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Kavita Geet – कविता और गीत का सुंदर

सुंग्रह
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आज आपलोगो के ललये कुछ चु ल िंदा गीत, कलिता (Kavita Geet) ले कर आये है लज के माध्यम
से आप इसको पढकर बहुत ज्यादा सुखा ुभि महसूस कर सकते है | ये कलिताये और गीत
उस जमा े के है जब लोग अप ी भाि ाओ और अप े दु ख, ददद और प्रेम को एक गीलतका
के माध्यम से पेश करते है उन्ही मे से कुछ प्रचललत कलियो द्वारा कृत कुछ कलिताओ का
सिंकल ले कर आये है |

गीत (Geet)
पछु आ हिा चली।
तपते शहर गािं ि, घर-आिं ग, व्याकुल पशु पक्षी र, लगररि ।
आग उगलती आई गमी, सचमु च बहुत खली। पछु आ हिा चली।
आया जलता जेठ मही , त से बह े लगा पसी ा।
लद की ीिंद रात से ज्यादा मु झको लगी भली | पछु आ हिा चली|
खखले ताल मे कमल रिं गीले , कुछ है लाल, श्वेत कुछ पीले |
द्वारे गिंध लु टाती लिर बेला की खखली कली| पछु आ हिा चली|
पाके आम पक गई लीची, बच्चो से भर उठी बगीची|
उठते राग ब्याह के, बाजे, बजते गली – गली | पछु आ हिा चली|
अििं सरीखा दाह भरा लद , दु पहर के सन्नाटे का लछ |
बीत, आओ चले पाकद मे , दे खो शाम धली|| पछु आ हिा चली|

लेखक – स्व. डा0 वििनारायण िक्ल “प्रिक्ता वहुं न्दी”

गीत – 2

क्या – क्या हम े ही लकया अपिाद ब े के ललए,


खुद को हि करके रची, रिं गो भरी मधु अल्प ा
जूठी ा उपमाएिं छु ई छोडी ा कोई कल्प ा
हर दृलि मे सजते रहे , सिंिाद ब े के ललए||1||

सब प्रश्न बौ े हो गये, यश – काम ा अम्बर हुई,


अखबार की सुखी हमारी साध ा का स्वर हुई।
मु ख पृष्ठ पर सिंज्ञा ललखी, अ ुिाद ब े के ललए||2||

ले लक लजसे गाते रहे , हम ददद कहकर भीड मे ।


लजसके ललए कागज बहुत, काले लकये ल ज ीड मे ।
िह ददद ही हमसे ही इक याद ब े के ललए||3||

लेखक – राधाकृष्ण िक्ल “पविक”

बहुत सुं दर गीत

पहाडो के लसर जा चढी धीरे – धीरे ।


जो चीटी जमी से चली धीरे – धीरे ।
यही छोटी-छोटी सी भू खे तु म्हारी
ब ेंगी बडी त्रासदी धीरे – धीरे ।
अमीरो के लिस्तर गजब के है यारो
गई उड मे री ीिंद ही धीरे – धीरे ।
तु म्हारे खयालो मे डूबे तो डूबे
रहे चाहे जाये सदा धीरे – धीरे ।
ये अिंधा है इसको रास्ता बताओ
चला जायेगा आदमी धीरे – धीरे ।
उसे ददद शायद हुआ है अचा क
बजा े लगा बािं शुरी धीरे – धीरे ।
ये समझो पलिक जल्द ही अब लमलें गे
उतर े लगी है दी धीरे – धीरे ।

लेखक – राधाकृष्ण िक्ल “पविक”


वहुंदी कविता

धन्य अरे पत्थर तू े लकत ा सबका उपकार लकया।


मा ि के उत्था के ललए खुद लमट ा स्वीकार लकया।
तु झ से ही तो मा ि े जगती मे है सब कुछ पाया।
तू े ही तो पूलजत होकर उसे ब्रह्म तक पहुचाया।
ते री अगम उच्चता बुध ज उच्च लहमालय से पूछे।
उसकी परम पूतता प्रज्ञािा लशिालय से पूछे ।
दे खा है तु मको सब े पर इ बातो पर ध्या कहा।
इत ी दू रदलशदता का ल लचिंत लकसी मे भा कहािं ।
इ भे दो का भे द कर े िाला केिल कलि ही है ।
दे े िाला जो प्रकाश का जग मे केिल रलि ही है ।

लेखक – बाबू नानकचुंद “वनवचुंत”

लिद् युतद् युलत –सी एक तार मे गुिंिी ही दीपो की माला।


लजसे काट दे े से सहसा लमट जाता है , सकल उजाला।
हर प्रदीप के अलग – अलग छलि लिर भी साि जला करते है ।
जैसे अलग – अलग पूिंजी से गृह उद्योग चला करते है ।
दीप म ुजता के प्रतीक है , उ का अप ा आकर्दण है ।
उ मे एक घरे लूप है , उ मे एक स्वािलम्ब है ।
कोमल सरस उिं गललयोिं द्वारा ब ती है दीपक की बाती।
दीपक का आलोक मधु र है , उससे दृलि ा मारी जाती ।

लेखक – बाबू जगन्नाि प्रसाद श्रीिास्ति

इत े िर्द व्यतीत हो गये


समय चला पर चल ा सके हम
समय िला पर िल ा सके हम
सप े सभी अतीत हो गये| इत े िर्द व्यतीत हो गये
चले मगर कब सोच समझकर,
िले मगर अलत दू र गम पर
िल श्रम के लिपरीत हो गये | इत े िर्द व्यतीत हो गये

लेखक – बाबू जगन्नाि प्रसाद श्रीिास्ति

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