Nāiṭa Trena Eṭa Deolī - Bond, Ruskin, Author Māthura, R̥shi, Translator - 2015 - Dillī - Rājapāla - 9789350642610 - Anna's Archive

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रस्किन बॉन्ड

पल |
ण्ट देओत्यी
]993 में 'साहित्य अकादमी'
पुरस्कार, 999 में 'पदेमश्री' और
204 में “पद्मभूषण” से
जगत है
न्डि पक
पके क री!

उपन्यास, कहानी, निबंध-सभी


विधाओं में लिखने वाले रस्किन
बॉन्ड कीअब तक तीस से अधिक
पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पुस्तकों और पहाड़ों सेउनको
विशेष लगाव है। बचपन में
उनकी आदत थी उनको जो
पुस्तक मिल जाती उसे पढ़
डालते। पिछले कई दशकों से वे
मसूरी मेंरहते हैं औरउनकी प्रायः
सभी कहानियाँ पहाड़ों की
पृष्ठभूमि पर लिखी हुईहैं।
४9५७॥७॥ 2७0॥6 [0/465
॥॥8|0।6 [.0/389५
40490 ॥((6४॥४ 3806९
॥॥9|0।6, 0॥4 [68 463
द कही व १0६

||
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| ]॥!

3 3288 090579725

80709, रिफप्रछाता
चिता ॥छ&ाव शव 060॥
नाइट ट्रेन
ऐट देक्षील्ी
नाइट ट्रेन
ऐट देओली

रस्किन बॉन्ड

“ जजपानलन
अनुवाद
ऋषि 'माथुर

3942-20॥2

वर्षों की
श्रेष्ठ प्रकाशन परम्परा

राजधातन
हे
₹ 425

॥$8[प : 978-93-5064-26-0
प्रथम संस्करण : 205 8 रस्किन बॉन्ड
€6 हिन्दी अनुवाद : राजपाल एण्ड सनन्‍्ज
पाठ वर७ाए #' 9080, (50768) ७५ शिएष्ता 800
(मा एथ्ाडभांणा ण 7॥6 शाहञप्र उबांश 4/ 7९07 & 0#80/ $/0725
एप)॥॥8॥6१ जा साहा ७५ एशाएणा। 80005 पर09)
मुद्रक : जी. एच. प्रिंटर्स, दिल्ली

राजपाल एण्ड सन्ज़


590, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट-दिल्ली-0006
फोनः 0] -2386982, 23865483, फैक्स: 0-2886779]
७०५6 : एएएज-भुं0भएप॥5972.007
€्ना॥भा : 5865 8शुं0१एप७०॥9ा॥॥7.007
क्रम

नाइट ट्रेन ऐट देओली


पतंगवाला 3
मंदार का पेड़ 8
पड़ोसी की बीवी 22
चाची का अंतिम संस्कार 2
चोर! चोर! 3]
पहले जैसा मान 38
फूलों कीआस 44
आँखों ही आँखों में... 52
बैंक का निकाला दिवाला 00
सीता और नदी 63
इंस्पेक्टर लाल की जांच-पड़ताल 07
एक परिचित की मौत ]5
पिता के फलते-फूलते पेड़ 433
बचपन के वो दिन 45
मधु की गति न्यारी 57
एक दर्द भरा गीत 62
नाइट ट्रेन ऐट देओली

जः मैं कॉलेज में था, तब गर्मी की छुट्टियां बिताने केलिए अपनी दादी
के पास देहरा (देहरादून) चला जाता था। मैं मई में ही पहाड़ों केकरीब
चला जाता था और जुलाई के आख़िर तक वहीं रहता था। देहरा सेकरीब तीस
मील दूर एक छोटा सा स्टेशन पड़ता था देओली। उस स्टेशन से भारत के तराई
वाले घने जंगल शुरू होते थे। गाड़ी सुबह के करीब पांच बजे देओली के स्टेशन
पर पहुंचती थी, जब स्टेशन पर बिजली के बल्ब और तेल के लैम्प की मंदी रोशनी
रहती थी। सुबह के झुटपुटे की हल्की रोशनी में स्टेशन के पार का जंगल कुछ-कुछ
नजर आता था। देओली के स्टेशन का एक ही प्लेटफ़ॉर्म थाऔर उसी पर स्टेशन
मास्टर का दफ़्तर और वेटिंग रूम भी था। प्लैटफ़ॉर्म परएक चाय की दुकान
के अलावा, एक फल वाला और कुछ आवारा कुत्तों केअलावा ज़्यादा कुछ नहीं
था, क्‍योंकि जंगल की तरफ़ अपना सफ़र जारी रखने से पहले गाड़ी वहाँ दस
मिनट रुकती थी।
लेकिन वहाँ गाड़ी रुकती क्‍यों थी, यह मुझे नहीं समझ में आता था। वहाँ
कुछ भी नहीं होता था-न तो वहाँ से कोई गाड़ी में चढ़ता था और न ही वहाँ
कोई उतरता था। प्लेटफ़ॉर्म पर न कुली होते थे। लेकिन गाड़ी वहाँ पूरेदस मिनट
रुकती थी। फिर घंटा बजता था, गार्ड सीटी देता थाऔर फिर देओली पीछे
छूट जाता था-बिसर जाता था।
मैं सोचा करता था कि स्टेशन की दीवारों के पार देओली में क्या-क्या
होता होगा। मुझे उस इकलौते प्लेटफ़ॉर्म परतरस आता था, उस जगह जहाँ कोई
नाइट ट्रेन ऐट देओली /
आना नहीं चाहता था। तब एक दिन मैंने तय किया कि मैंइस स्टेशन पर उतरूंगा
और यहाँ पूरा दिन बिताऊंगा, सिर्फ़ इस शहर की ख़ातिर।
तब मैं अट्ठारह साल का था, जब अपनी दादी के पास जा रहा था और
गाड़ी अंधेरे में देओली पर रुकी। एक लड़की प्लेटफ़ॉर्म पर टोकरियां बेचती हुई
आयी। तब तक उजाला नहीं हुआ था और ख़ूब सर्दी थी। लड़की ने कंधों पर
एक शॉल डाल रखा था। वह नंगे पैर थी और उसके कपड़े भी पुराने थे, लेकिन
वह छोटी सी उम्र की लड़की बड़ों जैसी सधी चाल से चल रही थी। मेरी खिड़की
पर आकर वह ठहर गयी। उसने देखा कि मैं उसी को ध्यान से देख रहा हूँ,
लेकिन पहले उसने अनजान बनने की कोशिश की । उसके काले बालों और काली
उलझन भरी आँखों के साथ उसकी रंगत और भी गोरी लग रही थी। और फिर
उसकी आँखें, खोई-खोई और बोलती सी आँखें, मेरी आँखों से टकराईं।
वह मेरी खिड़की पर कुछ देर यूं ही खड़ी रही, लेकिन हम दोनों में से
कोई कुछ नहीं बोला। जब वह' वहाँ से आगे बढ़ गयी, तब मैं अपनी सीट
पर बैठा नहीं रहा सका और उठकर डिब्बे के दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ा और
स्टेशन पर उतरकर दूसरी ओर देखने लगा। मैं चाय की दुकान तक गया। एक
छोटी सी भट्टी पर केतली में उबाल आ रहे थे, लेकिन दुकानवाला गाड़ी में
किसी सवारी को चाय पहुंचाने गया था। लड़की दुकान तक मेरे पीछे-पीछे आ
गयी थी।
“टोकरी लोगे? वह बोली,' “बड़ी मजबूत हैं ये, बढ़िया बेंत की बनी हैं?”
“नहीं, मुझे टोकरी नहीं चाहिए ।
हम एक-दूसरे को ताकते रहे, जैसे युगों से ऐसे ही देख रहे हों।
वह फिर बोली-'क्या तुम्हें वाकई टोकरी नहीं चाहिए?
चलो, एक दे दो / मैंने कहा और ऊपर से ही एक टोकरी लेकर एक
रुपया उसके हाथ में थमा दिया, लेकिन बचते-बचते भी उसकी उंगलियां मेरे हाथ
से छू गयीं।
वह कुछ बोलने ही वाली थी, कि गार्ड नेसीटी बजा दी। उसने कुछ कहा
भी, लेकिन उसकी बात घंटे और इंजन की सीटी के आगे दब गयी। मुझे भी
अपने वाले डिब्बे कीओर दौड़ना पड़ा। डिब्बे घड़घड़ाये औरआगे को चल पड़े।
प्लेटफ़ॉर्म पीछे छूट रहा था और मैंलगातार उसे देखे जा रहा था। प्लेटफ़ॉर्म
पर वह अकेली खड़ी, अपनी जगह पर खड़े-खड़े मुझे देखकर मुस्करा रही थी।
8 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं उसे सिग्नल बॉक्स की आड़ में आने तक देखता रहा और फिर गाड़ी
जंगल में जा पहुंची।
आगे के बाकी सफ़र में जागता रहा, बैठा रहा। उस लड़की का चेहरा और
उसकी चमकीली काली आँखें मेरे जेहन से नहीं हट रही थीं। लेकिन जब मैं देहरा
पहुंच गया, तब कहीं उस मुलाक़ात की बात धुंधली पड़ी, क्योंकि अब दूसरी
तमाम बातें दिमाग पर हावी हो गयीं।
दो महीने बाद जब मैं वापस लौट रहा था, तब उस लड़की का फिर ख़याल
आया। जब गाड़ी स्टेशन पर पहुंची तो रुकने के पहले से ही मेरी नज़रें उसे
तलाश रही थीं और जब मैंने उसे प्लेटफ़ॉर्म पर चलते देखा तो मेरे मन में एक
ऐसी तरंग दौड़ गयी, जिसके बारे में मैंने पहले सोचा भी नहीं था। मैं पायदान
से प्लेटफ़ॉर्म परकूद गया और उसे देखकर हाथ हिलाया।
उसने मुझे देखा तो मुस्करा दी। उसे इस बात की खुशी थी कि मैं उसे
भूला नहीं था और मैं भी खुश था कि वह मुझे भूली नहीं थी। हम दोनों ऐसे
खुश थे जैसे पुराने दोस्त फिर से मिले हों। वह मुसाफ़िरों कोअपनी टोकरियां
बेचने केलिए गाड़ी कीओर जाने के बजाय चाय की दुकान पर ठहर गयी।
उसकी काली आँखों में अचानक चमक आ गयी थी। हम दोंनों ही कुछ देर तक
कुछ भी नहीं बोले, लेकिन इस दौरान हमारे बीच बहुत सारी बातें हो गयीं। मेरे
मन ने जोर मारा कि अभी इसी वकूत इसे गाड़ी में चढ़ा दूं औरअपने साथ
ले जाऊं। मुझे यह बात गवारा नहीं थी कि मैंइसे यहीं देओली स्टेशन पर खड़े-खड़े
देखता गाड़ी के साथ चला जाऊंगा।
मैंने उसके हाथ से सारी टोकरियां लीं और ज़मीन पर रख दीं। उसने उनमें
' से एक को उठाने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन इससे पहले कि वह टोकरी उठाती,
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
'मुझे दिल्ली जाना है मैंने कहा।
“लेकिन मुझे कहीं नहीं जाना,' न में सिर हिलाते हुए वह बोली।
तभी गार्ड ने गाड़ी कोचलने के लिए सीटी दे दी और मैं ही जानता हूँ
कि इस बात पर मुझे गार्ड पर कितना गुस्सा आया।
मैं फिर आऊंगा,' मैंने कहा। 'तुम यहीं रहोगी न?”
उसने सिर हिलाकर हामी भरी और तभी गाड़ी चल पड़ी। मुझे झटके से
उसका हाथ छोड़कर गाड़ी पकड़ने के लिए दौड़ना पड़ा।
नाइट ट्रेन ऐट देओली / 9
इस बार"मैं उसे नहीं भूला। बाकी के सारे सफ़र में वह मेरे साथ रही
और उसके बाद भी काफ़ी समय तक। उस पूरे साल वह मेरे अंदर जीती-जागती
रही। और जब कॉलेज बंद हुआ तो मैंने फटाफट सारा सामान समेटा और पहले
के मुकाबले कुछ ज़्यादा ही जल्दी देहरा का रुख़ किया। उसे देखने की मेरी इस
ललक से सबसे ज़्यादा ख़ुशी मेरी दादी के हिस्से में जाती।
जब गाड़ी देओली के क़रीब पहुंचने वाली थी, तब मेरी बेचेनी और घबराहट
बढ़ गयी थी, क्‍योंकि मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे उस लड़की से क्‍या
कहना चाहिए और क्या करना चाहिए। मैंने तय कर रखा था कि उसके सामने
चुपचाप बेबस सा खड़ा न रहकर अपनी भावनाओं की ख़ातिर जरूर कुछ करूंगा।
गाड़ी देओली पहुंची तो मैंने पूरेप्लेटफ़ॉर्म पर इधर से उधर निगाह दौड़ायी,
लेकिन वह लड़की मुझे कहीं नज़र नहीं आयी। मैंने दरवाज़ा खोला और पायदान
से नीचे उतर गया। मेरे दिल को गहरा धक्का लगा था और पहले से ही ऐसा
लग रहा था जैसे कुछ बहुत बुरा होने वाला हो। मैंने सोचा कि मुझे कुछ तो
जरूर करना होगा और दौड़कर स्टेशन मास्टर के पास गया और पूछा-'क्या आप
उस लड़की को जानते हैं, जो यहाँ टोकरी बेचा करती थी?
नहीं,' स्टेशन मास्टर ने कहा, 'मुझे नहीं मालूम और अच्छा होगा कि तुम
गाड़ी पर चढ़ जाओ, वरना यहीं छूट जाओगे।
लेकिन मैं तेज़ी से प्लेटफ़ॉर्म केएक सिरे से दूसरे सिरे तक गया और वहाँ
लोहे की बाड़ के पार दूर तक देखता रहा। मुझे बस जंगल की तरफ़ जाती एक
सड़क और एक आम का पेड़ दिखा। सड़क कहाँ तक जाती होगी? इस बीच
गाड़ी चल दी थी और मुझे प्लेटफ़ॉर्म पर दौड़ कर अपने डिब्बे के दरवाज़े में
छलांग लगानी पड़ी। फिर जब गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली और जंगल से होकर
तेजी से आगे बढ़ने लगी, तब मैं खिड़की पर बैठकर सोच में डूब गया।
उसे ढूंढने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ, जिस लड़की को मैंने सिर्फ़ दो
बार ही देखा है, जिसने मुझसे शायद ही कुछ कहा हो और जिसके बारे में मुझे
कुछ पता न हो-कुछ भी नहीं-लेकिन जिसके लिए मेरे मन में एक लगाव पैदा
हुआ और ऐसी ज़िम्मेदारी महसूस की जैसी पहले कभी नहीं की थी।
लेकिन दादी को मेरा आना अच्छा नहीं लगा क्योंकि मैं उनके यहाँ दो हफ़्ते
से ज़्यादा नहीं रुका। मैं बहुत बेचेनी औरउलझन महसूस कर रहा था। इसलिए
मैंने वापस जाने के लिए गाड़ी पकड़ी और मन ही मन में तय किया कि स्टेशन
मास्टर से ठीक से पूछताछ करूंगा।

0 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


लेकिन देओली के स्टेशन पर नया स्टेशन मास्टर आ गया था। पिछले
३.

वाले का पिछले हफ़्ते केदौरन ही किसी और जगह तबादला हो गया था।


नये वाले को टोकरी बेचने वाली लड़की के बारे में कुछ भी नहीं पता था।
चाय की दुकान चलाने वाला मिला-चमकीले कपड़ों में वह छोटा सा, सिकुड़ा
सा आदमी-उससे मैंने पड़ताल की कि क्‍या वह टोकरी बेचने वाली लड़की के
बारे में कुछ जानता है।
हाँ, ऐसी एक लड़की थी तो यहाँ, मुझे अच्छी तरह याद है, वह बोला,
लेकिन अब उसने आना बंद कर दिया है।'
क्यों? मैंने पूछा, 'क्या हुआ उसे?
'मुझे क्या पता? वह बोला, “वह मेरी तो कुछ लगती नहीं थी?
और एक बार फिर मुझे दौड़ कर गाड़ी पकड़नी पड़ी।
जैसे ही देओली का प्लेटफ़ॉर्म पीछे छूटा मैंने तयकिया कि एक दिन मैं
गाड़ी से वहीं उतर जाऊंगा और पूरा दिन शहर के लोगों से पूछताछ करके उस
लड़की का पता करूंगा जो कुछ किये बिना सिर्फ़ अपनी काली-काली उतावली
आँखों की एक नजर से मेरा दिल चुरा कर ले गयी।
इसी बात से खुद को दिलासा देते हुए मैंने किसी तरह कॉलेज में अपनी
आखिरी छमाही बितायी। गर्मियों मेंमैं फ़िर देह गया और जब रात वाली
गाड़ी बड़े सवेरे उजाला होने से पहले देओली पहुंची तो मैंने लड़की की तलाश
में पूरे प्लेटफ़ॉर्म पर इधर से उधर नजरें दौड़ाई, जबकि मुझे पता था कि वह
मुझे नहीं मिलेगी, लेकिन कहीं न कहीं एक उम्मीद भी थी उसके मिलने की।
जो भी हो, मैं इस सफ़र में एक दिन देओली रुकने के लिए ख़ुद को तैयार
नहीं कर पाया। अगर यह कोई मनगढ़ंत कहानी या फ़िल्म होती तो मैं पूरे रहस्य
को सुलझाने और इसकी तह तक जाने के लिए ज़रूर वहाँ ठहरता और इस माजरे
को वाजिब अंजाम तक पहुंचाता। लेकिन मुझे लगता है कि मैं ऐसा करने से
डर गया था। मुझे यह पता लगाने में डरलग रहा था कि उस लड़की के साथ
क्या हुआ होगा। हो सकता है वह अब देओली में ही न हो, होसकता है कि
उसकी शादी हो गयी हो, हो सकता है वह बीमार पड़ गयी हो
पिछले कुछ सालों के दौरान मैं कई बार देओली से होकर गुज़रा और हर
बार मैं खिड़की के बाहर ज़रूर देखता था, कहीं न कहीं कुछ उम्मीद बची थी,
वही चेहरा दिखाई देने की-मुझे देखकर मुस्कराता चेहरा।
नाइट ट्रेन ऐट देओली / ॥7
मैं अब- भी सोचता हूँकि देओली के स्टेशन की दीवार के पार क्या चल
रहा होगा, लेकिन मैं अपना सफ़र जारी रखूंगा, वहाँ ठहरूंगा नहीं। अगर मैंलड़की
की तलाश में वहाँ उतरा तो सारा खेल ही बिगड़ जाएगा। मुझे उम्मीद करते
रहना, सपने देखते रहना और उस सुनसान प्लेटफ़ॉर्म से गुजरते हुए खिड़की के
बाहर उस टोकरी वाली लड़की को अपनी नजरों से तलाशना और उसका इंतज़ार
करना ही बेहतर लगता है।
देओली से आगे मेरा सफ़र जारी रहता है। वह मेरी मंजिल नहीं। वहाँ
कभी ठहरता नहीं | लेकिन जितना हो सकता है, देओली होकर आता-जाता रहता
हूँ।

72 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


पतंगवाला

गए राम नाथ में एक ही पेड़ है-एक पुराना बरगद, जो खंडहर हो चुकी


मसजिद की दीवार की दरार में पनपकर बड़ा हुआ था-और नन्‍हें से अली
की पतंग उसकी शाख में फंस गयी। सिर्फ़ फटी सी कमीज पहने लड़का नंगे
पैर पतली गली के खड़ंजे पर दौड़ता हुआ पिछवाड़े वाले आँगन जा पहुँचा जहाँ
उसके दादा धूप में बैठे ऊंघ रहे थे।
दादा जान,' लड़के ने ज़ोर से पुकारा। 'मेरी पतंग चली गयी।'
बुजुर्गवार ऐसे चौंक कर जागे जैसे उनका सपना टूटा होऔर सिर उठाया,
जिससे उनकी दाढ़ी नज़र आने लगी, जो सफ़ेद होती अगर उन्होंने उसपर मेंहदी
न लगा रखी होती।
'डोर टूट गयी क्या? वह बोले। “अब वैसा मंझा कहाँ बनता है जैसा पहले
' बना करता था।
“नहीं दादा जान, पतंग बरगद के पेड़ में फँस गयी।'
बुजुर्गवार ने दबी सी हँसी हँस दी। “अभी तुमने ठीक से पतंग उड़ाना नहीं
सीखा है, मेरे बच्चे। और मुश्किल यह है कि मैं इतना बूढ़ा हो चुका हूँकि तुम्हें
पतंग उड़ाना नहीं सिखा सकता। लेकिन तुम्हें कोई न कोई तो मिल ही जाएगा
सिखाने वाला!!
उसने अभी-अभी बांस की पतली सी खपच्ची, कागज और रेशम के धागे
से पतंग तैयार करके धूप में सूखने को रखी थी। हल्के गुलाबी रंग की पतंग
थी वह और उसकी पूंछ हरी थी। दादा ने पतंग अपने पोते अली को थमा दी
और उसने उचक कर अपने दादा के गड़ढे में घुसे गाल चूम लिये।
पतंगवाला / ॥5
मैं इसे हाथ से नहीं जाने दूंगा, उसने कहा। “यह पतंग चिड़िया की तरह
उड़ेगी / और कुलांचे भरता हुआ आंगन से नदारद हो गया।
बुजुर्गवार धूप में बैठे ऊंघते हुए फिर अपनी नींद आप सपनों की दुनिया
में खोगये। उनकी पतंग की दुकान कब की बंद हो चुकी थी। जहाँ दुकान थी.
वह जगह बहुत पहले ही कबाड़ी को बेच दी गयी थी। लेकिन उन्होंने अब भी
पतंग बनाना बंद नहीं किया था-अपने पोते की ख़ातिर, अपना मन लगाये रखने
की ख़ातिर। अब बड़े पतंगों को पसंद नहीं करते और बच्चे अपने पैसे सिनेमा
देखने के लिए ख़र्च करते हैं। इसके अलावा, अब खुली-खुली जगह भी तो नहीं बची
हैंजहाँ सेपतंग उड़ायी जा सके। पुराने किले की दीवार से लेकर दरिया के किनारे
तक जिस इलाके में घास उगा करती थी, वह सारी जगह शहर निगल गया है।
लेकिन बुजुर्ग कोवह जमाना याद हैजब बच्चे ही नहीं बड़े भी पतंग उड़ाया
करते थे। ये पतंगबाज ख़ूब पेंच लड़ाया करते थे और उनकी पतंगें आसमान
में अठखेलियां किया करती थीं।-एक दूसरे के साथ पैंतरेबाजी होती थीऔर तब
तक एक दूसरे से उलझती रहती थीं, जब तक कि दोनों में सेएक कट कर
हवा के साथ कहीं दूर नहीं चली जाती थी। अकसर लोग दांव भी लगाते थे
और हारने पर जीतने वाले को तय रक़म भी दी जाती थी।
पतंगबाजी उस ज़माने में शाही शौक हुआ करता था। बुजुर्ग कोयाद आ
गया कि किस तरह नवाब साहब अपने अमले के साथ खुद नदी के किनारे आ
जाया करते थे अपना शाही शौक़ पूरा करने। तब लोगों के पास फ़ुरसत हुआ
करती थी, हवा में नाचती-बलखाती कागज की शोख़ पुतली के साथ वक्त बिताने
के लिए। अब हर कोई हड़बड़ी में है, कुछ पा लेने की उम्मीद में, जिसके चलते
पतंग और सपने जैसी चीजें तो पैरों तले रौंद दी गयी हैं।
वह, यानी महमूद पतंगवाला, अपनी जवानी के दिनों में सारे शहर में जाना
जाता था। ख़ासतौर पर बनायी गयी उसकी कुछ पतंगें तीन-तीन चार-चार रुपये
तक की बिकती थीं।
एक बार, नवाब साहब के कहने पर उसने बड़ी ख़ास किस्म की पतंग
बनायी थी, जैसी पहले कभी उस इलाके में नहीं देखी गयी थी। वह कोई मामूली
पतंग नहीं थी। उसमें बांस की पतली-पतली खपच्चियों के गोल ढांचे पर मढ़ी
बहुत बारीक काग़ज की गोल-गोल चकतियां थीं जिनके दो सिरों पर उसने संतुलन
बनाये रखने के लिए घास की फुंदकियां लगायी थीं।
॥4 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
सबसे आगे वाला गोल ढांचा बीच से थोड़ा सा दबा हुआ था और उसपर
एक चेहरा बना था जिसमें आँखों की जगह दो छोटे-छोटे गोल शीशे के टुकड़े
जड़े थे। सबसे आगे वाला गोल ढांचा सबसे बड़ा थाऔर उसके पीछे वाले पिछले
वाले से छोटे। सबसे आख़िर वाला सबसे छोटा। जब पतंग उड़ती थी, तब एक
के पीछे एक लगी गोल चकतियां ऐसे लहराती थीं जैसे कोई सांप सा रेंगने वाला
जीव । लेकिन इस भारी-भरकम ख़ास किस्म की पतंग को हवा में उड़ाने केलिए
बहुत होशियार व्यक्ति की जरूरत थी और सिर्फ़ महमूद ने हीइस काम को बखूबी
अंजाम दिया।
महमूद की बनायी ड्रैगन वाली पतंग की ख़ूब चर्चा हुई ।हर किसी ने उसके
बारे में सुना थाऔर कुछ लोगों ने तो उसमें रूहानी ताक़त होने की बात भी
फैला दी। नवाब साहब की मौज़ूदगी में जब इस पतंग को पहली बार उड़ाया
गया तब वहाँ काफ़ी भीड़ जमा हो गयी थी।
पहली बार में तो पतंग ने जमीन से ऊपर उठने का नाम ही नहीं लिया।
उसकी गोल चकतियां रोनी सी आवाज करने लगीं जैसे उड़ने पर एतराज
जता रही हों औरउसकी सूरज की चमक उसपर जड़े आईने के टुकड़ों में समाकर
आँखों का सा एहसास देती थी, जिससे पतंग किसी अड़ियल जानवर सी लग
रही थी। लेकिन फिर सही दिशा से हवा के झोंके आने लगे और ड्रैगन वाली
पतंग हवा पर सवार होकर कुलबुलाती हुई ऊंची उठती चली गयी। उसकी कांच
की आँखों में अब भी शैतानी की चकाचौंध कम नहीं हुई थी। और जब पंतग
ज्यादा ऊंचाई पर पहुंच गयी, तो वह डोर को बड़े ज़ोर से अपनी तरफ़ ख़ींचे
जा रही थी और महमूद को अपने छोटे-छोटे बेटों कोडोर की चकरी पकड़ने
के काम में लगाना पड़ा। लेकिन पतंग फिर भी अपनी तरफ़ जबरदस्त जोर से
खींचे जा रही थी, जैसे उसने महमूद के हाथ से छूटकर आजाद होकर मनमाने
ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने का पक्का इरादा कर लिया होऔर आख़िरकार ऐसा
ही हुआ।
डोर टूट गयी, पतंग पहले सूरज की ओर लपकी, फिर लहराते हुए आगे
को बढ़ती चली गयी और नजरों सेओझल हो गयी। पतंग फिर कभी नहीं मिली
और बाद में महमूद यही सोचता रह गया कि उसने यह कैसी पतंग बना दी,
पतंग थी या कोई जानदार चीज। फिर उसने वैसी पतंग नहीं बनायी। उसके
बजाय उसने नवाब साहब को एक सुरीली पतंग भेंट की। ऐसी पतंग जो हवा
में ऊपर को उठते हुए वॉयलिन के सुर बिखेरती थी।
पतंगवाला / ॥5
वह दिन ही और थे, फ़ुरसत के दिन, जब वक्त की कमी नहीं होती थी।
लेकिन नवाब साहब बरसों पहले चल बसे और उनके वारिस महमूद से ज़्यादा
रईस नहीं थे। एक जमाना था जब शायरों की तरह पतंग वालों को बढ़ावा देने
वाले भी हुआ करते थे, लेकिन महमूद को कोई नहीं जानता था, महज़ इसलिए
क्योंकि गली में लोगों कीकमी नहीं थीऔर किसी को अपने पड़ोस में रहने
वाले की परवाह नहीं थी।
जब महमूद छोटा था और एक बार बीमार पड़ गया था, पड़ोस में रहने
वाले सभी लोग आये थे उसका हाल-चाल पूछने, लेकिन अब जब उसके गिने-चुने
दिन बचे थे, कोई नहीं आता था उसका हालचाल लेने। यह सही है कि उसके
ज्यादातर दोस्त पहले ही मर चुके थे और उसके बेटे बड़े हो चुके थे। उनमें से
एक शहर के एक मोटर गैराज में काम करता था और दूसरा बंटवारे के वक्त
पाकिस्तान में थाऔर अपने रिश्तेदारों केपास वापस नहीं लौट पाया।
जो बच्चे उससे दस साल पहले पतंगें ख़रीदा करते थे, अब पूरे मर्द हो
चुके थे और रोजी-रोटी की जद्दोजहद में लगे हुए थे। उनके पास बुढ़ढे और
उसके ज़माने की यादों के लिए वक्त ही नहीं था। तेज़ी से बदलती दुनिया में
वे बड़े हुए थे जहाँ हर कोई एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की होड़ में थाऔर
जैसे उन्हें बरगद के पेड़ से कोई लेना-देना नहीं था, वैसे ही पतंगवाले से उनका
कोई वास्ता नहीं था।
उनके लिए दोनों का वजूद सिर्फ़ कहने भर के लिए था-वे थे तो थे, लेकिन
उनके चारों ओर जो शोर मचाने और पसीने बहाने वाले लोगों की भीड़ थी उसे
उनके होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।अब लोग अपनी समस्याओं
और आगे की योजनाओं पर चर्चा करने के लिए बरगद के पेड़ के नीचे नहीं
जुटते थे-बस गर्मी के महीनों में भयानक धूप से बचने के लिए कुछ लोग जरूर
बरगद के साये में पनाह लेते थे।
लेकिन एक लड़का था, उसका पोता-भला हो महमूद के बेटे का जो पास
ही काम किया करता था, क्योंकि उसके छोटे से बेटे को जाड़े की धूप में अपनी
आँखों के सामने एक ऐसे पौधे की तरह बढ़ते देखना जिसपर रोज़ नयी पत्तियां
आ रही हों, बूढ़े आदमी के दिल को बड़ा चैन पड़ता था। पेड़ और इंसान एक
जैसे ही होते हैं। हम दोनों ही क़रीब-क़रीब एक ही रफ़्तार से बढ़ते हैं अगर
हमें कोई चोट न पहुंचे या खुराक मिलनी बंद न हो या काट ही न दिया जाये।
86 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
अपनी जवानी में हमारे अंदर खूब अकड़ होती हैऔर ढलती उम्र में हम कुछ
झुक जाते हैं, हमअपनी नाजुक शाख़ों को धूप में थोड़ा सा पसारते हैं और फिर
एक ठंडी आह भंरकर हम अपनी आख़िरी पत्तियों को भी छोड़ देते हैं।
महमूद बरगद जैसा ही तो था। पुराने पेड़ की जड़ों कीतरह उसके हाथ
गांठदार और ऐंठे हुए से थे।जबकि अली उस ननहें से छुई-मुई जैसे पीले बबूल
के पौधे सा था जिसे आंगन के एक सिरे पर रोपा गया था। दो साल में वह
और पौधा दोनों ही जवानी के परवान चढ़ने के साथ मिलने वाली ताक़त और
आत्मविश्वास हासिल कर लेंगे।
गली से आ रही आवाज़ें धीमी पड़ने लगीं, तोमहमूद को लगा जैसे उसकी
आँख लगने वाली है और फिर वह सपना देखेगा, वही सपना जो वह अकसर
देखा करता है, एक बड़ी सी सुंदर और भव्य सफ़ेद पतंग का सपना जो हिंदुओं
के भगवान विष्णु की मशहूर सवारी गरुड़ पक्षी जैसी होगी। वह नन्‍्हें अली के
लिए एक लाजवाब नयी पतंग बनायेगा। अली के लिए छोड़ कर जाने के लिए
उसके पास और कुछ है ही नहीं।
उसे दूर सेआती अली की आवाज़ सुनायी दी, लेकिन उसे यह समझ में
नहीं आया कि बच्चा उसे ही बुला रहा है। आवाज कहीं बहुत दूर से आती हुई
लग रही थी।
अली आंगन के दरवाज़े पर था और पूछ रहा था कि क्‍या उसकी मां बाज़ार
से लौट आयी है। जब महमूद ने कोई जवाब नहीं दिया, तो बच्चा अपना सवाल
दोहराता हुआ और क़रीब आ गया। बुजुर्ग के चेहरे पर तिरछी धूप पड़ रही थी
और एक छोटी सी सफ़ेद तितली उसकी दाढ़ी परआकर बैठ गयी थी। जब
अली ने अपना छोटा सा सांवला हाथ उसके कंधे पर रखा, तब भी महमूद के
शरीर में कोई हरकत नहीं हुई। बच्चे को बहुत हल्की सी आवाज़ सुनायी दी
जैसी जेब में रखे कंचों के रगड़ खाने से होती है।
अली अचानक डर गया और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और फिर अपनी मां
को पुकारते हुए सड़क पर दौड़ पड़ा। तितली बुजुर्ग की दाढ़ी से उड़कर पीले
बबूल के पौधे पर जा बैठी और हवा के झोंके से बरगद की डाल में फंसी पतंग
छूट गयी। हवा के साथ बलखाती शहर की जद्दोजहद से परे नीले आसमान
में कहीं दूर चली गयी।

पतंगवाला / 77
मंदार का पेड

रा! 'त को गर्मी ज़्यादा थी, बीच-बीच में बारिश भी हो रही थी, इसलिए घर
के अंदर सोने के बजाय मैं बरामदे में सोया। मैं बीस साल से ऊपर का
हो गया था, गुज़ारे केलिए कुछ कमाई भी करने लगा था और समझने लगा
था कि मेरी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं। कुछ ही देर में तांगे में बैठकर मैं रेलवे
स्टेशन पहुंच जाऊंगा, जहाँ से ट्रेन में बैठकर बॉम्बे जाना है। वहाँ से एक पानी
का जहाज मुझे इंग्लैंड पहुंचाएगा। वहाँ काम होगा, इंटरव्यू होंगे, नौकरी होगी,
एक अलग तरह की जिंदगी होगी। बहुत कुछ होगा। लेकिन वहाँ भीजब कभी
मुझे गुजरे जमाने के बारे में सोचने का मौका मिलेगा-अपने दादाजी का यह
छोटा सा बंगला मुझे रह-रह कर याद आएगा।
जब मैं जागा, तो देखा कि सवेरा होने के बावजूद कुछ धुंधलका सा था।
लाल मिट्टी पर बारिश की सोंधी महक को महसूस किया और फिर याद आया
कि मुझे तोआज जाना है। बरामदे के ठीक बाहर वाली जगह एक लड़की
खड़ी थी, जो मुझे बड़ी गंभीरता से देखे जा रही थी। उसे देखते ही मैं उठ
बैठा।
वह छोटे कद की सांवली सी लड़की थी, बड़ी-बड़ी काली आँखों वाली,
जिसने दो चोटियों को दोहरा करके उनमें चटक लाल रिबन लगा रखे थे। वह
लाल मिट्टी और बारिश की तरह ताज़गी भरी लंग रही थी।
वहीं खड़े-खड़े वह मुझे निहारती रही । मुझे काफ़ी गंभीर भी लग रही थी वह।
“कहो, क्‍या बात है,” मुस्कराते हुए मैंने पूछ ताकि वह सहज हो सके।
88 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
लेकिन लड़की को तो जैसे अपने काम से काम था। मेरे बोलने पर उसने
बस हल्के से सिर हिलाया।
क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूँ? अंगड़ाई लेते हुए मैंने पूछा-
तुम कहीं आसपास रहती हो?
उसने फिर सिर हिलाकर हामी भरी।
“अपने माता-पिता के साथ?
हाँ, लेकिन मैं अकेली भी रह सकती हूँ।' बड़ी हिम्मत के साथ उसने कहा।
"तुम तो मेरी तरह हो,” मैंने कहा और कुछ देर के लिए मैं भूल गया कि
मैं बीस साल का हो चुका हूँ। 'मैं भी खुद हीसब कुछ करता हूँ। मैं आज यहाँ
से जा भी रहा हूँ।
अच्छा, वह कुछ हॉँफते हुए बोली।
(तुम इंग्लैंड जाना चाहोगी?'
'मैं हर जगह जाना चाहती हूँ. उसने कहा । “अमरीका, अफ्रीका और जापान
और होनोलूलू।'
'हो सकता हैकभी तुम जाओ, मैंने कहा, 'मैं भीहर जगह जाता हूँऔर मुझे
रोकने वाला कोई नहीं है... लेकिन तुम्हें क्या चाहिए? तुम किसलिए आयी थीं?
'मुझे कुछ फूल चाहिए, लेकिन मैं वहाँ तक पहुंच नहीं सकती,' उसने हाथ
से बगीचे की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। “वहाँ जो पेड़ है, उसके... देखो !!
मंदार का पेड़ घर के ठीक सामने था, उसके आसपास पानी से भरे छोटे-छोटे
गड़ढे थे और वहाँ पड़े थे पेड़ से गिरे फूल। पेड़ कीशाखाओं पर लदे सुर्ख़ फूल
देखने में मटर के फूलों से मिलते-जुलते थे।
“ठीक है,' मैंने कहा। “जरा मुझे उठने दो ।'
मैं आसानी से पेड़ पर चढ़ गया, एक मोटी डाल पर आराम से बैठ गया
और वहीं से उसे निहारता रहा। वह भी मुझे एकटक देखती रही।
मैं तुम्हारे पास नीचे फूल फेंकता रहूँगा,' मैंने कहा।
मैंने एक टहनी को तोड़ने के लिए उसे मरोड़ां, लेकिन टहनी लचीली थी,
इसलिए उसे पेड़ सेअलग करने के लिए कई बार कोशिश करनी पड़ी, तब कहीं
जाकर वह टूटी।
देखो, मुझे नहीं पता कि मुझे ये फूल तोड़ने चाहिए या नहीं,” मैंने कहा
और फूलों से भरी एक टहनी लड़की की ओर फेंक दी।
मंदार का पेड / 79
“चिंतामतकरो,” वह बोली। ै
“लेकिन ज़रूरत पड़ने पर अगर तुम मेरी तरफ़ से बोलने को तैयार हो,
तो- ?

परेशान मत हो ।' पा
अचानक मुझे बचपन की यादों ने घेर लिया और दिल फिर से बचपन
में लौट जाने केलिए तड़प उठा। जी करने लगा कि दादाजी का यह मकान
छोड़कर कहीं न जाऊं। इससे जुड़ी यादों केजाल और बीते दिनों के सायों में
ही जीता रहूँ। लेकिन अब अकेला मैं हीबचा था और अब मैं यहाँ मंदार और
कटहल के पेड़ों पर चढ़ने केसिवा कर भी क्‍या सकता था?
"तुम्हारे कई दोस्त हैं? मैंने पूछा।
हाँ, हैं न। ध
सबसे अच्छा दोस्त कौन है?!
'खानसामा | वह मुझे रसोई में खेलने देता है। वहाँ ज़्यादा मज़ा आता है।
मुझे उसे काम करते हुए देखना अच्छा लगता है। वह मुझे अच्छी-अच्छी चीजें
खाने को देता है...और कहानियां भी सुनाता है
“और तुम्हारा दूसरा सबसे अच्छा दोस्त?
उसने सिर एक कंधे कीओर झुका लिया और गहरी सोच में डूब गयी।
मैं तुम्हें दूसरा सबसे अच्छा दोस्त बना लेती हूँ” वह बोली।
मैंने उस पर मंदार के फूल बरसा दिये। 'तुम कितनी अच्छी हो। तुम्हारा
दूसरा सबसे अच्छा दोस्त बनने में मुझे भी बड़ी खुशी होगी।'
फाटक पर तांगे के घुंधघओं की आवाज सुनाई दी, तो मैंने वहीं पेड़ के
ऊपर से ही सड़क की ओर देखा और कहा-'“यह मेरे लिए आया है। अब मुझे
जाना होगा ।
मैं नीचे उतर आया।
'क्या तुम मेरे सूटकेस तांगे तक पहुंचाने में मदद करोगी? पेड़ से उतर
कर बरामदे की ओर जाते हुए मैंने उससे पूछा। यहाँ कोई नहीं है जो मेरी मदद
करे। बाकी सब मुझसे पहले जा चुके हैं। मैं भीइसलिए नहीं जा रहा हूँक्योंकि
मैं जाना चाहता हूँ,बल्कि इसलिए जा रहा हूँक्योंकि जाने के अलावा मेरे पास
कोई चारा नहीं है।'
मैं बरामदे में खाट पर बैठ गया और बची हुई कुछ चीज़ें सूटकेस में रखने
20 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
लगा। घर के सारे दरवाज़ों पर ताले लगाये। स्टेशन के रास्ते में मैं ये चाबियां
उसके पास छोड़ दूंगा जिसे मकान की देखभाल करनी है। मैं एक प्रॉपर्टी डीलर
से पहले ही कह चुका हूँइस मकान को बिकवाने के लिए। इसके अलावा और
क्या कर सकता हूँ।
हम चुपचाप चलकर इंतजार कर रहे तांगे तक गये। एक दूसरे के बारे
में सोचते हुए।
“चलो, मैंने तांगे वाले सेकहा।
लड़की रास्ते केएक ओर, नम लाल मिट्टी मेंखड़ी मुझे एकटक देखती रही।
“धन्यवाद, मैंने कहा। “उम्मीद है तुमसे फिर मुलाकात होगी।'
मैं तुम्हें लंदन में मिलूंगी, वह बोली। “या फिर अमरीका या जापान में।
मैं हरजगह जाना चाहती हूँ।'
'मुझे यकीन है, तुम सब जगह जाओगी,' मैंने कहा। “और हो सकता है
मैं हीलौटकर आ जाऊं और तुमसे फिर इसी बगीचे में मिलूं। कितना अच्छा
लगेगा, है न?
उसने सिर हिलाकर हामी भरी और मुस्करायी। उस पल के बेहद ख़ास
होने का हमें पूरा एहसास था।
तांगे वाला अपने घोड़े से बातें करने लगा और तांगा बजरी बिछे रास्ते
पर थोड़ा खड़खड़ाता, हिलता-डुलता चल पड़ा ।मैंने औरउस लड़की ने हाथ हिलाकर
एक दूसरे से विदा ली।
लड़की ने हाथ में फूलों सेभरी एक टहनी पकडी हुई थी। जब उसने हाथ
हिलाया, तो पखुड़ियां झरने लगीं और ज़मीन पर गिरने से पहले धीमे बहती हवा
' में लहराती, नाचती सी लग रही थीं।
चलते हैं! मैंने कहा।
“अपना ध्यान रखना! वह बोली।
उसकी चोटी में गुथा रिबन निकलकर सुर्ख पंखुड़ियों केसाथ लाल बजरी
पर आ गिरा था।
'मैं हरजगह जाऊंगा, मैंने अपने आप से कहा, “और मुझे कोई नहीं रोक
सकता /
लड़की मेंबारिश की बूंदों औरलाल मिट्टी जैसी ताज़गी थी -और पवित्रता
भी।
मंदार का पेड / श
पड़ोसी की बीवी
ता खाना तैयार होने का इंतज़ार कर रहे थे, जबअरुण बोला-नहीं, मुझे
अपने पड़ोसी की बीवी से प्यार नहीं हुआ था। यह कोई उस किस्म की कहानी
नहीं है।
ध्यान रहे लीना बेहद आकर्षक महिला थी। वह सुन्दर या सलोनी नहीं
थी, लेकिन उसमें एककशिश थी। उसका बदन एक सोलह साल के लड़के जैसा
था, बिलकुल गठा हुआ-फ़ालतू मांस-चर्बी ज़रा भी नहीं। वह सुबह-शाम नहाती
थी, ख़ूब तेल-मालिश करती थी, जिससे उसकी त्वचा सर्दी की सुहानी धूप में
सुनहरी-सांवली सी दमकती थी। उसके होठों परअकसर पान की लाली रहती
थी, लेकिन दांत ऐसे कि कोई जरा भी कमी न निकाल सके।
मैं उम्र में उससे यही कोई पांचेक साल छोटा था और वह मुझे अपना
'छोटा भाई” कहा करती थी। वह बत्तीस वर्ष कीथी और उसके पति की उम्र
पैंतालीस वर्ष थीऔर वह सीमाशुल्क और आबकारी विभाग में अधिकारी था।
मिलनसार और हँसमुख, पक्का पियक्कड़, पीठ ठोंक कर बात करने वाला जो
अकसर दौरे पर रहा करता था। लीला को मालूम था कि अकसर उससे दूर रहने
के दौरान वह जरूर भटक जाता होगा, लेकिन उसे अपने पतिव्रता होने औरअपनी
इकलौती औलाद, अपने बेटे चंदू के सेहतमंद होने की तसल्ली थी।
मुझे लड़के सेकोई मतलब नहीं था। वह ख़ूब बिगड़ा हुआ था और जब
मैं काम कर रहा होता था तो मुझे परेशान करने में उसे बड़ा मज़ा आता था।
वह बिना बुलाए मेरे कमरे में घुसा चला आता था, मेरी किताबें गिरा देता था
22 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
और अगर कोई आया हुआ होता था, तो वह उनके मुँह पर ही उनके बारे में
बेहूदी बातें किया करता था।
जब शाम को लीला अकेली होती तो अकसर बरामदे में बैठकर बातें करने
के लिए मुझे अपने पास बुला लिया करती थी। दिन का काम ख़त्म होने के
बाद वह चैन की सांस लेने के लिए हुक्का गुड़गुड़ाने बैठती थी। हुक्का पीने की
लत उसे आगरा के पास स्थित अपने गांव से ही लगी हुई थीऔर वह इस आदत
से छुटकारा पाना ही नहीं चाहती थी। बातें करना उसे अच्छा लगता था और
क्योंकि मैं उसकी बातें बड़े ध्यान से सुनता था, वह जल्दी ही मुझे पसंद करने
लगी। मैं छब्बीस साल का हो चुका हूँ औरअब तक शादी नहीं हुई है, यह
बात उसके गले नहीं उतरती थी।
जल्दी ही उसने मेरी शादी करवाने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। मुझे
लगा कि इस बात पर उसके ख़िलाफ़ जाने से कोई फ़ायदा नहीं । मैं उससे कहता
कि मैं कुंआरा ही भला हूँऔर घर बसाने का ख़र्च नहीं उठा सकता तो वह
मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं होती। मर्द केलिए बीवी बड़े काम की चीज
होती है। मैं कहाँ खाता हूँ? जाहिर है, होटल में ।अगर सादा सा शाकाहारी खाना
भी खाया जाए तो भी कम से कम महीने के साठ रुपये का खर्चा था। लेकिन
अगर खाना पकाने के लिए एक सीधी-सादी घरेलू सी बीवी होती तो इससे कम
ख़र्च में हम दोनों का खाना हो जांता।
लीला ने देखा कि मेरी कमीज का एक बटन टूटा हुआ है और कॉलर
घिसा हुआ है, तो उसे मेरी खिल्ली उड़ाने का मौका मिल गया। उसने मेरे बुझे-बुझे
चेहरे औरकमज़ोर से दिखने को लेकर ताना मारा और कहा कि अगर मैं अपनी
' देखभाल करने के लिए जल्दी ही किसी को नहीं ढूंढ लेता तो मैं जल्दी हीतमाम
किस्म की बीमारियों का शिकार हो जाऊंगा । हक्‍्के के कशों के बीच उसने ऐलान
किया कि मेरे लिए जो सबसे जरूरी है, वह है एकऔरत-एक जवान, सेहतमंद,
भरे-पूरे शरीर वाली औरत, जो आगरा के पास के किसी गांव से हो तो ज़्यादा
अच्छा है।
“अगर मुझे तुम्हारे जैसी कोई मिल जाए,/ मैंने छेड़ते हुए कहा, “तो मैं शादी
कर सकता हूँ।'
मेरे ऐसा कहने पर न तो वह इतराई और न ही उसने बुरा माना।
“अपने से बड़ी उम्र कीऔरत से ब्याह मत करना,” उसने सुझाया। “बीवी
पड़ोसी की बीवी / 25
कभी ऐसी नहीं होनी चाहिए जो दुनियादारी का तुमसे ज़्यादा तजुर्बा रखती हो।
यह सब मेरे ऊपर छोड़ दो, मैं तुम्हारे लिए सुघड़-सजीली दुल्हन लाऊंगी ॥'
लीला की ख़ुशी के लिए मैंने यह सोचकर उसकी बात मान लीकि थोड़े
दिन में तो वह इस बात को भूल जाएगी। लेकिन, दो दिन बाद जब वह मुझे
अपने साथ लड़कियों के एक जाने-माने अनाथालय ले जाने के लिए आयी, तो
मैं भौचक्‍का रह गया। मैंने उसके ऐसे किसी भी कार्यक्रम में शामिल होने से
इनकार कर दिया।
तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं है?” उसने पूछा। 'तुम्हीं नेतोकहा था कि
तुम मेरी जैसी लड़की को पसंद करोगे। एक लड़की को मैं जानती हूँजो वैसी
ही दिखती है जैसी मैं दस साल पहले दिखती थी।'
“तुम अभी जैसी हो, वैसी ही मुझे अच्छी लगती हो,' मैंने कहा। वैसी नहीं
जैसी तुम दस साल पहले थीं।॥ है
'ददेखो, हम पहले तुम्हें लड़की दिखाएंगे ।
(तुम नहीं समझती हो,” मैंने अपनी बात रखते हुए कहा। “ऐसा जरूरी नहीं
है कि मैं उसी लड़की से शादी करूं जिससे पहले से प्यार हो-मुझे मालूम है
कि तुम अच्छी लड़की ढूंढोगी और मैं तो मनोविज्ञान में एम. ए. के बजाय घरेलू
और सीधी-सादी लड़की पसंद करूंगा, लेकिन बात यह है कि मैं अभी शादी के
लिए तैयार नहीं हूँ।मुझे अभी एक-दो साल आजादी से जीने केलिए और चाहिए।
मैं अभी से जंजीरों में नहीं जकड़, जाना चाहता। सीधी बात यह है कि मैं अभी
जिम्मेदारियों काबोझ नहीं चाहता |
थोड़ी सी ज़िम्मेदारी बढ़ेगी तोतुम असल मर्द बन पाओगे,' लीला बोली।
लेकिन फिर उसने मुझसे अनाथालय चलने के लिए नहीं कहा और यह मुद्दा
कुछ दिनों केलिए टल गया।
मैं अब उम्मीद करने लगा था कि लीला पतियों से भरी इस दुनियां में
एक को कुंआरा रहने देने की बात पर राजी हो गयी है, लेकिन एक सुबह उसने
एक खुला हुआ अख़बार ठीक मेरे मुँह के आगे अड़ा दिया।
“यह देखो! वह ऐसे चहकते हुए बोली जैसे जग जीत आयी हो। देखें
अब क्‍या बोलते हो? मैंने तुम्हें चौंकाने केलिए.ऐसा किया ।'
उसने सचमुच मुझे चौंका दिया था। उसकी मेंहदी लगी उंगली अख़बार
में छपे वैवाहिक विज्ञापनों में सेएक पर टिकी थी।
24 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
अविवाहित पत्रकार, उम्र पच्चीस साल, को गृहकार्य में दक्ष आकर्षक वधू
चाहिए। जाति और धर्म का बंधन नहीं। दहेज अनिवार्य नहीं।
मानना पड़ेगा कि लीला ने काम बढ़िया ढंग से किया था। कुछ ही दिनों
में लड़कियों कीओर से आमतौर पर उनके माता-पिता के जवाब आने लगे।
हर कोई यह जानना चाहता था कि मैं कितना कमाता हूँ। इसके साथ ही वह
अपनी जान-पहचान और ऊंचे ओहदे वाले अपने रिश्तेदारों का जिक्र करने की
तकलीफ़ ज़रूर करते थे। कुछ लड़कियों के माता-पिता ने अपनी बेटी की तस्वीर
भी भेज दी। वह बहुत अच्छी तस्‍वीरें होती थीं, हालांकि उन्हें बेहतर बनाने के
लिए कुछ कारीगरी ज़रूर की गयी होती थी।
मैंने तस्वीरों को पूरेमन से देखा। लगता था कि शादी इतनी भी बुरी चीज
नहीं है। मैंने तीन ऐसी लड़कियों की तस्वीरें छांटीं जो मुझे अच्छी लगी थीं और
लीला को दिखाई।
मुझे ताज्जुब हुआ, उसने तीनों को नकार दिया। उसके मुताबिकक उनमें
से एक लड़की की शक्ल हिजड़ों जैसी थी, दूसरी टीबी की मरीज सी लग रही
थी, तीसरी ऐसी लग रही थी जैसे वह दौलत-शौहरत हासिल करने के लिए कुछ
भी करने को तैयार हो। लीला ने मान लिया कि अख़बार में विज्ञापन देने की
पूरी सोच ही ठीक नहीं थी, क्योंकि विज्ञापन से हमें ज्यादातर ऐसे लोगों केजवाब
ही मिल सकते थे जिन्हें दौलत की भूख हो और दौलत मेरे पास थी नहीं।
इसलिए हमने सारी चिट्ठियां जला डालीं। मैंने कुछ दिनों तक कुछ तस्वीरें
बचा कर रखीं, लेकिन लीला ने उन्हें भी फाड़ दिया।
और इस तरह कुछ समय के लिए शादी करने की कोशिशों को टाल दिया
'गया।
लीला और मैं करीब-क़रीब रोज़ ही मिलते थे, लेकिन कुछ और बातें करते
थे। कभी-कभी शाम को वह मुझे अपने सामने चारपाई पर बैठाकर हुक्का गुड़गुड़ाते
हुए अपने गांव-घर की कहानियां सुनाया करती थी। मैं अब उसके लड़के का
भी आदी सा होने लगा था, बल्कि अब मुझे वह अच्छा भी लगने लगा था।
यह सब कुछ उस दिन तक चला जब उसका पति बाहर गया और अपनी
जान दे दी। एक अवैध शराब का धंधा करने वाले ने, जिसने एक आबकारी
वाले को मोटी रक़म देने के बजाय उसे रास्ते से हटाने का फ़ैसला किया और
उसे गोली मार दी। इसका मतलब यह था कि अब लीला को शहर का मकान
पड़ोसी की बीवी / 25
छोड़कर वापस आगरा के पास वाले अपने गांव जाना था। वह बेटे के इम्तिहान
होने तक रुकी और फिर आपना सारा सामान समेटा और आगरा के तीसरे दर्जे
के दो टिकट ले लिये।
मुझे महसूस हुआ कि कोई बात है जो उसे परेशान कर रही थी और जब
मैं उसे स्टेशन पर छोड़ने गया तब मुझे समझ में आया कि वह बात क्‍या थी।
मेरे कुंआरे रह जाने को लेकर उसकी अंतरात्मा को चैन नहीं पड़ रहा था।
मेरे गांव में, गाड़ी कीखिड़की से झांकते हुए उसने बड़े विश्वास के साथ
कहा, 'तुम्हरे लायक एक बड़ी अच्छी लड़की है। मेरी दूर की रिश्तेदार भी है।
मैं उसके मॉ-बाप से बात चलाऊंगी ।
और फिर मैंने एक ऐसी बात कह दी जिसके बारे में पहले कभी सोचा
भी नहीं था। एक ऐसी बात जो मेरे दिमाग़ में उसपल से पहले कभी नहीं आयी
थी और मुझे भी कोई लीला से कम हैरत नहीं हुई जब वह शब्द मेरे मुँह से
टपाटप निकल पड़े-“अब तुम ही मुझसे शादी क्‍यों नहीं कर लेतीं?!
अरुण के पास अपनी कहानी पूरी करने का समय नहीं बचा, क्योंकि इधर
कहानी दिलचस्प मोड़ पर पहुंची और उधर खाना लग गया।
और खाने के साथ ही कहानी का अंत भी आ गया।
खाना उसकी पत्नी ने लगाया, अच्छे कद-काठी वाली औरत, हटूटी-कट्टी
और आकर्षक, जो मुझे समझ में आ गया कि लीला ही हो सकती थी और कुछ
ही मिनट में चंदू धड़धड़ाता हुआ घर में घुसा और कहने लगा कि वह भूख से
बिलबिला रहा है।
अरुण ने मुझे अपनी बीवी से मिलवाया और हमने नमस्कार करके एक-दूसरे
से हाल-चाल पूछने कीऔपचारिकता निभायी।
लेकिन तुम्हारे यह दोस्त अपने साथ अपने परिवार को लेकर क्‍यों नहीं
आये? उसने पूछा।
'परिवार? अरे ये अभी कुंआरेही हैं!
और फिर जब उसने अपनी बीवी के चेहरे पर पहले जो हल्की सी बेरुख़ी
थी, उसे गहरी फ़िक्र में बदलते देखा, तो उसने फ़ौरन बातचीत का मुद्दा ही
बदल दिया।

26 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


चाची का अंतिम संस्कार

बुला
वार पांच अप्रैल को शाम के छह बजे चाची की मौत हो गयी और ठीक
बीस मिनट बाद वह फिर से जी उठीं। यह सब ऐसे हुआ-
छोटे-छोटे बेटे-बेटियों और भतीजे-भतीजियों का झुंड सारे घर में इधर से
उधर धमाचौकड़ी मचाया करता था और अपने आप में मस्त रहने वाली चाची
उनपर कोई ख़ास ध्यान भी नहीं देती थीं। लेकिन अपने दस साल के भतीजे
सुनील से वह चिढ़ती थीं। वह ठहरीं एक सीधी-सादी घरेलू महिला, सुनील को
झेल नहीं पाती थीं, क्योंकि वह उनके बेटों से ज़्यादा तेज था, ज़्यादा संवेदनशील
और डांट देने या सिर पर चपत लगा देने पर चुपचाप सह लेने केबजाय इसका
विरोध करता था। देखने में भीवह उनके बच्चों से ज्यादा अच्छा लगता था।
इस सब के अलावा उन्हें इस बात पर ज़रूरत से कुछ ज़्यादा हीखीज आती
'थी कि उन्हें उसके लिए भी खाना बनाना पड़ता था जबकि उसके माता-पिता
नौकरी पर चले जाते थे। |
सुनील को अपनी चाची की जलन का अंदाज़ा थाऔर वह उनकी जलन
की लपटों को और हवा देता था। वह शरारत में अव्वल था और उन्हें परेशान
करने के लिए छोटी-छोटी करतूत, जैसे जब वह दोपहर की नींद ले रही हों, तब
कागज के लिफ़ाफ़े में हवा भरके उनके पास फोड़ देता या फिर अलगनी पर
सूख रही उनकी सलवार के पांयचे की चौड़ाई का मज़ाक उड़ाता। पांच अप्रैल
की शाम को वह कुछ ज़्यादा ही जोश में था। उसे ज़ोर की भूख लगी तो वह
शहद खाने के इरादे से रसोईघर में गया ।लेकिन शहद सबसे ऊपर वाली अलमारी
चाची का अंतिम संस्कार / 27
में रखा था और सुनील इतना लंबा नहीं था कि वहाँ तक हाथ बढ़ाकर बोतल
को पकड़ सके। उसकी उंगलियाँ बोतल तक पहुंचीं और ज्यों हीउसने बोतल
को अपनी ओर खींचा, बोतल उसकी ओर झुकी, लेकिन उसके हाथ में आने
के बजाय जमीन पर गिरकर टूट गयी।
इससे पहले कि सुनील मौक़ा-ए-वारदात से फ़रार होता, चाची वहीं आ
धमकीं। उन्होंने अपनी चप्पल उतारी और दे दनादन उसके सिर और कंधों पर
ताबड़तोड़ जड़ डालीं ।इतना करने के बाद, वह फ़र्श पर बैठ गयीं और रोने लगीं ।
अगर किसी और ने पिटाई की होती, तो शायद सुनील भी रो देता, लेकिन
उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची थी, इसलिए रोने केबजाय उसने धीरे से कुछ
बुदबुदाया और तेजी से वहाँ से निकल गया।
छत की सीढ़ियों से होता वह दुछत्ती पर सीढ़ियों की आड़ में बची छोटी
सी जगह, अपने गुप्त ठिकाने पर गया जहाँ वह अपने कंचे, मंझा-सदूदी, लटूटू
और एक खटके वाला चाकू छुपाकर रखा करता था। चाकू को खोलकर उसने
खिड़की की चौखट की लकड़ी में एक के बाद एक तीन बार घोंपा।
'ैं जान से मार डालूंगा! वह गुस्से से बुदबुदाया, “मार डालूंगा! मैं जान
से मार डालूंगा!!
“किसे मारने जा रहे हो, सुनील?
यह सवाल था मधु का, उसकी फुफेरी बहन का। दुबली-पतली सांवली
सी लड़की जो सुनील की ज़्यादातर शरारत भरी हरकतों में उसका साथ तो देती
ही थी, उकसाती भी थी। सुनील की चाची उसकी मामी थीं। बड़ा परिवार था न।
“चाची,” सुनील बोला। “मुझसे चिढ़ती है, मुझे पता है। हाँ, मैं भीउससे
चिढ़ता हूँ। इस बार मैं नहीं छोड़ूंगा... मार डालूंगा।
'मारोगे कैसे ?
मैं इसे घोंप कर मारूंगा.' सुनील ने उसे चाकू दिखाते हुए कहा।
दिल में घुसा दूंगा। तीन बार |
“लेकिन तुम पकड़े जाओगे। सी आई डी वाले बड़े होशियार होते हैं। क्या
तुम जेल जाना चाहते हो?
“वो मुझे फांसी पर नहीं चढ़ाएंगे?”
“कम उम्र के लड़कों को फांसी पर नहीं चढ़ाया जाता। उन्हें बोर्डिंग स्कूल
भेज दिया जाता है।
28 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं बोर्डिंग स्कूल नहीं जाना चाहता |
“तो फिर अच्छा यही है कि तुम अपनी चाची को न मारो। कम से कम
वैसे तो नहीं जैसे तुम सोच रहे हो। मैं बताती हूँकैसे मारो ।
मधु कागज और पेंसिल निकाल कर लायी और घुटनों और कोहनियों को
जमीन पर टिकाकर बड़े ध्यान से, जैसी वह बना पा रही थी, चाची की तस्वीर
बनाने लगी। फिर उसने मोम वाले लाल रंग से चाची के पेट के पास एक बड़ा
सा दिल बनाया।
“अब, वह बोली, इन्हें चाकू घोंप कर मार डालो!
सुनील की आँखें उत्साह सेचमक उठीं |यह तो बड़ा ही मज़ेदार खेल जैसा
था। हमेशा कुछ नये के लिए मधु पर भरोसा कर सकते हैं। उसने चाची की
उस तस्वीर को खिड़की की लकड़ी पर टिकाया और उनकी लाल छाती में तीन
बार चाकू से वार किये।
लो, तुमने उन्हें मार डाला! मधु बोली।
“बस, हो गया?!
“अब... अगर तुम चाहो तो हम उनका अंतिम संस्कार भी कर सकते हैं।'
“ठीक है।' |
जिस पर चाची की तस्वीर बनी थी और जो अब चाकू के वार से फट
गया था, उसने वह कागज लिया और उसे गुड़मुड़िया दिया। फिर उसने सुनील
की छुपने वाली जगह से एक माचिस की डिब्बी निकाली और एक दियासलाई
जलाकर उस कागज में आग लगा दी। चंद मिनट में चाची की जगह बची थोड़ी
सी राख।
'बेचारी चाची,” मधु बोली।
“हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था, न...” सुनील के मुँह सेनिकला। अब
उसे पछतावा हो रहा था।
“अब हम उनकी राख को नदी में बहा देंगे!
“कैसी नदी?
“नदी...मतलब नाली से काम चलेगा ।'
मधु ने राख इकट्ठी की और छत के छज्जे पर लटक कर उसने राख नीचे
गिरा दी। राख नीचे की ओर चली, उसमें से कुछ अनार के पेड़ पर ठहर गयी
और कुछ नाली में रसोईघर से आते पानी के बहाव में बह गयी। घूम कर उसने
चाची का अंतिम संस्कार / 29
सुनील की तैरफ़ देखा।
सुनील की गालों पर बड़े-बड़े आंसू बह रहे थे।
“तुम किस लिए रो रहे हो?” मधु ने पूछा।
“चाची... मैं उनसे इतना भी* नहीं चिढ़ता था।'
“तो फिर तुम उन्हें क्यों मार डालना चाहते थे?”
“अरे, वो अलग बात थी।
चलो, फिर नीचे चलते हैं। मुझे स्कूल का काम करना है।
जब सुनील और मधु छत की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे, तभी चाची
रसोईघर से निकलीं।
“हाय चाची! सुनील जोर से बोला और उनकी ख़ूब चौड़ी कमर को अपने
हाथों में भरने को हुआ।
“अब क्या हुआ? चाची भुनभुनाईं। “अब कया मुसीबत खड़ी हो गयी?
“कुछ नहीं, चाची! तुम कितनी अच्छी हो। तुम हमें छोड़ कर मत जाना |
चाची के चेहरे परशक के अजीब से भाव उमड़े । उन्होंने सुनील को भीौंहें
सिकोड़ कर देखा। लेकिन उसकी आँखों में अपनेपन के सच्चे भाव देखकर उन्हें
तसल्ली हो गयी।
देखो, मुझे कितना चाहता है, लड़का,” उन्होंने सोचा और उसके सिर पर
हाथ फेरते हुए धीरे सेथपकी देकर, वह सुनील का हाथ पकड़ उसे वापस रसोईघर
में ले गयीं। !

: 50 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


जः मैं अरुण से मिला तब मैं चोर था और हालांकि मैं कुल पंद्रह साल का
था, लेकिन काफ़ी कामयाबी और तजुर्बा हासिल कर चुका था।
अरुण पहलवानों को कुश्ती लड़ते देख रहा था, जब मैं उससे पहली बार
मिला। वह क़रीब बीस साल का था, लंबे क़द वाला दुबला सा, वह सीधा-सादा
भला सा लगता था, मेरे काम के लिए बिलकुल ठीकठाक। कुछ दिनों से मेरी
किस्मत साथ नहीं दे रही थी और मैंने सोचा कि किसी तरह इस नयी उम्र के
लड़के का विश्वास जीता जाये । देखने से ही समझ में आ रहा था कि उसे कुश्ती
में बड़ा मजा आ रहा था। बदन पर तेल चुपड़े दो लोग घुरघुराते और ताल ठोंकते
हुए रेती में एक-दूसरे से जूझ रहे थे। जब मैंने अरुण से बात करनी शुरू की
तो उसे एहसास ही नहीं हुआ कि मैं कोई अजनबी हूँ।
तुम ख़ुद पहलवान लगते हो, मैंने कहा।
“तुम भी तो लगते हो,” उसने जवाब दिया, तो एकबारगी मैंखड़े-खड़े लड़खड़ा
ही गया, क्‍योंकि तब मैं काफ़ी दुबला-पतला सा था, मेरी हड़िडयां नजर आती
थीं और देखने में ऐसा आकर्षक नहीं था।
हाँ. मैंने कहा। 'मैं कभी-कभी कुश्ती लड़ता हूँ।
तुम्हारा नाम क्‍या है?!
दीपक, मैंने झूठ बोल दिया।
दीपक मेरा यही कोई पांचवां नाम रहा होगा। इससे पहले मैं अलग-अलग
मौकों पर अपना नाम रणबीर, सुधीर, त्रिलोक और सुरिंदर बता चुका था।
चोर! चोर! / 57
इस शुरुआती बातचीत के बाद अरुण ने ज़्यादातर बातें मैच के बारे में
ही कीं, जिसमें मुझे कुछ ज़्यादा नहीं कहना रहता। कुछ देर वहाँ ठहरकर वह
तमाशबीनों की भीड़ से दूर चल पड़ा। मैं भी उसके पीछे-पीछे चल दिया।
मैंने अपनी सबसे लुभावनी मुस्क़ान उसके सामने बिखेरते हुए कहा- मैं
तुम्हारे लिए काम करना चाहता हूँ।'
वह रुका नहीं। 'तुमने यह कैसे समझ लिया कि मुझे काम के लिए किसी
की जरूरत है?
'देखो,' मैंने कहा, 'मैं किसी ऐसे शख्स की तलाश में सारा दिन मारा-मारा
फिर रहा हूँजिसके लिए काम कर सकूं। जब मैंने तुम्हें देखा, मुझे लगा कि मैं
तुम्हिरे लिए ही काम करना चाहूँगा ।'
मुझे खुश करने के लिए कह रहे हो॥. <«
अरे नहीं!
“लेकिन तुम मेरे लिए कौम नहीं कर सकते ।'
क्यों ??

क्योंकि मैं तुम्हें पगार नहीं दे सकता ।


मैं कुछ पल सोचता रहा। मुझे लगा कि शायद मैंने इस शख्स को समझने
में चूक कर दी।
"तुम्हारे पास मुझे खाने को तो मिलेगा? मैंने पूछा।
"तुम्हें खाना बनाना आतो है? उसने पलटकर जवाब दिया।
“हाँ, आता है, मैंने झूठ बोल दिया।
“अगर तुम खाना बना लोगे,' वह बोला, "तो मैं तुम्हेंखाने को दे सकता हूँ।!
वह मुझे अपने कमरे पर ले गया और मुझे बरामदे में सोने केलिए कह
दिया। लेकिन उसी रात मैं फिर करीब-करीब वापस सड़क पर पहुंच ही गया
था। जो खाना मैंने पकाया वह जरूर बहुत बुरा होगा क्योंकि वह अरुण ने पड़ोसी
की बिल्ली को खिला दिया और मुझसे दफ़ा हो जाने केलिए कह दिया। लेकिन
मैं कहीं नहीं गया और जितनी अच्छी तरह मुस्करा सकता था, मुस्कराता रहा
और फिर वह अपनी हँसी रोक नहीं पाया। वह बिस्तर पर बैठ गया और पूरे
पांच मिनट हँसता ही रहा। फिर मेरे सिर पर हाथ फेरकर बोला कि कोई बात
नहीं वह सुबह मुझे सिखाएगा कि खाना कैसे बनाया जाता है।
उसने मुझे न सिर्फ़ खाना बनाना सिखाया, बल्कि मुझे अपना और उसका
52 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
नाम लिखना भी सिखाया और कहा कि वह जल्दी ही मुझे पूरे-पूरे वाक्य लिखना
सिखा देगा और चाहे जेब में धेला न हो, काग़ज़ पर रुपये-पैसे काहिसाब-किताब
करना भी सिखा देगा।
अरुण के लिए काम करना काफ़ी अच्छा रहा |मैंसुबह चाय बनाकर पिलाता,
फिर बाज़ार से सामान लेने जाता। मैं रोज़ाना घर में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें
ख़रीदने में खूब वक़्त लगाता और करीब पच्चीस पैसे रोज बचाता था। मैं पचास
पैसे सेर केचावल पचपन पैसे सेर बताता। मुझे लगता है किअरुण को मालूम
था कि इस तरह मैं क॒ुछ पैसे बनाता हूँ,लेकिन उसे कभी फ़र्क नहीं पड़ा, शायद
इसलिए क्‍योंकि वह मुझे अलग से कोई पगार नहीं देता था।
मुझे लिखना सिखाने के लिए मैं अरुण का शुक्रगुज़ार हूँ। मुझे मालूम था
कि बस एक बार मैं पढ़े-लिखे आदमी की तरह लिखना सीख गया तो मैं जितनी
तरक्की कर सकता हूँउसकी कोई सीमा नहीं है। यह ईमानदारी से काम करने
के फ़ायदों में से एक भी हो सकती है। ई
अरुण के पास पैसे झोंके में आते-जाते थे। किसी हफ़्ते वह दूसरों से उधार
मांग कर काम चलाता, तो किसी हफ़्ते कर्ज बांटता। वह अपनी आमदनी की
हर अगली खेप का इंतज़ार करता रहता और जैसे ही रक़म हाथ लगती, वह
मौज उड़ाने के लिए निकल पड़ता।
एक शाम वह नोटों की गड़डी लेकर आया और रात को मैंने उसे गददे
के नीचे सिरहाने की तरफ़ नोटों की गड़िडियां छुपाते देखा।
मुझे अब तक अरुण के साथ काम करते हुए करीब एक पखवाड़ा हो गया
था और ख़रीदारी में कुछ पैसे बचा लेने के सिवा मैंने उससे कोई फ़ायदा नहीं
उठाया था। जबकि मेरे पास मौके तमाम थे। मेरें पास बाहर वाले दरवाज़े की
एक चाबी रहती थी, जिससे अरुण की गैरमौजूदगी में मैं कमरे में आ सकता
था। अब तक मुझे उससे ज़्यादा भरोसा करने वाला कोई दूसरा नहीं मिला था।
इसीलिए मैं उसे लूटने का मन नहीं बना पा रहा था।
किसी लालची आदमी को लूटना आसान होता है, क्योंकि वह इसी लायक
होता है। अमीर आदमी को लूटना आसान होता है, क्योंकि वह लुटना बरदाश्त
कर सकता है। लेकिन एक गरीब आदमी को लूटना आसान नहीं होता, जिसे
कि लुट जाने से कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता। एक अमीर आदमी या लालची आदमी
या फिर होशियार आदमी अपनी रक़म तकिये या गद्दे के नीचे नहीं रखता, उसे
चोर! चोर! / उड5
किसी सुरक्षित जगह, ताले में बंद करके रखता है। अरुण ने अपने रुपये ऐसी
जगह रखे थे, जहाँ से बिना उसे हवा लगे उन्हें उड़ा लेना मेरे लिए बच्चों के
खेल जैसा था।
मैं ख़ुद कोसमझाने लगा-अब समय आ गया है जब सचमुच मुझे कुछ
ऐसा करना चाहिए जिसे वाकई में काम कहा जाए। अगर मैंने ये पैसे नहीं लिये
तो वह अपने दोस्तों पर उड़ा देगा... और मुझे तो देने से रहा...
अरुण सो रहा था। बरामदे से होकर आती चांदनी बिस्तर पर पड़ रही
थी। ख़ुद को कंबल में लपेटे मैं फ़र्श पर बैठा इन्हीं सारे हालात के बारे में सोच
रहा था। गड़्डी में काफ़ी बड़ी रकम थी और अगर मैंने उसे उठा लिया तो फिर
मुझे फ़ौरन शहर छोड़ना पड़ेगा-और अभी मैं साढ़े दस बजे अमृतसर जाने वाली
एक्सप्रेस गाड़ी पकड़ सकता था.
कंबल वहीं छोड़, मैं हथेलियों को फ़र्श परटिकाए घुटनों के बल दरवाज़े
के अंदर घुसा और ज़मीन पर सरकते हुए अरुण की चारपाई तक पहुंचकर चुपचाप
उसपर नज़र डाली। वह शांति से सोया हुआ था और बिलकुल मंद-मंद सांसें
ले रहा था। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे, बिलकुल सपाट था। मेरे चेहरे
पर ज़रूर तमाम निशान थे, जिनमें से ज़्यादातर चोट वगैरह के निशान थे।
जब मेरा हाथ गदूदे के नीचे घुसा और उंगलियां नोट तलाशने लगीं, तो
मेरा हाथ जैसे मेरा नहीं रहा, कुछ अलग सा ही बन गया। नोट हाथ लग गये
और बिना आहट मैंने हाथ बाहर निकाल लिया।
अरुण ने सोते-सोते हीएक आह सी भरी और करवट बदली-मेरी तरफ़
मुँह कर लिया। मेरा दूसरा हाथ बिस्तर पर था और करवट लेते समय उसके
बाल मेरी उंगलियों से छू गये।
जैसे ही उसके बाल मेरी उंगली से छुए, मैं घबरा गया और झटपट पहले
की तरह बिना आहट के रेंगता हुआ कमरे से बाहर आ गया।
जब मैं बाहर आ गया, तो सड़क पर दौड़ने लगा। बाज़ार वाली सड़क
पकड़कर मैंने सीधे स्टेशन की तरफ़ दौड़ लगायी। सारी दुकानें बंद थीं, लेकिन
कहीं-कहीं, उनके ऊपर वाली मंजिल की खिड़कियों से रोशनी आ रही थी। मैंने
नोटों कोअपनी कमर पर, पायजामे के नाड़े के- नीचे दबा रखा था। मुझे लगा
कि मुझे कहीं ठहरकर नोटों को गिनना चाहिए, जबकि मुझे यह भी मालूम था
कि अगर रुका तो गाड़ी छूट सकती है। जब मैं घंटाघर पहुंचा, तब घड़ी में दस
उ4 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बज कर बीस मिनट हो चुके थे। मैं थोड़ा धीमा हुआ और मेरी उंगलियां सीधे
नोटों तक पहुंच गयीं। पांच के नोट थे, करीब सौ रुपये। अच्छी रक़म हाथ लगी
थी। अब मैं महीन्रे-दो महीने राजकुमारों सीशान से रह सकता था।
जब मैं स्टेशन पहुंचा तोटिकट की खिड़की पर नहीं रुका-मैंने अपनी
जिंदगी में कभी टिकट ख़रीदा ही नहीं था...और सीधे प्लेटफ़ॉर्म पर जा पहुंचा।
अमृतसर एक्सप्रेस चल पड़ी थी। गाड़ी ने अभी रफ़्तार नहीं पकड़ी थी और मैं
दौड़कर किसी डिब्बे केपायदान पर पैर टिका कर गाड़ी पकड़ सकता था, लेकिन
किस वजह से मैं ठिठक गया, मैं बयान नहीं कर सकता।
मैं हिचकिचाहट से काफ़ी देर तक बाहर नहीं निकल पाया। गाड़ी चली
गयी और मैं वहीं खड़ा रह गया।
जब गाड़ी चली गयी और प्लेटफ़ॉर्म परमची अफ़रा-तफ़री और शोर थमने
पर मैंने पाया कि मैं सुनसान हो चुके प्लेटफ़ॉर्म पर अकेला खड़ा हूँ। पायजामा
मेंचोरी केसौ रुपये छुपे होने कीबात नेइस अकेलेपन और दूसरों से अलग-थलग
होने केएहसास को और बढ़ा दिया। मुझे नहीं मालूम था कि अब रात कहाँ
बितानी है। मैंने दोस्त तो बनाये नहीं थे, क्योंकि कभी-कभी दोस्त ही बरबादी
की वजह बन जाते हैं। मैं होटल में रुकता तो लोगों की नजरों में आ जाता।
और जिस श्स को मैं वास्तव में अच्छी तरह जानता था, वह वही था जिसकी
रक़म मैंने चुरायी थी! ै
स्टेशन से निकलकर मैं धीरे-धीरे चलता सूनी और अंधेरी गलियों में, रोशनी
से बचता हुआ बाज़ार वाले इलाके से गुज़र रहा था। सारा समय मैं अरुण के
बारे में हीसोच रहा था। वह अब भी चैन की नींद सो रहा होगा, उसे जो नुकसान
हुआ उससे पूरी तरह बेख़बर, बिलकुल निश्चित ।
मैंने गौर किया है कि दुनियाबी तौर पर जिस चीज़ की कोई क़ीमत हो,
ऐसी चीज के खोने पर लोगों का मुँह बन जाता है। लालची आदमी बौखला जाता
है, अमीर आदमी गुस्सा दिखाता हैऔर ग़रीब आदमी को डर“ख़ौफ़ सताता है।
लेकिन मुझे पता था कि जब अरुण को चोरी का पता चलेगा तब उसके चेहरे
पर न बौखलाहट होगी, न गुस्सा और न डर, सिर्फ़ गहरा अफ़सोस होगा और
वह भी रुपये गंवाने का नहीं, बल्कि इस बात के लिए कि मैंने उसके साथ
विश्वासघात किया।
चलते-चलते मैंने पाया कि मैं मैदान में पहुंच गया हूँ। एक बेंच पर मैं
चोर! चोर!) / उ5
पैर ऊपर करके उकड़ूं बैठ गया। रात कुछ ठंडी सी थी और मुझे इस बात का
अफ़सोस था कि मैं अरुण का कंबल भी क्‍यों नहीं लेआया। ऊपर से हल्की
सी फुहार ने मेरी दिक्कत और बढ़ा दी। फिर बारिश तेज हो गयी। मेरी कमीज
और पायजामा बदन पर चिपक गये और ठंडी हवा के थपेड़े बारिश की फुहार
को उड़ा-उड़ा कर मेरे मुँह पर लाने लगे। मैंने ख़ुद कोसमझाया कि बेंच पर
सोने की तो मुझे आदत पड़ चुकी होती, लेकिन बरामदे ने मेरी आदत ख़राब
कर दी।
मैंने वापस बाज़ार का रुख किया और वहाँ पहुंचकर एक बंद दुकान के
बाहर उसकी सीढ़ियों पर बैठ गया। सड़कों पर रहकर गुज़र-बसर करने वाले कुछ
लोग पतले कंबलों में खुद को लपेटे मेरे आसपास पहले से ही सोये हुए थे।
घड़ी रात के बारह बजा रही थी। मैंने टटोला कि नोट अपनी जगह हैं या नहीं।
वह अपनी जगह मौजूद थे, लेकिन सील चुके थे। उनका करारापन बारिश के
पानी ने लूट लिया था।
अरुण के पैसे । सवेरे वह शायद मुझे सिनेमा देखने जाने केलिए एक रुपया
देता, लेकिन अब तो सारे रुपये मेरे पास थे। अब न उसके लिए खाना पकाना
पड़ेगा, न बाज़ार से सामान लाना पड़ेगा और न ही पूरे-पूरे वाक्य लिखने पड़ेंगे।
पूरे वाक्य...
उन्हें तो मैं भूल ही गया था, इन सौ रुपयों के चक्कर में। पूरे वाक्य,
मुझे मालूम था-कि कभी मुझे' सौ रुपये से भी ज़्यादा दिला सकते थे। चुराना
बड़ा आसान काम है, (और कभी-कभी पकड़े जाना भी उतना ही सरल होता
है) लेकिन सचमुच एक बड़ा आदमी, एक विद्वान और सफल आदमी बन सके
तो कोई बात भी है। मुझे वापस अरुण के पास जाना चाहिए, मैंने ख़ुद से कहा,
कम से कम लिखना सीखने की ख़ातिर।
अरुण की चिंता भी शायद मुझपर वापस लौटने का दबाव बना रही थी।
दूसरे के साथ हमदर्दी हो जाना मेरी कमजोरी थी, जिसकी वजह से मैंअकसर पकड़ा
जाता था। कामयाब होने के लिए चोर का बेरहम होना ज़रूरी है। अरुण मुझे अच्छा
लगता था। उसके लिए मेरा प्यार, मेरी हमदर्दी, लेकिन इनसे भी बढ़कर पूरे-पूरे
वाक्य लिख सकने की चाहत ने मेरे पैरों कोवापस कमरे की ओर मोड़ दिया।
मैंजल्दी-जल्दी चलकर हैरान-परेशान सा कमरे पर पहुंचा, क्योंकि कुछ चुराने
से कहीं ज़्यादा कठिन है चुरायी हुई चीज़ बिना पता लगे वापस करना। अब
36 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
अगर मैं बिस्तर के बगल में, रकम के साथ पकड़ा गया, या फिर उस वक्‍त धर
लिया गया जब रुपये अपनी जगह पर वापस रखने के लिए गदूदे के नीचे हाथ
डाला हो, तो फिर मैरे पास वाकई चोरी करने की बात मानने के सिवा और कोई
चारा नहीं होता। अगर अरुण जाग जाता तो समझो मेरी खैर नहीं थी।
मैंने लापरवाही सेदरवाज़ा खोला और देहली पर खड़ा हो गया। चांदनी
रात थी, लेकिन चांद को बादलों ने ढक रखा था। मेरी आँखों को अंधेरे केहिसाब
से ढलने मेंकुछ वक़्त लगा । अरुण अब भी सोया पड़ा था। मैंघुटनों और हथेलियों
के बल बिना आहट किये खाट के सिरहाने पहुंचा |नोटों केसाथ मेरा हाथ बिस्तर
के पास पास पहुंचा | तभी मैंने अपनी उंगली पर उसकी सांस महसूस की | उसके
चेहरे पर छायी शांति और उसको मंद-मंद सांसें लेते देख मैं मंत्रमुग्ध सा हो गया
और पूरे एक मिनट तक बिना हिले-डुले देखता ही रहा। फिर मेरे हाथों ने गदूदे
को टटोला और उसका किनारा मिलने पर नोटों वाला हाथ उसके नीचे सरका
दिया।
सवेरे मैं देर सेउठा तो पाया कि अरुण ने पहले ही चाय बना ली थी।
दिन की तीखी रोशनी में मुझसे उसका चेहरा नहीं देखा जा रहा था। उसने अपना
हाथ मेरी ओर बढ़ाया। उसकी उंगलियों के बीच पांच का नोट था। मेरा दिल
बैठ गया। ह
“कल मुझे कुछ पैसा मिला,” वह बोला। “अब आगे से तुम्हें समय पर पैसे
मिला करेंगे / जिस तेजी से मेरा दिल बैठ गया था, उसी तेजी से मुझमें फिर
से जान आ गयी। मैंने रुपये वापस रख देने के लिए खुद को बधाई दी।
लेकिन जैसे ही मैने नोट हाथ में लिया, मुझे एहसास हुआ कि उसे सब
कुछ पता है। रात की बारिश में भीगा नोट अब तक गीला था।
“आज मैं तुम्हें अपने नाम के अलावा, कुछ और लिखना सिखाऊंगा,' वह
बोला ।
उसे सब कुछ पता था। लेकिन उसके होठों और उसकी आँखों ने ऐसा
कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया।
अरुण की ओर देखते हुए मैं दिल से मुस्कराया-मुस्कराहट अपने आप
आ गयी थी, मुझे पता भी नहीं चला था।

चोर! चोर! / 57
पहले जेसा मान

तेज़ी सेबदलाव है; इस जीवन का नाम।


किस्मत है मिल जाये जो, ऊंचा कोई मुकाम ।।
पर ज्यों छूटे हाथ से; शोहरत की लगाग।
ध धूल चाटें महाबली; होवैे काम-तमास ।।
ग्लैंड सेवापस लौटने के कुछ ही समय बाद, मैं एक दिन अपने पुराने शहर
देहरा की मुख्य सड़क पर पैदल चला जा रहा था, दुकानों और आने-जाने
वालों को गौर से देखता हुआ, यह देखने के लिए कि मेरी गैर-मौजूदगी में कया
कुछ बदला है। मैं तीन साल बाहर था। जब मैं विलायत गया, तब मैं बच्चा
ही था और जब मैं औसत दर्जे की थोड़ी पढ़ाई-लिखाई करके लौटा ताकि मुझसे
जलने वाले दोस्तों केआगे शान बघार सकूं तब मैं इक्‍्कीस का हो चुका था।
लेकिन मैंने इन बरसों के दौरान देशनिकाले जैसे एहसास के साथ जो अकेलापन
झेला उसका जिक्र किसी से नहीं किया, वरना वह दूर देश में मेरी पढ़ाई-लिखाई
के रुआब में नहीं आते। मैं घंटाघर के क़रीब पहुंचने ही वाला था कि मुझे सामने
से एक भिखारी आता दिखायी दिया। एक मायने में तो देहरा बिलकुल नहीं बदला
था। पहले की तरह ही अब भी ख़ूब सारे भिखारी थे, लेकिन एक बात मुझे माननी
पड़ी कि अब वह पहले से ज़्यादा तंदुरुस्त लग रहे थे।
दूसरी तरफ़ से आ रहे भिखारी की बिखरी सी दाढ़ी थी, आगे अंदर को
घुसी हुई छाती और पीछे बाहर को निकला कूबड़ और लड़खड़ाते पैरों परकई
बैंगनी घाव थे जिनमें पस पड़ गया था। उसके कंधे ऐसे लग रहे थे, जैसे कभी
58 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
वह खूब ताक़तवर रहे होंगे और वैसे ही उसके हाथ, जिनमें पकड़ा कटोरा उसने
ठीक मेरे मुँह केआगे अड़ा दिया था, अब भी दमदार लग रहे थे।
उसकी हालतं इतनी बुरी नहीं लग रही थी कि मुझे उसपर फ़ौरन दया
आ जाती और मैं उसे कुछ दे देता। मैं उसकी ओर से मुँह फेर ही रहा था कि
मुझे उसकी आँखों में वहचमक दिखाई दी जिससे मुझे लगा कि वह मुझे पहचानता
है। मुझे वह कुछ जाना-पहचाना सा लगा। उसके चेहरे पर एक मुस्कान दौड़
गयी और हँसने से उसके कुछ टूटे-फूटे दांत नज़र आये। मैंने उससे पीछा छुड़ाने
के लिए जेब से एक सिक्का निकाला, उसके कटोरे में डाला और तेज कदमों
से वहाँ से चल पड़ा।
मैं अभी यही कोई सौ गज के क़रीब चला था कि अचानक मुझे याद आ
गया कि वह भिखारी कौन है। वह मेरा बचपन का हीरो हसन था, पूरे जिले
का सबसे जानदार और शानदार पहलवान ।
मैं उसी पल उलटे पांव लौट पड़ा और कहीं मेरे मन में यहबात आ गयी
थी कि शायद आज वह मेरे हाथ नहीं आएगा और यही हुआ भी-मैंने उसे ढूंढने
की कोशिश तो की लेकिन वह पहले ही बाज़ार की भीड़ में कहीं खो चुका था।
कोई बात नहीं, वह एक-दो दिन में ही बाज़ार में फिर कहीं टकराएगा, मुझे इस
बात पर जरा भी शक नहीं था। यह सोचकर, सड़क छोड़ मैं नगरपालिका वाले
पार्क में चला गया और फ़रवरी की गुनगुनी धूप का मजा लेने के लिए नयी-नर्म
घास पर पसर कर खुद को बीते दिनों की यादों के हवाले कर दिया। मुझे याद
आ रहा था वह दौर जब मैं दस साल का था-ख़ूब चुस्त-दुरुस्त तन और उमंगों
से भरा मन-और तब तक जिंदगी के इस अजब-अनोखे खेल में नाउम्मीदी की
कड़ुआहट और बदहाली से मेरा वास्ता नहीं पड़ा था।
उन अनमोल दिनों में जब बिना किसी को बताये मैं स्कूल से भाग जाया
करता था-और, अब मुझे लगता है कि अगर मैं स्कूल से और ज़्यादा नदारद
रहता तो और भी बहुत कुछ सीख जाता-मैं स्कूल के समय में अकसर बाग
के एक कोने में बने अखाड़े चला जाया करता था। वहाँ पहलवानों के दंगल
और उनके दांव-पेंच देखा करता था। अखाड़े की मुंडेर पर कोहनियां जमाकर
मैंचेहरे को दोनों हथेलियों केबीच टिकाकर पहलवानों की मांस-पेशियों को फड़कते
देखता और जब कभी कोई पहलवान कोई ख़ास दांव लगाता या सामने वाले
को चित कर देता, तो दूसरे तमाशबीनों के साथ मैं भी उसे सराहता।
पहले जैसा मान / 59
नौजवान पहलवानों में सबसे जोरदार और दिलचस्प था-हसन; पतंग वाले
का बेटा। उसके बदन की बनावट शानदार थी-ख़ूब चौड़े मज़बूत कंधे और
ताक़तवर टांगें। हुनर और होशियारी में रह जाने वाली कमी की भरपायी करता
था वह अपनी ताक़त और जोश से। हर लड़का उसका मुरीद था और शारीरिक
ताक़त की मूर्ति कीतरह उसे पूजते थे। तमाम लड़कों का ध्यान होता था उस
पर और वह मुझे कुछ ज्यादा चाहता था। वह मुझे अपने कंधों पर उठाकर अखाड़े
में घुमाने और अपने दोस्तों और साथी पहलवानों से मिलवाने के लिए हमेशा
तैयार रहता था।
देहरा के सारे पहलवानों पर जीत दर्ज करने के बाद, हसन जल्दी ही सारे
जिले में अपने फ़न का माहिर माना जाने लगा। उसके दांव-पेच में सुधार आया
और वह सिर्फ़ ताक़त और दम-ख़म के दिखावे के बजाय अक्ल से भी काम
लेने लगा। हर कोई कहता कि वह एक न एक दिन देश का अव्वल नम्बर का
पहलवान-राष्ट्रीय विजेता बनेगां।
लेकिन बारिश के मौसम के बाद लगने वाले उस बड़े मेले में ऐसा कुछ
हुआ जिसकी वजह से उसकी जिंदगी बदल गयी। कहीं की रानी मेले में आयीं
और दंगल देखने के लिए ठहर गयीं। जब उन्होंने हसन को सिर्फ़ लंगोट पहने
अखाड़े में देखा, तोवह उसमें कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी लेने लगीं। कहा जाता
है कि वह मर्दों में कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी लेती थी, उनके साथ रिश्तों को लेकर
सामाजिक तौर-तरीकों की परवाह नहीं करती थी। कमज़ोर और बीमार पति से
तो उसे कैसे तसलली होती । हसन की गजब की मर्दानगी की कायल होकर उसने
अपना एक आदमी भेजकर हसन से हर वक्त साथ रहने वाला अंगरक्षक बनने
की पेशकश की।
रानी के पास धन-दौलत की तो कोई कमी थी नहीं और चालीस बसंत
देखने के बावजूद उसमें खूबसूरती और कशिश की कमी नहीं थी |जैसा वह चाहती
थी हसन के लिए वैसा करना बिलकुल भी मुश्किल नहीं था ।इसलिए कुल मिलाकर
वह उसकी सेवा में काफ़ी खुश था। यह बात और है कि वह अब पहले के
मुकाबले कुश्ती बहुत कम लड़ता था, लेकिन जब कभी वह अखाड़े में किसी दूसरे
पहलवान के आगे ताल ठोकता, तो उसके डील-डौल और साख की वजह से उसका
सामना करने के लिए आये पहलवान की हिम्मत पस्त हो जाती थी और वह
ज्यादा देर उसके आगे टिक नहीं पाते थे। एक-दो जाने-माने पहलवानों को अपने
40 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जिले मे बुलाया गया। रानी ने उन्हें दिल खोल कर रुपया दिया और बदले में
उन्होंने हसन की मार झेली, हसन ने उन्हें अखाड़े के घेरे से बाहर फ़ेंका वह
भी उन्होंने बर्दाश्त किया। रानी के घर में जिंदगी बड़े मज़े में कटरही थी और
सीधे-सरल हसन को लगता था कि आगे भी सब कुछ अच्छा रहेगा। इस बात
के लिए रानी की तारीफ़ करनी चाहिए और हसन की भी, कि रानी का मन
जितनी जल्दी दूसरों सेऊब जाया करता था, वैसे हसन से नहीं ऊबा।
लेकिन रानी हो या धोबन, अमृत पीकर तो कोई पैदा नहीं होता और जब
बहुत दिनों से परेशान कर रही एक बीमारी ने खुलकर असर दिखाया, तो रानी
की सारी ख़ूबसूरती जाती रही । रानी ने भी बीमारी से लड़ने केबजाय कभी हसीन
रहे अपने बदन को मर्ज के हवाले कर दिया।
यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि रानी की मौत से हसन का दिल टूट
गया | वह कोई दिली रिश्ते बनाने वाला जज़्बाती आदमी नहीं था। हालांकि दूसरों
की हमदर्दी बटोरने को वह बटोर सकता था, लेकिन उसके मन में दूसरों केलिए
हमदर्दी कम ही थी।
उसने रानी की ख़ूब ख़िदमत की और रानी के मरने के बाद उसे सबसे
ज्यादा इसी बात का एहसास था कि उसके पास अब न नौकरी है और न पैसे ।
राजा के पास मन बहलाने के अपने अलग साधन थे और उसे ऐसे पहलवान
की जरूरत नहीं थी, जिसका पेट थुलथुल हो रहा हो।
वक्‍त बदल चुका था। हसन के अब्बू भी नहीं रहे थे, इसलिए अब रोज़ी-रोटी
के लिए पतंग बनाने का धंधा भी नहीं किया जा सकता था, इसलिए हसन ने
वही करने की सोची जो वह अब तक करता आया था-यानी पहलवानी। लेकिन
अखाड़े से कमाई तो कुछ होती नहीं । सिर्फ़ पेशेवर पहलवानों के मुकाबलों में
जीने लायक ठीक-ठाक रक़म मिल सकती थी। इसलिए, जब शहर-शहर घूमकर
दंगल दिखाने वाले पेशेवर पहलवान वहाँ आये-जिनमें एक नीग्रो, एक रूसी, एक
औरतों जैसा नाजुक लगने वाला चीनी और एक दैत्य जैसे डीलडौल वाला सिख
थे-और उन्होंने ऐलान किया कि उन्हें चुनौती देने वाला उनमें सेकिसी एक
के साथ भी मुक़ाबले में पांच मिनट टिक जाएगा तो उसे इनाम में सौ रुपये
मिलेंगे और काम के लिए करार किया जाएगा, तो हसन चुनौती के लिए तैयार
हो गया।
उसका मुक़ाबला रूसी के साथ हुआ, जो आदमी कम, बड़ा सा भालू ज़्यादा
पहले जैसा मान / 47
लगता था। आँखों पर काला नक़ाब डाले रखता था और उसके साथ रिंग में
बमुश्किल दो मिनट हुए होंगे कि देहरा. में हसन के चाहने वाले देखते रहे और
उनके चहेते सूरमा को मुकाबले के घेरे में इधर से उधर उठा-उठा कर पटका
गया। सिर और जांघ में चोटें आयीं और आख़िर में बड़ी बेरुख़ी से मुकाबले
के घेरे की रस्सी के बाहर फेंक दिया गया।
इस तरह साख पर बट्टा लगने के बाद हसन ने फिर कभी पहलवानी के
मुक़ाबले में हिस्सा नहीं लिया। कभी-कभी वह मुझे अखाड़े में दिखाई दे जाता
था, जहाँ बच्चों को कुछ दांव-पेंच सिखाकर वह कुछ रुपये कमा लिया करता
था। उसकी तोंद निकल आयी थी, ठोड़ी और गर्दन के बीच चर्बी जमा होने से
झोल आने लगा था। मैं भी अब कोई बच्चा नहीं: रह गया था, लेकिन वह अब
भी मुझे देखकर पहले की तरह ही मुस्कराता और षीठ ठोंक कर हालचाल पूछता
था।
मुझे याद है कि विदेश के लिए रवाना होने से कुछ दिन पहले मैंने उसे
देखा था। वह भारी क़दमों से अखाड़े के इर्द-गिर्द घूम रहा था। जिसकी वजह
से वह जीत दर्ज करने में कामयाब रहता था, अपनी उस बिजली सी फुर्ती को
वह गंवा चुका था।
सूखे जो सम्मान की माला
मान रहे न पहले वाला
यह बात है तीन साल से ज़्यादा पहले की। हसन को भीख मांगनी पड़
रही थी, यह बात वक्‍त के बीतने और बदलने दोनों के बारे में सोचने को मजबूर
कर रही थी। पचास साल पहले लोग अपने चहेते पहलवान को कभी गरीबी,
बदहाली और बेरुख़ी का शिकार नहीं होने देते। उसके पुराने चाहने वाले उसके
खाने का इंतजाम करते और उसकी दिलेरी के किस्से गढ़कर सुनाते। उसे यूंभुला
नहीं दिया जाता। लेकिन सुक़ून से जीने कावह अलग ही दौर था, जिसमें समाज
मेंहरेक कीअपनी जगह होती थी और किसी शख्स की गुज़रे ज़माने की कामयाबी
का ताउम्र जिक्र किया जाता था। नाकामियों को बर्दाश्त किया जाता था, उन्हें
माफ़ कर दिया जाता था। लेकिन अब ज़िंदगी तेज-रफ़्तार और क्रूर हो गयी थी
और किसी को किसी की परवाह नहीं रही थी। अब लोग अपने फ़ायदे की बात
सोचने में इतने डूबे रहते हैंकि
जिनकी वह पहले कभी पूजा करते थे, अब उनके
बारे में सोचने का भी वक्त नहीं निकाला जाता।
42 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
आखिरी बार हसन को मांगने के लिए हाथ फैलाये देखने के कुछ दिनों
बाद मैंने देखा कि घंटाघर से कुछ ही दूर पर सड़क के किनारे कुछ लोगों ने
भीड़ लगा रखी थी। वह नाले में किसी चीज़ की तरफ़ चुपचाप देखे जा रहे थे
और साथ ही जान-बूझ कर उससे दूरी भी बनाये हुए थे। मैं भी वहाँ जुटे लोगों
में शामिल हो गया तो पता चला कि दूर ही दूर से वह जिसपर ध्यान दे रहे
थे वह औंधे मुँह पड़ी एक लाश थी, जिसका सिर सड़क किनारे वाले नाले के
ढके वाले हिस्से में थाजबकि बाकी धड़ खुले हिस्से में। ऐसा लग रहा था जैसे
वह आदमी मरने के इरादे से ही रेंग कर नाले में गया था और उसने ढके वाले
हिस्से में सिर इसलिए डाला ताकि दुनिया आख़िरी पलों में उसकी उस जद्दोजहद
को न देख सके जिसे बेकार ही साबित होना था।
नगरपालिका के कर्मचारी जब अपनी गाड़ी में आये और उन्होंने लाश को
गटर में से बाहर निकाला तो तेज़ भिनभिनाहट से छेड़ने पर नाराजगी जताती
घरेलू और नीली मक्खियों का पूरा बादल सा उठा लाश से। चेहरा कीचड़ से
सना था, लेकिन मैं उस भीख मांगने वाले को पहचान गया जो कि हसन था।
एक तरह से, यह सोचकर तसल्ली होती है कि उसे भुला दिया गया और
वहाँ मौज़ूद लोगों में सेकोई उस आदमी के शरीर को पहचान नहीं पाया जो
कभी किसी जवान और ताक़तवर देवता से कम नहीं लगता था। मैं जान-बूझ
कर शिनाख़्त करने से पीछे हट गया। ऐसा करके शायद मैंने हसन को कम से
कम आख़िर में जिल्लत से बचा लिया।

पहले जैसा मान / 45


““ फूलों कीआस
#ँ 4फूलों

फ़ः हिल, दि ओक्स, हंटर्स लॉज, दि पार्सनेज, दि पाइन्स, उम्बारनी, मैकिनॉन


** *हॉल और विंडरमेर। ये नांम हैं उन कुछ पुराने मकानों के जो भारत के
एक छोटे से हिल स्टेशन के बाहरी इलाक़े में आज भी मौजूद हैं। इनमें से ज्यादातर
जर्जर हैं, या खंडहरों में तब्दील हो चुके हैं। ये सारे बहुत पुराने हैं-जाहिर है,
इन्हें अंग्रेजों नेसौसाल से भी पहले बनवाया था, क्योंकि यहाँ आकर वे मैदानी
इलाकों की गर्मी सेराहत महसूस करते थे। आज पहाड़ों पर घूमने जाने वाले
बाज़ारों और सिनेमाघरों केआसपास ठहरना पसंद करते हैं और बांज, चिनार
और देवदार के पेड़ों के बीच बनें बहुतेरे पुराने घरों में जंगली बिल्ली, चूहे, उल्लू,
बकरियां और कभी-कभी कोई कोयला बनाने वाले या खच्चर वाले सिर छुपाने
की जगह तलाशते आ जाते थे।
बिना किसी रखरखाव के पड़े इन मकानों के बीच एक साफ़-सुथरी सफ़ेदी
की हुई कॉटेज है जिसका नाम है मलबेरी लॉज और उसमें कुछ समय पहले तक
अकेले रहती थीं मिस मैकैंजी-एक बुजुर्ग अंग्रेज महिला जिन्होंने शादी नहीं की थी।
इतने बरसों में मिस मैकैंजी महज बुजुर्ग नहीं, अस्सी साल से ऊपर की
हो गयी थीं। लेकिन इसका कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था-सफ़ाई से
रहने और जिंदादिली के चलते। कपड़े भले ही वह पुराने चलन के पहनती थीं,
लेकिन वह होते बिलकुल सही हाल में थे। हफ़्ते मेंएकबार वह दो मील चलकर
शहर तक जाती थीं, बाज़ार सेमक्खन, जैम, साबुन और कभी-कभी यू-डि-कोलोन
की छोटी सी शीशी लेने के लिए।
44 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
वह इस हिल-स्टेशन पर तब से रह रही थीं, जब वह किशोरी थीं और
यह बात है पहले विश्व युद्ध सेपहले की। हालांकि उन्होंने कभी शादी नहीं की,
लेकिन उनके कुछ, प्रेम संबंध ज़रूर रहे थेऔर शादी न करने वाली कुंठित
चिरकुमारियों से बहुत अलग थीं वह। उनके माता-पिता तीस साल से भी पहले
दुनियां कोअलविदा कह चुके थे और उनके भाई-बहन भी अब नहीं रहे थे।
भारत में उनका कोई रिश्तेदार नहीं था। चालीस रुपये महीने की छोटी सी पेंशन
पर उनकी जिंदगी कट रही थी और उनकी जवानी के दिनों का दोस्त न्यूजीलैंड
से पार्सल द्वारा उन्हें जब-तब कुछ उपहार भेज दिया करता था। अकेले रहने वाले
दूसरे बुजुर्गों कीतरह उन्होंने एक जानवर पाल रखा था-पीली आँखों वाला एक
बड़ा-सा काला बिलौटा। अपने छोटे सी बगीचे में वह डेहलिया, गुलदाउदी,
ग्लैडियोलाई और कुछ अनूठे किस्म के ऑर्किड उगाया करती थीं। उन्हें पौधों
के बारे में बहुत कुछ पता था। जंगली फूलों, पेड़ों, चिड़ियों और कीड़ों के बारे
में भी। उन्होंने इनका कभी गंभीरता से अध्ययन तो नहीं किया था, लेकिन बरसों
के साथ की वजह से आसपास पनपने वाली हर चीज़ से उनका एक क़रीबी
रिश्ता साबन गया था।
बहुत कम लोग उनके पास आते थे। कभी-कभी पास के चर्च के पादरी
और महीने में एक बार डाकिया न्यूजीलैंड वाले दोस्त की चिट्ठी और पेंशन के
कागज लेकर आता था। दूध वाला हर दूसरे दिन मेम साहब और उनके बिलौटे
के लिए एक लीटर दूध देने आता था। कभी-कभी उन्हें अंडे वाले से एक-दो
अंडे मिल जाते थे। यूंही, मुफ़्त में, क्योंकि वह भूला नहीं थाकि कभी मिस
मैकैंजी, अपने अमीरी के दिनों में, बड़ी तादाद में अंडे लिया करती थीं। वह दिल
'का अच्छा था-भावनाओं की कद्र करता था। उसे याद था कि बीस से तीस
की उम्र के बीच मिस मैकैंजी कितनी हसीन लगती थीं और वह कुल नौ साल
का बच्चा, उन्हें कैसे हैतत और घबराहट से ताका करता था।
सितंबर आ गया था और बारिश का मौसम लगभग बीत ही गया था।
मिस मैंकैंजी की गुलदाउदी अपने शबाब पर आने को थी। वह मना रही थीं,
कि इस बार जाड़ा ज़्यादा न पड़े क्योंकि उनके लिए अब सर्दी सहना मुश्किल
होता जा रहा था। एक दिन वह अपने बगीचे में कुछ छोटे-मोटे काम रही थीं,
कि उन्होंने कॉटेज पर खत्म होने वाली पहाड़ी की ढलान पर स्कूल की वर्दी में
एक लड़के को जंगली फूल तोड़ते हुए देखा।
फूलों कीआस / 45
“कौन हो तुम? उन्होंने पुकारा। क्या कर रहे हो बच्चे?”
लड़का डर गया और उसने वहाँ सेबच निकलने की कोशिश में चढ़ाई
पर दौड़ लगाने की कोशिश की, लेकिन चीड़ की सींकों पर पैर फिसलने से वह
घिसटता हुआ मिस मैकैंजी के नेस्टरशियम की क्यारी में आकर गिरा।
जब उसने देखा कि बचने का 'कोई रास्ता नहीं है, तो वह दांत दिखाते
हुए मुस्करा दिया और बोला-“गुड मॉर्निंग, मिस |
वह वहीं के एक इंग्लिश मीडियम स्कूल का लड़का था। उसने उजला लाल
ब्लेजर पहन रखा था और लाल और काली पट्टियों वाली टाई लगा रखी थी।
अंग्रेजी स्कूलों केज़्यादातर तमीज़दार लड़कों की तरह ही वह भी हर महिला को
“मिस” कह कर संबोधित करता था।
“गुड मॉर्निंग, मिस मैकैंजी ने कुछ सख्ती वाले स्वर में कहा। “अब क्‍या
तुम मेरी फूलों की क्यारी से बाहर निकलने की मैहरबानी करोगे?!
लड़का पौधों को बचाता हुआ होशियारी से क्यारी के बाहर आ गया। गालों
पर गड़ढे और आँखों में चमक के साथ उसका मिस मैकैंजी की तरफ़ देखना
कुछ ऐसा था कि उस पर नाराज होना मुमकिन नहीं था।
तुम बिना इजाजत बगीचे में घुस आये हो,” मिस मैकैंजी बोलीं।
जी, मिस |
“जबकि तुम्हें इस वक़्त स्कूल में होना चाहिए था।
जी, मिस | ।
फिर तुम यहाँ क्या कर रहे हो?
“फूल तोड़ रहा था, मिस।/ और उसने फ़र्न और जंगली फूलों का एक
गुच्छा उनके आगे कर दिया।
“तो यह बात है,' मिस मैकैंज़ी का सारा गुस्सा काफ़ूर हो चुका था। एक
अर्से बाद उन्होंने किसी लड़के को वनस्पति शास्त्र में दिलचस्पी लेते औरउससे
बढ़कर, स्कूल से गैर-हाज़िर रहकर उन्हें इकट्ठा करते देखा था।
"तुम्हें फूलों में दिलचस्पी है?” उन्होंने पूछा।
जी, मिस। मैं आगे चलकर पेड़-पौधों... बॉ...वनस्पति शास्त्री बनूंगा।
तुम्हारा मतलब है बॉटिनिस्ट??
जी, मिस |
'भई, तुम तो बड़े अलग से हो! तुम्हारी उम्र में ज्यादातर लड़के पायलट,
46 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
या फ़ौजी अफ़सर या इंजीनियर बनना चाहते हैं। लेकिन तुम बॉटैनिस्ट बनना
चाहते हो। अच्छी बात है। गनीमत है, दुनिया में अब भी उम्मीद बाक़ी हैऔर
तुम्हें इन फूलों के नाम पता हैं?!
“यह बुखीलो का फूल है,' उसने कहा और छोटा सा पीला फूल उन्हें दिखाया ।
“यह इसका पहाड़ी नाम है। इसका मतलब होता है पूजा या प्रार्थना। यह पूजा
में चढ़ाया जाता है। लेकिन मुझे यह नहीं मालूम कि इसे क्‍या कहते हैं
और यह कह कर उसने दिल जैसे पत्तों वाले पौधे का एक हल्का गुलाबी
फूल आगे कर दिया।
“यह जंगली बिगोनिया है,' मिस मैकैंजी बोलीं। “और वह बैंगनी सा साल्विया
है, लेकिन वह जंगली पौधा नहीं है। यह वह पौधा है जिसके बीज मेरे बगीचे
से वहाँ पहुंचे हैं। तुम्हारे पास फूलों पर कोई किताब नहीं है?'
“नहीं, मिस ।'
“ठीक है, अंदर चलो और मैं तुम्हें एककिताब दिखाती हूँ।'
वह लड़के को छोटे से बाहर वाले कमरे मेंले गयीं, जिसमें तमाम कुर्सी-मेज
वगैरह का, किताबों का, गुलदस्ते और जैम की पुरानी शीशियों का जमावड़ा था।
उन्होंने उसे बैठने के लिए कुर्सी दी, तो वहउसपर आगे को ही बैठ गया। काला
बिलौटा छलांग लगा कर उसकी गोद में आ बैठा और तेज-तेज आवाजें करने लगा।
"तुम्हारा नाम कया है?” मिस मैकैंजी ने किताबों की अलमारी में कुछ ढूंढते
हुए पूछा।
“अनिल, मिस |
“और तुम रहते कहाँ हो?
“जब स्कूल बंद हो जाता है, तो मैं दिल्‍ली चला जाता हूँ। मेरे पिताजी का
कारोबार है।
“अच्छा, किस चीज का?
“बल्ब का, मिस |
'फूलों के बल्ब?
“जी नहीं, मिस। बिजली के बल्ब ।
“बिजली के बल्ब! तुम जब घर जाना तो थोड़े से मेरे लिये भेज देना।'
मेरे घर के बल्ब बड़ी जल्दी फ़्यूज़ हो जाते हैं औरआजकल इतने महंगे हो गये
हैं, दूसरी चीज़ों कीतरह। और, ये रही!
फूलों कीआस / 47
उन्होंने अलमारी में से
मोटी सीकिताब निकाली और मेज पर उसके सामने
रख दी-फ़्लोरा हिमालिएंसिस, 892 की छपी हुई । जिसकी भारत में शायद दूसरी
कॉपी नहीं होगी। 'यह बहुत कीमती किताब है, अनिल। किसी और किताब में
हिमालय में पाये जाने वाले इतने ज़्यादा फूलों के बारे में ऐसी जानकारी नहीं
मिलती । और मैं तुम्हें यहभी बता दूं, किअब भी बहुत सारे फूल-पौधे हैंजिनका
उन वनस्पति शास्त्रियों कोपता भी नहीं है जो पहाड़ों में
समय बिताने के बजाय
खुर्दबीन लिये बैठे रहते हैं। होसकता है,, शायद तुम एक दिन कुछ कर दिखाओ ।
जी, मिस |
दोनों साथ बैठ कर किताब के पन्ने पलटने लगे, पढ़ने लगे और मिस मैकेंजी
ने उसे वहाँ आसपास के इलाके में पाये जाने वाले कई फूल दिखाये। अनिल
ने उनके नाम और उनकें खिलने के मौसम के बारे में लिख लिया। फिर मिस
मैकैंजी नेचूल्हा जलाया और चाय के लिए उस परे केतली चढ़ा दी। और फिर
वह बुजुर्ग अंग्रेज महिला और भारतीय लड़का अगल-बगल में बैठ कर चीनी वाली
गर्म चाय के प्यालों केसाथ जंगली फूलों वाली किताब में डूबे रहे।
जब वह चलने को उठा, तो अनिल ने पूछा-'क्या मैं फिर आ सकता हूँ?
“अगर तुम चाहो तो आ जाना, मिस मैकैंजी नेकहा। “लेकिन स्कूल के
समय में नहीं। तुम्हें अपनी क्लास नहीं छोड़नी चाहिए ।
उसके बाद अनिल यही कोई हफ़्ते में एक बार मिस मैकैंजी केपास आ
जाता था और लगभग हर बार कोई न कोई जंगली फूल उनके पास लाता था,
उनसे उसकी पहचान करवाने के लिए। अब वह भी उसके आने का इंतज़ार करने
लगी थीं-और कभी-कभी जब एक हफ़्ते सेज़्यादा समय बीत जाता था उसे
आये हुए, तो वह उदास हो जाती थीं और अकेलापन महसूस करतीं और काले
बिलोटे पर बिना बात बड़बड़ातीं।
अनिल को देखकर उन्हें अपना भाई याद आ जाता था-जब वह छोटा
था-हालांकि देखने में दोनों बिलकुल भी एक जैसे नहीं थे। ऐंड्रयू के बाल भूरे
और आँखें नीली थीं। लेकिन अनिल में जो जानने की ललक थी, उसकी चुस्ती
और वह जैसे खड़ा होता था-पैरों के बीच में थोड़ी दूरी बना कर, कमर पर
हाथ रखकर, जो आत्मविश्वास झलकता था-वह मिस मैकैंज़ी को इन्हीं पहाड़ियों
में बचपन और जवानी के दिनों में साथ रहे लड़के की याद दिलाता था।
और अनिल उनके पास इतना क्‍यों आता था?
48 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
कुछ इसलिए क्योंकि वह जंगली फूलों के बारे में इतना कुछ जानती थीं
और वह वाकई में वनस्पति शास्त्री बनना चाहता था और कुछ इसलिए क्‍योंकि
वह मिस मैकैंजी में वैसा ही कुछ पाता था, जैसा उसकी दादी में था। कुछ हद
तक इसलिए भी क्योंकि कभी-कभी बारह साल का लड़का बड़ों के मुक़ाबले किसी
के अकेलेपन को बेहतर समझ सकता है और कुछ इसलिए भी क्योंकि वह दूसरे
बच्चों सेकुछ अलग था।
आधा अक्तूबर बीतते-बीतते, जब स्कूल बंद होने में एक पखवाड़ा और
बचा था, दूर नज़र आने वाले पहाड़ पर बर्फ़ पड़ चुकी थी। एक चोटी दूसरी
चोटियों से ज्यादा ऊंची थी-आकाश के नीलेपन में चमकता नुकीला सा सफ़ेद
शिखर। जब सूरज डूबता, यह शिखर नारंगी से सुनहरे, गुलाबी और लाल रंग
में बदलता जाता।
“वह पहाड़ कितना ऊंचा है, अनिल ने पूछा।
“बारह हजार फ़ीट से तो ज़्यादा ऊंचा होगा,' मिस मैकेंजी नेकहा ।बिलकुल
नाक की सीध में चलें तो यहाँ सेकोई तीस मील दूर। हमेशा से मेरा मन करता
रहा है वहाँ जाने केलिए, लेकिन कोई ठीक सा रास्ता ही नहीं था। उस ऊंचाई
पर ऐसे फूल मिलेंगे जो यहाँ नहीं होते-नीले जेनशियन और बैंगनी कोलंबाइन,
ऐनीमोन और ईडेलवीज | ह
“एक दिन मैं वहाँ जाऊंगा, अनिल बोला।
“जरूर जाओगे, अगर तुम सचमुच जाना चाहते हो ।'
जिस दिन उसका स्कूल बंद होने वाला था, उसके एक दिन पहले अनिल
मिस मैकैंजी कोअलविदा कहने आया।
'मुझे नहीं लगता कि दिल्ली में तुम्हें कोई जंगली फूल मिल सकेंगे,' वह
बोलीं, लेकिन मैं चाहूँगी तुम्हारी छुट्टियां अच्छी बीतें ॥'
जैसे ही वह जाने को हुआ, मिस मैकैंजी ने फ़्लोरा हिमालिएंसिस न जाने
किस झोंक में उसके हाथ में थमा दी।
“इसे तुम रखो,” वह बोलीं। “यह तुम्हारे लिए है।
“लेकिन मैं अगले साल फिर आऊंगा और तब फिर इसमें से पढ़ पाऊंगा ।'
यह तो बहुत क़ीमती है।
'मुझे पता है कि यह बहुत क़ीमती है और इसीलिए मैंने यह तुम्हें दी है।
वरना यह कबाड़ियों के हाथ लगती ।'
फूलों कीआस / 49
“लेकिन मिस... !
“बहस मत करो । इसके अलावा, हो सकता है अगले साल मैं यहाँ न रहूँ।'
'क्या आप कहीं और जा रही हैं?
“कुछ पक्का नहीं है। हो सकता है मैं इग्लैंड चली जाऊं।
इंग्लैंड जाने काउनका कोई इरादा नहीं था। बचपन के बाद उन्होंने दोबारा
उस देश को नहीं देखा था और उन्हें मालूम था कि जंग के बाद ब्रिटेन के बदले
माहौल में वह ख़ुद को ढाल भी नहीं पाएंगी। उनका घर इन पहाड़ों में ही था,
बांज, चिनार और देवदार के पेड़ों केबीच। यहाँ अकेलापन था, लेकिन इस उम्र
में वह जहाँ भी रहतीं, वहाँ अकेलापन होता।
लड़के ने किताब को कांख में दबाया, अपनी टाई ठीक की, सावधान की
मुद्रा में
बिलकुल सीधा खड़ा हो गया और बोल्ञा-“गुडबाय, मिस मैकैंजी ।'
पहली बार उनका नाम लिया था उसने।
उस साल सर्दी का मौसेम जल्दी आ गया और तेज़ हवा के साथ बारिश
और ओले पड़ने से बगीचे और पहाड़ी के सारे फूलों वाले पौधे जल्दी ख़त्म हो
गये। बिलौटा भी अंदर रहने लगा, मिस मैकैंज़ी के बिस्तर के पांयते गुडमुड़ियाया
पड़ा रहता। मिस मैकैंजी खुद कोअपने तमाम शॉल और मफ़लरों में लपेट लेतीं,
फिर भी उन्हें सर्दी लगती ।उनकी उंगलियां ऐसी अकड़ गयीं कि उन्हें बेक्ड-बीन्स
का डिब्बा खोलने में एक घंटा लग जाता। और फिर बर्फ़ पड़ने लगी। दूधवाला
कई. दिनों तक नहीं आया। डाकिया उनके पेंशन के काग़ज़ लेकर आया, लेकिन
उन्हें इतना आलस आता रहा कि वह उन्हें बैंक में जमा कराने तक नहीं जा
सकीं।
वह ज़्यादातर समय बिस्तर में ही रहतीं। बिस्तर की गुनगुनाहट में ही उन्हें
थोड़ी राहत रहती । गर्माहट के लिए वह गर्म पानी की सिंकाई वाली बोतल पीठ
की तरफ़ रख लेतीं और बिलौटा उनके पैरों कोगरम रखता। बिस्तर में पड़ी-पड़ी
वह बसंत के मौसम और गर्मी के महीनों के बारे में सोचा करतीं। सोचती कि
तीन महीने में प्रिमरोज़ केफूल खिलने लगेंगे और बसंत के साथ ही लड़का भी
घर से लौट आएगा।
एक रात गर्म पानी कीबोतल फट गयी और बिस्तर गीला हो गया। क्योंकि
कई दिनों तक धूप नहीं निकली, कंबल में सीलन भरी रही। मिस मैकैंजी को
ठंड लग गयी और उन्हें मजबूरी में अपने ठंडे बिस्तर में ही पड़े रहना पड़ा। उन्हें
50 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बुख़ार महसूस होता था लेकिन थर्मामीटर नहीं था बुख़ार नापने के लिए। उन्हें
सांस लेने में भीदिक्कत हो रही थी।
एक रात तेज हवा चलने लगी, जिससे खिड़की खुल गयी और फिर सारी
रात भड़भड़ाती रही । मिस मैकैंजी को इतनी कमजोरी थी कि वह उठ कर खिड़की
बंद नहीं कर सकीं और तेज़ हवा के साथ बारिश का पानी और ओले कमरे
में आते रहे। बिलौटा गर्माहट के लिए अपनी मालकिन से सट कर सोता रहा।
लेकिन सवेरा होने सेपहले ही उनके बदन की गुनगुनाहट गुम हो चुकी थी और
बिलौटा भी बिस्तर छोड़ फ़र्श को जगह-जगह पंजों से खरोंचने लगा था।
जब सवेरा हुआ और खुली खिड़की से धूप की एक किरण कमरे में आयी,
तभी दूधवाले ने भीआवाज़ लगायी। दरवाजे पर रखे कटोरे में उसने थोड़ा सा
दूध डाल दिया तो बिलौटे ने खिड़की की चौखट से छलांग लगायी और दूध का
स्वाद लिया।
दूधवाले ने मिस मैकैंजी कोआवाज लगायीं, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
उनकी खिड़की खुली थी और दूधवाले को मालूम था कि वह हमेशा सूरज निकलने
के पहले उठ जाती हैं। उसने खिड़की के अंदर सिर डालकर एक बार और पुकारा ।
लेकिन मिस मैकैंजी ने कोई जवाब नहीं दिया। वह दूर वाले बर्फ़ से ढके पहाड़
पर चली गयी थीं, जहाँ नीले जेनशियन और बैंगनी कोलंबाइन उगते थे।

फूलों कीआस / 57
९0. 29

आँखों+ ही आँखों+ में

+++

रोश तक ट्रेन के डिब्बे केउस हिस्से में मेरे अलावा कोई नहीं था, फिर
वहाँ सेएक लड़की उसमें चढ़ी ।जो उसे छोड़ने आये थे, वे शायद उसके
माता-पिता थे-वह आराम से पहुंच जाए, इस बात को लेकर फ़िक्रमंद थे और
वह महिला खूब समझाकर बता रही थी कि अपनी चीजें कहाँ, कैसे रखे, कब
खिड़की से न झांके और कैसे अजनबी लोगों से बातचीत करने से बचे।
उन्होंने गुडबाय कहा और गाड़ी स्टेशन से आगे बढ़ी। तब मुझे बिलकुल
नहीं दिखाई देता थाऔर आँखों को सिर्फ़ रोशनी और अंधेरे का अंदाज़ा भर
लग पाता था। मुझे कुछ समझ' में नहीं आया कि लड़की कैसी लगती है, लेकिन
मुझे यह समझ में आ गया कि उसने चप्पलें पहन रखी थीं, क्योंकि चलते समय
उनके उसकी एड़ियों सेटकराने कीआवाज आ रही थी।
मुझे उसकी शक्ल-सूरत के बारे में कुछ जानने-समझने में वक़्त लगता और
शायद कुछ भी न जान पाता । लेकिन मुझे उसकी आवाज अच्छी लगी और उसकी
चप्पलों कीआवाज भी!
'क्या आपको देहरा तक जाना है? मैंने पूछा।
मैं शायद अंधेरे कोने में बैठा था, क्योंकि मेरी आवाज सुनते ही चौंकते
हुए वह बोली-'मुझे नहीं पता था कि यहाँ और भी कोई है।
वैसे तो जिन लोगों की नजरें बिलकुल सही-सेलामत होती हैं, वेभीकभी-कभी
यह देखने से चूक जाते हैं किउनके ठीक सामने कौन है। उन्हें बहुत ज़्यादा
चीज़ों पर ध्यान देना पड़ता है, मुझे लगता है।जबकि शायद जो लोग देख नहीं
52 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पाते या जिन्हें बहुत कम दिखाई देता है, उन्हें सिर्फ़ ज़रूरत भर की उन चीज़ों
पर ध्यान देना पड़ता है जिनके बारे में उन्हें बिना दिखाई दिये भी साफ़-साफ़
पता चल जाता है
मैंने भीआपको नहीं देखा,” मैंने कहा। 'लेकिन जब आप अंदर आयीं
तो मुझे आपकी आहट मिल गयी थी।!
मैं सोच रहा था कि क्या मैं यह बात उससे छुपा पाऊंगा कि मैं देख नहीं
सकता। मैंने सोचा कि अगर मैं अपनी सीट से नहीं उठूंगा तो उसे कुछ नहीं
पता चलेगा।
लड़की बोली, “मैं सहारनपुर स्टेशन पर उतरूंगी। मेरी बुआ मुझे लेने
आएंगी ।
“तब तो मुझे आपसे ज़्यादा नज़दीकी नहीं बढ़ानी चाहिए, मैंबोला । “'बुआएं
बड़ी विकट जीव होती हैं।
“आप कहाँ जा रहे हैं?” उसने पूछा।
ददेहरा जाऊंगा और फिर वहाँ से मसूरी |
वाह, आप तो बड़े नसीब वाले हैं। काश मैं भी मसूरी जाती। मुझे पहाड़
बेहद पसंद हैं, ख़ासतौर से अक्तूबर के महीने में ॥'
हाँ, यहसबसे अच्छा समय होता है, मैंने कहा और बीते दिनों को याद
करने लगा। “पहाड़ों पर जंगली डहेलिया के फूल खिले होते हैं औररात कोआप
आग तापते हुए थोड़ी सी ब्रांडी की चुस्कियां ले सकते हैं। ज़्यादातर टूरिस्ट जा
चुके होते हैं,सड़कें शांत, बल्कि तकरीबन वीरान सी पड़ी रहती हैं। हाँ, अक्तूबर
सबसे अच्छा समय होता है।
. वह चुप थी। मैं सोच रहा था कि वह मेरी बातों में डूब गयी है, याफिर
मुझे पगला-दीवाना समझकर चुप्पी साध गयी है। फिर मैंने एक गलती कर दी।
मैंने पूछ लिया-“बाहर का नजारा कैसा है?!
लेकिन उसे मेरे सवाल में कुछ भी अटपटा नहीं लगा। क्‍या उसे पता चल
गया था कि मैं देख नहीं सकता? लेकिन अगले ही पल उसके सवाल ने मेरी
उलझन दूर कर दी।
“आप खुद खिड़की के बाहर क्‍यों नहीं देखते?” वह बोली।
मैं बर्थ पर बैठे-बैठे सरक कर खिड़की पर पहुंचा और हाथों से खिड़की
को टटोला। खिड़की खुली हुई थी और मैंने अपने चेहरे कोउसी तरफ़ घुमा दिया
आँखों ही आँखों में... / 55
जिससे उसे ऐसा लगे कि मैं बाहर का नज़ारा ही देख रहा हूँ। मुझे इंजन की
हॉफने जैसी छुक-छुक सुनाई दे रही थी और पहियों की गड़गड़ाहट भी और अपने
मन की आँखों से मैं टेलिफ़ोन के खंभों कोएक के बाद एक सरसर करके पीछे
छूटते देख पा रहा था। हर
“आपने ध्यान दिया कि ऐसा लगता है जैसे हम ठहरे हुए हैं और पेड़ पीछे
को भाग रहे हों?!
"ऐसा तो हमेशा ही होता है, वह बोली। “आपने जानवर देखे?
“नहीं,” बड़े विश्वास से मैंने जवाब दिया । मुझे पता था कि देहरा के
आसपास
के जंगलों में अब शायद ही कोई जानवर बचा हो।
मैंने खिड़की की तरफ़ से मुँह घुमाकर लड़की की तरफ़ कर लिया और
कुछ देर हम चुप बैठे रहे।
“चेहरे सेआप दिलचस्प लगती हैं,” मैंने कहा। मेरी हिम्मत खुलती जा रही
थी, लेकिन इसमें ख़तरे की भी कोई बात नहीं थी। कम ही लड़कियां होती हैं
जिन पर बढ़ा-चढ़ा कर की गयी तारीफ़ का असर नहीं होता ।वह खिलखिलाकर
हँस पड़ी-एक खुशनुमा सी खनकदार हँसी।
“दिलचस्प, सुनकर अच्छा लगा। वरना मैं ऐसे लोगों से ऊब चुकी हूँजो
मेरे चेहरे को सुंदर बताते हैं।
अच्छा, तो सचमुच भली सी सूरत है तुम्हारी“, मैंने सोचा और बात को
घुमाकर बोला-वैसे दिलचस्प का मतलब यह तो नहीं कि चेहरा खूबसूरत न
हो!
आप मुझे बड़े रंगीन मिजाज लगते हैं. वह बोली, 'लेकिन इतने संजीदा
क्यों हो रहे हैं?”
फिर मैंने सोचा, मैं उसकी सोच बदलने के लिए हँस दूंगा, लेकिन हँसने
की बात सोचने से ही मुझे बेचेनी और अकेलेपन का एहसास होने लगा।
सिर्फ़ इतना कह पाया-“जल्दी ही आपका स्टेशन आने वाला है।
“गनीमत है, सफ़र लंबा नहीं था। ट्रेन में मुझसे दो-तीन घंटे से ज़्यादा नहीं
बैठा जाता ।
लेकिन मैं कितनी भी देर बैठा रह सकता था, सिर्फ़ उसकी बातों को सुनते
रहने की ख़ातिर। उसकी आवाज़ में पहाड़ी नदी में बनते-फूटते बुलबुलों जैसा
अल्हड़पन था। वह जैसे ही ट्रेन सेउतरेगी, हमारी छोटी सी मुलाकात को भूल
54 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जाएगी, लेकिन मैं इसकी यादों को अपनी मंजिल पर पहुंचने तक याद रखूंगा,
बल्कि उसके बाद भी काफ़ी समय तक नहीं भूलूंगा।
इंजन की सीटी बजी और गाड़ी के पहियों कीआवाज़, उनकी लय बदलने
लगी। लड़की खड़ी हुई और अपनी चीजें इकट्ठी करने लगी। मैं सोचने लगा
कि उसने अपने बालों का जूड़ा बना रखा होगा, या चोटी गूंथ रखी होगी, खुली
जुल्फ़े कंधों पर बिखर रही होंगी, या फिर छोटे कतरे हुए होंगे उसके बाल? पता
नहीं।
ट्रेन कीचाल धीमी पड़ती गयी और फिर स्टेशन आ गया। बाहर कुली
और खोमचे वालों का शोर था और उसी के बीच, दरवाज़े केपास एक महिला
की तीखी सी आवाज़ सुनाई दी, जो ज़रूर उसकी बुआ की रही होगी।
अच्छा, तो हम चलते हैं” लड़की बोली।
वह मेरे बहुत क़रीब ख़ड़ी थी, इतने पास कि उसके बालों की भीनी-भनी
महक मुझे तड़पा गयी। मैंने उसके बालों को छूने. केलिए हाथ उठाया, लेकिन
तब तक वह चली गयी। जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ बची रह गयी सिर्फ़ उसके
बालों सेआती खुशबू। तभी दरवाज़े पर कुछ हलचल सी हुई और फिर मैंने
सुना कि डिब्बे में चढ़ते हुए एक आदमी ने सकपकाकर किसी से माफ़ी मांगी
और दरवाजा धम से बंद हो गया। बाहर की दुनिया बाहर ही रह गयी। मैं
अपनी जगह आकर बैठ गया। गाड़ी की सीटी सुनाई दी और गाड़ी चल पड़ी।
एक बार फिर, एक नया मुसाफिर हमसफ़र बना, जैसे एक नया खेल शुरू हो
रहा हो।
ट्रेन कीचाल में तेजी आयी और पहियों के बोल अपनी उसी पुरानी लय
में सुनाई देने लगे। डिब्बे काकांख-कांख कर हिलना और हिल-हिल कर कांखना।
मैंने खिड़की कोटटोला और उसके सामने बैठ, दिन के उजाले को निहारता रहा
जो मेरे लिए अंधेरे से ज़्यादा कुछ नहीं था।
खिड़की के बाहर अलग ही दुनिया होती है। क्या-क्या होगा वहाँ, यही
कयास लगाने का खेल सा खेलने लगा अपने आप से। स्टेशन से जो नया मुसाफ़िर
चढ़ा था, वह मुझे ख़यालों की दुनिया से हकीक़त की दुनिया में लाया।
“आपको अफ़सोस होगा,” वह बोला। “क्योंकि अभी जो लड़की उतरी है,
उसका जैसा हसीन हमराही तो मैं दूर-दूर तक कहीं से भी नहीं हूँ।'
आँखों ही आँखों में... / 55
'दिलेचस्प लड़की थी, मैंने कहा। क्या आप बता सकते हैं किउसके बाल
लंबे थे या कटे? 28
मैंने ध्यान नहीं दिया,” मेरे सवाल पर कुछ चकराते हुए उसने जवाब दिया।
'मेरा ध्यान उसकी आँखों पर गया, ज्ञ किउसके बालों पर। उसकी आँखें बड़ी
खूबसूरत थीं-लेकिन उसके किसी काम की नहीं थी। वह बिलकुल अंधी थी।
तुमने नहीं देखा?”

56 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


बैंक का निकाला दिवाला

सेःगोविंद राम के पीपलनगर बैंक की सीढ़ियां बुहारते हुए नाथू अपने आप


से ही कुछ बड़बड़ाता जा रहा था। छोटी सी झाड़ू कोवह लापरवाही और
तेजी के साथ इस्तेमाल कर रहा था, जिससे गुबार की शक्ल में सारी धूल उसके
सिर तक उठ-उठ कर फिर से सीढ़ियों परआकर जमा हो रही थी। जब नाथू
सूपड़ा कूड़ेदान पर पटक रहा था, तभी धोबी का बेटा सीताराम उधर से गुजरा |
सीताराम इस्तरी किये हुए कपड़े लोगों के घरों तक पहुंचाने केलिए निकला
था। इस्तरी किये हुए कपड़ों का गट्ठर उसके सिर पर था।
ऐसे धूल न उड़ाओ! उसने नाथू से कहा। "क्या तुम इस बात से
नाराज़ हो कि ये लोग तुम्हें दोरुपये माहवार बढ़ाकर देने को राजी नहीं हो
रहे हैं?”
। में इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता,” नाथू बोला। “मुझे तो अपनी
महीने की पगार तक नहीं मिली हैऔर आज महीने की बीस तारीख हो गयी
है। कौन सोच सकता है कि एक बैंक गरीब आदमी की पगार रोक कर रख
सकता है? जैसे ही मुझे अपना रुपया मिलेगा, मैं तोचला जाऊंगा। अब मैं एक
और हफ़्ता यहाँ नहीं ठहरने वाला / यह कहते हुए नाथू ने सूपड़े से कूड़ेदान
को कई बार पीटा। ऐसा करके वह शायद अपनी बात पर जोर दे रहा था और
उसे हिम्मत मिल रही थी।
“ठीक है,तुम्हारी मंशा पूरी हो.” सीताराम बोला। "मैं भी ध्यान रखूंगा, तुम्हारे
लायक कोई काम जानकारी में आया तो बताऊंगा / यह कहता सीताराम नंगे
बैंक का निकाला दिवाला / 57
पांव सड़क पर आगे बढ़ गया। कपड़ों के गट्ठर की वजह से उसका सिर ही
नहीं, कंधे भीनज़र नहीं आ रहे थे।
चौथे घर में हीसीताराम नेघरकी मालकिन को कहते सुना कि उसे सफ़ाई
वाले की ज़रूरत है। कपड़ों केगट्ठर की गांठ कसते हुए वह बोला-'मैं एक
सफ़ाई करने वाले लड़के को जानता हूँजिसे काम की तलाश है। वह अगले महीने
से काम पर आ सकता है। अभी बैंक में लगा है, लेकिन वहाँ उसे पगार मिलने
में देशी होजाती है, इसलिए वह वहाँ का काम छोड़ना चाहता है।'
ऐसा है? श्रीमती श्रीवास्तव बोलीं। “ठीक है, उससे कह देना कि कल
आकर मुझसे मिले।
और एक ही बार में. एक ग्राहक और एक दोस्त, दोनों केकाम आया.
इस बात से ख़ुश सीताराम ने कपड़ों के गट्ठर को कंधे परउठाया और आगे
की राह पकड़ी।
श्रीमती श्रीवास्तव को कुछ- ख़रीदारी करनी थी। उन्होंने आया को “बेबी'
की देखरेख के बारे में कुछ बातें समझायीं और खानसामा को हिदायत दी कि
दोपहर का खाना तैयार होने में देर नहीं होनी चाहिए। फिर वह हमेशा की तरह
पीपलनगर के बाज़ार में कपड़ों की दुकानों काचक्कर लगाने चली गयीं।
बाज़ार के एक सिरे पर बड़ा सा इमली का पेड़ था और वहीं श्रीमती श्रीवास्तव
को धूप से बचने के लिए खड़ी उनकी सहेली श्रीमती भूषण मिलीं । श्रीमती भूषण
एक बड़े से रुमाल से अपने चेहरे"पर पंखा झल रही थीं। उन्होंने गर्मी का दुखड़ा
रोया और इस बार की गर्मी को पीपलनगर के इतिहास की सबसे भयंकर गर्मी
बताया। फिर उन्होंने श्रीमती श्रीवास्तव को उस कपड़े का नमूना दिखाया जो
वह ख़रीदने जा रही थीं और अगले पांच मिनट तक दोनों उसके रंग, डिजाइन
और कपड़े की किस्म के बारे में बात करती रहीं। जब इस मुद॒दे पर बात करने
के लिए कुछ नहीं बचा, तो श्रीमती श्रीवास्तव ने कहा, 'तुम्हें पता है... सेठ गोविंद
राम के बैंक के पास अपने कर्मचारियों को तन्ख़्वाह देने के भी पैसे नहीं हैं?
आज ही सुबह मुझे पता चला कि उनके यहाँ काम करने वाले सफाई कर्मचारी
को एक महीने से ज़्यादा हो गया तन्ख़्वाह नहीं मिली है?!
“अरे, यह तो चौंकाने वाली बात है! श्रीमती भूषण बोलीं। “अगर वह एक
सफ़ाई वाले को तन्ख़्वाह नहीं दे पा रहे हैं, तोजरूर उनकी हालत ख़राब होगी।
और किसी को भी पगार नहीं मिल रही होगी ।
58 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
वह श्रीमती श्रीवास्तव को वहीं इमली के पेड़ के नीचे छोड़कर अपने पति
को ढूंढने चली गयीं, जो किकमल किशोर की फ़ोटोग्राफ़ी कीदुकान के बाहर
बैठे दुकान के मालिक से बतिया रहे थे।
“अजी, सुनते हो! श्रीमती भूषण चिल्लाईं, 'पिछले एक घंटे से मैं तुम्हें ढूंढ
रही हूँ। कहाँ गायब हो गये थे?”
“कहीं भी नहीं! भूषण साहब बोले। “अगर तुम एक दुकान में टिकतीं,
तो मैं ही तुम्हें ढूंढ लेता, लेकिन तुम तो ऐसे एक दुकान से दूसरी दुकान जाती
हो जैसे बाग में मधुमक्खी |
“अब भुनभुनाना शुरू मत कर दो। पहले ही गर्मी कुछ कम नहीं है। पता
नहीं पीपलनगर को क्‍या हो रहा है? यहाँ का तो बैंक भी दिवालिया होने वाला
है।'
क्या कहा? सीधे बैठते हुए कमल किशोर बोला और फिर हड़बड़ा कर
पूछा-“कौन सा बैंक?”
अरे पीपलनगर बैंक...और कौन सा...मैंने सुना हैकिवहाँ काम करने वालों
को तन्ख़्वाह मिलनी बंद हो गयी है। कहीं वहाँ आपका भी खाता तो नहीं है,
किशोर बाबू?
“नहीं, लेकिन मेरे पड़ोसी का है! वह बोला और बगल में नाई की दुकान
को अलग करने वाली लकड़ी की दीवार के पास जा कर पुकारा, “दीप चंद, क्या
तुमने ताज़ा ख़बर सुनी है? पीपलनगर बैंक का दिवाला निकलने वाला है। जितनी
जल्दी हो सके अपना-अपना पैसा निकाल लो नहीं तो डूब जाएगा ।
दीप चंद जो एक बुजुर्ग आदमी के बाल काट रहा था, चौंकने से उसका
हाथ ऐसा हिला कि कैंची से बुजुर्ग कादाहिना कान केट गया। वह दर्द और
परेशानी से कराह उठे। कान कटने के दर्द कीटीस और उस बुरी ख़बर की
परेशानी जो अभी-अभी उनके कानों में पड़ी। गर्दन के एक तरफ़ के हिस्से में
उस्तरा चलना अभी बाकी था, लेकिन वह कुर्सी सेउठे और तेजी से सड़क पार
करके परचून की दुकान पर पहुंचे जिसके यहाँ फ़ोन लगा था। उन्होंने सेठ गोविंद
राम का नंबर मिला दिया। सेठ जी घर पर नहीं थे। घर पर नहीं, तो कहाँ थे?
पता चला, कि सेठ जी कश्मीर की सैर करने गये थे। अच्छा, ऐसा? बुजुर्ग को
एक बार में तो विश्वास ही नहीं हुआ। वह तेजी से वापस दीप चंद की दुकान
पर आये और उसे बताया, “चिड़िया फुर्र होगयी! सेठ गोविंद राम शहर से जा
बैंक का निकाला दिवाला / 59
चुके हैं। जरूर बैंक का दिवाला निकल चुका है।” और इतनी बात करके वह
दुकान से बाहर निकले और अपनी चेक बुक लाने के लिए सीधे अपने दफ़्तर
का रास्ता पकड़ा।
सारे बाज़ार में पीपलनगर बैंक के दिवालिया होने की ख़बर जंगल की आग
की तरह फैल गयी। परचून की दुकान से वहाँ पहुंचने वाले ग्राहकों तक और
उनके जरिये हर दिशा में फैलती गयी-पान वाले तक, दर्जी तक, खोमचे वाले
तक, सुनार तक, सड़क के किनारे बैठे भिखारी तक।
बूढ़ा भिखारी गनपत, जिसका एक पैर ऐंठा सा था, सड़क के किनारे खड़ंजे
पर बैठे-बैठे बरसों सेभीख मांगा करता था। हर शाम कोई आकर उसे ठेलने
वाली हाथगाड़ी में बैठा कर ले जाया करता था।. उसे कभी किसी ने चलते नहीं
देखा था। लेकिन अब यह पता चलने पर कि. बैंक दिवालिया होने जा रहा है,
गनपत ने लंबे-लंबे डग भरते हुए, बल्कि बैंक कीओर दौड़ लगाकर सब को
हैरत में डाल दिया था। जल्दी ही सब को पता चल गया कि उसने हज़ार रुपये
बचाकर बैंक में जमा कर रखे थे!
लोग गलियों के नुक्कड़ पर खड़े होकर हालात का जायजा ले रहे थे।
पीपलनगर पर शायद ही कभी कोई मुसीबत आयी हो, शायद ही कभी बाढ़
भूकंप या सूखे का प्रकोप हुआ हो, लेकिन पीपलनगर बैंक दिवालिया होने वाला
है, इस ख़बर ने सभी के लिए बातें करने, कयास लगाने और हड़बड़ाकर क्‍या
कुछ न करने को मजबूर कर दिया। कुछ लोग अपनी दूरंदाजी की डींगें हॉकते
और पहले ही बैंक से अपनी सारी रक़म निकाल लेने या जमा ही न करने
के लिए खुद अपनी ही जय-जय करने में लग गये। कुछ बैंक के दिवालिया
होने कीवजह पर बहस में लग गये और आख़िरकार इस नतीजे पर पहुंचे कि
ऐसा सेठ गोविंद राम की शाहख़र्ची कीवजह से ही हुआ। सेठ इस राज्य से
चले गये हैं, एक ने कहा। दूसरा बोला-वह देश छोड़कर जा चुके हैं। तीसरे
ने कहा कि वह पीपलनगर में ही कहीं छुपे हुए हैं। चौथे ने कहा कि उन्होंने
इमली के पेड़ सेलटक कर फ़ासी लगा ली है और सुबह सफ़ाई वाले को उनकी
लाश मिली।
दोपहर होते-होते छोटे से बैंक पर क्‍या नहीं बीती-रोकड़ और मैनेजर
दोनों की दुविधा। अचानक बड़ी रक़म की जरूरत पड़ जाए तो दूसरे बैंक से
मंगवानी पड़ती जो कि यही कोई तीस मील दूर था और उसे समझ में नहीं
60 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
आ रहा था कि जितने लोग अपनी रक़म निकालने आ गये हैं, दूसरे बैंक से
नक़दी आने तक उन्हें इंतज़ार करने के लिए मनाया जा सकेगा या नहीं। और
कश्मीर में सेठ गोविंद राम से उनकी हाउसबोट में किसी सूरत में बात नहीं
की जा सकती थी।
बैंक के काउंटर पर आने वालों को अगले दिन आने के लिए कहकर लौटा
दिया गया। किसी को यह सुनना अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए लोग बैंक
के बाहर, बैंक की सीढ़ियों पर जमा हो गये । 'हमारा रुपया दो, वरना हम जबरदस्ती
अंदर घुस आएंगे! और 'सेठ को सामने लाओ, हमें पता है कि वह सेफ़ डिपॉजिट
लॉकर में छिपे हैं! ऐसे उपद्रवी लोग जिनका एक पैसा भी बैंक में नहीं जमा
था, वे भी भीड़ में शामिल होकर लोगों को उकसाने लगे। मैनेजर दरवाज़े पर
खड़ा होकर उन्हें मनाने कीकोशिश करता रहा। उसने ऐलान किया कि बैंक
के पास पैसे की कोई कमी नहीं है, लेकिन इतना पैसा इकट्ठा यहाँ लाने का
कोई साधन नहीं है। उसने उन्हें अभी अपने-अपने घर चले जाने और अगले
दिन आने की गुहार लगायी।
“हमें अभी पैसा चाहिए! कोई चिल्लाया। “अभी, अभी, अभी !!
इतने में एक ईंट हवा में उछली और पीपलनगर बैंक की बड़ी सी कांच
की खिड़की को चकनाचूर कर गयी।
अगली सुबह नाथू फिर बैंक की सीढ़ियों पर झाड़ लगाने आया। उसने
सीढ़ियों को कूड़े और कांच के चूरे से पटा देखा। उसके होश ही उड़ गये और
उसने अपना सिर पकड़ लिया। फिर गुस्से से बुरा सा मुँह बनाकर चिल्लाया-
“बदमाश! मवाली | गधे के बच्चे! कया देर से पैसा मिलना काफ़ी नहीं था, अपनी
करतूत से मेरा काम और बढ़ा दिया! उसने अपनी झाड़ू से वहाँ पड़ा कूड़ा-कचरा
और बिखेर दिया।
'राम-राम नाथू! धोबी के बेटे नेअपनी साइकिल से उतरते हुए उसकी
ओर देखते हुए कहा। क्या तुम अगले महीने की पहली तारीख़ से दूसरी जगह
काम पर जाना चाहोगे? अब क्‍योंकि बैंक का दिवाला निकल रहा है, तो शायद
कहीं और काम देखना ही पड़ेगा ।'
क्या बक रहे हो?
"तुमने सुना नहीं? अच्छा होगा जोआज तुम कुछ और देर यहीं ठहरो और
पीपलनगर की आधी आबादी के अपनी रक़म वसूलने के लिए यहाँ आने का
बैंक का निकाला दिवाला / 67
इंतजार करो-/ चहकते हुए इतना कहने के बाद वह हाथ हिलाता हुआ ज़ोर लगाकर
साइकिल के पैडल मारता हुआ वहाँ से चला गया।
नाथू वापस सीढ़ियों पर झाड़ूलगाने को बढ़ा, अपने आप से कुछ बड़बड़ाता
हुआ। जब उसका काम ख़त्म हो गया, वह सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर बैठ गया
और मैनेजर का इंतज़ार करने लगा। उसने ठान लिया था कि अपनी तनख़्वाह
लेकर ही जाएगा।
“किसने सोचा था बैंक का ही दिवाला निकल जाएगा ! बहुत दूर कहीं नजरें
दौड़ाते हुए उसने कहा। “ताज्जुब है, कैसे हुआ होगा यह सब...”

62 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


सीता ओर नदी

एक टापू धारा के बीच


न के बीच एक छोटा सा टापू था-उस नदी की धारा के बीच जो हिमालय
पर्वत से निकलती थी और बंगाल की खाड़ी तक जाती थी। नदी टापू को
चारों ओर से अपनी लहरों में लपेट कर रखती थी और कभी-कभी उसके किनारों
पर भी चढ़ जाती थी, लेकिन कभी पूरी तरह उसे अपने आगोश में लेकर उसका
दम नहीं घुटने दिया। जहाँ टापू था, वहाँ नदी गहरी भी थी और बहाव भी
काफ़ी तेज था, क्योंकि हिमालय की पहाड़ियां उसजगह से कुल चालीस मील
ही दूर थीं। बीस साल पहले कंभी नदी में इतना उफान आया था कि टापू
पर बाढ़ का ख़तरा पैदा हो गया था, लेकिन तब वहाँ कोई नहीं रहता था।
लेकिन दस साल पहले एक छोटा सा परिवार वहाँ आ बसा और अब एक छोटी
सी कूटिया, मिट्टी की दीवारों वाली पुआल से छायी कुटिया। कुटिया टापू में
एक बड़ी सी चट्टान के एक हिस्से से इस तरह जुड़ी थी कि उसकी सिर्फ़
तीन तरफ़ की दीवार मिट्टी की थीं और चौथी तरफ़ की दीवार की जगह यह
चट्टान ही थी।
भटकटैया की झाड़ों और छोटी-छोटी घास के बीच कुछ बकरियां चरा करती
थीं। कुछ मुर्गियां भीइधर-उधर घूम-घूम कर दाना चुगती रहती थीं। एक तरबूज
की क्‍्यारी थी, एक सब्जियों कीऔर एक छोटे से खेत में गेंदे केफूल उगा
करते थे। कभी-कभी गेंदे के फूलों कीमालाएं बनाई जाती थीं और उन्हें सहालग
और त्योहार के दिनों में पास के कस्बे में लेजाकर बेच दिया जाता था।
सीता और नदी / 65
टापू केबीच एक पीपल का पेड़ खड़ा था। पानी से घिरे ज़मीन के इस
टुकड़े पर अकेला पेड़ था वह | लेकिन पीपल के पेड़ तो कहीं भी उग आते हैं-पुराने
मंदिरों की दीवारों में, कब्रों पपऔर यहाँ तक कि छतों पर भी और तब आमतौर
पर पेड़ अपनी जगह डटा रहता है, इमारत भले ही ढह जाये!
जब नदी में तेज़ बाढ़ आयी थी, बीस साल पहले, तब भी पीपल का पेड़
अपनी जगह डटा रहा था।
पुराना पेड़ था वह, टापू पर रहने वाले बुजुर्ग सेभी ज़्यादा उम्रदराज ।बुजुर्ग
तो सिर्फ़ सत्तर साल का था। पीपल करीब तीन सौ साल का रहा होगा। जो
चिड़ियां टापू पर जाती थीं, उन्हें उसी पेड़ की छाया में पनाह मिलती थी।
जिस टापू पर पेड़ खड़ा था, वह भी तीन सौ साल पहले नदी के किनारे
वाली जमीन का हिस्सा था, लेकिन जब नदी ने अपना रास्ता बदला, तो पेड़
और उसके आसपास की जमीन से टापू बन गया। पेड़ बरसों बरस अकेला ही
रहा था। अब एक छोटा सा परिवार उसकी पनाह में रहता था और उसकी छाया
इस परिवार के काम आती थी और परिवार वाले उसके आभारी थे।
भारत के लोगों को पीपल के पेड़ों सेबहुत लगाव है, ख़ासतौर से गर्मी
के मौसम में उनके दिल जैसी बनावट वाले पत्ते ज़रा सी हवा में भी फड़फड़ाने
और घनी छांव में बैठने वालों को पंखे की तरह हवा झलने को उतावले रहते
हैं।
पीपल के पत्ते बड़े खूबसूरत, थेऔर दादी को उनमें कृष्ण भगवान का रूप
नज़र आता था-चौड़े कंधे औरफिर पतला होता जाता पतली सी कमर का आभास
देता नीचे वाला हिस्सा। नदी के पार से भी परिंदे और कीड़े-मकोड़े पेड़ कीओर
खिंचे चले आते थे। कई रातों को तो वह जुगनुओं से जगमगा जाता था।
जब कभी दादी जुगनू देखतीं, तोअपनी पसंदीदा कहानी जरूर दोहरातीं-
“जब हम पहली बार यहाँ आये,” वह बोलीं, 'हम मच्छरों से बहुत परेशान
हो गये। एक रात तुम्हारे दादाजी ने खुद को चादर में लपेट लिया ताकि वह
उन तक न पहुंच सकें। कुछ देर बाद दादाजी ने एक कोनें से यह देखने के लिए
झांका कि मच्छर चले गये हैं, या नहीं। उन्होंने एक जुगनू को देखा और उससे
कहा-“रे मच्छर! तुम तो बड़े चतुर हो, तुम्हें अंधेरे में
दिखाई नहीं दे रहा था,
इसलिए तुम लालटेन ले आये!
दादाजी मछली पकड़ने का जाल दुरुस्त कर रहे थे। वह दस साल से नदी
64 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
में मछलियां पकड़ रहे थे और बढ़िया मछुआरे थे। उन्हें पता था कि पतली सी
रुपहली चिलवा, खूबसूरत महसीर और लंबी-लंबी मूंछों वाली सिंघाड़ा मछलियां
पकड़ने के लिए सबसे, अच्छी जगह कौन सी हैं। उन्हें यह भी पता था कि नदी
कहाँ उथलीं हैं और कहाँ ज्यादा गहरी । मछली पकड़ने के लिए कौन सा चारा
इस्तेमाल करना चाहिये-कब केंचुए इस्तेमाल करने चाहिए और कब चने के भीगे
दाने, यह भी वह बखूबी जानते थे।
उन्होंने अपने बेटे कोभी मछली मारना सिखाया था, लेकिन वह चला गया
दूसरे शहर, कोई सौ मील दूर, वहाँ के एक कारखाने में काम करने। उनका कोई
पोता तो था नहीं, बस एक पोती थी-सीता | लेकिन सीता को वे सब काम करने
आते थे, जो आमतौर पर लड़कों के माने जाते हैं। अकसर वह लड़कों से बढ़िया
काम किया करती थी। जब वह कुल दो या तीन साल की थी। दादी ने उसे
वे सब काम सिखाये थे जो एक लड़की को आने चाहिए--खाना बनाना, सिलाई,
मसाले पीसना, घर की सफ़ाई, चिड़ियों को दाना देना-जबकि दादाजी ने उसे
दूसरी चीजें सिखाई थीं जैसे छोटी सी नाव लेकर नदी के दूसरे किनारे तक जाना,
मछली काट कर साफ़ करना, जाल की मरम्मत और फुर्ती सेलपक कर सांप
को उसकी पूंछ से पकड़ना! और कुछ चीजें वह अपने आप सीख गयी थी-जैसे
पीपल के पेड़ पर चढ़ना, उथले पानी में ऊपर पि वाई देरहे घत्थरों पर कूदना-फांदना
और जहाँ एक और भी छोटी सी धारा उस नदी से मिलती थी, वहाँ के शांत
पानी में तैरना।
दादा और दादी दोनों ही पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे, इसलिए सीता भी
पढ़ना-लिखना नहीं सीख पायी थी।
नदी के उस पार के एक गांव में एक स्कूल था, लेकिन सीता वहाँ भी
कभी नहीं गयीं थी । नदी के पास ही छोटा सा जो कस्बा था और मंडी थी शाहगंज
की, उससे आगे वह कहीं और कभी नहीं गयी थी। उसने शहर नहीं देखा था।
ट्रेन में
कभी सफ़र नहीं किया था। नदी की वजह से वह बहुत सारी चीजों से
कटी हुई थी, लेकिन जो कुछ उसकी जिंदगी में कभी रह्म ही नहीं था, उसकी
कमी तो उसे वैसे भी नहीं अखरती और इसके अलावा उसके पास दम मारने
की भी फुरसत नहीं रहती थी।
जब दादाजी अपना जाल ठीक कर रहे थे, सीता घर के अंदर, अपनी दादी
का सिर दबा रही थी, क्योंकि बुख़ार से उनका माथा तप रहा था। बीमार तो
सीता और नदी / 65
वह पहले भी पड़ी थीं, लेकिन इतना बुरा हाल कभी नहीं हुआ था। दादाजी उनके
लिए शाहगंज से मीठे संतरे ले आये थे, क्योंकि वह संतरे की फांकों में से रस
चूस सकती थी, बस। उनसे और कुछ नहीं खाया जा रहा था।
दादी दादाजी से छोटी थीं, लेकिन बीमार होने की वजह से वह कुछ ज़्यादा
ही बूढ़ी लगने लगी थीं। वह कभी भी बहुत तंदुरुस्त तो नहीं थीं। जब देखो
तब खांसती रहती थीं और कभी-कभी उन्हें सांस लेने में भीदिक्कत होती थी।
जब सीता ने दादी को सोते हुए देखा, तो वह उनके बिस्तर के पास से
उठकर नंगे पैर ही चुपचाप, दबे पांव कमरे से बाहर निकल गयी।
बाहर, उसने देखा कि मानसून के काले बादल आसमान पर छाये थे। सारी
रात बारिश हुई थी और ऐसा लग रहा था कि अभी कुछ घंटों में और बारिश
होगी। इस बार मानसून की बारिश जल्दी शुरू हो गयी थी, ठीक जून केआख़िर
में। अब जुलाई ख़त्म होने कोथा और नदी में पहले ही काफ़ी उफ़ान आया
हुआ था। उसके तेज बहाव की आवाज और पास से आती हुई लगती थी और
आम दिनों से ज़्यादा डरावनी लग रही थी। ।
सीता अपने दादाजी के पास गयी और उनके बगल में बैठ गयी।
“जब आपको भूख लगे, तो मुझे बता देना, उसने कहा, 'मैं आपके लिए
रोटी बना दूंगी।
(तुम्हारी दादी सो गयी हैं, क्या?
हाँ, लेकिन वह ज़्यादा देर सो नहीं पाएंगी। उन्हें बहुत दर्द है।
बुजुर्गगार नेनदी के उस पार दूर कहीं गहरे हरे जंगल और मटमैले से
आसमान की ओर निगाहें दौड़ाई और बोले-“अगर वह कल सुबह तक ठीक
नहीं होती, तो मैं उसे शाहगंज के अस्पताल ले जाऊंगा। उन्हें इलाज करना आता
है। तुझे दो-तीन दिन अकेले रहना पड़ेगा । वैसे, पहले भी तो तू अकेले रह चुकी है ॥'
सीता ने बड़ों की तरह गंभीर सा मुँहबनाते हुए सिर हिलाकर हामी भरी-हाँ,
वह पहले अकेले रह चुकी थी, लेकिन ऐसे मौसम में नहीं जब बारिश हो रही
हो और नदी में इतना उफान आया हो। लेकिन उसे मालूम था कि किसी को
तो रुकना ही होगा। वह चाहती थी कि दादी ठीक हो जाएं और उसे यह भी
मालूम था कि इतने तेज बहाव में सिर्फ़ दादाजी ही उस छोटी सी नाव को खे
कर नदी के उस पार लगा सकते थे। ु े
वह इस बात से नहीं नहीं घबराती थी, कि उसे घर पर अकेले रहना पड़ेगा,

66 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


लेकिन उसे नदी के रंग-ढंग अच्छे नहीं लग रहे थे। उसी सुबह जब वह पानी
लेने गयी, तोअचानक उसके देखते-देखते ढेकली ही बह गयी।
“दादाजी, अगर पानी और बढ़ा, तो मैं क्या करूंगी?
“ऊंचाई वाली जगह रहना |
“और अगर पानी ऊंचाई वाली जगह भी पहुंच जाए, तो?
तो मुर्गियों कोसाथ लेकर झोंपड़े में चली जाना ।
“और अगर पानी झोंपड़े में आ जाए, तो?
“तो पीपल के पेड़ पर चढ़ जाना। मज़बूत पेड़ है यह। गिरेगा नहीं और
पानी पेड़ जितना ऊंचा नहीं चढ़ सकता |
“और बकरियां, दादू?
उन्हें मैं
अपने साथ लेकर जाऊंगा। मुझे उन्हें बेचना पड़ सकता है, तुम्हारी
दादी के लिए अच्छे खाने और दवाओं के लिए और जहाँ तक मुर्गियों कीबात
है, तू उन्हें उठाकर झोंपड़े कीछत पर रख सकती है। लेकिन इतनी चिंता न
कर, उन्होंने सीता के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-“पानी इतना ऊपर नहीं
उठेगा। क्या पहले कभी इतना ऊंचा उठा है? और मैं भी जल्दी ही लौट आऊंगा,
याद रख ।
और दादी नहीं आयेंगी क्या?”
हाँ, ...लेकिन यह भी हो सकता है, उसे कुछ दिनों के लिए अस्पताल में
ही भर्ती कर लिया जाए।'

नदी के स्वर
उस रात बारिश फिर होने लगी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें नदी की लहरों
पर गिर रही थीं। लेकिन बारिश का पानी ठंडा नहीं था और सीता को उसमें
भीगने में सर्दी नहीं महसूस हो रही थी, बल्कि अच्छा ही लग रहा था। पिछले
महीने में जब बारिश की पहली फुहारों से पेड़ के पत्तों परजमी धूल धुल गयी
थी और जमीन से सोंधी महक उठी थी, वह ख़ुशी से फूली नहीं समायी थी और
तरह-तरह की आवाजें निकालती इधर-उधर दौड़ती फिरी थी। अब तो उसकी
आदत पड़ चुकी थी, बल्कि बारिश से थोड़ी ऊब ही गयी थी, लेकिन भीगने से
उसे अब भी कोई परहेज नहीं था। घर के अंदर बहुत उमस थी और उसके हल्के
से कपड़े रसोई की आग से थोड़ी सी देर में सूख जाते।
सीता और नदी / 67
वह नंगे पैर डोलती रही, उसके पैर भी खुले थे। कहीं भी पैर रख देती,
क्योंकि उसे मालूम था कि वह फिसलेगी नहीं। उसके पंजे हर तरह की जमीन
पर जम जाते थे, चाहे वहाँ फिसलन हो या तीखी और पथरीली सतह और हालांकि
वह दुबली थी, लेकिन ताक़त इतली कि कोई हैरत में पड़ जाए।
काले बाल उसके चेहरे पर लिपटे जा रहे थे। काली आँखें। पतली पतली
सांवली बाँहें। एक जांघ पर पुराने घाव का निशान-तब का, जब वह छोटी थी
और अपनी ननिहाल गयी थी। वहाँ एक लकड़बग्घा गांव में घुस आया और उस
घर में, जहाँ वह सो रही थी, घुसकर उसके पैरों को अपने जबड़े में दबा, उसे
खींचकर ले जाने लगा, लेकिन उसकी चीखें सुनकर गांव वाले आ गये और
लकड़बग्घे को उसे छोड़कर भागना पड़ा।..
वह मूसलाधार बारिश में घूमती रही, मुर्गियोंकोझोंपड़े केपीछे उनके दड़बे
में खदेड़ने कीकोशिश में |बिना जहर वाला एक भूरा सांप, जिसके बिल में पानी
भर गया होगा, झोंपड़े के बाहर खुली जगह में रेंग रहा था। सीता ने एक डंडी
ली और सांप को उसपर उठाकर पत्थरों के एक ढेर के पीछे डाल दिया। सांपों
से उसका कोई झगड़ा नहीं था। सांप चूहों और मेंढकों की तादाद को काबू में
जो रखते थे। वह सोचती कि पहली बार चूहे टापू पर कैसे पहुंचे होंगे-शायद
किसी की नाव में या अनाज के बोरे में छुपकर।
उसे वे काले-काले बिच्छू अच्छे नहीं लगते थे जोअपनी छुपने की जगह
में पानी भरने के बाद बारिश से बचने के लिए झोंपड़े में आने कीकोशिश करते
थे। बिच्छू पर पैर पड़ने में ज़रा देर नहीं लगती, लेकिन उनके डंक से दर्द के
मारे बुरा हाल हो सकता था। पिछली बरसात में उसे बिच्छू नेकाट लिया था,
जिससे एक दिन और एक रात उसे बुखार रहा और बहुत तेज दर्द हुआ। सीता
पहले कभी किसी जीव को मारा नहीं करती थी, लेकिन उसके बाद से जब कभी
भी बिच्छू दिख जाता, तो उसे पत्थर से कुचल डालती!
आख़िरकार, जब वह घर के अंदर गयी, तो उसे भूख लगने लगी थी। उसने
थोड़े से भुने चने खाये और पीने के लिए थोड़ा सा बकरी का दूध गरम कर
लिया।
दादी एक बार जागीं और पानी मांगा और दादाजी ने पानी का गिलास
उनके होठों से लगाकर उन्हें पानी पिलाया।
सारी रात बारिश होती रही।
68 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
छत टपक रही थी और जहाँ पानी चूह के गिर रहा था वहाँ थोड़ा पानी
भर गया था। दादाजी ने मिट्टी के तेल के लैंप जलाए रखे। उन्हें रोशनी की
जरूरत नहीं थी, लेकिन रोशनी में उन्हें सही-सलामत होने का एहसास मिलता
था।
नदी के बहाव की आवाज़ हमेशा ही रहती थी, लेकिन उन्हें उसका एहसास
बहुत कम ही होता था, पर उस रात नदी की आवाज कुछ बदली-बदली सी थी।
ऐसा लग रहा था जैसे उससे कराहने की सीआवाज आ रही हो। कुछ-कुछ वैसी
आवाज, जैसी तेज़ हवा चलने पर ऊंचे पेड़ों केऊपरी. हिस्सों केझूमने सेआती
थी। साथ में पानी के पत्थरों परफिसलते हुए बहने और बहाव के साथ कंकड़ों
के बहने से एक मंद सी फुफकार सी भी लगातार सुनायी देती थी। कभी-कभी
थोड़ी गड़गड़ाहट और छपाकों की आवाजें भी आती थीं, जब किनारों पर कटान
होने से नीचे की मिट्टी बह जाने के बाद ऊपर की मिट्टी भरभरा कर पानी
में ढहह जाती थी। उस रात सीता को नींद नहीं. आयी।
उसके पास एक गूदड़ की गुड़िया थी, जो उसकी दादी ने पुराने कपड़ों
से बनायी थी। वह हर रात उसे अपनी बगल मेंलिटाती थी। गुड़िया होती थी,
यानी बात करने के लिए उसके पास कोई होता था, ख़ासतौर से तब जब नींद
उससे दूर-दूर भगती थी और रातें कुछ ज्यादा ही लंबी हो जाया करती थीं। उसके
दादा-दादी अकसर उससे बातें करने को तैयार रहते थे, लेकिन कभी-कभी सीता
ही उनके साथ बहुत कुछ साझा नहीं करना चाहती थी और वैसे तो उसकी ज़िंदगी
में कोई ख़ास राज़ नहीं थे, लेकिन कुछ बातों को उसने महज इसलिए राज बना
लिया था, क्योंकि कुछ राज होने काअपना ही मज़ा होता थाऔर अगर आपके
पास कोई राज हों, तोफिर आपके पास कोई दोस्त भी होना चाहिए जिसके
साथ वह राज़ साझा किये जा सकें । क्योंकि टापू पर और बच्चे तो थे नहीं, इसलिए
सीता अपने राज़ गूदड़ की उस गुड़िया को बताया करती थी, जिसका नाम ममता
था।
दादा और दादी सो रहे थे, हालांकि दादी की दम लगाकर सांस लेने की
आवाज़ें भीनदी के बहाव के शोर की तरह ही लगातार आ रही थीं।
ममता, सीता ने अंधेरे में फुसफुसाकर अपनी गुड़िया के साथ अंतरंग
बातचीत का एक और सिलसिला छेड़ दिया था। क्या तुम्हें लगता है कि दादी
फिर से ठीक हो पाएंगी?'
सीता और नदी / 69
ममता उसके सवालों के जवाब जरूर देती थी, भले ही वह सीता के ख़ुद
के अपने मन से निकले जवाब ही होते थे।
“वह बहुत बूढ़ी हैं, ममता ने कहा।
'क्या तुम्हें लगता है कि बाढ़ का पानी हमारे झोंपड़े तक पहुंचेगा?” सीता
ने पूछा।
“अगर बारिश इसी तरह होती रही और नदी में पानी बढ़ता रहा तो झोंपड़े
तक पहुंच जाएगा ।'
'मुझे नदी से डर लग रहा है, ममता। तुम्हें नहीं लगता?!
'डरो नहीं। नदी ने हमेशा हमारा भला ही किया है।'
“अगर हमारे घर में घुस आयी तो हम क्या करेंगे?!
“हम छत पर चढ़ जाएंगे।' धर
“और अगर वहाँ भी पहुंच गयी, तो?
हम पीपल पर चढ़ जाएंगें। पीपल के पेड़ सेऊपर तो यह न पहले कभी
गयी है, न जा सकती है।
जैसे ही छोटे सेरोशनदान से भोर की पहली रोशनी दिखाई दी, सीता उठ
कर बाहर आ गयी। अब ज़्यादा तेज़ बारिश नहीं हो रही थी, लेकिन जैसी एक
सी फूहार पड़ रही थी, वह कई दिन तक चल सकती थी और उसका मतलब
यह भी हो सकता था कि ऊपर पहाड़ों में, जहाँ सेनदी निकलती थी, वहाँ बारिश
जारी थी।
सीता बिलकुल पानी के किनारे पहुंची। उसे अपना पसंदीदा पत्थर नहीं
मिला जिसपर वह अकसर बैठ जाती थी, अपने पैर पानी में लटका कर और
नन्‍हीं-ननन्‍्हीं चिलवा मछलियों को गुजरते देखती थी। पत्थर तो अपनी जगह था,
इसमें कोई शक नहीं था, लेकिन नदी की धारा ने उसे अपने आगोश में ले लिया
था।
वह रेती पर खड़ी थी और उसे अपने पैरों तले रेत में सेपानी कुलबुलाकर
रिसता महसूस हो रहा था।
नदी का रूप ही बदल गया था। अब वह हरी-नीली और चांदी सी
झिलमिलाती नहीं, मटमैले रंग की थी।
वह झोंपड़े केअंदर गयी। दादाजी अब उठ चुके थे। फिर वह नाव को
तैयार करने में लग गये।
79 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
सीता ने बकरी का दूध दूहय, यह सोचते हुए कि हो सकता है वह आख़िरी
बार उसका दूध दूह रही हो। लेकिन जिस तरह वह ममता को अहमियत देती
थी, वैसी परवाह उसे' बकरी की नहीं थी।
सूरज निकल ही रहा था जब दादाजी ने नाव को खोल दिया और उसमें
उतर गये। दादी नाव के अगले हिस्से में थीं। वह एकटक सीता को देखे जा
रही थीं और ऐसा लग रहा था कि कुछ कहना चाहती थीं, लेकिन बोल नहीं
निकल रहे थे। आखिर में, उन्होंने अपना हाथ उठा दिया, आशीर्वाद देने की मुद्रा
में।
सीता झुकी और अपनी दादी के पैर छू लिये और फिर दादाजी ने नाव
को आगे बढ़ा दिया। छोटी सी नाव, दो बुजुर्गों औरतीन बकरियों को लेकर
नदी की धारा पर तेजी से आगे बढ़ चली, दूसरे किनारे कीओर। बहाव बहुत
तेज़ था और दादाजी उसे दूसरे किनारे पर लगाते इससे पहले नाव का आधा
मील आगे निकल जाना तय था।
नाव पानी पर डोलती चली जा रही थी, लगातार छोटी होती चली जा रही
थी और फिर वह नदी के इतने चौड़े पाट पर एक तिनके जैसी नज़र आने लगी।
और अचानक सीता अकेली रह गयी।.
हवा के थपेड़ों सेबारिश की बूंदें उसके चेहरे परचाबुक की तरह लग
रही थीं और पानी का बहाव टापू को पीछे छोड़ तेजी से आगे बढ़ता जा रहा
था। दूर था दूसरा किनारा, जो बारिश में धुंधला सा दिख रहा था। इनके अलावा
एक छोटा सा झोंपड़ा थाऔर था एक पेड़।
सीता काम में लग गयी। मुर्गियों को दाना डालना था। उन्हें दाने केअलावा
और किसी चीज़ से मतलब नहीं था। सीता ने उनके आगे कई मुट्ठी मोटा अनाज,
आलू के छिलके और मूंगफली के छिलके बिखेर दिये।
फिर उसने झाड़ू उठायी और झोंपड़े को बुहारा, लकड़ी के कोयले की अंगीठी
सुलगायी और दूध गरमाया। वह सोचने लगी-“कल दूध नहीं होगा...! उसने
प्याज छीलनी शुरू की।उसकी आँखों में जलन मचने लगी, तो वह पल भर को
ठहरी और शांत झोंपड़े के अंदर इधर-उधर देखा, तो उसे फिर एहसास हुआ कि
वह अकेली थी। दादाजी का हुक्का एक कोने में अकेला खड़ा था। वह पुराना
और शानदार हुक्का सीता के परदादा का था। उसका चिलम चांदी चढ़े नारियल
के खोल से बना था। उसका पाइप कम से कम चार फ़ीट लंबा था। उनके घर
सीता और नदी / 77
की सबसे कीमती चीज़ थी वह। दूसरे कमरे में दादी की शीशम की छड़ी दीवार
के सहारे खड़ी थी। रु
सीता ने ममता को तलाशते हुए नजरें इधर-उधर दौड़ाई, तो गुड़िया उसे
लकड़ी की पाटी वाली चारपायी के त्ीचे मिली। उसे उठाकर उसने इतनी दूरी
पर रख दिया जितनी दूरी तक देखना-सुनना आसान होता है।
बिजली कड़की और उसकी गूंज पहाड़ों सेटकरा-टकरा कर लौटी-
धूम-धूम-धूम...
“इंदर देवता नाराज हैं,' सीता बोली । तुम्हेंलगता हैकि वह मुझसे नाराज़ हैं?”
"तुमसे क्‍यों नाराज होंगे, ममता ने कंहा।
उन्हें नाराज़ होने केलिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं होती। वह हर
चीज से नाराज हो सकते हैं और हम कितने छोदे हैं... तुम्हें लगता है कि उन्हें
पता होगा कि हम यहाँ हैं?'
“किसी को क्‍या पता कि देवता क्या सोचते हैं?”
“लेकिन मैंने तुम्हें बनाया है, सीता ने कहा, और मुझे पता है कि तुम
यहाँ हो ।'
“और अगर नदी में और बाढ़ आयी, तो तुम मुझे बचाओगी न?!
“हाँ, बिलकुल। मैं तुम्हारे बिना कहीं नहीं जाऊंगी, ममता |

बाढ़ का पानी बढ़ता है


सीता से ज्यादा देर अंदर नहीं रहा गया। वह बाहर निकली, अपने साथ
ममता को लेकर, नदी के पाट के उस पार जमीन को देखती रही, जहाँ बाढ़
का ख़तरा नहीं था। लेकिन कया वहाँ सचमुच ख़तरा नहीं था? नदी अब कितनी
चौड़ी लग रही थी। वह अपने किनारों को रौंदती समतल खेतों में फैलती गयी
थी। बहुत दूर लोग अपनी गाय-मैंसों को पानी से भरे खेतों से हॉँक कर ले जा
रहे थे, सिर और कंधों पर गठरियों में अपना सामान ढोते, घर छोड़ किसी ऊंची
जगह की तलाश में और कोई जगह ख़तरे से ख़ाली नहीं थी।
सीता सोचती रही कि दादा और दादी का क्या हुआ होगा। अगर वे किनारे
पर पहुंचे होंगे, तोदादाजी को पांच या छह मील दूर जिला अस्पताल तक दादी
को ले जाने के लिए बैलगाड़ी या इक्का करना पड़ा होगा। शाहगंज में बाजार
था, कचहरी थी, जेल थी, सिनेमा थाऔर एक अस्पताल था।
72 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
वह सोच रही थी कि अब कभी दादी को देख भी पाएगी या नहीं। उसने
बूढ़ी दादी की देखरेख में अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह उन
दिनों को याद करनें लगी जब दादी ने उसका ध्यान रखा था, जब बुख़ार में वह
उसके तपते माथे पर हाथ फेरतीं और कहानियां सुनाती थीं-देवताओं की
कहानियां-कहानियां बाल कृष्ण की, जो पशु-पक्षियों को जी-जान से चाहते थे,
बड़े हीनटखट थे और हमेशा दूसरे देवताओं को उलझन में डाल दिया करते
थे। उन्होंने बिना इंद्र सेपूछे एक पहाड़ को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह
पहुंचा दिया था जिससे इंद्र को क्रोध आ गया था और वर्षा के देवता होने के
नाते बादलों कीगरज और उनमें कौंधने वाली बिजली पर उन्हीं की मर्जी चलती
है और जब उन्हें क्रोध आता है तो पानी की ऐसी बाढ़ से प्रलय जैसा हाल करते
हैं।
टापू अब पहले से काफ़ी छोटा लगने लगा था। किसी-किसी जगह उसके
किनारों की मिट॒टी झटपट घुल कर नदी में बह गयी थी, लेकिन टापू के बीच
में पथरीली ज़मीन थी और पत्थर दरकते तो हैं नहीं, पानी में डूब ज़रूर सकते
हैं।
बाढ़ के हालात को ठीक से देखने के लिए वह पेड़ पर चढ़ गयी थी।
वह पहले भी पेड़ पर चढ़ चुकी थी, लेकिन आज तो वह कुछ ही पल में सबसे
ऊंची डाल तक जा पहुंची। उसने अपनी आँखों को बारिश की सीधी मार से
बचाने के लिए एक हाथ से ढका और जिधर से धारा आ रही थी, उधर देखने
लगी।
हर तरफ पानी ही पानी था। ऐसा लग रहा था जैसे पूरी दुनिया हीएक
बहुत बड़ी नदी में बदल गयी थी। नदी के दूसरे किनारे का जंगल भी ऐसा लग
रहा था जैसे वह नदी में ही उगा हुआ हो, जैसे समुद्र के किनारे के मैंग्रोव वन
होते हैं। आसमान में अब भी पानी से भरे बादलों का जमावड़ा था। बादलों की
गरज पहाड़ों सेटकरा-टकरा कर गूंज रही थी और ऐसा लगता था कि इस खोखली
सी गूंज को नदी अपने आप में समेट रही थी।
नदी में कुछ बहता चला जा रहा था, कुछ बड़ा सा और फूला हुआ सा।
इतनी देर में वह बहकर पास आ गया, तब सीता देख पायी कि वह कितना
बड़ा था-वह एक बैल था, डूबकर मरा हुआ, जो पानी के बहाव के साथ बहकर
जा रहा था।
सीता और नदी / उड
इसका मतलब यह हुआ कि जिधर से नदी बह रही थी, उधर के गांव
पहले ही बाढ़ की चपेट में आ चुके थे। या फिर, शायद बैल ज़्यादा पास जाने
से उफनती नदी के बहाव की चपेट में आ गया होगा।
सीता को जिस बात का सबसे ज़्यादा डर सता रहा था, वही सच निकली,
जब कुछ देर बाद उसने लकड़ी के लट्ठे, छोटे पेड़, झाड़ियां औरफिर एक लकड़ी
का तख़्त टापू के पास से बहकर जाते देखे।
जब वह पेड़ से उतरी, बारिश तेज हो गयी। वह अंदर दौड़ी, जिससे मुर्गियां
डर गयीं। वह पंख फड़फड़ाती झोंपड़े केअंदर घुस गयीं और दादी की खाट के
नीचे छुप गयीं। सीता नेसोचा किअब उन सब को एक साथ रखना ही ठीक
रहेगा। ४
तीन मुर्गियां और एक मुर्गा था। नदी की बाढ़ से उन्हें कोई फ़र्क नहीं
पड़ रहा था। उन्हें सिर्फ़ दाना चुगने में दिलचस्पी थी और सीता ने उन्हें शांत
रखने के लिए मुट्ठी भर प्याज के छिलके डाल दिये।
वह चाहती तो थी कि बारिश की रिमझिम की आवाज़ और उमड़ती-घुमड़ती
नदी की गरज का शोर बाहर ही रहे, लेकिन अगर वह दरवाज़ा बंद कर लेती
तो उसे किसी तरह पता नहीं चलता कि पानी कितनी तेजी से बढ़ रहा था।
उसने ममता को गोद में उठाया और प्रार्थना करने लगी कि बारिश थमे
और नदी की बाढ़ कम हो। उसने इंद्र भगवान से प्रार्थना की, लेकिन वह कहीं
और न उलझे हुए हों, इसलिए उसेने दूसरे देवताओं से भी वही प्रार्थना की। उसने
अपने दादा-दादी और खुद अपने ठीक-ठाक रहने के लिए दुआ मांगी। खुद अपने
बारे में वह बाद में सोचती थी, पहले दूसरों के बारे में!
आख़िरकार सीता ने अपने लिए खाना बनाने का फ़ैसला किया। उसने
प्याज़ काटकर भूनी और फिर उसमें पिसी हुई हल्दी, मिर्च औरनमक डाल कर
कुछ देर चलाया और जब मसाले अच्छी तरह भुन गये, तो उसमें एक प्याला
मसूर और पानी डाल दिया। इतना कुछ करने में क़रीब दस मिनट लगे थे। मसूर
को पकने में क़रीब आधा घंटा लगता।
जब उसने बाहर देखा तो पत्थरों केबीच जगह-जगह पानी जमा हो रहा
था। उसे नहीं पता चला कि वह बारिश का पानी था या नदी का।
अचानक उसे कुछ सूझा।
झोंपड़े केअंदर एक तरफ़ एक बड़ा सा लोहे का संदूक रखा था। दादी
74 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
ने उसमें धागे वाली एक सिलाई मशीन सहेज कर रखी हुई थी। कभी वह एक
अंग्रेज महिला की थी, जो किसी तरह शाहगंज के कबाड़खाने में आ पहुंची, जहाँ
से दादाजी पंद्रह रुपये में उसे घर लेआये थे। मशीन सौ साल से ज़्यादा पुरानी
थी, लेकिन अब भी चलाई जा सकती थी।
संदूक में एक पुरानी तलवार भी थी, जो कि मूल रूप से सीता के परदादा
की थी, जो उन्होंने एक सदी से भी ज़्यादा पहले अपने गांव को रोहिल्ला सैनिकों
के हमले से बचाने के लिए इस्तेमाल की थी। सीता उसे देख कर ही समझ गयी
थी कि उसे लड़ाई में इस्तेमाल किया गया था, क्योंकि उसपर कई जगह दूसरे
हथियारों की चोट से पड़े छोटे-छोटे निशान थे। »*
लेकिन अभी सीता के पास ख़ानदानी विरासत की अच्छाइयों के बारे में
सोचने का समय नहीं था। उसने सारी क़ीमती और काम की चीजों को संदूक
में रखने का फ़ैसला किया। शायद बाढ़ का पानी संदूक को बहा कर न ले जा
सके।
दादाजी का हुक्का संदूक में गया। दादी की छड़ी भी उसी में गयी। रसोई
मेंइस्तेमाल होने वाले मसालों-धनिया, मिर्च, दालचीनी, स्याह जीरा, जायफल-की
डिब्बियां भीआटे और गुड़ के कनस्तर के साथ उसी में गयीं। अगर उसे पेड़
पर कई घंटे बिताने पड़ते हैं, तोउतरने केबाद कम से कम खाने को कुछ तो
होगा।
दादाजी की साफ़ सफ़ेद सूती धोती और दादी की ऐसी इकलौती साड़ी
जो वह रोज़ाना पहनने में नहीं इस्तेमाल करती थीं, वह भी संदूक में गयी। अगर
इन कपड़ों पर मसालों के कुछ निशान भी लग जाएं, तो भी कोई बात नहीं!
और अगर इनमें नमक लगी सूखी मछली की महक आने लगे तो भी कोई बात
नहीं, क्योंकि जो थोड़ी सी सूखी मछली थी, उसे भी संदूक में हीजगह मिली ।
सीता संदूक में तमाम चीजें रखने में इतनी खो गयी कि उसके तलवे ठंडे
पानी का छूना महसूस ही नहीं कर पाये। उसने संदूक को बंद करके उसमें ताला
लगाया और चाबी को चट्टान वाली दीवार की एक दरार में डाल कर खाने की
ओर ध्यान दिया। तभी उसे समझ में आया कि वह पानी से भीगे फर्श पर चल
रही है।
उसने जो देखा, उसे देखकर वह हैरान रह गयी और पल भर के लिए वहीं
ठिठक गयी। दरवाज़े की देहली पर से पानी बहकर कमरे में आ रहा था।
सीता और नदी / 75
डर के मारे वह खाना क्‍या बाकी सब कुछ भी भूल गयी। दौड़कर झोंपड़े
से बाहर निकली और टखनों तक गहरे पानी में छपर-छपर करती पीपल के पेड़
की ओर भागी। अगर पेड़ न होता तो उसे कुछ समझ में नहीं आता कि किधर
को जाना है और तब हो सकता है हड़बड़ी में वह गहरे पानी की ओर, नदी
की ओर ही दौड़ पड़ती।
वह झटपट पेड़ की मजबूत बाहों में चढ़ गयी और अपनी पसंदीदा डाल पर
बैठकर आँखों पर आ रही अपनी भीगी लटें हटाते हुए उसने राहत की सांस ली।

पेड़
वह खुश थी कि उसने समय नहीं गंवाया। अब तक झोंपड़ा हर ओर से
बाढ़ के पानी से घिर चुका था। टापू के सिर्फ़ सबसे ऊंचे हिस्से कीज़मीन ही
दिखाई दे रही थी-कुछ चटूटानें, वह बड़ी चट्टान जिस पर झोंपड़ा खड़ा था,
छोटी सी पहाड़ी जिस पर झरबेरी और धतूरे की झाड़ उगी हुई थीं।
मुर्गियां बचने के लिए झोंपड़े सेनिकलने के झंझट में नहीं पड़ीं। वह बस
लकड़ी के तख़्त पर चढ़ गयीं।
क्या नदी में और बाढ़ आएगी? सीता सोच रही थी। इतनी बाढ़ उसने
पहले कभी नहीं देखी थी।
भारी सी, घुटी-घुटी आवाज के साथ उसके चारों ओर उमड़-घुमड़ रही थी,
नदी-और दूर तक नदी ही नदी फैली हुई थी।
अजीब-अजीब किस्म की चीज़ें बहती हुई जा रही थीं-एल्युमीनियम की
केतली, बेंत की कुर्सी, दंत मंजन का टीन, सिगरेट का खाली पैकिट, खड़ाऊं,
प्लास्टिक की गुड़िया...
गुड़िया!
सीता को ममता याद आ गयी और उसका दिल बैठने लगा।
बेचारी ममता, वह तो झोंपड़े में हीरह गयी थी। जल्दबाजी में सीता अपनी
इकलौती सहेली को भूल गयी थी।
वह पेड़ से उतरी और पानी में फच-फच करती सीधी झोंपड़े की ओर दौड़ी।
पानी के बहाव का जोर उसे पैरों में महसूस हो रहा था। झोंपड़े में घुसी तो देखा
हर तरफ़ पानी ही पानी था। वहाँ न मुर्गियां थीं और न ममता।
बड़ी मुश्किल से किसी तरह वह फिर पेड़ तक पहुंची। बस, सही समय
76 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पर पहुंच गयी थी, क्योंकि पानी अब और बढ़ चुका था और बाढ़ टापू को लीलती
जा रही थी।
वह पेड़ में दो डालों केजोड़ परकिसी तरह सिकुड़ कर बैठी अपनी दुनिया
को पानी में गुम होते देख रही थी।
उसने तो हमेशा नदी को प्यार किया था। अब वह उसे ऐसे क्‍यों धमका
रही थी? उसने गुड़िया को याद किया और सोचने लगी-“अगर मैं अपनी बनायी
हुई किसी चीज़ को लेकर इतनी लापरवाह हो सकती हूँ,तो मुझे भी यह उम्मीद
नहीं करनी चाहिए कि देवता मेरा ध्यान रखेंगे?
पेड़ केबिलकुल पास से कुछ बहता हुआ गया। सीता को एक औरत का
ऊपर को उठा अकड़ा हुआ हाथ दिखा और उसके लंबे बाल पीछे पानी में लहराते
चले जा रहे थे। डूबकर मरी औरत की लाश थी। लाश तो उसी समय बह गयी,
लेकिन उसके बाद सीता खुद को बहुत गया बीता और अकेला महसूस करने
लगी, बड़ी और बेरहम ताकतों की मोहताज । वह कांपने लगी और फिर रो पड़ी।
उसका रोना तब बंद हुआ जब उसने मिट्टी के तेल के एक ख़ाली टीन
के गैलन पर अपनी मुर्गियों में सेएक को बैठे देखा। टीन का वह डब्बा हिचकोले
खाता आया और पेड़ के पास से होता हुआ धीमी रफ़्तार सेआगे बह गया।
डावांडोल सी जगह टिकी मुर्गी कुछ घबराई सी लग रही थी और उसने पंख फैला
रखे थे। ह
कुछ ही देर में सीता ने देखा कि बाकी की मुर्गियां चट्टान के आगे को
निकले हुए हिस्से में बनी छोटी सी खोह जैसी जगह में सिमटी हुई थीं।
पानी का बढ़ना अब भी जारी था। टापू के नाम पर अब बस झोंपड़े का
छप्पर, उसके पीछे वाली बड़ी सीचट्टान और पीपल का पेड़ बचे थे।
वह थोड़ा और ऊपर को चढ़ी और एक डाल के ऐंठे हुए हिस्से पर टिक
गयी। एक जंगली कौवा उससे ऊपर वाली डाल पर था। सीता को उसका घोंसला
दिखाई दे गया, डाल में जिस जगह से एक और डाल निकलती थी, वहाँ सींकों
की बेतरतीब सी मचान जैसा।
घोंसले में चार चितकबरे अंडे थे। कौवा उनपर उदास सा बैठा दबे से स्वर
में कांव-कांव किये जा रहा था। हालांकि कौवा परेशान लग रहा था, लेकिन सीता
को उसे देख कर कुछ राहत मिली । अब कम से कम वह अकेली नहीं थी। कोई
न हो, उससे तो अच्छा ही है कि कौवे का साथ हो।
सीता और नदी / 77
दूसरी चीजें बहकर झोंपड़े से
बाहर आने लगीं-एक बड़ा सा कद्दू, दादाजी
की पगड़ी, जो बाहर आने के बाद खुलने लगी, एक लंबे से सांप की तरह
और फिर-ममता!
गुड़िया के अंदर लकड़ी की छीलन और भूसा भरा था और वह पानी के
ऊपर तेजी से आगे बढ़ रही थी। इतनी तेजी से कि सीता उसे बचाने के लिए
कुछ नहीं कर सकती थी। सीता का मन हुआ कि वह ममता को आवाज़ दे
कर कहे कि वह पेड़ के पास आ जाये, लेकिन उसे मालूम था कि ममता तैर
नहीं सकती-गड़िया सिर्फ़ पानी पर उतराती रह सकती थी, नदी के बहाव के
साथ बह कर दूर तक जा सकती थी और शायद कई मील दूर किनारे भी लग
सकती थी। । |
हवा के थपेड़े और बारिश की बौछारें पेडू कोझकझोर रही थीं। जब
पेड़ हिला तो कौवे ने ज़ोर से पुकारा और हवा में उड़ा। उड़ते हुए पेड़ केकई
चक्कर लगाये और फिर अपने घोंसले में आकर बैठ गया। सीता डाल से लिपटी
रही।
फिर पेड़ का पूरा ढांचा थरथराया। सीता के लिए तो वह भूकंप जैसा था।
पेड़ क्या थरथराया, वह ख़ुद हड्डियों तक कांप गयी।
अब उसके चारों तरफ़ नदी में भंवर बन रहे थे और पानी क़रीब-क़रीब
झोंपड़े कीछत तक चढ़ आया था। मिट्टी की दीवारों को ढहने और बहने में
देर नहीं लगनी थी। अब झोंपड़े: केपीछे वाली बड़ी चट्टान और बहुत दूर खड़े
कुछ पेड़ों केसिवा हर तरफ़ पानी ही पानी नजर आ रहा था। पानी और मटमैला
सा आंसू बहाता आसमान।
काफ़ी दूरी पर, एक नाव में बैठ कई लोग बाढ़ से तबाह गांव से दूर चले
जा रहे थे। उनमें से किसी ने पानी के फैलाव पर नज़र दौड़ाई और कहा-'देखो
तो, नदी के बीच में पेड़ है! पेड़ यहाँ कैसे आया होगा? देखो, पेड़ में कोई
हिलता-डुलता दिखाई दे रहा है!
लेकिन दूसरों ने सोचा कि वह सिर्फ़ बाढ़ केसाथ बह कर आये हुए पेड़
को लेकर ख़याली पुलाव पका रहे थे। ख़ुद पर पड़ी मुसीबत के चलते वह भूल
गये थे कि नदी के बीच में एक टापू भी था।
नदी बौखलाई हुई थी जैसे बेहद गुस्से में हो।पहले पहाड़ों पर कूदती-फांदती
और फिर मैदानी इलाके में गरजती-उफनती, अपने साथ मरे जानवरों की लाशें, -
78 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जड़ से उखड़े पेड़, घरेलू इस्तेमाल की चीजें और मिट्टी वाले पानी के भंवर में
फंसकर दम घुटने से मरी बड़ी-बड़ी मछलियां।
पीपल का पेड़ कांखा। उसकी गहराई तक गयी टेढ़ी-मेढ़ी जड़ें अब भी
उस जमीन को जबरदस्ती पकड़े हुए थीं जहाँ वह बरसों पहले पैदा हुआ था।
लेकिन ज़मीन ही ढीली हुई जा रही थी और पानी की मौजें पत्थरों तक को बहा
कर ले जा रही थीं। पेड़ की जड़ों कीपकड़ तेजी से ढीली पड़ती जा रही थी।
कौवे को जरूर मालूम था कि कुछ गड़बड़ है, क्योंकि वह बार-बार घोंसले
से उड़ जाता था और कांव-कांव करता पेड़ केकई चक्कर लगाकर लौटता-उससे
न तो चैन से घोंसले में बैठा जारहा थाऔर न ही वह घोंसला छोड़ कर उड़
जाने को तैयार था। जब तक घोंसला वहाँ था, तब तक कौवे को वहीं रहना
था।
पानी से तर-बतर सीता के सूती कपड़े उसके बदन पर चिपके थे। बारिश
का पानी उसके लंबे काले बालों के सिरों से भी चुहचुहा रहा था। पत्ते-पत्ते से
बारिश का पानी गिर रहा था। कौवा भी भीग चुका था, कमजोर और थका-हारा
लग रहा था।
पेड़ फिर सेचरमराया और जोर से हिला।
फिर पत्तों में
सरसराहट होने लगी और फिर कीचड़ वाला पानी भलभलाकर
ऊपर को उठने लगा। सीता को ऐसा लगा जैसे नदी आसमान को छूने के लिए
बढ़ रही हो। फिर पेड़ एक तरफ़ झुका और सीता दूसरी तरफ़ झूल गयी। उसके
पैर पानी में चले गये, लेकिन वह अपनी डाल को पूरी मजबूती से पकड़े रही।
और फिर उसने पाया कि पेड़ भी चल पड़ा था, नदी की धारा के साथ-साथ,
अपनी जड़ों को जमीन पर घसीटते हुए वह निकल पड़ा था अपनी ज़िंदगी के
पहले और आख़िरी सफ़र पर और उसके चलने से सीता बेतरह हिचकोले खा
रही थी। ह
और जैसे ही पेड़ नदी की धारा में अपने नये सफ़र पर निकला और छोटा
सा टापू भंवरदार लहरों में खोगया, सीता अपना डर और अकेलापन भूल गयी।
पेड़ उसे अपने साथ लिये जा रहा था। वह अकेली नहीं थी। ऐसा लग रहा था
जैसे किसी एक देवता ने तो उसे ज़रूर याद रखा था।

सीता ओर नदी / 79
साथ बहे बहाव के
पेड़ की डालें पलटा खातीं तो सीता झूल जाती थी, लेकिन उसने अपनी
पकड़ ढीली नहीं होने दी। पेड़ उसका अपना था। वह उसे बचपन से जानता
था और अब मरते-मरते भी उसने उसे अपनी बाहों में इस तरह थाम रखा था,
जैसे वह उसे नदी से बचाना चाहता हो।
कौवा बहते हुए पेड़ केसाथ-साथ उड़ता रहा। उसे बुरी तरह गुस्सा आ
रहा था। पेड़ में अब भी उसका घोंसला था-लेकिन ज़्यादा देर नहीं रहा! पेड़
चरमराया और एक तरफ़ घूम गया और घोंसला पानी में गिर गया। सीता ने
अंडों को डूबते देखा।
कौवे ने हवा में नीचे कोगोता लगाया और पानी के क़रीब से उड़ान भरी
लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता था। कुछ ही पलों में तैरता घोंसला लहरों के
बीच डूब गया।
कौवा कुछ देर तक पेड़ के साथ उड़ता रहा, फिर जोर लगाकर अपने पंखों
को फड़फड़ाते हुए हवा में काफ़ी ऊपर जा पहुंचा। उड़ते हुए उसने नदी पार
की और उड़ते-उड़ते आँखों सेओझल हो गया। न्‍
एक और साथी चला गया था। लेकिन अकेलापन महसूस करने के लिए
समय ही नहीं था। सब कुछ चल रहा था-ऊपर-नीचे, इधर-उधर और आगे।
उसने एक कछुए को तैरता हुआ आगे निकलते देखा-बड़ा सा नदियों में
पाया जाने वाला कछुआ, उस किस्म का जो सड़ता हुआ मांस खाते हैं। सीता
ने मुँह फेर लिया। दूर उसे बाढ़ केबीच एक गांव नज़र आया, जहाँ सपाट पेंदे
वाली नावों में लोग थे, लेकिन वे बहुत दूर थे।
बहुत बड़ा होने कीवजह से पेड़ नदी की धारा में बहुत तेजी से आगे
नहीं बढ़ रहा था। कभी-कभी जब वह उथले पानी में पहुंच जाता था, तो वहीं
ठहर जाता था और उसकी जड़ें आसपास के पत्थरों को थाम लेती थीं, लेकिन
ज्यादा देर के लिए नहीं-नदी के बहाव का जोर उसे फिर बहा ले जाता था।
एक जगह, जहाँ नदी में एक मोड़ था, पेड़ किनारे की रेती से टिक कर
ठहर गया। वह वहाँ से फिर नहीं हिला।
सीता को बहुत थकान महसूस हो रही थी। उसके हाथ दुख रहे थे और
पानी में जाने सेबचने केलिए उसे अपनी डाल को कस कर पकड़े रहना था।
बारिश की वजह से उसे साफ़-साफ़ दिखाई भी नहीं दे रहा था। वह सोचने
पड । 809 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
लगी कि क्‍या वह तेज बहाव का मुक़ाबला करते हुए तैर कर किनारे पहुंच
सकती थी। लेकिन वह पेड़ को नहीं छोड़ना चाहती थी। उसके पास अब
वही तो बचा था और*वह उसकी डालों में ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर रही
थी।
फिर, नदी के शोर को चीरती हुई किसी की आवाज़ उसके कानों में
पहुंची-कोई उसे पुकार रहा था। आवाज़ बहुत धीमी थी और ऐसा लगता था
जैसे कहीं दूर से आ रही हो, लेकिन बारिश के पर्दे केपार जिधर से नदी आती
थी, सीता को उधर से एक नाव अपनी ओर आती दिखाई दी।
नाव में एक लड़का था। बिफरी हुई नदी में भीवह बिलकुल भी परेशान
नहीं लग रहा था और अपनी नाव को पेड़ की तरफ़ खेते हुए वह सीता को
देख कर मुस्करा रहा था। उसने खुद को संभालने के लिए एक हाथ बढ़ाकर
पेड़ कीएक डाल को पकड़ लिया और दूसरा हाथ सीता की तरफ़ बढ़ा दिया।
उसने अपनी ओर बढ़ा हुआ हाथ थाम लिया और नाव में लड़के के बगल
में उतर आयी।
लड़के ने अपने पैर के तलवे को पेड़ के तने पर टिकाया और जोर से
धक्का दिया।
नाव तेजी से नदी में आगे बढ़ चली। सीता ने पीछे मुड़कर देखा, बड़ा
सा पेड़ किनारे की रेती पर जैसे करवट लिये पड़ा था, जबकि नदी की लहरें
उससे टकरा-टकरा कर उसकी डालों को अपनी ओर खींच रही थीं और उसके
खूबसूरत पत्तों कोनोच-नोच कर अपने साथ लिये जा रही थीं।
फिर पेड़ छोटा होता चला गया और बहुत पीछे छूट गया। एक नया सफ़र
शुरू हो चुका था।

नाव वाला लड़का


न बोलने की हिम्मत थी, न ज़रा भी हिलने डुलने की-वह नाव में निढाल
होकर लेट गयी। लड़का उसे देखता रहा लेकिन बोला कुछ नहीं, बस मुस्कराता
रहा। वह बार-बार झुक कर अपने दोनों छोटे-छोटे चप्पुओं परदम लगाता, एक
लय में हौले-हौले उन्हें चलाता, नाव को बीच बहाव में न जाने से बचाने की
कोशिश में जुटा था। वह इतना बड़ा और ताक़तवर नहीं था कि नाव को तेज़
बहाव में जाने सेरोक सके, लेकिन कोशिश करता रहा।
सीता और नदी / 87
एक छोटी सी नाव बड़ी सी नदी में-ऐसी नदी में जिसने अपनी सीमाएं
तोड़ दी हों और हर तरफ़ फैले मैदानी इलाके में पसर गयी हो-ऐसी नदी की
मटमैली तूफ़ानी लहरों केबीच नाव तेजी से चली जा रही थी। लड़की का घर
और लड़के का घर दोनों बहुत पीछे छूट गये थे।
लड़का सिर्फ़ लंगोट बांधे था।वह सरकंडे सा दुबला लड़का था और उसका
पेट बिलकुल तना हुआ सीधा-सपाट। उसके चेहरे की हड्डियों के तेवर गालों
के पीछे नहीं दबे थे और दांत सफ़ेद चमकते थे। सीता से थोड़ा और सांवला
था वह।
जब तक नाव नदी के कुछ शांत और ज्यादा चौड़े पाट वाले हिस्से में नहीं
पहुंच गयी, तब तक वह कुछ नहीं बोला, लेकिन फिर चप्पुओं पर आराम से
हाथ टिका कर नाव को कुछ देर के लिए बहाव्‌ के भरोसे छोड़, वह बोला, “तुम
टापू पर रहती हो। मैंने अपनी नाव से कई बार तुम्हें देखा था। लेकिन बाकी
सब कहाँ हैं?”
'मेरी दादी बीमार थीं, सीता ने कहा। “दादाजी उन्हें शाहगंज के अस्पताल
लेकर गये थे।'
“वह घर से कब निकले थे?
“आज सुबह तड़के ।'
उसी दिन सुबह तड़के-और सीता को ऐसा लग रहा था जैसे वह कई
सुबह पहले की बात हो! '
तुम कहाँ से हो? सीता ने पूछा।
मैं पहाड़ियों केपास के एक गांव से हूँ। तुम्हारे घरसे क़रीब छह मील
दूर है। मैं अपनी नाव में थाऔर यह ख़बर लेकर नदी के पार जाने के लिए
निकला था कि हमारा गांव बुरी तरह बाढ़ की चपेट में आ गया है। बहाव कुछ
ज़्यादा ही तेज था। मेरी नाव बहाव के साथ तुम्हारे टापू औरउसके आगे तक
चली आयी। जब नदी इस रूप में होती है तोहम इसका मुक़ाबला नहीं कर
सकते और तब जहाँ ये ले जाये हमें वहीं चले जाना चाहिए ।
(तुम थक गये होगे, सीता ने कहा। “चप्पू मुझे दे दो।'
“नहीं। अब करने को ज़्यादा कुछ नहीं बचो है। नदी जहाँ तक जाना चाहती
थी, वहाँ तक पहुंच गयी है-अब यह हमें और आगे नहीं ले जाएगी |
उसने एक चप्पू उठाकर नाव में रख लिया और खाली हुए हाथ से जिस
82 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पटरे पर बैठा था, उसके नीचे रखी टोकरी में सेदोआम निकाले और एक सीता
को दिया।
मुझे यह शाहगंज में बेचने थे! वह बोला। "मेरे पिता बहुत सख्त हैं।
अगर मैं सही सलामत घर पहुंच जाऊं, तो भी वह मुझसे यह पूछना नहीं भूलेंगे
कि आम का मुझे क्‍या दाम मिला!
“और तुम उनको क्‍या बताओगे?
मैं कह दूंगा किवह तो नदी में गिर गये!
उन्होंने दांतों सेछिलका उचाल-उचाल कर पके हुए गूदेदार आम खाए।
मीठा रस उनके मुँह से चुहचुहा करबदन तक पहुंच गया। आमों की भली सी
सुगंध-कॉस्मस के फूल की पंखुड़ियों को दोनों हथेलियों केबीच लेकर मसलने
पर फैलने वाली सुगंध-ने सीता के अंदर फिर से नयी जान डाल दी। फल के
स्वाद में स्वर्ग कासा अद्भुत आनंद था-सचमुच देवताओं के अमृत जैसा!
सीता ने पिछले साल के बाद से आम का स्वाद नहीं चखा था। कुछ पल
के लिए तो वह बाक़ी सब कुछ भूल गयी। अगर कुछ काम की बात थी, तो
वह था आम की मिठास से भरा नशीला स्वाद, बाकी सब बेकार।
नाव बहाव के साथ बहती रही, लेकिन पहले की तरह तेजी से नहीं, क्योंकि
जैसे-जैसे नाव पहाड़ों से दूर होती जा रही थी, वैसे-वैसे नदी का ताव ठंडा पड़ता
जा रहा था। दोपहर के बाद कहीं बारिश बंद हुई, लेकिन बादल फिर भी छाये
रहे।
'मेरे बापू केपास बहुत सारी भैंसे हैं, लड़के ने कहा, 'लेकिन उनमें से
कई बाढ़ में बह गयीं ।'
: तुम स्कूल जाते हो? सीता ने पूछा.
हाँ, मुझे स्कूल जाना तो चाहिए। लेकिन मैं रोज़ नहीं जाता, कम से कम
जब मौसम अच्छा होता है तब तो बिलकुल नहीं जाता! हमारे गांव के पास स्कूल
है। मुझे नहीं लगता कि तुम स्कूल जाती हो?
“नहीं। घर पर इतना सारा काम होता है।
'क्या तुम पढ़ना और लिखना जानती हो?
थोड़ा-बहुत...'
“तब तो तुम्हें स्कूल जाना चाहिए ।
स्कूल बहुत दूर है।
सीता और नदी / 85
रॉ “यह"तो ठीक है। लेकिन पढ़ना-लिखना तो तुम्हें आना ही चाहिए। वरना
तुम बाकी की सारी जिंदगी अपने टापू पर हीं रहजाओगी-मतलब, अगर तुम्हारा
टापू बाकी बचा तो!
"लेकिन मुझे टापू अच्छा लगता है,' सीता ने कड़क अंदाज में कहा।
क्योंकि अभी तुम वहाँ अपने लोगों के साथ रहती हो,” लड़के ने कहा।
"लेकिन तुम्हारे दादा-दादी, वह तो बूढ़े हो चुके हैं औरकभी न कभी तो वह
मर ही जाएंगे-तब तुम अकेली बचोगी, ...क्या तब भी तुम्हें टापू अच्छा लगेगा?!
सीता ने कोई जवाब नहीं दिया। वह यह समझने की कोशिश कर रही
थी कि दादा-दादी के बिना उसकी जिंदगी कैसी होगी। ख़ाली-ख़ाली सा लगेगा
टापू, यह बात तो सही थी। और वह नदी की कैद में रह जाएगी।
में तुम्हारी मदद कर सकता हूँ” लड़के ने कहा। "जब हम वापस
लौटेंगे-अगर हम लौटे तो-तो मैं कभी-कभी तुम्हारे पास आ जाया करूंगा और
तुम्हें पढ़ना और लिखना सिखाऊंगा। ठीक है?
हाँ,' सीता नेकहा और अपनी सोच में डूबे रहते हुए सिर हिला दिया।
“जब हम वापस लोौटेंगे।
लड़का मुस्करा दिया।
'मेरा नाम विजय है, वह बोला।
शाम होने को थी तब नदी ने रंग बदला। सूरज, ढलने से कुछ बादलों
के बीच पड़ी फांट में से
निकला और नदी का रंग मटमैले से सुनहरा और सुनहरे
से नारंगी हुआ और फिर जैसे सूरज डूबा, सारे रंग नदी में डूब गये और नदी
ने रात की रंगत अपना ली। ह
चाँद लगभग पूरा था और उन्हें नदी के किनारे केसाथ-साथ जंगल की
पट्टी दिखाई दे रही थी।
मैं पेड़ों तक पहुंचने कीकोशिश करता हूँ. विजय ने कहा।
उसने पेड़ों कीतरफ़ बढ़ना शुरू किया और दस मिनट मेहनत से चप्पू
चलाते रहने के बाद नाव नदी के एक ऐसे मोड़ पर पहुंची जहाँ सेवह उसे नदी
की बीच धारा के तेज़ बहाव से बाहर निकाल सका।
जल्दी ही वह जंगल में पहुंच गये, नाव को साल और शीशमके पेड़ों के
बीच से खेते हुए।
नाव धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, क्योंकि विजय को पेड़ों केबीच से जगह
84 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बनाते हुए चलना पड़ रहा था और नाव के रास्ते में चांदनी झिलमिला रही थी।
“हम नाव को पेड़ से बांध देंगे, उसने कहा। 'फिर हम आराम करेंगे।
कल हमें जंगल से बाहर जाने का रास्ता तलाशना होगा |
उसने नाव की तली से एक रस्सी निकाली और उसका एक सिरा नाव
के पिछले हिस्से से बांध दिया और दूसरे सिरे को एक पेड़ की मज़बूत सी डाल
पर फेंका जो पानी से बस कुछ फ़ीट बाहर थी। धीरे से नाव पेड़ के तने से
सट कर ठहर गयी।
लंबा और मज़बूत पेड़ था वह, महोगनी का। वह सुरक्षित जगह थी, क्योंकि
वहाँ जंगल में पानी का बहाव तेज़ नहीं था और पेड़ पास-पास उगे हुए थे, जिस
से बाढ़ का पानी मिट्टी को आसानी से नहीं बहा ले जा सकता था।
सीता और विजय ने नाव को पेड़ से बांधा ही था कि उन्होंने देखा कि
एक बड़ा सा अजगर पानी में तैरता उनकी ओर चला आ रहा था।
'क्या तुम्हें लगता है कि यह नाव में घुसने की कोशिश करेगा? सीता
ने पूछा।
मुझे नहीं लगता, विजय ने कहा, हालांकि उसने एक चप्पू को हाथ में
उठा लिया था कि जरूरत पड़ने परअजगर को भगाने के लिए उसका इस्तेमाल
कर सके।
लेकिन अजगर आगे निकल गया। सिर पानी से बाहर और लंबा सा शरीर
पीछे-पीछे पानी में लहराता वह आगे बढ़ता गया और सायों में गुम हो गया।
विजय के पास टोकरी में और आम थे और नाव में बैठे-बैठे उसने और
सीता ने मिलकर बेसब्रों कीतरह उन्हें चूसा। एक बड़ा सा नर सांभर पानी में
लहरें पैदा करता आया। उसे तैरने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि वह इतना ऊंचा
था कि उसका सिर और सींग अपने आप ही पानी से बाहर थे। उसके सींग
बड़े-बड़े और खूबसूरत थे।
और भी जानवर होंगे, सीता ने कहा। क्या हमें पेड़ परचढ़ जाना चाहिए ?'
"नाव में भी हमें कोई ख़तरा नहीं है, विजय बोला। “आज की रात जानवरों
से कोई ख़तरा नहीं होगा। आज तो वह एक-दूसरे का शिकार भी नहीं करेंगे,
क्योंकि आज तो बस वह पानी से बाहर सूखी जमीन की तलाश में रहेंगे। जैसे
आज रात हिरन को बाघ और तेंदुए के हमले का ख़तरा नहीं रहेगा। तुम लेट
कर सो जाओ। मैं जागता हूँ, ध्यान रखने के लिए |
सीता और नदी / 85
सीता ने नाव में पांव फैलाये और आँखें बंद कर लीं। वह बहुत थक चुकी
थी और नाव से टकराती लहरों कीआवाज ने लोरी का काम किया जिससे वह
जल्दी ही सो गयी।
एक बार उसकी आँख खुली, जब न जाने कौन-सी चिड़िया सिर परआकर
जोर-ज़ोर से पुकारने लगी थी। उसने अपनी कोहनी के सहारे सिर को उठाकर
देखा तो विजय जाग रहा था और उसने अपने पैर समेट कर ठोड़ी जुड़े हुए घुटनों
पर टिका रखी थी। उसकी नजरें उस पार टिकी थीं। चांदनी में वह नीला सा
लग रहा था, जैसा कृष्ण के बालरूप की छवि में देखने कोमिलता है और पल
भर को तो सीता चकरा ही गयी कि कहीं वह सचमुच में कृष्ण तो नहीं। लेकिन
जब उसने इस बारे में सोचा तो उसे लगा कि ऐसा नहीं हो सकता, वह तो सिर्फ़
गांव का एक लड़का था और उसने उसके जैसें सैकड़ों देखे हैं-वैसे, बिलकुल
उनके जैसा नहीं-वह दूसरों सेकुछ अलग था...
और जब वह फिर सो गयी, उसने सपना देखा कि वह लड़का ही कृष्ण
था और वह एक विशाल सफ़ेद पक्षी पर उसके साथ, उसके बगल में बैठी थी,
जो दोनों को लेकर पहाड़ों केऊपर से उड़ान भरते हुए, हिमालय की बफ़ीली
चोटियों के पार बादलों के बीच देवताओं की नगरी में लेगया। और फिर बहुत
जोर की गड़गड़ाहट हुई, जैसे उसके वहाँ पहुंचने से देवता नाराज हो गये हों और
उस भयानक आवाज से उसकी आँख खुल गयी। उसने देखा कि उस जंगली
रास्ते पर पेड़ों केबीच चांदनी में झिलमिलाती लहरों के बीच पेट तक पानी में
एक हाथी का बच्चा खड़ा था। उसने अपनी सूंड ऊंची उठा रखी थी और चिंग्घाड़
कर अपनी परेशानी जंगल से बयान कर रहा था-आख़िर वह बच्चा ही तो था,
जो खो गया था और अपनी बिछुड़ी हुई मां को ढूंढ रहा था।
वह दोबारा चिंग्वाड़ा और फिर सूंड नीचे करके ध्यान से सुनने लगा। फिर,
बहुत दूर से, एक दूसरे हाथी के ऊंचे स्वर में चिंग्घाड़ने कीआवाज सुनाई दी।
वह जरूर उस बच्चे की मां होगी, क्योंकि उसकी आवाज़ सुनने के बाद वह ख़ुशी
से कई बार चिंग्घाड़ा और फिर पैर पटकता, पेड़ों केबीच भरे बाढ़ के पानी में
हलचल पैदा करता पेड़ों केबीच दिखाई देती एक जगह में घुस गया। उसके
चलने से जो लहरें उठ रही थीं, उससे नाव डोलनने लगी थी।
धघबराने की कोई बात नहीं है, विजय ने कहा। 'फिर से सो जाओ।'
मुझे नहीं लगता कि अब मुझे नींद आएगी,' सीता ने कहा।
86 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
तो मैं तुम्हें बांसरी बजाकर सुनाऊंगा और समय जल्दी कट जाएगा ।
उसने नाव के बैठने वाले पटरे के नीचे से एक बांसुरी निकाली और अपने
होठों पर लगाकर एक़ तान छेड़ दी। उस बांसुरी में सेऐसी मधुर स्वर लहरियां
निकलने लगीं जैसी सीता ने पहले कभी नहीं सुनी थीं और जैसे बांसुरी के इन
सुरों नेजंगल को अपनी मधुरता से भर दिया। यह संगीत उसे फिर एक बार
सपनों की दुनिया में लेगया, जहाँ वह उसी सफ़ेद हंस पर सवार थी-उसी सांवले-
सलोने देवता के साथ और वे बांदलों और धुंध के बीच से गुजर रहे थे, कि
अचानक बादलों के बीच से सूरज के दर्शन हुए। उसी पल सीता ने अपनी आँखें
खोलीं तो महोगनी के पेड़ कीशाखाओं के बीच से नीला आसमान दिखाई दे
रहा था-चमकीली हरी पत्तियों केबीच उजले नीले आसमान के टुकड़े ।
जंगल धूप से नहाया हुआ था। बादल फिर जमा हो रहे थे, लेकिन एक-दो
घंटे तक तो गुस्साई नदी पर सूरज की तेज धूप रहनी ही थी।
विजय नावके पेंदे में सोया पड़ा थाऔर उसकी बांसुरी उसके आधे खुले
हाथ में अब भी मौजूद थी। सूरज तिरछी नज़र से उसके उपघारे सांवले पैरों को
देख रहा था। एक पत्ती उसके चेहरे पर आकर गिरी, लेकिन उसकी नींद नहीं
खुली। पत्ती उसके गाल पर ऐसे पड़ी रही जैसे वहीं उगी हो।
सीता बिलकुल भी हिली-डुली नहीं, क्योंकि वह उसे जगाना नहीं चाहती
थी। इसके बजाय, उसने इधर-उधर नजरें दौड़ाई, यह देखने के लिए कि क्‍या
रात भर में बाढ़ कम हुई थी या नहीं, लेकिन उसे ठीक से पता नहीं चला।
कुछ देर बाद विजय जाग गया। उसने जम्हाई ली, अंगड़ाई ली और सीता
के बगल में जाकर बैठ गया।
'मुझे भूख लगी है.” उसने कहा।
'मुझे भी. सीता बोली।
“अब और आम नहीं हैं, वह बोला और टोकरी में से बचे हुए दोनों आमों
को हाथ में उठा लिया।
गूदा चट करने के बाद, दोनों ने गुठलियों कोतब तक चूसा जब तक
वह सफ़ेद नहीं पड़ गयीं। फेंकी हुई गुठलियां पानी पर उतराती रहीं। सीता को
पानी पर तैरती गुठलियां हमेशा ही कागज़ की नाव से ज़्यादा अच्छी लगती थीं।
“अच्छा हो अब हम यहाँ से आगे बढ़ें, विजय ने कहा।
उसने नाव को खे कर पेड़ों केबीच से आगे बढ़ाया और फिर वह क़रीब
' सीता और नदी / 87
एक घंटे तक बाढ़ में डूबे जंगल में ही चलते रहे, पेड़ों कीडालों सेउनके ऊपर
पानी की बूंदेंटपकती रहीं ।कई बार उन्हें रास्ते में
रुकावट बनने वाली बेलों-लताओं
को चप्पू से हटाना पड़ा। कई जगह पानी में डूबी झाड़ियों में अटक कर उनकी
नाव रुक जाती थी। लेकिन दिन के दस बजने से पहले वह जंगल से बाहर आ
चुके थे। 2032
अब पानी उतना गहरा नहीं रह गया था और जल्दी ही उनकी नाव बाढ़
में डूबे खेतों मेंचल रही थी। दूर उन्हें एक ऊंचे से टीले पर एक गांव नज़र
आया। पुराने ज़माने में लोग डाकुओं और दुश्मन की फ़ौजों से बचाव के लिए
टीलों और पहाड़ियों पर गांव बसाते थे। यह भी एक पुराना गांव था, हालांकि
यहाँ के बाशिंदों नेतलवारों कीजगह हंसिये उठा लिये थे, लेकिन गांव टीले पर
होने की वजह से बाढ़ सेउनका बचाव हो गया था।

बैलगाड़ी की सवारी
गांव के लोग पहले सीता और विजय की मदद करने के लिए तैयार नहीं
थे।
ये पराये हैं,” एक बुढ़िया बोली, “हमारे अपने लोगों में से नहीं हैं ये।'
ये नीची जाति के है,' दूसरे नेकहा। “ये हमारे साथ नहीं रह सकते |
“यह क्या पागलपन है! साफ़ा पहने एक कद्दावर किसान ने अपनी सफ़ेद
मूंछें ऐंठते हुए कहा। “ये बच्चे हैं, कोई चोर-उचक्के नहीं। ये मेरे घर में रहेंगे ।'
गांव के लोग-लंबे-तगड़े, जाट मर्द औरऔरत, दरियादिल थे, एक बार
किसी ने पहला क़दम उठा दिया तो उसके बाद सब का रवैया बदल गया। सब
अपनेपन के साथ मदद करने को आगे आ गये।
सीता अपने दादा-दादी के पास पहुंचने को बेचेन थीऔर उस किसान
ने जिसे कोई बीस मील दूर एक गांव में लगे मेले में कुछ लेन-देन करनी थी,
सीता और विजय को अपने साथ ले जाने की पेशकश की।
मेला करौली नामक स्थान पर लगा था, वहाँ रेलवे स्टेशन था और वहाँ
से शाहगंज के लिए ट्रेन जाती थी।
वह एक ऐसा सफ़र था जिसे सीता हमेशा याद रखेगी। पानी में डूबी सड़क
पर बैलगाड़ी इतनी धीरे-धीरे चल रही थी कि चीज़ों को देखने, एक दूसरे पर
ध्यान देने, बातें करने, सोचने और सपने देखने के लिए समय था।
88 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
विजय से गाड़ी में चैन से नहीं बैठा जा रहा था। वह तो तेज़ी से बहती
जाने वाली नाव की चाल का आदी था। वह बार-बार बैलगाड़ी से नीचे कूद पड़ता
और कई बार तो टखनों तक पानी में पैदल चलता।
गाड़ी में चार लोग थे-सीता, विजय, हुकम सिंह-जाट किसान और उसका
बेटा फमबीरी-पहाड़ जैसा आदमी, जो मेले में कुश्ती के मुक़ाबलों में हिस्सा लेने
जा रहा था।
हुकम सिंह, जो खुद बैलगाड़ी हॉँक रहे थे, उन्हें बातें करने में मजा आता
था। पहले विश्व युद्ध के दौरान वह अंग्रेज सरकार की हिंदुस्तानी फौज में सिपाही
थे और अपनी रेजिमेंट केसाथ इटली और मीसोपोटैमिया गये थे।
“फौजी होने का मुक़ाबला किसी चीज से नहीं किया जा सकता, खेतीबाड़ी
को छोड़कर। अगर तुम किसान नहीं बन सकते, तो फ़ौजी बनना। सुन रहे हो
बेटा? तुम क्या बनोगे-किसान या फ़ौजी?'
दोनों में से कुछ नहीं, विजय ने कहा। "मैं इंजीनियर बनूंगा!
हुकम सिंह की मूंछें जैसे चिढ़ भरे गुस्से से खड़ी हो गयीं।
“इंजीनियर! तेरा बाप क्‍या करता है रे लड़के?
भैंसें पालते हैं।
“अच्छा! और उसका बेटा इंजीनियर बनेगा ?...ठीक है,ठीक है,दुनिया बदल
गयी है, पहले जैसी नहीं रही है! किसी कोअपनी असल औक़ात का अंदाज़ा
नहीं रहा है। लोग अपने बच्चों को पढ़ने भेजते हैं औरनतीजा क्या है? इंजीनियर !
और जब तुम इंजीनियर का काम कर रहे होगे, तो भैंसों कीदेखभाल कौन करेगा ?'
मैं भैंसें बेच दूंगा, विजय बोला, फिर चिढ़ाने केलिए यह और कह
, दिया-'शायद उनमें से एकाध आप ही ख़रीद लें, सूबेदार साहब!
उसने नटखट अंदाज़ का खारापन कम करने के लिए 'सूबेदार साहब' जोड़ा
था, जो कि पुराने जमाने में सेना में नॉन-कमिशंड अफ़सर का पद होता था।
हुकम सिंह कभी इस पद तक नहीं पहुंच पाये थे, सोयह सुनकर तो वह चने
के झाड़ पर चढ़ गये!
“ख़ुशकिस्मती से फमबीरी स्कूल में नहीं पढ़ा है!वह किसान बनेगा, बढ़िया
वाला किसान |
फमबीरी ने कुछ आं ऊ कर दिया, जिसका मतलब कुछ भी लगाया जा
सकता था। उसने छठी क्लास से आगे पढ़ाई नहीं की थीऔर शायद इतना
सीता और नदी / 89
ही काफ़ी था, क्‍योंकि वह ताक़त से काम लेने वाला आदमी था दिमाग इस्तेमाल
करने वाला नहीं।
फमबीरी को अपनी ताक़त किसी फ़ायदेमंद काम में लगाना अच्छा लगता
था। जब कभी बैलगाड़ी का पहिया कीचड़ में फंस जाता था, तो फमबीरी गाड़ी
से उतर कर अपना कुर्ता उतारता और अपना कंधा गाड़ी के एक तरफ़ अड़ाकर जोर
लगाता । उसकी मांस-पेशियां उभर आतीं और उसकी पीठ पसीने से दमक उठती।
'फमबीरी हमारे जिले का सबसे ताक़तवर आदमी है,” हुकम सिंह ने शान
से कहा। “और सबसे होशियार भी! कुश्ती का मुक़ाबला जीतने के लिए बिना
समय गंवाए फ़ैसले लेने पड़ते हैं।
'ममैंने कभी कुश्ती का मुक़ाबला नहीं देखा है,' सीता बोली।
तो फिर कल सुबह हमारे साथ चलना और तुम फमबीरी को कुश्ती लड़ते
देख सकोगी। उसे करौली के सूरमा ने ललकारा है।* मजेदार मुक़ाबला होगा!
“हम फमबीरी को जीतते हुए जरूर देखेंगे।
क्या इतना समय होगा हमारे पास? सीता ने पूछा।
क्यों नहीं? शाहगंज वाली गाड़ी शाम तक नहीं आयेगी। मेला सारा दिन
लगा रहता है और कुश्ती के मुक़ाबले सुबह होंगे।'
“हाँ, तुम देखना मुझे जीतते हुए!” छाती ठोंक कर फमबीरी ने चहकते हुए
कहा। "मुझे कोई नहीं हगता सकता !...और कीचड़ में फंसे बैलगाड़ी के पहिये को
कंधा लगाकर निकालने के बाद गाड़ी में चढ़ गया।
'तुम दावे से कैसे कह सकते हो?” विजय ने पूछा।
“इसे ऐसा ही भरोसा होना चाहिए खुद पर,' हुकम सिंह बोले। "मैंने इसे
इसी तरह पक्के इरादे केसाथ काम करना सिखाया है! अगर शक-शुबा होता
है तो आप कहीं भी नहीं जीत सकते... सही है न फमबीरी? तुम्हें मालूम है कि
तुम ही जीत हासिल करोगे!
'पता है,' फमबीरी आत्मविश्वास के साथ घुरघुराया।
देखो, कोई तो हारेगा ही,” विजय बोला।
“बिलकुल सही,” हुकम सिंह ने यह जताते हुए हामी भरी जैसे यह बात
उनके लिए नयी नहीं थी। “आख़िर हारने वालों के बिना हमारा कैसे भला होगा?
लेकिन फमबीरी के नाम जीत ही जीत है...हमेशा !'
और, अगर वह हार गया? विजय अड़ा रहा।
909 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“तो वह यह बात बिलकुल दिमाग से निकाल फेंकेगा कि वह हारा था और
अगला मुक़ाबला जीत कर लौटेगा!
विजय को नहीं सूझा कि हुकम सिंह की दलील के जवाब में क्‍या कहे,
लेकिन सीता, जो कि इस बहस से उलझन में पड़ गयी थी, उसके सामने अब
सब कुछ साफ़ हो गया था। वह बोली-'शायद इसने अभी तक कोई मुक़ाबला
नहीं जीता है। क्या पिछला मुक़ाबला हारा था?
“चुप! हुकम सिंह ने चौंकते हुए कहा। “उसे याद मत दिलाओ। तुम्हें हारे
हुए मुक़ाबले को भूल जाना चाहिए न बेटा?
'मैं कभी कोई मुक़ाबला हारा ही नहीं हूँ” फमबीरी ने बड़ी सहजता और
विश्वास के साथ कहा।
“कितनी अजीब बात है, सीता बोली। “अगर कोई हार जाता है, तो वह
जीत कैसे सकता है?
“एक फ़ौजी ही यह बात समझा सकता है,' हुकम सिंह ने कहा। “लड़ने
वाले के लिए हार जैसी कोई चीज नहीं होती | तुम नदी के ख़िलाफ़ लड़े न, नहीं
लड़े क्या?
'ममैंने तोख़ुद को नदी के भरोसे छोड़ दिया, सीता ने कहा। “जहाँ ले गयी,
वहाँ चली गयी ।'
हाँ, तुम तो तली में चली जातीं अगर यह लड़का न आता तुम्हारी मदद
करने। नदी से यह लड़ा, है न?
“हाँ, इसने नदी का मुक़ाबला किया, सीता ने कहा।
“नदी से लड़ने में तुमने मेरी मदद की, विजय बोला।
। “इसका मतलब तुम दोनों लड़े,' बूढ़े फ़ौजी नेसिर हिलाकर तसल्ली जाहिर
करते हुए कहा। 'तुम नदी के साथ नहीं बहे और तुमने सब कुछ भगवान भरोसे
भी नहीं छोड़ा ।'
“भगवान हमारे साथ था,” सीता बोली।
और इस तरह वह बातें करते रहे और बैलगाड़ी देहात की धूल भरी कच्ची
डगर पर आगे बढ़ती रही। दोनों बैल सफ़ेद थे और उन्हें गले में रंग-बिरंगे मनको
की माला और घुंघरू पहनाकर मेले के लिए ख़ासतौर से सजाया गया था। बड़े
सीधे और सबर वाले बैलों की जोड़ी थी। लेकिन गाड़ी के पहिये, जिनमें तेल
डालने की जरूरत थी, इस तरह लगातार जोर से चिरचराये जा रहे थे, उनके
सीता और नदी / 97
चरचराने और कराहने से ऐसा लग रहा था जैसे सारे जहान की प्रेतात्माएं उन्हीं
में कैद हो गयी हों।
धान के खेतों मेंसीता नेकई किस्म के पक्षी देखे ।
काले और सफ़ेद करवानक
पक्षी और पूंछ पर गुलाबी फुंदके वाले सारस दिखाई दिये। बढ़िया मानसून का
मतलब है पक्षियों कीभरमार। लेकिन हुकम सिंह को सारस नहीं सुहाते।
वे गेहूँके खेत में बड़ी तबाही मचाते हैं, वह बोले। फिर चिलम सुलगायी,
कश लगाये और फिर से पंडित-ज्ञानियों सीगहरी-गहरी बातें करने लगे-“'किसान
के लिए जीवन एक संघर्ष हैजोचलता ही चला जाता है। जब वह सूखे से उबरता
है, बाढ़ के बाद जी जाता है, जंगली सुअरों को खेत से खदेड़ देता है, सारस
से फ़सल को बचा लेता है...और आख़िरकार फ़सल काट लेता है, तब ख़ून का
प्यासा पिशाच...सूदखोर महाजन । उससे बचना नामुमकिन है! तुम्हारे बाप के सिर
पर कर्ज का बोझ तो नहीं है,बेटा। जो
नहीं.” विजय बोला।
“इसकी वजह यह है कि उसकी बेटियां नहीं हैं ब्याहने केलिए! मेरी दो
हैं। क्योंकि वेभीफमबीरी जैसी हैं, इसलिए उनके लिए खुले हाथों से दहेज देना
पड़ेगा ।'
बात-बात पर बड़बड़ाने के बावजूद हुकम सिंह को जिंदगी में जो कुछ मिला
उससे काफ़ी संतुष्ट लगते थे। उनकी मक्के की फ़सल अच्छी हुई थी और बैलगाड़ी
के अगले हिस्से में ख़ूब ऊपर तक मक्‍के के बोरे लाद रखे थे। वह उसे मेले
में बेचने केलिए जा रहे थे, थोड़े खीरे, बैंगन और तरबूज के साथ।
सड़क ख़राब होने कीवजह से उनकी चाल इतनी धीमी पड़ गयी थी कि
जब शाम होने को आयी तब भी वह करौली से काफ़ी दूर थे। भारत में गोधूली
का समय बस नाम को होता है। सूरज डूबने के कुछ ही देर मेंतारे निकल आते हैं।
“छह मील और चलना है,' हुकम सिंह बोले। “अंधेरे में हमारी गाड़ी के
पहिये फिर कहीं कीचड़ में फंस सकते हैं ।चलो, रात यहीं बिताते हैं। अगर बारिश
हुई, तो हम गाड़ी पर तिरपाल डाल लेंगे।
विजय ने लकड़ी के कोयले की अंगीठी सुलगायी जिसे हुकम सिंह अपने
साथ लाये थे। सादे से खाने के नाम पर उन्होंने आग पर मक्के भूने और उनपर
नीबू केसाथ नमक-मसाला लगाकर खाया। थोड़ा सा दूध था, लेकिन इतना नहीं
था कि सब पी सकें, क्‍योंकि तीन लोटे तो फमबीरी ही पी गया था।
92 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“अगर कल मैं जीत गया,' उसने कहा, तो मैं तुम सब को दावत दूंगा।'
वे सोने के लिए बैलगाड़ी में हीलेट गये और जल्दी ही फमबीरी और उसके
पिता खर्राटे लेने ल़गे। विजय अपने बाजू सिर के नीचे लगाये लेटा था और तारों
को देखे जा रहा था। सीता बहुत थकी थी, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी।
उसे अपने दादा-दादी की चिंता लगी थी। वह सोच रही थी कि उनसे फिर कब
मिलना होगा।
रात आवाज़ों से भरी हुई थी। फमबीरी और उसके पिता जैसी खरटे की
आवाज़ें हर तरफ़ से आती हुई सी लग रही थीं, जैसे अदृश्य लोग वहाँ सो रहे
हों और खरंटे ले रहे हों। इससे सीता डर गयी और विजय की तरफ़ मुड़कर
पूछा-“यह कैसा अजीब शोर है?
वह अंधेरे में मुस्कराया और सीता को उसके सफ़ेद दांत और आँखों में
हँसी की चमक दिखाई दे गयी।
'भूतों की आवाजें हैं जो अंधेरे में खो गये हैं, उसने कहा और फिर हँस
पड़ा। तुम पहचान नहीं पा रही हो कि यह मेंढकों की टर्र-टर्र है?”
तो यह था जो उन्हें सुनायी दे रहा था-भूतों की चीख-पुकार से भी ज़्यादा
डरावना शोर जिसके स्वर लगातार ऊंचे होते जाते थे-टर्र, टर्र, टर्र-ये आवाजें
सड़क के दोनों तरफ़ बारिश के पानी से भरी खाइयों से आ रही थीं। ऐसा लग
रहा था कि जंगल के सारे मेंढक एक जगह इकट्ठे हो गये थे और उनमें से
हरेक के पास उसी वक़्त कहने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर था। उनके भाषण
करीब घंटे भर तक चलते थे। फिर उनकी बैठक ख़त्म हुई और जंगल की शांति
बहाल हुई।
लुक-छिप कर एक सियार सड़क पार कर गया। हवा का एक झोंका पेड़ों
को छूकर निकल गया। बैल, जिनके कंधों पर अब गाड़ी का बोझ नहीं था, उसी
के बगल में सो रहे थे। लोगों केखर्राटे भीअब हल्के पड़ चुके थे। विजय भी
सो गया था। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। सिर्फ़ सीता जाग रही थी,
चिंता में डूबी, सुबह होने का इंतज़ार कर रही थी।

मेले में
सुबह के नौ बजे से ही मेले में भीड़ जुट गयी थी। दुधारु जानवर बिक
रहे थे, उनकी नीलामी के लिये बोलियां लग रही थीं। दुकानें खुल गयी थीं, जिन
सीता और नदी / 95
पर हल्दी से लेकर हल तक सब कुछ बिक रहा था। खाने की चीजें मिल रही
थीं-गर्मागरम, चटपटा-मसालेदार खाना, मिठाइयां औरअलग-अलग स्वाद में बर्फ़
के शरबती गोले। चक्कर वाला झूला, जिसमें तेल नहीं डाला गया होगा, कुछ
ज्यादा ही चीं-चीं कर रहा था, जबकि लाउडस्पीकर पर कानफ़ोड़ू आवाज में मशहूर
फ़िल्मी गाने बज रहे थे। लक
जब फमबीरी अपने कुश्ती के मुक़ाबले की तैयारी कर रहा था, हुकम सिंह
कदूदुओं का भाव-ताव करने में लगे थे। सीता और विजय खुद ही दुकानों पर
घूम-घूम कर खिलौने, पतंग, चूड़ियां, कपड़े और चटक रंगों वाली तर मिठाइयों
को ताक रहे थे। कुछ गांव वाले अपने कंधों पर ज़ोर-ज़ोर से बजते ट्रांजिस्टर-रेडियो
टांगे घूम रहे थे, जैसे उनका लाउडस्पीकर के शोर के साथ मुक़ाबला चल रहा
हो। कभी पास में कोई भैंस रंभाने लगती थी, तो बाकी शोर उसके आगे दब
जाते थे।
तमाम लोग सड़क के किनारे अपने धंधे चला रहे थे। एक ज्योतिषी था।
उसने अपने आगे कागज के कुछ चिट्ठे सजा रखे थे जिन पर कुछ लिखा हुआ
था और सब पर थोड़े-थोड़े चावल रखे थे। उसके पास एक पालतू गौरेया थी।
जब कोई ज्योतिषी को पैसे दे देता, तो वह गौरेया को उसके पिंजरे से निकालता
और गौरेया आगे बढ़कर उन चिट्ठों में से किसी एक पर रखे चावल चुगने लगती ।
वह ज्योतिषी चिट्ठा उठाकर यजमान को उसपर लिखा भाग्यफल, आने वाले कुछ
महीने या बरसों में क्या होगा, वह पढ़कर बता देता।
एक परेशान सा अधेड़ उम्र काआदमी आधा दर्जन बेटे-बेटियों से घिरा
था। वह भाग्य बांचने वाले की बात से और चिंता में डूब गया था क्योंकि उसके
वाले चिट्ठे परलिखा था-“आशा न छोड़ें। आपको जल्दी ही संतान होगी ।'
कुछ दूरी पर एक नाई बैठा था और उसके पास ही एक कान का मैल
निकालने वाला। कई बच्चे बाइस्कोप वाले के डिब्बे केआगे जुटे थे। उसके ऊपर
भोंपू केसाथ एक पुराना ग्रामोफ़ोन लगा था। एक आदमी ने ग्रामोफ़ोन की चाबी
भरने के बाद उसके चक्के पर ख़ूब अच्छी तरह घिसा हुआ ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड
रखा, जबकि उसका साथी जल्दी-जल्दी पीछे से तस्वीरें बदल रहा था।
एक लड़का पूरे जोश के साथ मेला-मैदान में इधर से उधर घूम-घूम कर
मेले में क्या-क्या देखने को है, इसका ऐलान कर रहा था। कुछही देर में कुश्ती
के मुक़ाबले शुरू होने वाले थे। फ़मबरी को “हाथी की सूंड जैसी जांघों वाला'
94 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बताते हुए, उसके और उस गांव के सूरमा-ख़ूब बालों वाली छाती, बाहर को
निकली हुई भवों और जंगली से दिखने वाले शेरदिल के बीच होने वाले मुक़ाबले
को सबसे ज़्यादा दिलचस्प बताया जा रहा था। शेरदिल फमबरी से भारी था,
लेकिन उतना लंबा नहीं था।
सीता और विजय अखाड़े के एक सिरे पर मौजूद हुकम सिंह केपास आ
गये। हुकम सिंह अपने मशहूर बेटे की जांघों पर तेल-मालिश कर रहे थे।
घड़ियाल पर चोट की आवाज गूंजी और शेरदिल अपनी छाती ठोंकता और
जंगली सुअर की तरह घुरघुराता हुआ अखाड़े में आ गया | फमबीरी धीरे से उससे
मिलने के लिए आगे बढ़ा।
फ़ौरन दोनों ने एक दूसरे कोजकड़ लिया और एक दूसरे को गिराने की
कोशिश मेंएक ही जगह खड़े-खड़े कभी एक तरफ़ तो कभी दूसरी तरफ़ थोड़ा-थोड़ा
झुक जाते थे। उनके तेल-मालिश किये बदन पर पसीना चुहचुहा आया था।
शेरदिल ने फमबीरी की कमर को अपनी बाहों के लपेटे में लेकर उसे उठाने
की कोशिश की ताकि जमीन पर से उसके पैरों कीपकड़ छूट जाये, लेकिन फमबीरी
ने अपने विरोधी की टांग को अपनी शक्तिशाली टांग में फंसा लिया तो दोनों
धड़धड़ा कर गिरे और अखाड़े की खिली मिट्टी में बवंडर आ गया। लेकिन दोनों
में सेकोई भी पहलवान चित नहीं हुआ था।
जल्दी ही दोनों मिट्टी से ऐसे सन गये कि दोनों को पहचानना ही मुश्किल
होने लगा। बस अखाड़े में हाथ-पैरों कीहलचल मची थी। लोग चिल्ला-चिल्ला
कर उनका जोश बढ़ा रहे थे, लेकिन पहलवान एक-दूसरे से जूझने में इतना डूबे
हुए थे कि उन्हें अपने चाहने वाला का होश ही नहीं था। दोनों एक दूसरे को
, चित करने की कोशिश में थे। चित करना ही तो सब कुछ था। और किसी चीज़
की गिनती नहीं होती थी।
कुछ पल के लिए शेरदिल की पकड़ में फमबीरी बिलकुल बेबस सा हो
* गया, लेकिन फमबीरी उसे गच्चा देकर उसकी कचूमर बना देने वाली जकड़ से
बच निकला और एक बार फिर अपनी टांगें इस्तेमाल करके उसने ऐसा दांव लगाया
कि शेरदिल अखाड़े के दूसरे सिरे पर जाकर गिरा। फमबीरी ने फुर्ती सेउसे अपने
नीचे दबोच लिया लेकिन यह कोई जीत नहीं थी।
कई मिनट तक कुछ नहीं हुआ। देखने वाले और दांव देखने के लिए
उतावले होने लगे। फमबीरी का मन हुआ कि वह अपने विरोधी का कान मरोड़
सीता और नदी / 95
दे, लेकिन फिर उसे एहसास हुआ कि ऐसा करने से उसे मुक़ाबले से बाहर
किया जा सकता था। इसलिए उसने अपने ऊपर काबू रखा। उसकी पकड़ थोड़ी
सी ढीली हुई और शेरदिल को पलटा खाने का मौका मिल गया। पलटा खाते
ही उसने फमबीरी को ऐसा जोरदार झटका दिया कि वह चक्कर खाता हुआ
अखाड़े के पार जाकर गिरा। फमबीरी अभी उठ कर बैठा ही था, कि दूसरा
पहलवान छलांग लगाकर सीधे उसके ऊपर कूदा। लेकिन फमबीरी ने आगे को
गोता लगाया और अपने विरोधी को अपने पैरों के बीच में दबा लिया फिर
उठकर उसे पीछे को फेंक दिया जिससे वह ज़ोर की आवाज़ के साथ जाकर
गिरा। अब शेरदिल कुछ नहीं कर सकता था और फमबीरी उसके सीने पर बैठ
गया, यह साबित करने के लिए कि जीता कौन है। जब देखने वालों की तालियों
और वाहवाही से यह जाहिर हो गया कि वही जीता है, तब कहीं वह उठा और
रिंग सेबाहर आया।
जब फमबीरी इनाम के तीस रुपये लेने गया, तो उसके पिता सीना चौड़ा
करके उसके साथ खड़े थे। इनाम लेते ही वह नल ढूंढने लगा। अपने बदन से
तेल और धूल धोकर साफ़ करने के बाद उसने साफ़ कपड़े पहने। फिर विजय
और सीता के गले मेंहाथ डालकर कहा-]तुम्हारी वजह से मेरी किस्मत का सितारा
चमका, तुम दोनों कीवजह से |चलो अब मजे करते हैं! और वह उन्हें मिठाई
की दुकान पर ले गया।
उन्होंने शीरे में डूबे रसगुल्ले, बादाम वाली बर्फ़ी, छोटे-छोटे कीमा भरे समोसे
खाये और इन सब चीज़ों को गले से उतारने के लिए सनसनाता हुआ संतरे के
स्वाद वाला सोड़ा पिया।
“अब मैंतुम दोनों कोएक-एक छोटा सा तोहफ़ा ख़रीद कर दूंगा,' फमबीरी
ने कहा।
उसने विजय के लिए चटक नीले रंग वाली स्पोर्टस टी-शर्ट ख़रीदी और
अपने पिता के लिए नया हुक्के का चिलम। वह सीता को गुड़ियों की दुकान
पर ले गया और सीता से अपनी पसंद की एक गुड़िया चुनने केलिए कहा।
दुकान पर हर तरह की गुड़ियां थीं-सस्ती प्लास्टिक की गुड़ियां और हाथ
की बनी गुड़ियां, देश केअलग-अलग हिस्सों के पारंपरिक पहनावों में सजी-धजी ।
सीता को फ़ौरन ममता की याद आ गयी, उसकी अपनी गूदड़ की गुड़िया जिसे
घर पर ही दादी की मदद से बनाया गया था। उसे दादी की याद आ गयी, दादी
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की सिलाई मशीन, वह घर जो बाढ़ में बहगया था और उसकी आँखों से आंसू
बहने लगे।
ऐसा लग रहा था कि गुड़ियां सीता को देख कर मुस्करा रही थीं। दुकान
वाले ने एक-एक करके कई गुड़ियां दिखाईं-उन्हें घुमाकर उनके घाघरे का फैला
हुआ घेर दिखाया और दुकान के कांउटर पर उनके पैर पटक-पटक कर उनकी
पायलों की छम-छम सुनाई। हर गुड़िया सीता को अपने अंदाज में लुभाने की
कोशिश कर रही थी। हरेक को उसका प्यार चाहिए था।
"तुम्हें कौन सी लेनी है” फमबीरी ने उससे पूछा। 'सबसे सुंदर वाली चुन
लो, कीमत की परवाह मत करो!
लेकिन सीता के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह सिर्फ सिर हिलाकर
मना करती रही। कोई भी गुड़िया, चाहे वह कितनी भी सुंदर क्‍यों न हो, ममता
की जगह नहीं ले सकती। वह अब कभी गुड़िया नहीं रखेगी। उसकी ज़िंदगी
का वह हिस्सा ख़त्म हो चुका था।
इसलिए, गुड़िया के बजाय फमबीरी ने उसे चूड़ियां दिलवा दीं। रंगीन कांच
की चूड़ियां जोआसानी से सीता की पतली कलाइयों में चढ़ गयीं। और फिर
वह उन्हें चलते-फिरते सिनेमाघर में लेगया, जो टीन की चादरों की छत के नीचे
चल रहा था।
विजय पहले सिनेमा देख चुका था-शहरों में तो सिनेमा ख़ूब होते ही
हैं-लेकिन सीता के लिए वह भी एक नया अनुभव था। तमाम चीजें जो दूसरे
लड़के-लड़कियों केलिए आम होती हैं, वहउस लड़की के लिए नयी और अजीब
थीं जिसने लगभग सारी जिंदगी एक बड़ी सी नदी के बीच स्थित एक छोटे से
टापू पर बितायी थी।
जैसे ही वह कुर्सियों में बैठे, पर्दा ऊपर उठ गया और एक सफ़ेद पर्दा दिखाई
देने लगा। लोगों ने जो खुसुर-पुसुर लगा रखी थी वह घटते-घटते सनन्‍नाटे में बदल
गयी। फिर सीता को 'किर्रर! की ऐसी आवाज सुनायी दी जो उसके पीछे कहीं
नजदीक से ही आ रही थी, लेकिन इससे पहले कि वह अपना सिर घुमा कर
देखती कि आवाज़ किसकी थी, सामने वाला सफ़ेद पर्दा रोशनी और रंगों से भर
गया। उस पर लोग चलते-फिरते और बोलते नज़र आने लगे। एक कहानी आगे
बढ़ने लगी।
लेकिन काफ़ी दिनों बाद सीता को अपनी देखी पहली फ़िल्म के बारे में
सीता और नदी / 97
सिर्फ इतना .याद रहा कि उसमें तस्वीरों औरघटनाओं का घालमेल था। एक
रेलगाड़ी ख़तरे में थीऔर लोग बेचैनी से कुछ न कुछ बुदबुदा रहे थे। ऊपर
पुल था, नीचे नदी, लेकिन वह उसकी नदी से छोटी थी। पुल के परखच्चे उड़
जाते हैं और रेल का इंजन नदी मेंसमा जाता है। एक औरत को एक आदमी
बचाता है और बचाते ही उसे अपनी बोहों में भर लेता है। बत्तियां फिर सेजल
जाती हैं। लोग धीरे-धीरे उठकर सिनेमा से जाने लगते हैं। ऐसा लगता है कि
इतना कुछ हो गया और उन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा। बल्कि जो कुछ हुआ
उससे वह खुश हैं। वे सारे लोग जो पानी में अपनी जान बचाने की जद्दोजहद
में लगे थे, उन्हें अब कोई ख़तरा नहीं था, वे प्रोजेक्टर वाले कमरे के काले डिब्बे
में बंद हो गये थे।

रेल का सफ़रे
और अब एक असली इंजन, धुआं और अंगारे छोड़ता भाप का इंजन सीता
की तरफ़ आ रहा था।
वह विजय के साथ रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी थी, शाहगंज की
ट्रेन का इंतज़ार कर रहे सौ से भी ज़्यादा लोगों के साथ।
प्लेटफ़ॉर्म परजगह-जगह बिस्तरबंद पड़े थे जिनके बिना इस देश में बहुत
कम ही लोग सफ़र पर निकलते होंगे। इन गोलमटोल बिस्तरबंद पर औरतें, बच्चे,
लोगों के माता-पिता, चाचा-चाची, दादा, दादियां बैठे गाड़ी का इंतज़ार कर रहे
थे, जबकि जिन्हें चलने-फिरने में कोई दिक्कत नहीं थी, वे प्लेटफ़ॉर्म के किनारे
के आसपास मंडरा रहे थे, ट्रेन आते ही उसमें चढ़ कर परिवार के दूसरे लोगों
के लिए जगह घेरने को तैयार। भारत में जहाँ तक लोगों से हो सकता है वह
अकेले सफ़र पर नहीं निकलते। पूरे परिवार को साथ ले जाना जरूरी होता है,
ख़ासतौर से तब जब सफ़र की वजह कोई शादी, तीर्थयात्रा, या यूं भी दोस्तों
और रिश्तेदारों केपास जाना हो।
बिस्तरबंद और दूसरे सामान के बीच पत्र-पत्रिकाएं बेचने वाले, कुली, मिठाई
वाले, चाय वाले और पानी वाले घूम रहे थे। इनके अलावा छुट्टे कुत्ते, छुट्टे
आदमी और कभी-कभी कोई छुट्टा स्टेशन मास्टर भी घूमता दिख जाता। स्टेशन
पर आमतौर पर रहने वाले हो-हल्ले को और भी बढ़ा देता है यार्ड सेआता-जाता
शंटिंग करने वाला भाप का इंजन। “चाय, गरम चाय ! मिठाई, पापड़, गर्म माल,
98 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
ठंडे पेय, आम, दंत मंजन, फिल्‍मी सितारों की तस्वीरें, केले, गुब्बारे, लकड़ी के
खिलौने! प्लेटफ़ॉर्म क्या था, बाज़ार था! ट्रेन देर सेचलती थीं और लोगों को
उनका इंतज़ार करच्ना पड़ता था। यह फेरी लगाकर तरह-तरह की चीजें बेचने
वालों के लिए वरदान था। और जब लोग इंतज़ार करते थे तो वह दूध वाली
चाय पीते थे, बच्चों को खिलौने दिला देते थे, मूंगफली खाते थे, केले खाते थे
और जिन दोस्तों-रिश्तेदारों केघरअचानक पहुंचकर उन्हें चक्कर में डालने वाले
होते थे, उनके लिए छोटे-मोटे तोहफ़े भी ख़रीद लिया करते थे।
लेकिन तभी ट्रेन आ गयी!
सिग्नल गिर गया। एक आवारा कुत्ता, जिसे ट्रेन का सारी उम्र काअनुभव
था, वह दौड़ कर रेल की पटरी पार कर गया। जैसेही ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लगी
उसके दरवाज़े खुल गये और खिड़कियां गिरने लगीं अंदर वाले उतावलेपन से
बाहर झांकते दिखाई देने लगे और इससे पहले कि वह ठहरती, लोग उसमें से
उतरने और अंदर घुसने की कोशिश करने लगे थे।
कुछ देर के लिए तो वहाँ बिलकुल अफ़रा-तफ़री मच गयी। लोगों का रेला
आगे को जाता, फिर पीछे आता। कोई बाहर नहीं आ पा रहा था। कोई अंदर
नहीं जा पा रहा था! पचास लोग उतरने वाले थे, तो सौ चढ़ने वाले! कोई टस
से मस होने को तैयार नहीं था। लेकिन हर समस्या का समाधान कहीं न कहीं
तो मिल ही जाता है, बशर्ते हम गौर से देखें। औरइस समस्या का समाधान
मिला उस शख्स से जो दरवाज़े पर भीड़ देख कर खिड़की से बाहर उतर गया।
उसकी देखा-देखी दूसरे भी खिड़कियों से चढ़ने-उतरने लगे। दरवाज़ों पर जो भीड़
थी वह छंट गयी जिससे चढ़ने-उतरने की दिक्कत खत्म हुई और लोग जगह ढूंढकर
बैठने लगे।
विजय उस सिख के ठीक पीछे हो लिया जो गाड़ी में चढ़ने के लिए लोगों
के रेले में सेअपने लिए रास्ता बना रहा था। वह दरवाज़े पर पहुंचा और अंदर
घुस गया। उसके ठीक पीछे होने सेविजय और सीता भी अंदर पहुंच गये! उन्हें
बैठने की जगह मिल गयी, तब कहीं उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर नज़र डाल कर थोड़ा
मजा लेने का मौका मिला, जो कि ट्रेन के डिब्बे सेकिसी भंवर से कम नहीं
लग रहा था। हुकम सिंह ने टिकट ख़रीद कर देने केसाथ विजय और सीता
को एक रुपया रास्ते में ख़र्च करने केलिए दिया। विजय ने ताजे नारियल की
फांक ख़रीदी और सीता ने अपने बिगड़े बालों के लिए कंघा ख़रीदा। इससे पहले
सीता और नदी / 99
उसने कभी अपने बालों की परवाह नहीं की थी।
उन्होंने एक परेशान आदमी को प्लेटफ़ॉर्म पर अपने परिवार को ढूंढते देखा,
जबकि उसके घर के लोग उससे पहले ही ट्रेन में चढ़ चुके थे। उन्होंने उसे आंदर
बुला लिया । इंजन ने सीटी मारी औरगाड़ी चल पड़ी !एक-दो फेरी वाले चलते-चलते
भी अपना माल बेचने में जुटे रहे, फिर धीरे-धीरे चलती ट्रेन सेकूद गये। एक
तो बड़ी सफ़ाई से एक हाथ में चाय के प्यालों की ट्रे लेकर कूद गया।
ट्रेन कीचाल में तेजी आयी।
'जो लोग प्लेटफ़ॉर्म पर रह गये, अब वे क्या करेंगे? सीता के पूछने से
लग रहा था कि उसे चिंता थी। “क्या वे सब वहीं रह जाएंगे?”
उसने अपना सिर खिड़की से थोड़ा सा बाहर निकाला और पीछे छूटते
प्लेटफ़ॉर्म कीओर देखा। अजीब बात थी कि वह तो बिलुकल खाली था। सिर्फ़
फेरी वाले, कुली, आवारा कुत्ते और लुटे-पिटे से रेलवे के कर्मचारी वहाँ थे। यह
तो चमत्कार हो गया। कोई भी. नहीं छूटा-सारे मुसाफिर ट्रेन में आ गये थे!
फिर ट्रेन रात के अंधेरे में
अपने सफर पर तैजी से आगे बढ़ती रही, इंजन
से निकल रहे अंगारे जुगनुओं की तरह हवा में बिखर जाते थे। कभी-कभी गाड़ी
की चाल धीमी पड़ जाती थी, क्योंकि बाढ़ की वजह से पटरियों के पुश्ते कमजोर
पड़ गये थे। कई बार ट्रेन ऐसे स्टेशन पर रुकती थी जहाँ ख़ूब रोशनी होती थी।
जब ट्रेन फिर देहात के अंधेरे इलाकों कीओर चलती थी, तो सीता खिड़की
के कांच से शहर की झिलमिलाती. बत्तियां और गांवों की ढिबरियों की धीमी रोशनी
को देखती थी। वह फमबीरी और हुकम सिंह के बारे में सोच रही थी, कि क्‍या
वह उनसे दोबारा कभी मिलेगी। उसे वह अभी से परी कथाओं के लोग लग
रहे थे, जो कुछ देर के लिए मिले और फिर कभी नहीं दिखाई दिये।
डिब्बे में लेटने लायक जगह नहीं थी, लेकिन सीता को नींद आ गयी और
वह विजय के कंधे पर सिर रखकर सोती रही।

मिलन के साथ जुदाई


सीता को नहीं पता था कि अपने दादा को कहाँ ढूंढे ।
एक घंटे तक वह
और विजय शाहगंज के बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। उनकी भूख लगातार
बढ़ती जा रही थी। उनके पास पैसे नहीं बचे थे और गर्मी और प्यास से उनका
हाल बेहाल था।
00 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बाज़ार के आगे एक छोटे से मंदिर के पास उन्होंने एक पेड़ देखा जिसपर
चढ़कर लड़के उसके खट्टे बैंगनी फल खा रहे थे।
विजय को उन लड़कों के साथ शामिल होने में देर नहीं लगी। उसके आने
से उन्हें कोई एतराज़ नहीं था। वैसे भी, वह उनका पेड़ तो था नहीं।
सीता पेड़ के नीचे खड़ी हो गयी और विजय जामुन तोड़-तोड़ कर उसके
पास फेंकता रहा। थोड़ी ही देर में उनके पास काफ़ी सारे जामुन हो गये। वह
फिर सड़क पर चल पड़े और अब उनके मुँह बैंगनी रस से रंगे हुए थे।
वह शाहगंज अस्पताल का रास्ता पूछ रहे थे, तभी सीता ने सड़क पर अपने
दादा की एक झलक देखी।
एक बार तो दादाजी ने उसे पहचाना ही नहीं। वह सड़क पर सीधे चले
जा रहे थे और वह धूल में सनी बदहाल सी लड़की पर ध्यान दिये बिना ही
निकल जाते, अगर सीता ने उनकी दुबली-पतली टांगों कोजाकर पकड़ नहीं लिया
होता, उनकी कमर से लिपट नहीं गयी होती।
सीता! उनके मुँह से निकला। हैरानी के पलों केबाद जब वह बोलने
लायक हुए तो उन्होंने पूछा-“तुम यहाँ कैसे पहुंचीं? तुम टापू सेबाहर कैसे निकल
आयी? मुझे बहुत चिंता हो रही थी-अच्छा समय नहीं था, पिछले दो दिन तो
बहुत बुरे थे...
<दादी ठीक हैं? सीता ने पूछा.
लेकिन जब वह पूछ रही थी, तभी उसे आभास हो गया था कि दादी
अब उनके बीच नहीं थीं। दादा की बूढ़ी आँखों का सूनापन देखकर उसने सब
समझ लिया। उसका रोने का मन हुआ-दादी के लिए नहीं, अपने दादाजी के
लिए, जिनके लिए और तक़लीफ़ झेलना मुश्किल हो रहा था। बल्कि जो अब
कितने निरीह और घबराये हुए लग रहे थे और वह उन्हें दुःखी नहीं देखना
चाहती थी। उसने अपने आंसुओं को आँखों में हीसमेट लिया। उनका सिकुड़ा
सा कंपकंपाता हाथ अपने हाथ में लिया और चल पड़ी। विजय उसके साथ
चल रहा था।
उसने जान लिया था कि आने वाले बरसों में उसके दादा उसी के सहारे
रहेंगे।
दादाजी के पास अभी दो बकरियां बची थीं-एक से ज़्यादा बेचने की ज़रूरत
ही नहीं पड़ी, लेकिन अब वह भरी हुई नाव में बढ़ी हुई नदी पार करने का ख़तरा
. सीता और नदी / ॥07
नहीं उठाना चाहते थे। उन्होंने बाढ़ कापानी कम होने तक, दो दिन और शाहगंज
में ही, एक धर्मशाला में ठहरने का फैसला किया।
लेकिन विजय सीता के साथ और नहीं रह सकता था।
“अब मुझे जाना चाहिए,” उसने कहा। "मेरे माता-पिता बहुत चिंता कर
रहे होंगे। उन्हें कुछ नहीं पता होगा कि? मुझे कहाँ ढूंढें ।
एक या दो दिन में पानी
उतर जाएगा और तब तुम अपने घर जा सकोगी |
'शायद टापू अब रहा ही न हो! सीता ने कहा।
“टापू जरूर होगा. विजय ने कहा। 'पथरीला टापू था न। खेती के लिए
ठीक नहीं था, लेकिन मकान के लिए बढ़िया!
तुम आओगे? सीता ने पूछा।
वह पूछना तो यह चाहती थी कि क्‍या तुम मुझसे मिलने आओगे? लेकिन
शर्म के मारे यह उससे कहा नहीं गया। इसके अलावा, उसे यह भी तो नहीं
पता था कि विजय भी उससे फिर मिलना चाहेगा?
में जरूर आऊंगा,' विजय ने कहा। “अगर मेरे पिता ने मुझे दूसरी नाव
दिलवा दी तो!
जब वह जाने लगा, तो उसने अपनी बांसुरी सीता को दे दी।
“इसे अपने पास रखो,” वह बोला, “मैं एक दिन इसे लेने आऊंगा |
जब उसने देखा कि सीता झिझक रही है,तो वह मुस्कराया और बोला-“यह
अच्छी बांसुरी है!

वापसी
एक बार फिर बारिश हुई, लेकिन इस बार उतनी तबाही नहीं मची। जब
सीता और उसके दादाजी टापू पर लौटे, तब तक नदी की बाढ़ ख़त्म हो चुकी
थी।
दादाजी को देखने के बाद भी बड़ी मुश्किल से विश्वास हुआ कि पीपल
का पेड़ बाढ़ में बहगया था-वह पेड़ जो उनकी जिंदगी का उतना ही अहम
हिस्सा था जितनी नदी। उन्हें ऐसा लगता था कि यह टापू की तरह हमेशा अपनी
जगह बना रहेगा। सीता बाढ़ से कैसे बची, यह जानकर वह हैरान थे।
पेड़ ने तुम्हें बचा लिया,” उन्होंने कहा।
और उसने,' सीता बोली।
702 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
हाँ, सीता को बचाने में उसका भी हाथ था।
वह विजय के बारे में सोचने लगी कि क्या अब वह उससे फिर कभी मिल
पाएगी? कहीं वह भी फमबीरी और हुकम सिंह की तरह न निकले, जो ऐसे आये
जैसे किसी परी कथा का हिस्सा हों और फिर अचानक रहस्यमय तरीके से गायब
हो जाएं? तब उसे यह नहीं पता था, लेकिन हमारी जिंदगी में कुछ ताक़तें ऐसी
होती हैं जिन्हें सिर्फ़ हमें छूकर अपने रास्ते चला जाना होता है
और क्योंकि अब दादी नहीं थीं, टापू पर जिंदगी के मायने बहुत बदल
गये थे। शाम अकेलेपन और दर्द से भरी होती।
लेकिन अभी बहुत सारा काम करना था। सीता के पास दादी या विजय
या उस दुनिया के बारे में सोचने के लिए ज़्यादा समय नहीं थाजिसकी झलक
उसने अपने सफ़र में देखी थी।
तीन रात तक दादा और पोती जूट के बोरों से तैयार किये गये कामचलाऊ
साये में सोये। दिन केसमय सीता मिट्टी की नयी कुटिया बनाने में दादा की
मदद करती। एक बार फिर उन्होंने सहारे केलिए चट्टान को इस्तेमाल किया।
जिस संदूक में सीता ने इतनी होशियारी से तमाम चीज़ें सहेज के रख दी
थीं, वह बाढ़ में बहने सेबच गया था, लेकिन उसमें पानी चला गया था जिससे
खाने की चीज़ें और कपड़े ख़राब हो गये थे। लेकिन दादाजी का हुक्का बच गया
था। शाम को जब उनका काम ख़त्म हो जाता, तब सीता का बनाया कुछ
हल्का-फुल्का खाना खाने के बाद उन्हें हुक्का पीने सेपहले जैसी तसल्ली होती।
वह सीता को अपने लड़कपन के दिनों में कई बार नदी में आयी बाढ़ के बारे
में बताया करते थे। वह उसे कुश्ती के उन मुक़ाबलों के बारे में बताया करते
थे जो उन्होंने जीते थे, जो पतंगें वह उड़ाया करते थे, जो इनामी पेंच लड़ाये
जाते थे और दो पतंगे तब तक एक दूसरे से उलझती रहती थीं जब तक कि
एक कट नहीं जाती थी।
. पतंगबाजी तब राजाओं का खेल हुआ करता था। दादाजी को याद था
कि कैसे पतंग उड़ाने के राजसी शौक की ख़ातिर ख़ुद राजा नदी के किनारे पतंग
उड़ाने आया करता था। उस समय लोगों के पास समय था हवा में नाचते कागज
के मस्त टुकड़े के साथ बिताने केलिए। अब जिसको देखो उस पर उम्मीदों की
तपन का असर है, हर किसी को जल्दी मची है, ऐसे में, पतंग और दिन के सपनों
जैसी नाजुक बातें पैरों तले कुचल जाती हैं।
सीता ओर नदी / 765
दादाजी को याद था कि उन्होंने एक 'ड्रैगन पतंग” बनायी थी-एक बड़ी
सी पतंग जिस पर एक चेहरा बना हुआ था। आँखों की जगह छोटे-छोटे शीशे
लगाये थे और पीछे रेंगते हुए सांप की.जैसी काग़ज़ की पूंछ बनायी थी। उसे
उड़ाते हुआ देखने के लिए भारी भीड़ जुटी थी। पहली कोशिश में तो पतंग ने
जमीन से ऊपर उठने का नाम ही नहीं भ+लिया। फिर सही दिशा से हवा के झोंके
आये और ड्रैगन पतंग आसमान की ओर उठी। फिर सांप की तरह
लहराती-बलखाती ऊपर और ऊपर और भी ज़्यादा ऊपर उठती चली गयी। बहुत
ऊंचाई पर पहुंच गयी तो डोर को ऐसी ताकत से खींच रही थी जैसे आज़ाद
होने की ठान चुकी हो, दूसरे केहाथ से अपनी डोर छुड़ा, खुद अपनी जिंदगी
जीना चाहती हो और आख़िरकार उसने ऐसा ही किया।
डोर टूट गयी और पतंग सूरज की ओर उछली, आसमान की ओर बढ़
चली। देखते ही देखते आँखों सेओझल हो गयी। चह फिर किसी को मिली ही
नहीं । दादाजी सोच में पड़ गये कि क्या उनके हाथों बनी थी इतनी चंचल और
इतनी जीवंत पतंग! फिर उन्होंने वैसी पतंग नहीं बनायी।
सीता को लगा कि वह उसकी गुड़िया जैसी थी। ढ
ममता सचमुच में इंसान थी, गुड़िया नहीं थीऔर अब सीता वैसी एक
और नहीं बना सकती।
जहाँ पीपल का पेड़ था, वहाँ सीता ने आम की गुठली बो दी। बहुत साल
लगेंगे उसे पीपल के पेड़ जितना बड़ा होने में, लेकिन उसे यह सोच कर ही मजा
आ रहा था कि एक दिन वह उस आम की डाल पर बैठ डालों में से
आम तोड़-तोड़
कर दिन भर उनका मज़ा लेगी।
दादाजी सब्जियां उगाने पर ज़्यादा ध्यान दे रहे थे। अपनी बगीची में मटर,
गाजर, चना और सरसों की बुआई करने लगे थे।
एक दिन जब मेहनत वाले ज़्यादातर काम ख़त्म हो गये और नयी
कुटिया भी बन चुकी थी, तब सीता विजय की दी हुई बांसुरी लेकर पानी के
किनारे चली गयी। वहाँ बैठकर उसे बजाने कीकोशिश करने लगी। लेकिन कुछ
टूटे-फूटे स्व॒रों सेज्यादा कुछ नहीं निकला उससे, जिस पर बकरियों ने भी ध्यान
नहीं दिया। न
कभी-कभी सीता को लगता कि सामने से एक नाव चली आ रही है,
लेकिन कोई नाव नहीं होती और अगर होती भी तो किसी मछुआरे या
704 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
किसी अजनबी की होती। इसलिए उसने आती-जाती नावों पर ध्यान देना बंद
कर दिया।
धीरे-धीरे बारिश का मौसम बीत गया। नदी का बढ़ा हुआ पानी अपनी
पुरानी जगह वापस पहुंच गया था। गांवों में लोग फिर से खेतों कीजुताई और
जाड़े की फ़सलों की बुआई करने लगे थे । गाय-बैलों के मेले और कुश्ती के मुक़ाबले
पहले से ज़्यादा होने लगे थे। दिन अभी गर्म और उमस भरे थे। लेकिन नदी
का पानी अब बाढ़ जैसा मटमैला नहीं था। एक दिन दादाजी एक बड़ी सी महासीर
मछली पकड़ कर लाये और सीता ने उसे स्वाददार तरी में पकाया।

गहरी नदी
दादाजी कुंटिया के बाहर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। सीता टापू के दूसरे
हिस्से में, सूखने केलिए चट्टानों पर कपड़े फैला रही थी। एक बकरी उसके
पीछे-पीछे चली गयी थी-दोनों में सेवही ज्यादा लाड़-प्यार समझती थी और अकसर
टापू पर सीता के पीछे-पीछे घूमा करती थी। सीता ने उसके गले में रंग-बिरंगे
मनकों की माला बना कर डाली हुई थी।
सीता एक चिकने पत्थर पर बैठ गयी और जैसे ही बैठी, उसे कोई रंगीन
सी चीज अपने पैरों के पास रेत में पड़ी दिखाई दी। उसने उसे उठा लिया। छोटा
सा लकड़ी का खिलौना था वह-एक रंग-बिरंगा मोर, कृष्ण भगवान का प्रिय
पक्षी-जरूर वह बाढ़ में बहकर आया होगा और पानी उतरने पर यहीं रह गया
होगा । उसका रंग-रोगन किसी-किसी जगह से उखड़ा हुआ था, लेकिन सीता को,
जिसके पास खिलौने थे ही नहीं, यही बहुत अच्छा लग रहा था।
,. उसे अपने पीछे किसी के क़दमों कीआहट सुनायी दी। उसने घूम कर
देखा, तो उसके ठीक पीछे विजय, नंगे पैर खड़ा उसे देख कर मुस्करा रहा था।
'ममैंने सोचा कि तुम नहीं आओगे,' सीता बोली।
गांव में बहुत सारा काम था। मेरी बांसुरी तो तुम्हारे पास है न?
“हाँ, लेकिन मुझसे तो ठीक से बजती नहीं ॥'
मैं तुम्हें सिखा दूंगा, विजय ने कहा।
वह सीता के बगल में बैठ गया और दोनों ने अपने पैर नदी की ठंडी लहरों
में डाल दिये। पानी अब बिलकुल साफ़ था और आसमानी रंग उसमें झलक रहा
था। नीचे तलहटी की रेत और कंकड़ तक साफ़ दिखाई दे रहे थे।
सीता और नदी / 705
“नदी कभी नाराज होकर परेशान कर देती है, तो कभी मेहरबान होती है,
सीता बोली। ह
“म भी नदी का हिस्सा हैं, उसी के जैसे हैं, विजय ने कहा।

अच्छी नदी थी वह, गहरी और शक्तिशाली, पहाड़ों सेचलना शुरू करती थी और


समंदर तक जाती थी।
उसके किनारे-किनारे, सैकड़ों मील तक, लाखों लोग रहते थे और सीता
उनमें सेबस एक छोटी सी लड़की थी, जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता
था, उसे कोई नहीं जानता था-एक बूढ़े, एक लड़के और उस नदी के नीले,
सफ़ेद और अद्भुत पानी के सिवा।
< ७

706 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


2 इंस्पेक्टर लाल की जांच-पड़ताल
का
द कीमत लाल से मेरी मुलाक़ात दो साल पहले हुई थी, जब मैं उत्तरी
भारत के गर्म मैदानी इलाके के छोटे से धूल भरे शहर शाहपुर में रहा करता
था और वह वहां एक थाना प्रभारी थे।
भारी बदन वाले कीमत लाल का हर काम धीरे-धीरे होता था, बल्कि उन्हें
कुछ भी करने में आलस आता था। आलसी भले ही थे, लेकिन थे अक्लमंद।
कामयाबी उनके हाथ नहीं लगी। बरसों पहले वह इंस्पेक्टर बने तो इंस्पेक्टर ही
बने रह गये। आगे और तरक्की की <उम्मीद ही उन्होंने छोड़ दीथी। वह कहते
थे कि उनकी किस्मत साथ नहीं देती। उन्हें पुलिस वाला नहीं होना चाहिए था।
उनका जन्म मकर राशि में हुआ था और उन्हें रेस्तरां जैसे खाने-पीने केकाम
में जाना चाहिए था, लेकिन अब इस बारे में सोचने कासमय ही नहीं बचा था।
| इंस्पेक्टर और मैं कोई एक किस्म के लोग नहीं थे। वह चालीस के क़रीब
पहुंच रहे थे और मैं पच्चीस का था। लेकिन हम दोनों को अंग्रेजी बोलनी आती
थी. और शाहपुर में अंग्रेजी बोलने वाले बहुत कम थे। इसके अलावा हम दोनों
ही बीयर पसंद करते थे। शाहगंज में मौज-मस्ती का और कोई साधन नहीं था,
तपती गर्मी में पुरवैया केसाथ चलने वाले अंधड़ों, मच्छरों की भुन-भुन (मक्खियों
से कहीं कम नहीं थे वे) और आमतौर पर ऊबाऊ जिंदगी में प्यास बुझाने के
लिए बासी शिकंजी से काम नहीं चलता था।
मेरा घर शहर के बाहरी इलाके में पड़ता था, जहाँ हमें तंग करने कोई
नहीं पहुंचता था। हफ़्ते में दो-तीन बार, जब सूरज डूब रहा होता था और भीगी
इंस्पेक्टर लाल की जांच-पड़ताल / 707
ख़स की टटट्टियों से ठंडे रखे गये अपने ऊंची छत वाले कमरे से निकलना नामुमकिन
नहीं लगता था, छोटे से तौलिये से मुँहपोंछते इंस्पेक्टर लाल मेरे बरामदे की सीढ़ियों
पर हाजिर हो जाते थे। न जाने क्यों वह रुमाल की जगह छोटा सा तौलिया
इस्तेमाल किया करते थे। मेरा इंकलौता नौकर पुलिस के इंस्पेक्टर की सेवा करने
के मौक़े केलिए उतावला सा रहता थां।। झटपट गिलास, बर्फ़ भरी बाल्टी और
हिंदुस्तान की सबसे उम्दा बीयर की कई बोतलों का इंतजाम कर देता था।
एक शाम जब हम चौथी बोतल के पार थे, मैंने कहा-इंस्पेक्टर साहब,
पुलिस की इस लंबी नौकरी में ज़रूर कुछ दिलचस्प मामले निपटाए होंगे आपने ?”
ज्यादातर तो कोई ख़ास दिलचस्प नहीं थे,' वह बोले। कम से कम वह
मामले जिनका खुलासा हो गया, वह तो कतई दिलचस्प नहीं थे। जो सनसनीखेज
थे, उनका खुलासा नहीं होसका-वरना अब तक मैं एस. पी. बन चुका होता।
मुझे लगता है तुम कत्ल की वारदातों के बारे में जानना चाहते हो। गृहमंत्री को
गोली मारी गयी थी, याद है तुम्हें? उसपर मैं लगा था, लेकिन उनके क़त्ल की
असल वजह राजनीति थी और उसका कभी खुलासा नहीं हो सका |
“किसी ऐसे मामले के बारे में बताइये जिसका खुलासा हुआ हो ? मैंने कहा ।
“कोई दिलचस्प वाकया / और जब मैंने देखा कि वह कुछ झिझक से रहे हैं, तो
मैंने यहऔर जोड़ दिया-'देखिए, मैं बीयर चाहे कितनी भी पी लूं, बातों को
राज़ रखने के लिए मेरे पेट में ख़ूब जगह रहती है।'
“लेकिन तुम बातों को राज कैसे रख सकते हो? तुम तो लेखक हो ।'
मैंने जोरदार ढंग से उनकी बात काटते हुए कहा-'लेखक आमतौर पर
काफ़ी होशियारी से काम करते हैं। वे हमेशा लोगों औरजगह के नाम बदल
देतें-हैं।
वह मेरी तरफ़ देख कर मुस्करा दिये, जबकि वह मुश्किल से कभी मुस्कराते
थे। “और अगर कहानी में मेरे बारे में लिखना पड़े, तोकिस तरह लिखोगे?'
“अरे, आप तो जैसे हैं, वैसा हीलिख दूंगा। सब सच लिख दूंगा तब भी
कोई विश्वास नहीं करेगा ।
वह दिल खोलकर हँस पड़े और गिलास में और बीयर उड़ेल ली। "मुझे
लगता है नाम तो मैं ही बदल दूं...तो चलो तुम्हें एक बेहद दिलचस्प मामले के
बारे में बताता हूँ। इस मामले में, जिसका क़त्ल हुआ, वह तो एक अजीब शख्स
था ही, क़ातिल भी अजीब था। लेकिन तुम वादा करो कि यह कहानी नहीं लिखोगे ।
7098 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“चलिए, वादा रहा! मैंने झूठ ही कह दिया।
तुम्हें पनौली पता है?
जो पहाड़ों में है? हाँ, एक-दो बार मैं वहाँ गया हूँ।'
“बढ़िया है। इससे मेरे ज़्यादा समझाए बिना ही तुम्हें आसानी से सब कुछ
समझ में आ जाएगा। यह क़रीब तीन साल पहले की घटना है, जब मेरा तबादला
पनौली हुआ ही था। वहाँ ज्यादा कुछ कभी नहीं हुआ। चोरी और धोखाधड़ी
के चंद मामले और गर्मी के दिनों में एकाध बार मारपीट। यही कोई दस साल
में एक क़त्ल की वारदात हो जाती थी वहाँ। इसलिए जब वहाँ कहीं की रानी
की उन्हीं की बैठक वाले कमरे में लाश मित्री, जिसमें कुल्हाड़ी सेउनके सिर
को फाड़ दिया गया था, तो यह काफ़ी बड़ी बात थी। मुझे मालूम था कि अगर
मुझे पनौली में रहना है, तो इस मामले का खुलासा करना ही पड़ेगा ।'
दिक्कत यह थी, कि रानी का क़ातिल कोई भी हो सकता था। कुछ लोग
तो ऐसे थे जिन्हें खुलकर यह मानने से गुरेज नहीं था कि रानी के मरने से उनकी
छाती में ठंडक पहुंची है। उन्हें शायद ही कोई पसंद करता हो । उनके पति पहले
ही मर चुके थे और बच्चे इधर-उधर बिखर गये थे। उनका पैसा ख़त्म होता जा
रहा था-वैसे भी वह कोई बहुत दौलतमंद रानी नहीं थीं। शहर के बाहरी इलाके
के एक पुराने घर में वह अकेली रहती थीं अपने मोहल्ले में रूवेपन से अपनी
हुकूमत चलाती थी। उनका एक नौकर॑ था, जिसने सबसे पहले उनकी लाश देखी
और वही पुलिस के पास गया। वह बहुत घबराया हुआ था, लगता था जैसे उसकी
जबान पर ताले पड़ गये थे। मुझे मालूम था, कि वह बेगुनाह है, लेकिन पुलिस
का एक मूल नियम हैकि मौक़ा-ए-वारदात पर सबसे पहले पहुंचने वाले को पकड़ो,
'ख़ासतौर से अगर वह नौकर हो। लेकिन थोड़ा-बहुत मारने-पीटने के बाद हमने
उसे जाने दिया। वह हमें ज़्यादा कुछ नहीं बता पाया, और उसकी इस बात में
दम था कि वारदात के वक्त वह मौक़े पर मौजूद नहीं था।
“जिस कुल्हाड़ी से रानी की हत्या कीगयी थी, वह लकड़ी काटने वाली
एक छोटी कुल्हाड़ी रही होगी-और, हमने घाव को देखकर यह अंदाज़ा लगाया
था, क्‍योंकि हमें हत्या केलिए इस्तेमाल किया गया हथियार नहीं मिला था। रानी
को मारने वाला आदमी भी हो सकता था और औरत भी, क्योंकि उनसे खार
खाए बैठे लोगों मेंदोनों ही थे ।बाज़ार में इसबात की चर्चा थी किअपनी आमदनी
बढ़ाने के लिए रानी देह व्यापार के लिए जवान औरतें मुहैया कराती थीं और
इंस्पेक्टर लाल की जांच-पड़ताल / 709
यह काम करने वालों से उनके तार जुड़े थे।यह भी अफ़वाह थी कि उनके पास
अकूत दौलत है, जिसे उन्होंने गोदामों में छुपा कर रखा है। बहरहाल, हमें तो
कोई दौलत मिली नहीं। इतनी सारी तरह-तरह की अफ़वाहें इधर-उधर फैली थीं
कि मैंने उनकी तह में जाने की कोशिश में अपना वक़्त बर्बाद न करने का फ़ैसला
किया। इसके बजाय मैंने अपनी तफ़तीश उन लोगों के दायरे में समेट ली जो
रानी से नज़दीक से जुड़े थे-वे चाहे क़रीबी रिश्तेदार हों, याउनके आसपास
रहने वाले ।'
'पहले मेरी नज़र में आए कपूर साहब, जो कि बम्बई के एक दौलतमंद
कारोबारी थे और पनौली में उन्होंने एक घर बनाया हुआ था। उन्हें रानी का
एक पुराना चाहने वाला माना जाता था। मैंने पाया कि उन्होंने जब-तब रानी
को कर्जे पर रक़म दी, रानी केसाथ अपनी जगजाहिर दोस्ती के बावजूद, ऊंची
दर पर ब्याज वसूला था। हे,
“फिर थे उनके ठीक बगल में रहने वाले पड़ोसी, एक अमरीकी मिशनरी
और उनकी पत्नी, जो इस कोशिश में लगे थे कि रानी ईसाई धर्म अपना ले।
एक और पड़ोसी थी, एक अंग्रेज़ अविवाहित महिला जो खुल्लमखुल्ला कहती थी
कि उसने और रानी ने एक दूसरे से पूरे जोश-ओ-ख़रोश से नफ़रत की थी।
एक और पड़ोसी थे नगरपालिका के पार्षद जिनका रानी के साथ छत्तीस का आंकड़ा
था। और एक दर्जी जो नजदीक ही अपनी दुकान लगाता था। इनमें से किसी
के पास इतनी बड़ी कोई वजह ज्हहीं थी कि वे रानी का क़त्ल कर देते-कम
से कम मैंने तो यही पाया। लेकिन दर्जी की बेटी की तरफ़ मेरा ध्यान गया।'
“उसका नाम कुसुम था। बारह या तेरह साल की रही होगी-प्यारी सी
काली आँखों वाली दुबली-पतली सांवली सी लड़की, जिसकी मुस्कान जादू कर
जाती थी। जब मैं रानी के घरके आसपास तफ़तीश में जुटा हुआ था, तभी
मैंने महसूस किया कि वह हमेशा मुझसे बचने की कोशिश करती थी। जब मैंने
उससे रानी के बारे में पूछा और जानना चाहा कि वारदात वाले दिन वह ख़ुद
क्या कर रही थी, तो उसने गोलमोल जवाब देते हुए ऐसा जताने की कोशिश
की कि उसे कुछ नहीं मालूम।
“लेकिन मुझे समझ में आ गया था कि वह -ेवकूफ़ नहीं थी और मुझे
यकीन हो गया कि वह रानी के बारे में जरूर कोई ख़ास बात जानती है। हो
सकता है वह क़त्ल के बारे में भीकुछ जानती हो। संभव है वह किसी को बचाने
0 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
की कोशिश कर रही हो और जो वह जानती हो वह मुझे बताने में डर रही हो।
जब कभी मैंने उससे रानी के कत्ल में बेरहमी की बात की, तो उसकी आँखों
में मुझे एक ख़ौफ़ नज़र आया। मुझे लगने लगा कि लड़की की जान ख़तरे में
है। मैंने उसपर ठीक से नज़र रखने का मन बनाया। वह मुझे अच्छी लगती थी।
मुझे उसका बालपन और ताजगी और उसकी आँखों में जोमासूमियत और चमक
थी, वह अपनी ओर खींचती थी। जब मौका मिलता था, मैं उससे बात करता
था, प्यार से, जैसे एक पिता अपनी औलाद से करता है। हालांकि मुझे मालूम
था कि वह भी मुझे अच्छा समझती थी और मुझे देखकर उसे मजा आता था-जब
मैं पनौली की चढ़ाइयों और ढलानों पर चढ़ते-उतरते हाँफ जाता था। उसे देखकर
समझ में आता था कि वह मुझे कुछ बताना चाहती थी, लेकिन बताते बताते
रह जाती थी।'
(फिर एक दिन दोपहर को जब मैं रानी के घर में किसी सुराग की तलाश
में उसकी चीज़ों कोउलट-पलट रहा था, मुझे दरवाज़े केपास एक पतली सी
दरार में कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। अगर खिड़की से सीधी आती धूप
वहाँ न पड़ रही होती तो शायद उसपर नज़र भी न पड़ती। मैंने झुक कर उसे
उठाया। वह कांच का टुकड़ा था-चूड़ी का छोटा सा हिस्सा |
'मैंने उस टुकड़े कोउलट-पलट कर देखा। उसके रंग और बनावट में कुछ
ऐसा था जो देखा-देखा सा लग रहा था। कुसुम भी तो ऐसी ही कांच की चूड़ियां
पहनती है? मैं उसे ढूंढने गया, लेकिन वह अपने पिता की दुकान पर नहीं थी।
मुझे बताया गया कि वह पहाड़ी के नीचे चूल्हे केलिए लकड़ी इकट्ठी करने
गयी है।'
मैंने पगडंडी के रास्ते पहाड़ी के नीचे जाने का फ़ैसला किया। रास्ता चट्टानों
और कैक्‍्टस के झाड़-झंखाड़ के बीच होता बांज के जंगलों की ओर कहीं दूर
चला जाता था। जंगल के छोर पर एक जगह कुसुम मुझे बैठी दिखाई दे गयी।
टहनियों का एक गट्ठर उसके बगल में रखा था।
'तुम हमेशा अकेले घूमती रहती हो”, मैंने कहा। तुम्हें डरनहीं लगता?”
“जब मैं अकेली होती हूँ, तब ख़तरा कम रहता है,” उसने जवाब दिया।
यहाँ कोई नहीं आता |
'भैंने उसकी कलाई में पड़ी चूड़ियों परजल्दी से एक निगाह डाली और
पाया कि उनका रंग बिलकुल उस टुकड़े से मेल खाता है। मैंने चूड़ी कावह
इंस्पेक्टर लाल की जांच-पड़ताल / ॥॥7
टुकड़ा अपनी हथेली पर रखकर उसके आगे किया और कहा, 'मुझे यह रानी
के घर में मिला। यह तब गिरा होगा... !
“उसने इतना भी इंतज़ार नहीं किया कि मैं अपनी बात पूरी कर पाता।
उसकी आँखों में एक डर उतर आया, वह वहाँ से उठी और जंगल में भाग गयी ।
'मैं हक्‍्का-बक्का रह गया। मैंने येह उम्मीद नहीं कीथी कि वह ऐसा कुछ
करेगी। चूड़ी के टुकड़े कीक्या अहमियत हो सकती है? ढलान पर बिछी चीड़
की सींकों कीमोटी तह पर फिसलता मैं लड़की के पीछे भागा। मैं उसे पेड़ों
के बीच तलाश ही रहा था कि मुझे अपने पीछे सेकिसी के सुबकने की आवाज
सुनाई दी। जब मैंने घूम कर देखा, तो एक बड़ी सी चट्टान पर कुसुम खड़ी
थी और उसने एक कुल्हाड़ी हाथ में ले रखी थी।'
“जब उसने देखा कि मैं उसी की तरफ़ देख रहा हूँ, तो उसने कुल्हाड़ी
को सिर से ऊंचा उठाया और ढलान पर मेरी ओरे दौड़ पड़ी ।'
'में एकदम हक्‍्का-बक्का रह गया और मुँह खोलकर उसे कुल्हाड़ी लेकर
अपनी ओर बढ़ते हुए ताकता रह गया। मुझे कुछ सूझा ही नहीं। इस तरह दौड़ती
वह मेरे पास पहुंचती और उसकी कुल्हाड़ी जिस तेजी से मेरी खोपड़ी से टकराती,
तो मोटी होने के बावजूद, मेरी खोपड़ी के परखच्चे उड़ जाते। लेकिन जब वह
मुझसे कोई छह फ़ीट दूर रही होगी, तभी उसके हाथ से कुल्हाड़ी छूट गयी? और
छूटते ही सीधे मेरी तरफ़ ऐसे बढ़ी जैसे उसमें जान आ गयी हो ।
“वज़न के बावजूद मैं फुर्ती, सेएक तरफ़ हट गया और कुल्हाड़ी मेरे कंधे
को छूती हुई मेरे पीछे वाले पेड़ की नर्म छाल में जाकर गड़ गयी। कुसुम आकर
मेरे पैरों में गिरकर बेतहाशा रोने लगी।'
इंस्पेक्टर लाल गिलास को फिर भरने के लिए रुके। फिर उन्होंने बीयर
का एक लंबा सा घूंट सुड़का, तोबीयर की झाग उनकी मूंछों पर छा गई।
फिर क्‍या हुआ?
'शायद यह सिर्फ़ भारत में हीहोसकता है-और मेरे जैसे व्यक्ति केसाथ
ही हो सकता है / वह बोले। “जिसे आपको क़्ाबू में करना हो, उसपर अचानक
तरस आ जाए। गहरी नाराजगी के साथ गुस्से से
आगबबूला होने के बजाय, लड़की
को पकड़कर सीधे थाने की तरफ़ कवायद करवा देले के बजाय, मैंने उसके सिर
पर हाथ फेरा और उसे दिलासा देने केलिए उससे लाड़ भरे बोल बोलने लगा ।'
“और उसने आपको बता दिया कि रानी को उसने मारा था?
72 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“उसने मुझे बताया कि किस तरह रानी ने उसे अपने घर बुलाया था, उसे
चाय पिलायी और मिठाई खिलाई। कपूर साहब वहाँ पहले से मौजूद थे। कुछ
देर बाद उन्होंने कुसुम के हाथ पर हाथ फेरना शुरू किया और उसके घुटनों के
पास दबाने लगे। वह अपने आप में सिमट गयी थी, लेकिन कपूर ने उसे भद्दे
ढंग से हाथ लगाना जारी रखा था। खुद को उसके चंगुल से छुड़ाकर कुसुम दरवाज़े
की तरफ़ भागी थी। वहाँ रानी ने उसे कंधों सेजकड़ लिया था। कुसुम ने कमरे
के एक कोने में कुल्हाड़ी पड़ी देखी। उसे उठाया और दोनों हाथों से अपने सिर
से ऊपर उठाकर कपूर को धमकाया। वह आदमी समझ गया कि मामला कुछ
ज्यादा ही आगे बढ़ गया था, सोअपनी जान को कीमती मान वह पीछे हट गया।
लेकिन रानी, तैश में आ गयी और लड़की को क़ाबू करने को बढ़ी। लेकिन गुस्से
से बौखलाई हुई कुसुम ने घबराहट में आव देखा न ताव, कुल्हाड़ी रानी के सिर
पर दे मारी ।
“रानी जमीन पर गिर पड़ी। अब कपूर आगे क्‍या करता है, इसका इंतज़ार
किये बगैर कुसुम वहाँ सेभागी। जब वह दरवांजे सेटकराकर लड़खड़ाई थी,
तब उसकी चूड़ी टूट गयी होगी। वह भागकर सीधे जंगल में पहुंची और बड़े-बड़े
फर्न की झुरमुट में कुल्हाड़ी छुपाने केबाद वहीं घास पर पड़े-पड़े अंधेरा होने तक
रोती रही। लेकिन उसकी फ़ितरत ऐसी थी और ऐसा होता है बच्चों कालचीलापन
कि इस बीच वह इतनी संभल गयी कि जब वह घर लौटी तो कुछ ख़ास ऐसा
नहीं लग रहा था कि कुछ हुआ भी है। और अगले कई दिनों में सारा वाकया
वह जैसे चुपचाप हज़म कर गयी ।'
और आपने भी सारा मामला हज़म कर लिया... क्या किया उसका?
'कुछ नहीं,” वह बोले। “मैंने कुछ भी नहीं किया। मैं लड़की को रिमांड
होम नहीं भेज सकता था। ऐसा करने से उसका हौसला पस्त हो जाता ।
“और कपूर ने कुछ नहीं किया?'
अरे, उसके पास चुप रहने कीअपनी वजह थी, तुम समझते ही हो ।इसलिए
मामला आगे बढ़ा ही नहीं-बल्कि मुझे यह कहना चाहिए कि उसकी फ़ाइल मेरी
“विचाराधीन' वाली ट्रे में
चली गयी ।और उसके साथ मेरी तरक्की भी “विचाराधीन'
हो गयी ।
“आपका तो बड़ा नुकसान हो गया इस तफ़तीश की वजह से,' मैंने कहा।
“नहीं। मेरा तबादला नहीं हुआ, मैं इंस्पेक्टर ही रह गया यह तो है। लेकिन
इंस्पेक्टर लाल की जांच-पड़ताल / ॥॥5
तुम बताओ, अगर मेरी जगह तुम होते, तो तुम क्या करते?
मैंने उनके इस सवाल पर कुछ पल गौर किया, फिर कहा-'मुझे भी यही
लगता है कि मेरी कार्रवाई भी लड़की के लिए मेरे मन में पैदा होने वाली हमदर्दी
पर निर्भर करती |आख़िर हालात ही ऐसे थे कि उसके हाथों क़त्ल हो गया, लेकिन
वह थी तो मासूम ही ।' 9
“इसका मतलब यह हुआ कि तुम क़ानून के रास्ते परभी अपनी निजी
भावनाओं को अपने फ़र्ज से ज़्यादा अहमियत देते?
“हाँ, इसीलिए तो मैं एक अच्छा पुलिस वाला नहीं बन सकता था।'
“बिलकुल ।'
“लेकिन कपूर ऐसे ही छूट गया, यह अच्छा नहीं हुआ !'
मुझे लड़की को मामले में फंसने सेबचाना था। ऐसे में इसके अलावा
और कोई चारा भी तो नहीं था। लेकिन वह पूरीतरह से बचा भी नहीं। इसके
बाद ही वह कुछ सामान बनाने वाले एक कारोबारी के साथ धोखाधड़ी के मामले
में फंस गया और उसे कुछ साल के लिए जेल जाना पड़ा ।
“और लड़की-क्या आप उससे मिलते रहे,
'पनौली तबादला होने से पहले वह मुझे कभी-कभी सड़क पर आते-जाते
दिखाई दे जाती थी। स्कूल से आते-जाते। वह हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते करती
और “अंकल” कहती थी।'
“बीयर की सारी बोतलें अब खाली हो चुकी थीं और इंस्पेक्टर लाल जाने
के लिए खड़े हो गये। जाते-जाते उनके मुँह से निकला-'“मुझे पुलिस वाला नहीं
होना चाहिए था।'

774 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


एक परिचित की मौत

पा दोनों को जानने वाले सेजब यह पता चला कि मेरे दोस्त सुनील का


क़त्ल हो गया है, तो मुझे ताज्जुब हुआ, बल्कि मैं भौचकक्‍का रह गया। अगर
मुझे यह ख़बर मिलती कि सुनील ने किसी की जान ले ली है, तो मुझे बिलकुल
भी हैरानी नहीं होती, क्योंकि वह दूसरों कीजान की परवाह ही नहीं करता था।
लेकिन उसके यूँमारे जाने सेयह जाहिर था कि वह अपने तेजी से हुए पतन
का ही शिकार हुआ था।
जब उसकी मौत हुई, तब उसकी उम्र इक्कीस साल थी। उसके दो दोस्तों
ने उसकी जान ले ली थी। बताया जाता है कि उन्होंने बदला लेने के लिए उसे
मार डाला-उसने उनकी बीवियों को फ़ुसलाकर उनके साथ धोखा किया था।
दोस्तों नेउसे मेरठ की एक बार में शराब की दावत दी और उसे जमकर देसी
'शराब पिलायी। फिर दिसंबर की रात को ठंडी हवा में उसको अपने साथ ले
गये। हल्की फुहार पड़ रही थी। नहर के पुल के क़रीब उनमें से एक ने उसे
पीछे से पकड़ लिया और दूसरे ने पहले उसके पेट में चाकू घुसा दिया, फिर उसी
से छाती में कई वार किये। जब सुनील आगे को गिरने लगा, तो दूसरे दोस्त
ने उसकी पीठ में भी छुरा भोंका। उधर से गुज़र रहे एक साइकिल सवार ने इन
लोगों को देखा। एक चीख और फिर कराहने की आवाज़ सुनी और साइकिल
के लैंप की बत्ती की रोशनी में चमका चाकू का फल देख लिया। वह तेजी से
पैडल मारता हुआ शहर पहुंचा, धड़धड़ाता हुआ कोतवाली मेंघुस गया और झटपट
वहाँ मौजूद हवलदार के आगे सारा वाकया उगल दिया। दो सिपाहियों को साथ
एक परिचित की मौत / ॥75
लेकर वह पुल पर पहुंचा, लेकिन वहाँ उन्हें कोई नहीं मिला। पौ फटने पर जब
काले आसमान के कलेजे में घाव जैसा सूरज उगा, तब कहीं उन्हें नहर के किनारे
सुनील की लाश मिली। उसका सिर और कंधे किनारे की रेती पर और टांगें
बहते पानी में। ।
बार वाले ने सुनील के साथ शरोब पीने वाले उसके साथियों का हुलिया
पुलिस को बताया और उन्हें उसी सुबह उनके घरों से गिरफ़्तार कर लिया गया।
उन्हें इतना भी समय नहीं मिला था कि वे ख़ून से सने अपने कपड़े ठिकाने लगा
पाते। क्योंकि मैं उन्हें नहीं जानता था, इसलिए उनके साथ आगे क्‍या हुआ, यह
जानने मेंमैंने कोई दिलचस्पी नहीं ली ।मैंसमझता हूँकि उन्होंने आजीवन कारावास
के ख़िलाफ़ अपील ज़रूर की होगी।
जब सुनील का ख़ून हुआ था, तब मैं दिल्ली में थाऔर उसे देखे हुए
मुझे क़रीब साल भर हो रहा था। हम दोनों शाहगंज में रहते थेऔर नौकरियों
की वजह से हमने वह जगह छोड़ी-मैं एक अख़बार के दफ़्तर में काम करने
लगा और वह अपने एक मामा की कागज मिल में काम करने चला गया। उम्मीद
यह थी कि जल्दी ही उसके अंदर जिम्मेदारी आ जाएगी और उसके चाल-चलन
में सुधार आ जाएगा, लेकिन मैं सुनील को दो साल से ज़्यादा से जानता था
और इतने समय में यह बात मुझे साफ़ तौर पर समझ में आ चुकी थी कि आम
तौर-तरीकों से गुज़र-बसर करने के हिसाब से वह नहीं ढला था और जहाँ तक
फ़ितरत का सवाल था, वह टिडूडे जैसी थी-कहीं टिका नहीं जाता था उससे।
वह हमेशा नये-नये सनसनीख़ेज़ और जोखिम भरे कारनामे करने की फ़िराक में
रहता था। हमेशा कुछ नया अनुभव करने की उसकी भूख की वजह से जब देखो
तब असंगत स्थितियां पैदा कर लिया करता था।
वह बंटवारे की उपज था-सीमांत प्रदेश, एंग्लो-इंडियन पब्लिक स्कूल,
हिंदुस्तानी और अमरीकी फिल्में, मध्ययुगीन भारत, अस्त्र-कवचधारी शूरवीर, हिप्पी,
नशीले पदार्थ, स्त्री-पुरुष संबंधों परआधारित पत्रिकाएं और हिमालय की तराई
का न ज़्यादा गर्म और न ज़्यादा ठंडा मौसम यानी दो एक दूसरे से उलट ख़ूबियां
समेटे । अगर वह मुगलों के दौर में पैदा हुआ होता, तो अपने गुस्से के दम पर
किसी रियासत पर शानदार ढंग से राज करता, लेकिन वह बीसवीं सदी मेंपैदा
- हुआ और कुछ और तो बन नहीं सका, बाल अपराधी बन गया।
लेकिन एक बात माननी पड़ेगी, कि वह बाल अपराधी भले ही था, लेकिन
76 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
उसके अंदर दूसरों से हटकर ख़ूबियां और अलग ही किस्म की कशिश थी। मुझे
इस बात का एहसास तब हुआ जब मैंने उसे पहली बार देखा-फ़ुटबॉल स्टेडियम
की दीवार के सहारे अपनी लंबी-लंबी टांगें लटकाए-जो कि पतली मोहरी की
पतलून पहने होने कीवजह से और भी पतली दिखाई दे रही थीं-सड़क की
धूल से सनी चप्पलें और सफ़ेद बु-शर्ट जिसके बटन न लगे होने की वजह से
उसका चिकना और गहरी रंगत वाला सीना दिखाई दे रहा था। उसके लंबे से
चेहरे पर मुस्कान बिखरी हुई थी और उभरी हुई गालों की हड़िडयों की वजह
से उसके गाल कुछ ज़्यादा ही गड़ढे में धंसे नज़र आ रहे थे, जैसे उसे भर पेट
खाना न मिलता हो।
हम दोनों पहलवानों को कुश्ती लड़ते देख रहे थे। दंगल की तैयारी के
लिए दो जगह मुक़ाबले चल रहे थे। एक तो दो दुबले-पतले ऐसे लड़कों के बीच
जिन्हें देखकर लगता था कि जैसे उन्हें पूरी खुराक नमिलती हो और दूसरा अखाड़े
के उस्ताद और दाढ़ी वाले सरदार जी के बीच जो रोजी-रोजगार के लिए ट्रक
चलाते थे। पहलवान अखाड़े की भुरभुरी रेती में अपने-अपने विरोधी से जूझ रहे
थे और तेल-मालिश की बदौलत विशाल बरगद के पत्तों केबीच सेछनकर आती
धूप में उनके शरीर दमक रहे थे। मुझे अख़ाड़े के पास खड़े होकर दंगल की
तैयारी केतहत मुकाबला कर रहे पहलवानों को देखते कुछ ही देर हुई थी कि
मुझे ऐसा लगा जैसे वह बड़े गौर से मुझे देख रहा है। जब मैंने उसकी ओर देखने
के लिए गर्दन को घुमाया, तो उसने दुष्टता भरी मुस्कराहट बिखेरी।
क्या तुम भी कुश्ती लड़ते हो?” उसने पूछा ।
क्या मैं पहलवानों जैसा दिखता हूँ? मैंने पलटकर जवाब दिया।
“नहीं, तुम खिलाड़ी लगते हो । वह बोला, दुबले-पतले, जैसे लंबी दूरी दौड़ने
वाले खिलाड़ी लगते हो। सींकिया पहलवान !
“मैं लेखक हूंऔर लंबी दूरी दौड़ने वालों कीतरह ज़्यादातर लेखक भी
काफ़ी दुबले पतले होते हैं।'
(तुम ऐंग्लो इंडियन हो, हैं न?
“हमारे ख़ानदान की अतीत की बातों सेआप उलझन में पड़ जायेंगे, वरना
मुझे आपको अपने बारे में सब कुछ बताने में बड़ी ख़ुशी होती ।'
“पता है, यहाँ कोई भी तुम्हें अंग्रेज समझ सकता है! क्योंकि तुम बहुत
गोरे हो। लेकिन तुम्हारा अंग्रेजी लहजा हिंदुस्तानियों जैसा है ।'
एक परिचित की मौत / ॥77
हिंदुस्तानियों का अंग्रेजी बोलने कालहजा काफ़ी कुछ वेल्स के बाशिदों
से मिलता-जुलता होता है। मैंने समझाया और सोचने लगा कि बहुत सारे लोग
मुझे वेल्स का बाशिंदा समझ सकते हैं, लेकिन यहाँ केबहुत कम लोग ही किसी
वेल्स वाले से मिले होंगे, इसलिए उन्हें यह भी कैसे पता चलेगा कि वेल्स वाले
कैसे होते हैं! गे
मेरा जवाब सुनकर उसने दबी हुई हँसी बिखेर दी, फिर मेरे चेहरे पर नजरें
टिका कर गहरी सोच में डूब गया। 'सुनते हो?” कुछ देर ठहर कर वह ऐसे बोला,
जैसे कोई बड़ा भारी और गंभीर विचार उसके दिमाग में कौंध गया हो। क्या
तुम्हारे यहां ऐसी औरतों की तस्वीरों वाली पत्रिकाएं हैं?”
हाँ, मेरे पास प्लेब्वॉय के कुछ पुराने अंक जरूर पड़े हो सकते हैं। तुम
चाहो तो उन्हें ले सकते हो।
धन्यवाद, दीवार पर से उतरते हुए उसने कैहा। “चलो, मैं साथ चलकर
ले लेता हूँ। वैसे भी, दंगल का यह दौर उबाऊ है।
उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया, जिसका शायद उसके लिए कोई
ख़ास मतलब नहीं था। वह हिंदी फ़िल्मों औरहाल की अमरीकी फ़िल्मों के गीतों
के टुकड़ों कीधुन पर सीटी बजाता चल पड़ा।
उन दिनों मैं शहर के मुख्य बाजार में दुकानों केऊपर एक छोटे से फ़्लैट
में रहा करता था। मेरे घर के नीचे दुकानें, रेस्तरां औरएक सिनेमाघर था। इमारत
के पिछवाड़े कबाड़खाना सा था जहाँ पुरानी मोटर-गाड़ियों और तांगों के ढांचे
पड़े हुए थे। मैंतीस रुपये अपने दोनों कमरों के किराये केऔर साठ रुपये पंजाबी
रेस्तरां को देता था, जहाँ मैं खाना खाता था। स्वतंत्र लेखक के तौर पर मेरी
आमदनी यही कोई डेढ़ सौ रुपये केआसपास हो जाया करती थी, जो मेरे खर्चे
पूरे करने के लिए काफ़ी थी बशर्ते मैं शाहगंज जैसी गयी-बीती सी जगह रहता
रहूँ।
सुनील (उसके साथ स्टेडियम से घर जाते हुए रास्ते में उसका नाम पता
चला) ने मेरे फ़्लैट में घुसने केसाथ ही उसे अपना ही घर समझना शुरू कर
दिया। उसने मेरी सारी पत्रिकाओं, किताबों और फ़ोटो को मन लगाकर इस तरह
देखना शुरू कर दिया जैसे उसे किसी की वसीयत को अंजाम देना हो और उसमें
कुछ छूट न जाए। भारत में, समाज में ऐसा चलन है कि लोग आपके बारे में
जितना जाना जा सकता है उतना जानने की कोशिश करते हैं और सुनील ने
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काफ़ी शिद्‌दत से यह औपचारिकता निभायी। जब वह बात भी कर रहा होता
था, तब भी उसकी आँखें कमरे के कोने-कोने मेंरखी मेरी सारी चीज़ों कामुआयना
कर रही होतीं। कुछ ही तो चीज़ें थीं मेरे पास-एक टाइपराइटर, एक छोटा सा
रेडियो, एक अलमारी भरकर किताबें और कपड़े, कुछ मेज़-कुर्सी वगैरह जो कि
फ़्लैट के साथ मिली थीं। मेरे पास कोई क़ीमती चीजें तो थीं नहीं। क्या इस
बात से वह मायूस हो गया था? मुझे कुछ ठीक से समझ में नहीं आया। वह
अच्छे कपड़े पहनता था और अच्छी अंग्रेजी बोलता था, लेकिन अच्छे कपड़े और
अच्छी अंग्रेजी ईमानदारी का पैमाना नहीं होतीं ।वह कुछ ज़्यादा ही चिकनी-चुपड़ी
बातें करता था जिससे आसानी से उस पर भरोसा करने का मन नहीं होता था।
लगता तो यही था कि वह अभी कॉलेज में ही पढ़ रहा था। उसके पिता की
कपड़े की दुकान थी। जरा सख्त मिजाज थे वह और अपने बेटे को जेब खर्च
के लिए ज़्यादा पैसे नहीं देते थे।
लेकिन सुनील की पैसों में ऐसी कोई गहरी दिलचस्पी नहीं थी। यह बात
मुझे जल्दी ही पता चल गयी। वह किस्म-किस्म के अनुभव करना चाहता था
और हर तरफ़ नये-नये तजुर्बे करने के मौके तलाशता रहता था।
तुम्हारे यहाँ सेनजारा अच्छा दिखाई देता है,” मेरे छज्जे सेनीचे सड़क
पर एक ओर से दूसरी ओर नजरें दौड़ाते हुए उसने कहा । यहाँ सेसब को आते-जाते
देख सकते हैं। लड़कियां! आजकल कुछ ज़्यादा ही नये रंग-ढंग देखने को मिल
रहे हैंउनके ।छोटे बाल और छोटे ब्लाउज । चुस्त सलवार । मैक्सी, मिनी... फ़ाल्सी,
ये सब पहनती हैं। तुम्हें लड़कियां अच्छी लगती हैं?”
वैसे... / मैंने जवाब की शुरुआत ही की थी, लेकिन अपने सवाल का
जवाब उसे चाहिए ही नहीं था।
“ये लड़कियां काहे की बनी होती हैं? अंग्रेजी कीकविता है न एक?
'शुगर ऐंड स्पाइस, ऐंड एवरीथिंग नाइस... और मुझे बाकी की कविता याद
नहीं है।
“लड़कियों के साथ... तुम्हारी” उसने अपनी आवाज़ धीमी करते हुए इस
तरह पूछा जैसे कोई गोपनीय बात कर रहा हो।
वैसे... ।'
मैंने तोएक लड़की के साथ ख़ूब मस्ती की, पता है, मेरी दूर की रिश्तेदार
ही थी। वह पिछले साल गर्मी की छुट्टियों में हमारे घररहने आयी थी। और
एक परिचित की मौत / 779
एक लड़की मेरे कॉलेज में है जो मुझ पर मरती है। लेकिन ये कितना पिछड़ा
हुआ देश है... हम साथ में बाहर नहीं घूम सकते और मैं उसे अपने घर नहीं
बुला सकता। क्‍या किसी दिन मैं उसे -यहाँ लेकर आ सकता हूँ?
देखो, मैं कया कहूँ... । मैं शाहगंज जैसी जगह लंबे समय बाद रहने आया
हूँऔर मुझे इस बात का कतई अंदाजा” नहीं था कि फ़ैशन बदलने के साथ यहाँ
के लोगों कीसोच और तौर-तरीकों में भीबदलाव आया है?
अरे, अभी नहीं! वह बोला। 'कोई जल्दी नहीं है। मैं तुम्हें काफ़ी पहले
से बता दूंगा, इसलिए फ़िक्र मत करो / उसने अपनी एक बांह मेरे कंधों पर डाल
दी और बेहद अपनेपन के साथ मेरी तरफ़ देखा। “हम बहुत अच्छे दोस्त साबित
होंगे, तुम और मैं।'
उस दिन के बाद तक़रीबन रोज ही सुनील मेरे पास चला आता था। उसके
कॉलेज में दोपहर तीन बजे तक पढ़ाई का सिलसिला ख़त्म हो जाया करता था
और वह पढ़ने के लिए वहाँ कम ही जाता था, बस कुछ देर वहाँ शक्ल दिखाने
के बाद वह मेरे घर आ जाता था। किताबों को नजरअंदाज करने के लिए मैं
उसे दोष नहीं देता था-शेक्सपीयर और चौसर जैसे लेखकों को पढ़ना उन छात्रों
के लिए ज़रूरी बताया जाता है जिन्हें आधुनिक अंग्रेजी की थोड़ी-बहुत समझ
होती है। हर साल बड़ी तादाद में स्नातक तैयार होकर निकलते हैं और उनमें
से ज़्यादातर दफ़्तरों में बाबू, बस के कंडक्टर और शायद स्कूल टीचर बनते हैं।
लेकिन सुनील के पिता अपने बेटे केलिए सब कुछ अच्छे से अच्छा चाहते थे। और
शाहगंज में इसका मतलब था जितनी हो सकें, ज़्यादा से ज़्यादा डिग्री जुटा लेना।
गर्मी की दोपहर को मेरी कुछ देर के लिए झपकी लेने कीआदत थी, पर
सुनील पैर पटकता मेरे कमरे में चला आता और मेरी नींद टूट जाती। जब उसे
समझ में आया कि मुझे दोपहर नींद सेअचानक इस तरह जगाया जाना रास
नहीं आता, तो वह मुझे सोने देता और खुद नल के नीचे बैठ कर नहा लेता।
मेरी बालों में लगाने वाली क्रीम और आफ़्टर शेव लोशन (उसने दाढ़ी बनानी
बस शुरू ही की थी, लेकिन लोशन वह सारे बदन पर लगाता था) का खुले हाथों
से इस्तेमाल करने के बाद उसे सिनेमा देखने या रेस्तरां में खाने कामन करता
था और तब वह मेरे ऊपर ठंडा पानी डाल देता ताकि मैं झटपट बिस्तर छोड़ दूं।
एक दोपहर वह दूसरे दिनों से कुछ ज्यादा ही जोश मे था। उसने पानी
की पूरी बाल्टी ही मेरे ऊपर उड़ेल दी, जिससे चादर और गद्दा तर-बतर हो गया।
720 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैंने भीबदले में पानी की सुराही उठाकर उसके सिर को निशाना बनाकर फेंकी।
सुराही उसको नहीं लगी और दीवार से टकराकर चकनाचूर हो गयी। तब सुनील
और भी पगला गुया। उसने सारे कमरे में पानी फैलाना शुरू कर दिया। जब
मैंने उसे जबरदस्ती रोकने की कोशिश कीतो गुत्थम-गुत्थी करते हम फ़र्श पर
लोट गये और पड़े-पड़े एक दूसरे से जूझ रहे थे कि मेरा सिर पलंग के सिरहाने
से टकरा गया और मैं सन्‍न रह गया। पूरी तरह बेहोश होते-होते बचा। इससे
उसे बड़ा अफ़सोस हुआ। वह मेरे सिर पर पड़े गुमड़े पर बालों में लगाने वाली
क्रीम रगड़ कर मालिश करने लगा और फिर उस दिन उसने मुझसे उधार लेने
से भी इनकार कर दिया।
सुनील के कर्ज” लेने का मतलब होता था, मेरे बटुए में से यह कहते
खुद-ब-खुद कुछ रुपये निकाल लेना कि उसे किताबों के लिए, या दर्जी को देने
के लिए, या दिख लेने” की धमकी देने वाले दुकानदार का बकाया चुकाने के
लिए चाहिए। जबकि असलीयत इससे बहुत अलग होती थी। जैसे मैं उससे फिर
मिलने की कहना बंद कर चुका था, ठीक वैसे ही मैं उससे पैसे लौटाने की बात
करना बहुत पहले ही छोड़ चुका था।
सुनील उन लोगों में से था जिन्हें दूर से प्यार करना ठीक होता है। मुसीबत
खड़ी करने में ख़ास महारत की ख़ूबी के साथ वह पैदा हुआ था। मुझे लगता
है कि जब बकायेदार, दुकानदार, उम बहनों के भाई जिनकी बहनों को उसने
परेशान किया होता था और वे पति जिनकी पत्नियों को उसने छेड़ा होता था,
जब वह उसके पीछे पड़ते थे तो इसमें वह अपनी शान समझता था। उसके साथ
जुड़ने से शाहगंज में मेरी अपनी इज्जत में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी।
मेरी मकान मालकिन, एक मां की तरह ध्यान रखने वाली पंजाबी विधवा
मुझसे बोलीं-<ेटा, तुम्हारी संगत अच्छी नहीं है। तुम्हें पता हैकि उसे चोरी
करने पर एक स्कूल से और लड़कियों के साथ छेड़छाड़ के लिए दूसरे से निकाला
जा चुका है?
वह एक लड़का ही तो है,' मैंने कहा । “और उसे बड़ा होने में दूसरे लड़कों
के मुक़ाबले थोड़ा ज्यादा वक़्त लग रहा है। उसे इस बात का एहसास नहीं है
कि वह जो कुछ करता है कि वह कितना बुरा है। बड़ा होने केसाथ उसमें समझ
आ जाएगी ।'
“अगर वह बड़ा हो पाया तो, मेरी मकान मालकिन उदासी भरे अंदाज
एक परिचित की मौत / ॥श
में बोलीं, 'तुम्हें पता हैकिउसने पिछले साल एक आदमी को क़रीब-क़रीब मार
ही डाला था? एक फल वाले ने, जिसके साथ सुनील ने धोखाधड़ी की थी, जब
पुलिस में उसकी रिपोर्ट दर्ज कराने कीधमकी दी, तो उसने उसके सिर पर ईंट
दे मारी। बेचारे को तीन हफ़्ते तक अस्पताल में रहना पड़ा। अगर सुनील के
पिता की नेता लोगों सेजान-पहचान न'होती, तो यह लड़का दोपहर में तुम्हारी
सीढ़ियां चढ़ने केबजाय जेल की हवा खा रहा होता ।'
एक बार फिर मैंने सुनील सेकहा कि वह मेरे पास कम आया करे।
मेरे ऐसा कहने से उसे ठेस पहुंची और उसने मेरी बात का बुरा माना।
तुम अब मुझे पसंद नहीं करते? |
मैं तुम्हें बहुत ज़्यादा पसंद करता हूँ। लेकिन मुझे काम करना होता है...
'मुझे पता हैकि तुम्हेंलगता है,मैंबदमाश हूँ।तो ठीक है,मैंबुरा आदमी हूँ।'
वह इस तरह बोल रहा था जैसे इससे पहलें"कभी उसे ठेस नहीं पहुंची
थी या पहले उसका दिल नहीं टूटा था। उसके मन में बदमाशी और जालसाजी
की अजीब रूमानी छवि थी। 'देखना, एक दिन मैं बहुत बड़ा जालसाज बबनूंगा
और लोग मुझसे ख़ौफ़ खाया करेंगे। लेकिन तुम फ़िक्र मत करना, राजा, तुम
तो मेरे दोस्त हो। मैं तुम्हें किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा, तुम्हें हर
मुश्किल से बचाऊंगा |
'शुक्रिया, लेकिन मुझे किसी तरह के बचाव की ज़रूरत नहीं है। बस मैं
यह चाहता हूँकि मुझे अकेला छोड़ दिया जाए। मुझे काम करना है और तुम
होते हो तो मुझे फ़िक्र हो जाती है, मेरा ध्यान बंटता है।'
देखो, मैं तुम्हें अकेला छोड़कर तो जाने वाला नहीं,” वह बिगड़े हुए लड़के
वाले अंदाज़ में बोला। क्यों भई, तुम्हें अकेले क्‍यों छोड़ दिया जाये? तुम अपने
आप को समझते क्‍या हो? अगर आज हम दोस्त हैं, तो इसमें तुम्हारी हीगलती
है। मैं सिर्फ़ तुम्हारी सहूलियत की ख़ातिर दफ़ा हो जाऊं, यह नहीं हो सकता ।
“और कुछ नहीं, बस... इधर की तरफ़ थोड़ा कम आया करो ।
मैं पहले से भी ज़्यादा आऊंगा, खूसट ढोंगी! मुझे पता है कि तुम अपनी
इज़्ज़त के बारे में सोच रहे हो-जो कि है भी कि नहीं, कुछ पता नहीं। तो जान
लो, तुम्हें इसबात की फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं |मेरे हमदम, मेरे दोस्त-जैसा
कि फ़िल्मों में कहते हैं न...आने-जाने में मैं बहुत होशियारी से काम लूंगा...डैडी
जी!
722 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जब कभी मैं किसी बात पर कोई शिकायत करता या चिड़चिड़े अंदाज
में कोई बात करता, सुनील मुझे डैडी याअंकल और कभी-कभी मम्मा कहता,
जिससे मैं और भी ज़्यादा अजीब महसूस करता। अगर उसका मूड ठीक होता,
तो वह हिंदी इस्तेमाल करता और मुझे चाचा कहता। ऐसा वह मुझे चिढ़ाने के
लिए करता था, ताकि मैंपच्चीस साल की उम्र के बजाय ख़ुद को ज़्यादा बड़ा-बुजुर्ग
महसूस करूं।
एक दिन दोपहर में सुनील टपक पड़ा । उसकी नाक से ख़ून बह रहा था
और माथे पर गहरा घाव था। वह पलंग पर पांयते की तरफ़ बैठ गया और घाव
से निकलते खून को चादर में सोखने लगा।
“यह क्या किया तुमने? मेरे पूछने में मेरी बेचेनी झलक रही थी।
“कुछ लोगों ने मुझ पर हमला किया। तीन लोग थे वे, अपनी साइकिलों
पर मेरा पीछा किया ।'
कौन लोग थे वे? मैंने पूछा और मेज की दराज में आयोडीन ढूंढने लगा।
थे कुछ लोग
कोई तो वजह होगी न उनके इस तरह हमला करने के पीछे?
अरे, उनमें सेएक की बहन मुझसे बातें करना चाहती थी।
ऐसा तो शाहगंज में भी नहीं होता, तुमने कुछ ऐसा कहा होगा या किया
होगा जो उसे बुरा लगा होगा ।
“नहीं, वह मुझे चाहती है,” वह दर्द से कराहते हुए बोला। मैं उसके माथे
के घाव पर रूई के फाहे सेआयोडीन लगा रहा था। हम दोनों अपने चाचा
के खेतों केपास वाले अमरूद के बाग में गये।'
“वह अकेले तुम्हारे साथ चली गयी?!
“बिलकुल। मैं उसे अपनी बाइक पर बिठा कर ले गया। वे लोग जरूर
हमारा पीछा कर रहे होंगे, लेकिन थोड़ा चूमने और साथ में इधर-उधर घूमने के
अलावा हमने ज़्यादा कुछ नहीं किया। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जोइसे इतना
बुरा मानते है, जैसे यह...से भी ज़्यादा बुरा हो।'
वह अकेला नहीं था। उसके साथ शाहगंज के दूसरे कई लड़कों की परवरिश
इस तरह हुई. थी कि वे लड़कियों को अजीब किस्म के जीवों की तरह देखते
थे, जिन्हें मौका हाथ लगते ही पकड़ लेना चाहिए।
सुनील ने मुट्ठे वाला चाकू निकाला, उसके फल को मूठ से बाहर निकाला
और उसकी नोक को अपनी हथेली पर टिकाया।

एक परिचित की मौत / 725


'चिंतामतकरो, अंकल, मैं अपना ध्यान रख सकता हूँ। अब किसी ने
मेरे मामले में दखल देने कीकोशिश की तो ये जाएगा उसकी अंतड़ियों में ॥
बेवकूफ़ी कीबात मत करो, मैंने कहा। “दस साल के लिए जेल चले
जाओगे। देखो, मैं शिमला जा रहा हूँदो-तीन हफ्ते मनबहलाने के लिए। तुम
क्यों नहीं चलते मेरे साथ? शाहगंज से बाहर जाने से ख़ुशनुमा एहसास ही होगा
और इस बीच यह सारा बवाल भी ठंडा पड़ जाएगा ।
यह उस किस्म का न्यौता था जो मैं उसे जब-तब दे ही दिया करता और
उसके फ़ौरन बाद पछताता था। उसे यह सुझाव देते ही मैंने यहमहसूस किया
कि हो सकता है शिमला में सुनील का होना शाहगंज में उसके होने से कहीं
ज्यादा बड़ी मुसीबत बन जाए। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अब अपनी
बात से मुकर नहीं सकता था।
शिमला! क्‍यों नहीं? कॉलेज भी गर्मी कौ छेट्टियों केलिए बंद हो रहे
हैं और तुम्हारे साथ जाने पर मेरे बापू को कोई एतराज भी नहीं होगा। उनका
मानना है कि मेरे दोस्तों में एक अकेले तुम ही इज़्ज़तदार हो। भाई! कितना
मज़ा आयेगा रे शिमला में!
“हाँ तुम्हें ढंग सेरहना पड़ेगा, अगर तुम मेरे साथ चलना चाहते हो।
लड़कियां बिलकुल नहीं, सुनील ।'
“लड़की बिलकुल नहीं, सर । मैंबिलकुल भला मानुस बनकर रहूँगा, चाचाजी ।
मेहरबानी करके मुझे शिमला ले चलो |
'मुझे लगता है कि हम दोनों के लिए दो सौ रुपये काफ़ी होंगे एक पखवाड़े
के लिए, मैंने कहा।
अरे, इतने तो बहुत हैं.” सुनील झिझकते हुए बोला।
और एक हफ़्ते बाद हम वाकई शिमला में थे और वहाँ के एक मध्यम
दर्जे के, न ज़्यादा महंगे और न ज़्यादा सस्ते होटल में ठहरे हुए थे।
पहाड़ी सैरगाह में हमारे पहले कुछ दिन तो बड़े मज़े में कटे। हम दूर-दूर
तक टहलने निकल जाते, चलते-चलते ख़ुद को थका डालते और बड़ी जोरदार
भूख लगती थी। सुनील जिंदगी में पहली बार पहाड़ों परगया था। कहने लगा
कि पहाड़ तो बहुत ही मजेदार होते हैं और दर्जनों. बार मुझे धन्यवाद देता रहा
अपने साथ लेकर आने के लिए। उसने दूरदराज की घाटियों, जंगलों और झरनों
की सैर में वाकई दिलचस्पी ली। ऐसा लगने लगा जैसे वह सिर्फ़ अपने मतलब
॥24 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
की सोचने के ढर्रेंसे
बाहर निकल रहा है। मेरा मानना है कि पहाड़ हमारी फ़ितरत
पर बड़ा असर डालते हैं, अगर हम लंबे समय तक उनकी सोहबत में रहें और
अगर सुनील की परवरिश शरणार्थियों केलिए बसाये गये शहर के बजाय पहाड़ों
में हुई होती, तो बेशक वह पूरी तरह से अलग तरह का इंसान होता।
एक झरना था, जो मुझे कुछ ज़्यादा हीअच्छा लगा। एक गहरी घाटी में
था, ऐसी जगह जहाँ पहुंचना भी बेहद मुश्किल था। अब तक कुछ ही लोग वहाँ
गये थे। पानी क़रीब तीस फ़ीट नीचे जिस जगह गिरता था, वहाँ एक छोटा सा
तालाब बन गया था। हम वहाँ दो बार जा कर नहाये और शहर की तमाम खूबियों
का भूत सुनील के सिर से उतर गया। हम फिर वहाँ जाते, अगर रपटने से मेरे
टखने में मोच न आ गयी होती। इस हादसे की वजह से मुझे कई दिनों तक
होटल के छज्जे में बैठकर वक़्त गुजारना पड़ा, जिससे मुझे तो यह भी डर लगने
लगा कि घूमने-फिरने के साथ की तलाश में कहीं सुनील का ध्यान कहीं फिर
उन्हीं दुनियावी चीज़ों कीतरफ़ न चला जाए। हालांकि वह कई बार अकेले सैर
को निकला और हर बार धूल और धूप की मार खाकर लौटा। इस बीच उसने
मुझसे पैसे भी बहुत कम लिए, जो कि इस बात का पक्का सबूत था कि वह
सचमुच खुले में घूमने का मज़ा ले रहा था। सारी दुनिया को दूर नीचे छोड़ चीड़
और देवदार के जंगलों में सैर करना उसके लिए बेशक नया और मन को आनंद
से भर देने वाला अनुभव था। लेकिन पहाड़ों कायह जादू कब तक चलता?
प्रकृति की गोद में सादगी से जीने” वाला उसका यह नया अंदाज़ जब
मुझसे और नहीं झेला गया तो मैंने बेमन से 'उससे पूछ ही लिया-]तुम्हें पैसों
की जरूरत नहीं है?
'काहे के लिए, अंकल? ताजी हवा के लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती ।
और, इसके अलावा, यहाँ शिमला में मैंने किसी से कोई कर्ज भी नहीं ले रखा
है। अभी हमें यहाँ आये हुए कोई ज़्यादा दिन भी तो नहीं हुए हैं।
'मुझे तो लगता है कि अब हमें वापस चलना चाहिए, मैंने कहा।
'शाहगंज कितनी बेकार सी जगह है।'
'मुझे मालूम है। लेकिन वहीं तुम्हारा घर है। और फ़िलहाल मेरा भी |
'सुनो, अंकल! कुछ पल तक चुपचाप कुछ सोचने के बाद वह बोला-'कल
सैर करते वक़्त एक स्कूल-टीचर मुझे मिली। वह तीस साल से ज़्यादा की है,
इसलिए एकदम से घबरा मत जाना। उसके कोई भाईया दूसरे रिश्तेदार नहीं
एक परिचित की मौत / 725
हैं जो मेरे पीछे पड़ जाएं। और वह तुमसे भी ज़्यादा गोरी है, अंकल! अगर मैं
उससे दोस्ती रखता हूँतो कोई दिक्कत तो नहीं है?”
“लगता तो नहीं है,' मैंने शक की गुंजाइश छोड़ते हुए कहा। स्कूल में पढ़ाने
वाली, अगर चाहे तो, अपना ध्यान रख ही सकती है और इसके अलावा, उम्र
में बड़ी औरत होने से सुनील पर इतना असर तो पड़ना चाहिए कि वह थोड़ा
गंभीर हो जाए।
उसी शाम वह मुझसे .मिलवाने के लिए उसे होटल ले आया। वह हाल
ही में हासिल अपनी नयी कामयाबी पर मग्रूर लग रहा था। वह सचमुच गोरी
थी, बल्कि फ़ीकी सी थीऔर उसके बाल सुनहरे और आँखें हल्की नीली थीं।
चेहरे सेउसकी उम्र का पता नहीं चलता था और तंदुरुत भी थी, लेकिन उसकी
आवाज अजीब सपाट सी थी जो ऊब और थकान का एहसास कराती थी। मुझे
ताज्जुब इस बात का था कि उसने सुनील में, ज़ाहिर है, उसकी मर्दानगी की
शारीरिक कशिश के अलावा ऐसा क्‍या पाया जो उसकी ओर खिंची चली आयी।
दोनों मेंएक जैसा शायद ही कुछ था, लेकिन लगता हैएक जैसी बातों मेंदिलचस्पी
न होना भी एक ऐसी ख़ूबी है जो दो लोगों को एक दूसरे के नजदीक ला सकती
है। छह या सात साल से पढ़ा रही मॉरीन पढ़ाकू किस्म के लोगों सेबाज आ
. चुकी होगी। और सुनील में पढ़ने-पढ़ाने वालों में पायी जाने वाली कोई बुराई
होने का सवाल ही नहीं था।
पहला मौका मिलते ही मॉरीन खुल गयी। सोने के कमरे में रखा रेडियो
खोला और रेडियो सीलोन लगा दिया। जल्दी ही वह सुनील को डांस सिखाने
लगी। इस बात पर हँसी आती है, क्यों लंबी-लंबी टांगों वाले सुनील को ताल
से ताल मिलाकर यहाँ-वहाँ पास-पास पैर रखने में भारी दिक्कत हो रही थी।
उधर मॉरीन सुनील के बड़े-बड़े डग नहीं झेल पा रही थी। लेकिन वह बड़ी लगन
से जुटा हुआ था और जितना उससे हो पा रहा था, बिना जली सिगरेट होठों
के बीच दबाकर लय-ताल के साथ पूरेकमरे में कूद-फांद मचाता रहा। मुझे लगता
है कि उसे यकीन था कि डांस सीखने से वह पश्चिमी सभ्यता की उड़ान जहाँ
तक जाती है, उस ऊंचाई को छू लेगा। मॉरीन उसके लिए उन सब चीजों का
प्रतीक थी जो अब तक उसकी पहुंच से बाहर थी, जिनकी उसे चाहत थी। वह
सब भी जो उसने तमाम फिल्मों में देखा था। सुनील के लिए मॉरीन को हासिल
कर लेना सिर्फ़ इंद्रियों कीतृप्ति कासवाल नहीं, बल्कि एक खोज यात्रा जैसा
726 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
था। और यह लीक से अलग दोस्ती मॉरीन के लिए भी स्कूल की बोझिल जिंदगी
में ताज़गी भरने का रास्ता रही होगी। वह कोई कच्ची उम्र की नहीं थी। वह
समझती थी कि युह दोस्ती मन बहलाने के एक जरिये से ज़्यादा कुछ नहीं थी।
रिश्तों में जज़्बात उसकी जवानी के शुरुआती दौर के साथ ही गुजरे जमाने की
बात हो चुके थे। अब किसी का प्यार उसके दिल को आर-पार बेंध नहीं सकता
था। लेकिन सुनील के लिए यह एक ऐसी चीज की शुरुआत थी जिसने उसके
अंदर तक हलचल मचा दी थी। उसे बड़ी बेरहमी से मदनिगी की दहलीज पर
लाकर खड़ा कर दिया था।
बदकिस्मती की बात है कि तब मैं अपने दोस्त में इस गहरे बदलाव का
एहसास नहीं कर पाया। मैंने उसे एक सतही तौर पर जीने वाले व्यक्ति के रूप
में जाना थाऔर मुझे यकीन था कि इसका नयापन खत्म होने केसाथ उसकी
दीवानगी भी ग़ायब हो जाएगी। क्योंकि मॉरीन के ऊपर किसी की जिम्मेदारी
नहीं थी, कोई रिश्तेदार नहीं थे जिनसे कुछ कहना-सुनना होता, मुझे दोनों की
दोस्ती के परवान चढ़ने और आगे चलकर यह किस तरह पनपती है यह देखने
में कोई नुकसान नहीं नज़र आया।
'मुझे लगता है कि हम कुछ पीएं तो अच्छा रहेगा,' मैंने कहा और घंटी
बजाकर रूम सर्विस वालों को बुलाया और कई बोतल बीयर मंगवा ली।
आओ, प्यार करें,' सुनील ने मॉरीन के कंधों को अपनी बांहों के घेरे में
लेकर उसकी नीली आँखों में आँखें डाल प्यार जताते हुए कहा।
उन्हें जैसे मेरे वहाँ मौजूद होने से कोई 'फ़र्क ही नहीं पड़ रहा था, लेकिन
मैं पानी-पानी हुआ जा रहा था। खड़े होकर मैंने कह दिया कि थोड़ी देर बाहर
'घूमने जा रहा हूँ।
“जाओ, मजे करो,” मॉरीन से नंज़र बचाकर सुनील ने मुझे आँख मारते
हुए कहा।
"तुम्हें भीअपने लिए साथी ढूंढ लेना चाहिए,” मॉरीन बोली-कुछ ऐसे अंदाज
में जैसे उसके यह कहने से सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी।
“बिलकुल, मैंने कहा और कमरे से इस तरह बाहर निकला जैसे मैंने कोई
कुसूर किया हो, जबकि कमरे का किराया मैं ही दे रहा था।
जितने दिन के लिए तय किया था, उससे ज़्यादा दिन शिमला में हम रहे।
इस दौरान सुनील और मॉरीन बहुत कम नज़र आये। क्योंकि जब तक बिलकुल
एक परिचित की मौत / 727
ज़रूरी न हो जाए, तब तक सुनील का शाहगंज वापस लौटने का मन नहीं था,
इसलिए वह दिन भर मेरी नजरों के सामने नहीं पड़ता था। लेकिन एक रात मैं
किसी तरह देर तक जागता रहा और जब सुनील दबे पांव कमरे में आया तो
हमारा आमना-सामना हो गया।
मैं तुम्हारे मीठे-मीठे प्यार में
किसी तरह की अड़चन नहीं डालना चाहता,
मेरे हमदम, मेरे दोस्त!” मैंने कहा, 'लेकिन मेरे पास अब पैसे बिलकुल नहीं बचे
हैं और अगर तुम्हारे पास कोई इंतजाम हो या मॉरीन तुम्हारा खर्च उठा सके,
तो और बात है, वरना मेरा सुझाव है कि तुम परसों मेरे साथ शाहगंज लौट चलो ।
तुम कितने कमीने हो, चाचाजी। मामला गंभीर है। मेरा मतलब है कि
मॉरीन और मैं। तुम्हें लगता है, हमें शादी कर लेनी चाहिए?
नहीं।
लेकिन क्‍यों नहीं?! हक
क्योंकि टीचर की तनख़्वाह में वह तुम्हारा ख़र्च नहीं उठा सकती। और
शायद वह हमेशा के लिए इस रिश्ते मेंनहीं बंधना चाहती-हमारे रिश्ते कीतरह।
वाह, क्‍या मज़ाक है! तुम्हें लगता है कि मैं अपनी बीवी को अपने लिए
गुलामी करने दूंगा?!
हाँ, लगता है। और इसके अलावा...'
“और इसके अलावा, उसने दांत दिखाते हुए मेरी बात काटी, “वह उम्र
में मेरी मां जैसी है? ५
क्या तुम उसे वास्तव में चाहते हो? मैंने उससे पूछा। "मैंने तुम्हें किसी
भी चीज़ के लिए कभी इतना गंभीर होते हुए नहीं देखा।
“सचमुच, अंकल।
और वह क्या सोचती है?
“ओह, वह तो मुझे बेहद प्यार करती है, सचमुच...करती है। हो सके तो
वह हमारे साथ ही यहाँ से चलना चाहती है। मैंने हीउससे कह दिया है कि
पहले मुझे अपने बाबूजी को यह ख़बर देनी होगी, वरना वह मुझे लात मार कर
घर से निकाल सकते हैं।
'फिर ठीक है, मैंने ताना मारने वाले लहज़े में कहा-“अगर तुम दोनों यही
चाहते हो, तो जितनी जल्दी हम शाहगंज पहुंच कर तुम्हारे बाबूजी का आशीर्वाद
ले लें, उतनी ही जल्दी तुम और मॉरीन शादी कर सकते हो |
728 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
/

दूसरे दिन सवेरे तड़के ही सुनील ग़ायब हो गया। मुझे पता था कि अब


वह दिन भर वापस नहीं आने वाला। मेरे पैर कीमोच अब पहले से ठीक हो
गयी थी, इसलिए मैंने अकेले हीउस झरने तक जाने का फ़ैसला किया जो मुझे
बहुत अच्छा लगा था। जब मैं उस जगह पहुंचा और तेज ढलान वाले रास्ते पर
घाटी में नीचे कोउतरना शुरू किया तब दिन के बारह बजने को थे। झरने की
धारा घनी हरियाली, बड़े-बड़े फ़र्न औरडहेलिया-की आड़ में थी, लेकिन चट्टानों
पर गिरता-उछलता पानी ख़ूब तेज़ शोर मचा रहा था। जब मैं एक ऐसे मोड़ पर
पहुंचा जहाँ रास्ता पहाड़ से बाहर को निकली चट्टान पर से होकर जाता था,
तो वहाँ से मुझे झरने के नीचे वाले ताल की झलक मिली। उसके किनारे उगी
घास पर दो लोग लेटे थे।
पहले तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। वह बहुत खूबसूरत लग रहे थे और
मैंने सोचा भी नहीं था कि सुनील और मॉरीन इतने प्यारे लग सकते हैं। सुनील
के शरीर पर अभी जरा भी फ़ालतू मांस-चर्बी नहीं चढ़ी थीऔर उसका शरीर
बिलकुल किसी युवा देवता जैसा सजीला और गठीला था। उसकी प्रेमिका-हरी
घास पर दूध सा गोरा शरीर मुझे मशहूर इतालवी चित्रकार टिशन की पेंटिंग की
याद दिला रहा था जो मैंने लोरेंस की आर्ट गैलरी में देखी थी। उसकी भरी पूरी
प्रौढ़ देह परएक शांत मस्ती छायी हुई थी, उसकी छाती एक लय में बार-बार
उठती थी और अंगों में उठती लहरें उसकी चौड़ी जांघों के साये में खो जाती
थीं ।ऐसा लग रहा था जैसे मैंभूल सेकिसी और युग में आ पहुंचा था। वन-वीधिका
में मुझे ये दो प्रेमी मिल गये थे। कोई मूर्ख ही उनके प्रेमालाप में विघ्न डाल सकता
था। पहली बार सुनील साधारण के स्तर से ऊपर उठ गया था और इससे पहले
कि मुझपर जो जादू चल गया था, उसका असर ख़त्म होता, मैं तेजी से वहाँ
से हट गया।
इंसान की बोली अकसर कोमल भावनाओं की सुंदरता को चकनाचूर कर
देती है औरजब अगले दिन हम शिमला से चले और मॉरीन और सुनील चलते
समय वही घिसी-पिटी बातें एक दूसरे से कहने लगे तो मेरे मन को कुछ ठेस
पहुंची ।लेकिन जीवन का काव्य उनके तन में था, वचन में नहीं!
शाहगंज पहुंचकर सुनील ने वास्तव में हिम्मत जुटाकर अपने पिता से बात
की। मेरे लिए यह इस बात का संकेत था कि उसने मॉरीन के साथ अपने रिश्ते
को गंभीरता से लिया था, क्योंकि वह बहुत कम ही किसी बात के लिए अपने
एक परिचित की मौत / 729
पिता के पास, जाता था। उसे पिताजी से मिला-कान के नीचे एक घूंसा। एक
कड़क कनटाप। ह
मेरे लिए भी एक रूखा सा संदेश आया-यह कि मेरी सोहबत में उनका
लड़का बिगड़ रहा है, इसलिए मैं उससे मिलना बंद कर दूं। इस मामले में मैं
ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि सुनील ही हमेशा मुझसे मिलने की
फ़िराक में रहता था।
वह मेरे पास आता रहा, मॉरीन के ख़त और जवाब में लिखे अपने ख़त
लाता रहा ताकि मैं उसकी अंग्रेजी को सुधार दूं! (अजीब बात है,कि प्रेमियों
से यह भी बरदाश्त नहीं होता कि दुनिया को उनके प्रेम के बारे में पता न चले)
इसी दौरान सुनील ने मुझसे अपने मामा की काग़ज़ मिल और उसमें काम
करने के बारे में बात की ।एक बार उसे तनख़्वाह मिलने लगेगी, सुनील ने मुझसे
ज़िक्र किया था, तो मॉरीन अपनी नौकरी छोड़कर उसके पास आ जाएगी।
बदकिस्मती से, कागज मिल में काम करने के फ़ैसले के बारे में क्या करना
चाहिए, यह तय करने में सुनील को महीनों लग गये और इस बीच वह रम की
बोतलों में अपने दर्द-ए-दिल की दवा तलाशने लगा और कभी-कभी तो सस्ती
देसी शराब में। अब वह जो उधार लेता था, वह उसके पुराने कर्ज चुकाने और
नये लेने के लिए नहीं, शराब पीकर धुत हो जाने के लिए होते थे। मुझे इस
बात का अफ़सोस था कि उसे शराब पीने की दावत देने वाला पहला शर्म मैं
ही था। मैं भूल गया था कि सुन्तील ऐसा शख्स है जो कोई भी काम ख़ुद पर
क़ाबू रखकर कर नहीं कर सकता।
अब वह मुझे पहले से कम परेशान करता था और उसके कभी-कभी मेरे
पास आने की वजह भी मुझे पहले से ही पता होती थी। मैं भी मामूली कामयाबी
के सहारे चल रहा था। सुनील जो थोड़े से रुपये मांगता, मैं बिना सोचे-समझे
उसे दे देता था। इस बीच मेरे दूसरे नये दोस्त भी बन रहे थे। मैंने महसूस किया
कि अब मैं सुनील के लिए पहले की तरह परेशान नहीं रहता था। शायद यह
उसके साथ एक किस्म का धोखा ही था।
आख़िरकार जब मैंने शाहगंज छोड़ कर दिल्ली चले जाने का फ़ैसला कर
लिया, तो मैंसुनील को ढूंढने निकला, जाने से पहले. उससे मिलने, अलविदा कहने
के लिए। मुझे वह एक छोटी सी बार में मेज पर सिर्फ़ रमकी बोतल के साथ
बैठे मिला। हालांकि बमुश्किल वह बीस साल का होगा, लेकिन अब वह लड़का
750 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
सा नहीं लग रहा था। खुद पर भरोसा रखने वाला जो सजीला नवयुवक मुझे
पिछले साल अखाड़े में मिला था, वह उससे बिलकुल बदल गया था। उसके गाल
गड़ढे में चले गये थेऔर उसने कई दिनों से दाढ़ी नहीं बनायी थी। मुझे याद
था कि जब मैं उससे पहली बार मिला था, बिना किसी झिझक के मैं कह सकता
हूँ कितब वह कई किस्म के हालात की आंच में ढला एक ओछी सोच वाला
लड़का था। अब उसकी सोच ओछी नहीं रही थी, प्रेम की ठोकर खाने के बाद
उसमें गहराई आ गयी थी, लेकिन उसका चरित्र इतना मज़बूत नहीं था कि जिंदगी
की कठोर सच्चाइयों कावजन सह सके। शायद शुरू से ही मैं उसे बिलकुल
अकेला छोड़ देता तो अच्छा रहता। अब मेरे सामने एक ऐसा शख्स था जो पूरी
तरह टूट कर बिखर चुका था और उसकी नींव को खोखला करने में मेरा भी
हाथ था। अपनी मामूली से मामूली करनी का फल हमारे सामने आता है और
हम उसे नजरअंदाज नहीं कर सकते...
मैं दिल्‍ली जा रहा हूँ, सुनील |
उसकी नजरें मेज पर ही टिकी रहीं।
“जाओ, मजे करो।'
मॉरीन का हाल-चाल मिला? मैंने पूछा। मुझे मालूम था कि उसके पास
मॉरीन की कोई ख़बर नहीं थी।
उसने सिर हिलाकर हामी तो भरी, लेकिन पहले की तरह चिट्ठी निकालकर
दिखाने की बात तक नहीं की।
क्या गड़बड़ है? मैंने पूछा।
अरे, कुछ नहीं । वह बोला और सिर उठाकर जबरदस्ती एक मुस्कराहट
चेहरे पर लाने कीकोशिश की। “ये औरतें सारी एक सी होती हैं, अंकल। हमें
उनपर जरूरत से ज़्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए, समझे ।'
क्यों, क्या किया उसने, क्या किसी और से शादी कर ली?
हाँ” नफ़रत भरी आवाज में वह बोला। “एक साले टीचर के साथ |
*देखो, वह कोई कम उम्र की तो थी नहीं,” मैंने कहा। “मैं समझता हूँकि
वह तुम्हारे इंतज़ार में लंबे समय तक बैठी तो नहीं रह सकती थी।'
“रह सकती थी, अगर उसे मुझसे प्यार होता तो। लेकिन प्यार-व्यार जैसी
कोई चीज नहीं होती, होती है क्या, अंकल?
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। क्या वाकई में उसने एक औरत की वजह
एक परिचित की मौत / ॥57
से अपने दिल पर चोट खाई थी? क्या उसके खुद के अंदर कभी ख़त्म न होने
वाला प्यार और दूसरे की भावनाएं समझने के लिए ज़रूरी गहराई थी? आपको
प्यार तब मिलता है जब आप उसकी ज़रा भी उम्मीद नहीं कर रहे होते हैं और
जब आपको लगता है कि आपने उसे अच्छी तरह पकड़ रखा है, तभी वह आपके
हाथ से फिसल जाता है।
"तुम एक किस्मत वाले भिखारी हो”, उसने कहा। “विचारों की दुनिया में
जीते हो तुम। तुम हर बेकार की बात की भी वजह ढूंढ लेते हो, इसलिए तुम
बेकार की बातों को नजरअंदाज कर पाते हो॥।'
मैं हँस पड़ा। 'तुम तो खुद दार्शनिकों कीतरह बात कर रहे हो। लेकिन
ज्यादा मत सोचो सुनील, शायद सोचने से तुम्हें औरतकलीफ़ हो ।'
मैं नहीं, चाचाजी,' वह बोला और अपने गिलास को एक घूंट में खाली
कर डाला। 'मैं सोचने नहीं जा रहा। मैं तोकागज़ मिल में काम करने जा रहा
हूँ। मैं कमाऊंगा और मेरी इज़्जत होगी। कितना जोखिम है इसमें |मज़ा आएगा !'
और तब जो सुनील को देखा, तो फिर कभी नहीं देखा।
वह इज़्ज़तदार नहीं बना। वह किसी खोजी की तरह कुछ नये और कुछ
अलग की तलाश में भटक रहा था, जब बारिश वाली दिसंबर की ठंडी रात उसका
अंतिम समय आ गया।
हालांकि हत्या की वारदात की ख़बर आमतौर पर अख़बारों में छपती है,
लेकिन सुनील जैसे शख़्स की कोई ख़ास अहमियत तो होती नहीं, इसलिए उसकी
हत्या को ख़बर बनाने लायक नहीं समझा गया। जैसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा
और मॉरीन को तो पता भी नहीं चला होगा। इस घटना को लोग भूल भी गये,
क्योंकि भारत में लोगों का जो समंदर है, उसमें हर रोज सैकड़ों लोग लापता हो
जाते हैं औरफिर उनके बारे में कभी बात नहीं होती। सुनील को जल्दी ही सब
भूल जाएंगे, सिर्फ़ उन्हें छोड़कर जिनसे उसने उधार ले रखा था।

7352 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


का

पिता के फलते-फूलते पेड

हा पेड़ देहरा में अबभी खड़े हैं। दुनिया के इस हिस्से में अबभी पेड़ आदमी
की बराबरी करते हैं। एक मकान बनाने के लिए एक पीपल को काट
कर जगह बनायी जाए, तो मकान की दीवारों में दोपीपल उग आएंगे। देहरा
में हवा में नमी रहती है और मिट्टी बीजों और गहराई में घुसने वाली जड़ों का
स्वागत करती है। देहरा की घाटी हिमालय की शुरुआती श्रृंखला और उसके बाद
वाली और उससे भी कम ऊंचाई वाली, लेकिन पुरानी शिवालिक की पहाड़ियों
के बीच पड़ती है। देहरा पुराना शहर है; लेकिन यह किसी राजपूत राजा या मुगल
बादशाह के जमाने में नहीं फला-फूला और फैला, बल्कि जब ब्रिटिश और
ऐंग्लो-इंडियन लोग यहाँ आकर बसे तब इस शहर का दायरा और अहमियत में
बढ़ोत्तरी हुई। अंग्रेजों को पेड़ों सेकुछ ज़्यादा लगाव होता है और सांपों मच्छरों
के बावजूद भी उन्होंने देह की निचली पहाड़ियों को रहने के क़ाबिल पाया,
क्योंकि यह इलाका थोड़ा सा ही सही, कहीं न कहीं उन्हें इंग्लैंड की हरियाली
और ख़ुशनुमा सरजमीं की याद दिलाता था।
इसके उत्तर में जो पहाड़ हैं, वे दुर्गग हैं, जबकि दक्षिण का मैदानी इलाका
सपाट, सूखा और धूल भरा है। लेकिन देहरा हराभरा है। सूरज निकलने पर मैं
ट्रेन कीखिड़की से बाहर देखता हूँ तोसाल और शीशम के पेड़ पीछे कीओर
भागते नज़र आते हैं जबकि उनपर चढ़ी बेलों और बांस के झुरमुटों कीवजह
से जंगल घना और गहरा बनता है, जिससे उसका रहस्य और बढ़ जाता है।
इन जंगलों में अब भी कुछ बाघ बचे हैं, हालांकि बस कुछ ही हैं, लेकिन शायद
पिता के फलते-फूलते पेड़ / ॥55
वे चीतल को धर दबोचने और जंगल के तालाबों का पानी पीने के लिए बचे
रहेंगे।
देहरा में मैं बड़ा हुआ। मेरे पिता ने सदी की शुरुआत में शहर के बाहरी
इलाके में बंगला बनवाया। उसे आजादी के कुछ साल बाद बेच दिया गया। देहरा
में अब मुझे कोई नहीं जानता, क्‍योंकि मुझे वह जगह छोड़े हुए बीस साल से
ज्यादा हो चुके हैं। मेरे लड़कपन के दोस्त इधर-उधर बिखर कर खो गये हैं।
हालांकि किम का वह भारत अब कहीं नहीं रहा है और ग्रैंड ट्रंक रोड पर अब
धीरे-धीरे चलने वाले घोड़ों और ऊंटों के बजाय ट्रकों का रेला रहता है। भारत
एक ऐसा देश है जहाँ लोग बड़ी आसानी से खो जाते हैं और उन्हें झटपट भुला
भी दिया जाता है।
स्टेशन से मैं तांगा करता हूँ। मैं टैक्सी याऑटो रिक्शा भी कर सकता
हूँ,जिनका कि 950 से पहले नामोनिशान भी नहीं'था, लेकिन मैं बेशर्मी ओढ़कर
गुजरे जमाने की यादों की तीर्थयात्रा पर निकला हूँ,इसलिए मैंने तांगा किया जिसमें
एक बदहवास सा टटूटू जुता था और उसे हॉक रहा था फटी सी हरी सदरी पहने
मुसलमान तांगेवाला। कुल दो या तीन तांगे खड़े होते हैंस्टेशन के बाहर। 940
वाले दशक में जब मैं बोर्डिंग स्कूल की पढ़ाई पूरी करके यहाँ आया था और
मेरे दादा जी मुझे लेने आये थे, तब बीस-तीस तांगे सवारियों के इंतजार में खड़े
रहते थे। तांगे केदिन अब लद॒ गये और कई मायनों में यह अच्छा ही हुआ
क्योंकि ज़्यादातर तांगों के घोड़ों सेमेहनत बहुत करवायी जाती थी और उन्हें
भरपेट खाने को नहीं मिलता था। तेल न पड़ने की वजह से चिंचियाते पहिये
और मेरे नीचे सेखिसकती सीट के साथ तांगा मुझे बाज़ार में लिये जा रहा था।
मुर्दे कोदफ़नाने केलिए जिस चाल से ले जाया जाता है, उस चाल से आगे
बढ़ते तांगे केबजाय मैं अपनी टांगों को इस्तेमाल करने के लिए बेचैन हुआ जा
रहा था और जैसे ही दिलाराम बाज़ार आया, मैंने तांगे को रफ़ा-दफ़ा किया।
पैदल चलना शुरू करने के लिए वह बढ़िया जगह थी।
दिलाराम बाज़ार ज़्यादा नहीं बदला है। बस दुकानें अब नयी पीढ़ी के
नानबाई, बनिये और नाई चला रहे हैं, लेकिन लोगों का काम-धंधा नहीं बदला
है। मोची नीची जात के होते हैं, नानबाई का पेशा मुसलमानों का है और दर्जी
का काम सिख कर रहे हैं। लड़के अब भी सपाट छतों पर से पतंगें उड़ाते हैं
और नहर के घाट की सीढ़ियों पर औरतें कपड़े धोती हैं। नहर राजपुर से आती
7354 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
है और यहाँ से ज़मीन के अंदर चली जाती है और क़रीब एक मील आगे जाकर
फिर बाहर बहती है।
बस फ़र्लाग, भर चलने पर मेरे दादा का घर आ जाता है। इस रास्ते के
दोनों ओर यूकेलिप्टस, जकरंडा और अमलतास के पेड़ खड़े हैं। बंगलों की
चारदीवारी में छोटी-छोटी अमराई है, लीची की बगीची है और हैंपपीते के पेड़ ।
सुर्ख लालपाते की डालें बगीचे कीदीवार केऊपर से बाहर झांकती हैं। हर बरामदे
की अपनी बोगनविलिया की बेल है और हर बगीचे की अपनी गेंदे की कयारी
है। गमलों में लगे ताड़ के पेड़, जो कि विक्टोरिया काल की दिखावे की शान
के लिए भारतीय गृहिणियां इन्हें लगाना बड़ा पसंद करती हैं। कुछ मकान हैं,
लेकिन ज़्यादातर बंगले हैं, जो भारत में लंबे समय रहने वाले अंग्रेजों ने सेना,
पुलिस या रेलवे की नौकरी से पेंशन पाने पर अपने लिये बनवाये थे। अब इनमें
से ज्यादातर कारोबारियों या सरकारी अफ़सरों के नाम हैं।
मैं अपने दादाजी के घर के बाहर खड़ा हुआ हूँ। दीवार को ऊंचा करवा
दिया गया है और छोटा वाला फाटक गायब हो चुका है। मकान और बगीचा
ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है। फाटक पर लगी नाम की पटूटी के मुताबिक
मकानमालिक का नाम है मेजर जनरल सैगल-949 में मेरे दादा-दादी नेजब
इसे बेचा था, उसके बाद से यह किसी एक के पास नहीं रहा।
सड़क के दूसरी तरफ़ लीची की बगीची है। इस मौसम में फल नहीं आते,
इसलिए कोई देखभाल करने वाला भी वहाँ नहीं मौजूद । बगीची से होकर जो
छोटा सा रास्ता जाता है उसपर आगे बढ़कर मैं कुछ ऊंची जगह पहुंचता हूँताकि
अपने पुराने मकान को अच्छी तरह देख सकूं।
दादाजी ने पास की पहाड़ियों से मंगवाये ग्रैनाइट पत्थरों से
मकान बनवाया
था। देखने से पता ही नहीं चलता कि इतना पुराना होगा। लॉन गायब हो चुका
है, लेकिन बड़ा साकटहल का पेड़, जिसकी वजह से बगल वाले बरामदे में छाया
रहती थी, वह अब भी अपनी जगह है। इसी पेड़ में बैठकर उस दौर की लोकप्रिय
पत्रिकाओं मैगनेट, चैम्पियन और हॉटस्पर के अंकों केसाथ दोपहर का समय
काटा करता था और आम का रस चू कर ठोड़ी तक पहुंच जाया करता था।
कटहल खा नहीं सकते थे जब तक कि उसकी सब्जी न बने। पेड़ कातना एक
जगह खोखला था और उसमें एक मोखला था जिसमें मैं अपना मूठ में फल वाला
चाकू, लटूटू, गुलेल और जब छुट्टियों में पिता जीघर आते थे, तब रॉयल एअर
पिता के फलते-फूलते पेड / 755
फ़ोर्स केउनके फ़ौजी जैकिट से निकले बैज और बटन बचाकर रख लेता था।
मेरी चीज़ों में एक लोहे का क्रॉस भी था, जो. कि पहले विश्व-युद्ध की निशानी
के तौर पर मेरे दादाजी ने मुझे दिया था। मैंने क्रॉस को तो सहेज के रख लिया,
लेकिन लटूटू और गुलेल का क्‍या हुआ? मुझे अब बिलकुल भी याद नहीं आ
रहा है। हो सकता है ये चीज़ें अब भी' वहीं कटहल के पेड़ के मोखले में हों ।
पिता जी के मरने केबाद जब हम वह जगह छोड़कर गये, तब उन्हें वहाँ से
ले जाना मुझे याद न रहा हो। गेट के अंदर घुसकर, पेड़ पर चढ़कर अपनी छूटी
हुई चीजें ले लेने कीझक सी मेरे सिर पर सवार हो गयी। अब जो मकान मालिक
हैं, रिटायर्ड मेजर जनरल, अगर उनसे तहजीब के साथ बीस साल पहले छोड़ी
गयी गुलेल ढूंढने की इजाजत मांगी जाए, तो वह क्‍यां कहेंगे?
एक बुजुर्गवार चले आ रहे हैं लीची के पेड़ों केबीच से आने वाले उस
रास्ते से। वह मेजर साहब नहीं हैं, कोई बेचारा सड़ेक पर अपना सामान बेचने
वाला फेरी वाला है। वह अपने सिर पर टीक की छोटी सी संदूकची लिए बहुत
धीरे-धीरे चला आ रहा है। जब वह मुझे देखता है तो ठहर जाता है और पूछता
है कि मुझे कुछ ख़रीदना है? मुझे कुछ याद नहीं आया कि मुझे कुछ चाहिए,
लेकिन बूढ़ा इतना थका और इतना बूढ़ा लगता है, कि मैं सोचने लगता हूँकि
अगर यह बिना सुस्ताए यहाँ से एक क़दम भी आगे बढ़ा तो रास्ते में ही ढेर
हो सकता है। इसलिए मैं उससे अपना माल दिखाने को कहता हूँ। वह अपने
आप अपने सिर से संदूकची नहीं उतारसकता, इसलिए हम दोनों मिलकर उसके
सिर से उसे उतारकर छांव में रखते हैं। वह बूढ़ा संदूकची की सारी चीज़ें बाहर
निकालकर घास पर फैलाने पर ज़ोर देता है-चूड़ियां, कंघे, जूते के फ़ीते, सेफ़्टी
पिन के गुच्छे, सस्ती कॉपियां, पेंसिल-कलम, बटन, पोमेड, इलास्टिक और घरेलू
इस्तेमाल की दर्जनों दूसरी जरूरी चीजें।
जब यह कहकर मैंने बटन लेने सेइनकार कर दिया कि वह मेरे किसी
काम के नहीं, क्‍योंकि उन्हें टांकने वाला कोई नहीं है, तो उसने सेफ्टी पिन मेरे
आगे कर दीं। मैंने मना किया। लेकिन जैसे वह एक के बाद दूसरी चीज़ें मेरे
सामने रखता गया, उसके उदासी भरे अंदाज़ और पीछा न छोड़ने वाली आवाज
के आगे कुछ न ख़रीदने की मेरी जिद कमजोर पड़ती गयी और मैंने लिफ़ाफे
ख़रीद लिये। चटक नीले कागज पर गुलाबी गुलाब वाला लेटर पैड ले लिया, एक
रुपये का स्याही वाला क़लम ले लिया जिससे स्याही निकलकर बहने की पूरी
756 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
गारंटी थीऔर कई गज इलास्टिक भी ले ली। मुझे भी नहीं पता कि मैं इलास्टिक
का क्‍या करूंगा, लेकिन बुड़ढे नेमुझे समझा दिया कि इसके बिना मेरा काम
नहीं चल सकता।
जो चीज़ें मुझे चाहिए ही नहीं, ऐसी तमाम चीज़ें मुझे बेचने केलिए की
गयी मशक्कत के बाद वह पस्त हो गया और आँखें बंद करके लीची के पेड़
का सहारा लेकर बैठ गया। एक पल के लिए तो मैं डर ही गया। कहीं यह यहाँ
मेरे बगल में बैठ कर मरने वाला तो नहीं है? फिर वह उकड़ूं बैठ गया और अपनी
ठोड़ी दोनों हथेलियों कोमिलाकर उनपर टिका ली । वह तो बस बातें करना चाहता
है।
मैं बहुत थक गया हूँ, हुजूर” वह कहता है। 'मेहरबानी करके मुझे कुछ
देर यहीं बैठा रहने दीजिए |
“हाँ, हाँ, कोई बात नहीं ।जब तक चाहो आराम करो,' मैं कहता हूँ। “इतना
भारी बोझ है यह जिसे तुम उठाए घूम रहे थे।
बातचीत का मौका देखा तो उसकी जान में जान आ गयी और कहने
लगा-“जब मैं जवान था, तब यह कुछ भी नहीं था। मैं तोअपना बक्सा राजपुर
से मसूरी तक घोड़ों वाले रास्ते से लेजाता था-पूरे सात मील की खड़ी चढ़ाई!
लेकिन अब मुझे दिलाराम बाज़ार से स्टेशन की दूरी तय करना ही भारी पड़ता
है।' द
'जाहिर है, काफ़ी उम्र जो हो गयी है।
'सत्तर साल का हूँ, साहब !' ;
“अपनी उम्र के हिसाब से तो तुम काफ़ी तंदुरुस्त लगते हो । मैंने यहइसलिए
कहा ताकि वह ख़ुश हो जाए। वैसे तो वह कमज़ोर और नाजुक दिखता था।
'क्या तुम्हारा. साथ देने केलिए कोई नहीं है? मैं पूछता हूँ।
(पिछले महीने एक लड़का था जो मैंने नौकर रखा था, लेकिन वह मेरी
कमाई पर हाथ साफ़ करके दिल्ली भाग गया। काश, मेरा बेटा ज़िंदा होता-तो
वह मुझे रोज़ी-रोटी के लिए खच्चर की तरह काम नहीं करने देता-लेकिन वह
सन्‌ सैंतालीस के दंगों में मारा गया।'
“कोई और रिश्तेदार नहीं हैं?”
“सब मर गये, मैं ज़िंदा रहा। सेहत अच्छी होने का यही दुखड़ा है। अपने
दोस्त, सारे चहेते लोग, सब चले जाते हैं अपनी आँखों केसामने और आख़िर
पिता के फलते-फूलते पेड / 757
में हम खुद अकेले रह जाते हैं। लेकिन मुझे भी ज़्यादा दिन नहीं रहना, जल्दी
जाना होगा। बाज़ार का रास्ता अब दिन पर दिन लंबा लगने लगा है। पत्थर
ज्यादा सख्त लगने लगे हैं। गर्मी में सूरज पहले से ज़्यादा गरम लगने लगा है
और सर्दी में हवा और ज़्यादा ठंडी। यहाँ तक कि मेरी जवानी में जो पेड़ थे,
वे भी बूढ़े होकर मर चुके हैं। मैंपेड़ों सेभी ज़्यादा जी लिया हूँ।'
वह पेड़ों सेभी ज़्यादा जीया। वह एक पुराने पेड़ जैसा ही तो है, ऐंठा
हुआ, टेढ़ा-मेढ़ा सा। मुझे तो ऐसा लगने लगा है कि वह अगर यहीं बगीची में
सो गया तो उसकी जड़ें फूट निकलेंगी और टेढ़ी-मेढ़ी डालें निकल आयेंगी। मैं
काला चोगा पहने एक छोटे से झुकी हुई कमर वाले पेड़ कीकल्पना कर सकता
हूँ--तैयार फसल के खेतों मेंसे पक्षियों को उड़ाने केलिए जीता-जागता पुतला-सा ।
वह फिर अपनी आँखें बंद करता है, लेकिन बातें नहीं बंद करता-बोलना
जारी रखता है। शक
अंग्रेज मेमसाहब लोग काफ़ी सारी इलास्टिक ख़रीदा करती थीं। आज
लड़कियों के लिए रिबन और चूड़ियां और लड़कों के लिए कंघे हैं। लेकिन अब
कमाई नहीं रही। इसलिए क्‍योंकि मैं ज्यादा दूर चल कर नहीं जा सकता। कितने
घर मैं जा सकता हूँएक दिन में? दस, पंद्रह। लेकिन बीस साल पहले मैं पचास
से ज़्यादा घरों कीफेरी लगाता था। इसी से तो फ़र्क पड़ता है। ;
क्या तुम हमेशा से यहीं हो?!
ज़्यादातर ज़िंदगी मेरी यहीं कटी है, हुजूर। मसूरी तक पक्की सड़क बनी
उसके पहले से मैंयहीं हूँ ।|
जब साहब लोगों की अपनी बग्गियां, घोड़े औरमेमसाहब
लोगों के अपने रिक्शा होते थे, तब भी यहीं था। सिनेमा बनने से पहले भी मैं
यहीं था। जब प्रिंस ऑफ़ वेल्स देहरा आये, तब भी मैं यहीं था...अरे, मैं बहुत
वक़्त से यहीं हूँहुजूर। वह मकान मेरे सामने बना था, कहते हुए उसने मेरे
दादाजी के बंगले की तरफ़ अपनी ठोड़ी से इशारा किया। 'पचास-साठ साल हो
गये होंगे। मुझे ठीक से याद नहीं है। सत्तर साल की उम्र में दस साल कया मायने
रखते हैं? लेकिन एक लंबे से, लाल सी दाढ़ी वाले साहब थे जिन्होंने यहमकान
बनवाया था। उन्होंने कई तरह के जानवर पाल रखे थे। एक कछुआ था, एक
अजगर था, जो एक दिन रेंगता हुआ मेरे संदूक में घुस आया और मुझे बुरी
तरह डरा दिया। साहब उसे अपनी गर्दन में माला की तरह डाल कर घूमा करते
थे। उनकी बीवी, बड़ी मेमसाहब मुझसे हमेशा बहुत सारी चीजें ख़रीदा करती
858 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
थीं-बहुत सारा इलास्टिक। और उनके बेटे थे-एक एअरफ़ोर्स में और दूसरा
पढ़ाता था। घर बच्चों से भरा था। बड़े ख़ूबसूरत बच्चे थे। लेकिन वे सब बहुत
साल पहले चले गये। सब चले गये ।
मैंने उसे नहीं बताया कि मैं उन्हीं “ख़ूबसूरत बच्चों” में सेएक हूँ। मुझे
डर था कि वह मेरी बात का यकीन नहीं करेगा। उसकी यादें दूसरे दौर की हैं,
दूसरे ठौर की हैं, वहसोच नहीं सकता कि बीते हुए अरसे और अब के बरसों
के बीच की दूरी को पाटने वाला कोई मज़बूत पुल भी हो सकता है।
लेकिन दूसरे लोग आ गये, मैंने कहा।
“हाँ, ठीक बात है। यह तो वह है जो होता ही है। इस बात से मुझे कोई
शिकायत नहीं है। मेरी शिकायत है-अगर भगवान सुन रहा हो तो-कि मुझे
क्यों पीछे छोड़ दिया गया।
वह धीरे से अपनी टीन की संदूकची के बगल में खड़ा हो जाता है और
एक अजीब सी हिकारत के साथ प्यार भरी नजरों से उसे देखता है। अंगौछे
को गोल सा लपेटकर वह सिर पर रखता है और मेरी मदद से अपनी संदूकची
सिर पर रख लेता है। उसके पास इतनी ताक़त नहीं है किचलते समय कुछ
दुआ-सलाम करे, लेकिन दूर पहाड़ों पर नजरें गड़ाये वह रास्ते पर कुछ लड़खड़ाते
और सुस्त से क़दमों से चल पड़ता है, लेकिन ताज्जुब है, एक सीध में चलता
चला जाता है।
मैं सोचता हूँ कि यहकितना और जीयेगा। शायद एक या दो साल, या
फिर एक घंटा। उसकी ज़िंदगी तो ख़त्म हो जाएगी, लेकिन वह मौत नहीं होगी ।
मौत के लिए तो कुछ ज़्यादा ही बूढ़ा होगया है। वह तो बस सो सकता है।
.वह धीरे से गिर सकता है, पुराने सूखे हुए भूरे से पत्ते कीतरह।
मैं बगीची सेचल पड़ता हूँ। रास्ते में जबमोड़ आता है तो मेरे दादाजी
वाला मकान दिखना बंद हो जाता है। मैं फिर से नहर पर पहुंच जाता हूँ। वह
एक छोटी सी पुलिया के नीचे से निकलती है, जहाँ छाया में कई किस्म के फ़र्न
और दूसरे सदाबहार पौधे उगे हुए थे। हिमालय की तलहटी की पहाड़ियों सेआती
पानी की धारा उसी जानी-पहचानी आवाज के साथ आगे बढ़ती हैऔर तब तक
बहाव की चाल नहीं बदलती जब तक कि नहर शहर की कम ढलान वाली सड़कों
को पीछे छोड़ आगे नहीं बढ़ जाती।
इस सड़क पर नयी इमारतें बन गयी हैं,लेकिन छोटा सा पुलिस थाना अब
पिता के फलते-फूलते पेड़ / 759
भी उसी चूने से पुते पुराने बंगले में है। चंद पुलिसवाले डूयूटी पर रहते हैं, पूरी
वर्दी में नहीं-पायजामे पहने-पहने सड़क के किनारे उगी घास में एक दूसरे का
हाथ पकड़ कर टहलते हैं। एक ही लिंय के दो शख्सों काएक दूसरे का हाथ
पकड़कर चलना उत्तर भारत में आम बात है और इसे किसी ख़ास रिश्ते के तौर
पर नहीं देखा जाता। 395
मैं इस छोटे से पुलिस थाने को नहीं भूल सकता। इसके आसपास कभी
कुछ ज़्यादा ख़ास नहीं हुआ, 947 से पहले, जब देहरा में सांप्रदायिक दंगे हुए
थे। तब नहर में सेअकसर लाशें निकलती थीं और थाने के अहाते में उनका
ढेर लग गया था। मैं तब बच्चा ही था और जब मैं दीवार के ऊपर से झांक
कर थाने में लगे लाशों के ढेर को देखता था, तो किसी का ध्यान मेरी तरफ़
नहीं जाता था। उनके पास इतनी फ़ुरसत ही नहीं थी कि वह मुझे वहाँ से
भगाते। साथ ही उन्हें पता था कि मैं पूरी तरह ख़त्तरे सेबाहर था। हिंदू और
मुसलमान एक दूसरे के गले काटने में लगे थे, एक गोरे लड़के के लिए सड़कों
पर भी ख़तरा नहीं था। यूरोपियन लोगों में किसी की दिलचस्पी नहीं रह गयी
थी। ः
देहरा के लोगों की फ़ितरत में मार-काट नहीं है औरइस शहर के इतिहास
में जातीय हिंसा कीकोई जगह नहीं रही है। लेकिन जब बंटवारे के बाद पंजाब
से हजारों की तादाद में शरणार्थियों के रेले देहता आने लगे तो माहौल में तनाव
पैदा होने लगा। इन शरणार्थियों ने, जिनमें बड़ी तादाद में सिख थे, अपना घर
और रोज़गार खोया था और कई ने अपनों को बेरहमी से क़त्ल होते देखा था।
वे आगबबूला हो रहे थेऔर उनके मन में बदले की आग धधक रही थी। दो
महीने की लूटपाट और कत्लेआम से देहरा के माहौल की शांति भंग हो गयी
थी। जो मुसलमान भाग सकते थे वे बचकर भाग निकले। समाज के गरीब लोग
तबाही का आलम रहने तक शरणार्थी शिविरों मेंरहे, फिर वे अपने पुराने काम-धंधों
में जुट गये, लेकिन अब उनके मन में डर था और भरोसा न के बराबर। संदूकची
में सामान भरकर बेचने वाला भी उनमें से एक था।
मैंने नहर पार की और वह रास्ता पकड़ा जिस पर चलकर मैं नदी तक
पहुंच सकता था। इस रास्ते पर सैर के लिए जाना मेरे पिताजी को भी बहुत
पसंद था। वह भी पैदल चलने वालों में से थे। अकसर, जब वह छुटिटयों में
घर आया करते थे, वह कहते, 'रस्किन, चलो टहलने चलते हैं, और हम दोनों
740 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
नदी, या गन्ने के खेतों या रेलवे लाइन पार करके जंगल में घूमने केलिए खिसक
लिया करते थे।
आज़ादी से पहले, ऐसे ही एक बार सैर करने निकले, तो मुझे अब भी
याद है, वह कहने लगे-“जब जंग ख़त्म हो जाएगी, हम इंग्लैंड चले जाएंगे। ठीक
रहेगा न?
पता नहीं,' मैंने कहा। 'क्या हम भारत में नहीं रह सकते ?'
“यह अब हमारा नहीं रहेगा ।'
क्या यह हमेशा से हमारा था? मैंने पूछा।
“लंबे समय से तो था, उन्होंने कहा। 'दो सौ साल से ज़्यादा से। लेकिन
अब हमें इसे वापस करना है।'
“किसे वापस करना है? मैंने पूछा। मैं तबकुल नौ साल का था।
हिंदुस्तानियों को,' उन्होंने कहा।
तब तक भारतीयों के नाम पर मैं जिन्हें जानता था, उनमें मेरी आया,
खानसामा, माली और उनके बच्चे ही थे। मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि
वे लोग हमसे छुटकारा पाना चाहेंगे। इनके अलावा जो दूसरे भारतीय हमारे घर
आया करते थे, वह थे डॉक्टर घोष और उनके बारे में अकसर यह कहा जाता
था कि वह अंग्रेजों से भी ज़्यादा अंग्रेज थे। मुझे अपने पिताजी की बात तब
बेहतर समझ में आयी जब उन्होंने समझाया-“जंग के बाद इंग्लैंड में मुझे नौकरी
मिल जाएगी। यहाँ मेरे लिए कुछ नहीं रखा है।
शुरू में तोऐसा लगता था कि जंग कहीं दूर हो रही है, उससे हमें क्‍या
फ़र्क पड़ता है, लेकिन धीरे-धीरे वह पास आती गयी। मेरी बुआ, जो लंदन में
' अपने दो बच्चों के साथ रहती थीं, एक हवाई हमले में मारी गयीं। फिर मेरे पिताजी
के छोटे भाई यानी मेरे चाचा जो बर्मा से मार्च करते चले आ रहे थे, वह दस्त
की भेंट चढ़ गये। इन दोनों हादसों के बाद मेरे पिताजी उदासी में डूब गए।
पहले ही उनकी सेहत अच्छी नहीं रहती थी, जब देखो तब उन्हें मलेरिया हो जाया
करता था, जब घर आते तो पहले से ज़्यादा बुझे-बुझ और कमजोर लगते। निजी
जिंदगी में भीवह खुश नहीं थे। मेरी मां औरवह अलग हो चुके थे, क्योंकि
मेरी मां को दूसरी शादी करनी थी। मैं अब कहीं इस बात को समझ पाया हूँ
कि उस दौर में उनके जो दिन मेरे साथ गुजरते थे, वह उन्हें कितनी उम्मीद से
देखते थे। मैं हीऐसा था जिसके पास वह कभी भी आ सकते थे, जिसे लेकर
पिता के फलते-फूलते पेड़ / ॥47
कुछ सोच सकते थे, जिसे वह कुछ सिखा सकते थे।,/
देहरा उन्हें रास आता था। जब वह पेड़ों केबीच होते, तो हमेशा खुश
रहते थेऔर उनकी इस ख़ुशी का मुझे एहसास हो जाता था। मैं ख़ुद को उनके
क़रीब महसूस करता। मुझे याद है जब मैं उनके साथ बरामदे की सीढ़ियों पर
बैठा था तो एक पेड़ ने उनका पीछा तके किया। हम वहाँ यूंही बैठे थे, कुछ
ख़ास नहीं कर रहे थे-बेहतरीन बग़ीचों में वक्त के कोई मायने नहीं होते। मैंने
देखा कि बेल का सहारे के लिए लिपटने वाला प्रतान या टेंड्रिल बहुत ही धीरे-धीरे
मुझसे दूर और उनके क़रीब बढ़ रहा है। बीस मिनट बाद वह बरामदे की सीढ़ियों
को पार कर उनके पांव से जा लगा। यह भारत है और यहाँ पांव छूना किसी
को आदर देने का सबसे मधुर तरीका है।
शायद पेड़ के इस व्यवहार की कोई वैज्ञानिक व्याख्या हो-जिसमें बरामदे
की रोशनी और गुनगुनाहट का इससे कोई लेना-देना हो-लेकिन मुझे यह सोच
कर अच्छा लगता है कि पेड़ का वह अंग मेरे पिता जी के लिए अपने प्यार की
वजह से उनकी ओर बढ़ रहा था। कभी जब मैं किसी पेड़ के नीचे अकेला बैठता
था, तो मैं कुछ अकेला और खोया-खोया सा महसूस करता था। लेकिन जब मेरे
पिता साथ आ जाते थे, तो माहौल खुशनुमा हो जाता था और मुझे महसूस होता
था कि पेड़ का रवैया मेरे प्रति ज्यादा दोस्ताना हो गया है।
घर के इर्द-गिर्द जो फलों के पेड़ थे, उन्हें लगाने में मेरे पिता का ही हाथ
था, लेकिन सिर्फ़ बगीचे में पेड़ लगाने भर से उन्हें तसल्ली नहीं होती थीं। बारिश
के मौसम में हम नदी के उस पार चले जाते थे और साथ ले जाते थे पेड़ों की
कलम और पौध । जहाँ जगह मिलती थी, जंगल के साल और शीशमके पेड़ों
के बीच फूलों की झाड़ियां रोप देते थे।
“लेकिन यहाँ तो कोई आता नहीं, मैंने पहली बार उनका विरोध किया।
“कौन देखेगा इन्हें?”
“किसी दिन,' वह बोले, “कोई इधर का रुख़ करेगा... अगर लोग पेड़ लगाने
के बजाय काटते रहे तो एक दिन जंगल ही नहीं बचेंगे और दुनिया एक बहुत
बड़े से रेगिस्तान में बदल जाएगी।'
बिना पेड़ों की दुनिया के बारे में सोचना ही मेरे लिए किसी डरावने सपने
से कम नहीं था। और यही वजह है कि मैं कभी बिना पेड़ों वाले चांद पर नहीं
जाकर बसना चाहूँगा। इसलिए, पेड़ लगाने की उनकी मुहिम में मैं पूरे जोश से
742 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
अपने पिता का हाथ बंटाता रहा।
"एक दिन पेड़ फिर चलने लगेंगे, उन्होंने कहा। 'पेड़ हज़ारों सालों सेएक
ही जगह खड़े रहते आये हैं, जबकि किसी समय वह इंसानों की तरह चल-फिर
सकते थे। लेकिन जब से किसी ने उन्हें शाप दे दिया, वे एकजगह जम गये।
लेकिन वे हमेशा चलने की कोशिश करते हैं-देखो किस तरह अपनी बाहें फैलाकर
दूर तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश करते हैं!
एक सूखी नदी की तलहटी में हमें एक पथरीला टापू मिला। वहाँ एक
ऐसी नदी बहती थी, जो हिमालय की निचली पहाड़ियों की तमाम नदियों की
तरह गर्मियों में पूरी तरह सूख जाती थी और मानसून आने पर उसमें बाढ़ आ
जाती थी। जब हम इमली, अमलतास और मंदार की कई पौध और कलम लेकर
निकले तब बारिश के शुरू के ही दिन थे और धारा को अभी पैदल पार किया
जा सकता था। टापू पर पेड़ लगाने में हमने सारा दिन लगा दिया और वहीं एक
जंगली अलूचे के पेड़ के नीचे बैठकर खाना खाया।
पौध लगाने के बाद जल्दी ही मेरे पिताजी चले गये। तीन महीने बाद,
कलकत्ता में, उनका देहांत हो गया।
मुझे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया। मेरे दादा-दादी नेमकान बेच दिया और
देहरा से चले गये। स्कूल के बाद मैं इंग्लैंड चला गया। साल बीतते गये, मेरे
दादा-दादी भी गुज़र गये और जब भारश्त लौटा तो देश में परिवार का अकेला
सदस्य मैं बचा था।
अब मैं फिर से देहरा में हूँ, नदी की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर।
सजे-संवरे बग़ीचों वाले घर जल्दी ही मेरे पीछे रह गये और मैं सरसों के
खेतों सेहोकर आगे बढ़ रहा हूँ, जिनके पीले फूलों का गलीचा दूर जंगलों और
हिमालय की निचली पहाड़ियों तक बिछा हुआ है।
साल के इस समय में नदी में पानी नहीं होता। मरियल से दुधारू जानवरों
का झुंड जंगल के सिरे पर छोटी-छोटी पीली-भूरी सी घास चर रहा है। साल के
पेड़ बीच-बीच में से काट लिये गये हैं। कया हमारे पेड़ बचे होंगे? क्‍या हमारा
टापू अभी होगा, या फिर किसी मानसून में अचानक आयी तेज़ बाढ़ उसे पूरा
ही बहा कर ले गयी होगी?
जब मैं सूखी नदी के पार देख रहा था, तभी मेरी नज़र चटख लाल मंदार
के फूलों पर पड़ी। सूखी नदी के पथरीले रास्ते केआगे छोटा सा टापू हरियाली
पिता के फलते-फूलते पेड़ / 745
का नख़लिस्तान बना हुआ है। मैं पेड़ों केआगे गया, तो जाना कि उन पेड़ों
में तमाम तोते आकर रहने लगे हैं। तभी कोयल अपनी कुहू-कुह्दू छोड़ देती है।
उसकी बोली में सवाल है। वह मुझे नहीं जानती।
लेकिन पेड़, ऐसा लगता है, मुझे जानते हैं। वेआपस में कुछ खुसुर-पुसुर
करते हैंऔर मुझे अपने और क़रीब बुलाते हैं। जब ध्यान से देखता हूँतो दिखाई
देता है कि जो पेड़ हमने लगाये थे उनकी आड़ में दूसरे पेड़-पौधे और घास उग
आयी है।
उनकी तादाद बढ़ी है। और वे आगे बढ़ रहे हैं। दुनिया के इस भूले-बिसरे
कोने में, मेरे पिता के सपने पूरे हो रहे हैं और पेड़ फिर फैल रहे हैं, आगे बढ़ते
जा हहे हैं।

744 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


>बचपन के वो दिन

यः कोई साल भर बाद, मैं टैक्सी में बैठा था जो देहरा जा रही थी। हालांकि
मेरी जिंदगी मसूरी में मज़े से कटरही थी। लेकिन जब-तब मुझे देहरा
की याद सताने लगती थी और वहाँ जो तमाम साल मैंने बिताये थे, उनकी यादों
में डूब जाया करता था। मैंने तय किया कि मैं जब मौक़ा मिलेगा देहरा चला
जाया करूंगा। इस तरह वहाँ की बातों और यादों से होने वाली बेचैनी ख़त्म
होगी।
आख़िरकार जब मैं वहाँ पहुंचा, तो मुझे लगा कि मैंपहुंच तो गया हूँ,लेकिन
कुछ समझ में नहीं आया कि मैं करूं तो क्या करूं। मुझे समझ में नहीं आ रहा
था कि मैं दरअसल देहरा में करने क्या आया हूँ। न तो मेरे कोई पुराने दोस्त
देहरा में रह गये थेऔर न ही कोई रिश्तेदार बचा था। मुझे बुजुर्ग मिस पेटीबोन
से ही मिल लेना चाहिए, जिनसे मैंने मिलते रहने का वादा किया था। लेकिन
देहरा छोड़ने केठीक बाद शुरू में तो मैंने एक-दो बार उन्हें ख़त लिखे, लेकिन
बाद में उनसे मेल-जोल या ख़तो-किताबत का कोई सिलसिला नहीं रखा। न ही
उन्होंने कभी कोई चिट्ठी लिखी। मैं उनसे यह उम्मीद नहीं करसकता था कि
वह मुझे लिखें, क्योंकि वह कुछ ज़्यादा ही बूढ़ी होचली थीं औरउनकी तबीयत
भी ठीक नहीं रहती थी। मैंने ख़ुद कोदिलासा दी-कोई बात नहीं, मैं उनके पास
जाकर उन्हें चौंका दूंगा और इतने बरसों कोई ख़बर न लेने के लिए माफ़ी मांग
लूंगा। लेकिन पहले मुझे उनके लिए कुछ ख़रीद लेना चाहिए।
मैं बाजार गया और उनके लिए ओरंज मार्मलेड (संतरे आदि का मुरब्बा)

बचपन के वो दिन / 745


का एक जार, थोड़ा मीट लिया और उनके कॉटेज की राह पकड़ी। मैं फाटक
से अंदर घुसा और छोटे से रास्ते कोतय करके दरवाज़े तक पहुंचा। जिस बगीचे
में उनकी जान बसती थी, वह पहले -सा नहीं रहा था। वहाँ खर-पतवार और
तमाम किस्म के जंगली पेड़-पौधे उग आये थे। जहाँ तक कॉटेज का सवाल है,
वह भी उजाड़ पड़ी थी। मैं होठों परे जोमुस्कान लिये चला आ रहा था, वह
उड़नछू हो गयी। और मेरे मन में कुछ अजीब से ख़याल आने लगे। जैसे ही
मैं कॉटेज के बाहर वाले दरवाजे से वापस लौटने को मुड़ा, मुझे फाटक के पास
डाकिया आता दिखाई दे गया। वही पुराना डाकिया जो इतने बरसों से देहरा में
डाक बांटता था। बस वह पहले से ज़्यादा झुररीदार और कमज़ोर सा लग रहा था।
“अरे बॉन्ड साहब! इतने बरसों बाद आपको देख कर अच्छा लगा। आप
यहाँ कैसे ?” ५
मैं मिस पेटीबोन से मिलने आया था। क्‍यों आप बता सकते हो कि वह
अब कहाँ रहती हैं? मुझे पता नहीं थाकि वह इस जगह से कहीं और चली
गयी हैं।
तो क्या आपको ख़बर नहीं थी कि मिस पोटीबोन आपके यहाँ से जाने
के तीन साल बाद गुजर गयी थीं। आपको तो पता ही है कि वह कितनी बूढ़ी
और कमज़ोर हो गयी थीं। वह लकवा मार जाने के बाद से अपाहिज सी पड़ी
रहती थीं और उनकी एक दूर की रिश्तेदार उनकी देखभाल कर रही थीं। लेकिन
वह ठीक नहीं हो पायीं। लगता है जैसे उन्होंने अचानक जीने की आस ही छोड़
दी थी और खुद को कुदरत के हवाले कर दिया था।
लेकिन इस कॉटेज का यह हाल?
“इस मकान को लेकर अब मुकद्दमेबाजी चल रही है। वह कोई वसीयत
तो छोड़ नहीं गयी थीं, लेकिन अब उनके तमाम रिश्तेदार, मुझे पूरा भरोसा है,
कि उनमें से कई का तो उन्हें ख़ुद भी पता नहीं होगा कि उनसे रिश्ता क्या
निकलता है, इस जायदाद पर अपना दावा पेश करने के लिए आ गये। जाहिर
है, ऐसे में इसमकान को अदालत के किसी फैसले पर पहुंचने तक के लिए ताला
डाल दिया गया है।
मैंने एक भली सी बुजुर्ग महिला को, जो मुझे बहुत चाहती थी और हमेशा
मुझ पर मेहरबान रही, इस तरह नजरअंदाज किया, इस बात पर मैं शर्मिंदगी
महसूस कर रहा था। अब मैं उनके लिए कुछ नहीं कर सकता था। अफ़सोस
746 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मनाता उदास मन के साथ मैं धीरे-धीरे पहाड़ी से नीचे उतरने लगा। मैं सोचने
लगा कि मैंने देहता आने का फ़ैसला ही क्‍यों किया। शायद यही बेहतर होता
कि मुझे इन उदास करने वाली बातों का पता ही नहीं चलता।
यही सब सोचते हुए मैंने सोचना ही छोड़ दिया कि मैं कहाँ जा रहा हूँ।
जहाँ पैर ले गये चलता गया। कुछ देर बाद मैंने ख़ुद कोएशले हॉल की इमारत
के सामने खड़ा पाया। लेकिन मुझे उसमें घुसने में घबराहट हो रही थी। अगर
वहाँ भी बुरी ख़बरों सेसाबका पड़ा तो क्या होगा? तभी मोटी बीबी अपनी दुकान
से बाहर निकल आयीं।
'मोटी बीबी, तुम मुझे नहीं पहचानतीं? बॉन्ड को?”
उसने सिर उठाकर मेरी तरफ़ देखा, मुस्करायी और बोली-'क्यों नहीं, मैं
तो तुम्हें पहचान गयी थी, लेकिन सोच रही थी कि तुम्हें मेरी याद भी है या
नहीं। तुम अपने दोस्त से मिलने आये-हो, है न? अच्छी बात है। अब वहीं मत
खड़े रहो, जीने सेसीधे ऊपर चले जाओ |
कौन सा दोस्त, मैंने अपने आप से पूछा। मैं वहीं ठिठक गया और इमारत
को गौर से देखने लगा। वह पहले से कहीं ज़्यादा पुरानी और जर्जर लग रही
थी, लेकिन पहली मंजिल के छज्जे पर मेरी निगाहें ठहर गयीं। उस पर गमले
में लगे पौधों कीकतार सजी थी-फ़र्न, पाम, कुछ चटक गेंदे, जीनिया और
नैस्टशियम-जिनकी वजह से वह छज्जा अगल-बगल वाले दूसरे छज्जों सेअलग
नजर आ रहा था। उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन था।
मुझे पक्का यकीन था कि वह मेरे ही पौधे थे-मेरे वही पौधे जो मेरे दोस्त
सीताराम ने मेरे लिये चुराये थे, जिन्हें मैं देहता सेजाते वक़्त देखभाल के लिये
मोटी बीबी के सुपुर्द कर गया था। वह अब भी हरे-भरे थे, लेकिन अब उनकी
देखभाल कौन करता होगा? हो सकता है...?
मेरी धड़कनें तेज हो गयीं और मैं झटपट सीढ़ियां चढ़ गया-सारी चौबीस
सीढ़ियां-और फ़्लैट का दरवाज़ा खटखटाया।
दरवाज़ा खोला भी तो किसने, किसी और ने नहीं, खुद सीताराम ने। पल
भर के लिए तो वह भी मेरी ही तरह हैरत में पड़ गया था। फिर बिलकुल सीताराम
वाले ढंग से मुझे अंदर आने को कहा।
ज़िंदगी कभी कुछ देती हैऔर कभी छीन लेती है और फिर दोबारा दे
देती है।
बचपन के वो दिन / 747
संयोग सेकुछ मिल जाता है, फिर छिन जाता है और फिर मिल जाता है।
“यह तो बिलकुल फ़िल्मी कहानी जैसा लग रहा है,” उसने खीसें निपोरते
हुए कहा। न्‍
'क्या मतलब है तुम्हारा? मैंने पूछा।
अरे, तुम्हारा अचानक हमारे घर आना ।
“हमारे” ? और कौन रहता है तुम्हारे साथ? अच्छा माता-पिता जी होंगे।
उनका तो मुझे ख़याल ही नहीं रहा ।
“अरे नहीं, वह नहीं हैं। अब मेरी बीवी मेरे साथ रहती है, मिस्टर रस्टी !!
बीवी! इससे पहले कि मैं उससे कुछ पूछता एक युवती कमरे में आ गयी।
मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ। मैं उसे जानता था... मैंने उसे देखा था। लेकिन
यह याद नहीं आ रहा था कि वह थी कौन। उसने सीधे मेरी ओर देखा और
मुझे खोया-खोया सा देख खिलखिला कर हँस पड़ी। सीताराम भी ठहाका लगाकर
हँसा। राधा! उसका नाम अचानक ही मुझे याद आ गया। वह कामवाली बाई
जो मेरे बगल वालों के यहाँ काम करती थी, जब मैं उसी इमारत में रहता था।
उधेड़बुन से निकल, मैंने सहजता से कहा-'तुम्हें आज फिर देखकर बहुत अच्छा
लगा, राधा और यह देख कर और भी अच्छा लगा कि तुमने इस बिगड़ैल से
शादी की । ह
'मुझे पता है तुम्हारे दिमाग़ में क्या चल रहा है.” सीताराम बोला। “तुम
खुद से यही सवाल कर रहे हो.कि मेरी और राधा की शादी कैसे हो गयी। देखो,
जैसा कि तुम्हें पता ही है, मैं कुछ साल के लिए शिमला में वेटर का काम करते
हुए जानमारी कर रहा था और वह भी बहुत कम तनख़्वाह पर। तुम्हारे जाने
के कुछ महीने बाद मैं देहात आया। कह सकते हो कि मुझे मजबूरी में आना
पड़ा। होटल वालों ने मेरे ऊपर कांटे-चम्मच और साबुन की बटिटियां चुराने का
इल्जाम लगाया। यह तुम सोच भी सकते हो? मैं मानता हूँकि पहले मैं लापरवाही
और शरारतें करता रहा हूँ,लेकिन यह इल्जाम पूरी तरह से बे-सिर-पैर का था।
मैं अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाया, इसलिए नौकरी छोड़ी और वापस यहाँ
लौट आया। लेकिन जब मैं यहाँ पहुंचा तो मेरे माता-पिता से पता चला कि तुम
पहले ही शहर छोड़ कर जा चुके थे। मोटी बीबी ने तुम्हारे सारे पौधे मुझे दे
दिये और मैं माता-पिता जी के साथ ही रहता रहा। लेकिन मेरा मन नहीं लग
रहा था और ऐशले हॉल आया-जाया करता था।
748 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं छत पर चला जाता था और वहाँ बैठे-बैठे आसमान में उड़ती पतंगों
को देखा करता था। कभी-कभी मुझे राधा भी वहीं मिल जाया करती थी-वह
कपड़े फैलाने आती*थी और हम बातें करने लगते थे। जल्दी ही मुझे एहसास
हुआ कि मैं राधा को काफ़ी चाहने लगा हूँ। उसकी जो बात मुझे सबसे अच्छी
लगती थी, वह थी उसकी मुस्कान जो उसके चेहरे पर ऐसे धीरे सेआकर फैल
जाती थी जैसे पथरीले पहाड़ों पर धूप। ऐसा लगता था जैसे यह रौनक उसके
चेहरे सेछलक कर मुझपर आ पड़ती थी। और यह सुनहरा एहसास उसके चले
जाने के बाद भी बना रहता था। इससे मुझे समझ में आया कि मेरी जिंदगी
में राधा कीएक अलग जगह है।
“राधा ग़रीब घर से थी, लेकिन जल्दी ही मुझे एहसास हो गया कि मैं तो
उससे भी ज़्यादा ग़रीब हूँ। जब मुझे पता चला कि साठ साल के विधुर से उसकी
शादी की बात चल रही है, तब मैंने यह ऐलान करने की हिम्मत जुटायी कि
मैं उससे शादी करना चाहता हूँ। लेकिन मेरे जवान होने से भीकिसी को कोई
फ़र्क़ नहीं पड़ता था। बुड़ढ़ा उसके मां-बाप को मोटी रक़म जो देने को तैयार
था। उनके लिए यह अच्छा ही नहीं था-बल्कि ऐसा रिवाज भी था। मेरे पास
देने केलिए क्‍या था? कुछ भी नहीं-मेरे पास तो एक अदद नौकरी तक नहीं
थी जिससे कि अगर हमारी शादी हो जाती तो उसके बाद हमारी ज़रूरतें पूरी
हो सकें। न ही मेरे मां-बाप या रिश्तेदार धनी थे, जो मेरी तरफ़ से बात कर
सकें।
मैंने सोचा कि मैं राधा केसाथ भाग जांऊं। जब मैंने राधा सेयह बात
की, तो उसकी आँखें चमक उठीं। उसे लगा कि ऐसा करने में तो बड़ा मज़ा
आयेगा। औरतों कों अगर प्यार हो जाता है तो वे जोखिम उठाने में मर्दों से
पीछे नहीं रहतीं! उसे तो इस बात की भी परवाह नहीं थी कि शादी के बाद
हम कहाँ जाएंगे और हमारा गुज़ारा कैसे होगा। हम दोनों के लिए ही हमारे घरों
के दरवाज़े बंद हो चुके होंगे। लेकिन एक-दूसरे के लिए हमारा प्यार बहुत बढ़
चुका था और हमें लगा कि अब हमें भाग के शादी कर ही लेनी चाहिए चाहे
उसका नतीजा कुछ भी निकले | सीढ़ियों पर, छत पर और दुकानों के पीछे वाले
उस कबाड़ख़ाने में लुक-छिप कर कुछ देर मिल लेने से अब हमें संतोष नहीं होता
था-हमें ज्यादा साथ रहने और ज़्यादा साझा करने की जरूरत महसूस हो रही थी ।
“और इसलिए हम भाग कर शिमला चले गये, जहाँ मेरे कुछ दोस्त थे।
बचपन के वो दिन / 749
मेरे पास तुम्हारा पता नहीं था, वरना मैं इसे लेकर सीधे तुम्हारे घर आ जाता।
जो भी हो, उस दिन के बाद से मेरे ऊपर ईश्वर की कृपा रही। हम दोनों को
शिमला के एक मिशनरी स्कूल की कैन्टीन में काम मिल गया। फिर साल भर
बाद मुझे देहरा में नौकरी मिल गयी। अब यह घर संभालती है और मैं पास
के एक जैम कारखाने में काम करता हूँ। बताओ रस्टी, तुम्हें खुशी नहीं होती
हमें साथ देख कर?
जाहिर है, मैं ख़ुश था। मुझे खुशी थी कि सीताराम को न सिर्फ़ सच्चा
प्यार करने वाले का साथ मिला, बल्कि उसने कुछ ऐसा भी करके दिखा दिया
जो मैं कभी न कर सका-उस प्यार को जिंदा रखने की हिम्मत और भरोसा।
मेरा देहता आना बेकार नहीं गया था। बल्कि अब एक और जगह मिल गयी
थी जहाँ मैं जासकता था। ।
मैं अपनी दादी के घर की ओर चल पड़ा।
जब पेड़ों ने मुझे देखा तो.ऐसा लगा जैसे वे मुड़-मुड़ कर मेरी तरफ़ देख
रहे हैं। दूर कहीं बर्फ़ीलि पहाड़ों सेठंडी हवा का एक झोंका घाटी को पार कर
मुझे छू गया। लंबी सी पूंछ वाला नीला भुजंगा चौंक कर शोर मचाता हुआ बलूत
के पेड़ सेनिकल कर उड़ गया। झींगुर अचानक बिलकुल शांत हो गये। लेकिन
पेड़ मुझे भूले नहीं थे। मंद हवा में झुक-झुक कर लहराते हुए अपने पास बुला
रहे थे। तीन चीड़ के पेड़, एक बलूत का और एक जंगली चेरी का। मैं उनके
बीच गया और उनके तनों पर हाथ फेर कर मुझे पास बुलाने केलिए उनका
शुक्रिया अदा किया। चेरी का तना बिलकुल सपाट और चिकना, जैसे रगड़ कर
चमकाया गया हो, चीड़ का एक ख़ास ढंग का लहरियेदार और बलूत का खुरदुरा,
ऐंठा हुआ और बेहद तजुर्बेदार। उसने सबसे ज़्यादा वक़्त जो देखा हुआ था।
तेज हवाओं ने उसकी ऊपर वाली कुछ डालों को झुका कर मरोड़ दिया था, जिससे
वह बेपरवाह और तड़क-भड़क से दूर रहने वाला लग रहा था। लेकिन अपने
कपड़ों और हुलिये को लेकर बेपरवाह किसी ज्ञानी दार्शनिक की तरह बलूत जरूर
कुछ गहरे राज़ जानता था, ऐसा बहुत कुछ जो औरों को नहीं मालूम था। उसे
मालूम था कि जिंदगी का राज क्‍या है!
हालांकि बलूत और चीड़ मुझसे और मेरे पिता जी से उम्र में बड़े थेऔर
बरसों से वहीं खड़े थे, लेकिन चेरी का पेड़ ठीक उनतालीस साल का था। मुझे
इसलिए पता है क्योंकि मैंने हीउसे लगाया था।
850 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
बोर्डिंग स्कूल सेजब एक बार दादी के साथ छुट्टियां बिताने आया था,
तब केन अंकल ने यह चेरी का बीज मुझे यूं हीथमा दिया था और मैं भी वैसे
ही उसे नर्म मिट्टी,में दबा कर उसके बारे में भूल गया था। कुछ महीने बाद
मुझे बड़ी-बड़ी घास के बीच चेरी का पेड़ दिखायी दिया। मुझे उम्मीद नहीं थी
कि वह पेड़ ज़्यादा दिन चलेगा। लेकिन अगले साल वह दो फ़ीट का हो गया
था। फिर कुछ बकरियां उसकी तमाम पत्तियां चर गयीं और चारे के लिये घास
काटने आये एक आदमी ने घास के साथ उसकी टहनियों को भी अपने हंसिये
से काट डाला। मुझे पक्के तौर पर यही लग रहा था कि चेरी का पेड़ बचेगा
नहीं, सूख जायेगा। लेकिन उसने खुद को ऐसे जिला लिया और पहले से भी
ज़्यादा तेजी से बढ़ने लगा। तीन साल के अंदर तो वह पांच साल का बढ़ता
हुआ पेड़ बन चुका था।
दादी का मकान बिकने के बाद, मैं कुछ सालों के लिये देहरा सेचला गया
था-हालात ही कुछ ऐसे थे-लेकिन मैं चेरी के पेड़ को भूला नहीं था। मैं उसके
बारे में अकसर सोचा करता था। दूर रहते हुए भी मन से मन की जो राह होती
है, उसी के जरिये, बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करने वाले संदेश भेजा करता था।
और कई साल पहले जब मैं सर्दियों सेपहले घर लौटा तो मेरा दिल यह देख
कर कलाबज़ियां खाने लगा कि मेरे चेरी के पेड़ पर हल्के गुलाबी फ़ूलों की झड़ी
लगी हुई थी। (हिमालय में उगने वाले चेरी के पेड़ों में नवंबर में फूल लगते हैं।)
बाद में, जब उसमें लगी चेरी पक गयीं, तब उस पर फ़िंच, टिट मुनिया, बुलबुल
और ऐसी ही चिड़यां लाल और खटूटी चेरी की दावत उड़ाने के लिए आने लगीं।
उस साल गर्मी के दिनों में जब मकान ख़ाली पड़ा था (मुझे लगता है कि
पहले वालों के चले जाने के बाद, नये मकान मालिक के आने से पहले) तब
मैंने चीड़ वाले टीले परएक रात बितायी-चेरी के पेड़ केनीचे घास पर सोया।
घंटों तोजागता रहा, धारा केबहने कीकल-कल आवाज़ और बीच-बीच'में
नाइटजार की खट-खट सुनता, ऊपर पेड़ों केबीच से आसमान में तारों कीचाल
देखता रहा। मुझे जमीन और आसमान की ताक़त का एहसास हुआ। मैंने महसूस
किया चेरी के छोटे से बीज में कितनी जान होती है
अब मैं सड़क के किनारे उगी घास पर खड़ा पुराने घर के बगीचे की दीवार
के पार झांक रहा था। वहाँ ज़्यादा कुछ नहीं बदला था। नदी की तलहटी से
काटकर लाये गये ग्रेनाइट पत्थर के ठोस टुकड़ों से बने मकान में कोई भी ज़्यादा
बचपन के वो दिन / ॥57
कुछ बदलाव .नहीं कर सकता। लेकिन एक बगीचे के खुले हिस्से में एक छोटा
सा घर और बन गया था और पेड़ कुछ कम हो गये थे। मुझे यह देख कर अच्छा
लगा कि मुख्य इमारत के एक ओर कटहंल का पेड़ अब भी खड़ा हैऔर उसकी
छाया पहले की तरह ही बंगले की दीवार पर पड़ रही है। मुझे याद आ गया
कि मेरी दादी कहा करती थीं-“जिस मकान पर पेड़ की छाया पड़ती है उस पर
ख़ुदा की मेहर रहती है।” यानी अब जो लोग इस घर में रहते होंगे, उनपर भी
जरूर पेड़ की कृपा होगी।
मैं जिस जगह खड़ा था, वहाँ कभी घूमने वाला गेट था और जब मैं छोटा
था तब उस पर लटक कर झूला झूलने का मज़ा लिया करता था। मैं तब तक
उसपर चक्कर लगाता रहता जब तक कि मेरा सिर नहीं घूमने लगता। घूमने
वाला गेट तो अब है नहीं, उसकी जगह को ईंटों से चुन दिया गया था। उधर
दीवार के पार ऊंचे-ऊंचे हॉलीहॉक के पौधे उगे हुए थे।
क्‍या देख रहे हो...
पहले तो वह आकाशवाणी जैसी आवाज़ लगी, कहाँ से आ रही है कुछ
पता नहीं चला। कुछ ही पलों में गहरे लाल हॉलीहॉक के सीधे खड़े पौधों के
बीच एक लड़की आकर खड़ी हो गयी और देखने वाले को घूरने लगी।
उसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना कठिन था-वह बारह वर्ष की भी हो सकती
थी और सोलह की भी हो सकती थी-छरहरी और सांवली, प्यारी सी आँखों और
लंबे, काले बालों वाली। ६
में मकान को देख रहा हूँ।'
क्‍यों? कया तुम इसे ख़रीदना चाहते हो?
क्या यह मकान तुम्हारा है?
“यह मेरे पिता का है।'
“और तुम्हारे पिता क्‍या करते हैं?
“वह बस कर्नल हैं।
“बस कर्नल?
देखो, उन्हें अब तक ब्रिगेडियर बन जाना चाहिए था।
मैं ठहाका मार कर हँस पड़ा। *
यह कोई हँसने की बात नहीं है,' उसने कहा। “मम्मी भी कहती है कि
उन्हें ब्रिगेडियर होना चाहिए था।
752 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जवाब उसकी जुबान के सिरे पर मौजूद था, (शायद इसीलिए वह अभी
तक कर्नल है), लेकिन मैं कुछ बोला नहीं क्योंकि उसे नाराज़ नहीं करना चाहता
था। ।
'तो,' उसने चुप्पी तोड़ी-“जब तुम्हें घरख़रीदना नहीं है तो क्या देख रहे
हो?
“कभी मैं यहाँ रहा करता था।
अच्छा!
'पच्चीस साल पहले। जब मैं लड़का ही था और फिर जब मैं जवान हुआ
तब भी... जब तक मेरी दादी जिंदा रहीं। उनके मरने पर हमने यह घर बेच दिया
और यहाँ से चले गये।
वह कुछ देर तक चुपचाप यह सारी जानकारी लेती रही। फिर बोली-“और
अब तुम इसे फिर से ख़रीदना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे पास अब इसकी क़ीमत
चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं?”
“नहीं, मैं इसे फिर से ख़रीदने के बारे में नहीं सोच रहा था। मैं तो सिर्फ़
इसे एक बार फिर देखना चाहता था। बस। तुम यहाँ कब से रह रही हो?
'सिर्फ़ तीन साल से!” वह मुस्कराई। वह तरबूज़ खाकर आयी थी और
रस उसके होठों के कोरों परअब भी डबडबा रहा था। क्या तुम अंदर आकर
देखना चाहते हो-एक बार फिर से?!
“तुम्हारे माता-पिता को कोई एतराज़ तो नहीं होगा?!
“वे क्लब गये हैं। उन्हें कोई एतराज नहीं होगा। अपने दोस्तों को घर बुलाने
से वह मना नहीं करते।
“बड़े दोस्तों को भी नहीं?
"तुम्हारी उम्र क्या है?!
“अरे, कोई ज़्यादा नहीं। न मैं बहुत छोटा हूँऔर न बहुत बड़ा हूँ। मैं
बीच का हूँ औरआज तो खुद को और भी छोटा महसूस कर रहा हूँ।'
और अपनी बात सही साबित करने के लिए मैंने तय किया कि अंदर जाने
के लिए पूरा चक्कर काटकर गेट से अंदर जाने के बजाय वह दीवार फांदकर
जाऊंगा। मैं दीवार पर चढ़ तो गया, लेकिन चढ़कर वहीं बैठा रहा। जोर पड़ने
से मेरी सांसें उखड़ गयी थीं। “अधेड़ उम्र काआदमी और हवाई झूलों के ख़्वाब,
मैं ख़ुद से बुदबुदाया।
बचपन के वो दिन / ॥55
“ठहरो, सैं तुम्हारी मदद करती हूँ/-यह कहते हुए लड़की ने अपना हाथ
आगे बढ़ा दिया। मैं नीचे कोसरका तो सीधा फूलों की क्‍्यारी में उतरा और
एक हॉलीहॉक के पौधे का तना कुचल गया।
घास पर चलकर मकान की ओर जाते हुए मेरा ध्यान आम के पेड़ के
नीचे पत्थर की बेंच पर पड़ा। यह वही बेंच थी जिसपर मेरी दादी सुस्ताने के
लिए बैठा करती थीं जब वह गुलाब और बोगनविलिया की छंटाई करते-करते
थक जाती थीं।
“यहीं बैठते हैं, मैंने कहा। “मैं अंदर नहीं जाना चाहता |
वह भी बेंच पर मेरी बगल में बैठ गयी। मार्च का महीना थाऔर आम
के पेड़ परबौर आ रहे थे। एक मीठी सी महक बगिया में बिखरी हुई थी।
दोनों कुछ देर तक कुछ भी नहीं बोले। मैं आँखें बंद करके गुज़रे जमाने
की बातें याद करता रहा-पियानो का संगीत, बरामदे में लगातार चहचहाते
बजरीगर, दादाजी की अपनी बहुत पुरानी कार का इंजन चालू करने की मशक्कत
और हर घंटे उनकी घड़ी की टन्न-टन्न-टन्‍्न की गूंज...
मैं आँखें खोलते हुए बोला-“मैं कटहल के पेड़ पर चढ़ जाया करता था,
जबकि मुझे कटहल पसंद नहीं है। तुम्हें पसंद है?”
“इसका तो अचार ही ठीक लगता है।'
अच्छा...पता है, बड़ी आसानी से चढ़ जाता था कटहल के पेड़ पर और
बहुत देर तक ऊपर ही रहता था,॥
क्या तुम फिर से उसपर चढ़ना चाहोगे? मेरे माता-पिता को कोई एतराज
नहीं होगा ।'
“नहीं, मैंनहीं चढ़ना चाहता । औरदीवार पर चढ़ने केबाद अब तो बिलकुल
भी नहीं! बस, यहीं कुछ देर बैठकर बातें करते हैं। मैंने कटहल के पेड़ की बात
इसलिए की क्योंकि वह इस घर में मेरी सबसे पसंदीदा जगह थी। तुम्हें वह मोटी
सी डाल दिखाई दे रही है न,जो छत पर चली गयी है? इसके बीच के हिस्से
में एक छोटी सी खोखली जगह है जिसमें मैं अपना खज़ाना रखता था।
“किस किस्म का खज़ाना?
“अरे, कोई ज़्यादा कीमती चीज़ें नहीं-जीते हुए कंचे। एक ऐसी किताब
जो मेरे पढ़ने केलिए नहीं थी। कुछ पुराने सिक्के जो मैंने इकट्ठे किये थे। चीजें
आती-जाती रहती थीं। मेरे दादाजी काएक मेडल-जो कि वास्तव में दादाजी
॥54 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
का नहीं था-क्योंकि दादाजी ब्रिटिश थे और क्रॉस जैसी बनावट वाला वह मेडल
जर्मनी का था जो विश्व युद्ध में बहादुरी से लड़ने वाले फ़ौजियों को ईनाम में
दिया जाता था। पृहले विश्व युद्ध में दादाजी लड़े थे न, फ्रांस में |वहीं वह क्रॉस
वाला मेडल उन्हें किसी जर्मन फ़ौजी से मिला था।
जिंदा या मुर्दा?
क्या कहा? अच्छा, तुम्हारा मतलब जर्मन फ़ौजी। मैंने कभी पूछा नहीं।
मारे गये फ़ौजी का होगा...मुझे लगता है। या हो सकता है बंदी बनाये गये किसी
फ़ौजी का हो। लेकिन मैंने कभी दादाजी से पूछा नहीं। अजीब बात है न?
“वह लोहे का क्रॉस वाला मेडल अब भी है तुम्हारे पास?
“नहीं,' मैंने लड़की की आँखों में झांकते हुए कहा। "मैं उसे यहीं कटहल
के पेड़ में छोड़ गया था।'
“इसी पेड़ में छोड़ गये थे?!
“हाँ, उससमय मेरे पास इतना कुछ था करने के लिए-सारी चीज़ों को
ले जाने के लिए सम्भाल कर रखना था, जाने से पहले दोस्तों सेमिलना था और
उस जहाज के बारे में सोचता रहता था जिसपर हमें जाना था-इतना कुछ था
कि मैं मेडल को तो भूल ही गया था।'
वह चुप थी। होठों पर उंगली टिकाएं, बड़ी गहराई से कुछ सोचती लग
रही थी, उसकी निगाहें टिकी थीं कटहल के पेड़ पर।
फिर, वह धीरे से बोली, 'फिर तो वह क्रॉस वाला मेडल अब भी वहीं होगा,
मोटी डाल वाली खोह में |
“हाँ, पच्चीस साल बाद, अगर किसी और के हाथ नहीं लगा होगा तो, अब
भी वहाँ हो सकता है।
। देखना चाहते हो चढ़कर ?
“अब मैं पेड़ों पर नहीं चढ़ सकता ।'
मैं तोचढ़ सकती हूँ! में जाकर देखती हूँ। तुम यहीं बैठकर मेरा इंतज़ार
करो, मैं अभी आयी ।'
वह फुर्ती सेउठी और कूदती हुई घास को पार कर झटपट कटहल के
पेड़ पर चढ़ गयी। फिर उसी डाल पर बैठकर सरकते हुए छत की तरफ़ वाले
हिस्से कीओर बढ़ने लगी। हवा गमनि लगी थी और सड़क के किनारे धूल के
छोटे-छोटे गुबार उठ रहे थे। गर्मी केदिन आने को थे। काश, मैं आज भी पेड़ों
पर चढ़ने लायक होता।
बचपन के वो दिन / 755
“मिल गया, देखो यह मिला है! वह वहीं से चिल्लायी।
और पेड़ से उतरकर, बिना चप्पल पहने ही, दौड़ पड़ी उसकी ओर। पहुंची
तो उसकी सांसें तेज़ी सेचल रही थीं और उसने अपना हाथ आगे को किया
हुआ था। और उसमें था वह जंग लगा छोटा सा मेडल।
मैंने वहमेडल लड़की के हाथ से ले लिया-अपनी हथेली पर रखकर देखने
लगा।
“यही है वह क्रॉस वाला मेडल? उसने उतावलेपन से पूछा।
हाँ, यही है।'
“अब मैं समझ गयी कि तुम क्‍यों यहाँ आये थे। तुम देखना चाहते थे
कि क्‍या यह अब भी पेड़ में है?
'पता नहीं। मुझे सचमुच नहीं मालूम कि मैं यहाँ क्यों आया था। लेकिन
यह क्रॉस अब तुम अपने पास ही रखो। और फिर यह तुमने पाया है।'
“नहीं, तुम्हीं रखो इसे। यह तुम्हारा है।'
“लेकिन अगर तुम इसे लाने के लिए पेड़ पर न चढ़तीं, तोशायद यह सौ
साल तक वहीं पेड़ में पड़ा रहता ।' |
"तुम्हारी वजह से ही तो गयी न...अगर तुम नहीं आते तो...
“सही दिन, सही समय पर, सही हाथों में /”यह कहते हुए उसने वह क्रॉस
वाला मेडल लड़की की नर्म हथेली पर रखकर उसकी मुट्ठी बंद कर दी और
बोला-ैं क्रॉस के लिए नहीं आया था, मैं तो अपने बीते हुए दिनों की ख़ातिर
आया था जब मैं बच्चा था, जवान था।
वह सब कुछ समझ रही थी। हालांकि उसकी जवानी के दिन अभी दूर
थे और उसमें बड़ों वाली समझदारी भी नहीं थी। लेकिन एक समझ बच्चों में
भी होती है जो उसमें थी। वह मेरे साथ गेट तक आई और जब मैं बाहर निकल
कर आगे बढ़ने लगा तो वह वहीं खड़ी मुझे जाते हुए देखती रही। जब मैं मोड़
पर पहुंचा तो मैंने पलटकर लड़की की ओर देखा और हाथ हिलाया। फिर तेज
क़दमों से बस स्टैंड कीओर बढ़ने लगा। मेरी चाल में एंक उमंग थी और दिल
में एक हूक सी उठ रही थी।

त56 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


मधु की गति न्यारी

न सी मधु से मैं बहुत साल पहले मिला था, जब मैं हिमालय की तलहटी
में एक ऐसे शहर में रहता था जो बहुत मशहूर नहीं है। मैं तब तीस से
कुछ कम का था और तब ज़िंदगी को लेकर मेरा नज़रिया सपनों जैसा रंगीन
था। तीस के बाद जो कडुवाहट और निराशा आयी, तब तक उसका नामो-निशां
नहीं था।
शहरों में जिस तरह के सामाजिक मेलजोल वाली ज़िंदगी मुझे मिल जाती,
उसके मुक़ाबले जिले के छोटे से कस्बे का एकांत का माहौल मैं ज़्यादा पसंद
करता था। मुझे अपनी किताबों, लेखन और आसपास की पहाड़ियों में अपनी
खुशी और रोजी-रोजगार के लिए काफ़ी कुछ मिल जाता था।
गर्मी के दिनों में सुबह के समय मैं अकसर नोटबुक या स्केच पैड लेकर
, एक पुराने आम के पेड़ के नीचे बैठ जाता था। मामूली से किराये पर मैंने जो
घर किराये पर ले रखा था वह कस्बे के बाहरी इलाके में था। घर की चारदीवारी
के पार गरीबों की छोटी सी बस्ती और एक बड़ा सा पक्का तालाब दिखायी देता
था। बगीचे की नीची दीवार से सटा एक संकरा सा आम रास्ता था।
एक सुबह जब मैं आम के नीचे बैठा था, मैंने क़रीब नौ साल की छोटी
सी बच्ची को उस रास्ते पर और तालाब के ऊंचे किनारों पर कुलांचे भरते देखा।
कभी-कभी वह रुक कर मुझे देखती थी और जब मैंने यह जाहिर होने
दिया कि मैंने उसे देख लिया, तो उसका हौसला बढ़ा और वह शमति हुए पल
भर के लिए मुस्करायी। अगले दिन मैंने देखा कि वह बगीचे की दीवार के सहारे
मधु को गति न्‍्यारी / 757
खड़ी होकर मुझे अंदर बगीचे की घास में इधर से उधर तेज क़दमों से चलते
देख रही थी। ह
कुछ ही दिनों में हमारे बीच एक तरह की जान-पहचान हो गयी। मैं भी
उसकी मौजूदगी को नज़रअंदाज़ करने लगा। कभी-कभी तो उसकी ओर देखता
भी नहीं था। वह तब तक रास्ते में मंडराती रहती थी जब तक कि मुझे घर
से बाहर निकलते नहीं देख लेती थी।
एक दिन जब वह फाटक के सामने से निकल रही थी, तो मैंने उसे अपने
पास बुलाया।
"तुम्हारा नाम कया है? मैंने पूछा। “और तुम कहाँ रहती हो?
'धु,' उसने मेरी तरफ़ देख अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखों से मुस्कुराते
और अपने उलझे से लंबे, काले बालों को समेटते हए कहा और सड़क के पार
इशारा किया-'मैं वहाँ अपनी दादी के साथ रहती" हूँ।'
'क्या वह बहुत बूढ़ी हैं? मैंने पूछा।
मधु ने हामी भरते हुए सिर हिलाया और फुसफुसाते हुए बोली-'सौ साल

बाद में मुझे पता चला कि वह बूढ़ी उसकी दादी नहीं थी, बल्कि उसकी
अपनी कोई औलाद नहीं थी और उसे नवजात बच्ची यानि मधु तालाब के किनारे
मिली थी। मधु के असली मां-बाप का कोई अता-पता नहीं था, लेकिन उस सिकूड़ी
सी झुर्रियों वाली बुढ़िया नेउसे अपने बच्चे कीतरह पाला था।
एक बार मेरे फाटक के अंदर घुसने के बाद से मधु ने मेरे बगीचे में भी
धड़ल्ले सेआना-जाना शुरू कर दिया। वह रोज़ सुबह आ जाती। तितलियों को
पकड़ने कीकोशिश करती और वह छरहरी सी लड़की पेड़ों केबीच कभी इस
गिलहरी को पकड़ने दौड़ती तो कभी उस मैना को ।जब देखो उसकी हँसी छलकती
रहती थी।
कभी-कभी मैं उसके लिए कोई खिलौना या कोई फ्रॉक वगैरह ले आता
था, लेकिन बस कभी-कभी | एक दिन, अपना सारा शर्मीलापन ताख पर रख वह
मेरे लिए गेंदे और छोटे-छोटे नीले बनफूलों का एक छोटा सा गुच्छा लेकर आयी।
“आपके लिए, वह बोली और फूल मेरी गोद में रख दिये।
“बहुत सुंदर हैं,' मैंने कहा । 'लेकिन तुमसे ज़्यादा नहीं / और इसके साथ
ही उनमें सेसबसे चटख गेंदा निकालकर उसके बालों में लगा दिया।
858 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
एक साल से ज़्यादा बीत गया, तब कहीं हल्के-फुल्के तौर पर दिलचस्पी
से आगे बढ़कर, मैंने मधु पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया।
कुछ समय बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि उसे पढ़ना और लिखना
सिखाया जाना चाहिए और तब मैंने पास ही रहने वाले एक टीचर से उसको
बगीचे में आकर पढ़ाने केलिए कहा। जब उसे पता चला तो उसने ताली बजाई
क्योंकि उसे यह भी किसी मज़ेदार नये खेल से कम नहीं लग रहा था।
अगले कुछ हफ़्तों में ही मधु नेअपनी सीखने की ख़ूबी से हमें हैरत में
डाल दिया। टीचर से जो कुछ पढ़ती थी, उसे दोहराने केलिए वह हर रोज़ एक
घंटे केलिए मेरे पास आ जाती थी। मुझसे कई विषयों पर तमाम सवाल किया
करती थी। दुनिया कितनी बड़ी है? और क्या सितारे हमारी दुनिया जैसे हैं? या
फिर, क्‍या वह सूरज और चांद की संतान हैं?
मधु मेंमेरी दिलचस्पी बढ़ती गयी और मेरी ज़िंदगी में अबतक जो खालीपन
था, उसकी जगह एक नये मकसद ने ले ली। जब वह घास पर मेरे बगल में
बैठ कर जोर-जोर से पढ़ रही होती थी, या मेरी हर बात का यकीन करके पूरे
भरोसे के साथ मेरी बातें सुन रही होती थी, तब मनमर्जी से अकेले रहने के दौरान
मेरे अंदर जितना प्यार छुपा पड़ा था, वह उसके लिए अचानक उमड़े लाड़ की
शक्ल में उभरकर सामने आने लगा था।
तीन साल चुपके से कहाँ चले गये, पता भी नहीं चला और तेरह साल
की हो रही मधु बचपन की दहलीज को पार करने की कगार पर पहुंच गयी।
मुझे उसे लेकर एक ज़िम्मेदारी सीमहसूस होने लगी।
मुझे मालूम था कि इतनी सलोनी सी बच्ची को इस तरह बिना कड़ी देखरेख
के छोड़ देना और उसे अकेले बेरोकटोक इधर-उधर घूमने देना ख़तरे से ख़ाली
नहीं था। बाल की खाल निकालने वाले समाज में अगर उसका ज़्यादा समय मेरे
साथ बीतता तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता।
उसे नहीं लग रहा था कि उसे कहीं जाने की जरूरत थी, लेकिन मैंने उसे
साथ लगे जिले के एक मिशनरी स्कूल में भेजने का फ़ैसला किया, जहाँ मैं
समय-समय पर उससे मिलने जा सकता था।
“लेकिन क्‍यों? मधु बोली। 'मैं आप से और जो टीचर आते हैंउनसे पढ़
सकती हूँ। मैं यहाँ इतनी खुश तो हूँ।'
“वहाँ और लड़कियां मिलेंगी, तुम्हारी सहेली बनेंगी,” मैंने उसेबताया। “और
मधु की गति न्यारी / 759
मैं तुमसे मिलने आया करूंगा ।फिर जब तुम घर आया करोगी तो और भी ज़्यादा
मज़ा आएगा। तुम्हें जाना चाहिए और यही अच्छा है।
जून का पहला पखवाड़ा बीतने को- था-शिवालिक के इलाके में बेहाल कर
देने वाला गर्म और दमघोंटू मौसम। मधु ने कह दिया था कि वह स्कूल जाने
को तैयार है। फिर एक शाम वह रोज*की तरह बगीचे में नहीं दिखाई दी तो
मैंने इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन अगले ही दिन मुझे पता चला
कि उसे बुख़ार थाऔर वह घर से निकलने की हालत में नहीं थी।
बीमारी क्‍या होती है, इससे मधु बिलकुल अनजान थी और इसी वजह
से मुझे डर सा लग रहा था। उस पगडंडी पर जल्दी-जल्दी चलकर मैं बुढ़िया की
कुटिया तक पहुंचा। अजीब सा लग रहा था कि इतने दिनों मधु से जुड़े रहने
के बावजूद मैं वहां एक बार भी नहीं गया था।'
बेहद मामूली सा मिट्टी का मंडुआ था उसका'घर, जिसकी छत बस इतनी
ऊंची थी कि मैं सीधा खड़ा भर हो सकता था। लेकिन अंदर जगह साफ़-सुथरी
थी। बुख़ार से पस्त मधु मूंझ की बान से बुनी खाट पर आँखें बंद किये पड़ी
थी। उसके लंबे बाल बिखरे और एक हाथ खाट से नीचे लटका था।.
तब पहली बार मैंने सोचा कि इतने लंबे समय में मैंने उसकी ज़रूरत पर
कितना कम ध्यान दिया था-वहाँ एक कुर्सी तक नहीं थी। मैंने घुटने ज़मीन
पर टिकाये और उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसके शरीर की तेज़ तपन
से पता चल रहा था कि वह बहुत बीमार थी।
छूने से हीउसने मुझे पहचान लिया और आँखें खुलने से पहले ही उसके
चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ गयी। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और उसे अपने
गाल पर रख लिया।
मेरी आँखें उसकमरे का मुआयना कर रही थीं, जहाँ वह बड़ी हुई थी।
बान की दो खाटों केअलावा-एक पर मधु और दूसरी पर बैठी बूढ़ी हमें देख
रही थी। उसका झुर्रियों सेभरा सफ़ेद सिर कठपुतली की तरह लगातार हिल
रहा था।
एक कोने में मधु का खजाना था। मैं पहचान रहा था उन चीजों को जो
मैंने पिछले चार साल के दौरान समय-समय पर उसे दी थीं। उसने सबको संभाल
कर रखा था। उसकी सांवली बाजू पर अब भी वह लाल फ़ीता बंधा था, जो
मैंने करीब साल भर पहले यूंही खेल-खेल में बांध दिया था। उसके अंदर दिल
760 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
नाम की भी कोई चीज है, यह जानने से पहले ही वह एक ऐसे अजनबी को
दिल से चाहने लगी थी, जो इतने बड़े तोहफ़े के क़ाबिल नहीं था।
जब शाम ढल॒ने लगी, तब हवा के एक झोंके से अंधेरी कोठरी का दरवाजा
खुल गया और धूप की एक किरन अंदर आकर दीवार के एक हिस्से पर पड़ने
लगी। यह वह समय था जब हर शाम वह आम के पेड़ के नीचे मेरे पास आ
जाया करती थी। क़रीब एक घंटा हो गया था और वह अब तक चुप पड़ी थी।
फिर मेरे हाथ पर उसके हाथ का हल्का सा दबाव महसूस हुआ तो मेरी नएज़रें
उसके चेहरे की ओर लौटीं।
“अब हम क्‍या करेंगे? वह बोली। “आप मुझे स्कूल कब भेजोगे?
“अभी नहीं भेजूंगा। पहले तुम ठीक हो जाओ, तंदुरुस्‍्त होजाओ। इसके
अलावा और कुछ जरूरी नहीं है।'
वह मेरी बात सुन नहीं पायी, ऐसा लगा। मुझे लगता है कि उसे पता चल
गया था कि वह जी नहीं पाएगी और उसने इसके लिए कोशिश भी नहीं की।
'पेड़ के नीचे तुम्हें कौन किताब पढ़ कर सुनाएगा? वह बोलती गयी।
“कौन तुम्हारी देखभाल करेगा? एक ज़िम्मेदार औरत की तरह उसने कहा।
"तुम, मधु |तुम अब बड़ी हो गयी हो। मेरी देखभाल और कोई नहीं कर
सकता /'
बूढ़ी बिलकुल मेरे पास आकर खड़ी हो गयी थी। सौ साल की...और नन्‍हीं
सी मधु हाथ से निकली जा रही थी। बूढ़ी ने मधु का हाथ मेरे हाथ से लेकर
धीरे से नीचे रख दिया। मैं कुछ देर खाट के बगल में बैठा रहा, फिर जाने के
लिए उठा, दुनिया के सारे अकेलापन का बोझ अपने दिल पर लिये।

मधु की गति न्यारी / 767


एक दर्द भरा गीत

3५7|कि की शुद्ध नीलिमा के नीचे इस मटमैली चट्टान के सहारे बैठा, मैं


तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ, सुशीला। नवंबर का महीना है और घास
पीली-भूरी सी होती जा रही है। लेकिन हाथ में लेकर मसल दो, तो उसमें से
अब भी खुशबू आती है। दोपहर की धूप बांज के पत्तों पर पड़ती है तो उन्हें
रूपहला बना देती है और वो झिलमिलाने लगते हैं। एक झींगुर लंबी घास में
अपना सफ़र तय कर रहा है। पहाड़ी के पैरों केपास से गुजरती नदी गुनगुनाती
जा रही है-वही नदी जहाँ मई की उस सुनहरी दोपहर मैं और तुम देर तक साथ
रहे थे।
मैं यहाँ बैठा तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँऔर तुम्हारी पतली सी बांह को
इस पत्थर पर टिका कर इसकी गुनगुनाहट महसूस करते हुए देखने कीकोशिश
कर रहा हूँ। मैं एक बार फिर तुम्हारे स्पर्श, तुम्हारे पैरों केठंडेपन और तुम्हारी
उंगलियों के नुकीले सिरे छू जाने से होने वाली झंझनाहट को महसूस कर रहा
हूँ। जब मैंमन ही मन बीते समय की जुगाली करता हूँतो तुम्हारे कंपकंपाते होठों
पर अपनी उंगली फिराता हूँऔर तुम्हारे सुकुमार आंचल को रौंदता हूँ। जो प्रेम
याद रह जाता है, उसकी मिठास समय बीतने के साथ और बढ़ती जाती है।
शहर में अपने घर में बैठी, खाना बनाते या सिलाई करते हुए, या इम्तिहान
की तैयारी करने की कोशिश करते हुए अब तुम मेरे बारे में नहीं सोच रही होगी।
तुम्हारी दादी के भरे-पूरे घर में कितने ही मर्द औरतें और बच्चे तुम्हारे चारों तरफ़
चक्कर काट रहे होंगे और तुम पल-दो पल से ज़्यादा मेरे बारे में सोच ही नहीं
762 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पा रही होगी। लेकिन मुझे मालूम है कि एकांत के पलों में जब तुम भीड़ से
अलग हो जाती होगी तब तुम कभी-कभी मुझे ज़रूर याद करती हो। तुम याद
करोगी कि मैं शायद यही क्‍यों सोचता रह जाऊंगा कि यह सब क्या है, यह
प्यार और इसमें ऐसा क्‍या है कि इससे इतनी खलबली मच जाए। तुम अब भी
एक बच्ची हो, सुशीला-और तब भी तुम्हें मेरे बेचेन दिल को शांत करना इतना
आसान लगा।
जिस रात तुम हमारे यहाँ रहने आयी थीं, सड़क वाली बत्ती की रोशनी
आड़ के पेड़ सेछन-छन कर आ रही थी, जिससे दीवार पर पत्तियों की छाया
बन रही थी। बाहर वाले दरवाज़े के शीशे से मुझे छोटे से सुनील के चेहरे की
झलक भर मिली-चमकता हुआ और कुछ तलाशता सा चेहरा-और फिर-एक
हाथ-एक सांवला सा लंबी-लंबी उंगलियों वाला हाथ जो सिर्फ़ तुम्हारा ही हो
सकता था।
तुम्हें देखे हुए करीब एक साल होने को था-मेरी सांवली सलोनी। और
अब तुम अपने सोलहवें साल में थीं। सुनील बारह साल का था और तुम्हारे चाचा
दिनेश, जो मेरे साथ रहते थे, वह पच्चीस के थे। मैं करीब-करीब तीस का-एक
डरा देने वाली और अद्भुत उम्र, जब सपने देखने वालों के लिए जिंदगी बहुत
ख़तरनाक बन जाती है।
मुझे याद है कि पिछले साल जबं मैं दिल्‍ली से चला, तो तुम रो दी थीं।
पहले तो मैंने सोचा कि तुम इसलिए रो रही हो, क्योंकि मैं जा रहा हूँ। फिर
मुझे एहसास हुआ कि रोने की वजह यह थी कि तुम खुद कहीं नहीं जा पाती
थीं। क्या तुम्हें मेरी आजादी सेजलन होती है-अपनी मर्जी से गरीबी में जीने
की आजादी, एक लेखक की आज़ादी? मुझे ताज्जुब हुआ कि मेरे जाने पर सुनील
ने किसी तरह से अपने मन के भाव नहीं व्यक्त किये। इससे मुझे थोड़ी ठेस
पहुंची, क्योंकि उस साल के दौरान वह मेरे कुछ ज़्यादा हीनजदीक था और उसके
लिए मेरे मन में एक अलग ही तरह का प्यार था। लेकिन अपनों से जुदा होना
बारह साल के लड़कों केलिए कोई अहमियत नहीं रखता, क्योंकि वह आज,
कल और--अगर ज़्यादा ही गंभीर हैं, तो परसों के लिए जीते हैं।
दिनेश के साथ मेरे जाने से पहले तुमने हमारे लिए गेंदे की मालाएं बनायी
थीं। नारंगी, सुनहरे, ताज़े और साफ़ फूल थे वे जिन्हें सूरज ने चूमा हुआ था।
जब मैं सुनील के साथ बैठा बातें कर रहा था, तब तुमने माला मेरे गले में डाल
एंक दर्द भरा गीत / 765
दी थी। तुम दोनों उस दिन जैसे दिख रहे थे, मुझे याद रहा-मुस्कराने से सुनील
के गालों में गड़ढे पड़े जा रहे थे, जबकि तुम मुझे बहुत गंभीरता से देख रही
थीं, एक अनोखी अदा से। मैं तब भी तुम्हें प्यार करता था।
हमारी पहली पिकनिक।
उस छोटी सी धारा तक पहुंचने का रास्ता हमें बांज के जंगल से ले गया,
जहाँ नीले मैगपाई पक्षी अपनी कर्कश और चरमराने जैसी आवाज़ में एक-दूसरे
की नकल उतारने का खेल खेलते थे। जहाँ बैठकर मैं यह लिख रहा हूँ, उस
पहाड़ी की खुली पीठ को घेरते हुए जाने वाले रास्ते में आगे टीला थाऔर यह
रास्ता बांज, बुरांस और चिनार के जंगलों के बीच से जाता था, फिर पहुंचता
था उस धारा से लगे हुए एक छोटे से टीले तक। उस जगह के बारे में सैलानियों
और गर्मियों में आने वालों को नहीं पता था। कभी-कभार कस्बे या गांव की
ओर जाता कोई दूधिया या लकड़हारा उस धारा को पार करता था, लेकिन उसके
किनारे रहता कोई नहीं था। उसके किनारों पर जंगली गुलाब उगते थे।
मुझे पिकनिक की कोई खास याद नहीं है। हमारे पड़ोस में रहने वाला
कपूर परिवार भी साथ था। उनसे बहुत सारी नीरस बातें हुई थीं। बल्कि तुम्हारा
और सुनील का तो वहाँ मन ही नहीं लग रहा था। दिनेश का ध्यान जैसे पहले
से ही कहीं और लगा था-वह कॉलेज से ऊब चुका था और यही सोचता रहता
था कि कैसे रोजी-रोज़गार की शुरुआत हो। वह पेंटर बनना चाहता था। इसी
बेचैनी कीवजह से वह अकसर मूडी और चिड़चिड़ा हो जाता था।
टीले के पास धारा इतनी उथली थी कि उसमें नहाया नहीं जा सकता था,
लेकिन मैंने सुनील को कुछ आगे चलकर एक गुफ़ा और एक ताल के बारे में
बताया और उससे वादा किया कि किसी दिन वहाँ चंलेंगे।
उसी रात, खाना खाने के बाद, हम घर के आगे से श्मशान घाट तक जाने
वाली अंधेरी सड़क पर टहलने निकले। सुनील हम दोनों के बीच की अंतरंगता
के बारे में जान चुका थाऔर उसने मेरा हाथ पकड़कर तुम्हारे हाथ में रख दिया
था। कुछ अजीब सी बात थी यह लेकिन उसका ऐसा करना दिल को छू गया था!
“कोई किस्सा सुनाओ,' तुमने कहा था।
हाँ, सुनाओ न,' सुनील बोला था। ...
मैंने तुम्हें दिलसे निर्मल होने वाली कहानी सुनायी थी। एक चरवाहे को
जंगल में एक सांप मिला। सांप ने लड़के को बताया कि वास्तव में वह एक
764 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
राजकुमारी है जिसे जादुई चाल से सांप बना दिया गया था और अब वह दोबारा
इंसानी शक्ल में तभी आ सकता था जब कोई ऐसा शख्स उसे मुँह पर तीन
बार चूमे जिसका दिल बिलकुल पवित्र हो। लड़के ने सांप के मुँह से मुँह लगाकर
उसे तीन बार चूमा और सांप एक ख़ूबसूरत राजकुमारी में बदल गया। लेकिन
लड़के का शरीर ठंडा पड़ गया, वह वहीं मर गया।
“तुम हमेशा उदासी भरी कहानियां सुनाते हो,' सुनील ने शिकायत की।
'मुझे दुखांत कहानियां पसंद हैं. तुमने कहा था। एक और सुनाओ न
“कल रात सुनाऊंगा, अभी मुझे नींद आ रही है।
रात को तेज़ हवा चलने लगी थी-जो पुराने मकान में सीटी सी बजाती
घूम रही थी और चिमनी के रास्ते सरपट नीचे आकर पहले गुनगुनाती रही, फिर
अटकने लगी और आख़िरकार ख़ुद का ही दम घोट लिया।
सुनील जाग गया था । फिर उसने पुकारा था-“यह कैसी आवाज है, अंकल ?
अरे, हवा है,' मैंने कहा था।
भूत तो नहीं है?
वैसे देखा जाए तो हवा में तो भूत मंडराते ही रहते हैं। शायद इस हवा
में उन सारे लोगों के भूत शामिल हैं जोकभी इस पुराने घर में जीये या मरे
थे और सर्दी से बचने केलिए एक बार फिर इसी में चले आना चाहते थे।'
तुमने मुझे एक लड़के के बारे में बताया था जो दिल्ली में तुम्हें चाहता
था। शायद वह कुछेक मौकों पर घर पर भी आया था और जब तुम स्कूल से
लौट रही होती थीं, तब रास्ते में हीतुमसे मिलने चला आया करता था। पहले
वह किसी और लड़की को चाहता था, लेकिन फिर तुम्हें चाहने लगा। जब तुमने
मुझे बताया कि उसने तुम्हें हाल ही में ख़त लिखा था और तुम्हारे यह बताने
पर कि आने से पहले तुम उसके ख़त का जवाब देकर आयी हो, मुझे जलन
होने लगी थी। यह ईर्ष्या काएक ऐसा भाव था जो मुझे लगता था कि इससे
तो मैं बरसों पहले छुटकारा पा चुका था। तुम्हारे यह बताने का भी मुझ पर कोई
फ़र्क नहीं पड़ा था कि तुम उसे लेकर गंभीर नहीं थीं, सिर्फ़ इसलिये उस पर
तरस खा जाती थीं क्‍योंकि उसे प्यार में मायूसी मिली थी।
“अगर तुम हर उस शख्स पर तरस खाओगी जिसे प्यार में निराशा हाथ
लगी हो, मैंने कहा था, 'तो जल्दी ही दस साल से ज़्यादा के हर शख्स का प्यार
हासिल करने लगोगी !'
एक दर्द भरा गीत / 765
“न्हें अपना प्यार देने दो,' तुमने कहा था, “और मैं तो उनके सिर पर
अपनी चप्पल ही दूंगी।
“लेकिन मेरी गर्दन बख्श देना,' मैंने कहा था।
'क्या इससे पहले भी तुम्हें प्यार हुआ है?
“कई बार। लेकिन यह पहली बार है।'
“और किस से प्यार हुआ है?
क्या तुम ने अंदाज़ा नहीं लगाया है?!
सुनील जो कि हमारी बातचीत को बड़े गौर से सुन रहा था, वह हालात
का पूरा मज़ा ले रहा था। शायद क्यूपिड या कामदेव की भूमिका निभाने का
उसका मन था और इस रूप में उसके तीर निशाने पर लग रहे हैं, यहदेख कर
ख़ुश होना चाहता था। इसमें कोई शक नहीं है कि मेरी वजह से यह उसके लिए
और भी आनंददायक हो गया क्योंकि मैं अपनी भावैनाओं को छुपा नहीं सकता।
जल्दी ही दिनेश को भी पता चल जाएगा-और फिर?
एक साल पहले तुम्हारे लिए मेरे मन में क़रीब-क़रीब वैसी भावना थी जैसी
मां-बाप के मन में बच्चों केलिए होती हैं! या मुझे ऐसा लगता था...लेकिन तुम
अब कोई बच्ची नहीं रहीं और मैं भी। मेरी भी उम्र कुछ बढ़ी है। क्योंकि जब,
पिकनिक के बाद वाली रात को, तुमने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर अपने
नरम-गरम गाल पर लगा कर रखा था, वह पहला मौक़ा था जब किसी लड़की
ने इतनी सहजता से और इतनी मासूमियत से, मेरी तरफ़ ध्यान दिया था। शायद
वह महज तुम्हारा भोलापन था, लेकिन तुम्हारी उसएक हरकत से, उस तरह
मुझे अपनाना, उसी पल मेरे दिल को तबाह कर गया।
हल्के से, लेकिन पूरी चाहत के साथ मैंने तुम्हारी आँखें और माथा चूम
लिया था, तुम्हारे छोटे-छोटे गोल से होंठ, तुम्हारे कान और तुम्हारी लंबी सुराहीदार
गर्दन और सांसों ही सांसों में बार-बार एक ही बात दोहरा रहा था-'सुशीला,
आई लव यू, आई लव यू, आई लव यू. उसी तरह जैसे करोड़ों प्यार के मारे
युवा न जाने कब से कहते चले आ रहे हैं। और मैं क्या कह सकता हूँ? आई
लव यू, आई लव यू! इससे ज़्यादा सीधे सरल ढंग से और कुछ नहीं कहा जा
सकता, जब उससे ज़्यादा कुछ न कहना हो तो। मैंने और क्‍या कहा था? कि
मैं तुम्हारी देखभाल करूंगा, तुम्हारी ख़ातिर काम करूंगा और तुम्हें खुश रखूंगा।
और ये बातें पहले भी कही जा चुकी थीं। मैं किसी भी तरह दूसरों सेअलग
766 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
नहीं था। मैं आदमी था, लेकिन फिर से लड़का बन गया था।
एक या दो दिन बाद बिलकुल सुबह हम फिर नदी पर गये। एक पत्थर
से दूसरे पर कूदते-फांदते हम उस छोटे सेतालाब और उस झरने तक पहुंच गये
जहाँ वह छोटी सी गुफ़ा थी। ज़्यादातर पत्थर मटमैले थे, लेकिन कुछ पुराने पड़ने
से पीले से हो चुके थेऔर कुछ पर काई जमी हुई थी। एक बड़े से गोल पत्थर
पर फुदक कर फ़ोर्कटेल पक्षी अपनी मंद और मोहक आवाज में पुकार रहा था।
गुफ़ा की दीवारों से पानी बूंद-बूंद चू रहा था और गुफ़ा की चटूटानी छत की
दरार में से छझनकर आ रही धूप की किरण तुम्हारे चेहरे पररोशनी के चितकबरे
से धब्बे बना रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर मेंझरने सेउठने वाली बारीक फुहार किरणपुंज
की सीध में पड़ती तो इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते।
“बहुत सुंदर जगह है यह,” तुमने कहा था।
“तो चलो, मैंने कहा था, “हम यहाँ नहाते हैं।
सुनील और मैं अपने कपड़े उतार कर ताल में कूद गये थेऔर तुम अखरोट
के पेड़ के नीचे बैठी हमें पानी में खेलते देखती रहीं थीं। सुनील मेंढक की तरह
शीशे जैसे साफ़, बर्फ से ठंडे पानी में छलांगें लगा रहा था, हाथ-पैर चला रहा
था, उसकी आँखें और दांत सफ़ेद चमक रहे थे, उसका बदन जवानी और धूप
की रंगत लेकर दमक रहा था और सूरज की रोशनी पानी की बूंदों को रत्नों
का रूप दे रही थीं।
फिर हम तुम्हारे बगल में आकर पसर गये थे, ताकि धूप हमारे बदन में
गहराई तक जा सके।
ओस में सराबोर तुम्हारे पैर जिंदगी सेसरसराती घास में जमे हुए थे। हमारे
बीच एक तितली थी। लाल और सुनहरे से पंखों वाली और उसके पंखों पर भी
ओस की बूंदों काबोझ था, जिसकी वजह से वह हिल-डुल भी नहीं पा रही थी।
और जब तुम्हारा पांव तितली के बिलकुल पास पहुंच गया और मैंने देखा कि
वह तुम्हारे पैर केनीचे आकर कुचल जाएगी, तो मैंने कहा था-“ठहरो सुशीला।
कहीं तितली न कुचल जाए। इसकी ज़िंदगी चंद दिनों की है और हमारे पास
बहुत समय है।'
“अगर मैं इसकी जान बखरूश दूं. तुमने हँसते हुए कहा था, “तो तुम मेरे
लिए क्या करोगे, मुझे क्या नज़र करोगे?!
क्यों, जो तुम कहो |
एक दर्द भरा गीत / 767
'तो तुम मेरे पैर चूमोगे?”
दोनों पैर,' मैंने कहा था। और आगे बढ़कर मैंने तुम्हारे पैर चूम लिये थे।
क्योंकि वह भी तो तितली के पंखों से कम नहीं थे।
बाद में, जब तुम पानी के पास गयीं, तो मैंने तुम्हें अपने पास पानी में
खींच लिया था। तुम चीख पड़ी थीं, डर से नहीं, बल्कि पानी के ठंडेपन की वजह
से और फिर खुद को मेरी बांहों सेछुड़ाकर तुम किसी तरह पत्थर पर चढ़ गयी
थीं, तुम्हारे झीने कपड़े तुम्हारी जांघों सेचिपक गये थे और चिकने पत्थर पर
तुम्हारे पैरों के लंबे-लंबे निशान बन गये थे।
हालांकि उस दिन हम थक कर चूर-चूर हो गये थे, लेकिन हम रात को
सोये नहीं थे। हम साथ लेटे रहे थे, मेरे एक तरफ़ तुम और दूसरी तरफ़ सुनील ।
तुमने मेरे कंधे कासिरहाना लगा लिया था और तुम्हारा सिर, तुम्हारे बाल मेरे
गाल को दबा रहे थे। सुनील ने खुद को गुड़मुड़ियाँ लिया था, लेकिन वह भी
सो नहीं रहा था। उसने मेरा हाथ लिया, फिर तुम्हारा हाथ लिया और दोनों को
मिला दिया था। मैंने तुम्हारी कोमल हथेली को चूम लिया था।
मैंने तुम्हारी तरफ़ फुसफुसाकर कहा-“सुशीला, कभी कोई और नहीं रहा
है जिसे मैंने इतना प्यार किया है। मैं इतने सालों से तुम्हारे मिलने का इंतज़ार
कर रहा था। लंबे समय तक तो मैंने औरत को पसंद तक नहीं किया। लेकिन
तुम बहुत अलग हो। तुम्हें मेरी परवाह है, है न?
तुमने अंधेरे में हीसिर हिला दिया था। रोशनदान से आती चांद की धुंधली
सी रोशनी में मुझे तुम्हारे चेहरे केबसकोर दिख रहे थे। तुमने कभी किसी सवाल
का सीधा जवाब नहीं दिया। मुझे लगता है, यहऔरत होने का एक हिस्सा है
शायद उसकी लज्जा।
ककया तुम मुझे प्यार करती हो, सुशीला?
कोई जवाब नहीं।
“अच्छा, अभी नहीं। जब तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओगी। एक दो साल
में ।'
उसने अंधेरे में सिर हिलाया था या यह मेरा ख़याल है?
'मुझे पता है अभी बहुत जल्दी है. मैंने अपनी बात जारी रखी। "तुम अभी
बहुत छोटी हो, अभी स्कूल में हो।लेकिन तुम अभी से मुझसे भी ज़्यादा समझदार
हो। ख़ुद पर क़ाबू रखना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो रहा है, लेकिन मैं करूंगा,
68 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
क्योंकि तुम ऐसा चाहती हो। मुझसे सब्र नहीं होता, मुझे पता है, लेकिन तुम
जब तक चाहोगी तब तक मैं सब्र रखूंगा-दो या तीन साल या सौ साल। हाँ
सुशीला, सौ साल!
वाह, क्‍या बढ़िया भाषण मैंने दिया! इसका कुछ हिस्सा रोमियो के काम
आ सकता था। मजनू के भी।
और तुम्हारा जवाब? बस, सिर हिला दिया, या ज़रा सा हाथ दबा दिया।
मैंने तुम्हारी उंगलियों कोलेकर, एक-एक करके चूमा। लंबी-लंबी उंगलियों,
मेरी उंगलियों जितनी लंबी।
कुछ देर बाद मुझे एहसास हुआ-सुनील ने मुझे कोहनी मारी।
आप मुझसे बात नहीं कर रहे हो,' उसने शिकायत की। “आप सिर्फ़ उन्हीं
से बात कर रहे हो। आप सिर्फ़ उन्हीं को प्यार करते हो।'
'ममैं बहुत बुरा हूँ। मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हें भी प्यार करता हूँ,सुनील ।'
मेरे कहने सेउसे तसलल्‍ली हो गयी और वह सो गया। लेकिन सुबह के
वक्‍त, यह सोचकर कि वह पलंग के बीच में है, उसने करवट ली और धड़ाम
से फ़र्श पर गिर पड़ा। उसे समझ में नहीं आया कि वह कैसे गिरा, कहने लगा
कि मैंने उसे गिराया है।
'मुझे पता है, आप नहीं चाहते कि मैं पलंग पर रहूँ. उसने कहा।
यह तो अच्छा हुआ कि, दिनेश, जो कि दूसरे कमरे में था, जागा नहीं था।

“इस हफ्ते तुमने कुछ काम किया? दिनेश ने उलाहना देते हुए पूछा।
ज्यादा नहीं,” मैंने कहा।
"तुम शायद ही कभी घर में रहते हो। तुम अपनी मेज पर कभी नहीं मिलते ।
लगता है तुम्हें कुछ हो गया है।
“बस मैंने खुद को छुटूटी दे दी हैऔर कुछ नहीं। क्या लेखक भी छुट्टी
ले सकते हैं?
"नहीं । ख़ुद तुम्हीं नेतोऐसा कहा था। और, जो भी हो, लगता तो ऐसा
है कि तुमने हमेशा के लिए छुट्टी ले ली है।'
'क्या तुमने उस तिब्बती औरत की पेंटिंग पूरी कर ली? मैंने पूछा, ताकि
बात का मुद्‌दा बदल जाये।
एक दर्द भरा गीत / 769
“यह सवाल तुमने मुझसे तीसरी बार पूछा है, जबकि तुम पूरी हो चुकी
पेंटिंग हफ़्ता भर पहले देख चुके हो। तुम कहाँ खोये-खोये से रहने लगे हो ॥'
तुम्हारे पुराने दोस्त” का ख़त आया था, मेरा मतलब है तुम्हारे छोटे से
दोस्त का ख़त था। उस पर नाम सुनील का लिखा था, लेकिन मैंने भेजने वाले
का नाम देख लिया तो मैं समझ गया कि वह दरअसल तुम्हारे लिए था।
मैंने ऐसा शांत सा मुँह बना लिया था जैसे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता और
ख़त तुम्हें देदिया था, लेकिन तुम और सुनील दोनों मेरी उलझन समझ गये।
पहले तो तुमने मुझे चिढ़ाने कीकोशिश की, लड़के की तस्वीर दिखाई, जो उसमें
रखी थी (और वह वाकई में देखने में अच्छा था, भले ही अंदाज़ जरा भड़कीला
था), फिर यह जानकर कि मैं पल-पल उदासी में डूबता जा रहा था, तुमने यह
भरोसा दिलाकर मुझे कुछ राहत देने कीकोशिश की क़ि यह चिट्ठी-पत्री एकतरफ़ा
थी और तुमने उसके ख़तों का जवाब नहीं दिया थ्ा।
उस रात यह जताने के लिए कि तुम्हें वास्तव में मेरा ख़याल था, तुमने
कमरे की बत्ती बुझते ही अपना हाथ मेरे हाथ में देदिया। सुनील पहले ही गहरी
नींद में सोचुका था। ह
हम दोनों तुम्हारे पलंग पर पैरों की तरफ़ बैठे। मैंने अपनी बांह में तुम्हें
घेरा और तुमने अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया। तुमने आराम से अपने
पैर मेरे पैरों केऊपर फैला लिये। मैं तुम्हें चूमता हीजा रहा था।जब हम साथ
में लेटे, मैंने तुम्हारा ब्लाउज ढीला किया और तुम्हारे छोटे लेकिन कड़े वक्ष को
चूमा, अपने होठों को उनके सिरों.पर रख दिया और अपने होठों से उन्हें और
कड़ा होते महसूस करने लगा।
शमति हुए चूमने का सिलसिला जल्दी ही मदहोशी में बदल गया। तुम
मुझसे लिपट गयीं। हम वक्त, जगह और हालात को भूल चुके थे। तुम्हारी आँखों
की चमक उस औरत के खोये-खोये अंदाज में कहीं गुम हो चुकी थी जो चाहत
की आग में तप रही हो। जगह का ध्यान रखते हुए हम दोनों चाहत को काबू
में रखने की कोशिश करते रहे। अचानक मुझे अपने आप से डर लगने लगा,
तुमसे डरने लगा। मैं ख़ुद को तुम्हारी मुझे जकड़ती बांहों से छुड़ाने कीकोशिश
करने लगा। लेकिन तुम धीमी सी आवाज़ में रट लगाए थीं-'मुझे प्यार करो!
मुझे प्यार करो! मैं चाहती हूँकि तुम मुझे प्यार करो।

770 / नाइट ट्रेन ऐट देओली


एक दूसरी रात तुम मेरी बांह पर सिर रख कर सो गयीं और मैं बहुत देर तक
जागता रहा, तुम्हारी सांसों, तुम्हारे बालों का मेरे गालों को छूना, तुम्हारे तलवों
की नरमी, तुम्हारी पतली कमर और टांगों को पूरेहोश-ओ-हवास में महसूस करता
रहा।
सवेरे, जब कमरा सूरज की रोशनी से भर गया, तुम सोती रहीं और मैं
तुम्हें देखता रहा-नींद में डूबी तुम्हारी छरहरी काया, तुम्हारा शांत मुखड़ा, सोती
हुई तितलियों से तुम्हारे पतले सांवले हाथ और फिर जब तुम जागीं, तब तुम्हारे
बिखरे बालों की खूबसूरती और तुम्हारी आँखों का उनींदापन। तुम बिल्लीं के
बच्चे की तरह सिकुड़ी सी पड़ी थीं, तुम्हें अपने हाथ-पांव का बिलकुल भी होश
नहीं था, बिलकुल वैसे ही जैसे किसी बढ़ते हुए पेड़ कोअपनी डालों की सुध
नहीं होती । जब दिन गरमा जाता था, तब तुम्हारे माथे पर पसीने की बूंद चमक
उठती थी, एक छोटे से मोती की तरह।
मैंने याद करने कीकोशिश की कि तुम बचपन में कैसी लगती थीं। तब
भी कभी मैं तुम्हारी मौज़ूदगी को लेकर बेख़बर नहीं होता था। तुम नौ या दस
साल की रही होंगी जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था-पतली सी, सांवली सी,
सादा सा नाक-नक्शा और हमेशा वही हरी स्कर्ट पहने जो तुम्हारी स्कूल यूनिफ़ार्म
की थी। तुम नंगे पैर घूमती थीं। एक बार जब मानसून आया, तुम दूसरे बच्चों
के साथ बाहर दौड़ गयीं, बिलकुल उघारी, झमाझम बारिश की तरी में फूली नहीं
समा रही थीं। तुम्हारी सुंदर-सजीली जांघें और बिलकुल सीधी टांगें, पल भर में
होठों पर दौड़ जाने वाली तुम्हारी मुस्कान और तुम्हारी आँखों की गहरी रंगत
मुझे याद रहीं। तुम कहती हो कि तुम्हें सारे कपड़े उतार कर बारिश में खेलना
, याद नहीं, लेकिन ऐसा इसलिए है क्‍योंकि खुद को हम नहीं देख पाते।
तुम कब बड़ी हो गयीं, मुझे नहीं पता चला। तुम्हारा चेहरा ज़्यादा नहीं
बदला। तुम तेरह साल की रही होंगी जब तुमने स्कर्ट पहननी बंद कर दी थी
और सलवार-कमीज पहनना शुरू कर दिया था। तुम्हारे पास कपड़े कम ही हुआ
करते थे, लेकिन तुम्हारे लिबास की सादगी में तुम्हारे चेहरे कीरौनक और भी
निखर आती थी। उम्र बढ़ने के साथ तुम्हारी आँखों नेबोलना सीख लिया। तुम्हारे
बाल लंबे और चमकदार हो गये, तुम्हारे हाव-भाव और भी लुभावने हो गये और
फिर जब तुम मेरे पास पहाड़ में आयीं, तो मैंने पाया कि तुम क़यामत ढाने वाले
हुस्न की मलिका, परियों की शहज़ादी में बदल चुकी हो।
एक दर्द भरा गीत / 777
१५
नी

>हिम यूं हीअलसाये से पलंग पर पड़े-पड़े दोपहर बीतने का इंतज़ार कर रहे थे


” और तुम मेरी बांहों में लेटी थीं, जबदिनेश अचानक ही अंदर आ गया। उसने
कुछ नहीं कहा, बस कमरे से होकर अपने स्टूडियो में चला गया। सुनील डर गया
और तुम पल भर के लिए सकपका गयीं। फिर तुमने कहा, उसे पहले से पता
है। मैंने कहा, हाँ, उसे पता होना भी चाहिए ।
बाद में मैंने दिनेश से बात की। मैंने उसे बताया कि मैं शादी करना
चाहता हूँऔर यह भी कि मुझे तब तक इंतज़ार करना पड़ेगा जब तक तुम
बड़ी नहीं हो जातीं और स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर लेतीं-यही कोई दो या
तीन साल-और यह भी बताया कि मैं इंतजार करने को तैयार हूँ, जबकि मुझे
पता है कि यह लंबा और मुश्किल काम होगा। मैंने उससे कहा कि इसमें वह
मेरी मदद करे।
पहले तो वह कुछ नाराज़ सा लगा, क्‍योंकि उसे लगा कि मैंने उससे यह
बात अब तक छुपायी और यह सही बात थी। इसके अलावा इस मामले में
उसकी जो ज़िम्मेदारी बनती थी, उसके लिए भी। तुम उसकी भतीजी जो थीं
और मैंने तुमसे तब प्यार किया था जब वह दूसरी चीजों में उलझा हुआ था।
लेकिन कुछ समय बाद जब उसने देखा कि मैं सच्चा और ईमानदार हूँ,तो वह
मान गया।
'कुछ ज़्यादा हीजल्दी हो गया है यह सब,” वह बोला। “वह इस सब के
लिए बहुत छोटी है। कया तुमने उससे कहा है कि तुम उसे चाहते हो?”
हाँ! बिलकुल। कई बार।
तब तो तुम निरे बेवकूफ़ हो। कया तुमने उसे बताया है कि तुम उससे
शादी करना चाहते हो?
हाँ।
“एक और बेवकूफ़ी। ऐसे नहीं होता है। तुम भारत में इतने दिन रह चुके
हो, क्‍या तुम्हें इतना पता नहीं होना चाहिए?!
लेकिन मैं उससे प्यार करता हूँ।
और वह तुम्हें प्यार करती है?'
मुझे तो लगता है।
तुम्हें लगता है। चाहत कोई प्यार नहीं होती, तुम्हें यहपता होना चाहिए
फिर भी, मान लेता हूँकि वह भी तुम्हें प्यार करती है, वरना वह दिन भर तुम्हारा
72 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
हाथ नहीं पकड़े रहती। लेकिन तुम बिलकुल पागल हो जो अपने से आधी उम्र
की लड़की के साथ प्यार कर बैठे |
देखो, मैं ,कोई बूढ़ा-वूढ़ा नहीं हूँ। कुल तीस साल का हूँ।'
“और वह स्कूल में पढ़ती है।
“वह कोई बच्ची नहीं है अब, बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है।'
“अच्छा, तो तुमने यह भी जान लिया है, हैं न?'
वो...” सकपका गया था, तो इतना ही मुँह से निकला।
“ठीक है, उसके रवैये सेलगता है कि उसे मेरी कुछ परवाह है। तुम्हें तो
मालूम है कि बरसों से मैंने किसी लड़की में दिलचस्पी नहीं ली है। तुम्हीं कहते
थे कि यह अजब सी बात है, याद है न? तो सुन लो, मेरी जिंदगी में लड़कियों
के लिए कोई जगह ही नहीं थी, यह सच है।'
(तुम्हारा बचपन देर तक चला, दिनेश बुदबुदाया।
“लेकिन सुशीला अलग है। उसके साथ मैंठीक महसूस करता हूँ। वह मुझसे
दूर नहीं भागती। मैं उसे प्यार करता हूँ। उसकी देखभाल करना चाहता हूँ। और
मैं उससे शादी करके ही ऐसा कर स्रकता हूँ।'
“ठीक है, लेकिन जल्दबाजी मत करो। जज़्बात में मत बह जाना। और,
भगवान के लिए, उसकी गोद में बच्चा न डाल देना। कम से कम जब तक वह
स्कूल में है, तबतक तो बिलकुल भी नहीं! मैं तुम्हारी जिस तरह से मदद कर
सकता हूँ, ज़रूर करूंगा। लेकिन तुम्हें भीसब्र सेकाम लेना होगा। और, इसके
बारे में और किसी को नहीं पता लगना चाहिए, वरना हर बात के लिए मुझे
दोष दिया जाएगा। जो भी कुछ है, सुनील को कुछ ज़्यादा ही पता है, जबकि
' वह इस लिहाज से बहुत छोटा है।
“अरे, वह किसी को कुछ नहीं बताने वाला ।
“काश, तुम्हें उससे अब से दो साल बाद प्यार होता। जो भी हो, तुम्हें
इतना इंतज़ार तो करना ही पड़ेगा। शादी करना कोई इतनी मामूली बात नहीं
है। लोग सोचेंगे कि हमें उसकी शादी की इतनी जल्दी क्‍यों मची है कि स्कूल
से निकलते ही शादी कर रहे हैं। जितने मुँह उतनी बातें!
"देखो, यह सही है कि लोग प्यार की ख़ातिर शादी करते हैं, भारत में भी ।
हमेशा से ऐसा होता आया है।
“लेकिन ऐसा हमारे ख़ानदान में नहीं होता आया है। तुम्हें पता हैन कि
एक दर्द भरा गीत / 775
हमारे यहाँ सब के सब कितने कट्टरपंथी हैं। तुम्हारी सोच उनकी समझ में नहीं
आएगी। तुम सुशीला से शादी तो कर सकते हो, लेकिन वह तय की हुई शादी
लगनी चाहिए!
छोटी-मोटी गड़बड़ी हो गयी उस शाम।
पहले तो सड़क पर जाते हुए एक लेड़के ने कोई फब्ती कस दी और तुमने
उसका बुरा मान लिया, फिर तुमने सम्भ्रांत महिलाओं के तौर-तरीके से हटकर
पंजाबियों वाला रवैया अपनाते हुए एक पत्थर उठाकर उसे दे मारा। उसके पैर
पर लगा। वह भौचक्का रह गया, उसकी बोलती बंद हो गयी, वह लंगड़ाता हुआ
वहाँ से चला गया। मैंने तुम्हें समझाने के लिए थोड़ा डांटने वाले लहजे में तुमसे
कहा कि किसी पर पत्थर फेंकने परअकसर उससे झगड़ा हो जाता है, फिर मुझे
एहसास हुआ कि तुम चाहती थीं कि मैं तुम्हारी तरफ़ से लड़ं।
बाद मेंतुम इसलिए ख़फ़ा हो गयीं कि मैंने कहे दिया कि तुम कुछ खोई-खोई
सी रहती हो। फिर सुनील बुरा मान कर बैठ गया क्‍योंकि मैंने उससे रूखेपन
से कुछ कह दिया। और मुझे अब याद नहीं है कि ऐसा मैंने क्यों किया। वह
मुझसे तीन घंटे तक नहीं बोला, जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। मैं माफ़ी
मांगता रह गया, लेकिन तुममें से कोई भी मेरी बात सुनने को तैयार नहीं था।
जैसे सब कुछ किसी साज़िश का हिस्सा हो। जब मैंने अपनी कोशिश बंद कर
दी और अपनी अधूरी कहानी को पूरा करने के लिए टाइपराइटर पर बैठा, तो
तुम भी वहाँ चली आयीं और मेरे बगल में बैठकर मेरे बालों से खेलने लगीं।
तुम्हें मेरी कहानी सेजलन थी, इस बात से जलन थी कि मैं हर चीज़ को अपनी
जगह छोड़ अपने काम में ध्यान लगा सकता था। तब मैंने मान लिया कि औरत
की जात को कुछ न कुछ तो चाहिए ही जलने के लिए। अगर दूसरी औरत न
हो, तोआदमी का काम सही, या उसका शौक, या सबसे अच्छा दोस्त, या उसका
पसंदीदा स्वेटर और कुछ नहीं तो उसका पालतू नेवला ही सही। किपलिंग ने
एक कहानी लिखी थी एक औरत के बारे मेंजिसमें वह घोड़ी कीकाठी से पागलपन
की हद तक ईर्ष्या करने लगती है, क्योंकि उसका पति रोज़ाना एक घंटा प्यार
भरे अपनेपन और लगन से उसे चमकाया करता था।
क्या ऐसा ही कुछ हमारी शादीशुदा जिंदगी में भी होने वाला है। मैं सोचता
रहता था-मेरे, तुम्हारे औरटाइपराइटर के बीच, हमारे त्रिकोणीय प्रेम संबंध में?
लेकिन तुम्हें कुछ ही दिनों में वापस मैदानों कीओर लौटना था, इसलिए
74 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैंने टाइपराइटर को एक ओर सरकाया और उसके बजाय तुम्हें अपनी बांहों में
ले लिया। आख़िर एक बार तुम चली जातीं, तो फिर तुम्हें अपनी बांहों में लेने
का मौका बहुत समय बाद ही आता। मैं दिल्‍ली आ सकता हूँ, लेकिन वहाँ हम
ऐसी आजादी और ऐसी नजदीकियों का मज़ा नहीं ले सकते थे। और जब मैं
तुम्हारे होठों सेनमकीन चुंबन का मज़ा ले रहा था, तब यह भी सोच रहा था
कि वास्तव में तुम्हें अपना कहने के लिए मुझे अभी और कितना इंतजार करना
पड़ेगा।
दिनेश कॉलेज में थाऔर सुनील रोलर स्केटिंग करने चला गया। दोपहर
तक हम अकेले रहे। पहले तो तुम मुझसे दूर-दूर रहीं। मैंने एक किताब उठा
ली और पढ़ने का नाटक करने लगा। बमुश्किल पांच मिनट बीते होंगे कि तुम
चुपचाप से पीछे सेआयीं और किताब को लेकर बंद कर दिया।
“आज कुछ गर्मी सी है। चलो नीचे नदी पर चलते हैं।'
पहली बार सिर्फ़ हम दोनों साथ थे, कोई और नहीं था। हम दोनों खड़ी
ढाल पर उतरते नदी तक जा पहुंचे और एक-दूसरे का हाथ पकड़े एक पत्थर
से दूसरे पर कूदते-फांदते जल्दी सेतालाब और झरने तक पहुंच गये।
“आज मैं नहाऊंगी,' तुमने कहा। और कुछ ही पलों में तुम मेरे बगल में
कपड़े उतार कर खड़ी थीं, धूप तुम्हें दुलार रही थी और मंद-मंद बयार पहाड़
के कंधे पर सरसराती चली आ रही थी। मैंने तुम्हें दुलारने में धूप का साथ देने
के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन तुम खिलखिलाती हुई झरने की तरफ़ दौड़ गयीं जैसे
तुम उस बहते पानी के पर्दे केपीछे छुपी रह पाओगी। लेकिन अगले ही पल
मैं भी वहाँ पहुंच गया था। मैंने तुम्हें बांहों में भरलिया और तुम्हें चूमा। इस
बीच कितना ही पानी हमारे ऊपर गिरता हुआ आगे बह गया। किसने हार
' मानी-तुमने या मैंने? मुझे तोबस इतना याद है कि तुम मेरे ऊपर किसी बेल
की तरह लिपट गयीं थीं और यह कि कुछ देर बाद हम दोनों घास पर पड़े रहे
और व्हिसलिंग थ्रश पक्षी अपना मीठा सा गहरा राज थर्राई हवा के हवाले करता
रहा। ऐ काले पंखों वाले पक्षी, छाया में रहने वाले, कभी तुम्हीं थेवहकाले गुलाब
और कुछ ऐसे थे तुम्हारे गीत केबोल-
वह समय नहीं जो बीत रहा है
बीत रहे हैं हमऔर तुम।

एक दर्द भरा गीत / 75


७९७

मेरे घर की छत के नीचे वह तुम्हारी आख़िरी रात थी। हम अकेले नहीं थे। लेकिन
जब आधी रात को मेरी आँख खुली और मैंने अपना हाथ तुम्हारे बिस्तर की
ओर बढ़ाया, तो तुमने मेरा हाथ थाम लिया था क्योंकि तुम भी जाग रही थीं।
फिर मैंने तुम्हारी उंगलियों के सिरों कोएक एक करके अपनी उंगलियों से दबाया,
जैसा कि मैं अकसर करता था और तुमने अपने नाखून मेरे हाथ में गड़ा दिये
थे। जैसे हम दोनों के हाथ एक दूसरे के प्यार में उलझे हुए थे, कुछ उसी तरह
हमारे शरीर भी हो सकते थे। दोनों के हाथ एक-दूसरे से लिपटते रहे, गरमाहट
साझा करते रहे, एक दूसरे को दुलारते रहे, जिसमें एक-एक उंगली अपने आप
में एक हस्ती बन जाती थी और अपनी जोड़ीदार को तलाशती थी। कभी-कभी
सिर्फ़ हमारी उंगलियों के सिरे चिढ़ाने के अंदाज़ मेंएक-दूसरे को छू लेते थेऔर
कभी हमारी हथेलियां जल्दबाजी में कांपते हुए मिलतीं, लिपटतीं और अलग हो
जातीं। फिर एक जुनून के साथ एक दूसरे को ढूंढतीं। और फिर जब आख़िर
में तुम्हें नींद नेअपने आग्ोश में ले लिया, तुम्हारा हाथ निढाल होकर पलंग से
लटका जमीन को छूता रहा। मैंने उसे उठाकर पहले.“अपने होठों से लगाया, फिर
तुम्हारी धीरे सेउठती छाती पर रख दिया।
फिर तुम लोग चले गये, तुम तीनों और मैं सोच में डूबे पहाड़ों केसाथ
रह गया। जब तुम्हारे बिना मैं कुछ हफ़्ते नहीं गुज़ार सकता था, तो मैं साल-दो
साल कैसे गुज़ारता? यह सवाल मैं ख़ुद से बार-बार पूछता रहा। क्या मुझे पहाड़ों
को छोड़कर दिल्ली में फ़्लैट लेकर रहना पड़ेगा? और उससे भी क्या होगा-तुम्हें
देख लेना, तुमसे बातें कर लेना, लेकिन कभी तुम्हें छूनसकना? उसे न छू सकना
जिस पर मेरा पहले से हक रहा हो, यह तो बड़ा भारी सितम होता।
घर ख़ाली था, लेकिन मुझे छोटी-छोटी चीजें मिल जाया करती थीं जो याद
दिलाती थीं कि तुम यहाँ थीं-एक रुमाल, एक चूड़ी, रिबन का टुकड़ा-पीछे छूटी
ऐसी चीज़ें मुझे एहसास कराती थीं जैसे तुम हमेशा के लिए चली गयी हो। रात
को कोई आवाज़ नहीं, छत की कड़ियों में दौड़-भाग करते चूहों के सिवा।
बारिश होने के साथ ही पेड़ों केतनों और चट्टानों पर फ़र्न निकलने शुरू
हो गये थे। कलकल कर के बहने वाली धारा अब गुस्से से गरज रही थी। आगे
वाली खिड़कियों के पास से ऊपर चढ़ती मधुमालती की बेल अब ख़ुशबूदार फूलों
से लदी थी। काश, वह थोड़ा पहले फूलने लगती, तुम्हारे जाने सेपहले। तब
तुम उसके फूल अपने बालों में लगा पातीं।
776 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
रात को मैंने ब्रांडी पीऔर बेतहाशा लिखता रहा, चिमनी से आती तेज़
हवा की हू हू सुनता रहा और फिर बिस्तर में पड़ा-पड़ा कविताएं पढ़ता रहा।
कोई नहीं था जिसे मैं कहानियां सुनाता और कोई हाथ नहीं था जिसे थाम लेता।
मैं छोटी-छोटी बातें याद करता रहा-तुम्हारे कानों को छुपा लेने वाले नर्म
बाल, तुम्हारे हाथों केचलने का अंदाज़, तुम्हारे पैरों कीठंडक का एहसास, तुम्हारी
कमसिन नज़र और कभी-कभी पल भर में उनका शरारती हो जाना।
मिसेज कपूर ने तुम्हारे हाव-भाव की नज़ाकत का जिक्र किया था। मुझे
अच्छा लगा कि किसी ने तो इस पर ध्यान दिया। तब मैंने अपनी डायरी में लिखा
था-'मैंने सुशीला को इतनी बार देखा है, इतना ज़्यादा देखा है कि उसकी बांध
लेने वाली खूबियों को हीनजरअंदाज कर गया-उसका अपनापन, या फिर उसे
किसी बात से ज़्यादा फ़र्क ही नहीं पड़ता था; उसका किसी के दिल को ठेस
पहुंचाने से बचना था या दूरियां बनाकर रखना; उसकी सहनशीलता थी या आलस ?
क्या कहूँ औरत के मन से मैं निपट अनजान ही रह गया!

इस बीच दिनेश का ख़त आया तो वह मुझे डूबते को बचाने के लिए फेंकी गयी
रस्सी सा लगा। ऐसी रस्सी जिसे मैं छोड़ दूं, इसका सवाल ही नहीं पैदा होता।
उसने लिखा था कि वह दिल्ली में आर्ट स्कूल से जुड़ जाएगा और मुझसे पूछा
कि क्‍या मैं दिल्ली आकर उसके साथ एक फ़्लैट में रहना चाहूँगा। पहाड़ों को
छोड़ दिल्ली जैसे उमंगों का गला घोंटने वाले शहर में रहना पड़ सकता है, यह
डर मुझे हमेशा सताता था। लेकिन मैंने गौर किया तो लगा कि मोहब्बत किसी
भी जगह को रहने लायक बना सकती है।

फिर मैंने दिल्‍ली कीबस पकड़ ली और बस ने अपना रास्ता।


मानसून की हल्की झड़ी से खेतों में ताज़गी आ गयी थी और हर चीज
कुछ ज़्यादा ही हरी दिखाई दे रही थी। मक्का की लंबाई बढ़ रही थीऔर आम
तेजी से पक रहे थे। गांवों के
आसपास ऊंट और बैलगाड़ियों की वजह से चलने
में अड़चन आती थी, तो ड्राइवर गालियां बकता और हॉर्न पर घूंसे मारता।
छोटे शहरों से गुजरते हुए बस के ड्राइवर को रिक्शा, तांगा, ट्रक, पैदल
एक दर्द भरा गीत / 777
और दूसरी बसों के बीच से अपने लिए जगह बनानी पड़ती थी। एक साल से
ज्यादा समय के बाद पहाड़ से नीचे आ रहा था इसलिए शोर, भीड़भाड़ और
धूल-गंदगी कुछ बेचैनी पैदा कर रही थी।
जब मेरी टैक्सी दिनेश के घर के दरवाज़े पर जाकर लगी, तो सुनील ने
मुझे देख लिया और दौड़कर कार का दरवाज़ा खोलने आया। कुछही देर में दूसरे
कई बच्चों ने मुझे घेर लिया। तब मैंने तुम्हें सामने वाले दरवाज़े पर खड़े देखा।
तुमने मुझे सलाम किया, बिलकुल वैसे जैसे मुसलमान करते हैं। मुझे लगता है
कि कोई फिल्म देखी होगी, उसी का असर था।
दो दिन तक मैं और दिनेश घर ढूंढते रहे, क्योंकि मैंने तय कर लिया था
कि जहाँ तक हो सके हमें फ़्लैट लेना चाहिए। या तो इतनी तेज गर्मी पड़ती
थी कि पसीना छूटे या बारिश तर कर दे रही थी।दिल्ली में फ़्लैट ढूंढना मुश्किल
काम है, भले हीआप अनाप-शनाप किराया देने को तैयार हों-और वह मैं दे
नहीं सकता था । गैर-शादीशुदा मर्दों के
लिए तो और भी मुश्किल थी। गैर-शादीशुदा
मर्दों परतो कोई भरोसा करने को तैयार ही नहीं था, ख़ासतौर से तब जब घर
में लड़कियां हों। ऐसा इसलिए है क्‍योंकि गैर-शादीशुदा लोग भेड़िये होते हैं या
आजकल लड़कियों को बहला-फुसलाकर अपने काबू में करना आसान होता है?
आख़िरकार, कई जगह मना होने के बाद हमें राजधानी में कुकुरमुत्तों की
तरह उग रही कॉलोनियों में से एक में फ़्लैट देने कीपेशकश की गयी। किराया
था दो सौ रुपये और हालांकि मुझे पता था कि इतना बोझ मैं नहीं उठा पाऊंगा,
पर बार-बार न सुनकर मैं इतना नाउम्मीद और परेशान हो चुका था कि मैंने
वह जगह ले ली और बुजुर्ग सेमकान मालिक के नाम एक चेक काट दिया,
जिसकी सभी बेटियां देश के दूसरे हिस्सों में ब्याही हुई थीं।
फ़्लैट में कोई फ़र्नीचर नहीं था, दो पलंगों के सिवा, लेकिन हमने सोच
लिया कि हम धीरे-धीरे सारी जगह भर डालेंगे ।दिनेश के घर के सभी लोगों-भाइयों,
भाभियों, चाचियों भतीजों और भतीजियों की मदद से हमने फ़्लैट में रहना शुरू
किया। सबसे पहले सुनील और उसका छोटा भाई आये। फिर दूसरे, करीब दस
बच्चे चले आये और कमरों में सब गड़बड़झाला करते रहे। तुम दोपहर में आयी
थीं। लेकिन तब मैं कहीं गया हुआ था और जब चाय के समय लौटा तब तुम्हें
देखा। तुम पहली मंजिल के छज्जे में बैठी थीं और मुझे सड़क से आता देख
कर मुस्करा दी थीं।
778 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मुझे लगता है कि फ़्लैट तुम्हें अच्छा लगा था, या किसी भी हालत में, मेरी
हिम्मत की तो दाद दी ही होगी जो मैंने उसे किराये पर लिया। मैं तुम्हें छत
पर लेकर गया और वहाँ, सीढ़ियों के नीचे के कोने में मैंने जल्दी से तुम्हें चूम
लिया था। जल्दी से चूमना एक मजबूरी थी, क्योंकि दूसरे बच्चे हमारे पीछे ही
थे। तुम्हें चूमने केज़्यादा मौके अब नहीं मिलते। पहाड़ दूर थे और दिल्ली जैसी
जगह में, तुम्हारे जैसे परिवार में नज़दीकियां मुश्किल से ही मुमकिन होतीं ।
कुछ ही घंटों बाद, जब मैंएक पलंग पर अकेला बैठा था, सुनील मेरे पास
आया। वह कुछ परेशान सा दिख रहा था।
मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ. उसने कहा।
क्या हो गया?
वह रोने लगा और मैं उसे रोता देख हैरान रह गया।
“अब तुम मुझे चाहना छोड़ दो, वह बोला।
क्‍यों, ऐसा क्या हुआ?!
क्योंकि तुम सुशीला से शादी करने जा रहे हो, अगर तुम मुझे भी चाहोगे,
तो यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा ।
मुझे कुछ सूझा नहीं कहने के लिए। कुछ अजीब सी बात थी, जो अच्छी
नहीं थी। लेकिन कुछ ही देर में जबफिर उसके जोश में ज्वार आया, तो ऐसा
लगने लगा जैसे वह अपनी पहले की उदासी की वजह भूल गया। उसके पिता
का लंबे समय तक बेवजह देश से दूर रहना ही शायद उसके प्यार पाने के लिए
बेचैन होने कीवजह था।

नये फ़्लैट में पहली रात मुझे और दिनेश को नींद नहीं आयी। फ़्लैट मेन रोड
के बिलकुल पास था और रात भर गरजती गाड़ियां गुजरती रहीं। मैं पहाड़ों को
याद कर रहा था, जहाँ इतना सन्नाटा रहता है कि चापका पक्षी (नाइटजार) की
पुकार हमें चौंका देती थी।
दूसरे दिन ज़्यादातर समय मैं बाहर रहा और जब शाम को लौटा तो पता
चला कि दिनेश का मकान मालिक से झगड़ा हो गया था। लगता है मकान मालिक
सचमुच अकेले मर्द ही चाहता था और दिन भर ढेर सारे बच्चों काआना-जाना
उसकी समझ में नहीं आया या उससे बर्दाश्त नहीं हुआ।
एक दर्द भरा गीत / 779
'मैंने सोचा कि मकान मालिक परिवार वालों को रखना पसंद करते हैं
मैंने कहा। ४
“वह जानना चाहता था कि गैर-शादीशुदा किरायेदार का इतना बड़ा परिवार
कहाँ से आया!
"तुमने बताया नहीं कि बच्चे कुछ दिन के मेहमान हैं और यहाँ नहीं रहेंगे?”
'मैंने बताया, लेकिन वह मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं था।'
'बैर, जो भी हो, हम बच्चों को मिलने आने से तो रोकेंगे नहीं,” मैंने गुस्से
से कहा। (बच्चे नहीं, तो सुशीला भी नहीं!) “अगर उसे बात समझ में नहीं आती
तो वह अपना फ़्लैट अपने पांस रखे।'
क्या उसने मेरा चेक भुना लिया?
“नहीं, उसने वापस कर दिया।
“इसका मतलब वह वास्तव में चाहता है कि हथ उसके फ़्लैट से चले जायें ।
भाड़ में जाये उसका फ़्लैट! वैसे भी यहाँ बहुत शोर रहता है। चलो तुम्हारे घर
वापस चलते हैं।
हमने अपने बिस्तरबंद, संदूक और रसोईघर के बरतन-भांडे फिर से बांधे ।
बैलगाड़ी भाड़े परली और वहाँ से तीन मील दूर दिनेश के घर जा पहुंचे काफ़ी
रात को, भूखे और परेशान।
सब कुछ गड़बड़ाता लग रहा था।

जिस घर में तुम रहती हो, उसी में रहते हुए भी तुम्हारे साथ वास्तव में कोई
मेलजोल न रख पाना एक तरह से खुद अपने ऊपर ही अनूठे ढंग से सितम
ढाने जैसा था। बड़ी मुश्किल से इक्का-दुक्का पल ही ऐसे मिलते थे जब हमें
एक कमरे में अकेले छोड़ा जाता थाऔर हम इशारों या एकाध शब्दों के जरिये
कुछ कह-सुन सकते थे। इसे मैं ख़ुद पर सितम ढाना इसलिए कहता हूँक्‍योंकि
दिल्ली में रहने केलिए किसी ने मेरे साथ जबरदस्ती नहीं की थी। कभी-कभी
तुम्हें मुझसे दूरी बनाकर रखनी पड़ती थी और यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
था। सुनील और कुछ बच्चों के अलावा सिर्फ़ दिनेश को हमारे इश्क के बारे
में पता था। वैसे भी बड़ों कोसच जरा धीरे-धीरे हीसमझ में आता है-हमारे
रिश्ते कासच और मेरे अपने जज़्बात को परिवार में किसी के साथ साझा करना
780 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
जल्दबाजी होती। अगर मैं यह ऐलान करता कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, तो
फ़ौरन यह जाहिर हो जाता कि हिल-स्टेशन पर छुट्टियों के दौरान हमारे बीच
कुछ हुआ है। फिर यह कहा जाता कि मैंने मौके का फ़ायदा उठाया, जो कि
मैंने उठाया भी और तुम्हें फुललाकर अपने चंगुल में फंसाया-जबकि मैं यह
सोचने लगा था कि मैंने तुम्हें नहीं, तुमने मुझे फुसलाकर अपनी गिरफ़्त में लिया!
और अगर एकाएक शादी करने की बात होती, तो लोग कहते-“इतनी जल्दी
तय की गयी है और यह इतनी छोटी है। इसने लड़की को किसी मुश्किल में
डाल दिया होगा !” जबकि तुम में उस किस्म की मुश्किल में होने के कोई लक्षण
मौजूद नहीं थे।
फिर भी मैं यह उम्मीद नहीं छोड़ पा रहा था कि तुम जल्दी ही मेरी बीवी
बनोगी और ऐसा होना तय था। मैं तुम्हारी देखभाल करना चाहता था। मैं नहीं
चाहता था कि मेरा यह काम दूसरे करें। क्‍या इसमें खुदगर्जी छुपी थी? या फिर
ऐसा ही होता है जब कोई किसी को सचमुच में प्यार करता है?
ऐसा भी समय था-ऐसा समय जब तुमने मुझसे दूरी बना कर रखी और
तुम मेरी ओर देखती तक नहीं थीं-और तब मैं बेचैन हो जाया करता था। मुझे
पता था कि तुम दूसरों के सामने यह नहीं जाहिर होने दे सकतीं कि तुम मुझसे
इतनी खुली हुई हो। फिर भी, यह जानते हुए भी, मैं सबसे आँखें चुराकर तुमसे
नजरें मिलाने, तुम्हारे पास बैठने और तुम्हें चलते-चलते छू लेने कीकोशिश करता
था। मैं ख़ुद को रोक नहीं सकता था। मैं उदास रहने लगा, खुद पर तरस खाने
लगा। और ख़ुद पर तरस खाना, मैंने महसूस किया, नाकाम होने की निशानी
है, ख़ासतौर से प्यार में नाकाम होने की।
फिर वापस पहाड़ पर जाने का समय आ गया।

सुशीला, जिस दिन मुझे जाना था, उस सुबह जब मैं उठा, तो तुम सो रही थीं
और मैंने तुम्हें नहीं जगाया। मैं तुम्हें अपने बिस्तर पर पसरे देखता रहा, तुम्हारा
. सांवला चेहरा जिस पर चिंता का नामो-निशान तक नहीं था, तुम्हारे काले बाल
सफ़ेद तकिये पर बिखरे हुए थे और तुम्हारी लंबी-लंबी बांहें और टांगें निढाल
फैली हुई थीं। सोते हुए तुम कितनी खूबसूरत लग रही थीं।
जब मैं तुम्हें देख रहा था, तब मैं अपने दिल के इर्द-गिर्द एक अजीब सी
एक दर्द भरा गीत / 487
जकड़न महसूस करने लगा, एक अजीब सी घबराहट सी होने लगी थी-कि ऐसा
भी हो सकता है कि मैं तुम्हें खो दूं।
अब दूसरे भी जाग चुके थे और नएरें चुराकर तुम्हें चूम लेने कामौका
नहीं था। टैक्सी फाटक पर खड़ी थी। एक बच्चा हूक मार-मार कर रो रहा था।
तुम्हारी दादी मुझे कुछ समझा रही थीं। टैक्सी ड्राइवर बार-बार हॉर्न बजा रहा
था।
अलविदा सुशीला!
बरसात का मौसम अपने पूरे परवान पर था। लगातार बूंदाबांदी, फुहार
और टीन की छत पर लगातार तड़-पड़ तड़-पड़ होती रहती थी। दीवारों परसीलन
थी और मेरी कुछ किताबों पर, यहाँ तक कि उस अचार में भी फफूंदी लग गयी
थी जो दिनेश ने बनाया था। हे
सब कुछ हरियाला था। हरियाली ऐसी थी जैसी नमी वाले गर्म इलाकों
में होती है, ख़ासतौर से धारा केआसपास। पेड़ों के तनों पर फ़र्न पनप गये थे
और पत्थरों पर काई की ताज़ी फ़लल उगी थी। मेडेनहेयर फ़र्न तोबेहद मनमोहक
थे। धारा का पानी पूरेज़ोर से संकरी सी घाटी से बहता हुआ अपने साथ झाड़ियों
और छोटे-मोटे पेड़ों कोभी बहाये लिये जा रहा था। मैं ज्यादा देर बाहर इंतज़ार
नहीं कर सकता था, क्‍योंकि बारिश कभी भी शुरू हो सकती थी। फिर जोंक
का भी ख़तरा था, जो मौका मिलते ही मेरे पैरों परचिपक मेरा ख़ून चूस-चूस
कर मोटी हो जातीं।
एक बार, चट्टानों पर खड़े-खड़े मैंने देखा, एक पतला सा भूरा सांप बहाव
के साथ तैरता जा रहा था। उसमें एक कशिश थी और एक अकेलापन भी।
मैंने एकसपना देखा-सुनील कह रहा था कि धारा पर चलते हैं।
हमने एक एअरबैग में मक्खन और डबलरोटी रखी। साथ में डबलरोटी
काटने वाली एक लंबी छुरी लेकर हमने धारा तक पहुंचने के लिए पहाड़ से नीचे
उतरने का सफ़र शुरू किया। सुशीला नंगे पांव थी और वही पुराना कुरता पहने
हुए थी जो बचपन से पहनती चली आ रही थी। सुनील ने चटक पीली टी-शर्ट
और काली जींस पहन रखी थीं। वह बड़ा आकर्षक लग रहा था। जब हम जंगल
वाले रास्ते पर थे, तब हमने देखा कि दो जवान लड़के हमारे पीछे-पीछे आ रहे
थे। उनमें सेएक, सांवला और दुबला सा लड़का जाना-पहचाना सा लग रहा
था। मैंने कहा-यह सुशीला का दोस्त तो नहीं है?” लेकिन सबने मना कर दिया।
82 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
दूसरे को मैं नहीं जानता था। जब हम धारा पर पहुंच गये, सुनील और मैं ताल
में कूद पड़े, जबकि सुशीला बिलकुल हमारे पास वाले पत्थर पर बैठी थी। हमें
नहाते हुए कुछ मिनट ही हुए होंगे कि वे दोनों लड़के वहीं आ गये और सुशीला
के साथ छेड़छाड़ करने लगे। उसने तो कुछ नहीं कहा लेकिन सुनील तालाब से
निकला और हड़बड़ाया हुआ चढ़ाई पर चढ़ने लगा सुशीला की ओर। दोनों में
से, जो पहचान में नहीं आ रहा था, उसके हाथ में एक लंबा सा चाकू था। सुनील
ने एक पत्थर उठाया और उसकी ओर घुमाकर फेंका, जो उसके कंधे पर लगा।
मैं भीनिकलकर दौड़ा और फ़ुर्ती सेलड़के कावह हाथ पकड़ लिया जिसमें चाकू
था। उसने मुझे पांव पर टखने के कुछ ऊपर लात मारी और दूर धकेलने की
कोशिश की। मैं उसके पैरों केपास ही गिर गया। चाकू वाला हाथ मेरे ऊपर
ही तना हुआ था, लेकिन मैंने उसे थामा हुआ था। फिर उसके पीछे मुझे सुशीला
नज़र आयी। उसके चेहरे के पीछे थाबादल का एक गुज़रता हुआ टुकड़ा |उसके
हाथ में डबलरोटी काटने वाला चाकू था। उसका हाथ ऐसे ऊपर नीचे चल रहा
था और मुझसे मुक़ाबला करने वाले की गर्दन ऐसे काट रहा था जैसे वह पके
हुए तरबूज़ पर चल रहा हो। मैं लड़खड़ा कर खड़ा हुआ, तो देखा कि सुशीला
बिना सिर की लाश को ऐसे ताक रही थी जैसे कोई बच्चा तितली के पंख उखाड़ने
के बाद उसे देख रहा हो जैसे वह कोई अनोखी चीज़ हो और उसे उससे कोई
मतलब नहीं था। 5
दूसरा लड़का, जो सुशीला का दोस्त हो सकता था, वह भागने लगा। हम
तीनों मिलकर उसके पीछे पड़ गये। जब वह॑ फिसल कर गिरा, तो अगले ही
पल मैंने खुद को उसके बगल में पाया। मेरे हाथ में चाकू था ही, वह अपने
'आप ही ऐसी जगह ठहर गया कि अगर हाथ चलता तो चाकू सीधा उसके बायें
कंधे के नीचे वाले हिस्से में घुसता |लेकिन मुझसे उसके कंधे में चाकू घोंपा नहीं
गया। तभी सुनील ने मेरे हाथ पर अपने हाथ से ज़ोर दिया और चाकू का फल
उसके मांस में धीरे से घुस गया।

दिन हो या रात, हर वकूषत मुझे पहाड़ के नीचे बहने वाली धारा कीकल-कल
सुनायी देती थी। अगर मैं उसे ध्यान लगाकर न भी सुनूं, फिर भी आवाज़ तो
रहती ही थी। मैं उसका आदी हो गया था। लेकिन जब कभी मैं कहीं और जाता,
एक दर्द भरा गीत / 785
तब कुछ कमी सी महसूस होती थी और बहते हुए पानी की आवाज़ के बिना
मैं अकेलापन महसूस करता था।
मैं दोमहीने अकेला रहा और फिर मेरा तुमसे मिलना हुआ, सुशीला।
लंबे समय से टलते चले आ रहे 'होगा या नहीं होगा” वाले हालात मुझसे नहीं
झेले जा रहे थे। मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे सब कुछ किसी मुक़ाम
तक पहुंचे। बिना कुछ किये महज़ इंतज़ार करते रहना सहा नहीं जा रहा था।
न ही मुझसे किसी को कुछ न बताने की दिनेश की दी हुई क़सम निभायी
जा रही थी। किसी को तो मालूम होना ही चाहिए कि मेरा इरादा क्‍या है।
किसी को तो मेरी मदद करनी ही होगी। तब कहीं इंतज़ार मेरे लिए आसान
हो पाएगा।
तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं चल रही थी और तुमकमज़ोर दिखाई दे रही
थीं, लेकिन तुम पहले सी हँसमुख और शांत थीं।
जब मैं तुम्हें सुनील के साथ सिनेमा दिखाने ले गया, तुमने बैंगनी रंग की
बिना बाजू वाली कुर्ती पहनी थी। उसमें तुम्हारा सांवला रूप और भी निखर गया
था। तुम्हारे चेहरे परमासूमियत और लज्जा थी और मुस्कान वही हमेशा जैसी।
तुम पर से अपनी नजरें नहीं हटायी जा रही थीं।
टैक्सी से लौटते समय रास्ते भर मैं तुम्हारा हाथ थामे रहा।
सुनील (पंजाबी में) : 'तुम अपने बच्चों के नाम अंग्रेजी में रखोगे या हिंदी
में?
मैं : हिंदुस्तानी |
सुनील (पंजाबी में) : “अच्छा, सही जवाब, अंकल!
और पहले मैं तुम्हारी मां केपास गया।
छोटी सी महिला थीं वह और सुकुमार सी लगती थीं। लेकिन उनके छह
बच्चे थे-सातवां होने को था-सारे के सारे बिना किसी दिक्कत के इस दुनिया
में आये थे और पूरे संयुक्त परिवार में सबसे तंदुरुस्त थे।
वह शहर के दूसरे इलाके में रिश्तेदारों सेमिलने जा रही थीं और रास्ते
में कुछ दूर तक मैं उनके साथ गया था। क्योंकि वह गर्भवती थीं, इसलिये उन्हें
भीड़ भरी बस में किसी ने सीट दे दी थी। मैं भी -किसी तरह उनकी बगल में
सिकुड़ कर बैठ गया था। वह मुझे हमेशा से पसंद करती थीं, इसलिए सीधे मुदूदे
पर आने में मुझे कोई मुश्किल नहीं हुई।
784 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“आप कितनी उम्र में सुशीला की शादी करना चाहेंगी? मैंने यूं हीघर
के बड़ों वाले अंदाज़ में पूछा।
“जब समय आएगा, तब इसके बारे में सोचेंगे। अभी तो उसे स्कूल की
पढ़ाई पूरी करनी है। अगर वह इम्तिहानों में फ़ेल होती रही, तो वह अपनी पढ़ाई
कभी पूरी नहीं कर पाएगी ।'
मैंने एक गहरी सांस ली और छलांग लगा दी।
“जब समय आएगा, मैंने कहा। जब समय आएगा, तो मैं उससे शादी
करना चाहूँगा। और यह देखने का इंतजार किये बिना कि मेरी बात का उन
पर क्‍या असर हुआ, मैं आगे बोलता गया-'मुझे पता है कि मुझे अभी इंतजार
करना पड़ेगा, एक या दो साल, या शायद इससे भी ज़्यादा, लेकिन मैं आपसे
यह बात इसलिए कर रहा हूँताकि आपके ध्यान में रहे। आप उसकी मां हैं,
इसलिए मैं चाहता हूँ कियह बात आपको सबसे पहले पता लगे।' (मैं ठहरा
पक्का झूठा! उनसे पहले यही कोई चार लोगों को पता था। लेकिन इस बहाने
से मैं वाकई में यहकहना चाहता था, "कृपया उसके लिए कोई दूसरा पति ढूंढने
के चक्कर में मत पड़ियेगा।')
उन्हें कुछ ख़ास ताज्जुब नहीं हुआ। सौम्य सी महिला थीं। लेकिन उन्होंने
कुछ उदासी के साथ कहा-तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन परिवार में मेरी बात
कुछ ख़ास नहीं चलती। मेरे पास पैसा नहीं है न। यह सब दूसरों के हाथ में
है, ख़ासकर उसकी दादी के ।'
मैं उनसे भी बात कर लूंगा, जबसमय आएगा। इसकी चिंता मत कीजिए ।
और आपको पैसे या किसी और चीज की चिंता करने की जरूरत नहीं है-मेरा
मतलब हैकि मैंदहेज मेंविश्वास नहीं करता-यानी, आपको गोदरेज की अलमारी,
' सोफ़ा सेट और इस किस्म की दूसरी चीज़ें मुझे नहीं देनी पड़ेंगी। कुल मिलाकर
मुझे सिर्फ़ सुशीला चाहिए... ।'
“वह अभी बहुत छोटी है।'
लेकिन वह खुश थी-इस बात से खुश थीं किउनका खून, उनकी अपनी
बेटी, एक आदमी के लिए इतना मायने रखती है।
“अभी इस बारे में किसी को मत बताइयेगा,' मैंने कहा।
'किसी को नहीं बताऊंगी,' वह मुस्करा कर बोलीं।
तो अब अपना राज़-अगर इसे राज़ कहा जाए, तो-कम से कम पांच
लोगों को पता था।
एक दर्द भरा गीत / 785
भीड़ भरी सड़क पर बस रेंग कर चल रही थी और हम शांत बैठे थे, हर
तरफ़ से लोगों की भीड़ में दबे जा रहे थे, लेकिन अपनी बातों की वजह से अपनी
अलग दुनिया में। ५
उनके लिए मेरे मन में अपनापन जागा-उस सीधी-सादी और सरल सी
अनपढ़ (वह कभी स्कूल नहीं गयीं और न ही पढ़-लिख पाती थीं) महिला के
लिए जिसके हालात कुछ और होते तो वह अब भी बिलकुल जवान और सलोनी
सी होती। मैंने उनसे पूछा कि बच्चा कब होना है।
*दो महीने और हैं,' वह बोलीं । फिर हँस दीं। ज़ाहिर है, एक जवान लड़के
का उनसे ऐसा सवाल पूछना उन्हें कुछ अटपटा और अजीब सा लगा था।
“जरूर ठीक-ठाक बच्चा होगा,” मैंने कहा ।और सोचा-इसे मिला कर छह
साले! ड श्र

मुझे नहीं लगता था कि मुझे तुम्हारे रवि चाचा (दिनेश के बड़े भाई) से बात
करने का मौका मिलेगा। लेकिन दिल्ली में अपनी आख़िरी शाम को करोल बाग
वाली सड़क पर सिर्फ़ मैं और वो साथ में थे। पहले हमने शादी के मामले में
उसकी अपनी सोच के बारे में बात की और फिर, उसे खुश करने के लिए
मैंने कहा कि जो लड़की उसने पसंद की है वह खूबसूरत भी है और समझदार
भी। ५
उसने मेरे लिए अपनापन महसूस किया।
अपना गला साफ़ करके मैंने बातों कासिलसिला आगे बढ़ाया-“रवि, तुम
मुझसे पांच साल छोटे हो और तुम्हारी शादी होने वाली है।'
हाँ औरअब आपको भी इस बारे में कुछ सोचना चाहिए ।'
वैसे मैंने पहले कभी इस बारे मेंसंजीदा होकर नहीं सोचा था-बल्कि समाज
में शादी की जो व्यवस्था है, मैंने हमेशा उसे ठुकराया-लेकिन अब मैंने अपनी
सोच बदली है। तुम्हें पता है मैंकिस से शादी करना चाहता हूँ?
मैं हैगान रह गया जब रवि ने बेझिझक आशा का नाम लिया, उसकी दूर
की चचेरी बहन जिससे मैं सिर्फ़ एक ही बार मिला- था। वह फिरोजपुर सेआयी
थी। उसके कूल्हे इतने बड़े-बड़े थे कि थोड़ी दूर से वह बहुत बड़ी सी नाशपाती
जैसी लगती थी।
786 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“नहीं, नहीं,” मैंने कहा । “आशा अच्छी लड़की है, लेकिन मैं उसके बारे में
नहीं सोच रहा था। मैं तो सुशीला जैसी लड़की से शादी करना चाहूँगा। खुलकर
बोलूं, रवि, मैं सुशीला से ही शादी करना चाहूँगा ।'
काफ़ी देर तक ख़ामोशी छायी रही तो मुझे लगा किआज सब ख़त्म हो
जाएगा। कारों, स्कूटरों और बसों की आवाज़ें जैसे कहीं पीछे हट कर धुंधली
पड़ गयीं। रवि और मैं मौन के खालीपन में एक साथ अकेले रह गये।
ये नाजुक घड़ियां ज़्यादा लंबी न खिंच जाएं, इसलिए कुछ लड़खड़ाते हुए
मैं उसी रास्ते चला। 'मुझे पता है किवह अभी छोटी है और मुझे कुछ समय
इंतज़ार करना पड़ेगा / (वही पुराने रटे-रटाये शब्द) "लेकिन अगर तुम्हें मंजूर हो,
परिवार राजी हो और सुशीला हाँ कहे, तो फिर, मैं समझता हूँ,उससे शादी करने
से अच्छा मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता |!
रवि कुछ सोचने लगा-अपना सिर खुजाया और फिर तो मन खुश हो गया
जब वह बोला-'क्यों नहीं? ख़याल नेक है।
लोगों और गाड़ियों कासारा शोर आया और मेरे अंदर ऐसा जोश भर
गया कि मैं सोचने लगा कि अगर मैं चाहूँ तोकिसी इमारत को या किसी बस
को अकेले ही आग लगा कर फूंक सकता हूँ।
“इससे तो तुम हमारे और क़रीब आ जाओगे,” रवि ने कहा। 'भई, हम
तो तुम्हें अपने परिवार से जोड़ना चाहेंगे। कम से कम मैं तो चाहता हूँ।'
“बस, यही तो सब कुछ है और किसी बात से फ़र्क नहीं पड़ता,' मैंने कहा ।
मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उसके लिए अच्छे से अच्छा करूं, रवि। उसे खुश
रखने के लिए मैं सब कुछ करूंगा ।
“वह बेहद सीधी-सरल है और उसमें कोई खोट नहीं है।
'मुझे पता है। इसीलिए तो मैं उसका इतना ध्यान रखता हूँ।'
"तुम्हारे लिए, मैं जोकर सकता हूँ,करूंगा। सत्रह साल की होते-होते उसकी
स्कूल की पढ़ाई पूरी हो जानी चाहिए। तुम उससे ज़्यादा बड़े हो इससे कोई फ़र्क
नहीं पड़ता। उम्र में बारह साल का फर्क आम बात है। इसलिए, फ़िक्र न करो।
थोड़ा सब्र करो, सारा इंतजाम कर दिया जायेगा ।
और इस तरह तीन मजबूत हाथ मेरे साथ हो गये थे-दिनेश, रवि और
तुम्हारी मां। बाक़ी बचीं तुम्हारी दादी। मेरी इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं ख़ुद
आगे बढ़कर उनसे बात करूं। वह सबसे बड़ी बाधा थीं क्योंकि वह परिवार की
एक दर्द भरा गीत / 787
मुखिया थीं और किसी की नहीं सुनती थीं। अकसर इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल
होता था कि वह कब क्या कर बैठेंगी। तुम्हारी मां सेउनकी नहीं पटती थी
और सिर्फ़ इसी वजह से मैं डरता था कि कहीं वह मेरे साथ तुम्हारी शादी की
बात का विरोध न करें। रवि और दिनेश के फ़ैसलों कोवह कितनी अहमियत
देती हैं, यह मुझे नहीं मालूम था। मुझे तो बस इतना पता था कि उनके फ़ैसलों
के आगे सब सिर झुका देते थे।
तुम्हारे लिए कितना मुश्किल था अपने रिश्तेदारों केबोझ से छुटकारा पाना!
वैसे तो सब के साथ तुम्हारी ठीक ही बनती थी, लेकिन क्योंकि आपस मेंकहा-सुनी
के बिना वह रह नहीं सकते थे, इसलिए इस संयुक्त परिवार नाम के खेल में
तुम बस एक मोहरा भर थीं।
पक

तुमने मेरा हाथ पकड़कर उसे अपनी गालों पर रखा, फिर छाती पर। मैंने तुम्हारी
बंद आँखों को चूम लिया और तुम्हारे चेहरे कोअपने हाथों में लिया। तुम्हारे
होंठों को अपने होंठों से छू लिया। अंधेरे बरामदे में यह हमारा ख़याली चुंबन
था। और इसके बाद, मदहोशी में, मैं लड़खड़ाकर सड़क पर जा पहुंचा और रात
भर गली-गली घूमता रहा।
मैं बांज केजंगल के ऊपर वाली चट्टानों पर बैठा था जब मैंने देखा कि
ऊपर से कोई जवान लड़का मेरी तरफ़ चला आ रहा था । उसके कदमों की सतर्कता
और हल्के कपड़ों से मैं समझ गया कि वह कोई अजनबी था। वह तकरीबन
मेरे ही क़द का, दुबला और कुछ लंबे से चेहरे वाला-और अगर सिर्फ़ नाक-नक्शे
की बात की जाए, तो देखने में ठीक-ठाक था। जब वह और पास आ गया,
तो मैं उसे पहचान गया, क्योंकि तुम्हिरे साथ उसकी एक तस्वीर मैंने देखी थी।
मेरे सपनों कानौजवान था वह-तुम्हारा चाहने वाला...मुझसे पहले वाला! डसे
देख कर मुझे कोई बहुत ताज्जुब नहीं हुआ। न जाने क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता
था कि एक दिन हम मिलेंगे।
मुझे उसका नाम याद आ गया और मैंने कहा, “कैसे हो प्रमोद?
वह कुछ सकपका सा गया। उसकी आँखें पहले से हीशक और गरम से
बोझिल थीं और उसमें जूझने का जज़्बा तो कहीं से नज़र नहीं आ रहा था।
तुम्हें मेरा नाम कैसे पता? उसने पूछा।
788 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
"तुम्हें कैसे पता कि मैं कहाँ मिल सकता हूँ? मैंने सवाल का जवाब सवाल
से दिया।
"तुम्हारे पड़ोसी कपूर साहब के यहाँ सेपता चला। जब तुम घर पहुंचते
तब तक मैं तुम्हारा इंतज़ार नहीं करसकता था। मुझे आज रात फिर नीचे जाना
है।!
“ठीक है, तो तुम मेरे साथ घर चलना चाहोगे, या यहीं बैठ कर बात करना
चाहोगे? मुझे यह तो पता है कि तुम कौन हो, लेकिन यह नहीं मालूम कि मुझसे
मिलने क्‍यों आये हो |
“यहाँ भी ठीक है,' वह बोला और बैठने से पहले घास पर अपना रुमाल
बिछा दिया। "तुम्हें मेरा नाम कैसे पता चला?
मैंने कुछ पल उसकी तरफ़ देखा और मैंसमझ गया कि वह अंदर से कमज़ोर
था-शायद मुझसे भी ज़्यादा कमज़ोर । मेरे साथ अच्छी बात यह भी थी कि उससे
बड़ा होने की वजह से मैं अपने अंदर की भावनाओं को बेहतर ढंग से छुपा सकता
था।
'सुशीला ने मुझे बताया, मैंने कहा।
“खैर, मुझे नहीं लगता था कि तुम्हें पता चल जाएगा।'
मैं थोड़ा हैशान तो हुआ, लेकिन बोला-म'मुझे तुम्हारे बारे में पता था,
बिलकुल । और जरूर तुम भी यह बात जानते थे, वरना तुम शायद ही यहाँ मुझसे
मिलने आते ।'
“तुम सुशीला और मेरे बारे में जानते हो न?” उसने पूछा। वह पहले से
भी ज़्यादा उलझन में नज़र आ रहा था।
'देखो, मैं इतना जानता हूँकि तुम उससे प्यार करते हो |
उसने अपना माथा पीट लिया। “हे भगवान, क्या और भी जानते हैंयह?
'मुझे नहीं लगता | मैंने जानबूझ कर सुनील का जिक्र नहीं किया।
उलझन में वह घास की एक-एक पत्ती नोच-नोच कर फेंकने लगा। “क्या
ख़ुद उसने तुम्हें बताया? उसने पूछा।
हो
“लड़कियां राज़ को राज़ नहीं रख पातीं। लेकिन एक तरह से अच्छा ही
हुआ जो उसने तुम्हें बताया। अब मुझे सब समझाना नहीं पड़ेगा। देखो, मैं यहाँ
तुम्हारी मदद लेने आया हूँ। मुझे पता है कि तुम उसके सगे रिश्तेदार नहीं हो,
एक दर्द भरा गीत / 789
लेकिन तुम उसके परिवार के बहुत नज़दीक हो । पिछले साल दिल्ली में वहअकसर
तुम्हारी बातें किया करती थी। कहती थी कि तुम बहुत अच्छे हो ॥'
इतनी बातों के बाद मुझे समझ में. आया कि प्रमोद को मेरे और तुम्हारे
रिश्ते के बारे में कुछ भी पता नहीं है, सिवाय इसके कि मैं तुम्हारे जितने “अंकल
थे, उनमें से तुम्हारा सबसे ज़्यादा हिंतैषी हूँ। उसे मालूम था कि तुमने अपनी
गर्मियों की छुट्टियां मेरे साथ बितायी थीं-और दिनेश और सुनील भी साथ थे।
और अब, यह जानने के बाद कि मैंपरिवार का नजदीकी हूँ,वह मेरा साथ चाहता
था-कुछ उसी तरह जैसे मैं लोगों सेमदद मांगता फिर रहा था!
'क्या तुम सुशीला से हाल में मिले हो?” मैंने पूछा।
“हाँ, दोदिन पहले, दिल्ली में। लेकिन अकेले में मैं बस कुछ मिनट के
लिए उसके साथ था। हम ज़्यादा बात भी नहीं करः पाये। देखिये अंकल-अगर
मैं भीआपको अंकल कहूँ तो आपको कोई एतराजशतो नहीं, अंकल? मैं उससे
शादी करना चाहता हूँ, लेकिन ऐसा कोई नहीं है जो मेरी तरफ़ से उसके घर
वालों से बात करे। मेरे माता-पिता ज़िंदा नहीं हैं। अगर मैं सीधे उसके परिवार
के पास जाता हूँ, तो हो न हो, मुझे उठाकर घर से बाहर फेंक दिया जाएगा।
इसलिए मैं चाहता हूँ किआप मेरी मदद करें। मैं अमीर नहीं हूँ, लेकिन जल्दी
ही मेरी नौकरी लगने वाली है और फिर मैं उसे सहारा दे पाऊंगा।
तुमने यह सब उसे बताया?!
हाँ ।
और उसने क्या कहा? '
“उसने कहा कि इस बारे में मुझे आप से बात करनी चाहिए ।
चालाक सुशीला! दुष्ट सुशीला!
'मुझसे ? मैंने दोहराया।
“हाँ, उसने कहा कि यह उसके घरवालों से बात करने से ज़्यादा अच्छा
रहेगा ।'
मेरी हँसी छूट गयी और एक लंबी पूंछ वाला नीलकंठ घबराकर तीखी चीख
के बाद कट-कट-कट-कट की रट लगाने लगा।
हँसो नहीं अंकल, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ.' प्रमोद बोला। उसने
मेरा हाथ पकड़ लिया और ऐसे देखने लगा जैसे सचमुच मुझे मना लेना
चाहता हो।
790 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
“ठीक है, मज़ाक होना भी नहीं चाहिए,” मैंने कहा। उस पल मैं सोच
रहा था कि सुशीला कितनी चतुर है-या फिर बेहद भोली! तुम्हारी उम्र क्या
है, प्रमोद ?”
'तेइस साल ।'
'सिर्फ़ मुझसे सात साल छोटे। इसलिए, मेहरबानी करके मुझे अंकल मत
कहो। उससे मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं कोई इतिहास से भी पुरानी चीज हूँ।
तुम चाहो तो मेरा नाम ले सकते हो। और, यह बताओ, सुशीला से शादी कब
करना चाहते हो?!
“जितनी जल्दी हो सके। मुझे मालूम है कि मेरे लिए वह अभी बहुत छोटी
है।'
“बिलकुल नहीं, मैंने कहा ।“आये दिन कच्ची उम्र की लड़कियां अधेड़ लोगों
से शादी कर रही हैं। और तुम तो अभी ख़ुद भी छोटे ही हो। लेकिन वह अभी
शादी नहीं कर सकती, प्रमोद, यह मुझे पक्के तौर पर पता है।'
“इसी बात का तो मुझे डर था। मुझे लगता है पहले उसे स्कूल की पढ़ाई
पूरी करनी होगी ।'
“बिलकुल, यही बात है। लेकिन मुझे एक बात बताओ-यह तय है कि
तुम उसे चाहते हो और इसमें तुम्हारी कोई गलती भी नहीं है। सुशीला लड़की
ही ऐसी है जिसे हम में से कोई भी प्यार कर बैठता है! लेकिन यह तो बताओ
कि तुम्हें मालूम है कि वह भी तुम्हें प्यार करती है या नहीं? क्‍या उसने तुमसे
कभी कहा कि वह तुमसे शादी करना चाहती है?
“उसने तो नहीं कहा-मुझे नहीं पता... उसकी आँखें खोयी-खोयी सी रहती
थीं, ऐसा लगता था जैसे उसके दिल को ठेस लगी हो-और मेरा दिल पिघल
गया। लेकिन मैं उसे प्यार करता हूँ,इतना ही काफ़ी नहीं है?'
“इतना ही काफ़ी होता-बशर्ते वह किसी और के प्यार में न डूबी होती |
"ऐसा है क्या, अंकल?!
'साफ़ कहूँ, मुझे नहीं मालूम ।'
उसकी आँखों में चमक लौट आयी। “वह मुझे पसंद करती है,” वह बोला।
“इतना तो पता है।
देखो, मैं भी तुम्हें पसंद करता हूँ,लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि
मैं तुमसे शादी कर लूंगा।'
एक दर्द भरा गीत / 797
वह फिर मायूस हो गया। "मैं समझ रहा हूँआप कया कहना चाहते हैं
लेकिन प्यार क्‍या है, मैं कैसे पहचानूं?
यही तो वह एक सवाल हैजिसका जवाब मैंनहीं देसकता ।कैसे पहचानेंगे 2
रे

मैंने प्रमोद को रात को अपने पास ठहरने के लिए मना लिया। सूरज डूब गया
था और उसे कंपकंपी छूट रही थी। मैंने तापने केलिए आग जलायी, उस साल
सर्दी में पहली बार, बांज की टहनियों और कंटीली डालों से। फिर उसके साथ
बैठकर ब्रांडी पी।
प्रमोद के लिए मेरे मन में कोई चिढ़ या नाराजगी नहीं थी। उससे मिलने
से पहले, मुझे उससे जलन होती थी और जब मैंने. पहले-पहल उसे पगडंडी पर
अपनी तरफ़ आते देखा था, तब मुझे अपना सपना याद आ गया था, मैंने सोचा
था-'हो सकता है मैं इसे मार डालूं। या होसकता है कि यह मुझे मार डाले |
लेकिन मामला कुछ और ही निकला। अगर सपनों का कोई मतलब होता भी
होगा, तो वह हमारी सीमित समझदारी के छोटे से दायरे में नहीं सिमट सकते।
मैंने कल्पना की थी कि प्रमोद असभ्य सा, स्वार्थी और गैर-जिम्मेदार किस्म
का कॉलेज जाने वाला लड़का होगा जिसने लड़कियों को कभी जाना-समझा ही
नहीं होगा और उन्हें अजब-अनोखी दूसरी दुनिया के ऐसे प्राणी समझता होगा
जो इसलिए होते हैं कि मौका पाते ही उन्हें झपट लिया जाये और लूट लिया
जाये। ऐसे लोग होते हैं, लेकिन प्रेमोद ऐसा नहीं था। वह औरत जात के बारे
में ज्यादा नहीं जानता था और यही मेरा हाल था। वह सीधा सा, सलीके से
बात करने वाला लड़का था जिसका खुद पर से भरोसा डोल जाता था। इसलिए
मैं सोच में पड़ गया कि तुम्हारे लिए मेरे मन में क्या हैयह उसे बताऊं या न
बताऊं।
कुछ देर बाद वह अपने और तुम्हारे बारे में बातें करने लगा। उसने मुझे
बताया कि उसे तुमसे प्यार कैसे हुआ था। पहले वह दूसरी लड़की के क़रीब
था, जो तुम्हारे ही क्लास में पढ़ती थी लेकिन उससे एक-दो साल बड़ी थी। तुमने
उस लड़की के संदेश प्रमोद तक पहुंचाए थे। फिर उस लड़की ने उसे छोड़ दिया।
उसे उदासी ने घेर लिया और एक शाम उसने ख़ूब सारी सस्ती शराब पी ली।
वह सोच रहा था कि मर जाएगा, लेकिन मरने के बजाय वह रास्ता भूल गया
92 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
और तुम्हारे घरके पास आ गया जहाँ तुम उसे रास्ते में मिलीं। उसे इस बात
की जरूरत थी कि कोई उसे समझे और उस पर तरस खाये और तुमने उसकी
यह जरूरत पूरी कर दी। उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और तुमने पकड़ने दिया।
उसने तुम्हें बताया कि वह कितना निराश हो चुका था, तो तुमने उसे दिलासा
दी। जब उसने कहा कि यह दुनिया बड़ी ही जालिम है, तो तुमने कहा, सच
है। तुमने उसकी हाँ में हाँमिलायी-मर्द एक औरत से और चाहता ही क्या है?
उस समय तुम सिर्फ़ चौदह साल की थीं, लेकिन तुम्हें बाइस साल के आदमी
को दिलासा देने में कोई दिक्कत नहीं हुई। फिर उसे तुमसे प्यार हो गया तो
इसमें ताज्जुब क्या!
बाद में तुम लोग कभी-कभी रास्ते में हीमिलते और बात करते रहे। किसी
न किसी बहाने से वह एक-दो बार तुम्हारे घर भीआया और जब तुम पहाड़
पर आयीं, तो उसने तुम्हें चिट्ठी लिखी।
उसके पास मुझे बताने केलिए बस इतना ही था। और बताने के लिए
कुछ था भी नहीं। तुमने उसके दिल को छू लिया था। और जब छू ही लिया
था, फिर उसे अपनी गिरफ़्त में लेने में कोई मुश्किल नहीं था।
अगले सबेरे मैं प्रमोद को लेकर धारा पर गया। मैं उसे सब कुछ बता देना
चाहता था, लेकिन न जाने क्‍यों घर पर नहीं बता पाया था।
उस जगह ने उसका मन मोह लिया। हौले-हौले पानी बह रहा था और
उसके स्वर बड़े कोमल थे, जैसे हौले-हौले बहते पानी का संगीत ऐसा था जैसे
विलंबित लय में कोई राग पहाड़ी की ढलान पर चरती गायों के गले की घंटियां
और आसमान में ऊंचाई पर बिना पंख फड़फड़ाए उड़ता बाज।
मैंने नहीं सोचा था कि पानी इतना साफ़ भी हो सकता है,' प्रमोद ने कहा।
“यह मैदानी इलाकों की नदियों और धाराओं की तरह मटमैला नहीं है।'
“गर्मियों में यहाँ नहाया जा सकता है, मैंने बताया। “यहाँ सेआगे एक
* जगह यही धारा एक तालाब में बदल जाती है।
उसने कुछ सोचते हुए सिर हिलाया। 'वह भी यहाँ आयी थी”:
. हाँ, सुशीला, सुनील और मैं... हम दो-तीन बार यहाँ आये / मैरी आवाज़...
;॥ मंद पड़ती गयीं और मैंने प्रमोद कोऐन धारा के किनारे पर खड़े देखा। उसने
. मेरी तरफ़ नजर डाली तो हमारी आँखें मिलीं।
ै मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ,” मैंने कहा।
एक दर्द भरा गीत / 795
वह मुझे घूरता रहा और जैसे एक साया उसके चेहरे के पार दौड़ गया-शक,
डर, मौत, लगातार चलते रहने वाले समय का साया था वह या महज धूप-छांव
का खेल? लेकिन मुझे अपना सपना याद आ गया और मैंने अपने बढ़ते कदमों
को रोक लिया। एक पल के लिए हमने एक दूसरे को देखा तो ऐसा लगा जैसे
दोनों का एक दूसरे पर से पूरी तरह से भरोसा टूट चुका होऔर आगे न जाने
क्या होगा। फिर वह डर गुजर गया। हमारे बीच जो कुछ भी हुआ था, वह सच
था या सपना, लेकिन वह किसी और जन्म में हुआ था क्‍योंकि अब उसने आगे
बढ़कर मेरा हाथ अपने हाथों में लेलिया और फिर पकड़े रहा। जोर से पकड़ा,
जैसे उम्मीद कर रहा हो कि उसे ढाढ़स बंधाया जाये, जैसे उसे मुझमें अपना ही
दूसरा रूप दिखायी दे रहा हो। |
“चलो बैठते हैं,” मैंने कहा। “कुछ है जो तुम्हें बताना ही चाहिए ।'
हम घास पर बैठ गये और जब मैंने बांज की डालों केपीछे आसमान को
देखना चाहा, तो मुझे सब कुछ टेढ़ा सा, एक तरफ़ झुका-झुका सा लगा और
आसमान ने अपने गहरे नीलेपन से चौंकाया। पत्तियां अब हरी नहीं थीं, बल्कि
घाटियों की छांव में सब कुछ बैंगनी था। ये तुम्हारे रंग थे, सुशीला। मैंने तुम्हें
बैंगनी रंग पहने देखा था, मुझे याद है-सांवली मुस्कराती सुशीला, अपने ही ख़यालों
में खोयी, उन्हें किसी केसाथ साझा न करने की ठाने।
मैं भी सुशीला को प्यार करता हूँ. मैंने कहा।
'मुझे पता है.' उसने भोलेपन सेकहा। “इसीलिए तो मैं मदद के लिए तुम्हारे
पास आया था।
“नहीं, तुम्हें कुछ नहीं पता,” मैंने कहा। जब मैं कहता हूँकि मैं सुशीला
को प्यार करता हूँतो मेरा पूरी तरह से यही मतलब है। मेरा मतलब है कि उसके
बारे में मैं भीउसी तरह सोचता हूँजिस तरह तुम सोचते हो। मेरा मतलब है,
मैं उससे शादी करना चाहता हूँ।
तुम, अंकल?
हाँ। क्‍या तुम्हें धक्का लगा?
“नहीं, नहीं / उसने अपना चेहरा मेरी तरफ़ से हटा लिया और एक पुरानी
मटमैली सी चिकनी चट्टान को ताकने लगा। शायद्‌ उसके वहीं डटे रहने से
कुछ प्रेरणा मिली होगी। “तुम उसे प्यार क्यों नहीं करसकते? शायद दिल ही
दिल में मुझे इस बात का एहसास था, लेकिन मैं इस पर विश्वास नहीं करना
794 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
चाहता था। शायद इसीलिए मैं यहाँ आया था-पता लगाने। वह बात जो सुनील
ने बतायी थी... लेकिन तुमने पहले क्‍यों नहीं बताया?”
क्योंकि तुम मुझे बता रहे थे!
हाँ, मैं अपने प्यार से ही इतना भरा हुआ था कि मैं सोच ही नहीं पाया
कि दूसरे का प्यार भी हो सकता है। अब हम कया करें? क्या दोनों इंतज़ार करें
और उसकी मर्जी पर छोड़ दें, किवह किसे चुनती है?
जैसा तुम चाहो।
"तुम्हारे लिए ज़्यादा आसान है, अंकल तुम्हारे पास देने के लिए ज़्यादा है।'
"तुम्हारा क्या मतलब है, ज़्यादा अच्छी ज़िंदगी, या ज्यादा प्यार? बहुत सारी
लड़कियां और औरतें प्यार को ज्यादा अहमियत देती हैं।'
“लेकिन सुशीला ऐसी नहीं है।
'सुशीला ऐसी नहीं है।
'मेरा मतलब है कि तुम उसे ज्यादा खुशनुमा जिंदगी दे सकते हो। तुम
लेखक हो। कौन जाने, तुम एक दिन मशहूर हो जाओ |
तुम्हारे पास जवानी है उसे भेंट करने के लिए, प्रमोद। मेरे पास जवानी
के सिर्फ़ कुछ साल बचे हैं-और उनमें से भी दो या तीन तो इंतजार में हीनिकल
जाएंगे |
“नहीं, नहीं.' वह बोला। तुम हमेशा जवान बने रहोगे। अगर तुम्हारे पास
सुशीला होगी, तो तुम हमेशा जवान बने रहोगे।'
एक बार फिर मुझे व्हिसलिंग थभ्रश की पुकार सुनाई दी। उसकी पुकार आरोह
की ओर बढ़ते मीठे स्वरों काएक सिलसिला था, जो घाटी में दूर तक गूंजता
' रहा। मुझे चिड़िया नहीं दिखाई दी, लेकिन उसकी पुकार जंगल में से मेरे पास
तक आ रही थी, किसी गहरे प्यारे सेराज की तरह और इस बार भी वह वही
बात दोहरा रहा था-
वह समय नहीं जो बीत रहा है
बीत रहे हैं हमऔर तुम।

सुनो। सुशीला, जो सबसे बुरा होसकता था वह हो गया है। रवि ने मुझे ख़त
में लिखा है किशादी नहीं होसकती-अब भी नहीं, अगले साल भी नहीं, कभी
एक दर्द भरा गीत / 795
नहीं। यह बात और है कि उसने बहुत सारे बहाने बनाये-तुम्हारी पढ़ाई पूरी
होनी चाहिए (उच्च शिक्षा) और हमारी उम्र मेंबहुत ज़्यादा अंतर है और तुम
एक या दो साल में अपना इरादा बदल सकती हो-लेकिन जो नहीं लिखा था,
उसका मतलब यह समझ में आया कि असल वजह तुम्हारी दादी हैं। वह नहीं
चाहतीं। उनकी बात पत्थर की लकीर है और सबसे बड़ी बात कोई भी उनके
खिलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं कर सकता।
लेकिन मैं भी इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं हूँ। मैं अपने मौके का
इंतजार करूंगा। जब तक मुझे पता है कि तुम मेरे साथ हो, मैं इंतज़ार करूंगा
अपना मौका आने का।
मेरी समझ में नहीं आता कि मुझमें ऐसा क्‍या है जिससे बुढ़िया को दिक्कत
है। क्या इतनी सी बात है कि वह दकियानूस है और पुरानी सोच को गांठ बांधे
है। उसने हमेशा जताया तो यह है कि वह मुझे पसंद करती है और यह मेरी
समझ से बाहर है कि मेरे लिए उसका रवैया सिर्फ़ इस बात से बदल जाए कि
मैं उसकी पड़पोती से शादी करना चाहता हूँ। तुम्हारी मां कोकोई एतराज नहीं
है, शायद इसलिए भी तुम्हारी दादी एतराज़ करती हैं।
वजह जो भी हो, मैं यह पता लगाने के लिए दिल्ली आ रहा हूँ कि इस
मामले में क्या हो सकता है।
बेशक, सबसे बुरा तो यह हुआ है कि रवि ने दोस्ताना निभाते हुए गोलमाल
वाले अंदाज में मुझसे कह दिया है कि मैं कुछ वक्त तुम्हारे घघ न आऊं। उसका
कहना है कि इससे हमारे रिश्ते कोठंडा होने और अपने आप ख़त्म हो जाने
का मौक़ा मिलेगा। जबकि मैं इसे घिनौनी मौत कहूँगा। इसमें कोई शक नहीं
कि रवि सोचता हैकि मैं बुढ़िया दादी के फ़ैसले को मान .लूंगा और तुम्हें पूरी
तरह से भूल जाऊंगा। रवि को अभी किसी से प्यार नहीं हुआ है।

दिनेश लखनऊ गया हुआ था। मैं घर नहीं जा पाया। इसलिए मैं तालकटोरा
गार्डन में एक बेंच पर बैठ गया और बच्चों के एक दल को गुल्ली डंडा खेलते
हुए देखता रहा। फिर मुझे याद आया कि सुनील के स्कूल की छुट्टी तीन बजे
हो जाती थी और अगर मैं जल्दी करूं तो मैं उससे सेंट कोलंबस के फाटक पर
मिल सकता था।
796 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
मैं समय से स्कूल पहुंच गया। स्कूल के कंपाउंड से लड़के बाहर निकलते
ही चले आ रहे थे और क्योंकि वे सभी हरी वर्दियां पहने हुए थे-जैसे छोटे-छोटे
पेड़ों वाला कोई जंगल चलता जा रहा है-तो मैंने सुनील को ढूंढ निकालने की
सारी उम्मीद छोड़ दी। लेकिन उसने पहले मुझे देख लिया। उसने दौड़ कर सड़क
पार की। एक साइकिल वाले से भिड़ते-भिड़ते बचा और मेरी कमर पर लिपट
गया।
“आपको देख कर इतना अच्छा लग रहा है, अंकल!
मैं तो तुमसे मिलने ही आया हूँ, सुनील?
आप सुशीला से मिलना चाहते हो?
हाँ, लेकिन तुमसे भी। मैं तुम्हारे घरनहीं चलसकता सुनील । शायद तुम्हें
पता होगा। तुम्हें घरकितने बजे पहुंचना होता है?!
क़रीब चार बजे। अगर मुझे देर हो गयी, तो मैं कह दूंगा कि बस में इतनी
ज्यादा भीड़ थी कि मैं उसमें चढ़ नहीं सका |
“इससे हमें एक दो घंटे मिल जाएंगे। चलो प्रदर्शनी मैदान में चलते हैं।
चलना चाहोगे न?
“ठीक है, मैंने अभी तक प्रदर्शनी देखी भी नहीं है।'
मथुरा रोड पर प्रदर्शनी मैदान तक के लिए ऑटो रिक्शा लिया। वहाँ कोई
औद्योगिक प्रदर्शनी लगी थी जिसमें स्कूल में पढ़ने वाले लड़के और प्यार के मारे
लेखक के मतलब का कुछ भी नहीं था। लेकिन एक कृत्रिम झील के किनारे
कैफ़े मिल गया । हम वहीं बाहर धूप में बैठ गये |हमने हॉटडॉग खाया और कोल्ड
कॉफ़ी पी।
सुनील, तुम मेरी मदद करोगे ।'
“आप जो कहो, अंकल |
'मुझे नहीं लगता कि इस बार मैं सुशीला से मिल पाऊंगा। मैं नहीं चाहता
कि उसके घर या स्कूल के आसपास किसी आवारा लड़के की तरह मंडराता
रहूँ। लड़कों के स्कूल के बाहर किसी का इंतज़ार करना तो ठीक है, लेकिन
कन्यादेवी पाठशाला या जहाँ भी वह पढ़ रही है, उसके आसपास घूमना अच्छा
नहीं है। हो सकता है, उसके परिवार वाले हमारे बारे में अपनी सोच बदल लें।
जो भी हो, अब जो चीज़ सबसे ज़्यादा मायने रखती है, वह है सुशीला का
रवैया ।उससे यही पूछो सुनील। उससे पूछो कि क्‍या वह चाहती है कि मैं उसके
एक दर्द भरा गीत / 797
अट्ठारह साल के होने तक इंतज़ार करूं। वह जो चाहे, वह करने के लिए आजाद
होगी, यहाँ तक कि तब वह मेरे साथ भाग भी सकती है-अगर ज़रूरी हो तो-यानी
अगर वह सचमुच ऐसा करना चाहती हो, तो। मैं दो साल इंतज़ार करने को
तैयार था। मैं तीन साल ठहरने के लिए भी राजी हूँ। लेकिन इसमें तभी फ़ायदा
है जब मुझे पता हो कि वह भी इंतज़ार कर रही है। तुम उससे यह पूछोगे,
सुनील?!
हाँ, मैं पूछ लूंगा।
“आज रात पूछ लेना। फिर कल हम दोबारा मिलेंगे तुम्हारे स्कूल के बाहर ।

अगले दिन हम कुछ देर के लिए मिले। ज़्यादा समय नहीं था। सुनील को घर
जल्दी पहुंचना था और मुझे दिल्ली से जाने के लिएरात वाली ट्रेन पकड़नी थी।
हम पीपल के पेड़ की गहरी छाया में खड़े थे और मैंने पूछा, क्या कहा उसने?”
“उसने इंतज़ार करने के लिए कहा ।'
“ठीक है, मैं इंतजार करूंगा ।'
“लेकिन जब वह अट्ठारह की होगी, तब अगर उसका मन बदल गया,
तो? तुम जानते हो न कि लड़कियां कैसी होती हैं!
'तुम शक्‍ककी आदमी हो सुनील ।
“इसका मतलब तुम ज़िंदगी के बारे में कुछ ज़्यादा हीजानते हो। लेकिन
यह तो बताओ कि तुम्हें क्यों लगता है किउसका मन बदल सकता है।
“उसका दोस्त ।॥
प्रमोद, अरे वह उसे घास भी नहीं डालती। बेचारा !
प्रमोद नहीं। दूसरा वाला ।॥
“दूसरा! तुम्हारा मतलब है एक और नया?
“नया, सुनील बोला। “बैंक में अफ़सर है। उसके पास कार है।
अरे,' निराश होकर मैं बोला। “मैं कार से मुक़ाबला नहीं कर सकता ।'
“नहीं, सुनील बोला। “कोई बात नही, अंकल। आपके पास मैं तो अब
- भी हूँ...दोस्ती केलिए। क्या आप यह भूल गये थे?
'मैं करीब-करीब भूल ही गया था, लेकिन अच्छा किया याद दिला दिया |
अब जाने का समय हो गया है,' उसने कहा। “आज तो बस से ही जाना
798 / नाइट ट्रेन ऐट देओली
पड़ेगा। आप फिर से दिल्‍ली कब आओगे?'
“अगले महीने ।अगले साल । कौन जाने? लेकिन मैं आऊंगा। अपना ध्यान
रखना, मेरे दोस्त |
वह दौड़ कर गया और लपक के चलती हुई बस के पायदान पर चढ़ गया।
वह तब तक हाथ हिलाता रहा जब तक बस सड़क के मोड़ पर मुड़ नहीं गयी।
पीपल के पेड़ के नीचे अकेलापन महसूस होने लगा। कहा जाता है कि
पीपल के पेड़ में सिर्फ़ भूत रहते हैं। मैं उन्हें कोई दोष नहीं देता-क्योंकि पीपल
के पेड़ों में ठंठक होती है, छाया होती हैऔर वह सन्‍नाटे से भी भरे होते हैं।
हो सकता है मेरे मन में तुम्हारे लिये प्यार न रहे सुशीला, लेकिन उन दिनों
से मेरा लगाव कभी कम नहीं हो सकता जिन दिनों मैंने तुम्हें प्यार किया था।

3 3
हैअर!हे १इल्‍-ऑक

838 ऊत ,20# 88
शक आह 5 हक पुल
रस्किन बॉन्ड की चर्चित पुस्तकें

रूम ऑन द रूफ

वे आवारा दिन

उड़ान

दिल्‍ली अब दूर नहीं

एडवेंचर्स ऑफ़ रस्टी


नाइट ट्रेन ऐट देओली की अधिकतर कहानियों
की पृष्ठभूमि उत्तराखंड की घाटियाँ हैं,जहाँ खुद
रस्किन बॉन्ड का घर है। पहाड़ों पर रहनेवाले
च्ओसीधे-सादे, सरल लोगों की ये कहानियाँ कहीं तो
पाठक के दिल को छू लेती हैं और कहीं उनके
: चेहरे पर मुस्कान लाती हैं। पहाड़ों परविकास की
गति बढ़ने से कैसे वृक्षों कीजगह ऊँची इमारतें खड़ी हो रही हैंऔर
स्टील, सीमेंट, प्रदूषण व आधुनिक रहन-सहन के'तनाव और चिन्ताएँ
इन लोगों की जिन्दगी पर भारी पड़ रही हैं-इन सबकी पीड़ा की भी
झलक इन कहानियों मेंमिलती है।

“साहित्य अकादमी” पुरस्कार, पद्मश्री” और 'पद्मभूषण” से सम्मानित


रस्किन बॉन्ड कीरूम ऑन द रूफ, वे आवारा दिन, उड़ान, दिल्‍ली अब
दूर नहीं और एडवेंचर्स ऑफ़ रस्टी अन्यलोकप्रिय पुस्तकें हैं।
“स्किन बॉन्ड की कहानियों में एक ताज़गी है। भारत के
नज़ारों और जीवन के बारे में शायद ही किसी और लेखक
ने इतने सहज और प्रामाणिक रूप से लिखा होगा...हरेक
कहानी जिन्दगी केएक धड़कते दिल का आईना है।”
-- नेशनल हैरल्ड

७०७9
390०

0॥४(४४४५
७४०9:89

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