Meri Priya Kahaniyaan (Hindi) - Chitra Mudgal - 2014 - Rajpal & Sons - Anna's Archive

You might also like

Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 120

पाठक जानना चाहते ह क मनु य के क से-कहा नयाँ रचने-गढ़ने वाले

मनु य क जमात म मेरा आना कैसे स भव आ! आ खर यही रा ता


य चुना मने, क यही मेरा ग त है और इसी का अवगाहन मेरी
साथकता है। कहा नयाँ कहाँ से आती ह मेरे पास! कहा नयाँ वयं
चलकर आती ह या मुझे उनक खोज म नकलना पड़ता है, आखेटक
शकारी क भां त? च लए, इतना ही पया त होगा ज ासु के लए क
म यही भर बता ँ क आ खर ढे र कहा नय म से मेरी य कहा नयाँ
कौन-कौन सी ह। अ य क ब न बत वे कहा नयाँ य ह तो उनके य
होने के कुछ वशेष कारण भी ह गे।
मेरी य
कहा नयाँ

च ा मुदगल

ISBN: 978-93-5064-127-9
सं करण: 2013
© च ा मुदगल

MERI PRIYA KAHANIYAN (Stories)
by Chitra Mudgal

राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ली-110006
फोनः 011-23869812, 23865483, फै सः 011-23867791
website: www.rajpalpublishing.com
e-mail: sales@rajpalpublishing.com
भू मका
मनु य का ज मदाता य द मनु य ही है तो इस त य से मुँह मोड़ना स भव नह है
क धरती के व मयकारी, ज टल भौगो लक न शे पर, क से-कहा नय का ज मदाता
भी वयं मनु य ही है। क से-कहा नयाँ, गीत-क वता मनु य के धरती पर ज मने से पहले
नह ज म । यह भी उजला सच है क क वता, कहानी को ज म दे ने के लए मद को न
औरत क कोख का सहारा लेना पड़ा न औरत को मद क ज़ रत महसूस ई। उनक
चेतना ही क वता कहानी क कोख थी। संवेदना उसक अ भ का आधार। मा यम
बने श द। कंठ से फूटे वर को उसने वणमाला क सरगम म परोकर बो लय को ज म
दया। भाषा न ज़ बन गई और न ज़ म वा हत धड़कन का उतार-चढ़ाव जीवन क
लय।
लय जब-जब अ थर और बेचैन ई, मनु य के चेतन ने उसे वयं को टटोलने,
खंगालने-पहचानने और आ म करने के लए बा य कया। चेतन ने ही उसे मनु य के
ारा, मनु य के व रचे जाने वाले अमानवीय ष ं के त तरोधी वर बुल द
करने का साहस परोया। कहा नय को ज म दे ने वाला भी वही, कहा नयाँ बुनने वाला
भी वही। कहा नय का पाठक भी वही।
यह सल सला स दय से अनवरत जारी है।
वतमान उससे अछू ता नह । उसी के ारा न मत नए-नए सं मण से जूझता और
उसी के नदान के लए च तत। उसी वतमान का एक अस तु ह सा म भी ँ। लेखक
अस तु क जमात से बाहर कसी और का ह सा हो भी नह सकता।
यह कम दलच प नह है क और से नर तर सवाल करने वाला लेखक वयं
सवाल से कम नह जूझता ब क, कए गए सवाल से जूझते ए मंथन क र साकशी
के उन उ कट ण म वह उस व मान बोध से कभी अलग नह हो पाता क श द से
उसका र ता बना ही इसी लए है क वह उन सवाल को अनसुना कर सके जो उसके
आ म ारा आ म से कए जाते रहते ह और उनसे भी न कतराये जो वयं उसके सरजे
पा ारा कथाग त को अवरो धत कर अपने वत अ त व को अंकु शत न होने दे ने
के लए, उसक सृजना मक नरंकुशता के व लाम ब द हो उससे सवाल पर उतर
आते ह। पा से जरह ज़ री है। लेखक जब पा को अपनी कृ त के रचाव म
अपे त पेस नह मुहैया करता तो रचना अपनी जनतां क वृ से व छ हो, मा ा
लेखक का एकांगी बयान भर बन कर रह जाती है।
सोचती ँ तो कुछ नुक ले को अपनी ओर उ मुख ठठका आ पाती ँ…
उनका आशय मुझ तक प ँच रहा है। पाठक जानना चाहते ह क मनु य के
क से-कहा नयाँ रचने-गढ़ने वाले मनु य क जमात म मेरा आना कैसे स भव आ!
आ खर यही रा ता य चुना मने, क यही मेरा ग त है और इसी का अवगाहन मेरी
साथकता है। कहा नयाँ कहाँ से आती ह मेरे पास! कहा नयाँ वयं चलकर आती ह या
मुझे उनक खोज म नकलना पड़ता है, आखेटक शकारी क भां त? च लए, इतना ही
पया त होगा ज ासु के लए क म यही भर बता ँ क आ खर ढे र कहा नय म से
मेरी य कहा नयाँ कौन-कौन सी ह। अ य क ब न बत वे कहा नयाँ य ह तो उनके
य होने के कुछ वशेष कारण भी ह गे। कारण या ह?
के नमम आशय म समा हत नुक ली ज ासाएं मुझे सहज नह रहने दे त ।
मुझे लगता है और लगातार लगता रहा है क क से, कहा नयाँ लखने वाल क
सुद घ जमात म कोई रचनाकार शा मल हो कैसे उसका ह सा बन जाता है, यह लेखक
बताना भी चाहे तो शायद पूरी तरह से वह उन कारण को नह तलाश पाएगा जनके
चलते वह लखने क ओर वृ आ। ऐसा नह है क इन ज ासा से घर या घेर
लए जाने पर मने संजीदगी से उनके जवाब खोजने क को शश नह क । उन
मनोवै ा नक दबाव क उकसाहट और उकसाहट से उपजे सु न य को मने श दब
करने का यास कया है, ज ह म कारण के प म रेखां कत कर सकती थी। ले कन
इस बात से भी कम व मत नह ँ क कुछ अरसे उपरांत मने उन कारण से वयं को
आं शक प से सहमत पाया। लगा क यह इतना आसान नह है जतना क ऊपरी
तौर पर वह व नत होता है।
ज़मीन म गहरे धंसी बेतरतीब छतर सघन उन जड़ स श। ज ह शायद वयं
मालूम नह होता क वह अपना आधार मज़बूत बनाने के न म माट क परत के नीचे,
जाने कस दशा म कौन से अ तरे कोने खोजबीन उसके उर से जा हलगती है और
अपने को वक सत करती रहती है। सतह से उसका अनुमान लगा पाना क ठन है।
सजक के लए लखना अपने भीतर अव थत मनु य को, मनु य व क कसौट पर
नर तर कसने क या है। सजना क आनुभू तक अ वरलता सजक को उसके
वक सत होते व प के साथ, उसके संवेद को अछोर व तार स पती है।
संवेद का यही व तार रचना क शै पकता के म य उसके पाय के प रवेशगत
दबाव और उसके आ त रक क मनोवै ा नक प र ण तय को, उसी क
मान सकता म पैठ सजक को अनुभूत करने क पर परता और काया तरण क
चम का रकता से पूरता है। यहाँ यह भी कहना अ तशयो न होगी सजक का जा त
मनु य व इस काया तरण या म पा को वृ करता है क वह अपने को क ह भी
प र थ तय म मनु यता क कसौट पर कसने से न चूके। सही-गलत म अ तर वह तभी
कर पाएगा। शायद ही नह , मुझे व ास है। सजक का अभी भी यही होता है। अपने
बौ क कौशल से वह अपनी सजना के ल य त व को चाहे जस प म ा या यत
करे।
इस स दभ म अपनी कहा नय म से मुझे वो कहा नयाँ न य ही अ य कहा नय
क तुलना म अ धक य और नकट महसूस होती ह जो पा को वयं अपने मानवीय
वचलन के त सजग कराती ह। उसक जड़ चेतन को कुरेदती ह।
जनावर, सौदा, बाघ, ताशमहल आ द कहा नयाँ इसी ेणी म आती ह।
कशोर मान सकता पर लखना मेरी रचनाशीलता के लए सतत् चुनौती क भां त
रहा है। मेरा यह मानना है क कसी भी वकासशील रा क ग त का सही आ त रक
मान च य द मापना हो तो वहाँ के समाज क कशोर होती पीढ़ जो कसी भी दे श के
उ वल भ व य क संवाहक आ करती है, के सपन को तौलना-परखना होगा।
स य और उ तशील समाज क ताल ठ कने वाले दे श के बचपन का आधे से
यादा तशत य द भूखा है, तो यह मान लेना अ रद शता न होगी क उस संवेदनहीन
वषम समाज क न व म द मक सुरंग बछा चुक ह और उस दे श का कशोर होता
बचपन अ न त भ व य के अँधेरे तले, वक पहीन आधी अधूरी सांस भरने को
अ भश त है। शोचनीय थ त है क गुमराह होती कशोर पीढ़ के इस तशत के त न
तो हमारी राजनी त कोई दा य वपूण पहलकदमी करती गत हो रही है न जनमानस
उसे कसी कार क भावना मक सुर ा दे ने के लए आगे बढ़ उ ह अपनाने को राज़ी है।
गुमराह कशोर उ ह अपनी चमक-दमक भरी आड बरीय जीवन शैली के सीने पर
बदनुमा दाग महसूस होते ह…
‘ शंकु’, ‘मामला आगे बढ़े गा अभी’ और ‘बेईमान’ कहा नयाँ, समाज के हा शए
पर फके, भावना मक असुर ा और अभाव म जी रहे उ ह कशोर के मनो व ान को
पा यत करती कहा नयाँ ह। नह मालूम क म उन कशोर नायक के गीले मम को कहाँ
तक छू और सहला पाई ँ। मगर जब ये कहा नयाँ ‘र ववार’, ‘सा रका’ और ‘वतमान
सा ह य’ के अंक म का शत तो पाठक म उमड़ी ापक त या ने मन को गहरे
आ त कया। कुछे क पाठक का कहना था— कशोर जीवन के इतने गहरे सं पश
ह द कहानी म अ य अनुपल ध ह…
अनेक बार न य कर चुक ँ क कशोर जीवन क वड बना मक यं णा पर
एक बड़ा मनोवै ा नक उप यास लखूँगी। ले कन अब तक योजना क परेखा कागज़
पर उतरने से वं चत है। इधर मेरे उप यास के कई मासूम कशोर नायक डॉ टर,
इंजी नयर बनने क इ छा रखते ए त कर क नया के खलनायक बन गए…
जब कभी कसी से भूल-े भटके कह मलना होता तो पाँव को हाथ लगाते ए वे
कहने से नह चूकते, ‘ताई, तुमने भी ह मत नह क न!’…

शंकु

ताशमहल

सौदा

जनावर

आँगन क च ड़या

बाघ

मामला आगे बढ़े गा अभी

बेईमान

जगद बा बाबू गाँव आ रहे ह


शंकु

સ્कूल से छू टा, तब माँ क हदायत बराबर याद थी, ‘ स ा घर कू आना बंडू। दोन
वाजता मेरे कू पंजाबन सेठानी के साथ मारकेट खरीद को जाना हय…’ पर गली के मोड़
म घुसते ही छोकर को ‘ ऽ तूऽऽ तूऽऽऽ’ खेलते पा कब ी म शा मल होने का लोभ
संवरण नह कर पाया।
ब ता और कमीज़ एक कनारे फक, अपनी झूल आई नकर को त द पर ख चकर
वह चीते क -सी फुरती ओढ़ ‘तूऽऽ तूऽऽऽ’ करता आ पारी खेल रहे मोह ले के गोल म
शा मल हो गया। और ल बी दम साधकर उसने पतरे बदल-बदलकर तीन को तो पहले ही
झपाटे म मैदान से बाहर कर दया। सरी पारी म दो मु तैद छोकर ने उसक मामूली-सी
असावधानी के चलते उसे कु क तरह घेरकर धर दबोचा।
अचानक ए हमले से वह सँभल नह पाया। मुँह के बल गरा तो ल बी दम साधने
के बावजूद सीधा खड़ा नह हो पाया। छोकर ने पकड़कर उठाया तो छली ठु ी क
जलन भूलकर वह पाठशाला क खाक वरद क इकलौती नकर के फट जाने से घबरा
गया। आँख के सामने माँ का रौ प साकार हो उठा।
घर कैसे जाएगा इस हालत म? अचानक उसे याद हो आया, सुबह पाठशाला के
लए घर से नकलते समय माँ ने उसे बार-बार चेतावनी द थी क शाला छू टते ही वह
सीधा घर आए, मोह ले के लोफर के साथ आवारागद करने न बैठ जाए। उसके ल छन
से प र चत जो है। जानती है क शाला नय मत डेढ़ बजे छू टती है और वह दो-ढाई बजे
से पहले कभी घर नह लौटता। इस लए जब कभी उसे कसी काम से बाहर जाना होता
है वह उसे ‘ स ा’ घर आने क चेतावनी दे ती। चेतावनी वह हर गज़ न भूलता।
घर खाली न छोड़ने के पीछे कुछ ठोस कारण थे। माँ को सदै व अ दे शा बना रहता
क कह उसका बाप घर अकेला पाकर गृह थी के बरतन-भाँडे न उठाकर ले जाए।
कतने ह डे-बटु वे उसने बेच खाए। माँ के लड़ने पर उ ह चराने क को शश करने लगता
क कसी अड़ोसी-पड़ोसी ने मौका ताड़कर हाथ सफाई दखा द होगी, वह तो कु डी
लगाकर फकत संडास तक गया था।
उसक राह दे खती माँ पंजाबन सेठानी के संग अगर नह गई होगी तो घर पर तोप-
सी भरी बैठ होगी। खैर नह उसक , हाथ-पाँव साबुत बच रहे तो समझो गनीमत! तस
पर फट नकर! आग म तूप (घी)। माँ के कोप से बचने क कोई तरक ब? तरक ब है।
दे र म दे र! कुछ दे र कह और सु ता ले। घर म ई तब भी घ टे -आध घ टे म साँझ क
भाँडी करने नकल लेगी। लौटे गी तो ठ क द या-बाती के समय। तब तक जूठे बरतन के
साथ मगज क तेज़ी भी मँज-पुछ गई होगी। पटाने क खा तर वह झ पड़ी का झाड-
प छा कर लेगा। साफ-सुथरा घर माँ क कमज़ोरी है। दे खते ही खल जाएगी।
ले कन तरक ब उसे वशेष अभय नह दे पाई। दोन ही बात स भव थ । कुछ दे र
बाद माँ का ोध शा त हो जाए या फर गुने- तगुने वेग से नथुने फड़काता उसे ताव
खाता मले। ऐसे म उनका सामना करना ही उ चत! दे ह पर कमीज़ चढ़ाकर वह खोपड़ी
से ब ता लटकाए घर क ओर बढ़ दया।
माँ नह गई थी।
जैसे ही वह घर म दा खल आ, ती ा म उबली बैठ माँ तमतमाई ई-सी उस पर
झपट “हलकट, मेलया, कु रा, हरामखोर…बोला न तेरे कू सुब? ू वसरलास (भूल
गया)? पन कईसा…कईसा तेरे को याद न आ क मेरे को सेठानी के साथ खरीद को
जाना है…चढ़ तेरे को चरबी? अ भी, सेठानी का बूमा-बूम कौन सुनेगा! तू?”
फश पर छटपटाता आ वह ‘हाय-हाय’ करता, हाथ-पैर से तीखे हार को
झेलता माफ माँगने लगा। मगर माँ पर न उसके माफ माँगने का कोई असर आ, न
व ास दलाने का क अब क वह उसे छोड़ दे , आइ दा उससे ऐसी लापरवाही हर गज़
नह होगी। उलटा माँ के ोध ने तपे तेल-पुते तवे पर अचानक पड़ी पानी के छ टे -सी
लपट धर ली। मारते-मारते जब वह वयं नढाल हो उठ , तब कह जाकर उसके हाथ-
पाँव के।
“वो हरामखोर आए, तो चौ कस रैना… कसी व तु को हाथ-बीथ न लगाने को
दे ना। जाती म। आइकलास (सुना)?” माँ गुराती-सी दरवाज़ा भड़ाक से भेड़कर खोली से
बाहर हो गई।
‘वो हरामखोर…?’ यानी उसका बाप…
पं ा गली म घ ड के दा के अ े पर वह तब तक बैठा घ ड़याल-सा नौसादार
क पीता रहता जब तक टु होकर अपनी गली म अगल-बगल क दो-चार झ प ड़य के
दरवाज़े अपनी खोली के म म न खटखटा लेता। फै टरी से छू टकर बाप सीधा कभी घर
न आता, चाहे उसके काम क पहली पाली हो या सरी। अ सर माँ जान ही नह पाती
क बाप कौन-सी पाली कर रहा है। समय-असमय आने पर जब कभी वह सशं कत
होकर बाप को टोकती तो उलटा बाप उसी पर चढ़ बैठता क वह ‘ओवरटै म’ करता है,
फर टै म से कैसे घर प ँचे?
इतना वह भी समझने लगा था क जो कामगार ‘ओवरटै म’ करता है उसे पगार के
अलावा अ त र आमदनी होती है। फर तो माँ को बाप क ऊपरी कमाई से खुशी होनी
चा हए थी; पर समझ म न आता क ‘ओवरटै म’ क बात सुनकर माँ य असहज हो
उठती है! उन दोन क झाँय-झाँय म कुछ गोलमाल लगता है। दमाग पर ब त ज़ोर
डालता पर हाथ कुछ न लगता! कशोर बु चकरा जाती।
छोट बहन कमला जब घर पर ही रह रही थी, अ सर आधी रात म उसक और
कमला क न द माँ क दय वदारक चीख और धमाधम कुटती दे ह क दहलाती कराह
से उचट जाती। आतंक से सहमे अपनी दरी पर पड़े ए, घुमड़ती छाती म फूटने को
ाकुल हच कय को होठ म भ च, ववश, दोन मोम-से टपकते रहते! कुछ दे र बाद
वह पाता क बेसुध-सी होती कमला उसक पीठ से बक , उसक थराती रीढ़ म अपना
चेहरा गड़ा लेती। पल-पल कसी अनहोनी क दहशत नुचे ल लुहान पंख -सी उन पर
टू टने लगती। वह सोचना शु कर दे ता। बना वयं से सवाल कए क यह उ उसक
सोचने क नह है।
ु ध माँ जब भी उसे कूटती, अपनी चोट से न वह उस कदर आतं कत होता, न
आहत, न अवमा नत! उलटा ज लाद बाप के त उसके दय म त ह सत आ ोश
सर उठाने लगता। यहाँ तक क वह रात से खौफ खाने लगा। रात से शायद माँ भी खौफ
खाती। शायद इसी लए वह उ ह ज द खला- पलाकर सुला दे ती क उनक चैन क रात
तभी तक है जब तक घर क कु डी नह खड़कती। कु डी खड़कने से उसक न द नह
उचटती; न द उचटती माँ क कलपती चीख से! इधर कुछ दन से उसम प रवतन आया
है। माँ क भाँ त उसक भी न द क ची हो गई है। कु डी के खड़कते ही आँख ‘झ प’ से
खुलकर कवाड़ क ओर घूम जात । मगर वह खुली आँख को कसी तेज़ाबी आँधी के
भय से आशं कत हो करवट-भर भ च लेता, और साँस साधे चर-प र चत अगले य क
ती ा करने लगता।
उस रात बाप क द र दगी क पराका ा ही हो गई। आवेश म काँपते ए बाप ने
मोरी क द वार से टका कपड़ा कूटनेवाला धो का उठा लया और उसे पूरी ताकत से माँ
के माथे पर दे मारा। माँ का माथा फट गया। उसका खून से तर चेहरा और मू छा से
मुँदती आँख दे ख भय से काँपती कमला ने बाप क टाँग जकड़ ल और दोबारा माँ पर
हाथ न उठाने क चरौरी करने लगी। क तु पगलाए साँड़-से उ माद बाप ने उसे टाँग से
एक ओर उछाल दया और धी अचेत माँ क कमर पर एक लात मककर खोली से
उड़न-छू हो गया। तब तक आस-पास के लोग जाग चुके थे। भागते बाप को उ ह ने धर
पकड़ने क को शश भी क , पर जाने कहाँ क ताकत उसम आ समाई थी क वह छह-
सात लोग के सँभाले न सँभला। छटपटाकर जो छू ट भागा तो अब तक लौटकर श ल
नह दखाई उसने। माँ के माथे पर सात टाँके लगे थे।
आठ साल क कमला को बाप ारा टाँग से उछालकर फकना, माँ को जवान
छोकरी पर हाथ उठाना लगा और यह भी लगा क अगर उसका साहस इस सीमा तक
बढ़ गया है तो या भरोसा, कसी रोज़ नदयी माँ के हमायती ब च का गला ही घ ट दे !
म फँसी माँ इससे-उससे सलाह करती अ त म इसी नतीजे पर प ँची क कमला को
अब वह घर म नह रखेगी। इसी ता म उसने ‘आ शयाना’ ब डंगवाली जोशी बाई
का पुराना ताव मान लया क कमला जोशी बाई के पास रहेगी तो च ड़या क -सी
जान छोकरी इस नरक-कु ड से र और सुर त रहेगी।
जोशी बाई काफ दन से माँ के पीछे पड़ी ई थ क वह कमला को टहल के लए
उनके घर रख दे । भाँडी-कटका के लए उनके पास अलग से बाई है। उसे फकत ऊपर
का काम करना होगा, मसलन, मकू का खयाल रखना, उसे ैम म नीचे घुमाना- फराना।
साग-स ज़ी कटवा लेना। मेहमान को पानी आ द पूछ लेना। ज़ रत क छोट -मोट
चीज़ दौड़कर ला दे ना।
सुबह यारह से लेकर शाम साढ़े चार बजे तक जोशी बाई क पाठशाला होती है।
घर लौटते वह खूब थक जाती ह। कमला से उ ह बड़ी मदद हो जाएगी। खाना, कपड़ा,
साबुन, तेल सब उनका। ऊपर से महीने के तीस पये नकद। यादा पगार भी वे दे
सकती ह, ले कन तब जब कमला ढं ग से काम-धाम सीख जाएगी और ज़ मेदारी वयं
उठाने लायक हो जाएगी। अभी तो वह ब ची है। उलटा, उ ह ही लगातार उसके साथ
लगकर उसे सब सखाना-समझाना होगा। रखगी वह उसे अपनी बेट क तरह। कोई
भेदभाव नह । जोशी बाई ने यह भी व ास दलाया क समय नकालकर वह उसे कुछ
पढ़ा- लखा दया करगी और को शश करगी क उसे रातवाली कसी पाठशाला म
दा खल करा द। “मेरे लए यह मु कल थोड़े ही है…झोपड़प के षत वातावरण म
रहकर तो लड़क सलीकेदार होने से रही।”
जोशी बाई के इन तक से माँ के उलझे, हताश मन म उ साह का बीज अँकुआ
आया था।
कमला को अपने संग ‘आ शयाना’ ब डंग म ले जाने से पहले जोशी बाई उसके
लए दो नई ॉक सलवा ला । उ ह म से एक पहनाकर उसे अपने साथ ले ग । उसने
सुना, जाते-जाते वे माँ को चेतावनी भी दे ग क पैस क खा तर घड़ी-घड़ी दरवाज़ा
पकड़कर मत खड़ी होना। बीस वह उसके हाथ म दगी। दस वह कमला के नाम पो ट
ऑ फस म खाता खुलवाकर, उसके खाते म डलवा दया करगी, जो उसके और कमला
के दोन के हक म उ चत है। क तु माँ इसके लए राज़ी नह ई। कड़क का रोना रोकर
उसने उनसे आ ह कया क फलहाल कमला क पूरी पगार वह उसके हाथ म ही द।
साफ-सुथरे कपड़े पहने जोशी बाई के साथ जाती ई कमला अचानक उसे
अजनबी-सी हो उठ लगी, ठ क ब डंग म रहनेवाल क तरह सु दर और अजनबी!
कमला क अनुप थ त उसे ब त खली और अब तक खलती है। कमला होती तो
हमेशा क तरह आज भी उसे पहले डपटती। बड़ी-बूढ़ क तरह समझाती-मनाती,
“काय को तू माँ क बात न सुनता, बंडू? गली के छोकरे प के मवाली, उनको घर से
मतलब न , पन तू य उनका च कर म पड़ता? मार खाने क आदत पड़ गई तेरे को,
चल उठ…धो मू-ँ हाथ। खाना नकालती म तेरे वा ते।”
खते हाथ-पैर को सकोड़ता-फैलाता, माँ के ऊपर कुढ़ता वह उठ खड़ा आ।
भूख से अँत ड़याँ क ला रही थ । पतीले का ढ कन खोलकर भीतर झाँका। माँ ने
खचड़ी बनाई थी। खचड़ी म करछु ल नह लगी। इसका मतलब है, माँ भूखी ही चली
गई। मन ख हो आया। सचमुच वह माँ को ब त तंग करता है। दन- दन-भर माँ घर म
खटती है। कसके लए? उसने मन-ही-मन न य कया, आइ दा वह माँ को परेशान नह
करेगा। पाठशाला से सीधा घर आएगा। घर के काम म उसका हाथ बँटाएगा। पढ़ाई म
मेहनत करेगा।
और सचमुच अगले ही रोज़ से वह अपने न य के मुता बक पढ़ाई म मन लगाने
लगा। माँ उसे पु तक खोले बैठे दे खती तो स हो उठती। सब ठ क-ठाक चलने लगा।
एक दोपहर वह खाना खाकर अपनी थाली उठा ही रहा था क खोली का दरवाज़ा
अचानक भड़भड़ाया। भड़भड़ाहट क ताल ने ण-भर को उसक दे ह से खून नचोड़
लया। उसने भीतर से चढ़ कमज़ोर कवाड़ क कु डी को अ व ास से दे खा। समझ
नह पाया क या करे। तभी कवाड़ दोबारा भड़भड़ाए। अब क बार भड़भड़ाहट म
बेस ी थी। तुर त न खुलने पर तोड़ दे ने क उ ड बेस ी! घर पर माँ का न होना खला।
उठकर घबराए ए मन से जूठ थाली उसने मोरी म खसकाई और कमीज़ क नाखूनी से
हाथ प छता कु डी खोलने लपका। कवाड़ खोलते ही नशे म धु यम त-से बाप को
खोली म दा खल होते…नह , दे सी का भभका छोड़ते ए लगभग अपने ऊपर गरते
पाया। उसे सीधा करते ए वह सहम उठा। बाप क अनुप थ त म बड़ी शा त थी। जब
भी उसके बारे म सोचता, यही लगता क अ छा हो, बाप फर कभी घर न लौटे । मगर
उसके सोचने से या होता है? बाप सा ात् मुसीबत बना उसके सामने मौजूद था।
खड़े न रह पाने क थ त म वह डगमगाता, ध म-से लोहेवाले पलंग पर ढहकर
पसर गया! वैसे माँ के लौटने का समय हो रहा था। कसी भी ण वह घर लौट सकती
है। घर पर माँ का होना ब त ज़ री लग रहा था। बाप क मौजूदगी सँभालना उसके वश
क नह । सरी ओर, आशंका से मन डर भी रहा था क कह उन दोन का आमना-
सामना कसी जंग को आम ण न दे बैठे!
अचानक भड़े कवाड़ पर लौट माँ क चर-प र चत हलक थाप ने उसे जैसे
मगरम छ के मुँह से छ न लया। कवाड़ पर कु डी नह चढ़ थी। पर माँ को इसक
जानकारी नह थी। वह लाद से उछली गद क भाँ त उछलकर कवाड़ के पास प ँचा
और माँ के भीतर पाँव दे ने से पहले उसने लोहे के पलंग पर पसरे बाप क त या माँ
के चेहरे पर पढ़नी चाही। क तु माँ का चेहरा उसे अन लखी त ती-सा सपाट, शू य लगा।
बाप मुँह पर भनकती म खय से त नक परेशान आ। सर झटकते ए नशे म
बड़बड़ाया, “कमली…पानी दे तो…”
अ न छा से ह डे से गलास-भर पानी लेकर वह बाप के नकट प ँचा, “पानी…।”
बाप ने उसक आवाज़ पर लाल आँख खोलकर उसे गौर से दे खा, “कमली कदर
हैय?”
“जोशी बाई के घर काम पर रख दया।” उसक बजाय माँ ने गुराकर जवाब दया।
“ कतने दे गी?” बाप एकदम चैत य हो उठा।
“खाना-कपड़ा, ऊपर से तीस।”
“वो अँधेरीवाली मंगलो रयन बाई उसको माँगती होती…खाना-कपड़ा, ऊपर से
साठ पया पगार, तभी न य पाड़ा?”
“पहले उससे नौकरी न करानी होती, तू औकात म रेता तो कभी न … उ पर उस
घर म म अपना छोकरी काम करने को भेजती? उसका मरद सम दर ( मग लग) का
ध धा करता…अ खा दन उदर दा चलती। मालूम न कइसा-कइसा लोग आते उसके
घर कू? भरोसेवाली होती या वो?”
“ये तेरी भड़वी मा टरनी भरोसेवाली है या?” पलंग से उठते ए बाप गु से से
दहाड़ा।
“जबान सँभाल, हाँ।” यु र म ु ध माँ को जैसे चनगारी लग गई, “पोरगी क
(बेट ) फ कर न , पगार क बोत फ कर हय तेरे को? हाँ! अपना कमाई म दा के
वा ते न पुरता! बोल तो ख टया डलवा ँ तेरे वा ते… फर खा पोरगी क कमाई।”
“साआली राँड़, तू मेरे को गाली दे ती, भँडवी! अबी ठकाने करता तेरे को…” बाप
ताव खा झपट पड़ा माँ पर।
माँ क ज़बान नह क । वह गले तक अघा आई सारी तल मलाहट और भँड़ास
जैसे एकबारगी खाली कर दे ना चाहती थी।
वह आशं कत हो काँप उठा। या हो रहा माँ को? बाप का वभाव जानती नह ?
चु पी मार लेती तो या था…उसे लगा, वह कमला के पास भाग जाए अभी, इसी ण।
अ छा ही आ जो जोशी बाई कमला को ले ग । उसे भी माँ कसी के घर काम के लए
य नह रख दे ती?
बाप क ध स से बेअसर माँ अब भी चुप नह हो रही, “भडवा…एक पैसा न
दे ता…म खून पला- पला के ब चे पालती और तू हरामखोर वो राँड़ के साथ म ती
मारता…साआला, हाथ लगा के दे ख अभी मेरे को? दे ख?”
‘राँड़ के साथ?’ माँ या बोल रही है! उसके माथे से जैसे अचानक गरम सलाख छू
गई। तभी नज़र बाप क ओर उठ । तमतमाया बाप बरतन म से लपककर लोटा उठाता
आ दखा। लोटा छ नने के लए वह उसक ओर झपटे , तब तक तो माँ के सर से खून
का फ वारा फूट पड़ा। माँ ‘दे वाऽऽ’ कहकर ई र को गुहारती फश पर ढे र हो गई और तट
पर पड़ी मछली-सी तड़फड़ाने लगी।
माँ के माथे पर टाँके लगे अभी ढाई-तीन महीने नह गुज़रे थे क ज लाद बाप ने
फर उसका सर फोड़ दया।
उसका सर घूमने लगा। बजाय माँ को सँभालने के वह ववश-अवश घुटन म मुँह
गड़ा, साँस ख चता फफक पड़ा। उसके घर म तेज़ धारवाला रामपुरी चाकू य नह ?
होता तो आज वह सीधा बाप क छाती म भ क दे ता। एक बार, दो बार, तीन
बार…‘खच’…‘खच’! ऐसे जानवर को ज़ दा छोड़ना खतरनाक है। छोड़ दया तो वह
कभी भी, कसी रोज़ पलटकर माँ क जान ले लेगा। माँ को मारकर उसक …उसके बाद
कमला क …कमला शायद उसके हाथ न लगे।
माँ का आतनाद सुनकर पड़ोसन ल मी अ मा और सामनेवाले हसन काका घुस
आए खोली म। बाप हमेशा क तरह मुँह छपा, तीर-सा नकलकर भाग खड़ा आ।
हसन काका ने छटपटाती माँ को ही डाँटा, “बंडू क माँ, य इस बदज़ात के मुँह
लगती है? जानती नह ! कमब त का मुँह नह , हाथ चलता है, हाथ…”
ल मी अ मा लपककर अपनी खोली से ह द -चूना गरम कर लाई और घाव के
आस-पास के बाल कतरकर घाव पर लेप लगाने लगी। प बाँधने के लए ल मी अ मा
ने उससे पुराना कपड़ा माँगा। वह कमला क पुरानी छोड़ी ई ॉक उठा लाया।
हड़बड़ाहट म उसे कोई अ य कपड़ा सूझा ही नह क जससे माँ के फटे सर पर प
बाँधी जा सके। वैसे भी कमला क यह ॉक अब उसके कस काम क ? जब से जोशी
बाई के घर गई है, खोली के बीच बीच बँधे तार पर कपड़ के ढे र म ॉक य -क - य
टँ गी ई है।
“अइयो, बंडू! सुन…” ल मी अ मा ने घाव पर प बाँधकर टट से एक अठ ी
नकालकर उसक ओर बढ़ा द , “फटाफट दौड़ के एक सेरीडू न (सेरीडॉन) तो ले के
आ…वो नु कड़वाली पान क कान पर मलेगी। सेरीडू न न होना तो प छू एना सन
का गोली ला। म त बी तलक माँ के लए ह द डाल के चाय बनाती हो, बोत बच गई रे
माँ… बोलगे तो वो टाँके का जागा पे न लगा, न तो जान जाती…जा, तू ज द जा…”
वह आ ाकारी बालक क भाँ त खोली के बाहर हो गया। पर मन म माँ क चोट क
पीड़ा से यादा माँ के कहे वा य क चते, मँडराने लगे ‘राँड़ के साथ म ती…’ कहने का
या ता पय था माँ का? व च लगा माँ का ताना। उससे भी अ धक व च लगा, माँ का
आज का वहार! सरे दन क अपे ा इस बार बाप अपनी इ छा के व कमला
को जोशी बाई के यहाँ रखने से भड़का अव य, ले कन उसके ोध को लगातार फूँक द
माँ ने। बाप से हमेशा डरनेवाली और उसके डर से मुँहज़ोरी करने से मुँह चुरानेवाली माँ
का यह प नराला लगा! कह गड़बड़ ज़ र है। बाप इधर रहता नह तो आ खर
भागकर जाता कधर है? एकाध रोज़ क बात हो तो वह सोच भी ले क हो सकता है,
बाप पी-पा दा के अ े पर ही पड़ा रहता हो या कसी दो त के घर! महीन कोई कैसे
रख सकता है पय कड़ बाप को अपने पास?
पान क कान पर प ँचकर उसने राहत क साँस ली। जैसे माँ के लए संजीवनी
बूट पा लेने का आ ासन पा लया हो उसने…माँ से पूछे वो राँड़ के बारे म?
सुबह वह बड़ी मु कल से जागता। आवाज-पर-आवाज लगाती माँ धमकाती
रहती। अ त म खीझकर हाथ पकड़ दरी पर उठाकर बैठा दे ती, ‘शाले को न जाने,
बंडू?’ पर, पर आज माँ क पहली ही पुकार पर चौक ा हो उठ बैठा।
“तू ठ क न?”
“ठ क म…” माँ ने उसे च तत न होने के लए आ त कया। बोली, “जा, भइया
जी क कान से पावली (चव ी) का ध ले आ, चाय के वा ते।”
वह बना हील- जत कए गलास और पावली लेकर झोपड़े से बाहर नकल
आया। गली म अभी सुबह नह ई थी। माँ ने कुछ ज द ही उठा दया उसे। हो सकता
है, वह दद के मारे सोई ही न हो रात-भर! झूठ-मूठ उसे बहलाने के लए कह दया क म
ठ क ँ।
अगल-बगल क सारी कान के शटर गरे ए थे। खाली भइया जी क कान
खुली थी। ध से भरा कड़ाह अधसुलगी बड़ी सगड़ी क बगल म ही धरा आ था।
करीब प ँचा तो कोयले सुलगाने के उ े य से उड़ेले गए म के तेल का भभका लपट
के बावजूद नथून म दमघ ट बदबू भर गया। जी मतला उठा। उसे दे ख भइया जी ठ
ई मूँछ से कटा करते ए मु कराए, “तू कैसे आ गया रे, बंडू!…कह बाप ने कुट मस
तो नह कर द महतारी (माँ) क ?”
वह भइयाजी के कटा से कटकर रह गया। झूठ बोला, “ताप आ गया माँ को।”
“ताप?” भइया जी ‘हो-हो’ करते ए हँसे।
उसने लपककर उनके हाथ से ध का गलास ले लया और तेज़ी से कान के
बरामदे क सी ढ़याँ उतरने लगा।
ोभ से मुँह कडवा आया। उसके घर के तमाशे कसी से छपे नह ! घोर
अपमानजनक थ त है। महसूस आ, जैसे सुबह-सुबह भइया जी ने उसके कशोर
गाल पर ‘ ’ नह , तमाचे जड़ दए। उपहास उड़ाते तमाचे! उसने सुना, वे अपने
नौकर को सुनाकर बोले, “अ खा झोपड़प का ऐसन हाल बा…जो चार घ र चौका-
बासन कर त हय और इनके मर आ घाट साले…दा पी-पा के मेहरा के हाड़-गोड़
तोरत ह, राम-राम, कैसी जबराई!” उसका वश चलता तो वह हाथ म पकड़े ध के
गलास को गोट (कंचे) के अचूक नशाने-सा साधकर भइयाजी पर फक मारता। उनक
चटचटाती सहानुभू त क उसको और उसक माँ को कतई ज़ रत नह । बापू उसका
नकारा, बेईमान, दा ड़या, ज लाद सही, पर वह अपनी माँ को घर-घर भाँडी नह धोने
दे गा।
“म पढ़ाई छोड़ दे गा” उसके भीतर के कशोर बंडू ने अचानक प र थ तय से
लड़ने का फैसला कया।
पढ़कर करेगा भी या? जब तक पढ़- लखकर हवलदार के मा फक कमाने-धमाने
के का बल बनेगा, चौबीस घ टे मेहनत करती, बूँद-बूँद नचुड़ती माँ ज़ दा बचेगी?
पीली, कमज़ोर, चलती है तो मन डरता है क अगले ही डग ठोकर खाकर ढे र न हो जाए।
वह माँ को ज़ दा रखेगा। कमाएगा; कमाएगा तो आराम करने के लए माँ को घर बैठा
दे गा। पैसा जोड़कर कह अलग खोली ले लेगा, जहाँ बाप क परछा भी न प ँच
सके। माँ काम पर से लौटती है तो कटे वृ -सी लोहेवाले पलंग पर ढे र हो जाती है। कुछ
रौनक चेहरे पर आई है, जब से कमला क पगार हाथ म आने लगी है। वह भी कुछ करने
लगेगा तो उनके चेहरे क गुम रौनक पूरी लौट आएगी।
सवाल उठता है—माँ सुख-चैन के दन दे ख सकेगी? कैसे? वह करेगा या? य …
कोई छोटा-मोटा ध धा। रफ क करता है न! उसके जैसा ही कोई काम! दो त के बीच
रफ क का धाँसू रौब है। दो त को बीड़ी भी वही पलाता है अपनी कमाई से। कभी-कभी
तो नःसंकोच पूरा ब डल थमा दे ता उ ह।
उससे मलेगा फौरन…न क च!
दरवाज़े पर प ँचा ही था क ल मी अ मा ने पुकारा अपने ओटले (बरामदे ) से, “माँ
को कइसा है, बंडू…उठने को सक ?”
“न , अ मा।” उसने उदास होकर जवाब दया।
“मार जा ती लगी, बेटा! ह द -चूना से घाव न पुरेगा। डाकदर के पास ले जाके
सूई दे ना माँ को। और सुन, दो-तीन दन घर म बैठने कू बोल उसको।”
“मेरा कदर सुनेगी, अ मा!” उसने ववशता कट क ।
“अ छा जा, म आती प छू । म समझाएगी सीताबाई को। दो-तीन दन के वा ते
अपना काम पर कसी को बदली म भेजेगी तो ठ क।”
चोट तो गहरी आई ही है। नह तो पाँच बजे ब तर छोड़ दे नेवाली माँ आज जगी
ई मली, मगर उठकर ध लाने क उसक ह मत नह ई।
बड़ी मु कल ई चाय बनाने म। टोव जलाने क आदत जो नह । एक बार को मन
म आया क माँ से ही कहे क वही टोव जला दे उठकर। फर उसे तंग करना उ चत नह
लगा। वह जागती ई होने के बावजूद ब कुल मरणास मु ा म न े पड़ी दखी,
उसक अनगढ़ खटर-पटर के बावजूद।
चाय क कप-बसी उठाए उसने आ ह ता-से माँ से उठने और चाय पी लेने का
आ ह कया। उसे लगा, माँ चाय लेकर उसक चु ती-फुरती पर च कत-सी स ए
बना नह रहेगी, ले कन माँ के चेहरे पर कोई भाव नह उपजा। कह कुछ था तो पीड़ा
क कराह-भरी सलवट। वह उदास हो आया। माँ कुछ तो कहती, कुछ भी। शंसा न
सही, एक सहज नहार ही। पर चाय ख म कर कहा भी तो इतना, “दो-चार बा ट पानी
भर ले, बंडू, न तो अ खा दन पानी पीने का वांदा होएंगा।” कहते-कहते वह तुर त
धी हो गई पलंग पर।
दोन हाथ म बा ट लटकाए ए वह नल पर प ँचा तो वहाँ का सारा य दे ख
अबूझ-सा ठठक गया। लाइन म खड़ी दो औरत म बेहयाई से ठनी ई थी…
“ये ल बर तो मेरा होता, भरने तू लगी?”
“जबान सँभाल! चौबीस ल बरवाली के प छू ल बर मेरा होता। वो भर चुक , म
भर रही। मँगता तो पूछ उसको! पूछ न!”
“म भर रई…राँड़! सुबू चार बजे उठकर म लाइन लगाई, तेरी खपसूरती दे खने का
वा ते?”
“काय के वा ते उठ वो तू जान, पन गाली मत दे । समझी…न तो थोबड़े पर लात
ँ गी।”
“चल री ‘समझी’ क ब ची! कसको समझाती तू? तीन-तीन खसम छोड़ के आई
मेरे थोबड़े पर लात दे ने? आईना दे ख, कुतरी, आईना!”
“ह जाम क …तू बन याही बैठ मोह ला खराब करे। बोल तो तुझे भी करवा ँ
एक? बूता है सँभालने का?”
“ये ये…! सुब-ू सुबू एइसा भांडण (झगड़ा)? रात पाली करके आया म। खाली-
पीली भंकस न मँगता।” अचानक अपनी खोली का दरवाज़ा खोलकर पाठक दादा शेर-
सा दहाड़ा, “गुपचुप पानी भरो, न तो सब साली का ह डा उठाकर फक ँ गा। एकदम
बोमड़ी (शोर) न । सोने का है मेरे को। समझा?”
नल पर स ाटा छा गया। सफ पानी क पतली धार क आवाज़ खामोशी तोड़ने
लगी।
पाठक दादा के बारे म झोपड़प म तमाम नई-पुरानी अफवाह ह। जेब म नोट क
ग ी डालो और कसी क भी गरदन रेतवा लो। पाठक दादा क रात पाली का मतलब है
—कह कसी के दन पूरे ए!
पाठक दादा क खोली का दरवाज़ा ब द होते ही उसे लाइन म लगने क ह मत
आई। औरत क चख-चख ने उसे सहमा ही दया था।
उसे खड़े ए दो-चार पल भी नह बीते ह गे क अचानक रफ क क अ मी क
नज़र उस पर पड़ी। अ मी वह से च लाई, “बंडू, आ तू भर ले पहले।”
वह वधा म पड़ गया क लाइन तोड़कर आगे बढ़े या अ मी को मना कर दे । कह
ऐसा न हो क कुछ दे र पहले ख म ई चख-चख पलटकर उस पर पल पड़े!
पानी-वानी सब माँ ही भरती है। यहाँ के कायदे -कानून उसक समझ से परे ह।
अ मी ने शायद उसके संकोच को ताड़ लया। उ ह ने उसे आगे बढ़ आने के लए दोबारा
पुकारा। उनके दोबारा पुकारने के बावजूद लाइन म लगी औरत से कसी ने आप नह
कट क तो उसका साहस बँधा। लाइन म लग के उसका न बर आने का मतलब है—पूरे
आधे घ टे का कुंडा। संकोच छोड़कर वह अपनी दोन बा टयाँ उठाए अ मी के नकट
जा प ँचा। रफ क क माँ ने अपनी बा ट सरकाकर त काल उसक बा ट नल के नीचे
कर द ।
“प का ढाई महीने के बाद घर आया था खड़ईस। जा लम ने ब त मारा सीताबाई
को। सर फट गया बेचारी का।” रफ क क माँ पावती चाची को उसके घर क खबर दे
रही थ , “उसी छनाल के पीछे …”
“अ छा, कमब त रेती कदर वो?”
“वह सफेद पुल के झोपड़प म। उसको भी पहले मरद से दो ब चे ह।”
माँ भी तो कल दोपहर…तो माँ के चड़ चड़ाने क वजह सफ बाप का पीना ही
नह ! बा ट अभी आधी भी नह भरी थी, पर उसका मन आ क वह बा टयाँ छोड़-
छाड़कर वहाँ से भाग ले! है कोई ठौर- ठकाना जहाँ उसके घर क चचा न हो?
राँड़ माने कोई औरत।…
राँड़ माने गाली, अब तक यही जानता था वो।…

चार रोज़ बाद माँ आज भली-चंगी लग रही थी।


सर म लगी चोट क सरी दोपहर डॉ. जोगलेकर माँ के एकाएक तेज़ हो गए
बुखार से घबरा गए थे। उ ह ने उससे कहा क हो सकता है, माँ के सर का ए स-रे
नकलवाना पड़े। ए स-रे वले पाल नानावट म होगा। वे डॉ. द त के नाम पर च
लखकर दे दगे। वह माँ को लेकर सुबह नौ बजे ए स-रे वभाग म प ँच जाए। ले कन
तीसरी सुबह बुखार के एकदम नीचे आ जाने से उसने उनके चेहरे पर राहत दे खी। राहत
डॉ. जोगलेकर के चेहरे से होती ई उसके दमाग को भी सहज कर गई, वरना माँ क
खोपड़ी म प ँची चोट के भय से उसके ाण सूखने लगे थे। सर क प डॉ. जोगलेकर
अलब ा रोज़ ही बदलते रहे। अ ाबाई ने माँ के आ ह पर चार रोज के लए उनके पाँच
घर म एक व काम करने का ज़ मा ले लया। न कोई मलता तो उसने माँ को आ त
कर दया था क वह उनके घर बता दे । जैसा भी उससे बन पड़ेगा, वह अपने अनाड़ी
हाथ से भाँडी-कटका नपटा आएगा, मगर अ ाबाई क सहानुभू त के चलते इसक
नौबत नह आई।
मौका ताड़कर उसने माँ के सामने फौरन अपने ध धे का ताव रख दया।
पछले चार दन से वह पाठशाला भी नह गया। माँ क अ व थता क वजह से
नागा आ। पर आज सुबह आँख खुलते ही माँ हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गई क अब
वह ठ क है, वह उठे और नहा-धो के अपनी पाठशाला जाए। उसक बीमारी के चलते
उसक पढ़ाई क कसकर उपे ा ई। अब नुकसान नह होगा। ले कन उसने माँ को
अकेला छोड़कर पाठशाला जाने से साफ मना कर दया।
ध धे क बात सुनकर माँ उखड़ गई। खी होते ए बोली, “म सोचती क तू लख-
पढ़के बड़ा आदमी बने…”
“ध धेवाले पढ़े - लखे से जा ती कमाते।” समझ के अनुसार उसने तुनककर अपना
तक तुत कया, “तू फकत मेरे को पाँच पया दे , शाम को परत ले लेना। म केले क
फेरी लगाएगा।”
“मेरे पास पईसा न ।” माँ ने खीझकर साफ मना कर दया।
“तेरे पास न तो पीछे एक काम कर। अपनी पंजाबन सेठानी से माँग कर दे न।”
उसने लगभग चरौरी-सी क ।
“कइसा दे गी सेठानी? उससे तो म अ खा मेना का पगार एडवांस लया।”
माँ क खाई के बावजूद उसने ह मत नह हारी। “आ शयानेवाली जोशी बाई से
माँगकर दे ।”
“कमली को इंस ट लगता, दो-तीन दफे ज रत पड़ने पर म उधर माँगने को गई
होती। एक दफा तो कारड पे राशन छु ड़ाने को होता। बोली, ऐसा बीच म भीख माँगने को
न आना, माँ…”
समझ गया।
माँ क लगातार बहानेबाज़ी ने उसे झुँझला दया। पढ़ाई के लए छोड़कर अ य
कसी काम क खा तर वह उसे पैसे नह दे गी। खैर, न सा हत होने क ज़ रत नह ।
जोड़ लेगा पैस।े एक तरक ब है उसके हाथ म। तीन बजे सोसाइट वाली राशन क कान
खुलती है। काड पर भराए सामान को उठवाने के लए लोग उधर हमाल खोजते ह।
कुछे क छोकर को उसने वहाँ खड़े ए दे खा है हमाली के लए। वह भी उनके बीच
जाकर खड़ा हो जाएगा। राशन क कान ब द होने तक उसके पास केले क फेरी के
लायक पैसे जुड़ ही जाएँग।े
दोपहर उतरनी शु भी नह ई थी क वह ब द शटर के सामने च कर काटने
लगा। काडधा रय क लाइन पहले से ही लग गई थी, जो उसके दे खते-न-दे खते हनुमान
क पूँछ हो चली। तकरीबन घ टे -भर बाद कान का शटर उठा। फुरती से पर चयाँ कटने
लग …चावल, गे ँ, श कर…वह मु तैद से एक भ म हला के पास जा खड़ा आ, जो
थैल म सामान भरवा रही थी।
“ कदर ले चलना है बाई?”
वह चौक ी । उसने उसक पतली लया तौली। अपने झोल पर सतक
डाली। फर तड़ाक से पूछा, “ कतना लोगे? एक सौ बीस न बर म जाना है‘सा ह य
सहवास’। ल ट है नह ।”
“जो जी म आए, दे दे ना।” वह वन हो आया।
“जो जी म आए नह , साफ-साफ बता दो। बाद म ब त ट टा करते हो तुम लोग।
कौन दस घ टे चक- चक करता बैठेगा?”
“चलो, एक पया दे दे ना बाई।” उसने हँसकर झोल क तरफ हाथ बढ़ाया।
“ या? या बकते हो? खैरात बाँटने के लए खड़ी ई ँ या म राशन क कान
पर? चालीस पैसे म ले जाते ह छोकरे। चालीस पैसे म ही ले चलना है तो उठा झोले, नह
तो छोड़ दे । कसी और से उठवा लूँगी म।”
“प चीस कलो वजन है, मेम सा’ब, कुछ तो सो चए!”
“है तो या?” भ म हला क भृकु टयाँ चढ़ ग ।
बहस फजूल है, उसने सोचा। यह भी दे खा क तीन-चार छोकरे आम क गुठली
पर लपकती म खय -से झोल के करीब उसके हटने क ताक म आ खड़े ए ह। बना
चूँ-चपड़ कए उसने झोले उठाकर पीठ पर लाद लये। हालाँ क मन तवाद करने को
उबलने लगा—दो त फरीद ने कहा था, कुछ नह मलेगा इधर। कहने को साले अपने को
‘ फ ड रेट’ वाले बताते ह और सच भी है क बड़ी-बड़ी कान म बल पर लखी रकम
बड़ी शान से दे आएँगे, मगर गरीब क मज़ री म मोल-भाव कए बना इ ह खाना नह
पचने का। दस पैसे भी कम करा लये नह क ऐसे स ह गे ये ब डंगवाले, जैसे बक
उठकर ससुर के घर आ गई हो।
वज़न ब त है! पीठ और क धे टू टे जा रहे ह। क धे उसके इतने नाजुक ह क
पाठशाला क कॉपी- कताब उठाते खते ह। अपनी कॉपी- कताब को दोगुना- तगुना
कर ले तब भी वे इतनी भारी नह होने क ।
शाम तक पौने तीन पये इक े हो गए। चव ी बीड़ी के लए छपाकर बाक
रेज़गारी उसने माँ क हथेली पर रख द । बीड़ी क आदत नह । कभी रफ क उसे मलने
पर पकड़ा दे ता है तो एकाध सु ा वह नज़र बचाकर ख च-खाँच लेता है।
उसक पहली कमाई माँ ने मु म कस, आँख मूँद, माथे से लगाई, फर फ ली के
एक कोने म वराजे गणप त ब पा के सामने ले जाकर रख आई। उसके झा खाए
ता बई चेहरे पर ण-भर को रोशनी क लपट-सी भभक , सफ ण-भर को। उसने
दे खा तो वह एक अ क म क फू त से भर उठा। राशन के झोल का बोझ
अचानक उसक कॉपी- कताब -सा ह का हो आया।
सुबह पाठशाला के लए नह उठ पाया। बदन पके फोड़े-सा ट स रहा था। कसी
हालत म आज कान पर खड़े हो हमाली नह होने क । ज़बरद ती खड़ा आ भी तो
ज़ र कसी सेठ-सेठानी का राशन गरा दे गा।
माँ उसक हालत पर तरस उठ , “न मँगता मेरे को ऐसा पइसा।”
उसने माँ के चेहरे क ओर गौर से दे खा। उसका ता बई बगन-सा गोल चेहरा
अचानक चू हे म भुना आ-सा, झु रय -पटा महसूस आ।
दे ह के साथ उसके दमाग क नस भी ट स रह । पहली बार उसे अनुभव हो रहा,
दे ह ही नह खती, दमाग भी खता है। खोपड़ी के अ दर बैठा दमाग रफ क के श द
म‘भेजा’। ‘अब भेजे से काम ले’रफ क का आम जुमला है। इसी जुमले से वह उसे
लताड़ता रहता है। उसे ही नह , गली के बाक छोकर को भी आतं कत कए रहता है।
उन सबको लगने लगा है क न त ही रफ क क खोपड़ी म उन सबक ब न बत यादा
बड़ा और तेज़ भेजा है। उसके बड़े और तेज़ भेजे ने उ ह अपने भेजे से काम लेने क
‘ टरे नग’ द है। मगर रफ क ने यह नह बताया क भेजा खता भी है और खता है तो
कोई भी गोली घुटक लो, नह शा त होता!

झ पड़ी क छत से उमस टपक रही है।


दोपहर म उसे सोने क आदत नह । सोने क को शश कर रहा है, मगर न द नह
आ रही। उसे अ दाज़ा-भर था क माँ आज बाप को ढूँ ढ़ने सफेद पुलवाली झोपड़प म
उस औरत के घर भी गई है। बाप के पीछे माँ का इस तरह हैरान होना उसे त नक नह
पचा। य गई? घबराकर? हारकर या कोई और बात है, जो उसे नह पता? इधर माँ के
भाँडी-कटका के दो घर छू ट गए। एक सेठानी का तो तबादला हो गया, सरे ने तीन साल
पुराना काम छ नकर नई बाई रख ली। माँ ने खोदने पर बताया क चकनाई के चलते
हाथ से सेठानी के क मती डनर सेट के दो ड गे रपटकर चूर हो गए।
‘बाप के पास गई थी या?’ पूछने पर माँ साफ मुकर गई।
वह खुद भी परेशान है। हमाली वाकई उसके वश क नह । पछले छह रोज़ से वह
रफ क के घर के च कर लगा रहा है। रफ क न जाने कहाँ बलाया आ है। भट ही नह
हो पा रही। रफ क से उसे बड़ी उ मीद ह। पछले ह ते रफ क ने कहा था, “एरी-फेरी
लगाने का च कर छोड़, मेरे साथ ध धे पर खप। माँ कसम, खीसे प थर के सलवाने
पड़गे, प थर के।”
रफ क का ध धा या है, उसे खबर नह ।
चलो, जो भी हो। मगजप ची से फायदा? करना है, तो करना है। आम बना गुठली
के आम नह । साथ उसको भी चाटना पड़ता है। आम खाना है, गुठली नह चाटनी, कैसे
चलेगा? उधेड़-बुन ख म ई। अब रफ क गधे के सर से स ग-सा गायब है। हसन चाचा
से भी कह रखा है क उसके लायक कोई भी काम हो तो बे झझक बताएँ। संगी-साथी
भी जानते ह। परस बहराम पाड़ावाले च ने उसे घर आकर खबर द थी क उसके
लायक एक नौकरी है। बा ा टे शन के तीन न बर लेटफॉम पर जो ‘चा-पानी’ क
कै ट न है, उसम एक छोकरे क स त ज़ रत है। उसके मलते ही नौकरी प क । वह
फौरन मलने गया। ले कन कै ट नवाला बेईमान लगा। पगार बीस से ऊपर एक पाई
नह । खाना-ना ते के नाम पर सफ चाय-पाव! ूट सुबह सात बजे से रात नौ बजे
तक। उसे नह जमा। चाय-पाव पर दन कैसे कटे गा?
घर क कु डी खड़क । माँ, बाप, ल मी अ मा, हसन चाचा,…कौन हो सकता है?
“कौनऽऽऽ?” वह कवाड़ क ओर लपका। खोलते ही सामने रफ क को खड़ा दे ख
खुशी से उछल पड़ा। उछलकर लपट गया।
“अ मा ने खबर द क तूने रोज च कर मारे…”
“मारे न!…पन तू कधर?”
“अपुन ह ता-भर के वा ते अहमदाबाद होता।”
“अहमदाबाद?”
“तू न समझेगा। वो छोड़ तू…काम क बोल?”
“ या बोल? बात ई थी न तेरे से?”
“ ँऽऽ, ई।”
“म ध धा करने को माँगता, पढ़ाई-वढ़ाई छोड़ दया।”
“वारे मेरे राजाऽऽ, आया न लाइन पे। अबे, पहले न शा य मारा? चल दे र से
आया, त आया…केले क फेरी करेगा। टरेन म माल, कंघी, आरसी बेचेगा। तो
साऽऽला बेच कंघी, आरसी!” रफ क ने मखौल उड़ाते ए गरमजोशी से उसक पीठ पर
धौल जमाई। रफ क क धौल से यारी टपक ।
वह ख सयाया, “केले क फेरी मारी न दो दन लोकल म।”
“खुद खाया क बेचा?”
“बेचा, पन…” जवाब म हँस पड़ा।
“दे खो, ध धा तो बोत धाँसू है, पन तू ल लू के मा फक रहेगा तो न चलेगा।”
“तू बोल तो!” उसने चुनौती वीकारी।
“ ह मत करेगा?”
“ ह मत क मत पूछ।” उसे ताव चढ़ आया।
“तो सुन।” रफ क उसका हाथ अपने हाथ म आ मीयता से दबाकर कान म
फुसफुसाया।
सुनते ही वह करे ट खाया-सा छटककर अलग हो गया।
“पन पो लस का लफड़ा?”
“हो गया, राजा तेरे से ध धा…” रफ क ने ख ली उड़ाई, “ फर तो बबुआ, मुँह म
चुसनी डाल के बइठ…चुसनी! या?”
“काय को मेरी फरक लेता…कभी कया न न, तो जरा लफड़ा- वफड़ा से डर
लगता। पन, करेगा म। जो बोलेगा, वो करेगा।”
“ये ई न मरदवाली बात।” स ता से उसके हाथ पर अपना हाथ पटकता आ
रफ क खल आया। समझाता आ बोला, “ रसक तो है, पर तू ठहरा अपना पुराना यार!
जमाएगा तुझको। ये सौ का प ा रख, खच- बरच को।”
सरे रोज़ वह पूरी तरह ह मत बटोरकर, बताए ए थएटर क बु कग खड़क पर
ठ क साढ़े नौ बजे जा खड़ा आ। काफ भीड़ थी। रफ क ने कहा था क खड़क पर
प ँचकर वह बु कग लक के सामने तीन उँग लयाँ उठा दे । बीस टकट उसके खीसे म
ह गे। सब कुछ गुपचुप व हो शयारी से होना चा हए। बगलवाले को भनक न हो। चौकस
सतकता बरती उसने। पलक झपकते बीस टकट उसक जेब म थे। दस तीन से छः के
शो के, बाक छः से नौ के। रफ क ने यह भी कहा क अभी इतनी ही टकट से उसे बेचने
का गुर सीखना होगा। गराक को शडी लगाने का गुर सीखते ही उसे यादा टकट
नकालने क ज़ मेवारी उठानी होगी।
टकट लेकर सनेमा हॉल का बरामदा उतरते ही एक काले-से ग े छोकरे ने उँगली
के इशारे से उसे अपनी ओर बुलाया।
“म?” उसने सकपकाकर अपनी अगल-बगल दे खा।
“तू ही, आ इधर!”
“चल उदर बेकरी के प छू चल… थएटर म तेरा आज पहला दन है न? यार लोग
ने तेरे को दावत दया!”
उसे लगा, रफ क ने इनसे भी उसके बारे म कुछ कह रखा होगा, मगर इस क लू ने
उसे तीन उँगली य नह दखाई? फर भी, वह बना हील- जत के सहज भाव से
उसके पीछे चल दया। मगर सँकरी गली म प ँचकर सनका। छह-सात छोकरे उसे चील-
झप ावाली मु ा म तने खड़े दखे। उनक मंशा भाँपते दे र नह लगी। वह भाग नकलने
क सोचे-न सोचे, तब तक उनम से एक ने झपटकर उसक गरदन माप ली, “बीस टकट
काय के वा ते खरीदा, तेरे बाप क बारात आती प चर कूँ?”
वह चुप रहा। खीझ ई अपने पर। भयंकर असावधानी हो गई उससे।
“मूँ म जबान न ?”
“खोल के दे ख!” सरे ने पहले को उकसाया।
“नया न, शरमाता। खोलेगा, अपने-आप खोलेगा।”
झूठ नह चलेगा। सब-के-सब दाढ़ -मूँछवाले। उससे तगड़े, मज़बूत। उसक मस-
भर भीगी ह। बोला, “ बलैक के वा ते…”
“ बलैक के वा ते?” उसका ही वा य दोहराने के साथ उसे एक ने कॉलर पकड़कर
उठाया और तड़ से ज़मीन पर पटक दया। उसके ज़मीन पर धे होते ही लात-घूँस क
बौछार होने लगी। वे उसक दे ह से गद क तरह खेलने लगे। कंक ड़य और तीखे डगढ़
(प थर के छोड़े टु कड़ ) से ह ठ कट गए। कुह नयाँ छल ग । खून से भर उठा। दाएँ
घुटने क ह ी उतर गई-सी लगी।
उसे श थल हो लुढ़कते-लुढ़कते, तवाद न करते दे ख उनके ोध पर छ टे पड़े।
उ ह ने हाथ-पाँव चलाने ब द कर दए। एक ने उसक बु शट म से टकट नकाल लये।
सरे ने मककर आ खरी लात जमाई।
“फूट…कल से क पाउ ड म नह दखना। दखा तो एकच टाँग पे घूमता दखेगा।
रफ क के बाप का थएटर न ।” चेतावनी दे कर सात फुर हो गए।
सरे रोज़ खासा हंगामा आ। रफ क ने उनके गग लीडर नारायना से बात क ।
दोन तरफ के छोकर क भड़ त होते-होते बची। कसी तरह मामला रफा-दफा आ।
पैसे वापस मल गए। मुनाफे के साथ टकट तो उ ह ने बेच ही लये थे। यह भी समझौता
हो गया क वह फलहाल उसी सनेमा हॉल पर खड़ा होगा। नारायना को कमाई म से
उसका ह सा दे ना होगा, रफ क को नह । नारायना को य , रफ क को य नह ?
रफ क ने उसके खर च खाए क धे को थपकाया, “वो सब पचड़े म मत पड़। तू फकत
अपना काम दे ख।”
वह भी उनक तरह चूहे को टोहती ब ली-सा भीड़ म च कर काटने लगा, “तीन
का छः, तीन का छः…बालकनी दस, बालकनी दस…”
पचीस-तीस पये रोज़ रात को उसके हाथ म आने लगे, नारायना और खड़क वाले
लक ीवा तव बाबू का ह सा प ँचाकर। इतवार क बात कुछ और होती। चार ‘शो’
म कह ‘हाउस फुल’ का पा टया टँ ग जाए तो पौ बारह। ेम म पड़े छोकरे-छोक रयाँ
पचास तक दे ने को राज़ी हो जाते। और का भी यही हाल। टै सी म पैसे फूँककर
आनेवाले बना फ म दे खे लौट कैसे?
ले कन ऐसे ‘हाउस फुल’ और ‘पेशल संडे’ ह त से ठ डे चल रहे। कोई धाँसू
प चर ही थएटर पर नह चढ़ रही।
बु कग खड़क के लए नकलने से पहले, वह माँ के हाथ म बीस पये रख दे ता।
शु म अ व ास और संकोच से घरी माँ उससे पैसे के वषय म बार-बार पूछती क
आ खर इतने पैसे कहाँ से और कैसे आए उसके पास? वह झूठ बोलता क ‘क ाज़’ पर
काम कर रहा है। क लोड करने के उसे प चीस पये रोज़ मलते ह।
माँ को उसके पैस क आदत पड़ने लगी है! कभी दस-पाँच कम दे ता है तो उसे
सँभालकर खच करने का उपदे श पलाने लगी है। आगाह करती क काम से जी न चुराए,
आज नय मत काम मल रहा है, कल मले, न मले! एक बात और। अपनी फजूल
चाट-चूट क आदत से भी बाज़ आए। जो खाना है, उसे घर म बनवाकर खाए।

सरी बीड़ी ख म कर, ट टे को पाँव से रगड़कर वह दबे पाँव खोली म घुसा। सटकनी
चढ़ाई और चटाई पर पड़ गया।
अचरज आ सटकनी न चढ़ होने पर। भूल गई शायद माँ? वैसे भूलती नह
कभी। हाथ बढ़ाकर धीमी कर द लालटे न क धीमी लौ द वार पर लुपलुपाती, भूरी
उजास लये थराने लगी। माँ को आज ज द न द लग भी गई। ज द न द आती नह उसे
इधर। इस बात का भी व मय आ। हो सकता है, आज अ धक थक गई हो। अचानक
महसूस आ, वह जो समझ रहा है क माँ गहरी न द म पड़ी सो रही है, उसका म है।
लोहे के पलंग क चरमराहट म उसे कसी तड़फड़ाती बेचैनी क आहट मली। या बात
हो सकती है?
उसने करवट भर गरदन उचकाई। त ध रह गया। अनुमान सही था। पलंग पर
उठकर बैठ माँ घुटन पर ठु ी टकाए, टाँग को बाँह से घेर,े झ पड़ी क द वार को
एकटक ताकती मली। माँ क आँख क पनीली उदासी आँख म सीधी न दे ख पाने के
बावजूद उसे साफ दखाई द । माँ उसे लेकर तो परेशान नह ? हो सकता है, उसके ध धे
क खबर कह से लग गई हो उसे। आजकल उसका इलाका बदला आ है। वह गेइट ,
गैले सी छोड़कर मलाड के एक नए थयेटर पर ध धा करने लगा है। याद नह पड़ता क
वह कभी कसी प र चत से टकराया हो।
हाथ बढ़ाकर उसने लालटे न क ब ी उकसाई।
रोशनी कुछ यादा हो जाने से माँ पर कोई असर नह आ। माँ पूववत बैठ रही।
यह भी हो सकता है क बाप घर आया हो? बाप घर आया होता तो माँ साबुत बैठ नह
दखाई दे ती। उसने भेदती नज़र से माँ क दे ह को टोहने क को शश क । को शश थ
गई। बाप के घर आने का कोई अवशेष ज़ म के प म माँ क दे ह पर मौजूद नह ।
ओह, कैसी अनाप-शनाप अटकल लगा रहा है। भूल गया क कल माँ ने ही उसे बताया
था क आज दोपहर वह कमली के घर जाएगी। जोशी बाई सप रवार तीन-चार रोज़ के
लए अपनी ननद के घर पुणे जाने वाली ह। उनके ननदोई क मौत हो गई है। जोशी बाई
के वापस लौटने तक कमली उनके पास ही आकर रहेगी। कमली कहाँ है? कमली को घर
पर ही होना चा हए। माँ कल कतनी खुश थी, उमंग से भरी ई क वह कमली के सूने
पाँव के लए चाँद क तो ड़याँ खरीदकर लाना चाहती है। सयानी हो रही है पोरगी। अब
तक कुछ कान-गले नह डाला। नधन-से- नधन अपनी बेट को छू ँ छा नह रखता।
उसे माँ क उमंग से खुशी ई। कमली के आने क खबर सुनकर तो और भी।
“हमेशा के जैसा दे र नह करना।” हदायत नह , इसरार कया था माँ ने। चलते-
फरते यह सूचना भी दे द थी उसे क ‘सीपी’ और ‘कोलमी’ (चावल क क म) भात
पकाएगी—कमला क पस द का खाना। बस, भागा-दौड़ी के च कर म याद नह रहा क
वह सुबह माँ से ज द आने क हामी भर गया था। पुरानी हट फ म लगी ई है थएटर
म ‘संगम’। राजकपूर, वैजय तीमाला, राजे कुमार को दे खने के लए टू टे पड़ रहे ह
लोग। माँ क ल बी नः ास क द तक से उसक सोच का तार टू टा।
“कमला आनेवाली थी न?”
माँ ने कोई उ र नह दया, जैसे उसका कान म पड़ा ही न हो। उसने संकोच
के साथ अपना दोहराया।
“नह आई।”
“काय को?”
उ र म चु पी।
“काय को न आई?” उसके वर म उतावली थी।
“उसको इदर न आने का है!” माँ का वर काँपा।
“ या?”
माँ सचमुच रो रही थी। अव क ठ से बोली, “कमलाच इदर रैने को तैयार न ।
ज करके वो उनके साथ पूने को गई। म लेने को गई तो बोली, “म बाई के साथ
जाएगी। मेरे कू झोपड़ी म नह आने का। पंखा न न उदर। ऊपर से संडास म लाइन
लगाने का लफड़ा…तुमको आदत पड़ गई मोरी म पशाब करने क , मेरी आदत छू ट गई।
उसी म पशाब करना, उसी म बरतन घसना, उसी म नहाना, हमको न चलता…”
‘हमको’ सुनकर वह च का। यह माँ का श द नह । यह अपनी औकात भूल
ब डंगवाल क बरादरी म वयं को शा मल कर लेने के मुगालते क छू ट है। सुख-
सु वधाएँ खैर उसे या मलन । सुख-सु वधा से अटे घर के पाखाने के सामने, शतरंजी
बछाकर सो रहने क छू ट ही कमली के लए घी के वाद क ब न बत, उसक तेज़
महक पीकर वाद पाने क स तु है, और कुछ नह । आम दखा और गुठली चुसाकर
कु ा बनाने क कला कोई इनसे सीखे! साआ ली नाटकबाज मा टरनी जोशी बाई! घी
सुँघा-सुँघाकर उ लू क प कमली को ऐसी कु तया बना दे गी क कमली जीवन-भर
ऊँची इमारत वा लय क दे हरी पर उनक भाँडी घस, जूठन चाट-चूट, कु तया-सी परक
रहेगी।
मामला समझ म आ गया।
माँ क पीड़ा बड़ी वदारक है—कुछ छू ट जाने, कुछ खो जाने क । दा ड़ए प त के
घोर तर कार से ब ा- ब ा छलनी ई माँ अपनी चहेती औलाद क अ या शत उपे ा
बरदा त नह कर पा रही।
“ दमाग ठकाने न कमली का, हरामखोर को चरबी चढ़ गई…झापड़ य न
चढ़ा के दया जोशी बाई के सामनेच? टडड मारती माँ के सामने?” वह ु ध हो उठा।
उसे लगा, कमली ने उसके मुँह पर भी थूक दया। हर समय ‘दादा, दादा’ करनेवाली
कमली के दल म उससे मलने क कोई ललक शेष नह ?
“तू कुछ भी बोल, ये मा टरनी पर अपने को खातरी न । आने दे लौट के पुने से, म
दे खता।” उसके वर म आग थी।
माँ ने गरदन घुमाई, “फायदा न , अपना स काच खोटा।”
“अ बी तू रोने का न , तेरे को मेरा शपथ! सो जा! कल सुबू मेरे को अपने साथेच
उठाना, ज द बुलाया सेठ।” कहकर उसने अपने चेहरे को कोहनी से ढक लया।
काफ दे र बाद माँ के लेटने क आहट ई। उनके करवट भर लेने के बावजूद उसने
महसूस कया क माँ सो नह पा रही। घुमड़-घुमड़कर सस कयाँ भरने लगती है। उसे
परेशानी ई। उठकर उसे मनाए? मनाए कैसे? कहे या? जो थोड़ा-ब त ःख का
आवेग कम आ है, फर न पलट पड़े! अपने ब तर पर उठ बैठा। कुछ दे र बैठा रहा। माँ
क सस कय का अ तराल बढ़ रहा है। बड़ी दे र तक कोई ससक नह आई तो ब तर
पर ढ ला हो गया।
कल बड़ी धाँधल है। अ मताभ ब चन क फ लम का रलीज है। खड़क पर
टू टनेवाली भीड़ को हो शयारी से सँभालना है। रात का रोना-धोना सुबू पनवती सा बत
होता है ध धे म। माँ या समझेगी? मलाड के लए नकलने से पहले वह हनुमान जी के
म दर म सर झुकाना नह भूलता। ध धे पर कृपा होनी चा हए न। उसके टशन क खबर
नह माँ को। टकट मु त म भी लेनेवाला नह मलता कभी-कभी, ऊपर से आपसी मारा-
मारी। सभी चाहते ह क उनको उसी थयेटर पर ध धा करने का चानस मले जसम
अ मताभ ब चन क फ लम लगनेवाली है। थयेटर क अदला-बदली के कायदे -कानून
भी भूल जाते। छु रा-चाकू नकाल लेते। माँ का या! चार घ ट का भाँडी-कटका
नबटाया और चल द मावसी (मौसी) के घर तफरीह करने। आजकल मावसी से ब त
पटने लगी है। पहले दोन एक- सरे का मुँह दे खना तक बरदा त नह कर पाते थे। चलो,
ठ क है। जहाँ भी माँ का मन लगे, चैन मले। बारह से पहले वह भी घर नह लौट पाता।

“तीन का तीस…तीन का तीस…बालकनी, पचास, बालकनी पचास…”


लोग के चेहर पर बुदबुदाता आ वह च कर-पर-च कर मार रहा है। पसीने छू ट
रहे ह। प लक एकदम ठ डी है। अ मताभ क फ लम है, टकट- खड़क ब द है, फर
भी लोग टकट बलैक म लेने को तैयार नह । च ता क बात यह है क बरामदे म ‘हाउस
फुल’ का प टया लगा आ है, मगर भीतर हॉल खाली है। वैसे यह ध धे क पोल है, पर
आज दाना फट नह बैठ रहा। प लक झाँसे म नह आ रही है। घूम- फरकर लौट रही
है। शो शु ए भी दस मनट हो चुके ह।
जबरद त फटका लगनेवाला है।
उसके पास इस शो के पचास टकट ह, माथा घूम रहा है उसका। होगा या?
इसी लए चढ़ रहा था रात माँ के रोने पर। कलह से कभी कुछ अ छा आ है? काम बना
कसी का?
एक युवक उसके करीब आया, “ टकट है?”
“ कतना माँगता?” उसके चेहरे पर चमक दौड़ी।
“तीस टकट! बालकनी के छः का तीन के भाव से दे दो तो ले लू।ँ ”
वह वधा म पड़ गया। आधे दाम म? अ मताभ क फ लम के टकट आधे दाम
म! कैसा अंधेर है? ऐसा पहले कभी नह आ। अ मताभ क फ लम माने जैक पाट!
आँख मूँदकर लगा दो पैसा! महीने-भर क कमाई ह ते-भर म! टकट र म जानेवाले
ह, यह तो तय है। पर बु मानी इसी म है क भागे भूत क लँगोट भली। जो भी नकल
आए। दमाग म क धा क एक साथी से मश वरा कर ले।
“जरा मनट इदरीच ठै रना” कहकर वह भीड़ म गुम हो गया। अपने एक साथी के
पास प ँचकर पूछा, “एक गराक बालकनी का तीस टकट आधी क मत म माँगता। दे
ँ ?”
“थोड़ा रा ता दे ख।”
“रा ता या दे ख?ूँ प लक साऽऽली वापस जा रही है। मु ल भी न नकलने का।”
साथी उसक बेस ी से चढ़ गया, “अबे, ध धे का कुछ उसूल होता…”
“चुप बे, उसूल गया तेल लगाने। इतना खोट! म जो नकलेगा, वो नकलता।” वह
वयं नणय लेता आ-सा उसके पास से हट आया और उसी युवक के करीब प ँचा।
उसने इशारा कया क वह टकट दे ने को तैयार है, पर यहाँ नह , वह पैसे नकालकर
सामनेवाली मटन शॉप के पीछे आ जाए।
फुरती से उसने हप पॉकेट से टकट नकाले, गने और युवक क ओर बढ़ा दए।
युवक के हाथ से पैसे लेकर जेब म रख ही रहा था क अचानक एक अजनबी उस पर
पीछे से आकर टू ट पड़ा। उसने अजनबी के चंगुल से छू टने क जानमार को शश क , खूब
छटपटाया, पर तब तक उसे कई अ य लोग ने घेरकर दबोच लया। समझ गया, छू ट
भागने क को शश करना बेकार है। आज चढ़ गया सी आई डी के ह थे।
थयेटर पर भी ज़बरद त छापा पड़ा। अ दर सीट खाली और बाहर ‘हाउस फुल’
का प टया। उसके तीन अ य साथी छोकरे पकड़े गए। बाक सात छटक गए।
हवा थी क सी आई डी ने घूम-घूमकर प लक को टकट न खरीदने के लए दबाव
डाला, ता क वह थएटर के कमचा रय और काला ध धा करने वाल क मली भगत को
रंगे हाथ पकड़ सके।
वह ब द हो गया।
मलाड पु लस चौक म रात-भर उनक खाल उधेड़ी गई। इं पे टर साम त लगातार
पूछता रहा क वह भकुर दे क वा तव म उनका सरगना कौन है और कस- कस सनेमा
हॉल पर उनके गुग सनेमा टकट क कालाबाज़ारी करते ह। सरे रोज़ कुछ सा थय ने
ज़बान खोल द । नारायना पकड़ा गया। रफ क फरार हो गया। गरगाँव का पा टल और
साक नाका का फ ल स भी पकड़े गए।
माँ को खबर भेजी गई। माँ जा मन (ज़मानत) के लए नह आई। रफ क के दो त
ने छु ड़ाने क पूरी को शश क , पर ऊपर से बात आई थी, नीचेवाल ने छोड़ने म मजबूरी
ज़ा हर क । बस इतना आ, उ छोट थी, अतः उसे ‘ड गरी बाल-सुधारगृह’ भेज दया
गया। तीन दन खोपड़ी के पीछे टमाटर-भर गु मा लये वह कराहता चटाई पर
बल बलाता पड़ा रहा। एक बाई डॉ टर ने आकर जाँच क । सूई लगाई तब कह जाकर
चौथी रात ठ क से सो पाया। इस ग त और नरक क क पना सपने म भी नह क थी।
बस, आँख के सामने ु ध माँ का चेहरा डोलता रहा। स चाई कैसे पचा पा रही होगी?
कैसे चला रही होगी उसके पीछे घर?
रफ क का छोटा भाई एक शाम अचानक ‘ड गरी बाल-सुधारगृह’ म उससे मलने
आया। उसी ने माँ के बारे म खबर द क वह उसक अ मी से लड़ने आई थी। ज़बरद त
गाली-गलौज कया अ मी से क रफ क क गलत सोहबत ने उसके सीधे छोकरे को
बरगला दया। तबाह कर दया। उसका बंडू ऐसा नह था, खूब पढ़ता था। अ छे न बर
लाता था। कहना मानता था।
सुनकर वह फ क हँसी हँस दया।
माँ उससे मलने तो आई नह । तीन महीने क सज़ा ई उसे। रहना उसे ‘बाल-
सुधारगृह’ के नरक म ही था। ऊँचे अहाते के कनारे लगे गुलाब के फूल वाला नरक! उस
नरक म एक नह , बे-स ग सैकड़ यमराज घूमते-टहलते नज़र आते। उन दै य के बीच
एक ल बे कटवाली भली-सी रेखा ताई भी उनसे मलने आत । उससे उसके अपराधी
होने के कारण तथा दबाव के बारे म पूछत । साथ-साथ कॉपी म कुछ लखती भी
जात । उसे समझात भी। साथ के कादर ने रेखा ताई का वा त वक प रचय दया।
“डॉ टर न रेखा ताई, कूंसीलर ह, कूंसीलर! (काउं सलर) खोपड़ी का डॉ टर! हम
लोग का साऽऽला खोपड़ी पढ़ने को आती है।”
“ऐसी तफरी तो इस ध धे म चलती रेती है, यार! कभी-कभी मलाई म म खी भी
गरती, तू घबराना न । ज रत का सामान म प चाऊँगा…” रफ क के भाई का संकेत
उसक बीड़ी-पानी के खच से था। कुछ नोट दए भी उसे, “इदर का सुप रटडट वेद
अपुन को बोत मानता है।”
चटाई क झर झरी तीखी ती लयाँ पीठ पर कुँच रह ।
न द नह आ रही। ऊपर से म छर खून पी रहे। न द आ जाए तो यही चटाई उसके
लए डनलप का ग ा सा बत हो। पर हो तो हो कैसे! उस ल बोतरे कमरे म उसे मलाकर
कुल इ क स लड़के ह। कुछे क नाटे , कुछ बड़े। ठसे-मुसे। एक- सरे क टाँग-पर-टाँग
चढ़ाए। उ ह सोता आ पाकर उसे व मय होता। घर क चटाई और इस नरक क चटाई
म उ ह कोई अ तर महसूस नह हो रहा? य ? या वे सब जानवाले मुद ह? और वह
जानवाले मुद के क तान म रह रहा? क तान क सफेद द वार दे खकर उसे कतना
डर लगता था! और यहाँ क तान म ही रहने को मजबूर है वह। उसे अपने र गटे खड़े
होते महसूस ए।
अचानक एक छोकरा न द म चीखा। उसक दे ह भय से एकबारगी काँप उठ ! ठ डे
पसीने से नहाती। न द म या दे खा होगा उस छोकरे ने? य चीखा वह? शायद चीख ही
शेष ह उनके पास जागते-सोते। चीख-ही-चीख, क म- क म क । सभी इतने खौफनाक
माहौल से आए ह क न द म भी वे उन चीख के भाव से मु नह हो पाते। उ ह म
दलते- पसते! कादर ने कल दोपहर अपना क सा सुनाया था। सुनकर वह अ व ास से
पलक पटपटाता, माथे पर बल डाले घूरता रहा।
“बाप मेरा स ा था। गऊ सरीखा। माँ का इ क हो गया साऽऽला ब नये से। उसके
संग भाग के उसके घर बैठ गई। बोत समझाया बाप ने। हाथ-पाँव जोड़ा। पन माँ के
मगज म कुछ न चढ़ा, मेरा हवाला भी न । इ जत-आब म ई। बाप का भेजा घूम
गया। एक रोज माँ को अपना सामान उठाके ले जाने के बहाने घर कू लाया और पलान
के मुता बक घासलेट डालकर फूँक दया! पन वो मरी न । ह पताल म उसने ‘पो लस’
को बयान दया क टोव न फटा। बाप-बेटे ने मलकर मेरे को फूँक दया।”
“ प छू …?” भय से उसक आँख फट ग ।
“ प छू या?” कादर ने लापरवाही से सर झटका, “बाप यरवदा जेल म और म
इदर…”
उसे अचरज आ। कादर अपनी सगी माँ के बारे म कतने नमम भाव से बात कर
रहा था मानो वह अपनी माँ क क ण आपबीती नह , मोह ले के कसी घर म ई
घटना का बयान कर रहा हो— न ु र, लगावहीन, बदले से भरा! य घृणा से भर उठा
कादर माँ के त? य नह हो सकता? अ याचार दल और आँख का पानी मार दे ता
है। मर गया कादर क आँख का पानी? म हो गई माया-ममता।
कनप टयाँ पसीने से चुहचुहाने लग । य याद करता है कादर का क सा! जब से
कादर ने सुनाया, भूल नह पा रहा। त माँ याद आ रही है, ज लाद बाप याद आ रहा
है। क सा सुना सभी ने, पर सब बेखबर खराटे भर रहे ह। एक वही…
अत च कया म अँजुरी-अँजुरी अनाज-सा पीस रहा है…कादर ने ठ क कया?
ठ क नह कया…नह , ठ क कया…उसे यही करना चा हए था। बाप क इ ज़त-आब
भी तो कोई चीज़ थी। ब चे क माया-ममता सब झटक…
अपनी माँ क यातना ब छू के वष-सी दमाग म लहर भरने लगी।
उसे भी बाप से नफरत है। बाप को माफ नह करेगा वह। उसी के चलते माँ और
गु ड़या-सी कमली को गु ड़या खेलने क उ म मा टरनी के घर चाकरी करनी पड़ी। उसे
बलैक के ध धे म मुँह काला करना पड़ा। कम कमाता है बाप?
कादर क माँ क तरह उसके बाप के ऊपर भी इ क का भूत सवार है… रेखा और
अ मताभ ब चन सरीखा। इस नरक से छू टते ही वह सीधा सफेद पुलवाली झोपड़प का
रा ता पकड़ेगा। रफ क क अ मी ने बताया था उसे क कोई पु पा क चाली है। तय है
क बाप उसी के घर मलेगा। खलास करके छोड़ेगा उसको। ट टा ख म। माँ का या?
जब से उसने आँख खोली ह, उसे भाँडी-कटका करके पेट पालते पाया। आगे भी पेट भर
लेगी। मद का वजूद उसके लए है ही कहाँ?
नस तनाव से तड़कने लग ।

छू टा तो पूव- नणय मुता बक घर न जाकर सीधा सफेद पुल पर आया। परली तरफवाली
झोपड़प पुल पर से प दखाई दे रही थी। वह कह है पु पा क चाली। चाली क
एक खोली म वह ‘राँड़’ और उसका बाप! अभी नह भी मला, तो वह उससे नबटे बगैर
माँ के पास नह जाएगा। नबटने का सामान है उसक कमीज़ के नीचे!
रे लग छोड़कर वह भीड़ म शा मल हो गया। तभी अचानक, भीड़ म उसे पड़ोसन
ल मी अ मा दखाई दे ग । वह अनायास उनक ओर लपका। माँ के हाल-चाल जान लेने
क उ सुकता दबा नह पाया। पीछे से पुकारा, “ल मी अ मा! ल मी अ मा!”
ल मी अ मा उसक गुहार सुन च ककर पलट । उसे सामने खड़ा पा स ता से
पुलक , “अइयो बंडू! तू? कब छू टा? बला बोत हो गया। खाने को न दे ते होते जेल
म?” वे एक साथ तमाम कर बैठ ।
उसने अपने बारे म जवाब न दे ते ए, अधीर हो, माँ के बारे म जानना चाहा, “माँ…
माँ कैसी है, अ मा?”
“माँ?” ल मी अ मा क भ ह म बल समट आए। पल-भर वह उसे खामोशी से
ताकती रह , फर व मय से भरकर बोल , “तेरे को न प ा? मली न तेरे को वो?”
अ न क आशंका से उसका जी धड़का, “ या आ माँ को? बोल अ मा!”
“सीताबाई ने नया नौरा ( हा) बनाया! वो तेरी मावसी का दे वर होता न, नारायण
श दे …उसी के साथ…मेरे को लगता, आज उसका रात पाली होएगा, तेरे कू घरमेच
मलेगा।”
सुनकर वह जड़ हो उठा।
ल मी अ मा उसक बाँह पकड़कर झकझोरती ई कुछ पूछ रही थ उससे, पर उसे
कुछ सुनाई नह दया। वह एकाएक मुड़ा और पलटकर भीड़ को ध कयाता आ तेज़ी से
पुल उतरने लगा…
ताशमहल

गुसलखाने से तौ लया लपेटे ए नकलते नशीथ को उसने कुछ झझकते ए रोक


लया, “सुनो!”
पायदान पर गीले पाँव रगड़ते ए नशीथ ने -भरी से उसक ओर दे खा।
“मेरा मतलब है…”
“तु हारा मतलब है, म आज छु ले लू?ँ ”
उसका परेशान चेहरा हला।
“छु बकाया है?” त भाव से उसने सर के गीले बाल को दोन हाथ क
उँग लय से झटकते ए कदम बढ़ा दए।
वह एकदम सामने आ गयी। तय करना ज़ री है। वह नह क सकती। आज से
उसक ‘एजुकेशन फॉर वीम स इ व लट ’ पर कायशाला शु हो रही है। तीस से पाँच
तक चलेगी। तीन महीने से वह इसी कायशाला क योजना को काया वत कर पाने के
लए वभाग से लखा-पढ़ कर रही थी। बजट पास करवाया। स भा वत वशेष क
सूची तैयार क । आम ण भजवाए। हैदराबाद, कलक ा, ब बई, म ास…कहाँ-कहाँ से
लोग आ चुके ह गे। वह नह प ँचेगी तो कए-धरे पर पानी फर जाएगा। वीमेन टडीज़
यू नट क मुख ो. डॉ. मस कथू रया एक अ य कायशाला के सल सले म मज़ोरम
गई ई ह। आज शु हो रही कायशाला क पूरी ज़ मेदारी उसके क ध पर है। या पता
था क ऐन मौके पर ब चू क बीमारी ग भीर प धारण कर लेगी। और पछले दो ह त
से चढ़-उतर रहा उसका बुखार वायरल नह , टाइफाइड स होगा। सुबह थमामीटर
लगाया तो बुखार एक सौ चार पाया। ध दे ने पर सारा ध पलक झपकते उसने नाक-
मुँह से भलभलाकर उलट दया। ह ठ बजबजा आए। आँख डू बने लग । उसका कलेजा
मुँह को आ गया। दौड़कर डॉ. ीवा तव का न बर मलाया। वे अपने न सग होम के लए
नकल रहे थे। उ ह ने प कह दया क ब चे को वह अ वल ब न सग होम म दा खल
करा द। केस बगड़ गया है। ब चा र ा पता से पी ड़त तो है ही, हो सकता है लूकोज़
आ द चढ़ाना पड़े। उसने क पत श द म अपनी मजबूरी बयान क क या शाम को
कायशाला से लौटकर वह ब चू को न सग होम म दा खल नह करा सकती? ‘नह ’
कहकर डॉ टर ीवा तव ने लाइन काट द । बारा न बर मलाने और पूछने का साहस
नह आ। डॉ. ीवा तव क हड़बड़ाहट से प ज़ा हर हो रहा था क वे बेहद ज द म
ह और फोन रखते ही घर क सी ढ़याँ उतर गाड़ी म बैठ गये ह गे।
“सब पैसा बनाने के च कर ह…न सग होम म ले आइए।” टाँग फैलाकर पट क
ज़प चढ़ाते ए नशीथ ने घृणा से मुँह बराया, “टाइफाइड है, कसर नह ! मर नह
जाएगा ब चू। सुबह से घर को सर पर उठा रखा है। ऊपर से ये डॉ टर! जेबकतरे ह
साले, जेबकतरे!” ट -शट का हगर ब तर पर फकते ए वह बाँह फँसाते ए ट -शट
पहनने लगा, एकदम न ल त।
“दा खल-वा खल करने क मूखता छोड़ो। लंच के बाद घर आ जाओ, बस। तब
तक अ मा दे ख लगी उसे। ब रा मामूली डॉ टर नह । उसक द ई खुराक तो पूरी होने
दो!”
“तो तुम उसे न सग होम नह ले जा सकते?”
“एक तो म डॉ. ीवा तव क सलाह उ चत नह समझता और अगर तु हारी ज़द
ही हो तो गुंजाइश नह ।”
इससे अ धक गड़ गड़ाना उसके वश का नह ।
समय भी नह है। मदर डेरी के बूथ के सामने से ठ क आठ-बीस पर उसक चाटड
बस छू ट जाती है। उसके बाद साढ़े आठ क तीन सौ चवालीस पेशल नकलती है, जो
ठ क रा. शै. अ. . प. के गेट नं. दो पर ख म होती है। गेट नं. दो से उसका कायालय
यही कोई आधा फलाँग होगा। साढ़े आठ वाली बस भी छू ट गई तो मुसीबत ही समझो।
प ँचने के लए कोई सीधी बस नह है। मे डकल प ँचकर बस बदलो या फर कूटर-
टै सी का सहारा लो। थ ही उसके आगे-पीछे मँडराती रही। वयं तैयार होना है। संग
ले जानेवाले पूरे कागज़ात सहेजने ह। आधे-घ टे के अ तराल म ब चू को दो अ य
दवाइयाँ पलायी जानी थ , ज ह पलाना ही भूल गयी। ध उलटकर कैसा न ाण हो
आया है, ह त से न सचे पौधे क भाँ त!
कसी सहयोगी को फोन भी नह कर सकती क ऐसी थ त म वे ही सुझाएँ क
वह या करे? नकल चुके ह गे घर से सब।
वैसे भी उ ाटन म तो उसे हर हालत म होना ही चा हए। ेय लपकने वाले
त पध कौन कम ह कायालय म!
वैसे भी कायालय अब जुआखान और जुगाड़खान म त द ल होते जा रहे ह। खेल
खेलने म मा हर ही वहाँ जमे रह सकते ह। उन लोग के सामने घर-बार क मजबूरी का
होना उनके हाथ म फाँसा पकड़ना होगा।
“टाइफाइड है कसर नह , मर नह जायेगा ब चू!” लगा था, कसी ने पहाड़ क
चोट पर चढ़ाकर अचानक पीठ पीछे से ध का दे दया हो।
नशीथ दन- त दन काठ य होता जा रहा है? कसी सूखे तने-सा काठ!
जसक छाती म खुदे कोटर म नवास करते प य स श वे। कोई सरोकार नह उन
रहनेवाल के संग उसका। या आ उनके दर मयान क एकाएक नशीथ काठ होने लगा
और वे कोटर के आ यी प ी। बदहवास हो घबराकर कतनी ज़ोर से चीखी थी। जब
तक ब चू को गोद म उठाकर पलंग क पाट से उसे नीचे झुकाए तड़पकर उसने नाक
और मुँह से भल-भलकर ध नह , आँत उगल द थ ब तर पर। कोई समय था, ब चे
पर बगड़ने का? ख टया लगते बड़ -बड़ क ह मत प त हो जाती है। ब तर पर ही
खाना-पाखाना होने लगता है। फर वह तो चार फ ट क न ही काया है। कह गाँव- जवार
म होता तो अब तक क नया लदा बछे ड़-सा माँ के आँचल म मुँह मारता फरता।
दवाई क दोन खुराक आँख भ चे पड़े श थल ब चू के मुँह म एक साथ डाल द
उसने। उबकाई शा त है। दवाएँ उलट नह उसने।
कलाई मोड़कर सूइय पर नगाह डाली। म त क को अचानक बजली का-सा
झटका लगा। चाटड गई। भले सी ढ़याँ उतरते ही उसे र शा खड़ा मल जाए तब भी वह
मदर डेयरी के बूथ तक समय से नह प ँच सकती और बस नह पकड़ सकती। तीन सौ
चवालीस पेशल का ही आसरा शेष है। क धे पर मूँगा कोटा के प लू क चु ट को
लाउज़ के भीतर से पन लगाते ए वह हड़बड़ायी ई-सी अ मा जी के नकट जा खड़ी
ई। बोलते ए चेहरा दयनीय हो आया। कुछ बोलना न भी हो तब भी दयनीयता उनक
उप थ त के साथ ही जाने य चेहरे पर आ चपकती है।
“आप कह तो रोनू को ै च म छोड़ती ई जाऊँ!”
“काहे?” अ मा के माथे क साँवली झु रयाँ गहरी सलवट म प रव तत हो चौड़ाती
झड़ी माँग से जा जुड़ , “हम नह ह घर म…?”
“दोन को सँभालने म द कत नह होगी आपको?”
“ज र होगी…तुम ब चू को न सग होम म दा खल नह कराय रह ?”
उनका आशय तमाचे-सा लगा गाल पर।
“छु नह ले सकती…” उसे लगा, आगे श द नह , अचानक आँस झड़ पड़ेगी
होठ से। बीच-बीच म छु लेती रही। ले सकती थी, नह ले पा रही तो कोई ब चू क
ज़ मेदारी उठाने को तैयार नह । दो ह ते से ब तर पर पड़ा है ब चा, कसी रोज़
द कत ई या? कोई तकलीफ द उ ह ब चू ने? उठ पाता है तो अपने-आप
नदशानुसार दवा खा लेता है। ध ले लेता है। ब चू से लगाव नह है, न सही। ले कन
सामा य दया-माया पाने का भी अ धकारी नह है वह? सुबह से मा मूकदशक क भाँ त
बैठ दे ख रही है, ब चू क बगड़ती हालत। न खुद पूछा-पाछ क , न नशीथ को ही
टोका क एक दन द तर न जाने से पहाड़ नह टू ट पड़ेगा सर पर। कैजुअल पूरी-क -
पूरी बकाया है उसक , अ छ तरह जानती है। घड़ी क सूइयाँ दौड़ रही ह। उनके मुँह
लगना ठ क नह । सुबह से झायँ-झायँ हो रही है। पता नह , कायशाला म या कर
पाएगी।
ब चू के सरहाने रखी मेज़ पर से दवाइय क दो पु ड़या बना लाई और अ मा जी
के सामने खोलकर समझाने लगी, “सुबह क दवा पला द । यारह के आस-पास यह
पीली गोली और हरा-सफेद कै सूल दे द जयेगा, पानी के साथ। दोपहर म ये तीन
सफेद। उलट क शकायत करे तो ये छोट सफेद।”
उ ट क बात सुनते ही अ मा के चेहरे पर घन क धी। रोनू दाँत नकाल रहा है।
द त भी लग जाते ह उसे, और ध भी उलट दे ता है अ सर। उसक उ ट -ट साफ
करते अ मा के चेहरे पर र ी-भर भी घन नह झलकती। च ता टपकती रहती है
तपल। हरड़-बहेरा चटाने से लेकर राई-नोन उतार टोना-टटका फूँकती रहती ह उस
पर। जस दन रोनू के ज म लेने क सूचना प ँची उनके पास, कभी उनक दे हरी पर
पाँव न धरने क उनक कसम अचानक टू ट गई। रोनू को छाती से चपकाए उस पर
ब लहारी होती रहत वे। आने-जाने वाले स ब धय के सम ख सयाती, बड़बड़ाती
रहत क मूल से याज यारा होता है। कैसे हठ धरे बैठ रहत ? उसके साथ नशीथ के
याह के नणय को अ मा पचा नह पाई थ । कसम खा ली थी उ ह ने क वैध के शेष
दन वे आगरे जाकर अपने राधा वामी स सं गय के बीच काट दगी। तीन साल से अ मा
वह थ । जब से आयी ह, रोनू को ै च म नह छोड़ने दे त । बड़े मनोयोग से सुबह-शाम
कड़वे तेल से उसक मा लश करती ह। चर जी का उबटन मलती ह। मैल क ब याँ
दखाकर नशीथ को उसक लापरवाही का उलाहना दे ती ह, “ऐसे पलते ह ब चे! ध के
दाँत नकले नह और ड बे का ध! छाती सुखाने क या ज रत थी? ऐसी कौन-सी
कले टरी चली जाती अगर नौकरी छोड़ दे ती ब ?”
“ब चू का द लया बना दया है।”
उसने अ मा को दे खे बगैर उ ह स बो धत कया।
क धे पर बैग डालकर गोद म फाइल का पु ल दा सहेजती ई वह ब चू के ऊपर
झुक , “दाद को दक् नह करना! ब कट, पानी—सब रखा है तु हारी मेज़ पर।”
क ठनाई से आँख खोलते ए ब चू ने न भ से उसे दे खकर अनुमोदन म
ठु ी हलाई।
वह तेजी से कमरे से नकलकर दालान पार करती ई घर से बाहर हो गयी। रोनू
को यार करना भूल ही गयी। अ मा को ब चू क दवाइय क खुराक समझाने गई तो
कैसे उसक ओर टू टकर कूद पड़ रहा था उनक गोद से। अ छा है, काजल नह आँजती
आँख म।

बस के पायदान पर पाँव रखते ही बस रगने लगी।


जान म जान आई। बस छू टती दे ख र शेवाले से अठ ी वापस नह ले पायी।
म हला के लए आर त सीट के नकट प ँचते ही एक सीट पर बैठ दो म हला ने
उसके टकने के लए जगह बनाई। कृत ता ा पत करती वह सीट पर बैठ गई। फाइल
का ढे र खड़क से सट बैठ ई म हला ने अपनी गोद म रख लया।
पहले ठ क नह थी! अकेली? अकेली कहाँ, ब चू था साथ।
सुकुमारी काक थ , जो कायालय से उसके घर म पाँव दे ते ही अपना झोला लटका,
घर और ब चू क ज़ मेदारी उसके हवाले कर अपने घर चल दे त । अनुशा सत दनचया,
कोई बाधा- वधान नह । कभी सुकुमारी काक क रीढ़ क ह ी क ट स उ ह ख टया
से लगने को मजबूर कर दे त तो वह और ब चू आपस म ज़ मेदारी बाँट, एक मौन
समझौते के तहत जीने लगते। ब चू पड़ोस क सुलभा आ ट से चाभी लेकर ताला
खोलता। मेज़ पर रखा खाना खाता। खाने के बाद सुलभा आ ट से बाहर ताला डलवा
चाभी अपने पास रखने को कहकर सो जाता। कई दफे तो वह उसके कायालय से
लौटकर आने तक सोता ही रहता। क तु अ सर ब चू उसके घर प ँचने से पूव उठकर
अपना गृहकाय नपटाकर कमरे क खड़क पर बैठा उसके आने क ती ा करता
मलता। उसे दे खते ही खड़क से दरवाज़े पर आ, ह षत हो कूदने लगता, “ममा आ गई।
आ गई। आ गई।” कवाड़ खोलते ही उचककर वह उसके गले म झूल जाता और पाँव
उचकाए ए ही ब तर तक लटका चला आता। उन दोन के बीच र- र तक कोई नह
था।
नशीथ से उसने प कहा था क वह अपने और ब चू के बीच कसी अ य क
गुंजाइश कतई नह पाती। उसके सामने एक संक प है। उ े य है। साथकता भी। दे ह क
माँग इन सबके बीच वतः खो गयी है। उठती ही नह ।
“यह साधना है… वाभा वक माँग से काटकर।”
“गलत…न साधने क आव यकता रह गई है, न काटने का य न…दे ह अपनी
सीमा के त समझदार नह साझीदार भी है…”
“म इसे दमन क ँ गा…”
“तुम मुझे जीने क प रभाषा नह दे सकते…”
“यह तु हारी यादती है…तुम मेरी ओर दे खना नह चाहत …”
“मेरे लए इन बात का अब कोई मह व नह रहा…”
‘यह’ उसके सामने नशीथ ने एक छोट -सी काली डायरी हौले-से सरका द थी।
“ या है, यह?”
“खुद ही दे ख लो।”
“मगर यूँ?”
“मुझे जानने के लए…”
“तु ह जानती नह …?”
“वह म नह ँ…।”
“अगर तुम वह नह हो तो तु हारे कुछ और होने को जानना मेरे लए आव यक
नह …”
“शायद…ले कन म चाहता ँ क तुम मेरे कुछ और होने को भी जानो शुभू।”
“ कसी क डायरी पढ़ना अपराध है, नशीथ।”
“तब नह , जब कोई वयं उसे पढ़वाना चाहे।”
उसके भीतर गाढ़ा होता असमंजस मेज़ पर रखी कॉफ के याले क सतह पर
साढ़ -सा जमने लगा। झट से साढ़ हटाकर उसने कॉफ का घूँट भरना चाहा। भर नह
सक । दस-प ह मनट पूव आई कॉफ का वाद ऐसा लग रहा है, जैसे पछले दन कोई
कॉफ बनाकर अपना याला पीना भूल गया हो और वही याला कसी ने फर उसके
सामने लाकर रख दया हो। झुटपुटा उसके भीतर उतरने लगा। उठना चा हए। इ डया
इ टरनेशनल से टर के सामने से कूटर नह मलता। खान मा कट तक पैदल जाना
होगा। ब चू च तत हो रहा होगा क घ टे -डेढ़ घ टे दे री से प ँचने क खबर करके ममा
अब तक घर य नह प ँच ।
“उठ…?”
अपने म डू बे नशीथ ने च ककर उसक ओर दे खा, “एक-एक कॉफ और
पीय…?”
वह उठ द , “पहली ही नह पी सक …”
“ य …ठ क नह ?”
“इ छा नह हो रही।” वह उठते ही कुस खसकाकर मुड़ ली। उसक पीठ ने
महसूस कया, मेज़ पर से डायरी उठाते ए नशीथ ने याचना भरी से उसे दे खा।
फर खामोशी से पीछे हो लया।
गेट से नकलते ही संयोग से एक खाली कूटर सामने से आता आ दखाई दया।
रोका उसे। कराया उसने डेढ़ गुना माँगा। इस व कोई झक झक स भव नह थी।
भीतर पाँव रखते ए उसने चेहरे पर थायी हो आई अ ल तता को त नक झटकने क
को शश क । इतना आशालीन होना उ चत नह । “कॉफ के लए ध यवाद! नशीथ।”
नशीथ के उदास चेहरे पर सघन होती स या क का लख गहरा आई, “म अब भी
डायरी पढ़वाना चाहता ँ…”
वह कहना चाहती थी, इसके लए तुम मुझे मा कर दे ना नशीथ! ले कन उसके
डायरी लये तेज़ी से आगे बढ़ आए हाथ क कलकन उससे रयाई नह गई।

रात ब तर पर डायरी के पृ करवट भरने लगे…


“ दवाकर को चुनकर तुमने मेरे सामने एक फैसला रख दया था और अपनी
भावना को अ कट रहने दे कर मने उसे अपनी नय त मानकर वीकार कर लया था।
अब दवाकर तु हारे जीवन से अलग हो चुका है…म तु ह बताना चाहता ँ क तु हारे
इद- गद बने रहने का बरस पुराना स तोष अब अचानक अपनी नय त से व ोह करने
लगा है…”
“ से अलग होता है…म तु ह अब भी…तु हारे लए सही मायन म
साथी होना चाहता ँ, शुभू! ब चू के लए सचमुच पता। तुम पाओगी, म जो कुछ कह
रहा ँ, मा मेरा सोचना-भर ही नह है, न कोरी भावुकता क उड़ान। यह जीवन के हर
प म भागीदारी का ऐलान है…ब चू तु हारे ाण का प दन ही नह है, वह मेरे दय म
भी संच रत हो रहा है…”
डायरी के पृ ने उसे उ े लत कर दया। महीन वे पृ कसी के हाथ म ब धक
कबूतर से इद- गद फड़फड़ाते रहे…पीड़ा के खाँचे नह होते!
“मेरी एक शत है…” वे इ डया इ टरनेशनल से टर के उसी पछवाड़े वाले लॉन म
बैठे ए थे। “मुझे मंजूर होगी…”
“ब चू के अलावा म कोई सरा ब चा नह चा ँगी…”
नशीथ को नणय करने म पल-भर भी नह लगा, “मंजूर…ले कन य ?”
“ वभा जत माँ डायन होती है…”
असावधानीवश रोनू रह गया। वह न त थी क गभपात करवा लेगी। नशीथ ने
पहले तो ‘हाँ’ कर द मगर डॉ. कोटवानी से गभपात क तारीख न त करने के समय
एकाएक उसका दय डावाँडोल होने लगा। उससे रहा नह गया। डॉ. कोटवानी के सामने
ही वह उससे ज़द करने लगा क वह अपने नणय पर एक बार फर से सोच ले। गभ रह
ही गया है तो ब चा होने दे ने म हज ही या है? अपनी ज़द के प म उसका तक था,
“ या हम अपनी मा यता को ब चू के ऊपर ज़बरन थोपकर ब चू के संग यादती
नह कर रहे? बड़े होकर उसे अकेलापन अनुभव हो सकता है। बड़े होकर या, अभी
नह लगता होगा? एक और ब चे के आ जाने से ब चू कतना खुश होगा? और अगर
कह बहन आ जाए तो इस घर म लड़क क कमी भी पूरी हो जायेगी…”
“…वह शत और कुछ नह , तु हारे दय म पंजे गड़ाए बैठ असुर ा क वह
भावना थी, जो तु ह आशं कत कए ए है क कह ऐसा न हो क हमारा वा स य बँट
जाए। तु ह ब चू के त मेरे वहार म कोई अ तर दखाई दे रहा है? नेह म कोई खोट
महसूस हो रही है?”
उसे लगा, ब चू के बहाने वयं नशीथ के मन म ब चे क ललक ठाठ मार रही है।
वह पता होना चाहता है। उसके पता होने के अ धकार को वह अपनी अमानवीय शत के
पाँव तले कुचलकर उसके त नदयी नह हो रही? स भव है, वयं पता बनकर
नशीथ ब चू के लए अ धक संवेदनशील और उदार पता सा बत हो। शायद आने वाला
ब चा उन तीन को अ धक सु ढ़ता से जोड़नेवाला सेतु स हो। गभपात कराने का
न य उसने बदल दया।

कुस पर अधलेट -सी हो उसने आँख ढाँप ल ।


कैसा दड़बे-सा कमरा है उसका। बजली जाते ही अँधेरी सुरंग-सी हो उठती ह,
कमरे के ऊपर ढही पड़ती-सी द वार। कतनी लखा-पढ़ा क है अ धका रय से उसने क
काम-काज के लए उसे कोई अ य जगह दे द जाए। कोई भी। भले ही वह वातानुकू लत
न हो मगर उसके सीने पर आसमान क ओर खुलती कुछे क खड़ कयाँ अव य ह ,
जनसे टककर वह ताज़ी हवा के झ क के साथ अपने होने को अपने भीतर महसूस कर
सके। घर और कायालय—दोन ही जगह वह अपने होने को महसूस करने के लए
नर तर छटपटाती रहती है। घर म खड़ कयाँ ब त ह, मगर वे खुली होने के बावजूद उसे
उसके होने क अनुभू त से नह पूरत । उसे लगता है क वे खड़ कयाँ, खड़ कयाँ नह
रह गई ह—द वार का ह सा बन गई ह जनके पट ज़ंग खाई सटकनी के चलते कभी न
खुल पाने के लए अ भश त ह…
“अ दर आ जाऊँ साहब…?”
च ककर वह सीधी हो आई। काशन वभाग के गु ता जी थे, “लगता है, मने
आराम म खलल डाल द ।”
“आराम!”
“तो कुछ सोच रही थ …?”
“बै ठए…बै ठए…” उसने उनके का कोई उ र न दे ते ए कुस क ओर इशारा
कया।
“ऐसा है शोभना जी, म आपक परेशानी समझ रहा ।ँ जन लोग को
थाना त रत कया जाना चा हए, वे इ मीनान से कुस से चपके बैठे ए ह। कसी
एम.पी. या म ी से प रचय-व रचय नह आपका?”
उसने -भरी से गु ता जी क ओर दे खा।
“ये नदे शक साहब ह ठे ठ धुर। करती र हए लखा-पढ़ । दे ती र हए ये कारण, वे
कारण। रोती- बसूरती र हए अपनी क ठनाई। हथेली पर सरस नह जमेगी। आपको
शमला जाना ही पड़ेगा बतौर फ ड एडवाइज़र…रीडर ह तो या आ, जहाँ-तहाँ पटक
सकते ह वे आपको…बस, एक ही पेपरवेट है जो आपके तबादले को कल का कल,
ब क य क ँ तो अभी इसी ण र करवा सकता है…म ी जी का एक फोन प ँच
जाए इस धुर के पास, फर दे खए तमाशा… कलाबाजी खाता नज़र आएगा आपके इद-
गद। अंगद के पाँव क तरह द ली म जम जाइएगा आप साहब।”
“यही तो मु कल है…” उसके चेहरे पर हताशा अहेरी के जाल-सी फैल गई।
“अरे मु कल-उ कल कुछ नह … नशीथ जी से क हए कोई सोस भड़ाएँ…
द ली म र हएगा और बना कसी एम.पी., म ी क करपा से।”
उसके होठ पर कलछाया व प ू खच आया। ज द म नह लगे गु ता जी, चाय
मँगवानी ही पड़ी उसे। चाय सुड़कते ए गु ता जी उसके वभाग के येक अ धकारी क
ज मप ी स वर बाँचते रहे। सुनते ए भी वह सुन नह रही थी। उनके जाते ही उसने
नदे शक के नाम अपने तबादले के स दभ म तीसरा कड़ा वरोध प लखा और पी.ए.
नौ टयाल को बुलाकर उसे त काल टं कत कर लाने को कहा। फर अपने ारा पछले
वष कूल श क के लए संयो जत क गई एक व श पु तक क टं कत त सामने
ख चकर पढ़ने क को शश करने लगी।
नशीथ से कुछ कह सकती है…? पछले ह ते से उन दोन के म य पर पर
बोलचाल एकदम ब द है। पहले उनक को शश आ करती थी क जब तक अ मा उनके
साथ ह, कसी भी कार क बदमज़गी से वे बच। ले कन अब उसक पूरी सतकता और
संकोच के बावजूद थ त ठ क उलट हो रही है। नशीथ के दमाग म कुछ जाले पैदा हो
गए ह। वह अपनी सम त चेतना और ववेक को ताक पर रखकर उन जाल म कैद हो
गया है और उसे भी उन जाल क बदबूदार सड़न म घसीटकर अपने हाथ अपनी नाक-
मुँह ब द कर घुट जाने को ववश कर रहा है…ब द कर ले अपनी नाक-मुँह…?
…सोने क तैयारी म वह पलंग पर अधलेट हो प का पलट रही थी। नशीथ ुश
करने गया आ था। अचानक पसीने से लथपथ काँपता आ ब चू अपने कमरे से आकर
लपट गया और हचक ले-लेकर सुबकने लगा। समझ गई, वह न द म डर गया है।
पुचकारने पर उसने बताया क सपने म उसने एक वशाल डरावने दै य को दे खा जो
अपनी लपलपाती जीभ लये उसे नगलने को उसक ओर बढ़ रहा था। उसने ब चू को
यार करके उसके कोमल दय से भय भगाने क चे ा क । समझाया-बुझाया क डरना
कायरता है, वह तो ब त बहा र ब चा है। जाए, और अपने कमरे क ब ी जलाकर सो
जाए। मगर ब चू अपने कमरे म अकेले जाकर सोने के लए तैयार नह आ। ज़द ठान
बैठा क या तो वह चलकर उसके पास सोए या फर उसे अपने पास सुलाए। भयभीत
ब चू कसी आघात से पुनः बीमार न पड़ जाए, यह सोचकर उसने उसे छाती से चपका
लया और उसे सुलाने क को शश करने लगी। पता नह कब ब चू सो गया और उसे भी
झपक लग गई। अचानक उसे महसूस आ क कसी ने झटके से ब चू को उसके अंक
से दबोच लया है। जब तक वह कुछ समझे-बूझ,े ब चू क दल दहला दे नेवाली ची कार
को सुनकर बदहवास-सी उठ बैठ । कमरे के अ दर का य दे ख दल दहल गया। अश
ब चू को श भर ऊँचे उठा नशीथ ने नदयतापूवक पलंग पर पटक दया था…
वह अपने पर नय ण खोकर पगला-सी उठ । “ यूँ ाण लेना चाहते हो तुम, इस
अबोध ब चे के? या बगाड़ा है इसने तु हारा? बोलो, या बगाड़ा है इसने तु हारा?”
“यह मेरी आँख म त ण करच-सा करकता रहता है…”
“मगर यूँ?”
“न पूछो तो बेहतर है…”
“स क एक सीमा होती है…”
“होती है, न त। और मेरे भीतर भी अब वह चुक गई है…ब चू मा दवाकर का
अंश ही नह , उसक श ल म तुम तपल अपने भीतर दवाकर को ही जी रही हो।
दवाकर तु हारे लए अतीत नह अब भी वतमान है, वतमान… वह तु हारे जीवन से
नकलकर आज भी नह नकल पाया…”
“यह सब तु हारे संशयी दमाग के जाले ह ज ह तुम मुझ पर उगल रहे हो…”
“जाले नह स चाई है, कड़वी स चाई। ब चू को जब भी म तु हारी छाती म सर
गड़ाए बका आ पाता ,ँ मुझे वह दवाकर नज़र आता है…”
“ या बकते हो…”
“इस घर म, अपने और तु हारे बीच इसे म और नह बदा त कर सकता… मुझे ही
नह , इस टू ट ँ -टूँ दवाकर के पीछे तुम मेरे ब चे क भी उपे ा कर रही हो… लगता है,
रोनू को पैदा ही नह कया तुमने… य कर रही हो सौतेला वहार मेरे ब चे के संग?”
‘मेरे’ पर नशीथ ने जस भाव से ज़ोर दया, उसके भीतर भरे मतबान-सा गरकर कुछ
टू ट गया। यह उनके दर मयान मेरे-तेरे क वभाजन रेखा कब आ बैठ दबे पाँव!
“ या कह रहे हो, अनगल ओछा…समझते हो?” घृणा से उसक आवाज़ काँप
उठ , “म माँ … ँ ब चू और रोनू म अ तर कर सकती ? ँ ”
“खूब…पता नह य तुम पर मने रोनू के ज म के लए दबाव डाला। य ज़द क
पता बनने क …तुम तो बारा माँ बनना ही नह चाहती थ । रोनू मरे या जये, तु ह इससे
मतलब नह , उठाया गोद म और पटक आई ै च म…जो कुछ करना है, अ मा कर…”
ब तर पर सहमा ब चू घुटन म मुँह छपाये बैठा आ था। अ मा भी उठकर कमरे
के दरवाज़े पर आ खड़ी ई थ । उसने शा त होने और शा त बनाए रखने क मंशा से
वर को भरसक संयत बनाया, “ऐसा नह हो सकता क तुम अपने मन म बैठे
आधारहीन संशय को उखाड़ फको और ब चू को उसी प म यार करो जैसे पहले
करते थे? तुमने वयं दवाकर बनना चाहा था उसके लए पता बनकर।”
“तुमने बनने नह दया…”
“यह सच नह है…”
“स य या है?”
“स य इतना-भर है क इस घर म रोनू के लए दाद है, पता है, माँ है, क तु ब चू
के लए… सफ उसक माँ-भर है। इस घर म ही या, स भवतः पूरे संसार म, और म
उससे उसक माँ छ नने का अपराध नह कर सकती…”
“ये तु हारे मन के म ह…ले कन अब भी ये घर, घर हो सकता है एक शत पर।
ब चू को हॉ टल म डालना होगा…मने पंचगनी थत रानाडे व ालय का फॉम आ द
मँगवा लया है…सोच लो तुम।” वह पाँव पटकता आ अपने कमरे क ओर चला गया
था। अ मा जैसे मौन खड़ी थ , मौन ही पलट पड़ी थ । उस कमरे म रह गए थे— सफ
वह और घुटन म मुँह दये उकड़इ बैठा ब चू!
… कतना कुछ कहना चाहती थी। कहना चाहती थी, जो मेरे जीवन से
नकल चुका है, उसे तुम इस अबोध ब चे म खोज रहे हो। यह दवाकर का अंश ज़ र है
नशीथ, क तु यह मेरा भी तो अंश है। तुम मुझे य नह खोज सके ब चू म और उसे
य नह अपना सके? या था वह, जो तुम अपनी डायरी के पृ म दज करते रहे…?
दवाकर से जुड़ जाने के बावजूद जो तु हारे दय म उतनी ही ती ता से व लत होता
रहा और बरस के अ तराल के बावजूद, श मत नह हो पाया। कहना यह भी चाहती थी
नशीथ से, क तुमने तो कहा था क तुमने याह इस लए नह कया था क तुम अपनी
शुभू के अलावा कसी और से शाद कर ही नह सकते थे।…

“अ दर आ सकता ँ मैडम?” नौ टयाल नदे शक के नाम लखाया गया उसका प


टं कत करके ले आया था।
“आओ।”
“यह प …हाथ से ही भजवाएँगी बड़े साहब के पास या डाक से…?” नौ टयाल ने
प क टं कत त उसक ओर बढ़ाते ए पूछा।
“बैठो…अब यह प नह जाएगा।”
नौ टयाल ने च कत भाव से उसक ओर दे खा।
“हाँ, सरे प का ड टे शन ले लो।”
“यह ठ क नह ?”
“नह , यह बात नह …यह तबादले के तवाद म है नौ टयाल…और अब म तबादले
पर जाने के लए तैयार …
ँ ”
कागज़-कलम सँभालते ए नौ टयाल ने अचरज से मैडम क ओर दे खा। यह मैडम
या कह रही ह…
सौदा

कवाड़ क सटकनी उतारी नह क पीछे पड़ते दबाव के चलते ‘भड़ाक’ से पट मुँह


को लगते-लगते बचे। च क जगह एक नाट -सी ी-आकृ त लपकती-सी भीतर घुस
आई। वह भ चक!
भ च काहट झटके और कुछ सोचे-समझे क आकृ त ने फुत से पलटकर कवाड़
भेड़ सटकनी चढ़ाई और भयभीत हरनी-सी पट से पीठ टे क कुछ बोलने क असफल
चे ा करने लगी। धोती क कसावट से मु आ चेहरा एक कशोरी का था! फूटते
क ल का-सा उभार लये उसक लगभग सपाट छाती, कोस दौड़ाई के बाद स हताने
को कसी वृ के तने से टक -सी दम साधने के यास म साधे नह सध रही थी। मृ त
म न अड़ोस-पड़ोस का प रचय क धा, न गली-मोह ले, न र-दराज़, कसी सगे-स ब धी
का… फर…?
उसक म बटु र आए भय और स दे ह ने कशोरी क बदहवासी को चकोट
भरी, “हमार र छा…गुंडे हमरे पीछे ह…बचाय लो…!” सूखी, सहमी आँख के कोर के
तट पर एक न ही-सी काँपती लहरी उमड़ी और उसे भगोने को-सी अरराती बढ़ आई।
वनती म जुड़ी कलाइय क खर च पर पप ड़या रहे र -कण उसके संग ई जबरई क
चुगली खा रहे थे।
कनप टय से साँय-साँय बहता तनाव भ ह के बल रगता नाक के इद- गद टपकने
लगा। मवाली पीछे लगे ह तो उसक खोली तक खोजते ए प ँच सकते ह। ब च के
संग वह घर पर अकेली है। रात के डेढ़-दो से ऊपर हो रहे ह गे। च भी अब तक घर
नह लौटा। ऐसे म अनजान छोकरी को घर म घुसाकर वह अपने लए आफत नह यौत
रही? महीने म बीस-प चीस दन ब च के संग अकेले काटना होता है। कोई संकट खड़ा
हो जाए तो कसका मुँह जोहेगी? ब ती-ब ती का फक ऊपर से। झ पड़-प म थी तो
मामूली-सी ‘च -चाँ’ पर भी लोग फूट पड़ते थे। चाल म अपनी-अपनी खोली, खोली म
ब द अपने-अपने ःख-सुख!
उसक मौन वधा ने कशोरी को आतं कत कर दया। कह गृह वा मनी उसे घर
से नकालकर बाहर मँडराते चील-कौव को न परोस दे ! फूटती हच कय को बरबस
सुआए होठ म भ चने क असफल को शश करती ई वह वग लत-सी उसके पैर म
दे हरी हो आई, “बड़ी मु कल से परान बचाय के भागे ह…इ जत बचाय लो हमारी…
हमरी माई समान हो…तोहार उपकार जनगी-भर न बसरब…”
दा ण दन वत कर गया। पाँव पर झुक छोकरी क जूड़ी चढ़ -सी काँपती पीठ
उसके इद- गद बे ड़याँ बुनने लगी। ककत वमूढ़ हो उठ । क ठन-से-क ठन प र थ त
म भी उसक ववेक-बु कु द नह ई। इस ण कुछ सूझ नह रहा। कदम आगे बढ़ाए
या पीछे ! हो सकता है, छोकरी भली हो, स ची हो, प र थ तवश मुसीबत म फँस गई हो।
कुछ भी हो, है असहाय। जवानी के तने पर पंजे कसती दे ह! च कसी भी ण गोदाम
से घर लौट सकता है। उसे समझा लेगी। रात-भर के आसरे क बात है, सुबह सही-
सलामत उसके ठकाने पर च ही प ँचा दे गा। च क न द सुबह न भी टू ट तो ब च
को कूल रवाना कर, वह खुद ही उसे लेकर चल दे गी। मुसीबत कसी को बताकर तो
नह टू टती! यही ठ क होगा। च के आने तक उसे ब च के संग लहाफ म बक रहने
को कहेगी। स दे ह म मवा लय ने दरवाज़ा ठ का-पीटा भी तो यही दशाएगी क वह गहरी
न द म सो रही है। अ धक उ पात मचाएँगे तो चीख-चीखकर मोह ला जगा लेगी…
“उठ!” उसने झुककर छोकरी को पैर से अलग कया, “नाम या है तेरा?” कान
गली से उठनेवाली कसी भी आहट के त चौक े हो उठे ।
“गदा…”
नाक-आँख का पानी हथे लय से प छते ए उसके सकुचाते ए होठ पर उँगली
रखते ए उसने गदा को चेतावनी-सी द , “शीऽऽऽ रोने का न … आवाज बाहर जाती…
बोल, रैती कदर तू?”
उसके सवाल ने गदा को साँसत म डाल दया।
“पता- ठकाना होएगा न कदर का!” गदा क वधा भाँपते ए उसने उसके
संकोच को तोड़ना चाहा—“झगड़ा- बगड़ा करके भागी होएगी घर से तो पन घबराना
न ।”
“द नागंज… जला गोरखपुर।”
“ या? तुम इदर क नह ?”
गदा ने अ वीकार म धीरे-से सर हला दया।
“तो तू इधर कैसे आयी?” उसे घेर कसी पहेली का फ दा कस गया। साँस ऊपर
क ऊपर, नीचे क नीचे। गदा क गरदन धड़ पर झुक गई नज व-सी।
उसका धैय बल बला उठा—“बोलेगी न तो कैसे चलेगा?”
गरदन नह उठ , ले कन साहस जुटाते श द वर पाने को त पर हो आए—“सूखा
के चलते न गोड़ाई, न बुवाई…काम माँगने सोहनवा के होटल गये…उहाँ एक डरेवर से
भट भई। बोला, हमरे संग सहर चल, अपने सेठ के घर नौकर रखवाय दगे। पाँच सौ
पया तनखाह मली। रहना-खाना घर ही पर, अपने लए या बचा-बुचू के माई को
मनीऑडर करवाती रहना…हम सोचे, पैसा पाय के माई क रस जाती रहेगी…पचास
पया दया। बोला, अपने संग हम ठे ला म लवाय चलगे…सो हम…”
स बँधा। सेठ के घर म काम छोड़कर भागी होगी। बड़े घर म वह भी खट है।
पगार अपनी जगह है, मगर नौकर को वे आदमी नह , जानवर समझते ह, जानवर! बूँद-
बूँद नचोड़ते नह झझकते। सहन नह आ होगा इससे—“काम क कमी न , पन
सरा घर पकड़ के सेठ का घर छोड़ना था न! अऊर ऐसा रात म भागना!”
उसक सहानुभू त पा, गदा के भीतर पसरा अँधेरा चरमराया। उठती के साथ
लसाए दाँत से चपके ह ठ ‘प च’ से त नक खुलकर बुदबुद ए। लगा, जैसे खुलती
ह मत के बावजूद झझक क कोई पैनी क ल ठ क जुबान के बीच बीच आ धँसी हो
और महसूस हो रहा हो क कसी के आ ह पर बीती स चाई के फर गुज़रना ठ क कसी
क ध स क दहशतवश अपने ही हाथ अपने कपड़ के बटन खोलने जैसा ासदायी है…
ोभ से मन फर उमड़ आया। अबक जुबान क हरकत म आड़े आ रही क ल उसने
को शश कर उखाड़ फक ।
“सेठ क नौकरी फरेब थी, डरेवर हमको धोखा दया…” क ल फर गड़ने को ई।
उसक आँख म अनायास लालटे न क ब ी उकसा-सी आई, “बोल-बोल!”
“इहाँ लाके लालू दलाल के हाथ बका दया…चार हजार का सौदा पटा… लालू
हमसे ध धा करवाने को मार-कुटाई करने लगा…हम हाथ-गोड़ जोड़ते रहे—हमका छाँ ड़
दे , हमसे नह होगा…आज सुबह ब त जबरई कया, हम खड़ कया से कू द के भागे…”
गदा के धैय का बाँध टका नह रह पाया।
वह अवाक् हो उठ ।
धैय बँधाने के सारे रा ते अव हो उठे । स य कहने के लए जतना साहस जुटाना
होता है, सुननेवाले के लए भी सुनकर उसे झेल पाना उतना ही कर! बड़ी मु कल ई
अपने को समेटकर गदा को ढाँढ़स बँधाने म—“ छः- छः, ब त बुरा आ तेरे साथ…”
अपना भी गला भराता आ हो आया—“जी छोटा मत कर, कोई-न-कोई रा ता
नकलेगा। रो मत इतनी जोर से…आवाज बाहर जाएगी।”
“चल, चलके ब च के पास सो जा गुपचुप। कोई भी आने दो, दरवाजा न खोलेगी
म। मरद आएगा जो सऽऽब सँभल जाएगा।”
न य से भरी वह गदा क बाँह पकड़, खोली के बा ओर द वार से सटे पड़े पलंग
के पास ले आई। गठ रय -से लुढ़के पड़े उसके तीन ब चे पलंग पर सो रहे थे। अचानक
ठठकती गदा क चीख सुनकर वह हत भ हो उठ । पलट तो पाया, पलंग के सामने
वाली द वार पर जड़ी फ ली के ऊपर रखे च के बड़े-से च के सम ठठक ई गदा
प े-सी काँप रही थी। अधीर हो उसने गदा को झकझोरा—“ऐसा काय कू घूरती फोटू
को!”
गदा ने अजीब से दे खा उसे। घ घी बँध आई ण-भर को—“ डरेवर ये… ये…
यही है डरेवर!” संकेत म उठ उसक उँगली अचानक मरोड़ द गई टहनी क भाँ त पोर
से झूल गयी।
“ या बकती है तू?”
“ठ क कहते ह…यही नीच है…इसी द हजार ने हमका फुसला-बहलाकर यहाँ लाया
है।”
“दे ख-दे ख… यान से दे ख!” आवेश से भरकर उसने फ ली पर से च उतारकर
गदा क आँख के स मुख तान दया।
“खूब पहचानते ह इस पापी को, ठे ला चलाता है…साथ का मनई च नाम से
बुलाता है उसको…हमको कहाँ मालूम था ये मनई के भेष म भेड़हा है… ढे र ल ड़ कन को
ब हका-फुसला के उनका जीवन बरबाद कया है…”
अ व ास और उ ेजना से भरा उसका दय काँप उठा। गदा के वर क ढ़ता
चोट खाई ना गन क तरह फन काढ़े उसक समूची चेतना पर फुफकार रही है… सर घूम
रहा है… सर नह , शायद खोली ही रहट के च कर क भाँ त तेज़ी से घूम रही है।
च का च दे ख गदा कसी म का शकार भी हो सकती है! ले कन न नाम
गलत बता रही है, न पेशा। गोरखपुर, ब लया, दे व रया वह माल ढु लाई-भराई के लए
अ सर जाता है। म क गुंजाइश है ही कहाँ?
घुटन म मुँह दए, रह-रहकर ससक ख चती गदा क ओर घूमी, अभा गन
नह जानती रही होगी ाण क र ा हेतु वह जस घर के दरवाज़े आसरे के लए
खटखटा रही है, संयोग से उसी अहेरी का होगा, जसने अपने जाल म फँसाकर उसक
बरबाद क न व खोद !
गदा को घर से हटाना होगा। हो सकता है, पीछा करते ए मवा लय के संग च
भी गदा क खोज म आकाश-पाताल एक कर रहा हो? न भी ढूँ ढ़ रहा हो, तब भी उसके
लौटने का समय हो ही रहा है। कसी भी ण वह टपक सकता है। ऐसे म गदा सुर त
नह रह सकती। ब च के पास भी अब उसे सुलाकर नह छपा सकती। नशे म धु च
घर म घुसते ही ब च के माथे पर हाथ फराने से नह चूकता। चौक न प ँचा दे ? ठ क
मोह ले के नाके पर ही है। ले कन गदा को साथ लेकर नकलना ऐसे नाजुक समय
ओखली म सर दे ना होगा। शकारी कु -से सूँघते गु डे गली-गली उसे ढूँ ढ़ते फर रहे
ह गे। कुछ भी हो, अकेले चौक पर जाने क ह मत वह कसी तरह नह सँजो पाएगी।
पु लसवाल के सलूक के वषय म इतना ऊल-जलूल सुन रखा है क सोचकर ही झुरझुरी
होती है। सुना तो है, चौक पर अब औरत हवलदार और दरोगा भी होती ह, ले कन इतनी
रात गये कोई ूट पर होगी क नह , कौन जाने!
भँवर से उचक लेने को अचानक एक हथेली उसक ओर क धी।
“घर म बइठ, म ताबड़तोड़ आई।” गदा के सं द ध चेहरे को उसने हाथ बढ़ाकर
आ ा सत कया और लपककर फ ली पर रखा आ ताला-चाबी उठा, खोली से बाहर
हो गई।
बस, पटवधन ताई घर पर ह !
वैसे आज मंगल है। उ ह घर पर ही होना चा हए। ज न आपा बता रही थ क
औरत के जमावड़े म शरीक होने ताई नागपुर गई ई ह। सोमवार क सुबह लौटने वाली
ह। ‘द लत ी उ ार स म त’ उनक समाज-सेवी सं था है। सं था क ग त व धय के
सल सले म ताई अ सर बाहर आती-जाती रहती ह। ज न आपा के संग ही वह पहली
बार ताई के घर गयी थी। ज न आपा के मद ने सरी औरत रख ली थी। खाने-खच को
वह कानी कौड़ी नह ढ ली करता था। हाथ-पैर ऊपर से तोड़ता रहता। वह ह त काम
पर नह प ँच पाती। पटवधन ताई ने ज न आपा क भरपूर मदद क । ब च को कूल म
भत करवाया। मद पर मामला दायर करवाकर गुज़ारा-भ ा दलवाया—सीधे तन वाह
से कटकर पैसे मलने लगे आपा को।
मु य सड़क पार कर वह जे.वी. नगर के ठ क सामने आ गई। ज़द स ाटे का भय
रह-रहकर रीढ़ म चलक मारने लगा। कॉलोनी क चौकसी करनेवाला गुरखा तक नज़र
नह आ रहा, न कसी गली से उठती उसके ड डे क लया मक व न। अचानक चौड़ी
माँग-सी कढ़ बीच बीच वाली सड़क के आ खरी छोर पर उसे तीन परछाइयाँ डोलत ,
आगे बढ़ती दखाई द । भय से गला सूख आया। फुत से कनारे लगी मेहँद क बेतरतीब
बाड़ के पीछे बक ली। साँस दबाई। करीब से गुज़रे तो उनक बतकही ने उसे त नक
सहज कया। आशंका नमूल स ई—रात पाली से छू टे ए कामगार थे वे, हाथ म
खाने का ड बा झुलाते ए।
हड़बड़ी और उलझन के चलते छोट श बू को जगाना ही भूल गयी। उसे सारी बात
समझा दे ती क च लौटे गा और आधी रात को अपने दरवाज़े पर ताला पड़ा पाएगा तो
भरोसा नह , गु से म आकर ताला तोड़ने लगे। सखा दे ती क बाप जैसे ही दरवाज़ा
भड़भड़ाए, श बू उसे भीतर से ही आ त कर दे क वमला मौसी के घर से उनके छोटे
ब चे के अचानक बीमार होने क खबर आयी थी। आई (माँ) उसका रा ता दे खते ए
अ त म उ ह बाहर से ब द कर मौसी के घर को चली गई। वह अपने दो त काली भाऊ के
यहाँ जाकर सो जाए या लौटकर गोदाम म रात गुज़ार ले। गोदाम या चकला!
“छोट बात न , मंगला! जब तलक म शहर म, सेठ अ खा गोदाम क ज मेवारी
मेरे को स पा…लो डग-अनलो डग, स ब मेरा ताबे म…”
“ले, सँभाल के रख ग ी, पूरे दस हजार ह! दस बजे पा डु रंग सेठ पा डु रंगवाड़ी म
बुलाया मेरे को, पगड़ी अऊर बल बदलने का पैसा दे के कल ही म खोली का चाबी
लेकर आएगा…बावली सरखी या दे ख रई…जा, हो शयारी से रख जाके ग ी… मु त
मदद न कया सेठ…खून-पसीना एक करता म उसके वा ते…उसको पन मालूम,
आदमी बोत मलते, ईमानदारी नह मलती…”
तक म दम था। मुँह म ताला पड़ गया, मगर अ तमन म पालथी मारे स दे ह झाँसे म
नह आया था। आटे के ड बे म ग ी छपाकर वह रात-भर बछौने पर करवट भरती
रही। रात रात ऐसा या चम कार घट गया जो सेठ उस पर इतना कृपालु हो उठा क पूरे
गोदाम क ज़ मेवारी उसने अपने एक मामूली-से ाइवर को स प द ? ाइवर वह ब त
अ छा है। अड़तालीस घ टे बना पलक झपकाए सीट पर सीधा बैठा रह सकता है। बना
बोतल के वह भी नह । ले कन…स दे ह के बावजूद उसको सपने म भी अ दे शा नह था
क मेहनत और ईमानदारी क आड़ म आ रही जस रकम से वह ब च को अ छे कूल
म पढ़ा रही है, झ पड़ी छोड़ खोली म आ बसी है, अ छा खा-पहन रही है, सुख-सु वधाएँ
जुगाड़ रही है, वह ी के दे ह- ापार से कमाई गयी रकम है! छः, छः! च का यह
व प भी हो सकता है? सकता है या, है! अस लयत पूरी ू रता और कु पता के साथ
उघड़ चुक है, उसके व ास को नममता से र दती ई।
पटवधन ताई से कहेगी, गदा को तुर त उसक खोली से हटाकर अ य छपा दे ।
छपाने क या ज रत है? ताई उसे सीधे पु लस के हवाले कर सकती है! पु लस गदा
को अपने संर ण म ले लेगी। पूछताछ करके त काल उस अ े पर छापा मारेगी, जहाँ
दलाल न छल छोक रय क मजबू रय का फायदा उठाकर उ ह ध धा करने के लए
ववश करते ह।
कमाठ पुरा! जगह का कोई ऐसा ही नाम बता रही थी गदा। ‘च भी उन सबके
साथ पकड़ा जाएगा!’ तर कार से कोई उसके कान म फुसफुसाया। वह एकबारगी
काँपकर खड़ी हो गई। लगा, पु लस च को बे ड़य म जकड़े ए ठ क उसक ओर
बढ़ती चली आ रही है। उसे कु े क तरह घसीटती ई! घुटन पर नममता से हार
करती ई… हार के साथ एक भीषण आ नाद उठता है। हवाएँ सहमकर बक जाती
ह! मगर चीख ह क लगातार वातावरण को र द रही ह! उसक ठठक दे ह पसीने से तर
हो उठ ।
च को सज़ा हो सकती है—एक साल, दो साल…कई साल…नौकरी छू ट जाएगी
उसक । उनक गृह थी का जुआ भू म पर आ गरेगा। बरस बाद अभाव क मार से वह
अपनी पीठ बचा पाई है! एक झटके म सारा खेल ख म हो जायेगा। फर वही दलदल!
घर-घर बतन घसना! वा म नय के ं य-बाण झेलना! लौट सकेगी उसी ज़ दगी म?
नह …नह लौट सकेगी! मामूली-मामूली-सी चीज़ के लए ब च का तरसना नह
झेल सकेगी… य इतना सोच- वचार कर रही है! गदा या नद ष है? कसने कहा था
क वह एक सवथा अनजान पर व ास करने क मूखता करे? उसके साथ चल
दे ? धीरज धरती। गाँव म रहकर मज़ री खोजती। पेट म पानी डालकर भी तो आदमी
इ ज़त क ज़ दगी बसर कर लेता है! पसीने क बूँद पला- पलाकर उसने नह अपनी
गृह थी पोसी? च क ाइवरी तो ब त बाद म लगी। उसे ाइवरी सखाने के लए भी
तो उसने साढ़े चार सौ पये अपनी एक सेठानी से उधार लेकर भरे थे। महीने-के-महीने
पचास पये पगार म से कटवाती रही थी। सहानुभू त के बहाने कतन ने लोभन फका,
‘ भु सेठ से मल ले, तीन हज़ार लेकर बई म नौकरी दलवाता है! खूब कमाई होती है
वहाँ, द ल र कट जाएगा साल-खाँड़ म।’ ँह! या होता है वहाँ, कौन जाने? अपनी
म क खी-सूखी मंजूर रही, ब नब त पराये मु क क हलवा-पूड़ी के।
च का या दोष? ध धा फर ध धा है, चमड़े का हो या चमड़ी का! दे खा नह ,
सुना खूब है। बड़े-बड़े होटल म औरत का नंगा नाच करवाते ह से ठए! कतनी इ ज़त
है समाज म उनक ? ठाठ से ल बी गाड़ी म घूमते ह। कोई उठाता है उँगली उन पर?
यही घर है। बालकनी से लटका आ ‘द लत ी उ ार स म त’ का बड़ा-सा बोड
ठ क सर के ऊपर है। जीने के नकट प ँचकर दे ह अ ड़यल बैल-सी ठ गई। बस, एक
माला सी ढ़याँ चढ़े गी और उसके जीवन का फैसला हो जाएगा। कुछ ही घंट म च जेल
क सलाख के पीछे होगा…जेल के सूखे ट कड़ को पानी के साथ जबरन नगलता
आ। आ खर पैसा कमाने क जस राह पर वह आँख म प बाँधकर चल पड़ा है…
कसके लए? पेट म दा और कुछे क य का सहवास-सुख भोग भी लेता हो तो या,
उनक सुख-सु वधा का खयाल नह रखता?
मूख है वह। मूख नह , अ धी भी।
वयं गृह थी क सुख-शा त को तीली दखाने जा रही है। लौट चले। खोली म ब द
चनगारी को खोली म ही तोप दे । च के आते ही उसे च को स प दे । वह हसाब-
कताब कर लेगा। उसे या लेना-दे ना गदा से? कौन लगती है वह उसक ? एक अनजान
लड़क क खा तर वह इतना बड़ा जो खम उठाने चली है! उसके ःख से वत हो…
प रणाम सोचे बना। सारी नया के उ ार का ठे का उसी ने ले रखा है? गदा क ही तरह
अभाव क मार से वच लत हो उसक श बू कसी दन कसी के बहकावे म आ, ऊँच-
नीच सोचे बना गलत कदम उठा लेगी तो? कौन ज़ मेदार होगा उसक बरबाद के
लए? आँत क आग शैतान होती है, शैतान! ववेक-बु नगल लेती है। प त को जेल
प ँचाने क जुगत भड़ा वह अपने ब च को उसी चौराहे क ओर नह ढकेल रही जहाँ
प ँचकर गदा घर से भागने को ववश ई?
दलाल को भनक हो गई क अ े पर छापा पड़ने के पीछे उसका हाथ है तो वे उसे
ज़ दा छोड़गे? च अव य अपनी करनी का फल स खच के भीतर भुगत रहा होगा, पर
वे उसके घर को फूँकने से चूकगे? एक गदा के पीछे पाँच ज़ द गयाँ न हो जाएँगी, पाँच
वह, च , श बू, द नू, गु —सब…
घर लौट चले। फौरन। भावुकतावश जीने पर उसके पाँव उठ गए तो अनथ हो
जाएगा। कुछ नह सोचेगी। सोचना ही नह चाहती। घूमी, घूमकर ज़ीना छोड़ तेज़ कदम
से इमारत के बाहर आ गई। अचानक महसूस आ, तन पर लपट क मती नौवारी
माहे री साड़ी से लपट फूट पड़ी ह…उन लपट क लपलपाती तेज़ आँच म उसक पूरी
दे ह ‘ चड़- चड़’ करती सुलग रही है और अपने ही मांस क चराँध उसके नथुन म भरती
जा रही है! उसका दम घुट रहा है। आँख कोटर से छटक पड़ रही ह…
घर! कैसा घर? गदा क ब ल के बना पर जीवनदान ा त करता घर! च के
कुकृ य क चनाई से मज़बूत होती उस घर क द वार! छः- छः! उस घर म वह साँस ले
सकेगी? ी होकर ी के भा य म साझीदार हो सकेगी? च बेरोज़गार था। वह
बेरोज़गारी बरस उसक गृह थी क रीढ़ म पैने दाँत गड़ाए उसके धैय को चुनौती दे ती
रही थी। तब साहस नह तजा, अब य कमज़ोर हो रही है?
आगे बढ़ते ए पाँव पर सहसा कसी क मु याँ आ कस और कसती ही चली
गय —इतनी क वह डग भरना चाहकर भी पाँव उठा नह पा रही। शायद गदा क
कलाइयाँ लग रही ह…पाँव क ओर झुककर उसने अपने को उस जकड़न से मु करना
चाहा मगर यह दे ख त भत रह गई। उसके बढ़े ए हाथ म जो कलाई आ समाई है, वह
न हे हाथ म ला टक क चू ड़याँ पहने ए गदा क नह , श बू क है।
‘ श बू!’ वह अ फुट वर म बुदबुदाई और वह बुदबुदाहट तीखी सहरन क भाँ त
उसक स पूण चेतना को झनझना गई। न जाने उसे या आ क फरक क तरह
पलटकर वह पटवधन ताई के घर क ओर सरपट भागी। सैकड़ अ क एड़ उसक
टाँग म आ समाई। वह उनके ज़ीने क सी ढ़याँ चढ़ते ए नह , तकरीबन उड़ती-सी
फलाँगने लगी। दरवाज़े के स मुख होते ही वह पूरी ताकत से उनका दरवाज़ा भड़भड़ाने
लगी—“पटवधन ताई, ओ पटवधन ताई! ताई! ज द दरवाज़ा खोलो!”
उसक पुकार का असर आ। भीतर ब ी जली। एक पदचाप उसक ओर बढ़ती
ई सुनाई द ।
जनावर

“तांगेवालेऽऽऽऽ… कना भईऽऽऽऽऽ!”


पुकार पीछे से आई थी। ह क लगाम ख चकर उसने सरवरी को रोका। दो-चार
डग भरकर सरवरी ढ ली-सी खड़ी हो गई। बा टांग को उठाकर झटका दे ती-सी, मानो
टांग पर चढ़े आ रहे कसी क ड़े-मकोड़े को झटककर परे फक दे ने को ाकुल हो। गली
से मु य सड़क तक आते ए ऐसी कोई हरकत उसने नह क । बस, अभी ही उसने बा
टांग झटकनी शु क । उतरकर दे ख लेना चा हए उसे। ले कन कसी सवारी क पीछे से
आई पुकार ने उसे अपनी ग से हलने नह दया। आगे को झुककर, उसने गदन
मोड़कर पीछे क ओर दे खा। पांच बुरकेवा लयां क नया म दो औलाद दबाए, तीन को
कंधे से दबोच उ ह लगभग घसीटती ई-सी ‘फद-फद’ करती तांगे क ओर दौड़ी चली
आ रही दख ।
उनम से ठमके कद वाली ने अपनी हांफ को नयं त करने क चे ा करते ए गदन
ऊँची तानी—“चलगे…भाई जान?”
“जाना कधर है, बीबी?”
“बगल म…चावड़ी बाज़ार।” क नया से खसकती औलाद को उचकाकर उसने
बाजू म कसा।
असलम कुछ सोच म पड़ गया। पांच ख़ासी तं त जनानी। क नया म दो।
उंग लयां धरे दो—कुल जमा नौ सवारी! चार आधी ही सही। नामुम कन। छू ं छा तांगा ही
सरवरी क ढ़लती ई-सी ढो पा रही। सवा रय क बरात दम नचोड़ लेगी? न, कु हाड़ी
नह दे नी टखन पर।
टालने के लए अ न छा से मुंह घुमा लया सीध म—“दस पये लगगे… बीबी।”
“दस पये…लो सुनो इनक अ त!” ठमके कदवाली ने मुंह बनाकर अपनी
संगवा लय से आँख उचका । फर तमककर उसक ओर दे खा।—“नए लगते हो शहर
म? जाना कतना? ये सामने रहा पुल के नीचे चौरा ता…चौरा ता पार करते ही जामा
म जद वाली गली…गली लांघ के मुड़े नह क म जद के पीछे वो रहा चावड़ी बाज़ार।
सोच-समझकर तो मुंह खोलो, मयां!”
“सोच समझकर ही बोल रहा बीबी, रोज़ का धंधा है। सवा रयां भी तो दे खो!”
जाना नह था उसे। प का। फज़ूल क बहस म फंस गया। लगता था क दस क बात
सुनते ही जना नयां मुंह बदकाकर आगे बढ़ लगी।
“चलो, आठ ले लो, आग बरस रही सर पर…ब चे झुलस रहे।” उनम से लंबे
कदवाली ने ऊबकर ‘न तेरी न मेरी’ वाले लहज़े म उसे पटाना चाहा।
“सवाल ही नह उठता, बीबी।” वहां से हटने के ख़याल से उसने सरवरी क लगाम
ख ची। सवा रय के लए ही नकला है घर से, तय करके क सगल या यादा-से- यादा
डबल सवारी ही बठाएगा तांगे पर। हालां क सगल या डबल सवारी र शा छोड़, तांगे
पर मु कल से ही बैठती ह। कुनबा संग हो तो तांगा कफ़ायती पड़ता है!
“ मज़ाज न दखाओ, मयां…ठहरो, ठहरो…” उसी ठमके कदवाली ने उसक
उ ं डता बरदा त करते ए अपना ग़ सा चबाया और साथवा लय क ओर मुड़ी
—“जुदा-जुदा र शे के झमेले म पड़ने से बेहतर होगा तांगा…” वा य अधूरा छोड़कर
उसने गदन नीचे कए ए ह थयार डाले—“चलो मयां, तु हारी ही ज़ सही…” आगे
बढ़कर उसने औलाद को तांगे पर चढ़ने का इशारा कया।
लो, फंसे! अब छु टकारा नह । मजबूरन उसने सरवरी क लगाम ख ची।
खड़ी सरवरी अब तक बा टांग झटक रही है। जना नय से झक- झक म लगा
रहा। उतरकर उसक टांग नह दे ख सकता था? कुछ उसे हो ज़ र रहा है। कभी नह
दे खा इस तरह से टांग झटकते। बढ़ते बोझ से तांगा हल रहा। उसका आशं कत दय
कांप उठा। कह ऐसा न हो क अश सरवरी बीच सड़क पर च कर खाकर बैठ जाए
और सवा रयां ध का खाए भेट के ठे ले-सी लुढ़ककर रा ते पर ह । आगे को झुककर
उसने सरवरी के पु े सहलाए। सहलाहट के संग पुचकारा—उंग लय म गूंगी चरौरी भर।
फर वही म। तांगा हल रहा है या सरवरी क टांग कांप रह ?
उसके बोल सुनते ही सरवरी ‘झ प’ से आगे को बढ़ द । सु त चाल चलती ई।
साफ़ ज़ा हर हो रहा है क चलने म उसे भयंकर तकलीफ हो रही। ले कन वह भी जैसे
मा लक के नमक का हक़ अदा करने को क टब हो। असलम बेबसी से तप आया।
उसके पास काश कोई जा ई चराग़ होता तो वह त काल अपनी सरवरी को अपनी जगह
बठाकर ख़ुद तांगे म जुत जाता। सरवरी क सु त टाप उसके कलेजे को खूंद रही ह।
ख़ुदा का शु है, पुल तक ख च लाई है वह तांगा। आगे भी ख च ले जाए तो ग़नीमत
समझो…
…जबैदा क नाबदानी जबान को या कहे! न जाने कौन-से ज म क मनी
नकाल रही है कमज़ात उसके और सरवरी के संग।
बीस-बाईस रोज़ से ज़मीन पर धी पड़ी तड़फड़ा रही है सरवरी। पुचकारकर
खड़ा करता है तो घंटे-खं◌ाड़ बाद ही पसर लेती है घुटने मोड़। क च-भरी आंख म च।
घरेलू उपाय आज़माकर थक गया। जस- तस के नु खे भी बेअसर रहे। घबराकर
वज़ीराबाद पुल के उस पार क ब ती म रह रहे जु मन हक म के पांव पकड़ लए। कोई
भी उपाय कर! बस, उसक सरवरी को चंगी कर द। पहले नथुन म छाले फदके, दे खते-
दे खते टखन म उतर आए। दे ह नचुड़ने लगी। रोज़ी-रोट है। उठकर खड़ी नह होगी तो
उसके ल डे-ल डयां भूख मरगे। जु मन मयां ने ढाढ़स बंधाया और उ मीद द क वह
धैय रखे। मज़ उनक पकड़ म आ गया है। ख़ुदा ने चाहा तो ह ते-भर म उठ खड़ी होगी
उसक सरवरी।
जु मन मयां ने उसे एक और सलाह द —“जामा म जद क सी ढ़य पर काला
कंबल ओढ़े एक अधनंगा फ़क र बैठता है। असा य रो गय और खय को गा लय -
भीगा आ का काला तागा बांटता है। ब त का क र आ है उस चम कारी काले
तागे से। फक र से आ का काला तागा लाकर वह फ़ौरन सरवरी क कसी टांग से
बांध दे । आ व सही दवा ही अब सरवरी का इलाज है।
जु मन मयां क जड़ी-बूट के काढ़े पलाते ह ता और नकल गया। सरवरी के
टखन के छाले पीप उगलने लगे। ल ण शुभ नह थे। बगल के करीम ने उसे सलाह द
क नीम-हक म के च कर म पड़ा आ वह समय और पैसा न न करे। जु मन मयां के
वश का नह सरवरी का रोग। फ़ौरन जाकर वह कसी जानवर के डॉ टर को दखलाये।
वैसे तो जमुनापार ल मी नगर म कह है जानवर के इलाज के लए कोई सरकारी
अ पताल या दवाख़ाना। ले कन बेहतर यही होगा क वह कसी ाइवेट को ही
दखलाए। पैसे का मुंह न जोहे। पैसा ज़ र ख़च होगा तगड़ा, मगर एक-दो सुई लगते ही
श तया उठ खड़ी होगी सरवरी।
उसक उ मीद के जुगनु म रोशनी टम टमाने लगी। घर म फाके पड़ रहे थे।
जुबैदा के पांव पकड़ लए उसने। मायके क पाव-भर क झांझ थ उसक । फुसलाया,
बहलाया। रोज़ी-रोट का वा ता दया। झांझ ले जाकर मोह ले के परली तरफ वाले सुनार
को अ धये- तहाये भाव म बेचकर डॉ टर क फ स भरी, और सुइयां लगवा सरवरी को।
असर न होते दे ख चौथे रोज़ डॉ टर ने हाथ झाड़ लये। सरवरी को ‘ ले डरासन धो या’
रोग आ है। रोग बगड़ गया है। सरवरी को उनके पास पहले न लाकर उसने भयंकर
भूल क । अब दवा नह , कोई चम कार ही उसे बचा सकता है।
सुनकर वह बेजान हो आया। कहां या क़सर रह गई सरवरी के इलाज म उससे!
कुछ तो आ ही है। दे शी दवाइयाँ आदमी ही नह , अब जनावर पर भी बेअसर होने
लगी ह। वरना पुरख ने कौन सुइयां लगवाकर परव रश क इनक ? महीना नकल गया
सरवरी क तीमारदारी म। हाथ लग रही है नाउ मीद । कोठरी म पांव दे ते ए कलेजा
कांपता है उसका। जुबैदा क जबान चोर-दे खे कु े-सी उसे दे खते ही बेतहाशा भ कने
लगती है, त रयाई ई-”नामुरादो! कहां से ला_ऊं दोन जून तु हारे पेट म डालने को…
एक म ही साबुत बची ं इस घर म, सो कहो तो अपनी बो टयां काट के चढ़ा ं हांडी म
पकने? म त मारी गई है। उसी मरी रांड को…सहलाता रहता है रात- दन। बतन-भांडे तक
फूंक दए इलाज म। सबको डकारकर ही मरेगी डायन। अरे, और भी जान ह कुनबे म
कमब त! उनक है परवाह, म ए? आ ख़र इन आठ-आठ प लु को या ं मुंह म—
अंगारे? घोड़ी…घोड़ी…घोड़ी न हो गई रंडी सौत हो गई मेरी। नह रही तांगा ख चने के
क़ा बल तो घर यूं फूंक रहा उसके पीछे ? लात लगा हरामज़ाद को और परे कर! मद है
मद! दहाड़ी कर कह … र शा ख च कराये पर। मगर तू है क दन-भर उसक टांग म
घुसा उसके पु े सहलाता रहेगा, कमीने…”
“तड़ाक! तड़ाक!” अपना हाथ नह रोक पाया था सुबह—“ख़ुदा का ख़ौफ़ खा,
बदजबान! आग लगे तेरी गज़-भर क जबान को, कु तया! जस रोज़ बैठ गई न ये तेरी
सौत, सं खया खाने क नौबत आ जाएगी पूरे कुनबे क , अनाप-शनाप न बका कर…
समझी!”
“ य , या हमारे हाड़-गोड़ भी संग ले जाएगी रांड?”
“मुंह बंद कर, जबैदा…”
“मुंह सी तू, और संभाल अपने इन प लु को…बैठा लेना इनके लए कोई सरी
अ मा, जो पानी घूंट-घूंट के तेरी दे ह भी गरमाती रहे और ससुरे प लु को भी पालती
रहे…अपने बस क नह तेरी ये फ़ाक़ेम ती…पहली जा के सरे के यहां य बैठ गई…
अब समझ म आ रहा।”
‘तड़…तड़…तड़…!’ उसका झ ाटे दार हाथ खाकर बुँबुआती ई जबैदा फ़श पर
धे हो गई।
क चे बरामदे म एक ओर खड़े तांगे क ओट म बंधी सरवरी पर नगाह गई असलम
क । पता नह मन म या आया क वह सीधा सरवरी क ओर बढ़ गया। कुछ दे र उसे
सहलाता-घूरता रहा। फर खूंटे से खोलकर उसे बलात् खड़ा करने क चे ा करने लगा।
अश सरवरी ने जैसे उसके मनोभाव पढ़ लए। उसने वयंमेव उठने क असफल
को शश क क घुटने लड़खड़ाए। वह बैठ गई, ले कन अपनी को शश उसने नह छोड़ी।
कुछ पल बाद मवाद से चटचटाते टखन पर ज़ोर दे , उचकती ई-सी दोबारा खड़े होने
के यास म एकाएक सफल हो वह एकदम से तनकर सीधी खड़ी हो गई।
उसके कान के नकट मुंह ले जाकर असलम लगभग कांपती आवाज़ म
फुसफसाया—“एकाध फेरा हो जाए, सरवरी! दो रोज़ से चू हे म आग नह पड़ी!”
उसे अचरज आ। तांगे म जुती ई सरवरी ने मोह ले क गली पार करते ए राई-
र ी यह आभास नह होने दया क वह महीने-भर से बीमार चल रही है और दो डग
भरने म भी उसे घोर क हो रहा।
जबैदा का ग़ सा अनु चत नह । ले कन वह करे भी तो या करे? ट-गारा ढोना
उसके बूते का नह । तांगे क ग से लगातार चपक दे ह को जंग लग चुका है। हाथ
चाबुक उठा हवा म हाथ-भर से यादा डोल- फर नह पाते। अपनी टांग के इ तेमाल क
उसे आदत नह रही। सरवरी ने कभी मौक़ा ही नह दया। कोठरी के अहाते से, कोठरी
के भीतर तक—वह यही महसूस करता क उतने क़दम भी जो वह चलकर भीतर आता
है, अपनी नह , सरवरी क ही टांग से। आँख खोलते ही तांगा दे खा। लोरी क जगह
घोड़ क हन हनाहट सुनी। उ ह क टांग के बीच गु ली-डंडा खेला। लीद से लफ द
ज़मीन पर फर कयां नचा । अ बा तांगा चलाते थे। अ बा के अ बू तांगा चलाते थे, बूढ़
क उभरी नस -सी आगरे क तंग ग लय म। उसक मस भीगते ही अ बा प रवार समेत
द ली आ गए। एक रोज़ बोले उससे—‘नई चली फट फ टया पर बैठने को शौ कया रही
ह सवा रयां इधर। द ली चलते ह, बरख़ुरदार! बड़ा शहर है। वहां फट फ टया ही
फट फ टया भरी ई ह सड़क पर। सवा रयां तांगा दे ख ललकती ह बैठने को। सुना है,
कराया भी मुंहगांगा मलता है…’
“बस, बस…यह रोकना मयां, कहां ऊंट क तरह मुंह उठाए चले जा रहे… कान
म तेल डाल रखा है या?” ठमके कदवाली ने झुंझलाकर उलाहना दया तो उसने फ़ौरन
लगाम ख ची और छह-सात डग भर, सरवरी के खड़े होते ही ख़ुदा को शु या दे ने वाले
अंदाज़ म च ध फक रहे आसमान क ओर आंख उठा द । भीगी मया से आगे झुक
सरवरी के पु े सहलाए—इ ज़त म होने से बचा ली गरीब क ।
औलाद को उतारते ई कोई सरी जनानी तुनक —“मील-भर आगे घसीट लाए
मयां, अब पलटकर टांग तोड़ो…तांगा करने का फ़ायदा?”
सामने आ, ठमके कद वाली ने अपने गोल चेहरे को गु से से झटका और बटु आ
खोल दस का नोट नकालकर उसक ओर यूं तान दया जैसे वह तांगे का कराया नह ,
जबरन पीछे पड़े कसी भखारी को भीख दे रही हो। उसने जनानी के चेहरे के भाव को
अनदे खा कर नोट भूखे को दखी रोट -सा लपक लया और उसे कृत ता से दोन आंख
से छु आता, अ फुट होठ से पता नह या बुदबुदाया।
लौटते म जामा म जद के सामने से कलो-भर बड़े गो त क ब रयानी बंधवा ले
चलने क बात उसे मुना सब नह लगी। यह नोट उसके ख़च के हक़ का नह । सीधे घर
प ंचकर जबैदा के हाथ पर रख दे गा। ठ क-ठाक मज़ाज ए तो हँसकर चुटक ले
डालेगा—‘रख अपनी सौत क कमाई! चार क़दम चलने-भर क भी ताक़त नह सरवरी
के ज म म, फर भी नौ-नौ सवा रयां ढोकर चली आ रही है तेरी खा तर…’ रौनक़ तब
भी नह फूटे गी कमब त के उबले आलू-से थोबड़े पर! जब से आई है, ‘न सावन सूख,े न
भादो हरे’ वाले मज़ाज म ही पाया। अब या उ मीद करे? ठ क है, जैसी भी सही,
उसक जो है। जैसे-तैसे उसक गृह थी का जुआ ख च रही। पहली तो बड़ी बेमुर वती
से पांच औलाद पटक चलती बनी थी। तीन जबैदा से ए। कम कुनबा पड़ा सर पर? भेद
बरतती ज़ र है अपने-पराए का, मगर छाती पर सांप नह लोटाती! जबान का या करे
उसक ? नाबदान है ससुरी, नाबदान। यही एक ऐब मानकर ग़म खा लया उसने।
सरवरी को जानलेवा हालत म इतना दौड़ा लया, काफ़ है। मुना सब यही होगा क
कमाई का अ धक लालच न कर वह बना सवारी के ही घर लौट चले। ख़ुद भी तांगे से
उतर ले, मगर कुछ दे र सरवरी को सु ता ज़ र लेने दे । ख़याल त लगा। तांगा सड़क
के एक कनारे लगा, उतरकर वह नीचे आ खड़ा आ। उसे लराने के ख़याल से वह
उसके आगे आया। उसका चेहरा दोन हाथ म लेकर क णा से उसक आंख म झांका।
झांकते ही कलेजा मुंह को आ गया। सरवरी क क च-भरी न तेज डू बती आंख म बुझने
से पूव क लौ धधकती दखी! डॉ. स सेना का वा य दमाग म हथौड़ा-सा लहराया
—‘एकाध रोज़ भी नकाल दे सरवरी, तो क़ मत समझो अपनी…’
उसे ख़ाली तांगा लए खड़ा दे ख सवा रय ने ज ासा कट क —“चांदनी चौक
चलगे, भाई…हनुमान मं दर…लाल कला…”
पहले तीन थे। सरे, पूरा प रवार…तीसरे, सफ़ दो।
डांवाडोल हो रही अपनी नीयत को उसने हड़काया। आदमी हो या रा स!
मरणास जनावर क परवाह न कर एकाध सवा रयां ढो-ढा पांच-दस और काट लोगे तो
या ज़दगी बसर हो जाएगी? स से काम लो। जतनी दहाड़ी बन पड़ी है उसी पर
संतोष करो। कतना लंबा साथ रहा है तु हारा और सरवरी का! हरी खाई तब भी खुश,
सूखी नसीब ई तब भी कोई गला नह ।
नौचंद के मेले से अ बा ख़रीदकर लाए थे बछड़ी जैसी…ब तावर के न रहने पर।
चल चलाती धूप सहन नह हो पा रही है शायद सरवरी को।
चेहरे को सु कारते ए रह-रहकर झटक रही है। बा टांग का झटकना बंद हो गया
है। हो सकता है, झटक भी रही हो तो उसका यान न गया हो। घर को पलट चले। यहां
खड़े होकर सु ता भी ले दस-पं ह मनट, फर भी उसे घर जैसा आराम कहां? पानी-
वानी भी तो नह पला सकता यहां। चल… य ? उसक आंख म एक बार फर दे खा
उसने। नज़र घूम गई उसक । दल दहल उठा। कैसी अजनबी नज़र से दे ख रही है?
लगता है, तबीयत अ धक बगड़ रही है सरवरी क । आंख पानी-भरी कटोरी म तैर रही ह
जैसे।
“है पी कूल चलोगे?” एक जनानी ने पूछा। अकेली सवारी। आगे-पीछे कोई नह
दखा। अपने मोह ले क ओर जाते ए ही पड़ेगा बीच रा ते है पी कूल। बस, ज़रा
घूमकर जाना होगा। बैठा न ले? र भी नह । चौर ता पार करते ही बाएं मुड़े क आगरा
होटल के ऐन सामने पड़ता है है पी कूल! सवारी उतार, कोतवाली का ढलान उतरते ही
सड़क पार है अपना मोह ला। उतनी र तक सरवरी को चलना तो पड़ेगा ही। सवारी के
साथ सही।
उसे वचारम न पाकर जनानी ने अगला सवाल कया—“बैठं ू ?”
“बै ठए…”
“पहले तय कर लो, लोगे या?”
“चार…”
“तीन होते ह अकेली सवारी के!”
उसने कोई बहस नह क । उचककर अपनी जगह हो लया। सरवरी के पु े
सहलाने क ह मत नह ई, उसके बैठते ही चल द । डगमगाती ई-सी सु त चाल।
सवारी को कोई हड़बड़ी नह दखी। कई ऊबकर टोक दे ती ह क इस कछु आ चाल से
चलना होता तो हम पैदल ही न नकल लेत ! हाथ म कताब थी कोई। खोल ली होगी
पढ़ने को। कूल के सामने उतरना है, अ या पका ही होगी। न त…।
है पी कूल के सामने उसने सरवरी क लगाम ख ची। न भी ख चता तो शायद वह
अपने-आप ही खड़ी हो जाती। उसके खड़े हो जाने के अंदाज़ से यही तीत आ उसे।
ला न ई। जनावर उसक ज़ रत समझ ही नह रहा, एक के बाद एक सहयोग भी कर
रहा है और एक वह है क सब कुछ जानते-बूझते ए भी उसके क से मुंह फेरे, उसके
ताप म अपनी रोट सक रहा!
कराया तहमद क अंट म ख स कन खय से उसने सरवरी का चेहरा दे खा। माथा
ठनका। उसक टं गती ई आंख और बजबजाते ए जबड़े ने उसे सहमा दया। सरवरी
क टांग कांप रही ह। जूड़ी-चढ़ दे ह क भां त। यही आभास हो रहा है क वह अपनी
पूरी ताक़त-भर खड़े रहने क को शश कर रही और कसी भी ण उसक न ाण दे ह
सड़क पर ढे र हो सकती है। आज रात मु कल है कटनी, या करेगा वह सरवरी के
बना! पेट म डालने को दाने नह जुट रहे, तांगे म जोतने को नई घोड़ी कहां से ख़रीदे गा?
दो त-पड़ोसी सभी क तो ज़ेब खंगाल चुका सरवरी के इलाज म और घर क हांडी…
सरवरी के बना चूं-च मर करता आ ख़ ताहाल तांगा या क़ मत दे गा? कमब त
कतनी मर मत खा चुका! कबाड़ के भाव लगाएंगे लोग! एक व त था, र शे रोज़-ब-
रोज़ कराये पर मल जाया करते थे। अब सेठ चालाक हो गए, डपॉ जट मांगते ह
अ छा-ख़ासा। बहार से नया आया ख़ुरम नह कह रहा था क अ वाल सेठ ने उससे
पांच सौ पये डपॉ जट बतौर रखवा लए थे, यह कहकर क इस शहर म तेरा आगा न
पीछा, भरोसा कैसे हो क तू र शा लेकर रफूच कर न हो जाए?
उसे पता नह क कब वह तांगे पर जा चढ़ा और कांपती टांग लये सरवरी उसके
बैठते ही डग भरने लगी। उसके दय म वार उठ रहा। उसक आंत म तेज़ाब से भरा
भीमकाय दे ग खौल रहा। दे ग से लपट -सी उठती भाप म सबसे पहले उसक खोपड़ी
झुलसी। भीतर का भेजा पघली ई रबड़-सा कनप टय से चूने लगा।
भयावह भ व य! आठ औलाद, बर -सी भनभनाती ई! ना गन क जीभ-सी
तपल उसक ओर लपलपाती ई जबैदा क जबान। ज़हरीली काली जबान! कैसे
सामना कर पाएगा वह?
सरवरी के लए या नह कया उसने…बीवी कह लो, े मका कह लो, बहन कह
लो, बेट कह लो…अपने को बेचकर भी उसके हाड़-मांस बचा पाने क गारंट होती तो
बे झझक बेचकर उसे बचा लेता।
सामने कोतवाली के मोड़ से तेज़ी से मुड़ रही एक सफ़ेद फएट, जसे एक लड़क
चला रही थी, रा ता पाने के लए उसे ल य कर हॉन पर हॉन दए जा रही। उसे पता नह
लगा क वह अचानक सड़क के बीचोबीच आ गया है और नाक क सीध पर बढ़ा जा
रहा है। फएट के बा ओर भारी-भरकम डीट सी क बस फंसी ई चल रही, जो फएट
को सड़क पर कुछ और स लयत दे ने को राज़ी नह दखी। सामने से चले आ रहे एक
पर एक वाहन का बढ़ता दबाव…। पास आते-आते लड़क ने दोबारा हॉन पर हॉन दे ,
अपनी गाड़ी तांगा बचाते ए काट ले जाने क सतक चे ा क , कतु उसके ेक पर पांव
दे ने के बावजूद गाड़ी के दा हने मडगाड का कोना सरवरी क बा टांग को ट कर दे ता
आ कुछ आगे जाकर झटके से क गया। ‘प -प -प ’ का कणभेद षण फैलाते दोन
ओर के वाहन अक मात ई इस घटना से तं भत हो अपनी-अपनी जगह ठठक गए।
आगे वाल ने दे खा—पलक झपकते सरवरी सड़क के बीच बीच ढे र हो गई और झुलसी
दे ह-सी छटपटाने लगी। उसके जबड़ से बजबजाता फेचुकुर बहने लगा। आंख टं ग ग ।
टू ट ई बा टांग सड़क पर ख़ून क पतली धाराएं बनाती ई रह-रहकर च ंकते उसके
शरीर के साथ कांप उठती। जुड़ती उ सुक भीड़ ने सरवरी के इद गद कौतूहल का घेरा
डाल दया।
तांगा बचाने म अपनी पूरी चालक य कुशलता लगा दे ने के बावजूद घटना बचा
पाने म असमथ लड़क अपनी साथ वाली म हला के संग घबराई ई-सी, लोग के घेरे को
तोड़कर सरवरी के नकट प ंची। सरवरी क नाजुक हालत दे ख लड़क क चीख़
नकलते- नकलते बची। सहमकर उसने अपनी आंख म च ल ।
लड़क राज थानी लहंगानुमा कट और लाउज पहने ए थी। खूबसूरत, लंबी,
छरहरी। उ होगी यही कोई अठारह-उ ीस। बावजूद इसके, चेहरे पर एक क़ म क
अबोध कोमलता।
लड़क को दे खते ही अब तक माथा पकड़े उकड़इ बैठा आ अवाक् असलम
अचानक बु का फाड़कर रोते ए र रं जत धी पड़ी सरवरी क दे ह पर सयापा
करता आ-सा, सीने पे मु के मारता, कटे वृ -सा ढे र हो गया—“हाय, हार रे, म कह
का नह रहा! क़हर टू ट पड़ा मुझ ग़रीब पर…बरबाद हो गया, बरबाद…मार डाला मेरी
सरवरी को…हाय मेरी रोज़ी-रोट ! पछली नौचंद म पूरे आठ हजार गने थे बाकर मयां
को…गाड़ी नह चलानी आती तो य लेकर नकल पड़ती ह और क ह या करने…?
हायऽऽऽ, हायऽऽऽ…”
लड़क के साथ वाली म हला से असलम का आ ेप बरदा त नह आ। वह धैय
खो एकाएक उ े जत हो आई—“ या बक रहे हो? हमने मार डाला? बहरे थे या? हॉन
पर हॉन दए जा रही थी शीना, हटे य नह रा ते से? सड़क इठलाकर चलने के लए
बनी है तु हारे? जो जी म आया, उगले जा रहे हो तब से…तु हारी घोड़ी बीच सड़क
बेकाबू होकर भड़ जाए गाड़ी से तो दोष हमारा? य ? अपनी ग़लती मानो और हम
कोसना छोड़ो। पता नह बेवकूफ़ ै फक वाले भरी सड़क पर बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी,
भसागाड़ी यूं छोड़ दे ते ह ट कर मारने…?”
घटना से आतं कत लड़क को आंट के तक ने कोई बल नह दया। उसने कं पत
वर म उप थत लोग को संबो धत कर तवाद कया—“न, म बाएं हो सकती थी न
दाएं…बाएं डीट सी क बस बराबर दबाए ए थी, दाएं तांगा!”
“सौ-डेढ़ सौ पये लो और पड छोड़ो। पल तर चढ़वा लेना इसक टांग पर।”
म हला क नरमाई का उलटा असर आ असलम पर—“ य ग़रीब से मज़ाक़ कर
रही हो, बीबी! सौ-डेढ़ सौ म पल तर चढ़ भी जाए तो या जान बच जाएगी इसक ?
हालत नह दे ख रह जनावर क ? हायऽऽ! कैसे औलाद पलगी…कहां से ख़री ं गा नई
घोड़ी…पुराना क़ज़ ही अब तक अदा नह आ! म लुट गया मेरे ख़ुदा! लुट गया…”
उसने दोन हथे लय से अपना माथा कूटा।
असलम के का णक वलाप से भीड़ क सहानुभू त तक से परे हो, उसके लए
पसीजी।
“ ध के दांत टू टे नह , अमीरज़ाद नकल पड़ी हवाई जहाज़ उड़ाने।”
“भई, कारवाल के कारनामे कोई नये ठहरे? आदमी कुचलते दे र नह लगती,
जानवर क या बसात!”
“उठ! जा! जाके चौक म रपट लखवा! इनका या, ाण नकल रहे होते तेरे तब
भी ये सौ का प ा बढ़ाकर यही कहत …जाके ला टर चढ़वा लो टांग पे।”
कोतवाली बगल म ही थी। घटना का शोर-शराबा वहां तक प ंच गया।
दो हवलदार के संग छोटे दरोगा त काल घटना थल पर प ंच गए। प ंचते ही
अव यातायात के भारी जमाव को सुचा करने के लए सबसे पहले उ ह ने तांगे और
घायल घोड़ी के ईद- गद इक तमाशबीन भीड़ को डांट-डपटकर भगाया। फर दोन
दशा से आने-जाने वाली फंसी गा ड़य के आगे नकलने का रा ता बनाया।
छोटे दरोगा इस बीच मामले क जानकारी हेतु लड़क और म हला क ओर
मुख़ा तब ए। प सुना। लाइसस दे खा। फर असलम से वा त वकता जाननी चाही।
असलम वच लत-सा दरोगा के पांव म लोट गया—“तबाह हो गया सरकार! जीते-जी
दफ़न हो गया…मार डाला इन बी बय ने मेरी सरवरी को…”
“चुप बे दे ! जो पूछा जाए वही बता।” हवलदार ने डंडा उठा उसे लड़क और
म हला क ओर अभ तरीके से इं गत करने पर घुड़का।
“म या क ं , सरकार! मने ब त बचने क को शश क …”
“वो तो बीच सड़क पर खड़ा तेरा तांगा ही बता रहा है क तूने कतना बचने क
को शश क …हरामज़ादे !”
“सरकार…”
“अब म मयाता ही रहेगा क कुछ भकुरेगा भी?”
“सब बताऊंगा सरकार, मेरी रपट लख लो…म तबाह हो गया…”असलम क रपट
लखाने क बात सुनते ही लड़क का चेहरा सूखे प -े सा टू टा।
“तू घबराती य है, सांच को आंच या!” म हला ने अपने कंधे पर कसते लड़क
के पंजे को थपथपाकर ढाढ़स बंधाया। फर दरोगा क ओर मुड़कर उनसे अं ेज़ी म कुछ
परामश करने लग । उनका आशय भांप दरोगा ने उ ह प कया क तांगेवाले से वे वयं
बात करके दे ख। वह उनका कहा मान जाए तो उ ह कोई आप नह होगी, हालां क
उ ह उ मीद नह है क तांगेवाला इतनी आसानी से उनका पड छोड़ दे गा। ग़लती उसक
हो न हो, रपट लखवाए बना वह नह मानेगा। सड़क पार ही इन लोग क सघन ब ती
है। इसक एक हांक पर आनन-फानन कोतवाली घर जाएगी।
“दे खए, आकर खड़े हो गए क नह पांच-छह ख़ैर वाह!” नकट आ खड़े ए
र शेवाल क ओर इशारा कया उ ह ने।
हवलदार को कुछ हदायत दे कर दरोगा पुनः उनके नकट आए—“आइए,
कोतवाली चलते ह।” दरोग़ा के वर म अबक नरमाई क जगह आदे शा मक पुट था।
लड़क कोतवाली चलने के नाम से और दरोगा के वर म अनपे त आए प रवतन
से भयभीत हो उठ । दरअसल, उसे और म हला को अब तक उ मीद थी क चूं क दोष
उनका नह है, अतः मामला सड़क पर ही कुछ दे - दलाकर रफ़ा-दफ़ा हो जाएगा। ले कन
आसार ज टल से ज टलतर होते गत ए। एक तो वे यां, ऊपर से पु लस के संग
कोतवाली जाना उ ह अटपटा ही नह लग रहा था, ब क आरो पत अ भयु -भाव से भी
आतं कत कए ए था। रा ते चलते लोग उ ह कौतुक से दे ख अटक रहे थे।
कोतवाली प ंचकर म हला ने ववेक से काम लया—“शीना, पापा को फ़ोन कर
लो। उनसे कह दो क वे तुरंत द रयागंज क कोतवाली प ंच जाएं।” त या म लड़क
के चेहरे पर गहराए असमंजस और संकोच-भाव ने उ ह चेताया क लड़क क
मनः थ त इस समय इस यो य नह है क वह अपने ारा ई आक मक घटना क
सूचना वयं पता को दे सके। गाड़ी ब ढ़या चलाने लगी है तो या, है तो वह अभी ब ची
ही।
थाना भारी क अनुम त लेकर उ ह ने फ़ोन अपने सम ख च लया और लड़क
के पता के कायालय का नंबर डायल करने लग । उ ह आशंका थी क दोपहर के एक
बजने वाले ह। कह वे लंच के लए अपनी सीट से न उठ गए ह । कतु उधर से ई ‘हैलो’
से उनके चेहरे पर आ त-भाव गहराया। धीमे और संतु लत वर म उ ह ने उ ह सं ेप
म थ त प कर द और चेतावनी-भरा आ ह दोहराया—“बस, चल दो, भैया! हां,
तक़रीबन दसेक मनट तो लग ही जाएंगे तु ह द रयागंज प ंचते…”
जब तक लड़क के पता कोतवाली प ंच,े घटना थल से साथ आया दरोग़ा
तांगेवाले क रपोट लख चुका था।
थाना भारी म. गहलोत ने लड़क के पता, म. तवारी का तपाक से उठकर
वागत कया। उनका प रचय काड पढ़कर वे वहार म अ त र सहज हो आए।
त काल सबके लए चाय मंगवाई। लड़क से उ ह ने वशेष प से ‘को ड क’ के लए
पूछा। उसके इंकार म सर हलाने पर दोबारा आ ह कया।
चाय पीते ए घटना के वषय म उनके दर मयान व तृत बातचीत ई।
“ऐसा है तवारीजी, मामला थोड़ा पेचीदा है। दोष चाहे आपक बेट का हो न हो,
चूं क घटना म घोड़ी क टांग टू ट चुक है और इस समय उसक जो नाजक अव था है
उससे यही आशंका हो रही है क वह बचेगी नह …घंटे-डेढ़ घंटे भले और ख च ले। यानी
नुकसान तांगेवाले का ही आ!
“और उसक रपोट पर हम लड़क को गर तार करना ही पड़ेगा। कोई सम या
नह है, उसम काग़ज़ी कायवाही होगी। चाह तो अभी ही गाड़ी और ब ची को घर ले जा
सकते ह। घर पर आदमी प ंच जाएगा आपके, और जमानत हो जाएगी क कार ा त
क और छोड़ द , यह भी क कार चलाने वाली लड़क को गर तार कया और जमानत
पर छोड़ दया।”
“हां, यायालय इसे जाना ही पड़ेगा।” अपना वा य पूरा करते ए म. गहलोत ने
सा भ ाय शीना क ओर दे खा।
उनक बात सुन म. तवारी च तत हो आए। कुछ सोचते ए-से बोले, “ऐसा नह
हो सकता गहलोत साहब, क शीना को यायालय न जाना पड़े?”
“ यायालय तो जाना ही पड़ेगा।”
“मान ली जए, मामला कुछ इस तरह से बना दया जाए क शीना क जगह म
गाड़ी चला रहा था?”
म. गहलोत म. तवारी का आशय भांप गए। त या म अथपूण मु कान
मु कराए—“ रपोट नह बदल सकती।”
“परेशानी आप समझ रहे ह न, लड़क का मामला है! कोई अ य गुंजाइश जससे
शीना को कोट-कचहरी के च कर से मु रखा जा सके?”
“म आपक परेशानी समझ रहा ं…गुंजाइश सफ़ एक है।”
“बताइए…”
“तांगेवाला ब ची के व दज कराई गई रपोट वापस ले ले।”
“संभव है…?”
“दोन प कोई नजी समझौता कर ल, संभव हो जाएगा।”
म. तवारी वचारम न हो उठे । शीना क ग़लती भले ही न हो, ले कन स चाई यही
है क तांगेवाले क घोड़ी क टांग टू ट चुक है और कसी भी ण वह दम तोड़ सकती है।
न भी मरे तब भी वह तांगे म जुतने से रही। नुकसान उसका आ ही है। नजी समझौते
का अथ होगा—लेन-दे न। यही उ चत होगा क मामला यह सुलट जाए। दल के मरीज़
ठहरे, कोट-कचहरी उनके वश क भी नह । समय और पैसा—दोन ही न ह गे। शीना
को मान सक लेश प ंचेगा। आ म व ास डगेगा, सो अलग।
“ नजी समझौते क गुंजाइश बता रहे ह न आप? करवा द जए गहलोत साहब,
कृपा होगी।”
“दे खए तवारी जी, यह हम नह करवा सकते। हमारा ह त ेप दबाव माना जा
सकता है। आप दोन प एक ओर जाकर आपस म बात कर ल और जो भी तय कर,
हम आकर बता द। तांगेवाले को म बुलवाए दे रहा ं।” उ ह ने एक हवलदार बशन सह
को आवाज़ दे कर बाहर बरामदे म बैठे ए तांगेवाले को उनके कमरे म भेज दे ने के लए
कहा।
उसके आते ही उससे बोले, “असलम मयां, तवारी साहब आप से अकेले म कुछ
बात करना चाहते ह…”
“मेहरबानी सरकार! ग़रीब घर से बेघर हो गया, सरकार पूरे आठ हज़ार नौचंद के
मेले म गने थे अपनी घोड़ी के लए, म लुट…” लपककर असलम ने गहलोत साहब के
पांव धर लए।
“अबे, यह नौटं क बंद कर! जो साहब कह रहे ह उसे गौर से सुन।” हवलदार
बशन सह ने असलम को डपटा।
“ऐसा है, रपोट तु हारी लख ली गई है। अब जो होना होगा, यायालय म ही होगा।
वैसे तवारीजी का कहना है क कोट-कचहरी के च कर म दोन ही प परेशान ह गे, तो
तु ह अगर उ चत लगता है तो बात कर लो उनसे।” गहलोत साहब ने बड़ी चतुराई से
तांगेवाले पर अपनी मंशा अ कट रहने दे ते ए भी दबाव का पेपरवेट रख दया।
“अंधा या मांगे, दो आंख! सरकार, घोड़ी मेरी नह बचेगी। बस, घोड़ी क क़ मत
दलवा द जए, साहब…” तांगेवाला पुनः गहलोत साहब के पांव क ओर बढ़ा।
“नह बचेगी तो या कर? सड़क अपने बाप क समझ के यूं चलता है बे? ह!
हरामज़ादे , तेरी नस-नस से वा क़फ़ ह हम! औक़ात म रह अपनी।” हवलदार बशन सह
ने असलम के कमान ए शरीर को गदन से दबोचकर सीधा कया।
“चल बाहर…”
असलम के मुड़ते ही गहलोत साहब ने म. तवारी से उठने का संकेत कया।
म. तवारी कमरे से बाहर आकर खुले बरामदे म दा हने कोने म दखाई दए
हवलदार और तांगेवाले क ओर बढ़ गए। वह तांगेवाले के अ धक मुंह नह लगना चाह
रहे थे। हवलदार बशन सह को उ ह ने एक ओर बुलाकर उससे कुछ कहा और फर
उसक मु म कुछ दबा दया।
“दे खो असलम मयां, ग़लती चाहे मेरी बेट क हो या तु हारी, अगर हम अभी ही
मामला सुलझा ल तो दोन लोग कचहरी के झंझट से मु रहगे। म चाहता ं क तुम
कुछ पैसे लेकर इसी समय मेरी बेट के ख़लाफ़ लखाई गई अपनी रपोट वापस ले
लो…”
“ले लूंगा सरकार, ले लूंगा।” असलम जाल म फंसे प ी-सा तड़फड़ाया। हवलदार
बशन सह उसके सर पर ही खड़ा आ था।
“अब बताओ, या उ मीद रखते हो तुम हमसे?”
“सरकार, आप बड़े लोग ह, समझदार ह। बना घोड़ी हमारी रोज़ी-रोट नह
चलेगी। आठ-दस हज़ार से कम म आजकल बूढ़ घोड़ी भी हाथ नह लगती।”
“आठ हज़ार चा हए, हांऽऽ।” तड़ाक से एक चांटा हवलदार बशन सह ने उसक
कनपट पर रसीद कर दया—“एक तो ग़लती तेरी, ऊपर से दमाग सातव आसमान पर!
सोच-समझ के मुंह फाड़!”
“कमाल करते हो सरकार, जसका सब लुट चुका वह या दमाग सातव आसमान
पर रखेगा…?” असलम क आंख म आंसू भर आए।
“तड़ाक!” उसक सरी कनपट भी झ ा उठ , “प पढ़ा रहा है माऽऽ…गाड़ी
दे खी, लड़क दे खी, फैल गये सड़क पे क र ी-भर भी खर च लग गई कह तो बड़े
आराम से कुछ न कुछ लपक ही लोगे, हऽ? अब तकड़म अपनी ही ग…तो ततैया हो रहा
है सालेऽ…?”
“नह , सरकार, नह …”
“नह तो फर सुरसा का मुंह य हो रहा? जानता नह , यहां फर भी कुछ न कुछ
हाथ लग जाएगा, कचहरी म कह मामला पलट गया तो बैठे रहना टापते। सीधे-सीधे
बोल जो वा जब बनता है तेरा।”
“ या बोलूं सरकार, आपका राज है। जो जी म आये, दलवा द।”
“जो जी म आए दलवा द, मतलब? ता क तू यहां से बाहर नकलते ही सवार हो
जाए हमारी खोपड़ी पर क जो मला है वो हमने दलवाया! हऽ। म करा मत, समझे?”
“पांच दलवा द जए ज़ूर! और कुछ नह , अधमरी घोड़ी ही ख़रीद सकूं… ब च
के पेट म कम-से-कम एक जून क तो पड़े।”
“आ रहा है ठकाने तू…” हवलदार बशन सह नकट खड़े ए म. तवारी क ओर
उ मुख आ—“सर आप इसे दो दे द जए, इससे कम म नह टलेगा यह … हवलदार
लतीफ ने अभी-अभी ख़बर द है क घोड़ी ठं डी हो गई इसक ।”
“दे खो भई, दो से यादा म नह कर सकूंगा! न मंज़ूर हो तो फर कचहरी म
मलगे।” घोड़ी के मरने क सूचना ने म. तवारी को त नक वच लत कर दया। उ ह ने
सोच लया क अगर दो पर तांगेवाला राज़ी नह आ तो वह उसे तीन तक दे दगे। घोड़ी
क मृ यु से उनका केस और अ धक बगड़ गया है।
“मंज़ूर है सरकार, मंज़ूर है… ग़रीब या खाकर कचहरी लड़ेगा आपसे?”
“चल बड़े साहब के पास…चलकर वापस ले रपोट अपनी।”
हवलदार बशन सह थाना भारी म. गहलोत के कमरे क ओर बढ़ा। म तवारी
भी उसके संग म. गहलोत के कमरे म दा ख़ल ए। उनके चेहरे पर अब तक तनी ई
उ नता फैसला होते ही काफ़ कुछ ढ ली ई।
थाना भारी म. गहलोत ने सीधे तांगेवाले से कया—“ या फ़ैसला कया
तुमने, असलम मयां?”
“सरकार…”
“बोलो, नभय होकर बोलो।”
“सरकार, दो हज़ार पये बतौर हज़ा दगे साहब हमको।”
“यानी तुम लड़क के व लखाई गई अपनी रपोट वापस ले रहे हो?”
“जी सरकार।”
“अपनी मज़ से?”
“जी सरकार।”
“ठ क है।” म. गहलोत सामने बैठे ए म. तवारी क ओर मुड़े—“बधाई हो! पैसे
का इंतज़ाम है आपके पास?”
“कायालय से नकलने से पूव करके ही चला था,” म. तवारी जेब से अपना पस
नकालने लगे।
“कुछ मेरे पास ह भैया, ं ?” लड़क के साथ वाली म हला ने वतृ णा-भाव से
अपने बटु ए को हाथ लगाया।
“नह , ज़ रत नह , अचना…” म. तवारी ने उ ह बरज दया।
म. गहलोत ने हवलदार बशन सह को आदे श दया क दरोगा अजय म ल के
पास तांगेवाले को ले जाकर उसक रपोट के संदभ म एक नर त-प लखवा ल और
इससे द तख़त करवा ल।
म. गहलोत अब तक साहसी बैठ ई शीना से उ मुख ए—“बेट ! गाड़ी ख़ूब
चलाओ, धड़ ले से। मगर भीड़-भाड़ म ज़रा सावधानी के साथ, इन अंध से त नक
बचकर…”
यु र म शीना ने झुका ली।
म. तवारी ने ल य कया क म. गहलोत ने घोड़ी क मृ यु क सूचना शीना को
नह द , शायद यही सोचकर क कह ऐसा न हो क सारे करण से घबराई ई शीना
और अ धक ला न-बोध से त हो जाए और उसका गाड़ी चलाने का आ म व ास
आहत हो। शायद इसी लए म. गहलोत ने कुछ दे र पहले उनसे ही कहा क वे वयं
जाकर घटना थल से अपनी गाड़ी ले आएं और लाकर कोतवाली के भीतर खड़ी कर द
ता क वापसी के समय वे लोग यह से सीधा घर के लए नकल सक। म. तवारी को
शीना क लापरवाही पर ोध भी आ रहा था और उसके सहमे, उड़े चेहरे को दे खकर
दय थत भी हो रहा था। कतनी बार मना कया है उसे क कॉलोनी क बात अलग
है, ले कन शहर म गाड़ी न ले जाए। भीड़-भरे इलाक़ म तो कतई नह । कुशल से कुशल
चालक भी भीड़ म अपना नयं ण खो बैठते ह। वह तो अभी ब ची ही है। पछले वष ही
तो उ ह ने उसक ज़द पर लाइसस बनवा के दया है। इधर जब से उसक बुआ अचना
वदे श से आई है, उसे और भी शह मल रही।
सारा काम नबट चुका था। म. तवारी ने उठते ए गमजोशी से म. गहलोत से
हाथ मलाया। सहयोग के लए उ ह ध यवाद दया। शीना से ‘नम ते’ भी नह कहा गया।
पु लस चौक से बाहर नकलते ए उसके चेहरे से तीत हो रहा था, जैसे वह सज़ा
काटकर अभी ही जेल से मु ई हो।
आधी रात को कसी घोड़ी के हन हनाने का खर वर सुनकर अचानक असलम
क न द उचट गई।
यह तो सरवरी के हन हनाने का वर है! न-झुन हन हनाहट से भरा आ वर!
हड़बड़ाया आ-सा उठकर वह कोठरी के कवाड़ खोल, उसे दे खने बरामदे क
ओर लपका। बाहर झ गुर क झयांहट म डू बा आ आधी रात का गहरा अनमना
स ाटा था और सरवरी के बना अकेले उदास खड़ा आ तांगा। सरवरी कहां है? सरवरी
यहां हो भी कैसे सकती है? उसे तो वह वह सड़क पर मुदा छोड़ आया था—
नगरपा लका क बेजान लावा रस पशु क लाश ढोने वाली गाड़ी के भरोसे। कतनी
तेज़ी से वह तांगा लेकर भागा था घटना थल से।
तेज़ी से कोठरी म लौटकर वह बदहवास-सा न जाने अपने सरहाने या खोजने-
टटोलने लगा। कसी चीज़ के हाथ लगते ही उसे अपनी छाती से भ च, कलेजे म क के
बवंडर-से उठते-घुमड़ते दन को दबाने क को शश म असफल होता आ वह इतनी
ज़ोर से चघाड़ मारकर रोया क लगा, जैसे कोई पेड़ अपने तने से कटकर अरराता आ
धरती पर आ गरा हो और उसक का णक अरराहट पल तक दशा म कांपती ई
ठहर गई हो।
“ या आ अचानक तुमको…अ लाह! कुछ बोलो भी…बोलो!” उसे आधी रात
टू टकर रोता आ पाकर जबैदा हत भ-सी उसे झकझोरने लगी। शोर से एकाध ब चे क
भी न द टू ट गई। कड़वाई ई अबोध आंख से वे रोते ए बाप क ओर हैरत से दे ख रहे
थे, इस हालत म पहली बार।
“कह दद हो रहा है? हौलनाक सपना दे खा? बोलोगे नह तो मुझे पता कैसे चलेगा
क तु ह या तकलीफ़ है? सरवरी का ग़म सता रहा है तो स करो…एक न एक दन
उसे हमसे जुदा होना ही था…”
“नह , वह जुदा नह ई, उसके जुदा होने से पहले ही मने उसे मार दया। मने
उसक मौत से सौदा कर लया, बीबी! जान-बूझकर उसे गाड़ी से भेड़ दया! यही
सोचकर क अपनी मौत तो वह मरेगी ही, आगे-पीछे कसी गाड़ी से भेड़ ं गा तो वह
मरते-मरते अपनी क़ मत अदा कर जाएगी…ये नोट, नोट नह , मरी सरवरी क बो टयां
ह…बो टयां, बीबी…”
सुनकर जबैदा का दल दहल उठा। असलम क पीठ सहलाता आ उसका हाथ
जहां का तहां क गया।
आँगन क च ड़या

कुइयाँ के थर जल से टकराई कलसी-सा भकभकाया जी डू बने को हो रहा… भ क्,


भ क्, भ क्…
का तक पू णमा का नहान अभी शेष है। मगर उतरती दोपहरी अचानक अरराते
घटाटोप से सँवलाई कसैली मन सयत छ टती, दबे पाँव घर म दा खल हो चुक है।
ऋतुएँ भी छु ाछोर सी जब चाह भेस बदल लेती ह क आँख आसमान से टका
उनक न ज़ ढूँ ढ़ते रहो। ऐसे रंग बदलते महीने उ ह ने पहले तो न दे खे थे!…
बजली का बल भरने जाना था, सो यही कहकर घर से गए ह पाठक जी, क
वापसी म नया बाज़ार, मोहरकर क गली म मेजर अवताड़े के घर से होते ए आएँगे।
दो-चार बाज़ी उनके संग जमाएँगे ज क । कट न से सामान मँगाने वाली ल ट जो
बनाई है उ ह ने, उसे भी मेजर साहब को पकड़ाते आएँगे। कट न म ज़ रत क चीज़
कफ़ायती दाम पर मल जाती ह। अवकाश ा त के साथ ही यह सब भी सोचना पड़
रहा है। वैसे छठा पे कमीशन आ रहा है। लागू होते ही हाथ सकोड़ने से ख़ासी राहत
मलेगी। पाठक जी उ साह से भरे ए ह। गुणा-भाग म लगे रहते ह। जब से लागू होगा,
पछले बकाए क तगड़ी रकम हाथ आएगी। द वू के याह क , लगुन क च ता से मु
ह।
पाठक जी के घर से नकलते ही द वू यानी उनक द ा का फोन आया था
गुड़गाँव से।
वर उलझन म डू बा आ-सा महसूस आ और बोल असमंजस-से घरे ए।
कह रही थी क जन तीन लड़ कय के साथ वह साझे का लैट लेकर रह रही है,
उनके साथ अब उसका नबाह स भव नह । दे खा नह था उ ह ने आने पर उन कामचोर
को? “कल रात तो हद ही कर द थी शांभवी ने। …म, म य उसक ऐश- े से सगरेट
के टोटे और राख झाड़ती फ ँ ? य स ँ उसक याद तयाँ? य , य झेलूँ उसके
ऐब!… छह हज़ार अपने ह से का दे रही ँ हर महीने, दस हज़ार और मलाकर अपना
अलग घर न ले लूँ?”
द वू के उखड़ेपन ने उ ह सतक कया। दबी ज़बान से उ ह ने अपनी असहम त दज
करवाई, “अकेले रहने और तीन के संग-साथ रहने म फक है, द वू! रही ऐब क बात, तो
सुन लो, जब चार जने मलकर रहते ह तो उ ह एक- सरे के छोटे -मोटे ऐब झेलने ही
पड़ते ह। हमने भी झेले ह। जब म इलाहाबाद म पढ़ रही थी और हॉ टल म रह रही थी,
तो मेरी म पाटनर थी, बानी। बानी को पान खाने का शौक था। पान और पन ड बे भर
का ही शौक होता तब भी गनीमत थी। एक सौ बीस न बर त बाकू के ऊपर लगाती थी
राजरतन कमाम! सरहाना से लेकर ओढ़ने वाली चादर तक म कमाम गमकता रहता।
म परेशान। ह त अगरब ी के पैकेट फूँक डाले। कमरा बदलवाने क धमक द । हाँ,
पढ़ाई म अ वल थी बानी। हारकर बानी के ऐब के साथ रहने क आदत डाल ली!”
“तुम और कर ही या सकती थी, माँ! बाहर कराए का मकान लेकर रहना तु हारे
लए स भव नह था। नाना जी क है सयत भी तो नह थी।”
माँ सनाका खा गई, “यह कैसी भाषा बोल रही हो तुम…?”
“रात वह चुड़ैल मेरे ब तर म घुस आई… घुसने क को शश उसने पहले भी क
थी…।”
फोन काट दया गया। अकबकायी-सी वह कुछ समझ नह पाई। कुछ दे र तक
उसके फोन के बारा आने का इ तज़ार करती रही। रोज़ वही फोन करती है। कट जाने
के बाद या काट दए जाने के बाद भी वही बारा मलाती है। कह रखा है उसने। द तर ने
उसे मोबाइल दे रखा है।
इतनी ह मत कैसे कर सकती है शा भवी!
“जब तक आ ट है घर म, बाज़ार से मछली नह आएगी।”
बंगाली लड़क के लए मछली और भात के बना खाना खा पाना स भव नह ।
उ ह ने समझाने क को शश क थी, शा भवी को। वे लोग न य ही घोर शाकाहारी ह
खान-पान म। मगर कोई उनके साथ बैठकर जो चाहे सो खाए, उ ह कोई आप नह !
सगरेट भी शा भवी को कभी अपने सामने पीते ए नह दे खा। अलब ा
खूबसूरत-सी ऐश- े उसके कमरे म रखी ई अव य दे खी थी उ ह ने।
तब यही महसूस कया था। घर क टू टन से छ जी ई ब ची है। महानगर का
अकेलापन कब कौन-सा प धर लत-सा चपक जाएगा, कहना मु कल है।
रही बात द वू क , तो उनक और पाठक जी क नर तर यही को शश बनी ई है
क वे दोन अपनी इकलौती स तान को वा लयर और द ली क री कभी महसूस नह
होने द। आई.एम.ट . गा जयाबाद से एम.ए.; एम.बी.ए. कर रही थी तब भी उनक भाग-
दौड़ बद तूर जारी थी। मायके और ससुराल वाल ने यहाँ तक चेतावनी दे डाली, “ब ची
को अकेले द ली य भेज रहे हो? नौकरी वह करवानी है तो यहाँ क रहाइश छोड़
द ली ही मकान य नह खरीद लेत? े अन तो अब रहा नह !…”
… कस- कस से तक- वतक करते और बताते क बेटे के लए बुने गए सपने भी
अब, ब ची क उठान म सलमे-से टँ क गए ह! वैसे भी वे लोग जीवनभर द वू के संग
चपके रहने से रहे। वा लयर य छोड़? चार कदम है बाज़ार और अटारी क मुँडेर लाँघ
भर भरे ह अपने। गुहार लगाओ क भरभरा कर दे हरी पर सब हा ज़र।
पलटकर फोन नह आया द वू का, तो उ ह ने वयं फोन कर लेना मुना सब समझा।
टे क पाने के लए आँधर-सा द वार टटोल रहा है मन…
“हाँऽऽऽ माँ! बोलो!…” त भाव ने टोह द । घरी ई है शायद द वू।
उ ह कौन-सी ल बी बात करनी है। स क से उठा कनखजूरे को उनक ओर उसने
ही तो उछाला है!
“सुन, तूने जो कहा, गलतफहमी भी तो हो सकती है तेरी?”
“गलतफहमी!…”
“माने, सहेली के संग गलब हयाँ डाल के सोया नह जा सकता?”
उनक नादानी पर तरस खाती ‘च प’-सी व न उनके कान म सरक ।
“छोड़ो माँ, अब इतनी भी नादान नह म क… मकसद न भाँप सकूँ।”
छ ीस साल पुराना है उनके नवाड़ के पलंग का ग ा। याह के समय धुनकवा के
भरवाया गया था। ई ग ठया रही। धुनकवाना ज़ री है। कब से टल रहा है मामला।
खोल के लए मोटा पटरी वाला कपड़ा खरीदना होगा तब ही तो धुनकवाया जा सकेगा
ग ा।
उनक तरफ कुछ अ धक ही पठारी हो रहा। पीठ म दद उठने लगता है। वैसे ग ा
इतना भी बुरा नह जतना अभी चुभ रहा है। कल दोपहर चैन क न द सोई थ इसी ग े
पर।…
ब तर से उठकर बजली का वच ऑन कर दया। अँधेरा रात के अलावा बरदा त
नह उ ह।… बाहर बरामदे म आकर खड़ी हो ग । कह बूँदा-बाँद न शु हो जाए।
आसार तो कब से डराए ए ह। भीतर मुड़ने को ई मगर अगले ही पल पलटकर रे लग
से आ टक । रे लग हलाने से हलती है। ठोका-ठोक से त नह होने वाली। नए सरे
से उखड़वाकर लगवानी होगी। अभी इधर ही ढ ली हो आई है। अ न और द वू
छु टपन म इसी पर घुड़सवारी कया करते थे।
“चलो, कुल न से र है, द वू!” अपने को सुनाया उ ह ने। उनके बेचैन होने से
या होगा! अपनी परेशा नय का समाधान ब चे अब वयं खोजने लगे ह। समझना तो
बड़ को है। ज़ रत न होते ए भी अपनी परेशा नय का गुणा-भाग य करते रहते ह!
अनमनाहट को घ टना होगा। आएँगे जब आएँगे पाठक जी। अपने लए तो वह चाय चढ़ा
ही द। बुरी आदत है पाठक जी क । मोबाइल जेब म रखने के लए तैयार नह होते। द वू
ने जबरन ख़रीदवा दया है, तब भी। वही पस म डाले घूमती ह।
भरोसा नह पाठक जी का। आते ही पकौड़ क फरमाइश न कर द। घरे-कसैले
मौसम म उ ह अकसर पकौड़ क सूझती है। बाप क तरह द वू भी है पकौड़ क
शौक न। शकायत करती है। द ली म बेसन फटने क ज़हमत नह उठाते लोग। सोडा
डालकर पकौड़े तल लेते ह। उसे फटे बेसन के पकौड़े पस द ह।
द ली म भी घटाटोप छाया आ होगा या!

डेढ़ महीने बाद द वू ने उ ह मोबाइल पर सू चत कया।


उसी कॉलोनी से लगी सरी कॉलोनी म उसने दो शयन क वाला एक छोटा-सा
लैट कराए पर ले लया है। अ म दे चुक है वह।
कराए क रकम अठारह हज़ार तमाह सुनकर उनके मुँह के बोल चुक गए।
महीने भर पहले उसने इ ला द थी उ ह क उसने पुराने मकान मा लक को
सू चत कर दया है क वह इस व था म रहने क इ छु क नह है अब। चौथी लड़क
बतौर कराएदार वह चाह तो वयं तलाश ल या उन तीन के ज़ मे छोड़ द, वह जान।
परेशानी यह थी क मकान उसे ‘इ को’ चौक के आस-पास ही चा हए था। द तर क
गाड़ी सुबह वह से उसे लेती है और वापसी म वह उतार दे ती है, दो अ य सहयो गय के
साथ।
“ फर… उ ं डता तो नह क शा भवी ने?” पूछे बना नह रह पाई थ उससे।
“सबक सीखने से डर गई होगी।”
“कैसा सबक?”
“वही जो म सखाती उसे।”
“जाने य परस लगा था ऐसा क ‘हैलो’ के बाद कट गया फोन शा भवी का
था…”
“हो सकता है उसी ने कया हो; अभी, परस ही तो उसने कहा था घर से नकलने
से पहले, आ ट क याद आ रही है।”
“मन म आया था क फोन कर लूँ उसे…”
“माँऽऽ, य बात करोगी उससे? इ डयट पंची है!”
तक मुखर होने से पहले पाया, उस ओर द वू है ही नह । उसक इस आदत से उ ह
तकलीफ प ँचती है। “ कसी के सामने आने पर फोन ब द कर दे ना और उसक न सुनना
और बात है, क तु अपनी ट पणी के व तक का सामना करने से मुँह मोड़ना,
उ ं डता।”
“उ ं डता कैसी?” पाठक जी सुनकर हँस पड़े थे। क ी काटने वाली हँसी।
“सयानी हो गई है ब ची, सीख के पु ल दे पकड़ाना ब द करो। शा भवी को पंची
कह रही है तो लगी होगी उसे पंची।”
“मुझे तो नह लगी…”
“तब नह रही होगी, अब हो गई होगी।”
खीझ हो आई उ ह! समझ नह रहे। वर उ हो आया, “चार ब च क माँ तक
द ली म अकेले घर से नकलने म डरती है। ऊपर से यह ज़ न मानने को तैयार नह ।
साथ नह रहना उन लड़ कय के तो न रहे। पेइंग गे ट रह ले कसी भले घर म!”
“नह झेलना होगा उसे और को। उसक मज़ ! उसका सोचना गलत भी नह लग
रहा क हम लोग आते-जाते रहगे उसके पास।”
“वह तो अब भी आते-जाते रहते ह।”
“अब और तब म फक होगा न! तब हम जब तक जी चाहे; बेट के पास रह सकते
ह।”
…उ ह याद आया।
एम.बी.ए. पास करते ही हॉ टल से सामान उठाया नह था क सूचना मली क
एक अमरीकन सॉ टवेयर क पनी म द वू क साढ़े तीन लाख पये सालाना क नौकरी
लग गई है। हालाँ क साल भर का ोबेशन पी रयड है। पाठक जी के पर लग गए।
दन भर डायरी खोले बैठे र तेदार और अज़ीज़ को फोन लगाते रहे अपना
छलछलाता गव बाँटने के लए। गव म ऊभ-चूभ होते सभी से कह रहे थे, “भाई साहब,
लड़का द वू से इ क स हो तभी बताएँ हम।”
सरे रोज़ नया बाज़ार म चौक पर थत ‘हनुमान ल भ डार’ से असली घी के
आधा-आधा कलो के ड बे तुलवाए गए और चल चलाती धूप क परवाह न कर र शे
म लद क पू तक बँटे।
उनके लए वशेष प से गरमागरम तुलवा लाए द वू क पसंद के बरई वाले गुलाब
जामुन। वशेष छू ट चाही अपने खाने के लए। उ ह ने हँसते ए छू ट दे द । पानी म धोकर
खा सकते ह। पछले ह ते ही पाठक जी क मधुमेह क जाँच करवाई थी। ना ते से पहले
और तगड़े ना ते के बाद। आ त ई। र म चीनी नयं ण म थी।
पलटकर तस ली थमाई ख़ुद को। अठारह हज़ार कौन यादा है द वू के लए। द वू
का ख़च सुनते ही बरझा उठती ह मानो वयं उनके पाँव चादर से झाँकने लगे हो। अपने
को खूँद रही ह तो यह भी महसूस हो रहा है इन ऊपरी बात के बहाने असल म नर तर
चुभ रही है—उसके अकेले रहने क ज़द।
द वू ने आगे यह भी बताया क उसके लए यह यारा-सा लैट तलाश करने म
उसके आई.एम.ट . के सहपाठ वक यानी क ववेक साहनी ने ब त मदद क वरना
दलाल के च कर खासी मुसीबत होते ह। वक भी गुड़गाँव म ही एक जमन फम म है।
ोबेशन पी रयड पूरा कर चुका है। पैकेज वक का उसके अनुब ध से कम है।
“उसके बारे म तु ह बताया था न, माँ!”
उ ह ने दमाग पर ज़ोर दे कर याद करने क को शश क । कब द वू ने उ ह वक
उफ ववेक साहनी के वषय म बताया था! भूलने क बीमारी उ ह नह , पाठक जी को
ज़ र है। उनके स रहने का राज़ भी शायद यही है।
“ पछली बार द ली आने पर वक से मलवाया य नह ?” आवाज़ के उखड़ेपन
को भरसक दबाने क को शश क थी उ ह ने।
दरदरी हँसी खनक थी, “डर लगा था।”
“ कस बात से?”
“तुम मुझे उन भूत नय जैसा न समझ लो।”
“अब नह समझ सकती?”
“समझने जैसा ऐसा कुछ नह है हमारे बीच!!”
“ फर, डर य लगा?…”
हमेशा क भाँ त वह छलाँग भर उनक पकड़ से छू हो गई, “सु नए माँ, पापा ह न
पास, त नक उ ह फोन द जए।”
पाठक जी को फोन नह पकड़ाया तो फोन रख दया जाएगा। गनीमत है, डर है
लड़क को! डर का नै तकता से गहरा ता लुक है। जब भी उसे डरा आ दे खती ह,
आ त से भर उठती ह। मोबाइल कान से सटा पाठक जी चौखट से बाहर हो बरामदे म
टहलने लगे। रसोई म पलट वे लेटफॉम क बखराहट स रयाने लग । बतन आ ह ता
समेटती ह। टकराने क झ ाहट उ ह खटकती है। बतन क टकराहट को सास घर क
अशा त से जोड़ती थ और बरकत म रोड़ा।
काम नपटाते हाथ उलझे ए ज़ र ह मगर भीतर चंबल का बीहड़ भाँय-भाँय
करता उग आया…
लेटफॉम प छते पोछे को वह बुलडोज़र म बदलने क को शश करती है। उगते डू ँह
कद काढ़े , इससे पहले ढहा उ ह समतल कर दे ना चाहती ह। न चाहते ए भी य
दा खल हो जाता बीहड़ उनके भीतर! डर कौन रहा है? छोटे म द वू डरकर सच बोलने
लगती थी और अ न झूठ। द बश बढ़ते ही अ न को भी पटरी पर आते समय नह
लगता था। ब च को डराकर शायद वह वयं भयमु होना चाहती थी। डर उ ह
अनाव यक भी तो डराता रहता है बरईय -सा उनके भीतर भनकता… भू ँ ऽऽऽ…
द वू ने नह कया मनुहार इस बार क माँ, तु हारे आए बना गृह वेश कैसे क ँ गी!
पापा और तुम अगले ह ते का द ली का टकट आर त करवा लो। घर सु व थत
कौन करेगा। मुझे कहाँ समय है। चुड़ैल वाले इस घर क सारी ज़ रत क चीज़ तुम दे ख
ही गई हो क मकान मा लक ने दे रखी ह।
हो सकता है, पाठक जी से इस बाबत बात क हो उसने। पूछने पर पाठक जी ने
इनकार म सर हला दया, “हम तो च ब ली स ता-ब ता के जो स सुना रही थी। कुछ
नए जो स एस.एम.एस. करेगी। कह रही थी क पापा, उ ह म सुना नह सकती…।”
अनमनाहट म प नी का नमक न ल बा चेहरा सूखी बेल पर लटक तुरई-सा लटक
आता है। अनमनाहट साड़ी-सी हरदम लपेटे रहने क आदत इधर कुछ यादा ही बढ़ गई
उनम।
पाठक जी ने वर म धैय क माया बढ़ाई, “भई, द वू ने नह कहा आने के लए तो
खुद य नह कह दे ती क म द ली आ रही ँ?” आगे जोड़ा उ ह ने। उनके कुछ बोलने
क उतावली को खामोश रहने पर ववश करते ए, “यह भी कह रही थी मु ो, पापा
अपना और म मी का पासपोट बनवा ल। भोपाल जाना पड़े तो हो आएँ। (लाड़ म पाठक
जी द वू को अनेक स बोधन से पुकारते ह)
पाँचव रोज़ फोन पर वह उ ह कुछ फुरसत म लगी जब क हैलो, हाय लगभग रोज़
ही होती रहती है।
“सुन द वू, म आती … ँ नए घर क जमा-जमायी अकेले तेरे बूते क नह ।” उ ह ने
यह भी बता दया क उसके कहे मुता बक मखमल क डबल बेड क रजाई का फद
लेकर भरवा लया है उ ह ने। रंग भी उसक पसंद का मल गया है। लो हया बाज़ार से
लोहे क छोट कड़ाही और तवा भी वजनदार ले आई ह। टट का कलो भर अचार
उसके पापा ले आए ह। परात, पतीले, आटा, दाल, चावल के ड बे, मच-मसाले, पापड़,
मंगोड़ी, बड़ी और नया बाज़ार से ॉस टच वाली चादर, त कए के खोल आ द सब
जोड़ लए ह। अ य कसी चीज़ क ज़ रत हो तो फोन पर नोट करवा द उ ह। साथ आ
जाएगा। टकट ताज से ही बुक करवाएँगी। शता द से इतना सामान आना मु कल है।
…” कना पड़ा उ ह।
द वू ने सकुचाते ए उ ह बीच म टोका, “अभी थोड़ा क जाएँ।” कारण? कारण
ही तो गले का फ दा हो रहा है। भयंकर मारामारी है। घर क रँगाई-पुताई होनी है। अगले
ह ते वह एक अ य वदे शी क पनी वॉइन करने जा रही है। साढ़े बारह लाख साल क
पैकेज डील ई है। पछली क पनी उसने पछले महीने ही छोड़ द थी। उ ह और पापा
को नह बताया तो सफ यही सोचकर क ख़ामख़ाह उनके चैन म खलल य डाले। नई
क पनी जे. जे. जे. को वॉइन करते ही उसे फौरन जेनेवा जाना है क पनी क एक
श ण योजना के तहत। जेनेवा से सवा महीने बाद लौटना होगा। इसी बीच वीज़ा
आ द क औपचा रकताएँ पूरी होनी ह। आने क को शश होगी उसक वा लयर, ले कन
गुंजाइश नकलती नह दख रही। उसके जेनेवा से लौट आने पर ही द ली आने का
काय म बनाएँ। स भव है, तब तक लोन आ द का ब ध कर वह अपनी गाड़ी ख़रीद
ले। गाड़ी के बना द ली म आवाजाही क ठन है।…
गाड़ी चलाना सीख रही है। बाकायदा ाइ वग कूल वॉइन कया आ है। पापा
से ज़ न कर। उ ह च का दे ना चाहती है टे शन से घर ले जाकर।
उन लोग क कमी उठते-बैठते नर तर महसूस हो रही है। छोटा शहर अकेला नह
करता। बड़ा नगल लेता है…
कल रात उनक और पापा क इतनी ज़ोर से याद आई, उनक गोद क ड़क जो
मचती है!…
जेनेवा जाने से पहले फोन कर उनका आशीवाद लेगी। एयरपोट से उ ह फोन
करेगी।
…अब उससे यह न कहने लग क वह वा लयर से उसके रा ते के लए ख ता
बनाकर भेज रही ह… कोई आनेवाला न मला तो कू रयर से सुर त भजवाने का जतन
करगी।
माँ, यूँ याद आ रही हो इस व त इतनी यादा…!
सुनते ही भड़भड़ाया मन आँख म उमड़ आया। हा या पद लगने वाले उसके पापा
के तमाम स बोधन उसे पुकारने के— पघलने को बेचैन हो आए उनके ह ठ पर। मु ा,
म टू , मोरी ब ल रयाँ, चुनमुन, पु ी, पड़कुल, पीपी लका ब द रया, गुलबुल और
ब छया…
सर पर भरे बादल -सा व त गुज़रने लगा। व त बहने के लए ही तो होता है। ऐसे
बहता है क कब उ गुज़र गई, अ दाज़ा ही नह लगता।
जेनेवा से श ण लेकर लौट द वू हांगकांग, ऑ े लया और अमे रका क या ा
पर नकल गई।
पाठक जी बात होने पर अपनी ब ल रया को समझाते। न य त सोने से पूव
डायरी लखना न भूल।े अलग-अलग जगह के अलग-अलग अलबम बनाना न भूले। यह
करना न भूल,े वह करना न भूल।े उधर से ‘हाँ पापा, हाँ पापा!’ म ही जवाब मलता रहा
होगा। बना सुने उ ह अ दाज़ा है।
पछली कसी शाम पाठक जी लस के म मेजर अवताड़े को फोन पर बता रहे
थे। एक वे ह क एक ही शहर म घरघु सू-से बने ए। कभी बाहर नकलने क ही नह
सोची। वा लयर न छोड़ने के च कर म उ ह ने अपने कई मह वपूण तबादले भोपाल
जाकर राजनी त के दरवाज़े खटखटाकर नर त करवाए, पदो त का मोह छोड़। दे श
ही नह घूम पाए वह और उनक द वू का एक पाँव हवाई जहाज़ म ही बना रहता है!
शाद , हाँ उसक शाद क च ता बराबर बनी ई है उ ह। वे भी तो प र चत ह
उनके रायबरेली वाले बड़े मामा ोफेसर रामबचन तवारी से। आई.ए.एस. म इसी साल
चुन लए गए सवश म ा के मामा के मा यम से उ ह ने द वू और सवश के याह और
लेन-दे न के स दभ म बात चलाई। तसवीर माँगी गई थ द वू क तो अनुराधा ने भेज द ह
बड़े मामा जी को। बात लड़का-लड़क क पसंद पर टक ई है।
“न, न, न, आप ठ क कह रहे ह मेजर साहब! पसंद के बावजूद ट म-टाम म लाख
ढ ले करने पड़ सकते ह!”
“हाँऽऽ हमने भी तय कर लया, कौन दो-चार औलाद को ल गे लगाना है हम। ले-
दे कर एक द वू ही तो है!”

कपड़े तहा अलमारी म स रयाते ए च ँककर खयाल आया, गैस पर चाय का पानी
चढ़ाकर आई थ । काम से हाथ ख च दौड़ी तो पाया, पतीले क पद अंगारा हो रही है।
अलमारी जब-जब कपड़े रखने नकालने के लए खोलती ह—बीच के कोने म
हगर पर टँ गे अ न के कूल के कोट को छू ना नह भूलत । पलट और शेष कपड़ को
यथा थान पर रख कोट को छू ने लग ।…
उसाँस गहरा आई…। कतना के और? का जाए तब न! मुँह दे खे बना स नह
बँधता जैसे वदा कर दया हो द वू को।
मकर सं ां त से पहले ही अड़ ग । खचड़ी वह बनाएँगी और यहाँ नकालकर
रख जाएँगी ता क पाठक जी हाथ लगाकर भजवा द नया बाज़ार वेद प डत जी के
घर।
मोबाइल पर द वू को सू चत कर दया। बारह जनवरी क ताज से वह द ली आने
क टकट बुक कराने जा रही ह। कोई हील- जत नह सुननी उ ह। काम-ध धे क
तता सभी पर लद होती है। उसके बाहर आने-जाने से उ ह या द कत? घर है न
रहने के लए।
पाठक जी ने पहले ही साथ चलने से मना कर दया था। पेडू पर हा नया गुमटे -सा
बाहर नकल आया है। बाड़े के डॉ टर म ल से नर तर परामश कर रहे ह। हा नया के
लए बने वशेष बे ट को उ ह ने बाँधे रखने का सुझाव दया है। दद मामूली-सा उठता है।
उनके लौटने तक ऑपरेशन टालगे। ो टे ट क नई सम या शु हो गई है। द वू से उनके
क का रोना न रोएँ। समय पर बताना ज़ री होगा तब बता दया जाएगा। मामूली
ऑपरेशन है। नौकरी उसक बड़ी है। बड़ी नौकरी क सम याएँ दमचुसनी होती ह।
उ ह ने सरकारी नौकरी क है। सरकारी नौकरी ताज़ी बयायी भस-सी दरवाज़े बँधी सदै व
न त कए रहती है।
सुनकर द वू ने अबक कोई ना-नुकर नह क । कहा क वह गुड़गाँव से नज़ामु न
टे शन प ँचकर उ ह ले लेगी। च ता न कर।
मौसम ने उनक अधीरता को अनुकूलता से सहलाए रखा। आशंका को परे
ढकेल दो रोज़ से चमक ले सुनहरे घाम क चढ़त ने कोहरे को ठठकाए रखा था। उ मीद
थी क ताज नधा रत समय पर नज़ामु न प ँच जाएगी। गाड़ी क र तार जहाँ कह
भी धीमी पड़ती, उनका जी बेलगाम होने लगता—प हाई गाय-सा ब छया से लपटने को
ाकुल।
उनक आँख पर जैसे भरोसा नह था। ाकुलता ने अपनी आँख खोल ली थ ।
अँधेरे और र टम टमाते जुगनू-से उजाले म उगती और पीछे छू टती ब तय को
खड़क के मोटे काँच को भेद पहचान लेना चाहती थ वे आँख क द ली कतनी र
है!…
द वू क गृह थी ढोकर ले जा रही ह। दे खते ही आँख चमकाती अपने चर-प र चत
च ब ले अ दाज़ म ख़ुशी से उछल पड़ेगी बावली! उसक ख़ुशी बाड़े तोड़ती है तो वह
आसमान म उड़ते गु बारे-सी उड़ने लगती ह और उसके पाँव को हथे लयाँ कस, वह भी
उसके संग उड़ान भरने लगती ह… उड़ान कल रात भी भरी थ उ ह ने…
पछले दस वष से वह पाठक जी को मनाने क को शश कर रही ह क
अ ावहा रकता छोड़ वे त नक नयादार हो जाएँ। मगर बात उठाते ही उनक वही
पुरानी तोता रट त शु हो जाती। कोई कमी है हम लोग को? वा लयर जैसी
ऐ तहा सक नगरी म अपनी छत के नीचे बैठे ए ह। गुज़ारे को खासी पशन है। खासी
इसी लए क हमारे ख़च ही या ह। हारी-बीमारी के लए सी.जी.एच.एस. क सु वधा
मामूली नह । तो फर सांगीपुर क ब े भर क ज़मीन बँटवाकर कौन-सा खज़ाना झोली
म आ गरेगा! बड़े भैया के बड़के ने अपना वतमान-भ व य सब कुछ झ क दया हरह
क सानी-पानी और खेत-ख लहान क गोड़ाई-बोवाई म।
“बोलो, या चाहती हो तुम?” तन आए थे पाठक जी।
बोलने म नल ज हो आ । यान से उनक सुने। अपने इधर बीस बसुआ का बीघा
होता है और डेढ़ लाख त बीघे का हसाब चल रहा है। उनके ह से के छह बीघे के नौ
लाख बनते ह। नौ लाख क रकम छोट नह होती। ज़मीन क क मत और स थ पे
कमीशन के बकाए क रकम हाथ आएगी तो द वू के भाँवर क च ता से उ ह मु
मलेगी। आई.ए.एस. दामाद का सपना न व न प से साकार हो सकेगा। जहाँ तक
लड़क के पस द आने का है, बेट दे ख मजाल कोई मुँह फेर ले!
तंग हो आए पाठक जी ने प ड छु ड़ाया। इसी ह ते वह बड़े भैया को गाँव च
भेज दगे। उ ह प लख दगे क अपने ह से के छह बीघा खेत वे बेचने क सोच रहे ह।
बड़े भैया चाह तो उनके खेत वयं ख़रीद ल। उ ह भी अ छा लगेगा अगर घर क ज़मीन
घर म ही बनी रहे। आँगन- आर बँटवाने का उनका कोई इरादा नह है। वैसे भी उ ह नह
लगता क बड़के के तीन बेटे कूली श ा पूरी कर गाँव म बने रहगे और उ च श ा
हण कर गाँव लौटने क सोचगे। बड़के को भी आगे चलकर छोटकवू से बँटवारा कर
गाँव-दे हरी का खाता ब द कर ब च के संग रहने को मजबूर होना पड़ेगा।…
…बड़े भैया का छोटा बेटा छोटकवू यानी क एडवोकेट वीरे पाठक इलाहाबाद म
वकालत कर रहा है। बता रहा था उनसे क तगड़े आसा मय के झूठे-स चे मुकदमे हाथ
म न लेता वह, तो वा त वकता तो यह है क वकालत का काला कोट खूँट पर टाँग नगर
नगम क लक करने क नौबत आ चुक होती उसक ।
“ पछले महीने ही नैनी म हज़ार गज का लॉट ख़रीदा है छोटकवू ने!”
“ख़रीदा होगा, हमसे तो उधार नह माँगा उसने!” घसे रेकॉड-सी सूचना क
दोहराहट ने पाठक जी म गुराहट पैदा कर द ।
आगे इस वषय पर चुप रहना ही बेहतर लगा उ ह। गाड़ी तुगलकाबाद छू रही है…
तुगलकाबाद पार करते ही प हय क र तार धीमी होने लगी। घ टे भर वल ब से प ँच
रही नज़ामु न लेटफॉम पर ती ा करती द वू परेशान हो रही होगी।…
तेज़ ई दल क धड़कन उ ह दल के दन-ब- दन कमज़ोर होने क आशंका से
भर दे ती है। लेटफॉम क सी ढ़याँ चढ़ने म भी दम फूलने लगा है। पाठक जी को नह
बताती इस भय से क उनक दे ह क चूल कौन कम दली ई ह।…
गाड़ी यह ख़ म होती है, उ ह हड़बड़ाने क कतई ज़ रत नह , सोचा उ ह ने।
रा ते भर सामान पर नज़र गड़ाए ए आई ह। उतर जाएगा आराम से। अलब ा, कु लय
का बखेड़ा ज़ र है। वा लयर के कुली और द ली के कुली म फक है। द ली के
कु लय क मनमानी से भय लगता है उ ह। पाठक जी ने चेतावनी दे कर भेजा है उ ह।
उठवाई जो माँगे, सो चुपचाप दे दे ना।
खड़क से झाँकते ही द वू ठ क ड बे के सामने खड़ी दखी, ल बे से काले कोट
म। कुछ ल बी-सी लगी। पागल ने कान को ढँ कने के लए काफ य नह बाँध रखा?
इतनी रात म बाल के लहराते कट कौन दे खेगा!
वे अपनी सीट पर ही बैठ रह । सीट न बर द वू को पता है। ड बे म कुली घुसते
नज़र नह आए। मल जाएँग।े जाड़े के दन ह।
उतरती सवा रय से बचती द वू ‘माँऽऽऽ’ क गुहार लगाती उनक बाँह म समट
गई और वे गौरेया हो आ ।… व लता को आँख म छलकने से बरजा उ ह ने…। उ ह ने
महसूस कया। सीने से आ लगी बेट संयत है।
“माँ, सामान?”
उ ह ने सीट के नीचे इशारा करते ए उससे नीचे उतरकर कुली दे ख लेने का आ ह
कया।
“ज़ रत नह है कुली क । वक है न साथ!”
द वू क मुड़ती नज़र के साथ उसके ठ क पीछे आ खड़े ए लड़के क ओर दे खा
उ ह ने, जो उनक नज़र अपने ऊपर पड़ते ही उनके पाँव छू ने नीचे झुक गया। शालीन
सकुचाहट से सराबोर।
“आ ट , आप चलकर लेटफॉम पर खड़ी हो जाएँ, म सामान उतारता ँ।”
“येऽऽ सारा अपना सामान है?”
“तो ये ह वक उफ ववेक साहनी उफ सहपाठ मददगार। जे.जे.जे. क सहायक
ोजे ट मनेजर को घर दलवाने वाला!”
लेटफॉम पर आकर खड़ी हो ग वे उनके नदशानुसार।
हो शयार है लड़क उनक । सद क ठठु रती रात म जे.जे.जे. क सहायक ोजे ट
मैनेजर होने के बावजूद गुड़गाँव से नज़ामु न उ ह अकेले लेने आना, सु वधा से भरे
शहर के जो खम का सामना करते ए—आसान नह था। सामान उतरवाने से लेकर
कुली आ द के ब ध का ज़ मा आगे बढ़ वक ने ले लया अपने क ध पर। अ छ
मैनेजर है द वू, सोचा उनके मन ने।
मन ने मन को आ त भी कया। कूल, कॉलेज क दो ती ही असली दो ती होती
है। उसक जगह न र तेदार ले सकते ह न कायालय के सहकम , य क बीच म उनके
न कोई वाथ होता है न त पधा…
ऐसा नह है क द ली म उनके गाँव-जवार के लोग नह रहते। मगर उनसे उ ह ने
सदै व री बरती है। वरना ब च को आगरे का ताजमहल दखाने के बहाने वे वा लयर
का क़ला दे खने उनके घर आ टपकते।
इस मु े पर पाठक जी भी उनसे सहमत ह क पढ़ने वाले ब च को भूलकर भी
र तेदार क दे हरी नह लँघानी चा हए। कताब खोलने क बजाय ब चे वहाँ घर का
आटा गूँथते नज़र आएँग।े
गाड़ी वक चला रहा है। पीछे बैठे ए इ छा ई क वक क बगल म बैठ ई
द वू से पूछ ही ले, ‘गाड़ी अ छ है, तुमने ख़रीद वही है न?”
बना बोले ए जाने द वू ने कैसे सुन ली उसके मन क बात, “यह गाड़ी वक क
है माँ! ‘स ो’ म ट ल े रंग उपल ध नह था। शो म वाल ने कहा है क प ह-बीस
रोज़ लग जाएँगे गाड़ी क डलीवरी म। द ली तुम मेरी उसी गाड़ी म घूमोगी। बरई वाले
गुलाब जामुन लेकर आई हो न, माँ?”
“लाई ँ न!” फु लत हो आया जी, “ कान से ताजे बनवाकर लाए ह तेरे
पापा।”
आवाज़ मचली, “कहाँ रखे ह?”
“तेरे पाँव के आगे जो लाल रंग वाला एयर बैग रखा आ है न, उसी म ह, ट ल के
बड़े कटोरदान म।” सब दरका।
सावधानीपूवक एयर बैग उठाकर गोद म रख लया। गाड़ी चला रहे वक से अं ेज़ी
म पूछा, “गुलाब जामुन खाओगे?”
जाने वक ने या जवाब दया क उचटकर एयर बैग खोले बना ही सीट के नीचे
यथावत रख द वू पस से माल नकाल, वड न पर सघनाते कोहरे क नमी को
प छने लगी।
द वू का उचटना उ ह चा नह । आँख फेर उ ह ने खड़क से सटा ल । माल
नकाल खड़क का शीशा प छा। पघली चाँदनी-सी सघनाती धुंध क झीनी परत के
आर-पार सड़क के कनारे खुदे ए मले। बड़ी तेजी से मै ो द ली को ढोने के लए
कमर कस रही है। कभी सर के ऊपर से लाई ओवर गुज़रते ह तो कभी गाड़ी लाई
ओवर क सप ली छाती पर फराटे भरने लगती है। द ली कचुल बदल रही है, ऊँची-
ऊँची हैलोजन के सुनहरे आलोक म व लोक सरजती। आदमी पहले बदलता है या
शहर! कुछ आदमी शहर को बदलते ह, शेष आदमी शहर के बदलते ही वयं को बदल
लेते ह…
“सुनो माँ!” पीछे तरछे हो मुड़ते ए द वू ने चेहरा उसक ओर घुमाया, “मने तु ह
बताया था न, लैट सातव माले पर है?”
“बताया होता तो मुझे याद होता न! परेशान हो रहे थे सामान ऊपर कैसे चढ़े गा, घर
ऊपर आ अगर…”
“वो, आ ऐसे क इसी कॉलोनी म छोट वाली ब डंग म से एक तीसरे माले वाला
लैट पस द कया था पहले। ल ट न होने क वजह से उसे छोड़ दया।” अपनी सीट
पर सीधी हो गई द वू।
उधर ापी खामोशी उनके भीतर चटखने लगी।
हो सकता है, उ ह म आ हो। वक को ड बे से सामान ढोता दे ख द वू खीझी
लगी थी उ ह। लेटफॉम पर सामान उतार लेने के बाद ही जाकर कुली मला था। पाठक
जी क पुरानी पट से सले गए झोल का स पयोग भी अखरा होगा उसे। अ यू म नयम
का पुराना ं क दे ख बदक होगी। भारी-भरकम डबल बेड क रजाई सुर त लाने का
और या तरीका हो सकता था? पछले महीने ही कट न से दो ब ढ़या एयर बैग मँगवाए
ह पाठक जी ने ले कन उ ह हाथ नह लगाया, खर च पड़ने के अ दे शे से। कड़ाही, तवा,
चमटा पुराने झोल म ही भले। यह या जाने गृह थी के झंझट! घर ले लेने भर से घर
नह बस जाता। वे तो अपने संग न बू नचोड़ने क न बूदानी तक लेकर आई ह। कब
कस चीज़ क ज़ रत आन लगे, कौन जाने। उसके याह के लए उसके पैदा होते ही
चीज़-ब त जोड़ने-सँजोने लगी थी।
उ ह तो अपनी अड़तीस साल पुरानी गृह थी म भी लगता रहता है क वे अब तलक
अपनी बैठक को उस तरह नह सजा पा जस तरह सजाना चाह रही थ ।
“बस, आ गए माँ! वह रहा सामने इ को चौक। हम यह से मुड़गे।”
“मालूम है… पछली बार यह कसी मॉल म ले गई थी।” इ को चौक से गाड़ी बाएँ
मुड़ गई।
प ँच भी गए। रा ते भर दोन अं ेज़ी म लगातार ब तयाते रहे ह। इलाहाबाद
व व ालय से उ ह ने भी अं ेज़ी म एम.ए. कया है मगर एक बात उनके प ले नह
पड़ी। पड़ती कैसे? खुसर-फुसर गलब हयाँ डाले कान को ही समझ म आती है।
कॉलोनी बड़ी शानदार लगी उ ह। सजावट पेड़-पौध से सजी-धजी। गुलमोहर
अभी कद नकाल रहे ह। दो-चार वष के भीतर ही रहाइश के लए तैयार ई लगती है।

द वू ने घर का लैच खोला। ठठक गई दरवाज़े पर। दोन ओर समस के दो गमले


रखे ए थे और चौखट के ऊपर लटक रहा था क छ तोरण! यहाँ कैसे आया? पछली
बार द वू, शा भवी, अ नभा और शु ा के साथ मयूर वहार के नकट अ रधाम गई थी
तो वा लयर के लए ठ क ऐसा ही ख़रीदा था उ ह ने। कौ ड़य क झालर और गदे के
फूल से गोल-मटोल रंग- बरंगे फुंदन से अलंकृत। कनार पर ठ क वैसे ही न हे चोट ले
लटके ए।
“माँऽऽ भीतर आइए न!”
च कत-सी वह बेहद सु चपूण बैठक म दा खल ई।
ल ट रोक वक सामान उतार बैठक क दा हनी खड़क के नीचे के ख़ाली थान
पर रखने लगा।
रसोई म ले गई द वू, “यह मॉ ूलर कचन है माँ। बस ज, ओवन, वॉटर
यूरीफायर भर ख़रीदे ह…” और उ ह लेकर मुड़ी द वू शयन क क ओर—“यह है
बेड म।”
मोटे ग े से सजा आ पीतल का शाहाना भारी-भरकम पलंग उ ह ब त पस द
आया।
“ब त सु दर है—कला मक! म तेरे लए मखमल क बेहद यारी-सी डबल बेड
क रज़ाई लेकर आई ँ। अभी नकालकर लाई।”
“ ई क है?”
“हाँ, ई क ।”
“कौन ओढ़े गा ई क रजाई, माँ”
“तू नह ओढ़े गी?”
“म नह ओढ़ सकती ई क रज़ाई। ग म ड ट माइट् स हो जाते ह… मने फोम
क ख़रीद ली है।”
“ले कन… तूने ही तो कहा था भरवाने के लए?”
जवाब म द वू खल खलाई, “कहा होगा, तब तु हारी पस द ही मेरी पस द थी न!”
हत भ हो उठ । उनके सीने म चंबल के ढूँ ह भरभरा आए। लगा क उनक घुट
चीख पघले लावे म त द ल हो रही ह…सहसा उ ह ने वयं को झकझोरा, जैसे पाठशाला
से लौटते ए गाँव के मुख ग लयारे के एक ओर खड़े बेरी के तने को घेरकर झकझोरती
थ । वक घर म मौजूद है। पराये ब चे के सामने आ मबल खो नरीह हो उठना उ चत
नह । भले ही वह द वू का सहपाठ रहा हो। संयत होने क चे ा करती ई वह शयनक
से बाहर नकल आ । बैठक म रखे सामान म लाल रंग वाला एयर बैग ढूँ ढ़ने लग । एक
अ य एयर बैग के नीचे रखा आ दख गया उ ह लाल वाला एयर बैग।
उ ह ऊपर वाला बैग उठाते दे ख वक मदद को लपक आया। लाल वाला एयर बैग
भी खोल दया उसने।
बैग से उ ह ने मुरैना गजक वाले कलो- कलो भर के दो ड बे नकाले। गुड़ और
श कर—दोन के और ड ब को वक क ओर बढ़ाते ए बोली, “एक से ऊपर हो रहा
है बेटा, ब त रात हो गई। शेष धरा-उठाई हम सुबह कर लगे। तुम अब घर नकल जाओ।
सब रा ता दे ख रहे ह गे तु हारा।”
सकुचाए-से खड़े वक के हाथ से गजक के दोन ड बे लेते ए द वू सीधे उनके
सामने आ खड़ी ई, “तु ह और पापा को… बताने क म ह मत नह सँजो पाई माँ!…
दरअसल, मने और वक ने बना फेर के…साथ रहने का न य कया है…तुम आ गई
हो तो अब हमारे स ब ध पर मुहर लग जाएगी।…”
वे ढहती-सी पास वाले सोफे के ह थे-सी टकती सोफे म धँस ग ।
उ ह के सहारे द वू ने उबरने क को शश क , “कुछ खाओगी माँ!”
बड़ी क ठनाई से अपने वर को खोज ह ठ तक ख चकर ला …”रा ते म दवा
खानी थी। साथ लाई कचौ ड़य म से दो नकालकर खा ली थ ।”…
कॉफ बना ँ …?”
“उ ं ड… बदतमीज!” भीतर गरजी। बाहर द वू को यही सुनाई दया, “ज़ रत
नह ।”
दाँत भच गए उनके। थरथराती काया पर आर-पार होती आरी-सी चल रही। अब
धराशायी। सोफे के ह थे पर हाथ और कस गए।
बगल के छोटे कमरे म उनके सोने का इ तज़ाम कर दया गया है। द वू क आवाज़
म कोई ऊभ-चूभ नह , “सो जाएँ जाकर। कल क छु ले रखी है। सुबह बात होगी।”
सुबह दे ख पाएँगी वह!
द वू अपने शयन क क ओर चली गई। वक न ल त-सा उसके पीछे हो लया।
बाघ

पुरो हत जी को दे ख रहे ह?… पुरो हत जी कैसे क ढलते ए-से ज़ीना चढ़ रहे ह!


पहले माले पर प ँचते ही वे गदन उठाकर न दखने वाले चौथे माले तक क
सी ढ़य को जबह होने वाली लाचारी से ताकते और छू ट ह मत बटोरकर अगली सीढ़
पर पाँव बढ़ा दे त।े सी ढ़य पर चढ़ते-उतरते पुरो हत जी को अपने वा य पर संशय होने
लगता, कह वे दमे के मरीज़ तो नह ? दरवाज़े तक प ँचते जो साँस उखड़त , कसी
उपाय मु म न आत ।
…मयूर वहार क ‘नवभारत सोसाइट ’ के डू लै स लैट का ऊपरी ह सा
पुरो हत जी ने अभी कोई पाँच महीने पहले ही कराये पर लया। प नी ऊपर का लैट
लेने के प म नह थ , उनके र चाप क च ता के चलते। पुरो हत जी ने ही आ त
कया। इस ठौर रहना ही कतने दन? चढ़ना-उतरना कतना? कायालय के लए जो
सुबह उतरे, वापस लौटे ही चढ़े । छह महीने क अव ध है आयकर वाल क । इसी अव ध
म उ ह हर हालत म अपना घर खरीद लेना है। अपने डेरे प ँचे नह क ऊपर-नीचे क
हाड़-तोड़ी ख म!
इस ओर आने क सोची कसने? स ते कराए के पीछे जमुनापार आकर बसना
मजबूरी बन गया। पटे ल नगर के रौनक-भरे पु तैनी मकान म बीजी क मृ यु के उपरा त
रहना भर हो उठा। छु क सुबह अखबार पढ़ते ए सरी चाय पूरी घूँट भी नह पी
पाते क गोद पला भाई ब ला अ ड़यल सूदखोर क भाँ त खूँटा गाड़ के सामने आ
बैठता और कमर सीधी करने के नाम पर ह ते-भर म मलने वाली एकमा छु को
गँडे रय -सी चूसने लगता।
ब ला को मकान म ह सा चा हए था। त काल। उसे सहन नह हो पा रहा था क
बीजी क मृ यु के उपरा त वे उस घर म ठाठ से य बने ए ह, जब क वह राजे नगर
क एक ख ताहाल कोठ क छ ी म अपनी प नी और आठ वष य बेटे के संग, प ह
सौ पये कराए पर गुज़र करने को अ भश त ह।
ब ला और उसक प नी कु क याह के दो ढाई-वष तक कुटु ब म ही रहे। रसोई
साझी, खच बेढ कन! उसके याह से पहले कुटु ब क बागडोर जब बीजी के ज़ मे थी,
ब ला ढाई सौ पये बीजी क हथेली म पहली को रख दे ता। यह करामात उनक ही थी।
बीजी क नज़र म औलाद क अह मयत बनी रहे और वे शा त रह। इसक खा तर वे
तीस क रात भोजनोपरा त उसके संग मोह ले म चहलकदमी को नकलते और उसक
जेब म खसका दे ते ता क वह सुबह बीजी क हथेली पर पैसे रख सके। दरअसल, उसे न
खच से वा ता होता न तंगी का मलाल! याह के बाद भी बेशमायी खर च-भर न छली।
वे दो और उनके तीन। ब ला और कु क संग। बीजी क हारी-बीमारी ऊपर। कमरतोड़
महँगाई क दन- नी रात-चौगुनी छलाँग। उनके क ध पर पड़े ड े बीजी ने महसूस
कए। मुँह खोल बैठ गले तक आते ही। ब स, मयाँ-बीबी ने अलाय-बलाय बक मोह ला
सर पर उठा लया। ब ला लहाज छोड़कर बोला, घर बेचकर मुझे मेरा आधा ह सा दे
दो। हम नह रहना संग। घर बड़े के प रवार ने अगुवाया आ है, खटोले-भर ठौर नह
कह हम दोन के लए?
ब ला क नल ज ध स बीजी को छलनी कर गई। मोह ले वाल का छ ज पर
लटक उनके घर क नंगई म रस लेना अ धक अखरा। ह त ब तर से लगी रह । उठ तो
उनक कृश काया म न जाने कौन-सी चं डका माँ आ समाई क मोह-माया झटक आँचल
का ध झाड़ने को उता हो उठ । घर उनके नाम है। जब तक ज़ दा ह वे, बड़े बेटे-ब
के संग रहगी। मरने के बाद भी घर उसका। अपनी औलाद का नवाला खा-सूखा कर
बड़े ने इन द वार क क ची-प क सहेजी। घर के खच म आधा न सही, मुना सब ह सा
बँटा सको तो संग गुज़र भली, वरना चू हा-चौका समेट चल दो। कोई गम नह । कोई
गला नह । अ तम दन म बीजी के दोन गुद जजर हो आए। पाखाने तक प ँच नह
पात क पेशाब चूने लगता। प नी दन-भर फश प छती। ब चे घनाते। पुरो हत जी ने
महसूस कया क प नी बीजी का गू-मूत उठाती तो है ले कन मन से नह , फज़ के दबाव
से। उ ह ने कायालय म अपनी बकाया बीमारी क छु और अ जत छु के लए अज दे
द । अनाव यक छु कभी ली नह , बावजूद इसके अज दे खते ही नदे शक महोदय क
यो रयाँ चढ़ ग । इतनी ल बी छु माँगने का औ च य उ ह नज़र नह आया, बीजी क
हालत जान लेने के बावजूद, पुरो हत जी ढ़ रहे। छु मंज़ूर नह ई तो वे बना
तन वाह घर बैठ जाएँग।े बीजी उनक जननी ह। जननी को वे कुटु ब क दया-माया के
भरोसे छोड़ द! अ पताल वाल ने पहले ही हाथ उठा दए क इस उ म और इतनी
कमज़ोरी म न गुद का यारोपण स भव है, न इलाज। जतने दन साँस ख च ले जाएँ,
परमा मा क कृपा समझो।
ढाई महीने बीजी का गू-मूत अपने हाथ उठाया। सरहाने से हले नह । ब ला और
कु क गाहे-बगाहे झाँक जाते। बँटवारे का क ड़ा जब-तब काटता ही रहता। एक शाम
उसने नीचता क हद ही कर द । अ थ-पंजर हो चली बीजी क बाँह झकझोरते ए
पूछने लगा क जो भी गहने-गु रया उनके पास धरे ह लुकाए- छपाए, बता द। जसे जो
दे ना हो, हाथ से उठाकर दे द। बाद म सर-फुटौवल से फायदा?
बीजी ने असहाय से अपनी नालायक औलाद क ओर दे खा। वही न सहायता
छटपटा आई उनक डू बती आँख म, जो कसी का गला घ टते समय, घुटकर साँस
छोड़ती आँख म ाण क भीख के लए उपजती है।—‘मुझे ब श दे पु र! ब श दे !’
बड़ी को शश से ीण कलाई उठाकर बीजी ने अपनी सूखी-पीली हथेली—‘कुछ नह है
पास पु र!’—वाली मु ा म हलाई थी।
मकान ज द ही औने-पौने दाम म बेचना पड़ा पुरा हत जी को।
एक रात दा म धु उ ं ड ब ला घर म घुस आया और अपनी खूँखार धम कय
से पूरे घर को आतं कत कर गया क ह ते-भर के भीतर मकान बेचकर वे उसका ह सा
दे द। अपने नए घर क पेशगी दे आया है वह। नीयत म खोट क तो उससे नपटने के
हथक डे भी आते ह उसे। वे जो अपने कूटर पर ठ क पौने नौ पर द तर के लए नेह
लेस नकलते ह, पीछे से कसी डी.ट .सी. के ाइवर से ध का दलवा दे गा। वैन चढ़वा
दे ना भी उसके लए मु कल नह । ब ला ने यह भी धमकाया क उसके खलाफ वे
रपोट- वपोट के च कर म न फँस। उसे स करने म मनट नह लगेगा क पु तैनी
मकान हड़पने क फराक म ह वे! नीयत डोली ई है उनक । वह मजबूर तो अब तक
छ ी का कराया भर रहा है और स कए बैठा है!
चाचा क धमक के बाद अगली सुबह ब च ने उ ह कूटर नह नकालने दया।
मकान का सौदा होने तक कायालय प ँच पुरो हत जी को फोन कर घर सू चत करना
पड़ता क वे सुर त प ँच गए ह। च ता न कर उनक ।
दरवाज़ा प नी ने खोला और बगल हटकर खड़ी हो ग । हाँफते ए पुरो हत जी
बैठक म पड़े पलंग पर ल बे हो गए। प नी ने पंखा पूरी ग त पर कर दया। सरहाने
चुपचाप हाथ बाँधकर खड़ी हो गई। उखड़ी साँस सामा य हो ल, तभी चाय-पानी को
पूछ।
अरारोट के ‘मारी’ ब कट उनक ओर बढ़ाते ए प नी ने धीरे-से अब तक दबाई
ज ासा परोसी—‘ दखाए कुछ लैट्स कपूर ने?’ उनका ता पय ॉपट डीलर से था।
“ दखाए न!” चाय क घूँट से गुनगुनाया पुरो हत जी का वर अपे त प से
उ े जत नह आ।
“ यूँ, पसंद नह आया कोई?”
“आया एक।”
“कहाँ…?”
“अपने डॉ. चतुवद जी रहते ह न, ुव अपाटमट् स म?”
“ ँअ।” प नी ने जगह याद करने क को शश क ।
“उनक ब डंग के ठ क बगल वाली ब डंग म। पहले माले पर तीन बेड म ह,
तीन के साथ गोलाकार छोट -छोट बालकनी जुड़ी ई ह। अलमा रयाँ और पेलेमेट्स
बने ए ह, चौबीस घ टे पानी क सु वधा। जाड़ क धूप आमने-सामने वाले कमर म
भरपूर आएगी।…छोटा टोर भी है।”
“जमुनापार चौबीस घ टे पानी क सु वधा समझो नयामत!” घर के खाके के साथ
पानी क बात सुन प नी उ सा हत हो उठ ।
“वह सब तो ठ क है,” पानी के नाम पर प नी का इस कदर वभोर होना पुरो हत
जी को वशेष चा नह —“मकान मा लक म. खु लर क टम म ह और स ह माँग रहे
ह… जमनापार इतनी क मत! कांकरीट का जंगल है, जंगल! र- र कसी जवान पेड़
क परछा तक नह … मा चस क ड बया जैसे कमरे, कहने को तीन बेड म, मगर
अपने पटे ल नगर वाले मकान के एक कमरे के तीन ह से-भर समझो!”
ख ता समझ म आ रही है। जहाँ भी घर दे खने जाते ह, पटे ल नगर वाले घर से
तुलना कर परखते-तौलते ह। कहाँ, कौन-सा इलाका छू टा? प म वहार, पीतमपुरा,
जनकपुरी, वज़ीराबाद के पुल के उस पार यमुना वहार—कोई मकान पस द नह आया।
पाँच महीने दे खते-दे खते नकल गए। उनका मम समझती ह वे। बीजी क मौत से अनाथ
ही नह ए वे, बेघर भी हो गए। जो कुछ छन गया, छू ट गया, छू टता है कह ! कल उससे
बेहतर जगह प ँच जाएँ तब भी उनका ‘अपना घर’ पटे ल नगर वाला मकान ही रहेगा।
पुरो हत जी के मन-म त क पर इन दन कुछ यादा ही दबाव है। कई सम या
से एक साथ जूझ रहे ह। महसूस करती भी ह क पहली को जो अ ारह सौ पये कराए
के सीधे तन वाह म से नकल जाते ह, उसके मद म घर के कई ज़ री खच म भारी
कटौती करनी पड़ी। ध कटा ब च का, महँगी स ज़याँ कम । बासमती चावल गाहे-
बगाहे हो गया। पुरो हत जी ने कूटर से कायालय आना-जाना ब द कर दया। ब ला क
धमक के भय से पहले उन लोग ने उनका कूटर से आना-जाना ब द करवाया, पे ोल
के पैसे बचाने क खा तर अब वे वयं। डी.ट .सी. बस से आने-जाने म बड़ी द कत
होती है। उ ह ने ही अड़ोस-पड़ोस से पूछ-पाछ पता लगाया क ‘नेह लेस’ के लए
‘ ह तान अपाटमट् स’ के सामने से ठ क पौने नौ पर एक चाटड बस नकलती है। एक
च ता कट । उसी से आने-जाने लगे पुरो हतजी। ब धन हो गया तो बस इतना क समय
क पाब द के चलते घर लौटने से पूव घ टे -डेढ़ घ टे के लए म के संग कॉफ हाउस
म गप-शप क गुंजाइश न रही। यही अ ारह सौ पये पटे ल नगर म प के बचते थे। घर
भी ऐसे मौके का क सी ढ़याँ उतरते ही पटरी का रौनकमय बाज़ार। सामने छ जे पर से
आवाज़ लगाते ही तुलकर टोकरी म साग-स ज़ी ऊपर। यहाँ मयूर वहार म वो शाहाना
स लयत कहाँ!

गीज़र खोलते ही नहान-घर का दरवाज़ा भड़भड़ाया। बड़ी मु कल है इस घर म। पुरो हत


जी को खूब अखरता है। पाखाना और नहान-घर एक ही म बने ए ह। कोई नहाने घुसा
और कसी को ज़ोर से पाखाना आया, समझो अगले का नहाना मुहाल! नहाने वाले को
कपड़े लपेट अजीब लये म बाहर नकलना पड़ता। सुबह उनके नहान-घर म घुसते ही
अ सर ऐसा होता। माँ क अनेक चेताव नय के बावजूद ब चे समय से पाखाना न जाते
और पुरो हत जी के बदन पर पानी उड़ेलते ही दरवाज़े पर थप कयाँ शु हो जात । पटे ल
नगर वाले घर म शु -अशु पर कतना वचार था?
“कौउन?” गीज़र ब द कर उ ह ने भीतर से टोह ली।
प नी क आवाज आयी—“सु नए! ‘ग’ भाई साहब का फोन आया है आपके लए
पड़ोस म।”
समझ गए क ‘ग’ को वशेष प से उ ह से बात करनी होगी, वरना प नी नहाते
ए उ ह कम ही छे ड़ती है। अ छा आ, बदन पर पानी नह डाला। उतरी लुंगी के ऊपर
कुता डाल वे उपा याय के घर फोन सुनने नकले।
इस घर म फोन ांसफर नह करवाया। यही सोचकर क अपने घर म ही सीधे
ांसफर करवाएँग।े ब त करीबी म को ही पड़ोसी का न बर दे रखा है इस हदायत के
साथ, क जब तक कोई बेहद ज़ री स दे श न हो, पड़ोसी को बुलाने का क न द।
“बोल भई ‘ग’ या समाचार है…?”
“यार, तुम मकान खरीदना चाह रहे हो न?”
“मकान क मुँह दखाई के अलावा म आजकल कुछ कर भी नह रहा। कोई है
नज़र म?”
“है एक, यह मेरी कॉलोनी म ही।”
“तेरी कॉलोनी म? द ण द ली म?” पुरो हत जी क अँकुलाती उ मीद क नाव
म अचानक छे द हो गया—“वहाँ के भाव का अ दाज़ा है मुझ।े चार हज़ार पये त
वायर फुट। बीस-बाईस से कम म नह पड़ेगा मेरी ज़ रत का लैट।”
“समझने क को शश कर। जो बात म खुलकर करना चाहता ँ, फोन पर स भव
नह । द वार के भी कान होते ह और म ठहरा सरकारी मुला जम! ऐसा कर, तू आज
शाम रीगल कॉफ हाउस म मल।”
“ मलता ँ, कतने बजे?”
“छह-सवा छह!”
इतना समय उ ह डी.ट .सी. से कनॉट लेस प ँचते हो जाएगा। बस चाटड छोड़नी
होगी।
“प का मलते ह।” ‘ग’ ने उधर से फोन रख दया।
स च पुरो हत जी घर क ओर बढ़ने से पहले रसोई म झाँककर ीमती
उपा याय को फोन के लए ध यवाद कहना न भूले। कतने दन बाद जाना होगा कॉफ
हाउस।
घर के भीतर ए नह क प नी ने उ सुक होकर पूछा—“ या कह रहे ह ‘ग’ भाई
साहब?”
पुरो हत जी ने परखती से ण-भर प नी को दे खा। उ ह ने महसूस कया क
जो भी बातचीत मकान के स दभ म उनके और ‘ग’ के बीच ई है, जतनी ई है—बता
दे ने म कोई हज़ नह । बीजी से हर छोट -बड़ी बात कर लया करते थे। प नी से बाँटना
कभी ज़ री नह लगा। उसक साम य को आँकने क को शश भी नह क । बीवी क
मृ यु के उपरा त येक ण पीछा करती प नी क ाकुल आँख उ ह कुरेदने लग । वे
अ सर अनमने हो उठते, प नी के झड़कने के बावजूद। ब त सोचने के बाद उ ह ने खुद
को ही मनाया क प नी से चुटकुल -भर का ही तो स ब ध नह ।
“एक मकान है ‘ग’ क ही कॉलोनी म!”
“साउथ द ली?” व व ालय जाने के लए घर से नकलने के लए तैयार उनक
मँझली स तान बेट नैनी ने अ व ास से उनक ओर दे खा—“ रयली पापा? कतने
कमर का है… या क मत है?”
“तीन कमर का बता रहा है। उसी मसले पर बात करने के लए तु हारे ‘ग’ अंकल
ने आज शाम कॉफ हाउस बुलाया है।”
“ फर भी अंकल ने कोई अ दाज़ा दया होगा?”
“बेटे! मने उ ह अपनी गाँठ बता द ।”
“ओ पापा! साउथ द ली, साउथ द ली है। मौके का मकान मल रहा हो तो थोड़े-
बाड़े पय का जुगाड़ लोन-वोन लेकर कर ली जए। उजड़ क ब ती म रह रहे ह हम!
मेरी ‘यू’ पेशन ( व व ालय के लए वशेष बस) म पास के च ला गाँव से उ ं ड
लड़के चढ़ आते ह और बस क लड़ कय को छे ड़ते ह। परस क घटना मने आपको
नह सुनाई। आप च ता म पड़ जाएँग,े यही सोचकर। ब चू भैया (बड़े भाई) ने भी मना
कया क पापा से मत कहना।”
दबाव डालने पर नैनी ने बताया क परस सुबह उसक ‘यू’ पेशल म च ला गाँव
के मोड़ से दो गु डे छोरे चढ़ आए। एक ने लपककर बस चालक क पीठ पर छु रा रख
दया और उसे धमकाया क बस लोटस टै पल सैर को ले चले। सरे छोकरे ने फ मी
अ दाज़ म दे शी क ा तानकर लड़ कय को जगह पर से न हलने क चेतावनी द । बस
नज़ामु न पुल क ओर मुड़ गई।
“ वरोध करने का साहस नह कया कसी ने?”
“कौन अपनी जान जो खम म डालता?”
“ पछले वष इसी बस म श मला नाम क छा ा को एक गु डे ने छे ड़ा। रोमेश नाम
के व ाथ ने उसका वरोध कया। बदले म उस गु डे ने रोमेश को छु रा घ प दया।”
“तुम लोग ने या कया?”
“कर ही या सकते थे? बस महारानी बाग के नकट प ँची नह क गु डे लोग क
आवाजाही दे ख डर गए। चोर रा ते से पहले बस कवाई, बस से कूदे और आनन-फानन
चंपत हो गए। आ म पु लस चौक म हमने शकायत दज करा द ।”
“दे र हो रही है… तू जा…” उ ह ने वच लत न होने का नाटक कया।
व ास नह आ, ले कन अ व ास का कारण भी नह । क से-कहा नयाँ गढ़ना
नैनी क आदत नह । नैनी के साथ घट घटना सुनकर यही आभास हो रहा क द ली
ही नह , सरकार ने समूचे दे श के तड़ीपार को जमुनापार लाकर बसा दया है। वे तड़ीपार
इलाके क कानून और व था को अपने हाथ तनगी-सा नाच नचा रहे, जनके बीच
रहना जीवन-पय त आतंक और असुर ा म जीना होगा। कहने को आधी द ली इस
ओर रह रही, एक अनोखे वही नह । मगर लगभग पौनी आयु अमन-चैन म गुज़ार दे ने के
बाद अशा त बरदा त नह ।
दरअसल, ढूँ ढ़ने को वे पटे ल नगर के आसपास घर ढूँ ढ़ लेते। महीने-भर के भीतर
ब ला ने राजे नगर म मकान ले ही लया। लया नह बस दो कारण से। उस इलाके म
फटकना नह जहाँ ब ला क मौजूदगी से सामना करना पड़े। जे, बीजी क मृ तयाँ।
एक और ावहा रक कारण रहा। क मत! जमुनापार उससे आधी क मत म बड़ा मकान
मल जाएगा।
बहरहाल, एक बात प हो गई। कट म ब चे कुछ कहते नह , ले कन जमुनापार
रहना उ ह गले तक अघाये ए था…
पुरो हत जी के मन म द ण द ली के मकान के वषय म एक अ क म का
दबाव बनने लगा। नहान-घर म बारा घुसते ए उनका दमाग तेज़ी से बीम आ द पर
कज़ क स भावना के वषय म सोचने लगा। नैनी के तक म दम है। एकदम आँख
नह मूँद सकते उससे। अ छ जगह रहने के अपने मायने ह। पटे ल नगर क क मत अब
अनुभव हो रही है। जीवन म एक बार घर बनाता है आदमी। आगा-पीछा सोचकर ही
बाबूजी ने पटे ल नगर चुना होगा!

पुरो हत जी के कॉफ हाउस प ँचने से पूव ‘ग’ वहाँ प ँच चुका था और बा ओर क


बड़ी खड़क के नकट वाली मेज़ अगुआये बैठा आ था, ऐसे क उस मेज़ पर दो
य से अ धक बैठ ही न पाएँ और उनके एका त म खलल न पड़े।
“दे र ई तु ह प ँचे?” पुरो हत जी अपराध-बोध से भरे ए बोले।
“आधे घ टे से ऊपर हो रहा… वह तो ठ क है, मगर तू अटक कहाँ गया? मने यहाँ
से तुझे फोन भी कया, फोन भी त मला लगातार।…”
“ या बताऊँ?” बोलते ए पुरो हत जी बे वाद हो आए—“कागज़-प समेटे नह
क नदे शका महोदया ने एक के य म ी का अ भभाषण सरका दया मेज़ पर
अनुवाद के लए। ब त ज़ री है पुरो हत जी, नपटा द जए चलते-चलते।”
“ओहो! लाव यमयी ीमती मो हनी ीवा तव ह आजकल तेरी बॉस! मना कैसे
करता उ ह। पाँच उँग लयाँ घी म और सर कड़ाही म…”
“पटरी पर आओ ब धु! छछोरेपने क उ गई तु हारी-मेरी।’
“अपनी कौन छपी? पटरी पर चढ़ते-उतरते न रहते भैय,े तो के य अनुवाद यूरो
क खी नौकरी हलक क ह ी हो गई होती” ‘ग’ ने बेहयाई से दा हनी आँख दबाई।
“सो तो है,” मो हनी ीवा तव से ख पुरो हत जी ‘ग’ से सहमत ए—“अनुवाद
क खड़ताल बजाते-चाटते हम भी ससुरे असल से अनुवाद होकर रह गए…कॉफ
मँगवाई?”
“मँगवा के रख लेता, मगर अफसोस क म संजय नह , वरना द से दे ख
लेता क पुरो हत जी क सवारी ‘कॉफ हाउस’ क सी ढ़याँ चढ़ रही है, और जनाब क
खदमत म मुझे फौरन कॉफ का ऑडर दे दे ना चा हए। … य , ब त मुँह सुखा दया
नदे शका महोदया ने?”
पुरो हत जी झप उठे —“चलो, खदमत म हम हा ज़री बजा लाते ह।” उ ह ने बैरे
को बुलाकर कॉफ का ऑडर दया और अब तक दमाग म भरी बजबजा रही खु स को
झटक चेहरे पर फुलता ओढ़ ! कुछ भी कहो, ‘ग’ जीव त है। ‘ग’ के चलते उन दन
कायालय का नहायत बोर वातावरण सरस हो उठता। लंच के जमावड़े म एक के बाद
एक माँसाहारी चुटकुल के ठहाक से हलक म कौर अटकने लगते। म हला सहकम मुँह
घुमा झपने लगत , मगर सरे दन फर ड बा लये उसी जमावड़े म संग होत । काम के
बोझ से पटे चेहरे एकदम ताज़े उ फु ल हो अपनी मेज़ पर लौटते।
कॉफ का पहला घूँट भरते ही ‘ग’ का वर रह यमय हो आया। मेज़ पर कुह नयाँ
टका, धनुषाकार हो वह पुरो हत जी के एकदम नकट हो गया।
“काम क बात पर आएँ… मेरा मकान दे खा है न तून? े ”
“दे खा है।”
“मेरे मकान क ठ क पीछे वाली गली म एक म. ‘ख’ का मकान है। हमारी पूरी
ब ती हमारे मज़ह बय क है। म. ‘ख’ एकमा ऐसे ह जो सरे मजहब के ह।
पछले साल भागलपुर म ए दं ग क त या म चाँदनी चौक वगैरह म क यू लग गया
तो हमारी मु य सड़क से लगी उस पार क पूरी ब ती म भयानक दं गे फैल गए… तु ह
याद है?”
“भूलना मु कल है।”
“कहते ह न क हमारे घर म साग-स ज़ी काटने वाला तेज़धार एक मामूली-सा
चाकू तक नह होता, फर भी तुमने अखबार म पढ़ा होगा क हमारे मज़ह बय ने उस
पार क ब ती म घुसकर ब ती के बा श द के घर फूँक दए, कान लूट ल … तवाद म
उ ह ने भी अपनी ब ती म रह रहे हमारे मज़ह बय के इ के- के घर फूँक दए, स प
लूट ली…याद है?”
“याद है…” वषाद क ससकारी-सी ख च ण-भर को पुरो हत जी ने आँख भ च
ल । ब द आँख के आगे नरभ ी लपट से घरी र गटे खड़े कर दे ने वाली ‘इ डया टु डे’
क दं ग क स च रपोट घूम गई।
“पुरो हत! फर वही होगा… वैसी ही लपट उठगी, ब तयाँ सुलगगी, दोन
मज़ह बय के बीच जो ववाद इधर तूल पकड़ रहा—वह लोग को वारे- यारे के लए
उकसा रहा। तू मेरा संकेत समझ गया होगा… अपने बोए, स चे खेल म सरकार चूहे-सी
फँस गई चूहेदानी म। मौल वय -स त से बातचीत के ज़ रए कसी समाधान पर प ँचने
क को शश नाकामयाब रही…”
“हाँअ…ँ समाधान के लए माँगी गई अव ध मा कुछ ह ते शेष है।” पुरो हत जी ने
वचारम न हो ट पणी क । बातचीत म यह उनक पहली भागीदारी थी। अपनी
भागीदारी पर वे वयं च के। कुछ दे र पहले तक उ ह ‘ग’ क बात म संक णता क बू आ
रही थी। वह बू कब कैसे वाथ रस म रंग बदलने लगी, उ ह महसूस ही नह आ।
“ब स कुछ ह त का खेल है। तोते उड़े ए ह जनाब ‘ख’ के। हमारी बरादरी के
बीच ब चू रह तो रहे मगर बाघ के सामने बँधी बकरी-से!” दा हनी आँख छोट कर
कु टल भं गमा बना ‘ग’ ने भ हे उछाल और चर-प र चत अ दाज़ म धुँधुआता ठहाका
भरा।
पुरो हत जी क ण-भर पहले क भागीदारी को ववेक का ह का-सा झटका
लगा। वे अचकचा उठे । हमेशा क भाँ त ‘ग’ के ठहाके म वे वयं को स म लत नह कर
पाए। ठहाके क तरंग शा त होते ही ‘ग’ ने कॉफ का अगला घूँट भर बात आगे बढ़ाई
—‘बकरी म मया रही, छटपटा रही, उतावली है। जतनी ज द हो सके, अपना मकान
बेच-बूच अपनी बरादरी म महफूज़ हो सके।”
“अपनी ब ती म प ँचने के बाद भी सुर त ह गे ‘ख’?”
“बकरे क माँ कब तक खैर मनाएगी… फलहाल सामने बैठे बाघ से मु
मलेगी।”
“जुगाड़ बैठा?”
“मुँह का कौर नह घुटका क स पेट म। एक तो सरे मज़हबी का मकान। जे,
द ण द ली क नामी- गरामी ब ती म…लाख का मामला है, बीस माँग रहे। शेयर
घोटाले के चलते वैसे ही औ ा तय ने अ ट के मुँह चाप रखे ह।”
“सारी दलील ठ क ह। मगर यार, एड़ी-चोट का ज़ोर लगाने के बावजूद मुझसे बीस
का जुगाड़ होने से रहा। गरजू है ‘ख’… लाख-डेढ़ लाख नीचे उतर आएँग,े सोना म के
मोल फूँकने से रहे।” पुरो हत जी के चेहरे पर हताशा ने झाँई मारी।
“तू भड़भड़ाता ब त ज द है। रंदेशी बन! अब तू सुन ही ले, इतनी बकझक
तुझसे यूँ कर रहा ँ? कल शाम तेरी भाभी से ीमती ‘ख’ कह रही थी, हाथ के हाथ
सौदा पट जाए तो ‘ख’ साहब स ह-अ ारह के बीच मकान नकाल दे ने को राज़ी ह।
अपने मजह बय से उ ह सुराग मला है क अबक रामनवमी पर…”
पुरो हत जी का लोभन पसीजा—“समझाया नह भाभी ने उ ह?”
“समझाया, काहे को इतना घबरा रहे ह आप लोग? हम लोग ह नह पड़ोस म,
मजाल है जो यहाँ कोई प ा खड़क जाये? पढ़े - लखे शरीफ रहते ह, ःख-सुख के
भागीदार…”
“ या बोल ीमती ‘ख’?”
“सड़क के उस पार भी शरीफ का ही मोह ला था!”
“गलत नह कहा, कसी के पेट म घुसकर थाह पाना मु कल है।”
“तू एक काम कर।”
“बोल?”
“कल शाम खाली होगा?”
“तेरी लाव यमयी ीमती मो हनी ीवा तव ने ऐन मौके कसी काम म न उलझा
दया तो!”
“खैर… घर से तू भाभी से कहकर नकल क म. ‘ख’ का घर दे खने कल शाम तू
मेरे घर जाएगा। ठ क पौने पाँच पर फोन करके म तुझसे थ त मालूम कर लूँगा क तू
मो हनी क माया से मु है या ज़ त।”
खूब ह रयाली है ‘ग’ क कॉलोनी म। गुलमोहर और छतनार के वृ से पट , साफ-
सुथरी, चौड़ी सड़क। शा त वातावरण, अपने म म न म त लोग। द ण द ली म मकान
पाने का सपना पुरो हत जी के मन को गुदगुदाने लगा। ‘ग’ शु से ही तकड़मी है।
मामला पटाने म मा हर। या अचरज सौदा पट ही जाए? ‘ग’ के लए तकड़मी वशेषण
अनु चत लगा। कसके भले के लए सोच रहा, उसक कौन-सी गोट अटक ई है उनके
पास? पड़ोस सुख पाने के अलावा?
“मो हनी जी क माया का म तर सुबह खीसे म डालकर ही नकलूँगा… एक बात
यान म आ रही है…” पुरो हत जी कहते ए ह ठ चबाकर हच कचाए।
“बोल, बोल…?”
“यही क म. ‘ख’ से अपनी चादर के वषय म सीधे बात नह क जा सकती?
फोन न बर नह उनका?”
“मतलब?”
“मतलब यही क हमारे पास इतने का डौल है, इतने तक हम और हाथ-पाँव मार
सकते ह।”
“ या, या…? ऐसी मूखता न करना भैय,े बना-बनाया खेल चौपट करके धर दे गा।
लेन-दे न क बात म खुद क ँ गा… क तेरी चादर म ही सौदा पट जाए। अपनी पहली
और आ खरी को शश यह होगी, ‘ख’ को घेरने क । गरज़ उनको है। डरे ए वे ह। कोई
हम खदे ड़े दे रहे उ ह मोह ले से?”
“अ छा, अ छा, जैसी तेरी मरजी।” पुरो हत जी ने ह थयार डाले।
“और सुन, म जो सुबह तुझसे आयकर क अव ध कुछ और आगे बढ़वाने के लए
कह रहा था न, ीमती ‘ख’ क सुराग वाली बात सोचकर ही क ा शु हो रहे,
खतम ए नह क नौ ग…रामनवमी है कतनी र? चगारी ने लपट पकड़ी नह , क
‘ख’ औने-पौने दाम घर सुलटा बो रया- ब तर बाँध लेगा। आया भेजे म?”
एक ण के लए पुरो हत जी का खून नचुड़ कनप टय म खदबदाया। ‘ग’ क
लंपटगीरी-भरी बात को वे सहन कैसे कर रहे? कोई और मौका होता तो वे ‘ग’ से दो-दो
हाथ करने पर उतर आते। इस समय अनहोनी घट रही उनके संग। जुबान पर ताले डाल
दए लोभन ने। सोचा नह क उनके जीवन काल म वे वयं या उनक औलाद पटे ल
नगर छू ट जाने के बाद द ण द ली म रहने का सुयोग पा सकेगी। वे य म फँसते
ह? कोई बेचना चाह रहा है, उ ह खरीदना है। सौदे म मोल-भाव, ऊँच-नीच होती ही रहती
है। उ ह ने नह बेचा कौ ड़य के मोल पटे ल नगर वाला मकान? कोई म दर-म जद
ववाद ने बकवाया? फर ब ला कसी दं गई से कम न था? उसक धम कयाँ गीदड़-
भभ कयाँ नह थ ? मन क करने पर उतर आता तो वे बीजी क पहली पु य त थ भी न
मना पाते। उलटा घरवाले उनक तेरह कर रहे होते। अराजकता कहाँ नह ! कह धम के
नाम पर, कह धन के नाम पर तो कह स प के लोभ म…द न-धम ब त सोच लया।
आच रत कर लया। अब मा औलाद के भ व य के वषय म सोच। सुर त जीवन के
वषय म सोच। नैनी क खुशी के वषय म सोच।
द घ उ छ् वास के साथ पुरो हत जी ने वयं को समेट वधा को हड़काया। ‘ग’ तू
अपने दरवाज़े ॉपट डीलर का बोड टँ गवा ले, हलकान हो रहा सरकारी नौकरी म। ‘ग’
को पुरो हतजी क शंसा ने पुलकाया—‘अपना काम, ब धु, बना बोड लटकवाए
जैकपॉट हो रहा। तू ठहरा अपना तुलसीदास दो त! अपन म. ‘ख’ को थोड़े ही छू ँ छे
छोड़ दगे? डील करवाएँगे उनक तो उनसे दो तशत… खीसे म। ‘ग’ ने आदतन आँख
मार अँगूठा ठनकाया। मु हो पुरो हत जी तेल म छनी फुलौरी-से ह के हो आए।
“उठ…?”
“हाँ यार, चल तेरी भाभी च ता कर रही होगी, घ टे -डेढ़ घ टे दे री से प ँचने क
कह के कहाँ गायब हो गया?” अपनी ही रौ म ‘ग’ ने खड़े होते ए मेज़ पर रखा हेलमेट
झुककर उठाया—“तु ह कहाँ उता ँ ?”
“के य बस ट मनल से तीन सौ स ाईस पकडू ँगा मयूर वहार के लए। मुझे वह
उतार दे ।” डी.ट .सी. भी जमुनापार क सवा रय के लए बस नह चलाती। खटारा
चलाती है, खटारा…”
मेज़, कु सयाँ पीछे छोड़ते ए यह भी खयाल आया पुरो हतजी को, बड़े दन बाद
कॉफ हाउस आए ह। त नक हाल म नज़र डु ला ल। हो सकता है कोई पुराना प र चत
अ ेबाज़ दख जाए। ले कन द ण द ली म मकान के सौदे क आह्लादकारी
स भावना क सूचना शी से शी घर प ँचकर प नी-ब च को सुना दे ने का अधैय
सँवरण न हो पाने के चलते वे कुछ खुश, कुछ उलझे ए-से कॉफ हाऊस क सी ढ़याँ
उतरने लगे। इस व प र चत से क ी ही भली। नह तो दे र म दे र।
दोन ओर पाँव लटकाकर पुरो हतजी ‘ग’ के कूटर के पीछे बैठ गए। ‘ग’ के गाड़ी
आगे बढ़ाते ही उ ह ने सतकतावश उसके क धे को पकड़ लया। अचानक उ ह महसूस
आ क उनक हथेली के नीचे ‘ग’ के जकड़े क धे क जगह कसी क स त नुक ली
बाल -भरी पीठ आ गई है। अजीब-सी अनुभू त ई। सहरकर उ ह ने आँख फाड़कर ‘ग’
के क धे क ओर अ व ास से दे खा। सर चकरा गया। ठ डे पसीने से तर हो आए
पुरो हत जी। म हो रहा है उ ह या अचानक तबीयत बगड़ रही? कह एंजाइना का
अटै क तो नह ? पछले ह ते छाती म हलक -सी जकड़न क शकायत करते ही प नी
ज़बरद ती पॉकेट-वन के डॉ. गु लयानी के दवाखाने ख च ले गई थी उ ह। ई.सी.जी.
एकदम ठ क नकला था। डॉ. गु लयानी ने उ ह सतक-भर कया क वे त काल र म
कॉले ॉल जाँच करवा ल। इस समय न वह बा बाँह म पीड़ा का अनुभव कर रहे न
छाती म कोई जकड़न। उ ह ने घबराकर फरफराती हवा म ल बी साँस ख च फेफड़ को
ाणवायु दे ने क को शश क और ‘ग’ के क धे से हथेली ख च ली। मुँह से घुट -घुट सी
‘ ँऊँ, ँऊँ’ नकली।
‘ग’ ने च ककर गदन मोड़ी और गाड़ी को ेक लगाया—“हय, या आ तुझे?
या आ?”
मच आँख खोलकर पुरो हतजी घबराए ए-से नीचे उतरकर खड़े हो गए—“कुछ
नह , ऐसे ही अचानक कुछ तबीयत खराब हो गई। ज द -से-ज द तू मुझे मयूर वहार
के लए कोई ी- हीलर करवा दे ।”
“तू पसीने से भीग रहा, तुझे यह कसी डॉ टर को दखाऊँ?” ‘ग’ ने परेशान
होकर पूछा।
“नह , ठ क ँ अब।”
“छोड़ने चलूँ घर?”
“ कूटर पर बैठने म द कत होगी। चला जाऊँगा।” ‘ग’ क ओर उ ह ने आँख नह
उठा ।
हाथ दखाकर ‘ग’ ने एक ी- हीलर वाले को रोका। ी- हीलर वाला मयूर वहार
जाने के लए राज़ी नह हो रहा था। ‘ग’ ने उसे मीटर से पाँच पये अ धक ले लेने का
लोभन दया और उसे हाथ के सहारे से ी- हीलर म बैठा दया।
“घर प ँचते ही भाभी से कहना क वे मुझे पड़ोस से फोन करके इ ला दे क तू
सकुशल घर प ँच गया।” ‘ग’ ने च तत वर म आ ह कया—“कहे तो म कह कूटर
पाक करके तेरे संग चलू?
ँ ”
“सुन! मुझे म. ‘ख’ का मकान नह खरीदना।” पुरो हत के अ फुट से श द
अपराध-बोध से काँप रहे थे—“म जमुनापर ही भला।”
“मगर य ? ये कैसी बहक -बहक बात कर रहा है तू? होश म है?”
“म आदमी ही बना रहना चाहता ँ…।
“तेरा दमाग तो नह चल गया पुरो हत! तू आदमी नह तो और कौन है?” ‘ग’
उनक अ व थता के बावजूद अपनी झुँझलाहट नह दबा पाया।
पुरो हत जी को ‘ग’ क आवाज़ दहाड़-सी अनुभव ई। वे ी- हीलर क सीट पर
अधलेटे-से हो, ाइवर से काँपते वर म बोले—“ज द ले चलो, भैया…!”
मामला आगे बढ़े गा अभी

गेट से लगी गुमट के भीतर ज़ंग खाई कुरसी से ड डा टकाए, खाक वद म मीठ ऊँघ
ऊँघ रहे चौक दार तावड़े को गाली-गलौज भरे शोर ने सहसा हड़बड़ा दया। कान पर
व ास करने के लए उसने अपने ऊँघते शरीर को स यास समेटा, फर न खुलने के लए
ज़ या रही पलक को पटपटाया और शोर को समझने क को शश क । वा तव म शोर
हो रहा है, कोई सपना नह दे खा उसने। ऊँघ अभी भी उसक रान और जूत म कैद पंज
म बक ई, उसक अलसाई दे ह से मु होने को राज़ी नह थी।
शोर कुछ और प आ। गा लय के कुछ कतरे हवा का ख गुमट क ओर होने
के साथ ही इधर उछल आए। साथ ताल दे ती-सी तीखी ‘ताड़’… ‘ताड़’— कसी पतरे को
पीटने जैसी आवाज़…
दमाग स -से च का। पतरे पर हो रही चोट ने एक पल को सं म पैदा कया।
खा लस ट-गारे क इमारत के बीच पतरा आया कहाँ से? कुस पीछे ख चकर वह फुत
से खड़ा हो गया। वतः से बुदबुदाया, “कह से पन आया हो! जो हो रहा प का।
अपनाच कॉलोनी म…बाप रे!” उसने भुजाएँ मरोड़कर सु ती क आ खरी क त झटक
और गुमट से बाहर नकल आया। सहसा खयाल आया क ज़रा व पता कर ल। बा
कलाई पर बँधी धुँधली डायलवाली घड़ी उसने गौर से दे खी। डेढ़ बजने को था। इतनी
रात गए यह शोर?
ठमककर उसने शोर क दशा म टोह ली। शोर उसे तीन न बरवाली इमारत के
बेसमट से आता आ महसूस आ। गेट से तीन न बरवाली इमारत का फासला
बमु कल तीन-चार मनट पैदल का होगा। वह ड़ककर सरपट भागा। नीचेवाले घर म
शोर प ँच चुका था। कुछ लैट म जमघट हो चुक थी। कई सोई बालक नय क
रोश नयाँ उसके दौड़ते-न-दौड़ते जग उठ । कुछ अकुलाकर उसक ओर कूदे ।
“गुरखाऽऽ… या आ?”
“कौन गाली बक रहा?”
“कोई या तोड़ता? हम सोने को न सकता?”
उसने ककर कसी को कोई जवाब नह दया। पर जैसे ही वह तीसरे न बरवाली
इमारत के बेसमट म दा खल आ, सामने का य दे ख उसक आँख फट ग ।
सामने मो ा था। मो ा के हाथ म एक ल बी लपलपाती स रया थी। उसी स रये
से वह स सेना सा’ब क झ क सफेद ‘टोएटा’ पर नममता से हार कए जा रहा था।
साथ ही उगल रहा था जुगलब द करती भ , अ ील गा लय क बौछार।
पहले से ही सहमे-से खड़े चार-पाँच लोग क उप थ त से लापरवाह मो ा क
नज़र जैसे ही उस पर पड़ी, उसने पलटकर स रया उसक ओर तान लया, “आगे नह
बढ़ना होऽऽ…न तो खोपड़ी तुकड़े-तुकड़े करके छोडँगा…बोत अ छा घर म नौकरी
लगाया। अ बी, जाके वो बड़ा आदमी को बोल!…बोल उसको, अबी न चू उतर के आने
कू! कुतरे का औलाद न म गर मा…को ख लास न कया। ध का दे के नकाला न मेरे
कू दरवाजे से? काय कू? पूरा पगार माँगा न इसी वा ते? काट! बोलना, अ बी अ छा
तरीके से खाड़ा काट। दे खता म… बरोबर दे खता…भोत धाँधल सेन कया। अ बी स ा
होएगा वो से ठया…”
मो ा कुछ डग पीछे हटकर फरक -सा घूमा और अपनी पूरी ताकत नचोड़
स रया कार क वड न पर दे मारा।
‘छ ाक्!’ का शोर उठा। करच बखर नह , मसहरी क श ल म टँ गी रह ग ।
गा ड़य के सहारे टके ए लोग मो ा का यह व वंसक प दे ख भयभीत हो उ ह
गा ड़य क आड़ म बक गए।
तावड़े अपनी जगह पर से बना हरकत कए चीखा, “मो ा…!” उसके दाँत तनाव
से भच गए। भचे दाँत के सुराख से गुज़रती स सयाती आवाज़ म उसने मो ा को
चेतावनी द , “फक दे स रया, बेअकल…म बोलता फक दे , न तो स सेना सा’ब तेरी
बोट -बोट अपने जा ड़या कु को खला दे गा।”
“चु प बे च मच!” मो ा ने होठ पर बजबजा आए थूक को ‘ पच्’ से बगलवाली
फएट पर थूका, फर गरदन को झटका दे कर आँख तक छतरा आई लट को पीछे
फकने क को शश क , “ध स नह खाने का म, बोत चमकाया इस साली क बाडी को…
अ बी दे ख हाल! अ खा कालोनी उठ गया, वो सोता या उ पर? न ऽऽ…सोता न , डर
के ऊ परच बइठा। आने तो दे न चू, खोपड़ी न तोड़ा उसका तोऽऽ…वो जा ड़या मेम
सा’ब पन आएगी, म उसको भी न सोड़ेगा, न सोड़ेगा। सा’ब के सामने कइसी भीगी
ब ली सरखी बइठ होती? बोलने क न सकती होती, ताप (बुखार) म होता म?”
मो ा गाड़ी का पोर-पोर पीटे डाल रहा था। जैसे ही वह उसे धर दबोचने के लए
पतरा बदलता, पता नह कैसे मो ा को आभास हो जाता और वह पलटकर उसके
सामने स रया तान लेता। न पाय वह सर से लेकर पाँव तक सवाय काँपने के कुछ नह
कर पा रहा था।
कतने नौकर काम करते ह इस सोसाइट म। रोज़ नकाले जाते, रोज़ रखे जाते।
अ सर यहाँ काम करनेवाले लोग से ही नए नौकर ढूँ ढ़कर ला दे ने के लए कहा जाता।
उससे भी कहा गया। न जाने कतनी बाइय और छोकर को उसने कसी-न- कसी के घर
काम पर रखवाया। ऐसा ःसाहसी व ोही व प कभी कसी का नह दे खा। याद तय
का रोना सभी रोते, मगर मुँह पर उँगली दए, एक सीढ़ छोड़ सरी पकड़ लेत।े समझते,
जल म रहकर मगरम छ से वैर स भव नह । ेत- पशाच लग गया इस हरामखोर को या
मगज़ फर गया? सा’ब लोग का गु सा नह पता अभी इसको। गाड़ी क दशा दे खकर
स सेना सा’ब पगलाया साँड़ हो उठे गा…न क च।
वह मो ा क दशा क क पना कर सूखे प -े सा काँप उठा। कैसे रोके नादान
को? हाथ धरने दे तब न।

…मो ा के बूढ़े नाना का मच मची आँख वाला, झु रय -पटा, ता बई क ण चेहरा तावड़े


क आँख के सामने क ध गया।
पेरी ॉस रोड के फुटपाथ पर खले गुलमोहर के छाँवदार पेड़ के नीचे एक जजर
छतरी को भारी प थर के सहारे अटकाए, टाट के मटमैले टु कड़े पर चमड़े क कतरन का
ढे र पसारे, जंग लगे ड बे म क ल-काँटे स रयाए वह बूढ़ा मोची राहगीर क च पल-जूते
गाँठा करता। उस दन उसक बरस-भर पुरानी को हापुरी च पल का अँगूठा बीच रा ते म
उखड़ गया और मोची क तलाश म इधर-उधर भटकती उसक नज़र अचानक मो ा के
नाना पर पड़ी। वह पाँव घसटता सड़क पार कर उसी के पास च पल बनवाने प ँच
गया। बूढ़े ने छू टते ही पूछा, “ सलाई मा ँ क क ला ठ कूँ?”
“ सलाई मारना।” उसने मज़बूती के खयाल से उसे हदायत द । बूढ़े ने डोरा
खोजते ए पूछा, “सा’ब, आप म ल म काम करते ह?”
“वॉचमैन ।ँ ” उसने गव से अपनी खाक वद को आ ममु ध नज़र से छु आ और
बगैर बूढ़े के ज ासा कए अपने बारे म उसे बताने को उ सुक हो आया क वह पचीस-
पचीस माले क गगनचु बी इमारत वाली कॉलोनी म वॉचमैन है। खूब मोटे सेठ क
रहायश है। श ु न स हा और मौसमी चटज भी वह रहते ह। मौसमी मेरे को भौत मान
दे ती। उसके घर बहा र को मने काम को रखा।
तावड़े क ऊँची प ँच सुनकर बूढ़ा उसक बात से भा वत आ। इसका अ दाज़ा
तावड़े को इस बात से आ क बूढ़े ने अँगूठे क मज़बूत सलाई के उपरा त च पल क
अ य त नय को भी पूरी ताकत से ख च-ख चकर उनक मज़बूती परखी और बगैर
उसक इजाज़त लये उन त नय पर भी एकाध टाँके लगा दए जो अपे ाकृत कुछ
कमज़ोर लग और कसी भी समय धोखा दे सकती थ ।
“ कतना कमा लेते दन-भर म?” उसने अँगूठा गँठवाया है, पैसे भी वह अँगूठे के
ही दे गा। सोचते ए, परो म उसने वर म साम य-भर सहानुभू त उड़ेलकर बूढ़े से
पूछा।
“कमाई कदर सा’ब?” हताश वर म अपनी मच मची आँख उसक ओर क से
उठाकर बूढ़े ने त कया, “बोत मु कल से दोन-ढाई पया क ला-काँटा का खचा
नकाल करके बचता। ए रयाच ऐइसा, पैसेवाले सा’ब लोग च पल-जूते मर मत न
करवाते, टू टे क ताबड़तोड़ नया खरीदते। ताकत होती तभी म फेरी लगाता होता। जूना-
पुराना च पल-जूता खरीदकर उसका मर मत- बर मत करके टे शन रोड का फुटपाथ पर
बेच लेता होता। ऐसा बनाता होता… ाहक को एकदम नया सरखा दखता। कमाई तभी
होती, अ बी तो खाने का पन न पुरता।” बूढ़े ने नः ास भर अपने पैब द उघाड़े और
च पल उसके पाँव क ओर बढ़ा द । आगे बोला, “जा ती चलने- फरने को न सकता न।
इसी के वा ते इदरीच बैठता।”
त नक सहानुभू त दखाने पर बूढ़े ने यह भी बताया क गुज़ारा होता नह , करना
पड़ता है। घर पर एक नाती है। प ह का हो रहा, काम-धाम कुछ करता नह । बेट थी
उसक माँ। नह रही। नाती जनमते ही दामाद ने उसे छोड़कर सरी शाद बना ली।
जवान बेट कब तक सर पर बैठाए रखता! बरादरी के एक दोहाजू लड़के के संग उसे
बैठा दया। दोहाजू नौवरा ( हा) ब चा रखने को राज़ी नह आ, सो नाती को उसे
अपने ही पास रखना पड़ा। नाम है—मो ा। बड़ी को शश से उसे ‘मुनसीपा लट ’ क
शाला म छठ ‘ कलास’ तक पढ़ाया। आगे वह पढ़ने को राज़ी नह । शाला से भाग
आता। एकाध घर म भांडी-कटका के काम पर रखवाया, मगर हर बार काम छोड़-
छाड़कर बैठ जाता। अड़ा आ है क औरत वाले काम वह नह करेगा। मोची गरी उसे
पस द नह । जूते गाँठना उसे नया का सबसे घ टया काम लगता है। बूढ़े ने बड़े जतन
कए क वह ड बा-बाटली खरीदने और बेचने के ध धे म ही लग जाए, पर वह भी एकाध
रोज़ भटक-भुटककर छोड़ बैठा, यह कहकर क ड बा-बाटली का ध धा ब त म दा चल
रहा और मुनाफा एकदम न । ऊपर से लोग वयं ही महीन का भंगार (कबाड़) इक ा
कर, उसे गाड़ी म भरकर, सीधा कान पर ले जाकर बेच दे ते ह।
“उधर मुनाफा जा ती मलता! दस पैसा भी काय कू छोड़? पे ोल मँगता तो फुँकने
दो न।”
“समझ नह पड़ता क छोकरे के नसीब म या है?” बूढ़े ने उसके हाथ से, जो दे
दया सो लेते ए भराए गले से अपनी बेबसी ज़ा हर क और उसके पाँव म च पल
फँसाते-न फँसाते एकाएक चरौरी-भरे वर म हाथ जोड़ गलगलाया, “बोत मेहरबानी
होगी, सा’ब। छोकरे को कदर भी काम को लगाओ!”
बूढ़े क ाथना के साथ ही अचानक उसे स सेना सा’ब का आ ह याद हो आया,
जसे वे गेट से नकलते ए, उसका सै यूट वीकारते, पछले पाँच-छह दन से लगभग
रोज़ ही दोहरा रहे थे क उ ह एक गाड़ी धोनेवाले लड़के क स त ज़ रत है, जो टाइम
का पाब द हो। यानी उनके नकलने से पूव ही उ ह उनक दोन गा ड़याँ धुली-धुलाई
लकदक मल जसम से सफेद ‘टोएटा’ उनक है और उसी का इ तेमाल वे अपने आने-
जाने के लए करते ह। ‘ ी मयर प नी’ उ ह ने अपनी मेम सा’ब के उपयोग के लए
रख छोड़ी है। उसम सफर करना उनक शान के खलाफ है। ‘टोएटा’ कभी गैरज म हो
तो मजबूरी होती है।
गाड़ी धोनेवाल क वैसे कॉलोनी म कोई कमी नह , पर सुबह सभी को एक ही
साथ, एक ही समय अपनी गा ड़याँ धुली-धुलाई चा हए। यह काम अ धकतर वह काम
करनेवाले रामा करते। एक साथ कई-कई घर क गा ड़याँ धोने का काम पकड़ लेने के
चलते अ सर गा ड़याँ समय से नह धुल-पुँछ पात । पछले रामा को स सेना सा’ब ने
अस तु हो, काम पर से नकाला इसी वजह से। उनके नकलने का समय हो जाता और
रामा बा ट और प छा लये गाड़ी पर फटका फेर रहा होता। बगैर धुली गाड़ी म जस
दन भी वे फै टरी प ँच,े कोई-न-कोई लफड़ा वहाँ मौजूद पाया।
उसने सोचा, प रवार के च पल-जूते आए दन घसते-फटते रहते ह। बूढ़ा
लहाज़दार है। उसने बूढ़े से कह दया क कल ठ क नौ बजे सुबह वह मो ा के साथ
इसी जगह उसक ती ा करता आ मले।
बूढ़े मोची ने कुल जमा चार दाँत से ग द होते ए उसे ब त सारे आशीष वचन से
लाद दया।…

चोर बाज़ार से उ ह के तर क ट -शट खरीदकर पहने, द नता-हीनता से कोस र


मो ा से मलकर स सेना सा’ब काफ स ए।
तावड़े और मो ा—दोन को ही उ ह ने आ त कया क सामा यतः कार धोने के
लए जतनी पगार कॉलोनी म और को मलती है, उससे वे पचास पये ऊपर दगे; मगर
इस शत पर क मो ा और का काम चोरी- छपे नह पकड़ेगा। नह पकड़ेगा तो उसक
गुज़र कैसे होगी? मा दो गा ड़याँ धोकर कसी का पेट भरा है? सर का काम करने दे ने
म उ ह आप है तो शेष समय म वे उसे कसी और काम म लगा द।
“ठ क है, कुछ रोज़ वह घर के ऊपरी काम म मदद कर दे ।” उसके सौ पये वे
अलग से दे दगे। साथ ही, उ ह ने यह लोभन भी पेशगी टका दया क मो ा अगर
उनके यहाँ ईमानदारी से डटकर काम करता रहा और टका रहा, तो वे उसे साल-डेढ़
साल बाद न य ही अपनी फै टरी म लगवा दगे। तब उसे ढाई सौ पये महीने पगार
मला करेगी। मगर यान रहे, अपशकुन के अलावा त ा का है। अ य क हाजू
गा ड़याँ उनक ‘टोएटा’ के मुकाबले जगमगाती-इतराती गेट से तैरती न नकलने पाएँ।
म-पॉ लश क कमी नह । जी भरकर इ तेमाल करे।
मो ा भी मद वाला काम पाकर खुश आ।
बूढ़ा उसके एहसान क हाई दे ता न थकता। जब कभी तावड़े क घसी च पल या
ख ताहाल जूत का तलुवा उखड़ता, लाख ऊपरी आ ह के बावजूद बूढ़ा उससे बनवाई
न लेने क हठ न छोड़ता।
“तुम मेरा छोकरा सरखा…बोत-बोत उपकार कया अपने ऊपर, मो ा काम से
बोत खुश है।” वह प ल य करता क कृत बूढ़े क चीकट धोती का एक छोर
अनायास उसक मच मची आँख सोखने लगता। अ भभूत तावड़े का चेहरा कड़क चाय-
सा रंग पकड़ लेता।
उस रोज़…उसक दनवाली ूट थी। कोई बारह-साढ़े बारह का समय रहा होगा।
सहसा उसक नज़र तेजी से गेट से बाहर होते मो ा पर पड़ी। उसने गुमट के भीतर से
ही उसे गुहार लगाई, “कहाँ लपका जा रहा है, हाँ! दखता नह आजकल तू?”
मो ा ठठककर पलटा और उसके करीब आकर खड़ा हो गया, “इदरीच, थोड़ा
काम है।”
“बूढ़ा नाना कइसा है? आजकल म यू टाक ज के पीछे से नकलकर डयूट को
आता…”
“म त।”
“और तू?”
“म पन म त!” मो ा सं त उ र दे , चलने को त पर आ। उसने प ल य
कया क वह कह जाने क हड़बड़ी म उससे गप के मूड म नह । वह उससे ब तयाने को
उ सुक था। उसके सा’ब और उनक मेम सा’ब के दर यान चल रहे मनमुटाव के वषय
म भेद लेने क खा तर। इधर कॉलोनी म उड़ा आ था क स सेना सा’ब कसी शायरा
के च कर म ह और सरी शाद करने के लए मेम सा’ब से अलग होना चाहते ह, मगर
मेम सा’ब उ ह तलाक दे ने को राज़ी नह ।
“चलता म…जरा घाई (ज द ) म है।” मो ा ने बेस ी दशाई।
“ठै र ना, काय क घाई?” उसने मो ा के क धे से लटका एयरबैग ख चकर उसे
रोका, “इतना बड़ा बैग ले के?”
“मेम सा’ब ने ‘मॉडन वाइन शॉप’ से ताबड़तोड़ एक े ट च ड बयर लाने कू
बोला। वोईच इसम भरके लाएगा। आज क पाट है, बोत मेम सा’ब लोग घर म आया।
मेरे को दे री होएँगा न तो बोत वा दा होएँगा।” मो ा लगभग अपने को छु ड़ाता आ
तीर-सा गेट से बाहर हो गया।
वह अनायास अपने चेहरे पर फैलती अथपूण मु कराहट को बड़ी दे र तक खुद ई
महसूस करता रहा।
दो-ढाई घ टे के उपरा त, पाट के ताम-झाम से नवृ होकर मो ा उससे मलने
आया तो उसक आ त रक स ता पके गूलर -सी दरक ई अनुभव ई।
खोदने पर उसने बताया क दोपहर म वह पूरे समय मेम सा’ब क सेवा म होता है।
सगरेट ख म हो गई है तो ला दे ना, बयर के े ट लाना और फटाफट बोतल को ठकाने
लगाना। ‘नीलम’ से स क-कबाब या ‘ फश रो स’ ले आना, ल कग रोड जाकर ‘ यूट
आट’ म मेम सा’ब के कपड़े धोने के लए डाल आना आ द। मेम सा’ब दोपहर का खाना
ही उसे नह खलात , खासी टप भी थमाती रहती ह। पूरे पैसे वह ईमानदारी से नाना के
हाथ म रख दे ता है। ज़ रत ही नह होती उसे। हाँ, मेम सा’ब ने एक हदायत ज़ र दे
रखी है क यह सब उनका गत मामला है। कसी को उनक दनचया क कानोकान
खबर नह लगनी चा हए।
“ फर अपने को या, अपने को फकत अपने काम से मतलब।” मो ा ने
सयानेपन म डू बकर ट पणी क । हालाँ क उसे वह घर का सारा क चा- च ा यौरेवार
बता गया। मगर वह शायद इस लए नःसंकोच आ क उसक नौकरी लगी ही उसके
य न से थी और वह क ह भी प र थ तय म उसका अ हत नह चाहेगा। मेम सा’ब
क घरेलू अशा त से मो ा वच लत नज़र आया। मो ा क बात से यह भी ज़ा हर
आ क उसके मन म मेम सा’ब के त स मान ही नह , मम व-भाव भी पैदा हो गया है
और वरोध म सा’ब के त उतनी ही ती तशोधी कड़वाहट।
उसने प ँचे ए अनुभवी क तरह गु -म पलाया “ठ क कहता है तू, तेरे को
या? हाँ…फकत काम से मतलब, पगार से मतलब। कसी के लफड़े म न पड़ने का।
हाँ! अऊर ये ब डंग म रहनेवाले मयाँ-बीवी अलगीच होते। इनका कोई पन काम एक-
सरे क मालुमात म न होता। फकत इतनाच क ये मयाँ-बीवी ह, अऊर एकच घर म
रहते।” उसने मो ा के न छल कशोर मन के अभाव और उसक मम व क यास को
मेमसा’ब क ओर उ मुख न होने दे ने के उ े य से चेतावनी द , “नौकर घर-घर नाता
जोड़े तो प छू वो नौकरी छू टने पर ज दा न बचने का!”
मो ा उसक सीख को बेअसर भाव से मुँह बाये, खामोशी से सुनता रहा।
मु कल से आठ-दस दन ए ह गे क गेट पर उसके सै यूट क उपे ा करते ए
स सेना सा’ब ने स त आवाज़ म उससे पूछा, “मो ा कहाँ है?”
वह कार क खड़क से त नक बाहर को झाँकती उनक अकड़ी गरदन के करीब
आकर खड़ा हो गया वनीत-सा, “काम पर नह आया या, सा’ब?”
“दो रोज़ से बा टड ने श ल नह दखाई। लगता है, हरामज़ादे को मेम सा’ब से
ज़रा यादा ही टप मलने लगी है, तभी याद नह रख पा रहा क म बगैर धुली गाड़ी के
बाहर नह नकलता।”
वह उनके खौलते ोध से सकपका-सा उठा। समझ म नह आया क या कहे।
“छोकरा स ा है, सा’ब! ज र बीमार- वमार पड़ा होएँगा। पता करता म…’
“पता करो!” उनका वर च ान पर हथौड़े-सा टनका। गाड़ी उसक औकात र दती
सर-से गेट से बाहर हो गई।
वह मन-ही-मन ताव खाकर रह गया। अजीब ह ये सा’ब लोग! एक तो इ ह नौकर
खोज कर दो, ऊपर से उसका अता-पता भी रखो। कुछ हो गया तो सारा दोष उसी पर।
मो ा के काम पर न आने क वजह उसे सरासर बूढ़े क अ व थता लगी। वह
आशं कत हो उठा। ज़ र बूढ़ा मरने-मराने को होगा। बूढ़ ह याँ आ खर कब तक
घसटत ? नह तो मो ा खाड़ा करनेवाल म से नह । कम-से-कम वह मेम सा’ब को तो
आकर बोल के जाता। कोई खबर नह , इसका मतलब है क…और अगर सचमुच बूढ़े को
कह कुछ हो गया तो मो ा इस संसार म एकदम अनाथ हो जाएगा…
मो ा के अचानक अनाथ हो जाने क भयावह क पना से तावड़े अ यमन क हो
उठा।
मु कल से उसका घर खोज पाया।
जस बात क आशंका थी उसके वपरीत, मो ा को ख टया से लगा, बुखार म
तपता पाया। बूढ़ा ध धा छोड़कर उसके सरहाने बैठा मला। उसके माथे पर ठ डी
प याँ चढ़ाता। उसे दे खकर नज व-से हो रहे मो ा और च तत नाना के चेहरे पर
द प-से रौनक फूट ।
“मेम सा’ब बोत हैरान ह गी न! नाना से म बोला क तुमको खबर दे ने से मेम सा’ब
को पता पड़ जाएगा क म ताप से ँ। पड़ेगा तो वो न क च मेरे कू दे खने कू आएगी…
लई ेमालू हय वो…पन नाना…मेरे को छोड़ के हटताच न ।”
वह सकते म आ गया, मेम सा’ब के त मो ा क माया और व ास दे ख।
बड़ी दे र तक उसके नकट बैठा वह उसक बीमारी और दवा-दा के बारे म बाबा
से ब तयाता रहा। उसे ढाढस बँधाया। ‘ लू’ कमज़ोर कर दे ता है। ज़बरद ती कुछ करने
क को शश न करे। ज द ठ क हो काम पर प ँच।े ह मत ही नह पड़ी क स सेना
सा’ब के चढ़े तेवर के वषय म बता दे और यह भी क जस मेम सा’ब क याद म वह
अधमरा आ जा रहा था, वे एक बार नह ब क कई-कई बार उसके सामने से सर-से
गुजर ग । कसी ने पूछा तो वे ह स सेना सा’ब। वह भी अपनी गरज के चलते। य क
वे बगैर धुली गाड़ी के घर से बाहर पाँव नह दे त।े
गाड़ी के न धुल पाने क नाराज़गी के साथ-साथ उसे स सेना सा’ब के मो ा पर
अ धक भड़के होने क एक और वजह लगी, जो उनके कटा पूण लहज़े से साफ ज़ा हर
ई क मो ा के ारा मेम सा’ब क वशेष खदमत उ ह स त नागवार गुज़र रही है।
मो ा क उ म कई छोकरे अनुभव के आँव म पक-तप के लाग-लपेट के फंदे म
न आते। मगर दस घर का काम छोड़-पकड़कर ही यह नयादारी उनम रच-बस पाती।
मो ा का बमु कल यह सरा घर है। वह नह जानता क इमारत म रहनेवाल का घर
कभी उसका अपना घर नह हो सकता। मो ा क मेम सा’ब के त गाढ़ता पहले भी
उसे अखरी थी और उसने उसे सतक कया था, क तु मो ा के कोमल मन के मुगालते
को दोबारा तोड़ना ज़ री लगा। सुबह स सेना सा’ब से ई भट का ववरण उसने
अ न छा के बावजूद मो ा को य -का- य कह सुनाया।
सुनकर मो ा का चेहरा बुझ गया, “सा’ब तो ऐइसा हैइच पन…मेम सा’ब…!”
ललाई आँख फेरकर, वह टकटक लगाए बड़ी दे र तक छत के पतरे को ताकता
रहा। मेम सा’ब उसे अपनी छोट -सी ज़ दगी म दे खी गई उन तमाम औरत से भ
लग , जो मोह ले के र ते से उसे अपन व दे लराती रह …
आँख से छत का पतरा एकदम ओझल हो गया। इतनी लबलबा आ , जैसे फूल
खुँपटने को अपनी ओर लचाई ई टहनी अचानक डाल समेत चरमराकर पेड़ से अलग
हो गई हो।
मेम सा’ब क बात मथने लग —‘मुझे तो बस कहने-भर को घर मला है। यह सारी
मौज-म ती तो व -कट है। सा’ब कहने को प त ह और म कहलाने को बीवी। अ सर
जो दे री से घर आते ह न, उसी छनार के लैट म रहते ह। नया लैट, नई गाड़ी खरीद के
द है उसे। वही हरे रंगवाली गाड़ी।’
“ कसी रोज ाइवर क आँख बचाकर म इं जन म कलो-भर श कर डाल के
छोड़ेगा, गाड़ी क छु !”
उसक बात सुनकर मेम सा’ब खल खलाकर हँस पड़ी थ , ‘तू इतना खयाल रखता
है मेरा, तुझे तो म गोद ले लूँगी।’
वह उनके अपनेपन से खल आया था। अ सर छू ट लेने लगा था उ ह ‘म मी जी’
कहकर पुकारने क ! आप नह क उ ह ने। कोई औलाद भी तो नह थी उनके!
चलते समय उदास मन से मो ा बोला क वह सा’ब और मेम सा’ब को उसके
ब तर से लगे होने क खबर कर दे और खबर न कर पाने क मजबूरी भी प कर दे ।
ठ क होते ही वह काम पर प ँच जाएगा।
उसने सा’ब और मेम सा’ब—दोन को ही अलग-अलग खबर कर द । सा’ब ने
अ व ास से ‘ ँह’ भर कया। मेम सा’ब उसके बुखार क बात सुनकर सचमुच च तत
हो उठ —“उससे कहना क जब तक वह एकदम ठ क न हो जाए, काम पर न आए।”
फर आ ह ता से आ मीय वर म बोल , “दवा-दा क खा तर पय -पैस क ज़ रत
हो मो ा को, तो ले जाना मुझसे।”
दे दे ने और माँग लेने के लए कहने म बड़ा फक है नीयत का। उसे मेम सा’ब क
कुछ ण पहले क सहानुभू त घ ड़याली आँसू तीत ई। पर मो ा है क मेम सा’ब
पर अँकुआई अपनी आ था को लेशमा इधर-से-उधर नह खसकाना चाहता।
सातव रोज मो ा पूववत् अपने काम पर प ँचा तो वापसी म उससे मलता आ
गया।
उसने मलते ए जाने के लए कहा ही था; य क पछले दन उसने सरे
वॉचमैन से सुना क स सेना सा’ब को गाड़ी धोने के लए एक नया छोकरा चा हए। उसे
च ता ई, कह ऐसा न हो क मो ा काम पर लौटे और स सेना सा’ब उसे काम से
बरखा त कर द। क तु ऐसा कुछ भी नह आ। बस, स सेना सा’ब ने उसे चेतावनी-भर
द क आइ दा अगर वह बीमार पड़े तो पहले से ही काम पर न आ पाने क खबर करवा
दे , ता क वे अनाव यक ती ा न कर।
मो ा क दनचया ने हमेशा क तरह अपना ढरा पकड़ लया। ले कन पहली क
रात को महीने का हसाब लेकर वह घोर अस तु हो उसक खोली पर प ँचा।
ठगे जाने क न सहायता, अवमानना के आघात से छलनी हो अनायास उसक
अब तक कमजोर पीली आँख म पघलने लगी, “मेरा सात दवस का खाड़ा (नागा) काट
लया…फरेब करके थोड़ा म घर पर म ती मारता होता! खाड़ा के वा ते म सा’ब से लड़ाई
कया तो वो मेरे को झापड़ चढ़ा के दफा हो जाने कू बोला…ध का मारके घर से बाहर
कर दया मेरे को। सब समझता म, काय का वा ते काम पर से हकाला, सा’ब ने…
“उसका मरजी होता, म उसका रखैल का घर म चौबीस घ टे के वा ते काम कू
जाऊँ। मने साफ ना पाड़ी होती…बोला होता, फकत गाड़ी धोएगा…ऊपर का काम
करेगा…खाना-बीना न पकाएगा।
“जबी झापड़ मारा…मेम सा’ब पासमेच खड़ी होती…ध का दे के बाहर कया, जबी
पासमेच खड़ी होती…सा’ब का हाथ न पकड़ने को सकती थी? न बोलने को सकती
थी क म ताप म होता? कतना काम म फोकट मच करता होता!”
“छोड़ न, जो आ सो आ। ये सा’ब लोग से झगड़ा- बगड़ा करके फायदा न ।”
“म दे खेगा… सरा छोकरा कइसा गाड़ी धोएगा…छू ने को न सकता कोई गाड़ी
को।” एकाएक नरीहता झटक उसने चुनौती से भरकर कहा।
बड़े अपनेपन से तस ली दे ते ए तावड़े ने समझाया, “एक काम छोड़ो हजार
मलता, काय को मगज खराब करता अपना? म एकाध दन म तेरे को नए काम पर
लगाएगा। ईमानदार नौकर का बोत डमा ड हय…छोड़! ये सा’ब लोग से उलझ के
फायदा न , फर मेम सा’ब का या? हय तो वो उनका बीवीच, कइसा बोलेगी सा’ब के
खलाफ? हाँ! उनकाच पैसा पर म ती मारती न! इतनाच तकलीफ है तो सा’ब को
छोड़कर काय को न चली जाती?”
वह सब समझ रहा था। सा’ब के ू र वहार से मो ा को जतना ोभ है, उससे
कह यादा गहरी ठे स लगी है मेम सा’ब क अ या शत लगातार चु पी से। चु पी का
अथ है, वे भी गलत का साथ दे रही ह!
मेम सा’ब के सं द ध वहार क उसके ारा क गई आलोचना पर मो ा पहली
बार खामोशी साधे रहा। कुछ दे र बाद उठा, कमीज़ क बाँह से आँख प छ , “चलता म।”
उसने तो नह , पर उसक बीवी ने ज़ र मो ा से कुछ दे र और बैठने का आ ह
कया और लगभग ज़द-सी क क काफ रात हो रही है, वह खाना खाकर जाए। पर
मो ा था क ब कुल नह का। खोई-खोई-सी मनोदशा म लपटा खोली से बाहर हो
गया, “नाना राह दे खता होएगा!”
पछली बात और घटना का म अचानक हो रहे इस व फोट से जुड़ गया।
तावड़े च का।
उसके आस-पास उबलती, खौलती, तमतमाती धम कय क भीड़ इक हो गई। वे
धम कयाँ उसे ललकार रही थ , धमका रही थ , ध कार रही थ , चुनौती दे रही थ क
चौक दार रखने का मकसद? एक मामूली-सा छोकरा ढाई-तीन लाख क गाड़ी का भुरता
बनाए दे रहा और वह है क रात पाली के बावजूद आराम से गुमट म खराटे भर रहा?
अरे, इन लुटेर क मलीभगत है। इतनी बेरहमी से गाड़ी पीट-पाट ड बा बनाकर रख
दया छोकरे ने! अ खा कॉलोनी को सुनाई दया, ये हरामखोर कान म तेल डाल के
सोता? डस मस करने कू माँगता सोसाइट को…इतना पगार हम लोग गुरखा लोग को
काय के वा ते दे ते? लुटने के वा ते?
उसे आ य आ। मो ा के हाथ म लपलपाते स रये ने उप थत भीड़ को
न य कर रखा था, पर उनक ज़बान बरछ -भाले-सी हार-पर- हार कए जा रही
थ । कसी का साहस नह हो रहा था क चार फ ट के ब -े से छोकरे के हाथ से
लपककर स रया छ न ले। नुकसान ऐन उनक नाक के तले हो रहा, पर तु जान जो खम
म डालने का काम उन शूरवीर का नह । ठ क ही तो कह रहे—चौक दार काय के वा ते
रखा?
“साले सब हजड़े…” मन-ही-मन उसने करारी गाली उछाली उन सबक ओर, और
मो ा को थोड़ा असावधान पाकर चील-सा झपटा उसक ओर, मगर उसक फुरती
अपनी ओर पलटकर तन गए आ ामक स रये क वजह से कट कटाती ठठक गई।
उसका ख सयाया चेहरा मो ा पर बेअसरदार चेताव नयाँ उगलने लगा। उसके भीतर
तमाम द तक हो रह । कसको पकड़ना है उसे, मो ा को? या मो ा के बहाने अपने
को? मो ा कुशल लठै त क भाँ त थरक रहा, स रया भाँजता!
अचानक उसने सुना क स सेना सा’ब घर पर नह । मेम सा’ब अकेली ह ऊपर।
मेम सा’ब इस उप व क खबर पाकर हत भ हो रह । कसी अ य ने स सेना सा’ब को
फोन कर इस वारदात क इ ला द । स सेना सा’ब ने इधर के लए नकलने से पहले
पु लस को फोन पर सूचना दे द है। मेम सा’ब को आ त करने के लए कहा है क
उनसे कह दो क वे घबराएँ नह , अ वल ब घर प ँच रहे ह।
मेम सा’ब पु लस और स सेना सा’ब के पा कग म प ँचने से मनट-भर पहले ही
नीचे उतर ली पग गाउन म। बदहवास-सी। सुख आँख और सूजे ए पपोट म।
गाड़ी क दशा और मो ा का साहस दे खकर उनक आँख फट ग । ऊपर बैठे
ए स भवतः मो ा क व वंसक कारगुज़ारी का उ ह अनुमान नह हो पाया होगा क
इस हद तक वह गाड़ी को नुकसान प ँचा सकता है।
उ ह ने पूरी को शश के साथ पलक झपका-खोल सामने पसरे अक पनीय य क
वा त वकता को तौलने-परखने का य न कया।
पल-भर म ही वे जैसे सारी थ त के त सजग और सबक चेतावनी के
बावजूद, स रया ताने खड़े ए मो ा क ओर नडर भाव से आगे बढ़ । लोग के साथ-
साथ वह भी आशं कत हो काँप उठा। मो ा का रौ प आज मेम सा’ब का माथा
फोड़े बना शांत नह होने का। उसने प ल य कया मेम सा’ब क उप थ त से बेअसर
मो ा ने स रयेवाला हाथ लगभग पूरी ताकत से आ ामक मु ा म तान लया। उसका
पसीने से लथपथ चेहरा थराने लगा। ब क पूरी दे ह प े क तरह काँपने लगी। अनहोनी
म कसर नह !
दम साधे सारे लोग यह दे खकर अच भत हो उठे क मेम सा’ब ने उसके नकट
प ँचकर आ ह ता से उसके तने ए हाथ से स रया ले लया, जैसे कोई सावधानीपूवक
ब चे के हाथ से तेज़ धार चाकू ले लेता है।
मो ा ने कोई तवाद नह कया। झूली ई बाँह और झुक ई गरदन से वह पाँव
के नीचे बछ करच को घूरने लगा या अपने ही पाँव को अनुमान नह आ।
“इतनी ह मत कहाँ से आई रे तुझम?” मेम सा’ब भराए क ठ से बुदबुदा ।
मो ा आँच पीती बफ-सा पघलता आ अचानक घुटन म मुँह दे कर हच कयाँ
भरने लगा, “तुमने खाड़ा कटवा दया न, मेम सा’ब…अपने सामने चाँटा मारने कू दया
न!…म…म…”
उसे ह थयार स पते दे ख भीड़ हसक हो उस पर टू ट पड़ी।
बेईमान

दोन बाँह म प का का ढे र को रयाए ए उसने दा हने क धे के दबाव से ठ डी


गाड़ी के ड बे का दरवाज़ा आ ह ता-से ठे ला और सावधानीपूवक तरछे होकर ड बे के
भीतर दा खल हो गया। बैसाख क उमस से पसीजी ई दे ह को अचानक महकती
शीतलता का झ का सावनी फुहार-सा आ ा दत कर गया। दरवाज़े से हटकर उसने एक
सीट से पीठ टकाकर दे ह ढ ली छोड़ द । ड बे म गूँजती सतार क म द व न उसके
रोम-रोम म थरकने लगी। एकाएक गाँव के कनकटा काछ क बंसरी कान म कूक
उठ ! दादा रे दादा! यह गाड़ी का ड बा है या सुरगलोक!
अभी इ का- का सीट ही भरी थ । सवा रयाँ आ रही थ —बेआवाज़! चौक ी!
झुक-झुककर आगे बढ़ती ई उनक नगाह सीट क पीठ पर अपनी सीट का न बर
टटोलती और बैठने से पूव सीट के ऊपर त नक उचककर सामान सहेज, बना कसी क
ओर दे खे-बोले अपने थान पर बक जाती। अ य गा ड़य क अपे ा इस ठ डी गाड़ी
के या ी उसे कसी सरे लोक के ही मनु य तीत होते! शा त, सौ य, साफ-सुथरे।
बोलते ह तो सफ ओठ हलते ह। आवाज़ नह नकलती।
उसे सबसे अ धक अ छा लगता है—ठ डी गाड़ी म प काएँ बेचना। सुबह से ही
उसे ठ डी गाड़ी क ती ा होती है। उचटे च से वह सरी गा ड़य म ड बे-दर- ड बे
डोलता- फरता नाक चढ़ाये, मन-ही-मन घनाता-कुढ़ता रहता है क सरकार सारी ही
गा ड़य को ठ डी गाड़ी म य नह त द ल कर दे ती? गा ड़य के बदलते ही श तया
सवा रय के चेहरे बदल जाएँग।े फर उसे सूख,े भुतहे चेहर के बीच डोल-डोलकर
प काएँ बेचने क ववशता से मु मल जाएगी। सूखे चेहरे प काएँ दे खते अ धक ह,
खरीदते कम। उ ह उसक परेशानी से या लेना-दे ना क उनक पस द क प काएँ ढे र
म से ख चते-स रयाते उसके जोड़-जोड़ अलग होने को हो आते ह! चरकुट गाड़ी,
चरकुट सवारी…
लोग तेज़ी से आने शु हो गए ह, ले कन अभी ड बे म फेरी डालना उसे मुना सब
नह लग रहा। अपनी सीट पर इ मीनान से बैठ जाने के बाद ही लोग को ल बी या ा क
ऊबन का आभास होता है; तभी वे समय काटने के लए उसक ओर आक षत होते ह।
अभी डोलेगा तो एकाध से क धा, कोहनी टकराएगी और उनक अंगार ई भृकु टय क
झड़क झेलनी होगी। हाथ अभी से चूर हो रहे ह, पीठ-पीछे वाली दोन सीट अभी तक
खाली ह। कुछ दे र के लए ही सही, वह प का के ढे र को उन पर टका सकता है।
उसने मुड़कर धीरे-से प का का ढे र अगली सीट पर सरका दया, और अपनी
झुनझुना रही कोह नय को ह के झटके दे कर झुनझुनी उतारने लगा! बस, दो-चार मनट
म ही उसे फेरी लगानी होगी। उसक बाज़-सी नज़र आने वाली सवा रय के सामान को
टोह रही ह। इ का- का के पास ही अखबार ह। एकाध सीट के पीछे भी रखे ए दख
रहे ह, मगर बासी अखबार ल बी या ा क ऊबन नह ढो पाते। घ टे -खाँड़ का रा ता
थोड़े ही है, कती भी तो छह-सात घ टे भागने के बाद ही है!
गाँव म उसके मदरसे के साथी मनसुखवा ने एक चम कारी क सा सुनाया था उसे
क उसके ब पा द ली से आए ह और खबर लाए ह क एक ऐसी अजूबा ठ डी गाड़ी
चली है, ‘राजधानी’…धो या नाम है उसका। लेटफाम पर, भैया, जब वह धड़धड़ाती
नकलती है, लोग-बाग ख भा ध र लेते ह। ख भा न ध र ल भैया, तौ तड़ से उ ड़ कै
पट रन पर जा गर। फंकाई लगी थी तब मनसुखवा क बात!
“येऽऽऽ! ‘ टारड ट’ है नया? अ ैल का?” सामने क सीटवाले या ी ने जैसे उसे
चुटक भरी।
“ टारऽऽऽ? हाँ आँ, है न बाऊ जी! है, है।”
वह उमंग से भरा सीट पर रखी प का के ढे र पर झुका ही था क तभी पीठ-
पीछे एक मुलायम ढ़ ी- वर ने ‘यही है इकह र, बह र’, कहकर उसे आगाह कर
दया क उन सीट क सवा रयाँ आ चुक ह, और उसे त काल प का के ढे र को
अपनी गोद म उठा लेना चा हए।
उसने उ ह बाऊजी क कुस के ह थे से घुटना उचकाकर अड़ाया और कोहनी के
बोझ को घुटने पर टकाकर ‘ टारड ट’ क त ढे री म खोजने लगा। अ य त हाथ को
त खोजने म समय नह लगा। अं ेज़ी ‘बट’…‘पुट’ से यादा उसे आती नह ,
प का पर छपी त वीर ही उसके लए ल प ह। राजीव गांधी क त वीर वाली है ‘नई
इ डया टु डे’! कमी काटकर और श ु न स हा क गलब हयाँ डाले वाली है ‘ फ मी
क लयाँ’! बकनी पहने खड़ी ई ड पल क त वीर वाली है ‘ टारड ट’! मल गयी
ससुरी! ये रही टारड ट!
“ली जये बाऊ जी!” उसने कला फतेह वाली वजयी मु कान के साथ प का
उनक ओर बढ़ाई।
घुटने से ग र को वापस बा कोहनी म सरकाते ए उसने तौलती से बाऊजी
को दे खा। उनक आँख मुखपृ पर तरछ तनी खड़ी ड पल कपा ड़या के गदराये ए
उरोज पर अटक गई ह। बकेगी। प क बकेगी। बाऊजी को ही या, उसे भी अ छे
लग रहे ह…अ मा के ध ऐसे भरे-भरे य नह थे! पाट -ब ता लेकर मदरसे म बैठने
लायक हो गया तब तक उसक ध पीने क लत नह छू ट थी। भरी दोपहरी म खटोले
पर पड़ी ऊँघ रही अ मा के ऊँचे खचे पोलके म से दाएँ-बाएँ लटक पड़ी उनक सूखी
छा तय को चुकरने से बाज़ न आता वह। क लाहट से स सयाकर अ मा बगल म धरा
बेना उठाकर मक दे ती उसक पीठ पर—“नासकटौनू! खा ड रहै का हमका! हटो…”
बाबू भाई से वनती करेगा क एक ‘ टारड ट’ उसे भी चा हए। एक त बचा ल।
चाहे तो दाम उसके हसाब से काट ल…
“पचास का छु ा है?”
“न, न, बाऊ जी…” उसका चेहरा दयनीय हो आया।
“ठ क है, कुछ और बेच-बाच लो तो आकर पैसे ले जाओ मुझसे।”
“ठ क, बाऊ जी…”
ग र उचकाये ए वह प का के नाम होठ को कनप टय तक ख चते ए
र रयाए-से सुर म उ चारता, सीट पकड़ने को आतुर या य के लए आड़े- तरछे
समटकर नकलने क जगह बनाता, ड बे म त परता से फेरी लेने लगा। अगले ड ब म
भी फेरी लेनी है उसे। दो से अ धक ड बे एक साथ नपटाना उसके बूते का नह । एक तो
उसक चार-फुट कृश काया! ऊपर से दस कलो के लगभग प का का बोझ लादे
ए उसके सु पड़ते बाजू फेरी पूरी होते न होते क ध से अलग होने लगते। सुतली से
बँधी खाक मैली नकर चार कदम चलते ही कमर पर टकने से आँख दखाने लगती।
कई दन से सोच रहा है और बचत क पूरी को शश कर रहा है क बाबू भाई के पास
कुछ पये जमा हो जाएँ तो सबसे पहले वह अपने लए नई नकर खरीदे गा।
ब कलवाली नकर! फर चाहे जतना भारी बोझा हो रंग बरंगी प का का, मजाल
क नकर कमर से खसक ले!
बोहनी अ छ क ड पल कपा ड़या ने! ‘मुटापा कैसे कम कर,’ वषय पर के त
‘गृहशोभा’ क सात-आठ तयाँ दनादन बक गय दोन ड ब म। अगरब ी-सी
सुग धत मुट कय ने संकोच छोड़कर खरीदा! पु ष सवा रयाँ अलब ा उसे अ छ नह
लगत । एक तो वे अं ेज़ी प काएँ ही माँगती ह उससे, तस पर समाचार-प काएँ
वशेष प से। अजीब-अजीब-से नाम लेकर। वे नाम अब तक उसे याद नह हो पाये।
माँग होने पर थोड़ी दे र सोचना पड़ता है उसे। ‘यह भी दे ना’, ‘वह भी दे ना’ सुनते, ढे र म
से प काएँ रखते- नकालते हाथ पर च टयाँ रगने लग । ठ डी गाड़ी म होने के बावजूद
दे ह पसीने से तर हो उठ ।
नकर का खीसा रेज़गारी के वजन से प ग ले रहा है। बाबू भाई खुश हो जाएँगे
आज क ब पर ब से। टकट बाबू को दरवाज़ा ठे ल भीतर दा खल होता दे ख मन
अचानक धुकपुका उठा। अभी तो सरे ड बे म कई एक सवा रय से क मत वसूलनी है
उसे। टकट बाबू के ड बे म दा खल होने का अथ है क गाड़ी छू टने म अब अ धक दे र
नह । ठ डी गाड़ी का व च रवाज है। गाड़ी छू टने के ठ क पाँच मनट पहले गाड़ी का
दरवाज़ा ब द कर दया जाता है, ब स। इसी से भगदड़ मचती है। दे री से प ँचने वाली
सवा रय को भीतर दा खल होने क उतावली हो रही होती है, वदा करने आये
भीतरवाल को बाहर नकलने क ।
सरे ड बे म पाँव दे ते ही समय क कमी से आशं कत मन से लोग के चेहरे ही
बसर रहा है! वह एकदम भूल रहा है क उसने कस- कस को प का बेची है और उनम
से कतन से उसे पैसे लेने शेष ह। याद आया—एक तो एकदम आ खरी वाली सीट म से
कसी ने उससे राजीव गाँधी वाली प का ली थी। उन पर भी पैसे नह थे टू टे। वह तेज़ी
से ड बे के उस सरे क ओर लपका। उन च मेवाले बाऊजी ने उसे दे खते ही पहले वाला
ही बीस का नोट नकालकर उसक ओर बढ़ा दया। उसने फटाफट नकर क जेब से
पये नकालकर उ ह लौटाए। कसी और पर भी पैसे बकाया ह…याद नह आ रहा है!
दमाग म हथौड़े-से बज रहे ह! उसने घबराकर ‘पैस,े पैस… े बाऊजी, पैस?
े ’ कहकर मगन
सवा रय का यान अपनी ओर आकृ करना चाहा। जसे दे ने ह गे वह वयं ही उसक
आवाज़ सुनकर चेतेगा। वह चयाए बैठे ह। कोई नह बोल रहा। कोई नह चेत रहा, जैसे
कसी को उसे कुछ दे ना ही न हो। हो सकता है, न भी दे ना हो… उसे यूँ ही लग रहा हो।
कसी सवारी पर प का क क मत बकाया है! बाएँ क धे से दरवाज़ा ठे लकर बाहर
नकलने के पूव अचानक दमाग म बाल पर च मा चढ़ाये ए एक बीबी जी का चेहरा
क धा! उन मेम सा’ब ने चार-पाँच प काएँ इक दे खने के लए ली थ । उनम से दो या
तीन उ ह ने रख ली थ । शायद दो ‘गृहशोभा’ और ‘मनोरमा’। वह तेज़ी से सीट क ओर
बढ़ा।
हाँ, यही तो है! तब च मा चढ़ा रखा था बाल पर, धूप का। ड बे म धूप थोड़े ही है,
सो उतारकर रख लया होगा। गोद म कोई प का धी पड़ी ई है उनके। ‘मनोरमा’ ही
लगती है।
“मेम सा’ब पैसे?” संकोच छोड़कर उसने सीधा उ ह स बो धत कया।
“पैसे! कैसे पैस?े ”
“दो ठो प का…. हन वाली ये ‘मनोरमा’ अऊर…” उसने उनक गोद म धी
पड़ी ई प का क ओर उचकाई।
मेम सा’ब क अंगारे ई भृकु टयाँ ऐनक क जगह जा बैठ , “यू शट अप… यह
मेरी ‘मनोरमा’ है, घर से लायी ँ म रा ते म पढ़ने के लए…”
उसका चेहरा डाँट खाकर पुँछ लेट हो आया। साहस बटोरकर उसने उ ह बारा
मरण कराने क को शश क , “इक नह लये आप तीन-चार प काएँ…” इस बात से
उ ह ज़ र याद आ जायेगा, उसे यक न था।
“ कसी और को द ह गी तूने, ई डयट…ये ‘राजधानी’ है क छकड़ा? कैसे-कैसे
उच क को घुसाकर बैठा लेते ह गाड़ी म, ज ह सवा रय से बात करने तक क तमीज़
नह …” मेम सा’ब ने अपने बगल म बैठे ौढ़ स जन क ओर समथन क आस म दे खा।
स जन नरपे मु ा धारण कये केवल उ ह तककर रह गये, जैसे कह रहे ह क हम
या बोल! हम तो आए ही आपके बाद ह। अचानक गाड़ी म ह का-सा क पन आ। वह
घबरा उठा। अब बहस से कोई लाभ नह । ठ डी गाड़ी है, छू ट तो तीर क भाँ त सीधे
कोटा प ँचकर ही दम लेगी।
बाहर का दरवाज़ा खोलकर वह लेटफॉम पर पाँव दे ने को सतक आ ही था क
अचानक टकट बाबू ने प का के ढे र म से एक प का बड़ी कुशलता से उचक उसे
चेतावनी पलायी “बाप क गाड़ी है बे!”
लेटफॉम पर पाँव दे ते ही उसे अपनी दे ह पीछे को फकती ई महसूस ई।

बना ाहक के बुक टॉल पर खड़े ए बाबू भाई उसे ल त-प त दे खकर त नक
च कत ए। ठ डी गाड़ी म चढ़ते ए भी छटं क का चेहरा उ फु ल रहता है, उतरते ए
भी ठ क यौता खाकर लौटे तृ त मानुस क भाँ त। उनक आँख भंटे हो आ “छटं कया!
पलट यूँ आया तू बे? तीन न बर पर ब बईवाली डील स लग रही है, भूल गया?”
उसने सुनी-अनसुनी मु ा अपनाते ए चैला हो रही कोह नयाँ यथाश उचकाकर,
प का के ग र को भीतर आने-जाने के लए इ तेमाल होनेवाले दरवाज़े से ऊपर को
खुलते-ब द होते प े पर खसका दया और बाएँ हाथ से दा हनी बाँह तेज़ी से रगड़ने
लगा। चैले म ाण ही नह फुँक रहे! कतनी बार वनती क है बाबू भाई से एकमु त
प काएँ न लादा कर उस पर। ले कन बाबू भाई चकने घड़े-से झड़क दे ते ह उसे
—“भरा-पूरा माल न दखे तो ाहक ललचेगा? अबे, खाली कटोरा दे ख दानी के हाथ भी
सु त पड़ जाते ह!”
उसने कन खय से दे खा। वदा करने आई ई भीड़ जेबकट हताशा म डू बी म थर
ग त से पलट रही है।
“एक चाय पी आऊँ?” उसका चेहरा खाली कटोरा हो आया।
“चौ पऽऽ! दमाग खराब आ है तेरा…ध धे के टे म सनक रहा है? ला हसाब दे ।
कतनी कॉपी ले गया था कुल…और प ँच तीन न बर पर!”
“साठ और इऽऽऽ बासठ।”
“बासठ क पसठ?”
वह वधा म पड़ गया। बाँह रगड़नी उसने छोड़ द ”हाँअऽऽऽ तीन आप चलने के
समय दये थे, वो तोप के मुँहवाली…” (ऑन लुकर)।
“सटाक् से लील जाता है हय? बोल कतनी ग , कौन-कौन-सी ग ?” फर
उतावले बाबू भाई मुड़कर वयं ग र गनने म जुट गए। आधे पर भी नह प ँचे ह गे क
तभी फुत से आयी एक कूली छा ा-सी लगती कशोरी ने कुमार क यप के नए
उप यास ‘ हन के सपने’ क माँग रख द । बाबू भाई के माथे क सलवट अ तधान हो
ग —“अभी ली जये, बेबी! धड़ाधड़ बक रहा है ‘ हन के सपने’…ब स, ये आ खरी
कॉपी बची है आपके लए।” उ ह ने खीस बगारते ए साफ झूठ बोला, और ‘ हन के
सपने’ नीचे रखे ढे र म से त परता से नकालकर कशोरी क ओर बढ़ा दया। लड़क
नय मत खरीददार लगी। मु म दबाए बारह पये करीने से लगी प का म से एक
के मुखपृ पर छोड़ वह तेज़ी से उप यास लेकर मुड़ ली। लेटफॉम पर गाड़ी क ती ा
कर रहे कसी प रवार से आँख बचाकर आई ई लगती है—बाबू भाई ने उसका इ तहास
अनुमान लगाया। बुक टॉल पर सुबह आठ से रात के दस- यारह तक खड़े-खड़े बाबू
भाई क ग या य क जेब से लेकर उनक औकात तौल लेने म मा हर हो चुक
है। लड़क के जाते ही प का के ग र क ओर बाबूभाई मुड़े तो छटं क को उ ह ने
प काएँ गनते ए पाया। पंज पर उचका आ वह प का के शीष पर प ँचने क
यथास भव को शश कर रहा था। क तु उस ऊँचाई तक उसे प ँचाने म उसके पंजे
असमथ स हो रहे थे। गनती भी गड़बड़ा रही थी। बाबू भाई ने उसे परे झटका और
उँग लयाँ थूक से गीली कर नोट क ग ी गनने क तज़ पर प काएँ सर-सर गनने
लगे। गनना ख म होते ही ंकारी-सी भरी उ ह ने”अड़तालीस ह बची…” मतलब, कुल
स ह बक , बस, स ह! तू तो बड़ा लपककर ठ डी गाड़ी म घुसता है बात बघारता
आ। पढ़ - लखी सवा रयाँ होती ह इस गाड़ी म और पढ़े - लखे बाबू ही टट ढ ली करते
ह…घ टे -भर स यानाश करके कुल स ह बेच तून… े ?”
“ला पैसे नकाल, भु च जैसा खड़ा या तक रहा है…तीन न बर वाली गाड़ी क
फकर है तुझे?” बाबू भाई उसके अकबकायेपन पर ु हो तराए।
वह नकर के खीसे से पये और रेज़गारी नकालकर अखबार पर रखने लगा।
बाबू भाई ने हसाब- कताब करने के लए प सल और पैड नकाल लया।
“इ डया टु डे कतनी?”
सवाल सुनकर उसक धड़कन तेज़ हो ग । कनप टयाँ गरमाने लग । ह मत नह
हो रही बताने क क उतरते-उतरते टकट बाबू ने कैसी फुत से ग र के ऊपर रखी
राजीव गांधी वाली प का धाँप ली थी! बोलना तो पड़ेगा ही। हसाब होना है।
“तीन…तीन म से एक…” उसने बोलने का साहस जुटाया ले कन बात मुँह म
घुमड़कर रह गयी।
“एक? या एक?”
“उतरते समय टकट बाबू ने एक उठा ली!”
“और तूने उठा लेने द ?”
वह आँख नीची कये अँगूठे से लेटफाम का मैला फश कुरेदने लगा। पता नह या
होगा अब! तीन-चार दफे वह पट चुका है इसी खा तर। मगर वह या करे?
“ चरौरी नह क , म मा लक नह , नौकर ँ, कहाँ से डाँड़ भ ँ गा…? अबे
वा जदअली शाह क औलाद! ड बे- ड बे टकट बाबू मलगे तुझे और तू उन सबको
मु त प का बाँटता फरेगा? खैरात बाँटने नकलता है क…” हाथ का पंजा तान
ो धत बाबू भाई एक भ -सी गाली प च-से उसके चेहरे पर थूक, खून पीकर रह गए।
“इस बार तेरे हसाब म कटगे, आगे बोल!”
उसका आँसा वर कुएँ म से आता तीत आ, “ ड पल कपा ड़या छह, नह
सात…नह छह…”
“गृहशोभा?”
“सात।”
“ च लेखा?”
उसने इनकार म मु डी हला द ।
“मनोरमा?”
कुछ नह सूझा क या जवाब दे । बाल पर धूप का च मा चढ़ाए ए मेम सा’ब
याद हो आ ।
“ फ मी क लयाँ?”
“एक…नह , वापस हो गई थी।”
“तो तीन ‘इ डया टु डे’ और एक ‘मनोरमा’ मलाकर कुल ग स ह और तू हसाब
दे रहा है तेरह का?” बाबू भाई ने प काएँ, सतकतापूवक बारा गन । हसाब पकड़ म
आ गया उनके। कतनी कौन-सी द थी इसे यान न रख तो समझ लो सब बँटाधार! यह
प -सा छटं क भी उ ह चूना लगाने से न चूके। हसाब लगा लया उ ह ने। कुल ए एक
सौ स ावन!
“ कतने ह तेरे पास?” कारोबार चलाना कोई हँसी-ठ ा है?
उसका वर काँपा, “एक सौ…अऊर चालीस अऊर तीन…”
“ या?” बाबू भाई क यौ रयाँ फर चढ़ बैठ —“ठ क से दे ख अपनी दोन जेब!”
उसने नकर के खीस म बारा हाथ डालकर उ ह खंगाला।
“ गर गये?” बाबू भाई ऊबे ए-से गरजे।
उसक आँख प नयाने लग । बाल पर ऐनक चढ़ाए वही मेम सा’ब और टकट बाबू
फर मरण हो आए।
“‘इ डया टु डे’ और ‘मनोरमा’ का दाम आ चौदह…” बाबू भाई हसाब जोड़ने
लगे। फर उसक ओर मुड़े। आज उसका प ा साफ! अबक नह माफ करगे उसे बाबू
भाई।
“ पछले तेरे ब ीस पये जमा ह हसाब म…नुकसान चौदह काट के बचे अ ारह…
आज क ब प ह…प ह के तेरे कमीशन के ए तीन पये, तो ए इ क स! ले
पकड़ अपने इ क स, और दफा हो सामने से। सदा त खोल रखा है मने! हअ?
भखमंग पर दया करके ऐसी ही लात लगेगी…एक के पीछे पया-डेढ़ पया मु कल
से कमीशन मलता है, बीस पैसे तुझे ँ कॉपी पीछे … या कमाऊँगा?”
उसके आँसू टप-टप बहने लगे।
“तू भोला नह है, छँ टा आ है, न बरी! चाट-चूट आया होगा पये… एकाध बार
तेरे टसु पर पसीज या गया क तू चराने लगा जब-तब?”
वह हचक भर गड़ गड़ाया, “एकाध वसूली रह गयी…गाड़ी छू टने को थी, छु े
नह होते पास, सो छोड़ने पड़ते ह पैसे उन पर…कुछ छु े संग ह न तो फर ऐसी भूल
आगे नह होगी…”
“ऐसी भूल आगे नह होगी… या व ास तेरा क तू प का और पैसे समेत
च पत न हो जाए कसी दन? हय? मेरे ही मुँह पर हाथ फेर रहा है छटाँक-भर का तू?
भूल गया, तीन दन का उपासा पड़ा सूख रहा था यह लेटफॉम पर? पेट म अ पड़ते
ही नीयत गर गट हो गई ना…भाग, नह तो गनकर पचास ँ गा…”
प े के नीचे से घुसकर उसने पाँव पकड़ लये बाबू भाई के”एक मौका अऊर दो…
एक!”
बाबू भाई क टाँग जैसे अंगार छू ग । नममता से उसे परे धकेल वे आपा छोड़कर
इतनी ज़ोर से चीखे क सामने से गुज़र रहे फल क रेहड़ीवाले गु ता ककर उनक ओर
कौतूहल से दे खने लगे।
उसने फुत से उठकर पुनः बाबू भाई के पाँव धर लए। इतने बड़े भरे-पूरे लेटफॉम
पर बाबू भाई ने ही पसीजकर उसे पहला चाय का याला पलाया था। अपने बुक टॉल
के नीचे सो रहने क अनुम त द थी। पु लसवाल को समझा दया था क वे उसे द क न
कर। उनका प र चत है। उ ह के पास घर से भागकर आया है।
“भैया, मोर भैया! एक मौका अऊर दे दो! अबक जो गलती ई…न छमा
करना!” वह उनके पाँव छोड़ने को राज़ी नह आ। जाएगा भी कहाँ! न गाँव म ठौर-
ठकाना, न इस शहर म। अ मा क आँखे मुँदते ही मामी आमीशंकरपुर लवा ले गई थ ,
मगर पूरा दन ढोर-ढं गर क सानी-पानी करने के बाद भी भरपेट पनेथी नह जुहाती थी
उसके लए…।
बाबू भाई के भ ाये दमाग म नफे-नुकसान क काँटेबाजी चलने लगी। नुकसान म
फर भी कौन ह वे? उ ह या! उनको उनका कमीशन मलता रहे, प का बककर मले
या ल डे के हसाब से कटकर मले, बात एक ही है। फर बीस-प चीस पये रोज़ से नीचे
कोई दहाड़ी करने को मलता भी तो नह ! 20 पैसे कमीशन पर छोकरे राज़ी कहाँ होते
ह काम के लए?
“उ !” उ ह ने छटं क को अपना पाँव छोड़ने का संकेत कया और बगल म धरी
प का के ढे र म, सात ‘गृहशोभा’, चार ‘इ डया टु डे’, छह ‘ टारड ट’ और एक
‘मनोरमा’ मलाते ए ग र उसक ओर बारा सरका दया—“अबे, घ घे-सा या तक
रहा है! दे ख नह रहा? पाँच बजने को ह? लपक तीन न बर पर, ब बई जाने वाली
डील स छू ट न जाए कह …दौड़ सरपट!”
उसने कृत से बाबू भाई क ओर दे खा और फर फुत से प का का ग र
गोद म कौ रया, लेटफाम से कूदकर, लाइन ॉस कर तीन न बर लेटफाम पर चढ़ने
लगा।
कतना ठसम्-ठ स है लेटफाम पर—त कया के मेले-सी! पल-भर क भी
असावधानी का मतलब होगा, प काएँ भरभराकर सवा रय के तलुव के नीचे!
प का के ग र को उसने नवजात शशु क भाँ त सीने से चपटा लया। अब ठ क है।
उसे चाहे जो हो जाए, प का को कुछ नह होना चा हए। नह तो उसक नई ब कल
वाली नकर फर हसाब म कट जाएगी! यह तो प का है, कसी सवारी के पास छु ा
नह आ तो वह उसे प का नह बेचेगा। दे खने को भी दे गा तो डटकर सामने खड़ा
रहेगा। पढ़े - लखे लोग ऐसे होते ह? अ मा उसे ऐसा ही पढ़ा- लखा बनाने का सपना दे ख
रही थ !
गाड़ी छू टने को है। ब होने से रही। ड बे म धँसना स भव नह । पाखाने तक
सामान का अ बार लगाये बैठ ई ह सवा रयाँ। बाहर से खड़क - खड़क घूमना ही
उ चत होगा।
“ए लड़के! ‘ फ मी क लयाँ’ है?” कसी सवारी ने उसे आवाज़ लगाई। उस
खड़क पर से वो बाबू जी झाँक रहे ह उसे पुकारते।
वह फुत से लपका।
“है न, बाऊ जी!” कलककर उसने प का का ग र गाड़ी क द वार से सटाया
और ‘ फ मी क लयाँ’ त परता से ढे र म से ख चकर खड़क के स खच के अ दर बढ़ा
द।
“ कतने?” सरसरी तौर पर प का का जायज़ा लेते ए बाबू जी ने पूछा।
“ब स, सात पये, बाऊ जी!”
“छु े ह तुझ पे?”
उसका चेहरा असमंजस से घर आया, “छु े दे द जये न, बाऊजी!”
“छु े ह नह , पचास का नोट है।”
“ह तो…”
“होते तो दे ता नह ?”
सहसा उसके दमाग म कुछ क धा। उसने लपककर बाऊ जी के हाथ से पचास का
नोट ले लया—“अभी कान से छु ा लेकर आया, बाऊ जी…ब स तीन ड बे छोड़कर
है बुक टॉल, यूँ गया, यूँ आया…”
ग र लए उसके मुड़ते ही गाड़ी ने अचानक रगना शु कर दया।
बाऊजी स खच से चेहरा सटाये घबराए वर म च लाये, “ज द ला, भैया!”
उसका दल उसक उभरी पस लय को तोड़कर उछलकर बाहर आ जाने को है।
आगे बढ़ते ड ब के संग हाथ हलाती बढ़ रही भावुक भीड़ को चीरते ए वह पीछे को
बढ़ने लगा। रजवशन के चाट बोड के नकट प ँचकर वह चाट बोड के पीछे बक गया।
वहाँ खड़े ए वह प दे ख रहा है क ‘ फ मी क लयाँ’ वाले या ी बाऊजी घबराये ए-
से दरवाज़े पर आ गए ह और लटके ए-से पीछे छू ट रही भीड़ म उसे उचक-उचककर
खोज रहे ह! गाड़ी लेटफॉम का आ खरी सरा छोड़ रही है।
उसके मन म हसाब- कताब चल रहा है। पचास म से बाबूभाई को सात दे कर
बचे…बचे ततालीस! ततालीस म से ठ डी गाड़ी वाले नुकसान ए चौदह कट गए तो बचे
उनतीस…
वह तेज़ी से पलटकर लेटफॉम क सी ढ़याँ चढ़ने लगा। पता नह य , प का
का ग र एकाएक ब कलवाली नकर म बदल गया।
जगद बा बाबू गाँव आ रहे ह

परात म जगह-जगह सूख गए आटे को करछु ल से खुरच-खुरचकर छु ड़ाती ई सु खन


भौजी खीजती बड़बड़ाए जा रही है क भला इन आजकल क ल हन को हो या गया
है! चू हा-चौका नबटाकर बासन समेटती ह तो कोई पूछे इनसे क बरतन को भगोकर
य नह रखत ? रगड़ते-छु ड़ाते उनक गदे लयाँ छरछराने लगती ह। तस पर कभी भूल-े
भटके परात, बटलोई म अ का दाना चपका रह गया तो समझ लो क टया-जु ! बरैया-
सी बराने लगगी, “अई सु खन भौजी, बासन खंगाल के ध र गयी हो का? त नक जाँगर
चलावा करो? सत-मेत म तो मँज तव नह । बीस ठो नकद, कलेवा ऊपर से अऊ तीज-
यौहार का नेग, क छु सो अलग! कहौ तो दोना-प रन पर खवावे लागी? मझली
द नापुर वाली के ं य बाण कलेजे को छलनी कर दे ते ह। जुबान न ई ख च-ख च
क टया काटती ई गँडा़सी हो गई। दे हरी क परजा ह सो मुँह सये गदन झुकाये हाथ
चलाती रहती ह, नह तो एक वह भी ज़माना था क ब रय क हँसी- ठठोली म उखड़ी
साँस सधती नह थ क चटपट टहल पूरी! कहते ह, सपा हय के घर क ध रया है
द नापुरवाली! सो इसी से तलुवा सर क मीन-मेख नकालने म ही जुटा रहता है। वही
नहाद ह! “पीतर क नथनी पे इ ा गुमान, सोने क होती तो चलती उतान…”
“ ँह!…”
मँजे बासन झाबे म समेट सु खन भौजी नदवा पर से पलट ही रही थी क दे हरी से
ठाकुर सुमेर सह क खँखार कान म पड़ते ही जहाँ-क -तहाँ पीठ फेरकर ठठक गई।
काम-काज को डोलती ल हन झपटकर खमसार क ओट हो ल । उनक खंखार
पदाधा रय के लए संकेत होती है क वे सावधान हो जाएँ, मा लक घर म दा खल हो रहे
ह। ब ल सुद घ कायावाले ठाकुर सुमेर सह बैसवाड़ा के त त ठाकुर म से ह।
प क चार ग ईवाले। ले कन अब न वह ता लुकेदारी रही, न वह शानो-शौकत! फर भी
‘हाथी मरा तो सवा लाख’ वाला दबदबा जवार म कायम है। पछले वष तक वे लगातार
गाँव के धान चुने जाते रहे ह। इस साल जनता पाट के पं डत भुवने र वाजपेयी से
मात खा गए। अब बीस बसुआई ठ और बैसवाड़ी ठकुराई म गले-गले तक ठनी ई है,
मजाल क ठाकुर सुमेर सह क मूँछ क तुराहट कह से ढ ली नज़र आ जाए! गाँव क
धानी हाथ से सरक तो सरक , युवा कां ेस के पछड़े वग के ा तीय स चव तो वे ह
ही। पीठ पीछे हाथ बाँधे ए वे दा हनी खमसार के वशाल दालान को पार करते ए,
कठौते म रखी मच म स क से मसाला भरती ई द ा के नकट जा खड़े ए “अ मा!
सु खन भौजी से कहना क टहल नपटाकर जाते ए वह हमसे बैठक म मलकर जाए,
ज़ री बात करनी ह उससे…”
“ललौना क बाबत बड़कऊ! सहर से डाकदर आ रहे ह का?” द ा ने योजन का
अनुमान लगाना चाहा।
यु र म ठाकुर सुमेर सह ने ‘हाँ, अ मा’ कहकर अनुमोदन म सर हलाया और
लौटने को मुड़ने लगे क अनायास द ा को कुछ मरण हो आया, “का ल पूरनमासी है
बड़कऊ, चं दकन वामी जी के दशन के बरे जाये च हत हन हम। गाड़ी नहवाय दे हो
तड़के?”
“चली जाइएगा!”
आगे न उ ह ने द ा को कसी का अवसर दया, न वयं कोई ज ासा
क क सुबह उनके संग और कौन-कौन जाएगा। जस तेज़ी से वे घर के भीतर दा खल
ए थे उसी तेज़ी से खड़ाऊँ क ‘ठक्-ठक्’ पीछे छोड़ते ए, दे हरी लाँघ बाहर हो लए।
नदवा के इद- गद जूठन और राख क ग दगी बुहारती ई सु खन भौजी के अ तस
म ण-भर पहले द नापुरवाली क ताड़ना का मलाल एकाएक शीतल धार पड़ी लपट-
सा शा त हो गया। द ा और ठाकुर सुमेर सह के म य ई बातचीत उनके चौक े कान
म पड़ चुक थी। ठाकुर सुमेर सह का दय ठ क बड़े मा लक पर गया है! कठोर धरती
म छपे जल-सा। बड़े मा लक जब तक जीये, जन-मजूर को अपनी परजा समान पाला।
उनका उसूल था क उनक जी-हजूरी बजानेवाला भूखा-नंगा न सोए। कैसे भूल सकती
है वह क ललौना के पैदा होने क खुशी म चाँद क तोड़ी नेग द थी उसे! शेष तीन
भाइय म मँझले तर-ऊपर के सुभग सह और सुखदे व सह दे श क राजधानी म ही
अ धक समय बताते ह। कहते ह क वहाँ वे कारतूस का कारखाना चला रहे ह।
महानगरीय सं कृ त के अनुपयु करार दे कर सुभग सह ने शेरागढ़वाली को छोड़कर
सरा याह रचा लया है। शेरागढ़वाली जब से गौने म वदा होकर आई है, कंगन खुलने
वाली रात भी उसे प त-सुख नसीब नह आ। शहरवाली के तीन ब चे ह। सुखदे व सह
बराबर घर आते-जाते ह। सबसे छोटे पेटप छन नरे सह सेना म ह। न जाने कहाँ-कहाँ
से उनके याह के ताव आ रहे ह। ले कन द ा क ज़द के बावजूद नरेना टाले जा रहा
है। ठाकुर सुमेर सह द ा को अ सर समझाते रहते ह—आजकल के लड़क पर
ज़बरद ती उ चत नह , सुभग के मामले से चेत जाओ। द ा बथा से वच लत हो उठती
ह “नरेना के सर पर मौर दे खै क आस लये ल बरदार चले गये। लागत है, हमरेउ भा य
म छोटक ल हन क मुँह दखाई नह बद …” अपनी बात क मयादा न रखे जाने का
ःख ठाकुर सुमेर सह को भी सालता होगा। मगर पूजते वट-वृ स श जैसे प र द को
रैन-बसेरा दए, अपने तन-मन पर आँधी-पानी-घाम झेलते अडोल-से खड़े ए ह…
टहल नपटाकर, आँचल से हाथ प छती ई न य क भाँ त सु खन भौजी द ा के
खटोले के नकट भू म पर आ बैठ और हलक मु से उनक खाल छोड़ रही टाँग चाँपने
लगी।
“कइसे हय तोर ललौना, सु खन क ल हन?” मच से भरा कठौता एक ओर
सरका द ा ने हाथ रोक दए।
सहानुभू त पा सु खन भौजी क पीड़ा प ी-सी उछल आई—“का कह , चलै-
फरै ठ क से पावत नह …बबूल क बकु लन क बैसाखी बनाइस है…वही के टे का लइ-
लइ के मदरसे जाइ क बरे सौ खयात हय…काल क ह स…” सहसा नम हो आई आँख
को आँचल से प छते ए अपने को संय मत करने क को शश क सु खन भौजी ने,
“काँख परा त है, अ मा! दे खा तो पावा मोरी माल कन! काँख छ ल के घाव ई गयी
हय…”
उसक था से वच लत हो आई द ा ने क धे पर हाथ रख ढाँढ़स बँधाया “च्, च्,
च्, सोवत बे रया त नक ह द तता के धर द ह काखन पे, धीरज धरो! लँगड़ाय सही,
बेटवा तो हय, मरत ब रया मुँह म गंगाजल डारे क बरे…?” फर पल-भर मौन साध
अव क ठ से बोल , “शेरागढ़वाली कइसे धीरज धरै, सोचव सु खन क ल हन!”
सु खन भौजी दहलीज़ पार कर दा ओर बनी बड़ी-सी चौपालनुमा बैठक के
सामने त नक आड़ लेकर जा खड़ी ई। भीतर से आती बतकही और ठहाक से अनुमान
आ क बैठक म काफ लोग जमे ए ह। हो आई क ठाकुर सुमेर सह को कैसे
खबर हो क वह मोहारे पर खड़ी उनक ती ा कर रही है। घर के कसी ब चे को न
गुहार ले ता क ज द भट हो जाये! ऐसे तो खड़े-खड़े दन चढ़ जाएगा और मुलाकात
नह हो पाएगी। सोचकर मुड़ने को ही ई क तभी कसी ने भीतर से उसे दे ख लया,
य क खी ने फौरन बाहर आकर उसे कने का संकेत कया, “मा लक आ रहे,
सु खन भौजी!”
नकट आती खड़ाऊँ क आहट से सतक हो सु खन भौजी ने नाक तक आँचल
ख च लया। धड़धड़ाती भागी जा रही ल ढ़हा के च क -सी धड़कन तेज़ हो उठ ।
हालाँ क द ा से ई उनक सं त बातचीत के समय वह भट का स दभ अपने कान
सुन चुक थी, फर भी ठाकुर सुमेर सह से एका त म बात करने का अवसर सु खन
भौजी के लए पहला ही था। साहस पसीज रहा है…
“गाँव म भूतपूव वा य म ी जगद बा बाबू आने वाले ह। जनता के क क
जानकारी लेन… े उनको सुनने…” बना कसी पूव भू मका के ठाकुर सुमेर सह ने अपनी
बात शु कर द —“उ ह ने ‘ वकलांग उ ार स म त’ ग ठत क है। ‘ वकलांग उ ार
स म त’ वकलांग को वावल बी बनाने का यास कर रही है। लूले-लँगड़े लोग भी
समाज म बराबरी का जीवन जी सक, यह उनका ल य है। मने आस-पास के गाँव से
अपा हज का ववरण भजवाया है। जला अ पताल के वकलांग- वशेष उ ह दे ख रहे
ह। डॉ टरी परी ण के आधार पर जसक जैसी आव यकता होगी, सहायता क
जाएगी।”
अपनी बात अ धक प करने क मंशा से उ ह ने वा य को त नक सरल बनाकर
समझाया, “अगर कसी के पाँव लग सकते ह, नकली पाँव लगवाए जायगे… कसी के
पाँव नह लग सकते, उसे प हय वाली गाड़ी दान क जाएगी, जसे वह अपने हाथ से
चला सकेगा। अपने गाँव से मने तु हारे बेटे का नाम भेजा है। कल डॉ टर आ रहे ह।
सुबह दस बजे के आस-पास ललौना को बैठक म ले आना। कुछ दन बाद दं गल वाले
मैदान म एक समारोह होगा, उसी समारोह म जगद बा बाबू अपा हज को ये उपहार
वत रत करगे…”
अ व ास से भरा सु खन भौजी का भावाकुल दय कृत ता से अवनत हो ठाकुर
सुमेर सह के चरण म झुक गया। भू म पर से उसका माथा उठा भी नह क वे आगे कुछ
कहे बना मुड़कर बैठक क ओर बढ़ दए। व ल सु खन भौजी को यही तीत आ
क ण-भर पूव उससे कुछ डग र ठाकुर सुमेर सह नह , ब क कोई चम कारी स
महा मा खड़े ए थे।
उठ तो महसूस आ क उसक टहल से थक -टू ट दे ह एकाएक फुनगी पर हलोर
लेता फूल हो आई है। प ह बरस होने को आए, ललौना को सहज चलता-डोलता दे ख
पाने क लालसा करेजे क क-सी आती न खुशी से मुँह म कौर दे ने दे ती है, न
खुलकर हँसने-बोलने!
कौन-से जतन नह कए। वै , हक म, झड़वइए-फुँकवइए, टोने-टोटके—सब
अजमा लए, पर ललौना क नज व टाँग पर कसी जड़ी-बूट , मानता-मनौती का
परताप नह चढ़ा।
टोले म कदम रखते ही पाट -ब ता लटकाए ए ब च क टोली दे ख उसक न भ
आँख म हसरत-भरी चमक क ध गई। ललौना भी हठ करके मदरसे गया है बक रहाइन
काक के नाती भ गू के संग। बकु लय के सहारे क ढ़लते-क ढ़लते। भ गू ने उसके
आशं कत मन को आ त कया था—“डरो न न नया, साथ हन ना हम।” ललौना क
पाट , बु द का वही उठाकर ले गया है। पहले वह ले जाके छोड़ आया करती थी, पर
रोज़-रोज़ कब तक दौड़ लगाती? पल-भर क अबेर ई नह क ल हन क जुबान
तेल- पए कोड़े-सी अँगनई म दा खल होते ही सड़सड़ाने लगती।
कैसे अ छे लग रहे ह ब चे! उनक काँख म बड़ी-सी पाट दबी है। सरे हाथ म
छु हया भीगा बु द का! ध गामु ती करते, चहकते-ब तयाते ऐसे बढ़े आ रहे ह जैसे हरन-
शावक का चौकड़ी भरता झु ड। सहसा उसे लगता है क ग लयारे के दा हनी ओर चली
आ रही टोली म जो सबसे ऊँचा, त त, भरी-भरी जाँघ वाला ब ता लटकाए लड़का
झूमता चला आ रहा है, उसका ललौना ही तो है! ग लयारे क धुनक कपास जैसी
भुसभुसी धूल म उसके नंगे पाँव धूस रत हो रहे ह…बस, जाँघ पर झूलती पटरे क
जाँ घया उसके सु दर तन पर पैब द-सी अखर रही है। अब जाँ घया पहनकर मदरसे नह
जाने दे गी। उसक बराबरी के लड़के पायजामा पहनने लगे ह। पाई-पाई बचा के कुछ
पये कु जया म दबा के चौके म गाड़ रखे ह। सोचकर क आड़े व काम आएँगे, मगर
य ब चे क शोभा बगाड़कर पैस का या सुख!…शौक मर गया तो फर वही नहाद—
उपासे के आगे मोदक!
नकट आती टोली के बावजूद उसका अधीर दय ड़क रहा है क खूँटा-तुड़ाई
गइया-सी दौड़ वह अपने ललौना को अंक म को रया ले। उसे बता दे —वह शी ही
उसके लए ल े का पायजामा और मारक न क कमीज़ सलवा दे गी। पाँव म च भी
पहनवा दे गी। धनुहीखेड़ा क हाट इसी ब फै (बृह प त) क ही तो है…
“च चया, पायँ लागी।”
“च चया, च चया, ललौना क क ा के बड़े पं डत जी द ड द हनन हयँ… पूरी
क ा घामे म खड़ी हय…घ टा भर से पहले न छो ड़ह…कोऊ सरौना पानी पयके मटका
तोड़ द हस रहय…”
ललौना के मुख से अपने लए ‘च चया’ स बोधन सुनकर वह जैसे गहरी न द से
च क । यह तो ललौना नह , अपनी सुभागी द दया का बचई है! या वह दवा व दे ख
रही थी!
द ड क बात सुनकर ण-भर पहले का कुलाँच भरता आ मन ख हो आया।
बासी पनेथी बुकुनू चुपड़ के खा के गया है। भूख के मारे आँत कुलबुला रही ह गी। तस
पर आग-लगी छली काँख क पीर। कब से सोच रही है क दोन बकु लय के गुलेल के
मुख पर उतरी ई धोती क गुंडरी-सी बना के अटका दे गी, ता क काँख काठ क क च
और छ लन से त नक बची रह। मगर ठाकुर सुमेर सह के घर से ा त उतरन क हर
धोती उसक अपनी ही आब को आड़ दे ने म होम हो जाती है। छली काँख को मरहम
लगे तो कौन जतन लगे!
आँचल म बँधी कुंजी से घर का ताला खोल, भीतर दा खल होते ही सु खन भौजी
का हया फर से आशा- नराशा के गत म गोते लगाने लगा। उसे बुलाकर ठाकुर सुमेर
सह ने जो आस क लौ क तीली दखाई है, सचमुच पूरी होगी? हो सकता है, कोई
चम कार घट ही जाए! आजकल माने ए हक म, वै , स , ता क जो नह कर पाते,
वह शहर के आला लगाये डॉ टर कर दखाते ह। बात सुनने म आती ही रहती ह। पछले
साल क ही तो बात है—परधान पं डत भुवने र बाबू क जीप दौड़ानेवाला कालीचरना
अपनी सुना रहा था क यह जो हमारी बा टाँग भली-चंगी दे ख रही हो न, सु खन
भौजी! असली नह है, बस ऊपर से मांस-म जा असली है। एक रोज़ ठे ला से टकरा
टू टकर झूल गई। हमने उ मीद छोड़ द क अब परवश हो गये। रोज़ी-रोट के का बल
नह रहे। ले कन भौजी, मान गये लोकनायक अ पताल वाल को। टाँग म ह ी क जगह
ट ल क स रया इतनी सफाई से बैठाई है क सर पर बोझ होने क गलाज़त से बच
गये।
कालीचरना गपोड़ी नह है। टाँग उघाड़कर उसने उसे एक ल बी-सी चीर दखाई थी
और चीर दे खते ही उसके मुँह से क णा क ससकारी फूट पड़ी थी…कालीचरना ठ क
हो सकता है तो उसका ललौना ठ क नह हो सकता?

कौतूहल से भरे ललौना को मेज़ पर चत लेट जाने का आदे श दे ते ए, गले म आला


लटकाए डॉ टर बाबू उसक मैल-अट दे ह पर झुक आए। वे कभी उसक सूखी टाँग को
त नक ऊँचा उठाकर दे खते, तो कभी टाँग टखन से मोड़ने क को शश करते, कभी सूखी
सेम क फ लय -सी ठ उँग लय , अँगूठ को चुटक से ख चते, दबाते। बीच-बीच म वे
ललौना के मुख पर त या भाँपने क को शश करते, उससे पूछते भी चल रहे थे क
उँग लयाँ ख चने, दबाने, टाँग को मोड़ने, उठाने या उठाकर अचानक छोड़ दे ने से या
उसे कसी कार के छु अन का बोध हो रहा है?
“पैदाइश से ही इसक टाँग बेजान ह?”
सारी कारवाई से व मत सु खन भौजी सुनते ही संकोच से गड़ गयी। वह
पदाधारी मेह रया, पराये मनई से उसक बतकही कभी ई नह । होती भी है तो स ब ध
म लुहरे लगने वाल के संग भर। यहाँ त त पर ठाकुर सुमेर सह समेत मंजकु रया टोला
के ल बरदार पुतन सह, पं डत माताद न तवारी, रजऊ काका, जेठ और ससुर लगते
सभी आसीन ह। मुँह खोलने का साहस कहाँ से जुटाए!
गाहे-बगाहे ग लयारे- आरे सामने पड़ भी गई होगी तो उनके नकलने तक मुँह मूँदे,
पीठ कये ए ही खड़ी रही होगी।
डॉ टर ने फौरन सु खन भौजी का संकोच ताड़ लया। मुलायम वर म साहस
बँधाते ए बोले, “संकोच करोगी तो कसी नतीजे पर प ँच पाना मु कल होगा…इलाज
म भी दे र लगेगी… सरा कोई ठ क-ठाक बता भी नह पायेगा।…”
तभी रजऊ काका का यान उसक ओर गया। चल रही चचा से उचट वह से बैठे-
बैठे उ ह ने ऊँचे वर म सु खन भौजी को डपटा, “काहे द क कर रही हो डॉ टर बाबू
को…जो पूछ रहे ह, बताती काहे नह ?”
डॉ टर साहब ने अपनी ज ासा दोहराई, “लड़के क टाँग पैदाइश से ही बेजान
ह?”
अबक साहस कर सु खन भौजी ने इनकार म सर हला दया।
आशय समझ डॉ टर साहब ने सरा सवाल कया, “कैसे कह सकती हो क पहले
इसक टाँग म जान थी?”
“पैयाँ-पैयाँ अँगनई म डोलत रहय!” कहते ए सु खन भौजी का क ठ भर आया।
भावना पर काबू नह रख पायी। बरस पूव दठौना-लगे ललौना क मोहनी बाल छ व
आँख म तैर गई…
“तो…कब महसूस आ क ब चे क टाँग काम नह कर रह ?”
अकुलाये दय को सहेजने क चे ा करती ई वह अव क ठ से बताने लगी क
पया-पया चलते ए एक रोज़ ललौना अचानक पेट के बल पड़ रहा और उसी मु ा म
बड़ी दे र तक पड़ा रहा। कड़वे तेल से लेकर वै , हक म न जाने कस- कस से तेल
जुगाड़ उसक टाँग क बँधी मा लश क , मगर लुंज ई टाँग म परान नह लौटे तो नह
लौटे ।
“पो लयो का मामला है।” नकट आ खड़े ए ठाकुर सुमेर सह से उ मुख होते ए
वचारम न डॉ टर साहब ने जाँच का नचोड़ प कया।
“मामला हाथ से नकल चुका है। समय पर इलाज के अभाव ने गुंजाइश नह
छोड़ी, टाँग कट गई होत , टू ट गई होत तो भी इलाज स भव था। नकली टाँग लगवाई जा
सकती थ …एक ही उपाय शेष है—बैसा खयाँ या फर प हयेवाली गाड़ी। म जगद बा
बाबू से सफा रश क ँ गा।”
“सुबह जला कायालय म मेरी मुलाकात भी जगद बा बाबू से होगी, परस पाट के
महास चव द ली से आ रहे ह। पाट संगठन को लेकर वशद चचा होगी। बात क ँ गा…
कतने गाँव नबट गए ह?”
“आपके नकट धनुहीखेड़ा से लेकर बारा तक अ धक मामले नह ह वकलांग के।
ब च क सं या यादा है। दे हात क यह वड बना है। अ धकांश ब चे पो लयो- त
होकर अपंगता भोगने को बा य ह।”
त या म ठाकुर सुमेर सह ग भीर हो आये—“ठ क कह रहे ह। अ श ा ने इ ह
अ ध व ास म जकड़ रखा है। सहायता उपल ध होते ए भी ये ट का लगवाने म
व ास नह करते…चाय-ना ते के बाद यहाँ से सीधे भरतीपुर नकल ल?”
“चाय-ना ता वासुदेव बाबू के यहाँ सही। अ छा हो, शाम तक इस लॉक के शेष
तीन गाँव नपट जाएँ।”
ठाकुर सुमेर सह के बैठक से नकलते ही डॉ टर बकु लय के सहारे झूलती-सी
ललौना क कृशकाय दे ह पर क ण डालते ए सु खन भौजी क ओर मुड़े
—“ च ता छोड़ द जये। शी ही आपका बेटा अपने हमजो लय क तरह घूमता- फरता
नज़र आएगा…अब टाँग नह लौट सकत , पर अब नराश होने क ज़ रत नह । म
जगद बा बाबू से सफा रश क ँ गा, इसे हाथ से चलने वाली प हय वाली गाड़ी द
जाए।”
आगे बढ़कर उ ह ने सहमे खड़े ललौना के क धे हौसला बढ़ानेवाले अ दाज़ म
थपथपाये—“ये दोन हाथ दोन टाँग का भी काम करगे। बस, अपनी सेहत का यान
रखो, बरखुरदार!”
डॉ टर बाबू का आ ासन पाकर सु खन भौजी का दय उ मीद से व ल हो
आया। अनदे खे जगद बा बाबू क छ व एकाएक उसके न कलुष सरल हया म कसी
दे वता क मूरत-सी साकार हो आँख के आगे झल मलाने लगी। आँख भाद हो आ
और कृतकृ य-सी ढु लकते ए अ ु से दे वता क मूरत का अ भषेक करने लग । सेहत
का उलाहना डाकदर बाबू ने झूठ नह दया। बक रयाँ पाली कसक खा तर ह? पर
कभी-कभी नीयत डोल जाती है। चार पैस का मोह ग ठया, बेचने को खोवा अऊट लेती
है। आँ खन क रया जो अब वह ध औटने कढ़इया म भूले से भी चढ़ाये।
घर के रा ते बढ़ तो पाया क सलोने भाई क नौटं क के आगमन क रोमां चत
खुशी क तरह उसके ललौना क टाँग के इलाज क खबर आनन-फानन गाँव डोल आई
ह और सभी को उ े लत कये ए है। लोग क इस ट पणी पर क, “चौदह वष म तो
घूरे के दन भी फरते ह। चलो, खयारी महतारी क भी भोले बाबा ने सुध ली,” वह
आँख प छने लगती और यु र म ठाकुर सुमेर सह क महानता के बखान के संग
जगद बा बाबू का जस गाते, कृत ता से दोहरी होने लगती। लोग ने उसक हाँ म हाँ
मलायी। कलयुग म गाँधी बाबा ने खयार क सुध ली थी, सुराज दलाया। उनके बाद
वनोबा बाबा लँगोट धरे गाँव-गाँव बेसहार के लए दौड़ते रहे। जगद बा बाबू वैसे ही
महा मा अवतारी पु ष लगते ह, वरना कौन गरीब-गुरबा के क पर पुल टस बाँधता है?
“सब ठाकुर सुमेर सह क म हमा का परताप है। एक परधान प डत भुवने र
बाबू ह जो परधानी घ ट-घ ट छा न रहय ह म ती। गरीब-गु बा का यान तबै तक रहय
जबै तलक परधानी के वोटन क दरकार रहय! अब तो भैया गाँव म जौन कुछ इ रहा है
ठाकुर सुमेर सह क बदौलत।”
दे श कां ेस क म हला कायकता कुस पर बैठने के लए हच कचाती सु खन भौजी
को बड़े अनुनय के बाद राज़ी कर पाई। कुस वह भी एकदम अगली पाँत म। गदे क
ल ड़य से आ छा दत मचान से बने मंच से यही कोई प ह-बीस हाथ पर। गनीमत थी
क पोलका पर ब ला टाँके अगल-बगल अ य ीयाँ सर उघाड़े बैठ ई थ । नखलऊ
(लखनऊ) से आयी थ । उ ह दे ख सु खन भौजी बैठने का साहस सँजो पाई। वरना उसे
याद नह पड़ता—खटोला, म चया या टाट छोड़ वह कभी कसी ऊँचे आसन पर बैठ
हो। वह भी अपनी बरादरी म। बाभन-ठकुरन के घर तो क ची-प क भू म क उदारता
ही सहासन समझो।
अ आन द से ल सत उसक घूँघट क ओट फलाँगती, मंच के दा हनी
ओर वशेष प से लगाई गई कु सय पर बैठे ए अपंग क ओर उठ गई।
जगद बा बाबू मरण हो आए। सभी कह रहे ह, जगद बा बाबू जनता के सेवक ह।
द न- खयार के र क। जा के क को पहचानने वाले गु ताजी के म म डल म वे
रा य के वा य म ी थे। पछले चुनाव म ह ने कुछ ऐसी खुराफात दखाई क अपने
बरस पुराने इसी गढ़ से जनता पाट के गयाद न जैसे ल पट उ मीदवार से मा सात सौ
वोट से पटखनी खा गए। उनके जैसा पु -परतापी ऐसे चरकुट से मात खाने वाला थोड़े
ही था? सुना, वो तो लाठ -ब लम के बूते वोट के ब से बदल दए गये! सोने पे सुहागा
य आ क कले टर से लेकर एस.पी.—दोन ससुरे उसक बरादरी के नकले, वरना
कोई च र है गयाद न का? शवलाल क ब टया सुखनी के साथ भुसौर म के ल- ड़ा
करते ए रंगे हाथ धर लये गये थे। क टया काटने का गँड़ासा ताने सुखनी के लाल
भभूका भाई ने बड़ी नहर तक त रया लया था उ ह। बाद म भरतीपुर के ठाकुर शवबली
सह के घर फज सध के मामले म फँसाकर उ ह ने उसे जेल भजवाकर ही दम लया।
ऐसा अधम जगद बा बाबू के मुकाबले वजयी आ तो जबरई के ही चलते न।
कह रहे ह, तया-पाँचा से वधानसभा म गयाद न प ँच तो गए, मगर तीन बरस म
तीन से अ धक मुँह दखाई नह क अपने इलाके क । इ , सगे-स ब धय को ठे का
दलवाने, भ ा खुलवाने, पर मट जारी करवाने और कुछे क सड़क पर मामूली बजरी
बछवाने तक ही उनक जनसेवा का ण रेव ड़याँ बाँटता रहा।
धनुहीखेड़ा म बड़ा अ पताल खुलवाने का दम भरा था क औरत क जचगी के
लए वशेष प से इस अ पताल म तीसेक ख टया डलवाएँग,े ता क ज चा-ब चा क
हफाज़त क सु वधा हो, सो आज तक न व भी नह खुद । उनक पाट क सरकार नह
है तो या उनक बात का वजन फूँक हो गया? कह रहे ह, असहाय सुदामा क सुध
लेने जो जगद बा बाबू गाँव आ रहे ह, कोई सरकार के खच पर थोड़े ही सदा त खोलने
नकले ह? वो तो अपनी टट से लूले, लँगड़ को सलाई क मशीन, बैसा खयाँ और
प हयेवाली गा ड़याँ बाँटगे। गरीब क सेवा का त है उनका।
कैसा भ मेला जुड़ा है! ठ क महावीरन के मेले जैसा कोस-भर ल बा दं गल का
मैदान फुलवारी-सा झ डय और झ ड से सजा है। भ पू से गाँधी बाबा क रामधुन
—‘रघुप त राघव राजा राम’ गूँज रही है। सुरगवासी होने से पहले दया गया इ दरा मैया
का भाषण भी बीच-बीच म बज रहा है। कोस र- र से जनता पैदल, ल ढ़या, जीप,
ठे ला म उमड़ी चली आ रही है। कह रहे ह न जाने कहाँ-कहाँ से छापाखाना वाले खबर
लेने और फोटू ख चने आ रहे ह, सबक फोटू और खबर छापा म छपेगी।
सु खन भौजी का मन ललक रहा है क पोलके पर फ ते का ब ला टाँके, इ तज़ाम
म त कसी बहन जी से वनती करे क उसे नकट से प हय वाली गाड़ी दखा दे ।
त नक छू कर दे ख,े ललौना उस पर कस व ध बैठेगा, चलेगा- फरेगा क उसक
छरछराती काँख पर अब उसे ह द तपाकर नह लेपनी पड़ेगी। उसक घायल काँख
इतनी ह द सोख लेती ह क अ सर दाल म चुटक -भर छड़कने क गुंजाइश भी नह
बचती।
घूम- फरकर मंच क बगल म बैठे अपने ललौना पर जा टक गयी। मारक न
क नई कमीज़ और खाक नेकर पहने, सूखी टाँग पर बकु लयाँ टकाये ललौना एकदम
कसी क सेवाला राजकुमार तीत हो रहा है। बक रहाइन काक से मु -भर सरस
माँगकर लायी थी। खूब महीन उबटन पीसा था। दे ह रगड़-रगड़कर मैल क ब याँ झाड़ी
थ । नहलाकर नई नेकर-कमीज़ पहनाई तो बेटे क आँख बाँधती छ व पर योछावर होता
च ा सहसा उसके ब पा का मरण कर भावुक हो आया। ललौना को अपने पाँव पर
चलता दे खने क ह स कलेजे म दबाए ए ही वह अचानक नाता तोड़कर चल दए थे
एक रोज़!
सर पर चढ़ता घाम धीरे-धीरे चटक होने लगा है। कह रहे ह क यारह बजे तक
जगद बा बाबू दं गलवाले मैदान प ँच जाएँग।े काय म ख म होने के बाद वे गाँव के
परधान प डत भुवने र बाबू के घर जाएँग—े अकेले म लोग के क सुनने। क को वे
सीधे सरकार तक प ँचाएँगे, एड़ी-चोट का ज़ोर लगा दगे क ज द उन पर कायवाही
हो, त प ात् मदरसे म दल-बल स हत उनका भोजन होगा।
प के ताल वाली सड़क पर अचानक धूल के बादल फन फैलाने लगे। कायकता
सतक हो उठे । मंच पर चढ़कर उ सा हत वर म ठाकुर सुमेर सह ने घोषणा क क अब
धैय क परी ा ख म ई। कुछ ही पल म सु स समाज-सेवक ‘ वकलांग उ ार
स म त’ के ज मदाता बाबू जगद बा साद सभा- थल पर पधारनेवाले ह। कृपया अपने-
अपने थान पर बैठे ए ही शा तपूण उ साह के साथ उनका वागत कर।
सभा- थल के इद- गद कुछ लठै त क म के पहरेदार क भी व था थी ता क
वरोधी पाट के लोग, वशेष प से परधान प डत भुवने र बाबू के चमचे कारवाई म
अ व था न पैदा कर सक।
जगद बा बाबू क जीप कते ही वशाल जनसमूह ने करतल व न से उनक
अगवानी क । ठाकुर सुमेर सह लपककर उ ह मंच पर ले जाने लगे। उनके साथ लाक
के बी.डी.ओ. से लेकर तमाम सरकारी, अ सरकारी अ धका रय का का फला आया
आ था। म ी पद पर न रहने के बावजूद जगद बा बाबू का दबदबा स ा ढ़ पाट के
संगठनकता के प म कम नह था। ऊपर तक उनक प ँच सव व दत थी।
उ सव-सी यह सरगम सु खन भौजी को रोमां चत कर गई। एक तो पहली बार
ऊँच-नीच का भेदभाव छोड़, राव-उमराव के बीच बैठने का स मान ा त आ था वह
भी अपने अपा हज बालक के चलते, जो बड़े-से-बड़े कमाऊ सपूत वाली महतारी के
भाग म भी लभ होता है। सरे उसका आ त पूत आज से अपने पाँव पर खड़ा हो
सकेगा! यह सुखानुभू त उसके रोम-रोम म कलकती फर रही है। आँख कभी मंच पर
अनेक मालाएँ धारण कये ए जगद बा बाबू के ओज वी मुखम डल पर लोट जात तो
कभी अच भत ललौना के मुख पर।
“भाइयो! अब जगद बा बाबू शारी रक अ मतानुसार वकलांग को वावल बत
बनाने हेतु उपहार भट करगे।” ठाकुर सुमेर सह क उ ोषणा का उप थत जनसमूह ने
करतल- व न से वागत कया।
मंच से उतरकर जगद बा बाबू उस थान क ओर बढ़े जहाँ वत रत होने वाले
उपहार सजाये ए थे। वकलांग के म लन चेहर पर सघनाती स या बेला गंगा म
सराये जाने वाले सैकड़ द पमाला क हचकोले खाती उजास हलोर लेने लगी। एक
के बाद एक नाम पुकारे जाने लगे।
सगवर का संकठा साद दाएँ हाथ से लूला! जगद बा बाबू ने उसे पैर वाली सलाई
क मशीन भट क । संकठा साद जु मन मयाँ क सलाई क कान म मजूरी करता है,
अब अपना अलग काम शु कर सकेगा। इतना नाता जु मन मयाँ नबाहगे ही क उसके
लए पोशाक काट दया करगे। सलाई मशीन के एक ओर जगद बा बाबू खड़े ए ह तो
सरी ओर संकठा। सु खन भौजी का दय अधीर हो आया क बारी-बारी से सभी के
नाम पुकारे जा रहे ह, उनके ललौना को अब तक य नह बुलाया गया? कह ऐसा तो
नह क सब कुछ बँट जाये और उनके ललौना के हाथ कुछ भी न लगे! नाम क घोषणा
बद तूर जारी है। वह सुन रही है। अब फर कसी का नाम बार-बार दोहराया जा रहा है
—“मोरी द या, ई तो मोरे ललौना का नाम हय!” अक मात् बोध आ तो षोड षय क
तरह ल जत हो अपने ठ काट लये। तपल ‘ललौना-ललौना’ स बोधन क आद
उसक बेसुध मन ेतना को भान ही नह आ क बसनू कुमार बारी अ य कोई नह ,
उसका छौना ललौना ही तो है।
इ ा बल कहाँ से आ गया मुँहझ से म। बकु लय का टे का लये धमर-धमर चलता
आ ललौना जगद बा बाबू क ओर बढ़ रहा है, जहाँ वे एक साइ कलनुमा ह डल वाली
गाड़ी के नकट खड़े ए ह। फुत से ब लेवाला कायकता आगे बढ़ ललौना को जगद बा
बाबू से मलाता है। ललौना ने दोन हाथ जोड़कर जगद बा बाबू को नम ते क । ‘च्-च्’
ना सका टे क पैलगी करैक चाही क बाबुन क भाँ त हाथ जो ड़ रहा हय? सु खन भौजी
का दमाग भ ा उठा। क तु अगले ही पल अपनी भूल का एहसास आ। बकु लय के
सहारे टके खड़े ललौना के लए एकाएक झुकना क कर ही नह , मु कल भी है।
स जगद बा बाबू हाथ म कची लये पता नह ललौना को धीमे-धीमे गाड़ी
दखाते ए या समझा-ब तया रहे ह? तभी ठाकुर सुमेर सह आगे बढ़ उ ह प हयेवाली
गाड़ी पर बँधे गुलाबी फ ते क ओर संकेत कर काटने का आ ह करते ए दखे। फ ता
कटते ही ता लय क तुमुल गड़गड़ाहट पल वातावरण म उ ेजना फैलाये रही। एक
कायकता ललौना को वयमेव गाड़ी म बैठने और उसे ह डल ारा संचा लत करने क
व ध समझाने लगा है। ललौना क अच भत आँख म आ म व ास-भरी चमक अँकुआ
आई है। उसने अपने गाँव म अन गनत साइ कल दौड़ती दे खी ह, पैडल मारते पाँव को
बड़ी हसरत से दे खता रहा है वह। उसे महसूस होता है, उसके हाथ सहसा पाँव म
प रव तत हो उठे ह। गाड़ी का ह डल पैडल म और पैडल म उसके पाँव तेज़ी से घूमने
लगते ह।
ललौना क गाड़ी ऊबड़-खाबड़ मैदान म झकझोले खाती ती ता से आगे बढ़ जा
रही है। त या म रोमां चत जन-समुदाय नर तर हष- व न से आकाश गुँजाए दे रहा
है।
ल बा गोल च कर मारकर उसी थान पर लौटते ही जगद बा बाबू ललौना क पीठ
थपथपाकर उसे हा दक बधाई दे ने लगे। छायाकार क भीड़ ने दोन को चार ओर से घेर
लया। सीधे-सरल ामवा सय के लए यह अद्भुत य है। एक उदार म हला कायकता
को अचानक सु खन भौजी का मरण हो आया। वे जबरन उसे उठाकर, भीड़ को चीरती
ई ले जाकर, ललौना के नकट खड़ा कर जगद बा बाबू और छायाकार से उसका
प रचय करवाती ह क यही बसून बारी क माँ है। छायाकार ललौना और गाड़ी के संग
सु खन भौजी क त वीर ख चना चाहते ह। आ ह करते ह क वह ज़रा-सा मुँह खोल
ल। ले कन उनके लगातार आ ह के बावजूद सु खन भौजी का आँचल उँगली-भर पीछे
नह सरका। अ छा ही कया, वरना अपनी मूसलाधार बरसती आँख को लोग क नज़र
से कैसे छपाती? लोग ध कारने लगते, कैसी अपशकुनी मेह रया है! शुभ कारज पर
टसुए ढु लकाये जा रही है…

बचा-खुचा खाना बल रया के भय से सकहरे म टाँगते ए सु खन भौजी को च ता हो


आई क ललौना को पहले ध दे दे । कु भकरना ख टया पर पड़ते ही नाक बजाने लगता
है। बासन बाद म नपटा लेगी। महतारी-बेटवा, इ ाणी के होते ही कतने ह? पर तु
कल के लए टालना ठ क नह होगा। कल एकादशी है। घर लीपने के लए गली-
ग लयार से गोबर इक ा कया रखा है। मुँह-अँधेरे उठकर लीपना शु करेगी, तब कह
जाकर सूरज उगे तक नपटा पाएगी। टहल के लए नकलने म अबेर हो गई तो ल हन
ल ा लेने से चूकगी?
अँगनई के दा हने कोने म जहाँ पुद ना बोया आ है और माट क ऊँची बेडौल
भीती पर तुरई क बेल चढ़ा रखी है, वह ललौना क गाड़ी खड़ी ई है। गाड़ी सु खन
भौजी आर पर नह छोड़ती। भीतर लाने के उप म म दे हरी तुड़वाकर समतल करवानी
पड़ी, ता क गाड़ी भीतर आ सके। उसने करवाई। ललौना कम है! फराटे से गाड़ी
अँगनई म ले आता है और च करघ ी दे ते ए उसे खूब द क करता है। बरझाई
सु खन भौजी उसे ग रयाती जाती है ‘कूकर ना हकै… पुद ने क यारी र द डारेव?
अबक जौ तुम मोटाई छँ टहौ ना सकटौनू, तौ खाल उधेड़ के ध र दे ब!’
वह अ मा क बरझाहट का मज़ा लेते ए तभी थमता है जब उसे अनुमान हो
जाता है क अब वे गाली से नह , चैले से काम लगी।
धहड़ी से गलास म ध डाल और उस पर मोट साड़ी का टु कड़ा रखकर, गुनगुना
आए गलास को आँचल से दबाए ए सु खन भौजी ललौना के खटोले क ओर बढ़ ही
रही थी क साँकल खड़कने क व न सुन, चौक ी हो थम गई। व न- म तो नह आ
उसे? नह , व न- म नह , सचमुच साँकल खड़क है। आरे पर कोई है! गलास खटोले
के पाये के पास रखकर, वह आले से ढबरी उठा कवाड़ क ओर बढ़ । श तया
बक रहाइन काक ह गी। ब रया पूरे दन से है। हो सकता है, सौ र म जाने क नौबत
आ गयी हो और वे उसे सहायता के लए बुलाने आयी ह ?
“क कया, तुम हो का?” सु खन भौजी ने नधड़क होकर भीतर से द रयात क ।
“हम ह ठाकुर सुमेर सह!” यु र म गजन-भरी आवाज़ कान से टकराई।
सु खन भौजी को पहचानते दे र नह लगी। ाण सूख गए। मा लक और इतनी अँध रया
म? कह कुछ अघ टत तो नह घ टत हो गया। कह … द ा? ले कन फर भी, उसे बुलाने
के लए भला उनको आने क या आव यकता थी? खी, भरोसे, लारे कसी को भी
सरपट दौड़ा दया होता। हाथ क ढबरी ऊँची उठा, पंज के बल उचककर वह साँकल
खोल, दरवाज़े क आड़ म घूँघट काढ़ खड़ी हो गई। समझ म नह आया, दे हरी पर पहली
बेर आये ठाकुर सुमेर सह का वागत-स कार कस व ध करे। बैठाये तो कहाँ? ज ासा
करे तो कैसे? तभी मा लक ने उसे संकट से उबार लया।
“ज़ री बात करनी है।”
सु खन भौजी क दे ह का र - वाह ती हो उठा।
“दरअसल कल बीघापुर म ‘ वकलांग उ ार स म त’ का सरा समारोह है।
जगद बा बाबू को पहले ही क तरह अपा हज को उपहार वत रत करने ह। के से
स भवतः ऊजा म ी काय म को सुशो भत करने आ रहे ह। ले कन दान क जाने
वाली गा ड़याँ अब तक नह आ पाई ह। काय म घो षत हो चुका है। रदशन और
अखबारवाल से लेकर तमाम त त लोग को आम त कया जा चुका है। आस-
पास के इलाक से हज़ार क तादाद म जनता प ँच रही है। चुनाव नकट ह। काय म
थ गत करना अस भव है… जो गाड़ी ललौना को भट क गयी है, वापस चा हए।”
कहकर उ ह ने ढबरी क काँपती लौ से धुँधलाए अँधेरे म टटोलती इधर-उधर
दौड़ाई। आँगन के एक कोने म खड़ी गाड़ी को दे ख वह अपे ाकृत मुलायम वर म बोले,
“एकाध रोज़ म ललौना के लए मज़बूत बैसा खयाँ बनवा दगे। वह आराम से चल- फर
सके, यही हमारा उ े य है।”
सु खन भौजी के सर पर मानो बजली गर पड़ी। वह उँग लय म कसी ढबरी
फक कटे वृ -सी मा लक के चरण म ढह जाना चाह रही है, ‘मा लक! मोरे बचौना क
जनगी न छ नो, प हयावाली गाड़ी पाय के वह हरन क ना चौकड़ी भरत फरत हय…
राँड़ मेह रया क बुढ़ौती क आस है अभागा…गाड़ी छ न लैहो तौ कैसे जई मोर ललौना!
कइसे जई…’
ले कन तवाद म भीतर फूटता आतनाद ठाकुर सुमेर सह क उप थ त के
आतंक म मूरत बन गया।
ठाकुर सुमेर सह उसे मूरत बनी छोड़ दे हरी के नकट आए। संकेत क ती ा म
बाहर खड़े तीन य को उ ह ने अ फुट वर म भीतर बुलाया और सु खन भौजी क
परवाह कये बगैर गाड़ी दखाकर आदे शा मक वर म बोले, “गाड़ी सावधानीपूवक
उठाकर वैन म रख दो…वैन इधर ग लयारे से नह … ऊसरवाली सड़क पर से नकाल ले
जाओ।”
पेट से गले और गले से पेट के भीतर पछाड़ खाते दन को मुँह तक न आने दे ने के
यास म थराती सु खन भौजी क ओर मुड़कर ठाकुर सुमेर सह मा इतना भर बोलकर
दे हरी क ओर बढ़ दये, “पूछा-पाछ होने पर कह दे ना…गाड़ी चोरी चली गयी।”
काँपती टाँग से सु खन भौजी ने कवाड़ क साँकल चढ़ाई और पलटकर
कुठ रया के भीतर दा खल हो हाथ म कसी ढबरी उस द वाल क ओर उठा द जस पर
पंचायत घर से ा त अखबार क वह कतरन चपकाई ई थी, जसम गाड़ी पर बैठे ए
ललौना और बगल म ह षत मु ा म ताली बजाते ए जगद बा बाबू क त वीर छपी ई
थी…।

You might also like