सूक्ष्म और स्थूल शरीर क्या होता है

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सूक्ष्म और स्थूल शरीर क्या होता है ?

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृ ति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का
नाम ‘कारण-शरीर’ है। स अब उस प्रकृ ति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम
‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कु र्ता (कपड़ा( पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का
कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कु र्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कु र्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर
हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। स्थूल शरीर है कु र्ता, सूक्ष्म शरीर है धागा, और कारण शरीर
है- रूई।

स जो संबंध कु र्ते, धागे और रूई में है, वो


ही संबंध इन तीनों शरीर में है। क्या रूई के
बिना धागा बन जायेगा, और क्या धागे के
बिना कु र्ता बनेगा? कारण शरीर के बिना
सूक्ष्म शरीर नहीं बनेगा। सूक्ष्म शरीर के
बिना स्थूल शरीर नहीं बनेगा। कहा हैः-
कारण शरीर प्रकृ ति सत्त्वरजसतमः। सत्त्व,
रज और तम से अठारह चीजें बनी। उसका
नाम है- सूक्ष्म शरीर।

स सृष्टि के आरंभ में जब भगवान ने ये


सारी दुनिया बनायी तो कारण शरीर प्रकृ ति से अठारह पदार्थ उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- बु(ि, अहंकार,
मन, पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा। इनका नाम सूक्ष्म शरीर है। ये सारे पदार्थ प्रकृ ति
से बनते हैं। रूप,रस, गंध आदि पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत बनते हैं। जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि,
आकाश, इन पाँच महाभूतों के नाम है। इन्हीं
पाँच पदार्थों का समुदाय ये स्थूल शरीर है। जो
आपको आँख से दिखता है, वो स्थूल रूप। तो
ये इन तीनों का संबंध है।
स जब तक जीवात्मा पुर्नजन्म धारण करेगा,
यानी एक शरीर छोड़ दिया, दूसरा शरीर धारण
कर लिया, तो स्थूल शरीर छू ट जायेगा। अतः
मृत्यु होने पर ये छू ट जायेगा। सूक्ष्म शरीर
और कारण शरीर, ये दोनों जीवात्मा के साथ
जुड़े रहेंगे। पुर्नजन्म हुआ फिर नया स्थूल
शरीर मिल गया, फिर अगला शरीर, फिर अगला। जब तक मुक्ति नहीं होगी तब तक सूक्ष्म शरीर और
कारण शरीर साथ रहेगा। जब मुक्ति हो जायेगी तब तीनों शरीर छू ट जायेंगे। धागा वही रहता है, कु र्ते
बदलते रहते हैं।
स सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर तब तक साथ रहेंगे, जब तक पुर्नजन्म होता रहेगा। जब मोक्ष हो जायेगा
तब तीनों दूर हो जायेंगे। अथवा मोक्ष नहीं हुआ और आ गई प्रलय तो प्रलय में तीनों शरीर छू ट जायेगा।
स्थूल शरीर तो वैसे ही थोड़े-थोड़े दिनों में छू टते रहता हैं। तब सूक्ष्म शरीर भी टू ट-फू ट कर नष्ट हो जायेगा
और कारण शरीर रूपी प्रकृ ति बचेगी। सूक्ष्म शरीर वापस टू ट-फू ट कर कारण शरीर के रूप में परिवर्तित हो
जायेगा। जैसे मिट्टी का हमने ढ़ेला लिया और उसकी ईंट पका ली और फिर ईंट तोड़कर वापस मिट्टी बना
दी, तो वापस ये मिट्टी बन गई यानि कारण शरीर बन गया। जीवात्मा प्रलय के समय तो अलग हो गया
पर मुक्ति नहीं मिली। फिर एक नयी सृष्टि बनेगी, तो उसके साथ जीवात्मा को ईश्वर फिर दोबारा जोड़
देगा। तब तक वह बंधन की स्थिति में है। जब तक मोक्ष न हो जाये अथवा प्रलय न हो जाये तब तक ये
दोनों शरीर आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे। मोक्ष में या प्रलय में ये छू ट जायेंगे। मोक्ष होने पर तो फिर हजारों
सृष्टियों तक ये तीनों शरीर फिर जुड़ते नहीं हैं।

स अब रही बात राग और द्वेष की। राग और द्वेष भी जीवात्मा की शक्ति है। राग और द्वेष दो प्रकार का
है :- एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक। जो स्वाभाविक राग-द्वेष है, वो जीवात्मा से नहीं छू टेगा। वो
मुक्ति में भी जीवात्मा में रहेगा। और स्वाभाविक राग-द्वेष में रहते-रहते मुक्ति हो जायेगी। इसमें कोई
आपत्ति नहीं है, कोई बाधा नहीं है। जो नैमित्तिक राग-द्वेष है, वो बाधक है। उसे हटाना पड़ेगा, मुक्ति में
वो छू ट जायेगा।

स स्वाभाविक राग-द्वेष क्या


है? और नैमित्तिक राग-द्वेष
क्या है? उत्तर है कि जीवात्मा
को हमेशा सुख चाहिये। यह
उसको सूक्ष्म राग है। ये
स्वाभाविक राग है। ये मुक्ति
में बाधक नहीं है। जीवात्मा
को दुःख कभी भी नहीं
चाहिये। दुःख में उसको
स्वाभाविक द्वेष है। ये भी मुक्ति में बाधक नहीं। ये स्वाभाविक राग और द्वेष रहेंगे, मुक्ति हो जायेगी।
कोई परवाह नहीं।

स अमुक व्यक्ति ने मेरी हानि कर दी, मैं उसकी गर्दन तोडूँगा, ये सोचना नैमित्तिक द्वेष है। खीर, पूड़ी,
लड्डू , हलुआ मुझे मिलना चाहिये, मुझे अधिक मिलना चाहिये, उसको कम, ये सोच नैमित्तिक राग है। ये
मुक्ति में बाधक है। ये हट जायेगा, फिर मुक्ति होगी। इसके रहते मुक्ति नहीं होगी। इसको छोड़ देंगे तो
मुक्ति हो जायेगी

क्या सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर एक ही है, इन दोनों को हम आंखों से देख सकते है और इनका कार्य क्या
है?

प्रश्न -

क्या सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर एक ही है, इन दोनों को हम आंखों से देख सकते है और इनका कार्य क्या
है?

क्या सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर एक ही है?

नहीं, कारण शरीर और सूक्षम शरीर अलग -अलग हैं। हालाँकि ये दोनों हमारे स्थूल शरीर के बनने की
प्रक्रिया का आधार हैं।

जैसे किसी चित्र को बनाने के क्रम में कागज़, पेंसिल उपयोग किया जाता है। फिर हल्के पेंसिल से कागज़
पर आकार दिया जाता है। इसके बाद कई रंगों को चित्र में भरने के बाद चित्र का स्वरूप प्रकट होता है।

उसी प्रकार हमारे शरीर (चित्र) को आकार प्राप्त करने के लिए जिम्मेदार “कारण शरीर” है। चित्र को आकार
देने वाली रेखाएं “सूक्ष्म शरीर” है और उन रेखाओं से निर्मित आकार में अनेक रंग (ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ)
भरने के बाद तैयार स्पष्ट दिखने वाला चित्र “स्थूल शरीर” है।

जिस प्रकार रेखाओं के माध्यम से तैयार आकार और स्पष्ट दिखने वाले चित्र में कोई अंतर नहीं होता।
किन्तु आकार के लिए जिम्मेदार रेखाएं चित्र में रंग भरने के बाद चित्र के पर्तों में समायोजित हो जाती हैं।
उसी प्रकार हमारे स्थूल शरीर के भीतरी पर्तों में कारण शरीर और सूक्षम शरीर समायोजित रहती हैं।

इसे योगियों द्वारा दिए गए उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है -

जिस प्रकार कपड़े को तैयार करने के क्रम में उपयोग की गयी कपास की रूई कच्चे माल के रूप में उपयोग
की जाती है। फिर रुई से सूत तैयार किया जाता है, जो कि कपड़े का सूक्षम रूप है और सूत से कपड़े को
आकार दिया जाता है, जो कि कपड़े का स्थूल रूप हैं।

उसी प्रकार शरीर की की तीन पर्तें हैं। पहला कारण शरीर, दूसरा सूक्षम शरीर और तीसरा स्थूल शरीर।

कारण शरीर और सूक्षम शरीर का कार्य क्या है?

कारण और सूक्ष्म शरीर जीव के साथ जन्म - जन्मांतर तक रहती हैं। के वल स्थूल शरीर ही कर्मों के हिसाब
-किताब को बराबर करने के लिए कर्मानुसार शरीर धारण और त्याग करने का कार्य करती है। सूक्षम शरीर
में स्थूल शरीर द्वारा किये गए सभी कर्मों का हिसाब - किताब का रिकॉर्ड सुरक्षित रहता है। किन्तु
अभिव्यक्ति के लिए कर्मेन्द्रियों का अभाव होने के कारण इसे स्थूल शरीर की आवश्यकता होती है।

ये बिल्कु ल फोटोग्राफी के माध्यम से चित्र तैयार करने जैसा है -

जिस प्रकार वस्तु से टकराकर लौटने वाली किरणे लेंस के जरिए कै मरे के अंदर नेगेटिव-फिल्म का निर्माण
करती हैं और वस्तु की तस्वीर बनती है। फिर इस नेगेटिव फिल्म से चित्र रासायनिक प्रक्रिया द्वारा तैयार
की जाती है।

यदि कै मरे द्वारा लिए गए चित्र का निगेटिव रूप आपके पास मुजूद हो, तो आप उसी चित्र के कई
फोटोकॉपी तैयार करवा सकते हैं।

चित्र बनने का कारण यहाँ प्रकाश की किरणे हैं। निगेटिव प्रति चित्र का सूक्षम शरीर है, जिसके माधयम से
चित्र के जितने चाहें प्रतियां (स्थूल शरीर) तैयार किया जा सकता है।

क्या कारण शरीर और सूक्षम शरीर को आँखों से देख सकते हैं ?

हाँ, कारण और सूक्षम शरीर को देखना संभव है। किन्तु इसे के वल यौगिक ध्यान की अवस्था में ही देखा
जा सकता है। इसे दृष्टा ही देख सकता है। देखने के बाद आप किसी दूसरे के सामने इसका प्रमाण प्रस्तुत
नहीं कर सकते हैं।

सूक्ष्म शरीर वो होता है जिसमे ज्ञानेंद्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि सब गुण होते है उसे ही सूक्ष्म शरीर
कहते है। ये आत्मा को सृष्टि के आरंभ मे प्राप्त होता है और सृष्टि के अंत तक रहता है। अगर इसी बीच
मे आत्मा उस सूक्ष्म शरीर से अलग हो जाए तो उसे मोक्ष कहते है। मै तुम्हे उदाहरण से समझाने का
प्रयास करता हू, तुम ईश्वर को सागर मान लो क्योंकि वो भी अनंत है और आत्माओ को उस समुद्र का
भाग।

जिस प्रकार एक घडे मे भरकर समुद्र का जल उससे अलग हो जाता ठीक उसी प्रकार हमारी जल रूपी
आत्मा भी समुद्र रूपी ईश्वर से घडे रूपी सूक्ष्म शरीर के कारण अलग हो गई है। बस हमारी आत्मा को इसी
घडे रूपी सूक्ष्म शरीर से मुक्त होकर समुद्र रूपी परमात्मा से मालना है। जो इतना विशाल औल अनंत है
जिसका अनुमान लगाना भी हमारे लिए संभव नही।

इसी सूक्ष्म शरीर से मुक्त होने के लिए हमे स्थूल शरीर मिलता है जिसमे मनुष्य शरीर श्रेष्ठ माना गया है
क्योंकि मनुष्य को अन्य प्राणियो से अधिक समझ एवं सूझबूझ होती है। मनुष्य को अपने जन्म मे इसी
सूक्ष्म शरीर के पार जाकर अपना साक्षात्कार अर्थात अपनी आत्मा का दर्शन करना होता है। जैसे ही हमे
हमारा साक्षात्कार हो जाता है उसी क्षण हमे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मूल रूप से तीन शरीर होते हैं

स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।

स्थूल शरीर या हमारा भौतिक शरीर, स्थूल शरीर को विकसित होने में हज़ारों साल का समय लगता है, जैसे
हमे कपि मानव से मानव बनने में लगा।

उसी प्रकार कारण शरीर या आत्मा जो कि अपने आप में पूर्ण है उसे विकसित होने की आवश्यकता नहीं है।

इस दोनों के बीच की कड़ी है सूक्ष्म शरीर, जिसको विकसित करना सम्भव है और आवश्यक भी तभी हम
कारण शरीर या आत्मा को अनुभव करसकते हैं।

सूक्ष्म शरीर के चार मुख्य घटक होते हैं

चित्त, बुद्धि, मनस और अहंकार

हमें इनको विकसित और परिष्कृ त करने की आवश्यकता है।

चित्त - चेतना से दिव्य चेतना में

बुद्धि - बौद्धिकता से ज्ञान में

मनस - सोचने या विचारों से और महसूस करने और अनुभव में

अहंकार - अहंम से प्रेम में विकसित करना है।

सात प्रकार के शरीरों की संरचना एवम् विकास

1. स्थूल शरीर: एक बच्चे के जन्म लेने के


बाद 7 वर्षों तक स्थूल शरीर अथवा भौतिक
शरीर का निर्माण और विकास होता है। इन
साथ वर्षों में भौतिक शरीर का पूर्ण रूप से
विकसित होना आवश्यक है। पशुओं के पास
सिर्फ भौतिक शरीर ही होता है। इन प्रथम सात
वर्षों में मनुष्य और पशुओं में कोई विशेष अंतर
नही पायी जाती है। बहुत से लोग ऐसे भी होते
हैं जिनका सिर्फ भौतिक शरीर ही निर्मित हो
पाता है और आगे के शरीरों का कोई विकास
नही हो पाता है। ऐसे लोग पशुवत जीवन ही
जीकर मरजाते हैं।भौतिक शरीर में रहने वालों
में नकल करने की आदत होती है। उस समय तक बुद्धि का विकास नही हो पाता है। इसलिए पहले सात
वर्षों तक बच्चों में अनुकरण अथवा नकल करने की प्रवृत्ति प्रधान रूप से बनी रहती है।

2. आकाश शरीर: दूसरे सात वर्षों में आकाश शरीर अथवा भाव शरीर का विकास होने लगता है। व्यक्ति में
भावनाओं का जन्म होता है। उसमे प्रेम और आत्मीयता की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। अब व्यक्ति
अपने तक सीमित नही रहता है। वह दूसरों से भी अपने संबंधों का ताना बाना बुनने लगता है। विकास का
यह चरण व्यक्ति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसीके कारण वह पशुओं से कु छ ऊपर उठ पाता
है। उसमे मनुष्य होने की गरिमा आने लगती है। चौदह वर्ष तक पहुँचते पहुँचते सेक्स की भावना भी प्रगाढ़
होने लगती है। बहुत से लोग होते हैं जो चौदह वर्ष के ही होकर रह जाते हैं। उनमे आगे का विकास नही हो
पाता है।

3. सूक्ष्म शरीर: तीसरे शरीर में विचार बुद्धि और तर्क की क्षमता विकसित होने लगती है। यह शरीर 14-21
वर्ष तक विकसित होजाता है। इस अवधी में शिक्षा, सभ्यता और संस्कृ ति विकसित हो जाती है। बौद्धिक
चिंतन एवम् विचार इस शरीर के प्रमुख आयाम हैं।

4. मनस शरीर: विचार-जगत से भाव-जगत व मनस-जगत अधिक गहरा होता है। मन की प्रधानता के
कारण ही व्यक्ति मनुष्य कहलाता है। इस शरीर में चित्रकारिता, काव्य, साहित्य, संगीत आदि कलात्मक
भावों की प्रधानता होने लगती है। सम्मोहन, टेलीपैथी, दूरदर्शिता ये सब चौथे शरीर की संभावनाएं हैं।
यद्यपि इस शरीर में धोखे और खतरों की संभावना बहुत अधिक होती है, फिर भी इसका पूरी तरह से
विकसित होना जरुरी होता है।

कु ण्डलिनी जागरण चौथे शरीर की घटना है। इसे हम psychique body भी कह सकते हैं। चौथे शरीर में
मनुष्य को कल्पनायें घेरने लगती है, जो उसे एक प्रकार से जानवरों से श्रेष्ठ बना देती है। मनुष्य की तरह
जानवर कल्पना करने में असमर्थ होते हैं। कल्पना का मार्ग प्रमाणिक भी हो सकता है और मिथ्या भी हो
सकता है। चौथा शरीर 28 वर्ष तक विकसित होता है, लेकिन कम लोग ही इसे विकसित कर पाते हैं।

5. आत्म शरीर: यह शरीर बहुत ही महत्व का होता है। इसे अध्यात्म शरीर, spiritual body भी कहते हैं।
अगर जीवन का विकास ठीक ढंग से होता रहे, तो यह 35 वर्ष की उम्र तक विकसित हो जाता है। परंतु यह
दूर की बात तो है ही, क्योंकि अधिकांश लोगों में चौथा शरीर ही विकसित नही हो पाता है। चौथे शरीर में
कु ण्डलिनी शक्ति जगे, तो ही पाँचवे शरीर में प्रवेश हो सकता है अन्यथा नहीं। पांचवे शरीर तक पहुँच जाने
वाले लोगो को ही हम सही मायने में आत्मावादि कह सकते हैं। इस शरीर में आकर ही आत्मा हमारे लिए
के वल एक शब्द मात्र ही नही वरन् एक अनुभव बनती है। भिन्न भिन्न प्रकार की सिद्धियाँ/ दिव्य शक्तियाँ
प्राप्त होती है। यहाँ पर एक खतरा यह भी है की पांचवे शरीर पर पहुँच कर आत्मा के स्तित्व का अनुभव
तो होता है परंतु परमात्मा अभी भी प्रतीति से दूर रहता है। सिद्धियाँ प्राप्त होने पर अहंकार होने का खतरा
रहता है। ऐसा व्यक्ति आत्मा को ही परम स्थिति मान बैठता है। कई योगी इस चरण में ही योग भ्रस्ट हो
जाते है और आगे की साधना नही कर पाते हैं।

6. ब्रह्म शरीर: छठा शरीर ब्रह्म शरीर कहलाता है। इसे cosmic body भी कहते हैं। ऐसा व्यक्ति जो
आत्मा को पाँचवे शरीर में उपलब्ध करले तथा उसको पुनः खोने को भी राजी हो, के वल वही छठे शरीर में
प्रवेश कर सकता है। वह 42 वर्ष की उम्र तक विकसित हो जाना चाहिए।
7. निर्वाण शरीर: सांतवा शरीर 49 वर्ष तक विकसित हो जाना चाहिए। सातवां शरीर ही निर्वाण शरीर
कहलाता है। वास्तव में यह कोई शरीर नही है, बल्कि देह शून्यता (bodylessness) की स्थिति है। वहां पर
शरीर जैसी कोई स्थिति नहीं रहती है। शून्य ही शेष बचता है शेष सब समाप्त हो जाता है या अन्य शब्दों
में निर्वाण हो जाता है, जैसे दिए का बुझना। यहाँ मैं-तू दोनों नही होते। यहाँ परम शून्य है निर्वाण है।

इस प्रकार उपरोक्त सातों शरीरों की स्थितियां है। दूसरे और तीसरे शरीर पर रुकने वालों के लिए जन्म,
मृत्यु और जीवन ही सब कु छ है। चौथे शरीर का अनुभव स्वर्ग-नर्क का है। मोक्ष पांचवे शरीर की अवस्था
का अनुभव है। छठे शरीर में पहुंचने पर मोक्ष के भी पार ब्रह्म की सम्भावना है। वहां न कोई मुक्त है और
न अमुक्त। 'अहम् ब्रह्मास्मि ' (मैं ही ब्रह्म हूँ) की घोषणा छठे शरीर की सम्भावना है, लेकिन अभी एक
कदम और बाकी है और वह है की जहाँ न अहम्, न ब्रह्म। जहाँ मैं-तू दोनों नही, परम शून्य। परम निर्वाण
की स्थिति है- यही सातवें शरीर की स्थिति है।

स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर कै से अलग होता है?

स्थुल शरीर यानी इंद्रिय शरीर! जो दिखाई देता है वह स्थुल और सुक्ष्म शरीर वह है जिसके कारण स्थुल
सक्रिय हैं। स्थुल शरीर को हम देख सकते हैं लेकिन सुक्ष्म सर्वसाधारण लोगों को नहीं दिखाई देता। इसके
लिए ज्ञानचक्षु, तिसरी आंख चाहिए जो आत्मज्ञानियों के पास होती है। सुक्ष्म को हम जान सकते हैं, महसूस
कर सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं पर देख नहीं सकते।

स्थुल सुक्ष्म और कारण ऐसे मनुष्य के तीन शरीर होते हैं। इसके और भी रहस्य है पर हम संक्षिप्त में
समझेंगे। इन तीनों शरीरों में हम सुक्ष्म और कारण शरीर को नहीं देख सकते। मनुष्य का स्थुल शरीर चल
फिर बोल रहा है, सक्रिय हैं, कार्यों को कर रहा है मतलब वह सुक्ष्म शरीर और कारण शरीर से जुड़ा हुआ है।

स्थुल शरीर के अंदर ही सुक्ष्म शरीर रहता है, स्थुल शरीर सुक्ष्म शरीर के रहने का घर है ऐसा भी हम कह
सकते हैं।

शिव और शक्ति के जैसे यह स्थूल और सूक्ष्म दोनों एकसाथ रहते हैं। दोनों भी एक-दूसरे से अधुरे है, जैसे
बिजली और पंखा। बिजली नहीं तो पंखा काम नहीं करेगा। पंखा दिखाता है, बिजली नहीं दिखती लेकिन पंखे
के अंदर बिजली काम कर रही होती हैं, पंखा जड़ है जैसे कि यह स्थुल शरीर।

ठीक इसी तरह से सुक्ष्म शरीर और स्थुल शरीर दोनों एक नहीं, दोनों एक-दूसरे से अलग है। अलग-अलग
होकर भी दोनों एक-दूसरे के साथ रहते हैं, दोनों मिलकर कार्य करते हैं, दोनों भी एक-दूसरे के पुरक है, एक-
दूसरे से अधुरे है।

गीता में भगवान ने इस स्थुल शरीर को रथ कहा है, यह के वल रथ है, इसे चलाने वाला सारथी जो है वह
सुक्ष्म शरीर है। स्थुल में जो चेतनता है वह सुक्ष्म के कारण ही है।

इस सुक्ष्म को इलेक्ट्रिक बॉडी या तेजस शरीर भी कहते हैं। यह उर्जा है, यह तेज़ है, यह चेतनता है।
इलेक्ट्रिसिटी जैसे उपकरणों को चलातीं है ठीक वैसे ही यह स्थुल शरीर को चलाता है। यह सब में है पर सब
से अलग है। स्थुल शरीर मरता है पर यह सुक्ष्म शरीर नहीं मरता।

जैसे हम कही भी जाते हैं तो हमारी श्वास और आकाश दोनों हमारे साथ होते हैं, वैसे ही चिदाकाश
परमात्मा और यह सुक्ष्म शरीर हमारे साथ होता है।
स्थुल शरीर व्यायाम से, उचित आहार से स्वस्थ और बलवान होता है और सुक्ष्म शरीर ध्यान-योग ज्ञानयोग
से, परमात्मा के चिंतन मनन से, मेडिटेशन से, सत्संग सुमिरन से, सेवा से स्वस्थ होता है।

आत्मयोग में रहने वाले योगी, आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष स्थुल और सुक्ष्म शरीर को जीवन रहते ही अलग
कर सकते हैं। परकाया प्रवेश या आज के जमाने में astral travel के बारे में हम जो सुनते हैं वह यही
विधि है, यह astral travel जड़ और सुक्ष्म को कु छ समय के लिए अलग करने कि विधि है। इसमें कु छ
समय के लिए जड़ शरीर एक जगह पड़ा रहता है और सुक्ष्म शरीर जड़ से बाहर निकलकर यात्रा करके कु छ
समय बाद अपने घर में मतलब जड़ शरीर में वापिस आता है।

सूक्ष्म शरीर, जीव,और आत्मा में क्या अंतर है, इनका क्या कार्य है?

शास्त्रों में हम पंच कोषों की बात करते हैं, या हमने सुनें है, उसमें से स्थूल शरीर अन्नमय कोष हैं। पंच
महा भूतों से निर्मित इस स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहते हैं। और आत्मा + मन और बुद्धि + और यह
अन्नमय कोष यानी यह स्थूल शरीर = मनुष्य। इन सबका संयुक्त मिश्रण मनुष्य है।

मनुष्य के स्थूल शरीर के पिछे कार्य करने वाला एक सुक्ष्म शरीर होता है, जो स्थूल शरीर का कारण है।

यह सुक्ष्म शरीर दस इंद्रियां, मन, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अज्ञान, काम और कर्मों से बनता है। इसलिए
इसे कर्म शरीर या कारण शरीर भी कहते हैं। स्थूल शरीर के वल इस सुक्ष्म शरीर के इच्छाओं का अनुभव
करने का साधन है। और यह स्थूल शरीर ही सुक्ष्म शरीर के पिछे के साक्षी चेतन को जानने का भी साधन
है।

स्थूल शरीर का कारण, उसके पिछे सुक्ष्म शरीर हैं और इस सुक्ष्म शरीर के पिछे आत्मा साक्षी रुप में
विद्यमान है।

हम इसे ऐसा समझते हैं। आत्मा रुपी चेतन शक्ति ( एक पावरहाउस)

सुक्ष्म शरीर ( बिजली का कनेक्शन, मीटर)

मन (बटन या बोर्ड) और

स्थूल शरीर ( पंखा या कोई बिजली पर चलने वाला एक उपकरण)

पंखा रुपी, या उपकरण रुपी मनुष्य शरीर मन रुपी बटन से चलता है, लेकिन उसके पिछे उसका कारण
सुक्ष्म शरीर होता है और चेतन साक्षी आत्मा इन दोनों का साक्षी होता हैं। सुक्ष्म शरीर में ऐसे बहुत से बीज
होते हैं जो वह स्थूल शरीर के माध्यम से अनुभव करता है। वह उन बीजों का स्वाद, सुख दुःख अनुभव
करता है।

सुक्ष्म शरीर स्थूल शरीर और चेतना दोनों को जोड़ने की कड़ी है। जब यह चेतन साक्षी से जुड़ता है तो मोक्ष
में जाता है और जब यह चेतन साक्षी से हटकर अन्य चीजों से एकरुप होता है तो बंधन में पड़ता है। इसी
के कारण जन्म और मृत्यु है। यही अपने अनुभव के लिए शरीर की निर्मिती करता है और इसका स्थूल
शरीर बनता और मरता रहता है।
स्थूल शरीर की मृत्यु होती है लेकिन सुक्ष्म शरीर तब-तब जीवित रहता है जब-तक उसके भीतर के बीज
नष्ट नहीं होते। जब-तक वह उस बीजों के कारण को, अपने पीछे के चेतन साक्षी को नहीं जानता, और
उससे एकरूप नहीं होता।

यह सुक्ष्म शरीर जब अपनी निर्विचार निर्विकार शुन्य चेतन साक्षी ऊं ची अवस्था को, अपने चेतन साक्षी को
जान जाता है तो उसी निर्विचार निर्विकार चेतन शुन्य अवस्था में उसका विलय हो जाता है। तब वह नष्ट
होता है, यही उसका मोक्ष है।

स्थूल शरीर इस सुक्ष्म शरीर का साधन है, स्थूल शरीर कठपुतली की तरह कार्य करता है।

सुक्ष्म शरीर की मृत्यु, और उसका चेतन-साक्षी में विलय होना ही मोक्ष है, स्थूल शरीर तो माटी है, अन्न है
उसका तो मोक्ष होना ही है, उसका तो माटी में मिलना ही है। असली मोक्ष सुक्ष्म शरीर का होता है।

इसे जबरदस्ती साधना में लगाना पड़ता है। इसके भीतर के बीजों और संस्कारों के कारण यह लगता नहीं
है। और गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान साधना से जैसे जैसे यह सुक्ष्म शरीर शुद्ध होता जाता है, इसका मन
रुपी बटन निर्विचार निर्विकार स्थिर होता है। शुन्यता में टिकता है। तब उसे अपने भीतरी चेतन-साक्षी का
अहसास अनुभव होता है। दोनों मिल जाते हैं, बाहर से देह होती है, लेकिन भीतर से विदेह चेतन-साक्षी
अवस्था हों जातीं हैं। यह मुक्त अवस्था है।

अपने इस भौतिक शरीर के तीन रूप है,प्रथम जिसे हम देख पाते है,उसे स्थूल शरीर कहते है,और जब इस
शरीर की मृत्यु हो जाती है,तब सूक्ष्म शरीर रह जाता है जिसे के वल वही व्यक्ति देख सकता है जिसकी
चेतना सहस्त्रार तक पहुँच गयी हो,या कभी शक्तिपात लिया हो,सूक्ष्म को हम इन स्थूल आंखों से नही देख
सकते,और कारण शरीर सूक्ष्म शरीर के अंदर होता है,जो पुराने जन्मों के संचित कर्मो को लेकर चलता है ।
हम के वल स्थूल शरीर को ही देख सकते है,जबकि कारण और सूक्ष्म शरीर को हम अपनी आध्यात्मिक
चेतना को जाग्रत करके देख सकते है ।।

पुनर्जन्म से सम्बंधित चालीस प्रश्नों को उत्तर सहित पढ़े?

(1) प्रश्न :- पुनर्जन्म किसको कहते हैं ?

उत्तर :- जब जीवात्मा एक शरीर का त्याग करके किसी दूसरे शरीर में जाती है तो इस बार बार जन्म लेने
की क्रिया को पुनर्जन्म कहते हैं ।

(2) प्रश्न :- पुनर्जन्म क्यों होता है ?

उत्तर :- जब एक जन्म के अच्छे बुरे कर्मों के फल अधुरे रह जाते हैं तो उनको भोगने के लिए दूसरे जन्म
आवश्यक हैं ।

(3) प्रश्न :- अच्छे बुरे कर्मों का फल एक ही जन्म में क्यों नहीं मिल जाता ? एक में ही सब निपट जाये
तो कितना अच्छा हो ?
उत्तर :- नहीं जब एक जन्म में कर्मों का फल शेष रह जाए तो उसे भोगने के लिए दूसरे जन्म अपेक्षित
होते हैं ।

(4) प्रश्न :- पुनर्जन्म को कै से समझा जा सकता है ?

उत्तर :- पुनर्जन्म को समझने के लिए जीवन और मृत्यु को समझना आवश्यक है । और जीवन मृत्यु को
समझने के लिए शरीर को समझना आवश्यक है ।

(5) प्रश्न :- शरीर के बारे में समझाएँ ?

उत्तर :- हमारे शरीर को निर्माण प्रकृ ति से हुआ है ।


जिसमें मूल प्रकृ ति ( सत्व रजस और तमस ) से प्रथम बुद्धि तत्व का निर्माण हुआ है ।
बुद्धि से अहंकार ( बुद्धि का आभामण्डल ) ।
अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ( चक्षु, जिह्वा, नासिका, त्वचा, श्रोत्र ), मन ।
पांच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) ।

शरीर की रचना को दो भागों में बाँटा जाता है ( सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर ) ।

(6) प्रश्न :- सूक्ष्म शरीर किसको बोलते हैं ?

उत्तर :- सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ । ये सूक्ष्म शरीर आत्मा को सृष्टि के आरम्भ में
जो मिलता है वही एक ही सूक्ष्म शरीर सृष्टि के अंत तक उस आत्मा के साथ पूरे एक सृष्टि काल (
४३२००००००० वर्ष ) तक चलता है । और यदि बीच में ही किसी जन्म में कहीं आत्मा का मोक्ष हो जाए तो
ये सूक्ष्म शरीर भी प्रकृ ति में वहीं लीन हो जायेगा ।

(7) प्रश्न :- स्थूल शरीर किसको कहते हैं ?

उत्तर :- पंच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) , ये समस्त पंचभौतिक बाहरी शरीर ।

( प्रश्न :- जन्म क्या होता है ?

उत्तर :- जीवात्मा का अपने करणों ( सूक्ष्म शरीर ) के साथ किसी पंचभौतिक शरीर में आ जाना ही जन्म
कहलाता है ।

(9) प्रश्न :- मृत्यु क्या होती है ?

उत्तर :- जब जीवात्मा का अपने पंचभौतिक स्थूल शरीर से वियोग हो जाता है, तो उसे ही मृत्यु कहा जाता
है । परन्तु मृत्यु के वल सथूल शरीर की होती है , सूक्ष्म शरीर की नहीं । सूक्ष्म शरीर भी छू ट गया तो वह
मोक्ष कहलाएगा मृत्यु नहीं । मृत्यु के वल शरीर बदलने की प्रक्रिया है, जैसे मनुष्य कपड़े बदलता है । वैसे
ही आत्मा शरीर भी बदलता है ।

(10) प्रश्न :- मृत्यु होती ही क्यों है ?

उत्तर :- जैसे किसी एक वस्तु का निरन्तर प्रयोग करते रहने से उस वस्तु का सामर्थ्य घट जाता है, और
उस वस्तु को बदलना आवश्यक हो जाता है, ठीक वैसे ही एक शरीर का सामर्थ्य भी घट जाता है और
इन्द्रियाँ निर्बल हो जाती हैं । जिस कारण उस शरीर को बदलने की प्रक्रिया का नाम ही मृत्यु है ।

(11) प्रश्न :- मृत्यु न होती तो क्या होता ?

उत्तर :- तो बहुत अव्यवस्था होती । पृथ्वी की जनसंख्या बहुत बढ़ जाती । और यहाँ पैर धरने का भी
स्थान न होता ।

(12) प्रश्न :- क्या मृत्यु होना बुरी बात है ?

उत्तर :- नहीं, मृत्यु होना कोई बुरी बात नहीं ये तो एक प्रक्रिया है शरीर परिवर्तन की ।

(13) प्रश्न :- यदि मृत्यु होना बुरी बात नहीं है तो लोग इससे इतना डरते क्यों हैं ?

उत्तर :- क्योंकि उनको मृत्यु के वैज्ञानिक स्वरूप की जानकारी नहीं है । वे अज्ञानी हैं । वे समझते हैं कि
मृत्यु के समय बहुत कष्ट होता है । उन्होंने वेद, उपनिषद, या दर्शन को कभी पढ़ा नहीं वे ही अंधकार में
पड़ते हैं और मृत्यु से पहले कई बार मरते हैं ।

(14) प्रश्न :- तो मृत्यु के समय कै सा लगता है ? थोड़ा सा तो बतायें ?

उत्तर :- जब आप बिस्तर में लेटे लेटे नींद में जाने लगते हैं तो आपको कै सा लगता है ?? ठीक वैसा ही
मृत्यु की अवस्था में जाने में लगता है उसके बाद कु छ अनुभव नहीं होता । जब आपकी मृत्यु किसी हादसे
से होती है तो उस समय आमको मूर्छा आने लगती है, आप ज्ञान शून्य होने लगते हैं जिससे की आपको
कोई पीड़ा न हो । तो यही ईश्वर की सबसे बड़ी कृ पा है कि मृत्यु के समय मनुष्य ज्ञान शून्य होने लगता
है और सुषुुप्तावस्था में जाने लगता है ।

(15) प्रश्न :- मृत्यु के डर को दूर करने के लिए क्या करें ?

उत्तर :- जब आप वैदिक आर्ष ग्रन्थ ( उपनिषद, दर्शन आदि ) का गम्भीरता से अध्ययन करके
जीवन,मृत्यु, शरीर, आदि के विज्ञान को जानेंगे तो आपके अन्दर का, मृत्यु के प्रति भय मिटता चला
जायेगा और दूसरा ये की योग मार्ग पर चलें तो स्वंय ही आपका अज्ञान कमतर होता जायेगा और मृत्यु
भय दूर हो जायेगा । आप निडर हो जायेंगे । जैसे हमारे बलिदानियों की गाथायें आपने सुनी होंगी जो राष्ट्र
की रक्षा के लिये बलिदान हो गये । तो आपको क्या लगता है कि क्या वो ऐसे ही एक दिन में बलिदान देने
को तैय्यार हो गये थे ? नहीं उन्होने भी योगदर्शन, गीता, साँख्य, उपनिषद, वेद आदि पढ़कर ही निर्भयता
को प्राप्त किया था । योग मार्ग को जीया था, अज्ञानता का नाश किया था ।

महाभारत के युद्ध में भी जब अर्जुन भीष्म, द्रोणादिकों की मृत्यु के भय से युद्ध की मंशा को त्याग बैठा था
तो योगेश्वर कृ ष्ण ने भी तो अर्जुन को इसी सांख्य, योग, निष्काम कर्मों के सिद्धान्त के माध्यम से जीवन
मृत्यु का ही तो रहस्य समझाया था और यह बताया कि शरीर तो मरणधर्मा है ही तो उसी शरीर विज्ञान को
जानकर ही अर्जुन भयमुक्त हुआ । तो इसी कारण तो वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वाल मनुष्य ही
राष्ट्र के लिए अपना शीश कटा सकता है, वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता , प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु को
आलिंगन करता है ।

(16) प्रश्न :- किन किन कारणों से पुनर्जन्म होता है ?

उत्तर :- आत्मा का स्वभाव है कर्म करना, किसी भी क्षण आत्मा कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता । वे
कर्म अच्छे करे या फिर बुरे, ये उसपर निर्भर है, पर कर्म करेगा अवश्य । तो ये कर्मों के कारण ही आत्मा
का पुनर्जन्म होता है । पुनर्जन्म के लिए आत्मा सर्वथा ईश्वराधीन है ।

(17) प्रश्न :- पुनर्जन्म कब कब नहीं होता ?

उत्तर :- जब आत्मा का मोक्ष हो जाता है तब पुनर्जन्म नहीं होता है ।

(18) प्रश्न :- मोक्ष होने पर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ?

उत्तर :- क्योंकि मोक्ष होने पर स्थूल शरीर तो पंचतत्वों में लीन हो ही जाता है, पर सूक्ष्म शरीर जो आत्मा
के सबसे निकट होता है, वह भी अपने मूल कारण प्रकृ ति में लीन हो जाता है ।

(19) प्रश्न :- मोक्ष के बाद क्या कभी भी आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता ?

उत्तर :- मोक्ष की अवधि तक आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । उसके बाद होता है ।

(20) प्रश्न :- लेकिन मोक्ष तो सदा के लिए होता है, तो फिर मोक्ष की एक निश्चित अवधि कै से हो सकती
है ?

उत्तर :- सीमित कर्मों का कभी असीमित फल नहीं होता । यौगिक दिव्य कर्मों का फल हमें ईश्वरीय
आनन्द के रूप में मिलता है, और जब ये मोक्ष की अवधि समाप्त होती है तो दुबारा से ये आत्मा शरीर
धारण करती है ।

(21) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि कब तक होती है ?

उत्तर :- मोक्ष का समय ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष है, जब तक आत्मा मुक्त अवस्था में रहती है ।

(22) प्रश्न :- मोक्ष की अवस्था में स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है या नहीं ?

उत्तर :- नहीं मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाता रहता है और ईश्वर के आनन्द में
रहता है, बिलकु ल ठीक वैसे ही जैसे कि मछली पूरे समुद्र में रहती है । और जीव को किसी भी शरीर की
आवश्यक्ता ही नहीं होती।

(23) प्रश्न :- मोक्ष के बाद आत्मा को शरीर कै से प्राप्त होता है ?

उत्तर :- सबसे पहला तो आत्मा को कल्प के आरम्भ ( सृष्टि आरम्भ ) में सूक्ष्म शरीर मिलता है फिर
ईश्वरीय मार्ग और औषधियों की सहायता से प्रथम रूप में अमैथुनी जीव शरीर मिलता है, वो शरीर सर्वश्रेष्ठ
मनुष्य या विद्वान का होता है जो कि मोक्ष रूपी पुण्य को भोगने के बाद आत्मा को मिला है । जैसे इस
वाली सृष्टि के आरम्भ में चारों ऋषि विद्वान ( वायु , आदित्य, अग्नि , अंगिरा ) को मिला जिनको वेद के
ज्ञान से ईश्वर ने अलंकारित किया । क्योंकि ये ही वो पुण्य आत्मायें थीं जो मोक्ष की अवधि पूरी करके
आई थीं ।

(24) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि पूरी करके आत्मा को मनुष्य शरीर ही मिलता है या जानवर का ?

उत्तर :- मनुष्य शरीर ही मिलता है ।

(25) प्रश्न :- क्यों के वल मनुष्य का ही शरीर क्यों मिलता है ? जानवर का क्यों नहीं ?

उत्तर :- क्योंकि मोक्ष को भोगने के बाद पुण्य कर्मों को तो भोग लिया , और इस मोक्ष की अवधि में पाप
कोई किया ही नहीं तो फिर जानवर बनना सम्भव ही नहीं , तो रहा के वल मनुष्य जन्म जो कि कर्म शून्य
आत्मा को मिल जाता है ।

(26) प्रश्न :- मोक्ष होने से पुनर्जन्म क्यों बन्द हो जाता है ?

उत्तर :- क्योंकि योगाभ्यास आदि साधनों से जितने भी पूर्व कर्म होते हैं ( अच्छे या बुरे ) वे सब कट जाते
हैं । तो ये कर्म ही तो पुनर्जन्म का कारण हैं, कर्म ही न रहे तो पुनर्जन्म क्यों होगा ??

(27) प्रश्न :- पुनर्जन्म से छू टने का उपाय क्या है ?


उत्तर :- पुनर्जन्म से छू टने का उपाय है योग मार्ग से मुक्ति या मोक्ष का प्राप्त करना ।

(28) प्रश्न :- पुनर्जन्म में शरीर किस आधार पर मिलता है ?

उत्तर :- जिस प्रकार के कर्म आपने एक जन्म में किए हैं उन कर्मों के आधार पर ही आपको पुनर्जन्म में
शरीर मिलेगा ।

(29) प्रश्न :- कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?

उत्तर :- मुख्य रूप से कर्मों को तीन भागों में बाँटा गया है :- सात्विक कर्म , राजसिक कर्म , तामसिक
कर्म ।

(१) सात्विक कर्म :- सत्यभाषण, विद्याध्ययन, परोपकार, दान, दया, सेवा आदि ।

(२) राजसिक कर्म :- मिथ्याभाषण, क्रीडा, स्वाद लोलुपता, स्त्रीआकर्षण, चलचित्र आदि ।

(३) तामसिक कर्म :- चोरी, जारी, जूआ, ठग्गी, लूट मार, अधिकार हनन आदि ।

और जो कर्म इन तीनों से बाहर हैं वे दिव्य कर्म कलाते हैं, जो कि ऋषियों और योगियों द्वारा किए जाते हैं
। इसी कारण उनको हम तीनों गुणों से परे मानते हैं । जो कि ईश्वर के निकट होते हैं और दिव्य कर्म ही
करते हैं ।

(30) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से मनुष्य योनि प्राप्त होती है ?

उत्तर :- सात्विक और राजसिक कर्मों के मिलेजुले प्रभाव से मानव देह मिलती है , यदि सात्विक कर्म बहुत
कम है और राजसिक अधिक तो मानव शरीर तो प्राप्त होगा परन्तु किसी नीच कु ल में , यदि सात्विक
गुणों का अनुपात बढ़ता जाएगा तो मानव कु ल उच्च ही होता जायेगा । जिसने अत्यधिक सात्विक कर्म किए
होंगे वो विद्वान मनुष्य के घर ही जन्म लेगा ।

(31) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से आत्मा जीव जन्तुओं के शरीर को प्राप्त होता है ?

उत्तर :- तामसिक और राजसिक कर्मों के फलरूप जानवर शरीर आत्मा को मिलता है । जितना तामसिक
कर्म अधिक किए होंगे उतनी ही नीच योनि उस आत्मा को प्राप्त होती चली जाती है । जैसे लड़ाई स्वभाव
वाले , माँस खाने वाले को कु त्ता, गीदड़, सिंह, सियार आदि का शरीर मिल सकता है , और घोर तामसिक
कर्म किए हुए को साँप, नेवला, बिच्छू , कीड़ा, काकरोच, छिपकली आदि । तो ऐसे ही कर्मों से नीच शरीर
मिलते हैं और ये जानवरों के शरीर आत्मा की भोग योनियाँ हैं ।
(32) प्रश्न :- तो क्या हमें यह पता लग सकता है कि हम पिछले जन्म में क्या थे ? या आगे क्या होंगे ?

उत्तर :- नहीं कभी नहीं, सामान्य मनुष्य को यह पता नहीं लग सकता । क्योंकि यह के वल ईश्वर का ही
अधिकार है कि हमें हमारे कर्मों के आधार पर शरीर दे । वही सब जानता है ।

(33) प्रश्न :- तो फिर यह किसको पता चल सकता है ?

उत्तर :- के वल एक सिद्ध योगी ही यह जान सकता है , योगाभ्यास से उसकी बुद्धि । अत्यन्त तीव्र हो चुकी
होती है कि वह ब्रह्माण्ड एवं प्रकृ ति के महत्वपूर्ण रहस्य़ अपनी योगज शक्ति से जान सकता है । उस योगी
को बाह्य इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती है
वह अन्तः मन और बुद्धि से सब जान लेता है । उसके सामने भूत और भविष्य दोनों सामने आ खड़े होते हैं

(34) प्रश्न :- यह बतायें की योगी यह सब कै से जान लेता है ?

उत्तर :- अभी यह लेख पुनर्जन्म पर है, यहीं से प्रश्न उत्तर का ये क्रम चला देंगे तो लेख का बहुत ही
विस्तार हो जायेगा । इसीलिये हम अगले लेख में यह विषय विस्तार से समझायेंगे कि योगी कै से अपनी
विकसित शक्तियों से सब कु छ जान लेता है ? और वे शक्तियाँ कौन सी हैं ? कै से प्राप्त होती हैं ? इसके
लिए अगले लेख की प्रतीक्षा करें...

(35) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म के कोई प्रमाण हैं ?

उत्तर :- हाँ हैं, जब किसी छोटे बच्चे को देखो तो वह अपनी माता के स्तन से सीधा ही दूध पीने लगता है
जो कि उसको बिना सिखाए आ जाता है क्योंकि ये उसका अनुभव पिछले जन्म में दूध पीने का रहा है,
वर्ना बिना किसी कारण के ऐसा हो नहीं सकता । दूसरा यह कि कभी आप उसको कमरे में अके ला लेटा दो
तो वो कभी कभी हँसता भी है , ये सब पुराने शरीर की बातों को याद करके वो हँसता है पर जैसे जैसे वो
बड़ा होने लगता है तो धीरे धीरे सब भूल जाता है...!

(36) प्रश्न :- क्या इस पुनर्जन्म को सिद्ध करने के लिए कोई उदाहरण हैं...?

उत्तर :- हाँ, जैसे अनेकों समाचार पत्रों में, या TV में भी आप सुनते हैं कि एक छोटा सा बालक अपने
पिछले जन्म की घटनाओं को याद रखे हुए है, और सारी बातें बताता है जहाँ जिस गाँव में वो पैदा हुआ,
जहाँ उसका घर था, जहाँ पर वो मरा था । और इस जन्म में वह अपने उस गाँव में कभी गया तक नहीं
था लेकिन फिर भी अपने उस गाँव की सारी बातें याद रखे हुए है , किसी ने उसको कु छ बताया नहीं,
सिखाया नहीं, दूर दूर तक उसका उस गाँव से इस जन्म में कोई नाता नहीं है । फिर भी उसकी गुप्त बुद्धि
जो कि सूक्ष्म शरीर का भाग है वह घटनाएँ संजोए हुए है जाग्रत हो गई और बालक पुराने जन्म की बातें
बताने लग पड़ा...!

(37) प्रश्न :- लेकिन ये सब मनघड़ंत बातें हैं, हम विज्ञान के युग में इसको नहीं मान सकते क्योंकि
वैज्ञानिक रूप से ये बातें बेकार सिद्ध होती हैं, क्या कोई तार्कि क और वैज्ञानिक आधार है इन बातों को सिद्ध
करने का ?

उत्तर :- आपको किसने कहा कि हम विज्ञान के विरुद्ध इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त का दावा करेंगे । ये
वैज्ञानिक रूप से सत्य है , और आपको ये हम अभी सिद्ध करके दिखाते हैं..!

(38) प्रश्न :- तो सिद्ध कीजीए ?

उत्तर :- जैसा कि आपको पहले बताया गया है कि मृत्यु के वल स्थूल शरीर की होती है, पर सूक्ष्म शरीर
आत्मा के साथ वैसे ही आगे चलता है , तो हर जन्म के कर्मों के संस्कार उस बुद्धि में समाहित होते रहते
हैं । और कभी किसी जन्म में वो कर्म अपनी वैसी ही परिस्थिती पाने के बाद जाग्रत हो जाते हैं

इसे उदहारण से समझें :- एक बार एक छोटा सा ६ वर्ष का बालक था, यह घटना हरियाणा के सिरसा के
एक गाँव की है । जिसमें उसके माता पिता उसे एक स्कू ल में घुमाने लेकर गये जिसमें उसका दाखिला
करवाना था और वो बच्चा के वल हरियाणवी या हिन्दी भाषा ही जानता था कोई तीसरी भाषा वो समझ तक
नहीं सकता था ।

लेकिन हुआ कु छ यूँ था कि उसे स्कू ल की Chemistry Lab में ले जाया गया और वहाँ जाते ही उस बच्चे
का मूँह लाल हो गया !! चेहरे के हावभाव बदल गये !!

और उसने एकदम फर्राटेदार French भाषा बोलनी शुरू कर दी !! उसके माता पिता बहुत डर गये और
घबरा गये , तुरंत ही बच्चे को अस्पताल ले जाया गया । जहाँ पर उसकी बातें सुनकर डाकटर ने एक
दुभाषिये का प्रबन्ध किया ।

जो कि French और हिन्दी जानता था , तो उस दुभाषिए ने सारा वृतान्त उस बालक से पूछा तो उस


बालक ने बताया कि " मेरा नाम Simon Glaskey है और मैं French Chemist हूँ । मेरी मौत मेरी
प्रयोगशाला में एक हादसे के कारण ( Lab. ) में हुई थी । "

तो यहाँ देखने की बात यह है कि इस जन्म में उसे पुरानी घटना के अनुकू ल मिलती जुलती परिस्थिति से
अपना वह सब याद आया जो कि उसकी गुप्त बुद्धि में दबा हुआ था । यानि की वही पुराने जन्म में उसके
साथ जो प्रयोगशाला में हुआ, वैसी ही प्रयोगशाला उस दूसरे जन्म में देखने पर उसे सब याद आया । तो
ऐसे ही बहुत सी उदहारणों से आप पुनर्जन्म को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हो...!

(39) प्रश्न :- तो ये घटनाएँ भारत में ही क्यों होती हैं ? पूरा विश्व इसको मान्यता क्यों नहीं देता ?
उत्तर :- ये घटनायें पूरे विश्व भर में होती रहती हैं और विश्व इसको मान्यता इसलिए नहीं देता क्योंकि
उनको वेदानुसार यौगिक दृष्टि से शरीर का कु छ भी ज्ञान नहीं है । वे के वल माँस और हड्डियों के समूह को
ही शरीर समझते हैं , और उनके लिए आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है । तो ऐसे में उनको न जीवन का
ज्ञान है, न मृत्यु का ज्ञान है, न आत्मा का ज्ञान है, न कर्मों का ज्ञान है, न ईश्वरीय व्यवस्था का ज्ञान है
। और अगर कोई पुनर्जन्म की कोई घटना उनके सामने आती भी है तो वो इसे मानसिक रोग जानकर
उसको Multiple Personality Syndrome का नाम देकर अपना पीछा छु ड़ा लेते हैं और उसके कथनानुसार
जाँच नहीं करवाते हैं...!

(40) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म के वल पृथिवी पर ही होता है या किसी और ग्रह पर भी ?

उत्तर :- ये पुनर्जन्म पूरे ब्रह्माण्ड में यत्र तत्र होता है, कितने असंख्य सौरमण्डल हैं, कितनी ही पृथीवियाँ हैं
। तो एक पृथीवी के जीव मरकर ब्रह्माण्ड में किसी दूसरी पृथीवी के उपर किसी न किसी शरीर में भी जन्म
ले सकते हैं । ये ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन है...

परन्तु यह बड़ा ही अजीब लगता है कि मान लो कोई हाथी मरकर मच्छर बनता है तो इतने बड़े हाथी की
आत्मा मच्छर के शरीर में कै से घुसेगी..?

यही तो भ्रम है आपका कि आत्मा जो है वो पूरे शरीर में नहीं फै ली होती । वो तो हृदय के पास छोटे
अणुरूप में होती है । सब जीवों की आत्मा एक सी है । चाहे वो व्हेल मछली हो, चाहे वो एक चींटी हो।

ग्यारहवें द्वार से जीव जब जाईं । अमरलोक तब वासा पाईं ।


दशम द्वार से जीव जो जावैं । स्वर्ग लोक में वासा पावैं ।
श्रवण द्वार जीव जो चाला । प्रेत देहि पावै तत्काला ।
नेत्र द्वारि जीव जों निकसें । माखी आदि कीट तन बिकसें ।
नासिका मारग जीव जो जाहीं । अण्डज खानी वासा पाहीं ।
मुख द्वारे से जीव जो जाया । अन्न खानी में वासा पाया ।
मूत्र द्वार जीव जब जाई । जलचर योनि गति उन पाई ।
गुदा द्वार जब जीव निकासी । बहुकालैं तक नरक कौ वासी

सूक्ष्म शरीर और आत्मा में क्या अंतर है?

सूक्षम शरीर पाँच ज्ञान इंद्रियों, पाँच कर्म इंद्रियों, पाँच प्राण, मन
व बुद्धि के संयोग के बनता है पर यह सब आत्मा से ही शरीर में
सक्रिय रहते हैं. आत्मा, गीता के अनुसार सर के बाल की नोक
के दस हजारवें हिस्से के बराबर होती है. आत्मा ही शरीर की सारी इंद्रियों की चालक होती है. इसके
निकलते ही स्थूल शरीर नष्ट होने लगता है.

क्या सूक्ष्म शरीर होता है ?

जी हाँ! सूक्ष्म शरीर होता हैI जीवात्मा उस सूक्ष्म शरीर को धारण किए होता है I यही माया का बंधन होता
है, जो हर एक जीवन का प्रथम लक्ष्य होता है कि माया के बंधन से मुक्त होना I

यह सूक्ष्म शरीर ही इन्द्रियों को भोगता है और जीवात्मा इसे अपना मान कर जीवन के सुख-दुख को भोगता
रहता है I तथा जीवात्मा के यह मैं ही हूँ, मानने से ही जन्म-मृत्यु के बंधन में फस जाता है I

ब्रह्मा के एक दिन जो सूक्ष्म शरीर पुरुष होता है, वह अगले दिन किन्नर तो किसी दिन स्त्री। यह चक्र
ब्रह्मा के हर हफ्ते चलता रहता हैI

सूक्ष्म शरीर तथा युगानुसार पंचतत्वों के अनुसार ही शरीर प्राप्त होता है I जब दोनों में भेद होता है तो ऐसे
पुरुष और स्त्री का जन्म होता है जो "शरीर से पुरुष" होते हैं परंतु "भाव से स्त्री" मानते है अपने आप को
और "शरीर से स्त्री" होते है और अपने आप को "पुरुष" मानते है I जैसे-जैसे कलियुग द्वितीय चरण
पहुंचेगा यह अस्थिरता समाज के हर कोने में हो जाएगी I बहुत कम ही स्त्री पुरुष इस समस्या से बच
पाएंगे I

आजकल जैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है, वैसे-वैसे ऐसे लोग भी अपना लिंग परिवर्तन करवाने लग गए हैं I
पश्चिम के देशों में ऐसे लोगों की तादाद अच्छी-खासी हो गई है I

**ऊँ तत् सत्**

शरीर क्या है? शरीर को योग कै से प्रभावित करता है? Body and yoga.

हमारे ऋषि-मुनियों ने शरीर का गहन अध्यन किया है। उन्होने हजारों वर्ष पहले शरीर के बारे मे सूक्ष्म ज्ञान
प्राप्त कर लिया था। शरीर के बारे मे जो ज्ञान वे हजारों वर्ष पहले प्राप्त कर चुके थे, आधुनिक शरीर
विज्ञान वहाँ तक आज भी नही पहुँच सका है। आधुनिक शरीर-विज्ञान की पहुँच के वल मात्र भौतिक
शरीर तक ही है। हजारों वर्ष पूर्व भारतीय योग गुरुओ ने बता दिया था कि शरीर क्या है? शरीर को योग
कै से प्रभावित करता है? प्रस्तुत आलेख मे इस विषय पर चर्चा करेंगे कि शरीर कितने प्रकार के है? क्या
योग शरीर को प्रभावित करता है।

विषय सुची :--


 शरीर क्या है? योग का शरीर पर प्रभाव।
 शरीर के प्रकार।
 योग शरीर को कै से प्रभावित करता है।

शरीर क्या है? योग का शरीर पर प्रभाव।


आधुनिक शरीर-विज्ञान "शरीर" को के वल एक भौतिक देह (Physical Body) ही मानता है। योग की भाषा
मे इसे स्थूल शरीर कहा गया है। लेकिन योग के अनुसार शरीर की परिभाषा बहुत व्यापक है।

योग Physical Body की तो बात करता ही है, लेकिन उस से आगे की बात भी करता है। योग मे बताया
गया है कि शरीर क्या है, और शरीर कितने प्रकार के हैं। तथा यह भी बताया गया है कि योग शरीर को
कै से प्रभावित करता है?

योग मे विस्तार से बताया गया है कि तीनो शरीर अलग नहीं है। सम्पूर्ण शरीर मे पाँच कोषों का आवरण
है। आईये यह जान लेते है कि शरीर क्या है?

शरीर क्या है?

समस्त ब्रह्माण्ड पाँच तत्वो से निर्मित है। उसी प्रकार हमारा शरीर भी पाँच तत्वों से बना है। ये पाँच तत्व
हैं, आकाश, वायु, अग्नि, जल, व पृथ्वी। हमारा शरीर भी ब्रह्माण्ड की तरह ही है।

पँचतत्वों से निर्मित यह शरीर तीन प्रकार का है।

1. स्थूल शरीर।
2. सूक्ष्म शरीर।
3. कारण शरीर।

ये तीनों शरीर एक दूसरे से अलग नहीं हैं। ये तीनों एक ही हैं तथा ये एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं।
आईये इन तीनों शरीरों के बारे में विस्तार से जान लेते है।

1. स्थूल शरीर Physical Body.

हाड, माँस का बना यह शरीर जो दिखाई देता है, उसे स्थूल शरीर कहा गया है। यही शरीर जनम लेता है,
सुख-दुख को अनुभव करता है। यही युवा अवस्था तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। मृत्यु भी इसी शरीर की
होती है।

स्थूल शरीर की विशेषताएँ :--


 यह दिखाई देने वाला शरीर है। यह Visible Body है। सभी दिखाई देने वाले आंतरिक व बाह्य अंग
स्थूल शरीर है।
 यही शरीर माँ के गर्भ से जनम लेता है। बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। इसी
को नाम से जाना जाता है। मृत्यु भी इसी की होती है।
 जिन पाँच तत्वों से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है, यह शरीर भी उन ही पँचतत्वों से निर्मित है। ये
पँच तत्व हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल, व पृथ्वी।
 यह शरीर अन्न (Food) द्वारा पोषित है। इसलिए इसे अन्नमय शरीर भी कहा गया है। क्योकि
इसका पोषण अन्न से होता इस लिए 'अन्न' स्थूल शरीर प्रभावित करता है।
 यह स्थूल शरीर ही रोगग्रस्त (बिमार) होता है।
 यह अन्न तथा मन (चित्त) से प्रभावित होता है।
 इस शरीर को योगासन से प्रभावित किया जा सकता है।
सूक्ष्म शरीर क्या है?

यह दिखाई न देने वाला शरीर है। अर्थात् यह Invisible Body है। यह शरीर इतना सुक्ष्म है कि इसे किस
यंत्र से भी नही देखा जा सकता है।

जिस प्रकार हम विद्युत उपकरणों को तो देख सकते है लेकिन उन मे प्रवाहित विद्युत को नही देख सकते।

रेडियो, TV तथा इनके पार्टस को तो देखा जा सकता है लेकिन इनमे संचार करने वाली तरंगों को देखना
असम्भव है।

इसी प्रकार हम स्थूल शरीर को तो देख सकते हैं लेकिन सूक्ष्म शरीर को देखना असम्भव है।

सूक्ष्म शरीर की विशेषताएँ :--


 यह अत्यन्त सूक्ष्म है।
 इस शरीर के 17 अंश बताए गये हैं। पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन व बुद्धि ये
सूक्ष्म शरीर के अंश हैं।
 सूक्ष्म शरीर का अस्तीत्व स्थूल शरीर के बिना नही है। और स्थूल शरीर का अस्तीत्व भी सूक्ष्म शरीर
के कारण ही है।
 यह स्थूल शरीर की तरह नाश्ववर नहीं है।
 यह मनोमय कोष भी है।
 स्थूल शरीर व सुक्ष्म शरीर दोनो एक दूसरे को प्रभावित करते है।
 प्राणायाम व ध्यान से इस को प्रभावित किया जा सकता है।
कारण शरीर।

यह स्थूल व सूक्ष्म दोनो का बीज रूप है। यह इन दोनो का कारण है। इसी लिए इसको कारण शरीर कहा
गया है।

शरीर को योग कै से प्रभावित करता है?

स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर दोनो को योग द्वारा प्रभावित किया जा सकता है।

योग का स्थूल शरीर पर प्रभाव।

सभी सांसारिक कार्य स्थूल शरीर से ही किये जाते है। इसके बिना जीवन सम्भव नही है। यह स्थूल शरीर ही
रोगग्रस्त होता है। इसी लिए योग मे इसको स्वस्थ रखने पर अधिक ध्यान दिया गया है।

लेख मे आगे उन विषयों पर चर्चा करते हैं जो स्थूल शरीर को पर प्रभाव डालते हैं। ये है, आहार, विचार,
शुद्धि क्रियाएँ तथा आसन-प्राणायाम।

आहार का प्रभाव।
क्योकि स्थूल शरीर अन्न द्वारा निर्मित और पोषित है। इसलिए आहार इसे सीधा प्रभावित करता है। योग
मे आहार का महत्व पूर्ण स्थान है।

योग के लिए शाकाहार उत्तम आहार बताया गया है।आहार संतुलित हो तथा अनुशासित हो, यह योग के
लिय जरूरी है।

विचारों का प्रभाव।

हमारे विचार भी शरीर को प्रभावित करते है।अष्टाँगयोग के अरम्भ मे यम-नियम मे बताया गया है कि
हमारा आचरण कै सा हो। इस लिए योग साधक को यम-नियम का पालन अवश्य करना चहाए। ये मनुष्य के
चरित्र-निर्माण मे सहायक हैं।

योग मे यह बताया गया है कि ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि को शरीर के लिए हानिकारक बताया गया है। इसी
लिए अष्टाँगयोग में यम-नियम को पहले रखा गया है।

शुद्धि क्रियाएँ।

शरीर मे आने वाले अवरोधो तथा अशुद्धियों को दूर करने के लिए षट्कर्म बताए गये हैं। आसन-प्रणायाम से
पहले ये शुद्धि क्रियाएँ करना अवश्यक है। शुद्धि क्रियाओ के लिए ये षट् कर्म बताए गये है--

 धोति-- इस क्रिया में पाचन तंत्र के लिए कुं जल तथा वस्त्र धोति के बारे मे बताया गया है। भोजन
नली मे आने वाले अतिरिक्त अम्ल व पित्त को इस क्रिया से बाहर निकाला जाता है।
 वस्ति-- आँतों की स्वच्छता के लिए।
 नेति-- नासिका व कण्ठ क्षेत्र की शुद्धि के लिए जलनेति व सूत्रनेति करें।
 त्राटक-- नेत्र की पेशियों के लिए तथा एकाग्रता के लिए।
 नोली-- उदर रोगों के लिए।
 कपालभाति-- कपाल भाग की शुद्धि के लिए कपालभाति करे।
आसन का प्रभाव।

स्थूल शरीर को स्वस्थ रखने के लिए योगासन अवश्यक है। आसन से भी अंग प्रभाव मे आते है। शरीर के
आंतरिक अंग किडनी, लीवर, व पेनक्रियाज सक्रिय होते है। इनके सक्रिय होने के कारण शरीर के सभी
राशायन संतुलित रहते है।

आसन से शरीर के हारमोंस का संतुलन बना रहता है। रक्तचाप (BP) व सुगर सामान्य रहता है। शरीर की
रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) की वृद्धि होती है।

मुख्य आसन।

आसन अपने शरीर की क्षमता व अवस्था के अनुसार करें। नये अभ्यासी कठिन आसन न करे। सरलता से
किये गये आसन लाभदायी होते हैं। पहले आसन करें। आसन के बाद प्राणायाम करें। (देखें :- आसन-
प्राणायाम का सही क्रम क्या है ?)
1. हस्त पाद आसन।
2. त्रिकोण आसन।
3. कटि चक्रासन।
4. पश्चिमोत्तान आसन।
5. अर्ध मत्स्येन्द्र आसन।
6. वज्रासन।
7. भुजंग आसन।
8. सर्वांग आसन।

(सभी आसनो के बारे मे जानकारी के लिए हमारे अन्य लेख देखें)

सूक्ष्म शरीर।

दोनो शरीर एक दूसरे को प्रभावित करते है। जो क्रियाए स्थूल शरीर के लिए करते है वे सूक्ष्म शरीर को भी
प्रभावित करती है।

प्राणायाम का स्थूल शरीर पर प्रभाव।

प्राणायाम एक श्वासों पर आधारित क्रिया है। यह श्वसन क्रिया को सुदृढ करती है। यह क्रिया लंग्स को
एक्टिव रखती है। प्राणायाम शरीर के ऑक्सीजन लेवल को ठीक रखता है। इस कारण यह हृदय को मजबूती
देने वाली क्रिया है।

इसके नियमित अभ्यास से रक्त-संचार अच्छी स्थिति मे रहता है। इस से रक्त चाप सामान्य रहता है। यह
क्रिया कफ, वात व पित्त मे संतुलन रखती है।

प्राणायाम का सूक्ष्म शरीर पर प्रभाव।

सूक्ष्म शरीर विशेषत: प्राणायाम द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। प्राणायाम श्वासों की क्रिया है। यह
सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करती है।

प्राण सूक्ष्म शरीर का एक घटक है तथा प्राणायाम से प्राणो का विस्तार होता है। प्राणायाम प्राण शक्ति को
प्रभावित करता है।

यह मनोमय कोष भी है। प्राणायाम से मन की एकाग्रता बढती है। मन के प्रभावित होने से सूक्ष्म शरीर भी
प्रभावित होता है।

मुख्य प्राणायाम।

नये अभ्यासी को आरम्भ मे सरल प्राणायाम करने चहाये। सरलता से किये गये प्राणायाम लाभदायी होते है।
अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार ही क्रिया को करें।

1. कपालभाति।
2. अनुलोम विलोम।
3. भस्त्रिका।
4. नाङीशौधन।

(प्राणायाम के बारे मे अधिक जानकारी के लिए हमारे अन्य लेख देखें)

ध्यान Meditation.

ध्यान के द्वारा भी सूक्ष्म शरीर तो प्रभावित किया जा सकता है। ध्यान एक ऐसी क्रिया है जिस से मन को
एकाग्र किया जाता है। मन को अन्तर्मुखी करने की क्रिया है।

आसन व प्राणायाम करने के बाद ध्यान की अवस्था मे आने पर चित्त की वृतियों का निरोध होने लगता
है। इस लिए ध्यान सूक्ष्म शरीर पर गहरा प्रभाव डालता है।

सारांश :--
शरीर तीन प्रकार के हैं :-- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। आसन द्वारा स्थूल शरीर तथा प्राणायाम व ध्यान से
सूक्ष्म शरीर को प्रभावित किया जा सकता है।

Structure of the Body


सृष्टि-तत्त्व और शरीर-संरचना

मूल प्रकृ ति सबसे पहले बुद्धि, फिर अहङ्कार, फिर ५ तन्मात्राओं (सूक्ष्मभूतों), ५ ज्ञानेन्द्रियों, ५ कर्मेन्द्रियों
और मन, फिर तन्मात्राओं से ५ स्थूलभूतों (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी) में परिवर्तित होती है ।
अब इन तत्त्वों से हम शरीर की रचना को समझते हैं ।

महर्षि दयानन्द ने बताया है (सत्यार्थ-प्रकाश, नवम समुल्लास) कि जीव के ४ प्रकार के शरीर होते हैं । वे
इस प्रकार हैं -

१) स्थूल शरीर - जो हमें साक्षात् दिखता है - आंखों से दिखता, कानों से सुनाई पड़ता (वाणी, ताली, आदि),
नाक से सूंघने में आता, जिह्वा से स्वाद लेने में आता और त्वचा से छू ने में आता है । इसी शरीर को
सर्जन काटकर देख सकता है ।

२) सूक्ष्म शरीर - यह शरीर सूक्ष्म-तत्त्वों से बना होता है । इसलिए इन्द्रियगोचर नहीं होता । इसके दो
विभाग होते हैं-

क) भौतिक - यह शरीर पञ्च सूक्ष्मभूतों और पञ्च प्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) का बना
होता है ।

ख) स्वाभाविक - यह शरीर पञ्च ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि का बना होता है । इनकी चेष्टा जीव की
प्रवृत्ति के अनुसार होती है । इसलिए यह शरीर वस्तुतः जीव के स्वभाव को कार्यान्वित करता है । इसी के
कारण, स्थूल शरीर-रचना एक समान होने पर भी, जीव स्वभाव से भिन्न होते हैं । इस स्वभाव-भेद से ही
इस शरीर का अनुमान भी होता है ।
३) कारण शरीर - यह शरीर मूल प्रकृ ति का बना होता है । वस्तुतः, यह आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक है ।
और आकाश के ही समान, जितने भाग में हमारा शरीर स्थित है, उतने भाग को हम अपने शरीर का अंश
मान सकते हैं । विकार-रहित प्रकृ ति का बना होने के कारण, इसमें पूर्णतया ज्ञान का अभाव होता है ।
महर्षि ने इस अवस्था को गाढ़ निद्रा कहा है ।

४) तुरीय शरीर - यह चौथा शरीर समाधि अवस्था में जीव को उपलब्ध होता है । इस चोगे से वह परमात्मा
की अनुभूति कर पाता है । जिस प्रकार भगवद्गीता में भगवान कृ ष्ण अर्जुन को अपना रूप दिखाने के लिए
दिव्य चक्षु देते हैं (न तु मां शक्यसे द्रष्टु मनेनैव स्व चक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमीश्वरम् ॥
गीता ११।८॥ ), कु छ उसी प्रकार का यह शरीर होता है । यह प्रकृ ति का बना नहीं मानना चाहिए ।

इस प्रकार, हम सभी ३ शरीरों के पुंज हैं । यदि हम सृष्टि-तत्त्वों से इनकी तुलना करें, तो इस प्रकार का
चित्र उभरता है -

स्थूल शरीर - पञ्च स्थूलभूतों का बना हुआ

सूक्ष्म शरीर - पञ्च सूक्ष्मभूतों, ५ ज्ञानेन्द्रियों, ५ कर्मेन्द्रियों, मन, अहङ्कार और बुद्धि का बना हुआ, अर्थात्
ऊपर दिये विवरण में हमें ५ कर्मेन्द्रियों और अहङ्कार को जोड़ना है । अहङ्कार तो बहुत बार मन में ही
गिना जाता है, इसलिए कोई कठिनाई नहीं है । परन्तु कर्मेन्द्रियों को ऊपर से मिलाना कठिन है । और
ऊपर पञ्च प्राण गिने गये हैं, जो सूक्ष्मतत्त्वों में नहीं गिनाये गये हैं । इनका भी मेल करना कठिन है ।
सम्भव है कि प्राण-वायु वायु-तन्मात्र के अवयव हों । परन्तु इससे प्रश्न उठता है कि फिर कर्मेन्द्रियां क्यों
नहीं गिनाई गईं ? इसके उत्तर में एक सम्भावना उत्पन्न होती है - क्या प्राणों और कर्मेन्द्रियों में कु छ
सम्बन्ध है ? हम जानते हैं कि अपान वायु का पायु और उपस्थ कर्मेन्द्रियों से सम्बन्ध है, और वाणी और
उदान का भी सम्बन्ध इंगित किया गया है, परन्तु अन्य प्राण कर्मेन्द्रियों से सम्बन्धित नहीं बताये गये हैं,
अपितु पाचन-क्रिया से सम्बद्ध बताये गये हैं । किस प्रकार ’वायु’ इन पाचन-क्रियाओं से सम्बद्ध है, यह भी
स्पष्ट नहीं है । दूसरी ओर, हम यह अनुभव करते हैं कि जब हमें बल लगाना होता है, तब हम अपान-वायु
अन्दर लेते हैं और बल लगाते हुए उसे प्राण-वायु के रूप में छोड़ते हैं । एक और कठिनाई यह है कि
कर्मेन्द्रियों के सूक्ष्म-रूप समझ में नहीं आते - हाथ और पैरों के क्या सूक्ष्म-रूप हैं ? ये तो मन के संके तों
पर नाचते हैं ! इन सब तथ्यों से प्रतीत होता है कि ५ कर्मेन्द्रिय और ५ प्राणों का - भिन्न होते हुए भी -
कु छ घनिष्ठ सम्बन्ध है । विद्वत्-जन अवश्य इस विषय पर और प्रकाश फें कनें का कष्ट करें ।

कारण शरीर - कारण प्रकृ ति का बना हुआ ।

शरीर का एक और आयाम है । वह है - पञ्च कोश । ये पञ्च कोश शरीर के ही आकार के होते हैं, परन्तु
सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते जाते हैं । ये हैं -

१) अन्न्मय कोश - "जो त्वचा से लेकर अस्थि-पर्यन्त का समुदाय पृथिवीमय है (सत्यार्थ-प्रकाश, नवां
समुल्लास)", अर्थात् दृश्य शरीर ।

२) प्राणमय कोश - पञ्च प्राण-वायुओं का बना ।

३) मनोमय कोश - पञ्च कर्मेन्द्रियों, मन और अहङ्कार वाला भाग ।

४) विज्ञानमय कोश - पञ्च ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि का अंश ।

५) आनन्दमय कोश - कारण प्रकृ ति का बना भाग ।


यहां स्पष्ट हो जाता है कि अन्नमय कोश स्थूल शरीर ही है । प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश
सूक्ष्म शरीर के अंश हैं, और आनन्दमय कोश कारण शरीर है । मैंने कई प्रवचनकर्ताओं को आनन्दमय कोश
को - "जीव स्वयं है" - ऐसा बताते हुए सुना है । यह कथन सही नहीं है । आनन्दमय कोश भी प्राकृ तिक है,
परन्तु वहां वही आनन्द मिलता है, जो सुषुप्ति की अवस्था में मिलता है - और उससे अधिक भी !

यदि कोश भी शरीर के ही विभाग हैं, तो स्थूल-सूक्ष्म-कारण और पञ्च कोशों में भेद क्यों किया गया है ?
इसका विश्लेषण करते हुए, हम एक बात एकदम देख सकते हैं कि विज्ञानमय कोश में ज्ञानेन्द्रिय हैं, जो कि
पूर्व के मनोमय कोश के मन और अहङ्कार से स्थूलतर है । इसलिए कोशों का विभाग पूर्णतया सूक्ष्मता के
अनुसार नहीं है, जबकि ३ शरीरों का विभाजन इसी के अनुसार निर्धारित है । प्रतीत होता है कि ये कोश
हमारी अनुभूति के अनुसार हैं - हम शरीर को इन रूपों में अनुभव करते हैं । इसलिए ये योगी के ध्यान
करने में सहायता के लिए हैं । ध्यान करते समय हमें पहले अपने अन्नमय कोश पर चित्त को स्थिर
करना चाहिए, जैसे भौहों के बीच में, नाभि पर, आदि । इसके उपरान्त हमें प्राणमय शरीर - अपनी श्वास-
प्रश्वास पर ध्यान लगाना चाहिए । यहां स्थिर हो जाने पर, हमें मनोमय कोश - जो हिलने-डु लने, देखने-
सुनने, आदि का सङ्कल्प करता है - उसको अनुभव करना चाहिए । इसके बाद भी हमारी बुद्धि में विचार
आ रहे होंगे । यह विज्ञानमय कोश है । विचारों के स्थिर हो जाने पर, हम अपने-आप आनन्द का अनुभव
करने लगेंगे । यही आनन्दमय कोश है ।

जीव इन सभी शरीरों और कोशों से भिन्न है, और स्वतन्त्र सत्ता वाला है । सूक्ष्म और कारण शरीर सृष्टि
में आत्मा से चिपक जाते हैं, फिर सर्गान्त में ही छू टते हैं । मुक्तात्मा का भौतिक सूक्ष्म-शरीर तो छू ट जाता
है, परन्तु स्वाभाविक शरीर बना रहता है, और सर्गान्त में छू टता है । परन्तु इस विषय में विद्वानों में
मतभेद रहा है । कु छ का मानना है कि मुक्तात्मा प्रकृ ति से सर्वथा रहित हो जाता है ।

साङ्ख्य के प्राकृ तिक तत्त्वों और शरीर की संरचना में इस प्रकार सीधा-सीधा सम्बन्ध दीख पड़ता है ।
विभिन्न शास्त्रों में जो भिन्नताएं प्रतीत होती हैं, वे विश्लेषण करने पर नहीं रहतीं । शास्त्रों के सार को
समझने के लिए, यह मेल करना बड़ा आवश्यक है ।

भारतीय दर्शन के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं,-१.संचित कर्म,२-प्रारब्ध कर्म,३-क्रियमाण कर्म. वर्तमान
तक किया गया कर्म संचित कर्म कहलाता है, वर्तमान में जो कर्म हो रहा है, वह क्रियमाण है, संचित कर्म
का जो भाग हम भोगते है, वह प्रारब्ध कहलाता है, लेकिन जब हम किसी बात को सोचते हैं तो कहते हैं,
कि पीछे जो हम करके आये हैं, वह याद क्यों नहीं रहता है, तथा कल जो होने वाला हमें याद क्यों नहीं
रहता है, प्रकति से हमारे सामने जो अभी है, वह ही हमे याद रहता है, कल हमने जो किया है, कल क्या
होगा, यह हमे दूसरे दिन ही पता लगता है, जो व्यक्ति पीछे और आगे की बात को कहता है, उसके लिये
ही ज्योतिष विज्ञान का निर्माण किया गया है, इस विज्ञान के द्वारा जन्म समय के जो भी तत्व सामने
होते हैं, उनके प्रभाव का असर प्रकॄ ति के अनुसार जो भी पहले हुआ या इतिहास बताता है, उन तत्वों का
विवेचन करने के बाद ही ज्योतिष का कथन किया जाता है, ज्योतिश में तीन प्रकार के कर्मों की व्याख्या
बताई जाती है, पहला-सत, दूसरा-रज और तीसरा-तम.उसी तरह से तीन प्रकार के शरीर भी बताये गये हैं-
स्थूल शरीर, सूक्षम शरीर, कारण शरीर.

१.स्थूल शरीर जन्म के बाद जो शरीर सामने दिखाई देता है, वह स्थूल शरीर होता है, इसी स्थूल शरीर का
नाम दिया जाता है, इसी के द्वारा संसारी कार्य किये जाते है, इसी शरीर को संसारी दुखों से गुजरना पड़ता
है और जो भी दुख होते हैं, उनके लिये के वल एक ही भाषा होती है कि हमारी कोई न कोई भूल होती है,
जो भूलता है वही भुगतता है, इसी शरीर के अन्दर एक शरीर और होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं।

२.सूक्षम शरीर) हर भौतिक शरीर के अन्दर एक सूक्षम शरीर होता है, इस बात का पता पहले नहीं था, मगर
जब से लोगों को पुनर्जनम और ॠषियों द्वारा दिये गये हजारों साल पहले के कारण और आज के वैज्ञानिक
युग में आकर उनका दिखाई देना, जिनके बारे में पहले कभी सोचा नहीं हो, वे सामने आयें और उनको देख
कर हम लोग यही कहें, कि यह तो बहुत पहले देखा था, या सुना था, मंगल की पूजा के लिये हनुमानजी
की पूजा हजारों सालों से की जा रही है और मंगल के लिये सभी ने पुराने वेदों की बातो के अनुसार ही
उनका अभिषेक आदि करना चालू कर दिया था, मगर जब अमेरिका के नासा संस्थान ने वाइकिन्ग मंगल
पर भेज कर मंगल का चेहरा प्रकाशित किया, तो लोगों का कौतूहल और जग गया कि, वेदों में यह बात
किस प्रकार से पता लगी थी कि मंगल का चेहरा एक बन्दर से मिलता है और मंगल एक लाल ग्रह है, इस
बात के लिये कितनी बातें जो हम पिछले समय से सुनते आ रहे हैं,"लाल देह लाली लसे और धरि लाल
लंगूर, बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर.", मंगल का रूप अंगारक, महाभान, अतिबक्र, लोहित
और लोहित अंगोसे सुसज्जित शरीर की कामना बिना सूक्षम शरीर की उपस्थिति के पता नहीं चल सकती
है।

३.कारण शरीर (Causal Body) जब कारण पैदा होता है, तभी शरीर सूर्य की तरह से उदय होता है, इस
शरीर को जो भी कार्य संसार में करने होते हैं, उन्ही के प्रति इस शरीर का संसार में आना होता है, कार्यों के
खत्म होते ही यह शरीर बिना किसी पूर्व सूचना के चल देता है, पानी में मिल जाता है, मिट्टी मिट्टी में मिल
जाती है, हवा हवा में मिल जाती है, आग आग में मिल जाती है और आत्मा अपनी यात्रा को दूसरे काम के
लिये पुनर्जन्म लेने के लिये बाध्य हो जाती है, यही कारण रूपी शरीर की गति कहलाती है।

ज्योतिष से व्यक्तित्व का विभाजन ज्योतिष के अनुसार व्यक्तित्व को दो भागों में विभाजित किया है,
पहला-बाह्य व्यक्तित्व और दूसरा-आन्तरिक व्यक्तित्व.सौरमण्डल के सातों ग्रह उपरोक्त दोनों व्यक्तित्वओं
को अपने अपने गुण धर्म के अनुसार प्रभावित करते हैं, सूर्य और चन्द्रमा का प्रत्यक्ष प्रभाव सॄष्टि पर
द्रष्टिगोचर है, जिस परिस्थति के अनुसार जातक का जन्म होता है, उसी के अनुसार जातक का प्राकॄ तिक
स्वभाव बन जाता है, सूर्य के प्रभाव से जाडा, गर्मी, वर्षा ॠतुओं का आगमन होता है और चन्द्र के अनुसार
शरीर में पानी का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है, समुद्र में आने वाला ज्वार-भाटा चन्द्रमा के
प्रभाव का प्रत्यक्ष कारण है। जीवन के भाव, विचार, रूप, व्यक्तित्व, यादें, प्रवॄत्ति, न्याय, अन्याय, सत्य,
असत्य, प्रेम, कला, आदि जितने भी जीवन के कारण हैं, सब के सब ग्रहों के प्रभाव से ही बनते बिगडते
रहते हैं, सात ग्रह तो प्रत्यक्ष है और दो छाया ग्रह हैं, इस प्रकार से वैदिक ज्योतिष में नौ ग्रहों का विवेचन
मिलता है।

तीन शरीर (स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर) की विस्तृत जानकारी।

वेदांत दर्शन के अनुसार, मानव जीवन को तीन शरीर के माध्यम से समझा जाता है: स्थूल शरीर, सूक्ष्म
शरीर और कारण शरीर।
मनु समृति मैं कहा गया है की “शरीरमाद्यं खलु
धर्म साधनम्” मतलब शरीर ही सारे कर्तव्यों को पूरा
करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को
स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य
और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही
होनी है। जब हम वेदों में “शरीर” की चर्चा करते हैं,
तो यह मुख्य रूप से भौतिक और अध्यात्मिक दोनों
दृष्टिकोणों से देखा जाता है। वेदों में, शरीर को
जीवात्मा का वाहन माना जाता है, जो अनंत और
अविनाशी है, जबकि शरीर नाशवान है।

सामवेद मैं कहा गया है “इन्द्र॑ त्रि॒धातु॑ शर॒णं त्रि॒वरू॑ थं स्वस्ति॒मत्” मतलब शरीर को वात, पित और कफ तीन
धातु वाला बताया गया है तथा स्थूल, सूक्षम और कारण तीन आवरणों वाला बताया गया है।

मानव जीवन मैं तीनो शरीर बहुत महत्वपूर्ण हैं, स्थूल शरीर को जो प्राण मतलब ऊर्जा मिलती है वो सूक्षम
शरीर से मिलती है और सूक्षम शरीर को जो
ऊर्जा मिलती है वो कारण शरीर से मिलती है।
तो आइये अब तीनो शरीर को अच्छे से समझते
हैं ।

1). स्थूल शरीर (Gross Body):स्थूल शरीर वह


भौतिक शरीर है जिसे हम अपनी आंखों से देख
सकते हैं और स्पर्श कर सकते हैं। स्थूल शरीर
का मुख्य कार्य जीवन के विविध क्रियाकलापों में
भाग लेना है, जैसे खाना-पीना, सोना, चलना-
फिरना और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ। स्थूल
शरीर सपतधातु से निर्मित होता है जिसमे आता
है रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और
शुक्र। धातु का मतलब होता है जो शरीर को धारण करता है। हम जो भोजन करते हैं उससे रस बनता है
और उसी रस से रक्त बनता है, उस रस से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्ज, मज्ज से
शुक्र।

 रस (Plasma): रस शरीर के शीर्षक तंतु का रूप में पाया जाता है, और यह शरीर के सभी
कोषिकाओं को पोषित करने में मदद करता है।
 रक्त (Blood): रक्त शरीर के लिए जीवनमहत्वपूर्ण है, क्योंकि यह ऑक्सीजन और पोषण सभी
शरीर के अंगों तक पहुंचाता है।
 मांस (Muscle): मांस शरीर की ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करता है और शरीर
की चाल को संभालता है।
 मेद (Fat): मेद शरीर की ऊर्जा राशि को बनाने और संरक्षित करने में मदद करता है, और यह शरीर
की स्थिति और तापमान को भी नियंत्रित करता है।
 अस्थि (Bone): अस्थि शरीर के संरचनात्मक स्थिरता का सारंश होते हैं और हड्डियों की निर्माण में
मदद करते हैं।
 मज्जा (Marrow): मज्जा अस्थियों के अंदर पाया जाता है और नयी कोषिकाओं की उत्पत्ति में
मदद करता है।
 शुक्र (Reproductive Tissue): शुक्र शरीर के प्रजनन तंतु को संदर्भित करता है और उत्पन्न करने
में मदद करता है।

यह स्थूल शरीर पाँच महाभूतों से बना है – पृथ्वी, जल, वायु, आग और आकाश। ये पाँच महाभूत स्थूल
शरीर की विविधता और संरचना को प्रकट करते हैं।

 पृथ्वी (Earth): पृथ्वी भूमि का तत्व है, और यह स्थूल शरीर की ठोसता और दृढ़ता का प्रतीक होता
है। शरीर की आपूर्ति की दृढ़ता और स्थिरता के लिए पृथ्वी महत्वपूर्ण है।
 जल (Water): जल स्थूल शरीर में जीवन की अग्रणी शक्ति है, क्योंकि यह शरीर के सभी कार्यों के
लिए आवश्यक है, जैसे कि पाचन, रक्त संचालन, और ऊर्जा प्रबंधन।
 वायु (Air): वायु शरीर में श्वासन और प्राणसंचालन के लिए महत्वपूर्ण है। यह ऑक्सीजन को
अंतर्गत करने में मदद करता है और शरीर के समग्र तंतुओं को पोषण पहुंचाने में भी सहायक होता
है।
 आग (Fire): आग शरीर की ऊर्जा को बढ़ावा देती है और शरीर के कार्यों को चलाने में मदद करती
है, जैसे कि श्वासन और शरीर के उत्सर्जन की प्रक्रियाएँ।
 आकाश (Ether or Space): आकाश शरीर के अंदर और बाहर के तंतुओं के बीच के संचालन के
लिए महत्वपूर्ण होता है। यह शरीर के विभिन्न भागों को एक साथ बाँधने में मदद करता है और
संवादिक और ऊर्जात्मक प्रक्रियाओं को संचालित करता है।

हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म के सिद्धांत के अनुसार, आत्मा या जीवात्मा कई जीवनों में पुनर्जन्म करती है, और
हर जन्म में वह नए शरीर में प्रवेश करती है। यह सिद्धांत इस धारणा का हिस्सा है कि स्थूल शरीर पूर्व के
जीवनों के कर्मों और उपासनाओं के आधार पर मिलता है।

स्थूल शरीर आत्मा का भोगायतन होता है, इस पर विचार और धारणा कई धार्मिक और आध्यात्मिक
दर्शनिक परंपराओं में किया जाता है। इन परंपराओं के अनुसार, आत्मा या जीवात्मा अपने स्थूल शरीर के
माध्यम से संसार के भोगों का अनुभव करती है और विभिन्न जीवन की प्राप्तियों और अनुभवों का अनुभव
करती है। इस प्रतिस्थापन के सिद्धांत का मतलब है कि हमारा स्थूल शरीर जीवात्मा का एक प्रकार का
अवास होता है, जिसके माध्यम से हम इस भौतिक जगत में अनुभव करते हैं, सीखते हैं, और अपने कर्मों
के फल को भोगते हैं। यह सिद्धांत अध्यात्मिक धारणाओं का हिस्सा है और यह धारणा करता है कि आत्मा
या जीवात्मा अनंतरात्मा होती है जो इस शारीरिक जीवन में अनुभव करने के लिए यहां आती है।
जब मौत होती है, स्थूल शरीर मृत हो जाता है। इसके बाद, यह शरीर प्रकृ ति में विघटित होकर मिल जाता
है। स्थूल शरीर अन्ततः नश्वर है। इसका मतलब है कि इसे मृत्यु के बाद तोड़ा जा सकता है। अध्यात्मिक
दृष्टिकोण से, यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्थूल शरीर के वल एक अस्थायी वाहन है, जबकि आत्मा
शाश्वत है।

इस प्रकार, स्थूल शरीर वह भौतिक यात्रा है जिसे हम अपने जीवन में अनुभव करते हैं, लेकिन इसके पीछे
अधिक गहरी और अध्यात्मिक सत्य हैं जिन्हें हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए।

2). सूक्ष्म शरीर (Subtle Body): सूक्ष्म शरीर वह भाग है जो हमारे भौतिक शरीर के अदृश्य होता है और
यह हमारी भावनाओं, विचारों, और प्राणिक ऊर्जा से संबंधित है। जबकि हमारा स्थूल शरीर (भौतिक शरीर)
मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है और पुनर्जन्म के संसार में चला
जाता है। सूक्ष्म शरीर का समझना अध्यात्मिक उन्नति में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें जीवन की
गहराईयों और माया की समझ में मदद करता है। यदि हम सूक्ष्म शरीर को सही तरीके से पहचानते हैं और
इसे नियंत्रित करते हैं, तो हम अध्यात्मिक रूप से उन्नत हो सकते हैं।

हिंदू दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपरा के अनुसार, सूक्ष्म शरीर 17 घटकों से मिलकर बना माना गया है।
ये 17 घटक निम्नलिखित हैं:

 पंच ज्ञानेन्द्रियां (Five Sense Organs): हिंदू दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपरा में वह पाँच
इंद्रियां हैं जिनका उपयोग हम बाहरी जगत को अनुभव करने में करते हैं। यह इंद्रियां हमें पाँच प्रकार
की भौतिक जानकारियां प्रदान करती हैं। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हम अपने चारों ओर के
वातावरण को समझते हैं और उससे जुड़ते हैं। ये ज्ञानेन्द्रियां हमें बाहरी जगत से जुड़ने का माध्यम
प्रदान करती हैं और हमें उससे संवाद साधने में मदद करती हैं। ये पंच ज्ञानेन्द्रियां हैं:
o श्रोत्र (Ear, अणुभव: शब्द) : श्रोत्र ज्ञानेन्द्रिय वायु तत्व से संबंधित है। यह हमें विभिन्न
प्रकार के ध्वनियों को सुनने की क्षमता प्रदान करता है।
o त्वच (Skin, अणुभव: स्पर्श) : त्वच हमें ठंडा, गर्म, मुलायम, कठोर आदि प्रकार के स्पर्श को
महसूस करने की क्षमता प्रदान करती है। यह वायु तत्व से संबंधित है।
o चक्षु (Eyes, अणुभव: रूप) : चक्षु हमें विभिन्न रंग, आकृ तियां, और दृश्यों को देखने की
क्षमता प्रदान करती है। यह अग्नि तत्व से संबंधित है।
o जिव्हा (Tongue, अणुभव: रस) : जिव्हा हमें खाद्य पदार्थों के विभिन्न स्वाद, जैसे मधुर,
कटु , लवण, आदि को महसूस करने की क्षमता प्रदान करती है। यह जल तत्व से संबंधित है।
o घ्राण (Nose, अणुभव: गंध) : घ्राण ज्ञानेन्द्रिय हमें विभिन्न प्रकार की सूख्ष्म से सूख्ष्म
गंधों को संवेदन करने की क्षमता प्रदान करती है। यह पृथ्वी तत्व से संबंधित है।

 पंच कर्मेन्द्रियां (Five Action Organs): हिन्दू धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों में, पाँच कर्मेन्द्रियां
वह पाँच इंद्रियां हैं जिनका उपयोग हम बाहरी जगत में क्रियावली (एक्शन) में लेने के लिए होता है।
यह पाँच कर्मेन्द्रियां हमें वातावरण से संवाद साधने में मदद करती हैं और हमें उसमें सक्रिय रूप से
प्रतिसाद देने की क्षमता प्रदान करती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य हमें जीवन के दैनिक क्रियाकलापों में
सहायक होना है। ये हमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रियता और समर्थ बनाए रखते हैं। ये पंच
कर्मेन्द्रियां हैं:
o वाक् (Speech, कार्य: वाणी) : वाक् इंद्रिय हमें अपने विचार और भावनाओं को शब्दों के
माध्यम से प्रकट करने की क्षमता प्रदान करती है।
o पाणि (Hand, कार्य: ग्रहण) : पाणि हमें वस्त्रादि पकड़ने, वस्त्र पहनने, लिखने और अन्य
बाहरी क्रियावली में सहायक होते हैं।
o पाद (Feet, कार्य: चालन) : पाद हमें स्थल परिवर्तन की क्षमता प्रदान करते हैं, अर्थात एक
स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सहायक होते हैं।
o पायु (Excretory Organ, कार्य: मलत्याग) : पायु हमें शरीर के अवशेष और अनावश्यक
पदार्थों को बाहर निकालने में सहायक होते हैं।
o उपस्थ (Reproductive Organ, कार्य: जनन) : उपस्थ हमें प्रजनन की क्षमता प्रदान करते
हैं, और जीवन की जाती-प्रजाती को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं।

 मन (Mind): यह सूक्ष्म शरीर का एक मुख्य घटक है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के साथ


मिलकर व्यक्ति की अंतरात्मा के संवेदन और प्रतिक्रिया को संचालित करता है। मन व्यक्ति को
अनुभव कराने वाला तत्व है। यह बाहरी जगत से जानकारी ग्रहण करता है और उसे समझता है।
मन भावनाओं का स्थल है। खुशी, दुःख, भय, आशा, ईर्ष्या, मोह आदि सभी भावनाएँ मन में ही
उत्पन्न होती हैं। मन हमें विचार करने की क्षमता प्रदान करता है। यह हमें विभिन्न विकल्पों में से
चयन करने में सहायक होता है। मन हमें बाहरी जगत के साथ संचार साधने में मदद करता है और
यह हमारी अंतरात्मा के संवाद का माध्यम भी है। मन पिछले अनुभवों को संजोता है और उन्हें पुनः
प्रस्तुत करता है जब जरूरत होती है। मन का नियंत्रण और स्थिरता पाना योग की एक मुख्य धारा
है। पतंजलि के योगसूत्र में कहा गया है, “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”, जिसका अर्थ है कि योग मन की
चंचलता को निरोधित करने की प्रक्रिया है। जब मन शांत होता है, तो व्यक्ति अपने अध्यात्मिक
स्वरूप का अनुभव कर सकता है।
 बुद्धि (Intellect): यह सूक्ष्म शरीर का एक अभिन्न अंग है और व्यक्ति की निर्णय-क्षमता, विचार-
शक्ति और अभिज्ञान का स्रोत है। बुद्धि व्यक्ति को सही और गलत में भेद बताने में मदद करती है।
यह ज्ञान को प्राप्त करती है और उसे अनुशासन में लाने में मदद करती है। बुद्धि एक विचारक और
समझाने वाली शक्ति है, जो ज्ञान के अधिगम की प्रक्रिया में सहायक होती है। बुद्धि व्यक्ति को
मार्गदर्शन प्रदान करती है, जिससे वह सही पथ पर चल सकता है। भारतीय दार्शन में बुद्धि को
परिष्कृ त और सुधारित करने के लिए विभिन्न योग और साधना की प्रक्रियाओं की सिफारिश की गई
है। जब बुद्धि शुद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को अधिकांश परिस्थितियों में सही निर्णय लेने में मदद
करती है और अंत में आत्म-साक्षात्कार की ओर मार्गदर्शन करती है।

 अहंकार (Ego): अहंकार, जिसे हिंदी में “मैं-भाव” भी कहा जाता है, हमारी व्यक्तित्व का वह अंग है
जो खुद को पहचानता है और खुद को अन्य से अलग महसूस करता है। अहंकार हमें खुद को
महत्वपूर्ण महसूस कराता है, और यह हमें हमारे काम और क्रियावलियों में प्रोत्साहित करता है।
अहंकार हमें हमारे स्वीकृ ति, सम्मान, और पहचान के लिए दूसरों से प्रतिस्थापन और पुष्टि प्राप्त
करने में मदद करता है। अहंकार हमें हमारे विचारों, आस्थाओं, और मान्यताओं को दूसरों पर थोपने
की प्रवृत्ति भी दिलाता है।भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में अहंकार को एक बाधक तत्व माना जाता है
जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को छु पाने में सहायक है। अधिक अहंकार से व्यक्ति माया में फं स जाता
है और अध्यात्मिक प्रगति से वंचित हो जाता है। इसलिए, अध्यात्मिक साधना में अहंकार को पार
करने की कोशिश की जाती है, ताकि आत्मा का सच्चा स्वरूप प्रकट हो सके । इस संदर्भ में, अहंकार
को त्यागने और नम्रता में रहने की सिफारिश की जाती है, जिससे कि व्यक्ति अपने अध्यात्मिक
लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हो सके ।

 चित्त (Chitta): चित्त हिन्दी में एक ऐसा शब्द है जिसे अंग्रेजी में ‘माइंडस्टफ’ या ‘मेंटल फै कल्टी’
के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। योग और अध्यात्म में, चित्त को अक्सर मन, बुद्धि, अहंकार
और चित्त के यह चार अंश माना जाता है। चित्त वास्तविकता की संवेदना को संग्रहित करता है।
यह हमें अनुभव करने और समझने में मदद करता है। चित्त में हमारे अनुभवों, विचारों और
संवेदनाओं की संचय होती है, जिसे संस्कार कहते हैं। ये संस्कार हमारे प्रतिक्रिया, आचरण और
विचार में प्रभावित करते हैं। चित्त विभिन्न परिप्रेक्ष्यों और सितुएशन में प्रतिक्रिया करता है। यह हमें
वातावरण में हो रही घटनाओं और घटनाक्रमों का समझने में मदद करता है। चित्त अके ला वह
घटक नहीं है जो विचार उत्पन्न करता है, बल्कि यह विचारों को संग्रहित भी करता है। इससे हमें
अपने आप में एक अन्तर्नाद की अहसास होती है।भारतीय अध्यात्म में चित्त को व्यापक रूप से
समझा जाता है। योग सूत्र में पतंजलि ने चित्त की प्रशांति को योग की पहचान माना है।
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” – योग चित्त के वृत्तियों (अवबोधनों) की निरोध (रोक-थाम) है। चित्त की
प्रशांति और स्थिरता ही समाधि की कुं जी है। चित्त का संयम और नियंत्रण ही असली योग है और
यही व्यक्ति को आत्मा की सच्ची पहचान से जोड़ता है।

3). कारण शरीर (Causal Body) : कारण शरीर, जो कि आध्यात्मिक पाठ्यक्रमों में व्यक्ति के तीन शरीरों
(स्थूल, सूक्ष्म और कारण) में सबसे सूक्ष्म और अदृश्य शरीर माना जाता है, हमारे जीवन के अनुभवों के
संस्कार और कर्मों का संचय है। कारण शरीर हमारे जीवनों के पूर्वजन्म के कर्मों और संस्कारों का संचय है।
यह वह शरीर है जिसमें हमारे संस्कार और कर्म संचित होते हैं और जिसके कारण हम अगले जन्म में
जन्म लेते हैं। कारण शरीर में जागरण, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की अवबोधन रहती है। यह अवस्था हमें
हमारे अधिकांश संस्कारों से परिपूर्ण और संजीवनी बनाती है। कारण शरीर का सीधा संबंध मोक्ष या सम्पूर्ण
मुक्ति से है। जब व्यक्ति अपने कारण शरीर के संस्कारों और कर्मों को पार कर लेता है, तब वह सम्पूर्ण
रूप से मुक्त होता है और आत्मा ब्रह्म से मिल जाती है।

कारण शरीर में अविद्या विद्यमान रहती है। कारण शरीर को अक्सर अनंत और मूल प्रकृ ति से संबंधित
माना जाता है, जिसमें अविद्या (अज्ञान) प्रमुख घटक होता है। अविद्या का अर्थ है आत्मा की असली
प्रकृ ति का अज्ञान। इसके चलते ही जीवात्मा संसार में जन्म लेता है और पुन: पुन: जन्म-मरण के चक्र में
फं स जाता है। अविद्या की वजह से ही जीव अपने असली स्वरूप को भूल जाता है और शरीर, मन, और
बुद्धि के साथ तादात्म्य (आधार-आधेय भाव) कर लेता है।

जब जीवात्मा अपने असली स्वरूप, जो कि शुद्ध, चैतन्य, और अनंत है, को पहचानता है, तो अविद्या का
नाश होता है। यह पहचान आत्म-ज्ञान के माध्यम से होती है। जब अविद्या का नाश होता है, तो कारण
शरीर की प्रकृ ति भी समाप्त हो जाती है, और जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त होता है।

जब हम जागते हैं, हमारा स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है। स्थूल शरीर से हम बाहरी जगत को
अनुभव करते हैं, और सूक्ष्म शरीर से हम अपनी आंतरिक अनुभूतियों और विचारों को अनुभव करते
हैं। स्वप्न अवस्था में, जब हम सपने देखते हैं, तो हमारा सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है, जबकि स्थूल शरीर
विश्राम कर रहा होता है। लेकिन सुषुप्ति अवस्था, या गहरी नींद, में हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों ही
विश्राम में होते हैं। इस समय के वल कारण शरीर ही सक्रिय होता है। इसलिए, सुषुप्ति को कारण शरीर की
अवस्था भी कहा जाता है।

सुषुप्ति के समय, जीव अपनी असली प्रकृ ति, जो शुद्ध चैतन्य है, के करीब होता है, लेकिन अविद्या की
वजह से वह इसे पूरी तरह से अनुभव नहीं कर पाता। इसलिए, जब हम जागते हैं, हम अहसास करते हैं कि
हमने अच्छी तरह से सोया, लेकिन हमें यह याद नहीं रहता कि हमने कु छ सपने देखे थे या कु छ अनुभव
किया। इसे कारण शरीर के अविद्या ज्ञान का प्रकट होना माना जाता है।

स्थूल, सूक्ष्म शरीर और गृहों का विज्ञान?

स्थूल, सूक्ष्म शरीर और गृहों का विज्ञान विभिन्न धार्मिक और तांत्रिक परंपराओं में प्रयुक्त एक शास्त्रीय
अध्ययन है। यह विज्ञान मान्यताओं और विश्वासों पर आधारित है, जिसमें माना जाता है कि मनुष्य के
शरीर के अलावा उसके सूक्ष्म और स्थूल शरीर भी होते हैं और गृहों के प्रभाव मनुष्य के जीवन पर असर
डालते हैं। ये विज्ञान ज्योतिष और तांत्रिक प्रथाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

1. स्थूल शरीर: स्थूल शरीर शरीर का भौतिक और दृश्यमान रूप है। यह शरीर इंद्रियों के
माध्यम से बाहरी जगत् के संपर्क में रहता है और उसकी देखभाल करने के लिए शारीरिक
आहार, व्यायाम और स्वस्थ जीवनशैली की आवश्यकता होती है।
2. सूक्ष्म शरीर: सूक्ष्म शरीर विचार, भावना, मन, प्राण और चेतना के साथ जुड़ा होता है। इसे
आध्यात्मिक और मानसिक स्तर का शरीर भी कहा जाता है। सूक्ष्म शरीर के माध्यम से
विभिन्न प्राणिक, आध्यात्मिक और मानसिक प्रभाव शरीर पर पड़ते हैं और उसकी स्थिति
को नियंत्रित करते हैं।
3. गृहों का प्रभाव: ज्योतिष विज्ञान में माना जाता है कि ग्रहों की स्थिति और गतिविधियों
का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव होता है। ज्योतिषी ग्रहों की स्थिति का अध्ययन करके
व्यक्ति के जीवन में आने वाली समस्याओं, योग्यताओं, व्यवसाय, स्वास्थ्य, और संबंधों के
बारे में अद्यतन और पूर्वानुमान करने का प्रयास करते हैं। इसके आधार पर वे युक्तियाँ दे
सकते हैं जो एक व्यक्ति की उचित मार्गदर्शन कर सकती हैं।
यह विज्ञान अपनी अनुभूति और विश्वास पर आधारित है और इसे वैज्ञानिक संके त मान्यताओं से अलग
माना जाता है। यद्यपि कु छ लोग इसे गंभीरता से लेते हैं, अन्य लोग इसे मान्यताओं और विश्वासों के रूप
में देखते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=8JYpudV0nhA&t=10s

ज्योतिष: मानव शरीर और ग्रहों के बीच क्या संबंध है?


वास्तव में एक सीधा संबंध है: मूल रूप से ग्रह हमारे भीतर, हमारे चक्रों में हैं।

मैं इसे थोड़ा बेहतर ढंग से समझाता हूं: ग्रहों और हमारे सूक्ष्म (ऊर्जा) शरीर के बीच सीधा संबंध है , जो
हमारे भौतिक शरीर का मैट्रिक्स है। वह संबंध विशेष रूप से चक्रों के साथ होता है। (मैं मान रहा हूं कि
आप कु छ सूक्ष्म शरीर रचना जानते हैं, जिसमें चक्र कें द्रीय हैं।)

योगानंद ने अपनी योगी की आत्मकथा में बताया है: "सर्वज्ञ आध्यात्मिक आंख के सूर्य के चारों ओर घूमने
वाले छह (ध्रुवीयता से बारह) आंतरिक नक्षत्रों के साथ एक इंसान की सूक्ष्म प्रणाली , भौतिक सूर्य और बारह
राशियों से जुड़ी हुई है।"

स्वामी क्रियानन्द इस शिक्षण का विस्तार करते हैं। वह बताते हैं कि कै से प्रत्येक ग्रह और नक्षत्र एक
विशिष्ट चक्र से मेल खाते हैं। इसका अधिक गहराई से अध्ययन करने के लिए, कृ पया उनकी पुस्तक योर
सन साइन एज़ ए स्पिरिचुअल गाइड , या (संक्षिप्त विवरण के लिए) उनका योग मैनुअल, द आर्ट एंड
साइंस ऑफ़ राज योग पढ़ें ।

दिलचस्प बात यह है कि क्रियानंद बताते हैं कि कै से ग्रह हमारी आंतरिक वास्तविकताओं के प्रतीक हैं, न
कि इसके विपरीत। उदाहरण के लिए, सूर्य (जैसा कि यह शक्तिशाली है) के वल हमारी आध्यात्मिक आंख का
प्रतीक है, जिसका प्रकाश, जैसा कि योगी सिखाते हैं, सूर्य के प्रकाश से कहीं अधिक है। चंद्रमा इसी तरह
मेडु ला ऑबोंगटा का प्रतीक है, इसके विपरीत नहीं। और इसी तरह।

यह हमें वैदिक ज्योतिष की ओर ले जाता है, जो "योग की तरह, अधिक आध्यात्मिक युग में विकसित
हुआ।" यह वास्तव में आंतरिक योग विज्ञान और रीढ़ की हड्डी के कें द्रों की 'राशि' का विस्तार है। प्राचीन
काल में नक्षत्रों और ग्रहों को मनुष्य के स्वभाव के गहन व्यक्तिपरक सत्य को व्यक्त करने के लिए माना
जाता था। ( राजयोग की कला और विज्ञान से )।

सरल शब्दों में: आपकी वैदिक कुं डली में ग्रह आपके चक्रों की स्थिति की सटीक तस्वीर हैं। और आपके चक्रों
में क्या है यह निर्धारित करता है कि आप अपने शरीर, मन और आत्मा में क्या हैं। इसलिए, ग्रह संपूर्ण
मनुष्य का वर्णन करते हैं।

तो, एक-एक करके :


 शनि आपके पहले चक्र, मूलाधार चक्र (पृथ्वी तत्व) का प्रतिनिधित्व करता है।

 बृहस्पति आपके दूसरे चक्र, स्वादिस्तान चक्र (जल तत्व) का प्रतिनिधित्व करता है।

 मंगल आपके तीसरे चक्र, मैनीक्योर चक्र (अग्नि तत्व) का प्रतिनिधित्व करता है।

 शुक्र आपके चौथे चक्र, अनाहत चक्र (वायु तत्व) का प्रतिनिधित्व करता है।

 बुध आपके पांचवें चक्र, विशुद्ध चक्र (ईथर तत्व) का प्रतिनिधित्व करता है।

 चंद्रमा आपके छठे चक्र का प्रतिनिधित्व करता है, आयु चक्र का नकारात्मक ध्रुव (यहां एयूएम,
" पवित्र आत्मा" , शरीर में प्रवेश करता है)।

 सूर्य आपके छठे चक्र, आयु चक्र (मसीह चेतना, " पुत्र ") के सकारात्मक ध्रुव का प्रतिनिधित्व
करता है ।

 अंतिम चक्र, सहस्रार , सभी ग्रहों से परे है, और ब्रह्मांडीय चेतना, " पिता " को धारण करता है।

स्वामी क्रियानंद सलाह देते हैं: “यदि आपकी कुं डली में कोई ग्रह कमजोर है, तो आप अपने शरीर में उसके
सापेक्ष चक्र पर ध्यान करके और वहां के कं पनों में सामंजस्य बिठाकर अपने ऊपर उसके प्रभाव को सुधारने
का प्रयास कर सकते हैं। लेकिन अगर यह निचले तीन चक्रों में से एक है जो शामिल है, तो उस पर ध्यान
न दें, बल्कि ऊपरी त्रय में अपेक्षाकृ त स्थित चक्र पर ध्यान दें: कोक्सीक्स में कं पन को सुसंगत बनाने के
लिए हृदय कें द्र पर; त्रिक में सामंजस्य स्थापित करने के लिए ग्रीवा कें द्र पर; और क्राइस्ट सेंटर पर कमर में
सामंजस्य स्थापित करने के लिए।”

अक्सर, यदि किसी की कुं डली में कोई ग्रह कमजोर है - जिसका अर्थ है कि संबंधित चक्र कमजोर है - तो
वैदिक ज्योतिषी उसे मजबूत करने के लिए एक विशेष रत्न की सलाह देते हैं। यदि आप अपनी कुं डली को
गहराई से पढ़ने का आनंद लेंगे, यह जानने के लिए कि आपके ग्रह आपके व्यक्तिगत जीवन को कै से
निर्धारित करते हैं, तो मेरा सुझाव है कि आप द्रुपद मैकडोनाल्ड से संपर्क करें ( उनका ईमेल पता प्राप्त
करने के लिए हमसे संपर्क करें )। वह एक उत्कृ ष्ट वैदिक ज्योतिषी हैं - आशा है कि उनके पास समय
होगा, क्योंकि वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी मांग बहुत अधिक है।

एक आखिरी बात: कें द्रीय ध्यान तकनीक जो योगानंद ने सिखाई - क्रिया योग - ग्रहों और हमारे सूक्ष्म शरीर
के बीच इस संबंध को लागू करती है। यह सीधे हमारे "आंतरिक ग्रहों" को प्रभावित करता है।

योगानंद ने अपनी योगी की आत्मकथा में इसकी व्याख्या की है: "क्रिया योगी मानसिक रूप से अपनी
जीवन ऊर्जा को छह रीढ़ कें द्रों (मेडु लरी, सर्वाइकल, डोर्सल, लम्बर, सेक्रल और कोक्सीजील प्लेक्सस) के चारों
ओर ऊपर और नीचे की ओर घूमने के लिए निर्देशित करता है, जो इसके अनुरूप हैं। राशि चक्र के बारह
सूक्ष्म लक्षण, प्रतीकात्मक ब्रह्मांडीय मनुष्य। मनुष्य की संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के चारों ओर ऊर्जा की
डेढ़ मिनट की क्रांति उसके विकास में सूक्ष्म प्रगति को प्रभावित करती है; क्रिया का वह आधा मिनट
प्राकृ तिक आध्यात्मिक विकास के एक वर्ष के बराबर है।

वैदिक ज्योतिष में, प्रत्येक ग्रह शरीर के विशिष्ट अंगों और स्वास्थ्य के पहलुओं से जुड़ा होता है। यहां कु छ
कनेक्शन दिए गए हैं:

1. सूर्य का संबंध आंखों, हृदय और परिसंचरण से है।


2. चंद्रमा (चंद्र) मन, भावनाओं और शरीर में तरल पदार्थों से जुड़ा हुआ है।
3. मंगल (मंगल) मांसपेशियों, रक्त और ऊर्जा के स्तर से जुड़ा हुआ है।
4. बुध (बुध) तंत्रिका तंत्र, वाणी और त्वचा से जुड़ा है।
5. बृहस्पति (गुरु) यकृ त, वसा चयापचय और समग्र विकास से जुड़ा है।
6. शुक्र (शुक्र) प्रजनन प्रणाली, गुर्दे और हार्मोनल संतुलन से जुड़ा हुआ है।
7. शनि (शनि) हड्डियों, दांतों और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया से जुड़ा है।
8. राहु और के तु छाया ग्रह हैं और रहस्यमय और कार्मिक प्रभावों से जुड़े हैं।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि वैदिक ज्योतिष एक जटिल और प्राचीन प्रणाली है, और चिकित्सकों के
बीच व्याख्याएँ भिन्न हो सकती हैं।

ग्रहों का हमारे जीवन पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है?

किसी भी वस्तु या व्यक्ति का प्रभाव दो तरीके से देखा जा सकता है पहला प्रत्यक्ष दूसरा अप्रत्यक्ष यानी
डायरेक्टर और इनडायरेक्ट। जैसे हम गर्म चीज़ों को या आग को छू ते हैं तो हमारा हाथ जल जल जाता है।
इसे हम प्रत्यक्ष प्रभाव कहेंगे। दूसरी तरफ आप किसी पहाड़ झील झरना जंगल या किसी ऐतिहासिक स्थल
को देखकर मंत्र मुक्त हो जाते हैं भाव विभोर हो जाते हैं और उस जगह बार-बार जाने की इच्छा होती है।
इसे हम अप्रत्यक्ष प्रभाव कह सकते हैं।

ठीक इसी प्रकार कोई व्यक्ति किसी का लाठी डंडे से पिटाई कर दे उसे आप प्रत्यक्ष प्रभाव के रूप में देख
सकते हैं और किसी व्यक्ति के संगति में रहकर कोई बिगड़ जाए तो उसे अप्रत्यक्ष रूप में देखा जाता है।

अब आते हैं आपके प्रश्न पर की ग्रहों का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। ठीक उसी तरह का प्रभाव
जैसा कि हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। ग्रहों का हमारे ऊपर डायरेक्ट प्रभाव क्या हो सकता है। ग्रहों के
रेडिएशन हमें झुलसा सकते हैं। परंतु प्रकृ ति ने पहले से ही इस पृथ्वी के चारों ओर ओजोन परत बना रखा
है जो रेडिएशन को आने से रोक देती है। अगर यह ओजोन परत समाप्त हो जाए तो सूर्य से निकलने वाले
अल्ट्रावायलेट किरण के कारण हम गंभीर बीमारियों के शिकार हो सकते हैं।

ग्रहों का अप्रत्यक्ष प्रभाव तो संभव ही नहीं है क्योंकि वह हमारे मित्र की तरह जुए या शराब के अड्डे पर ले
जा नहीं सकते हैं जिससे हमारी आदत बिगड़ जाए।

मुझे एक बात आज तक समझ नहीं आई कि जो ग्रह हमसे लाखों किलोमीटर दूर है जिसकी रोशनी भी यहां
ठीक से पहुंच नहीं पाती है।वह हमारे जीवन में कै से उथल-पुथल मचा देते हैं।मान लिया जाए किसी ग्रह से
रेडिएशन निकलती है तो किसी से शीतलता। जिसका एक सामान्य प्रभाव सभी लोगों पर दिखाई देगा ऐसा
नहीं होगा कि इसके प्रभाव से कोई अमीर बन जाए तो कोई गरीब और कोई बीमारी से ग्रसित हो जाए।

सतो गुण, रजो गुण, तमो गुण: सनातन धर्म के मूल सिद्धांत

सनातन धर्म में ‘सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण‘ तीन प्रमुख गुण हैं
जो प्रकृ ति के तीन बुनियादी तत्व हैं। ऐसा माना जाता है की यह तीनो
गुण सजीव, निर्जीव, स्थूल, सूक्षम सभी मैं विद्यमान रहते हैं। भगवत
गीता मैं भी श्री कृ ष्ण ने कहा है की जिस प्राणी मैं यह गुण ठीक मात्रा
मैं विद्यमान होते है वो संसार से मुक्त हो कर परम सीधी को प्रपात
करता है और विपत्ति के समय व्याकु ल भी नहीं होता है। ये तीनों गुण मनुष्य के व्यक्तित्व, विचार और
क्रियाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह गुण व्यक्ति की ऊर्जा के इलावा कु छ नहीं हैं
और यह ऊर्जा ही निर्धारित करती हैं की कोई वयक्ति कै से कार्य और वव्यहार करता है।

सतो गुण (Sattva Guna)

सनातन धर्म में त्रिगुण का सिद्धांत है, जिसमें ‘सतो गुण’ (Sattva Guna) प्रकृ ति के तीन मूल गुणों में से
एक है। सतो गुण को शुद्धता, ज्ञान और हार्मोनी का प्रतीक माना जाता है। यह गुण आत्मा की सच्चाई,
शांति और दिव्यता से संबंधित है। सतो गुण व्यक्ति के मन और आत्मा की पवित्रता को दर्शाता है। यह
आंतरिक शांति और स्वच्छता की ओर ले जाता है। यह गुण आत्म-जागरूकता, विवेक और आध्यात्मिक
ज्ञान को बढ़ावा देता है। सतो गुणी व्यक्ति सत्य और ज्ञान की खोज में समर्पित होते हैं। यह संतुलन और
सामंजस्य की भावना को बढ़ाता है। सतो गुणी व्यक्ति आंतरिक शांति और बाहरी संबंधों में सामंजस्य की
खोज में रहते हैं। सतो गुण व्यक्ति को इंद्रियों पर नियंत्रण और आत्म-संयम की ओर अग्रसर करता है।

प्रभाव और महत्व:

 सतो गुण व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक विकास में सहायक होता है।
 इस गुण का विकास आध्यात्मिक उत्थान और मोक्ष की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जाता है।
 सतो गुणी व्यक्ति समाज में सकारात्मक प्रभाव डालते हैं, जैसे कि शांति, सद्भावना और सहयोग की
भावना बढ़ाना।

हालांकि सतो गुण को अत्यंत शुभ माना जाता है , फिर भी सनातन धर्म में तीनों गुणों के बीच संतुलन की
बात कही गई है। यह संतुलन व्यक्ति को सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में समग्रता प्रदान करता है।

रजो गुण (Rajas Guna)

सनातन धर्म के त्रिगुण सिद्धांत में ‘रजो गुण’ (Rajas Guna) का अत्यंत महत्व है। रजो गुण को प्रकृ ति के
तीन मूल गुणों में से एक माना जाता है, जो क्रियाशीलता, ऊर्जा,
और परिवर्तन से संबंधित है। यह गुण सक्रियता और गति को
दर्शाता है। रजो गुण से प्रेरित व्यक्ति में ऊर्जा और सक्रियता की
अधिकता होती है। ऐसे लोग लक्ष्य-प्राप्ति और सफलता के लिए
प्रयत्नशील रहते हैं। रजो गुणी व्यक्ति महत्वाकांक्षी होते हैं और
उनमें आकांक्षाओं और इच्छाओं की प्रबलता होती है। यह गुण
व्यक्ति को निरंतर परिवर्तन और विकास की ओर प्रेरित करता है।

प्रभाव और महत्व:

 रजो गुण की प्रधानता वाले व्यक्ति करियर और व्यक्तिगत


जीवन में उन्नति के लिए सक्रिय रूप से प्रयासरत रहते हैं।
 यह गुण लक्ष्यों को प्राप्त करने की ओर प्रेरित करता है और व्यक्ति को परिणामों की ओर उन्मुख
करता है।
 रजो गुण व्यक्ति को ऊर्जावान और गतिशील बनाता है, जिससे वे सतत रूप से क्रियाशील रहते हैं।
हालांकि रजो गुण ऊर्जा और क्रियाशीलता का स्रोत है , लेकिन इसकी अत्यधिकता असंतोष, लालच, और
अशांति का कारण बन सकती है। इसलिए, सतो गुण और तमो गुण के साथ इसका संतुलन आवश्यक है।

तमो गुण (Tamas Guna)

सनातन धर्म के त्रिगुण सिद्धांत में ‘तमो गुण’ (Tamas Guna)


एक महत्वपूर्ण घटक है। यह गुण आलस्य, अज्ञानता, और
सुस्ती से संबंधित है। तमो गुण को अंधकार, अव्यवस्था, और
भौतिकता का प्रतीक माना जाता है, और यह मनुष्य की निम्न
आवृत्तियों और नकारात्मक प्रवृत्तियों से जुड़ा हुआ है। तमो
गुण व्यक्ति में आलस्य और उदासीनता को बढ़ाता है। इससे
व्यक्ति कर्मठता और सक्रियता के बजाय निष्क्रियता और
उदासीनता की ओर झुकाव रखते हैं। तमो गुण से प्रभावित
व्यक्ति अक्सर अज्ञानता और भ्रांतियों में फं से रहते हैं। यह गुण
ज्ञान की कमी और वास्तविकता से दूर रहने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। तमो गुण व्यक्ति में नकारात्मक
विचार, क्रोध, और निराशा को बढ़ाता है। यह गुण व्यक्ति को नकारात्मकता की ओर उन्मुख करता है। तमो
गुण व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं और सुखों में अत्यधिक लिप्तता की ओर ले जाता है, जिससे उनकी
आध्यात्मिक प्रगति बाधित होती है।

प्रभाव और महत्व:

 तमो गुण की अधिकता व्यक्ति के जीवन में कई चुनौतियों और समस्याओं का कारण बनती है।
 यह गुण आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालता है, और व्यक्ति को आत्म-विकास से दूर रखता है।
 तमो गुणी व्यक्ति समाज में नकारात्मकता और असंतोष को बढ़ा सकते हैं।

तमो गुण की प्रधानता व्यक्ति को भौतिकता और अज्ञानता की ओर ले जाती है , इसलिए इसे सतो और
रजो गुण के संतुलन के साथ देखा जाना चाहिए।

सतो गुण, रजो गुण, तमो गुण से संबंधित प्रश्नोत्तरी

1. सतो गुण किस प्रकार के व्यक्तित्व लक्षणों से संबंधित है?


o शांति, ज्ञान, और हर्ष
2. रजो गुण के कु छ मुख्य लक्षण क्या हैं?
o क्रियाशीलता, लालसा, और उत्तेजना
3. तमो गुण किस प्रकार के व्यवहार को प्रेरित करता है?
o आलस्य, अज्ञानता, और अविवेक
4. ध्यान और योगाभ्यास से सतो गुण को कै से बढ़ाया जा सकता है?
o नियमित अभ्यास और आत्म-चिंतन
5. किन कार्यों में रजो गुण का प्रमुख योगदान होता है?
o उद्यमिता, नवाचार, और प्रतिस्पर्धा
6. तमो गुण के कारण कौन सी मानसिक स्थितियाँ हो सकती हैं?
o उदासीनता, निराशा, और भ्रम
7. सतो गुण का सामाजिक संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
o सहयोग, समझदारी, और सद्भाव
8. रजो गुण व्यक्ति के किस प्रकार के निर्णयों को प्रभावित करता है?
o उद्योगिक और कै रियर-कें द्रित निर्णय
9. तमो गुण का स्वास्थ्य पर क्या नकारात्मक प्रभाव होता है?
o तनाव, अवसाद, और शारीरिक अस्वस्थता
10.क्या एक व्यक्ति में सभी तीनों गुण मौजूद हो सकते हैं?
o हाँ, विभिन्न अनुपातों में
11.सतो गुण और आध्यात्मिक विकास में क्या संबंध है?
o सतो गुण आध्यात्मिक जागरूकता और विकास को बढ़ाता है
12.रजो गुण के अधिकता से क्या सामाजिक परिणाम हो सकते हैं?
o प्रतिस्पर्धा, तनाव, और असंतुलन
13.तमो गुण को कम करने के लिए कौन से उपाय अपनाए जा सकते हैं?
o स्वस्थ जीवनशैली, सकारात्मक सोच, और शिक्षा
14.सतो गुण के प्रभाव से किस प्रकार के नेतृत्व गुण विकसित होते हैं?
o दूरदर्शिता, न्यायप्रियता, और प्रेरणा
15.रजो गुण और तमो गुण के बीच संतुलन कै से बनाया जा सकता है?
o स्व-जागरूकता, ध्यान, और संयमित जीवन शैली

चंद्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी क्या है?

चंद्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी : प्राचीन समय से ही हमारे योगी इस शरीर पर काम कर रहे हैं और इसको
समझने मैं उनकी समझ साइंस से बहुत आगे रही है। योगियों ने ये समझा की हमारे शरीर मैं एक तरह की
ऊर्जा प्रवाहित होती है और उन्होंने उस ऊर्जा को नाड़ियों का नाम दिया। शिव सहिंता के अंदर हमारे शरीर
मैं नाड़ियों की संख्या 3 लाख पचास हज़ार बताई गई है और वहीँ गौ रक्ष सहिंता के आधार पर हमारे शरीर
मैं नाड़ियों की संख्या 72 हज़ार बताई गई है। इन 72 हज़ार नाड़ियों मैं से भी जो प्रमुख नाड़ियां है वो 03
है। इनके नाम है चंद्र नाड़ी, सूर्य नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी।

चंद्र नाड़ी हमारे बाएं पक्ष की 36 हज़ार नाड़ियों को नियंत्रण करती है वहीँ सूर्य नाड़ी हमारे दाएं पक्ष की 36
हज़ार नाड़ियों को नियंत्रण करती है और इन दोनों नाड़ियों को सुषुम्ना नाड़ी नियंत्रण करती है।सुषुम्ना नाड़ी
के बारे मैं आप दिए गए ‘सुषुम्ना नाड़ी से जुडी सम्पूर्ण जानकारी‘ पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैंऔर आज
हम जिस पर बात करने जा रहे हैं वो है चंद्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी। चंद्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी को ठीक से
साध के ही हम सुषुम्ना नाड़ी को जागृत कर सकते हैं। चंद्र नाड़ी जो है वो प्राणिक प्रगति के लिए होती है,
सूर्य नाड़ी जो है वो मानसिक प्रगति के लिए होती है और वहीँ सुषुम्ना नाड़ी जो है वो आध्यात्मकि प्रगति
के लिए होती है। आइये अब इन दोनों नाड़ियों को थोड़ा डिटेल मैं समझने की कोशिश करते हैं।
1). चंद्र नाड़ी, जिसे ईड़ा नाड़ी भी कहते हैं, हमारे सूक्ष्म शरीर की एक महत्वपूर्ण प्राणिक नाड़ी है। इसका
संबंध चंद्रमा (चंद्र) के शीतलता और शांतिप्रद प्रकृ ति से है। चंद्र नाड़ी शरीर के बाएं पक्ष से गुजरती है और
मूलाधार चक्र से शुरू होकर आज्ञा चक्र में समाप्त होती है, इसका अर्थ है कि यह हमारे सूक्ष्म शरीर के
निचले हिस्से से शीर्ष तक पहुंचती है, जिसमें सभी चक्र समाहित होते हैं। चंद्र नाड़ी का प्रतीक शीतलता और
शांति है। जब यह नाड़ी प्रधान होती है, तो व्यक्ति अधिक शांत और प्रशांत अनुभव करता है। चंद्र नाड़ी की
सक्रियता से शरीर और मन को ठंडा और आरामदायक अहसास होता है। इससे मन की अवसादना और
चिंता में कमी होती है, और शारीरिक और मानसिक विश्राम प्राप्त होता है।

योग में चंद्र नाड़ी को संतुलित करने और इसे शुद्ध करने के लिए विशेष प्राणायाम और अभ्यास होते हैं,
जैसे कि अनुलोम-विलोम प्राणायाम। इससे नाड़ी में प्राण ऊर्जा का संचार बेहतर होता है, जिससे व्यक्ति
अधिक संतुलित और शांत अनुभव करता है। तंत्र में, चंद्र नाड़ी को सूक्ष्म शरीर की शक्ति और प्राणिक ऊर्जा
का मार्गदर्शक माना जाता है।

आज के समय में, जहाँ जीवन में तनाव और असंतुलन की बढ़ती हुई चुनौतियाँ हैं, चंद्र नाड़ी को सक्रिय
और संतुलित रखना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

चंद्र नाड़ी के संदर्भ में फायदे :-

 मानसिक शांति: चंद्र नाड़ी शांतिप्रद ऊर्जा का संचालन करती है। जब यह सक्रिय होती है, तो व्यक्ति
अधिक शांत और संतुलित अनुभव करता है। इससे मन की विचलन, चिंता और तनाव में कमी होती
है।
 शारीरिक विश्राम: चंद्र नाड़ी की सक्रियता से शारीरिक शीतलता और आराम प्राप्त होता है। शरीर में
उत्तेजना और गर्मी में न्यूनतम अनुभूति होती है, जिससे शारीरिक संवेदनशीलता और असहजता में
कमी होती है।
 स्वास्थ्य लाभ: चंद्र नाड़ी के संतुलित और सक्रिय होने से अनेक स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं। यह
पाचन, नींद और ह्रदय की गति में सुधार कर सकती है।
 आध्यात्मिक विकास: चंद्र नाड़ी की सक्रियता से व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति में भी सहायक होती
है। ध्यान और प्राणायाम के प्रक्रियाओं में, चंद्र नाड़ी का संतुलन और सक्रिय होना मन को एकाग्रता
और गहरी समाधि में ले जाने में मदद करता है।

इस प्रकार, चंद्र नाड़ी की सक्रियता और संतुलन से प्राप्त फायदे हमारे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक
स्वास्थ्य को सुधार सकते हैं और हमें एक संतुलित और शांत जीवन जीने में मदद कर सकते हैं।

2). सूर्य नाड़ी हमारे सूक्ष्म शरीर में एक प्रमुख नाड़ी


है, जिसे आमतौर पर पिंगला नाड़ी भी कहा जाता है।
यह चंद्र नाड़ी का प्रतिपक्ष है और विशेष तौर पर
सक्रिय और ऊर्जावान ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है।
सूर्य नाड़ी शारीरिक रूप में शरीर के दाएं पक्ष में
स्थित है। इसका आरंभ मूलाधार चक्र से होता है और
यह आज्ञा चक्र में समाप्त होता है। सूर्य नाड़ी सूर्य की
तरह गर्म, प्रकाशमान और सक्रिय ऊर्जा का
प्रतिनिधित्व करती है। इससे ऊर्जा, उत्साह और सक्रियता की अनुभूति होती है।

सूर्य नाड़ी (पिंगला नाड़ी) के फायदे:-


 ऊर्जा और सक्रियता: सूर्य नाड़ी की सक्रियता से शरीर में ऊर्जा की भरपूर मात्रा बनी रहती है। यह
ऊर्जा व्यक्ति को जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है।
 शारीरिक स्वास्थ्य: सूर्य नाड़ी सक्रिय होने पर, शारीरिक प्रदर्शन में सुधार होता है। इससे शारीर में
रक्त संचारन बेहतर होता है और मांसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
 मानसिक जागरूकता और एकाग्रता: सूर्य नाड़ी के संचार से मानसिक स्तर पर जागरूकता और ध्यान
में वृद्धि होती है। यह व्यक्ति को अधिक एकाग्र और निर्दिष्ट कार्यों में ध्यान कें द्रित करने में मदद
करता है।
 आध्यात्मिक प्रगति: सूर्य नाड़ी की सक्रियता से आध्यात्मिक अनुभवों की गहराई और स्पष्टता में
वृद्धि होती है। ध्यान, प्राणायाम और अन्य आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में सूर्य नाड़ी की सहायता से
व्यक्ति की आत्मा का विकास हो सकता है।

इस प्रकार, सूर्य नाड़ी की सक्रियता और संतुलन से प्राप्त फायदे हमारे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक
स्वास्थ्य को सुधार सकते हैं। इसकी सही स्थिति और कार्यक्षमता से हम जीवन की चुनौतियों का सामना
कर सकते हैं और आध्यात्मिक जागरूकता को भी प्राप्त कर सकते हैं।

चंद्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी से संबंधित 13 प्रश्नोत्तरी

1. चंद्र नाड़ी क्या है?


o चंद्र नाड़ी शरीर की बाईं ओर स्थित ऊर्जा चैनल है, जो शीतलता, शांति, और चिंतनशीलता से
संबंधित है।
2. सूर्य नाड़ी क्या है?
o सूर्य नाड़ी शरीर की दाईं ओर स्थित ऊर्जा चैनल है, जो ऊष्मा, ऊर्जा, और गतिविधि से
संबंधित है।
3. नाड़ी शोधन प्राणायाम क्या है?
o नाड़ी शोधन प्राणायाम एक योगिक श्वासायाम है जो चंद्र और सूर्य नाड़ियों को संतुलित करने
के लिए किया जाता है।
4. चंद्र नाड़ी का मानव शरीर पर क्या प्रभाव होता है?
o चंद्र नाड़ी का सक्रिय होना शांति, ठं डक, और विश्राम की भावना उत्पन्न करता है।
5. सूर्य नाड़ी का मानव शरीर पर क्या प्रभाव होता है?
o सूर्य नाड़ी का सक्रिय होना ऊर्जा, गर्मी, और सक्रियता में वृद्धि करता है।
6. चंद्र भेदन प्राणायाम क्या है?
o चंद्र भेदन प्राणायाम एक योगिक अभ्यास है जो चंद्र नाड़ी को सक्रिय करता है।
7. सूर्य भेदन प्राणायाम क्या है?
o सूर्य भेदन प्राणायाम एक योगिक अभ्यास है जो सूर्य नाड़ी को सक्रिय करता है।
8. नाड़ियों का योग में क्या महत्व है?
o नाड़ियाँ योग में प्राण ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित करने और शरीर-मन के संतुलन में
महत्वपूर्ण होती हैं।
9. आयुर्वेद में नाड़ियों का क्या महत्व है?
o आयुर्वेद में नाड़ियों का महत्व शरीर की ऊर्जा प्रणाली को संतुलित करने और स्वास्थ्य और
उपचार में होता है।
10.नाड़ी दोष क्या होता है?
o नाड़ी दोष तब होता है जब चंद्र या सूर्य नाड़ी असंतुलित हो जाती है, जिससे शारीरिक और
मानसिक असंतुलन हो सकता है।
11.चंद्र नाड़ी को कै से सक्रिय किया जा सकता है?
o चंद्र नाड़ी को सक्रिय करने के लिए चंद्र भेदन प्राणायाम और अन्य शीतल प्रक्रियाएं की जा
सकती हैं।
12.सूर्य नाड़ी को कै से सक्रिय किया जा सकता है?
o सूर्य नाड़ी को सक्रिय करने के लिए सूर्य भेदन प्राणायाम और गर्म प्रक्रियाएं की जा सकती हैं।
13.नाड़ी शोधन प्राणायाम कै से करें?
o नाड़ी शोधन प्राणायाम में वैकल्पिक नासिका श्वासायाम किया जाता है, जिसमें एक नाक से
साँस लेना और दूसरे से छोड़ना शामिल है।

सुषुम्ना नाड़ी से जुडी सम्पूर्ण जानकारी

सुषुम्ना नाड़ी योग और तांत्रिक परंपराओं में चर्चित


एक महत्वपूर्ण नाड़ी है जिसे ‘शुषुम्णा’ या ‘सुषुम्णा’
भी कहा जाता है। नाड़ी शास्त्र में, यह माना जाता
है कि शरीर में अनेक नाड़ियां होती हैं जो प्राणिक
ऊर्जा का संचार करती हैं। इनमें से तीन मुख्य
नाड़ियाँ होती हैं: इडा, पिंगला और सुषुम्ना
नाड़ी। इडा और पिंगला नाड़ी को हम पहले ही बता
चुके हैं। आप दिए गए लिंक पर क्लिक करके उसके
बारे मैं पढ़ सकते हैं।

सुषुम्ना नाड़ी शरीर के मध्य स्तंभ में स्थित होती है, यह मूलाधार चक्र से प्रारंभ होकर सहस्रार चक्र तक
जाती है। सुषुम्ना नाड़ी शरीर के सभी प्रमुख चक्रों से जुड़ी होती है और इसका संबंध उन सभी चक्रों के
संचार और सक्रियता से है। इस नाड़ी के माध्यम से कुं डलिनी शक्ति का संचार होता है। जब कुं डलिनी
जागृत होती है, तो यह सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से सभी चक्रों को पार करती हु ई सहस्रार चक्र में पहुंचती
है। इस प्रकार, सुषुम्ना नाड़ी शरीर की अंतरात्मा और बाह्य जगत के बीच का सेतु मानी जाती है, और
इसके सक्रिय होने से व्यक्ति के जीवन में अद्भुत परिवर्तन होते हैं।

सुषुम्ना नाड़ी का महत्व

सुषुम्ना नाड़ी योग और तांत्रिक परंपरा में विशेष महत्वपूर्ण है। इसका महत्व निम्नलिखित प्रकार से है:

 चेतना का मार्ग: सुषुम्ना नाड़ी को चेतना का प्रमुख मार्ग माना जाता है। जब कुं डलिनी शक्ति
मूलाधार चक्र से जागृत होती है, तो यह सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से सहस्रार चक्र तक उठती है।
इसका मतलब है कि जब चेतना की ऊर्जा सही दिशा में प्रवाहित होती है, तो व्यक्ति का जीवन और
समझ बदल जाती है।
 आत्म-जागरूकता: सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होने पर, व्यक्ति की आत्म-जागरूकता बढ़ती है। यह व्यक्ति
को उसकी असली पहचान और जीवन के उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करता है।
 आध्यात्मिक प्रगति: सुषुम्ना नाड़ी के सक्रिय होने से व्यक्ति में अध्यात्मिक जागरूकता बढ़ती है।
यह उसे उच्चतम सत्ता तक पहुंचाता है, जिससे वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
 चक्रों का संचार: सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से सभी मुख्य चक्र जुड़े होते हैं। जब यह नाड़ी सक्रिय
होती है, तो चक्र भी संचालित होते हैं, जिससे पूरे शरीर में ऊर्जा का संचार अच्छे से होता है।
 मानसिक स्वास्थ्य: सुषुम्ना नाड़ी का सक्रिय होना मानसिक स्वास्थ्य को भी बेहतर बनाता है। यह
व्यक्ति को ध्यान, समता और आंतरिक शांति की स्थिति में लेजाता है।
 कुं डलिनी जागरण: सुषुम्ना नाड़ी का सक्रिय होना कुं डलिनी शक्ति के जागरण के लिए अत्यंत
महत्वपूर्ण है। जब कुं डलिनी जागृत होती है, तो यह सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से उठती है और
व्यक्ति को उच्चतम ज्ञान और जागरूकता प्रदान करती है।

सुषुम्ना नाड़ी को कै से सक्रिय किया जा सकता है?

 प्राणायाम: अनुलोम-विलोम और भ्रामरी प्राणायाम जैसे प्राणायाम अभ्यास सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय
करने में मदद करते हैं। यह प्राणायाम चित्त को शांत करते हैं और ऊर्जा को सुषुम्ना नाड़ी में
प्रवाहित करने में मदद करते हैं।
 मेडिटेशन: ध्यान और समाधि की प्रक्रिया चेतना को एकाग्र करती है और सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय
करने में मदद करती है।
 आसन और योग: कु छ विशेष आसन, जैसे की सर्वांगासन, हलासन और भुजंगासन, सुषुम्ना नाड़ी
को सक्रिय करने में मदद करते हैं।
 चक्र साधना: मूलाधार से सहस्रार तक के चक्रों पर ध्यान और मन्त्र जप के माध्यम से सुषुम्ना
नाड़ी को सक्रिय किया जा सकता है।
 शक्तिपात: यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को अपनी ऊर्जा
ट्रांसफर करता है, जिससे शिष्य की सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय हो जाती है।

इन सभी प्रक्रियाओं का समर्थन और मार्गदर्शन एक प्रशिक्षित योग गुरु या आध्यात्मिक गाइड से होना
चाहिए। इससे आपको सही दिशा में मार्गदर्शन मिलेगा और सुषुम्ना नाड़ी को सुरक्षित और प्रभावी तरीके से
सक्रिय किया जा सकता है।

क्या सुषुम्ना नाड़ी का जागरण सुरक्षित है?

सुषुम्ना नाड़ी का जागरण एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिससे कुं डलिनी शक्ति जागृत होती है। इसका
जागरण किसी भी साधक की आध्यात्मिक प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान होता है। हालांकि, इसे करते समय
कु छ सावधानियां बरतनी चाहिए।

 उचित मार्गदर्शन: सुषुम्ना नाड़ी का जागरण करने से पहले आवश्यक है कि आपको एक अनुभवी गुरु
की मार्गदर्शन में इस प्रक्रिया को समझना और सीखना चाहिए। अनधिकृ त और अनुभवहीन लोगों से
इसे सीखना असुरक्षित हो सकता है।
 शारीरिक और मानसिक स्तिथि: आपका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य स्थिर होना चाहिए। किसी
भी प्रकार के तनाव, अवसाद या अन्य मानसिक विकार में इसे प्रयासित नहीं करना चाहिए।
 संवेदनशीलता: कु छ लोग सुषुम्ना नाड़ी के जागरण की प्रक्रिया में अधिक संवेदनशील होते हैं। ऐसे
में, उन्हें धीरे-धीरे और सतर्क ता से इस प्रक्रिया में प्रवेश करना चाहिए।
 संभावित प्रभाव: कु छ लोगों को सुषुम्ना नाड़ी के जागरण से असामान्य अनुभव हो सकते हैं, जैसे की
अच्छा न लगना, उच्चतम स्तर पर चेतना महसूस करना, या फिर अजीब संवेदनाओं का अहसास हो
सकता है।
 धैर्य और निरंतरता: सुषुम्ना नाड़ी का जागरण समय और प्रयास मांगता है। इसे जल्दबाजी में और
अधूरा छोड़कर नहीं करना चाहिए।

अंत में, सुषुम्ना नाड़ी का जागरण सुरक्षित है जब यह उचित मार्गदर्शन, सावधानी और समझबूझ से किया
जाता है। अन्यथा, इससे असामान्य और अनपेक्षित प्रभाव भी हो सकते हैं। इसलिए, इसे करने से पहले
अच्छी तरह से समझना और अनुभवी गुरु की सलाह लेना महत्वपूर्ण है।

क्या सभी लोग सुषुम्ना नाड़ी को जागृत कर सकते हैं?

सुषुम्ना नाड़ी का जागरण आध्यात्मिक प्रक्रिया है और इसे प्राप्त करने की क्षमता प्रत्येक व्यक्ति में होती
है। हालांकि, प्रत्येक व्यक्ति की तैयारी और पात्रता अलग होती है। निम्नलिखित बिंदुओं को मध्य नजर में
रखते हुए, इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है:

 आध्यात्मिक पात्रता: सभी लोग आध्यात्मिकता में रूचि और प्रवृत्ति नहीं रखते। कु छ लोग अधिक
प्रवृत्ति वाले होते हैं जबकि कु छ लोग कम। जिनकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति अधिक होती है, वे सुषुम्ना
नाड़ी के जागरण के प्रति अधिक प्रतिबद्ध होते हैं।
 अभ्यास और प्रतिज्ञा: सुषुम्ना नाड़ी का जागरण के वल सूत्र-पाठ से नहीं होता। इसे प्राप्त करने के
लिए नियमित अभ्यास, ध्यान, प्राणायाम और अन्य योगिक क्रियाओं की आवश्यकता होती है।
 मार्गदर्शन: एक अनुभवी गुरु या आचार्य का मार्गदर्शन होना चाहिए, जो साधक को सही दिशा में
मार्गदर्शन कर सके । बिना मार्गदर्शन के सुषुम्ना नाड़ी का जागरण करना संभावना से कठिन और
जोखिमपूर्ण हो सकता है।
 शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य: सुषुम्ना नाड़ी के जागरण के लिए व्यक्ति का शारीरिक और
मानसिक स्वास्थ्य स्थिर और संतुलित होना चाहिए।

अंततः, हालांकि थेट्रिकल रूप से सभी लोग सुषुम्ना नाड़ी को जागृत कर सकते हैं, प्रक्रिया की पात्रता,
तैयारी, और प्रयास पर निर्भर करता है। इसलिए, जो लोग इसे गंभीरता से अभ्यास करते हैं और उपयुक्त
मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, वही इसके लाभ को प्राप्त कर सकते हैं।

सुषुम्ना नाड़ी से संबंधित प्रश्नोत्तरी

 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी क्या है?


o उत्तर: सुषुम्ना नाड़ी शरीर की मुख्य ऊर्जा नाड़ी है जो रीढ़ के आधार से ब्रह्मरंध्र तक फै ली
हुई है।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी का योग में क्या महत्व है?
o उत्तर: सुषुम्ना नाड़ी योग में आध्यात्मिक जागरूकता और कुं डलिनी जागरण के लिए
महत्वपूर्ण है।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी का संबंध किस चक्र से है?
o उत्तर: सुषुम्ना नाड़ी सभी सात मुख्य चक्रों से संबंधित है।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने का क्या महत्व है?
o उत्तर: सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने से आध्यात्मिक विकास और उच्च स्तर की चेतना
प्राप्त होती है।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने के लिए कौन से योगाभ्यास किए जाते हैं?
o उत्तर: प्राणायाम, मुद्राएँ, ध्यान और कुं डलिनी योग के अभ्यास सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय
करने में सहायक होते हैं।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने में किन बाधाओं का सामना किया जा सकता है?
o उत्तर: भावनात्मक असंतुलन, तनाव और शारीरिक बाधाएँ सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने में
बाधक हो सकती हैं।
 प्रश्न: सुषुम्ना, इडा और पिंगला नाड़ियों में क्या संबंध है?
o उत्तर: सुषुम्ना नाड़ी मध्य में स्थित होती है, जबकि इडा और पिंगला नाड़ियाँ इसके दोनों
ओर स्थित होती हैं और इनका संतुलन महत्वपूर्ण है।
 प्रश्न: कुं डलिनी ऊर्जा का सुषुम्ना नाड़ी से क्या संबंध है?
o उत्तर: कुं डलिनी ऊर्जा, जो मूलाधार चक्र में स्थित होती है, सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से
उठती है और सहस्रार चक्र तक पहुँचती है।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी का सक्रिय होना किस प्रकार के अनुभव को जन्म देता है?
o उत्तर: सुषुम्ना नाड़ी का सक्रिय होना आध्यात्मिक जागरण और दिव्य अनुभूतियों को जन्म
देता है।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने के लिए कौन से ध्यान तकनीक प्रयोग की जाती हैं?
o उत्तर: चक्र ध्यान, बिंदु ध्यान और कुं डलिनी ध्यान सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने के लिए
प्रयोग किए जाते हैं।
 प्रश्न: सुषुम्ना नाड़ी के सक्रिय होने के क्या शारीरिक लक्षण हो सकते हैं?
o उत्तर: शरीर में ऊर्जा का अनुभव, गर्मी या ठं डक का अनुभव, और चक्रों का जागरण सुषुम्ना
नाड़ी के सक्रिय होने के लक्षण हो सकते हैं।

क्या मानव शरीर भी ब्रह्माण्ड के अनुसार प्रभावित रहता हैै?

 पुराणों के मुताबिक समूचा ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर ही है। जब मन की शक्तियां जागृत


हो उठती हैं, तो शरीर में शिवलिंगों के दर्शन होने लगते हैं।

1. शरीर के किसी भाग पर आघात पहुँचता है, तो उसकी प्रतिक्रिया से शरीर का रोम-रोम
काँप उठता है। मन मस्तिष्क भी उद्विग्न और बेचैन हो उठते हैं।
2. समूचा ध्यान शारीरिक पीड़ा पर के न्द्रित हो जाता है । मनः संस्थान असन्तुलित हो तो
शरीर भी स्वस्थ एवं निरोग नहीं रह पाता।
3. शरीर के प्रत्येक अवयव मनः संस्थान एक दूसरे की स्थिति से प्रभावित होते हैं। यह शरीर
की चैतन्यता एवं एकता का प्रमाण है।
4. दृश्य और अदृश्य प्रकृ ति-समूचा सौर मण्डल भी इस तरह एक दूसरे से गहरे भावनात्मक
आकर्षण से जुड़ा हुआ है। इसके एक सिरे पर जो कु छ भी घटित होता है तो अन्यान्य
स्थानों पर उसकी प्रतिक्रिया परिलक्षित हुए बिना नहीं रहती।
5. इस तथ्य को प्रतिपादित करने एवं रहस्योद्घाटन करने का जो विज्ञान भारत में प्राचीन
काल से प्रचलित था उसे ज्योतिष विज्ञान के नाम से जाना जाता है इसका लक्ष्य था सौर
मण्डल के सदस्यों के पारस्परिक संबंधों की वैज्ञानिक विवेचना करना तथा एक-दूसरे पर
पड़ने वाले प्रभावों से अवगत कराना।
6. फलतः इस विद्या के सहारे पृथ्वी से इतर ग्रह नक्षत्रों के अनुदानों से लाभ उठा सकना एवं
दुष्प्रभावों से बचाव कर पाना सुलभ थो जो आज के विकसित विज्ञान द्वारा भी संभव नहीं
है।
7. कालान्तर में यह विज्ञान विलुप्त होता गया और उसका स्थान मूढ़मान्यताओं एवं भ्रान्तियों
जिसे देखकर विज्ञजनों द्वारा इस विद्या की उपेक्षा हुई।
8. इसके बावजूद भी विज्ञान ने जब से प्रौढ़ता की ओर कदम रखा है उसका ध्यान अन्तरिक्ष
की खोजबीन की ओर आकर्षित हुआ है।
9. साथ ही ग्रह-नक्षत्रों, सौर-मण्डल की गतिविधियों, आपसी संबंधों एवं परस्पर एक दूसरे पर
पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए छु टपुट प्रयास भी चल रहे हैं । प्रकारान्तर से भौतिक
विज्ञान अब उन्हीं निष्कर्षों पर पहुँच रहा है।
10.जिस पर सदियों पूर्व तत्ववेत्ता ऋषि जो ज्योतिर्विज्ञान के मर्मज्ञ भी थे पहुँच चुके थे।
11.ज्योतिष विज्ञान के आचार्यों ने सौर मंडल के सदस्यों को देव शक्तियों के रूप में
प्रतिष्ठापित किया था।
12.नौ ग्रहों की नौ देवशक्तियों के रूप में प्रतिष्ठापना की गई है । ज्योतिर्विज्ञान की यह
मान्यता सदियों से चली आ रही है कि सौर मण्डल का अधिपति सूर्य मात्र अग्नि का
धधकता पिण्ड नहीं है अपितु जीवन प्राण और सक्रिय अग्नि का पुज है, जो प्रल- -
प्रतिपल अपने सौरमण्डल के सदस्यों को अपनी गतिविधियों से प्रभावित किया करता है।
13.सूर्य के साथ ही मंगल, बृहस्पति, बुध आदि भी पृथ्वी के वातावरण को प्रभावित करते हैं।
14.इस तथ्य को विश्व के प्रसिद्ध भौतिकविद् भी स्वीकार करने लगे हैं कि सौर-मण्डल की
गतिविधियाँ पृथ्वी के वातावरण एवं जैविक परिस्थितियों पर प्रभाव डालत हैं।
15.यूगोस्लाविया के नाभिकीय भौतिकविद् प्रो. स्टीनवेन डेडीजर जैसे विद्वानों का कहना है कि
विज्ञान की अपनी अन्तरिक्षीय खोज की सफलता के लिए प्राचीन ज्योतिर्विज्ञान को
अवलंबन लेना होगा।
16.प्राकृ तिक घटनाओं की अभी भी कितनी ही गुत्थियाँ ऐसी हैं जिसको गुलझा पाने में आज
का विकसित विचान भी असमर्थ है।
17.आधुनिक विज्ञान अन्तरिक्ष एवं सबन्यूक्लियर क्षेत्र में अपनी शानदार सफलता के बावजूद
भी ब्रह्मोपेड संबंधी घटनाओं की व्याख्या कर पाने में अपनी अक्षमता व्यक्त कर रहा है
क्योंकि इसका क्षेत्र सीमित है। इसके विपरीत ज्योतिष विज्ञान का सूर्य संबंधी ज्ञान
ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म गतिविधियाँ और सूर्य के प्रभावों की जानकारी अन्तरिक्षीय रहस्यों का
उद्घाटन करने में पूर्णतया सक्षम है।
18.भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तानुसार हर पदार्थ का कण इस ब्रह्माण्ड में एक-दूसरे के सापेक्ष
गतिशील है । वे अपना स्थान भी परिवर्तित करते रहते हैं।
19.फलतः जिस पर्यावरण में वे गतिशील रहते हैं वह बदलता रहता है और एक अविच्छिन्न
ब्रह्माण्डीय श्रृखंला में बँधे होने के कारण कणों का संदोह विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है।
जो अन्यान्य ग्रहों तथा पृथ्वी, चर, अचर पदार्थों एवं खगोलीय पिण्डों को प्रभावित करता
है।
20.इस तथ्य से परिचित होते हुए भी विज्ञान ग्रह-नक्षत्रों की गति स्थिति और प्रभावों की
स्पष्ट जानकारी देने में असमर्थ है।
21.उपरोक्त टिप्पणी देते हुए भौतिक विज्ञानी स्टीवेन डेडीजर का कहना है कि समग्र
जानकारियों के लिए ज्योतिर्विज्ञान के विलुप्त ज्ञान को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
है।
22.प्रख्यात आस्ट्रियाई वैज्ञानिक 'ऐरनेस्ट मैंक' का, मत है कि ब्रह्माण्ड के अनन्तकण एक
दूसरे से जुड़े हुए हैं तथा उनमैं सरस्पर बड़ा घनो संबंध है।
23.सौर लपटें जो कि ग्रहों की निके टता एवं चन्द्रमा की गति से किसी न किसी प्रकार
संबंधित हैं, पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के व्यतिरेक उत्पन्न करती हैं।
24.ग्रही योग पृथ्वी एव जैविकीय चुम्बकत्व पर अपना प्रभाव डालते हैं।
25.ग्रहों के असंतुलन से उत्पन्न होने वाली चुम्बकीय प्रकृ ति प्रकोप एवं पृथ्वी के जीवधारियों
में प्रकार के मानसिक एवं नर्वससिस्टम के रोम् उत्पन्न करती है।
26.भू चुम्बकत्व में होने वाले हर-फे र से मानवीय आचरण एवं स्वभाव भी अछू ता नहीं रहता
है।
27.रूस के विज्ञानवेत्ता चीनेकाकी ने इस क्षेत्र में लम्बे समय तक खोजबीन करने के उपरान्त
महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उनका कहना है, सौर-मण्डल की हलचलों से पृथ्वी के
वातावरण एवं घटनाक्रमों का घना संबंध है।
28.हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य में आणविक विस्फोट होता है । इन वर्षों में पृथ्वी पर युद्ध और
क्रान्तियाँ जन्म लेती हैं। प्रकृ ति प्रकोप एवं महामारियाँ बढ़ती हैं।
29.जैसे 2019 में कोविड का प्रकोप था ऐसा ही खतरनाक वायरस सन 2030 के आसपास
आयेगा। जिसमें आंखों और त्वचा की बीमारी से व्यक्ति सड़ सड़ कर मरेंगे।
30.जियोजार जी गिआरडी नामक वैज्ञानिक ने ज्योतिर्विज्ञान से प्रेरणा लेकर विज्ञान की नवीन
शाखा को जन्म दिया।
31.ब्रह्माण्ड रसायन शास्त्र (कास्मो बॉयोलाजी) गिआरडी का कहना है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक
शरीर है इसका कोई भी घटक अलग नहीं वरन् संयुक्त रूप से एकात्म है । इसलिए कोई
भी ग्रह कितना भी दूर क्यों न हो, पृथ्वी के जीवन को प्रभावित अवश्य हैं।
32.प्रो. ब्राउन का मत है कि पृथ्वी सौर मण्डल ही एक सदस्य है और चन्द्रमा उसका ही एक
उपग्रह।
33.वैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी और चन्द्र की उत्पत्ति सूर्य से हुई है।
34.न के वल चन्द्र और सूर्य वरन् मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि की गतियाँ भी पृथ्वी को
प्रभावित करती हैं उन्होंने अन्तर्ग्रही प्रभावों को समानुभूति नाम दिया है।
35.तीसरी अन्तर्राष्ट्रीय विषुवतीय गोष्ठी के उद्घाटन के अवसर पर अहमदाबाद भौतिक
अनुसंधानशाला के दो वैज्ञानिकों प्रो. के . आर. रामनाथन एवं डा.एस अनन्त कृ ष्णन ने यह
घोषणा की थी कि पृथ्वी सौर मंडल की अभिन्न घटक है।
36.आकाशीय पिण्डों के स्पन्दन धरती को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं (अपनी एक खोज
में इन वैज्ञानिकों ने पाया कि वायु दल के डी ' क्षेत्र में शक्तिशाली एक्स किरणों के स्रोत
स्कोर्पिओं ११ के गुजरने से वनस्पति एवं जीवजगत की हलचलें बढ़ जाती हैं तथा उनका
हानिकारक प्रभाव पड़ता है।.
37.वायु गोष्ठी विज्ञान परमाणु ऊर्जा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष एवं विश्व के जाने-माने
भौतिक विज्ञानी डा. साराभाई विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों की एक गोष्ठी को सम्बोधित
करते हुए कहा था कि सूर्य के अतिरिक्त भी अन्य आकाशीय पिण्डों का प्रेक्षीस प्रभाव
धरती पर आता है यदि ज्योतिर्विज्ञान के सूत्रों को ढूँढा जो सके और अन्तरिक्षीय ज्ञान में
प्रयुक्त किया जा सके तो अनेकों महत्वपूर्ण जानकारियाँ हाथ लग सकती है।
38.रूसी वैज्ञानिक ब्लादीमोर देस्यातोय ने इस संबंध में व्यापक शोध कार्य किया है उनका
कहना है कि पृथ्वी पर समय-समय पर आने वाले चुम्बकीय तूफानों से धरती के निवासियों
में स्नायविक एवं मनोरोगों की बहुलता देखी जाती है।
39.धरती पर चुम्बकीय क्षेत्र को तीव्रता या फ्रीक्वेन्सी का बदलना आकाशीय पिण्डों के ऊर्जा
प्रवाह के परिणाम हैं। अपनी आरंभिक खोजों में ब्लादीमोर ने यह पाया कि जब सूर्य पर
एक विशेष प्रकार के ज्वाला प्रकोप ( फ्लेयर) फू टते हैं तो धरती पर प्रचण्ड चुम्बकीय
तूफान आते हैं। जिनसे प्रभावित तो सभी होते हैं पर कमजोर मनः स्थिति वाले व्यक्तियों
प्रतिक्रिया अत्यधिक दिखाई पड़ती है।
40.आत्महत्याएँ, हत्याएँ एवं असंतुलन के फलस्वरूप सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।
41.इसी आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि मस्तिष्कीय क्रिया-क्षमता का मूलभूत स्रोत
अल्फा इलर्जी धरती के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और भू चुम्बकत्व का सीधा संबंध
आकाशीय पिण्डों से है।
42.इसलिए मानवी जीवन अन्तरिक्षीय घटनाक्रमों एवं शक्तियों से विलक्षण रूप से संबंधित है
अतएव अन्तरिक्ष में पैदा होने वाली हर हलचल पृथ्वी, मानवीय प्रकृ ति मन, बुद्धि चेतना
को प्रभावित करती हैं।
43.खगोल शास्त्री पास्कल के शोध निष्कर्षों के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा होने वाले
सशक्त खिंचाव न के वल समुद्रों-सागरों में ज्वार भाटे उत्पन्न करते हैं बल्कि जीवधारियों
पर भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं।
44.पास्कल के अनुसार समस्त जीवधारी कम्पासमान समष्टिगत ऊर्जा के एक विशाल समुद्र
में निवास करते हैं फिर विभिन्न ग्रहों से उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा लागों से अप्रभावित
कै से रह सकते हैं ?
45.भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में यह तथ्य अगले दिनों सप्रमाण पुष्ट होगा कि पृथ्वी पर
विद्यमान जीवन का अन्तरिक्ष के ग्रह-नक्षत्रों से घना संबंध है और अविज्ञात होते हुए भी
सूक्ष्म आदान-प्रदान का क्रम चलता रहता है।
46.प्रौढ़ता की ओर बढ़ रहे आधुनिक विज्ञान के कदम शनै:-शनैः उन्हीं निष्कर्षों की और
गतिशील हैं जिन्हें सहस्राब्दियों पूर्व भारतीय तत्ववेत्ता ज्योतिर्विदों ने पाया था । समूचा
ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर है। सूर्य इसकी आत्मा है।
47.जिसका प्रत्येक स्पन्दन हर घटक को प्रभावित करता है, जिसमें पृथ्वी और संबंधित
वातावरण वनस्पति एवं जीवधारी भी सम्मिलित हैं। प्राचीन काल में ज्योतिर्विज्ञान इसी
दिशा में अनुसंधान करने प्रमाण जुटाने और अन्तर्गही तथ्यों की खोज बीन करने में
सचेष्ट था, जिसकी अनेकानेक उपलब्धियों से समयसमय पर मानवजाति लाभान्वित होती
रहती थी।
48.विज्ञान का ध्यान भी इस ओर आकृ ष्ट हुआ है और अन्तर्ग्रही टोह लेने का सिलसिला शुरू
हुआ शुभ लक्षण है। फिर भी ज्योतिर्विज्ञान के बिना । यह
49.अन्तरिक्षीय खोज बीन करने में विज्ञान उतना सक्षम नहीं है । इस दिशा में प्राचीन
भारतीय ज्ञान मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है।
50.आर्य भट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त कालक्रियापाद, गोलपाद सूर्य सिद्धान्त, और उस पर नारदेव
ब्रह्मगुप्त के संशोधन, परिवर्धन, भास्कर स्वामी का महाभास्करीय आदि दुर्लभ और
अमूल्य ग्रन्थ अनेकानेक रहस्यों एवं निष्कर्षों से भरे पड़े हैं।
51.अपने पंच सिद्धान्तिक में वाराह मिहिर ने पॉलिश, रोमक, वाशिष्ठ सौर और पितामह
नामक पाँच ज्योतिर्सिद्धान्तों का वर्णन किया है जो ज्योतिर्विज्ञान पर विस्तृत प्रकाश डालते
हैं।
52.तत्ववेत्ता महर्षियों द्वारा अन्वेषित यह विद्या सिर्फ सूर्य एवं ब्रह्माण्ड की भौतिक
गतिविधियों की जानकारी देकर मौन नहीं साध लेती।
53.इसको भौतिक पक्ष कितना ही व्यापक, सूक्ष्म एवं आकर्षक क्यों न हो ज्योतिषविद्या का
कलेबर भर है । इस कलेवर में समाहित वास्तविक तत्व ऊर्जा प्रवाहों का दैवीय विज्ञान है।
54.जिसे समझकर न सिर्फ इनसे स्वयं को ऊर्जस्वी बनाया जा सकता है बल्कि वर्तमान और
भविष्य को अपेक्षित दिशा में और ढाला जा सकता है।
55.ज्योतिर्विज्ञान का भौतिक पक्ष हो अथवा दैवीय विज्ञान इसके रहस्य सूर्य-साधना में समाए
हैं । इसकी विशिष्ट साधनाओं से उन्मीलित दृष्टि ही इनका रहस्योद्घाटन करने में सक्षम
और समर्थ है।
56.इन साधनाओं की गम्भीरता में उतर कर ब्रह्माण्ड की रहस्यमयी सूक्ष्मताओं को जाना व
सौरमण्डल के ऊर्जा प्रवाहों से लाभान्वित हो पाना संभव है।

तीन शरीर सिद्धांत

हिंदू धर्म में तीन शरीरों के सिद्धांत सरीरा त्रय के अनुसार, मनुष्य अविद्या, "अज्ञानता" या "अज्ञानता"
द्वारा ब्राह्मण से निकलने वाले तीन शरीरों या "शरीरों" से बना है। उन्हें अक्सर पाँच कोशों (म्यान) के
बराबर किया जाता है, जो आत्मा को ढकते हैं। तीन निकाय सिद्धांत भारतीय दर्शन और धर्म, विशेष रूप
से योग, अद्वैत वेदांत, तंत्र और शैववाद में एक आवश्यक सिद्धांत है।

तीन शरीर[संपादित करें]

करण शरीर[संपादित करें]


मुख्य लेख: Causal body

कारण शरीर के वल कारण [1]


या सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का बीज है। सूक्ष्म और स्थूल शरीर का बीज
होने के अतिरिक्त इसका और कोई कार्य नहीं है। यह निर्विकल्प रूपम है, "अविभाजित
[2]

रूप"। यह जीव की धारणा को जन्म देने के बजाय, आत्मा की वास्तविक पहचान के अविद्या, "अज्ञान"
[2]

या "अज्ञानता" से उत्पन्न होता है।

स्वामी शिवानंद ने कारण शरीर को "प्रारंभिक अज्ञान जो अवर्णनीय है" के रूप में वर्णित किया है।
[web

1]
निसारगदत्त महाराज के गुरु सिद्धरामेश्वर महाराज भी कारण शरीर का वर्णन "शून्यता", "अज्ञान" और
"अंधेरे" के रूप में करते हैं।
[3]
"मैं हूँ" की खोज में, यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ अब और कु छ भी पकड़
में नहीं आता है।
[3] [4]

रामानुज का निष्कर्ष है कि यह इस स्तर पर है कि परमात्मन के साथ आत्मा की पूर्णता तक पहुँच जाता है


और उच्चतम पुरुष, यानी ईश्वर की खोज समाप्त हो जाती है।
[5]

अन्य दार्शनिक विद्यालयों के अनुसार, कारण शरीर आत्मा नहीं है, क्योंकि इसकी भी एक शुरुआत और एक
अंत है और यह संशोधन के अधीन है।
[web 2]
शंकर, एक व्यक्तिगत भगवान की तलाश नहीं कर रहे हैं,
पारलौकिक ब्रह्म की खोज में आनंदमय कोष से आगे निकल जाते हैं।
[5]

भारतीय परंपरा इसे आनंदमय कोश, और गहरी नींद की अवस्था से पहचानती है, जहां बुद्धि निष्क्रिय
[web 1]

हो जाती है और समय की सभी अवधारणाएं विफल हो जाती हैं, हालांकि इन तीन विवरणों के बीच अंतर
हैं।

कारण शरीर को तीनों शरीरों में सबसे जटिल माना जाता है। इसमें अनुभव की छाप होती है, जो पिछले
अनुभव से उत्पन्न होती है।
[6]

सूक्ष्म शरीर[संपादित करें]

सूक्ष्म शरीर मन और महत्वपूर्ण ऊर्जा का शरीर है, जो भौतिक शरीर को जीवित रखता है। कारण शरीर के
साथ यह देहांतरण करने वाली आत्मा या जीव है, जो मृत्यु पर स्थूल शरीर से अलग हो जाता है।

सूक्ष्म शरीर पाँच सूक्ष्म तत्वों से बना है, पंचीकरण से पहले के तत्व,
[web 3]
और इसमें शामिल हैं:

अन्य भारतीय परंपराएँ सूक्ष्म शरीर को आठवें-गुना समुच्चय के रूप में देखती हैं, जो मन-पहलुओं को एक
साथ रखता है और अविद्या, काम और कर्म को जोड़ता है:

 बुद्धिदिकतुस्तयम ( बुद्धि, मानस, चित्त, अहंकार ),


 अविद्या ( अध्यास, अधिरोपण),
 काम (इच्छा),
 कर्म ( धर्म और अधर्म की प्रकृ ति की क्रिया)।

सांख्य में, जो एक कारण शरीर को स्वीकार नहीं करता है, उसे लिंग-सरीरा के रूप में भी जाना जाता
है। यह एक आत्मा के मन में डालता है, यह एक आत्मा, नियंत्रक की याद दिलाता है। यह आत्मा की
[7]

अनादि सीमा है, इसका स्थूल शरीर की तरह कोई आरंभ नहीं है।

"स्वप्न अवस्था" सूक्ष्म शरीर की एक विशिष्ट अवस्था है, जहाँ जाग्रत अवस्था में किए गए कर्मों की स्मृति
के कारण बुद्धि स्वयं चमकती है। यह व्यक्तिगत स्वयं की सभी गतिविधियों का अनिवार्य ऑपरेटिव कारण
है।

स्थूल शरीर[संपादित करें]

स्थूल शरीर स्भौतिक भौतिक नश्वर शरीर है जो खाता है, सांस लेता है और चलता है (कार्य करता है)। यह
कई विविध घटकों से बना है, जो पिछले जीवन में किसी के कर्मों (क्रियाओं) से उत्पन्न होते हैं, जो उन
तत्वों से उत्पन्न होते हैं, जो पंचीकरण से गुजरे हैं, अर्थात पाँच मूल सूक्ष्म तत्वों का संयोजन।
यह जीव के अनुभव का साधन है, जो शरीर से जुड़ा हुआ है और अहंकार से प्रभावित है,
[8]
शरीर के बाहरी
और आंतरिक इंद्रियों और क्रिया का उपयोग करता है। जीव जाग्रत अवस्था में शरीर के साथ अपनी पहचान
बनाकर स्थूल वस्तुओं का आनंद लेता है। इसके शरीर पर बाहरी दुनिया के साथ मनुष्य का संपर्क टिका
हुआ है।

स्थुला सरीरा ' मुख्य विशेषताएं संभव (जन्म), जरा (वृद्धावस्था या बुढ़ापा) और मरणम (मृत्यु) और "जागृत
अवस्था" हैं। स्थूल सरीरा अनात्मन है।

अन्य प्रतिरूपों के साथ संबंध[संपादित करें]

तीन शरीर और पांच कोश[संपादित करें]


मुख्य लेख: Kosha

तैत्तिरीय उपनिषद पांच कोशों का वर्णन करता है, जिन्हें अक्सर तीन शरीरों के साथ समान किया जाता है।
तीन शरीरों को अक्सर पाँच कोशों (म्यान) के बराबर किया जाता है, जो आत्मान को ढकते हैं:

1. Sthū la śarīra, the Gross body, also called the Annamaya Kosha
[9]

2. Sū kṣma śarīra, the Subtle body, composed of:


1. प्राणमय कोष (महत्वपूर्ण सांस या ऊर्जा ),
2. मनोमय कोश ( मन ),
3. विज्ञानमय कोश ( बुद्धि )
[9]

3. Karaṇ a śarīra, the Causal body, the Anandamaya Kosha (Bliss)


[9]

चेतना और तुरीय की चार अवस्थाएँ[संपादित करें]

मांडू क्य उपनिषद में चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, पहली को वैश्वानर (जागृत चेतना),
दूसरी को तैजस (स्वप्न अवस्था), तीसरी को प्रज्ञा (गहरी नींद की अवस्था) और चौथी को तुरीय (अतिचेतन
अवस्था) कहा जाता है। जाग्रत अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति अवस्था तीन शरीरों के समान हैं।
जबकि तुरीय (परमचेतना अवस्था) एक चौथी अवस्था है, जो आत्मा और पुरुष के बराबर है।

तुरिया[संपादित करें]
मुख्य लेख: Turiya

तुरिया, शुद्ध चेतना या अतिचेतनता, चौथी अवस्था है। यह वह पृष्ठभूमि है जो चेतना की तीन सामान्य
अवस्थाओं का आधार और अतिक्रमण करती है।
[10] [11]
इस चेतना में निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों, सगुण
ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म का अतिक्रमण किया जाता है। यह अनंत ( अनंत ) और गैर-अलग
[12]

( अद्वैत/अभेद ) के अनुभव की सच्ची स्थिति है, जो द्वैतवादी अनुभव से मुक्त है, जो वास्तविकता को
अवधारणा ( विपालका ) के प्रयासों से उत्पन्न होता है।
[13]
यह वह अवस्था है जिसमें अजातिवाद, गैर-
उत्पत्ति, को पकड़ा जाता है।
[13]

चार शरीर[संपादित करें]

निसारगदत्त महाराज के गुरु सिद्धरामेश्वर महाराज, तुरिया या "महान-कारण शरीर"


[14]
को चौथे शरीर के
रूप में शामिल करके चार शरीरों को पहचानते हैं। यहाँ "मैं हूँ" का ज्ञान है जिसका वर्णन नहीं किया जा
सकता है,
[15]
अज्ञान और ज्ञान से पहले की स्थिति, या तुरीय अवस्था
[14]
इंटीग्रल थ्योरी[संपादित करें]

तीन निकाय के न विल्बर के इंटीग्रल थ्योरी के एक महत्वपूर्ण घटक हैं।

कुं डलिनी योग के दस शरीर[संपादित करें]

योगी भजन द्वारा सिखाया गया कुं डलिनी योग दस आध्यात्मिक शरीरों का वर्णन करता है: भौतिक शरीर,
तीन मानसिक शरीर और छह ऊर्जा शरीर। समानांतर एकरूपता का 11 वां अवतार है, जो दिव्य ध्वनि धारा
का प्रतिनिधित्व करता है और अद्वैत चेतना की शुद्ध स्थिति की विशेषता है।
[16]

1. पहला शरीर (सोल बॉडी) - कोर में अनंत की चिंगारी


2. दूसरा शरीर (नकारात्मक मन) - मन का सुरक्षात्मक और रक्षात्मक पहलू
3. तीसरा शरीर (सकारात्मक मन) - मन का ऊर्जावान और आशापूर्ण प्रक्षेपण
4. चौथा शरीर (तटस्थ दिमाग) - सहज ज्ञान युक्त, नकारात्मक और सकारात्मक दिमाग से
जानकारी को एकीकृ त करता है
5. पांचवां शरीर (भौतिक शरीर) - पृथ्वी पर मानव वाहन
6. सिक्स्थ बॉडी (आर्क लाइन) - कान से कान तक, बालों की रेखा और भौंह तक फै ली हुई है।
आमतौर पर हेलो के रूप में जाना जाता है। महिला की छाती पर दूसरी चाप रेखा होती है।
आर्क लाइन में यादों की ऊर्जा छाप होती है।
7. सातवां शरीर (आभा) - शरीर के चारों ओर एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र; किसी व्यक्ति की
जीवन शक्ति का कं टेनर।
8. आठवां शरीर (प्राणिक शरीर) - सांस से जुड़ा हुआ, जीवन शक्ति और ऊर्जा को आपके
सिस्टम के अंदर और बाहर लाता है।
9. नौवां शरीर (सूक्ष्म शरीर) - भौतिक और भौतिक तल के भीतर अनंत को महसूस करने की
सूक्ष्म अवधारणात्मक क्षमता देता है।
10.दसवां शरीर (दीप्तिमान शरीर) - आध्यात्मिक रॉयल्टी और चमक देता है।

आधुनिक संस्कृ ति में[संपादित करें]

ब्रह्मविद्या[संपादित करें]

बाद के थियोसोफिस्ट सात निकायों या अस्तित्व के स्तरों की बात करते हैं जिनमें स्थुला सरीरा और लिंग
सरीरा शामिल हैं। [17]

योगानंद[संपादित करें]

गुरु परमहंस योगानंद ने अपनी 1946 की आत्मकथा योगी की आत्मकथा में तीन शरीरों की बात की
थी।
[18]

भारतीय दर्शन में[संपादित करें]

योग फिजियोलॉजी[संपादित करें]

तीन शरीर योग शरीर विज्ञान का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। योग का उद्देश्य शरीर की महत्वपूर्ण ऊर्जा को
नियंत्रित करना है, जिससे सिद्धि (जादुई शक्तियां) और मोक्ष प्राप्त होता है।

आत्मान विज्ञान[संपादित करें]


अद्वैत वेदांत परंपरा के अनुसार, "स्वयं" या आत्मान का ज्ञान आत्म-जांच, तीन शरीरों की जांच, और उनसे
पहचानने से प्राप्त किया जा सकता है। यह एक विधि है जो रमण महर्षि से प्रसिद्ध है, लेकिन निसारगदत्त
महाराज और उनके शिक्षक सिद्धरामेश्वर महाराज से भी।

बाद में तीन निचले शरीरों के साथ पहचान करने, उनकी जांच करने और जब यह स्पष्ट हो गया है कि वे
"मैं" नहीं हैं, तो उनके साथ पहचान को त्याग कर, ज्ञान और अज्ञान से परे "मैं हूं" की भावना स्पष्ट रूप
से स्थापित हो जाती है।
[19]

इस जांच में तीनों शव अनात्मन नहीं होने की पहचान हुई है।


[20]

शरीर :: स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर THREE SHELLS OF BODY

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM

By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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जिस प्रकार मनुष्य स्थूल शरीर की स्वस्थता का लाभ समझते हुए उसे सुस्थिर बनाए रखने के लिए
प्रयत्नशील रहता है, उसी प्रकार उसे सूक्ष्म और कारण शरीर की सुरक्षा एवं समर्थता के लिए सदैव सचेष्ट
रहना चाहिए।

(1). स्थूल शरीर :: जिसमें पाँच ज्ञानेंद्रिय (आँख, कान, जीभ, नाक, त्वचा), पाँच कर्मेन्द्रिय (वाक्, हस्त, पैर,
उपस्थ, पायु), पंच तन्मात्र (धरती, अग्नि, जल, वायु, आकाश) होते हैं। पञ्च भूत से निर्मित हाड़ :- अस्थि,
मज्जा, माँस, रक्त का बना शरीर ही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियों से शरीर-चर्या एवं लोक व्यवहार के विविध
विधि क्रिया-कलाप चलते हैं, का बना शरीर ही स्थूल शरीर है। स्थूल और सूक्ष्म का अन्तर प्रत्यक्ष है। स्थूल
शरीर पंचतत्वों के सूक्ष्म घटकों से बना है। उन्हें तत्वों, आदि के रूप में देखा जा सकता है। कर्मेन्द्रियों से
शरीर-चर्या एवं लोक व्यवहार के विविध विधि क्रिया-कलाप चलते हैं। स्थूल शरीर में शरीरी का निवास है।
शरीरी-आत्मा सूक्ष्म शरीर में मौजूद है। स्थूल शरीर निर्जीव है, यदि उसमें आत्मा न हो। योगी स्थूल शरीर
को सुरक्षित रख कर जहाँ-तहाँ विचरता रहता-भ्रमण करता है। स्थूल के ऊपर है सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर
को भी पार करेंगे तो वह उपलब्‍
ध होगा, जो नहीं है, अशरीरी-जो आत्‍
मा है। मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर
गिरता है, सूक्ष्‍म शरीर नहीं।

अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो
शरीरों का अनुभव होता ही है। कई बार साधकों को लगता है, जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु
निकल कर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया, जो बहुत शक्तिशाली है। उस
समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है। इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या
मनोमय शरीर कहते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और जीवित
अवस्था में वह शरीर स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है।

कभी ऐसा भी अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकल गया अर्थात जीवात्मा
शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसा विचार आते ही
योगी उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य
मालूम देता है। स्थूल शरीर मैं ही हूँ ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर
शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है।

हठ योगी शरीर को छोड़कर पुनः प्रवेश कर सकता है। शरीर को छोड़ने पर भी वह सूक्ष्म शरीर धारण किये
रहता है। अक्सर योगी-संतजन एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं, ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के
द्वारा ही संभव होता है, स्थूल यहाँ और सूक्ष्म वहाँ। सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह
सब जगह आ जा सकता है। जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है वो स्थूल शरीर हैं। प्याज की परतों के समान ही
इसकी अन्य दो परतें हैं :- सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।

(2). सूक्ष्म शरीर :: जिसमें बुद्धि, अहंकार और मन होता है। सूक्ष्म शरीर पंच प्राणों का बना है। उनके प्रतीक
पाँच शक्ति के न्द्र हैं, जिन्हें पंचकोश भी कहते हैं। अन्नमय-कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय-
कोश, आनन्दमय कोश के रूप में इनकी पहचान की जाती है। इन पंच प्राणों का समन्वय महाप्राण के रूप
में समझा जाता है। जीवन चेतना यही है। इसके रूप में पृथक् हो जाने पर सूक्ष्म शरीर भी नष्ट हो जाता
है।

सूक्ष्‍म से योगी परिचित होता है और योग के भी जो ऊपर उठ जाते है, वे उससे परिचित होते है जो आत्‍मा
है। सामान्‍
य आँखे नहीं देख पाती हैं, इस शरीर को। योग-दृष्‍टि, ध्‍यान से ही दिख पाता है, सूक्ष्‍म शरीर।
लेकिन ध्‍
यानातित, बियॉंड योग, सूक्ष्‍म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि
में अनुभव होता है। ध्‍
यान से भी जब व्‍
यक्‍ति ऊपर उठ जाता है, तो समाधि फलित होती है और उस
समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्‍
मा का अनुभव है। साधारण मनुष्‍
य का अनुभव शरीर का अनुभव
है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्‍म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्‍
मा का अनुभव है।
परमात्‍मा एक है, सूक्ष्‍म शरीर अनंत है, स्‍थूल शरीर अनंत है। सिद्ध योगी सूक्ष्म शरीर से परकाय प्रवेश में
समर्थ हो जाते हैं। सूक्ष्म शरीर का मुख्य स्थान मस्तिष्क माना गया है।

(3). कारण शरीर :: सद्भावना सम्पन्न व्यक्ति, जिन्होंने उच्च आदर्शों के अनुरूप अपनी निष्ठा परिपक्व की
है, उनका कारण शरीर परिपुष्ट होता है। स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति से लेकर आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन
तक की दिव्य विभूतियाँ, इस कारण शरीर की समर्थता पर ही निर्भर हैं।

कारण शरीर ने सूक्ष्म शरीर को घेर के रखा है। इसमें आत्मा के संस्कार, भाव, विचार, कामनाऐं, वासनाऐं,
इच्‍
छाऐं, अनुभव, ज्ञान बीज रूप में रहते हैं। यह विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता
है। वही जीव को आगे की यात्रा कराता है। जिसके सारे दोष नष्‍
ट हो गए, जिस मनुष्‍
य की सारी
वासनाएँ क्षीण हो गई, जिस मनुष्‍
य की सारी इच्‍
छाऐं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्‍छा
शेष न रही, उस मनुष्‍
य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्‍
म की कोई वजह नहीं रह जाती। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर कु छ दिनों में ही नष्ट हो जाता है और सूक्ष्म
शरीर विसरित होकर कारण की ऊर्जा में विलिन हो जाता है। यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान
पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता
है।

मोक्ष :: मोक्ष के समय स्‍


थूल, सूक्ष्‍म और कारण शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्‍मा का कोई जन्‍
म नहीं
होता। फिर वह आत्‍मा विराट पुरुष में लीन हो जाती है।

आत्‍
मा तो वस्‍तुत: एक ही है। लेकिन शरीर दो प्रकार के है। एक शरीर जिसे हम स्‍थूल शरीर कहते है, जो
हमें दिखाई देता है। एक शरीर जो सूक्ष्‍म शरीर है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्‍
यु
होती है, तो स्‍थूल शरीर तो गिर जाता है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर है वह जो सटल बॉडी है, वह नहीं मरती
है। आत्‍मा दो शरीरों के भीतर वास कर रही है। एक सूक्ष्‍म और दूसरा स्‍थूल। मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर
गिर जाता है। यह जो मिट्टी पानी से बना हुआ शरीर है यह जो हड्डी मांस मज्‍जा की देह है। यह गिर
जाती है। फिर अत्‍
यंत सूक्ष्‍म विचारों का, सूक्ष्‍म संवेदनाओं का, सूक्ष्‍म वयब्रेशंस का शरीर शेष रह जाता है,
सूक्ष्‍म तंतुओं का।

वह तंतुओं से घिरा हुआ शरीर आत्‍


मा के साथ फिर से यात्रा शुरू करता है। और नया जन्‍
म फिर नए स्‍थूल
शरीर में प्रवेश करता है। तब एक मां के पेट में नई आत्‍
मा का प्रवेश होता है, तो उसका अर्थ है सूक्ष्‍म शरीर
का प्रवेश। मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है—सूक्ष्‍म शरीर नहीं। लेकिन परम मृत्‍यु के समय—जिसे
हम मोक्ष कहते है—उस परम मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर के साथ ही सूक्ष्‍म शरीर भी गिर जाता है। फिर
आत्‍
मा का कोई जन्‍
म नहीं होता। फिर वह आत्‍मा विराट में लीन हो जाती है। वह जो विराट में लीनता है,
वह एक ही है। जैसे एक बूंद सागर में गिर जाती है।

तीन बातें समझ लेनी जरूरी है। आत्‍मा का तत्‍व एक है। उस आत्‍मा के तत्‍
व के संबंध में आकर दो तरह के
शरीर सक्रिय होते है। एक सूक्ष्‍म शरीर, और एक स्‍थूल शरीर। स्‍थूल शरीर से हम परिचित है, सूक्ष्‍म से
योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते हैं, वे उससे परिचित होते है जो आत्‍मा है।
सामान्‍
य आंखें देख पाती है इस शरीर को। योग-दृष्‍टि, ध्‍यान देख पाता है सूक्ष्‍म शरीर को। लेकिन ध्‍
यानातीत, बियांड योग, सूक्ष्‍म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव
होता है। ध्‍
यान से भी जब व्‍
यक्‍ति ऊपर उठ जाता है तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो
अनुभव होता है, वह परमात्‍
मा का अनुभव है।

साधारण मनुष्‍
य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्‍म शरीर का अनुभव है,
परम योगी का अनुभव परमात्‍
मा का अनुभव है। परमात्‍मा एक है, सूक्ष्‍म शरीर अनंत हैं, स्‍थूल शरीर अनंत
हैं। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है वह है कॉज़ल बॉडी। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वही नए स्‍थूल शरीर ग्रहण करता है।
हम यहां देख रहे हैं कि बहुत से बल्‍ब जले हुए हैं। विद्युत तो एक है। विद्युत बहुत नहीं है। वह ऊर्जा, वह
शक्‍ति, वह एनर्जी एक है। लेकिन दो अलग बल्लों से वह प्रकट हुई है। बल्‍ब का शरीर अलग-अलग है,
उसकी आत्‍
मा एक है।

हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना के झांकने में दो उपकरणों
का, दो वैहिकल का प्रयोग किया गया है। एक सूक्ष्‍म उपकरण है सूक्ष्‍
म देह, दूसरा उपकरण है, स्‍थूल देह।
हमारा अनुभव स्‍थूल देह तक ही रूक जाता है। यह जो स्‍थूल देह तक रूक गया अनुभव है, यहीं मनुष्‍
य के
जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कु छ लोग सूक्ष्‍म शरीर पर भी रूक सकते हैं। जो लोग सूक्ष्‍म
शरीर पर रूक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्‍माएं अनंत हैं। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर के भी आगे चले जाते
है, वे कहेंगे कि परमात्‍मा एक है। आत्‍मा एक, ब्रह्म एक है।

मेरी इन दोनों बातों में कोई विरोधाभास नहीं है। मैंने जो आत्‍मा के प्रवेश के लिए कहा, उसका अर्थ है वह
आत्‍
मा जिसका अभी सूक्ष्‍म शरीर गिरा नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्‍
मा परम मुक्‍ति को उपलब्‍
ध हो जाती है, उसका जन्‍
म-मरण बंद हो जाता है। आत्‍मा का तो कोई जन्‍
म-मरण है ही नहीं। वह न तो
कभी जन्‍
मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्‍
म शरीर है, वह भी समाप्‍त हो जाने पर कोई जन्‍
म-मरण
नहीं रह जाता। क्‍योंकि सूक्ष्‍म शरीर ही कारण बनता है नए जन्‍
मों का।

सूक्ष्‍म शरीर का अर्थ है, हमारे विचार, हमारी कामनाएँ, हमारी वासनाएं, हमारी इच्‍
छाएं, हमारे अनुभव, हमारा
ज्ञान, इन सबका जो संग्रहीभूत जो इंटिग्रेटेड सीड है, इन सबका जो बीज है, वह हमारा सूक्ष्‍म शरीर है। वही
हमें आगे की यात्रा करता है। लेकिन जिस मनुष्‍
य के सारे विचार नष्‍ट हो गए, जिस मनुष्‍
य की सारी
वासनाएं क्षीण हो गई, जिस मनुष्‍
य की सारी इच्‍
छाएं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्‍छा शेष
न रही, उस मनुष्‍
य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्‍
म की
कोई वजह नहीं रह जाती।

-ओशो
(मैं मृत्‍
यु सिखाता हूं, प्रवचन- 2)

प्रबोधसुधाकर

अध्याय 9- सूक्ष्म शरीर आदि की परिभाषा।

स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर होता है। उत्तरार्द्ध के भीतर कारण शरीर है। उसके भीतर अतिकारण शरीर
है। (श्री शंकर के अन्य कार्यों में के वल एक कारण शरीर का उल्लेख किया गया है, लेकिन यहां दो का
उल्लेख किया गया है। दोनों के बीच का अंतर बाद में समझाया गया है)। स्थूल शरीर (या भौतिक शरीर)
को पहले ही अध्याय 1 में समझाया जा चुका है। सूक्ष्म शरीर पांच सूक्ष्म तत्वों, पांच प्राण वायु, पांच इंद्रियों
और आंतरिक अंग (मन) का समुच्चय है। श्रुति में इसे इस कथन द्वारा संदर्भित किया गया है, "पुरुष
अंगूठे के आकार का है" (कठोपनिषद)।

सूक्ष्म शरीर की उपरोक्त परिभाषा श्री शंकर के अन्य कार्यों में पाई गई परिभाषा से भिन्न है। अन्य कार्यों
में सूक्ष्म शरीर को (1) पांच प्राणों, (2) पांच सूक्ष्म धारणा इंद्रियों, (3) पांच कर्म इंद्रियों, (4) मन, और (5)
बुद्धि के समुच्चय के रूप में वर्णित किया गया है। .

कारण शरीर पिछले कर्मों द्वारा छोड़े गए मानसिक संस्कारों (वासनाओं) से बना है।

अधिकारण शरीर अविद्या है, जो कारण शरीर की अभिव्यक्ति का कारण है।

यद्यपि वर्तमान कार्य में सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की परिभाषाओं और अन्य कार्यों में पाई गई
परिभाषाओं के बीच कु छ अंतर हैं, लेकिन अंतर बहुत अधिक नहीं हैं।

बुद्धि में शुद्ध चेतना का प्रतिबिम्ब जो सूक्ष्म शरीर का सार है, जीव कहलाता है। यह जीव भौतिक शरीर में
'मैं-पन' की भावना की अभिव्यक्ति का कारण बनता है।
समुद्र में सूर्य का प्रतिबिम्ब लहरों की गति के कारण हिलता है। इसी प्रकार शुद्ध चेतना का प्रतिबिम्ब मन
में होने वाले परिवर्तनों के अनुरूप चलता है। लेकिन जिस प्रकार सूर्य अपने प्रतिबिंब की गति से प्रभावित
नहीं होता है, उसी प्रकार शुद्ध चेतना मन में अपने प्रतिबिंब की गति से बिल्कु ल भी प्रभावित नहीं होती है।

सूर्य का प्रकाश, जब घंटी-धातु के बर्तन जैसी वस्तुओं से परावर्तित होता है, तो उसी कमरे में अन्य वस्तुओं
को रोशन करता है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में शुद्ध चेतना का प्रतिबिम्ब इन्द्रियों के माध्यम से बाहर की
वस्तुओं को प्रकाशित करता है अर्थात् सूक्ष्म शरीर में प्रतिबिम्बित चेतना के कारण इन्द्रियाँ बाहर की
वस्तुओं को अनुभव करती हैं।

5 कोष और 3 निकाय: वह सब कु छ जो आपको जानना आवश्यक है

क्या आपने कभी अपने अस्तित्व के वास्तविक स्वरूप के बारे में सोचा है? अपने नाम, नौकरी के शीर्षक
और शारीरिक बनावट के अलावा आप कौन हैं? योग दर्शन हमें सिखाता है कि मनुष्य के वल हड्डियों,
मांसपेशियों और रक्त का एक भौतिक शरीर नहीं है, बल्कि तीन जटिल शरीर हैं जो कई परतों से बने हैं जो
हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं । हम इन परतों को पाँच कोषों के रूप में जानते हैं, और इनमें सच्चे
आत्म के ज्ञान को खोलने की कुं जी है।
इस ब्लॉग में, हम योग में 3 शरीरों और 5 कोषों का पता लगाएंगे, अपने अस्तित्व की परतों में गहराई से
उतरेंगे और इस सार की खोज करेंगे कि हम वास्तव में कौन हैं। आत्म-खोज की इस यात्रा में हमारे साथ
जुड़ें और योग दर्शन के प्राचीन ज्ञान के माध्यम से स्वयं के रहस्यों को उजागर करें।
योग में 3 शरीरों की अवधारणा क्या है?
योगिक दर्शन के अनुसार, मनुष्य के 3 शरीर होते हैं: भौतिक शरीर, सूक्ष्म शरीर और आध्यात्मिक शरीर ,
जिसे आमतौर पर आत्मा के रूप में जाना जाता है। वे सभी महत्वपूर्ण जीवन शक्ति ऊर्जा: प्राण के माध्यम
से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । वास्तव में तीन निकायों और उनकी भूमिका को समझने के लिए, हमें थोड़ा
और गहराई में जाने की जरूरत है।

1. भौतिक (स्थूल) शरीर


जब आप खुद को आईने में देखते हैं तो क्या देखते हैं? आप दो आँखें, एक नाक, हाथ इत्यादि कह सकते
हैं। ये मानव शरीर के मूर्त पहलू हैं जो भौतिक शरीर का निर्माण करते हैं। इसे स्थूल शरीर भी कहा जाता
है, इस शरीर में हमारी मांसपेशियाँ, हड्डियाँ, अंग और अन्य सभी भाग शामिल होते हैं जो आपके भौतिक
स्वरूप को बनाते हैं। मूलतः, जो कु छ भी आप अपनी आँखों से देख सकते हैं या अपने हाथों से छू सकते हैं
वह आपका भौतिक शरीर है।
सतह से परे, स्थूल शरीर पांच प्राथमिक तत्वों से बना है : पृथ्वी (पृथ्वी), जल (जल), अग्नि (अग्नि), वायु
(वायु), और आकाश (आकाश)। इसीलिए हमें अपने भौतिक शरीर को बनाए रखने के लिए इन पांच तत्वों के
दैनिक सेवन की आवश्यकता होती है।
आयुर्वेद का प्राचीन विज्ञान इस सिद्धांत पर आधारित है कि शरीर को स्वस्थ और रोगमुक्त रखने के लिए
इन पांच तत्वों को नियमित रूप से ताज़ा किया जाना चाहिए। योग में, हम तत्वों को संतुलित करने और
अपने भौतिक शरीर के स्वास्थ्य और जीवन शक्ति को बनाए रखने के लिए अक्सर आसन (योग मुद्राएं)
और ध्यान का अभ्यास करते हैं।
भौतिक शरीर उपकरण शरीर है। इस भौतिक संसार में कु छ भी करने के लिए हमें इसकी आवश्यकता होती
है। उदाहरण के लिए, हमें बोर्ड पर लिखने के लिए एक कलम की आवश्यकता होती है, लेकिन वह कलम
नहीं है जो लिखती है; हम कलम का उपयोग करके लिखते हैं।

2. सूक्ष्म (सूक्ष्म) शरीर


सूक्ष्म या ऊर्जावान शरीर वह सूक्ष्म शरीर है जो भौतिक शरीर का आधार है। सूक्ष्म शरीर को सूक्ष्म शरीर के
नाम से भी जाना जाता है, सूक्ष्म शरीर भौतिक और आध्यात्मिक शरीर के बीच का सेतु है । यह परत
मानव आंखों को दिखाई नहीं देती है, लेकिन यह हमारे विचारों, भावनाओं और कार्यों का स्रोत है। सूक्ष्म
ऊर्जा चैनल जिन्हें नाड़ी और चक्र के रूप में जाना जाता है , इस शरीर में स्थित हैं। सूक्ष्म शरीर कु ल 19
तत्वों से बना है:
5 कर्मेन्द्रियाँ ( कर्म इन्द्रियाँ):

 वाक् (भाषण का अंग)


 पानी (हाथ)
 पाडा (फीट)
 उपष्टम (जननांग)
 पयु (गुदा, उत्सर्जन का अंग)

5 ज्ञान इंद्रियाँ (ज्ञान इंद्रियाँ):

 त्वक् (महसूस करना)


 जिव्हा (स्वादानुसार)
 ग्राहना (सूंघना)
 शोत्र (सुनना)
 चक्षु (देखना)

अंतःकरण के 4 तत्व (आंतरिक यंत्र):

 दिमाग
 बुद्धि
 अचेतन
 अहंकार

5 प्राण (पंच वायु):

 उडाना
 प्राण
 समाना
 अपान
 व्यान

पांच प्राण
सूक्ष्म शरीर को अपने कामकाज के लिए प्राण या महत्वपूर्ण शक्तियों की आवश्यकता होती है। प्राण
वे सूक्ष्म ऊर्जाएँ हैं जिनकी हमें जीवन की गतिविधियों जैसे सोचने, बोलने, चलने, पचाने आदि के लिए
आवश्यकता होती है। योग, प्राणायाम (साँस लेने के व्यायाम) और ध्यान जैसे अभ्यास हमारे सूक्ष्म शरीर को
संतुलित और सामंजस्यपूर्ण बनाने का काम करते हैं। प्रमुख प्राण पाँच प्रकार के होते हैं। ये हैं:
1. उदान प्राण
उदान हृदय के ऊपर स्थित ऊर्जा या महत्वपूर्ण शक्ति को संदर्भित करता है। उदान इस क्षेत्र में मस्तिष्क,
आंख, नाक और हाथ जैसी शारीरिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है । उदान प्राण हमें अंतरिक्ष तत्व से
प्राप्त होता है। अंतरिक्ष तत्व हमारे वायुमंडल में वायु के ऊपर स्थित है। इसीलिए हम अंतरिक्ष तत्व को वहीं
अधिक ग्रहण करते हैं जहां आकाश साफ होता है।
2. प्राण प्राण
प्राण हृदय के क्षेत्र में स्पष्ट रूप से कार्य करता है और हृदय की धड़कन को नियंत्रित करने के लिए
जिम्मेदार है । तो, हम स्वस्थ हृदय के लिए प्राण को धन्यवाद दे सकते हैं। प्राण हमें वायु तत्व से प्राप्त
होता है। प्राणायाम के अभ्यास के माध्यम से, आप अपनी सांस को नियंत्रित करना और हृदय तक प्राण के
प्रवाह को बेहतर बनाना सीख सकते हैं। यह हृदय स्वास्थ्य और भावनात्मक कल्याण को बढ़ावा दे सकता
है।
3. समान प्राण
समान मानव शरीर में पाचन और चयापचय को सुविधाजनक बनाने के लिए जिम्मेदार महत्वपूर्ण शक्ति
है । यह ऊर्जा हमें सूर्य और शारीरिक व्यायाम से मिलती है। समाना सौर जाल में, नाभि से चार अंगुल
ऊपर, पसली पिंजरे के ठीक नीचे स्थित है।

4. व्यान प्राण
व्यान परिसंचरण और गति की एक आवश्यक शक्ति
है। यह पूरे शरीर में रक्त और अन्य शारीरिक तरल
पदार्थों के संचार के लिए जिम्मेदार है। यह प्राण हमें
पानी से मिलता है, जो शरीर में द्रव संतुलन बनाए रखने
के लिए महत्वपूर्ण है। व्यान नाभि से तीन अंगुल नीचे
स्थित होता है, हालाँकि आयुर्वेद हृदय को इसका
प्राथमिक स्थान मानता है।
5. अपान प्राण
अपान उत्सर्जन की शक्ति है। यह प्राण शरीर
से अपशिष्ट और विषाक्त पदार्थों को समाप्त और बाहर
निकालता है । हम मिट्टी के खाद्य पदार्थ, जैसे जड़
वाली सब्जियां, अनाज और फलियां खाकर अपान प्राप्त
कर सकते हैं। अपान श्रोणि क्षेत्र में स्थित है, जिसमें पेट के निचले हिस्से, कू ल्हे और प्रजनन अंग शामिल
हैं।

3. आध्यात्मिक (कारण) शरीर


आध्यात्मिक या कारण शरीर बीज शरीर है । यह शरीर आपके पूरे जीवन में चलता रहता है और इस जीवन
और पिछले जन्मों में आपके साथ जो कु छ भी हुआ है, उसके कर्म के रूप में सूक्ष्म प्रभाव संग्रहीत करता
है। इसका मतलब यह है कि कारण शरीर अगले जीवन में स्थूल और सूक्ष्म शरीर के विकास को निर्धारित
करता है। जब हम मरते हैं तो आध्यात्मिक शरीर एक नया भौतिक और सूक्ष्म शरीर धारण कर लेता
है। इस प्रक्रिया को पुनर्जन्म कहा जाता है, जिसका अर्थ है "फिर से देह में आना।"
आध्यात्मिक शरीर भी वह शरीर है जो हमें परमात्मा से जोड़ता है । परिणामस्वरूप, हम इसे अपने अभ्यास
के अंतिम लक्ष्य: आत्मज्ञान या आत्म-साक्षात्कार तक पहुँचने के लिए एक वाहन के रूप में उपयोग कर
सकते हैं। आध्यात्मिक शरीर के तत्व हैं:

 आत्मा
 कर्म लेखा
 मुक्त इच्छा
 संस्कार
5 कोषों की व्याख्या
तो, कोष क्या हैं? 5 कोष 3 निकायों के भीतर स्थित हैं। संस्कृ त में "आवरण" या "आवरण" का अर्थ
है, कोष शुद्ध चेतना (पुरुष) या स्व (आत्मान) को घेरने वाली पांच परतें हैं। संस्कृ त में, उन्हें अन्नमय कोष
(अन्नमय कोष), प्राणमय कोष (प्राण या जीवन का कोष), मनोमय कोष (मन का कोष), विज्ञानमय कोष
(ज्ञान या ज्ञान कोष), और आनंदमय कोष (आनंदमय कोष) कहा जाता है।
यह भी पढ़ें- आपके अभ्यास और जीवन को उन्नत करने के लिए संस्कृ त मंत्र
5 कोष या परतें, आत्म-खोज की हमारी यात्रा के लिए एक रोडमैप के रूप में कार्य करती हैं । इनमें से
प्रत्येक परत को समझने और उसके माध्यम से काम करने से, हम धीरे-धीरे अधिक जागरूकता और आत्म-
साक्षात्कार की स्थिति की ओर बढ़ सकते हैं। आइए प्रत्येक कोश का अधिक विस्तार से अन्वेषण करें।

1. अन्नमय कोष: अन्नमय कोष

आत्मा की पहली और सबसे बाहरी परत अन्नमय कोश है, जिसका शाब्दिक अर्थ है भोजन कोश। यह पदार्थ
से बना भौतिक शरीर है, जिसमें त्वचा, हड्डियाँ, मांसपेशियाँ, अंग और अन्य ऊतक शामिल हैं। यह
कोष भोजन, पानी और आश्रय जैसी हमारी बुनियादी जीवित जरूरतों के लिए जिम्मेदार है। अन्नमय कोष
के माध्यम से ही हम भौतिक दुनिया का अनुभव करते हैं और अपने आस-पास के प्राकृ तिक वातावरण के
साथ बातचीत करते हैं।

2. प्राणमय कोष: प्राणमय कोष


प्राणमय कोष शरीर का ऊर्जा आवरण है। यह कोष ऊपर वर्णित पांच प्रमुख प्राणों से बना है, जो पूरे शरीर
में जीवन शक्ति ऊर्जा प्रवाहित करने में मदद करता है। परिणामस्वरूप, प्राणमय कोष हमारे जीवित रहने के
लिए आवश्यक महत्वपूर्ण कार्यों , जैसे श्वास, पाचन और परिसंचरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

3. मनोमय कोष: मानसिक आवरण

मानस का अर्थ है मन। यह कोष शरीर का मानसिक आवरण है, और इसमें हमारी भावनाएँ, विचार,
भावनाएँ, स्मृति और कल्पना शामिल हैं। यह कोष हमारे संज्ञानात्मक कार्यों , जैसे स्मृति, धारणा और तर्क
के लिए जिम्मेदार है, और यहीं पर हम अपने अनुभवों और भावनाओं को संसाधित करते हैं।

4. विज्ञानमय कोष: बौद्धिक कोष

अर्थात ज्ञान या ज्ञान, विज्ञानमय वह आवरण है जो मनुष्य को जानवरों से अलग करता है। जबकि हम
दोनों भावनाओं और गहरे संबंधों का अनुभव कर सकते हैं, के वल मनुष्य के पास सही से गलत और शाश्वत
से भ्रम का निर्धारण करने की बौद्धिक क्षमता है।
हमारी बुद्धि, अंतर्ज्ञान और आंतरिक ज्ञान सभी विज्ञानमय कोष का हिस्सा हैं, जो इसे हमारे आध्यात्मिक
विकास और विकास में एक महत्वपूर्ण कारक बनाते हैं । यह कोष वह जगह भी है जहां हम अपने अंतरतम
से जुड़ते हैं और ब्रह्मांड के साथ एकता की भावना का अनुभव करते हैं।

5. आनंदमय कोष: आनंदमय कोष

आनंदमय कोष आनंदमय कोष है। यह आत्मा को ढकने वाला सबसे बेहतरीन और पतला पर्दा है और इसे
आत्मा के स्तर के रूप में भी जाना जाता है। आनंदमय आवरण वह है जो हमें आनंद, प्रेम
और खुशी महसूस करने की अनुमति देता है । यह हमारी आध्यात्मिक संतुष्टि और मुक्ति के लिए भी
जिम्मेदार है , और जहां हम सभी चीजों के साथ अपने अंतर्संबंध का अनुभव करते हैं।
5 कोशों से कै से पार पाया जाए
5 कोषों का सबसे पहला उल्लेख सबसे पुराने संस्कृ त ग्रंथों में से एक, तैत्तिरीय उपनिषद में पाया जा
सकता है। तैत्तिरीय उपनिषद हमें सिखाता है कि मानव जीवन का लक्ष्य इन 5 कोषों को पार करना और
स्वयं की वास्तविक प्रकृ ति का एहसास करना है, जो अस्तित्व की सभी परतों से परे है।
के वल तीन शरीरों में गोता लगाकर और कोषों को छीलकर ही हम अपने वास्तविक स्वरूप को पा सकते हैं
और चेतना और अहसास के गहरे स्तर तक पहुंच सकते हैं। चूंकि प्रत्येक आवरण पूरी तरह से अलग है,
हम इसकी परत को पार करने और स्वयं में आगे की यात्रा करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते
हैं।

अन्नमय कोष
अन्नमय कोश से परे जाने का अर्थ है यह समझना कि आप अपने शरीर से कहीं अधिक हैं और भौतिक
शरीर की सीमाओं से परे जा सकते हैं। हम नियमित आसन अभ्यास और उचित आहार के माध्यम से
अपनी चेतना के गहरे स्तरों तक पहुँच सकते हैं ।

प्राणमय कोष
प्राणमय कोश से परे जाने का मतलब यह समझना है कि आप अपनी ऊर्जाओं से कहीं अधिक हैं। प्राणायाम
के नियमित अभ्यास के माध्यम से , आप सांस और शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा के बारे में अधिक जागरूकता
विकसित कर सकते हैं। इससे आपके अस्तित्व के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पहलुओं के बीच
संबंध की गहरी समझ पैदा हो सकती है। यह मन को शांत करने , तनाव और चिंता को कम करने और
समग्र स्वास्थ्य और कल्याण में सुधार करने में भी मदद करता है।

मनोमय कोष
मनोमय कोश से पार पाने का अर्थ है यह समझना कि आप अपने मन से कहीं अधिक हैं। यम और नियम
का अभ्यास करना और निस्वार्थ सेवा में संलग्न होने से आपको मनोमय कोष की सीमाओं को पार करने
और चेतना के अधिक गहन स्तरों तक पहुंचने में मदद मिल सकती है। इससे आपके और दूसरों के प्रति
आंतरिक शांति, करुणा और एकता की बेहतर भावना पैदा हो सकती है।
देखें - योग के आठ अंग क्या हैं?

विज्ञानमय कोष
विज्ञानमय कोश से पार पाने का मतलब यह समझना है कि आप अपनी बुद्धि और विश्लेषण करने की
क्षमता से कहीं अधिक हैं। शास्त्रों का अध्ययन, सही पूछताछ (मैं कौन हूं?), और ध्यान , ये सभी
विज्ञानमय कोश में प्रवेश करने और उसके पार पहुंचने के सामान्य तरीके हैं।
धर्मग्रंथों का अध्ययन और आत्म-जांच का अभ्यास हमें ज्ञान विकसित करने और वास्तविकता की प्रकृ ति
और अस्तित्व के उद्देश्य को समझने में सक्षम बनाता है। ध्यान भी बुद्धि को शांत करने और भौतिक शरीर
और मन की सीमाओं से परे यात्रा करने का एक शक्तिशाली उपकरण है।

आनंदमय कोश
समाधि आनंदमय कोश से परे जाने का एक प्रभावी तरीका है । समाधि गहरे ध्यान की एक अवस्था है
जिसमें आप पूरी तरह से स्वयं में लीन हो जाते हैं और शुद्ध चेतना की स्थिति का अनुभव करते हैं। इस
अवस्था में, आप माया (भ्रम) की सीमाओं को पार कर सकते हैं और स्वयं की वास्तविक प्रकृ ति का अनुभव
कर सकते हैं।
हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि समाधि के अभ्यास के लिए एक अनुभवी शिक्षक के वर्षों के
समर्पित अभ्यास और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे रातोरात हासिल
किया जा सके ।

कोष और चक्र में क्या अंतर है?


जैसा कि ऊपर बताया गया है, कोष पाँच परतें या आवरण हैं जो स्वयं के शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक
और आध्यात्मिक पहलुओं को बनाते हैं। दूसरी ओर, चक्र रीढ़ की हड्डी के साथ स्थित 7 ऊर्जा कें द्र हैं जो
स्वयं के विभिन्न शारीरिक और भावनात्मक पहलुओं का संतुलन बनाए रखते हैं। इसमें मूल चक्र , त्रिक
चक्र , सौर जाल चक्र , हृदय चक्र , गला चक्र , तीसरी आँख चक्र और मुकु ट चक्र शामिल हैं ।
जबकि कोष और चक्र दोनों मानव शरीर और चेतना के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हैं, कोष स्वयं को
ढकने वाली परतों पर अधिक ध्यान कें द्रित करते हैं , जबकि चक्र सूक्ष्म शरीर में ऊर्जा कें द्रों पर ध्यान
कें द्रित करते हैं । दोनों अवधारणाएँ योग अभ्यास में महत्वपूर्ण हैं और इन्हें आसन,
प्राणायाम, मुद्रा और ध्यान और जप जैसी विभिन्न तकनीकों के माध्यम से खोजा जा सकता है ।
अंतिम विचार
3 शरीर और 5 कोष हमारे वास्तविक स्वरूप को समझने का मार्ग हैं। कोष की प्रत्येक परत पर काम
करके , हम धीरे-धीरे भ्रम की परतों को हटा सकते हैं और अपने अस्तित्व के वास्तविक सार का अनुभव
करने के करीब आ सकते हैं। 3 शरीरों में 5 कोषों को कै से पहचानें और पार करें, यह सीखने के लिए वर्षों
के अभ्यास और समर्पण की आवश्यकता होती है, लेकिन यदि आप आत्म-खोज के मार्ग पर दृढ़ रह सकते
हैं, तो आप चेतना की गहरी स्थिति को अनलॉक कर सकते हैं और अपने अस्तित्व की वास्तविक प्रकृ ति
की खोज कर सकते हैं।

तीन शरीर (स्थूल, सूक्ष्म, कारण) आत्मा को कै से प्रभावित करते हैं (17)

सारांश:

सत्र 17 में बताया गया है कि प्रत्येक मनुष्य के 3 शरीर क्या हैं। फिर यह स्पष्ट करता है कि कै से 3
शरीरों या 5 कोशों के भीतर होने वाला अनुभव - गलती से आत्मान ("मैं") पर आरोपित हो जाता
है। इसलिए व्यक्ति (जीव) का दावा है कि " मैं ___ (शुद्ध, अशुद्ध, खुश, संशयवादी, युवा, आदि) हूं "। इसके
अलावा हम जाग्रत, स्वप्न और गहरी नींद की अवस्थाओं का कारण भी संक्षेप में समझाते हैं।

(निकट भविष्य में मांडू क्य उपनिषद में 3 राज्यों को पूरी तरह से शामिल किया जाएगा)

शामिल विषय:

1. स्थूल शरीर क्या है?

अन्नमय कोश को 'स्थूल शरीर' कहा जाता है। स्थूल शरीर धारणा के पांच अंगों (आंख, कान, नाक,
जीभ और त्वचा) और पांच कर्म अंगों (हाथ, पैर, वाणी, जननांग अंग और गुदा) के लिए आवास या
झोपड़ी है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति वस्तुओं से संपर्क करता है। , खुशियों और दुखों के अनुभव
के लिए उत्तेजना इकट्ठा करता है और दुनिया के साथ बातचीत करता है।

जब शुद्ध चेतना (आत्मान) स्थूल शरीर के साथ पहचान करती है, तो यह 'जागृत' के रूप में प्रकट
होती है जो जाग्रत दुनिया का अनुभव करती है, वह बहुलवादी दुनिया है, जिसे व्यक्ति जाग्रत
अवस्था में अनुभव करता है।

2. सूक्ष्म शरीर क्या है?


प्राण-वायु, मानसिक और बौद्धिक कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं। प्राण-वायु शरीर के
विभिन्न शारीरिक कार्यों जैसे पाचन, श्वास, रक्त परिसंचरण आदि को नियंत्रित करती है।

मन और बुद्धि दोनों ही विचार मात्र हैं। हालाँकि, इन विचारों में कार्यात्मक अंतर हैं। इन कार्यों को
निम्नलिखित चार श्रेणियों के अंतर्गत वर्गीकृ त किया गया है:

(ए) मन (मानस)
(बी) बुद्धि (बुद्धि)
(सी) स्मृति (चित्त)
(डी) अहंकार (अहंकार)
सूक्ष्म शरीर को बनाने वाले ये चार कारक 'आंतरिक उपकरण' (अंतः-कारण) हैं। बाहरी उपकरण में
पांच धारणा इंद्रियां और पांच कर्म इंद्रियां शामिल हैं जो स्थूल शरीर में स्थित हैं।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, आंतरिक उपकरण में ये चार विभाग - अर्थात् मन, बुद्धि,
अहंकार और स्मृति - विशुद्ध रूप से कार्यात्मक हैं; वे अंग नहीं हैं. एक अंग वह है जिसकी एक
संरचना और एक कार्य होता है (जैसे: भौतिक मस्तिष्क, फे फड़े, हृदय)। इन चारों की कोई संरचना
नहीं है; वे के वल कार्यों को दर्शाते हैं।

जब वातानुकू लित चेतना स्थूल शरीर से हट जाती है और सूक्ष्म शरीर के साथ पहचान करती है, तो
यह 'सपने देखने वाले' के रूप में प्रकट होती है - जो सपनों की दुनिया का अनुभव करती है, यह
बहुलता की मानसिक दुनिया है जिसे व्यक्ति सपने देखते समय अनुभव करता है।

3. मन के 4 विचार प्रकार क्या हैं?

(ए) मन (मानस): एक अनुभव में, बाहरी दुनिया से उत्तेजनाओं का पहला प्रभाव धारणा के अंगों के
माध्यम से व्यक्ति तक पहुंचता है। इससे विचारों में अशांति उत्पन्न होती है, जिसके परिणामस्वरूप
भीतर बेचैनी और अनिर्णय रहता है। इस संदेह या अनिर्णय की स्थिति में आने वाले विचारों को मन
कहा जाता है।

(बी) बुद्धि (बुद्धि): पहला प्रभाव समाप्त होने के बाद, अशांति समाप्त हो जाती है और किसी के
निर्णय और दृढ़ संकल्प से शांति पैदा होती है। निर्णय की इस स्थिति में विचार ही बुद्धि कहलाते हैं।

(सी) मेमोरी (सिट्टा): बुद्धि को निर्णय की स्थिति में लाने के लिए, उसे प्राप्त उत्तेजनाओं से संबंधित
प्रासंगिक डेटा की आवश्यकता होती है। इस तरह के निर्णय लेने वाले डेटा की आपूर्ति किसी व्यक्ति
के आंतरिक व्यक्तित्व की गहराई से उत्पन्न तीसरे फ़ं क्शन द्वारा की जाती है। यह डेटा पिछले
अनुभवों के परिणामस्वरूप संग्रहीत और संचित किया गया है। ऐसे संग्रहीत विचारों को स्मृति कहा
जाता है।

(डी) अहंकार (अहंकार): एक संदेह, एक निर्णय और एक स्मृति एक दूसरे से तभी संबंधित होंगे जब
वे एक ही व्यक्ति से संबंधित हों। जब ये सभी एक व्यक्ति में रहते हैं, तो व्यक्ति को पता चलता
है कि संदेह, निर्णय और स्मृति उसी व्यक्ति की हैं। 'मुझे संदेह है' , 'मैं निर्णय लेता हूं' और 'मुझे
याद है' की भावनाओं में स्वामित्व या अहंकार की निरंतर अवधारणा भी एक विचार है और इसका
कार्यात्मक नाम 'अहंकार' है।

4. रूपक कि कै से चेतना (आत्मान) मन द्वारा वातानुकू लित प्रतीत होती है।

शुद्ध चेतना सर्वव्यापी है और मानव उपकरण (शरीर-मन-बुद्धि) में से किसी एक से रहित है।

हालाँकि, जब शुद्ध चेतना मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार के संस्कारों के माध्यम से कार्य करती है तो
यह इन उपकरणों द्वारा अनुकू लित हो जाती है।

जब ये संस्कार समाप्त हो जाते हैं तो संस्कारित-चेतना मानो (अर्थ: वास्तव में नहीं, क्योंकि यह
पहले कभी संस्कारित नहीं हुई थी)... वापस विलीन हो जाती है और बिना शर्त शुद्ध चेतना के साथ
एक हो जाती है।

यह घटना सर्वव्यापी सूर्य के प्रकाश और एक कमरे की दीवारों द्वारा वातानुकू लित सूर्य के प्रकाश से
तुलनीय है।

जब तक दीवारें मौजूद हैं तब तक कमरे में सूरज की रोशनी कमरे की दीवारों से वातानुकू लित रहती
है।

लेकिन जब दीवारें हटा दी जाती हैं, तो कमरे के भीतर वातानुकू लित सूरज की रोशनी, मानो विलीन
हो जाती है और पूरी धूप के साथ एक हो जाती है।

इसी प्रकार, जब भक्ति-योग (भक्ति का मार्ग) का अनुसरण करने वाले भक्त द्वारा मन को उन्नत
किया जाता है, तो वातानुकू लित चेतना शुद्ध चेतना में विलीन हो जाती है।

या जब बुद्धि ज्ञान-योग (ज्ञान का मार्ग) के माध्यम से पार हो जाती है।

या जब कर्म-योग (कर्म का मार्ग) के माध्यम से अहंकार पर काबू पाया जाता है।

जब मन, बुद्धि या अहंकार को उदात्त कर दिया जाता है, तो वे सभी पार हो जाते हैं क्योंकि वे सभी
एक ही पदार्थ - विचारों से बने होते हैं।

उसके बाद जो शेष रहता है वह शुद्ध चेतना है।

5. कारण शरीर क्या है?

आनंदमय कोष, जिसे कारण शरीर भी कहा जाता है, अव्यक्त रूप में वासनाओं (अंतर्निहित
प्रवृत्तियों) से युक्त होता है।

इसका अनुभव चेतना की गहरी नींद की अवस्था में होता है जब स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर कार्य
नहीं कर रहे होते हैं।
यह एक ऐसी स्थिति है जहां जाग्रत और स्वप्न अवस्था की बहुलवादी दुनियाएं नष्ट हो जाती हैं,
लेकिन साथ ही, सर्वोच्च वास्तविकता का दर्शन उपलब्ध नहीं होता है।

दूसरे शब्दों में, यह अपरिग्रह की स्थिति है। इस अवस्था में हम न तो उच्च वास्तविकता (सत्य)
और न ही निम्न बहुलता (मिथ्या) को जानते हैं - यह पूर्ण अज्ञान की स्थिति है।

जब शुद्ध चेतना स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से हट जाती है और कारण शरीर के साथ पहचान कर लेती
है, तो यह 'गहन निद्रालु व्यक्ति' के रूप में प्रकट होती है, जो शून्यता के एक समान अनुभव से
गुजरती है, यह वह अनुभव है जो व्यक्ति को गहरी नींद में सपनों से भी परेशान हुए बिना होता है।
.

6. 3 अवस्थाओं का कारण (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति)।

मनुष्य का वास्तविक स्वभाव शुद्ध चेतना है, लेकिन वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में चेतना की
भूमिका के कारण क्रमशः जाग्रत, स्वप्नद्रष्टा और गहरी नींद वाले तीन अलग-अलग, विशिष्ट और
सापेक्ष अवस्थाओं से गुजरते हैं।

जब इन शरीरों के साथ तादात्म्य समाप्त हो जाता है तो मूल, शुद्ध, पारलौकिक प्रकृ ति को सदैव
विद्यमान स्वयं-स्पष्ट "मैं" समझा जाता है।

स्थूल शरीर के माध्यम से कार्य करने वाली चेतना जाग्रत का निर्माण करती है।

वही चेतना स्थूल शरीर से हटकर सूक्ष्म के माध्यम से कार्य करती है, स्वप्नद्रष्टा का निर्माण करती
है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से हटकर और कारण शरीर के माध्यम से कार्य करते हुए, चेतना गहरी नींद
में सोए हुए व्यक्ति के रूप में व्यक्त होती है।

जाग्रत, स्वप्नद्रष्टा और सुषुप्तिधारी इन तीनों का संयोजन मनुष्य में व्यक्तित्व ( जीव ) का


निर्माण करता है।

7. व्यक्ति (जीव) इच्छाओं को प्राप्त करने और उनका पीछा करने का जीवन क्यों अपनाता है?

एक व्यक्ति (जीव) दुनिया से अधिक से अधिक खुशी प्राप्त करने की कोशिश करके आनंद की
अपनी वास्तविक प्रकृ ति को पुनः प्राप्त करने का लगातार प्रयास करता है। लेकिन जो कु छ भी वह
प्राप्त करता है वह के वल खुशी की ऐंठन होती है जिसके बाद जल्द ही दुख और कड़वाहट आ जाती
है।

यह पदार्थ की परतों के साथ चेतना (आत्मा) की पहचान के परिणामस्वरूप होता है। पदार्थ से
संबंधित गुण और उससे जुड़े दुख आत्मा पर आरोपित हैं।

ऐसी झूठी धारणाओं को दूर करने और इस तरह पूर्ण आनंद का अनुभव करने के लिए व्यक्ति को
पदार्थ की पांच परतों पर ध्यान से विचार करना होगा, साथ ही उनका विश्लेषण करना होगा और
फिर धीरे-धीरे उनमें से प्रत्येक के प्रभाव से खुद को अलग करना होगा।

जब यह प्रक्रिया सफलतापूर्वक की जाती है, तो व्यक्ति चेतना की जाग्रत, स्वप्न और गहरी नींद की
अवस्थाओं से भिन्न शुद्ध आत्म को समझता है और अनुभव करता है।

व्यक्तित्व की पांच आरोपित परतों के इस तरह के भेदभाव और सर्वोच्च आनंद के रूप में किसी की
वास्तविक प्रकृ ति की पहचान को 'पांच कोषों का भेदभाव' (पंच-कोष-विवेक) कहा जाता है।

आज संसार में मनुष्य पूरी तरह से पदार्थ की परतों को पहचानता है और उनसे जुड़े कष्टों और दुखों
को भोगता है।

व्यक्तित्व की पांच परतों का विश्लेषण और भेदभाव व्यक्ति को पदार्थ के साथ जुड़ाव के माध्यम से
अनुभव की गई दासता से बाहर निकलने और आनंद (जागरूकता) की मूल महिमा को पहचानने और
पुनः प्राप्त करने में मदद करता है।

8. आत्मान की प्रकृ ति

व्यक्तित्व की पाँच परतें - भोजन, प्राण-वायु, मानसिक, बौद्धिक और आनंद कोश - पदार्थ से बनी
हैं।

पदार्थ अपने आप में जड़ एवं अचेतन है। लेकिन एक व्यक्ति एक संवेदनशील प्राणी के रूप में
व्यवहार करता है और अपने आस-पास और अपने बारे में जो कु छ भी हो रहा है उसके प्रति सचेत
रहता है।

इसलिए, इसका तात्पर्य यह है कि उन्हें संवेदना या चेतना प्रदान करने के लिए इन पांच भौतिक
गुणों के अलावा कु छ और भी होना चाहिए। चेतना का यह सिद्धांत आत्मा या ईश्वर है।

मनुष्य अनजाने में ही अपने उपकरणों को 'मेरा शरीर' और 'मेरी बुद्धि' घोषित करके स्वयं को अलग
स्वीकार कर लेता है।

जब कोई स्वामित्ववाचक सर्वनाम किसी वस्तु को योग्य बनाता है, तो 'मालिक' आवश्यक रूप से
'कब्जे वाली' वस्तु से अलग होना चाहिए। उदाहरण के लिए, मेरी कार मैं नहीं हूं, मेरा कु त्ता मुझसे
अलग है।
इस प्रकार, किसी व्यक्ति का स्व, 'मैं', शरीर, मन और बुद्धि से भिन्न और भिन्न है। यह सर्वोच्च
स्वामी, सभी जीवित प्राणियों में शुद्ध आत्मा एक पूर्ण चेतना या आत्मा है।

आत्मा (चेतना) को फिर से उस पारलौकिक शक्ति के रूप में दर्शाया गया है जो इंद्रियों को दुनिया
की वस्तुओं को देखने की क्षमता प्रदान करती है, मन को सभी भावनाओं को महसूस करने की
क्षमता देती है, और बुद्धि को सोचने की क्षमता प्रदान करती है।

तीन शरीर - स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर - तीन उपकरण हैं जिनके माध्यम से आत्मा (चेतना)
कार्य करती है।

चेतना को वह ईंधन माना जा सकता है जो इन तीन वाहनों को कार्य करने के लिए प्रेरित करता
है। चेतना वह जीवन शक्ति है जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के अक्रिय उपकरणों के माध्यम
से कार्य करते हुए जागने वाले, स्वप्न देखने वाले और गहरी नींद में सोने वाले के रूप में समग्र
मानव व्यक्तित्व का निर्माण करती है।

आत्मा (चेतना) को परिवर्तनहीन आधार भी कहा जाता है जिस पर सभी परिवर्तन होते हैं। शरीर
और उसकी धारणाएँ लगातार बदल रही हैं, और इसी तरह मन और उसकी भावनाएँ, और बुद्धि और
उसके विचार भी।

किसी के उपकरणों में होने वाले ये परिवर्तन ध्यान देने योग्य हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि
परिवर्तन की पहचान के वल परिवर्तनहीन इकाई के संदर्भ में ही संभव है।

उदाहरण के लिए, चलती ट्रेन के बंद डिब्बे में बैठे दो लोग एक-दूसरे के संबंध में कोई बदलाव नहीं
देखते हैं।

हालाँकि, जब वे खिड़की से बाहर देखते हैं तो वे बाहर स्थिर वस्तुओं के संदर्भ में ट्रेन की गति को
नोटिस करने में सक्षम होते हैं।

इसी प्रकार, यह तथ्य कि मनुष्य स्वयं में होने वाले परिवर्तनों को पहचानता है, बिना किसी संदेह के
उसके भीतर एक परिवर्तनहीन इकाई के अस्तित्व को स्थापित करता है।

यह परिवर्तनहीन इकाई आत्मा (आप) है।

उपरोक्त टिप्पणियों को सारांशित करते हुए, ईश्वर (आत्मान) को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है:

(1) वह सत्ता जो अचेतन पदार्थ को चेतन सत्ता में बदल देती है। आत्मा पदार्थ की निष्क्रिय परतों
को जीवन प्रदान करता है और वे मिलकर जीवित मनुष्य का निर्माण करते हैं।

(2) किसी व्यक्ति में 'मैं-पन' या शुद्ध स्व, जो सर्वोच्च स्वामी है, आविष्ट अर्थात् शरीर, मन और
बुद्धि से भिन्न है।

(3) वह शक्ति जो इंद्रियों, मन और बुद्धि को समझने, महसूस करने और सोचने की अपनी-अपनी


क्षमता प्रदान करती है।
(4) कु छ ऐसा जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों से परे है। शरीरों के साथ तादात्म्य स्थापित करने
पर यह क्रमशः जाग्रत, स्वप्नदृष्टा और सुषुप्तावस्था में प्रकट होता है।

(5) परिवर्तनहीन वास्तविकता जो व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर होने वाले
परिवर्तनों को पहचानने में सक्षम बनाती है।

9. गैर-आशंका (अज्ञानता) ग़लत आशंका (झूठी धारणाओं का प्रक्षेपण) का कारण बनती है।

शुद्ध चेतना (आत्मान, आप) को समझना बुद्धि की क्षमता से परे है। यह बुद्धि की वह शक्ति है जो
उसे समझने की क्षमता देती है और इसलिए, समझने की एक सक्रिय वस्तु नहीं हो सकती है।

हालाँकि, जब बुद्धि किसी चीज़ को समझने में विफल हो जाती है, तो मन उस चीज़ पर गलत और
अवास्तविक प्रक्षेपण करके उसकी गलत व्याख्या करना शुरू कर देता है।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मनुष्य का मूल स्वभाव पूर्ण ज्ञान है फिर भी वह अपने उपकरणों की
मदद से अधिक से अधिक जानने के लिए लगातार उत्सुक रहता है।

जहां बुद्धि असफल हो जाती है, वहां मन अज्ञात वस्तु पर ज्ञान की गलत धारणा प्रक्षेपित करके
क्षतिपूर्ति करने का प्रयास करता है।

गैर-आशंका ( वास्तविकताओं के बारे में अशिक्षित बुद्धि के कारण ) सभी गलतफहमियों का मूल
कारण है ( अशिक्षित बुद्धि के कारण दुनिया पर गलत धारणाओं का प्रक्षेपण )।

उदाहरण के लिए, साँप-रस्सी कहानी के सन्दर्भ में: रस्सी के प्रति अनाशय को दूर करने के अलावा,
अर्थात् रस्सी का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के अलावा, साँप के बारे में गलतफहमी को दूर नहीं किया
जा सकता है।
शरीर से बाहर शूक्ष्म शरीर की सत्ता

वेदांत कहता है कि "माया" परमसत्ता की एक बीजशक्ति है, जिसके अनेक नाम और रूप हैं। जिस प्रकार से
आप उष्मा अग्नि से अलग नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार से माया भी ब्रह्मतत्व (प्रकृ्ति) से भिन्न नहीं
है। इसके तीन गुण हैं सत्,रज और तम। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पांचों तत्वों के द्वारा किसी
नवीन उत्पति की क्रिया में यही तीन गुण माया द्वारा क्रियाशील रहते हैं।

इन पांचों तत्वों में जब सात्विक अंश की प्रधानता रहती है तो आकाश से श्रोत यानी शब्द, वायु से
स्पर्श,अग्नि से नेत्र,जल से जिह्वा और पृथ्वी से घ्राण यानी गंध नाम वाली पांचों ज्ञानेन्द्रियां बनती हैं। इन्ही
से बुद्धि, मन, चित्त और अहंकार जैसी मानसिक कृ तियां उत्पन होती हैं। जिनमें ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का
प्रेरक बनता है मन।

इन्ही पांचों तत्वों से निर्मित हमारी इस स्थूल देह का नाम है अन्नमय कोश जो कि मृत्यु के साथ ही
समाप्त हो जाता है। शरीर में स्थित पांच वायु और पांच कर्मेंन्द्रियों के योग का नाम है प्राणमय कोष।

पांचों ज्ञानेनिद्रियों के योग को कहा गया है मनोमय कोष तथा बुद्धितत्व युक्त पंच ज्ञानेंद्रियों को विज्ञानमय
कोष। अंतिम कोष सत्वगुणी अविद्या से संचालित आनंदमय कोष है, लेकिन आत्मा जो है वो इन सबसे
एक अलग सत्ता है।

वैदिक दृष्टि के अनुसार मृत्यु के पश्चात भी न मरने वाला सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेंद्रियों,
पांच प्राण, एक मन और एक बुद्धि के योग से बना है। यही वह सूक्ष्म शरीर है जो कि प्रारब्ध और संचित
कर्मों के कारण मृत्यु पश्चात बार बार जन्म लेता है। ऐसा नहीं है कि सूक्ष्म शरीर की ये अवधारणा सिर्फ
भारतीय है बल्कि "इजिप्टियन बुक ऑफ द डेड" में भी सूक्ष्म शरीर के बारे में विचार प्रकट किए गए हैं।

आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डा. सेसिल ने भी प्रयोगों के आधार पर एक निष्कर्ष निकाला था कि स्थूल शरीर
के समानांतर किसी एक सूक्ष्म शरीर की सत्ता है, जो कि सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों के बावजूद कभी
कभी शरीर को छोडकर दूर चली जाती है, हालांकि एक सुनहले रंग के सूक्ष्म तार के माध्यम से ये हर हाल
में हमारे इस स्थूल शरीर की नाभि से जुडी रहती है।

जब कभी यह सुनहला तार किसी कारणवश टू ट जाता है तो उस सूक्ष्म सत्ता का स्थूल शरीर से फिर कोई
संबंध नहीं रह जाता और यही किसी व्यक्ति की आकस्मिक मृत्यु का कारण बनता है। आज विश्व के
वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोजों के आधार पर ये कहा जाता है कि अणु के भीतरी भाग में एक तरह की
नियति या कहें कि शून्य है।

अणु के भीतर इस शून्य के द्वारा ही सूक्ष्म शरीर की रचना होती है। परन्तु एक शून्य द्वारा उत्पन सूक्ष्म
शरीर द्वारा स्थूल शरीर को छोडकर चले जाना ही आज के वैज्ञानिकों के सामने एक बडी पहेली है। लेकिन
यदि वेदांत का आश्रय लिया जाए तो शायद इस पहेली को सही रूप में आसानी से सुलझाया जा सकता है।

इन आधारों पर यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता है कि विज्ञान शायद पुनर्जन्म की इस पहेली को
जल्द ही सुलझा ले; लेकिन इस विषय में मेरा तो ये मानना है कि विज्ञान चाहे किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचे
किन्तु अन्त में उसे हमारे विचारों का समर्थन करना ही होगा। हां, ये हो सकता है भले ही उनकी भाषा
अद्वैत वेदांत की गूढ भाषा से भिन्न हो।
मनुष्य योनि , देवता योनि और मोक्ष में क्या अंतर है ?

December 16, 2015 Yatendra Sharma

मनुष्य हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहता है कि कही मुझे नरक न मिल जाये । मैं स्वर्ग चला जाऊ
यह धारणा हमेशा बनी रहती है । पहले हम मनुष्य योनि , देवता योनि ( सूक्ष्म शरीर ) और मोक्ष ( कारण
शरीर ) के अंतर को समझने की कोशिस करते है ।

मनुष्य का स्थूल रूपी शरीर 24 तत्वो से मिलकर बनता है जिसमे 5 प्राण , 5 तंत्रमहाभूत , 5 ज्ञानेद्रि , 5
कर्मेन्द्रि , मन , बुद्धि , चित और अहंकार होते है । ये 24 तत्व प्रथ्वी लोक पर रमण करते है । इसमे वायु
तत्व , अग्नि तत्व और जल तत्व प्रधान होता है ।
देवता योनि ( सूक्ष्म शरीर ) मे 18 तत्व होते है । 5 ज्ञानेद्रि 5 प्राण , चित , मन और बुद्धि ये मिलकर
सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते है । सूक्ष्म शरीर मे 5 कर्मेन्द्रि और अहंकार नहीं होता है । इसी को देवता
योनि कहते है । यह योनि वायु तत्व और अंतिरक्ष तत्व प्रधान होती है । देवता हमे देख सकते है हमारी
मदद कर सकते है लेकिन हम सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं को देख नहीं सकते है । क्योकि सूक्ष्म शरीर
वाली आत्माओं का तत्व का अनुपात भिन्न हो जाता है ।

मोक्ष ( कारण शरीर ) मे सिर्फ 2 तत्व रह जाते है ज्ञान और प्रयत्न । ज्ञान और प्रयत्न आत्मा का तत्व
होता है । मोक्ष मे आत्मा परमात्मा के आँगन मे चली जाती है । तथा वहाँ से इस ब्रह्मांड के सभी लाखो
लोको मे भ्रमण करती रहती है । तथा परमात्मा के कार्य मे मदद करती है । जिस लोक मे ज्ञान की कमी
हो जाती है या अधर्म बढ़ जाता है तो उस लोक मे पुनर्जन्म लेकर ज्ञान और धर्म को बढ़ाती है । उसी को
हम भगवान का अवतार बोलते है ।

अब मनुष्य योनि से हम देवता योनि मे होते हुए मोक्ष को प्राप्त कर सकते है । मनुष्य योनि मे रहते हुए
अगर उच्च कोटी के सतोगुणी कर्म किए तो सीधा मोक्ष भी मिल सकता है । अगर सतोगुण के साथ साथ
रजोगुण के उच्च कर्म करते हुए देवता योनि मे भी जा सकते है । अगर आपके उच्च रजोगुण है तो दुवारा
मनुष्य योनि मे आना पड़ेगा ।

आत्मा सूक्ष्म शरीर में निवास करती है। मृत्यु के बाद सूक्ष्म शरीर नया जन्म लेता है। आत्मा भ्रूण है और
सूक्ष्म शरीर बीज-कोश है। सूक्ष्म शरीर इच्छाओं, वासनाओं और लालसाओं से बना है। हालाँकि, यदि कोई
व्यक्ति विचारों (मन) और इच्छाओं को नष्ट कर देता है (सूक्ष्म शरीर मर जाता है), तो उसके दोबारा जन्म
लेने का कोई कारण नहीं बचता।

जैसे ही सूक्ष्म शरीर मरता है, इससे जन्म और मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है। आत्मा न कभी जन्मती
है और न कभी मरती है। इसे निर्वाण कहा जाता है।

सूक्ष्म शरीर हमारे अस्तित्व का वह हिस्सा है जिसे हम शारीरिक रूप से छू या महसूस नहीं कर सकते
हैं। समझने के लिए, स्थूल शरीर में हमारे हाथ, हमारे पैर, हमारी नाक, हमारे कान, यहां तक कि हमारा
मस्तिष्क और हमारा हृदय भी शामिल है। वह स्थूल शरीर है. सूक्ष्म शरीर माइम है- मन, बुद्धि, स्मृति और
अहंकार। जबकि हम जानते हैं कि ये चार अस्तित्व में हैं, ये सूक्ष्म हैं। उनकी पहचान नहीं की जा
सकती. आप यह नहीं कह सकते कि आपका मन आपके सिर में है क्योंकि आपके विचार तब भी आते हैं
जब आपके पैर का अंगूठा किसी चीज़ को छू ता है। इसलिए, हमारा सूक्ष्म शरीर आंतरिक उपकरण या
अंतःकर्ण है जिसमें माइम शामिल है। आत्मा शक्ति स्रोत है। यह प्राण ही है जो स्थूल शरीर और सूक्ष्म
शरीर दोनों को ऊर्जा देता है। यह एक जीवन शक्ति है. यह मेरी आत्मा या तुम्हारी आत्मा नहीं है. आत्मा
सार्वभौमिक है. यह दिव्य है. इसलिए, इसे आसानी से समझा जा सकता है यदि हम कं प्यूटर के हार्डवेयर
को हमारे स्थूल शरीर के रूप में, कं प्यूटर के सॉफ़्टवेयर को हमारे सूक्ष्म शरीर के रूप में और बिजली
आपूर्ति को आत्मा के रूप में देखें। यह Apple कं प्यूटर या Microsoft कं प्यूटर या Dell कं प्यूटर हो सकता
है। लेकिन बिजली की आपूर्ति एक है, जो बिजली बोर्ड से आती है। हमारी आत्मा के साथ भी ऐसा ही है।
कारण-शरीर’ और ‘सूक्ष्म-शरीर’ कै से बनते हैं। और आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध कब तक रहता है? 1
COMMENT कारण शरीर ”प्रकृ ति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय
का नाम प्रकृ ति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है। स अब उस प्रकृ ति रूपी कारण
शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कु र्ता (कपड़ा(
पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कु र्ता ये तीन
वस्तु हो गयीं। कु र्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।
स्थूल शरीर है कु र्ता, सूक्ष्म शरीर है धागा, और कारण शरीर है- रूई। स जो संबंध कु र्ते, धागे और रूई में है,
वो ही संबंध इन तीनों शरीर में है। क्या रूई के बिना धागा बन जायेगा, और क्या धागे के बिना कु र्ता
बनेगा? कारण शरीर के बिना सूक्ष्म शरीर नहीं बनेगा। सूक्ष्म शरीर के बिना स्थूल शरीर नहीं बनेगा। कहा
हैः- कारण शरीर प्रकृ ति सत्त्वरजसतमः। सत्त्व, रज और तम से अठारह चीजें बनी। उसका नाम है- सूक्ष्म
शरीर। स सृष्टि के आरंभ में जब भगवान ने ये सारी दुनिया बनायी तो कारण शरीर प्रकृ ति से अठारह
पदार्थ उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- बु(ि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच
तन्मात्रा। इनका नाम सूक्ष्म शरीर है। ये सारे पदार्थ प्रकृ ति से बनते हैं। रूप,रस, गंध आदि पाँच तन्मात्राओं
से पाँच महाभूत बनते हैं। जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश, इन पाँच महाभूतों के नाम है। इन्हीं पाँच
पदार्थों का समुदाय ये स्थूल शरीर है। जो आपको आँख से दिखता है, वो स्थूल रूप। तो ये इन तीनों का
संबंध है। स जब तक जीवात्मा पुर्नजन्म धारण करेगा, यानी एक शरीर छोड़ दिया, दूसरा शरीर धारण कर
लिया, तो स्थूल शरीर छू ट जायेगा। अतः मृत्यु होने पर ये छू ट जायेगा। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर, ये
दोनों जीवात्मा के साथ जुड़े रहेंगे। पुर्नजन्म हुआ फिर नया स्थूल शरीर मिल गया, फिर अगला शरीर, फिर
अगला। जब तक मुक्ति नहीं होगी तब तक सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर साथ रहेगा। जब मुक्ति हो
जायेगी तब तीनों शरीर छू ट जायेंगे। धागा वही रहता है, कु र्ते बदलते रहते हैं। स सूक्ष्म-शरीर और कारण-
शरीर तब तक साथ रहेंगे, जब तक पुर्नजन्म होता रहेगा। जब मोक्ष हो जायेगा तब तीनों दूर हो जायेंगे।
अथवा मोक्ष नहीं हुआ और आ गई प्रलय तो प्रलय में तीनों शरीर छू ट जायेगा। स्थूल शरीर तो वैसे ही
थोड़े-थोड़े दिनों में छू टते रहता हैं। तब सूक्ष्म शरीर भी टू ट-फू ट कर नष्ट हो जायेगा और कारण शरीर रूपी
प्रकृ ति बचेगी। सूक्ष्म शरीर वापस टू ट-फू ट कर कारण शरीर के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। जैसे मिट्टी का
हमने ढ़ेला लिया और उसकी ईंट पका ली और फिर ईंट तोड़कर वापस मिट्टी बना दी, तो वापस ये मिट्टी
बन गई यानि कारण शरीर बन गया। जीवात्मा प्रलय के समय तो अलग हो गया पर मुक्ति नहीं मिली।
फिर एक नयी सृष्टि बनेगी, तो उसके साथ जीवात्मा को ईश्वर फिर दोबारा जोड़ देगा। तब तक वह बंधन
की स्थिति में है। जब तक मोक्ष न हो जाये अथवा प्रलय न हो जाये तब तक ये दोनों शरीर आत्मा के
साथ जुड़े रहेंगे। मोक्ष में या प्रलय में ये छू ट जायेंगे। मोक्ष होने पर तो फिर हजारों सृष्टियों तक ये तीनों
शरीर फिर जुड़ते नहीं हैं। स अब रही बात राग और द्वेष की। राग और द्वेष भी जीवात्मा की शक्ति है।
राग और द्वेष दो प्रकार का है :- एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक। जो स्वाभाविक राग-द्वेष है, वो
जीवात्मा से नहीं छू टेगा। वो मुक्ति में भी जीवात्मा में रहेगा। और स्वाभाविक राग-द्वेष में रहते-रहते मुक्ति
हो जायेगी। इसमें कोई आपत्ति नहीं है, कोई बाधा नहीं है। जो नैमित्तिक राग-द्वेष है, वो बाधक है। उसे
हटाना पड़ेगा, मुक्ति में वो छू ट जायेगा। स स्वाभाविक राग-द्वेष क्या है? और नैमित्तिक राग-द्वेष क्या
है? उत्तर है कि जीवात्मा को हमेशा सुख चाहिये। यह उसको सूक्ष्म राग है। ये स्वाभाविक राग है। ये
मुक्ति में बाधक नहीं है। जीवात्मा को दुःख कभी भी नहीं चाहिये। दुःख में उसको स्वाभाविक द्वेष है। ये
भी मुक्ति में बाधक नहीं। ये स्वाभाविक राग और द्वेष रहेंगे, मुक्ति हो जायेगी। कोई परवाह नहीं। स
अमुक व्यक्ति ने मेरी हानि कर दी, मैं उसकी गर्दन तोडूँगा, ये सोचना नैमित्तिक द्वेष है। खीर, पूड़ी, लड्डू ,
हलुआ मुझे मिलना चाहिये, मुझे अधिक मिलना चाहिये, उसको कम, ये सोच नैमित्तिक राग है। ये मुक्ति
में बाधक है। ये हट जायेगा, फिर मुक्ति होगी। इसके रहते मुक्ति नहीं होगी। इसको छोड़ देंगे तो मुक्ति हो
जायेगी। SHARE THIS:

आत्मा’ अणु के बराबर होती है जबकि चेतना हमारे सारे शरीर में व्याप्त है? LEAVE A COMMENT
आत्मा ‘अणु-स्वरूप’ मतलब बहुत सूक्ष्म होती है। जीवात्मा बहुत छोटा है। चेतना तो सारे शरीर में व्याप्त
है। सिर से पाँव तक हमें सब जगह अनुभूति होती है। अनुभूति सारे शरीर में होती है, ईश्वर ने ऐसी
व्यवस्था कर रखी है। आत्मा एक ही स्थान पर रहता है, और नस-नाड़ियों के माध्यम से और तंत्रिका-तंत्र
के माध्यम से शरीर में अनुभूतियों की व्यवस्था कर रखी है। जैसे- एक फै क्ट्री का मालिक अपने कार्यालय
में- (एक जगह( बैठा रहता है। और उसने फै क्ट्री के अलग-अलग दो कमरों में वीडियो कै मरे लगा रखे हैं।
उन कै मरों की सहायता से वह एक जगह बैठकर फै क्ट्री के अनेक कमरों की जानकारी करता रहता है। इसी
प्रकार से मन है, बु(ि है, इंद्रियाँ हैं, इन सारे उपकरणों के माध्यम से जीवात्मा को एक ही स्थान पर रहते
हुए भी पूरे शरीर की बहुत सारी मोटी-मोटी अनुभूतियाँ हो जाती है, लेकिन सारी नहीं। आपको पेट में क्या
रोग हो रहा है? आपको पता नहीं है। जब वो काफी बढ़ जाता है, दर्द होने लगता है, तो जाते हैं, डॉक्टर
साहब के पास। फिर वो चेकअप करते हैं, और बताते हैं कि साहब, ये बीमारी तो तीन साल से चल रही है।
आपने चेकअप ही नहीं कराया, इसलिए तीन साल बाद पता चला। इस तरह आत्मा को सब बातों का पता
नहीं चलता, मोटी-मोटी अनुभूतियाँ अवश्य हो जाती हैं। कहीं पेट दुख रहा है, पाँव दुख रहा है, सर दुख रहा
है, जो भी हो रहा है, वह मोटा-मोटा पता चलता है। वो ईश्वर की व्यवस्था है।

\ कारण शरीर।

June 24, 2017

अंक 6
अंक 6
स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के बाद कारण शरीर को जानना भी अत्यंत आवश्यक है। कारण शरीर स्थूल
शरीर और सूक्ष्म शरीर का बीज है।इसी के कारण से स्थूल और सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है।जैसे आप
के बीज में एक विशाल आम का वृक्ष विद्यमान होता है लेकिन वो अभिव्यक्त न होने से सुप्तावस्था में
पड़ा रहता है। और वातावरण पाकर अभिव्यक्त हो कर एक विशाल आम का बृक्ष बन जाता है, वैसे ही
मनुष्य शरीर के सभी तत्व इस कारण शरीर रूपी बीज में उपस्थित रहते है और वातावरण के प्रभाव में
आते ही सूक्ष्म व स्थूल शरीर का रूप ले लेते है। सुप्त होने के कारण इसे अपने आत्मरूप का भी ज्ञान नहीं
होता। न इसका कोई नाम होता है, न जाती होती है और न ही कोई रूप होता है। अभिव्यक्ति के बाद ही
इसकी कल्पना की जा सकती है। जैसे आम के बीज में आम के पेड़ की जड़ ,शाखा तना, पत्तियां फल
बौर सभी समाए हुए है, लेकिन वो व्यक्त नहीं है। उनके किसी रूप की कल्पना नहीं की जा सकती।लेकिन
जैसे ही वो प्रकट हो जाते है उनका स्वरुप दृष्टिगोचर होने लगता है।यही अवस्था इस कारण शरीर की भी
है।यह स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीरो को अपने में समाहित रखता है। जैसे ही वातावरण मिला ऐ प्रकट हो
जाते है। फिर उसको नाम, रूप जाति इत्यादि सम्बोधन दिए जाते है।
मनुष्य शरीर में आत्मचेतना ही मुख्य है जो एक ही चेतन तत्व है।इस चेतन तत्व के अभाव में यह जड़
शरीर कु छ भी नहीं कर सकता। यह चेतना शक्ति भी तीन अवस्थाओ में रहती है। प्रथम अवस्था का नाम
है जाग्रत अवस्था, द्वितीय अवस्था को स्वप्ना अवस्था और तृतीय को सुषुप्ती अवस्था कहा जाता है।
ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जो विशेष अनुभव होता है उसे जाग्रत अवस्था कहते है। जाग्रत अवस्था में जो देखा
सुना जाता है, उसकी सूक्ष्म वासना से निद्रा में जो दिखाई पड़ता है वह स्वप्ना अवस्था कही जाती है। और
निद्रा के सुख का अहसास करने की अवस्था को सुषुप्ती कहा जाता है।
मनुष्य के शरीर का निर्माण पांच कोषो से हुआ है। इन्हें अ न्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और
आनन्दमय कोष के नाम से जाना जाता है।
अन्न के रसो से निर्मित और उसी अन्न से बढ़ता हुआ यह अन्नरूपी पृथ्वी में समाप्त हो जाता है। यह
स्थूल शरीर ही अन्नमय कोष है।
प्राण आदि पञ्च वायु (प्राण,अपान, व्यान, उदान और समान)और पांच कर्मेंद्रियो को मिलाकर प्राणमय कोष
होता है।आत्मा इसी शक्ति की सहायता से शरीर में चेतना का संचार करती है।
मन और पञ्च ज्ञाननेंदियो को मिलाकर मनोमय कोष होता है।मन भी स्वयं आत्मा नहीं है, बल्कि आत्मा
का एक उपकरण मात्र है।संसार का ज्ञान मन से ही होता है और आत्मा के ज्ञान का कारण भी मन ही
बनता है।
बुद्धि और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को मिलाकर विज्ञानमय कोष बनता है।मन पर बुद्धि का नियंत्रण होता है। बुद्धि
के अभाव में मन किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकता।
आनन्दमय कोष सबसे सूक्ष्म है।यह आत्मा के सर्वाधिक निकट होता है।जहाँ जहाँ आनंद की अनुभूति होती
है वह आनंदमय कोष के कारण ही होती है। विषय जटिल है। किन्तु अध्यात्म मार्ग के साधक को इसका
ज्ञान होना अति आवश्यक है। (शेष अगले अंक में।)
आत्मा तीन शरीरों से भिन्न है

तीन शरीर हैं, स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। आत्मा से स्वतंत्र शरीर और कोष का कोई
अस्तित्व नहीं हो सकता। जो भौतिक आँखों से देखा जाता है, जो मांस, हड्डियों, वसा, त्वचा, तंत्रिकाओं,
बाल, रक्त आदि से बना है, वह भौतिक शरीर है। इसमें छह परिवर्तन होते हैं, अर्थात् जन्म, अस्तित्व,
विकास, संशोधन, क्षय और मृत्यु। यह शरीर युवावस्था में बढ़ता है और बुढ़ापे में क्षय हो जाता है। यह तब
विकसित होता है जब अच्छा पौष्टिक भोजन दिया जाता है, और यदि भोजन बंद कर दिया जाए, या कोई
बीमारी हो तो यह सड़ जाता है। चूँकि यह टू टकर सड़ जाता है इसलिए इसे सरीरा कहा जाता है। चूँकि मृत्यु
के बाद शरीर को जला दिया जाता है, इसलिए इसे देहा कहा जाता है। सूक्ष्म शरीर सत्रह तत्त्वों से बना है,
अर्थात् पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, पाँच कर्म इन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि। सूक्ष्म शरीर तीव्र अभिमान या
अहंकार और मजबूत राग-द्वेष के माध्यम से विकसित होता है, और जब अहंकार और राग-द्वेष नष्ट हो
जाते हैं, या कम हो जाते हैं तो क्षय हो जाता है। सूक्ष्म शरीर को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और
आधिदैविक, तीन प्रकार के तपों द्वारा जलाया जाता है। के वल अज्ञान या अविद्या ही कारण शरीर का
निर्माण करती है। कारण शरीर इस विचार के माध्यम से विकसित होता है, मैं जीव हूं और इस विचार के
नष्ट होने या कम होने पर क्षय हो जाता है, जब 'मैं' की पहचान ब्रह्म के साथ की जाती है। सूक्ष्म और
कारण शरीर सांसारिक विचारधारा वाले व्यक्तियों में सघन हो जाते हैं और गंभीर साधकों में पतले हो जाते
हैं।

बुद्धि की अग्नि (ज्ञानाग्नि) सूक्ष्म और कारण शरीरों को पूरी तरह से नष्ट कर देती है। सूक्ष्म शरीर को लिंग
शरीर भी कहा जाता है क्योंकि यह व्यक्ति को सुनने, महसूस करने, देखने, चखने और सूंघने का अनुभव
प्राप्त करने और ध्यान के माध्यम से आत्मा का एहसास करने में सक्षम बनाता है। जो स्थूल और सूक्ष्म
शरीरों का कारण है, उसे करण शरीर या कारण शरीर कहा जाता है।
हम भौतिक शरीर को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। चूँकि हम सूक्ष्म शरीर को देख नहीं पाते, इसलिए कभी-
कभी यह पूछा जाता है कि हम कै से कह सकते हैं कि सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व है? सत्रह अंगों द्वारा
उत्पन्न प्रभावों से सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व को जाना या अनुमान लगाया जा सकता है। हम यह क्यों नहीं
कह सकते कि ये सत्रह प्रकार के कार्य भौतिक शरीर द्वारा किये जाते हैं? सुषुप्ति, मूर्च्छा और मृत्यु में ये
सत्रह प्रकार की क्रियाएं भौतिक शरीर द्वारा नहीं की जातीं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि ये भौतिक
शरीर के हैं। इसलिए, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि सत्रह क्षमताओं से संपन्न एक सूक्ष्म शरीर भौतिक
शरीर की परवाह किए बिना मौजूद होता है।

एक आपत्तिकर्ता कहता है: स्थूल और सूक्ष्म शरीर अलग-अलग कार्य नहीं करते हैं। ये दोनों मिलकर
सुनना, देखना आदि कार्य करते हैं। यदि आप अच्छी तरह विचार करें तो पाएंगे कि सूक्ष्म शरीर सभी कार्य
करता है, दोनों एक साथ नहीं। एक दृष्टांत से यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जायेगी। अग्नि ईंधन की
सहायता से भोजन पकाती है तथा अन्य क्रियाएं करती है, तथापि खाना पकाने का कार्य अग्नि के कारण ही
होता है, ईंधन के कारण नहीं। इसी प्रकार देखने, सुनने आदि की क्रियाएँ जो सूक्ष्म शरीर द्वारा की जाती
हैं, जो अपने संचालन के लिए स्थूल शरीर पर निर्भर होती हैं, सूक्ष्म शरीर के कारण होती हैं, स्थूल शरीर के
कारण नहीं। क्या यह अब स्पष्ट है? इसलिए, बिना किसी संदेह के इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जाना
चाहिए कि सत्रह क्षमताओं वाला सूक्ष्म शरीर मौजूद है।

भौतिक शरीर जड़ है. इसकी शुरुआत और अंत है. यह अशुद्धियों से भरा है. यह नाशवान है. यह पांच तत्वों
का उत्पाद है. यह भागों से भरा है. इसे नंगी आंखों से देखा जा सकता है. यह परिमित (परिश्चिन्ना)
है। यह बदल रहा है. अत: यह स्वयंभू, स्वयंप्रकाश और सच्चिदानंद नहीं हो सकता।

सूक्ष्म शरीर भी जड़ है। इसकी शुरुआत और अंत है. यह पाँच तन्मात्राओं या सूक्ष्म तत्वों का उत्पाद है। यह
बदल रहा है. यह नाशवान है. यह भी सीमित है. यह सदैव शुद्ध, बुद्धिमान आत्मा नहीं हो सकता।

कारण शरीर अज्ञान या आदिम अज्ञान के अलावा और कु छ नहीं है। यह भी जड़ है. आदमी कहता है: मैं
अज्ञान का आदमी हूं। हालाँकि यह आरंभहीन है, इसका अंत है। जब व्यक्ति को आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता
है तो यह कारण शरीर के लिए मृत्यु है। यह शाश्वत, शुद्ध, अविभाज्य, अनंत आत्मा नहीं हो सकता।

आत्मा तीनों शरीरों से पूर्णतया भिन्न है। जिसने अपनी आत्मा को जान लिया है और जो जानता है कि वह
तीनों शरीरों से पूरी तरह अलग है, वह मुक्त व्यक्ति है। उन्होंने इस संसार सागर को पार कर लिया है। वह
स्वयं ब्रह्म है। वह तीनों लोकों में पूजनीय हैं। उनकी महिमा अवर्णनीय है.

Causal body (कारण शरीर) is the celestial form of soul (आत्मा का ज्योति स्वरूप).

तीन शरीर और पांच आवरण


योग दर्शन के अंतर्गत, यह कहा जाता है कि हमारे शरीर वास्तव में तीन शरीरों से बने हैं; भौतिक, सूक्ष्म
और कारण. इन तीन निकायों के भीतर पाँच कोश या 'कोश' हैं; अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय
कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष।

आइए तीन निकायों से शुरू करें।

शारीरिक काया

यह सबसे स्पष्ट है, यह वह त्वचा और हड्डियाँ हैं जिनसे हम बने हैं। हमारा भौतिक शरीर पाँच तत्वों से
बना है; पृथ्वी (पृथिवी), जल (अपस), अग्नि (अग्नि), वायु (वायु) और आकाश (आकाश)। हम अपने आसन
अभ्यास के माध्यम से इन तत्वों को संतुलित या बढ़ा सकते हैं। हम पैर उठाकर और शीर्षासन के माध्यम
से पेट में अग्नि पैदा कर सकते हैं। हम अपनी मुद्राओं में गहरी सांस लेकर वायु को संतुलित कर सकते हैं।
हम योद्धाओं या वृक्ष मुद्रा जैसी ग्राउं डिंग मुद्राओं का उपयोग करके पृथ्वी (पृथ्वी) की एक मजबूत भावना
पैदा कर सकते हैं।

सूक्ष्म शरीर

हमारा सूक्ष्म शरीर सुख या दुख महसूस करने का हमारा तरीका है। इसका संबंध हमारी इंद्रियों से है. पांच
कर्म इंद्रियां (जिन्हें कर्म इंद्रियां कहा जाता है), पांच ज्ञान इंद्रियां (जिन्हें ज्ञान इंद्रियां कहा जाता है), पांच
प्राण और चार अंतःकरण (आंतरिक साधन) तत्व हैं। यह अंतःकरण मन (मानस), बुद्धि (बुद्धि), अवचेतन
(चित्त) और अहंकार (अहंकार) से बना है। तो कु ल मिलाकर 19 तत्व हैं जो हमारे सूक्ष्म शरीर का निर्माण
करते हैं - वह शरीर जो महसूस करने और महसूस करने के लिए उपयोग किया जाता है।

कारण शरीर

आकस्मिक शरीर, अर्थात् बीज शरीर, स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का हमारा खाका है। यह एक ऐसा शरीर है
जिसे समझना बहुत कठिन है और हम अक्सर इसके साथ संबंध ढूंढना भूल जाते हैं। यह हमारे बड़े स्व से
जुड़ता है। इसमें हमारे सभी पिछले अनुभव, यादें, आदतें और हमारे द्वारा पहले से जीए गए सभी जीवन
की जानकारी शामिल है। मृत्यु के समय सूक्ष्म और कारण शरीर एक साथ रहते हैं, दोनों भौतिक शरीर से
बाहर निकलते हैं।

शरीर और कोष

पांच कोष या कोष

अन्नमय कोष - अन्नमय कोष

हमारे भौतिक शरीर भौतिक संसार के भौतिक


तत्वों से बने हैं। हम वही हैं जो हम खाते हैं,
ऐसा कहा जा सकता है। हम भोजन से बने
हैं और हमारी मृत्यु के बाद पृथ्वी पर लौट
आएंगे, जहां से हमारा भोजन आया था। यह
आवरण भौतिक शरीर का है।

प्राणमय कोष - प्राणमय कोष


यह आवरण सूक्ष्म शरीर का है। हम पाँच महत्वपूर्ण ऊर्जाओं से बने हैं, जो सभी सूक्ष्म तल के माध्यम से
भौतिक शरीर में प्रवाहित होती हैं; प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान (मैं महत्वपूर्ण ऊर्जाओं पर एक
और ब्लॉग लिखूंगा, इसलिए यदि आप अधिक जानना चाहते हैं तो कृ पया जल्द ही दोबारा देखें)। प्राणमय
कोष में पाँच कर्मेन्द्रियाँ (कर्म इन्द्रियाँ) भी शामिल हैं; मुँह, हाथ, पैर, गुदा और गुप्तांग। इस कोष के भीतर
हमें गर्मी, सर्दी, भूख और प्यास आदि का अनुभव होता है।

मनोमय कोष - मानसिक आवरण

यह आवरण पुनः सूक्ष्म शरीर में विराजमान होता है। हम इस आवरण के माध्यम से विचार का अनुभव
करते हैं। हम सोच, संदेह, क्रोध, वासना आदि का अनुभव कर सकते हैं। तत्व हैं; मन (मानस), अवचेतन
(चित्त) और ज्ञान इंद्रियाँ (ज्ञान के अंग; आँखें, कान, नाक, जीभ और त्वचा)।

विज्ञानमय कोष - बौद्धिक आवरण

इस आवरण का संबंध सूक्ष्म शरीर से है। इसमें बुद्धि (बुद्धि के रूप में जाना जाता है) शामिल है जो हमें
प्राप्त जानकारी का विश्लेषण करती है। यह हमारे आत्म-मुखर सिद्धांत, अहंकार (अहंकार) को भी नियंत्रित
करता है। यह ऊपर सूचीबद्ध ज्ञान के पांच अंगों के साथ काम करता है। भेदभाव और निर्णय लेना इसकी
अभिव्यक्तियाँ हैं।

आनंदमय कोष - आनंदमय कोष

यही एकमात्र कोष है जो कारण शरीर में विराजमान है। यह हमारा वह हिस्सा है जो आनंद, आनंद और
शांति का अनुभव करता है। यह हमारा वह हिस्सा है जिससे हम संबंध खो देते हैं क्योंकि इसे महसूस करना
सबसे कठिन शरीर है। योग में हमारा उद्देश्य आनंदमय कोष के साथ संबंध तक पहुंचना है - जब हम उस
आंतरिक स्थान पर पहुंचते हैं जहां सब कु छ शांत और शांत है, तो हमने आनंदमय के साथ अपना संबंध पा
लिया है।

कोष, चक्र और ज्योतिष से उनका संबंध:


आंतरिक आयामों की खोज

परिचय

मानवीय अनुभव शारीरिक, भावनात्मक,


मानसिक और आध्यात्मिक पहलुओं का एक
जटिल परस्पर क्रिया है। प्राचीन दर्शन और
आध्यात्मिक परंपराओं ने कोष और चक्र जैसी
अवधारणाओं के माध्यम से इन आयामों को
समझने और समझाने की कोशिश की है। योग और हिंदू दर्शन जैसी प्रथाओं में गहराई से निहित ये
अवधारणाएं आपस में जुड़ी हुई हैं और व्यक्तियों की आंतरिक कार्यप्रणाली में अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं।
इसके अलावा, कु छ उत्साही लोग इन आंतरिक परतों और ज्योतिष के बीच संबंध का प्रस्ताव देते हैं, जिससे
स्वयं की हमारी समझ और ब्रह्मांड के साथ इसकी बातचीत में वृद्धि होती है।

कोष को समझना

कोष, जिसका संस्कृ त में अर्थ है "आवरण", उन परतों का प्रतिनिधित्व करता है जो मनुष्य को ढकती हैं,
प्याज की परतों के समान। ऐसा माना जाता है कि ये परतें धीरे-धीरे बाहरी से अंतरतम की ओर बढ़ती हैं
और स्वयं के विभिन्न आयामों को प्रकट करती हैं। पाँच कोष हैं:

अन्नमय कोष (भौतिक आवरण): यह सबसे बाहरी परत भौतिक शरीर का प्रतिनिधित्व करती है और इंद्रियों
और भौतिक दुनिया से निकटता से जुड़ी हुई है।

2. प्राणमय कोष (महत्वपूर्ण ऊर्जा आवरण): यह परत शरीर की महत्वपूर्ण ऊर्जा या प्राण को समाहित करती
है, और सांस और भौतिक रूप को चेतन करने वाली ऊर्जावान शक्तियों से जुड़ी होती है।

3. मनोमय कोष (मानसिक आवरण): मानसिक परत मन, विचारों, भावनाओं और मनोवैज्ञानिक अनुभवों से
संबंधित है जो किसी व्यक्ति की वास्तविकता की धारणा को आकार देती है।

4. विज्ञानमय कोष (बौद्धिक कोष): भीतर की गहराई में बौद्धिक कोष निहित है, जिसमें उच्च अनुभूति, ज्ञान
और विवेक शामिल है।

5. आनंदमय कोष (आनंदमय कोष): मूल में आनंदमय कोष है, जो शुद्ध आनंद की स्थिति और ब्रह्मांड के
साथ अंतर्संबंध का प्रतिनिधित्व करता है।

चक्रों की खोज

कोशों के समानांतर, चक्रों की अवधारणा चलन में आती है। चक्र ऊर्जा कें द्र हैं जो रीढ़ की हड्डी के साथ
संरेखित माने जाते हैं, प्रत्येक विशिष्ट अंगों, भावनाओं और आध्यात्मिक गुणों के अनुरूप होते हैं। आमतौर
पर सात मुख्य चक्र होते हैं:

मूल चक्र (मूलाधार): रीढ़ के आधार पर स्थित, यह स्थिरता, सुरक्षा और शारीरिक कल्याण का प्रतिनिधित्व
करता है।

2. त्रिक चक्र (स्वाधिष्ठान): पेट के निचले हिस्से में स्थित, यह भावनाओं, रचनात्मकता और कामुकता को
नियंत्रित करता है।

3. सौर जाल चक्र (मणिपुर): ऊपरी पेट में पाया जाता है, यह व्यक्तिगत शक्ति, आत्मविश्वास और
इच्छाशक्ति से जुड़ा है।

4. हृदय चक्र (अनाहत): हृदय कें द्र पर स्थित, यह प्रेम, करुणा और भावनात्मक उपचार का प्रतीक है।

5. गला चक्र (विशुद्ध): गले में स्थित, यह संचार, आत्म-अभिव्यक्ति और प्रामाणिकता से संबंधित है।
6. तीसरा नेत्र चक्र (अजना): भौंहों के बीच स्थित, यह अंतर्ज्ञान, अंतर्दृष्टि और आध्यात्मिक जागरूकता का
प्रतिनिधित्व करता है।

7. क्राउन चक्र (सहस्रार): सिर के शीर्ष पर, यह उच्च चेतना और सार्वभौमिक ऊर्जा से संबंध का प्रतीक है।

कोष, चक्र और ज्योतिष को जोड़ना

कोष, चक्र और ज्योतिष के बीच संबंध मानव अस्तित्व की बहुआयामी प्रकृ ति को समझने पर उनके साझा
जोर में निहित है। ज्योतिष, जो मानव जीवन पर आकाशीय प्रभावों पर ध्यान कें द्रित करता है, को कोषों
और चक्रों की ऊर्जा को प्रतिबिंबित करने के रूप में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए:

अन्नमय और प्राणमय कोष की भौतिक और महत्वपूर्ण ऊर्जाएं जड़ और त्रिक चक्रों से मेल खाती हैं। ये चक्र
अस्तित्व, ज़मीनी स्तर और रचनात्मकता से जुड़े हैं — ऐसे विषय जिन्हें ज्योतिष अक्सर पृथ्वी चिन्हों और
ग्रहों से जोड़ता है।

मनोमय कोष के भावनात्मक और मानसिक पहलू सौर जाल और हृदय चक्र के साथ संरेखित होते हैं। ये
चक्र व्यक्तिगत शक्ति, भावनाओं और प्रेम से जुड़े हैं — अग्नि और वायु संके तों में ज्योतिषीय प्लेसमेंट से
जुड़े विषय।

विज्ञानमय कोष का उच्च ज्ञान तीसरे नेत्र चक्र से मेल खाता है, जो अंतर्ज्ञान और अंतर्दृष्टि से जुड़ा है।
ज्योतिषीय रूप से, यह आध्यात्मिक और परिवर्तनकारी गुणों के साथ संरेखित होता है जो अक्सर जल
चिह्नों और नेप्च्यून या प्लूटो से जुड़े ग्रह पहलुओं में प्लेसमेंट के लिए जिम्मेदार होते हैं।

आनंदमय कोष का परम आनंद क्राउन चक्र के साथ संरेखित होता है, जो दिव्य और सार्वभौमिक चेतना के
साथ संबंध का प्रतीक है। यह अक्सर ज्योतिष द्वारा बाहरी ग्रहों और पारलौकिक पहलुओं की खोज के
माध्यम से खोजे गए उच्च आध्यात्मिक आयामों से मेल खाता है।

निष्कर्ष

कोष, चक्र और ज्योतिष के बीच संबंध भौतिक से आध्यात्मिक तक मानवीय अनुभव को समझने के लिए
एक समग्र रूपरेखा प्रदान करता है। यह एकीकरण ज्योतिष पर एक गहरा परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है, जिससे
उत्साही लोगों को स्वयं की जटिल परतों और उनके जीवन को आकार देने वाली दिव्य ऊर्जाओं से उनके
संबंध का पता लगाने की अनुमति मिलती है। इन प्राचीन अवधारणाओं में सामंजस्य बिठाकर, व्यक्ति
आत्म-खोज और आध्यात्मिक विकास की यात्रा शुरू कर सकते हैं जो आंतरिक दुनिया और ब्रह्मांडीय
ब्रह्मांड के बीच की खाई को पाटता है।

सगुण और निर्गुण क्या हैं ?

संसार तीन गुणों से मिलकर बना है सत् , रज और तम ।


परमात्मा तत्व को यदि इन तीनों गुणों से परे माना जाये तो उन्हें निर्गुण कहते हैं और यदि उन्हें इन तीनों
गुणों से युक्त माना जाये तो उन्हें सगुण कहते हैं

एक परिभाषा यह भी है कि परमात्मा तत्व में दिव्य गुण हैं इसलिए वे सगुण कहलाते हैं और दूसरे लोग
यह मानते हैं कि उनमें दिव्य गुण नहीं हैं इसलिए वे निर्गुण कहलाते हैं ।

सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण किसे कहते हैं ?

राजगुण ब्रह्मा:— तीन लोक के , ये उत्पत्ति कर्ता हैं।

सतगुण विष्णु:—तीन लोक के , ये पालनहारी हैं।

तमगुन शिव जी:—तीन लोक के , संघारक हैं।

प्रकृ ति में तीन गुण विद्यमान हैं

सत्व गुण , रज गुण ,और तम गुण

सत्व गुण का अर्थ है -प्रकाश

रजोगुण का अर्थ है -क्रिया

और तमोगुण का अर्थ है -आलस्य


सगुण और निर्गुण क्या हैं ?

जो ईश्वर का मूर्त या साकार रूप है , उसे ही "सगुण" रूप कहते हैं और जो अमूर्त या निराकार रूप है, उसे
"निर्गुण" रूप कहते हैं। सगुण = गुण-सहित, निर्गुण = गुण-रहित। गुण तीन हैं - रज, सत और तम।

सगुण और निर्गुण भक्ति परंपरा मे क्या अंतर है?

:सगुण" भक्ति से अर्थ हैः प्रभु के अवतारों को मानना। जैसे की राजा दशरथ के पुत्र राम की भक्ति करना।

"निर्गुण" भक्ति से अर्थ हैः कण-कण में व्याप्त प्रभु को मानना।

सत्त्व गुण ,रजो गुण और तम गुण क्या होते हैं? कृ पया उदाहरण सहित समझाइये.

सारी सृष्टि पांच तत्व से ही है।ये पृथ्वी, जल, वायु,अग्नि और आकाश में से एक या कई तथा त्रि- गुण
(अर्थात तमो-गुण ,रजो-गुण व सतो-गुण ) समुच्चय से निर्मित है।

मनुष्य में ये सारे 5 तत्व व 3 गुण पाए जातें हैं।तमो- गुण पृथ्वी तत्व से, रजो- गुण, जल तत्व से व
सतो- गुण, आकाश तत्व से जुड़े हैं।

शरीर मे ,मौसम, समय, भोजन, संपर्क ,दरस, परस इत्यादि से ये गुण प्रभावित यानी कमोबेस होते व हमारे
आचरण को प्रभावित करते हैं।
तमो-गुणी वृत्तियाँ अर्थात भोग-प्रधान वृत्तियाँ, रजोगुणी वृत्तियाँ - मैं व अहंकार प्रधान तथा सतो -गुणी
वृत्तियाँ, वैराग्य, योग- साधन प्रधान होती हैं।

सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का क्या रहस्य है ?

अगर वैदिक वर्णन पर नजर डालें तो ये स्पष्ट होता है कि ...

रजोगुण प्रभाव से जीवन की 84 लाख प्रजातियों के शरीर बनते है। रजस प्रभाव जीव को संतानोत्पत्ति के
लिए प्रजनन करने को मजबूर करके , विभिन्न योनियों में प्राणियों की उत्पत्ति कराते हैं।

सतोगुण जीवों (उनके कर्मों के अनुसार) का पालन-पोषण करते हैं और सतोगुण के प्रभाव जीव मे प्रेम और
स्नेह विकसित करके , इस अस्थिर लोक की स्थिति को बनाए रखते हैं।

तमोगुण विनाश का प्रतिनिधित्व करते हैं। तमोगुण के प्रभाव की भूमिका प्राणियों को अंततः नष्ट करने की
है ।

सतो गुण वाला व्यक्ति भला, पुण्यवान, करूणावान, मैत्रीवान, दयावान, प्रेमी, क्षमावान, नम्रताशील,
सहनशील होता है। रजो गुणी खाने-पीने, आराम मौज-शौक वाला होता है। टीवी, मोबाइल, मनोरंजन में
समय, मन, धन लगा देता है। और तमो गुण वाला व्यक्ति दूसरों को कष्ट देने वाला, अपराध करने वाला,
दूसरों का अहित करता है।

सत्वगुण :
यह सबसे श्रेष्ठ गुण है। ज्ञानी व्यक्ति में सत्वगुण की प्रधानता होती है।

रजोगुण :
भौतिक पदार्थों के सुख की कामना करने वाले व्यक्ति में रजोगुण की प्रधानता होती है।

तमोगुण :
अज्ञानी व्यक्ति में तमोगुण की प्रधानता होती है।

सत्त्व, रजो, और तम गुण हिन्दू दर्शन और योग शास्त्र में उपयोग होने वाले तीन प्रमुख गुण हैं, जो मानव
व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को विवेचित करते हैं।

1. **सत्त्व गुण:**

- सत्त्व गुण ज्ञान, शांति, और संतुलन के साथ जुड़ा होता है।

- इसके उदाहरण में, एक व्यक्ति जो ध्यान, समर्पण, और सहानुभूति से भरा होता है, सत्त्व गुण के
प्रतिष्ठान पर होता है।

2. **रजो गुण:**

- रजो गुण उत्साह, क्रियाशीलता, और अध्यात्मिक प्रगति के साथ जुड़ा होता है, लेकिन कभी-कभी अके ले
आत्मबल की ओर ले जाता है।
- उदाहरण के रूप में, एक योगी जो साधना में प्रगल्भ है, रजो गुण के अंतर्गत आ सकता है।

3. **तम गुण:**

- तम गुण अज्ञान, असंगति, और अन्याय के साथ जुड़ा होता है।

- एक व्यक्ति जो आलस्य, अज्ञान, और असंगति की परिस्थिति में है, उसे तम गुण कहा जा सकता है।

ये गुण मानव व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक, और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले तत्त्व हैं।

सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का ज़िक्र हिंदू संस्कृ ति के ग्रंथों में बहुतायत में होता है। यदि एक-एक
लाइन में तीनों गुणों का परिचय दिया जाए तो वह कु छ इस प्रकार है —

सतोगुण — हर प्रकार की बुराइयों से दूर रहते हुए अच्छाइयों में रमने का गुण। (श्रेष्ठ)

रजोगुण — सांसारिक सुख-सुविधाओं और मान-सम्मान प्राप्त करने की क्रियाशीलता में रमने का गुण।
(व्यावहारिक)

तमोगुण — आलस्य, निष्क्रियता और बुरी आदतों में रमने का गुण। (निकृ ष्ट)

जब जीव प्रकृ ति के संपर्क में आता है तो त्रिगुणात्मक प्रकृ ति के उपरोक्त तीनों गुणों का उस पर प्रभाव
पड़ता है — किसी गुण का कम और किसी गुण का अधिक। परंतु हर जीव में एक समय में तीनों के तीनों
गुण अलग-अलग अनुपात में उपस्थित होते हैं। जिस गुण की प्रखरता होती है मनुष्य का व्यक्तित्व प्रायः
वैसा नज़र आता है। गौण अनुपात वाले गुण अक्सर उजागर भी नहीं होते।

जन्म-जन्मांतरों में जैसे जैसे मनुष्य के यथार्थ ज्ञान का स्तर बढ़ता जाता है और उसे सांसारिक वस्तुओं के
खोखलेपन और अस्थायी स्वरूप का एहसास होता जाता है, उसके तमोगुण और रजोगुण के अनुपात कम
होते जाते हैं और सतोगुण का अनुपात बढ़ता जाता है।

सतोगुण की प्रगाढ़ता सामान्य मनुष्य को मोक्ष मार्ग (निष्काम कर्म योग) की ओर अग्रसर होने में मदद
करती है। निष्काम कर्मयोग अर्थात् अच्छी-बुरी सभी सांसारिक जड़-चेतन वस्तुओं से निरासक्ति और अपने
स्वास्थ्य, परिवार और समाज के प्रति अपने हिस्से में आये कर्तव्यों की पूर्ति, परंतु कर्म-फलों में निष्कामता।

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १४ में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के कारण, स्वरूप और प्रभावों को अच्छी
तरह विवेचन किया गया है।

सतोगुण रजोगुण तमोगुण: श्रीमद्‍भगवद्‍गीता

सृष्टि में तीन गुण प्रधान हैं जिन्हें


हम सतोगुण(Satogun), रजोगुण(Rajogun) और तमोगुण(Tamogun) के नाम से जानते हैं। श्रीमद
भगवद्गीता में भगवान श्री कृ ष्ण ने अर्जुन को इन तीनों गुणों के बारे में विस्तार से बताया है।

भगवान श्री कृ ष्ण अर्जुन से कहते हैं कि —


हे अर्जुन! मनुष्य जन्म से ही अपने साथ सत्व, रज और तम तीन गुणों को लेकर पैदा होता है। इस सृष्टि
की रचना इन्हीं तीन गुणों के आधार पर की गई है। इस त्रिगुणात्मक सृष्टि में रहने वाले समस्त प्राणियों
में तीनों गुण विद्यमान होते हैं परन्तु हर प्राणी के अंदर इन तीनों में से कोई न कोई एक गुण अधिक
प्रधान होता है और जिस गुण की प्रधानता अधिक होती है उस प्राणी का चरित्र वैसा ही बन जाता है।

रजोगुण(Rajogun) प्रधान पुरुष को ऐश्वर्य, ठाठ-बाठ और राज-पाठ की लालसा होती है।

तमोगुण(Tamogun) वाला आलसी और प्रमादी होती है। द्वेष और क्रोध जैसी नकारात्मक भावनाएं उसमें
कू ट-कू ट कर भरी हुई होती हैं।

सतोगुण(Satogun) ही उत्तम गुण है। सात्विक मनुष्य सीधा और सच्चा होता है। वैसे तो हर मनुष्य के
स्वभाव में तीनों गुण कु छ न कु छ मात्रा में होते हैं परन्तु जिस मनुष्य में जो गुण प्रधान होता है वो वैसा
ही हो जाता है। उसकी जैसी प्रवृति होती है वैसी ही रूचि हो जाती है। सो हर मनुष्य अपनी प्रवृति और रूचि
के अनुसार ही कामना करता है।

सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीन मूल गुण हैं जो इस संसार के निर्माण और संचालन के लिए
उत्तरदायी हैं। इन्हें त्रिगुण भी कहा जाता है। इन गुणों का प्रभाव सभी प्राणियों पर होता है, चाहे वे मनुष्य
हों, पशु हों या अन्य कोई जीव।

सतोगुण को शुद्धता, ज्ञान, प्रकाश और उत्तमता का गुण कहा जाता है। यह गुण मनुष्य को विवेक,
सदाचार, प्रेम और करुणा की ओर प्रेरित करता है। सतोगुण के प्रभाव में मनुष्य सत्य, शांति और सुख की
खोज करता है।

रजोगुण को गति, परिवर्तन, कर्म और इच्छा का गुण कहा जाता है। यह गुण मनुष्य को कामना, लालसा
और अहंकार की ओर प्रेरित करता है। रजोगुण के प्रभाव में मनुष्य फल की प्राप्ति के लिए कर्म करता है।

तमस को अंधकार, अज्ञान, आलस्य और विकार का गुण कहा जाता है। यह गुण मनुष्य को मोह, भय और
अज्ञान की ओर प्रेरित करता है। तमस के प्रभाव में मनुष्य सुख-दुख, जन्म-मरण के चक्र में फं स जाता है।

इन तीन गुणों का संतुलन ही मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाता है। जब सतोगुण प्रबल होता है, तो
मनुष्य ज्ञान, सदाचार और करुणा की ओर अग्रसर होता है। जब रजोगुण प्रबल होता है, तो मनुष्य कर्म,
इच्छा और अहंकार की ओर अग्रसर होता है। जब तमस प्रबल होता है, तो मनुष्य मोह, भय और अज्ञान
की ओर अग्रसर होता है।

इन तीन गुणों का रहस्य यह है कि वे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सतोगुण से रजोगुण और रजोगुण से तमस
उत्पन्न होता है। यदि मनुष्य सतोगुण को बढ़ाने का प्रयास करे, तो रजोगुण और तमस स्वतः ही कम हो
जाते हैं।

सतोगुण को बढ़ाने के लिए मनुष्य को सत्य, सदाचार, प्रेम और करुणा का अभ्यास करना चाहिए। उसे
कर्मफल से ऊपर उठकर कर्म करना चाहिए। उसे अपने मन को शांत और ध्यान में लगाना चाहिए।
यदि मनुष्य इन तीन गुणों को समझकर उनका सही उपयोग करे, तो वह अपने जीवन को सुखमय और
सफल बना सकता है।

तमो-गुण, रजो-गुण व सतो-गुण में हमें क्या सिर्फ सतोगुण को ही अपनाना चाहिए? क्या रजो और तमो
गुण का जीवन में कोई भी महत्व नहीं है ?

प्रकृ ति के तीन गुण है वो तीनो गुण इंदान में भी मौजूद रहता है । इन तीनो गुण के स्वभाव भी अलग
अलग है ।

तमोगुणः वाला व्यक्ति छीनना जानता है बल पूर्वक हथियाना यानी उसको अपने मसल्स पावर पर भरोसा
रहता है ।

रजोगुण वाला खरीदना जानता है या उसे धन से पाना चाहता है चाहे पैसे या छल से या जुगाड़ से ।क्योकि
उसे अपने धन पर भरोसा होता है

सतोगुण वाला सिर्फ देना जानता है चाहे वो ज्ञान हो या सम्पति या मदद वो भी बिना किसी भेदभाव के वो
हर व्यक्ति के लिये त्याग कर सकता है । क्योकि उसे ईश्वर पर भरोसा होता है ।

आज कल तमोगुणः और रजोगुण वालो की भरमार है । सतोगुण तो बहुत कम लोगो मे होती है जिनके


होती है उन्हें लोग या तो मूर्ख कहेंगे या फकीर या सन्त ।
26 अक्तू॰

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रजोगुण की उत्पत्ति किससे होती है ?

हैल्थी रहना जीवन में कितना महत्वपूर्ण है

रजोगुण की उत्पत्ति कामना और आसक्ति से होती है। जब हम किसी चीज की इच्छा करते हैं, तो हम उस
चीज को पाने के लिए प्रयास करते हैं। यह प्रयास रजोगुण को जन्म देता है।

पैसे कमान एक खुद का सॉफ्टवेयर बनाकर

रजोगुण के कु छ प्रमुख लक्षण हैं:

 कामना: किसी चीज की इच्छा करना।


 आसक्ति: किसी चीज से जुड़ाव महसूस करना।
 अस्थिरता: एक चीज से दूसरी चीज में जाना।
 चिंता: किसी चीज के खोने या न मिलने की चिंता।
 क्रोध: किसी चीज को न मिलने पर गुस्सा होना।
 पैसा कै से कमाया जाए : गिग इकॉनमी का उदय और इससे पैसा कै से कमाया जाए
रजोगुण हमें कर्म के बंधन में बांधता है। जब हम किसी चीज की इच्छा करते हैं, तो हम उस चीज को पाने
के लिए कर्म करते हैं। यह कर्म हमें अगले जन्म में भी प्रभावित करता है।

रजोगुण को कम करने के लिए, हमें अपनी इच्छाओं और आसक्तियों पर नियंत्रण करना सीखना चाहिए।
हमें यह समझना चाहिए कि दुनिया में कु छ भी स्थिर नहीं है, और इसलिए, हमें कु छ भी पाने की उम्मीद
नहीं करनी चाहिए।

स्वास्थ्य देखभाल: होम्योपैथिक और (CAM) वैकल्पिक उपचार

रजोगुण को कम करने के कु छ तरीके हैं:

 ध्यान: ध्यान हमें अपनी इच्छाओं और आसक्तियों पर ध्यान कें द्रित करने में मदद करता
है।
 योग: योग हमें अपने शरीर और मन को एकजुट करने में मदद करता है। इससे हम
अपनी इच्छाओं और आसक्तियों से दूर हो जाते हैं।
 ऑनलाइन कमाई वर्चुअल असिस्टेंट के रूप में
 प्रार्थना: प्रार्थना हमें अपने उच्चतम आत्मा से जुड़ने में मदद करती है। इससे हम सांसारिक
इच्छाओं से ऊपर उठ सकते हैं।
 ऑनलाइन कमाई : व्यवसायों के लिए फ्रीलांस सामग्री लेखन। ..
रजोगुण को कम करना एक कठिन प्रक्रिया है, लेकिन यह एक आवश्यक प्रक्रिया है। जब हम रजोगुण को
कम कर लेते हैं, तो हम कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

रजोगुण के क्या क्या लक्षण होते हैं?

रजोगुण के लक्षण

श्रीगीता जी के 14 वें अध्याय में प्रकृ ति के तीनों गुणों का वर्णन है, जिसमें श्रीभगवान ने गुणों की व्याख्य
की है :

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृ तिसम्भवाः ।


निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌॥

भावार्थ : हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये प्रकृ ति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा
को शरीर में बाँधते हैं॥

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍


गसमुद्भवम्‌।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌॥

भावार्थ : हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों
और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है ॥

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।


रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
भावार्थ : हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर
रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है॥

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।


रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ,
अशान्ति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं॥

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते ।


तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥

भावार्थ : रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता
है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥

रजोगुण का परिणाम

रजोगुण में पाप-पुण्य, दोनों प्रकट होते है। इससे मन चंचल होता है। सुख, दु:ख, चिंता, परेशानी सतत बनी
रहती है। जब व्यक्ति कोई सत्कर्म करता है तो पुण्य में वृद्धि होती है। पुण्य से साधन-सुविधाओं का अंबार
खड़ा हो जाता है। सुख भोग के समय उसका अहंकार इतना बढ़ जाता है कि वह कु छ भी करे तो उसका
कु छ नहीं बिगड़ेगा। इससे वह उन्मादी होकर फिरसे पापकर्म करने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप उसे
पुनर्जन्म पाकर दु:ख, कष्ट, आदि भोगने पड़ते हैं।

पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार

यह सारा संसार पंच तत्वों से बना है और इन पंच तत्वों के तीन गुण हैं- सतोगुण,रजोगुण और तमोगुण।
किसी अमुक समय पर इन गुणों में से किसी एक गुण की हमारे जीवन और वातावरण में प्रधानता रहती
है। यही तीन गुण हमारी चेतना की तीन अवस्थाओं- जागृत अवस्था, सुप्तावस्था और स्वप्नावस्था से भी
संबंधित हैं। जब सतोगुण की हमारे शरीर और वातावरण में प्रधानता होती है तो हम प्रफु ल्लित, हल्के -फु ल्के ,
अधिक सजग व बोधपूर्ण होते हैं। रजोगुण की प्रधानता में उत्तेजना, विचार, इच्छाएं और वासनाएं बहुत बढ़
जाती हैं। बहुत कु छ करने की इच्छा होती है। हम या तो बहुत खुश या बहुत उदास होते रहते हैं।तमोगुण
का स्वरूप है अज्ञान, उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण
को दबा लेता है तब मनुष्य तरह-तरह की आशाएं करता है, शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लग
जाता है या फिर निद्रा, आलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है।एक तमोगुणी व्यक्ति पर आलस, प्रमाद,
लोभ जैसी वृतियां हावी रहती हैं, वह किसी ऐसी बुरी लत या आदत का शिकार हो जाता है जो उसके जीवन
को अंधकारमय बना देती है। हर समय वासना, सम्भोग के बारे में सोचना। आवश्यकता से अधिक
सोना,खाना इत्यादि ये सभी तमोगुणी व्यक्ति के लक्षण हैं। पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार

सतोगुण अधिक होने से मन में हर्ष व ज्ञान उत्पन्न होता है,रजोगुण बढ़ने से संसारी सुख की चाह होती
है,तमोगुण अधिक होने से चिन्ता,क्रोध नींद और आलस्य बढ़ता है। जीवहिंसा व अधर्म करने को मन चाहता
है।
इसी भांति हमारे भोजन में यही तीन गुण विद्यमान रहते हैं और हमारा मन भी इन तीन गुणों से प्रभावित
होता है। हमारे कृ त्यों में भी इन्हीं त्रिगुणों की झलक देखने को मिलती है। जब सत्य की हमारे जीवन में
प्रधानता होती है, तो रजोगुण और तमोगुण गौण हो जाते हैं, उनका प्रभाव कम रह जाता है और रजोगुण
की अधिकता में सत्व और तमस गौण हो जाते हैं व तमोगुण के प्रधान होने पर सत्व और रजस पीछे रह
जाते हैं, उनका प्रभाव कम हो जाता है। इन्हीं तीन गुणों के बल पर यह संसार और जीवन चलता है। पशु
भी इसी प्रकृ ति से संचालित होते हैं परंतु उनमें कोई असंतुलन नहीं होता। न तो वे आवश्यकता से अधिक
खाते हैं, न ही अधिक काम करते हैं और न ही अधिक काम वासना में उतरते हैं। उनमें कु छ भी कम या
अधिक करने की स्वतंत्रता ही नहीं होती। मनुष्य कु छ भी करने को स्वतंत्र है। अच्छा या बुरा, कम या
अधिक, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ ही उसको विवेक शक्ति भी प्राप्त है। स्वतंत्रता और विवेक दोनों ही उसके
पास हैं। हम अधिक खाकर बीमार होने को भी स्वतंत्र हैं और ऐसे ही अधिक सो कर सुस्त और आलसी भी
हो सकते हैं। हम किसी भी कार्य में आसक्त होकर या उसमें अति करके समस्याओं और बीमारियों को
निमंत्रित कर सकते हैं। पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार

अब इन तीन गुणों में संतुलन कै से रखा जाए

मनुष्य साधना,ध्यान और मौन के द्वारा इन तीन गुणों में संतुलन कर सकता है। इन सबसे हम अपने में
सतोगुण को बढ़ा सकते हैं। सामान्यत: व्यक्ति नींद में स्वप्न तो देखता ही है,जागृत अवस्था में भी दिन में
सपने देखता रहता है। अधिकतर तो हमारा मन भूतकाल व भविष्य के सोच-विचार में उलझा रहता है।
जीवन में प्रखर चेतना और सजगता का अनुभव प्राय: व्यक्ति कभी कभार ही कर पाता है। ऐसे सात्विक
क्षण बहुत दुर्लभ होते हैं। अत: हम जीवन में प्रसन्नता और प्रफु ल्लता को भी कम ही अनुभव कर पाते हैं।

मनुष्य में सभी प्रकार के जीव-जंतुओं का सम्मिश्रण है। (इसलिए मनुष्य कभी शेर की तरह गरजता है और
कभी गुर्राता है।) यदि हम मिल कर भजन-कीर्तन में डू बते हैं तो हम पक्षियों की भांति हल्के -फु ल्के हो जाते
हैं और हमारी चेतना ऊपर की ओर बढ़ने लगती है और इस तरह हमारे जीवन में सत्व का और अधिक
समावेश होता है। अब इन तीन गुणों की चर्चा भोजन के संदर्भ में-ठीक मात्रा में आवश्यकतानुसार भोजन
करना,भोजन जो सुपाच्य हो, ताजा हो और कम मिर्च-मसाले वाला हो, ऐसा भोजन सात्विक भोजन है और
सात्विक प्रवृत्ति वाले लोग ऐसा भोजन पसंद करते हैं। राजसिक प्रवृत्ति के लोग अधिक तीखा, मिर्च-मसाले
वाला, तेज नमकीन या अधिक मीठा भोजन पसंद करते हैं। बासी, पुराना पका हुआ और स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक भोजन तामसिक प्रवृत्ति के लोग पसंद करते हैं। आयुर्वेद के अनुसार 6-7 घंटे पहले का पका
हुआ भोजन तामसिक होता है।

पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार

हमारा यह ब्रह्मांड और शरीर पांच तत्वों अर्थात पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्रि पर आधारित माना
गया है। इन्हीं से दुनिया चलती है और आत्मा के जरिए विभिन्न प्राणियों या योनियों के रूप में जीव संसार
में घूमता फिरता रहता है। मानव देह के अतिरिक्त धरती, आसमान और नदियों तथा समुद्रों में अपनी प्रति
और उपयोगिता के अनुसार सभी प्रकार के जीव जंतु, पक्षी आदि सृष्टि के आरंभ से कु दरत के साथ
तालमेल बिठाते हुए जिंदगी को जीने लायक बनाते आए हैं। वसुधैव कु टुंबकम् की नींव भी यही है। यह तो
हुई भौतिक या शारीरिक गतिविधियों को संचालित करने की प्रक्रिया लेकिन शरीर में एक और तत्व है जो
किसी दूसरे जीव को उपलब्ध नहीं है, वह है हमारा मन या दिमाग जिससे हमारी मानसिक गतिविधियों का
संचालन होता है। हम क्या सोचते हैं, क्या और कै से करते हैं, यह सब पहले हमारे मस्तिष्क में जन्म लेता
है और हमारे शरीर के विभिन्न अंग उसी के अनुरूप आचरण करने लगते हैं। सबसे पहले पृथ्वी को ही लें
जिसे ठोस माना गया है।

उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री धर्मवीर प्रजापति सिर्फ नाम से ही धर्मवीर नहीं है वह ज्ञान से भी धर्मवीर है।
आज उन्होंने सुबह-सुबह वाक के दौरान योग कर रहे योगार्थियों को जीवन जीने का रहस्य बताया। जिसमें
उन्होंने सतों गुण रजोगुण और तमोगुण का विशेष वर्णन किया। यही नहीं उन्होंने अस्वस्थ किया कि गर्भ
में आते ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण कर दिया जाता है कि इसका क्या होना है और यह सब
पहले से ही तय होता है किसका क्या होना है। उन्होंने वार्ता के दौरान एक कहानी भी सुनाई रास्ते में एक
संत कटोरा लेकर भिक्षावृत्ति के लिए जा रहा था उसे एक अजगर रास्ते में पड़ा मिला जो चल फिर नहीं
सकता था फिर भी उसे भोजन मिलता था। उन्होंने यह मान लिया की धरती पर जिसका जन्म हु आ है
उसका भारण पोषण ईश्वर किसी न किसी प्रकार से जरूर करता है। मंत्री जी ने आजकल हो रहे कथा
वाचकों पर भी टिप्पणी की और कहा कि तपस्वी व्यक्त सबको नहीं देता है वह सिर्फ पात्र को ही देता है
अगर गुरु की नजर शिष्य के धन पर होती है तो उस गुरु को नर्क ही प्राप्त होता है। धर्मवीर प्रजापति ने
कहा कि अगर आप ईश्वर में विश्वास करते हैं तो सिर्फ विश्वास करिए उस पर शक मत करिए। तात्पर्य था
कि जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिह तैसी। कभी-कभी, सत्वगुण रजोगुण और तमोगुण पर हावी
हो जाता है जिससे जीवन में प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। इसी प्रकार कभी-कभी जीवन में रजोगुण या
तमोगुण प्रबल हो जाता है। रजोगुण के बिना हम कोई कार्य नहीं कर सकते। तमोगुण के बिना हम रात को
सो नहीं सकते और सत्वगुण के बिना हम प्रार्थना नहीं कर सकते। भगवान ने रजोगुण और तमोगुण को
जीवन में समस्याएँ लाने के लिए नहीं, बल्कि जीवन को सुचारु रूप से जीने के लिए पैदा किया है ।
हालाँकि, आपको इनका उपयोग अच्छे काम के लिए सही और समझदारी से करना होगा।

माया के तीन गुण माने जाते हैं तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण और ये तीनों ही गुण जीव को बंधन में
डालते हैं। मानो मनुष्य में तीनों गुणों का मिश्रण होता है, परंतु कर्म अनुसार एक गुण आगे बढ़ता है। अब
क्योंकि जीव अनेक प्रकार के हैं इसलिए निम्न लक्ष्णों से युक्त है। कोई बड़ा निष्क्रिम है, कोई बड़ा कर्मठ
है, कोई बड़ा सुखी है तो कोई असहाय। इस प्रकार लक्ष्णों वाले गुण ही प्रकृ ति में जीव की वृद्धावस्था के
कारण हैं। अब जीवों में किस-किस गुण से कौन-कौन सा बंधन होता है।

तमोगुण– गीता में भगवान श्री कृ ष्ण अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन! सब जीवों को मोहने वाले ‘तमोगुण’
को अज्ञान से उत्पन्न जान। ये गुण देह अभिमानी जीवन का प्रमाद,आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।
तमोगुण सतोगुण के बिलकु ल विपरीत कार्य करता है। अर्थात तमोगुण से मोहित जीव प्रभंत हो उठता है
और जो प्रभंत है उसे इस हालत में कभी तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। उत्थान के स्थान पर उसका
पतन ही होता है। मानो तमोगुण परमाद (असत्य) से बांधता है। तमोगुणी व्यक्ति सदैव निराशा महसूस
करता है और भौतिक द्रव्यों के प्रति व्यसनी बन जाता है। इसलिए ये बंधन मुक्त नहीं है।

रजोगुण- पवित्र गीता में वर्णित है कामजनित रजोगुण को तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न जान, रजोगुण
जीव को सकाम कर्म की आसक्ति में बांधता है। अब रजोगुण का स्वरूप स्त्री और पुरुष में एक दूसरे के
प्रति होने वाले आकर्षण है। स्त्री पुरुष में राग रखती है और पुरुष स्त्री में राग रखता है। अतः रजोगुण
मोहरूप है और जीवन को इच्छा और कर्म में बांधता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर तृष्णा जाग्रत होती है
जिससे रजोगुण इंद्रिय तृप्ति के लिए उन्मत हो उठता है और फिर इंद्रिय तृप्ति के लिए रजोगुणी मनुष्य
समाज अथवा राष्ट्र में सम्मान तथा सुख, परिवार और गृह आदि विषयों की ख्वाहिश करता है। ये सब
रजोगुण के कार्य हैं। इसी कर्मफल की आसक्ति में रजोगुणी मनुष्य बंध जाता है। अतः आधुनिक सभ्यता में
संपूर्ण विश्व ही रजोगुण के वशीभूत हो रहा है।

सतोगुण- प्रकृ त जगत में जब सतोगुण का विकास होता है, तो सतोेगुणी मनुष्य अन्य जीवों से अधिक
बुद्धिमान हो जाता है क्योंकि सतोगुणी प्रकाश वाला है, सतोगुणी मनुष्य लौकिक दुःखों से अधिक प्रभावित
नहीं होता। ऐसे मनुष्य में ये भाव बना रहता है कि वह सुखी है। अब इसके सुख का कारण ये है कि
सतोगुण में पाप कर्मफल का अभाव रहता है। मानो सतोगुण का अर्थ अधिक सुख तथा अधिक ज्ञान है।
इसके परिणाम दूसरे गुणों से भिन्न है परंतु तीनों गुणों का परिणाम एक ही निकाला जाता है। सतोगुण भी
बंधन मुक्त नहीं है क्योंकि सतोगुण में जीव को ये अभिमान हो जाता है कि वो ज्ञानी है, दानी है, श्रेष्ठ है।
अतः इस उपाधि से मनुष्य ऐसा बंधता है। अब ये बात स्पष्ट है कि तीनों गुण वालों को बंधन से मुक्ति
नहीं मिलती है। इसलिए मुक्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाना या पार
चले जाना अनिर्वाय है क्योंकि आत्मा परमात्मा इन तीनों गुणों से ऊपर है। जो आदमी इन तीनों गुणों से
ऊपर उठ जाता है यानी गुणातीत हो जाता है ये न तो तामसी होता है, न राजसी होता है, न ही सत्विक
होता है।

भगवान श्रीकृ ष्ण ने रजोगुण,तमोगुण व सतोगुण का वर्णन किया है

 जो मनुष्य मन में दया रखकर अपनी इन्द्रियों के वश न होवे,शुभ कर्म करने का विचार किया
करे,किसी के दुर्वचन कहने से खेद न मानकर परमेश्वर का स्मरण ध्यान करता रहे,सच
बोले,स्वभाव में धैर्य रक्खे,मन में संतोष रखकर किसी वस्तु की चाह न करे ये लक्षण सतोगुण के
हैं।

 जो मनुष्य सुंदर स्त्री,उत्तम भूषण,वस्त्र,स्थान व बाग आदि संसारी सुख की चाह रक्खे,अभिमान
से किसी का कहना न माने,जो शुभ कर्म करे उसमें अपना यश चाहे,सदा सामर्थ्य व द्रव्य बढ़ाने
का उपाय करता रहे उसे रजोगुणी समझना चाहिये।

 जो मनुष्य अधिक क्रोध व लोभ रक्खे,झूठ बोले,जीव हिंसा करे,कु कर्म करने और माँगने से
निर्लज्ज होकर लोगों के साथ झगड़ा करता रहे,आठों पहर आलस्य में भरा रहकर अधिक नींद ले,
ये लक्षण तमोगुण के हैं।
सब वस्तु को अपना समझना और मेरा-तेरा विचारना,अपने को मैं जानना, ह बात तीनो गुण मिलने से
होती है। पर मेरा भजन व ध्यान करनेवाले को सतोगुण के प्रताप से कु छ चाह नहीं रहती। तीनो गुण आठों
पहर बराबर नहीं रहते , घटा-बढ़ा करते हैं। आत्मा तीनों में मिश्रित व सबसे बिलग रहता है। सतोगुण
स्वभाववाले स्वर्ग का सुख भोगते हैं, रजोगुणी मनुष्य अपने कर्मानुसार दुःख व सुख भोगकर जन्म व मरण
से नहीं छू टते और तमोगुणी लोग नरक में बड़ा दुःख पाते हैं। संसार से विरक्त होने व मेरे चरणों का ध्यान
व भक्ति करनेवाले हमारे पास वैकुं ठ में पहुँचते हैं।

“संसार में हमें किसी भी पदार्थ में तीन प्रकार की शक्तियों के काम करने का अनुमान होता है। कोई शक्ति
किसी पदार्थ को उत्पन्न करती है, दूसरी शक्ति उसका पोषण करती है और तीसरी शक्ति उसका विनाश कर
देती है। इन शक्तियों को हम क्रमशः रजोगुण,सत्त्वगुण और तमोगुण कहते हैं। यहाँ ‘ गुण ‘ का अर्थ
प्रकृ ति का स्वभाव है। इन गुणों को हम देख नहीं पाते। इनके कार्यों से इनके होने का अनुमान होता है।
हमारे शरीर की उत्पत्ति में रजोगुण कारण है और उसी के द्वारा शरीर बढ़ता है। सतोगुण उसका पोषण
करते हुए उसका अस्तित्व बनाये रखता है। तमोगुण के कारण शरीर बदलता रहता है और अंत में नष्ट हो
जाता है।

हमारा जीवन यह एक ऐसा जीवन था जो तमोगुणी से रजोगुणी और फिर सतोगुणी हो जाता है, जो व्यक्ति
प्रकृ ति के इन तीनों गुणों से आगे चला जाता है तो वहां व्यक्ति जो जीवन जीता है वो आत्मस्थ होता है।
इसलिए गीता में तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से भी आगे जीवन जीने के लिए कहा जाता है, इन सबके
आगे मात्र सत्य होता है। गीता हमें प्रकृ ति के पार जाकर उस सत्य यानी मुक्ति की प्राप्ति का सन्देश देती
है। यह एक ऐसा जीवन था जो तमोगुणी से रजोगुणी और फिर सतोगुणी हो जाता है, जो व्यक्ति प्रकृ ति के
इन तीनों गुणों से आगे चला जाता है तो वहां व्यक्ति जो जीवन जीता है वो आत्मस्थ होता है। इसलिए
गीता में तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से भी आगे जीवन जीने के लिए कहा जाता है, इन सबके आगे
मात्र सत्य होता है। गीता हमें प्रकृ ति के पार जाकर उस सत्य यानी मुक्ति की प्राप्ति का सन्देश देती
है। पंच

प्रकृ ति के तीन गुण कौनसे है ?


इस लेख में हम जानेंगे कि मनुष्य न चाहते हुए भी पाप करने के लिए प्रेरित क्यों होता है?, चार वर्णों की
रचना किसने और किस आधार पर की?, प्रकृ ति के तीन गुण कौनसे है और उनका हमारे जीवन पर कै सा
और कितना प्रभाव है?

प्रकृ ति के गुणों को कै से लाँघा जा सकता है, जो इन्हें लाँघ जाता है उसका आचरण कै सा होता है? प्रकृ ति के
गुणों के अनुसार व्यक्ति कै सा भोजन करता है और कै सा सुख भोगता है?

चलिए, शुरू करते है।

1. प्रकृ ति के तीन गुण कौनसे है और उनका हमारे जीवन पर कै सा और कितना प्रभाव है?

यह भौतिक प्रकृ ति तीन गुणों से युक्त है — सतो, रजो तथा तमोगुण।

समस्त कार्यों में प्रकृ ति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है। जीव अहंकार के कारण अपने
आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृ ति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न
किये जाते है।

प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृ ति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है।

भगवान विष्णु की शक्ति के द्वारा यह सारे गुण प्रकट होते है। श्री भगवान् प्रकृ ति के गुणों के अधीन नहीं
है, अपितु वे श्री भगवान् के अधीन है।

सारा संसार प्रकृ ति के तीन गुणों से मोहित है। इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई
भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृ ति के तीन गुणों से मुक्त हो।
प्रकृ ति के तीन गुणों वाली भगवान नारायण की इस दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है किन्तु जो
उनके शरणागत हो जाते है, वे सरलता से इसे पार कर जाते है।

चलिए, अब सतो, तमो और रजोगुण के बारे विस्तार से समझते है।

सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध है। यह मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है।
सतोगुण सुख तथा ज्ञान के भाव से बाँधता है।

सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है। सतोगुणी व्यक्ति देवताओं को पूजते है। सतोगुणी व्यक्ति
क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते है।

रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं से होती है। रजोगुण सकाम कर्म से बाँधता है। इससे लोभ,
अत्यधिक आसक्ति तथा अनियन्त्रित इच्छा उत्पन्न होते है। रजोगुणी व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की पूजा करते
है। रजोगुणी व्यक्ति इसी पृथ्वीलोक में रह जाते है।

तमोगुण की उत्पत्ति अज्ञान से होती है। तमोगुण मनुष्य को पागलपन से बाँधता है। तमोगुण से पागलपन,
आलस, नींद तथा मोह उत्पन्न होते है। तमोगुणी व्यक्ति भूत-प्रेतों को पूजते है। तमोगुणी व्यक्ति नीचे
नरक लोकों को जाते है।

कभी-कभी सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण को परास्त करके प्रधान बन जाता है तो कभी रजोगुण सतो तथा
तमोगुणों को परास्त कर देता है और कभी तमोगुण सतो तथा रजोगुणों को परास्त कर देता है।

2. प्रकृ ति के गुणों को कै से लाँघा जा सकता है, जो इन्हें लाँघ जाता है उसका आचरण कै सा होता है?

जो व्यक्ति श्री भगवान् के प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति करता है वह तुरन्त ही प्रकृ ति के गुणों को लाँघ
जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है।

उसका आचरण — सुख तथा दुख को एक समान मानना, शत्रु तथा मित्र के साथ सामान व्यवहार करना,
प्रशंसा तथा बुराई, मान तथा अपमान में समान भाव से रहना, मिट्टी के ढेले, पत्थर एवं स्वर्ण के टु कड़े को
समान दृष्टि से देखना, प्रकाश, आसक्ति तथा मोह के उपस्थित होने पर न तो उनसे घृणा करना और न
लुप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करना, यह जानकर कि के वल गुण ही क्रियाशील हैं, उदासीन तथा दिव्य
बना रहना, सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर देना।

3. मनुष्य न चाहते हुए भी पाप करने के लिए प्रेरित क्यों होता है?

जब अर्जुन ने यही प्रश्न भगवान् श्री कृ ष्णचन्द्र से गीता में पूछा तो भगवान् पुंडरीकाक्ष ने कहा — हे अर्जुन!
इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस
संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
4. चार वर्णों की रचना किसने और किस आधार पर की?

प्रकृ ति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार भगवान कमलनयन द्वारा मानव समाज के चार
विभाग रचे गये है।

जो सतोगुणी है वे ब्राह्मण, जो रजोगुणी है वे क्षत्रिय और जो रजोगुणी और तमोगुणी दोनों है,


वे वैश्य कहलाते है तथा जो तमोगुणी हैं वे शुद्र कहलाते है।

5. प्रकृ ति के गुणों के अनुसार व्यक्ति कै सा भोजन करता है और कै सा सुख भोगता है?

सतोगुणी व्यक्तियों को सात्त्विक भोजन प्रिय होता है और वह भोजन आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध
करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है।

रजोगुणी व्यक्तियों को अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे,शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले
भोजन प्रिय होते है। ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले है।

तमोगुणी व्यक्तियों को खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से
युक्त भोजन प्रिय होता है,जो तामसी होते हैं।

जो सुख प्रारम्भ में विष जैसा लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म-
साक्षात्कार जगाता है, वह सात्त्विक कहलाता है। जो सुख इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है और प्रारम्भ में
अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है। जो सुख प्रारम्भ से लेकर अन्त तक
मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है।

आपका स्वभाव किस गुण से ज्यादा प्रभावित है, सतोगुण सर्वश्रेष्ठ क्यों है ?

हमारे अंदर तीन तरह के गुण पाए जाते हैं सतोगुण, तमोगुण एवं रजोगुण। इनमें से किसी एक गुण की भी
अधिकता या कमी हमारे स्वभाव और जीवन पर गहरा असर डालते हैं। जिस कारण प्रत्येक व्यक्ति का
आचरण एवं व्यवहार एक-दूसरे से अलग होता है। प्रकृ ति में भी ये गुण पाए जाते हैं। आप भाव समझने के
लिए रंगों का उदाहरण ही ले लीजिए, जैसे तीन मुख्य रंग लाल, नीला और पीला मिलकर विभिन्न रंगों को
उत्पन्न करते हैं, ठीक उसी प्रकार गुणों के विभिन्न मिश्रण से व्यक्तित्व का निर्माण होता हैं। जैसे तीन रंगों
को मिलाने पर जिस रंग की ज्यादा अधिकता होगी उसी रंग का असर, रंग व प्रभाव ज्यादा दिखाई देगा
और ये तीनों रंग भी अलग-अलग स्वभाव का प्रतीक हैं, ठीक वैसे ही इंसान में पाए जाने वाले तीन गुण भी
यदि कम या ज्यादा होगें तो उस व्यक्ति का स्वभाव भी वैसा ही होगा। जब तक हम इन गुणों की प्रकृ ति
और प्रभाव से अनभिज्ञ रहते हैं, तब तक हम अपने स्वभाव और अपने नेचर की प्रकृ ति भी नहीं समझ पाते
लेकिन जैसे ही हमें अपने गुणों के प्रभाव के बारे में समझ आ जाती है वैसे ही हम अपने गुणों के
सम्मिश्रण को नियंत्रित भी कर सकते हैं।

श्री भगवद्गीता हमें संसार में सत्व गुणों पर चलने की राह दिखाती है जिसके द्वारा हम सांसारिकता से
ऊपर उठकर ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। भगवद्गीता मानव के व्यक्तित्व का विश्लेषण संपूर्णता से करती
है और हमें हमारी कमजोरियों व शक्तियों से अवगत कराती है। प्रत्येक मानव जड़ और चेतन से मिलकर
बना है। इसमें चेतन ही सारभूत है। जड़ तीन गुणों जैसे सत्व, रज और तम से मिलकर बनता है। यही गुण
व्यक्ति के विचारों, भावनाओं और कर्मों के बारे में बताते हैं। इन गुणों की वजह से ही हमारा स्वभाव और
व्यवहार तय होता है। ये गुण हमारे अंदर जैनेटिक कोड की तरह होते हैं। ये सब गुण मिलकर हमें इस
संसार से जोड़कर रखते हैं।

जानिए सत्व, रज एवं तम गुण क्या हैं ?


तम का शाब्दिक अर्थ होता है अंधकार, अतः तमोगुण
एक प्रकार की अकर्मण्यता और उदासीनता की स्थिति
उत्पन्न करते हैं जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है।
इस अवस्था में श्रेष्ठ गुण छिप जाते हैं और ये गुण
प्रकट ही नहीं हो पाते।

रजो गुण निराशा और तनाव की वह स्थिति है जिसकी


उत्पत्ति लालच, तृष्णा व कामेच्छा से होती है।

सत्व गुण मन की वह शांत अवस्था है जहां व्यक्ति


अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन करता है। इस अवस्था में मानव
मस्तिष्क शांत व विचारशील होता है। यह अवस्था
अनथक प्रयास की नैसर्गिक वृत्ति व उत्कृ ष्टता का प्रतीक
है।

सतोगुण को पाने की इच्छाहरेक में रहती है ताकि वह अपने कार्य क्षेत्र में श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर सके लेकिन
यह बात कोई भी नहीं जानता कि इस अवस्था प्राप्त कै से किया जाए।

श्रीमद्भगवद्गीता का 14 वां अध्याय तीन गुणों के बारे में बताता है। इसमें सत्व, रज और तम इन तीन
गुणों के बारे में विस्तृत चर्चा की गई है तथा साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि यह गुण किस प्रकार
व्यक्ति को सांसारिकता से जोड़ते हैं।

जब सत्व गुण की अधिकता होती है तो आपका प्रदर्शन श्रेष्ठतम होता है। जब रजो गुण की अधिकता होती
है तो लालच, अशांति और तृष्णा दोष से आपका प्रदर्शन निचले स्तर तक गिर जाता है और जब तमो गुण
की प्रधानता हो जाए तो भ्रम, लापरवाही व अकर्मण्यता के कारण आपकी पराजय हो जाती है। आप चाहे
कितने ही योग्य क्यों न हों लेकिन रजो गुण और तमो गुण का बाहुल्य असफलता ही देता है। इसलिए यह
अत्यावश्यक हो जाता है कि आप अपने सतोगुण को बढ़ाएं और रजोगुण का त्याग करें तथा तमोगुण का
दृढ़तापूर्वक उन्मूलन कर दें।

इन्हीं गुणों की मात्रा से यह भी बताया जा सकता है कि मृत्यु के पश्चात् आप किस प्रकार के वातावरण में
प्रवेश करेंगे। यहां समझने योग्य बात है कि सात्विक गुणों वाली आत्मा एक आध्यात्मिक परिवार में जन्म
लेती है जहां मानसिक शांति और पवित्रता वाले वातावरण में सत्वगुण खूब पनपता एवं खिलता है। शुद्ध
सत्वगुण व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर कर देता है। राजसिक गुण वाले लोग ऐसे परिवार में जन्म
लेते हैं जहां लोग जीवन में भौतिक प्राप्तियों व राजसुख भोगने में तत्पर रहते हैं। ऐसा व्यक्ति सांसारिकता
में और अधिक लिप्त हो जाता है। तामसिक व्यक्ति सुस्त और मूर्ख व्यक्तियों के परिवार में पैदा होता है।
के वल सात्विक पुरुष प्रगति कर पाता है। राजसिक व्यक्ति एक संकीर्ण समूह के अंदर आगे बढ़ता है जबकि
तामसिक व्यक्ति का निरंतर पतन होता जाता है। मानव जीवन का उद्देश्य इन तीनों गुणों से परे गुणातीत
होकर जीवन, मृत्यु, क्षय, सड़न और दुःख के चक्र से मुक्त होना है।

इसलिए हमेशा ये प्रयास करें कि अपने अंदर सत्वगुण को बढ़ाएं। रजो गुण व इच्छाओं को नियंत्रित रखें
तथा तमोगुण का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन करें और फिर देखें कि जीवन में क्या अंतर आता है। भगवद् गीता के
14 वें अध्याय के अंतिम भाग में उस व्यक्ति के गुणों के बारे में चर्चा कि व्यक्ति किस प्रकार सतोगुणी
बनता है। जब आप अपने आस-पास इन गुणों का प्रभाव देखते हैं लेकिन स्वयं इनसे प्रभावित नहीं होते तो
फिर आप सच में इन गुणों से ऊपर उठकर परम ज्ञान व शांति की श्रेष्ठतम अवस्था में पहुंच चुके हैं। आप
इसी पथ पर अग्रसर हों तथा अपने एवं समाज को समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करें।

गुण जैनेटिक कोड की तरह हैं

संस्कृ त में गुण का अभिप्राय होता है- रस्सी। गुणनुमा रस्सी व्यक्ति को इस संसार से जोउ़कर रखती है।
सतोगुण, तमो गुण एवं रजोगुण विभिन्न परिमाण में प्रत्येक व्यक्ति में समाविष्ट होते हैं। यही कारण है
कि प्रत्येक व्यक्ति का आचरण एवं व्यवहार एक-दूसरे से निश्चित ही अलग होता है। जिस तरह तीन मुख्य
रंग लाल, पीला और नीला मिलकर विभिन्न रंगों को उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार गुणों के विभिन्न मिश्रण
इस संसार में अनंत प्रकार के व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं। जब तक हम इन गुणों की प्रकृ ति और प्रभाव
से अनभिज्ञ रहते हैं, हम इन गुणों से आब( रहते हैं किं तु ज्योंहि हम इन गुणों के प्रभाव को समझ जाते हैं,
हम अपने अंतर्मन में सन्निहित गुणों के सम्मिश्रण को समय एवं परिवेश के अनुसार नियंत्रित एवं
परिवर्तित कर सकते हैं और अपने जीवन को अधिक सार्थक एवं लोकोपयोगी बना सकते हैं।

भगवद्गीता संसार में उत्कृ ष्टता प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है और हमें सांसारिकता से ऊं चा
उठाकर ज्ञान प्राप्ति में भी निश्चित रूप से सहायक होती है। भगवद्गीता मानव के व्यक्तित्व का विश्लेषण
संपूर्णता से करती है और हमें हमारी कमजोरियों व शक्तियों से अवगत कराती है। प्रत्येक मानव जड़ और
चेतन से मिलकर बना है। इसमें चेतन ही सारभूत है। गीता निस्तार को विलग करने में सहायता प्रदान
करती है और के वल आत्म तत्व ही शेष रह जाता है। जड़ तीन गुणों जैसे सत्व, रज और तम से मिलकर
बनता है। यही गुण व्यक्ति के विचारों, भावनाओं और कर्मों के बारे में बताते हैं। ये गुण आपके जैनेटिक
कोड की तरह होते हैं। ये सब गुण मिलकर आपको इस संसार से जोड़कर रखते हैं। जिस तरह तीन मुख्य
रंग लाल, पीला और नीला मिलकर विभिन्न रंगों को उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार गुणों के विभिन्न मिश्रण
इस संसार में अनंत प्रकार के व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं।

तम का शाब्दिक अर्थ होता है अंधकार अतः तमोगुण एक प्रकार की अकर्मण्यता और उदासीनता की स्थिति
उत्पन्न करते हैं जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है। इस अवस्था में श्रेष्ठ गुण छिप जाते हैं और हमारे
श्रेष्ठ गुण प्रकट नहीं हो पाते। रजो गुण निराशा और तनाव की वह स्थिति है जिसकी उत्पत्ति लालच,
तृष्णा व कामेच्छा से होती है। सत्व गुण मन की वह शांत अवस्था है जहां व्यक्ति अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन
करता है। इस अवस्था में मानव मस्तिष्क शांत व विचारशील होता है। यह अवस्था अनथक प्रयास की
नैसर्गिक वृत्ति व उत्कृ ष्टता का प्रतीक है। सभी प्रशासक, खिलाड़ी, किसी भी क्षेत्र के पेशेवर, व्यवसायी इसी
अवस्था में पहुंचकर श्रेष्ठतम प्रदर्शन करने की चाह रखते हैं।

लेकिन यह बात कोई भी नहीं जानता कि इस अवस्था को कै से प्राप्त किया जाए। श्रीमद्भगवद्गीता का
चैदहवां अध्याय तीन गुणों के बारे में बताता है। इसमें सत्व, रज और तम इन तीन गुणों के बारे में
विस्तृत चर्चा की गई है तथा साथ ही स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ये व्यक्ति को सांसारिकता से
जोड़ते हैं। गुण का संस्कृ त में अभिप्राय होता है- रस्सी। प्रत्येक व्यक्ति में ये तीनों गुण मौजूद होते हैं। जब
तक आप इन गुणों की प्रकृ ति और प्रभाव से अनभिज्ञ रहते हैं तब तक आप इन गुणों से बंधे रहते हैं। जब
आप इन गुणों को समझ जाते हैं तो अपने भीतर समाविष्ट गुणों के सम्मिश्रण को परिवर्तित कर सकते हैं।
जब सत्व गुण की अधिकता होती है तो आपका प्रदर्शन श्रेष्ठतम होता है। जब रजो गुण की अधिकता होती
है तो लालच, अशांति और तृष्णा दोष से आपका प्रदर्शन निचले स्तर तक गिर जाता है और जब तमो गुण
की प्रधानता हो जाए तो भ्रम, लापरवाही व अकर्मण्यता के कारण आपकी पराजय हो जाती है।

आप चाहे कितने ही योग्य क्यों न हों लेकिन रजो गुण और तमो गुण का बाहुल्य असफलता ही देता है।
इसलिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि आप अपने सतोगुण को बढ़ाएं और रजोगुण का मार्जन करें तथा
तमोगुण का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन कर दें। इन्हीं गुणों की मात्रा से यह बताया जा सकता है कि मृत्यु के
पश्चात् आप किस प्रकार के वातावरण में प्रवेश करेंगे। एक सात्विक व्यक्ति आध्यात्मिक परिवार में जन्म
लेता है जहां मानसिक शांति और पवित्रता वाले वातावरण में सत्वगुण खूब पनपता एवं खिलता है। शुद्ध
सत्वगुण व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर कर देता है। राजसिक गुण वाले लोग ऐसे परिवार में जन्म
लेते हैं जहां लोग जीवन में भौतिक प्राप्तियों व राजसुख भोगने में तत्पर रहते हैं। ऐसा व्यक्ति सांसारिकता
में और अधिक लिप्त हो जाता है।

तामसिक व्यक्ति सुस्त और मूर्ख व्यक्तियों के परिवार में पैदा होता है। के वल सात्विक पुरुष प्रगति कर
पाता है। राजसिक व्यक्ति एक संकीर्ण समूह के अंदर आगे बढ़ता है जबकि तामसिक व्यक्ति का निरंतर
पतन होता जाता है। मानव जीवन का उद्देश्य इन तीनों गुणों से परे गुणातीत होकर जीवन, मृत्यु, क्षय,
सड़न और दुःख के चक्र से मुक्त होना है। सत्वगुण को बढ़ाएं। रजो गुण व इच्छाओं को नियंत्रित रखें तथा
तमोगुण का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन करें और फिर देखें कि जीवन में क्या अंतर आता है। अध्याय के अंतिम
भाग में उस व्यक्ति के गुणों के बारे में चर्चा की गई है जो इन गुणों से ऊपर उठकर गुणातीत हो गया है।

इसमें बताया गया है कि व्यक्ति किस प्रकार ब्राह्मण बनता है। जब आप अपने आस-पास इन गुणों का
प्रभाव देखते हैं लेकिन स्वयं इनसे प्रभावित नहीं होते तो फिर आप सच में इन गुणों से ऊपर उठकर
गुणातीत व परम ज्ञान व शांति की श्रेष्ठतम अवस्था में पहुंच चुके हैं। यह भगवान बुद्ध का बुद्धत्व है। इसी
पथ पर अग्रसर हों तथा अपने एवं समाज के संवर्द्धन एवं समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करें। ज्योतिष के अनुसार
बृहस्पति को सत्वगुणी ग्रह माना जाता है और ऐसा माना जाता है कि यदि एक बलवान बृहस्पति कें द्र में
विराजमान हो तो वह सभी दोषों को दूर कर देता है और अन्य ग्रह कु छ भी अनिष्ट नहीं कर पाते तथा
ऐसा व्यक्ति दीर्घजीवी, बुद्धिमान, कु शल वक्ता और योग्य नेता बनता है। इस प्रकार से समस्त ज्योतिष
ग्रंथों में बृहस्पति ग्रह का बड़ा ही गौरवपूर्ण वर्णन मिलता है।

कहा भी है कि गुरु बिन ज्ञान नहीं या गुरु ग्रह के कें द्रस्थ हुए बिना योग विद्या में रुचि नहीं हो सकती
आदि-आदि। बली बृहस्पति ग्रह वाले लोग सांसारिक जीवन में शीघ्रता से उन्नति करने वाले होते हैं। कहते
हैं अब्राहम लिंकन की तर्जनी उं गली (गुरु ग्रह की प्रतिनिधि) मध्यमा से अधिक लंबी थी इसलिए उनके
जीवन का सफर भी फर्श से अर्श तक का रहा। सद्गुणसंपन्न मनुष्य ही उन्नति की राह पर अग्रसर होता
है। चूंकि बृहस्पति व्यक्ति को सद्गुण संपन्न बनाता है इसलिए इस ग्रह से प्रभावित मानव की उन्नति की

यह सृष्टि त्रिगुणमयी है। सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण, इन तीन गुणों से संसार के समस्त जड़ चेतन ओत
प्रोत हो रहे हैं। तमोगुण में आलस्य (अशान्ति युक्त मूढता), रजोगुण में क्रियाशीलता (चंचलता), सतोगुण में
शान्ति युक्त क्रिया (अनासक्त और निःस्वार्थ व्यवहार) होता है।

प्रायः तमोगुण और रजोगुण की ही लोगों में प्रधानता होती है। सतोगुण आज कल बहुत कम मात्रा में पाया
जाता है। क्योंकिक्यों उच्च आध्यात्मि क साधना के फल स्वरूप ही सतो गुण का विकास होता है। सतोगुण
की वृद्धि ही परम अर्थ कल्याण का हेतु है। सात्त्विकता जितनी बढ़ती जाएगी उतना ही प्राणी अपने लक्ष्य
(मुक्ति) के निकट होता जाएगा। इसके विपरीत रजोगुण की अधिकता से मनुष्य भोग और लोभ के कु चक्र
में फँ स जाता है और तमोगुणी तो तीव्र गति से पतन के गर्त में गिरने लगता है।

तमोगुण प्रधान मनुष्य आलसी, अकर्मण्य निराश और परमुखापेक्षी होता है। वह हर बात में दूसरों का सहारा
टटोलता है, अपने ऊपर अपनी शक्तियों के ऊपर उसे विश्वास नहीं होता। दूसरे लोग किसी कु पात्र को
सहायता क्यों दें? जब उसे किसी ओर से समुचित सहयोग नहीं मि लता तो खिन्न और क्रु द्ध होकर दूसरों
पर दोषारोपण करता है और लड़ता झगड़ता है। लकवा मार जाने वाले रो गी की तरह उसकी शक्तियाँ
कु ण्ठित हो जाती हैं और जड़ता एवं मूढ़ता में मनोभूमि जकड़ जाती है। शरीर में स्थूल बल थोड़ा बहुत भले
ही रहे पर प्राण शक्ति, आत्मबल, शौर्य एवं तेज का नितान्त अभाव रहता है। ऐसे व्यक्ति बहुधा, कायर,
कु कर्मी, क्रू र, आलसी और अहंकारी होते हैं। उसके आचरण, विचार, आहार कार्य और उद्देश्य सभी मलीन होते
हैं।

तमोगुण पशुता का चिन्ह है। चौरासी लाख योनियों में तमोगुण ही प्रधान रहता है। वही संस्कार जिस
मनुष्य के जीवन में प्रबल हैं उसे नर पशु कहा जाता है। इस पशुता से जब जीव की कु छ प्रगति होती है
तब उसका रजोगुण बढ़ता है। तब की अपेक्षा उसके विचार और कार्यों में राज सिकता अधिक रहती है।

रजोगुणी में उत्साह अधिक रहता है, फु र्ती, चतुराई, चालाकी, होशियारी, खुदगर्जी, दूसरों को उल्लू बनाकर
अपना मतलब गांठ लेने की योग्यता खूब होती है। ऐसे लोग बातूनी , प्रभावशाली, क्रियाशील, परिश्रमी,
उद्योगी, साहसी, आशावादी, और विलासी होते हैं। उनकी इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं। स्वादिष्ट भोजन,
बढ़िया ठाठ-बाट, विषय-वासना की इच्छा सदैव मन में लगी रहती है। कई बार तो वे भोग और परिश्रम में
इतने निमग्न हो जाते हैं कि अपना स्वास्थ्य तक गँवा देते है।

यारबाजी, गप-शप, खेल-तमाशे, नृत्य-गान, भोग-विलास, शान-शौकत, रौब-दौब, ऐश-आराम, शाबाशी,


वाहवाही, बड़प्पन, और धन दौलत में रजोगुणी लोगों का मन खूब लगता है। सत्य और शिव की ओर उनका
ध्यान नहीं जाता पर ‘सुन्दरम्’ को देखते ही लट्टू हो जाते हैं। ऐसे लोग बहिर्मुखी होते हैं, बाहर की बातें तो
बहुत सोचते हैं पर अपनी आंतरिक दुर्बलता पर विचार नहीं करते, अपनी बहुमूल्य योग्यताओं परिस्थितियों
और शक्तियों को अनावश्यक रूप से हल्की छिछोरी और बेकार की बातों में बर्बाद करते रहते हैं।

सतोगुण की वृद्धि जब किसी मनुष्य में होती है तो उसकी अन्तरात्मा में धर्म, कर्त्तव्य, और आत्म कल्याण
की इच्छा उत्पन्न होती है। न्याय और अन्याय का, सत् और असत् का , कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य का, ग्राह्य
और त्याज्य का भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है। तत्व ज्ञान, धर्म विवेक, दूरदर्शिता, सरलता,
नम्रता और सज्जनता से उसकी दृष्टि भरी रहती है। दूसरों के साथ करुणा, दया, मैत्री, उदारता, स्नेह,
आत्मीयता और सद्भावना का व्यवहार करता है। कु च काँवन की तुच्छता को समझ कर वह तप, साधना,
स्वाध्याय, सत्संग, सेवा, दान, और प्रभु शरणागति की ओर अग्रसर होता है।

सात्विकता की अभिवृद्धि होने से आत्मा में असाधारण शान्ति, सन्तोष, प्रसन्नता, प्रफु ल्लता एवं आनन्द
रहता है। उसका प्रत्येक विचार और कार्य पुण्यमय होता हैं। जिससे निकटवर्ती लोगों को भी ज्ञात और
अज्ञात रूप से बड़ी शान्ति एवं प्रेरणा प्राप्त होती है।

तमोगुण सबसे निष्कृ ष्ट अवस्था है। रजोगुण उससे कु छ ऊँ ची तो है पर मनुष्यता से नीची है। मनुष्य का
वास्तविकता परिधान सतोगुण है। मनुष्यता का निवास सात्विकता में है। आत्मा को तब तक शान्ति नहीं
मिलती जब तक कि उसे सात्विकता की परिस्थिति प्राप्त न हो। जो मनुष्य जितना सतोगुणी है वह
परमात्मा के उतना ही समीप है। इस दैवी तत्व को प्राप्त करके जीव धन्य होता है क्योंकिक्यों जीवन लक्ष
की प्राप्ति का एक मात्र साधन सतोगुण ही है। प्रत्येक आत्म कल्याण के प्रेमी को अपने में सात्विकता की
अभिवृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्न शील रहना चाहिए।

सांख्य का दर्शन
इस अध्याय में भगवान कृ ष्ण निर्देश देते हैं कि सांख्य विज्ञान द्वारा मन की घबराहट को कै से दूर किया
जा सकता है। इसमें भगवान फिर से उद्धव को भौतिक प्रकृ ति के विश्लेषण के बारे में निर्देश देते हैं। इस
ज्ञान को आत्मसात करके आत्मा मिथ्या द्वंद्वों पर आधारित अपने भ्रम को दूर कर सकती है।

सृष्टि के आरम्भ में द्रष्टा और दृश्य एक और अप्रभेद्य हैं। यह सर्वोच्च परम सत्य, एक बिना दूसरा और
शब्दों और मन के लिए अप्राप्य, फिर दो में विभाजित हो जाता है - द्रष्टा, जिसका अर्थ है चेतना या
व्यक्तित्व, और दृश्य, जिसका अर्थ है पदार्थ या प्रकृ ति। भौतिक प्रकृ ति, जिसमें पदार्थ के तीन गुण शामिल
हैं, नियंत्रित पुरुष कारक द्वारा उत्तेजित होती है। तब महत -तत्व चेतना और गतिविधि की ऊर्जाओं के
साथ प्रकट हो जाता है। इनसे मिथ्या अहंकार का सिद्धांत इसके तीन पहलुओं - अच्छाई, जुनून और अज्ञान
में आता है। अज्ञानता की स्थिति में मिथ्या अहंकार से इंद्रिय बोध के पंद्रह सूक्ष्म रूप उत्पन्न होते हैं,
जिसके बाद पंद्रह भौतिक तत्व आते हैं। रजोगुण में मिथ्या अहंकार से दस इंद्रियाँ आती हैं, और सतोगुण में
मिथ्या अहंकार से मन और ग्यारह देवता आते हैं जो इंद्रियों पर शासन करते हैं। इन सभी तत्वों के
एकत्रीकरण से सार्वभौमिक अंडा विकसित होता है, जिसके बीच में ब्रह्मांड के निर्माता भगवान के रूप में
भगवान निवास करने वाले परमात्मा की भूमिका में निवास करते हैं। इस परम सृष्टिकर्ता की नाभि से एक
कमल निकलता है, जिस पर ब्रह्मा का जन्म होता है। भगवान ब्रह्मा, रजोगुण से युक्त होकर, भगवान की
कृ पा से तपस्या करते हैं, और इन तपस्याओं के बल पर वे ब्रह्मांड के सभी ग्रहों का निर्माण करने में सक्षम
हैं। स्वर्ग का क्षेत्र देवताओं के लिए है, आंतरिक क्षेत्र भूतों की आत्माओं के लिए है और पृथ्वी का क्षेत्र
मनुष्यों और अन्य लोगों के लिए है। इन तीन ग्रह प्रणालियों के ऊपर के क्षेत्र में उन्नत ऋषियों के स्थान
हैं, और निचले लोक में राक्षसों, नाग नागों आदि के स्थान हैं। भौतिक प्रकृ ति के तीन गुणों पर आधारित
गतिविधियों द्वारा प्राप्त किए गए लक्ष्य तीन नश्वर संसारों के भीतर हैं। योग, कठोर तपस्या और त्यागमय
जीवन की मंजिलें महार, जन, तप और सत्य नामक लोक हैं। दूसरी ओर, सर्वोच्च भगवान की भक्ति सेवा
का लक्ष्य, उनके निवास, वैकुं ठ में भगवान के चरण कमल हैं। भौतिक क्रिया और प्रतिक्रिया का यह ब्रह्मांड
समय और भौतिक प्रकृ ति के तीन गुणों के नियंत्रण में बना है। इसके अलावा, इस ब्रह्मांड में जो कु छ भी
मौजूद है वह के वल भौतिक प्रकृ ति और उसके भगवान के संयोजन का उत्पाद है। जिस प्रकार सृष्टि एक
और अत्यंत सूक्ष्म से अनेक और अत्यंत स्थूल की ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, उसी प्रकार विनाश की
प्रक्रिया प्रकृ ति के स्थूलतम से सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति की ओर बढ़ती है, के वल शाश्वत आध्यात्मिक तत्व को
छोड़कर। यह परम आत्मा अपने भीतर ही स्थित रहता है, अके ला और बिना अंत के । जो व्यक्ति इन
विचारों का चिंतन करता है उसका मन भौतिक द्वंद्वों से भ्रमित नहीं होता। सृष्टि और प्रलय के क्रमानुसार
वर्णित यह सांख्य विज्ञान सभी संदेहों और बंधनों को काटने का काम करता है।

पाठ 1:

भगवान श्रीकृ ष्ण ने कहा: अब मैं तुम्हें सांख्य विज्ञान का वर्णन करूं गा, जिसे प्राचीन विद्वानों ने पूरी तरह
से स्थापित किया है। इस विज्ञान को समझकर व्यक्ति भौतिक द्वैत के भ्रम को तुरंत त्याग सकता है।

पाठ 2:

मूल रूप से, कृ त-युग के दौरान, जब सभी लोग आध्यात्मिक भेदभाव में बहुत विशेषज्ञ थे, और उससे भी
पहले, विनाश की अवधि के दौरान, द्रष्टा अके ले अस्तित्व में था, देखी गई वस्तु से अलग नहीं।

पाठ 3:

उस एक परम सत्य ने, भौतिक द्वंद्वों से मुक्त और सामान्य वाणी और मन के लिए दुर्गम रहते हुए,
खुद को दो श्रेणियों में विभाजित किया - भौतिक प्रकृ ति और जीव जो उस प्रकृ ति की अभिव्यक्तियों का
आनंद लेने की कोशिश कर रहे हैं।

पाठ 4:

अभिव्यक्ति की इन दो श्रेणियों में से एक भौतिक प्रकृ ति है, जो पदार्थ के सूक्ष्म कारणों और प्रकट उत्पादों
दोनों का प्रतीक है। दूसरा चेतन जीव है, जिसे भोक्ता के रूप में नामित किया गया है।

पाठ 5:

जब भौतिक प्रकृ ति मेरी दृष्टि से उत्तेजित हो गई, तो तीन भौतिक गुण - अच्छाई, जुनून और अज्ञान -
बद्ध आत्माओं की लंबित इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रकट हुए।

पाठ 6:

इन विधाओं से महत्-तत्व सहित आदिम सूत्र उत्पन्न हुआ। महत्-तत्व के परिवर्तन से मिथ्या अहंकार
उत्पन्न हुआ, जो जीवों की घबराहट का कारण है।

पाठ 7:

मिथ्या अहंकार, जो शारीरिक संवेदना, इंद्रियों और मन का कारण है, आत्मा और पदार्थ दोनों को समाहित
करता है और तीन प्रकारों में प्रकट होता है: अच्छाई, जुनून और अज्ञान के गुणों में।

पाठ 8:

अज्ञानता की अवस्था में मिथ्या अहंकार से सूक्ष्म भौतिक धारणाएँ उत्पन्न हुईं, जिनसे स्थूल तत्व उत्पन्न
हुए। रजोगुण वाले मिथ्या अहंकार से इन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं, और सतोगुणी मिथ्या अहंकार से ग्यारह देवताओं
की उत्पत्ति हुई।

पाठ 9:
मेरे द्वारा प्रेरित होकर, ये सभी तत्व एक साथ मिलकर व्यवस्थित तरीके से कार्य करने लगे और एक
साथ मिलकर सार्वभौमिक अंडे को जन्म दिया, जो मेरा उत्कृ ष्ट निवास स्थान है।

पाठ 10:

मैं स्वयं उस अंडे के भीतर प्रकट हुआ, जो कारण जल पर तैर रहा था, और मेरी नाभि से सार्वभौमिक
कमल उत्पन्न हुआ, जो स्वयंभू ब्रह्मा का जन्मस्थान था।

पाठ 11:

ब्रह्माण्ड की आत्मा, भगवान ब्रह्मा ने, रजोगुण से संपन्न होकर, मेरी दया से महान तपस्या की और इस
प्रकार अपने ईष्ट देवताओं के साथ भूर, भुवर और स्वर नामक तीन ग्रह मंडलों का निर्माण किया।

पाठ 12:

स्वर्ग को देवताओं के निवास के रूप में, भुवर्लोक को प्रेत आत्माओं के निवास के रूप में, और पृथ्वी मंडल
को मनुष्यों और अन्य नश्वर प्राणियों के निवास के रूप में स्थापित किया गया था। जो रहस्यवादी मुक्ति
के लिए प्रयास करते हैं उन्हें इन तीन विभागों से परे पदोन्नत किया जाता है।

पाठ 13:

भगवान ब्रह्मा ने राक्षसों और नाग सांपों के लिए पृथ्वी के नीचे का क्षेत्र बनाया। इस प्रकार तीनों लोकों के
गंतव्यों को प्रकृ ति के तीन गुणों के भीतर किए गए विभिन्न प्रकार के कार्यों के अनुरूप प्रतिक्रियाओं के रूप
में व्यवस्थित किया गया।

पाठ 14:

रहस्यमय योग, महान तपस्या और जीवन के त्याग क्रम से, महर्लोक, जनोलोक, तपोलोक और सत्यलोक
के शुद्ध गंतव्य प्राप्त होते हैं। लेकिन भक्तियोग से व्यक्ति मेरे दिव्य धाम को प्राप्त कर लेता है।

पाठ 15:

सकाम कर्म के सभी परिणामों को इस संसार में मेरे द्वारा, समय की शक्ति के रूप में कार्य करने वाले
सर्वोच्च निर्माता द्वारा व्यवस्थित किया गया है। इस प्रकार व्यक्ति कभी-कभी प्रकृ ति के गुणों की इस
शक्तिशाली नदी की सतह की ओर ऊपर उठता है और कभी-कभी फिर से डू ब जाता है।

पाठ 16:

इस संसार में जो भी विशेषताएं दिखाई देती हैं - छोटी या बड़ी, पतली या मोटी - उनमें निश्चित रूप से
भौतिक प्रकृ ति और उसके भोक्ता, आत्मा दोनों शामिल हैं।

पाठ 17:

सोना और मिट्टी मूलतः अवयव के रूप में विद्यमान हैं। सोने से कं गन और बालियां जैसे सुनहरे आभूषण
बनाए जा सकते हैं, और मिट्टी से मिट्टी के बर्तन और तश्तरियां बनाई जा सकती हैं। मूल अवयव सोना और
मिट्टी उनसे बने उत्पादों से पहले मौजूद होते हैं, और जब उत्पाद अंततः नष्ट हो जाते हैं, तो मूल अवयव,
सोना और मिट्टी, बने रहेंगे। इस प्रकार, चूंकि सामग्री शुरुआत और अंत में मौजूद हैं, इसलिए उन्हें मध्य
चरण में भी मौजूद होना चाहिए, एक विशेष उत्पाद का रूप लेना चाहिए जिसे हम सुविधा के लिए एक
विशेष नाम देते हैं, जैसे कं गन, बाली, बर्तन या तश्तरी. इसलिए हम समझ सकते हैं कि चूंकि घटक कारण
किसी उत्पाद के निर्माण से पहले और उत्पाद के नष्ट होने के बाद मौजूद होता है, वही घटक कारण प्रकट
चरण के दौरान मौजूद होना चाहिए, जो उत्पाद को उसकी वास्तविकता के आधार के रूप में समर्थन देता
है।

पाठ 18:

एक भौतिक वस्तु, जो स्वयं एक आवश्यक घटक से बनी होती है, परिवर्तन के माध्यम से एक अन्य
भौतिक वस्तु का निर्माण करती है। इस प्रकार एक निर्मित वस्तु दूसरी निर्मित वस्तु का कारण और
आधार बन जाती है। किसी विशेष वस्तु को इस प्रकार वास्तविक कहा जा सकता है कि उसमें किसी
अन्य वस्तु की मूल प्रकृ ति होती है जो उसकी उत्पत्ति और अंतिम स्थिति का निर्माण करती है।

पाठ 19:

भौतिक ब्रह्मांड को वास्तविक माना जा सकता है, जिसका मूल घटक और अंतिम अवस्था प्रकृ ति
है। भगवान महाविष्णु प्रकृ ति का विश्राम स्थल हैं, जो समय की शक्ति से प्रकट होते हैं। इस प्रकार प्रकृ ति,
सर्वशक्तिमान विष्णु और समय मुझ परम सत्य से भिन्न नहीं हैं।

पाठ 20:

जब तक भगवान प्रकृ ति पर दृष्टि डालते रहते हैं, तब तक भौतिक संसार अस्तित्व में रहता है, और
सार्वभौमिक सृष्टि के महान और विविध प्रवाह को प्रजनन के माध्यम से निरंतर प्रकट करता रहता है।

पाठ 21:

मैं सार्वभौमिक स्वरूप का आधार हूं, जो ग्रह प्रणालियों के बार-बार निर्माण, रखरखाव और विनाश के
माध्यम से अनंत विविधता प्रदर्शित करता है। मूल रूप से अपने भीतर सभी ग्रहों को सुप्त अवस्था में
समाहित करने वाला, मेरा सार्वभौमिक रूप पांच तत्वों के समन्वित संयोजन को व्यवस्थित करके निर्मित
अस्तित्व की किस्मों को प्रकट करता है।

पाठ 22-27:

प्रलय के समय जीव का नश्वर शरीर भोजन में विलीन हो जाता है। अन्न अनाज में मिल जाता है और
अनाज वापस धरती में समा जाता है। पृथ्वी अपनी सूक्ष्म अनुभूति, सुगंध में विलीन हो जाती है। सुगंध
जल में विलीन हो जाती है और जल अपने गुण, स्वाद में विलीन हो जाता है। वह स्वाद अग्नि में विलीन
हो जाता है, जो रूप में विलीन हो जाता है। रूप स्पर्श में विलीन हो जाता है और स्पर्श आकाश में विलीन
हो जाता है। ईथर अंततः ध्वनि की अनुभूति में विलीन हो जाता है। सभी इंद्रियाँ अपने-अपने मूल देवताओं
में विलीन हो जाती हैं, और हे सौम्य उद्धव, वे नियंत्रक मन में विलीन हो जाती हैं, जो स्वयं सत्वगुण में
झूठे अहंकार में विलीन हो जाता है। ध्वनि तमोगुण में मिथ्या अहंकार के साथ एक हो जाती है, और
सर्वशक्तिमान मिथ्या अहंकार, सभी भौतिक तत्वों में से पहला, कु ल प्रकृ ति में विलीन हो जाता है। कु ल
भौतिक प्रकृ ति, तीन मूल विधाओं का प्राथमिक भंडार, विधाओं में विलीन हो जाती है। प्रकृ ति के ये गुण
फिर प्रकृ ति के अव्यक्त रूप में विलीन हो जाते हैं, और वह अव्यक्त रूप समय में विलीन हो जाता
है। समय परम भगवान में विलीन हो जाता है, जो सर्वज्ञ महा-पुरुष, सभी जीवित प्राणियों के मूल उत्प्रेरक
के रूप में मौजूद है। समस्त जीवन का वह मूल मुझ अजन्मे परमात्मा में विलीन हो जाता है, जो अके ला
रहता है, अपने भीतर स्थापित होता है। उन्हीं से सारी सृष्टि और प्रलय प्रकट होती है।

पाठ 28:

जिस प्रकार उगता हुआ सूर्य आकाश के अंधकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार ब्रह्मांड प्रलय का
यह वैज्ञानिक ज्ञान एक गंभीर छात्र के मन से सभी भ्रामक द्वंद्व को दूर कर देता है। यदि किसी
प्रकार उसके हृदय में माया प्रवेश भी कर जाय तो भी वह वहाँ टिक नहीं पाती।

पाठ 29:

इस प्रकार मैं, भौतिक और आध्यात्मिक सभी चीजों का पूर्ण द्रष्टा, सांख्य का यह ज्ञान बोला हूं, जो सृजन
और विनाश के वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा संदेह के भ्रम को नष्ट कर देता है।

तीन गुणों से पार


बाबा हरदेव
माया के तीन गुण माने जाते हैं तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण और ये तीनों ही गुण जीव को बंधन में
डालते हैं। मानो मनुष्य में तीनों गुणों का मिश्रण होता है, परंतु कर्म अनुसार एक गुण आगे बढ़ता है। अब
क्योंकि जीव अनेक प्रकार के हैं इसलिए निम्न लक्ष्णों से युक्त है। कोई बड़ा निष्क्रिम है, कोई बड़ा कर्मठ
है, कोई बड़ा सुखी है तो कोई असहाय। इस प्रकार लक्ष्णों वाले गुण ही प्रकृ ति में जीव की वृद्धावस्था के
कारण हैं। अब जीवों में किस-किस गुण से कौन-कौन सा बंधन होता है, इसका वर्णन इस प्रकार है।
तमोगुण– गीता के अध्याय चौदह के आठवें श्लोक में भगवान श्री कृ ष्ण अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन!
सब जीवों को मोहने वाले ‘तमोगुण’ को अज्ञान से उत्पन्न जान। ये गुण देह अभिमानी जीवन का
ेपरमाद,आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। तमोगुण सतोगुण के बिलकु ल विपरीत कार्य करता है।
अर्थात तमोगुण से मोहित जीव प्रभंत हो उठता है और जो प्रभंत है उसे इस हालत में कभी तत्त्वज्ञान प्राप्त
नहीं हो सकता। उत्थान के स्थान पर उसका पतन ही होता है। मानो तमोगुण परमाद (असत्य) से बांधता
है। तमोगुणी व्यक्ति सदैव निराशा महसूस करता है और भौतिक द्रव्यों के प्रति व्यसनी बन जाता है।
इसलिए ये बंधन मुक्त नहीं है।
रजोगुण- इसी प्रकार पवित्र गीता के अध्याय चौदह के सातवें श्लोक में वर्णित है, हे अर्जुन! कामजनित
रजोगुण को तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न जान, रजोगुण जीव को सकाम कर्म की आसक्ति में बांधता है।
अब रजोगुण का स्वरूप स्त्री और पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाले आकर्षण है। स्त्री पुरुष में राग रखती
है और पुरुष स्त्री में राग रखता है। अतः रजोगुण मोहरूप है और जीवन को इच्छा और कर्म में बांधता है।
रजोगुण की वृद्धि होने पर तृष्णा जाग्रत होती है जिससे रजोगुण इंद्रिय तृप्ति के लिए उन्मत हो उठता है
और फिर इंद्रिय तृप्ति के लिए रजोगुणी मनुष्य समाज अथवा राष्ट्र में सम्मान तथा सुख, परिवार और गृह
आदि विषयों की ख्वाहिश करता है। ये सब रजोगुण के कार्य हैं। इसी कर्मफल की आसक्ति में रजोगुणी
मनुष्य बंध जाता है। अतः आधुनिक सभ्यता में संपूर्ण विश्व ही रजोगुण के वशीभूत हो रहा है।
सतोगुण-प्रकृ त जगत में जब सतोगुण का विकास होता है, तो सतोेगुणी मनुष्य अन्य जीवों से अधिक
बुद्धिमान हो जाता है क्योंकि सतोगुणी प्रकाश वाला है, सतोगुणी मनुष्य लौकिक दुःखों से अधिक प्रभावित
नहीं होता। ऐसे मनुष्य में ये भाव बना रहता है कि वह सुखी है। अब इसके सुख का कारण ये है कि
सतोगुण में पाप कर्मफल का अभाव रहता है। मानो सतोगुण का अर्थ अधिक सुख तथा अधिक ज्ञान है।
अगरचे ये परिणाम दूसरे गुणों से भिन्न है परंतु तीन गुणों का परिणाम एक ही निकाला जाता है। सतोगुण
भी बंधन मुक्त नहीं है क्योंकि सतोगुण में जीव को ये अभिमान हो जाता है कि वो ज्ञानी है, दानी है, श्रेष्ठ
है। अतः इस उपाधि से मनुष्य ऐसा बंधता है। अब ये बात स्पष्ट है कि तीनों गुण वालों को बंधन से
मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए मुक्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाना या
पार चले जाना अनिर्वाय है क्योंकि आत्मा परमात्मा इन तीनों गुणों से ऊपर है। जो आदमी इन तीनों गुणों
से ऊपर उठ जाता है यानी गुणातीत हो जाता है ये न तो तामसी होता है, न राजसी होता है, न ही सत्विक
होता है।

सृष्टि का वैदिक (हिन्दू) सिद्धांत


आधुनिक विज्ञान अभी तक सृष्टि की प्रक्रिया को समझाने में असमर्थ है। बिग बैंग सिद्धांत और स्थिर
अवस्था सिद्धांत में कई खामियां हैं और वे हर किसी को पसंद नहीं आते। वैसे भी, मैं यहाँ सृष्टि के
आधुनिक सिद्धांतों पर चर्चा नहीं करूँ गा। मैं यह बताने जा रहा हूं कि वेद सृष्टि के बारे में क्या कहते
हैं। वेद हिंदू धर्म का पवित्र ग्रंथ हैं , ठीक वैसे ही जैसे ईसाई धर्म के लिए बाइबिल। सृष्टि के कई पहलू हैं
और इस लेख में उनके बारे में बात करना संभव नहीं है, इसलिए मैं सृजन के विभिन्न चरणों के बारे में ही
बात करूं गा। श्रीमद्भागवत के अध्याय 2.5 और 3.10 सृष्टि की प्रक्रिया से संबंधित हैं। ध्यान दें कि 4
मुख्य वेदों के अलावा पुराण , उपनिषद को भी वेदों का हिस्सा माना जाता है । सिद्धांत बताने से पहले, मैं
स्पष्ट कर दूं कि अंग्रेजी भाषा में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त शब्दों के सटीक समकक्ष नहीं हैं। इसलिए, मैं
अन्य अनुवादों में प्रयुक्त शब्दों और भाषा का उपयोग कर रहा हूं, हालांकि सटीक व्याख्या संस्कृ त में मूल
पाठ को पढ़कर या हिंदी जैसी समान भाषाओं में पढ़कर समझी जा सकती है। उन्हें पूरी तरह से समझने के
लिए, कृ पया श्रीमद्भागवत के अध्याय 2.5 और 3.10 को देखें । अब से, मैं श्रीमद्भागवतम् को संदर्भित करने
के लिए एसबी का उपयोग करूं गा , और भगवत गीता के लिए बीजी का उपयोग करूं गा ।
यहाँ सिद्धांत है:
प्रकृ ति के तीन मूल भौतिक गुण (गुण) हैं: अच्छाई की प्रकृ ति ( सत्व ), रजोगुण ( रजः ) और अज्ञान की
विधा ( तमः )। (एसबी 2.5.18) सृष्टि में नौ चरण

होते हैं , एक चरण के अलावा जो स्वाभाविक रूप से इन तीन तरीकों की बातचीत के कारण होता है। इस
लेख में हम अधिकतर इन नौ चरणों पर गौर करेंगे। शाश्वत समय भौतिक प्रकृ ति के तीन गुणों की परस्पर
क्रिया का आदिम स्रोत है। (एसबी 3.10.14, 3.10.11) 1. नौ सृष्टियों में से, पहली महत्-तत्व की रचना है
जो सर्वोच्च भगवान के अवतार का परिणाम है (जिसे करणार्णवसायी विष्णु के रूप में जाना जाता है
)। तब समय प्रकट होता है। और समय के साथ, तीन गुण या गुण प्रकट होते हैं। फिर, समय के साथ,
तीन गुण परस्पर क्रिया करते हैं जिसके परिणामस्वरूप आगे सृजन होता है। (एसबी 2.5.22,
3.10.15)। ध्यान दें कि समय सर्वोच्च ईश्वर द्वारा बनाया गया है। तो उसके लिए, सब कु छ (आरंभ, अंत)
एक ही क्षण में घटित हो रहा है। 2. भौतिक गतिविधियाँ महत-तत्व के उत्तेजित होने के कारण होती
हैं। इस प्रकार, सृष्टि के दूसरे चरण में, मिथ्या-अहंकार ( अहम् ) उत्पन्न होता है जिसमें भौतिक तत्व,
भौतिक ज्ञान और भौतिक गतिविधियाँ उत्पन्न होती हैं। (एसबी 2.5.23, 3.10.15) 3. सृष्टि के तीसरे चरण
में इंद्रिय बोध और तत्वों का निर्माण होता है। यहाँ विवरण हैं:
एक। मिथ्या अहंकार के अंधकार से पांच तत्वों में से पहला अर्थात आकाश ( नभः ) उत्पन्न होता
है। इसका सूक्ष्म रूप ध्वनि का गुण है , ठीक वैसे ही जैसे द्रष्टा दृश्य के साथ संबंध रखता है।
बी। अनन्त काल में आकाश में परिवर्तन (प्रतिक्रिया) के फलस्वरूप स्पर्श गुण वाली वायु उत्पन्न होती है
और पूर्व क्रम से वायु ध्वनि से भी परिपूर्ण होती है । सी। अनन्त काल में वायु में होने वाले परिवर्तनों के
फलस्वरूप अग्नि उत्पन्न होती है, जो स्पर्श और ध्वनि की अनुभूति के साथ आकार लेती है
। डी। कालान्तर में अग्नि में रूपान्तरण के फलस्वरूप रस और स्वाद से युक्त जल उत्पन्न होता है । पहले
की तरह इसमें भी रूप, स्पर्श और ध्वनि है । इ। कालान्तर में जल में हुए परिवर्तनों के कारण गन्ध की
अनुभूति से पृथ्वी (ठोस) उत्पन्न हुई । इस प्रकार, इंद्रिय बोध के गुण पूरी तरह से पृथ्वी पर दर्शाए गए
हैं। तो परिवर्तन निम्नलिखित क्रम में हुआ: ईथर (या आकाश) -> गैस (वायु) -> अग्नि -> तरल ->
ठोस । (एसबी 2.5.25-29, 3.10.15, बीजी 10.8) 4. चौथी रचना ज्ञान और कार्य क्षमता की रचना है
। (एसबी 3.10.16) इसे प्रकृ ति के नियमों के रूप में समझा जा सकता है। 5. 5 वीं रचना सतोगुण की
अंतःक्रिया द्वारा देवताओं को नियंत्रित करने की है, जिसका कु ल योग मन है। (एसबी 3.10.17) 6. छठी
रचना जीव का अज्ञान अंधकार है , जिसके द्वारा गुरु मूर्ख के रूप में कार्य करता है। (एसबी 3.10.17) इस
प्रकार, महत-तत्व के निर्माण के बाद , समय प्रकट हुआ। तब उसमें प्रकृ ति के तीन गुण प्रकट हुए। फिर
मिथ्या अहंकार निर्मित हुआ। फिर तमोगुण के कारण पदार्थ (5 मूल तत्व) की रचना हुई। तब उसका ज्ञान
और भौतिक ज्ञान की विभिन्न गतिविधियाँ काम में आती हैं। दूसरे शब्दों में, पदार्थ को विकसित करने
वाली शक्तियां, भौतिक रचनाओं का ज्ञान और ऐसी भौतिकवादी गतिविधियों का मार्गदर्शन करने वाली बुद्धि
उत्पन्न हुई। मन सत्वगुण के कारण उत्पन्न हुआ। इन्द्रियों की उत्पत्ति रजोगुण के कारण हुई है। जब ये
सभी परमपिता परमात्मा की शक्ति से एकत्रित हुए, तो यह ब्रह्मांड अस्तित्व में आया । उपरोक्त
सभी भगवान की " माया " द्वारा प्राकृ तिक रचनाएँ हैं। तब ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में जाने जाने
वाले एक अर्ध-देवता ( ब्रह्मा ) अस्तित्व में आए, जिनका मस्तिष्क सर्वोच्च भगवान के समान था।

7. सृष्टि का 7 वां चरण अचल संस्थाओं का है , जैसे लताएं, फू ल वाले और बिना फू ल वाले पेड़, पाइप के
पौधे आदि। वे 6 प्रकार के होते हैं। (एसबी 3.10.19)

8. सृष्टि का 8 वां चरण जीवन की निचली प्रजातियों का है , जैसे गाय, बकरी, गधा, खच्चर सियार, बाघ,
पक्षी आदि। वे बुद्धिमान प्रजातियां नहीं हैं। (एसबी 3.10.21-25) 9. सृष्टि का 9 वां चरण मनुष्य

की रचना है । मानव जाति में रजोगुण बहुत प्रमुख है। मनुष्य सदैव कष्टमय जीवन के बीच व्यस्त रहता
है, परंतु वह स्वयं को सभी प्रकार से सुखी समझता है। (एसबी 3.10.26) 10. 10 वीं रचना, जो स्वाभाविक
रूप से तीन तरीकों की बातचीत के कारण होती है, देवताओं की रचना है । वे आठ प्रकार के हैं: (1) देवता,
(2) पितर, (3) असुर, या राक्षस, (4) गंधर्व और अप्सरा, या देवदूत, (5) यक्ष और राक्षस, (6) सिद्ध, करण
और विद्याधर, (7) भूत, प्रेत और पिसाका, और (8) अलौकिक प्राणी, दिव्य गायक, आदि सभी ब्रह्मांड के
निर्माता ब्रह्मा द्वारा बनाए गए हैं। (एसबी 3.10.28-29)
सृष्टि का कोई भी सिद्धांत ब्रह्माण्ड की आयु, आकृ ति और साइज़ का अनुमान लगाए बिना अधूरा
है। वेद कहते हैं कि हमारा ब्रह्मांड लगभग 155.52 ट्रिलियन मानव वर्ष पुराना है, और इसका कु ल जीवन
काल 311.04 ट्रिलियन मानव वर्ष है (जो ब्रह्मा के 100 वर्षों के बराबर है)। श्रीमद्भागवत 5.20.38 में ,
ब्रह्मांड का व्यास 500,000,000 योजन बताया गया है (1 योजन लगभग 9 मील के बराबर है, इसलिए
यह 4.5 ट्रिलियन मील है)। ब्रह्मांड का आकार अंडे के आकार का है (ब्रह्मांड = ब्रह्मा+अंडा)। यह देखना
दिलचस्प हो सकता है कि एक दिन में प्रकाश द्वारा तय की गई दूरी (186,000,000 * 3600 * 24 = ~
16 ट्रिलियन मील) (वैदिक) ब्रह्मांड की परिधि के बराबर है (वृत्त के लिए दीर्घवृत्त का अनुमान, ब्रह्मांड की
परिधि = 4,500,000,000 * 3.1416 = ~14 ट्रिलियन मील)।
सन्दर्भ : मैंने श्रीमद्भागवतम् और भगवत गीता से सन्दर्भ दिये हैं । उनके ऑनलाइन
प्रकृ ति और परे के तीन तरीके
भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की पारलौकिक प्रकृ ति को स्थापित करने के लिए, यह अध्याय तीन गुणों
(अच्छाई, जुनून और अज्ञान) की विभिन्न कार्यात्मक अभिव्यक्तियों का वर्णन करता है, जो मन में उत्पन्न
होती हैं।

मन पर नियंत्रण, इंद्रियों पर नियंत्रण, सहनशीलता इत्यादि अमिश्रित अच्छाई की अभिव्यक्तियाँ हैं। इच्छा,
प्रयास, मिथ्या अभिमान इत्यादि अमिश्रित रजोगुण की अभिव्यक्तियाँ हैं। और क्रोध, लालच और घबराहट
अज्ञान की अमिश्रित अवस्था के कार्यों में से हैं। तीन गुणों के मिश्रण में हम "मैं" और "मेरा" की अवधारणा
पाते हैं, शरीर, मन और शब्दों द्वारा इस मानसिकता के अनुसार व्यवहार, धार्मिकता के सिद्धांतों का पालन,
आर्थिक विकास और इंद्रिय संतुष्टि, और निश्चित खोज भौतिक हित के लिए किसी के व्यावसायिक कर्तव्य
का पालन करना।

जिस व्यक्ति का चरित्र सात्विक होता है, वह लाभ की परवाह किए बिना, भक्ति की भावना से भगवान हरि
की पूजा करता है। दूसरी ओर, जो भगवान की पूजा के फल की लालसा रखता है, वह स्वभाव से भावुक
होता है। और जो हिंसा की इच्छा रखता है वह अज्ञान की अवस्था में है। सत्व, रजोगुण और अज्ञान के ये
गुण अनंत सूक्ष्म जीव में मौजूद हैं, जबकि भगवान का परम व्यक्तित्व भौतिक प्रकृ ति के तीन गुणों से परे
है।

गतिविधि का पदार्थ, स्थान और परिणाम, समय के साथ, कार्रवाई में अंतर्निहित ज्ञान, गतिविधि ही, कर्ता,
उसका विश्वास, उसकी जागरूकता का स्तर, उसकी आध्यात्मिक प्रगति और मृत्यु के बाद उसकी मंजिल,
सभी तीन तरीकों का हिस्सा हैं और भेद और पदानुक्रम के संदर्भ में विभिन्न रूप से प्रकट होते हैं। लेकिन
सर्वोच्च व्यक्तित्व से संबंधित वस्तुएं, उनसे जुड़े स्थान, उन पर आधारित खुशी, उनकी पूजा में लगने वाला
समय, उनसे संबंधित ज्ञान, उन्हें दिया जाने वाला कार्य, कार्य करने वाला जो उनकी शरण में कार्य करता
है, उनकी भक्ति सेवा में विश्वास , आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर प्रगति, और सर्वोच्च भगवान के व्यक्तिगत
निवास की मंजिल सभी भौतिक तरीकों से परे हैं।

भौतिक अस्तित्व के चक्र के भीतर आत्मा के लिए जीवन के कई अलग-अलग गंतव्य और स्थितियाँ हैं। ये
सभी प्रकृ ति के गुणों और सकाम गतिविधियों पर आधारित हैं, जो गुणों द्वारा नियंत्रित होते हैं। के वल
सर्वोच्च भगवान की शुद्ध भक्ति के योग का अभ्यास करके ही व्यक्ति उन तीन गुणों पर विजय प्राप्त कर
सकता है, जो मूल रूप से मन से उत्पन्न होते हैं। मानव शरीर प्राप्त करने के बाद, जिसमें ज्ञान और
अनुभूति विकसित करने की क्षमता होती है, एक बुद्धिमान व्यक्ति को प्रकृ ति के तीन गुणों के साथ संबंध
का त्याग करना चाहिए और फिर भगवान की पूजा करनी चाहिए। सबसे पहले, सतोगुण को बढ़ाकर, व्यक्ति
रजोगुण और अज्ञान को हरा सकता है। तब व्यक्ति अपनी चेतना को उत्कृ ष्टता के मंच तक विकसित
करके भौतिक अच्छाई पर विजय प्राप्त कर सकता है। उस समय वह भौतिक गुणों से पूरी तरह मुक्त हो
जाता है, अपने सूक्ष्म शरीर (भौतिक मन, बुद्धि और मिथ्या अहंकार) को त्याग देता है और भगवान का
सानिध्य प्राप्त करता है। अपने सूक्ष्म आवरण को तोड़कर, जीव सर्वोच्च भगवान के आमने-सामने आने में
सक्षम होता है और इस प्रकार उनकी कृ पा से पूर्ण पूर्णता प्राप्त करता है।

प्रकृ ति के नियम क्या हैं और अनिश्चित समय में हम उनसे कै से ऊपर उठ सकते हैं?

हर दिन दुनिया थोड़ी अजनबी सी लगने लगती है। वैश्विक महामारी के स्वास्थ्य और आर्थिक चिंताओं के
साथ-साथ जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से उत्पन्न नागरिक अशांति के बीच, संयुक्त राज्य अमेरिका में इतनी
तनाव-उत्प्रेरण सामग्री देखी जा रही है कि सबसे शांत व्यक्ति के भी बाल झड़ने
लगे और रक्तचाप बढ़ गया। राष्ट्रपति चुनाव नजदीक होने के साथ, यह संभव
है कि देश का अनियंत्रित सामाजिक माहौल और भी अधिक उथल-पुथल वाला हो
जाए।

वर्तमान समय की अनिश्चितता एक सार्वभौमिक सत्य को उजागर करती है जिससे मानव जाति अनंत काल
से जूझ रही है: कि दुनिया में जो कु छ भी होता है वह हमारे नियंत्रण से बाहर है।
हालांकि इस तरह की सच्चाई की वास्तविकता अक्सर भारी लग सकती है, बाहरी ताकतें हम पर कै से कार्य
करती हैं, इसकी गहराई से समझ हासिल करना और फिर जीवन के उन हिस्सों पर ध्यान कें द्रित करना
जिन्हें हम नियंत्रित कर सकते हैं , हमें कठिन समय के दौरान शांत रहने में सक्षम बना सकते हैं, जिससे
हम सक्षम हो सकते हैं। अराजकता की स्थितियों से ऊपर उठना।
हिंदू पवित्र ग्रंथ भगवद गीता के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति एक आत्मा है (निकटतम अंग्रेजी अनुवाद आत्मा
है) जो हमेशा बदलते भौतिक शरीर में घिरा हुआ है। आत्मा शाश्वत है, लेकिन भौतिक प्रकृ ति अस्थायी
है। शरीर को ढकने वाले कपड़ों की तरह, भौतिक तत्व और सूक्ष्म तत्व - मन, बुद्धि और अहंकार - शुद्ध,
शाश्वत आत्मा को ढकते हैं।
भौतिक ऊर्जा निरंतर परिवर्तन की स्थिति में है, समय के साथ एक रूप से दूसरे रूप में स्थानांतरित होती
है, विभिन्न गुणों को प्रदर्शित करती है। भौतिक प्रकृ ति व्यक्त की जाती है, और इस प्रकार, इन गुणों के
माध्यम से समझी जाती है। गीता इन गुणों को तीन प्राथमिक गुणों में वर्गीकृ त करती है: अच्छाई ( सत्व-
गुण ), जुनून ( रज-गुण ), और अज्ञान ( तम-गुण )।
सतोगुण के विकास से व्यक्ति ज्ञान में उन्नत, बुद्धिमान और भौतिक दुखों से बहुत अधिक प्रभावित नहीं
होता है। रजोगुण से प्रभावित व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन परिश्रम
करेगा। अज्ञानता में व्यक्ति, जिसे अंधकार की अवस्था भी कहा जाता है, प्रेरणाहीन होता है, बुद्धि की हानि
का अनुभव करता है, और पागलपन तक पहुँच सकता है।
जीवन जटिल है, और इसलिए, दुनिया में शायद ही कोई वस्तु या व्यक्ति किसी विशेष विधा को पूरी तरह
से अपनाता है। सभी चीजें आम तौर पर तीन तरीकों के जटिल संयोजन प्रदर्शित करती हैं।
तीन तरीके जीवन के सभी पहलुओं में व्याप्त हैं, चाहे वह व्यक्ति, संगीत, क्रिया, भावना, भोजन, काम,
विश्वास आदि हो। किसी व्यक्ति के जीवन की चेतना और गुणवत्ता उन तरीकों से आकार लेती है जिनके
साथ वे जुड़ना चुनते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में एक पक्ष अच्छाई का, एक पक्ष जुनून का और एक पक्ष अज्ञान
का होता है। किसी विशेष विधा के व्यक्ति या वस्तु के साथ जुड़ने से हमारे अंदर भी वही विधा विकसित
हो जाती है।
जो संगीत हम सुनते हैं, जो किताबें और फिल्में हम खाते हैं, जो खाना हम खाते हैं और जिन लोगों के
साथ हम समय बिताते हैं, वे सभी हमारी चेतना द्वारा अवशोषित होते हैं, हमारी आदतों और वास्तविकता
की धारणाओं को आकार देते हैं।
तीन मोड में से किसी एक में कोई क्रिया उसी मोड में अधिक क्रियाएं उत्पन्न करती है, जो बदले में,
दुनिया को देखने के हमारे तरीके को प्रभावित करती है।
उदाहरण के लिए, हमारे द्वारा खाए जाने वाले विभिन्न तरीकों को लें।
रजोगुण वाला व्यक्ति आम तौर पर खाने को किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के साधन के रूप में देखता
है। इसका मतलब यह हो सकता है कि काम करने और किसी विशेष लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए
अधिकतम समय देने के लिए वह खाना जो सबसे सुविधाजनक हो, या इसका मतलब यह हो सकता है कि
इस मानसिकता के साथ पौष्टिक भोजन करना कि ऐसा भोजन एक निश्चित इच्छा को पूरा करने के लिए
आवश्यक ताकत और स्वास्थ्य प्रदान करेगा - चाहे वह शारीरिक हो सुंदरता, विपरीत लिंग, काम में
पदोन्नति आदि।
किसी भी स्थिति में, एक व्यक्ति इंद्रियों को संतुष्ट करने के प्रयास में आत्म-लीन चेतना के साथ भोजन
कर रहा है। हालाँकि, किसी लक्ष्य को प्राप्त करने से जो संतुष्टि का अनुभव होता है, वह टिमटिमाती
है। लालसा की भावना कभी तृप्त नहीं होती और परिणामस्वरूप, व्यक्ति को और अधिक चाहने के लिए
प्रेरित करती है। सांसारिक सुख की अनियंत्रित इच्छा व्यक्ति को दूसरों के कल्याण से अधिक अपनी
महत्वाकांक्षा को प्राथमिकता देने का कारण बन सकती है। यह मानसिकता लोगों को दूसरों को संपत्ति या
उनके उद्देश्य में बाधा के रूप में देखने का कारण बनती है, जिससे सभी चीजों के बीच मौजूद एकता को
समझने की क्षमता में बाधा आती है।
हालाँकि, सात्विकता वाले लोग लगभग हमेशा स्वस्थ, पौष्टिक भोजन खाते हैं। वे अपना स्वयं का सब्जी
उद्यान भी शुरू कर सकते हैं, इसकी खेती कर सकते हैं और फिर उपज काट सकते हैं। अपनी स्वयं की
फसलें उगाकर, और पौष्टिक भोजन बनाने के लिए ताजी सामग्री का उपयोग करके , एक व्यक्ति न के वल
शरीर को उचित रूप से पोषण देता है, बल्कि इस तरह के भोजन को प्रदान करने के लिए आवश्यक ऊर्जा
की समझ के साथ खाता है, साथ ही इस चमत्कार की सराहना भी करता है कि कै से वह भोजन बनाया
गया था.
इस तरह की समझ खुशी और तृप्ति की भावना पैदा करती है, साथ ही संपूर्ण सृष्टि के भीतर गहरे
आध्यात्मिक संबंध के बारे में जागरूकता बढ़ाती है। यह ज्ञान और आनंद दोनों ही व्यक्ति को सदाचारपूर्ण
जीवन जीने के लिए मजबूर करते हैं।
अंधेरे की स्थिति में रहने वाले लोग आम तौर पर जो खाते हैं उसे तैयार करने में ज्यादा समय या ऊर्जा
नहीं लगाते हैं। उनके लिए भोजन करना सबसे आसान और जीभ को संतुष्ट करने वाला होता है, इस बात
की परवाह किए बिना कि भोजन उनके शरीर और दिमाग पर कै से प्रभाव डालेगा। वे जो खा रहे हैं उसके
लिए उनमें कृ तज्ञता की कोई भावना नहीं है, न ही वे किसी प्रकार के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करते
हैं। अंधेरे में रहने वालों को वास्तविकता का कोई अंतिम सत्य समझ नहीं आता। स्वयं को सहायता से दूर
रखने के कारण उनमें अज्ञानता की पट्टी से मुक्त होने की बुद्धि का अभाव होता है।
जीवन की कठिनाइयाँ तब शुरू होती हैं जब हम किसी भौतिक वस्तु के बारे में सोचते हैं जिसके प्रति हम
आकर्षित होते हैं। ऐसी वस्तु का अत्यधिक चिंतन करने से हमारा मोह बढ़ता है। मजबूत लगाव एक
शक्तिशाली लालसा को जन्म देता है, जो वासना बन जाती है। जब यह वासना अतृप्त हो जाती है तो
निराशा उत्पन्न होती है। निराशा क्रोध में बदल जाती है और यह क्रोध हमें भ्रमित कर देता है। जब हम
भ्रमित हो जाते हैं तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और उचित बुद्धि के बिना भ्रम हावी हो जाता है, जिससे जीवन
के उच्चतम आध्यात्मिक सत्य को समझना असंभव हो जाता है।
इस प्रकार, रजोगुण और अज्ञान हमें एक ऐसे मार्ग पर खींचकर भौतिक संसार से बांध देते हैं जो हमारी
आध्यात्मिक पहचान को भूलने की ओर ले जाता है। वास्तव में, अच्छाई का गुण भी बाध्यकारी हो सकता
है, क्योंकि इसके प्रभाव से उत्पन्न सांसारिक ज्ञान, आनंद और ज्ञान के प्रति लगाव विकसित करना आसान
है।
हालाँकि इसकी अपनी कमियाँ हो सकती हैं, अंततः अच्छाई के माध्यम से ही कोई व्यक्ति भौतिक अस्तित्व
की परेशानियों से ऊपर उठ सकता है। अच्छाई के गुणों द्वारा प्रदान की गई शांति, स्पष्टता और ज्ञान
व्यक्ति को पारलौकिक प्रयासों पर ध्यान कें द्रित करने के लिए इष्टतम स्थिति में रखता है।
जितना अधिक हम प्रकृ ति का दोहन करने का प्रयास करते हैं, उतना ही अधिक प्रकृ ति के गुण हमें अपने
नियंत्रण में खींच लेते हैं। अनावश्यक इंद्रिय विषयों से जुड़ने से परहेज करके और कृ तज्ञता से भरा
अनुशासित जीवन जीने से, एक व्यक्ति अच्छाई की अवस्था तक पहुंच सकता है जिसके माध्यम से वह
निरपेक्षता का पीछा कर सकता है।
लेकिन क्योंकि प्रकृ ति के गुण सक्रिय शक्तियां हैं जो हमें एक निश्चित तरीके से व्यवहार करने और कार्य
करने के लिए मजबूर करते हैं, इसलिए उस अनुशासन का अभ्यास करना बहुत मुश्किल हो सकता है जो
अज्ञानता और जुनून से अच्छाई के गुण तक बढ़ने में सक्षम बनाता है।
हालाँकि, उन्नत आध्यात्मिक चिकित्सकों के साथ जुड़ने का चयन करके , हमारी अपनी आध्यात्मिक चेतना
पुनर्जीवित हो सकती है, जिससे हमें अपने सर्वोत्तम स्वार्थ में कार्य करने की क्षमता मिलती है। जैसे-जैसे
हम उन्नत अभ्यासकर्ताओं के साथ जुड़कर आध्यात्मिक रूप से अधिक सक्रिय हो जाते हैं, हम अच्छाई की
मुद्रा में जीवन जीने के लिए अधिक इच्छु क हो जाएंगे, क्योंकि अच्छाई की मुद्रा ही हमें हमारे आध्यात्मिक
लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगी।
इसलिए आध्यात्मिक संगीत सुनें, दिव्य पुस्तकें पढ़ें, उच्चतर भलाई की सेवा करें, जैसे कि दूसरों की भलाई,
और ऊं चे व्यक्तियों तक पहुंचें। आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ जुड़कर, हम तूफान की आंख की तरह बन सकते
हैं, और हमारे चारों ओर घूम रही अनिश्चितता की अराजकता के बीच भी शांत और शांतिपूर्ण बने रह सकते
हैं।
आध्यात्मिक अभ्यास के माध्यम से, हम प्रकृ ति के तीन गुणों के कारण होने वाली चिंताओं से ऊपर उठ
सकते हैं - न के वल जैसा कि वे आज के सबसे गंभीर संकटों के माध्यम से प्रकट होते हैं - बल्कि हर खुशी
और दुःख के माध्यम से अपने जीवन पर सही मायने में नियंत्रण पा सकते हैं।

प्रकृ ति (ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति) के भिन्न भिन्न मात्रा में कार्य करने से गुण उत्पन्न होते हैं। इन्हें
तीन भागों में विभाजित किया है। यह हैं सत्त्व, रज, तम। सत्त्व में ज्ञान शक्ति अधिक होती है, रज में
क्रिया शक्ति अधिक होती है और तम में ज्ञान शक्ति लगभग लुप्त होती है, क्रिया शक्ति अति अल्प होती
है।
हे अर्जुन, जिसे ब्रह्म कहा गया है वह ब्रह्म ही यह आत्मा (मैं हूँ) है। मैं आत्मा अमृत हूँ अर्थात परम
विशुद्ध ज्ञान हूँ जिसका कभी नाश नहीं होता।

गुणों की चर्चा
शास्त्रों में तीन ही गुणों की चर्चा है, सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण । गुणों के आधार पर जातक के विचार
के साथ-साथ कार्य करने की प्रवृत्ति को समझना होगा आसान । आप सबों के लिए आज से आसान होगा
जब आप जानेंगे राशियों का विभाजन गुणों के आधार पर । चन्द्रमा, सूर्य एवं गुरु की राशियां सतोगुणी
राशियां हैं । मंगल एवं शुक्र की राशियां रजोगुणी राशियां हैं तथा बुध एवं शनि की राशियां तमोगुणी हैं ।
यहां राशियों के विभाजन को ही समझना है ग्रह को याद नहीं रखना है । गुणों का विभाजन ग्रहों में अलग
से समझेंगे । सतोगुणी - 4, 5, 9, 12 रजोगुणी -1, 2, 7, 8 तमोगुणी -3, 6, 10, 11

सृष्टि या ब्रह्माण्ड की रचना भाग 2

💎( 11 ) प्रश्न : – प्रकृ ति के बारे में समझाएँ ।

☀उत्तर : – प्रकृ ति कहते हैं सृष्टि के मूल परमाणुओं को । जैसे किसी वस्तु के मूल अणु को आप Atom
के नाम से जानते हो । लेकिन आगे उसी Atom ( अणु ) के भाग करके आप Electron ( ऋणावेष ) ,
Protion ( धनावेष ) , Neutron ( नाभिकीय कण ) , तक पहुँच जाते हो । और उससे भी आगे इन कणों
को भी तोड़ते हो तो positrons , Neutrinos , Quarks मैं बढ़ते जाते है । इस प्रकार से विभाजन करते –
करते आप जाकर एक निश्चित मूल पर टिक जाओगे । और वह मूल जो परमाणु में जोड़ – जोड़ कर बड़े –
बड़े कण बनते चले गए हैं वे ही प्रकृ ति के परमाणु कहलाते हैं । प्रकृ ति के तो परमाणु होते हैं । सत्य
( Positive + ) रजस् ( Negative – ) तमस् ( Neutral0 ) इन तीनों को सामूहिक रूप में प्रकृ ति कहा
जाता है ।

💎( 12 ) प्रश्नः – क्या प्रकृ ति नाम का कोई एक ही परमाणु नहीं है ?

☀उत्तर : – नहीं , ( सत्व , रज और तम ) तीनों प्रकार के मूल कणों को सामूहिक रूप में प्रकृ ति कहा जाता
है । कोई एक ही कण का नाम प्रकृ ति नहीं है ।

💎( 13 ) प्रश्न : – तो क्या सृष्टि के किसी भी पदार्थ की रचना इन प्रकृ ति के परमाणुओं से ही हुई है ?

☀उत्तर : – जी अवश्य ही ऐसा हुआ है । क्योंकि सृष्टि के हर पदार्थ में तीनों ही गुण ( Positive ,
Negative & Neutral ) पाए जाते हैं ।

💎( 14 ) प्रश्न : – ये स्पष्ट कीजिए कि सृष्टि के हर पदार्थ में तीनों ही गुण होते हैं , क्योंकि जैसे
Electron होता है वो तो के वल Negative ही होता है यानि के रजोगुण से युक्त तो बाकी के दो गुण उसमें
कहाँ से आ सकते हैं ?

☀उत्तर : – नहीं ऐसा नहीं है , उस ऋणावेष यानी Electron में भी तीनों गुण ही हैं । क्योंकि होता ये है कि
पदार्थ में जिस गुण की प्रधानता होती है वही प्रमुख गुण उस पदार्थ का हो जाता है । तो ऐसे ही ऋणावेष
में तीनों गुण सत्व रजस् और तमस तो हैं लेकिन ऋणावेष में रजोगुण की प्रधानता है परंतु सत्वगुण और
तमोगुण गौण रूप में उसमें रहते हैं । ठीक वैसे ही Proton यानी धनावेष में सत्वगुण की प्रधानता अधिक
है परंतु रजोगुण और तमोगुण गौणरूप तीनों ही में हैं । और ऐसे ही तीसरा कण Neutron यानी कि
नाभिकीय कण में तमोगुण अधिक प्रधान रूप में है और सत्व एवं रज गौणरूप में हैं । तो ठीक ऐसे ही
सृष्टि के सारे पदार्थों का निर्माण इन गुणों से हुआ है । पर इन गुणों की मात्रा हर एक पदार्थ में भिन्न –
भिन्न है । इसीलिए सारे पदार्थ एक दूसरे से भिन्न दिखते हैं ।
💎( 15 ) प्रश्न : – तीनों गुणों को और स्पष्ट करें ।

☀उत्तर : – सत्व गुण कहते हैं आकर्षण से युक्त को , तमोगुण निषक्रिय या मोह वाला होता है , रजोगुण

होता है चंचल स्वभाव को । इसे ऐसे समझे : – नाभिकम् ( Neucleus ) में जो नाभिकीय कण
( Neucleus ) है वो मोह रूप है क्योंकि इसमें तमोगुण की प्रधानता है । और इसी कारण से ये अणु के
के न्द्र में निषक्रिय पड़ा रहता है । और जो धनावेष ( Proton ) है वे भी के न्द्र में है पर उसमें सत्वगुण की
प्रधानता होने से वो ऋणावेष ( Electron ) को खींचे रहता है । क्योंकि आकर्षण उसका स्वभाव है । तीसरा
जो ऋणावेष ( ELectron ) है उसमें रजोगुण की प्रधानता होने से संचल स्वभाव है इसीलिए वो अणु के
के न्द्र नाभिकम् की परिक्रमा करता रहता है । दूर – दूर को दौड़ता है ।

💎( 16 ) प्रश्न : – तो क्या सृष्टि के सारे ही पदार्थ तीनों गुणों से ही बने हैं ? तो फिर सबमें विलक्षणता

क्यों है ! सभी एक जैसे क्यों नहीं ?

☀उत्तर : – जी हाँ , सारे ही पदार्थ तीनों गुणों से बने हैं । क्योंकि सब पदार्थों में तीनों गुणों का परिमाण

भिन्न – भिन्न है । जैसे आप उदाहरण के लिए लोहे का एक टु कड़ा ले लें तो उस टु कड़े के हर एक भाग में
जो अणु हैं वो एक से हैं और वो जो अणु हैं उनमें सत्व रज और तम की निश्चित मात्रा एक सी है ।

💎( 17 ) प्रश्न : – पदार्थ की उत्पत्ति ( Creation ) किसको कहते हैं ?

☀उत्तर : – जब एक जैसी सूक्ष्म मूलभूत इकाइयाँ आपस में संयुक्त होती चली जाती हैं तो जो उन इकाईयों

का एक विशाल समूह हमारे समाने आता है उसे ही हम उस पदार्थ का उत्पन्न होना मानते हैं । जैसे ईटों
को जोड़ – जोड़ कर कमरा बनता है , लोहे के अणुओं को जोड़ जोड़ कर लोहा बनता है , सोने के अणुओं
को जोड़ – जोड़कर सोना बनता है आदि । सीधा कहें तो सूक्ष्म परमाणुओं का आपस में विज्ञानपूर्वक संयुक्त
हो जाना ही उस पदार्थ की उत्पत्ति है ।

💎( 18 )प्रश्न : – पदार्थ का नाश ( Destruction ) किसे कहते हैं ?

☀उत्तर : – जब पदार्थ की जो मूलभूत इकाइयाँ थीं वो आपस में एक – दूसरे से दूर हो जाएँ तो जो पदार्थ

हमारी इन्द्रियों से ग्रहीत होता था वो अब नहीं हो रहा उसी को उस पदार्थ का नाश कहते हैं । जैसे मिट्टी
का घड़ा बहुत समय तक घिसता – घिसता वापिस मिट्टी में लीन हो जाता है , कागज को जलाने से उसके
अणुओं का भेदन हो जाता है आदि । सीधा कहें तो वह सूक्ष्म परमाणु जिनसे वो पदार्थ बना है , जब वो
आपस में से दूर हो जाते हैं और अपनी मूल अवस्था में पहुँच जाते हैं उसी को हम पदार्थ का नष्ट होना
कहते है ।

💎( 19 ) प्रश्न : – सृष्टि की उत्पत्ति किसे कहते हैं ?

☀उत्तर : – जब मूल प्रकृ ति के परमाणु आपस में विज्ञान पूर्वक मिलते चले जाते हैं तो अनगिनत पदार्थों की

उत्पत्ति होती चली जाती है । हम इसी को सृष्टि या ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कहते हैं ।
💎( 20 ) प्रश्न : – सृष्टि का नाश या प्रलय किसको कहते हैं ?

☀उत्तर : – जब सारी सृष्टि के परमाणु आपस में एक – दूसरे से दूर होते चले जाते हैं तो सारे पदार्थ का

नाश होता जाता है और ऐसे ही सारी सृष्टि अपने मूल कारण प्रकृ ति में लीन हो जाती है । इसी को हम
सृष्टि या ब्रह्माण्ड का नाश कहते हैं ।

सतोगुण सद्गु ण का अर्थ है कि अच्छे और सरल कर्मों की ओर प्रवृत्त करनेवाला गुण। निस्वार्थ और
अनासक्त भाव से किया जाने वाला कार्य सतोगुण कार्य होता है। सतयुग में अधिकांश इसी प्रवृत्ति के
व्यक्ति थे इसी वजह से उसे सत् युग कहा जाता था। सत्व गुण वाले व्यक्ति उच्च आशय, आध्यात्मिक
शक्ति, निष्ठा औंरऔं आस्था , परोपकार की भावना, उच्च संस्कार,आत्मबल व आत्मज्ञान, धैर्य-संतोष,
सात्विक भोजन-सात्विक दिनचर्या और शांत चित्त आदि सकारात्मक गुणों लैं सत्व गुण , रजस् गुण और
तमस् गुण में अंतर   से परि पूर्ण होते हैं। ऐसे व्यक्ति हमेशा आशावादी , प्रफु ल्लित, संतुष्ट और
आनंदित जीवन व्यतीत करते है। सत्व गुण-लैंप सफे द कांच की चिमनी में रहने से स्पष्ट प्रकाश देता है।–
राधा स्वामी

रजोगुण जब व्यक्ति का सत् गुणों से पतन होता है तो वह द्वितीय श्रेणी यानि रजोगुण में आ जाता है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह सब नाथ नरक के पंथ। रजोगुण व्यक्ति तृष्णा, लालसा, अभिमान, यश की लालसा
तथा आत्म कें द्रित विचार, आत्म कुं ठा और दोषारोपण करने का स्वभाव यह सब व्यक्ति के संस्कारों में
गिरावट लाता है। मन, कर्म, वचन से उसे सामान्य मनुष्य बना देता है। ऐसे व्यक्ति यदि कोई शुभ कार्य
भी करते हैं या परमार्थ (परोपकार )भी करते हैं तो उसके पीछे भी उनकी यश की लालसा या अन्य कोई
अपेक्षा होती है। इस वजह से ऐसे व्यक्ति निराशा और तनाव की स्थिति में रहते हैं। भौ तिक सुखों की
प्राप्ति के लिए क्रियाशील रहते हैं और असंतुष्ट, अशांत, अति उत्सा हित या निराश रहते हैं। रजोगुण-बहुरंगी
कां च की चिमनी है जिससे प्रकाश धीमा और कम हो जाता है।–राधा स्वामी

तमोगुण अंधकार, निराशा, अकर्मण्यता, अज्ञानता, उदासीनता आदि नकारात्म भाव तमोगुण को दर्शाते हैं।
कलयुग में तमोगुण प्रधान व्यक्तियों की संख्या अधिक है। ऐसे व्यक्ति जो लोभी ,क्रोधी, निर्लज्ज ,आलसी,
अपराधिक मनोवृति, अहंकारी, कुं ठित मानसिकता वाले,जीव हत्या करने वाले, मांसाहारी और कु कर्मी होते हैं,
उन्हें तामसिक प्रवृत्ति का व्यक्ति कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति प्रमाद, निंद्रा और आलस में ही लीन रहते हैं।
तमस गुण वाले व्यक्ति के आचार, विचार और मनोभाव मलीन और निम्न स्तर के होते हैं। ऐसे व्यक्ति
चाह कर भी किसी का भला नहीं कर पाते क्योंकिक्यों इनकी प्रवृत्ति क्रू र होती है। उदाहरण-एक गरीब मां ने
बच्चे को कु एं से निकालने के लिए चंगेज खान से मदद मांगी। जिसकी सेना वहां जंगल से गुजर रही थी।
चंगेज खान सहर्ष तैयार हो गया और बच्चे में भाला गा ड़ कर उसे कु एं से बाहर निकाल दिया पर बच्चा तो
भाले की वजह से मर गया। चंगेज खान को लगा कि वह कितना अच्छा है उसने एक महिला की मदद की
इससे सिद्ध होता है की तामसिक प्रवृत्ति किस हद तक नकारात्मक होती है। तमोगुण मिट्टी का बर्तन है
जिसके अंदर रहने पर लैंप एकदम व्यर्थ हो जाता है।–राधा स्वामी यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृ ताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे-युगे ॥ भगवत गीता के ज्ञान के अनुसार जब-जब धरती पर अधर्म और तमोगुण प्रधान
लोगों का वर्चस्व हो जाएगा तो धरती पर सतयुग और सत् गुणों की पुनः स्थापना की जाएगी

भौतिक प्रकृ ति के तीन गुण


योगी नटराज द्वारा | 31 अक्टू बर, 2020 | ध्यान , योग

एक मौलिक समझ
यह दुनिया कै से चल रही है यह बहुत ही आश्चर्यजनक है। लेकिन अगर हम प्रकृ ति के तीन गुणों को समझ
लें तो कोई भी चीज़ रहस्य नहीं रह जाती। ये तीन तरीके भौतिक प्रकृ ति के मूलभूत निर्माण खंड हैं। ये
बिल्डिंग ब्लॉक शरीर, मन, बुद्धि आदि सहित प्रत्येक भौतिक वस्तु के गुणों का निर्माण करते हैं।
भौतिक प्रकृ ति के तीन स्वरूप
इस ब्रह्मांड में किसी भी वस्तु (स्थूल और सूक्ष्म) के लिए आधार सामग्री प्रकृ ति या त्रिगुण के तीन गुण
हैं। यह तीन गुण या गुण हैं जो किसी वस्तु को उसका चरित्र देते हैं। यदि हम तीन गुणों को समझते हैं,
तो हम इस दुनिया में किसी भी वस्तु को उसकी विशेषताओं के आधार पर पहचान सकते हैं, या तो
अच्छाई, जुनून या अज्ञान में।
उदाहरण के लिए, एक
व्यक्ति जो शांत, प्रसन्न
और मिलनसार है, उसे
सतोगुण में कहा जाता है,
जो व्यक्ति अत्यधिक
उत्तेजित है वह रजोगुण में
है, और जो पूरी तरह से नशे
में है वह तमोगुण में है।
तीन गुण हैं सतोगुण या
सत्त्वगुण, रजोगुण या
रजोगुण, और अज्ञान या
तमोगुण।
प्रत्येक भौतिक वस्तु भौतिक
अहंकार और मिश्रित गुणों
का उत्पाद है। विधाएँ
प्रतिस्पर्धा करती रहती हैं, और कभी अच्छाई हावी होती है, कभी जुनून और कभी अज्ञान।
यहां तीन गुणों की विशेषताएं दी गई हैं
सत्त्वगुण या अच्छाई के गुण को हल्का और रोशन करने वाला माना जाता है। यह पवित्रता, शांति,
संतुलन, शांति, स्पष्टता, ज्ञान, उद्देश्य की भावना, सद्भाव, रचनात्मक, रचनात्मक और अच्छे गुणों से भरपूर
गुणवत्ता लाता है।
योग के अभ्यास से हम अपने शरीर और मन में सत्व की गुणवत्ता बढ़ाएंगे। शुद्ध सत्व की शुद्ध अच्छाई
नामक एक अवस्था भी होती है, एक ऐसी अवस्था जिसमें मन पूरी तरह से शुद्ध होता है और सभी विकर्षणों
से मुक्त होता है। इस अवस्था में मन आत्मा और परमात्मा का अनुभव कर सकता है। यह अवस्था योग
की चरम अवस्था है।
सत्त्वगुण या सात्विक गुणों वाला व्यक्ति भी कु छ प्रकार के भोजन, गतिविधियों आदि की ओर आकर्षित
होता है।
भगवद-गीता बताती है कि जो व्यक्ति सतोगुण में है वह ऐसे खाद्य पदार्थ खाता है जो जीवन अवधि को
बढ़ाता है, किसी के अस्तित्व को शुद्ध करता है, और शक्ति, स्वास्थ्य, खुशी और संतुष्टि देता है। ऐसे
भोजन रसदार, वसायुक्त, स्वास्थ्यवर्धक और हृदय को प्रसन्न करने वाले होते हैं।
ऐसे व्यक्ति का मन शुद्ध होता है और वह इस दुनिया को वैसे ही समझ सकता है जैसी वह है। वह सभी
साथी आत्माओं के लाभ पर कें द्रित जीवन जिएगा और सभी का मित्र है। सभी लोग सत्वगुणी ऐसे योगी की
सराहना करते हैं।
रजो गुण या रजोगुण
इसकी विशेषता असीमित इच्छाएं, जुनून, गतिविधि, आत्म-कें द्रितता, बहुत अधिक भौतिक आकर्षण और
लगाव है।
जब रजोगुण में वृद्धि होती है, तो अत्यधिक आसक्ति, सकाम कर्म, तीव्र प्रयास और अनियंत्रित इच्छा एवं
लालसा के लक्षण विकसित होते हैं।
जो भोजन बहुत कड़वे, बहुत खट्टे, नमकीन, गर्म, तीखे, रूखे और जलन वाले होते हैं वे रजोगुणी लोगों को
प्रिय होते हैं। ऐसे खाद्य पदार्थ संकट, दुख और बीमारी का कारण बनते हैं।
तमो गुण या अज्ञान की अवस्था
भारीपन, असंतुलन, अव्यवस्था, अराजकता, चिंता, अशुद्ध, विनाशकारी, भ्रम, हानिकारक, सुस्त या निष्क्रिय,
उदासीनता, जड़ता या सुस्ती, हिंसक, शातिर, अज्ञानी की विशेषता है।
इस विधा के परिणाम पागलपन, आलस्य और नींद हैं, जो आत्मा को बांधते हैं। तमोगुण सत्वगुण के
बिल्कु ल विपरीत है। सतोगुण में, ज्ञान विकसित करके , कोई समझ सकता है कि क्या है, लेकिन तमोगुण
इसके ठीक विपरीत है। तमोगुण के वशीभूत प्रत्येक व्यक्ति पागल हो जाता है, और पागल व्यक्ति यह नहीं
समझ पाता कि क्या है। उन्नति के स्थान पर अवनति हो जाती है। वैदिक साहित्य में तमोगुण की परिभाषा
बताई गई है। वास्तु-यथात्म्य-ज्ञानवरकं विपर्यय-ज्ञान-जनकम् तमः: अज्ञानता के वशीभूत होकर, कोई किसी
चीज़ को उस रूप में नहीं समझ सकता जैसी वह है।
जो व्यक्ति तमोगुणी है, वह इस प्रकार के खाद्य पदार्थों से आकर्षित होता है, खाने से तीन घंटे से अधिक
पहले तैयार किया गया भोजन, बेस्वाद, विघटित और सड़ा हुआ भोजन, और अवशेष और अछू त चीजों से
युक्त भोजन।
तीन रंगों की तुलना में तीन मोड
इन तीन मोडों की तुलना तीन प्राथमिक रंगों से की जाती है जो परिणामी रंग बनाने के लिए मिश्रित होते
हैं। इसलिए, हमें रंगों या गुणों की एक विस्तृत श्रृंखला मिलती है (हम जिस स्थिति में हैं उससे हमारा
दिमाग भी प्रभावित होता है)। ब्रह्माण्ड में हम जो कु छ भी पाते हैं उसका चरित्र तीन गुणों के मिश्रण के
कारण मिश्रित होता है। के वल आत्मा और परमात्मा ही गुणों से अछू ते रहते हैं।
ये गुण हमें कै से प्रभावित करते हैं?
हमारा खान-पान, रहन-सहन, गतिविधियां हमें कु छ खास तरीकों में उलझा देती हैं। उदाहरण के लिए, यदि
हम शराब पीते हैं, तो अज्ञानता का गुण हमें नियंत्रित करता है, और हम खुद पर नियंत्रण खो देते हैं।
यदि हम ध्यान में संलग्न होते हैं और अपने मन को शुद्ध करते हैं, तो सतोगुण हमें नियंत्रित करता है और
हमें अच्छे गुण प्रदान करता है।
हमें इन सभी गुणों के बारे में समझना चाहिए और अच्छाई के गुणों को विकसित करने और अपने जीवन
में शांति और स्पष्टता लाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए।
तरीकों की खेती पर उदाहरण
एक कहावत कहती है, "जल्दी सोना, जल्दी उठना एक आदमी को स्वस्थ, धनवान और बुद्धिमान बनाता
है।" सुबह-सुबह या "ब्रह्म मुहूर्त" को सात्विकता का समय माना जाता है, और रात को अज्ञानता की मुद्रा
के रूप में माना जाता है। तमोगुण निद्रा के लिए अच्छा है, और सतोगुण अध्ययन और ध्यान के लिए
उपयुक्त है। इसलिए यदि हम जल्दी सोते हैं और जल्दी उठते हैं, तो हमें दोनों तरीकों का लाभ मिलता
है। जब हम जल्दी उठने और लगातार ध्यान करने का अभ्यास करते हैं, तो हमारे भीतर सतोगुण के गुण
गहरे हो जाते हैं। जब अच्छाई का गुण हम पर हावी हो जाता है, तो हम अच्छे गुणों को विकसित कर
सकते हैं।
यहां कु छ अच्छे गुण हैं जिन्हें हम अच्छाई की स्थिति में रहकर विकसित कर सकते हैं; निर्भयता; किसी के
अस्तित्व की शुद्धि; आध्यात्मिक ज्ञान की खेती; दान; आत्म - संयम; बलिदान का प्रदर्शन; वेदों का
अध्ययन; तपस्या; सादगी; अहिंसा; सत्यता; क्रोध से मुक्ति; त्याग; शांति; दोष ढूँढ़ने से विमुखता; सभी
जीवित प्राणियों के प्रति दया; लोभ से मुक्ति; नम्रता; नम्रता; स्थिर
निश्चय; जोश; माफी; धैर्य; स्वच्छता; और ईर्ष्या और सम्मान के जुनून से मुक्ति।
हालाँकि, मान लीजिए कि हम देर तक सोना, देर तक जागना जैसी बुरी आदतें विकसित कर लेते हैं। उस
स्थिति में, हमारे भीतर रजोगुण विकसित होता है, और हममें महान लगाव, सकाम गतिविधि, गहन प्रयास
जैसे गुण विकसित होते हैं और अनियंत्रित इच्छा और लालसा विकसित होती है।
बहुत अधिक रजोगुण अज्ञान की ओर ले जाता है। यदि हम अशुद्ध रहते हैं, शराब आदि के आदी हो जाते हैं
तो तमोगुण की वृद्धि होती है, अंधकार, जड़ता, पागलपन और भ्रम प्रकट होते हैं। जितना अधिक हम अपने
आप को एक विशेष विधा में उजागर करते हैं, हम उन गुणों को विकसित करते हैं।
ये विधाएँ प्रतिस्पर्धा करती रहती हैं।
भगवद-गीता में बताया गया है कि कभी-कभी सतोगुण प्रमुख हो जाता है, रजोगुण और अज्ञान को परास्त
कर देता है, कभी-कभी रजोगुण सतोगुण और अज्ञान को परास्त कर देता है। अन्य समय में अज्ञानता
अन्य दो गुणों को परास्त कर देती है।
ये विधाएँ शक्तिशाली शक्तियाँ हैं जो हमारे अस्तित्व के हर पहलू को नियंत्रित करती हैं। इसलिए हमें जल्दी
उठना, सात्विक गुणों वाला भोजन करना जैसी अच्छी आदतें विकसित करनी चाहिए ताकि हमारे भीतर
सात्विक गुणों की प्रधानता हो।
सतोगुण के अच्छे परिणाम: सतोगुण की अभिव्यक्ति का अनुभव तब किया जा सकता है जब शरीर के
सभी द्वार ज्ञान से प्रकाशित होते हैं, यानी, जब हमारी इंद्रियां शांत होती हैं, और मन शांत होता है
मन प्रकृ ति और रंग के गुणों को अपनाता है।
जब मन प्रकृ ति के किसी विशेष गुण को विकसित करता है, तो वह किसी वस्तु को उसके प्राप्त स्वरूप के
अनुसार ही देखता है। उदाहरण के लिए: आइए "क्रोध" का एक उदाहरण लें, जो अपनी डिग्री के आधार पर
जुनून और अज्ञानता की गुणवत्ता का एक गुण है। हम क्रोध के आवेश में उस वस्तु को नष्ट भी कर सकते
हैं, जो हमें प्रिय है और बाद में पछताते हैं। तो क्रोध के उस बिंदु पर प्रत्येक वस्तु का उपयोग के वल गुस्सा
निकालने के लिए किया जाएगा। तो यहाँ क्रोध एक "रंग" या विधा का एक संयोजन है। मन हमेशा विधाओं
के मिश्रण और प्रत्येक विधा के परिणामी रंग मिश्रण में रहता है। हम 50% सत्वगुण में, 30% रजोगुण में,
और 20% तमोगुण में हो सकते हैं, और हम किसी वस्तु को उस मिश्रित गुण के अनुसार अनुभव करेंगे जो
हमने अर्जित किया है। जैसे-जैसे हम योग के अपने अभ्यास को गहरा करते हैं, सतोगुण का प्रतिशत बढ़ता
जाता है। जितना अधिक हम अच्छाई की डिग्री बढ़ाते हैं, उतना ही अधिक मन अधिक पारदर्शी, निर्मल और
शांत होता जाता है। सतोगुण रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाली सभी बाधाओं और बुरे गुणों को
दूर कर देता है।
जब हम सत्वगुण का विकास करते हैं, तो हम शांति, रजोगुण का अनुभव करते हैं। हम बेचैनी और
अज्ञानता का अनुभव करते हैं; हम हताशा का अनुभव करते हैं। इसलिए अच्छाई का गुण विकसित करना
समझदारी है।

कु तः सर्वमिदं जातं कस्मिश्च लयमेफ्यति।


नियंता कश्च सर्वेषां वदस्व पुरूषोत्तम।।

यह जगत किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें जा कर विलीन हो जाता है? इस संसार का नियंता कौन है?
हे पुरुषोत्तम ! यह बताने की कृ पा करें।

महेश्वरः परोऽव्यक्तः चर्तुव्यूह सनातनः।

अननंता प्रमेयश्च नियंता सर्वतोमुखः।।

सनातन अनंत अप्रमेय सर्वशक्तिमान महेश्वर सबके नियंता हैं। तत्व चिंतको ने उन्हें ही अव्यक्त कारण,
नित्य, सत, असत्य रूप, प्रधान तथा प्रकृ ति कहा है। वह (परमात्मा) गंध, वर्ण तथा रस से हीन, शब्द और
स्पर्श से वंचित, अजर, ध्रुव, अविनाशी, नित्य और अपनी आत्मा में अवस्थित रहते हैं।

वही संसार के कारण, महाभूत परब्रह्म, सनातन, सभी भूतों के शरीर, आत्मा में अधिष्ठित, महत्, अनादि,
अनंत, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम थे। आत्मपुरुष के गुण साम्य
की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहीं हो जाती है, तब तक प्राकृ त प्रलय होता है। यह
प्राकृ त प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुतः ब्रह्मा का न
दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त
ईश्वर प्रकृ ति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही
परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है।

वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकु चन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृ ति में अवस्थित
होता है। स्पंदित प्रकृ ति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति,
ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही
प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई।
इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है।

ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न
किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर
के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी
विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस
(जिह्वा) का आधार है।

जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के , गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न
हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह
व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी
ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहीं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है।
यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है?

व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और
मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है,
जिसके बिना हम एक क्षण भी नहीं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि
हमारा जीवन भी व्यर्थ है।
प्रत्येक क्षण प्रकृ ति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है
कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल
होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह
बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का।

इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहीं
है, किसी प्रकार का परिणाम नहीं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है। प्रत्येक पदार्थ
पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का
नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है।

जो कु छ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कु छ एक बार कारण बनता
है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी
अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का
यही संदेश है।

जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और
दुःखी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म
प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव
समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है।

इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले
स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और
दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृ तिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है।

आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव
अपने और प्रकृ ति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं
पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा
के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं।

प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान
करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-
मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक
है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है।

अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के
कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव
डालती हंै, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा
का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है।

अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये
हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य
की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर
सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर
अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी
किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं।

सुषुम्न, हरिके श, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर हंै। इनमें सुषुम्न नामक
किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिके श नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है। विश्वकर्मा नामक किरण
बुध का पोषण करती है। शुक्र का पोषण विश्वश्रवा नामक किरण करती है। संयद्वंसु नामक किरण मंगल
का पोषण करती है। अर्वावसु किरण बृहस्पति को पुष्ट करती है। सप्तम स्वर नामक किरण शनि को पुष्ट
करती है। इस प्रकार सूर्य के प्रभाव को प्राप्त कर के तारे-नक्षत्र वृद्धि को प्राप्त होते हैं और प्राणी जगत को
प्रभावित करते हैं।

 Prayer

प्रकृ ति के तीन गुण | सत्व,रजस,तमस | श्रीमद भगवदगीता | Sattva Rajas Tamas

Sattva Rajas Tamas : प्रकृ ति के तीन गुण से ( सत्त्व , रजस् और तमस् ) सृष्टि की रचना हुई है ।
ये तीनों घटक सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं । इन तीनों के बिना किसी
वास्तविक पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं है। किसी भी पदार्थ में इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के
कारण उस का चरित्र निर्धारित होता है।

यह सत्त्व, रजस् और तमस् गुण व्यक्ति की ऊर्जा के अलावा और कु छ नहीं हैं। यह ऊर्जा निर्धारित करती
हैं कि कोई भी व्यक्ति कै से कार्य करता हे या कै से व्यवहार करता है। ये ऊर्जा सकारात्मक, नकारात्मक और
तटस्थ हो सकती हैं।

प्रकृ ति के तीन गुण जो हिंदू दर्शनशास्त्र में उल्लेखित होते हैं वे हैं सत्व (Sattva), रजस (Rajas), और
तमस (Tamas)। ये गुण प्रकृ ति के विभिन्न आंशिकों में व्याप्त होते हैं और प्राकृ तिक दुनिया के विभिन्न
पहलुओं को प्रभावित करते हैं।

प्रकृ ति के तीन गुण : सत्व, रजस, तमस की परिभाषा | Sattva Rajas Tamas

प्रकृ ति अर्थात् क्या हे ? प्र = विशेष और कृ ति = किया गया। स्वाभाविक की गई चीज़ नहीं। लेकिन विभाव
में जाकर, विशेष रूप से की गई चीज़, वही प्रकृ ति है। भगवान श्रीकृ ष्ण ने गीता में कहा है कि वेद तीन
गुणों से बाहर नहीं हैं, वेद तीन गुणों को ही प्रकाशित करते हैं

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृ तिसम्भवाः ।


निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌॥

भावार्थ : हे अर्जुन! सत्व, रजस, तमस – ये प्रकृ ति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में
बाँधते हैं॥

सत्व, रजस, और तमस तीनों गुण हैं जो हिंदू दर्शन और फिलॉसफी में प्रमुख भौतिक तत्वों को व्यक्त करते
हैं। ये गुण संसार में भावनाओं, मानसिक स्थितियों, और प्रकृ ति के विभिन्न पहलुओं को वर्णित करने के
लिए प्रयोग होते हैं। इन तीनों गुणों का प्रभाव हमारे विचारों, भावनाओं, कर्मों, और जीवन के प्रति हमारे
उत्पन्न होने वाले प्रतिक्रियाओं पर होता है।

सत्व गुण की परिभाषा – sattva :

सत्वगुण का अर्थ “पवित्रता” तथा “ज्ञान” है। सत्व अर्थात अच्छे कर्मों की ओर मोड़ने वाला गुण खा हे |
तीनों गुणों ( सत्त्व , रजस् और तमस् ) में से सर्वश्रेष्ठ गुण सत्त्व गुण हे सात्विक मनुष्य – किसी कर्म
फल अथवा मान सम्मान की अपेक्षा अथवा स्वार्थ के बिना समाज की सेवा करना ।

सत्त्वगुण दैवी तत्त्व के सबसे निकट है । इसलिए सत्त्व प्रधान व्यक्ति के लक्षण हैं – प्रसन्नता, संतुष्टि,
धैर्य, क्षमा करने की क्षमता, अध्यात्म के प्रति झुकाव । एक सात्विक व्यक्ति हमेशा वैश्विक कल्याण के
निमित्त काम करता है। हमेशा मेहनती, सतर्क होता है । एक पवित्र जीवनयापन करता है। सच बोलता है
और साहसी होता है।

जिस व्यक्ति में सात्विक गुण की मात्रा अधिक होती हे ऐसे सात्विक गुण या सत्त्वगुण वाले व्यक्ति बहुत
ही दयालु, पवित्र, खुश, ज्ञानी, बुद्धिमान और सकारात्मक होते हैं। वे निष्पक्ष होते है। ऐसे व्यक्ति सही या
गलत के बारे में बहुत विचारशील होते हैं। सत्व गुण वाले व्यक्ति श्रेष्ठ होते हे

सत्व (Sattva): सत्व गुण गुणों का प्रधान और पुरुषार्थशील गुण है। यह गुण प्रकृ ति के शुद्ध, शांत, सत्य,
ज्ञान, ध्यान, संतुलन, उपासना, प्रेम, दया, स्वस्थ मनस्थिति और सत्यपरायणता को प्रभावित करता है। जब
सत्व गुण प्रामाणिक होता है, तो मन, बुद्धि और आहार सुगमता से शुद्ध होते हैं और अध्यात्मिक उन्नति
होती है।

रजस् गुण की परिभाषा – Rajas :

रजस् का अर्थ क्रिया तथा इच्छाएं है। राजसिक मनुष्य – स्वयं के लाभ तथा कार्यसिद्धि हेतु जीना । जो गति
पदार्थ के निर्जीव और सजीव दोनों ही रूपों में देखने को मिलती वह रजस् के कारण देखने को मिलती है।
निर्जीव पदार्थों में गति और गतिविधि, विकास और ह्रास रजस् का परिणाम हैं वहीं जीवित पदार्थों में
क्रियात्मकता, गति की निरंतरता और पीड़ा रजस के परिणाम हैं।

हम में से अधिकांश लोग रजस् यानि की रजोगुणी जीवन जीते हैं, व्यक्ति के व्यवहार और आचरण को
देखकर यह बताया जा सकता है की उनमे कौनसा गुण अधिक हे | तमस जीवन से ऊपर की अवस्था का
नाम है रजस | तीनों गुणों में से मध्यम गुण है रजस | राजसिक जीवन उस व्यक्ति की भांति होता है
जिसके जीवन में सुख दुःख का संघर्ष अनवरत जारी रहते हे

रजस गुण वाले व्यक्ति को यह अहसास कई बार होता है की जीवन में अज्ञानता हे अँधेरा छाया हुआ है
और वह यह भी जानता हे की उसे जीवन में तब तक आनंद नहीं मिल सकता जब तक वह इस अवस्था से
बाहर न आ जाए | रजोगुण के प्रवृत्त होने पर मनुष्य में भोगो के प्रति आसक्ति बढती है । जिससे वह
अधिक से अधिक भोगों को प्राप्त कर लेना चाहता है
रजस (Rajas): रजस गुण गतिशीलता, अभिलाषा, प्रवृत्ति, अधिकारशीलता, आवेश, उत्साह, आक्रामकता,
क्रोध, आहार और निद्रा को प्रभावित करता है। यह गुण कार्यक्षमता, उत्पादन शक्ति, उत्साह, प्रतियोगिता,
लोभ, कामना और संग्राम को बढ़ाता है।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍


गसमुद्भवम्‌।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌॥

भावार्थ : हे अर्जुन! रागरूप रजस गुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को
कर्मों और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है ॥

ध्यात्मिक ग्रन्थों जैसे की वेद पुराण भगवद गीता के अभ्यास से रजस गुण वाले व्यक्ति के लिए सत्व गुण
में प्रवेश करना आसान हे तमस गुण वाले व्यक्ति की तुलना में

तमस् गुण की परिभाषा – Tamas :

तमस् का अर्थ अज्ञानता तथा निष्क्रियता है। तामसिक मनुष्य – दूसरों को अथवा समाज को हानि पहुंचाकर
स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करना | तम प्रधान व्यक्ति, आलसी, लोभी, सांसारिक इच्छाओं से आसक्त रहता है ।

तमस् गुण के प्रधान होने पर व्यक्ति को सत्य-असत्य का कु छ पता नहीं चलता, यानि वो अज्ञान के
अंधकार (तम) में रहता है। यानि कौन सी बात उसके लिए अच्छी है वा कौन सी बुरी ये यथार्थ पता नहीं
चलता और इस स्वभाव के व्यक्ति को ये जानने की जिज्ञासा भी नहीं होती।

मस (Tamas) गुण प्रकृ ति का तामसिक गुण है। यह गुण अज्ञान, अनचेतनता, अन्धकार, निद्रा, अलसता,
मोह, अज्ञानता और निर्बुद्धि को प्रभावित करता है। तमस गुण के प्रभाव में होने पर मनुष्य उदासीनता,
आलस्य, तमस्ता, और जड़ता की स्थिति में रहता है।

तमस गुण व्यक्ति को ज्ञान की अभाव, ध्यान की कमी, और आत्मिक विकास की अवस्था में बाधाएं डालता
है। यह गुण तामसिक आहार, मनोरंजन, अशिक्षा, अध्यात्मिक अनदेखी, और अधिक निद्रा को बढ़ा सकता
है।

तीन गुणों की भक्ति में, भूल पड़ो संसार ।


कहे कबीर निज नाम बिना, कै से उतरे पार।।

अर्थात : प्राणी, इन तीन गुणों रजोगुण – ब्रह्माजी, सतोगुण – विष्णुजी, तमोगुण – शिवजी को ही सर्वश्रेष्ठ
मानकर इनकी भक्ति करके दुखी हो रहे है । ब्रह्म (काल) तथा प्रकृ ति (दुर्गा) से उत्पन्न हुऐ है तथा यह
तीनों नाशवान है

तमस गुण के प्रभाव से बचने के लिए, मनुष्य को सत्व और रजस गुण को विकसित करने की प्रयास
करनी चाहिए। योग, मेधावी आहार, ध्यान, सेवा, सत्संग, और आध्यात्मिक साधनाओं का अभ्यास तमस
गुण से परे उठने में मदद कर सकता है
1. रजस गुण के लक्षण क्या हे ?

जीवन में सब कु छ पाने की महत्वकांक्षा रखना और दुखों को छु पाने के लिए मनोरंजन के साधन
ढूंढना रजस गुण के लक्षण है! रजोगुण के प्रवृत्त होने पर मनुष्य में भोगो के प्रति आसक्ति
बढती है । जिससे वह अधिक से अधिक भोगों को प्राप्त कर लेना चाहता है

2. सत्व गुण के लक्षण क्या हे ?

सत्त्वगुण वाले व्यक्ति बहुत ही दयालु, पवित्र, खुश, ज्ञानी, बुद्धिमान और सकारात्मक होते हैं। वे
निष्पक्ष होते है। ऐसे व्यक्ति सही या गलत के बारे में विचारशील होते हैं।

3. तमस् गुण के लक्षण क्या हे ?

तमस् गुण व्यक्ति को सत्य-असत्य का कु छ पता नहीं चलता यानि वह अज्ञान के अंधकार (तम)
में रहता है | तमस् गुण वाला व्यक्ति, आलसी, लोभी, सांसारिक इच्छाओं से आसक्त रहता है ।

4. प्रकृ ति के तीन गुण कौन से हैं

प्रकृ ति के तीन गुण हैं – रजोगुण (रजस) , सतोगुण (सत्व) और तमोगुण (तमस)

अंतिम बात :

दोस्तों कमेंट के माध्यम से यह बताएं कि “प्रकृ ति के तीन गुण : सत्व, रजस, तमस” वाला यह आर्टिकल
आपको कै सा लगा | आप सभी से निवेदन हे की अगर आपको हमारी पोस्ट के माध्यम से सही जानकारी
मिले तो अपने जीवन में आवशयक बदलाव जरूर करे फिर भी अगर कु छ क्षति दिखे तो हमारे लिए छोड़ दे
और हमे कमेंट करके जरूर बताइए ताकि हम आवश्यक बदलाव कर सके |

पंच_तत्व_और_तन्मात्रा_साधना
क्या है पंच तत्व और तन्मात्रा साधना ?क्या है पंच तत्वों के संतुलन के पाँच प्रकार के अभ्यास?
क्या है पंच तत्वों का महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान?-

1-पंच तत्वों के द्वारा इस समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है। मनुष्य का शरीर भी पाँच तत्वों से ही बना
हुआ है।पंचतत्व को ब्रह्मांड में व्याप्त लौकिक एवं अलौकिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण और
परिणति माना गया है। ब्रह्मांड में प्रकृ ति से उत्पन्न सभी वस्तुओं में पंचतत्व की अलग-अलग मात्रा मौजूद
है। अपने उद्भव के बाद सभी वस्तुएँ नश्वरता को प्राप्त होकर इनमें ही विलीन हो जाती है।तुलसीदास जी ने
रामचरितमानस के किष्किं धाकांड में लिखा है ''क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम
सरीरा।''।यह पाँच तत्व है..क्रमश:, क्षिति यानी कि पृथ्वी, जल यानी कि पानी, पावक यानी कि आग, गगन
यानी आकाश और समीर यानी कि हवा।

2-योगविद्या में तत्व साधना का अपना महत्त्व एवं स्थान है। पृथ्वी आदि पाँच तत्वों से ही समस्त संसार
बना हैं। विद्युत आदि जितनी भी शक्तियाँ इस विश्व में मौजूद हैं। वे सभी इन पञ्च तत्वों की ही
अन्तर्हित क्षमता है। आकृ ति-प्रकृ ति की भिन्नता युक्त जितने भी पदार्थ इस संसार में दृष्टिगोचर होते हैं वे
सब इन्हीं तत्वों के योग-संयोग से बने हैं।

न के वल शरीर की, वरन् मन की भी बनावट- तथा स्थिति में इन्हीं पंचतत्वों की भिन्न मात्रा का कारण है।
शारीरिक, मानसिक दुर्बलता एवं रुग्णता में भी प्राय: इन तत्वों की ही न्यूनाधिकता पर्दे के पीछे काम करती
रहती है।

3-हमारे मनीषियों ने इन पंच तत्त्वों को सदा याद रखने के लिए एक आसान तरीका निकाला और कहा कि
यदि मनुष्य 'भगवान' को सदा याद रखे तो इन पांच तत्वों का ध्यान भी बना रहेगा। उन्होंने पंच तत्वों को
किसी को भगवान के रूप में तो किसी को अलइलअह

अर्थात अल्लाह के रूप में याद रखने की शिक्षा दी।भगवान में आए इन अक्षरों का विश्लेषण इस प्रकार
किया गया है- भगवान- भ- भूमि यानि पृथ्वी, ग- गगन यानि आकाश, व- वायु यानि हवा, अ- अग्नि
अर्थात आग और न- नीर यानि जल।इसी प्रकार अलइलअइ (अल्लाह)
अक्षरों का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है- अ- आब यानि पानी, ल- लाब- यानि भूमि, इ- इला-दिव्य
पदार्थ अर्थात वायु, अ- आसमान यानि गगन और ह- हरंक यानि अग्नि। इस पांच तत्वों के संचालन व
समन्वय से हमारे शरीर में स्थित चेतना (प्राणशक्ति) बिजली-सी होती है।
4-इससे उत्पन्न विद्युत मस्तिक में प्रवाहित होकर मस्तिष्क के 2.4 से 3.3 अरब कोषों को सक्रिय और
नियमित करती है। ये कोष अति सूक्ष्म रोम के सदृश्य एवं कं घे के दांतों की तरह पंक्ति में जमे हुए होते
हैं। मस्तिष्क के कोष ...पांच प्रकाश के होते हैं और पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश) का
प्रतिनिधित्व करते हैं। मूलरूप से ये सब मूल तत्व हमारे शरीर में बराबर मात्रा में रहने चाहिए।इन तत्वों का
जब तक शरीर में उचित भाग रहता है तब तक स्वस्थता रहती है। जब कमी आने लगती है तो शरीर
निर्बल, निस्तेज, आलसी, अशक्त तथा रोगी रहने लगता है। स्वास्थ्य को कायम रखने के लिए यह
आवश्यक है कि तत्वों को उचित मात्रा में शरीर में रखने का हम निरंतर प्रयत्न करते रहें और जो कमी
आवे उसे पूरा करते रहें।
5-पृथ्वी तत्व असीम सहनशीलता का द्योतक है और इससे मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण होता है। इसके
त्रुटिपूर्ण होने से लोग स्वार्थी हो जाते हैं। जल तत्व शीतलता प्रदान करता है। इसमें विकार आने से सौम्यता
कम हो जाती है। अग्नि तत्व विचार शक्ति में सहायक बनता है और मस्तिष्क के भेद अंतर को परखने
वाली शक्ति को सरल बनाता है। यदि इसमें त्रुटि आ जाए तो हमारी सोचने की शक्ति का ह्रास होने लगता
है। वायु तत्व मानसिक शक्ति तथा स्मरण शक्ति की क्षमता को पोषण प्रदान करता है। अगर इसमें विकार
आने लगे तो स्मरण शक्ति कम होने लगती है। आकाश तत्व आवश्यक संतुलन बनाए रखता है। इसमें
विकार आने से हमारा शारीरिक संतुलन खोने लगता है।

6-पृथ्वी तत्व का के न्द्र मल द्वार और जननेन्द्रिय के बीच है इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। जल तत्व का
के न्द्र मूत्राशय की सीध में पेडू पर है इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। अग्नि तत्व का निवास नाभि और
मेरुदण्ड के बीच में है इसे मणिपुर चक्र कहते हैं। वायु के न्द्र हृदय प्रदेश के अनाहत चक्र में है। आकाश
तत्व का विशेष स्थान कण्ठ में है, इसे विशुद्ध चक्र कहा जाता है।

कब किस तत्व की प्रबलता है इसकी परख थोड़ा सा साधना अभ्यास होने पर सरलतापूर्वक की जा सकती
है।

7-पृथ्वी तत्व का रंग पीला, जल का नीला/काला, अग्नि का लाल, वायु का हरा/ भूरा और आकाश का श्वेत
/ग्रे है। आँखें बन्द करने पर दिखाई पड़े तब उसके अनुसार तत्व की प्रबलता आँकी जा सकती है। जिह्वा
इन्द्रिय को सधा लेने पर मुँह में स्वाद बदलते रहने की प्रक्रिया को समझकर भी तत्वों की प्रबलता जानी
जा सकती है। पृथ्वी तत्व का स्वाद मीठा, जल का कसैला, अग्नि का तीखा, वायु का खट्टा और आकाश का
खारी होता है। गुण एवं स्वभाव की दृष्टि से यह वर्गीकरण किया जाय तो अग्नि और आकाश सतोगुण वायु
और जल रजोगुण तथा पृथ्वी को तमोगुण कहा जा सकता है।

8-शरीर विश्लेषणकर्त्ताओं रासायनिक पदार्थों की न्यूनाधिकता अथवा अमुक जीवाणुओं की उपस्थिति-


अनुपस्थिति को शारीरिक असन्तुलन का कारण मानते हैं, पर सूक्ष्मदर्शियों, की दृष्टि में तत्वों का-असन्तुलन
ही इन समस्त संभ्रातियों का प्रधान कारण होता है। किस तत्व को शरीर में अथवा मन क्षेत्र में कमी है
उसकी पूर्ति के लिए क्या किया जाय, इसका पता लगाने के लिए तत्व विज्ञानी किसी व्यक्ति में क्या रंग
कम पड़ रहा है, क्या घट रहा है यह ध्यानस्थ होकर देखते हैं और औषधि उपचारकर्ताओं की तरह जो कमी
पड़ी थी, जो विकृ ति बड़ी थी उसे उस तत्व प्रधान आहार- विहार में अथवा अपने में उस तत्व को उभार कर
उसे अनुदान रूप रोगी या अभावग्रस्त को देते हैं। इस तत्व उपचार का लाभ सामान्य औषधि चिकित्सा की
तुलना में कहीं अधिक होता है।

क्या है तन्मात्रा साधना...पंच तन्मात्राओं का पंच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्ध? ;-

08 FACTS;-

1- पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं ।
परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर,
शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है। यदि पंचतत्व के वल स्कू ल ही
होते, उनमें तन्मात्रायें न होतीं तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कु छ आनन्द न आता।

पाँचतत्व पाँच ज्ञानेन्द्रिय पाँचतन्मात्रा

1-1-आकाश कान' 'शब्द'

1-2-वायु त्वचा 'स्पर्श'

1-3-अग्नि नेत्र 'रूप'

1-4-जल जीभ 'रस'

1-5-पृथ्वी नासिका 'गन्ध'

2-आकाश की तन्मात्रा 'शब्द' है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता
वाली इन्द्रिय हैं।

3-वायु की तन्मात्रा 'स्पर्श' का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फै ले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप,
भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
4-अग्नि तत्व की तन्मात्रा 'रूप' है। यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को
आँखें ही देखती हैं।

5-जल तत्व की तन्मात्रा 'रस' है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है, षटरसों का खट्टे,
मीठे , खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है।
6-पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा 'गन्ध' को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है।

7-इन्द्रियों में तन्मात्राओं का अनुभव कराने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टू ट


जाय। जीव को संसार में जीवन-यापन की सुविधा भले ही हो पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा।
संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एकमात्र कारण 'तन्मात्र' शक्ति
है।

8-कल्पना कीजिये कि हम संसार के किसी पदार्थ के रूप में को न देख सकें तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही
रहेगी। स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गंध का अनुभव न हो तो हानिकारक सड़ाँध
और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सके गा। त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु-
सेवन, कोमल शैय्या के सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जायेगा।

क्या है रंगों की सूक्ष्म शक्ति तथा तत्व साधना?-

12 FACTS;-

1-तत्व साधना उच्चस्तरीय साधना विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण विधान है। पंच तत्वों की यह साधना मनुष्य
की शारीरिक और मानसिक कठिनाइयों के समाधान का एक नया मार्ग

खोलती है।रंगों की शोभा सर्वविदित है, पर उनकी सूक्ष्म शक्ति की जानकारी बिरलों को ही होती है।सामान्य
रंग शक्ति भी अपना प्रभाव रखती है, फिर सूक्ष्म रूप से काम करने वाली तत्वों से सम्बन्धित रंग शक्ति
का तो कहना ही क्या।

2-फिल्टरों से युक्त.. नियोनआर्क लेम्प- लेसर किरणों के उपकरण- एक्सरेज की विशिष्ट धाराएँ- क्वान्टा
किरणें इनर्जेटिक्स- क्वान्टम इलेक्ट्रोनिक्स आदि का प्रस्तुतीकरण सूर्य किरणों की विशेष रंग धाराओं का
विश्लेषण करके ही सम्भव हो सका है। अब यह विज्ञान दिन-दिन अधिक महत्त्वपूर्ण स्तर पर उभरता चला
आ रहा है।

3-तत्वों के रंगों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विज्ञानियों की मान्यता यह है कि आकाश तत्व का रंग नीला,
अग्नि का लाल, जल का हरा, वायु का पीला और पृथ्वी का भूरा-मटमैला सफे द है। शरीर में जिस तत्व की
कमी पड़ती है या बढ़ोत्तरी होती है उसका अनुमान अंगों के अथवा मलों के स्वाभाविक रंगों में परिवर्तन
देखकर लगाया जा सकता है।

4-लाल रोशनी का उत्तेजनात्मक प्रभाव असंदिग्ध है। प्रातःकाल और सायंकाल जब सूर्योदय और सूर्यास्त की
लालिमा आकाश में छाई रहती है तब पेड़-पौधा, जलचर और पक्षी आदि अधिक क्रियाशील और बढ़ते
विकसित होते पाये जाते हैं। वनस्पतियों की वृद्धि किस समय किस क्रम से होती है इसका लेखा-जोखा रखने
वालों का निष्कर्ष यही है कि प्रात: सायंकाल के थोड़े से समय में वे जितनी तीव्र गति से बढ़ते हैं उतने
अन्य किसी समय नहीं। मछलियों की उछल-कू द इसी समय सबसे अधिक होती है। पक्षियों का चहचाहाना
जितना दोनों संध्या काल में होता है उतना चौबीस घण्टों में अन्य किसी समय नहीं होता है।
5-इसी प्रकार पीला, हरा, बेंगनी, गुलाबी आदि अन्य रंगों का अपना-अपना प्रभाव होता है।

त्वचा तो नस्ल के हिसाब से काली, पीली, सफे द या लाल रहती है, पर उसके पीछे भी रंगों के उतार-चढ़ाव
झाँकते रहते हैं। साधारण स्थिति में त्वचा का जो रंग था उसमें तत्वों के परिवर्तन के अनुपात से परिवर्तन
आ जाता है। यह हेर-फे र हाथ-पैरों के नाखूनों में, जीभ में, आँख की पुतलियों में अधिक स्पष्टता के साथ
देखा जा सकता है। इसलिए शरीर में होने वाले तत्वों की न्यूनाधिकता को इन्हें देखकर आसानी से समझा
जा सकता है मल-मूत्र में भी यह अन्तर दिखाई पड़ता है। सन्तुलित स्थिति में पेशाब साधारण स्वच्छ जल
की तरह होगा, पर यदि कोई बीमारी होगी तो उसका रंग बदलेगा।

6-डाक्टर मल-मूत्र रक्त आदि का रासायनिक विश्लेषण करके अथवा उनमें पाये जाने वाले विषाणुओं को
देखकर रोग का निर्णय करता है तत्ववेत्ता अपने ढंग से जब तत्व चिकित्सा करते हैं तो यह पता लगाते हैं
कि शरीर के आधार पंच तत्वों में से किसकी कितनी मात्रा घटी-बड़ी है। यह जानने के लिए उन्हें रंगों का
शरीर में जो हेर-फे र हुआ है उसे देखना पड़ता है। तत्ववेत्ता मन: शास्त्रियों को अपनी दिव्यदृष्टि इतनी
विकसित करनी पड़ती है कि मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द विद्यमान तेजोबलय की आभा को देख सकें और
उसमें रंगों की दृष्टि से क्या परिवर्तन हुआ है इसे समझ सकें ।

7-मानवीय विद्युत की ऊर्जा शरीर के हर अंग में रहती है और वह बाह्य जगत से सम्बन्ध मिलाने के लिए
त्वचा के परतों में अधिक सक्रिय रहती है। शरीर का कोई भी अंग स्पर्श किया जाय उसमें तापमान की ही
तरह विद्युत ऊर्जा का अनुभव किया जायेगा। यह ऊर्जा सामान्य बिजली की तरह उतना स्पष्ट झटका नहीं
मारती या मशीनें चलाने के काम नहीं आती फिर भी अपने कार्यों को सामान्य बिजली की अपेक्षा अधिक
अच्छी तरह सम्पन्न करती है।

मस्तिष्क स्पष्टत: एक जीता जागता बिजलीघर है।

8-समस्त काया में बिखरे पड़े अगणित तन्तुओं में संवेदना सम्बन्ध बनाये रहने, उन्हें काम करने की प्रेरणा
देने में मस्तिष्क को भारी मात्रा में बिजली खर्च करनी पड़ती है। उसका उत्पादन भी खोपड़ी के भीतर ही
होता है ! अधिक समीपता के कारण अधिक मात्रा में बिजली उपलब्ध हो सके , इसीलिए प्रकृ ति ने
महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ सिर के साथ जोड़कर रखी हैं। आँख, कान, नाक, जीभ जैसी महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ
गरदन से ऊपर ही हैं। इस शिरो भाग में सबसे अधिक विद्युत मात्रा रहती है इसलिए तत्त्वदर्शी आँखें हर
मनुष्य के सिर के इर्द-गिर्द प्राय डेढ़ फु ट के घेरे में एक तेजोवलय का प्रकाश ..'लाल गोल घेरा' चमकता देख
सकती हैं।

9-देवताओं के चित्रों में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द एक सूर्य जैसा प्रकाश गोलक बिखरा दिखाया जाता है। इस
अलकांर चित्रण में तेजोबलय (Halo)की अधिक मात्रा का आभास मिलता है। अधिक तेजस्वी और मनस्वी
व्यक्तियों में स्पष्टत: यह मात्रा अधिक होती है उसी के सहारे वे

दूसरों को प्रभावित करने में समर्थ होते हैं।तेजोबलय(Halo) में इन्द्र धनुष जैसे अलग-अलग रेखाओं वाले तो
नहीं पर मिश्रित रंग घुले रहते हैं। उनका मिश्रण मन: क्षेत्र में काम करने वाले तत्वों की न्यूनाधिकता के
हिसाब से ही होता है। तत्वों की सघनता के हिसाब से रंगों का आभास इस तेजोबलय (Halo)की परिधि में
पाया जाता है।
10-पृथ्वी सबसे स्थूल और भारी है, इसके बाद क्रमश: जल, अग्नि, वायु और आकाश का नम्बर आता है।
तेजोबलय की स्वाभाविक स्थिति में रंगों की आभा भी इसी क्रम से चलती

है।स्थूल शरीर- स्थूल पंच तत्वों से बना है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व सर्वाविदित हैं।
काय-कलेवर में विद्यमान रक्त, माँस, अस्थि, त्वचा तथा विभिन्न अंग-प्रत्यंग इन्हीं के द्वारा बने हैं। सूक्ष्म
शरीर में तन्मात्राओं के रूप में यह तत्व भी सूक्ष्म हो जाते हैं। आकाश की तन्मात्रा-शब्द, वायु, का स्पर्श
अग्नि का रूप, जल का रस और पृथ्वी, की गन्ध है। सूक्ष्म शरीर की संरचना अग्नि, जल आदि से नहीं
वरन् सूक्ष्म तन्मात्राओं से हुई है, फिर भी उन्हें तत्व तो कह ही सकते हैं।

11-सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों में बहने वाले प्राण प्रवाह में ज्वार भाटे की तरह तत्व तन्मात्राओं उभार आते
रहते हैं लहरों की तरह उनमें से एक आगे बढ़ता है तो दूसरा उसका स्थान ग्रहण कर लेता है। अन्त:क्षेत्र में
कब कौन सा तत्व बढ़ा हुआ है यह पता साधना द्वारा मन: स्थिति लगा सकती है। हर तत्व की अपनी
विशेषता है उसी के अनुरूप व्यक्तित्व में भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। प्रकृ ति और सामर्थ्य में हेर-फे र होता
रहता है। सूक्ष्म शरीर में कब कौन सा तत्व बढ़ा हुआ है और किस तत्व की प्रबलता के समय क्या करना
अधिक फलप्रद होता है ?

12-यदि इस रहस्य को जाना जा सके तो किसी महत्त्वपूर्ण कार्य का आरम्भ उपयुक्त समय पर किया जा
सकता है और सफलता का पक्ष अधिक सरल एवं प्रशस्त बनाया जा सकता है।

व्यक्ति की त्वचा का रंग चेहरे पर उड़ता हुआ तेजोबलय(Halo), उसकी स्वाद सम्बन्धी अनुभूतियाँ रंग
विशेष की पसन्दगी को कु छ परख कर यह जाना जा सकता है कि उसके

शरीर में किस तत्व की न्यूनता एवं किस की अधिकता है।जिस की न्यूनता हो उसे पूरा करने के लिए उस
रंग के वस्त्रों का उपयोग, कमरे की पुताई, खिड़कियों के पर्दे, उसी रंग के काँच में कु छ समय पानी रखकर
पीने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। आहार में अभीष्ट रंग के फल आदि का प्रयोग कराया जाता है। रंगीन
बल्व की रोशनी पीड़ित भाग या समस्त अंग पर डाली जाती है ।

स्वर विज्ञान की प्राण-विधियाँ तथा छायोपासना ;-

05 FACTS;-

1-माण्डु क्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय मानते हैं कि पंचतत्वों का विकास मन से, मन का
प्राण से और प्राण का समाधि ( पराचेतना) से हुआ है।साधक योगी तत्व का पता लगाकर अपने भविष्य का
पता लगा लेते हैं। इससे वे अपनी मनोदशा और क्रियाकलापों को नियंत्रित कर जीवन को बेहतर बना सकते
हैं।योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते
हैं। इस तत्व से आप अपने मनोकायिक (मन और तन) अवस्था का पता लगा सकते हैं। इसके पता लगाने
से आप, योग द्वारा, अपने कार्य, मनोदशा आदि पर नियंत्रण रख सकते हैं। लेकिन ये यौगिक विधि,

ज्योतिष विद्या से भिन्न है। इसकी कई विधियाँ योगी बताते हैं, कु छ चरण इस प्रकार हैं...
2-शिव स्वरोदय ग्रंथ मानता है कि श्वास का ग्रहों, सूर्य और चंद्र की गतियों से संबंध होता है।भगवान शिव
कहते हैं कि हे देवि, स्वरज्ञान से बड़ा कोई भी गुप्त ज्ञान नहीं है।क्योंकि स्वर-ज्ञान के अनुसार कार्य
करनेवाले व्यक्ति सभी वांछित फल अनायास ही मिल जाते हैं।माँ पार्वती को उत्तर देते हुए भगवान शिव ने
कहा- ''इस संसार में प्राण ही सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा सखा है। इस जगत में प्राण से बढ़कर कोई
बन्धु नहीं है। इस शरीर रूपी नगर में प्राण-वायु एक सैनिक की तरह इसकी रक्षा करता है। श्वास के रूप में
शरीर में प्रवेश करते समय इसकी लम्बाई दस अंगुल और बाहर निकलने के समय बारह अंगुल होता है।
चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते
समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है। साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है,
पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है।

3-भगवान शिव बताते हैं कि ''यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं। यदि
प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से
आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है। साँस की लम्बाई
चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि,पाँच अंगुल

कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से
प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं।यदि श्वास की लम्बाई आठ अंगुल कम हो जाय, तो साधक को
आठ सिद्धियों की प्राप्ति होती है, नौ अंगुल कम होने पर नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं ..''

4-''दस अंगुल कम होने पर अपने शरीर को दस विभिन्न आकारों में बदलने की क्षमता आ जाती है और
ग्यारह अंगुल कम होने पर शरीर छाया की तरह हो जाता है, अर्थात् उस व्यक्ति

की छाया नहीं पड़ती है।श्वास की लम्बाई बारह अंगुल कम होने पर साधक अमरत्व प्राप्त कर लेता है,
अर्थात् साधना के दौरान ऐसी स्थिति आती है कि श्वास की गति रुक जाने के बाद भी वह जीवित रह
सकता है, और जब साधक नख-शिख अपने प्राणों को नियंत्रित कर लेता है, तो वह भूख, प्यास और
सांसारिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है।''

5-छायोपासना कर कं ठ प्रदेश पर मन को एकाग्र किया जाता है।फिर उसको साधक अपलक निहारता है और
उस पर त्राटक करता है।इसके बाद शरीर को ज़रा भी न हिलाते हुए आकाश में देखता है - फिर छाया की
अनुकृ ति दिखती है।इसकी कु छ आवृत्तियों के बाद षण्मुखी मुद्रा के अभ्यास करने से चिदाकाश (चित्त का
आकाश) में उत्पन्न होने वाले रंग को देखते हैं। ये जो भी रंग होता है, उस पर नीचे दी गई सारणी के
हिसाब से तत्व का पता चलता है। उदाहरण के लिए अगर यह पीला हो तो पृथ्वी तत्व की प्रधानता मानी
जाती है।

क्या है पंच तत्व?-

04 FACTS;-

1-मानव शरीर पांच तत्वों से बना होता है; मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और शून्य। इन्हें पंच महाभूत या पंच
तत्व भी कहा जाता है। ये सभी तत्व शरीर के सात प्रमुख चक्रों में बंटे हैं। सात चक्र और पांच तत्वों का
संतुलन ही हमारे तन व मन को स्वस्थ रखता है।

2-यदि चेहरे पर धूमिलता छाई हो, आकर्षण क्षमता की कमी हो गयी हो, मोटापा या दुबलापन आ गया
हो,ऑफिस में परिस्थितियां अनुकू ल नहीं रह रही हो,पति या प्रेमी,प्रेमिका या पत्नी से सम्बन्ध ठीक नहीं रह
पा रहे हो तो इसका सीधा अर्थ होता है की अग्नि तत्व न्यून हो गया है.. क्यूंकि समस्त आकर्षण का
आधार है अग्नि तत्व। यदि घर में धन नहीं रुक रहा हो,काम बिगड रहे हो,खून पतला हो गया हो ,गर्भ नहीं
ठहर रहा हो तो ,ये सभी विकृ तियाँ जल तत्व से सम्बंधित होती हैं। इस प्रकार जीवन की सभी स्थिति के
लिए इन तत्वों की विकृ ति ही उत्तरदायी है।

3-भूत अर्थात् जिसकी सत्ता हो या जो विद्यमान रहता हो, उसे भूत कहते हैं।महान् भूतों को

महाभूत कहते हैं ।भूत किसी के कार्य नहीं होते- अर्थात् किसी से उत्पन्न नहीं होते, अपितु

महाभूतों के ये उपादान कारण होते हैं ।किन्तु पंचभूत स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होते,

इसलिए ये नित्य हैं ।महाभूत संसार के सभी चल-अचल वस्तुओं में व्याप्त है, अतः

इन्हें महाभूत कहते हैं ।इस पृथ्वी के समस्त जीवों का शरीर और निजीर्व सभी पदार्थ पंच महाभूतों द्वारा
निमिर्त हैं ।

4-यह हमारी सृष्टि भूतों का समुदाय है । पृथ्वी में गति वायु से तथा अवयवों का मेल एवं संगठन जल से
और उष्णता अग्नि से आई है। पृथ्वी अंतिम तत्त्व है, अर्थात् उससे किसी नये तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती
है ।यह समस्त विश्व पञ्चमहाभूतों की ही खेल है । इन पञ्चमहाभूतों का जो इन्द्रियग्राह्य विषय नहीं है,
वही तन्मात्रा महाभूत है और जो इन्द्रियग्राह्य है वे ही भूत है । आत्मा, आकाश अव्यक्त तत्व है और शेष
व्यक्त तत्त्व है ।

पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति और मानव जीवन पर प्रभाव ;-

11 FACTS;-

1-सृष्टि का प्रारंभिक विकास क्रम यह है कि यह परमाणुओं में प्रारंभ होती है।ईश्वर जगत् का साक्षी है
जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृ ति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है। स्वतंत्र अवस्था में रहने के लिये
परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है तथा परमाणु नित्य हैं। उस एक परम तत्व से सत्व, रज और तम की
उत्पत्ति हुई। यही इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन्स का आधार हैं। इन्हीं से प्रकृ ति का जन्म हुआ।प्रकृ ति का
पुरुष से सम्पर्क होता है तो उससे सवर्प्रथम महत्तत्त्व या महान् की उत्पत्ति होती है- महत् से अहंकार।
प्रकृ ति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन और इंद्रियां तथा पांच तन्मात्रा और पंच महाभूतों का
जन्म हुआ।

2-पृथ्वी, जल, तेज, वायु परमाणुओं के संयोग से बने हैं। सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और
दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है,
तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है।
महत्त्व या स्थूलत्व आ जाने के कारण ही इनको महाभूत कहते हैं।

3-वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब
आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । द्वयणुक की रचना हुई
तथा तीन द्वयणुक के मिलने से त्रसरेणुकी निर्मित हुई ।द्वयणुक तक गुणों में सूक्ष्मता तथा भूत में
अव्यक्त अवस्था रहती है अथार्त स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता है।त्रसरेणु में यह भूत प्रत्यक्ष-योग्यता
अथार्त स्थूल आँखों से दिखाई देने वाला हो जाता है।

4-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृ ति के आठ तत्व हैं। जब हम पृथ्वी
कहते हैं तो सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं है।प्रकृ ति के इन्हीं रूपों में सत्व, रज और तम गुणों की साम्यता रहती
है। प्रकृ ति के प्रत्येक कण में उक्त तीनों गुण होते हैं। यह साम्यवस्था भंग होती है तो महत् बनता है।

5-प्रकृ ति वह अणु है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, किं तु महत् जब टू टता है तो अहंकार का रूप धरता है।
अहंकारों से ज्ञानेंद्रियां, कामेद्रियां और मन बनता है। अहंकारों से ही तन्मात्रा भी बनती है और उनसे ही
पंचमहाभूत का निर्माण होता है।वास्तव में, महत् ही बुद्धि है। महत् में सत्व, रज और तम के संतुलन टू टने
पर बुद्धि निर्मित होती है। महत् का एक अंश प्रत्येक पदार्थ या प्राणी में ‍बुद्धि का कार्य करता है।‍

6-चूँकि प्रकृ ति त्रिगुणात्मिका होती है अतः उससे उत्पन्न हुए महत् तत्व तथा अहंकार भी त्रिगुणात्मक होते
हैं ।बुद्धि से अहंकार के तीन रूप पैदा होते हैं-

6-1-वैकारिक/ सात्विक अहंकार;-

पहला सात्विक अहंकार जिसे वैकारिक भी कहते हैं विज्ञान की भाषा में इसे न्यूट्रॉन कहा जा सकता है। यही
पंच महाभूतों के जन्म का आधार माना जाता है।
6-2-तैजस अहंकार ;-

दूसरा तेजस अहंकार इससे तेज की उत्पत्ति हुई, जिसे वर्तमान भाषा में इलेक्ट्रॉन कह सकते हैं।तैजस
अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है ।
6-3-भूतादि अहंकार;-

तीसरा अहंकार भूतादि है। यह पंच महाभूतों (आकाश, आयु, अग्नि, जल और पृथ्वी) का पदार्थ रूप प्रस्तुत
करता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार इसे प्रोटोन्स कह सकते हैं। इससे रासायनिक तत्वों के अणुओं का भार
न्यूनाधिक होता है। अत: पंचमहाभूतों में पदार्थ तत्व इनके कारण ही माना जाता है।

7-सात्विक अहंकार और तेजस अहंकार के संयोग से मन और पांच इंद्रियां बनती हैं। तेजस और भूतादि
अहंकार के संयोग से तन्मात्रा एवं पंच महाभूत बनते हैं। पूर्ण जड़ जगत प्रकृ ति के इन आठ रूपों में ही
बनता है, किं तु आत्म-तत्व इससे पृथक है। इस आत्म तत्व की उपस्थिति मात्र से ही यह सारा प्रपंच होता
है।
8-यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी
दस ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ
माना

गया है। वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है,
वहां से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस
गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है।

9-महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और
उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृ ति का ब्रह्म
में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृ ति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।

10-महाभूतों के गुण....

गंधत्व, द्रवत्व, उष्णत्व, चलत्व गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि) और वायु के
होते हैं ।आकाश का गुण अप्रतिघात(रुकावट) होता है ।महाभूतों का सत्व, रज और तम से भी घनिष्ठ संबंध
है ।शास्त्रों में उल्लेख मिलता है...

10-1-सत्व गुण की अधिकता वाला आकाश होता है ।

10-2-रजो गुण की अधिकता वाला वायु होता है ।

10-3-सत्व और रजोगुण की अधिकता वाला अग्नि महाभूत होता है ।

10-4-सत्व और तमोगुण की अधिकता वाला जल महाभूत होता है ।

10-5-तमोगुण की प्रधानता वाला पृथ्वी होती है ।

11-उपरोक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि पंचतत्व मानव जीवन को अत्यधिक प्रभावित करते
हैं।उनके बिना मानव तो क्या धरती पर रहने वाले किसी भी जीव के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा
सकती है। इन पांच तत्वों का प्रभाव मानव के कर्म, प्रारब्ध, भाग्य तथा आचरण पर भी पूरा पड़ता है. जल
यदि सुख प्रदान करता है तो संबंधों की ऊष्मा सुख को बढ़ाने का काम करती है और वायु शरीर में प्राण
वायु बनकर घूमती है। आकाश महत्वाकांक्षा जगाता है तो पृथ्वी सहनशीलता व यथार्थ का पाठ सिखाती है।
यदि देह में अग्नि तत्व बढ़ता है तो जल्की मात्रा बढ़ाने से उसे संतुलित किया जा सकता है।यदि वायु दोष
है तो आकाश तत्व को बढ़ाने से यह संतुलित रहेगें।

पंच तत्वों के संतुलन के पाँच प्रकार के अभ्यास ;-

नीचे कु छ ऐसे अभ्यास बताये जाते हैं जिनको करते रहने से शरीर में तत्वों की जो कमी हो जाती है उसकी
पूर्ति होती रह सकती है और मनुष्य अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रहते हुए दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता
है।

1-पृथ्वी तत्व( Earth/Skin);-

04 POINTS;-
1-पृथ्वी का स्वामी ग्रह बुध है।इस तत्व का कारकत्व गंध है।इस तत्व के अधिकार क्षेत्र में हड्डी तथा माँस
आता है।इस तत्व के अन्तर्गत आने वाली धातु वात, पित्त तथा कफ तीनों ही आती हैं।विद्वानों के
मतानुसार पृथ्वी एक विशालकाय चुंबक है।इस चुंबक का दक्षिणी सिरा भौगोलिक उत्तरी ध्रुव में स्थित है।
संभव है इसी कारण दिशा सूचक चुंबक का उत्तरी ध्रुव सदा उत्तर दिशा का ही संके त देता है।पृथ्वी के इसी
चुंबकीय गुण का उपयोग वास्तु शास्त्र में अधिक होता है।इस चुंबक का उपयोग वास्तु में भूमि पर दबाव के
लिए किया जाता है।वास्तु शास्त्र में दक्षिण दिशा में भार बढ़ाने पर अधिक बल दिया जाता है।इसी कारण
दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सोना स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना गया है।

2-पृथ्वी अथवा भूमि के पाँच गुण शब्द, स्पर्श, रुप, स्वाद तथा आकार माने गए हैं।आकार तथा भार के
साथ गंध भी पृथ्वी का विशिष्ट गुण है क्योंकि इसका संबंध नासिका की घ्राण शक्ति से है। पृथ्वी तत्व में
विषों को खींचने की अद्भुत शक्ति है।मिट्टी की टिकिया बाँध कर

फोड़े तथा अन्य अनेक रोग दूर किये जा सकते हैं। पृथ्वी में से एक प्रकार की गैस हर समय निकलती
रहती है। इसको शरीर में आकर्षित करना बहुत लाभदायक है।प्रतिदिन प्रातःकाल

नंगे पैर टहलने से पैर और पृथ्वी का संयोग होता है। उससे पैरों के द्वारा शरीर के विष खिच कर जमीन
में चले जाते हैं और ब्रह्ममुहूर्त में जो अनेक आश्चर्यजनक गुणों से युक्त वायु पृथ्वी में से निकलती है
उसको शरीर सोख लेता है।

3-प्रातःकाल के सिवाय यह लाभ और किसी समय में प्राप्त नहीं हो सकता। अन्य समयों में तो पृथ्वी से
हानिकारक वायु भी निकलती है जिससे बचने के लिए जूता आदि पहनने की

जरूरत होती है।प्रातःकाल नंगे पैर टहलने के लिए कोई स्वच्छ जगह तलाश करनी चाहिए। किसी बगीचे,
पार्क , खेल या अन्य ऐसे ही साफ स्थान में प्रति दिन नंगे पाँवों कम से कम आधा घंटा नित्य टहलना
चाहिए।हरी घास भी वहाँ हो तो और भी अच्छा।घास के ऊपर जमी हुई नमी पैरों को ठंडा करती है। वह
ठं डक मस्तिष्क तक पहुँचती है। साथ ही यह भावना करते चलना चाहिए “पृथ्वी की जीवनी शक्ति को मैं
पैरों द्वारा खींच कर अपने शरीर में भर रहा हूँ और मेरे शरीर के विषों को पृथ्वी खींच कर मुझे निर्मल बना
रही है।” यह भावना जितनी ही बलवती होगी, उतना ही लाभ अधिक होगा।

4-हफ्ते में एक दो बार स्वच्छ भुरभुरी पीली मिट्टी या शुद्ध बालू लेकर उसे पानी से गीली करके शरीर पर
साबुन को तरह मलना चाहिए। कु छ देर तक उस मिट्टी को शरीर पर लगा रहने देना चाहिए और बाद में
स्वच्छ पानी से स्नान करके मिट्टी को पूरी तरह से छु ड़ा देना चाहिए। इस मृतिका स्नान से शरीर के भीतरी
और चमड़े के विष खिंच जाते हैं और त्वचा कोमल एवं चमकदार बन जाती है।
2-जल तत्व( Water-body);-

05 POINTS;-
1-चंद्र तथा शुक्र दोनों को ही जलतत्व ग्रह माना गया है।इसलिए जल तत्व के स्वामी ग्रह चंद्र तथा शुक्र
दोनो ही हैं।इस तत्व का कारकत्व रस को माना गया है।यहाँ रस का अर्थ स्वाद से है। स्वाद या रस का
संबंध हमारी जीभ से है।इन दोनों का अधिकार रुधिर अथवा रक्त पर माना गया है क्योंकि जल तरल होता
है और रक्त भी तरल होता है।कफ धातु इस तत्व के अन्तर्गत आती है।

2-पृथ्वी पर मौजूद सभी प्रकार के जल स्त्रोत जल तत्व के अधीन आते हैं।जल के बिना जीवन संभ्हव नहीं
है।जल तथा जल की तरंगों का उपयोग विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में किया जाता है। हम यह भी भली-भाँति
जानते हैं कि विश्व की सभी सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं।जल के देवता वरुण तथा इन्द्र
को माना गया है। मतान्तर से ब्रह्मा जी को भी जल का देवता माना गया है।मुरझाई हुई चीजें जल के
द्वारा हरी हो जाती हैं। जल में बहुत बड़ी सजीवता है।

3-पौधे में पानी देकर हरा भरा रखा जाता है, इसी प्रकार शरीर को स्नान के द्वारा सजीव रखा जाता है।
मैल साफ करना ही स्नान का उद्देश्य नहीं हैं वरन् जल में मिली हुई विद्युत शक्ति, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन
आदि अमूल्य तत्वों द्वारा शरीर को सींचना भी है। इसलिए ताजे, स्वच्छ, सह्य ताप के जल से स्नान
करना कभी न भूलना चाहिए। वैसे तो सवेरे का स्नान ही सर्वश्रेष्ठ है पर यदि सुविधा न हो तो दोपहर से
पहले स्नान जरूर कर लेना चाहिए। मध्याह्न के बाद का स्नान लाभदायक नहीं होता। हाँ गर्मी के दिनों में
संध्या को भी स्नान किया जा सकता है।

4-प्रातःकाल सोकर उठते ही वरुण देवता की उपासना करने का एक तरीका यह है कि कु ल्ला करने के बाद
स्वच्छ जल का एक गिलास पीया जाए। इसके बाद कु छ देर बिस्तर पर इधर उधर करवटें बदलनी चाहिए।
इसके बाद शौच जाना चाहिए। इस उपासना का वरदान तुरन्त मिलता है। खुल कर शौच होता है और पेट
साफ हो जाता है। यह ‘उषापान’ वरुण देवता की प्रत्यक्ष आराधना है।

5-जब भी आपको पानी पीने की आवश्यकता पड़े, दूध की तरह घूँट घूँट कर पानी पियें। चाहे कै सी ही प्यास
लग रही हो एक दम गटापट न पी जाना चाहिए। हर एक घूँट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए-”इस
अमृत तुल्य जल में जो मधुरता और शक्ति भरी हुई है, उसे मैं खींच रहा हूँ।” इस भावना के साथ पिया
हुआ पानी, दूध के समान गुणकारक होता है। पानी पीने में कं जूसी न करनी चाहिए। भोजन करते समय
अधिक पानी न पियें इसका ध्यान रखते हुए अन्य किसी भी समय की प्यास को जल द्वारा समुचित रीति
से पूरा करना चाहिए। व्रत के दिन तो खास तौर से कई बार काफी मात्रा में पानी पीना चाहिए।

3-अग्नि तत्व(Fire/Temperature );-

04 POINTS;-
1-सूर्य तथा मंगल अग्नि प्रधान ग्रह होने से अग्नि तत्व के स्वामी ग्रह माने गए हैं।अग्नि का कारकत्व रुप
है।इसका अधिकार क्षेत्र जीवन शक्ति है। इस तत्व की धातु पित्त है। हम सभी जानते हैं कि सूर्य की अग्नि
से ही धरती पर जीवन संभव है।यदि सूर्य नहीं होगा तो चारों ओर सिवाय अंधकार के कु छ नहीं होगा और
मानव जीवन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है।सूर्य पर जलने वाली अग्नि सभी ग्रहों को ऊर्जा तथा
प्रकाश देती है।इसी अग्नि के प्रभाव से पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के जीवन के अनुकू ल परिस्थितियाँ बनती
हैं।

2- रुप को अग्नि का गुण माना जाता है। रुप का संबंध नेत्रों से माना गया है। ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत अग्नि
तत्व है।सभी प्रकार की ऊर्जा चाहे वह सौर ऊर्जा हो या आणविक ऊर्जा हो या ऊष्मा ऊर्जा हो सभी का
आधार अग्नि ही है।अग्नि के देवता सूर्य अथवा अग्नि को ही माना गया है।जीवन को बढ़ाने ओर विकसित
करने का काम अग्नि तत्व का है जिसे गर्मी कहते हैं। गर्मी न हो तो कोई वनस्पति एवं जीव विकसित नहीं
हो सकता। गर्मी के के न्द्र सूर्य उपासना और अग्नि उपासना एक ही बात है।

3-स्नान करके गीले शरीर से ही प्रातःकालीन सूर्य के दर्शन करने चाहिए और जल का अर्घ्य देना चाहिए।
पानी में बिजली का बहुत जोर रहता है। बादलों के जल के कारण आकाश में बिजली चमकती है।
इलेक्ट्रिसिटी के तारों में भी वर्षा ऋतु में बड़ी तेजी रहती है। पानी में बिजली की गर्मी को खींचने की विशेष
शक्ति है। इसलिए शरीर को तौलिया से पोंछने के बाद नम शरीर से ही नंगे बदन सूर्य नारायण के सामने
जाकर अर्घ्य देना चाहिए। यदि नदी, तालाब, नहर पास में हो कमर तक जल में खड़े होकर अर्घ्य देना
चाहिए।

4-अर्घ्य लोटे से भी दिया जा सकता है और अंजलि से भी, जैसी सुविधा हो कर लेना चाहिए। सूर्य के दर्शन
के पश्चात् नेत्र बन्द करके उनका ध्यान करना चाहिए और मन ही मन यह भावना दुहरानी चाहिए-”भगवान
सूर्य नारायण का तेज मेरे शरीर में प्रवेश करके नस नस को दीप्तिमान सतेज और प्रफु ल्लित कर रहे हैं
और मेरे अंग प्रत्यंग में स्फू र्ति उत्पन्न हो रही है।” स्नान के बाद इस क्रिया को नित्य करना चाहिए।

4--वायु तत्व(Air/Oxygen ) ;-

07 POINTS;-
1-वायु तत्व के स्वामी ग्रह शनि हैं। इस तत्व का कारकत्व स्पर्श है।इसके अधिकार क्षेत्र में श्वांस क्रिया
आती है।वात इस तत्व की धातु है।यह धरती चारों ओर से वायु से घिरी हुई है। वायु में मानव को जीवित
रखने वाली आक्सीजन गैस मौजूद होती है।जीने और जलने के लिए आक्सीजन बहुत जरुरी है। इसके बिना
मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि हमारे मस्तिष्क तक आक्सीजन पूरी तरह से नहीं
पहुंच पाई तो हमारी बहुत सी कोशिकाएँ नष्ट हो सकती हैं।व्यक्ति अपंग अथवा बुद्धि से जड़ हो सकता है।

2-वायु का गुण हैं ..स्पर्श।स्पर्श का संबंध त्वचा से माना गया है।संवेदनशील नाड़ी तंत्र और मनुष्य की
चेतना श्वांस प्रक्रिया से जुड़ी है और इसका आधार वायु है। वायु के देवता भगवान विष्णु माने गये हैं।उत्तम
वायु का जितना स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है उतना भोजन का नहीं। डॉक्टर लोग क्षय आदि असाध्य रोगियों
को पहाड़ों पर जाने की सलाह देते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि बढ़िया दवाओं की अपेक्षा उत्तम वायु में
अधिक पोषक तत्व मौजूद हैं।

3-शरीर को पोषण करने वाले तत्वों का थोड़ा भाग भोजन से प्राप्त होता है, अधिकाँश भाग की पूर्ति वायु
द्वारा होती है। जो वस्तुएं स्थूल हैं वे सूक्ष्म रूप से वायु मंडल में भी भ्रमण करती रहती हैं। बीमार तथा
योगी बहुत समय तक बिना खाये पिये भी जीवित रहते हैं। उनका स्थूल भोजन बन्द है तो भी वायु द्वारा
बहुत सी खुराकें मिलती रहती हैं। यही कारण है कि वायु द्वारा प्राप्त होने वाले ऑक्सीजन आदि अनेक
प्रकार के भोजन बन्द हो जाने पर मनुष्य की क्षण भर में मृत्यु हो जाती है। बिना वायु के जीवन संभव
नहीं।

4-अनन्त आकाश में से वायु द्वारा प्राणप्रद तत्वों को खींचने के लिए भारत के तत्व दर्शी ऋषियों ने
प्राणायाम की बहुमूल्य प्रणाली का निर्माण किया है। मोटी बुद्धि से देखने में प्राणायाम एक मामूली सी
फे फड़ों की कसरत मालूम पड़ती है किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से इस क्रिया द्वारा अनिर्वचनीय लाभ प्रतीत हुए हैं।
प्राणायाम द्वारा अखिल आकाश में से अत्यन्त बहुमूल्य पोषक पदार्थों को खींचकर शरीर को पुष्ट बनाया
जा सकता है।

5-स्नान करने के उपरान्त किसी एकान्त स्थान में जाइए। समतल भूमि पर आसन बिछा कर पद्मासन से
बैठ जाइए। मेरुदंड बिलकु ल सीधा रहे। नेत्रों को अधखुला रखिए। अब धीरे धीरे नाक द्वारा साँस खींचना
आरम्भ कीजिए और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ भावना कीजिए कि “विश्वव्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं
स्वास्थ्यदायक प्राणतत्व साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं
में प्रवाहित होता हुआ सूर्यचक्र में (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलते हैं) इकट्ठा हो रहा
है। इस भावना को ध्यान द्वारा चित्रवत् मूर्तिमान रूप से देखने का प्रयत्न करना चाहिए।

6-जब फे फड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो तो दस सैकिण्ड तक वायु को भीतर रोके रहो। रोकने के
समय ऐसा ध्यान करना चाहिए कि “प्राणतत्व मेरे अंग प्रत्यंगों में पूरित हो रहा है।” अब वायु को नासिका
द्वारा ही धीरे धीरे बाहर निकालो और निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि “शरीर के सारे दोष, रोग और
विष वायु के साथ साथ निकाल बाहर किये जा रहे हैं।”

7-उपरोक्त प्रकार से आरम्भ में दस प्राणायाम करने चाहिए फिर धीरे धीरे बढ़ाकर सुविधानुसार आधे घंटे
तक कई बार इन प्राणायामों को किया जा सकता है। अभ्यास पूरा करने के उपरान्त आपको ऐसा अनुभव
होगा कि रक्त की गति तीव्र हो गई है और सारे शरीर की नाड़ियों में एक प्रकार की स्फू र्ति, ताजगी और
विद्युत शक्ति दौड़ रही है। इस प्राणायाम को कु छ दिन लगातार करने से अनेक शारीरिक और मानसिक
लाभों का स्वयं अनुभव होगा।

4-आकाश तत्व ( Space/ Thought);-

06 POINTS;-
1-आकाश तत्व का स्वामी ग्रह गुरु है।आकाश एक ऎसा क्षेत्र है जिसका कोई सीमा नहीं है।पृथ्वी के साथ्-
साथ समूचा ब्रह्मांड इस तत्व का कारकत्व शब्द है।इसके अधिकार क्षेत्र में आशा तथा उत्साह आदि आते हैं।
वात तथा कफ इसकी धातु हैं।वास्तु शास्त्र में आकाश शब्द का अर्थ रिक्त स्थान माना गया है।आकाश का
विशेष गुण “शब्द” है और इस शब्द का संबंध हमारे कानों से है।कानों से हम सुनते हैं और आकाश का
स्वामी ग्रह गुरु है इसलिए ज्योतिष शास्त्र में भी श्रवण शक्ति का कारक गुरु को ही माना गया है।

2-शब्द जब हमारे कानों तक पहुंचते है तभी उनका कु छ अर्थ निकलता है।वेद तथा पुराणों में शब्द, अक्षर
तथा नाद को ब्रह्म रुप माना गया है। वास्तव में आकाश में होने वाली गतिविधियों से गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश,
ऊष्मा, चुंबकीय़ क्षेत्र और प्रभाव तरंगों में परिवर्तन होता है।इस परिवर्तन का प्रभाव मानव जीवन पर भी
पड़ता है। इसलिए आकाश कहें या अवकाश कहें या रिक्त स्थान कहें, हमें इसके महत्व को कभी नहीं
भूलना चाहिए।आकाश का देवता भगवान शिवजी को माना गया है।

3-आकाश का अर्थ शून्य या पोल समझा जाता है। पर यह शून्य या पोल खाली स्थान नहीं है। ईथर तत्व
(Ethar) हर जगह व्याप्त है। इस ईथर को ही आकाश कहते हैं। रेडियो /टी.वी. द्वारा ब्रॉडकास्ट किये हुए
शब्द ईथर तत्व में लहरों के रूप में चारों ओर फै ल जाते हैं और उन शब्दों को दूर दूर स्थानों में भी सुना
जाता है। के वल शब्द ही नहीं विचार और विश्वास भी आकाश में (ईथर में) लहरों के रूप में बहते रहते हैं।
जैसी ही हमारी मनोभूमि होती है उसी के अनुरूप विचार इकट्ठे होकर हमारे पास आ जाते हैं। हमारी
मनोभूमि, रुचि, इच्छा जैसी होती हैं उसी के अनुसार आकाश में से विचार, प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त होते
हैं।

4-सृष्टि के आदि से लेकर अब तक असंख्य प्राणियों द्वारा जो असंख्य प्रकार के विचार अब तक किये गये
हैं वे नष्ट नहीं हुए वरन् अब तक मौजूद हैं, आकाश में उड़ते फिरते हैं। यह विचार अपने अनुरूप भूमि जहाँ
देखते हैं वहीं सिमट सिमट कर इकट्ठे होने लगते हैं। कोई व्यक्ति बुरे विचार करता है तो उसी के अनुरूप
असंख्य नई बातें उसे अपने आप सूझ पड़ती हैं, इसी प्रकार भले विचारों के बारे में भी है हम जैसी अपनी
मनोभूमि बनाते हैं उसी के अनुरूप विचार और विश्वासों का समूह हमारे पास इकट्ठा हो जाता है और यह तो
निश्चित ही है कि विचारो की प्रेरणा से ही कार्य होते हैं। जो जैसा सोचता है वह वैसे ही काम भी करने
लगता है।

5-आकाश तत्व में से लाभदायक सद्विचारों को आकर्षित करने के लिए प्राणायाम के बाद का समय ठीक
है। एकान्त स्थान में किसी नरम बिछाने पर चित्त होकर लेट जाओ, या दीवार का सहारा लेकर शरीर को
बिलकु ल ढीला कर दो। नेत्रों को बन्द करके अपने चारों ओर नीले आकाश का ध्यान करो। नीले रंग का
ध्यान करना मन को बड़ी शान्ति प्रदान करता है।

जब नीले रंग का ध्यान ठीक हो जाए तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि ‘निखिल नील आकाश में फै ले हुए
सद्विचार, सद्विश्वास, सत्प्रभाव चारों ओर से एकत्रित होकर मेरे शरीर में विद्युत किरणों की भाँति प्रवेश
कर रहे हैं और उनके प्रभाव से मेरा अन्तःकरण दया, प्रेम, परोपकार, कर्तव्यपरायणता, सेवा, सदाचार,
शान्ति, विनय, गंभीरता, प्रसन्नता, उत्साह, साहस, दृढ़ता, विवेक आदि सद्गुणों से भर रहा है।”

6-यह भावना खूब मजबूती और दिलचस्पी के साथ मनोयोग तथा श्रद्धा पूर्वक होनी चाहिए। जितनी ही
एकाग्रता और श्रद्धा होगी उतना ही इससे लाभ होगा।आकाश तत्व की

इस साधना के फलस्वरूप अनेक सिद्ध, महात्मा, सत्पुरुष, अवतार तथा देवताओं की शक्तियाँ आकर अपने
प्रभाव डालती हैं और मानसिक दुर्गुणों को दूर करके श्रेष्ठतम सद्भावनाओं का बीज जमाती हैं।

उपरोक्त पाँच तत्वों की साधनाएं देखने में छोटी और सरल हैं तो भी इनका लाभ अत्यन्त विषद है। नित्य
पाँचों तत्वों का जो साधन कर सकते हैं। वे इन सबको करें जो पाँचों को एक साथ न कर सकते हों वे एक
-एक दो -दो करके किया करें। जिन्हें प्रतिदिन करने की सुविधा न हो वे सप्ताह में एक दो दिन के लिए भी
अपना कार्यक्रम निश्चित रूप से चलाने का प्रयत्न करें। रविवार के दिन भी इन पाँचों साधनों को पूरा करते
रहें तो भी बहुत लाभ होगा। नित्य प्रति नियमित रूप से अभ्यास करने वालों को तो शारीरिक और
मानसिक लाभ इससे बहुत अधिक होता है।

पंचमहाभूत (पंचतत्व) और 12 राशियाँ

जनवरी 20, 2020

🕉️ पंचमहाभूत का 12 राशियों में सम्बन्ध 🕉️

पंचतत्व / पंचमहाभूत से ही यह भौतिक


पराभौतिक संसार की रचना है। यदि हम
समझे कि शिव (परमात्मा) जीव (आत्मा) के
प्राण हैं तो शक्ति (प्रकृ ति) जीव के जीवन
का आधार है। सरल शब्दों में समझें तो
ईश्वर सृष्टि का सृजन, पालन और प्रलय,
इन्हीं 5 तत्वों के माध्यम से करते हैं।

जैसा कि वेद कहते हैं कि हमें मानव शरीर


84 लाख योनियों के चक्र में जीवन जीने के
पश्चात मिलती है, परन्तु हर बार जीवन चक्र
से पहले और बाद में भी जीवन अलग अलग
स्तरों पर जारी रहता है, जिसमें हमारी आत्मा सतत जीती है। सरल शब्दों में समझने के लिए हम श्री
मद्भागवत गीता (अध्याय 7, 10 व 11) से समझ सकते हैं, और इस कथन को मैं यही विराम देना चाहूंगा।
अन्यथा आप पाठकगण विषय वस्तु से भटक जाएंगे, जिसे फिर कभी आगामी लेख के माध्यम से पुनः
स्पष्ट करने की चेष्टा करूँ गा।

🕉️यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे 🕉️

जिस प्रकार ब्रम्हांड में 5 तत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी विद्यमान हैं, उसी तरह इस सृष्टि में
सब कु छ निहित है। इसी सृष्टि से मानव शरीर का सृजन हुआ है। इन पंचभूतों का संचालन पराभौतिक
शक्ति के हाथों में निहित है जिसे हम ईश्वर, प्रकृ ति, ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्मांड की इसी शक्ति से ग्रहों का
निर्माण हुआ और यह ग्रह मानव जीवन से जुड़ी घटनाओं के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। अलग
अलग ग्रहों के गुण, धर्म, शक्तियों का विभाजन स्वरूप इसे राशियों में विभक्त किया गया।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार ग्रहों में विद्यमान पाँच तत्व हैं परंतु 12 राशियों में 5 तत्वों की बजाय 4 तत्वो
(अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु) को प्रधानता दी गई है। जबकि आकाश तत्व अनन्त और विराट स्वरूप लिए है,
जिसमें सभी तत्व विद्यमान हैं।

हमारे ऋषि मुनियों ने ज्योतिष में राशियों के साथ पंचतत्वों की व्याख्या की है। जिसके अनुसार किसी
भी जातक की जन्म राशि के तत्व के आधार पर हम ज्ञात कर उस अनुसार व्यवहार कर सकते हैं।
🌌 नक्षत्रों के समूह

ज्योतिष शास्त्र में तारों तथा नक्षत्रों के समूह (Group) को राशि कहते हैं। पृथ्वी व अन्य ग्रह जैसे - बुध,
गुरू, शुक्र तथा शनि आदि सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इन ग्रहों की परिक्रमा का एक अंडाकार काल्पनिक
मार्ग इन ग्रहों और तारों के समूह को जोड़ता हुआ बनाया गया इसे कांतिवृत्त (Zodiac) कहते हैं। यह 360
डिग्री का हैं। जिसके 12 समान भाग हमारे ऋषि मुनियों ने अपने वैज्ञानिक विश्लेषण व योग, तप बल के
आधार पर किये हैं। इन 12 राशियों के पुनः 27 समान भाग किए गए जो 27 नक्षत्र कहलाए। प्रत्येक
भाग में तारों तथा नक्षत्र को मिलाकर आकाशमंडल में जो आकृ ति बनती हुई दिखाई देती हैं, उन्हीं के
आधार पर इन राशियों के नाम निश्चित किए गए। इनसे ही 12 राशियं बनीं।

इन 12 राशियों को 4 तत्वों अग्नि,पृथ्वी, वायु और जल में बांटा गया है। इस प्रकार तीन राशियों का एक
ही तत्व होता हैं। इन राशियों को 3 - 3 राशियों के समूह में बांटा जा सकता है, जिसे त्रिकोण कहते हैं, इस
प्रकार इन 12 राशियों को 4 त्रिकोण में वर्गीकृ त किया जा सकता है, जिसके आधार पर हम किसी भी राशि
के मित्र-शत्रु-अधिपति राशि, उनके वर्ण, गुण और दिशा के आधार पर निम्न तालिका से समझ सकते हैं।

इसे विस्तार पूर्वक राशियों का पँचमहभूतो / तत्वों से सम्बन्ध को विस्तार पूर्वक समझ सकते हैं।

राशियों का तत्वों से संबंध

🔥🌡️♨️🌋 अग्नि तत्व - (मेष, सिंह और धनु


राशि)

अग्नि का प्रधान गुण रूप है। अग्नि में ही


रूप परिवर्तन की क्षमता ही होती है, जिससे
उसमें निखार आता है और परिस्थितियो को
बदलने का सामर्थ्य भी अग्नितत्व में ही
होता है, जिस प्रकार किसी भी धातु के टु कड़े
को अग्नि में तपा कर ही मनचाहे आकार में
परिवर्तित किया जाता हैं, उसी प्रकार अग्नि तत्व प्रधान राशियो में क्रियात्मक शक्ति (Aggressive
Energy & Approach) अधिक होती है। इसीलिए अग्नि महाभूत / तत्व (मेष, सिंह और धनु राशि) के
जातक बड़े से बड़े कार्य भी अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति (Will Power) के आधार पर कर सकते हैं। ऐसे जातक
जब अग्नि ऊर्जा से सन्तुलित होते हैं, तो वाणी से ओजपूर्ण और व्यवहार में प्रभावी, जोशीले और
नेतृत्वकर्ता होते हैं, वही जब इनमे अग्नि ऊर्जा की विकृ ति होती है तो ऐसे जातक द्वेषपूर्ण, झगड़ालू,
मतलबी और कटु भाषी होते हैं।

🌍⛰️🏕️🏘️पृथ्वी तत्व - (वृषभ, कन्या तथा मकर)

पृथ्वी का प्रधान गुण "शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध" हैं। (वैदिक ऊर्जा चक्रानुसार पांचों महाभूतों / तत्त्वों
में सबसे अंतिम तत्व पृथ्वी है, इसलिए पृथ्वी में पांचों ऊर्जाओं के 5 गुण धर्म सभी इसमें निहित हैं)। ऐसे
जातकों में जब पृथ्वी तत्व सन्तुलित होता है, तो इनमें ईमानदारी, चिंतन, स्थिरता व पूर्णता का गुण होता
हैं, अतः पृथ्वी तत्व प्रधान राशियां (वृषभ, कन्या तथा मकर) राशियां

पूर्ण संसारी और भौतिकतावादी होती हैं। वही जब पृथ्वी तत्व असुंतलित होता है, तो ऐसे जातकों में
आलस्य, ईर्ष्या, चुगलखोरी, वैमनस्य बढ़ जाता है।

🌪️🌬️❄️🌠 वायु तत्व - (मिथुन, तुला और कुं भ)

वायु तत्व के प्रधान गुण परिवर्तन तथा चंचलता हैं, इस कारण यह राशियां भी परिवर्तन प्रिय तथा
मानसिक रूप से सबल व प्रभावशाली होती हैं। अतः प्रसिद्धि और नाम के लिए लालायित होते जातकों में
बच्चों जैसी चंचलता, चपलता और वाक पटु ता भी रहती है। ऐसे जातक कामुक प्रवृत्ति के होते हैं।

🌧️🌊💧🏺 जल तत्व - (कर्क , वृश्चिक और मीन)

जल तत्व का प्रधान गुण रस है, अतः इन जातकों में ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता होती है। आत्म
विश्लेषण / आत्म चिंतन, खोजी स्वभाव के होते हैं, जिस कारण जल सन्तुलित होने पर चिंतनशील होते
हैं।

किन्तु जल तत्व के असंतुलित होने पर यही व्यक्ति चिन्तित औऱ कुं ठित रहते हैं। इसी कारण यह भावुक
भी अधिक होते हैं, जिसके कारण यह स्वयं के साथ ही दूसरों के
दु:ख से भी दु:खी होते हैं।

पंचतत्व को आधार मानकर संस्थान ने श्रद्धेय श्रीमान ब्रजमणी


शास्त्री जी के नेतृत्व में अब तक देश के अनेकों राज्य जैसे
हरियाणा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि राज्यो
के चिकित्सा शिविरों के माध्यम से एवं देश - विदेश जैसे-
सिंगापुर, कनाडा, न्यूजीलैंड, अमेरिका, बहरीन, कतर आदि देशों
के भी रोगियों को ऑनलाइन चिकित्सा के माध्यम से लाखों
गम्भीर रोगियों को स्वस्थ्य किया जा चुका है। इन बीमारियों में
स्लिप डिस्क, डायबिटीज, थयोरोइड, अल्सर, प्रोस्टेट, किडनी फे लियर, अल्जाइमर, पार्किं सन, कैं सर आदि
रोगों से पीड़ित रोगी सफलता से स्वथ्य जीवन जी रहे हैं, वो भी बिना किसी दवा या सर्जरी के । जिसके
प्रमाण संस्थान के पास हैं, जिन्हें समय समय पर संस्थान अपने youtube चैनल :- पंचतत्व आरोग्यम
सेवा संस्थान के माध्यम से प्रस्तुत करता रहता है।

श्रीमान शास्त्री जी ने पंचतत्व को वैदिक ज्योतिष से शास्त्रीय आधार और अपने अनुभवः के माध्यम से
इतने सरल और सहज तरीके से जोड़ा है कि कोई भी सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी सीख सकता है।
जिसके लिए प्रशिक्षण समय समय पर होते रहते हैं, जिसके लिए आप हमें अपने नाम, पता , व्यवसाय
और फोन नम्बर की जानकारी देकर भविष्य के प्रशिक्षिण के लिए समय से एनरोल कर सके ।

-सुरक्षित गोस्वामी
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये |
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि || गीता 7/12||
अर्थ : जो भी सात्विक, राजसिक व तामसिक भाव हैं, उनको तू मुझसे ही होने वाले जान। वे मुझमें हैं
किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ ।
व्याख्या : सत्व, रज व तम इन तीनों गुणोंसे प्रकृ ति की रचना हुई है, इसलिए सृष्टि के सभी पदार्थों में ये
तीनों गुण विद्यमान हैं। हमारे में भी ये तीनों गुण होते हैं, इन गुणों की शक्ति ही व्यक्ति से कार्य करवाती
है। जब जो गुण बढ़ता है, तब मन में उस गुण का भाव आता है।
सत्व गुण हल्कापन देता है, रज गुण गति और तम गुण मोह व आलस्य देता है। इन गुणों के कारण ही
मन में बदलाव आता रहता है। भगवान कह रहे हैं कि ऐसा जानो कि सात्विक, राजसिक व तामसिक तीनों
गुणों के भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, वास्तव में ये तीनों गुण मुझमें है, लेकिन ‘मैं’ इन गुणों में नहीं हूँ,
अर्थात इनसे अति परे हूँ।

 सत्व रज तम

सारांश

सृष्टि की रचना मूल त्रिगुणों से हुई है, सत्त्व, रज एवं तम । आधुनिक विज्ञान इससे अनभिज्ञ है । ये
तीनों घटक सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान होते हैं । किसी भी वस्तु से प्रक्षेपित स्पंदन
उसके सूक्ष्म मूल सत्त्व, रज एवं तम घटकों के अनुपात पर निर्भर होते हैं । इससे प्रत्येक वस्तु का व्यवहार
भी प्रभावित होता है । मनुष्य में इनका अनुपात के वल साधना से ही परिवर्तित किया जा सकता है ।

१. प्रस्तावना एवं परिभाषा


इस लेख का मूल उद्देश्य है, अपने पाठकों को सूक्ष्म त्रिगुणों की इस परिकल्पना (concept) संबंधी संपूर्ण
ज्ञान प्रदान करना । हमारे पाठकों के लिए यह महत्त्वपूर्ण लेख है, क्योंकि यह इस जालस्थल के अन्य कई
लेखों का मूल आधार है ।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार, सृष्टि स्थूल कणों से बनी है – इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, मेसन्स, ग्लुओन्स
एवं क्वार्क्स परंतु आध्यात्मिक स्तर पर, सृष्टि उनसे भी अधिक मूल तत्त्वों से बनी है । इन मूल तत्त्वों
को सूक्ष्म तत्त्व अर्थात त्रिगुण कहते हैं – सत्त्व, रज और तम । त्रिगुण शब्द में, त्रि अर्थात तीन, तथा गुण
अर्थात सूक्ष्म घटक ।

प्रत्येक घटक के मूल गुणधर्म के विषय में निम्नलिखित सारणी में संक्षेप में जानकारी दी गई है ।

त्रिगुण विशेषता विशेषण उदाहरण

पवित्रता तथा सात्विक सात्विक मनुष्य – किसी फल अथवा मान – सम्मान की


ज्ञान अपेक्षा अथवा स्वार्थ के बिना समाज की सेवा करना

क्रिया तथा राजसिक राजसिक मनुष्य – स्वयं के लाभ तथा कार्यसिद्धि हेतु
इच्छाएं जीना

अज्ञानता तथा तामसिक तामसिक मनुष्य – दूसरों को अथवा समाज को हानि


निष्क्रियता पहुंचाकर स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करना

हम इन तत्त्वों को सूक्ष्म इसलिए कहते हैं क्योंकि ये अदृश्य हैं, स्थूल नहीं है तथा किसी आधुनिक
सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं दिखाई देते । भविष्य में तकनीकी रूप से प्रगत यंत्र भी इन तत्त्वों को मापन
नहीं कर पाएंगे । त्रिगुण के वल सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय अथवा छठवीं ज्ञानेंद्रिय (सूक्ष्म संवेदी क्षमता) द्वारा ही
अनुभव किए जा सकते हैं ।

 सत्त्व गुण त्रिगुणों में, सबसे सूक्ष्म तथा अमूर्त (intangible) है । सत्त्व गुण दैवी तत्त्व के सबसे
निकट है । इसलिए सत्त्व प्रधान व्यक्ति के लक्षण हैं – प्रसन्नता, संतुष्टि, धैर्य, क्षमा करने की
क्षमता, अध्यात्म के प्रति झुकाव इत्यादि ।

 त्रिगुणों में सबसे कनिष्ठ तम गुण है । तम प्रधान व्यक्ति, आलसी, लोभी, सांसारिक इच्छाओं से
आसक्त रहता है ।

 रजो गुण सत्त्व तथा तम को उर्जा प्रदान करता है तथा कर्म करवाता है । व्यक्ति यदि सात्त्विक
हो, तो सत्त्व प्रधान कर्म को उर्जा प्रदान करता है तथा यदि तामसिक हो तो तम प्रधान कर्म को
उर्जा प्रदान करता है ।

क्योंकि सत्त्व, रज तथा तम अमूर्त रूप में हैं, विद्यालय तथा विश्‍
वविद्यालयों में सामान्यरूप में सिखाया
जानेवाला आधुनिक विज्ञान इसके अस्तित्व से अनभिज्ञ है । इसलिए वे इस विषय को अपने पाठ्यक्रम में
अंतर्भूत नहीं करते । इसीलिए, त्रिगुणों का यह सिद्धांत हममें से कु छ लोगों को विचित्र लग सकता है । परंतु
इससे सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि ये पूरी सृष्टि तथा हमारे अस्तित्व में समाए हुए हैं । त्रिगुणों
में कौन सा गुण प्रबल है, इसके प्रभाव से हम :

 स्थितियों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं

 निर्णय लेते हैं

 विकल्प चुनते हैं

 अपना जीवन जीते हैं

इनका मूल रूप स्थूल नहीं है, इसलिए इनको एक स्थूल विशेषता द्वारा समझाना कठिन है । इस लेख
द्वारा हमने त्रिगुणों को समझाने का प्रयास किया है कि त्रिगुण क्या है तथा उनका हमारे जीवन पर क्या
प्रभाव है ।

२. सबसे छोटे स्थूल कण तथा त्रिगुणों की तुलना

निम्नलिखित सारणी में आधुनिक विज्ञान को ज्ञात सबसे छोटा स्थूल कण तथा अध्यात्मशास्त्र द्वारा ज्ञात
सबसे सूक्ष्म तत्वों में अंतर बताया गया है ।

मापदंड सबसे छोटा स्थूल कण मूलभूत सूक्ष्म कण

स्वरूप स्थूल सूक्ष्म तथा अमूर्त

कै से मापें ? प्रयोगशाला में शक्तिशाली सूक्ष्म इंद्रियों के माध्यम से छठवीं इंद्रिय द्वारा
इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप जैसे यंत्रों
द्वारा

समावेश (संपूर्ण) स्थूल सृष्टि संपूर्ण सृष्टि भौतिक, मानसिक तथा


आध्यात्मिक जगत । सबसे छोटे स्थूल कण भी
सत्त्व, रज तथा तम से बने हैं । हमारे विचार,
जो अदृश्य हैं, वे भी त्रिगुणों से बने हैं ।

इनकी विशेषताएं प्रभाव सृष्टि की स्थूल संपूर्ण सृष्टि की सारी गतिविधियों, हमारे
विशेषताओंतक सीमित, जैसे निर्णय, हमारे विकल्पों इत्यादि पर प्रभाव ।
किसी पदार्थ का ठोस अथवा द्रव सत्त्व रज तथा तम स्थूल विशेषताओं पर भी
होना प्रभाव डालता है । उदा. तमो गुण भौतिककरण
अथवा घनीकरण करवाता है ।

३. त्रिगुण कै से दिखते हैं ?

छठवीं ज्ञानेंद्रिय (सूक्ष्म संवेदी क्षमता) द्वारा प्राप्त निम्नलिखित आकृ ति से देख सकते हैं कि त्रिगुण जब
कार्यरत होते हैं तो कै से दिखाई देते हैं ।
त्रिगुण अदृश्य कण हैं, परंतु सक्रिय होने पर अर्थात उर्जा के साथ तरंगों के रूप में दिखाई देते हैं ।

आकृ ति का विवरण

 रंग : जब प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय से देखा जाए तो सत्त्वगुण का रंग पीला, रजोगुण का रंग लाल
और तमोगुण का रंग काला दिखाई देता है ।

 तरंगदैर्घ्य (wavelength) : सबसे अधिक कार्यरत-रजोगुण तरंगदैर्घ्य में दिखाई देता है तथा
सत्त्वगुण का स्वरूप शांत होने के कारण रजोगुण की तुलना में सत्व गुण का तरंगदैर्घ्य लंबा है ।
तमो गुण का स्वरूप अव्यवस्थित तथा विकृ त है और यह उसके अनियमित तरंगदैर्घ्य में स्पष्ट
दिखता है ।

 विस्तीर्णता (amplitude) : रजोगुण सर्वाधिक मात्रा में कार्यरत होने के कारण सबसे अधिक विस्तार
में पाया जाता है । सत्त्वगुण की विस्तीर्णता अल्प मात्रा में है, और तमो गुण की उससे भी अल्प
तथा अनियमित है ।

 लंबाई : उनकी लंबाई कार्य की आवश्यकतानुसार रहती है ।

४. त्रिगुण और पंचमहाभूत

पंचमहाभूत भी त्रिगुणों से बने हैं । पंचमहाभूत – पृथ्वीतत्त्व, आपतत्त्व, तेजतत्त्व, वायुतत्त्व तथा
आकाशतत्त्व है । पंचमहाभूत अदृश्य हैं तथा स्थूल रूप में हमें दृश्यमान होनेवाले घटकों से भी सूक्ष्म हैं ।
उदाहरण, जल का निर्माण सूक्ष्म आपतत्त्व से हुआ है, जिससे नदी तथा समुद्र बनते हैं । संक्षिप्त में
पंचमहाभूत ब्रह्मांड के निर्माण में आधारभूत घटक हैं । परंतु वे भी त्रिगुणों से बने हैं ।

निम्नलिखित सारणी में देखेंगे त्रिगुणों के अनुपात के संदर्भ में प्रत्येक पंचमहाभूत की रचना किस प्रकार
भिन्न है ।

त्रिगुण तथा पंचमहाभूत


सत्व रज तम

पृथ्वी १० प्रतिशत ४० प्रतिशत ५० प्रतिशत

जल २० प्रतिशत ४० प्रतिशत ४० प्रतिशत

तेज ३० प्रतिशत ४० प्रतिशत ३० प्रतिशत

वायु ४० प्रतिशत ४० प्रतिशत २० प्रतिशत

आकाश ५० प्रतिशत ४० प्रतिशत १० प्रतिशत

जैसे हमने उपरोक्त सारणी में देखा, पृथ्वीतत्त्व में तमो गुण सर्वाधिक होता है, इसीलिए इसमें जडता भी है
। सूक्ष्म तमोगुण अस्तित्व को सीमित करता है, जबकि सत्त्व गुण अस्तित्व को व्यापक बनाता है । इसी
से स्पष्ट होगा कि पंचमहाभूतों में पृथ्वी तत्त्व निम्न स्तर का,तो आकाशतत्त्व सूक्ष्मतम और सात्विक तथा
सबसे शक्तिशाली माना जाता है । पंचमहाभूतों में अल्प मात्रा में तमोगुण उनकी मूर्तता न्यून करता है ।
उदाहरणार्थ, तेजतत्त्व पृथ्वीतत्त्व की तुलना में अधिक सूक्ष्म है ।

मनुष्य अधिकांश पृथ्वीतत्त्व तथा आपतत्त्व से बना है । जब किसी व्यक्ति की अध्यात्मिक उन्नति होती
है, वह उच्चतर स्तर पर कार्य करने लगता है, जैसे तेजतत्त्व । इस स्तर के आध्यात्मिक उन्नत व्यक्ति से
विशिष्ट रूप का तेज प्रक्षेपित होता प्रतीत होता है । जब ऐसा होता है, उस जीव की मूलभूत इच्छाएं भी
अल्प होती जाती हैं, जैसे अन्न तथा नींद । इसके अतिरिक्त, बोधगम्यता तथा कार्य करने की क्षमता
संख्यात्मक तथा गुणात्मक रूप से प्रचंड मात्रा में बढ जाती है ।

५. तीन मूलभूत सूक्ष्म घटक (त्रिगुण) और जगत

५.१ प्राकृ तिक आपदाएं

यदि पृथ्वी पर रज-तम बढता है, तो इसका रूपांतर युद्ध, आतंकी गतिविधियों तथा प्राकृ तिक आपदाओं आदि
की वृद्धि में होता है । रज-तम की मात्रा बढने पर, पंचतत्त्व असंतुलित हो जाते हैं, जिसका रूपांतर
महाविपत्ति में तथा प्राकृ तिक आपदाओं में होता है । कृ पया निम्नलिखित लेख पढें – प्राकृ तिक आपदाओं की
तीव्रता बढने के कारण ।

५.२ निर्जीव वस्तुएं

निम्नलिखित सारणी से निर्जीव वस्तु तथा त्रिगुणों का संबंध स्पष्ट होगा

विविध निर्जीव वस्तुओं में त्रिगुणों का अनुपात

सत्व रज तम

मंदिर,पवित्र स्थल,तीर्थ स्थल ५ प्रतिशत १ प्रतिशत ९४ प्रतिशत


सत्व रज तम

नित्य तथा सामान्य स्थल २ प्रतिशत २ प्रतिशत ९६ प्रतिशत

बुरे स्थल १ प्रतिशत १ प्रतिशत ९८ प्रतिशत

५.३ सजीव सृष्टि

निम्नलिखित सारणी में प्राणीमात्र तथा त्रिगुणों का संबंध दिखाया गया है । सत्त्व सूक्ष्मगुण की दृष्टि से
जीवन का मूल्य, सभी वस्तुओं से अधिक है । धार्मिक स्थलों की तुलना में भी यह अधिक मूल्यवान है ।

विभिन्न जीवित वस्तुओं में त्रिगुणों का अनुपात

सत्व रज तम

संत ५० प्रतिशत ३० प्रतिशत २० प्रतिशत

सामान्य व्यक्ति २० प्रतिशत ३० प्रतिशत ५० प्रतिशत

दुष्ट व्यक्ति १० प्रतिशत ५० प्रतिशत ४० प्रतिशत

बौद्धिक विकलांग व्यक्ति १० प्रतिशत ३० प्रतिशत ६० प्रतिशत

पशु तथा पक्षी १०-२० प्रतिशत २५-४० प्रतिशत ४०-६५ प्रतिशत

वनस्पति ५-१० प्रतिशत १०-१५ प्रतिशत ६५-८५ प्रतिशत

पादटिप्पणी :

१ व्यक्ति में, शारीरिक और मानसिक देहों की


तुलना में बुद्धि में व्याप्त सत्त्व का अनुपात
अधिक होता है (खंड 6.1 में तालिका देखें) ।
जब बुद्धि असंतुलित हो जाती है, जैसा कि
बौद्धिक रूप से अक्षम व्यक्ति के विषय में
होता है, तो व्यक्ति में समग्र सत्व गुण घट
हो जाता है, और इसीलिए हमने सत्व गुण
को 10% दर्शाया है, जो एक औसत व्यक्ति के
20 % सत्व गुण से कम है । अधिकांश प्रकरणों में, असंतुलित बुद्धि व्यक्ति के प्रतिकू ल प्रारब्ध के
साथ जन्म लेने के कारण होती है ।

२. दूसरी ओर, एक दुष्ट व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग के वल बुरे कार्यों के लिए करता है, और परिणामतः
उसकी बुद्धि में व्याप्त सत्त्वगुण घट जाता है, जिससे उसका समग्र सत्त्वगुण घट जाता है । अतः, बौद्धिक
रूप से अक्षम व्यक्ति में और दुष्ट व्यक्ति में व्याप्त सत्त्वगुण की न्यूनता का कारण भिन्न होता है ।

३ कु छ प्रकरणों में जहां पशु बहुत सात्विक होता है जैसे कि भारतीय गाय , तो सत्त्वगुण का अनुपात
20% से भी अधिक हो सकता है ।

यह एक मुख्य कारण है कि किसी भी वास्तु से उत्पन्न होनेवाले स्पंदनों की तुलना में उस वास्तु में
रहनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर वहां के स्पंदनों को अधिक प्रभावित करता है । उदा. यदि
कोई संत किसी ऐसे वास्तु में प्रवेश करते हैं जहां के स्पंदन नकारात्मक हैं तो उसका संत पर अत्यल्प
प्रभाव पडेगा । इसीलिए फैं ग-शुई तथा वास्तुशास्त्र का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए है जिनका
आध्यात्मिक स्तर न्यून हो अथवा जो कोई साधना नहीं करते ।

६. त्रिगुण तथा मनुष्य

निम्नलिखित बिंदुओं में हम विस्तार में देखेंगे, त्रिगुणों का हमारे जीवन के विविध पहलुओं पर प्रभाव

६.१ हमारी रचना कै से हुई है, इस संबंध में

त्रिगुणों की प्रतिशत मात्रा

देह सत्व रज तम

स्थूलदेह २० प्रतिशत ४० प्रतिशत ४० प्रतिशत

मनोदेह ३० प्रतिशत ४० प्रतिशत ३० प्रतिशत

कारण देह अथवा बुद्धि ४० प्रतिशत ४० प्रतिशत २० प्रतिशत

महाकारण देह अथवा ५० प्रतिशत ४० प्रतिशत १० प्रतिशत


अहं

रजोगुण शरीर की क्रियाओं से संबंधित है, अत: इसका अनुपात सारे देहों में समान है । परंतु जैसे कि हमने
ऊपर देखा, विभिन्न देहों में सत्त्व तथा तम गुणों के अनुपात में बहुत अंतर है । इसका सीधा प्रभाव सुख
को बनाए रखने की शरीर की क्षमता पर पडता है । उदा. यदि सत्त्व गुण स्थूल देह की तुलना में कारण
देह अथवा बुद्धि में अधिक है, तो ऐसे में बौद्धिक स्तर पर मिलने वाला गुणात्मक सुख, स्थूल देह से
मिलनेवाले सुख की तुलना में उच्च श्रेणी का तथा अधिक समयतक बना रहनेवाला होता है ।

६.२ आध्यात्मिक स्तर की तुलना में

आध्यात्मिक स्तर तथा त्रिगुणों के अनुपात का अंत: संबंध है । साथ ही उनका संबंध अंडा पहले अथवा मुर्गी
पहले, इस उदाहरण के समान भी है । हम यह कह सकते हैं कि किसी का आध्यात्मिक स्तर सत्त्व, रज
तथा तम के किसी एक गुण की प्रबलता से निर्धारित होता है । परंतु हम ऐसा भी कह सकते हैं कि किसी
एक गुण की (सत्त्व,रज एवं तम) प्रबलता से किसी का आध्यात्मिक स्तर निर्धारित किया जा सकता है ।
हम जैसे जैसे साधना करते हैं तो त्रिगुणों का अनुपात बदलने लगता है । साधना करने से सत्त्वगुण की
मात्रा बढने लगती है । अर्थात हम तमोगुण का रूपांतर सत्त्वगुण में करते हैं ।

अन्य दोनों गुण, रज एवं तमोगुण की तुलना में जैसे जैसे हम सत्त्व गुण स्वयं में बढाते हैं, यह हमारे
आध्यात्मिक स्तर तथा व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव डालता है ।

निम्नलिखित सारणी में साधना करने पर आध्यात्मिक उन्नति से त्रिगुणों का अनुपात किस मात्रा में बदलता
है, यह स्पष्ट होता है ।

पादटिप्पणी :

१. ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के पश्‍


चात, त्रिगुणों का अनुपात स्थिर रहता है । इसका कारण यह है कि
किसी का तमोगुण का अनुपात २० प्रतिशत से अल्प नहीं हो सकता । यदि ऐसा होने लगा तो व्यक्ति
अदृश्य होने लगेगा (भौतिक रूप खोने लगेगा) । अर्थात जबतक किसी का स्थूल शरीर है तबतक तमोगुण
२० प्रतिशत से अल्प नहीं हो सकता । परंतु जब आध्यात्मिक स्तर में वृद्धि होती है तब त्रिगुणों का प्रभाव
अल्प हो जाता है, आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत होने पर त्रिगुणों का प्रभाव नगण्य रह जाता है । इसके
आगे के उप-भाग में हम त्रिगुणों का प्रभाव अल्प होने के विषय में विस्तार से समझ लेंगे ।

२. १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करने के पश्‍चात भी जब तक संत स्थूल देह में रहते है , तबतक वे
त्रिगुणों की रचना में बंधे रहते हैं । परंतु जैसे ही वे देहत्याग करते हैं, त्रिगुणों का अनुपात शून्य हो जाता है
तथा वह संत ईश्‍वर से एकरूप हो जाते हैं ।

६.३ आध्यात्मिक स्तर बढने पर,त्रिगुणों का प्रभाव न्यून होना

जब आध्यात्मिक प्रगति होती है, आंतरिक रूप से पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि का अंधकार दूर होता है तथा
हमारे भीतर की आत्मा (ईश्‍
वर) का चैतन्य बढने लगता है । नीचे दिए गए चित्र में देखें । इसको
पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि का लय होना भी कहते हैं । हम पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि को अंधकार
अथवा अविद्या कहते हैं क्योंकि वे हमारे वास्तविक स्वरूप हमारे भीतर के परमात्मा अथवा आत्मा, को
पहचानने नहीं देते ।

जीवात्मा, जो हमारे भीतर का ईश्‍


वर है, त्रिगुणातीत है अर्थात त्रिगुणों के परे है, तथा उसकी रचना त्रिगुणों
से नहीं हुई है । इसीलिए साधना से हमारी आत्मा जितनी प्रकाशमान होगी, उतना ही त्रिगुणों का प्रभाव
हमारे व्यक्तित्व, कर्म तथा निर्णयों पर अल्प मात्रा में होगा । आध्यात्मिक प्रगति के अंतिम चरण में जब
आत्मज्योत पूर्ण रूप से हमें प्रकाशित करती है तब हम अपना जीवन पूर्णत: ईश्‍
वरेच्छा से व्यतीत करते हैं,
तथा त्रिगुणातीत होने पर, उनका हमारे व्यक्तित्व पर नगण्य प्रभाव होता है ।
६.४ हमारे व्यक्तित्व से संबंधित

निम्न सारणी में, हमने कु छ बिंदु दिए हैं, जिससे हम किसी के व्यक्तित्व को उसके प्रबल गुण के आधार
पर पहचान पाएंगे ।

ये के वल मूलभूत समझ निर्माण करने के लिए दिशा निर्देश हैं । व्यक्ति में कौन सा गुण प्रबल है, इसका
वास्तविक निरीक्षण के वल छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय संवेदी क्षमता)के माध्यम से ही हो सकता है ।
सात्विक व्यक्ति राजसिक व्यक्ति तामसिक व्यक्ति

स्वभावदोष अपनी भावनाओं, विचारों और क्रोध, ईर्ष्या, गर्व, अहंकारी, आलसी, निष्क्रिय,
कृ त्यों पर पूर्ण नियंत्रण ध्यान आकर्षित करना, धौंस निराश, अति स्वार्थी,
जमाने वाला, लालची, अपनी दूसरों का विचार न
आंकांक्षाएं और सांसारिक इच्छाएं करना, स्वार्थ के लिए
पूरी करने के लिए किसी भी दूसरों को हानि
स्तरतक जाना, चिंतातुर, दिन में पहुंचाना, चिडचिडा
सपने देखनेवाला

गुण सभी गुण, सत्यवादी तथा परिश्रमी, परंतु आध्यात्मिक नहीं


(विशेषता) सिद्धांतवादी, सहनशील, शांत, प्रगति के लिए दिशाहीन प्रयास
स्थिर बुद्धि, अहंकार रहित

अंतत: गुण और दोषों के परे


जाते हैं, मृत्यु का भय नहीं

सुख प्राप्ति ज्ञान और कौशल अर्जित अधिकार प्राप्त करना, सांसारिक खाना-पीना, संभोग
का माध्यम करना, निर्मल, शांत, अहंकार वस्तुओं का संग्रह करना इत्यादि
रहित, दूसरों की सहायता
करना, ध्यान लगाना,
आध्यात्मिक प्रगति करना

अंतत: सुख-दु:ख से परे होकर


आनंद प्राप्त करना

अन्यों के समाज सेवा तथा आध्यात्मिक स्व कें द्रित अथवा दूसरों की अन्यों को हानि
संबंध में प्रगति करने हेतु लोगों की सहायता करने पर उसका तीव्र पहुंचाना । अत्याधिक
सहायता करना । यहां अहं तामसिक – धर्म
सर्वव्यापी दृष्टि से अथवा किसी
आध्यात्मिक प्रगति करने का विचारधारा के नाम
अर्थ है छ: मूलभूत तत्वों के पर समाज को हानि
अनुसार साधना करना पहुंचाना

निद्रा ४-६ घंटे ७-९ घंटे १२-१५ घंटे

आध्यात्मिक अधिक अल्प अति अल्प


1

बल

पादटिप्पणी :

१. इसमें अपवाद यह है कि मांत्रिक जिसमें अनिष्ट हेतु से साधना करने के कारण अत्याधिक आध्यात्मिक
बल हो सकता है, परंतु वह मूल रूप से तामसिक ही होता है ।
उपर्युक्त लक्षण पारस्परिक अपवर्जक नहीं हैं । उदा. किसी सात्त्विक व्यक्ति को ९ घंट की नींद आवश्यक
होगी, तथा किसी तामसिक व्यक्ति में सहनशीलता का गुण हो सकता है । परंतु मनुष्य का व्यक्तित्व कु ल
मिलाकर उसके गुण एवं दोषों से बनता है । इसीलिए अपने अथवा किसी और के व्यक्तित्व के एक-दो
विशेष लक्षणों की ओर ध्यान देकर निर्णय नहीं करना चाहिए, अपितु सर्व स्थितियों को ध्यान में रखकर
निर्णय करना चाहिए ।

किसी का पूर्ण रूप से के वल सात्त्विक,राजसिक एवं तामसिक होना बहुत दुर्लभ है । सामान्यत: व्यक्ति
सत्त्व-रज, रज-सत्त्व अथवा रज-तम प्रधान होता है । सत्त्व-रज प्रधान व्यक्ति में सत्त्व तथा रजोगुण के
लक्षण समान होंगे, परंतु सत्त्वगुण प्रबल होगा । रज-सत्त्व प्रधान व्यक्ति में इसके विपरीत, अर्थात
रजोगुण तथा सत्त्वगुण के लक्षण समान होंगे, परंतु रजोगुण प्रबल होगा ।

व्यक्ति में जो सूक्ष्म गुण प्रबल है, वैसा उसका व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है । अपने व्यक्तित्व को जितना
चाहे हम अच्छे वस्त्र, आभूषण एवं ऊपरी बातों के पीछे छिपाएं, हमारे प्रबल सूक्ष्म गुण के अनुसार हमारे
मूल स्पंदन प्रक्षेपित होते रहते हैं । हमारा मूल स्वरूप छिपता नहीं है । जिनकी प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय है , वे
इन बाह्य छलावरण के पार देख पाते हैं तथा अदृश्य और सूक्ष्म स्पंदनों को अनुभव कर सकते हैं ।
इसीलिए वे किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव -सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक तथा विशेषताओं के बारे
में सरलता से बता सकते हैं ।

किसी भी व्यक्ति के प्रबल गुण हम तब जानते हैं, जब वह व्यक्ति अके ले अथवा एकांत में होता है ।
व्यक्ति अपना सत्य स्वरूप तब दर्शाता है, जब वह किसी के निरीक्षण में नहीं हो । आगे के उदाहरण से
यह सूत्र स्पष्ट होगा ।

चौथी कक्षा में पढनेवाले विद्यार्थियों का उदाहरण लेते हैं । वे कोलाहल करनेवाले तथा उद्दंड हैं, उनकी
अध्यापिका उनमें अनुशासन लाने का अत्याधिक प्रयत्न करती है । यदि अध्यापिका कठोर वाणी में बोलती
है, तो कक्षा में शांति बनाए रखने की संभावना है । अतः के वल उनकी उपस्थिति में ही विद्यार्थी शांत रहते
हैं । जैसे ही अध्यापिका कक्षा से निकलती है तो बच्चे अपनी शरारत आरंभ कर देते हैं । इसका कारण यह
है कि इन बच्चों की मूल प्रकृ ति राजसिक तथा तामसिक है ।

इसके विपरीत यदि उसी कक्षा में एक सात्त्विक बालक हो तथा सहपाठी उससे अनुरोध करें कि वह भी
उनके साथ उनकी उद्दंडता, घिनौने हास्यविनोद एवं छल में साथ दे, तो वह बालक उनका साथ कभी नहीं
देगा, क्योंकि उसकी मूल प्रकृ ति ही सात्त्विक है । ऐसे दुष्कर्मों में सुख अनुभव करने स्थान पर ऐसे कर्मों
से वह दूर ही रहेगा तथा भयभीत हो जाएगा । यदि उसने ऐसे कर्म किए तो वह अपने आपको क्षमा नहीं
कर पाएगा अथवा स्वयं का सामना नहीं कर पाएगा ।

इसीलिए बच्चों को नैतिक मूल्यों पर व्याख्यान देकर उनमें ऊपरी बदलाव लाने के स्थान पर, स्थायी रूप से
उनमें परिवर्तन के वल तब होगा जब वे साधना करेंगे तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकू ल वातावरण
में उनका संगोपन हो, जिससे उनमें सत्त्व गुण की वृद्धि हो ।

७. त्रिगुण तथा हमारी जीवनशैली


त्रिगुणों में से जो प्रबल गुण हो उसके आधार पर हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु का वर्गीकरण
सात्त्विक,राजसिक अथवा तामसिक इस प्रकार होता है । किसी भी वस्तु में प्रबल गुण के वल छठवीं
ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय संवेदी क्षमता) द्वारा ही जाना जा सकता है ।

अपनी जीवन पद्धति की रुचि के अनुसार किसी एक विशेष गुण से संबंध होने पर वह सूक्ष्म-गुण हमारे में
अधिक बढता है ।

हमने हमारे जीवन के कु छ विविध पहलू पर कु छ सामान्य उदाहरण तथा उनके प्रधान गुण दिए हैं । हम
सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक हैं, उस आधार पर हम सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक जीवनशैली
की ओर आकर्षित होंगे । अपनी रूचि की जीवन शैली के द्वारा किसी एक विशेष गुण से स्वयं को जोडने
पर वह विशेष गुण हमारे में बढता है ।

त्रिगुण तथा हमारी जीवनशैली

सात्विक राजसिक तामसिक

गेहूं, खीरा, पालक, अत्यधिक खारा, कडवा, सूखी सब्जियां, ठं डे अथवा


चीनी, दूध, मक्खन, खट्टा, तीखा और उष्ण फ्रोजन खाद्यपदार्थ, दो बार गर्म
घी, दालचीनी, पदार्थ (उदा.उबलती चाय किए हुए, बासी, गंदगीसे भरे
बादाम, अखरोट, अथवा कॉफी) प्याज, खाद्यपदार्थ, अधपका (जैसे

भोजन काजू लहसुन कच्चा मांस) बिना पका


खाद्यपदार्थ, पचाने में कठिन,
मांसाहार, वाईन तथा मद्य

श्‍वेत, पीला, नीला लाल, गहरा लाल, हरा, काला तथा काले रंग की
जामुनी अधिकता हो

रंग

प्राकृ तिक धागे से प्राणियों का चर्म मानव निर्मित कपडे जैसे


निर्मित वस्त्र, जैसे लाइक्रा, नॉयलन इत्यादि फटे
सूत, रेशम, गोचर्म कपडे, बिना इस्त्री के वस्त्र

वस्त्र (धागा)

संतों द्वारा रचित लोक संगीत, पॉप वैसा संगीत जो हिंसा और


भजन, संतों द्वारा संगीत, अधिकांश मादक पदार्थों के सेवन को
रचित संगीत फिल्मी गीत बढावा दे

संगीत
विश्‍
व को लडाई-झगडेवाले तथा अश्‍
लील, हिंसात्मक, भयप्रद
आध्यात्मिक अथवा रोमांचक चलचित्र चलचित्र
व्यावहारिक स्तर पर
अधिक अनुकू ल
चलचित्र बनाने के लिए
समाज का ज्ञानवर्धन
करना

पुस्तकें जो सर्वव्यापी पुस्तकें जो सांसारिक पुस्तकें जो आध्यात्मिक


रूप से आध्यात्मिक भावनाएं तथा आसक्ति अनास्था को भडकाए, समाज की
ज्ञानवर्धन करे बढाएं हानि करें

पुस्तकें

साधक जो साधना सामाजिक संबंध जहां व्यसनी (ड्रग एडिक्ट) लोगों की


के पांच मूलभूत पर बातचीत का मुख्य संगति, रेव पार्टियां, समारोह जो
तत्वों के अनुसार विषय सांसारिक किसी भी प्रकार के व्यसन को
साधना करते हों गतिविधियां, व्यवसाय तथा समाज को हानि
संगति तथा आदि हों । समय बिताने पहुंचानेवाली बैठक को बढावा दे
मनोरंजन हेतु खरीदारी करना

पति-पत्नी के संबंध सांसारिक संपत्ति अनबन, अविश्‍


वास, हिंसा तथा
में आध्यात्मिक जुटाना, अपेक्षा से भरा झगडे
प्रगति करना मुख्य व्यावहारिक प्रेम
उद्देश्य, निरपेक्ष प्रीति
विवाह

८. त्रिगुण एवं अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इत्यादि)

अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इत्यादि ) मूलत: रज-तम प्रधान होती हैं । जो अनिष्ट शक्ति निचली
श्रेणी की है, अर्थात ५० प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक बल, जैसे सामान्य भूत, वे रज-तम प्रधान होते हैं ।
उच्च स्तर के भूत अर्थात जिनका अध्यात्मिक बल ५० प्रतिशत से अधिक है जैसे मांत्रिक, वे छठें और
सातवें पाताल के होते हैं तथा तम-रज प्रधान होते हैं ।

क्योंकि अनिष्ट शक्तियां रज-तम प्रधान होती हैं, वे पृथ्वी पर विद्यमान रज-तमवाले वातावरण में जाती हैं,
क्योंकि वहां रज-तम प्रधान व्यक्ति मिलने की संभावना अधिक होती है । ऐसे सम-विचारी लोग, मांत्रिकों के
निशाने पर सदैव रहते हैं तथा पृथ्वी पर उनकी योजनाओं को कार्यरत करने तथा उनकी ध्येय पूर्ति के लिए
आर्दश लक्ष्य होते हैं । दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति तम प्रधान है तथा जिसको दूसरों को कष्ट पहुंचाना
अच्छा लगता है, ऐसे व्यक्ति की किसी अनिष्ट शक्ति के नियंत्रण में आने की आशंका अधिक होती है,
जिससे समाज को हानि हो ।
सिद्धांतानुसार यदि हमें अपने आपको अनिष्ट शक्तियों से बचाना है तो हमें अपनी सात्त्विकता बढानी होगी
। अनिष्ट शक्तियां मूल रूप से तामसिक होती हैं और वे सात्त्विक लोग तथा सात्त्विक वातावरण को सहन
नहीं कर पातीं । इसीलिए वे कभी भी किसी उच्च स्तर के संत तथा गुरु को अपने वश में नहीं कर पातीं ।

यह लेख पढें – उच्च सात्त्विकता के प्रभाव में आने से अनिष्ट शक्ति से पीडित व्यक्ति का प्रकटीकरण क्यों
होता है ?

९. सारांश में

इस लेख से सीखें कु छ मुख्य सूत्र :

 हम सब सत्त्व, रज तथा तम स्पंदन प्रक्षेपित करते हैं, हमारे प्रधान गुण पर यह निर्भर है । जितनी
अधिक सात्त्विकता, उतना ही अच्छा हमारा व्यक्तित्व बनता है, हम उतना ही स्थायी रूप से यश
प्राप्त करते हैं, तथा उतने ही अपने व्यवसाय, संबंधों एवं जीवन के प्रति संतुष्ट रहते हैं ।

 सत्त्वगुण साधना करने से तथा जहांतक संभव हो स्वयं को रज-तम के प्रभावों से दूर रखने से
बढता है ।

 हम जैसी संगत में रहते हैं, उसका हमारी साधना पर गहरा प्रभाव पडता है ।

 अनिष्ट शक्तियां तम प्रधान वातावरण तथा तम प्रधान लोगों का लाभ उठाकर विश्‍
व में अधर्म को
फै लाने और समाज को कष्ट पहुंचाने का कार्य करती हैं ।

१. जीवन का सत्य- हम जन्म क्यों लेते हैं ? – प्रस्तावना

प्रायः हमसे यह प्रश्‍न पूछा जाता है, ‘जीवन का सत्य क्या है ?’ अथवा ‘जीवन का उद्देश्य क्या है ?’ अथवा
‘हम जन्म क्यों लेते हैं ?’ जीवन के उद्देश्य के संदर्भ में अधिकतर हमारी अपनी योजना होती है; किं तु
आध्यात्मिक दृष्टि से सामान्यतः जन्म के दो कारण हैं । ये दो कारण हमारे जीवन के उद्देश्य को मूलरूप
से परिभाषित करते हैं । ये दो कारण हैं :

 विभिन्न लोगों के साथ अपना लेन-देन पूरा करने के (चुकाने के ) लिए ।


 आध्यात्मिक प्रगति कर ईश्‍वर से एकरूप होने का अंतिम ध्येय साध्य करने के लिए, जिससे कि
जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिले ।

२. जीवन का सत्य – अपना लेन-देन चुकाना (पूर्ण करना)

अनेक जन्मों में हुए हमारे कर्म एवं क्रियाआें के परिणामस्वरूप हमारे खाते में भारी मात्रा में लेन-देन इकट्ठा
होता है । ये लेन-देन हमारे कर्मों के स्वरूप के अनुसार अच्छे अथवा बुरे होते हैं । सर्वसाधारण नियमानुसार
वर्तमान युग में हमारा ६५% जीवन प्रारब्धानुसार (जो कि हमारे नियंत्रण में नहीं है) और ३५% जीवन हमारे
क्रियमाण कर्म अनुसार (इच्छानुसार नियंत्रित) होता है । हमारे जीवन की सर्व महत्वपूर्ण घटनाएं अधिकतर
प्राब्धानुसार ही होती हैं, यही जीवन का सत्य है । इन घटनाआें में जन्म, परिवार (कु ल), विवाह, संतान,
गंभीर व्याधियां तथा मृत्यु का समय आदि अंतर्भूत हैं । जो सुख और दुःख हम अपने परिजनों को तथा
परिचितों को देते हैं अथवा उनसे पाते हैं; वे हमारे पिछले लेन-देन के कारण होता है । ये लेन-देन निर्धारित
करते हैं कि जीवन में हमारे सम्बंधों का स्वरूप, तथा उनका आरंभ और अंत कै से होगा ।

वर्तमान जन्म में हमारा जो प्रारब्ध है, वह वास्तव में हमारे संचित का मात्र एक अंश है; जो अनेक जन्मों
से हमारे खाते में जमा हुआ है ।

हमारे जीवन में यद्यपि पूर्व निर्धारित इस लेन-देन और प्रारब्ध को हम पूरा करते भी हैं; तथापि जीवन के
अंत में अपने क्रियमाण (ऐच्छिक) कर्मों द्वारा उसे बढाते भी हैं । जीवन के अंत में यह हमारे समस्त लेन-
देन में संचित के रूप में जोडा जाता है । परिणामस्वरूप इस नए लेन-देन को चुकाने के लिए हमें पुनः
जन्म लेना पडता है और हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फं स जाते हैं ।

संदर्भ : जन्म-मृत्यु के चक्र में हम कै से फं स जाते हैं, इसका विवरण ‘जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति
(मोक्ष)’ इस लेखमें प्रस्तुत है ।

३. जीवन का सत्य- आध्यात्मिक प्रगति

समष्टि आध्यात्मिक स्तरका अर्थ है, समाजके हितके लिए आध्यात्मिक साधना (समष्टि साधना) करनेपर
प्राप्त हुआ आध्यात्मिक स्तर; जब कि व्यष्टि आध्यात्मिक साधनाका अर्थ है, व्यक्तिगत आध्यात्मिक
साधना (व्यष्टि साधना) करनेपर प्राप्त आध्यात्मिक स्तर । वर्तमान समयमें समाजके हितके लिए
आध्यात्मिक साधना (प्रगति) करनेका महत्त्व ७०% है, जब कि व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधनाका महत्त्व
३०% है ।

किसी भी साधना पथ पर आध्यात्मिक विकास का चरम है परमेश्‍


वर में विलीन होना । इसका अर्थ है, हममें
तथा हमारे सर्व ओर विद्यमान ईश्‍
वर को अनुभव करना, जो हमारी पंचज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि के परे है ।
यह १००% आध्यात्मिक स्तर पर संभव होता है । वर्तमान युग में अधिकतर लोगों का आध्यात्मिक स्तर
२०-२५% है और उन्हें आध्यात्मिक विकास हेतु साधना करने में कोई रूचि नहीं रहती । उनका अधिकाधिक
तादात्म्य अपनी पंच ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि से रहता है । इसका प्रभाव हमारे जीवन में व्यक्त होता है,
उदाहरणार्थ, जब हम अपने सौंदर्य पर अधिक ध्यान देते हैं अथवा हमें अपनी बुद्धि अथवा सफलता का
अहंकार होता है ।

साधना द्वारा हमारा जब समष्टि आध्यात्मिक स्तर ६०% अथवा व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर ७०% हो जाता
है, तब हम जन्म-मृत्यु के चक्रसे मुक्त हो जाते हैं । इसके उपरांत हम अपने शेष लेन-देन को महर्लोक और
आगे के उच्च सूक्ष्म लोकों में चुका सकते हैं (पूर्ण कर सकते हैं) । ६०% (समष्टि) अथवा ७०% (व्यष्टि)
आध्यात्मिक स्तर के आगे पहुंचे कु छ जीव मानवता का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने के लिए पृथ्वी पर
जन्म लेने में रूचि रखते हैं ।
अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना करने पर ही आध्यात्मिक विकास संभव है । जो
आध्यात्मिक मार्ग इन छः मूलभूत सिद्धांतों का अवलंब नहीं करते, उनके अनुसार साधना करने वालों का
विकास बाधित हो जाता है ।

संदर्भ : ‘साधना के लिए स्वर्ग अथवा नर्क जैसे अन्य लोकों की तुलना में भूलोक का महत्व’

४. हमारे जीवन के लक्ष्यों के संदर्भ में जीवन का सत्य क्या है ?

हममें से अधिकतर लोगों के जीवन के कु छ लक्ष्य होते हैं, उदाहरणार्थ डॉक्टर बनना, धनवान बनना और
प्रतिष्ठा कमाना अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना । लक्ष्य जो भी हो,
अधिकांश लोगों के लिए वह प्राय: एवं प्रमुखत: सांसारिक ही होता है । हमारी संपूर्ण शिक्षा प्रणाली इस
प्रकार से विकसित की गई है कि हम इन सांसारिक लक्ष्यों का अनुसरण कर सकें । अभिभावक होने के
नाते हम भी अपने बच्चों के सामने ये सांसारिक लक्ष्य रखकर उन्हें शिक्षित करते हैं, तथा ऐसे व्यवसायों के
लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनसे उन्हें हमसे अधिक आर्थिक लाभ मिले ।

किसी के मन में यह प्रश्‍


न उभर सकता है कि इन सांसारिक लक्ष्यों का, जीवन के आध्यात्मिक ध्येय एवं
पृथ्वी पर जन्म लेने के कारणों के साथ सामंजस्य कै से हो सकता है ?
उत्तर बहुत ही सरल है । हम सांसारिक लक्ष्यों के पीछे इसलिए भागते रहते हैं कि हमें संतोष एवं आनंद
(सुख) प्राप्त हो । सामन्यतः अप्राप्य ऐसे सर्वोच्च और चिरंतन सुख की अभिलाषा ही हमारे प्रत्येक कृ त्य की
अंगभूत प्रेरणा होती है । किं तु वास्तव में सांसारिक लक्ष्यों की पूर्ति होने पर भी प्राप्त सुख और संतोष
अल्पकाल के लिए ही टिकता है । हम कोई अन्य सुख पाने का स्वप्न देखने लगते हैं ।

‘परम और चिरस्थायी सुख’ की प्राप्ति के वल साधना द्वारा ही संभव है, जो छः मूल सिद्धांतों पर आधारित
है । सर्वोच्च श्रेणी के सुखको आनंद कहते हैं, जो ईश्‍
वर का गुणधर्म है । जब हम ईश्‍
वर से एकरूप हो जाते
हैं तब हमें भी उस चिरस्थायी आनंद की अनुभूति होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने दैनिक
जीवन में जो कु छ कर रहे हैं, वह छोडकर के वल साधना पर ही ध्यान कें द्रित करें । अपितु इसका आशय
यह है कि सांसारिक जीवन के साथ साधना के संयोजन से परम और चिरस्थायी सुख की प्राप्ति संभव है।
यही जीवन का सत्य है। साधना के लाभ का विस्तृत विवेचन ‘चिरस्थायी सुख के लिए आध्यात्मिक शोध‘
के स्तंभ में दिया है ।

संक्षेप में हमारे जीवन के लक्ष्य, आध्यात्मिक प्रगति के आशय से जितने अनुरूप होंगे, उतना ही हमारा
जीवन अधिक समृद्ध होगा और उतना ही हमें कष्ट अल्प होगा। यही जीवन का सत्य है। निम्नलिखित
उदाहरण से यह स्पष्ट होगा कि आध्यात्मिक विकास एवं परिपक्वता के फलस्वरूप, जीवन के प्रति हमारा
दृष्टिकोण कै से परिवर्तित होता है ।

जीवन का सत्य- व्यवहारिक तथा आध्यात्मिक अर्थ में अन्तर

व्यवहारिक दृष्टिकोण आध्यात्मिक दृष्टिकोण

अज्ञान क्या है ? व्यवहारिक विषयों के ज्ञान का ऐसा मानना कि “मैं” के वल देह और मन


अभाव ही हूँ

‘स्व’ को समझने का ऐसा मानना कि “मैं” के वल देह और “मैं” का अर्थात स्वयं में विद्यमान
अर्थ मन ही हूँ ईश्वरीय अंश का
क्या है ? बोध और अनुभव होना

सफलता की व्याख्या सम्मान, पैसा, प्रतिष्ठा इ. प्राप्त आध्यात्मिक प्रगति


क्या है ? होना

५. सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक उद्देश्य के बीच सामंजस्य के उदाहरण

एस.एस.आर.एफ. में हमारे साथ ऐसे कई स्वयंसेवक हैं, जो यथाक्षमता अपना समय तथा कु शलता ईश्‍वर की
सेवा में अर्पित कर रहे हैं । उदाहरणार्थ,

 हमारे एक सदस्य सूचना प्रौद्योगिकी (आइ.टी) के परामर्शदाता हैं और वे अपने अवकाश में हमारे
जालस्थल के तकनीकी कार्य संभालते हैं ।

 संपादकीय विभाग की एक सदस्या मनोरोग-चिकित्सक हैं और वे अपलोड की जानेवाली जानकारी


चिकित्सकीय तथा आध्यात्मिक दृष्टि से जांचने में सहायता करती हैं ।
 एस.एस.आर.एफ. की एक अन्य सदस्या अपने व्यवसाय के लिए विविध देशों में यात्रा करती हैं । वे
अपने अवकाश में उस देश के समविचारी संगठनों को एस.एस.आर.एफ. के जालस्थल की जानकारी
देती हैं ।

 एक गृहिणी आध्यात्मिक कार्यक्रमों में आनेवालों के लिए खाद्यपदार्थ बनाने में सहायता करती हैं ।

अपनी दिनचर्या का अध्यात्मीकरण करने से एस.एस.आर.एफ. के सदस्यों के जीवन में भारी सकारात्मक
परिवर्तन हुए हैं । आनंद में वृद्धि होना और दुःख की मात्रा अल्प होना, ये महत्वपूर्ण परिवर्तन हैं । जीवन के
किसी दुःखभरे प्रसंग में अथवा दर्दनाक स्थिति में वे अनुभव करते हैं, मानो किसी ने उनके आस-पास सुरक्षा
कवच बना दिया है ।

६. जीवन का सत्य – बार-बार जन्म लेने में अनुचित क्या है ?

कभी-कभी लोग सोचते हैं कि बार-बार जन्म लेने में अनुचित क्या है ? जैसे ही हम वर्तमान कलियुग में
(संघर्ष के युग में) आगे बढेंगे, वैसे जीवन समस्याआें तथा दुःखों से घिर जाएगा । आध्यात्मिक शोध
द्वारा यह पता चला है कि विश्‍वभर में औसतन ३०% समय मनुष्य खुश रहता है तथा ४०% समय वह
दुखी ही रहता है । शेष ३०% समय मनुष्य उदासीन रहता है । इस दशा में उसे सुख-दुख का अनुभव नहीं
होता । उदा. जब कोई व्यक्ति रास्ते पर चल रहा होता है अथवा कोई व्यावहारिक कार्य कर रहा होता है तब
उसके मन में सुखदायक अथवा दुखदायक विचार नहीं होते, वह के वल कार्य करता है ।

इसका प्राथमिक कारण है कि अधिकतर व्यक्तियों का आध्यात्मिक स्तर अल्प होता है । इसीलिए अनेकों
बार हमारे निर्णय एवं आचरण से अन्यों को कष्ट होता है । साथ ही, वातावरण में रज-तम फै लाता है ।
फलस्वरूप नकारात्मक कर्म और लेन-देन का हिसाब बढता है । इसीलिए अधिकतर मनुष्यों के लिए वर्तमान
जन्म की अपेक्षा आगे के जन्म दुखदायी होते हैं ।

यद्यपि विश्‍
व ने आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति की है, तथापि सुख (जो हमारे जीवन का मुख्य
ध्येय है) के संदर्भ में, हम पिछली पीढियों की अपेक्षा निर्धन हैं ।यही जीवन का सत्य है ।

हम सब सुख चाहते हैं; परंतु प्रत्येक का अनुभव है कि जीवन में दुख आते ही हैं । ऐसे में अगले जन्म में
और भविष्य के जीवन में सर्वोच्च तथा चिरंतन सुख प्राप्त होने की निश्‍चिति नहीं है । जीवन का सत्य है ,
के वल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्‍वर से एकरूपता ही हमें निरंतर और स्थायी सुख दे सकते हैं।

प्रारब्ध और लेन-देन के नियम


आध्यात्मिक स्तर : यदि हम र्इश्वर से साक्षात्कार हुए व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत मानें,
तो वर्त्तमान समय में सामान्य व्यक्ति का औसत आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत है । विश्व की ९० प्रतिशत
जनसंख्या का आध्यात्मिक स्तर ३५ प्रतिशत से अल्प है । संतत्त्व की प्राप्ति हेतु न्यूनत्तम ७० प्रतिशत
आध्यात्मिक स्तर होना अनिवार्य है ।
हमारे जन्म से लेकर, हमारा जन्म किस परिवार में होगा, ऐसी अनेक घटनाएं हमारे प्रारब्ध के अनुसार
घटती हैं । व्यक्ति उस परिवार में जन्म लेता है जिस परिवार की परिस्थिति उसके लिए उसका प्रारब्ध
भोगने हेतु अनुकू ल हो और उस परिवार के सभी सदस्यों से उसका बडी मात्रा में लेन-देन हो ।

कर्म का सिद्धांत है कि प्रत्येक सकारात्मक कर्म ‘पुण्य’ उत्पन्न करता है और प्रत्येक नकारात्मक कर्म ‘पाप’
उत्पन्न करता है । इसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का फल भुगतना ही पडता है । जब भी कोई दूसरों
के लिए अच्छा कर्म करता है, फलस्वरूप उस व्यक्ति से उसे ‘धन्यवाद’ के साथ-साथ सकारात्मक फल
अर्थात सुख भी प्राप्त होता है । जब भी हम किसी को हानि पहुंचाते हैं, उस समय हमें नकारात्मक फल
(दु:ख के रूप में) प्राप्त होता है जिसका क्षालन के वल ‘क्षमा करें’, इतना कहने से नहीं होता ।

कर्म का सिद्धांत अपरिवर्तनशील है । कु छ सीमा तक यह न्यूटन की गति के तीसरे सिद्धांत के समान है , जो


यह बोध कराता है कि ‘प्रत्येक क्रिया की समतुल्य और विपरीत प्रतिक्रिया होती है । (For every action
there is an equal and opposite reaction.)’

जीवन की संपूर्ण यात्रा में हम किसी पुराने लेन-देन को चुका रहे होते हैं अथवा कोई नया लेन-देन बना रहे
होते हैं । यह लेन-देन यदि इस जन्म में पूरा नहीं हुआ, तो उसे दूसरे जन्म में पूरा करना पडता है । हमने
अपने गत जन्मों में जो लेन-देन बनाए हैं, उस विषय का हमें ज्ञान नहीं होता ।

अगले जन्म में यह भी संभव है कि परिवारवालों के साथ हमारा संबंध और लिंग बदल जाए । इस जन्म में
यदि कोई पिता है तो अगले जन्म में वह अपने बेटे की बेटी के रूप में जन्म ले सकता है ।

निम्नलखित उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाएगा कि लेन-देन कै से उत्पन्न होते हैं और कै से प्रारब्ध बनकर
उभरते हैं । यह भी ज्ञात होगा कि साधना से प्रारब्ध के परिणामों को कै से शिथिल अथवा समाप्त किया जा
सकता है ।
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार हमारे परिवार के अधिकतर सदस्यों के साथ पिछले जन्मों का हमारा सकारात्मक
अथवा नकारात्मक लेन-देन होता है । पिछले कर्मों के फल, जो सुख अथवा दु:ख के रूप में होते हैं, उन्हें
भुगतने के लिए उन व्यक्तियों के संपर्क में रहना आवश्यक होता है ।

कर्म का सिद्धांत समझने से हमें यह ज्ञात होता है कि अध्यात्म में रुचि न रखने वाले और भौतिक जीवन
जीने की चाह रखने वालों के लिए भी साधना कितनी आवश्यक है । प्रारब्ध के होते हुए भी भौतिक संबंधों
को सुखमय बनाने के लिए साधना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।
हमारे कर्मों का कारण और लेन-देन की क्रियाविधि

१. प्रस्तावना

पिछले लेखों में बताए अनुसार हमारे जीवन के ६५% कर्म प्रारब्ध के अनुसार होते हैं । यह हमारे जीवन का
वह भाग है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता । हमारे आसपास के लोगों के साथ हम जो लेन-
देन निर्माण करते हैं, उसके द्वारा हम अपने इस खाते में वृद्धि करते हैं, जिसे हमें इस जन्म में अथवा
आगे के जन्मों में चुकाना होता है ।

अधिकतर प्रसंगों में हम अपने अवचेतन मन(subconscious mind) में विद्यमान दृढ संस्कारों के अनुरूप
कर्म अथवा विचार करते हैं, जिसका ज्ञान हमारे चेतन मन (conscious mind) को नहीं होता । हमारा
आचरण और हमारी निर्णय प्रक्रिया; हमारे प्रारब्ध और लेन-देन के अनुसार होते हैं । लेन-देन कै से कार्य
करता है ? निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होगा कि लेन-देन हमारे निर्णयों को किस प्रकार से प्रभावित
करता है ।

सर्वप्रथम हमें हमारे अस्तित्व के विभिन्न पहलुओं को समझ लेना होगा, जो किसी कर्म अथवा निर्णय
प्रक्रिया के लिए आवश्यक होते हैं । इनमें से कु छ पहलुओं से आधुनिक विज्ञान अनभिज्ञ है ।

२. मनुष्य में निर्णय प्रक्रिया के लिए आवश्यक घटक

निर्णय प्रक्रिया में अंतर्भूत होनेवाले मनुष्य के विविध अंग निम्नांकित आकृ ति में प्रातिनिधिक स्वरूप में
दर्शाए हैं । इनमें से कु छ अंग सूक्ष्म हैं इसलिए उन्हें स्थूल नेत्रों से देख पाना संभव नहीं होता । यह वर्तुल
सूक्ष्म अथवा कारण देह का प्रातिनिधिक स्वरूप है, जिसमें मन और बुद्धि अंतर्भूत है । संवेदनाएं, भावनाएं
और इच्छाएं अर्थात मन तथा निर्णय करने और कार्यकारणभाव समझने की क्षमता अर्थात बुद्धि । मन और
बुद्धि को स्थूल नेत्रों से देखना संभव नहीं है ।
उपर्युक्त आकृ ति से आप समझ सकते हैं कि अवचेतन मन के निम्नांकित पांच कें द्रोंमें विभिन्न प्रकारकी
स्मृतियां संग्रहित की जाती हैं :

२.१ बोध और विवेचन कें द्र

इस कें द्र में संवेदना का बोध होकर उसका अर्थ स्पष्ट किया जाता है ।

२.२ लेन-देन कें द्र

यह कें द्र सर्व प्रकार के लेन-देन का लेखा-जोखा रखता है और उन्हें पूर्ण करने का प्रयत्न भी करता है । उदा.
व्यक्ति ‘अ’ दूसरे व्यक्ति ‘ब’ पर आक्रमण करता है, तब व्यक्ति ‘ब’ के अवचेतन मन में विद्यमान लेन-देन
कें द्र में इस प्रसंग की स्मृति संजोर्इ जाती है । समय आने पर व्यक्ति ‘आ’ को उसका अवचेतन मन
व्यक्ति ‘अ’ पर आक्रमण करने की सूचना देता है अथवा वैसी स्थिति निर्माण करने का प्रयत्न करता है
अथवा अनुपातित मात्रा में व्यक्ति ‘अ’ को कष्ट पहुंचाने का प्रयत्न करता है ।
२.३ वासना और इच्छा कें द्र

इस कें द्र में सभी वासनाएं और इच्छाएं संग्रहित होती हैं ।

२.४ रुचि-अरुचि कें द्र

यह कें द्र बाह्यमन को रुचि और अरुचियों की संवेदनाएं भेजता है ।

२.५ स्वभाव-विशेषता कें द्र

व्यक्ति के स्वभाव-विशेषताएं इस कें द्र में संग्रहित होते हैं ।

३. लेन-देन कें द्र अपना प्रभाव किस प्रकार से डालता है, इसका एक उदाहरण

मन में विद्यमान विविध कें द्रों का कार्य समझने के लिए एक कु त्ते का उदाहरण देखेंगे, जो व्यक्ति के पास
दुम हिलाता हुआ आता है ।
अब कल्पना करें कि लेन-देन कें द्र को छोडकर मन में विद्यमान प्रत्येक कें द्र कु त्ते की ओर से आनेवाली
संवेदना को सकारात्मक प्रतिसाद देता है । के वल लेन-देन कें द्र ही नकारात्मक प्रतिसाद देता है । अब अंतिम
परिणाम क्या होगा ? इस घटना में अंतिम क्रिया / प्रतिक्रिया नकारात्मक ही होगी । इसका कारण यह है
कि लेन-देन कें द्र को अन्य सभी कें द्रों द्वारा प्रेषित संवेदनाओं को नकारने का अधिकार होता है और वह
अन्य कें द्रों के कु ल मिलाकर ३५% बल की तुलना में ६५% बल लगाता है । इसलिए कभी-कभी हम अपने
पूर्वकालीन जीवन में लिए गए किसी मूर्खतापूर्ण निर्णय का ध्यान आने पर कहते हैं कि “मैंनेउस समय क्या
सोचकर ऐसा किया होगा ?” लेन-देन ही इसका उत्तर है, जो आपके पास उत्तम बुद्धि होने के पश्चात भी
आपके लिए विचार करता है और आप को संकट में लाता है । विवाह, गंभीर दुर्घटनाएं और छोटी-सी बात
के लिए ठगे जाने जैसी जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का मूल लेन-देन कें द्र में ही होता है ।

यह नियम जीवन की सभी घटनाओं में हम लागू कर सकते हैं । अपने बीते जीवन में झांकने पर हमें
ध्यान में आएगा कि कु छ लोगों का आचरण हमारे साथ बिना किसी कारण अच्छा अथवा बुरा था । अब
हमें स्पष्ट होगा कि ऐसा क्यों होता है ।

 चरण १ : जब कु त्ता व्यक्ति की ओर आने लगता है, उसकी संवेदना व्यक्ति की आंखों में पहुंचती है
। आंखों से वह व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान दृष्टि कें द्र तक पहुंचती है । मस्तिष्क में
विद्यमान दृष्टि कें द्र से संवेदना दृष्टि से संबंधित सूक्ष्म-ज्ञानेंद्रिय के पास पहुंचती है ।

 चरण २ : दृष्टि से संबंधित सूक्ष्म-ज्ञानेंद्रिय से यह संवेदना चेतन मन तक पहुंचती है । इस समय


व्यक्ति को के वल यह ज्ञान होता है कि कोई उसकी ओर आ रहा है ।

 चरण ३ : चेतन मन से संवेदना अवचेतन मन में चली जाती है और बोध एवं विवेचन कें द्र में
पहुंचती है, जहां इसका विश्लेषण इस प्रकार से होता है : पास में आनेवाला प्राणी कु त्ता है । वह दुम
हिला रहा है, अर्थात यह मित्रता व्यक्त कर रहा है ।

 बोध और विवेचन कें द्र से संवेदना लेन-देन कें द्र में पहुंचती है । यदि कोई लेन-देन शेष रह गया है,
तो संवेदना में परिवर्तन किया जाता है । उदा. यदि उस कु त्ते अथवा उसमें विद्यमान लिंगदेह ने
व्यक्ति को उसके पूर्वजीवन (इस जन्म अथवा पूर्वजन्म) में कष्ट दिए हैं, तो उस कु त्ते को किसी भी
प्रकार से कष्ट देने की दृष्टि से इस संवेदना मं परिवर्तन होता है ।

 लेन-देन कें द्र से यह संवेदना वासना और इच्छा कें द्र में पहुंचती है, जहां उस व्यक्ति की इच्छानुसार
उसमें परिवर्तन होता है । उदा. किसी को कु त्ते के साथ खेलने की इच्छा हो सकती है ।

 वासना और इच्छा कें द्र से संवेदना रुचि-अरुचि कें द्र में जाती है । संवेदना की सुख अथवा दुःख देने
की क्षमतानुसार उसमें क्रमशः रुचि अथवा अरुचि निर्माण होती है । रुचि-अरुचि कें द्र से संवेदना
स्वभाव-विशेषता कें द्र में जाती है, जहां व्यक्ति के स्वभाव-विशेषता के अनुसार उसमें परिवर्तन होता
है ।

 स्वभाव-विशेषता कें द्र से संवेदना बुद्धि कें द्र में जाती है । बुद्धि कें द्र में संग्रहित ज्ञान के अनुसार उसमें
परिवर्तन होता है । यहां अन्य कें द्रों द्वारा होने वाले प्रभावों के और अन्य कु छ घटकों (उदा. कु त्ते के
साथ खेलने के लिए पर्याप्त समय है अथवा नहीं इ.) के विषय में भी विचार किया जाता है । बुद्धि
कें द्र से निकलने वाली संवेदना का स्वरूप अंत में इस बात पर निर्भर होता कि कौन सा कें द्र संवेदना
को सर्वाधिक मात्रा में परिवर्तित करने में सफल हुआ है । उदा. यदि रुचि-अरुचि कें द्र के अनुसार
“कु त्ते के साथ खेलने की इच्छा’’; बुद्धि कें द्र के “कु त्ते के साथ खेलने के लिए पर्याप्त समय नहीं है”,
इस निर्णय की तुलना में अधिक बलवान होगी, तो बुद्धि कें द्र के पास से पंचसूक्ष्म कर्मेंद्रियों के पास
जाने वाली संवेदना होगी “कु त्ते के साथ खेलो” । इस प्रकार से बुद्धि कें द्र से निकलने वाली अंतिम
संवेदना अन्य कें द्रों द्वारा लगाए गए बल के कु ल परिणामों पर निर्भर होती है ।

 पंचसूक्ष्म कर्मेंद्रियों से मस्तिष्क में विद्यमान विविध कार्मिक और हाइपोथैलेमिक कें द्रों में जानेवाली
संवेदना के अनुसार बाह्यमन और व्यक्ति प्रतिसाद देता है । इस उदाहरण में यदि व्यक्ति के मन
में पूर्वजन्म की किसी घटना के कारण कु त्ते के प्रति जन्मगत और अकारण भय का संस्कार होगा,
तो यह व्यक्ति कु त्ते को नकारात्मक प्रतिसाद देगा और पत्थर उठाकर कु त्ते को भगाने का प्रयत्न
करेगा ।

प्रारब्ध पर विजय प्राप्त करना


प्रारब्ध तथा क्रियमाण कर्म क्या हैं ?

इस विषय को समझने हेतु हमें यह जानना होगा कि प्रारब्ध क्या है :

 पाश्चात्य दृष्टिकोण से हमारे जीवन पर हमारा नियंत्रण है तथा जीवन में घटनेवाली हर घटना हमारी
स्वेच्छा से घटती है ।

 इसके विपरीत प्रसिद्ध पूर्वी दृष्टिकोण यह है कि हमारे साथ घटित कु छ भी हमारे नियंत्रण में नहीं है
और हम पूर्वनिर्धारित नियोजन की कठपुतलियों के अतिरिक्त कु छ भी नहीं हैं ।

परंतु इन दोनों में से कोई भी दृष्टिकोण पूर्णतया सही


नहीं है । अध्यात्मशास्त्र के अनुसार हमारे जीवन का
६५% प्रारब्ध से तथा शेष ३५% क्रियमाण कर्म से
नियंत्रित होता है ।

किं तु हम अपने ३५% क्रियमाण कर्म से उचित साधना


करके ६५% प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं ।

जो हमारे हाथ में नहीं होता उसे प्रारब्ध कहते हैं ।


जीवन का जो भाग हमारे नियंत्रण में हो उसे क्रियमाण
कर्म कहते हैं ।

क्रियमाण कर्मका एक उदाहरण : जैसे कोई व्यक्ति अत्यधिक मदिरा पीकर, अपनी बुरी स्थिति में रखी हुई
गाडी को तीव्र ढलानवाली पहाडी पर बहुत तेज चलाता है । गाडी चलाते समय सडक पर फिसल कर
दुर्घटनाग्रस्त हो जाए तो इसमें किसका दोष होगा ? क्या इस दुर्घटना को प्रारब्ध कहेंगे अथवा अनुचित
क्रियमाण के कारण हुई दुर्घटना कहेंगे ?

निश्चय ही यह क्रियमाण है क्योंकि उसे मदिरा पी कर गाडी नहीं चलानी चाहिए थी, उसे पहले देखना
चाहिए कि उसकी गाडी अच्छी स्थिति में है, और गाडी धीरे चलानी चाहिए ।

प्रारब्ध से संबंधित एक अन्य उदाहरण लेते हैं : एक अन्य चालक जो सौम्य है, सतर्क ता पूर्वक गाडी चलाता
है तथा गाडी भी पूर्ण व्यवस्थित स्थिति में रखता है । वह भी उसी पहाडी के ढालान पर सतर्क ता पूर्वक जा
रहा होता है कि अकस्मात भूस्खलन (landslide) के कारण सडक टू ट जाती है और एक दुर्घटना होती है ।
यहां भूस्खलन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था अत: यह उसका प्रारब्ध था ।

प्रारब्धवश जो कु छ होता है, उसका कारण आध्यात्मिक ही है तथा साधना जैसे आध्यात्मिक उपाय से ही
हम प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । प्रारब्ध की तीव्रता के अनुसार उस पर विजय प्राप्त करने हेतु
उपयुक्त स्तर की साधना करनी पडती है । निम्नांकित सारिणी में हमें भिन्न प्रकार के प्रारब्ध एवं उन पर
विजय प्राप्त करने के उपाय बताए गए हैं :

रारब्ध के प्रकार

मंद मध्यम तीव्र

उदाहरण छोटी-मोटी बीमारियां, विवाह छोटा अपघात, विवाह बडे अपघात एवं मृत्यु योग,
होने के लिए सामान्य से होने हेतु अत्यधिक अत्यधिक प्रयत्न करने पर
अधिक प्रयत्न करने पडते हैं । प्रयत्न करने पडते हैं । भी विवाह तय न होना ।

विजय मध्यम साधना तीव्र साधना साधना से नहीं बदला जा


कै से प्राप्त सकता । के वल गुरुकृ पा से ही
करें ? बदला जा सकता है ।

प्रमाणानुसार, तीव्र साधना का तात्पर्य प्रतिदिन १२-१४ घंटों के अभ्यास से है । गुणवत्ता की दृष्टि से इसका
अर्थ है कि व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति का मुख्य ध्येय रखकर, अपने प्रतिदिन के कार्य ईश्वर की सेवा समझकर,
तीव्र तडप से करता है ।

कृ पया ध्यान दें :

मध्यम स्तर की साधना में प्रमाणानुसार ४-५ घंटे का दैनिक अभ्यास एवं गुणवत्ता के अनुसार व्यक्ति
अपने अधिकांश कार्य ईश्वर की सेवा समझकर करता है ।

जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति


अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मुक्ति की परिभाषा है, प्रारब्ध में अर्थपूर्ण न्यूनता (बहुत कम होना) के कारण
जन्म लेने की बाध्यता न होना ।

मनुष्य का जन्म दो कारणों से बार-बार होता है । पहला ६५ प्रतिशत महत्त्व रखनेवाला कारण है प्रारब्ध के
अनुसार सुख-दुःख भोगना और दूसरा ३५ प्रतिशत महत्त्व रखनेवाला कारण है आध्यात्मिक उन्नति
कर आनंदप्राप्ति करना ।

मान लीजिए औसत संचित खाता (अर्थात लेन-देन के नियम से उत्पन्न किसी के कु ल संचित पुण्य अथवा
पाप)१०० ईकाई है, तो उनमें से एक जन्म में, ६ ईकाई प्रारब्ध के रूप में भोगनी होती है । इसका तात्पर्य
यह निकलता है कि मनुष्य १६-१७ जन्मों में मुक्त हो सकता है; परंतु ऐसा नहीं होता, क्योंकि इस ६ ईकाई
प्रारब्ध को भोगते हुए सामान्य व्यक्ति साधना नहीं करता । साथ ही क्रियमाण कर्मों से संचित खाता १०
ईकाई से और बढ जाता है । अंततः मृत्यु के समय यह संचित खाता १०४ ईकाई का हो जाता है और एक
बार पुनः जीवन और मृत्यु के चक्र में फं स जाता है ।

समष्टि आध्यात्मिक स्तरका अर्थ है, समाजके हितके लिए आध्यात्मिक साधना (समष्टि साधना) करनेपर
प्राप्त हुआ आध्यात्मिक स्तर; जब कि व्यष्टि आध्यात्मिक साधनाका अर्थ है, व्यक्तिगत आध्यात्मिक
साधना (व्यष्टि साधना) करनेपर प्राप्त आध्यात्मिक स्तर । वर्तमान समयमें समाजके हितके लिए
आध्यात्मिक साधना (प्रगति) करनेका
महत्त्व ७०% है, जब कि व्यक्तिगत
आध्यात्मिक साधनाका महत्त्व ३०% है ।

बहुधा हम सभी अपना जीवन ऐसे जीना


चाहते हैं, जिससे हमारे अगले कु छ जन्म
बहुत सुखमय हो । परंतु जीवन का उद्देश्य
आगामी सुखमय जन्म पाना नहीं, अपितु
जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना है ।
हमारा जन्म हुआ इसका अर्थ ही यह है कि
हमने अभी तक वह पाठ ही नहीं सीखा, जो
सीखना चाहिए था । जिस प्रकार परीक्षा में
असफल होने पर हमें पुनः उसी कक्षा में
बैठना पडता है; ठीक उसी प्रकार हम पुनः
पुनः जन्म लेते हैं । इस नीरस कभी
समाप्त न होनेवाले चक्र से हम तभी मुक्त
हो सकते हैं, जब हम आध्यात्मिक उन्नति
कर र्इश्वर प्राप्ति के प्रयास करेंगे । यही
सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य है जो कोई भी व्यक्ति पाना चाहेगा ।
इस साधना के माध्यम से, जब व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत (समष्टि) अथवा ७०
प्रतिशत (व्यष्टि) तक पहुंच सकता है, तो उसे आगे की उन्नति के लिए पुनः जन्म लेने की आवश्यकता
नहीं होती ।

प्रकरण का अध्ययन – तीव्र प्रारब्ध से रक्षा


SSRF द्वारा प्रकाशित प्रकरण-अध्ययनों (के स स्टडीस) का मूल उद्देश्य है, उन शारीरिक अथवा मानसिक
समस्याओं के विषय में पाठकों का दिशादर्शन करना, जिनका मूल कारण आध्यात्मिक हो सकता है । यदि
समस्या का मूल कारण आध्यात्मिक हो, तो यह ध्यान में आया है कि सामान्यतः आध्यात्मिक उपचारों का
समावेश करने से सर्वोत्तम परिणाम मिलते हैं । SSRF शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं के लिए इन
आध्यात्मिक उपचारों के साथ ही अन्य परंपरागत उपचारों को जारी रखने का परामर्श देता है । पाठकों के
लिए सुझाव है कि वे स्वविवेक से किसी भी आध्यात्मिक उपचारी पद्धति का पालन करें ।

सार

प्रारब्ध एक शक्तिशाली आध्यात्मिक घटक है, जो सभी प्राणियों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है और
हमारे सुख-दुख का मूल कारण है । प्रारब्ध हमारे पूर्व जन्मों के संचित अच्छे -बुरे कर्मफल हैं, जो हमारे
वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं । हमारे जीवन की ६५% घटनाएं प्रारब्धवश होती हैं । अल्प प्रारब्ध
मध्यम साधना से दूर किया जा सकता है । मध्यम प्रारब्ध तीव्र साधना से तथा तीव्र प्रारब्ध के वल उच्च
आध्यात्मिक स्तर के गुरू की कृ पा से ही दूर होता है ।

कृ पया लेख पढें, प्रारब्ध और क्रियमाण क्या है ?

१. प्रस्तावना

श्री अरविंद ठक्कर, प्रबंधन विषय के स्नातकोत्तर पदवीप्राप्त हैं । आप एक प्रसिद्ध भारतीय प्रतिष्ठान
(कं पनी) में जिम्मेदार पदों पर कार्यरत रह चुके हैं । आपने प्रबंध सलाहकार के रूप में भी कार्य किया है
तथा विश्‍वविद्यालय में विद्यार्थियों को प्रबंधन (मैनेजमेंट) विषय पढाया है । वे गत १४ वर्ष से भी अधिक
समय से अपना जीवन SSRF को समर्पित कर साधना कर रहे हैं । नीचे हम उनके जीवन का पूर्वनिर्धारित,
प्रारब्ध का एक प्रसंग उन्हीं के शब्दों में देखेंगे । इस घटना में साधना के कारण वे मृत्यु के मुख से लौट
पाए ।

२. एक ज्योतिषी का भविष्यकथन

३० मार्च १९८८ को मेरा एक मित्र मुझे एक प्रसिद्ध ज्योतिषी के पास ले गया । उस समय मैं २८ वर्ष का था
। ज्योतिषी द्वारा मेरे बीते जीवन की अनेक घटनाओं को सही-सही विवरण करनेपर मैं बहुत चकित हुआ ।
उसके पश्‍चात उसने मुझे मेरे निकट भावी जीवन में होनेवाली कु छ घटनाओं के विषय में बताया । उन
घटनाओं में उसने एक ऐसी घटना की ओर भी संके त किया, जब मेरे जीवन में अत्यंत कठिन समय
आएगा; किं तु, इससे अधिक उसने कु छ नहीं बताया । उसने मुझे यह भी बताया कि मुझे तीन के गुट में
कभी नहीं रहना चाहिए और ३५ वर्ष का होने से पहले मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा ।
उसने ज्योतिषशास्त्र के अनुसार मेरे प्रारब्ध का वैज्ञानिक ढंग से सटीक वर्णन किया । मैं उसका यह
भविष्यकथन सुनकर कु छ क्षण के लिए व्याकु ल हो गया ।

३. परम पूज्य डॉ. आठवलेजी से भेंट

मार्च १९९१ में विवाह के पश्‍चात शीघ्र ही मेरे और मेरी पत्नी डॉ. आशा के जीवन में सौभाग्य से प.पू. डॉ.
आठवलेजी आए । आशा, जो एक मनोचिकित्सा विशेषज्ञ (M.D in Psychiatry) हैं, आत्मसम्मोहन की उन
कु छ पद्धतियों में रुचि रखती थी, जिनके प.पू. डॉ आठवलेजी प्रवर्तक (pioneer) थे और संपूर्ण भारत में
अनेक चिकित्सकों (डॉक्टरों) को इसका प्रशिक्षण भी दे रहे थे ।

४. प.पू. डॉ. आठवलेजी का हमारे जीवन पर प्रभाव

उन्होंने हमें हमारे कु लदेवता का नाम जपने के लिए कहा । इस विषय से मैं परिचित नहीं था । हमने शीघ्र
ही यह आरंभ कर दिया और दृढता से करते रहे । उन्होंने हमें उनके गुरु प.पू. भक्तराज महाराज से
मिलकर आशीर्वाद लेने के लिए प्रोत्साहित किया । लगभग उसी समय प.पू.डॉ. आठवलेजी ने गोवा में
अध्यात्मशास्त्र की कार्यशाला आरंभ की । इस कार्यशाला में हम प्रतिदिन जाने लगे । हम भाग्यशाली हैं कि
हमें वहां पर सत्सेवा करने का अवसर मिला, जो साधना का अंग है ।

इस काल में मेरा व्यवसाय फै ल चुका था । इसके पहले, ऐसा समय भी था जब मेरे लिए जीवनयापन करना
कठिन था । ऐसा प्रतीत होता था कि हमारे पूरे परिवार पर संकट के बादल छाए हैं । मेरे दो भाई और
उनकी पत्नियां, आशा तथा मैं जीवन में लगातार उतार-चढाव सह रहे थे । इनमेंे वैवाहिक समस्याएं,
निराशा तथा मद्यपान, गर्भपात, आत्महत्या के विचार तथा आर्थिक हानि सम्मिलित थी । साधना संबंधी
कार्याशालाओं से हमें पता चला कि इन सब समस्याओं का मूल कारण पितृदोष अर्थात अतृप्त मृत पूर्वजों के
सूक्ष्म शरीर हैं ।

हम अपनी साधना में दृढता से लगे रहे और जब भी प.पू. डॉ. आठवलेजी कार्यशाला हेतु मुंबई से गोवा
आते, हम कार्यशाला में अवश्य सहभागी होते । उनके मार्गदर्शन से हम साधक एक दूसरे के निकट आ गए,
हमारा जीवन उन्नत हुआ और उन्होंने हमें व्यक्तिगत स्तर पर स्थिर किया । जुलाई १९९३ में, प.पू. डॉ.
आठवलेजी का गोवा के दावरलिम में व्याख्यान निश्‍चित हुआ । यह व्याख्यान भगवान दत्तात्रेय के मंदिर में
हुआ था ।

(भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मांड के अनेक ईश्‍वरीय तत्त्वों में एक ऐसे तत्त्व हैं, जो पितृदोष से उत्पन्न समस्याओं
से हमारी रक्षा करते हैं, कृ पया पितृदोष संबंधी अनुभाग पढिए ।)

प.पू. डॉ. आठवलेजी ने ध्यान रखा कि मेरी मां प्रवचन में अवश्य आएं तथा भगवान दत्तात्रेय के मंदिर
प्रसाद चढाएं । प.पू. डॉ. आठवलेजी ने हमें, पितृदोष से उत्पन्न समस्याएं दूर करने के लिए, दो धार्मिक
अनुष्ठान – नारायण-नागबलि तथा त्रिपिंडी श्राद्ध करने का परामर्श भी दिया । यह अनुष्ठान, मृत पूर्वजों के
सूक्ष्मदेहों को निम्न योनि (प्रेतयोनि अथवा भूतयोनि) से उच्चलोक में जाने के लिए गति देता है । उन्होंने
कहा कि इन अनुष्ठानों से पूरा लाभ पाने के लिए इसमें पूरे परिवार का, विशेषरूप से माता-पिता का
सम्मिलित होना आवश्यक है । मेरे परिवार के अन्य सदस्य SSRF के किसी भी आध्यात्मिक परामर्श से
सहमत नहीं थे । उनकी अनुमति के साथ; किं तु उनके प्रत्यक्ष सहभाग के बिना हमने विधि की ।
१३ अगस्त १९९३ की रात मुझे एक विलक्षण अनुभव हुआ । जब मैं अपनी कु लदेवी अंबामाता का नामजप
कर रहा था, तब मुझे जागृत अवस्था में ही उनके दर्शन हुए । मैंने अनुभव किया कि मेरा शरीर अदृश्य हो
गया है और पैर से सिरतक प्रत्येक अवयव के चारों ओर सुरक्षा कवच बन रहा है । देवी अंबा ने अपना हाथ
मेरे सिर पर रखा । तब मेरी आंखों से अनियंत्रित अश्रु धार बहने लगी । मुझे नहीं पता चल रहा था कि
ऐसा क्यों हो रहा है । आगे पता चला कि ये आंसू मेरे भाव जागृत होने के प्रतीक थे । दूसरे दिन जब मैंने
प.पू. डॉ. आठवलेजी को इस घटना के विषय में बताया, तो उन्होंने इसे अच्छी अनुभूति कहा ।

(भाव, एक सकारात्मक आध्यात्मिक अनुभूति है जो र्इश्वर का अस्तित्व अनुभव होनेसे उत्पन्न होती है ।
इसका प्रकटीकरण अनेक रूपों में हो सकता है और उनमें से एक है, ठंडे अश्रु बहना ।)

५. प्रारब्ध की घटना

१६ अगस्त १९९३ को मेरे छोटे भाई संजय की (उस समय की आयु ३१ वर्ष) कार उसके निवासस्थान -
मडगांव गोवा से चोरी हो गई । पश्‍चात, २३ अगस्त १९९३ को किसी व्यक्ति ने दूरभाष कर कहा, आपकी
कार दावरलिम, गोवा में वाहन ठीक करने की कार्यशाला में देखी गई है । एक-एक कर हम तीनों भाई
(संजय, जयदीप और मैं) उस वाहन कार्यशाला में पहुंचे । उस समय मेरा छोटा भाई जयदीप २९ वर्ष का था
। कार्यशाला में पहुंचने के १ घंटे पश्‍
चात, हॉकी, चाकु ओं तथा अन्य शस्त्रों से सज्जित एक संगठित गिरोह
ने हम पर आक्रमण कर दिया ।

यह गिरोह यहां लंबे समय से सक्रिय था । कु छ स्थानीय राजनेताओं और पुलिसकर्मियों के संरक्षण में
दक्षिण गोवा में चुराए गए पुराने वाहनों को उस वाहनकार्यशाला (workshop) में नए रंग लगाकर दूसरा
नंबर दिया जाता था । इस गिरोह में मुंबई के कु छ कु ख्यात अपराधी सम्मिलित थे । वे यह सोचकर डर
गए कि अब उनके गिरोह का भंडाफोड हो जाएगा ।

इस अचानक हुए आक्रमण में जयदीप और मुझे निर्दयतापूर्वक पीटा गया । वहां भारी भीड जमा हो गई और
लोग चुपचाप सब देखते रहे; किसी ने सहायता नहीं की । संजय सहायता के लिए मडगांव पुलिस स्टेशन की
ओर भागा । जब मुझे पीटा जा रहा था, तब अंदर से आवाज आई, अपने कु लदेवता का नामजप करो ।
तत्क्षण ही मेरा नामजप आरंभ हो गया । तब प्रत्येक मार की पीडा धीरे-धीरे घटती गई । उस समय
अनुभव हुआ, तुम मेरे शरीर को पीट रहे हो, मुझे नहीं ! शरीर में भयंकर पीडा हो रही थी; किं तु मैं अनुभव
कर रहा था कि, मैं शरीर नहीं हूं ।

जब मेरा शरीर निर्जीव हो गया, तब अपराधियों ने मुझे उठाया और मेरी रीढ को एक लकडी के मोटे खंभे
से टकरा-टकरा कर तोडने लगे । फिर उन्होंने मुझे मरा हुआ समझकर नाले में फें क दिया और जयदीप पर
प्रहार करने लगे । नाले में पडा हुआ मेरा शरीर यद्यपि निर्जीव था; फिर भी मैं अपने आसपास की घटनाओं
को देख पा रहा था और अपने भीतर चल रहा नामजप सुन पा रहा था ।

तभी संजय घटनास्थल की ओर लौटता दिखाई दिया । किं तु, उसके साथ पुलिस नहीं थी । कु छ ही समय में
वह मुझे नाले से निकालकर समीप के एक घर में ले गया जो भगवान दत्तात्रेय के मंदिर के समीप सामने
की गली में ही था ! जब संजय जयदीप को बचाने गया, तो उस पर भी क्रू रता से आक्रमण किया गया ।
इस आक्रमण में मेरे दोनों भाइयों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई । दूसरी ओर मुझे मडगांव के
चिकित्सालय में भर्ती कराया गया । मेरी सांसें चल रही थीं; परंतु मेरी स्थिति इतनी गंभीर थी कि मडगांव
के चिकित्सालय ने प्राथमिक जांच और उपचार के पश्‍
चात मुझे वहां से ३० किमी दूर सरकारी गोवा मेडिकल
कॉलेज के चिकित्सालय, बांबोली में भर्ती कराने का सुझाव दिया; क्योंकि वे अधिक कु छ नहीं कर सकते थे
। एम्बुलेंस के गोवा मेडिकल कॉलेज पहुंचने से पहले ही, एक साधिका डॉक्टर (SSRF से संबंधित) ने प.पू.
डॉ. आठवलेजी को दूरभाष कर, यहां हुई घटना के विषय में बताया । उन्होंने उसे चिंता न करने के लिए
कहा और अन्य डॉक्टरों से उचित उपचार करते रहने के लिए कहा ।

उस रात SSRF की एक अन्य साधिका की, गोवा मेडिकल कॉलेज में परिवीक्षा (इंटर्नशिप) सेवा थी । जब
वह मुझे देखने के लिए वहां के डॉक्टरों के एक दल के साथ भागी-भागी अतिदक्षता विभाग में पहुंची, तो
उसने जो देखा, उसके विषय में बाद में उसने बताया कि संपूर्ण चिकित्सा प्रशिक्षणकाल में भी उसे ऐसी
परिस्थिति को संभालने की शिक्षा नहीं दी गई थी । मेरा शरीर रक्त से इतना लथपथ और टू टा हुआ था कि
उसे पहचाना नहीं जा सकता था ।

इस अवधि में प.पू. डॉ. आठवलेजी अपने मुंबई स्थित निवासस्थान में ध्यानावस्था में चले गए और तबतक
उसी अवस्था में रहे, जबतक मेरा प्राथमिक उपचार गोवा मेडिकल कॉलेज में चलता रहा । (यह बात उन
साधकों ने मुझे बताई, जो उस समय उनके साथ थे ।)

६. चमत्कारी उपचार होना

निम्नलिखित कु छ घटनाएं मुझे लगी चोटों में अद्वितीय सुधार की ओर संके त करती हैं ।

 मडगांव अस्पताल में वहां के चिकित्सकों को मेरे सिर में एक हलका सा अस्थिभंग (hairline
fracture) दिखाई दिया । किं तु, जब गोवा मेडिकल कॉलेज में एक्स-रे किया गया, तो उसमें वह
अस्थिभंग नहीं दिखा ।

 सामान्य जांच के समय जीएमसी के चिकित्सकों ने अनुभव किया कि शरीर में अनेक स्थानों पर
अस्थिभंग (हड्डी टू टी) है । किं तु, एक्स-रे से पता चला कि मेरा हड्डी का ढांचा सामान्य था ।

 मेडिकल कॉलेज के चिकित्सक मेरे स्वास्थ्य में शीघ्रता से होते सुधार से आश्‍
चर्य चकित थे ।
साधारणतया, इस प्रकार की चोट को ठीक होने में अनेक महीने और त्वचा का रंग सामान्य होने में
कु छ सप्ताह लग जाते हैं; किं तु, मेरे प्रकरण में चोट के चिह्न ३ दिन में ही धुंधले हो गए थे ।

 चौथे दिन मुझे बताया गया कि, मेरे भाइयों की मृत्यु हो गई है और मुझे घर ले जाने की व्यवस्था
होने लगी । मुझे व्हील चेयर में बिठाकर कार तक पहुंचाया गया । जब मैं मडगांव पहुंचा, तब कु र्सी
से उठकर सीढियों चढकर घर तक गया । उस समय गोवा मेडिकल कॉलेज के डीन ने कहा, कि
अभीतक कोई चमत्कार देखा है, तो यही है। एक रोगी जिसके बचने की कोई आशा नहीं थी और
जिसके शरीर की हड्डियां अनेक स्थानों से टू टीं थी, वह चौथे दिन उठकर अपने पैरों पर चलते हुए
घर गया !

(ये चमत्कारी उपाय श्री अरविंद के आध्यात्मिक गुणों के कारण भी हुए थे ।)

जब SSRF के प्रगत छठवीं इंद्रिय प्राप्त साधकों ने इस घटना का सूक्ष्म-परीक्षण किया, तो पता चला कि
मेरा अकाल मृत्युयोग था । अकाल मृत्युयोग का अर्थ है, मृत्यु की संभावना ।
(हम सबके जीवन में मृत्य का दिन और समय पहले से निश्‍चित रहता है । इसे अंतिम मृत्यु कहते हैं और
इससे कोई नहीं बच सकता । हम में से कु छ लोगों के जीवन में कु छ ऐसे अवसर होते हैं, जब प्रारब्ध के
कारण हमारी मृत्यु भी हो सकती है । इसी को अकाल मृत्यु कहते हैं । अपनी साधना के बल पर तथा संतों
के आशीर्वाद से हम इस तीव्र प्रारब्ध से बच सकते हैं । अरविंद के प्रकरण में, वे अपनी साधना के कारण
इस अकाल मृत्यु से बच पाए ।)

यह भी ज्ञात हुआ कि पितरों को गति देने के लिए की गई धार्मिक विधियों के प्रभाव से इस घटना में
पितरों के संभावित कष्ट अल्प हुए थे । इसलिए, घटना के समय हम तीनों भाइयों को अल्प पीडा हुई ।
ऐसे प्रकरणों में साधारण व्यक्ति को जहां १०० प्रतिशत पीडा होती है, हमें २० प्रतिशत ही हुई । यह अतृप्त
पूर्वजों के लिए की गई – नारायण नागबली और त्रिपिण्डी श्राद्ध विधि करने का प्रभाव था ।

७. इस घटना से संबंधित तीन महत्त्वपूर्ण संवाद

 इस घटना के कु छ दिन पहले भारत के एक संत प.पू. काणे महाराज ने SSRF के एक साधक से
कहा था कि हम लोगों पर एक बडा संकट आएगा, जो भगवान के प्रति हमारे विश्वास को हिला देगा
। जब उस साधक ने यह बात प.पू. डॉ. आठवलेजी को बताई, तब उन्होंने कहा, देखते हैं, कौन
अधिक शक्तिशाली है -र्इश्वर अथवा असुर ।

 जब कु छ साधकों ने प.पू. डॉ. आठवलेजी से मुझे गोवा मेडिकल कॉलेज में सुरक्षा प्रदान करवाने के
विषय में पूछा, तो उन्होंने कहा, जिसने आक्रमण में अरविंद को बचाया, क्या वह उन्हें अस्पताल में
नहीं बचाएगा !

 दो सप्ताह पश्‍
चात प.पू. डॉ. आठवलेजी हमारे माता-पिता से मिलने आए । तब मेरी मां ने उनसे
मेरी सुरक्षा और कु शल-मंगल के विषय में पूछा । उन्होंने कहा, अरविंद सुरक्षित रहेगा ।

जब प.पू. डॉ. आठवलेजी अगली बार हमारे घर, गोवा आए, तो उन्होंने कहा कि आपके परिवार में एक और
मृत्यु होगी । हम इसका अनुमान लगा रहे थे । १८ सितंबर १९९३ को, आशा के पिता की गंभीर हृदयाघात
से मृत्यु हुई । वे जयदीप से बहुत प्रेम करते थे । इसके पहले उन्हें कभी इस प्रकार का कष्ट नहीं हुआ था

उस वर्ष, मेरे माता-पिता ने आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था; किं तु, एक प्रबल शक्ति उन्हें संभाल रही
थी तथा ऐसा करने से रोक रही थी ।

वर्ष १९९६ में हम नए भवन में स्थानांतरित हो गए । नए भवन में स्थानांतरित होने से पहले हमने उसमें
कु लदेवी की पूजा की । परिवार के सभी सदस्यों ने कु लदेवी और भगवान दत्तात्रेय का नामजप करना आरंभ
कर दिया । तबसे जीवन सामान्य हो गया है । जीवन के प्रत्येक उतार-चढाव में र्इश्वर का आशीर्वाद सदा
हमारे साथ रहता और हम स्थिर रहते हैं ।

इस घटना के १३ वर्ष पश्‍चात, एक उतरे हुए कं धे, हड्डियों के विकार, एंकिलोसिंग स्पाँडिलोसिस और अन्य
समस्याओं के साथ जो इस घटना से संबंधित चिन्ह हैं, उनके आशीर्वाद से मैं अपनी सत्सेवा एक सामान्य
व्यक्ति की भांति कर पाता हूं ।
(आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नतोंका आशीर्वाद व्यक्ति के घोर प्रारब्ध से उसकी रक्षा करने हेतु शक्तिशाली
सुरक्षा-कवच प्रदान करता है और प्रारब्ध को दूर करने का साधन बनता है ।)

हमारा लेन-देन किसके साथ होता है ?

सामान्यतः हमारा अपने परिवार के सदस्यों के साथ और निकटतम लोगों के साथ सबसे अधिक लेन-देन
होता है ।

लेन-देन क्या है, कृ पया यह लेख पढ़ें ।

यदि हम अपने जीवन काल में उन सभी लेन-देन पर विचार करें, जो उन लोगों के साथ रहता है जिन्हें हम
जानते हैं, तब वे लोग कौन होंगे जिनके साथ हमारा सबसे अधिक लेन-देन होगा ? हमारे विभिन्न सम्बन्धों
में तुलनात्मक रूप से लेन-देन की तीव्रता कितनी होती है, इसकी सारिणी आगे दी गई है :

लेन-देन किसके साथ होता है ? प्रतिशत (%)

पति/पत्नी २७

माता-पिता – बच्चों का सम्बन्ध २५

भाई-बहन ९

घनिष्ठ मित्र ९

प्रेमी युगल ९

सहकर्मी ९

अन्य रिश्तेदार ४

अन्य परिचित (पड़ोसी, मित्र और ४


सहयोगी)

अन्य ४

कु ल १००

हमारे आध्यात्मिक शोध से पता चला है कि सामान्यतः पर हमारे जीवनसाथी के साथ हमारा सबसे अधिक
लेन-देन होता है । हम अपने जीवनसाथी को पिछले जन्म से जानते हैं । एक विशेष जीवनकाल में दोनों के
एक साथ आने का कारण लेन-देन चुकाना होता है, जो मुख्य रूप से पिछले जन्म अथवा जन्मों में निर्माण
हुए होंगे । हुत से लोग मानते हैं कि हम अपने पसंद के व्यक्ति से विवाह करते हैं, किं तु ये सत्य नहीं है ।
विवाह १०० प्रतिशत प्रारब्धजनित है और वैसे ही हमारे जीवन में अन्य सभी महत्वपूर्ण सम्बंध भी, जैसे कि
हमारे पिता, माता और भाई-बहन भी । इसलिए, जब हम कहते हैं कि सुंदरता देखने वाले की आंखो में
होती है, तो हम सच्चाई से दूर नहीं हैं । बाह्य रूप से यह प्रतीत हो सकता है कि एक युगल प्रेम में है
और यही कारण है कि वे एक साथ हैं, अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, वे मुख्य रूप से लेन-देन चुकाने के लिए
एक साथ हैं ।
प्रस्तावना

दैनिक जीवन में कर्म करते समय, हम उन कर्मों का फल पुण्य एवं पाप के रूप में भोगते हैं । पुण्य एवं
पाप हमें अनुभव होनेवाले सुख और दुख की मात्रा निर्धारित करते हैं । अतएव यह समझना महत्त्वपूर्ण है
कि पापकर्म से कै से बचें । वैसे तो अधिकांश लोग सुखी जीवन की आकांक्षा रखते हैं; परन्तु जिन लोगों को
आध्यात्मिक प्रगति की इच्छा है, वे यह जानने की जिज्ञासा रखते हैं कि क्यों मोक्षप्राप्ति के आध्यात्मिक
पथ में पुण्य भी अनावश्यक हैं ।

२. पुण्य एवं पाप क्या है ?

पुण्य अच्छे कर्मों का फल है, जिनके कारण हम सुख अनुभव करते हैं । पुण्य वह विशेष ऊर्जा अथवा
विकसित क्षमता है, जो भक्तिभाव से धार्मिक जीवनशैली का अनुसरण करने से प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ
मित्रों की आर्थिक सहायता करना अथवा परामर्श देना पुण्य को आमन्त्रित करना है । धार्मिकता तथा
धर्माचरण की विवेचना अनेक धर्मग्रंथों में विस्तृतरूप से की गई है । पुण्य के माध्यम से हम दूसरों का
कल्याण करते हैं । उदाहरण के लिए कै न्सर पीडितों की सहायता के लिए दान करने से कै न्सर से जूझ रहे
अनेक रोगियों को लाभ होगा, जिससे हमें पुण्य मिलेगा ।

पाप क्या है, पाप बुरे कर्म का फल है, जिससे हमें दुख मिलता है । किसी और का बुरा चाहने की इच्छा से
कर्म करने पर पाप उत्पन्न होता है । यह उन कर्मों से उत्पन्न होता है जो प्रकृ ति अथवा ईश्वर के नियमों
के विपरीत अथवा उसके विरुद्ध हों । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यापारी अपने ग्राहकों को ठगता है, तो
उसे पाप लगता है । कर्त्तव्य-पूर्ति नहीं करने पर भी पाप उत्पन्न होता है, उदा. जब कोई पिता अपने बच्चों
की आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं देता अथवा जब वैद्य अपने रोगियों का ध्यान नहीं रखता ।

पुण्य और पाप इसी जन्म में, मृत्यु के उपरांत अथवा आगामी जन्मों में भोगने पडते हैं ।

पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्य और पाप लेन-देन के हिसाब से सूक्ष्म होते हैं; क्योंकि लेन-देन का हिसाब
समझना तुलनात्मक रूप से सरल है उदा. परिवार के स्तर पर, परन्तु यह समझना बहुत कठिन है कि क्यों
किसीने एक अपरिचित का अनादर किया ।

३. पुण्य और पाप के कारण

पुण्यसंचय के अनेक कारण हो सकते हैं । प्रमुख कारण हैं :

 परोपकार

 धर्मग्रंथों में बताए अनुसार धर्माचरण

 दूसरे की साधना के लिए त्याग करना । उदाहरण के लिए यदि कोई बहू अपने कार्य से छु ट्टी लेकर
घर संभालती है, जिससे उसकी सास तीर्थयात्रा पर जा सके , तो बहू को सासद्वारा अर्जित तीर्थयात्रा
के फल का आधा भाग मिलेगा । तथापि जहांतक संभव हो, दूसरों पर निर्भर होकर साधना न करें ।

पाप संचय के कु छ कारण हैं :


 क्रोध, लालच एवं ईर्ष्या के रूप में स्वार्थ एवं वासना व्यक्ति को पाप के लिए उद्युक्त करते हैं ।

 सिद्धांतहीन अथवा क्रू र होना

 किसी भिखारी से अपमानजनक बात करना

 मांस एवं मदिरा का सेवन करना

 प्रतिबन्धित वस्तुएं बेचना, ऋण न चुकाना, काले धनका व्यवहार, जुआ

 झूठी गवाही देना, झूठे आरोप लगाना

 चोरी करना

 दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार इत्यादि

 हिंसा

 पशुहत्या

 आत्महत्या

 ईश्वर, मंदिर, आध्यात्मिक संस्था इत्यादि की संपत्तिका अनावश्यक व्यय एवं दुरुपयोग इत्यादि

 अधिवक्ताओं को पाप लगता है, क्योंकि वे सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य बनाते हैं ।

 पति को पत्नी के पापकर्म का आधा फल भोगना पडता है; क्योंकि उसने अपनी पत्नी को पापकर्म
करने से न रोकने के कारण वह पाप का भागीदार बनता है ।

 पतिद्वारा अधर्म से अर्जित संपत्ति व्यय करनेवाली तथा ज्ञात होने पर भी उसे न रोकनेवाली पत्नी
को पाप लगता है ।

 पापी के साथ एक वर्ष रहनेवाला भी उसके पाप का भागी हो जाता है ।

४. पुण्य एवं पाप का प्रभाव

४.१ सुख के रूप में पुण्य का प्रभाव

पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्य की मात्रा के अनुपात में व्यक्ति को पृथ्वी पर उतना सुख मिलता है और अंत
में पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में अपेक्षासहित कर्म से अर्जित पुण्य से वे स्वर्ग में सुख पाते हैं :

 सुसंस्कृ त एवं धनाढ्य परिवार में जन्म

 बढती आय

 सांसारिक सुख

 इच्छापूर्ति

 स्वस्थ जीवन

 समाज, संस्था एवं शासनद्वारा प्रशंसा एवं सम्मान


 आध्यात्मिक प्रगति

 मृत्यु के उपरांत स्वर्ग सुख

मनुष्य जन्म, अच्छे कु ल-परिवार में जन्म, धन, दीर्घायु, स्वस्थ शरीर, अच्छे मित्र, अच्छा पुत्र, प्रेम
करनेवाला जीवनसाथी, भगवद्-भक्ति, बुद्धिमत्ता, नम्रता, इच्छाओं पर नियंत्रण एवं पात्र व्यक्ति को दान देने
की ओर झुकाव, ऐसे पहलू हैं, जो पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के बिना असंभव है । जब यह सब हो, तो जो
पुण्यात्मा इसका लाभ उठाता है और साधना करता है, उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है ।

जब समष्टि पुण्य बढता है, तो राष्ट्र सिद्धांत (दर्शन) और आचरण में सर्वश्रेष्ठ होता है तथा समृद्ध होता है ।

४.२ दुख के रूप में पाप का प्रभाव

कृ पया पढें हमारा लेख पाप का फल

५. पुण्य एवं पापार्जन कै से होता है ?

पुण्य एवं पाप का सिद्धांत समझने के लिए किसी भी कर्म का उद्देश्य जानना महत्त्वपूर्ण है । निम्नलिखित
सारणी से यह स्पष्ट होगा, जहां हमने धनार्जन के कर्म की मनोवृत्ति तथा उसे खर्च करने का उद्देश्य
विभिन्न उदाहरणों से समझाया है । इससे उत्पन्न पुण्य एवं पाप की मात्रा प्रत्येक उदाहरण के सामने दी है

६. पुण्य की सीमाएं

आध्यात्मिक प्रगतिके परिप्रेक्ष्य में, पुण्य की अपनी सीमा है ।

६.१ पुण्य का फल भोगना पडता है

पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्यवान जीवन, मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति को स्वर्गलोक ले जाता है, परन्तु एकबार
पुण्य समाप्त हो जाए, तो व्यक्ति को पृथ्वी पर पुनः अगला जन्म लेना पडता है । इस कारण पुण्य भी एक
प्रकार का बन्धन है । के वल साधना ही हमें मोक्षतक ले जाती है ।

६.२ सुख भोगने से अंततः पुण्य समाप्त हो जाते हैं


पुण्य एवं पाप क्या है, प्रत्येक क्षण सुख भोगने पर, हमारा पुण्य समाप्त हो जाता है, इसलिए व्यक्ति को
पुण्य बढाने के लिए परिश्रम करना पडता है । इसके लिए पुण्यप्रद कर्म अथवा साधना करनी पडती है ।
अन्तर के वल इतना है कि पुण्यप्रद कर्मों से सुख मिलता है, जबकि साधना से आध्यात्मिक प्रगति होती है
अर्थात इससे आनंद मिलता है, जो पुण्य-पाप तथा सुख-दुख से परे होता है, इसका उपफल सुख है ।

७. संक्षेप में – पुण्य एवं पाप क्या है!

पुण्य एवं पाप में अन्तर के साथ ही उनकी गहराई और उनके प्रभाव की महत्ता समझने से हम अपने
आचरण और कर्मों को नियन्त्रित कर सकते हैं । तथापि दोनों से मुक्त होने हेतु नियमित साधना करना
आवश्यक है ।

१. प्रस्तावना

गत कु छ दशकों से मनुष्य के आचरण पर चंद्रमा के प्रभावों के समर्थन एवं विरोध में अनेक वैज्ञानिक
प्रतिवेदन दिए गए हैं । इन प्रतिवेदनों में मानसिक क्रियाकलापों में वृद्धि, सामान्य अथवा आपातकालीन
मनोचिकित्सा विभाग में भेंट की दर में वृद्धि तथा शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं में वृद्धि की शिकायत
का विश्लेषण किया गया ।

स्पिरिच्युअल साइंस रिसर्च फाऊं डेशन (एस.एस.आर.एफ.) ने मनुष्य के आचरण पर चंद्रमा के प्रभावों का
आध्यात्मिक शोध पद्धतियों द्वारा परीक्षण किया । मनुष्य के आचरण पर चंद्रमा के प्रभावों का पता लगाने
के लिए किए आध्यात्मिक शोध का संक्षिप्त उत्तर है हां, यह मानव को प्रभावित करता है । चंद्रमा हमारे
जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसके निम्नलिखित विविध पहलू हैं –

२. चंद्रमा के व्यापक सूक्ष्म (अनाकलनीय) प्रभाव

तारे, ग्रह एवं उपग्रह सहित सर्व वस्तुएं (पदार्थ) अपनी स्थूल (आकलनीय) तरंगों के साथ सूक्ष्म
(अनाकलनीय) तरंगें प्रक्षेपित करते हैं । ये स्थूल स्वाभाविक विशेषताएं और सूक्ष्म-स्पंदन हमें न्यूनाधिक
मात्रा में स्थूल तथा सूक्ष्म स्तर पर प्रभावित करते हैं ।

चंद्रमा से प्रक्षेपित स्पंदन मनोदेह को, अर्थात मानव मनको प्रभावित करते हैं । मन, अर्थात हमारी
संवेदनाएं, भावनाएं और इच्छाएं (वासनाएं) । मन के दो भाग होते हैं – चेतन मन और अवचेतन मन ।
अवचेतन मन में अनेक संस्कार होते हैं, जो हमारा स्वभाव और व्यक्तित्व निर्धारित करते हैं । हमें अपने
अवचेतन (सुप्त) मन में विद्यमान विचार एवं संस्कारों का कोई भान नहीं होता । ये संस्कार अनेक जन्मों
से संचित होते हैं ।

मनके ये संस्कार हमारे विचार और उनके अनुसार होने वाली क्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं । संस्कारों तथा
विचारों के अपने सूक्ष्म-स्पंदन होते हैं ।

मन में विद्यमान संस्कार किस प्रकार हमसे कार्य करवाते हैं ? इस लेख का संदर्भ लें ।

चंद्रमा के स्पंदन हमारे विचारों के सूक्ष्म-स्पंदनों की तुलनामें अधिक सूक्ष्म (अनाकलनीय) होते हैं; परंतु
हमारे मन में विद्यमान संस्कारों के स्पंदनों की तुलना में अल्प सूक्ष्म होते हैं । अंतर्मन में विद्यमान
संस्कारों द्वारा निर्मित विचारों के स्पंदनों को बाह्यमन में लाने की क्षमता चंद्रमा के स्पंदनों में होती है ।
बाह्यमन में उभरने पर हमें उनका भान होता है । इस प्रकार मन में विद्यमान संस्कारों की तीव्रता के
अनुसार व्यक्ति का आचरण प्रभावित होता है । इसका विस्तृत स्पष्टीकरण हमने अगले विभागमें दिया है ।

इसी प्रकार चंद्रमा पशुओं के मन को भी प्रभावित करता है । तथापि प्राणियों के अवचेतन मन में आहार,
निद्रा एवं मैथुन जैसी मूल प्रवृत्ति के ही संस्कार होते हैं, इसलिए तीव्रता से आने वाले विचार भी इन्हीं
सहज प्रवृत्तियों के अनुरूप ही होते हैं ।

३. चंद्रमा के प्रकाश अथवा चंद्रमा की कलाओं पर आधारित परिणाम

अमावस्या के दिन चंद्रमा का अप्रकाशित, अर्थात अंधेरा भाग पृथ्वी की ओर होता है । अंधकार मुख्यतः रज-
तमात्मक स्पंदन प्रक्षेपित करता है । इसलिए प्रकाशित भाग की तुलना में पृथ्वी की ओर अधिक मूलभूत
सूक्ष्म रज-तमात्म के स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं ।
सत्त्व, रज और तम, तीन मूलभूत गुण, इस लेख का संदर्भ लें ।

इसके विपरीत, पूर्णिमा के दिन अधिक प्रकाश के कारण रज-तम अल्प होता है; तथापि सूत्र २ में बताए
अनुसार पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के स्पंदन अधिक कार्यरत रहने से मानसिक क्रियाकलापों में वृद्धि पाई जाती
है । अंतर्मन में जागृत हुए संस्कारों के प्रकार के अनुसार मानसिक क्रियाकलापों में किसी यादृच्छिक
(अचानक आने वाले किसी भी) विचार में अथवा किसी विशिष्ट विचार की तीव्रता में वृद्धि हो सकती है ।

उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति लेखक है और पुस्तक लिखने पर मन कें द्रित कर रहा है, तो पुस्तक संबंधी
उसके विचारों में तथा लेखन प्रतिभा में वृद्धि होती है । इस प्रकारके विचारों का उद्गम प्रतिभाकें द्र से होता
है । अतः उसे लगता है कि पूर्णिमा के दिन वह विपुल लेखन कर सकता है ।

तथापि अधिकांश लोगों के मन में यादृच्छिक विचार आते हैं । यदि व्यक्ति में क्रोध, लोभ जैसे प्रबल दोष
होंगे, तो इस कालखंड में बाह्यमन में आकर वे उसके अन्य विचार को प्रभावित करते हैं । उदाहरणार्थ,
किसी मद्यपी को इस दिन पर मद्यपान करने के प्रबल विचार आते हैं ।

किसी आध्यात्मिक व्यक्ति के अंतर्मन में स्थित सुप्त आध्यात्मिक / साधना संबंधी विचारों को जागृत कर
मानसिक क्रियाकलापों में हुई वृद्धिका लाभ उठाकर पूर्णिमा के दिन अधिक साधना करवाना संभव होता है ।

४. चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण पर आधारित परिणाम

पूर्णिमा अथवा अमावस्या के दिन चंद्रमा और सूर्य का गुरुत्वाकर्षण एकत्रित हो जाता है । अन्य दिनों में भी
चंद्रमा पृथ्वी को आकृ ष्ट करता है; परंतु पूर्णिमा अथवा अमावस्या की तुलना में यह आकर्षण इतना
शक्तिशाली नहीं होता ।

जब हम गहरी श्वास लेते हैं, तो सामान्य श्वास से तिगुनी वायु मुख में प्रविष्ट होती है । अब इस उदाहरण
को चंद्रमा तथा उसका पृथ्वी पर खिंचाव के संदर्भ में देखते हैं । पूर्णिमा अथवा अमावस्या के दिन पूरा
चंद्रमा पृथ्वी को आकर्षित करता है । इसका परिणाम उपर्युक्त उदाहरण में बताए अनुसार गहरी श्वास लेने
जैसा होता है । हमें यह ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी के वलयांकित वायुमंडल का चंद्रमा से तिगुना भाग खिंचता
है ।
पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन पृथ्वी पर विद्यमान ब्रह्मांड के मूलभूत तत्त्व (पंचतत्त्व), उदा. मूल
पृथ्वीतत्त्व, मूल आपतत्त्व और मूल वायुतत्त्व चंद्रमा की ओर आकर्षित होते हैं । इससे एक प्रकार का
सूक्ष्म-स्तरीय उच्च दबाव का क्षेत्र निर्मित होता है ।

इस प्रक्रिया में स्थूल स्तर पर जब जल चंद्रमा की ओर आकर्षित होता है, तब जल की अपेक्षा जल में
विद्यमान वायुरूप घटक (जलकी भाप) जल के ऊपर आती है और सूक्ष्म-स्तरीय उच्च-दबाव के क्षेत्र में प्रवेश
करती है । अनिष्ट शक्तियां मुख्यतः वायुरूप होती हैं, इसलिए वे इस सूक्ष्म उच्च-दबाव के क्षेत्र में आकर्षित
होती हैं । यहां पर वे सभी एकत्रित होती हैं और उन्हें एक-दूसरे से अधिक शक्ति मिलती है । अतः इन
दिनों में वे मानवता पर बडा आक्रमण करती हैं । इस सबके परिणामस्वरूप मनुष्य पर अनिष्ट शक्तियों का
आक्रमण शारिरीक और मानसिक स्तरपर तीन गुना बढ जाता है।

पूरे विश्व में फै ले एसएसआरएफ के आश्रमों में पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन अनिष्ट शक्तियों के
आक्रमणों में और सूक्ष्म-स्तरीय अनिष्ट दबाव में वृद्धि पाई जाती है । यह पूर्णिमा अथवा अमावस्या के
पहले दो दिन आरंभ होता है और उसके दो दिन उपरांत समाप्त होता है ।

५. पूर्णिमा एवं अमावस्या को चंद्रमा के बढे हुए प्रभाव के परिणाम

अमावस्या के दिन, रज-तम फै लाने वाली अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.), गूढ कर्मकांडों में (काला
जादू) फं से लोग और प्रमुखरूप से राजसिक और तामसिक लोग अधिक प्रभावित होते हैं और अपने रज-
तमात्मक कार्य के लिए काली शक्ति प्राप्त करते हैं । यह दिन अनिष्ट शक्तियों के कार्य के अनुकू ल होता
है, इसलिए अच्छे कार्य के लिए अपवित्र माना जाता है । चंद्रमा के रज-तमसे मन प्रभावित होने के कारण
पलायन करना (भाग जाना), आत्महत्या अथवा भूतों द्वारा आवेशित होना आदि घटनाएं अधिक मात्रा में
होती हैं । विशेषरूप से रात्रि के समय, जब सूर्य से मिलने वाला ब्रह्मांड का मूलभूत अग्नितत्त्व (तेजतत्त्व)
अनुपस्थित रहता है, अमावस्या की रात अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य को कष्ट पहुंचाने का स्वर्णिर्म
अवसर होता है ।
पूर्णिमा की रातमें, जब चंद्र का प्रकाशित भाग पृथ्वी की ओर होता है, अन्य रात्रियों की तुलना में मूलभूत
सूक्ष्म-स्तरीय रज-तम न्यूनतम मात्रा में प्रक्षेपित होता है । अतः इस रात में अनिष्ट शक्तियों, रज-तमयुक्त
लोगों अथवा गूढ कर्मकांड (काला जादू) करने वाले लोगों को रज-तमात्मक शक्ति न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध
होती है । तथापि, अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का लाभ
उठाकर कष्ट की तीव्रता बढाती हैं ।

आध्यात्मिक शोध द्वारा यह भी स्पष्ट हुआ है कि अमावस्या और पूर्णिमा के दिन मनुष्य पर होने वाले
प्रभाव में सूक्ष्म अंतर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रतिकू ल परिणाम साधारणतः स्थूलदेह पर, जबकि
अमावस्या के चंद्रमा का परिणाम मन पर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का परिणाम अधिकांशत: दृश्य स्तर
पर होता है, जबकि अमावस्या के चंद्रमाका परिणाम अनाकलनीय (सूक्ष्म) होता है । अमावस्या के चंद्रमा का
परिणाम दृश्य स्तर पर न होने से व्यक्ति के लिए वह अधिक भयावह होता है । क्योंकि व्यक्ति को इसका
भान न होनेसे वह उस पर विजय प्राप्त करने के कोई प्रयास नहीं करता ।

पूर्णिमा पर चंद्रमा की तुलना में अमावस्या पर चंद्रमा का प्रभाव अल्प दृष्टिगत होता है । तथापि अमावस्या
के चंद्रमा का प्रभाव अधिक प्रतिकू ल (नकारात्मक) होता है । इसका कारण यह है कि अमावस्या के दिन
मनुष्य पर चंद्रमा का प्रभाव पूर्णिमा के चंद्र की तुलना में अधिक सूक्ष्मस्तरीय होता है । पूर्णिमा के दिन
विचारों में होने वाली वृद्धि का भान रहता है ।

जो साधक आध्यात्मिक साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार बहुत साधना करते हैं, वे मुख्यतः
स्वभाव से सात्त्विक होते हैं । परिणामस्वरूप साधारण मनुष्य की तुलना में (जो स्वयं रज-तमयुक्त होता
है), उसकी तुलना में वे वातावरण के रज-तमके प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं । साधकों के लिए अच्छी
बात यह है कि उन्हें अनिष्ट शक्तियों से बचने की ईश्वर द्वारा सुविधा प्राप्त होती है । कितने आध्यात्मिक
स्तर पर अनिष्ट शक्तियों से (भूत,प्रेत, पिशाच इ.) बचने के लिए सुरक्षा कवच प्राप्त होता है ? इस लेख
का संदर्भ लें ।

६. मानव स्वभाव पर चंद्रमा के प्रभाव के प्रमाण जुटाने में वर्तमान ब्यौरे क्यों असफल रहे ?

कु छ आरंभिक चिकित्सकीय / मनोवैज्ञानिक अध्ययन मनुष्य पर चंद्रमा के प्रभाव का उल्लेख करते हैं ।
परंतु कु छ वर्ष पूर्व किया अध्ययन ऐसा संबंध दर्शाने में असफल रहा । इसका कारण यह है कि गत दशक
से विश्व के कु ल रज-तम में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई है । रज-तम में हुई इस वृद्धि का प्राथमिक कारण है,
अनिष्ट शक्तियों का (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) सुनियोजन ।

अच्छी एवं बुरी शक्तियों का युद्ध, इस लेख का संदर्भ लें ।

रज-तम की इस कु ल वृद्धि से विश्व की सर्व विषयवस्तएं व्यापकरूप में प्रभावित हुई हैं । इन प्रभावों की
व्याप्ति व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक व्याधि में वृद्धि से लेकर पारिवारिक कलह तक , आतंकवाद से लेकर
प्राकृ तिक आपदाआें तक फै ली हैं । अमावस्या और पूर्णिमा पर चंद्रमा आज भी प्रभावित कर रहा है ; किं तु
मनुष्यजाति द्वारा पूरे माह में हो रहे कु ल विलक्षण आचरण के कारण सांख्यिकी अध्ययन में उनकी ओर
ध्यान नहीं जाता ।

७. हानिप्रद परिणामों से सुरक्षा पाने के लिए हम क्या कर सकते हैं ?


अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के हानिकारी प्रभाव आध्यात्मिक कारणों से होते हैं, इसलिए
के वल आध्यात्मिक उपचार अथवा साधना ही इनसे बचने में सहायक हो सकती है ।

वैश्विक स्तर पर इन दिनों में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने अथवा क्रय-विक्रय करने से बचना चाहिए; क्योंकि
अनिष्ट शक्तियां इन माध्यमों से अपना प्रभाव डाल सकती हैं । पूर्णिमा और अमावस्या के २ दिन पहले
तथा २ दिन पश्चात आध्यात्मिक साधना में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि करें । अपने पंथ अथवा धर्म के
अनुसार देवताका नामजप करना लाभदायी होता है और आध्यात्मिक सुरक्षा के लिए श्री गुरुदेव दत्त का जप
करें ।

चंद्रमा की कलाओं के क्षयकाल में, अर्थात पूर्णिमा और अमावस्या के मध्य की कालवधि में जब चंद्रमा का
आकार उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है, उससे प्रक्षेपित मूलभूत सूक्ष्म-स्तरीय स्पंदन उत्तरोत्तर बढते जाते हैं
। ऐसा चंद्रमा के अंधेरे भाग में उत्तरोत्तर हो रही वृद्धि के कारण होता है । इसलिए अपने आप को रज-तम
की वृद्धि के कारण होने वाले प्रतिकू ल प्रभाव से बचाने के लिए इस कालवधि में साधना बढाना महत्त्वपूर्ण है

चंद्रमा के क्षय काल में, पहले के पखवाडे में वृद्धिंगत किए प्रयत्नों को न्यूनतम स्थिर रखने का प्रयास हमें
करना चाहिए । इस प्रकार से हम अगले क्षयकाल में अधिक साधना करने के लिए पुनः प्रयास आरंभ कर
सकते हैं ।

अध्याय - 14

इस अध्याय में:- ज्ञान की महिमा और प्रकृ ति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति का, सत्त्व, रज, तम-तीनों गुणों
का, भगवत्प्राप्ति के उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षणों का वर्णन

सम्बन्ध–गीता के तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के लक्षणों का निर्देश करके कृ ष्ण ने अर्जुन को इन
दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान बतलाया और इसके अनुसार क्षेत्र के स्वरूप, स्वभाव, विकार और इसके तत्त्वों
कि उत्पत्ति के क्रम आदि तथा क्षेत्रज्ञ के स्वरूप और उसके प्रभाव का वर्णन किया। पूर्व के श्लोक उन्नीसवें
में कृ ष्ण ने प्रकृ ति-पुरुष के नाम से प्रकरण आरम्भ करके गुणों को प्रकृ तिजन्य बतलाया और इक्कीसवें
श्लोक में कृ ष्ण द्वारा यह बात भी कही कि पुरुष बार बार अच्छी बुरी योनियों में जन्म होने का कारण
उसके गुणों का संग होना ही है। अब इससे गुणों के भिन्न-भिन्न स्वरूप क्या हैं, ये जीवात्मा को कै से शरीर
में बांधते हैं, किस गुण के संग से किस योनि में जन्म होता है, गुणों से छू टने के उपाय क्या हैं, गुणों से
छू टे यह पुरुषों के लक्षण तथा आचरण कै से होते हैं- ये सब बातें बताने के लिये इस चौदहवें अध्याय को
आरम्भ किया गया है। कृ ष्ण तेरहवें अध्याय में वर्णित ज्ञान को ही स्पष्ट करके चौदहवें अध्याय में
विस्तारपूर्वक अर्जुन को समझाते हैं-
श्री भगवान बोले–हे अर्जुन! ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर से कहूँगा, जिसको जानकर
सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।
इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि आदि में पुनः उत्पन्न
नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकु ल नहीं होते।
हे अर्जुन! मेरी महत-ब्रह्मरूप मूल प्रकृ ति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं
उस योनि में चेतन-समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति
होती है।
हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृ ति तो
उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोक में जीवों के नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेने की बात कही गयी, किन्तु वहाँ गुणों
की कोई बात नहीं आयी। इसलिये अब वे गुण क्या है। उनका संग क्या है किस गुण के संग से अच्छी
योनि में और किस गुण के संग से बुरी योनि में जन्म होता है- इन सब बातों को स्पष्ट करने के लिये इस
प्रकरण का आरम्भ करते हुए भगवान अब अर्जुन से पहले उन तीनों गुणों की प्रकृ ति से उत्पत्ति और उनके
विभिन्न नाम बतलाकर फिर उनके स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बन्धन-प्रकार का क्रमशः पृथक
पृथक वर्णन करते हैं-
हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृ ति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में
बांधते हैं।
हे निष्पाप! उन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है,
वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उनके अभिमान से बांधता है।
हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों के और
उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है।
हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस
जीवात्मों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।
सम्बन्ध–इस प्रकार सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों का स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बांधे
जाने का प्रकार बतलाकर अब उन तीनों गुणों का स्वाभावित व्यापार बतलाते हैं-
हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी
लगाता है।
सम्बन्ध–सत्त्व आदि तीनों गुण जिस समय अपने-अपने कार्य में जीवों को नियुक्त करते हैं, उस समय वे
ऐसा करने में किस प्रकार समर्थ होते हैं- यह बात अगले श्लोक में बतलाते हैं।
हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही
सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है। अर्थात बढ़ता है।
सम्बन्ध–इस प्रकार अन्य दो गुणों को दबाकर प्रत्येक गुणों के बढ़ने की बात कही गयी। अब प्रत्येक गुण की
वृद्धि के लक्षण जानने की इच्छा होने पर क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, वृद्धि के लक्षण बतलाये
जाते हैं-
जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, उस
समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है।
हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और
विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं।
हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद
अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ- ये सब ही उत्पन्न होते हैं।
सम्बन्ध–इस प्रकार तीनों गुणों की वृद्धि के भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाकर अब दो श्लोकों में उन गुणों में से
किस गुण की वृद्धि के समय मरकर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, यह बतलाया जाता है-
जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है। तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल
दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है।
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा
तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है।
सम्बन्ध–सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों की वृद्धि में मरने के भिन्न-भिन्न फल बताये गये हैं कि किस
प्रकार कभी किसी गुण की और कभी किसी गुण की वृद्धि क्यों होती हैं इस पर कृ ष्ण कहते हैं-
श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। राजस कर्म का फल दुःख
एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है।
सम्बन्ध–ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में सत्त्व, रज और तमोगुण की वृद्धि के लक्षण का क्रम से
वर्णन किया गया इस पर यह जानने की अच्छा होती है कि ‘ज्ञान’ आदि की उत्पत्ति को सत्त्व आदि गुणों
की वृद्धि के लक्षण क्यों माना गया। अतएव कार्य की उत्पत्ति से कारण की सत्ता को जान लेने के लिये
ज्ञान आदि की उत्पत्ति में सत्त्व आदि गुणों को कारण बतलाते हैं-
सत्त्वगुण ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न
होते हैं, और अज्ञान भी होता है।
सत्त्वगुण स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात
मनुष्यलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष
अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों का तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।
सम्बन्ध–गीता के तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में जो यह बात कही थी कि गुणों का संग ही इस
मनुष्य के अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्तिरूप पुनर्जन्म का कारण है उसी के अनुसार यह अध्याय में पांचवें से
अठारहवें श्लोक तक गुणों के स्वरूप तथा गुणों के कार्य द्वारा मनुष्य बधे हुए मनुष्य की गति आदि का
विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया। इस वर्णन से यह बात समझायी गयी। कि मनुष्य को पहले तम और
रजोगुण त्याग करके सत्त्वगुण में अपनी स्थिति करनी चाहिये और उसके बाद सत्त्वगुण का भी त्याग
करके गुणातीत हो जाना चाहिये। अतएव गुणातीत होने के उपाय और गुणातीत अवस्था का फल अगले दो
श्लोकों द्वारा बतलाया जाता है-
जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त
परे सच्चिदानन्दघनरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।
यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और
सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।
सम्बन्ध–इस प्रकार जीवन-अवस्था में ही तीनों गुणों से अतीत होकर मनुष्य अमृत को प्राप्त हो जाता है-
इस रहस्य युक्त बात को सुनकर गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत बनने के उपाय जानने
की इच्छा से अर्जुन पूछते हैं-
अर्जुन बोले–इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों
वाला होता है। तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है।
सम्बन्ध–इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान उसके प्रश्नों में से ‘लक्षण’ और ‘आचरण’ विषयक दो प्रश्नों
का उत्तर चार श्लोकों द्वारा देते हैं।
भगवान बोले–हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा
तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी
आकांक्षा करता है।
जो साक्षी के सदृश्य स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते
हैं- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी
विचलित नहीं होता।
जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान
भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव
वाला है।
जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भ में कर्तापन के
अभिमान-से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
सम्बन्ध–इस प्रकार अर्जुन के दो प्रश्नों का उत्तर देकर अब गुणातीत बनने के उपाय विषयक तीसरे प्रश्न का
उत्तर दिया जाता है। यद्यपि इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने गुणातीत बनने का उपाय
अपने को अकर्ता समझकर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में नित्य निरन्तर स्थित रहना बतला
दिया था। एवं उपर्युक्त चार श्लोकों में गुणातीत के जिन लक्षण और आचरणों का वर्णन किया गया है,
उसको आर्दश मानकर धारण करने का अभ्यास भी गुणातीत बनने का उपाय माना जाता है, किन्तु अर्जुन
ने इस उपाय से भिन्न दूसरा कोई सरल उपाय जानने की इच्छा से प्रश्न किया था, इसलिये प्रश्न के
अनुकू ल भगवान दूसरा सरल उपाय बतलाते हैं-
जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भली-भाँति
लांघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है।
सम्बन्ध–उपर्युक्त श्लोक में सगुण परमेश्वरी की उपासना का फल निर्गुण-निराकार ब्रह्म की प्राप्ति बतलाया
गया तथा इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में ‘अमृत’ की प्राप्ति बतलाया गया। अतएव फल में विषमता की
शंका का निराकरण करने के लिये सबकी एकता का प्रतिपादन करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं-
क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का
आश्रय मैं हूँ।
० ० ०
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या और योगशस्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् में,
श्रीकृ ष्णार्जुंनसंवाद में गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥

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कर्म अर्थ, प्रकार, तत्व, सिद्धांत


By: Kailash meena Last Updated: 3/15/2022 in: Sociology,

कर्म का अर्थ (karm kise kahte hai)

karm meaning in hindi;शाब्दिक रूप से कर्म शब्द की उत्पत्ति कृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है; क्रिया
करना। व्यक्ति द्वारा अर्थात् उसके शरीर, मन, वाणी द्वारा की गई कोई भी क्रिया-चलना, खाना-पीना,
सोना, उठना, बैठना, लिखना, खेत जोतना, बोझा ढोना, सोचना, विचारना व इच्छा करना, बोलना, पढ़ना
इत्यादि कर्म है, किन्तु धर्म-गंर्थों मे कर्म शब्द का प्रयोग व्यक्ति के मन, वाणी और शरीर द्वारा लौकिक व
पारलौकिक दायित्वों के निर्वाह हेतु किये गये कार्यों से है। कर्म अकर्म ( अर्थात् निषिद्ध कर्म ) से भिन्न है।
कर्म का शास्त्रीय अर्थ अहंकार रहित कर्म से है ( गीता 4-17 )।

कर्म और पुनर्जन्म की धारणा को हिन्दू धर्म मे एक व्यवस्थित सिद्धांत के रूप मे स्थापित किया गया है।
कर्म और पुनर्जन्म हिन्दू संस्कृ ति के आधारभूत तत्व है जिन पर सम्पूर्ण हिन्दू सामाजिक वैचारिकी-वर्ण,
आश्रम, धर्म, ऋण एवं संस्कार आधारित है। व्यक्ति का किस योनि या किस वर्ण मे जन्म होगा अथवा उसे
मोक्ष की प्राप्ति होगी, यह उसके द्वारा पूर्वजन्म ( अथवा जन्मों ) के संचित धर्म तथा वर्ण आश्रम, ऋण
एवं संस्कार युक्त कर्म के निर्वाह पर निर्भर करता है।
कर्मों को एक वर्गीकरण के अनुसार तीन प्रकार का बताया गया है। ये तीन प्रकार है--

1. कायिक

कायिक कर्म उन कर्मों को कहा जाता है जो काया या शरीर द्वारा किये जाते है।

2. वाचिक

जो कर्म वचन या वाणी द्वारा किये जाते है उन्हें वाचिक कर्म कहा जाता है।

3. मानसिक

मन से सम्पन्न होने वाले कर्म मानसिक कर्म कहलाते है।

इससे भिन्न गीता मे क्रमशः 3 प्रकार के कर्म का उल्लेख किया गया है।

1. सात्विक कर्म

जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तापन से अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरुष
द्वारा बिना राग द्वेष से किया हुआ है वह कर्म सात्विक कर्म कहा जाता है (गीता 18:24)।

2. राजस कर्म

जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त है तथा फल को चाहने वाले अहंकार युक्त पुरूष द्वारा किया जाता है, वह
कर्म राजस कर्म कहलाता है। (गीता 18:25)

3. तामसिक कर्म

जो कर्म परिणाम हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर के वल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह कर्म
तामस कर्म कहा जाता है। (गीता 18:25)। संक्षेप मे धर्मानुकु ल आचरण सद्कर्म है, जिसका फल अच्छा
होता है। गीता (गीता 2:34,35) मे कहा गया है कि धर्म रूपी कर्म करने से अपकीर्ति और पाप होता है।

कर्मों के फल के आधार पर भी कर्मों का वर्गीकरण किया है। इस आधार पर भी तीन प्रकार के कर्मों का
उल्लेख मिलता है--

1. संचित कर्म

इस श्रणी मे वे सब कर्म आते है जिन्हें व्यक्ति ने पूर्व जन्म मे किया है।


2. प्रारब्ध कर्म

पूर्व जन्म के संचिक कर्मों मे जिन कर्मों का फल व्यक्ति वर्तमान जीवन मे भोगता है, उसे प्रारब्ध कर्म कहा
जाता है।

3. क्रियमाण या संचीयमान कर्म

व्यक्ति द्वारा इस जन्म मे जो कर्म किया जाता है वह क्रियमाण कर्म कहलाता है। संचित कर्म का भाग जो
प्रारब्ध कर्म भोगने के उपरांत शेष बचता है तथा क्रियमाण कर्म इन दोनों पर व्यक्ति का भावी जीवन
निर्भर करता है।

कर्म के सिद्धांत के मुख्य तथ्य

कर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन वेदों, उपनिषदों, महाभारत, गीता, स्मृतियों एवं अन्य ग्रन्थों मे विस्तारपूर्वक
किया गया है। विस्तृत विवेचन से बचते हुए यहां पर कर्म के सिद्धांत के मुख्य तथ्यों को संक्षेप मे प्रस्तुत
किया जा रहा है--

1. कर्म के सिद्धांत मे कर्म तथा पुनर्जन्म का घनिष्ठ सम्बन्ध है। कर्मों के ही परिणामस्वरूप पुनर्जन्म होता
है।

2. कर्म का प्रत्यय पर्याप्त व्यापक है। शरीर के अतिरिक्त मन तथा वचन द्वारा की गई क्रियायें भी कर्म के
ही अन्तर्गत सम्मिलित मानी जाती है।

3. कर्म के सिद्धांत की यह मान्यता है कि व्यक्ति द्वारा किये गये किसी भी कर्म का प्रभाव समाप्त नही
होता। कर्मों के फलों को अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है।

4. कर्म के चक्र को अनन्त माना गया है। कर्मों की समाप्ति एक जन्म मे नही हो जाती। एक के बाद
अनेक जन्म होते है तथा अनिवार्य नही कि प्रत्येक जन्म मे मनुष्य योनि ही मिले। इसके अतिरिक्त कर्म
की व्यापकता को स्पष्ट करते हुए माना गया है कि व्यक्ति के वंशजों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ सकता है।

5. कर्मों के ही कारण पुनर्जन्म होता है। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति एक जन्म मे अपने समस्त कर्मों
के फल को नही भोग पाता अतः अपने कर्मों के फलों को भोगने के लिये बार-बार जन्म लेना पड़ता है। इस
प्रकार पुनर्जन्म का चक्र अनन्त काल तक चलता रहता है।

6. यह अनिवार्य नही कि इस जन्म मे इसी जन्म के कर्मों के फल प्राप्त हो बल्कि पहले के जन्मों के
संचित कर्मों के फल भी भोगने पड़ते है। इसी सिद्धांत के आधार पर वर्तमान मे अच्छे कर्म करने वालों
द्वारा दुखः एवं कष्ट पाने की स्थिति देखी जाती है।

कर्म के तत्व (karm ke tatva)


कर्म के कु छ तत्व या विशेषताएं होती है। ये सभी तत्व कर्म की व्याख्या को स्पष्ट करते है। इन तत्वों के
अभाव मे कर्म की कल्पना सम्भव नही है। कर्म मे निहित प्रमुख तत्व इस प्रकार है---

1. कर्म का अटल सिद्धांत "फल" से सम्बंधित है। मनुष्य जो भी करता है, वही उसका कर्म है। इस कर्म का
कु छ न कु छ फल या परिणाम होना चाहिए। कर्म-फल को टाला नही जा सकता है। मनुष्य कर्म करता है।
इस कर्म का कु छ फल होता है, वह इस फल का भुगतान करता है और इन भुगतानों के अनुसार पुनः उसके
कर्मों का निर्माण होता है। कर्म और फल का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।

2. कर्म के वल भौतिक क्रिया नही है। इसके अन्तर्गत सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा भावात्मक
सभी प्रकार की क्रियाओं का समावेश होता है।

3. कर्म-फल मे कार्य-कारण का नियम काम करता है। कारण कार्य को उत्पन्न करता है और फिर कारण
बन जाता है। प्रवाह अनन्त है, कभी इसका अन्त नही होता है।

4. कर्म का फल नष्ट नही होता है और बिना कर्म किये फल की आशा करना व्यर्थ है।

5. कर्म मे कार्य-कारण की आश्चर्यभाविता तथा चक्रपना पाया जाता है।

6. कर्म सिद्धांत के अनुसार आत्मा अमर है और पुनर्जन्म होता है। इस जन्म मे हम जो कु छ करते है, वह
पिछले जन्म के कर्मों का फल है। अतः जन्म-जन्मान्तर और कर्म-फल के द्वारा हम यह स्वीकार करते है
कि आत्मा अमर है।

7. जीवन की परिस्थितियाँ के कर्मों का ही फल है। सभी परिस्थितियाँ समान नही होती, अतः सभी के कर्म
समान नही होते है।

वर्ण व्यवस्था क्या है? सिद्धांत, महत्व, दोष


varna vyavastha meaning in hindi;वर्ण-व्यवस्था का सैद्धांतिक अर्थ हैः गुण, कर्म अथवा व्यवसाय पर
आधारित समाज का चार मुख्य वर्णों मे विभाजन के आधार पर संगठन।

वर्ण का शाब्दिक अर्थ वरण करना या चयन करना है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्राचीन भारतीय
सामाजिक व्यवस्था मे व्यवसाय के चयन के पश्चात ही उसका "वर्ण" निश्चित किया जाता था।

होकाटे के अनुसार " वर्ण तथा जाति की प्रकृ ति तथा कार्य समान है। दोनों मे नाम का अंतर है। पर प्रो.
हट्टन ऐसा नही मानते। उन्होंने वर्ण तथा जाति को पृथक माना है।

सांख्य दर्शन के अनुसार " वर्ण का अर्थ रंग भी बताया गया है। वैदिक युग मे आर्यों का विभाजन, सम्भवतः
" आर्य वर्ण " तथा दास वर्ण रहा था।

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत निम्नलिखित हैं--


1. ॠग्वेद का सिद्धांत

ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। ऋग्वेद मे वर्ण-व्यवस्था से सम्बंधित निम्न श्लोक है--

"ब्राह्राणोडस्य मुखमासीद् बाहू राजन्म कृ तः।


उरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्यां शुद्रोडजायत्।।"
इस श्लोक का अर्थ यह है कि विराट पुरूष (ईश्वर) के मुखारबिन्द से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई है। बाहु से
क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शुद्रों की उत्पत्ति हुई है। मुख का कार्य पढ़ाना, प्रवचन करना या
भाषण देना है। अतः ब्राह्मणों का कार्य वेदों का पढ़ना तथा पढ़ना माना गया है। चूंकि क्षत्रियों की उत्पत्ति
बाहुओं से मानी गयी है, अतः क्षत्रियों का धर्म युद्ध करना बताया गया है। जंघाओं से उत्पत्ति मानी जाने के
कारण वैश्यों का कार्य उत्पादन करना है। अतः वैश्यों का कार्य कृ षि तथा व्यापार करना बताया गया है।
शुद्रों की उत्पत्ति पैरों से हुई मानी गयी है। पैरों का कार्य शरीर की सेवा करना है। इस प्रकार शुद्रों का कार्य
तीनों वर्णों की सेवा करना है।

2. उपनिषदों का सिद्धांत

उपनिषदों मे भी वर्ण-व्यवस्था का सिद्धांत मिलता है। परन्तु उपनिषदों मे वर्णित वर्ण-व्यवस्था का सिद्धांत
ऋग्वेदिक सिद्धांत से भिन्न है। उपनिषदों के अनुसार वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति देवताओं से हुई है। सबसे
प्रथम ब्राह्मण उत्पन्न हुए। ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्म नामक देवता से हुई थी। क्षत्रियों की उत्पत्ति रूद्र,
इन्द्र, वरूण तथा यम देवताओं के संयोग से हुई मानी गई है। वैश्यों की उत्पत्ति, वसु, मारूत, रूद्ध तथा
उदित देवताओं से मानी गयी है। शुद्रों की उत्पत्ति पूशन देवता से हुई मानी गयी है।

3. महाकाव्यों का सिद्धांत

वर्ण की उत्पत्ति का उल्लेख महाभारत के "शान्ति वर्व" मे मिलता है। महाभारत के अनुसार, ब्रह्म ने
सर्वप्रथम ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। ब्राह्मण धर्मानुसार आचारण करते थे। परन्तु कु छ समय पश्चात
इन ब्राह्मणों मे अलग-अलग गुणों तथा रंगों का विकास प्रारम्भ हो गया। ब्राह्मणों का इन्हीं गुणों के आधार
पर अनेक वर्णों मे विभाजन कर दिया गया। यही वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र कहलाए। वर्णों का
विभाजन चार रंगों अर्थात् श्वेत, लाल, पीला तथा काले के आधार पर किया गया। इन रंगों का सम्बन्ध
व्यक्ति के कर्म तथा गुणों से है। ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का रंग लाल, वैश्यों का रंग पीला तथा शुद्रों
का रंग काला माना गया है। ये रंग अलग-अलग वर्णों के प्रतीक है। श्वेत पवित्रता का लाल रंग क्रोध का,
पीला रंग रजोगुण तथा तमोगुण का मिश्रण कहा गया है। काला रंग तमोगुण का द्योतक है।

4. स्मृतियों का सिद्धांत

मनुस्मृति के अनुसार " वर्ण " का सम्बन्ध " कर्म " से है। कर्म के कारण ही ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान
प्रदान किया गया है। क्षत्रियों का स्थान ब्राह्मणों के पश्चात आता है। शुद्रों का स्थान सबसे नीचा माना गया
है। इसी कारण सब वर्णों की सेवा करना उनका " धर्म " बताया गया है। मनु से सभी वर्णों के कार्य
निश्चित किए है।
वर्ण व्यवस्था का महत्व अथवा गुण निम्नलिखित हैं--

1. वैयक्तिक उन्नति का अवसर

वर्ण व्यवस्था बहुत खुली व्यवस्था है जिसमे एक व्यक्ति को अपनी क्षमता व गुणों के आधार पर अपनी
स्थिति उच्च करने का अधिकार और अवसर होता है।

2. शक्तियों का विके न्द्रीकरण

सामाजिक जीवन मे चार प्रमुख शक्तियाँ कार्य करती है-- ज्ञान शक्ति, राज्य शक्ति, अर्थ शक्ति और श्रम
श्रक्ति। समाज मे चारों शक्तियों के के न्दीयकरण का अर्थ होता है- निरंकु शता और शोषण। इनके अधिक
बिखराव से सामाजिक संगठन और प्रगति मे बाधा पहुँचाने लगती है। आवश्यकता इस बात की होती है कि
समाज मे इन शक्तियों के के न्द्रीयकरण को रोका जाय और इनके अधिक बिखराव को भी। दूसरे शब्दों मे,
वैयक्तिक और सामूहिक दोनों दृष्टियों से अधिक हितकर यह है कि समाज मे इन शक्तियों का एक ऐसा
विके न्द्रीकरण हो जिसमे इनके बीच एक अपेक्षित मात्रा तक सामंजस्य, संगठन और समन्वय बना रहे। वर्ण
व्यवस्था मे यह मे यह देखने को मिलता है।

3. श्रम विभाजन और विशेषीकरण

वर्ण-व्यवस्था सामाजिक श्रम विभाजन का एक अच्छा आदर्श प्रस्तुत करती है। अध्ययन व अध्यापन, सुरक्षा
व प्रशासन, उत्पादन व व्यापार तथा इन सभी कार्यों मे आवश्यक शरीरिक श्रम सम्पादन के रूप मे वर्ण
व्यवस्था समाज को क्रमशः चार प्रमुख वर्णों, बुद्धिजीवी, शासक, व्यापारी और शारीरिक श्रमजीवी मे विभाजत
करती है।

4. समाज मे संघर्षों को मिटना

वर्ण व्यवस्था के कारण समाज मे सघर्ष की सम्भावना नही होती। इसका कारण यह है कि प्रत्येक वर्ण के
कार्य निश्चित होते है। सभी व्यक्ति अपने लिए निर्धारित कार्य करते रहते है। अतः सामाजिक व्यवस्था
सुचारू रूप से चलती रहती है।

5. सामाजिक अनुशासन

वर्ण व्यवस्था मे हर एक वर्ण के लिए पृथक धर्म का प्रावधान है, जिसका अनुसरण करना प्रत्येक व्यक्ति
का आवश्यक कर्तव्य होता है। इससे समाज मे अनुशासन रहता है।

वर्ण व्यवस्था के कारण जब समाज चार भागों मे विभक्त हो गया तो लोगों की सामुदायिक भावना संकु चित
हो गई और राष्ट्रीय एकता के मार्ग मे बाधाएं उत्पन्न हुई। फलस्वरूप विदेशियों ने देश को गुलाम बनाकर
सैकड़ों वर्षों तक शासन किया। इस व्यवस्था ने समाज मे एक बहुत बड़े भाग (शुद्र वर्ण) को विकास के
समुचित अवसर नही दिए गए।
वर्ण व्यवस्था ने ही समाज मे अस्पृश्यता और शोषण को जन्म दिया।

आज एक ही वर्ण से सम्बंधित विभिन्न जातियां राजनीतिक स्वार्थों के लिए संगठित होकर प्रजातंत्र के
स्वस्थ विकास मे बाधा पैदा कर रही है।

8 अप्रैल 2017

गुण और कर्म का चक्र

पढ़ने का समय: 20 मिनट

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 1 प्रस्तावना और समीक्षा
 2 भूमिका बनाम व्यक्ति
 3 समय, स्थान और परिस्थिति
 4 वास्तविक और काल्पनिक स्थान
 5 अनुभव का निर्माण
 6 कर्म का तंत्र
 7 घटना और वस्तु स्थान
 8 भूमिका की शारीरिक रचना
 9 कै से तीन तरीके कर्म बनाते हैं
 10 कर्म का नियम
 11 कर्म एक तंग रस्सी पर चलना है
 12 भौतिक नैतिकता का सार
 13 गुण और कर्म का चक्र
प्रस्तावना और समीक्षा

गुण शब्द इंगित करता है कि हम क्या चाहते हैं , और कर्म शब्द इंगित करता है कि हम क्या योग्य
हैं ; दोनों संभावनाओं के रूप में मौजूद हैं, लेकिन समय में उनका संयोजन जन्म और मृत्यु के चक्र को
जन्म देता है। यह वैदिक विज्ञान का सार है जिसमें गुण , कर्म और काल मिलकर विश्व का निर्माण करते
हैं। यह लेख कर्म द्वारा निभाई गई अनूठी भूमिका और अनुभवों के निर्माण में इसके महत्व पर कें द्रित
है। पोस्ट में कर्म के नियम पर भी विस्तार से चर्चा की गई है और बताया गया है कि कै से हमारे कार्यों
के परिणाम गुण और कर्म के बीच बातचीत के माध्यम से उत्पन्न होते हैं , जो एक दूसरे को उत्पन्न करते
हैं, और उनकी बातचीत एक चक्र बनाती है।

भूमिका बनाम व्यक्ति

रोजमर्रा की दुनिया में, हम एक भूमिका और एक व्यक्ति के बीच अंतर कर सकते हैं । भूमिकाएँ "पद" हैं
जैसे राजा और रानी, अध्यक्ष और सचिव, डीन और छात्र, नियोक्ता और कर्मचारी, माता-पिता और बच्चे,
पति और पत्नी, आदि। प्रत्येक भूमिका के कु छ अधिकार और कर्तव्य होते हैं । व्यक्ति भूमिकाओं में
भागीदार होते हैं, जो किसी भूमिका की अपेक्षाओं पर प्रतिक्रिया करते हैं । किसी व्यक्ति के गुणों का वर्णन
किसी भूमिका की तुलना में अलग ढंग से किया जाता है; व्यक्तियों को गुणी या अनैतिक, दयालु या
निर्दयी, खुश या क्रोधी, प्रतिभाशाली या मूर्ख, अंतर्मुखी या बहिर्मुखी कहा जाता है। जबकि एक भूमिका किसी
व्यक्ति के स्वीकार्य व्यवहार पर सीमाएं तय करती है, अधिकांश लोग या तो सीमाओं को पार कर रहे हैं या
उनके पीछे पड़ रहे हैं।

वैदिक दर्शन में, जब कोई व्यक्ति किसी भूमिका की सीमा से आगे निकल जाता है या उससे पीछे रह जाता
है, तो वह व्यक्ति और भूमिका के बीच परस्पर क्रिया के कारण कर्म उत्पन्न करता है। वैदिक दर्शन इस
बात पर जोर देता है कि यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, उनकी विशिष्टता को उनकी भूमिका की
मांगों के अधीन होना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब आप एक पिता या माता की भूमिका निभाते हैं, तो
आपसे इसकी आवश्यकताओं को पूरा करने की अपेक्षा की जाती है, भले ही आपको यह भूमिका सार्थक या
सुखद लगे या नहीं। भूमिका, जैसा कि ऊपर बताया गया है, में अधिकार और जिम्मेदारी शामिल है। हो
सकता है कि आपको अधिकार की इच्छा न हो, और हो सकता है कि आपको ज़िम्मेदारी पसंद न हो,
लेकिन आपको उन्हें पूरा करना होगा, क्योंकि किसी भूमिका की माँगों को पूरा न करना, या उससे अधिक
न करना, कर्म उत्पन्न करता है ।

एक अर्थ में, व्यक्ति "कण" है और भूमिका कण के चारों ओर का "क्षेत्र" है। ये "कण" "क्षेत्र" के विभिन्न
भागों में धके ल दिए जाते हैं और इसे व्यक्ति की बदलती भूमिका कहा जाता है। जैसे-जैसे व्यक्ति नई
भूमिका में आगे बढ़ता है, वह अधिक कर्म बनाता है जो उसे फिर एक और भूमिका में ले जाता है। इस
प्रकार व्यक्ति और भूमिका के बीच अंतःक्रिया का एक चक्र चलता है, जो व्यक्ति को एक भूमिका से दूसरी
भूमिका की ओर ले जाता रहता है। कर्म की समझ इस बात का वैज्ञानिक वर्णन करती है कि कै से एक
व्यक्ति जीवन में भूमिकाओं के माध्यम से स्थानांतरित होता है, भौतिक अस्तित्व की अनिश्चितताओं के
माध्यम से आनंद लेता है या पीड़ित होता है, और बार-बार जन्म और मृत्यु का चक्र कै से बनता है।

समय, स्थान और परिस्थिति

वैदिक ग्रंथों में हमें भूमिका और व्यक्ति जैसे शब्द नहीं मिलते । हमें गुण , कर्म और काल जैसे शब्द
मिलते हैं , जहां गुण किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व और व्यक्तित्व है, कर्म उनके कार्यों का नैतिक परिणाम
है, और समय गुण और कर्म दोनों को नियंत्रित करता है । यह विवरण आसानी से समझ में नहीं आता है
क्योंकि यद्यपि हम लोगों की गतिविधियों को देख सकते हैं, यह स्पष्ट नहीं है कि मेरे कर्म उनके व्यवहार
के माध्यम से कै से कार्य करते हैं (यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि मेरा आनंद और कष्ट अक्सर दूसरों की
गतिविधियों पर निर्भर करता है, इसलिए यदि मुझे कष्ट उठाना है या आनंद लेना है) , मेरा कर्म अन्य
लोगों के व्यवहार के माध्यम से कार्य करना चाहिए)। वास्तव में, यह धारणा कि मेरा भाग्य दूसरों के कार्यों
से बनता है, स्वतंत्र इच्छा की नई समस्याएं पैदा करता है।

हम गुण, कर्म और काल को देश-काल-पत्र नामक एक अन्य त्रय के माध्यम से समझ सकते
हैं , जिसका अनुवाद अक्सर " समय , स्थान और परिस्थिति" के रूप में किया जाता है। चूंकि दोनों मामलों
में काल का उपयोग किया जाता है, इसलिए शब्द को अलग से समझाने की कोई आवश्यकता नहीं
है; इसका मतलब है समय. पिछले लेखों में , मैंने बताया है कि कै से सांख्य में पदार्थ तीन तरीकों से एक
पेड़ जैसी जगह का निर्माण करता है। इसलिए , गुण स्थान बनाते हैं और तीन गुणों का प्रत्येक संयोजन
ब्रह्मांड में एक अद्वितीय वैचारिक "स्थान" है। परिणामस्वरूप, हम गुण शब्द की तुलना देश या स्थान
और स्थान शब्द से कर सकते हैं; उनमें से एक कहता है कि संसार तीन गुणों वाला है, जबकि दूसरा कहता
है कि संसार अंतरिक्ष है; जब हम समझते हैं कि अंतरिक्ष में स्थान तीन गुणों के संयोजन से कै से निर्मित
होते हैं तो ये दोनों समान धारणाएँ हैं।

पत्र शब्द को और अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। इसका शाब्दिक अर्थ बर्तन, बर्तन या मटका
है। यह एक कं टेनर है जिसमें कु छ सामग्री होती है। सवाल यह है कि इस पत्र में क्या सामग्री है ? वर्तमान
संदर्भ में, कं टेनर में गुण से बना एक शरीर है, और जबकि हम गुण को देख सकते हैं, हम कं टेनर को नहीं
देख सकते हैं। पात्र वह "भूमिका" है जिसे शरीर "निभाता" है ठीक उसी तरह जैसे पानी एक बर्तन में भर
जाता है। पात्र शब्द का प्रयोग नाटक में राजा या रानी जैसे 'चरित्र' का वर्णन करने के लिए भी किया जाता
है। यह व्यवसाय एक नाटक के दृश्य की तरह है जिसमें अभिनेता रहते हैं; भूमिकाओं से युक्त दृश्य बर्तन
या कं टेनर है।

देश-काल-पात्र का अर्थ है कि कर्म भूमिकाएँ, अंतःक्रिया के दृश्य या परिस्थितियाँ (अर्थात "जहाज") बनाता
है। फिर इन बर्तनों को भौतिक निकायों द्वारा भर दिया जाता है जिन्हें भूमिकाओं में रखा जाता है। कर्म
को समझने के लिए , हमें यह देखना होगा कि ब्रह्मांड को भूमिकाओं के रूप में कै से निर्मित किया जाता है
और शरीर को उस भूमिका में धके ल दिया जाता है। भूमिकाएँ अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित करती
हैं, और जब शरीर भूमिका निभाता है, तो नैतिक व्यवहार की एक स्वाभाविक परिभाषा होती है । नैतिकता
उस "पोत" के रूप में मौजूद है जिसमें हम स्थित हैं। हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम इस "पोत" की
सीमाओं का पालन करें - यानी अधिकारों से आगे न बढ़ें और कर्तव्यों से पीछे न हटें।

वास्तविक और काल्पनिक स्थान

संपूर्ण ब्रह्मांड में कु छ संभावित स्थान (अर्थ) हैं। सभी स्थान एक साथ प्रकट नहीं होते; वे समय के कारण
एक-एक करके उत्पन्न होते हैं। हालाँकि, इनमें से कौन सा स्थान अन्य स्थानों के साथ बातचीत करेगा, यह
देखने योग्य दृश्य है। यह अंतःक्रिया कर्म द्वारा निर्मित होती है जो अंतरिक्ष में विभिन्न स्थानों पर
घटनाओं को जोड़ती है। उदाहरण के लिए, जिस कु र्सी पर मैं बैठा हूं और जिस मेज पर मैं लिख रहा हूं, वे
वैचारिक स्थान पर एक-दूसरे के बगल में नहीं हैं। वे वैचारिक रूप से बहुत दूर हैं - क्योंकि वे अलग-अलग
विचारों (कु र्सी और मेज) के उदाहरण हैं - हालांकि वे मेरे कर्म के कारण एक-दूसरे के साथ बातचीत कर
रहे हैं और वह बातचीत शारीरिक निकटता का आभास पैदा करती है।

इसलिए गुण द्वारा बनाई गई अंतरिक्ष में एक वास्तविक दूरी है , जो स्थायी है क्योंकि यह दो
अवधारणाओं के बीच का अंतर है, जो हमेशा एक संभावना के रूप में मौजूद रहती है। वैचारिक स्थान में
"टेबल" और "कु र्सी" के बीच की दूरी कभी नहीं बदलती है, और इस अर्थ में, भौतिक स्थान शाश्वत
है। अस्थायी हिस्सा यह है कि कु छ वस्तुएं कभी-कभी एक दृश्य बनाने के लिए अन्य वस्तुओं के साथ
बातचीत करती हैं। ये वस्तुएँ आवश्यक रूप से निकट नहीं हैं, न ही वे आवश्यक रूप से दूर हैं। हालाँकि,
जब वे बातचीत करते हैं तो वे करीब दिखाई देते हैं, और जब वे बातचीत नहीं करते हैं तो वे दूर दिखाई
देते हैं। निकटता और दूरी का आभास उनकी परस्पर क्रिया से उत्पन्न भ्रम है।

अंतःक्रियाएं एक अभूतपूर्व स्थान का निर्माण करती हैं जिसे हम त्रि-आयामी दुनिया के रूप में अनुभव करते
हैं। इस क्षेत्र की स्थितियाँ अपने आप में वास्तविक नहीं हैं। बल्कि, वे दो चीजों से उत्पन्न होते हैं: (1)
वास्तविक वस्तुएं जो अपने स्थान पर हमेशा के लिए मौजूद रहती हैं, और (2) अस्थायी कर्म जो उनकी
परस्पर क्रिया के कारण प्रभाव पैदा करते हैं। कर्म उन रिश्तों या परिस्थितियों या भूमिकाओं और चरित्रों का
कारण है जिनमें हमें रखा गया है। इन रिश्तों में दूरियां और नजदीकियां भी हैं, हालांकि, हर रिश्ता एक
संभावना भी है, क्योंकि हम स्थायी रूप से पिता, मां, बच्चे, दोस्त आदि की तरह व्यवहार नहीं कर रहे हैं।
भूमिका के प्रतिबंधों के तहत, शरीरों के बीच बातचीत, अभूतपूर्व निकटता बनाता है जो वैचारिक
निकटता/दूरी और भूमिका-आधारित निकटता/दूरी दोनों से भिन्न है। कर्म विभिन्न प्रतिभागियों को जोड़कर
नाटक के दृश्यों का निर्माण करता है, लेकिन इस अंतःक्रिया की ताकत अभूतपूर्व निकटता तय करती है।

अनुभव का निर्माण

आधुनिक विज्ञान के बड़े रहस्यों में से एक यह है कि परमाणु सिद्धांत दुनिया को एक संभावना के रूप में
वर्णित करता है लेकिन किसी भी समय उन संभावनाओं में से के वल एक ही वास्तविकता बन पाती
है। स्थिति एक पासे को उछालने की तरह है जिसमें सभी चेहरे संभव हैं, लेकिन किसी भी समय के वल एक
ही चेहरा सामने आएगा। अंतर यह है कि परमाणु सिद्धांत में ये चेहरे अलग-अलग वस्तुएं हैं। इसलिए, हम
एक के बाद एक वस्तु के साथ बातचीत करते हैं, लेकिन हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि अगली वस्तु
कौन सी होगी। हम जो देखते हैं वह उस अंतःक्रिया का उत्पाद है।

वैज्ञानिक पूछ रहे हैं कि अंतःक्रियाओं का क्रम कै से बनाया जा सकता है क्योंकि हम कोई "बल" नहीं ढूंढ पा
रहे हैं जो अगला अनुभव चुन सके । रहस्य और गहरा हो गया है क्योंकि हम सोचते हैं कि भौतिक अंतरिक्ष
में परमाणु और मापने का उपकरण एक दूसरे के बहुत करीब हैं। तो फिर किस कारण से परमाणु "अचानक"
उत्सर्जित होता है और मापने वाले उपकरण द्वारा इसका पता लगाया जाता है? यह समस्या फिलहाल भी
अनसुलझी है.

समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब हम समझें कि इलेक्ट्रॉन और मापने वाला उपकरण करीब नहीं
हैं; वे दो प्रकार की वस्तुएं हैं, और वे शब्दार्थ की दृष्टि से बहुत दूर हैं। हालाँकि, वे कर्म के कारण बातचीत
कर सकते हैं । परमाणु सिद्धांत जिसे तरंग फ़ं क्शन का "पतन" कहता है, वह एक माप घटना उत्पन्न करने
के लिए दो दूर की वस्तुओं की परस्पर क्रिया है। इस माप घटना का कारण कोई भौतिक गुण नहीं है और
न ही कोई बल है। यह एक प्रकार की वास्तविकता है जिसे कर्म कहा जाता है । यह अव्यक्त रूप में
विद्यमान है और इस प्रकार इसे तब तक मापा नहीं जा सकता जब तक यह कोई प्रभाव उत्पन्न न कर
दे। यह तय करता है कि कौन सा डिटेक्टर (पर्यवेक्षक) किस क्वांटम (वस्तु) को मापेगा (देखेगा)। कर्म समय
पर प्रकट हो रहा है, लेकिन जब तक हम यह नहीं समझ लेते कि यह कर्म कै से बनता है, कहां मौजूद है
और कै से प्रकट होता है, हम परमाणु सिद्धांत को नहीं समझ सकते।

कर्म का तंत्र

यदि दो वस्तुओं-ए और बी- को परस्पर क्रिया करनी है, तो दो प्रकार की अनिश्चितताओं (क्रमशः दो वस्तुओं
पर) को हल करना होगा। पहली अनिश्चितता यह है कि A के वल B ही नहीं बल्कि किसी भी C, D या E
के साथ बातचीत कर सकता है। इसी तरह, B सिर्फ A ही नहीं बल्कि किसी भी P, Q या R के साथ
बातचीत कर सकता है। इस प्रकार किसी भी लेनदेन के लिए दो पक्षों की अनिश्चितता को दूर करने की
आवश्यकता होती है : एक प्रेषक और एक प्राप्तकर्ता, क्योंकि प्रेषक किसी भी प्राप्तकर्ता को भेज सकता है,
और एक प्राप्तकर्ता किसी भी प्रेषक से प्राप्त कर सकता है।

किसी भी लेन-देन के लिए, पूरक कर्म के दो पहलू होने चाहिए : एक देना और दूसरा लेना। कर्म के तंत्र में
दो व्यक्तियों के कर्मों के दो उदाहरणों का युग्म शामिल होता है , जिसके कारण जब दो लोग एक करीबी
रिश्ते (उदाहरण के लिए विवाह) में आते हैं तो हम कह सकते हैं कि उनकी "नियति बंधी हुई है"। एक
मजबूत रिश्ते - जैसे विवाह - के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति जो कर्म प्राप्त करता है या संचारित करता
है उनमें से अधिकांश का आदान-प्रदान अपने साथी के साथ किया जाना चाहिए। यदि उनके कर्म मेल नहीं
खाते हैं, तो वे जबरन अन्य व्यक्तियों के साथ शामिल हो जाएंगे, जिससे वैवाहिक बंधन ढीला हो जाएगा।

वैदिक दर्शन वर्णन करता है कि दो व्यक्तियों की जोड़ी एक तीसरे पक्ष-देवताओं-द्वारा व्यवस्थित की जाती
है जो पेड़ में ऊं चे नोड हैं। इसलिए सूचना सीधे पेड़ के एक पत्ते से दूसरे पत्ते तक नहीं जा सकती। इसे
उल्टे पेड़ पर चढ़ना है, एक शाखा ढूंढनी है जहां पत्तियां जुड़ी हुई हैं, और फिर गंतव्य तक उतरना है। इस
प्रकार, कर्म का स्रोत और गंतव्य के वल दो संस्थाएँ शामिल नहीं हैं। सभी इंटरैक्शन में हमेशा एक तीसरा
पक्ष शामिल होता है जो मध्यस्थता करता है और इसे बनाता है।

तीन पक्षों को आदिदैविक , आध्यात्मिक और आदिभौतिक कहा जाता है । तीसरा पक्ष आदिदैविक है ; प्रथम
और द्वितीय पक्ष आध्यात्मिक और आदिभौतिक हैं । लेन-देन में प्रेषक और प्राप्तकर्ता "समान" नहीं होते
हैं; दोनों में से एक उच्चतर है—अर्थात दूसरे के सापेक्ष नियंत्रण की स्थिति में है, हालाँकि तीसरा पक्ष और
भी ऊँ चा है। इस प्रकार, आदिदैविक सर्वोच्च है, और इसलिए सत्त्वगुण है । शेष दो के
बीच, आध्यात्मिकता उच्चतर है, और इसलिए रजो-गुण। अंततः, आदिभौतिक निम्नतम है, और
इसलिए तमोगुण है । सभी भौतिक लेनदेन में ये तीन खिलाड़ी शामिल होते हैं। भूमिका के तीन भाग होते
हैं- आदिदैविक , आध्यात्मिक और आदिभौतिक । आध्यात्मिक और आदिभौतिक के बीच कर्म के दो
उदाहरण हैं , और उनकी पारस्परिक बातचीत आदिदैविक द्वारा व्यवस्थित की जाती है ।

घटना और वस्तु स्थान

नैतिकता और स्वतंत्र इच्छा की समस्याओं के समाधान के लिए अभिनेताओं और कार्यों को अलग करना
आवश्यक है। इसके परिणामस्वरूप दो प्रकार के विवरण मिलते हैं - एक घटनाओं का और दूसरा उन
वस्तुओं या अभिनेताओं का जो क्रियाओं का कारण बनते हैं। घटना एक आदान-प्रदान है, जो इसका आदान-
प्रदान करने वाली वस्तुओं या अभिनेताओं से भिन्न है। यदि आप अपने मित्र को धन उधार देते हैं, तो यह
घटना धन उधार है, लेकिन उस विनिमय का मतलब यह नहीं है कि आप या आपका मित्र धन हैं। घटनाओं
का स्थान वस्तुओं के स्थान से काफी भिन्न होता है।

घटनाओं के ब्रह्मांड की तीन विशेषताएं हैं ("क्या", "कहां", और "कब"); यहां स्थान, समय और पदार्थ का
तात्पर्य घटनाओं से है, न कि घटनाओं में शामिल अभिनेताओं से। इसी प्रकार, एक और स्थान, समय और
पदार्थ है जो तीन विशेषताओं ("कौन", "क्यों" और "कै से") के साथ व्यक्तिगत अभिनेताओं का गठन करता
है; यहां स्थान, समय और पदार्थ का तात्पर्य अभिनेताओं से है, घटनाओं से नहीं। अब हमारे पास दो तरह
के स्थान हैं- एक घटनाओं का और दूसरा अभिनेताओं का। ये दोनों स्थान इस अर्थ में "निश्चित" हैं कि
घटनाओं और अभिनेताओं के स्थान अच्छी तरह से परिभाषित हैं। यह तय नहीं है कि किस सीन में कौन
से कलाकार शामिल होंगे। यह कर्म से तय होता है .

कर्म वह एजेंसी है जो अभिनेताओं को एक-दूसरे से और घटनाओं से जोड़ती है। घटनाओं के क्षेत्र में, ब्रह्मांड
को घटनाओं के रूप में वर्णित किया जा सकता है - उदाहरण के लिए पैसा उधार दिया जाता है, पैसा वापस
किया जाता है, किसी का जन्म होता है, कोई मर जाता है, कोई राष्ट्रपति चुना जाता है, एक घर खरीदा
गया था, आदि। अभिनेताओं के स्थान में, ब्रह्मांड भौतिक निकायों के रूप में वर्णित किया जा सकता
है। सभी शरीर और सभी घटनाएँ पूर्वनिर्धारित हैं, लेकिन कौन सा शरीर किस घटना से गुज़रता है, यह
नहीं। इस प्रकार शरीर घटनाओं से गुजरता है, जिसे हम भौतिक अनुभव कहते हैं: उदाहरण के लिए मुझे
धन प्राप्त हुआ, मैंने धन उधार दिया, मेरा जन्म हुआ, मैं मर गया, मैं राष्ट्रपति चुना गया, मैंने एक घर
खरीदा, आदि।

कर्म प्रकृ ति के इन दो अलग-अलग प्रकार के विवरणों में सामंजस्य स्थापित करता है; यह हमें यह कहने
की अनुमति देता है कि प्रत्येक घटना के पीछे एक भौतिक वस्तु होती है जो उसे उत्पन्न करती
है। अंतःक्रिया के घटकों का चयन करके , कर्म परिभाषित करता है (1) कौन सी वस्तुएँ किसी घटना में भाग
लेंगी, और (2) किस घटना की व्याख्या किन भौतिक वस्तुओं द्वारा की जाएगी। चूँकि घटनाएँ हमेशा कु छ
वस्तुओं से जुड़ी होती हैं, प्रत्येक अनुभव के पीछे कु छ वास्तविकता होती है। यदि घटनाएँ और वस्तुएँ जुड़ी
नहीं होतीं, तो हमें बिना किसी वास्तविकता के अनुभव हो सकता था।

इस अंतःक्रिया में, भौतिक वस्तुएँ भौतिक कारण हैं और कर्म वह कु शल कारण है जो वस्तुओं को
कारणात्मक अंतःक्रिया में जोड़ता है। आधुनिक विज्ञान यह सोचने का भ्रम है कि भौतिक कारण ही कु शल
कारण है। उदाहरण के लिए, यदि कोई हमारा पैसा चुरा लेता है, तो हम अपने कर्म को दोष नहीं देते
हैं ; हम उस व्यक्ति को दोषी मानते हैं जिसने इसे चुराया है। जो व्यक्ति इसे चुराता है वह वास्तव में
चोरी का भौतिक कारण है। हालाँकि, वे संभावित रूप से किसी अन्य व्यक्ति से चोरी कर सकते थे और मैं
फिर भी अप्रभावित रहूँगा। चोर द्वारा मुझसे चोरी करने का कारण मेरे कर्म हैं और यही कर्म चोरी का
प्रभावी कारण है।
भूमिका की शारीरिक रचना

बेशक, चोरी नैतिक रूप से गलत है, और हम उस नैतिकता का आकलन के वल पैसे लेने की कार्रवाई से
नहीं, बल्कि उस व्यक्ति की भूमिका से करते हैं जो उस पैसे को ले रहा है। इस प्रकार, कर्म यह तय
कर सकता है कि कोई मेरा पैसा लेगा या नहीं। लेकिन व्यक्ति वैध कर्तव्य में शामिल है या अवैध कार्य में,
यह कर्ताओं की भूमिका से तय होता है। इसलिए भौतिक और कु शल कारण के वल वर्तमान में घटना की
घटना को समझाने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन घटना की नैतिकता का आकलन करने के लिए अतिरिक्त
भूमिका की आवश्यकता होती है।

एक भूमिका तीन अलग-अलग पहलुओं से बनी होती है। सबसे पहले, प्रत्येक भूमिका में अधिकार और
कर्तव्य जुड़े होते हैं। दूसरा, ये अधिकार और कर्तव्य देने और लेने दोनों के लिए परिभाषित हैं। तीसरा, देना
और लेना प्रकृ ति के तीन गुणों द्वारा विभाजित होते हैं जो बदले में ज्ञान से शुरू होने वाले छह गुणों को
विभाजित करते हैं। उनका अधिक पूर्णतया वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है:

 एक भूमिका के अधिकार और कर्तव्य होते हैं। हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम अपने अधिकार का
प्रयोग करें और कर्तव्यों को भूमिका के अनुसार अपेक्षित और अपेक्षित सीमा तक पूरा करें, चाहे हम
इसे पसंद करें या नहीं।
 अधिकारों और कर्तव्यों में देना और लेना दोनों शामिल हैं। इस प्रकार, हमें देने और प्राप्त करने
दोनों का अधिकार है; इसी तरह, जिम्मेदारी में देना और लेना दोनों शामिल हैं।
 संपत्ति देने या प्राप्त करने का प्रत्येक कार्य तीन तरीकों से संपत्तियों का आदान-प्रदान करता
है; उदाहरण के लिए, भोजन कड़वा, मीठा या नमकीन हो सकता है, रंग सियान, मैजेंटा और पीला
आदि हो सकता है।

किसी भूमिका के अधिकार का प्रयोग करते समय, एक व्यक्ति उन व्यक्तियों की तुलना में आध्यात्मिक
होता है - यानी उच्चतर - जिन पर वह अधिकार का प्रयोग करता है - यानी आदिभौतिक । जिम्मेदारियों
को पूरा करते समय, एक व्यक्ति आदिभौतिक होता है - यानी अधीनस्थ - उन व्यक्तियों के अधीन जो
जिम्मेदारी का उपभोग करते हैं, जो अब आध्यात्मिक बन जाते हैं । प्राधिकारी व्यक्ति अपने निर्णयों से
प्रभावित लोगों पर सापेक्षिक स्वामी होता है। वही व्यक्ति कर्तव्य निभाते समय उत्तरदायित्व का उपभोग
करने वालों का अधीनस्थ बन जाता है। कोई भी व्यक्ति पूर्ण स्वामी या सेवक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति के पास कु छ अधिकार और कु छ जिम्मेदारी होती है।

कै से तीन तरीके कर्म बनाते हैं

हमारा व्यक्तित्व और वैयक्तिकता प्रकृ ति के तीन गुणों- सत्व , रजस और तमस से निर्मित होती है
। रजस गुण उत्साह और आत्मविश्वास पैदा करता है और इस गुण के तहत व्यक्ति अपने अधिकार और
जिम्मेदारी से आगे निकल जाता है। तमस गुण आलस्य और जड़ता पैदा करता है और इस गुण के तहत
व्यक्ति अपने अधिकार और जिम्मेदारी से वंचित हो जाता है। सत्त्वगुण उत्साह और आलस्य को संतुलित
करता है और इस गुण के तहत, एक व्यक्ति वही करता है जो भूमिका अपेक्षा करती है - न तो अपनी
मांगों से अधिक और न ही कम।
जब हम अधिक हो जाते हैं या कम हो जाते हैं, तो कर्म उत्पन्न होता है जिसके तीन प्रकार होते हैं
जिन्हें सुकर्म , विकर्म और अकर्म कहा जाता है । सुकर्म शब्द "अच्छे " कर्म को इंगित करता है
; विकर्म शब्द "बुरे" कर्म को इंगित करता है ; अकर्म शब्द "नहीं" कर्म को दर्शाता है। यदि हम भूमिका को
अपेक्षित व्यवहार पर एक सीमा के रूप में सोचते हैं, तो कर्म का नियम किसी व्यक्ति को न तो उस सीमा
के अंदर और न ही बाहर होने के लिए बाध्य करता है। बल्कि, आदर्श व्यवहार सिर्फ सीमा पर रहना है।

सत्व-गुण की विधा आदर्श विधा है क्योंकि इस विधा में हम न तो आगे बढ़ते हैं और न ही कम होते
हैं। जब कार्य सत्व-गुण के तहत किए जाते हैं तो उस गतिविधि को कर्म-योग कहा जाता है , जो आपके
व्यक्तित्व को भूमिका में विलीन कर देता है: आपके अद्वितीय स्वाद (जो जीवन में आपके अद्वितीय अर्थ
और आनंद पैदा करते हैं) कोई मायने नहीं रखते; भूमिका की माँगें मायने रखती हैं। रजो-गुण और तमो-
गुण के तहत , एक व्यक्ति का व्यक्तित्व और वैयक्तिकता अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसके
परिणामस्वरूप या तो सुकर्म या विकर्म होता है ।

हम माता-पिता और बच्चों के रूप में तीन तरीकों के बारे में सोच सकते हैं। सत्त्वगुण का गुण ही माता-
पिता है। रजोगुण का गुण बड़ा सहोदर है, जबकि तमोगुण का गुण छोटा सहोदर है। माता-पिता दो भाई-
बहनों से पहले आते हैं, लेकिन बड़ा भाई-बहन छोटे भाई-बहन से पहले आते हैं। दोनों भाई-बहन हमेशा
झगड़ते रहते हैं और माता-पिता उनके बीच की लड़ाई को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। वे एक परिवार के
तीन सदस्य हैं और अलग-अलग समय पर उन्हें निर्णय लेने का मौका मिलता है जिसका परिवार सामूहिक
रूप से पालन करेगा। कौन सी विधा कब प्रमुख या अधीन है, यह समय का कार्य है, जो चक्रों में संचालित
होता है।

कर्म का नियम

उपरोक्त भेदों के आधार पर हम कर्म के "नियम" का वर्णन निम्नलिखित तालिका के माध्यम से कर सकते
हैं। वैदिक ग्रंथों में ऐसी किसी तालिका का वर्णन नहीं है। हालाँकि, नैतिकता की ऐसी समझ मनुस्मृति जैसे
ग्रंथों से आसानी से प्राप्त की जा सकती है , जो अच्छे और बुरे कार्यों का वर्णन करते हैं। चाहे हम इसे
पसंद करें या न करें, नैतिकता के ये नियम हमारे समाज में अनादिकाल से अंतर्निहित हैं। इन कानूनों का
दार्शनिक आधार अब अच्छी तरह से ज्ञात नहीं है, लेकिन कानूनों पर सहमत होना अभी भी असंभव नहीं
है।

अधिकार कर्तव्य

दे रही है ले रहा दे रही है ले रहा


इनाम सज़ा देना इनाम सज़ा देना इनाम सज़ा देना इनाम सज़ा

अधिकता अच्छा खराब खराब अच्छा अच्छा खराब खराब अच्

छोटा खराब अच्छा अच्छा खराब खराब अच्छा अच्छा ख

नीचे मैं नैतिक व्यवहार के बारे में रोजमर्रा के अंतर्ज्ञान से प्राप्त अंतर्दृष्टि का उपयोग करके उपरोक्त
नियमों के बारे में विस्तार से बताता हूँ। विवरण को नीचे दी गई तालिका में क्रमांकन के अनुसार क्रमांकित
किया गया है।

अधिकार कर्तव्य

दे रही है ले रहा दे रही है ले रहा

सज़ा सज़ा सज़ा स


इनाम इनाम इनाम इनाम
देना देना देना दे

अधिकता 1 3 5 7 9 11 13

छोटा 2 4 6 8 10 12 14

1. हम सभी में समाज को अच्छी चीजें देने की क्षमता है और हमसे देने की अपेक्षा की जाती है; जब
हमारा दान हमारी प्राकृ तिक क्षमता से अधिक हो जाता है, तो हम अच्छे कर्म बनाते हैं ।
2. जब हमारे पास दूसरों को देने की क्षमता होती है, लेकिन हम कं जूस बन जाते हैं और अपनी क्षमता
से कम या कम क्षमता होने पर भी दूसरों की मदद करने से इनकार कर देते हैं, तो हम बुरे कर्म के
भागी बनते हैं ।
3. हमें अपने अधिकार के तहत दूसरों को फटकार लगाने का अधिकार है, लेकिन इस फटकार का
इस्तेमाल संयमित रूप से किया जाना चाहिए - जब और जब आवश्यक हो - और अधिकतर अनुमत
अधिकतम से कम। फटकार का विवेकपूर्ण उपयोग अच्छा कर्म है ।
4. दूसरों को दंडित करने के अपने अधिकार की सीमा से आगे बढ़ना - चाहे वह हमारे अधिकार क्षेत्र से
परे या अपराध की सीमा से परे तक फै ला हो, बुरा कर्म है ।
5. जब हम लोगों को रोजगार देते हैं, तो हमें उनकी सेवाओं की मांग करने का अधिकार है; हालाँकि,
एक नियोक्ता को कर्मचारियों को मिलने वाले मुआवजे से कम की मांग करने की इच्छा रखनी
चाहिए। अधिक देना और कम लेना अच्छा कर्म है ।
6. जब कोई नियोक्ता कर्मचारियों का शोषण करता है और उनसे उनकी नौकरी की भूमिका के अनुसार
पारिश्रमिक या परिभाषित राशि से अधिक काम लेता है, तो नियोक्ता को बुरे कर्म का भागी बनना
पड़ता है ।
7. हर किसी में दूसरों के फायदे के लिए नुकसान और नुकसान सहने की कु छ प्राकृ तिक क्षमता या
सहनीय सीमा होती है। जब कोई व्यक्ति इस क्षमता से अधिक हो जाता है - यानी दूसरों के लिए
एक महान बलिदान करता है - तो वह अच्छे कर्म बनाता है ।
8. जब कोई व्यक्ति व्यक्तिगत बलिदान देने की क्षमता रखता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर
बलिदान नहीं करता है, या क्षमता से कम बलिदान करता है - तो वह बुरे कर्म का निर्माण करता है

9. एक कर्मचारी से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कर्तव्यों का परिश्रमपूर्वक पालन करे; हालाँकि,
कु छ कर्मचारी अपने अपेक्षित कर्तव्य से आगे बढ़कर अपने नियोक्ता के लिए अधिक मूल्य बनाते
हैं; वे अच्छे कर्म उत्पन्न करते हैं ।
10.एक कर्मचारी जो अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करता है और नौकरी में अपेक्षा के अनुरूप अपने
कर्तव्यों का पालन नहीं करता है, वह अपेक्षित मूल्य बनाने में विफल रहता है और बुरे कर्म पैदा
करता है ।
11.न्यायाधीश या पुलिस जैसी कु छ नौकरियों में, किसी से कर्तव्य के रूप में दूसरों को दंडित करने की
अपेक्षा की जाती है; जब किसी व्यक्ति को दिए गए अपराध के लिए अपेक्षा या आवश्यकता से
अधिक सजा मिलती है, तो वह बुरे कर्म का निर्माण करता है ।
12.जब कोई न्यायाधीश या पुलिस समाज में लोगों के प्रति दयालु होकर उन्हें सही करता है और उन्हें
किसी अपराध के लिए अधिकतम संभव सजा से कम सजा देता है, तो वे अच्छे कर्म का निर्माण
करते हैं ।
13.कु छ कर्मचारियों-जैसे कर संग्राहकों-से अपेक्षा की जाती है कि वे दूसरों से कीमती सामान (जैसे पैसा)
प्राप्त करें या एकत्र करें; जब वे किसी दिए गए मामले के लिए अनुमत अधिकतम सीमा को पार
कर जाते हैं, तो उन्हें बुरे कर्म का भागी बनना पड़ता है ।
14.जब एक कर संग्रहकर्ता संकट या कठिनाई में पड़े लोगों की मांगों में उदार होता है और अपना काम
यथासंभव लगन से करते हुए भी दया और करुणा का प्रदर्शन करता है, तो वह क्षमा के कारण
अच्छे कर्म बनाता है।
15.एक जहाज के कप्तान, या युद्ध के मैदान पर एक सैनिक, या समाज में किसी भी नेता से उनके
अपेक्षित कर्तव्य के रूप में बलिदान की उम्मीद की जाती है। जब कोई व्यक्ति अपेक्षित सीमा से
कहीं अधिक त्याग करता है, तो वह अच्छे कर्म बनाता है ।
16.जब एक कप्तान या सैनिक या नेता से बलिदान देने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन वह कायरता के
कारण जिम्मेदारी से भाग जाता है, या खुद को बचाते हुए दूसरों को अपनी ओर से बलिदान करने
देता है, तो वह बुरे कर्म का भागी बनता है ।

कर्म एक तंग रस्सी पर चलना है


उपरोक्त तालिका अच्छे या बुरे कर्म कै से बनते हैं इसके सोलह नियमों का वर्णन करती है। हालाँकि, यदि
हम उपरोक्त सरल नियमों को पढ़ें, तो तीन प्रकार के अपवाद स्पष्ट होने चाहिए।

 सभी नियम हर किसी पर लागू नहीं होते; जैसा कि हम देख सकते हैं, कु छ नियम नेताओं और
योद्धाओं के लिए प्रमुख हैं, जबकि अन्य नियम सामान्य श्रमिकों के लिए प्रासंगिक हैं, जबकि अन्य
नियम के वल नियोक्ताओं और व्यापारियों के लिए प्रासंगिक हैं। इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्न
प्रकार के लोगों के लिए कर्म के नियम अलग-अलग हैं - यानी सामाजिक संगठन की वर्ण व्यवस्था
में वर्ग।
 नियमों का प्रयोग व्यक्ति की क्षमता पर आधारित होता है। एक गरीब आदमी थोड़ा दान देता है तो
अच्छे कर्म पैदा करता है जबकि एक अमीर आदमी थोड़ा दान देता है तो बुरे कर्म पैदा करता है
। एक सामान्य व्यक्ति द्वारा किया गया छोटा सा त्याग अच्छे कर्म का निर्माण करता है , लेकिन
जब त्याग की अपेक्षा करने वाले लोग अपने कर्तव्य से पीछे हट जाते हैं, तो कर्तव्य का आंशिक
पालन बुरे कर्म के रूप में सामने आता है ।
 नियमों को संबंधित स्थिति के आधार पर लागू किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक
न्यायाधीश का किसी कठोर अपराधी के प्रति उदार होना कर्तव्य की अवहेलना है, क्योंकि अपराधी
निर्दोषों के विरुद्ध अधिक अपराध करता है, और न्यायाधीश को उस कमी के लिए जिम्मेदार ठहराया
जा सकता है। इसी तरह, एक कर संग्रहकर्ता जब कर चुकाने की क्षमता रखता है तो कर माफ कर
देता है, जो अपराध में भागीदार है।

इन कानूनों का प्रयोग किसी व्यक्ति के कर्तव्यों और अधिकारों को पूरा करने की क्षमता पर निर्भर करता
है, जो अक्सर उनके वर्तमान में प्रकट कर्म का परिणाम होता है । नियमों का प्रयोग स्थिति के निर्णय पर
भी निर्भर करता है क्योंकि नियमों का अत्यधिक और कम प्रयोग दोनों ही बुरे कर्म हैं । जबकि नियम हमें
दिशानिर्देशों को समझने में मदद करते हैं, नियमों को लागू करना अक्सर एक कठिन कदम हो सकता है,
क्योंकि भौतिक स्थिति पदानुक्रमित है, और इसलिए नियमों को भी पदानुक्रमित तरीके से लागू करना पड़ता
है। इस प्रकार, व्यक्ति, समय, स्थान और स्थिति के आधार पर, कु छ नियम दूसरों की तुलना में अधिक
महत्वपूर्ण हो जाते हैं। न्याय निर्धारित करने के लिए नियमों की तालिका पर्याप्त नहीं है।

इस तथ्य के कारण अच्छे कर्म बनाने का प्रयास उल्टा पड़ सकता है और परिणामस्वरूप बुरे कर्म हो सकते
हैं । उदाहरण के लिए, एक जोशीला शासक कानूनों को लागू करने में बेहद कठोर हो सकता है और इस
तरह निर्दोषों को दंडित कर सकता है। इसी तरह, एक दयालु वकील सर्वोत्तम परिणामों की आशा में,
कानूनों को लागू करने में बहुत उदार हो सकता है, लेकिन उस उदारता की व्याख्या कानून की कमजोरी के
रूप में की जा सकती है। इस प्रकार, अति उत्साही या अति दयालु होने के दोनों विकल्पों का परिणाम
बुरा कर्म होता है । इसलिए, वैदिक ग्रंथ व्यक्ति को भौतिक भूमिकाओं से मुक्त होने की आकांक्षा करने की
सलाह देते हैं, न कि शक्तिशाली भूमिकाओं की तलाश करने की।

प्रकृ ति के तरीकों और उनके प्रभावों को दर्शाने के लिए उपरोक्त तालिका को सरल बनाया जा सकता
है। नीचे दी गई तालिका दर्शाती है कि अच्छे और बुरे कर्म कै से बनते हैं जो भविष्य की भूमिकाओं को
प्रभावित करते हैं।
राजाओं तमस

राजाओं तमस राजाओं तमस

राजाओं तमस राजाओं तमस राजाओं तमस राजाओं त

राजाओं अच्छा खराब खराब अच्छा अच्छा खराब खराब अ

तमस खराब अच्छा अच्छा खराब खराब अच्छा अच्छा ख

अच्छे कर्म का सार है (1) अधिक मूल्य देना और कम नुकसान, और (2) कम मूल्य और अधिक नुकसान
उठाना। कर्म का नियम यह है कि जैसे-जैसे अच्छे कर्म बढ़ते हैं, व्यक्ति को उपलब्ध अधिकार, अधिकार
और शक्ति बढ़ती है और इसलिए व्यक्ति भौतिक पदानुक्रम में ऊपर उठता है; इसी प्रकार, जैसे-जैसे
बुरे कर्म बढ़ते हैं, कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ और देनदारियाँ भी बढ़ती हैं और व्यक्ति भौतिक पदानुक्रम में गिर
जाता है। जैसे ही अच्छे कर्म समाप्त होते हैं (अर्थात नए अच्छे कर्म नहीं बनते हैं), व्यक्ति पदानुक्रम में
गिर जाता है, और जैसे ही बुरे कर्म समाप्त हो जाते हैं (अर्थात नए बुरे कर्म नहीं बनते हैं) व्यक्ति भौतिक
पदानुक्रम में ऊपर उठ जाता है। इस प्रकार, जीव कर्म के कारण भौतिक वृक्ष के ऊपर और नीचे आ-जा रहा
है, कभी-कभी उच्च पद पर आनंद ले रहा है, और कभी-कभी निम्न स्थान पर कष्ट भोग रहा है।

भौतिक नैतिकता का सार

भौतिक संसार में हर कोई ऐसी स्थिति की तलाश में है जहां उनके पास कहीं अधिक अधिकार हों और कहीं
कम कर्तव्य हों। भौतिक संसार में ऊपर उठने का मतलब है भौतिक पदानुक्रम के पेड़ पर ऊपर जाना जहाँ
हम अधिक शक्ति पा सकते हैं, जबकि भौतिक प्रकृ ति के पेड़ से नीचे जाना तब होता है जब हमारे पास
कम शक्ति होती है। यह ध्यान देने योग्य है कि दुनिया की सभी स्थितियों - उच्च और निम्न - का आनंद
लिया जा सकता है। उदाहरण के लिए, शक्ति प्राप्त करने और उसका उपयोग न करने में भी खुशी है,
क्योंकि हर कोई आज्ञाकारी और वैध है। शक्ति न होने और इसलिए जिम्मेदारी न होने में भी खुशी है
क्योंकि तब व्यक्ति गलती करने और इसलिए गिरने का जोखिम नहीं उठाता है।

ब्रह्मांड के उच्चतर खंडों में आनंद अधिक स्वतंत्रता और अधिक जिम्मेदारी का है। ब्रह्मांड के निचले हिस्सों
में आनंद कम स्वतंत्रता और कम जवाबदेही में है। उदाहरण के लिए, ब्रह्मांड के उच्च क्षेत्रों में, आनंद का
अर्थ विचारों का सम्मानजनक और जिम्मेदार आदान-प्रदान है। ब्रह्मांड के निचले क्षेत्रों में, आनंद का अर्थ है
सैडोमासोचिस्टिक वर्चस्व और अधीनता।
आध्यात्मिक उन्नति के लिए न तो ऊपर और न ही नीचे आदर्श रूप से उपयुक्त है। ऐसा इसलिए क्योंकि
अगर आप शीर्ष पर हैं तो आपके पास इतनी ताकत है कि उसे छोड़ना आसान नहीं है. ऐसी स्थिति में,
आत्मा प्रभाव, नियंत्रण और अधिकार से मोहित हो जाती है और इसे खोने के विचार से कांप उठती है; यहां
तक कि देवता भी दूसरों पर जबरदस्त शक्ति होने के बावजूद असुरक्षित हैं। इसके विपरीत, यदि आप
निचले पायदान पर हैं, तो आपके पास अपनी पसंद का कु छ भी करने की शक्ति और स्वतंत्रता बहुत कम
है। ऐसी स्थिति में, आत्मा आस-पास की परिस्थितियों और स्थितियों से अत्यधिक बंधी होती है और स्वतंत्र
रूप से सोचने या कार्य करने में असमर्थ होती है। ऊपर और नीचे के जीव विभिन्न प्रकार के सुखों का
आनंद ले रहे हैं, लेकिन उनमें से किसी के पास भी ब्रह्मांड से आसानी से बाहर निकलने की क्षमता नहीं है।

ब्रह्मांड के मध्य में रहने वाले जीवों के पास न तो बड़ी स्वायत्तता है और न ही बड़ा बंधन। तदनुसार,
अधिकारों के प्रयोग और कर्तव्यों के निष्पादन से प्राप्त आनंद महान नहीं है। वास्तव में, परिस्थितियों को
देखते हुए, यह स्पष्ट नहीं है कि भौतिक जीवन का आनंद लेने का सबसे अच्छा तरीका अपने अधिकारों
और जिम्मेदारियों को बढ़ाना है या अपनी स्वतंत्रता और जवाबदेही को कम करना है। इस प्रकार, कु छ लोग
उच्चवर्गीय जीवन (शीर्ष व्यवसायी और राजनेता) अपनाते हैं, जबकि अन्य मध्यमवर्गीय जीवन (सफे द और
नीली कॉलर वाले श्रमिक) चाहते हैं, जबकि अन्य लोग निम्नवर्गीय जीवन (हिप्पी, आवारा) से खुश होते हैं ,
और जिप्सी)। कौन दृढ़तापूर्वक कह सकता है कि उन सबमें सबसे अधिक सुखी कौन है?

वैदिक ग्रंथ आध्यात्मिक उन्नति के लिए मध्य जीवन को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि रजो-गुण और तमो-
गुण दोनों को छोड़ना और सत्व-गुण का अनुसरण करना आसान है । जैसे ही कोई व्यक्ति नए कर्मों का
निर्माण बंद कर देता है , वह इस जीवन में व्यवसाय समाप्त कर लेता है और भौतिक भूमिकाओं से मुक्त
हो जाता है। फिर वह गैर-भौतिक भूमिकाओं के बारे में सोच सकता है और उनके लिए एक व्यक्तित्व
विकसित कर सकता है।

गुण और कर्म का चक्र

भूमिका वस्तुनिष्ठ है न कि व्यक्तिपरक। अतः नैतिक निर्णय का नियम भी वस्तुनिष्ठ है, व्यक्तिपरक
नहीं। यह तथ्य हमें नैतिकता का एक प्राकृ तिक सिद्धांत तैयार करने की अनुमति देता है, और यह बताता है
कि नैतिक निर्णय के परिणाम किस प्रकार जिम्मेदार होते हैं जिसे हम "गति" या आत्मा का स्थानांतरण
कहते हैं। जैसे-जैसे हम अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाते हैं, हम या तो ऊं ची भूमिका तक पहुंच सकते
हैं या सभी भूमिकाओं को त्याग सकते हैं। चूँकि हम अपनी भूमिकाएँ ख़राब तरीके से निभाते हैं, हम सीमित
भूमिकाओं में बंध जाते हैं जहाँ हमारी स्वतंत्रता सीमित होती है।

इसलिए , गुण और कर्म, कार्य -कारण के एक चक्र का निर्माण करते हैं। कर्म परिस्थितियों का निर्माण
करता है। एक जीवित इकाई इन स्थितियों को समझने की कोशिश करती है और दी गई परिस्थितियों में
आनंद लेने के लिए कार्रवाई की रणनीति बनाती है, जिससे उसका गुण बदल जाता है । नए गुण अब नई
गतिविधियाँ उत्पन्न करते हैं और यह इस बात पर निर्भर करता है कि ये गतिविधियाँ अपेक्षाओं से अधिक
हैं या कम, नए कर्म का निर्माण होता है। यह कारण चक्र एक चक्रीय समय में चलता है जहां ब्रह्मांड स्वयं
एक ही प्रकार की घटनाओं से बार-बार गुजरता है। इसलिए, ब्रह्मांड में जीवित इकाई चक्रों में घूम रही है:
(1) गुण-कर्म चक्र के कारण, और (2) समय चक्र के कारण।

जैसे ही व्यक्ति अच्छे कर्म करता है , वह भौतिक वृक्ष पर ऊपर उठता है और अधिक स्वायत्तता, शक्ति
और जिम्मेदारी का आनंद लेता है। जैसे ही व्यक्ति बुरे कर्म करता है , वह भौतिक वृक्ष से नीचे गिर जाता
है और अधिक बंधन, अधीनता और नियतिवाद का आनंद उठाता है। सभी प्रकार की भौतिक स्थितियों में
आनंद है, बशर्ते कि व्यक्ति ने अपने आनंद के स्वाद को उपलब्ध परिस्थितियों के अनुसार अनुकू लित किया
हो। जैसे ही अच्छे कर्म समाप्त हो जाते हैं, जीव फिर से अपनी स्थिति को बदतर के लिए बदल देता है
(अब तक विकसित किए गए आनंद के स्वाद के आधार पर)। इसी प्रकार, जब बुरा कर्म समाप्त हो जाता
है, तो जीव अपनी स्थिति को बेहतर के लिए बदल देता है (अपने स्वाद के आधार पर)। इस प्रकार के
आगे-पीछे होने से एक चक्र उत्पन्न होता है जिसे "स्थानांतरण" कहा जाता है और यह गुण-कर्म चक्र और
समय चक्र से निकलता है।

the guna theory and the varna system


उपनिषदों में अरब्ध कर्म के सिद्धांत का बहुत अच्छे से वर्णन किया गया है। सबसे पहले, हमें कर्म की मूल
अवधारणाओं और उसके विभाजन को समझना होगा। कर्म का अर्थ है "कर्म या कार्य"। हमारे कर्म ही हमारे
अच्छे और बुरे कर्मों का फल तय करते हैं।

कर्म सिद्धांत की अवधारणा सबसे पहले ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा बृहदारण्यक उपनिषद पुस्तक में प्रस्तुत की
गई थी।

उपनिषदों के अनुसार कर्म चार प्रकार के होते हैं-

संचित कर्म - ये तरकश में तीर के समान हैं।

संचित कर्म इस जीवन और अन्य सभी पिछले जन्मों में संचित सभी
कर्मों का परिणाम है। यह बुरे कर्म और अच्छे कर्म का संचय है। इस
स्तर पर अच्छे कर्म बुरे कर्म के प्रभाव को रद्द नहीं करते हैं। इन
कर्मों का समाधान होना अभी बाकी है।

अगामी कर्म - ये
तीर की तरह हैं जो
छू टने वाले हैं।

अगामी कर्म संचित कर्म का वह भाग है जिसे अभी


अंकु रित होने के लिए लिया जाता है। यह एक तीर की
तरह है जो छू टने के लिए तैयार है। ये कर्म धनुष पर तीर के समान हैं।
प्रारब्ध कर्म - ये वे कर्म हैं जो कार्य करने वाले होते हैं। यह एक तीर की तरह है जो छू ट गया है और उड़
रहा है।

प्रारब्ध कर्म संचित कर्म का हिस्सा हैं, जो अभिव्यक्ति की प्रक्रिया


में हैं और इस जीवन के माध्यम से अनुभव किए जाने हैं। प्रारब्ध
कर्म उस तीर की तरह है जो पहले ही धनुष से निकल चुका है।

क्रियमाण कर्म -

क्रियमाण कर्म वर्तमान सक्रिय कर्म है। तीर तो बस निशाने पर लगता


है. लक्ष्य दर्द या खुशी महसूस कर रहा है. इन अनुभवों की प्रतिक्रिया से
नये कर्म बनते हैं। कु छ क्रियमाण कर्म वर्तमान जीवन में फल देते हैं,
अन्य भविष्य के जीवन में आनंद लेने के लिए संग्रहीत किए जाते
हैं। इस प्रकार क्रियमाण कर्म दो प्रकार के होते हैं-

अरब्ध कर्म - वह कर्म जो अंकु रित हो रहा हो या शुरू हो गया हो।

अनरब्ध कर्म - बीज कर्म या शुरू नहीं हुआ

उदाहरण के लिए दो व्यक्ति चोरी करते हैं और उनमें से एक पकड़ा जाता है- अरब्ध कर्म और दूसरा भाग
जाता है- अनरब्ध कर्म। जो चोर पकड़ा जाता है उसे तुरंत अपनी हरकत की प्रतिक्रिया का एहसास हो जाता
है. वह जेल जाता है. जो दूसरा बच गया है उसे अपने गलत कार्य का परिणाम इस जन्म में या भविष्य में
भुगतना पड़ेगा।

प्रकृ ति के तीन गुणों की संपूर्ण मार्गदर्शिका: सत्व, रजस और तमस

योग दर्शन के अनुसार, संपूर्ण ब्रह्मांड को दो मुख्य श्रेणियों या तत्वों में विभाजित किया जा सकता है:
प्रकृ ति (माया या भ्रम) और पुरुष (वास्तविकता)। जो कु छ भी परिवर्तनशील है वह माया से संबंधित है,
जबकि पुरुष वास्तविकता है और ब्रह्मांड का एकमात्र अपरिवर्तनीय तत्व है: स्व, आत्मा।
योग का अंतिम लक्ष्य भ्रम से परे देखना और वास्तविक वास्तविकता को समझना है, जिससे समाधि या
आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। सच्चे स्व के करीब पहुंचने का एक तरीका प्रकृ ति के तीन गुणों -
सत्व, रजस और तमस को समझना है - जो ब्रह्मांड और हमारे सहित सभी चीजों के बुनियादी निर्माण खंड
बनाते हैं।
यह समझने के लिए पढ़ना जारी रखें कि तीन गुण क्या हैं, वे हम पर कै से प्रभाव डालते हैं, साथ ही प्रकृ ति
की इन मूलभूत शक्तियों को संतुलित और शुद्ध करने के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ भी ।
योग में तीन गुण क्या हैं?
गुण का शाब्दिक अर्थ है "गुण"। योग दर्शन और आयुर्वेद में, 3 गुण प्रकृ ति के आवश्यक गुण हैं जो सभी
प्राणियों और चीजों में मौजूद हैं। प्रत्येक गुण एक विशिष्ट विशेषता से जुड़ा हुआ है:

 सत्त्व = पवित्रता और ज्ञान


 राजस = गतिविधि और इच्छा
 तमस = अंधकार और विनाश
ये शक्तियाँ हर समय हमारे भीतर मौजूद रहती हैं और कु छ स्थितियों और अनुभवों पर हमारी प्रतिक्रियाओं
में प्रकट होती हैं। हालाँकि, गुणों में से एक हमेशा अन्य दो की तुलना में अधिक प्रभावशाली होता है।
पढ़ें: योग के आठ अंग क्या हैं?

गुण कहाँ पाए जाते हैं?


गुण माया (संसार की माया और उसके सभी विकर्षणों) के हर हिस्से में मौजूद हैं। उन्हें दिन, मौसम,
भोजन, विचारों और कार्यों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, सुबह का समय सत्त्वगुण लाता है,
दोपहर का समय राजसिक हो जाता है और रात का समय तमस लाता है।
इसलिए, रजस और तमस के बिना शुद्ध सत्त्व नहीं हो सकता, न ही तमस और सत्व के बिना शुद्ध रजस
हो सकता है। सत्व हमें खुशी के साथ आसक्ति से बांधता है , राजस हमें गतिविधि से जोड़ता है, और
तमस हमें भ्रम से जोड़ता है। जब तक हम तीनों गुणों में से किसी एक से प्रभावित होते हैं, तब तक हम
माया के बंधन में रहते हैं।

गुण हमें कै से प्रभावित करते हैं?


तीन गुण हमें गहराई से प्रभावित करते हैं। वे हमारे बारे में हर चीज़ को प्रभावित करते हैं , हमारे विचारों
और कार्यों से लेकर आदतों और गतिविधियों तक जो हमें वह बनाती हैं जो हम हैं। इसका मतलब यह है
कि जो भी गुण आपके भीतर अधिक मौजूद है, वह इस बात को प्रभावित करेगा कि आप दुनिया को कै से
देखते हैं । उदाहरण के लिए, मुख्य रूप से तामसिक व्यक्ति हर चीज़ को नकारात्मक और विनाशकारी के
रूप में देखेगा। दूसरी ओर, जो व्यक्ति अधिक सात्विक है, उसका दृष्टिकोण सकारात्मक होगा और वह हर
चीज में आनंद और खुशी ढूंढेगा।
सत्त्व, रजस और तमस की व्याख्या

सत्व
सत्व स्वयं को पवित्रता, ज्ञान और सद्भाव के रूप में प्रकट करता है । यह अच्छाई, खुशी, संतुष्टि, बड़प्पन
और संतोष की विशेषता है। सत्व गुण भय, हिंसा, क्रोध और द्वेष से मुक्त है। हम इसे अपने भीतर की
सबसे शुद्ध और सबसे क्षमाशील शक्ति के रूप में सोच सकते हैं। समाधि तक पहुँचने के लिए हमें अपना
सत्त्वगुण बढ़ाना होगा।
आपके मन और शरीर में रजस और तमस को कम करके सत्व को बढ़ाना संभव है। सात्विक भोजन
करना, ध्यान , भक्ति ( भक्ति योग ) का अभ्यास करना, और अहिंसक जीवनशैली अपनाना कु छ ऐसे
तरीके हैं जिनसे आप ऐसा कर सकते हैं। अपने आप को सकारात्मक लोगों के साथ घेरना और ऐसी
गतिविधियाँ करना जिनसे आपको और दूसरों को खुशी मिले, सत्त्वगुण को बढ़ावा देने के प्रभावी तरीके भी
हैं।

राजाओं
रजस को जुनून, क्रिया, ऊर्जा और गति के रूप में व्यक्त किया जाता है । यह लगाव की भावना और
संतुष्टि और इच्छा की लालसा की विशेषता है। योग के संदर्भ में, एक राजसिक शिक्षक ऐसे अनुयायी
चाहता है जो उनकी पूजा करें और दूसरों को प्रभावित करने के लिए भौतिक और नाटकीय तकनीकों का
उपयोग करें। बहुत अधिक रजस वाले छात्र आध्यात्मिक शिक्षाओं की गहराई को नहीं समझ सकते, क्योंकि
उन्होंने अभी तक ज्ञान के सात चरणों में महारत हासिल नहीं की है।
यदि आप रजस को कम करना चाहते हैं, तो आपको राजसिक खाद्य पदार्थों जैसे तला हुआ और मसालेदार
भोजन, साथ ही कै फीन जैसे उत्तेजक पदार्थों का सेवन करने से बचना चाहिए।

तमस
तमस स्वयं को अशुद्धता, आलस्य और अंधकार के रूप में प्रकट करता है । यह अज्ञानता का परिणाम है
और यह सभी प्राणियों को वास्तविकता देखने से रोकता है। एक तामसिक शिक्षक अनैतिक आचरण में
लिप्त रहता है और शिक्षाओं और सिद्धांतों को अपने एजेंडे और इच्छाओं के अनुरूप अपनाता है, जबकि
छात्रों में अनुशासन की कमी होती है और वे अपने अहंकार में फं स जाते हैं।
अपने मन और शरीर में तमस गुण को कम करने के लिए, तामसिक भोजन या अतिभोग से बचें, चाहे वह
भोजन हो या नींद।

क्या हम सत्व, रजस और तमस को प्रभावित कर सकते हैं?


हां, बाहरी वस्तुओं, जीवनशैली और विचारों की उपस्थिति और प्रभाव को बदलकर, हम यह प्रभावित कर
सकते हैं कि 3 गुणों में से कौन अधिक प्रभावी है। प्रकृ ति के इन तत्वों को प्रभावित करने का सबसे आसान
और सबसे प्रभावी तरीका आपके आहार के माध्यम से है। यह जानने के लिए पढ़ते रहें कि कौन से खाद्य
पदार्थ रजस और तमस को कम करते हैं और सत्व को बढ़ाते हैं।
तीन गुणों को संतुलित करने वाले खाद्य पदार्थ
आपने कहावत तो सुनी ही होगी, "आप जैसा खाएंगे, वैसे ही आप बनेंगे।" इसका मतलब यह है कि हम जो
खाते हैं, पचाते हैं और अवशोषित करते हैं उसकी गुणवत्ता का सीधा प्रभाव हमारे दिखने, महसूस करने और
सोचने पर पड़ता है। यह बात गुणों पर भी लागू होती है। आयुर्वेदिक आहार हमें अत्यधिक पौष्टिक सात्विक
भोजन, मध्यम राजसिक भोजन और कोई तामसिक भोजन नहीं खाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । ऐसा
करने से, हम शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से एक स्वस्थ और अधिक संतुलित जीवन जी
सकते हैं।
यहां उन खाद्य पदार्थों की सूची दी गई है जो तीन गुणों को प्रभावित करते हैं:

सात्विक भोजन
सात्विकता बढ़ाने के लिए ताजा, संपूर्ण और पौष्टिक आहार खाएं जैसे:

 फलियां
 साबुत अनाज
 सब्जियाँ और फल जो धूप में उगाए जाते हैं

राजसिक भोजन
रजस को कम करने के लिए, उन खाद्य पदार्थों का सेवन सीमित करें जो प्रकृ ति में उत्तेजक हैं। यह भी
शामिल है:

 चटपटा खाना
 मिर्च और मिर्च
 प्याज जैसी सब्जियाँ
 कै फीन जैसे उत्तेजक पदार्थ
 दालें और दालें

तामसिक भोजन
जो भोजन सुस्ती दर्शाते हैं वे तामसिक होते हैं। तमस को कम करने के लिए निम्नलिखित से बचें:

 फ़ास्ट फ़ू ड
 सफ़े द ब्रेड जैसे परिष्कृ त खाद्य पदार्थ
 जमे हुए खाद्य पदार्थ या बचा हुआ खाना
 लाल मांस जैसे मेमना और गोमांस
 फफूं दयुक्त चीज
आम के पेड़ के 3 गुण और कहानी
अपने पाठ्यक्रमों में , मैं अक्सर 3 गुणों की विशेषताओं और वे हमारे जीवन में कै से प्रकट होते हैं, यह
समझाने के लिए आम के पेड़ की पुरानी कहानी सुनाता हूँ। इस कहानी को पढ़ने के बाद, आपको इन
अवधारणाओं और मानवीय खुशी और संतुष्टि में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका की स्पष्ट और अधिक सहज
समझ होनी चाहिए।
एक छोटे, गरीब गाँव में, तीन दोस्तों ने बेहतर जीवन का
सपना देखा। इसलिए, वे भारतीय गर्मियों की तेज़ धूप में
चलते हुए, शहर का पता लगाने के लिए निकल
पड़े। दोपहर तक, वे भूखे-प्यासे थे, और पास के जंगल में
विश्राम के लिए रुक गए।
एक पेड़ की छाया के नीचे उनकी नजर फलों से लदे आम
के पेड़ पर पड़ी। इसे अपनी भूख-प्यास मिटाने का वरदान
समझकर सबसे पुराना मित्र पेड़ के पास पहुंचा। उसने
जमीन पर पके आम देखे, उन्हें उठाया और उनका स्वाद
लिया और इस उपहार के लिए भगवान को धन्यवाद
दिया। फिर उन्होंने इस उम्मीद में बीज बोए कि वे भविष्य के यात्रियों को लाभ पहुंचाने के लिए एक पेड़
बन सकते हैं।

इसके बाद दूसरा दोस्त पेड़ के पास चला गया। उसने देखा कि वह आमों और लकड़ियों को बाजार में बेच
सकता है, जिससे खुद को फायदा हो सकता है। इसलिए, कु छ आमों का आनंद लेने के बाद, उसने अपने
चतुर विचार पर गर्व करते हुए, फलों से भरी एक शाखा तोड़ दी और उसे ले गया।

आख़िरकार तीसरा दोस्त पेड़ के पास गया। स्वयं पेड़ उगाने के


अपने असफल प्रयासों के बावजूद पेड़ की सफलता से ईर्ष्या करते
हुए, उसने द्वेषवश इसे नष्ट करने का फै सला किया। लेकिन,
उसने जो आम तोड़े वे कच्चे और खट्टे थे। वह नहीं जानता था
कि अंतर कै से बताया जाए, और सीखने के बजाय, उसने अपने
क्रोध को अपने कार्यों पर हावी होने दिया और पेड़ को आग लगा
दी।

इस कहानी में, तीन दोस्त तीन अलग-अलग गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं - कृ तज्ञता और ज्ञान (सत्व),
स्वार्थ (रजस), और नकारात्मक अहंकार (तमस)। हममें से प्रत्येक को इन गुणों में से एक द्वारा निर्देशित
किया जाता है , जो हमारे सोचने, महसूस करने और कार्य करने के
तरीके को प्रभावित करता है।
अपना सत्त्वगुण कै से बढ़ाएं?
अपने सत्व गुण को बढ़ाने के लिए पहला कदम अपने प्रमुख गुण की
पहचान करना है, जो आपको सबसे अधिक प्रभावित करता है। तीनों
गुणों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। सत्व में शुद्ध तत्व होते हैं, रजस में
गतिविधि के तत्व और आत्म-लाभ की प्रेरणा होती है, जबकि तमस में
अंधकार और विनाश के तत्व होते हैं। एक बार जब आप अपनी मूल
विशेषता या तत्व की पहचान कर लेते हैं, तो आप इसे अपने विचारों,
कार्यों और आदतों से हटाने के लिए योग दर्शन सिद्धांतों का उपयोग कर सकते हैं जब तक कि आप पूरी
तरह से सात्विक नहीं हो जाते। प्रतिदिन यम और नियम का अभ्यास करना ऐसा करने का एक तरीका
है। जैसा कि कहा गया है, यदि यह आपका पहली बार है, तो इस प्रक्रिया में आपकी सहायता के लिए किसी
अनुभवी शिक्षक का मार्गदर्शन लेने की सलाह दी जाती है।
पढ़ें: यम का अभ्यास कै से करें
अंतिम विचार
आत्मज्ञान या समाधि प्राप्त करने में खुद को तीन गुणों से मुक्त करना और माया के भ्रम से परे सत्य को
समझना शामिल है। एक व्यक्ति जो गुणों से ऊपर उठ चुका है, वह जीवन के द्वंद्वों, जैसे दर्द और सुख,
से अप्रभावित रहता है। भगवद गीता के बुद्धिमान शब्दों में:
“जब कोई शरीर में उत्पन्न होने वाले तीन गुणों से ऊपर उठ जाता है;
व्यक्ति जन्म, बुढ़ापा, रोग और मृत्यु से मुक्त हो जाता है; और आत्मज्ञान प्राप्त करता है” (भगवद गीता
14.20)

त्रिगुण (सत्व, रजस, तमस): आपके व्यक्तित्व को जानने के लिए 3 गुण

आशीष 18 जुलाई 2019 7 टिप्पणियाँ

आयुर्वेदिक दर्शन ब्रह्मांड के निर्माण का एक विचार प्रदान करता है, जिसमें से प्रकृ ति के त्रिगुण (त्रि -
3 और गुण - गुण) की अवधारणा विकसित हुई है।

आयुर्वेद के दर्शन के अनुसार, सृष्टि की शुरुआत में के वल अंधकार (अप्रकट) था जिसका


तात्पर्य पुरुष (चेतना) और प्रकृ ति (प्रकृ ति) से है। ब्रह्मांड प्रकृ ति और पुरुष (सृष्टि के स्त्री और पुरुष
पहलू) का मिलन या संयोजन है।
प्रकृ ति ब्रह्माण्ड के प्रत्येक स्थूल या सूक्ष्म, सजीव या निर्जीव पदार्थ में स्वयं को प्रकट करती है,
जबकि पुरुष उस पदार्थ के क्षण (या जीवन) के पीछे का कारण है।
सांख्य दर्शन के अनुसार दोनों अमूर्त सत्ताएँ हैं, पुरुष अपरिवर्तित या निष्क्रिय रहता है
और प्रकृ ति सक्रिय और परिवर्तनशील रहती है।
त्रिगुण क्या हैं?

ऐसे 3 रूप हैं जिनके माध्यम से प्रकृ ति स्वयं को किसी पदार्थ में प्रकट करती है, जिन्हें त्रिगुण या
प्रकृ ति के 3 गुणों के रूप में जाना जाता है। प्रकृ ति शब्द भी तीन मूल शब्दों से मिलकर बना है
1. प्र का अर्थ है सत्त्वगुण
2. कृ का अर्थ है रजस गुण
3. ति का अर्थ है तमस गुण
त्रिगुण अलग-अलग संरचना में मिलकर शरीर के 5 तत्वों को विकसित करते हैं , जिन्हें पंच महा-
भूत भी कहा जाता है ।
त्रिगुण/त्रिगुणों का संयोजन शरीर के प्रमुख तत्व

1. सत्व अकासा (ईथर)

2. रजस वायु (वायु)

3. सत्त्व+रजस अग्नि (अग्नि)

4. सत्व+तमस जल

5. तमस पृथ्वी (पृथ्वी)

इसके अलावा 5 तत्वों ने मिलकर त्रि-दोष का निर्माण किया।

त्रिगुणों के लक्षण

अपने चारों ओर और अपने भीतर देखें, हर एक वस्तु, सजीव या निर्जीव, में त्रिगुण के गुण समाहित
हैं।

आपके आस-पास का पदार्थ गतिशील है, रक्त का निरंतर संचार प्रकृ ति और शरीर में मौजूद रजस गुण
(गतिविधि) के कारण होता है।
विज्ञापनों

ध्यान अभ्यास में आप अपने मन के उतार-चढ़ाव को कु छ देर के लिए रोक पाते हैं, यह के वल मन में
मौजूद तमस गुण (जड़ता) के कारण ही संभव है।
दूसरी ओर, उस समय को याद रखें जब मन यहां से वहां घूमता है, यह रजस गुण के कारण होता है
। इसके अलावा, गहरे ध्यान की स्थिति में, जब आप अपने भीतर की आत्मा को महसूस करते हैं, तो
जो आनंद आता है वह सत्व गुण (संतुलन) के कारण होता है।
त्रिगुण हर जगह मौजूद हैं।

चित्र मिला?

सत्त्व गुण लक्षण

सत्त्व सक्रियता और जड़ता के बीच संतुलन की स्थिति है। सात्विक अवस्था की विशेषताएं हैं खुशी,
ज्ञान, आध्यात्मिक रूप से जुड़ा हुआ, दयालु, शरीर और मन में हल्कापन, आत्म-नियंत्रण, एकाग्रता,
कृ तज्ञता और निस्वार्थता। सफे द रंग सत्त्वगुण का प्रतीक है ।
राजस गुण लक्षण

रजस गुण त्रिगुणों में 'चंचल और सक्रियता' अवस्था के लिए जाना जाता है। रजस गुण के लक्षण हैं
इच्छा, भय, अवसाद और चिंता, स्वार्थी, उत्साहित, काम में व्यस्त, महत्वाकांक्षी, अराजकता, बेचैनी
और गुस्सा। लाल रंग रजस गुण का प्रतीक है ।
तमस गुण लक्षण

इसकी प्रकृ ति निष्क्रिय होने की है , जबकि रजस गुण की प्रकृ ति अति सक्रिय है और सत्व की
प्रकृ ति संतुलित है । तमस या तमोगुण त्रिगुणों में सबसे कम है। यह गहरे रंग का प्रतीक है। यह भ्रम,
अज्ञानता, मानसिक मंदता, आलस्य, लालच, भ्रम, मोह और भारीपन का प्रतीक है।
त्रिगुण और व्यक्तित्व

आपने सुना होगा, फलां व्यक्ति का व्यक्तित्व अच्छा है। व्यक्तित्व का क्या अर्थ है?

आधुनिक युग में व्यक्तित्व की अवधारणा को समझाने के लिए त्रिगुणों का उपयोग किया गया है।
त्रिगुण एक इंसान के रूप में आपके अस्तित्व के प्राथमिक गुण हैं जो आपके अंदर भौतिक या अभौतिक
हर चीज की विशेषताओं को आकार देने में मदद करते हैं। ये तीन गुण, अलग-अलग अनुपात में,
आपको अपने परिवेश की प्रकृ ति को अलग तरह से व्यवहार करने, प्रतिक्रिया करने, अवधारणा बनाने
और समझने के लिए प्रेरित करते हैं।
रिसर्चगेट में प्रकाशित एक अध्ययन का वर्णन है:
किसी व्यक्ति को विरासत में मिले गुणों की विशेषताएं शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों
के कारण बदल सकती हैं। साथ ही, इससे उस विशेष समय में किसी व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारण
भी होता है।
प्रत्येक गुण का अनुपात कभी भी बढ़ या घट सकता है जो निश्चित रूप से आपके व्यक्तित्व और
विशिष्ट गुण या गुणों के संयोजन से संबंधित लक्षणों को प्रभावित करता है।
त्रिगुण व्यक्तित्व को कै से प्रभावित करते हैं?

मनुष्य में होने वाले किसी भी परिवर्तन चाहे वह शारीरिक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक हो, उसके मूल में
5 तत्व होते हैं जिन्होंने शरीर का निर्माण किया है। इन 5 तत्वों को शरीर में 5 भौतिक इंद्रियों के
माध्यम से महसूस किया जाता है। इसके अलावा, इंद्रियों के माध्यम से एकत्र किया गया डेटा मन,
बुद्धि से होकर गुजरता है और फिर प्रमुख गुण के अनुसार संशोधित किया जाता है।
इसलिए, गुण अंतिम चरण है जो किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।
प्रत्येक व्यक्ति में कु छ अहंकार होता है जिसके अनुसार वह संसाधित डेटा को अपनी बुद्धि ( बुद्धि ) के
अनुसार समझता है। जैसा कि उपरोक्त चित्रण में दिखाया गया है, अहंकार से उत्पन्न त्रिगुण, जिसे
आई-सेंसर या संशोधक भी कहा जाता है, व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण करता है।
अब, अंत में, कच्चे डेटा (5 इंद्रियों के माध्यम से एकत्र) के परिणामस्वरूप जो सामने आता है उसे
किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व कहा जाता है और यह किसी विशेष समय में प्रभावी होने वाले त्रिगुणों पर
निर्भर करता है।

सत्त्वगुण युक्त व्यक्ति

सत्त्व शुद्ध को संदर्भित करता है इसलिए यह आपके व्यक्तित्व प्रकार को इंगित करता है। सत्त्व
गुण वह सकारात्मक और आध्यात्मिक गुण है, जिसके प्रबल होने पर, आपके अंदर दयालु, देखभाल
करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, और इसलिए आप सात्विक व्यक्तित्व रखते हैं ।
यदि आप हैं तो सात्विक गुण आपके अंदर सही अनुपात में मौजूद हैं:
 मानसिक रूप से मजबूत
 अपने शिक्षकों (गुरुओं) का सम्मान करें
 अहिंसात्मक
 आत्मीय
 आत्म नियंत्रित
 ध्येय
प्रधान सत्व गुण वाला व्यक्ति वांछनीय और अवांछनीय परिस्थितियों के बीच अंतर करते हुए अपने
काम और कर्तव्य के प्रति शांत रहता है।
आपका स्वभाव जितना अधिक सात्विक होगा, आप प्रेम, करुणा, दयालुता और खुशी के प्रति लगाव के
प्रति उतना ही अधिक आकर्षित होंगे। तो आप इस अवस्था में स्वस्थ और निरोगी रहेंगे।
एक व्यक्ति में सात प्रकार के सात्विक व्यक्तित्व पाए जाते हैं। यहां जानें कि आप उनमें से कौन सा
हैं!
रजस गुण वाला व्यक्ति

राजस लोग बहुत इच्छु क और आसक्ति से भरे होते हैं । अपने तीव्र स्वार्थ के कारण, कभी-कभी उन्हें
सही और गलत के बीच अंतर करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। इसे राजसिक
व्यक्तित्व कहा जाता है।
यदि आप हैं तो राजस गुण संतुलित अनुपात में है:
 सरगर्म
 गहरी दिलचस्पी
 काम के प्रति समर्पित
 बेचेन होना
 आत्म के न्द्रित
 अचीवर
रज जुनून को संदर्भित करता है , जो सत्व और तमस के बीच उत्प्रेरक या पुल के रूप में कार्य करता
है। रजस सत्त्व और तमस को संतुलित करता है ताकि प्रेरक परिवर्तन, आंदोलन और सही कार्रवाई के
लिए प्रेरणा, रचनात्मकता पैदा हो सके ।
यदि किसी व्यक्ति में रजस गुण असंतुलित हो जाता है, तो इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसकी
प्रबलता से क्रोध, उत्तेजना या चिंता हो सकती है। रजस गुण की अधिकता को कम करने के कु छ
प्राकृ तिक तरीके हैं ।
तमस गुण वाला व्यक्ति

तमस का अर्थ है अंधकार , जो भ्रम, नकारात्मकता, नीरसता और निष्क्रियता की मनोवैज्ञानिक स्थिति


को इंगित करता है। तमस गुण के प्रभुत्व की स्थिति स्वार्थी, लापरवाह, निंदक व्यवहार से संके तित
होती है और इसलिए इसे तामसिक व्यक्तित्व कहा जाता है ।
एक बार जब आप अपने तामसिक गुण में परिवर्तन देखेंगे, तो आप अनुभव करेंगे:
 समय पर नींद
 संतुलित आहार
 दूसरों के प्रति खुलापन
 स्वभाव से प्रशंसनीय
 दूसरों के बारे में चिंतित
 दूसरों की मदद के प्रति सक्रिय
असंतुलित तमस गुण वाला व्यक्ति इसके प्रभावों को अल्पकालिक खुशी, भौतिकवाद, स्वामित्व की
भावनाओं और दूसरों को नुकसान पहुंचाने की तीव्र इच्छा में अनुभव कर सकता है।
हरीश जौहरी द्वारा लिखित पुस्तक [efn_note] धन्वंतरि: आयुर्वेदिक जीवन के लिए एक संपूर्ण
मार्गदर्शिका [ स्रोत ] [/efn_note] ने लोगों को त्रिगुणों के आधार पर 7 प्रकारों में वर्गीकृ त किया है। ये
7 प्रकार निम्नलिखित हैं।
1. प्रमुख सत्त्वगुण वाले लोग ।
2. रजोगुण प्रधान लोग ।
3. प्रबल तमस गुण वाले लोग ।
4. प्रमुख सत्व-रजस गुण संयोजन वाले लोग।
5. प्रमुख सत्व-तमस गुण संयोजन वाले लोग।
6. प्रमुख रजस-तमस गुण संयोजन वाले लोग।
7. संतुलित गुण वाले या सत्व-रजस-तमस गुण संयोजन वाले लोग।
गुणों की उपरोक्त सूची से पता चलता है कि:
त्रिगुण कभी भी किसी व्यक्ति में अलग-थलग नहीं रहते और हमेशा एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य
करते हैं। यहां तक कि त्रिगुण भी एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं और गुणों पर हावी होना ही व्यक्ति
के व्यक्तित्व का निर्धारण करता है।

अब तक आप त्रिगुणों के आधार पर भली-भांति जान गए होंगे कि आपका कौन सा व्यक्तित्व है।

अब सवाल यह उठता है कि हम अपनी और दूसरों की भलाई के लिए अपने भीतर के गुणों का उपयोग
कै से कर सकते हैं?

गुणों को संतुलित करना

गुण अपने आप में कोई भौतिक मात्रा नहीं है बल्कि इसकी उपस्थिति इन 3 माध्यमों से देखी जा
सकती है:
 कार्रवाई हम करते हैं

 कार्रवाई के पीछे का इरादा,

 और, प्रतिक्रिया.

इन 3 बिंदुओं पर ध्यान देकर हम अपने भीतर मौजूद गुणों को संतुलित करने पर काम कर सकते हैं।

कार्रवाई और इरादा

सभी क्रियाएँ सार्वभौमिक रूप से आदिम प्रकृ ति (प्रकृ ति) के गुणों (गुणों) द्वारा उत्पन्न होती हैं। अहंकार
से भ्रमित मनुष्य सोचता है, "मैं कर्ता हूं" - भगवद गीता 3:27
कार्य की शुरूआत उसके पीछे की मंशा से शुरू होती है। कार्य के पीछे का गुण जानने के लिए, हर बार
जब आप काम शुरू करें तो अपने आप से ये प्रश्न पूछें :

 मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं (इरादा)

 मैं यह कै से कर रहा हूं (अभिव्यक्ति)

कभी-कभी, जीवन के एक निश्चित चरण में, आप वह कार्य कर रहे होते हैं जिसका इरादा सात्विक होता
है (मैं यह क्यों कर रहा हूं) लेकिन इसकी अभिव्यक्ति (मैं यह कै से कर रहा हूं) तामसिक या
राजसिक हो सकती है ।
उदाहरण के लिए , चोर होने के नाते, एक व्यक्ति ने अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के
लिए कु छ चुराया। यहां प्रकटीकरण (वह ऐसा कै से करता है) तामसिक है लेकिन चोर का इरादा (वह
ऐसा क्यों करता है) सात्विक हो सकता है। लेकिन प्रधान गुण तमस है।
कार्य के इरादे और अभिव्यक्ति पर ध्यान दें और आप प्रबल गुण को संतुलित करने में सक्षम
होंगे। यहीं से यह भूमिका शुरू होती है कि हम कार्य के परिणाम पर कै से कार्य करते हैं।

प्रतिक्रिया

आप काम के परिणाम पर कै सी प्रतिक्रिया करते हैं, वही आप बनते हैं और वही आपके भीतर रहेगा,
बढ़ेगा और बढ़ेगा।

पुनः उसी उदाहरण में, यदि चोर अपने किये गये कार्य (चोरी) पर विचार करता है, तो उसका हृदय
दुख, नीरसता और अपमान से भर गया होगा (क्योंकि उसके इरादे में सत्त्व था)।

क्रिया पर प्रतिक्रिया करने की यह विचार प्रक्रिया उसके मन को बदल सकती है (हालांकि इसकी
संभावना बहुत कम है) और उसकी तामसिक प्रकृ ति सत्व में परिवर्तित हो सकती है।

राजस गुण: तमस से सत्व की ओर एक कदम

यद्यपि हर किसी का विचार सत्त्वगुण के अनुपात को बढ़ाने का होगा और जब वे ऐसा करते हैं, तो वे
इन तीनों की संयुक्त समग्र संतुलित स्थिति को नजरअंदाज कर देते हैं। इसलिए दृष्टिकोण यह होना
चाहिए कि विशेष गुणवत्ता पर बहुत अधिक ध्यान कें द्रित किए बिना तीनों गुणों को बनाए रखा जाए।
सत्त्व का बढ़ा हुआ अनुपात आपको आध्यात्मिक रूप से अहंकारी महसूस कराता है, जबकि रजस वाला
आपको लालची और काम में व्यस्त बना सकता है, दूसरी ओर, तमस आपको अज्ञानी बनाता है।
पालन करने की विधि यह है कि अपने तमस को रजस में बदलने पर काम करें , और जब रजस प्राप्त
हो जाए तो इसे संतुलित करके सत्व जीवनशैली पर ध्यान कें द्रित करें।
तमस से रजस
उदाहरण के लिए , यदि आप अपने स्वभाव में तामसिक गुण (उदास, चिंतित, चिड़चिड़ा और आलसी)
महसूस कर रहे हैं, तो अपने आप को शारीरिक योग आसन में अधिक व्यस्त करके , सकारात्मक लोगों
से मिलना, नई जगहों की यात्रा करना और हल्का भोजन करके इसकी प्रबलता को कम करें। ये
गतिविधियाँ आपके ऊर्जा स्तर को ऊपर उठाने में मदद करेंगी (निष्क्रियता से गतिविधि तक - तमस से
रजस तक)।
रजस से सत्त्व
जब आप अपने स्वभाव में सक्रियता महसूस करते हैं, तो यह रजस गुण की प्रधानता का संके त
है। अब आप इस अवस्था में पहले की तुलना में (तमस गुण में) अधिक ऊर्जावान होंगे।

रजस से सत्व पर ध्यान कें द्रित करने के लिए, अपने आप को ध्यान, पढ़ने, गैर-लाभकारी कार्यों जैसी
गतिविधियों में संलग्न करें और बस आप अपने भीतर अत्यधिक ऊर्जा को संतुलित करने के लिए यम
का पालन कर सकते हैं।

गुण और कर्म शरीर का निर्माण कै से करते हैं?

वैदिक ग्रंथों में वर्णन किया गया है कि आत्मा का शरीर गुण और कर्म के कारण कै से बनता है । यह बात
समझ से परे लगती है अगर हम सोचें कि शरीर का निर्माण खाना खाने से हुआ है। लेकिन हम खाना कै से
खाते हैं? वैदिक दर्शन में भोजन की खपत दो कारकों से प्रभावित होती है,
जिन्हें गुण (बहुवचन) और कर्म कहा जाता है। यह पोस्ट चर्चा करती है कि कै से गुण
वह प्रकृ ति है जिसके द्वारा हम कु छ प्रकार की चीजों का उपभोग करने का आनंद लेते हैं,
और कर्म वह पोषण है जिसके कारण हमें कु छ प्रकार की चीजों तक पहुंच प्राप्त होती है। सिर्फ इसलिए कि
हम कु छ चीजों ( गुण ) का आनंद लेते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन्हें प्राप्त करेंगे, क्योंकि
जिस वातावरण में हम स्थित हैं ( कर्म ) वह उन तक पहुंच को सक्षम नहीं कर सकता है। इसी तरह, सिर्फ
इसलिए कि पर्यावरण कु छ चीजों को सक्षम बनाता है इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन्हें ले लेंगे,
क्योंकि हम उनका आनंद नहीं ले सकते हैं। हमारा खान-पान प्रकृ ति और पोषण द्वारा नियंत्रित होता है जहां
पर्यावरण कु छ चीजें प्रदान करता है, और हम कु छ चीजों का आनंद लेते हैं। इनके संयोजन से भोजन का
सेवन होता है, जिससे शरीर का निर्माण होता है।

प्रकृ ति बनाम पोषण बहस

प्रकृ ति बनाम पोषण की बहस अनुभववाद की शुरुआत से चली आ रही है जब जॉन लॉक ने यह विचार
प्रस्तावित किया था कि मन एक "खाली स्लेट" या सारणीबद्ध रस है जिस पर बाहरी दुनिया विचारों को
प्रभावित करती है और सारा ज्ञान उस बातचीत के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। प्रभावी रूप से, लॉक ने
मानव विकास की संपूर्ण प्रक्रिया को पोषण तक सीमित कर दिया । इस दृष्टिकोण के साथ समस्या यह है
कि हममें से कई लोग संगीत, कला, विज्ञान, प्रकृ ति या खेल के प्रति जन्मजात झुकाव के साथ पैदा होते
हैं।

जैसे ही हम अपने वातावरण में ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं जहां इन लक्षणों को व्यक्त किया जा
सकता है, अन्य लोग हमारी जन्मजात प्रवृत्तियों को देख सकते हैं। लेकिन अगर हम संपूर्ण मानव विकास
को पर्यावरण से प्राप्त विचारों तक सीमित कर दें, तो हम कभी यह नहीं समझा पाएंगे कि एक ही
वातावरण में पले-बढ़े दो लोगों का झुकाव एक-दूसरे से अलग क्यों होता है। लोगों के बीच अंतर को
समझाने के लिए, हमें एक जन्मजात प्रकृ ति को मानने की आवश्यकता है जो किसी व्यक्ति की इच्छाओं
का प्रतिनिधित्व करती है।

हर चीज का श्रेय जन्मजात प्रकृ ति को देने की कोशिश करने की विपरीत समस्या भी झूठी साबित होती है
क्योंकि किसी व्यक्ति की इच्छाएं तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक कि उसे पर्यावरण का समर्थन न
मिले, और हर कोई अपनी जन्मजात इच्छाओं को पूरा करके खुशी चाहता है। इसलिए, एक व्यक्ति अपनी
इच्छाओं को पर्यावरण द्वारा दी गई और सक्षम चीज़ों के अनुसार अनुकू लित करता है, जो उन्हें खुश रहने
की अनुमति देगा।

परिणामस्वरूप, हमारी कई इच्छाएं हमारे पर्यावरण से निपटने की प्रक्रिया में अर्जित की जाती हैं, जो "यहूदी
बस्ती" व्यवहार का गठन करती है जहां पर्यावरण वांछित अवसरों में से एक को वंचित कर देता है, और
फिर व्यक्ति यह चाहने का फै सला करता है कि उसका परिवेश उसे क्या प्रदान करता है। प्रकृ ति बनाम
पोषण की बहस त्रुटिपूर्ण है। हमें उनके संयोजन के बारे में सोचना होगा जहां मानव व्यवहार प्रकृ ति
और पोषण का परिणाम है , और प्रत्येक एक दूसरे को संशोधित करता है।

गुण बनाम कर्म संपूरकता

वैदिक दर्शन में, गुण किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व या वे जो आनंद लेते हैं उसका प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे
कि भोजन, कपड़े, अवकाश, काम, रचनात्मकता आदि के लिए
प्राथमिकता। सत्व , रजस और तमस नामक तीन गुण हैं जो विभिन्न प्रकार के सुखों का प्रतिनिधित्व करते
हैं; उदाहरण के लिए, सत्व ज्ञान, त्याग और आत्म-प्राप्ति के आनंद का प्रतिनिधित्व करता है, राजस प्रसिद्ध,
शक्तिशाली और अमीर होने के आनंद का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमस चोट पहुंचाने, मारने और
नष्ट करने के आनंद का प्रतिनिधित्व करता है। तीन गुण आत्मा की आनंद की सहज आवश्यकता को कवर
करते हैं।

इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, हमें सही प्रकार के स्थितिजन्य अवसर में स्थित होना चाहिए, जो
तब अपेक्षित व्यवहार को भी परिभाषित करता है। जैसे-जैसे अपेक्षित व्यवहार पूरे होते हैं, अधिक होते हैं,
या अपूर्ण होते हैं, अच्छे या बुरे कर्म बनते हैं, जो फिर नए अवसर पैदा करते हैं। अच्छे कर्म का अर्थ है
किसी की इच्छाओं को पूरा करने के अधिक अवसर। बुरे कर्म का अर्थ है कम अवसर, जो तब किसी की
इच्छाओं की पूर्ति को सीमित कर देते हैं।

उदाहरण के लिए, यदि मुझे प्रकृ ति का वैज्ञानिक अध्ययन पसंद है और मेरे कर्म अच्छे हैं, तो मुझे ऐसी
परिस्थितियाँ मिलेंगी जहाँ मैं अच्छी किताबें प्राप्त कर सकता हूँ या ऐसे लोगों से मिल सकता हूँ जो मुझे
ऐसा ज्ञान दे सकते हैं। इसके विपरीत, यदि मेरा कर्म ख़राब है, तो भले ही मैं प्रकृ ति के बारे में सच्चाई
सीखने की प्रक्रिया का आनंद लेता हूँ, मुझे कभी भी सीखने के लिए सही किताबें और लोग नहीं
मिलेंगे। यदि मेरे गुण भिन्न होते-उदाहरण के लिए मैंने धन और शक्ति का आनंद लिया, तो
अच्छे कर्म मुझे उन इच्छाओं को पूरा करने के अवसर और क्षमताएं देंगे, और बुरे कर्म मेरी इच्छाओं को
विफल कर देंगे।

धारणा में गुण और कर्म की भूमिका

गुण दर्शाता है कि हम क्या चाहते हैं और कर्म दर्शाता है कि हम क्या योग्य हैं। इच्छु क और पात्र ज्ञान और
कर्म की इंद्रियों पर अलग-अलग कार्य करते हैं। ज्ञान की इंद्रियों के लिए, इच्छा इंद्रिय सुख है, जबकि योग्य
यह है कि (1) क्या हम प्रासंगिक इंद्रिय वस्तुओं को प्राप्त करते हैं और (2) क्या हम उन्हें प्राप्त करने के
बाद उन्हें महसूस कर सकते हैं (उदाहरण के लिए व्यक्ति अंधा नहीं है)। क्रिया की इंद्रियों के लिए, इच्छा
वह तरीका है जिससे हम कार्य करना चाहते हैं, जबकि योग्य है (1) इंद्रियों में कार्य करने की क्षमता
(उदाहरण के लिए व्यक्ति लंगड़ा या गूंगा नहीं है), और (2) कार्य करने के अवसर।

कर्म द्वारा सक्षम क्षमताओं के कारण , आत्मा को एक अलग प्रकार के शरीर में डाल दिया जाता है। और
कर्म द्वारा सक्षम अवसरों के कारण , यह शरीर अन्य प्रकार के शरीरों के संपर्क में आता है। इस प्रकार
आत्मा का शरीर और आत्मा के अवसर कर्म के कारण तय होते हैं ।

हालाँकि, यह अभी भी स्वतंत्र इच्छा की भूमिका को नहीं रोकता है। ज्ञान की इंद्रियों के लिए,
जबकि कर्म यह निर्धारित करता है कि क्या हम इंद्रिय वस्तुओं को प्राप्त करते हैं, और क्या हम उन्हें
महसूस कर सकते हैं, कर्म यह निर्धारित नहीं करता है कि हम इस धारणा का आनंद लेते हैं या पीड़ित
हैं। इन्द्रिय बोध पर आधारित हमारा सुख या दुःख पूरी तरह से गुण के कारण होता है । इस प्रकार, एक
जानवर भयानक चीजें खा सकता है, और फिर भी इसे एक बड़ा आनंद मान सकता है; कर्म उन भयानक
चीजों को खाने की क्षमता और ऐसी चीजों को खोजने का अवसर देता है, जबकि गुण उस उपभोग से खुशी
या पीड़ा की ओर ले जाता है । इसी प्रकार, कर्म के कारण हम कु छ निश्चित तरीकों से कार्य करने की
क्षमताएं और अवसर प्राप्त करते हैं, लेकिन गुण के कारण हम ऐसी क्षमताओं और अवसरों का उपयोग नहीं
कर पाते हैं।

कर्म और भाग्यवाद

जब तक हम इस पूरकता को नहीं समझते, वैदिक दर्शन भाग्यवादी प्रतीत होता है। कर्म की क्रिया अपरिहार्य
है, लेकिन यह हमारे अनुभव को पूरी तरह से ठीक नहीं करती है। ज्ञान की इंद्रियों के मामले में, यह तय
करता है कि कौन सी इंद्रिय वस्तुएं प्राप्त होंगी और क्या उन्हें माना जा सकता है, लेकिन यह खुशी या दुख
को ठीक नहीं करता है। इसी तरह, कर्म इंद्रियों के मामले में, कर्म क्षमताओं और अवसरों को तय करता है,
लेकिन क्षमताएं सिर्फ उपकरण हैं - जैसे चाकू और बंदूकें - जिनका उपयोग कई तरीकों से किया जा सकता
है। हमें उपकरण और अवसर दिए जाते हैं, लेकिन हमारी कार्रवाई उनसे तय नहीं होती।

इस प्रकार, कर्म के बावजूद हमारा जीवन दो तरह से स्वतंत्र है- (ए) हम अपनी स्थिति की परवाह किए
बिना अपनी खुशी को नियंत्रित कर सकते हैं, और (बी) हम अपनी क्षमताओं के अनुप्रयोग को अवसर में जो
संभव हो उसे बदल सकते हैं। अपनी ख़ुशी को नियंत्रित करने और नैतिक रूप से सही काम करने की
क्षमता हमारी स्वतंत्र इच्छा है।
चूँकि यह स्वतंत्र इच्छा गुण , या विकल्पों की पिछली आदतों से प्रेरित है, जीवन का मुख्य उद्देश्य कर्म से
मुक्त होना नहीं बल्कि गुण से मुक्त होना है। संक्षेप में, लक्ष्य अच्छे कर्म करना नहीं है ताकि हम खुश रह
सकें । हमारा लक्ष्य अपने गुणों को इस प्रकार बदलना है कि हम प्रतिकू ल परिस्थितियों में भी खुश रहें। इसी
तरह, कु छ सार्थक करने से पहले लक्ष्य शक्तिशाली और सक्षम बनना नहीं है। बल्कि, लक्ष्य यह है कि
हमारे पास जो भी क्षमताएं हैं, उनके साथ कु छ सार्थक करना है। लक्ष्य सर्वोत्तम अवसर प्राप्त करना नहीं है
जहां हम सबसे सुखद वस्तुओं का अनुभव कर सकें और सबसे वांछनीय चीजें कर सकें ; लक्ष्य सर्वोत्तम
अवसर प्रदान करना है।

इससे कई लोगों को असुविधा होने की संभावना है क्योंकि उनका मानना है कि अगर हमारे पास स्वतंत्र
इच्छा होगी तो हम सर्वोत्तम आनंद प्राप्त करेंगे, सर्वोत्तम अवसरों के तहत रहेंगे, और जो चाहें वह करने
के लिए स्वतंत्र होंगे। तथ्य यह है कि वे ऐसे लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं, या उपलब्धियाँ
संतोषजनक नहीं हैं, जो उन्हें स्वतंत्र इच्छा से इनकार करने की ओर ले जाती है। इस तरह का इनकार "खट्टे
अंगूर" मानसिकता के बराबर है क्योंकि स्वतंत्र इच्छा कभी भी उपर्युक्त चीजों के बारे में नहीं होती है।

धर्म में कर्म का महत्व |

जब धर्म को वांछनीय परिस्थितियों (जिसमें हम खुश रह सकते हैं) या शक्तिशाली क्षमताओं (जिसके द्वारा
हम जो चाहें वह कर सकते हैं) की खोज के रूप में वर्णित किया जाता है, तो इसे अश्लील रूप से गलत
तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। चूँकि वांछनीय परिस्थितियाँ और शक्तिशाली क्षमताएँ दोनों ही कर्म के
कारण उत्पन्न होती हैं , इसलिए अच्छे कर्म का निर्माण सच्चा धर्म नहीं माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से,
कर्म-मीमांसा से संबंधित सभी प्रथाएं जो अच्छे कर्म का उत्पादन करती हैं , शंकराचार्य के समय से ही
खारिज कर दी गई हैं। तब से, ध्यान पूरी तरह से गुण की शुद्धि पर है - यानी प्रतिकू ल परिस्थितियों में भी
कै से खुश रहें, और सीमित क्षमताओं और दिए गए अवसरों के साथ भी नैतिक रूप से कै से कार्य करें।

जैसे-जैसे धर्म का ध्यान कर्म से गुना की ओर स्थानांतरित हुआ, कर्म की उचित वैज्ञानिक समझ और यह
शारीरिक क्षमताओं और परिस्थितियों को कै से उत्पन्न करता है, इसमें भी नाटकीय रूप से गिरावट
आई। उसके बाद, शरीर कै से बनता है और यह विभिन्न स्थितियों में कै से प्रवेश करता है, इसका ज्ञान
"भौतिक विज्ञान" द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया। इतिहास का महत्वपूर्ण सबक यह है कि जैसे धर्म कर्म
की समझ पर ध्यान कें द्रित करता है ( गुण से मुक्ति को प्राथमिकता देने के लिए ), भौतिकवादी विज्ञान
जीवित शरीर का वर्णन करता है और यह विशेष परिस्थितियों में क्यों प्रवेश करता है।

भौतिकवाद के उदय को सीधे तौर पर कर्म की समझ में गिरावट के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता
है । जबकि धर्म का अंतिम लक्ष्य अच्छे कर्म का निर्माण (बल्कि गुण की शुद्धि ) नहीं है, कर्म को समझे
बिना , हमारे शरीर और हमारे आस-पास की स्थितियों को समझने में कमी भौतिकवाद से भरी जा रही है,
जो अच्छे कर्म और शुद्ध गुण दोनों को हरा देती है। . उस संबंध में, गुण शुद्धि के लक्ष्य को पुनर्जीवित करने
के लिए भी , कर्म के वैज्ञानिक ज्ञान को स्थापित करने की आवश्यकता है , क्योंकि कर्म की उन्नति की
उपेक्षा करते हुए गुण शुद्धि पर ध्यान कें द्रित करना तभी काम करता है जब व्यक्ति पहले से ही बहुत
अच्छे कर्म में आगे बढ़ चुका हो ।

अद्वैत के पक्ष में कर्म-मीमांसा की अस्वीकृ ति , और व्यक्तिवाद के पक्ष में अद्वैत की अस्वीकृ ति तभी
व्यवहार्य है जब हम समझते हैं कि अच्छे कर्म आवश्यक हैं लेकिन धर्म के लिए पर्याप्त नहीं हैं। कर्म-
मीमांसा का अस्वीकरण स्वयं कर्म का अस्वीकरण नहीं है ; यह इस विचार की अस्वीकृ ति है कि हमारा
जीवन कर्म से मुक्ति या जन्म और मृत्यु के चक्र के बजाय अच्छे कर्म प्राप्त करने के अलावा किसी और
चीज के लिए समर्पित नहीं होना चाहिए। जब हम कर्म की समझ की उपेक्षा करते हैं , तो हमें कर्म से
मुक्ति नहीं मिलती ; हम बुरे कर्मों की खाई में गिर जाते हैं क्योंकि हम परिणामों के निर्माण से बचने में
सावधान नहीं रहते हैं।

मुद्रा विनिमय सादृश्य

कर्म की क्रिया काफी हद तक मुद्रा विनिमय की तरह है जहां आप एक देश में डॉलर के रूप में पैसा कमा
सकते हैं और इसे दूसरे देश में युआन, क्रोनर या रुपये के रूप में खर्च कर सकते हैं। प्रत्येक मुद्रा की अन्य
मुद्राओं के साथ विनिमय दर होती है, जिसके कारण हम एक स्थिति में अर्जित कर्म को दूसरी स्थिति में
खर्च किए गए कर्म में बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए, पवित्र लोग पृथ्वी पर दान और बलिदान करते हैं
और वे स्वर्गीय ग्रहों में परिणामी कर्म का आनंद ले सकते हैं। स्थानों के बीच मुद्रा विनिमय के कारण,
उनके लिए पृथ्वी पर आनंद लेना आवश्यक नहीं है।

हालाँकि, एक बार जब आप नए देश में जाते हैं, तो आपको उस देश के अद्वितीय कानूनों का पालन करना
होगा। जिस देश में आपने पैसा कमाया है, उसके कानून नए देश में लागू नहीं होते हैं और पैसा कमाते
समय जो अच्छा माना जाता था, उसे खर्च करते समय अच्छा नहीं माना जा सकता है। इसका मतलब यह
है कि सांसारिक व्यवहार के नियम स्वर्गीय ग्रहों पर लागू नहीं होते हैं और इसके विपरीत भी। इसलिए,
मेहनती व्यक्ति आगे के बलिदान देने और और भी बेहतर कर्म बनाने के लिए स्वर्गीय ग्रहों का उपयोग
करता है ताकि वे और भी ऊं चे स्वर्गीय ग्रहों तक पहुंच सकें । हालाँकि, मूर्ख व्यक्ति उस नए अवसर का
उपयोग आनंद लेने और अपनी कमाई खर्च करने के लिए करता है और जब पैसा खत्म हो जाता है, तो
उन्हें आगे की कमाई के लिए मूल स्थान पर वापस भेज दिया जाता है।

हालाँकि, सबसे बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो अच्छे या बुरे कर्म नहीं कमाता है । वह पहले जो भी अच्छा या
बुरा कमाया है उसे बस खर्च कर देता है और आगे के कर्मों के निर्माण से बच जाता है । इसका मतलब यह
है कि यदि वे अच्छी स्थिति में हैं, तो वे वासना या लालच से प्रभावित हुए बिना अपना कर्तव्य निभाते
हैं। इसी तरह, यदि वे किसी बुरी स्थिति में हैं, तो वे बिना क्रोध या भय के उसे सहन कर लेते हैं।

शरीर गुण और कर्म को जोड़ता है

आत्मा का भौतिक मन और शरीर उसके गुण और कर्म का प्रतिफल है । आत्मा को कर्म के कारण एक
विशेष प्रकार की माँ के गर्भ में रखा जाता है - अर्थात जन्म के समय का वातावरण , जो उपभोग के
विकल्प प्रदान करता है। आत्मा गुण के आधार पर संभावित विकल्पों (क्षमता और अवसर) में से चुनती
है। गुण की भूमिका यह निर्धारित करने में निहित है (1) कि क्या हम इंद्रियों को शारीरिक गतिविधियों में
भाग लेने से रोकते हैं या हटा देते हैं और (2) क्या हम ऐसी भागीदारी से आनंद लेते हैं या पीड़ित होते
हैं। क्षमता, अवसर, भागीदारी और आनंद का संयोजन आत्मा के अनुभव का निर्माण करता है। इस अनुभव
में क्षमता और अवसर कर्म के कारण होते हैं जबकि भागीदारी का विकल्प और सुख या दुख गुण के कारण
होता है । योग्यता गुण द्वारा भी बनाई जा सकती है जब बार-बार प्रयास करके हम अपनी क्षमताओं को
बढ़ा सकते हैं क्योंकि हमें कु छ करना पसंद है और सीमित अवसर के बावजूद हम अपने प्रयास से क्षमता
को बढ़ा सकते हैं।
किसी ऐसे व्यक्ति के चरम उदाहरण पर विचार करें जिसे दुष्कर्मों के लिए प्रताड़ित किया जा रहा है। बाहरी
व्यक्ति को यह प्रतीत हो सकता है कि व्यक्ति के पास इस यातना से उत्पन्न दर्द से पीड़ित होने के अलावा
कोई विकल्प नहीं है - जो पिछले कर्मों के कारण हुआ है ; कर्म ने समझने की क्षमता पैदा की है, और ऐसी
परिस्थिति उत्पन्न की है जिसमें व्यक्ति फं स गया है। लेकिन विकल्प अभी भी मौजूद है क्योंकि व्यक्ति
अपने मन और इंद्रियों (शरीर को नहीं) को उस अनुभव से हटा सकता है, और उस अनुभव से परिणामी
आनंद और दर्द इंद्रियों के शामिल होने की तुलना में भिन्न होगा।

मैं इस उदाहरण का उपयोग इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए करता हूं कि सांसारिक परिस्थितियाँ विकल्प
चुनने से नहीं रोकती हैं, न ही वे कष्ट का कारण बनती हैं। हालाँकि, सांसारिक स्थितियों से मुक्ति पाने के
लिए व्यक्ति को यह समझना होगा कि आत्मा कै से इंद्रियों को वापस ले सकती है - ठीक एक कछु ए की
तरह जो अपने अंगों को अंदर की ओर खींचता है - और उन्हें बाहरी अनुभवों के अलावा किसी अन्य चीज़
पर कें द्रित करता है। जब गुण अशुद्ध होते हैं, तो आत्मा मन, इंद्रियों और शरीर की गतिविधियों से अलग
होने में असमर्थ होती है। लेकिन जब इंद्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं, तो आत्मा मन या इंद्रियों के अवांछित कार्यों
पर कोई ध्यान नहीं देती है।

गुण की शुद्धि का उद्देश्य शारीरिक परिस्थितियों में सुधार करना या शारीरिक क्षमताओं में वृद्धि करना नहीं
है। इसका तात्पर्य मन और इंद्रियों की भौतिक गतिविधियों से हटना है। निःसंदेह, उस अवस्था को प्राप्त
करना कठिन है, और मेरा इरादा उसकी प्राप्ति को तुच्छ समझने का नहीं है। मैं के वल इस तथ्य को
उजागर करना चाहता हूं कि स्थिति पूर्व निर्धारित होने पर भी स्वतंत्र इच्छा कभी नहीं खोती है। हालाँकि,
यह महसूस करने के लिए कि कोई व्यक्ति पूर्वनिर्धारित परिस्थितियों में भी स्वतंत्र है, उसे आध्यात्मिक रूप
से उन्नत होना चाहिए।

जैसे-जैसे आत्मा धीरे-धीरे गुणों से शुद्ध होती जाती है , उसमें शरीर और उसकी परिस्थितियों से खुद को
अलग करने की क्षमता बढ़ जाती है। इसलिए, इस तरह का अलगाव आध्यात्मिक प्रगति का एक उपाय
है। इस स्थिति की तुलना अक्सर पके और मुलायम नारियल के बीच अंतर से की जाती है। जब नारियल
नरम होता है तो उसका खोल और कोर जुड़ा होता है। खोल कर्म है और मूल गुण है । उनका लगाव आत्मा
को हर अनुभव का आनंद या कष्ट दिलाता है। लेकिन जैसे ही नारियल सूख जाता है, कोर खोल से अलग
हो जाती है, और इससे भौतिक अनुभव की समाप्ति हो जाती है। अलगाव का मतलब है कि बाहरी तौर पर
कष्ट होने पर भी आत्मा अपने भीतर खुश रह सकती है।

पदार्थ के वर्णन में नवीनता

शरीर की यह धारणा पदार्थ के बारे में हमारी समझ को बदल देती है। पदार्थ कोई वस्तु नहीं है ; बल्कि यह
एक संभावना के रूप में मौजूद है : मानव शरीर में यह पर्यावरण में अवसरों का फायदा उठाने की क्षमता
है। इसलिए, पदार्थ का 'संभावना' के रूप में वर्णन शरीर को क्षमता और आसपास को अवसर के रूप में
समझने का एक दृष्टिकोण है। हालाँकि, आधुनिक विज्ञान में, इन संभावनाओं का अध्ययन संभावनाओं के
रूप में किया जाता है क्योंकि हम यह कल्पना करने में असमर्थ हैं कि कोई चीज़ एक संभावना के रूप में
कै से मौजूद है। फिर पूर्वानुमेयता के अभाव के कारण वर्णन अधूरा हो जाता है।

सांख्य सभी पदार्थों को वस्तुओं या मात्राओं के बजाय विचारों के रूप में वर्णित करता है। एक विचार एक
निश्चित चीज़ में परिवर्तित होने की संभावना है, और फिर भी यह एक निश्चित चीज़ नहीं है। विचार
भी वस्तुनिष्ठ है और फिर भी वस्तु नहीं है । यह वह आधार है जिस पर हम संभाव्यता की समस्याओं को
हल कर सकते हैं - उदाहरण के लिए परमाणु सिद्धांत में - जब शरीर को एक संभावना या विचार के रूप में
वर्णित किया जाता है । संक्षेप में, जो शरीर हम देखते हैं वह एक विचार है, हालाँकि यह निश्चित
है। लेकिन वह निश्चित विचार एक अमूर्त विचार से उत्पन्न होता है, जो कि हम इंद्रियों द्वारा जो अनुभव
कर सकते हैं उसकी तुलना में अपेक्षाकृ त अधिक अनिश्चित होता है। 'अमूर्त' वास्तविकता वस्तुनिष्ठ है
लेकिन यह कोई वस्तु नहीं है । इन्हें "सूक्ष्म" और "स्थूल" पदार्थ कहा जाता है।

मेरा आनंद व्यक्तित्व, मेरा भौतिक शरीर, और वह अवसर जिसमें मैं स्थित हूं, स्वयं नहीं देखे जा सकते -
वे सभी "अव्यक्त" हैं। जब ये अव्यक्त गुण आपस में मिलने लगते हैं तो व्यक्त जगत का निर्माण होता
है। उदाहरण के लिए, आनंद की मेरी आवश्यकता पर्यावरण में आनंददायक "भोजन" खोजने की शारीरिक
क्षमता के साथ मिलती है; या, पर्यावरण कु छ ऐसा प्रदान करता है जो शारीरिक क्षमता (जैसे भूख) के साथ
मिश्रित होता है और हम संतुष्टि पैदा करने के लिए इसका उपभोग करते हैं। संसार सूक्ष्म अव्यक्त रूप में
वास्तविक है, लेकिन जब इस संसार के विभिन्न पहलू मिल जाते हैं तो यह बोधगम्य हो जाता है
। व्यक्तिगत रूप से, वे सभी अव्यक्त या अप्राप्य हैं।

ब्रह्माण्ड का निर्माण तब होता है जब विभिन्न अव्यक्त अंशों का मिश्रण या संयोजन होने लगता है। इस
मिश्रण से पहले, दुनिया भौतिक रूप से मौजूद है, लेकिन कोई अनुभव नहीं है। इसलिए ब्रह्माण्ड की रचना
स्वयं पदार्थ की रचना नहीं है; बल्कि यह अनुभव का सृजन है।

तीन गुण

प्रकृ ति के आधार पर तीन तार हैं जिन्हें "गुण" कहा जाता है। ये तीन तार कई तरह से मिलकर अस्तित्व
की रस्सियाँ बनाते हैं। तीन गुण हैं तमस, रजस और सत्व। तमस अस्तित्व की निष्क्रियता, जड़ता, भारीपन
और नीरसता है। तमस को भूख, प्यास, शोक, भय और भ्रम का कारण बताया गया है। राजस इसके
विपरीत है; यह गतिविधि, उत्साह और जुनून है। रजस वासना, लालच और सभी इच्छाओं - अच्छी और
बुरी - का कारण है। इन दो गुणों में, हमें यिन और यांग की दाओवादी परिभाषाओं के संके त मिलते
हैं। सत्त्व न तो है. सत्त्व पूर्णता, सद्भाव, स्पष्टता और सुंदरता है। दाओवादी के लिए सत्त्व ही दाओ है।

ये तीन गुण उसी तरह से मिलते हैं जिस तरह से इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन मिलकर हमारे ब्रह्मांड में
सभी पदार्थों का निर्माण करते हैं। हालाँकि, गुण अधिक
व्यापक हैं; न के वल हमारे भौतिक शरीर, न के वल
पृथ्वी और उस पर मौजूद हर चीज, बल्कि हमारे सभी
विचार, हमारे व्यक्तित्व, हमारे अनुभव और हमारी
इच्छाएं गुणों की अभिव्यक्ति हैं। गुणों के संयोजन के
असंख्य और जटिल तरीकों के बावजूद, वे अभी भी
अचेतन हैं। रिचर्ड फ़्रीमैन के अनुसार, हम जो कु छ भी
देखते हैं वह "सिर्फ गुणों पर कार्य करने वाले गुण हैं"
और इससे अधिक कु छ नहीं। [1]

तीनों गुण निरंतर गतिशील रहते हैं, कभी स्थिर नहीं


रहते।
अक्सर योग के छात्र गुणों की भूमिका को लेकर भ्रमित हो जाते हैं और मानते हैं कि सत्त्व अच्छा गुण है,
रजस ठीक गुण है, और तमस बुरा गुण है। जिस प्रकार यिन और यांग न तो अच्छे हैं और न ही बुरे, उसी
प्रकार गुणों में भी अच्छे या बुरे के कोई गुण निहित नहीं हैं। वे सभी प्रकृ ति का हिस्सा हैं, और शास्त्रीय
योग और सांख्य अभ्यास का उद्देश्य प्रकृ ति से पूरी तरह मुक्त होना है - यहां तक कि अस्तित्व की सात्विक
अवस्थाओं से भी मुक्त होना। सत्व हानिकारक हो सकता है यदि आप इससे जुड़ जाते हैं और स्वतंत्रता के
लिए प्रयास करना बंद कर देते हैं। तमस सत्व के प्रति लगाव को मुक्त करने में मदद कर सकता है। यदि
आप अत्यधिक तामसिक हो गए हैं तो रजस अच्छा हो सकता है।

तीन गुण वास्तव में एक चक्र में बहते हैं: सत्व रजस की जगह लेता है, रज तमस को नष्ट कर देता है,
और सत्त्व से तमस विकसित होता है। यह प्रवाह हम प्रतिदिन देख सकते हैं। सुबह हम बिस्तर पर लेटे
होते हैं और उठना नहीं चाहते - तमस प्रबल होता है। हमें प्रेरित करने और आगे बढ़ने के लिए ऊर्जा देने के
लिए इच्छा, रजस की आवश्यकता है। हम उस सुबह की कॉफी के कप या उस प्यारे, पसीने से भरे अष्टांग
अभ्यास में रजस की तलाश करते हैं। शाम तक, पूरे दिन के काम के बाद, हम रात को हाथ में हर्बल चाय
का कप लेकर बैठते हैं, और एक अच्छी किताब के साथ आराम करते हैं। राजस मन की सात्विक अवस्था
में परिपक्व हो गया है। लेकिन एक बार जब चाय पी ली जाती है और पसंदीदा किताब पढ़ ली जाती है, तो
हमारा दिमाग वापस तमस गुण की ओर मुड़ जाता है। हम एक बार फिर नींद को भुलाने के लिए तैयार हैं।

तीनों गुण निरंतर प्रवाह में हैं; चट्टान, कागज, कैं ची के खेल की तरह - जैसे ही एक शीर्ष पर पहुँचता है,
अगला आता है और सब कु छ फिर से बदल देता है। चक्र तेजी से घूम सकता है या इसमें कई युग लग
सकते हैं, लेकिन हम जानते हैं कि कु छ भी नहीं टिकता और सब कु छ बदल जाता है। यह प्रकृ ति का
स्वभाव है.

यह अभी भी अस्पष्ट है कि तीन गुण कै से प्रकट होते हैं। वह सब कु छ जो हम अपने चारों ओर देखते हैं,
जो हम अपने भीतर अनुभव करते हैं, वह कै से बनता है? इसका उत्तर देने के लिए हमें सांख्य के मॉडल
पर गहराई से गौर करना होगा

सांख्य के चौबीस सिद्धांत

मूलतः तीनों गुण पूर्ण संतुलन में थे। प्रकृ ति अविचल थी। इस मूल स्थिति को प्रकृ ति-प्रधान या मूल-
प्रकृ ति के रूप में जाना जाता है , जो प्राकृ तिक आधार है। जब पुरुष निकट आया तो प्रकृ ति बदलने लगी।

इसका एक अच्छा सादृश्य आप और आपकी कार है। जब आप दूर होते हैं, तो आपकी कार वहीं अपनी मूल
स्थिति में पड़ी रहती है। एक बार जब आप कार को देखते हैं तो उसमें बैठने की, उसे चालू करने की इच्छा
पैदा हो जाती है। जब आप और आपकी कार एक साथ आते हैं, तो चीजें घटित होने लगती हैं। आप गाड़ी
चलाना और स्थानों पर जाना शुरू करते हैं। जल्द ही आप भूल जाते हैं कि आपकी कार आप नहीं हैं। यह
आपके जैसा महसूस होता है. आप ठीक-ठीक समझ सकते हैं कि यह सड़क पर कहाँ है। कार सड़क पर
अन्य कारों पर इस तरह प्रतिक्रिया करती है मानो उसका अपना कोई दिमाग हो। यह ट्रैफिक लाइट और
पैदल चलने वालों जैसी चीज़ों को लगभग ऐसे नोटिस करता है जैसे कि यह सचेत हो। जल्द ही आप और
आपकी कार एक हो जाएंगे और आप भूल जाएंगे कि आप पहली बार कार में क्यों बैठे थे।
एक बार जब पुरुष प्रकृ ति को सक्रिय करता है, तो पहला विकास उत्पन्न होता है; प्रकृ ति-प्रधानता के
प्राकृ तिक आधार से प्रकट होने वाली पहली चीज़ महत् , महान सिद्धांत है। इसे बुद्धि या जागृत बुद्धि के
नाम से भी जाना जाता है। महत अंतर्ज्ञान या अनुभूति है, लेकिन यह चेतना नहीं है। के वल पुरुष ही चेतन
है। लेकिन, महत की महान बुद्धिमत्ता और चमक के कारण, इसे अक्सर चेतना समझ लिया जाता है। जैसे
कभी-कभी हमारी कार का अपना मन हो सकता है, वैसे ही बुद्धि सचेतन प्रतीत हो सकती है - यह एक भ्रम
है।

बुद्धि से अहंकार विकसित होता है; "मैं-निर्माता।" अहमकारा स्वयं की भावना पैदा करता है (छोटे "एस" के
साथ), जिसे अहंकार भी कहा जाता है। इस संबंध में, अहंकार पुरुष होने का दिखावा करता है (जो एक बड़े
"एस" के साथ स्वयं है)। तो अब आपकी कार ऐसे व्यवहार करने लगती है मानो वह बॉस हो। शायद यहीं
पर हमारी सादृश्यता टू टने लगती है, लेकिन आप शायद कु छ ऐसे लोगों को जानते होंगे जिनके लिए उनकी
कार ही बॉस है। फें डर पर एक छोटी सी खरोंच कु छ मालिकों को बहुत परेशान कर सकती है, और वे सतही
क्षति की मरम्मत के लिए तुरंत कार्रवाई करते हैं। अहंकार के स्तर पर ही विषय और वस्तुएं उत्पन्न होती
हैं। "मैं" विषय बन जाता है, और शेष विश्व उसे वस्तुएँ प्रदान करता है। इस स्तर पर व्यक्तिवाद उत्पन्न
होता है क्योंकि विषय/वस्तु में निहित द्वैत में अलगाव होता है। [1]

पुरुष और प्रकृ ति पूर्णतः भिन्न हैं, जो सांख्य दर्शन को


द्वैतवादी बनाता है।

अहंकार से मानस , दिमाग और दस इंद्रियां ( इंद्रियां )


विकसित होती हैं। यहां मानस निचला मन है, जिसे हमने
कोश मॉडल में देखा है। इसे अक्सर ग्यारहवीं इंद्रिय के रूप
में वर्णित किया जाता है। [2] इसके अलावा अहंकार से
पांच तत्व ( भूत ) और पांच ऊर्जा क्षमताएं ( तन्मात्रा )
उत्पन्न होती हैं। वे तत्व जो हमने पहले देखे हैं: अंतरिक्ष,
वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। पाँच ऊर्जा क्षमताएँ हमारे
लिए नई हैं। ये तन्मात्राएँ हैं, वे पदार्थ जिन पर इंद्रियाँ कार्य
करती हैं। वे वही हैं जिन्हें छु आ जाता है, जो चखा जाता है, जो सूंघा जाता है, जो सुना जाता है और जो
देखा जाता है।

जो अभी तक स्पष्ट नहीं किया गया है वह अन्य इंद्रियाँ हैं। सांख्य ने दस की सूची बनाई है। पाँच से हम
बहुत परिचित हैं: इन्हें "संज्ञानात्मक इंद्रियाँ" कहा जाता है - सुनना, महसूस करना, देखना, चखना और
सूंघना। शेष पांच संवेदी इंद्रियां हैं: बोलना, पकड़ना, हिलना, मलत्याग करना और प्रजनन करना।

इन चौबीस सिद्धांतों के साथ, सांख्य मॉडल पूरा हो गया है - मनोचिकित्सक को आंतरिक और बाहरी ब्रह्मांड
का एक नक्शा पेश किया जाता है। जबकि हम सामान्य आत्माओं के लिए मानचित्र का अनुसरण करना पूरी
तरह से असंभव लगता है, यह उन लोगों द्वारा प्रस्फु टित मानचित्र है जो हमसे पहले चले गए हैं। क्या हम
वास्तव में उस चीज़ की आलोचना कर सकते हैं जिसका हमने अनुभव नहीं किया है? लेकिन इससे अंतिम
प्रश्न उठता है: हम इस मानचित्र का अनुसरण कै से करें? सांख्य योग का अभ्यास क्या है? हम स्वयं यह
कै से निर्धारित कर सकते हैं कि यह मानचित्र सटीक है या नहीं?

सांख्य अभ्यास
त्याग की तपस्या हर किसी के लिए नहीं है।

मुक्ति ही मुक्ति है - प्रकृ ति से मुक्ति। इसे अक्सर " कै वल्य " कहा जाता है, जिसका अर्थ है अलगाव,
अके लापन या अलगाव। मुक्ति पाने के लिए व्यक्ति को शरीर से अलग होना होगा क्योंकि, अपने सभी
अद्भुत गुणों के बावजूद, शरीर प्रकृ ति से बना है। मन से भी अलगाव जरूरी है. याद रखें, प्रकृ ति के वल वे
भौतिक अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जिन्हें हम जीवन में देखते हैं। यादें, विचार, भावनाएं और यहां तक कि बुद्धि
भी प्रकृ ति हैं और इन्हें पीछे छोड़ने की जरूरत है। सांख्य परंपरा में सच्ची मुक्ति, अवतार लेते हुए प्राप्त
नहीं की जा सकती। शरीर छोड़ने के बाद ही कोई वास्तव में और अंततः मुक्त हो सकता है। लेकिन, यदि
पुरुष प्रकृ ति के प्रति अपने सभी आकर्षणों से मुक्त नहीं हुआ है, तो मृत्यु सिर्फ एक नए चक्र की शुरुआत
है, और पुरुष एक बार फिर प्रकृ ति से जुड़ जाता है।
मुक्ति प्राप्त करने के लिए, सांख्य योगी विवेक और त्याग का सहारा लेते हैं। विवेक ( विवेक के रूप में
जाना जाता है ) एक ज्ञान है जो तर्क के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। त्याग हर उस चीज़ से दूर जाना
है जो हमें इस जीवन से बांधती है। जबकि शास्त्रीय योग के समान, सांख्य अभ्यास मुक्ति के मुख्य
उपकरण के रूप में समाधि पर ध्यान कें द्रित नहीं करता है। हालाँकि, दोनों प्रथाओं के लिए कठोर तपस्या
की आवश्यकता होती है, जिसकी बराबरी के वल जैन धर्म में की जाती है।
उपजाऊ काल में, लगभग 500-600 ईसा पूर्व, जांच के कई क्षेत्रों के बीच विचारों का विकास और आदान-
प्रदान किया जा रहा था। सांख्य दर्शन ने पूर्व-शास्त्रीय योग की जानकारी दी, जो जैन धर्म से उधार लिया
गया था, जिसने सांख्य और बौद्ध धर्म दोनों को भी प्रभावित किया। प्रत्येक दर्शन ने एक दूसरे से विचारों
और प्रथाओं को उधार लिया, परीक्षण किया, अपनाया और त्याग दिया। अंततः प्रत्येक दार्शनिक दृष्टिकोण
के लिए एक सुसंगत मनो-ब्रह्माण्ड संबंधी मॉडल सामने आया।
प्राचीन जैन धर्म में हमें सांख्य के समान द्वैतवाद मिलता है; पुरुष को " आत्मान " या " जीव " कहा
जाता है। हर किसी का अपना जीव होता है, अद्वितीय और अन्य सभी जीवों से अलग, जैसे सांख्य दर्शन
का मानना है कि पुरुष अलग हैं। आपका जीव दुर्भाग्य से प्रकृ ति की दुनिया के साथ जुड़ाव के कारण
दागदार या रंगीन हो गया है। जैनियों का मानना था कि जीव से कलंक को साफ करने का एकमात्र तरीका
अहिंसा को अपनाना है: नुकसान न पहुँचाना। यहां तक कि सांस लेने से भी हवा के अणुओं को नुकसान
पहुंचता है; इसलिए, हवा की सुरक्षा के लिए और अनजाने में किसी कीड़े को निगलने से बचने के लिए
मास्क पहने जाते हैं। बड़े से बड़े जैन साधु चलना बंद कर देंगे, क्योंकि हर कदम किसी न किसी सूक्ष्म जीव
को नुकसान पहुंचाएगा। आख़िरकार संत बस बैठे रहेंगे और मौत का इंतज़ार करते रहेंगे। यह संसार और
उसकी सभी आसक्तियों का पूर्ण त्याग है।
यह सांख्य और शास्त्रीय योगियों द्वारा अभ्यास किए जाने वाले उग्र योग के समान है: यह पूर्ण त्याग
है। लेकिन, सांख्य दर्शन में, के वल त्याग पुरुष को प्रकृ ति की पकड़ से मुक्त नहीं करेगा। विवेक, विवेक भी
आवश्यक है। यह ब्रह्मांड के तरीके को जानना है, बौद्धिक रूप से नहीं, क्योंकि बुद्धि अभी भी प्रकृ ति है,
लेकिन गहरे स्तर पर है। विवेक एक आंतरिक ज्ञान विकसित करता है जो क्षणभंगुर को वास्तविक से अलग
करता है - दुनिया की स्पष्ट प्रकृ ति को उसकी अंतर्निहित वास्तविकता से अलग करता है। जबकि इसे तर्क
के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, विवेक उन सभी को त्यागने की इच्छा भी विकसित करता है जो
अवास्तविक हैं।
सांख्य आंतरिक ब्रह्मांड के तरीकों को मॉडलिंग करने की एक उत्कृ ष्ट कृ ति थी। शास्त्रीय योगियों और बौद्धों
द्वारा इसकी ब्रह्माण्ड संबंधी संरचना को अपनाना इसकी शक्ति का प्रमाण है। हालाँकि, सांख्य का अभ्यास
और इसका अंतर्निहित द्वैतवादी दर्शन, इसके अंतिम विनाश का आधार था। शास्त्रीय योग सांख्य से दूर
चला गया और विवेक पर जोर के स्थान पर समाधि का अभ्यास शुरू कर दिया गया। बाद में योग
विद्यालयों ने, तंत्र से शुरुआत करते हुए, जैनियों, सांख्य और शास्त्रीय योग मार्गों की उग्र त्याग प्रथाओं को
त्यागने के बुद्ध के मार्ग का अनुसरण किया। आख़िरकार सांख्य के पास जो कु छ बचा था वह ब्रह्मांड
विज्ञान था।
आइए अब आगे बढ़ें और जांच करें कि दो मुख्य योग विद्यालय, शास्त्रीय योग और तंत्र योग, मन और
मन से परे जो कु छ भी है उसे कै से समझते हैं।

पुरुष एक स्थिर ऊर्जा है जिसे भगवान शिव के रूप में दर्शाया गया है और प्रकृ ति देवी पार्वती या शिव-स्त्री
ऊर्जा है जो पूरी सृष्टि के लिए जिम्मेदार है। यह एक परमाणु की तरह है जो 2,4 की अपनी स्थिर स्थिति
तक पहुंचने की कोशिश करता है इत्यादि..इलेक्ट्रॉनों में गति होती है जो तथाकथित स्थिर न्यूट्रॉन के विरुद्ध
बंधती और खुलती है!! अधिक सरल होगा..पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है जिसे तथाकथित स्थिर कहा
जाता है..और भी बेहतर है निर्वात और भौतिक..जैसे मौन और ध्वनि !! वह पुरुष है जो स्थिर है फिर भी
परिवर्तनशील ऊर्जा को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार है और गति के निर्माण और निरंतरता के लिए
जिम्मेदार ऊर्जा ही जीवन है। इसलिए हिंदू धर्म में या आध्यात्मिक रूप से पुरुष और प्रकृ ति का अर्थ
है..निरंतर और परिवर्तन। जो सह-अस्तित्व में हैं और यह अर्धनारीश्वर की अवधारणा भी है जहां भगवान
शिव और उनकी प्यारी पार्वती एक हैं और
वे सह-अस्तित्व में हैं और इसलिए उन्हें सर्वोच्च शक्ति माना जाता है।
यह पुरुष और प्रकृ ति की एक विशाल और सुंदर अवधारणा को समझाने का मेरा छोटा सा तरीका है !!

पुरुष और प्रकृ ति में क्या अंतर है ?

वैसे तो पुरुष और प्रकृ ति जटिल अवधारणाएं हैं और इन्हें समझाना कठिन है लेकिन हम इसे सबसे सरल
तरीके से समझाएंगे।

कण (एम) - कोई भी इकाई जिसमें द्रव्यमान होता है और पदार्थ से बना होता है। जैसे परमाणु, मनुष्य।
प्रकृ ति (प्र.)- किसी कण के अन्तर्निहित गुण या गुण हैं। यह लिंग में स्त्रीलिंग है। पुरुष (पु) - एक
कण द्वारा प्राप्त गुण या गुण हैं और लिंग में पुल्लिंग है।

प्रकृ ति पदार्थ और उसकी संरचना का एक कार्य है और इसलिए कण यानी Pr(m) पर निर्भर है ।


एक कण कण के बाह्य अंतरिक्ष से पुरुषत्व (पु) प्राप्त करता है और यह अन्य कणों और/या ऊर्जा के प्रभाव
के कारण हो सकता है। अत: पुरुष आकाश का एक फलन अर्थात् पु(s) है।

जैसे-जैसे समय बीतता है, एक कण (अपनी प्रकृ ति के आधार पर) पुरुषत्व प्राप्त करने के लिए बाध्य होता
है। इस प्रक्रिया के दौरान कण अपनी प्रकृ ति को खो देता है और काफी समय के बाद अर्जित पुरुषत्व कण
की प्रकृ ति बन जाता है और अंतर्निहित प्रकृ ति, जो खो गई थी, उसके लिए पुरुषत्व बन जाती है। उदाहरण
देकर स्पष्ट करने के लिए
समय X (tx) से समय Y (ty) और समय Z (tz) तक
जहां tz > ty > tx

अंतरिक्ष
tx +Pu ty -Pr tz
Pr(m)------->PuPr(m) -------->Pu(m)

टीज़ के बाद; पु, पीआर है और पीआर, एम के लिए पु है।

अर्थात पुरुष प्रकृ ति बन जाता है और प्रकृ ति उस कण के लिए पुरुष बन जाती है।

यह चक्र जारी रहता है और इन अनेक चक्रों में से ही हमारे पास मनुष्यों, परमाणुओं, तत्वों, अणुओं आदि
के विभिन्न क्रमपरिवर्तन और संयोजन होते हैं।

विरले ही कु छ कण इस चक्र को तोड़कर एक संतुलित स्थिति प्राप्त करने में सक्षम होते हैं जिसमें पुरुष
और प्रकृ ति ऐसे होते हैं कि पुरुष प्रकृ ति है और प्रकृ ति पुरुष है । (सर्वोत्तम उदाहरण: अर्धनारीश्वर)
इसे ही मनुष्यों के लिए मोक्ष कहा जाता है जिसे प्राप्त करना दुर्लभ है और परमाणुओं के लिए हमारे पास
अक्रिय तत्व हैं जो अस्तित्व में दुर्लभ हैं।

पुरुषत्व प्राप्त करने की ज्ञात प्रवृत्ति को मनुष्य के लिए चेतना कहा जाता है और तत्वों के मामले में हम
इसे वैधता कहते हैं । भले ही किसी कण में यह प्रवृत्ति न हो, लेकिन अंतरिक्ष में उसका अस्तित्व ही उसे
पुरुषत्व प्राप्त करने के लिए प्रभावित करेगा।

उपरोक्त अवधारणाओं को समझने के बाद आपने प्रकृ ति और पुरुष के बारे में जो भी और जहां भी पढ़ा है,
उसे दोबारा पढ़ें, उनके बारे में हर अवधारणा अब स्पष्ट होनी चाहिए।
पुरुष और प्रकृ ति - पृथ्वी पर दो सबसे बड़ी शक्तियाँ
पुरुष और प्रकृ ति को डिकोड करना

पुरुष को हमेशा पुरुष और प्रकृ ति को स्त्री माना जाता है। और, प्रकृ ति में अधिकांश मामलों में ये दोनों एक
दिव्य मिलन बनाते हैं। अब, किसी अन्य निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले यह समझना सबसे अच्छा होगा कि
सभी अंतर-संबंध जीवन के मूल पाठों से प्राप्त हुए हैं। आप सोच रहे होंगे कि पुरुष को पुरुष की पहचान
किसने दी और प्रकृ ति को स्त्री की पहचान किसने दी। इससे पहले कि आप वास्तव में इसे समझें, आपको
तंत्र का थोड़ा अन्वेषण करना होगा। तंत्र जैसी कु छ हिंदू प्रथाओं में, इन दोनों शक्तियों के मिलन से बहुत
सारा ज्ञान प्राप्त होता है।

मामले को आसान बनाने के लिए, प्रकृ ति प्राकृ तिक स्थिति या अवस्था है। आप प्रकृ ति के सभी गुणों का
अवलोकन कर सकते हैं, लेकिन पुरुष के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रकृ ति में स्थान, समय और
साथ ही कर्म शामिल हैं। यह सभी गुणों का मूल है, जिसे आप अपने आस-पास देख सकते हैं, लेकिन अपने
आप में कोई गुण नहीं रखता। प्रकृ ति प्रकृ ति है जबकि पुरुष सर्वव्यापी आत्मा है। कु छ सिद्धांत प्रकृ ति को
अचेतन और पुरुष को चेतना भी मानते हैं।

कुं डलिनी योग में पुरुष और प्रकृ ति

कुं डलिनी योग या उसमें होने वाले जागरण के क्षेत्र में आपको ये दोनों मिलेंगे। सूक्ष्म शरीर में सात मुख्य
चक्र होते हैं। सर्प के रूप में प्रसुप्त या सोई हुई शक्ति मूलाधार चक्र में कुं डली मारकर बैठी है। दीक्षा या
शक्ति पथ पर, साँप या शक्ति, आप इसे जो भी कहें, चक्रों को साफ़ करते हुए ऊपर की ओर उठता
है। शक्ति वह है जो उभरती है और अंततः पुरुष, या मुकु ट क्षेत्र में चेतना के साथ एकजुट हो जाती
है। दोनों के एक हो जाने के बाद आप सार्वभौमिक चेतना के साथ एक हो सकते हैं। इससे पता चलता है
कि दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. शक्ति या प्रकृ ति और पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

इसका उल्लेख आपको चीनी दर्शन या दाओवाद में भी मिलेगा। दोनों सेनाओं को एक ही क्षेत्र में यिन और
यांग बलों के रूप में जाना जाता है। यिन को महिला और विनम्र माना जाता है, जबकि यांग को पुरुष और
प्रभावशाली माना जाता है। ये दोनों पुनः प्रकृ ति के द्वंद्व का प्रतिनिधित्व करते हैं।

तत्व और उनका महत्व

यदि आप वेदों में गहराई से जाएंगे, तो आपको चार प्रमुख वाक्य या महावाक्य मिलेंगे। वे हैं प्रांजनम् ब्रह्म,
तत्वम् असि, अयम् आत्मन् ब्रह्म और अहं ब्रह्मास्मि। ये बताते हैं कि सब कु छ एक साथ हो रहा
है। अलग-अलग व्यक्ति जो कार्य कर रहे हैं उनमें ज्यादा अंतर नहीं है। इसके अलावा, मनुष्य और ब्रह्मांड
लगभग एक साथ कार्य करते प्रतीत होते हैं। प्रकृ ति के तत्त्व और नियम को इसके लिए जिम्मेदार होना
चाहिए। शैव धर्म के अनुसार, ब्रह्मांड की रचना सबसे पहले चीजों की द्वैतवादी प्रकृ ति के कारण हुई। तो,
जो कु छ भी आप अपने आस-पास देखते हैं या उसका सामना करते हैं, वह इन दो दोहरी पहचानों का
परिणाम है। के वल एक ही चीज़ है जो इन दोनों शक्तियों का संतुलित एकीकरण ला सकती है, वह है
कर्म। यदि आप अपने कर्तव्य का पालन करेंगे, तो सब कु छ संतुलित रहेगा और यदि नहीं, तो विपरीत होना
निश्चित है।
भगवत गीता में आपको पुरुष और प्रकृ ति के अर्थ भी मिलेंगे। अध्याय 13 में, भगवान कृ ष्ण, दो सेनाओं के
बारे में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं। भगवान कृ ष्ण कहते हैं कि प्रकृ ति सभी कार्यों की आरंभकर्ता
है। यह बहुत अच्छे से बदलाव ला सकता है. हालाँकि, यह पुरुष ही है जो सभी परिणामों को सहन करता
है। पुरुष गुणों की परस्पर क्रिया के परिणाम भी सुनिश्चित करता है।

दोनों कहां मौजूद हैं और किस रूप में हैं?

पुरुष और प्रकृ ति सार्वभौमिक सौर आकाश और स्वर्ग से लेकर नरक की उदासी तक हर चीज़ में मौजूद
हैं। मनुष्यों में, पुरुष आत्मा या अहंकार का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि प्रकृ ति मन और शरीर का
प्रतिनिधित्व करती है। साथ में वे स्वयं को नश्वर संसार में जीवित प्राणी के रूप में प्रदर्शित करते हैं। इस
निरूपण में आत्मा अत्यंत शुद्ध है। नश्वर शरीर अपनी प्राकृ तिक अवस्था में अशुद्ध होता है और जन्म-मृत्यु
से बंधा होता है। इस प्रकार प्रकाश और अंधकार, अच्छा और बुरा, ज्ञान और अज्ञान, पवित्रता और अशुद्धता
और अन्य सभी विपरीतताओं का द्वंद्व उत्पन्न होता है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, तत्व इस संबंध में महत्वपूर्ण हैं। उन्हें नीचे सूचीबद्ध किया गया है, ताकि
आप उनसे जुड़े सभी रहस्यों का पता लगा सकें ।

 पांच मूल तत्व या महाभूत जैसे अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश या आत्मा।
 शरीर के पाँच भौतिक अंग जैसे मस्तिष्क, हृदय, फे फड़े, यकृ त और गुर्दे।
 शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ जैसे आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा।
 पांच मन इंद्रियां जैसे देखना, सुनना, सूंघना, चखना और छू ना।
 मानस जो कि मन है।
 अहंकार या व्यक्तित्व.
 बुद्धि या विचारशील मन।
 वह आत्मा जिसे ब्रह्म, ईश्वर, आत्मा, भगवान या सर्वोच्च स्व जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता
है।
कहा जाता है कि यदि तत्त्वों को अके ला छोड़ दिया जाए तो वे भावनाहीन हो जाते हैं। के वल जब वे एक
सांसारिक शरीर से जुड़ते हैं, तो वे किसी प्रकार की गुणवत्ता को जन्म दे सकते हैं। इस प्रकार, वे एक बार
फिर से चेतना और अस्तित्व की स्थिति के साथ एकजुट होकर आकार लेते हैं।

सांख्य के अनुसार प्रकृ ति पदार्थ में कै से विकसित होती है?

मनुष्य पदार्थ की प्रकृ ति को समझने का प्रयास कर रहा है,

जो अनादिकाल से संसार के प्रत्येक तत्व का निर्माण करता है।

लगभग तेईस शताब्दी पहले,

यूनानी दार्शनिक डेमोक्रिटस ने लिखा,

“मीठा और कड़वा, ठंडा और गर्म और साथ ही रंग भी


- ये सभी चीजें मौजूद हैं लेकिन राय में, वास्तविकता में नहीं; वास्तव में जो मौजूद है वह अपरिवर्तनीय
कण, परमाणु और खाली स्थान में उनकी गति है। भौतिक संसार के बारे में सबसे दिलचस्प प्रश्नों में से
एक यह है कि प्रकृ ति (पदार्थ का मौलिक रूप) हमारे आस-पास की दुनिया में कै से विकसित होती है जैसा
कि हम इसे समझते हैं? इसका उत्तर प्रकृ ति प्रक्रिया का विकास देता है।

दार्शनिक, जॉन लॉक ने पदार्थ के सार को समझने के अपने प्रयास में, पदार्थ जिससे ब्रह्मांड बना है, ने
प्राथमिक पदार्थ और पदार्थ के द्वितीयक गुणों के बीच अंतर किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भौतिक
वस्तुओं के सभी ज्यामितीय गुण जैसे आकार, घनत्व और गति वास्तविक और प्राथमिक गुण हैं, जबकि
माध्यमिक गुण वे थे जो वास्तविक नहीं थे बल्कि इंद्रियों पर सिर्फ प्रक्षेपण थे। अलग-अलग इंद्रियां उनकी
फिटनेस और संचालन की वर्तमान स्थिति के आधार पर, द्वितीयक गुणों को अलग-अलग तरीके से पढ़ेंगी।

जर्मन गणितज्ञ, लिब्निट्ज़ ने पदार्थ की जटिलताओं को और गहराई से समझते हुए कहा कि न के वल रंग,
प्रकाश और तापमान, बल्कि आकार और गति जैसे गुण भी धारणा से संबंधित हैं, ये इस बात पर निर्भर
करते हैं कि कोई उन्हें कै से देखता है। ये अवधारणाएँ के वल चेतना में मौजूद हैं, तथाकथित वास्तविक
दुनिया में नहीं। अल्बर्ट आइंस्टीन ने बाद में चेतना के सापेक्ष समय और स्थान के अस्तित्व को भी
जोड़ा। जिन वस्तुओं को हम इसमें देखते हैं उनकी व्यवस्था के क्रम को छोड़कर अंतरिक्ष में कोई वस्तुगत
वास्तविकता नहीं है, और घटनाओं के क्रम के अलावा समय का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है जिसके द्वारा
हम इसे मापते हैं।

प्रकृ ति भौतिक संसार में कै से विकसित होती है?

धीरे-धीरे सभी वैज्ञानिक और दार्शनिक उस निष्कर्ष पर पहुँचे जो प्राचीन योग साहित्य में सदैव विद्यमान
था। प्रकृ ति को मूल प्रकृ ति के रूप में जाना जाता है जब मौलिक कुं वारी पदार्थ अभी तक किसी भी
परिवर्तन, परिवर्तन या विकास के अधीन नहीं हुआ है। इस अवस्था में भी प्रकृ ति तीन सूक्ष्म गुण या तीन
गुण प्रदर्शित करती है :

 सत्त्व - बुद्धिमत्ता, हल्कापन, रोशनी, आनंद


 रजस - ऊर्जा, गति, उत्तेजना, दर्द
 तमस - रुकावट, भारीपन
प्रकृ ति की अविकसित अवस्था (मूला) में तीनों गुण एक-दूसरे पर कार्य किए बिना पूर्ण संतुलन की स्थिति
में होते हैं। इस प्रकार, इस अवस्था में कोई विकास नहीं हो सकता, या कोई दुनिया नहीं होगी। इस अवस्था
में वह पदार्थ जिससे मूल प्रकृ ति बनी है - तीन गुण - एक सूक्ष्म अवस्था (ऊर्जा रूप) में है, जबकि
वास्तविक दुनिया में - मूल प्रकृ ति के विकसित होने, परिवर्तित होने के बाद - यह ऊर्जा संघनित होकर
पदार्थ में बदल जाती है जिससे भौतिक संसार बना है. मूल प्रकृ ति का भौतिक रूप अब के वल प्रकृ ति के
नाम से जाना जाता है।

वेदान्तिक शिक्षाओं के अनुसार प्रकृ ति ने ऊर्जा को मूर्त रूप दिया जो बदले में अति-आध्यात्मिक, शाश्वत
सार की अस्थायी अभिव्यक्ति है जो सभी चीजों का अंतरतम "स्व" (आत्मान) है। जैन धर्म के अनुसार
पदार्थ छह डिग्री घनत्व में मौजूद है, कहते हैं:
1. सूक्ष्म-सूक्ष्म (सूक्ष्म-सुक्स्मा) : परमाणु का पदार्थ
2. सूक्ष्म (सूक्ष्म): कर्म के तत्व
3. सूक्ष्म - स्थूल (सूक्ष्म - स्थूल): ध्वनि, गंध, स्पर्श, जैसे, हवा
4. स्थूल-सूक्ष्म (स्थूल-सूक्ष्म): दृश्यमान लेकिन समझना असंभव, जैसे, धूप, छाया
5. सकल (स्थूल): दृश्य और मूर्त दोनों
6. स्थूल-स्थूल (स्थूल-स्थूला): भौतिक वस्तुएँ
बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य सहित हर चीज़ पांच तत्वों के समूह से बनी है जिन्हें स्कं द कहा जाता
है। तत्वों के इन पांच समूहों को "नाम-रूप" के रूप में वर्णित किया गया है, अर्थात नाम और रूप या मन
और पदार्थ। संक्षेप में, पदार्थ बिना किसी पदार्थ के के वल इंद्रिय डेटा है।

प्रकृ ति के विकास के प्रारम्भ का कारण |

सांख्य दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड सूक्ष्म मूल प्रकृ ति से विकसित हुआ है। यह विकास मूल प्रकृ ति और पुरुष
के बीच संपर्क के कारण शुरू होता है। हालाँकि ये दोनों सत्ताएँ प्रकृ ति में विपरीत हैं, फिर भी उनका संपर्क ,
जैसे कि उनकी निकटता, विकास शुरू करने के लिए आवश्यक है। सच तो यह है कि पुरुष और मूल प्रकृ ति,
शाब्दिक अर्थ में, एक-दूसरे के संपर्क में नहीं आते हैं, पुरुष की निकटता में उपस्थिति ही मूल प्रकृ ति को
उत्तेजित, उत्तेजित करती है।

इससे मूल प्रकृ ति के गुणों का संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे गुणों के सूक्ष्म पदार्थ के रूप में विकास की
प्रक्रिया शुरू हो जाती है, पहले से मौजूद संतुलन गड़बड़ा जाने के साथ, वह स्थूल पदार्थ, भौतिक ब्रह्मांड की
वस्तुओं के रूप में प्रकट होने लगता है। सांख्य के अनुसार एक पुरुष (शुद्ध चेतना) नहीं है, बल्कि कई पुरुष
हैं जो मूल प्रकृ ति को ब्रह्मांड की भौतिक जटिलताओं में प्रकट होने के लिए उत्तेजित करते हैं।

पुरुष पदार्थ से घिरा रहता है जैसा कि ब्रह्मांड का निर्माण करने वाली वस्तुओं में प्रकट होता है, यह दोनों -
पुरुष और मूल प्रकृ ति - का वास्तविक मिश्रण नहीं है - बल्कि पुरुष प्रकृ ति के साथ उलझा रहता है (जैसा
कि प्रकट होने के बाद ज्ञात होता है) भ्रम, जैसे कोई दर्पण के फ्रे म में किसी व्यक्ति का प्रतिबिंब देखता
है। जैसे ही व्यक्ति पुरुष के साथ तादात्म्य स्थापित करना शुरू करता है, पदार्थ सक्रिय होना बंद कर देता
है। इस प्रकार। शुद्ध चेतना सभी जीवित या निर्जीव चीजों के साथ मिश्रित रहती है क्योंकि पदार्थ (प्रकृ ति)
और पुरुष (शुद्ध चेतना) का एक साथ आना ही अस्तित्व का वास्तविक कारण है, या वस्तु अपनी प्रकट
अवस्था में मौजूद है। इसी विषय पर अधिक स्पष्टता के लिए यह वीडियो देखें ।

पुरुष और मूल प्रकृ ति को एक साथ आने और भौतिक संसार का निर्माण करने के लिए एक दूसरे की
आवश्यकता क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मूल प्रकृ ति को पुरुष की आवश्यकता होती है ताकि उसे देखा
जा सके , जाना जा सके और उसका उपयोग किया जा सके , और पुरुष को स्वयं और प्रकृ ति के बीच अंतर
करके अनुभव करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए मूल प्रकृ ति की आवश्यकता होती है। एक देखना चाहता
है और दूसरा देखना चाहता है। इस प्रकार, चेतना इंद्रियों (प्रकृ ति) के माध्यम से बाहरी दुनिया के अनुभव
की ओर बढ़ती है। जीवित प्राणियों के मामले में यह माना जाता है कि स्थूल शरीर के अंदर एक सूक्ष्म
शरीर रहता है। यह सूक्ष्म शरीर, जिसका मन एक हिस्सा है, इंद्रियों द्वारा उसके सामने प्रस्तुत वस्तुओं के
संबंध में गिरावट और विचारों के साथ-साथ आकार और चरित्र ग्रहण करता है। वस्तुओं और अनुभवों का
यह आकार और चरित्र, सूक्ष्म शरीर पर संस्कार के रूप में अंकित रहता है, जिसे यदि योग साधना से नहीं
मिटाया जाता है, तो स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद, सूक्ष्म शरीर के साथ अगले जन्मों में ले जाया जाता है।

प्रकृ ति के विकास का क्रम

मूल प्रकृ ति के विकास का पहला उत्पाद, जब सत्त्व रजस और तमस की तुलना में प्रमुख है, "महत्" या
बुद्धि (बुद्धि) है, जो व्यक्तिगत प्राणियों में मौजूद सहज जागरूकता की स्थिति है। यह वह बीज है जिससे
वस्तुओं का विशाल संसार उभरेगा, आगे विकसित होगा। बुद्धि का विशेष कार्य निर्णय लेना एवं स्मरणशक्ति
है। चूँकि यह पुरुष के सबसे निकट है, यह पुरुष (स्वयं) की चेतना को इस तरह से प्रतिबिंबित करता है कि
वह स्वयं स्पष्ट रूप से सचेत और बुद्धिमान हो जाता है। यह सभी व्यक्तिगत प्राणियों में सभी बौद्धिक
प्रक्रियाओं का आधार है।

जबकि इंद्रियाँ और मन बुद्धि के लिए कार्य करते हैं, बाद वाला के वल आत्मा के लिए कार्य करता
है। अहंकार या अहंकार प्रकृ ति का दूसरा उत्पाद है जो महत से विकसित होता है जब रजस अन्य दो गुणों
पर हावी हो जाता है। अहंकार अहंकार है, या "मैं" और मेरा का भाव है। महत का सार्वभौमिक अस्तित्व अब
तक व्यक्तिगत प्रवृत्तियों तक सीमित होना शुरू हो गया है, जो सार्वभौमिक स्व को अलग-अलग संस्थाओं
में विभाजित करता है। अहंकार की भावना गलत तरीके से ब्रह्मांड की वस्तुओं के स्वामित्व की भावना को
प्रेरित करती है, यह भूमि की शांति मेरी है और वह तुम्हारी है।

रजस की प्रधानता से अहंकार स्वयं को पांच कर्मेन्द्रियों (कर्मेन्द्रियों) में विकसित करता है, अर्थात् वाणी,
पकड़ना, चलना, निष्कासन और प्रजनन। सत्त्व की प्रधानता से अहंकार पांच ज्ञानेंद्रियों (धारणा के अंग) में
विकसित होता है, जैसे देखना, सूंघना, चखना, सुनना और छू ना। तमस की प्रधानता से यह पांच तन्मात्रों में
विकसित हो जाता है, शब्द (ध्वनि), स्पर्श (स्पर्श), रूप (रंग, आकार), रस (स्वाद), गंध (गंध)। तमस की
और अधिक प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के साथ पांच स्थूल तत्व, महाभूत - पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश,
संबंधित तन्मात्राओं से संघनित हो जाते हैं।

जननेद्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों की कार्यप्रणाली मनस या मन द्वारा उनकी वस्तुओं से संबंधित कें द्रीय रूप
से समन्वित होती है। मानस स्वयं कई भागों से बनी एक अत्यंत सूक्ष्म इंद्रिय है जो एक ही समय में कई
इंद्रियों के संपर्क में आ सकती है। प्रकृ ति के स्थूल भौतिक तत्वों तक विकास के पूरे पाठ्यक्रम को दो चरणों
में विभाजित किया गया है: मानसिक या "बुद्धिसर्ग" जिसमें मूल प्रकृ ति का बुद्धि, अहंकार, मानस और 10
बाहरी अंगों में विकास शामिल है। दूसरा चरण भौतिक या "तन्मात्रासर्ग" है जिसमें 5 तन्मात्राओं का विकास
होता है जो इंद्रियों के दायरे से बाहर हैं और अविसेसा या गैर-विशिष्ट कहलाते हैं।

तन्मात्राओं के उत्पाद होने के कारण महाभूतों में सुख या दुख की विशिष्ट विशेषताएं होती हैं, और उन्हें
विशेष या विशिष्ट कहा जाता है। व्यक्तिगत पुरुष (शुद्ध चेतना) के गुणों या अवगुणों के आधार पर वह या
तो प्रकृ ति द्वारा निर्मित वस्तुओं की दुनिया को भोगता है या उसका आनंद लेता है। लेकिन प्रकृ ति के
विकास का अंतिम लक्ष्य व्यक्तिगत पुरुष को अनुभव प्रदान करना है जिसके बाद वह खुद को भौतिक
दुनिया की पकड़ से मुक्त कर लेता है। किसी को अपने सच्चे स्व (पुरुष) का एहसास करने और भौतिक
संसार या प्रकृ ति के बंधनों से मुक्त होने के लिए आवश्यक नैतिकता में खुद को प्रशिक्षित करने की
आवश्यकता है।

पुरुष और प्रकृ ति के बीच अंतर:

पुरुष

 गुणों से बना नहीं है


 जागरूक, बुद्धिमान
 भेदभाव
 निष्क्रिय
 ज्ञान का विषय
 एक शरीर में एक स्व
 अनुत्पादक, कोई संशोधन नहीं
 गैर बदलते
प्रकृ ति

 3 गुणों से बना है
 अचेतन, अबुद्धिमान
 गैर भेदभाव
 सक्रिय
 ज्ञान की वस्तु
 सभी के लिए सामान्य
 उत्पादक, संशोधनों में परिवर्तित
 हर पल बदल रहा है

भगवद गीता, अध्याय 13, श्लोक 19:

प्रकृ तिं पुरुषं च एव विद्धि अनादि उभौ अपि।


विकारं च गुणन च एव विद्धि प्रकृ ति-सम्भवान् ॥ 13-19॥
क्या आप जान सकते हैं कि प्रकृ ति और पुरुष दोनों अनादि हैं। क्या आप यह भी जान सकते हैं कि
परिवर्तन और गुण (वस्तुओं के ) प्रकृ ति से पैदा होते हैं।

 संक्षिप्त: प्रकृ ति और पुरुष हर चीज़ का कारण हैं। V19-23 पर चर्चा की गई।

 परिभाषा:

o पदार्थ: क्षेत्रम् , प्रकृ ति ।

o चेतना सिद्धांत: क्षेत्रज्ञ , जन्यम् , ब्राह्मण , पुरुष ।

 प्रकृ ति :

o सम्पूर्ण सृष्टि की दृष्टि से इसे माया कहा गया है । यह बहुलता ( मिथ्या ) का कारण बनता
है। मतलब सत्-चित् से अनंत द्वंद्व प्रक्षेपित करता है ।

 द्वैत का क्या अर्थ है?

 लाल पीला नहीं है. और पीला लाल नहीं है. पुरुष स्त्री नहीं है, और स्त्री पुरुष
नहीं है।

 प्रत्येक अभिव्यक्ति अपनी वैयक्तिकता (विशिष्ट रूप/उद्देश्य/आकार/आकार/कार्य)


का आनंद लेती है, लेकिन दूसरे की वैयक्तिकता का नहीं। फिर भी सभी एक
ही ब्रह्म के रूपांतर हैं ।

o व्यक्ति के दृष्टिकोण से, यही प्रकृ ति अनादि अज्ञान का कारण बनती है


(क्योंकि प्रकृ ति अनादि है)।

 प्रकृ तिं पुरुषं च एव विद्धि अनादि उभौ अपि : दो सिद्धांत ( प्रकृ तिं / पुरुषम ) जो सब कु छ बनाते
हैं। उनके मिश्रण को ईश्वर कहा जाता है ।

o इसलिए ईश्वर = ब्राह्मण अपनी रचनात्मक शक्ति ( प्रकृ ति / माया ) के माध्यम से प्राप्त
करता है ।

o तो ब्रह्म के लिए माया वैसी ही है जैसे पानी के लिए लहरें। जल में तरंगों की सम्भावना
सदैव विद्यमान रहती है। जब क्षमता प्रकट होती है; हम जो देखते हैं वह " लहरों का संपूर्ण
महासागर " ( ईश्वर ) है।

 पुरुष और प्रकृ ति की सामान्य/असामान्य विशेषताएं :

o 2 सामान्य:

1. दोनों किसी बिंदु पर कभी शुरू नहीं हुए। ऐसा नहीं है, " एक समय की बात है,
कोई माया नहीं थी "।

2. दोनों मिलकर ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं। जैसे पिता/माता > पुत्र।

o 4 असामान्य:

पुरुष : चेतना-तत्त्व. चेतना-तत्त्वम् । प्रकृ ति / माया : पदार्थ (स्थूल एवं सूक्ष्म)। इसमें
(किसी भी प्रकार की) ऊर्जा शामिल है। एसिटान-
तत्त्वम् ।

पुरुष : परिवर्तन के अधीन नहीं। मतलब समय से


प्रकृ ति : काल के अधीन, कारण-प्रभाव... अत:
मुक्त, क्योंकि समय में सिर्फ चीजें बदलती
परिवर्तन। सविकार-तत्त्वम् ।
हैं। निर्विकार-तत्त्वम् ।

प्रकृ ति : 3 गुणों (सीएच 14)के मिश्रण से निर्धारित


पुरुष : गुण रहित। निर्गुण-तत्त्वम् । अनगिनत गुणों से संपन्नमॉडल: 3 गुण , 5 तत्व,
आवर्त सारणी। सगुण-तत्त्वम् ।

पुरुष : स्वतंत्र अस्तित्व। यह अस्तित्व कहीं और से


प्रकृ ति : इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पुरुष से
उधार नहीं लेता। अस्तित्व पुरुष के लिए अंतर्निहित
अस्तित्व-चेतना उधार लेता है। मिथ्या-तत्त्वम् ।
है । सत्यम-तत्त्वम् ।

 प्रकृ ति ही सारी दुनिया है: यदि पुरुष में परिवर्तन नहीं होता है, तो सभी परिवर्तन प्रकृ ति के स्तर पर
होने चाहिए । क्योंकि वे के वल 2 विकल्प हैं. मतलब समय-अंतरिक्ष-ब्रह्मांड (परिवर्तन के
अधीन) प्रकृ ति से विकसित हुआ होगा , जबकि पुरुष हमेशा की तरह बना रहता है... रचनाओं के
आरंभिक चक्र के दौरान।

o ब्रह्माण्ड कै से विकसित होता है?

 पूरे ब्रह्मांड में किसी भी अन्य चीज़ की तरह। जितना नीचे ऊतना ऊपर। मतलब,
प्रभाव सदैव अपने कारण से गुण ग्रहण करता है। उदाहरण: माता-पिता > संतान।

 उदाहरण:

a. बीज (कारण अवस्था) > अंकु र (सूक्ष्म अवस्था) > पौधा/वृक्ष (स्थूल
अवस्था)

b. बच्चे का जन्म: संतान की संभावना (कारण स्थिति) > इरादा/इच्छा


(सूक्ष्म) > निषेचन > भ्रूण > भ्रूण (स्थूल)।

c. गहरी नींद (कारण) > स्वप्न (सूक्ष्म) > जाग्रत (स्थूल)।

d. जीव : स्थूल > सूक्ष्म > कारण शरीर।

 वैदिक मॉडल के अनुसार :

 क्षमता से, 5 सूक्ष्म तत्व ( तन्मात्रा ) उत्पन्न हुए > मिश्रित


( पंचीकरण नामक सूत्र का उपयोग करके ; तत्व बोध में समझाया गया ) 5
स्थूल तत्व बनाए गए।

 फिर 14 लोकों के लिए टेम्पलेट आया :

 संसारों को उनके पिछले चक्र के पुण्य-पाप के आधार पर


अनगिनत जीवों को समायोजित करने के लिए बनाया गया है ।

 फिर आकाशगंगाएँ, सौर मंडल, तारे, ग्रह... पौधे, जीव


 हम कै से दिखाएँ कि आपका स्थूल शरीर प्रकृ ति है ?

o यह परिवर्तन के अधीन है. ब्रह्मांड में हर जगह पाए जाने वाले तत्वों (कार्बन) से बना है।

 हम कै से दिखाएँ कि आपका सूक्ष्म मन प्रकृ ति है ?

o स्थूल शरीर के भीतर हार्मोनल/रसायन गतिविधि के आधार पर मन की मनोदशा में उतार-


चढ़ाव होता है। इस प्रकार सूक्ष्म-पदार्थ स्थूल-पदार्थ के समान वास्तविकता के क्रम में है।

o इसके अलावा, क्योंकि मन सूक्ष्म पदार्थ है, यह चेतना को प्रतिबिंबित करने में सक्षम है, " मैं
संवेदनशील हूं, जीवित हूं " का एहसास कराता है।

 अगला श्लोक: प्रकृ ति से उत्पन्न परिवर्तन/गुण क्या हैं ?

भगवद गीता, अध्याय 13, श्लोक 20:

कार्य-कारण-कर्तत्वे हेतुः प्रकृ तिः उच्यते।


पुरुषः सुख-दुःखनाम भोक्तत्वे हेतुः उच्यते ॥ 13-20॥
प्रकृ ति को स्थूल और सूक्ष्म शरीरों की रचना का कारण कहा जाता है। सुख और दुःख के अनुभव में पुरुष
को कारण कहा गया है।

 सारांश: अस्तित्व में सब कु छ प्रकृ ति से पैदा हुआ है ।

o पद्य प्रसंग में:

 कार्यम् : भौतिक शरीर।

 करणम् : सूक्ष्म शरीर (प्रकटीकरण, आंतरिक रहस्योद्घाटन, दिव्य संदेश, मृत पूर्वजों
के संदेश, मृत्यु के बाद के मार्गदर्शक, अंतर्ज्ञान, शांति-प्रेम की भावनाएं या हर चीज
के साथ एकता)।

o पद्य से आगे विस्तार:

 सभी गतिविधि ( ईश्वर की एक साथ-बुद्धि सहित) प्रकृ ति की है ।

 पहाड़, जंगल, चट्टानें, तारे... बोधगम्य ब्रह्मांड में सब कु छ प्रकृ ति है ।

 जो कु छ भी समय के साथ अनुभव होता है और बदलता है वह प्रकृ ति है ।

 जबकि, पुरुषः सुख-दुःखनाम भोक्तृत्वे हेतुः उच्यते : पुरुष ही वह कारण है जिसके कारण भौतिक
और सूक्ष्म शरीर द्वारा निर्मित सुख/दुख का अनुभव होता है।

o वेदांत में कानून : अनुभवी गुण के वल अनुभवी गुणों से संबंधित हो सकते हैं। अनुभवी कभी
भी अनुभवकर्ता (विषय, I) का नहीं हो सकता। अनुभवकर्ता सदैव अनुभवी से मुक्त रहता है।

 यदि अनुभवी से मुक्त नहीं होता, तो हर जगह (नींद में भी) संपत्ति अटकी होती।

 उदाहरण: आंखें अपने अलावा सब कु छ देख सकती हैं। यहां तक कि दर्पण


में परावर्तित आंख भी मूल आंख के लिए ज्ञान की वस्तु है । इसलिए आँख कभी भी
स्वयं को वस्तुनिष्ठ नहीं बना सकती।
 आपत्ति: यदि आँखें दिखाई नहीं देतीं तो हमारे पास आँखों का क्या प्रमाण है? प्रत्येक
वस्तु का दिखना आँख के अस्तित्व को सिद्ध करता है। हर तस्वीर को देखना, कै मरे
के अस्तित्व को साबित करता है।

 इस प्रकार, प्रत्येक परिवर्तनशील-बोध अपरिवर्तनीय-अनुभवकर्ता के अस्तित्व


को मानता है।

 अस्तित्व-जागरूकता के प्रमाण की बहुत खोज, एक अस्तित्व-जागरूक विषय


की परिकल्पना करती है।

 तो पूछ रहे हैं, " पुरुष कहाँ है ?" दसवें आदमी की कहानी के रूप में
मूर्खतापूर्ण है।

 सारांश: पुरुष और प्रकृ ति के बीच कोई वास्तविक संबंध नहीं है । लेकिन अविद्या के
साथ जीव यह निष्कर्ष निकालता है, " इस शरीर-मन के साथ जो हो रहा है वह मेरे साथ हो रहा
है ", इसलिए अस्तित्व का उद्देश्य "बनना" है।

 अगला श्लोक: (1) संसार क्या है ? (2) असंबंधित-स्वतंत्र पुरुष , संसारी (जो जीवन की अंतिम
वास्तविकता के रूप में सुख/दुख को लेता है) कै से बन जाता है?

भगवद गीता, अध्याय 13, श्लोक 21:

पुरुषः प्रकृ तिस्थः हि भुङ्कते प्रकृ तिजां गुणन।


कारणं गुण-संगः अस्य सत् असत् योनि-जन्मसु ॥ 13-21॥
क्योंकि पुरुष (भोगकर्ता, जीव) प्रकृ ति में प्राप्त करता है, (वह) प्रकृ ति से पैदा हुए गुणों का आनंद लेता
है। गुणों के प्रति उसकी आसक्ति ही उच्च तथा निम्न योनियों में जन्म का कारण है।

 श्लोक को समझाने के लिए, आइए देखें ब्रह्मांड की कहानी:

a. ब्रह्मांड के प्रकट होने से पहले, पुरुष विषय नहीं था। और प्रकृ ति वस्तु नहीं थी । विषय-वस्तु
में कोई भेद नहीं था।

b. जैसा कि " उन्होंने चाहा ", अव्यक्त प्रकृ ति ब्रह्मांड के रूप में प्रकट हुई (ताकि जीव अपनी
अनादि इच्छाओं को समाप्त कर सकें और अप्राप्त पुण्य/पापम प्राप्त कर सकें )।

c. जैसे ही ब्रह्मांड प्रकट हुआ, असीमित पुरुष व्याप्त हो गया और असंख्य शरीर-मनों में घिर
गया।

d. उस क्षण से, पुरुष विषय बन गया... वस्तु को जागरूक करना- प्रकृ ति (शरीर-मन)।

e. दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध के कारण जीव ने कभी भी विषय-वस्तु भेद की जांच नहीं की ।

 चश्मा पहनने की तरह, हम चश्मे को छोड़कर कमरे में सब कु छ चुनते हैं, क्योंकि वे
मेरे (शरीर-मन) के बहुत करीब होते हैं।

 इस कारण से, पुरुष ( जीव ) ने प्रकृ ति को अंतिम वास्तविकता मान लिया,


इसलिए प्रकृ ति से जुड़ गया और पुनर्जन्म लिया ।
 पुरुषः प्रकृ तिस्थः हि भुन्क्ते प्रकृ तिजन गुणन : आपकी उपस्थिति में, पुरुष – शरीर-मन प्रकाशित
होता है।

o पुरुष प्रकाशमान नहीं करता है । जैसे आग जलाने का काम नहीं करती. न ही सूरज चमक
रहा है. अग्नि की उपस्थिति मात्र से ही उसकी उपस्थिति में कोई भी वस्तु जल जाती
है। यदि जलना अग्नि द्वारा की जाने वाली क्रिया है तो इसका प्रारंभ/अंत अग्नि के रहते ही
होता है। बल्कि अग्नि और दाह एक साथ आते हैं।

 इस प्रकार, जो भी वस्तु पुरुष द्वारा व्याप्त है , उसे आत्म-जागरूक बना दिया जाता
है (यह मानते हुए कि इसमें सूक्ष्म शरीर है)।

 पुरुष क्या अनुभव करता है? राग, द्वेष, काम । प्रकृ ति विभिन्न गुणों से बनी है ।

o अज्ञानता के कारण, पुरुष अनजाने में तीन गुणों को "मेरा" मान लेता है। उदाहरण: फिल्म में
नायक के गुण दर्शक को हस्तांतरित हो जाते हैं।

o इसलिए मिथ्या सत्यम में स्थानांतरित हो गया ।

 इस कारण से, अस्य सत् असत् योनि-जन्मसु : जीव पुण्य/पाप मिश्रण और


इसकी संस्कार संरचना के आधार पर उच्च, निम्न जन्म लेता है ।

 हम जीवों को दिए गए विभिन्न गुणों/विशेषाधिकारों/स्वरूपों का हिसाब कै से लगाते हैं ?

o व्यक्ति:

1. संसार गुणों से बना है ।

2. अलग-अलग जीव अलग-अलग गुण चाहते हैं । मांग आपूर्ति। उदाहरण:

 मधुमक्खी- जीव द्वारा वांछित अमृत- गुण । इसलिए स्नैप ड्रैगन फू ल मौजूद
है।

 CO2- पौधों द्वारा गुण की इच्छा । इसलिए पौधे इसे अवशोषित करने के
लिए अपनी सतह पर रंध्र विकसित करते हैं।

 जीव द्वारा वांछित आश्रय- गुण । इसलिए मकान बनाये जाते हैं।

 जीव द्वारा वांछित प्रभावी संचार । इसलिए टेलीफोन- गुणा के बारे में सोचा।

 जीव द्वारा वांछित बोरियत का समाधान । इसलिए मनोरंजन- गुण विभिन्न


खेलों/गतिविधियों के रूप में विकसित हुआ (विभिन्न गुण -व्यक्तित्वों को
संतुष्ट करने के लिए)।

3. जीव गुणों में आसक्त हो जाता है।

4. जीव पसंदीदा गुणों का आनंद लेने के लिए कार्य करता है।

5. प्रत्येक कार्य धर्म / अधर्म का मिश्रण है ।

6. धर्म पुण्य उत्पन्न करता है । अधर्म पाप उत्पन्न करता है ।


7. पुण्यम / पापम दोनों जीव को उन पर ध्यान देने के लिए बाध्य करते हैं , इस प्रकार
उनके साथ अतिरिक्त कार्रवाई करते हैं।

8. मृत्यु के बाद, जीव ने कई अनुभवहीन गुण/अवगुण ( अगामी कर्म ) अर्जित


किए। अगामी संचिता (सभी जन्मों के गुण/अवगुण) में फै ल जाती है ।

9. अंत में, संसिटा एक नए जीवनकाल के लिए अपना एक हिस्सा सौंप देती है। भाग को
प्रारब्ध कहा जाता है , जो जीव के स्वभाव/शरीर के प्रकार/आदि में अंतर निर्धारित
करता है (माता-पिता के जीन से आगे प्रभावित होता है)।

o मौलिक:

 वास्तव में, जीव कर्ता/भोक्ता ( भोकतृत्व / कर्तव्य ) है। पुरुष स्वयं को जीव के साथ
पहचानता है , ऐसा प्रतीत होता है कि वह कर्ता/भोक्ता बन जाता है।

 सालसारा प्रक्रिया का सारांश :

a. जीव ने अतीत में ऐसे कार्य किये हैं जिनसे पुण्य/पाप उत्पन्न हुआ ।

b. पुरुष जीव से जुड़ा है ( अविद्या के कारण )।

c. परिणामस्वरूप, पुरुष कर्ता/भोक्ता बन जाता है (जब वास्तव में जीव ही कर्ता/भोक्ता होता है)।

d. संसार : करना और उसके परिणामों से निपटना।

 अगला श्लोक: पुरुष ( उपद्रष्टा ) का वर्णन ।

भगवद गीता, अध्याय 13, श्लोक 22:

उपद्रष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।


परमात्मा इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन् पुरुषः परः ॥ 13-22॥
इस शरीर में परम द्रष्टा (निकटतम गवाह), अनुमति देने वाला, पालनकर्ता, अनुभवकर्ता (आनंद लेने वाला),
असीमित भगवान (निर्माता), और जिसे "असीम स्व" भी कहा जाता है, वह पुरुष है - वह व्यक्ति जो
असीमित है।

 उपद्रष्टा : निकटतम साक्षी (अंतिम द्रष्टा), निकटतम से भी निकटतम जिसका कोई निकट नहीं
है। सर्वव्यापी चेतना.

o कार्यप्रणाली सादृश्य 1:

 चरण 1: कमरे के भीतर जगह है, जिसके कारण कमरे की वस्तुओं को समायोजित
किया जाता है।

 चरण 2: स्थान के वल कमरे के भीतर नहीं है। बाहर भी.

 चरण 3: अंतरिक्ष न तो अंदर है और न ही बाहर। लेकिन अंतरिक्ष के भीतर कमरा


मौजूद है। इसलिए कोई भी चीज़ जगह का मालिक या घेरा नहीं रखती। इसलिये
अन्तरिक्ष निर्गुण है।
o कार्यप्रणाली सादृश्य 2:

 चरण 1: मैं हाथ दिखाता हूँ। आप कहते हैं, " हाथ "।

 चरण 2: मुझे बताना होगा, " वहाँ प्रकाश भी है जिसके कारण हाथ का आभास होता
है "।

o निष्कर्ष: द्रष्टा/देखा, पुरुष/प्रकृ ति पद्धति के माध्यम से प्रकट हुई।

 अनुमन्ता : अनुमति देने वाला.

o आत्मा किसी भी गतिविधि का विरोध नहीं करती, क्योंकि इसके प्रकाश में, प्रत्येक गतिविधि
को उसकी महिमा मिलती है। उदाहरण:

 सूर्य के प्रकाश में सेवा कार्य और आपराधिक कार्य दोनों ही प्रकाश में आते हैं।

 बिजली की उपस्थिति में पंखा घूम सकता है और ओवन गर्म हो सकता है। बिजली
कताई/गर्मी नहीं कर रही है, लेकिन वस्तु की प्रकृ ति है।

 भर्ता : समर्थक/पालनकर्ता... क्योंकि पुरुष प्रकृ ति को अस्तित्व प्रदान करता है।

 भोक्ता : भोक्ता (अनुभवकर्ता)।

o अहं कारा अनुभवकर्ता है, जबकि पुरुष अहं कारा को चेतना का आशीर्वाद देता है । संगति के
कारण, पुरुष , मानो, अनुभवकर्ता बन जाता है।

o यह कहने का अभ्यास करें: " मैं इस अनुभव का प्रकाशक हूं" । इसके बजाय " मैं असंतुष्ट
हूँ!" ”।

 महेश्वरः : जब अज्ञानी पुरुष और प्रकृ ति को पहचानना सीखता है- तो अज्ञानी परमात्मा / ईश्वर का
दर्जा प्राप्त कर लेता है। IE: " ब्रह्म का ज्ञाता , ब्रह्म बन जाता है " ।

 अगला श्लोक: पुरुष/प्रकृ ति के अंतर को स्पष्ट रूप से समझने का परिणाम ।

भगवद गीता, अध्याय 13, श्लोक 23:

यः एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृ तिं च गुणैः सहः।


सर्वथा वर्तमान: अपि न सः भूयः अभिजायते ॥ 13-23॥
जो पुरुष और प्रकृ ति को उनके गुणों सहित इस विषय में जानता है, वह सभी प्रकार से संलग्न होकर भी
दोबारा जन्म नहीं लेता।

 पुरुष/प्रकृ ति का भेद निस्संदेह होने के बाद, कोई भी किसी भी प्रकार का जीवन जी सकता है क्योंकि
जिम्मेदारी का बोझ "कु छ-कु छ होने" से दूर हो जाता है।

o जैसे: लोगों को खुश करने वाला, बचाने वाला, पीड़ित, नायक, बुद्धिमान व्यक्ति, ध्यान
खींचने वाला ।

 न सः भूयः अभिजायते : वह दूसरा जन्म नहीं लेता है ।


o जन्म क्या है ? जब जीव मर जाता है, तो मन भौतिक शरीर से अलग हो जाता है। मन को
दूसरा शरीर/माता-पिता/वातावरण सौंपा गया है। जिस क्षण मन स्थूल पदार्थ के साथ जुड़
जाता है, उसे जन्म कहते हैं ।

 ज्ञानी का पुनर्जन्म क्यों नहीं होता, इसके 5 तर्क :

1. जीव का स्वरूप पुरुष है जो समय के भीतर नहीं है। अत: दोबारा काल में जन्म नहीं हो
सकता।

2. पुरुष असीम है, और हर चीज़ में प्राप्त करता है, इसलिए व्यक्तिगत रूप नहीं ले
सकता। ऐसा कोई स्थान नहीं जहां पुरुष ( ब्राह्मण ) का जन्म हो सके ।

3. कर्म/कर्मों का फल के वल इस धारणा वाले व्यक्ति के लिए है, " मैं अपने पिछले कर्मों का
कर्ता और भोक्ता हूं, जिसका फल प्राप्त करने के लिए मुझे पुनर्जन्म लेने की आवश्यकता
है। "

4. एक बार जब व्यक्ति सपने से जाग जाता है, तो उसे एहसास होता है कि " अजनी -सपने
देखने वाले द्वारा किए गए किसी भी कार्य के लिए मैं कभी भी जवाबदेह नहीं था "।

5. ज्ञानी के लिए उसका शरीर तीर के समान है। तीर का प्रक्षेप पथ जारी है, लेकिन ज्ञानी की
उस शरीर से कोई पहचान नहीं है जिसे पुण्य/पापा का प्रहार प्राप्त होगा ।

 ज्ञानी के लिए , अनुभवजन्य वास्तविकता को समान माना जाता है, क्योंकि आत्म-ज्ञान के वल
पहचान-त्रुटि को नष्ट कर सकता है, लेकिन अनुभवजन्य वास्तविकता को कभी नहीं।

o उदाहरण: मृगतृष्णा का ज्ञान मृगतृष्णा को नष्ट नहीं करेगा, क्योंकि मृगतृष्णा ईश्वर
के आदेश से संबंधित है।

o जहाँ तक संसार की बात है, इसे मिथ्या (आश्रित वास्तविकता) के रूप में जाना जाता है।

 अगला श्लोक: पुरुष/प्रकृ ति का निष्कर्ष निकालने के बाद , कृ ष्ण ने सभी 6 विषयों पर सामान्य चर्चा
की, श्लोक 24-34।

—पुरुष और प्रकृ ति का विषय समाप्त हो गया है—

भगवद गीता, अध्याय 13, श्लोक 24:

ध्यानेन आत्मानि पश्यन्ति के चित् आत्मानं आत्माना।


अन्ये सांख्येन योगेन कर्म-योगेन च अपरे ॥ 13-24॥
कु छ लोग चिंतन के माध्यम से (तैयार) मन से आत्मा को मन में देखते हैं। कु छ अन्य (देखें) पूछताछ
(ज्ञान-योग) के माध्यम से। कु छ अन्य कर्म-योग के माध्यम से.

 कृ ष्ण इस बात पर जोर देते हैं कि आध्यात्मिक साधना की परिणति आत्म-ज्ञान का आगमन है,
जिसके चिंतन से अज्ञानता दूर होती है।
 और प्रत्येक व्यक्ति चरम तक पहुंचने के लिए बाधाओं को दूर करने के लिए 5 चरणों से गुजरता
है।

 चरण 1: कर्म-योग :

o इसमें शामिल है: पहले से ही किए जा रहे कार्यों को करना, लेकिन:

 ध्यान में रखते हुए, वे भगवान के अलावा किसी और के लिए नहीं किए गए हैं । यह
आपके कार्यों की गुणवत्ता को कच्चे/यांत्रिक से सुंदर में बदल देता है।

 जैसे: खाना खाना, काम करना।

 आपके कार्यों से जो भी सुखद/अप्रिय परिणाम आते हैं, वे आपके कारण नहीं,


बल्कि ईश्वर के भव्य आदेश के कारण आते हैं। इस रवैये के कारण...

a. चीजें कृ तज्ञता के स्तर से प्राप्त होती हैं,

b. एक शॉक-अवशोषक प्रदान करता है,

c. आपकी अपेक्षाओं को बेअसर करता है, जो व्यक्तित्व को मजबूत करता है।

o कर्म-योग मोक्ष के लिए कोई अलग मार्ग नहीं है । कर्म-योगी मन-शुद्धि के साधन के रूप में,
दुनिया में दैनिक गतिविधि/बातचीत का उपयोग करता है।

यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे - शरीर, ब्रह्मांड; ब्रह्माण्ड, शरीर

यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे - शरीर, ब्रह्मांड; ब्रह्माण्ड, शरीर

अनुसंधान का दृष्टिकोण: सूक्ष्म जगत के भीतर स्थूल जगत

आप ब्रह्माण्ड के भीतर एक ब्रह्माण्ड हैं।

आप प्रकृ ति का हिस्सा हैं.

स्वयं को संतुलित करने के लिए प्रकृ ति के अपने गुणों का उपयोग करें।

यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे प्राचीन दार्शनिक और योग ग्रंथों, पुराणों से एक प्राचीन संस्कृ त श्लोक या श्लोक
है। ऐसा माना जाता है कि यह कम से कम 8,000 वर्ष पुराना है।

यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे के अनुवाद की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है "जो कु छ भी आपके बाहर है
वह आपके भीतर है," या "आपका शरीर एक लघु ब्रह्मांड है।" पिंडदान का अर्थ है " सूक्ष्म जगत" और
ब्रह्माण्ड का अर्थ है " स्थूल जगत "; इस प्रकार, अधिक शाब्दिक अनुवाद होगा "जो कु छ सूक्ष्म जगत में
है वह स्थूल जगत में भी है।" योगियों के लिए, इसका मतलब यह है कि उनका छोटा सा अस्तित्व एक
बड़ी सार्वभौमिक चेतना का हिस्सा है।

यत पिंडे तत् ब्रह्माण्डे के शब्दों को भौतिक स्तर पर लिया जा सकता है क्योंकि वे योगी को याद दिलाते
हैं कि उनका भौतिक शरीर उसी पदार्थ से बना है जिससे उनके आसपास की दुनिया बनी है। इसका
आध्यात्मिक अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि उनकी चेतना, या आंतरिक जीवन, उनके बाहर से
अप्रभेद्य है।

योगियों का मानना है कि यह माला या अशुद्धता है, जो व्यक्तिगत स्व और सार्वभौमिक स्व के साथ
एकता की सच्चाई के बीच दीवारें बनाती है। योगाभ्यास और आध्यात्मिक पथ पर प्रगति के माध्यम से इन
दीवारों को हटाया जा सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे का अर्थ यह है कि सभी पृथक्करण एक निर्माण
और एक भ्रम है। योगाभ्यास के माध्यम से, योगी अलगाव के भ्रम को तोड़ने और यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे
के सत्य का अनुभव करते हु ए आत्म-साक्षात्कारी बनने का प्रयास करते हैं।

जप अभ्यास में यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे का मंत्र के रूप में बार-बार जाप किया जा सकता है। कु छ लोग
कहते हैं कि यह चक्रों को भेदने में मदद कर सकता है, जिससे त्वरित आध्यात्मिक विकास हो सकता है।

प्रत्येक व्यक्ति के कें द्र में निहित है

परमात्मा की छिपी हु ई चिंगारी

अन्वेषण और अभिव्यक्त होने की प्रतीक्षा में।

वेदों में लिखा है, मुझे बताया गया है कि यदि आप सबसे बड़े को जानना चाहते हैं, तो सबसे छोटे को
जानना पर्याप्त होगा। श्री श्री रविशंकर से एक बार एक भक्त ने पूछा - "दुनिया में रहने के लिए सबसे
अच्छी जगह कौन सी है?" , और उसने उत्तर दिया - "यहाँ। आप अभी जहाँ हैं वह सबसे अच्छी जगह है
जहाँ आप उसी क्षण हो सकते हैं"। सबसे बड़ी, सबसे छोटी, सबसे खूबसूरत जगह, होटल, स्विमिंग पूल,
भोजन, पैसा, को जानने का कोई मतलब नहीं है, अगर हम खुद को खोजने की राह पर नहीं हैं। अंत में
यह सब सिर्फ एक ही बात पर आता है , हमारे, स्वयं के स्रोत को
खोजने की लालसा। हम वहीं से आए हैं, वहीं हर कोई, सब कु छ,
ज्ञात और अज्ञात, आया है। जानने से ज्यादा 'जीना' एक रहस्य है।

ब्रह्मांड हमारे भीतर है,

हम सितारा सामग्री से बने हैं।

हम ब्रह्मांड को स्वयं को जानने का एक तरीका हैं।

ऋषियों ने ब्रह्मांड को पांच मौलिक तत्वों या पंचमहाभूतों के रूप में समझा - अग्नि (अग्नि), वायु (वायु),
पृथ्वी (पृथ्वी), जल (जल) और आकाश (ईथर या अंतरिक्ष)। ब्रह्मांड में सब कु छ इन पांच तत्वों से बना
है। आकाश में वे सूर्य, चंद्रमा और वायु के रूप में दिखाई देते हैं। अग्नि ऊर्जा का स्रोत है और सूर्य के
समान है। जल और पृथ्वी मिलकर हमें चंद्रमा देते हैं, जो ब्रह्मांड को ठंडा और संरक्षित करता है। और
अंत में वायु, वायु और अंतरिक्ष का संयोजन, ब्रह्मांड के प्रणोदन और गतिशीलता के लिए जिम्मेदार है।

हम सभी सह-अस्तित्व वाली ऊर्जा मात्र हैं


एक छोटे से परमाणु के संबंध में पांच तत्वों के सिद्धांत को बेहतर ढंग से समझाया जा सकता है। अग्नि,
एक परमाणु में ऊर्जा का स्रोत, उसके इलेक्ट्रॉनों द्वारा आवश्यक या उत्पन्न ऊर्जा के बराबर होती है। वायु
की गतिशीलता इलेक्ट्रॉनों की गतिशीलता से प्रदर्शित होती है। किसी परमाणु में अंतर या अंतर कक्षीय
स्थान अंतरिक्ष का प्रतिनिधित्व करता है। नाभिक पृथ्वी के भारीपन को दर्शाता है जबकि परमाणु संरचना
का सामंजस्य पानी के गुणों को प्रदर्शित करता है।

मैं ब्रह्मांड की रचनात्मक शक्ति से एक हूं

आयुर्वेद हमें इस जटिल संरचनात्मक इंटरफ़े स को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझाता है। सूत्र के अनुसार, " यत्
पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे " : जिसे हम ब्रह्माण्ड कहते हैं वह हमारा शरीर है अथवा जिसे पिण्ड कहते हैं वह
ब्रह्माण्ड है। यह मौलिक सामंजस्य, जो पांच इंद्रियों में से प्रत्येक का विषय भी है, को बेहतर ढंग से
समझा जा सकता है अगर हम इसे सेलुलर संरचना के स्तर से देखें।

एक साधारण एकल जीवित कोशिका के भीतर पृथ्वी तत्व कोशिका को एक संरचना देकर प्रबल होता
है। जल तत्व कोशिका द्रव्य या कोशिका झिल्ली के भीतर तरल पदार्थ में मौजूद होता है। अग्नि कोशिका
में चयापचय प्रक्रियाओं को नियंत्रित करती है। वायु तत्व में गैसों की प्रधानता होती है और कोशिका द्वारा
कब्जा किया गया स्थान अंतिम तत्वों को दर्शाता है।

मनुष्य के रूप में एक समग्र और बहु कोशिकीय जीव के मामले में, पृथ्वी स्वयं को शरीर की ठोस
संरचनाओं जैसे मांस, हड्डियों, उपास्थि, दांत, बाल आदि में प्रकट करती है। वायु सभी शारीरिक
गतिविधियों के लिए जिम्मेदार है और अग्नि शरीर को दर्शाती है। एंजाइमों की कार्यप्रणाली और चयापचय
प्रक्रिया। प्लाज्मा, लार, श्लेष्मा और अन्य सभी तरल पदार्थ पानी से मेल खाते हैं और स्थान शरीर के
चैनलों और गुहाओं द्वारा दर्शाया जाता है।

आयुर्वेद का मानना है कि पादप साम्राज्य भी इन पांच तत्वों की उपस्थिति प्रदर्शित करता है। यही वह
समानता है जो हम जड़ी-बूटियों के साथ साझा करते हैं और यही पारस्परिकता प्रकृ ति के साथ हमारे
आदान-प्रदान का आधार बनती है। प्राथमिक पादप मेटाबोलाइट्स और द्वितीयक मेटाबोलाइट्स की
आधुनिक अवधारणा पूरी तरह से आयुर्वेदिक दृष्टिकोण का समर्थन करती है।

सर्वव्यापी, ये तत्व अनंत प्रकार के अनुपात में मिश्रित होते हैं कि पदार्थ का प्रत्येक रूप विशिष्ट रूप से
अद्वितीय होता है। लगातार बदलते और एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हु ए, वे एक गतिशील प्रवाह की
स्थिति बनाते हैं जो दुनिया को चालू रखती है।

आप ब्रह्मांड हैं,

एक इंसान के रूप में खुद को अभिव्यक्त करना

थोड़ी देर के लिए।

आरंभ में शब्द था... आध्यात्मिक दृष्टिकोण

1890 में, काकरीघाट में पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान में लीन रहते हु ए सूक्ष्म जगत के भीतर स्थूल जगत
के अनुभव के बाद, स्वामी विवेकानन्द ने अपनी नोटबुक में अपनी अनुभूति के कु छ अंश बांग्ला में लिखे।
सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत एक ही योजना पर बने हैं। जिस प्रकार व्यक्तिगत आत्मा जीवित शरीर में
व्याप्त है, उसी प्रकार सार्वभौमिक आत्मा जीवित प्रकृ ति [प्रकृ ति] - उद्देश्य ब्रह्मांड में है। एक [आत्मा] को
दूसरे [प्रकृ ति] द्वारा ढंकना एक विचार और उसे व्यक्त करने वाले शब्द के बीच के संबंध के अनुरूप है: वे
एक ही हैं; और के वल मानसिक अमूर्तता से ही कोई उन्हें अलग कर सकता है। शब्दों के बिना विचार
असंभव है। अत: आदि में शब्द आदि था।

मानव ऊर्जा - वैज्ञानिक दृष्टिकोण

एक रूसी वैज्ञानिक मानव ऊर्जा क्षेत्र का अध्ययन कर रहा है और दावा कर रहा है कि लोग के वल अपनी
ऊर्जा का उपयोग करके दुनिया को बदल सकते हैं। हालाँकि यह विचार नया नहीं है, बहु त से लोगों ने ऐसे
विचारों को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करने में समय नहीं लगाया है - हालाँकि क्वांटम भौतिकी के क्षेत्र ने
पिछले कु छ वर्षों में इस विषय पर कु छ शक्तिशाली प्रकाश डाला है। सेंट पीटर्सबर्ग स्टेट टेक्निकल
यूनिवर्सिटी में भौतिकी के प्रोफे सर डॉ. कॉन्स्टेंटिन कोरोटकोव कहते हैं कि जब हम सकारात्मक और
नकारात्मक विचार सोचते हैं, तो प्रत्येक का हमारे आसपास के वातावरण पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

डॉ. कॉन्स्टेंटिन कोरोटकोव ने कहा, "हम यह विचार विकसित कर रहे हैं कि हमारी चेतना भौतिक दुनिया
का हिस्सा है और अपनी चेतना से हम सीधे अपनी दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं।"

हमारी भौतिक और अदृश्य दुनिया के बीच एक पुल बनाने में मदद करने के लिए, बायोइलेक्ट्रोफोटोग्राफ़ी
नामक तकनीक का उपयोग करके वैज्ञानिक प्रयोग किए जा रहे हैं।

मानव ऊर्जा क्षेत्र और आभा

आभा सुरक्षात्मक मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा क्षेत्रों के लिए एक पारंपरिक शब्द है जो भौतिक शरीर
को घेरती है और उसमें प्रवेश करती है। जीवित चीजों की ऊर्जा के बारे में बहु त कु छ लिखा गया है, लेकिन
इसका वैज्ञानिक प्रमाण बहु त कम है। वर्तमान वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करके जीवित चीजों के
आसपास के ऊर्जा क्षेत्र को मापना कठिन या असंभव है। हालाँकि, विज्ञान और आध्यात्मिकता एक
अभिसरण पथ पर हैं। अंततः, हमारे पास ऐसे उपकरण होंगे जो किसी व्यक्ति के संतुलन की स्थिति को
दर्शा सकते हैं। जब हम विज्ञान से मुंह मोड़ते हैं, तो हमें ऊर्जा की सार्वभौमिक विशेषताओं पर विचार करना
चाहिए। क्वांटम भौतिकी बताती है कि ऊर्जा और पदार्थ विनिमेय हैं और स्ट्रिंग सिद्धांत बताता है कि
भौतिक पदार्थ में अंतर के वल ऊर्जा कं पन में भिन्नता है। इसी तरह, प्रत्येक मनुष्य शरीर, विचार और
आत्मा के रूप में आत्मा की दिव्य ऊर्जा से बना है। ऊर्जा किसी व्यक्ति से उत्पन्न या प्रतिबिंबित नहीं
होती है, ऊर्जा व्यक्ति है, मूल है। यह समझ आपके ऊर्जा क्षेत्र और शरीर को सामंजस्य में बनाए रखने के
लिए मौलिक है। चूँकि शरीर मानव ऊर्जा की अभिव्यक्ति है, ऊर्जा क्षेत्र में असंतुलन शरीर में बीमारी का
कारण बनेगा। यदि मानव ऊर्जा क्षेत्र संतुलन से बाहर है, तो शरीर भी असंतुलित हो जाएगा।
मनुष्य सूक्ष्म जगत है, ब्रह्माण्ड स्थूल जगत है
प्राचीन भारतीय दर्शन कहता है कि मनुष्य ब्रह्मांड का सूक्ष्म जगत है। ब्रह्माण्ड को ब्रह्माण्ड (अर्थात ब्रह्मा का अंडा) कहा
जाता है और मनुष्य को क्षुद्र-ब्रह्माण्ड (अर्थात ब्रह्मा का छोटा अंडा) कहा जाता है। यूनानी भी इसी अवधारणा में विश्वास
करते थे ( विकिपीडिया देखें )। इस पत्राचार के पक्ष में प्रमुख बातें इस प्रकार हैं:

 जो परमात्मा विश्व में व्याप्त है, वह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भी अपना एक अंश रखता है।
 ब्रह्मांड के सात स्तरों (अस्तित्व, चेतना, आनंद, ज्ञान, मन, प्राण, भौतिक) और मनुष्य के भीतर के सात चक्रों के
बीच एक संबंध है।
 तीन सिद्धांत या गुण ( सत्व , रजस और तमस ) जिन पर ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है , मनुष्य के भीतर क्षणिक
व्यक्तित्व ( प्रकृ ति ) को भी जन्म देते हैं।
 ऋग्वेद के अनुसार देवताओं (अर्थात् ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं) का जन्म दो बार हुआ माना जाता है । वे ब्रह्मांड में
ब्रह्मांडीय शक्तियों के रूप में पैदा होते हैं और वे प्रत्येक व्यक्ति में भी पैदा होते हैं जब वह आध्यात्मिक जागृति
का अनुभव करता है।
 दोनों ही मामलों में, विकास नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता है। मनुष्य में, कुं डलिनी अचेतन मूलाधार चक्र में जागृत
होती है और शीर्ष पर सहस्रार चक्र की ओर बढ़ती है। इसी प्रकार, ब्रह्माण्ड अचेतन से उच्चतर लोकों की ओर
विकसित होता है।
 इस मिट्टी के पात्र के भीतर कुं ज और उपवन हैं, और इसके भीतर सृष्टिकर्ता है। इस जहाज के भीतर सात
महासागर और अनगिनत तारे हैं। कसौटी और रत्न-मूल्यांकनकर्ता भीतर हैं। और इस पात्र के भीतर शाश्वत ध्वनि
उत्पन्न होती है, और झरना फू ट पड़ता है। कबीर कहते हैं: “मेरी बात सुनो, मेरे मित्र! मेरा प्रिय भगवान भीतर
है।''

विंशोत्तरी दास का डिकोडिंग स्पेस टाइम


17 टिप्पणियाँ / ब्लॉग / दीपांशु गिरी द्वारा

इस दुनिया में, हमेशा असाधारण लोगों के अपवाद होते हैं और हमारे ऋषि इस तथ्य से अच्छी तरह से
परिचित थे, यही कारण है कि सभी दासों के राजा विंशोत्तरी दास का नामकरण करने के बाद भी, शास्त्रीय
पाठ में अन्य 40 दासों का उल्लेख किया गया था और जिनमें से कु छ भी हैं पराशर की सशर्त दशा
कहलाती है।

हमारे ऋषि बिना किसी कारण के एक शब्द भी नहीं बोलेंगे जब विंशोत्तरी को सभी दासों के राजा के रूप
में वर्णित किया गया है,
प्रत्येक ग्रह की लय को विशिष्ट वर्षों में विभाजित करने के साथ मानव जीवन काल को 120 वर्षों में
विभाजित करने का कारण
के तु - 7 वर्ष
शुक्र - 20 वर्ष
सूर्य - 6 वर्ष

इनके पीछे का तर्क बहुत गहरा है क्योंकि अभी तक मैंने किसी ज्योतिषी को इतने गहरे स्तर पर सोचते हुए
भी नहीं देखा है, ज्योतिष ब्रह्मांड के साथ तालमेल बिठाकर बनाया गया है और कभी-कभी जब आप
ब्रह्मांड को समझते हैं, तो आप ज्योतिष और गहरे रहस्यों को बहुत बेहतर तरीके से समझते हैं .

मेरा मतलब है कि इस बारे में सोचें कि हमें दासों की आवश्यकता क्यों है, जब घटनाओं के समय पर
अध्याय 1 में ही चर्चा की गई थी, तो एक गृह कोड और राशि कोड दिया गया था, लेकिन फिर प्रत्येक दास
के लिए विशिष्ट नियम लिखने से पता चलता है कि दास में कु छ विशेष हो रहा है। प्रत्येक अंतर्दशा और
जब आप किसी दशा का गहरा अर्थ समझ जाते हैं तो आपके लिए भी दशा की व्याख्या और समझ आसान
हो जाती है।

आइए जन्म दशा से शुरुआत करें- जन्म दशा चंद्रमा के नक्षत्र पर निर्भर करती है और यह जातक की जन्म
दशा होती है, लेकिन यह नक्षत्र ही क्यों, मनुष्य अपनी यात्रा किसी विशेष नक्षत्र से ही क्यों शुरू करता है?

इसका कारण यह है कि आप अपने पिछले जीवन में उसी दशा में मारे गए थे या आप अपने पिछले जीवन
में लोक के जिस भी लोक में थे, आपको पृथ्वी पर उस लोक द्वारा निर्मित मनुष्यों द्वारा सामना की जाने
वाली समस्याओं का अनुभव करने के लिए भेजा गया था, जैसे कि आपका जन्म बृहस्पति दशा में हुआ है,
इसका मतलब है कि आपने देवलोक में कहीं कोई अपराध किया है जिसके कारण पृथ्वी पर परेशानियां हैं
और यह सुनिश्चित करने के लिए कि आप उसी परेशानी का अनुभव करें, आपका जन्म उस समय हुआ है
जब चंद्रमा बृहस्पति नक्षत्र में गोचर कर रहा था।

सबसे पहली चीज जो अब आप भुगतेंगे, वह है खांसी की समस्या, क्योंकि बृहस्पति वह ग्रह है जो स्वभाव
से बेहद ठं डा है और हवा बेहद घनी है और जब आप पृथ्वी के वायुमंडल में आएंगे, तो आपके शरीर को
पहले की तरह पतली हवा के साथ तालमेल बिठाने में समय लगेगा। जीवन आप गाढ़े हाइड्रोजन+हीलियम
मिश्रण के आदी थे।

यदि इस जीवन काल में किसी भी समय आप बृहस्पति की दशा चलाते हैं तो यह 16 वर्ष के लिए होगी
क्योंकि यह वह समय अवधि है जब आपका चंद्रमा बृहस्पति के नक्षत्र में आगे बढ़ चुका होगा और चंद्रमा
किरणों और संके तों को अवशोषित करना शुरू कर देगा। बृहस्पति से, हमारे ऋषि नक्षत्र और ग्रहों के बीच
अंतर करने के लिए पर्याप्त जानकार थे और वे जानते थे कि चंद्रमा एक ग्रह नहीं है बल्कि पृथ्वी का
उपग्रह है, फिर भी, आपको अन्य लोकों से पृथ्वी पर संदेश पहुंचाने के लिए किसी की आवश्यकता होती है
और चंद्रमा यही करता है। इस धरती पर रहने वाले सभी लोगों के लिए अन्य ग्रहों से सिग्नल को
अवशोषित करता है और मनुष्यों तक पहुंचाता है।

आप बुध को एक दूत के रूप में लेंगे, लेकिन चंद्रमा बुध का पिता है और चूंकि बुध के वल पृथ्वी तल पर
परिणाम देता है, चंद्रमा एक अंतर्ग्रही अवस्था में संदेश देता है।

तो जब बृहस्पति की दशा चलनी शुरू होगी तो लोगों को अच्छे संदेश मिलने लगेंगे, लोगों को और जीवन
में बृहस्पति के अन्य सभी महत्वों को, बृहस्पति की दशा को आंकने का एक तरीका जीवन में बुजुर्गों का
निधन है क्योंकि बृहस्पति ज्ञान है और इसमें दास, यदि आपको ऐसे लोग मिलें जो आपका मार्गदर्शन कर
सकें , आपको गहन चिंतन के लिए विचार दे सकें , तो पूरी दुनिया जिसमें आप रह रहे हैं वह बदल जाएगी
क्योंकि आप उच्च आवृत्ति पर कं पन करेंगे और आपको बुद्धिमान लोगों के ज्ञान तक पहुंच प्राप्त होगी।

मैंने शनि की दशा में बृहस्पति के अंतर के दौरान एक बुद्धिमान व्यक्ति के अधीन काम किया था - जब
उन्हें ज्ञान देना होता था तो वह एक वाक्यांश कहते थे, उदाहरण के लिए - बुद्धिमान लोग कभी भी दोनों
पैरों से पानी की गहराई का परीक्षण नहीं करते हैं।

बृहस्पति को आवंटित दशा वर्ष 16 वर्ष है - यह इस वातावरण पर 16 वर्ष है लेकिन आप यह कै से भूल


सकते हैं, आप बृहस्पति के दायरे से संबंधित हैं और बृहस्पति अपना एक चक्कर 12 साल में पूरा करता है
लेकिन 16 विशेष रूप से क्यों, क्योंकि यह एकमात्र दौर आवश्यक है बृहस्पति के लिए पूरी तरह से किए
जाने वाले कर्मों पर ध्यान देना होगा, लेकिन आपको बृहस्पति ग्रह का औसत घनत्व भी ध्यान में रखना
होगा जो कि 1.33 है। यदि आप 1.33 को 12 से गुणा करते हैं - तो आपको बृहस्पति की 16 वर्ष की दशा
प्राप्त होती है।

क्या आप वर्षों की संख्या निर्दिष्ट करने की गहराई को इतनी गहराई से देख सकते हैं कि बहुत कम लोग
के वल संख्याओं और दास के वास्तविक अर्थ से परे देख पाते हैं?

जब आप बृहस्पति की दशा चला रहे हों तो आपके लिए सही सलाह पाने के लिए बृहस्पति के उच्च क्षेत्र के
साथ संचार करना महत्वपूर्ण है और बृहस्पति में किसी भी प्रकार की रुकावट जीवन में परेशानियां पैदा
करेगी - बाहरी क्षेत्र के साथ संचार करने के लिए, आपको जो चाहिए वह सही है यंत्र जिसे यंत्र कहा जाता
है, जब आप विशेष ध्वनि पैटर्न के साथ यंत्र बनाएंगे तो अंततः आप सहायता प्राप्त करने के लिए बृहस्पति
के बाहरी क्षेत्र से जुड़ जाएंगे।

मैं वर्तमान में एक यंत्र आरेख नहीं दे रहा हूं, इसका कारण यह है कि हममें से प्रत्येक को कु छ संदेश देने
के लिए अपनी चार्ट आवश्यकता के आधार पर अलग-अलग यंत्रों की आवश्यकता होती है, जैसे आज
आश्लेषा नक्षत्र में- मैंने विशेष रूप से एक निश्चित मंदिर में नाग देवता से चित्र बनाकर प्रार्थना की थी।
एक यंत्र और संचार शुरू हुआ और शाम तक मैं परिणाम देख सकता था जो घर में सभी के लिए
आश्चर्यजनक थे। इसके एक दिन में काम करने का कारण सही डिवाइस है।

यदि ये दास थे तो अन्य सशर्त दासों या विंशोत्तरी के अन्य रूपों की गणना की आवश्यकता क्यों थी -
इसका एक कारण होना चाहिए और यह कारण सामान्य नहीं है क्योंकि चार्ट में कु छ विशेष हुआ है जिसका
हम उपयोग कर रहे हैं पराशर की सशर्त दशा.

उसी ब्लॉग भाग-2 में - मैं विभिन्न सशर्त दशाओं के बारे में लिखना शुरू करूं गा और वे विशेष क्यों हैं और
उन्हें किसी भी चार्ट में कब लागू करना है।

बहुत जल्द हम ज्योतिष पाठ्यक्रम की नींव में गायत्री के यंत्रों का निर्माण शुरू करने जा रहे हैं, जब तक
आप जीवन के जादू का अनुभव नहीं करेंगे, आप कभी भी इस पर भरोसा नहीं कर पाएंगे, यह एक जादुई
दुनिया की तरह मौजूद है लेकिन किसी भी समय दिखाई नहीं देता।

ज्योतिष के अंतरिक्ष समय का डिकोडिंग- भाग-2 सूर्य


महादशा
27 टिप्पणियाँ / अंग्रेजी ब्लॉग / दीपांशु गिरी द्वारा

यह लेख का हिस्सा है यदि आपने भाग-1 नहीं पढ़ा है तो कृ पया लिंक पर क्लिक करें - विंशोत्तरी दशा के
अंतरिक्ष समय को डिकोड करना - बृहस्पति महादशा और उसके नियमों के बारे में पढ़ने के लिए लूनर
एस्ट्रो में आपका स्वागत है।

इन लेखों का उद्देश्य हिंदू ज्योतिष और ऋषियों की गहराई को दिखाना है जिन्होंने कड़ी मेहनत की और
उनकी दूरदर्शिता के कारण आज हमारे पास एक ऐसा विषय है जिसका उपयोग भविष्य को देखने के लिए
किया जाता है, मैं कभी नहीं मानता कि विज्ञान कभी गहराई को समझने में सक्षम हो सकता है ज्योतिष
का एक पूर्व-पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण और ज्ञान का सुरंग प्रभाव है जो कु छ नियमों से परे कभी नहीं देखता है।

यह अंधे लोगों के गांव को यह समझाने जैसा है कि इस दुनिया में आंखें भी होती हैं, दुनिया वह नहीं है जो
हम देख सकते हैं, बल्कि इस दुनिया में जो कु छ भी मौजूद है उसके बारे में और अधिक आपकी कल्पना से
भी परे है, क्योंकि अदृश्य लोगों की दुनिया अधिक दिलचस्प और मजेदार है, यह मजेदार है कि आप इसे
एक डिवाइस पर पढ़ पा रहे हैं और लोग कभी सवाल नहीं करते कि यह जानकारी कै से डाउनलोड की जा
रही है, लेकिन जब मैं अंतरिक्ष से जानकारी डाउनलोड करने के संदर्भ में यही बात समझाऊं गा, तो हिंदू धर्म
का भय सामने आ जाता है। हर दिन जब मैं इस जंगल में घूमता हूं- मैं जीवन के बारे में प्रश्न पूछने की
कोशिश करता हूं।

आइए अज्ञानी लोगों के बारे में भूल जाएं और सूर्य लोक का एक त्वरित दौरा करें जो भुवर लोक का हिस्सा
है यानी यह के वल पृथ्वी का है - पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य एक ही लोक के तीन अलग-अलग विभाग हैं
लेकिन एक अग्नि से बना है और दूसरा जल से बना है। जो दोनों को जोड़ता है वह चंद्रमा है।

सूर्य एक ऐसी जगह है जहां अत्यधिक गर्मी होती है, कार्यों को करने के लिए अनुशासन होता है और
लगातार आपको जलते रहना पड़ता है ताकि अन्य लोगों को प्रकाश मिल सके , आपको निष्पक्ष रहना होगा
और एक सच्चे राजा की तरह व्यवहार करना होगा जो किसी भी क्षेत्र में अंतिम व्यक्ति को भी करने में
सक्षम होना चाहिए आपसे लाभ मिलेगा. देखिए सूर्य से शनि के घरों के बीच की दूरी 6 घर है - 6 साल
सूर्य की दशा लेकिन आप जानते हैं कि यह दिलचस्प नहीं है और मैं ब्लॉग में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी
आऊं गा।

दिलचस्प बात यह है कि किसी भी ग्रह या घर से छठा भाव शत्रु की भूमिका निभाता है और यही कारण है
कि किसी भी समय कोई ग्रह सूर्य से छठे भाव में जाता है - ग्रह का वक्री होना शुरू हो जाता है, यह कोई
सामान्य प्रक्रिया नहीं है जो यहां छठे भाव के रूप में घटित हुई है। सूर्य से वह ग्रह या घर है जो सूर्य को
ठीक से दिखाई नहीं देता है और यही कारण है कि राजा उस पर नियंत्रण लेने की मांग करता है और ग्रह
को राजा की सीमा में वापस आने का आदेश देता है।

एक शास्त्रीय सूक्ति - मुझे यकीन है कि आप सभी ने सूर्य नियम अयान - 6 महीने पढ़ा होगा - इसमें एक
गहरा अर्थ है कि सूर्य के वल अयान पर ही शासन क्यों करता है, 1 घर या संपूर्ण चार्ट क्यों नहीं - ऐसा
इसलिए है क्योंकि यह सूर्य की सीमा है और इसे सूर्य आसानी से नियंत्रित कर सकता है, इसीलिए जब कोई
ग्रह इस सीमा को पार करता है तो सूर्य उस ग्रह को तुरंत वापस आने का आदेश देता है। आप व्यावहारिक
रूप से यह भी देख सकते हैं कि किसी भी समय सूर्य विश्व के के वल आधे हिस्से को ही बिजली दे सकता
है और बाकी आधे हिस्से को अंधेरे में रहना पड़ता है।
मैं लगातार ट्विटर पर प्रतिगामी तकनीकों के बारे में लिख रहा हूं और इसे समझाऊं गा भी लेकिन आइए
हम उन लोगों के विषय पर ध्यान कें द्रित करें जो सूर्य महादशा में पैदा हुए हैं या इस महादशा में किसी को
क्या उम्मीद करनी चाहिए?

इसलिए यदि आपका जन्म सूर्य तारे में चंद्रमा के साथ हुआ है, तो आपको पृथ्वी के वायुमंडल में
समायोजित होने में लगभग 6 साल लगेंगे लेकिन आपका स्वभाव और स्वभाव और दृष्टि परेशान होगी और
इसका कारण यह है कि जब आप सूर्य के दायरे में होंगे, तो आप देख सकते हैं पूरी दुनिया और अब
आपकी दृष्टि को कु छ मीटर की संकीर्णता में समायोजित किया जाना है, यही कारण है कि सूर्य दशा में
पैदा हुए लोगों की सोचने की क्षमता दूसरों की तुलना में कु छ अलग होती है क्योंकि वे राजा के दरबार से
आते हैं, उनके पास असीमित शक्ति तक पहुंच थी और वे जानते हैं इस संसार में कु छ भी बदला जा सकता
है, वहीं दूसरी ओर जब वे अन्य नक्षत्रों में जन्मे लोगों से मिलते हैं, विशेषकर शुक्र नक्षत्र में, जहां दृष्टि
के वल स्वयं तक ही सीमित होती है, तो उन्हें अपनी सोच से बेहद निराशा होती है।

सूर्य की दशा तब होती है जब चंद्रमा राजा से संदेश देना शुरू करता है और यह वह दशा है जहां लोग
जीवन के बारे में और विशेष रूप से उस घर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदलते हैं जिस पर चार्ट में सूर्य
शासन कर रहा है। इन लोगों के लिए अवसरों की एक पूरी नई दुनिया खुल जाती है क्योंकि वे इस दशा में
बेहद अनुशासित हो जाते हैं।

फिर भी सूर्य को के वल 6 वर्ष ही क्यों या के वल एक अयन ही क्यों दिया जाता है - चुंबकीय ध्रुव स्विचिंग
नाम की एक चीज़ होती है - हर 11 साल में सूर्य अपने चुंबकीय ध्रुवों को बदलता है और यह एक दिन में
नहीं होता है क्योंकि हर दिन चुंबकीय ध्रुवों में धीरे-धीरे बदलाव होता है सूर्य का ध्रुव. 6 वर्षों की दशा
आवंटित की गई है कि इस जीवनकाल में सूर्य का राज्य 6 घरों के लिए है जो 5.5 वर्षों की दशा में कवर
किया जाएगा जब चुंबकीय ध्रुव या कहें ऊर्जा बिंदु सूर्य से ठीक 6 वें घर में होंगे।

इसका मतलब यह भी है कि सूर्य की दशा में अपने चार्ट में सूर्य का परिणाम देखें - हर साल सूर्य को 1
घर ले जाएं और यह चार्ट में सूर्य की लय है जिसका मैंने ज्योतिष पाठ्यक्रम की नींव में उल्लेख किया है
और जल्द ही सिखाया जाएगा हर कोई - प्रत्येक ग्रह की लय और चक्र, यह पूरी तरह से 6 साल होना
चाहिए क्यों 5.5 - यह सूर्य के अनुसार 5.5 वर्ष है और सूर्य का महीना 26 दिन - 37 दिन तक होता है
और जब आप पृथ्वी के अनुसार औसत निकालते हैं तो यह पूरा हो जाएगा दशा के 6 वर्ष।

एक और सवाल जो छात्रों को पूछना चाहिए वह यह है कि यहां औसत घनत्व का उपयोग क्यों नहीं किया
जाता है - हमने बृहस्पति के संदर्भ में औसत घनत्व का उपयोग किया है लेकिन यहां क्यों नहीं - क्या
आपने कभी यह सवाल पूछा है कि शरीर में 5 तत्व हैं तो चार्ट में के वल 4 ही क्यों दिखाए गए हैं , 5 वाँ
तत्व कहाँ है? 5 वां तत्व ईथर है जो वायु और पानी से बना है और यही कारण है कि मैंने बृहस्पति के
संदर्भ में औसत घनत्व का उपयोग किया है, लेकिन जब सूर्य की बात आती है, तो मुझे औसत घनत्व का
उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो तत्व मैं यहां ले रहा हूं वह अग्नि है , जो ऊर्जा के रूप में
है।

मुझे आशा है कि मैंने आपको दास अवधारणा के बारे में और अधिक जानकारी दी है - आप टिप्पणियों में
प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
वास्तु और इसका आयुर्वेद, ज्योतिष और अंतरिक्ष-
समय के कपड़े सहित अन्य विषयों से संबंध..
अधिकांश वास्तु उत्साही जानते होंगे कि वैदिक
युग के वास्तुकला के इस अद्भुत विज्ञान द्वारा
उपयोग किए जाने वाले सिद्धांतों/बुनियादी सिद्धांतों
में से एक, मानव क्षमता को अधिकतम करने के
लिए इमारत में रहने वालों द्वारा उत्पादित जैव-
चुंबकीय क्षेत्र के साथ पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को
संरेखित करना है ( चूंकि गैर/खराब संरेखण तंत्रिका
तंत्र में जैव-विद्युत प्रवाह को बाधित कर सकता है
जिससे बहुत सूक्ष्म स्तर पर स्वास्थ्य समस्याएं
पैदा हो सकती हैं)। यह ब्लॉग आपको समझाएगा कि यह विज्ञान कई अन्य विज्ञानों जैसे आयुर्वेद, ज्योतिष और
यहां तक कि अंतरिक्ष समय के कपड़े पर द्रव्यमान के प्रभाव (जिसे लगभग 100 साल पहले आइंस्टीन द्वारा
प्रतिपादित किया गया था और हाल ही में गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाने के बाद इसकी पुष्टि की गई है) के
मूल सिद्धांतों/अवधारणाओं को नियोजित करता है। ) . हमें शुरू करने दें…

वास्तु में स्पेस-टाइम फै ब्रिक का उपयोग

आप में से बहुत से लोग जानते होंगे


कि किसी भी वस्तु का द्रव्यमान
अंतरिक्ष-समय के ढांचे को मोड़ देता है
और इस तरह सूर्य के द्रव्यमान ने
अंतरिक्ष-समय के ढांचे में सेंध लगा दी
है, जिससे एक कीप के आकार की
संरचना बन गई है, जहां पृथ्वी फं स गई
है और इस प्रकार गति के कारण इसके
चारों ओर घूम रही है। इसे गति तब
मिली जब यह बिग बैंग के समय
बना। ठीक यही बात सूर्य जैसी बड़ी
वस्तुओं के लिए भी लागू होती है जो आकाशगंगा के कें द्र में विशाल ब्लैक होल द्वारा बनाए गए सेंध के कारण
आकाशगंगा के कें द्र के चारों ओर घूम रही है। और यही कहानी चंद्रमा के साथ भी है जो चंद्रमा द्वारा उत्पन्न
सेंध के कारण पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रहा है। इसका मतलब यह है कि हर चीज, चाहे उसका आकार
कु छ भी हो, अंतरिक्ष समय के कपड़े में सेंध लगाती है, जिसमें एक बीम भी शामिल है जो सपाट छत से बाहर
निकलती है। इसलिए जब आप किसी बीम के नीचे बैठते हैं या सोते हैं, तो उसके द्रव्यमान से बना
गड्ढा आपके आभामंडल (आपके शरीर और दिमाग का सूक्ष्म भाग) पर अधिक दबाव डालता है। यही कारण है
कि वास्तु हमेशा सुझाव देता है कि किसी को ऐसी संरचनाओं के नीचे नहीं सोना चाहिए क्योंकि वे आपकी आभा
को विकृ त कर देंगे और मानसिक और साथ ही शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा करेंगे (और आभा कु छ
और नहीं बल्कि आपके शरीर में चलने वाली बिजली के कारण बनने वाला चुंबकीय प्रवाह है) यह)।
***यह पोस्ट 'द रूट कॉज़- आयुर्वेद, ज्योतिष और आनंदमय जीवन से परे' पुस्तक का एक अंश है। पुस्तक की
एक प्रति लेने के लिए, कृ पया इस पोस्ट के अंत में उल्लिखित लिंक पर क्लिक करें ⇓⇓⇓⇓⇓

वास्तु में आयुर्वेदिक सिद्धांतों की भूमिका

हममें से अधिकांश लोगों ने अनुभव किया होगा कि जब हम अव्यवस्थित वातावरण (अव्यवस्थित) से घिरे होते
हैं, तो यह भ्रम पैदा करता है और कभी-कभी चिड़चिड़ा व्यवहार भी करता है। इसका कारण यह है कि
अव्यवस्थित परिवेश भ्रम पैदा करता है और इस प्रकार मन में भी धारा की अव्यवस्थित गति होती है, जो वात
के अलावा और कु छ नहीं है और जैसे ही वात मन में बहुत अधिक बढ़ जाता है, यह राजसिकता (बेचैनी,
उत्तेजना, जड़ता से जुड़ी मन की एक स्थिति) लाता है और यह यह एक ज्ञात तथ्य है कि जैसे-जैसे राजसिकता
बढ़ती है, बीमारियाँ भी बढ़ती हैं ( राजसिक मन की विस्तृत समझ और इसकी विशेषता के लिए कृ पया
यह वीडियो देखें ) ....जितनी अधिक बाहर अराजकता होगी, वात उतना ही अधिक होगा, राजसिकता उतनी ही
अधिक होगी और बीमारियाँ भी उतनी ही अधिक होंगी राजसिक मन से सम्बंधित. यही कारण है कि वास्तु हमें
हमेशा अपने घर को व्यवस्थित रखने और अवांछित चीजों को निपटाने/फें कने की सीख देता है क्योंकि वे स्थान
को अव्यवस्थित करेंगे और बीमारियों को आमंत्रित करेंगे। वस्तुतः इसका उलटा भी सत्य है। अर्थात्, जब गलत
खान-पान आदि के कारण किसी के मस्तिष्क में वात बहुत अधिक हो जाता है, तो आसपास के वातावरण का
वात (अव्यवस्थित/अव्यवस्थित दृष्टिकोण) भी अधिक हो जाता है, जो हमें एक दुष्चक्र में ले जाता है। प्राचीन
ग्रंथों ने इस दर्शन को "यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे" कहा है जिसका अर्थ है "जो कु छ भी आपके बाहर है, वह भीतर
है और इसके विपरीत"। और इस अवधारणा का प्रयोग ज्योतिष शास्त्र में भी किया जाता है। (ज्योतिष इस दर्शन
और आयुर्वेद के अन्य बुनियादी सिद्धांतों का उपयोग कै से करता है यह समझने के लिए इस ब्लॉग को पढ़ें… )

यह दर्शन वास्तु के सभी पहलुओं पर लागू होता है, उदाहरण के लिए:-

 ऐसा स्थान जहां परिवार/संगठन के विभिन्न सदस्यों के लिए स्थान आवंटन खराब है/नहीं किया गया है,
उनके दिमाग का वात बढ़ जाएगा और इस प्रकार परिवार के सभी सदस्यों के वात पर व्यापक प्रभाव
पड़ेगा, जिससे लोगों और घर को एक दुष्ट स्थिति में ले जाया जाएगा। घेरा।
 डू बे हुए स्थान पर रहने/काम करने वाले लोगों के दिमाग का वात उच्च होना स्वाभाविक है क्योंकि डू बे
हुए क्षेत्र में वायु संचार की कमी के कारण खराब वायु प्रवाह से ऑक्सीजन का स्तर कम हो जाएगा और
फफूं द आदि की अधिकता हो जाएगी) जिससे दिमाग खराब हो जाएगा। दक्षता और रक्त परिसंचरण
जिसके परिणामस्वरूप रहने वालों की मानसिक और फिर शारीरिक दक्षता खराब हो जाएगी (जिससे
कार्यालयों में स्वास्थ्य कारणों से अनुपस्थिति बढ़ जाएगी)। इससे न के वल रहने वालों के स्वास्थ्य पर
असर पड़ेगा, बल्कि आसपास की निर्जीव चीजें जैसे इलेक्ट्रॉनिक/इलेक्ट्रिकल उपकरण/पेंट आदि की उम्र
भी उनके गलत उपयोग के अलावा स्थिर हवा के कारण अदृश्य नमी/फफूं द/सूक्ष्मजीवों आदि के संचय के
कारण होगी। वात ग्रस्त मन द्वारा. *** आदर्श स्थिति में निकास लगाकर या खिड़कियां बढ़ाकर वायु
परिसंचरण को बढ़ाने के अलावा धँसी हु ई जगहों के दुष्प्रभावों को दूर करने के उपाय के रूप में वास्तु
नकारात्मक ऊर्जा (मूल रूप से फफूं द, जहरीली गैसों, सूक्ष्म जीवों) को अवशोषित करने के लिए लकड़ी
का कोयला कु ओं की स्थापना करता है। धँसी हु ई जगहों पर कब्ज़ा नहीं करना है)।

वास्तु में ज्योतिषीय अवधारणाओं की भूमिका

वास्तु एवं रंग


ज्योतिष विभिन्न ग्रहों की ऊर्जाओं का आह्वान करने के लिए रंगों का उपयोग करता है, उदाहरण के लिए लाल
रंग ऊर्जा, जुनून और रक्त के प्रवाह को बढ़ाता है और इसी तरह विभिन्न रत्नों के माध्यम से सूर्य और/या
मंगल का आह्वान करने के लिए इस रंग का उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार सफे द रंग (मोती के माध्यम
से) चंद्रमा द्वारा सूचित शांति का आह्वान करता है। ठीक इसी अवधारणा का उपयोग वास्तु में भी घर/भवन के
विभिन्न कमरों/स्थानों की दीवारों पर सामान रखने/पेंटिंग करते समय किया जाता है। तो, पीला (वास्तव में
भगवा की ओर अधिक) अध्ययन कक्ष के लिए आदर्श है क्योंकि यह मन को शांत करता है और बृहस्पति (ज्ञान
के ग्रह) का आह्वान करता है और छात्र को अधिक ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है। इसी तरह, विवाहित
जोड़े के शयनकक्ष को जुनून पैदा करने के लिए लाल रंग से रंगा जा सकता है, लेकिन अविवाहित लोगों के मन
को शांत रखने के लिए उनके शयनकक्ष को अधिक सफे द रंग में रंगना चाहिए।

*** कृ पया याद रखें कि यह आपको इस विज्ञान को समझाने के लिए एक सामान्य नियम है कि रंग किसी की
ऊर्जा को कै से प्रभावित करता है और जमीन पर इसका कार्यान्वयन उसकी विभिन्न ऊर्जाओं के स्तर के आधार
पर व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होगा। उदाहरण के लिए, जिस व्यक्ति के पास पहले से ही मंगल ऊर्जा है,
उसे अधिक लाल रंग का सामना नहीं करना चाहिए अन्यथा यह मंगल ऊर्जा को विनाशकारी स्तर तक बढ़ा देगा
(ज्योतिष में भी पत्थरों की सिफारिश करते समय इसी सिद्धांत का उपयोग किया जाता है)।

वास्तु और दिशाएँ

हम सभी जानते हैं कि भूमध्य रेखा के नजदीक के क्षेत्र दूर के क्षेत्रों की तुलना में अधिक गर्म और अधिक आर्द्र
होते हैं और इसलिए यदि हम उत्तरी ध्रुव से नीचे दक्षिण की ओर भूमध्य रेखा (उत्तरी गोलार्ध के लिए) की ओर
बढ़ते हैं, तो परिवेश के तापमान में वृद्धि से परिधीय रक्त परिसंचरण में वृद्धि होगी जिससे वृद्धि होगी। मंगल की
ऊर्जा में जोश और शारीरिक शक्ति बढ़ती है (जिस तरह यह मार्च-अप्रैल (मेष) और अक्टू बर-नवंबर (वृश्चिक) के
महीने में बढ़ती है)। विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं में परिवर्तन लाने वाली दिशाओं की इस अवधारणा का उपयोग
वास्तु में भी किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र से जहां आयुर्वेदिक दोष दिशा परिवर्तन के कारण लोगों के मन और
शरीर में परिवर्तन लाते हैं। कारणों सहित नीचे दिया गया चित्र स्वयं-व्याख्यात्मक है।
हालाँकि, चूँकि पृथ्वी की धुरी झुकी हु ई है, बुद्धिमान लोगों ने महसूस किया कि ऊपर की आकृ ति में उल्लिखित
दिशाएँ पृथ्वी के किसी भी बिंदु को प्रभावित करेंगी, जैसा कि नीचे कै प्चर की गई पृथ्वी की झुकी हु ई आकृ ति
को सुपरइम्पोज़ करके ⇓⇓⇓⇓⇓ जिसे वास्तु पुरुष कहा जाता है…

*** किसी भवन में मुख्य द्वार की दिशा तय करने में


वायु के प्रवाह की दिशा भी बहु त महत्वपूर्ण भूमिका
निभाती है। चूंकि उत्तरी गोलार्ध में ठंडी हवा उत्तरी
ध्रुव से भूमध्य रेखा की ओर बहती है, इसलिए मुख्य
द्वार की दिशा उत्तर या पूर्व की ओर रखी जाती है
(पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण उत्तरी
गोलार्ध में हवा का प्रवाह पूर्व की ओर हो जाता है),
ताकि भवन हवादार रहे। हालाँकि क्रॉस वेंटिलेशन की
सुविधा के लिए सभी दीवारों में खिड़कियाँ अनिवार्य रूप
से होनी चाहिए, साथ ही दक्षिण की दीवार में अपेक्षाकृ त
छोटी खिड़कियाँ होनी चाहिए ताकि हवा अन्य स्थानों
को हवादार किए बिना सीधे उत्तर से दक्षिण की ओर
जाने से बच सके । कहने की जरूरत नहीं है कि
बहु मंजिला अपार्टमेंट में इस विज्ञान का समग्रता से
पालन करना कठिन (अधिकतर असंभव) हो जाता है।

विज्ञापन

प्रिय पाठक, यह ब्लॉग पुस्तक के खंड एक और दो, मूल कारण- आनंदमय जीवन के लिए आयुर्वेद, ज्योतिष
और परे से एक अंश है। आयुर्वेद और अन्य वैदिक विज्ञान जैसे योगासन, प्राणायाम, ज्योतिष, अष्टांग योग और
आध्यात्मिक दुनिया सहित पुराणों के गहरे अर्थों की विस्तृत समझ के लिए, आप कृ पया अपनी प्रति लेने के
लिए नीचे दिए गए लिंक का उपयोग कर सकते हैं। मैं पाठकों से यह भी अनुरोध करूं गा कि खंड दो की उच्च
अवधारणाओं को समझने के लिए खंड एक को पढ़ना आवश्यक है। इसलिए जिनके पास पहली पुस्तक का बहु त
पुराना संस्करण है, उन्हें आदर्श रूप से खंड दो के लिए आगे बढ़ने से पहले नवीनतम संस्करण यानी खंड एक
को चुनना चाहिए।

जानिए सूक्ष्म एवं स्थूल जगत के रहस्य को

अकसर देखा जाता है कि धर्म एवं ईश्वर के विषय में गिने चुने व्यक्तियों को छोडक़र बाकी सभी मनुष्य अंधविश्वास
से ग्रस्त होते हैं। प्रस्तुत लेख में अत्यंत संक्षिप्त सरल एवं क्रमबध्द तरीके से धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझाने
का प्रयास किया गया है।

1- ब्रह्मांड

2- स्थूल जगत

3- सूक्ष्म जगत

4- ज्ञान
5- मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना

6- मनुष्य पर सूक्ष्म जगत का प्रभाव

7- विज्ञान एवं आध्यात्म में अन्तर

8- सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का तरीका

9- ध्यान

10-निष्काम एवं सकाम साधनाएं

ब्रह्मांड

हमारे ब्रह्मांड का मुख्य घटक द्रव्य है, इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं, 1 सूक्ष्म 2 स्थूल द्रव्य सूक्ष्म रूप में रहता
है, जबकि पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर सारा द्रव्य स्थूल रूप में रहता है। हमारा सारा ब्रह्मांड गतिशील एवं
परिवर्तनशील है हम देखते हैं कि यहां प्रत्येक जीव एवं वनस्पति का जन्म होता है एवं उसका जीवन काल पूरा होने
पर मृत्यु होती है, इसी प्रकार निर्जीव पदार्थ बनते एवं नष्ट होते रहते हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं है यहां न किसी
का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है यहां सिर्फ द्रव्य का रूप परिवर्तन होता है। इसी को हम जन्म मृत्यु का
नाम दे देते हैं, इसलिए इस संसार को मायावी जगत या नश्वर जगत भी कहते हैं। यह द्रव्य ईश्वर से लेकर स्थूल
पदार्थों तक अपना रूप परिवर्तन करने में सक्षम होता है, सूक्ष्म द्रव्य जैसे प्रकाश तरंग शब्द विचार मन आदि स्थूल
पदार्थ जैसे सजीव निर्जीव ग्रह उपग्रह आदि, सब इसी द्रव्य से उत्पन्न होते हैं एवं इसी द्रव्य में लीन होते हैं। स्वयं
ब्रह्मांड भी इससे अछू ता नहीं है इसका भी जन्म एवं मृत्यु होती है हमारा सूर्य अपने अंतिम समय में फै लने लगता है
एवं अपने सभी ग्रहों को भस्म कर अपने में लीन कर लेता है इसके बाद इसका ठं डा होना एवं सिकु डना शुरू होता है
अंत में यह ब्लेक होल एक कृ ष्ण विवर में बदल जाता है जिसमें कि असीमित गुरूत्वाकर्षण होता है इतना कि यहां से
कोई तरंग या प्रकाश भी परावर्तित नहीं हो सकता अत: इन्हें किसी प्रकार देखा नहीं जा सकता । वैज्ञानिकों ने
ब्रह्मांड में इनकी उपस्थिति का पता लगा लिया है, इसी प्रकार जब ब्रह्मांड के सभी सूर्य एवं तारे कृ ष्ण विवर में
परिवर्तित हो जाते हैं तब ये अपने असीमित गुरूत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे में समा जाते हैं एवं एक पिंड का रूप
ले लेते हैं इस पिंड में ब्रह्मांड का सारा द्रव्य ईश्वर रूप में होता है। इतने अधिक दबाव पर द्रव्य परमाणु या अन्य
किसी रूप में नहीं रह सकता इसी को जगत का ईश्वर में लीन होना कहते हैं। जब इस पिंड का संपीडन अपने चरम
बिंदु पर पहुंचता है तब इसमें महाविस्फोट होता है इस महा विस्फोट के कारण ब्रह्मांड असंख्य वर्षों तक फै लता रहता
है।

स्थूल जगत

स्थूल जगत का सबसे सूक्ष्मतम रूप परमाणु होता है, इस पृथ्वी में इनकी मात्रा सीमित है न तो इन्हें पैदा किया जा
सकता है न ही इन्हें नष्ट किया जा सकता है, अब तक पृथ्वी पर 105 विभिन्न गुण धर्म वाले परमाणु खोजे गए हैं
इनका गुण धर्म इनके भीतर स्थित प्रोटान न्यूट्रान एवं इलेक्ट्रान की संख्या के ऊपर निर्भर करता है, इनकी संरचना
हमारे सौर जगत के समान होती है, जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर ग्रह निश्चित दूरी पर रहकर अपनी कक्षा में घूमते
हुए सूर्य का चक्कर लगाते रहते हैं ठीक उसी प्रकार परमाणु के भीतर नाभिकीय के न्द्र के चारों ओर इलेक्ट्रान अपनी
कक्षा में घूमते हुए नाभिक का चक्कर लगाते रहते हैं । विज्ञान की भाषा में इन्हें तत्व कहते हैं, जैसे हाइड्रोजन,
आक्सीजन, लोहा, सोना, तांबा, पारा आदि। हाइड्रोजन परमाणु में एक प्रोटान एक न्यूट्रान एवं एक इलेक्ट्रान होता है
इसी प्रकार आक्सीजन परमाणु में प्रत्येक की संख्या 8, लोहा में 26, एवं सोना में 79 होती है यदि लोहा में इनकी
संख्या 79 हो जाय तो यह लोहा न रहकर सोना बन जायगा परंतु ऐसा करना अभी विज्ञान के लिए संभव नहीं है।
पृथ्वी पर हम जो भी सजीव एवं निर्जीव वस्तुऐं देखते हैं ये सब इन्हीं परमाणुओं के मेल से बनती हैं हमारा शरीर भी
इन्हीं परमाणुओं के मेल से बनता है, वायु, जल, जीव, वनस्पति एवं पूरी पृथ्वी सभी कु छ इन परमाणुओं के मेल से
ही बना होता है।

पृथ्वी पर चाहे जितने जीव एवं वनस्पति पैदा होकर वृध्दि करते रहें, इससे पृथ्वी के भार में कोई फर्क नहीं पडता
क्योंकि ये सारे जीव एवं वनस्पति सारा द्रव्य पृथ्वी से ही प्राप्त करते हैं। सारे जीव एवं वनस्पति अपने जीवन काल
में आवश्यक आहार भोजन जल एवं वायु भी पृथ्वी से ही प्राप्त करते हैं मनुष्य को सुख एवं वैभव के साधन भी
प्रथ्वी से ही प्राप्त होते हैं सिर्फ जीवनी शक्ति हमें सूर्य से प्राप्त होती है एवं जीव की मृत्यु के बाद सब पृथ्वी में ही
मिल जाते हैं इसलिए धर्म ग्रन्थों में पृथ्वी को माता एवं सूर्य को पिता का दर्जा दिया गया है। स्थूल जगत के सभी
तत्वों की तीन अवस्थाएं होतीं हैं, 1 ठोस 2 द्रव 3 वायु रूप। स्थूल जगत में द्रव्य के ठोस द्रव एवं वायु रूप में
प्रत्येक अवस्था के निम्नतम एवं उच्चतम स्तर होते हैं जैसे हम लोहे को गर्म करते हैं तब यह मुलायम होता जाता है
एवं अंत में द्रव रूप में बदल जाता है और अधिक गर्म करने पर पतला होकर वायु रूप में बदल जाता है हम एक
समय में द्रव्य की एक ही अवस्था को देख सकते हैं अर्थात जब लोहा ठोस रूप में रहता है तब इसके द्रव एवं वायु
रूप को नहीं देख सकते एवं जब वायु रूप में होता है तब ठोस एवं द्रव रूप को नहीं देखा जा सकता। हमारे नेत्र स्थूल
जगत के लगभग चालीस प्रतिशत भाग को ही देख पाते हैं अतः परमाणुओं को हम खाली आखों से नहीं देख सकते
परंतु शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से इन्हें देखा जा सकता है।

सूक्ष्म जगत

सूक्ष्म जगत को समझने से पहिले ईश्वर तत्व को समझ लें जिस प्रकार स्थूल जगत का सूक्ष्मतम रूप परमाणु होता
है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत का सूक्ष्मतम रूप ईश्वर होता है अर्थात ईश्वर सारे ब्रह्मांड का सूक्ष्मतम रूप होता है। धर्म
ग्रन्थों में लिखा है कि ईश्वर एक है उसके रूप अनेक हैं, यहां एक का मतलब संख्या से नहीं है इसका मतलब है कि
ईश्वर गुण धर्म का एक ही तत्व है इसे हम स्थूल तत्व आक्सीजन से समझ सकते हैं, पृथ्वी पर आक्सीजन के
गुणधर्म वाला एक ही तत्व है इसका मतलब यह नहीं कि पृथ्वी पर आक्सीजन का एक ही परमाणु है आक्सीजन तो
सारे वायुमंडल में व्याप्त है, इसके बिना कोई प्राणी दस मिनट भी जीवित नहीं रह सकता इसी प्रकार ईश्वर सारे
ब्रह्मांड में व्याप्त है इसके बिना कु छ भी सम्भव नहीं इसलिए कहा जाता है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी
नहीं हिल सकता । आक्सीजन एवं हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है जल को देखकर हम यह नहीं कह सकते कि
इसमें आक्सीजन या हाइड्रोजन नहीं है इसी प्रकार सारे ब्रह्यांड में जो भी द्रव्य जिस रूप में है सभी में ईश्वर व्याप्त
है, इसीलिए ईश्वर को सर्वव्यापी कहा गया है ।

परमाणु नाभिक के के न्द्र में भी ईश्वर स्थित होता है, इसके चारों ओर एक प्रभामंडल होता है जिसे ज्ञान का प्रकाश
कहते हैं। इसके बाद अन्य कण स्थित होते हैं परमाणु का सबसे बाहरी कण इलेक्ट्रान होता है जो ज्ञान के प्रकाश से
प्रेरणा प्राप्त कर समस्त स्थूल जगत की रचना करता है एवं नष्ट करता है। स्थूल जगत की किसी भी सजीव एवं
निर्जीव बस्तु के बनने एवं नष्ट होने में इस कण की प्रमुख भूमिका होती है। यह स्वतंत्र अवस्था में भी रहता है।
विज्ञान ने इस कण पर नियंत्रण प्राप्त कर आज इस युग को इलेक्ट्रानिक युग में बदल दिया है। परमाणु में ईश्वर की
खोज के लिए भी वैज्ञानिक प्रयोग जारी हैं।

सूक्ष्म एवं स्थूल जगत कोे क्र्रमशः चेतन एवं जड भी कहा जाता है चेतन द्रव्य ज्ञान युक्त होता है एवं जड में ज्ञान
नहीं होता। जड उसे कहते हैं जिसका रूप बदलता रहता है या जन्म मृत्यु होती है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव।
चेतन उसे कहते हैं जिसका रूप नहीं बदलता एवं जो जन्म मृत्यु से मुक्त होता है स्थूल जगत समय की सीमा से
बंधा होता है, परंतु सूक्ष्म जगत के लिए समय की कोई सीमा नहीं होती । जिस प्रकार स्थूल जगत में द्रव्य की तीन
अवस्थाएं होतीं हैं इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी द्रव्य की तीन अवस्थाएं होतीं हैं ।

1- सत् 2- रज् 3- तम् ।


सूक्ष्म जगत का सारा द्रव्य तरंग रूप में होता है हम सूक्ष्म जगत की एक चीज प्रकाश को ही देख पाते हैं खाली
आँखों से हम प्रकाश का भी तीस प्रतिशत भाग ही देख पाते हैं । सूक्ष्म जगत स्थूल जगत की तुलना में बहुत ही
अधिक विशाल एवं शक्तिशाली होता है क्योंकि हमारे ब्रह्यांड में सूर्य तारों ग्रहों उपग्रहों के बीच जो भी खाली स्थान है
जिसे हम अंतरिक्ष कहते हैं सभी में सूक्ष्म तरंगें प्रवाहित होती रहतीं हैं सभी स्थूल पदार्थों में हमारे शरीर में एवं
परमाणुओं की कक्षा के भीतर जो भी खाली स्थान रहता है उसमें भी ये तरंगें विद्यमान रहतीं हैं । द्रव्य की ठोस द्रव
एवं वायु रूप अवस्था को जड तथा सत रज एवं तम अवस्था को चेतन कहते हैं। जिस प्रकार स्थूल जगत में हम एक
समय में द्रव्य के एक ही रूप को देख पाते हैं इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी हम एक समय में द्रव्य के एक ही रूप
को देख सकते हैं। जब सत का प्रभाव होता है तब रज और तम अवस्था को नहीं देख सकते, जब रज का प्रभाव
होता है तब सत और तम को नहीं देख सकते। इसी प्रकार जब तम का प्रभाव होता है तब रज और सत को नहीं
देख सकते इसमें भी प्रत्येक अवस्था के निम्नतम् एवं उच्चतम् स्तर होते हैं । सत को ज्ञान रज को क्रियाशीलता एवं
तम को अज्ञान कहते हैं। अज्ञान भी ज्ञान का ही एक प्रकार है अतः इसे मिथ्या ज्ञान समझना चाहिए, अज्ञान के बाद
जड अर्थात स्थूल अवस्था आ जाती है। ज्ञान युक्त द्रव्य स्वतः क्रिया करने में सक्षम होते हैं परंतु अज्ञानता अर्थात
तम का प्रभाव बढने पर ज्ञान कम होता जाता है तम के बाद सूक्ष्म से स्थूल अवस्था अर्थात परमाणु अवस्था में
जानेपर लेश मात्र ज्ञान उन्हीं परमाणुओं में रह जाता है जो अपूर्ण अर्थात जिनकी कक्षा में इलक्ट्रान भरने की जगह
होती है, होते हैं । अपूर्ण परमाणु स्वतः दूसरे अपूर्ण परमाणु से मिलकर अणु बना लेते हैं अणु बन जाने पर ज्ञान
शून्य हो जाता है ये अणु तब तक कोई क्रिया नहीं कर सकते जब तक इन्हें किसी चेतन तत्व द्वारा उर्जा प्राप्त न
हो।

ज्ञान

यहां ज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है अतः ज्ञान के संबंध में जान लेना उचित होगा। यहां ज्ञान का मतलब स्कू ली
या किताबी ज्ञान से नहीं है बल्कि ब्रह्म ज्ञान से है, एक अनपढ व्यक्ति भी ज्ञानवान हो सकता है एवं एक पढा
लिखा व्य्क्ति अज्ञानी हो सकता है। पढना - लिखना एक कला है एवं ज्ञान ईश्वरीय चेतना है ज्ञान मनुष्य की खोज
नहीं है , मानव जाति का विनाश हो जाने पर भी ज्ञान का विनाश नहीं हो सकता जब तक ईश्वर है एवं ब्रह्मांड हैे,
तब तक ज्ञान भी रहेगा। ज्ञान दो प्रकार का होता है, 1 - यथार्थ ज्ञान 2 - मिथ्या ज्ञान । यथार्थ ज्ञान को ज्ञान शब्द
से एवं मिथ्या ज्ञान को अज्ञान शब्द से संबोधित करते हैं। यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य को ध्यानावस्था में ही होती
है। अज्ञान के प्रभाव से मनुष्य अनित्य में नित्य, दुःख में सुख, अपवित्र में पवित्र एवं अनात्मा में आत्मा समझता है।
अर्थात् अज्ञान के प्रभाव से मनुष्य जङ को ही चेतन समझता है।

मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना

मनुष्य के उपर सूक्ष्म तथा स्थूल के प्रभाव को समझने से पहले मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना को समझ लें। धर्म
ग्रन्थों में लिखा है कि मनुष्य का शरीर पंच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से बना हुआ है, यहां पृथ्वी
का मतलब ठोस, जल का द्रव, अग्नि का ऊर्जा, वायु का वायु रूप, आकाश का सूक्ष्म रूप है। पृथ्वी का गुण गंध, जल
का रस, अग्नि का रूप, वायु का स्पर्श एवं आकाश का शब्द कम्पन है। इन्हीं गुणों के आधार पर मनुष्य के शरीर में
क्रमशः पांच ज्ञानेन्द्रियां होती है।

1 घ्राण अर्थात् नाक 2 रसना अर्थात् जीभ 3 नेत्र 4 त्वचा 5 श्रोत अर्थात् कान।

सूक्ष्म से स्थूल की ओर चलने पर मनुष्य के शरीर को निम्न आठ भागों में बांटा गया है।

1 परमात्मा अर्थात् ईश्वर 2 आत्मा 3 मन 4 बुध्दि 5 प्राण 6 वायु रूप 7 द्रव रूप अर्थात् जल रस रक्त आदि 8
ठोस रूप अर्थात् मांस हड्डी आदि।
क्र्रमांक 1 से 5 तक सूक्ष्म शरीर एवं 6 से 8 तक स्थूल शरीर या परमाणुमय शरीर कहलता है। उपरोक्त क्रमांक 1
से 8 तक के कार्य इस प्रकार हैं।

1. ईश्वर किसी क्रिया में लिप्त नहीं होता वह सिर्फ दृष्टा होता है परंतु उसके बिना कु छ संभव नहीं।

2. आत्मा शरीर में ज्ञान स्वरूप होती है एवं मनुष्य इंद्रियों द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगती है।

3. मन मनुष्य के शरीर में सबसे महत्वपूर्ण चीज है इसका काम जानना है एवं यह आत्मा तथा बुध्दि के बीच सेतु
का काम करता है गीता में भगवान् श्री कृ ष्ण ने कहा है कि''मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्ष्योः'' अर्थात् मनुष्य के
शरीर में मन ही बंधन एवं मोक्ष का कारण है। मनुष्य के शरीर में मन एक ऐसा मुकाम है जहां से दो रास्ते विपरीत
दिशाओं में जाते हैं एक मोक्ष की ओर ले जाता है दूसरा बंधन की ओर, मोक्ष एवं बंधन को क्रमशः योग एवं भोग,
ज्ञान एवं अज्ञान, सुख एवं दुख भी कह सकते हैं।

4. बुध्दि मनुष्य के मस्तिष्क को संचालित करती है इसका कार्य निर्णय करना एवं कर्मेन्द्रियों को कार्य करने हेतु
प्रेरित करना है जब मन किसी कार्य को करने की इच्छा करता है तब बुध्दि हमारे शरीर की सुरक्षा एवं प्रकृ ति के
नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करती है कि इच्छित कार्य करने योग्य है या नहीं इसी आधार पर यह
कर्मेंन्द्रियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है, शरीर में मन एवं बुध्दि का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है , इस
द्वंद्व में यदि मन का पलडा भारी होता है तब मनुष्य अपराध की ओर या प्रकृ ति से विपरीत कार्यों की ओर मुड
ज़ाता है यदि बुध्दि का पलडा भारी होता है तब शरीर में तनाव एवं चिंता उत्पन्न होती है तथा मनुष्य धीरे-धीरे रोगी
बन जाता है, असाध्य क्रॉनिक रोगों का। इसके अलावा कोई दूसरा कारण नहीं होता इसी आधार पर होम्योपैथी में मन
का इलाज किया जाता है न कि रोग का, निरोग रहने के लिए शरीर में मन एवं बुध्दि का संतुलन आवश्यक है।

5. प्राण, इसे जीवनी शक्ति भी कहते हैं इसका कार्य सारे शरीर में एवं सूक्ष्म नाडियों में वायु प्रवाह को नियंत्रित
करना तथा सूक्ष्म ऊर्जा प्रदान कर शरीर को क्रि्रयाशील रखना है प्राण के निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है एवं
प्राण के कमजोर होने पर शरीर कमजोर होता जाता है तथा बीमारियों से लडने की शक्ति समाप्त होने लगती है।
मनुष्य के शरीर पांच महाप्राण एवं पांच लघु प्राण होते है महाप्राण को ओजस् एवं लघु प्राण को रेतस् कहते हैं।
प्राणायाम् हमें प्राणों पर नियंत्रण रखने की विधि सिखाता है, क्योंकि प्राणों के ऊपर ही शरीर की क्रियाशीलता निर्भर
करती है।

6. वायु से शरीर ऑक्सीजन प्राप्त करता है जिससे शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्राप्त होती
है।

7. द्रव- इसका कार्य शरीर से आवश्यक तत्वों को ग्रहण करना एवं अशुध्द एवं अनावश्यक तत्वों को शरीर से बाहर
निकालना है।

8. ठोस - इसका कार्य रक्त प्रवाह एवं स्नायुओं के लिए सुरक्षित मार्ग बनाना , शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा
प्रदान करना तथा शरीर को स्थिर एवं सुडौल बनाए रखना है।

मनुष्य पर सूक्ष्म जगत का प्रभाव

सत रज एवं तम को गुणों के आधार पर सतोगुण रजोगुण एवं तमोगुण कहते हैं, प्रवृत्ति के आधार पर सात्विक
राजसिक एवं तामसिक कहते हैं इन तीनों का स्वभाव क्रमशः प्रकाश गति एवं स्थिति है। प्रकृ ति में उपरोक्त तीनों
गुण होते हैं इसलिए प्रकृ ति को त्रिगुणात्मक कहते हैं।प्रकृ ति में ये तीनों गुण साथ-साथ चलते हैं जब एक गुण उभरता
है तब अन्य दो गुण दबे हुए रहते हैं कोई वस्तु जो स्थिर है उर्जा प्राप्त होने पर इसके परमाणुओं में गति उत्पन्न हो
जाती है एवं गति बढने पर इसमें प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। जब एक वस्तु स्थिर होती है तब उसमें तमस् प्रधान
होता है रजस् एवं सत्व गौण रूप से रहते हैं जब यह वस्तु क्रिया वाली होती है तब इसमें रजस् प्रधान होता है सत्व
और तमस् गौण रूप से रहते हैं यही वस्तु जब प्रकाश वाली हो जाती है तब इसमें सत्व प्रधान हो जाता है रजस् और
तमस् गौण। जड स्थूल वस्तु परिणामी नित्य होती है अर्थात् इसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है यह एक पल भी
बिना परिवर्तन के नहीं रहती इसमें यह परिवर्तन चेतन द्वारा प्राप्त प्रेरणा के अनुसार होता है।

मनुष्य पर जब सत का प्रभाव होता है तब शरीर में हल्कापन सुख शांति एवं निष्क्रियता उत्पन्न करता है तथा
मनुष्य का ईश्वर की ओर झुकाव होता है। जब रजस् प्रधान होता है तब सत् और तम् को दबाकर दुखः वृत्ति को
उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य की जड वस्तुओं के प्रति आसक्ति बढती है एवं वह उन्हें प्राप्त कर दुखः निवृत्ति एवं
सुख प्राप्ति हेतु प्रयास करता है परंतु जड वस्तु स्वयं दुख का कारण होती है जैसे ही वह एक वस्तु को प्राप्त करता
है यह अपने साथ अन्य दुखों को ले आती है एवं मनुष्य उस वस्तु से प्राप्त दुखों की निवृत्ति के लिए प्रयास करने
लगता है इसी प्रकार जीवन की दौड बढती जाती है और अंत में वह सुख प्राप्ति के लक्ष्य को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु
को प्राप्त होता है। मान लो सवारी का सुख प्र्राप्त करने के लिए हमने एक वाहन खरीद लिया जिससे सवारी का सुख
तो प्राप्त हो जाता है परंतु इसके साथ अन्य दुख एवं भय भी साथ आ जाते हैं जैसे- इसके चलाने के लिए ईंधन एवं
रखरखाव के रूप में प्राप्त दुख तथा चोरी दुर्घटना के रूप में प्राप्त भय आदि। इस प्रकार सभी जड वस्तुओं सजीव एवं
निर्जीव में आसक्ति जिन पर मनुष्य जीवन भर अपना अधिकार जताता रहता है उसके दुख का मूल कारण होती है।

मनुष्य पर जब तम् का प्रभाव होता है तब शरीर में निष्क्रियता भारीपन आलस्य निद्रा एवं घोर मोह वृत्ति को
उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य की सुख प्राप्ति की लालसा बढती है परंतु वह उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं
करता एवं अपनी स्थिति के लिए भाग्य को ईश्वर को अन्य व्यक्ति को या संबंधियों को दोषी मानता है एवं घोर दुखः
का अनुभव करता है। इसके लिए परिस्थिति किसी प्रकार जवाबदेह नहीं होती , सुख एवं दुख सिर्फ अनुभव की वस्तु
है चाहे परिस्थ्ति कै सी भी हो । सत के प्रभाव से भी शरीर में निष्क्रियता उत्पन्न होती है परंतु भारीपन, आलस्य,
निंद्रा एवं मोह वृत्ति के स्थान पर हल्कापन, स्फू र्ति, जागृति एवं त्याग भावना होती है सत के प्रभाव से मनुष्य जड
वस्तु के अभाव में भी सुख का अनुभव करता है परंतु तम के प्रभाव के कारण जड वस्तुओं के अभाव में घोर दुःख
का अनुभव करता है। अतः तम के प्रभाव से मनुष्य सिर्फ दुःख का अनुभव करता है, रज के प्रभाव से सुख और दुख
दोनों का अनुभव करता है एवं सत के प्रभाव से सिर्फ सुख का अनुभव करता है। जिस प्रकार स्थूल जगत में तापक्रम
कम अधिक होने से द्रव्य ठोस , द्रव एवं वायु रूप में बदलता रहता है ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में ज्ञान के कम
अधिक होने से सत रज एवं तम अवस्था बदलती रहती है अज्ञान के कारण मनुष्य तम के प्रभाव में रहता है अर्थात्
अज्ञान ही दुःख का कारण होता है।

विज्ञान एवं आध्यात्म में अंतर

जैसा ऊपर बताया गया है प्रकृ ति में उपरोक्त तीनों गुण होते है अतः हमारे शरीर का प्रत्येक परमाणु उपरोक्त तीनों
गुणो से युक्त होता है। मनुष्य के लिए दो रास्ते होते है, एक अंत की ओर जाता है दूसरा अनंत की ओर जाता है इसे
हम इस प्रकार समझ सकते है हम यदि किसी भी वस्तु को ले लें एवं इसकी परतें निकालना शुरू करें तो कु छ समय
बाद अंतिम परत निकालनें के बाद इसमें ईश्वर के अलावा कु छ भी शेष नहीं बचेगा यह हमारे कार्य का अंत होगा
यदि हम इस पर परतें चढाना शुरू करतें है तब यदि हम अनंत काल तक भी इस कार्य को करतें रहे तब भी इसका
कोई अंत नहीं आएगा। विज्ञान एवं आध्यात्म मे यही अंतर है, विज्ञान अनंत रास्ते पर चलता है तथा आध्यात्म अंत
के रास्ते पर चलता है। विज्ञान स्थूल पर विश्वास करता है तो आध्यातम सूक्ष्म पर , विज्ञान जिसे ज्ञान कहता है
आध्यातम उसे अज्ञान कहता है। विज्ञान का कहना है कि हमारे पूर्वज बानर थे अब हम ज्ञानवान होकर उन्नति कर
रहे है, आध्यत्म का कहना है कि हमारे पूर्वज ब्रह्मज्ञानी ॠषि मुनि थे एवं अब हम अज्ञानी होकर पतन की ओर बढ
रहे है। वैसे इस ब्रह्मांड में जिस चीज का जन्म होता है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव विनाश मृत्यु की ओर ही
बढती है, यह ब्रह्मसत्य है, इस सिध्दांत के अनुसार आध्यात्म का कथन सही प्रतीत होता है। विज्ञान का न तो कोई
अंतिम लक्ष्य निर्धारित है न तो कोई अंतिम फल निर्धारित है, परंतु आध्यातम का अंतिम लक्ष्य भी निर्धारित है और
अंतिम फल भी निर्धारित है। इसका लक्ष्य है ईश्वर से साक्षात्कार एवं फल मोक्ष है। विज्ञान का अंतिम परिणाम यही
हो सकता है कि थककर या किसी गड््रढे में गिरकर विनाश। इसी तथ्य को समझकर हमारे ब्रह्यज्ञानी पूर्वजों ने अंत
के रास्ते को चुना, क्योंकि अनंत के रास्ते पर चलकर जीव अनंत काल तक विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ
दुःख निवृति के लिए ही प्रयास करता रहेगा, तथा अंत के रास्ते पर चलकर मोक्ष प्राप्त कर ईश्वर में लीन होकर
जन्म मृत्यु से छु टकारा प्राप्त कर लेगा।

सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का तरीका

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां दो प्रकार से काम करतीं हैं, एक अंर्तमुखी होकर दूसरा बहिर्मुखी होकर परंतु साधारण अवस्था
में मनुष्य को यह ज्ञान नहीं हो पाता कि उसकी ज्ञानेन्द्रियां अंर्तमुखी होकर भी काम करतीं हैं। ज्ञानेन्द्रियां जब
अंर्तमुखी हो जातीं हैं तब ये सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं साधारण अवस्था में बहिर्मुखी रहने पर इनकी आसक्ति
आजीवन स्थूल जगत में ही बनी रहती है। ईश्वर ने इस प्रकार की व्यवस्था सिर्फ मनुष्य के शरीर में ही की है अन्य
किसी प्राणी में नहीं अतः मनुष्य योनि में ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है अन्य किसी योनि में नहीं। ज्ञानेन्द्रियों
को अंतरमुखी बनाने के लिए साधना व अभ्यास की आवश्यकता होती है। साधना दो प्रकार की होती है।

1 निष्काम साधना 2 सकाम साधना।

निष्काम साधना का उद्देश्य सिर्फ ईश्वर से साक्षात्कार एवं मोक्ष प्राप्ति होता है इसमें किसी प्रकार के भौतिक सुख
संपत्ति की चाह या फल की इच्छा नहीं होती, इसमें किसी प्रकार के फल परिणाम की इच्छा रहने पर साधना में
सफलता नहीं मिलती। निष्काम साधना से ही ज्ञानेन्द्रियों को अंर्तमुखी बना सकते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं,
साधना का माध्यम ध्यान होता है चित्त की वृत्तियों को सभी विषयों से हटाकर एक लक्ष्य पर के न्द्रित करने को
ध्यान कहते हैं।

ध्यान के द्वारा हमारा शरीर सूक्ष्म उर्जा प्राप्त करता है इससे हमारे शरीर में स्थित छः चक्र जाग्रत होने लगते हैं,
साधारण अवस्था में ये चक्र्र सुप्तावस्था में रहते हैं परंतु निरंतर ध्यान के अभ्यास से ये जाग्रत होने लगते हैं, इनके
जाग्रत होने से ज्ञानेन्द्रियां सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं जिससे मनुष्य की स्थूल जगत में आसक्ति कम होने लगती
है एवं सूक्ष्म जगत में बढने लगती है तथा यथार्थ ज्ञान प्राप्त होने लगता है। साधना से सर्वप्रथम आत्मबल, आत्मबल
से ज्ञान, ज्ञान से वैराग्य, वैराग्य से समाधि एवं समाधि से के वल्य अवस्था की प्राप्ति होती है के वल्य अवस्था में ही
मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। यहां वैराग्य का मतलब घर द्वार छोडक़र निर्जन स्थान में चले जाना नहीं है, स्थूल
जगत में आसक्ति समाप्त हो जाना ही वास्तविक वैराग्य है इस स्थिति में मनुष्य जो भी कार्य करता है वे ईश्वर को
समर्पित निष्काम भाव से होते हैं अतः इससे किसी प्रकार के कर्मफल नहीं बनते, ध्यान के लम्बे समय तक स्थिर
रहने को समाधि कहते हैं, मन में सिर्फ ईश्वर का शेष बचना के वल्य अवस्था कहलाती है। यह सब कार्य गृहस्थ
जीवन में भी आसानी से किए जा सकते हैं, इसके लिए प्रतिदिन दो घंटे का समय आवश्यक है। इस कार्य को सुबह 4
से 8 के बीच किया जा सकता है, इससे दैनिक कार्य किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं होते बल्कि और अच्छी तरह
सुगमता से होने लगते हैं कभी कभी तो ऐसे कार्य भी आसानी से हो जाते हैं जिनके होने की कोई उम्मीद नहीं होती।
इसके लिए साधना को दिनचर्या में इतना आवश्यक बनाना होता है जितना कि प्रतिदिन भोजन आवश्यक है एक दो
महीने के प्रयास से यह आवश्यक दिनचर्या में शामिल हो जाता है।

ध्यान

ध्यान के सैकडों तरीके होते हैं। इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए जो सुगमता से किया जा सके उसे अपना लेना चाहिए।
गायत्री मंत्र का जप इसका सबसे प्रभावशाली एवं आसान तरीका है, स्वस्थ सुखी एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए इससे
अच्छा कोई दूसरा साधन इस धरती पर नहीं है, मंत्र इस प्रकार है -

ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेन्यं भर्गौ देवस्य

धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।


जिसका अर्थ इस प्रकार है -

''सब प्राणियों के परम माता पिता ही सब जगत को उत्पन्न करने वाले ज्ञान रूप प्रकाश के देने वाले देव के उस
उपासना करने योग्य शुध्द स्वरूप का हम ध्यान करते हैं, वे हमारी बुध्दियों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करें।

मंत्र एवं इसके अर्थ को अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए, यह इस तरह याद हो जाना चाहिए कि मंत्र के साथ
मातृभाषा में अर्थ का चिंतन होता रहे क्योकि अर्थ के अनुरूप ही ध्यान करना होता है उच्चारण भी शुध्द होना चाहिए
गलत उच्चारण से अर्थ बदल सकता है। मंत्र जप के समय अर्थ के अनुरूप ऐसा ध्यान करें कि सूर्य या गायत्री माता
के प्रभामंडल से निकलने वाला प्रकाश हमारे शरीर के अंग प्रत्यंग में प्रवेश कर रहा है एवं इससे हमारा शरीर
स्फू र्तिवान हो रहा है। जप के समय महत्व ध्यान का ही होता है , संख्या या समय पूरा करने का नहीं ध्यान की
जितनी अच्छी योग्यता होगी परिणाम उतना ही अच्छा प्राप्त होगा। कु छ समय बाद जब ध्यान की योग्यता प्राप्त हो
जाए तब इसी ध्यान को आज्ञाचक्र पर करना शुरू करें । इसके लिए दृढ श्रध्दा विश्वास एवं लगन का होना आवश्यक
है। साधना से संबंधित संक्षिप्त नियम एवं तरीका जानने के लिए गायत्री प्रार्थना एवं विस्तृत जानकारी के लिए गायत्री
महाविज्ञान नाम की पुस्तक देखें ये किताबें किसी भी गायत्री मंदिर से प्राप्त की जा सकती हैं।साधना के लिए रीढ क़ी
हड्डी को सीधा रखते हुए बैठना चाहिए साधना के समय शरीर का धरती या दीवार से सीधा संपर्क न रहे यदि सीधा
बैठने में किसी प्रकार की परेशानी है तब लकडी क़े तख्ते का सहारा ले सकते है। इसके साथ ही दैनिक जीवन में
सात्विक आहार, सात्विक व्यवहार, एवं नियमित तथा सात्विक दिनचर्या अपनाने का अभ्यास करते रहना चाहिए।
निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए

1 स्थान स्वच्छ मन के अनुकू ल एवं शोरगुल रहित हो।

2 ध्यान करते समय शारीरिक या मानसिक कष्ट न हो।

स्थान की भौगोलिक स्थिति का भी बहुत महत्व होता है। इसके लिए किसी बडी नदी, बडी झील या किसी पर्वत
श्रृंखला के आसपास बसे हुए स्थान अधिक उपयुक्त होते हैं परंतु समुद्री टापू या समुद्र के किनारे बसे स्थान उपयुक्त
नहीं होते क्योकि समुद्र के किनारे धरती की सबसे निचली सतह होती है अतः यहां वायुमंडल में भारीपन अधिक होता
है जो ध्यान के लिए उपयुक्त नहीं है जैसे जैसे हम उपर की ओर बढते जाते हैं अनुकू लता बढती जाती है इस
सिध्दांत के अनुसार हिमालय पर्वत श्रृंखला एवं यहां से निकलने वाली नदियों के किनारे बसे गांव व शहर सर्वोत्तम
स्थान माने जाते हैं मध्यम ऊं चाई के स्थान भी उत्तम होते हैं।

निष्काम एवं सकाम साधनाएं

निष्काम साधना के तीन मार्ग होते हैं --

1 ज्ञान मार्ग 2 कर्म मार्ग 3 भक्ति मार्ग ।

ज्ञान मार्ग के दो प्रकार होते हैं _ 1 सांख्य 2 योग ।

सांख्य में 25 तत्व बतलाए गए हैं इनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। योग के
आठ अंग बतलाए गए हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इन दोनों में सांख्य
कठिन एवं योग सरल तरीका है, इन दोनों के अंतर को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानलो एक बडा जलाशय या
समुद्र है हमें इसके तल तक पहुंचना है, इसके दो ही तरीके हो सकते हैं या तो गोता लगाकर तल तक पहुंचा जाय या
पहले जल को खाली किया जाय फिर तल तक पहुंचा जाय, इस प्रकार जल को खाली करके तल तक पहुंचना सांख्य
है एवं गोता लगाकर तल तक पहुंचाना योग है, इसलिए अधिकांश लोग योग को ही अपनाते हैं क्योंकि इसमें समय
कम लगता है एवं सफलता मिलना निश्चित होता है। समय संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ संसकार एवं बुध्दि के उपर
निर्भर करता है। योग में बतलाए गए आठ अंग ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीढी क़ा काम करते हैं, इसमें बिना पहली
सीढी क़ो पार किए अगली सीढी पर पहुंचना असंभव है, परंतु आजकल देखा जाता है कि लोग जगह जगह ध्यान एवं
योग की पाठशालाएं चलाने लगते हैं जिनका उद्देश्य या तो व्यवसायिक होता है या अपनी पहचान बनाना होता है, यह
उसी प्रकार है जिस प्रकार यदि किसी बच्चे को जिसको अक्षर ज्ञान न हो और हाई स्कू ल की कक्षा में बैठा दिया
जाय, क्योंकि बिना यम नियम को अपनाए आसन प्राणायाम या ध्यान पर अधिकार पाना संभव नहीं है, योग में एक
सीढी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाने पर ही अगली सीढी पर पहुंचा जा सकता है।

कर्ममार्ग के अनुसार प्रत्येक वस्तु में ईश्वर की उपस्थिति को मानते हुए श्रृध्दा पूर्वक व्यवहार करना एवं निष्काम भाव
से अपना कर्म करना बतलाया गया है।अपने इष्ट को निष्काम भाव से आत्मसर्मपण कर देना भक्तिमार्ग है। मनुष्य
किसी भी मार्ग को अपनाए परंतु सबका आदि और अंत एक ही होता है चाहे कोई भी मार्ग हो या कोई भी धर्म हो
सबको एक ही जगह ईश्वर तक पहुंचना होता है।

सकाम साधनाओं का विज्ञान निष्काम साधना से कु छ भिन्न होता है जिसके अनुसार ईश्वर सृष्टि का संचालन तीन
शक्तियों द्वारा करता है इन्हें बह्मा, विष्णु एवं शिव कहते हैं इनमें ब्रह्मा का कार्य पैदा करना, विष्णु का पालन
करना एवं शिव का कार्य अंत करना है प्रत्येक की लाखों शाखाएं हैं, धर्म ग्रन्थों में सात्विक, राजसिक एवं तामसिक
शक्तियों को मिलाकर इन्की संख्या 33 करोड बताई गई है जिसे देवता एवं राक्षस कहते हैं एक देवता एवं राक्षस का
एक विषेश गुण होता है, मनुष्य में ये सभी गुण मौजूद होते हैं हम जिस देवता की उपासना करते हैं उससे संवंधित
गुणों की वृध्दि हमारे शरीर में होने लगती है परंतु इन साधनाओं में भी ध्यान की स्थिरता आवश्यक होती है बिना
ध्यान में सिध्दि प्राप्त किए कोई व्यक्ति इनसे किसी प्रकार का लाभ नहीं ले सकता। ये साधनाएं सात्विक, राजसिक
एवं तामसिक होतीं हैं ये मंत्र, यंत्र, तंत्र, एवं योगिक क्रियाओं द्वारा की जातीं हैं प्रत्येक साधना के साथ कर्मकांड हवन
पूजन आदि जुडे रहते हैं कर्मकांड का प्रभाव प्रकृ ति पर होता है ये साधना के लिए अनुकू ल वातावरण निर्मित करते हैं।
यौगिक क्रियाओं का अभ्यास कर कु छ साधुभेषधारी लोग चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रवाहित करते एवं ठगते हैं इन
चमत्कारों का ईश्वर से कोई लेना देना नहीं होता न ही इनमें किसी प्रकार की ईश्वरीय शक्ति होती है।

धर्म के विज्ञान को समझे बिना धर्म का अनुसरण करना अंधविश्वास कहलाता है, जो कि एक मानसिक बीमारी है
जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में धार्मिक पागलपन कहते हैं, जिसका प्रभाव आज सांप्रदायिक झगडों के रूप में
सभी देख रहे हैं। अच्छे पढे लिखे एवं उच्च वर्ग के व्यक्त्ति भी इस बीमारी से ग्रस्त होते हैं। सभी धार्मिक कर्मों का
व्यवहार सूक्ष्म जगत् में होता है अतः इनमें कर्म के साथ मानसिक भावनाओं का ही महत्व होता है इसके लिए
ज्ञानेन्द्रियों को अंतर्मुखी बनाना आवश्यक है।

मनुष्य की स्थूल जगत् में आसक्त्ति मनुष्य को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह रूपी पांच बंधनों में बांधती है, मनुष्य
के मन में हमेशा इन पांच बंधनों से संबंधित विचार ही उत्पन्न होते रहते हैं इनमें मनुष्य की जितनी आसक्त्ति
बढती है उतना ही अधिक वह दुःखी होता जाता है। इन पांच बंधनों को तोड देने अर्थात् इन पर विजय प्राप्त कर लेने
से ही ईश्वर से साक्षात्कार करने का रास्ता प्राप्त होता है इन बंधनों को तोडने के लिए प्रत्येक धर्म में सैकडों तरीके
बताए गए हैं।हमारे देश में रोज हजारों ज्ञानी धर्म पर प्रवचन करते हैं धार्मिक साहित्य की लाखों किताबें उपलब्ध है,
लोग हमेशा प्रवचन सुनते है, धार्मिक पुस्तकें भी पढते हैं एवं समझते भी है तथा दूसरों से इस प्रकार के व्यवहार की
अपेक्षा करते है परंतु स्वयं इसका अनुसरण नहीं कर पाते क्योंकि इसके लिए लंबे समय तक कठिन अभ्यास की
आवश्यकता होती है। आज इस युग में मनुष्य धन को ही सुख का साधन समझता है, क्योंकि आत्मनिर्भरता बिल्कु ल
समाप्त हो चुकी है, मनुष्य आज छोटी से छोटी चीज के लिए दूसरे पर निर्भर है, मनुष्य की इसी कमजोरी का फायदा
उठाकर पूंजीपति मनुष्य के श्रम का लगभग 80 प्रतिशत् भाग ले लेते है। धन से मनुष्य भौतिक सुख प्राप्त कर
सकता है परंतु उसे मानसिक आध्यात्मिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता, मानसिक सुख प्राप्त करने के लिए स्थूल जगत्
में आसक्ति को समाप्त कर सूक्ष्म जगत् में बढाना होता है। जो मनुष्य एक बार आध्यात्मिक सुख का अनुभव कर
लेता है उसके लिए भौतिक सुख किसी काम का नहीं होता, परंतु आज स्थूल जगत् में आसक्त्त मनुष्य यदि ईश्वर
का नाम भी लेता है तो उसमें भी उसका स्वार्थ छिपा होता है, जबकि स्वार्थ का इस क्षेत्र से कोइ संबंध नहीं है।
कारण जगत या Causal World..!

सामन्यतः ब्रह्माण्ड की तीन अवस्थाओं का जिक्र होता है जैसे:-


1.स्थूल जगत
2.सूक्ष्म जगत
3.कारण जगत

स्थूल जगत माना पाँच तत्वों की दुनिया जिसको कि मृत्यु लोक भी कहते हैं।यहाँ पर मनुष्य रहते हैं और धर्म
के नाम पर झगड़े होते रहते हैं। तत्वों में भारीपन रहता है।

सूक्ष्म जगत में तीन तत्वों वाली आत्मायें रहती हैं। जब कोई भी मनुष्य शरीर छोड़ता है तो उसकी आत्मा सूक्ष्म
जगत में जाती है।सूक्ष्म जगत में कई लेयर्स हैं। धरती के आस-पास चारों ओर अलग-अलग धर्म गुरु और धर्म
पिताओं के लेयर्स हैं।मृत्यु के बाद जो आत्मा जिस धर्म गुरु या धर्म पिता को याद करती है वो उसके पास चली
जाती है।अगर आज के हिसाब से देखें तो सूक्ष्म जगत में भी कई साधु सन्तों के आश्रम हैं।

सूक्ष्म जगत में guideline देने वाले भी होते हैं जो आत्माओं को पुरुषार्थ करने के लिए समझाती हैं।

कारण जगत माना परमतत्वों कि दुनिया।जब इस ब्रह्माण्ड के मालिक शिव ने ब्रह्मा द्वारा सृजन करवाया तो
सबसे पहले परमतत्वों की दुनिया बनी और high quality देवता याने फरिश्ता बने। फरिश्ता मतलब जिनका
फर्श वालों से कोई रिश्ता नहीं होता तथा जिनका परमतत्वों का शरीर होता है । या यूँ कहें कि कारण जगत में
परमतत्वों के शरीर वाली आत्मायें रहती हैं। जैसे हिन्दू शास्त्रों के अनुसार विष्णुपुरी समझिए वैकुं ठ।तो वैकुं ठ को
कारण जगत कहेंगे और शिवपुरी को महाकारण जगत कहेंगे।शिवपुरी में महाकारण शरीर होता है।

कारण जगत के भी कई लेयर्स हैं।कारण जगत में तीन तत्वों के 10% वाली आत्मायें हैं।

कारण जगत में भी स्थूल जगत की तरह नदी,पहाड़ आदि होते हैं परंतु वे परमतत्वों के होते हैं।अर्थात वहाँ सब
कु छ परमतत्वों का होता है।कारण जगत में जाने के लिये देवताओं को भी पुरुषार्थ करना पड़ता है।जब सूक्ष्म
जगत से आत्मायें कारण जगत में आती हैं तो आत्मायें अपना कर्म भोग खत्म करके आती हैं।वहाँ आत्माओं के
अंदर भोग विलास की कोई इच्छा नही होती उनकी stage इच्छा मात्रम अविद्या होती है जबकि सूक्ष्म जगत में
भी स्थूल जगत जैसी भोग विलासिता होती है।

कारण जगत में भी guide line वाले होते हैं जो आत्मा को आगे पुरुषार्थ करने के लिये समझाते हैं कि तुम्हें
शिव समान नहीं बनना बल्कि ऊपर जाना है।जैसे ही वो ऊपर जाएँगी तो उनका कारण शरीर मिट जाएगा और
वो निराकारी अवस्था में आ जाएंगी।

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यथा ब्रह्माण्ड तथा पिंड: आध्यात्मिक विज्ञान


यथा ब्रह्मांड तथा पिंड
मनुष्य की जीवन एक रहस्य है और जीवन की लक्ष्य एक खोज है। मनुष्य के हर कार्य अपने से निर्धारित
किया हुआ लक्ष्य से प्रेरित होता है। आज के समय में मनुष्य अत्यधिक परिमाण से भौतिक जगत में फ़सा
हुआ है और भौतिक प्राप्ति को अपना लक्ष्य बना लिया है। पहले के समय में वेद शास्त्र की अध्ययन होता
था तो मनुष्य अपने मूल स्वरूप की ज्ञान प्राप्त कर पता था। दो प्रकार के ज्ञान है एक जड़ की ज्ञान दूसरा
है चेतन की ज्ञान। आज जो हम स्कू ल या कॉलेज में पढ़ रहे है यह जड़ बस्तु की ज्ञान है लेकिन वेद शास्त्र
में चेतन शक्ति के ज्ञान के बारे में बताया गया है।
चेतन शक्ति के बारे में जानने को अध्यात्म विज्ञान कहा जाता है जिसमे आत्मा के ऊपर अध्ययन किया
जाता है। इसलिए भागवत गीता में ज्ञान विज्ञान योग में श्री कृ ष्ण अर्जुन को कहते हैं
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ ७-२

आज इसके ऊपर चर्चा करेंगे की यह जो मनुष्य के शरीर है यह अध्यात्म विज्ञान के हिसाब से क्या है?
आज के चिकित्सा विज्ञान में यह के वल एक भौतिक शरीर है जिसमे रक्त , मांस इत्यादि से बना हुआ है
और इसमे अनेक रासायनिक क्रियाएं होती रहती है जो शरीर को संचालन करती है। अध्यात्म विज्ञान के
हिसाब से यह शरीर चेतन पुरुष और जड़ प्रकृ ति के मिलन से बना है। यह शरीर जड़ और चेतन के संयोग
से बना है। यह शरीर हमारे ब्रह्मांड के एक छोटा प्रतिकृ ति है अर्थात शरीर और ब्रह्मांड की गठन में सम्पूर्ण
समानता है।
१.यह शरीर पाँच तत्व से बना है और हमारा ब्रह्मांड भी पाँच तत्व से बना है ।
२.यह शरीर के संचालक आत्मा है तो ब्रह्मांड के संचालक परमात्मा है।
३.मनुष्य आत्माओं के प्रधानतः तीन शरीर है : स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, ऐसे ही ब्रह्मांड के
भी अनेक आयाम है यानि हमारे ब्रह्मांड में भी स्थूल जगत , सूक्ष्म जगत और कारण जगत है।
४.आती सूक्ष्म में देखा जाए तो उच्च श्रेणी के आत्माओं के परम तत्व के शरीर भी रहता है ऐसे ही ब्रह्मांड
में भी परम तत्व की जगत है जिसको हम महा कारण जगत कहते हैं।
इसलिए योगी अपने शरीर के अंदर ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की दर्शन कर लेते है और योगी अपने योग शक्ति से
पूरा ब्रह्मांड के रहस्य को प्रकट कर लेते हैं। इसका प्रमाण द्वापर में एक घटना से भी होता है जब जोशोदा
मैया ने श्री कृ ष्ण के मुख के अंदर अनंत कोटी ब्रह्मांड की दर्शन की थी। यह एक प्रतीक है जिससे परम
पिता परमात्मा सम्पूर्ण ब्रह्मांड को अपने पिंड में दिखाया अर्थात ब्रह्मांड जिस तत्व से निर्माण होती है पिंड
यानि आत्मा की शरीर भी वही तत्व से बनती है। जब कोई मनुष्य यह रहस्य को समझ जाता है और
अपने शरीर में पुर ब्रह्मांड की अनुभूति करता है उसकी आध्यात्मिक ज्ञान की प्रारंभ होना सुरू हो जाता है।
सम्पूर्ण ज्ञान के लिए कृ पया यह यूट्यूब चैनल देखिए : बापूजी दशरथ भाई पटेल - यूट्यूब (इंग्लिश में
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कर्म करता है स्थूल शरीर और फल भोगता है-सुक्ष्मशरीर.

कर्म करता है स्थूल शरीर


और
फल भोगता है-सुक्ष्मशरीर.

सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥

भावार्थ:-शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल
पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥

सूक्ष्म शरीरधारी आत्मा सूक्ष्म जगत में अपनी इच्छानुकू ल सृष्टि कर लेती है। जैसे वातावरण की उसे इच्छा
होती है, वैसा वातावरण बना लेती है और उसमें रहती भी है। वह सृष्टि या वातावरण बिलकु ल वैसा ही होता
है जैसाकि उसके जीवनकाल में रहा था। सृष्टि और वातावरण आत्मा के स्वभाव और संस्कार और चरित्र
पर निर्भर करता है।

जीवनकाल में मनुष्य जैसे अपनी कल्पना के आधार पर सुख-सुविधा की व्यवस्था कर लेता है, वैसे ही मृत्यु
के बाद भी वह अपने लिए सारी व्यवस्था कर लेता है। अन्तर के वल यह है कि जीवनकाल में वह मृत्युलोक
में होता है और इस लोक में सबकु छ अपने विचारों और इच्छाओं को मूर्त रूप देने के लिए उसे कर्म का
आश्रय लेना पड़ता है। बिना कर्म किये यहाँ कु छ भी सम्भव नहीं है, इसलिए इसको कर्मभूमि कहा गया है।

सच तो यह है कि मनुष्य भीतर जैसा है, वही उसका वास्तविक स्वरुप होता है, वैसा ही वातावरण अपने
आप तैयार हो जाता है उसके लिए। हम भीतर से दुष्ट हैं, लेकिन बाहर सज्जनता का चोंगा पहने हुए हैं। तो
दूसरों को तो अपने दिखावटी रूप से धोखा दे सकते हैं, लेकिन अपनी आत्मा को नहीं। निश्चित ही मृत्यु
और पुनर्जन्म के बीच एक ऐसा जीवन है जो भौतिक जीवन के समान ही होता है, के वल भौतिक शरीर नहीं
होता। संस्कार तो वही रहते हैं और संस्कार ही हमारे लिए सृष्टि कर लेते हैं।

सूक्ष्म शरीर के विषय में और जान लेना आवश्यक है। तीन शरीरों के अतिरिक्त दो और शरीर हैं जो अपने
आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वे दो शरीर हैं--मनोमय शरीर और आत्म शरीर। योग विज्ञान के अनुसार
वासना शरीर, सूक्ष्म शरीर, मनोमय शरीर और आत्म शरीर बीज रूप में स्थूल शरीर में विद्यमान रहते हैं
जिनको कोष कहते हैं। पहला कोष है--अन्नमय कोष। इसी कोष का संस्कार रूप है--अन्न के तत्वों से
निर्मित स्थूल शरीर।

जैसे स्थूल शरीर का निर्माण अणुओं के समूहों(कोशिकाओं) से होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की रचना
होती है परमाणुओं के सूक्ष्मतम वैद्युतिक कणों से और उन्हीं वैद्युतिक कणों के प्रभाव में विद्यमान रहते
हैं पिछले कई जन्मों के हमारे विचार, हमारे अच्छे -बुरे कर्मों के संस्कार, हमारा ज्ञान, हमारी विद्वता, हमारे
अनुभव, हमारे अच्छे -बुरे भाव और इन सबके अतिरिक्त रहती हैं--हमारी इच्छाएं, कामनाएं, अभिलाषाएं,
आकांक्षाएं, वासनाएं, हमारी आशाएं-निराशाएं और हम अपने जीवन काल में जो कु छ कर रहे हैं--उन सबका
सार तत्व।

अब प्रश्न यह है कि सुक्ष्मशरीर होता कै सा है?


जैसे स्थूल शरीर चमड़ी का है और उसके भीतर नस-नाड़ियां, हड्डियां मांस मज्जा आदि भरे रहते हैं, उसी
प्रकार प्राणऊर्जा के भीतर वैद्युतिक कण समाये रहते हैं। प्राणऊर्जा से निर्मित सूक्ष्म शरीर का आकार-प्रकार
और रूप-रंग वर्तमान में उसके द्वारा छोड़े गए मृत स्थूल शरीर जैसा ही होता है। किञ्चित् मात्र भी अन्तर
नहीं होता।

वही सुक्ष्मशरीर समयानुसार जब अगले जन्म में नया स्थूल शरीर ग्रहण करता है तो उसका आकार-प्रकार
और रूप-रंग उसी नए स्थूल शरीर के अनुरूप हो जाता है। इस बीच यदि उस सूक्ष्म आत्मा का किसी
कारणवश आवाहन करना हो और उसने अभी तक पुनर्जन्म नहीं लिया है तो वह अपने पूर्व जन्म के स्थूल
शरीर के अनुरूप सूक्ष्म शरीर में थोड़े समय के लिए प्रकट हो जाता है। ऐसा करने में उसे कोई ज्यादा कष्ट
नहीं होता है।

भूमण्डल के वातावरण में बिखरे अपने पूर्व जन्म के स्थूल कणों को थोड़े समय के लिए संयोजित कर वह
प्रकट हो जाता है। पर यदि उसने कहीं जन्म भी ले लिया है तो भी अल्प समय के लिए आवाहन किये
जाने पर उसे आना पड़ता है, ऐसी स्थिति में उसे थोड़ा कष्ट होता है, थोड़ी असुविधा होती है, पर वह आ
सकता है--इसमें सन्देह नहीं है।

आत्मा एक स्वतंत्र सत्ता है। शरीर परतंत्र है। वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। मन भी परतंत्र है लेकिन
प्रयत्न करने पर वह स्वतंत्र हो सकता है। आत्मा सदैव स्वतंत्र है, वह कभी भी किसी भी अवस्था में परतंत्र
नहीं हो सकती।

लेकिन शरीर के अभाव में वह रह ही नहीं सकती। चाहे शरीर कोई भी हो। अवस्था के अनुरूप शरीर बदलती
रहती है, आत्मा बराबर। वैसे आत्मा के वाहक रूप में सात शरीर हैं जिनमें प्रथम दो शरीर--स्थूल शरीर और
सूक्ष्म शरीर आत्मा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसलिए कि स्थूल शरीर कर्मशरीर है और सूक्ष्म शरीर
है--भोगशरीर।

जीवन काल में कर्म तो करता है, स्थूल शरीर लेकिन उसके फल का भोग करता है--उसके भीतर दूध-पानी
की तरह घुला हुआ सूक्ष्म शरीर। जब वह स्थूल शरीर से मृत अवस्था में अलग हो जाता है तो शेष
कर्मफलों को वही भोगता है। स्थूल शरीर के रहते कर्मफल भोगने में स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों भागीदार
रहते हैं--चाहे सुख हों या दुःख हों। उनका अनुभव दोनों शरीरों को होता है, पर मृत हो जाने पर स्थूल शरीर
छू ट जाता है और ऐसी स्थिति में कर्मफल का भोग करता है, सुक्ष्मशरीर।

जन्म-मृत्यु के मूल में या आवागमन के मूल में कर्म और उसके फल का ही भोग समझना चाहिए। स्थूल
शरीर के लिए हम माता-पिता के ऋणी रहते हैं। स्थूल शरीर की अपनी एक सीमा है, अपनी सामर्थ्य है।
उतने ही दिन वह एक यंत्र की तरह चलता है और फिर एक दिन समाप्त हो जाता है।

जिसे हम जीवन कहते हैं, वह स्थूल शरीर की अपनी एक यात्रा है जो जन्म से शुरू होती है और समाप्त
होती है, मृत्यु के तट पर। दूसरा शरीर सुक्ष्मशरीर पिछले जन्म से आता है और वही यात्रा भी करता है
लोक-लोकान्तरों की और वही शेष कर्मों के फलों को भी भोगता है।

अच्छे -बुरे फलों को भोगता है। अच्छे फलों को भोगता है--स्वर्ग में और बुरे फलों को भोगता है, नर्क के रूप
में। वह बदलता नहीं, उसकी यात्रा रूकती नहीं, उसके कर्म के फल को कोई काट नहीं सकता, न कोई पूजा,
न कोई साधना, न कोई उपासना और न कोई भक्ति। कर्म और उनके फलों का भोग एक अकाट्य सत्य है।

स्वर्ग और नर्क कोई स्थान विशेष नहीं हैं। अच्छे और बुरे कर्मफल स्वयं को भोगने के लिए उसी प्रकार के
वातावरण की सृष्टि कर देता है, वह सुक्ष्मशरीर। सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मान्तर तक ही यात्रा करता रहता है।
उससे मोक्ष आत्मा को तभी मिलता जब वह अपने साधनाबल से उसका अतिक्रमण कर लेता है और
मनोमय शरीर का आश्रय ले लेता है।

यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे

'यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' -चरक संहिता का यह श्लोकांश हमें समझाता है कि जो-जो इस ब्रह्माण्ड में है
वही सब हमारे शरीर में भी है।
यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा
हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये
पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं।
इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ विद्यमान हैं- आकाश
की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर
स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह
भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से
निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है।
पृथ्वी में हर स्थान पर गंध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गंध को सूंघता है और
आनन्दित होता है।
इन पंचमहाभूतों के पाँच गुण हैं जो मनुष्य शरीर में भी होते हैं- आकाश का गुण अप्रतिघात
(non resistance) है। आकाश की तरह पूरे शरीर पर त्वचा का आवरण(covering) है। हमारे शरीर के
छिद्रों से जहाँ प्रतिघात होता है उसे आकाश तत्त्व से उपचार से रोका जाता है।
वायु का गुण चलत्व (mobility) है। हमारा शरीर भी वायु की तरह चलायमान है। इधर-उधर आता-
जाता है।
अग्नि का गुण उष्णत्व (heating) है। अग्नि के समान उष्णता मनुष्य में होती है तभी वह जीवित
रहता है। यदि उसकी उष्णता समाप्त हो जाए तो वह इस दुनिया से कू च कर जाता है।
जल का गुण द्रवत्व (fluidity) है। जल के समान ही मनुष्य में आर्द्रता होती है। तभी दया,
ममता, करुणाआदि गुणों के कारण वह दूसरों के दुख को सुनकर द्रवित हो जाता है।
पृथ्वी का गुण ठोसपन (solidification) है। पृथ्वी की तरह मनुष्य भी ठोस है अन्यथा वह टिक
नहीं सकता हवा में झूलता रहेगा। पृथ्वी की तरह शरीर में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एवं लवण
कै लशियम, पोटाशियम, फासफोरस, सोडियम, लोहा, तांबा, सल्फर आदि विद्यमान हैं।
ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है पर अंतर के वल स्थूल व सूक्ष्म का है। जितने मूर्तिमान भाव
विशेष इस लोक में हैं वे सब मनुष्य में हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक या प्रकृ ति तथा पुरुष में समानता
है। चरक संहिता इसी कथन को हमारे लिए कहती है-
यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषा:।
तावन्त: पुरुषे यावन्त: पुरुषे तावन्तो लोके ॥
ब्रह्माण्ड में चेतनता है तो मनुष्य भी चेतन है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलता फिरता
रहता है। परन्तु जब यह किसी कारण से रोगी हो जाता है और चलने-फिरने में अक्षम हो जाता है तो इसमें
जड़ता आने लगती है। ईश्वर ने बुद्धि के रूप में सबसे अच्छा उपहार इसे दिया है। इस बुद्धि से वह
चमत्कार करता है।
इस प्रकार पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में हैं। जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो
इस ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी

LS04- 02 पिण्ड ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त रूप है ||


मनुष्य शरीर के किस भाग में ब्रह्मांड दिखाई पड़ता है
12/13/2021 - अध्यात्मिक-विचार, पिंड-माहीं-ब्रह्मांड

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LS04 पिंड माहिं ब्रह्मांड / 02


प्रभु प्रेमियों इस पोस्ट में हम लोग जानेंगे कि- पिंड और ब्रह्मांड किसे कहते हैं? पिंड और ब्रह्मांड में
समानता किन कारणों से है ? मनुष्य ब्रह्मांड में सैर कै से कर सकता है ? संतो की दृष्टि में क्षुद्र ब्रह्मांड और
विश्व ब्रह्मांड क्या है ? पिंड में ब्रह्मांड किस तरह समाया हुआ है ? मनुष्य शरीर के किस भाग में ब्रह्मांड दिखाई
पड़ता है ? ब्रह्मांड के चमत्कारी दृश्य कै से देखते हैं? पिंड ब्रह्मांड के नक्शे का गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त नाम
क्या है ? अनंत में सांत , सांत में अनंत का क्या अर्थ है ? पिंड ब्रह्मांड के नक्शा की यथार्थता कितनी है ? अगर
आपको इन बातों को अच्छी तरह समझना है तो इस पोस्ट को पूरा पढें -

इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट में बताया गया है कि मनुष्य शरीर की विशेषता क्या है उसे पढ़ने के लिए 👉 यहां
दबाएं.

पिण्ड ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त रूप है :

प्रभु प्रेमियों ! इस मनुष्य देह को शास्त्रीय भाषा में सामान्यतः पिण्ड कहते हैं और बाहरी जगत्
को ब्रह्माण्ड । आकाश , वायु , अग्नि , जल और मिट्टी - इन पंच महाभूतों से शरीर बना हु आ है । ब्रह्माण्ड
भी इन्हीं पाँच तत्त्वों से निर्मित है । जिस प्रकार शरीर के स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कै वल्य ये
पाँच मंडल हैं , उसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी इन पाँच मंडलों से भरपूर है ।

( पंच भूतात्मको देहः पंच मंडलपूरितः । - वराहोपनिषद् )

शरीर के जिस मंडल में जब रहते हैं , ब्रह्माण्ड के भी उसी मंडल में तब रहते हैं । जिस प्रकार स्थूल
शरीर में रहकर स्थूल संसार में विचरण करते हैं और अपेक्षित व्यवहार भी करते हैं , उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में
रहकर सूक्ष्म ब्रह्मांड की सैर और संभावित व्यवहार किये जा सकते हैं । पिंड और ब्रह्मांड - दोनों में एक ही
सारतत्त्व ( परमात्मा ) व्यापक है ।
[ पिंड ब्रह्मांड पूरन पुरुष , अवगत रमता राम । ( संत गरीब दासजी ) घट औ मठ ब्रह्मांड सब एक है , भटकि
कै मरत संसार सारा । ( संत पलटू साहब ) जोइ ब्रह्मांड सोइ पिंड , अन्तर कछु अहइ नहीं । ( महर्षि मेंहीँ
पदावली , ६५ वाँ पद्य )]

ये दोनों ही सत्त्व , रज , तम इन त्रय गुणों के कार्यक्षेत्र से बाहर नहीं हैं । जो कु छ ब्रह्मांड में है , वही
सब पिण्ड में अवस्थित है - ' यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे । ' इसलिए पिंड ब्रह्मांड का लघु रूप कहा जाता है ।

स्वामी विवेकानन्दजी भी कहते हैं कि हममें से हर एक मनुष्य मानो क्षुद्र ब्रह्मांड है । और सम्पूर्ण
जगत् विश्व ब्रह्माण्ड ( बड़ा ब्रह्माण्ड ) है । जो कु छ व्यष्टि में हो रहा है , वही समष्टि में भी होता है - ' यथा
पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ।' ( विवेकानन्द साहित्य , पंचम खंड ) |

शिव - संहिता ' में भी कहा गया है कि बाहर में जो कु छ है , वह सब शरीर में भी है ; शरीर
को ब्रह्मांड भी कहते हैं. ब्रह्माण्ड संज्ञके देहे यथा देह व्यवस्थितः । सुधारश्मिर्नहिरष्ट मेरुश्रृंगे कलायुतः ॥ यह
तो सर्वसाधारण देखते ही हैं कि पिंड ब्रह्मांड के अंदर है ; परन्तु इस बात की जानकारी सबको नहीं है कि पिंड
में भी ब्रह्मांड है ।

' ज्ञान - संकलिनी तंत्र ' में लिखा गया है कि देह में संपूर्ण ब्रह्माण्ड है '- ' ब्रह्मांडलक्षणं सर्वदेहमध्ये
व्यवस्थितम् । '

संत कबीर साहब ने इस पिंड की तुलना बूँद से और ब्रह्मांड की तुलना समुद्र से करते हुए कहा है कि इस
बात को तो सभी जानते हैं कि बूँद समुद्र में समायी हुई है ; परन्तु इस अद्भुत बात को बिरले ही लोग जा हैं कि
बूँद में समुद्र समाया हुआ है - ' बूँद समानी समुद्र में , यह जानै सब कोय । समुद समाना बूँद में , बूझै बिरला
कोय ॥ ' संत कबीर साहब के समसामयिक संत गुरु नानक देवजी ने भी उनकी बात का समर्थन करते हुए कहा
है कि समुद्र में बूंद है और बूँद में समुद्र है , इस विचित्र बात को कौन समझे और किस विधि से जाने -
' सागर महि बूँद बूँद महि सागरु कवणु बुझे विधि जाणै । '

संत दरिया साहब बिहारी का भी कथन है कि मनुष्य का हृदय अगम्य और अपार समुद्र है । तुम सबमें
हो और सब तुममें है , इस रहस्य को कोई संत ही जानते हैं दरिया दिल दरियाव है , अगम अपार बेअन्त ।
सभ में तोहि तोहि में सभे , जानु मरम कोइ सन्त ॥

संत तुलसी साहब हाथरसवाले भी स्वीकार करते हैं कि पिंड में ब्रह्मांड है | पिंड - ब्रह्मांड के पार में
अनामी पद है । अंधकार , प्रकाश और शब्दरूपी तीनों आवरणों को खोलकर उस अनामी पद में लीन हुआ -
‘ पिंड माहिं ब्रह्मांड , ताहि पार तेहि पद लखा । तुलसी तेहि की लार , खोलि तीनि पट भिनि भई । ' इन्होंने
ही अपनी ' घटरामायण ' नामक पुस्तक में ' जीव का निबेरा ' शीर्षक लम्बे पद्य में अपने ही पिंड में संपूर्ण
ब्रह्मांड के दिखायी पड़ने की चर्चा की है ।

' विनय पत्रिका ' में गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है कि योगी अपने योग- हृदय में संपूर्ण ब्रह्मांड
को देखता है - ' सकल दृस्य निज उदर मेलि , सोवइ निद्रा तजि जोगी । ' ' रामचरितमानस ' , उत्तरकांड में
काग भुशुण्डिजी ने भी गरुड़जी से श्रीराम के मुख में प्रविष्ट होने पर संपूर्ण ब्रह्मांड की लीलाओं और दृश्यों को
देखने की कथा सुनायी है ।
परमाराध्य संत सद्गुरु महर्षि मेंहीँ परमहंसजी महाराज भी अन्य संतों की तरह लोगों को संबोधित करते
हुए कहते हैं कि जब अपने ही पिण्ड में सारा ब्रह्मांड दर्शित हो रहा है , तब अंतर्मुख होने का प्रयत्न छोड़कर
बाहर में क्यों भटक रहे हो ! एकबिन्दुता दुर्बीन हो , दुर्बीन क्या करे । पिण्ड में ब्रह्मांड दरस हो , बाहर में क्या
फिरे । ( महर्षि मेँहीँ पदावली , ११६ वाँ पद्य )

चूँकि ब्रह्माण्ड ( बाहरी जगत् ) में जो कु छ भी दिखायी पड़ता है , वह सब शरीर के अंदर भी दिखायी
पड़ता है । इसलिए शरीर के जिस भाग में सारा बाहरी ब्रह्मांड दरसता है , उसे भी संतों ने ' ब्रह्माण्ड ' कहा है
। संतों ने शरीर के अंदर ब्रह्माण्ड का स्थान आँखों से ऊपर मस्तक में बतलाया है और आँखों से नीचे के स्थान
को ही विशेष करके ' पिण्ड ' की संज्ञा दी है । आँखों की पलकें बंद करने पर घोर अंधकार दिखायी पड़ता है ।
यह अंधकार पिंड तक ही अपना अस्तित्व रखता है ।

साधना विशेष के द्वारा जब मस्तक में प्रवेश किया जाता है , तब चेतनवृत्ति पिण्डी अंधकार की सीमा को
पार करके ज्योति और शब्द के देश ब्रह्माण्ड में पहुँच जाती है - ' छाड़ि पिण्ड तम महाई । ज्योति देश ब्रह्माण्ड
में जाई । ' ( महर्षि मेँहीँ - पदावली , ४७ वाँ पद्य ) सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि गुरु -
युक्ति से बंद दशम द्वार खुल जाने पर पिण्डी अंधकार नीचे छू ट जाता है और ब्रह्माण्ड में साधक की पैठ हो
जाती है , वहाँ उसे ज्योति के विविध चमत्कार देखने को मिलते हैं -

गुरु भेद देवैं सार , खुलै बंद दशम द्वार , हो ब्रह्मांड में पैसार । छू टै पिण्ड अंधकार , लखो जोति चमत्कार ,
यह गुरु से ही उपकार ॥ ( महर्षि मेँहीँ पदावली , ९ ० वाँ पद्य )

सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने ' अनंत में सांत , सांत में अनंत तथा ब्रह्माण्ड में पिंड , पिंड
में ब्रह्माण्ड ' का सांके तिक चित्र अपनी पुस्तक ' सत्संग - योग ' के चतुर्थ भाग में संलग्न किया है । यही चित्र
कहीं - कहीं संतमत - सत्संग - मंदिर की भीतरी दीवार पर भी अंकित कराया गया देखने को मिलता है ।
' अनन्त ' ( न + अन्त = अन् + अन्त ) का अर्थ है - आदि - अन्त तथा मध्य रहित परमात्मा और ' सान्त '
( स + अन्त ) का अर्थ है - आदि - अंत - सहित पदार्थ , ससीम ( सीमावाला ) पदार्थ , प्रकृ ति मंडल परमात्मा
के अंदर प्रकृ ति मंडल है और प्रकृ ति मंडल में परमात्म तत्त्व व्यापक है - ' अनंत में सांत , सांत में अनंत ' का
यही अर्थ है ।

सूक्ष्म जगत का अर्थ है मानव जाति को संपूर्ण ब्रह्मांड के प्रतीक के रूप में देखा जाता है और स्थूल जगत ब्रह्मांड है जो
ब्रह्मांड की संपूर्ण जटिल संरचना है। चरक कहते हैं, "पुरुष्योऽयम लोक सन्निदः"1 (मनुष्य एक लघु ब्रह्मांड है) और यजुर्वेद
कहता है "यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे"2 (जैसा व्यक्ति है, वैसा ही ब्रह्मांड है, जैसा ब्रह्मांड है,
इसलिए व्यक्ति है" या "जैसा परमाणु है, वैसा ही ब्रह्मांड है" या "जैसा मानव शरीर है, वैसा ही ब्रह्मांडीय शरीर है)। इसका
मतलब है कि शासी शाश्वत नियम आंतरिक कोड, विकासवादी प्रक्रियाओं, गतियों और सभी प्राकृ तिक घटनाओं का कारण हैं
जो सूक्ष्म जगत से स्थूल जगत के बीच सद्भाव संबंध और सह-अस्तित्व का निर्माण करते हैं। सांख्य दर्शन 3 मानव शरीर
को एक लघु ब्रह्मांड के रूप में वर्णित करता है और ब्रह्मांड में जो भी तत्व या संस्थाएं मौजूद हैं वे मानव शरीर में भी
मौजूद हैं, यानी ब्रह्मांड के पांच मौलिक तत्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी)। उपरोक्त के उचित संयोजन के बिना
मानव शरीर का अस्तित्व नहीं हो सकता है या उसकी उचित पहचान नहीं की जा सकती है। प्रत्येक इकाई सभी मूलभूत
तत्वों के सामंजस्यपूर्ण संबंध में गठित और सह-अस्तित्व में है, जो शाश्वत क्रम (पौधे, पशु/जैव-निकायों, मानव शरीर) के
साथ शरीर का निर्माण करते हैं। प्राकृ तिक प्रक्रिया में भी ये शरीर और इसके घटक एक-दूसरे के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध में
मौजूद रहते हैं। आयुर्वेद का मूल आधार यह है कि संपूर्ण ब्रह्मांड (या ब्रह्मांड) एक विलक्षण पूर्णता का हिस्सा है। इसलिए,
बाहरी ब्रह्मांड (स्थूल जगत) में मौजूद हर चीज मानव शरीर के आंतरिक ब्रह्मांड (सूक्ष्म जगत) में भी दिखाई देती
है। मानव शरीर, जब स्वस्थ होता है, ब्रह्मांड की तरह ही सामंजस्य, स्व-स्थायी और आत्म-सुधार में होता है। इसका
मतलब है कि सद्भाव, सह-अस्तित्व, सूक्ष्म जगत, स्थूल जगत, शाश्वत व्यवस्था, एकता आदि भारतीय दर्शन और साहित्य
के लिए नए शब्द नहीं हैं। . यदि हम प्राचीन भारतीय वैदिक ज्ञान की धारणाओं और विचारों की तुलना आधुनिक विज्ञान,
तत्वमीमांसा और चेतना अध्ययन पर हाल के रुझानों से करते हैं, तो हमें सद्भाव और सह-अस्तित्व का एक निश्चित समग्र
दृष्टिकोण मिलेगा।

राय: मानव शरीर ग्रह का विस्तार है; मनुष्य


को स्वयं को ठीक करने के लिए पृथ्वी को
बनाए रखने की आवश्यकता है
क्यूरेटेड : गीतांजलि मेहरा
अंतिम अद्यतन: 06 जून, 2022, 13:30 IST

क्या आपने कभी सोचा है कि हम मनुष्य इस ग्रह का विस्तार हैं? हम प्रतिदिन ग्रह का एक
भाग अपने भोजन के रूप में खाते हैं। हम जैसा खाते हैं वैसा ही बनते हैं। ग्रह का यह भाग
जिसे हम भोजन के रूप में खाते हैं, कु छ ही समय में हमारे भौतिक शरीर का हिस्सा बन जाता
है। हमारा भौतिक शरीर ग्रह से विकसित होता है और अंततः उसी में विलीन हो जाता है। हम
धरती मां की गोद में पैदा होते हैं, रहते हैं और बड़े होते हैं, जो हमारा पोषण उसी तरह करती
है जैसे एक मां अपने गर्भ में पल रहे बच्चे का ख्याल रखती है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान के अनुसार, हमारा अस्तित्व और खुशहाली ग्रह की खुशहाली से अविभाज्य
रूप से संबंधित है। अपने बच्चे के साथ माँ के बंधन की तरह, यह रिश्ता आपस में जुड़ा हुआ,
अन्योन्याश्रित और परस्पर सह-अस्तित्व वाला होता है। यह एक अविभाज्य बंधन है.
मनुष्य के साथ ग्रह के संबंध को अक्सर उद्धृत प्राचीन भारतीय सूत्र से बेहतर कोई नहीं समझा
सकता है जो कहता है, "यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे", जिसका अर्थ है कि
बाहर वही मौजूद है जो वास्तव में हमारे अंदर है और इसके विपरीत। इसका सीधा सा मतलब
है कि जैसा मानव शरीर है वैसा ही ग्रह है, जैसा ग्रह है, वैसा ही मानव शरीर है। जैसा व्यक्ति
है वैसा ही ब्रह्मांड है, जैसा ब्रह्मांड है वैसा ही व्यक्ति है। मनुष्य एक सूक्ष्म जगत् या स्थूल
जगत् का लघु ग्रह अर्थात् ग्रह है। इसलिए, ग्रह के अस्तित्व और कल्याण के बिना मनुष्य के
अस्तित्व के बारे में सोचा नहीं जा सकता है। यदि बाहरी दुनिया (ग्रह) स्वस्थ है, तो हम मनुष्य
स्वस्थ हो सकते हैं। आंतरिक और बाह्य जगत एक समान हैं।
क्या यह जानना दिलचस्प नहीं है कि पृथ्वी पर पानी का कु ल प्रतिशत 71% है जो मानव शरीर
में पानी का लगभग समान प्रतिशत (70%) है? हम जो सांस लेते हैं उसे ग्रह छोड़ता है और जो
हम छोड़ते हैं उसे ग्रह छोड़ता है। हालाँकि, ये समानताएँ यहीं नहीं रुकतीं। क्या आपने स्कू ल में
नसों और धमनियों के बारे में सीखा है? वे हमारे ग्रह की नदियों और झरनों की तरह हैं जो
आपको जीवित रखने में मदद करने के लिए आपके शरीर में रक्त का संचार करते
हैं। आश्चर्यजनक रूप से, हम अपने 97% परमाणुओं को शेष आकाशगंगा के साथ साझा करते
हैं! पृथ्वी कम से कम 8.7 मिलियन प्रजातियों का घर है। छोटे पैमाने पर, मानव शरीर लगभग
10,000 प्रजातियों का आश्रय लेता है।
यह कोई संयोग नहीं है कि मनुष्य पृथ्वी पर सबसे अधिक पाए जाने वाले तत्वों से बने
हैं। पृथ्वी और मानव शरीर दोनों में किसी भी अन्य तत्व की तुलना में ऑक्सीजन का भार
अधिक है। हम हमेशा पृथ्वी को अपना संसाधन मानकर गलती करते हैं, लेकिन भारतीय
पर्यावरण लोकाचार के अनुसार, ग्रह बिल्कु ल हमारे जैसा ही एक जीवित जीव है। पृथ्वी और
इसकी प्रचुरताएँ हमारे संसाधन नहीं हैं, बल्कि मूल तत्व हैं, जो हम मनुष्यों को इस ग्रह पर
रहने के लिए प्रेरित करते हैं।
मनुष्य एक लघु ब्रह्माण्ड है। मानव शरीर एक लघु ब्रह्मांड है और ब्रह्मांड में जो भी तत्व या
संस्थाएं मौजूद हैं वे मानव शरीर में मौजूद हैं, यानी ब्रह्मांड के 'पंच-तत्व' (आकाश, वायु,
अग्नि, जल और पृथ्वी)। ग्रह की गतिमान ऊर्जा सौर और चंद्र ऊर्जा है। इरा और पिंगला नाड़ी
क्रमशः सौर और चंद्र ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती हैं। ब्रह्मांड की पुरुष और महिला ऊर्जा का
प्रतिनिधित्व करने वाले पुरुष और प्रकृ ति हैं और जो ब्रह्मांड के अस्तित्व का मूल कारण
हैं। उसी प्रकार पुरुष और स्त्री ऊर्जा के बिना संसार की रचना संभव नहीं हो सकती। तो, हम
ग्रह की एक ही इकाई हैं, उप अंगों में से एक हैं। मुख्य अंग के बिना न तो उपअंग का
अस्तित्व हो सकता है और न ही उपअंग के बिना शरीर का अस्तित्व हो सकता है। वे एक बड़े
संपूर्ण का एक ही मौजूदा हिस्सा हैं।
इसमें कोई तर्क नहीं है कि मनुष्य के रूप में हम खुश और स्वस्थ रहना चाहते हैं, इसलिए ग्रह
भी स्वस्थ होना चाहिए। क्या यह संभव है कि यदि ग्रह पर अतिरिक्त Co2 हो तो मनुष्य
स्वस्थ जीवन जी सकता है? यह सभी पांच मूल तत्वों के लिए सत्य है। वायु प्रदूषण, ग्लोबल
वार्मिंग, बाढ़, पानी की कमी, मिट्टी प्रदूषण, वनों का विलुप्त होना सभी ग्रह को उसी तरह
प्रभावित कर रहे हैं जैसे वे मानव अस्तित्व को परेशान कर रहे हैं। हमारे भविष्य को ग्रह के
भविष्य से अलग नहीं किया जा सकता।
अच्छा जीवन जीने के लिए हमें ग्रह को स्वस्थ बनाना होगा। आंतरिक स्वास्थ्य के लिए, ग्रह के
स्वास्थ्य को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। ग्रह को ठीक करके हम स्वयं को ठीक कर सकते
हैं। कोई और रास्ता नहीं है.
आयुर्वेद, चिकित्सा का प्राचीन भारतीय विज्ञान, कहता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड (या ब्रह्मांड) एक
विलक्षण पूर्णता का हिस्सा है। इसलिए, बाहरी ब्रह्मांड (स्थूल जगत) में मौजूद हर चीज मानव
शरीर के आंतरिक ब्रह्मांड (सूक्ष्म जगत) में भी दिखाई देती है। मानव-शरीर ग्रह की हूबहू
प्रतिकृ ति है। मानव शरीर में स्व-उपचार की क्षमता होती है। इसी प्रकार, ग्रह में स्वयं को ठीक
करने की जैव-क्षमता है। मानव जाति को संपूर्ण ब्रह्मांड के प्रतीक के रूप में देखा जाता है और
स्थूल जगत ब्रह्मांड है, जो ब्रह्मांड की संपूर्ण जटिल संरचना है।

महान भारतीय ऋषि चरक कहते हैं, "पुरुषोयम लोक सन्निदः" (मानव एक छोटा ब्रह्मांड
है)। यह यह भी मानता है कि शासी शाश्वत नियम आंतरिक कोड, विकासवादी प्रक्रियाओं,
गतियों और सभी प्राकृ तिक घटनाओं का कारण हैं, जो सूक्ष्म जगत से स्थूल जगत के बीच
सद्भाव संबंध और सह-अस्तित्व का निर्माण करते हैं। सांख्य दर्शन मानव शरीर को एक लघु
ब्रह्मांड के रूप में वर्णित करता है और ब्रह्मांड में जो भी तत्व या संस्थाएं मौजूद हैं वे मानव
शरीर में भी ब्रह्मांड के पांच मूलभूत तत्व मौजूद हैं।
उपरोक्त के उचित संयोजन के बिना मानव शरीर का अस्तित्व नहीं हो सकता है या उसकी
उचित पहचान नहीं की जा सकती है। प्रत्येक इकाई सभी मूलभूत तत्वों के सामंजस्यपूर्ण संबंध
में गठित और सह-अस्तित्व में है, जो शाश्वत क्रम (पौधे, पशु/जैव-निकायों, मानव शरीर) के
साथ शरीर का निर्माण करते हैं। प्राकृ तिक प्रक्रिया में भी, ये शरीर और इसके घटक एक दूसरे
के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध में मौजूद हैं।
ग्रह को बनाए रखने और ठीक करने से, हम खुद को बनाए रख सकते हैं और ठीक कर सकते
हैं।

ज्योतिषीय सूक्ष्म जगत


और स्थूल जगत

ग्रह पृथ्वी का राजसी रात्रि


आकाश अज्ञात का अंतिम
प्रतिनिधित्व है, पूर्व-आधुनिक
आतिशबाजी का प्रदर्शन जिसने
हमें समय की शुरुआत से ही
आश्चर्य से भर दिया है। मुझे
हमारे रात के आकाश से इतना
लगाव है क्योंकि यह हमारी
दुनिया का आखिरी बचा हुआ
अछू ता हिस्सा है। हममें से जो
लोग कृ त्रिम अस्तित्व की ओर
बढ़ते हुए दुनिया में एक
प्राकृ तिक अस्तित्व जीने का
प्रयास कर रहे हैं, उनके लिए
आकाश परमात्मा से आखिरी वास्तविक संबंध है जो मनुष्य द्वारा सहयोजित नहीं किया
गया है। इसलिए, मेरे विचार से किसी भी मानव-निर्मित सिद्धांत की तुलना में इसके
उत्तरों पर कहीं अधिक उच्च स्तर तक भरोसा किया जा सकता है।
मुख्यधारा के विज्ञान, पॉप संस्कृ ति या रोजमर्रा के लोगों में ज्योतिष की समझ बहुत
कम है या बिल्कु ल नहीं है। अधिकांश लोगों की ज्योतिष के बारे में समझ उनकी सूर्य
राशि की कुं डली है , जैसे तुला या वृश्चिक जिसे वे ऑनलाइन या पत्रिकाओं में देखते
हैं। आपकी सूर्य राशि किस घर में पड़ती है, इसके आधार पर राशिफल बनाने वाली
कुं डली के वल कुं डली के संबंध में सतही तौर पर काम करती है।

सूर्य बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह हमारे आकाश में मौजूद कई पिंडों में से के वल एक
है। आप के वल एक शरीर को देखकर बहुत सारी जानकारी प्राप्त करने की आशा नहीं कर
सकते। आपको निकायों के बीच परस्पर क्रिया को देखना होगा, वे एक-दूसरे को कै से
देखते हैं, किस घर में हैं और इसका क्या मतलब है। जो कु छ चल रहा है उसकी
वास्तविक तस्वीर पाने के लिए आपको नैटल चार्ट या जन्म चार्ट (वास्तविक कुं डली) का
उपयोग करने की आवश्यकता है।

ज्योतिष, खगोल विज्ञान से किस प्रकार भिन्न है?

जैसा कि मैं आमतौर पर चीजों को देखते समय इस्तेमाल किए जा रहे शब्दों की
परिभाषाओं को देखना पसंद करता हूं क्योंकि इससे मैं जो समझने की कोशिश कर रहा हूं
उसकी स्पष्ट तस्वीर चित्रित करने में मदद मिलती है। ज्योतिष को मानव मामलों और
स्थलीय घटनाओं पर सितारों और ग्रहों के अनुमानित प्रभावों को उनकी स्थिति और
पहलुओं के आधार पर बताने के रूप में परिभाषित किया गया है और खगोल विज्ञान
को पृथ्वी के वायुमंडल के बाहर की वस्तुओं और पदार्थों और उनके भौतिक और
रासायनिक गुणों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया गया है।

तो अंतर यह है कि ज्योतिष यह देखता है कि तारे और ग्रह मानव और स्थलीय मामलों


को कै से प्रभावित करते हैं और खगोल विज्ञान अंतरिक्ष में वस्तुओं की भौतिक विशेषताओं
और संरचना का अध्ययन है। ज्योतिष और खगोल विज्ञान का उपयोग प्राचीन
बेबीलोनिया में हुआ था और इनका एक साथ अध्ययन किया गया था। ज्योतिष और
खगोल विज्ञान का उपयोग दुनिया भर में चीनी, माया, अरब, यूनानी और रोमन जैसी
कई संस्कृ तियों में किया जाता था। ऐसा तब तक नहीं हुआ जब तक कि 17 वीं शताब्दी
में तर्क के युग में दोनों विज्ञान अलग नहीं हो गए और ज्योतिष को एक छद्म विज्ञान के
रूप में नामित किया जाने लगा।

मैं व्यक्तिगत रूप से सोचता हूं कि यह विभाजन एक गलती है और आप के वल इसके


एक टु कड़े को देखकर पूरी तस्वीर देखने की उम्मीद नहीं कर सकते। आपको चीजों को
समग्र रूप से देखने और पारंपरिक विज्ञान और संस्कृ ति के मानदंडों को चुनौती देने के
लिए हमेशा खुला दिमाग रखना चाहिए। विज्ञान तब तक विज्ञान नहीं है जब तक
परिणाम परीक्षण योग्य और प्रतिलिपि प्रस्तुत करने योग्य न हों और चुनौती के लिए पूरी
तरह से खुले न हों, चाहे वह किसी भी दिशा में ले जाए। जो लोग कहते हैं कि "विज्ञान
तय हो गया है" वे स्पष्ट रूप से विज्ञान के बारे में कु छ भी नहीं जानते हैं क्योंकि यह
विज्ञान के सिद्धांत और वैज्ञानिक पद्धति के विपरीत है।

ज्योतिष क्यों महत्वपूर्ण है?

ज्योतिष के वल दूर के ग्रहों और पिंडों के पहलुओं का अध्ययन नहीं कर रहा है, बल्कि
गूढ़ रूप से हम वास्तव में स्वयं और मानव मानस के पहलुओं का अध्ययन कर रहे
हैं। मेरी राय में, यही कारण है कि कई प्राचीन सभ्यताओं ने सितारों और ग्रहों के बारे में
जानने और वे पृथ्वी पर लोगों और घटनाओं को कै से प्रभावित करते हैं, इस पर इतना
जोर दिया। सभी रहस्य विद्यालयों में सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत की अवधारणा होती
है। हर्मेटिकिज़्म "जैसा ऊपर वैसा नीचे" सिद्धांत का उपयोग करता है। वे इसी के बारे में
बात कर रहे हैं, ब्रह्मांड एक स्थूल जगत है और मानव जाति एक सूक्ष्म जगत है जैसा
कि नीचे रॉबर्ट फ्यूल्ड के चित्रण में दिखाया गया है।

मुझे आशा है कि यदि आपने यहां तक पढ़ा है, तो आप

रात के आकाश को थोड़ा अलग ढंग से, थोड़ा अधिक


व्यक्तिगत रूप से देख सकें गे। हममें से प्रत्येक के पास
ब्रह्मांड की समान क्षमता, समान आश्चर्य और शक्ति
है। बेहतर कल के लिए खुद को बेहतर बनाने के लिए इसे
अपने साथ ले जाएं।

क्वांटम भौतिकी यहाँ सहयोगी है। मानव शरीर उन्हीं मूलभूत कणों से बना है जिनसे पूरा
ब्रह्मांड बना है। मानव शरीर में पदार्थ का निर्माण महाविस्फोट और ब्रह्मांड के निर्माण से
प्राप्त तारों की धूल से हुआ है। वास्तव में "मेगा" ब्रह्मांड "सूक्ष्म" उप-परमाणु दुनिया के
समान नियमों का पालन करता है। भौतिकी अभी भी एक एकीकृ त सिद्धांत पर काम कर रही
है जो सब कु छ समझाता है। स्ट्रिंग सिद्धांत उतना ही करीब है जितना हम इस क्षेत्र में पहुँच
चुके हैं। आइंस्टीन ने अपने अंतिम घंटे में इस एकीकृ त सिद्धांत को हल करने का प्रयास
किया।
योग चक्र, प्राण, नाड़ी आदि जैसे अमूर्त तत्वों का उपयोग करके इस एकीकृ त सिद्धांत का
वर्णन करता है। इस दृष्टिकोण से योग विज्ञान से अलग नहीं है। के वल अमूर्तन की
शब्दावली भिन्न है।

सापेक्षता और ज्योतिष का सामान्य सिद्धांत।

सापेक्षता का सामान्य सिद्धांत ज्योतिष के लिए एक बहुत ही मजबूत गणितीय आधार दे


सकता है [एक प्रारंभिक अनुमान]। यह दृष्टिकोण तर्कों के निम्नलिखित सेट पर आधारित
है।

[1] सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के अनुसार, त्रि-आयामी अंतरिक्ष में सभी गतियाँ सापेक्ष हैं।
सूर्य के संबंध में [सूर्य को विश्राम में लेते हुए] 3-आयामी अंतरिक्ष में सब कु छ गति कर रहा
है। पृथ्वी के संबंध में [पृथ्वी को विश्राम में लेते हुए] हर चीज 3-स्पेस में घूम रही है
[स्पेसटाइम के 3+1 विवरण में]। चंद्रमा के संबंध में [चंद्रमा को आराम पर ले जा रहा है] हर
चीज 3-स्पेस में घूम रही है। फिर इस ब्रह्मांड में किसी भी पर्यवेक्षक के सम्मान के साथ
[विश्राम के फ्रे म को लेते हुए] प्रेक्षक] हर चीज़ 3-स्पेस में घूम रही है। सापेक्षता के सामान्य
सिद्धांत में निरपेक्ष गति मौजूद नहीं है।

[2] सापेक्षता में स्पेसटाइम एक पूर्ण वास्तविकता है। स्पेसटाइम में प्रत्येक बिंदु [घटना] एक
पूर्व निर्धारित पूर्ण वास्तविकता है। स्पेसटाइम में सभी विश्व रेखाएं स्पेसटाइम में जमे हुए
वक्र हैं। एक पर्यवेक्षक की विश्व रेखा पर विचार करें। उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य
पूर्व निर्धारित निरपेक्ष वास्तविकताएं हैं। इसलिए स्वतंत्र इच्छा की अवधारणा सापेक्षता के
सिद्धांत में मौजूद नहीं है। इसलिए, जब भी कोई बच्चा अस्तित्व में आता है, तो उसकी
विश्व रेखा [उसका जीवन-इतिहास] पूर्व निर्धारित होती है।

[3]सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत का यह दृष्टिकोण आइंस्टीन के फ़ील्ड समीकरणों,''Gij=-


kTij'' द्वारा समर्थित है। ये समीकरण किसी भी मनमाना स्पेसटाइम समन्वय प्रणाली के
लिए सत्य हैं। इसलिए समीकरणों का यह सेट सम्मान के साथ सत्य होना चाहिए प्रेक्षक के
रेस्ट फ्रे म [बॉडी फ्रे म के संबंध में कहें]। ग्रहों की गति का अध्ययन करने के लिए, हम सूर्य
के रेस्ट फ्रे म का उपयोग करते हैं। समस्या की गोलाकार समरूपता के कारण, समीकरणों के
इस सेट का विश्लेषण सरल हो जाता है। ग्रहों की गति पृथ्वी के बाकी फ्रे म के संबंध में भी
अध्ययन किया जा सकता है। इन समीकरणों को हल करना बहुत मुश्किल हो जाता है, भले
ही यह गणितीय रूप से स्वीकार्य है। अब इन समीकरणों को एक पर्यवेक्षक के बाकी फ्रे म के
संबंध में हल करना बेहद कठिन होगा, भले ही यह गणितीय रूप से स्वीकार्य हो। दो
पर्यवेक्षकों ए और बी पर विचार करें। एक ज्योतिषी कह सकता है कि श्री ए की कुं डली श्री
बी की कुं डली से भिन्न है, सिर्फ इसलिए कि श्री ए के शरीर के ढांचे के संबंध में [आइंस्टीन
के क्षेत्र समीकरणों का] गणितीय समाधान है मिस्टर बी से बिल्कु ल अलग, भले ही अन्य
सभी भौतिक स्थितियाँ समान प्रतीत होती हैं।

ज्योतिषियों ने उन घटनाओं की भविष्यवाणी करने के लिए अपने सदियों के अवलोकनों से


प्राप्त अनुभवजन्य संबंधों का एक सेट बनाया, जो स्पेसटाइम में पूर्व निर्धारित पूर्ण
वास्तविकताएं हैं। अपनी गणितीय गणनाओं की व्यवहार्यता के लिए, वे राहु, के थु आदि
गणितीय वस्तुओं का उपयोग करते हैं। इन गणितीय वस्तुओं को भौतिक रूप से नहीं देखा
जा सकता है।

आप अपना भविष्य कै से तय करते हैं?

हर कोई अपना भविष्य ठीक करना चाहता है और यह ब्लॉग आपको बताएगा कि आप समय
यात्रा की प्राचीन तकनीक का उपयोग करके अंतरिक्ष समय सातत्य को तोड़कर अपना भविष्य
कै से बदल सकते हैं।

हमारे ऋषि-मुनि इस बात को जानते थे और इसीलिए ज्योतिष के विभिन्न ग्रंथों में सब कु छ


कू टबद्ध रूप में लिखा गया था।

महर्षि पराशर ने अंतरिक्ष को 0.4 डिग्री जैसे छोटे भागों में विभाजित किया और इसे नाड़ी
एएमएसए चार्ट कहा।

इसी प्रकार जब हम किसी उपचार को करने के लिए स्थान और समय दोनों का उपयोग
करते हैं - तो भविष्य प्रभावित होता है क्योंकि अब आप मशीन (यंत्र), ध्वनि (मंत्र) और
प्रक्रिया (तंत्र) का उपयोग करके ऊर्जा प्राप्त करके अंतरिक्ष समय सातत्य को तोड़ रहे हैं।

तो अंतरिक्ष एक विशेष मंदिर का दौरा कर रहा है, मान लीजिए कि कसार देवी मंदिर है
क्योंकि यह मंदिर पृथ्वी के विद्युत चुम्बकीय बेल्ट पर स्थित है और इस स्थान पर कं पन
होता है, जब मैंने पूरी रात इस स्थान का दौरा किया तो मैं एक मिनट के लिए भी सो नहीं
पाया। और जब आप ऐसी जगह पर जाप करते हैं तो आप अपने चक्रों में ऊर्जा महसूस कर
सकते हैं।
चूंकि अंतरिक्ष इस ऊर्जा को सीधे इस विशेष मंदिर में पहुंचा रहा है और यह स्थान चार्ज हो
गया है और मान लीजिए कि आप सूर्य ग्रहण पर इस स्थान पर जाने के लिए समय का
दूसरा तत्व चुनते हैं, तो इससे क्या होगा कि अब आप भविष्य को बदलने में सक्षम हैं।

स्थान और समय दो कारक हैं जिन्हें ठीक से मिलाने पर आप जीवन में बहुत सी चीजें
बदलने में सक्षम होंगे।

भृगु ने मनुष्य के जीवन काल को छोटे-छोटे भागों में विभाजित करने पर ध्यान कें द्रित
किया, जैसे कि तीसरे घर में शनि, 37 वर्ष की आयु में परिणाम देता है और चौथे घर में
शनि, 41 वर्ष की आयु में परिणाम देता है।

यह समय का विभाजन है - एक किं वदंती ने समय पर ध्यान कें द्रित किया और एक अन्य
ने भविष्य को देखने के लिए अंतरिक्ष पर, इसका मतलब है कि जब अब वैज्ञानिक समय
यात्रा के बारे में बात करते हैं तो हमारे दिग्गज इन चीजों से अच्छी तरह से वाकिफ थे और
यही कारण है कि वे अलग-अलग जगहों पर स्वतंत्र रूप से घूमने में सक्षम थे। स्थान और
समय।

जब मैंने सभी से सूर्य ग्रहण पर सूर्य का एक यंत्र बनाने के लिए कहा - आप इस विशेष यंत्र
का उपयोग करके बाहरी दुनिया से संवाद करने में सक्षम होंगे - इस श्रृंखला में, मैं उन छात्रों
को समझाने जा रहा हूं जिन्होंने 108 यंत्र पूरे कर लिए हैं। सूर्य ग्रहण, क्योंकि मैं चाहता हूं
कि हर कोई अंतरिक्ष और समय के जादू को महसूस करे।

यदि आपने सूर्य ग्रहण पर ऐसा नहीं किया है तो चंद्र ग्रहण पर चंद्रमा का यंत्र बनाएं और
आप इस विशेष यंत्र का उपयोग करके अपने जीवन में धन से संबंधित कई चीजों को बदलने
में सक्षम होंगे क्योंकि बाहरी दुनिया के साथ संचार करने का यह सही समय है क्योंकि दोनों
कारक हैं आत्मा और मन की पहुंच राहु और के तु के माध्यम से होती है।

मैं यंत्र की इस श्रृंखला पर और अधिक लिखूंगा और कै से हमारे प्राचीन ऋषि जीवन में
असाधारण चीजें करने में सक्षम थे।
FEATURED मीमांसा लेख स्त्र

मन, बुद्धि, चित्त, प्राण, तन्मात्राओं तथा इन्द्रियों में अंतर और इनका सम्बन्ध
नए नवेले अध्यात्म की ओर आने वाले लोगों को लगता है कि मन की शक्ति सबसे बड़ी है, जबकि ऐसा नहीं है। विशेषकर
रामपाल, ओशो, कृ ष्णमूर्ति, या फिर पाश्चात्य देशों के घोषित कथित आध्यात्मिक जनों को जानने, पढ़ने वाले लोग जो
सनातन की मूल गुरुपरम्परा के इतर जाकर खुद से बिना गुरु के मार्गदर्शन के ही शास्त्रालोक का ज्ञान लेने लगते हैं, उन्हें
यह भ्रम शीघ्र होता है।

यह भ्रम इसीलिए होता है क्योंकि उन्हें परिभाषाओं का स्पष्टीकरण प्राप्त नहीं रहता। बुद्धि, चित्त आदि मन से परे है। मन
सबसे शक्तिशाली तत्व नहीं है। मन वकील है, वह तर्क वितर्क करता है। वह मोलभाव करता है, सङ्कल्प विकल्प करता है।
इसीलिए वह सबसे शक्तिशाली नहीं है।

परेण धाम्ना समनुप्रबुद्धा मनस्तदा सा तु महाप्रभावा यदा तु सङ्कल्पविकल्पकृ त्या


(प्रपञ्चसार तन्त्र में आद्यशंकराचार्य जी के वचन)

लेकिन मन से बड़ी बुद्धि है क्योंकि वह निर्णय देती है, निश्चयात्मिका शक्ति की स्वामिनी होने से बुद्धि, मनरूपी वकील से
बड़ी है, वह न्यायाधीश है।

यदा पुनर्निश्चिनुते तदा सा स्याद्बुद्धिसंज्ञा


(प्रपञ्चसार तन्त्र में आद्यशंकराचार्य जी के वचन)

हालांकि बुद्धि की अपेक्षा चित्त की प्रधानता है, साक्षीभाव का स्वामी होने से, वृत्तियों का संग्राहक होने से वह बुद्धि से भी
श्रेष्ठ है।

यदा सा त्वभिलीयतेऽन्तश्चित्तं च निर्धारितमर्थमेषा॥


(प्रपञ्चसार तन्त्र में आद्यशंकराचार्य जी के वचन)

आद्यशंकराचार्य जी ने कहा है :- चिदचिद्ग्रंथिश्चेतस्तत्

जब शक्ति चेतन के अंदर होती है, तो उस शक्ति को माया और चेतन को ब्रह्म कहते हैं। और यदि बाहर रहती है, तो
अविद्या कहाती है। यह अविद्या योगदर्शन में वर्णित अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश आदि के साथ रहने वाली पहली
अविद्या नाम वाली क्लेश है जो मोक्ष में बाधक है। इस समय उसी चेतन की जीव संज्ञा होती है। इसी व्यतिक्रम में मायाकृ त
जड़ और ब्रह्मांश जीव के मध्य जो ग्रंथि है, वह चित्त है और वही सबसे शक्तिशाली है। वह सबसे शक्तिशाली इसीलिए है
क्योंकि मन, बुद्धि आदि के लीन हो जाने पर भी वह मोक्षप्राप्ति तक बना रहता है :- अक्षयं ज्ञेयमामोक्षात्।

चित्त के अधीन बुद्धि है और बुद्धि के अधीन मन है, मन के अधीन प्राणशक्ति है जो तन्मात्राओं का नियंत्रण करता है।उन
तन्मात्राओं से इंद्रियां कार्य करती हैं जो देह के चैतन्यमय होने का अनुभव कराती हैं।

प्राणानां आध्यात्मिकानामिन्द्रियाणां पतिर्मुख्यः प्राणः


(महाभारत)
इंद्रियों का स्वामी प्राणवायु है। यह दो प्रकार की होती है, मुख्य और क्षुद्र। मुख्य प्राण में प्राण, अपान, व्यान, समान और
उदान होते हैं। क्षुद्र प्राण में नाग, कू र्म, कृ कल, देवदत्त और धनंजय होते हैं। ये पूरे शरीर का नियंत्रण कक्ष के समान हैं। छींक
आने से लेकर भूख लगने तक, पलक झपकने से लेकर हृदय धड़कने तक, प्रसव कराने से लेकर बाल बढ़ने तक गर्मी या ठं ड
लगने से उं गलियों को चटकाने तक, भोजन पचाने से लेकर शौच कराने तक का काम ये सब संचालित करती हैं।

इसमें पुनः प्राण, अपान, व्यान आदि के भी सात सात भेद होते हैं।
उदाहरण के लिए प्राण शक्ति के प्रथम भेद यानी मुख्य प्राणों में प्रथम प्राण के भी उर्ध्वनामक अग्नि, प्रौढ़नामक आदित्य,
अभ्यूढ़ नामक चन्द्रमा, विभुनामक पवमान अथवा वायु, योनिनामक अप् अथवा जल, प्रियनामक पशु, और अपरिमित
नामक प्रजा आदि प्रकार होते हैं।
सप्त प्राणाः सप्तापानाः सप्त व्यानाः ॥
योऽस्य प्रथमः प्राण ऊर्ध्वो नामायं सो अग्निः ॥
योऽस्य द्वितीयः प्राणः प्रौढो नामासौ स आदित्यः ॥
योऽस्य तृतीयः प्राणोऽभ्यूढो नामासौ स चन्द्रमाः ॥
योऽस्य चतुर्थः प्राणो विभूर्नामायं स पवमानः ॥
योऽस्य पञ्चमः प्राणो योनिर्नाम ता इमा आपः ॥
योऽस्य षष्ठः प्राणः प्रियो नाम त इमे पशवः ॥
योऽस्य सप्तमः प्राणोऽपरिमितो नाम ता इमाः प्रजाः ॥
(अथर्ववेद)

इसमें भी एक एक प्रकार आपके इन्द्रिय, मन, आदि पर बहुत बारीक प्रभाव डालता है। जैसे प्राणशक्ति का प्रथम प्रकार
(मुख्य) के भी प्रथम प्रकार प्राणवायु का जो छठा भेद है, जिसे हमने प्रियनामक पशु संज्ञक कहा, उसे ही कारण आपके
दिमाग में लज्जा, भय अथवा लोभ जैसी भावनाएं आती हैं।

इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृ ष्ण ने तीसरे अध्याय में कहा :-

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।


मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

बाह्य परिच्छिन्न और स्थूल देह की अपेक्षा सूक्ष्म अन्तरस्थ और व्यापक आदि गुणों से युक्त होनेके कारण श्रोत्रादि पञ्च
ज्ञानेन्द्रियोंको पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं। तथा इन्द्रियोंकी अपेक्षा संकल्पविकल्पात्मक मन को श्रेष्ठ कहते हैं और मन की
अपेक्षा निश्चयात्मिका बुद्धि को श्रेष्ठ बताते हैं। एवं जो बुद्धिपर्यन्त समस्त दृश्य पदार्थों के अन्तरव्यापी है जिसके विषय में
कहा है कि उस आत्माको इन्द्रियादि आश्रयों से युक्त काम ज्ञानावरण द्वारा मोहित किया करता है वह (बुद्धि का द्रष्टा
चेतन) है।

आपको कई बार जो मिलता है, क्या उसके बारे में आपको मेहनत करनी पड़ती है ? कई बार जो मिला क्या वास्तव में वो
आपने अपने परिश्रम से पाया ?? कई बार बहुत कु छ बिना किये मिलता है, कई बार करने के बाद भी नहीं मिलता। जीवन
खेती की तरह है। यहां किसान की मेहनत ही पर्याप्त नहीं हैं। बीज की गुणवत्ता, खेत की उर्वरता, मौसम का हाल और फसल
की सुरक्षा भी आवश्यक है। परिश्रम एवं भाग्य, दोनों एक ही रथ के दो पहिये हैं, एक के बिना दूसरा व्यर्थ है। दोनों साथ
मिलकर सफलता को जन्म देते हैं।

जीवन में के वल परिश्रम ही नहीं, सही समय, सही स्थान, सही दिशा और सही नियोजन भी आवश्यक है। और सबसे बड़ी
बात, आज का फल कल ही मिले, आवश्यक नहीं। क्योंकि धान की फसल चार महीने में तैयार होती है जबकि गन्ने की
फसल एक साल में। आज जो आम खा रहे हैं, वो बीस वर्ष पहले लगाया गया था। आज जो आम लगाया है, वो बीस वर्ष बाद
फलेगा। हाँ, ये बात अवश्य है कि प्रत्येक कर्म आम ही नहीं होता, वो मिर्च भी हो सकता है, शीघ्र फलित हो सकता है, किन्तु
प्रत्येक कर्म मिर्च भी नहीं होता, आम भी हो सकता है। यही प्रारब्ध है और ऐसा ही जीवन भी है।

मन की शक्ति सङ्कल्प विकल्प करने की है, निर्णय लेने की, निश्चय करने की नहीं।
सङ्कल्पो वाव मनसो भूयान्यदा वै सङ्कल्पयतेऽथ मनस्यत्यथ वाचमीरयति तामु नाम्नीरयति नाम्नि मन्त्रा एकं भवन्ति
मन्त्रेषु कर्माणि।
(छान्दोग्योपनिषत्)

इसी प्रकार मन से जो श्रेष्ठता से युक्त है, वह बुद्धि तर्क वितर्क नहीं करती, वह निर्णय देती है, निश्चय करती है। तो क्या
सङ्कल्प विकल्प, तर्क वितर्क करने वाला मन छोटा हो गया, महत्वहीन हो गया ? नहीं ऐसा नहीं है।
तानि ह वा एतानि सङ्कल्पैकायनानि सङ्कल्पात्मकानि सङ्कल्पे प्रतिष्ठितानि समकॢपतां द्यावापृथिवी समकल्पेतां
वायुश्चाकाशं च समकल्पन्तापश्च तेजश्च तेषाँ सङ्कॢप्त्यै वर्षँ सङ्कल्पते वर्षस्य सङ्कॢप्त्या अन्नँ सङ्कल्पतेऽन्नस्य
सङ्कॢप्त्यै प्राणाः सङ्कल्पन्ते प्राणानाँ सङ्कॢप्त्यै मन्त्राः सङ्कल्पन्ते मन्त्राणाँ सङ्कॢप्त्यै कर्माणि सङ्कल्पन्ते कर्मणां
सङ्कॢप्त्यै लोकः सङ्कल्पते लोकस्य सङ्कॢप्त्यै सर्वँ सङ्कल्पते स एष सङ्कल्पः सङ्कल्पमुपास्स्वेति ।
(छान्दोग्योपनिषत्)

सङ्कल्प की शक्ति अद्भुत है। सङ्कल्प विकल्प, तर्क वितर्क , उहापोह (आज की भाषा में साईंटिफिक रिसर्च) की शक्ति के ही
कारण आकाश, पृथ्वी, अंतरिक्ष, प्रकाश, ध्वनि, तरंग, अन्न, अनेकों प्रकार की प्राण शक्ति आदि का ज्ञान सम्भव है। इससे
मन प्राण, शरीर आदि को निर्देश कर पाता है, इसी ज्ञान के कारण सही निर्णय तक पहुंचकर कर्म करने की योग्यता आती है,
इसीलिए इस शक्ति की, मन की अधिवक्ता शक्ति को धारण करना चाहिए।

तन्मात्रा वह माध्यम है जिससे इंद्रियों को अपने सम्बंधित विषयों को ग्रहण करने की शक्ति मिलती हैं। जैसे आप अपने
वाहन के माध्यम से गंतव्य तक जाते हैं वैसे ही इंद्रियों को अपने विषय तक पहुंचने के लिए तन्मात्रा की आवश्यकता होती
है।

उदाहरण के लिए, नेत्र रूपी इन्द्रिय, रूप तन्मात्रा के माध्यम में दृश्य रूपी विषय को ग्रहण करती है। अथवा कर्ण रूपी
इन्द्रिय, शब्द तन्मात्रा के माध्यम से ध्वनि रूपी विषय को ग्रहण करती है। यदि तन्मात्रा न रहे तो आंख और कान रहने पर
भी व्यक्ति अंधा या बहरा हो जाएगा।

अपने शरीर की तन्मात्रा का संचालन प्राण करता है। वही इंद्रियों के तन्मात्रा से प्राप्त विषयों को मन तक ले जाता है। जैसे
जब शरीर की ऊर्जा क्षीण होती है तो कृ कल नाम का क्षुद्र प्राणवायु मन को यह सन्देश देता है कि भूख लग रही है और तब
वह ऐसे हॉरमोन या रसायन को निकालता है जिससे व्यक्ति की भोजन करने की इच्छा होती है। ऐसे ही जब हमारी आंखों
को पलक झपकाना होता है तो यहां कू र्म नामक क्षुद्र प्राणवायु कार्य करता है। जम्हाई लेने के लिए देवदत्त नामक क्षुद्र
प्राणवायु का प्रयोग किया जाता है। ऊपर हमने सबों के नाम और विभाजन लिखे हुए हैं।

कू र्म उन्मीलने तु सः। कृ कलः क्षुतकायैव देवदत्तो विजृंभणे॥


(लिंगपुराण)

इन्द्रिय और विषय की कड़ी तन्मात्रा है, यहां विषय छोटा है और इन्द्रिय बड़ी। इन्द्रिय और मन की कड़ी प्राणवायु है, यहां
इन्द्रिय छोटा है और मन बड़ा। धी और आत्मा की कड़ी चित्त है, यहां धी छोटी है और आत्मा बड़ी। इसी बात को संक्षेप में
हमने ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक का उदाहरण देकर कहा है।

यहां एक नया शब्द आया :- धी। सामान्य रूप से धी शब्द का प्रयोग बुद्धि के लिए किया जाता हूं किन्तु वास्तव में धी के
गुणों और चर्चा करें तो यहां इंद्रियों की ग्रहण शक्ति, मन की तर्क वितर्क की शक्ति, बुद्धि की निर्णयशक्ति और चित्त की
साक्षीभाव की शक्ति सब सम्मिलित है, इसीलिए कह सकते हैं कि किसी भी वस्तु को देखने या सुनने के बाद, सोचने
विचारने के बाद, निर्णय लेकर क्रियान्वयन करने तक की प्रक्रिया में लगे समस्त तत्वों का समूह ही धी कहाता है।
अष्टाभिर्गुणैः शुश्रूषा श्रवणं ग्रहणं धारणमूहनमपोहनं विज्ञानं तत्त्वज्ञानं चेति तैः॥
(महाभारत)
इस धी के लक्षण में ऊपर दिए सूत्र में विज्ञान शब्द भी आया है। इस विज्ञान से जो वस्तु हम नहीं जानते, जिस बात का हमें
बोध नहीं होता, वो बात भी हम जान जाते हैं, उस बात का निश्चयात्मिका रीति से बोध भी हमें हो जाता है, यह हमारे
सनातन धर्म का उद्घोष है।
अविज्ञातस्य विज्ञानं विज्ञातस्य च निश्चयः
(अग्निपुराण)

यह विज्ञान आखिर करता क्या है ?


विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च । विज्ञानं देवाः सर्वे । ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद । तस्माच्चेन्न
प्रमाद्यति शरीरे पाप्मनो हित्वा । सर्वान्कामान्समश्नुत इति ।
(तैत्तरीयोपनिषत्)

विज्ञान से यज्ञ का विस्तार होता है। अन्य अभी कर्मों का भी विस्तार होता है। सभी देवता अपने आप में विज्ञान ही हैं। और
इसी विज्ञान का आश्रय लेकर ब्रह्म की उपासना भी की जाती है। इसीलिए एक प्रकार से विज्ञान ही ब्रह्म है, हम ऐसा भी कह
सकते हैं। इसीलिए विज्ञान के माध्यम से शरीरजन्य पापकर्मों का, अशुभ वृत्तियों का नाश करके सभी कामनाओं की प्राप्ति
करता है, ऐसा वेदवाक्य है।

आज हम दुनिया भर में कहते फिर रहे हैं कि धर्म में क्या रखा है, विज्ञान को पकड़ो, वैज्ञानिक बनो, विज्ञान श्रेष्ठ है। किं तु
जो सनातन को जानता है, वही सच्चा वैज्ञानिक है। विज्ञान कै सा हो ? पाप्मनो हित्वा, पाप का नाश करने वाला हो। आज के
मूर्ख वैज्ञानिक पाप के लिए ही विज्ञान को बढ़ा रहे हैं। हमारे यहां तो यज्ञ तक विज्ञान से ही होते हैं :- विज्ञानं यज्ञं तनुते।

इस विज्ञान को, जो आज के वैज्ञानिक समझ रहे हैं, यह ऐसा ही नहीं हैं। अभी तो के वल चमड़े की आंखों और शरीर से देखे,
सुने और समझे जाने वाले आधिभौतिक पटल पर विज्ञान के अति लघु प्रारूप पर अनुसंधान चल रहे हैं, वो भी ऐसे कि
प्रत्येक दो तीन दशक में किसी का नियम, किसी का सिद्धांत गलत सिद्ध होकर नया सिद्धान्त और रिसर्च आ जाता है।
आधिदैविक और आध्यात्मिक पटल के विज्ञान तक तो मनुष्य जा ही नहीं रहा, जहां तक हमारे ऋषि महर्षि गए थे।

विज्ञान के ध्यान, चिंतन से ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद जाना जा सकता है।महाभारत, रामायण आदि
इतिहास, श्रीमद्भागवत आदि पुराण, वैदिक और पौराणिक ज्ञान, मृत्यु के बाद की स्थिति को प्राप्त पितृगण, दिव्यलोकों के
देवता, भूमि की खनिज सम्पदा, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, विद्युत, कीट, पतंग, अणु परमाणु, सूक्ष्मदर्शी जीव, वायुमंडल,
श्राद्धकल्प, व्याकरण आदि शब्दविधान, सामुद्रिक विज्ञान, भविष्यदर्शन, तर्क शास्त्र, आपदाप्रबंधन, वनस्पति, परिवहन,
औषधि, प्रजनन, ब्रह्मविद्या, युद्धक हथियार, अंतरिक्ष, सौरमंडल, कृ षि आदि से भोजनविज्ञान, चिकित्सा, धातुविज्ञान,
यांत्रिकी, वास्तुविद्या, राजनीति, न्यायशास्त्र, संचार माध्यम, धर्माधर्म, कर्तव्याकर्तव्य सबका ज्ञान के वल विज्ञान से ही
सम्भव है। के वल वैज्ञानिक ही इनको जान सकता है।

अब आप ही बताइए, क्या कु रान और बाइबल वाले लोग किसी भी प्रकार से ये बात अपने ग्रंथों से सिद्ध कर सकते हैं ? हमारे
यहां तो विज्ञान ही ब्रह्म है। हां, लेकिन उसको अपने क्षुद्र नए नवेले मस्तिष्क से के वल किताब पढ़कर मनमाना अर्थ
लगाकर नहीं, बल्कि योग्य शंकराचार्य, रामानुजाचार्य जी आदि की वेद, पुराण, तन्त्र, स्मृतिसम्मत गुरुपरम्परा से प्राप्त
उचित अर्थबल के माध्यम से धी का प्रयोग करते हुए समझना पड़ेगा। अधजल गगरी बनकर छलकना नहीं है।

विज्ञानं वाव ध्यानाद्भूयः विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति यजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं
पित्र्यँराशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्र विद्याँ सर्पदेवजनविद्यां दिवं
च पृथिवीं च वायुं चाकाशं चापश्च तेजश्च देवाँश्च मनुष्याँश्च पशूँश्च वयाँसि च
तृणवनस्पतीञ्छ्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकं धर्मं चाधर्मं च सत्यं चानृतं च साधु चासाधु च हृदयज्ञं चाहृदयज्ञं चान्नं च
रसं चेमं च लोकममुं च विज्ञानेनैव विजानाति विज्ञानमुपास्स्वेति ॥
(छान्दोग्योपनिषत्)

आगे ऋषिगणों का वचन है :-

स यो विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्ते विज्ञानवतो वै स लोकाञ्ज्ञानवतोऽभिसिध्यति यावद्विज्ञानस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो


भवति ॥
(छान्दोग्योपनिषत्)
जो व्यक्ति इस विज्ञानरूपी ब्रह्म की उपासना करता है, यह वैज्ञानिक कहाता है, वही इस संसार में बुद्धिमान, विद्वान,
ज्ञानवान कहाता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने में समर्थ होता है, इसीलिए विज्ञान को जानना चाहिए, विज्ञान
की उपासना (अनुसंधान) करनी चाहिए, विज्ञान को सिद्ध करके ब्रह्मबोध का प्रयोग करके मोक्षकाम होना चाहिए। हमारे
यहां शालिहोत्र संहिता का पशु विज्ञान, अगस्त्य संहिता का विद्युत विज्ञान, भारद्वाज संहिता का वैमानिक विज्ञान, चरक
संहिता का चिकित्सा विज्ञान, भृगु संहिता का अन्तरिक्ष विज्ञान, वशिष्ठ संहिता का युद्ध विज्ञान आदि सबके सब विज्ञान से
भरे हैं।

भगवान भी गीता में कहते हैं :- ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्यामि, मैं तुम्हें विज्ञानसहित ज्ञान का उपदेश कर रहा हूँ। हमारे
यहां विज्ञान और धर्म भिन्न हैं ही नहीं। किन्तु यह ध्यान में रहे कि जो पाश्चात्य म्लेच्छ मंदबुद्धि कथित वैज्ञानिकों ने कहते
रहते हैं, और जिनके खुद के सिद्धांत और खोज हर बीस तीस सालों में बदलते रहते हैं, उन गली के कु त्ते के समान लक्ष्यहीन
के वल आधिभौतिक पटल पर विराजित अनुसंधानों को, जो कथित रूप से स्वयं को पूर्ण वैज्ञानिक मानते हैं, उनकी बातों की
अपेक्षा सनातन के आधिभौतिक के साथ साथ आधिदैविक और आध्यात्मिक पटल पर विराजित कल्याणप्रद विज्ञान की
ओर भी परम्परा के अनुसार, मर्यादा के अनुसार, अधिकृ त रीति से तपोबल के माध्यम से अनुसंधान करें। मन की सङ्कल्प
विकल्प की अद्भुत शक्ति का प्रयोग करें। मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु सः। मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़े
आत्मरूप आप चेतन ब्रह्म हैं।

ज्योतिष पर एक संक्षिप्त परिचय

ज्योतिष क्या है?

यदि खगोल विज्ञान आकाशीय पिंडों की गति का वर्णन करता है, तो ज्योतिष इस गति को मानव जाति के लिए
उपयोगी जानकारी में परिवर्तित करता है। यदि हम यह मान लें कि हर चीज़ ऊर्जा है, तो हमें एहसास होता है
कि हमारे ग्रह के चारों ओर होने वाली हर चीज़ उस पर जीवन को प्रभावित करती है। इसका एक बहुत ही
व्यावहारिक उदाहरण है हमारा दिन और रात। सूर्य के प्रकाश में जीवन देने और पौधों को विकसित करने की
ऊर्जा है। जब पृथ्वी सूर्य से दूर चली जाती है तो उस ऊर्जा की कमी हो जाती है। दूसरा उदाहरण चंद्रमा है,
जिसका गुरुत्वाकर्षण ज्वार-भाटा निर्धारित करता है। या ऋतुएँ, सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की स्थिति से निर्धारित
होती हैं। सभी खगोलीय पिंड (या ग्रह) पृथ्वी पर जीवन को प्रभावित करते हैं। और दिन और रात, ज्वार-भाटा
और मौसम की तरह, ब्रह्मांडीय गति हमेशा चक्रीय होती है।

उसी तरह, हम जानते हैं कि सौर ऊर्जा कै से एकत्र करें और जीवन को आसान बनाने के लिए इसका उपयोग
कै से करें, ज्योतिष हमें ग्रहों की चाल से हमारे लिए उपलब्ध कम दिखाई देने वाली ऊर्जाओं के प्रति अधिक
सचेत कर सकता है। जैसे ही हम इसके प्रति सचेत हो जाते हैं, हम उस ऊर्जा का उपयोग अपने लाभ के लिए
करना सीख सकते हैं। यह ज्योतिषीय पूर्वानुमान आपकी औसत कुं डली नहीं है बल्कि उपलब्ध ऊर्जा से परिचित
होने और उसके साथ सहयोग करने के लिए उपकरण प्रदान करता है। अभिनय से नहीं, बल्कि इसके प्रति सचेत
रहने से।

कल्पना कीजिए: आप नहीं जानते कि यह सर्दी है। अचानक ठं ड आपको आश्चर्यचकित कर देगी, लेकिन बाहर के
तापमान के प्रति सचेत रहकर आप गर्म कपड़े पहनकर इसके लिए तैयारी कर सकते हैं। ज्योतिष बिल्कु ल इसी
तरह काम करता है: एक ज्योतिषी एक ब्रह्मांडीय मौसम विज्ञानी की तरह होता है। ब्रह्मांडीय चक्रों और आपके
व्यक्तिगत और सामूहिक अनुभव पर उनके प्रभाव के प्रति सचेत रहने से, परिवर्तन और अज्ञात आपको
आश्चर्यचकित नहीं करेंगे, और आप जीवन पर बेहतर पकड़ हासिल कर लेंगे।

अक्सर इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द


विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान
कार्ल जंग द्वारा विकसित मनोविज्ञान का एक रूप है। विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान इस बात पर ध्यान कें द्रित
करता है कि मानव मानस को क्या संचालित करता है। ये व्यक्तिगत चालक हमारे मानस के अवचेतन भाग में
स्थित हैं। विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान चेतना को अवचेतन से जोड़ता है। यह अवचेतन प्रेरणाओं को प्रकट करके
ऐसा करता है। जंग के अनुसार, वे अवचेतन में संभावित 'भौतिक' (मानसिक ऊर्जा) के रूप में संग्रहीत होते हैं,
जो उपयोग के लिए तैयार होते हैं। एकमात्र काम जो हमें करना चाहिए वह है उन्हें चेतना के लिए उपयोगी
बनाना। विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान 'अप्रयुक्त सामग्री' को बेहतर ढंग से अनुभव और समझकर उसके बारे में
जागरूकता बढ़ाने पर कें द्रित है।

ज्योतिष
विज्ञान मानव अनुभवों और व्यक्तित्वों पर आकाशीय पिंडों की गति के मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन करता
है।

चेतना
चेतना मनुष्य की अनुभव करने या अनुभव करने की क्षमता है। यह अपने और अपने परिवेश के प्रति जागरूक
होना है। चेतना ही मनुष्य को बोधगम्य, रचनात्मक और बुद्धिमान बनाती है।

लौकिक
ब्रह्माण्ड का एक हिस्सा होना। सभी मनुष्य प्रकृ ति में ब्रह्मांडीय हैं क्योंकि पृथ्वी हमारे ब्रह्मांड का हिस्सा है।

सृजनात्मक बुद्धि
सदैव समाधान सोचने की क्षमता। रचनात्मक ऊर्जा वह ऊर्जा है जो कभी अटकती नहीं है क्योंकि जीवन का
सुनहरा नियम यह है कि हर चीज़ हमेशा और लगातार चलती रहती है।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता
भावनाओं के तर्क को समझने और उनके साथ काम करने की क्षमता है। जब कोई व्यक्ति भावनात्मक रूप से
बुद्धिमान होता है, तो वह अपनी और दूसरों की भावनाओं की ऊर्जा और प्रभावों को आसानी से, सामंजस्यपूर्ण,
कें द्रित और प्रभावी ढंग से संभाल सकता है।

भावनाएँ
गतिमान ऊर्जा, जो धारणा के माध्यम से हमें कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है या हमें रोक सकती है।

ऊर्जा
वह शक्ति है जो हमारे ब्रह्मांड में हर चीज को गतिमान रखती है।

पूर्णिमा
वह क्षण होता है जब सूर्य चंद्रमा के ठीक विपरीत स्थिति में होता है, जैसा कि पृथ्वी से देखा जाता है। उस
समय चंद्रमा सूर्य से पूर्णतः प्रकाशित होता है।

कोसमोस
ब्रह्मांड के लिए एक अलग शब्द। ग्रीक में कोस्मोस का अर्थ 'आदेश' होता है।

अभिव्यक्ति
मानसिक या शारीरिक शक्ति के साथ मिलकर इरादे के माध्यम से कु छ घटनाओं का निर्माण करना।
मल्टीवर्स
ब्रह्मांड में रहने वाले अनंत ब्रह्मांडों के लिए एक सामान्य शब्द।

मानस
मानव मन की समग्रता, चेतन और अवचेतन। हमारा मानस स्वयं में बहुआयामी पहचान को नियंत्रित करता
है। यह पहलू हममें से अधिकांश में (अभी भी) अवचेतन है।

आत्मा
हमारी चेतना का गैर-भौतिक हिस्सा है जो हमारे भौतिक स्व की तुलना में एक अलग समय-स्थान सातत्य में
मौजूद है। हमारा भौतिक स्व हमारा शरीर और मन है। आत्मा हमारी बहुआयामी पहचान की शुरुआत है।

आध्यात्मिक बुद्धि
यह देखने की क्षमता है कि जो कु छ भी होता है वह जुड़ा हुआ है, और उसके अनुसार कार्य करने का इरादा
रखता है।

ब्रह्माण्ड
ब्रह्मांड का एक अलग नाम है, जिसमें असंख्य तारे, ग्रह, आकाशगंगाएँ और जीवन के रूप रहते हैं।

क्रिस्टियानो ग्रीव ओर्मेनो पर एक संक्षिप्त परिचय

एक आकर्षक, शानदार और गहन खोज। इस प्रकार क्रिस्टियानो अपने आध्यात्मिक विकास का वर्णन
करेगा। उन्होंने यह यात्रा 26 साल की उम्र में, नब्बे के दशक में शुरू की: एक ऐसा समय जब आध्यात्मिक क्षेत्र
में अभी भी बहुत कु छ खोजा जाना बाकी था। 1995 के आसपास, व्यक्तिगत विकास से उत्पन्न होने वाली
परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं के बारे में बहुत कम जानकारी थी। किसी व्यावहारिक जानकारी की तो बात ही छोड़
दीजिए। अपनी स्वयं की खोज प्रक्रिया को प्रबंधित करने की आवश्यकता से प्रेरित होकर, क्रिस्टियानो ने स्वयं
शुरुआत करने का निर्णय लिया।

परीक्षण और त्रुटि के माध्यम से, वह अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने, अपने विचारों पर ध्यान कें द्रित करने
और अपने अंतर्ज्ञान को सुनने में सफल रहा। एक आवश्यक सफलता. "मुझे एहसास हुआ कि खुद पर काबू पाना
जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ों में से एक है।" ज्योतिष और ध्यान के मनोविज्ञान ने एक महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई: "ज्योतिष ने मुझे अपने व्यक्तित्व को बेहतर ढंग से समझने में मदद की और ध्यान के माध्यम से,
मैंने खुद पर काबू पाना सीखा," वे कहते हैं। ज्योतिष न के वल हमें हमारे व्यक्तित्व के बारे में कु छ बताता है,
बल्कि यह हम सभी को प्रभावित करने वाले ब्रह्मांडीय चक्रों का भी खुलासा करता है। हर चीज़ आपस में जुड़ी
हुई है और हर चीज़ एक दूसरे को प्रभावित करती है।

हर महीने, क्रिस्टियानो हमारे लिए ब्रह्मांड में ग्रहों की गति से पृथ्वी पर उपलब्ध ऊर्जा का अनुवाद लाता है। वह
हमें खुद को जानने, अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने और जीवन में आसानी से आगे बढ़ने के लिए उपकरण
प्रदान करता है।

यत पिंडे तत् ब्रह्माण्डेक्वांटम एनटैंगलमेंट,ज्योतिष और ब्रह्मांड।

☀️मनुष्य आज तक इस ब्रह्मांड का एक प्रतिशत ही समझ पाया है। लेकिन हमारे


पूर्वज या ऋषि इसे पूरी तरह से समझते हैं और उन्हों
नेहमें इसे समझने के
लिए बहुत महत्वपूर्ण उपकरण दिएहैं।
ज्योतिष उनमें
से एक है...आपकी जन्म कुंडली आप हैं और आप एक ब्रह्मांड हैं।
इसका मतलब है कि आपकी जन्म कुंडली एक ब्रह्मांड है (यत् पिंडे तत्
ब्रह्माण्डे) या आप कह सकते हैं कि यह जन्म कुंडली दर् ती ती
र्शा
है कि आप इस पूरे
ब्रह्मांड से कैसे जुड़े हुए हैं, क्योंकि हर कोई इस ब्रह्मांड के साथ अलग-
अलग तरीके से बातचीत कर रहा है।
लोग इस ब्रह्मांड में विभिन्न गति, समय, स्थान और क्षमताओं के साथ चीजोंको
प्रकट कर रहे हैं।
आप में से कई लोग हमे शपूछते हैं कि क्या सब कुछ पूर्वनिर्धारित है?
क्या आपका चार्टआपको नियंत्रित कर रहा है...नहीं...आपका जन्म चार्टबस यह दर् ता
ता
र्शा
है कि आप ब्रह्मांड की इस ऊर् जा
से कैसे उलझे हुए हैं।

🔥 स्थूल ब्रह्मांड सूक्ष्म ब्रह्मांड के माध्यम से प्रकट होता है.. यदि आप एक


ब्रह्मांड हैं.. इसका मतलब है कि सभी ग्रह आपके भीतर हैं। ज्योतिष एकमात्र
विज्ञान है जो आपकी गति, समय, स्थान और चीजोंको प्रकट करने की क्षमताओं
के बारे में बता सकता है। हर कोई पैदा नहीं होता है ब्रह्मांड में कुछ भी
प्रकट करें क्योंकि हम हमे शअपने भीतर अलग-अलग कार्मिक ऊर् जा लेकर चलते
हैं। हम सभी का जीवन विषय और जीवन पथ अलग-अलग होता है। हमारे जीवन की
एक घटनादूसरीकई घटनाओं(क्वांटम उलझाव) से जुड़ी होती है।

🔥ज्योतिष एक विज्ञान है जो आपको बताता है कि आप ब्रह्मांड के इस खेल का


हिस्सा कैसे हैं।
हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने क्वांटम विव श्वमें क्वांटम एन्टैंगलमेंट
जैसी नई चीजोंकी खोज की है।
एक कण दूसरे कण से जुड़ा होता है।
लेकिन वे बड़े और छोटे उलझाव के बारे में नहीं जानते हैं, अगर उन्हों ने
ज्योतिष का अध्ययन किया है तो हमारे वैज्ञानिक ने इस ब्रह्मांड के बारे
में कुछ बड़ा खोजा होगा।
अभीआप यह लेख पढ़ रहे हैं इसका मतलब है कि आप मुझसे मामूली स्तर पर
उलझे हुए हैं।
हर कोई जो यह जानना चाहता है कि एक ज्योतिषी उसकेजीवन की घटनाओंकी
भविष्यवाणी कैसे करता है, उसेक्वांटम भौतिकी के बारे में अवय श्य पढ़ना
चाहिए।
आप ब्रह्माण्ड के बारे में बहुत सी बातें समझ जायेंगे।
आपका जन्म स्थान और जन्म समय क्यों महत्वपूर्ण है?
सेकंड का एक अंश आपकी पूरी जन्म कुंडली क्यों बदल सकता है?
क्योंकि ज्योतिष में हमें क्वांटम स्तर जैसे डी150 या शायद उससेभीआगे
जाने की जरूरत है।
यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे.. क्वांटम कल्पाव, ज्योतिष और ब्रह्मांड।

☀️मनुष्‍य आज तक इस ब्रह्मांड के एक प्रतिशत भाग को समझ पाया है। लेकिन


हमारे पूर्वज या ऋषि यह पूरी तरह से अलग-अलग तत्व हैं और उन्हें हमें
समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण उपकरण दिएगए हैं।
ज्योतिष शास्त्र उनमें
से एक है...आपकी जन्मकुंडली आप हैं और आप ब्रह्मांड
हैं।
इसका मतलब यह है कि आपकी जन्म कुंडली एक ब्रह्मांड है या आप कह सकते
हैं कि यह जन्म कुंडली बताता है कि आप यह संपूर्ण ब्रह्मांड कैसे जुड़े हुए
हैं, क्योंकि हर कोई इस ब्रह्मांड के साथ अलग-अलग तरीकों से बातचीत कर
रहा है।
लोग इस ब्रह्मांड में विभिन्न गति, समय और स्थान और क्षमताओं के साथ चीजों
को प्रकट कर रहे हैं।
आप में से बहुत से लोग हमे शपूछते हैं कि क्या सब कुछ पूर्व निर्धारित है?
क्या आपका चार्टआपको नियंत्रित कर रहा है... नहीं...आपकी जन्म कुंडली केवल
यह दर् ती
ती
र्शा
है कि आप ब्रह्मांड की इस ऊर् जा
से कैसे उलझे हुए हैं।

🔥मैक्रोकॉसमॉस माइक्रोकॉस्मोस के माध्यम से प्रकट होता है..यदि आप एक


ब्रह्मांड हैं..इसका मतलब है कि सभी ग्रह आपके भीतर हैं। ज्योतिष एकमात्र
सा विज्ञान है जो आपकी गति, समय, स्थान और चीजोंको प्रकट करने की
क्षमताओं के बारे में बता सकता है। हर कोई पैदा नहीं होता है ब्रह्मांड में
कुछ भीप्रकट करें क्योंकि हम हमे शअपने भीतर अलग-अलग कर्म ऊर् जा लेकर
चलतेहैं। हम सभी का जीवन विषय और जीवन पथ अलग-अलग होता है। हमारे
जीवन की एक घटनादूसरीकई घटनाओं(क्वांटम उलझाव) से जुड़ी होती है।

🔥ज्योतिष एक विज्ञान है जो आपको बताता है कि आप ब्रह्मांड के इस खेल का


हिस्सा कैसे हैं।
हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने क्वांटम दुनियामें क्वांटम उलझाव जैसी नई
चीजोंकी खोज की है।
एक कण दूसरे कण से जुड़ा है।
लेकिन वे बड़े और छोटे उलझाव के बारे में नहीं जानते हैं, अगर उन्हों ने
ज्योतिष का अध्ययन किया होता तो हमारे वैज्ञानिक इस ब्रह्मांड के बारे में
कुछ बड़ी खोज कर चुकेहोते।
अभीआप इस रिट को पढ़ रहे हैं इसका मतलब आप मुझसे छोटे स्तर पर उलझे हुए
हैं।
हर कोई जो यह जानना चाहता है कि एक ज्योतिषी अपने जीवन की घटनाओंकी
भविष्यवाणी कैसे कर रहा है, उसेक्वांटम भौतिकी के बारे में अवय श्य पढ़ना
चाहिए।
आप ब्रह्मांड के बारे में बहुत कुछ समझ पाएंगे।
आपका जन्म स्थान और जन्म समय क्यों महत्वपूर्ण है।
सेकंड का अंश आपकी पूरी जन्म कुंडली क्यों बदल सकता है?
क्योंकि ज्योतिष में हमें D150 जैसे क्वांटम स्तर या शायद उससेआगे जाने
की आवयकताकता श्य
है।

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