते हैं। तकन्त्तु कृ ष्भावनामृत का तवकास बहुत स्वाभातवक है, क्योंतक कृ ष्ण तकसी धमण या सांप्रदाय
तवशेष से सम्बतन्त्धत नहीं हैं। कृ ष्ण कहते हैं, “मैं सबका ह।ाँ ” इसतलए मल ू रूप में हम सभी लोग कृ ष्ण से सम्बतन्त्धत हैं, तकन्त्तु
हम के वल उन्त्हें भल
ू गये हैं। कीतणन की यह प्रतिया आपको कृ ष्ण का स्मरण जाग्रत करने के तलए है। ऐसा नहीं है तक हम
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

कृ तरम रूप से तकसी बात को आप में प्रतवष् कर रहे हैं। नहीं, कृ ष्ण पहले से ही आपसे सम्बतन्त्धत हैं, तकन्त्तु आप उन्त्हें भल

गये हैं और हम आपकी मल ू चेतना को जगाने के तलए आपको एक तवतध समझा रहे हैं। इसतलए आप हमारे मतन्त्दर में आ
सकते हैं; यह तो एक प्रारम्भ होगा। आप कृ ष्ण या कृ ष्ण के भिों के दशणन कर सकते हैं और हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन
कर सकते हैं।
कृ ष्ण अपने नाम से तभन्त्न नहीं हैं, क्योंतक वे पणू ण हैं। वे अपने शब्दों से अतभन्त्न हैं। कृ ष्ण का नाम और व्यति कृ ष्ण
अलग-अलग नहीं हैं, क्योंतक सब कुछ कृ ष्ण है।
अद्वैतवाद, सवेश्वरवाद या भगवान् के साथ एक होने का दशणन अपणू ण है। जब उस एकत्व का उपयोग कृ ष्ण को
समझने में होता है, तब वह पणू ण बनता है। यतद कृ ष्ण सवोच्च सत्य हैं, तजनसे सभी वस्तओ ु ां का उद्भव हुआ है, तो सवणस्व
कृ ष्ण ही है। जैसे आपके पास सोने की एक खान है और आप सोने के बतणन और गहने तथा अन्त्य अनेक वस्तएु ाँ तैयार कर
रहे हैं, तो ये सभी वस्तएु ाँ सोना ही है, क्योंतक मल
ू धातु सोना है। आप इसे “कणणफूल” कह सकते हैं, तकन्त्तु कणणफूल के आगे
“स्वणण” शब्द लगाना होगा-सोने के कणणफूल। आप इसे “गले का हार” भी कह सकते हैं, परन्त्तु यह सोना है, क्योंतक मल ू
रूप से यह सोने की खान से आया है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का उद्भव कृ ष्ण से हुआ है।
यतद कृ ष्ण सवोच्च परम सत्य हैं, तो कोई वस्तु उनसे तभन्त्न नहीं है। जैसे कणणफूल, गले का हार, चड़ू ी या कलाई की
घड़ी के अलग-अलग नाम होते हुए भी वे सब सोने से ही बने हैं। इसतलए वे सोना ही हैं। परन्त्तु साथ ही साथ आप यह भी
नहीं कह सकते तक यह सोना है। आप कहेंगे, “यह सोने का गले का हार है; यह सोने का कणणफूल है।” मायावादी या
तनतवणशेषवादी कहेंगे तक प्रत्येक वस्तु ब्रह्म है, परन्त्तु यह ठीक नहीं है।
इसे गीता के तेरहवें अध्याय में भलीभााँतत समझाया गया है : “मेरा तवस्तार सवणर है, यह मेरा अव्यि पहलू है।”
कृ ष्ण अपने तनराकार पहलू के द्वारा सवणर तवद्यमान हैं, परन्त्तु तफर भी वे व्यति हैं। मायावादी दाशणतनकों का तवचार है तक
यतद कृ ष्ण सवणस्व हैं, तो यहााँ पर कृ ष्ण के तभन्त्न होने की सम्भावना कहााँ है? यह तनरी दष्ु ता है, क्योंतक यह तवचार भौततक
दृतष् से तकया गया है। यह आध्यातत्मक ज्ञान नहीं है।
भौततक दृतष् से मान लीतजए तक आप कागज का एक टुकड़ा लेते हैं और फाड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं
और तफर उन्त्हें चारों तरफ तबखेर देते हैं। मल
ू कागज का कोई अतस्तत्व नहीं रह जाता। यह भौततक दृतष् से है। परन्त्तु वेदों में
तलखा है तक परम सत्य इतना पणू ण है तक यतद पणू ण में से पणू ण तनकाल तदया जाय, तो भी पणू ण ही शेष बचता है। एक में से एक
घटाने पर एक बचता है। भौततक तवचार की दृतष् से एक में से एक घटाने पर शन्त्ू य बचता है, तकन्त्तु आध्यातत्मक दृतष् से ऐसा
नहीं है। आध्यातत्मक दृतष् से एक में से एक घटाने पर एक ही शेष रहता है और एक में एक जोड़ने पर भी एक ही होता है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

कृ ष्ण सवणस्व हैं। मायावादी हमारे अचाणतवग्रहों को यहााँ-वहााँ देखकर कहते हैं, "ओह! उन्त्होंने लकड़ी के कुछ स्वरूप
लगा तदये हैं और वे उन्त्हें भगवान् मानकर उनकी पजू ा कर रहे हैं।” परन्त्तु जो कृ ष्ण-तवज्ञान को जानता है, वह समझता है तक
कृ ष्ण सब कुछ हैं। इसतलए वे सभी वस्तओ ु ां में प्रकट हो सकते हैं। तबजली के साथ तबजली का प्रवाह भी परू े तार के साथ-
साथ चलता है। आप जहााँ भी इसका स्पशण करें गे, इसे अनभु व कर लेंगे। इसी प्रकार कृ ष्ण का प्रवाह भी उनके तनराकार पहलू
में सवणर है और यातां रक ही जानता है तक उस शति का प्रयोग कै से तकया जाए। फोन स्थातपत करने से पहले हम टेलीफोन
के बारे में बात कर लेते हैं और पैसे के तवषय में चचाण करने से पहले भी व्यति को सतू चत कर देते हैं तक उसे यह पता करने
के तलए तत्काल आ जाना चातहए तक फोन कहााँ जोड़ा जा सकता है। और वह आकर अपना काम कर देता है तथा हमें
पता भी नहीं लगता, क्योंतक वह तकनीक जानता है। इसतलए मनष्ु य को यह मालमू होना चातहए तक कृ ष्ण के साथ सम्बन्त्ध
कै से जोड़ा जाए। कृ ष्ण सवणर हैं और यही कृ ष्णभावनामृत है। तकन्त्तु हमें यह ज्ञात होना चातहए तक हम लकड़ी, लोहे या धातु
के कृ ष्ण आकार से कृ ष्ण को कै से तनकालें।
आपको यह सीखना होगा तक प्रत्येक वस्तु में हर समय तवद्यमान कृ ष्ण से सम्पकण कै से तकया जाय। इसे योग-पद्धतत
के अन्त्तगणत समझाया गया है। कृ ष्णभावनामृत भी योग है, पणू णयोग, सभी यौतगक पद्धततयों में श्रेष्ठ योग। तकसी योगी के आने
पर हम चनु ौती देते हुए कह सकते हैं तक यह सवोत्तम योग पद्धतत है और साथ ही सरलतम भी है। इससे पहले तक आप कुछ
शति का अनभु व करें , आपको कुछ सप्ताह शारीररक व्यायाम करने की आवश्यकता नहीं होगी। परन्त्तु कृ ष्णभावनामृत में
कभी आप थकान का अनभु व नहीं करें गे। हमारे सभी अनयु ायी कृ ष्णभावनामृत में अतधक से अतधक काम करने के तलए
उत्सक
ु रहते हैं, “प्रभपु ाद! मैं क्या कर सकता ह?ाँ ” और वे वास्तव में ऐसा करते भी हैं। भौततक जगत में आप थोड़ा काम
करने पर तनबणलता का अनभु व करने लगते हैं।
वस्ततु : मैं स्वयां भी कोई व्यायाम नहीं करता ह।ाँ मैं 72 वषण का वृद्ध व्यति ह।ाँ तपछले तदनों बीमार होने पर मैं भारत
वापस लौट गया था, तकन्त्तु मैं काम करना चाहता ह।ाँ वस्ततु : मैं इन सभी कामों से तनवृत्त हो सकता था, तकन्त्तु जहााँ तक बन
सके , मैं काम करते रहना चाहता ह,ाँ मैं तदन-रात सीखते रहना चाहता ह।ाँ रात को मैं तडक्टाफोन के साथ काम करता हाँ और
यतद मैं काम न कर सकांु , तो मझु े बड़ा खेद रहता है। यही कृ ष्णभावनामृत है। प्रत्येक व्यति को काम करने के तलए उत्सक ु
रहना चातहए। यह कोई तनठल्लों का समाज नहीं है। हमारे पास बहुत से काम हैं, परपतरकाओ ां का सम्पादन, उनका तविय
आतद।
के वल पता लगाइये तक आप तकस तरह से कृ ष्णभावनाभातवत हो सकते हैं। यतद आप वास्तव में ही शातन्त्त प्राप्त
करना चाहते हैं, सख
ु ी रहना चाहते हैं, तो कृ ष्णभावनामृत का तवकास कीतजए और इसका प्रारम्भ कृ ष्ण के प्रतत अनरु ति

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

का तवकास करने से होगा। इसकी हमारे यहााँ तनधाणररत प्रतिया है तक आप भगवान् के श्रीतवग्रह के सामने कीतणन करें , नाचें
और आध्यातत्मक आहार भगवान् को अतपणत करें । इससे आप और अतधक कृ ष्णभावनाभातवत हो जायेंगे।
भगवद-् गीता में वतणणत योग-पद्धतत इन तदनों पतश्चम में प्रचतलत नकली योग-पद्धतत से तनतान्त्त तभन्त्न है। पतश्चम में
तथाकतथत योतगयों द्वारा प्रचाररत योग पद्धततयााँ प्रामातणक नहीं हैं। योग कतठन है। प्रथम तनयम है इतन्त्द्रयों को तनयन्त्रण में
रखना-योगी को मैथनु करने की अनमु तत नहीं है। यतद आप नशा करते हैं, माांस भक्षण करते हैं और झतू िीड़ा में भाग लेते
हैं, तो ये सब मख
ू णता है। आप यह सब करते हुए योगी नहीं बन सकते। मैं यह जानकर अचतम्भत रह गया तक एक योगी यहााँ
आया और उसने भारत में यह प्रचाररत तकया तक आप मद्यपान करते हुए भी योगी बन सकते हैं। यह योग-पद्धतत नहीं है।
यह प्रामातणक पद्धतत नहीं है। आप चाहें तो इसे योग कह सकते हैं, परन्त्तु यह मानक योग की पद्धतत नहीं है।
योग-पद्धतत का अभ्यास इस यगु में तवशेष रूप से कतठन है। श्रीमद्भागवत में बताया गया है तक योग का अथण है,
परमात्मा तवष्णु पर ध्यान एकाग्र करना। वे हमारे हृदय में बसे हैं और उन पर अपना ध्यान एकाग्र करने के तलए आपको
इतन्त्द्रयों का तनग्रह करना होगा। इतन्त्द्रयााँ ठीक उतेतजत घोड़ों के समान कायण करती हैं। यतद आप आपकी गाड़ी के घोड़ों को
तनयतन्त्रत न कर सकें , तो यह बहुत भयानक तसद्ध हो सकता है। जरा कल्पना कीतजए तक आप गाड़ी पर सवार हैं और
आपके घोड़े उत्तेतजत होकर आपको नरक में खींचे ले जा रहे हैं, तो आपकी क्या तस्थतत होगी? योगपद्धतत का अथण है,
इतन्त्द्रय-तनग्रह। इतन्त्द्रयों की तल
ु ना सााँप से भी की जाती है। सााँप नहीं जानता तक उसका तमर कौन है और शरु कौन है। वह
तकसी को भी काट लेता है और सााँप के काटते ही मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार यतद अतनयतन्त्रत इतन्त्द्रयााँ अपने मनमाने ढांग
से कायण करती हैं, तो आप समझ लीतजए तक आप भयानक तस्थतत में हैं।
कहा जाता है तक बहुत तवषयी होने पर मनष्ु य अपने आपे में नहीं रहता, वह अपनी पहचान खो देता है और अपने
आपको भल ू जाता है। इतन्त्द्रयों से उतेतजत होकर मनष्ु य अपने बच्चों और अपनी बेटी पर भी हमला कर बैठता है। इसतलए
जो लोग आध्यातत्मक मागण पर प्रगतत कर रहे हैं, उनके तलए ही नहीं, बतल्क सभी लोगों के तलए शास्त्रों में तलखा है तक उन्त्हें
एकान्त्त में अपनी मााँ बेटी या बहन के साथ भी नहीं बैठना चातहए। क्यों? क्योंतक इतन्त्द्रयााँ इतनी प्रबल हैं तक एक बार उनके
उतेतजत होने पर आप भल ू जायेंगे तक वे आपकी मााँ बहन या बेटी हैं।
आप कह सकते हैं तक यह बात के वल कुछ मख ू ण लोगों के तलए ही सत्य हो सकती है। तकन्त्तु शास्त्र कहते हैं, नहीं,
आपको अपनी मााँ, बहन या बेटी के साथ भी एकान्त्त स्थान पर नहीं बैठना चातहए, क्योंतक इतन्त्द्रयााँ इतनी प्रबल हैं तक आप
तकतने भी नैततक क्यों न हों, तफर भी आप यौनाकषणण से खींचे जा सकते हैं।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

इस तवश्व में हमारी तस्थतत, हमारा दखु इस शरीर के कारण है। यह शरीर सभी दख ु ों का कारण है, इसतलए हमारा
अतन्त्तम लक्ष्य होना चातहए, इस भौततक शरीर से बाहर तनकलकर आध्यातत्मक शरीर में तस्थत होना। यह तवदेशी वातावरण
है। आध्यातत्मक दृतष् से आत्मा स्वतांर है, तकन्त्तु भौततक वातावरण से यह बद्ध हो गया है और शरीर इसी पदाथण से बना है।
मनष्ु य यह तजज्ञासा करने के तलए योग्य है तक वह यह शरीर है या कुछ और। इसे आसानी से समझा जा सकता है।
मैं यह शरीर नहीं ह,ाँ क्योंतक मृत्यु के समय शरीर तो रहता है, यद्यतप प्रत्येक व्यति तचल्लाता है, "ओह! बेचारा चला गया!”
मनष्ु य वहााँ पड़ा है, तफर आप क्यों कहते हैं तक वह चला गया? वह तो वहााँ पड़ा है! उस समय हम अनभु व कर सकते हैं
तक शरीर मनष्ु य नहीं है। वास्ततवक मनष्ु य तो चला गया। बचपन का शरीर यवु ा शरीर में पररणत हो जाता है और इस प्रकार
बचपन का शरीर चला जाता है। इसी प्रकार जब तकशोर शरीर चला जाता है, तो आपको मेरे जैसा वृद्ध शरीर भी स्वीकार
करना पड़ता है। शरीर बदल रहा है, प्रतत वषण ही नहीं, प्रततक्षण बदल रहा है। तकन्त्तु तफर भी आप वही हैं। यह समझना बहुत
आसान है। चाँतू क शरीर है इसतलए दख ु है। प्रत्येक व्यति जीवन के हर क्षेर में, आतथणक क्षेर में राजनीततक क्षेर में या तकसी
अन्त्य कायणक्षेर में, सामातजक या राष्रीय क्षेर में इस दख ु से तनकलने के प्रयत्न में लगा है। कोई और काम नहीं है। राष्रीय
या सामातजक रूप में, व्यतिगत या सामतू हक रूप में, हम सब दख ु भोग रहे हैं और इस दख ु का कारण है, शरीर।
योग का अथण है, तजज्ञासा। मैं कौन ह?ाँ यतद मैं यह शरीर नहीं ह,ाँ तो तफर मैं क्या ह?ाँ मैं एक शद्ध
ु आत्मा ह।ाँ अब यतद
मेरी शारीररक या इतन्त्द्रयों की गतततवतधयााँ दोषपणू ण हैं, तो मैं अपने आपको समझ नहीं पाऊाँगा तक मैं कौन ह।ाँ भगवद-् गीता
में कहा गया है तक हम सब महान् मख ू ण हैं। मख
ू ण क्यों? क्योंतक हम ये शरीर धारण तकये हुए हैं, इसतलए मखू ण हैं। यतद कोई
आपको अपने मकान में आने के तलए आमतन्त्रत करता है, परन्त्तु आप जानते हैं तक वहााँ खतरा है, तो क्या आप वहााँ जाना
चाहेंगे? आप कहेंगे, "ओह! नहीं, मैं वहााँ नहीं जाऊाँगा, वहााँ बहुत खतरा है। मैं वहााँ क्यों जाऊाँ?” इसी प्रकार क्या आपको
नहीं लगता है तक शरीर सांकटपणू ण है? तफर आप बार-बार जन्त्म लेकर यहााँ क्यों आ रहे हैं? जब आप हवाई जहाज में उड़ते
हैं, तो आप हमेशा भयभीत रहते हैं तक कहीं जहाज दघु णटनाग्रस्त न हो जाए। और यह दघु णटना क्या है? यह शरीर के कारण
है। आत्मा पर दघु णटना का कोई असर नहीं हो सकता। परन्त्तु आप तफर भी सदा ही भयभीत रहते हैं।
आत्मा तनत्य है और शरीर अतनत्य है; क्योंतक आपका अतस्तत्व है और आत्मा ने अतनत्य शरीर का वरण तकया
है, इसतलए आप दख ु भोगते हैं।
तो समस्या यह है तक इससे बाहर कै से तनकला जाये, जैसे आप ज्वर से तनकलने का प्रयास करते हैं। ज्वर की तस्थतत
आपका सामान्त्य स्थायी जीवन नहीं है। स्थायी जीवन आनन्त्दमय होता है, तकन्त्तु ज्वर के कारण आप जीवन का आनन्त्द
नहीं ले सकते। जब आप तबमार होते हैं, तो आप बाहर नहीं तनकल सकते। आपको तवश्राम करना पड़ता है और अनेक
औषतधयों की आवश्यकता होती है। तकन्त्तु हम इन्त्हें पसांद नहीं करते, “मैं आतखर तबमार होऊाँ भी क्यों?” तफर भी आप
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

तबमार होते हैं। इसी प्रकार हमें सदैव यह जानना चातहए तक शद्ध
ु आत्मा की यह शरीरबद्ध अवस्था एक रुग्ण अवस्था है
और यतद कोई यह भी नहीं जानता तक वह रोगी है, तो वह तनश्चय ही मखू ण है। वह प्रथम श्रेणी का मख
ू ण है।
शास्त्रों में तलखा है तक प्रत्येक व्यति मख
ू ण ही जन्त्म लेता है। चाँतू क उसका शरीर होता है, इसतलए वह मख
ू ण ही जन्त्म
लेता है। कोई भी जीव, अमरीकी या भारतीय, कुत्ता या तबल्ली इससे मि ु नहीं है। बस, आप रोग तक आ पहुचाँ े हैं। यतद
आप अनभु व करते हैं तक “मैं एक अमरीकी ह.ाँ " तो यह एक प्रकार का रोग है, यतद आप अनभु व करते हैं तक “मैं भारतीय
ह.ाँ " तो यह भी एक प्रकार का रोग है, यतद आप अनभु व करते हैं तक “मैं तबल्ली ह.ाँ " तो यह भी रोग है। न तो आप कुत्ते हैं,
न तबल्ली हैं, न भारतीय हैं, न गोरे हैं, न काले हैं, आप आत्मा हैं-यही आपकी पहचान है! और यतद कोई यह सत्य नहीं
जानता तक “मैं शद्ध ु आत्मा ह.ाँ " तो उसके सभी कायण असफल होते हैं।
ईसा मसीह ने भी इसी प्रकार की तशक्षा दी, “यतद तमु अपने आत्मा को खोकर सम्पणू ण तवश्व को प्राप्त कर लेते हो,
तो तम्ु हें इससे क्या लाभ होगा?” लोग नहीं जानते तक वे कौन हैं, तफर भी वे पागलों की तरह काम करते रहते हैं। जरा देतखए,
ये सब लोग काम में लगे हैं। ये सभी पागल हैं, न तो ये अमरीकी हैं या भारतीय हैं और न ही जमणन या जापानी हैं। वे इनमें से
कुछ भी नहीं हैं। उन्त्हें इस बरु े स्थान-पृथ्वी-पर आने का अवसर तदया गया है और इस प्रकार एक तवशेष स्थान पर जन्त्म लेने
के कारण उनका शरीर तवशेष जातत का है और बस वे उसी के पीछे पागल हैं।
भगवद-् गीता में कहा गया है तक जैसे हमारे बाहरी वस्त्र बदले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार यह शरीर भी बदला जाता
है। योग का अथण है, इस भौततक शरीर के बन्त्धन से बाहर तनकलने की प्रतिया। जैसे आप बार-बार वस्त्र बदलते रहते हैं,
उसी प्रकार आप जन्त्म और मृत्यु को प्राप्त करते हैं और यही आपके दख ु ों का कारण है। यतद आप यह नहीं समझते, तो
आपके सभी कायों का अन्त्त असफलता में होगा।
योग का अथण है, इस शरीर के बन्त्धन से बाहर तनकलना और इसका अथण है अपने आपको जानना। माता-तपता ने
इस शरीर को जन्त्म तदया है। इसी प्रकार शद्ध
ु आत्मा के रूप में आप भी इस देह के जन्त्म के स्रोत हैं। हमारा आशय तकसी
ऐततहातसक तततथ से आरम्भ होकर तकसी अन्त्य तदन को समाप्त होने वाले जन्त्म से नहीं है। नहीं, आत्मा का यह स्वरूप नहीं
है। उसका न कोई आतद है और न अन्त्त। परन्त्तु भगवद-् गीता में कहा गया है तक आत्मा भगवान् का ही तवतभन्त्न अांश है।
भगवान् शाश्वत हैं। भगवान् आनन्त्द से पररपणू ण हैं। परम परुु ष भगवान् की तस्थतत यह है तक वे आनन्त्दमय हैं, सनातन हैं और
ज्ञानमय हैं। और उन परम भगवान् से तवतभन्त्न न होने के कारण हममें भी हमारे अणु आकार के अनसु ार आांतशक आनन्त्द
और शाश्वतता है। तथा हम उसी आांतशक मारा में ज्ञान से पररपणू ण हैं।
सभी प्रातणयों में मनष्ु य को सबसे अतधक बतु द्धमान माना गया है, परन्त्तु वे अपनी बतु द्ध का दरुु पयोग कर रहे हैं। कै से?
वे अपनी बतु द्ध को पाशतवक प्रवृतत्तयों में तनयोतजत करके उसका दरुु पयोग कर रहे हैं। ये पाशतवक प्रवृतत्तयााँ हैं-आहार, तनद्रा,
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

भय और मैथनु । यतद आप आधतु नक सभ्यता की प्रवृतत्त का तवश्ले षण करें , तो पायेंगे तक प्रत्येक मनष्ु य पश-ु जीवन के इन
चार तसद्धान्त्तों में ही व्यस्त है। वे लोग सोते हैं और आरामप्रद तनद्रा के तलए गद्दों का तनमाणण करते हैं। वे आहार की प्रवृतत्त
के तलए सस्ु वादु व्यजां न बनाते हैं और तवषय-भोग की आवश्यकता के तलए वे बहुत ही उत्तम रीतत से अपनी वासना को
उतेतजत करते हैं। और बहुत से अणबु मों के द्वारा वे अपने देश की रक्षा कर रहे हैं-यह भय की प्रवृतत्त है।
परन्त्तु ये प्रवृतत्तयााँ आप जानवरों में भी पायेंगे। वे भी अपने ढांग से तनद्रा लेते हैं और आत्मरक्षा में प्रवृत्त होते हैं। भले
ही उनके पास अण-ु बम न हो, तफर भी वे आत्मरक्षा के तलए कोई न कोई उपाय ढूाँढ़ ही लेते हैं। आप अपने शरु को मार
सकते हैं या तफर वह आपको मार सकता है, तकन्त्तु वास्तव में बचाव कहीं नहीं है। आप अपना बचाव नहीं कर सकते। जहााँ
कहीं आप अण-ु बम तगरायेंगे, तो न्त्यक्ू लीय रे तडयोधतमणता के कारण आप भी आहत होंगे। इसतलए आपकी समस्याओ ां का
यह समाधान नहीं है। समस्या का समाधान तो यह है तक आप जीवन की बद्धावस्था से बाहर तनकल आएाँ। इसी को योग
कहते हैं। योग का अथण है स्वयां को सवोच्च से जोड़ना।
कोई न कोई शति सवोपरर है। यह भौततक सृतष् तकतनी सन्त्ु दर है? क्या आपको नहीं लगता तक इसके पीछे आपका
कोई तमर है? आकाश तकतना सन्त्ु दर है, अनाज उत्पन्त्न होता है, चन्त्द्रमा अपने तनयत काल में उगता है, सयू ण अपने तनयत
समय पर तनकलता है, आपके स्वास्थ्य के तलए और सभी ग्रह मडडलों के तलए वह ऊष्मा प्रदान करता है। सभी कुछ
सव्ु यवतस्थत है और तफर भी मख
ू ण कहते हैं तक इसके पीछे तकसी का मतस्तष्क नहीं है, यह तो सब स्वत: हो रहा है।
सत्य तो यह है तक भगवान-् कृ ष्ण-हैं और हम सब कृ ष्ण के अतभन्त्न अांश हैं। इस भौततक जगत में हम तकसी न तकसी
रूप में बद्ध हैं। परन्त्तु अब हमें यह मानव शरीर तमला है। अत: हमें इस जाल से छुटकारा पाना है। परन्त्तु छुटकारा पाना सम्भव
नहीं है। जब तक आप अपनी कृ ष्णभावना का तवकास नहीं कर लेते हैं, तब तक आप इस जाल से बाहर नहीं तनकल सकते।
कृ ष्णभावना कृ तरम नहीं है-यह मनष्ु य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। कृ ष्णभावना या भगवद्भावना आपके अन्त्दर है। क्या
आपको नहीं लगता तक कीतणन के समय, जो व्यति तजतना अतधक तनदोष होता है, वह उतनी ही जल्दी कीतणन करना
आरम्भ कर देता है। बच्चे तत्काल ही ताली बजाकर नाचने लग जाते हैं। यह उनके भीतर है और यह कृ ष्णभावनामृत बहुत
सरल है।
इसतलए जब तक आप कृ ष्णभावनामृत का तवकास नहीं कर लेते, तब तक बद्ध जीवन के जाल से छुटकारा पाने
का कोई उपाय नहीं है। आपको यह समझना होगा। यह कोई भावक ु ता नहीं है। नहीं, यह एक महान् तवज्ञान है। आपको इसे
अच्छी रीतत से समझना है, तब मानव-जीवन सफल होगा। अन्त्यथा यह तनष्फल होगा। आप एक बहुत ही महान् राष्र हो
सकते हैं, परन्त्तु यह जीवन की समस्याओ ां का हल नहीं है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

कृ ष्ण की कृ पा से मैं अपनी जीवनी शति से आपकी सेवा में समथण ह।ाँ मैंने 1967 में अस्वस्थता के कारण अमेररका
छोड़ तदया था, परन्त्तु जीवन और मृत्यु सब कृ ष्ण पर ही तनभणर है। मैंने सोचा, “मैं वृन्त्दावन वापस चला जाऊाँ, क्योंतक वृन्त्दावन
एक पतवर स्थान है, जहााँ कृ ष्णभावनामृत अतधक प्रबल है।” मैंने सोचा तक मैं वहााँ जाकर कृ ष्णभावनामृत में प्राण छोड़
दगांू ा, वास्तव में यतद आप कृ ष्णभावनामृत के वातावरण में हों, तो आप यहााँ पर भी वृन्त्दावन का अनभु व कर सकते हैं।
वृन्त्दावन एक ऐसा तवशेष स्थान नहीं है, तजसे वृन्त्दावन के नाम से पक ु ारा जाता है। कृ ष्ण कहते हैं, “मैं भगवद् धाम वैकुडठ
में तनवास नहीं करता हाँ न ही मैं योगी के हृदय में तनवास करता ह।ाँ ” योगी यह जानना चाहता है तक हृदय के भीतर कृ ष्ण
कहााँ तस्थत हैं। परन्त्तु कृ ष्ण कहते हैं, “मैं तदव्याकाश में तस्थत अपने धाम में तनवास नहीं करता ह।ाँ न ही मैं योगी के हृदय में
ह।ाँ ” तब आप कहााँ तनवास करते हैं? कृ ष्ण कहते हैं, “मैं वहााँ रहता ह,ाँ जहााँ मेरे शद्ध ु भि मेरा गणु गान करते हैं।” वही
वृन्त्दावन है।
इसतलए यतद यही वृन्त्दावन है, तो मैं यहीं ह।ाँ कोई अन्त्तर नहीं पड़ता। जहााँ कहीं तबजली का प्रकाश होगा, वहााँ
तबजली तो होगी ही। यह आसानी से समझ तलया जाता है। इसतलए जहााँ कहीं कृ ष्णभावना होगी, वहीं वृन्त्दावन होगा। यतद
हम हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन करें , तो कृ ष्ण की कृ पा से वृन्त्दावन का तनमाणण कर सकते हैं। कृ ष्णभावनामृत में पणू णता प्राप्त
कीतजए, और इसके पीछे जो दशणन है, उसे समझने का प्रयास करें । यह तवज्ञान है, कोई मनगढांत वस्तु नहीं। हम तकसी भी
दृतष्कोण से यह बात कह सकते हैं।
कृ ष्णभावनामृत मानव जीवन की एक महत्वपणू ण आवश्यकता है। इसे सीखें और इसका महत्व समझे। इसे समझे
और इसे आत्मसात् करें । और तफर दसू रों को तसखाएाँ। यह बहुत सरल है। यतद आप अपराधहीन अवस्था में महामन्त्र का
कीतणन करते हैं, तो सब कुछ आपके भीतर से प्रकातशत हो जाएगा, क्योंतक कृ ष्ण आपके भीतर ही तस्थत हैं। यतद आप दृढ़
हैं और कृ ष्ण के साथ ही कृ ष्ण के पारदशी माध्यम, गरुु महाराज में आप श्रद्धा और तवश्वास रखते हैं, तो वहााँ कृ ष्ण उपतस्थत
हैं। वेदों में कहा गया है तक यतद भगवान् में आपका तनतवणवाद तवश्वास है और कृ ष्णभावनामृत की तशक्षा देने वाले अपने
प्रामातणक गरुु के प्रतत भी तनतवणवाद श्रद्धा है, तो पररणाम यह होगा तक सभी वैतदक ग्रन्त्थ प्रामातणक रूप से आपके समक्ष
प्रकट हो जाएाँगे।
यह प्रतिया आध्यातत्मक है। इसके तलए तकसी भौततक योग्यता की आवश्यकता नहीं है। अनेक तकण वादी लोग,
तजन्त्हें अनभु तू त नहीं हुई है, वे भ्रम में डूबे हुए हैं और अपना समय व्यथण बरबाद रहे हैं। वे अपनी तशक्षा से तकतना भी ज्ञान
अतजणत कर लें, वे मख ू ण ही बने रहते हैं। परन्त्तु हमारे कृ ष्णभावनाभातवत तवद्याथी अपने जीवन में, अपने सख
ु में और अपने
यौवन में पररवतणन का अनभु व करते हैं। यह वास्ततवकता है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

मेरे तप्रय यवु क और यवु ततयों, मैं आपसे प्राथणना करूाँगा तक आप कृ ष्णभावनामृत को बहुत गम्भीरता से अपनाएाँ।
तभी आप सख ु ी होंगे और आपका जीवन पणू णता को प्राप्त होगा। इससे आपके जीवन में पतवरता का योग होगा। यह कोई
छल नहीं है। हम यहााँ कुछ धन एकर करने के तलए नहीं आये हैं। धन तो कृ ष्ण देते हैं। मैं भारत जाता आता रहता हाँ और
के वल मैं ही नहीं, मेरे तशष्य भी। धनी व्यति को इसके तलए बहुत-सा धन व्यय करना होगा। इस यारा का अथण है 10 हजार
डॉलर का व्यय, तकन्त्तु हम लोगों के ध्येय है कृ ष्ण, तो वे ही हमें प्रदान करें गे। मैं नहीं जानता तक धन कहााँ से आता है, तकन्त्तु
कृ ष्ण देते हैं। कृ ष्णभावनामृत में आप सखु ी रहेंगे। आप यवु ा पीढ़ी के हैं। अपने देश और समाज के फूल हैं। कृ ष्णभावनामृत
की इस तदव्य पद्धतत का अभ्यास करें । सख ु ी रहें और दसू रों को सख ु ी बनाएाँ। यही जीवन का वास्ततवक लक्ष्य हैं।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय पााँच
हमारा वास्ततवक जीवन
भगवद-् गीता में कहा गया है तक हजारों मनष्ु यों में से कोई एक में कृ ष्ण कहते हैं, "हजारों मनष्ु यों में से कोई एक ही
मझु े जान ही अपने जीवन को पणू ण बनाने के तलए प्रयत्न करता है। मनष्ु य भी एक पशु है, तकन्त्तु उसमें एक तवशेष अतधकार
है, वह है तववेक बतु द्ध। यह तववेक बतु द्ध क्या है ? तकण शति। तकन्त्तु तकण शति तो कुत्ते और तबल्ली में भी होती है। मान लें
एक कुत्ता आपके पास आता है; यतद आप उसे कहते है, "हट!” तो वह समझ जाएगा। कुत्ता यह समझ जाएगा तक आप
उसे नहीं चाहते। इसतलए कुछ तकण शति तो उसमें भी है। तफर मनष्ु य की तवशेष तकण शति क्या है ?
जहााँ तक शारीररक आवश्यकताओ ां का सम्बन्त्ध है, तकण शति तो पशओ ु ां में भी होती है। यतद तबल्ली रसोई में जाकर
चपु के से दधू चरु ाना चाहती है, तो इसके तलए उसके पास अच्छी तकण शति होती है; वह देखती रहेगी तक मातलक कब
बाहर जाए और कब वह दधू चट कर जाए। इसतलए आहार, तनद्रा, मैथनु और आत्मरक्षा की चार पाशतवक प्रवृतत्तयों के
तलए तकण शति तो पशओ ु ां में भी होती है। तफर मनष्ु य में ऐसी कौन-सी तवशेष बतु द्ध है, तजसके कारण उसे तववेकशील प्राणी
कहा जाता है ?
वह तवशेष तकण शति है यह तजज्ञासा करना तक, “मैं क्यों दख ु सह रहा ह?ाँ ” यह तवशेष तकण शति है। जानवर भी दख ु
झेलते हैं, तकन्त्तु वे जानते नहीं की इसका तनवारण कै से तकया जाए। परन्त्तु मनष्ु य तकतने ही क्षेरों में-वैज्ञातनक क्षेर में, दाशणतनक
क्षेर में, साांस्कृ ततक क्षेर में और धातमणक क्षेर में-प्रगतत कर रहा है, क्योंतक वह सखु ी होना चाहता है। “सख ु का तबन्त्दु कहााँ
है?” यह तकण शति मनष्ु य को तवशेष रूप से प्रदान की गयी है। इसतलए गीता में कृ ष्ण कहते हैं, “हजारों मनष्ु यों में से कोई
एक ही मझु े जान सकता है।”
सामान्त्यत: मनष्ु य भी जानवरों के समान ही आचरण करते हैं। वे शरीर की आवश्यकताओ ां मार के परे कुछ नहीं
जानते-कै से खाएाँ कै से सोएाँ कै से सांभोग करें और कै से आत्मरक्षा करें । भगवद-् गीता में कहा गया है तक हजारों लोगों में से
कोई एक में ही यह तकण शति पैदा हो सकती है, “मैं क्यों दख ु झेल रहा ह?ाँ ” वह यह प्रश्न पछू ता है : “मैं क्यों दख
ु सह रहा

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

ह?ाँ ” हम दख
ु नहीं झेलना चाहते, तकन्त्तु दख
ु हम पर थोप तदये जाते हैं। हम बहुत ठांड नहीं चाहते, तकन्त्तु बहुत अतधक ठांड
और गमी हम पर थोप दी जाती है।
जब इस तकण शति को जगाने की कोई प्रेरणा होती है, तो उसे ब्रह्मतजज्ञासा कहते हैं। यह वेदान्त्त-सरू में बताया गया
है। पहले श्लोक में कहा गया है तक मानव जीवन का उद्देश्य है यह प्रश्न पछू ना तक दख
ु की समस्या को कै से हल तकया जाए?
इसतलए कृ ष्ण कहते हैं तक मनष्ु य का यह तवशेषातधकार तबना अच्छी सांगतत के सरलता से जाग्रत नहीं होता। जैसे
आज हमारे पास कृ ष्णभावनामृत का सत्सांग है। यतद हमें सत्सांग तमल जाये, जहााँ अच्छी बातों पर चचाण होती हो, तो मनष्ु य
में उनके तवशेषातधकार रूप तववेक की जागृतत होगी। जब तक यह प्रश्न उसके मन में नहीं उठता, उसे समझना चातहए तक
उसके सभी कायण-कलाप उसे पराजय की ओर खींच जायेंगे। वह के वल पशु के समान जीवन जी रहा है। परन्त्तु जब उसमें-मैं
क्यों दख
ु भोग रहा ह?ाँ मैं क्या ह?ाँ क्या मैं दख
ु भोगने के तलए ह?ाँ क्या मैं कतठनाई झेलने के तलए ह?ाँ -ये प्रश्न उठते हैं, तो वह
पशु जीवन नहीं जीता।
मैं प्रकृ तत के और राज्य के तनयमों के कारण ही कष् झेल रहा ह।ाँ इसतलए मतु ि का अतभप्राय यह है तक मैं इन सारे
कष्ों से छुटकारा कै से पाऊाँ। वेदान्त्त-सरू में यह भी तलखा है तक मेरा आत्मा या मेरा सच्चा स्वरूप स्वभाव से आनन्त्दमय
है; तफर भी मैं दख ु झेल रहा ह।ाँ भगवान् कृ ष्ण आगे कहते हैं तक जैसे ही ये प्रश्न मन में उठने लगते हैं, मनष्ु य धीरे -धीरे भगवान्
के समीप आने लगता है। तजनके मन में ये प्रश्न उठ चक ु े हैं, वे पणू णता के मागण के पतथक कहे जाते हैं। और जब भगवान् तथा
भगवान् से हमारे सम्बन्त्ध का प्रश्न आता है, तो यह हमारे जीवन की अतन्त्तम पणू णता है।
अब कृ ष्ण कहते हैं तक हजारों लोगों में से कोई एक इस जीवन में पणू णता प्राप्त करने का प्रयत्न करता है; और पणू णता
के पथ पर चलने वाले ऐसे लाखों व्यतियों में से कोई एक ही कृ ष्ण को जान पाता है। अतएव कृ ष्ण को जानना बहुत सरल
नहीं है, परन्त्तु साथ ही यह सबसे सरल भी है। यह सरल नहीं है, तकन्त्तु साथ ही साथ यह सरल भी है। यतद आप तनधाणररत
तशक्षाओ ां का अनसु रण करें , तो यह सरल है।
भगवान् चैतन्त्य महाप्रभु ने हरे कृ ष्ण महामन्त्र के कीतणन का प्रवतणन तकया है। वैसे इसका प्रवतणन उन्त्होंने ही नहीं तकया
था। यह शास्त्रों में पहले से तलखा है। परन्त्तु उन्त्होंने इस सरू का तवशेष रूप से प्रचार तकया है। वतणमान यगु में आत्म-साक्षात्कार
की यह सरलतम तवतध है। के वल आप हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन करें । प्रत्येक व्यति ऐसा कर सकता है। अपनी कक्षा में
शायद मैं ही अके ला भारतीय ह।ाँ मेरे सारे अनयु ायी अमरीकी हैं और वे अच्छी तरह नाचते-गाते हुए कीतणन में भाग लेते हैं।
इससे तसद्ध होता है तक इसका अभ्यास तकसी भी देश में तकसी भी स्थान पर तकया जा सकता है। इसतलए यह सबसे सरल
है। हो सकता है तक आप भगवद-् गीता का दशणन न समझते हों। यह भी बहुत कतठन नहीं है, तो हरे कृ ष्ण महामन्त्र का कीतणन
तो कर ही सकते हैं।
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

यतद हम भगवान् अथाणत् कृ ष्ण को जानना चाहते हैं, तो इसका आरम्भ यहीं से होगा। कीतणन सबसे सरल आरम्भ
है। अब हमारे कृ ष्णभावनामृत सघां में अनेक अनयु ायी हैं। इस सघां को खल
ु े हुए एक साल से थोड़ा अतधक ही हुआ है। परन्त्तु
कृ ष्ण की कृ पा से कुछ अनयु ायी के वल कीतणन करते हुए ही इतने आगे बढ़ गए हैं तक अब वे भगवत् ज्ञान पर चचाण भी कर
सकते हैं और वे आसानी से ये मानवीय प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं। इसतलए तदव्य ध्यान की यह सबसे सरल तवतध है।
कृ ष्ण कहते हैं तक लाखों में से कोई एक व्यति ही उन्त्हें जान सकता है, तकन्त्तु भगवान् चैतन्त्य महाप्रभु द्वारा प्रवततणत
हरे कृ ष्ण महामन्त्र के इस कीतणन-नृत्य से बहुत थोड़े समय में ही आप कृ ष्ण को जान सकते हैं। ज्ञान का आरम्भ कृ ष्ण से
नहीं, बतल्क उन वस्तओ ु ां से होता है, तजन्त्हें हम प्रतततदन देखने के अभ्यस्त हो गये हैं।
पृथ्वी स्थूल है। यतद आप इसका स्पशण करें , तो इसकी ठोसता का अनभु व कर सकते हैं। तकन्त्तु जैसे ही पृथ्वी अतधक
सक्ष्ू म होने लगती है, तो यह जल बन जाती है और इसका स्पशण मृदु लगने लगता है और तफर जल से आग और अतधक
सक्ष्ू म हो जाती है। आग या तबजली के बाद हवा बनने पर वह और अतधक सक्ष्ू म हो जाती है। हवा के बाद आकाश और
अतधक सक्ष्ू म हो जाता है। आकाश के बाद मन और अतधक सक्ष्ू म है और मन के बाद बतु द्ध उससे अतधक सक्ष्ू म है। और
यतद आप आत्मा को समझने के तलए बतु द्ध से भी परे जााँए, तो यह और अतधक सक्ष्ू म हो जाता है। इन तत्वों की सहायता
से मनष्ु य ने तकतने ही प्रकार के तवज्ञानों का आतवष्कार तकया है। अनेक वैज्ञातनक हैं। जैसे भतू वशेषज्ञ, वे तमट्टी का तकसी
तवशेष प्रकार का तवश्ले षण करके बता सकते हैं तक इसमें कौन-कौन से खतनज पदाथण हैं। कोई चााँदी, कोई सोना और कोई
अभ्रक खोज तनकालता है। यह स्थल ू पदाथण का अथाणत् पृथ्वी का ज्ञान है। यतद आप और अतधक सक्ष्ू म तत्वों का अध्ययन
करें , तो आप पानी, पेरोल, मद्यसार (एल्कोहल) जैसे तरल पदाथों का अध्ययन करते हैं। और अतधक सक्ष्ू म द्रव्यों का
अध्ययन करना हो, तो आप पानी के बाद आग और तबजली का अध्ययन करते हैं और आपको कई तरह की पस्ु तकें पढ़नी
पड़ेंगी। और इस सक्ष्ू म आग से आगे बढ़कर आप हवा का भी अध्ययन करते हैं। हमने वैज्ञातनकी के क्षेर में काफी उन्त्नतत
कर ली है। हम इस बात का अध्ययन करते हैं तक तवमान कै से चलते हैं, उनका कै से तनमाणण होता है। अब स्पतु तनक और
जेट जैसी तकतनी ही वस्तओ ु ां की खोज कर ली गयी है।
इसके बाद इलैक्रोतनक्स जैसे आकाशीय तत्वों के अध्ययन का िम शरू ु होता है-एक पदाथण से दसू रे पदाथण में
आकाशीय रूपान्त्तरण। इसके बाद और अतधक सक्ष्ू म तत्व मन का अध्ययन होता है, तजसके अन्त्तगणत मनोतवज्ञान और
मनोतवश्ले षण का अध्ययन तकया जाता है। तकन्त्तु बतु द्ध और तकण के अभ्यास के तलए बहुत कम खोज की जाती है। और
आत्मा के तवषय में क्या? क्या आत्मा का कोई तवज्ञान है? भौततकतावातदयों के पास कुछ भी नहीं है। भौततक तवज्ञान
आकाश, मन और बतु द्ध के अध्ययन तक पहुचाँ गया है, तकन्त्तु इसके बाद के तत्वों के अध्ययन में कुछ प्रगतत नहीं हुई है।
बतु द्ध के बाद कौन सा तत्व है, इसका उन्त्हें ज्ञान नहीं है, तकन्त्तु भगवद-् गीता में इसका वणणन तमलता है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

भगवद-् गीता का आरम्भ बतु द्ध के बाद के तत्व के अध्ययन से होता है। जब प्रारम्भ में ही अजणनु दतु वधा में पड़ गया,
तब उसकी बतु द्ध भ्रतमत हो गई तक वह यद्ध ु करे या न करे । कृ ष्ण गीता का आरम्भ वहीं से करते हैं, जहााँ बतु द्ध तवफल होती
है। आत्मा के ज्ञान का आरम्भ कै से होता है? यह बच्चे के खेल की तरह है। आप समझ सकते हैं तक बच्चे का शरीर अभी
बहुत छोटा है, तकन्त्तु एक तदन यही बच्चा आपकी या मेरी तरह बड़ा हो जाएगा। तकन्त्तु आत्मा वही रहेगा। इसतलए बतु द्ध से
आप यह समझ सकते हैं तक यद्यतप शरीर बदल गया है, तफर भी आत्मा वैसा ही है। वही आत्मा जो कभी बच्चे के शरीर में
था, आज वृद्ध शरीर में भी तवद्यमान है। इसतलए आत्मा तनत्य है और के वल शरीर बदल गया है, यह समझना बहुत आसान
है और शरीर का अतन्त्तम पररवतणन ही मृत्यु है। हर क्षण, हर तदन, हर घडटे शरीर बदल रहा है, तकन्त्तु अतन्त्तम पररवतणन उस
समय आता है, जब शरीर कायण करने में असमथण हो जाता है, तो आत्मा को नया शरीर ग्रहण करना पड़ता है। तजस प्रकार
यतद मेरे वस्त्र बहुत जीणण हो गये हैं, तो मैं उन्त्हें पहने नहीं रह सकता, मझु े नये वस्त्र धारण करने पड़ते हैं। यही तस्थतत आत्मा
की है। जब शरीर बहुत जीणण हो जाता है, तो दसू रा शरीर ग्रहण करना ही पड़ता है। इसे ही मृत्यु कहते हैं।
आत्मा के इसी प्रारतम्भक ज्ञान से भगवद-् गीता का आरम्भ होता है। आप देखेंगे तक ऐसे बहुत कम लोग हैं, जो यह
समझ पाएाँगे तक आत्मा सनातन है और शरीर पररवतणनशील है। इसतलए भगवान् कृ ष्ण कहते हैं तक लाखों मनष्ु यों में से कोई
एक ही इसे जान पाता है। तफर भी ज्ञान तो तवद्यमान है। यतद आप उसे समझना चाहेंगे, तो यह कतठन नहीं है। आप उसे समझ
सकते हैं।
अब हमें सबसे सक्ष्ू म भौततक तत्व अहक ां ार के अतस्तत्व के बारे में तजज्ञासा करनी चातहए। अहक ां ार क्या है? मैं शद्धु
आत्मा ह।ाँ परन्त्तु अपनी बतु द्ध और मन की सहायता से मैं पदाथण के सम्पकण में आता हाँ और मैंने पदाथण को अपना स्वरूप
मान तलया है। यही तमथ्या अहक ां ार है। मैं शद्ध
ु आत्मा हाँ तकन्त्तु मैं अपनी तमथ्या पहचान को स्वीकार कर रहा ह।ाँ उदाहरणाथण,
मैंने भतू म को अपनी पहचान मान तलया है और मैं सोचता हाँ तक मैं भारतीय हाँ या अमरीकी ह।ाँ इसी को अहक ां ार कहते हैं।
अहक ां ार का अथण है, वह तबन्त्दु जहााँ शद्ध
ु आत्मा पदाथण के सम्पकण में आता है। यह सगां मस्थान ही अहक ां ार है। अहक ां ार बतु द्ध
से भी अतधक सक्ष्ू म होता है।
कृ ष्ण कहते हैं तक आठ भौततक तत्व हैं-पृथ्वी, जल, अतग्न, वाय,ु आकाश, मन, बतु द्ध और तमथ्या अहक ां ार। तमथ्या
अहक ां ार का अथण है, झठू ी पहचान। हमारा ज्ञानरतहत जीवन इसी झठू ी पहचान से शरू ु हुआ है-यह सोचना तक मैं पदाथण ह,ाँ
जबतक मैं प्रतततदन प्रततक्षण देखता हाँ तक मैं पदाथण नहीं ह।ाँ आत्मा सदा रहने वाला अतवनाशी है, जबतक पदाथण पररवतणनशील
है। यह झठू ी धारणा, अहक ां ार कहलाती है। और मतु ि का अथण है, इस तमथ्या अहक ां ार से छुटकारा पाना। वह कौन सी तस्थतत
है? अहां ब्रह्मातस्म/मैं ब्रह्म ह,ाँ मैं आत्मा ह।ाँ वही मतु ि का प्रारतम्भक चरण है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

हो सकता है तक कोई व्यातधग्रस्त हो, ज्वर से पीतड़त हो, उसका तापमान सामान्त्य स्तर 98.6 तडग्री पर उतर सकता
है। तब वह सामान्त्य है। पर यह उसके रोग का तनवारण नहीं है। मान लीतजए, दो तदन तक उसका तापमान 98.6 तडग्री तक
रहा, तकन्त्तु भोजन तथा व्यवहार के थोड़े से पररवतणन से उसका तापमान तरु न्त्त बढ़कर 100 तडग्री तक पहुचाँ गया। इसी प्रकार
मार मन की शतु द्ध से और तमथ्या अहक ां ार की पहचान की अस्वीकृ तत से तक-मैं यह शरीर नहीं ह,ाँ मैं यह पदाथण नहीं ह,ाँ मैं
आत्मा ह-ाँ मतु ि नहीं तमल जाती। यह मतु ि का प्रारम्भ मार है। यतद आप इस बात पर दृढ़ रहें-और जैसे आप 98.6 तडग्री
के तापमान को बनाये रखने की दृतष् से अपना कायण करते हैं, वैसे ही आप काम करते रहें-तो आप स्वस्थ व्यति हैं।
उदाहरण के तलए, पतश्चम में आजकल नशासेवन के तलए प्रचार तकया जा रहा है। लोग शारीररक अतस्तत्व को भल ू
जाना चाहते हैं। परन्त्तु आप कब तक इसे भल ू पाएाँगे? पनु : आप अपनी पवू णतस्थतत में पहुचाँ जाएाँगे। आप नशासेवन से घडटे
दो घडटे के तलए भल ू सकते हैं तक मैं यह शरीर नहीं ह,ाँ परन्त्तु जब तक आप वास्तव में अपने आप को ज्ञान द्वारा समझने के
स्तर पर नहीं हैं, तब तक इस भावना की तस्थर रखना सम्भव नहीं है। तफर भी हर व्यति यह सोचने का प्रयत्न कर रहा है ,
“मैं यह शरीर नहीं ह।ाँ ” उन्त्हें यह अनभु व है तक वे स्वयां को शरीर मानने के कारण इतना दख ु उठा रहे हैं, इसतलए सोचते हैं
तक “काश मैं स्वयां को शरीर मानना भल ू सकता!”
यह के वल तनषेधात्मक धारणा है। जब आपको वास्ततवक अनभु तू त होती है, तब “मैं ब्रह्म ह"ाँ के वल इस समझ से
काम नहीं चलेगा। आपको ब्रह्म के कायों में सांलग्न होना पड़ेगा; अन्त्यथा आपका पतन हो जाएगा। बहुत ऊाँची उड़ान उड़ना
ही चन्त्द्रमा पर पहुचाँ ने की समस्या का हल नहीं है। आजकल मख ू ण लोग चन्त्द्रमा तक पहुचाँ ने की कोतशश कर रहे हैं। तकन्त्तु
वे के वल जमीन से 2,40,000 मील ऊपर जाकर चन्त्द्रमा को छूकर तफर वापस लौट आते हैं। उन्त्हें बड़ा गवण है। बड़े जनसमहू ों,
बैठकों और सम्मेलनों में वैज्ञातनकी की बड़ी-बड़ी बातें की जाती है, तकन्त्तु उन्त्होंने तकया क्या है? इतने बड़े तवस्तृत आकाश
में 2,40,000 मील क्या है? यतद आप 2,400 लाख मील भी चले जायें, तो भी आप सीतमत ही रहेंगे। इसतलए इससे बात
नहीं बनेगी। यतद आप आकाश में ऊाँचे जाना चाहते हैं, तो वहााँ कोई स्थायी स्थान होना चातहए, तातक वहााँ आप तवश्राम
कर सकें और नीचे न तगर पड़ें। तकन्त्तु यतद आपको आश्रय नहीं तमलेगा, तो आपको नीचे तगरना पड़ेगा। वाययु ान आकाश
में पृथ्वी से 7 या 8 मील ऊपर चला जाता है, तकन्त्तु वह तरु न्त्त नीचे आ जाता है।
इसतलए के वल अहक ां ार को समझना अपनी तमथ्या पहचान को समझने से ज्यादा अथण नहीं रखता है। के वल यह
समझना तक मैं पदाथण नहीं ह,ाँ आत्मा ह,ाँ पणू णता नहीं है। तनराकारवादी और शन्त्ू यवादी दाशणतनक के वल तनषेधात्मक ढांग से
सोचते हैं तक मैं यह पदाथण नहीं ह,ाँ मैं यह शरीर नहीं ह।ाँ यह अतधक देर तक नहीं तटक सकता। आपको न के वल यह समझना
है तक आप पदाथण नहीं हैं, बतल्क आपको स्वयां को आध्यातत्मक जगत में सल ां ग्न करना पड़ेगा। और उस आध्यातत्मक जगत

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

का अथण है, कृ ष्णभावनामृत में कायण करना। वह आध्यातत्मक जगत अथाणत् वास्ततवक जीवन का कायण ही कृ ष्णभावनामृत
है।
मैं तमथ्या अहक ां ार को पहले ही समझा चक ु ा ह।ाँ यह न तो पदाथण है और न ही आत्मा, बतल्क दोनों का सांतधस्थल
है, जहााँ आत्मा पदाथण के सम्पकण में आता है और अपने आपको भल ू जाता है। यह वैसे ही है, जैसे सतन्त्नपात का रोगी
तकांकतणव्यतवमढ़ू हो जाता है और धीरे -धीरे वह अपने आपको भल ू जाता है और वह पागल हो जाता है। वह धीरे -धीरे भल ू ता
है। तो इस प्रकार स्मृतत का लोप आरम्भ होता है और एक तबन्त्दु ऐसा आता है, जहााँ वह पणू णतया भल ू जाता है। इसी
प्रारतम्भक तबन्त्दु को अहक ां ार या तमथ्या अहक
ां ार कहते हैं।
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
इस महामन्त्र के कीतणन की प्रतिया न के वल आत्मा की इस तमथ्या पहचान का अन्त्त कर देती है, अतपतु यह इससे
भी आगे जाती हैआनन्त्दमय तथा ज्ञान से पररपणू ण भगवान् की प्रेममयी सेवा के कायों में सांलग्न होता है। यह चेतना के तवकास
का तशखर है, और वतणमान में भौततक प्रकृ तत की तवतभन्त्न योतनयों के चकर में भ्रमण द्वारा तवकास करते हुए जीवात्माओ ां
का अतन्त्तम लक्ष्य है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय छह
हरे कृष्ण मन्त्र
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
इस महामन्त्र के कीतणन से उत्पन्त्न तदव्य स्पदां न हमारी तदव्य चेतना को पनु जीतवत करने की एक श्रेष्ठ तवतध है। जीवात्मा
के रूप में हम सब मल ू रूप से कृ ष्णभावनाभातवत जीव हैं, तकन्त्तु अनन्त्त काल से पदाथण के साथ सम्पकण में रहने के कारण
भौततक वातावरण से हमारी चेतना दतू षत हो गयी है। इस भौततक वातावरण को, तजसमें हम अभी रह रहे हैं, 'माया" कहलाती
है। माया का अथण है, "वह जो नहीं है।” और यह माया या भ्रमणा क्या है? भ्रमणा यह है तक हम सब भौततक प्रकृ तत के
स्वामी बनने का प्रयत्न कर रहे हैं, जबतक हम वास्तव में उसके कड़े तनयमों की चगां ल ु में फाँ से हुए हैं। जब कोई सेवक कृ तरम
रूप से अपने सवणशतिमान स्वामी के समान बनने का प्रयत्न करता है, तो उसे माया कहते हैं। हम भौततक प्रकृ तत के ससां ाधनों
का दोहन करने का प्रयास कर रहे हैं, परन्त्तु वस्ततु : हम उसकी जतटलताओ ां में अतधकातधक उलझते जा रहे हैं। इसतलए
यद्यतप हम प्रकृ तत पर तवजय पाने के कठोर सांघषण में लगे हैं, तथातप हम उस पर और अतधक तनभणर हो गये हैं। भौततक प्रकृ तत
के तवरुद्ध यह भ्रामक सांघषण हमारी शाश्वत कृ ष्णभावनामृत : सवोत्तम योग-पद्धतत कृ ष्णभावना को पनु जीतवत करके तरु न्त्त
रोका जा सकता है।
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह मन्त्र हमारी मल
ू शद्ध
ु भावना को जगाने की तदव्य प्रतिया है। इस तदव्य स्पांदन के कीतणन से हम अपने हृदय की
सभी भ्रातन्त्तयों को दरू कर सकते हैं। इन सभी भ्रातन्त्तयों का मल
ू आधार यह तमथ्या धारणा है तक सभी वस्तुओ ां का स्वामी
मैं ही ह।ाँ

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

कृ ष्णभावना मन पर कृ तरम रूप से आरोतपत की जाने वाली भावना नहीं है। यह भावना जीवात्मा की मल ू प्राकृ ततक
शति है। जब हम इस तदव्य ध्वतन को सनु ते हैं, तो यह भावना पनु : जाग्रत होती है। इस यगु के तलए ध्यान की इस सरलतम
तवतध की सस्ां ततु त की गई है। व्यावहाररक अनभु व से भी यह समझा जा सकता है तक इस महामन्त्र से अथाणत् मतु ि प्रदान
करने वाले महान् उच्चारण से व्यति तदव्य तल से आते हुए आध्यातत्मक आनन्त्द का तत्काल अनभु व कर सकता है। जीवन
की भौततक धारणा में हम लोग इतन्त्द्रयतृतप्त में ही सल ां ग्न रहते हैं, जैसे तक हम तनम्नतर पशु अवस्था में हों। इतन्त्द्रयतृतप्त के इस
स्तर से थोड़े ऊपर मनष्ु य मानतसक तकण में सल ां ग्न होता है, तजससे वह भौततक बन्त्धन से मि ु हो सके । मानतसक तकण के इस
स्तर से थोड़े ऊपर जब मनष्ु य पयाणप्त बतु द्धमान हो, तो वह भीतर तथा बाहर के कारणों के परम कारण को खोजने का प्रयास
करता है। और जब मनष्ु य वास्तव में इतन्त्द्रय, मन और बतु द्ध की अवस्थाओ ां को पार करके आध्यातत्मक ज्ञान के स्तर पर
पहुचाँ जाता है, तो वह तदव्य अवस्था पर पहुचाँ जाता है। हरे कृ ष्ण मन्त्र का यह कीतणन आध्यातत्मक स्तर से ही तकया जाता
है। इसतलए यह ध्वतन-कांपन ऐतन्त्द्रक, मानतसक और बौतद्धक चेतनाओ ां के सभी तनचले स्तरों को पार कर जाता है। इसतलए
इस महामांर के कीतणन के तलए मन्त्र की भाषा समझने की, मानतसक कल्पना की या तकसी भी प्रकार के बौतद्धक समन्त्वय
की आवश्यकता नहीं है। यह प्रतिया आध्यातत्मक स्तर से स्वत: ही हो जाती है। इसतलए तबना तकसी पवू णयोग्यता के कोई
भी मनष्ु य इस तदव्य ध्वतन के कम्पन में भाग ले सकता है। अतधक उन्त्नत अवस्था में पहुचाँ ने के उपरान्त्त, तनश्चय ही, मनष्ु य
से तदव्य ज्ञान के आधार पर अपराध करने की अपेक्षा नहीं की जाती।
आरम्भ में हो सकता है तक सभी प्रकार के आठों तदव्य आनन्त्द प्राप्त न हों। ये आनन्त्द हैं-(1) मक
ू व्यति की तरह
स्तब्ध रह जाना, (2) स्वेद होना, (3) शरीर के रोम-रोम खड़े हो जाना, (4) वाणी का अवरुद्ध हो जाना, (5) कम्पन, (6)
शरीर का क्षीण होना, (7) आनन्त्दाततरे क में तवलाप और (8) समातध। तकन्त्तु इसमें कोई सन्त्दहे नहीं है तक थोड़े समय का
कीतणन मनष्ु य को तत्काल ही आध्यातत्मक स्तर पर पहुचाँ ा देता है और इसकी पहली पहचान यह है तक व्यति मन्त्र-गायन
के साथ-साथ नृत्य करने की अन्त्त:प्रेरणा प्रदतशणत करता है। हमने इसे व्यवहार में देखा है। एक बालक भी कीतणन और नृत्य
में भाग ले सकता है। तनश्चय ही जो व्यति भौततक जीवन में बहुत उलझा हुआ है, उसे इस तस्थतत में पहुचाँ ने में कुछ अतधक
समय लगेगा। तकन्त्तु ऐसा भौततक जीवन में उलझा हुआ व्यति भी बहुत जल्दी आध्यातत्मक स्तर पर पहुचाँ जाता है। जब
इसका कीतणन प्रेम में डूबे भगवान् के शद्ध
ु भि द्वारा तकया जाता है, तो श्रोताओ ां पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।
इसतलए यह कीतणन भगवान् के शद्धु भिों के मख
ु से ही सनु ा जाना चातहए, तातक इसके तत्काल पररणाम देखे जा
सकें । जहााँ तक सम्भव हो, अभिों के मख
ु से तकया जा रहा कीतणन नहीं सनु ना चातहए। सााँप के मख
ु से स्पशण तकया हुआ
दधू तवषैला हो जाता है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

हरा शब्द भगवान् की शति का सम्बोधन है, कृ ष्ण और राम शब्द स्वयां भगवान् के सम्बोधन हैं। कृ ष्ण और राम
दोनों का अथण है, परम आनन्त्द और हरा का अथण है भगवान् की सवोपरर आह्वादनी शति। सम्बोधन के तलए इसे हरे कहते
हैं। भगवान् की सवोपरर आह्वादनी शति हमें भगवान् तक पहुचाँ ने में सहायता प्रदान करती है।
भौततक शति माया भी भगवान् की तवतवध शतियों में से एक है और हम जीव भी भगवान् की तटस्था शति हैं।
जीव भौततक शति से श्रेष्ठ माना जाता है। जब श्रेष्ठ शति तनकृ ष् शति के सम्पकण में आती है, तो परस्पर तवरोधी अवस्था
उत्पन्त्न हो जाती है, तकन्त्तु जब तटस्था शति उत्कृ ष् शति हरा के सम्पकण में आती है, तो यह अपनी सामान्त्य आनन्त्द की
अवस्था में तस्थत हो जाती है।
हरे , कृ ष्ण और राम-ये तीन शब्द महामन्त्र के तदव्य बीज हैं। यह कीतणन भगवान् और उनकी शति के तलए
आध्यातत्मक पक ु ार है, तातक भगवान् और यह शति बद्ध जीवात्मा की रक्षा करें । यह कीतणन ठीक उस बच्चे के रुदन की
तरह है, जो मााँ के तलए पक ु ार रहा हो। मााँ 'हरा" भि को परम तपता भगवान् की कृ पा प्राप्त करने में सहायता करती है और
मन्त्र का तनष्ठा से कीतणन करने वाले भत के सामने भगवान् प्रकट हो जाते हैं।
कलह और दम्भाचरण के इस यगु में आध्यातत्मक अनभु तू त के तलए महामन्त्र के समान अन्त्य कोई साधन नहीं है
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय सात
भतियोग की कायण–पद्धतत
भगवद-् गीता में भगवान् कृ ष्ण अपने तशष्य अजणनु से कहते हैं, “मैं ज्ञान का सबसे गोपनीय अांश तुम्हारे सामने प्रकट
कर रहा हाँ क्योंतक तमु मेरे तप्रय सखा हो।” जैसातक चौथे अध्याय में कहा गया है, भगवद-् गीता अजणनु को इस कारण कही
गई, क्योंतक अजणनु की एकमार तवशेषता यह थी तक वह भि था। भगवान् कहते हैं तक भगवद-् गीता का रहस्य अत्यन्त्त
गोपनीय है। शद्ध ु भि हुए तबना आप इसे जान नहीं सकते। भारत में गीता के 645 भाष्य तलखे गये हैं। एक प्राध्यापक कहते
हैं तक कृ ष्ण तचतकत्सक हैं और अजणनु उनका रोगी। उन्त्होंने गीता का भाष्य इसी दृतष्कोण से तलखा है। इसी प्रकार अनेक
भाष्यकार हैं। लोगों ने यह मान तलया है तक ये सब भाष्यकार पणू ण हैं तथा वे अपने मतानसु ार शास्त्र की व्याख्या कर सकते
हैं। परन्त्तु जहााँ तक हमारा सम्बन्त्ध है, हम स्वयां भगवद-् गीता में तदये गये आदेशों के अनरूु प ही इसे पढ़ना स्वीकार करते हैं।
इसे गरुु -तशष्य परम्परा के माध्यम से प्राप्त करना चातहए। यह तशक्षा परम परुु ष द्वारा दी जा रही है, क्योंतक भगवान् कहते हैं,
“तमु मेरे तप्रय सखा हो; मैं चाहता हाँ तक तमु सख ु ी और समृद्ध हो जाओ, इसीतलए मैं तमु से कह रहा ह।ाँ ” कृ ष्ण चाहते हैं तक
प्रत्येक जीव सख ु ी, शान्त्त और समृद्ध हो जाये, परन्त्तु लोग ऐसा नहीं चाहते। सयू ण की धपू सबके तलए प्राप्य है, तकन्त्तु यतद
कोई अांधेरे में ही रहना चाहे, तो धपू उसके तलए क्या कर सकती है? इसतलए गीता का ज्ञान सबके तलए है। जीवन की अनेक
योतनयााँ हैं और ज्ञान के भी अनेक उच्च तथा तनम्न स्तर होते हैं-यह एक तथ्य है। परन्त्तु कृ ष्ण कहते हैं तक यह ज्ञान सबके
तलए है। यतद तकसी का जन्त्म तनम्न स्तर का है, तो यह कोई महत्व की बात नहीं है। भगवद-् गीता वह तदव्य तवषयवस्तु प्रस्तुत
करती है, जो प्रत्येक व्यति समझ सकता है, यतद वह चौथे अध्याय में वतणणत तसद्धान्त्त के अनसु ार चलता है। वह यह है तक
गीता गरुु -तशष्य परम्परा से चली आ रही है : “मैंने सवणप्रथम यह योग-पद्धतत सयू णदेव तववस्वान को तसखाई थी, तजसने इसे
मनु को तसखाया और मनु ने इक्ष्वाकु को।” कृ ष्ण से यह गरुु –तशष्य परम्परा चली आ रही है, तकन्त्तु “कालान्त्तर में यह गरुु –
तशष्य परम्परा लप्तु हो गयी,” इसतलए अजणनु को नया तशष्य बनाया गया है। दसू रे अध्याय में अजणनु अपने आपको कृ ष्ण के
प्रतत समतपणत कर देता है।”अब तक हम तमर की तरह बातें करते रहे हैं, तकन्त्तु अब मैं आपको अपने आध्यातत्मक गरुु के
रूप में स्वीकार करता ह।ाँ ” इस परम्परा में यह तसद्धान्त्त मानने वाला कोई भी व्यति गरुु को कृ ष्ण के समान ग्रहण करता है;
तथा तशष्य अजणनु की तरह होना चातहए। भगवान् कृ ष्ण अजणनु के गरुु के रूप में कह रहे हैं; और अजणनु कहता है : "आप
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

जो कुछ कहते हैं, वह मैं स्वीकार करता ह।ाँ ” तो आप भी गीता को इसी प्रकार पढ़ें-ऐसे नहीं तक, “मझु े यह ठीक लग रहा है,
इसतलए मैं इसे स्वीकार करता ह,ाँ यह मझु े अच्छा नहीं लगता, अत: इसे मैं अस्वीकार करता ह।ाँ ” इस तरह पढ़ना मख ू णता है।
गरुु कृ ष्ण का प्रतततनतध और भि होना चातहए और तशष्य अजणनु की तरह होना चातहए। तभी कृ ष्णभावनामृत का
यह अध्ययन पणू ण हो सकता है, अन्त्यथा यह समय का अपव्यय मार है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है, “यतद कोई कृ ष्ण के
तवज्ञान को समझना चाहता है, तो उसे शद्ध ु भिों के सांग में रहना चातहए। जब शद्ध ु भिों के बीच चचाण होती है, तब
आध्यातत्मक भाषा की शति का पता चलता है।” गीता की तवद्वतापणू ण चचाण व्यथण है। उपतनषदों में कहा गया है, "वह व्यति
तजसे भगवान् में अटूट श्रद्धा है और इसी प्रकार भगवान् के प्रतततनतध में भी श्रद्धा है, उसके सामने वैतदक भाषा का अथण
अपने आप प्रकट हो जायेगा।” हममें भि होने की योग्यता होनी चातहए। भगवान् के तप्रय बनें। मेरे गरुु महाराज कहा करते
थे, "भगवान् को देखने का प्रयास न करो। इस तरह से कायण करो तक भगवान् स्वयां तम्ु हें देखें।” हमें अपने आपको योग्य
बनाना है। आपकी योग्यता से भगवान् स्वयां आपके पास आकर आपको देखेंगे।
यतद कोई व्यति भगवान् को देख सकता है, तो वह सभी भौततक कामनाओ ां से ऊपर है। हम भौततक जगत की
अस्थायी पररतस्थततयों में सदा असन्त्तष्ु रहते हैं; सख
ु अस्थायी है और अस्थायी दशा भी अतधक समय तक नहीं रहेगी।
सदी, गमी, द्वन्त्द्ध आतद सभी आते जाते रहते हैं। परम अवस्था को प्राप्त करना ही कृ ष्णभावनामृत की प्रतिया है। कृ ष्ण का
वास सभी के हृदय में है और जैसे-जैसे आप शद्ध ु होते जाएाँगे, वे आपको मागण तदखाते जाएाँगे तथा अन्त्त में आप इस देह
को छोड़कर वैकुडठ धाम चले जाएाँगे।
कृ ष्ण कहते हैं, “मझु े कोई नहीं जानता। मेरा प्रभाव, मेरी शति, मेरी सीमा महतषणगण भी नहीं जानते, मैं सभी देवी-
देवताओ ां और ऋतषयों का मल ू जनक ह।ाँ ” हमारे तकतने ही पवू णज हुए हैं, तजनके तवषय में हम कुछ नहीं जानते और ब्रह्मा
तथा देवीदेवताओ ां के बारे में भी हमें कोई ज्ञान नहीं है। हम उस स्तर तक नहीं पहुचाँ सकते, जहााँ हम भगवान् को पणू णरूपेण
समझ सकते हैं। हम सीतमत इतन्त्द्रयों से ज्ञान एकर करते हैं और कृ ष्ण को इतन्त्द्रयों के के न्त्द्र मन से प्राप्त नहीं तकये जा सकते।
अपणू ण इतन्त्द्रयााँ पणू ण ज्ञान को नहीं समझ सकतीं। मन और इतन्त्द्रयों की चालबाजी से भी भगवान् प्राप्त नहीं तकये जा सकते।
परन्त्तु यतद आप अपनी इतन्त्द्रयों को भगवान् की सेवा में लगा दें, तो वे स्वयां इतन्त्द्रयों के माध्यम से आपके सामने प्रकट हो
जाएाँगे।
लोग कह सकते हैं, "भगवान् को जानने से क्या लाभ है? इससे क्या फायदा होगा? भगवान् अपने स्थान पर रहें, मैं
अपने स्थान पर रह।ाँ ” तकन्त्तु शास्त्रों में कहा है तक पडु य-कमों से हम सौन्त्दयण, ज्ञान और उच्च योतन में जन्त्म पाते हैं और पाप-
कमों से हम दख
ु उठाते हैं। दख ु तो हमेशा रहता है, पडु य हो या पाप, तकन्त्तु तफर भी दोनों में अन्त्तर होता है। जो भगवान् को

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

जानता है, वह सभी सम्भातवत पाप-कमों के पररणामों से मतु ि पा लेता है, जो कई पडु यों से भी प्राप्त नहीं हो सकती। यतद
हम भगवान् को अस्वीकार करते हैं, तो हम कभी सख
ु ी नहीं हो सकते।
के वल मानव-समाज ही नहीं, प्रत्यतु यतद आप देवताओ ां पर तवचार करें , तो पाएाँगे तक अतधक उन्त्नत और बतु द्धमान
होने पर भी वे कृ ष्ण को नहीं जानते। ध्रवु के तनकट रहने वाले सात महतषण (सप्ततषण) भी कृ ष्ण को नहीं जानते। कृ ष्ण कहते हैं
तक “मैं ही मल ू ह,ाँ इन सभी देवताओ ां का स्रोत ह।ाँ ” वे मार देवताओ ां के ही स्रोत नहीं, अतपतु ऋतषयों और ब्रह्माडडों आतद
के भी जनक हैं। श्रीमद्भागवत में वणणन है तक भगवान् का तवश्वरूप कै से बना और तकस प्रकार उनसे प्रत्येक वस्तु का उद्भव
होता है। कृ ष्ण परमात्मा और तनराकार ब्रह्मज्योतत के भी मल ू हैं, जो तक उनमें तस्थत चमकता हुआ प्रकाश है। 'सभी पदाथों,
सभी तवचारों का मैं ही स्रोत ह।ाँ ” परम सत्य का अनभु व तीन अवस्थाओ ां में तकया जा सकता है, परन्त्तु वे एक अद्वैत सत्य
हैं। ब्रह्म (प्रकाशमय ज्योतत), अन्त्तयाणमी परमात्मा और भगवान-् परम परुु ष-ये हैं परमेश्वर के तीन पहल।ू
यतद कोई भी पणू ण परुु षोत्तम भगवान् को नहीं जानता, तो वे कै से जाने जा सकते हैं? वे तभी जाने जा सकते हैं, जब
भगवान् आयें और स्वयां को आपके सामने प्रकट कर दें। तब आप उन्त्हें जान सकते हैं। हमारी इतन्त्द्रयााँ अपणू ण हैं और वे परम
सत्य को नहीं जान सकतीं। जब आप तवनम्र भाव अपनाते हैं और जप शरू ु करते हैं, तो तजह्वा से अनभु तू त का प्रारम्भ होता
है। भोजन करना और शब्द उच्चारण करना तजह्वा का कायण है। यतद आप आध्यातत्मक आहार अथाणत् प्रसाद ग्रहण करने के
तलए अपनी तजह्वा पर तनयन्त्रण रख सकते हैं और भगवान् के तदव्य नामों का शब्द उच्चारण करते हैं, तभी आप तजह्वा के
समपणण द्वारा अन्त्य सभी इतन्त्द्रयों को तनयतन्त्रत कर सकते हैं। यतद आप अपनी तजह्वा को तनयतन्त्रत नहीं कर सकते, तो आप
अपनी इतन्त्द्रयों पर भी तनयांरण नहीं रख पायेंगे। प्रसाद का आस्वादन करें और आध्यातत्मक दृतष् से उन्त्नत बनें। यह प्रतिया
आपके घर पर भी चल सकती है : कृ ष्ण को शाकाहारी भोजन अतपणत करें , हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप करें और प्रणाम करें ।
नमो ब्रह्मडयदेवाय गोब्राह्मणतहताय च ।
जगत् तहताय कृ ष्णाय गोतवन्त्दाय नमो नमः ॥
प्रत्येक व्यति भोजन अतपणत कर सकता है और तत्पश्चात् अपने तमरों के साथ भोजन कर सकता है। कृ ष्ण के तचर
के सामने कीतणन कीतजए और पतवर जीवन तबताइए। और पररणाम देतखए सारा तवश्व वैकुडठ बन जाएगा, जहााँ कोई तचन्त्ता
नहीं होती। यहााँ हर कोई तचतन्त्तत है, क्योंतक हमने यह भौततक जीवन अपनाया है। आध्यातत्मक जगत में ठीक इसके तवपरीत
होता है। परन्त्तु यह कोई नहीं जानता तक इस भौततक धारणा से कै से बाहर तनकला जाए। नशीले पदाथों के सेवन से कोई
लाभ नहीं होता। शराब का नशा खत्म होते ही तफर तचन्त्ता घेर लेती है। यतद आप मि ु होना चाहते हैं और आनन्त्द तथा ज्ञान
से पररपणू ण शाश्वत जीवन जीना चाहते हैं, तो कृ ष्ण को स्वीकार करें । भगवान् को कोई नहीं जान सकता, तकन्त्तु कृ ष्णभावनामृत
की प्रतिया से उन्त्हें जाने जा सकते हैं। अन्त्य तकसी तवतध से कृ ष्ण को नहीं जाने जा सकते।
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

श्रीमद्भागवत में कहा गया है तक कोई भी कृ ष्ण को जीत नहीं सकता या उनके पास पहुचाँ नहीं सकता। परन्त्तु वे जीत
तलए जा सकते हैं। कै से? लोग भले ही अपने सहज रूप में ही बने रहें, तकन्त्तु वे पस्ु तकें भर-भर के तकये जाने वाले मख
ू णतापणू ण
तकण तवतकण को त्याग दें। हजारों पस्ु तकें छापी और पढ़ी जाती हैं और छह महीने के बाद फें क दी जाती हैं। इस प्रकार से या
तकसी अन्त्य प्रकार से आप सवोच्च को कुन्त्द इतन्त्द्रयों द्वारा दी गयी जानकारी पर मानतसक कल्पना करने से कै से जान सकते
हैं? यह सब शोधकायण बन्त्द कीतजए-उसे फें क दीतजए-बस तवनम्र भाव अपनाइए और स्वीकार कीतजए तक आप सीतमत हैं
और भौततक प्रकृ तत और भगवान् के अधीन हैं। कोई भी भगवान् के समकक्ष या उनसे ऊाँचा नहीं हो सकता, इसतलए तवनम्र
बतनए। अतधकृ त स्रोतों से भगवान् का यशोगान सनु ने का प्रयत्न करें । यह अतधकार गरुु -तशष्य परम्परा से चला आ रहा है।
यतद आप अजणनु की तरह इसी अतधकृ त परम्परा से ज्ञान प्राप्त करें , तो यह वास्ततवक रूप में अतधकृ त गरुु -तशष्य परम्परा है।
यतद आप कृ ष्णभावनाभातवत हो जायें, तो भगवान् हमेशा ही आपके सामने प्रकट होने के तलए तत्पर रहेंगे। महान् आचायों
द्वारा बताये गये मागण का अनसु रण करें और तब सभी कुछ आपको ज्ञात हो जाएगा। यद्यतप वे अज्ञेय और अजेय हैं, परन्त्तु
आप उन्त्हें घर बैठे जान सकते हैं।
यतद आप इस प्रतिया को स्वीकार करें और तसद्धान्त्तों का अनसु रण करें , तो पररणाम क्या होगा? जैसे ही इसे आप
समझेंगे, वैसे ही यह जान पाएाँगे तक भगवान् ही सभी कारणों के मल ू कारण हैं और वे तकसी अन्त्य कारण से नहीं हुए हैं।
और वे सभी ग्रहों के स्वामी हैं। यह आाँख बन्त्द करके स्वीकार करना नहीं है। भगवान् ने आपको तकण शति दी है। परन्त्तु झठू े
तकों में न पड़ें। यतद आप तदव्य तवज्ञान जानना चाहते हैं, तो अपने आपको समतपणत कर दें। के वल अतधकारी को ही समतपणत
हों और उन्त्हें लक्षणों से पहचानें। तकसी मख
ू ण या दष्ु व्यति के सामने समपणण न करें । ऐसे व्यति की खोज करें , जो गरुु –तशष्य
परम्परा से चला आ रहा हो और जो परम सत्य में पणू ण तवश्वास रखता हो। यतद आप ऐसे व्यति को पा लें, तो अपने आपको
उसको समतपणत कर दें और उसे प्रसन्त्न करने, उसकी सेवा करने और उससे तजज्ञासा द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें । गरुु
के प्रतत समपणण ही भगवान् के प्रतत समपणण है। ज्ञान प्रातप्त के तलए प्रश्न करें , न तक समय के अपव्यय के तलए।
प्रतिया तो है, परन्त्तु यतद हम नशा करने में अपने समय का अपव्यय करना चाहते हैं, तो हम अजेय भगवान् के
दशणन कभी नहीं कर सकें गे। तसद्धान्त्तों का अनसु रण करें और धीरे -धीरे , तनश्चय ही, तबना तकसी सश
ां य के , आप भगवान् को
जान लेंगे। आप कहने लगेंगे, "हााँ, मैं आगे बढ़ रहा ह।ाँ ” यह बहुत सरल है और आप इसे कायाणतन्त्वत करके सख ु ी हो सकते
हैं। अध्ययन करें , सगां ीत में भाग लें और प्रसाद ग्रहण करें । कोई आपको इस प्रतिया से ठग नहीं सकता। परन्त्तु यतद आप
स्वतः ही ठगे जाना चाहते हैं, तो जाइए ठगों के पास।
अतधकृ त स्रोत से ही इसे समझने की कोतशश करें और इसे अपने जीवन में अपनाएाँ। नश्वर जीवों में आप सबसे
बतु द्धमान व्यति बन जायेंगे, क्योंतक आप सभी पाप-कमों से छुटकारा पा लेंगे। यतद आप के वल कृ ष्ण के तलए ही कायण करें ,

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

तो आपको सभी पररणामों से छुटकारा तमल जाएगा। आपको इस बात की तचन्त्ता नहीं होगी तक क्या शभु है और क्या
अशभु है, क्योंतक आप सवाणतधक कल्याणकारी के सम्पकण में रहेंगे। यही प्रतिया है। अन्त्तत: हम कृ ष्ण के सम्पकण में आ
सकते हैं। हमारा जीवन सफल हो जाएगा। हर कोई इसे अपना सकता है, क्योंतक यह बहुत सरल हैं।
यहााँ भगवान् कृ ष्ण द्वारा प्रस्ततु एक बहुत ही श्रेष्ठ सरू है। मनष्ु य को कृ ष्ण की तस्थतत का ज्ञान प्राप्त करना चातहए। वे
अजन्त्मा हैं और उनका कोई कारण नहीं है। हम सबको अनभु व है। तक हमारा जन्त्म हुआ है और हमारा कोई कारण है। हमारे
तपता हमारे कारण हैं। यतद कोई अपने आपको भगवान् के रूप में प्रस्ततु करता हो, तो उसे यह तसद्ध करना होगा तक वह भी
अजन्त्मा है और उसका भी कोई कारण नहीं है। हमारा व्यावहाररक अनभु व यह है तक हमारा जन्त्म हुआ है, परन्त्तु कृ ष्ण का
जन्त्म नहीं हुआ। हमें यह समझना होगा। यह समझने का अथण है, दृढ़ तनश्चय होना तक वे आतद कारण हैं, लेतकन तकसी कारण
का पररणाम नहीं हैं। चाँतू क उनका कोई कारण नहीं है, अत: वे सारी सृतष् के स्वामी हैं। जो कोई इस सरल तसद्धान्त्त को समझ
लेता है, वह भ्रतमत नहीं होता।
सामान्त्यत: हम भ्रम में ही रहते हैं। हम भतू म के स्वातमत्व का दावा करते हैं; परन्त्तु भतू म हमारे जन्त्म से पहले भी थी
और बाद में भी रहेगी। हम एक के बाद एक शरीर बदलते-बदलते कब तक दावा करते रहेंगे, 'यह मेरी जमीन है। यह मेरी
जमीन है।” क्या यह मख ू णता नहीं है? व्यति को भ्रम से छुटकारा पाना होगा। हमें यह जानना चातहए तक जीवन के भौततक
दृतष्कोण के अन्त्तगणत हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वह सब भ्रम है। हमें यह समझना होगा तक कहीं हम भ्रम में तो नहीं हैं?
वस्ततु : सारे बद्धजीव भ्रम के तशकार हैं। यतद कोई मनष्ु य भ्रम से छुटकारा पाना सीख लेता है, तो वह सभी बन्त्धनों से मि ु
हो जाता है। यतद हम सारे बन्त्धनों से मि ु होना चाहते हैं, तो हमें भगवान् का ज्ञान प्राप्त करना होगा। हमें इसकी उपेक्षा नहीं
करनी चातहए। यह हमारा प्रमख ु कतणव्य है।
करोड़ों जीवों में कोई एक ज्ञानी हो सकता है। सामान्त्यतः हम सब मखू ण के रूप में ही पैदा होते हैं। जैसे ही हम जन्त्म
लेते हैं, हमारे माता-तपता हमारा पालन-पोषण करते हैं, और तशक्षा प्रदान करते हैं, तजसके पररणाम-स्वरूप हम अपनी जमीन
के तलए तमथ्या स्वातमत्व जमाते हैं। राष्रीय तशक्षा का अथण है, मनष्ु य को और अतधक मख ू ण बनाना। क्या हम मख ू ण नहीं हैं?
हम एक के बाद दसू रे जीवन में अपना शरीर वस्त्र की तरह बदलते हैं। जब आपके इतने सारे मन हैं, इतने सारे वस्त्र हैं, तो
आप इस वस्त्र का दावा क्यों करते हैं? यह क्यों नहीं समझते तक, “यह वस्त्र तो सन्त्ु दर है, परन्त्तु अगले ही क्षण मझु े दसू रे वस्त्र
में रहना पड़ सकता है।” आप प्रकृ तत के तनयन्त्रण में हैं, आप अपने वस्त्र का स्वयां चनु ाव नहीं कर सकते : "हे प्रकृ तत! मझु े
अमरीकी बनाओ।” नहीं, भौततक प्रकृ तत आपकी तनयन्त्रक है। यतद आप यहााँ कुत्ते की तरह जीवन व्यतीत करते हैं, तो यह
लीतजए कुत्ते का वेश। यतद आप भगवद्भावना-पणू ण जीवन जीते हैं, तो लीतजए। ये रहे भगवान।्

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अनेक मख ू ों में से एकाध ही यह समझने का प्रयत्न करता है तक वास्तव में “मैं कौन ह?ाँ ” कुत्ता? अमरीकी ? रूसी?
यही तजज्ञासा चलती रहती है। यतद आप तजज्ञासा रखते हैं, तो आपको तकसी और से पछू ना होगा, के वल अपने आप से
नहीं। यतद आपको तकसी अनजान स्थान पर सड़क पार करनी है, तो आपको तकसी पतु लसमैन या तकसी भद्र-परुु ष से पछू ना
होता है। इसी प्रकार, “मैं क्या ह।ाँ ” यह जानने के तलए आपको तकसी अतधकारी के पास जाना होगा। आध्यातत्मक गरुु क्या
होता है? वह ऐसा व्यति होता है, जो कृ ष्ण-तवज्ञान का वेता है। साधारणतया कोई तजज्ञासा नहीं रखता, परन्त्तु यतद कोई
व्यति तजज्ञासा रखता है, तो वह आगे बढ़ सकता है और समझ सकता है तक कृ ष्ण ही सभी कारणों के मल ू कारण हैं।
शास्त्र और उच्चतर अतधकारी का अनसु रण करने वाले चार प्रकार के लोग कृ ष्ण के तवषय में तजज्ञासा रखते हैं। जो
लोग पापकमों में तलप्त हैं, वे कोई तजज्ञासा नहीं कर सकते। वे सरु ापान में लगे रहते हैं। धातमणक और पडु यवान व्यति ही
तजज्ञासा करते हैं और भगवान् को प्राप्त करते हैं। लोगों को सख
ु ी बनाने के तलए उन्त्हें इस प्रतिया में सतु वधा दी गयी है, उनका
शोषण करने के तलए नहीं। इस प्रकार अन्त्तराणष्रीय कृ ष्णभावनामृत सघां का उद्देश्य है, भगवान् के तवज्ञान को समझाना। आप
सख ु की कामना करते हैं। वह सखु यहााँ है। आप अपने पाप-कमों के फल से दख ु ी हैं, परन्त्तु यतद आपके तकसी भी पाप-कमण
का कोई पररणाम नहीं होगा, तो दख ु भी नहीं होगा। जो मनष्ु य कृ ष्ण को तबना सश ां य जानता है, वह तनश्चय ही सभी पाप-
पडु य के पररणामों से मि ु हो जाता है। कृ ष्ण कहते हैं, “मेरे पास आओ और मैं तम्ु हें सभी कमण-फलों से छुटकारा तदला
दगाँू ा।” आप इस पर अतवश्वास न करें । वे आपको आश्रय दे सकते हैं। उनके पास परू ी शति है। यतद मेरे पास ऐसी कोई शति
नहीं है, और यतद मैं ऐसा कोई वचन देता हाँ तो वह टूट भी सकता है।
यतद आप कृ ष्णभावनामृत के साथ अपने आपको जोड़ लेंगे, तो कृ ष्ण के साथ आपके प्रसप्तु सम्बन्त्ध तफर से जाग्रत
हो उठे गे। आपका भगवान् के साथ सम्बन्त्ध है। इसमें अतवश्वास की कोई बात नहीं है। यह तनरी मख ू णता है। प्रसप्तु रूप में
सम्बन्त्ध तो पहले से ही है। आप कृ ष्ण की सेवा करना चाहते हैं, परन्त्तु माया के प्रभाव मार में आकर आप सोचते हैं तक
कृ ष्ण से आपका कोई सम्बन्त्ध नहीं है। स्वतन्त्रता के नाम पर हम सब प्रकार की मख ू णता तकये जाते हैं और सदा तचतन्त्तत रहते
हैं। जब हम अपनी इन प्रसप्तु भावनाओ ां को कृ ष्ण के साथ जोड़ देंगे, तब हम कृ ष्णभावनाभातवत हो जायेंगे।
'भगवान् अजन्त्मा हैं,” यह इस बात का पररचायक है तक वे भौततक जगत से तभन्त्न हैं। हमें अजन्त्मा होने का ऐसा
कोई अनभु व नहीं है। इस शहर का जन्त्म हुआ था-इततहास तततथयों से भरा पड़ा है। परन्त्तु आध्यातत्मक प्रकृ तत अजन्त्मी है
और तत्काल हम अन्त्तर देख सकते हैं। भौततक प्रकृ तत का जन्त्म हुआ है। आपको यह समझना है; यतद कृ ष्ण अजन्त्मे हैं, तो
वे तदव्य हैं-वे हममें से तकसी के समान नहीं हैं। कृ ष्ण कोई ऐसे तवलक्षण व्यति नहीं हैं, तजनका जन्त्म हुआ हो। उनका जन्त्म
नहीं हुआ है, इसतलए मैं कै से कह सकता हाँ तक वे सामान्त्य व्यति हैं? कृ ष्ण गीता में कहते हैं, "जो मख ू ण और दष्ु हैं, वे ही
मझु े सामान्त्य मनष्ु य समझते हैं।” वे इस तवश्व के सभी पदाथों से तभन्त्न हैं। वे अनातद हैं, उनका कोई कारण नहीं है।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

कृ ष्ण तदव्य हैं, तकन्त्तु और भी व्यति तदव्य हैं। हमारे शरीर भी कृ ष्ण के समान तदव्य हैं, तकन्त्तु इनका जन्त्म हुआ है।
वस्ततु : इनका जन्त्म नहीं हुआ है। ये अतग्न की तचनगाररयों की तरह हैं। तचनगाररयााँ अतग्न से जन्त्म नहीं लेतीं, तफर भी वास्तव
में वे अतग्न होती हैं। हमारा भी जन्त्म नहीं हुआ है, हम उन तचनगाररयों की तरह हैं, जो आतद रूप से तनकली हैं। यतद हम
जन्त्मे नहीं हैं, तो भी यह तचनगारी कृ ष्ण से आती है। इसतलए हम तभन्त्न हैं। अतग्न की तचनगारी अतग्नमय हैं, पर मल ू अतग्न
नहीं हैं : गणु ों की दृतष् से हम कृ ष्ण के समान हैं। यह अन्त्तर उसी प्रकार का है, जैसे तपता और परु के बीच होता है। तपता
और परु तभन्त्न होते हुए भी अतभन्त्न हैं। परु तपता का तवस्तार होता है, तकन्त्तु वह यह घोषणा नहीं कर सकता तक वह तपता
है। यह एक मख ू णतापणू ण बात होगी।
चाँतू क कृ ष्ण स्वयां घोषणा करते हैं तक वे सवोपरर स्वामी हैं, इसतलए वे सबसे तभन्त्न हैं। यतद मैं न्त्ययू ाकण राज्य का
स्वामी हाँ तफर भी मैं न्त्ययू ाकण राज्य नहीं ह।ाँ पद-पद पर द्वैत-भाव है। कोई यह नहीं कह सकता तक वह परू ी तरह से भगवान्
के साथ एकाकार है।
जब आप कृ ष्ण को और अपनी तस्थतत को सही तवश्ले षणात्मक ढांग से समझ लेंगे, तब आप तत्काल सभी पापकमों
के फल से मि ु हो जायेंगे। यह प्रतिया आपको सहायता करे गी। हरे कृ ष्ण का कीतणन करें और अपने मन को शद्ध ु करें ।
आपको सन्त्दश
े प्राप्त हो जाएगा। व्यति को योग्य बनना होगा। यतद आप तबना तकसी पाररश्रतमक के कीतणन करते हैं और
उसका श्रवण करते हैं, तो आप भगवान् को प्राप्त कर लेंगे। सारी तवषय-वस्तएु ाँ प्रकातशत और स्पष् हो जायेंगी।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय आठ
परम ज्ञान के स्त्रोत
हमें श्रीमद्भागवत का रसास्वादन करने की पद्धतत के तवषय में जानना आवश्यक है, क्योंतक श्रीमद्भागवत
भगवद्भावना के तवज्ञान पर सवाणतधक उन्त्नत ग्रन्त्थ है एवां सारे वैतदक ज्ञान का पररपक्व फल है। रस सांस्कृ त शब्द है, जैसे
सन्त्तरे या आम का रस। श्रीमद्भागवत के रचतयता हमसे तनवेदन करते हैं तक आप कृ पा करके भागवत के फल का रसास्वादन
करने का प्रयत्न कीतजए। क्यों? मैं भागवत के फल का रसास्वादन क्यों करूां ? क्योंतक यह वैतदक कल्पतरु का पररपक्व फल
है और कल्पतरु के रूप में आप जो भी कामना करें , वेदों से उसे प्राप्त कर सकते हैं। वेद का अथण है, ज्ञान। यह इतना पररपणू ण
है तक चाहे आप इस भौततक जगत का आनन्त्द प्राप्त करने की इच्छा करते हों, या आध्यातत्मक जीवन का आनन्त्द लेने की
इच्छा करतें हों, दोनों प्रकार का ज्ञान यहााँ उपलब्ध है। यतद आप वैतदक तसद्धान्त्तों का पालन करते हैं, तो आप सख ु ी हो
जाएाँगे। ये राज्य की आचार सांतहताओ ां की तरह है। यतद नागररक इनका पालन करें तो वे सख ु ी हो जायेंगे, कोई अपराध पणू ण
अततिमण नहीं होगा और लोग सख ु मय जीवन तबतायेंगे। राज्य आपको तबना कारण कष् देने के तलए नहीं है, परन्त्तु यतद
आप राज्य के तनयमों का पालन करें , तो दख ु का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
इसी प्रकार यह बद्धजीव, प्राणी, यहााँ इस भौततक जगत में आनन्त्द और भौततक सख ु के तलए आया है। और वेद
हमारे पथ प्रदशणक हैं : ठीक है, आनन्त्द कीतजए-परन्त्तु आप इन तसद्धान्त्तों के अनसु ार आनन्त्द कीतजए। इसी को वेद कहते हैं।
इसतलए सब कुछ यहााँ उपलब्ध है, जैसे हम कभी कभी मतन्त्दर में तववाह सांस्कार आयोतजत करते हैं। यह तववाह-सांस्कार
क्या है? यह परुु ष और स्त्री, यवु क और यवु ती का तमलन है। वे पहले से वहााँ हैं और तमर की तरह रहते हैं, तफर तववाह-
सांस्कार की क्या आवश्यकता है? यह वैतदक पद्धतत है : वेदों में स्त्री-परुु ष के साथ साथ रहने का एवां यौन जीवन का वणणन
है-परन्त्तु तवशेष तनयमानसु ार, तातक आप सख ु ी हो सकें । अतन्त्तम उद्देश्य सख
ु ी होना है। यतद आप वैतदक तनयमों और
तनयन्त्रणों का पालन करते हैं, तो इसका अथण यह नहीं है तक आप आहार, तनद्रा, स्वरक्षा और मैथनु से वांतचत कर तदए
जायेंगे। यह बात नहीं होगी। आपकी शारीररक आवश्यकताएाँ वही हैं, जो पशओ ु ां की होती हैं। पशु भी आहार, तनद्रा, मैथनु
और आत्मरक्षा में प्रवृत्त होते हैं। इसतलए हमें भी इन वस्तओु ां की आवश्यकता हैं। परन्त्तु वेदों में कुछ तनयम तनधाणररत तकये

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

गये हैं। आप उनका पालन करें तातक दख


ु ी न हो पाएाँ। यतद आप इन तनयमों का पालन करते हैं, तो अन्त्तत: उसका पररणाम
यह होगा तक आप भौततक बन्त्धन से छुटकारा पा लेंगे।
यह भौततक जीवन जीवात्मा के तलए नहीं है। यह एक भ्रातन्त्त है तक आप इस भौततक जीवन का उपभोग करना
चाहते हैं। तकन्त्तु भगवान् कृ ष्ण हमें कुछ आदेश देते हैं, तातक हम इस तरह से सख
ु ी रह सकें तक अन्त्ततोगत्वा हम यह समझ
लें तक यह हमारा उतचत जीवन नहीं है। हमारे तलए आध्यातत्मक जीवन ही उतचत है। हमारा यह मनष्ु य जीवन तब पररपणू ण
होता है, जब हम यह समझ लेते हैं तक हमारा अतस्तत्व आध्यातत्मक है, तक हम ब्रह्म हैं। अन्त्यथा हम यतद अपने आध्यातत्मक
जीवन की तचन्त्ता नहीं करते, तो पररणाम यह होगा तक हमें वैसे ही रहना होगा, जैसे कुत्ते और तबतल्लयााँ रहते हैं। इस बात
की परू ी सम्भावना है तक अगले जन्त्म में हम पशु की योतन प्राप्त करें और यतद सयां ोगवश हमने पश-ु योतन प्राप्त कर ली, तो
इस मानव जीवन को दबु ारा प्राप्त करने के तलए लाखों करोड़ों वषण लग जायेंगे। इसतलए मानव जीवन का उद्देश्य है, आत्म-
साक्षात्कार प्राप्त करना और वेद हमारे पथ-प्रदशणक हैं।
आप भगवद-् गीता में पायेंगे तक कृ ष्ण कहते हैं तक वेदों के तवतध-तवधान के अध्ययन या अनसु रण करने का
वास्ततवक अथण है कृ ष्णभावनामृत के ज्ञान तक पहुचाँ ना। श्रीमद्भागवत में भी यही बताया गया है। इसतलए वेद आपको अनेक
जन्त्मों के बाद यह अवसर प्रदान करते हैं तक आप ितमक रूप में कृ ष्ण का ज्ञान प्राप्त करें । परन्त्तु श्रीमद्भागवत को जीवन का
सार और वेदों का पका फल बताया गया है, क्योंतक भागवत में सीधे बताया गया है तक इस जीवन में क्या आवश्यक है।
वेदों को चार भागों में तवभातजत तकया गया है-साम, ऋि, अथवण और यजःु । तत्पश्चात् परु ाणों में इनकी व्याख्या की
गई है, जो सांख्या में अठारह हैं। तफर उपतनषदों में इनकी और व्याख्या की गई है, तजनकी सांख्या 108 है। उपतनषदों का सार
वेदान्त्त-सरू में तदया गया है और वेदान्त्त-सरू के उसी रचतयता द्वारा उसकी व्याख्या श्रीमदभागवत में की गयी है। यह प्रतिया
है। इसतलए भागवत सम्पणू ण वैतदक ज्ञान का सार है।
नैतमषारडय उत्तरी भारत का एक अत्यन्त्त प्रतसद्ध और पतवर वन है, जहााँ प्राय: सभी ऋतष और तपस्वी आध्यातत्मक
उन्त्नतत में सहायता प्राप्त करने के तलए जाते हैं। इस यगु में उसी वन में सवणप्रथम श्रीमद्भागवत की चचाण की गयी थी। इसकी
चचाण के दौरान श्रोताओ ां ने महान् सन्त्त श्री सतू गोस्वामी से पछू ा था : कृ ष्ण अपने परम धाम में अब वापस चले गये हैं, तो
यह तदव्य ज्ञान अब कहााँ तस्थत है? यह प्रश्न उठाया गया था। भगवद्गीता का उपदेश स्वयां कृ ष्ण ने तदया था और इसमें
ज्ञानयोग, कमणयोग, ध्यानयोग और भतियोग का वणणन तकया गया है। अब यह तजज्ञासा की गयी थी तक जब कृ ष्ण चले गये
हैं, तो आध्यातत्मक ज्ञान कहााँ से प्राप्त तकया जा सकता है। इसका उत्तर तमला था तक कृ ष्ण वापस जाते समय हमारे तलए
श्रीमद्भागवत छोड़ गये हैं। यह भगवान् कृ ष्ण का प्रतततनतध-शब्दावतार है। जैसे गीता कृ ष्ण से तभन्त्न नहीं है, उसी प्रकार

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

श्रीमद्भागवत भी कृ ष्ण से तभन्त्न नहीं है। वे पणू ण हैं। कृ ष्ण और कृ ष्ण के शब्द तभन्त्न नहीं हैं। कृ ष्ण और कृ ष्ण का नाम भी तभन
नहीं हैं। कृ ष्ण और उनका रूप भी तभन्त्न नहीं हैं। यह पणू ण है। इसका साक्षात्कार करना पड़ता है।
भगवद-् गीता और श्रीमद्भागवत कृ ष्ण के शब्दावतार हैं। श्रीमद्भागवत कृ ष्ण का सातहतत्यक अवतार भी है और यह
वैतदक ज्ञान का फल भी है। आपने यह अनभु व तकया होगा तक "शक ु " नाम का एक पक्षी होता है। उसका शरीर हरा होता
है और चोंच लाल होती है। शक ु की यह तवशेष योग्यता यह है तक आप जो भी कहें, वह उसकी नकल कर सकता है। वह
शक ु पक्षी पके फल का स्पशण करता है और यह स्वाभातवक है तक यतद फल वृक्ष पर पकता है, तो वह बहुत ही स्वातदष् हो
जाता है। यतद फल शक ु द्वारा चख तलया जाता है, तो फल और भी अतधक स्वातदष् हो जाता है। यह प्रकृ तत का तनयम है।
अत: यहााँ ऐसा कहा गया है तक यह श्रीमद्भागवत वैतदक ज्ञान के पके हुए फल के समान है। और साथ ही साथ सतू जी के
गरुु श्री शक
ु देव गोस्वामी द्वारा इसका स्पशण तकया गया है। "शक
ु " का अथण तोता होता है।
श्रीमद्भागवत की पहली व्याख्या श्रील शक ु देव गोस्वामी ने की थी, यद्यतप इसके रचतयता उनके तपता श्रील व्यासदेव
हैं। श्रील शक ु देव गोस्वामी जब मार सोलह वषण के थे, तब उन्त्हें भागवत की तशक्षा दी गयी थी और वे ज्ञान से प्रकातशत हो
गये थे। वे परम तत्व के तनराकार तसद्धान्त्त के अनसु ार पहले से ही मि ु थे। परन्त्तु अपने तपता से श्रीमद्भागवत का श्रवण करने
के बाद वे कृ ष्ण की लीलाओ ां के प्रतत आकृ ष् हो गये, तथा वे श्रीमद्भागवत के प्रचारक बन गये। सवणप्रथम उन्त्होंने महाराज
परीतक्षत के सामने इसकी व्याख्या प्रस्ततु की। महाराज परीतक्षत का सांतक्षप्त इततहास ऐसा है तक वे एक पडु यवान राजा थे,
परन्त्तु दभु ाणग्य से उनके तकसी कायण से अप्रसन्त्न होकर एक ब्राह्मण बालक ने उन्त्हें शाप दे तदया तक सात तदन के अन्त्दर ही
उनकी मृत्यु हो जाएगी। उन तदनों यतद कोई ब्राह्मण तकसी को शाप देता था, तो वह सत्य तसद्ध होता था। उनमें शाप या
वरदान देने की शति हुआ करती थी।
अत: इस प्रकार महाराज परीतक्षत यह जान गये तक उन्त्हें एक सप्ताह के अन्त्तगणत ही मरना होगा, और उन्त्होंने स्वयां
को इसके तलए तैयार कर तलया। उन्त्होंने अपना राज्य त्याग तदया तथा अपने परु महाराज जनमेजय को इसे सौंप तदया। स्वयां
वे अपने पररवार को छोड़कर तदल्ली के पास गांगा-तट पर आकर बैठ गये। वास्तव में यह गांगा नहीं, यमनु ा नदी थी। चाँतू क वे
एक महान् राजा थे, अत: अनेक तवद्वान ऋतष उनके पास आए।
परीतक्षत ने वहााँ उपतस्थत सभी ऋतषयों से पछू ा, “मेरा कतणव्य क्या है? मैं सात तदनों में ही मरने वाला ह,ाँ अब मेरा
कतणव्य क्या है? आप सब तवद्वान ऋतष हैं, कृ पया मझु े आदेश दें।” तकसी ने कहा आप योगाभ्यास करें , तकसी ने कहा आप
ज्ञान प्राप्त करें । सबकी अलग-अलग राय थी। तकन्त्तु इसी समय श्रील शक ु देव गोस्वामी ने वन में प्रवेश तकया। यद्यतप श्रील
शक ु देव गोस्वामी की आयु उस समय मार सोलह वषण थी, तफर भी वे इतने तवद्वान और ख्याततप्राप्त थे तक सभी वृद्ध ऋतष,
यहााँ तक तक उनके तपता व्यासदेव भी उनके सम्मान में उठ खड़े हुए। वे इतने तवद्वान थे। अत: जैसे ही वे आए, सब इस बात
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

पर सहमत हो गये तक, "अब शक ु देव गोस्वामी आ गए हैं, अत: वे ही राजा के कतणव्य का तनणणय करें गे। हम उन्त्हें अपना
प्रतततनतध तनयि
ु करते हैं।”
इस प्रकार शकु देव गोस्वामी को सबकी ओर से बोलने का अतधकार दे तदया गया। उनसे भी पछ ू ा गया, “मेरा कतणव्य
क्या है? मेरा यह परम सौभाग्य है तक आप इस महत्वपणू ण घड़ी पर पधारे हैं। कृ पया मझु े मेरे कतणव्य के बारे में बताएाँ।”
शकु देव गोस्वामी ने कहा, “अच्छा, मैं आपके समक्ष श्रीमद्भागवत की व्याख्या करूाँगा।” वहााँ उपतस्थत सभी तवद्वान
इससे सहमत हो गये।
श्रीमद्भागवत सवणप्रथम श्रील शक ु देव गोस्वामी द्वारा कहा गया था, इसतलए ऐसा कहा गया है तक तजस प्रकार तोता
पके फल को स्पशण करता है और वह फल और अतधक स्वातदष् हो जाता है, उसी प्रकार, यह श्रीमद्भागवत सवणप्रथम श्रील
शक
ु देव गोस्वामी के द्वारा स्पशण तकये जाने पर और भी अतधक रोचक हो गया है।
बात यह है तक कोई भी वैतदक सातहत्य तवशेषकर श्रीमद्भागवत और गीता जैसे ग्रन्त्थ आत्म-साक्षात्कार प्राप्त
महात्माओ ां द्वारा तजस रूप में कहे गए हैं, इनका उसी रूप में अध्ययन करना चातहए। तवशेष रूप से वह सातहत्य तजसे वैष्णव
सातहत्य कहा जाता है, अभत से नहीं सनु ना चातहए। इस बात पर मैंने कई बार बल तदया है। जो लोग अभत हैं, मानतसक
तकण वादी हैं, सकाम कमी या योगी हैं, वे भगवान् के तवज्ञान की व्याख्या नहीं कर सकते हैं। एक अन्त्य महान् सन्त्त सनातन
गोस्वामी ने भी तवशेष रूप से यही बात कही है : जो भति मागण में नहीं हैं, भगवान् से रतहत हैं, तजन्त्हें भगवान् में श्रद्धा नहीं
है, ऐसे लोगों को भगवद-् गीता और श्रीमद्भागवत या अन्त्य भगवान् सम्बन्त्धी सातहत्य पर प्रवचन करने की अनमु तत नहीं दी
जानी चातहए। तो यह बात नहीं है तक कोई भी व्यति भागवत या गीता पर प्रवचन दे सकता है और हमें उसे सनु ना पड़ेगा।
नहीं, तवशेषकर सनातन गोस्वामी ने इसके तलए तनषेध तकया है। हमें भगवान् के तवषय में तकसी भी ऐसे व्यति से श्रवण नहीं
करना चातहए, जो शद्ध ु न हो।
कोई पछू सकता है, "आप तकस तरह कृ ष्ण की वाणी को कलांतकत कर सकते हैं, जबतक यह वाणी स्वाभातवक रूप
से तदव्य रूप में शद्ध
ु है? तकसी अभत से कृ ष्ण की वाणी सनु ने में क्या दोष है?” यह प्रश्न उठाया जा सकता है। इसके बारे में
यहााँ एक उदाहरण तदया गया है। दधू तकतना भी अच्छा और पौतष्क क्यों न हो, तकन्त्तु सााँप का स्पशण होते ही वह तुरन्त्त
तवषैला हो जाता है। सााँप बहुत ईष्र्यालु होता है। उसके काटते ही मनष्ु य अनावश्यक रूप से तुरन्त्त मर जाता है। इसीतलए उसे
सभी जीवों में िूरतम जीव कहा जाता है। शास्त्रों में अतहसां ा का तवधान है, परन्त्तु सााँप या तबच्छू को मार डालने की अनमु तत
दी गई है। आप यह नहीं कह सकते तक दधू तो पौतष्क होता है, इसतलए हम उसे पी सकते हैं। सपण के छू लेने से क्या हातन
है? नहीं, इसका पररणाम होगा-मृत्य।ु हमें कम से कम भगवद्गीता और श्रीमद्भगवत का उपदेश उन लोगों से नहीं सनु ना
चातहए, जो भगवान् के भत नहीं हैं; तजन्त्होंने भगवान् का साक्षात्कार नहीं तकया है और जो लोग उनके प्रतत द्वेषभाव रखते
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

हैं। उनका स्पशण इसे तवषाि कर देता है। भगवान् की वाणी सदैव पतवर होती है, पर जैसे ही सपण सदृश अभिों से इसका
स्पशण हो जाता है, तब व्यति को इसके श्रवण के तवषय में बहुत सावधान होना चातहए।
श्रीमद्भागवत में सांकेत तकया गया है तक ज्योंही श्रील शक
ु देवजी ने इसका स्पशण तकया, यह रुतचकर हो गया। यही
अन्त्तर है। मलू त: यह वैतदक ज्ञान का पररपक्व फल है, परन्त्तु साथ ही यह श्रील शक
ु देव गोस्वामी का स्पशण पा चक
ु ा है।
भगवान् योग के परम लक्ष्य तथा तदव्य आनन्त्द के तनतध हैं; वे स्वयां को अपने भिों के सामने ही प्रकट करते हैं तथा
उनके भिों की कृ पा से ही सभी उनके तनकट के सातन्त्नध्य का रसास्वादन कर सकते हैं।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

अध्याय नौ
वास्ततवक शातन्त्त-सरू
प्रत्येक जीव शातन्त्त की खोज में है। यही अतस्तत्व के तलए सांघषण है। प्रत्येक जीव, जलचर से लेकर मानव की
उच्चतम योतन तक-चींटी से लेकर सृतष् के प्रथम प्राणी ब्रह्मा तक-शातन्त्त की खोज में है। यही मख्ु य उद्देश्य है। भगवान् चैतन्त्य
महाप्रभु ने कहा था तक जो व्यति पणू ण रूप से कृ ष्णभावना में है, के वल वही शान्त्त व्यति है, क्योंतक उसकी कोई मााँग नहीं
होती है। कृ ष्णभावनाभातवत व्यति की यही तवशेष योग्यता है। वह अकाम है। अकाम का अथण है, वे व्यति तजनकी कोई
कामना नहीं होती है और जो आत्मतनभणर होते हैं; तजनकी कोई तजज्ञासा नहीं होती है और जो पणू णतः शान्त्त हैं। वे कौन हैं?
वे कृ ष्णभावनामृत में तस्थत भि हैं।
अन्त्य सब तीन श्रेतणयों में आते हैं। पहली श्रेणी है, भतु ि अथाणत् वे व्यति जो भौततक सख ु और तवषय भोगों के
तलए लोलपु हैं। ये व्यति खाना, पीना और भौततक आनन्त्द लटू ना चाहते हैं। शरीर के अनसु ार आनन्त्द के भी कई प्रकार हैं।
लोग इस लोक में, दसू रे लोक में, यहााँ वहााँ और सवणर इतन्त्द्रय सख ु की खोज में भटक रहे हैं। इनका मख्ु य उद्देश्य इतन्त्द्रयों को
सन्त्तष्ु करना है। इसे भतु क कहते हैं। दसू री श्रेणी के अन्त्तगणत वे लोग आते हैं, जो इतन्त्द्रयतृतप्त से थक चक
ु े हैं या तनराश हो
चक ु े हैं और इसतलए इस भौततक बन्त्धन से मि ु होना चाहते हैं। इसके बाद वे लोग आते हैं, जो ज्ञान की खोज में हैं, जो
परम सत्य क्या है इस तवषय में मानतसक कल्पनाएाँ करते हैं। इस तरह कुछ ऐसे लोग हैं, जो इतन्त्द्रय ततु ष् चाहते हैं और कुछ
लोग ऐसे हैं, जो मोक्ष के अतभलाषी हैं और मतु ि चाहते हैं। मोक्षवादी लोगों की भी कुछ कामना होती है-भौततक बन्त्धन से
छुटकारा पाने की। तफर कुछ ऐसे लोग हैं, जो योगी हैं। ये लोग यौतगक तसतद्ध की खोज में हैं। यौतगक तसतद्ध के आठ प्रकार
हैं, तजनकी प्रातप्त से मनष्ु य में यह क्षमता आ जाती है तक वह सक्ष्ू म से सक्ष्ू म या भारी से भारी आकार ग्रहण कर सके या
अपनी इच्छानसु ार कोई भी अभीष् वस्तु प्राप्त कर सके । सामान्त्य व्यति जो तक इतन्त्द्रयतृतप्त के अतभलाषी हैं तथा वे लोग जो
मोक्षाकाांक्षी हैं, साथ ही जो यौतगक तसतद्ध की प्रातप्त में सांलग्न हैं, इन सबों की कुछ न कुछ मााँग होती है। तकन्त्तु भिों की
क्या तस्थतत है? उनकी कोई मााँग नहीं होती। क्योंतक वे के वल भगवान् कृ ष्ण की सेवा करना चाहते हैं, अत: वे भगवान् कृ ष्ण
की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हैं। यही उनकी सांतुतष् है। यतद कृ ष्ण अपने भिों को नरक में भेजना चाहें, तो वे उसके तलए भी
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तैयार रहते हैं। और यतद कृ ष्ण कहते हैं, “तमु मेरे पास आओ, " तो वे जाने के तलए तैयार रहते हैं। उनकी कोई कामना नहीं
होती। यह पणू णता की अवस्था है।
एक बहुत अच्छा श्लोक है, तजसमें एक भि प्राथणना करता है-”मेरे तप्रय भगवन!् मैं अपने मन की सभी कामनाओ ां
से मि ु होकर के वल आपकी भावना में ही कृ ष्णभावनाभातवत होकर रहगाँ ा।” वास्तव में चाँतू क हम भौततक जगत के बन्त्धन
में हैं, इसतलए हमारी अनेक कामनाएाँ हैं। कुछ लोग इतन्त्द्रयतृतप्त की कामना करते हैं और कुछ लोग जो अतधक उन्त्नत हैं, वे
मानतसक सन्त्तोष पाना चाहते हैं तथा जो लोग और अतधक पररष्कृ त हैं, वे इस दतु नया में अपनी शति के कुछ चमत्कार
तदखाना चाहते हैं। ये लोग तभन्त्न-तभन्त्न तस्थततयों में भौततक बन्त्धनों में जकड़े हुए हैं। इसतलए कृ ष्णभावनाभातवत व्यति
भगवान् से प्राथणना करता है, “मेरे तप्रय भगवान,् कब वह क्षण आएगा, जब मैं आपके तवचारों में या आपकी सेवा में परू ी
तरह तल्लीन हो सकाँू गा?” “आपके तवचार” अमतू ण और मनगढांत अनमु ान नहीं, बतल्क यह तवचार का व्यावहाररक प्रकार
है। “मैं शान्त्त हो जाऊाँगा” और मन का सारा कपट जाल-मैं यह चाहता ह,ाँ मैं वह चाहता ह-ाँ परू ी तरह से तमट जाएगा।
हम मानतसक तल पर मांडराते रहते हैं। हमने अपने मन को परू ा अतधकार दे रखा है। और मन हमें भटका रहा है-
“इधर चलो, उधर चलो।” व्यति को यह सारी मख ू णता बन्त्द करनी होगी। “मैं के वल आपका सनातन सेवक बना रहगाँ ा। तथा
मैं बहुत प्रसन्त्न होऊाँगा, क्योंतक मैंने अपने स्वामी को प्राप्त कर तलया है।” वे सभी लोग जो कृ ष्णभावनाभातवत नहीं हैं, वे
मागणदशणन से रतहत हैं। वे स्वयां अपने पथ-प्रदशणक हैं। जो व्यति कृ ष्णभावनाभातवत है, उनके पथ-प्रदशणक स्वयां श्रीभगवान्
हैं, इसतलए उन्त्हें कोई भय नहीं है। जैसे जब तक बच्चा अपने माता-तपता की देखभाल में रहता है, तब तक उसे कोई भय
नहीं होता। परन्त्तु जैसे ही वह स्वतन्त्र होता है, उसके सामने अनेक बाधाएाँ आने लगती हैं। यह भोंडा उदाहरण तदया गया है,
परन्त्तु ठीक इसी प्रकार जब कोई व्यति सभी प्रकार की मनगढ़न्त्त कपट व्याख्या से मि ु होकर चौबीसों घडटे शतप्रततशत
कृ ष्णभावनामृत में सल ां ग्न रहता है, तो वह तत्काल ही शातन्त्त प्राप्त कर लेता है। यही शातन्त्त है।
इसतलए चैतन्त्य महाप्रभु कहते हैं तक जो लोग कृ ष्णभावनाभातवत हैं, वे कामनारतहत होने के कारण वास्ततवक
शातन्त्त को प्राप्त करते हैं। तजन लोगों की सारी प्रवृतत्त इतन्त्द्रयतृतप्त, मोक्ष या यौतगक तसतद्धयों के तलए ही है, वे इस तचन्त्ता से
सदैव भरे रहते हैं। व्यति को यह जानना चातहए तक जब तक वह तचन्त्ता से भरा रहता है, तब तक वह भौततक प्रकृ तत की
पकड़ में रहता है। जैसे ही वह सारी तचन्त्ताओ ां से मिु हो जाता है, तो उसे जान लेना चातहए तक वह अब मि ु है। यह भयपणू ण
तचन्त्ता इसतलए रहती है, क्योंतक हम परम तनयन्त्ता भगवान् कृ ष्ण को नहीं जानते। इसके स्थान पर हमारी अलग-अलग
धारणाएाँ होती हैं और यही कारण हैं तक हम हमेशा तचतन्त्तत रहते हैं।
इसके अनेक उदाहरण हैं, जैसे प्रह्वाद महाराज। वे मार पााँच वषण के नन्त्हें से तप्रय बालक थे, परन्त्तु भगवान् के भत
होने के कारण उनका तपता उनका शरु हो गया था। यही सांसार की रीतत है। जैसे ही कोई व्यति भगवान् का भि बनता है,
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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

वैसे ही उसका कई कतठनाइयों से सामना होता है। परन्त्तु वे बाधाएाँ उस व्यति को रोक नहीं पायेंगी अथवा उसके पथ में
रुकावट नहीं डाल पायेंगी।
हमें व्यतिगत रूप से कृ ष्णभावनाभातवत होने के तलए हमेशा तैयार रहना चातहए। अन्त्यथा के वल माया का ही राज्य
रहेगा। ज्योंही माया यह देखेगी तक, “यह है एक जीव, जो मेरे चांगलु से बाहर जा रहा है, "त्योंही वह हमें हराने का प्रयास
करे गी। जैसे ही व्यति कृ ष्णभावनाभातवत होता है और अपने आपको परू ी तरह से भगवान् के प्रतत समतपणत कर देता है,
त्योंही उसे इस माया से कोई भय नहीं रहता। कृ ष्णभावनाभातवत व्यति पणू णतः शान्त्त व्यति होता है।
इस सांसार में हर कोई शातन्त्त चाहता है, तकन्त्तु शातन्त्त-सैतनक नहीं जानते तक शातन्त्त कै से प्राप्त की जाए, परन्त्तु वे
शातन्त्त चाहते हैं। मैंने "कें टरबरी के आचण-तबशप" का एक भाषण पढ़ा था, तजसमें उन्त्होंने कहा था, "आप के वल भगवान्
का राज्य चाहते हैं, भगवान् नहीं।” यही हमारा दोष है, यतद आप शातन्त्त चाहते हैं, तो यह मान लें तक शातन्त्त का अथण है,
भगवान् को जानना। भगवद-् गीता में यही कहा गया है। जब तक आप भगवान् कृ ष्ण के सम्पकण में नहीं आते, तब तक
आपको शातन्त्त नहीं तमल सकती। इसतलए हमारा शातन्त्त का सरू अलग है। वास्ततवक शातन्त्त का सरू यह है तक हमें यह
जानना चातहए तक भगवान् सांयि ु राज्य अमेररका सतहत सारे ब्रह्माडड के स्वामी हैं; वे रूस और चीन के भी स्वामी हैं; वे
भारत के भी स्वामी हैं; प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं। परन्त्तु क्योंतक हम दावा करते हैं तक स्वामी हम हैं, बस इसी से लड़ाई झगड़े
होते हैं, कलह होता है, मतभेद होता है और इस प्रकार शातन्त्त कै से रह सकती है?
सवणप्रथम हमें यह स्वीकार करना होगा तक भगवान् सबके स्वामी हैं। हम के वल 50 या 100 वषण के मेहमान हैं।
हमारा आना-जाना लगा रहता है। जब तक व्यति यहााँ रहता है, वह इसी तवचार में खोया रहता है, “यह मेरी भतू म है, यह
मेरा पररवार है। यह मेरा शरीर है। यह मेरी सम्पतत है।” और जब भगवान् का आदेश तमलता है तो हमें अपना घर, अपनी
सम्पतत, अपना पररवार, अपना शरीर, पैसा और अपना बैक में जमा धन यहीं छोड़कर कहीं और जाना पड़ता है। हम भौततक
प्रकृ तत के तनयन्त्रण में हैं और वह हमें अनेक प्रकार के शरीर प्रदान कर रही है : " अब तप्रय महोदय, आप यह शरीर लीतजए।”
हम अमरीकी शरीर, भारतीय शरीर, चीनी शरीर, तबल्ली या कुत्ते का शरीर स्वीकार करते हैं। मैं इस शरीर का भी स्वामी
नहीं हाँ तफर भी कहता हाँ तक मैं यह शरीर ह।ाँ वास्तव में यह अज्ञान है। तफर शातन्त्त कै से प्राप्त की जा सकती है? शातन्त्त तभी
प्राप्त हो सकती है, जब मनष्ु य समझे तक भगवान् ही सभी वस्तओ ु ां के स्वामी हैं। तकसी का तमर, तकसी की मााँ तकसी का
नाना और राष्रपतत सभी समय के मेहमान हैं। जब मानव द्वारा यह ज्ञान स्वीकार कर तलया जाएगा, तब शातन्त्त होगी।
हम ऐसे तमर की खोज में हैं, जो हमें शातन्त्त दे सके । वे तमर हैं-भगवान् कृ ष्ण। यतद हम उनसे तमरता कर लें, तो हम
पाएाँगे तक सभी हमारे तमर हो गये हैं। चाँतू क भगवान् सबके हृदय में अवतस्थत हैं, इसतलए यतद आप भगवान् से तमरता करते
हैं, तो वे आपके हृदय में से आदेश देंगे और आप से सब लोग मैरीपणू ण ढांग से व्यवहार करने लगेंगे। यतद आप पतु लस
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कतमश्नर से तमरता करते हैं, तो आपको कुछ लाभ प्राप्त होता है। यतद आप राष्रपतत तनक्सन से तमरता करें गे, तो हर व्यति
आपका तमर बन जाएगा, क्योंतक प्रत्येक व्यति राष्रपतत के अधीन है। यतद आप तकसी अतधकारी से कुछ चाहते हैं, तो
सीधे राष्रपतत तनक्सन से कह दें और वे आदेश देंगे, “ठीक है, उस व्यति का ख्याल रखो।” तब हर बात का ख्याल रखा
जाने लगेगा। बस, भगवान् से तमरता करने की कोतशश करें और तब प्रत्येक व्यति आपका तमर बन जाएगा। यतद सभी
लोग इस अततश्रेष्ठ सत्य को समझ लें तक भगवान् सबके तमर हैं और वे ही परम स्वामी हैं, तो सभी शातन्त्त प्राप्त कर लेंगे।
चैतन्त्य महाप्रभु ने यही समझाया है।
भगवद-् गीता श्रीमद्भागवत चैतन्त्य-चररतामृत या अन्त्य वैतदक सातहत्य में या तकसी दसू रे धमण के सातहत्य में यही
सत्य प्रस्ततु तकया गया है। भगवान् स्वामी हैं। वे ही एकमार तमर हैं। यतद आप यह समझ लेते हैं, तो आप शातन्त्त प्राप्त कर
लेंगे। यही शातन्त्त का सरू है। जैसे ही आप भगवान् की सम्पतत्त पर अततिमण करने का प्रयास करें गे, उसे अपनी सम्पतत
घोतषत करें गे, तो आपके तवरुद्ध भौततक प्रकृ तत द्वारा पतु लस कायणवाही की जायेगी' : "आप स्वामी नहीं हैं।” आप उतना ही
रख सकते हैं, तजतना भगवान् ने आपके तलए तनयत तकया है।
आपका कायण है, स्वयां को पणू ण कृ ष्णभावनामृत तक उन्त्नत करना। उससे अतधक और कुछ नहीं। यतद आप इस
तनयम का पालन नहीं करें गे, आप इस तसद्धान्त्त को स्वीकार नहीं करें गे और अतधक भौततक सख ु लेना चाहेंगे, तो आपको
और अतधक दख ु उठाना पड़ेगा। भल ू ने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसतलए चैतन्त्य महाप्रभु कहते हैं, "कृ ष्णभावनाभातवत भि
की कोई कामना नहीं होती। इसीतलए वह शान्त्त रहता है।”
जो कृ ष्णभावनामृत में हैं, वे कृ ष्ण के अततररि और कुछ नहीं जानते। वास्तव में मार कृ ष्णभावनाभातवत व्यति ही
सदैव शान्त्त और तनभणय रहते हैं। न वे स्वगण में रहते हैं, न वे नरक में रहते हैं तथा न ही और कहीं। वे के वल कृ ष्ण के सांग में
रहते हैं। इसतलए उनके तलए तबना तकसी भय के सवणर वैकुडठ है। इसी प्रकार परमात्मा के रूप में भगवान् कृ ष्ण सवणर तनवास
करते हैं। वे सअ ू र के हृदय में भी वास करते हैं। सअ ू र मल खाता है, परन्त्तु इसका अथण यह नहीं है तक चाँतू क भगवान् कृ ष्ण
सअ ू र के हृदय में रहते हैं, इसतलए वे भी इस दडड के भागी होते हैं। भगवान् और उनके भि सदैव भौततक प्रकृ तत के गणु ों
से परे रहते हैं। पणू णत: कृ ष्णभावनाभातवत लोग बहुत कम होते हैं और वे सदैव शान्त्त रहते हैं। करोड़ों लोगों में ऐसा एक भी
व्यति ढूाँढ़ना बहुत कतठन है, जो सच्चे अथण में कृ ष्णभावनाभातवत हो। कृ ष्णभावनामृत की यह तस्थतत बहुत कम देखने में
आती है। परन्त्तु कृ ष्ण स्वयां चैतन्त्य महाप्रभु के रूप में वतणमान समय की दयनीय तस्थतत को देखकर सीधे मि ु रूप से भगवत-्
प्रेम प्रदान कर रहे हैं।
तफर भी क्योंतक भगवत-् प्रेम मि
ु रूप से और सरलता से प्रदान तकया जा रहा है, लोग इस ओर ध्यान नहीं देते। मेरे
गरुु महाराज कहा करते थे, “यतद आप एक लांगेर आम लें, जो तक भारतवषण का प्रथम श्रेणी का सवोत्कृ ष् आम है, बहुत
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मल्ू यवान, अत्यन्त्त मधरु और अत्यन्त्त स्वातदष् है, तथा यतद आप इस आम को द्वार-द्वार पर जाकर तन:शल्ु क बााँटने का
प्रयास करें , तो लोग सन्त्देह करें गे। “यह व्यति लांगेर आम लेकर क्यों आया है? क्यों यह इसे तन:शल्ु क बााँटने का प्रयास कर
रहा है? इसके पीछे अवश्य कोई चाल होगी।” इसी प्रकार चैतन्त्य महाप्रभु कृ ष्णभावनामृत के इस लगां ेर आम को बहुत सस्ते
में लोगों को बााँटते रहे। परन्त्तु लोग इतने मखू ण हैं तक वे सोचते हैं, "ओह! ये लोग तसफण हरे कृ ष्ण का कीतणन कर रहे हैं। इसमें
क्या तवशेष बात है? यह मख ू ों के तलए है। यह उन लोगों के तलए है, जो तकण नहीं कर सकते और तजन्त्हें कोई उच्च स्तर का
ज्ञान नहीं होता।” परन्त्तु बात ऐसी नहीं है। यह कहा गया है, "लाखों करोड़ों लोगों में के वल कुछ ही कृ ष्णभावनामृत में रुतच
रखते हैं।” इस जानकारी की उपेक्षा नहीं करनी चातहए, यह अतत दल ु णभ है, तथा यतद आप कृ ष्णभावनामृत का अभ्यास
करते हैं, तो आपका जीवन सफल हो जाएगा। आपके मानवजीवन का उद्देश्य परू ा हो जाएगा। कृ ष्णभावनामृत का यह बीज
बहुत असाधारण और मल्ू यवान है। चैतन्त्य महाप्रभु ने कहा था तक असख्ां य जीव चौरासी लाख योतनयों के अन्त्तगणत एक के
बाद दसू री योतन में भ्रमण व देहान्त्तरण कर रहे हैं। इनमें से कोई एक ही ऐसा भाग्यवान होगा जो तदव्य सम्पतत को प्राप्त करता
है।
कभी-कभी भगवान् के भि द्वार-द्वार जाते हैं। उनकी नीतत होती है तक वे तभक्षक ु के रूप में जायें। इसतलए भारत में
तभक्षक
ु ों तथा तवशेषतया सन्त्ां यातसयों का अत्यन्त्त आदर तकया जाता है। यतद कोई सांन्त्यासी तभक्षा के तलए तकसी के घर जाता
है, तो उसका अच्छी तरह आदर-सत्कार तकया जाता है-"स्वामीजी, मैं आपकी क्या सेवा करूां?” भि तभक्षक ु तकसी तवशेष
वस्तु की मााँग नहीं करता। परन्त्तु जो कुछ भी कोई दे सके , एक रोटी भी, वही उसे आध्यातत्मक दृतष् से समृद्ध कर देती है।
जो अपने द्वार पर आने वाले शद्ध ु भि को रोटी प्रदान करता है, वह आध्यातत्मक दृतष् से समृद्ध हो जाता है। जब कोई व्यति
आध्यातत्मक सम्पतत्त में उन्त्नत हो जाता है, तब वह भिों का तजतना हो सके उतना उत्तम स्वागत करता है। वैतदक प्रणाली
के अनसु ार यतद आपका शरु भी आपके घर आये, तो उसका ऐसा स्वागत करना चातहए तक आप भल जााँ तक आप उसके
शरु हैं। भगवान के तलए सवणस्व त्याग करने वाले शद्ध ु भि के आदर सत्कार की यह सामान्त्य रीतत है।
ये आदेश गृहस्थों के तलए हैं। गृहस्थ को दोपहर के समय अपने घर से बाहर तनकल आना चातहए और भख ू े व्यति
को भोजन कराने के तलए पक ु ारकर बल ु ाना चातहए। यतद उसके पक
ु ारने पर कोई नहीं आता है, तभी घर का मतु खया भोजन
ग्रहण कर सकता है। मनष्ु य को भगवत् परायण बनने की तशक्षा देने के तलए कई तवतध-तवधान हैं। ये अन्त्ध-तवश्वास या
अनावश्यक नहीं हैं। मनष्ु य को भगवत् परायण बनने की तशक्षा दी जानी चातहए। क्योंतक वह भगवान् का अतभन्त्न अश ां है,
इसतलए उसे तशक्षा प्राप्त कुनेक असतदया जाता है। यह प्रतशक्षा इतसलए तदया जाता न तकसी सकता है। तदन मनष्ु य
कृ ष्णभावनाभातवत हो सकता हैं।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

यतद सयां ोगवश, इस प्रतशक्षण के दौरान वह तकसी ऐसे व्यति से तमलता है, जो सांत-परुु ष हो और भगवान् का शद्ध ु
भि हो तो ऐसे सपां कण से वह पतवर हो जाता है। इसतलए चैतन्त्य महाप्रभु ने कहा है तक ऐसे भाग्यशाली लोग, तजन्त्होंने तपछले
कमों से कुछ आध्यातत्मक सम्पतत अतजणत की थी, वे शद्ध ु भिों का सत्सगां पाने के तलए उत्सकु रहते हैं। कृ ष्णभावनामृत
का बीज गरुु और कृ ष्ण की कृ पा से प्राप्त होता है। जब गरुु और भगवान् कृ ष्ण चाहेंगे तक इस व्यति को कृ ष्णभावनामृत की
प्रातप्त होनी चातहए, तब उसमें आध्यातत्मकता का बीज सचु ारु रूप से फूट उठता है। वह आध्यातत्मक सम्पतत उसे भाग्यशाली
बना देती है और इस तरह उसमें आध्यातत्मकता जाग उठती है। तब वह प्रामातणक गरुु से भेंट करता है तथा गरुु महाराज
की कृ पा से वह कृ ष्णभावनामृत का बीज प्राप्त कर सकता है। यह उसकी आन्त्तररक इच्छा होती है, 'मैं ऐसा सगां कहााँ प्राप्त
कर सकता ह?ाँ ” “मझु े यह बोध कहााँ प्राप्त होगा?”
इस प्रतिया की सस्ां ततु त की जाती है। आध्यातत्मक उन्त्नतत की यह सामान्त्य प्रतिया है। कृ ष्ण आपके अन्त्तर में हैं;
जैसे ही वे यह देखते हैं तक आप तनष्ठावान हैं और उनकी खोज में हैं, तो वे आपके पास प्रामातणक गरुु भेज देते हैं। कृ ष्ण
और गरुु के इस समन्त्वय से मनष्ु य को कृ ष्णभावनामृत के बीज की प्रातप्त होती है। बीज तो पहले से है। यतद आपके पास
गलु ाब का अच्छी तकस्म का एक बीज है, तो आपका क्या कतणव्य है? यतद आपके पास तकसी अच्छे पौधे का कोई बीज
है, तो आपका कतणव्य है तक आप उसे बैंक की ततजोरी में बन्त्द न कर दें। आपका कतणव्य है, उसे जमीन में बोना। आप उस
बीज को कहााँ बोयेंगे? यतद आपको कृ ष्णभावनामृत का ज्ञान है, तो उसे हृदय में बो दीतजए। सामान्त्य धरती पर नहीं, अपने
हृदय की धरती पर बोइये। बीज बोने के बाद आप उस पर थोड़ा पानी तछड़तकये। यह तछड़काव श्रवण और कीतणन का होगा।
जब बीज को हृदय में बो तदया जाता है, तब उस पर थोडे से पानी का तछड़काव करें और धीरे -धीरे वह बढ़ने लगेगा।
यह प्रतिया इस तवचार से बन्त्द नहीं कर देनी चातहए तक चाँतू क वह दीतक्षत हो चकु ा है, अब इसतलए श्रवण और
कीतणन की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है। यह तनरन्त्तर जारी रहना चातहए। यतद आप पौधे को पानी देना बन्त्द कर देंगे,
तो वह सख ू जाएगा। उस पर कोई फल नहीं आएगा। इसी प्रकार यतद आप कृ ष्णभावनामृत में बहुत ऊपर भी उठ गये हों, तो
भी आप श्रवण और कीतणन की प्रतिया को रोक नहीं सकते, क्योंतक माया इतनी शतिशाली है तक जैसे ही वह देखेगी,
"ओह! अच्छा मौका हाथ आया है,” तो तरु न्त्त ही आप सख ू जाएाँगे। पानी डालने की तिया से ही कृ ष्णभावनामृत का पौधा
बढ़ता है। यह कै से बढ़ता है? हर पौधे की एक सीमा होती है। वह लगातार बढ़ता जाता है, लेतकन एक समय ऐसा आता है,
जब वह बढ़ना बन्त्द कर देता है। तकन्त्तु कृ ष्णभावना का पौधा इस तरह बढ़ता है तक वह इस भौततक ब्रह्माडड में कही रूकता
नहीं, क्योंतक एक कृ ष्णभावनाभातवत व्यति इस भौततक ब्रह्माडड के तकसी भी भाग में उपलब्ध स्वगीय सतु वधाओ ां से सन्त्तष्ु
नहीं होता। यतद आप उसे तसद्धलोक भी भेजना चाहें, जहााँ के तनवासी इतने शतिशाली और उन्त्नत हैं तक वे तबना वाययु ान
के आकाश में उड़ सकते हैं, तो भी वह सन्त्तष्ु नहीं होगा।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

श्रीमद्भागवत के अनसु ार तसद्धलोक नामक एक ग्रह है, जहााँ के तनवातसयों को एक ग्रह से दसू रे ग्रह पर उड़ने के तलए
वाययु ान या आकाशयान की आवश्यकता नहीं होती। तसद्धलोक से ऊपर भी अन्त्य अनेक ग्रह हैं। मैंने पाया है तक आधतु नक
मत प्रत्येक तारे को सयू ण मानता है और वे मानते हैं तक अनेक तभन्त्न-तभन्त्न सौर मडडल हैं; तकन्त्तु वैतदक सातहत्य के अनसु ार
अनेक ब्रह्माडड हैं, तजनमें प्रत्येक का अतस्तत्व तभन्त्न-तभन्त्न है। इस ब्रह्माडड की सीमा है अतन्त्तम बाह्य आकाश। आधतु नक
वैज्ञातनक कहते हैं तक प्रत्येक तारा एक सयू ण है, तकन्त्तु वैतदक सातहत्य ऐसा नहीं कहता। वैतदक सातहत्य हमें यह जानकारी
देता है तक प्रत्येक ब्रह्माडड में के वल एक सयू ण होता है। परन्त्तु ब्रह्माडड असख्ां य होते हैं। इस प्रकार असख्ां य सयू ण और चन्त्द्र
होते हैं। इस ब्रह्माडड का सवोच्च ग्रह ब्रह्मलोक कहलाता है। और भगवान् कृ ष्ण कहते हैं तक "भले ही आप सवोच्च लोक
पहुचाँ जााँए, आपको वापस आना ही पड़ेगा।” स्पतु तनक तथा अन्त्तररक्ष यारी बहुत ऊाँचे पहुचाँ जाते हैं। और यहााँ पृथ्वी पर
लोग तातलयााँ बजाते हैं, पर वे थोड़े ही समय में तफर से वापस आ जाते हैं। व्यति भले तकतनी ही तातलयााँ बजाएाँ पर उससे
अतधक वे कुछ नहीं कर सकते। उसी प्रकार वे जो भौततकतावादी हैं, वे ब्रह्माजी के लोक ब्रह्मलोक तक ऊाँचे जा सकते हैं।
लेतकन जो कृ ष्णभावनाभातवत हैं, वे इसे भी अस्वीकार कर देंगे। वे लोग तनराकार ब्रह्मज्योतत की भी उपेक्षा कर देते हैं। वे
उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते।
इस ब्रह्माडड का आवरण इस अन्त्तररक्ष से, तजसमें हम रहते हैं, कहीं अतधक मोटा है। ब्रह्माडड का बाहरी भाग उसके
भीतरी आकाश का दस गणु है, इसतलए व्यति को यह आवरण भेदना पड़ता है और तब वह “तवराज" या कारण समद्रु में
पहुचाँ ता है। बौद्ध दशणन की पणू णता है उस “तवराज" तक पहुचाँ जाना। वैतदक भाषानसु ार जब यह भौततक जगत पणू णतया नष्
हो जाता है, तब यह “तवराज" कहलाता है। तकन्त्तु कृ ष्णभावनाभातवत व्यति मार इस ब्रह्माडड को ही नहीं भेदता है, परन्त्तु
उस तटस्थ तस्थतत वाले कारण-समद्रु में पहुचाँ ने के पश्चात् वह आगे बढ़ता रहता है। ब्रह्मलोक से तवराज और तवराज से तदव्य
आकाश जाते हुए यह पौधा इतनी उत्तम रीतत से बढ़ता है तक तदव्य आकाश में पहुचाँ ने पर भी वह तकसी वैकुडठ ग्रह से
सन्त्तष्ु नहीं होता।
तदव्य आकाश में सवोच्च ग्रह कृ ष्ण-लोक है। इसका आकार कमल पष्ु प की तरह है; जहााँ कृ ष्ण तस्थत हैं। और वहीं
जब यह पौधा भगवान् कृ ष्ण के चरणकमल को प्राप्त करता है, तब तवश्रातन्त्त पाता है। तजस प्रकार एक लता बढ़ते-बढ़ते
तकसी वस्तु से तलपट जाती है और तफर अपना तवस्तार करती है, उसी प्रकार जब भतिलता कृ ष्ण के चरणकमलों को प्राप्त
करती है, तब वह अपना तवस्तार करती है। जैसे ही कृ ष्णभावनामृत की लता भगवान् कृ ष्ण के चरणकमलों को ग्रहण करती
है, वह वहीं आश्रय लेती है। "अब मेरी यारा परू ी हुई, अब यहााँ अपना तवस्तार करूां।” तवस्तार करने का अथण है भगवान्
कृ ष्ण के सांग आनन्त्द लेना। वहीं भि सन्त्तष्ु होते हैं।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

इस लता को लगातार बढ़ते रहना पड़ता है; और इस प्रकार जो पहले से ही कृ ष्णभावनाभातवत हैं, यतद वे स्वाभातवक
गतत में बढ़ते रहें तो इसी जीवन में इस लता के फल का रसास्वादन कर सकते हैं ।
यतद आप इस कीतणन और श्रवण की प्रतकया में लगे रहते हैं, तो आप बढ़ते ही जाएाँगे और वास्तव में भगवान् कृ ष्ण
के चरणकमलों को प्राप्त करें गे वहााँ उनके सांग का रसास्वादन करें गे।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

लेखक-पररचय
कृ ष्णकृ पामतू तण श्री श्रीमद् ए.सी. भतिवेदान्त्त स्वामी प्रभपु ाद का आतवभाणव 1896 ई. में भारत के कलकत्ता नगर में
हुआ था। अपने गरुु महाराज श्रील भतितसद्धान्त्त सरस्वती गोस्वामी से 1922 मे कलकत्ता में उनकी प्रथम भेंट हुई। एक
सप्रु तसद्ध धमण तत्त्ववेत्ता, अनपु म प्रचारक, तवद्वान-भि, आचायण एवां | । चौसठ गौड़ीय मठों के सांस्थापक श्रील भतितसद्धान्त्त
सरस्वती को ये सतु शतक्षत नवयवु क तप्रय लगे और उन्त्होंने वैतदक ज्ञान के प्रचार के तलए अपना जीवन करने की इनको प्रेरणा
दी। श्रील प्रभपु ाद उनके छार बने और ग्यारह वषण बाद (1933 ई.) प्रयाग (इलाहाबाद) में उनके तवतधवत् दीक्षा-प्राप्त तशष्य
हो गए।
अपनी प्रथम भेंट में ही श्रील भति तसद्धान्त्त सरस्वती ठाकुर ने श्रील प्रभपु ाद से तनवेदन तकया था तक वे अांग्रेजी
भाषा के माध्यम से वैतदक ज्ञान का प्रसार करें । आगामी वषों में श्रील प्रभपु ाद ने भगवद-् गीता पर एक टीका तलखी, गौड़ीय
मठ के कायण में सहयोग तदया तथा 1944 ई. में तबना तकसी की सहायता के एक अांग्रेजी पातक्षक पतरका आरम्भ की। उसका
सम्पादन, पाडडुतलतप का टांकण और मतु द्रत सामग्री के प्रफ ू शोधन का सारा कायण वे स्वयां करते थे। अब यह उनके तशष्यों
द्वारा चलाई जा रही है और तीस से अतधक भाषाओ ां में छप रही है।
श्रील प्रभपु ाद के दाशणतनक ज्ञान एवां भति की महत्ता पहचान कर गौड़ीय वैष्णव समाज ने 1947 ई. में उन्त्हें
भतिवेदान्त्त की उपातध से सम्मातनत तकया। 1950 ई. में श्रील प्रभपु ाद ने गृहस्थ जीवन से अवकाश लेकर वानप्रस्थ ले
तलया तजससे वे अपने अध्ययन और लेखन के तलए अतधक समय दे सकें । तदनन्त्तर श्रील प्रभपु ाद ने श्री वृन्त्दावन धाम की
यारा की, जहााँ वे अत्यन्त्त साधारण पररतस्थततयों में मध्यकालीन ऐततहातसक श्रीराधा-दामोदर मतन्त्दर में रहे। वहााँ वे अनेक
वषों तक गम्भीर अध्ययन एवां लेखन में सांलग्न रहे। 1959 ई. में उन्त्होंने सांन्त्यास ग्रहण कर तलया। श्रीराधादामोदर मतन्त्दर में
ही श्रील प्रभपु ाद ने अपने जीवन के सबसे श्रेष्ठ और महत्वपणू ण कायण को प्रारम्भ तकया था। यह कायण था अठारह हजार श्लोक
सांख्या वाले श्रीमद्भागवतम् परु ाण का अनेक खडडों में अांग्रेजी में अनवु ाद और व्याख्या। वहीं उन्त्होंने अन्त्य लोकों की सगु म
यारा नामक पतु स्तका भी तलखी थी।
श्रीमद्भागवतम् के प्रारम्भ के तीन खडड प्रकातशत करने के बाद श्रील प्रभपु ाद तसतम्बर 1965 ई. में अपने गरुु देव के
आदेश का पालन करने के तलए सांयि ु राज्य अमेररका गए। तत्पश्चात् श्रील प्रभपु ाद ने भारतवषण के श्रेष्ठ दाशणतनक और
धातमणक ग्रन्त्थों के प्रामातणक अनवु ाद, टीकाएाँ एवां सांतक्षप्त अध्ययन-सार के रूप में साठ से अतधक ग्रन्त्थ-रत्न प्रस्ततु तकए।

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कृ ष्णभावनामृत सवोत्तम योग-पद्धतत

जब श्रील प्रभपु ाद एक मालवाहक जलयान द्वारा प्रथम बार न्त्ययू ाकण नगर में आये तो उनके पास एक पैसा भी नहीं
था। अत्यन्त्त कतठनाई भरे लगभग एक वषण के बाद जल ु ाई 1966 ई. में उन्त्होंने, अन्त्तराणष्रीय कृ ष्णभावनामृत सघां की स्थापना
की। 14 नवम्बर 1977 ई. को, कृ ष्ण-बलराम मतन्त्दर, श्रीवृन्त्दावन धाम में अप्रकट होने के पवू ण श्रील प्रभपु ाद ने अपने कुशल
मागण-तनदेशन से सघां को तवश्वभर में सौ से अतधक आश्रमों, तवद्यालयों, मतन्त्दरों, सस्ां थाओ ां और कृ तष-समदु ायों का बृहद्
सगां ठन बना तदया।
श्रील प्रभपु ाद ने श्रीधाम-मायापरु , पतश्चम बांगाल में एक तवशाल अन्त्तराणष्रीय के न्त्द्र के तनमाणण की प्रेरणा दी। यहीं पर
वैतदक सातहत्य के अध्ययनाथण सतु नयोतजत सस्ां थान की योजना है, जो अगले दस वषण तक पणू ण हो जाएगा। इसी प्रकार
श्रीवृन्त्दावन धाम में भव्य कृ ष्ण-बलराम मतन्त्दर और अन्त्तराणष्रीय अतततथ भवन तथा श्रील प्रभपु ाद-स्मृतत सग्रां हालय का
तनमाणण हुआ है। ये वे के न्त्द्र हैं जहााँ पाश्चात्य लोग वैतदक सस्ां कृ तत के मल
ू रूप का प्रत्यक्ष अनभु व प्राप्त कर सकते हैं। मांबु ई में
भी श्रीराधारासतबहारीजी मतन्त्दर के रूप में एक तवशाल सास्ां कृ ततक एवां शैक्षतणक के न्त्द्र का तवकास हो चक ु ा है। इसके
अततररि भारत में तदल्ली, बैंगलोर, अहमदाबाद, बड़ौदा तथा अन्त्य स्थानों पर सन्त्ु दर मतन्त्दर हैं।
तकन्त्त,ु श्रील प्रभपु ाद का सबसे बड़ा योगदान उनके ग्रन्त्थ हैं। ये ग्रन्त्थ तवद्वानों द्वारा अपनी प्रामातणकता, गम्भीरता
और स्पष्ता के कारण अत्यन्त्त मान्त्य हैं और अनेक महातवद्यालयों में उच्चस्तरीय पाठ्यग्रन्त्थों के रूप में प्रयि ु होते हैं। श्रील
प्रभपु ाद की रचनाएाँ50 से अतधक भाषाओ ां में अनतू दत हैं। 1972 ई. में के वल श्रील प्रभपु ाद के ग्रन्त्थों के प्रकाशन के तलए
स्थातपत भततवेदान्त्त बक ु रस्ट, भारतीय धमण और दशणन के क्षेर में तवश्व का सबसे बड़ा प्रकाशक हो गया है। इस रस्ट का
एक अत्यतधक आकषणक प्रकाशन श्रील प्रभपु ाद द्वारा के वल अठारह मास में पणू ण की गई उनकी एक अतभनव कृ तत है जो
बगां ाली धातमणक महाग्रन्त्थ श्रीचैतन्त्यचररतामृत का सरह खडडों में अनवु ाद और टीका है।
बारह वषों में अपनी वृद्धावस्था की तचन्त्ता न करते हुए श्रील प्रभपु ाद ने तवश्व के छहों महाद्वीपों की चौदह पररिमाएाँ
कीं। इतने व्यस्त कायणिम के रहते हुए भी श्रील प्रभपु ाद की उवणरा लेखनी अतवरत चलती रहती थी। उनकी रचनाएाँ वैतदक
दशणन, धमण, सातहत्य और सांस्कृ तत के एक यथाथण पस्ु तकालय का तनमाणण करती हैं।

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