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Meri Priya Kahaniyaan (Hindi) - Chitra Mudgal - 2014 - Rajpal & Sons - Anna's Archive
Meri Priya Kahaniyaan (Hindi) - Chitra Mudgal - 2014 - Rajpal & Sons - Anna's Archive
Meri Priya Kahaniyaan (Hindi) - Chitra Mudgal - 2014 - Rajpal & Sons - Anna's Archive
च ा मुदगल
्
ISBN: 978-93-5064-127-9
सं करण: 2013
© च ा मुदगल
्
MERI PRIYA KAHANIYAN (Stories)
by Chitra Mudgal
राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ली-110006
फोनः 011-23869812, 23865483, फै सः 011-23867791
website: www.rajpalpublishing.com
e-mail: sales@rajpalpublishing.com
भू मका
मनु य का ज मदाता य द मनु य ही है तो इस त य से मुँह मोड़ना स भव नह है
क धरती के व मयकारी, ज टल भौगो लक न शे पर, क से-कहा नय का ज मदाता
भी वयं मनु य ही है। क से-कहा नयाँ, गीत-क वता मनु य के धरती पर ज मने से पहले
नह ज म । यह भी उजला सच है क क वता, कहानी को ज म दे ने के लए मद को न
औरत क कोख का सहारा लेना पड़ा न औरत को मद क ज़ रत महसूस ई। उनक
चेतना ही क वता कहानी क कोख थी। संवेदना उसक अ भ का आधार। मा यम
बने श द। कंठ से फूटे वर को उसने वणमाला क सरगम म परोकर बो लय को ज म
दया। भाषा न ज़ बन गई और न ज़ म वा हत धड़कन का उतार-चढ़ाव जीवन क
लय।
लय जब-जब अ थर और बेचैन ई, मनु य के चेतन ने उसे वयं को टटोलने,
खंगालने-पहचानने और आ म करने के लए बा य कया। चेतन ने ही उसे मनु य के
ारा, मनु य के व रचे जाने वाले अमानवीय ष ं के त तरोधी वर बुल द
करने का साहस परोया। कहा नय को ज म दे ने वाला भी वही, कहा नयाँ बुनने वाला
भी वही। कहा नय का पाठक भी वही।
यह सल सला स दय से अनवरत जारी है।
वतमान उससे अछू ता नह । उसी के ारा न मत नए-नए सं मण से जूझता और
उसी के नदान के लए च तत। उसी वतमान का एक अस तु ह सा म भी ँ। लेखक
अस तु क जमात से बाहर कसी और का ह सा हो भी नह सकता।
यह कम दलच प नह है क और से नर तर सवाल करने वाला लेखक वयं
सवाल से कम नह जूझता ब क, कए गए सवाल से जूझते ए मंथन क र साकशी
के उन उ कट ण म वह उस व मान बोध से कभी अलग नह हो पाता क श द से
उसका र ता बना ही इसी लए है क वह उन सवाल को अनसुना कर सके जो उसके
आ म ारा आ म से कए जाते रहते ह और उनसे भी न कतराये जो वयं उसके सरजे
पा ारा कथाग त को अवरो धत कर अपने वत अ त व को अंकु शत न होने दे ने
के लए, उसक सृजना मक नरंकुशता के व लाम ब द हो उससे सवाल पर उतर
आते ह। पा से जरह ज़ री है। लेखक जब पा को अपनी कृ त के रचाव म
अपे त पेस नह मुहैया करता तो रचना अपनी जनतां क वृ से व छ हो, मा ा
लेखक का एकांगी बयान भर बन कर रह जाती है।
सोचती ँ तो कुछ नुक ले को अपनी ओर उ मुख ठठका आ पाती ँ…
उनका आशय मुझ तक प ँच रहा है। पाठक जानना चाहते ह क मनु य के
क से-कहा नयाँ रचने-गढ़ने वाले मनु य क जमात म मेरा आना कैसे स भव आ!
आ खर यही रा ता य चुना मने, क यही मेरा ग त है और इसी का अवगाहन मेरी
साथकता है। कहा नयाँ कहाँ से आती ह मेरे पास! कहा नयाँ वयं चलकर आती ह या
मुझे उनक खोज म नकलना पड़ता है, आखेटक शकारी क भां त? च लए, इतना ही
पया त होगा ज ासु के लए क म यही भर बता ँ क आ खर ढे र कहा नय म से
मेरी य कहा नयाँ कौन-कौन सी ह। अ य क ब न बत वे कहा नयाँ य ह तो उनके
य होने के कुछ वशेष कारण भी ह गे। कारण या ह?
के नमम आशय म समा हत नुक ली ज ासाएं मुझे सहज नह रहने दे त ।
मुझे लगता है और लगातार लगता रहा है क क से, कहा नयाँ लखने वाल क
सुद घ जमात म कोई रचनाकार शा मल हो कैसे उसका ह सा बन जाता है, यह लेखक
बताना भी चाहे तो शायद पूरी तरह से वह उन कारण को नह तलाश पाएगा जनके
चलते वह लखने क ओर वृ आ। ऐसा नह है क इन ज ासा से घर या घेर
लए जाने पर मने संजीदगी से उनके जवाब खोजने क को शश नह क । उन
मनोवै ा नक दबाव क उकसाहट और उकसाहट से उपजे सु न य को मने श दब
करने का यास कया है, ज ह म कारण के प म रेखां कत कर सकती थी। ले कन
इस बात से भी कम व मत नह ँ क कुछ अरसे उपरांत मने उन कारण से वयं को
आं शक प से सहमत पाया। लगा क यह इतना आसान नह है जतना क ऊपरी
तौर पर वह व नत होता है।
ज़मीन म गहरे धंसी बेतरतीब छतर सघन उन जड़ स श। ज ह शायद वयं
मालूम नह होता क वह अपना आधार मज़बूत बनाने के न म माट क परत के नीचे,
जाने कस दशा म कौन से अ तरे कोने खोजबीन उसके उर से जा हलगती है और
अपने को वक सत करती रहती है। सतह से उसका अनुमान लगा पाना क ठन है।
सजक के लए लखना अपने भीतर अव थत मनु य को, मनु य व क कसौट पर
नर तर कसने क या है। सजना क आनुभू तक अ वरलता सजक को उसके
वक सत होते व प के साथ, उसके संवेद को अछोर व तार स पती है।
संवेद का यही व तार रचना क शै पकता के म य उसके पाय के प रवेशगत
दबाव और उसके आ त रक क मनोवै ा नक प र ण तय को, उसी क
मान सकता म पैठ सजक को अनुभूत करने क पर परता और काया तरण क
चम का रकता से पूरता है। यहाँ यह भी कहना अ तशयो न होगी सजक का जा त
मनु य व इस काया तरण या म पा को वृ करता है क वह अपने को क ह भी
प र थ तय म मनु यता क कसौट पर कसने से न चूके। सही-गलत म अ तर वह तभी
कर पाएगा। शायद ही नह , मुझे व ास है। सजक का अभी भी यही होता है। अपने
बौ क कौशल से वह अपनी सजना के ल य त व को चाहे जस प म ा या यत
करे।
इस स दभ म अपनी कहा नय म से मुझे वो कहा नयाँ न य ही अ य कहा नय
क तुलना म अ धक य और नकट महसूस होती ह जो पा को वयं अपने मानवीय
वचलन के त सजग कराती ह। उसक जड़ चेतन को कुरेदती ह।
जनावर, सौदा, बाघ, ताशमहल आ द कहा नयाँ इसी ेणी म आती ह।
कशोर मान सकता पर लखना मेरी रचनाशीलता के लए सतत् चुनौती क भां त
रहा है। मेरा यह मानना है क कसी भी वकासशील रा क ग त का सही आ त रक
मान च य द मापना हो तो वहाँ के समाज क कशोर होती पीढ़ जो कसी भी दे श के
उ वल भ व य क संवाहक आ करती है, के सपन को तौलना-परखना होगा।
स य और उ तशील समाज क ताल ठ कने वाले दे श के बचपन का आधे से
यादा तशत य द भूखा है, तो यह मान लेना अ रद शता न होगी क उस संवेदनहीन
वषम समाज क न व म द मक सुरंग बछा चुक ह और उस दे श का कशोर होता
बचपन अ न त भ व य के अँधेरे तले, वक पहीन आधी अधूरी सांस भरने को
अ भश त है। शोचनीय थ त है क गुमराह होती कशोर पीढ़ के इस तशत के त न
तो हमारी राजनी त कोई दा य वपूण पहलकदमी करती गत हो रही है न जनमानस
उसे कसी कार क भावना मक सुर ा दे ने के लए आगे बढ़ उ ह अपनाने को राज़ी है।
गुमराह कशोर उ ह अपनी चमक-दमक भरी आड बरीय जीवन शैली के सीने पर
बदनुमा दाग महसूस होते ह…
‘ शंकु’, ‘मामला आगे बढ़े गा अभी’ और ‘बेईमान’ कहा नयाँ, समाज के हा शए
पर फके, भावना मक असुर ा और अभाव म जी रहे उ ह कशोर के मनो व ान को
पा यत करती कहा नयाँ ह। नह मालूम क म उन कशोर नायक के गीले मम को कहाँ
तक छू और सहला पाई ँ। मगर जब ये कहा नयाँ ‘र ववार’, ‘सा रका’ और ‘वतमान
सा ह य’ के अंक म का शत तो पाठक म उमड़ी ापक त या ने मन को गहरे
आ त कया। कुछे क पाठक का कहना था— कशोर जीवन के इतने गहरे सं पश
ह द कहानी म अ य अनुपल ध ह…
अनेक बार न य कर चुक ँ क कशोर जीवन क वड बना मक यं णा पर
एक बड़ा मनोवै ा नक उप यास लखूँगी। ले कन अब तक योजना क परेखा कागज़
पर उतरने से वं चत है। इधर मेरे उप यास के कई मासूम कशोर नायक डॉ टर,
इंजी नयर बनने क इ छा रखते ए त कर क नया के खलनायक बन गए…
जब कभी कसी से भूल-े भटके कह मलना होता तो पाँव को हाथ लगाते ए वे
कहने से नह चूकते, ‘ताई, तुमने भी ह मत नह क न!’…
म
शंकु
ताशमहल
सौदा
जनावर
आँगन क च ड़या
बाघ
बेईमान
સ્कूल से छू टा, तब माँ क हदायत बराबर याद थी, ‘ स ा घर कू आना बंडू। दोन
वाजता मेरे कू पंजाबन सेठानी के साथ मारकेट खरीद को जाना हय…’ पर गली के मोड़
म घुसते ही छोकर को ‘ ऽ तूऽऽ तूऽऽऽ’ खेलते पा कब ी म शा मल होने का लोभ
संवरण नह कर पाया।
ब ता और कमीज़ एक कनारे फक, अपनी झूल आई नकर को त द पर ख चकर
वह चीते क -सी फुरती ओढ़ ‘तूऽऽ तूऽऽऽ’ करता आ पारी खेल रहे मोह ले के गोल म
शा मल हो गया। और ल बी दम साधकर उसने पतरे बदल-बदलकर तीन को तो पहले ही
झपाटे म मैदान से बाहर कर दया। सरी पारी म दो मु तैद छोकर ने उसक मामूली-सी
असावधानी के चलते उसे कु क तरह घेरकर धर दबोचा।
अचानक ए हमले से वह सँभल नह पाया। मुँह के बल गरा तो ल बी दम साधने
के बावजूद सीधा खड़ा नह हो पाया। छोकर ने पकड़कर उठाया तो छली ठु ी क
जलन भूलकर वह पाठशाला क खाक वरद क इकलौती नकर के फट जाने से घबरा
गया। आँख के सामने माँ का रौ प साकार हो उठा।
घर कैसे जाएगा इस हालत म? अचानक उसे याद हो आया, सुबह पाठशाला के
लए घर से नकलते समय माँ ने उसे बार-बार चेतावनी द थी क शाला छू टते ही वह
सीधा घर आए, मोह ले के लोफर के साथ आवारागद करने न बैठ जाए। उसके ल छन
से प र चत जो है। जानती है क शाला नय मत डेढ़ बजे छू टती है और वह दो-ढाई बजे
से पहले कभी घर नह लौटता। इस लए जब कभी उसे कसी काम से बाहर जाना होता
है वह उसे ‘ स ा’ घर आने क चेतावनी दे ती। चेतावनी वह हर गज़ न भूलता।
घर खाली न छोड़ने के पीछे कुछ ठोस कारण थे। माँ को सदै व अ दे शा बना रहता
क कह उसका बाप घर अकेला पाकर गृह थी के बरतन-भाँडे न उठाकर ले जाए।
कतने ह डे-बटु वे उसने बेच खाए। माँ के लड़ने पर उ ह चराने क को शश करने लगता
क कसी अड़ोसी-पड़ोसी ने मौका ताड़कर हाथ सफाई दखा द होगी, वह तो कु डी
लगाकर फकत संडास तक गया था।
उसक राह दे खती माँ पंजाबन सेठानी के संग अगर नह गई होगी तो घर पर तोप-
सी भरी बैठ होगी। खैर नह उसक , हाथ-पाँव साबुत बच रहे तो समझो गनीमत! तस
पर फट नकर! आग म तूप (घी)। माँ के कोप से बचने क कोई तरक ब? तरक ब है।
दे र म दे र! कुछ दे र कह और सु ता ले। घर म ई तब भी घ टे -आध घ टे म साँझ क
भाँडी करने नकल लेगी। लौटे गी तो ठ क द या-बाती के समय। तब तक जूठे बरतन के
साथ मगज क तेज़ी भी मँज-पुछ गई होगी। पटाने क खा तर वह झ पड़ी का झाड-
प छा कर लेगा। साफ-सुथरा घर माँ क कमज़ोरी है। दे खते ही खल जाएगी।
ले कन तरक ब उसे वशेष अभय नह दे पाई। दोन ही बात स भव थ । कुछ दे र
बाद माँ का ोध शा त हो जाए या फर गुने- तगुने वेग से नथुने फड़काता उसे ताव
खाता मले। ऐसे म उनका सामना करना ही उ चत! दे ह पर कमीज़ चढ़ाकर वह खोपड़ी
से ब ता लटकाए घर क ओर बढ़ दया।
माँ नह गई थी।
जैसे ही वह घर म दा खल आ, ती ा म उबली बैठ माँ तमतमाई ई-सी उस पर
झपट “हलकट, मेलया, कु रा, हरामखोर…बोला न तेरे कू सुब? ू वसरलास (भूल
गया)? पन कईसा…कईसा तेरे को याद न आ क मेरे को सेठानी के साथ खरीद को
जाना है…चढ़ तेरे को चरबी? अ भी, सेठानी का बूमा-बूम कौन सुनेगा! तू?”
फश पर छटपटाता आ वह ‘हाय-हाय’ करता, हाथ-पैर से तीखे हार को
झेलता माफ माँगने लगा। मगर माँ पर न उसके माफ माँगने का कोई असर आ, न
व ास दलाने का क अब क वह उसे छोड़ दे , आइ दा उससे ऐसी लापरवाही हर गज़
नह होगी। उलटा माँ के ोध ने तपे तेल-पुते तवे पर अचानक पड़ी पानी के छ टे -सी
लपट धर ली। मारते-मारते जब वह वयं नढाल हो उठ , तब कह जाकर उसके हाथ-
पाँव के।
“वो हरामखोर आए, तो चौ कस रैना… कसी व तु को हाथ-बीथ न लगाने को
दे ना। जाती म। आइकलास (सुना)?” माँ गुराती-सी दरवाज़ा भड़ाक से भेड़कर खोली से
बाहर हो गई।
‘वो हरामखोर…?’ यानी उसका बाप…
पं ा गली म घ ड के दा के अ े पर वह तब तक बैठा घ ड़याल-सा नौसादार
क पीता रहता जब तक टु होकर अपनी गली म अगल-बगल क दो-चार झ प ड़य के
दरवाज़े अपनी खोली के म म न खटखटा लेता। फै टरी से छू टकर बाप सीधा कभी घर
न आता, चाहे उसके काम क पहली पाली हो या सरी। अ सर माँ जान ही नह पाती
क बाप कौन-सी पाली कर रहा है। समय-असमय आने पर जब कभी वह सशं कत
होकर बाप को टोकती तो उलटा बाप उसी पर चढ़ बैठता क वह ‘ओवरटै म’ करता है,
फर टै म से कैसे घर प ँचे?
इतना वह भी समझने लगा था क जो कामगार ‘ओवरटै म’ करता है उसे पगार के
अलावा अ त र आमदनी होती है। फर तो माँ को बाप क ऊपरी कमाई से खुशी होनी
चा हए थी; पर समझ म न आता क ‘ओवरटै म’ क बात सुनकर माँ य असहज हो
उठती है! उन दोन क झाँय-झाँय म कुछ गोलमाल लगता है। दमाग पर ब त ज़ोर
डालता पर हाथ कुछ न लगता! कशोर बु चकरा जाती।
छोट बहन कमला जब घर पर ही रह रही थी, अ सर आधी रात म उसक और
कमला क न द माँ क दय वदारक चीख और धमाधम कुटती दे ह क दहलाती कराह
से उचट जाती। आतंक से सहमे अपनी दरी पर पड़े ए, घुमड़ती छाती म फूटने को
ाकुल हच कय को होठ म भ च, ववश, दोन मोम-से टपकते रहते! कुछ दे र बाद
वह पाता क बेसुध-सी होती कमला उसक पीठ से बक , उसक थराती रीढ़ म अपना
चेहरा गड़ा लेती। पल-पल कसी अनहोनी क दहशत नुचे ल लुहान पंख -सी उन पर
टू टने लगती। वह सोचना शु कर दे ता। बना वयं से सवाल कए क यह उ उसक
सोचने क नह है।
ु ध माँ जब भी उसे कूटती, अपनी चोट से न वह उस कदर आतं कत होता, न
आहत, न अवमा नत! उलटा ज लाद बाप के त उसके दय म त ह सत आ ोश
सर उठाने लगता। यहाँ तक क वह रात से खौफ खाने लगा। रात से शायद माँ भी खौफ
खाती। शायद इसी लए वह उ ह ज द खला- पलाकर सुला दे ती क उनक चैन क रात
तभी तक है जब तक घर क कु डी नह खड़कती। कु डी खड़कने से उसक न द नह
उचटती; न द उचटती माँ क कलपती चीख से! इधर कुछ दन से उसम प रवतन आया
है। माँ क भाँ त उसक भी न द क ची हो गई है। कु डी के खड़कते ही आँख ‘झ प’ से
खुलकर कवाड़ क ओर घूम जात । मगर वह खुली आँख को कसी तेज़ाबी आँधी के
भय से आशं कत हो करवट-भर भ च लेता, और साँस साधे चर-प र चत अगले य क
ती ा करने लगता।
उस रात बाप क द र दगी क पराका ा ही हो गई। आवेश म काँपते ए बाप ने
मोरी क द वार से टका कपड़ा कूटनेवाला धो का उठा लया और उसे पूरी ताकत से माँ
के माथे पर दे मारा। माँ का माथा फट गया। उसका खून से तर चेहरा और मू छा से
मुँदती आँख दे ख भय से काँपती कमला ने बाप क टाँग जकड़ ल और दोबारा माँ पर
हाथ न उठाने क चरौरी करने लगी। क तु पगलाए साँड़-से उ माद बाप ने उसे टाँग से
एक ओर उछाल दया और धी अचेत माँ क कमर पर एक लात मककर खोली से
उड़न-छू हो गया। तब तक आस-पास के लोग जाग चुके थे। भागते बाप को उ ह ने धर
पकड़ने क को शश भी क , पर जाने कहाँ क ताकत उसम आ समाई थी क वह छह-
सात लोग के सँभाले न सँभला। छटपटाकर जो छू ट भागा तो अब तक लौटकर श ल
नह दखाई उसने। माँ के माथे पर सात टाँके लगे थे।
आठ साल क कमला को बाप ारा टाँग से उछालकर फकना, माँ को जवान
छोकरी पर हाथ उठाना लगा और यह भी लगा क अगर उसका साहस इस सीमा तक
बढ़ गया है तो या भरोसा, कसी रोज़ नदयी माँ के हमायती ब च का गला ही घ ट दे !
म फँसी माँ इससे-उससे सलाह करती अ त म इसी नतीजे पर प ँची क कमला को
अब वह घर म नह रखेगी। इसी ता म उसने ‘आ शयाना’ ब डंगवाली जोशी बाई
का पुराना ताव मान लया क कमला जोशी बाई के पास रहेगी तो च ड़या क -सी
जान छोकरी इस नरक-कु ड से र और सुर त रहेगी।
जोशी बाई काफ दन से माँ के पीछे पड़ी ई थ क वह कमला को टहल के लए
उनके घर रख दे । भाँडी-कटका के लए उनके पास अलग से बाई है। उसे फकत ऊपर
का काम करना होगा, मसलन, मकू का खयाल रखना, उसे ैम म नीचे घुमाना- फराना।
साग-स ज़ी कटवा लेना। मेहमान को पानी आ द पूछ लेना। ज़ रत क छोट -मोट
चीज़ दौड़कर ला दे ना।
सुबह यारह से लेकर शाम साढ़े चार बजे तक जोशी बाई क पाठशाला होती है।
घर लौटते वह खूब थक जाती ह। कमला से उ ह बड़ी मदद हो जाएगी। खाना, कपड़ा,
साबुन, तेल सब उनका। ऊपर से महीने के तीस पये नकद। यादा पगार भी वे दे
सकती ह, ले कन तब जब कमला ढं ग से काम-धाम सीख जाएगी और ज़ मेदारी वयं
उठाने लायक हो जाएगी। अभी तो वह ब ची है। उलटा, उ ह ही लगातार उसके साथ
लगकर उसे सब सखाना-समझाना होगा। रखगी वह उसे अपनी बेट क तरह। कोई
भेदभाव नह । जोशी बाई ने यह भी व ास दलाया क समय नकालकर वह उसे कुछ
पढ़ा- लखा दया करगी और को शश करगी क उसे रातवाली कसी पाठशाला म
दा खल करा द। “मेरे लए यह मु कल थोड़े ही है…झोपड़प के षत वातावरण म
रहकर तो लड़क सलीकेदार होने से रही।”
जोशी बाई के इन तक से माँ के उलझे, हताश मन म उ साह का बीज अँकुआ
आया था।
कमला को अपने संग ‘आ शयाना’ ब डंग म ले जाने से पहले जोशी बाई उसके
लए दो नई ॉक सलवा ला । उ ह म से एक पहनाकर उसे अपने साथ ले ग । उसने
सुना, जाते-जाते वे माँ को चेतावनी भी दे ग क पैस क खा तर घड़ी-घड़ी दरवाज़ा
पकड़कर मत खड़ी होना। बीस वह उसके हाथ म दगी। दस वह कमला के नाम पो ट
ऑ फस म खाता खुलवाकर, उसके खाते म डलवा दया करगी, जो उसके और कमला
के दोन के हक म उ चत है। क तु माँ इसके लए राज़ी नह ई। कड़क का रोना रोकर
उसने उनसे आ ह कया क फलहाल कमला क पूरी पगार वह उसके हाथ म ही द।
साफ-सुथरे कपड़े पहने जोशी बाई के साथ जाती ई कमला अचानक उसे
अजनबी-सी हो उठ लगी, ठ क ब डंग म रहनेवाल क तरह सु दर और अजनबी!
कमला क अनुप थ त उसे ब त खली और अब तक खलती है। कमला होती तो
हमेशा क तरह आज भी उसे पहले डपटती। बड़ी-बूढ़ क तरह समझाती-मनाती,
“काय को तू माँ क बात न सुनता, बंडू? गली के छोकरे प के मवाली, उनको घर से
मतलब न , पन तू य उनका च कर म पड़ता? मार खाने क आदत पड़ गई तेरे को,
चल उठ…धो मू-ँ हाथ। खाना नकालती म तेरे वा ते।”
खते हाथ-पैर को सकोड़ता-फैलाता, माँ के ऊपर कुढ़ता वह उठ खड़ा आ।
भूख से अँत ड़याँ क ला रही थ । पतीले का ढ कन खोलकर भीतर झाँका। माँ ने
खचड़ी बनाई थी। खचड़ी म करछु ल नह लगी। इसका मतलब है, माँ भूखी ही चली
गई। मन ख हो आया। सचमुच वह माँ को ब त तंग करता है। दन- दन-भर माँ घर म
खटती है। कसके लए? उसने मन-ही-मन न य कया, आइ दा वह माँ को परेशान नह
करेगा। पाठशाला से सीधा घर आएगा। घर के काम म उसका हाथ बँटाएगा। पढ़ाई म
मेहनत करेगा।
और सचमुच अगले ही रोज़ से वह अपने न य के मुता बक पढ़ाई म मन लगाने
लगा। माँ उसे पु तक खोले बैठे दे खती तो स हो उठती। सब ठ क-ठाक चलने लगा।
एक दोपहर वह खाना खाकर अपनी थाली उठा ही रहा था क खोली का दरवाज़ा
अचानक भड़भड़ाया। भड़भड़ाहट क ताल ने ण-भर को उसक दे ह से खून नचोड़
लया। उसने भीतर से चढ़ कमज़ोर कवाड़ क कु डी को अ व ास से दे खा। समझ
नह पाया क या करे। तभी कवाड़ दोबारा भड़भड़ाए। अब क बार भड़भड़ाहट म
बेस ी थी। तुर त न खुलने पर तोड़ दे ने क उ ड बेस ी! घर पर माँ का न होना खला।
उठकर घबराए ए मन से जूठ थाली उसने मोरी म खसकाई और कमीज़ क नाखूनी से
हाथ प छता कु डी खोलने लपका। कवाड़ खोलते ही नशे म धु यम त-से बाप को
खोली म दा खल होते…नह , दे सी का भभका छोड़ते ए लगभग अपने ऊपर गरते
पाया। उसे सीधा करते ए वह सहम उठा। बाप क अनुप थ त म बड़ी शा त थी। जब
भी उसके बारे म सोचता, यही लगता क अ छा हो, बाप फर कभी घर न लौटे । मगर
उसके सोचने से या होता है? बाप सा ात् मुसीबत बना उसके सामने मौजूद था।
खड़े न रह पाने क थ त म वह डगमगाता, ध म-से लोहेवाले पलंग पर ढहकर
पसर गया! वैसे माँ के लौटने का समय हो रहा था। कसी भी ण वह घर लौट सकती
है। घर पर माँ का होना ब त ज़ री लग रहा था। बाप क मौजूदगी सँभालना उसके वश
क नह । सरी ओर, आशंका से मन डर भी रहा था क कह उन दोन का आमना-
सामना कसी जंग को आम ण न दे बैठे!
अचानक भड़े कवाड़ पर लौट माँ क चर-प र चत हलक थाप ने उसे जैसे
मगरम छ के मुँह से छ न लया। कवाड़ पर कु डी नह चढ़ थी। पर माँ को इसक
जानकारी नह थी। वह लाद से उछली गद क भाँ त उछलकर कवाड़ के पास प ँचा
और माँ के भीतर पाँव दे ने से पहले उसने लोहे के पलंग पर पसरे बाप क त या माँ
के चेहरे पर पढ़नी चाही। क तु माँ का चेहरा उसे अन लखी त ती-सा सपाट, शू य लगा।
बाप मुँह पर भनकती म खय से त नक परेशान आ। सर झटकते ए नशे म
बड़बड़ाया, “कमली…पानी दे तो…”
अ न छा से ह डे से गलास-भर पानी लेकर वह बाप के नकट प ँचा, “पानी…।”
बाप ने उसक आवाज़ पर लाल आँख खोलकर उसे गौर से दे खा, “कमली कदर
हैय?”
“जोशी बाई के घर काम पर रख दया।” उसक बजाय माँ ने गुराकर जवाब दया।
“ कतने दे गी?” बाप एकदम चैत य हो उठा।
“खाना-कपड़ा, ऊपर से तीस।”
“वो अँधेरीवाली मंगलो रयन बाई उसको माँगती होती…खाना-कपड़ा, ऊपर से
साठ पया पगार, तभी न य पाड़ा?”
“पहले उससे नौकरी न करानी होती, तू औकात म रेता तो कभी न … उ पर उस
घर म म अपना छोकरी काम करने को भेजती? उसका मरद सम दर ( मग लग) का
ध धा करता…अ खा दन उदर दा चलती। मालूम न कइसा-कइसा लोग आते उसके
घर कू? भरोसेवाली होती या वो?”
“ये तेरी भड़वी मा टरनी भरोसेवाली है या?” पलंग से उठते ए बाप गु से से
दहाड़ा।
“जबान सँभाल, हाँ।” यु र म ु ध माँ को जैसे चनगारी लग गई, “पोरगी क
(बेट ) फ कर न , पगार क बोत फ कर हय तेरे को? हाँ! अपना कमाई म दा के
वा ते न पुरता! बोल तो ख टया डलवा ँ तेरे वा ते… फर खा पोरगी क कमाई।”
“साआली राँड़, तू मेरे को गाली दे ती, भँडवी! अबी ठकाने करता तेरे को…” बाप
ताव खा झपट पड़ा माँ पर।
माँ क ज़बान नह क । वह गले तक अघा आई सारी तल मलाहट और भँड़ास
जैसे एकबारगी खाली कर दे ना चाहती थी।
वह आशं कत हो काँप उठा। या हो रहा माँ को? बाप का वभाव जानती नह ?
चु पी मार लेती तो या था…उसे लगा, वह कमला के पास भाग जाए अभी, इसी ण।
अ छा ही आ जो जोशी बाई कमला को ले ग । उसे भी माँ कसी के घर काम के लए
य नह रख दे ती?
बाप क ध स से बेअसर माँ अब भी चुप नह हो रही, “भडवा…एक पैसा न
दे ता…म खून पला- पला के ब चे पालती और तू हरामखोर वो राँड़ के साथ म ती
मारता…साआला, हाथ लगा के दे ख अभी मेरे को? दे ख?”
‘राँड़ के साथ?’ माँ या बोल रही है! उसके माथे से जैसे अचानक गरम सलाख छू
गई। तभी नज़र बाप क ओर उठ । तमतमाया बाप बरतन म से लपककर लोटा उठाता
आ दखा। लोटा छ नने के लए वह उसक ओर झपटे , तब तक तो माँ के सर से खून
का फ वारा फूट पड़ा। माँ ‘दे वाऽऽ’ कहकर ई र को गुहारती फश पर ढे र हो गई और तट
पर पड़ी मछली-सी तड़फड़ाने लगी।
माँ के माथे पर टाँके लगे अभी ढाई-तीन महीने नह गुज़रे थे क ज लाद बाप ने
फर उसका सर फोड़ दया।
उसका सर घूमने लगा। बजाय माँ को सँभालने के वह ववश-अवश घुटन म मुँह
गड़ा, साँस ख चता फफक पड़ा। उसके घर म तेज़ धारवाला रामपुरी चाकू य नह ?
होता तो आज वह सीधा बाप क छाती म भ क दे ता। एक बार, दो बार, तीन
बार…‘खच’…‘खच’! ऐसे जानवर को ज़ दा छोड़ना खतरनाक है। छोड़ दया तो वह
कभी भी, कसी रोज़ पलटकर माँ क जान ले लेगा। माँ को मारकर उसक …उसके बाद
कमला क …कमला शायद उसके हाथ न लगे।
माँ का आतनाद सुनकर पड़ोसन ल मी अ मा और सामनेवाले हसन काका घुस
आए खोली म। बाप हमेशा क तरह मुँह छपा, तीर-सा नकलकर भाग खड़ा आ।
हसन काका ने छटपटाती माँ को ही डाँटा, “बंडू क माँ, य इस बदज़ात के मुँह
लगती है? जानती नह ! कमब त का मुँह नह , हाथ चलता है, हाथ…”
ल मी अ मा लपककर अपनी खोली से ह द -चूना गरम कर लाई और घाव के
आस-पास के बाल कतरकर घाव पर लेप लगाने लगी। प बाँधने के लए ल मी अ मा
ने उससे पुराना कपड़ा माँगा। वह कमला क पुरानी छोड़ी ई ॉक उठा लाया।
हड़बड़ाहट म उसे कोई अ य कपड़ा सूझा ही नह क जससे माँ के फटे सर पर प
बाँधी जा सके। वैसे भी कमला क यह ॉक अब उसके कस काम क ? जब से जोशी
बाई के घर गई है, खोली के बीच बीच बँधे तार पर कपड़ के ढे र म ॉक य -क - य
टँ गी ई है।
“अइयो, बंडू! सुन…” ल मी अ मा ने घाव पर प बाँधकर टट से एक अठ ी
नकालकर उसक ओर बढ़ा द , “फटाफट दौड़ के एक सेरीडू न (सेरीडॉन) तो ले के
आ…वो नु कड़वाली पान क कान पर मलेगी। सेरीडू न न होना तो प छू एना सन
का गोली ला। म त बी तलक माँ के लए ह द डाल के चाय बनाती हो, बोत बच गई रे
माँ… बोलगे तो वो टाँके का जागा पे न लगा, न तो जान जाती…जा, तू ज द जा…”
वह आ ाकारी बालक क भाँ त खोली के बाहर हो गया। पर मन म माँ क चोट क
पीड़ा से यादा माँ के कहे वा य क चते, मँडराने लगे ‘राँड़ के साथ म ती…’ कहने का
या ता पय था माँ का? व च लगा माँ का ताना। उससे भी अ धक व च लगा, माँ का
आज का वहार! सरे दन क अपे ा इस बार बाप अपनी इ छा के व कमला
को जोशी बाई के यहाँ रखने से भड़का अव य, ले कन उसके ोध को लगातार फूँक द
माँ ने। बाप से हमेशा डरनेवाली और उसके डर से मुँहज़ोरी करने से मुँह चुरानेवाली माँ
का यह प नराला लगा! कह गड़बड़ ज़ र है। बाप इधर रहता नह तो आ खर
भागकर जाता कधर है? एकाध रोज़ क बात हो तो वह सोच भी ले क हो सकता है,
बाप पी-पा दा के अ े पर ही पड़ा रहता हो या कसी दो त के घर! महीन कोई कैसे
रख सकता है पय कड़ बाप को अपने पास?
पान क कान पर प ँचकर उसने राहत क साँस ली। जैसे माँ के लए संजीवनी
बूट पा लेने का आ ासन पा लया हो उसने…माँ से पूछे वो राँड़ के बारे म?
सुबह वह बड़ी मु कल से जागता। आवाज-पर-आवाज लगाती माँ धमकाती
रहती। अ त म खीझकर हाथ पकड़ दरी पर उठाकर बैठा दे ती, ‘शाले को न जाने,
बंडू?’ पर, पर आज माँ क पहली ही पुकार पर चौक ा हो उठ बैठा।
“तू ठ क न?”
“ठ क म…” माँ ने उसे च तत न होने के लए आ त कया। बोली, “जा, भइया
जी क कान से पावली (चव ी) का ध ले आ, चाय के वा ते।”
वह बना हील- जत कए गलास और पावली लेकर झोपड़े से बाहर नकल
आया। गली म अभी सुबह नह ई थी। माँ ने कुछ ज द ही उठा दया उसे। हो सकता
है, वह दद के मारे सोई ही न हो रात-भर! झूठ-मूठ उसे बहलाने के लए कह दया क म
ठ क ँ।
अगल-बगल क सारी कान के शटर गरे ए थे। खाली भइया जी क कान
खुली थी। ध से भरा कड़ाह अधसुलगी बड़ी सगड़ी क बगल म ही धरा आ था।
करीब प ँचा तो कोयले सुलगाने के उ े य से उड़ेले गए म के तेल का भभका लपट
के बावजूद नथून म दमघ ट बदबू भर गया। जी मतला उठा। उसे दे ख भइया जी ठ
ई मूँछ से कटा करते ए मु कराए, “तू कैसे आ गया रे, बंडू!…कह बाप ने कुट मस
तो नह कर द महतारी (माँ) क ?”
वह भइयाजी के कटा से कटकर रह गया। झूठ बोला, “ताप आ गया माँ को।”
“ताप?” भइया जी ‘हो-हो’ करते ए हँसे।
उसने लपककर उनके हाथ से ध का गलास ले लया और तेज़ी से कान के
बरामदे क सी ढ़याँ उतरने लगा।
ोभ से मुँह कडवा आया। उसके घर के तमाशे कसी से छपे नह ! घोर
अपमानजनक थ त है। महसूस आ, जैसे सुबह-सुबह भइया जी ने उसके कशोर
गाल पर ‘ ’ नह , तमाचे जड़ दए। उपहास उड़ाते तमाचे! उसने सुना, वे अपने
नौकर को सुनाकर बोले, “अ खा झोपड़प का ऐसन हाल बा…जो चार घ र चौका-
बासन कर त हय और इनके मर आ घाट साले…दा पी-पा के मेहरा के हाड़-गोड़
तोरत ह, राम-राम, कैसी जबराई!” उसका वश चलता तो वह हाथ म पकड़े ध के
गलास को गोट (कंचे) के अचूक नशाने-सा साधकर भइयाजी पर फक मारता। उनक
चटचटाती सहानुभू त क उसको और उसक माँ को कतई ज़ रत नह । बापू उसका
नकारा, बेईमान, दा ड़या, ज लाद सही, पर वह अपनी माँ को घर-घर भाँडी नह धोने
दे गा।
“म पढ़ाई छोड़ दे गा” उसके भीतर के कशोर बंडू ने अचानक प र थ तय से
लड़ने का फैसला कया।
पढ़कर करेगा भी या? जब तक पढ़- लखकर हवलदार के मा फक कमाने-धमाने
के का बल बनेगा, चौबीस घ टे मेहनत करती, बूँद-बूँद नचुड़ती माँ ज़ दा बचेगी?
पीली, कमज़ोर, चलती है तो मन डरता है क अगले ही डग ठोकर खाकर ढे र न हो जाए।
वह माँ को ज़ दा रखेगा। कमाएगा; कमाएगा तो आराम करने के लए माँ को घर बैठा
दे गा। पैसा जोड़कर कह अलग खोली ले लेगा, जहाँ बाप क परछा भी न प ँच
सके। माँ काम पर से लौटती है तो कटे वृ -सी लोहेवाले पलंग पर ढे र हो जाती है। कुछ
रौनक चेहरे पर आई है, जब से कमला क पगार हाथ म आने लगी है। वह भी कुछ करने
लगेगा तो उनके चेहरे क गुम रौनक पूरी लौट आएगी।
सवाल उठता है—माँ सुख-चैन के दन दे ख सकेगी? कैसे? वह करेगा या? य …
कोई छोटा-मोटा ध धा। रफ क करता है न! उसके जैसा ही कोई काम! दो त के बीच
रफ क का धाँसू रौब है। दो त को बीड़ी भी वही पलाता है अपनी कमाई से। कभी-कभी
तो नःसंकोच पूरा ब डल थमा दे ता उ ह।
उससे मलेगा फौरन…न क च!
दरवाज़े पर प ँचा ही था क ल मी अ मा ने पुकारा अपने ओटले (बरामदे ) से, “माँ
को कइसा है, बंडू…उठने को सक ?”
“न , अ मा।” उसने उदास होकर जवाब दया।
“मार जा ती लगी, बेटा! ह द -चूना से घाव न पुरेगा। डाकदर के पास ले जाके
सूई दे ना माँ को। और सुन, दो-तीन दन घर म बैठने कू बोल उसको।”
“मेरा कदर सुनेगी, अ मा!” उसने ववशता कट क ।
“अ छा जा, म आती प छू । म समझाएगी सीताबाई को। दो-तीन दन के वा ते
अपना काम पर कसी को बदली म भेजेगी तो ठ क।”
चोट तो गहरी आई ही है। नह तो पाँच बजे ब तर छोड़ दे नेवाली माँ आज जगी
ई मली, मगर उठकर ध लाने क उसक ह मत नह ई।
बड़ी मु कल ई चाय बनाने म। टोव जलाने क आदत जो नह । एक बार को मन
म आया क माँ से ही कहे क वही टोव जला दे उठकर। फर उसे तंग करना उ चत नह
लगा। वह जागती ई होने के बावजूद ब कुल मरणास मु ा म न े पड़ी दखी,
उसक अनगढ़ खटर-पटर के बावजूद।
चाय क कप-बसी उठाए उसने आ ह ता-से माँ से उठने और चाय पी लेने का
आ ह कया। उसे लगा, माँ चाय लेकर उसक चु ती-फुरती पर च कत-सी स ए
बना नह रहेगी, ले कन माँ के चेहरे पर कोई भाव नह उपजा। कह कुछ था तो पीड़ा
क कराह-भरी सलवट। वह उदास हो आया। माँ कुछ तो कहती, कुछ भी। शंसा न
सही, एक सहज नहार ही। पर चाय ख म कर कहा भी तो इतना, “दो-चार बा ट पानी
भर ले, बंडू, न तो अ खा दन पानी पीने का वांदा होएंगा।” कहते-कहते वह तुर त
धी हो गई पलंग पर।
दोन हाथ म बा ट लटकाए ए वह नल पर प ँचा तो वहाँ का सारा य दे ख
अबूझ-सा ठठक गया। लाइन म खड़ी दो औरत म बेहयाई से ठनी ई थी…
“ये ल बर तो मेरा होता, भरने तू लगी?”
“जबान सँभाल! चौबीस ल बरवाली के प छू ल बर मेरा होता। वो भर चुक , म
भर रही। मँगता तो पूछ उसको! पूछ न!”
“म भर रई…राँड़! सुबू चार बजे उठकर म लाइन लगाई, तेरी खपसूरती दे खने का
वा ते?”
“काय के वा ते उठ वो तू जान, पन गाली मत दे । समझी…न तो थोबड़े पर लात
ँ गी।”
“चल री ‘समझी’ क ब ची! कसको समझाती तू? तीन-तीन खसम छोड़ के आई
मेरे थोबड़े पर लात दे ने? आईना दे ख, कुतरी, आईना!”
“ह जाम क …तू बन याही बैठ मोह ला खराब करे। बोल तो तुझे भी करवा ँ
एक? बूता है सँभालने का?”
“ये ये…! सुब-ू सुबू एइसा भांडण (झगड़ा)? रात पाली करके आया म। खाली-
पीली भंकस न मँगता।” अचानक अपनी खोली का दरवाज़ा खोलकर पाठक दादा शेर-
सा दहाड़ा, “गुपचुप पानी भरो, न तो सब साली का ह डा उठाकर फक ँ गा। एकदम
बोमड़ी (शोर) न । सोने का है मेरे को। समझा?”
नल पर स ाटा छा गया। सफ पानी क पतली धार क आवाज़ खामोशी तोड़ने
लगी।
पाठक दादा के बारे म झोपड़प म तमाम नई-पुरानी अफवाह ह। जेब म नोट क
ग ी डालो और कसी क भी गरदन रेतवा लो। पाठक दादा क रात पाली का मतलब है
—कह कसी के दन पूरे ए!
पाठक दादा क खोली का दरवाज़ा ब द होते ही उसे लाइन म लगने क ह मत
आई। औरत क चख-चख ने उसे सहमा ही दया था।
उसे खड़े ए दो-चार पल भी नह बीते ह गे क अचानक रफ क क अ मी क
नज़र उस पर पड़ी। अ मी वह से च लाई, “बंडू, आ तू भर ले पहले।”
वह वधा म पड़ गया क लाइन तोड़कर आगे बढ़े या अ मी को मना कर दे । कह
ऐसा न हो क कुछ दे र पहले ख म ई चख-चख पलटकर उस पर पल पड़े!
पानी-वानी सब माँ ही भरती है। यहाँ के कायदे -कानून उसक समझ से परे ह।
अ मी ने शायद उसके संकोच को ताड़ लया। उ ह ने उसे आगे बढ़ आने के लए दोबारा
पुकारा। उनके दोबारा पुकारने के बावजूद लाइन म लगी औरत से कसी ने आप नह
कट क तो उसका साहस बँधा। लाइन म लग के उसका न बर आने का मतलब है—पूरे
आधे घ टे का कुंडा। संकोच छोड़कर वह अपनी दोन बा टयाँ उठाए अ मी के नकट
जा प ँचा। रफ क क माँ ने अपनी बा ट सरकाकर त काल उसक बा ट नल के नीचे
कर द ।
“प का ढाई महीने के बाद घर आया था खड़ईस। जा लम ने ब त मारा सीताबाई
को। सर फट गया बेचारी का।” रफ क क माँ पावती चाची को उसके घर क खबर दे
रही थ , “उसी छनाल के पीछे …”
“अ छा, कमब त रेती कदर वो?”
“वह सफेद पुल के झोपड़प म। उसको भी पहले मरद से दो ब चे ह।”
माँ भी तो कल दोपहर…तो माँ के चड़ चड़ाने क वजह सफ बाप का पीना ही
नह ! बा ट अभी आधी भी नह भरी थी, पर उसका मन आ क वह बा टयाँ छोड़-
छाड़कर वहाँ से भाग ले! है कोई ठौर- ठकाना जहाँ उसके घर क चचा न हो?
राँड़ माने कोई औरत।…
राँड़ माने गाली, अब तक यही जानता था वो।…
सरी बीड़ी ख म कर, ट टे को पाँव से रगड़कर वह दबे पाँव खोली म घुसा। सटकनी
चढ़ाई और चटाई पर पड़ गया।
अचरज आ सटकनी न चढ़ होने पर। भूल गई शायद माँ? वैसे भूलती नह
कभी। हाथ बढ़ाकर धीमी कर द लालटे न क धीमी लौ द वार पर लुपलुपाती, भूरी
उजास लये थराने लगी। माँ को आज ज द न द लग भी गई। ज द न द आती नह उसे
इधर। इस बात का भी व मय आ। हो सकता है, आज अ धक थक गई हो। अचानक
महसूस आ, वह जो समझ रहा है क माँ गहरी न द म पड़ी सो रही है, उसका म है।
लोहे के पलंग क चरमराहट म उसे कसी तड़फड़ाती बेचैनी क आहट मली। या बात
हो सकती है?
उसने करवट भर गरदन उचकाई। त ध रह गया। अनुमान सही था। पलंग पर
उठकर बैठ माँ घुटन पर ठु ी टकाए, टाँग को बाँह से घेर,े झ पड़ी क द वार को
एकटक ताकती मली। माँ क आँख क पनीली उदासी आँख म सीधी न दे ख पाने के
बावजूद उसे साफ दखाई द । माँ उसे लेकर तो परेशान नह ? हो सकता है, उसके ध धे
क खबर कह से लग गई हो उसे। आजकल उसका इलाका बदला आ है। वह गेइट ,
गैले सी छोड़कर मलाड के एक नए थयेटर पर ध धा करने लगा है। याद नह पड़ता क
वह कभी कसी प र चत से टकराया हो।
हाथ बढ़ाकर उसने लालटे न क ब ी उकसाई।
रोशनी कुछ यादा हो जाने से माँ पर कोई असर नह आ। माँ पूववत बैठ रही।
यह भी हो सकता है क बाप घर आया हो? बाप घर आया होता तो माँ साबुत बैठ नह
दखाई दे ती। उसने भेदती नज़र से माँ क दे ह को टोहने क को शश क । को शश थ
गई। बाप के घर आने का कोई अवशेष ज़ म के प म माँ क दे ह पर मौजूद नह ।
ओह, कैसी अनाप-शनाप अटकल लगा रहा है। भूल गया क कल माँ ने ही उसे बताया
था क आज दोपहर वह कमली के घर जाएगी। जोशी बाई सप रवार तीन-चार रोज़ के
लए अपनी ननद के घर पुणे जाने वाली ह। उनके ननदोई क मौत हो गई है। जोशी बाई
के वापस लौटने तक कमली उनके पास ही आकर रहेगी। कमली कहाँ है? कमली को घर
पर ही होना चा हए। माँ कल कतनी खुश थी, उमंग से भरी ई क वह कमली के सूने
पाँव के लए चाँद क तो ड़याँ खरीदकर लाना चाहती है। सयानी हो रही है पोरगी। अब
तक कुछ कान-गले नह डाला। नधन-से- नधन अपनी बेट को छू ँ छा नह रखता।
उसे माँ क उमंग से खुशी ई। कमली के आने क खबर सुनकर तो और भी।
“हमेशा के जैसा दे र नह करना।” हदायत नह , इसरार कया था माँ ने। चलते-
फरते यह सूचना भी दे द थी उसे क ‘सीपी’ और ‘कोलमी’ (चावल क क म) भात
पकाएगी—कमला क पस द का खाना। बस, भागा-दौड़ी के च कर म याद नह रहा क
वह सुबह माँ से ज द आने क हामी भर गया था। पुरानी हट फ म लगी ई है थएटर
म ‘संगम’। राजकपूर, वैजय तीमाला, राजे कुमार को दे खने के लए टू टे पड़ रहे ह
लोग। माँ क ल बी नः ास क द तक से उसक सोच का तार टू टा।
“कमला आनेवाली थी न?”
माँ ने कोई उ र नह दया, जैसे उसका कान म पड़ा ही न हो। उसने संकोच
के साथ अपना दोहराया।
“नह आई।”
“काय को?”
उ र म चु पी।
“काय को न आई?” उसके वर म उतावली थी।
“उसको इदर न आने का है!” माँ का वर काँपा।
“ या?”
माँ सचमुच रो रही थी। अव क ठ से बोली, “कमलाच इदर रैने को तैयार न ।
ज करके वो उनके साथ पूने को गई। म लेने को गई तो बोली, “म बाई के साथ
जाएगी। मेरे कू झोपड़ी म नह आने का। पंखा न न उदर। ऊपर से संडास म लाइन
लगाने का लफड़ा…तुमको आदत पड़ गई मोरी म पशाब करने क , मेरी आदत छू ट गई।
उसी म पशाब करना, उसी म बरतन घसना, उसी म नहाना, हमको न चलता…”
‘हमको’ सुनकर वह च का। यह माँ का श द नह । यह अपनी औकात भूल
ब डंगवाल क बरादरी म वयं को शा मल कर लेने के मुगालते क छू ट है। सुख-
सु वधाएँ खैर उसे या मलन । सुख-सु वधा से अटे घर के पाखाने के सामने, शतरंजी
बछाकर सो रहने क छू ट ही कमली के लए घी के वाद क ब न बत, उसक तेज़
महक पीकर वाद पाने क स तु है, और कुछ नह । आम दखा और गुठली चुसाकर
कु ा बनाने क कला कोई इनसे सीखे! साआ ली नाटकबाज मा टरनी जोशी बाई! घी
सुँघा-सुँघाकर उ लू क प कमली को ऐसी कु तया बना दे गी क कमली जीवन-भर
ऊँची इमारत वा लय क दे हरी पर उनक भाँडी घस, जूठन चाट-चूट, कु तया-सी परक
रहेगी।
मामला समझ म आ गया।
माँ क पीड़ा बड़ी वदारक है—कुछ छू ट जाने, कुछ खो जाने क । दा ड़ए प त के
घोर तर कार से ब ा- ब ा छलनी ई माँ अपनी चहेती औलाद क अ या शत उपे ा
बरदा त नह कर पा रही।
“ दमाग ठकाने न कमली का, हरामखोर को चरबी चढ़ गई…झापड़ य न
चढ़ा के दया जोशी बाई के सामनेच? टडड मारती माँ के सामने?” वह ु ध हो उठा।
उसे लगा, कमली ने उसके मुँह पर भी थूक दया। हर समय ‘दादा, दादा’ करनेवाली
कमली के दल म उससे मलने क कोई ललक शेष नह ?
“तू कुछ भी बोल, ये मा टरनी पर अपने को खातरी न । आने दे लौट के पुने से, म
दे खता।” उसके वर म आग थी।
माँ ने गरदन घुमाई, “फायदा न , अपना स काच खोटा।”
“अ बी तू रोने का न , तेरे को मेरा शपथ! सो जा! कल सुबू मेरे को अपने साथेच
उठाना, ज द बुलाया सेठ।” कहकर उसने अपने चेहरे को कोहनी से ढक लया।
काफ दे र बाद माँ के लेटने क आहट ई। उनके करवट भर लेने के बावजूद उसने
महसूस कया क माँ सो नह पा रही। घुमड़-घुमड़कर सस कयाँ भरने लगती है। उसे
परेशानी ई। उठकर उसे मनाए? मनाए कैसे? कहे या? जो थोड़ा-ब त ःख का
आवेग कम आ है, फर न पलट पड़े! अपने ब तर पर उठ बैठा। कुछ दे र बैठा रहा। माँ
क सस कय का अ तराल बढ़ रहा है। बड़ी दे र तक कोई ससक नह आई तो ब तर
पर ढ ला हो गया।
कल बड़ी धाँधल है। अ मताभ ब चन क फ लम का रलीज है। खड़क पर
टू टनेवाली भीड़ को हो शयारी से सँभालना है। रात का रोना-धोना सुबू पनवती सा बत
होता है ध धे म। माँ या समझेगी? मलाड के लए नकलने से पहले वह हनुमान जी के
म दर म सर झुकाना नह भूलता। ध धे पर कृपा होनी चा हए न। उसके टशन क खबर
नह माँ को। टकट मु त म भी लेनेवाला नह मलता कभी-कभी, ऊपर से आपसी मारा-
मारी। सभी चाहते ह क उनको उसी थयेटर पर ध धा करने का चानस मले जसम
अ मताभ ब चन क फ लम लगनेवाली है। थयेटर क अदला-बदली के कायदे -कानून
भी भूल जाते। छु रा-चाकू नकाल लेते। माँ का या! चार घ ट का भाँडी-कटका
नबटाया और चल द मावसी (मौसी) के घर तफरीह करने। आजकल मावसी से ब त
पटने लगी है। पहले दोन एक- सरे का मुँह दे खना तक बरदा त नह कर पाते थे। चलो,
ठ क है। जहाँ भी माँ का मन लगे, चैन मले। बारह से पहले वह भी घर नह लौट पाता।
छू टा तो पूव- नणय मुता बक घर न जाकर सीधा सफेद पुल पर आया। परली तरफवाली
झोपड़प पुल पर से प दखाई दे रही थी। वह कह है पु पा क चाली। चाली क
एक खोली म वह ‘राँड़’ और उसका बाप! अभी नह भी मला, तो वह उससे नबटे बगैर
माँ के पास नह जाएगा। नबटने का सामान है उसक कमीज़ के नीचे!
रे लग छोड़कर वह भीड़ म शा मल हो गया। तभी अचानक, भीड़ म उसे पड़ोसन
ल मी अ मा दखाई दे ग । वह अनायास उनक ओर लपका। माँ के हाल-चाल जान लेने
क उ सुकता दबा नह पाया। पीछे से पुकारा, “ल मी अ मा! ल मी अ मा!”
ल मी अ मा उसक गुहार सुन च ककर पलट । उसे सामने खड़ा पा स ता से
पुलक , “अइयो बंडू! तू? कब छू टा? बला बोत हो गया। खाने को न दे ते होते जेल
म?” वे एक साथ तमाम कर बैठ ।
उसने अपने बारे म जवाब न दे ते ए, अधीर हो, माँ के बारे म जानना चाहा, “माँ…
माँ कैसी है, अ मा?”
“माँ?” ल मी अ मा क भ ह म बल समट आए। पल-भर वह उसे खामोशी से
ताकती रह , फर व मय से भरकर बोल , “तेरे को न प ा? मली न तेरे को वो?”
अ न क आशंका से उसका जी धड़का, “ या आ माँ को? बोल अ मा!”
“सीताबाई ने नया नौरा ( हा) बनाया! वो तेरी मावसी का दे वर होता न, नारायण
श दे …उसी के साथ…मेरे को लगता, आज उसका रात पाली होएगा, तेरे कू घरमेच
मलेगा।”
सुनकर वह जड़ हो उठा।
ल मी अ मा उसक बाँह पकड़कर झकझोरती ई कुछ पूछ रही थ उससे, पर उसे
कुछ सुनाई नह दया। वह एकाएक मुड़ा और पलटकर भीड़ को ध कयाता आ तेज़ी से
पुल उतरने लगा…
ताशमहल
कपड़े तहा अलमारी म स रयाते ए च ँककर खयाल आया, गैस पर चाय का पानी
चढ़ाकर आई थ । काम से हाथ ख च दौड़ी तो पाया, पतीले क पद अंगारा हो रही है।
अलमारी जब-जब कपड़े रखने नकालने के लए खोलती ह—बीच के कोने म
हगर पर टँ गे अ न के कूल के कोट को छू ना नह भूलत । पलट और शेष कपड़ को
यथा थान पर रख कोट को छू ने लग ।…
उसाँस गहरा आई…। कतना के और? का जाए तब न! मुँह दे खे बना स नह
बँधता जैसे वदा कर दया हो द वू को।
मकर सं ां त से पहले ही अड़ ग । खचड़ी वह बनाएँगी और यहाँ नकालकर
रख जाएँगी ता क पाठक जी हाथ लगाकर भजवा द नया बाज़ार वेद प डत जी के
घर।
मोबाइल पर द वू को सू चत कर दया। बारह जनवरी क ताज से वह द ली आने
क टकट बुक कराने जा रही ह। कोई हील- जत नह सुननी उ ह। काम-ध धे क
तता सभी पर लद होती है। उसके बाहर आने-जाने से उ ह या द कत? घर है न
रहने के लए।
पाठक जी ने पहले ही साथ चलने से मना कर दया था। पेडू पर हा नया गुमटे -सा
बाहर नकल आया है। बाड़े के डॉ टर म ल से नर तर परामश कर रहे ह। हा नया के
लए बने वशेष बे ट को उ ह ने बाँधे रखने का सुझाव दया है। दद मामूली-सा उठता है।
उनके लौटने तक ऑपरेशन टालगे। ो टे ट क नई सम या शु हो गई है। द वू से उनके
क का रोना न रोएँ। समय पर बताना ज़ री होगा तब बता दया जाएगा। मामूली
ऑपरेशन है। नौकरी उसक बड़ी है। बड़ी नौकरी क सम याएँ दमचुसनी होती ह।
उ ह ने सरकारी नौकरी क है। सरकारी नौकरी ताज़ी बयायी भस-सी दरवाज़े बँधी सदै व
न त कए रहती है।
सुनकर द वू ने अबक कोई ना-नुकर नह क । कहा क वह गुड़गाँव से नज़ामु न
टे शन प ँचकर उ ह ले लेगी। च ता न कर।
मौसम ने उनक अधीरता को अनुकूलता से सहलाए रखा। आशंका को परे
ढकेल दो रोज़ से चमक ले सुनहरे घाम क चढ़त ने कोहरे को ठठकाए रखा था। उ मीद
थी क ताज नधा रत समय पर नज़ामु न प ँच जाएगी। गाड़ी क र तार जहाँ कह
भी धीमी पड़ती, उनका जी बेलगाम होने लगता—प हाई गाय-सा ब छया से लपटने को
ाकुल।
उनक आँख पर जैसे भरोसा नह था। ाकुलता ने अपनी आँख खोल ली थ ।
अँधेरे और र टम टमाते जुगनू-से उजाले म उगती और पीछे छू टती ब तय को
खड़क के मोटे काँच को भेद पहचान लेना चाहती थ वे आँख क द ली कतनी र
है!…
द वू क गृह थी ढोकर ले जा रही ह। दे खते ही आँख चमकाती अपने चर-प र चत
च ब ले अ दाज़ म ख़ुशी से उछल पड़ेगी बावली! उसक ख़ुशी बाड़े तोड़ती है तो वह
आसमान म उड़ते गु बारे-सी उड़ने लगती ह और उसके पाँव को हथे लयाँ कस, वह भी
उसके संग उड़ान भरने लगती ह… उड़ान कल रात भी भरी थ उ ह ने…
पछले दस वष से वह पाठक जी को मनाने क को शश कर रही ह क
अ ावहा रकता छोड़ वे त नक नयादार हो जाएँ। मगर बात उठाते ही उनक वही
पुरानी तोता रट त शु हो जाती। कोई कमी है हम लोग को? वा लयर जैसी
ऐ तहा सक नगरी म अपनी छत के नीचे बैठे ए ह। गुज़ारे को खासी पशन है। खासी
इसी लए क हमारे ख़च ही या ह। हारी-बीमारी के लए सी.जी.एच.एस. क सु वधा
मामूली नह । तो फर सांगीपुर क ब े भर क ज़मीन बँटवाकर कौन-सा खज़ाना झोली
म आ गरेगा! बड़े भैया के बड़के ने अपना वतमान-भ व य सब कुछ झ क दया हरह
क सानी-पानी और खेत-ख लहान क गोड़ाई-बोवाई म।
“बोलो, या चाहती हो तुम?” तन आए थे पाठक जी।
बोलने म नल ज हो आ । यान से उनक सुने। अपने इधर बीस बसुआ का बीघा
होता है और डेढ़ लाख त बीघे का हसाब चल रहा है। उनके ह से के छह बीघे के नौ
लाख बनते ह। नौ लाख क रकम छोट नह होती। ज़मीन क क मत और स थ पे
कमीशन के बकाए क रकम हाथ आएगी तो द वू के भाँवर क च ता से उ ह मु
मलेगी। आई.ए.एस. दामाद का सपना न व न प से साकार हो सकेगा। जहाँ तक
लड़क के पस द आने का है, बेट दे ख मजाल कोई मुँह फेर ले!
तंग हो आए पाठक जी ने प ड छु ड़ाया। इसी ह ते वह बड़े भैया को गाँव च
भेज दगे। उ ह प लख दगे क अपने ह से के छह बीघा खेत वे बेचने क सोच रहे ह।
बड़े भैया चाह तो उनके खेत वयं ख़रीद ल। उ ह भी अ छा लगेगा अगर घर क ज़मीन
घर म ही बनी रहे। आँगन- आर बँटवाने का उनका कोई इरादा नह है। वैसे भी उ ह नह
लगता क बड़के के तीन बेटे कूली श ा पूरी कर गाँव म बने रहगे और उ च श ा
हण कर गाँव लौटने क सोचगे। बड़के को भी आगे चलकर छोटकवू से बँटवारा कर
गाँव-दे हरी का खाता ब द कर ब च के संग रहने को मजबूर होना पड़ेगा।…
…बड़े भैया का छोटा बेटा छोटकवू यानी क एडवोकेट वीरे पाठक इलाहाबाद म
वकालत कर रहा है। बता रहा था उनसे क तगड़े आसा मय के झूठे-स चे मुकदमे हाथ
म न लेता वह, तो वा त वकता तो यह है क वकालत का काला कोट खूँट पर टाँग नगर
नगम क लक करने क नौबत आ चुक होती उसक ।
“ पछले महीने ही नैनी म हज़ार गज का लॉट ख़रीदा है छोटकवू ने!”
“ख़रीदा होगा, हमसे तो उधार नह माँगा उसने!” घसे रेकॉड-सी सूचना क
दोहराहट ने पाठक जी म गुराहट पैदा कर द ।
आगे इस वषय पर चुप रहना ही बेहतर लगा उ ह। गाड़ी तुगलकाबाद छू रही है…
तुगलकाबाद पार करते ही प हय क र तार धीमी होने लगी। घ टे भर वल ब से प ँच
रही नज़ामु न लेटफॉम पर ती ा करती द वू परेशान हो रही होगी।…
तेज़ ई दल क धड़कन उ ह दल के दन-ब- दन कमज़ोर होने क आशंका से
भर दे ती है। लेटफॉम क सी ढ़याँ चढ़ने म भी दम फूलने लगा है। पाठक जी को नह
बताती इस भय से क उनक दे ह क चूल कौन कम दली ई ह।…
गाड़ी यह ख़ म होती है, उ ह हड़बड़ाने क कतई ज़ रत नह , सोचा उ ह ने।
रा ते भर सामान पर नज़र गड़ाए ए आई ह। उतर जाएगा आराम से। अलब ा, कु लय
का बखेड़ा ज़ र है। वा लयर के कुली और द ली के कुली म फक है। द ली के
कु लय क मनमानी से भय लगता है उ ह। पाठक जी ने चेतावनी दे कर भेजा है उ ह।
उठवाई जो माँगे, सो चुपचाप दे दे ना।
खड़क से झाँकते ही द वू ठ क ड बे के सामने खड़ी दखी, ल बे से काले कोट
म। कुछ ल बी-सी लगी। पागल ने कान को ढँ कने के लए काफ य नह बाँध रखा?
इतनी रात म बाल के लहराते कट कौन दे खेगा!
वे अपनी सीट पर ही बैठ रह । सीट न बर द वू को पता है। ड बे म कुली घुसते
नज़र नह आए। मल जाएँग।े जाड़े के दन ह।
उतरती सवा रय से बचती द वू ‘माँऽऽऽ’ क गुहार लगाती उनक बाँह म समट
गई और वे गौरेया हो आ ।… व लता को आँख म छलकने से बरजा उ ह ने…। उ ह ने
महसूस कया। सीने से आ लगी बेट संयत है।
“माँ, सामान?”
उ ह ने सीट के नीचे इशारा करते ए उससे नीचे उतरकर कुली दे ख लेने का आ ह
कया।
“ज़ रत नह है कुली क । वक है न साथ!”
द वू क मुड़ती नज़र के साथ उसके ठ क पीछे आ खड़े ए लड़के क ओर दे खा
उ ह ने, जो उनक नज़र अपने ऊपर पड़ते ही उनके पाँव छू ने नीचे झुक गया। शालीन
सकुचाहट से सराबोर।
“आ ट , आप चलकर लेटफॉम पर खड़ी हो जाएँ, म सामान उतारता ँ।”
“येऽऽ सारा अपना सामान है?”
“तो ये ह वक उफ ववेक साहनी उफ सहपाठ मददगार। जे.जे.जे. क सहायक
ोजे ट मनेजर को घर दलवाने वाला!”
लेटफॉम पर आकर खड़ी हो ग वे उनके नदशानुसार।
हो शयार है लड़क उनक । सद क ठठु रती रात म जे.जे.जे. क सहायक ोजे ट
मैनेजर होने के बावजूद गुड़गाँव से नज़ामु न उ ह अकेले लेने आना, सु वधा से भरे
शहर के जो खम का सामना करते ए—आसान नह था। सामान उतरवाने से लेकर
कुली आ द के ब ध का ज़ मा आगे बढ़ वक ने ले लया अपने क ध पर। अ छ
मैनेजर है द वू, सोचा उनके मन ने।
मन ने मन को आ त भी कया। कूल, कॉलेज क दो ती ही असली दो ती होती
है। उसक जगह न र तेदार ले सकते ह न कायालय के सहकम , य क बीच म उनके
न कोई वाथ होता है न त पधा…
ऐसा नह है क द ली म उनके गाँव-जवार के लोग नह रहते। मगर उनसे उ ह ने
सदै व री बरती है। वरना ब च को आगरे का ताजमहल दखाने के बहाने वे वा लयर
का क़ला दे खने उनके घर आ टपकते।
इस मु े पर पाठक जी भी उनसे सहमत ह क पढ़ने वाले ब च को भूलकर भी
र तेदार क दे हरी नह लँघानी चा हए। कताब खोलने क बजाय ब चे वहाँ घर का
आटा गूँथते नज़र आएँग।े
गाड़ी वक चला रहा है। पीछे बैठे ए इ छा ई क वक क बगल म बैठ ई
द वू से पूछ ही ले, ‘गाड़ी अ छ है, तुमने ख़रीद वही है न?”
बना बोले ए जाने द वू ने कैसे सुन ली उसके मन क बात, “यह गाड़ी वक क
है माँ! ‘स ो’ म ट ल े रंग उपल ध नह था। शो म वाल ने कहा है क प ह-बीस
रोज़ लग जाएँगे गाड़ी क डलीवरी म। द ली तुम मेरी उसी गाड़ी म घूमोगी। बरई वाले
गुलाब जामुन लेकर आई हो न, माँ?”
“लाई ँ न!” फु लत हो आया जी, “ कान से ताजे बनवाकर लाए ह तेरे
पापा।”
आवाज़ मचली, “कहाँ रखे ह?”
“तेरे पाँव के आगे जो लाल रंग वाला एयर बैग रखा आ है न, उसी म ह, ट ल के
बड़े कटोरदान म।” सब दरका।
सावधानीपूवक एयर बैग उठाकर गोद म रख लया। गाड़ी चला रहे वक से अं ेज़ी
म पूछा, “गुलाब जामुन खाओगे?”
जाने वक ने या जवाब दया क उचटकर एयर बैग खोले बना ही सीट के नीचे
यथावत रख द वू पस से माल नकाल, वड न पर सघनाते कोहरे क नमी को
प छने लगी।
द वू का उचटना उ ह चा नह । आँख फेर उ ह ने खड़क से सटा ल । माल
नकाल खड़क का शीशा प छा। पघली चाँदनी-सी सघनाती धुंध क झीनी परत के
आर-पार सड़क के कनारे खुदे ए मले। बड़ी तेजी से मै ो द ली को ढोने के लए
कमर कस रही है। कभी सर के ऊपर से लाई ओवर गुज़रते ह तो कभी गाड़ी लाई
ओवर क सप ली छाती पर फराटे भरने लगती है। द ली कचुल बदल रही है, ऊँची-
ऊँची हैलोजन के सुनहरे आलोक म व लोक सरजती। आदमी पहले बदलता है या
शहर! कुछ आदमी शहर को बदलते ह, शेष आदमी शहर के बदलते ही वयं को बदल
लेते ह…
“सुनो माँ!” पीछे तरछे हो मुड़ते ए द वू ने चेहरा उसक ओर घुमाया, “मने तु ह
बताया था न, लैट सातव माले पर है?”
“बताया होता तो मुझे याद होता न! परेशान हो रहे थे सामान ऊपर कैसे चढ़े गा, घर
ऊपर आ अगर…”
“वो, आ ऐसे क इसी कॉलोनी म छोट वाली ब डंग म से एक तीसरे माले वाला
लैट पस द कया था पहले। ल ट न होने क वजह से उसे छोड़ दया।” अपनी सीट
पर सीधी हो गई द वू।
उधर ापी खामोशी उनके भीतर चटखने लगी।
हो सकता है, उ ह म आ हो। वक को ड बे से सामान ढोता दे ख द वू खीझी
लगी थी उ ह। लेटफॉम पर सामान उतार लेने के बाद ही जाकर कुली मला था। पाठक
जी क पुरानी पट से सले गए झोल का स पयोग भी अखरा होगा उसे। अ यू म नयम
का पुराना ं क दे ख बदक होगी। भारी-भरकम डबल बेड क रजाई सुर त लाने का
और या तरीका हो सकता था? पछले महीने ही कट न से दो ब ढ़या एयर बैग मँगवाए
ह पाठक जी ने ले कन उ ह हाथ नह लगाया, खर च पड़ने के अ दे शे से। कड़ाही, तवा,
चमटा पुराने झोल म ही भले। यह या जाने गृह थी के झंझट! घर ले लेने भर से घर
नह बस जाता। वे तो अपने संग न बू नचोड़ने क न बूदानी तक लेकर आई ह। कब
कस चीज़ क ज़ रत आन लगे, कौन जाने। उसके याह के लए उसके पैदा होते ही
चीज़-ब त जोड़ने-सँजोने लगी थी।
उ ह तो अपनी अड़तीस साल पुरानी गृह थी म भी लगता रहता है क वे अब तलक
अपनी बैठक को उस तरह नह सजा पा जस तरह सजाना चाह रही थ ।
“बस, आ गए माँ! वह रहा सामने इ को चौक। हम यह से मुड़गे।”
“मालूम है… पछली बार यह कसी मॉल म ले गई थी।” इ को चौक से गाड़ी बाएँ
मुड़ गई।
प ँच भी गए। रा ते भर दोन अं ेज़ी म लगातार ब तयाते रहे ह। इलाहाबाद
व व ालय से उ ह ने भी अं ेज़ी म एम.ए. कया है मगर एक बात उनके प ले नह
पड़ी। पड़ती कैसे? खुसर-फुसर गलब हयाँ डाले कान को ही समझ म आती है।
कॉलोनी बड़ी शानदार लगी उ ह। सजावट पेड़-पौध से सजी-धजी। गुलमोहर
अभी कद नकाल रहे ह। दो-चार वष के भीतर ही रहाइश के लए तैयार ई लगती है।
गेट से लगी गुमट के भीतर ज़ंग खाई कुरसी से ड डा टकाए, खाक वद म मीठ ऊँघ
ऊँघ रहे चौक दार तावड़े को गाली-गलौज भरे शोर ने सहसा हड़बड़ा दया। कान पर
व ास करने के लए उसने अपने ऊँघते शरीर को स यास समेटा, फर न खुलने के लए
ज़ या रही पलक को पटपटाया और शोर को समझने क को शश क । वा तव म शोर
हो रहा है, कोई सपना नह दे खा उसने। ऊँघ अभी भी उसक रान और जूत म कैद पंज
म बक ई, उसक अलसाई दे ह से मु होने को राज़ी नह थी।
शोर कुछ और प आ। गा लय के कुछ कतरे हवा का ख गुमट क ओर होने
के साथ ही इधर उछल आए। साथ ताल दे ती-सी तीखी ‘ताड़’… ‘ताड़’— कसी पतरे को
पीटने जैसी आवाज़…
दमाग स -से च का। पतरे पर हो रही चोट ने एक पल को सं म पैदा कया।
खा लस ट-गारे क इमारत के बीच पतरा आया कहाँ से? कुस पीछे ख चकर वह फुत
से खड़ा हो गया। वतः से बुदबुदाया, “कह से पन आया हो! जो हो रहा प का।
अपनाच कॉलोनी म…बाप रे!” उसने भुजाएँ मरोड़कर सु ती क आ खरी क त झटक
और गुमट से बाहर नकल आया। सहसा खयाल आया क ज़रा व पता कर ल। बा
कलाई पर बँधी धुँधली डायलवाली घड़ी उसने गौर से दे खी। डेढ़ बजने को था। इतनी
रात गए यह शोर?
ठमककर उसने शोर क दशा म टोह ली। शोर उसे तीन न बरवाली इमारत के
बेसमट से आता आ महसूस आ। गेट से तीन न बरवाली इमारत का फासला
बमु कल तीन-चार मनट पैदल का होगा। वह ड़ककर सरपट भागा। नीचेवाले घर म
शोर प ँच चुका था। कुछ लैट म जमघट हो चुक थी। कई सोई बालक नय क
रोश नयाँ उसके दौड़ते-न-दौड़ते जग उठ । कुछ अकुलाकर उसक ओर कूदे ।
“गुरखाऽऽ… या आ?”
“कौन गाली बक रहा?”
“कोई या तोड़ता? हम सोने को न सकता?”
उसने ककर कसी को कोई जवाब नह दया। पर जैसे ही वह तीसरे न बरवाली
इमारत के बेसमट म दा खल आ, सामने का य दे ख उसक आँख फट ग ।
सामने मो ा था। मो ा के हाथ म एक ल बी लपलपाती स रया थी। उसी स रये
से वह स सेना सा’ब क झ क सफेद ‘टोएटा’ पर नममता से हार कए जा रहा था।
साथ ही उगल रहा था जुगलब द करती भ , अ ील गा लय क बौछार।
पहले से ही सहमे-से खड़े चार-पाँच लोग क उप थ त से लापरवाह मो ा क
नज़र जैसे ही उस पर पड़ी, उसने पलटकर स रया उसक ओर तान लया, “आगे नह
बढ़ना होऽऽ…न तो खोपड़ी तुकड़े-तुकड़े करके छोडँगा…बोत अ छा घर म नौकरी
लगाया। अ बी, जाके वो बड़ा आदमी को बोल!…बोल उसको, अबी न चू उतर के आने
कू! कुतरे का औलाद न म गर मा…को ख लास न कया। ध का दे के नकाला न मेरे
कू दरवाजे से? काय कू? पूरा पगार माँगा न इसी वा ते? काट! बोलना, अ बी अ छा
तरीके से खाड़ा काट। दे खता म… बरोबर दे खता…भोत धाँधल सेन कया। अ बी स ा
होएगा वो से ठया…”
मो ा कुछ डग पीछे हटकर फरक -सा घूमा और अपनी पूरी ताकत नचोड़
स रया कार क वड न पर दे मारा।
‘छ ाक्!’ का शोर उठा। करच बखर नह , मसहरी क श ल म टँ गी रह ग ।
गा ड़य के सहारे टके ए लोग मो ा का यह व वंसक प दे ख भयभीत हो उ ह
गा ड़य क आड़ म बक गए।
तावड़े अपनी जगह पर से बना हरकत कए चीखा, “मो ा…!” उसके दाँत तनाव
से भच गए। भचे दाँत के सुराख से गुज़रती स सयाती आवाज़ म उसने मो ा को
चेतावनी द , “फक दे स रया, बेअकल…म बोलता फक दे , न तो स सेना सा’ब तेरी
बोट -बोट अपने जा ड़या कु को खला दे गा।”
“चु प बे च मच!” मो ा ने होठ पर बजबजा आए थूक को ‘ पच्’ से बगलवाली
फएट पर थूका, फर गरदन को झटका दे कर आँख तक छतरा आई लट को पीछे
फकने क को शश क , “ध स नह खाने का म, बोत चमकाया इस साली क बाडी को…
अ बी दे ख हाल! अ खा कालोनी उठ गया, वो सोता या उ पर? न ऽऽ…सोता न , डर
के ऊ परच बइठा। आने तो दे न चू, खोपड़ी न तोड़ा उसका तोऽऽ…वो जा ड़या मेम
सा’ब पन आएगी, म उसको भी न सोड़ेगा, न सोड़ेगा। सा’ब के सामने कइसी भीगी
ब ली सरखी बइठ होती? बोलने क न सकती होती, ताप (बुखार) म होता म?”
मो ा गाड़ी का पोर-पोर पीटे डाल रहा था। जैसे ही वह उसे धर दबोचने के लए
पतरा बदलता, पता नह कैसे मो ा को आभास हो जाता और वह पलटकर उसके
सामने स रया तान लेता। न पाय वह सर से लेकर पाँव तक सवाय काँपने के कुछ नह
कर पा रहा था।
कतने नौकर काम करते ह इस सोसाइट म। रोज़ नकाले जाते, रोज़ रखे जाते।
अ सर यहाँ काम करनेवाले लोग से ही नए नौकर ढूँ ढ़कर ला दे ने के लए कहा जाता।
उससे भी कहा गया। न जाने कतनी बाइय और छोकर को उसने कसी-न- कसी के घर
काम पर रखवाया। ऐसा ःसाहसी व ोही व प कभी कसी का नह दे खा। याद तय
का रोना सभी रोते, मगर मुँह पर उँगली दए, एक सीढ़ छोड़ सरी पकड़ लेत।े समझते,
जल म रहकर मगरम छ से वैर स भव नह । ेत- पशाच लग गया इस हरामखोर को या
मगज़ फर गया? सा’ब लोग का गु सा नह पता अभी इसको। गाड़ी क दशा दे खकर
स सेना सा’ब पगलाया साँड़ हो उठे गा…न क च।
वह मो ा क दशा क क पना कर सूखे प -े सा काँप उठा। कैसे रोके नादान
को? हाथ धरने दे तब न।
बना ाहक के बुक टॉल पर खड़े ए बाबू भाई उसे ल त-प त दे खकर त नक
च कत ए। ठ डी गाड़ी म चढ़ते ए भी छटं क का चेहरा उ फु ल रहता है, उतरते ए
भी ठ क यौता खाकर लौटे तृ त मानुस क भाँ त। उनक आँख भंटे हो आ “छटं कया!
पलट यूँ आया तू बे? तीन न बर पर ब बईवाली डील स लग रही है, भूल गया?”
उसने सुनी-अनसुनी मु ा अपनाते ए चैला हो रही कोह नयाँ यथाश उचकाकर,
प का के ग र को भीतर आने-जाने के लए इ तेमाल होनेवाले दरवाज़े से ऊपर को
खुलते-ब द होते प े पर खसका दया और बाएँ हाथ से दा हनी बाँह तेज़ी से रगड़ने
लगा। चैले म ाण ही नह फुँक रहे! कतनी बार वनती क है बाबू भाई से एकमु त
प काएँ न लादा कर उस पर। ले कन बाबू भाई चकने घड़े-से झड़क दे ते ह उसे
—“भरा-पूरा माल न दखे तो ाहक ललचेगा? अबे, खाली कटोरा दे ख दानी के हाथ भी
सु त पड़ जाते ह!”
उसने कन खय से दे खा। वदा करने आई ई भीड़ जेबकट हताशा म डू बी म थर
ग त से पलट रही है।
“एक चाय पी आऊँ?” उसका चेहरा खाली कटोरा हो आया।
“चौ पऽऽ! दमाग खराब आ है तेरा…ध धे के टे म सनक रहा है? ला हसाब दे ।
कतनी कॉपी ले गया था कुल…और प ँच तीन न बर पर!”
“साठ और इऽऽऽ बासठ।”
“बासठ क पसठ?”
वह वधा म पड़ गया। बाँह रगड़नी उसने छोड़ द ”हाँअऽऽऽ तीन आप चलने के
समय दये थे, वो तोप के मुँहवाली…” (ऑन लुकर)।
“सटाक् से लील जाता है हय? बोल कतनी ग , कौन-कौन-सी ग ?” फर
उतावले बाबू भाई मुड़कर वयं ग र गनने म जुट गए। आधे पर भी नह प ँचे ह गे क
तभी फुत से आयी एक कूली छा ा-सी लगती कशोरी ने कुमार क यप के नए
उप यास ‘ हन के सपने’ क माँग रख द । बाबू भाई के माथे क सलवट अ तधान हो
ग —“अभी ली जये, बेबी! धड़ाधड़ बक रहा है ‘ हन के सपने’…ब स, ये आ खरी
कॉपी बची है आपके लए।” उ ह ने खीस बगारते ए साफ झूठ बोला, और ‘ हन के
सपने’ नीचे रखे ढे र म से त परता से नकालकर कशोरी क ओर बढ़ा दया। लड़क
नय मत खरीददार लगी। मु म दबाए बारह पये करीने से लगी प का म से एक
के मुखपृ पर छोड़ वह तेज़ी से उप यास लेकर मुड़ ली। लेटफॉम पर गाड़ी क ती ा
कर रहे कसी प रवार से आँख बचाकर आई ई लगती है—बाबू भाई ने उसका इ तहास
अनुमान लगाया। बुक टॉल पर सुबह आठ से रात के दस- यारह तक खड़े-खड़े बाबू
भाई क ग या य क जेब से लेकर उनक औकात तौल लेने म मा हर हो चुक
है। लड़क के जाते ही प का के ग र क ओर बाबूभाई मुड़े तो छटं क को उ ह ने
प काएँ गनते ए पाया। पंज पर उचका आ वह प का के शीष पर प ँचने क
यथास भव को शश कर रहा था। क तु उस ऊँचाई तक उसे प ँचाने म उसके पंजे
असमथ स हो रहे थे। गनती भी गड़बड़ा रही थी। बाबू भाई ने उसे परे झटका और
उँग लयाँ थूक से गीली कर नोट क ग ी गनने क तज़ पर प काएँ सर-सर गनने
लगे। गनना ख म होते ही ंकारी-सी भरी उ ह ने”अड़तालीस ह बची…” मतलब, कुल
स ह बक , बस, स ह! तू तो बड़ा लपककर ठ डी गाड़ी म घुसता है बात बघारता
आ। पढ़ - लखी सवा रयाँ होती ह इस गाड़ी म और पढ़े - लखे बाबू ही टट ढ ली करते
ह…घ टे -भर स यानाश करके कुल स ह बेच तून… े ?”
“ला पैसे नकाल, भु च जैसा खड़ा या तक रहा है…तीन न बर वाली गाड़ी क
फकर है तुझे?” बाबू भाई उसके अकबकायेपन पर ु हो तराए।
वह नकर के खीसे से पये और रेज़गारी नकालकर अखबार पर रखने लगा।
बाबू भाई ने हसाब- कताब करने के लए प सल और पैड नकाल लया।
“इ डया टु डे कतनी?”
सवाल सुनकर उसक धड़कन तेज़ हो ग । कनप टयाँ गरमाने लग । ह मत नह
हो रही बताने क क उतरते-उतरते टकट बाबू ने कैसी फुत से ग र के ऊपर रखी
राजीव गांधी वाली प का धाँप ली थी! बोलना तो पड़ेगा ही। हसाब होना है।
“तीन…तीन म से एक…” उसने बोलने का साहस जुटाया ले कन बात मुँह म
घुमड़कर रह गयी।
“एक? या एक?”
“उतरते समय टकट बाबू ने एक उठा ली!”
“और तूने उठा लेने द ?”
वह आँख नीची कये अँगूठे से लेटफाम का मैला फश कुरेदने लगा। पता नह या
होगा अब! तीन-चार दफे वह पट चुका है इसी खा तर। मगर वह या करे?
“ चरौरी नह क , म मा लक नह , नौकर ँ, कहाँ से डाँड़ भ ँ गा…? अबे
वा जदअली शाह क औलाद! ड बे- ड बे टकट बाबू मलगे तुझे और तू उन सबको
मु त प का बाँटता फरेगा? खैरात बाँटने नकलता है क…” हाथ का पंजा तान
ो धत बाबू भाई एक भ -सी गाली प च-से उसके चेहरे पर थूक, खून पीकर रह गए।
“इस बार तेरे हसाब म कटगे, आगे बोल!”
उसका आँसा वर कुएँ म से आता तीत आ, “ ड पल कपा ड़या छह, नह
सात…नह छह…”
“गृहशोभा?”
“सात।”
“ च लेखा?”
उसने इनकार म मु डी हला द ।
“मनोरमा?”
कुछ नह सूझा क या जवाब दे । बाल पर धूप का च मा चढ़ाए ए मेम सा’ब
याद हो आ ।
“ फ मी क लयाँ?”
“एक…नह , वापस हो गई थी।”
“तो तीन ‘इ डया टु डे’ और एक ‘मनोरमा’ मलाकर कुल ग स ह और तू हसाब
दे रहा है तेरह का?” बाबू भाई ने प काएँ, सतकतापूवक बारा गन । हसाब पकड़ म
आ गया उनके। कतनी कौन-सी द थी इसे यान न रख तो समझ लो सब बँटाधार! यह
प -सा छटं क भी उ ह चूना लगाने से न चूके। हसाब लगा लया उ ह ने। कुल ए एक
सौ स ावन!
“ कतने ह तेरे पास?” कारोबार चलाना कोई हँसी-ठ ा है?
उसका वर काँपा, “एक सौ…अऊर चालीस अऊर तीन…”
“ या?” बाबू भाई क यौ रयाँ फर चढ़ बैठ —“ठ क से दे ख अपनी दोन जेब!”
उसने नकर के खीस म बारा हाथ डालकर उ ह खंगाला।
“ गर गये?” बाबू भाई ऊबे ए-से गरजे।
उसक आँख प नयाने लग । बाल पर ऐनक चढ़ाए वही मेम सा’ब और टकट बाबू
फर मरण हो आए।
“‘इ डया टु डे’ और ‘मनोरमा’ का दाम आ चौदह…” बाबू भाई हसाब जोड़ने
लगे। फर उसक ओर मुड़े। आज उसका प ा साफ! अबक नह माफ करगे उसे बाबू
भाई।
“ पछले तेरे ब ीस पये जमा ह हसाब म…नुकसान चौदह काट के बचे अ ारह…
आज क ब प ह…प ह के तेरे कमीशन के ए तीन पये, तो ए इ क स! ले
पकड़ अपने इ क स, और दफा हो सामने से। सदा त खोल रखा है मने! हअ?
भखमंग पर दया करके ऐसी ही लात लगेगी…एक के पीछे पया-डेढ़ पया मु कल
से कमीशन मलता है, बीस पैसे तुझे ँ कॉपी पीछे … या कमाऊँगा?”
उसके आँसू टप-टप बहने लगे।
“तू भोला नह है, छँ टा आ है, न बरी! चाट-चूट आया होगा पये… एकाध बार
तेरे टसु पर पसीज या गया क तू चराने लगा जब-तब?”
वह हचक भर गड़ गड़ाया, “एकाध वसूली रह गयी…गाड़ी छू टने को थी, छु े
नह होते पास, सो छोड़ने पड़ते ह पैसे उन पर…कुछ छु े संग ह न तो फर ऐसी भूल
आगे नह होगी…”
“ऐसी भूल आगे नह होगी… या व ास तेरा क तू प का और पैसे समेत
च पत न हो जाए कसी दन? हय? मेरे ही मुँह पर हाथ फेर रहा है छटाँक-भर का तू?
भूल गया, तीन दन का उपासा पड़ा सूख रहा था यह लेटफॉम पर? पेट म अ पड़ते
ही नीयत गर गट हो गई ना…भाग, नह तो गनकर पचास ँ गा…”
प े के नीचे से घुसकर उसने पाँव पकड़ लये बाबू भाई के”एक मौका अऊर दो…
एक!”
बाबू भाई क टाँग जैसे अंगार छू ग । नममता से उसे परे धकेल वे आपा छोड़कर
इतनी ज़ोर से चीखे क सामने से गुज़र रहे फल क रेहड़ीवाले गु ता ककर उनक ओर
कौतूहल से दे खने लगे।
उसने फुत से उठकर पुनः बाबू भाई के पाँव धर लए। इतने बड़े भरे-पूरे लेटफॉम
पर बाबू भाई ने ही पसीजकर उसे पहला चाय का याला पलाया था। अपने बुक टॉल
के नीचे सो रहने क अनुम त द थी। पु लसवाल को समझा दया था क वे उसे द क न
कर। उनका प र चत है। उ ह के पास घर से भागकर आया है।
“भैया, मोर भैया! एक मौका अऊर दे दो! अबक जो गलती ई…न छमा
करना!” वह उनके पाँव छोड़ने को राज़ी नह आ। जाएगा भी कहाँ! न गाँव म ठौर-
ठकाना, न इस शहर म। अ मा क आँखे मुँदते ही मामी आमीशंकरपुर लवा ले गई थ ,
मगर पूरा दन ढोर-ढं गर क सानी-पानी करने के बाद भी भरपेट पनेथी नह जुहाती थी
उसके लए…।
बाबू भाई के भ ाये दमाग म नफे-नुकसान क काँटेबाजी चलने लगी। नुकसान म
फर भी कौन ह वे? उ ह या! उनको उनका कमीशन मलता रहे, प का बककर मले
या ल डे के हसाब से कटकर मले, बात एक ही है। फर बीस-प चीस पये रोज़ से नीचे
कोई दहाड़ी करने को मलता भी तो नह ! 20 पैसे कमीशन पर छोकरे राज़ी कहाँ होते
ह काम के लए?
“उ !” उ ह ने छटं क को अपना पाँव छोड़ने का संकेत कया और बगल म धरी
प का के ढे र म, सात ‘गृहशोभा’, चार ‘इ डया टु डे’, छह ‘ टारड ट’ और एक
‘मनोरमा’ मलाते ए ग र उसक ओर बारा सरका दया—“अबे, घ घे-सा या तक
रहा है! दे ख नह रहा? पाँच बजने को ह? लपक तीन न बर पर, ब बई जाने वाली
डील स छू ट न जाए कह …दौड़ सरपट!”
उसने कृत से बाबू भाई क ओर दे खा और फर फुत से प का का ग र
गोद म कौ रया, लेटफाम से कूदकर, लाइन ॉस कर तीन न बर लेटफाम पर चढ़ने
लगा।
कतना ठसम्-ठ स है लेटफाम पर—त कया के मेले-सी! पल-भर क भी
असावधानी का मतलब होगा, प काएँ भरभराकर सवा रय के तलुव के नीचे!
प का के ग र को उसने नवजात शशु क भाँ त सीने से चपटा लया। अब ठ क है।
उसे चाहे जो हो जाए, प का को कुछ नह होना चा हए। नह तो उसक नई ब कल
वाली नकर फर हसाब म कट जाएगी! यह तो प का है, कसी सवारी के पास छु ा
नह आ तो वह उसे प का नह बेचेगा। दे खने को भी दे गा तो डटकर सामने खड़ा
रहेगा। पढ़े - लखे लोग ऐसे होते ह? अ मा उसे ऐसा ही पढ़ा- लखा बनाने का सपना दे ख
रही थ !
गाड़ी छू टने को है। ब होने से रही। ड बे म धँसना स भव नह । पाखाने तक
सामान का अ बार लगाये बैठ ई ह सवा रयाँ। बाहर से खड़क - खड़क घूमना ही
उ चत होगा।
“ए लड़के! ‘ फ मी क लयाँ’ है?” कसी सवारी ने उसे आवाज़ लगाई। उस
खड़क पर से वो बाबू जी झाँक रहे ह उसे पुकारते।
वह फुत से लपका।
“है न, बाऊ जी!” कलककर उसने प का का ग र गाड़ी क द वार से सटाया
और ‘ फ मी क लयाँ’ त परता से ढे र म से ख चकर खड़क के स खच के अ दर बढ़ा
द।
“ कतने?” सरसरी तौर पर प का का जायज़ा लेते ए बाबू जी ने पूछा।
“ब स, सात पये, बाऊ जी!”
“छु े ह तुझ पे?”
उसका चेहरा असमंजस से घर आया, “छु े दे द जये न, बाऊजी!”
“छु े ह नह , पचास का नोट है।”
“ह तो…”
“होते तो दे ता नह ?”
सहसा उसके दमाग म कुछ क धा। उसने लपककर बाऊ जी के हाथ से पचास का
नोट ले लया—“अभी कान से छु ा लेकर आया, बाऊ जी…ब स तीन ड बे छोड़कर
है बुक टॉल, यूँ गया, यूँ आया…”
ग र लए उसके मुड़ते ही गाड़ी ने अचानक रगना शु कर दया।
बाऊजी स खच से चेहरा सटाये घबराए वर म च लाये, “ज द ला, भैया!”
उसका दल उसक उभरी पस लय को तोड़कर उछलकर बाहर आ जाने को है।
आगे बढ़ते ड ब के संग हाथ हलाती बढ़ रही भावुक भीड़ को चीरते ए वह पीछे को
बढ़ने लगा। रजवशन के चाट बोड के नकट प ँचकर वह चाट बोड के पीछे बक गया।
वहाँ खड़े ए वह प दे ख रहा है क ‘ फ मी क लयाँ’ वाले या ी बाऊजी घबराये ए-
से दरवाज़े पर आ गए ह और लटके ए-से पीछे छू ट रही भीड़ म उसे उचक-उचककर
खोज रहे ह! गाड़ी लेटफॉम का आ खरी सरा छोड़ रही है।
उसके मन म हसाब- कताब चल रहा है। पचास म से बाबूभाई को सात दे कर
बचे…बचे ततालीस! ततालीस म से ठ डी गाड़ी वाले नुकसान ए चौदह कट गए तो बचे
उनतीस…
वह तेज़ी से पलटकर लेटफॉम क सी ढ़याँ चढ़ने लगा। पता नह य , प का
का ग र एकाएक ब कलवाली नकर म बदल गया।
जगद बा बाबू गाँव आ रहे ह