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ब्रेकफास्ट हैल्दी डाइट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह दौड़ने के लिए ऊर्जा उपलब्ध कराता है.

अगर आप मौर्निंग रनर हैं तो


आप का पोस्ट रन ब्रेकफास्ट अगले दिन दौड़ने के लिए रिकवर करता है. अगर आप दोपहर में दौड़ते हैं, तो ब्रेकफास्ट आप को
दौड़ने के लिए ऊर्जा से भरा महसूस कराएगा. अगर आप शाम को दौड़ते हैं, तो ब्रेकफास्ट सारा दिन ब्लड शुगर को स्थिर रखने
में सहायता करेगा. ब्रेकफास्ट करने का दूसरा फायदा यह होगा कि आप दोपहर में हैवी लंच खाने से बच जाएंगे, जिस से आप को
शाम को दौड़ते समय भारीपन महसूस नहीं होगा.
रनर्स ब्रेकफास्ट
ब्रेकफास्ट को दिन का सब से महत्त्वपूर्ण भोजन माना जाता है. 7-8 घंटे की नींद के बाद जब आप उठते हैं तो आप को अपने
दिन की शुरुआत करने के लिए ऊर्जा की जरूरत होती है. आप दौड़ने में कितनी कै लोरी बर्न करते हैं यह आप की दौड़ने की गति
और आप के भार पर निर्भर करता है. आप जितनी तेज गति से दौड़ेंगे आप की मैटाबोलिक दर उतनी ही अधिक होगी और उतनी
ही अधिक कै लोरी बर्न होगी. वैसे
1 मील चलने की तुलना में दौड़ने में लगभग दोगुनी कै लोरी बर्न होती है. 1 मील दौड़ने में एक औसत भार का व्यक्ति 100
कै लोरी बर्न कर लेता है. अगर आप मौर्निंग रनर हैं तो आप को अपने ब्रेकफास्ट को 2 भागों में बांटना होगा- प्रीरनिंग ब्रेकफास्ट
और पोस्ट रनिंग ब्रेकफास्ट.
प्री रनिंग ब्रेकफास्ट
दौड़ने के बाद पौष्टिक और संतुलित भोजन खाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है दौड़ने के पहले शरीर को ऐनर्जाइज
करना. आप दौड़ने से पहले जो खाते हैं, उस पर ही आप के दौड़ने की परफौर्मैंस निर्भर करती है. यह इस बात पर भी निर्भर
करता है कि आप कब और कितना दौड़ने की योजना बना रहे हैं.
महत्त्वपूर्ण है टाइमिंग
अगर आप सुबह 6 बजे 3 मील दौड़ना चाहते हैं तो के वल 20 मिनट पहले एक संतरा खाना ठीक रहेगा. जो लोग रविवार को
मैराथन दौड़ लगाना चाहते हैं उन्हें शनिवार की रात को भरपेट खाना चाहिए. खिलाडि़यों और ऐथलीटों को अपने प्रदर्शन के 3
दिन पहले से अपने खाने में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए.
पचने में हो आसान
दौड़ने के पहले के खाने में वसा और कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होनी चाहिए ताकि वह आसानी से पच सके .
ऊर्जा से भरपूर
प्री रनिंग ब्रेकफास्ट ऊर्जा से भरपूर होना चाहिए ताकि दौड़ते समय आप के मस्तिष्क और मांसपेशियों को लगातार ऊर्जा मिलती
रहे.
कितना खाएं
दौड़ने से पहले कभी भी बहुत ज्यादा न खाएं. अगर आप ज्यादा खाएंगे तो थका हुआ महसूस करेंगे, लेकिन ऐसा भी न करें कि
दौड़ने से पहले कु छ भी न खाएं क्योंकि खाली पेट दौड़ने से मांसपेशियां कमजोर होती हैं.
पानी का स्तर बनाए रखें
सब से पहली और जरूरी बात यह है कि शरीर में पानी का स्तर बनाए रखें. हालांकि आप दिनभर पानी पीते रहते हैं, लेकिन
दौड़ने से पहले थोड़ा ज्यादा पानी पीएं.
प्रोटीन है जरूरी
दौड़ने से पहले जो भी खाएं, उस में प्रोटीन होना सब से जरूरी है. प्रोटीन मांसपेशियों को टू टने से बचाता है और इस से शरीर
को लगातार ऊर्जा मिलती रहती है.
पोस्ट रनिंग ब्रेकफास्ट
दौड़ने के 1 घंटे बाद ही कु छ खाएं. लेकिन पानी अवश्य पी लें, क्योंकि दौड़ने से शरीर में इलैक्ट्रोलाइट की बहुत कमी हो जाती
है. स्वयं को पोषण देने के लिए नीबू पानी, नारियल पानी या सादा पानी ले सकते हैं. दौड़ने के बाद जो खाएं उस में अच्छी
गुणवत्ता वाला प्रोटीन ले सकते हैं. अंडे, फल, दूध और दुग्ध उत्पाद, ब्रैड, बटर, साबूत और अंकु रित अनाज आदि लिए जा
सकते हैं. अपने भोजन में नमक भी शामिल करें, क्योंकि पसीने से शरीर में नमक की कमी हो जाती है जिस से शरीर में सोडियम
की कमी हो सकती है. रक्त में शुगर का स्तर कम न हो इसलिए थोड़ी मात्रा में शुगर भी लें.
रनर्स के नाश्ते का कं पोजीशन
कार्बोहाइड्रेट: यह मांसपेशियों के लिए सब से आसानी से उपलब्ध ऊर्जा का स्रोत है. ब्रेकफास्ट की कु ल कै लोरी का 55-70%
कार्बोहाइड्रेट से आना चाहिए.
प्रोटीन: नाश्ते की कु ल कै लोरी का 15% प्रोटीन से आना चाहिए. प्रोटीन मांसपेशियों को शक्तिशाली बनाने के लिए बहुत जरूरी
है.
वसा: जो लोग नियमित रूप से दौड़ते हैं उन्हें वसा का सेवन कम मात्रा में करना चाहिए, क्योंकि यह शरीर के सर्वाधिक सांद्रित
ऊर्जा का स्रोत है.
फ्ल्यूड: रनर्स को पानी तो पीना ही चाहिए, लेकिन उस के साथ ही अन्य तरल पदार्थ का भी सेवन अधिक मात्रा में करना
चाहिए. यह शरीर के ताप को नियंत्रित करने और शरीर में जल का स्तर बनाए रखने के लिए जरूरी है.
इन्हें न खाएं
रनर्स का ब्रेकफास्ट जितना पोषक होगा उन का प्रदर्शन उतना ही बेहतर रहेगा. इसलिए जरूरी है कि ब्रेकफास्ट में ऐसे भोजन को
शामिल न किया जाए, जिस में कै लोरी की मात्रा तो भरपूर हो, लेकिन पोषकता अत्यधिक कम हो. नाश्ते में इन चीजों को खाने से
बचें:

व्हाइट ब्रैड, पेस्ट्री, डोनट, हलवा, मिठाई, के क, वसा युक्त दूध और दुग्ध उत्पाद, सोडा और कोल्ड डिं्रक्स, परांठे, साबूदाना,
पूरी सब्जी, कचौरी, समोसा.
क्यों जरूरी है ब्रेकफास्ट
ब्रेकफास्ट न करने से शरीर में वसा के मैटाबोलिज्म के लिए जरूरी ऐंजाइम्स उत्पन्न नहीं होते हैं. अगर आप सुबह ब्रेकफास्ट नहीं
करेंगे तो रक्त में शुगर और कोलैस्टेरौल का स्तर बढ़ जाता है, जो आप को कई बीमारियों का आसान शिकार बना सकता है,
साथ ही आप के लिए लंबे समय तक दौड़ना भी असंभव हो जाएगा.
ऊर्जा का स्तर बनाए रखने के लिए
ब्रेकफास्ट शरीर और मस्तिष्क को ईंधन उपलब्ध कराता है. अगर आप रनिंग करने के बाद ब्रेकफास्ट नहीं लेगे तो शरीर में ऊर्जा
का स्तर कम हो जाएगा. ऊर्जा उपलब्ध करवाने के अलावा ब्रेकफास्ट महत्त्वपूर्ण पोषक का भी अच्छा स्रोत है. ब्रेकफास्ट में खाया
जाने वाला साबूत अनाज, सूखे मेवे, फल और सब्जियां आदि प्रोटीन, विटामिंस और मिनरल्स के अच्छे स्रोत हैं. शरीर को इन
आवश्यक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और अगर ब्रेकफास्ट में इन का सेवन पर्याप्त मात्रा में न किया जाए तो दिन के
बाकी समय में इन की पूर्ति करना संभव नहीं होता है.
अगर आप रोज रनिंग करने के बाद पोषक नाश्ता नहीं करेंगे तो आप की हड्डियां और मांसपेशियां कमजोर हो जाएंगी. इसलिए
दौड़ने के 1 घंटा बाद पौष्टिक नाश्ते का सेवन बहुत जरूरी है.
ब्रेन पावर के लिए आवश्यक
ब्रेकफास्ट में अच्छे प्रकार का प्रोटीन खाने से अधिक देर तक पेट भरा लगता है. इस के अलावा यह प्रोटीन अमीनो ऐसिड
टायरोसिन को मस्तिष्क में पहुंचने में सहायता करता है, जिस की सहायता से सजगता बढ़ाने वाले रसायनों डोपामाइन और
ऐपिनेफ्रिन का उत्पादन होता है. अगर आप ब्रेकफास्ट नहीं करेंगे तो रक्त में शुगर का स्तर कम हो जाएगा जो नकारात्मक रूप से
मस्तिष्क को प्रभावित करता है. इस से आप अगले दिन खुद को दौड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाएंगे.

अगर आप की गर्भावस्था सामान्य है, तो इस दौरान कामकाज जारी रखने में कोई नुकसान नहीं है. लेकिन आप को इस दौरान
ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. ऐसे कई तरीके हैं, जिन के जरीए आप काम करने के दौरान अपनी गर्भावस्था को आसान बना
सकती हैं.

पहले के 3 महीने
गर्भावस्था के पहले 3 महीनों के दौरान शरीर में काफी बदलाव हो रहे होते हैं. इस दौरान होने वाले हारमोनल बदलावों का
मतलब है कि आप को थकान महसूस होगी. मुमकिन है कि बिना किसी बात के आप रोने लगें. ऐसे में खुद को भी और अपने
आसपास के लोगों को भी यह बताने से कि हारमोनल बदलाव के कारण आप के साथ ऐसा हो रहा है, आप को सही ट्रैक पर रहने
में मदद मिलेगी.

पोषक स्नैक्स जैसे कटी सब्जियां, फल, योगर्ट, पनीर, दाल, स्प्राउट्स, सोया, दूध और अंडों का सेवन करें, क्योंकि ये गर्भवती
कामकाजी महिलाओं के लिए बिलकु ल उपयुक्त होते हैं. गर्भवती महिलाओं के लिए दिन में कम से कम 4 बार कै ल्सियम युक्त
भोजन करना बेहद आवश्यक है.

क्या हो आहार

गर्भवती महिला के लिए अपना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए डाक्टर द्वारा बताए गए फोलेट और ओमेगा
3 सप्लिमैंट्स लेने भी महत्त्वपूर्ण हैं. ये सभी तत्त्व गर्भ में पल रहे शिशु के उचित विकास के लिए भी आवश्यक होते हैं. दिन भर में
लगभग हर 2 घंटे बाद पौपकौर्न, पीनट, पनीर, उबले हुए अंडे और फलों का सेवन करें, क्योंकि भूख या ब्लड में शुगर का स्तर
कम होने से उबकाई आ सकती है.

अगर आप गंभीर मौर्निंग सिकनैस की शिकार हैं, तो उस के लिए दवाएं उपलब्ध हैं. प्राकृ तिक घरेलू नुसखे भी अपना सकती हैं.
इस के अतिरिक्त गर्भवती महिला को नियमित रूप से ठंडा पानी, नीबू पानी, ज्वार का पानी, इलैक्ट्रोल पी कर खुद को हाइड्रेट
रखना चाहिए. उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे फलों, जूस या सप्लिमैंट्स से पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी मिल रहा
हो.

सोने की आदत में लाएं बदलाव

स्वस्थ शरीर के लिए गर्भावस्था मुश्किल समय होता है और संभव है आप को पूरी गर्भावस्था के दौरान थकावट महसूस हो.
विशेषतौर पर पहली और तीसरी तिमाही में. अगर मुमकिन हो तो दिन में थोड़ी देर करीब 2 घंटे सो लें. पहली तिमाही में मूत्राशय
पर पड़ने वाले अधिक दबाव का मतलब है कि आप को बारबार बाथरूम जाना होगा. इसलिए इस समय की भरपाई के लिए
अधिक देर तक सोएं. हर रात कम से कम 10-11 घंटे की नींद जरूर लें.

शिशु तक अच्छे रक्तप्रवाह के लिए रात में अच्छी नींद लेना महत्त्वपूर्ण है और इस से सूजन घटाने में भी मदद मिलेगी.
महत्त्वपूर्ण देखभाल

गर्भावस्था के दौरान अपनी देखभाल करना बेहद महत्त्वपूर्ण है, अपने स्वास्थ्य के लिए भी और गर्भ में पल रहे शिशु के लिए भी.
अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात कर लें कि अगर आप को समय से पहले छु ट्टी मिल जाए तो आप डाक्टर के पास जाने जैसे
अतिरिक्त काम कर सकें गी.

जैसेजैसे गर्भावस्था का समय बढ़ेगा आप के बढ़ते वजन के अनुसार शरीर के गुरुत्वाकर्षण का कें द्र भी बदलेगा. इस वजह से पीठ
में दर्द, पैरों में सूजन और मांसपेशियों में अकड़न हो सकती है. अगर आप दिन भर बैठी रहती हैं तो प्रत्येक 2 घंटे के अंतराल पर
करीब 5 मिनट टहल लें. आप पैर रखने के लिए अपनी मेज के नीचे एक स्टू ल भी रख सकती हैं. अगर आप को खड़ा होना है तो
पीठ में दर्द से बचने के लिए स्टू ल से एक बार में एक ही पैर उठाएं.

काम और गर्भवस्था में तालमेल

जब आप गर्भावस्था की तीसरी तिमाही में प्रवेश करेंगी तो शिशु के बढ़ने से आप के मूत्राशय पर दबाव पड़ेगा और आप को बारबार
बाथरूम जाना पड़ेगा. इस से आप को बारबार टहलने का मौका मिलेगा. अगर आप किसी भी वजह से सीट से उठें तो बाथरूम
तक हो आएं.

गर्भवती महिला को अपने डाक्टरों की अपौइंटमैंट्स और कार्यालय की जिम्मेदारियों को नोट कर रखना चाहिए और इसे घर और
औफिस दोनों जगह हमेशा साथ रखें. ज्यादा थकान से बचने के लिए अपने शैड्यूल तक ही सीमित रहें.

गर्भवती महिला को सुनिश्चित करना चाहिए कि वह अपने दिन का शैड्यूल इस तरह तय करे कि उस में आराम के लिए थोड़ा
वक्त मिले. ऐसा करने पर उसे अधिक थकान नहीं होगी.

नशा और शराब से दूरी

औफिस से निकल कर सैर पर जाने से खून के थक्के जमने, वैरिकोस वेंस और पैरों में सूजन की आशंका घटेगी. भारीभरकम काम
करने या वस्तुएं उठाने से भी बचना चाहिए. इस से पैरों में सूजन नहीं होगी. रात में सोते समय अपने पैर थोड़े ऊपर कर के सोएं.
धूम्रपान महिला और शिशु दोनों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है. इस के कारण गर्भपात, समयपूर्ण प्रसव, जन्म के दौरान
कम वजन और नवजात की मृत्यु तक की आशंका रहती है. ऐसे में बेहतर यही होगा कि गर्भवती महिला शराब से दूर रहे. फीटल
अलकोहल सिंड्रोम से शिशु में गंभीर और जन्मजात विकार हो सकते हैं. ऐसा शराब की बेहद कम मात्रा लेने से भी हो सकता है.

– डा. मोनिका वधावन, सीनियर कं सल्टैंट, डिपार्टमैंट औफ ओब्स्टट्रिशियन ऐंड गाइनेकोलौजी, फोर्टिस हौस्पिटल, नोएडा

श्यामली की मां को बहुत तेज बुखार था. खांसी भी बहुत ज़्यादा उठ रही थी. खांसतेखांसते वे बेदम हुई जा रही थीं. श्यामली
जब कालेज से लौटी तो मां की ऐसी हालत देख कर घबरा गई. उस ने जल्दी से रिकशा बुलाया और मां को ले कर पास के
अस्पताल पहुंची. ओपीडी में डाक्टर ने श्यामली की मां का चैकअप किया और उन को तुरंत भरती करने का परचा लिख दिया.
जनरल वार्ड में श्यामली की मां को भरती किया गया. कु छ देर में नर्स ने श्यामली को कु छ दवाएं लाने के लिए नीचे फार्मेसी में
भेजा. श्यामली जब दवाएं ले कर लौटी तो उस ने देखा कि उस की मां के चेहरे पर प्लास्टिक का बड़ा सा मास्क लगा है, जिस में
से धुआं सा निकल रहा था और उस की एक मशीन बगल में रखे स्टू ल पर चल रही थी.

श्यामली मां के मुंह पर लगी मशीन देख कर रोने लगी. वह रोतेरोते वार्ड से बाहर आई और अपने मामा को फ़ोन कर के उन से
कहा कि मां को औक्सीजन लग गई है. उन की हालत बहुत खराब है. पता नहीं ज़िंदा बचेंगी या नहीं. आप तुरंत आ जाइए.

श्यामली के मामाजी दूसरे शहर में रहते थे. श्यामली की बात सुन कर घबरा गए और तुरंत बैग में एक जोड़ी कपड़ा डाल कर बस
से निकल पड़े. श्यामली अपनी मां के साथ अके ली थी. उस के पिता का कु छ साल पूर्व निधन हो गया था. पिता की जगह मां को
नौकरी मिल गई थी, मगर इधर एक हफ्ते से खांसीबुखार की वजह से वे औफिस नहीं जा रही थीं. श्यामली अभी कालेज में पढ़
रही थी.

मामाजी से बात कर के जब श्यामली वापस मां के पास पहुंची तो उस ने देखा कि नर्स उन के मुंह पर चढ़ा मास्क हटा रही थी.
मशीन भी उस ने बंद कर दी थी. वह श्यामली की मां से पूछ रही थी कि अब सांस लेने में कठिनाई तो नहीं हो रही है. मां ने
कहा- नहीं.

श्यामली ने नर्स से पूछा- आप ने औक्सीजन क्यों लगाई थी? नर्स ने हंस कर कहा- औक्सीजन नहीं, नेबुलाइजर दिया था ताकि
फे फड़े ढीले हों और खांसी में आराम आए.

श्यामली को अपनी बेवकू फी और नादानी पर शर्म आ गई. हाय, मामाजी तो बस स्टेशन के लिए निकल पड़े होंगे, यह सोच कर
वह परेशान हो गई. दरअसल श्यामली ही नहीं, हम में से बहुत सारे लोग डाक्टरी में इस्तेमाल होने वाले अनेक उपकरणों के बारे
में नहीं जानते हैं. बहुत सारे उपकरण अब अस्पतालों में आमतौर पर इस्तेमाल होने लगे हैं, इन में से एक उपकरण है नेबुलाइजर.
बदलते मौसम का सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है और जिन लोगों की इम्यूनिटी कमजोर होती है, उन पर इस का असर
बहुत जल्दी देखने को मिलता है. वे आसानी से वायरल संक्रमणों का शिकार बन जाते हैं और सर्दी-जुकाम उन के फे फड़ों सहित
पूरे श्वसन तंत्र को जकड़ लेता है. इस से सांस लेने में भी कठिनाई होने लगती है. सर्दी-जुकाम सुनने में जितना आम लगता है,
इस का असर इतना आम नहीं होता है. इस से पीड़ित होना काफी कष्टदायक होता है, इस में बंद नाक, गले में दर्द, लगातार
छींक, सिरदर्द, मुंह का कड़वा स्वाद, आंखों में जलन और पानी आना न जाने कितनी अलगअलग तरह की समस्याएं होती हैं.
इस की वजह से रेस्पिरेटरी सिस्टम बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है. ऐसे में स्टीम लेना सब से आसान और प्रभावी उपाय माना
जाता है और स्टीम लेने के लिए नेबुलाइजर का इस्तेमाल करना अब बहुत आम हो गया है. अस्पतालों में तो भरती मरीजों को
सुबहशाम नेबुलाइज किया जाता है, ताकि उन को शीघ्र आराम मिल जाए.

नेबुलाइजर के इस्तेमाल से ठीक तरह से सांस लेने में मदद मिलती है. नेबुलाइजर में इस्तेमाल की जाने वाली दवा आसानी से
शरीर में पहुंच जाती है और तुरंत अपना असर दिखाने लगती है, जिस की वजह से मरीज को तुरंत आराम मिलता है. नेबुलाइजर
का इस्तेमाल सर्दी-जुकाम, संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और सीओपीडी जैसी पुरानी बीमारी में जल्दी आराम प्रदान करने के लिए किया
जाता है. सर्दी और फ्लू होने के कारण फे फड़े संक्रमित हो जाते हैं, जिस से अस्थमा के लक्षण और अस्थमा के दौरे का खतरा
बहुत ज्यादा बढ़ जाता है. अस्थमा के कारण श्वसन रोगों के विकसित होने की संभावना अधिक हो जाती है. नेबुलाइजर के
इस्तेमाल से अस्थमा और फ्लू के इलाज में काफी आराम मिलता है और इस से सूजन भी कम होती है.

नेबुलाइजर के इस्तेमाल के फायदे

नेबुलाइजर सांस की परेशानी में मरीज को सीधे फे फड़े में दवा देने के लिए सब से सरल, फायदेमंद और सुरक्षित तरीका माना
जाता है. नेबुलाइजर के इस्तेमाल से दवा शरीर के उस भाग में तुरंत जाती है जहां उस की सब से ज्यादा जरूरत होती है, यानी
फे फड़ों में. परंपरागत तरीके से दवा को गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट से हो कर मनुष्य के रक्तप्रवाह में जाने में काफी समय लग जाता
है, और फिर आराम मिलने में भी देर होती है. इस के विपरीत नेबुलाइजर दवाओं को सीधे श्वसन तंत्र में पहुंचाता है और मरीज
को तुरंत आराम देता है. नेबुलाइजर का उपयोग करने से सांस की समस्याओं को विकसित होने से रोकने के साथसाथ सांस की
गंभीर आपातकालीन स्थितियों का इलाज करने में भी मदद मिलती है. मुंह के माध्यम से ली जाने वाली दवाओं की तुलना में,
नेबुलाइजर से लेने पर दुष्प्रभावों की संभावना भी काफी हद तक कम हो जाती है.

कै से काम करता है नेबुलाइजर ?

चिकित्सा उद्योग में नेब्युलाइज़र एक ऐसा उपकरण है जिस का उपयोग दवा को फे फड़ों में एक धूम के रूप में पहुंचाने के लिए
किया जाता है. नेबुलाइजर एक एयरकं प्रेशर है. यह माउथपीस के ज़रिए दबाव वाली हवा का लगातार प्रवाह देता है. नेबुलाइजर
तरल दवा को धुंध में बदल देता है. इस धुंध को सांस में ले कर दवा को शरीर में पहुंचाया जाता है. शरीर दवा को शीघ्र सोख
लेता है. नेबुलाइजर की मदद से सांस लेना आसान हो जाता है. नेबुलाइजेशन श्वसन देखभाल का एक रूप है. यह एक चिकित्सा
प्रक्रिया है. अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, लंग्स या सांसों से जुड़ी अन्य परेशानियों व इंफै क्शन की स्थिति में नेबुलाइजर मशीन काफी
काम आती है. नेबुलाइजर फे फड़ों तक दवा पहुंचने में 5-10 मिनट लगाता है. नेबुलाइजर का इस्तेमाल हमेशा चेयर पर सीधे
बैठ कर किया जाता है ताकि दवा सीधे फे फड़ों तक पहुंच सके .

डाक्टर अकसर अस्थमा, सीओपीडी या अन्य श्वसन संबंधी रोग से ग्रस्त लोगों को ब्रोंकोडाईलेटर्स लिखते हैं. इस में नेबुलाइजर
द्वारा स्टेराइल से लाइन सोल्यूशन रोगी के फे फड़ों तक पहुंचाया जाता है. यह वायुमार्ग को तुरंत खोलने और बलगम को पतला
करने में मदद करता है. इस से बलगम ढीला हो कर फे फड़ों से आसानी से बाहर निकल जाता है. ये स्टेरौयड श्लेष्म झिल्ली में
सूजन को भी शांत करते हैं और शरीर को ठीक होने की दिशा में प्रेरित करते हैं.

घबराहट होने की स्थिति में, सांस फू लने पर, अस्थमा में, सर्दी व जुकाम के संक्रमण में, सीने में जकड़न होने पर, सिस्टिक
फाइब्रोसिस या ब्रोन्किइक्टेसिस की समस्या में, कफ व बलगम के निर्माण को रोकने के लिए, संक्रमण के इलाज में एंटीबायोटिक
का सेवन करने के लिए, छोटे बच्चों और शिशुओं को आसान तरीके से बिना किसी परेशानी के दवा देने के लिए नेबुलाइजर का
इस्तेमाल किया जाता है.

नेबुलाइजर की कीमत

आमतौर पर पोर्टेबल नेबुलाइजर, होम नेबुलाइजर की तुलना में थोड़े महंगे होते हैं. इसे खरीदने से पहले डाक्टर की सलाह जरूर
लेनी चाहिए. नेबुलाइजर की कीमत लगभग 500 से 10,000 रुपए के बीच होती है.

नेबुलाइजर का इस्तेमाल कै से करें ?

नेबुलाइजर के इस्तेमाल से पहले अपने हाथों को साबुन और गरम पानी से अच्छे से धो लें, क्योंकि हाथों में बहुत सारे बैक्टीरिया
मौजूद होते हैं, जो आसानी से शरीर के अंदर प्रवेश कर सकते हैं. इस के बाद नली को कं प्रेशर के साथ जोड़ें. अब इस में दवा
डालें. फिर इस में अपने माउथपीस या मास्क और होज़ को मैडिसिन कप से जोड़ें. इस के बाद अपना मास्‍क लगाएं या अपने
माउथपीस को अपने होंठों के चारों ओर मजबूती से अपने मुंह में रखें. अब अपने नेबुलाइजर को चालू करें और अपने मुंह से तब
तक सांस लें जब तक कि सारी दवा खत्म न हो जाए. दवा खत्म हो जाने के बाद नेबुलाइजर को बंद कर दें और दवा व
माउथपीस को अच्छे से धो लें और इसे कु छ देर हवा में सूखने के लिए छोड़ दें.

अगर आपकी भी बार-बार टू टती है नींद, तो सावधान होने की जरूरत है. जी हां मैं आज इस बारे में यू हीं बात नहीं कर रही है,
एक रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ है कि बार-बार नींद टू टने से मानसिक क्षमता पर असर पड़ता है जो कि आगे चलकर खतरनाक हो
सकता है इसलिए अगर आपको भी ये परेशानी है तो आपको इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. बीबीसी की एक रिपोर्ट के बारे
में आपको बताती हूं जिसने इस मुद्दे पर हाल ही अपनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें बेहद ही चौंकाने वाली बातें हैं जिसपर आप सभी
का ध्यान जाना जरूरी है.
दरअसल अगर आपको नींद ठीक से नहीं आती है तो इसे साइंस और मेडिकल की भाषा में ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया यानि
की OSA के लक्षण कहते हैं जिसका दिमाग पर सीधा असर होता है. इससे दिमाग़ के सोचने-समझने की क्षमता पर बुरा असर
पड़ सकता है.

इस विषय पर आई BBC की नई रिपोर्ट कहती है कि भारत में 10 में से एक व्यक्ति इस समस्या का शिकार है, और उम्र बढ़ने
पर ये शख्स के दिमाग की कार्य क्षमता पर असर डालता है.

नींद पूरी न होने शरीर पर क्या असर पड़ता है ?

डॉक्टर बताते हैं कि अगर किसी शख्स की नींद पूरी नहीं होती तो के वल दिमाग ही नहीं बल्कि पूरे शरीर पर इसका असर पड़ता
और काम करने की क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. इंसान के अंदर चिड़चिड़ापन, कोई भी फै सला लेने में असमर्थ, दिन में
नींद आती है, आपकी याददाश्त कमजोर होने लगती है, इंसान चीजें भूलने लगता है. एग्जाइटी की प्रॅाब्लम होने लगती है, इंसान
के अंदर शक्ती, ऊर्जा की कमी होने लगती है,ब्लडप्रेशर पर असर पड़ता है, अगर डायबीटिज हो तो बीमारी से निपटने की क्षमता
में भी कमी आती है, और दिनभर थकान बनी रहती है. ये तो वो समस्याएं हैं आमतौर पर हर डॉक्टर बताते हैं. लेकिन बीबीसी से
बातचीत में पदमश्री से सम्मानित डॉ कामेश्वर प्रसाद ने चौकांने वाले खुलासे किए. दरअसल उन्होंने बताया की लगभग 7505
वयस्कों पर एक शोध किया गया, जिसमें जीनोमिक्स, न्यूरोइमेजिंग और नींद से जुड़े कई पैमानों का अध्ययन किया गया. भारत
में ये पहली तरह का शोध है, जिसमें, इसमें महिला और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर थी.

उन्होंने बताया की कई देशों की तरह भारत में भी ये समस्या तेजी से फै ल रही है. युवाओं के साथ-साथ अब इस समस्या के
कारण बुज़ुर्गों की संख्या भी बढ़ रही है. वैसे तो बुजुर्गों को आमतौर पर उम्र बढ़ते-बढ़ते कई बीमारियां घेर लेतीं हैं जिसमें हार्ट
अटैक, भूलने की बीमारी, घुटनों में दिक्कत. लेकिन कु छ समस्या नींद पूरी न होने पर भी होती है. और बड़े-बुढ़ों को तो आमतौर
पर उम्र के साथ-साथ नींद भी कम आती है.

ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया (OSA) क्या है ?

ओएसए एक डिसआर्डर होता है, ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया (OSA) नींद से जुड़ा एक ब्रीदिंग डिसऑर्डर है. इसकी वजह से
सोते समय सांस बार-बार रुकती और फिर चलती है और अगर सांस बार-बार रुके गी तो जाहिर है कि इंसान की नींद खुल
जाएगी और पूरी रात ये सिलसिला चलता रहता है. इसे ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया कहते हैं. कई बार खर्राटों के कारण भी
इंसान की नींद टू टती है.

एक नॉर्मल से उदाहरण से समझिए. जो महिलाएं मां बनती है बच्चे के जन्म के बाद करीब कई महीनों तक माता-पिता दोनों की
नींद पर असर पड़ता है और ऐसे में उन्हें बच्चे की खुशी तो रहती है लेकिन साथ नींद पूरी न होने के कारण चिड़चिड़ापन आता है
क्योंकि रात को बच्चा कई बार दूध पीने के लिए या किसी भी वजह से बार-बार उठता है तो मां को भी उठना पड़ता है. लेकिन
क्योंकि बच्चे का खिलखिलाता हुआ चेहरे वो जैसे ही देखते हैं उनकी सारी थकान दूर हो जाती है. लेकिन अन्य व्यक्तियों में अगर
ये समस्या है तो खतरनाक बीमारी बन जाती है.

कितनी नींद जरूरी होती है ?

डॉक्टर बताते हैं कि एक नवजात शिशु को ज़्यादा घंटों की नींद लेनी चाहिए जैसे तुरंत पैदा हुआ बच्चा करीब 20 घंटे तक सोता
है या 14 से 17 घंटे भी हो सकते हैं. वहीं जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है नींद में कमी आने लगती है. वहीं 18-26 साल के
युवा और 26-64 वर्ष के लोगों को सात से नौ घंटे और 65 से ज़्यादा उम्र के लोगों को 7-8 घंटे की नींद लेनी चाहिए. इतनी
नींद बहुत जरूरी होती है सेहत के लिए.

आज के दौर में जिम करने की जरूरत सभी को है. ऐसे में महंगे जिम पैके ज लेना और वहां जाना सभी के लिए सुविधाजनक नहीं
होता. जरूरत इस बात ही है कि अपने घर में ही जिम बनाएं. इस के जरिए खुद को फिट रखें. आमतौर पर देखा जाता है कि
लोग अपना जिम बनाते समय ट्रेडमिल जैसे इक्विपमैंट खरीद लेते हैं जिन का रखरखाव ही कठिन होता है. अपना जिम बनाते
समय इस बात का ध्यान रखें कि ऐसे इक्विपमैंट रखें जिन का प्रयोग सभी लोग कर सके .

घर में अपना जिम बनाने से पैसा और समय दोनों बचेगा. घर में जिम बनाने के लिए एक रूम का चुनाव कर ले, जहां रोशनी और
सही वैंटिलेशन हो. ऐसी जगह पर परफै क्ट जिम बनाया जा सकता है. जिम के लिए जरूरी है कि एक अच्छा सा मैट हो. मैट का
चुनाव करते समय देखें कि वह फिसलने वाला न हो. मैट के अलावा एक कु रसी और 3 स्टैप्स वाली सीढ़ी की व्यवस्था कर लें.
सीढ़ी पर चढ़ कर और उतर कर वेट लौस ऐक्सरसाइज शुरू कर सकते हैं.

सस्ते हैं जिम इक्विपमैंट

घर में जब जिम तैयार करना हो तो ध्यान रखें कि शुरूआत सस्ते इक्विपमैंट से करें. ये इस तरह के हों कि सभी लोग इन का
प्रयोग कर सकें . आजकल इस तरह के जिम इक्विपमैंट आराम से मिल जाते हैं. डेक्थोलान जैसी जगह पर एक ही जगह पर सभी
इक्विपमैंट बजट के अंदर मिल जाते हैं. अपनी जरूरत के हिसाब से जिम इक्विपमैंट खरीदे जा सकते हैं. ये ऐसे होते हैं जो देखने में
अच्छे लगते हैं.

कमरे में सभी जिम इक्विपमैंट रैक पर रखें, जिस से इन को देखते ही जिम का एहसास हो, मन ऐक्सरसाइज करने का करे. जिम
के लिए लोवर और टीशर्ट का प्रयोग करें. अच्छे आरामदायक शूज का प्रयोग करें. इस से जिम में ऐक्सरसाइज करते समय कोई
दिक्कत नहीं होगी. डंबल्स का प्रयोग करते समय हाथ में ग्लब्स पहनें, जिस से हाथ पर निशान न पड़ें.
जिम इक्विपमैंट में सब से पहली जरूरत डंबल्स की होती है. वेट लिफ्टिंग ऐक्सरसाइज के लिए डंबल्स और बार्बेल्स जरूरी होते
हैं. ये 150 रुपए से 500 रुपए प्रतिकिलो वजन के आधार पर मिलते हैं. कु छ स्टोर्स पुराने डंबल्स के साथ एक्सचेंज औफर भी
देते हैं. अपनी जरूरत के अनुसार इन का वजन बढ़ा सकते हैं. लड़कियों के प्रयोग के लिए अब ये पिंक कलर में भी आने लगे हैं.
वैसे, आमतौर पर ये काले रंग के होते हैं.

अपने जिम में दूसरी सब से जरूरी चीज स्किपिंग रोप यानी रस्सी रखें. किसी भी स्पोर्ट शौप पर स्किपिंग रोप आसानी से मिल
जाएगी.

सामान्यतया यह 150 रुपए से 1,500 रुपए तक की रेंज में मिल जाती हैं. अपने बजट और जरूरत के अनुसार इसे ले आएं.
रस्सी कू दना बेहद आसान और प्रभावी वर्क आउट है.

इस के अलावा ऐक्सरसाइज बौल का भी प्रयोग कर सकती हैं. खुद को शेप में रखने के लिए ऐक्सरसाइज बौल या स्टेबलिटी
बौल काफी प्रभावी होता है. इस का इस्तेमाल दूसरे उपकरणों के साथ भी कर सकते हैं. बाजार में इस की कीमत 600 रुपए से
1,000 रुपए के बीच है. जिन को पतली कमर के लिए जिम जाना पसंद है बे गोल छल्ला या हूप का प्रयोग कर सकती हैं. वेस्ट
से कै लोरीज कम करने के लिए हूप एक बेहतरीन उपकरण है. इसे कमर में डाल कर कमर घुमाने से पेट और कमर की चरबी
घटती है. हूप खरीदते समय ध्यान रखें कि यह उतना ही बड़ा होना चाहिए जितने बड़े आप हैं. बाजार में इस की कीमत 150
रुपए से शुरू हो सकती है.

स्ट्रेचिंग और शरीर का संतुलन बनाए रखने के लिए रजिस्टेंस बैंड्स का काफी उपयोग किया जाता है. इसे खरीदते वक्त ध्यान
रखें कि हैंडल्स की ग्रिप अच्छी हो. ये बाजार में 1,500 से 3,000 रुपए तक की कीमत में मिल सकते हैं. जिम में वेट मशीन
का होना भी जरूरी है, जिस से आप अपने वजन में होने वाले बदलावों का रिकौर्ड रख सकें . बाजार में वेट मशीन 800 से
1,500 रुपए की कीमत तक में मिल जाती हैं.

सही तरह से करें ऐक्सरसाइज :

महंगी ट्रेडमिल की जगह पर अपने घर में ही आप एक ही जगह पर खड़ेखड़े जिम कर सकते है. एक बात का खयाल रखें कि जिम
की शुरुआत करने के लिए किसी जिम ट्रेनर की मदद लें, जिस से आप को सही तरह से ऐक्सरसाइज करना आ जाए क्योकि
गलत तरह से ऐक्सरसाइज करने पर दिक्कत हो सकती है. आजकल हर जिम इक्विपमैंट के साथ उस का प्रयोग कै से करना है,
इस की जानकारी दी जाती है. पत्रपत्रिकाओं और सोशल मीडिया के जरिए भी सही तरह से जिम करना सीख सकते हैं.

जिम करते समय कु छ सावधानियां भी जरूरी हैं. एक तय समय पर ही ऐक्सरसाइज करें. सब से अच्छा समय सुबह का होता है.
इस के बाद शाम का समय भी होता है. खाना खाने के तुरंत बाद जिम न करें. पानी और फलों का सेवन करें. जिम का सही लाभ
लेने के लिए डाइट का भी ध्यान रखें. इस तरह से आप घर में ही सस्ता जिम बना सकते हैं, जो आप की ऐक्सरसाइज के लिए
बहुत सरल होता है. घर में समय निकाल कर इस को नियमित करें. अपनी बौडी की जरूरत के हिसाब से जिम करें. महंगे जिम
के पैके ज लेने की जगह घर पर ही जिम बनाएं और खुद को फिट रखें.

55 वर्षीय सुशीलकांत 10 वर्षों से मधुमेह यानी डायबिटीज के मरीज हैं. पिछले कई दिनों से उन की शुगर भी नियंत्रण में नहीं है.
एक शाम उन को लगा कि उन की आंखों के आगे अंधेरा सा छा रहा है, फिर कु छ देर ठीक रहा और थोड़ी देर बाद फिर वही
स्थिति हो गई. 2 दिनों के बाद अचानक उन्हें लगा कि उन्हें नहीं के बराबर यानी बहुत ही कम दिख रहा है. तुरंत चिकित्सक से
संपर्क किया गया. जांच से मालूम हुआ कि मधुमेह का असर आंख पर पड़ा है और उन का रेटिना क्षतिग्रस्त हो गया है.
चिकित्सक की सलाह पर शहर के बाहर विशेषज्ञ रेटिना सर्जन से संपर्क किया गया. रेटिना सर्जन के इलाज से उन की आंखों की
रोशनी को बचाया जा सका वरना वे नेत्रहीन हो जाते.

मधुमेह यदि ज्यादा पुराना हो या अनियंत्रित हो तो उस का कु प्रभाव आंखों पर अवश्य पड़ता है. इसे चिकित्सा शास्त्र में
‘डायबिटिक रेटिनोपैथी’ कहा गया है. इस जटिलता, जो मधुमेहजन्य है, में आंखों के परदे, जिसे ‘रेटिना’ कहा गया है, की
रक्तवाहिनियां नष्ट हो जाती हैं और इस से रक्त बहने लगता है या रिसाव होने लगता है. यह जटिलता समाज के उच्चवर्ग में अधिक
देखने को मिलती है. ऐसे में हरेक मधुमेह रोगी को चाहिए कि वह वर्ष में 2 बार अपना नेत्रपरीक्षण अवश्य करवाएं.

दृष्टि पर प्रभाव : कै से कै से

एक तरह की रेटिनोपैथी तो अधिकतर लोगों में देखने को मिलती है. इस का कोई लक्षण या संके त नहीं मिलता. इस में रेटिना में
सूजन आ सकती है तथा आंखों के पास गंदगी या मैल जमा हो सकता है. चिकित्सा विज्ञान के अनुसार, आंख की इस छोटी से
रक्तवाहिनी को काफी नुकसान झेलना पड़ता है. यह रेटिनोपैथी फै लती नहीं है.

दूसरी तरह की रेटिनोपैथी में नई रक्तवाहिनियां रेटिना के आसपास बनने लगती हैं, जिस से रक्तस्राव होने लगता है. इस में कई
बार व्यक्ति की दृष्टि चली जाती है. नई रक्तवाहिनियों के पनपने से रेटिना पर खिंचाव आ सकता है जिस से वह अलग भी हो
सकती है. रेटिना की आगे की जैली में भी खून आ सकता है.

जब रेटिना से द्रव्य बाहर निकलता है तो वह रेटिना के बीच ‘मैक्यूला’ पर आने लगता है. इसे ‘मैक्युलोपैथी’ कहा जाता है.

इस के अलावा मधुमेह के रोगियों में मोतियाबिंद भी जल्दी पनपता है. अल्पआय वर्ग में यह ज्यादा देखने को मिलता है क्योंकि
उन का ज्यादातर कार्य सूर्य की रोशनी में होता है. रक्त संचार अव्यवस्थित व अपूर्ण होने के कारण आंखों को लकवा भी मार
सकता है.
मधुमेह के पुराने मरीजों की दृष्टि में शुरूशुरू में धुंधलापन आता है, रेटिना की सतह तथा दृष्टि के लिए उत्तरदायी मुख्य नाड़ी
‘औप्टिक नर्व’ पर नई रक्त वाहिनियां बनने लगती हैं.

बचाव : कै से हो मजबूत

– मधुमेह हो या उच्च रक्तचाप या दोनों, इन्हें हर हालत में नियंत्रित रखें. चाहे दवा से या परहेज से.

– अपने रक्तशर्क रा व रक्तचाप की नियमित जांच कराएं.

– धूम्रपान या तंबाकू का सेवन त्याग दें.

– हरी सब्जियों का अधिक सेवन करें.

– खुराक में विटामिन ए, विटामिन सी व विटामीन ई आदि का भरपूर सेवन करें.

– फिश या फिशऔयल का सेवन करें.

प्रमुख कारण

– आंख की रेटिना पर कु प्रभाव का पहला महत्त्वपूर्ण कारण है मधुमेह कितने समय से है. एक चिकित्सकीय आंकड़े के
अनुसार, करीब 10 वर्षों से मधुमेह के रोगी पर इस के होने की संभावना 50 फीसदी, 20 वर्षों से मधुमेह के रोगी पर 70
फीसदी तथा 30 वर्षों से मधुमेह के रोगी पर 90 फीसदी संभावना रहती है.

– यदि मधुमेह के साथ उच्च रक्तचाप भी है तो संभावना और अधिक बढ़ जाती है.
– गर्भावस्था में भी इस की संभावना बढ़ जाती है.

– यह स्थिति वंशानुगत भी होती है.

– स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा यह स्थिति अधिक पाईर् जाती है.

निदान तकनीकें

– रक्त शर्क रा स्तर की नियमित जांच कराते रहें.

– ‘फं डस फ्लोरिसीन एजिंयोग्राफी’ नामक विशिष्ट जांच से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि लेजर तकनीक द्वारा उपचार की
जरूरत कहांकहां है.

– ‘औफ्थालमोस्कोप’ नामक उपकरण द्वारा आंखों की नियमित जांच करवाएं.

इस प्रकार, इस वैज्ञानिक जानकारी के साथ मधुमेह के रोगी अपनी आंखों की रोशनी को बचा सकते हैं क्योंकि अंधेपन के कारणों
में इस स्थिति की विशेष भूमिका रहती है.

लेजर पद्धति से उपचार

लेजर फोटो कोएगुलेशन द्वारा लेजर बीम प्रभावित रेटिना पर डाली जाती है जिस से रक्तस्राव या रिसाव बंद हो जाता है, साथ ही,
दूसरी असामान्य रक्तवाहिनियों का बनना भी बंद हो जाता है. यह उपचार यदि रोगी को समय पर मिल जाए तो परिणाम अच्छे
रहते हैं.

यदि रोग काफी ज्यादा बढ़ गया हो तो शल्यक्रिया द्वारा उपचार संभव है, जिसे ‘वीट्रेक्टौमी सर्जरी’ कहा गया है. इस में अलग हुए
रेटिना को फिर जोड़ा जाता है.
एक नया इंजैक्शन वीईजीएफ आंखों में लगाया जाता है, जिस के प्रभाव से इस के अतिरिक्त अन्य खामियां भी ठीक हो जाती हैं.
इस के साथसाथ लेजर द्वारा भी उपचार लिए जाने के अच्छे परिणाम आते हैं.

हम ज्यादा नैतिकता की बात नहीं करेंगे पर बीमारियां तो कहीं भी सिर उठा कर घुस सकती हैं और इन में से एक जेनिटल हर्पीज
जननिक जुलपिती वायरस के कारण होती है. चिकित्सा विज्ञान में इस बीमारी को हार्पी प्रोजेनिटलाइज (जननिक जुलपिती) के
नाम से जाना जाता है.

यह रोग किसी संक्रमित रोगी के साथ यौन संपर्क करने से फै लता है. इस रोग का वायरस त्वचा में प्रवेश कर नजदीक के स्नायु
तक पहुंच जाता है. यह कोविड जैसा तो नहीं, पर हर वायरस कु छ न कु छ डराता है. यह चूंकि यौन संबंध से होता है, इसलिए
इसे छिपाया जाता है.

हर्पीज वायरस के शरीर में प्रवेश करने के कु छ सप्ताह बाद रोगी के जननांगों पर बारीकबारीक फुं सियां निकलने लगती हैं. इन
फुं सियों में धीरेधीरे तरल भरने लगता है और ददोरे होने लगते हैं.

इन रोगियों में पिन के आकार की सख्त जगह बन जाना आम बात है. मूत्र त्यागते समय जलन होने लगती है, बुखार, जोड़ों में दर्द
तथा अरुमूल में पीड़ादायक सूजन आ जाती है. इसे ‘प्राथमिक संक्रमण’ के नाम से जाना जाता है और यह स्थिति 10-20
दिनों तक बनी रह सकती है.

अगर रोगी अपनी चिकित्सा न कराए, तो इन दरोरों में जीवाणुओं द्वारा संक्रमण हो सकता है और इन में मवाद पड़ जाता है.

महिलाओं में तो प्राथमिक संक्रमण भी बड़ा ही पीड़ादायक हो सकता है, उन के लिए चलना भी मुश्किल हो जाता है.

जेनिटल हार्पीज का दोबारा होना कोई अपवाद नहीं है. इस का होना तो आम बात है. प्राथमिक संक्रमण कम हो जाता है लेकिन
कु छ समय बाद यह संक्रमण फिर से सक्रिय होने लगता है. कु छ युवकयुवतियों में तो इस का संक्रमण जल्दीजल्दी होते देखा गया
है जबकि कु छ में कु छ समय बाद फिर से यह संक्रमण देखा गया है.

वहीं, इस रोग के फिर से होने पर बहुत ही कम पीड़ा होती है. सच तो यह है कि कु छ रोगी तो अपने जननांगों को जब तक देखते
नहीं हैं तब तक उन्हें पता नहीं चलता कि उन को यह रोग हो भी गया है. उन के एक या दो ददोरे हो सकते हैं. ये दोचार दिन में
ही ठीक हो जाते हैं. सामान्यतया हर्पीज के संक्रमण के फिर से होने पर न ही बुखार आता है, न ही कोई सूजन आती है.
निदान : आमतौर पर इस हालत का निदान रोगी के लक्षणों को देख कर किया जाता है. वैसे तो इस के लिए किसी भी जांच की
आवश्यकता नहीं पड़ती है, फिर भी इस के लिए रक्त की जांच उपलब्ध है. यह जांच अनुसंधान या निदान में किसी संशय की
स्थिति में की जाती है.

चिकित्सा : जेनिटल हर्पीज छोटी माता या खसरे जैसा ही वायरल संक्रमण होता है. कु छ ही समय में स्थिति सामान्य हो जाती है.
फिर भी दूसरे वायरल संक्रमण से भिन्न इस संक्रमण का फिर से सक्रिय होना चिंताजनक बात है.

जेनिटल हर्पीज में एंटीवायरल औषधि वाइक्लोवीर चिकित्सा के रूप में उपयोग की जाती है. प्राथमिक संक्रमण के समय दिन में 5
बार 200 एमजी की इस की टेबलेट दी जाती है. इस दवा का इस्तेमाल डाक्टर की सलाह के अनुसार करें. लेकिन ध्यान रहे कि
इस निदान में भी यह गारंटी नहीं है कि इस रोग की पुनरावृत्ति न हो.

इसीलिए अधिकांश यौन रोग विशेषज्ञ साइक्लोविर क्रीम की सिफारिश करते हैं. यह क्रीम अपेक्षाकृ त सस्ती भी होती है. यह
चिकित्सा सुनिश्चित करती है कि दरोरे जल्दी से ठीक हो रहे हैं और इस वायरस के फै लने की संभावना कम हो रही है.

एक विवाहित युगल के लिए मां-बाप बनना उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण होता है, लेकिन कभी-कभी तमाम प्रयासों के
बावजूद शादीशुदा जोड़े अपने घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां सुनने से महरूम रह जाते हैं. ऐसे दम्पत्तियों के लिए
आईवीएफ सेंटर्स एक वरदान साबित हो रहे हैं. आईवीएफ उपचार के चमत्कारी परिणाम देखे जा रहे हैं. ‘पैंसठ साल की आयु में
भी मां बनने का सुख उठाने वाली उस महिला की खुशी का अंदाजा आप नहीं लगा सकते, जिसने पूरी जवानी एक बच्चे की आस
में गुजार दी. दुनिया भर के ट्रीटमेंट कर डाले, मगर उनके आंगन में खुशी का फू ल खिला तो आईवीएफ उपचार के बाद…’. ऐसा
कहना है दिल्ली के नारायणा विहार स्थित ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज का.

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी औफ नौटिंघम से रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त करने वाली डा. अर्चना धवन बजाज एक
स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी और आईवीएफ के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित नाम बन चुका है. आज
‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में भारतीय दम्पत्ति ही नहीं, बल्कि विदेशी दम्पत्ति भी बच्चे की उम्मीद लेकर आते हैं, और अपने
साथ खुशियों की सौगात लेकर जाते हैं.

आईवीएफ के प्रति आज भी लोगों में कई तरह की भ्रांतियां व्याप्त हैं. इससे जुड़े अलग-अलग प्रकार के ट्रीटमेंट से भी लोग
वाकिफ नहीं हैं. इसके साथ ही आजकल गली-मोहल्लों में तेजी से खुल रहे आईवीएफ सेंटर्स में ठगे जाने के बाद कई दम्पत्ति
निराश हो जाते हैं. आईवीएफ और उससे जुड़ी तकनीकी बातों पर डा. अर्चना धवन बजाज ने दिल्ली प्रेस की एसोसिएट एडिटर
नसीम अंसारी कोचर से विस्तृत बातचीत की और आईवीएफ के बारे में विस्तृत जानकारी दी.

आईवीएफ क्या है?


आईवीएफ मतलब इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अर्थात जो काम शरीर के अन्दर नहीं हो पा रहा है, उसको लैब में टेस्ट्यूब में सम्पन्न
कराया जाता है और इस तरह एक महिला को मां बनने का सुख हासिल होता है. आमभाषा में इसको टेस्ट्यूब बेबी कहते हैं.
महिलाएं कई कारणों से मां नहीं बन पाती हैं, जैसे उनकी फे लोपियन ट्यूब बंद हो या यूटेसर सम्बन्धी कोई रोग हो, या अनियमित
मासिक हो अथवा कोई अन्य वजह हो, तो ऐसी महिला को हारमोंस के इंजेक्शन देकर हम उसके गर्भाशय में अंडे बनने की
प्रक्रिया को तेज करते हैं. तैयार अंडों को ओवरी से बाहर निकाल कर लैबोरेटरी में उसके पति के स्पर्म के साथ फर्टीलाइज कराके
एम्ब्रियो तैयार किया जाता है और तीन या पांच दिन के एम्ब्रियो को महिला की बच्चेदानी में डाल दिया जाता है. जब गर्भाशय की
दीवार से एम्ब्रियो एटैच होकर मल्टीप्लाई करने लगता है तब कहते हैं कि महिला को गर्भ ठहर गया है. हम एक बार में ही दो या
तीन एम्ब्रियो गर्भाशय में डालते हैं, ताकि गर्भ धारण में आसानी हो, लेकिन महिला की उम्र यदि ज्यादा है, अथवा अंडो की
क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, अथवा वह पहले भी आईवीएफ करवा चुकी है और वह फे ल हो चुका है तो हम पांच या छह एम्ब्रियो
भी डालते हैं ताकि गर्भधारण की सम्भावना बढ़ जाए.

आईवीएफ ट्रीटमेंट में कितना वक्त लगता है?

एक आईवीएफ साइकल को पूरा होने में बीस से पच्चीस दिन लगते हैं. ये निर्भर करता है महिला के अंडो की क्वालिटी पर भी. यदि
क्वालिटी अच्छी नहीं है तो हम क्वालिटी इम्प्रूव करने के लिए कु छ दवाएं देते हैं. ऐसे में कु छ अधिक समय लग सकता है.

आईवीएफ द्वारा गर्भधारण करने के उपरान्त डिलीवरी नौरमल होती है अथवा सिजेरियन से बच्चा पैदा होता है.

इस बारे में कोई हार्ड एंड फास्ट रूल नहीं है. यह पेट के अन्दर बच्चे की कं डीशन पर निर्भर करता है. यदि बच्चे की पोजिशन
गर्भाशय में बिल्कु ल ठीक है, ब्लड सप्लाई ठीक है, बच्चे के आसपास द्रव्य बेहतर है, तो नौरमल डिलीवरी भी होती है. लेकिन यदि
किसी तरह की दिक्कत है, बच्चा आड़ा है, उसका वजन ज्यादा है, या जुड़वां बच्चे हैं तो आमतौर पर महिलाएं किसी तरह का रिस्क
नहीं लेना चाहती हैं, इसलिए सिजेरियन कराना ही पसन्द करती हैं. आईवीएफ के जरिये बच्चा पाना किसी भी दम्पत्ति के लिए
फाइनेंशियल और इमोशनल मैटर होता है, इसलिए वह बच्चे के जन्म के वक्त किसी तरह की परेशानी नहीं चाहते हैं. वे चाहते हैं
कि उनका बच्चा बिल्कु ल सेफ रहे, अत: ज्यादातर दम्पत्ति सिजेरियन द्वारा ही बच्चे को जन्म देने के इच्छु क होते हैं.

आईवीएफ से पहला बच्चा पाने वाली महिला को क्या भविष्य में नौरमल प्रेग्नेंसी भी ठहर सकती है?

हां बिल्कु ल हो सकती है. दरअसल आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान महिला को जो दवाएं मिलती हैं, उससे गर्भाशय में अंडों की
क्वालिटी अच्छी हो जाती है. इसलिए ऐसा हो सकता है कि बाद में वह नॉरमल तरीके से भी गर्भ धारण कर ले. ऐसे बहुत से
उदाहरण मेरे सामने आये हैं. कभी-कभी ये पता नहीं चलता कि गर्भधारण क्यों नहीं हो रहा है. ऐसी स्थिति में अगर पहला बच्चा
आईवीएफ से हुआ है तो बहुत सम्भव है कि दूसरी बार महिला नौरमल तरीके से ही गर्भ धारण कर ले.
अगर एक बार में गर्भाशय में दो से चार एम्ब्रियो डाले जाते हैं तो क्या जुड़वा या इससे ज्यादा बच्चे होने की सम्भावना नहीं होती?

जी हां, बिल्कु ल होती है. दो या कई बार तीन बच्चे भी हो जाते हैं. कई कपल्स तो इस बात से बहुत खुश होते हैं कि उनका
परिवार एक ही बार के एफर्ट में पूरा हो गया. मगर कई बार आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्ति दो या तीन बच्चे होने पर उतनी खुशी
व्यक्त नहीं कर पाते. इसके अलावा एक परेशानी बच्चे की सेहत को लेकर भी होती है. यदि तीन बच्चे मां के गर्भ में हैं तो आमतौर
पर उनका वजन कम होता है. कभी-कभी डिलिवरी वक्त से पहले हो जाती है. ऐसे में जन्म के उपरान्त बच्चों को लम्बे समय तक
इंटेंसिव के यर यूनिट में रखना पड़ता है, जिसके कारण दम्पत्ति पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है.

कम से कम और अधिक से अधिक कितनी उम्र की महिलाएं आईवीएफ के लिए आपके पास आती हैं?

अधिक से अधिक मैंने पैंसठ साल की महिला का आईवीएफ किया है. वह बच्चा पाकर बहुत खुश हुई थीं. मगर इस उम्र में
आईवीएफ कराने की राय मैं नहीं देती हूं. क्योंकि जब आप पच्हत्तर साल के होंगे, तब आपका बच्चा सिर्फ दस साल का होगा. ऐसे
में उसकी देखभाल, शिक्षा और अन्य जिम्मेदारी आप किसके कं धे पर डाल कर जाएंगे? फिर साठ या पैंसठ साल की उम्र में
महिलाओं का शरीर काफी कमजोर हो चुका होता है. अंडों की क्वालिटी भी अच्छी नहीं रहती. ऐसे में होने वाले बच्चे में भी
स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियां पैदा हो सकती हैं. वह मानसिक रूप से कमजोर हो सकता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर
शादी के सात से दस साल के अन्दर आप मां नहीं बन पायी हैं तो पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच आपको आईवीएफ करवा
लेना चाहिए. इस उम्र में महिला शारीरिक रूप से भी तंदरुस्त होती है और मानसिक रूप से भी. वहीं कम उम्र में आईवीएफ उसी
हालत में कराना चाहिए जब गर्भाशय सम्बन्धित कोई सीरियस प्रौब्लम महिला को हो, या उसकी फे लोपियन ट्यूब ही पूरी तरह से
बंद हो. ऐसे में आईवीएफ ही गर्भधारण का एक रास्ता बचता है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान पेशंट को काफी इंजेक्शन्स लगते हैं. इसके क्या साइड इफे क्ट होते हैं और यह कितने वक्त तक बने
रहते हैं?

किसी भी तरह के रसायन का प्रयोग शरीर पर होता है तो कु छ साइड इफे क्ट तो होते ही हैं. आईवीएफ ट्रीटमेंट के बाद भी ऐसा
होता है. मगर यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है. आमतौर पर औरतों का वजन बढ़ना, बे्रस्ट का साइज बढ़ना, चिड़चिड़ाहट,
थकान, एक्ने या पति के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में दिलचस्पी न होना जैसी समस्याएं होती हैं, मगर यह थोड़े वक्त का ही
असर है. कभी-कभी ऐसा होता है कि गर्भाशय में बहुत ज्यादा अंडे बनने से पेट में पानी भर जाता है. इस तरह का साइड इफे क्ट
खत्म होने में थोड़ा वक्त लगता है और इसका ट्रीटमेंट करना पड़ता है. आजकल हॉरमोंस के लिए जो इंजेक्शन यूज हो रहे हैं, वह
नेचुरल बॉडी हॉरमोंस से बहुत ज्यादा मिलते-जुलते हैं, जिससे साइड इफे क्ट की समस्या अब काफी कम हो गयी है.
आईवीएफ ट्रीटमेंट अभी भी आम जनता के लिए काफी मंहगा है, जिसके चलते कई दम्पत्ति माता-पिता बनने की खुशी से वंचित
रह जाते हैं. क्या आपके ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्तियों के लिए कु छ विशेष छू ट है?

हमारे सेंटर की पौलिसी है कि हम ‘नो प्रोफिट-नो लौस’ के सिद्धान्त पर चलते हैं. कई फार्मास्यूटिकल कम्पनियां हमारे उद्देश्यों
को पूरा करने में हमारी मदद भी करती हैं. हम आर्म्ड फोर्सेस, पैरा मिलिटरी फोर्सेस या एलाइड सर्विस के लोगों को काफी छू ट
देते हैं. जो पेशंट आर्थिक रूप से कमजोर हैं हमारी कोशिश होती है कि कम से कम खर्च में हम उनको मां-बाप बनने की खुशी दे
सकें .

आईवीएफ की सफलता की दर कितनी है?

आईवीएफ की सक्सेस रेट पर अलग-अलग डौक्टर्स की राय अलग-अलग है. मैं मानती हूं कि आईवीएफ चालीस प्रतिशत तक
सफल रहता है. साठ फीसदी महिलाओं को पहली बार में गर्भ नहीं ठहरता है और उन्हें दो या तीन बार इस प्रौसेस से गुजरना
पड़ता है. इसके कई कारण है. इसमें अगर महिला की उम्र बहुत ज्यादा है, उसका वजन बहुत ज्यादा है, गर्भाशय में प्रौब्लम है,
अंडों की क्वालिटी खराब है, मेंटल स्थिति कमजोर है या वह कई बार आईवीएफ ट्रीटमेंट से गुजर चुकी है तो पहली बार में
आईवीएफ सफल होना मुश्किल होता है.

जिस तरह से देश में आईवीएफ सेंटर्स गली-मोहल्लों में खुल रहे हैं, उनकी विश्वसनीयता कितनी है?

किसी भी चीज की सफलता निर्भर करती है कि आप कितना डिलिवर कर रहे हैं. आपका आउटपुट कितना है. अगर छोटे
आईवीएफ सेंटर में भी अत्याधुनिक मशीनों पर काम हो रहा है तो उसकी सफलता निश्चित है. देखना पड़ता है कि वहां डॉक्टर
कितना समझदार है, उसकी क्वालिफिके शन क्या है, उसकी सफलताएं क्या हैं, वह अपने पेशंट्स के प्रति कितना डेडिके टेड है,
उसकी लैब कै सी है, एम्ब्रियोलोजिस्ट कै सा है. एक छोटी सी जगह में भी एक अच्छी साफ-सुथरी, अत्याधुनिक यंत्रों से सुसज्जित
लैब रख कर हम वही रिजल्ट प्राप्त कर सकते हैं जैसे बड़े क्लीनिक में मिलते हैं. मेरा कहने का आशय है कि जगह महत्वपूर्ण नहीं
है, सुविधाएं महत्वपूर्ण हैं. जिनकी छानबीन कर लेनी चाहिए.

संक्षिप्त परिचय

‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज डा. अर्चना धवन बजाज बांझपन उपचार और आईवीएफ के
क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं. चिकित्सा के क्षेत्र में एमबीबीएस, डीजीओ, डीएनबी और एमएनएएस की डिग्रियां हासिल करने के
बाद उन्होंने यूके स्थित नाटिंघम विश्वविद्यालय से मेडिकल रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की है. वे हैचिंग, वीर्य
भू्रण के संरक्षण, ओवरियन कौर्टिकल पैच, क्लीवेज स्टेज भ्रूण पर ब्लास्टमोर बायोप्सी और ब्लास्टक्रिस्ट की अग्रणी विशेषज्ञ हैं.
दिल्ली में नर्चर आईवी क्लिनिक की निदेशक के तौर पर काम करते हुए डा. बजाज ने स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति
विशेषज्ञ और फर्टिलिटी एंड आईवीएफ विशेषज्ञ के तौर पर विशेष ख्याति पायी हैं.

बोर्ड के एग्जाम नजदीक है ऐसे में “बच्चों को एग्जाम की चिंता और नींद का गहरा संबंध होता है क्योंकि एग्जाम में अच्छे नंबर के
दबाव में सोने के पैटर्न पर बड़ा असर हो सकता है.

डॉ. श्रद्धा मलिक – मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और एथेना बिहेवियरल हेल्थ की सीईओ का कहना है कि एग्जाम से जुड़ी गहरी
चिंता और मानसिक दबाव के कारण टेंशन हॉर्मोन्स जैसे कॉर्टिसोल के स्तर में बढ़ोतरी हो सकती है, जिससे सामान्य सोने-जागने
की चक्र को बिगाड़ा जा सकता है. सोने की गुणवत्ता रेसिंग थॉट्स, बेचैनी, और प्रत्याशीता चिंता के कारण प्रभावित हो सकती
है? बहुत अधिक एग्जाम की चिंता से कम और लंबे समय तक सोने में डिस्टर्बेंस हो सकता है.

के स स्टडीज ने दिखाया है कि हाई लेबल (उच्च स्तर) के एग्जाम से जुड़े तनाव में होने वाले छात्रों को अक्सर सोने में कठिनाई,
बार-बार जागना से सोने की समस्या हो सकती है. यह न के वल उनके तत्कालीन प्रदर्शन को प्रभावित करता है बल्कि बढ़ते हुए
तनाव और कमजोर एके डेमिक रिजल्ट (अकादमिक परिणामों) के चक्र में योगदान कर सकता है.

स्ट्रेस मैनेजमेंट टेक्निक (तनाव प्रबंधन तकनीकों) को लागू करना, एक सुहावने सोने का माहौल बनाना, और संतुलित
जीवनशैली को बनाए रखना, परीक्षा की चिंता के सोने पर प्रभाव को कम करने में मदद कर सकता है, जिससे चुनौतीपूर्ण
अकादमिक दौरों में समग्र कल्याण को बढ़ावा मिल सकता है.

जबकि अधिकांश छात्रों की सोने की कमी से शिकायत है, विद्यार्थियों में हाई स्कू ल के छात्रों को अधिक असुविधा महसूस होती है.
इसके पीछे के संभावित कारण क्या हो सकते हैं? जानते है.

उच्च स्कू ल के छात्र सोने की कमी के कई कारणों से बढ़ी हुई असुविधा महसूस कर सकते हैं. पहली बात तो, उच्च स्कू ल में
शैक्षणिक दबाव बढ़ता है, जिसमें कठिन पाठ्यक्रम, परीक्षाएँ, और कॉलेज की तैयारी उनके तनाव को और बढ़ा सकते हैं. इसके
अलावा, अतिरिक्त गतिविधियों, पार्ट-टाइम नौकरियों, और सामाजिक वचनों के कारण उनका समय पर्याप्त आराम के लिए सीमित
हो जाता है. इसके अलावा, किशोरावस्था के दौरान हार्मोनल परिवर्तन सोने के पैटर्न को विघटित कर सकते हैं.

इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज का उपयोग –


उच्च स्कू ल के छात्रों के बीच इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज का उपयोग बढ़ता जा रहा है, खासकर सोने से पहले, जो उनके सोने की
गुणवत्ता को नकारात्मक प्रभावित कर सकता है. अनियमित सोने की अनुसूचित गतिविधियाँ, स्कू ल की शुरुआत के समय, और
सामान्यत: व्यस्त जीवनशैली इस समस्या को बढ़ा सकती हैं. इस समस्या को कम करने के लिए स्वस्थ नींद की आदतें
प्रोत्साहित करके , स्कू ल की अनुसूचितियों को समायोजित करके , और एक समर्थनसूचक वातावरण को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है.

परीक्षा के दौरान नींद की कमी का बच्चों पर असर –

परीक्षा के दौरान नींद की कमी बच्चों के मानसिक क्षमताओं पर काफी बड़ा प्रभाव डाल सकती है. शारीरिक रूप से, नींद की कमी
थकान, कमजोर इम्यून सिस्टम, और बढ़ी हुई रोग प्रतिरोधशक्ति की ओर बढ़ सकती है. मानसिक रूप से, यह ध्यान, स्मृति,
और निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित कर सकती है. परीक्षा की अवधि में नींद की चरम कमी अधिकतम तनाव और चिंता के
स्तरों में वृद्धि कर सकती है, जिससे दबावों का समृद्धि के दिशा में बढ़ सकता है, जो स्थायी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं जैसे
अवसाद की ओर जाने की संभावना है.

शारीरिक रूप से, अधूरी नींद से सिरदर्द, चक्कर, और संक्रमणों से लड़ने की क्षमता में कमी हो सकती है. मानसिक रूप से बच्चे
जानकारी रखने में कठिनाई, समस्याएँ हल करने की क्षमता में कमी, और बढ़ा हुआ चिढ़चिढ़ापन महसूस कर सकते हैं.
दीर्घकालिक नींद की कमी एक बच्चे की भावनात्मक सहनशीलता को प्रभावित कर सकती है.

उदाहरण के लिए, परीक्षा के लिए रात भर जागकर पढ़ाई करने वाला छात्र मानसिक थकान और उच्च तनाव के कारण परीक्षा के
दौरान ध्यान कें द्रित करने में कठिनाई महसूस कर सकता है, जिससे उसके अकादमिक प्रदर्शन में कमी हो सकती है.

बच्चों के लिए डोज़ :

1. एक स्टडी शेड्यूल बनाएं: सभी विषयों को धीरे-धीरे कवर करने के लिए एक वास्तविक और व्यवस्थित स्टडी रूटीन बनाएं.

2. स्वस्थ आहार और पर्याप्त नींद: ध्यान और समग्र कल्याण को बढ़ावा देने के लिए संतुलित आहार और पर्याप्त नींद सुनिश्चित
करें.

3. नियमित ब्रेक्स: पढ़ाई के सत्रों के दौरान बर्नआउट से बचने और ध्यान बनाए रखने के लिए छोटे-छोटे रेस्ट लेछोटी छु टियाँ
शामिल करें.

4. हाइड्रेटेड रहें: जागरूकता को समर्थन करने और चेतावनी बनाए रखने के लिए हाइड्रेटेड रहें.

5. विषयों को प्राथमिकता दें: कमजोर विषयों पर ध्यान कें द्रित करें, लेकिन स्ट्रांग विषयों को भी दोहराएं.

6. पिछले पेपर्स के साथ अभ्यास करें: बेहतर तैयारी के लिए पिछले पेपर्स को हल करके परीक्षा के स्वरूप से परिचित हो जाएं.
7. सकारात्मक रहें: सकारात्मक मानसिकता बनाए रखें, अपनी क्षमताओं में विश्वास करें, और आत्मसंदेह से बचें.

बच्चों के लिए डोन्ट्स :

1. क्रै मिंग से बचें: अंतिम क्षण की क्रै मिंग से दूर रहें; यह अप्रभावी और तनावपूर्ण होता है.

2. ध्यान को सीमित करें: पढ़ाई के समय इलेक्ट्रॉनिक विघटन, जैसे कि सोशल मीडिया या अत्यधिक टीवी, को कम से कम
रखें.
3. टालमटोल से बचें: तनाव से बचने के लिए पहले से ही में ही तैयारी शुरू करें.

आज विज्ञान लगातार नएनए आविष्कार कर रहा है. कु छ सालों पहले जो हमारी कल्पना से परे था आज के इस दौर में वो सब
विज्ञान की बदौलत मुमकिन हो रहा है. यह कु छ लोगों के लिए वरदान सिद्ध हुआ है तो कु छ इस का नाजायज फायदा उठा रहे हैं.

सेरोगेसी भी एक ऐसी ही खोज है जिस के जरिए आज बांझ महिला भी मां बनने का सुख प्राप्त कर सकती है. आजकल कम उम्र
में ही महिलाओं को गंभीर बीमारियां- ब्रेस्ट कैं सर, सर्विक्स कैं सर या बच्चेदानी में खराबी जैसी कई परेशानियां हो जाती है. कई
बार वे ऐसी बीमारियों से तो उभर जाती हैं लेकिन उन की मां बनने की ख्वाहिश अधूरी रह जाती है.

आमतौर पर सेरोगेसी को किराए की कोख के नाम से भी जाना जाता है. जो लोग मातापिता बनने के सुख से वंचित रह जाते हैं
वे इस के जरिए संतानप्राप्ति का सुख पा सकते हैं. इस प्रक्रिया में महिला किसी अन्य कपल के बच्चे को अपने कोख में पालती है
और उसे जन्म देती है. इसी प्रक्रिया से पैदा हुए बच्चे को सेरोगेट बेबी कहते हैं और जन्म देने वाली महिला को सरोगेट मां कहा
जाता है.

ट्रेडिशनल सेरोगेसी में सेरोगेट मदर ही बायोलौजिकल मदर होती है. इस में पिता का स्पर्म और सेरोगेट मदर के एग को मिलाया
जाता है. फिर, डाक्टर कृ त्रिम तरीके से इसे सेरोगेट महिला के गर्भाशय में डाल देते हैं. इस से जन्मे बच्चे का बायोलौजिकल रिश्ता
पिता से होता है लेकिन यदि स्पर्म डोनर का प्रयोग किया जाता है तो पिता का भी बच्चे से बायोलौजिकल रिश्ता नहीं होता.

जेस्टेशनल सेरोगेसी में सेरोगेट मदर का एग इस्तेमाल नहीं होता, इसलिए बच्चे से उस का बायोलौजिकल रिश्ता नहीं होता. इस में
संतान चाहने वाले पुरुष और महिला के स्पर्म व एग को टैस्ट-ट्यूब तरीके से मिला कर भ्रूण तैयार किया जाता है और उसे कृ त्रिम
तरीके से सेरोगेट मदर के गर्भाशय में डाला जाता है. इस प्रक्रिया से जन्मे बच्चे का संबंध कपल से होता है. अब आते हैं इस की
नियमावली पर.
सेरोगेसी मातृत्व सुख पाने के लिए वरदान है लेकिन समाज के कु छ वर्गों को यह रास नहीं आया तो कु छ लोगों ने इस का गलत
फायदा भी उठाया. कु छ ऐसे मामले भी सामने आए कि दंपती ने बच्चे को अपनाया नहीं या सेरोगेट मां ने ही बच्चे को देने से इनकार
कर दिया. वहीं, कु छ कपल्स बौडी खराब होने से बचने के लिए सेरोगेसी का सहारा लेने लगे. पहले से बच्चे होने के बाद भी
सेरोगेसी से बच्चे किए.

इन वजहों से सख्ती करने का फै सला हुआ और कै बिनेट ने सेरोगेसी पर 2022 में कानून बना दिया जिस के चलते दिल्ली में
सेरोगेसी के लिए उपराज्यपाल औफिस ने सभी 11 जिलों में मैडिकल बोर्ड बनाने की मंजूरी दे दी है. कानून के बनने से
जरूरतमंद कपल्स को अब काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है. इस के लिए 5 तरह के प्रमाण की जरूरत है. सेरोगेसी का
सहारा लेने वाले कपल के पास प्रमाण होना चाहिए कि वे मातापिता नहीं बन सकते.

मातापिता बनने कि चाह रखने वाली महिला की उम्र 50 से कम और पुरुष की उम्र 55 से कम होनी चाहिए. पहले से जीवित
बच्चा नहीं हो या जीवित बच्चा किसी गंभीर जानलेवा बीमारी से पीड़ित हो तभी यह सर्टिफिके ट मिलेगा. यदि पहले से कोई बच्चा
अडौप्ट किया हुआ है तो वह कपल सेरोगेसी का सहारा नहीं ले सकता.

वहीं, सरोगेट बनने वाली महिला फिजिकली फिट हो, उम्र 25 से 35 के बीच हो, पति भी इस के लिए तैयार हो और पहले
नौर्मल डिलीवरी हुई हो और 3 बार से ज्यादा मां न बनी हो. सेरोगेट बनने वाली महिला का हौस्पिटल का खर्च, मैडिसिन, फू ड,
ट्रैवल आदि का खर्च कपल्स को ही उठाना पड़ेगा और किसी प्रकार का लेनदेन अमान्य है.

माता-पिता होना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि आपको बहुत जिम्मेदार होना होता है और अपने बच्चे के स्वास्थ्य का ख्याल रखना होता
है. बच्चे के स्वास्थ्य का ख्याल रखना मुश्किल है पर उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.बच्चों की संपूर्ण स्वास्थ्य की
देखभाल के साथ यह आवश्यक है कि मुंह के स्वास्थ्य काख्याल रखने पर भी ध्यान दिया जाए. हर किसी को चाहिए कि वह बच्चों
के दांतों के स्वास्थ्य और हाईजीन (साफ-सफाई) की महत्ता जाने. आप भी अपने बच्चे के मुंह का अच्छा स्वास्थ्य और हाईजीन
सुनिश्चित कर सकते हैं. पेश हैं कु छ महत्वपूर्ण चीजें जो आपको जानना चाहिए. जो बता रहे हैं क्लिनिकऐप्प के सीईओ,श्री
सत्काम दिव्य.

बच्चे अच्छा और बुरा नहीं जानते हैं. वे किसी भी चीज को मुंह में रख सकते हैं. कई अन्य कारणों से आपके बच्चे के दांतों का
स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है. बहुत सारे लोग बच्चों के मामले में स्वास्थ्यकर उपायों को नजरअंदाज कर देते हैं. वे समझते हैं
कि पहली बार आए दांत तो गिरने ही हैं. लेकिन दांतों का ख्याल रखने से संबंधित ऐसी महत्वपूर्ण बातों को नजरअंदाज करने से
दांतों ख़राब होंगे और दांतों में प्लेक और मसूड़ों की बीमारियां होंगी. कम उम्र में ही दांत खराब होने का असर यह होगा कि बाद में
आने वाले दांत भी खराब या प्रभावित होंगे और भविष्य में दांतों की ढेरों समस्याएं खड़ी हो जाएंगी.

बच्चों में पाई जाने वाली दांतों की आम समस्याएं


बच्चों में पाई जाने वाली दांतों की सबसे आम समस्या डेंटल कै रीज की है जो दांतों की संरचना को क्षतिग्रस्त कर देता है. अगर
आप चाहते हैं कि बच्चे के दांतों का क्षरण न हो और वह वह मसूड़े की बीमारियों से बचा रहे तो आपको अपने बच्चे के लिए
स्वास्थ्यकर व्यवहारों का चुनाव करने की जरूरत है.

16 साल का दिनेश दिखने में एकदम नौर्मल बच्चा है. उस को बचपन से हार्ट की समस्या थी. वह ठीक से सांस नहीं ले पाता था.
बारबार चैस्ट इन्फै क्शन होता था. काफी जांचों के बाद पता चला कि उसे कौंजेनाइटल हार्ट डिसीज है.

2 सर्जरी के बाद वह नौर्मल हो पाया. आज वह स्कू ल में टौपर है और अच्छी जीवनशैली जी रहा है. वैसी ही बीमारी की शिकार
थी नासिक की 8 साल की ऊषा, जो अचानक काली पड़ जाती थी. उस का विकास ठीक से नहीं हुआ था, जिस से वह सही
तरह से चल नहीं पाती थी. सर्जरी के बाद अब वह भी नौर्मल हो चुकी है.

फोर्टिस अस्पताल, मुंबई की पेडियाट्रि क कार्डियोलौजिस्ट डा. स्वाति गरेकर इस बारे में कहती हैं कि यह समस्या बच्चों में आम है.
दुनिया में एक हजार बच्चों में से करीब 8 बच्चों में यह बीमारी पाई जाती है. असल में गर्भ में हृदय और बड़ी रक्त वाहिनियों में
विकास के दौरान हुए दोषों के चलते इन विकारों का जन्म होता है. समय रहते इस का इलाज करने पर बच्चा एक लंबा जीवन
अच्छी तरह बिता सकता है.

हार्ट की यह समस्या गर्भ से शुरू होती है और 18 हफ्तों बाद जब अच्छी तरह से सोनोग्राफी की जाती है, तो उसे देखने पर इस
का पता लगा लिया जाता है. फिर इसे मातापिता की सहमति से गर्भ में रहने दिया जाता है. जन्म के बाद फिर इस का इलाज
किया जाता है. हालांकि, कई बार इसे पता लगाना मुश्किल भी होता है. सो, बच्चे में अगर जन्म के बाद कु छ बदलाव आए, तो
तुरंत डाक्टर की सलाह लेनी चाहिए. इस के कु छ लक्षण ये हैं :

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