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ऑटोबायोग्राफी Autobiography of swami satyanand 1st Edition
ऑटोबायोग्राफी Autobiography of swami satyanand 1st Edition
भाग
आत्मकथा आरंभ !
बिल्कुल आरंभ से शुभारंभ !!
महादेव द्वारा रचित ! इस सृष्टि का, जैसे-जैसे ! प्रतिक्षण………. निरंतर ! अनवरत ! विस्तार
होता जा रहा है. वैसे-वैसे ही, महादेव द्वारा ! प्रत्येक दिवस ! असंख्य नये आत्माओं का,
निर्माण भी किया जाता ! जा रहा है. यह पूरी प्रक्रिया ! बिना रुके ! बगैर थमें ! अनंत काल से, सी
ही ! चली आ रही है.
क्योंकि देवों के देव ! महादेव द्वारा ! बनाया गया ! यहीं विधि का विधान है. यह सदा से, ऐसे
ही चलता आया है. सदैव ऐसे ही चलता रहेगा. क्योंकि यही सत्य है ! यही शाश्व वतहै ! यही
सनातन है.
यह आत्मकथा है ! ऐसे ही एक आत्मा की. उसके निर्माण ! यानि जन्म की. उसके यात्रा की. यानि
में चलने की.
मोक्ष प्राप्ति के दि शा
नोट :~ पृथ्वी ग्रह के पाठकों को, सभी कुछ आसानी से, समझ में आ जाये. इसलिये ! समय के
गणना का आधार ! पृथ्वी ग्रह के गणितीय गणना ! एवं समय-चक्र के अनुसार ! रखा गया है. वैसे
यह गणना ! प्रत्येक ग्रह-उपग्रह पर, अलग-अलग होती है.
जैसे प्रति दिवस ! असंख्य आत्माओं का, निर्माण होता है. वैसे ही करोड़ों वर्ष पूर्व ! एक दिवस !
उस दिवस के, कुल आत्मा निर्माण में, महादेव द्वारा ! *सत्यमार्गी* नामक ! एक आत्मा का भी, निर्माण
किया गया.
पृथ्वी ग्रह के, गणितीय गणना के अनुसार देखें तो, लगभग इक्कीस घंटे पूर्व ! समाप्त हुये,
अंतिम बैठक के, २१ घंटे बाद ! लगभग ३ घंटे चलने वाली, पुनः नयी बैठक का, आरंभ हो चुका था.
उन अंतिम २४ घंटों में, नयी निर्मित हुयी, सभी आत्मायें ! उस बैठक में, उपस्थित थी.
उन्हीं में उपस्थित था ! वह सत्यमार्गी नामक आत्मा भी. उस दिवस के, पिछले दिवस वाली,
बैठक में उपस्थित ! सभी आत्माओं को, उनके पूर्व श्रेरेणी के, दूसरे चरण का, उनका प्रथम नवीन
देह ! प्राप्त हो चुका था. अब इस समूह वाली, आत्माओं कि बारी थी. यह बैठक ! प्रति दिवस ! ऐसे ही
नियमित प्रक्रिया के तहत् ! चलती रहती थी.
! कुछ यूँ था. एक प्रकार से, चढ़ने के क्रमानुसार में, चार चरणबद्ध
उस बैठक स्थली का दृय श्य
ऊँचाई वाले स्थानों पर…………… महादेव ! माता ! एवं तेरह और देवी-देवता ! यानि कुल पंद्रह !
भगवान व मातायें उपस्थित थीं. एक प्रकार से, दरबार लगा हुआ था. आगे बढ़ने से पूर्व ! वहाँ का
दृश्य ! कलम से उकेर सकूँ ! ऐसा प्रयत्न करके देखता हूँ.
चढ़ाई के क्रम में, सबसे आरंभ में, दो युगल सिंहासन लगे हुये थे. एक पर ! प्रभु श्री !
रीरामभगवान
एवं माता सीता ! विराजमान थीं. दूसरे पर ! प्रभु श्री ! एवं माता रुक्मणी ! विराजमान थीं.
रीकृष्णभगवान
चढ़ाई के ही क्रम में, उनसे थोड़ा ऊँचे स्थान पर, दो और युगल सिंहासन लगे हुये थे. एक पर ! भगवान
कार्तिकेय देव एवं देवी देवसेना ! विराजमान थीं. वहीं दूसरे पर ! भगवान गणेश देव एवं
देवी रिद्धिसिद्धि ! विराजमान थीं.
उससे ऊपर वाले, ऊँचे स्थान पर, पाँच देवी-देवताओं के बैठने हेतु ! एक जैसे दो युगल सिंहासन ! तथा एक
एकल सिंहासन लगा हुआ था. पहले युगल सिंहासन पर ! भगवान विष्णु देव जी ! एवं देवी लक्ष्मी माँ !
विराजमान थीं. दूसरे युगल सिंहासन पर ! भगवान ब्रह्मा देव जी ! एवं देवी सरस्वती माँ ! विराजमान थीं.
तीसरे एकल सिंहासन पर ! भगवान रुद्र देव जी ! अकेले विराजमान थे.
सबसे ऊपर वाले, ऊँचे स्थान पर ! एक विशाल शिला के ऊपर ! एक आसन लगा हुआ था. जिस पर ! परम्
पिता परमेवर
या श्वनि देवों के देव महादेव ! एवम् जगत् जननी माँ ! माता शक्तिस्वरूपा पार्वती माई
विराजमान थीं.
…………….तथा उन सभी देवी-देवताओं के समक्ष ! उनके सानिध्य में, विगत् २४ घंटों में, नव-
निर्मित हुये, असंख्य ! आत्माओं की भीड़ ! उपस्थित थी. उसी भीड़ में, वह सत्यमार्गी नामक !
आत्मा भी उपस्थित था. जिसकी यह आत्मकथा ! लिखी जा रही है.
वहाँ की, लगभग तीन घंटे चलने वाली ! कार्यवाही का शुभारंभ करते हुये, सर्वप्रथम ! प्रभु
श्री कृ ष्ण भगवान बोले :
“महादेव के अंश से निर्मित हुयी ! सभी आत्माओं का स्वागत है. तथा कुछ ही समय पचात् त् !
श्चा
सभी की आरंभ होने वाली ! मोक्ष-यात्रा हेतु ! हम सभी की ओर से, असीम शुभकामनायें ! व
मंगकामनायें हैं.”
“सर्वप्रथम आप सभी को, मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि, आप कौन हैं ?”
“परंतु ! यह बतलाने से पूर्व ! मैं सबसे पहले, महादेव के बनाये विधि-विधान के अनुरूप !
उस छः चरणीय ! या छः वर्गीय ! व्यवस्था को, आपके समक्ष रखता हूँ. इससे आपको समझने
में, आसानी होगी.”
“सबसे सर्वोच्च स्थान पर हैं……………… परम् पिता परमेवर रश्व! देवों के देव महादेव ! एवम् जगत्
जननी माँ ! शक्तिस्वरूपा पार्वती माता ! आप परम् माता-पिता हैं ! अतः आप इसमें से, किसी भी वर्ग !
या चरण में नहीं हैं. क्योंकि आप सर्वोच्च हैं.”
“या इस छः पदसोपान ! या पदानुक्रम को, समझने हेतु ! इन्हें सबसे सर्वोच्च ! यानि शू'न्य पर,
हम रख सकते हैं.”
“अब आते हैं !
उन छः सोपानों पर !”
“जिसमें प्रथम सोपान पर हैं………… त्रिदेव ! यानि भगवान विष्णु देव एवं देवी लक्ष्मी
माँ ! तथा भगवान ब्रह्मा देव एवं देवी सरस्वती माँ ! तथा भगवान रुद्र देव. यह महादेव शि व
एवं माता शक्ति की आज्ञा से, इस सृष्टि के, प्रमुख संचालक हैं. जिनका कार्य ! सभी आत्माओं को, नये-
नये देह में, जन्म देना ! पालना ! एवं उस देह का, अंत करना है.”
“द्वितीय सोपान पर ! क्रमानुसार हम चारों आते हैं………. यानि इस सोपान के, सबसे पहले व
दूसरे स्थान पर ! श्री कार्तिके य देव व देवी देवसेना एवं श्री गणेश देव व देवी रिद्धिसिद्धि आती हैं. इन दोनों देवों का
कार्य……….. देवी ! देवता ! गण ! दूत ! के संचालन का है. यानि इस सृष्टि का संचालन करने वाले,
समस्त देवी-देवता-गण-दूत ! को, संचालित करने का कार्यभार ! उनके कंधों पर है.”
“जिसमें श्री ! मुख्य देवी-देवताओं ! तथा आत्माओं ! एवं दूतों ! को
री कार्तिकेयजीकादायित्व
लेकर है. तथा श्री श ! सभी गणों ! तथा बाकी के अन्य सभी देवी-देवताओं को,
री गणेजीकादायित्व
ले कर है.”
“वि षपशेरिस्थितियों में, श्री कार्तिके य जी के पास ! सभी देवताओं का, नेतृत्व करने को लेकर, अतिरिक्त
कार्यभार है. तथा वि ष शेर्यभार के रूप में, श्री गणेश जी के पास ! समस्त सृष्टि के, किसी भी शुभ !
का
मंगल ! धर्म कार्य को, शुभारंभ करने हेतु ! अनुमति प्रदान करने का है. अगर वह कार्य ! शुभ-मंगल-
धर्म काज हो तब.”
“इसी सोपान के, तीसरे व चौथे स्थान पर ! प्रभु श्रीरीराम व देवी सीता एवं मैं व मेरी
धर्मपत्नी देवी रुक्मणी आती हैं. प्रभु श्रीरीराम का कार्य…………. समस्त ग्रहों ! उपग्रहों !
इत्यादि पर ! मानव देह रूपी आत्माओं के लिये, मनुष्य रूप में, अवतार ले कर…………….
चारित्रिकगुणता ! आदर्वादितार्श
वादिता! एवं राज्यपद्धति का मानदंड ! यानि मार्गदर् कार्शि
का! तैयार करना होता
है.”
“वहीं मेरा कार्य…………… समस्त ग्रहों ! उपग्रहों ! इत्यादि पर ! मानव देह रूपी आत्माओं
के लिये, मनुष्य रूप में, अवतार ले कर…….. योजनानीति ! रणनीति ! एवं धर्मस्थापनापद्धति !
हेतु……….. मानदंड ! यानि मार्गदर् कार्शि
का! तैयार करना होता है.”
“अब समझते हैं तृतीय सोपान को…………… इसमें संचालक दल के, समस्त देवी-देवता आते हैं.
जिनके अलग-अलग दायित्व हैं. इसमें बहुत अधिक संख्या में, देवी-देवता हैं.”
“चौथे सोपान में, महादेव के अंश से निर्मित ! सभी महादेव-गण आते हैं. तथा सभी देवी-
देवताओं के वाहन स्वरूप ! तथा कुछ सेवक स्वरूप ! महादेव-गण आते हैं. इनमें से कुछ गण के,
नियमित कार्यभार हैं. तो वहीं कुछ के, कभी-कभी वाले, कुछ वि ष
काशेर्य -भार हैं.”
“पाँचवें सोपान में…………….. अत्यधिक संख्या में, ग्राम देवी ! ग्राम देवता ! नगर देवी !
नगर देवता ! कुल देवी ! कुल देवता इत्यादि ! आस्था रूपी………. देवी-देवता होते हैं. जो कि सीमित
क्षेत्र ! या सीमित मानव समूह ! के रक्षार्थ कार्य हेतु ! होते हैं.”
“यह कोई मूल ! देवी-देवता नहीं होते हैं. यह मानक देवी-देवता होते हैं. जिसमें अधिकतर मामलों में,
वरिष्ठ महादेव-दूत ! या महादेव-गण का, प्रवेश होता है. वहीं कुछ मामलों में, देवी-देवताओं का
भी, प्रवेश होता है. यानि कि, वहाँ वास करने का, किसी ना किसी देवी-देवता-गण ! या वरिष्ठ दूत
को, दायित्व सौंपा गया होता है.”
“अब ! बच गया ! छठा सोपान……….. छठा व अंतिम सोपान ! यानि परमात्मा ! ………….अब यह
परमात्मा क्या है ? या यह परमात्मा कौन हैं ?”
“यह परमात्मा हैं आप सभी आत्मा ! आप आत्मायें ! अभी से अपनी, यात्रा आरंभ कर रहे
हैं. आपकी यात्रा ! अपने परम् लक्ष्य ! यानि मोक्ष के लिये है. और जब आप ! अपनी यात्रा
पूर्ण कर लेंगे. यानि जब कोई आत्मा ! अपना परम् लक्ष्य प्राप्त कर लेती हैं. तब उस परम्
लक्ष्य की, प्राप्ति कर चुकी, आत्मा ही ! परमात्मा कहलाती है. इसे ही महादेव-दूत भी कहते हैं.”
“जैसे पाँचों सोपानों के, समस्त देवी-देवता-गण का निर्माण ! महादेव ने किया है. वैसे ही,
छठे सोपान के, समस्त आत्माओं का निर्माण भी, महादेव ही किये हैं व करते हैं. यानि आप
भी, महादेव के अंश हो. क्योंकि उन्होंने ! आपका निर्माण किया है. अतः महादेव ! हम सभी
देवी-देवता-गण के जैसे परम् पिता हैं. उसी की भाँति ! महादेव ! आपके भी परम् पिता हुये.”
“……………..तथा ! अपनी आत्मा की मोक्ष-यात्रा में, लाखों-करोड़ों देह बदलते हुये, जिस
यात्रा को आप करेंगे. उसमें आपको प्राप्त होने वाले, प्रत्येक देह में, प्राण रूपी ऊर्जा
का संचार ! जगत जननी माता शक्ति करेंगी. क्योंकि यह समस्त सृष्टि ! उन्हीं के ऊर्जा से,
संचालित है. अतः शक्ति स्वरूपा माता पार्वती ! आपकी ! एवं हम सभी की, परम् माता हैं.”
इतने विस्तार से, जब छः वर्गों के बारे में, समझा कर ! प्रभु श्री , अपनी
रीकृष्णभगवानने
वाणी को विराम दिया. तब प्रभु श्रीरीराम भगवान बोले :
“जैसा कि, प्रभु श्रीरीकृष्ण ने, आप सभी को, आपके परम् लक्ष्य ! यानि आत्मा को, परमात्मा
बनाने के विषय में बताया. अब मैं इसी कड़ी में, आप सभी को, उस यात्रा के संदर्भ में,
पूर्ण विस्तार से, बताता हूँ. जिस यात्रा को पूर्ण करके, आप परमात्मा बनेंगे. यानि मोक्ष को
प्राप्त होंगे. यानि महादेव-दूत बनेंगे.”
प्रभु श्रीरीराम भगवान ने, आत्मा के निर्माण से लेकर, मोक्ष तक की यात्रा को, अत्यंत विस्तार
से बताया. परंतु अभी उतने विस्तार से, मुझे लिखने की, अनुमति नहीं है. अतः संक्षेपण
करते हुये, मैं इसको ! अपने शब्दों में, लिखने का प्रयत्न करता हूँ………………
मूलरेणी
वालेश्रे नौ चरणों के, आरंभ होने से पहले, पूर्वरेणी
वालेश्रे , नौ चरणों का विवरण :~
पूर्वरेणी
का श्रे पहला चरण :~
महादेव द्वारा ! अजर/अमर आत्मा का निर्माण.
पूर्वरेणी
का श्रे दूसरा चरण :~
अपनी पृथ्वी के गणितीय गणना ! व दृष्टिगोचर होते जीवन ! के अनुसार समझे तो, लगभग
तैंतीस लाख जन्म ! पेड़-पौधे-शैवाल इत्यादि के रूप में.
पूर्वरेणी
का श्रे तीसरा चरण :~
लगभग चौबीस लाख जन्म ! कीड़े-मकोड़े इत्यादि के रूप में.
पूर्वरेणी
का श्रे चौथा चरण :~
लगभग पंद्रह लाख जन्म ! जलचर जीव इत्यादि के रूप में.
पूर्वरेणी
का श्रे पाँचवा चरण :~
लगभग नौ लाख जन्म ! प शुइत्यादि के रूप में.
पूर्वरेणी
का श्रे छठा चरण :~
लगभग तीन लाख जन्म ! पक्षी इत्यादि के रूप में.
:~ अब यहाँ एक वि ष शेत :- ऐसा नहीं है कि, यहाँ तक के, चरणों में से, एक चरण के , सभी कुल
बा
जन्मों को, भोगने के पचात् ही श्चा , दूसरे चरण में, जन्म मिलेगा. यहाँ तक के, सभी चरणों में से,
सम्मिलित रूप से, जन्म मिलते रहेंगे. यानि पूर्वरेणी के श्रे चरण क्रमांक………… दो ! तीन !
चार ! पाँच ! एवं छः ! के जन्म ! क्रमानुसार नहीं होते है. इन पाँच चरणों के जन्म ! सम्मिलित /
समानांतर रूप से, साथ-साथ चलते रहते हैं. यानि इन पाँच चरणों के साथ ! ऐसा नहीं है
कि……….. एक चरण के , सभी जन्म ! समाप्त होने के बाद ही, दूसरे चरण के , जन्मों का आरंभ होगा.
इन पाँचों चरण के, जन्म ! साथ-साथ चलते रहते हैं.
अब आगे………………
पूर्वरेणी
का श्रे सातवाँ चरण :~
कुल इक्कायासी जन्म…………. पूज्य पेड़ / पौधे / जलचर / प श/ पक्षी इत्यादि के रूप में.
पूर्वरेणी
का श्रे आठवाँ चरण :~
न्यूनतम तीन सौ तैंतीस वर्षों में…………. न्यूनतम तीन ! या अधिकतम कितने भी मनुष्य जन्म. अथवा ! इसको
ऐसे भी, समझ सकते हैं कि………. न्यूनतम तीन जन्म ! जिसमें कम से कम, कुल ३३३ वर्ष ! पूर्ण
होने चाहिये. उन तीन जन्मों का मिला कर, अधिकतम वर्ष ! कितने भी हो सकते हैं.
इसमें ग्यारह वर्ष तक की, आयु के अवस्था तक ! यानि बालक अवस्था में हुयी………. मृत्यु पर
! उस जन्म के वर्षों की, गणना नहीं होती है. तथा साथ ही, उस जन्म क्रमांक की भी, गणना नहीं
होती है.
इस चरण का, प्रथम मानव जन्म ! हर हाल में, अच्छे आदर् र्शपरिवेश में ही होता है. जहाँ वह
मनुष्य ! सदकर्म ही करे. ऐसा माहौल / वातावरण ! सदैव उपलब्ध रहता है. परंतु फिर भी अगर ! उस
आत्मा ने, कुकर्म ही किये. तो वह ! उस जन्म में, जितने कुकर्म किये रहेगा. उसी के अनुसार,
उसके अगले जन्म में, उसको उतने ही, कुकर्मी व अधर्मी परिवेश वाले, परिवार व / या माहौल
में, पैदा किया जायेगा. हाँ ! अगर वह चाहे तो, अपने आपको चेत करके ! पुनः सदकर्म ! व
धर्म के मार्ग पर, स्वयं को ला कर के, और अधिक कुकर्म / अधर्म यानि पाप करने से, स्वयं
को बचा सकता है.
………और इस प्रकार, यह होते हैं ! कुल चौरासी लाख, चौरासी जन्म !
………..तथा ! यह कोई आवयकन श्य हीं है कि, आपका हर जन्म ! इस सृष्टि के, एक ही ग्रह (जैसे
पृथ्वी या कोई भी ग्रह) पर ही मिलता रहे. इस सृष्टि के, अनगिनत असंख्य ग्रहों ! उपग्रहों !
जहाँ किसी भी रूप में जीवन है. उन सभी ग्रहों / उपग्रहों में से, कहीं भी मिल सकता है.
किसी भी ग्रह पर ! कितने भी जन्म मिल सकते हैं. किसी ग्रह पर एक जन्म ! तो किसी ग्रह पर,
एक से अधिक जन्म ! तो बहुतों ग्रहों पर, शून्य ! यानि एक भी जन्म ! नहीं मिल सकता है. क्योंकि आपके
जन्मों की संख्या ! चौरासी लाख चौरासी है. तथा जीवनयुक्त ग्रहों की संख्या ! इससे बहुत-बहुत
अधिक है.
पूर्वरेणी
का श्रे नौवाँ चरण :~
इस चरण के तीन प्रकार हैं. प्रथम ! द्वितीय ! तृतीय ! ……….जो आठवें चरण के, समाप्ति के
पचात् त्! उस आठवें चरण वाले, तीन या सभी जन्मों के, सदकर्मों ! व कुकर्मों ! के अनुरूप तय
श्चा
होता है.
पूर्वरेणी
के श्रे , नौवें चरण का, प्रथम प्रकार :~
“अगर सद्कर्मों की ! बहुत अधिक न्यूनता हो. तथा कुकर्मों की, अत्यधिक अधिकता हो. तब उस
आत्मा को, पुनः चौरासी लाख चौरासी योनियों के, क्रमिक चक्र में, जाना होगा. यानि पूर्वरेणीणी
श्रे
के, दूसरे चरण से, पुनः आरंभ करना होगा.
पूर्वरेणी
के श्रे , नौवें चरण का, द्वितीय प्रकार :~
“सदकर्म भले ही कम हो. परंतु कुकर्म भी ! अधिक नहीं हो. तो उन कर्मों के अनुसार ! एक या एक से
अधिक जन्मों हेतु ! पूर्वरेणी
के श्रे ………….. चरण दो ! तीन ! चार ! पाँच ! एवं छः ! में जाना
होगा. उसके पचात् त् ! यानि उन पूर्व के, मानव जन्म वाले, कुकर्मों का दंड भोगने हेतु ! पुनः
श्चा
पूर्वरेणी
के श्रे आठवें चरण में, मनुष्य जन्म मिलेगा.”
पूर्वरेणी
के श्रे , नौवें चरण का, तृतीय प्रकार :~
“अगर सद्कर्मों की ! बहुत अधिक यानि पर्याप्त अधिकता ! तथा कुकर्मों की न्यूनता है. तो इस
चरण में, कुछ कालखंड ! यानि वर्तमान में चल रहे, जन्म की बची हुयी अवधि ! प्रतीक्षा अवधि
रहेगी. और उस प्रतीक्षा अवधि को, काटना ही, एक प्रकार से, इन आत्माओं के लिये, यह नौंवा
चरण कहलायेगा. कुछ अवधि पचात् त् ! जब उस चल रहे जन्म की ! समय-सीमा समाप्त हो
श्चा
जायेगी. यानि वह आत्मा ! वर्तमान देह का, त्याग कर देगी. तब उस आत्मा को, सदैव के लिये,
मूलरेणी
में श्रे प्रवेश मिल जायेगा. उसे पुनः कभी भी, चौरासी लाख चौरासी योनियों का, चक्कर
नहीं लगाना पड़ेगा. अब उसकी आत्मा ! मूल श्रेरेणी के, प्रथम चरण में, जन्म ले कर, मोक्ष के दि श
की ओर, यात्रा आरंभ करेगी. जिसके हेतु ! महादेव ने उस आत्मा का, निर्माण किया था.
……………अब !
पूर्वरेणी
वालेश्रे , नौ चरणों को, पार करने के पचात् त्! मूलरेणी
श्चा वालेश्रे , नौ चरणों का विवरण :~
मूलरेणी
का श्रे पहला चरण :~
यहाँ से आपको ! सदैव मनुष्य जन्म ही मिलता है. इस चरण से आपको………. कभी-कभी
महादेव ! माता ! देवी-देवता-गण ! एवं महादेव दूतों के , दर्शन व मार्गदर्शन मिलना ! आरंभ हो जाता है. कुछ-कुछ
आसान-आसान दायित्व मिलने भी, आरंभ हो जाते हैं. इस चरण को पार करने योग्य ! पर्याप्त
सदकर्मों का ! जब तक संचयन नहीं हो जाता है. तब तक आपकी आत्मा को, बार-बार इसी चरण
में, मनुष्य जन्म ! मिलता रहता है. और इस चरण के, प्रत्येक व सभी जन्मों का, सदकर्म !
आपस में एक साथ ! संचित होते रहता है. यानि अग्रेषित होते रहता है. जब तक कि, चरण
पार करने योग्य ! पर्याप्त सदकर्मों का ! संचयन ना हो जाये. साथ ही इस चरण ! या मूलरेणीणी श्रे
के किसी भी चरण को, उत्तीर्ण करने से पूर्व ! आपके कुकर्मों का…………. दंड भोग-भोग करके,
शून्य या न्यूनतम हो जाना ! अनिवार्य है. इस चरण ! या किसी भी चरण को, पार करके ! उसके अगले
चरण में, पहुँचते ही……….. पुराने सभी संचय सदकर्म ! शून्य हो जाते हैं. क्योंकि उन्हीं
सदकर्मों के, बूते ही तो, आप अगले चरण में, प्रवेश करते हैं. परंतु साथ ही, यह अवय श्य
ध्यान रहे कि…………. चरण पार करने से पूर्व ! नये-पुराने सभी संचित कुकर्मों का, दंड भोग लेना
भी, अनिवार्य है.
मूलरेणी
का श्रे दूसरा चरण :~
इस चरण की भी, सभी नियमावली ! एवं परिस्थितियाँ ! इसके पहले वाले चरण ! यानि मूलरेणी
के श्रे ,
पहले चरण जैसे ही हैं. बस इस चरण में आपको ! मिलने वाले दायित्व……….. बड़े !
कठिन ! कठोर ! होते हैं. तथा सदकर्मों का, संचयन भी पहले चरण से, बहुत अधिक करना
पड़ता है.
मूलरेणी
का श्रे तीसरा चरण :~
दूसरे चरण को, पार करने के पचात् त्! अगले चरण ! यानि चौथे चरण में, जाने की प्रतीक्षा
श्चा
अवधि को ही ! तीसरा चरण बोलते हैं. इस चरण में ! कोई नया या अलग से, जन्म नहीं मिलता.
बल्कि दूसरे चरण के, अंतिम जन्म की, बची हुयी अवधि ही ! तीसरा चरण कहलाती है.
मूलरेणी
का श्रे चौथा चरण :~
इस चरण में ! जो सबसे प्रथम बदलाव आता हैं. वह यह है कि………….. यहाँ से अब ! पूर्व
जन्मों के संचित सदकर्म ! अगले जन्म में, अग्रेषित होना ! बंद हो जाता है. तथा इस चरण
में, एक विशेष सीमित अवधि ! यानि पृथ्वी के लिये, यहाँ के गणनानुसार ! लगभग सत्ताईस वर्षों
में, आपको ! कुल पंद्रह कठिन परीक्षाओं में से, न्यूनतम ग्यारह परीक्षाओं में, उत्तीर्ण होना
अनिवार्य है. इन परीक्षाओं के मध्य……….. विकट ! व अत्यंत संकट वाली, परिस्थितियों
में, महादेव-दूतों से, सहायता भी मिलती रहती है. परंतु इन ग्यारह परीक्षाओं को, एक ही जन्म के ,
उस सीमित अवधि में ही, उत्तीर्ण करना आवयकहै श्य . अन्यथा अगले जन्म में, पुनः नये
ग्यारह परीक्षाओं में, उत्तीर्ण होना पड़ता है. इस चरण में भी, जन्मों के संख्या की, कोई
बाध्यता नहीं है. परीक्षा उत्तीर्ण होने तक, बारंबार मानव जन्म ही, मिलता रहता है. बाकी के
चरणों की भाँति ही, यहाँ भी ! चरण पार करने के लिये, आपके कुकर्मों का…………. दंड भोग-
भोग करके, शून्य या न्यूनतम हो जाना ! अनिवार्य है.
मूलरेणी
का श्रे पाँचवा चरण :~
इस चरण में, सभी कुछ ! चौथे चरण जैसा ही रहता है. बस उसी सीमित अवधि ! यानि पृथ्वी ग्रह
के गणनानुसार ! लगभग सत्ताईस वर्ष में, आपको कुल ! एक सौ पचास कठिन परीक्षाओं में से, एक सौ ग्यारह
परीक्षाओं में, उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. बाकी का सभी कुछ ! चौथे चरण जैसा ही रहता है.
मूलरेणी
का श्रे छठा चरण :~
इस चरण में भी, सभी कुछ ! चौथे व पाँचवे चरण जैसा ही रहता है. बस उसी सीमित अवधि !
यानि पृथ्वी के लिये, सत्ताईस वर्ष में ही, आपको कुल पंद्रह सौ कठिन परीक्षाओं में से,
ग्यारह सौ ग्यारह परीक्षाओं में, उत्तीर्ण होना अनिवार्य होता है. परंतु इस चरण में, उन
परीक्षाओं के मध्य ! आपको अपने दूसरे स्वरूप की, सहायता भी मिलती रहती है. इसके अलावा
! बाकी सभी कुछ ! चौथे व पाँचवे चरण जैसा ही रहता है.
मूलरेणी
का श्रे सातवाँ चरण :~
छठे चरण को, पार करने के पचात् त् ! अगले चरण, यानि आठवें चरण में, जाने की प्रतीक्षा
श्चा
अवधि को, सातवाँ चरण बोलते हैं. इस चरण में, कोई नया ! या अलग से, जन्म नहीं मिलता.
बल्कि छठे चरण के, अंतिम जन्म की, बची हुयी अवधि ही, या उसी जन्म में, महादेव-दूत बनने हेतु
! जो मुख्य धर्मकाज का आदेश मिलता है. उस आज्ञा मिलने के, तिथि तक की, प्रतीक्षा अवधि
ही, सातवाँ चरण कहलाती है.
मूलरेणी
का श्रे आठवाँ चरण :~
इस चरण में, आपको अपने स्वयं की इच्छानुसार ! इस संपूर्ण सृष्टि के, किसी भी एक ग्रह ! या
उपग्रह पर, उस ग्रह से संबंधित ! महादेव आज्ञा का, एक विशेष धर्मकाज करना होता है. उस काज को
करने की, आज्ञा मिलने वाली तिथि से ही, आपका आठवाँ चरण ! आरंभ हो जाता है. इसमें
करने वाले, वि ष धशेर्मकाज की जानकारी ! भले ही आपको, आठवाँ चरण आरंभ होने के समय,
प्राप्त होती है. परंतु कौन से ग्रह पर, आपको अपना ! वि ष
धशेर्मकाज संपन्न करना है. इसका
वैकल्पिक चुनाव ! आपको छठे चरण के, आरंभिक काल में ही, स्वयं से कर लेना होता है.
मूलरेणी
का श्रे नौवाँ चरण :~
वस्तुतः ! यह कोई चरण ही नहीं है. यह एक अवस्था है. लाखों-करोड़ों ! या उससे भी अधिक
जन्म ले कर, आपकी आत्मा ने, जिस परम् उद्देय श्य ! यानि परमात्मा बनने हेतु ! यानि मोक्ष
पाने हेतु ! करोड़ों-अरबों-खरबों ! या उससे भी अधिक वर्ष की यात्रा के लिये ! अपनी
आत्मा-यात्रा का ! अपनी मोक्ष-यात्रा का ! आरंभ किया था. उसकी यह अंतिम सीढ़ी है. यहाँ
आपकी आत्मा ! मोक्ष को प्राप्त कर, परमात्मा बन जाती है ! महादेव-दूत बन जाती है. इस चरण में,
आप तब पहुँचते हैं. जब आठवें चरण वाले, महादेव से आज्ञा प्राप्त ! वि ष धशेर्म -काज को,
संपन्न कर लेते हैं. या उस काज को करते हुये ! अथवा संपन्न होने से पूर्व ही ! आपकी
आत्मा ! उस वर्तमान देह का, त्याग कर देती है. यानि उस जन्म की, आपकी आयु अवधि ! समाप्त
हो जाती है. अंततोगत्वा ! यह, वह चरण है, जिसमें आपको ! उसी जन्म में ! हर हाल में !
महादेव-दूत ! बन ही जाना है. जिसके परिणामस्वरूप ! आप जन्म-मरण के चक्र से, सदैव के
लिये ! स्वतंत्र हो जाते हैं. संपूर्ण सृष्टि के, सभी ग्रहों-उपग्रहों या स्थानों पर, किसी भी
स्वरूप में, कितने भी अवधि तक, रह सकते हैं. आप शि वशक्ति जगत स्थलों पर भी, रह सकते
हैं. यानि आप मोक्ष को, प्राप्त कर लेते हैं. अब आपका ! एक ही काज बच जाता है………..
महादेव का दूत बन कर, महादेव के आज्ञा वाले काज को, समय-समय पर करते रहना. तथा पूरे
सृष्टि के, सभी ग्रहों-उपग्रहों के, मूलरेणी
वाली श्रे आत्माओं का, विधि-विधान के अनुरूप !
सहायता करना. एवं यह सभी कु छ भी, अनिवार्य नहीं होता. यह पूर्णतः ! आपकी अपनी इच्छा पर, निर्भर
करता है.
……………पूर्वरेणी के श्रे सभी नौ चरण ! तथा मूलरेणी
के श्रे सभी नौ चरण ! को समझने के
पचात् त्! इन निम्नलिखित ! चार बिंदुओं को भी समझना ! अत्यंत आवयकहै
श्चा श्य .
:~
सदकर्म / धर्म / पुण्य हो ! या कुकर्म / अधर्म / पाप हो ! यह दोनों ही, जन्म-जन्मांतर तक ! संचय
व अग्रेषित यानि फॉरवर्ड होते रहते हैं. जब तक इनका शुभ-फल ! या उपयुक्त-दंड ! ना मिल जाये.
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कुकर्म / अधर्म / पाप का, हर हाल में, दंड मिलेगा ही मिलेगा. कुकर्मों का समुचित दंड भोगने के
अलावा, इससे बचाव का, कोई भी अन्य मार्ग नहीं है.
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दान-पुण्य करके ! देवी-देवता-गण ! यानि इष्ट-आराध्य की पूजा करके ! उनका नाम जप करके ! पुण्यों
में बढ़ोतरी तो, की जा सकती है. किंतु उससे रत्ती भर भी ! पाप नहीं काटे जा सकते. पाप का
दंड तो, हर हाल में, अगले जन्म में, भोगना ही पड़ेगा. जैसे इस जन्म में, पूर्वजन्म का भोग
रहे हो.
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वैसे देखें तो, पुण्य एकत्र व संचय करने का, सबसे सर्वोत्तम मार्ग ! धर्म / सदकर्म करना
ही है. *कर्म* से बढ़कर, कुछ भी नहीं है. सदकर्म करके ! सदकर्म / पुण्य को, और भी बढ़ाया
जा सकता है. लेकिन उससे कुकर्म / पाप को, नहीं मिटाया जा सकता. सदकर्म / पुण्य से, कुकर्म / पाप
को, किसी भी हाल में, समायोजित यानि एडजस्ट ! नहीं किया जा सकता.
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……………….जब प्रभु श्रीरीराम भगवान ने, आत्मा-यात्रा के, सभी अठारहों चरणों को, समझा
कर ! अपनी वाणी को विराम दिया. तब भगवान श्री श :
रीगणेदेवबोले
“जैसा कि, श्री कृ ष्ण देव ने, सभी छः वर्गों के विषय में समझाया. तथा श्रीरीराम देव ने, अठारहों
चरणों के संदर्भ में समझाया.”
“अब ! यहाँ उपस्थित ! सभी नव-निर्मित आत्माओं को, मैं कुछ और तथ्य ! समझाता हूँ. अभी आप सभी !
पूर्वरेणी
के श्रे , प्रथम चरण में हैं. इस बैठक के पचात् त् ! आप पूर्व श्रेरेणी के, द्वितीय चरण में,
श्चा
प्रवेश कर जायेंगे. आप सभी को, नवीन-देह की प्राप्ति होगी. और उसी के साथ ! एक चक्र के , चौरासी
लाख चौरासी जन्मों का, आपका प्रथम जन्म भी, हो जायेगा.”
“अभी जितनी भी बातें ! आप सुन रहे हैं. इसकी स्पष्ट स्मृति ! आपके चौरासी लाख इक्कासी
जन्मों तक ! स्पष्ट रहेगी. यानि पूर्वरेणी
के श्रे , सातवें चरण तक ! यह सभी बातें ! आपको
स्मरण रहेगी. परंतु जैसे ही आप ! पूर्व श्रेरेणी के, आठवें चरण में, प्रवेश करेंगे. यानि
जब आप ! प्रथम मानव जन्म लेंगे. वैसे ही यह सभी स्मृति ! समाप्त हो जायेगी. परंतु हाँ !
रिक्तता योनि में, यह स्मृति ! सदैव बनी रहेगी.”
“एक और भी, परिवर्तन होगा. बाकी के, चौरासी लाख इक्कासी जन्मों में, जहाँ आपके पास !
सामान्य-साधारण मस्तिष्क रहेगा. वहीं उन मानव देह वाले, तीन जन्मों में, आपके पास
चैतन्य मस्तिष्क रहेगा. जो आपको धर्म-अधर्म ! सदकर्म-कुकर्म ! पाप-पुण्य ! इत्यादि में,
अंतर करना सिखायेगा.”
“क्योंकि मानव देह प्राप्त करते ही, आप पाप-पुण्य, सदकर्म-कुकर्म, धर्म-अधर्म के, लेखा-
जोखा से बंध जायेंगे. आपके सदकर्मों एवम् कुकर्मों का, संचयन ! तथा सुफल व दण्ड के
माध्यम से, उनका क्षरण ! आरंभ हो जायेगा.”
“इसीलिये तो, मानव देह में, आपको चैतन्य मस्तिष्क मिलता है. ताकि उस चैतन्य मस्तिष्क
का, प्रयोग करते हुये, आप अपने सदकर्मों में, बढ़ोतरी कर सकें. तथा कुकर्मों को, शून्य या
न्यूनतम रखने हेतु ! सदैव प्रयासरत रहें.”
“परंतु ध्यान रहे. पदानुक्रम ! यानि पदसोपान ! ऊपर नीचे नहीं होना चाहिये. ऐसा इसलिये आवश्यक
है. क्योंकि इससे देवी-देवता-गण-दूत ! रुष्ट हो जाते हैं. जिसके परिणामस्वरूप ! आपके सोच-
विचार की, दिशा स्थिर नहीं रह पाती. फलस्वरूप ! आपको सदबुद्धि प्रदान करने वाले, संकेतों की
प्राप्ति ! बाधित होने लगती है. जिससे आपके द्वारा ! चौरासी लाख इक्कासी जन्मों का, एक और
क्रमिक चक्र लगाने की, संभावना प्रबल हो जाती है.”
“तदोपरांत ! बचाव का, संयोग को छोड़ कर, कोई अन्य मार्ग ! शेष नहीं बच जाता. संयोग वाले मार्ग
में……………….. आपके उस मानव जन्म के, किसी हितैषी ! मूल श्रेरेणी वाले आत्मा को,
अगर आपके हेतु ! उचित लग जाये. तो वह आपको, व्यक्तिगत रूप से, सत्य से अवगत करा
सकता है. परंतु वह पूर्णतया ! उसकी स्वेच्छा पर, निर्भर करता है. इसके हेतु ! उसे बाध्य नहीं
किया जा सकता.”
“किसी-किसी पूर्वरेणी
वालेश्रे , मानव देहधारी आत्माओं के साथ ! कभी-कभी एक और भी, दुर्लभ
संयोग बन पड़ता है. वह दुर्लभ संयोग होता है…………… जब आपके ! पूर्वरेणी वालेश्रे ,
आठवें चरण का, कोई मानव जन्म चल रहा हो.”
“तथा दुर्लभ संयोगवश ! उसी काल-खंड में, कोई मूल श्रेरेणी वाले, आठवें चरण की आत्मा ! उसी
ग्रह पर, महादेव-दूत बनने से पूर्व वाले दायित्व ! यानि अपने मूल श्रेरेणी के आठवें चरण का , वि षशे
ष
धर्मकाज ! कर रही हो. तब उसके माध्यम से भी, आप सत्य से, अवगत हो जाते हैं.”
“क्योंकि केवल उसे ही, सार्वजनिक रूप से, वि ष
याशे सामान्य ! सभी मानवों को, सत्य से
अवगत कराने की, अनुमति प्राप्त होती है. अन्य कोई भी, मूल श्रेरेणी की आत्मा ! सार्वजनिक रूप
से, यह बता ही नहीं सकती. क्योंकि ऐसा करने से, उसकी अलौकिक स्मृति तत्क्षण छीन जाती
है.”
“अतः ऐसे किसी, संयोग ! या दुर्लभ संयोग की, प्रतीक्षा करने से, अधिक उचित है. निरंतर
सदकर्म करना ! एवं कु कर्म से यथासंभव बचने हेतु ! अपने-आप को, जाग्रत अवस्था में रखना.”
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प्रभु श्री ! प्रभु श्रीरीराम भगवान ! एवं प्रभु श्री गणेश भगवान के द्वारा ! उन चौबीस घंटों के,
रीकृष्णभगवान
सभी नव-निर्मित आत्माओं को, अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञान ! प्रदान किया जा चुका था. भगवान श्री रीगणे श
देव के , अपने स्थान पर, विराजने के पचात् त् !………….
श्चा
……………भगवान श्री , उन पूर्व श्रेरेणी के, प्रथम चरण वाले, आत्माओं
रीकार्तिकेयदेवने
को, काफी सारी, ज्ञानवर्धक बातें बतायी. उनके बाद तीनों त्रिदेवों ने भी, सभी आत्माओं को,
काफी कुछ समझाया. फिर माता पार्वती ने, उन सभी को, अत्यंत महत्वपूर्ण बातें बतायीं.
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भगवान कार्तिकेय देव ! तथा त्रिदेव ! यानि ………… भगवान रुद्र देव ! भगवान ब्रह्मदेव !
भगवान विष्णुदेव ! तथा माता पार्वती माँ द्वारा ! बतायी गयी बातों को, अभी लिखने की अनुमति
नहीं होने के कारण ! अभी नहीं लिख रहा हूँ. भविष्य में, अनुमति प्राप्त होते ही, अवय श्य
लिखूँगा.
अभी के लिये, आगे के घटनाक्रमों को, लिखना आरंभ करता हूँ.
~~~~~~~~~
शक्ति स्वरूपा माता पार्वती माई के , अनु सन
संबंधी
शा संबोधन ! समाप्त होने के पचात् त् ! …………..अब
श्चा
देवों के देव ! सर्वोच्च देव ! महादेव शि वशं करभगवान द्वारा ! पूर्व श्रेरेणी के, प्रथम चरण वाली
आत्माओं को, संबोधित किया जाना था.
उन अंतिम २४ घंटों में, नयी निर्मित हुयी, सभी आत्माओं के साथ-साथ ! उस बैठक में, उपस्थित !
सत्यमार्गी नामक आत्मा भी, बिल्कुल ध्यान पूर्वक ! महादेव की बात सुनने हेतु ! एकाग्रचित्त हो गयी.
भगवान भोलेनाथ ने, बोलना आरम्भ किया :
“तुम सभी ! मेरे लिये, अत्यंत प्रिय हो. क्योंकि तुम सभी के सभी, मेरे ही अंश हो. मैं
तुम्हें ! स्वयं से दूर ! नहीं करना चाहता. परंतु इस सृष्टि के, कुशलतापूर्वक संचालन हेतु ! मैंने
कुछ विधान बनाये हैं. उन विधि-विधानों का, पालन करना अनिवार्य है.”
“इसलिये, मैं तुम्हें ! एक छोटी सी यात्रा पर, भेज रहा हूँ. मैं तुम्हें ! अपने स्वयं से, कुछ
काल-खंड हेतु ! दूर कर रहा हूँ. और तुम्हें ! जितनी चाहिये ! उतनी पर्याप्त स्वतंत्रता भी, दे रहा हूँ.
तुम अपने इच्छानुसार ! जितने चाहो, उतने अच्छे बनो. या जितनी चाहो, उतनी त्रुटि करो. पाप
करो ! पुण्य करो ! मेरी ओर से, कोई मनाही नहीं है. तुम जो चाहोगे……………. मैं तुम्हें !
वहीं पर्याप्त मात्रा में दूँगा.”
“तुम अगर पाप करोगे. यानि, जब तुम्हें ! कुकर्म में आनंद आयेगा. तो मैं तुम्हें ! तुम्हारे
इच्छित आनंद की पूर्ति हेतु ! जितना ही पाप किये रहोगे. उसी के अनुपात में, मैं तुम्हें !
उतने ही पापी वातावरण में, अगला जन्म दे दूँगा. ताकि तुम ! और भी अधर्म करके, आनंदित हो
सको.”
“वहीं अगर ! तुम पुण्य करोगे. सदकर्म करोगे. यानि जब तुम्हें ! सदकर्म में आनंद आयेगा.
तो मैं तुम्हें ! तुम्हारे इच्छित आनंद की पूर्ति हेतु ! जितना ही पुण्य किये रहोगे. उसी के
अनुपात में, मैं तुम्हें ! उतने ही सदकर्मी वातावरण में, अगला जन्म दे दूँगा. ताकि तुम !
और भी आनंदित हो सको.”
“तथा इस प्रकार ! तुम्हारी संपूर्ण यात्रा भर ! यह क्रम चलता रहेगा. इसके साथ ही, मैं तुम्हें
! एक दायित्व भी, सौंप रहा हूँ. तुम्हारा दायित्व है. इस यात्रा को, पूर्ण करना. और पूर्ण करके, पुनः
मेरे समीप आ जाना. इस यात्रा के, परिणति स्वरूप ! मोक्ष प्राप्त करके, मेरा दूत बन जाना.
आत्मा से परमात्मा बन जाना.”
~~~~~~~~~
नोट :~ जब यह उपरोक्त कुछ पैराग्राफ ! सर्वप्रथम सार्वजनिक पटल पर रखा गया था. तब उसके,
कुछ ही मिनट के पचात् त् ! जिज्ञासु व चैतन्य मस्तिष्क के स्वामी ! एक आदरणीय शिवशक्तियन की,
श्चा
सर्वथा उचित टिप्पणी आयी. उनका आभार ! क्योंकि, उनकी टिप्पणी के कारण ! उसकी व्याख्या
करने का, तथा उस व्याख्या को, सभी के लिये, उपलब्ध होने का, यह शुभ-संयोग भी बना.
इसी को तो, चैतन्य मस्तिष्क बोलते हैं. क्योंकि मैं ! सभी प्रकरणों व घटनाक्रमों को,
अत्यंत संक्षेप में लिखता हूँ. इसलिये यह आवयकहै श्य कि…………. जहाँ भी कुछ जिज्ञासा
पूछें. ताकि उसकी व्याख्या ! या विस्तृत व्याख्या की जा सके.
उत्पन्न हो. उसे अवय श्य
अब आप पहले, उन शि वशक्तियन की, जिज्ञासा या / व टिप्पणी को पढ़ें. तत्पचात् त्! उसके
श्चा
उत्तर / व्याख्या को भी पढ़ें.
चरण स्पर्!
ये जो महादेव दूत होते हैं. क्या वो अनंत काल तक ! महादेव दूत बने रहते हैं. अथवा दूत
के रूप में, यानि परमात्मा रूप में भी, कोई यात्रा जारी रहती है ? चूंकि कोई भी परमात्मा /
महादेव-दूत ! महादेव का ही अंश है. तो क्या वह ! अनंत काल तक ! परमात्मा ही रहती है. अथवा
कभी जाकर ! महादेव में ही, विलीन भी हो जाती है ? क्योंकि यात्रा तो, सृजन से आरम्भ हुई थी.
इसलिए इसकी परिणिति ! पुनः वहीं विलीन होने में होनी चाहिये. जहां से इसका निर्माण हुआ !
अर्थात महादेव में, समाहित हो जाना. दूत के रूप में, वो अपने सर्वोच्च शि खरपर होगी. लेकिन
इसे यात्रा समाप्ति तो नहीं कह सकते. जैसे शरीर पंचतत्वों से बना है. और इसका अंत !
तब माना जाता है. जब ये पुनः पंचतत्वों में बिखर जाये.
शुभ प्रभात
सादर अभिनंदन !!
महादेव द्वारा ! बोले गये………. उस यात्रा-पूर्णता का अर्थ ! उस दायित्व वाले यात्रा के,
पूर्ण होने से है. उस आत्मा-यात्रा की समाप्ति से है. जो यात्रा ! एक आत्मा ! प्रथम चरण से,
आरंभ करती है. तथा अठारहवें चरण पर, समाप्त करती है.
महादेव-दूत बनने के बाद ! वहाँ के यात्रा को, आत्मा-यात्रा नहीं बोल सकते. क्योंकि तब आत्मा !
आत्मा-रूप में, बचती ही नहीं है. वह परमात्मा के रूप में, परिवर्तित हो चुकी होती है.
क्योंकि मोक्ष प्राप्त करते ही, आत्मा-यात्रा समाप्त हो जाती है. अब वह आत्मा ! परमात्मा बन
चुकी होती है. इसलिये ! वहाँ के पचात्
की श्चा यात्रा को, परमात्मा-यात्रा बोलते हैं.
वस्तुतः मूल यात्रा तो, कभी समाप्त ही नहीं होती. क्योंकि संपूर्ण सृष्टि ही, निरंतर ! अनवरत !
यात्रा पर है. और सदैव रहेगी भी.
!! जय शि वशक्ति !!
~~~~~~~~~
क्रम1 शN
#ऑटोबायोग्राफी_ऑफ_स्वामी_सत्यानंद_1st_एडिशन
भाग
अब इससे अधिक सुनना ! ऋभज एवं निप्री के बस का, बिल्कु ल भी नहीं था. उनके बुद्धि-विवेक को, दुरुस्त करने हेतु ! इतना सुनना ही, पर्याप्त था.
परिणामस्वरूप ! पति-पत्नी दोनों ! एक साथ ! घर में प्रवेश किये. तथा साधु बाबा के , चरणों में गिर कर……..
…………रोते हुये बोले :
“गुरु जी ! मुझे क्षमा कर दीजिये. हम अभी के अभी ! सब कु छ त्याग करने हेतु ! तैयार हैं.”
शकोमफु बाबा बोले :
“अभी ! इस क्षण ! तुम्हारे सदकर्मों के प्रभाव की प्रबलता ! हावी है. इसलिये तुम ! अभी इतने सकारात्मक बन रहे हो.”
ऋभज बोला :
“फिर मैं क्या करूँ ? गुरुजी ! अब आप ही मुझे ! इस नर्क से निकाल सकते हैं. गुरु का स्थान तो, भगवान से भी ऊपर होता है. अतः हे गुरु जी ! मुझ पर
कृ पा कीजिये.”
शकोमफु बाबा ! थोड़े क्रोधित स्वर में बोले :
“यह तुम्हारी पहली त्रुटि है. अतः क्षमा कर दे रहा हूँ. भविष्य में ध्यान रहे कि, यह त्रुटि ! दुहरायी नहीं जाये. सदैव ध्यान रहे…………….. गुरु का स्थान
! बस गुरु के स्थान तक होता है. उससे ऊपर नहीं. अतः मेरे समक्ष ! मुझे भगवान से ऊपर ! बताने की चेष्टा ! कभी भी नहीं करना. वैसे कभी ऐसा करना
! तुम्हारे हेतु हानिकारक है.”
ऋभज बोला :
“क्षमा गुरुजी ! मैं आगे से ध्यान रखूँगा.”
अपने पति के समर्थन में, निप्री बोली :
“गुरु जी ! धर्म-ज्ञान के मामले में, कृ पया आप ! हम दोनों को, महा मूर्ख ही समझें. हमें कु छ भी नहीं पता ! गुरु जी ! यहाँ जो भी सैकड़ों पंथ हैं. उनके
माध्यम से, जितनी भी भ्रामक ! व आधी-अधूरी जानकारियाँ ! हमें प्राप्त हैं. हम के वल उसी के अनुरूप ! आचरण कर रहे हैं.”
शकोमफु बाबा बोले :
“इसीलिये तो, सर्वश्रेष्ठ देव की आज्ञा से, यह धर्मकाज प्रकल्प ! यहाँ स्थापित होने जा रहा है. तुम दोनों पति-पत्नी ! अपने सभी प्रश्नों ! व जिज्ञासाओं का
! शीघ्रातिशीघ्र मुझसे ! निदान प्राप्त लो. ताकि तुम्हारा विश्वास ! तुम्हें इस पुण्य-पथ पर, बनाये रखे. नहीं तो, कु कर्मों के प्रभाव ! जब-जब प्रबल होंगे.
तब-तब वह ! तुम्हें भटकायेंगे. और उसी भटकाव में, कभी एक क्षण ऐसा भी आयेगा कि………….”
“………..तुम्हें ! यह शकोमफु बाबा ही, गलत लगने लगेगा. जिसके फलस्वरूप ! तुम्हें इस धर्मकाज से ही, घृणा हो जायेगी. तदुपरांत ! तुम इन पुण्य-
प्रकल्पों को, संदेह की दृष्टि से, देखने लगोगे.”
“…………और इन सभी नकारात्मक घटनाओं का, कु ल मिला कर ! यह असर होगा कि, तुम इस धर्मकाज प्रकल्प से, स्वतः ही दूर हो जाओगे. मैं तो
तुम्हें ! कभी सांके तिक रूप से, तो कभी प्रत्यक्ष रूप से, बुलाता रहूँगा. परंतु तुम मुझे ! दुत्कारते रहोगे. एक समय बाद ! मैं भी तुम्हें ! बुलाना छोड़ दूँगा.”
ऋभज ने पूछा :
“गुरु जी ! इस नकारात्मकता से बचाव का, क्या उपाय है ?”
शकोमफु बाबा बोले
“कोई उपाय नहीं है. और अगर है भी तो, यही एक मात्र उपाय है कि……………. अपने-आप को बल-पूर्वक ! सकारात्मक रखते हुये, इस धर्मकाज में,
कै से भी यत्न-प्रयत्न करके , सप्रयास बनाये रखना. अपने दायित्वों का, निर्वहन करते रहना. और ऐसा करते-करते ! जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जायेगा.
तब फिर वैसे-वैसे ! इस पुण्य-पथ से, भागने की, तुम्हारी संभावना भी, क्षीण होती जायेगी. फिर वह दिवस भी आयेगा. जब तुम्हें ! इस चौरासी लाख
चौरासी योनियों के , बार-बार वाले क्रमिक चक्र से, मुक्ति मिल जायेगी.”
ऋभज ने पूछा :
“गुरु जी ! आपने संध्या-काल में बताया था कि……….. आप भगवान जी की आज्ञा से, इस धर्मकाज को, संपन्न करने के लिये, कु ल 9999 पूर्वश्रेणी
के , मानवों का ! एक समूह दल बनाने वाले हैं. उसमें से कितनी संख्या ! अभी तक पूर्ण हो चुकी है गुरुजी ?”
शकोमफु बाबा बोले :
“उसमें तो अभी तक ! अच्छी-भली संख्या हो गयी है. मैं तुम्हें ! उन सभी धर्म-योद्धाओं से, मिलाऊँ गा भी.”
ऋभज बोला :
“यह सबसे उचित रहेगा गुरु जी ! क्योंकि जब मैं ! उन्हीं के संगति में रहूँगा. तब फिर मेरे नकारात्मक होने का, डर भी समाप्त हो जायेगा.”
शकोमफु बाबा हंसते हुये बोले :
“यह डर तो, उस समूह-दल के संपर्क में, रहने पर भी, पूर्णतः समाप्त नहीं होगा. क्योंकि वहाँ भी तुम्हें ! नकारात्मक करने वाले, एक से एक धुरंधर मिलेंगे.”
अब ऋभज ! कान्फ्यूज होता हुआ बोला :
“गुरु जी ! यह आप क्या बोल रहे हैं ? उनको आपने चयनित करके , उस समूह-दल में रखा है. वह भला ! इस धर्मकाज के प्रति ! अथवा आपके प्रति !
मुझे क्यों नकारात्मक करेंगे ?”
शकोमफु बाबा ने, मुस्कु राते हुये उत्तर दिया :
“क्योंकि वह ! अंततोगत्वा ! नकारात्मकता फै लाने के उद्देश्य से ही, उस समूह-दल में, अभी तक बने हुये हैं.”
ऋभज ने कौतूहलवश पूछा :
“क्या आप उन्हें जानते हैं ?”
शकोमफु बाबा बोले :
“क्यों नहीं जानता ? बिल्कु ल जानता हूँ. वह समूह दल के , जिन-जिन सकारात्मक धर्म-योद्धाओं को, नकारात्मक करते रहते हैं. उसमें से कु छ-कु छ मुझे !
उनके बारे में, अवगत कराते रहते हैं. तथा कु छ-कु छ जानकारियाँ मुझे ! सर्वश्रेष्ठ देव के दूतों से भी, मिलती ही रहती हैं.”
ऋभज ने आश्चर्य से पूछा :
“तब फिर आप उन्हें ! अपने समूह-दल से, निकाल क्यों नहीं देते ?”
शकोमफु बाबा बोले :
“क्योंकि वह समूह-दल ! मेरा है ही नहीं. वह समूह-दल तो, इस धर्मकाज प्रकल्प का है. और यह धर्मकाज प्रकल्प ! सर्वश्रेष्ठ देव तथा माता उमा का है.
तथा उनसे तो, कु छ भी नहीं छिपा है. और वैसे भी ! मैं कौन होता हूँ ? उन्हें निकालने वाला. वह ! उस समूह-दल में, प्रविष्ट हुये हैं……………”
“अपने पूर्वजन्मों के संचित सदकर्मों के बूते. तथा अगर वह ! बाहर भी होंगे. तो वह होंगे………….. अपने कु कर्मों के बूते. परंतु हाँ ! अगर बाहर होने से
पूर्व ! उन्हें सदबुद्धि आ गयी. तो वह भी प्रकल्प में, सक्रिय सकारात्मक भागीदारी निभा कर ! मूल श्रेणी में, प्रवेश पा सकते हैं.”
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………..अब यहाँ से, लगभग हजार वर्ष तक के , घटनाक्रमों को, अभी लिखने की अनुमति ! नहीं होने के कारण ! एक लंबी छलांग लगा कर, सीधे
पहुँचते हैं…………… पृथ्वी ग्रह के , बारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों ! या तेरहवीं शताब्दी के , आरम्भिक वर्षों वाले, काल-खंड में.
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तो आइये ! चलते हैं……………. अभी से पौना हजार वर्ष पूर्व ! यानि लगभग साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व वाले, समयावधि में. इसी पृथ्वी ग्रह के , भारतीय
महाद्वीप स्थित ! दक्कन के पठारी क्षेत्र पर ! यानि वर्तमान के ………. कर्नाटक, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश ! वाले क्षेत्रों में.
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नोट :~ विवाद से बचने हेतु ! इस सत्य घटना क्रम के , कु छ-कु छ नाम ! स्थान ! तिथि ! इत्यादि में, थोड़े से बदलाव किये गये हैं.
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घटनाक्रम आरंभ !!
लगभग 150 वर्षीय ! एक युवा देह काया के स्वामी ! एक राजा के समक्ष ! एक लगभग 300 वर्षीय ! शक्तिशाली देह काया के , स्वस्थ तंदुरुस्त योगी खड़े
थे.
उस योगी ने, अपने सामने खड़े राजा को, ललकारते हुये कहा :
“ऐ राजा सयोअमप्र ! तुम एक राजा हो. सांसारिक व्यक्ति हो. राजशी पोशाक धारण करते हो. महलों में रहते हो. योगियों हेतु वर्जित ! यानि तामसिक प्रवृति
की वस्तुयें भी, खाते हो. परंतु फिर भी, अपने आप को, योगी कह के , प्रचारित करते हो. और यह सब करते व कहते हुये, तुम्हें तनिक भी, लज्जा नहीं
आती. आज अपनी सिद्धि को, मेरे समक्ष सिद्ध करो. नहीं तो, अपने कु कर्मों का दंड भोगने हेतु ! तैयार रहो.”
राजा सयोअमप्र ने, विनम्रतापूर्वक ! अपने सामने खड़े, योसिलिं महाराज को झुक करके , प्रणाम किया. और बोले :
“हे योगी राज योसिलिं महाराज ! कौन से कु कर्मों का दंड !”
योसिलिं महाराज ने “हूँहअ” बोलते हुये, उस राजा के अभिवादन को, ठु करा कर बोले :
“तुम्हारा कु कर्म यह है कि……………. तुम योगी नहीं हो कर भी, संपूर्ण क्षेत्र में, अपने आप को, योगी के रूप प्रचारित करके , स्थापित कर चुके हो.”
राजा सयोअमप्र ने, हाथ जोड़ कर कहा :
“हे योगी राज योसिलिं महाराज ! मैं यह स्पष्ट देख पा रहा हूँ कि, आपकी स्वयं की आत्मा ! मोक्ष मार्ग पर है. आप पूर्व चरण से, मूल चरण में, प्रविष्ट हो
चुके हैं. अभी आप मूल वाले, प्रथम चरण में हैं. तो क्या आपको नहीं पता ! ……………….कि धर्म का पहनावे-ओढ़ावे ! या खान-पान ! या रहन-
सहन ! इत्यादि से, कोई भी प्रत्यक्ष संबंध नहीं है. धर्म एवं अधर्म का संबंध ! के वल एवं के वल सदकर्म व कु कर्म से है.”
योसिलिं महाराज दंभपूर्वक स्वर में बोले :
“तो क्या ? इतने सारे जो ऋषि ! योगी ! तपस्वी ! साधु ! संत ! महात्मा ! इत्यादि हैं. सब सभी असत्य बोलते हैं. क्या वह ! तथा उनके कथन !
आचरण ! इत्यादि ! सत्य नहीं हैं.”
राजा सयोअमप्र ने, विनयशीलता से कहा :
“हे योगी राज योसिलिं महाराज ! सत्य तो एक ही हैं. परम् पिता शिव एवं माता शक्ति ! बाकी सभी तो, उन्हीं के अंश हैं. उन्हीं से उत्पन्न हुये हैं ! या उन्हीं
के द्वारा ! निर्मित किये गये हैं. एवं मैं ! जो आपको बता रहा हूँ कि………………..
***धर्म का पहनावे-ओढ़ावे ! या खान-पान ! या रहन-सहन ! इत्यादि से, कोई भी संबंध नहीं है. धर्म एवं अधर्म का संबंध ! के वल एवं के वल सदकर्म व
कु कर्म से है.***
……………….यह सभी बातें मैं ! उन्हीं परम् पिता शिव ! एवं माता शक्ति ! तथा ब्रह्मा विष्णु महेश (रुद्र) त्रिदेव एवं सभी देवी ! देवता ! गण ! व
महादेव-दूतों से, प्राप्त शिक्षा एवं ज्ञान के , आधार पर बता रहा हूँ.”
योसिलिं महाराज ! व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ बोले :
“………..और तुम्हें यह सभी ज्ञान ! कहाँ से प्राप्त हुआ ?”
राजा सयोअमप्र ने कहा :
“हे योगी राज योसिलिं महाराज ! क्योंकि जैसे आप मूल चरण में हैं. मैं भी मूल चरण में ही हूँ. मूल चरण में, प्रविष्ट होने के पश्चात् ! यह मेरा दूसरा जन्म है.
तथा महादेव एवं माता पार्वती की कृ पा व आशीर्वाद से, मैं अभी द्वितीय चरण में हूँ. एवं मैं अपने, इस जन्म के , सांसारिक दायित्वों के अनुसार ! राजा स्वरूप
में हूँ. अतः मेरे अपने, राजा वाले लौकिक कर्तव्य भी हैं. जिसके अनुरूप मेरा रहन-सहन है. परंतु मैं भी एक योगी ही हूँ.”
योसिलिं महाराज बोले :
“फिर यह बात ! मुझे क्यों नहीं पता ? कि तुम मुझसे एक श्रेणी ऊपर, द्वितीय चरण में हो.”
राजा सयोअमप्र ने उत्तर दिया :
“क्योंकि हो सकता है. आपके अंदर व्याप्त दंभ के कारण ! अहंकारी प्रवृति के कारण ! आपकी आत्मा पर, एक आवरण चढ़ गया हो. जो सत्य को देखने में,
बाधा उत्पन्न कर रहा हो. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो, आपको यह अवश्य पता होता कि………………..
***धर्म का पहनावे-ओढ़ावे ! या खान-पान ! या रहन-सहन ! इत्यादि से, कोई भी संबंध नहीं है. धर्म एवं अधर्म का संबंध ! के वल एवं के वल सदकर्म व
कु कर्म से है.***
………….और जब आपको, इस सत्य का, सदैव स्मरण रहता. तब आप कभी भी, मेरे या किसी के भी, वस्त्र-पोशाक ! या भोजन-प्रणाली ! या
रहन-सहन ! इत्यादि पर, व्यंग्यात्मक कटाक्ष नहीं करते.”
योसिलिं महाराज क्रोधित हो कर बोले :
“अब मुझे तुम्हारी ! कोई भी बात नहीं सुननी है. मुझसे बचाव का, अब एक ही मार्ग शेष है. तुम अभी के अभी ! अपनी सिद्धि को, मेरे समक्ष सिद्ध करो.
तुम अपने आप को, शिवभक्त कहते फिरते हो. सभी को शिवशक्ति की भक्ति का पाठ पढ़ाते रहते हो. आज मुझे कु छ दिखाओ कि, तुम्हें इस शिवभक्ति से क्या
मिला है ?”
राजा सयोअमप्र ने, प्रार्थना करते हुये कहा :
“हे योगी राज योसिलिं महाराज ! मैं तो एक अदना सा शिवभक्त हूँ. उसी भक्ति के प्रवाह में, अपने आप को छोटा सा योगी भी मान बैठा हूँ. परंतु आप एक
बड़े एवं महान योगी हैं. अतः सर्वाधिक उपयुक्त यह रहेगा कि………….. आप क्या कर सकते हैं ? यह प्रदर्शित करें.”
इतना सुनते ही, योसिलिं महाराज के मुखमण्डल पर, मुस्कान आ गयी. योसिलिं महाराज ने, अपनी हीरे जड़ित तलवार को, म्यान से बाहर निकाला. तथा
राजा सयोअमप्र को पकड़ाते हुये कहा :
“यह तलवार पकड़ो. तथा अपनी संपूर्ण शक्ति से, मेरे सिर पर, प्रहार करो. तुम देखना ! मुझे कु छ नहीं होगा.”
राजा सयोअमप्र ने, उनकी आज्ञा का पालन करते हुये, तलवार को, हवा में उठाया. तथा अपने दोनों हाथों एवं पूरी शक्ति से, योसिलिं महाराज के , सिर के
मध्य भाग में, दे मारा ! परंतु आश्चर्य ! घोर आश्चर्य ! तलवार छटक कर, राजा सयोअमप्र के हाथों से, छू ट गयी. जैसे वह तलवार ! किसी के देह से ना
टकरा कर, किसी मजबूत चट्टान या मोटी धातु से टकरायी हो.
योसिलिं महाराज की देह काया ! बहुत सख्त थी. वह ऐसे योगी थे, जिन्होंने मूलभूत तत्वों पर, महारत हासिल कर ली थी. उनकी ध्यान-साधना का, तप-
बल ऐसा था कि, उनका शरीर ! अत्यंत कठोर व स्थिर हो चुका था. तभी तो 300 वर्ष की, आयु होने के पश्चात् भी, उनका शरीर बिल्कु ल युवक की
भाँति ! स्वस्थ व ताकतवर था.
योसिलिं महाराज ! तलवार के वार से, तनिक भी विचलित हुये बिना ! चट्टान की भाँति ! वहीं खड़े-खड़े हंसते हुये बोले :
“ऐ राजा सयोअमप्र ! तुमने देखा ! एक असली योगी कै सा होता है ? उसके तप-बल की, परिणति कै सी होती है ? अपने आप को, योगी बोल देने से, कोई
सिद्ध योगी नहीं हो जाता.”
राजा सयोअमप्र ने, विनयशीलतापूर्वक कहा :
“जी महाराज !”
योसिलिं महाराज अहंकारपूर्वक स्वर में बोले :
“चूँकि तुमने ! मेरे सिर पर, तलवार से वार किया है. अतः अब मैं भी, तुम्हारे सिर पर, इसी तलवार से, प्रहार करूँ गा. देखूँ ! तुम कै से योगी हो.”
राजा सयोअमप्र ने, उनकी आज्ञा का पालन करते हुये, उनके आगे गर्दन झुका कर, विनम्रतापूर्वक कहा :
“जैसी आज्ञा महाराज !”
योसिलिं महाराज ने, अपनी तलवार उठायी. तथा उससे राजा सयोअमप्र को काट डाला. परंतु यह क्या ? तलवार राजा के शरीर से, बिल्कु ल मध्य भाग से,
इस प्रकार आर-पार हो गयी. जैसे वह हवा में हो. योसिलिं महाराज ने, कई-कई बार ! उस तलवार से, अलग-अलग प्रकार से, प्रहार किया. प्रत्येक बार
तलवार ! राजा सयोअमप्र को छु ये बगैर ! हवा में आर-पार हो गयी.
सहसा ! योसिलिं महाराज को, अपनी भूल का, आभास हुआ. वह तत्क्षण ! राजा सयोअमप्र के चरणों में गिर कर बोले :
“कृ पया मेरा उद्धार करें. मुझे अपना शिष्य बनायें.”
राजा सयोअमप्र ने, उन्हें उठाते हुये, उनसे सहृदयतापूर्वक कहा :
“शिष्य बनाना भिन्न बात है. एवं उद्धार करना भिन्न बात है. उद्धार तो के वल व के वल शिवशक्ति के हाथ में है. अथवा उनकी आज्ञा से, त्रिदेव व देवी-देवता-
गण के हाथ में है. आप अपनी स्वेच्छा से, शिष्य बने हैं. अतः मैं आपको, सर्वप्रथम ! यही शिक्षा दे रहा हूँ कि…………
***गुरु का काज ! के वल सदमार्ग दिखाना है. सदमार्ग पर उँगली पकड़ कर चलाना है. उद्धार करना ! गुरु के वश का नहीं है. शिष्य का उद्धार भी, वही
करेंगे ! जो गुरु का उद्धार करेंगे.***
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नोट :~ आज के वर्तमान परिदृश्य में, बहुत सारी अज्ञानता भरी बातें ! जो बहुत बड़े स्तर पर, स्थापित हो गयी हैं. उनमें से अभी के वल दो बातों का उल्लेख
करूँ गा. यह जानते-बुझते करूँ गा कि, इससे बहुत पाठकों का हृदय ! छलनी-छलनी हो जायेगा. कु छ हो सकता है कि, अलग-अलग बहाने से, गरियाना भी
आरंभ कर दें. परंतु कोई बात नहीं ! मुझे यह पता है कि, जड़ हो चुकी मान्यताओं के टू टने से, पीड़ा तो होगी ही. अतः लिख देता हूँ.
पहली बात :~
सारे तीर्थ धाम आपके चरणो में.
हे गुरुदेव प्रणाम आपके चरणो में.
हृदय में माँ गौरी लक्ष्मी, कं ठ शारदा माता है.
जो भी मुख से वचन कहें, वो वचन सिद्ध हो जाता है.
हैं गुरु ब्रह्मा, हैं गुरु विष्णु, हैं शंकर भगवानआपके चरणो में.
जनम के दाता मात पिता हैं.
आप करम के दाता हैं.
आप मिलाते हैं ईश्वर से,
आप ही भाग्य विधाता हैं. �दुखिया मन को रोगी तन को, मिलता है आराम आपके चरणो में.
निर्बल को बलवान बना दो,
मूर्ख को गुणवान प्रभु.
देवकमल और वंसी को भी, ज्ञान का दो वरदान गुरु.
हे महा दानी हे महा ज्ञानी,
रहूँ मैं सुबहो-शाम आपके चरणो में.
हे गुरुदेव प्रणाम आपके चरणो में.
दूसरी बात :~
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु अपने गोविंद दियो बताय.
कबीर जी इस दोहे के माध्यम से, यह कहना चाहते हैं कि………….. गुरु और भगवान दोनों समक्ष खड़े हैं. मैंने गुरु से पूछा था कि, भगवान कौन हैं ?
उनके बताये मुझे यह ज्ञात है कि, यह भगवान हैं. अतः हे गुरुजी ! हम आप के आभारी हैं. हम आप पर न्योछावर हैं कि, आपके बताये मार्ग पर चल कर,
हमें भगवान की प्राप्ति हुयी. और फिर गुरु व शिष्य दोनों भगवान के चरणों लेट जाते हैं.
बाकि मुझे यह नहीं पता कि………….. आप इसका क्या अर्थ निकालते हैं ?
मुझे इतना पता है कि, भगवान से बड़ा ! कोई भी नहीं है. वैसे कबीर जी के दोहे वाले गुरु जी भी, यहीं समझायें हैं.
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राजा सयोअमप्र ने, योसिलिं जी को, अपने गले लगाया. फिर अपने साथ ! उन्हें ले कर, एक एकांत स्थान पर पहुँच कर बोले :
“हे योगी सिलिं ! मुझे आपके आगमन का, महादेव-दूत से, कु छ दिवस पूर्व ही, संके त प्राप्त हो गया था. मुझे स्वयं भी, आपसे भेंट की, अत्यंत प्रतीक्षा थी.
क्योंकि हमारे द्वारा ! हम दोनों के द्वारा ! एक-दूसरे के सहयोगी बनते ही ! हमें सप्तदेव के , दो देवों से, कु छ महत्वपूर्ण दायित्व मिलने वाला है. अगर हमने !
अपने कर्तव्यों को, ठीक से निभा लिया. तो उसके फल स्वरूप ! हमारे सदकर्मों के भंडार में, पर्याप्त पुण्यों का ! संचयन हो जायेगा. जो हम दोनों के ही,
अपने-अपने वर्तमान चरण को, पार कराने में, अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होगा.”
योगी सिलिं बोले :
“हे राजन ! अब आप ! इस जन्म में, मेरे गुरु हैं. मुझसे एक चरण ऊपर भी हैं. मुझे आप मार्गदर्शित करते रहें. आपकी जो भी आज्ञा होगी. आपका शिष्य !
उसका पालन करेगा.”
राजा सयोअमप्र बोले :
“हम दोनों ही, महादेव ! माता ! एवं समस्त देवी ! देवता ! गण ! व दूत के , निर्देशों का पालन करेंगे. अब हमें शीघ्र ही, यहाँ से ! उस स्थान के लिये,
प्रस्थान करना होगा. जहाँ हमें ! प्रभु श्रीराम एवं प्रभु श्री कृ ष्ण से, अगला निर्देश प्राप्त होगा.”
योगी सिलिं ने कहा :
“तो प्रस्थान करते हैं गुरुजी !”
राजा सयोअमप्र ! खड़े होते हुये बोले :
“अवश्य !”
अब वह मूलश्रेणी वाले, प्रथम व द्वितीय चरण के , दोनों योगी ! एक दिशा को प्रस्थान कर गये. लगभग पच्चीस से तीस घंटों की, यानि डेढ़ दिन व एक रात
के , निरंतर ! अनवरत ! संवाद रहित पदयात्रा के पश्चात् ! वह जहाँ पहुँचे. वहाँ घना जंगल था. एक नदी बह रही थी. नदी में पानी का जलस्तर ! कु छ कम
होने के कारण ! नदी के मध्य में, एक बड़ी सी चट्टान ! पानी से बाहर निकल गयी थी.
(नोट :~ अभी वर्तमान में, उस नदी को, बेड़ती नदी के नाम से जाना जाता है. तथा वह स्थान ! वर्तमान के कर्नाटक स्थित सिरसी से, लगभग एक घंटे की
दूरी पर है. तथा वह जहाँ से चले थे. वह स्थान ! कर्नाटक स्थित शिवमोगा के पास है.)
उसी चट्टान पर लगे ! दो ऊँ चे आसनों पर, प्रभु श्रीराम एवं प्रभु श्रीकृ ष्ण विराजमान थे. उनके समक्ष ! उस शिलाखंड के सतह पर, तीन साधारण मनुष्य बैठे
हुये थे. वह दोनों योगी ! वहीं नदी के तट पर ! प्रतीक्षा करने लगे. कु छ ही समय पश्चात् ! वह तीनों मानव ! वहाँ से उठे. और नदी के बहती जलधारा में,
अपना पाँव जमाते हुये. तट की ओर बढ़ने लगे.
उन तीनों के ऐसा करते ही, इधर तट पर खड़े दोनों योगी भी, पानी में उतर कर ! उस शिलाखंड की ओर बढ़ने लगे. मार्ग के मध्य में, उन पाँचों का ! बहुत
ही सीमित ! बिल्कु ल चलते-चलते वाला ! अभिवादन हुआ. जब तक ! वह तीनों तट पर पहुँचे. तब तक ! वह दोनों योगी भी, दोनों प्रभु के चरणों में, लेटे
हुये थे. प्रभु से आशीर्वाद प्राप्त करके , वह दोनों योगी ! प्रभु श्रीराम एवं प्रभु श्रीकृ ष्ण के समक्ष ! नीचे सतह पर बैठ गये.
प्रभु श्री कृ ष्ण भगवान बोले :
“सत्य ! सनातन ! शाश्वत ! जीवन पद्धति पर, यानि धर्म पर ! बहुत बड़ा संकट आने वाला है. एक प्रथम चरण की आत्मा ! पूर्णतः अधर्मी हो कर ! पाप
करने हेतु आतुर है. यह उस आत्मा का, मूलश्रेणी में प्रवेश के पश्चात् ! अभी प्रथम जन्म ही है. जैसे ही उसको ! यह ज्ञात हुआ है कि……… अब वह
मूलश्रेणी के , प्रथम चरण में, आ चुका है. अब वह कितना भी कु कर्म करे. उसे प्रत्येक जन्म में, मिलेगा तो मनुष्य देह ही. तभी से वह ! अधर्म-पथ का,
निरंतर पथिक हो गया है.”
प्रभु श्री कृ ष्ण के चुप होते ही, प्रभु श्री राम भगवान बोले :
“………….और महादेव के बनाये ! विधि-विधान के अनुरूप ! किसी भी आत्मा के , स्वतंत्रता के अधिकारों का ! हनन नहीं किया जा सकता है. तथा
अलौकिक मार्ग से, उसे वर्तमान जन्म के कु कर्मों हेतु ! उसी वर्तमान जन्म में ही, दंडित भी नहीं किया जा सकता है. उसे उसके कु कर्मों का, समुचित दंड !
उस आत्मा के , भविष्य वाले जन्मों में तो, मिलेगा ही. परंतु मेरा स्वयं का ! एवं श्रीकृ ष्ण देव का भी, यह कहना है कि………… तुम दोनों गुरु ! शिष्य !
लौकिक मार्ग से, उसका वध किये बिना ! उसके द्वारा फै लाये जा रहे, अधर्म को रोको.”
आगे की बात ! प्रभु श्री कृ ष्ण भगवान ने समझाया :
“…………..उस अधर्म को रोकना ! इसलिये भी आवश्यक है. क्योंकि यह पृथ्वी ग्रह ! लगभग २३०० वर्ष पूर्व ही, प्रलय हेतु ! आवश्यक अर्हतता !
प्राप्त कर चुकी है. और अब ! इसको संहार हेतु ! एक प्रकार के नौ ! एवं एक प्रकार के , छः दूतों के , उत्तीर्ण होने की प्रतीक्षा है. नौ वाली सूची में, अभी तक
सात हो चुके हैं. तथा छः वाली सूची में, अभी तक पाँच हो चुके हैं. इस प्रकार से देखें तो…………..”
“……..प्रलय के छोर पर खड़े ! इस पृथ्वी ग्रह हेतु ! और अधर्मिता ! अत्यंत संकटकारी सिद्ध होगी. क्योंकि वह पापी ! जो अधर्म करने जा रहा है.
उसके मूल में ही, मानवों को धर्म ! यानि सदकर्म से, विमुख करके , अकर्मण्यता के पथ पर लाना है. सभी देवों को, यह भलीभाँति ज्ञात है कि, वह मानवों
हेतु ! ऐसी आकर्षक ! एवं लोभकारी नीति पर, काम करने जा रहा है कि………. उसका समूह-दल ! बहुत शीघ्र ही, बहुत बड़ा ! एवं प्रभावकारी होता
चला जायेगा.”
पुनः प्रभु श्री कृ ष्ण के , चुप होते ही, प्रभु श्री राम भगवान बोले :
“अन्य समस्त देवों की तुलना में, हम इसलिये अधिक चिंतित हैं…………… क्योंकि उसकी योजना में, वह स्वयं से, अपने-आप को, मेरा या श्रीकृ ष्ण
का, अवतार घोषित करने जा रहा है. तथा हम दोनों में से, किसी एक को, सर्वेसर्वा सिद्ध करने का, जघन्य आपराधिक कृ त्य ! करने जा रहा है. जिसके
दंडस्वरूप ! उसे तो हजारों जन्मों तक ! इन कु कर्मों को काटने हेतु ! निरंतर दंड भोगना पड़ेगा. परंतु उन आलसी ! अकर्मण्य ! अल्पनिर्दोषी ! सामान्य-
साधारण ! मानवों का, क्या होगा ? जो उसके बताये ! आलस्य के मार्ग को, पकड़ कर, अपनी आत्मा के , मोक्ष-यात्रा की अवधि को, अनावश्यक रूप से,
लंबित करेंगे.”
राजा सयोअमप्र ने, हाथ जोड़ कर पूछा :
“हे प्रभु ! मेरी अज्ञानता हेतु ! मुझे क्षमा करने की, कृ पा करते हुये, कृ पया हमें ! मूल पदानुक्रम से, अवगत करा दें.”
उत्तर में, प्रभु श्रीकृ ष्ण भगवान ने, विस्तारपूर्वक समझा कर बताया :
“यह संपूर्ण सृष्टि ! एक विधि-विधान के अनुरूप ! सदैव से अनवरत ! चलती आ रही है. इसके सृष्टि के रचयिता ! तथा समस्त देवी ! देवता ! गण ! दूत
! आत्मा ! इन सभी के भी रचयिता ! देवों के देव महादेव हैं. एवं इस समस्त सृष्टि ! तथा समस्त देवी ! देवता ! गण ! दूत ! आत्मा ! में, ऊर्जा का संचार
करने वालीं ! जगत जननी माता शक्ति हैं. उनका कोई पदानुक्रम नहीं है. क्योंकि वह सभी पदानुक्रम से ऊपर हैं. वह सर्वेसर्वा हैं.”
“उनके पश्चात् ! एक दो तीन के पदानुक्रम पर ! इस संपूर्ण सृष्टि के लिये, संयुक्त रूप से, प्रमुख संचालक ! त्रिदेव यानि ब्रह्मा विष्णु रुद्र (महेश) आते हैं !
जिनका कार्य जन्म देना ! पालना ! एवं अंत करना है.”
“उसके पश्चात् ! चार एवं पाँच के पदानुक्रम पर ! इस संपूर्ण सृष्टि के लिये, संयुक्त रूप से, पंचदेव यानि कार्तिके य व गणेश आते हैं. उन दोनों देवों का
कार्य……….. देवी ! देवता ! गण ! दूत ! के संचालन का है. यानि इस सृष्टि का संचालन करने वाले, समस्त देवी-देवता-गण-दूत ! को, संचालित करने
का कार्यभार ! उनके कं धों पर है.”
“जिसमें कार्तिके य जी का दायित्व ! मुख्य देवी-देवताओं ! तथा आत्माओं ! एवं दूतों ! को लेकर है. तथा गणेश जी का दायित्व ! सभी गणों ! तथा बाकी
के अन्य सभी देवी-देवताओं को, ले कर है. विशेष परिस्थितियों में, कार्तिके य जी के पास ! सभी देवताओं का नेतृत्व करने को लेकर, अतिरिक्त कार्यभार है.
तथा विशेष कार्यभार के रूप में, गणेश जी के पास ! समस्त सृष्टि के , किसी भी शुभ ! मंगल ! धर्म कार्य को, शुभारंभ करने हेतु ! अनुमति प्रदान करने का
है. अगर वह कार्य ! शुभ-मंगल-धर्म काज हो तब.”
“उसके पश्चात् ! छः एवं सात के पदानुक्रम पर ! इस संपूर्ण सृष्टि के लिये, संयुक्त रूप से, सप्तदेव ! यानि प्रभु श्रीराम ! एवं मैं आता हूँ. प्रभु श्रीराम का
कार्य…………. समस्त ग्रहों ! उपग्रहों ! इत्यादि पर ! मानव देह रूपी आत्माओं के लिये, मनुष्य रूप में, अवतार ले कर……… चारित्रिकगुणता !
आदर्शवादिता ! एवं राज्यपद्धति का मानदंड ! यानि मार्गदर्शिका ! तैयार करना होता है. वहीं मेरा कार्य…………… समस्त ग्रहों ! उपग्रहों ! इत्यादि पर !
मानव देह रूपी आत्माओं के लिये, मनुष्य रूप में, अवतार ले कर…….. योजनानीति ! रणनीति ! एवं धर्मस्थापनापद्धति ! हेतु मानदंड ! यानि मार्गदर्शिका
! तैयार करना होता है.”
अब प्रभु श्रीराम बोले :
“…………..और वह जो, प्रथम चरण वाली आत्मा है. जो अपने इस वर्तमान देह में, पूर्णतः अधर्मी हो कर ! पाप करने हेतु ! आतुर है. जिसके बारे
में, हमने अभी तुम दोनों को, अवगत कराया है. वह दुष्ट मानव ! इस पदानुक्रम में, मुझे या श्रीकृ ष्ण में से, किसी भी एक को, सबसे ऊपर ! यानि सर्वेसर्वा
के रूप में, महादेव के स्थान पर, तथा माता पार्वती के स्थान पर, देवी सीता या देवी रुक्मणी को, बिठाना चाहता है.”
“हमने जब इस संदर्भ में, महादेव से बात की. तब उन्होंने मुस्कु राते हुये, विधि-विधान के ऊपर ! सब कु छ छोड़ देने को कहा. परंतु हमें ! इससे घोर
आपत्ति है कि………… कोई हमारे आराध्य के स्थान पर ! हमें सुशोभित करे. कोई हमारी पूजा-ध्यान-आराधना करे. इससे हमें ! कोई आपत्ति नहीं है.
परंतु पदानुक्रम तो ज्ञात रहे. यहाँ तो हमारे ही, आराध्य को ! छोटा दिखाने के , प्रयत्नों की नींव डाली जा रही है.”
“………….और विधि-विधान के अनुरूप ! इसके लिये अलौकिक रूप से, अब इस पृथ्वी ग्रह पर, कु छ भी करने का, कोई प्रावधान नहीं है. अतः
मूलश्रेणी के आत्माओं को, हम यह दायित्व सौंप रहे हैं कि………… वह अपने लौकिक माध्यम से, इस अधर्म को रोकने हेतु ! जो भी हो सकता हो !
अवश्य करें.”
राजा सयोअमप्र ने पूछा :
“हे प्रभु ! अभी आपने बताया कि…………. वह दुष्ट मानव ! आप दोनों प्रभु में से, किसी एक को, सबसे ऊपर ! यानि सर्वेसर्वा के रूप में, स्थापित
करके , अपना कु त्सित विचार ! सामान्य साधारण मानवों पर ! थोपना चाहता है. तो क्या अभी तक ! उसने यह तय नहीं किया है कि…………. आपमें से
किसको ! स्थापित करना है ?”
उत्तर प्रभु श्रीकृ ष्ण भगवान ने दिया :
“इस अधर्मकारी योजना को, मूर्त रूप देने हेतु ! अभी कई दिवस से, उनकी निरंतर बैठकें चल रही हैं. अभी कल रात्रि तक तो, किसी भी एक नाम पर,
अंतिम निर्णय नहीं हुआ है.”
राजा सयोअमप्र ने पूछा :
“हे प्रभु ! बैठकें चल रही है. इसका अर्थ ! क्या एक से अधिक पापी-मनुष्य हैं ?”
प्रभु श्रीकृ ष्ण भगवान ने, विस्तारपूर्वक समझाया :
“उस योजना में तो, गुप्त रूप से, बहुत मनुष्य सम्मिलित हैं. यह संपूर्ण योजना ! इस पृथ्वी ग्रह पर स्थित ! ज्ञान का दिशा दिखाने वाले, दिव्य-भूखंड !
यानि धर्म मार्गदर्शिका ! दिव्य-भूमि (भारत) से, धर्म का समापन करके , अधर्म की स्थापना करने का, वृहद् एवं विस्तृत प्रयास है. अतः इस बात से ! कोई
विशेष अंतर नहीं पड़ता कि………. किसका नाम तय होता है. क्योंकि जहाँ एक बार ! यह क्रम आरंभ हुआ ! वैसे ही एक-एक करके , नित-नवीन !
अनेकों सर्वेसर्वा बनाये जायेंगे.”
“आरंभ में पादुनक्रम वाले, देवी-देवताओं को, सर्वेसर्वा बनाया जायेगा. कालांतर में किसी भी नाम को, बना दिया जायेगा. ऐसे कु त्सित प्रयत्न ! इस धर्म
मार्गदर्शिका भूमि से अलग ! सुदूर भूमि पर, पूर्व में होते रहे हैं. परंतु इस भूमि पर ! जब धर्म बचा रहता है. तो बाकी की भूमि पर ! पुनः सब सही हो जाता
है. परंतु इस बार यह प्रयास ! सत्य-सनातन-शाश्वत पद्धति के , अनुगामीयों के मध्य से, किया जा रहा है.”
“अतः इसके परिणाम ! आरंभ में तो कम समझ आयेंगे. परंतु यह विषबेल की भाँति ! धर्म को चहुँओर से लपेट लेंगे. क्योंकि इस नव-पंथ का आरंभ !
किसी सुदूर भूमि से, नहीं हो रहा है. जिसे आसानी से, सामान्य साधारण जन ! चिन्हित कर सके . बल्कि इसका आरंभ ! पृथ्वी ग्रह के , समस्त
धरतीवासियों को, ज्ञान का दिशा दिखाने वाले, इसी दिव्य-भूखंड ! यानि भारत भूमि से, हो रहा है. काशी से हो रहा है. अतः उस अधर्म को रोकने हेतु ! मैं
तुम दोनों को, तत्क्षण काशी प्रस्थान करने की, आज्ञा देता हूँ. तुम्हें भविष्य में, महादेव-दूतों से, एवं हमसे संके त प्राप्त होते रहेंगे.”
जब वह दोनों योगी ! उसी समय काशी प्रस्थान हेतु ! दोनों प्रभु से, आज्ञा एवं आशीर्वाद ले कर, नदी की बहती जलधारा में, उतर गये. तब वातावरण में !
प्रभु श्रीराम की दिव्य वाणी गूँजी :
“एक बात सदैव ध्यान रखना…………. यह नव-पंथ ! अत्यंत विषैले सिद्ध होंगे. क्योंकि एक कु त्सित प्रयत्न के , सफल होते ही, इन नव-पंथों की,
श्रृंखला बन जायेगी. सुदूर स्थानों पर, आरंभ किये गये, त्रुटिपूर्ण पंथों की तुलना में, यह नव-पंथ ! अत्यधिक घातक सिद्ध होंगे. क्योंकि यह ! सत्य-
सनातन-शाश्वत धर्म में, घुलमिल कर रहेंगे. इनकी जड़ों ने, अगर एक बार पैठ बना लिया. तो उन्हें निकालना ! सरल नहीं होगा.”
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………..अब यहाँ से, लगभग साढ़े सात सौ वर्ष तक के , घटनाक्रमों को, अभी लिखने की अनुमति ! नहीं होने के कारण ! एक लंबी छलांग लगा कर,
सीधे पहुँचते हैं…………… इसी पृथ्वी ग्रह के , सन् 1945 में.
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नोट :~ विवाद से बचने हेतु ! इस वाले सत्य घटना क्रम के भी, कु छ-कु छ नाम ! स्थान ! व तिथि ! इत्यादि में, थोड़े से बदलाव किये गये हैं.
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घटनाक्रम आरंभ !
#ऑटोबायोग्राफी_ऑफ_स्वामी_सत्यानंद_1st_एडिशन
भाग
यह बात है सन् 1945 के वसंत की. तिथि है ! फाल्गुन मास के , कृ ष्ण पक्ष की, त्रयोदशी तिथि. पहर है अर्धरात्रि का. स्थान है……………… मनीला से
कु छ दूर स्थित एक टापू ! टापू का नाम है…… अंबिल आइलैंड ! क्षेत्र अथवा देश है…… फिलीपींस.
दिव्य ! अलौकिक ! आभामण्डलयुक्त ! सिंह पर सवार ! माता पार्वती का स्वर ! उस निर्जन टापू पर गूँजा :
“राम ! मुझे अपने पुत्र सुभाष पर, बहुत विश्वास है. तुम्हारे इस ग्रह से, रुष्ट होने के कारणों को, कदाचित् यह दूर कर पाये.”
मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम बोले :
“हे माँ ! मुझे भी विलक्षण क्षमताओं के धनी ! इस युवक सुभाष पर, पूर्ण विश्वास है. परंतु इस ग्रह के , अधिकतर वासियों पर, तनिक भी विश्वास नहीं है.
अतः हे माता ! आप व्यर्थ प्रयत्न कर रही हैं. महादेव का यह कहना………. सर्वथा उपयुक्त है कि, ऐसे ग्रह के , समस्त मानवों का, संहार होना ही ! वहाँ
पुनः धर्म स्थापना की, सबसे सरल विधि है.”
“………….और वैसे भी माँ ! प्रलय के माध्यम से, अपने भूमि पर से, समस्त मनुष्यों का, एक साथ संहार कराने हेतु ! यह ग्रह ! आवश्यक अहर्तता
! पहले ही प्राप्त कर चुकी है. तथा आवश्यक अहर्तता ! प्राप्त करने के पश्चात् ! अंतिम के दो नियमों का, पालन करते हुये, प्रथम नियम के , कु ल सभी छः
अवसर ! पूर्व में ही यह ग्रह ! प्राप्त कर चुकी है. एवं दूसरे नियम का भी, पालन करते हुये, कु ल नौ अस्वीकृ तियों में से, आठ अस्वीकृ तियाँ भी, इसने पूर्व में
ही, प्राप्त कर ली हैं.”
“इस युवक सुभाष के , अपने छठे चरण में, अनुत्तीर्ण होने वाली, दुःखद घटना ! अगर नहीं घटित हुयी होती. तो जो विध्वंस ! अब यहाँ ! इस ग्रह पर,
थमने जा रहा है. यहीं विध्वंस ! आगे प्रलय का रूप ले कर, इस ग्रह के समस्त मानवों का, अंत कर देता. श्री रुद्रदेव ! भूदेवी ! तथा महादेव-गण वीरभद्र !
की समस्त तैयारियों पर, इस युवक सुभाष के , अनुत्तीर्ण होने वाली दुःखद घटना ने, व्यवधान उत्पन्न कर दिया है.”
माता पार्वती बोलीं :
“राम ! तुम जिसे दुःखद घटना बता रहे हो. इसे मैं सुखद घटना मानती हूँ. क्योंकि इसके अनुत्तीर्ण होने से ही तो, यह विध्वंस टल पाया है. इस मूर्ख को,
२२ वर्ष पूर्व ही, मैंने संके त किया था कि………… यह अपने आठवें चरण के , धर्मकाज हेतु ! पृथ्वी ग्रह का चयन करे. परन्तु इस मूर्ख ने, शिवफिजनागड
ग्रह का, चुनाव कर लिया था. वह तो अच्छा हुआ ! जो यह अनुत्तीर्ण हो गया. अन्यथा यहाँ प्रलय आ गया होता.”
उस टापू के , रेतीले तट पर, उस समय उपस्थित हजारों-लाखों कछु ओं के मध्य ! सबसे विशाल कछु आ ! यानि महादेव-गण कच्छप महाराज पर सवार !
भगवान विष्णु देव बोले :
“हे करुणामयी माँ ! परंतु यह आवश्यक तो नहीं है कि…………… सुभाष ! अपने अगले जन्म में भी, अपने छठे चरण में, अनुत्तीर्ण ही रह जाये. इस
प्रकार से यह विध्वंस ! कु छ वर्षों के लिये ही तो, स्थगित हुआ है.”
माता पार्वती बोलीं :
“हे विष्णु देव ! इस बार बाईस वर्ष पूर्व ! मैंने जो इसे, के वल संके त-मात्र किया था कि………… यह अपने आठवें चरण के , धर्मकाज हेतु ! पृथ्वी ग्रह का
चुनाव करे. वैसा कोई संके त ! मैं इसके अगले जन्म में, यानि अभी से लगभग ५३ वर्ष पश्चात् ! नहीं करूँ गी. वैसे किसी संके त के स्थान पर, मैं इससे !
पृथ्वी ग्रह का चुनाव ! हर परिस्थिति में, करवा ही दूँगी.”
महादेव-दूत माता-सेविका ! देवी एलोइसिया जी, तथा महादेव-दूत शकोमफु महाराज ! के मध्य में खड़ा ! वह मूल श्रेणी के छठे चरण वाला, अड़तालीस
वर्षीय सुभाष नामक युवक बोला :
“हे माँ ! अगर आपकी यहीं इच्छा थी. तो आपने मुझ मूर्ख को, संके त क्यों भेजा ! मुझे सीधे आदेश करती माँ !”
माता पार्वती बोलीं :
“तुम्हारे अगले जन्म में यहीं करूँ गी.”
सुभाष बोला :
“मुझे अभी इस देह को, कब तक ढोना है माँ ?”
माता पार्वती ! देवी एलोइसिया को, संबोधित करके बोलीं :
“एलोइसिया ! इसको इसके प्रश्नों का, उत्तर दे दो.”
महादेव-दूत माता-सेविका ! देवी एलोइसिया जी, सुभाष से बोलीं :
“तुम्हारे कर्मों में, अगर कोई विशेष परिवर्तन ! नहीं आया. तो जैसा कि, मैं देख पा रही हूँ. आज ही की तिथि को, आज से ४१ वर्षों पश्चात् ! तुम्हारा
अगला जन्म ! यानि मूल श्रेणी का, नौवाँ जन्म होगा.”
छठे चरण वाला, सुभाष नामक मानव बोला :
“यानि अभी इस देह को, और भी ४१ वर्ष ढोना है.”
महादेव-दूत माता-सेविका ! देवी एलोइसिया जी ने, सुभाष की बात को, काटते हुये कहा :
“नहीं ! इस देह को तो, लगभग साढ़े चालीस वर्ष ही ढोओगे.”
सुभाष बोला :
“यानि कि, लगभग छः माह ! रिक्तता योनि में भी बितानी है.”
महादेव-दूत माता-सेविका ! देवी एलोइसिया जी ने, उसको समझाया :
“सुभाष ! आत्मा जब पुराने देह को त्यागती है. तब वह तत्काल जन्म नहीं लेती है. इस पृथ्वी ग्रह के , गणितीय गणनानुसार ! वह लगभग तीन मास की,
गर्भधारण की हुयी स्त्री के , गर्भ वाले शिशु में, प्रवेश करती है. जिस भी गर्भ का, उसके लिये निर्धारण हुआ रहता है. उस गर्भ के , शिशु में प्रवेश करती है. इस
प्रकार से, मनुष्य देह धारण करने वाली आत्मा ! लगभग छः मास ! गर्भ में भी रहती है.”
सुभाष ने जिज्ञासापूर्वक पूछा :
“क्या मुझे ! यह जानकारी मिल सकती है. मैं अपना अगला जन्म कहाँ लूँगा ?”
उत्तर देवी एलोइसिया जी ने नहीं दिया. उनके स्थान पर, माता पार्वती ने, महादेव-दूत शकोमफु महाराज को, आदेश देकर दिया :
“शकोमफु ! विधि-विधान के अनुरूप ! जितना आगे तक का, बताना संभव हो. इस सुभाष को, उतना आगे तक का बता दो.”
महादेव-दूत शकोमफु महाराज बोले :
“क्षमा करें माँ ! मुझे एक चौथे चरण वाले, मनुष्य के परीक्षा में, उसकी सहायता करने जाना है. मैं के वल अलौकिक माध्यम से, सुभाष को यहाँ पहुँचाने का,
दायित्व निर्वहन करने आया था माँ !”
माता पार्वती बोलीं :
“ठीक है शकोमफु ! तुम जाओ.”
फिर तत्काल ही, माता ने यहीं आदेश ! देवी एलोइसिया को दे दिया. माता की आज्ञा पा कर ! महादेव-दूत माता-सेविका ! देवी एलोइसिया जी ने, बताना
आरंभ किया :
“तुम्हारे कर्मों में, अगर कोई विशेष परिवर्तन ! नहीं आया. तो जैसा कि, मैं देख पा रही हूँ. आज ही की तिथि को, आज से ४१ वर्षों पश्चात् ! तुम्हारा
अगला जन्म ! यानि मूल श्रेणी का, नौवाँ जन्म होगा.”
“उस जन्म के , तुम्हारे आरंभिक आठ वर्ष ! बहुत कष्टमय बीतेंगे. क्योंकि उन्हीं सीमित आठ वर्षों में ही, तुमको अपने ! इस सुभाष वाले वर्तमान जन्म के ,
सभी कु कर्मों का, दंड भोगना होगा. उन कष्टकारी आठ वर्षों के उपरान्त ! …………और भी लगभग चार वर्षों के पश्चात् ! यानि जन्म के , लगभग बारह
वर्षों के बाद ! तुम अपने आठवें चरण वाले, धर्मकाज को करने हेतु ! विधि-विधान के अनुरूप ! ग्रह का चुनाव करने के लिये, धौलागिरी लाये जाओगे. माता
के कथानुसार ! सम्भवतः तभी ! माता तुमसे ! पृथ्वी ग्रह का, चयन करायेंगी.”
“…………..तथा आगे भी, तुम्हारे सदकर्मों की गति ! अगर ठीक रही. तब आज ही की तिथि को, जैसे आज से ४९ वर्ष पश्चात् ! तुम्हारे छठे चरण
की, १५०० परीक्षाओं का, आरंभ होगा. वैसे ही, आज ही की तिथि को, आज से ७६ वर्ष पश्चात् ! तुम अपने मूल श्रेणी का, छठा चरण पार कर जाओगे.
परंतु यह तभी होगा. जब तुम ! अपने छठे चरण को, पार करने हेतु ! न्यूनतम अनिवार्य ११११ परीक्षायें ! उत्तीर्ण कर जाओ.”
“परंतु शुभ सूचना यह है कि…………….. तुम उस जन्म में, अपने छठे चरण को, अगर पार कर गये. तब तुम्हारे सातवें चरण की प्रतीक्षा अवधि ! अत्यंत
सीमित रहेगी. के वल लगभग सवा वर्षों की ही रहेगी. उन सवा वर्षों में, तुम उस जन्म के , उस समय तक के , पैंतीस वर्षों में, किये कु कर्मों का दंड भोगोगे.”
“फिर उन लगभग सवा वर्षों के पश्चात् ! तुम्हें, तुम्हारे आठवें चरण के , दायित्व वाले धर्म-काज को, शुभारंभ करने का, महादेव से आदेश प्राप्त होगा.
धर्मकाज आरंभ करने के , लगभग डेढ़ वर्षों के उपरांत ! तुम अपने सहयोगियों, अनुयायियों एवं शिवशक्तियन के साथ ! प्रथम भेंट-वार्ता बैठक करोगे. जिसमें
उपस्थित शिवशक्तियन की संख्या…………. अधिकतम आठ ! तथा न्यूनतम तीन रहेगी.” (वैसे कु ल संख्या पाँच रही थी.)
…………….महादेव-दूत माता-सेविका ! देवी एलोइसिया जी ने, सन् 1945 की महाशिवरात्रि को, आगे का जैसा बताया था. उसका ब्योरा :
“उसके कु छ ही दिवस पश्चात् ! यानि आठवें चरण का, धर्मकाज आरंभ करने के , लगभग पौने दो वर्षों के पश्चात् ! तुम उस प्रकल्प के प्रति गंभीर !
पूर्वश्रेणी वाले मानवों के साथ ! द्वितीय व तृतीय बैठक करोगे.”
“उस द्वितीय भेंट-वार्ता बैठक की तिथि ! प्रथम-बैठक के , कु छ ही दिवस पश्चात् की होगी. यानि तृतीय भेंट-वार्ता बैठक से, एक मास पूर्व की, तिथि होगी.
उस बैठक में, सम्मिलित होने वाले, सहयोगियों, अनुयायियों एवं शिवशक्तियन की, अधिकतम संख्या चौबीस ! तथा न्यूनतम संख्या नौ रहेगी.” (वैसे कु ल
संख्या अठारह रही थी.)
……………..एवं उसके बाद ! तृतीय बैठक की तिथि ! आज ही की तिथि के , आज से 79 वर्ष पश्चात् की होगी. (यानि 08 मार्च 2024 का
दिनांक होगा.) उस बैठक में, सम्मिलित होने वाले, सहयोगियों, अनुयायियों एवं शिवशक्तियन व महादेव-भक्तों की, अधिकतम संख्या निन्यानवे ! तथा
न्यूनतम संख्या तिरसठ रहेगी.” (वैसे कु ल संख्या …………. रही थी.)
(नोट :~ अभी वर्तमान में, यानि इस घटनाक्रम को लिखने के दिनांक ! आज २५ जनवरी २०२४ के , एक दिवस पूर्व ही, उस प्रथम बैठक ! यानि दो
दिवसीय बैठक का, समापन हुआ है. उपरोक्त लिखित ! अभी तक की सभी बातें ! अक्षरशः सत्य हुयी हैं.)
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………..अब यहाँ से आगे के , लगभग पौने पाँच वर्ष तक के , घटनाक्रमों को, अभी लिखने की अनुमति ! नहीं होने के कारण ! एक और छलांग लगा
कर, सीधे पहुँचते हैं…………… इसी पृथ्वी ग्रह के , सन् 1949 के अंतिम महीनों में.
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नोट :~ विवाद से बचने हेतु ! इस वाले सत्य घटना क्रम के भी, कु छ-कु छ नाम ! स्थान ! व तिथि ! इत्यादि में, थोड़े से बदलाव किये गये हैं.
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घटनाक्रम आरंभ !
22 दिसंबर 1949 की, कु हासे वाली रात. अर्धरात्रि से थोड़ा पहले समय ! स्थान…………. पृथ्वी ग्रह स्थित भारतवर्ष के , अवध क्षेत्र की अयोध्या
नगरी. एक बड़े से बंगलेनुमा कोठी के बाहर, मोटी लकड़ी की, अलाव जल रही थी. उसको घेरा बनाये छः लोग ! अपने कं धे पर से, चादर ओढ़े बैठे हुये थे.
परंतु वहाँ कु र्सियों की संख्या सात थी. एक कु र्सी खाली थी.
वहाँ बैठे सभी छः के मध्य ! एक अजीब सी चुप्पी पसरी हुयी थी. अगर वहाँ अलाव नहीं जल रहा होता तो, यह समझ पाना ! असंभव जैसा ही था कि, वहाँ
कोई बैठा भी है. तभी बहुत हल्की सी आहट हुयी. बंगले में से, लगभग छः फिट का, एक व्यक्ति निकल कर, उन सभी की ओर, आ रहा था. उसने बड़ी सी
चादर को, इस प्रकार से, ओढ़ रखा था कि…………… उसकी आँखों पर, धारण किये हुये चश्मे के अलावा, उसके चेहरे का, कोई भी भाग ! नहीं दिख
रहा था.
उसके पहुँचने से पहले ही, सभी छः लोग, अपनी-अपनी कु र्सी से, खड़े हो चुके थे. वह निःशब्द ! खाली कु र्सी पर बैठ गया. अब वहाँ कु ल सात मनुष्य हो
चुके थे. उसके बैठने के साथ ही, बाकी के छः लोग ! संभवतः उसका चरणस्पर्श करने हेतु ! आगे बढ़ ही रहे थे कि…………… वह छः फिटा मानव !
अत्यंत गंभीर स्वर में बोला :
“समय की अल्पता को देखते हुये, कृ पया आप सब बैठ जायें. सभी को मेरा आशीर्वाद है.”
जब सभी ! पुनः अपनी-अपनी कु र्सियों पर, विराजमान हो गये. तब उस छः फिटे मनुष्य ने कहा :
“इस धरती पर, अरबों लोग हैं. परंतु आप सभी, वह सौभाग्यशाली हैं……………. जो प्रभु को, साक्षात् अपनी आँखों से, प्रकट होते हुये देखेंगे.”
सभी छः एकमेव स्वर में बोले :
“जी भगवान जी ! जय श्री राम !!”
भगवान जी नामक वह व्यक्ति बोले :
“आज वह शुभ तिथि आ चुकी है. जिसके बारे में, लगभग साढ़े चार वर्ष पूर्व ही, साक्षात् माता पार्वती एवं महादेव की आज्ञा से, भगवान विष्णु की सहमति के
पश्चात् ! उनके स्वरूप ! मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने, मुझे आज की तिथि बताते हुये, कहा था कि…………… सुभाष ! तुम सांसारिक तैयारियाँ पूर्ण
रखना. मैं पुनः प्रकट होऊँ गा. आज साक्षात् प्रभु श्रीराम की बतायी, वह शुभ रात्रि आ गयी है.”
थोड़ा रुक कर, उस व्यक्ति ने आगे कहा :
“मुझे तुम सभी के , दृढ़ इच्छाशक्ति पर, तनिक भी संदेह नहीं है. परंतु मैं तुम सभी को, सोचने-विचारने का, एक अंतिम अवसर ! प्रदान करता हूँ. अभी भी
कोई ! अपना कदम पीछे खींचना चाहे, तो खींच सकता है. क्योंकि अब ! यहाँ से यह मार्ग ! वन वे स्ट्रीट हो जायेगा.”
एक 42 वर्षीय व्यक्ति ने कहा :
“हममें से वैसा पापी, कोई भी नहीं है भगवान जी !”
भगवान जी नामक व्यक्ति बोले :
“करण ! तुम्हारी एवं दत्त की, क्लास वन वाली सरकारी नौकरी भी, छीन सकती है.”
40 वर्षीय दत्त नामक व्यक्ति बोले :
“राम-काज हेतु ! ऐसी-ऐसी लाखों नौकरियाँ ! प्रभु के श्री चरणों में न्योछावर है, भगवान जी !”
भगवान जी नामक व्यक्ति बोले :
“बहुत बढ़िया ! एक बार सभी को, उसके दायित्व का, स्मरण करा देता हूँ. क्योंकि उसके पश्चात् ! मिशन के दरम्यान ! हममें से कोई भी, आपस में
वार्तालाप नहीं करेगा. सर्वप्रथम हम सभी यहाँ से, एक साथ चलेंगे. अपनी इन सौभाग्यशाली आँखों से, प्रभु श्रीराम को, प्रकट होता देखेंगे. उसके पश्चात् !
……………”
भगवान जी नामक व्यक्ति ने, अपना गला साफ किया. एवं मद्धिम स्वर में, एक-एक व्यक्ति को, संबोधित करते हुये, योजना संबंधी दायित्वों को, संक्षेप में
बताना आरंभ किये :
“……………प्रेम ! (20 वर्षीय नौजवान) हम सभी तो, प्रभु के दिव्य दर्शन करके , तत्क्षण ! वापिस अपने-अपने मिशन पर लग जायेंगे. परंतु तुम
वहीं रहोगे. किसी भी गड़बड़ी का, संदेह होते ही, दौड़ कर वहाँ जाओगे. *जहाँ हमारी बैकअप टीम ! इस मिशन हेतु ! स्टैंड बाय पर खड़ी है.* तुम उनको
सूचित करोगे. उसके पश्चात् ! पुर्वनियोजित योजना अनुरूप एक्शन लोगे.”
“…………..अभय ! (29 वर्षीय अत्यंत जोशीला युवक) तुम एवं तुम्हारे सभी दरभंगिया बंधु ! अपनी योजना-अनुसार ! पूरे फै जाबाद (अयोध्या जी)
में, *भये प्रगट कृ पाला दीनदयाला* मिशन का, नेतृत्व करोगे.”
“…………अशोक ! (23 वर्षीय नौजवान) तथा कल्याण ! (17 वर्षीय किशोर) तुम दोनों ! अपने-अपने निर्धारित दिशा के गाँवों में, साइकिल दौड़ा
दोगे. ध्यान रहे ! तुम्हारा काज ! किसी को भी विस्तार से, बताने के बजाये, संक्षेप में बताते हुये, अधिक से अधिक क्षेत्र कवर करना है.”
“………….करण तथा दत्त ! तुम दोनों को, अपने स्वविवेक से, कै से-कै से इस पूरे मामले को, हैंडल करना है. तुम दोनों भलीभाँति जानते हो.”
“………….एवं मैं ! तत्काल दिल्ली प्रस्थान कर जाऊँ गा. वहाँ पटेल जी के साथ बैठ कर, संपूर्ण वस्तुस्थिति पर, दृष्टि बनाये रखूँगा.”
उसके बाद भगवान जी नामक व्यक्ति ने पूछा :
“क्या सभी तैयार हैं ?”
सभी एक साथ बोले :
“जी भगवान जी !”
भगवान जी नामक व्यक्ति खड़े होते हुये बोले :
“अब मैं अंतिम वाक्य बोलूँगा. उसके बाद ! आप लोग भी, एक अंतिम वाक्य बोलेंगे. उसके पश्चात् ! हममें कोई वार्ता नहीं होगी. सभी यंत्रवत् ! अपना-
अपना सदकर्म करेंगे ! रामकाज में जुट जायेंगे !”
फिर भगवान जी नामक वह व्यक्ति ! कोठी के मुख्य द्वार की ओर, तेज कदमों से, लंबे-लंबे डग भर कर, बढ़ते हुये बोले :
“पुनः प्रगट होने वाले हैं रामलाला ! कृ पाला दीनदयाला ! जय श्री राम !”
उनका अनुसरण करके , उनके गति को पकड़ने हेतु ! लगभग दौड़ते हुये, सभी छः सौभाग्यशाली मनुष्य ! एकमेव स्वर में बोले :
“जय जय श्री राम !”
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………..एक बार पुनः ! यहाँ से आगे के , लगभग छत्तीस वर्ष तक के , घटनाक्रमों को, अभी लिखने की अनुमति ! नहीं होने के कारण ! एक और छलांग
लगाते हुये, सीधे पहुँचते हैं…………… सन् 1985 के , सितंबर माह में.
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मूल श्रेणी के , नौवें जन्म !
यानि वर्तमान जन्म का, घटनाक्रम आरंभ !
यह कहानी है………….. निराशा ! व अंधकार के रसातल से ! सफलता के शिखर पर पहुँचे……… एक बच्चे की.
यह आत्मकथा है………….. एक ऐसे युवक की. जिसे महादेव ! एवं माता पार्वती ! ………..16 जून 2022 को, साक्षात् दर्शन दे कर……….
साधु बनने की, आज्ञा देते हैं. साधु बन कर ! विशेष धर्म-काज करने का, दायित्व सौंपते हैं. यह उन सत्य घटनाक्रमों के , विवरण का ! वह दस्तावेज है.
जिसमें उल्लेख है…………… उन सभी घटनाओं का, जिन सत्य घटनाओं के माध्यम से, आप जानेंगे कि………..
महादेव कै से ? रचना रचते हैं. एक अभूतपूर्व घटनाक्रम का. जिस घटनाक्रम में, 1986 के महाशिवरात्रि की रात को ! यानि 08 मार्च 1986 को, जन्म
होता है………. एक बच्चे का. राके श नामक बच्चे का.
वह बच्चा ! जिसने, अपने पिछले जन्म के , आरंभिक २१ वर्षों में, उसके पिछले जन्मों के , सभी कु कर्मों का, दंड भोगता है. फिर उसके , अगले २७ वर्षों तक
! कु ल १५०० कठिन परीक्षाओं से गुजरता है. जिसमें से उसको ! न्यूनतम ११११ परीक्षाओं में, उत्तीर्ण होना अनिवार्य होता है. परंतु वह उत्तीर्ण होता
है………. के वल ७५३ परीक्षाओं में.
उस बच्चे को, उसके पिछले जन्म के , उन ७५३ परीक्षाओं में, उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप ! उसे अत्यंत समृद्धि ! प्रसिद्धि ! एवं वैभवशाली ! जीवन जीने
का, प्रस्ताव प्राप्त होता है. परंतु इस जन्म का राके श ! तथा उस जन्म का सुभाष ! ………..
………….अपने उस जन्म के , न्यूनतम ११११ परीक्षाओं में, उत्तीर्ण नहीं हो पाने के कारण ! अपनी बची हुयी, शेष आयु को, हिमालय पर्वत पर जा
कर………… माता शक्ति ! एवं महादेव शिव की, तपस्या में लगा देता है. तथा 41 वर्षों की, कठोर तपस्या के पश्चात् ! उसके आत्मा द्वारा ! उस सुभाष
वाले देह को, त्यागने से पूर्व ! उसे साक्षात् ! महादेव एवं माता पार्वती के , दर्शन होते हैं.
देवों के देव ! महादेव द्वारा ! जब उसे वरदान माँगने की, अनुमति मिलती है. तब वह ! महादेव से, एक बड़ा ही अजीबोगरीब ! वरदान माँगता है. वरदान में
वह ! साढ़े अठ्ठासी वर्षीय वृद्ध सुभाष ! यह माँग करता है कि………… उसके अगले जन्म में, इस जन्म के , सभी कु कर्मों का दण्ड ! उसे शीघ्रातिशीघ्र
मिल जाये. कम-से-कम आयु में, उसे सभी दंड ! दे दिये जायें.
ताकि उसकी ! जो सत्ताईस वर्षीय परीक्षा ! उसके इक्कीस वर्ष की अवस्था में, आरंभ होने वाली होगी. वह बचपन में ही, आरंभ हो जाये. महादेव द्वारा !
“तथास्तु” बोलने के साथ ही, उसे उसके ! मनचाहे वरदान की, प्राप्ति होती है. वरदान प्राप्त होने के साथ ही ! उसकी आत्मा………… 16 सितंबर
1985 को, अपने पुराने देह का, त्याग करती है.
………………तथा वह आत्मा ! रिक्तता योनि में, बिना एक क्षण बिताये. अपने मूल स्वरूप के मृत देह से, सवा चार सौ किलोमीटर ! तथा अपने
दूसरे स्वरूप के मृत देह से, सवा तीन सौ किलोमीटर दूर स्थित ! इस अनंत सृष्टि के , अंतरिक्ष नामक विस्तार क्षेत्र के , ब्रह्मांड खंड के , क्षीरमार्ग आकाशगंगा
के , सूर्य नामक तारे के , पृथ्वी ग्रह के , भारत वर्ष देश के , बिहार प्रांत के , चम्पारण क्षेत्र के , एक गाँव ! छपरा बहास की एक स्त्री के , लगभग तीन मास के ,
गर्भ-भ्रूण में, प्रवेश करती है.
उसके लगभग छः माह पश्चात् ! यानि 08 मार्च 1986 को, महाशिवरात्रि की रात को, वह आत्मा ! नये देह के साथ ! इस धरती पर, पदार्पण करती है.
जो उस आत्मा का…………… एक करोड़, अड़सठ लाख, एक सौ सतहतरौवाँ जन्म है. तथा मूल श्रेणी का नौवाँ जन्म है.
यहाँ वर्णित ! या उल्लेखित घटनाक्रम ! उसी आत्मा के द्वारा ! धारण किये गये………….. इस अंतिम ! एवं वर्तमान जन्म वाले, राके श नामक देह के ,
बचपन की है.
महादेव द्वारा ! सन् 1986 में, नव-जीवन प्रदान करने के पश्चात् ! महादेव उसे, अगले 35 वर्षों तक ! विभिन्न-विभिन्न प्रकार के , लगभग डेढ़ हजार,
परीक्षाओं से गुजारते हैं. जिसमें से कु छ सौ परीक्षायें ! अत्यंत कठिन होती हैं. जिसमें से जीवित बच निकलना ! असंभव होता है. परंतु हर बार ! स्वयं
महादेव ही, स्वयं से, या अपने गण व दूतों के सहयोग से, बचाते व निकलवाते भी हैं.
यह सत्यकथा ! उन्हीं परीक्षाओं की है ! महादेव के असीम कृ पा की है ! उनके आशीर्वाद की है ! माता के अपने पुत्र के प्रति ! अत्यंत ममता भरे स्नेह की है
! वह स्नेह…………. जिसमें माता ! अपने उस बच्चे के , इतने कष्ट भरे, परीक्षा लिये जाने पर……………
महादेव से कभी, हठ करती हैं. कभी रुष्ट भी होती हैं. तो कभी मनाती भी हैं. तो कभी-कभी ! बच्चे को ही, समझाती हैं कि………… जाने दो पुत्र ! पिता
ही तो हैं. तुम्हारे भले के लिये ही, कर रहे हैं.
साथ ही यह ! एक युवा बिज़नेसमैन के , साधु बन जाने की, आत्मकथा भी है. जिसे साक्षात् महादेव के , आदेश से ही, लिखा जा रहा है. यह महागाथा है.
निराशा व अंधकार के , रसातल से निकल कर ! सफलता के शिखर पर पहुँचे…….. एक बच्चे की ! एक लड़के की ! एक युवक की ! तथा मोक्ष प्राप्त करने
जा रही, एक आत्मा की.
यह कहानी है…………. उस यात्रा की, जिसमें वह बालक ! अपने जन्म सन् 1986 से लेकर, अगले 35 वर्षों में, यानि सन् 2021 तक ! जीवन में
उतार-चढ़ाव के , अनगिनत आयाम देखता हुआ ! जैसे………. अत्यंत समृद्धि ! फिर दरिद्रता ! पुनः सफलता ! फिर भुखमरी ! ………और यहीं
क्रमिक चक्र ! कई-कई बार दुहराया जाना.
परंतु भगवान की कृ पा ! एवं उन्हीं के आशीर्वाद से प्राप्त ! पुरुषार्थ के बल-बूते………… पुनः सब कु छ ठीक करना. फिर नियति के खेल द्वारा ! पुनः सब
कु छ बिखरा देना. और बनने-बिगड़ने का यह क्रम………… एक बार ! या दो बार नहीं ! कई-कई बार घटित होना ! बार-बार घटित होना ! सैकड़ों बार
घटित होना.
तत्पश्चात् ! उस युवक को, अनगिनत उतार-चढ़ाव के बाद…………… महादेव द्वारा ! बृहद संपन्नता ! व सफलता के , सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाना. फिर
उसके तत्काल बाद ! उस युवक के जीवन में, अलग प्रकार के , अलौकिक घटनाओं का घटना. या यूँ कहें कि, निरंतर घटित होने वाली ! दैवीय अलौकिक
घटनाओं की, पूरी श्रृंखला का घटना.
जिसके परिणामस्वरुप ! उस युवा बिजनेसमैन द्वारा ! अपने कै रियर के , टॉप पोजिशन पर होते हुये ! एक झटके से, अपना सब कु छ त्याग कर……… साधु
बन जाने का, निर्णय करना. या महादेव द्वारा ! निर्णय कराना.
यह कहानी ! अब साधु बन चुके , उसी बच्चे की है ! किशोर की है ! युवक की है ! तो फिर चलिये, देरी ना करते हुये……….. इस आत्मकथा को, आरंभ
करते हैं. परंतु कहाँ से आरंभ करें ? यह समझ नहीं आ रहा. इसलिये ! आरंभ से ही, आरंभ करते हैं.
महागाथा ! आत्मकथा ! आरंभ…………..
सन् 1986 का वसंत ऋतु ! फाल्गुन माह ! महाशिवरात्रि ! दिनांक 08 मार्च ! (डॉक्यूमेंट के अनुसार 04 मार्च) को, बिहार के चम्पारण क्षेत्र में, एक
धनाढ्य किसान परिवार के , दूसरी संतान ! या दूसरे पुत्र के रूप में, उस बालक का, जन्म होता है. उसके जन्म के साथ ही, दबे-छिपे शब्दों में, एक और
चर्चा का भी, जन्म होता है कि…….…… वह बालक ! सर्वाइव नहीं कर पायेगा. कारण होता है ! उसका अत्यंत कमजोर होना.
“वह बच्चा आज मारेगा ! अच्छा ! आज नहीं मरा क्या ? फिर तो कल पक्का ही मर जायेगा !” ………….ऐसी चर्चाओं के मध्य ! वह बच्चा ! दिन-
प्रति-दिन ! अपना समय काटते हुये ! काल का ग्रास बनने की, प्रतीक्षा करते हुये ! बड़ा होता जाता है. पर जो नहीं होता है. वह है उसके स्वास्थ्य में,
रत्ती-भर भी सुधार. एक और चीज भी होती है. वह यह कि, वह बच्चा ! मरता भी नहीं है.
बच्चे का नामकरण कर दिया जाता है……….राके श. जो उसके तीन-चार वर्ष बड़े भाई ! मुके श के तर्ज पर होता है. बड़ा भाई मुके श ! जो अल्प आयु में ही,
अपने अभूतपूर्व शारीरिक विकास ! तथा विलक्षण बुद्धिमत्ता के कारण ! गाँव व रिश्तेदारों में, अभूतपूर्व ख्याति अर्जित करता है. वहीं उसका छोटा भाई
राके श ! उसके बिल्कु ल विपरीत ! मौत के आगमन की, बाट जोहता रहता है.
उस बालक की दादी ! व माता-पिता ! उपचार का हर यत्न करते हैं. ताकि बालक स्वस्थ्य हो जाये. पर वह बालक ! ड़ेढ़ वर्ष से अधिक की आयु का, हो
चूकने के पश्चात् भी ! बिस्तर से उठ कर ! बैठ पाना भी, नहीं सीख पाता.
उस डेढ़ वर्षीय बच्चे राके श का ! अगर कोई सबसे अच्छा मित्र-संगी है. तो वह है……… उससे तीन-चार वर्ष बड़ा ! उसका भाई मुके श. जो उसके साथ !
दिन-भर खेलता है. वो बैठ या चल नहीं सकता तो……….. वह उसको ! दिन भर घसीटता है. कु ल मिला कर ! उसे अपने बड़े भाई मुके श का साथ !
बहुत भाता है. उसके साथ वह ! तमाम शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद भी, अत्यंत प्रसन्न रहता है.
परंतु उसकी प्रसन्नता के , एक मात्र वजह को, ग्रहण लगने वाला है. क्योंकि बड़े भाई मुके श की ख्याति ! अब उस परिवार के , दुश्मनों को चुभने लगती है.
इतनी चुभने लगती है कि…………. उसकी मौत का ! षड्यंत्र रचा जाता है.
ध्यान रखें ! यहाँ पुरातन काल के , गौरवशाली ! वैभवशाली ! बिहार का, चित्रण नहीं हो रहा है. यहाँ चर्चा हो रही है. अस्सी के दशक वाले बिहार की.
आपसी पटेदारी ! व गवईं दुश्मनी से ओत-प्रोत ! ईर्ष्या तथा घृणा में ! आकं ठ तक डू बे हुये ! गाँव-समाज से बने बिहार की.
सन् 1987 का, शारदीय नवरात्र चल रहा होता है. गाँव में दुर्गापूजा के कारण ! हर्षों-उल्लास व उत्सव का माहौल है. उन दोनों भाइयों के पिता ! उस
दुर्गापूजा समिति के , मुख्य कर्ता-धर्ता हैं. सुबह का समय है……… तभी ! एक समाचार ! आग की भाँति ! पूरे क्षेत्र में पसर जाती है.
वह समाचार होता है…………. सामाजिक योद्धा ! गरीबों के मसीहा ! पंच-परमेश्वर ! बाबू-साहेब श्रीमान गंगा सिंह जी के , बड़े पुत्र मुके श का ! यानि उस
बालक राके श के , बड़े भाई का ! उसकी दादी द्वारा बनवाये गये ! शिव मंदिर के बगल में ! ट्रैक्टर द्वारा कु चले जाने के कारण ! बड़ी ही दर्दनाक मृत्यु हो गयी
है.
अपने बड़े भाई की मृत्यु का ! उस बच्चे को, कु छ समझ तो नहीं आया. बस ! शायद उसे इतना ही, समझ आया कि…………… कु छ तो है ! जो मिसिंग
है ! उस डेढ़ वर्षीय बालक के , बड़े भाई की मृत्यु ने, उस बच्चे के माता-पिता व दादी को, जो अपूरणीय क्षति पहुँचायी. वह तो अपनी जगह थी ही. परंतु उस
बच्चे के ऊपर तो, यह ब्रजपात सामान ही था. उसे तो समझ में भी नहीं आया कि……… यह हुआ क्या ?
उसकी आँखें ! …………..जो शायद ! स्वयं के मौत की प्रतीक्षा, अपने जन्म से ही कर रही थी. किं तु इस आघात् ने, उसके मृत्यु की बाट जोहती
आँखों को, पथरा दिया था. अब उन आँखों ने, रोना व अश्रु बहाना भी, छोड़ दिया था. शायद उन आँखों का, बस एक ही काज ! शेष रह गया था. एकटक
! बिना पलक झपकाये ! किसी शून्य को, निरंतर निहारते रहना.
क्योंकि उसके शारीरिक अक्षमता ! व अनगिनत बीमारियों से ग्रसित ! उसके दुःखदायी एवं पीड़ायुक्त देह को, उसके स्वर्गीय बड़े भाई द्वारा…………
घसीटा जाना ! उसे आनंदित करता था. अब उसके जीवन का, वह एक मात्र सुख भी, उससे छीन चुका था.
उसे अपने मौत की, बड़ी शिद्दत से तलाश थी. उसके परिवार के सभी हित-चिंतक ! उस पर तरस खा कर ! उसके माता-पिता व दादी के अनुपस्थिति में,
भगवान से एक प्रार्थना अवश्य करते थे कि………..
‘हे भगवान ! या तो, इस बच्चे को ठीक कर दो ! या फिर इसे ! अपने पास बुला लो’
कु छ माह पश्चात् ! उस बच्चे के गाँव ! छपरा बहास में, भिक्षाटन करते हुये ! शायद गूँगे या मौन-व्रतधारी ! एक सिद्ध महात्मा पधारे. जो उस बालक के , द्वार
पर भी आये. उस बच्चे की, शिव-भक्त दादी ने, साधु महाराज से, उस बच्चे को दिखाया ! एवं उनसे प्रश्न पूछा :
“हे महाराज ! इस बालक को, इसके पीड़ायुक्त देह से, कब मुक्ति मिलेगी ?”
साधु महाराज ने, संके तों के माध्यम से, जो बताया, तथा वहाँ उपस्थित जनों ने, उसका जो अर्थ निकाला. वह कु छ इस प्रकार था……….
*कै सी बात करती हो वृद्ध स्त्री ? ये इतना शीघ्र ! मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा. मैं जो देख पा रहा हूँ. वह यह है कि………… इसको माध्यम बना कर !
भविष्य में, साक्षात् भगवान भोलेनाथ ! कु छ अति विशिष्ट ! एवं बृहद विशाल धर्म-काज ! करने वाले हैं. अगर तुम्हारे लिये, यह बच्चा ! बोझ है तो, तुम
इसको ! मुझे सौंप दो.*
इतना सुनते ही, देहरी के पार ! अंदर की ओर, दरवाजे के पल्ले पीछे खड़ी ! उस बच्चे की माँ ! लोक-लिहाज की चिंता किये बगैर ! दौड़ती हुयी, दुवार
(मुख्य द्वार के बाहर का स्थान) पर आयी. एवम् अपने इकलौते बच्चे (एक मात्र जीवित बच्चे) को ले कर ! अंदर चली गयी. ताकि कहीं वो साधु महाराज !
सच में ही, उसके बच्चे को ले कर ! ना चले जायें.
जो भी हो ! पर उन साधु महाराज के द्वारा ! आशा का संचार करने से, उस परिवार को, संबल तो बहुत बड़ा मिला. बच्चे का पूर्ववत ! हर प्रकार के डॉक्टर
! वैद्य ! तांत्रिक ! सभी से इलाज चलता रहा. परिणाम भी हर बार की तरह ! वहीं ‘ढाक के तीन पात’ आता रहा. बच्चा ना ही मर रहा था. ना ही उसके
स्वास्थ्य में, रत्ती-भर भी, सुधार हो रहा था.
जहां से भी, जो भी सलाह ! राय ! मार्गदर्शन ! मिलता. उस राके श नामक बच्चे के अभिभावक ! उसका अवश्य पालन करते. इसी क्रम में, किसी ने राय
दिया कि………
*चूँकि ! इसके बड़े भाई मुके श की, दर्दनाक मृत्यु हो गयी है. और इसका नाम भी, मुके श के तुकबंदी में राके श है. अतः इसके मृत्यु की भी, प्रबल संभावना
है. अतः तत्क्षण ! इसका नाम बदलो.*
मरता ! क्या ना करता ! के तर्ज पर, तत्क्षण बच्चे का, नाम बदल दिया गया. या यूँ कहें कि, उसका नाम छिन लिया गया. क्योंकि उसे ! कोई नया नाम,
नहीं दिया गया. यानि अब उस राके श नामक बच्चे का, कोई नाम नहीं था. वह बच्चा ! अब अनाम था.
बच्चे की आयु ! पाँच वर्ष की होने वाली थी. बच्चे का चलना या खड़ा होना तो, बहुत दूर की बात थी. बच्चा तो बिना सहारे के , बैठ तक नहीं पाता था. बस पेट
के बल ! घसीट-घसीट कर ! कु छ-कु छ दूर ! खिसक भर जाता था.
तभी एक दिन ! उस बच्चे के परिवार को, एक और पद-यात्रा करते, सिद्ध संत महात्मा के बारे में, जानकारी मिली. तत्काल बच्चे के पिताजी ! उस स्थान पर
पहुँचे. जहाँ वह सिद्ध बाबा ! ठहरे हुये थे. किं तु वहाँ पहुँच कर, उन्हें पता चला कि…………… वह तो, दो सप्ताह पहले, वहाँ रात्रि विश्राम के लिये रुके थे.
अब तक तो, वह पता नहीं, पैदल चलते-चलते ! कहाँ तक पहुँच गये होंगे.
उनके बारे में, पता लगाने पर, यह ज्ञात हुआ कि, बाबा जी एक बड़ी लंबी यात्रा ! यानि देशाटन-तीर्थाटन पर निकले हैं. उन्होंने ! उन सिद्ध महात्मा ने !
अपनी पद-यात्रा ! उत्तर में नेपाल के , सुदूर हिमालय पहाड़ से आकर ! काठमांडू स्थित भगवान पशुपतिनाथ मंदिर से, आरंभ की है………
………तथा उनकी ये पद-यात्रा ! भारत के दक्षिणी आखिरी छोर पर, भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित ज्योतिर्लिंग ! रामेश्वरम धाम तक जायेगी. यात्रा के
साथ-साथ साधु महाराज ! एक और पुण्य-काज भी, करते जा रहे थे. मार्ग में मिलने वाले, श्रद्धालुओं से भेंट करना ! उनकी समस्यायें सुनना ! तथा उनके
कष्टों से उबरने का, समाधान बताना.
उस पाँच वर्षीय अनाम बच्चे (क्योंकि अब उसका कोई नाम नहीं था, उसका पुराना नाम, उससे छीना जा चुका था. और नया नामकरण ! अभी हुआ नहीं
था) के पिताजी ! घर पहुँचे. घर में वाहन के नाम पर, उपलब्ध जीप व बुलेट ! दोनों निकाली गयी. वाहन के लिये, कई गैलन अतिरिक्त ईंधन रखा गया.
तीन सेवकों (जिसमें एक जीप का ड्राइवर भी था) ने, बुलेट पर आसन जमाया. क्योंकि बच्चे के पिताजी को, ऐन समय पर, पता नहीं क्या सूझा कि, उन्होंने
स्वयं ही, जीप ड्राइव करने का, निर्णय करके ! ड्राइवर को अन्य दो सेवकों के साथ ! बुलेट पर सवार करा दिया. तथा वह स्वयं ! उनका वह अनाम बच्चा !
बच्चे की माता ! व दादी ! तथा एक घरेलू महिला सेविका ! जीप में सवार हो गये.
सिद्ध साधु महात्मा की खोज ! एक गाँव से, दूसरे गाँव ! दूसरे से तीसरे गाँव ! कस्बा ! व शहर में जारी थी. कहीं लोग-बाग बतलाते ! यहाँ तो बारह दिन
पहले रुके थे. यहाँ तो दस दिन पूर्व ! फलाँ आदमी के यहाँ रुके थे. सप्ताह भर पूर्व ! उस मठ में ठहरे थे. इत्यादि ! इत्यादि !
फिर एक दिन ! यानि उन सिद्ध संत के , खोज अभियान के तीसरे दिन ! लगभग दो सौ किलोमीटर से अधिक की ! सीधी व टेढ़ी-मेढ़ी ! गाँव-गाँव की यात्रा
के पश्चात् ! अब वह परिवार ! उत्तरी बिहार के , सीमावर्ती जिला चंपारण से चल कर……… पाटलिपुत्र (पटना) के समीप ! गंगा मैया को पार करके !
साधु बाबा के खोजबीन में, दक्षिणी बिहार के , गाँव-दर-गाँव ! भटक रहा था.
दोपहर के बाद का पहर ! एक गाँव में, उसी ग्राम के , एक ग्रामीण ने बताया :
“सिद्ध बाबाजी ! कल रात को, हमारे ही गाँव के , शिव मंदिर पर ठहरे थे. आज ही सुबह ! दक्खिन (दक्षिण) दिशा को निकले हैं. अब तक तो वह ! बहुत
दूर चले गये होंगे. लेकिन चूँकि ! आप लोग गाड़ी से हैं. तो हो सकता है. शायद उन तक ! जल्दी पहुँच जायें. आप लोग ! इस दिशा को जाइये.”
जीप और बुलेट ! उस ग्रामवासी के बताये मार्ग पर, दक्षिण दिशा की ओर, तेज गति से दौड़ चली. संध्या की गोधूली बेला ! सूर्य देवता अस्त होने ही वाले
थे. परंतु उस अनाम बच्चे के परिवारजन ! आँखों में उम्मीद की, नयी किरण के आस में, गाँव की धूल उड़ाते ! टू टे-फू टे, कच्चे सड़कों पर, हिचकोले खाते,
फ़र्राटा भरते ! जीप में बैठ कर ! चले जा रहे थे.
तभी सहसा ! उसी सड़क के किनारे, आगे थोड़ी दुरी पर, चलते हुये ! एक सिद्ध बाबा दिखे. ब्रेक लगने के साथ ही, जीप वहीं रुक गयी. सभी लोग ! जीप
व बुलेट से उतर कर, बाबा जी की ओर, तेज कदमों से चलने लगे.
वह अनाम बच्चा भी, अपनी माँ के गोद में था. जिसे कु छ ही क्षण बाद ! उसके पिता ने, अपने गोद में ले कर, बाबा जी की ओर, दौड़ लगा दिया. बच्चे के सवा
छः फिट के पिता जी ! अपने लंबे-लंबे कदमों से, कु छ ही देर में, बाबा जी के पीछे ! उनके समीप पहुँच गये.
आहट सुनकर बाबा जी मुड़े. पता नहीं क्या सोच कर, वह सिद्ध बाबा ! वही भूमि पर बैठ गये. तब तक ! पीछे से दौड़ते हुये ! उस अनाम बच्चे की माँ !
दादी ! व उनके घर के अन्य सेवक ! व सेविका ! भी पहुँच गये. किसी के भी, कु छ भी बोलने से पूर्व ! वह सिद्ध बाबा जी ! बच्चे के पिता पर, दिव्य दृष्टि
गड़ाये ! स्वयं ही बोल पड़े :
“बीस दिवस पूर्व ! तुम्हारे गाँव से ही तो, होकर आया हूँ. वहीं मिल लेते. तो इतना नहीं भागना पड़ता. समय को गवाँओगे ! तो भागना पड़ेगा ही.”
वहाँ उपस्थित ! सभी के सभी लोग ! विस्मित नेत्रों से, सिद्ध साधु बाबा को, देख रहे थे. उन सभी लिये, यह बड़ी ही, अबूझ पहेली थी कि……….. बाबा
जी ! इतना सब-कु छ, कै से जानते हैं ? बाबा जी ने आश्चर्यचकित लोगों को, ……………और आश्चर्य में डालते हुये, आगे बोले :
“लाओ बच्चे को, मुझे पकड़ाओ !“
उन्होंने बच्चे को, अपने दोनों हाथों से पकड़ा. कु छ देर तक ! अपने दोनों हाथों के सहारे ! उसे हवा में उठाये रखा. तत्पश्चात् ! उस बच्चे को, अपने बगल
में, बिठा कर के बोले :
“हाँ ! अब बताओ क्या समस्या है ?“
उनलोगों के मुख से, कोई बोल ही नहीं, फु ट रहा था. साधु बाबा ! तथा उस पाँच वर्षीय बच्चे को छोड़ कर ! वहाँ उपस्थित ! सभी जनों के आँखों से,
निरंतर अश्रुधारा ! बहे जा रही थी.
कारण ! चमत्कार हो चुका था. क्योंकि वह बच्चा ! जीवन में प्रथम बार ! बगैर किसी के सहारे ! या बिना किसी टेक के , बिल्कु ल सीधा बैठा हुआ था. बैठा
क्या था ? वह तो अपनी ही मस्ती में मस्त ! मिट्टी से खेल रहा था. कु छ मिट्टी ! उन साधु बाबा के ऊपर ! उछाल भी रहा था.
वहीं शांत बैठे साधु बाबा ! मंद-मंद मुस्कु रा रहे थे. बाकी सभी जन ! उनकी चरणों में, गिरे हुये थे. दूर पश्चिम में, सूरज देवता ! अस्त हो रहे थे. परंतु उस
परिवार के लिये तो, एक प्रकार से, सूर्योदय ही हो रहा था. उनकी टिमटिमाती हुयी, उम्मीद की ढिबरी ! अब प्रकाशमान हो चुकी थी. तभी सिद्ध साधु बाबा
! अपनी दिव्य व ओजस्वी वाणी से बोले :
“अब मेरे पीछे आने की, कोई आवश्यकता नहीं है. तुम लोग ! अब यही से लौट जाओ. अभी इस बच्चे के ऊपर ! कई झंझावात आना शेष है.”
“………उसके लिये ! अपने आप को, सुदृढ़ करो. परंतु चिंता मत करना ! यह बच्चा ! सभी झंझावातों को, पार कर जायेगा. क्योंकि इसको ! पार
करना ही होगा. ……विधि के विधान को, भला कौन टाल सका है. ये तो वैसे भी, माध्यम बनने वाला है. भविष्य में होने वाले, भगवान भोलेनाथ के , कु छ
अति विशिष्ट, एवं बड़े धर्म-काज प्रकल्पों का.”
इतना बोलकर, साधु बाबा ! आगे को बढ़ गये. उनके जाने के , काफी देर बाद तक भी,,वह सभी लोग ! अवाक् से, वही बैठे रहे. अंधेरा घिर आया था. तभी
आकाश से, बूँदा-बूंदी शुरू हो गयी. वह बच्चा ! जो अपने पाँच वर्ष के आयु तक ! एक शब्द भी, स्पष्ट नहीं बोल पाया था.
वही बच्चा ! अब………….. माई पानी ! माई पानी ! पानी ! पानी ! माई ! माई ! पानी माई ! माई पानी ! …………..निरंतर बोले जा रहा था.
क्रमशः