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T Research Notes Final Yr
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रसशास्त्र
Series – 2
प्रकरण 2 - पररभाषा प्रकरण
1) आवाप –
द्रव्यान्तरववविक्षेपो द्रुते वंगादीके तु य: |
वियन्ते स प्रतीवाप आवापश्च निगद्यते | (रस तरं वगणी 2/39)
किसी भी किघलने वाली वंगादी धातु िो किघलािर उसमे किसी अन्य द्रव्य िा प्रक्षे ि डालने िो आवाि
अथवा प्रतिवाि िहते हैं |
2) विवााप –
धात्वादी ववितप्तस्य जलादौ यत् विषेचिम |
स विवााप : स्मृतश्चापी विषेक: स्नपिश्च तत् | (र.त.2/40)
किसी भी लोह ताम्र रजत आदी धातु िो तिािर जल, तक्र, क्वाथ, दू ध आकद में बुझाने िो कनवाा ि, कनषेि,
स्निन िहते हैं |
3) ढालि –
संद्राववतस्य द्रव्यस्य द्रवे विक्षेपणन्तु यत् |
ढालिं तत्समुविष्टं रसकमा ववशारदैः || (र.त.2/36)
स्वर्ा, रजत आदी धातु िो किघलािर उसे किसी भी द्रव मे डाल दे ने िो ढालन िहते हैं |
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9) भाविा –
यच्चूवणातस्य धात्वादे द्रावैः सम्पेष्य शोषणम् ।
भाविां तन्मतं ववज्ञभााविा च विगद्यते। (र.त.2/49)
धातु आदी किसी भी औषध िे चूर्ा िो द्रव िदाथा िे साथ खल्व मे मदा न िरिे सुखाने िी कक्रर्ा िो भावना
िहते हैं |
10) मूर्च्ािा -
कज्जलाभो यदा सूतो ववहाय घिचापलम् ।
मूर्च्र्च्ातस्तु तदा ज्ञेयो | (आ.प्र.1/395)
जब िारद अिनी गुरुता एवं चंचलता त्याग िर िज्जली जैसा हो जार्े उसे मूर्च्ाना: िहते हैं |
11) शोधि –
उविष्टरौषधैः सार्द्धं वियते पेषणावदकम् ।
मलववर्च्र्च्त्तये यत्तु शोधिं तवदहोच्यते । (र.त.2/52)
किसी भी द्रव्य का मल दू र िरने िे उकदष्ट से मदा न िरना (कवकिष्ट द्रव्य िे साथ) िोधन िहलाता हैं |
12) मारण –
शोवधताि् लोहधात्वावद ववमद्या स्वरसावदवभैः |
अविसंयोगतो भस्मीकरणं मारणं स्मृतम् |
लोह धातु आकद द्रव्यों िो वनस्पतीर्ोोँ िे स्वरसाकद से मदा न िरिे अकि संर्ोग द्वारा भस्म िरना मारर्
िहलाता हैं |
15) लोवहतीकरण - रक्तवर्ा उत्पन्न िरने िे कलए भस्म मे जो कक्रर्ा िी जार्े उसे लोहीतीिरर् िहते हैं |
16) मृतलौह –
तजान्यङ् गुष्ठ संघृष्टं यत्तद्रे खान्तरे ववशेत् |
मृतं लोहं तदु विष्टं रे खापूणाा वभधाितैः |
किसी भी धातु िी भस्म िो तकजानी अंगुष्ठ िे बीच मलने िर र्कद वह भस्म अोँगुली िी रे खाओं िे अन्दर
प्रकवष्ट होता हैं तो उसे मृतलोह िहते हैं |
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17) कज्जली –
विद्रवधाातुवभश्चाथगन्धावदवभैः पेवषतैः पारदैः श्लक्ष्णतां प्रावपतैः ।
द्रव पदाथथ के तिना शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक अथवा तकसी धािु के साथ पारद डाल कर मदथ न करने पर
सुश्लक्ष्ण कज्जली की आभा वाला चूणथ िैयार होिा है ।
18) शुर्द्धावता –
यदा हुताशो दीप्तावचा शुक्लोत्थािसमर्च्ितैः |
शुर्द्धावतास्तदा ज्ञेयैः सकालैः स्त्वनविगामे || (र.र.स.8/58)
जब अकि अर्च्ी तरह प्रज्वकलत होिर श्वेतवर्ा िे प्रिाि िे साथ चमिने लगती हैं , उसे िुद्धावता िहते हैं |
19) शुर्द्धावता सत्व विगामि का काल माना जािा हैं | (इस िापक्रम पर सभी धािुओं का सत्व तनकलिा हैं |)
21) धातुओ ं की अपुिभाव परीक्षा करने के तलए वमत्रपंचक का प्रयोग करिे हैं |
22) बीजावता –
द्राव्य द्रव्यविभा ज्वाला दृश्यते धमिे यदा।
द्रवस्योन्मुखतासेयं बीजावत्ताैः स उच्यते ॥
धातुओं िो द्रकवत िरते समर् द्रव्य िे अनुरूि ज्वाला कनिलना उसे बीजावता िहते हैं |
24) सत्वपाति की प्रविया बीजावता की स्थििी में शुरू होकर शुर्द्धावता की स्थििी में पूणथ होिी हैं |
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28) भस्म की विरुत्थ परीक्षा करने के तलए रजत भस्म का प्रयोग करिे हैं |
29) अपुिभाव –
किसी धातु भस्म िो कमत्रिं चि ( गुड, गुंजा, टं िर्, मधु, घृत ) िे साथ कमलािर धमन िरने िर भस्म मे िोई
िररवतान न हो ( िुन: धातु रूि मे ना आर्े ) तो उसे अिुनभाव भस्म िहते हैं |
30) विरुत्थ –
किसी भी लोह आकद धातु भस्म िो चां दी ( रजत ) िे साथ कमलािर मुषा मे रख धमन िरने से उस भस्म िा
थोडा अंि भी चां दी िे साथ नही कचििता हैं | उस भस्म िो कनरुत्थ भस्म िहते हैं |
31) रे खापूणा –
अङ् गुष्ठतजािी घृष्टं ववशेद्राखान्तरे तु तत् ।
मृतं लोहं तदु विष्टं रे खापूणाा वभधाितैः ॥ (र.र.स. 8/28)
तजानी और अंगुष्ठ िे बीच मे भस्म िो रगड़ने िर रे खाओं मे प्रवेि िर जार्े, उस मृतलोह िो रे खािूर्ा भस्म
िहते हैं |
32) वाररतर –
मृतं तरवत यतोये लोहं वाररतरं वह तत् । (र.र.स.8/27)
भस्म र्कद जल मे डालने िर तैरता रहे उसे वाररतर भस्म िहते हैं |
अिुनभाव भस्म को सूक्ष्म िीसिर जल मे डालने िर तैरता हैं | तैरते हुए भस्म िे ऊिर गुरु द्रव्य िा िर्
छोड़ने िर वह धान्य हं स िे सामान तैरता हैं | ऐसे भस्म िो उत्तम (ऊिम) भस्म िहते हैं |
34) मधुरत्रय – घृत, गुड़, मधु िो मधुरकत्रि, कत्रमधुर, मधुरत्रर् िहा जाता हैं |
35) क्षीरत्रय - अककक्षीर, वटक्षीर, स्नुहीक्षीर - र्ह मारर् िे कलए प्रिस्त हैं |
38) पंचमृवतका - इकष्टिा चूर्ा, गैररि चूर्ा, सैन्धव लवर्, भस्म, वल्मिि मृकतिा |
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39) पंचगव्य - गव्य क्षीर, गव्य दकध, गव्य घृत, गौमूत्र, गौमर् |
42) रक्तवगा – मंकजष्ठा, िेिर, लाक्षा, दाकड़मिु ष्प, रक्तचंदन, रक्तिरवीर, बन्धुििुष्प |
43) श्वेत वगा – तगर, िुटज, िुंद, श्वेतगुंजा, जीवंती, श्वेत िमल िंद |
44) पीत वगा – िुसुम्भिुष्प, िलाििुष्प, हररद्रा, दारुहररद्रा, मदर्ल्मन्तिा, ितड. चंदन |
45) शुक्ल वगा – चुना, िर्च्ि िृष्ठभस्म, िंखभस्म, िुल्मक्तभस्म, वराकटिा भस्म
46) कृष्ण वगा – िदलीफल, िरै लाफल, कत्रफला, नीलीवृक्ष, नल, तालाब िा िंि (िीचड़) , िासीस, बालाम्र |
49) विश्चंद्र –
अभ्रक, स्वणक , रजत आकद भस्मों मे कनश्चंद्र िरीक्षा िरते है |
चंकद्रिा र्ुक्त भस्मों िो खाने से प्रमेह, अिमरी, मूत्रिृर्च् आदी कविार होते है |
िुद्ध िारद 12 भाग तथा िु द्ध गंधि ½ कनष्क िो लेिर सूर्ा िे धुि मे अर्च्ी तरह मदा न िरे | इससे नवनीत
िे समान किष्टी बनती हैं |
िारद 12 भाग (15 gm) + गंधि तनष्काधा (1½ gm)