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श्लोक (3)- तत्ससमयावबोधकेभ्यश्चाचार्य़ेभ्यः।।

अर्ा- इसी वजह से धमम, अर्म और काम के मल तत्व का बोध करने वाले आचायों को प्रणाम
करता हं। वह नमस्कार करने के कात्रबल है क्योंकक उन्होने अपने समय के दे शकाल को ध्यान
में रखते हुए धमम, अर्म और काम तत्व की व्याख्या की है।

श्लोक (4)- तत्ससम्बऩ्धात ्।।

अर्ा- परु ाने समय के आचायों नें शसद्धांत और व्यवहार रूप में यह सात्रबत करके बताया है
कक काम को मयामहदत करके उसको अर्म और मोक्ष के मत
ु ात्रबक बनाना शसफम धमम के अधीन
है। न रुकने वाले काम (उत्तेजना) को काब में करके तर्ा मयामदा में रहकर मोक्ष, अर्म और
काम के बीच सामंजस्य धमम ही स्र्ावपत कर सकता है । इसका अर्म यह हुआ कक धमम के
मत
ु ात्रबक जीवन त्रबताकर मनष्ु य लोक और परलोक दोनों ही बना सकता है । वैशैवषक दशमन में
यतोऽभ्य दयातनिः श्रेयसशसद्धध स धममिः कहकर यह साफ कर हदया है कक धमम वही होता है
जजससे अर्म, काम संबंधी इस संसार के सुख और मोक्ष संबंधी परलौककक सुख की शसद्धध
होती है। यहां अर्म और काम से इतना ही मतलब है जजतने से शरीर यात्रा और मन की
संतुजष्ि का गुजारा हो सके और अर्म तर्ा काम में डबे होने का भाव पैदा न हो।

इसी का समर्मन करते हुए मनु कहते हैं जो व्यजक्त अर्म और काम में डबा हुआ नहीं
है उन्ही लोगों के शलए धममज्ञान कहा गया है तर्ा इस धममज्ञान की जजज्ञासा रखने वालों के
शलए वेद ही मागमदशमक है।

इस बात से सात्रबत होता है कक वैशेवषक दशमन के मत से अभ्युदय का अर्म


लोकतनवामह मात्र ही वेद अनुकल धमम होता है ।

धमम की मीमांसा करते हुए मीमांसा दशमन नें कहा है कक वेद की आज्ञा ही धमम है। वेद
की शशक्षा ही हहन्द सभ्यता की बतु नयाद मानी जाती है । इस प्रकार यह तनष्कषम तनकलता है
कक संसार से इतना ही अर्म और काम शलया जाए जजससे मोक्ष को सहायता शमल सके। इसी
धमम के शलए महाभारत के रचनाकार ने बडे माशममक शब्दों में बताया है कक मैं अपने दोनों
हार्ों को उठाकर और धचकला-धचकलाकर कहता हं कक अर्म और काम को धमम के अनुसार ही
ग्रहण करने में भलाई है। लेककन इस बात को कोई नहीं मानता है।

वस्तुतिः धमम एक ऐसा तनयम है जो लोक और परलोक के बीच में तनकिता स्र्ावपत
करता है। जजसके जररये से अर्म, काम और मोक्ष सरलता से प्रातत हो जाते हैं। पुराने आचार्यों
द्वारा बताया गया यही धमम के तत्व का बोध माना गया है।

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