खंड-1 व्यक्ताव्यक्त गणित

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MJY-006

गिणत, ग्रहण, वेध एवं


यन्त्रािद िवचार

खण्ड 1 व्यक्ताव्यक्त गिणत 7


खण्ड 2 ग्रहण-िवचार 77
खण्ड 3 चन्द्रश्रगंृ ोन्नित एवं उदयास्तािद िवचार 155
खण्ड 4 वेध एवं यन्त्र-प�रचय 233
पाठ्यक्रम-िनमार्ण िवशेष�-सिमित
प्रोफे सर देवी प्रसाद ित्रपाठी प्रोफे सर मालती माथरु
कुलपित, संस्कृ त िवश्विवद्यालय िनदेशक, मानिवक� िवद्यापीठ
ह�रद्वार, उत्तराखण्ड इिं दरा गॉधी राष्ट्रीय मक्ु त िवश्विवद्यालय
इग्नू, नई िदल्ली
प्रोफे सर िवनय कुमार पाण्डेय प्रोफे सर भारत भषू ण िमश्र
अध्य�, ज्योितष िवभाग ज्योितष िवभाग, के न्द्रीय सस्ं कृ त िवश्विवद्यालय
काशी िहन्दू िवश्विवद्यालय, वाराणसी के .जे. सोमैय्या प�रसर, मम्ु बई
प्रोफे सर श्यामदेव िमश्र
ज्योितष िवभाग,के न्द्रीय सस्ं कृ त
िवश्विवद्यालय, जयपरु प�रसर,
राजस्थान
पाठ्यक्रम समन्वयक कायर् क्रम समन्वयक (Programme
(Course Coordinator) Coordinator)
डॉ.देवेश कुमार िमश्र डॉ. देवेश कुमार िमश्र
एसोिसएट प्रोफे सर सस्ं कृ त, एसोिसएट प्रोफे सर सस्ं कृ त
मानिवक� िवद्यापीठ इिं दरा गॉधी राष्ट्रीय मक्ु त िवश्विवद्यालय
इिं दरा गॉधी राष्ट्रीय मक्ु त इग्नू, नई िदल्ली
िवश्विवद्यालय, नई िदल्ली
प्रोफे सर कौशल पंवार
वतर्मान िनदेशक
मानिवक� िवद्यापीठ
इिं दरा गॉधी राष्ट्रीय मक्ु त िवश्विवद्यालय, नई िदल्ली
मुख्य-सम्पादक सह-सम्पादक
प्रोफे सर श्यामदेव िमश्र डॉ.देवेश कुमार िमश्र
अध्य�, ज्याितष िवभाग एसोिसएट प्रोफे सर सस्ं कृ त, मानिवक� िवद्यापीठ
कें द्रीय सस्ं कृ त िव�िवद्यालय इिं दरा गॉधी राष्ट्रीय मक्ु त िवश्विवद्यालय, नई िदल्ली
श्री रणवीर प�रसर, जम्मू

पाठ्यक्रम-लेखक
लेखक खण्ड इकाई
डॉ. राजा पाठक, सहायक आचायर्, ज्योितष िवभाग, सम्पणू ार्नन्द 1 01 से 05
संस्कृ त िवश्विवद्यालय वाराणसी
डॉ. कृ ष्णकुमार भागर्व, अिसस्टेण्ट प्रोफे सर वास्तश ु ास्त्र िवभाग, 2 01 से 05
राष्ट्रीय सस्ं कृ त िवश्विवद्यालय, ित�पित, आन्ध्रप्रदेश
डॉ. सरु ेश शमार्, के न्द्रीय सस्ं कृ त िवश्विवद्यालय, श्री रघनु ाथ क�ितर् 3 01से 05
प�रसर देवप्रयाग, पौडी गढवाल
डॉ. नीरज ित्रवेदी, सहायक आचायर्, ज्योितष िवभाग, के न्द्रीय 4 01 से 05
संस्कृ त िवश्विवद्यालय, जयपरु प�रसर, राजस्थान
कायार्लयीय सहयोग:
जानक� भट्ट, मानिवक� िवद्यापीठ, इग्नू, नई िदल्ली

Jh fryd jkt
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tuojh] 2023
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ISBN-
lokZf/kdkj lqjf{kr] bl dk;Z dk dksbZ Hkh va'k bafnjk xka/kh jk"Vªh; eDqr
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िवषय-सूची
खण्ड 1 व्य�ाव्य� गिणत 7
इकाई 1 अंकगिणत का संि�� प�रचय 9
इकाई 2 बीजगिणत का सिं �� प�रचय 22
इकाई 3 ित्रकोणिमित-गिणत का प�रचयात्मक स्व�प 33
इकाई 4 गोलीय-ित्रकोणिमित का प�रचयात्मक स्व�प 49
इकाई 5 वैिदक-गिणत का संि�� प�रचय 62
खण्ड 2 ग्रहण-िवचार 77
इकाई 1 ग्रहण-प�रचय एवं स्व�प 79
इकाई 2 चन्द्रग्रहण िवमशर् 93
इकाई 3 सयू र्ग्रहण िवमशर् 107
इकाई 4 वलन एवं प�रलेख 125
इकाई 5 ग्रहण-फल एवं कृत्याकृत्य िवचार 140
खण्ड 3 चन्द्रश्रगृं ोन्नित एवं उदयास्तािद िवचार 155
इकाई 1 चन्द्रश्रृंगोन्नित िवचार 157
इकाई 2 ग्रहोदयास्त िवचार 173
इकाई 3 भ-ग्रह यिु त िवचार 187
इकाई 4 पात एवं �क्कमर् िवचार 203
इकाई 5 सक्र
ं ािन्त-िवमशर् 218
खण्ड 4 वेध एवं यन्त्र-प�रचय 233
इकाई 1 वेध का मह�व 235
इकाई 2 भारतीय वेध परम्परा 247
इकाई 3 प्रमुख प्राचीन यन्त्रों का प�रचय 259
इकाई 4 प्रमुख अवार्चीन यन्त्रों का प�रचय 274
इकाई 5 गोल, अयन एवं ऋतु िवमशर् 292
पाठ्यक्रम प�रचय
एम.ए.ज्योितष कायर्क्रम िद्वतीय वषर् के पाठ्यक्रमों में यह दसू रा पाठ्यक्रम है। क्रमानसु ार छठे
नंबर पर होने के कारण ष� पाठ्यक्रम गिणत ,ग्रहण, वेध एवं यन्त्रािद िवचार का अध्ययन करने
हेतु आपका स्वागत है। इस पाठ्यक्रम क� िवषय वस्तु को प्रथम ��या चार खण्डों में िवभ�
करते ह�ए कुल 20 इकाइयों के भीतर िववेच्यिवषय का समावेश िकया गया है। इस पाठ्यक्रम
के प्रथम खण्ड का नाम व्य�ाव्य� गिणत है। इस खण्ड का प्रितपाद्य िवषय 5 इकाइयों में
िवभािजत है िजसमें प्रथम इकाई में आप भारतीय अक ं गिणत का संि�� प�रचय जानेंगे। इस
इकाई में भारतीय अंकगिणत के उद्भव िवकास के साथ-साथ छोटे-छोटे सैद्धािन्तक स्व�पों क�
चचार् भी प्रस्ततु क� गई है। दसू री इकाई बीजगिणत का सिं �� प�रचय है। भारत में बीजगिणत
क� श�ु आत िकस प्रकार ह�ई और इसमें िकतनी गम्भीरता है, इस बात का अध्ययन आप दसू री
इकाई में करें गे। ित्रकोणिमित का अध्ययन भी भारतीय िवद्या का अगं है। तीसरी इकाई में आप
ित्रकोणिमित के प�रचयात्मक स्व�प का अध्ययन करते ह�ए ित्रकोणिमित के िसद्धान्तों को
जानेंगे। चतुथर् इकाई गोलीय ित्रकोणिमित क� है। यह इकाई गोलीय ित्रकोणिमित के �प में क्यों
है, इसके वण्यर्िवषय से आपको सहज ही �ात होगा। इस खण्ड क� पाचं वी और अिन्तम इकाई
में आप वैिदकगिणत के स्व�प को जानेंगे। इस पाठ्यक्रम के िद्वतीय खण्ड का नाम ग्रहणिवचार
है। इस खण्ड में भी 5 इकाइयों के भीतर िवषय वस्तु का समावेश िकया गया है, िजसमें प्रथम
इकाई में ग्रहण का प�रचय और स्व�प बताया गया है। दसू री इकाई चन्द्रग्रहण के स्व�प और
िसद्धान्तों का वणर्न करती है। तीसरी इकाई में सूयर् ग्रहण के िसद्धान्तों का िवमशर् प्रस्तुत िकया
गया है। चौथी इकाई वलन एवं प�रलेख क� है। इसके अध्ययन से आपको जोितषशा� में
प�रलेख और वलन क� िववेचना क� जानकारी प्रा� होगी। पांचवीं इकाई ग्रहणफल और
कृ त्याकृ त्य िवचार क� है। भारतीय सस्ं कृ ित में ग्रहण काल में धमर्शा� के िनयमों के अनुसार
वजर्नाओ ं का पालन करना पड़ता है। इसी कारण इस इकाई में िवषय िवशेष�ों के द्वारा ग्रहण
काल के करने और न करने योग्य काय� का वणर्न िकया गया होगा।
तीसरे खण्ड का नाम चद्रं श्रृंगोन्नित एवम् उदयास्तािद िवचार है। 5 इकाइयों में इस खण्ड का
प्रितपाद्य िवषय है। प्रथम इकाई में चन्द्रमा के चद्रं श्रृगं ोन्नित का िवचार प्रस्ततु िकया गया है।
दसू री इकाई ग्रहों के उदय और अस्त होने के िवचार िवमशर् से सम्बिन्धत है। ज्योितषशा�ीय
मान्यता में ग्रह उदय और अस्त भी होते हैं। इस खण्ड क� तीसरी इकाई भ- ग्रह यिु त िवचार है।
चौथी इकाई में पात एवं �क्कमर् का वणर्न िकया गया है। इस खण्ड क� पांचवीं इकाई संक्रािन्त
का वणर्न करती है। िजसमें संक्रािन्त के िवमशर् बताए गए हैं। इस पाठ्यक्रम के चौथे खण्ड का
नाम वेध एवं यन्त्र प�रचय है। पहली इकाई में आप ज्योितष शास्त्र में वेध के महत्व को जानेग।ें
दसू री इकाई में भारतीय ज्योितष के अन्तगर्त वेध परम्परा का अध्ययन करें ग।ें िजससे आपको
िसद्धान्त और महत्व दोनों का ठीक से प�रचय प्राप्त हो सके गा। इस खण्ड के तीसरी इकाई में
प्रमखु प्राचीन यन्त्रों का प�रचयात्मक अध्ययन प्रस्ततु िकया गया है। इससे आपको प्राचीन
भारतीय यन्त्रों का प�र�ान होगा। इसी क्रम में चौथी इकाई में आधिु नक यन्त्रों का प�रचयात्मक
वणर्न प्रस्ततु िकया गया है। पॉचवीं और अिन्तम इकाई में गोल, अयन एवं ऋतु िवमशर् प्रस्ततु
है। अत: इस पाठ्यक्रम क� कुल बीस इकाईयों में आप उक्तानसु ार िवषयों का अध्ययन करके
व्याख्या करने में स�म हो सकें गें।
खण्ड 1
व्य�ाव्य� गिणत
प्रथमखण्ड का प�रचय
व्य�ाव्य� गिणत नामक प्रथम खण्ड के अध्ययन में आपका स्वागत है। भारतीय गिणत क�
पिु � िबना खगोलीय �ान और ज्योितष के सैद्धािन्तक गिणत से नहीं क� जा सकती। इसीिलए
इस पाठ्यक्रम में प्रथम खण्ड के प्रितपाद्य िवषय के �प में अंक गिणत बीजगिणत,
ित्रकोणिमित, गोलीयित्रकोणिमित और वैिदकगिणत का अध्ययन करने के िलए िवषय प्रस्तुत
िकए गए हैं। इस खण्ड में कुल 5 िनम्निलिखत इकाइयां हैं-
इकाई 1 अक ं गिणत का संि�प्त प�रचय
इकाई 2 बीजगिणत का सिं �प्त प�रचय
इकाई 3 ित्रकोणिमित गिणत का प�रचयात्मक स्व�प
इकाई 4 गोलीयित्रकोणिमित का प�रचयात्मक स्व�प
इकाई 5 वैिदकगिणत का सिं �प्त प�रचय
भारतीय अक ं गिणत का सैद्धािन्तक स्व�प जाने िबना ज्योितष के तत्वों को गिणत के �प में
ठीक से नहीं समझा जा सकता। इसी कारण प्रथम इकाई में भारतीय अक ं गिणत का संि��
प�रचय िदया गया है। दशमलव क� पद्धित भारत के बीजगिणत क� अनोखी पद्धित है। दसू री
इकाई में आप भारतीय बीजगिणत के स्व�प का उदाहरण पवू क र् अध्ययन करने जा रहे हैं।
ित्रकोणिमित पा�ात्य �ान िव�ान का प�रचायक नहीं है, बिल्क भारत में मल ू �प से इसके
उद्भव िवकास का वणर्न प्रा� होता है। तीसरी इकाई इसी िवषय का समथर्न करती है। चौथी
इकाई में िवशेष �प से गोलीय ित्रकोणिमित का वणर्न आप के अध्ययन के िलए प्रस्तुत िकया
गया है। वेद वस्तुतः सभी िवद्याओ ं के मूल में हैं। वैिदकगिणत अपने आप में बह�त महत्वपणू र्
गिणत है। इसके सैद्धािन्तक स्व�प क� चचार् उदाहरण पवू क र् िवद्वान लेखकों के द्वारा क� गई है।
इस खण्ड क� अिन्तम इकाई वैिदकगिणत का संि�� प�रचय है। इस इकाई में आप
वैिदकगिणत के सत्रू ों और उदाहरणों का सरलता से अध्ययन कर पाएगं े। अतः इस खण्ड का
अध्ययन करने के बाद आप भारतीय िवद्या में गिणत क� िस्थित क� ठीक-ठीक व्याख्या कर
सकें गे।
अंकगिणत का
इकाई 1 अंकगिणत का संि�� प�रचय सिं �� प�रचय

इकाई क� सरं चना


1.0 उद्देश्य
1.1 प्रस्तावना
1.2 अक ं गिणत का संि�� प�रचय
1.2.1 संकलन
1.2.2 व्यवकलन
1.2.3 गणु न
1.2.4 भाजन
1.2.5 वगर्कमर्
1.2.6 वगर्मल ू
1.2.7 घनकमर्
1.2.8 घनमल ू
1.2.9 शन्ू य प�रकमर्
1.2.10 व्यस्त िविध
1.2.11 इ�कमर्
1.2.12 सक्रं मण गिणत
1.2.13 गणु कमर्
1.2.14 त्रैरािशक
1.2.15 िमश्रक गिणत
1.2.16 �ेत्रव्यवहार
1.2.17 खातगिणत
1.2.18 क्रकचगिणत
1.2.18 रािश एवं छायागिणत
1.2.19 कुट्टकगिणत
1.2.20 अड्कपाश
1.3 सराशं
1.4 पा�रभािषक शब्दावली
1.5 बोध प्र�
1.6 सन्दभर् ग्रन्थसचू ी

1.0 उद्देश्य
प्रस्ततु इकाई का अध्ययन करने के बाद आप :
• इस इकाई के अध्ययन से आप भारतीय अड्कगिणत के इितहास एवं परम्परा को जान
सकें गे। 9
व्यक्ताव्यक्त • िविवध उदाहरणों के माध्यम से िविवध गिणतीय समस्याओ ं को हल करने में द�ता प्रा�
गिणत
होगी।
• िकसी भी गिणतीय समस्या को िविवध प्रकार से हल करने में द�ता प्रा� होगी।
• िविवध ग्रन्थों में िव�ेिषत िविवध गिणतीय संिक्रयाओ ं को िव�ेषण द�ता प्रा� होगी।

1.1 प्रस्तावना
िप्रय िज�ासुओ!ं आज हम एम.ए. ज्योितष के इस पाठ्यक्रम में अक ं गिणत के संि�� प�रचय
को पढे़ग।ें जैसा िक हमें गत क�ाओ ं में यह �ात हो चुका है िक ग्रह न�त्रों से सबिन्धत शा�
को ज्योितषशा� क� सं�ा दी गई है। ज्योितषशा� के सामान्य �प से तीन स्कन्ध हैं। (1)
िसद्धान्त (2) संिहता (3) होरा। आचायर् वाराहिमिहर भी अपने ग्रन्थ वृहत्संिहता के प्रारम्भ में
ही स्प� कर देते हैं िक-
‘‘ज्योितषशा�मनेकभेदिवषयं स्कन्धत्रयािधि�तम’् ’ इन तीन स्कन्धों का प�रचय भी हमें
पवू र् में ही प्रा� हो चक
ु ा है। िसद्धान्त स्कन्ध के प�रचय में ही बताया गया है िक अक
ं गिणत एवं
बीजगिणत ये दोनें ही िसद्धान्त स्कन्ध के िवभाग है। अक ं गिणत को व्य� गिणत तथा
बीजगिणत को अव्य� गिणत के नाम से अिभिहत िकया गया है।
आचायर् भास्कर ज्योितषशा� को पढ़ने के िलए िजस योग्यता का िनधार्रण करते हैं उसमें पहले
पायदान पर गिणत के �ान को रखते हैं, और िलखते हैं-
िद्विवधगिणमु�ं व्य�मव्य�यु�ं
तदवगमिन�ः शब्दशा�े पटी�ः।
यिद भवित तदेदं ज्योितषं भ�ू रभेदं
प्रपिठतुमिधकारी सोन्यशा नामधारी।।
अथार्त् व्य� एवं अव्य� दो प्रकार के गिणत बताए गए हैं। इन दो प्रकार के गिणत को जानने
वाला तथा साथ-साथ व्याकरण शा� को जानने वाला ही ज्योितषशा� को पढ़ने का
अिधकारी है अथवा वह के वल नाममात्र का दैव� है।
इन प्रमाणों से �ात होता है क� दैव� होने के िलए पहली योग्यता अक ं गिणत एवं बीजगिणत
का �ान एवं दसू री योग्यता शब्दशा� का �ान रखी गई। अक ं गिणत के अंतगर्त संख्याओ ं क�
परस्पर सिं क्रयाएं सपं ािदत क� जाती हैं। प्रायः यह माना जाता है िक अक ं गिणत ही गिणत शा�
क� प्राचीनतम शाखा है। अक ं गिणत को प्राचीन काल में पाटी गिणत अथवा धूली कमर् कहा
जाता था। अक ं गिणत के अतं गर्त सवर्प्रथम हम मद्रु ा, काल, दरू ी, लबं ाई आिद के प�रभाषाओ ं
को जानते हैं उसके बाद संख्यामान, स्थानीय मान, अ� प�रकमर् (िजसके अतं गर्त जोड़ना,
घटाना, गणु ा करना, भाग देना, वगर्, वगर्मल ू , घन एवं घनमलू ) शन्ू य प�रकमर्, व्यस्त िविध, इ�
कमर्, सक्र
ं मण गिणत, गणु कमर्, त्रैरािशक, िमश्रक गिणत, �ेत्र व्यवहार, खात गिणत, क्रकच
गिणत, रािश एवं छाया गिणत, कुट्टक गिणत, अक ं पाश इत्यािद का अध्ययन िकया जाता है।
अब हम इनसे सम्बिन्धत जानकारी इस पाठ में प्रा� करें गे।

10
अंकगिणत का
1.2 अंकगिणत का संि�� प�रचय सिं �� प�रचय
भारतीय सस्ं कृ ित में गिणत का प्रयोग प्राचनीकाल से ही प्रचिलत है। वेदों में अनेक स्थलों पर
अक ं गिणतीय संिक्रयाओ ं क� भरपरू चचार् ह�ई है। संिहताओ ं के बाद ब्रा�ण ग्रंथों में अक
ं गिणत
के मह�व को बताते ह�ए िलखा गया ‘‘यादसे गणकम’् ’। इसके अनन्तर परवत� आचाय� ने भी
इस परम्परा को आगे बढ़ाया। स्वतंत्र �प से स्थानांग सत्रू (350 ई.प.ू ) भगवती सत्रू कार
(300ई.प.ू ) तथा आचायर् आयर्भट्ट (499) ने अपने गथं आयर्भट्टीयम् में अक ं गिणत के िवषय
वस्तओु ं को स्प� िकया वहीं पाँचवी सदी में आचायर् वराहिमिहर ने प�चिसद्धािन्तका, सातवीं
शताब्दी में आचायर् ब्र�ग�ु ने ब्र�स्फुटिसद्धान्त और उसके बाद भास्कर आिद आचाय� ने
अपने िविभन्न ग्रन्थों के माध्यम से गिणत क� इस परम्परा को आगे बढाया।
प्रायः इन सभी आचाय� ने ग्रन्थ को मगं लाचरण से आरम्भ कर सवर्प्रथम अपने समय में
प्रचिलत िविवध मापन के प�रभाषाओ ं को बताया है। जैसे वराटक, वश ं , योजन, सवु णर् आिद।
इसके बाद सख्ं या पद्धित का वणर्न िकया है। भास्कर प्रभृित आचाय� ने इकाई, दहाई आिद
सख्ं याओ ं के स्थानीय मानों का प्रितपादन करते ह�ए गिणतीय प्रिक्रया को आगे बढाया है।
गिणतीय प्रिक्रया के क्रम में आचाय� ने मख्ु य�प से िनम्निलिखत िवषयों का प्रितपादन िकया
है।
1.2.1 अ� प�रकमर्
1.2.1.1 सक
ं लन
संकलन का शािब्दक अथर् है इकट्ठा करना या जोड़ना। इसे अग्रं ेजी में Addission कहा जाता
है। प्राचीन काल में जोड़ने या घटाने क� अनेकों िविधयाँ प्रचिलत थी। उदाहरण के िलए
भास्कराचायर् का अधोिलिखत सत्रू देखते हैं-
‘‘काय� क्रमादुत्क्रमतोथवांक योगो यथास्थानकमन्तरं वा’’
अथार्त् स्थान के अन� ु प क्रम से अथवा उत्क्रम से संख्याओ ं का योग अथवा ऋण करना
चािहए। इसी प्रकार सख्ं याओ ं के क्रिमक योग के िलए गिणत कौमदु ीकार ने बताया िक
‘‘सैकपदाहतपददलमेकािदचयेन भवित संकिलतम।् ’’
अथार्त् अिन्तम संख्या में एक जोड़कर अिन्तम सख्ं या से गणु ा करें तथा गणु नफल को आधा
करने पर एकािद क्रिमक संख्याओ ं का योग प्रा� होता है।
इसे सामान्य �प में अधोिलिखत प्रकार से देख सकते हैं-

1+2+3+-------- अिन्तम पद (n) तक का योग =

1.2.1.2 व्यवकलनः
व्यवकलन का तात्पयर् घटाने (Subtraction) से है। उपरो� प्रकार से ही क्रमसे या व्यत्ु क्रम से
सख्ं याओ ं का अन्तर भी प्रा� िकया जा सकता है। पाटी गिणत में क्रिमक सख्ं याओ ं के अन्तर
को भी प्रा� करने का सत्रू बाताया गया है।
11
व्यक्ताव्यक्त सैकं व्यवकिलपदं सक ं िलतपदे िनधाय संगण
ु येत।्
गिणत पदयोिवर्वरेण भवेद् दलीकृतं व्यवकिलतशेषम।् ।
अथार्त् व्यवकिलत पद (m) में एक जोड़ कर संकिलत पद (n) के साथ जोड़े। योगफल को
सक
ं िलत पद तथा व्यवकिलत पद के अन्तर के साथ गणु ा करें । जो फल प्रा� ह�आ उसे आधा
करने पर व्यवकिलत शेष अथार्त् अतं र (Subtraction) प्रा� होता है।
सत्रू ात्मक �प में इसे िनम्न प्रकार से िलख सकते है-

व्यवकिलत शेष =

उदाहरण के द्वारा इसे िनम्न प्रकार से समझा जा सकता है।


तथा का अतं र �ात करना है।

सत्रू के अनसु ार उ�र

1.2.1.3 गण
ु न
गणु क संख्या एवं तल्ु यस्थान िस्थत गण्ु यों का योग ही गणु नफल कहलाता है। पाटी गिणत के
िविवध आचाय� ने गणु ा करने के अलग-अलग िविधयों को बताया है। भास्कराचायर्
लीलावती में गणु न के पाँच प्रकारों को बताते हैं। यथा-
गण्ु यान्त्यमंकं गण
ु के न हन्यादुत्सा�रतेनैवमुपािन्तमादीन
गुण्यस्त्वधोधो गुणखण्डतुल्यस्तैः खण्डकै ः संगुिणतो युतो वा।
भ�ोगुणःशुध्यित येन तेन लब्ध्या च गुण्यो गुिणत: फलं वा
िद्वधा भवेद्रूपिवभाग एवं स्थानै: पृथग्वा गुिणतः समेतः।
इ�ोनयु�ेन गुणेन िनध्नोऽभी�ध्न गुण्यािन्वत विजर्तो वा।।
इसी प्रकार वैिदक गिणत में गणु न क� अनेक सरल िविधयाँ बताई गई हैं। जैसे-
“ऊध्वर्तीयर्ग्भ्याम”्
इस सत्रू का स्व�प इसप्रकार होगा

A B

C D

प्रथम अवस्था में B को D से गणु ा करें गे। पनु ः A को D से तथा B को C से गणु ाकर के योग
कर लेंगे। इसके बाद A से C गणु ा कर िलख देंगे।
12
1.2.1.4 भाजनः अंकगिणत का
सिं �� प�रचय
भाजन का तात्पयर् भाग से है। भाग का अथर् है िकसी संख्या का िवभाग करना। भाजन के क्रम
में िजस संख्या में भाग िदया जाता है वह भाज्य, िजस संख्या से भाग िदया जाता है वह भाजक
तथा भाग देने के बाद जो फल प्रा� होता है, उसे भागफल तथा पणू र् भाग न लग पाने क�
अवस्था में यिद कुछ सख्ं या बच जाती है, तो उसे शेष कहा जाता है। उदाहरणाथर्-
23/4 = 5 भागफल तथा 3 शेष
भाजन के िलए भी वैिदक गिणत, लीलावती ित्रशितका, गिणत कौमदु ी आिद ग्रन्थों में अनेक
उ�म सत्रू आचाय� ने िदये हैं।
1.2.1.5 वगर्कमर्ः
वगर् क� प�रभाषा है ‘समिद्वघातः कृ ित�च्यते’ अथार्त् िकसी सख्ं या को उसी संख्या से गुणा
करने पर जो गणु नफल प्रा� होता है, वह वगर् कहलाता है। वगर् करने क� िविधयों पर अलग-
अलग आचाय� ने प्रकाश डाला है तथा सौ से अिधक िविधयाँ बताई हैं। आचायर् भास्कर ने ही
लीलावती में एक ही �ोक में चार िविधयों को बताया है:
समिद्वघातः कृित�च्यते ऽथ
स्थाप्योन्त्यवग� िद्वगुणान्त्यिनघ्नाः ।
स्वस्वोप�र�ाच्च तथाऽपरेऽङ्काः
त्यक्त्वान्त्य मुत्सायर् पुन� रािशम ॥
खण्डद्वयस्यािभहितिद्वर्िनघ्नी
तत्खण्ड वग�क्ययुता कृितवार् ।
इ�ोनयुग्रािशवधः कृितः स्यात्
इ�स्य वग�ण समिन्वतो वा ॥
वगर्मूलः- अथार्त् िकसी भी वगर् संख्या क� वह संख्या िजससे उस वगर् का िनमार्ण होता है।
वगर्मल
ू कहलाती है।
घनः- िकसी भी संख्या को उसी संख्या से तीन बार गणु ा करने पर प्रा� गणु नफल घन कहलाता
है। जैसे- 3 का घन = 3×3×3 =27 इसी प�रभाषा को भास्कराचायर् भी कहते है िक
‘‘समित्रघात� घनः प्रिद�ः’’
घनमूल:- वगर्मल ू के ही प्रकार से िकसी भी घन सख्ं या क� वह मलू सख्ं या िजससे वह घन
संख्या बन है, घनमल ू कहलाती है। यहाँ 27 का घनमल ू 3 होगा। इस प्रकार धन, ऋण, गणु न,
भाजन,वगर्, वगर्मल
ू , घन तथा घनमल ू इन आठ कम� को अ� प�रकमर् क� स�ं ा दी गई है।
इन आठों सिं क्रयाओ ं को जब अिभन्न सख्ं याओ ं के साथ िकया जाता है तो इसे अिभन्न
प�रकमार्�क क� सं�ा क� दी जाती है, तथा जब इन संिक्रयाओ ं को िभन्नात्मक सख्ं याओ ं के
साथ िकया जाता है तो ये संिक्रयाएँ िभन्न प�रकमार्�क कहलाती हैं। िभन्न सख्ं याओ ं के साथ
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व्यक्ताव्यक्त भी इन आठ प�रकम� को सम्पािदत करने के िलए लीलावती आिद ग्रन्थों में अनेक सत्रू बताए
गिणत गए हैं।
1.2.2 शून्य प�रकमर्
शन्ू य प�रकमर् में भी शन्ू य के साथ आठ संिक्रयाएँ बताई गई हैं। जैसा िक िभन्न एवं अिभन्न
प�रकमर् में बताया गया है। आचायर् भास्कर इन सिं क्रयाओ ं के सबं न्ध में िलखते हैं –
योगे खं �ेपसमं, वगार्दौ ख,ं खभािजतो रािशः।
खहर: स्यात,् खगुणः ख,ं खगुणि�न्त्य� शेषिवधौ।।
शून्ये गुणके जाते, खं हार�ेत् पुनस्तदा रािशः।
अिवकृत एव �ेयस्तथैव खेनोिनत� युतः।।
1.2.3 व्यस्तिविध
जहां गिणतीय प्रिक्रया में अक
ं �ान के िलए �ात अक
ं में हर को गणु ा तथा गणु ा को हर, वगर् को
मल
ू तथा मल ू को वगर्, धन को ऋण तथा ऋण को धन बना कर अतं में संख्या प्रा� होती है
ऐसे िवलोम प्रिक्रया वाले गिणत को व्यस्त गिणत या इस िविध को व्यस्त िविध कहते हैं। सत्रू
भी है –
छे दं गुणं गुणं छे दं वग� मूलं पदं कृितम् ।
ऋणं स्वं स्वमृणं कुयार्त् �श्ये रािशप्रिसद्धये ॥
अथ स्वांशािधकोने तु लवाढ्योनो हरो हरः ।
अंशस्त्विवकृतस्तत्रिवलोमे शेषमु�वत् ॥४६॥
एक उदाहरण से इस प्रकार के गिणत को समझने का प्रयास करते हैं-
वह कौन सी संख्या है िजसे 3 से गणु ा कर अपना 2/4 जोड़ देते हैं िफर 7 का भाग देते हैं तथा
अपना 1/3 घटा देते हैं िफर उसका वगर् करते हैं एवं उसमें 52 घटा कर मलू लेते हैं , अब जो
प्रा� हो उसमें 8जोड़ कर 10 का भाग देते हैं तो भागफल 2 प्रा� होता है? यिद आप व्यस्त
िविध में प्रवीण हो तो ऐसी संख्या को बताओ?
1.2.4 इ�कमर्
इस प्रकार के गिणतीय संिक्रयाओ ं में इ� अक
ं क� कल्पना कर के शेष गिणत क� प्रिक्रया आगे
बढ़ती है। इसके भी अलग-अलग भेद है। एक सत्रू से इसे समझने का प्रयास करते है। सत्रू -
उद्देशकलापविद�रािशः �णु ो �तोंशै रिहतो युतो वा।
इ�ाहतं ��मनेन भ�ं रािशभर्वेत् प्रो�िमती�कमर्।।
प्र� में जो िक्रयाएं कहीं गई हैं उसे ई� रािश में करने के बाद जो रािश प्रा� हो उससे िकसी
किल्पत ई� गिु णत किथत संख्या(��) को भाग देने पर जो फल प्रा� होता है वही अभी�
सख्ं या होती है। िकसी किल्पत ई� संख्या के द्वारा फल का साधन िकया जाता है, इस कारण से
इसे इ�कमर् कहा गया है। लीलावती के सत्रू ाथर् प्रकािशका टीका में एक बड़ा सन्ु दर उदाहरण
िदया गया है। जैसे यिद िकसी ने प्र� िकया िक “वह कौन सी सख्ं या है िजसे 5 से गणु ा कर 3 से
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भाग देकर जो फल प्रा� हो उसमें उसी का पंचमांश घटा देने पर शेष 8 प्रा� होता है।” अंकगिणत का
सिं �� प�रचय
इसके उदाहरण का एक प्र� अंकगिणत में अित प्रिसद्ध है-
अमलकमलराशे��यंशपच ं ांशष�ै
िस्रनयनह�रसूयार् येन तुय�ण चायार्।
गु�पदमथ षऽिभः पिू जतं शेषपद्मै:
सकलकमलसंख्यां �ीप्रमाख्यािह तस्य।।

अथार्त् िकसी भ� ने कमल के समहू ों में से भाग से भगवान् िशव क�, भाग से िवष्णु क�,
भाग से सयू र् क� और भाग से मां भगवती िक पजू ा क� तथा उसके पास 6 पष्ु प बच गए।
िजससे उसने अपने ग�ु जी क� पजू ा क�। तो बताओ उस कमल के समहू में िकतने कमल के
पष्ु प थे।
1.2.5 संक्रमण गिणत
जहाँ दो सख्ं याओ ं का योग तथा अंतर दे कर यिद मल ू सख्ं या पछू ी जाए वहाँ सक्र
ं मण गिणत
का प्रयोग िकया जाता है। भास्कराचायर् लीलावती से पछू ते हैं िक-
ययोय�गः शतं सैकं िवयोगः प�चिवंशित:।
तौ राशी वद में वत्स! वेित्स सक्र
ं मणं यिद।।
अथार्त् िजन दो संख्याओ ं का योग 101 तथा अंतर 25 हो उन दो संख्याओ ं को बताओ।ं हे
लीलावती यिद तमु सक ं मण के गिणत को जानती हो तो।
1.2.6 गण
ु कमर्
जहाँ कोई रािश अपने इ� अंक गिु णत मूल से कम या य� ु होकर �श्य ह�ई हो ऐसे स्थान पर
गणु कमर् का प्रयसोग करते हैं। इसे अधोिलिखत उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करते है-
प्र�:- वह कौन सी सख्ं या है िजसमें पाँच गनु ा मल
ू घटाने से चौदह बचता है ?
1.2.7 त्रैरािशक
प्रमाण, प्रमणाफल और इच्छा इन तीन रािशयों को जानकर इच्छाफल जानने क� िक्रया को
त्रैरािशक कहते हैं। आचायर् भास्कर त्रैरािशक गिणत को ही पाटी गिणत का मल
ू कहते ह�ये
िलखते हैं-
अिस्त त्रैरािशकं पाटी बींज च िवमला मितः।
िकम�ातं सबु ुद्धीनामतो मन्दाथर्मुच्यते।।
अथार्त् त्रैरािशक ही पाटी गिणत है और िनमर्ल बिु द्ध ही बीजगिणत है। िजनक� बुिद्ध सुबुद्ध है
अथार्त् तीव्र है और गणु ग्राही है, उनके िलए कौन सी वस्तु अ�ात है।
त्रैरािशक के �ान के िलए भास्कराचायर् सत्रू देते हैं िक-
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व्यक्ताव्यक्त प्रमाणिमच्छा च समानजाती
गिणत आद्यन्योस्तत्फलमन्यजाित।
मध्ये तिदच्छाहतमाद्यहत् स्यात्
इच्छाफलं व्यस्तिविधिवर्लोमे।।
अथार्त् प्रमाण और इच्छा ये दोनो एक जाित क� होती है अतः इन दोनों को आिद एवं अन्त में
रखा जाता है तथा प्रमाण िभन्न जाित का होता है अतः उसे मध्य में रखा जाता है। प्रमणाफल
और इच्छा को गणु ा करके प्रमाण से भाग देने पर लिब्ध इच्छाफल प्रा� होता है। उदाहरणाथर्
िकसी ने पछू ा पाँच �. में 100 आम िमलते है तो 7 �. में िकतने िमलेंगे? यहाँ प्र� में 5 �.
प्रमाण और 100 प्रमाणपफल हैं तथा 7 इच्छा है। जहाँ प्रमाण और इच्छा एक जाित अथार्त्
�. में है तथा फल िभन्न जाित का है। अतः सत्रू ानसु ार-

आम

इसी प्रकार से जन्तुओ ं के आयु के मल्ू य में उ�म के साथ अधम मोल वाले तौल में, िकसी
सख्ं या में िभन्न-िभन्न भाजक से भाग देने में व्यस्त त्रैरािशक का प्रयोग िकया जाता है। त्रैरािशक
के ही प्राकर से पंचरािशक, स�रािशक तथा नवरािशक को भी बताया गया है।
1.2.8 िमश्रक-गिणत
मल
ू धन एवं व्याज के िमश्रण और अन्य िमिश्रत मान से सम्बिन्धत गिणतीय समस्याओ ं को
िजस गिणतीय प�रिक्रया के द्वारा साधन िकया जाता है वह िमश्रक गिणत कहा जाता है।
उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करते हैं- 1 माह में �.100 के 5 �. ब्याज के िहसाब से
यिद बारह मास में मल ू धन सिहत ब्याज 1000 �. हो गया तो मल ू धन एवं ब्याज अलग-अलग
बताएँ। इस प्रकार के गिणतीय व्यवहार को िमश्रक गिणत में स्प� िकया गया है।
1.2.9 �ेत्रव्यवहार
पाटी गिणत या अक ं गिणत में �ेत्र व्यवहार अध्याय का िवशेष प्रितपादन िकया गया है।
�ेत्रव्यवहार में ज्यािमित के समस्त अवयवों का वणर्न िकया गया है। जैस-े आयत, वगर्,
ित्रभजु , वृ�, घनफल, िविवध भजु ीय �ेत्र इत्यािद। इन सभी रै िखक �ेत्रों के िविवध इकाइयों
यथा �ेत्रफल आिद के आनयन �ेत्र व्यवहार अध्याय में प्रितपािदत है।
1.2.10 खातगिणत
खात गिणत या खात व्यवहार से तात्पयर् िविभन्न आकार के बनावट वाले गड्ढे से है। उदाहरण
से समझते है िक यिद िकसी गड्ढे में टेढ़े होने के कारण दैध्यर्मान 10,11 और 12 हाथ है तथा
तीन स्थान में िवस्तार भी 5,6,7 हाथ तीन प्रकार है। तो उस खात में िकतने घन हस्त होंगे? इस
प्रकार के प्र�ों के समाधान के िलए आचायर् सत्रू बताते हैं-
गणियत्वा िवस्तारं वह�षु स्थानेषु तद्युितभार्ज्या
स्थानकिमत्या समिमितरेवं दैध्य� च वेधे च।
�ेत्रफलं वेधगुणं खाते घनहस्तसख् ं या स्यात।्
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अथार्त् िजस गड्ढे क� लम्बाई सवर्त्र सामान नहीं हो अथवा चौड़ाई या गहराई भी सवर्त्र सामान अंकगिणत का
नहीं हो वहां चौड़ाई को अनेक स्थान पर माप कर उसके योग में स्थान सख्ं या (अथार्त् िजतने सिं �� प�रचय
जगह चौड़ाई मापी गई हो उस सख्ं या) से भाग देने से चौड़ाई का मान प्रा� होता है।इसी प्रकार
लम्बाई और गहराई को भी सम�प बना लेते हैं।िफर �ेत्रफल को गहराई से गणु ा करने पर
घनहस्त का मान प्रा� होता है।
1.2.11 क्रकच-गिणत
क्रकच गिणत व्यवहार में मख्ु य �प से िचित �ान, लकड़ी के गट्ठे का �ान इत्यािद विणर्त होते
है। जैसे िकसी इटं के दीवाल में िकतने ईटं है अथवा िकतने ईटोंं से िकस लम्बाई चौड़ाई क�
दीवार बनाई जा सकती है। इस िवषय को क्रकच गिणत के द्वारा जाना जा सकता है। उदाहरण
स्व�प भास्कराचायर् के एक प्र� को लेते है-
अ�ादशांगुल दैध्यर् िवस्तारो द्वादशांगुल:।
उिच्द्रित�यंगुला यस्यािमि�कास्ताि�तौ िकल।।
अथार्त् िजस ईटं क� लम्बाई 18 अगं ल ु , चौड़ाई 12 अगं ल ु , ऊँचाई 3 अगं ल ु है, इस प्रकार के
ईटं क� एक दीवार है। िजसक� चौड़ाई 5 हाथ, लम्बाई 8 हाथ और ऊँचाई 3 हाथ है उस दीवार
में ईटं क� सख्ं या िकतनी है तथा िकतने पंि�यों में ईटं लगाए गए हैं। ऐसे प्र�ों को हल करने के
िलए आचायर् भास्कर सत्रू िलखते हैं-
उच्छ्रयेण गुिणत: िचतेः िकल �ेत्रसम्भवफलं घनं भवेत।्
इि�काघन�ते घने िचते�रि�काप�रिमित� लभ्यते।।
इि�कोच्छ्रय�दुिच्छ्रिति�तेःस्यु स्तरा� �षदां िचतेरित।
अथार्त् िचित के �ेत्रफल को िचित के ऊँचाई से गणु ा करने से िचित का घनफल होता है। िचित
के घनफल में ईटं के धन से भाग देने से ईटों क� सख्ं या होती है और िचित क� ऊँचाईमें ईटें क�
ऊँचाई से भाग देने से लिब्ध स्तर क� सख्ं या होती है।
1.2.12 रािश एवं छायागिणत
रािश व्यवहार का तात्पयर् धान्य आिद के प�रमाण से संबिन्धत गिणत से है। इस प्रकार के
गिणत में भिू म पर वृ�ाकार �ेत्र में रखे ह�ये धान्य के प�रमाण को �ात िकया जाता है। िजसे इस
प्र� को उदाहरण स्व�प लेते है-
समभुिव िकल रािशयर्ः िस्थतः स्थल ू धान्यः
प�रिधनप�रिमितः स्याद्धस्तषि�यर्दीया।
प्रवद गणक! खायर्ः िकं िमताः सिन्त तिस्म
न्नथ पृथगगुधान्यैः शूकधान्यै� शीघ्रम।् ।
अथार्त् समतल भिू म पर रखे ह�ए स्थूल धान्य क� प�रिध यिद 60 हाथ है तो उसमें िकतने
घनहस्त होंगे? तथा स�ू म धान्य और शक ू धान्य क� प�रिध भी यिद 60 हाथ हो तो उसमें
अलग अलग खारी प्रमाण बताओ?ं इसी प्रकार छाया गिणत व्यवहार में छाया के मान का �ान
तथा छाया के माध्यम से ही ऊँचाई का �ान िकया जाता है। इस सम्बन्ध में लीलावती में पूछा
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व्यक्ताव्यक्त ह�आ आचायर् भास्कर का उदाहरण प्रिसद्ध है। -
गिणत
शकं ोभार्कर्िमतांगुलस्य समुते! ��ा िकलाष्तांगुला
छायाग्रािभमुखे करद्वयिमते न्यस्तस्य देशे पनु ः।
तस्यैवाकर् िमतांगलु ा यिद तदा छायाप्रदीपान्तरं
दीपौच्यं च िकयद्वद व्यव�ितं छायािभधां वेित्स चेत।् ।
अथार्त् हे सुमित! अगर तुम छाया गिणत को जानती हो तो बताओ िक यिद बारह अंगुल के
शकं ु क� छाया 8 अगं ल
ु थी, िफर उसी शकं ु को छायाग्र क� तरफ 2 हाथ बढ़ाकर रखने से दसू री
छाया 16 अगं ल ु ह�ईतो छायाग्र और दीपतल का अतं र भिू म मान बताओ।ं तथा दीप क� ऊँचाई
िकतनी होगी?
1.2.13 कुट्टकगिणत
अक ं गिणत क� यह पद्धित अित िविश� है। िकसी दी ह�ई संख्या का इस प्रकार का गणु क का
�ान करना िजससे गिु णत िनिदर्� सख्ं या में िनिदर्� हर के भाग देने से िनश्शेष लिब्ध हो इस
प्रकार के गिणत को कुट्टक कहते है। उदाहरण के माध्यम से इस तथ्य को समझते है- 221 को
िजस सख्ं या से गुणन करके 65 जोड़कर 195 के भाग देने से िनश्शेष हो उस गणु क को �ात
करें । ऐसे प्र�ों को हल करने क� अनेकों िविधयाँ आचाय� ने बताई है। जैस-
िमथो भजेत् तौ �ढ़भाज्यहारौ याविद्वभाज्ये भवतीह �पम।्
फलान्यधोऽधस्तदधो िनवेश्यः �ेपस्तथान्ते समुपािन्तमेन।।
स्वोध्व� हतेऽत्न्येन युते तदन्त्यं ज्यजेन्मुह�ः स्यािदित रािशयुग्मम।्
ऊध्व� िवभाज्येन �ढ़ेन त�ः फलं गुणः स्यादधरो हरेण।।
एवं तदैवाऽत्र यदा समास्ताः स्युलर्ब्धय�ेिद्वषमास्तदानीम।्
यदागतौ लिब्धगण ु ौ िवशोध्यौ स्वत�णाच्छे षिमतौ तु तौ स्त:।।
इसी प्रकार के अनेकों समस्याओ ं तथा उनके साधनाथर् सत्रू ों को आचाय� ने कुट्टक के प्र� में
बताया है।
1.2.14 अंकपाश
वतर्मान गिणत क� प्रिक्रया में अक ं पाश को ही क्रमचय तथा संचय के नाम से जाना जाता है।
इसके अतं गर्त अक ं ों के िविवध क्रम या अंकों के प्रकारों क� गणना क� जाती है। भास्कराचायर्
के अनसु ार इस प्रिक्रया में गणु ा, भाग, वगर् आिद िकसी भी प्रिक्रया का प्रयोग नहीं िकया जाता
है िफर भी इस गिणत में अिभमािनयों का अिभमान दरू हो जाता है। प्राचीन काल में जैन
गिणत�ों ने इसे खबू महत्व िदया। स्थानागं सत्रू में इसे इसे भंग के नाम से बताया गया है तथा
भगवती सत्रू में इसे एक संयोग, िद्वक संयोग आिद के नाम से अिभिहत िकया गया है। िशलांक
सरू ी इसे िवकल्प के नाम से प्रितपािदत करते हैं। इसके िलए िशलांक सरू ी सत्रू बताते हैं िक-
एकाद्या गच्छपयर्न्ता परस्परसमाहताः।
राशयस्तिद्ध िव�ेयं िवकल्प गिणते फलम्।।

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अथार्त् एक से लेकर जहां तक क� संख्या का मान �ात करना अभी� हो वहां तक परस्पर अंकगिणत का
गणु ा करने से प्रा� रािश िवकल्प गिणत का फल होती है। सिं �� प�रचय

उदाहरण के द्वारा हम समझने का प्रयास करते हैं यिद भगवान िवष्णु के 4 हाथों में गधा, चक्र,
कमल और संख को परस्पर बदल कर एक दसू रे हाथ में रखने से कुल िकतने प्रकार के मिू तर्यों
के भेद बनेंगे?
1 × 2 × 3 × 4 = 24
सत्रू का प्रयोग करते ह�ए इसका भेद प्रा� करना आसान है।
इस प्रकार आचाय� ने इन िवषयों क प्रितपादन अपने अपने ग्रथं ों में िविवध प्रकार से िकया है।

1.3 सारांश
िप्रय िज�ासओ ु ं ! अभी हमने अक ं गिणत को समझा और इसका प�रचय प्रा� िकया। यिद सार
�प में इसे समझा जाए तो ज्योितषशा� के िसद्धांत स्कंध के अतं गर्त दो प्रकार के गिणत क�
चचार् क� गई है। प्रथम अंकगिणत एवं िद्वतीय बीजगिणत। अक ं गिणत को ही पाटीगिणत कहा
जाता है। अक ं गिणत के अन्य िविवध नाम भी देखने को िमलते हैं जैसे धल ू ी कमर् इत्यािद।
सा�ात अक ं ो से सन्दिभर्त गिणतीय संिक्रयाओ ं को गिणत के िजस स्कंध में प्रितपािदत िकया
गया है उसे आचाय� ने अक ं गिणत कहा है। ज्योितषशा� को पढ़ने का अिधकारी भी वही है
िजसे व्याकरण के साथ-साथ यह दो प्रकार के गिणत आते हैं। इन दो प्रकार के गिणतों को ना
जानने वाला दैव� के वल नाम मात्र का दैव� है।
अक ं गिणत के अन्तगर्त िविवध गिणतीय िविधयां बताई गई हैं िजससे मानव जीवन के िविवध
समस्याओ ं का गिणतीय समाधान प्रा� िकया जा सकता है। जैसे िविवध अक ं ो को िभन्न-िभन्न
प्रकार से यथा क्रम से अथवा व्यत्ु क्रम से जोड़ने के िलए संकलन क� िविवध िविधयां बताई गई
है उसी प्रकार से सख्ं याओ ं के अतं र को क्रम अथवा व्यत्ु क्रम से प्रा� करने के िलए व्यवकलन
क� िविधयां बताई गई हैं। आचाय� ने सख्ं याओ ं का गणु नफल प्रा� करने के िलए गणु ा करने के
अनेक िनयम बताए िजसमें ऊध्वर् ितयर्ग्भ्याम, एकािधके न पवू ण� तथा भास्कराचायर् द्वारा बतायी
गयी िविवध िविधयां आज भी सबसे अिधक व्यवहार में हैं।
इसी प्रकार सख्ं याओ ं के वगर् को बताने के िलए अथवा उनके �ान के िलए आचाय� ने वगर् कमर्
के दस से भी अिधक सत्रू गिणत कौमदु ी, लीलावती, गिणत सार संग्रह आिद ग्रंथों में बताया है।
इसी प्रकार से बड़े-बड़े संख्याओ ं के वगर्मल ू को प्रा� करने क� िविधयां आचाय� ने बह�त ही
सहज प्रकार से बताया है।
जैसा िक हम जानते हैं क� शन्ू य एक िविश� प्रकार क� सख्ं या है। अतः इसके धन, ऋण, गणु न
एवं भजन क� िविधयां भी िभन्न हैं। इसे भास्कर प्रभृित आचाय� ने शन्ू य कमर् के �प में अलग
से अपने ग्रंथ में या अक
ं गिणत के प्रितपादन के क्रम में बताया है।
इसके बाद अभी� अक ं क� कल्पना कर शेष गिणतीय संिक्रया के �ान के िलए आचाय� ने
ईस्ट कमर् को बताया है।
इसके बाद िजस भी गिणतीय समस्या में जहां दो संख्याओ ं का योग तथा अतं र देकर यिद मल

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व्यक्ताव्यक्त संख्या पछू ी गई हो ऐसे प्र�ों के समाधान में सक्र
ं मण गिणत को बह�त ही उपयोगी प्रकार से
गिणत समझाया है।
जहां कोई रािश अपने इ� अक ं गिु णत मल
ू से कम या य�ु होकर �श्य होती हो ऐसे स्थानों पर
आचाय� ने गणु कमर् के प्रयोग को उिचत माना है तथा इसका िविधवत प्रितपादन िकया है।
भास्कर आिद आचायर् यह बात कहते हैं िक त्रैरािशक से प्रायः सभी गिणतीय समस्याओ ं का
हल जाना जा सकता है तथा त्रैरािशक गिणत ही पाटी गिणत है। अतः इसक� िवशेषता को
देखते ह�ए आचाय� ने त्रैरािशक, व्यस्त त्रैरािशक, पंचरािशक, नवरािशक आिद को बताया है।
इसी प्रकार मल
ू धन एवं ब्याज के िमश्रण और अन्य िमिश्रत मान से सम्बिन्धत गिणतीय
समस्याओ ं को सल
ु झाने के िलए िमश्रक गिणत को उपय�
ु माना है।
अकं गिणत के अतं गर्त प्रायः सभी आचाय� ने ज्यािमित को भी िलया है तथा ज्यािमित से
सन्दिभर्त सत्रू ों के सन्दभर् में िविश� चचार्एं प्रा� होती हैं। िजसे �ेत्र व्यवहार के नाम से
सामान्यतः जाना जाता है।
इसी प्रकार गड्ढे से सन्दिभर्त या खात से सन्दिभर्त गिणत को आचाय� ने खात व्यवहार तथा
दीवार से सम्बिन्धत गिणतीय समस्याओ ं को क्रकच गिणत के अन्तगर्त बताया है।
भारत एक कृ िष प्रधान देश है अतः धान्य एवं रािश आिद के मान तथा प�रमाण से सन्दिभर्त
समस्याओ ं को सल ु झाने के िलए रािश गिणत को आचाय� ने बताया तथा छाया एवं प्रकाश क�
ऊंचाई को जानने के िलए छाया गिणत को बताया। आचायर् भास्कर का एक बड़ा ही सन्ु दर
प्र� है। वह लीलावती से पूछते हैं िक "यिद 12 अगं ुल के शक
ं ु क� छाया 8 अंगल
ु थी िफर
उसी शक ं ु को छाया के अग्रभाग क� ओर दो हाथ बढ़ाकर रखने से दसू री छाया 16 अगं ुल ह�ई
तो छाया के अग्रभाग और दीपक का अतं र बताओ तथा दीप क� ऊंचाई िकतनी होगी यह भी
बताओ। अगर तमु छाया क� गिणत को जानती हो!" इस प्रकार के गिणतीय समस्याओ ं को
आचाय� ने छाया गिणत के अंतगर्त प्रितपािदत िकया है।
िकसी दी ह�ई सख्ं या का ऐसा गणु क का �ान करना िजससे गिु णत िनिदर्� संख्या में िनिदर्� हर
के भाग देने से िनःशेष लिब्ध हो। इस प्रकार के गिणत को कुट्टक गिणत कहा गया है। कुट्टक का
अथर् होता है बार-बार कूटना या उसे तोड़ना।
इस प्रकार अक ं गिणत के िविवध िवषय अंक गिणत के प्रमख ु पस्ु तकों यथा आयर्भट्टीय, पंच
िसद्धांितका, ब्र�स्फुट िसद्धान्त, गिणत सार संग्रह, गिणत कौमदु ी, लीलावती आिद में िवस्तृत
�प से बताया गया है। इस प्रकार अक ं गिणत को हम इन पस्ु तकों में भी िवशेष �प से पढ़
सकते हैं तथा भारतीय �ान परम्परा को आगे बढ़ा सकते हैं। इसी प्रकार मानव जीवन क�
समस्याओ ं को गिणत के माध्यम से सल ु झा सकते हैं।
1.4 पा�रभािषक पद
• गिणतीय संिक्रयाएं : अक ं ों के साथ िविवध धन ऋण आिद िक्रयाए।ं
• दैव� : ज्योितषशा� को जानने वाला शा�वे�ा।
• कृ ित : वगर् का ही दसू रा नाम कृ ित है।
20
अंकगिणत का
• रािश : संख्या
सिं �� प�रचय
• अ� प�रकमर्: जोड़ना, घटाना, गणु ा करना, भाग देना, वगर्, वगर्मल ू , घन एवं घनमल ू को
सिम्मिलत �प से अ� प�रकमर् क� स�ं ा दी गई है।
• धलू ीकमर्: प्राचीन काल में आचाय� ने गिणत को ही धल ू ी कमर् कहा है क्योंिक जमीन पर
अथार्त् धलू पर गिणतीय सिं क्रयाएं को सपं ािदत कर उसे पनु ः पनु ः िमटा िदया जाता था।
1.5 सन्दभर् ग्रन्थ
1. आयर्भट्टीयम- आयर्भट – चौखम्बा सरु भारती प्रकाशन
2. लीलावती – भास्कराचायर्- चौखम्बा सरु भारती प्रकाशन
3. गिणत कौमदु ी- नारायण पंिडत – िप्रंसेस ऑफ़ वेल्स सीरीज, सरस्वती भवन पस्ु तकालय
4. ित्रशितका- श्रीधराचायर् (स�
ु ेमा अनवु ाद- प्रो. सद्यु म्ु न आचायर्)- रािष्ट्रय सस्ं कृ त संस्थान
5. गिणत सार सग्रं ह- महावीराचायर् (सम्पादन- रंगाचायर्) –राजक�य मद्रु ा�रशाला, मद्रास
6. ब्र� स्फुट िसद्धातं – ब्र�ग�ु (सम्पादन- पिण्डत राम स्व�प शमार्) – इिं डयन इिं स्टट्यटू
ऑफ़ एस्ट्रोनॉिमकल एडं संस्कृ त �रसचर्

1.6 बोध प्र�


1. अक ं गिणत से क्या समझते हैं, स्प� करें ?
2. शन्ू य प�रकमर् क्या है? िवस्तार से िलिखए।
3. �ेत्र व्यवहार से आप क्या समझते हैं? व्याख्या क�िजए।
4. अक ं गिणत के मख्ु य िवषयों का प्रितपादन करें ?
5. कुट्टक गिणत िकस प्रकार क� गिणतीय समस्या में प्रय�ु िकया जाता है ?

21
व्यक्ताव्यक्त
गिणत इकाई 2 बीजगिणत का संि�� प�रचय
इकाई क� सरं चना
2.0 उद्देश्य
2.1 प्रस्तावना
2.2 बीजगिणत का संि�� प�रचय
2.2.1 घनणर् षड्िवध
2.2.2 शन्ू य प�रकमर्
2.2.3 अव्य� कल्पना एवं संिक्रयाएँ
2.2.4 अनेक वणर् षड्िवध
2.2.5 करणी षड्िवध
2.2.6 कुट्टक
2.2.7 वगर्प्रकृ ित
2.2.8 चक्रवाल
2.2.9 एकवणर् समीकरण
2.2.10 वगार्िद समीकरण
2.2.11 अनेक वणर् समीकरण
2.2.12 अनके वणर् मध्यमाहरण
2.2.13 भािवतम्
2.3 सांराश
2.4 पा�रभािषक शब्दावली
2.5 बोधप्र�
2.6 सन्दभर्ग्रन्थ सचू ी

2.0 उद्देश्य
प्रस्तुत इकाई का अध्ययन कर लेने के बाद आपको :
• बीजगिणत के इितहास एवं परम्परा के प्रितपादन में द�ता प्रा� होगी।
• बीजगिणत से सन्दिभर्त िविवध पस्ु तकें तथा उनके कतार् के िवषय में �ान प्रा� होगा।
• बीजगिणत क� िविवध शाखाओ ं प्रशाखाओ ं के सन्दभर् में द�ता प्रा� होगी।
• भौितक जीवन क� समस्याओ ं को सल
ु झाने में बीजगिणत के सत्रू ों के प्रयोग में कुशलता
प्रा� होगी।
• िविवध आचाय� के बीजगिणतीय योगदान के िवषय में �ान प्रा� होगा।

22
बीजगिणत का
2.1 प्रस्तावना सिं �� प�रचय
िप्रय िज�ासओ
ु !ं आप सभी िद्वतीय इकाई में ‘‘बीजगिणत का सिं �� प�रचय’’ इस शीषर्क के
अन्तगर्त बीजगिणत का प�रचय प्रा� करने जा रहे हैं। प्राचीनकाल से ही भारतीय �ान पम्परा में
गिणत का िवशेष मह�व रहा है। वेदों में भी यथास्थान गिणतीय सत्रू ों का िवशेष प्रितपादन
िकया गया हैं परु ाण तथा शल्ु बसत्रू तो स्प� �प से इसके प्रितपादक हैं, परन्तु इसे स्वतंत्र िवधा
के �प में ज्योितषशा� के िसद्धान्त स्कन्ध के अन्तगर्त प्रित�ा प्रा� ह�ई। भास्कराचायर् जी
िलखते है-
त्रुटयािदप्रलयान्त काल कलना मानप्रभेदः क्रमा
च्चार� सदां िद्वधा च गिणतं प्र�ास्तथासो�राः ।
भूिधष्ण्यग्रह संिस्थते� कथनं यन्त्रािद यत्रोच्यते,
िसद्धान्तः स उदा�तोऽत्र गिणतस्कन्धप्रबन्धे बुधैः ।। "
इस �ोक में िसद्धान्त स्कन्ध के अन्तगर्त ही दो प्रकार के गिणत (बीज व अकं गिणत) को
बताया गया है। इसके मह�व को बताते ह�ए आचायर् भास्कर कहते हैं िक िबना इन दो प्रकार के
गिणत को जाने दैव� होना सम्भव नहीं है-
िद्विवधगिणतमु�ं व्य�मव्य�यु�ं
तदवगमिन�ः शब्दशा�े पटी�ः।
यिद भवित तदेदं ज्योितषं भ�ू रभेदं
प्रपिठतुमिधकारी सोन्यशा नामधारी।।
अथार्त् दो प्रकार के गिणत हैं प्रथम व्य� गिणत एवं िद्वतीय अव्य� गिणत। इन दोनों प्रकार के
गिणत को जो जानता है तथा शब्द शा� में भी िजसक� गित है वही ज्योितष शा� को पढने
का अिधकारी है, अन्यथा वह के वल नाम मात्र का दैव� है।
अक ं गिणत को हम िपछले अध्याय में जान चक ु े हैं। यहाँ बीजगिणत को समझते हैं। बीजगिणत
से अिभप्राय गिणत क� उस शाखा से है जहाँ सख्ं याओ ं तथा अ�रों के संयोग से गिणतीय
प्रिक्रया पणू र् क� जाती है। अ�ात रािशयों के �ान में भी यही प्रिक्रया अपनाई जाती है। अगर
सामान्य शब्दों में कहा जाए तो बीजगिणत गिणत क� वह शाखा है िजसमें संख्याओ ं के गुणों
और उनके सम्बन्धों का िववेचन िविभन्न प्रतीकों के माध्यम से िकया जाता है।
िजसमें अ�रों को या, ता, का इत्यािद के माध्यम से तथा सिं क्रयाओ ं के िचन्हों को +, -, x,
/, >, =, < के �प में िनद�िशत िकया जाता है।
जैसे या2 + 3 या = 28 का अथर् होगा ‘‘या’’ कोई ऐसी सख्ं या है िजसके वगर् में यिद उसे
ित्रगिु णत कर के जोड़ िदया जाए तो फल 28 प्रा� होगा। आचायर् ब्र�ग�ु ने अपने ग्रन्थ
ब्र�स्फुट िसद्धान्त में इसका िवशेष प्रितपादन िकया है, िजसे हम ब्र�ग�ु द्वारा रिचत ग्रन्थ
ब्र�स्फुट िसद्धान्त में िवशेष �प से पढ़ सकते हैं।
भारत तथा बग़दाद आिद देशों का सास्ं कृ ितक एवं शै�िणक सम्बन्ध प्राचीन काल से ही रहा
है। अनेकों याित्रयों के यात्रा वणर्न हमें इितहास के पस्ु तकों में प्रा� होते हैं। भारत तथा बगदाद
23
व्यक्ताव्यक्त का सम्बन्ध होने से बीजगिणत बगदाद पह�चं ा। जहाँ “मुहम्मद इब्नमूसा अल खव्वा�रज्मी”
गिणत ने दो ग्रन्थ अलजब्र व अल मुकाबला िलखा।
बारहवीं सताब्दी में आचायर् भास्कर ने िवस्तृत �प से भास्करीय बीजगिणत क� रचना क�।
यरू ोपीयन िवद्वानों ने इसी अलजब्र से इसका आग्ं ल नामकरण एलजेब्रा िकया।
आधिु नक गिणत के िवकास के साथ साथ बीजगिणत क� भी अनेकों शाखाएं िवकिसत ह�ई।ं
इन्हें हम अधोिनिदर्� िचत्र के माध्यम से समझ सकते हैं-

यह भेद बीजगिणतीय सिं क्रयाओ ं के प्रकृ ित से िनष्पन्न हैं। प्राचीन काल में जैन आचाय� ने सयू र्
प्र�ि�, चंद्र प्र�ि� नामक दो ग्रंथ िलखे। इन ग्रंथों में क्रमचय संचय, बीजगिणतीय समीकरण,
िमश्र अनपु ात आिद का िविधवत िववेचन िकया। 12 वीं शताब्दी में भास्कराचायर् ने िवशेष
�प से चार ग्रंथों क� रचना क� प्रथम पाटी गिणत, िद्वतीय बीजगिणत, तृतीय ग्रहगिणत अध्याय
तथा चतथु र् गोल अध्याय। इसमें बीजगिणत यह प्रथम ऐसा ग्रंथ था जो संपणू र् �प से बीज
गिणतीय सिं क्रयाओ ं के सपं ादनाथर् िनिमर्त था।
भास्करीय बीजगिणत के पठन-पाठन के क्रम में धनणर् षड्िवध, शन्ू यसक ं लनािद, अव्य�
कल्पना एवं संिक्रयाएँ, अनेकवणर् षड्िवध, करणी, कुट्टक, वगर्प्रकृ ित, चक्रवाल, एकवणर्
समीकरण, वगार्िद समीकरण, अनेक वणर् समीकरण, अनेक वणर् मध्यमाहरण, भािवत आिद
का अध्ययन अध्यापन िकया एवं कराया जाना है।

2.2 बीजगिणत का सिं �� प�रचय


2.2.1 धनणर् षड्िवध
यहाँ भी धनणर्षड्िवध का तात्पयर् छः प्रकार के धनणार्िद कमर् से है। धन, ऋण, गणु न, भजन,
वगर्, वगर्मल
ू , घन एवं घनमल
ू । इन छ: सिं क्रयाओ ं का सम्पादन करने के िलए आचाय� ने
िविवध आरिम्भक िनयमों तथा सत्रू ों को बताया है। भास्करीय बीजगिणत के आरम्भ में ही
24 धनात्मक तथा ऋणात्मक सख्ं याओ ं को जोड़ने के िलए आचायर् ने सत्रू िनद�िशत िकया है-
योगे युितः स्यात् �ययोः स्वयोवार् बीजगिणत का
धनणर्योरन्तरमेव योगः।। सिं �� प�रचय

अथार्त् धनात्मक रािशयों का योग धनात्मक तथा ऋणात्मक रािशयों का योग ऋणात्मक होगा।
यिद धनात्मक तथा ऋणात्मक इन दोनों तरह के रािशयों का योग अभी� हो तो दोनों का अन्तर
कर देने से दोनों का योग िनष्पन्न होता है। जैसे-
5 – 3 + 10 -5 × 3
= 5 – 3 + 10 -15
= -18+15
= -3 उ�र
व्यवकलन (ऋण) के सम्बन में आचायर् िलखते है िक
‘‘संशोध्यमानं स्वमृणत्वमेित स्वत्वं �यस्तद्युित-��वच्च।’’
अथार्त् िवशोध्यमान (घाटाई जाने वाली संख्या) धन संख्या ऋण और ऋण िवशोध्यमान
संख्या धन हो जाती है। अथार्त् िचन्हों को िवपरीत कर िदया जाता है। इसके बाद पवू र् सत्रू में
विणर्त िनयमानसु ार प्रिक्रया करते हैं। यिद ऋणात्मक या धनात्मक संख्याओ ं का गणु न करना
हो तो क्या िकया जाए? तिन्निम� आचायर् िलखते है-
स्वयोरस्वयोः स्वं वधः स्वणर्घाते
�यो भागहारेिप चैवं िन��म।्
अथार्त् दोनों संख्याएँ (गण्ु य एवं गणु क) धनात्मक या दोनों ऋणात्मक रहे तो भी गणु नफल
धनात्मक होगा। दोनों सख्ं याओ ं (गण्ु य एवं गणु क) में से एक धनात्मक और दसू रा ऋणात्मक
हो तो गणु नफल ऋणात्मक होगा। इसी िनयम को आचायर् प्रवर भागहार में भी प्रय� ु बताते हैं।
अथार्त् भाग के संिक्रया में भी यही िनयम लगा होता है। वगर् वगर्मल
ू ािद के सन्दभर् में आचायर् ने
िवशेष िनयम बताए हैं। जैसे-
कृितः स्वणर्योः एवं स्वमूले धनण�
न मूलं �यस्यािस्त तस्याकृितत्वात।् ।
अथार्त् धनात्मक या ऋणात्मक रािश का वगर् धन होता है। धनात्मक सख्ं या का वगर्मलू धन
ऋण दोनो हो सकता है। ऋणात्मक सख्ं या का वगर्मल
ू नहीं हो सकता क्योंिक वह वगार्त्मक है
ही नहीं।
2.2.2 शून्य प�रकमर्
शन्ू य प�रकमर् से यहाँ भी पाटी गिणत के अनसु ार शन्ू य के संकलन, व्यवकलन, गणु न भजन
इत्यािद का अध्याहार (ग्रहण) िकया जाता है। अक ं गिणत में व्य� सख्ं याओ ं के साथ आचायर्
ने शन्ू य के व्यवहार को प्रितपािदत िकया है। बीजगिणत के क्रम में कहा गया है िक-
खयोगे िवयोगे धनणर् तथैव
च्यूतः शून्यतस्तद् िवपयार्समेित।
25
व्यक्ताव्यक्त अथार्त् िकसी भी सख्ं या में शन्ू य को जोड़ने या घटाने से उस सख्ं या में कोई अन्तर नहीं आता
गिणत है। परन्तु शन्ू य से िकसी सख्ं या को घटाया जाय तो - का िचन्ह + में तथा + का िचन्ह - में
प�रवितर्त हो जाता है। इसी प्रकार शन्ू य से गणु न, भजन, वगर्, वगर्मल ू आिद शन्ू य हो जाते हैं।
अथार्त् शन्ू य को िकसी सख्ं या से गणु ा करने या भाग देने पर पर फल शन्ू य हो जाता है। शन्ू य
का वगर् शन्ू य, शन्ू य का वगर्मलू शन्ू य होता है। परन्तु बारहवीं शताब्दी में एक िविश� िनयम
प्रितपािदत िकया गया िक-
वधादौ िवयत् खस्य खं खेन घाते।
खहारो भवेत् खेन भ�� रािशः।।
अथार्त् शन्ू य से िकसी संख्या में भाग देने पर वह रािश खहर कहलाती है और यह खहर रािश
अनन्त समझी जाती हैं।

2.2.3 अव्य� कल्पना एवं सिं क्रयाएं


अभी तक सामान्य ऋणात्मक तथा धनात्मक सख्ं याओ ं पर आधा�रत संिक्रयाएँ हो रही थीं
परन्तु अब समस्याओ ं के समाधान में अव्य� रािशयों क� कल्पना आवश्यक होती है।
इसीिलये प्राचीनाचाय� ने कुछ अव्य� कल्पना के िनयम प्रद� िकए। जैसे-
याव�ावत्कालको नीलकोऽन्यो
वणर्ः पीतो लोिहत�ैतदाद्याः।
अत्य�ानां किल्पना मानसं�ा
स्तत्संख्यानं क�र्मु ाचायर्वय�ः।
अथार्त् यावत्, तावत,् कालक, नीलक, पीतक, लोिहतक आिद अव्य�ों क� स�ं ाएँ है। ये
सं�ाएँ आज के X, Y, Z इत्यािद के समान ही हैं। अब इनके संिक्रयाओ ं के सम्बन्ध में
आचाय� ने िलखा है िक –
योगोन्तरं तेषु समानजात्यो:
िविभन्नजात्यो� पथ ृ क िस्थित�|
अथार्त् सजातीय वण� का योग या अन्तर होता है िवजातीय वण� क� अलग िस्थित मात्र रहती
है। यावत,् तावत् आिद को सं�ेप में या,ता,का, नी आिद िलखते हैं। एक छोटे से उदाहरण से
हम समझने का प्रयास करते है। यहाँ Positive Number के िलए तथा एक के िलए �प
शब्द का प्रयोग प्राचीन आचाय� ने िकया है। अब उदाहरण क� चचार् करते हैं। �प एक यु�
धनात्मक एक अव्य�, तथा �प आठ से रिहत धनात्मक दो अव्य� इन प�ों का योग क्या
होगा?
प्र� को रखने पर -
(य+1)+(2य-8) = 3य-7
(-य-1)+(2य-8)=य-9
26
(य+1)+(-2य+8)= - य+9 बीजगिणत का
सिं �� प�रचय
(-य-1)+(-2य+8)= - 3य+7
इस प्रकार यावत्, तावत् आिद अत्य� मानों के साथ गिणतीय संिक्रयाओ ं का प्रितपादन
आचाय� ने िकया है।
2.2.4 अनेकवणर् षड्िवध
इसके पूवर् तक हम सभी ने के वल एक वणर् ‘‘या’’ के साथ गिणतीय संिक्रया को देखा। लेिकन
अनेक वणर् षड्िवध का तात्पयर् अनेक वण� का एक साथ गिणतीय संिक्रयाओ ं से है। षड्िवध
का तात्पयर् धन, ऋण, गणु न भाजन तथा वगर् एवं वगर्मलू से है। उदाहरण के िलए भास्करीय
बीजगिणत का एक प्र� लेते हैं-
या�ावत्त्रयमृणमृणं कालकौ नीलकः स्वं
�पेणाढ्या िद्वगुिणतिमतैस्ते तु तैरेव िनध्नाः।
िकं स्या�ेषां गुणनजफलजां गण्ु यभ�ं च िकं स्याद्
गुण्यस्याथ प्रकथय कृितं मूलमस्या कृते�।।
अथार्त् एक य�ु यावत् तीन ऋण, कालक दो ऋण, और नीलक 1 धन को िद्वगिु णत इन्हीं
यावत् कालक आिद से गणु ने पर गणु नफल क्या होगा? गणु नफल में गण्ु य से भाग देने पर क्या
फल प्रा� होगा? गण्ु य का वगर् तथा उस प्रा� वगर् का वगर्मल
ू क्या होगा? इसे गिणतीय �प में
स्थािपत करने पर-
गण्ु य = या 3 का 2 नी 1 � 1
(1)= -3 या -2 का 1 नी $ 1
तथा गणु क = 2 × गण्ु य = या 6 का 4 नी 2 � 2
= -6 या - 4 का $2 नी $2
गणु नफल = गण्ु य×गणु क
(-3 या 3 - 2 का $ नी $ 1)× (-6 या – 4 का $ 2 नी$ 2) = ग.ु फ.
(3 –या -2 का $ नी $ 1) × -6या =
18 $ 12 या का -6 या नी-6 या = (अ)
(-3 या - 2 का $1नी $ 1) × - 4 का =
12 या का $ 8 - 4 का नी-4 का = (ग)
(- 3 या-2 का $ 1नी $ 1) × 2 नी =
- 6 या नी - 4 का नी $2 नी2 $ 2नी = (च)
(- 3 या -2 का $ 1 नी $ 1) × 2 =
-6 या -4 का $2नी$2 = (ट)
गणु नफल = अ$ग$च$ट =
18 या2 + 24 या का -12 या नी -12 या +8 का2 -8 का नी-8 का +2 नी2 + 4 नी +2
27
व्यक्ताव्यक्त 2.2.5 करणी षड्िवध
गिणत
अवगार्त्मक रािश के मल
ू को आचाय� ने करणी कहा है। पनु ः यहाँ षड्िवध कहने का तात्पयर्
करणी के साथ छः प्रकार क� संिक्रयाओ ं से है। भास्कराचायर् ने एक बड़ा ही सन्ु दर उहारण
अपने ग्रन्थ बीजगिणत में रखा है। आचायर् योग एवं व्यवकलन के िलए सत्रू बताते है-
योगं करण्योमर्हतीं प्रकल्प्य घातस्य मूलं िद्वगुणं लघुं च।
योगान्तरे �पवदेतयोः स्तो वग�णवग� गुणयेद् भजेच्च।।
लघ्व्या�तायास्तु पदं महत्याः
सैकं िनरेकं स्वहतं लघुघ्नम।्
योगान्तरे स्त क्रमशस्तयोवार्
पथ
ृ क िस्थित: स्याद्यिद नािस्त मूलम।् ।
अथार्त् िजन दो करिणयों का संकलन या व्यवकलन करना हो उनके योग क� महती सं�ा क� है
एवं दोनों करिणयों के गणु नफल के वगर्मल
ू को िद्वगिु णत करने पर जो फल प्रा� होता है उसक�
लघु सं�ा क� है। अब यिद महती एवं लघु का योग या अन्तर �प के समान करें तो अभी�
करिणयों का योग या अन्तर प्रा� होता है। वगर् का वगर् से ही गणु न या भजन करना चािहए।
जैसे-
¾ के �प में ¾ के �प में िलखते हैं।
इसी प्रकार से सख्ं याओ ं के गणु न, भजन, वगर् तथा वगर्मल
ू आिद के िलए भी आचायर् ने सत्रू ों
का बताया है।
2.2.6 कुट्टक
कुट्टक क� व्याख्या अंकगिणत के प्रसंग में भी प्रा� है। अतः स�
ं ेप में यहाँ इसक� चचार् करते हैं।
आचाय� का अिभप्राय है िक िजस गणु क से गिु णत कोई अक ं अभी� �ेप से जड़ु ा या घटा
ह�आ हो तथा अभी� भाजक से भाग देने पर िनःशेष हो जाए तो ऐसे गणु क क� कुट्टक स�ं ा क�
गई है। सबु ोिधनी टीकाकार पं जीवनाथ झा जी कुट्टक को गणु क िवशेष कहते है।
उदाहरण के द्वारा कुट्टक में िकस प्रकार के प्र� होते है इसे समझने का प्रयास करते हैं। जैसे वह
कौन सी संख्या है, िजसे 221 से गणु ाकर 65 जोड़ने तथा 195 से भाग देने पर िनःशेष हो जाती
है। यहाँ जो सख्ं या पछ
ू ी जा रही है, उसे ही गणु क कहा गया है।
2.2.7 वगर्प्रकृित
वगर् प्रकृ ित नाम से ही स्प� है िक प्रथम वगार्त्मक प्रकृ ित से सबं िन्धत गिणतीय सिं क्रयाएँ। इस
प्रकार के गिणतीय संिक्रया को वगर् प्रकृ ित क� स�ं ा दी गई है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से
समझने का प्रयास करते हैं। भास्कराचायर् बीजगिणत में इसका उदाहरण प्रस्तुत करते है-
को वग��हतः सैकः कृितः स्याद् गणकोच्यताम।्
एकादशगुणः को वा वगर् सैकः कृितभर्वेत।् ।

28
अथार्त् हे गिणत को जानने वाले! वह कौन सी वगर् संख्या है िजसे आठ से गणु ाकर एक जोड़ बीजगिणत का
देते है तो वह वगार्त्मक हो जाती है। इसी �ोक में दसू रा प्र� है िक ‘‘वह कौन सी वगर् संख्या है सिं �� प�रचय
िजसे ग्यारह से गणु ा कर एक जोड़ते है तो वह वगर् हो जाता है।’’ इस प्रकार के प्र�ों को हल
करने के िलए आचायर् ने वगर्प्रकृ ित के प्रितपादन में अनेक सत्रू ों तथा िनयमों को बताया है।
2.2.8 चक्रवाल
चक्रवत् बलते प�रभ्रमतीित चक्रवाल: अथार्त् जो चक्र क� तरह से घमू ने वाली प्रिक्रया को
चक्रवाल कहा जाता है। यहाँ कुट्टक तथा वगर्प्रकृ ित क� प्रिक्रया चक्रवत् चलती है। पहले वगर्
प्रकृ ित िफर कुट्टक िफर चलती है। कई िवद्वान इसे भी वगर् प्रकृ ित का ही एक िविश� प्रकार
मानते है। वगर्प्रकृ ित से संबिन्धत प्र�ों के उ�र िभन्न और अिभन्न दोनों ही �प में होते हैं। परन्तु
चक्रवाल क� प्रिक्रया में अिभन्न ही किन� जे� होंगे। इसमें अिभन्न किन� एवं जे� लाना ही
चक्रवाल का प्रयोजन है। इसमें अधोिलिखत प्रकार के प्र� आते हैं-
का स�षि� गिु णता कृितरेक यु�ा
का चैकषि� गुिणता च सखे स�पा।
स्यान्मूलदा यिद कृितप्रकृितिनर्तान्तं
त्वच्चेतिस प्रवद तात लता तलावत्।।
अथार्त् वह कौन सी वगर् सख्ं या है िजसे सड़सठ से गणु ा कर एक जोड़ने से मलू ात्मक होती है?
या वह कौन सी वगर् सख्ं या है िजसे एकसठ से गणु ा कर एक जोड़ने से मल
ू प्रा� होता है?
2.2.9 एकवणर् समीकरण
अव्य� रािश प�र�ान प्रिक्रया के क्रम में िजस समीकरण में के वल एक ही अव्य� रािश
अ�ात हो या �ात करना अभी� हो। ऐसे समीकरण को एकवणर् समीकरण कहते है। इसे
आधिु नक गिणत में (Linear equation in single variables) क� स�ं ा दी गई है।
इसका एक सन्ु दर सा उदाहरण आचायर् भास्कर प्रस्तुत करते है। जैसे-
एको ब्रवीित मम देिह शतं धनेन
त्व�ो भवािम िह �खे िद्वगुणस्ततोऽन्यः।
ब्रूते दशापर्यिस चेन्मम षड्गुणोऽहं
त्व�स्तयोवर्द घने मम िकं प्रमाणे।।
अथार्त् एक व्यि� दसू रे से कहता है िक यिद तुम अपने धन में से एक सौ मझु े दे दो तो मैं तुमसे
दनू ा हो जाऊँगा। दसू रे ने प्रथम से कहा-यिद तमु अपने धन से 10 मात्र दे देते हो तो मैं तमु से छः
गणु ा हो जाऊँगा। तो बताइए दोनों के पास िकतने-िकतने धन थे।
2.2.10 अव्य� वगार्िद समीकरण
अव्य� रािश आनयन के क्रम में िजस समीकरण में अवगार्त्मक अव्य� रािश अ�ात हो। उस
समीकरण को अव्य� वगार्िद समीकरण कहा जाता है।
उदाहरण के िलए इस प्र� को देखते है। “कणर् को मारने के िलए क्रुद्ध होकर अजनर्ु ने िजन
29
व्यक्ताव्यक्त बाणों को अपनी तरकस में रखा उनके आधे से कणर् के बाणों को रोककर, चतगु िर्ु णत बाणों के
गिणत मल
ू से उनके घोड़ों को तथा छः बाणों से सारिथ को मारा। तीन बाणों से कणर् के छत्र ध्वज और
धनुष को तथा एक बाण से उसके िशर को काट डाला, तो बताइए िक अजनर्ु के पास कुल
िकतने बाण थे”।
इस प्र� में अव्य� वगर्मल
ू का प्रयोग िकया गया है।
2.2.11 अनेक वणर् समीकरण
एक वणर् समीरकण में जैसे के वल एक ही अवगार्त्मक रािश अ�ात होती है। ठीक उसी प्रकार
जहाँ अव्य� रािश प�र�ान में िजस समीकरण में एकािधक अव्य� रािश अ�ात हो अथवा
�ातव्य हो ऐसे समीकरण को अनके वणर् समीकरण कहते है। आधिु नक गिणत में इसे Linear
equation in various variables कहा जाता है।
2.2.12 अनेक वणर् मध्यमाहरण
वणर् समीकरण के अन्तगर्त मध्यस्थ अव्य� पदों का एकािधक गणु नखण्ड (आहरण) यिद
अपेि�त हो तो वैसे प्रिक्रया को अनेक वणर् मध्यमाहरण कहा जाता है।
2.2.13 भािवतम
जब दो िभन्न-िभन्न जाित के अव्य� वण� का गणु न िकया जाता है। तो गणु नफल के �प में
प्रा� नई रािश को भािवत क� स�ं ा दी गई है। जैसे-
5क × 6य = 30य क यहाँ जो 30 य क गणु नफल के �प में प्रा� है उसे-
5क × 6य = 30 य क भा के �प में िलखत हैं।
यहाँ भा = भावित सं�ा है।

2.3 सारांश
िप्रय ज्योितषानरु ािगयों! हम सभी ने प्रस्तुत इकाई में बीजगिणत के प�रचय को पढ़ा। जैसा िक
हम सभी जानते हैं िक बीजगिणत गिणत क� वह शाखा है िजसमें सख्ं याओ ं के गणु ों और उनके
संबंधों का िववेचन िविभन्न प्रतीकों के माध्यम से िकया जाता है, िजनमें अ�रों तथा
संिक्रयाओ ं के िचन्हों को वण� तथा संिक्रया िचन्हों के माध्यम से िनद�िशत िकया जाता है।
वस्ततु ः बीजगिणत का अग्रं ेजी नाम अलजेब्रा है। यह नाम (बीज गिणत) भारत से बगदाद
पह�चं ा तथा बगदाद में बीजगिणत को अल जबर कहा जाता है। िजसका अथर् होता है
मक ु ाबला। इसी नाम से यरू ोप में इसे ऐलजेब्रा कहा जाने लगा।
बीजगिणत के अन्तगर्त भी हम अब व्य� रािशयों के ही तरह से छः प्रकार के सिं क्रयाओ ं को
करते हैं। िजनमें अव्य� रािशयों का जोड़ना, घटाना, गणु ा करना, भाग देना, वगर् एवं वगर्मल

तथा घन एवं घनमल ू का कायर् सम्पािदत िकया जाता है।
यहां भी शन्ू य से सन्दिभर्त संकलन, व्यवकलन, गणु न, भजन इत्यािद के कम� को सम्पािदत
करने के िलए शन्ू य प�रकमर् का प्रितपादन आचाय� ने िकया है। इसके साथ ही इस अध्याय का
िविश� प्रितपादन खहर नामक अश ं है। िजसका अथर् होता है यिद िकसी सख्ं या में 0 से भाग
30
िदया जाए तो वह फल अनंत होगा। बीजगिणत का
सिं �� प�रचय
इसके बाद आचाय� ने यावत,् तावत, कालक, नीलक, पीतक इत्यािद के द्वारा अव्य� के
िलए स�ं ाओ ं को बताया है। यह स�ं ाएँ आज एक्स, वाई, जेड इत्यािद के �प में किल्पत क�
जाती हैं। आचाय� ने इस बात पर भी बल िदया िक हमेशा सजातीय वण� का ही योग अथवा
अतं र िकया जाता है। िवजातीय वण� क� अलग व्यवस्था होती है।
इसी प्रकार से अनेक वण� के धन एवं ऋण इत्यािद के सम्पादन के िलए अनेक वणर् षड्िवध को
आचाय� ने बताया है। इसके बाद वगार्त्मक रािश के मल ू को आचाय� ने करणी कहा है तथा
करणी के सदं भर् में भी छह प्रकार क� सिं क्रयाएं बताई गई हैं।
िजस गणु क से गिु णत कोई अक ं अभी� �ेप से जड़ु ा या घटा ह�आ हो तथा अभी� भाजक से
भाग देने पर वह िन:शेष हो जाए, तो ऐसे गणु क क� कुट्टक स�ं ा दी गई है। इस प्रकार के
संिक्रयाओ ं को आचायर् ने कुट्टक नामक अध्याय में िनिहत िकया है।
वगार्त्मक प्रकृ ित क� सख्ं या से सबं िं धत गिणतीय अव्य� सिं क्रयाओ ं को वगर् प्रकृ ित नामक
अध्याय में आचायर् ने िनिहत िकया है। तदनन्तर जो संिक्रयाएं चक्र क� तरह से घूमने वाली
होती हैं जहां कुट्टक तथा वगर् प्रकृ ित क� प्रिक्रया चक्रवत चलती है। इस प्रकार के गिणतीय
समस्याओ ं का प्रितपादन करने के िलए आचायर् ने चक्रवाल नामक अध्याय क� रचना क� है।
तदनन्तर अव्य� रािश प�र�ान क� प्रिक्रया में िजस समीकरण में के वल एक ही अव्य� रािश
अ�ात हो या �ात करना अभी� हो ऐसे समीकरणों को आचाय� ने एक वणर् समीकरण में रखा
है। इसके बाद अव्य� रािश �ान के क्रम में ऐसे समीकरण िजनमें वगार्त्मक रािश अ�ात हो
ऐसे समीकरण को आचाय� ने अव्य� वगार्िद समीकरण कहा है। अनेक वणर् समीकरण के
अन्तगर्त मध्यस्थ अव्य� पदों का एकािधक गणु नखडं यिद अपेि�त हो तो वैसे प्रिक्रया को
अनेक वणर् मध्यमा हरण कहा गया है।
जब दो िभन्न जाित के अव्य� वण� का गणु न िकया जाता है तो गणु नफल में प्रा� रािश को
भािवत कहते हैं। इसे ही आचायर् ने भािवत नामक अध्याय में अपने में प्रितपािदत िकया है।

2.4 पा�रभािषक पद
• दैव� : ज्योितष शा� को जानने वाला शा�वे�ा।
• धनात्मक संख्या : ऐसी सख्ं या ऐसी सख्ं या जो + क� अवस्था में हो। जैसे 5, 7, 9 आिद
• ऋणात्मक संख्या : ऐसी सख्ं या जो - क� अवस्था में हो जैसे - 5, - 7, - 9 आिद
• प�रकमर्: प�रकमर् शब्द का तात्पयर् गिणतीय संिक्रया से है।
• सजातीय वणर्: सजातीय वणर् का अथर् है एक ही जाित क� सख्ं याए।ं अथार्त् धनात्मक या
ऋणात्मक।
• िवजातीय वणर्: िवजातीय वणर् का तात्पयर् उन वण� या सख्ं याओ ं से है जो िभन्न-िभन्न
जाित के हैं। जैसे एक धनात्मक और एक ऋणात्मक।
31
व्यक्ताव्यक्त 2.5 सन्दभर् ग्रन्थ
गिणत
1. आयर्भट्टीयम- आयर्भट – चौखम्बा सरु भारती प्रकाशन
2. बीजगिणत – भास्कराचायर्- चौखम्बा सरु भारती प्रकाशन
3. गिणत कौमदु ी- नारायण पंिडत – िप्रंसेस ऑफ़ वेल्स सीरीज, सरस्वती भवन पस्ु तकालय
4. ित्रशितका- श्रीधराचायर् (स�
ु ेमा अनवु ाद- प्रो. सद्यु म्ु न आचायर्)- रािष्ट्रय सस्ं कृ त सस्ं थान,
न्यू िदल्ली
5. गिणत सार सग्रं ह- महावीराचायर् (सम्पादन- रंगाचायर्) –राजक�य मद्रु ा�रशाला, मद्रास
6. ब्र� स्फुट िसद्धातं – ब्र�ग�ु (सम्पादन- पिण्डत राम स्व�प शमार्) – इिं डयन इिं स्टट्यटू
ऑफ़ एस्ट्रोनॉिमकल एडं संस्कृ त �रसचर्

2.6 बोध प्र�


1. बीजगिणत से आप क्या समझते हैं! स्प� करें ?
2. धनणर् षड्िवध का क्या तात्पयर् है? व्याख्या िलिखए।
3. अव्य� कल्पना क्या है ? िववेचना क�िजए।
4. अनेक वणर् षड्िवध को िकसी एक उदाहरण से स्प� करें ।
5. करणी क� क्या उपयोिगता है ? उल्लेख क�िजए।

32
इकाई 3 ित्रकोणिमित-गिणत का प�रचयात्मक स्व�प ित्रकोणिमित
गिणत का
प�रचयात्मक
इकाई क� �परेखा स्व�प

3.0 उद्देश्य
3.1 प्रस्तावना
3.1.1 ऐितहािसक पृ�भिू म एवं वैिश�्य
3.1.2 ित्रकोणिमित के भेद
3.1.3 ज्योितषशा� में ‘‘ित्रकोणिमित’’ ग्रन्थ के �प में
3.1.4 सरलित्रकोणिमित ग्रन्थ क� िवषयवस्तु
3.1.5 सरलित्रकोणिमित ग्रन्थद्वय के ग्रन्थकार
3.2 ित्रकोणिमित
3.2.1 सरलित्रकोणिमित ग्रन्थ क� िवषय वस्तु
3.2.3 कोणीय त्रैकोणिमितक सम्बन्ध
3.2.3 िविवध त्रैकोणिमितक सम्बधं एवं अश ं ािद मान
3.2.4 कोणीय प�र�ान एवं धनणर् व्यवस्था
3.2.5 अभी� कोणीय ज्यािदमानों का आनयन
3.2.6 अभी� अश ं ों के ज्यानयन में िवशेष मत
3.3 सारांश
3.4 पा�रभािषक पद
3.5 संदभर्ग्रंथ
3.6 बोध प्र�

3.0 उद्देश्य
इस इकाई का अध्ययन कर लेने के बाद आपः
• ित्रकोणिमित के िविवध िसद्धान्तों से अवगत हो सकें गे।
• ज्योितषशा� में ित्रकोण गिणत के उपयोग को समझ सकें गे।
• ग्रहगणना में त्रैकोणिमितक अनपु ातों के सन्दभर् का अव�ान ले सकें गे।
• ज्या,कोणािद गिणतीय पदों का प्रयोग करने में स�म होगें।
• आधिु नक एवं परु ातन गिणतीय िविधयों का समन्वय जान सकें गे।
• भारतीय गिणतशा� क� गौरवशाली परम्परा से अवगत हो सकें गे।

3.1 प्रस्तावना
ज्योितष शा� के अन्तगर्त तीन स्कन्ध हैं। िसद्धान्त, संिहता, होरा। इन स्कन्धों में िसद्धान्त
स्कन्ध गिणत स्कन्ध के नाम से भी व्यव�त होता है। िसद्धान्त क� प�रभाषा करते ह�ए आचायर् 33
व्यक्ताव्यक्त भास्कर ने िसद्धान्त िशरोमिण में कहा िक -
गिणत
त्रुट्यािदप्रलयान्तकालकलना मानप्रभेदः क्रमात्
चार�द्यस ु दां िद्वधा च गिणतं प्र�ास्तथासो�राः।
भूिधष्ण्यग्रहसिं स्थते� कथनं यन्त्रािद यत्रोच्यते
िसद्धान्तस्स उदा�तोऽत्र गिणतस्कन्धप्रबन्धे वुद्यैः।
उपयर्�ु �ोक में िद्वधा च गिणतं इस पद के अन्तगर्त िजस व्य� एवं अव्य� गिणत क� चचार्
प्रा� होती है, उसी प्रकार व्य� एवं अव्य� गिणत के ही अवान्तर भेदों में ित्रकोणिमित का
िवन्यास िकया जाता है। जैसा िक हम जानते है िक ज्योितष शा� के सभी प� गिणतािश्रत हैं
एवं समस्त शभु ाशभु िववेचन गिणतीय मानों के आधार पर ही िकये जाते रहें है। आधिु नक
गिणत में ित्रकोणिमित का मख्ु य प्रयोजन ित्रभजु क� भजु ाओ ं एवं कोणों को मापकर उनके
पारम्प�रक सम्बन्धों का प�र�ान ही है, परन्तु ज्योितष शा� में इसका प्रयोग ग्रहिणतीय
प�रगणना के िलए िकया गया है। ित्रकोणिमित के स्व�प क� ऐितहािसक पृ�भिू म पर िवचार
करें तो ज्योितष शा� के सहयोगी के �प में ही इसका प्रयोग मख्ु यता से होता रहा है। अतः
भारत में इस गिणतीय प्रिक्रया का आरम्भ इसी आधार पर ह�आ भी है।
3.1.1 ऐितहािसक पृ�भिू म एवं वैिश�्य
ऐितहािसक �ि� से प्राचीन समय में घिड़यों के आिवष्कार का क्रम प्रारम्भ ह�आ। समय प�र�ान
के िलए धपू घड़ी के साथ-साथ कई वेधशालाओ ं एवं घटीयन्त्र इत्यािद का िनमार्ण कायर् प्रारम्भ
ह�आ। इस िविध के अन्तगर्त एक लम्बमान शलाका शक ं ु को समतल पर स्थािपत कर गिणतीय
प्रिक्रया का आलम्बन िकया जाता रहा।
शलाका को उन्नतांश, दण्ड अथवा क�ली इत्यािद क� सं�ा दी जाती थी। इस प्रकार छाया के
प�र�ान िविध में शनैः शनैः त्रैकोणिमितक िसद्धान्तों का प्रणयन एवं पल्लवन ह�आ। गिणतीय
िसद्धान्तों क� प्रिक्रया में भारतीय गिणतशा� िकतना समृद्ध रहा है इसका अनमु ान िसद्धान्तों में
प्रितपािदत त्रैरािशक िसद्धान्तों, व्यास प�रिध सम्बन्ध, ज्यािपण्ड के साधन एवं ग्रहगिणतीय
प्रिक्रयाओ ं से लगाया जा सकता है। ित्रकोणिमित नामक गिणत का िवकास भी हमारी इसी
�ान मनीषा क� देन है।
इसके द्वारा िकसी भी पवर्त क�, खम्भे क�, उच्चािश्रत वस्तुओ ं क�, सयू ार्िदग्रह िपण्डों क� दरू ी व
िनकटता क� िदगश ं -नतांशोन्नतांश, शर, ग्रहण इत्यािद िवषयों क� िस्थित का प�र�ान िकया जा
सकता है। ज्योितषशा� में िजन गोलीय अवयवों का प�र�ान करते ह�ए ग्रहसाधन िकया जा
सकता है। उन्हीं अवयवों के परम्पर सम्बन्धों को जानने के िलए अ��ेत्र, क्रािन्त�ेत्र,
िवषवु �ेत्र एवं ग्रहों के उन्नयन एवं अवनयन कोणों का �ान िकया जाता रहा है।
भास्कराचायर् द्वारा लीलावती एवं बीजगिणत तथा िसद्धान्त प्रितपादन के क्रम में गोलाध्याय
एवं गिणताध्याय में त्रैकोणिमितक िसद्धान्तों क� चचार् एवं प्रयोगप� का िन�पण िवशेषतया
िकया गया है।
3.1.2 ित्रकोणिमित के भेद
ित्रकोणिमित इस सामान्य पद से सरलित्रकोणिमित का बोध होता है िजससे तात्पयर् है िक जहाँ
34 रे खाएँ सरलात्मक हों एवं उन्हीं अवयवों के द्वारा गिणतीय िवन्यास िकये गए हों तथािप प्रकृ ित
एवं िवषयवस्तु तथा मानकों के आधार पर ित्रकोणिमित को दो भागों में िवभ� िकया जा ित्रकोणिमित
सकता है। यथा- गिणत का
प�रचयात्मक
1) सरलित्रकोणिमित स्व�प
2) चापीयित्रकोणिमित
सरलित्रकोणिमित के अन्तगर्त जहाँ सामान्य रे खाओ ं के द्वारा ित्रकोण के सम्बन्धों एवं अवयवों
के आधार पर प्रिक्रया क� जाए उसे सरलित्रकोणिमित क� सं�ा दी जाती है। इस प्रकार
ित्रकोणिमित के गिणतीय िनयमों में जहाँ गोलीय अवयवों अथार्त् चाप, या वृ� के भाग इत्यािद
का प्रयोग िकया जाय उसे चापीय ित्रकोणिमित कहते है। यथा-




ब स
(2)
(1)

इस �ेत्र में (1) क� श्रेणी सरलित्रकोणिमित के अन्तगर्त एवं (2) क� श्रेणी चापीयित्रकोणिमित
में आती है। सरलित्रकोणिमित में िजस प्रकार न्यनू कोण, अिधककोण, समकोण आिद का
िवन्यास होता है। ठीक उसी प्रकार चापीयित्रकोणिमित में चापजात्य एवं चापाजात्य का
व्यवहार िकया जाता है। चापीय ित्रकोणिमित में जहाँ एक कोण समकोण के तल्ु य हो उसे
चापाजात्य एवं जहाँ एक भी कोण समकोण के तल्ु य न हो उसे चापजात्य क� सं�ा दी जाती है।
3.1.3 ज्योितषशा� में ‘‘ित्रकोणिमित’’ ग्रन्थ के �प में
ज्योितषशा� के अन्तगर्त ित्रकोणिमित का प्रयोग तो वैिदक काल से िकया जा रहा है।
लगधमिु न के वेदागं ज्योितष शल्ु ब सत्रू एवं परवत� आचायर् आयर्भट, वराहिमिहर, ब्र�ग�ु ,
लल्ल श्रीपित भास्कर आिद ने िवपल ु �प से अपने ग्रन्थों में ित्रकोणिमित के िसद्धान्तों क�
चचार् िनम्निलिखत ज्योितषशा�ीय िसद्धान्त ग्रन्थों क� है-
• सयू र्िसद्धान्त
• आयर्भट िवरिचत आयर्भटीयम्
• वराहिमिहरकृ त पंचािसद्धािन्तका
• ब्र�ग�ु िवरिचत ब्र�स्फुट िसद्धान्त
35
व्यक्ताव्यक्त • लल्लकृ त िशष्यधीवृिद्धदम्
गिणत
• श्रीपित िवरिचत िसद्धान्तशेखर
• आयर्भट िद्वतीय िवरिचत महािसद्धान्त
• भास्कराचायर् िवरिचत िसद्धान्तिशरोमिण
• कमलाकरभट्ट िवरिचत िसद्धान्तत�विववेक
• सधु ाकर िद्ववेदी िवरिचत भाभ्रमबोध, प्रितभाबोधकम,् दीघर्व�ृ ल�ण
इस क्रम में ित्रकोणिमित पर स्वतन्त्र दो ग्रंथ 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में प्रा� होते हैं -
१) महामहेापाध्याय पं बापदू ेवशा�ीिवरिचत सरलित्रकोणिमित।
२) पं. बलदेव िमश्र िवरिचत सरलित्रकोणिमित।
3.1.4 सरलित्रकोणिमित ग्रन्थद्वय के ग्रन्थकार
महामहोपाध्याय बापदू ेवशा�ी ज्योितषशा� के मधू र्न्य िवद्वान् थे। भारतीय और यरू ोपीय दोनों
गिणतो में आपका नैपण्ु य था। इनका जन्म शक 1743 कितर्क शक्ु ल 6 तदनसु ार 01 नवम्बर
1821 को ह�आ। काशी संस्कृ त पाठशाला में ये गिणत के प्राध्यापक रहे एवं इनक�
िशष्यपरम्परा अत्यन्त गौरवशाली रही।
इन्होंने रे खागिणत, ित्रकोणिमित, तत्विववेक परी�ा, अक ं गिणत, िशरोमिण भाष्य आिद पर
अपनी लेखनी चलाई। शक 1797 से 1812 पयर्न्त नािटकल अल्मनाक द्वारा पंचाग बनाकर
भी प्रकािशत करवाया। इन्होंने ित्रकोणिमित ग्रन्थ का प्रथम कलेवर ज्योितषीय �ि� से िनिमर्त
िकया।
इनके द्वारा प्रणीत ित्रकोणिमित ग्रन्थ में कुल चार अध्याय हैं। प्रथम अध्याय के अन्तगर्त
ित्रकोणिमित कोणािद क� प�रभाषा, जीवािद क� प�रभाषा, सम्बन्धों का धनणर् प्रदशर्न, मानों
के �ास वृिद्ध का िचत्रीय प्रदशर्न तथा उदाहरण प्रस्ततु िकए गए हैं।
िद्वतीय अध्याय में कोणों के योगांतरज्या आिद का �ान, ज्या कोिट के िविवध �पान्तर,
ज्यािदयों क� सारणी िनमार्ण के िवषय तथा अन्य ित्रज्या मानों क� प�रणित के िसद्धान्त बतलाए
गए हैं।
तृतीय अध्याय में ित्रभजु क� भजु ाओ ं में इ� कोण के ज्यािद मान, अन्तः बा� वृ� (अन्दर-
बाहर वृ�) के व्यासाधर् (व्यास का आधा) का �ान, चतभु जर्ु , प�रिध, �ेत्रफल, प�रिधफल
आिद का �ान बताया गया है।
चतथु र् अध्याय में उन्नयन एवं अवनयन कोणों के आधार पर त्रैकोणिमितक समस्याओ ं के
समाधान क� बात कही गई है।
इसी क्रम में सरलित्रकोणिमित के रचनाकार पं. बलदेव िमश्र ज्योितषशा� के प्रख्यात िवद्वान्
थे। इनका जन्म 01 नवम्बर 1861 में िबहार राज्य के सहरसा िजले के वनगाँव नाम के सप्रु िसद्ध
ग्राम में ह�आ था। इन्होंने अनेक ग्रन्थों क� रचना क�।
36
संस्कृ त सरलित्रकोणिमित एवं भास्करीय बीजगिणत पर िटप्पणी भी रिचत क�। गिणत के अन्य ित्रकोणिमित
प्रिसद्ध म.म. सधु ाकर िद्ववेदी िवरिचत दीघर्व�ृ , चलन कलन चलरािशकलन इत्यािद ग्रन्थों का गिणत का
प�रचयात्मक
भी सम्पादन िकया। स्व�प
ऐितहािसक �ि� से ज्योितषशा� के आषर्ग्रन्थ सयू र्िसद्धान्त में भी िजस प्रकार ित्रकोणिमित के
िसद्धान्तों का अवलोकन होता है, इन समस्त रचनाओ ं का मल ू िनष्कषर् वैिदक वागं मय ही कहा
जाता है। पि�मी िवद्वान सयू र् िसद्धान्त का रचना काल ईसा के प�ात का मानते हैं परन्तु
सयू र्िसद्धान्त में अधर्जीवाओ ं का वणर्न एवं धपू घड़ी के प्रयोग से यह िनिवर्वाद हो चकु ा है िक
ित्रकोणिमित के िसद्धान्त का प्रयोग वैिदककाल से ही होता आ रहा है।
काबल ु का ज्योितिवर्द िवरोसस भी त्रैकोणिमित िसद्धान्त के प्रयोग प� का वे�ा रहा है।
ित्रकोणिमित में प्रय�
ु होने वाले पदों में ज्या का सवर्प्रथम लौिकक रिचत ग्रन्थों के अन्तगर्त
आयर्भटीयम (लगभग ३९८ शक) में प्रा� होता है। कालान्तर में यह शब्द अरब गया जहाँ यह
जीवा के �प में प्रचिलत हो गया। ज्या कोज्यािद सम्बन्धों के अनपु ात को पा�ात्य परम्परा में
थेल्स ने उ� फलनों का प्रयोग प्रारंभ िकया। इस प्रकार ित्रकोणिमित के िवकास क� यात्रा
अनवरत उत्कषर् को प्रा� हो रही है।
3.2.1 सरलित्रकोणिमित ग्रन्थ क� िवषयवस्तु
प्राचीन परम्परा के अन्तगर्त ित्रकोणिमित का िविनयोग होने के प�ात् भारतीय और यरू ोपीय
दोनों ही �ेत्रों के गिणत�ों ने एवं खगोलिवदों ने इस गिणत के प्रित �िच िदखाई। भारतीय
ज्योितषशा�ीय परम्परा में कमलाकर भट्ट के प�ात म.पं0 श्री बापदू ेवशा�ी जी ने इसका नया
�प हम सबके सम� रखा।
आचायर् के तकर ने प्रायः अपनी समस्त प्रिक्रयाओ ं में इसका प्रयोग िकया। बापदू ेव जी ने 4
अध्यायों में सरलित्रकोणिमित नामक ग्रन्थ क� रचना क�, वही उसी को आधार बनाकर उसे
पल्लिवत कर आचायर् श्री बलेदव िमश्र ने एक स्वतंत्र ग्रन्थ का �प िदया िजसमें कुल 14
अध्याय हैं। अध्ययन एवं क्रमबद्धता क� �ि� से यह कृ ित सगु म, सहज तथा बोधगम्य है।
‘‘सरलित्रकोणिमित’’ नामक इस ग्रन्थ में प्रथम अध्याय में िनम्निलिखत िवन्दओ
ु ं पर प्रकाश
डाला गया है।
(क) कोणीय त्रैकोणिमितक सम्बन्ध
(ख) चापीय त्रैकोणिमितक सम्बन्ध
(ग) जीवािद अवयवों क� प�रभाषा
िद्वतीय अध्याय के अन्तगर्त कोणमापन क� तीन िविधयों का वणर्न िकया गया है। यथा-
• षि�िवभागात्मक कोणमापनिविध
• शतिवभागात्मक कोणमापनिविध
• व्यासािधर्क कोणात्मक पद्धित
इसी के साथ फ्रेंच रीित, अश
ं पद्धित व ग्रेडपद्धित का िववेचन भी प्रितपािदत िकया गया है।
तृतीय अध्याय में िकसी भी एक मान के �ान से अन्य अनपु ातों का �ान, शन्ू य अशं से नब्बे
37
व्यक्ताव्यक्त अश
ं तक के त्रैकोणिमितक मानों क� उपपि� का �ान, अनेक अभ्यास प्र�ों के द्वारा कराया
गिणत गया है।
चतथु र् अध्याय में ऊँचाई व दरू ी क� गिणतीय प्रिक्रया को जानने के िलए उन्नयन व अवनयन
कोणों क� गणना िविध का स�ू म वणर्न िकया गया हैं। ष� अध्याय में ज्यािदयों के मान से कोण
का आनयन प्रितपािदत िकया गया है। स�म अध्याय में दो या दो से अिधक कोणों क�
योगज्यािदयों व िवयोग, ज्यािदयों के आनयन क� िविध सोपपि�क प्रदिशर्त क� गई है। इसी
अध्याय में अधर्ज्या व इ� अशं के ज्यानयन क� िविध भी प्रदिशर्त क� गई है।
ित्रकोणिमित के चापीय प� क� चचार् अ�म अध्याय में प्रा� होती है, इस अध्याय में आचायर्
भास्कर व आचायर् कमलाकार के द्वारा प्रितपािदत कुछ िविश� िसद्धान्तों क� उपपि� प्रदिशर्त
क� गई है। नवम अध्याय में ित्रभजु सम्बन्धी छह अवयवो में से िकसी के �ान से अन्य अवयवों
के �ान क� िविध का वणर्न िकया गया है। दशम अध्याय में लघ�ु रक्थ िविध से िकसी भी बड़ी
संख्या को घात �प में प�रवितर्त करने क� िविध व कितपय समसामियक लघ�ु रक्थ िसद्धान्तों
क� चचार् क� गई है। एकादश अध्याय में लघ�ु रक्थ के द्वारा ित्रभजु साधन क� िविध अनेक
प्रकार से बतलाई गई है।
बारहवें अध्याय में पनु ः ित्रकोणिमित क� रीित से धरातलीय व ऊध्वार्धर �ान क� िविध प्रदिशर्त
क� गई है। तेरहवें एवं चौहवें अध्याय में क्रमशः ित्रभजु फल ित्रभजु ान्तगर्त वृ�फल,
ित्रभजु ोप�रस्थ वृ�व्यासफल व चतभु जर्ु के फलानयनािद क� रीित सोपपि�क बतलाई गई है।
इस प्रकार 14 अध्यायों में ित्रकोणिमित के िविवध िवषयों क� चचार् इस ग्रन्थ में क� गई है। इनमें
कितपय िबन्दओ ु ं पर चचार् करें ।
3.2.2 कोणीय त्रैकोणिमितक सम्बन्ध
आचाय� ने कोणीय मानों के प्रितपादनाथर् ित्रभजु में भजु ाओ ं एवं कोणों के सम्बन्धों से बनने
वाले अनपु ातों को प्रितपािदत िकया है। इसके अतं गर्त आधार, लबं तथा कणर् के माध्यम से
ज्यािद छः सम्बन्धों का िन�पण िकया है। गोलीय अवयवों के मान को रैिखक सम्बंध में
प्रदिशर्त करने हेतु इन सम्बन्धों का िवन्यास िनम्निलिखत प्रकार से िकया है-
1. ज्या = लम्ब / कणर्
2. कोज्या = आधार / कणर्
3. स्पशर्ज्या = लम्ब / आधार
4. कोिटस्पशर्ज्या = आधार / लम्ब
5. कोिटच्छे दनरे खा = कणर् / लम्ब
6. छे दनरे खा = कणर् / आधार
यहाँ ध्यातव्य है िक चाप के एक प्रान्त से अन्य प्रान्त क� व्यास रे खा पर क� गई लम्ब रे खा को
ही ज्या कहा जाता है। यथा
चापे तु द�वोभयतो िदगंकात्
�ेयं तदग्रद्वयबद्धरज्वो ज्यकाधर्िमित।

38 इसे हम अधोिनिदर्� िचत्र के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं -


ित्रकोणिमित
क गिणत का
� प�रचयात्मक
स्व�प



व ल

इसी प्रकार ग्र प चाप क� ग्र ल जया कही जा सकती है।


सामान्य िनयमानसु ार ज्या को पणू ज्र् या कहा जाना चािहए, परन्तु ज्योितषशा� के गिणतीय
प्रकरण में अधर्ज्या को ही पणू र्ज्या माना गया है। तात्पयर् है िक ज्या अधर्ज्या समान पद है एवं
पणू ज्र् या स्वतंत्र पद है जो वतर्मान में जीवा पद से अिभप्रेत है। इसी प्रकार
ित्रज्या - ज्या = कोट्यत्ु क्रमज्या
ित्रज्या – कोिटज्या = उत्क्रमज्या होती है।

न �

के ल क

प्रस्तुत �ेत्र में


ित्रज्या = के प = के क
इस प्रकार के प - ग्रल = के प - ज्या = ित्रज्या - ज्या = पन = कोट्यत्ु क्रभज्या है। एवं के क -
के ल = ित्रज्या - कोिटज्या = क ल = उत्क्रमज्या है। 39
व्यक्ताव्यक्त यह भी ध्यान देने योग्य है िक ज्या, कोिटज्या एवं स्पर्शज्याओ ं का कोिटच्छे दन, छे दन एवं
गिणत कोिटस्पशर् से व्यत्ु क्रमानपु ात का सम्बन्ध होता है। सयू िसद्धान्त ग्रन्थ में वृ� के 96 भाग को ज्या
चाप का अभेद मानते ह�ए प्रत्येक पद के 24 ज्याखण्डों के मान एवं उनके साधन क� िविध स्प�
�प से बतलाई गई है। तदनसु ार क्रमशः यह टेबल अवलोकनीय है।
ज्यािपण्ड संख्या ज्यािपण्ड मान
01 २२५
02 ४४९
03 ६७१
04 ८९०
05 ११०५
06 १३१५
07 १५२०
08 १७१९
09 १९१०
10 २०९३
11 २२६७
12 २४३१
13 २५८५
14 २७२८
15 २८५९
16 २९७८
17 ३०८४
18 ३१७७
19 ३२५६
20 ३३२१
21 ३३७२
22 ३४०९
23 ३४३१
24 ३४३८

त�वाि�नोंकािब्धकृता �पभूिमधरतर्वः।
खांका�ौ पच
ं शून्येशा बाण�पगण
ु ेन्दवः॥
40
शन्ू यलोचनपच ं ैकािश्छद्र�पमुिनदं वः। ित्रकोणिमित
िवयच्चंद्राितधतृ यो गण
ु रंध्राम्बराि�नः॥ गिणत का
प�रचयात्मक
मुिनषड्यमनेत्रािण चंद्रािग्नकृतदस्रकाः। स्व�प
पंचा�िवषया�ीिण कुंजराि�नगाि�नः॥
रंध्रपंचा�कयमा व�द्र्यंकयमास्तथा।
कृता�शून्यज्वलना नगािद्रशिशव�यः॥
षट्पच
ं लोचनगण ु ा�न्द्रनेत्रािग्नव�यः।
यमािद्रवि�ज्वलना रंध्रशून्याणर्वाग्नयः॥
�पािग्नसागरगुणा वस्विग्नकृतव�यः।
3.2.3 िविवध त्रैकोणिमितक सम्बंध एवं अंशािद मान
ित्रकोणिमित में िकसी एक अवयव के �ान से अन्य सम्बन्धों के मानों का िबना िकसी अन्य
मान का प्रयोग िकए �ान करना मह�वपणू र् है, यथा ‘‘ज्या’’ के सम्बन्ध में कोज्या, स्पशार्िद का
�ान अपेि�त होने से-
ज्याअ = ज्याअ

छे अ =

कोछे अ =

इस प्रकार अन्य मानों को भी अभी� सजातीय मान में प�रवितर्त िकया जा सकता है। इसी क्रम
में शन्ू य अश
ं से प्रारम्भ कर ९० अश
ं के मानों का गिणतीय िविध से आनयन कर सा�रणी इस
प्रकार िनिमर्त होती है।

41
व्यक्ताव्यक्त
गिणत

इसी के आधार पर योगज्या एवं अन्तरज्या के िनयमों के द्वारा शेष अभी� अश


ं ों के
ज्याकोज्यािद का मान भी जाना जा सकता है।
3.2.4 कोणीय प�र�ान एवं धनणर् व्यवस्था
ित्रकोणिमित में दो प्रकार के कोणों क� चचार् प्रा� होती है।
1) उन्नयन कोण
2) अवनयन कोण

अ प


अ प

(2)
(1)
जब हम िकसी ग्रह िपण्ड को उघ्वर् िदशा में देखते है तो धरातल से हमारे नेत्र को गत सत्रू के
मध्य में िजस कोण का िनमार्ण होता है, वह उन्नयन कोण (Angle of Elevation)
कहलाता है। इसे ही उन्नताशं भी कहा जाता है। यथा �ेत्र (१) में अ. कोण अन्नताश ं कोण है
तथा �ेत्र (२) में अ कोण नतांश अथवा अवनयन को (Angle of Declination) कहा जाता
है। इसका प्रयोग ज्योितषशा�ीय िनम्निलिखत िवषयों के �ान में िकया जाता है।
• नतांशोन्नतांश �ान
• अ�ांशलम्बांश �ान
• लग्न-अस्तािद�ान
• �क्कमर्संस्कार�ान
• ग्रहणप�रलेखिनमार्ण
42
• ग्रहणदशर्नकाल ित्रकोणिमित
गिणत का
इसी क्रम में वृ� के चार पदों के आधार पर ज्या कोज्यािद अवयवों के अपचय, चय, �ास एवं प�रचयात्मक
वृिद्ध धनात्मक व ऋणात्मक प्रपचं ों का प्रितपादन भी ित्रकोणिमित का मख्ु य िवषय है। इसके स्व�प
अन्तगर्त रे खाओ ं क� िदशा एवं ऊध्वार्धरत्व के आधार पर धन ऋण क� व्यवस्था क� जाती है।
यथा �ैितज रे खा से ऊध्वार्धरत्व रेखा धनाित्मका एवं अधोगिमनी रे खा ऋणाित्मका होती है।
यथा प्रस्तुत �ेत्र में न ब भाग धनात्मक एवं न अ भाग ऋणात्मक है एवं स न भाग धनात्मक न
द भाग ऋणात्मक है।

िद्वतीय पद ++ प्रथम पद
++
++
++

अ न ब
_____ + + + + + + ++
__
__
_
तृतीय पद चतुथर् पद

कणर्मान ित्रज्या सापे� होने के कारण धनात्मक है अतः चारों पदों में ज्यािद अवयवों क�
िस्थित धनात्मक ऋणात्मक िवधान से इस प्रकार बनती है यथा -

िद्वतीय पद प्रथम पद
ज्या अ ज्या अ
कोज्या अ कोज्या अ
- स्प अ स्प अ

चतुथर् पद
तृतीय पद
ज्या
ज्या
कोज्या
- कोज्या
स्प
+ स्प

43
व्यक्ताव्यक्त यहाँ पद के बढ़ते क्रम में -
गिणत
प्रथमपद 90
िद्वतीयपद 90 -180
तृतीयपद 180 - 270
चतथु र्पद 270-360
इसी प्रकार ज्यािदयों के धनणर् का प�र�ान आवश्यक होता है। अथार्त यिद कोज्या 1 1200 का
मान �ात करना होगा तो वह मान ऋणात्मक होगा क्योंिक 1200 िद्वतीय पद का मान है एवं उस
पद में मात्र ज्या अथवा कोछे क� ही िस्थित धनाित्मका रहती है। शेष अवयव ऋणात्मक ही
होंगे ।
3.2.5 अभी� कोणीय ज्यािदमानों का आनयन
पद व्यवस्था के अनसु ार यिद अभी� अश ं के मान का आनयन अपेि�त हो तो ित्रकोणिमित के
िसद्धान्तानसु ार योगज्या एवं अन्तरज्या का साधन िकया जाता है। क्योंिक ज्या (अ + व) =
ज्या अ + ज्या व ऐसा नहीं होगा, ऐसा इसीिलए क्योंिक ज्या क� वृिद्ध एवं ह्रास क� गित चाप
क� भाँित समानपु ाितक नहीं होती। अतः बीजगिणतीय प्रिक्रया के अनसु ार इनका योगान्तर
करने से कई प्रकार क� त्रिु टयाँ िनष्पन्न हो जाती हैं। यथा-
ज्या 90° = ज्या (60°+30°)
ज्या 60°+ ज्या 30°
= + =
अतः चापाश ं ों क� योगज्या एवं अन्तरज्या हेतु कई सत्रू ों का िनष्पादन िदया गया है। यथा
ज्या (अ+व) = ज्या अ × कोज्या व + कोज्या अ. ज्या व
ज्या (अ-व) = ज्या अ × कोज्या व - ज्या अ . ज्या व
कोिटज्या के सन्दभर् में
कोज्या (अ+व) = कोज्या अ × कोज्या व - ज्या अ. ज्या व
कोज्या (अ-व) = कोज्या अ× कोज्या व + ज्या अ . ज्या व
इस प्रकार आचायर् भास्कर एवं कमलाकर के दो सत्रू प्रा� होते है-
चापयो�र�योद�ज्ये िमथः कोिटज्यके हते।
ित्रज्याभ�े तयोरैक्यं स्याच्चापैकस्य दोज्यर्का।।
चापान्तरस्य जीवा स्यात् तयोन्तरसिम्मता।।
कमलाकार भट्ट के शब्दों में
दोज्यर्यो: कोिटमौव्यार्� घातौ ित्रज्योधृतौ तयो:।
िवयोगयोगौ जीवे स्त�ापैक्यान्तरकोिटजे।।
अथार्त् िकन्हीं चापों क� कोिटज्या तथा ज्या को गणु ा करके उनमें ित्रज्या का भाग देकर घटाने
तथा योग करने पर उन चापों के योग तथा अन्तर क� ज्या होती है। त�विववेक के स्प�ािधकार
44
में ज्योत्पि� प्रकरण में विणर्त है। ित्रकोणिमित
गिणत का
यथा - प�रचयात्मक
स्व�प
कोज्या (अ+४५°) = (कोज्या अ - ज्या अ)
कोज्या (अ+व) सत्रू के द्वारा [अ = अ, व= ४५° ]
कोज्या अ. कोज्या ४५°- ज्या अ. ज्या ४५°
कोज्या अ. - ज्या अ. (मानों के िवस्थापन के द्वारा)

समान ग्रहण िसद्धांतानसु ार [कोज्या ४५°= ज्या ४५°= ]


(कोज्या अ- ज्या अ)

इस प्रकार योगान्तरमानों को िसद्ध िकया जा सकता है। इसी क्रम में यह भी ध्यातव्य है िक से
अिधक ज्या कोज्या आिद मानों के साधन क्रम में पदव्यवस्था के अनसु ार धन ऋण का िनणर्य
करना चािहए। तथा इन सत्रू ों को ध्यान में रखना चािहए।
ज्या ( 90°+अ) = कोज्या अ
कोज्या ( 90°+अ) = -ज्या अ
स्प ( 90°+ अ) = -कोस्प अ
कोस्प ( 90°+अ) = -स्प अ
छे ( 90°+अ) = -कोछे अ
कोछे ( 90°+अ) = छे अ
ज्या (-अ) = ज्या अ
कोज्या (-अ) = कोज्या अ
स्प (-अ) = -स्प अ
कोस्प (-अ) = -कोस्प अ
छे (-अ) = छे अ
कोछे (-अ) = - कोछे अ
इसी प्रकार
ज्या (अ+क) + ज्या (अ-क) = 2 ज्या अ . कोज्या क
ज्याअ . कोज्या व + कोज्या अ . ज्या व = ज्या (अ+व)
कोज्या (अ+क) + कोज्या (अ-क) = 2 कोज्या अ . कोज्या क
कोज्या (अ-क) - कोज्या (अ+क) = 2 ज्या अ. ज्या क
ज्या (अ +क) ज्या (अ-क) = -
कोज्या (अ+क) कोज्या (अ-क) = -
स्प (अ + क) =
45
व्यक्ताव्यक्त
गिणत
स्प (अ - क)=

3.2.6 अभी� अंशों के ज्यानयन में िवशेष मत


ित्रकोणिमित गिणत में अभी� अश ं ों के ज्यानयन के क्रम में िविवध सत्रू एवं िसद्धान्त
ज्योितषशा�ीय िसद्धान्त ग्रन्थों में प्रितपािदत िकए गए है। यथा अधा�शज्या के आनयन क�
िविध के िवषय में विणर्त है।
क्रमोत्क्रमज्याकृ ितयोगमल ू ाद्दलं तदधा�शकिशिं जिन वा।।
अथार्त् क्रमज्या एवं उत्क्रमज्या के वगर्योग मल
ू का अधा�श अधार्ज्या का मान होता है, यथा-

=अधा�शज्या
पनु ः सत्रू प्रा� होता है िक-
ित्रज्योत्क्रमज्या िनहतेदल र् स्य मल
ू ं तदधिशकिश�जनी वा।
अथार्त् उत्क्रमज्या व ित्रज्या के घाताधर् का मल
ू अभी� अधा�शक ज्या का मान होती है। यथा-

= अधा�शकज्या
इसी प्रकार १८° , ३६° आिद के मानों का आनयन भी प्रमाण सिहत प्रितपािदत िकया गया है।

3.3 सारांश
इस अध्याय में हम सभी ने ित्रकोणिमित गिणत के समस्त अवयवों का प�रचय िवस्तार पवू क र्
प्रा� िकया। पनु ः अब इस अध्याय को सारांश �प में देखते हैं। ज्योितष शा� के तीन स्कंध हैं,
िसद्धांत, संिहता तथा होरा। इन स्कंधों में िसद्धांत स्कंध के ही अतं गर्त गिणत का व्यवहार िकया
जाता है। यहां दो प्रकार के गिणत क� चचार् है प्रथम पाटी गिणत एवं िद्वतीय बीजगिणत। पाटी
गिणत के अतं गर्त ही ित्रकोणीय �ेत्रों का प्रितपादन िकया गया है। प्रकारातं र से ित्रकोणिमित
गिणत भी पाटी गिणत का ही अश ं माना जाता है। ित्रकोणिमित के ऐितहािसकता पर यिद
िवचार िकया जाए तो यह ज्योितष शा� के सहयोगी के �प में आरंिभक काल से िवकिसत
ह�आ है।
अतः भारत में इस गणना प्रिक्रया का आरंभ भी इसी आधार पर ह�आ है। प्राचीन काल में
िविवध प्रकार के घिड़यों का आिवष्कार आरंभ ह�आ। उससमय समय के �ान के िलए धपू
घड़ी तथा वेधशालाओ ं का प्रयोग िकया जाता था, िजसके अतं गर्त एक लबं मान शलाका शक ंु
को समतल पर स्थािपत कर गिणतीय प्रिक्रया के द्वारा समय का आकलन िकया जाता था। यहीं
से नतांश एवं उन्नतांश आिद के �ान क� प्रिक्रया के अतं गर्त ित्रकोण के गिणत के प्रितपादन
के िलए ित्रकोणिमित का आरंभ ह�आ। सामान्यतया ित्रकोणिमित के दो भेद कहे गए हैं, प्रथम
सरल ित्रकोणिमित एवं िद्वतीय गोलीय ित्रकोणिमित।
सरल ित्रकोणिमित के अतं गर्त सामान्य रे खाओ ं द्वारा ित्रकोण के संबंधों एवं अवयवों के
आधार पर प्रिक्रया क� जाती है। चापीय ित्रकोणिमित के अतं गर्त गोलीय �ेत्रों के द्वारा
46
गिणतीय प्रिक्रया पणू र् क� जाती है।
ित्रकोणिमित के बीज ग्रंथ के �प में सयू र् िसद्धांत, आयर्भट्टीयम, पंचिसद्धांितका, ब्र�स्फुट ित्रकोणिमित
िसद्धातं आिद ग्रथं माने जाते हैं। बाद में भारतीय ज्योितष क� ही धारा में दो स्वतंत्र ग्रथं ों क� गिणत का
प�रचयात्मक
रचना बापदू ेव शा�ी एवं पंिडत बलदेव िमश्र जी ने सरल ित्रकोणिमित के नाम से क�। सरल स्व�प
ित्रकोणिमित जो बापू देव शा�ी जी द्वारा िनिमर्त है उसमें चार अध्याय हैं तथा बलदेव िमश्र जी
द्वारा िनिमर्त सरल ित्रकोणिमित में 14 अध्याय हैं। िजनके िवषय वस्तुओ ं का अध्ययन हम इस
अध्याय में कर चक ु े हैं।
आचाय� ने कोणीय मानों के प्रितपादन में ित्रभजु में भजु ाओ ं एवं कोणों के संबंधों से बनने
वाले अनपु ातों को प्रितपािदत िकया गया है। इसके अतं गर्त आधार, लबं तथा कणर् के माध्यम
से छह संबंधों का िन�पण िकया गया है।
यह ध्यातव्य है िक ज्या, कोिटज्या एवं स्पशर्ज्याओ ं का कोटीछे दन, छे दन एवं कोिटस्पशर् से
व्यत्ु क्रमानपु ात का सबं धं होता है। िसद्धातं के ग्रथं ों में वृ� के 96 वें िवभाग को सबसे छोटी
ज्या के �प में प�रगिणत िकया गया है। क्योंिक यहां ज्या एवं चाप में अभेद संबंध हो जाता है।
एक पद में 24 ज्याखंड होते हैं िजनका प्रितपादन प्रायः सभी आचाय� ने िकया है। ित्रकोण
गिणत में 0 अशं से प्रारंभ कर 90 अशं के मानों का गिणतीय िविध से आनायन कर सारणी में
िनबद्ध िकया गया है। पद व्यवस्था के अनसु ार यिद अभी� अश ं के मान का आनयन अपेि�त
हो तो ित्रकोणिमित के िसद्धांत के अनसु ार योगज्या एवं अतं रज्या के माध्यम से साधन िकया
जाता है।

3.4 पा�रभािषक पद
• ित्रकोणिमित: ित्रकोण का अथर् होता है ित्रभजु एवं िमित का अथर् होता है प�रमाप। अतः
ित्रभजु के िविवध प्रकारक मापन से सदं िभर्त गिणत को ित्रकोणिमित क� स�ं ा दी गई है।
• शक
ं ु यत्रं : 12 अगं ल
ु प�रमाप क� बनी ह�ई का� क� शक
ं ु।
• सरलित्रकोणिमित: जहां सरल रे खाओ ं के द्वारा ित्रकोण के संबंधों एवं अवयवों के
आधार पर प्रिक्रया िकया जाए उसे सरल ित्रकोणिमित कहते हैं।
• चापीयित्रकोणिमित: ऐसा ित्रकोण गिणत जहां गोलीय अवयवों के द्वारा प्रिक्रया िकया
जाए।
• गोलीय ित्रकोणिमित: चापीय ित्रकोणिमित का अपर नाम गोलीय ित्रकोणिमित है।
• पाद: िकसी भी वृ� का चौथा िहस्सा एक पाद के नाम से जाना जाता है।

3.5 सन्दभर्-ग्रंथ
• सयू र्िसद्धांत : टीकाकार बलदेव प्रसाद िमश्र, खेमराज श्रीकृ ष्ण दास प्रकाशन।
• ब्र�स्फुट िसद्धातं : आचायर् ब्र�ग�ु , सम्पादक रामस्व�प शमार्, प्रकाशक- इिं डयन
इिन्स्टटूट ओफ़ ऐस्ट्रनािमकल एडं संस्कृ त रीसचर्
• लीलावती: भास्कराचायर्, प्रकाशक- चौखम्भा िवद्याभावन, वाराणसी 47
व्यक्ताव्यक्त • बीजगिणत, भास्कराचायर्, प्रकाशक- चौखम्भा िवद्याभावन, वाराणसी
गिणत
• सरल ित्रकोणिमित , पं. बलदेव प्रसाद िमश्र, प्रकाशक- चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी।
• सरल ित्रकोणिमित, प.ं बापदू ेव शा�ी, प्रकाशक- सम्पणू ार्नन्द संस्कृ त िव�िवद्यालय,
वाराणसी।

3.6 बोध प्र�


1) ित्रकोणिमित से आप क्या समझते हैं? स्प� करें ।
2) सरल ित्रकोणिमित ग्रंथ का प�रचय दीिजए।
3) अभी� ज्या के आनयन से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण स्प� करें ।
4) कोणीय धनणर् व्यवस्था पर प्रकाश डािलए।
5) िविवध त्रैकोणिमितक सम्बन्धों को िवस्तार से प्रितपािदत करें ।

48
गोलीय
इकाई 4 गोलीय ित्रकोणिमित का प�रचयात्मक स्व�प ित्रकोणिमित का
प�रचयात्मक
इकाई क� संरचना स्व�प

4.1 उद्देश्य
4.2 गोलीय ित्रकोणिमित एवं गोलीयरे खागिणत का प�रचय एवं वैिश�्य
4.3 ग्रन्थकार का प�रचय
4.4 गोलीयित्रकोणिमित क� िवषय वस्तु
4.4.1 गोलीयित्रकोणिमित क� िवषय वस्तु
4.4.2 प्रथम प्रित�ा
4.4.3 िद्वतीय प्रित�ा
4.4.4 तृतीय प्रित�ा
4.4.5 चतुथर् प्रित�ा
4.4.6 05-09 प्रित�ा
4.4.7 10-14 प्रित�ा
4.4.8 15-18 प्रित�ा
4.5 सारांश
4.6 पा�रभािषक शब्दावली
4.7 बोधप्र�
4.8 सहायक ग्रन्थ

4.1 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययनोपरान्त छात्र-
• गोलीय एवं चापीयित्रकोणिमित तथा गोलीयरे खागिणत के िविवधिसद्धान्तों को समझ
सके गें।
• गोल प�र�ान में िवशेष �प से द� हो सकें गें।
• गोल,ित्रकोणिमित एवं रेखागिणत के समन्वयक से अवगत हो सकें गें।
• ज्योितषश� में प्रय�
ु गोलीय ित्रकोणिमित एवं रे खागिणत िसद्धान्तों को समझ सकें गें।
• खागोलीय िसद्धान्त से गिणतीय समन्वयक के सम्बन्ध समझ सकें गें।

4.2 गोलीय ित्रकोणिमित एवं गोलीयरेखागिणत का


प�रचय एवं वैिश�्य
गिणतशा� एवं ज्योितषशा� का सम्बन्ध अत्यन्त गढू है। अत एव आचायर् भास्कर ने
गोलध्याय ने कहा है- 49
व्य�ाव्य� गिणत ज्योितषशा�फलं परु ाणगणकै रादेश इत्युच्यते,
नूनं लग्नबलािश्रतः पुनरयं तत्स्प�खेटाश्रयम।्
ते गोलाश्रियणोऽन्तरेण गिणतं गोलोिप न �ायते
तस्माद्यो गिणतं न वेित स कथं गोलािदकं �ास्यित।।
अत एव िसद्धान्तस्कन्ध के अन्तगर्त िजन प्रिक्रयाओ ं का समावेश िकया जाता है उन सभी में
व्य�ाव्य� गिणत, ज्यािमतीय गिणत अथवा गोलीयगिणत प्रिक्रयाओ ं का िनबार्धतया प्रयोग
होता रहा है। इन्हीं प्रकार क� िविवध गिणतीय प्रिक्रयाओ ं में से सवर्प्रमख
ु प्रिक्रया में गोलान्तगर्त
रे खाओ ं से िनष्पन्न होने वाली गिणत प्रिक्रया का िववेचन िकया गया हो उसे गोलीयगिणत
कहा जाता है िजसमें रे खागिणत एवं ित्रकोणिमित प्रमख ु हैं। गोल एवं रे खागिणत के
अन्तस्सम्बन्ध को जानने के िलए सवर्प्रथम गोल एवं रे खागिणत के स्व�प एवं उनके कितपय
िविश�िसद्धान्तों का प�र�ान आवश्यक है। गोल के स्व�प का वणर्न िशरोमिण में आचायर्
भास्कर ने इस प्रकार िकया है-
��ान्त एवाविनभग्रहाणां
संस्थानमानप्रितपादनाथर्म।्
गोलस्स्मृतः �ेत्रिवशेष एष
प्रा�ैरतस्स्याद् गिणतेन गम्यः।।
अतः गोलीय ित्रकोणिमित एवं गोलीयरेखागिणत के अन्तगर्त गोलीय अवयवों के स्प�
िनधार्रत हेतु िसद्धान्तों क� रचना क� गई। ज्योितष शा� में गिणत क� दो प्रमख ु शाखा
गोलीयगिणत एवं रे खागिणत के परस्पर समन्वय का स्थल गोलीयरे खागिणत ही है। गोलीय
ित्रकोणिमित एवं गोलीयरे खागिणत के अन्तगर्त िनम्निलिखत िवषय समािहत होते है।
1. गोल के न्द्र का अव�ान
2. गोल पृ� का �ेत्रफल
3. गोल घनफल
4. जात्यित्रभजु एवं अजात्यित्रभजु क� अवधारणा
5. गोलान्तगर्त वृ� एवं वृ�ान्तगर्त गोल का िनमार्ण
6. गोल पर स्पशर् रे खाओ ं का अव�ान
7. गोलीय ित्रभजु ों के िवशेषिनयम
8. गोलीयिसद्धान्तों का खगोलीय समन्वयन

4.3 गोलीयित्रकोणिमित एवं गोलीयरेखागिणत ग्रन्थ के


लेखक का प�रचय
गोलीयित्रकोणिमित अथवा चापीय ित्रकोिण्मित के प्रणेता आधिु नक काल के ज्योितिवर्दों में
महामहोपाध्याय पं० सधु ाकर िद्ववेदी का अत्यन्त मह�वपूणर् स्थान है । ये असाधारण एवं
सवर्तोमख
ु ी प्रितभावाले िवद्वान् थे इन्हें वतर्मान ज्योितषशा� का उद्धारक माना जाता है।
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वतर्मान काल में प्राचीन ज्योितष शा� का उद्धार करने वाला इनके जैसा दसू रा कोई अभी नहीं गोलीय
ह�आ है ये ज्योितषशा� के अित�र� अन्य शा�ों के भी ममर्� थे। फ्रेंच, अग्रं ेज़ी, मराठी तथा ित्रकोणिमित का
प�रचयात्मक
िहन्दी आिद भाषाओ ं पर इनका समान अिधकार था। ये उन िवद्वानों में से थे, िजन्होंने िव�ान
स्व�प
क� आधिु नक शाखाओ ं - प्रशाखाओ ं का गभं ीर िव�ेषण करके भारतीय ज्योितष के साथ
उनका तारतम्य स्थािपत िकया । इन्होंने भारतीय ज्योितष क� वै�ािनक िविधयों को प्रकाश में
लाने और उनके अध्ययन क� नयी प�रपािटयां भी सुझायीं इन्होंने ज्योितष-िवषयक अनेक
प्राचीन ग्रंथों क� शोधपणू र् टीकाएं िलखीं, मौिलक ग्रंथ िलखे और अवार्चीन उच्च गिणत
िवषयक कई ग्रंथों क� रचना क� । इनके ऐसे ग्रंथों क� कुल संख्या 29 है।
इनके ग्रंथ दीघर्व�ृ ल�ण (सन् १८७८ ई०) तथा वास्तव चन्द्रशृगं ोन्नित साधन (सन् १८८०
ई०) नामक ग्रंथों में लल्ल, भास्कर, �ानराज, गणेश, कमलाकर आिद प्राचीन
ज्योितषशाि�यों के िसद्धान्तों में दोष दशार्ते ह�ए उन िवषयों से सम्बिन्धत यूरोपीय
ज्योितषशा� के अनसु ार िवचार प्रस्तुत िकये गये हैं। अपने ि�िचत्र प्र�श् नामक ग्रंथ (सन्
१८७०ई०) में इन्होंने ज्योितष सम्बन्धी बीस किठन प्र�ों के हल िदये हैं। द्यचु रचार (सन्
१८८२ ई०) में यूरोपीय ज्योितषशा� के अनसु ार ग्रहक� का िववेचन, िपंड प्रभाकर (सन्
१८८५ ई०) में भवन-िनमार्ण-सम्बन्धी बातों का वणर्न, धराभ्रमू में पृथ्वी क� दैिनक गित का
िवचार, ग्रहग्रहण में ग्रहों के गिणत का वणर्न, ग्रहणकरण में ग्रहण के गिणत करने क� रीित का
िववरण, गणक तरंिगणी (सन् १८६०ई०) में प्राचीन भारतीय ज्योितष शाि�यों क� जीवनी एवं
उनक� पस्ु तकों का िववरण िदया गया है यह एक अत्यन्त उपयोगी ग्रथं है । इन्होंने गोलीय
रे खागिणत एवं पा�ात्य ज्योितषशा�ी यिू क्लड क� छठी, ग्यारहवीं और बारहवीं पस्ु तक का
संस्कृ त में �ोकबद्ध अनवु ाद िकया था। इनके टीका-ग्रंथों में यत्रं राज के ऊपर प्रितभाबोधक
नामक टीका (सन् १८८२ ई०), भास्कराचायर् - रिचत लीलावती एवं बीजगिणत क�
सोपपि�क टीका (सन् १८७८ ई०), भास्कराचायर् के करण - कुतूहल क� वासनािवभषू ण टीका
(सन् १८८१ ई०), वराहिमिहर क� पचं िसद्धांितका पर पंचिसद्धां ितका प्रकाश टीका (सन्
१८८८ ई०), सयू र्िसद्धांत क� सधु ा विषर्णी टीका, ब्रा�स्फुट िसद्धांत क� टीका, आयर्भट िद्वतीय
रिचत महािसद्धांत क� टीका, ग्रहलाघव क� सोपपि�क टीका उल्लेखनीय हैं । ये सब टीकाएं
सस्ं कृ त में हैं । इनके अित�र� इन्होंने कृ ष्णकृ त छादकिनणर्य, कमलाकरकृ त िसद्धातं
त�विववेक तथा लल्लकृ त धीवृिद्धतत्रं का संशोधन करके क्रमशः सन् १८८४, सन् १८८५
तथा सन् १८८६ में छपाया था । इन्होंने सस्ं कृ त में भाषा िवषयक श्भाषा-बोधकश् नामक ग्रंथ
भी िलखा था । इन्होंने तल ु सी क� ि�नयपित्रकाश् एवं मानस के बालकाडं का सस्ं कृ त में
अनवु ाद भी िकया था। इन्होंने तल ु सी सधु ाकर, पद्मावित (खंड १-५ िग्रयसर्न के साथ
सम्पािदत), दाददू याल शब्द, िहदं ी वै�ािनक कोश, राधाकृ ष्ण-दानलीला, रामकहानी, िहदं ी
भाषा का व्याकरण आिद िहदं ी पस्ु तकों क� भी रचना क� इन्होंने श्मानस पित्रकाश् नामक एक
पित्रका का सम्पादन भी िकया था। िहन्दी में इन्होंने चलनकलन, चलरािश कलन, समीकरण-
मीमासं ा तथा गित-िवद्या नामक उच्चस्तरीय गिणत-ग्रथं ों का प्रणयन िकया था। इनके ग्रथं ों के
पढ़ने से �ात होता है िक भारतीय और यूरोपीय गिणत ज्योितष में इनका उत्कृ � �ान था । प०ं
सधु ाकर िद्ववेदी का जन्म चैत्र शक्ु ल ४, सोमवार (२६ माचर्) सन् १८६० ई० को काशी के
िनकट खजरु ी नामक ग्राम में ह�आ था। इनके िपता का नाम कृ पालद� िद्ववेदी और माता का
नाम लाची था।

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व्य�ाव्य� गिणत इन्होंने वाराणसी सस्ं कृ त कॉलेज में पंिडत दगु ार्द� से व्याकरण और पंिडत देवकृ ष्ण से गिणत
एवं ज्योितष का अध्ययन िकया। देर से िश�ा प्रारम्भ करने पर भी इन्होंने शीघ्र ही िहन्दी,
संस्कृ त एवं अग्रं ेजी में अच्छी योग्यता प्रा� कर ली। साथ ही इन्होंने फ्रेंच, मराठी आिद भाषाओ ं
का भी अध्ययन िकया था, गिणत और ज्योितष में इनक� िवशेष गित थी। इनक� प्रितभा से
महामहोपाध्याय बापदू वे शा�ी बड़े प्रभािवत थे और उन्होंने कई अवसरों पर इन्हें परु स्कृ त भी
िकया था। उन्होंने एक बार श्री ग्रीिफथ को िलखा था � श्री सधु ाकर शा�ी गिणते वृहस्पित
समः । बापूदेव शा�ी ने पा�ात्य िवद्वान् डलहोस के िसद्धांत का िश्सद्धांत िशरोमिण नामक ग्रंथ
क� िटप्पणी में अनवु ाद िकया था। िद्ववेदीजी ने उ� िसद्धांत क� अशिु द्ध बतलाते ह�ए शा�ीजी
से उस पर पनु � िवचार करने के िलए अनुरोध िकया था। इस प्रकार लगभग बाईस वषर् क�
आयु में ही इनक� ख्याित फै ल गयी और इनके िनवासस्थान खजरु ी में भारत के कोने-कोने से
िवद्याथÊ पढ़ने आने लगे । सन् १८८३ ई० में ये सस्ं कृ त कॉलेज, वाराणसी के सरस्वती भवन
में पस्ु तकाध्य� िनय� ु िकये गये और १६ फरवरी, सन् १८८७ को महारानी िवक्टो�रया के
जिु बली महोत्सव में इन्हें श्महामहोपाध्यायश् क� उपािध से िवभिू षत िकया गया। उन िदनों
बापदू ेव शा�ी सस्ं कृ त कॉलेज में गिणत के अध्यापक थे । इन्होंने ग्रीनिवच में प्रकािशत होने
वाले नािटकल आल्मनाकश् में अशिु द्ध िनकाली, िजसके प्रित उसके सम्पादकों ने इनके प्रित
कृ त�ता प्रकट क� और इनक� भ�ू र-भ�ू र प्रशसं ा क�। इसके बाद इनक� िवद्व�ा क� धाक देश-
िवदेश में बह�त बढ़ गयी । एक साधारण बीमारी से २८ नवम्बर, सन् १६१० ई० (मागर्शीषर्
कृ ष्ण द्वादशी, सोमवार, स०ं १६६७) को इनका काशी में ही िनधन हो गया।
ये सावर्जिनक काय� में भी सिक्रय सहयोग देते रहे। ये िहदं ू कॉलेज क� प्रबन्ध सिमित, प्रान्तीय
पस्ु तक-िनधार्�रणी सिमित, नागरी प्रचा�रणी सभा, िहदं ी-सािहत्य सम्मेलन के सम्मािनत सदस्य
थे और तल ु सी -स्मारक सभा के तो ये सभापितही थे ।
ख) ‘‘गोलीयरेखागिणत’’ ग्रन्थ के लेखक का प�रचय -
गेलीयरे खागिणत के लेखक आचायर् नीलाम्बर झा हैं। ये पटना के िनवासी थे एवं मैिथल
ब्रा�ण थे। ज्ये� भ्राता जीवनाथ से तथा कितपय िदवस काशी सस्ं कृ त पाठशाला में इन्होंने
अध्ययन िकया था। यह राजस्थान के अलवर के राजा िशव के प्रधान ज्योितषी थे। काशी में ही
शक 1805 में इनका देहावसान ह�आ। इनके द्वारा रिचत ग्रन्थ का नाम गोल प्रकाश है िजसके
अन्तगर्त 05 अध्याय हैं -
1. ज्योत्पि�ः
2. ित्रकोणिमितिसद्धान्त
3. चापीयरे खागिणत िसद्धान्त
4. चापीय ित्रकोणिमित िसद्धान्त
5. प्र�ाध्याय
कितपय भास्करीय कृ ितयों क� इन्होंने टीकाएँ भी क� हैं।। गोलप्रकाश के आरम्भ में कुल 11
पद्यों में इन्होंने इसका सम्पणू र् प�रचय प्रदान िकया है। ऐितहािसक �ि� से गोलीयरे खागिणत के
िसद्धान्तों का प्रयोग ज्योितषीय ग्रन्थों में �ि�गत होता है। यथा िनम्निलिखत िसद्धान्तों के बीज
िसद्धान्त ग्रन्थों में प्रा� होते हैं। यथा-
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1. अ��ेत्र द्वारा िविवध िवषयों का �ान। गोलीय
ित्रकोणिमित का
2. ित्रप्र�ान्तगर्त िविवध ज्योितषीय मानों का �ान। प�रचयात्मक
3. यन्त्र िनमार्ण में गिणतीय िवधाओ ं का प्रयोग। स्व�प
4. ग्रहस्प�ीकरण में भगं ीद्वय क� प�रकल्पना।
5. ग्रहणप�रलेख िनमार्ण में वृ�ीय िसद्धान्तों का प�रिनयमन।
अतएव गोलीयरे खागिणत ग्रन्थ के मगं लाचरण के द्वारा िनम्निलिखत पद्य के माध्यम से यह
�ात होता है िक वह वैष्णव समदु ाय के थे। यथा -
मनोकुकूले यमुनासुकूले गोपीदुकूलेन िवनोदमानम्।
गतं कदम्बे सख
ु माकदम्बे सतां कदं वेणधु रं भजािम।।
अथार्त् मन के अन�ु प यमनु ा के सन्ु दर तट पर गोिपयों के व� से िवनोद करने वाले, सखु और
ल�मी के समहू से य� ु कदम्ब के वृ� पर िवराजमान सज्जनों को सख ु देने वाले वश ं ीधर
श्रीकृ ष्ण भगवान् क� मैं (नीलाम्बर झा) उपासना करता ह�।ँ एतदनन्तर गोलीयरे खागिणत ग्रन्थ
का प्रयोजन प्रितपािदत करते ह�ए बताते हैं िक मैं मैिथल ब्रा�ण िसद्धान्तों में भ्रािन्तय�ु
शक ं ाओ ं का िनवारण करते ह�ए गोलस्व�पीय िविवध �ान के अवबोधक �पी
गोलीयरे खागिणत का प्रितपादन करता ह�।ँ यथा -
नीलाम्बरो मैिथलभूसुरोऽहं िसद्धान्तसम्भ्रान्तिनरस्तशंकम्।
गोलस्व�पावगमप्रकारं गोलीयरेखागिणतं प्रव�ये।।
वस्तुतः गोलीयरे खागिणत का िनमार्ण गोलप�रभाषा के अन्तगर्त िसद्धान्तों क� समी�ा करते
ह�ए रे खागिणतीय िसद्धान्तों का समावेश इसमें िकया गया है।

4.4 गोलीय-ित्रकोिण्मित क� िवषयवस्तु


गोल प�रभाषा एवं रे खागिणत के समवेत स्व�प इस ग्रन्थ में अत्यन्त स�ू मतापवू क
र् िसद्धान्तों
क� चचार् क� गई है।
चापजात्ये एकभुजज्यया ित्रज्यायाः या िनष्पि�ः
सैव िद्वतीयमुखच्छायया िद्वतीयभुजसम्मुखकोणछायया िनष्पि�ः ।
चाणजात्य ित्रभजु में एकभजु ज्या से ित्रज्या पत्र से जो िनष्पि� होती है, वही िद्वतीयभजु च्छाया
एवं िद्वतीय भजु सम्मख
ु कोण छाया क� िनष्पि�के तुल्य होती है।
िद्वतीय साध्य
चापजात्ये कणर्ज्यया ित्रज्याया या िनष्पि�ः ।
सैव भुजण्या भुजसम्मुख कोणज्याया िनष्पि�ः ।।
चापजात्य में कणर्ज्या और ित्रज्या से जो िनष्पि� होती है वही भजु ज्या और भजु सम्मख

कोणज्या क� िनष्पि� के तल्ु य होती है। इस प्रकार गोलीयित्रकोिण्मित ग्रन्थ जोिक
चापीयित्रकोणिमित के नाम से ख्यात है ग्रन्थ में कुल 08 प्रित�ाएं हैं । चापजात्य एवं
53
व्य�ाव्य� गिणत चापाजात्य का िवशद् िववेचन इस ग्रन्थ में सन्ु दर रीित से िकया गया है । इसी क्रम में
गोलीयरे खागिणत ग्रन्थ में कुल 18 प्रित�ाएँ हैं तथा प्रत्येक प्रित�ा के अवबोधन के िलए
प�रभाषाओ ं क� सहायता ली गई है। 18 प्रित�ाओ ं के प्रितपाद्य क्रमशः इस प्रकार है-
प्रित�ा - प्रितपाद्य
1. प्रथमी - वृ�च्छे दन िसद्धान्त
2. िद्वतीया - समानान्तर वृ�िसद्धान्त
3. तृतीया - कोण�ान िविध
4. चतथु � - वृ�स्पशर्रेखा �ान
5. पचं मी - समिद्वबाह�ित्रभजु िसद्धान्त
6. ष�ी - कोणतल्ु य िसद्धान्त
7. स�मी - गोलीयित्रभजु िसद्धान्त
8. अ�मी - गोलीय ित्रभजु िसद्धान्त
9. नवमी - गोलीय ित्रभजु िसद्धान्त
10. दशमी - चापीय ित्रभजु िसद्धान्त
11. एकादशी - स्पिधर्नी
12. द्वादशी - गोलीय कोणमान प�र�ान
13. त्रयोदशी - चापमानप�र�ानम्
14. चतदु शर् ी - कोणभ्रणसम्बन्ध�ानम्
15. पंचदशी - गोलित्रकोणे भजु कोिटकमर्प�र�ानम्
16. षोडशी - अन्तलर्म्बप�र�ान
17. स�दशी - लघभु जु -बृहद्भुजयोः प�र�ानम्
18. अ�ादशी - लघबु हृ द्व�ृ योः चापमानािन
इन सभी प्रित�ाओ ं को �ेत्र एवं उपपि� के माध्यम से स्प� करने का प्रयास िकया गया है।
1) प्रथमा प्रित�ा -
गेलीय रे खागिणत के प्रथम प्रित�ा के अनसु ार यिद गोलघन �ेत्र को िकसी समधरातल
गत �ेत्र वृ� के द्वारा छे िदत िकया जाता है तो वह छे िदतप्रदेश ही वृ�ाकार होता है।
तद्यथा वचन है िक -
यिद गोलघन�ेत्रं छे िदतं के निचद्भवेत् ।
�ेत्रेण च्छे िदतः स स्यात् प्रदेशो वृ� एव िह।।
इस प्रित�ा का अवलोकन इन �ेत्र के द्वारा िकया जा सकता है –

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गोलीय
ित्रकोणिमित का
प�रचयात्मक
स्व�प

इस प्रित�ा में रे खागिणत के ित्रभजु िसद्धान्त का प्रयोग िकया गया है। गोल क� �ि� से भी
यिद नाडीवृ� एवं क्रािन्त� के गोलीय धरातल को याग्यो�रवृत काटता हो तो दो भाग में
िवभ� नाडी अथवा क्रािन्तवृत के दोनों भाग वृ�ाकार ही होतें हैं।
प्रथम प्रित�ा में कुल 08 अनुमानों का प्रयोग िकया गया है, िजसके अन्तगर्त यह िनष्कषर्
प्रा� होते हैं -
दो महद्व�ृ ों के सम्पात गोलव्यास के उपर होते हैं। इसिलए एक के द्वारा िद्वतीय अिधर्त
िकया जाता है। व्यास के दोनों िकनारों पर विधर्त सम्पात 1800 क� दरू ी पर होते हैं।
2) िद्वतीया प्रित�ा -
गोल में िस्थत वलय के प�रिध िस्थत िबन्दु से उस वृ� के िनि�त िकए ह�ए समानान्तर पर
ही ध्रवु िबन्दु होता है। इस आशय को प्रितपािदत करते ह�ए बतलाया गया है िक -
गोलोप�रगवृ�स्य प�रिधिस्थत िबन्दुत।
तद्वृ�ध्रुविबन्दुः स्यात्समानान्तर एव िह।।
इस प्रित�ा हेतु कुछ 06 अनमु ानों का आश्रय िलया गया है। िजसके अन्तगर्त
िनम्निलिखत िनष्कषर् प्रा� होते हैं -
• लघवु �ृ क� ित्रज्या उसक� चापज्या के तल्ु य होती है जो चाप उस वृ� के ध्रवु और
उस वृ� के अन्तर पर होती है।
• दो समानान्तर वृ�ों के उपर उस धरव ु ् से गत
वृ� जो तल्ु यप्रमाण के वृ� के ध्रवु और
अन्तर पर अथवा वृ� के अन्तर पर तल्ु य
प्रमाण के होते हैं।
उदाहरणाथर् अहोरात्रिवनाडीवृ� के उपर
ध्रवु प्रो�वृ� करने के उपरान्त अहोरानाडीवृ� का
अन्तर सवर्त्र क्रािन्त तुल्य समान ही िसद्ध होता है।

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व्य�ाव्य� गिणत इस �ेत्र ने नाड़ीवृ�स्थ क ख ग घ माना अहोरात्र वृ� के क’ ख’ ग’ घ’ के समानपु ाित
नही होंगे।

3) ततृ ीया प्रित�ा -


तृतीय प्रित�ा के अन्तगर्त वृ� और ध्रवु के आए ह�ए मण्डलान्तगर्त में के न्द्र और चाप के
मध्य उत्पन्न अवयव को कोण भी स�ं ा दी जाती है। तृतीय प्रित�ा के अनसु ार -
वृ�ध्रुवादागतमण्डलान्तरे
वृ�स्थचापं ध्रुवगः स कोणगः।।
उदाहरणाथर् - समस्थान पर ि�ितज एवं याम्यो�र के संयोग से अ�ांश कोण क� िनष्पि�
होती है।

इस प्रित�ा में कुल 06 अनमु ान एवं प�रभाषाओ ं का प्रयोग िकया गया है िजसके अन्तगर्त
िनम्नो� तथ्य िसद्ध िकए गए हैं -
1. दो बृहद्व�ृ ों के सम्पात से उत्पन्न आमने सामने जाने वाले दोनों कोण तल्ु य होते हैं।
2. दो बृहद्व�ृ ों के ध्रवु का जो अन्तर होता है वही दो वृ�ों के �ेत्र का नमन होता है।
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3. समानान्तर दो वृ�ों के ध्रवु पर गए ह�ए अन्य वृ� द्वय है उनके उस अन्तर पर गत गोलीय
समानान्तर दो वृ�ों का चाप सजातीय अश ं ों के समान होते हैं। ित्रकोणिमित का
प�रचयात्मक
4) चतुथर् प्रित�ा - स्व�प
इस प्रित�ा के अन्तगर्त व्यासाग्र िबन्दू के ऊपर लम्ब�प �ेत्र का गोल पर ही उस
व्यासजिनत �ेत्र के ऊपर ही उस िबन्दु का सस्ं पशर् होता है अन्यत्र नहीं। इस प्रित�ा के
अनसु ार गोल का सरल �ेत्र से स्पशर् िकसी एक ही िबन्दू पर सम्भव है। यिद सरल �ेत्र
गोल में स्पशर् करता है तब स्पशर् िबन्दू पर िकया गया ित्रज्या सत्रू उस �ेत्र पर लम्ब�प
होता है। यिद सरल�ेत्र गोल में स्पशर् करता है तब स्पशर् िबन्दु पर िकया गया जो वृ� है
वह �ेत्र और सरल रे खा के स्पशर् रे खा तल्ु य होता है। इस प्रकार विणर्त है िक -
व्यासाग्रिबन्दूप�रलम्ब�प
�ेत्रस्य संस्पशर् इहािस्त गोले।।
इस प्रकार 05 प�रभाषाओ ं के द्वारा इस प्रित�ा को व्याख्याियत िकया गया है।
05-09 प्रित�ाएँ-
गेलीसरे खागिणत में अिग्रम पाँच प्रित�ाओ ं में ित्रभजु के िसद्धान्तों के आधार पर
गोलीयरे खागिणत के अन्तगर्त चापीय ित्रभजु के िसद्धान्तों का प्रितपादन इन प्रित�ाओ ं के
अनसु ार -
1. समिद्वबाह� ित्रभजु में धरातलगत आधार रे खा पर उत्पन्न दोनों कोण समान होंगें।
2. भलू ग्नगत दोनों कोणों का मान यिद तल्ु य हो तो भलू ग्नगत दोनों भजु ाएँ भी समान होगी।
3. गोलीयचाप से िनिमर्त ित्रभजु में चाप क� दोनों भजु ाओ ं का योग तीसरी भजु ा से अिधक
कहा गया है।
4. चापीय ित्रभजु में तीन भजु ाओ ं का योग 3600 अश ं ों से कम ही होता है।
5. चापीय ित्रकोण में बृहदक ् ोण क� सम्मख
ु भजु ा से लघु कोण के सम्मख ु क� भजु ा लघु
होती है। लधु भजु ा के सम्मख ु िस्थत कोण का मान बड़ी भजु ा के सम्मख ु िस्थत कोण से
छोटा होता है। यथा क्रमशः विणर्त है -
समिद्वबह�ित्रभुजे समानौ
कोणौ भवेतां धरणीिवलग्नौ।।
भूलग्नकोणौ यिद तुल्यमानौ
तदा तु तल्लग्न भुजौ समानौ।।
गोलित्रकोणे भुज युग्मयोग-
स्तृतीयबाहोरिधको िन��ः।।
गोलित्रबाहौ खरसािग्नभागा
दल्पा भुजानामिप सयं ुितः स्यात।् ।
उ�कोणसंमुखभुजाच्च लघु
लर्घुकोणसंमुखभुजि�भुजे
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व्य�ाव्य� गिणत उ�बाह�समं ुखकोणतनु-
लर्घुबाह�संमुखगकोणगितः।।
इन प्रित�ाओ ं के आधार पर िनम्निलिखत िसद्धान्त िसद्ध होते हैं -
1. यिद सरल �ेत्र गोल में स्पशर् करता है तब िबन्दू पर गया ह�आ ित्रज्या सत्रू उस �ेत्र पर
लम्ब�प होता है।
2. िकसी चाप का ध्रवु गत कोण वहीं उस वृ� के ित्रज्यासत्रू द्वय के अन्तर पर कोण मध्य
के न्द्र से चाप प्रान्त पर जाने वाले ित्रज्या सत्रू होते हैं।
3. समानान्तर दो वृ�ों के ध्रवु पर गए ह�ए जो अन्य वृि� द्वय हैं उनके उस अन्तर पर गत
समानान्तर दो वृ�ों का चाप सजातीय अंशों के तल्ु य होता है।
10-14 प्रित�ाएँ-
अिग्रम पाँच प्रित�ाओ ं में क्रमशः िसद्धान्त िसद्ध होते हैं -
1. चापीय ित्रभजु में दो भजु ाओ ं का योग 1800 अश
ं से कम हो, समान हो अथवा अिधक
हो तो दो भजु ाओ ं के सम्मखु कोण क� यिु त 1800 अशं से कम, समान अथवा अिधक
यथाक्रम होगी।
2. िकसी भी चापीय ित्रभजु के कोण िस्थत अथार्त् तीनों कोणों के िबन्दओ ु ं से 900 अश ं के
िजतने वृ� होते हैं उनके परस्पर योग से उत्पन्न दो ित्रभजु ों को िवद्वान् लोग स्पिधर्नी कहते
हैं। एक ित्रभजु का कोण 3600 न�त्रांश का आधा होता है। अथार्त् 1800 अश ं होता है।
सम्मख ु िस्थत अन्य भजु ाओ ं वाले दसू रे ित्रभजु में भजु होता है। साथ ही दसू रे ित्रभजु क�
भजु ाओ ं का 1800 तल्ु य कोणमान होता है।
3. गोलीय चाप के ित्रभजु में तीन कोणों का योग षट् समकोण से न्यनू अथार्त् 5400 से कम
तथा दो समकोण 1800 अश ं से अिधक होता है।
4. गोलपृ� में अपने ध्रवु से इ� िबन्दु के अपने वृ� पयर्न्त िजतने चाप हैं उनके मध्य में
याग्योतरवृ�स्थ चाप का मान समस्त चापों से अिधक होता है।
5. चापजात्य में अथा�त् गोलीय ित्रभजु में यिद भजु 900 अश
ं में कम हो तब उसके सम्मख

के चाप का कोण भी 900 अश ं से कम ही होगा। इस प्रकार से भजु यिद 900 अशं से
अिधक होता उसके सामने का कोण भी नब्बे अंश से अिधक होता है। क्रमशः मल ू
प्रित�ाएँ इस प्रकार है -
गोलित्रबाहौ भुजयुग्मयोगः
खा�ेन्दुतोऽल्प� समोऽिधको वा।
तदा तु दोः सम्मुखकोणयोगः
खा�ेन्दुतोऽल्प� समोऽिधकः स्यात् ।।
एकगोलित्रकोणस्य कोणिस्थतैः
िबन्दुिभमर्ण्डलान्यभ्रनन्दांशकै ः।
यािन तद्योगजातं ित्रकोणं परं
58
ते िमथः स्पिधर्नी क�ितर्ते पिण्डतैः।। गोलीय
एकस्य कोणजबृहत्कोिटः संमुखगोन्यदोः। ित्रकोणिमित का
प�रचयात्मक
िद्वतीयदोबर्ृहत्कोिटरेकस्य स्यात् स कोणकः।। स्व�प
इसी क्रम में -
गोलित्रबाहौ कोणानां योगः षट्समकोणतः।
न्यून एव सदा �ेयः समकोणद्वयािधकः।।
स्वध्रुवान्ये�िबन्दोः स्ववृ�ाविध
स्युिहर् चापािन यानीह तेषां भवेत।्
इ�िबन्दोगर्तं नैजवृ�ध्रुवे
चापमेवािधके सवर्चापोिन्मतेः।।
चतुदर्शी प्रित�ा -
चापजात्ये भुजस्तुयर्भागाल्पकः
सम्मुखस्तस्य कोणोिप तयु ार्ल्पकः।
एवमभ्रांकभागािधक�ेद्भुजः
सम्मुखस्तक्य कोणोिप खांकािधकः।।
15-18 प्रित�ाएँ -
इन चार प्रित�ाओ ं में क्रमशः िनम्निलिखत तथ्य स्प� होते हैं -
यिद गोलीय चाप के ित्रभजु में दोनों भजु ाएं 900 अश
ं से कम अथवा ज्यादा हो तो कणर् का
चाप नब्बे अश
ं से कम होगा। यिद एक भजु 900 अश ं से कम तथा दसू रा भजु 900 अश
ं से
अिधक हो तो नब्बे अश
ं से अिधक वाला भजु ा कणर् कहलाती है।
1. यिद कणर् नब्बे से ज्यादा हो तो उसका भजु िभन्न गणु ी तथा कणर् के नब्बे से न्यनू होने पर
भजु एक गणु ी होता है।
2. यिद भू सलं ग्न आधारगत कोण एक गणु ी हो तो आधार के अन्तगर्त लम्ब का पतन होगा।
ठीक उसी प्रकार आधारगत कोण के िभन्नगणु ी होने पर उस आधार के बाहरी भाग में
लम्ब का पात होगा ऐसा जाने। तद्यथा विणर्त है -
यदा खाकंभागाल्पकौ वािधकौ तौ
भुजौ कणर्चापं तदा खांकतोऽल्पम।्
यदैको नवत्यंशतोऽल्पोऽिधकोऽन्य-
स्तदा चापजात्ये श्रुित खांकगुव�।।
अन्तलर्म्बे चा��य�े भूसंलग्नौ खाकंल्पौ स्तः।
खांगों� का कोणौ चाथो बा�े लम्बे खांकाल्पो�।।
एवमेव स�दश प्रित�ा में लघभु जु ा एवं बृहद्भुजा के मान को प्रितपािदत िकया गया है।
ग्रन्थ क� अिन्तम 18वीं प्रित�ा में आचायर् बतलाते हैं िक अन्यबृहद् वृ�द्वय स्थान में गए ह�ए
अन्य बृहद् एवं लघवु तृ के अन्तगर्त िभन्न-िभन्न चाप समान होते हैं। 59
व्य�ाव्य� गिणत यथा विणर्त है -
लघू�वृ�े बहृ दन्यवृ�द्वय -
ध्रुवस्थानिवलग्नके ये।
तदन्तरस्थे बृहदन्यवृ�-
द्वयस्य चापे भवतः समाने।।

4.5 सरांश
इस प्रकार 08 प्रित�ाओ ं से य� ु गोलीयित्रकोणिमित एवं 18 प्रित�ाओ ं व लगभग 50
प�रभाषाओ ं से य� ु गोलीयरे खागितण ग्रन्थ का स्वयं में िविश� स्थान है । ग्रहगणना एवं ग्रह
अवलोकन में इन िसद्धान्तों का िवशेष �प से िविनयोग िकया जाता है । अत एव ज्योितषशा�
के समस्त अध्ययन पाठ्यक्रम में इन िवषयों का समावेश िकया गया है । िवशेष ग्रन्थ के
प�रिश� में गोलीयित्रकोणिमित एवं गोलीयरे खागिणत क� िविश� प्रित�ाओ ं को पद्यबद्ध करके
भी ग्रन्थकार द्वारा प्रितपािदत िकया गया है। इस प्रकार ज्योितषशा� के गिणतीय िसद्धान्तों में
गोलीयित्रकोणिमित एवं चापीयित्रकोणिमित का अन्यतम स्थान है ।

4.6 प�रभािषक शब्दावली


1. चापजात्य - ऐसा गोलीय ित्रभजु िजसके एक योग 900 अशं का हो।
2. धन�ेत्र - गोल प�रध्यन्तगर्त �ेत्र
3. छे दन - िवभाजन रे खा
4. कोिटज्या - कोिट से ित्रज्या पर क� गई लम्बरे खा।
5. पृ�स्थान - व्यि� का अवस्थल
6. वप्र�ेत्र - दो महद्व�ृ ों के मध्य का �ेत्र
7. धरणी - पृथ्वी/आधार
8. खा�ेन्दतु ः - 1800
9. दोः - भजु
10. उ�कोणः - बृहत्कोण
11. नमन - झक ु ाव
12. सजातीय - समानपु ाती

4.7 बोध प्र�


1. गोलीयित्रकोणिमित के ज्योितषीय िवन्यास पर िनबन्ध िलखे।
2. गोलीयित्रकोणिमित ग्रन्थ के लेखक का प�रचय प्रदान करें ।
3. गोलीयरे खागिणत का प्रितपाद्य समास�प मे िलखें।
60
4. गोलीय ित्रभजु के भजु एवं कोण के सम्बन्धो को स्प� करें । गोलीय
ित्रकोणिमित का
5. गोलित्रबाहौ भजु यग्ु मयोगः तृतीयबाहोरिधको िन��ः। स्प� करें । प�रचयात्मक
6. तृतीय प्रित�ा को प�रभाषा सिहत स्प� करें । स्व�प

7. गोलीयरे खागिणत एवं गोलीयित्रकोणिमित के भेद को स्प� करें ।


8. स्पिधर्नी �ान क� िविध िलखे।

4.8 सहायक ग्रन्थ


1. गोलीयरे खागिणतं चापीयित्रकोणगिणतं च - शारदा सस्ं कृ त संस्थान,वाराणसी ।
2. गोलीयरे खागिणत - हसं ा प्रकाशन जयपरु - श्री भास्करशमार् 2002 ।
3. गोलीयरे खागिणत - चैखम्भा प्रकाशन, वाराणसी।
4. रे खागिणतम् - प्रो0 नागेन्द्र पाण्डेय - शारदा सस्ं कृ त संस्थान, वाराणसी।
5. गोलप�रभाषा - कमलाकान्त पाण्डेय - शारदा सस्ं कृ त संस्थान, वाराणसी।

61
व्य�ाव्य� गिणत
इकाई 5 वैिदक-गिणत का सिं �� प�रचय
इकाई क� �परेखा
5.0 उद्देश्य
5.1 प्रस्तावना
5.1.1 वैिदक गिणत के रचियता जगद्ग�ु स्वामी भारती कृ ष्ण तीथर् जी
5.1.2 वैिदक गिणत का सिं �� प�रचय
5.1.3 सत्रू /प्रमेय
5.1.4 उपसत्रू / उपप्रमेय
5.1.5 वैिदक-गिणत का वैिश�्य
5.2 वैिदक गिणत के िविश� सत्रू ों का िविभन्न सिं क्रयाओ ं में अनप्रु योग
5.2.1 संकलन
5.2.2 व्यवकलन
5.2.3 गणु न
5.2.4 भाजन
5.2.5 वगर्
5.3 सारांश
5.4 पा�रभािषक पद
5.5 सदं भर् ग्रथं
5.6 बोध प्र�

5.0 उद्देश्य
प्रस्ततु इकाई को पढ़ने के बाद परम्परा आप:
• भारतीय �ान परम्परा के वैभव को समझ सकें गे।
• वैिदक गिणत वांग्मय को समझने एवं इसके गंभीरता को प्रितपादन में द�ता प्रा� करें गे।
• वैिदक-गिणत में द� होंगे।
• वैिदक-गिणत के सत्रू ों एवं उप सत्रू ों को जानेंगे।
• वैिदक-गिणत के कितपय िविश� सत्रू ों के प्रितपादन में द� होंगे।
• वैिदक-गिणत में शोध के िलए �िच उत्पन्न होगी।

5.1 प्रस्तावना
भारतीय �ान परम्परा में गिणत को प्राचीन काल से अत्यंत महत्व िदया गया है। के वलमेव
आचायर् परम्परा में ही नहीं अिपतु वेदों में भी अनेकों गिणतीय सत्रू ों का प्रितपादन ऋिषयों ने
62
िवस्तृत �प से िकया है। वैिदक सािहत्य में गिणत के गणना को सम्पािदत करने वाले गणक क� वैिदक-गिणत का
भ�ू र-भ�ू र प्रशसं ा क� गई है। िलखते हैं “यादसे गणकम” अथार्त नृपित को गणनाओ ं के िलए सिं �� प�रचय
गणक क� सहायता लेनी चािहए।
वेदों के बाद वेदांगों में गिणत को वेद प�ु ष का नेत्र कहे जाने वाले ज्योितषशा� के अंतगर्त
स्थान िमला। वस्तुतः गत अध्यायों में हम यह जान चक ु े हैं िक ज्योितषशा� के तीन स्कन्ध हैं।
िसद्धान्त, संिहता तथा होरा। िसद्धान्त स्कन्ध के प�रभाषा को िलखते ह�ए आचायर् भास्कर
िलखते हैं िक-
त्रुट्यािदप्रलयान्तकालकलना मानप्रभेदः क्रमात्
चार�द्युसदां िद्वधा च गिणतं प्र�ास्तथासो�राः।
भूिधष्ण्यग्रहसिं स्थते� कथनं यन्त्रािद यत्रोच्यते
िसद्धान्तस्स उदा�तोऽत्र गिणतस्कन्धप्रबन्धे बध ु ै:।
अथार्त् जहां त्रिु ट से प्रलय पय�त काल क� गणना, िविभन्न प्रकार के प�रमाप का �ान, ग्रहों क�
गित िस्थित आिद का िववेचन, दो प्रकार के गिणत (अक ं गिणत एवं बीजगिणत) का प्रितपादन
तथा िविवध प्रकार के प्र�ों के उ�र सिहत िववेचन तथा यंत्र िनमार्ण के िवस्तृत िविधयों का
वणर्न िजस स्कन्ध में िकया जाता है उसे मनीिषयों ने िसद्धान्त स्कन्ध कहा है।
वस्ततु ः इन दो प्रकार के गिणत को आचाय� ने दैव�ों के िलए अित आवश्यक बताया है। इस
तथ्य को स्प� करते ह�ए आचायर् भास्कर 12 वीं सदी के अपने पस्ु तक िसद्धान्त िशरोमिण में
िलखते हैं िक-
िद्धिवधगिणमु�ं व्य�मव्य�यु�ं
तदवगमिन�ः शब्दशा�े पटी�ः।
यिद भवित तदेदं ज्योितषं भ�ू रभेदं
प्रपिठतुमिधकारी सोन्यशा नामधारी।।
अथार्त् व्य� एवं अव्य� दो प्रकार के गिणत कहे गए हैं। जो इन दो प्रकार के गिणत तथा शब्द
शा� में पारंगत है वही ज्योितषशा� को पढ़ने का अिधकारी है, अन्यथा वह के वल नाम मात्र
का दैव� है।
यहाँ आचायर् गिणत के महत्व को स्प� �प से बताते हैं। इसी के साथ ब्र�ग�ु के ब्रा� स्फुट
िसद्धान्त, आयर्भट्ट के आयर्भटीयम, गिणत कौमदु ी, गिणत सार संग्रह, ित्रशितका इत्यािद
अनेक ग्रंथों में गिणतीय सत्रू ों का प्रितपादन िवशेष �प से िकया गया। इसी क्रम में जगतग�ु
शकं राचायर् भारती कृ ष्ण तीथर् जी का आिवभार्व होता है। िजन्होंने अथवर्वदे के प�रिश� से
सतत यत्न पूवक र् गिणतीय 16 सत्रू ों का संकलन िकया। िजससे गिणतीय समस्याओ ं का हल
बह�त ही सहजयता प्रा� िकया जाता है। इस पस्ु तक को आचायर् ने वैिदक गिणत का नाम िदया।
वस्तुतः वैिदक गिणत कहने से प्रथमतः वैिदक वांग्मय अथार्त वेद एवं वेदांगों में गिणत तथा
िद्वतीय वैिदक गिणत नामक पस्ु तक में प्रितपािदत गिणत का बोध होता है। हमने इसी खडं के
आरंभ के चार अध्याय में ज्योितष �पी वेदांग में विणर्त गिणत का प�रचय प्रा� िकया है। अतः
यहां वैिदक गिणत नामक पस्ु तक में विणर्त गिणत का िवशेष �प से अध्ययन करें गे।
63
व्य�ाव्य� गिणत 5.1.1 वैिदक-गिणत के रचियता जगद्गु� स्वामी भारती कृष्ण तीथर् जी:
जगद्ग�ु स्वामी भारती कृ ष्ण तीथर् जी का जन्म 14 माचर् अट्ठारह सौ चौरासी को तिमलनाडु के
ितिन्नवेली में ह�आ था। इनके िपता जी पी. नृिसंघ शा�ी यहां के िडप्टी कलेक्टर थे। इनके
बचपन का नाम इनके माता िपता ने वेंकटरमण रखा। वेंकटरमण बाल्यकाल से ही अत्यतं
मेधावी तथा अिद्वतीय प्रितभा के धनी थे।15 वषर् क� आयू में धारा प्रवाह संस्कृ त बोलते थे
अतः जल ु ाई 1899 में मद्रास सस्ं कृ त सभा क� ओर से इन्हें "सरस्वती" क� उपािध से िवभूिषत
िकया गया। इन्होंने गिणत आिद 7 िवषयों में एक साथ वषर् 1904 में परास्नातक क� उपािध
प्रा� क�। श्री वेंकटरमण ने बड़ौदा कालेज में अध्यापन का कायर् भी िकया। महिषर् अरिवदं भी
आपके समकालीन उसी कॉलेज में दशर्नशा� के अध्यापक थे। सन उन्नीस सौ पाच ं में
भारतीय स्वाधीनता आदं ोलन को गित देते ह�ए वेंकटरमन तथा महिषर् अरिवदं ने अनेकों
ओजस्वी भाषणों से िविवध सभाओ ं को संबोिधत िकया िजसके फलस्व�प अग्रं ेजी ह�कूमत
को भय सताने लगा तथा अतं तोगत्वा इन्हें इसके िलए किठन समस्याओ ं का सामना करना
पड़ा।
आपका व्यि�त्व महिषर् अरिवंद के सािनध्य में आकर अत्यंत आध्याित्मक हो गया था आपने
श्रृगं रे ी के शक
ं राचायर् सिच्चदानदं िशव अिभनव नरिसहं सरस्वती जी के सािन्नध्य में यौिगक
साधना के पथ पर अग्रस�रत ह�ए। अध्यात्म का प्रभाव आपके ऊपर इतना तीव्र था िक आपने
परु ी शारदापीठ के जगद्ग� ु शंकराचायर् ित्रिवक्रम तीथर् जी द्वारा 4 जल
ु ाई 1919 को सन्यास क�
दी�ा ग्रहण क�। उस समय आपका एक नवीन नामकरण भारती कृ ष्ण तीथर् ह�आ।
शकं राचायर् जी ने वषर् 1925 में आपको शक ं राचायर् के पद पर अिभषेक िकया। इसी के कुछ
िदनों बाद आपने एक सभा को संबोिधत करते ह�ए स्वाधीनता के स्वर को अत्यंत मजबूत
िकया। िजसके फलस्व�प आपको तत्कालीन अग्रं ेजी ह�कूमत ने जेल में डाल िदया परंतु
सन्यासी तो अनवरत ब्र� क� खोज में रहते हैं आपने उस जेल के एकांत को भी अपने तपस्या
का साधन बनाते ह�ए अथवर्वेद के प�रिश� से गिणत के अद्भुत 16 सत्रू ों का प्रितपादन िकया।
िजन सत्रू ों से बड़ी-बड़ी समस्याओ ं का समाधान सहायता प्रा� िकया जा सकता है।
भारती कृ ष्ण तीथर् जी ने लगभग 5000 पृ� का एक िवशालकाय ग्रंथ “वडं सर् ऑफ वैिदक
मैथमेिटक्स” क� रचना क�। िजसने समस्त िव� के ध्यान को भारतीय मनीषा क� ओर आकृ �
िकया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा भारतीय �ान परम्परा में अपने अतल
ु नीय योगदान को
देते ह�ए आपने 2 फरवरी 1960 को िशव सायज्ु य को प्रा� िकया।
5.1.2 वैिदकगिणत का सिं �� प�रचय
परु ी के गोवधर्न पीठ के आमख ु पटल पर दी ह�ई सचू ना के अनसु ार स्वामी जी ने वैिदक गिणत
के 16 सत्रू ों के िलए 16 खंड िलखें और उनक� पांडुिलिपयां उनके िकसी िशष्य के पास जमा हैं
ऐसा स्वामी जी स्वयं कहा करते थे। दभु ार्ग्यवश वे 16 खडं पणू र् �प से न� हो गए और इस
िवशालकाय ग्रंथ क� हानी क� पिु � सन 1956 में ह�ई। 1957 में अमे�रका में स्वामी जी ने
अपनी स्मृित से 16 सत्रू ों का उल्लेख करते ह�ए वैिदक गिणत पस्ु तक का पनु ः िनमार्ण िकया उस
समय स्वामी जी अपने अवस्था के कारण अस्वस्थ तथा कमजोर हो चुके थे लेिकन इसके
बावजदू भी उन्होंने डेढ़ माह में उस पस्ु तक को पणू र् िकया। 1960 में स्वामी जी द्वारा िलिखत
वैिदक गिणत पस्ु तक क� टाइप प्रित अमे�रका से मगं वाई गई।
64
स्वामी भारती कृ ष्ण तीथर् जी के वैिदक गिणत या वेदों के सोलह सरल गिणतीय सत्रू के संदभ� वैिदक-गिणत का
को इकट्ठा कर वासदु वे शरण अग्रवाल जी ने सत्रू ों तथा उप सत्रू ों क� सचू ी ग्रथं के आरंभ में सिं �� प�रचय
अधो िनिदर्� प्रकार से दी है।
5.1.3 सूत्र/प्रमेय
1. एकािधके न पवू ण�
2. िनिखलं नवत�रमं दशतः
3. ऊध्वर्ितयर्ग्भ्याम्
4. परावत्यर् योजयेत्
5. शन्ू यं साम्यसमच्ु चये
6. (आन� ु प्ये) शन्ू यमन्यत्
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम्
8. परू णापूरणाभ्याम्
9. चलनकलनाभ्याम्
10. यावदनू म्
11. व्यि�समि�ः
12. शेषाण्यंकेन चरमेण
13. सोपान्त्यद्वयमन्त्च्यम्
14. एकन्यनू ेन पवू ण�
15. गिु णतसमच्ु चयः
16. गणु कसमच्ु चयः
5.1.4 उपसूत्र/ उपप्रमेय
1. आन� ु प्येण
2. िशष्यते शेषसं�ः
3. आधमाधेनान्त्यमन्त्येन
4. के वलैः स�कं गण्ु यात्
5. वे�नम्
6. यावदनू ं तावदनू म्
7. यावदनू ं तावदनू ीकृ त्य वग� च योजयेत्
8. अन्त्ययोद्दर्शके ऽिप
9. अन्त्ययोरे व
10. समच्ु चयगिु णतः
11. लोपनस्थापनाभ्याम्
65
व्य�ाव्य� गिणत 12. िवलोकनम्
13. गिु णतसमच्ु चयः समच्ु चयगिु णतः
14. ध्वजाकं
5.1.5 वैिदक गिणत का वैिश�्य
सामान्य जनमानस के बीच गिणत किठन िवषय रहा है।परंतु भारतीय गिणत�ों ने सदैव इसे
मनोरंजन का िवषय समझते ह�ए इसे सहज बनाने क� प्रिक्रया पर िवचार िकया है। भास्कराचायार्
जी ने तो यहाँ तक कहा िक त्रैरािशक को ही पािट गिणत अथार्त् अक ं गिणत तथा िवमल बिु द्ध
ही बीजगिणत है। ग्रंथ क� रचना तो सामान्य जनमानस के िलए आवस्यक है। इन्ही तथ्यों को
ध्यान में रखते ह�ए गिणत को �िचकर एवं सहज बनाने हेतु आचाय� ने लीलावती, बीज
गिणत, गिणत सार सग्रं ह, ित्रशितका आिद अनेकों गिणत के ग्रथं ों क� रचना क�।
परन्तु बड़ी गड़नाओ ं को हल करने क� समस्या िनतांत बनी रही। इसी क्रम में जगद्ग�ु भारती
कृ ष्ण तीथर् जी ने वैिदक गिणत नामक ग्रंथ क� रचना क�। इस ग्रंथ में सोलह सत्रू ों के माध्यम से
बड़ी बड़ी गिणतीय सिं क्रयाएँ सहज हो गई।ं वैिदक गिणत के प्रत्येक सत्रू एकािधक संिक्रयाओ ं
में प्रय�
ु हो सकते हैं। इससे अक ं गिणत, बीजगिणत, रे खागिणत, चल रािश कलन आिद के
समस्याओ ं को पलक झपकते ही हल िकया जा सकता है।यह िवशेष �प से सख्ं याओ ं के
प्रकृ ित पर बल देता है।

5.2 वैिदक गिणत के िविश� सत्रू ों का अनप्रु योग


इन सत्रू ों तथा उप सत्रू ों के द्वारा बड़ी-बड़ी गिणतीय संिक्रयाओ ं को सहजतया सम्पािदत िकया
जा सकता है। आइऐ उदाहरण स्व�प कुछ सत्रू ों तथा उनके प्रयोगों को समझने का प्रयास करते
हैं।
5.2.1 संकलन
वैिदक गिणत में जोड़ एवं घटव के िलए अनेकों सत्रू िवद्यामान हैं। जैसे :- परू णापूरणाभ्याम,्
संकलनव्यवकलनाभ्यां तथा एकािधपवू ण� आिद। हम सवर्प्रथम ‘‘परू णापूरणाभ्याम’् ’ इस सत्रू
को समझते हैं। इस िविध का प्रयोग बड़ी गणनाओ ं के िलए िकया जाता है। इसका आशय है
आधार अक ं का १० के गणु क में पूणतर् ा। उसमें पूणर् आधार बनाने वाली सख्ं याओ ं को
िमलाकर िवशेष कर बड़ी सख्ं याओ ं के गणना को आसान बनाया जाता है। पणू र् आधारी बनाने
वाले सख्ं याओ ं के यग्ु म को हम अधोिनिदर्� प्रकार से समझ सकते हैं। जैसे –
० और १० परू क हैं क्योंिक ०+१०=१०
१ और ९ परू क हैं क्योंिक १+९=१०
२ और ८ परू क हैं क्योंिक २+८=१०
३ और ७ परू क हैं क्योंिक ३+७=१०
४ और ६ परू क हैं क्योंिक ४+६=१०
५ और ५ परू क हैं क्योंिक ५+५=१०
66
अब जोड़ने के िलए क्रम को समझते हैं। वैिदक-गिणत का
सिं �� प�रचय
जैसे –
सवर्प्रथम उन संख्याओ ं को पहचानने का प्रयास करते हैं िजन्हें यिद जोड़ िदया जाए तो पणू र्
संख्या प्रा� होती है।
अब इन जोड़ों को पनु : व्यविस्थत कर उपरो�ानसु ारर जोड़े बनाते हैं। आइए इस उदाहरण को
समझते हैं।
26+59+394+66+11+14=?
हल:- यहाँ इन सख्ं याओ ं को ध्यान से देखने से �ात होता है िक यिद इन्हें आपस में जोड़ िदया
जाए तो पणू र् संख्या �ात हो जाएगी। जैसे ५९ एवं ११ को जोड़ने से ७० पणू र् संख्या प्रा� होगी।
इसी प्रकार ३९४ + ६६ करने पर भी पणू र् सख्ं या प्रा� होती है।
दसू रे चरण में इन जोड़ों को व्यविस्थत क्रम में रख देते हैं। जैसे –
(26+14) + (59 + 11) + (394 + 66)
= 40 + 70 + 460
= (40 + 460) + 70
= 500 + 70
= 570
अब दसू रे सत्रू ‘‘संकलनव्यवकलनाभ्यां’’ सत्रू के सहायता से जोड़ना सीखते हैं।
इस सत्रू में दो शब्द िमिश्रत हैं। प्रथम संकलनन एवं िद्वतीय व्यवकलन। इस सत्रू को हम उन
सख्ं याओ ं के साथ प्रयोग कर सकते हैं जहाँ सख्ं याओ ं के यग्ु म आधार नहीं बनाते। यहाँ संख्या
को दो भागों में तोड़ कर गणना करते हैं।
जैसे : -
27 = 20 + 7 या 30 -3
39= 40-1 या 30+9
543 = 550-7 या 500 + 40 + 3
िवभाग करने का कायर् अपनी सगु मता या इच्छा के अनसु ार िकया जाता है।
अब इसे एक उदाहरण के माध्यम से प्रयोग करते हैं। जैसे –
324+296+159+43
हल – 300+20+4+300-4+150+9+50-7
=(300 + 300 + 150+ 50) + (20 + 4– 4+ 9 - 7)
=800 + 22
=822 उ�र

67
व्य�ाव्य� गिणत 5.2.2 व्यकलन
व्यवकलन का तात्पयर् घटने से है। घटाने के िलए वैिदक गिणत के अनेकों सत्रू कारगर हैं। कुछ
के माध्यम से हम इसे सहजतया समझने का प्रयास करते हैं। ‘‘िनिखलं नवत�रमं दशत:’’ इस
सत्रू से व्यवकलन कमर् अत्यिधक शीघ्रतापवू क
र् िकया जा सकता है। इस सत्रू का अथर् है सभी 9
से तथा अिन्तम दस से। दस के गणु जों में से यिद घटाव का कायर् करना है तो इस िविध से
सरलतम कोई िविध नहीं है। सवर्प्रथम हम
• पहले चरण में दािहने ओर से गणना आरम्भ करते हैं।
• बाई ंओर के प्रत्येक शन्ू य के बदले ९ रखते हैं तथा अिन्तम शन्ू य के जगह १० रख देते हैं।
• सबसे बाएँ वाले अक
ं को एक कम कर दते हैं।
• अब फाटाफट घटा लेते हैं। जैसे –
10000 - 425=?
10000
-425
-----------
99910
- 425
-----------
9575 उ�र
40000 – 1172
हल : - 40000 399910
-1172 -1172
? 38828
5.2.3 गुणन
गणु न के िलए वैिदक गिणत में मख्ु य�प से अधोिनिदर्� सत्रू हैं। यथा –
• अत्ं ययोदर्शके ऽिप
• िनिखलं नवत�रमं दशत:
• अन�
ु प्येण
• एकन्यनू पवू ण�
• अत्ं ययोशतके ऽिप
• ऊध्वर्ितयर्ग्भ्याम्
इन सत्रू ों को िविभन्न गिणतीय प�रिस्थितयों में प्रयोग करते हैं।
1. जहाँ गण्ु य एवं गणु क के इकाई स्थान के संख्याओ ं का योग 10 हो तथा शेष संख्याएँ
68 समान हों।
2. जब गण्ु य आधार सख्ं या के समीप हो तथा आधार सख्ं या 10 से पणू � र् पेण िवभािजत हो वैिदक-गिणत का
जाए। सिं �� प�रचय
3. यह एक उपसत्रू है। जब गण्ु य या गणु क 10 के घात से पयार्� �प से िभन्न हों।
4. जहाँ गणु क के सभी अंक 9 हों।
ऐसी तीन प�रिस्थितयाँ हो सकती हैं।
● जहाँ गण्ु य एवं गणु क दोनों में सख्ं याएँ समान हों।
● जब गणु क के अक
ं ों क� संख्या गण्ु य से अिधक हों।
● ठीक उपरो� के िवपरीत जब गणु क के अक ं ों क� सख्ं या गण्ु य से कम हो।
5. जहाँ गण्ु य एवं गणु क के इकाई तथा दहाई के अक ं ों का योग 100 हो तथ बाक� के अक

समान हों।
6. यह सत्रू गणु न के प्रत्येक �प में प्रय�
ु होते हैं।
इस सत्रू के द्वारा गणु न प्रिक्रया को समझते हैं।
प्रथम सत्रू उदाहरण –
26
× 24

इसमें सवर्प्रथम इकाई के अक


ं ों का गणु न कर िलख देते हैं।
6 × 4 = 24 पनु : गणु क के अिन्तम अक ं में 1 जोड़ कर गण्ु य से गणु ांक कर िलख देने से
गणु नफल प्रा� हो जाता है। 2 + 1 = 3 × 2 = 6 अत: गणु नफल= 624
62
× 68
4216
इसे भी पवू �� प्रकार से हल िकया जा सकता है।
िद्वतीय सत्रू का उदाहरण –
‘‘िनिखलं नवत�रमं दशत:’’
इस सत्रू का उपयोग उस अवस्था में िकया जाना अिधक सहज होता है जब गण्ु य एवं गणु क के
अक ं आधार संख्या के अिधक समीप हों। इस िविध में सवर्प्रथम गण्ु य एवं गणु क का आधार
सख्ं या से अन्तर िनकलाते हैं और उसे गण्ु य तथा गणु क के ठीक बाद िलखते हैं। प�रणाम दो
िहस्सों में प्रा� होंगे। पहला दाएँ िलखी गई संख्याओ ं को हल करने से प्रा� प�रणाम तथा दसू रा
बाएँ ओर िलखी सख्ं याओ ं को हल करने से प्रा� प�रणाम। दािहने िहस्से में प्रा� अक ं ों क�
सख्ं या आधार अक ं में िवद्यमानन शन्ू य क� िगनती के बराबर होगी।
जैसे यिद आधार सख्ं या 100 है िजसमें दो शन्ू य िवद्यमान हैं◌ं अत: दाएँ ओर क� सख्ं या कम
69
व्य�ाव्य� गिणत है तो उसमें शन्ू य लगाकर आधार सख्ं या में उपलब्ध शन्ू यों क� सख्ं या के बराबर कर लेंगे। इसे
हम िनम्निलिखत चाटर् के माध्यम से समझने का प्रयत्न करते हैं।
आधार सख्ं या गणु नफल से प्रा� अक
ं ों क� सख्ं या
10 0
100 00
1000 000
10000 0000
100000 00000
1000000 000000
10000000 0000000
100000000 00000000
एक उदाहरण से इस सत्रू को समझते हैं।
जैसे : - 9 × 8= ?
पहले सख्ं याओ ं को 9 इस प्रकार से िलखते हैं।
×8
अब दोनों सख्ं याएँ 10 के करीब हैं अत: 10 को आधार सख्ं या के �प में लेते हैं और आधार
संख्या से उनके अन्तर को संख्याओ ं के दाई ओर िलखते हैं।
9 – 1
8 – 2
अब िकन्ही दो सख्ं याओ ं को ितरछा अतं र करते हैं और बाई ंओर िलख देते हैं।
9 - 1
8 - 2
7 -
पनु : दाएँ तरफ के अक
ं ों को आपस में गणु ा कर दाएँ ओर िलख देते हैं।
9 - 1
8 - 2
7 2
अत: गणु नफल 72 प्रा� ह�आ। यहाँ दोनों संख्याएँ आधार संख्या से कम थीं इस िलए ऋण (-)
का िचन्ह लगाया गया है। यिद दोनों सख्ं याएँ यिद आधार संख्या से अिधक होतीं तो बीच में +
का िचन्ह देते और ऋण करने क� जगह धन िकया जाता।
बीजगिणतीय गणु न को भी हम वैिदक गिणत के सत्रू ों से सहजतया हल कर सकते हैं। जैसे
िद्वपद समीकरण के गणु ा को हम लेते हैं –
70
X + 2y एवं 3x + 4y को गणु ा करना है। तो यिद जो आधिु नक िविध है प्रथमतया इसके वैिदक-गिणत का
माध्यम से हल करते हैं – सिं �� प�रचय

x + 2y
3x + 4y
= 4y(x+2y) + 3x(x+2y) िवतरण िनयम
= 4xy + 8y2 + 3x2+6xy
= 3x2+10xy+8y2 यह हल प्रा� होता है।
परन्तु वैिदक गिणत क� िविध से इसे सहजतया हल िकया जा सकता है। इस गणु न को
‘‘ऊध्वर्तीयर्ग्भ्याम’् ’ सत्रू के सहायता से हल करते हैं।
x y
1 2
3 4
3 /4+6/ 8
अब दािहनी ओर से अक
ं ों के साथ अ�रों का िवन्यास करते हैं।
जैसा िक हम जानते हैं िक –
X + y का लम्बवत् गणु नफल 8 है तो y2 को 8 के साथ िलखेंगे।
X एवं y को ितरछा गणु न करने पर गणु नफल 10 प्रा� होता है तो xy को 10 के साथ िलखेंगे।
x एवं x को गणु ा करने पर 3 प्रा� होता है तथा यह x2 का गणु ांक है तो उसे 3 के साथ
स्थािपत करें गे। इस प्रकार उ�र होगा –
3x2+10xy+8y2
5.2.4 भाजन
भाजन का तात्पयर् भाग देने से है। िकसी संख्या का भाजक द्वारा िवभाग ही भाग या भाजन कमर्
कहा जाता है। इसे हम गणु न के िवपरीत प्रिक्रया के �प में भी व्याख्याियत कर सकते हैं। एक
उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। जैसे –
20/4 = 5
इसका तात्पयर् है िक 4×5 = 20
सामान्य प्रिक्रया से भाजन का कायर् किठन तथा समयापेि�त है। परन्तु वैिदक िविध से इसे एक
पंि� में ही पूणर् िकया जा सकता है। एक बार परम्परागत िविध को उदाहरण से समझते हैं।
इसके बाद वैिदक िविध के उदाहरणों को ससत्रू हल करने का प्रयास करें गे। तो 5220 / 5 को
परम्परागत िविध से हल करते हैं।

71
व्य�ाव्य� गिणत 5 5220 1044
-5
× 22
- 20
× 20
- 20
xx
ऊध्वर् तीथर्ग्भ्याम् इस िविध को गणु न में हम पढ़ चक
ु े हैं। इसे ही वैिदक गिणत में ध्वजाक
ं िविध
भी कहा जाता है। इस िविध से भाजन के कायर् के उदाहरण को समझते हैं। पनु : आगे भा◌ाग
क� अनेकों िविधयाँ सीखेंगे। उदाहरण –
43854 / 54 =?
हल – 54 433851 14
812 6
भागफल = 812 , शेष = 6
प्रथम िविध के िलए हम सब िनिखलम् सत्रू को लेते हैं। अपे�ा है िक यह सत्रू आपको स्मरण
होगा ‘‘िनिखलम नवत�रमं दशत:’’। गणु न में इसे हम प्रयोग कर चक ु े हैं। यहाँ भाग िक
प्रिक्रया में भी इस सूत्र का प्रयोग करते हैं। इस सत्रू का प्रयोग अधोिलिखत चरणों में करते हैं –
सवर्प्रथम भाजक के सवार्िधक िनकट आधार सख्ं या का चयन करते हैं। भाजक आधार संख्या
से िजतना कम होगा अथार्त भाजक एवं आधार सख्ं या के अन्तर को परू क कहते हैं। इस परू क
को भाज्य सख्ं या के नीचे िलखते हैं।
● भाज्य संख्या के सबसे दाएँ ओर के अक ं /अकं ों को भाजक संख्या के अक
ं ों के बराबर
सख्ं या में अलग करते हैं। अलग करने के िलए हम एक ऊध्वार्धर रे खा का प्रयोग कर
सकते हैं। अब दाएँ ओर का संख्या समहू शेषफल समहू एवं रेखा के बाएं ओर का समहू
भागफल समहू कहा जाता है।
● शेषफल में प्रा� सख्ं या आधार सख्ं या में प्रा� शन्ू य क� सख्ं या के बराबर होगी।
● भाजक के पहले अक ं को दसू रे स्तम्भ में रखने पर भागफल का प्रथम अक ं प्रा� हो जाता
है। पनु : भागफल के अक
ं को परू क अक ं से गणु ा करते हैं और भाज्य वाले स्तम्भ में पहले
अक ं के आगे रख देते हैं।
● भागफल के अन्य अक
ं ों को प्रा� करने के िलए दसू रे स्तम्भ के अंकों का योग कर के
िलखते हैं।
● यह प्रिक्रया तब तक चलती रहेगी जब तक िक शेष भाजक सख्ं या से न्यनू ना प्रा� हो
जाए। इसे हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं।

72
प्र�: 22 / 8=? वैिदक-गिणत का
सिं �� प�रचय
भाजक = 8 2/2
परू क = 2 4 (भागफल x परू क )
2 /6
भागफल =2 , शेष = 6
हमारा भाजक आधार सख्ं या १० से २ कम है।अतः पूरक सख्ं या को २ िलखते हैं।यहाँ यह भी
स्प� है िक आधार संख्या १० में एक ही शन्ू य है अतः दािहने से एक संख्या बाद एक “/” का
िचन्ह लगाकर इसे अलग कर िलया गया।
भाज्य के पहले अक ं को नीचे ले आएँग।े यही भागफल का पहला अक ं होगा।पनु ः प्रथम अक

को परू क सख्ं या से गनु ा करते हैं और प्रा� गणु नफल भाज्य वाले स्तम्भ में पहले अकं के बग़ल
में स्थािपत करते हैं।
अब शेषफल वाले स्तम्भ के दोनों अक
ं ों का योग कर के िलख देते हैं।अब यहाँ िवभाजन का
क्रम परू ा हो जाता है।
5.2.5 वगर्
वगर् का अथर् है समिद्वघात अथार्त् िकसी सख्ं या को उसी सख्ं या से गणु ा करना। उदाहरण
स्व�प a का वगर् = a x a। वगर् के िलए अधोलोिखत सत्रू कारगर हैं-
एकािधके न पूवण� : इस सत्रू का प्रयोग हम वहाँ सहजतया कर सकते हैं जहां इकाई स्थान क�
संख्या 5 हो।जैसे 25 का वगर् करना अभी� हो तो-
पहले 5 का वगर् कर दाएं ओर िलख देते हैं तो 5 का वगर् 25 होगा। तदनंतर बाएं तरफ के अक

दो में एक अिधक यानी 3 से गणु ा कर िलख देंगे जो िक 6 ह�आ। तो वगर् प्रा� हो जाएगा
25 का वगर् =625
यावदनू म:् इस सत्रू को हम उस प�रिस्थित में अत्यतं लाभकर पाएगं े जब वगर् के िलए दी ह�ई
संख्या आधार सख्ं या के करीब होगी। अब इस सूत्र के प्रयोग को हम समझते हैं। सवर्प्रथम यह
बात ध्यान देने योग्य है िक इसमें उ�र दो भागों में प्रा� होता है। प्रथम दायां भाग एवं िद्वतीय
बाया भाग। दायां भाग = संख्या के अतं र का वगर्। इस तथ्य को भी हम पहले के सत्रू ों में समझ
चकु े हैं िक दाएं भाग में अक ं ो क� सख्ं या उतनी ही होगी िजतनी आधार सख्ं या में शन्ू यों क�
सख्ं या है। यिद दाएं भाग में अक ं ो क� सख्ं या कम पड़ रही हो तो अक ं ों के बाएं ओर उतना ही
शन्ू य लगा लेंगे। अब हम एक उदाहरण के माध्यम से इस प्रयोग को समझते हैं।
प्र� - 12 का वगर् क्या होगा?
12 में आधार संख्या 10 लेते हैं, क्योंिक यह 10 के करीब है।
अतं र = 12 - 10 = 2
(12)2 = 12 + 2 / 22
= 14/4
= 144 उ�र।
73
व्य�ाव्य� गिणत इसी प्रकार एक दसू रा प्र� लेते हैं।16 का वगर् क्या होगा?
हल: यह सख्ं या भी आधार सख्ं या दस के समीप है। अतः प्रथम चरण में भी आधार सख्ं या
तथा मल
ू संख्या का अतं र कर लेते हैं। अतः 16-10 = 6
=16 + 6 / 62
=22/36
हम जानते हैं िक आधार सख्ं या 10 में एक शन्ू य है, अतः दाएं ओर अंकों क� संख्या 1 होनी
चािहए। अतः 36 में से 3 को बाएं ओर क� सख्ं या में जोड़ देते हैं।
= 256
अतः 16 का वगर् 256 प्रा� ह�आ।
इसी प्रकार इन सत्रू ों के माध्यम से अंक गिणत, बीज गिणत तथा ज्यािमित आिद गिणतीय
समस्याओ ं का हल सहजतया प्रा� िकया जा सकता है।

5.3 सारांश
भारत में प्राचीन काल से ही गिणत िवद्या को अत्यिधक उत्कृ � स्थान प्रा� है। इस भिू म पर
आयर्भट्ट ब्र�ग�ु भास्कराचायर्, श्रीिनवास रामानजु न, बापदू ेव शा�ी तथा सधु ाकर िद्ववेदी
सिहत अनेकों िवद्वान ह�ए िजन्होंने भारतीय गिणत क� परम्परा को आगे बढ़ाया। यह तथ्य
सवर्िविदत है िक गिणत को िसद्धान्त स्कन्ध के अतं गर्त रखा गया है। वैिदक गिणत कहने से दो
तात्पयर् स्प� होते हैं- प्रथम वैिदक वाग्ं मय अथार्त वेद एवं वेदांगों में विणर्त गिणत तथा िद्वतीय
वैिदक गिणत नामक में पस्ु तक में प्रितपािदत गिणत।
इसके पवू र् के अध्यायों में हमने वेदांगों में विणर्त गिणत के िविवध प�ों को देखा पढ़ा तथा
समझा है। इस अध्याय में हमने वैिदक गिणत नामक पस्ु तक में विणर्त गिणत का प�रचय प्रा�
िकया। वैिदक गिणत क� रचना स्वामी भारती कृ ष्ण तीथर् जी ने क� थी। परु ी के गोवधर्न पीठ के
अनसु ार स्वामी जी कहते थे िक उन्होंने 16 सत्रू ों के िलए 16 खंड िलखें और वे 16 अखंड
उनके िकसी िशष्य के पास सुरि�त रखें हैं। दभु ार्ग्यवश वे 16 खंड पणू � र् पेण न� हो गए। वषर्
1957 में अमे�रका में स्वामी जी ने अपनी स्मृित से 16 सत्रू ों का उल्लेख करते ह�ए पनु ः वैिदक
गिणत का िनमार्ण िकया। िनमार्ण काल में स्वामी जी अत्यंत ही कमजोर हो चक ु े थे, इसके
बावजदू उन्होंने इस कायर् को डेढ़ महीने में पणू र् िकया। उस समय स्वामी जी का प्रवास
अमे�रका में था। वषर् 1960 में स्वामी जी के द्वारा िलिखत वैिदक गिणत पस्ु तक क� प्रित
अमे�रका से मगं ाई गई। वैिदक गिणत में गिणतीय समस्याओ ं के समाधान हेतु 16 सत्रू तथा 13
उपसत्रू िदए गए हैं। इन 16 सत्रू ों को प्रमेय तथा उप सत्रू ों को उपप्रमेय क� स�ं ा दी गई है।
सूत्र उपसूत्र
1. एकािधके न पवू ण� ○ आन� ु प्येण
2. िनिखलं नवत�रमं दशतः ○ िशष्यते शेषसं�ः
3. ऊध्वर्ितयर्ग्भ्याम् ○ आधमाधेनान्त्यमन्त्येन
4. परावत्यर् योजयेत् ○ के वलैः स�कं गण्ु यात्
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5. शन्ू यं साम्यसमच्ु चये ○ वे�नम् वैिदक-गिणत का
सिं �� प�रचय
6. (आन� ु प्ये) शन्ू यमन्यत् ○ यावदनू ं तावदनू म्
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम् ○ यावदनू ं तावदनू ीकृ त्य वग� च योजयेत्
8. परू णापरू णाभ्याम् ○ अन्त्ययोद्दर्शके ऽिप
9. चलनकलनाभ्याम् ○ अन्त्ययोरे व
10. यावदनू म् ○ समच्ु चयगिु णतः
11. व्यि�समि�ः ○ लोपनस्थापनाभ्याम्
12. शेषाण्यंकेन चरमेण ○ िवलोकनम्
13. सोपान्त्यद्वयमन्त्च्यम् ○ गिु णतसमच्ु चयः समच्ु चयगिु णतः
14. एकन्यनू ेन पवू ण� ○ ध्वजांक
15. गिु णतसमच्ु चयः
16. गणु कसमच्ु चयः
इन सत्रू ों से बड़ी बड़ी गिणतीय िक्रयाओ ं को बड़ी सहजता से हल िकया जा सकता है।

5.4 पा�रभािषक शब्द


• अ� प�रकमर्- जोड़ घटाव गणु ा भाग वगर् वगर्मल
ू घनमल
ू को समेिकत �प से अ� परीकमर्
क� स�ं ा दी गई है।
• वैिदक गिणत- वेदों में विणर्त गिणतीय संिक्रयाए।ं
• वैिदक वांग्मय- वैिदक वांग्मय का तात्पयर् वैिदक सािहत्य से है। िजसमें संिहता, ब्रा�ण,
आरण्यक, उपिनषद तथा वेदागं ों क� गणना क� जाती है।
• गण्ु य- वह सख्ं या िजसमें गणु ा करना है।जैसे 25 x 5 में 25 गण्ु य है।
• गणु क- वह सख्ं या िजससे गनु ा करना है । जैसे 25 x 5 में 5 गणु क है।
• बीज गिणत- बीजगिणत गिणत का वह अगं है िजसमें संख्याओ ं के साथ-साथ अ�रों का
भी िवन्यास गिणतीय संिक्रयाएं के िलए िकया जाता है।

5.5 संदभर् ग्रंथ


• https://govardhanpeeth.org/hi/humare-bare-me/bharti-krishna-tirthji-hi
• https://rashtriyashiksha.com/swami-bharati-krishna-tirtha-and-vedic-
mathematics/
• https://hi.wikipedia.org/wiki/वैिदक_गिणत_(पस्ु तक),

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व्य�ाव्य� गिणत
• वैिदक गिणत, स्वामी भारतीकृ ष्णतीथर् जी महाराज, सम्पादक- वासदु ेव शरण अग्रवाल,
अनवु ादक- एयर वाइस माशर्ल िव�मोहन ितवारी, मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन,
िदल्ली
• िवद्यािथर्यों हेतु वैिदक गिणत, राजेश कुमार ठाकुर, प्रभात प्रकाशन, नई िदल्ली।

5.6 बोध प्र�


1. स्वामी भारती कृ ष्ण तीथर् जी के गिणतीय अवदान को िलखें।
2. वैिदक गिणत का प�रचय एवं वैिश�्य िलखें।
3. गणु न के सत्रू ों को सोदाहरण िलखें।
4. वगर् िनकालने क� प्रिक्रया क� व्याख्या करें ।
5. िनिखलं नवत�रमं दशतः सत्रू क� सोदाहरण व्याख्या करें ।

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