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Nāiṭa Trena Eṭa Deolī - Bond, Ruskin, Author Māthura, R̥shi, Translator - 2015 - Dillī - Rājapāla - 9789350642610 - Anna's Archive
Nāiṭa Trena Eṭa Deolī - Bond, Ruskin, Author Māthura, R̥shi, Translator - 2015 - Dillī - Rājapāla - 9789350642610 - Anna's Archive
Nāiṭa Trena Eṭa Deolī - Bond, Ruskin, Author Māthura, R̥shi, Translator - 2015 - Dillī - Rājapāla - 9789350642610 - Anna's Archive
पल |
ण्ट देओत्यी
]993 में 'साहित्य अकादमी'
पुरस्कार, 999 में 'पदेमश्री' और
204 में “पद्मभूषण” से
जगत है
न्डि पक
पके क री!
||
की 6 ॥ ॥॥
| ]॥!
3 3288 090579725
80709, रिफप्रछाता
चिता ॥छ&ाव शव 060॥
नाइट ट्रेन
ऐट देक्षील्ी
नाइट ट्रेन
ऐट देओली
रस्किन बॉन्ड
“ जजपानलन
अनुवाद
ऋषि 'माथुर
3942-20॥2
वर्षों की
श्रेष्ठ प्रकाशन परम्परा
राजधातन
हे
₹ 425
॥$8[प : 978-93-5064-26-0
प्रथम संस्करण : 205 8 रस्किन बॉन्ड
€6 हिन्दी अनुवाद : राजपाल एण्ड सनन््ज
पाठ वर७ाए #' 9080, (50768) ७५ शिएष्ता 800
(मा एथ्ाडभांणा ण 7॥6 शाहञप्र उबांश 4/ 7९07 & 0#80/ $/0725
एप)॥॥8॥6१ जा साहा ७५ एशाएणा। 80005 पर09)
मुद्रक : जी. एच. प्रिंटर्स, दिल्ली
जः मैं कॉलेज में था, तब गर्मी की छुट्टियां बिताने केलिए अपनी दादी
के पास देहरा (देहरादून) चला जाता था। मैं मई में ही पहाड़ों केकरीब
चला जाता था और जुलाई के आख़िर तक वहीं रहता था। देहरा सेकरीब तीस
मील दूर एक छोटा सा स्टेशन पड़ता था देओली। उस स्टेशन से भारत के तराई
वाले घने जंगल शुरू होते थे। गाड़ी सुबह के करीब पांच बजे देओली के स्टेशन
पर पहुंचती थी, जब स्टेशन पर बिजली के बल्ब और तेल के लैम्प की मंदी रोशनी
रहती थी। सुबह के झुटपुटे की हल्की रोशनी में स्टेशन के पार का जंगल कुछ-कुछ
नजर आता था। देओली के स्टेशन का एक ही प्लेटफ़ॉर्म थाऔर उसी पर स्टेशन
मास्टर का दफ़्तर और वेटिंग रूम भी था। प्लैटफ़ॉर्म परएक चाय की दुकान
के अलावा, एक फल वाला और कुछ आवारा कुत्तों केअलावा ज़्यादा कुछ नहीं
था, क्योंकि जंगल की तरफ़ अपना सफ़र जारी रखने से पहले गाड़ी वहाँ दस
मिनट रुकती थी।
लेकिन वहाँ गाड़ी रुकती क्यों थी, यह मुझे नहीं समझ में आता था। वहाँ
कुछ भी नहीं होता था-न तो वहाँ से कोई गाड़ी में चढ़ता था और न ही वहाँ
कोई उतरता था। प्लेटफ़ॉर्म पर न कुली होते थे। लेकिन गाड़ी वहाँ पूरेदस मिनट
रुकती थी। फिर घंटा बजता था, गार्ड सीटी देता थाऔर फिर देओली पीछे
छूट जाता था-बिसर जाता था।
मैं सोचा करता था कि स्टेशन की दीवारों के पार देओली में क्या-क्या
होता होगा। मुझे उस इकलौते प्लेटफ़ॉर्म परतरस आता था, उस जगह जहाँ कोई
नाइट ट्रेन ऐट देओली /
आना नहीं चाहता था। तब एक दिन मैंने तय किया कि मैंइस स्टेशन पर उतरूंगा
और यहाँ पूरा दिन बिताऊंगा, सिर्फ़ इस शहर की ख़ातिर।
तब मैं अट्ठारह साल का था, जब अपनी दादी के पास जा रहा था और
गाड़ी अंधेरे में देओली पर रुकी। एक लड़की प्लेटफ़ॉर्म पर टोकरियां बेचती हुई
आयी। तब तक उजाला नहीं हुआ था और ख़ूब सर्दी थी। लड़की ने कंधों पर
एक शॉल डाल रखा था। वह नंगे पैर थी और उसके कपड़े भी पुराने थे, लेकिन
वह छोटी सी उम्र की लड़की बड़ों जैसी सधी चाल से चल रही थी। मेरी खिड़की
पर आकर वह ठहर गयी। उसने देखा कि मैं उसी को ध्यान से देख रहा हूँ,
लेकिन पहले उसने अनजान बनने की कोशिश की । उसके काले बालों और काली
उलझन भरी आँखों के साथ उसकी रंगत और भी गोरी लग रही थी। और फिर
उसकी आँखें, खोई-खोई और बोलती सी आँखें, मेरी आँखों से टकराईं।
वह मेरी खिड़की पर कुछ देर यूं ही खड़ी रही, लेकिन हम दोनों में से
कोई कुछ नहीं बोला। जब वह' वहाँ से आगे बढ़ गयी, तब मैं अपनी सीट
पर बैठा नहीं रहा सका और उठकर डिब्बे के दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ा और
स्टेशन पर उतरकर दूसरी ओर देखने लगा। मैं चाय की दुकान तक गया। एक
छोटी सी भट्टी पर केतली में उबाल आ रहे थे, लेकिन दुकानवाला गाड़ी में
किसी सवारी को चाय पहुंचाने गया था। लड़की दुकान तक मेरे पीछे-पीछे आ
गयी थी।
“टोकरी लोगे? वह बोली,' “बड़ी मजबूत हैं ये, बढ़िया बेंत की बनी हैं?”
“नहीं, मुझे टोकरी नहीं चाहिए ।
हम एक-दूसरे को ताकते रहे, जैसे युगों से ऐसे ही देख रहे हों।
वह फिर बोली-'क्या तुम्हें वाकई टोकरी नहीं चाहिए?
चलो, एक दे दो / मैंने कहा और ऊपर से ही एक टोकरी लेकर एक
रुपया उसके हाथ में थमा दिया, लेकिन बचते-बचते भी उसकी उंगलियां मेरे हाथ
से छू गयीं।
वह कुछ बोलने ही वाली थी, कि गार्ड नेसीटी बजा दी। उसने कुछ कहा
भी, लेकिन उसकी बात घंटे और इंजन की सीटी के आगे दब गयी। मुझे भी
अपने वाले डिब्बे कीओर दौड़ना पड़ा। डिब्बे घड़घड़ाये औरआगे को चल पड़े।
प्लेटफ़ॉर्म पीछे छूट रहा था और मैंलगातार उसे देखे जा रहा था। प्लेटफ़ॉर्म
पर वह अकेली खड़ी, अपनी जगह पर खड़े-खड़े मुझे देखकर मुस्करा रही थी।
8 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं उसे सिग्नल बॉक्स की आड़ में आने तक देखता रहा और फिर गाड़ी
जंगल में जा पहुंची।
आगे के बाकी सफ़र में जागता रहा, बैठा रहा। उस लड़की का चेहरा और
उसकी चमकीली काली आँखें मेरे जेहन से नहीं हट रही थीं। लेकिन जब मैं देहरा
पहुंच गया, तब कहीं उस मुलाक़ात की बात धुंधली पड़ी, क्योंकि अब दूसरी
तमाम बातें दिमाग पर हावी हो गयीं।
दो महीने बाद जब मैं वापस लौट रहा था, तब उस लड़की का फिर ख़याल
आया। जब गाड़ी स्टेशन पर पहुंची तो रुकने के पहले से ही मेरी नज़रें उसे
तलाश रही थीं और जब मैंने उसे प्लेटफ़ॉर्म पर चलते देखा तो मेरे मन में एक
ऐसी तरंग दौड़ गयी, जिसके बारे में मैंने पहले सोचा भी नहीं था। मैं पायदान
से प्लेटफ़ॉर्म परकूद गया और उसे देखकर हाथ हिलाया।
उसने मुझे देखा तो मुस्करा दी। उसे इस बात की खुशी थी कि मैं उसे
भूला नहीं था और मैं भी खुश था कि वह मुझे भूली नहीं थी। हम दोनों ऐसे
खुश थे जैसे पुराने दोस्त फिर से मिले हों। वह मुसाफ़िरों कोअपनी टोकरियां
बेचने केलिए गाड़ी कीओर जाने के बजाय चाय की दुकान पर ठहर गयी।
उसकी काली आँखों में अचानक चमक आ गयी थी। हम दोंनों ही कुछ देर तक
कुछ भी नहीं बोले, लेकिन इस दौरान हमारे बीच बहुत सारी बातें हो गयीं। मेरे
मन ने जोर मारा कि अभी इसी वकूत इसे गाड़ी में चढ़ा दूं औरअपने साथ
ले जाऊं। मुझे यह बात गवारा नहीं थी कि मैंइसे यहीं देओली स्टेशन पर खड़े-खड़े
देखता गाड़ी के साथ चला जाऊंगा।
मैंने उसके हाथ से सारी टोकरियां लीं और ज़मीन पर रख दीं। उसने उनमें
' से एक को उठाने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन इससे पहले कि वह टोकरी उठाती,
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
'मुझे दिल्ली जाना है मैंने कहा।
“लेकिन मुझे कहीं नहीं जाना,' न में सिर हिलाते हुए वह बोली।
तभी गार्ड ने गाड़ी कोचलने के लिए सीटी दे दी और मैं ही जानता हूँ
कि इस बात पर मुझे गार्ड पर कितना गुस्सा आया।
मैं फिर आऊंगा,' मैंने कहा। 'तुम यहीं रहोगी न?”
उसने सिर हिलाकर हामी भरी और तभी गाड़ी चल पड़ी। मुझे झटके से
उसका हाथ छोड़कर गाड़ी पकड़ने के लिए दौड़ना पड़ा।
नाइट ट्रेन ऐट देओली / 9
इस बार"मैं उसे नहीं भूला। बाकी के सारे सफ़र में वह मेरे साथ रही
और उसके बाद भी काफ़ी समय तक। उस पूरे साल वह मेरे अंदर जीती-जागती
रही। और जब कॉलेज बंद हुआ तो मैंने फटाफट सारा सामान समेटा और पहले
के मुकाबले कुछ ज़्यादा ही जल्दी देहरा का रुख़ किया। उसे देखने की मेरी इस
ललक से सबसे ज़्यादा ख़ुशी मेरी दादी के हिस्से में जाती।
जब गाड़ी देओली के क़रीब पहुंचने वाली थी, तब मेरी बेचेनी और घबराहट
बढ़ गयी थी, क्योंकि मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे उस लड़की से क्या
कहना चाहिए और क्या करना चाहिए। मैंने तय कर रखा था कि उसके सामने
चुपचाप बेबस सा खड़ा न रहकर अपनी भावनाओं की ख़ातिर जरूर कुछ करूंगा।
गाड़ी देओली पहुंची तो मैंने पूरेप्लेटफ़ॉर्म पर इधर से उधर निगाह दौड़ायी,
लेकिन वह लड़की मुझे कहीं नज़र नहीं आयी। मैंने दरवाज़ा खोला और पायदान
से नीचे उतर गया। मेरे दिल को गहरा धक्का लगा था और पहले से ही ऐसा
लग रहा था जैसे कुछ बहुत बुरा होने वाला हो। मैंने सोचा कि मुझे कुछ तो
जरूर करना होगा और दौड़कर स्टेशन मास्टर के पास गया और पूछा-'क्या आप
उस लड़की को जानते हैं, जो यहाँ टोकरी बेचा करती थी?
नहीं,' स्टेशन मास्टर ने कहा, 'मुझे नहीं मालूम और अच्छा होगा कि तुम
गाड़ी पर चढ़ जाओ, वरना यहीं छूट जाओगे।
लेकिन मैं तेज़ी से प्लेटफ़ॉर्म केएक सिरे से दूसरे सिरे तक गया और वहाँ
लोहे की बाड़ के पार दूर तक देखता रहा। मुझे बस जंगल की तरफ़ जाती एक
सड़क और एक आम का पेड़ दिखा। सड़क कहाँ तक जाती होगी? इस बीच
गाड़ी चल दी थी और मुझे प्लेटफ़ॉर्म पर दौड़ कर अपने डिब्बे के दरवाज़े में
छलांग लगानी पड़ी। फिर जब गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली और जंगल से होकर
तेजी से आगे बढ़ने लगी, तब मैं खिड़की पर बैठकर सोच में डूब गया।
उसे ढूंढने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ, जिस लड़की को मैंने सिर्फ़ दो
बार ही देखा है, जिसने मुझसे शायद ही कुछ कहा हो और जिसके बारे में मुझे
कुछ पता न हो-कुछ भी नहीं-लेकिन जिसके लिए मेरे मन में एक लगाव पैदा
हुआ और ऐसी ज़िम्मेदारी महसूस की जैसी पहले कभी नहीं की थी।
लेकिन दादी को मेरा आना अच्छा नहीं लगा क्योंकि मैं उनके यहाँ दो हफ़्ते
से ज़्यादा नहीं रुका। मैं बहुत बेचेनी औरउलझन महसूस कर रहा था। इसलिए
मैंने वापस जाने के लिए गाड़ी पकड़ी और मन ही मन में तय किया कि स्टेशन
मास्टर से ठीक से पूछताछ करूंगा।
पतंगवाला / 77
मंदार का पेड
रा! 'त को गर्मी ज़्यादा थी, बीच-बीच में बारिश भी हो रही थी, इसलिए घर
के अंदर सोने के बजाय मैं बरामदे में सोया। मैं बीस साल से ऊपर का
हो गया था, गुज़ारे केलिए कुछ कमाई भी करने लगा था और समझने लगा
था कि मेरी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं। कुछ ही देर में तांगे में बैठकर मैं रेलवे
स्टेशन पहुंच जाऊंगा, जहाँ से ट्रेन में बैठकर बॉम्बे जाना है। वहाँ से एक पानी
का जहाज मुझे इंग्लैंड पहुंचाएगा। वहाँ काम होगा, इंटरव्यू होंगे, नौकरी होगी,
एक अलग तरह की जिंदगी होगी। बहुत कुछ होगा। लेकिन वहाँ भीजब कभी
मुझे गुजरे जमाने के बारे में सोचने का मौका मिलेगा-अपने दादाजी का यह
छोटा सा बंगला मुझे रह-रह कर याद आएगा।
जब मैं जागा, तो देखा कि सवेरा होने के बावजूद कुछ धुंधलका सा था।
लाल मिट्टी पर बारिश की सोंधी महक को महसूस किया और फिर याद आया
कि मुझे तोआज जाना है। बरामदे के ठीक बाहर वाली जगह एक लड़की
खड़ी थी, जो मुझे बड़ी गंभीरता से देखे जा रही थी। उसे देखते ही मैं उठ
बैठा।
वह छोटे कद की सांवली सी लड़की थी, बड़ी-बड़ी काली आँखों वाली,
जिसने दो चोटियों को दोहरा करके उनमें चटक लाल रिबन लगा रखे थे। वह
लाल मिट्टी और बारिश की तरह ताज़गी भरी लंग रही थी।
वहीं खड़े-खड़े वह मुझे निहारती रही । मुझे काफ़ी गंभीर भी लग रही थी वह।
“कहो, क्या बात है,” मुस्कराते हुए मैंने पूछ ताकि वह सहज हो सके।
88 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
लेकिन लड़की को तो जैसे अपने काम से काम था। मेरे बोलने पर उसने
बस हल्के से सिर हिलाया।
क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूँ? अंगड़ाई लेते हुए मैंने पूछा-
तुम कहीं आसपास रहती हो?
उसने फिर सिर हिलाकर हामी भरी।
“अपने माता-पिता के साथ?
हाँ, लेकिन मैं अकेली भी रह सकती हूँ।' बड़ी हिम्मत के साथ उसने कहा।
"तुम तो मेरी तरह हो,” मैंने कहा और कुछ देर के लिए मैं भूल गया कि
मैं बीस साल का हो चुका हूँ। 'मैं भी खुद हीसब कुछ करता हूँ। मैं आज यहाँ
से जा भी रहा हूँ।
अच्छा, वह कुछ हॉँफते हुए बोली।
(तुम इंग्लैंड जाना चाहोगी?'
'मैं हर जगह जाना चाहती हूँ. उसने कहा । “अमरीका, अफ्रीका और जापान
और होनोलूलू।'
'हो सकता हैकभी तुम जाओ, मैंने कहा, 'मैं भीहर जगह जाता हूँऔर मुझे
रोकने वाला कोई नहीं है... लेकिन तुम्हें क्या चाहिए? तुम किसलिए आयी थीं?
'मुझे कुछ फूल चाहिए, लेकिन मैं वहाँ तक पहुंच नहीं सकती,' उसने हाथ
से बगीचे की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। “वहाँ जो पेड़ है, उसके... देखो !!
मंदार का पेड़ घर के ठीक सामने था, उसके आसपास पानी से भरे छोटे-छोटे
गड़ढे थे और वहाँ पड़े थे पेड़ से गिरे फूल। पेड़ कीशाखाओं पर लदे सुर्ख़ फूल
देखने में मटर के फूलों से मिलते-जुलते थे।
“ठीक है,' मैंने कहा। “जरा मुझे उठने दो ।'
मैं आसानी से पेड़ पर चढ़ गया, एक मोटी डाल पर आराम से बैठ गया
और वहीं से उसे निहारता रहा। वह भी मुझे एकटक देखती रही।
मैं तुम्हारे पास नीचे फूल फेंकता रहूँगा,' मैंने कहा।
मैंने एक टहनी को तोड़ने के लिए उसे मरोड़ां, लेकिन टहनी लचीली थी,
इसलिए उसे पेड़ सेअलग करने के लिए कई बार कोशिश करनी पड़ी, तब कहीं
जाकर वह टूटी।
देखो, मुझे नहीं पता कि मुझे ये फूल तोड़ने चाहिए या नहीं,” मैंने कहा
और फूलों से भरी एक टहनी लड़की की ओर फेंक दी।
मंदार का पेड / 79
“चिंतामतकरो,” वह बोली। ै
“लेकिन ज़रूरत पड़ने पर अगर तुम मेरी तरफ़ से बोलने को तैयार हो,
तो- ?
परेशान मत हो ।' पा
अचानक मुझे बचपन की यादों ने घेर लिया और दिल फिर से बचपन
में लौट जाने केलिए तड़प उठा। जी करने लगा कि दादाजी का यह मकान
छोड़कर कहीं न जाऊं। इससे जुड़ी यादों केजाल और बीते दिनों के सायों में
ही जीता रहूँ। लेकिन अब अकेला मैं हीबचा था और अब मैं यहाँ मंदार और
कटहल के पेड़ों पर चढ़ने केसिवा कर भी क्या सकता था?
"तुम्हारे कई दोस्त हैं? मैंने पूछा।
हाँ, हैं न। ध
सबसे अच्छा दोस्त कौन है?!
'खानसामा | वह मुझे रसोई में खेलने देता है। वहाँ ज़्यादा मज़ा आता है।
मुझे उसे काम करते हुए देखना अच्छा लगता है। वह मुझे अच्छी-अच्छी चीजें
खाने को देता है...और कहानियां भी सुनाता है
“और तुम्हारा दूसरा सबसे अच्छा दोस्त?
उसने सिर एक कंधे कीओर झुका लिया और गहरी सोच में डूब गयी।
मैं तुम्हें दूसरा सबसे अच्छा दोस्त बना लेती हूँ” वह बोली।
मैंने उस पर मंदार के फूल बरसा दिये। 'तुम कितनी अच्छी हो। तुम्हारा
दूसरा सबसे अच्छा दोस्त बनने में मुझे भी बड़ी खुशी होगी।'
फाटक पर तांगे के घुंधघओं की आवाज सुनाई दी, तो मैंने वहीं पेड़ के
ऊपर से ही सड़क की ओर देखा और कहा-'“यह मेरे लिए आया है। अब मुझे
जाना होगा ।
मैं नीचे उतर आया।
'क्या तुम मेरे सूटकेस तांगे तक पहुंचाने में मदद करोगी? पेड़ से उतर
कर बरामदे की ओर जाते हुए मैंने उससे पूछा। यहाँ कोई नहीं है जो मेरी मदद
करे। बाकी सब मुझसे पहले जा चुके हैं। मैं भीइसलिए नहीं जा रहा हूँक्योंकि
मैं जाना चाहता हूँ,बल्कि इसलिए जा रहा हूँक्योंकि जाने के अलावा मेरे पास
कोई चारा नहीं है।'
मैं बरामदे में खाट पर बैठ गया और बची हुई कुछ चीज़ें सूटकेस में रखने
20 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
लगा। घर के सारे दरवाज़ों पर ताले लगाये। स्टेशन के रास्ते में मैं ये चाबियां
उसके पास छोड़ दूंगा जिसे मकान की देखभाल करनी है। मैं एक प्रॉपर्टी डीलर
से पहले ही कह चुका हूँइस मकान को बिकवाने के लिए। इसके अलावा और
क्या कर सकता हूँ।
हम चुपचाप चलकर इंतजार कर रहे तांगे तक गये। एक दूसरे के बारे
में सोचते हुए।
“चलो, मैंने तांगे वाले सेकहा।
लड़की रास्ते केएक ओर, नम लाल मिट्टी मेंखड़ी मुझे एकटक देखती रही।
“धन्यवाद, मैंने कहा। “उम्मीद है तुमसे फिर मुलाकात होगी।'
मैं तुम्हें लंदन में मिलूंगी, वह बोली। “या फिर अमरीका या जापान में।
मैं हरजगह जाना चाहती हूँ।'
'मुझे यकीन है, तुम सब जगह जाओगी,' मैंने कहा। “और हो सकता है
मैं हीलौटकर आ जाऊं और तुमसे फिर इसी बगीचे में मिलूं। कितना अच्छा
लगेगा, है न?
उसने सिर हिलाकर हामी भरी और मुस्करायी। उस पल के बेहद ख़ास
होने का हमें पूरा एहसास था।
तांगे वाला अपने घोड़े से बातें करने लगा और तांगा बजरी बिछे रास्ते
पर थोड़ा खड़खड़ाता, हिलता-डुलता चल पड़ा ।मैंने औरउस लड़की ने हाथ हिलाकर
एक दूसरे से विदा ली।
लड़की ने हाथ में फूलों सेभरी एक टहनी पकडी हुई थी। जब उसने हाथ
हिलाया, तो पखुड़ियां झरने लगीं और ज़मीन पर गिरने से पहले धीमे बहती हवा
' में लहराती, नाचती सी लग रही थीं।
चलते हैं! मैंने कहा।
“अपना ध्यान रखना! वह बोली।
उसकी चोटी में गुथा रिबन निकलकर सुर्ख पंखुड़ियों केसाथ लाल बजरी
पर आ गिरा था।
'मैं हरजगह जाऊंगा, मैंने अपने आप से कहा, “और मुझे कोई नहीं रोक
सकता /
लड़की मेंबारिश की बूंदों औरलाल मिट्टी जैसी ताज़गी थी -और पवित्रता
भी।
मंदार का पेड / श
पड़ोसी की बीवी
ता खाना तैयार होने का इंतज़ार कर रहे थे, जबअरुण बोला-नहीं, मुझे
अपने पड़ोसी की बीवी से प्यार नहीं हुआ था। यह कोई उस किस्म की कहानी
नहीं है।
ध्यान रहे लीना बेहद आकर्षक महिला थी। वह सुन्दर या सलोनी नहीं
थी, लेकिन उसमें एककशिश थी। उसका बदन एक सोलह साल के लड़के जैसा
था, बिलकुल गठा हुआ-फ़ालतू मांस-चर्बी ज़रा भी नहीं। वह सुबह-शाम नहाती
थी, ख़ूब तेल-मालिश करती थी, जिससे उसकी त्वचा सर्दी की सुहानी धूप में
सुनहरी-सांवली सी दमकती थी। उसके होठों परअकसर पान की लाली रहती
थी, लेकिन दांत ऐसे कि कोई जरा भी कमी न निकाल सके।
मैं उम्र में उससे यही कोई पांचेक साल छोटा था और वह मुझे अपना
'छोटा भाई” कहा करती थी। वह बत्तीस वर्ष कीथी और उसके पति की उम्र
पैंतालीस वर्ष थीऔर वह सीमाशुल्क और आबकारी विभाग में अधिकारी था।
मिलनसार और हँसमुख, पक्का पियक्कड़, पीठ ठोंक कर बात करने वाला जो
अकसर दौरे पर रहा करता था। लीला को मालूम था कि अकसर उससे दूर रहने
के दौरान वह जरूर भटक जाता होगा, लेकिन उसे अपने पतिव्रता होने औरअपनी
इकलौती औलाद, अपने बेटे चंदू के सेहतमंद होने की तसल्ली थी।
मुझे लड़के सेकोई मतलब नहीं था। वह ख़ूब बिगड़ा हुआ था और जब
मैं काम कर रहा होता था तो मुझे परेशान करने में उसे बड़ा मज़ा आता था।
वह बिना बुलाए मेरे कमरे में घुसा चला आता था, मेरी किताबें गिरा देता था
22 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
और अगर कोई आया हुआ होता था, तो वह उनके मुँह पर ही उनके बारे में
बेहूदी बातें किया करता था।
जब शाम को लीला अकेली होती तो अकसर बरामदे में बैठकर बातें करने
के लिए मुझे अपने पास बुला लिया करती थी। दिन का काम ख़त्म होने के
बाद वह चैन की सांस लेने के लिए हुक्का गुड़गुड़ाने बैठती थी। हुक्का पीने की
लत उसे आगरा के पास स्थित अपने गांव से ही लगी हुई थीऔर वह इस आदत
से छुटकारा पाना ही नहीं चाहती थी। बातें करना उसे अच्छा लगता था और
क्योंकि मैं उसकी बातें बड़े ध्यान से सुनता था, वह जल्दी ही मुझे पसंद करने
लगी। मैं छब्बीस साल का हो चुका हूँ औरअब तक शादी नहीं हुई है, यह
बात उसके गले नहीं उतरती थी।
जल्दी ही उसने मेरी शादी करवाने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। मुझे
लगा कि इस बात पर उसके ख़िलाफ़ जाने से कोई फ़ायदा नहीं । मैं उससे कहता
कि मैं कुंआरा ही भला हूँऔर घर बसाने का ख़र्च नहीं उठा सकता तो वह
मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं होती। मर्द केलिए बीवी बड़े काम की चीज
होती है। मैं कहाँ खाता हूँ? जाहिर है, होटल में ।अगर सादा सा शाकाहारी खाना
भी खाया जाए तो भी कम से कम महीने के साठ रुपये का खर्चा था। लेकिन
अगर खाना पकाने के लिए एक सीधी-सादी घरेलू सी बीवी होती तो इससे कम
ख़र्च में हम दोनों का खाना हो जांता।
लीला ने देखा कि मेरी कमीज का एक बटन टूटा हुआ है और कॉलर
घिसा हुआ है, तो उसे मेरी खिल्ली उड़ाने का मौका मिल गया। उसने मेरे बुझे-बुझे
चेहरे औरकमज़ोर से दिखने को लेकर ताना मारा और कहा कि अगर मैं अपनी
' देखभाल करने के लिए जल्दी ही किसी को नहीं ढूंढ लेता तो मैं जल्दी हीतमाम
किस्म की बीमारियों का शिकार हो जाऊंगा । हक््के के कशों के बीच उसने ऐलान
किया कि मेरे लिए जो सबसे जरूरी है, वह है एकऔरत-एक जवान, सेहतमंद,
भरे-पूरे शरीर वाली औरत, जो आगरा के पास के किसी गांव से हो तो ज़्यादा
अच्छा है।
“अगर मुझे तुम्हारे जैसी कोई मिल जाए,/ मैंने छेड़ते हुए कहा, “तो मैं शादी
कर सकता हूँ।'
मेरे ऐसा कहने पर न तो वह इतराई और न ही उसने बुरा माना।
“अपने से बड़ी उम्र कीऔरत से ब्याह मत करना,” उसने सुझाया। “बीवी
पड़ोसी की बीवी / 25
कभी ऐसी नहीं होनी चाहिए जो दुनियादारी का तुमसे ज़्यादा तजुर्बा रखती हो।
यह सब मेरे ऊपर छोड़ दो, मैं तुम्हारे लिए सुघड़-सजीली दुल्हन लाऊंगी ॥'
लीला की ख़ुशी के लिए मैंने यह सोचकर उसकी बात मान लीकि थोड़े
दिन में तो वह इस बात को भूल जाएगी। लेकिन, दो दिन बाद जब वह मुझे
अपने साथ लड़कियों के एक जाने-माने अनाथालय ले जाने के लिए आयी, तो
मैं भौचक्का रह गया। मैंने उसके ऐसे किसी भी कार्यक्रम में शामिल होने से
इनकार कर दिया।
तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं है?” उसने पूछा। 'तुम्हीं नेतोकहा था कि
तुम मेरी जैसी लड़की को पसंद करोगे। एक लड़की को मैं जानती हूँजो वैसी
ही दिखती है जैसी मैं दस साल पहले दिखती थी।'
“तुम अभी जैसी हो, वैसी ही मुझे अच्छी लगती हो,' मैंने कहा। वैसी नहीं
जैसी तुम दस साल पहले थीं।॥ है
'ददेखो, हम पहले तुम्हें लड़की दिखाएंगे ।
(तुम नहीं समझती हो,” मैंने अपनी बात रखते हुए कहा। “ऐसा जरूरी नहीं
है कि मैं उसी लड़की से शादी करूं जिससे पहले से प्यार हो-मुझे मालूम है
कि तुम अच्छी लड़की ढूंढोगी और मैं तो मनोविज्ञान में एम. ए. के बजाय घरेलू
और सीधी-सादी लड़की पसंद करूंगा, लेकिन बात यह है कि मैं अभी शादी के
लिए तैयार नहीं हूँ।मुझे अभी एक-दो साल आजादी से जीने केलिए और चाहिए।
मैं अभी से जंजीरों में नहीं जकड़, जाना चाहता। सीधी बात यह है कि मैं अभी
जिम्मेदारियों काबोझ नहीं चाहता |
थोड़ी सी ज़िम्मेदारी बढ़ेगी तोतुम असल मर्द बन पाओगे,' लीला बोली।
लेकिन फिर उसने मुझसे अनाथालय चलने के लिए नहीं कहा और यह मुद्दा
कुछ दिनों केलिए टल गया।
मैं अब उम्मीद करने लगा था कि लीला पतियों से भरी इस दुनियां में
एक को कुंआरा रहने देने की बात पर राजी हो गयी है, लेकिन एक सुबह उसने
एक खुला हुआ अख़बार ठीक मेरे मुँह के आगे अड़ा दिया।
“यह देखो! वह ऐसे चहकते हुए बोली जैसे जग जीत आयी हो। देखें
अब क्या बोलते हो? मैंने तुम्हें चौंकाने केलिए.ऐसा किया ।'
उसने सचमुच मुझे चौंका दिया था। उसकी मेंहदी लगी उंगली अख़बार
में छपे वैवाहिक विज्ञापनों में सेएक पर टिकी थी।
24 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
अविवाहित पत्रकार, उम्र पच्चीस साल, को गृहकार्य में दक्ष आकर्षक वधू
चाहिए। जाति और धर्म का बंधन नहीं। दहेज अनिवार्य नहीं।
मानना पड़ेगा कि लीला ने काम बढ़िया ढंग से किया था। कुछ ही दिनों
में लड़कियों कीओर से आमतौर पर उनके माता-पिता के जवाब आने लगे।
हर कोई यह जानना चाहता था कि मैं कितना कमाता हूँ। इसके साथ ही वह
अपनी जान-पहचान और ऊंचे ओहदे वाले अपने रिश्तेदारों का जिक्र करने की
तकलीफ़ ज़रूर करते थे। कुछ लड़कियों के माता-पिता ने अपनी बेटी की तस्वीर
भी भेज दी। वह बहुत अच्छी तस्वीरें होती थीं, हालांकि उन्हें बेहतर बनाने के
लिए कुछ कारीगरी ज़रूर की गयी होती थी।
मैंने तस्वीरों को पूरेमन से देखा। लगता था कि शादी इतनी भी बुरी चीज
नहीं है। मैंने तीन ऐसी लड़कियों की तस्वीरें छांटीं जो मुझे अच्छी लगी थीं और
लीला को दिखाई।
मुझे ताज्जुब हुआ, उसने तीनों को नकार दिया। उसके मुताबिकक उनमें
से एक लड़की की शक्ल हिजड़ों जैसी थी, दूसरी टीबी की मरीज सी लग रही
थी, तीसरी ऐसी लग रही थी जैसे वह दौलत-शौहरत हासिल करने के लिए कुछ
भी करने को तैयार हो। लीला ने मान लिया कि अख़बार में विज्ञापन देने की
पूरी सोच ही ठीक नहीं थी, क्योंकि विज्ञापन से हमें ज्यादातर ऐसे लोगों केजवाब
ही मिल सकते थे जिन्हें दौलत की भूख हो और दौलत मेरे पास थी नहीं।
इसलिए हमने सारी चिट्ठियां जला डालीं। मैंने कुछ दिनों तक कुछ तस्वीरें
बचा कर रखीं, लेकिन लीला ने उन्हें भी फाड़ दिया।
और इस तरह कुछ समय के लिए शादी करने की कोशिशों को टाल दिया
'गया।
लीला और मैं करीब-क़रीब रोज़ ही मिलते थे, लेकिन कुछ और बातें करते
थे। कभी-कभी शाम को वह मुझे अपने सामने चारपाई पर बैठाकर हुक्का गुड़गुड़ाते
हुए अपने गांव-घर की कहानियां सुनाया करती थी। मैं अब उसके लड़के का
भी आदी सा होने लगा था, बल्कि अब मुझे वह अच्छा भी लगने लगा था।
यह सब कुछ उस दिन तक चला जब उसका पति बाहर गया और अपनी
जान दे दी। एक अवैध शराब का धंधा करने वाले ने, जिसने एक आबकारी
वाले को मोटी रक़म देने के बजाय उसे रास्ते से हटाने का फ़ैसला किया और
उसे गोली मार दी। इसका मतलब यह था कि अब लीला को शहर का मकान
पड़ोसी की बीवी / 25
छोड़कर वापस आगरा के पास वाले अपने गांव जाना था। वह बेटे के इम्तिहान
होने तक रुकी और फिर आपना सारा सामान समेटा और आगरा के तीसरे दर्जे
के दो टिकट ले लिये।
मुझे महसूस हुआ कि कोई बात है जो उसे परेशान कर रही थी और जब
मैं उसे स्टेशन पर छोड़ने गया तब मुझे समझ में आया कि वह बात क्या थी।
मेरे कुंआरे रह जाने को लेकर उसकी अंतरात्मा को चैन नहीं पड़ रहा था।
मेरे गांव में, गाड़ी कीखिड़की से झांकते हुए उसने बड़े विश्वास के साथ
कहा, 'तुम्हरे लायक एक बड़ी अच्छी लड़की है। मेरी दूर की रिश्तेदार भी है।
मैं उसके मॉ-बाप से बात चलाऊंगी ।
और फिर मैंने एक ऐसी बात कह दी जिसके बारे में पहले कभी सोचा
भी नहीं था। एक ऐसी बात जो मेरे दिमाग़ में उसपल से पहले कभी नहीं आयी
थी और मुझे भी कोई लीला से कम हैरत नहीं हुई जब वह शब्द मेरे मुँह से
टपाटप निकल पड़े-“अब तुम ही मुझसे शादी क्यों नहीं कर लेतीं?!
अरुण के पास अपनी कहानी पूरी करने का समय नहीं बचा, क्योंकि इधर
कहानी दिलचस्प मोड़ पर पहुंची और उधर खाना लग गया।
और खाने के साथ ही कहानी का अंत भी आ गया।
खाना उसकी पत्नी ने लगाया, अच्छे कद-काठी वाली औरत, हटूटी-कट्टी
और आकर्षक, जो मुझे समझ में आ गया कि लीला ही हो सकती थी और कुछ
ही मिनट में चंदू धड़धड़ाता हुआ घर में घुसा और कहने लगा कि वह भूख से
बिलबिला रहा है।
अरुण ने मुझे अपनी बीवी से मिलवाया और हमने नमस्कार करके एक-दूसरे
से हाल-चाल पूछने कीऔपचारिकता निभायी।
लेकिन तुम्हारे यह दोस्त अपने साथ अपने परिवार को लेकर क्यों नहीं
आये? उसने पूछा।
'परिवार? अरे ये अभी कुंआरेही हैं!
और फिर जब उसने अपनी बीवी के चेहरे पर पहले जो हल्की सी बेरुख़ी
थी, उसे गहरी फ़िक्र में बदलते देखा, तो उसने फ़ौरन बातचीत का मुद्दा ही
बदल दिया।
बुला
वार पांच अप्रैल को शाम के छह बजे चाची की मौत हो गयी और ठीक
बीस मिनट बाद वह फिर से जी उठीं। यह सब ऐसे हुआ-
छोटे-छोटे बेटे-बेटियों और भतीजे-भतीजियों का झुंड सारे घर में इधर से
उधर धमाचौकड़ी मचाया करता था और अपने आप में मस्त रहने वाली चाची
उनपर कोई ख़ास ध्यान भी नहीं देती थीं। लेकिन अपने दस साल के भतीजे
सुनील से वह चिढ़ती थीं। वह ठहरीं एक सीधी-सादी घरेलू महिला, सुनील को
झेल नहीं पाती थीं, क्योंकि वह उनके बेटों से ज़्यादा तेज था, ज़्यादा संवेदनशील
और डांट देने या सिर पर चपत लगा देने पर चुपचाप सह लेने केबजाय इसका
विरोध करता था। देखने में भीवह उनके बच्चों से ज्यादा अच्छा लगता था।
इस सब के अलावा उन्हें इस बात पर ज़रूरत से कुछ ज़्यादा हीखीज आती
'थी कि उन्हें उसके लिए भी खाना बनाना पड़ता था जबकि उसके माता-पिता
नौकरी पर चले जाते थे। |
सुनील को अपनी चाची की जलन का अंदाज़ा थाऔर वह उनकी जलन
की लपटों को और हवा देता था। वह शरारत में अव्वल था और उन्हें परेशान
करने के लिए छोटी-छोटी करतूत, जैसे जब वह दोपहर की नींद ले रही हों, तब
कागज के लिफ़ाफ़े में हवा भरके उनके पास फोड़ देता या फिर अलगनी पर
सूख रही उनकी सलवार के पांयचे की चौड़ाई का मज़ाक उड़ाता। पांच अप्रैल
की शाम को वह कुछ ज़्यादा ही जोश में था। उसे ज़ोर की भूख लगी तो वह
शहद खाने के इरादे से रसोईघर में गया ।लेकिन शहद सबसे ऊपर वाली अलमारी
चाची का अंतिम संस्कार / 27
में रखा था और सुनील इतना लंबा नहीं था कि वहाँ तक हाथ बढ़ाकर बोतल
को पकड़ सके। उसकी उंगलियाँ बोतल तक पहुंचीं और ज्यों हीउसने बोतल
को अपनी ओर खींचा, बोतल उसकी ओर झुकी, लेकिन उसके हाथ में आने
के बजाय जमीन पर गिरकर टूट गयी।
इससे पहले कि सुनील मौक़ा-ए-वारदात से फ़रार होता, चाची वहीं आ
धमकीं। उन्होंने अपनी चप्पल उतारी और दे दनादन उसके सिर और कंधों पर
ताबड़तोड़ जड़ डालीं ।इतना करने के बाद, वह फ़र्श पर बैठ गयीं और रोने लगीं ।
अगर किसी और ने पिटाई की होती, तो शायद सुनील भी रो देता, लेकिन
उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची थी, इसलिए रोने केबजाय उसने धीरे से कुछ
बुदबुदाया और तेजी से वहाँ से निकल गया।
छत की सीढ़ियों से होता वह दुछत्ती पर सीढ़ियों की आड़ में बची छोटी
सी जगह, अपने गुप्त ठिकाने पर गया जहाँ वह अपने कंचे, मंझा-सदूदी, लटूटू
और एक खटके वाला चाकू छुपाकर रखा करता था। चाकू को खोलकर उसने
खिड़की की चौखट की लकड़ी में एक के बाद एक तीन बार घोंपा।
'ैं जान से मार डालूंगा! वह गुस्से से बुदबुदाया, “मार डालूंगा! मैं जान
से मार डालूंगा!!
“किसे मारने जा रहे हो, सुनील?
यह सवाल था मधु का, उसकी फुफेरी बहन का। दुबली-पतली सांवली
सी लड़की जो सुनील की ज़्यादातर शरारत भरी हरकतों में उसका साथ तो देती
ही थी, उकसाती भी थी। सुनील की चाची उसकी मामी थीं। बड़ा परिवार था न।
“चाची,” सुनील बोला। “मुझसे चिढ़ती है, मुझे पता है। हाँ, मैं भीउससे
चिढ़ता हूँ। इस बार मैं नहीं छोड़ूंगा... मार डालूंगा।
'मारोगे कैसे ?
मैं इसे घोंप कर मारूंगा.' सुनील ने उसे चाकू दिखाते हुए कहा।
दिल में घुसा दूंगा। तीन बार |
“लेकिन तुम पकड़े जाओगे। सी आई डी वाले बड़े होशियार होते हैं। क्या
तुम जेल जाना चाहते हो?
“वो मुझे फांसी पर नहीं चढ़ाएंगे?”
“कम उम्र के लड़कों को फांसी पर नहीं चढ़ाया जाता। उन्हें बोर्डिंग स्कूल
भेज दिया जाता है।
28 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं बोर्डिंग स्कूल नहीं जाना चाहता |
“तो फिर अच्छा यही है कि तुम अपनी चाची को न मारो। कम से कम
वैसे तो नहीं जैसे तुम सोच रहे हो। मैं बताती हूँकैसे मारो ।
मधु कागज और पेंसिल निकाल कर लायी और घुटनों और कोहनियों को
जमीन पर टिकाकर बड़े ध्यान से, जैसी वह बना पा रही थी, चाची की तस्वीर
बनाने लगी। फिर उसने मोम वाले लाल रंग से चाची के पेट के पास एक बड़ा
सा दिल बनाया।
“अब, वह बोली, इन्हें चाकू घोंप कर मार डालो!
सुनील की आँखें उत्साह सेचमक उठीं |यह तो बड़ा ही मज़ेदार खेल जैसा
था। हमेशा कुछ नये के लिए मधु पर भरोसा कर सकते हैं। उसने चाची की
उस तस्वीर को खिड़की की लकड़ी पर टिकाया और उनकी लाल छाती में तीन
बार चाकू से वार किये।
लो, तुमने उन्हें मार डाला! मधु बोली।
“बस, हो गया?!
“अब... अगर तुम चाहो तो हम उनका अंतिम संस्कार भी कर सकते हैं।'
“ठीक है।' |
जिस पर चाची की तस्वीर बनी थी और जो अब चाकू के वार से फट
गया था, उसने वह कागज लिया और उसे गुड़मुड़िया दिया। फिर उसने सुनील
की छुपने वाली जगह से एक माचिस की डिब्बी निकाली और एक दियासलाई
जलाकर उस कागज में आग लगा दी। चंद मिनट में चाची की जगह बची थोड़ी
सी राख।
'बेचारी चाची,” मधु बोली।
“हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था, न...” सुनील के मुँह सेनिकला। अब
उसे पछतावा हो रहा था।
“अब हम उनकी राख को नदी में बहा देंगे!
“कैसी नदी?
“नदी...मतलब नाली से काम चलेगा ।'
मधु ने राख इकट्ठी की और छत के छज्जे पर लटक कर उसने राख नीचे
गिरा दी। राख नीचे की ओर चली, उसमें से कुछ अनार के पेड़ पर ठहर गयी
और कुछ नाली में रसोईघर से आते पानी के बहाव में बह गयी। घूम कर उसने
चाची का अंतिम संस्कार / 29
सुनील की तैरफ़ देखा।
सुनील की गालों पर बड़े-बड़े आंसू बह रहे थे।
“तुम किस लिए रो रहे हो?” मधु ने पूछा।
“चाची... मैं उनसे इतना भी* नहीं चिढ़ता था।'
“तो फिर तुम उन्हें क्यों मार डालना चाहते थे?”
“अरे, वो अलग बात थी।
चलो, फिर नीचे चलते हैं। मुझे स्कूल का काम करना है।
जब सुनील और मधु छत की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे, तभी चाची
रसोईघर से निकलीं।
“हाय चाची! सुनील जोर से बोला और उनकी ख़ूब चौड़ी कमर को अपने
हाथों में भरने को हुआ।
“अब क्या हुआ? चाची भुनभुनाईं। “अब कया मुसीबत खड़ी हो गयी?
“कुछ नहीं, चाची! तुम कितनी अच्छी हो। तुम हमें छोड़ कर मत जाना |
चाची के चेहरे परशक के अजीब से भाव उमड़े । उन्होंने सुनील को भीौंहें
सिकोड़ कर देखा। लेकिन उसकी आँखों में अपनेपन के सच्चे भाव देखकर उन्हें
तसल्ली हो गयी।
देखो, मुझे कितना चाहता है, लड़का,” उन्होंने सोचा और उसके सिर पर
हाथ फेरते हुए धीरे सेथपकी देकर, वह सुनील का हाथ पकड़ उसे वापस रसोईघर
में ले गयीं। !
चोर! चोर! / 57
पहले जेसा मान
फूलों कीआस / 57
९0. 29
+++
रोश तक ट्रेन के डिब्बे केउस हिस्से में मेरे अलावा कोई नहीं था, फिर
वहाँ सेएक लड़की उसमें चढ़ी ।जो उसे छोड़ने आये थे, वे शायद उसके
माता-पिता थे-वह आराम से पहुंच जाए, इस बात को लेकर फ़िक्रमंद थे और
वह महिला खूब समझाकर बता रही थी कि अपनी चीजें कहाँ, कैसे रखे, कब
खिड़की से न झांके और कैसे अजनबी लोगों से बातचीत करने से बचे।
उन्होंने गुडबाय कहा और गाड़ी स्टेशन से आगे बढ़ी। तब मुझे बिलकुल
नहीं दिखाई देता थाऔर आँखों को सिर्फ़ रोशनी और अंधेरे का अंदाज़ा भर
लग पाता था। मुझे कुछ समझ' में नहीं आया कि लड़की कैसी लगती है, लेकिन
मुझे यह समझ में आ गया कि उसने चप्पलें पहन रखी थीं, क्योंकि चलते समय
उनके उसकी एड़ियों सेटकराने कीआवाज आ रही थी।
मुझे उसकी शक्ल-सूरत के बारे में कुछ जानने-समझने में वक़्त लगता और
शायद कुछ भी न जान पाता । लेकिन मुझे उसकी आवाज अच्छी लगी और उसकी
चप्पलों कीआवाज भी!
'क्या आपको देहरा तक जाना है? मैंने पूछा।
मैं शायद अंधेरे कोने में बैठा था, क्योंकि मेरी आवाज सुनते ही चौंकते
हुए वह बोली-'मुझे नहीं पता था कि यहाँ और भी कोई है।
वैसे तो जिन लोगों की नजरें बिलकुल सही-सेलामत होती हैं, वेभीकभी-कभी
यह देखने से चूक जाते हैं किउनके ठीक सामने कौन है। उन्हें बहुत ज़्यादा
चीज़ों पर ध्यान देना पड़ता है, मुझे लगता है।जबकि शायद जो लोग देख नहीं
52 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पाते या जिन्हें बहुत कम दिखाई देता है, उन्हें सिर्फ़ ज़रूरत भर की उन चीज़ों
पर ध्यान देना पड़ता है जिनके बारे में उन्हें बिना दिखाई दिये भी साफ़-साफ़
पता चल जाता है
मैंने भीआपको नहीं देखा,” मैंने कहा। 'लेकिन जब आप अंदर आयीं
तो मुझे आपकी आहट मिल गयी थी।!
मैं सोच रहा था कि क्या मैं यह बात उससे छुपा पाऊंगा कि मैं देख नहीं
सकता। मैंने सोचा कि अगर मैं अपनी सीट से नहीं उठूंगा तो उसे कुछ नहीं
पता चलेगा।
लड़की बोली, “मैं सहारनपुर स्टेशन पर उतरूंगी। मेरी बुआ मुझे लेने
आएंगी ।
“तब तो मुझे आपसे ज़्यादा नज़दीकी नहीं बढ़ानी चाहिए, मैंबोला । “'बुआएं
बड़ी विकट जीव होती हैं।
“आप कहाँ जा रहे हैं?” उसने पूछा।
ददेहरा जाऊंगा और फिर वहाँ से मसूरी |
वाह, आप तो बड़े नसीब वाले हैं। काश मैं भी मसूरी जाती। मुझे पहाड़
बेहद पसंद हैं, ख़ासतौर से अक्तूबर के महीने में ॥'
हाँ, यहसबसे अच्छा समय होता है, मैंने कहा और बीते दिनों को याद
करने लगा। “पहाड़ों पर जंगली डहेलिया के फूल खिले होते हैं औररात कोआप
आग तापते हुए थोड़ी सी ब्रांडी की चुस्कियां ले सकते हैं। ज़्यादातर टूरिस्ट जा
चुके होते हैं,सड़कें शांत, बल्कि तकरीबन वीरान सी पड़ी रहती हैं। हाँ, अक्तूबर
सबसे अच्छा समय होता है।
. वह चुप थी। मैं सोच रहा था कि वह मेरी बातों में डूब गयी है, याफिर
मुझे पगला-दीवाना समझकर चुप्पी साध गयी है। फिर मैंने एक गलती कर दी।
मैंने पूछ लिया-“बाहर का नजारा कैसा है?!
लेकिन उसे मेरे सवाल में कुछ भी अटपटा नहीं लगा। क्या उसे पता चल
गया था कि मैं देख नहीं सकता? लेकिन अगले ही पल उसके सवाल ने मेरी
उलझन दूर कर दी।
“आप खुद खिड़की के बाहर क्यों नहीं देखते?” वह बोली।
मैं बर्थ पर बैठे-बैठे सरक कर खिड़की पर पहुंचा और हाथों से खिड़की
को टटोला। खिड़की खुली हुई थी और मैंने अपने चेहरे कोउसी तरफ़ घुमा दिया
आँखों ही आँखों में... / 55
जिससे उसे ऐसा लगे कि मैं बाहर का नज़ारा ही देख रहा हूँ। मुझे इंजन की
हॉफने जैसी छुक-छुक सुनाई दे रही थी और पहियों की गड़गड़ाहट भी और अपने
मन की आँखों से मैं टेलिफ़ोन के खंभों कोएक के बाद एक सरसर करके पीछे
छूटते देख पा रहा था। हर
“आपने ध्यान दिया कि ऐसा लगता है जैसे हम ठहरे हुए हैं और पेड़ पीछे
को भाग रहे हों?!
"ऐसा तो हमेशा ही होता है, वह बोली। “आपने जानवर देखे?
“नहीं,” बड़े विश्वास से मैंने जवाब दिया । मुझे पता था कि देहरा के
आसपास
के जंगलों में अब शायद ही कोई जानवर बचा हो।
मैंने खिड़की की तरफ़ से मुँह घुमाकर लड़की की तरफ़ कर लिया और
कुछ देर हम चुप बैठे रहे।
“चेहरे सेआप दिलचस्प लगती हैं,” मैंने कहा। मेरी हिम्मत खुलती जा रही
थी, लेकिन इसमें ख़तरे की भी कोई बात नहीं थी। कम ही लड़कियां होती हैं
जिन पर बढ़ा-चढ़ा कर की गयी तारीफ़ का असर नहीं होता ।वह खिलखिलाकर
हँस पड़ी-एक खुशनुमा सी खनकदार हँसी।
“दिलचस्प, सुनकर अच्छा लगा। वरना मैं ऐसे लोगों से ऊब चुकी हूँजो
मेरे चेहरे को सुंदर बताते हैं।
अच्छा, तो सचमुच भली सी सूरत है तुम्हारी“, मैंने सोचा और बात को
घुमाकर बोला-वैसे दिलचस्प का मतलब यह तो नहीं कि चेहरा खूबसूरत न
हो!
आप मुझे बड़े रंगीन मिजाज लगते हैं. वह बोली, 'लेकिन इतने संजीदा
क्यों हो रहे हैं?”
फिर मैंने सोचा, मैं उसकी सोच बदलने के लिए हँस दूंगा, लेकिन हँसने
की बात सोचने से ही मुझे बेचेनी और अकेलेपन का एहसास होने लगा।
सिर्फ़ इतना कह पाया-“जल्दी ही आपका स्टेशन आने वाला है।
“गनीमत है, सफ़र लंबा नहीं था। ट्रेन में मुझसे दो-तीन घंटे से ज़्यादा नहीं
बैठा जाता ।
लेकिन मैं कितनी भी देर बैठा रह सकता था, सिर्फ़ उसकी बातों को सुनते
रहने की ख़ातिर। उसकी आवाज़ में पहाड़ी नदी में बनते-फूटते बुलबुलों जैसा
अल्हड़पन था। वह जैसे ही ट्रेन सेउतरेगी, हमारी छोटी सी मुलाकात को भूल
54 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जाएगी, लेकिन मैं इसकी यादों को अपनी मंजिल पर पहुंचने तक याद रखूंगा,
बल्कि उसके बाद भी काफ़ी समय तक नहीं भूलूंगा।
इंजन की सीटी बजी और गाड़ी के पहियों कीआवाज़, उनकी लय बदलने
लगी। लड़की खड़ी हुई और अपनी चीजें इकट्ठी करने लगी। मैं सोचने लगा
कि उसने अपने बालों का जूड़ा बना रखा होगा, या चोटी गूंथ रखी होगी, खुली
जुल्फ़े कंधों पर बिखर रही होंगी, या फिर छोटे कतरे हुए होंगे उसके बाल? पता
नहीं।
ट्रेन कीचाल धीमी पड़ती गयी और फिर स्टेशन आ गया। बाहर कुली
और खोमचे वालों का शोर था और उसी के बीच, दरवाज़े केपास एक महिला
की तीखी सी आवाज़ सुनाई दी, जो ज़रूर उसकी बुआ की रही होगी।
अच्छा, तो हम चलते हैं” लड़की बोली।
वह मेरे बहुत क़रीब ख़ड़ी थी, इतने पास कि उसके बालों की भीनी-भनी
महक मुझे तड़पा गयी। मैंने उसके बालों को छूने. केलिए हाथ उठाया, लेकिन
तब तक वह चली गयी। जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ बची रह गयी सिर्फ़ उसके
बालों सेआती खुशबू। तभी दरवाज़े पर कुछ हलचल सी हुई और फिर मैंने
सुना कि डिब्बे में चढ़ते हुए एक आदमी ने सकपकाकर किसी से माफ़ी मांगी
और दरवाजा धम से बंद हो गया। बाहर की दुनिया बाहर ही रह गयी। मैं
अपनी जगह आकर बैठ गया। गाड़ी की सीटी सुनाई दी और गाड़ी चल पड़ी।
एक बार फिर, एक नया मुसाफिर हमसफ़र बना, जैसे एक नया खेल शुरू हो
रहा हो।
ट्रेन कीचाल में तेजी आयी और पहियों के बोल अपनी उसी पुरानी लय
में सुनाई देने लगे। डिब्बे काकांख-कांख कर हिलना और हिल-हिल कर कांखना।
मैंने खिड़की कोटटोला और उसके सामने बैठ, दिन के उजाले को निहारता रहा
जो मेरे लिए अंधेरे से ज़्यादा कुछ नहीं था।
खिड़की के बाहर अलग ही दुनिया होती है। क्या-क्या होगा वहाँ, यही
कयास लगाने का खेल सा खेलने लगा अपने आप से। स्टेशन से जो नया मुसाफ़िर
चढ़ा था, वह मुझे ख़यालों की दुनिया से हकीक़त की दुनिया में लाया।
“आपको अफ़सोस होगा,” वह बोला। “क्योंकि अभी जो लड़की उतरी है,
उसका जैसा हसीन हमराही तो मैं दूर-दूर तक कहीं से भी नहीं हूँ।'
आँखों ही आँखों में... / 55
'दिलेचस्प लड़की थी, मैंने कहा। क्या आप बता सकते हैं किउसके बाल
लंबे थे या कटे? 28
मैंने ध्यान नहीं दिया,” मेरे सवाल पर कुछ चकराते हुए उसने जवाब दिया।
'मेरा ध्यान उसकी आँखों पर गया, ज्ञ किउसके बालों पर। उसकी आँखें बड़ी
खूबसूरत थीं-लेकिन उसके किसी काम की नहीं थी। वह बिलकुल अंधी थी।
तुमने नहीं देखा?”
नदी के स्वर
उस रात बारिश फिर होने लगी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें नदी की लहरों
पर गिर रही थीं। लेकिन बारिश का पानी ठंडा नहीं था और सीता को उसमें
भीगने में सर्दी नहीं महसूस हो रही थी, बल्कि अच्छा ही लग रहा था। पिछले
महीने में जब बारिश की पहली फुहारों से पेड़ के पत्तों परजमी धूल धुल गयी
थी और जमीन से सोंधी महक उठी थी, वह ख़ुशी से फूली नहीं समायी थी और
तरह-तरह की आवाजें निकालती इधर-उधर दौड़ती फिरी थी। अब तो उसकी
आदत पड़ चुकी थी, बल्कि बारिश से थोड़ी ऊब ही गयी थी, लेकिन भीगने से
उसे अब भी कोई परहेज नहीं था। घर के अंदर बहुत उमस थी और उसके हल्के
से कपड़े रसोई की आग से थोड़ी सी देर में सूख जाते।
सीता और नदी / 67
वह नंगे पैर डोलती रही, उसके पैर भी खुले थे। कहीं भी पैर रख देती,
क्योंकि उसे मालूम था कि वह फिसलेगी नहीं। उसके पंजे हर तरह की जमीन
पर जम जाते थे, चाहे वहाँ फिसलन हो या तीखी और पथरीली सतह और हालांकि
वह दुबली थी, लेकिन ताक़त इतली कि कोई हैरत में पड़ जाए।
काले बाल उसके चेहरे पर लिपटे जा रहे थे। काली आँखें। पतली पतली
सांवली बाँहें। एक जांघ पर पुराने घाव का निशान-तब का, जब वह छोटी थी
और अपनी ननिहाल गयी थी। वहाँ एक लकड़बग्घा गांव में घुस आया और उस
घर में, जहाँ वह सो रही थी, घुसकर उसके पैरों को अपने जबड़े में दबा, उसे
खींचकर ले जाने लगा, लेकिन उसकी चीखें सुनकर गांव वाले आ गये और
लकड़बग्घे को उसे छोड़कर भागना पड़ा।..
वह मूसलाधार बारिश में घूमती रही, मुर्गियोंकोझोंपड़े केपीछे उनके दड़बे
में खदेड़ने कीकोशिश में |बिना जहर वाला एक भूरा सांप, जिसके बिल में पानी
भर गया होगा, झोंपड़े के बाहर खुली जगह में रेंग रहा था। सीता ने एक डंडी
ली और सांप को उसपर उठाकर पत्थरों के एक ढेर के पीछे डाल दिया। सांपों
से उसका कोई झगड़ा नहीं था। सांप चूहों और मेंढकों की तादाद को काबू में
जो रखते थे। वह सोचती कि पहली बार चूहे टापू पर कैसे पहुंचे होंगे-शायद
किसी की नाव में या अनाज के बोरे में छुपकर।
उसे वे काले-काले बिच्छू अच्छे नहीं लगते थे जोअपनी छुपने की जगह
में पानी भरने के बाद बारिश से बचने के लिए झोंपड़े में आने कीकोशिश करते
थे। बिच्छू पर पैर पड़ने में ज़रा देर नहीं लगती, लेकिन उनके डंक से दर्द के
मारे बुरा हाल हो सकता था। पिछली बरसात में उसे बिच्छू नेकाट लिया था,
जिससे एक दिन और एक रात उसे बुखार रहा और बहुत तेज दर्द हुआ। सीता
पहले कभी किसी जीव को मारा नहीं करती थी, लेकिन उसके बाद से जब कभी
भी बिच्छू दिख जाता, तो उसे पत्थर से कुचल डालती!
आख़िरकार, जब वह घर के अंदर गयी, तो उसे भूख लगने लगी थी। उसने
थोड़े से भुने चने खाये और पीने के लिए थोड़ा सा बकरी का दूध गरम कर
लिया।
दादी एक बार जागीं और पानी मांगा और दादाजी ने पानी का गिलास
उनके होठों से लगाकर उन्हें पानी पिलाया।
सारी रात बारिश होती रही।
68 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
छत टपक रही थी और जहाँ पानी चूह के गिर रहा था वहाँ थोड़ा पानी
भर गया था। दादाजी ने मिट्टी के तेल के लैंप जलाए रखे। उन्हें रोशनी की
जरूरत नहीं थी, लेकिन रोशनी में उन्हें सही-सलामत होने का एहसास मिलता
था।
नदी के बहाव की आवाज़ हमेशा ही रहती थी, लेकिन उन्हें उसका एहसास
बहुत कम ही होता था, पर उस रात नदी की आवाज कुछ बदली-बदली सी थी।
ऐसा लग रहा था जैसे उससे कराहने की सीआवाज आ रही हो। कुछ-कुछ वैसी
आवाज, जैसी तेज़ हवा चलने पर ऊंचे पेड़ों केऊपरी. हिस्सों केझूमने सेआती
थी। साथ में पानी के पत्थरों परफिसलते हुए बहने और बहाव के साथ कंकड़ों
के बहने से एक मंद सी फुफकार सी भी लगातार सुनायी देती थी। कभी-कभी
थोड़ी गड़गड़ाहट और छपाकों की आवाजें भी आती थीं, जब किनारों पर कटान
होने से नीचे की मिट्टी बह जाने के बाद ऊपर की मिट्टी भरभरा कर पानी
में ढहह जाती थी। उस रात सीता को नींद नहीं. आयी।
उसके पास एक गूदड़ की गुड़िया थी, जो उसकी दादी ने पुराने कपड़ों
से बनायी थी। वह हर रात उसे अपनी बगल मेंलिटाती थी। गुड़िया होती थी,
यानी बात करने के लिए उसके पास कोई होता था, ख़ासतौर से तब जब नींद
उससे दूर-दूर भगती थी और रातें कुछ ज्यादा ही लंबी हो जाया करती थीं। उसके
दादा-दादी अकसर उससे बातें करने को तैयार रहते थे, लेकिन कभी-कभी सीता
ही उनके साथ बहुत कुछ साझा नहीं करना चाहती थी और वैसे तो उसकी ज़िंदगी
में कोई ख़ास राज़ नहीं थे, लेकिन कुछ बातों को उसने महज इसलिए राज बना
लिया था, क्योंकि कुछ राज होने काअपना ही मज़ा होता थाऔर अगर आपके
पास कोई राज हों, तोफिर आपके पास कोई दोस्त भी होना चाहिए जिसके
साथ वह राज़ साझा किये जा सकें । क्योंकि टापू पर और बच्चे तो थे नहीं, इसलिए
सीता अपने राज़ गूदड़ की उस गुड़िया को बताया करती थी, जिसका नाम ममता
था।
दादा और दादी सो रहे थे, हालांकि दादी की दम लगाकर सांस लेने की
आवाज़ें भीनदी के बहाव के शोर की तरह ही लगातार आ रही थीं।
ममता, सीता ने अंधेरे में फुसफुसाकर अपनी गुड़िया के साथ अंतरंग
बातचीत का एक और सिलसिला छेड़ दिया था। क्या तुम्हें लगता है कि दादी
फिर से ठीक हो पाएंगी?'
सीता और नदी / 69
ममता उसके सवालों के जवाब जरूर देती थी, भले ही वह सीता के ख़ुद
के अपने मन से निकले जवाब ही होते थे।
“वह बहुत बूढ़ी हैं, ममता ने कहा।
'क्या तुम्हें लगता है कि बाढ़ का पानी हमारे झोंपड़े तक पहुंचेगा?” सीता
ने पूछा।
“अगर बारिश इसी तरह होती रही और नदी में पानी बढ़ता रहा तो झोंपड़े
तक पहुंच जाएगा ।'
'मुझे नदी से डर लग रहा है, ममता। तुम्हें नहीं लगता?!
'डरो नहीं। नदी ने हमेशा हमारा भला ही किया है।'
“अगर हमारे घर में घुस आयी तो हम क्या करेंगे?!
“हम छत पर चढ़ जाएंगे।' धर
“और अगर वहाँ भी पहुंच गयी, तो?
हम पीपल पर चढ़ जाएंगें। पीपल के पेड़ सेऊपर तो यह न पहले कभी
गयी है, न जा सकती है।
जैसे ही छोटे सेरोशनदान से भोर की पहली रोशनी दिखाई दी, सीता उठ
कर बाहर आ गयी। अब ज़्यादा तेज़ बारिश नहीं हो रही थी, लेकिन जैसी एक
सी फूहार पड़ रही थी, वह कई दिन तक चल सकती थी और उसका मतलब
यह भी हो सकता था कि ऊपर पहाड़ों में, जहाँ सेनदी निकलती थी, वहाँ बारिश
जारी थी।
सीता बिलकुल पानी के किनारे पहुंची। उसे अपना पसंदीदा पत्थर नहीं
मिला जिसपर वह अकसर बैठ जाती थी, अपने पैर पानी में लटका कर और
नन्हीं-ननन््हीं चिलवा मछलियों को गुजरते देखती थी। पत्थर तो अपनी जगह था,
इसमें कोई शक नहीं था, लेकिन नदी की धारा ने उसे अपने आगोश में ले लिया
था।
वह रेती पर खड़ी थी और उसे अपने पैरों तले रेत में सेपानी कुलबुलाकर
रिसता महसूस हो रहा था।
नदी का रूप ही बदल गया था। अब वह हरी-नीली और चांदी सी
झिलमिलाती नहीं, मटमैले रंग की थी।
वह झोंपड़े केअंदर गयी। दादाजी अब उठ चुके थे। फिर वह नाव को
तैयार करने में लग गये।
79 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
सीता ने बकरी का दूध दूहय, यह सोचते हुए कि हो सकता है वह आख़िरी
बार उसका दूध दूह रही हो। लेकिन जिस तरह वह ममता को अहमियत देती
थी, वैसी परवाह उसे' बकरी की नहीं थी।
सूरज निकल ही रहा था जब दादाजी ने नाव को खोल दिया और उसमें
उतर गये। दादी नाव के अगले हिस्से में थीं। वह एकटक सीता को देखे जा
रही थीं और ऐसा लग रहा था कि कुछ कहना चाहती थीं, लेकिन बोल नहीं
निकल रहे थे। आखिर में, उन्होंने अपना हाथ उठा दिया, आशीर्वाद देने की मुद्रा
में।
सीता झुकी और अपनी दादी के पैर छू लिये और फिर दादाजी ने नाव
को आगे बढ़ा दिया। छोटी सी नाव, दो बुजुर्गों औरतीन बकरियों को लेकर
नदी की धारा पर तेजी से आगे बढ़ चली, दूसरे किनारे कीओर। बहाव बहुत
तेज़ था और दादाजी उसे दूसरे किनारे पर लगाते इससे पहले नाव का आधा
मील आगे निकल जाना तय था।
नाव पानी पर डोलती चली जा रही थी, लगातार छोटी होती चली जा रही
थी और फिर वह नदी के इतने चौड़े पाट पर एक तिनके जैसी नज़र आने लगी।
और अचानक सीता अकेली रह गयी।.
हवा के थपेड़ों सेबारिश की बूंदें उसके चेहरे परचाबुक की तरह लग
रही थीं और पानी का बहाव टापू को पीछे छोड़ तेजी से आगे बढ़ता जा रहा
था। दूर था दूसरा किनारा, जो बारिश में धुंधला सा दिख रहा था। इनके अलावा
एक छोटा सा झोंपड़ा थाऔर था एक पेड़।
सीता काम में लग गयी। मुर्गियों को दाना डालना था। उन्हें दाने केअलावा
और किसी चीज़ से मतलब नहीं था। सीता ने उनके आगे कई मुट्ठी मोटा अनाज,
आलू के छिलके और मूंगफली के छिलके बिखेर दिये।
फिर उसने झाड़ू उठायी और झोंपड़े को बुहारा, लकड़ी के कोयले की अंगीठी
सुलगायी और दूध गरमाया। वह सोचने लगी-“कल दूध नहीं होगा...! उसने
प्याज छीलनी शुरू की।उसकी आँखों में जलन मचने लगी, तो वह पल भर को
ठहरी और शांत झोंपड़े के अंदर इधर-उधर देखा, तो उसे फिर एहसास हुआ कि
वह अकेली थी। दादाजी का हुक्का एक कोने में अकेला खड़ा था। वह पुराना
और शानदार हुक्का सीता के परदादा का था। उसका चिलम चांदी चढ़े नारियल
के खोल से बना था। उसका पाइप कम से कम चार फ़ीट लंबा था। उनके घर
सीता और नदी / 77
की सबसे कीमती चीज़ थी वह। दूसरे कमरे में दादी की शीशम की छड़ी दीवार
के सहारे खड़ी थी। रु
सीता ने ममता को तलाशते हुए नजरें इधर-उधर दौड़ाई, तो गुड़िया उसे
लकड़ी की पाटी वाली चारपायी के त्ीचे मिली। उसे उठाकर उसने इतनी दूरी
पर रख दिया जितनी दूरी तक देखना-सुनना आसान होता है।
बिजली कड़की और उसकी गूंज पहाड़ों सेटकरा-टकरा कर लौटी-
धूम-धूम-धूम...
“इंदर देवता नाराज हैं,' सीता बोली । तुम्हेंलगता हैकि वह मुझसे नाराज़ हैं?”
"तुमसे क्यों नाराज होंगे, ममता ने कंहा।
उन्हें नाराज़ होने केलिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं होती। वह हर
चीज से नाराज हो सकते हैं और हम कितने छोदे हैं... तुम्हें लगता है कि उन्हें
पता होगा कि हम यहाँ हैं?'
“किसी को क्या पता कि देवता क्या सोचते हैं?”
“लेकिन मैंने तुम्हें बनाया है, सीता ने कहा, और मुझे पता है कि तुम
यहाँ हो ।'
“और अगर नदी में और बाढ़ आयी, तो तुम मुझे बचाओगी न?!
“हाँ, बिलकुल। मैं तुम्हारे बिना कहीं नहीं जाऊंगी, ममता |
पेड़
वह खुश थी कि उसने समय नहीं गंवाया। अब तक झोंपड़ा हर ओर से
बाढ़ के पानी से घिर चुका था। टापू के सिर्फ़ सबसे ऊंचे हिस्से कीज़मीन ही
दिखाई दे रही थी-कुछ चटूटानें, वह बड़ी चट्टान जिस पर झोंपड़ा खड़ा था,
छोटी सी पहाड़ी जिस पर झरबेरी और धतूरे की झाड़ उगी हुई थीं।
मुर्गियां बचने के लिए झोंपड़े सेनिकलने के झंझट में नहीं पड़ीं। वह बस
लकड़ी के तख़्त पर चढ़ गयीं।
क्या नदी में और बाढ़ आएगी? सीता सोच रही थी। इतनी बाढ़ उसने
पहले कभी नहीं देखी थी।
भारी सी, घुटी-घुटी आवाज के साथ उसके चारों ओर उमड़-घुमड़ रही थी,
नदी-और दूर तक नदी ही नदी फैली हुई थी।
अजीब-अजीब किस्म की चीज़ें बहती हुई जा रही थीं-एल्युमीनियम की
केतली, बेंत की कुर्सी, दंत मंजन का टीन, सिगरेट का खाली पैकिट, खड़ाऊं,
प्लास्टिक की गुड़िया...
गुड़िया!
सीता को ममता याद आ गयी और उसका दिल बैठने लगा।
बेचारी ममता, वह तो झोंपड़े में हीरह गयी थी। जल्दबाजी में सीता अपनी
इकलौती सहेली को भूल गयी थी।
वह पेड़ से उतरी और पानी में फच-फच करती सीधी झोंपड़े की ओर दौड़ी।
पानी के बहाव का जोर उसे पैरों में महसूस हो रहा था। झोंपड़े में घुसी तो देखा
हर तरफ़ पानी ही पानी था। वहाँ न मुर्गियां थीं और न ममता।
बड़ी मुश्किल से किसी तरह वह फिर पेड़ तक पहुंची। बस, सही समय
76 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पर पहुंच गयी थी, क्योंकि पानी अब और बढ़ चुका था और बाढ़ टापू को लीलती
जा रही थी।
वह पेड़ में दो डालों केजोड़ परकिसी तरह सिकुड़ कर बैठी अपनी दुनिया
को पानी में गुम होते देख रही थी।
उसने तो हमेशा नदी को प्यार किया था। अब वह उसे ऐसे क्यों धमका
रही थी? उसने गुड़िया को याद किया और सोचने लगी-“अगर मैं अपनी बनायी
हुई किसी चीज़ को लेकर इतनी लापरवाह हो सकती हूँ,तो मुझे भी यह उम्मीद
नहीं करनी चाहिए कि देवता मेरा ध्यान रखेंगे?
पेड़ केबिलकुल पास से कुछ बहता हुआ गया। सीता को एक औरत का
ऊपर को उठा अकड़ा हुआ हाथ दिखा और उसके लंबे बाल पीछे पानी में लहराते
चले जा रहे थे। डूबकर मरी औरत की लाश थी। लाश तो उसी समय बह गयी,
लेकिन उसके बाद सीता खुद को बहुत गया बीता और अकेला महसूस करने
लगी, बड़ी और बेरहम ताकतों की मोहताज । वह कांपने लगी और फिर रो पड़ी।
उसका रोना तब बंद हुआ जब उसने मिट्टी के तेल के एक ख़ाली टीन
के गैलन पर अपनी मुर्गियों में सेएक को बैठे देखा। टीन का वह डब्बा हिचकोले
खाता आया और पेड़ के पास से होता हुआ धीमी रफ़्तार सेआगे बह गया।
डावांडोल सी जगह टिकी मुर्गी कुछ घबराई सी लग रही थी और उसने पंख फैला
रखे थे। ह
कुछ ही देर में सीता ने देखा कि बाकी की मुर्गियां चट्टान के आगे को
निकले हुए हिस्से में बनी छोटी सी खोह जैसी जगह में सिमटी हुई थीं।
पानी का बढ़ना अब भी जारी था। टापू के नाम पर अब बस झोंपड़े का
छप्पर, उसके पीछे वाली बड़ी सीचट्टान और पीपल का पेड़ बचे थे।
वह थोड़ा और ऊपर को चढ़ी और एक डाल के ऐंठे हुए हिस्से पर टिक
गयी। एक जंगली कौवा उससे ऊपर वाली डाल पर था। सीता को उसका घोंसला
दिखाई दे गया, डाल में जिस जगह से एक और डाल निकलती थी, वहाँ सींकों
की बेतरतीब सी मचान जैसा।
घोंसले में चार चितकबरे अंडे थे। कौवा उनपर उदास सा बैठा दबे से स्वर
में कांव-कांव किये जा रहा था। हालांकि कौवा परेशान लग रहा था, लेकिन सीता
को उसे देख कर कुछ राहत मिली । अब कम से कम वह अकेली नहीं थी। कोई
न हो, उससे तो अच्छा ही है कि कौवे का साथ हो।
सीता और नदी / 77
दूसरी चीजें बहकर झोंपड़े से
बाहर आने लगीं-एक बड़ा सा कद्दू, दादाजी
की पगड़ी, जो बाहर आने के बाद खुलने लगी, एक लंबे से सांप की तरह
और फिर-ममता!
गुड़िया के अंदर लकड़ी की छीलन और भूसा भरा था और वह पानी के
ऊपर तेजी से आगे बढ़ रही थी। इतनी तेजी से कि सीता उसे बचाने के लिए
कुछ नहीं कर सकती थी। सीता का मन हुआ कि वह ममता को आवाज़ दे
कर कहे कि वह पेड़ के पास आ जाये, लेकिन उसे मालूम था कि ममता तैर
नहीं सकती-गड़िया सिर्फ़ पानी पर उतराती रह सकती थी, नदी के बहाव के
साथ बह कर दूर तक जा सकती थी और शायद कई मील दूर किनारे भी लग
सकती थी। । |
हवा के थपेड़े और बारिश की बौछारें पेडू कोझकझोर रही थीं। जब
पेड़ हिला तो कौवे ने ज़ोर से पुकारा और हवा में उड़ा। उड़ते हुए पेड़ केकई
चक्कर लगाये और फिर अपने घोंसले में आकर बैठ गया। सीता डाल से लिपटी
रही।
फिर पेड़ का पूरा ढांचा थरथराया। सीता के लिए तो वह भूकंप जैसा था।
पेड़ क्या थरथराया, वह ख़ुद हड्डियों तक कांप गयी।
अब उसके चारों तरफ़ नदी में भंवर बन रहे थे और पानी क़रीब-क़रीब
झोंपड़े कीछत तक चढ़ आया था। मिट्टी की दीवारों को ढहने और बहने में
देर नहीं लगनी थी। अब झोंपड़े: केपीछे वाली बड़ी चट्टान और बहुत दूर खड़े
कुछ पेड़ों केसिवा हर तरफ़ पानी ही पानी नजर आ रहा था। पानी और मटमैला
सा आंसू बहाता आसमान।
काफ़ी दूरी पर, एक नाव में बैठ कई लोग बाढ़ से तबाह गांव से दूर चले
जा रहे थे। उनमें से किसी ने पानी के फैलाव पर नज़र दौड़ाई और कहा-'देखो
तो, नदी के बीच में पेड़ है! पेड़ यहाँ कैसे आया होगा? देखो, पेड़ में कोई
हिलता-डुलता दिखाई दे रहा है!
लेकिन दूसरों ने सोचा कि वह सिर्फ़ बाढ़ केसाथ बह कर आये हुए पेड़
को लेकर ख़याली पुलाव पका रहे थे। ख़ुद पर पड़ी मुसीबत के चलते वह भूल
गये थे कि नदी के बीच में एक टापू भी था।
नदी बौखलाई हुई थी जैसे बेहद गुस्से में हो।पहले पहाड़ों पर कूदती-फांदती
और फिर मैदानी इलाके में गरजती-उफनती, अपने साथ मरे जानवरों की लाशें, -
78 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जड़ से उखड़े पेड़, घरेलू इस्तेमाल की चीजें और मिट्टी वाले पानी के भंवर में
फंसकर दम घुटने से मरी बड़ी-बड़ी मछलियां।
पीपल का पेड़ कांखा। उसकी गहराई तक गयी टेढ़ी-मेढ़ी जड़ें अब भी
उस जमीन को जबरदस्ती पकड़े हुए थीं जहाँ वह बरसों पहले पैदा हुआ था।
लेकिन ज़मीन ही ढीली हुई जा रही थी और पानी की मौजें पत्थरों तक को बहा
कर ले जा रही थीं। पेड़ की जड़ों कीपकड़ तेजी से ढीली पड़ती जा रही थी।
कौवे को जरूर मालूम था कि कुछ गड़बड़ है, क्योंकि वह बार-बार घोंसले
से उड़ जाता था और कांव-कांव करता पेड़ केकई चक्कर लगाकर लौटता-उससे
न तो चैन से घोंसले में बैठा जारहा थाऔर न ही वह घोंसला छोड़ कर उड़
जाने को तैयार था। जब तक घोंसला वहाँ था, तब तक कौवे को वहीं रहना
था।
पानी से तर-बतर सीता के सूती कपड़े उसके बदन पर चिपके थे। बारिश
का पानी उसके लंबे काले बालों के सिरों से भी चुहचुहा रहा था। पत्ते-पत्ते से
बारिश का पानी गिर रहा था। कौवा भी भीग चुका था, कमजोर और थका-हारा
लग रहा था।
पेड़ फिर सेचरमराया और जोर से हिला।
फिर पत्तों में
सरसराहट होने लगी और फिर कीचड़ वाला पानी भलभलाकर
ऊपर को उठने लगा। सीता को ऐसा लगा जैसे नदी आसमान को छूने के लिए
बढ़ रही हो। फिर पेड़ एक तरफ़ झुका और सीता दूसरी तरफ़ झूल गयी। उसके
पैर पानी में चले गये, लेकिन वह अपनी डाल को पूरी मजबूती से पकड़े रही।
और फिर उसने पाया कि पेड़ भी चल पड़ा था, नदी की धारा के साथ-साथ,
अपनी जड़ों को जमीन पर घसीटते हुए वह निकल पड़ा था अपनी ज़िंदगी के
पहले और आख़िरी सफ़र पर और उसके चलने से सीता बेतरह हिचकोले खा
रही थी। ह
और जैसे ही पेड़ नदी की धारा में अपने नये सफ़र पर निकला और छोटा
सा टापू भंवरदार लहरों में खोगया, सीता अपना डर और अकेलापन भूल गयी।
पेड़ उसे अपने साथ लिये जा रहा था। वह अकेली नहीं थी। ऐसा लग रहा था
जैसे किसी एक देवता ने तो उसे ज़रूर याद रखा था।
सीता ओर नदी / 79
साथ बहे बहाव के
पेड़ की डालें पलटा खातीं तो सीता झूल जाती थी, लेकिन उसने अपनी
पकड़ ढीली नहीं होने दी। पेड़ उसका अपना था। वह उसे बचपन से जानता
था और अब मरते-मरते भी उसने उसे अपनी बाहों में इस तरह थाम रखा था,
जैसे वह उसे नदी से बचाना चाहता हो।
कौवा बहते हुए पेड़ केसाथ-साथ उड़ता रहा। उसे बुरी तरह गुस्सा आ
रहा था। पेड़ में अब भी उसका घोंसला था-लेकिन ज़्यादा देर नहीं रहा! पेड़
चरमराया और एक तरफ़ घूम गया और घोंसला पानी में गिर गया। सीता ने
अंडों को डूबते देखा।
कौवे ने हवा में नीचे कोगोता लगाया और पानी के क़रीब से उड़ान भरी
लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता था। कुछ ही पलों में तैरता घोंसला लहरों के
बीच डूब गया।
कौवा कुछ देर तक पेड़ के साथ उड़ता रहा, फिर जोर लगाकर अपने पंखों
को फड़फड़ाते हुए हवा में काफ़ी ऊपर जा पहुंचा। उड़ते हुए उसने नदी पार
की और उड़ते-उड़ते आँखों सेओझल हो गया। न्
एक और साथी चला गया था। लेकिन अकेलापन महसूस करने के लिए
समय ही नहीं था। सब कुछ चल रहा था-ऊपर-नीचे, इधर-उधर और आगे।
उसने एक कछुए को तैरता हुआ आगे निकलते देखा-बड़ा सा नदियों में
पाया जाने वाला कछुआ, उस किस्म का जो सड़ता हुआ मांस खाते हैं। सीता
ने मुँह फेर लिया। दूर उसे बाढ़ केबीच एक गांव नज़र आया, जहाँ सपाट पेंदे
वाली नावों में लोग थे, लेकिन वे बहुत दूर थे।
बहुत बड़ा होने कीवजह से पेड़ नदी की धारा में बहुत तेजी से आगे
नहीं बढ़ रहा था। कभी-कभी जब वह उथले पानी में पहुंच जाता था, तो वहीं
ठहर जाता था और उसकी जड़ें आसपास के पत्थरों को थाम लेती थीं, लेकिन
ज्यादा देर के लिए नहीं-नदी के बहाव का जोर उसे फिर बहा ले जाता था।
एक जगह, जहाँ नदी में एक मोड़ था, पेड़ किनारे की रेती से टिक कर
ठहर गया। वह वहाँ से फिर नहीं हिला।
सीता को बहुत थकान महसूस हो रही थी। उसके हाथ दुख रहे थे और
पानी में जाने सेबचने केलिए उसे अपनी डाल को कस कर पकड़े रहना था।
बारिश की वजह से उसे साफ़-साफ़ दिखाई भी नहीं दे रहा था। वह सोचने
पड । 809 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
लगी कि क्या वह तेज बहाव का मुक़ाबला करते हुए तैर कर किनारे पहुंच
सकती थी। लेकिन वह पेड़ को नहीं छोड़ना चाहती थी। उसके पास अब
वही तो बचा था और*वह उसकी डालों में ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर रही
थी।
फिर, नदी के शोर को चीरती हुई किसी की आवाज़ उसके कानों में
पहुंची-कोई उसे पुकार रहा था। आवाज़ बहुत धीमी थी और ऐसा लगता था
जैसे कहीं दूर से आ रही हो, लेकिन बारिश के पर्दे केपार जिधर से नदी आती
थी, सीता को उधर से एक नाव अपनी ओर आती दिखाई दी।
नाव में एक लड़का था। बिफरी हुई नदी में भीवह बिलकुल भी परेशान
नहीं लग रहा था और अपनी नाव को पेड़ की तरफ़ खेते हुए वह सीता को
देख कर मुस्करा रहा था। उसने खुद को संभालने के लिए एक हाथ बढ़ाकर
पेड़ कीएक डाल को पकड़ लिया और दूसरा हाथ सीता की तरफ़ बढ़ा दिया।
उसने अपनी ओर बढ़ा हुआ हाथ थाम लिया और नाव में लड़के के बगल
में उतर आयी।
लड़के ने अपने पैर के तलवे को पेड़ के तने पर टिकाया और जोर से
धक्का दिया।
नाव तेजी से नदी में आगे बढ़ चली। सीता ने पीछे मुड़कर देखा, बड़ा
सा पेड़ किनारे की रेती पर जैसे करवट लिये पड़ा था, जबकि नदी की लहरें
उससे टकरा-टकरा कर उसकी डालों को अपनी ओर खींच रही थीं और उसके
खूबसूरत पत्तों कोनोच-नोच कर अपने साथ लिये जा रही थीं।
फिर पेड़ छोटा होता चला गया और बहुत पीछे छूट गया। एक नया सफ़र
शुरू हो चुका था।
बैलगाड़ी की सवारी
गांव के लोग पहले सीता और विजय की मदद करने के लिए तैयार नहीं
थे।
ये पराये हैं,” एक बुढ़िया बोली, “हमारे अपने लोगों में से नहीं हैं ये।'
ये नीची जाति के है,' दूसरे नेकहा। “ये हमारे साथ नहीं रह सकते |
“यह क्या पागलपन है! साफ़ा पहने एक कद्दावर किसान ने अपनी सफ़ेद
मूंछें ऐंठते हुए कहा। “ये बच्चे हैं, कोई चोर-उचक्के नहीं। ये मेरे घर में रहेंगे ।'
गांव के लोग-लंबे-तगड़े, जाट मर्द औरऔरत, दरियादिल थे, एक बार
किसी ने पहला क़दम उठा दिया तो उसके बाद सब का रवैया बदल गया। सब
अपनेपन के साथ मदद करने को आगे आ गये।
सीता अपने दादा-दादी के पास पहुंचने को बेचेन थीऔर उस किसान
ने जिसे कोई बीस मील दूर एक गांव में लगे मेले में कुछ लेन-देन करनी थी,
सीता और विजय को अपने साथ ले जाने की पेशकश की।
मेला करौली नामक स्थान पर लगा था, वहाँ रेलवे स्टेशन था और वहाँ
से शाहगंज के लिए ट्रेन जाती थी।
वह एक ऐसा सफ़र था जिसे सीता हमेशा याद रखेगी। पानी में डूबी सड़क
पर बैलगाड़ी इतनी धीरे-धीरे चल रही थी कि चीज़ों को देखने, एक दूसरे पर
ध्यान देने, बातें करने, सोचने और सपने देखने के लिए समय था।
88 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
विजय से गाड़ी में चैन से नहीं बैठा जा रहा था। वह तो तेज़ी से बहती
जाने वाली नाव की चाल का आदी था। वह बार-बार बैलगाड़ी से नीचे कूद पड़ता
और कई बार तो टखनों तक पानी में पैदल चलता।
गाड़ी में चार लोग थे-सीता, विजय, हुकम सिंह-जाट किसान और उसका
बेटा फमबीरी-पहाड़ जैसा आदमी, जो मेले में कुश्ती के मुक़ाबलों में हिस्सा लेने
जा रहा था।
हुकम सिंह, जो खुद बैलगाड़ी हॉँक रहे थे, उन्हें बातें करने में मजा आता
था। पहले विश्व युद्ध के दौरान वह अंग्रेज सरकार की हिंदुस्तानी फौज में सिपाही
थे और अपनी रेजिमेंट केसाथ इटली और मीसोपोटैमिया गये थे।
“फौजी होने का मुक़ाबला किसी चीज से नहीं किया जा सकता, खेतीबाड़ी
को छोड़कर। अगर तुम किसान नहीं बन सकते, तो फ़ौजी बनना। सुन रहे हो
बेटा? तुम क्या बनोगे-किसान या फ़ौजी?'
दोनों में से कुछ नहीं, विजय ने कहा। "मैं इंजीनियर बनूंगा!
हुकम सिंह की मूंछें जैसे चिढ़ भरे गुस्से से खड़ी हो गयीं।
“इंजीनियर! तेरा बाप क्या करता है रे लड़के?
भैंसें पालते हैं।
“अच्छा! और उसका बेटा इंजीनियर बनेगा ?...ठीक है,ठीक है,दुनिया बदल
गयी है, पहले जैसी नहीं रही है! किसी कोअपनी असल औक़ात का अंदाज़ा
नहीं रहा है। लोग अपने बच्चों को पढ़ने भेजते हैं औरनतीजा क्या है? इंजीनियर !
और जब तुम इंजीनियर का काम कर रहे होगे, तो भैंसों कीदेखभाल कौन करेगा ?'
मैं भैंसें बेच दूंगा, विजय बोला, फिर चिढ़ाने केलिए यह और कह
, दिया-'शायद उनमें से एकाध आप ही ख़रीद लें, सूबेदार साहब!
उसने नटखट अंदाज़ का खारापन कम करने के लिए 'सूबेदार साहब' जोड़ा
था, जो कि पुराने जमाने में सेना में नॉन-कमिशंड अफ़सर का पद होता था।
हुकम सिंह कभी इस पद तक नहीं पहुंच पाये थे, सोयह सुनकर तो वह चने
के झाड़ पर चढ़ गये!
“ख़ुशकिस्मती से फमबीरी स्कूल में नहीं पढ़ा है!वह किसान बनेगा, बढ़िया
वाला किसान |
फमबीरी ने कुछ आं ऊ कर दिया, जिसका मतलब कुछ भी लगाया जा
सकता था। उसने छठी क्लास से आगे पढ़ाई नहीं की थीऔर शायद इतना
सीता और नदी / 89
ही काफ़ी था, क्योंकि वह ताक़त से काम लेने वाला आदमी था दिमाग इस्तेमाल
करने वाला नहीं।
फमबीरी को अपनी ताक़त किसी फ़ायदेमंद काम में लगाना अच्छा लगता
था। जब कभी बैलगाड़ी का पहिया कीचड़ में फंस जाता था, तो फमबीरी गाड़ी
से उतर कर अपना कुर्ता उतारता और अपना कंधा गाड़ी के एक तरफ़ अड़ाकर जोर
लगाता । उसकी मांस-पेशियां उभर आतीं और उसकी पीठ पसीने से दमक उठती।
'फमबीरी हमारे जिले का सबसे ताक़तवर आदमी है,” हुकम सिंह ने शान
से कहा। “और सबसे होशियार भी! कुश्ती का मुक़ाबला जीतने के लिए बिना
समय गंवाए फ़ैसले लेने पड़ते हैं।
'ममैंने कभी कुश्ती का मुक़ाबला नहीं देखा है,' सीता बोली।
तो फिर कल सुबह हमारे साथ चलना और तुम फमबीरी को कुश्ती लड़ते
देख सकोगी। उसे करौली के सूरमा ने ललकारा है।* मजेदार मुक़ाबला होगा!
“हम फमबीरी को जीतते हुए जरूर देखेंगे।
क्या इतना समय होगा हमारे पास? सीता ने पूछा।
क्यों नहीं? शाहगंज वाली गाड़ी शाम तक नहीं आयेगी। मेला सारा दिन
लगा रहता है और कुश्ती के मुक़ाबले सुबह होंगे।'
“हाँ, तुम देखना मुझे जीतते हुए!” छाती ठोंक कर फमबीरी ने चहकते हुए
कहा। "मुझे कोई नहीं हगता सकता !...और कीचड़ में फंसे बैलगाड़ी के पहिये को
कंधा लगाकर निकालने के बाद गाड़ी में चढ़ गया।
'तुम दावे से कैसे कह सकते हो?” विजय ने पूछा।
“इसे ऐसा ही भरोसा होना चाहिए खुद पर,' हुकम सिंह बोले। "मैंने इसे
इसी तरह पक्के इरादे केसाथ काम करना सिखाया है! अगर शक-शुबा होता
है तो आप कहीं भी नहीं जीत सकते... सही है न फमबीरी? तुम्हें मालूम है कि
तुम ही जीत हासिल करोगे!
'पता है,' फमबीरी आत्मविश्वास के साथ घुरघुराया।
देखो, कोई तो हारेगा ही,” विजय बोला।
“बिलकुल सही,” हुकम सिंह ने यह जताते हुए हामी भरी जैसे यह बात
उनके लिए नयी नहीं थी। “आख़िर हारने वालों के बिना हमारा कैसे भला होगा?
लेकिन फमबीरी के नाम जीत ही जीत है...हमेशा !'
और, अगर वह हार गया? विजय अड़ा रहा।
909 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“तो वह यह बात बिलकुल दिमाग से निकाल फेंकेगा कि वह हारा था और
अगला मुक़ाबला जीत कर लौटेगा!
विजय को नहीं सूझा कि हुकम सिंह की दलील के जवाब में क्या कहे,
लेकिन सीता, जो कि इस बहस से उलझन में पड़ गयी थी, उसके सामने अब
सब कुछ साफ़ हो गया था। वह बोली-'शायद इसने अभी तक कोई मुक़ाबला
नहीं जीता है। क्या पिछला मुक़ाबला हारा था?
“चुप! हुकम सिंह ने चौंकते हुए कहा। “उसे याद मत दिलाओ। तुम्हें हारे
हुए मुक़ाबले को भूल जाना चाहिए न बेटा?
'मैं कभी कोई मुक़ाबला हारा ही नहीं हूँ” फमबीरी ने बड़ी सहजता और
विश्वास के साथ कहा।
“कितनी अजीब बात है, सीता बोली। “अगर कोई हार जाता है, तो वह
जीत कैसे सकता है?
“एक फ़ौजी ही यह बात समझा सकता है,' हुकम सिंह ने कहा। “लड़ने
वाले के लिए हार जैसी कोई चीज नहीं होती | तुम नदी के ख़िलाफ़ लड़े न, नहीं
लड़े क्या?
'ममैंने तोख़ुद को नदी के भरोसे छोड़ दिया, सीता ने कहा। “जहाँ ले गयी,
वहाँ चली गयी ।'
हाँ, तुम तो तली में चली जातीं अगर यह लड़का न आता तुम्हारी मदद
करने। नदी से यह लड़ा, है न?
“हाँ, इसने नदी का मुक़ाबला किया, सीता ने कहा।
“नदी से लड़ने में तुमने मेरी मदद की, विजय बोला।
। “इसका मतलब तुम दोनों लड़े,' बूढ़े फ़ौजी नेसिर हिलाकर तसल्ली जाहिर
करते हुए कहा। 'तुम नदी के साथ नहीं बहे और तुमने सब कुछ भगवान भरोसे
भी नहीं छोड़ा ।'
“भगवान हमारे साथ था,” सीता बोली।
और इस तरह वह बातें करते रहे और बैलगाड़ी देहात की धूल भरी कच्ची
डगर पर आगे बढ़ती रही। दोनों बैल सफ़ेद थे और उन्हें गले में रंग-बिरंगे मनको
की माला और घुंघरू पहनाकर मेले के लिए ख़ासतौर से सजाया गया था। बड़े
सीधे और सबर वाले बैलों की जोड़ी थी। लेकिन गाड़ी के पहिये, जिनमें तेल
डालने की जरूरत थी, इस तरह लगातार जोर से चिरचराये जा रहे थे, उनके
सीता और नदी / 97
चरचराने और कराहने से ऐसा लग रहा था जैसे सारे जहान की प्रेतात्माएं उन्हीं
में कैद हो गयी हों।
धान के खेतों मेंसीता नेकई किस्म के पक्षी देखे ।
काले और सफ़ेद करवानक
पक्षी और पूंछ पर गुलाबी फुंदके वाले सारस दिखाई दिये। बढ़िया मानसून का
मतलब है पक्षियों कीभरमार। लेकिन हुकम सिंह को सारस नहीं सुहाते।
वे गेहूँके खेत में बड़ी तबाही मचाते हैं, वह बोले। फिर चिलम सुलगायी,
कश लगाये और फिर से पंडित-ज्ञानियों सीगहरी-गहरी बातें करने लगे-“'किसान
के लिए जीवन एक संघर्ष हैजोचलता ही चला जाता है। जब वह सूखे से उबरता
है, बाढ़ के बाद जी जाता है, जंगली सुअरों को खेत से खदेड़ देता है, सारस
से फ़सल को बचा लेता है...और आख़िरकार फ़सल काट लेता है, तब ख़ून का
प्यासा पिशाच...सूदखोर महाजन । उससे बचना नामुमकिन है! तुम्हारे बाप के सिर
पर कर्ज का बोझ तो नहीं है,बेटा। जो
नहीं.” विजय बोला।
“इसकी वजह यह है कि उसकी बेटियां नहीं हैं ब्याहने केलिए! मेरी दो
हैं। क्योंकि वेभीफमबीरी जैसी हैं, इसलिए उनके लिए खुले हाथों से दहेज देना
पड़ेगा ।'
बात-बात पर बड़बड़ाने के बावजूद हुकम सिंह को जिंदगी में जो कुछ मिला
उससे काफ़ी संतुष्ट लगते थे। उनकी मक्के की फ़सल अच्छी हुई थी और बैलगाड़ी
के अगले हिस्से में ख़ूब ऊपर तक मक्के के बोरे लाद रखे थे। वह उसे मेले
में बेचने केलिए जा रहे थे, थोड़े खीरे, बैंगन और तरबूज के साथ।
सड़क ख़राब होने कीवजह से उनकी चाल इतनी धीमी पड़ गयी थी कि
जब शाम होने को आयी तब भी वह करौली से काफ़ी दूर थे। भारत में गोधूली
का समय बस नाम को होता है। सूरज डूबने के कुछ ही देर मेंतारे निकल आते हैं।
“छह मील और चलना है,' हुकम सिंह बोले। “अंधेरे में हमारी गाड़ी के
पहिये फिर कहीं कीचड़ में फंस सकते हैं ।चलो, रात यहीं बिताते हैं। अगर बारिश
हुई, तो हम गाड़ी पर तिरपाल डाल लेंगे।
विजय ने लकड़ी के कोयले की अंगीठी सुलगायी जिसे हुकम सिंह अपने
साथ लाये थे। सादे से खाने के नाम पर उन्होंने आग पर मक्के भूने और उनपर
नीबू केसाथ नमक-मसाला लगाकर खाया। थोड़ा सा दूध था, लेकिन इतना नहीं
था कि सब पी सकें, क्योंकि तीन लोटे तो फमबीरी ही पी गया था।
92 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“अगर कल मैं जीत गया,' उसने कहा, तो मैं तुम सब को दावत दूंगा।'
वे सोने के लिए बैलगाड़ी में हीलेट गये और जल्दी ही फमबीरी और उसके
पिता खर्राटे लेने ल़गे। विजय अपने बाजू सिर के नीचे लगाये लेटा था और तारों
को देखे जा रहा था। सीता बहुत थकी थी, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी।
उसे अपने दादा-दादी की चिंता लगी थी। वह सोच रही थी कि उनसे फिर कब
मिलना होगा।
रात आवाज़ों से भरी हुई थी। फमबीरी और उसके पिता जैसी खरटे की
आवाज़ें हर तरफ़ से आती हुई सी लग रही थीं, जैसे अदृश्य लोग वहाँ सो रहे
हों और खरंटे ले रहे हों। इससे सीता डर गयी और विजय की तरफ़ मुड़कर
पूछा-“यह कैसा अजीब शोर है?
वह अंधेरे में मुस्कराया और सीता को उसके सफ़ेद दांत और आँखों में
हँसी की चमक दिखाई दे गयी।
'भूतों की आवाजें हैं जो अंधेरे में खो गये हैं, उसने कहा और फिर हँस
पड़ा। तुम पहचान नहीं पा रही हो कि यह मेंढकों की टर्र-टर्र है?”
तो यह था जो उन्हें सुनायी दे रहा था-भूतों की चीख-पुकार से भी ज़्यादा
डरावना शोर जिसके स्वर लगातार ऊंचे होते जाते थे-टर्र, टर्र, टर्र-ये आवाजें
सड़क के दोनों तरफ़ बारिश के पानी से भरी खाइयों से आ रही थीं। ऐसा लग
रहा था कि जंगल के सारे मेंढक एक जगह इकट्ठे हो गये थे और उनमें से
हरेक के पास उसी वक़्त कहने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर था। उनके भाषण
करीब घंटे भर तक चलते थे। फिर उनकी बैठक ख़त्म हुई और जंगल की शांति
बहाल हुई।
लुक-छिप कर एक सियार सड़क पार कर गया। हवा का एक झोंका पेड़ों
को छूकर निकल गया। बैल, जिनके कंधों पर अब गाड़ी का बोझ नहीं था, उसी
के बगल में सो रहे थे। लोगों केखर्राटे भीअब हल्के पड़ चुके थे। विजय भी
सो गया था। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। सिर्फ़ सीता जाग रही थी,
चिंता में डूबी, सुबह होने का इंतज़ार कर रही थी।
मेले में
सुबह के नौ बजे से ही मेले में भीड़ जुट गयी थी। दुधारु जानवर बिक
रहे थे, उनकी नीलामी के लिये बोलियां लग रही थीं। दुकानें खुल गयी थीं, जिन
सीता और नदी / 95
पर हल्दी से लेकर हल तक सब कुछ बिक रहा था। खाने की चीजें मिल रही
थीं-गर्मागरम, चटपटा-मसालेदार खाना, मिठाइयां औरअलग-अलग स्वाद में बर्फ़
के शरबती गोले। चक्कर वाला झूला, जिसमें तेल नहीं डाला गया होगा, कुछ
ज्यादा ही चीं-चीं कर रहा था, जबकि लाउडस्पीकर पर कानफ़ोड़ू आवाज में मशहूर
फ़िल्मी गाने बज रहे थे। लक
जब फमबीरी अपने कुश्ती के मुक़ाबले की तैयारी कर रहा था, हुकम सिंह
कदूदुओं का भाव-ताव करने में लगे थे। सीता और विजय खुद ही दुकानों पर
घूम-घूम कर खिलौने, पतंग, चूड़ियां, कपड़े और चटक रंगों वाली तर मिठाइयों
को ताक रहे थे। कुछ गांव वाले अपने कंधों पर ज़ोर-ज़ोर से बजते ट्रांजिस्टर-रेडियो
टांगे घूम रहे थे, जैसे उनका लाउडस्पीकर के शोर के साथ मुक़ाबला चल रहा
हो। कभी पास में कोई भैंस रंभाने लगती थी, तो बाकी शोर उसके आगे दब
जाते थे।
तमाम लोग सड़क के किनारे अपने धंधे चला रहे थे। एक ज्योतिषी था।
उसने अपने आगे कागज के कुछ चिट्ठे सजा रखे थे जिन पर कुछ लिखा हुआ
था और सब पर थोड़े-थोड़े चावल रखे थे। उसके पास एक पालतू गौरेया थी।
जब कोई ज्योतिषी को पैसे दे देता, तो वह गौरेया को उसके पिंजरे से निकालता
और गौरेया आगे बढ़कर उन चिट्ठों में से किसी एक पर रखे चावल चुगने लगती ।
वह ज्योतिषी चिट्ठा उठाकर यजमान को उसपर लिखा भाग्यफल, आने वाले कुछ
महीने या बरसों में क्या होगा, वह पढ़कर बता देता।
एक परेशान सा अधेड़ उम्र काआदमी आधा दर्जन बेटे-बेटियों से घिरा
था। वह भाग्य बांचने वाले की बात से और चिंता में डूब गया था क्योंकि उसके
वाले चिट्ठे परलिखा था-“आशा न छोड़ें। आपको जल्दी ही संतान होगी ।'
कुछ दूरी पर एक नाई बैठा था और उसके पास ही एक कान का मैल
निकालने वाला। कई बच्चे बाइस्कोप वाले के डिब्बे केआगे जुटे थे। उसके ऊपर
भोंपू केसाथ एक पुराना ग्रामोफ़ोन लगा था। एक आदमी ने ग्रामोफ़ोन की चाबी
भरने के बाद उसके चक्के पर ख़ूब अच्छी तरह घिसा हुआ ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड
रखा, जबकि उसका साथी जल्दी-जल्दी पीछे से तस्वीरें बदल रहा था।
एक लड़का पूरे जोश के साथ मेला-मैदान में इधर से उधर घूम-घूम कर
मेले में क्या-क्या देखने को है, इसका ऐलान कर रहा था। कुछही देर में कुश्ती
के मुक़ाबले शुरू होने वाले थे। फ़मबरी को “हाथी की सूंड जैसी जांघों वाला'
94 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बताते हुए, उसके और उस गांव के सूरमा-ख़ूब बालों वाली छाती, बाहर को
निकली हुई भवों और जंगली से दिखने वाले शेरदिल के बीच होने वाले मुक़ाबले
को सबसे ज़्यादा दिलचस्प बताया जा रहा था। शेरदिल फमबरी से भारी था,
लेकिन उतना लंबा नहीं था।
सीता और विजय अखाड़े के एक सिरे पर मौजूद हुकम सिंह केपास आ
गये। हुकम सिंह अपने मशहूर बेटे की जांघों पर तेल-मालिश कर रहे थे।
घड़ियाल पर चोट की आवाज गूंजी और शेरदिल अपनी छाती ठोंकता और
जंगली सुअर की तरह घुरघुराता हुआ अखाड़े में आ गया | फमबीरी धीरे से उससे
मिलने के लिए आगे बढ़ा।
फ़ौरन दोनों ने एक दूसरे कोजकड़ लिया और एक दूसरे को गिराने की
कोशिश मेंएक ही जगह खड़े-खड़े कभी एक तरफ़ तो कभी दूसरी तरफ़ थोड़ा-थोड़ा
झुक जाते थे। उनके तेल-मालिश किये बदन पर पसीना चुहचुहा आया था।
शेरदिल ने फमबीरी की कमर को अपनी बाहों के लपेटे में लेकर उसे उठाने
की कोशिश की ताकि जमीन पर से उसके पैरों कीपकड़ छूट जाये, लेकिन फमबीरी
ने अपने विरोधी की टांग को अपनी शक्तिशाली टांग में फंसा लिया तो दोनों
धड़धड़ा कर गिरे और अखाड़े की खिली मिट्टी में बवंडर आ गया। लेकिन दोनों
में सेकोई भी पहलवान चित नहीं हुआ था।
जल्दी ही दोनों मिट्टी से ऐसे सन गये कि दोनों को पहचानना ही मुश्किल
होने लगा। बस अखाड़े में हाथ-पैरों कीहलचल मची थी। लोग चिल्ला-चिल्ला
कर उनका जोश बढ़ा रहे थे, लेकिन पहलवान एक-दूसरे से जूझने में इतना डूबे
हुए थे कि उन्हें अपने चाहने वाला का होश ही नहीं था। दोनों एक दूसरे को
, चित करने की कोशिश में थे। चित करना ही तो सब कुछ था। और किसी चीज़
की गिनती नहीं होती थी।
कुछ पल के लिए शेरदिल की पकड़ में फमबीरी बिलकुल बेबस सा हो
* गया, लेकिन फमबीरी उसे गच्चा देकर उसकी कचूमर बना देने वाली जकड़ से
बच निकला और एक बार फिर अपनी टांगें इस्तेमाल करके उसने ऐसा दांव लगाया
कि शेरदिल अखाड़े के दूसरे सिरे पर जाकर गिरा। फमबीरी ने फुर्ती सेउसे अपने
नीचे दबोच लिया लेकिन यह कोई जीत नहीं थी।
कई मिनट तक कुछ नहीं हुआ। देखने वाले और दांव देखने के लिए
उतावले होने लगे। फमबीरी का मन हुआ कि वह अपने विरोधी का कान मरोड़
सीता और नदी / 95
दे, लेकिन फिर उसे एहसास हुआ कि ऐसा करने से उसे मुक़ाबले से बाहर
किया जा सकता था। इसलिए उसने अपने ऊपर काबू रखा। उसकी पकड़ थोड़ी
सी ढीली हुई और शेरदिल को पलटा खाने का मौका मिल गया। पलटा खाते
ही उसने फमबीरी को ऐसा जोरदार झटका दिया कि वह चक्कर खाता हुआ
अखाड़े के पार जाकर गिरा। फमबीरी अभी उठ कर बैठा ही था, कि दूसरा
पहलवान छलांग लगाकर सीधे उसके ऊपर कूदा। लेकिन फमबीरी ने आगे को
गोता लगाया और अपने विरोधी को अपने पैरों के बीच में दबा लिया फिर
उठकर उसे पीछे को फेंक दिया जिससे वह ज़ोर की आवाज़ के साथ जाकर
गिरा। अब शेरदिल कुछ नहीं कर सकता था और फमबीरी उसके सीने पर बैठ
गया, यह साबित करने के लिए कि जीता कौन है। जब देखने वालों की तालियों
और वाहवाही से यह जाहिर हो गया कि वही जीता है, तब कहीं वह उठा और
रिंग सेबाहर आया।
जब फमबीरी इनाम के तीस रुपये लेने गया, तो उसके पिता सीना चौड़ा
करके उसके साथ खड़े थे। इनाम लेते ही वह नल ढूंढने लगा। अपने बदन से
तेल और धूल धोकर साफ़ करने के बाद उसने साफ़ कपड़े पहने। फिर विजय
और सीता के गले मेंहाथ डालकर कहा-]तुम्हारी वजह से मेरी किस्मत का सितारा
चमका, तुम दोनों कीवजह से |चलो अब मजे करते हैं! और वह उन्हें मिठाई
की दुकान पर ले गया।
उन्होंने शीरे में डूबे रसगुल्ले, बादाम वाली बर्फ़ी, छोटे-छोटे कीमा भरे समोसे
खाये और इन सब चीज़ों को गले से उतारने के लिए सनसनाता हुआ संतरे के
स्वाद वाला सोड़ा पिया।
“अब मैंतुम दोनों कोएक-एक छोटा सा तोहफ़ा ख़रीद कर दूंगा,' फमबीरी
ने कहा।
उसने विजय के लिए चटक नीले रंग वाली स्पोर्टस टी-शर्ट ख़रीदी और
अपने पिता के लिए नया हुक्के का चिलम। वह सीता को गुड़ियों की दुकान
पर ले गया और सीता से अपनी पसंद की एक गुड़िया चुनने केलिए कहा।
दुकान पर हर तरह की गुड़ियां थीं-सस्ती प्लास्टिक की गुड़ियां और हाथ
की बनी गुड़ियां, देश केअलग-अलग हिस्सों के पारंपरिक पहनावों में सजी-धजी ।
सीता को फ़ौरन ममता की याद आ गयी, उसकी अपनी गूदड़ की गुड़िया जिसे
घर पर ही दादी की मदद से बनाया गया था। उसे दादी की याद आ गयी, दादी
96 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
की सिलाई मशीन, वह घर जो बाढ़ में बहगया था और उसकी आँखों से आंसू
बहने लगे।
ऐसा लग रहा था कि गुड़ियां सीता को देख कर मुस्करा रही थीं। दुकान
वाले ने एक-एक करके कई गुड़ियां दिखाईं-उन्हें घुमाकर उनके घाघरे का फैला
हुआ घेर दिखाया और दुकान के कांउटर पर उनके पैर पटक-पटक कर उनकी
पायलों की छम-छम सुनाई। हर गुड़िया सीता को अपने अंदाज में लुभाने की
कोशिश कर रही थी। हरेक को उसका प्यार चाहिए था।
"तुम्हें कौन सी लेनी है” फमबीरी ने उससे पूछा। 'सबसे सुंदर वाली चुन
लो, कीमत की परवाह मत करो!
लेकिन सीता के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह सिर्फ सिर हिलाकर
मना करती रही। कोई भी गुड़िया, चाहे वह कितनी भी सुंदर क्यों न हो, ममता
की जगह नहीं ले सकती। वह अब कभी गुड़िया नहीं रखेगी। उसकी ज़िंदगी
का वह हिस्सा ख़त्म हो चुका था।
इसलिए, गुड़िया के बजाय फमबीरी ने उसे चूड़ियां दिलवा दीं। रंगीन कांच
की चूड़ियां जोआसानी से सीता की पतली कलाइयों में चढ़ गयीं। और फिर
वह उन्हें चलते-फिरते सिनेमाघर में लेगया, जो टीन की चादरों की छत के नीचे
चल रहा था।
विजय पहले सिनेमा देख चुका था-शहरों में तो सिनेमा ख़ूब होते ही
हैं-लेकिन सीता के लिए वह भी एक नया अनुभव था। तमाम चीजें जो दूसरे
लड़के-लड़कियों केलिए आम होती हैं, वहउस लड़की के लिए नयी और अजीब
थीं जिसने लगभग सारी जिंदगी एक बड़ी सी नदी के बीच स्थित एक छोटे से
टापू पर बितायी थी।
जैसे ही वह कुर्सियों में बैठे, पर्दा ऊपर उठ गया और एक सफ़ेद पर्दा दिखाई
देने लगा। लोगों ने जो खुसुर-पुसुर लगा रखी थी वह घटते-घटते सनन्नाटे में बदल
गयी। फिर सीता को 'किर्रर! की ऐसी आवाज सुनायी दी जो उसके पीछे कहीं
नजदीक से ही आ रही थी, लेकिन इससे पहले कि वह अपना सिर घुमा कर
देखती कि आवाज़ किसकी थी, सामने वाला सफ़ेद पर्दा रोशनी और रंगों से भर
गया। उस पर लोग चलते-फिरते और बोलते नज़र आने लगे। एक कहानी आगे
बढ़ने लगी।
लेकिन काफ़ी दिनों बाद सीता को अपनी देखी पहली फ़िल्म के बारे में
सीता और नदी / 97
सिर्फ इतना .याद रहा कि उसमें तस्वीरों औरघटनाओं का घालमेल था। एक
रेलगाड़ी ख़तरे में थीऔर लोग बेचैनी से कुछ न कुछ बुदबुदा रहे थे। ऊपर
पुल था, नीचे नदी, लेकिन वह उसकी नदी से छोटी थी। पुल के परखच्चे उड़
जाते हैं और रेल का इंजन नदी मेंसमा जाता है। एक औरत को एक आदमी
बचाता है और बचाते ही उसे अपनी बोहों में भर लेता है। बत्तियां फिर सेजल
जाती हैं। लोग धीरे-धीरे उठकर सिनेमा से जाने लगते हैं। ऐसा लगता है कि
इतना कुछ हो गया और उन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा। बल्कि जो कुछ हुआ
उससे वह खुश हैं। वे सारे लोग जो पानी में अपनी जान बचाने की जद्दोजहद
में लगे थे, उन्हें अब कोई ख़तरा नहीं था, वे प्रोजेक्टर वाले कमरे के काले डिब्बे
में बंद हो गये थे।
रेल का सफ़रे
और अब एक असली इंजन, धुआं और अंगारे छोड़ता भाप का इंजन सीता
की तरफ़ आ रहा था।
वह विजय के साथ रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी थी, शाहगंज की
ट्रेन का इंतज़ार कर रहे सौ से भी ज़्यादा लोगों के साथ।
प्लेटफ़ॉर्म परजगह-जगह बिस्तरबंद पड़े थे जिनके बिना इस देश में बहुत
कम ही लोग सफ़र पर निकलते होंगे। इन गोलमटोल बिस्तरबंद पर औरतें, बच्चे,
लोगों के माता-पिता, चाचा-चाची, दादा, दादियां बैठे गाड़ी का इंतज़ार कर रहे
थे, जबकि जिन्हें चलने-फिरने में कोई दिक्कत नहीं थी, वे प्लेटफ़ॉर्म के किनारे
के आसपास मंडरा रहे थे, ट्रेन आते ही उसमें चढ़ कर परिवार के दूसरे लोगों
के लिए जगह घेरने को तैयार। भारत में जहाँ तक लोगों से हो सकता है वह
अकेले सफ़र पर नहीं निकलते। पूरे परिवार को साथ ले जाना जरूरी होता है,
ख़ासतौर से तब जब सफ़र की वजह कोई शादी, तीर्थयात्रा, या यूं भी दोस्तों
और रिश्तेदारों केपास जाना हो।
बिस्तरबंद और दूसरे सामान के बीच पत्र-पत्रिकाएं बेचने वाले, कुली, मिठाई
वाले, चाय वाले और पानी वाले घूम रहे थे। इनके अलावा छुट्टे कुत्ते, छुट्टे
आदमी और कभी-कभी कोई छुट्टा स्टेशन मास्टर भी घूमता दिख जाता। स्टेशन
पर आमतौर पर रहने वाले हो-हल्ले को और भी बढ़ा देता है यार्ड सेआता-जाता
शंटिंग करने वाला भाप का इंजन। “चाय, गरम चाय ! मिठाई, पापड़, गर्म माल,
98 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
ठंडे पेय, आम, दंत मंजन, फिल्मी सितारों की तस्वीरें, केले, गुब्बारे, लकड़ी के
खिलौने! प्लेटफ़ॉर्म क्या था, बाज़ार था! ट्रेन देर सेचलती थीं और लोगों को
उनका इंतज़ार करच्ना पड़ता था। यह फेरी लगाकर तरह-तरह की चीजें बेचने
वालों के लिए वरदान था। और जब लोग इंतज़ार करते थे तो वह दूध वाली
चाय पीते थे, बच्चों को खिलौने दिला देते थे, मूंगफली खाते थे, केले खाते थे
और जिन दोस्तों-रिश्तेदारों केघरअचानक पहुंचकर उन्हें चक्कर में डालने वाले
होते थे, उनके लिए छोटे-मोटे तोहफ़े भी ख़रीद लिया करते थे।
लेकिन तभी ट्रेन आ गयी!
सिग्नल गिर गया। एक आवारा कुत्ता, जिसे ट्रेन का सारी उम्र काअनुभव
था, वह दौड़ कर रेल की पटरी पार कर गया। जैसेही ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लगी
उसके दरवाज़े खुल गये और खिड़कियां गिरने लगीं अंदर वाले उतावलेपन से
बाहर झांकते दिखाई देने लगे और इससे पहले कि वह ठहरती, लोग उसमें से
उतरने और अंदर घुसने की कोशिश करने लगे थे।
कुछ देर के लिए तो वहाँ बिलकुल अफ़रा-तफ़री मच गयी। लोगों का रेला
आगे को जाता, फिर पीछे आता। कोई बाहर नहीं आ पा रहा था। कोई अंदर
नहीं जा पा रहा था! पचास लोग उतरने वाले थे, तो सौ चढ़ने वाले! कोई टस
से मस होने को तैयार नहीं था। लेकिन हर समस्या का समाधान कहीं न कहीं
तो मिल ही जाता है, बशर्ते हम गौर से देखें। औरइस समस्या का समाधान
मिला उस शख्स से जो दरवाज़े पर भीड़ देख कर खिड़की से बाहर उतर गया।
उसकी देखा-देखी दूसरे भी खिड़कियों से चढ़ने-उतरने लगे। दरवाज़ों पर जो भीड़
थी वह छंट गयी जिससे चढ़ने-उतरने की दिक्कत खत्म हुई और लोग जगह ढूंढकर
बैठने लगे।
विजय उस सिख के ठीक पीछे हो लिया जो गाड़ी में चढ़ने के लिए लोगों
के रेले में सेअपने लिए रास्ता बना रहा था। वह दरवाज़े पर पहुंचा और अंदर
घुस गया। उसके ठीक पीछे होने सेविजय और सीता भी अंदर पहुंच गये! उन्हें
बैठने की जगह मिल गयी, तब कहीं उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर नज़र डाल कर थोड़ा
मजा लेने का मौका मिला, जो कि ट्रेन के डिब्बे सेकिसी भंवर से कम नहीं
लग रहा था। हुकम सिंह ने टिकट ख़रीद कर देने केसाथ विजय और सीता
को एक रुपया रास्ते में ख़र्च करने केलिए दिया। विजय ने ताजे नारियल की
फांक ख़रीदी और सीता ने अपने बिगड़े बालों के लिए कंघा ख़रीदा। इससे पहले
सीता और नदी / 99
उसने कभी अपने बालों की परवाह नहीं की थी।
उन्होंने एक परेशान आदमी को प्लेटफ़ॉर्म पर अपने परिवार को ढूंढते देखा,
जबकि उसके घर के लोग उससे पहले ही ट्रेन में चढ़ चुके थे। उन्होंने उसे आंदर
बुला लिया । इंजन ने सीटी मारी औरगाड़ी चल पड़ी !एक-दो फेरी वाले चलते-चलते
भी अपना माल बेचने में जुटे रहे, फिर धीरे-धीरे चलती ट्रेन सेकूद गये। एक
तो बड़ी सफ़ाई से एक हाथ में चाय के प्यालों की ट्रे लेकर कूद गया।
ट्रेन कीचाल में तेजी आयी।
'जो लोग प्लेटफ़ॉर्म पर रह गये, अब वे क्या करेंगे? सीता के पूछने से
लग रहा था कि उसे चिंता थी। “क्या वे सब वहीं रह जाएंगे?”
उसने अपना सिर खिड़की से थोड़ा सा बाहर निकाला और पीछे छूटते
प्लेटफ़ॉर्म कीओर देखा। अजीब बात थी कि वह तो बिलुकल खाली था। सिर्फ़
फेरी वाले, कुली, आवारा कुत्ते और लुटे-पिटे से रेलवे के कर्मचारी वहाँ थे। यह
तो चमत्कार हो गया। कोई भी. नहीं छूटा-सारे मुसाफिर ट्रेन में आ गये थे!
फिर ट्रेन रात के अंधेरे में
अपने सफर पर तैजी से आगे बढ़ती रही, इंजन
से निकल रहे अंगारे जुगनुओं की तरह हवा में बिखर जाते थे। कभी-कभी गाड़ी
की चाल धीमी पड़ जाती थी, क्योंकि बाढ़ की वजह से पटरियों के पुश्ते कमजोर
पड़ गये थे। कई बार ट्रेन ऐसे स्टेशन पर रुकती थी जहाँ ख़ूब रोशनी होती थी।
जब ट्रेन फिर देहात के अंधेरे इलाकों कीओर चलती थी, तो सीता खिड़की
के कांच से शहर की झिलमिलाती. बत्तियां और गांवों की ढिबरियों की धीमी रोशनी
को देखती थी। वह फमबीरी और हुकम सिंह के बारे में सोच रही थी, कि क्या
वह उनसे दोबारा कभी मिलेगी। उसे वह अभी से परी कथाओं के लोग लग
रहे थे, जो कुछ देर के लिए मिले और फिर कभी नहीं दिखाई दिये।
डिब्बे में लेटने लायक जगह नहीं थी, लेकिन सीता को नींद आ गयी और
वह विजय के कंधे पर सिर रखकर सोती रही।
वापसी
एक बार फिर बारिश हुई, लेकिन इस बार उतनी तबाही नहीं मची। जब
सीता और उसके दादाजी टापू पर लौटे, तब तक नदी की बाढ़ ख़त्म हो चुकी
थी।
दादाजी को देखने के बाद भी बड़ी मुश्किल से विश्वास हुआ कि पीपल
का पेड़ बाढ़ में बहगया था-वह पेड़ जो उनकी जिंदगी का उतना ही अहम
हिस्सा था जितनी नदी। उन्हें ऐसा लगता था कि यह टापू की तरह हमेशा अपनी
जगह बना रहेगा। सीता बाढ़ से कैसे बची, यह जानकर वह हैरान थे।
पेड़ ने तुम्हें बचा लिया,” उन्होंने कहा।
और उसने,' सीता बोली।
702 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
हाँ, सीता को बचाने में उसका भी हाथ था।
वह विजय के बारे में सोचने लगी कि क्या अब वह उससे फिर कभी मिल
पाएगी? कहीं वह भी फमबीरी और हुकम सिंह की तरह न निकले, जो ऐसे आये
जैसे किसी परी कथा का हिस्सा हों और फिर अचानक रहस्यमय तरीके से गायब
हो जाएं? तब उसे यह नहीं पता था, लेकिन हमारी जिंदगी में कुछ ताक़तें ऐसी
होती हैं जिन्हें सिर्फ़ हमें छूकर अपने रास्ते चला जाना होता है
और क्योंकि अब दादी नहीं थीं, टापू पर जिंदगी के मायने बहुत बदल
गये थे। शाम अकेलेपन और दर्द से भरी होती।
लेकिन अभी बहुत सारा काम करना था। सीता के पास दादी या विजय
या उस दुनिया के बारे में सोचने के लिए ज़्यादा समय नहीं थाजिसकी झलक
उसने अपने सफ़र में देखी थी।
तीन रात तक दादा और पोती जूट के बोरों से तैयार किये गये कामचलाऊ
साये में सोये। दिन केसमय सीता मिट्टी की नयी कुटिया बनाने में दादा की
मदद करती। एक बार फिर उन्होंने सहारे केलिए चट्टान को इस्तेमाल किया।
जिस संदूक में सीता ने इतनी होशियारी से तमाम चीज़ें सहेज के रख दी
थीं, वह बाढ़ में बहने सेबच गया था, लेकिन उसमें पानी चला गया था जिससे
खाने की चीज़ें और कपड़े ख़राब हो गये थे। लेकिन दादाजी का हुक्का बच गया
था। शाम को जब उनका काम ख़त्म हो जाता, तब सीता का बनाया कुछ
हल्का-फुल्का खाना खाने के बाद उन्हें हुक्का पीने सेपहले जैसी तसल्ली होती।
वह सीता को अपने लड़कपन के दिनों में कई बार नदी में आयी बाढ़ के बारे
में बताया करते थे। वह उसे कुश्ती के उन मुक़ाबलों के बारे में बताया करते
थे जो उन्होंने जीते थे, जो पतंगें वह उड़ाया करते थे, जो इनामी पेंच लड़ाये
जाते थे और दो पतंगे तब तक एक दूसरे से उलझती रहती थीं जब तक कि
एक कट नहीं जाती थी।
. पतंगबाजी तब राजाओं का खेल हुआ करता था। दादाजी को याद था
कि कैसे पतंग उड़ाने के राजसी शौक की ख़ातिर ख़ुद राजा नदी के किनारे पतंग
उड़ाने आया करता था। उस समय लोगों के पास समय था हवा में नाचते कागज
के मस्त टुकड़े के साथ बिताने केलिए। अब जिसको देखो उस पर उम्मीदों की
तपन का असर है, हर किसी को जल्दी मची है, ऐसे में, पतंग और दिन के सपनों
जैसी नाजुक बातें पैरों तले कुचल जाती हैं।
सीता ओर नदी / 765
दादाजी को याद था कि उन्होंने एक 'ड्रैगन पतंग” बनायी थी-एक बड़ी
सी पतंग जिस पर एक चेहरा बना हुआ था। आँखों की जगह छोटे-छोटे शीशे
लगाये थे और पीछे रेंगते हुए सांप की.जैसी काग़ज़ की पूंछ बनायी थी। उसे
उड़ाते हुआ देखने के लिए भारी भीड़ जुटी थी। पहली कोशिश में तो पतंग ने
जमीन से ऊपर उठने का नाम ही नहीं भ+लिया। फिर सही दिशा से हवा के झोंके
आये और ड्रैगन पतंग आसमान की ओर उठी। फिर सांप की तरह
लहराती-बलखाती ऊपर और ऊपर और भी ज़्यादा ऊपर उठती चली गयी। बहुत
ऊंचाई पर पहुंच गयी तो डोर को ऐसी ताकत से खींच रही थी जैसे आज़ाद
होने की ठान चुकी हो, दूसरे केहाथ से अपनी डोर छुड़ा, खुद अपनी जिंदगी
जीना चाहती हो और आख़िरकार उसने ऐसा ही किया।
डोर टूट गयी और पतंग सूरज की ओर उछली, आसमान की ओर बढ़
चली। देखते ही देखते आँखों सेओझल हो गयी। चह फिर किसी को मिली ही
नहीं । दादाजी सोच में पड़ गये कि क्या उनके हाथों बनी थी इतनी चंचल और
इतनी जीवंत पतंग! फिर उन्होंने वैसी पतंग नहीं बनायी।
सीता को लगा कि वह उसकी गुड़िया जैसी थी। ढ
ममता सचमुच में इंसान थी, गुड़िया नहीं थीऔर अब सीता वैसी एक
और नहीं बना सकती।
जहाँ पीपल का पेड़ था, वहाँ सीता ने आम की गुठली बो दी। बहुत साल
लगेंगे उसे पीपल के पेड़ जितना बड़ा होने में, लेकिन उसे यह सोच कर ही मजा
आ रहा था कि एक दिन वह उस आम की डाल पर बैठ डालों में से
आम तोड़-तोड़
कर दिन भर उनका मज़ा लेगी।
दादाजी सब्जियां उगाने पर ज़्यादा ध्यान दे रहे थे। अपनी बगीची में मटर,
गाजर, चना और सरसों की बुआई करने लगे थे।
एक दिन जब मेहनत वाले ज़्यादातर काम ख़त्म हो गये और नयी
कुटिया भी बन चुकी थी, तब सीता विजय की दी हुई बांसुरी लेकर पानी के
किनारे चली गयी। वहाँ बैठकर उसे बजाने कीकोशिश करने लगी। लेकिन कुछ
टूटे-फूटे स्व॒रों सेज्यादा कुछ नहीं निकला उससे, जिस पर बकरियों ने भी ध्यान
नहीं दिया। न
कभी-कभी सीता को लगता कि सामने से एक नाव चली आ रही है,
लेकिन कोई नाव नहीं होती और अगर होती भी तो किसी मछुआरे या
704 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
किसी अजनबी की होती। इसलिए उसने आती-जाती नावों पर ध्यान देना बंद
कर दिया।
धीरे-धीरे बारिश का मौसम बीत गया। नदी का बढ़ा हुआ पानी अपनी
पुरानी जगह वापस पहुंच गया था। गांवों में लोग फिर से खेतों कीजुताई और
जाड़े की फ़सलों की बुआई करने लगे थे । गाय-बैलों के मेले और कुश्ती के मुक़ाबले
पहले से ज़्यादा होने लगे थे। दिन अभी गर्म और उमस भरे थे। लेकिन नदी
का पानी अब बाढ़ जैसा मटमैला नहीं था। एक दिन दादाजी एक बड़ी सी महासीर
मछली पकड़ कर लाये और सीता ने उसे स्वाददार तरी में पकाया।
गहरी नदी
दादाजी कुंटिया के बाहर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। सीता टापू के दूसरे
हिस्से में, सूखने केलिए चट्टानों पर कपड़े फैला रही थी। एक बकरी उसके
पीछे-पीछे चली गयी थी-दोनों में सेवही ज्यादा लाड़-प्यार समझती थी और अकसर
टापू पर सीता के पीछे-पीछे घूमा करती थी। सीता ने उसके गले में रंग-बिरंगे
मनकों की माला बना कर डाली हुई थी।
सीता एक चिकने पत्थर पर बैठ गयी और जैसे ही बैठी, उसे कोई रंगीन
सी चीज अपने पैरों के पास रेत में पड़ी दिखाई दी। उसने उसे उठा लिया। छोटा
सा लकड़ी का खिलौना था वह-एक रंग-बिरंगा मोर, कृष्ण भगवान का प्रिय
पक्षी-जरूर वह बाढ़ में बहकर आया होगा और पानी उतरने पर यहीं रह गया
होगा । उसका रंग-रोगन किसी-किसी जगह से उखड़ा हुआ था, लेकिन सीता को,
जिसके पास खिलौने थे ही नहीं, यही बहुत अच्छा लग रहा था।
,. उसे अपने पीछे किसी के क़दमों कीआहट सुनायी दी। उसने घूम कर
देखा, तो उसके ठीक पीछे विजय, नंगे पैर खड़ा उसे देख कर मुस्करा रहा था।
'ममैंने सोचा कि तुम नहीं आओगे,' सीता बोली।
गांव में बहुत सारा काम था। मेरी बांसुरी तो तुम्हारे पास है न?
“हाँ, लेकिन मुझसे तो ठीक से बजती नहीं ॥'
मैं तुम्हें सिखा दूंगा, विजय ने कहा।
वह सीता के बगल में बैठ गया और दोनों ने अपने पैर नदी की ठंडी लहरों
में डाल दिये। पानी अब बिलकुल साफ़ था और आसमानी रंग उसमें झलक रहा
था। नीचे तलहटी की रेत और कंकड़ तक साफ़ दिखाई दे रहे थे।
सीता और नदी / 705
“नदी कभी नाराज होकर परेशान कर देती है, तो कभी मेहरबान होती है,
सीता बोली। ह
“म भी नदी का हिस्सा हैं, उसी के जैसे हैं, विजय ने कहा।
हा पेड़ देहरा में अबभी खड़े हैं। दुनिया के इस हिस्से में अबभी पेड़ आदमी
की बराबरी करते हैं। एक मकान बनाने के लिए एक पीपल को काट
कर जगह बनायी जाए, तो मकान की दीवारों में दोपीपल उग आएंगे। देहरा
में हवा में नमी रहती है और मिट्टी बीजों और गहराई में घुसने वाली जड़ों का
स्वागत करती है। देहरा की घाटी हिमालय की शुरुआती श्रृंखला और उसके बाद
वाली और उससे भी कम ऊंचाई वाली, लेकिन पुरानी शिवालिक की पहाड़ियों
के बीच पड़ती है। देहरा पुराना शहर है; लेकिन यह किसी राजपूत राजा या मुगल
बादशाह के जमाने में नहीं फला-फूला और फैला, बल्कि जब ब्रिटिश और
ऐंग्लो-इंडियन लोग यहाँ आकर बसे तब इस शहर का दायरा और अहमियत में
बढ़ोत्तरी हुई। अंग्रेजों को पेड़ों सेकुछ ज़्यादा लगाव होता है और सांपों मच्छरों
के बावजूद भी उन्होंने देह की निचली पहाड़ियों को रहने के क़ाबिल पाया,
क्योंकि यह इलाका थोड़ा सा ही सही, कहीं न कहीं उन्हें इंग्लैंड की हरियाली
और ख़ुशनुमा सरजमीं की याद दिलाता था।
इसके उत्तर में जो पहाड़ हैं, वे दुर्गग हैं, जबकि दक्षिण का मैदानी इलाका
सपाट, सूखा और धूल भरा है। लेकिन देहरा हराभरा है। सूरज निकलने पर मैं
ट्रेन कीखिड़की से बाहर देखता हूँ तोसाल और शीशम के पेड़ पीछे कीओर
भागते नज़र आते हैं जबकि उनपर चढ़ी बेलों और बांस के झुरमुटों कीवजह
से जंगल घना और गहरा बनता है, जिससे उसका रहस्य और बढ़ जाता है।
इन जंगलों में अब भी कुछ बाघ बचे हैं, हालांकि बस कुछ ही हैं, लेकिन शायद
पिता के फलते-फूलते पेड़ / ॥55
वे चीतल को धर दबोचने और जंगल के तालाबों का पानी पीने के लिए बचे
रहेंगे।
देहरा में मैं बड़ा हुआ। मेरे पिता ने सदी की शुरुआत में शहर के बाहरी
इलाके में बंगला बनवाया। उसे आजादी के कुछ साल बाद बेच दिया गया। देहरा
में अब मुझे कोई नहीं जानता, क्योंकि मुझे वह जगह छोड़े हुए बीस साल से
ज्यादा हो चुके हैं। मेरे लड़कपन के दोस्त इधर-उधर बिखर कर खो गये हैं।
हालांकि किम का वह भारत अब कहीं नहीं रहा है और ग्रैंड ट्रंक रोड पर अब
धीरे-धीरे चलने वाले घोड़ों और ऊंटों के बजाय ट्रकों का रेला रहता है। भारत
एक ऐसा देश है जहाँ लोग बड़ी आसानी से खो जाते हैं और उन्हें झटपट भुला
भी दिया जाता है।
स्टेशन से मैं तांगा करता हूँ। मैं टैक्सी याऑटो रिक्शा भी कर सकता
हूँ,जिनका कि 950 से पहले नामोनिशान भी नहीं'था, लेकिन मैं बेशर्मी ओढ़कर
गुजरे जमाने की यादों की तीर्थयात्रा पर निकला हूँ,इसलिए मैंने तांगा किया जिसमें
एक बदहवास सा टटूटू जुता था और उसे हॉक रहा था फटी सी हरी सदरी पहने
मुसलमान तांगेवाला। कुल दो या तीन तांगे खड़े होते हैंस्टेशन के बाहर। 940
वाले दशक में जब मैं बोर्डिंग स्कूल की पढ़ाई पूरी करके यहाँ आया था और
मेरे दादा जी मुझे लेने आये थे, तब बीस-तीस तांगे सवारियों के इंतजार में खड़े
रहते थे। तांगे केदिन अब लद॒ गये और कई मायनों में यह अच्छा ही हुआ
क्योंकि ज़्यादातर तांगों के घोड़ों सेमेहनत बहुत करवायी जाती थी और उन्हें
भरपेट खाने को नहीं मिलता था। तेल न पड़ने की वजह से चिंचियाते पहिये
और मेरे नीचे सेखिसकती सीट के साथ तांगा मुझे बाज़ार में लिये जा रहा था।
मुर्दे कोदफ़नाने केलिए जिस चाल से ले जाया जाता है, उस चाल से आगे
बढ़ते तांगे केबजाय मैं अपनी टांगों को इस्तेमाल करने के लिए बेचैन हुआ जा
रहा था और जैसे ही दिलाराम बाज़ार आया, मैंने तांगे को रफ़ा-दफ़ा किया।
पैदल चलना शुरू करने के लिए वह बढ़िया जगह थी।
दिलाराम बाज़ार ज़्यादा नहीं बदला है। बस दुकानें अब नयी पीढ़ी के
नानबाई, बनिये और नाई चला रहे हैं, लेकिन लोगों का काम-धंधा नहीं बदला
है। मोची नीची जात के होते हैं, नानबाई का पेशा मुसलमानों का है और दर्जी
का काम सिख कर रहे हैं। लड़के अब भी सपाट छतों पर से पतंगें उड़ाते हैं
और नहर के घाट की सीढ़ियों पर औरतें कपड़े धोती हैं। नहर राजपुर से आती
7354 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
है और यहाँ से ज़मीन के अंदर चली जाती है और क़रीब एक मील आगे जाकर
फिर बाहर बहती है।
बस फ़र्लाग, भर चलने पर मेरे दादा का घर आ जाता है। इस रास्ते के
दोनों ओर यूकेलिप्टस, जकरंडा और अमलतास के पेड़ खड़े हैं। बंगलों की
चारदीवारी में छोटी-छोटी अमराई है, लीची की बगीची है और हैंपपीते के पेड़ ।
सुर्ख लालपाते की डालें बगीचे कीदीवार केऊपर से बाहर झांकती हैं। हर बरामदे
की अपनी बोगनविलिया की बेल है और हर बगीचे की अपनी गेंदे की कयारी
है। गमलों में लगे ताड़ के पेड़, जो कि विक्टोरिया काल की दिखावे की शान
के लिए भारतीय गृहिणियां इन्हें लगाना बड़ा पसंद करती हैं। कुछ मकान हैं,
लेकिन ज़्यादातर बंगले हैं, जो भारत में लंबे समय रहने वाले अंग्रेजों ने सेना,
पुलिस या रेलवे की नौकरी से पेंशन पाने पर अपने लिये बनवाये थे। अब इनमें
से ज्यादातर कारोबारियों या सरकारी अफ़सरों के नाम हैं।
मैं अपने दादाजी के घर के बाहर खड़ा हुआ हूँ। दीवार को ऊंचा करवा
दिया गया है और छोटा वाला फाटक गायब हो चुका है। मकान और बगीचा
ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है। फाटक पर लगी नाम की पटूटी के मुताबिक
मकानमालिक का नाम है मेजर जनरल सैगल-949 में मेरे दादा-दादी नेजब
इसे बेचा था, उसके बाद से यह किसी एक के पास नहीं रहा।
सड़क के दूसरी तरफ़ लीची की बगीची है। इस मौसम में फल नहीं आते,
इसलिए कोई देखभाल करने वाला भी वहाँ नहीं मौजूद । बगीची से होकर जो
छोटा सा रास्ता जाता है उसपर आगे बढ़कर मैं कुछ ऊंची जगह पहुंचता हूँताकि
अपने पुराने मकान को अच्छी तरह देख सकूं।
दादाजी ने पास की पहाड़ियों से मंगवाये ग्रैनाइट पत्थरों से
मकान बनवाया
था। देखने से पता ही नहीं चलता कि इतना पुराना होगा। लॉन गायब हो चुका
है, लेकिन बड़ा साकटहल का पेड़, जिसकी वजह से बगल वाले बरामदे में छाया
रहती थी, वह अब भी अपनी जगह है। इसी पेड़ में बैठकर उस दौर की लोकप्रिय
पत्रिकाओं मैगनेट, चैम्पियन और हॉटस्पर के अंकों केसाथ दोपहर का समय
काटा करता था और आम का रस चू कर ठोड़ी तक पहुंच जाया करता था।
कटहल खा नहीं सकते थे जब तक कि उसकी सब्जी न बने। पेड़ कातना एक
जगह खोखला था और उसमें एक मोखला था जिसमें मैं अपना मूठ में फल वाला
चाकू, लटूटू, गुलेल और जब छुट्टियों में पिता जीघर आते थे, तब रॉयल एअर
पिता के फलते-फूलते पेड / 755
फ़ोर्स केउनके फ़ौजी जैकिट से निकले बैज और बटन बचाकर रख लेता था।
मेरी चीज़ों में एक लोहे का क्रॉस भी था, जो. कि पहले विश्व-युद्ध की निशानी
के तौर पर मेरे दादाजी ने मुझे दिया था। मैंने क्रॉस को तो सहेज के रख लिया,
लेकिन लटूटू और गुलेल का क्या हुआ? मुझे अब बिलकुल भी याद नहीं आ
रहा है। हो सकता है ये चीज़ें अब भी' वहीं कटहल के पेड़ के मोखले में हों ।
पिता जी के मरने केबाद जब हम वह जगह छोड़कर गये, तब उन्हें वहाँ से
ले जाना मुझे याद न रहा हो। गेट के अंदर घुसकर, पेड़ पर चढ़कर अपनी छूटी
हुई चीजें ले लेने कीझक सी मेरे सिर पर सवार हो गयी। अब जो मकान मालिक
हैं, रिटायर्ड मेजर जनरल, अगर उनसे तहजीब के साथ बीस साल पहले छोड़ी
गयी गुलेल ढूंढने की इजाजत मांगी जाए, तो वह क्यां कहेंगे?
एक बुजुर्गवार चले आ रहे हैं लीची के पेड़ों केबीच से आने वाले उस
रास्ते से। वह मेजर साहब नहीं हैं, कोई बेचारा सड़ेक पर अपना सामान बेचने
वाला फेरी वाला है। वह अपने सिर पर टीक की छोटी सी संदूकची लिए बहुत
धीरे-धीरे चला आ रहा है। जब वह मुझे देखता है तो ठहर जाता है और पूछता
है कि मुझे कुछ ख़रीदना है? मुझे कुछ याद नहीं आया कि मुझे कुछ चाहिए,
लेकिन बूढ़ा इतना थका और इतना बूढ़ा लगता है, कि मैं सोचने लगता हूँकि
अगर यह बिना सुस्ताए यहाँ से एक क़दम भी आगे बढ़ा तो रास्ते में ही ढेर
हो सकता है। इसलिए मैं उससे अपना माल दिखाने को कहता हूँ। वह अपने
आप अपने सिर से संदूकची नहीं उतारसकता, इसलिए हम दोनों मिलकर उसके
सिर से उसे उतारकर छांव में रखते हैं। वह बूढ़ा संदूकची की सारी चीज़ें बाहर
निकालकर घास पर फैलाने पर ज़ोर देता है-चूड़ियां, कंघे, जूते के फ़ीते, सेफ़्टी
पिन के गुच्छे, सस्ती कॉपियां, पेंसिल-कलम, बटन, पोमेड, इलास्टिक और घरेलू
इस्तेमाल की दर्जनों दूसरी जरूरी चीजें।
जब यह कहकर मैंने बटन लेने सेइनकार कर दिया कि वह मेरे किसी
काम के नहीं, क्योंकि उन्हें टांकने वाला कोई नहीं है, तो उसने सेफ्टी पिन मेरे
आगे कर दीं। मैंने मना किया। लेकिन जैसे वह एक के बाद दूसरी चीज़ें मेरे
सामने रखता गया, उसके उदासी भरे अंदाज़ और पीछा न छोड़ने वाली आवाज
के आगे कुछ न ख़रीदने की मेरी जिद कमजोर पड़ती गयी और मैंने लिफ़ाफे
ख़रीद लिये। चटक नीले कागज पर गुलाबी गुलाब वाला लेटर पैड ले लिया, एक
रुपये का स्याही वाला क़लम ले लिया जिससे स्याही निकलकर बहने की पूरी
756 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
गारंटी थीऔर कई गज इलास्टिक भी ले ली। मुझे भी नहीं पता कि मैं इलास्टिक
का क्या करूंगा, लेकिन बुड़ढे नेमुझे समझा दिया कि इसके बिना मेरा काम
नहीं चल सकता।
जो चीज़ें मुझे चाहिए ही नहीं, ऐसी तमाम चीज़ें मुझे बेचने केलिए की
गयी मशक्कत के बाद वह पस्त हो गया और आँखें बंद करके लीची के पेड़
का सहारा लेकर बैठ गया। एक पल के लिए तो मैं डर ही गया। कहीं यह यहाँ
मेरे बगल में बैठ कर मरने वाला तो नहीं है? फिर वह उकड़ूं बैठ गया और अपनी
ठोड़ी दोनों हथेलियों कोमिलाकर उनपर टिका ली । वह तो बस बातें करना चाहता
है।
मैं बहुत थक गया हूँ, हुजूर” वह कहता है। 'मेहरबानी करके मुझे कुछ
देर यहीं बैठा रहने दीजिए |
“हाँ, हाँ, कोई बात नहीं ।जब तक चाहो आराम करो,' मैं कहता हूँ। “इतना
भारी बोझ है यह जिसे तुम उठाए घूम रहे थे।
बातचीत का मौका देखा तो उसकी जान में जान आ गयी और कहने
लगा-“जब मैं जवान था, तब यह कुछ भी नहीं था। मैं तोअपना बक्सा राजपुर
से मसूरी तक घोड़ों वाले रास्ते से लेजाता था-पूरे सात मील की खड़ी चढ़ाई!
लेकिन अब मुझे दिलाराम बाज़ार से स्टेशन की दूरी तय करना ही भारी पड़ता
है।' द
'जाहिर है, काफ़ी उम्र जो हो गयी है।
'सत्तर साल का हूँ, साहब !' ;
“अपनी उम्र के हिसाब से तो तुम काफ़ी तंदुरुस्त लगते हो । मैंने यहइसलिए
कहा ताकि वह ख़ुश हो जाए। वैसे तो वह कमज़ोर और नाजुक दिखता था।
'क्या तुम्हारा. साथ देने केलिए कोई नहीं है? मैं पूछता हूँ।
(पिछले महीने एक लड़का था जो मैंने नौकर रखा था, लेकिन वह मेरी
कमाई पर हाथ साफ़ करके दिल्ली भाग गया। काश, मेरा बेटा ज़िंदा होता-तो
वह मुझे रोज़ी-रोटी के लिए खच्चर की तरह काम नहीं करने देता-लेकिन वह
सन् सैंतालीस के दंगों में मारा गया।'
“कोई और रिश्तेदार नहीं हैं?”
“सब मर गये, मैं ज़िंदा रहा। सेहत अच्छी होने का यही दुखड़ा है। अपने
दोस्त, सारे चहेते लोग, सब चले जाते हैं अपनी आँखों केसामने और आख़िर
पिता के फलते-फूलते पेड / 757
में हम खुद अकेले रह जाते हैं। लेकिन मुझे भी ज़्यादा दिन नहीं रहना, जल्दी
जाना होगा। बाज़ार का रास्ता अब दिन पर दिन लंबा लगने लगा है। पत्थर
ज्यादा सख्त लगने लगे हैं। गर्मी में सूरज पहले से ज़्यादा गरम लगने लगा है
और सर्दी में हवा और ज़्यादा ठंडी। यहाँ तक कि मेरी जवानी में जो पेड़ थे,
वे भी बूढ़े होकर मर चुके हैं। मैंपेड़ों सेभी ज़्यादा जी लिया हूँ।'
वह पेड़ों सेभी ज़्यादा जीया। वह एक पुराने पेड़ जैसा ही तो है, ऐंठा
हुआ, टेढ़ा-मेढ़ा सा। मुझे तो ऐसा लगने लगा है कि वह अगर यहीं बगीची में
सो गया तो उसकी जड़ें फूट निकलेंगी और टेढ़ी-मेढ़ी डालें निकल आयेंगी। मैं
काला चोगा पहने एक छोटे से झुकी हुई कमर वाले पेड़ कीकल्पना कर सकता
हूँ--तैयार फसल के खेतों मेंसे पक्षियों को उड़ाने केलिए जीता-जागता पुतला-सा ।
वह फिर अपनी आँखें बंद करता है, लेकिन बातें नहीं बंद करता-बोलना
जारी रखता है। शक
अंग्रेज मेमसाहब लोग काफ़ी सारी इलास्टिक ख़रीदा करती थीं। आज
लड़कियों के लिए रिबन और चूड़ियां और लड़कों के लिए कंघे हैं। लेकिन अब
कमाई नहीं रही। इसलिए क्योंकि मैं ज्यादा दूर चल कर नहीं जा सकता। कितने
घर मैं जा सकता हूँएक दिन में? दस, पंद्रह। लेकिन बीस साल पहले मैं पचास
से ज़्यादा घरों कीफेरी लगाता था। इसी से तो फ़र्क पड़ता है। ;
क्या तुम हमेशा से यहीं हो?!
ज़्यादातर ज़िंदगी मेरी यहीं कटी है, हुजूर। मसूरी तक पक्की सड़क बनी
उसके पहले से मैंयहीं हूँ ।|
जब साहब लोगों की अपनी बग्गियां, घोड़े औरमेमसाहब
लोगों के अपने रिक्शा होते थे, तब भी यहीं था। सिनेमा बनने से पहले भी मैं
यहीं था। जब प्रिंस ऑफ़ वेल्स देहरा आये, तब भी मैं यहीं था...अरे, मैं बहुत
वक़्त से यहीं हूँहुजूर। वह मकान मेरे सामने बना था, कहते हुए उसने मेरे
दादाजी के बंगले की तरफ़ अपनी ठोड़ी से इशारा किया। 'पचास-साठ साल हो
गये होंगे। मुझे ठीक से याद नहीं है। सत्तर साल की उम्र में दस साल कया मायने
रखते हैं? लेकिन एक लंबे से, लाल सी दाढ़ी वाले साहब थे जिन्होंने यहमकान
बनवाया था। उन्होंने कई तरह के जानवर पाल रखे थे। एक कछुआ था, एक
अजगर था, जो एक दिन रेंगता हुआ मेरे संदूक में घुस आया और मुझे बुरी
तरह डरा दिया। साहब उसे अपनी गर्दन में माला की तरह डाल कर घूमा करते
थे। उनकी बीवी, बड़ी मेमसाहब मुझसे हमेशा बहुत सारी चीजें ख़रीदा करती
858 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
थीं-बहुत सारा इलास्टिक। और उनके बेटे थे-एक एअरफ़ोर्स में और दूसरा
पढ़ाता था। घर बच्चों से भरा था। बड़े ख़ूबसूरत बच्चे थे। लेकिन वे सब बहुत
साल पहले चले गये। सब चले गये ।
मैंने उसे नहीं बताया कि मैं उन्हीं “ख़ूबसूरत बच्चों” में सेएक हूँ। मुझे
डर था कि वह मेरी बात का यकीन नहीं करेगा। उसकी यादें दूसरे दौर की हैं,
दूसरे ठौर की हैं, वहसोच नहीं सकता कि बीते हुए अरसे और अब के बरसों
के बीच की दूरी को पाटने वाला कोई मज़बूत पुल भी हो सकता है।
लेकिन दूसरे लोग आ गये, मैंने कहा।
“हाँ, ठीक बात है। यह तो वह है जो होता ही है। इस बात से मुझे कोई
शिकायत नहीं है। मेरी शिकायत है-अगर भगवान सुन रहा हो तो-कि मुझे
क्यों पीछे छोड़ दिया गया।
वह धीरे से अपनी टीन की संदूकची के बगल में खड़ा हो जाता है और
एक अजीब सी हिकारत के साथ प्यार भरी नजरों से उसे देखता है। अंगौछे
को गोल सा लपेटकर वह सिर पर रखता है और मेरी मदद से अपनी संदूकची
सिर पर रख लेता है। उसके पास इतनी ताक़त नहीं है किचलते समय कुछ
दुआ-सलाम करे, लेकिन दूर पहाड़ों पर नजरें गड़ाये वह रास्ते पर कुछ लड़खड़ाते
और सुस्त से क़दमों से चल पड़ता है, लेकिन ताज्जुब है, एक सीध में चलता
चला जाता है।
मैं सोचता हूँ कि यहकितना और जीयेगा। शायद एक या दो साल, या
फिर एक घंटा। उसकी ज़िंदगी तो ख़त्म हो जाएगी, लेकिन वह मौत नहीं होगी ।
मौत के लिए तो कुछ ज़्यादा ही बूढ़ा होगया है। वह तो बस सो सकता है।
.वह धीरे से गिर सकता है, पुराने सूखे हुए भूरे से पत्ते कीतरह।
मैं बगीची सेचल पड़ता हूँ। रास्ते में जबमोड़ आता है तो मेरे दादाजी
वाला मकान दिखना बंद हो जाता है। मैं फिर से नहर पर पहुंच जाता हूँ। वह
एक छोटी सी पुलिया के नीचे से निकलती है, जहाँ छाया में कई किस्म के फ़र्न
और दूसरे सदाबहार पौधे उगे हुए थे। हिमालय की तलहटी की पहाड़ियों सेआती
पानी की धारा उसी जानी-पहचानी आवाज के साथ आगे बढ़ती हैऔर तब तक
बहाव की चाल नहीं बदलती जब तक कि नहर शहर की कम ढलान वाली सड़कों
को पीछे छोड़ आगे नहीं बढ़ जाती।
इस सड़क पर नयी इमारतें बन गयी हैं,लेकिन छोटा सा पुलिस थाना अब
पिता के फलते-फूलते पेड़ / 759
भी उसी चूने से पुते पुराने बंगले में है। चंद पुलिसवाले डूयूटी पर रहते हैं, पूरी
वर्दी में नहीं-पायजामे पहने-पहने सड़क के किनारे उगी घास में एक दूसरे का
हाथ पकड़ कर टहलते हैं। एक ही लिंय के दो शख्सों काएक दूसरे का हाथ
पकड़कर चलना उत्तर भारत में आम बात है और इसे किसी ख़ास रिश्ते के तौर
पर नहीं देखा जाता। 395
मैं इस छोटे से पुलिस थाने को नहीं भूल सकता। इसके आसपास कभी
कुछ ज़्यादा ख़ास नहीं हुआ, 947 से पहले, जब देहरा में सांप्रदायिक दंगे हुए
थे। तब नहर में सेअकसर लाशें निकलती थीं और थाने के अहाते में उनका
ढेर लग गया था। मैं तब बच्चा ही था और जब मैं दीवार के ऊपर से झांक
कर थाने में लगे लाशों के ढेर को देखता था, तो किसी का ध्यान मेरी तरफ़
नहीं जाता था। उनके पास इतनी फ़ुरसत ही नहीं थी कि वह मुझे वहाँ से
भगाते। साथ ही उन्हें पता था कि मैं पूरी तरह ख़त्तरे सेबाहर था। हिंदू और
मुसलमान एक दूसरे के गले काटने में लगे थे, एक गोरे लड़के के लिए सड़कों
पर भी ख़तरा नहीं था। यूरोपियन लोगों में किसी की दिलचस्पी नहीं रह गयी
थी। ः
देहरा के लोगों की फ़ितरत में मार-काट नहीं है औरइस शहर के इतिहास
में जातीय हिंसा कीकोई जगह नहीं रही है। लेकिन जब बंटवारे के बाद पंजाब
से हजारों की तादाद में शरणार्थियों के रेले देहता आने लगे तो माहौल में तनाव
पैदा होने लगा। इन शरणार्थियों ने, जिनमें बड़ी तादाद में सिख थे, अपना घर
और रोज़गार खोया था और कई ने अपनों को बेरहमी से क़त्ल होते देखा था।
वे आगबबूला हो रहे थेऔर उनके मन में बदले की आग धधक रही थी। दो
महीने की लूटपाट और कत्लेआम से देहरा के माहौल की शांति भंग हो गयी
थी। जो मुसलमान भाग सकते थे वे बचकर भाग निकले। समाज के गरीब लोग
तबाही का आलम रहने तक शरणार्थी शिविरों मेंरहे, फिर वे अपने पुराने काम-धंधों
में जुट गये, लेकिन अब उनके मन में डर था और भरोसा न के बराबर। संदूकची
में सामान भरकर बेचने वाला भी उनमें से एक था।
मैंने नहर पार की और वह रास्ता पकड़ा जिस पर चलकर मैं नदी तक
पहुंच सकता था। इस रास्ते पर सैर के लिए जाना मेरे पिताजी को भी बहुत
पसंद था। वह भी पैदल चलने वालों में से थे। अकसर, जब वह छुटिटयों में
घर आया करते थे, वह कहते, 'रस्किन, चलो टहलने चलते हैं, और हम दोनों
740 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
नदी, या गन्ने के खेतों या रेलवे लाइन पार करके जंगल में घूमने केलिए खिसक
लिया करते थे।
आज़ादी से पहले, ऐसे ही एक बार सैर करने निकले, तो मुझे अब भी
याद है, वह कहने लगे-“जब जंग ख़त्म हो जाएगी, हम इंग्लैंड चले जाएंगे। ठीक
रहेगा न?
पता नहीं,' मैंने कहा। 'क्या हम भारत में नहीं रह सकते ?'
“यह अब हमारा नहीं रहेगा ।'
क्या यह हमेशा से हमारा था? मैंने पूछा।
“लंबे समय से तो था, उन्होंने कहा। 'दो सौ साल से ज़्यादा से। लेकिन
अब हमें इसे वापस करना है।'
“किसे वापस करना है? मैंने पूछा। मैं तबकुल नौ साल का था।
हिंदुस्तानियों को,' उन्होंने कहा।
तब तक भारतीयों के नाम पर मैं जिन्हें जानता था, उनमें मेरी आया,
खानसामा, माली और उनके बच्चे ही थे। मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि
वे लोग हमसे छुटकारा पाना चाहेंगे। इनके अलावा जो दूसरे भारतीय हमारे घर
आया करते थे, वह थे डॉक्टर घोष और उनके बारे में अकसर यह कहा जाता
था कि वह अंग्रेजों से भी ज़्यादा अंग्रेज थे। मुझे अपने पिताजी की बात तब
बेहतर समझ में आयी जब उन्होंने समझाया-“जंग के बाद इंग्लैंड में मुझे नौकरी
मिल जाएगी। यहाँ मेरे लिए कुछ नहीं रखा है।
शुरू में तोऐसा लगता था कि जंग कहीं दूर हो रही है, उससे हमें क्या
फ़र्क पड़ता है, लेकिन धीरे-धीरे वह पास आती गयी। मेरी बुआ, जो लंदन में
' अपने दो बच्चों के साथ रहती थीं, एक हवाई हमले में मारी गयीं। फिर मेरे पिताजी
के छोटे भाई यानी मेरे चाचा जो बर्मा से मार्च करते चले आ रहे थे, वह दस्त
की भेंट चढ़ गये। इन दोनों हादसों के बाद मेरे पिताजी उदासी में डूब गए।
पहले ही उनकी सेहत अच्छी नहीं रहती थी, जब देखो तब उन्हें मलेरिया हो जाया
करता था, जब घर आते तो पहले से ज़्यादा बुझे-बुझ और कमजोर लगते। निजी
जिंदगी में भीवह खुश नहीं थे। मेरी मां औरवह अलग हो चुके थे, क्योंकि
मेरी मां को दूसरी शादी करनी थी। मैं अब कहीं इस बात को समझ पाया हूँ
कि उस दौर में उनके जो दिन मेरे साथ गुजरते थे, वह उन्हें कितनी उम्मीद से
देखते थे। मैं हीऐसा था जिसके पास वह कभी भी आ सकते थे, जिसे लेकर
पिता के फलते-फूलते पेड़ / ॥47
कुछ सोच सकते थे, जिसे वह कुछ सिखा सकते थे।,/
देहरा उन्हें रास आता था। जब वह पेड़ों केबीच होते, तो हमेशा खुश
रहते थेऔर उनकी इस ख़ुशी का मुझे एहसास हो जाता था। मैं ख़ुद को उनके
क़रीब महसूस करता। मुझे याद है जब मैं उनके साथ बरामदे की सीढ़ियों पर
बैठा था तो एक पेड़ ने उनका पीछा तके किया। हम वहाँ यूंही बैठे थे, कुछ
ख़ास नहीं कर रहे थे-बेहतरीन बग़ीचों में वक्त के कोई मायने नहीं होते। मैंने
देखा कि बेल का सहारे के लिए लिपटने वाला प्रतान या टेंड्रिल बहुत ही धीरे-धीरे
मुझसे दूर और उनके क़रीब बढ़ रहा है। बीस मिनट बाद वह बरामदे की सीढ़ियों
को पार कर उनके पांव से जा लगा। यह भारत है और यहाँ पांव छूना किसी
को आदर देने का सबसे मधुर तरीका है।
शायद पेड़ के इस व्यवहार की कोई वैज्ञानिक व्याख्या हो-जिसमें बरामदे
की रोशनी और गुनगुनाहट का इससे कोई लेना-देना हो-लेकिन मुझे यह सोच
कर अच्छा लगता है कि पेड़ का वह अंग मेरे पिता जी के लिए अपने प्यार की
वजह से उनकी ओर बढ़ रहा था। कभी जब मैं किसी पेड़ के नीचे अकेला बैठता
था, तो मैं कुछ अकेला और खोया-खोया सा महसूस करता था। लेकिन जब मेरे
पिता साथ आ जाते थे, तो माहौल खुशनुमा हो जाता था और मुझे महसूस होता
था कि पेड़ का रवैया मेरे प्रति ज्यादा दोस्ताना हो गया है।
घर के इर्द-गिर्द जो फलों के पेड़ थे, उन्हें लगाने में मेरे पिता का ही हाथ
था, लेकिन सिर्फ़ बगीचे में पेड़ लगाने भर से उन्हें तसल्ली नहीं होती थीं। बारिश
के मौसम में हम नदी के उस पार चले जाते थे और साथ ले जाते थे पेड़ों की
कलम और पौध । जहाँ जगह मिलती थी, जंगल के साल और शीशमके पेड़ों
के बीच फूलों की झाड़ियां रोप देते थे।
“लेकिन यहाँ तो कोई आता नहीं, मैंने पहली बार उनका विरोध किया।
“कौन देखेगा इन्हें?”
“किसी दिन,' वह बोले, “कोई इधर का रुख़ करेगा... अगर लोग पेड़ लगाने
के बजाय काटते रहे तो एक दिन जंगल ही नहीं बचेंगे और दुनिया एक बहुत
बड़े से रेगिस्तान में बदल जाएगी।'
बिना पेड़ों की दुनिया के बारे में सोचना ही मेरे लिए किसी डरावने सपने
से कम नहीं था। और यही वजह है कि मैं कभी बिना पेड़ों वाले चांद पर नहीं
जाकर बसना चाहूँगा। इसलिए, पेड़ लगाने की उनकी मुहिम में मैं पूरे जोश से
742 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
अपने पिता का हाथ बंटाता रहा।
"एक दिन पेड़ फिर चलने लगेंगे, उन्होंने कहा। 'पेड़ हज़ारों सालों सेएक
ही जगह खड़े रहते आये हैं, जबकि किसी समय वह इंसानों की तरह चल-फिर
सकते थे। लेकिन जब से किसी ने उन्हें शाप दे दिया, वे एकजगह जम गये।
लेकिन वे हमेशा चलने की कोशिश करते हैं-देखो किस तरह अपनी बाहें फैलाकर
दूर तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश करते हैं!
एक सूखी नदी की तलहटी में हमें एक पथरीला टापू मिला। वहाँ एक
ऐसी नदी बहती थी, जो हिमालय की निचली पहाड़ियों की तमाम नदियों की
तरह गर्मियों में पूरी तरह सूख जाती थी और मानसून आने पर उसमें बाढ़ आ
जाती थी। जब हम इमली, अमलतास और मंदार की कई पौध और कलम लेकर
निकले तब बारिश के शुरू के ही दिन थे और धारा को अभी पैदल पार किया
जा सकता था। टापू पर पेड़ लगाने में हमने सारा दिन लगा दिया और वहीं एक
जंगली अलूचे के पेड़ के नीचे बैठकर खाना खाया।
पौध लगाने के बाद जल्दी ही मेरे पिताजी चले गये। तीन महीने बाद,
कलकत्ता में, उनका देहांत हो गया।
मुझे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया। मेरे दादा-दादी नेमकान बेच दिया और
देहरा से चले गये। स्कूल के बाद मैं इंग्लैंड चला गया। साल बीतते गये, मेरे
दादा-दादी भी गुज़र गये और जब भारश्त लौटा तो देश में परिवार का अकेला
सदस्य मैं बचा था।
अब मैं फिर से देहरा में हूँ, नदी की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर।
सजे-संवरे बग़ीचों वाले घर जल्दी ही मेरे पीछे रह गये और मैं सरसों के
खेतों सेहोकर आगे बढ़ रहा हूँ, जिनके पीले फूलों का गलीचा दूर जंगलों और
हिमालय की निचली पहाड़ियों तक बिछा हुआ है।
साल के इस समय में नदी में पानी नहीं होता। मरियल से दुधारू जानवरों
का झुंड जंगल के सिरे पर छोटी-छोटी पीली-भूरी सी घास चर रहा है। साल के
पेड़ बीच-बीच में से काट लिये गये हैं। कया हमारे पेड़ बचे होंगे? क्या हमारा
टापू अभी होगा, या फिर किसी मानसून में अचानक आयी तेज़ बाढ़ उसे पूरा
ही बहा कर ले गयी होगी?
जब मैं सूखी नदी के पार देख रहा था, तभी मेरी नज़र चटख लाल मंदार
के फूलों पर पड़ी। सूखी नदी के पथरीले रास्ते केआगे छोटा सा टापू हरियाली
पिता के फलते-फूलते पेड़ / 745
का नख़लिस्तान बना हुआ है। मैं पेड़ों केआगे गया, तो जाना कि उन पेड़ों
में तमाम तोते आकर रहने लगे हैं। तभी कोयल अपनी कुहू-कुह्दू छोड़ देती है।
उसकी बोली में सवाल है। वह मुझे नहीं जानती।
लेकिन पेड़, ऐसा लगता है, मुझे जानते हैं। वेआपस में कुछ खुसुर-पुसुर
करते हैंऔर मुझे अपने और क़रीब बुलाते हैं। जब ध्यान से देखता हूँतो दिखाई
देता है कि जो पेड़ हमने लगाये थे उनकी आड़ में दूसरे पेड़-पौधे और घास उग
आयी है।
उनकी तादाद बढ़ी है। और वे आगे बढ़ रहे हैं। दुनिया के इस भूले-बिसरे
कोने में, मेरे पिता के सपने पूरे हो रहे हैं और पेड़ फिर फैल रहे हैं, आगे बढ़ते
जा हहे हैं।
यः कोई साल भर बाद, मैं टैक्सी में बैठा था जो देहरा जा रही थी। हालांकि
मेरी जिंदगी मसूरी में मज़े से कटरही थी। लेकिन जब-तब मुझे देहरा
की याद सताने लगती थी और वहाँ जो तमाम साल मैंने बिताये थे, उनकी यादों
में डूब जाया करता था। मैंने तय किया कि मैं जब मौक़ा मिलेगा देहरा चला
जाया करूंगा। इस तरह वहाँ की बातों और यादों से होने वाली बेचैनी ख़त्म
होगी।
आख़िरकार जब मैं वहाँ पहुंचा, तो मुझे लगा कि मैंपहुंच तो गया हूँ,लेकिन
कुछ समझ में नहीं आया कि मैं करूं तो क्या करूं। मुझे समझ में नहीं आ रहा
था कि मैं दरअसल देहरा में करने क्या आया हूँ। न तो मेरे कोई पुराने दोस्त
देहरा में रह गये थेऔर न ही कोई रिश्तेदार बचा था। मुझे बुजुर्ग मिस पेटीबोन
से ही मिल लेना चाहिए, जिनसे मैंने मिलते रहने का वादा किया था। लेकिन
देहरा छोड़ने केठीक बाद शुरू में तो मैंने एक-दो बार उन्हें ख़त लिखे, लेकिन
बाद में उनसे मेल-जोल या ख़तो-किताबत का कोई सिलसिला नहीं रखा। न ही
उन्होंने कभी कोई चिट्ठी लिखी। मैं उनसे यह उम्मीद नहीं करसकता था कि
वह मुझे लिखें, क्योंकि वह कुछ ज़्यादा ही बूढ़ी होचली थीं औरउनकी तबीयत
भी ठीक नहीं रहती थी। मैंने ख़ुद कोदिलासा दी-कोई बात नहीं, मैं उनके पास
जाकर उन्हें चौंका दूंगा और इतने बरसों कोई ख़बर न लेने के लिए माफ़ी मांग
लूंगा। लेकिन पहले मुझे उनके लिए कुछ ख़रीद लेना चाहिए।
मैं बाजार गया और उनके लिए ओरंज मार्मलेड (संतरे आदि का मुरब्बा)
न सी मधु से मैं बहुत साल पहले मिला था, जब मैं हिमालय की तलहटी
में एक ऐसे शहर में रहता था जो बहुत मशहूर नहीं है। मैं तब तीस से
कुछ कम का था और तब ज़िंदगी को लेकर मेरा नज़रिया सपनों जैसा रंगीन
था। तीस के बाद जो कडुवाहट और निराशा आयी, तब तक उसका नामो-निशां
नहीं था।
शहरों में जिस तरह के सामाजिक मेलजोल वाली ज़िंदगी मुझे मिल जाती,
उसके मुक़ाबले जिले के छोटे से कस्बे का एकांत का माहौल मैं ज़्यादा पसंद
करता था। मुझे अपनी किताबों, लेखन और आसपास की पहाड़ियों में अपनी
खुशी और रोजी-रोजगार के लिए काफ़ी कुछ मिल जाता था।
गर्मी के दिनों में सुबह के समय मैं अकसर नोटबुक या स्केच पैड लेकर
, एक पुराने आम के पेड़ के नीचे बैठ जाता था। मामूली से किराये पर मैंने जो
घर किराये पर ले रखा था वह कस्बे के बाहरी इलाके में था। घर की चारदीवारी
के पार गरीबों की छोटी सी बस्ती और एक बड़ा सा पक्का तालाब दिखायी देता
था। बगीचे की नीची दीवार से सटा एक संकरा सा आम रास्ता था।
एक सुबह जब मैं आम के नीचे बैठा था, मैंने क़रीब नौ साल की छोटी
सी बच्ची को उस रास्ते पर और तालाब के ऊंचे किनारों पर कुलांचे भरते देखा।
कभी-कभी वह रुक कर मुझे देखती थी और जब मैंने यह जाहिर होने
दिया कि मैंने उसे देख लिया, तो उसका हौसला बढ़ा और वह शमति हुए पल
भर के लिए मुस्करायी। अगले दिन मैंने देखा कि वह बगीचे की दीवार के सहारे
मधु को गति न््यारी / 757
खड़ी होकर मुझे अंदर बगीचे की घास में इधर से उधर तेज क़दमों से चलते
देख रही थी। ह
कुछ ही दिनों में हमारे बीच एक तरह की जान-पहचान हो गयी। मैं भी
उसकी मौजूदगी को नज़रअंदाज़ करने लगा। कभी-कभी तो उसकी ओर देखता
भी नहीं था। वह तब तक रास्ते में मंडराती रहती थी जब तक कि मुझे घर
से बाहर निकलते नहीं देख लेती थी।
एक दिन जब वह फाटक के सामने से निकल रही थी, तो मैंने उसे अपने
पास बुलाया।
"तुम्हारा नाम कया है? मैंने पूछा। “और तुम कहाँ रहती हो?
'धु,' उसने मेरी तरफ़ देख अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखों से मुस्कुराते
और अपने उलझे से लंबे, काले बालों को समेटते हए कहा और सड़क के पार
इशारा किया-'मैं वहाँ अपनी दादी के साथ रहती" हूँ।'
'क्या वह बहुत बूढ़ी हैं? मैंने पूछा।
मधु ने हामी भरते हुए सिर हिलाया और फुसफुसाते हुए बोली-'सौ साल
बाद में मुझे पता चला कि वह बूढ़ी उसकी दादी नहीं थी, बल्कि उसकी
अपनी कोई औलाद नहीं थी और उसे नवजात बच्ची यानि मधु तालाब के किनारे
मिली थी। मधु के असली मां-बाप का कोई अता-पता नहीं था, लेकिन उस सिकूड़ी
सी झुर्रियों वाली बुढ़िया नेउसे अपने बच्चे कीतरह पाला था।
एक बार मेरे फाटक के अंदर घुसने के बाद से मधु ने मेरे बगीचे में भी
धड़ल्ले सेआना-जाना शुरू कर दिया। वह रोज़ सुबह आ जाती। तितलियों को
पकड़ने कीकोशिश करती और वह छरहरी सी लड़की पेड़ों केबीच कभी इस
गिलहरी को पकड़ने दौड़ती तो कभी उस मैना को ।जब देखो उसकी हँसी छलकती
रहती थी।
कभी-कभी मैं उसके लिए कोई खिलौना या कोई फ्रॉक वगैरह ले आता
था, लेकिन बस कभी-कभी | एक दिन, अपना सारा शर्मीलापन ताख पर रख वह
मेरे लिए गेंदे और छोटे-छोटे नीले बनफूलों का एक छोटा सा गुच्छा लेकर आयी।
“आपके लिए, वह बोली और फूल मेरी गोद में रख दिये।
“बहुत सुंदर हैं,' मैंने कहा । 'लेकिन तुमसे ज़्यादा नहीं / और इसके साथ
ही उनमें सेसबसे चटख गेंदा निकालकर उसके बालों में लगा दिया।
858 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
एक साल से ज़्यादा बीत गया, तब कहीं हल्के-फुल्के तौर पर दिलचस्पी
से आगे बढ़कर, मैंने मधु पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया।
कुछ समय बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि उसे पढ़ना और लिखना
सिखाया जाना चाहिए और तब मैंने पास ही रहने वाले एक टीचर से उसको
बगीचे में आकर पढ़ाने केलिए कहा। जब उसे पता चला तो उसने ताली बजाई
क्योंकि उसे यह भी किसी मज़ेदार नये खेल से कम नहीं लग रहा था।
अगले कुछ हफ़्तों में ही मधु नेअपनी सीखने की ख़ूबी से हमें हैरत में
डाल दिया। टीचर से जो कुछ पढ़ती थी, उसे दोहराने केलिए वह हर रोज़ एक
घंटे केलिए मेरे पास आ जाती थी। मुझसे कई विषयों पर तमाम सवाल किया
करती थी। दुनिया कितनी बड़ी है? और क्या सितारे हमारी दुनिया जैसे हैं? या
फिर, क्या वह सूरज और चांद की संतान हैं?
मधु मेंमेरी दिलचस्पी बढ़ती गयी और मेरी ज़िंदगी में अबतक जो खालीपन
था, उसकी जगह एक नये मकसद ने ले ली। जब वह घास पर मेरे बगल में
बैठ कर जोर-जोर से पढ़ रही होती थी, या मेरी हर बात का यकीन करके पूरे
भरोसे के साथ मेरी बातें सुन रही होती थी, तब मनमर्जी से अकेले रहने के दौरान
मेरे अंदर जितना प्यार छुपा पड़ा था, वह उसके लिए अचानक उमड़े लाड़ की
शक्ल में उभरकर सामने आने लगा था।
तीन साल चुपके से कहाँ चले गये, पता भी नहीं चला और तेरह साल
की हो रही मधु बचपन की दहलीज को पार करने की कगार पर पहुंच गयी।
मुझे उसे लेकर एक ज़िम्मेदारी सीमहसूस होने लगी।
मुझे मालूम था कि इतनी सलोनी सी बच्ची को इस तरह बिना कड़ी देखरेख
के छोड़ देना और उसे अकेले बेरोकटोक इधर-उधर घूमने देना ख़तरे से ख़ाली
नहीं था। बाल की खाल निकालने वाले समाज में अगर उसका ज़्यादा समय मेरे
साथ बीतता तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता।
उसे नहीं लग रहा था कि उसे कहीं जाने की जरूरत थी, लेकिन मैंने उसे
साथ लगे जिले के एक मिशनरी स्कूल में भेजने का फ़ैसला किया, जहाँ मैं
समय-समय पर उससे मिलने जा सकता था।
“लेकिन क्यों? मधु बोली। 'मैं आप से और जो टीचर आते हैंउनसे पढ़
सकती हूँ। मैं यहाँ इतनी खुश तो हूँ।'
“वहाँ और लड़कियां मिलेंगी, तुम्हारी सहेली बनेंगी,” मैंने उसेबताया। “और
मधु की गति न्यारी / 759
मैं तुमसे मिलने आया करूंगा ।फिर जब तुम घर आया करोगी तो और भी ज़्यादा
मज़ा आएगा। तुम्हें जाना चाहिए और यही अच्छा है।
जून का पहला पखवाड़ा बीतने को- था-शिवालिक के इलाके में बेहाल कर
देने वाला गर्म और दमघोंटू मौसम। मधु ने कह दिया था कि वह स्कूल जाने
को तैयार है। फिर एक शाम वह रोज*की तरह बगीचे में नहीं दिखाई दी तो
मैंने इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन अगले ही दिन मुझे पता चला
कि उसे बुख़ार थाऔर वह घर से निकलने की हालत में नहीं थी।
बीमारी क्या होती है, इससे मधु बिलकुल अनजान थी और इसी वजह
से मुझे डर सा लग रहा था। उस पगडंडी पर जल्दी-जल्दी चलकर मैं बुढ़िया की
कुटिया तक पहुंचा। अजीब सा लग रहा था कि इतने दिनों मधु से जुड़े रहने
के बावजूद मैं वहां एक बार भी नहीं गया था।'
बेहद मामूली सा मिट्टी का मंडुआ था उसका'घर, जिसकी छत बस इतनी
ऊंची थी कि मैं सीधा खड़ा भर हो सकता था। लेकिन अंदर जगह साफ़-सुथरी
थी। बुख़ार से पस्त मधु मूंझ की बान से बुनी खाट पर आँखें बंद किये पड़ी
थी। उसके लंबे बाल बिखरे और एक हाथ खाट से नीचे लटका था।.
तब पहली बार मैंने सोचा कि इतने लंबे समय में मैंने उसकी ज़रूरत पर
कितना कम ध्यान दिया था-वहाँ एक कुर्सी तक नहीं थी। मैंने घुटने ज़मीन
पर टिकाये और उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसके शरीर की तेज़ तपन
से पता चल रहा था कि वह बहुत बीमार थी।
छूने से हीउसने मुझे पहचान लिया और आँखें खुलने से पहले ही उसके
चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ गयी। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और उसे अपने
गाल पर रख लिया।
मेरी आँखें उसकमरे का मुआयना कर रही थीं, जहाँ वह बड़ी हुई थी।
बान की दो खाटों केअलावा-एक पर मधु और दूसरी पर बैठी बूढ़ी हमें देख
रही थी। उसका झुर्रियों सेभरा सफ़ेद सिर कठपुतली की तरह लगातार हिल
रहा था।
एक कोने में मधु का खजाना था। मैं पहचान रहा था उन चीजों को जो
मैंने पिछले चार साल के दौरान समय-समय पर उसे दी थीं। उसने सबको संभाल
कर रखा था। उसकी सांवली बाजू पर अब भी वह लाल फ़ीता बंधा था, जो
मैंने करीब साल भर पहले यूंही खेल-खेल में बांध दिया था। उसके अंदर दिल
760 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
नाम की भी कोई चीज है, यह जानने से पहले ही वह एक ऐसे अजनबी को
दिल से चाहने लगी थी, जो इतने बड़े तोहफ़े के क़ाबिल नहीं था।
जब शाम ढल॒ने लगी, तब हवा के एक झोंके से अंधेरी कोठरी का दरवाजा
खुल गया और धूप की एक किरन अंदर आकर दीवार के एक हिस्से पर पड़ने
लगी। यह वह समय था जब हर शाम वह आम के पेड़ के नीचे मेरे पास आ
जाया करती थी। क़रीब एक घंटा हो गया था और वह अब तक चुप पड़ी थी।
फिर मेरे हाथ पर उसके हाथ का हल्का सा दबाव महसूस हुआ तो मेरी नएज़रें
उसके चेहरे की ओर लौटीं।
“अब हम क्या करेंगे? वह बोली। “आप मुझे स्कूल कब भेजोगे?
“अभी नहीं भेजूंगा। पहले तुम ठीक हो जाओ, तंदुरुस््त होजाओ। इसके
अलावा और कुछ जरूरी नहीं है।'
वह मेरी बात सुन नहीं पायी, ऐसा लगा। मुझे लगता है कि उसे पता चल
गया था कि वह जी नहीं पाएगी और उसने इसके लिए कोशिश भी नहीं की।
'पेड़ के नीचे तुम्हें कौन किताब पढ़ कर सुनाएगा? वह बोलती गयी।
“कौन तुम्हारी देखभाल करेगा? एक ज़िम्मेदार औरत की तरह उसने कहा।
"तुम, मधु |तुम अब बड़ी हो गयी हो। मेरी देखभाल और कोई नहीं कर
सकता /'
बूढ़ी बिलकुल मेरे पास आकर खड़ी हो गयी थी। सौ साल की...और नन्हीं
सी मधु हाथ से निकली जा रही थी। बूढ़ी ने मधु का हाथ मेरे हाथ से लेकर
धीरे से नीचे रख दिया। मैं कुछ देर खाट के बगल में बैठा रहा, फिर जाने के
लिए उठा, दुनिया के सारे अकेलापन का बोझ अपने दिल पर लिये।
“इस हफ्ते तुमने कुछ काम किया? दिनेश ने उलाहना देते हुए पूछा।
ज्यादा नहीं,” मैंने कहा।
"तुम शायद ही कभी घर में रहते हो। तुम अपनी मेज पर कभी नहीं मिलते ।
लगता है तुम्हें कुछ हो गया है।
“बस मैंने खुद को छुटूटी दे दी हैऔर कुछ नहीं। क्या लेखक भी छुट्टी
ले सकते हैं?
"नहीं । ख़ुद तुम्हीं नेतोऐसा कहा था। और, जो भी हो, लगता तो ऐसा
है कि तुमने हमेशा के लिए छुट्टी ले ली है।'
'क्या तुमने उस तिब्बती औरत की पेंटिंग पूरी कर ली? मैंने पूछा, ताकि
बात का मुद्दा बदल जाये।
एक दर्द भरा गीत / 769
“यह सवाल तुमने मुझसे तीसरी बार पूछा है, जबकि तुम पूरी हो चुकी
पेंटिंग हफ़्ता भर पहले देख चुके हो। तुम कहाँ खोये-खोये से रहने लगे हो ॥'
तुम्हारे पुराने दोस्त” का ख़त आया था, मेरा मतलब है तुम्हारे छोटे से
दोस्त का ख़त था। उस पर नाम सुनील का लिखा था, लेकिन मैंने भेजने वाले
का नाम देख लिया तो मैं समझ गया कि वह दरअसल तुम्हारे लिए था।
मैंने ऐसा शांत सा मुँह बना लिया था जैसे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता और
ख़त तुम्हें देदिया था, लेकिन तुम और सुनील दोनों मेरी उलझन समझ गये।
पहले तो तुमने मुझे चिढ़ाने कीकोशिश की, लड़के की तस्वीर दिखाई, जो उसमें
रखी थी (और वह वाकई में देखने में अच्छा था, भले ही अंदाज़ जरा भड़कीला
था), फिर यह जानकर कि मैं पल-पल उदासी में डूबता जा रहा था, तुमने यह
भरोसा दिलाकर मुझे कुछ राहत देने कीकोशिश की क़ि यह चिट्ठी-पत्री एकतरफ़ा
थी और तुमने उसके ख़तों का जवाब नहीं दिया थ्ा।
उस रात यह जताने के लिए कि तुम्हें वास्तव में मेरा ख़याल था, तुमने
कमरे की बत्ती बुझते ही अपना हाथ मेरे हाथ में देदिया। सुनील पहले ही गहरी
नींद में सोचुका था। ह
हम दोनों तुम्हारे पलंग पर पैरों की तरफ़ बैठे। मैंने अपनी बांह में तुम्हें
घेरा और तुमने अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया। तुमने आराम से अपने
पैर मेरे पैरों केऊपर फैला लिये। मैं तुम्हें चूमता हीजा रहा था।जब हम साथ
में लेटे, मैंने तुम्हारा ब्लाउज ढीला किया और तुम्हारे छोटे लेकिन कड़े वक्ष को
चूमा, अपने होठों को उनके सिरों.पर रख दिया और अपने होठों से उन्हें और
कड़ा होते महसूस करने लगा।
शमति हुए चूमने का सिलसिला जल्दी ही मदहोशी में बदल गया। तुम
मुझसे लिपट गयीं। हम वक्त, जगह और हालात को भूल चुके थे। तुम्हारी आँखों
की चमक उस औरत के खोये-खोये अंदाज में कहीं गुम हो चुकी थी जो चाहत
की आग में तप रही हो। जगह का ध्यान रखते हुए हम दोनों चाहत को काबू
में रखने की कोशिश करते रहे। अचानक मुझे अपने आप से डर लगने लगा,
तुमसे डरने लगा। मैं ख़ुद को तुम्हारी मुझे जकड़ती बांहों से छुड़ाने कीकोशिश
करने लगा। लेकिन तुम धीमी सी आवाज़ में रट लगाए थीं-'मुझे प्यार करो!
मुझे प्यार करो! मैं चाहती हूँकि तुम मुझे प्यार करो।
मेरे घर की छत के नीचे वह तुम्हारी आख़िरी रात थी। हम अकेले नहीं थे। लेकिन
जब आधी रात को मेरी आँख खुली और मैंने अपना हाथ तुम्हारे बिस्तर की
ओर बढ़ाया, तो तुमने मेरा हाथ थाम लिया था क्योंकि तुम भी जाग रही थीं।
फिर मैंने तुम्हारी उंगलियों के सिरों कोएक एक करके अपनी उंगलियों से दबाया,
जैसा कि मैं अकसर करता था और तुमने अपने नाखून मेरे हाथ में गड़ा दिये
थे। जैसे हम दोनों के हाथ एक दूसरे के प्यार में उलझे हुए थे, कुछ उसी तरह
हमारे शरीर भी हो सकते थे। दोनों के हाथ एक-दूसरे से लिपटते रहे, गरमाहट
साझा करते रहे, एक दूसरे को दुलारते रहे, जिसमें एक-एक उंगली अपने आप
में एक हस्ती बन जाती थी और अपनी जोड़ीदार को तलाशती थी। कभी-कभी
सिर्फ़ हमारी उंगलियों के सिरे चिढ़ाने के अंदाज़ मेंएक-दूसरे को छू लेते थेऔर
कभी हमारी हथेलियां जल्दबाजी में कांपते हुए मिलतीं, लिपटतीं और अलग हो
जातीं। फिर एक जुनून के साथ एक दूसरे को ढूंढतीं। और फिर जब आख़िर
में तुम्हें नींद नेअपने आग्ोश में ले लिया, तुम्हारा हाथ निढाल होकर पलंग से
लटका जमीन को छूता रहा। मैंने उसे उठाकर पहले.“अपने होठों से लगाया, फिर
तुम्हारी धीरे सेउठती छाती पर रख दिया।
फिर तुम लोग चले गये, तुम तीनों और मैं सोच में डूबे पहाड़ों केसाथ
रह गया। जब तुम्हारे बिना मैं कुछ हफ़्ते नहीं गुज़ार सकता था, तो मैं साल-दो
साल कैसे गुज़ारता? यह सवाल मैं ख़ुद से बार-बार पूछता रहा। क्या मुझे पहाड़ों
को छोड़कर दिल्ली में फ़्लैट लेकर रहना पड़ेगा? और उससे भी क्या होगा-तुम्हें
देख लेना, तुमसे बातें कर लेना, लेकिन कभी तुम्हें छूनसकना? उसे न छू सकना
जिस पर मेरा पहले से हक रहा हो, यह तो बड़ा भारी सितम होता।
घर ख़ाली था, लेकिन मुझे छोटी-छोटी चीजें मिल जाया करती थीं जो याद
दिलाती थीं कि तुम यहाँ थीं-एक रुमाल, एक चूड़ी, रिबन का टुकड़ा-पीछे छूटी
ऐसी चीज़ें मुझे एहसास कराती थीं जैसे तुम हमेशा के लिए चली गयी हो। रात
को कोई आवाज़ नहीं, छत की कड़ियों में दौड़-भाग करते चूहों के सिवा।
बारिश होने के साथ ही पेड़ों केतनों और चट्टानों पर फ़र्न निकलने शुरू
हो गये थे। कलकल कर के बहने वाली धारा अब गुस्से से गरज रही थी। आगे
वाली खिड़कियों के पास से ऊपर चढ़ती मधुमालती की बेल अब ख़ुशबूदार फूलों
से लदी थी। काश, वह थोड़ा पहले फूलने लगती, तुम्हारे जाने सेपहले। तब
तुम उसके फूल अपने बालों में लगा पातीं।
776 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
रात को मैंने ब्रांडी पीऔर बेतहाशा लिखता रहा, चिमनी से आती तेज़
हवा की हू हू सुनता रहा और फिर बिस्तर में पड़ा-पड़ा कविताएं पढ़ता रहा।
कोई नहीं था जिसे मैं कहानियां सुनाता और कोई हाथ नहीं था जिसे थाम लेता।
मैं छोटी-छोटी बातें याद करता रहा-तुम्हारे कानों को छुपा लेने वाले नर्म
बाल, तुम्हारे हाथों केचलने का अंदाज़, तुम्हारे पैरों कीठंडक का एहसास, तुम्हारी
कमसिन नज़र और कभी-कभी पल भर में उनका शरारती हो जाना।
मिसेज कपूर ने तुम्हारे हाव-भाव की नज़ाकत का जिक्र किया था। मुझे
अच्छा लगा कि किसी ने तो इस पर ध्यान दिया। तब मैंने अपनी डायरी में लिखा
था-'मैंने सुशीला को इतनी बार देखा है, इतना ज़्यादा देखा है कि उसकी बांध
लेने वाली खूबियों को हीनजरअंदाज कर गया-उसका अपनापन, या फिर उसे
किसी बात से ज़्यादा फ़र्क ही नहीं पड़ता था; उसका किसी के दिल को ठेस
पहुंचाने से बचना था या दूरियां बनाकर रखना; उसकी सहनशीलता थी या आलस ?
क्या कहूँ औरत के मन से मैं निपट अनजान ही रह गया!
इस बीच दिनेश का ख़त आया तो वह मुझे डूबते को बचाने के लिए फेंकी गयी
रस्सी सा लगा। ऐसी रस्सी जिसे मैं छोड़ दूं, इसका सवाल ही नहीं पैदा होता।
उसने लिखा था कि वह दिल्ली में आर्ट स्कूल से जुड़ जाएगा और मुझसे पूछा
कि क्या मैं दिल्ली आकर उसके साथ एक फ़्लैट में रहना चाहूँगा। पहाड़ों को
छोड़ दिल्ली जैसे उमंगों का गला घोंटने वाले शहर में रहना पड़ सकता है, यह
डर मुझे हमेशा सताता था। लेकिन मैंने गौर किया तो लगा कि मोहब्बत किसी
भी जगह को रहने लायक बना सकती है।
नये फ़्लैट में पहली रात मुझे और दिनेश को नींद नहीं आयी। फ़्लैट मेन रोड
के बिलकुल पास था और रात भर गरजती गाड़ियां गुजरती रहीं। मैं पहाड़ों को
याद कर रहा था, जहाँ इतना सन्नाटा रहता है कि चापका पक्षी (नाइटजार) की
पुकार हमें चौंका देती थी।
दूसरे दिन ज़्यादातर समय मैं बाहर रहा और जब शाम को लौटा तो पता
चला कि दिनेश का मकान मालिक से झगड़ा हो गया था। लगता है मकान मालिक
सचमुच अकेले मर्द ही चाहता था और दिन भर ढेर सारे बच्चों काआना-जाना
उसकी समझ में नहीं आया या उससे बर्दाश्त नहीं हुआ।
एक दर्द भरा गीत / 779
'मैंने सोचा कि मकान मालिक परिवार वालों को रखना पसंद करते हैं
मैंने कहा। ४
“वह जानना चाहता था कि गैर-शादीशुदा किरायेदार का इतना बड़ा परिवार
कहाँ से आया!
"तुमने बताया नहीं कि बच्चे कुछ दिन के मेहमान हैं और यहाँ नहीं रहेंगे?”
'मैंने बताया, लेकिन वह मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं था।'
'बैर, जो भी हो, हम बच्चों को मिलने आने से तो रोकेंगे नहीं,” मैंने गुस्से
से कहा। (बच्चे नहीं, तो सुशीला भी नहीं!) “अगर उसे बात समझ में नहीं आती
तो वह अपना फ़्लैट अपने पांस रखे।'
क्या उसने मेरा चेक भुना लिया?
“नहीं, उसने वापस कर दिया।
“इसका मतलब वह वास्तव में चाहता है कि हथ उसके फ़्लैट से चले जायें ।
भाड़ में जाये उसका फ़्लैट! वैसे भी यहाँ बहुत शोर रहता है। चलो तुम्हारे घर
वापस चलते हैं।
हमने अपने बिस्तरबंद, संदूक और रसोईघर के बरतन-भांडे फिर से बांधे ।
बैलगाड़ी भाड़े परली और वहाँ से तीन मील दूर दिनेश के घर जा पहुंचे काफ़ी
रात को, भूखे और परेशान।
सब कुछ गड़बड़ाता लग रहा था।
जिस घर में तुम रहती हो, उसी में रहते हुए भी तुम्हारे साथ वास्तव में कोई
मेलजोल न रख पाना एक तरह से खुद अपने ऊपर ही अनूठे ढंग से सितम
ढाने जैसा था। बड़ी मुश्किल से इक्का-दुक्का पल ही ऐसे मिलते थे जब हमें
एक कमरे में अकेले छोड़ा जाता थाऔर हम इशारों या एकाध शब्दों के जरिये
कुछ कह-सुन सकते थे। इसे मैं ख़ुद पर सितम ढाना इसलिए कहता हूँक्योंकि
दिल्ली में रहने केलिए किसी ने मेरे साथ जबरदस्ती नहीं की थी। कभी-कभी
तुम्हें मुझसे दूरी बनाकर रखनी पड़ती थी और यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
था। सुनील और कुछ बच्चों के अलावा सिर्फ़ दिनेश को हमारे इश्क के बारे
में पता था। वैसे भी बड़ों कोसच जरा धीरे-धीरे हीसमझ में आता है-हमारे
रिश्ते कासच और मेरे अपने जज़्बात को परिवार में किसी के साथ साझा करना
780 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जल्दबाजी होती। अगर मैं यह ऐलान करता कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, तो
फ़ौरन यह जाहिर हो जाता कि हिल-स्टेशन पर छुट्टियों के दौरान हमारे बीच
कुछ हुआ है। फिर यह कहा जाता कि मैंने मौके का फ़ायदा उठाया, जो कि
मैंने उठाया भी और तुम्हें फुललाकर अपने चंगुल में फंसाया-जबकि मैं यह
सोचने लगा था कि मैंने तुम्हें नहीं, तुमने मुझे फुसलाकर अपनी गिरफ़्त में लिया!
और अगर एकाएक शादी करने की बात होती, तो लोग कहते-“इतनी जल्दी
तय की गयी है और यह इतनी छोटी है। इसने लड़की को किसी मुश्किल में
डाल दिया होगा !” जबकि तुम में उस किस्म की मुश्किल में होने के कोई लक्षण
मौजूद नहीं थे।
फिर भी मैं यह उम्मीद नहीं छोड़ पा रहा था कि तुम जल्दी ही मेरी बीवी
बनोगी और ऐसा होना तय था। मैं तुम्हारी देखभाल करना चाहता था। मैं नहीं
चाहता था कि मेरा यह काम दूसरे करें। क्या इसमें खुदगर्जी छुपी थी? या फिर
ऐसा ही होता है जब कोई किसी को सचमुच में प्यार करता है?
ऐसा भी समय था-ऐसा समय जब तुमने मुझसे दूरी बना कर रखी और
तुम मेरी ओर देखती तक नहीं थीं-और तब मैं बेचैन हो जाया करता था। मुझे
पता था कि तुम दूसरों के सामने यह नहीं जाहिर होने दे सकतीं कि तुम मुझसे
इतनी खुली हुई हो। फिर भी, यह जानते हुए भी, मैं सबसे आँखें चुराकर तुमसे
नजरें मिलाने, तुम्हारे पास बैठने और तुम्हें चलते-चलते छू लेने कीकोशिश करता
था। मैं ख़ुद को रोक नहीं सकता था। मैं उदास रहने लगा, खुद पर तरस खाने
लगा। और ख़ुद पर तरस खाना, मैंने महसूस किया, नाकाम होने की निशानी
है, ख़ासतौर से प्यार में नाकाम होने की।
फिर वापस पहाड़ पर जाने का समय आ गया।
सुशीला, जिस दिन मुझे जाना था, उस सुबह जब मैं उठा, तो तुम सो रही थीं
और मैंने तुम्हें नहीं जगाया। मैं तुम्हें अपने बिस्तर पर पसरे देखता रहा, तुम्हारा
. सांवला चेहरा जिस पर चिंता का नामो-निशान तक नहीं था, तुम्हारे काले बाल
सफ़ेद तकिये पर बिखरे हुए थे और तुम्हारी लंबी-लंबी बांहें और टांगें निढाल
फैली हुई थीं। सोते हुए तुम कितनी खूबसूरत लग रही थीं।
जब मैं तुम्हें देख रहा था, तब मैं अपने दिल के इर्द-गिर्द एक अजीब सी
एक दर्द भरा गीत / 487
जकड़न महसूस करने लगा, एक अजीब सी घबराहट सी होने लगी थी-कि ऐसा
भी हो सकता है कि मैं तुम्हें खो दूं।
अब दूसरे भी जाग चुके थे और नएरें चुराकर तुम्हें चूम लेने कामौका
नहीं था। टैक्सी फाटक पर खड़ी थी। एक बच्चा हूक मार-मार कर रो रहा था।
तुम्हारी दादी मुझे कुछ समझा रही थीं। टैक्सी ड्राइवर बार-बार हॉर्न बजा रहा
था।
अलविदा सुशीला!
बरसात का मौसम अपने पूरे परवान पर था। लगातार बूंदाबांदी, फुहार
और टीन की छत पर लगातार तड़-पड़ तड़-पड़ होती रहती थी। दीवारों परसीलन
थी और मेरी कुछ किताबों पर, यहाँ तक कि उस अचार में भी फफूंदी लग गयी
थी जो दिनेश ने बनाया था। हे
सब कुछ हरियाला था। हरियाली ऐसी थी जैसी नमी वाले गर्म इलाकों
में होती है, ख़ासतौर से धारा केआसपास। पेड़ों के तनों पर फ़र्न पनप गये थे
और पत्थरों पर काई की ताज़ी फ़लल उगी थी। मेडेनहेयर फ़र्न तोबेहद मनमोहक
थे। धारा का पानी पूरेज़ोर से संकरी सी घाटी से बहता हुआ अपने साथ झाड़ियों
और छोटे-मोटे पेड़ों कोभी बहाये लिये जा रहा था। मैं ज्यादा देर बाहर इंतज़ार
नहीं कर सकता था, क्योंकि बारिश कभी भी शुरू हो सकती थी। फिर जोंक
का भी ख़तरा था, जो मौका मिलते ही मेरे पैरों परचिपक मेरा ख़ून चूस-चूस
कर मोटी हो जातीं।
एक बार, चट्टानों पर खड़े-खड़े मैंने देखा, एक पतला सा भूरा सांप बहाव
के साथ तैरता जा रहा था। उसमें एक कशिश थी और एक अकेलापन भी।
मैंने एकसपना देखा-सुनील कह रहा था कि धारा पर चलते हैं।
हमने एक एअरबैग में मक्खन और डबलरोटी रखी। साथ में डबलरोटी
काटने वाली एक लंबी छुरी लेकर हमने धारा तक पहुंचने के लिए पहाड़ से नीचे
उतरने का सफ़र शुरू किया। सुशीला नंगे पांव थी और वही पुराना कुरता पहने
हुए थी जो बचपन से पहनती चली आ रही थी। सुनील ने चटक पीली टी-शर्ट
और काली जींस पहन रखी थीं। वह बड़ा आकर्षक लग रहा था। जब हम जंगल
वाले रास्ते पर थे, तब हमने देखा कि दो जवान लड़के हमारे पीछे-पीछे आ रहे
थे। उनमें सेएक, सांवला और दुबला सा लड़का जाना-पहचाना सा लग रहा
था। मैंने कहा-यह सुशीला का दोस्त तो नहीं है?” लेकिन सबने मना कर दिया।
82 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
दूसरे को मैं नहीं जानता था। जब हम धारा पर पहुंच गये, सुनील और मैं ताल
में कूद पड़े, जबकि सुशीला बिलकुल हमारे पास वाले पत्थर पर बैठी थी। हमें
नहाते हुए कुछ मिनट ही हुए होंगे कि वे दोनों लड़के वहीं आ गये और सुशीला
के साथ छेड़छाड़ करने लगे। उसने तो कुछ नहीं कहा लेकिन सुनील तालाब से
निकला और हड़बड़ाया हुआ चढ़ाई पर चढ़ने लगा सुशीला की ओर। दोनों में
से, जो पहचान में नहीं आ रहा था, उसके हाथ में एक लंबा सा चाकू था। सुनील
ने एक पत्थर उठाया और उसकी ओर घुमाकर फेंका, जो उसके कंधे पर लगा।
मैं भीनिकलकर दौड़ा और फ़ुर्ती सेलड़के कावह हाथ पकड़ लिया जिसमें चाकू
था। उसने मुझे पांव पर टखने के कुछ ऊपर लात मारी और दूर धकेलने की
कोशिश की। मैं उसके पैरों केपास ही गिर गया। चाकू वाला हाथ मेरे ऊपर
ही तना हुआ था, लेकिन मैंने उसे थामा हुआ था। फिर उसके पीछे मुझे सुशीला
नज़र आयी। उसके चेहरे के पीछे थाबादल का एक गुज़रता हुआ टुकड़ा |उसके
हाथ में डबलरोटी काटने वाला चाकू था। उसका हाथ ऐसे ऊपर नीचे चल रहा
था और मुझसे मुक़ाबला करने वाले की गर्दन ऐसे काट रहा था जैसे वह पके
हुए तरबूज़ पर चल रहा हो। मैं लड़खड़ा कर खड़ा हुआ, तो देखा कि सुशीला
बिना सिर की लाश को ऐसे ताक रही थी जैसे कोई बच्चा तितली के पंख उखाड़ने
के बाद उसे देख रहा हो जैसे वह कोई अनोखी चीज़ हो और उसे उससे कोई
मतलब नहीं था। 5
दूसरा लड़का, जो सुशीला का दोस्त हो सकता था, वह भागने लगा। हम
तीनों मिलकर उसके पीछे पड़ गये। जब वह॑ फिसल कर गिरा, तो अगले ही
पल मैंने खुद को उसके बगल में पाया। मेरे हाथ में चाकू था ही, वह अपने
'आप ही ऐसी जगह ठहर गया कि अगर हाथ चलता तो चाकू सीधा उसके बायें
कंधे के नीचे वाले हिस्से में घुसता |लेकिन मुझसे उसके कंधे में चाकू घोंपा नहीं
गया। तभी सुनील ने मेरे हाथ पर अपने हाथ से ज़ोर दिया और चाकू का फल
उसके मांस में धीरे से घुस गया।
दिन हो या रात, हर वकूषत मुझे पहाड़ के नीचे बहने वाली धारा कीकल-कल
सुनायी देती थी। अगर मैं उसे ध्यान लगाकर न भी सुनूं, फिर भी आवाज़ तो
रहती ही थी। मैं उसका आदी हो गया था। लेकिन जब कभी मैं कहीं और जाता,
एक दर्द भरा गीत / 785
तब कुछ कमी सी महसूस होती थी और बहते हुए पानी की आवाज़ के बिना
मैं अकेलापन महसूस करता था।
मैं दोमहीने अकेला रहा और फिर मेरा तुमसे मिलना हुआ, सुशीला।
लंबे समय से टलते चले आ रहे 'होगा या नहीं होगा” वाले हालात मुझसे नहीं
झेले जा रहे थे। मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे सब कुछ किसी मुक़ाम
तक पहुंचे। बिना कुछ किये महज़ इंतज़ार करते रहना सहा नहीं जा रहा था।
न ही मुझसे किसी को कुछ न बताने की दिनेश की दी हुई क़सम निभायी
जा रही थी। किसी को तो मालूम होना ही चाहिए कि मेरा इरादा क्या है।
किसी को तो मेरी मदद करनी ही होगी। तब कहीं इंतज़ार मेरे लिए आसान
हो पाएगा।
तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं चल रही थी और तुमकमज़ोर दिखाई दे रही
थीं, लेकिन तुम पहले सी हँसमुख और शांत थीं।
जब मैं तुम्हें सुनील के साथ सिनेमा दिखाने ले गया, तुमने बैंगनी रंग की
बिना बाजू वाली कुर्ती पहनी थी। उसमें तुम्हारा सांवला रूप और भी निखर गया
था। तुम्हारे चेहरे परमासूमियत और लज्जा थी और मुस्कान वही हमेशा जैसी।
तुम पर से अपनी नजरें नहीं हटायी जा रही थीं।
टैक्सी से लौटते समय रास्ते भर मैं तुम्हारा हाथ थामे रहा।
सुनील (पंजाबी में) : 'तुम अपने बच्चों के नाम अंग्रेजी में रखोगे या हिंदी
में?
मैं : हिंदुस्तानी |
सुनील (पंजाबी में) : “अच्छा, सही जवाब, अंकल!
और पहले मैं तुम्हारी मां केपास गया।
छोटी सी महिला थीं वह और सुकुमार सी लगती थीं। लेकिन उनके छह
बच्चे थे-सातवां होने को था-सारे के सारे बिना किसी दिक्कत के इस दुनिया
में आये थे और पूरे संयुक्त परिवार में सबसे तंदुरुस्त थे।
वह शहर के दूसरे इलाके में रिश्तेदारों सेमिलने जा रही थीं और रास्ते
में कुछ दूर तक मैं उनके साथ गया था। क्योंकि वह गर्भवती थीं, इसलिये उन्हें
भीड़ भरी बस में किसी ने सीट दे दी थी। मैं भी -किसी तरह उनकी बगल में
सिकुड़ कर बैठ गया था। वह मुझे हमेशा से पसंद करती थीं, इसलिए सीधे मुदूदे
पर आने में मुझे कोई मुश्किल नहीं हुई।
784 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“आप कितनी उम्र में सुशीला की शादी करना चाहेंगी? मैंने यूं हीघर
के बड़ों वाले अंदाज़ में पूछा।
“जब समय आएगा, तब इसके बारे में सोचेंगे। अभी तो उसे स्कूल की
पढ़ाई पूरी करनी है। अगर वह इम्तिहानों में फ़ेल होती रही, तो वह अपनी पढ़ाई
कभी पूरी नहीं कर पाएगी ।'
मैंने एक गहरी सांस ली और छलांग लगा दी।
“जब समय आएगा, मैंने कहा। जब समय आएगा, तो मैं उससे शादी
करना चाहूँगा। और यह देखने का इंतजार किये बिना कि मेरी बात का उन
पर क्या असर हुआ, मैं आगे बोलता गया-'मुझे पता है कि मुझे अभी इंतजार
करना पड़ेगा, एक या दो साल, या शायद इससे भी ज़्यादा, लेकिन मैं आपसे
यह बात इसलिए कर रहा हूँताकि आपके ध्यान में रहे। आप उसकी मां हैं,
इसलिए मैं चाहता हूँ कियह बात आपको सबसे पहले पता लगे।' (मैं ठहरा
पक्का झूठा! उनसे पहले यही कोई चार लोगों को पता था। लेकिन इस बहाने
से मैं वाकई में यहकहना चाहता था, "कृपया उसके लिए कोई दूसरा पति ढूंढने
के चक्कर में मत पड़ियेगा।')
उन्हें कुछ ख़ास ताज्जुब नहीं हुआ। सौम्य सी महिला थीं। लेकिन उन्होंने
कुछ उदासी के साथ कहा-तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन परिवार में मेरी बात
कुछ ख़ास नहीं चलती। मेरे पास पैसा नहीं है न। यह सब दूसरों के हाथ में
है, ख़ासकर उसकी दादी के ।'
मैं उनसे भी बात कर लूंगा, जबसमय आएगा। इसकी चिंता मत कीजिए ।
और आपको पैसे या किसी और चीज की चिंता करने की जरूरत नहीं है-मेरा
मतलब हैकि मैंदहेज मेंविश्वास नहीं करता-यानी, आपको गोदरेज की अलमारी,
' सोफ़ा सेट और इस किस्म की दूसरी चीज़ें मुझे नहीं देनी पड़ेंगी। कुल मिलाकर
मुझे सिर्फ़ सुशीला चाहिए... ।'
“वह अभी बहुत छोटी है।'
लेकिन वह खुश थी-इस बात से खुश थीं किउनका खून, उनकी अपनी
बेटी, एक आदमी के लिए इतना मायने रखती है।
“अभी इस बारे में किसी को मत बताइयेगा,' मैंने कहा।
'किसी को नहीं बताऊंगी,' वह मुस्करा कर बोलीं।
तो अब अपना राज़-अगर इसे राज़ कहा जाए, तो-कम से कम पांच
लोगों को पता था।
एक दर्द भरा गीत / 785
भीड़ भरी सड़क पर बस रेंग कर चल रही थी और हम शांत बैठे थे, हर
तरफ़ से लोगों की भीड़ में दबे जा रहे थे, लेकिन अपनी बातों की वजह से अपनी
अलग दुनिया में। ५
उनके लिए मेरे मन में अपनापन जागा-उस सीधी-सादी और सरल सी
अनपढ़ (वह कभी स्कूल नहीं गयीं और न ही पढ़-लिख पाती थीं) महिला के
लिए जिसके हालात कुछ और होते तो वह अब भी बिलकुल जवान और सलोनी
सी होती। मैंने उनसे पूछा कि बच्चा कब होना है।
*दो महीने और हैं,' वह बोलीं । फिर हँस दीं। ज़ाहिर है, एक जवान लड़के
का उनसे ऐसा सवाल पूछना उन्हें कुछ अटपटा और अजीब सा लगा था।
“जरूर ठीक-ठाक बच्चा होगा,” मैंने कहा ।और सोचा-इसे मिला कर छह
साले! ड श्र
मुझे नहीं लगता था कि मुझे तुम्हारे रवि चाचा (दिनेश के बड़े भाई) से बात
करने का मौका मिलेगा। लेकिन दिल्ली में अपनी आख़िरी शाम को करोल बाग
वाली सड़क पर सिर्फ़ मैं और वो साथ में थे। पहले हमने शादी के मामले में
उसकी अपनी सोच के बारे में बात की और फिर, उसे खुश करने के लिए
मैंने कहा कि जो लड़की उसने पसंद की है वह खूबसूरत भी है और समझदार
भी। ५
उसने मेरे लिए अपनापन महसूस किया।
अपना गला साफ़ करके मैंने बातों कासिलसिला आगे बढ़ाया-“रवि, तुम
मुझसे पांच साल छोटे हो और तुम्हारी शादी होने वाली है।'
हाँ औरअब आपको भी इस बारे में कुछ सोचना चाहिए ।'
वैसे मैंने पहले कभी इस बारे मेंसंजीदा होकर नहीं सोचा था-बल्कि समाज
में शादी की जो व्यवस्था है, मैंने हमेशा उसे ठुकराया-लेकिन अब मैंने अपनी
सोच बदली है। तुम्हें पता है मैंकिस से शादी करना चाहता हूँ?
मैं हैगान रह गया जब रवि ने बेझिझक आशा का नाम लिया, उसकी दूर
की चचेरी बहन जिससे मैं सिर्फ़ एक ही बार मिला- था। वह फिरोजपुर सेआयी
थी। उसके कूल्हे इतने बड़े-बड़े थे कि थोड़ी दूर से वह बहुत बड़ी सी नाशपाती
जैसी लगती थी।
786 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“नहीं, नहीं,” मैंने कहा । “आशा अच्छी लड़की है, लेकिन मैं उसके बारे में
नहीं सोच रहा था। मैं तो सुशीला जैसी लड़की से शादी करना चाहूँगा। खुलकर
बोलूं, रवि, मैं सुशीला से ही शादी करना चाहूँगा ।'
काफ़ी देर तक ख़ामोशी छायी रही तो मुझे लगा किआज सब ख़त्म हो
जाएगा। कारों, स्कूटरों और बसों की आवाज़ें जैसे कहीं पीछे हट कर धुंधली
पड़ गयीं। रवि और मैं मौन के खालीपन में एक साथ अकेले रह गये।
ये नाजुक घड़ियां ज़्यादा लंबी न खिंच जाएं, इसलिए कुछ लड़खड़ाते हुए
मैं उसी रास्ते चला। 'मुझे पता है किवह अभी छोटी है और मुझे कुछ समय
इंतज़ार करना पड़ेगा / (वही पुराने रटे-रटाये शब्द) "लेकिन अगर तुम्हें मंजूर हो,
परिवार राजी हो और सुशीला हाँ कहे, तो फिर, मैं समझता हूँ,उससे शादी करने
से अच्छा मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता |!
रवि कुछ सोचने लगा-अपना सिर खुजाया और फिर तो मन खुश हो गया
जब वह बोला-'क्यों नहीं? ख़याल नेक है।
लोगों और गाड़ियों कासारा शोर आया और मेरे अंदर ऐसा जोश भर
गया कि मैं सोचने लगा कि अगर मैं चाहूँ तोकिसी इमारत को या किसी बस
को अकेले ही आग लगा कर फूंक सकता हूँ।
“इससे तो तुम हमारे और क़रीब आ जाओगे,” रवि ने कहा। 'भई, हम
तो तुम्हें अपने परिवार से जोड़ना चाहेंगे। कम से कम मैं तो चाहता हूँ।'
“बस, यही तो सब कुछ है और किसी बात से फ़र्क नहीं पड़ता,' मैंने कहा ।
मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उसके लिए अच्छे से अच्छा करूं, रवि। उसे खुश
रखने के लिए मैं सब कुछ करूंगा ।
“वह बेहद सीधी-सरल है और उसमें कोई खोट नहीं है।
'मुझे पता है। इसीलिए तो मैं उसका इतना ध्यान रखता हूँ।'
"तुम्हारे लिए, मैं जोकर सकता हूँ,करूंगा। सत्रह साल की होते-होते उसकी
स्कूल की पढ़ाई पूरी हो जानी चाहिए। तुम उससे ज़्यादा बड़े हो इससे कोई फ़र्क
नहीं पड़ता। उम्र में बारह साल का फर्क आम बात है। इसलिए, फ़िक्र न करो।
थोड़ा सब्र करो, सारा इंतजाम कर दिया जायेगा ।
और इस तरह तीन मजबूत हाथ मेरे साथ हो गये थे-दिनेश, रवि और
तुम्हारी मां। बाक़ी बचीं तुम्हारी दादी। मेरी इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं ख़ुद
आगे बढ़कर उनसे बात करूं। वह सबसे बड़ी बाधा थीं क्योंकि वह परिवार की
एक दर्द भरा गीत / 787
मुखिया थीं और किसी की नहीं सुनती थीं। अकसर इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल
होता था कि वह कब क्या कर बैठेंगी। तुम्हारी मां सेउनकी नहीं पटती थी
और सिर्फ़ इसी वजह से मैं डरता था कि कहीं वह मेरे साथ तुम्हारी शादी की
बात का विरोध न करें। रवि और दिनेश के फ़ैसलों कोवह कितनी अहमियत
देती हैं, यह मुझे नहीं मालूम था। मुझे तो बस इतना पता था कि उनके फ़ैसलों
के आगे सब सिर झुका देते थे।
तुम्हारे लिए कितना मुश्किल था अपने रिश्तेदारों केबोझ से छुटकारा पाना!
वैसे तो सब के साथ तुम्हारी ठीक ही बनती थी, लेकिन क्योंकि आपस मेंकहा-सुनी
के बिना वह रह नहीं सकते थे, इसलिए इस संयुक्त परिवार नाम के खेल में
तुम बस एक मोहरा भर थीं।
पक
तुमने मेरा हाथ पकड़कर उसे अपनी गालों पर रखा, फिर छाती पर। मैंने तुम्हारी
बंद आँखों को चूम लिया और तुम्हारे चेहरे कोअपने हाथों में लिया। तुम्हारे
होंठों को अपने होंठों से छू लिया। अंधेरे बरामदे में यह हमारा ख़याली चुंबन
था। और इसके बाद, मदहोशी में, मैं लड़खड़ाकर सड़क पर जा पहुंचा और रात
भर गली-गली घूमता रहा।
मैं बांज केजंगल के ऊपर वाली चट्टानों पर बैठा था जब मैंने देखा कि
ऊपर से कोई जवान लड़का मेरी तरफ़ चला आ रहा था । उसके कदमों की सतर्कता
और हल्के कपड़ों से मैं समझ गया कि वह कोई अजनबी था। वह तकरीबन
मेरे ही क़द का, दुबला और कुछ लंबे से चेहरे वाला-और अगर सिर्फ़ नाक-नक्शे
की बात की जाए, तो देखने में ठीक-ठाक था। जब वह और पास आ गया,
तो मैं उसे पहचान गया, क्योंकि तुम्हिरे साथ उसकी एक तस्वीर मैंने देखी थी।
मेरे सपनों कानौजवान था वह-तुम्हारा चाहने वाला...मुझसे पहले वाला! डसे
देख कर मुझे कोई बहुत ताज्जुब नहीं हुआ। न जाने क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता
था कि एक दिन हम मिलेंगे।
मुझे उसका नाम याद आ गया और मैंने कहा, “कैसे हो प्रमोद?
वह कुछ सकपका सा गया। उसकी आँखें पहले से हीशक और गरम से
बोझिल थीं और उसमें जूझने का जज़्बा तो कहीं से नज़र नहीं आ रहा था।
तुम्हें मेरा नाम कैसे पता? उसने पूछा।
788 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
"तुम्हें कैसे पता कि मैं कहाँ मिल सकता हूँ? मैंने सवाल का जवाब सवाल
से दिया।
"तुम्हारे पड़ोसी कपूर साहब के यहाँ सेपता चला। जब तुम घर पहुंचते
तब तक मैं तुम्हारा इंतज़ार नहीं करसकता था। मुझे आज रात फिर नीचे जाना
है।!
“ठीक है, तो तुम मेरे साथ घर चलना चाहोगे, या यहीं बैठ कर बात करना
चाहोगे? मुझे यह तो पता है कि तुम कौन हो, लेकिन यह नहीं मालूम कि मुझसे
मिलने क्यों आये हो |
“यहाँ भी ठीक है,' वह बोला और बैठने से पहले घास पर अपना रुमाल
बिछा दिया। "तुम्हें मेरा नाम कैसे पता चला?
मैंने कुछ पल उसकी तरफ़ देखा और मैंसमझ गया कि वह अंदर से कमज़ोर
था-शायद मुझसे भी ज़्यादा कमज़ोर । मेरे साथ अच्छी बात यह भी थी कि उससे
बड़ा होने की वजह से मैं अपने अंदर की भावनाओं को बेहतर ढंग से छुपा सकता
था।
'सुशीला ने मुझे बताया, मैंने कहा।
“खैर, मुझे नहीं लगता था कि तुम्हें पता चल जाएगा।'
मैं थोड़ा हैशान तो हुआ, लेकिन बोला-म'मुझे तुम्हारे बारे में पता था,
बिलकुल । और जरूर तुम भी यह बात जानते थे, वरना तुम शायद ही यहाँ मुझसे
मिलने आते ।'
“तुम सुशीला और मेरे बारे में जानते हो न?” उसने पूछा। वह पहले से
भी ज़्यादा उलझन में नज़र आ रहा था।
'देखो, मैं इतना जानता हूँकि तुम उससे प्यार करते हो |
उसने अपना माथा पीट लिया। “हे भगवान, क्या और भी जानते हैंयह?
'मुझे नहीं लगता | मैंने जानबूझ कर सुनील का जिक्र नहीं किया।
उलझन में वह घास की एक-एक पत्ती नोच-नोच कर फेंकने लगा। “क्या
ख़ुद उसने तुम्हें बताया? उसने पूछा।
हो
“लड़कियां राज़ को राज़ नहीं रख पातीं। लेकिन एक तरह से अच्छा ही
हुआ जो उसने तुम्हें बताया। अब मुझे सब समझाना नहीं पड़ेगा। देखो, मैं यहाँ
तुम्हारी मदद लेने आया हूँ। मुझे पता है कि तुम उसके सगे रिश्तेदार नहीं हो,
एक दर्द भरा गीत / 789
लेकिन तुम उसके परिवार के बहुत नज़दीक हो । पिछले साल दिल्ली में वहअकसर
तुम्हारी बातें किया करती थी। कहती थी कि तुम बहुत अच्छे हो ॥'
इतनी बातों के बाद मुझे समझ में. आया कि प्रमोद को मेरे और तुम्हारे
रिश्ते के बारे में कुछ भी पता नहीं है, सिवाय इसके कि मैं तुम्हारे जितने “अंकल
थे, उनमें से तुम्हारा सबसे ज़्यादा हिंतैषी हूँ। उसे मालूम था कि तुमने अपनी
गर्मियों की छुट्टियां मेरे साथ बितायी थीं-और दिनेश और सुनील भी साथ थे।
और अब, यह जानने के बाद कि मैंपरिवार का नजदीकी हूँ,वह मेरा साथ चाहता
था-कुछ उसी तरह जैसे मैं लोगों सेमदद मांगता फिर रहा था!
'क्या तुम सुशीला से हाल में मिले हो?” मैंने पूछा।
“हाँ, दोदिन पहले, दिल्ली में। लेकिन अकेले में मैं बस कुछ मिनट के
लिए उसके साथ था। हम ज़्यादा बात भी नहीं करः पाये। देखिये अंकल-अगर
मैं भीआपको अंकल कहूँ तो आपको कोई एतराजशतो नहीं, अंकल? मैं उससे
शादी करना चाहता हूँ, लेकिन ऐसा कोई नहीं है जो मेरी तरफ़ से उसके घर
वालों से बात करे। मेरे माता-पिता ज़िंदा नहीं हैं। अगर मैं सीधे उसके परिवार
के पास जाता हूँ, तो हो न हो, मुझे उठाकर घर से बाहर फेंक दिया जाएगा।
इसलिए मैं चाहता हूँ किआप मेरी मदद करें। मैं अमीर नहीं हूँ, लेकिन जल्दी
ही मेरी नौकरी लगने वाली है और फिर मैं उसे सहारा दे पाऊंगा।
तुमने यह सब उसे बताया?!
हाँ ।
और उसने क्या कहा? '
“उसने कहा कि इस बारे में मुझे आप से बात करनी चाहिए ।
चालाक सुशीला! दुष्ट सुशीला!
'मुझसे ? मैंने दोहराया।
“हाँ, उसने कहा कि यह उसके घरवालों से बात करने से ज़्यादा अच्छा
रहेगा ।'
मेरी हँसी छूट गयी और एक लंबी पूंछ वाला नीलकंठ घबराकर तीखी चीख
के बाद कट-कट-कट-कट की रट लगाने लगा।
हँसो नहीं अंकल, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ.' प्रमोद बोला। उसने
मेरा हाथ पकड़ लिया और ऐसे देखने लगा जैसे सचमुच मुझे मना लेना
चाहता हो।
790 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“ठीक है, मज़ाक होना भी नहीं चाहिए,” मैंने कहा। उस पल मैं सोच
रहा था कि सुशीला कितनी चतुर है-या फिर बेहद भोली! तुम्हारी उम्र क्या
है, प्रमोद ?”
'तेइस साल ।'
'सिर्फ़ मुझसे सात साल छोटे। इसलिए, मेहरबानी करके मुझे अंकल मत
कहो। उससे मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं कोई इतिहास से भी पुरानी चीज हूँ।
तुम चाहो तो मेरा नाम ले सकते हो। और, यह बताओ, सुशीला से शादी कब
करना चाहते हो?!
“जितनी जल्दी हो सके। मुझे मालूम है कि मेरे लिए वह अभी बहुत छोटी
है।'
“बिलकुल नहीं, मैंने कहा ।“आये दिन कच्ची उम्र की लड़कियां अधेड़ लोगों
से शादी कर रही हैं। और तुम तो अभी ख़ुद भी छोटे ही हो। लेकिन वह अभी
शादी नहीं कर सकती, प्रमोद, यह मुझे पक्के तौर पर पता है।'
“इसी बात का तो मुझे डर था। मुझे लगता है पहले उसे स्कूल की पढ़ाई
पूरी करनी होगी ।'
“बिलकुल, यही बात है। लेकिन मुझे एक बात बताओ-यह तय है कि
तुम उसे चाहते हो और इसमें तुम्हारी कोई गलती भी नहीं है। सुशीला लड़की
ही ऐसी है जिसे हम में से कोई भी प्यार कर बैठता है! लेकिन यह तो बताओ
कि तुम्हें मालूम है कि वह भी तुम्हें प्यार करती है या नहीं? क्या उसने तुमसे
कभी कहा कि वह तुमसे शादी करना चाहती है?
“उसने तो नहीं कहा-मुझे नहीं पता... उसकी आँखें खोयी-खोयी सी रहती
थीं, ऐसा लगता था जैसे उसके दिल को ठेस लगी हो-और मेरा दिल पिघल
गया। लेकिन मैं उसे प्यार करता हूँ,इतना ही काफ़ी नहीं है?'
“इतना ही काफ़ी होता-बशर्ते वह किसी और के प्यार में न डूबी होती |
"ऐसा है क्या, अंकल?!
'साफ़ कहूँ, मुझे नहीं मालूम ।'
उसकी आँखों में चमक लौट आयी। “वह मुझे पसंद करती है,” वह बोला।
“इतना तो पता है।
देखो, मैं भी तुम्हें पसंद करता हूँ,लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि
मैं तुमसे शादी कर लूंगा।'
एक दर्द भरा गीत / 797
वह फिर मायूस हो गया। "मैं समझ रहा हूँआप कया कहना चाहते हैं
लेकिन प्यार क्या है, मैं कैसे पहचानूं?
यही तो वह एक सवाल हैजिसका जवाब मैंनहीं देसकता ।कैसे पहचानेंगे 2
रे
मैंने प्रमोद को रात को अपने पास ठहरने के लिए मना लिया। सूरज डूब गया
था और उसे कंपकंपी छूट रही थी। मैंने तापने केलिए आग जलायी, उस साल
सर्दी में पहली बार, बांज की टहनियों और कंटीली डालों से। फिर उसके साथ
बैठकर ब्रांडी पी।
प्रमोद के लिए मेरे मन में कोई चिढ़ या नाराजगी नहीं थी। उससे मिलने
से पहले, मुझे उससे जलन होती थी और जब मैंने. पहले-पहल उसे पगडंडी पर
अपनी तरफ़ आते देखा था, तब मुझे अपना सपना याद आ गया था, मैंने सोचा
था-'हो सकता है मैं इसे मार डालूं। या होसकता है कि यह मुझे मार डाले |
लेकिन मामला कुछ और ही निकला। अगर सपनों का कोई मतलब होता भी
होगा, तो वह हमारी सीमित समझदारी के छोटे से दायरे में नहीं सिमट सकते।
मैंने कल्पना की थी कि प्रमोद असभ्य सा, स्वार्थी और गैर-जिम्मेदार किस्म
का कॉलेज जाने वाला लड़का होगा जिसने लड़कियों को कभी जाना-समझा ही
नहीं होगा और उन्हें अजब-अनोखी दूसरी दुनिया के ऐसे प्राणी समझता होगा
जो इसलिए होते हैं कि मौका पाते ही उन्हें झपट लिया जाये और लूट लिया
जाये। ऐसे लोग होते हैं, लेकिन प्रेमोद ऐसा नहीं था। वह औरत जात के बारे
में ज्यादा नहीं जानता था और यही मेरा हाल था। वह सीधा सा, सलीके से
बात करने वाला लड़का था जिसका खुद पर से भरोसा डोल जाता था। इसलिए
मैं सोच में पड़ गया कि तुम्हारे लिए मेरे मन में क्या हैयह उसे बताऊं या न
बताऊं।
कुछ देर बाद वह अपने और तुम्हारे बारे में बातें करने लगा। उसने मुझे
बताया कि उसे तुमसे प्यार कैसे हुआ था। पहले वह दूसरी लड़की के क़रीब
था, जो तुम्हारे ही क्लास में पढ़ती थी लेकिन उससे एक-दो साल बड़ी थी। तुमने
उस लड़की के संदेश प्रमोद तक पहुंचाए थे। फिर उस लड़की ने उसे छोड़ दिया।
उसे उदासी ने घेर लिया और एक शाम उसने ख़ूब सारी सस्ती शराब पी ली।
वह सोच रहा था कि मर जाएगा, लेकिन मरने के बजाय वह रास्ता भूल गया
92 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
और तुम्हारे घरके पास आ गया जहाँ तुम उसे रास्ते में मिलीं। उसे इस बात
की जरूरत थी कि कोई उसे समझे और उस पर तरस खाये और तुमने उसकी
यह जरूरत पूरी कर दी। उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और तुमने पकड़ने दिया।
उसने तुम्हें बताया कि वह कितना निराश हो चुका था, तो तुमने उसे दिलासा
दी। जब उसने कहा कि यह दुनिया बड़ी ही जालिम है, तो तुमने कहा, सच
है। तुमने उसकी हाँ में हाँमिलायी-मर्द एक औरत से और चाहता ही क्या है?
उस समय तुम सिर्फ़ चौदह साल की थीं, लेकिन तुम्हें बाइस साल के आदमी
को दिलासा देने में कोई दिक्कत नहीं हुई। फिर उसे तुमसे प्यार हो गया तो
इसमें ताज्जुब क्या!
बाद में तुम लोग कभी-कभी रास्ते में हीमिलते और बात करते रहे। किसी
न किसी बहाने से वह एक-दो बार तुम्हारे घर भीआया और जब तुम पहाड़
पर आयीं, तो उसने तुम्हें चिट्ठी लिखी।
उसके पास मुझे बताने केलिए बस इतना ही था। और बताने के लिए
कुछ था भी नहीं। तुमने उसके दिल को छू लिया था। और जब छू ही लिया
था, फिर उसे अपनी गिरफ़्त में लेने में कोई मुश्किल नहीं था।
अगले सबेरे मैं प्रमोद को लेकर धारा पर गया। मैं उसे सब कुछ बता देना
चाहता था, लेकिन न जाने क्यों घर पर नहीं बता पाया था।
उस जगह ने उसका मन मोह लिया। हौले-हौले पानी बह रहा था और
उसके स्वर बड़े कोमल थे, जैसे हौले-हौले बहते पानी का संगीत ऐसा था जैसे
विलंबित लय में कोई राग पहाड़ी की ढलान पर चरती गायों के गले की घंटियां
और आसमान में ऊंचाई पर बिना पंख फड़फड़ाए उड़ता बाज।
मैंने नहीं सोचा था कि पानी इतना साफ़ भी हो सकता है,' प्रमोद ने कहा।
“यह मैदानी इलाकों की नदियों और धाराओं की तरह मटमैला नहीं है।'
“गर्मियों में यहाँ नहाया जा सकता है, मैंने बताया। “यहाँ सेआगे एक
* जगह यही धारा एक तालाब में बदल जाती है।
उसने कुछ सोचते हुए सिर हिलाया। 'वह भी यहाँ आयी थी”:
. हाँ, सुशीला, सुनील और मैं... हम दो-तीन बार यहाँ आये / मैरी आवाज़...
;॥ मंद पड़ती गयीं और मैंने प्रमोद कोऐन धारा के किनारे पर खड़े देखा। उसने
. मेरी तरफ़ नजर डाली तो हमारी आँखें मिलीं।
ै मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ,” मैंने कहा।
एक दर्द भरा गीत / 795
वह मुझे घूरता रहा और जैसे एक साया उसके चेहरे के पार दौड़ गया-शक,
डर, मौत, लगातार चलते रहने वाले समय का साया था वह या महज धूप-छांव
का खेल? लेकिन मुझे अपना सपना याद आ गया और मैंने अपने बढ़ते कदमों
को रोक लिया। एक पल के लिए हमने एक दूसरे को देखा तो ऐसा लगा जैसे
दोनों का एक दूसरे पर से पूरी तरह से भरोसा टूट चुका होऔर आगे न जाने
क्या होगा। फिर वह डर गुजर गया। हमारे बीच जो कुछ भी हुआ था, वह सच
था या सपना, लेकिन वह किसी और जन्म में हुआ था क्योंकि अब उसने आगे
बढ़कर मेरा हाथ अपने हाथों में लेलिया और फिर पकड़े रहा। जोर से पकड़ा,
जैसे उम्मीद कर रहा हो कि उसे ढाढ़स बंधाया जाये, जैसे उसे मुझमें अपना ही
दूसरा रूप दिखायी दे रहा हो। |
“चलो बैठते हैं,” मैंने कहा। “कुछ है जो तुम्हें बताना ही चाहिए ।'
हम घास पर बैठ गये और जब मैंने बांज की डालों केपीछे आसमान को
देखना चाहा, तो मुझे सब कुछ टेढ़ा सा, एक तरफ़ झुका-झुका सा लगा और
आसमान ने अपने गहरे नीलेपन से चौंकाया। पत्तियां अब हरी नहीं थीं, बल्कि
घाटियों की छांव में सब कुछ बैंगनी था। ये तुम्हारे रंग थे, सुशीला। मैंने तुम्हें
बैंगनी रंग पहने देखा था, मुझे याद है-सांवली मुस्कराती सुशीला, अपने ही ख़यालों
में खोयी, उन्हें किसी केसाथ साझा न करने की ठाने।
मैं भी सुशीला को प्यार करता हूँ. मैंने कहा।
'मुझे पता है.' उसने भोलेपन सेकहा। “इसीलिए तो मैं मदद के लिए तुम्हारे
पास आया था।
“नहीं, तुम्हें कुछ नहीं पता,” मैंने कहा। जब मैं कहता हूँकि मैं सुशीला
को प्यार करता हूँतो मेरा पूरी तरह से यही मतलब है। मेरा मतलब है कि उसके
बारे में मैं भीउसी तरह सोचता हूँजिस तरह तुम सोचते हो। मेरा मतलब है,
मैं उससे शादी करना चाहता हूँ।
तुम, अंकल?
हाँ। क्या तुम्हें धक्का लगा?
“नहीं, नहीं / उसने अपना चेहरा मेरी तरफ़ से हटा लिया और एक पुरानी
मटमैली सी चिकनी चट्टान को ताकने लगा। शायद् उसके वहीं डटे रहने से
कुछ प्रेरणा मिली होगी। “तुम उसे प्यार क्यों नहीं करसकते? शायद दिल ही
दिल में मुझे इस बात का एहसास था, लेकिन मैं इस पर विश्वास नहीं करना
794 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
चाहता था। शायद इसीलिए मैं यहाँ आया था-पता लगाने। वह बात जो सुनील
ने बतायी थी... लेकिन तुमने पहले क्यों नहीं बताया?”
क्योंकि तुम मुझे बता रहे थे!
हाँ, मैं अपने प्यार से ही इतना भरा हुआ था कि मैं सोच ही नहीं पाया
कि दूसरे का प्यार भी हो सकता है। अब हम कया करें? क्या दोनों इंतज़ार करें
और उसकी मर्जी पर छोड़ दें, किवह किसे चुनती है?
जैसा तुम चाहो।
"तुम्हारे लिए ज़्यादा आसान है, अंकल तुम्हारे पास देने के लिए ज़्यादा है।'
"तुम्हारा क्या मतलब है, ज़्यादा अच्छी ज़िंदगी, या ज्यादा प्यार? बहुत सारी
लड़कियां और औरतें प्यार को ज्यादा अहमियत देती हैं।'
“लेकिन सुशीला ऐसी नहीं है।
'सुशीला ऐसी नहीं है।
'मेरा मतलब है कि तुम उसे ज्यादा खुशनुमा जिंदगी दे सकते हो। तुम
लेखक हो। कौन जाने, तुम एक दिन मशहूर हो जाओ |
तुम्हारे पास जवानी है उसे भेंट करने के लिए, प्रमोद। मेरे पास जवानी
के सिर्फ़ कुछ साल बचे हैं-और उनमें से भी दो या तीन तो इंतजार में हीनिकल
जाएंगे |
“नहीं, नहीं.' वह बोला। तुम हमेशा जवान बने रहोगे। अगर तुम्हारे पास
सुशीला होगी, तो तुम हमेशा जवान बने रहोगे।'
एक बार फिर मुझे व्हिसलिंग थभ्रश की पुकार सुनाई दी। उसकी पुकार आरोह
की ओर बढ़ते मीठे स्वरों काएक सिलसिला था, जो घाटी में दूर तक गूंजता
' रहा। मुझे चिड़िया नहीं दिखाई दी, लेकिन उसकी पुकार जंगल में से मेरे पास
तक आ रही थी, किसी गहरे प्यारे सेराज की तरह और इस बार भी वह वही
बात दोहरा रहा था-
वह समय नहीं जो बीत रहा है
बीत रहे हैं हमऔर तुम।
सुनो। सुशीला, जो सबसे बुरा होसकता था वह हो गया है। रवि ने मुझे ख़त
में लिखा है किशादी नहीं होसकती-अब भी नहीं, अगले साल भी नहीं, कभी
एक दर्द भरा गीत / 795
नहीं। यह बात और है कि उसने बहुत सारे बहाने बनाये-तुम्हारी पढ़ाई पूरी
होनी चाहिए (उच्च शिक्षा) और हमारी उम्र मेंबहुत ज़्यादा अंतर है और तुम
एक या दो साल में अपना इरादा बदल सकती हो-लेकिन जो नहीं लिखा था,
उसका मतलब यह समझ में आया कि असल वजह तुम्हारी दादी हैं। वह नहीं
चाहतीं। उनकी बात पत्थर की लकीर है और सबसे बड़ी बात कोई भी उनके
खिलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं कर सकता।
लेकिन मैं भी इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं हूँ। मैं अपने मौके का
इंतजार करूंगा। जब तक मुझे पता है कि तुम मेरे साथ हो, मैं इंतज़ार करूंगा
अपना मौका आने का।
मेरी समझ में नहीं आता कि मुझमें ऐसा क्या है जिससे बुढ़िया को दिक्कत
है। क्या इतनी सी बात है कि वह दकियानूस है और पुरानी सोच को गांठ बांधे
है। उसने हमेशा जताया तो यह है कि वह मुझे पसंद करती है और यह मेरी
समझ से बाहर है कि मेरे लिए उसका रवैया सिर्फ़ इस बात से बदल जाए कि
मैं उसकी पड़पोती से शादी करना चाहता हूँ। तुम्हारी मां कोकोई एतराज नहीं
है, शायद इसलिए भी तुम्हारी दादी एतराज़ करती हैं।
वजह जो भी हो, मैं यह पता लगाने के लिए दिल्ली आ रहा हूँ कि इस
मामले में क्या हो सकता है।
बेशक, सबसे बुरा तो यह हुआ है कि रवि ने दोस्ताना निभाते हुए गोलमाल
वाले अंदाज में मुझसे कह दिया है कि मैं कुछ वक्त तुम्हारे घघ न आऊं। उसका
कहना है कि इससे हमारे रिश्ते कोठंडा होने और अपने आप ख़त्म हो जाने
का मौक़ा मिलेगा। जबकि मैं इसे घिनौनी मौत कहूँगा। इसमें कोई शक नहीं
कि रवि सोचता हैकि मैं बुढ़िया दादी के फ़ैसले को मान .लूंगा और तुम्हें पूरी
तरह से भूल जाऊंगा। रवि को अभी किसी से प्यार नहीं हुआ है।
दिनेश लखनऊ गया हुआ था। मैं घर नहीं जा पाया। इसलिए मैं तालकटोरा
गार्डन में एक बेंच पर बैठ गया और बच्चों के एक दल को गुल्ली डंडा खेलते
हुए देखता रहा। फिर मुझे याद आया कि सुनील के स्कूल की छुट्टी तीन बजे
हो जाती थी और अगर मैं जल्दी करूं तो मैं उससे सेंट कोलंबस के फाटक पर
मिल सकता था।
796 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं समय से स्कूल पहुंच गया। स्कूल के कंपाउंड से लड़के बाहर निकलते
ही चले आ रहे थे और क्योंकि वे सभी हरी वर्दियां पहने हुए थे-जैसे छोटे-छोटे
पेड़ों वाला कोई जंगल चलता जा रहा है-तो मैंने सुनील को ढूंढ निकालने की
सारी उम्मीद छोड़ दी। लेकिन उसने पहले मुझे देख लिया। उसने दौड़ कर सड़क
पार की। एक साइकिल वाले से भिड़ते-भिड़ते बचा और मेरी कमर पर लिपट
गया।
“आपको देख कर इतना अच्छा लग रहा है, अंकल!
मैं तो तुमसे मिलने ही आया हूँ, सुनील?
आप सुशीला से मिलना चाहते हो?
हाँ, लेकिन तुमसे भी। मैं तुम्हारे घरनहीं चलसकता सुनील । शायद तुम्हें
पता होगा। तुम्हें घरकितने बजे पहुंचना होता है?!
क़रीब चार बजे। अगर मुझे देर हो गयी, तो मैं कह दूंगा कि बस में इतनी
ज्यादा भीड़ थी कि मैं उसमें चढ़ नहीं सका |
“इससे हमें एक दो घंटे मिल जाएंगे। चलो प्रदर्शनी मैदान में चलते हैं।
चलना चाहोगे न?
“ठीक है, मैंने अभी तक प्रदर्शनी देखी भी नहीं है।'
मथुरा रोड पर प्रदर्शनी मैदान तक के लिए ऑटो रिक्शा लिया। वहाँ कोई
औद्योगिक प्रदर्शनी लगी थी जिसमें स्कूल में पढ़ने वाले लड़के और प्यार के मारे
लेखक के मतलब का कुछ भी नहीं था। लेकिन एक कृत्रिम झील के किनारे
कैफ़े मिल गया । हम वहीं बाहर धूप में बैठ गये |हमने हॉटडॉग खाया और कोल्ड
कॉफ़ी पी।
सुनील, तुम मेरी मदद करोगे ।'
“आप जो कहो, अंकल |
'मुझे नहीं लगता कि इस बार मैं सुशीला से मिल पाऊंगा। मैं नहीं चाहता
कि उसके घर या स्कूल के आसपास किसी आवारा लड़के की तरह मंडराता
रहूँ। लड़कों के स्कूल के बाहर किसी का इंतज़ार करना तो ठीक है, लेकिन
कन्यादेवी पाठशाला या जहाँ भी वह पढ़ रही है, उसके आसपास घूमना अच्छा
नहीं है। हो सकता है, उसके परिवार वाले हमारे बारे में अपनी सोच बदल लें।
जो भी हो, अब जो चीज़ सबसे ज़्यादा मायने रखती है, वह है सुशीला का
रवैया ।उससे यही पूछो सुनील। उससे पूछो कि क्या वह चाहती है कि मैं उसके
एक दर्द भरा गीत / 797
अट्ठारह साल के होने तक इंतज़ार करूं। वह जो चाहे, वह करने के लिए आजाद
होगी, यहाँ तक कि तब वह मेरे साथ भाग भी सकती है-अगर ज़रूरी हो तो-यानी
अगर वह सचमुच ऐसा करना चाहती हो, तो। मैं दो साल इंतज़ार करने को
तैयार था। मैं तीन साल ठहरने के लिए भी राजी हूँ। लेकिन इसमें तभी फ़ायदा
है जब मुझे पता हो कि वह भी इंतज़ार कर रही है। तुम उससे यह पूछोगे,
सुनील?!
हाँ, मैं पूछ लूंगा।
“आज रात पूछ लेना। फिर कल हम दोबारा मिलेंगे तुम्हारे स्कूल के बाहर ।
अगले दिन हम कुछ देर के लिए मिले। ज़्यादा समय नहीं था। सुनील को घर
जल्दी पहुंचना था और मुझे दिल्ली से जाने के लिएरात वाली ट्रेन पकड़नी थी।
हम पीपल के पेड़ की गहरी छाया में खड़े थे और मैंने पूछा, क्या कहा उसने?”
“उसने इंतज़ार करने के लिए कहा ।'
“ठीक है, मैं इंतजार करूंगा ।'
“लेकिन जब वह अट्ठारह की होगी, तब अगर उसका मन बदल गया,
तो? तुम जानते हो न कि लड़कियां कैसी होती हैं!
'तुम शक्ककी आदमी हो सुनील ।
“इसका मतलब तुम ज़िंदगी के बारे में कुछ ज़्यादा हीजानते हो। लेकिन
यह तो बताओ कि तुम्हें क्यों लगता है किउसका मन बदल सकता है।
“उसका दोस्त ।॥
प्रमोद, अरे वह उसे घास भी नहीं डालती। बेचारा !
प्रमोद नहीं। दूसरा वाला ।॥
“दूसरा! तुम्हारा मतलब है एक और नया?
“नया, सुनील बोला। “बैंक में अफ़सर है। उसके पास कार है।
अरे,' निराश होकर मैं बोला। “मैं कार से मुक़ाबला नहीं कर सकता ।'
“नहीं, सुनील बोला। “कोई बात नही, अंकल। आपके पास मैं तो अब
- भी हूँ...दोस्ती केलिए। क्या आप यह भूल गये थे?
'मैं करीब-करीब भूल ही गया था, लेकिन अच्छा किया याद दिला दिया |
अब जाने का समय हो गया है,' उसने कहा। “आज तो बस से ही जाना
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पड़ेगा। आप फिर से दिल्ली कब आओगे?'
“अगले महीने ।अगले साल । कौन जाने? लेकिन मैं आऊंगा। अपना ध्यान
रखना, मेरे दोस्त |
वह दौड़ कर गया और लपक के चलती हुई बस के पायदान पर चढ़ गया।
वह तब तक हाथ हिलाता रहा जब तक बस सड़क के मोड़ पर मुड़ नहीं गयी।
पीपल के पेड़ के नीचे अकेलापन महसूस होने लगा। कहा जाता है कि
पीपल के पेड़ में सिर्फ़ भूत रहते हैं। मैं उन्हें कोई दोष नहीं देता-क्योंकि पीपल
के पेड़ों में ठंठक होती है, छाया होती हैऔर वह सन्नाटे से भी भरे होते हैं।
हो सकता है मेरे मन में तुम्हारे लिये प्यार न रहे सुशीला, लेकिन उन दिनों
से मेरा लगाव कभी कम नहीं हो सकता जिन दिनों मैंने तुम्हें प्यार किया था।
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हैअर!हे १इल्-ऑक
838 ऊत ,20# 88
शक आह 5 हक पुल
रस्किन बॉन्ड की चर्चित पुस्तकें
रूम ऑन द रूफ
वे आवारा दिन
उड़ान
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