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Horror Sex Kahani अगिया बेताल - Printable Version.
Horror Sex Kahani अगिया बेताल - Printable Version.
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अगिया बेताल
मैं उस दृश्य को देख रहा था। इससे पहले भी मैंने लोगों के मुँह से सुना था, पर मुझे यह सब देखने का अवसर पहली बार
मिला था। मैं स्तब्ध था कि यह सब जो मैं देख रहा हूँ - इसमें कितनी सच्चाई है। कल तक जो बात कानो सुनी थी, वह प्रत्यक्ष
नजर आ रही थी।
हवा बर्फ की तरह सर्द थी। ऊपर से पानी बेहिसाब बरस रहा था। बादल आसमान का सीना फाड़े दे रहे थे और कु छ-कु छ
समय का आराम दे कर इस प्रकार गड़गड़ा उठते जैसे पास की पहाड़ी पर सैकड़ो डायनामाइट फट गए हो। हवा की सायं-
सायं उस वक़्त जब बदल शांत होते, महसूस होता कि जैसे बदल कु छ देर के लिए सांस ले रहे हो। एकाएक बिजली कौंधती
और सारी धरती तेज़ उजाले में स्नान करती प्रतीत होती।
यह एक बेहद बरसाती तूफानी रात थी। हालाँकि मेरे शरीर पर बरसाती थी पर पानी से सराबोर हो चुकी थी। बरसाती यूँ जान
पड़ती जैसे मैंने बर्फ की चादर ओढ़ ली हो।
हवा नश्तर बन कर चुभ रही थी। रह-रह कर मैं सिर से पांव तक दहल जाता। यदि मैं अके ला होता तो मेरे कदमो में ठहराव न
रहता और कभी का ज़मीन पर लोट चुका होता। दहशत दिल में राज कर लेती, पर सौभाग्य से मेरे साथ लठै त थे, जिनके पास
कहने को एक-एक गज का कलेजा हुआ करता था। सांझ होते ही जब मैं चला था तो मैंने उन्हें साथ ले लिया था। इसलिए
नहीं कि मैं डरपोक था, इसलिए भी नहीं की रास्ते में चोर डाकु ओं का भय रहा हो। असल बात यह थी की उस इलाके में जहाँ
हमे जाना था आदमखोर चीते का आतंक फै ला हुआ था और वह इक्के -दुक्के आदमी पर कहीं भी हमलावर हो सकता था।
इस कारण मैंने दो लठै तो को साथ ले लिया था।
जब मैं चला तो सांझ घिर आई थी। बादल तो सुबह से ही आसमान पर अपना कब्ज़ा किये हुए थे और दो मील चलते-चलते
बूंदा-बांदी भी होने लगी थी। अब तो चलते-चलते चार घंटे बीत गए थे। बारिश का अन्देशा पहले से ही था इसलिए बरसाती
लेता आया था, साथ में शिकारी टार्च थी और कं धे पर आवश्यक सामन का एक थैला लटका हुआ था।
मुझे खबर मिली थी की मेरे पिता का देहांत हो गया है इसलिए जाना लाजमी था, क्योंकि मेरे अलावा पिता की कोई संतान
नहीं थी। यूँ तो मेरे पिता ने बहुत बार मुझे बुलाने का प्रयास किया था परन्तु मैं कभी वहां गया ही नहीं था। बचपन तो वहां
बीता ही था, जिसकी धुंधली सी स्मृतियाँ शेष थी। कभी कभार पिता की चिठ्ठी पत्री भी आ जाया करती थी। मैं शहरी
आबोहवा में पला था। मेरे चाचा की कोई संतान नहीं थी। वे शहर में रहते थे और मुझे बहुत ज्यादा प्यार करते थे, और उन्होंने
भरसक प्रयास किया था कि मैं अपने पिता की छत्र-छाया में न पलूं।
बचपन में कु छ घटनायें ऐसी भी घटी जिसके कारण मैं अपने पिता से भयभीत हो गया था और उनसे नफरत करने लगा था।
जब थोड़ा समझदार हुआ तो मुझे इसका कारण भी समझ में आ गया कि मेरे चाचा ने क्यों मुझे पिता की छाया से दूर रखा
और उनका यह सोचना मेरे हित में था। यदि ऐसा ना होता तो मैं विज्ञान का स्नातक न बन पाता और मेरी जिन्दगी में जो
खुशहाली आने वाली थी, वह मुझसे दूर हो जाती और मैं भी अपने पिता सामान घृणित गन्दी जिंदगी व्यतीत कर रहा होता।
छः माह पहले मेरा अप्वाइन्मेंट विक्रमगंज में हुआ था। मुझे ख़ुशी हुई कि मैं अपने गाँव के करीब बनने वाले एक सरकारी
अस्पताल में डॉक्टर की हैसियत से आया हूँ। पर इस दौरान मैं एक बार भी पिता से मिलने नहीं गया था। हलकी सी खबर मेरे
कान में पड़ी कि मेरे पिता पागलों के समान आचरण करने लगे हैं। यह भी खबर सुनी थी की पिता ने तीसरा विवाह कर लिया
है बुढ़ापे में किसी युवती को रख लिया है। ये उड़ती-उड़ती खबरें मुझे प्राप्त होती रहती थीं पर इस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं
होता था। मेरे पिता के आचरण को देखते हुए यह स्वाभाविक बात थी। इससे पहले सौतेली मां की मार तो बचपन में भी खा
चुका था और अपनी मां की शक्ल तो जेहन में भी नहीं उभर पाती थी। बस सुना ही सुना था की मेरी मां धार्मिक विचारों की
थी और उसकी मेरे पिता से कभी भी नहीं निभ पाई थी।
मेरे पिता एक तांत्रिक थे और पूरे इलाके में मेरे पिता साधुनाथ का भय व्याप्त था। हर बुरे काम जादू-टोने, तंत्र-मंत्र के लिए
सधुनाथ प्रसिद्ध था और उसने कईयों के घर बर्बाद कर दिए थे। न जाने कितनी स्त्रियों और कुं वारी लड़कियों से उसने अवैध
सम्बन्ध कायम किया था और उनकी कारगुजारियों के खिलाफ कोई आवाज नहीं निकालता था। जो ऐसा करता उसे तांत्रिक
का दंड भुगतना पड़ता। बहुत से लोग मेरे पिता के पास इसलिए आते ताकि दूसरों को हानि पंहुचा सकें और बदले में मेरे
पिता उनसे मोटी-मोटी रकम ऐंठा करते।
वह अधर्मी क्रू र और साक्षात यमराज लगता था। यहाँ यह कहने में मुझे जरा भी हिचक नहीं कि मैं अपने बाप से अत्यंत घृणा
करता था। मेरे मन में उनके प्रति कभी कोई आदर की भावना नहीं ऊपजी। और यदि उसे पहले मालूम हो जाता की मैं उनके
चंगुल में नहीं आऊं गा तो वह मेरे टुकड़े-टुकड़े कर देता।
परन्तु उसकी मौत का समाचार पाकर मुझे दुःख हुआ कि हम बाप बेटों में कभी सुलह ही नहीं हुई। एक तनाव भरा वक़्त
गुजरकर हाथ से निकल गया और वह तांत्रिक सदा के लिए दुनिया छोड़कर चला गया।
न जाने कितने लोगों ने चैन की सांस ली होगी पर मुझे दुःख तो था ही। कु छ भी हो, वह मेरा बाप था। मुझमे उसी का रक्त
संचार हो रहा था।
विक्रमगंज से बारह मील दूर एक पुराना रजवाड़ा था सूरजगढ़। अब वह कस्बे में बदल गया था... पर सूरजगढ़ी अब भी वहां
मौजूद थी। सूरजगढ़ी में रजवाड़े के वंशज ही रहते थे। इन दिनों ठाकु र भानुप्रताप उस गढ़ी के मालिक थे, जिनका आज भी
पूरे क्षेत्र में दबदबा था। परन्तु लोग कहते है कि ठाकु र की सधुनाथ से ठनी हुई थी और दोनों एक-दूसरे के जानी दुश्मन थे।
इस बात में कितनी सच्चाई थी, मैं नहीं जनता था और न उनकी आपसी दुश्मनी का कारण जानता था।
इस वक़्त तो मैं अपने सफ़र पर चलता-चलता रुक गया था। कोई सवारी न मिलने के कारण हम लोग पैदल ही चल निकले
थे, क्योंकि सवेरे से पहले अपने पिता का दाह संस्कार करने मुझे वहां पहुँचना था।
सारे वातावरण में रात की काली चादर तनी थी। मूसलाधार वर्षा के कारण अन्धकार और भी हो गया था। मुझे अपने साथ
चलने वाले लठै त के क़दमों की चाप सुनाई देती, पर उनके शरीर नजर न आते। टार्च के प्रकाश से मैं उन्हें देख लेता। कभी-
कभी हम एक दूसरे से बातें कर लिया करते, ताकि भयपूर्ण वातावरण हम पर हावी ना हो जाए।
मेरे ठिठकने का कारण नदी का वह विशाल अलाव था जो प्रचंड वेग से आकाश की ऊँ चाइयों तक उठता और क्षण भर में ही
सिमटकर गायब हो जाता। देखते-देखते वह विकराल रूप धारण कर लेता, फिर अनेक शोले वायुमण्डल में दूर तक तैरते चले
जाते। इतनी भयंकर वर्षा में इस प्रकार का अलाव का जलना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। इसीलिए मैंने लठै तों को भी रुकने
का आदेश दिया।
“क्या बात है साहब बहादुर?” उनमे से एक ने पूछा “आप रुक क्यों गये?”
“वह देखो...।” मैंने उस तरफ इशारा किया – “ऐसा विचित्र दृश्य तुमने कभी नहीं देखा होगा। मुसलाधार पानी बरस रहा है
और वहां आग लगी है।”
दूसरा लठै त कु छ सहमे स्वर में बोला – “वह शमशान घाट है साहब बहादुर। हमे उस तरफ देखने की बजाय आगे बढ़ना
चाहिए।”
“नहीं साहब बहादुर... वहां एक पुराना बरगद का पेड़ है, आग उसी के नीचे है। वह कोई चिता नहीं,पानी बरस रहा है, ऐसे में
चिता आग कै से पकड़ सकती है।”
“जी नहीं... और यह कोई नई बात नहीं। अक्सर वहां यह होता रहता है।”
दोनों लठै त चुप हो गये। शायद वह दिल की बात कहने में सकु चा रहे थे, या किसी प्रकार के भय ने उन्हें जकड़ लिया था।
“साहब बहादुर वह आग नहीं – अगिया बेताल है।” वह कु छ सहमे स्वर में बोला – “और हमारा इस प्रकार की लीला देखना
ठीक नहीं।”
“नॉनसेंस – तुम लोग न जाने किस दुनिया में रहते ही – चलो चलकर देखा जाए।”
“साहब बहादुर...” दूसरा लठै त घबराये स्वर में बोला – “ऐसा सहस दिखाना बेवकू फी है शम्भू ठीक कहता है। अगर हमने
उनके खेल में बाधा डाली तो हम जिन्दा नहीं बचेंगे।”
“तो साहब बहादुर ! आप ही बताओ खुले आसमान के नीचे इतनी तेज़ बारिश में चिता कै से जल सकती है?”
अब मैं खामोश हो गया। इस प्रश्न का जवाब खोजने के लिए तो मैं वहां रुका था। यह हड्डियों की फास्फोरस का चमत्कार भी
नहीं हो सकता था। हालाँकि वह स्थान हमसे अधिक दूर नहीं था। मैंने सुना था की मेरे पिता ने जो नया मकान बनाया था, वह
मरघट के नजदीक ही पड़ता था और तंत्र सिद्धि के लिए वे शमशान घाट पर ही अपना अधिक समय बिताया करते थे। कु छ
लोगों का कथन था कि सधुनाथ ने वह मकान भूतों के लिए बनाया है और वे असंख्य प्रेत उसी में रहते है।
मेरे पिता का शव उसी मकान में रखा गया था और सूरजगढ़ का कोई इंसान इस क्रियाकर्म में सम्मिलित नहीं होना चाहता
था।
मैं शमशान में जाकर उस आग का प्रत्यक्ष दृश्य देखना चाहता था, परन्तु मेरे साथी लठै त किसी भी कीमत पर वहां जाने के
लिए तैयार नहीं थे।
“अगर हम अपने नए मकान तक पहुँचने के लिए वही रास्ता अपनाये तो क्या बुराई है। यदि वह अगिया बेताल है तो मुझे
उससे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो जायेगा।” मैंने कहा।
एक सर्द लहर चली और बादलों ने घमासान युद्ध छेड़ दिया फिर चकाचोंध पैदा करती कड़कड़ाती बिजली की लहर जमीन
की तरफ दैत्याकार जिव्हा की तरह लपकी और बारूद की गुफा फट जाने जैसा जबरदस्त धमाका हुआ।
अगर मौसम इतना खतरनाक नहीं होता तो शायद मैं अपने निर्णय से पीछे नहीं हटता। पर ऐसे भयानक मौसम में दिल
स्वाभाविक रूप से कमजोर हो जाता है। सांय-सांय की आवाज़ कानों से टकरा रही थी, जो पास बहने वाली नदी की थी।
हम वहां अधिक देर नहीं ठहर सके । बिजली चमकती तो उसका उजाला चारो तरफ फै लने पर कोई हलचल नजर नहीं आती।
मैं उन बातों पर विश्वास नहीं करता था, परन्तु हालत ऐसे थे कि मुझे विश्वास करना पड़ रहा था। इस अनोखे घटना चक्र के
बीच जूझता मैं अपनी मंजिल तय कर रहा था पर मैंने मन ही मन यह तय कर लिया था कि इस भेद को अवश्य जानूँगा –
भले ही इसके लिए मुझे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। यह तो प्रकृ ति की एक रहस्यमय खोज साबित होगी।
मेरे भीतर का मानव मुझे इस खोज के लिए प्रेरित कर रहा था। झाड़-झुरमुट और काले दैत्यों के सामान झूमते वृक्षों के तले
हम आगे बढ़ रहे थे। अब मंजिल अधिक दूर नहीं थी।
हमें सीधे नए मकान में जाना था, क्योंकि मेरे पिता का शव वही रखा गया था। कु छ देर बाद ही मकान का प्रकाश चिन्ह नजर
आना शुरू हो गया।
पगडण्डी मकान के निकट से गुजरती चली गई थी। यह अके ला मकान तूफानी वर्षा से संघर्ष करता प्रतीत हो रहा था।
आसपास कोई मकान नहीं था। पूर्व में स्याह जंगल के चिन्ह और मकान के पीछे खंडहरों का ऐसा सिलसिला जो कहीं भी
ख़त्म होता प्रतीत नहीं होता था।
बिजली की चमक में रह-रह कर मकान के आस-पास का हिस्सा नजर आ जाता था। मकान में गहरी ख़ामोशी व्याप्त थी।
किसी का भी रुदन सुनाई नहीं पड़ता था और न कोई आदमी नजर आ रहा था।
मुख्य दरवाजे के पास लालटेन लटकी हुई थी जिसका मद्धिम प्रकाश बरामदे को भय से मुक्त करने का असफल प्रयास कर
रहा था। सामने एक छोटा सा सेहन था, झाड़ियाँ जिसमें उगी नजर आ रही थीं। सेहन के चारो तरफ तारों का घेरा कसा था
और बीच में लकड़ी का बेढंगा सा फाटक, जो आधा टूट गया था।
दायें भाग में एक बड़ा वृक्ष खड़ा था उस पर पत्तियों का कोई चिन्ह नजर नहीं आता था, सिवाये सूखे तनो के । उसके पास
अपना कहने को कु छ नहीं था।
हमने बरामदे में कदम रखा।
हवा के झोंके ने लालटेन पर जोर अजमाया और वह थोड़ा टसमस होती प्रतीत हुई, पर उसकी रौशनी पर कोई अंतर नहीं
पड़ा।
बरामदे की छाया में पहुँच कर तनिक राहत मिली। हवा के झोंके अब भी रहा सहा क्रोध प्रकट कर रहे थे, शायद हमारे यहाँ
सफल पहुँच जाने पर हारे हुए जुआरी की तरह झुंझला रहे थे। हमने कपडे झाड़ कर उन्हें रुखसत किया फिर मैं दरवाजे की
तरफ बढ़ा।
दरवाज़ा भीतर से बंद था। मैंने उसे जोर-जोर से थपथपाया। कु छ देर तक भीतर की आहट सुनने के लिए हाथ रोक दिया।
थपथपाहट की प्रतिक्रिया तुरंत हुई। किसी की भारी पदचाप सुनाई दी जो निरंतर दरवाजे के निकट आ रही थी। पदचाप
दरवाजे के निकट रुकी, फिर दरवाज़ा चरमराता हुआ खुल गया।
लालटेन के प्रकाश में पीला सा रुग्ण चेहरा नजर आया। मेरे लिए यह चेहरा अजनबी था। मैं पुरे अट्ठारह वर्ष बाद इस तरफ
आया था, इसलिए जिन लोगों को जानता भी था, उनकी स्मृति भी अब शेष नहीं रही थी।
“पैलागन बाबा!” लठै त संभु ने उस अजनबी को दंडवत किया –”हम साहब बहादुर को ले आये।”
“तुम आ गए बेटा रोहताश।” बूढ़े बाबा ने गंभीर स्वर में कहा – “पहचानने में भी नहीं आते, बहुत बदल गए हो।”
यूँ ब्रह्मानंद मेरे सगे ताऊ नहीं थे। पर उनके मेरे पिता पर बहुत से अहसान थे। मैं क्या सारा सूरजगढ़ उन्हें या तो ताऊ जी
कहता था या बाबा। वे सारी उम्र ब्रह्मचारी रहे थे। बाद में वे सन्यासी हो गए और सारी सम्पति मेरे पिता को दे दी थी। मैं उनके
बारे में अधिक कु छ नहीं जानता था।
मकान के भीतर की दीवारें मैली कु चैली थी और कोई स्थान ऐसा नहीं था, जिसे साफ़ सुथरा कहा जाए।
भीतर के कमरे में पांच छः आदमी थे, वे भी शायद कर्त्तव्य भावना के वश आ गए थे। इतने बड़े सूरजगढ़ में उनकी मृत्यु का
शोक मानाने वाले वे ही आदमी थे। हम लोगों ने परिचय प्राप्त करने की अनोपचारिकता बरती... फिर मुझे पिता के शव के
अंतिम दर्शन कराये गए। पिता का चेहरा पहचानने में नहीं आता था।
बाप बेटे का संघर्ष ख़त्म हो गया था। मुझे दुःख इसी बात का था कि हमारे बीच कभी समझौता नहीं हुआ। फिर मैं वापिस
आकर सब लोगों के बीच बैठ गया, जो साधुनाथ के गुणों का बखान करते हुए उनकी आत्मा को शांति पंहुचा रहे थे। मकान
के सभी कमरे बंद थे।
मैं अपनी सौतेली मां के बारे में पूछने की सोच रहा था, परन्तु न जाने क्यों खामोश ही रहा। अब मैं यहाँ आ गया था तो सब
कु छ धीरे-धीरे मालूम हो ही जायेगा।
“न जाने कै से उसे पहले ही अपनी मृत्यु का आभास हो गया था... उसने मुझे तार दे दिया था।” ताऊ जी ने कहा – “मैं तो उसे
सारी जिंदगी समझाते-समझाते हार गया मगर उसने तंत्र-मंत्र की दुनिया नहीं छोड़ी। भगवन जाने वह क्या सिद्धि प्राप्त करना
चाहता था।”
“क्या जाने बेटा...साधू के दुश्मन भी तो कम नहीं थे।” ताऊ जी ने कहा – “अब तो हमे सिर्फ उनका दाह संस्कार करना है।”
मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पिता की मृत्यु स्वाभाविक मौत नहीं है, उसके पीछे कोई न कोई भेद अवश्य है। न जाने कौन सी बात
मस्तिष्क में खटक रही थी फिर भी मैंने इस जांच पड़ताल में पड़ना मुनासिब नहीं समझा।
इस प्रकार एक बुराई का अंत हो चुका था। सवेरे मेरे पिता की चिता शमशान घाट पर लग गई। उस समय बारिश थम चुकी
थी पर बादलों ने आसमान खाली नहीं किया था।
वह भारी भरकम बरगद शमशान से आधा फर्लांग दूर पार्श्व भाग में खड़ा था, और मैं बार-बार उसी की तरफ देखे जा रहा था।
पिछली रात शम्भू ने उसी बरगद का जिक्र किया था – उसका कथन था आग वहीं लगी थी और वह अगिया बेताल का घर
था।
लेकिन इस वक़्त वहां कु छ भी नहीं था। पूरे शमशान में पिछली रात लगी आग का कोई निशान तक न था न ही वहां पिछले
सात रोज से किसी की चिता जली थी।
पिता की मृत्यु पर बाल मुंडवाने की रीति पूर्वजों से चली आ रही थी अतः मुझे भी उस रीति को दोहराना पड़ा और नउए ने
बड़ी बेदर्दी से मेरे लच्छेदार घुंगराले बाल उड़ा कर खोपड़ी को सफाचट कर दिया।
नये मकान पर ताला डालकर मैं क़स्बा सूरजगढ़ की और चल दिया, वहां हमारा पुराना मकान था। मुझे यह देखना था कि मेरे
पिता के पास कितनी जमीं-जायदाद शेष रही थी। पूरे अट्ठारह साल बाद मैं उस कस्बे में लौट रहा था।
ताऊ जी ने मुझे बताया था कि मेरे पिता की तीसरी पत्नी इसी मकान में रह रही है। वह उसी जगह रह कर अपने पति का
शोक मना रही है।
गंजे सर को ढकने के लिए मैंने उस पर कपड़ा लपेट दिया था। मेरे लठै त साथी विदा हो गए थे। और वे लोग भी, जिन्होंने
चिता में मेरा साथ दिया था।
इन अट्ठारह बरसों में सूरजगढ़ काफी विकसित हो गया था, उसका क्षेत्रफल बढ़ गया था और वहां बिजली की राहत भी पहुच
गई थी, फिर भी कस्बे के अधिकांश घरों में बिजली नहीं पहुची थी। किन्तु सरकार ने अपने कोटे में सूरजगढ़ का नाम भी
लिख लिया था, वह भी ठाकु र भानुप्रताप की दौड़ धूप से हो पाया था, अन्यथा नया डैम बनने तक समस्या उलझी हुई थी।
सूरजगढ़ का सबसे शक्ति संपन्न व्यक्ति ठाकु र भानुप्रताप सिंह ही था, जिसका दूर दराज तक बोलबाला था, गढ़ी में रजवाड़ो
की शान अब भी देखने को मिलती थी। भानुप्रताप आज भी सूरजगढ़ी को अपनी मिलकियत समझते थे।
जब मैं कस्बे में पहुंचा तो सूरज ढलने को आ रहा था। वृक्षों के साये लम्बे पड़ने लगे थे और पक्षी अपने रैन बसेरों की ओर
उड़ने लगे थे। आसमान पर अब इक्का-दुक्का खरगोशी रंग के बादल तैर रहे थे, जो अब शाम के धुँधलके में खोते जा रहे थे।
मकानों की छतों पर हल्की लालिमा शेष थी परन्तु आँगन सुरमई होने लगे थे। कस्बे में छोटे मोटे झोपड़ो से ले कर आलीशान
मकान तक नजर आ रहे थे।
मुझे अपना पुराना मकान तलाश करने में अधिक देर नहीं लगी। यह मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, और इसमें अजीब से
खोखलेपन का बोध होता था। शायद इस बूढ़े मकान की बरसों से मरम्मत नहीं हुई थी और यह ढहने को तैयार था।
यही वह मकान था, जहाँ मेरा जन्म हुआ था। इसी मकान के आँगन में मेरा बचपन खेला, मानस पटल पर इसकी हलकी सी
स्मृति शेष थी।
आँगन में घास उग आई थी। नीम का पेड़ बूढा हो चला था, ऐसा जान पड़ता जैसे मकान का मनहूस साया उस पर भी पड़ता
रहा हो और वह भी दिन-ब-दिन सूखता चला गया हो।
सूने आँगन को पार करता हुआ मैं मकान की दहलीज़ पर चढ़ गया। दरवाज़ा खुला था। भीतर कु छ स्त्रियों के धीमे-धीमे बात
करने का स्वर उत्पन्न हो रहा था।
“रोहताश!”
“रोहताश... अरे बबुआ तू है...।” बुढ़िया के स्वर क्षणिक ख़ुशी आई फिर विलीन हो गई।
“हाँ मैं हूँ ... साधुनाथ का बेटा... यह घर हमारा ही है ना ...।” मैंने अपनी शंका का समाधान किया
“हाँ बेटा तेरा ही है। मुझे पहचाना नहीं... अरे मैं दादी हूँ... तुझे गोद में खिलाया है बेटा... कितना बड़ा हो गया है तू... पर बेटा
– बहुत देर हो गई।”
मैं नहीं पहचान पाया कि वह कौन है... मुझे याद न था की मुझे किस-किस ने गोद में खिलाया था।
“तेरा बापू तुझे बहुत याद करता रहता था बेटा... बहुत रोता था—बेचारे को संतान का सुख भी नहीं मिला...।”
वह मुझे एक कमरे में ले गई जिसमे एक टूटी सी चारपाई पड़ी थी और फर्श पर दरियों के कु छ टुकड़े बिछे हुए थे।
“अरे हमारा क्या बेटा – अब तो कब्र में पैर लटक रहें है—अच्छा, तू बैठ मैं तेरी मां को खबर देती हूँ।”
“माँ।”
“कौन सी माँ ?”
“मुझे तो याद भी नहीं था मेरी माँ कै सी थी – कौन थी—पर मेरे पिता ने तो मेरे लिए तीसरी माँ का इन्तजाम किया था। न जाने
कौन होगी – कै सी होगी – बहरहाल रिश्ते में तो मेरी माँ ही हुई
मेरा पिता जिस जिस से भी विवाह करता, वह मेरी माँ ही कहलाती। मुझे अपने आप से घृणा होने लगी। काश कि मैं साधुराम
का बेटा न होता।
कु छ देर में बहुत सी स्त्रियाँ उस कमरे में एकत्रित हो गई, जिसकी दीवारों का मैं ठीक से जायजा भी नहीं ले पाया था। मेरी
निगाहें झुकी हुई थी।
न जाने उनमे से कौन बोला था। मैंने नजरें ऊपर कर देखा कमरे में आधा दर्जन स्त्रियाँ थीं। कोई जवान कोई अधेड़। उनमे से
एक युवती ऐसी भी थी जो स्वेत वस्त्रों में थी। उसकी नंगी कलाईयाँ, सूनी मांग इस बात का प्रमाण थी की वह विधवा है।
उसके नाक नक्श तीखे थे और रंग गोरा था।
मैंने अनुमान लगाया कि वही युवती चन्द्रावती है। मेरी तीसरी मां, जिसकी आयु मुझसे भी कम है, वह कम से कम मुझसे छः
बरस छोटी लगती थी, और अभी वह पूर्णतया स्त्री भी नहीं बन पाई थी। यह अन्याय नहीं तो क्या था। मेर पिता ने मरते मरते
भी अन्याय किया था।
मैंने सभी को हाथ जोड़े और स्त्रियाँ बिखरकर मेरे चारो तरफ बैठ गयी। उनके धीमे-धीमे स्वर मेरे कानों में पड़ते रहे, और मैं
हूँ... हाँ... या ना... में जवाब देता रहा। मेरे पास कहने को कु छ नहीं था।
अधिक रात बीतने पर वे चली गई, सिर्फ एक बुढ़िया रह गई, जिसके दर्शन मैंने आरम्भ में किए थे।
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सवेरा हुआ।
मैंने अपने आपको काफी हल्का महसूस किया। बुढ़िया मेरे लिए चाय बना कर लाई।
“क्यों रे... तूने अपनी मां से बात भी नहीं की...।” उसने कहा।
अब वह किसके सहारे जिन्दा रहेगी – तू तो एक-दो रोज में चला जाएगा। उसके लिए कु छ पैसा-वैसा भेजता रहेगा न।”
“अरे बेटा चिंता क्यों करता है, अभी तो मैं भी जिन्दा हूँ... मैंने तय कर लिया है कि इस घर की देख-रेख करुँ गी... सब लोगो ने
साथ छोड़ दिया तो क्या हुआ अभी मैं जो हूँ। और देखना यहाँ जितने दिन है, चुप ही रहना...।”
“मतलब...।”
“अरे बेटा जमाना बड़ा ख़राब है। जब तक तेरा बाप जिन्दा था, सब डरते थे, मगर अब तो न जाने जरा-जरा से लोग भी क्या
कहते फिर रहे हैं। किसी से लड़ना-झगडना नहीं। सब सहन करने में ही भलाई है।”
“ज़रा सुनना...।” बुढ़िया पास आकर धीमे स्वर में बोली – “गढ़ी वालों से बचकर रहना।”
“गढ़ी वाले ?”
“अरे यही ठाकु र प्रताप... उसकी नियत अच्छी नहीं। और आजकल तो उसके यहाँ भैरवप्रसाद का आना-जाना है। लोग कहते
है, भैरव काले पहाड़ पर रहता है और किसी के लाख बुलाने पर भी नहीं आता।”
“वह कौन है ?”
“बहुत बड़ा तांत्रिक है बेटा... उसका काटा पानी भी नहीं मांगता... चीते पर सवारी करता है, जो उसे काले पहाड़ तक
पहुंचाता है।”
इस कस्बे के लोग आज भी कितने अन्धविश्वासी है। काला पहाड़ आज भी सबके लिए दहशत का प्रतीक बना है। इस कस्बे
से लगभग साथ सत्तर मील दूर एक पहाड़ था, जिसकी गगन चुम्बी चोटी दूर-दूर तक नजर आती थी। इस पहाड़ को लगभग
आठ मील का घेराव लिए घना जंगल फै ला था और उसमे जंगली जानवर स्वतंत्र घूमते रहते थे।
उस पर्वत को काला पहाड़ इसलिए कहा जाता था क्योंकि उसका उपरी हिस्सा दूर से काला दिखाई पड़ता था। मुझे याद था
की यहाँ बच्चों को काले पहाड़ के दैत्य का हवाला दिला कर डराया जाता था। काले पहाड़ के बारे में क्या-क्या किवदंतियां
मशहूर थी, यह मैं भूल गया था।
अपनी बात कहकर बुढ़िया चली गई। मैं चाय पीने लगा।
कहीं जाने को मन न था, अतः मैं घर की चारदीवारी में ही पड़ा रहा। दिन में सिर्फ एक बार अपनी उस अभागी माँ से
मुलाकात हुई, जिसके मासूम चेहरे पर दुखों की छाप थी। उसने सिर्फ दो तीन बाते कही और इस बीच उसकी निगाहें झुकी
रही।
इसमें कोई संदेह नहीं था की वह अति सुन्दर थी, और मुझे उसके आगे शर्म महसूस होती थी। शायद यही हाल उसका था।
उसने मुझसे तेरहवीं के लिए कहा था, जिसके जवाब में मैंने सहमति प्रकट की। उसका कद औसत दर्जे से कु छ ऊं चा था।
मुझे बेटा कहते हुए वह हिचकिचा रही थी।
न मैं किसी से मिला और न कोई मुझसे मिलने आया। धीरे-धीरे रात घिर आई। बुढ़िया मेरे पास आकर बैठ गई और काफी
रात गए तक आपबीती सुनाती रही। यह रात भी शंकाओं में बीत गई। बुढ़िया की बातों से इस बात का हल्का इशारा मिला
कि साधुनाथ की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी, उसे मारा गया था, पर डर के कारण बुढ़िया स्पष्ट बोलने से कतरा रही थी। वह
बार-बार गढ़ी का जिक्र करती थी, और ठाकु र घराने से दूर रहने की शिक्षा देती थी।
तो क्या मेरे पिता की मौत का जिम्मेदार ठाकु र भानुप्रताप था, जिसने भैरव प्रसाद नामक तांत्रिक को मेरे पिता से निपटने के
लिए बुलाया था।
किसी गाँव के चार-पांच आदमी एक स्त्री को पकड़कर लाये थे।वह नव-व्याहता लगती थी। उसके वस्त्र जगह-जगह से फाटे
हुए थे, और बाल चंडी की तरह बिखरे हुए थे। माथे पर लंबा-सा तिलक लगा था, और सर पर सिन्दूर के लाल-लाल धब्बे से
फै ले नजर आ रहे थे।
न जाने बुढ़िया ने क्यों उन्हें बाहरी कमरे में बैठा दिया था। उसके बाद वह भागी-भागी मेरे पास आई।
“अरे... बेटा निपटो उन गवारों से... मेरे तो सर में दर्द हो गया है। कमबख्तों को बता भी दिया तो भी मानने को तैयार नहीं।”
“उनके साथ कोई पागल औरत भी है।” मैंने उन्हें खिड़की से देख लिया था।
“अब बेटा जाकर उसका भूत उतारो... मैंने लाख कहा की साधू अब इस दुनिया में नहीं रहा, कमबख्त मानते ही नहीं। जब
मैंने कहा साधू नहीं उसका बेटा है, तो बोले उसी से दिखवा दो।”
“वह जो लौंडी है न उनके साथ, जिसे कमबख्तों ने बेरहमी से पकड़ रखा है, बताते है उस पर ब्रह्म राक्षस चढ़ गया है,
साधुनाथ का नाम तो दूर-दूर तक मशहूर है न... हाय राम ब्रह्म राक्षस तो जान ले के छोड़े है।”
यहाँ आने के बाद पहली बार मेरे होठों पर मुस्कान आई थी। कै से-कै से ढोंग है यहाँ... हूं... ब्रह्म राक्षस।
अगर मैं डॉक्टर न होता तो उसे देखने का फै सला कभी ना करता, पर मैं उन देहातियो के दिमाग से भुत-प्रेत का भ्रम उतार
देना चाहता था।
मैं उठ खड़ा हुआ।
“बेटा जरा संभल कर... ब्रह्म राक्षस किसी के वश का रोग नहीं होता – उसे तो अगिया बेताल ही भगा सकता है... उन्हें टाल
देना।”
वह आश्चर्य से मुझे देखती रही और मैं सीधा बाहर के कमरे में जा पहुंचा। वह युवती बैठी-बैठी झूम रही थी। जैसे ही मैं वहाँ
पहुंचा उसने जोरों के साथ किलकारी मारी और मुझे घूर-घूर कर देखने लगी। उसने अपने आपको छु ड़ाने का प्रयास किया
मगर देहातियों ने उसे कस कर थामा हुआ था।
“चाहे जो ले लो... मगर मेरी बेटी की जान बचा दो... वरना मैं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहूँगा। हम बड़ी उम्मीद लेकर
आपके यहाँ आये है।”
“क्या बताऊँ साहब... मेरी बेटी पर ब्रह्म राक्षस सवार हो गया है... देखो तो क्या हालात बना दी है उसने...।”
युवती को छोड़ दिया गया। कमान से छू टे तीर की तरह वह मुझ पर झपटी... मुझे इसकी जरा भी उम्मीद नहीं थी। उसने
किलकारी मारी और मुझे इतना जबरदस्त धक्का दिया कि मैं फर्श पर गिर पड़ा। मैं एकदम घबरा गया।