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कबीर की कविता : सामावजक चेतना

~ डॉ. अमरे न्द्र नाथ विपाठी


(हिंदी विभाग, एसजीजीएस कॉलेज, पटना वसटी)

[कक्षा, स्नातक-प्रथमिर्ष(प्रवतष्ठा), में पढ़ाए गए को दुिंराने (ररिीजन) के वलए यिं आलेख]

भविकाल के सभी कवि भि कवि िंैं। िे अपने आराध्य के वलए भवि की कवितायेेँ वलखते
िंैं। उनकी कविता उनकी भवि का जररया िंै। लेककन भविकालीन कवियों के यिंाां अपने
समाज से जुडी बातें भी देखी जा सकती िंैं। िे भिकवि चािंे सगुण भवि के िंों या वनगुषण
भवि के । कबीर दास वनगुषण भि कवि बताये गए िंैं। उनकी कविता में ऐसी ढेरों बातें िंैं जो
िंमारे समाज से सम्बांवधत िंैं। कबीर की इन कविताओं से गुजरकर िंमें पता चलता िंै कक
उनका सामावजक हचतन या समाज-दर्षन कै सा था।

कबीर अपने समय के तार्ककक व्यवि थे। सामावजक व्यिस्था में जो कदखता था उसे िैसा िंी
मान लेने के बजाय िे तकष करते थे। िे पूछते थे कक कोई चीज समाज में या लोगों के जीिन
में चली आ रिंी िंै तो उसका आधार क्या िंै? इसके बने रिंने में क्या लाभ-नुकसान िंै?
उनके अांदर यिं प्रवतभा थी कक सिाल पूछना और लोगों को उन सिालों से जोड़ना उन्द्िंें
आता था। इसीकारण हिंदी साविंत्य का इवतिंास वलखने िाले आचायष रामचांर र्ुक्ल ने
कबीर के बारे में किंा िंै कक प्रवतभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें कोई सांदिं
े निंीं।

िंमारा भारतीय समाज जावतयों और धमों में बांटा हुआ समाज िंै। धमष और जावत से जुड़े
ढेरों उां च-नीच के विचार िंमारे समाज के भीतर मौजूद िंैं। लोग इन विचारों के अनुसार
व्यििंार करते िंैं। इस व्यििंार से मनुष्यों के साथ अन्द्याय भी िंोता िंै। कबीर किंते िंैं कक
सबको मनुष्य की तरिं िंी देखा जाय। ििं ककसी भी जावत या धमष का िंो! इां सान का गुण -
अिगुण देखा जाय न कक उसकी जावत से उसका नाता जोड़कर उसे अच्छा-बुरा किंा जाय।
उनका दोिंा िंै:

जावत न पूछो साधु की


पूछ लीवजये ग्यान।
मोल करो तलिार का
पड़ी रिंन दो म्यान।।
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समाज में जो िणष व्यिस्था बहुत पिंले से रिंी वजसके अनुसार ब्राह्मण खुद को सिषश्रेष्ठ
मानता आया िंै। र्ूर उसमें सबसे नीचे पायदान पर िंै। ब्राह्मण की श्रेष्ठता की विचारधारा
वजसमें अन्द्य लोग िैसे िंी मनुष्य निंीं माने जाते जैसे ब्राह्मण, ब्राह्मणिाद किंलाती िंै। इस
ब्राह्मणिाद का विरोध कबीर के यिंाां िंै। इस विचारधारा से बने कमषकाांडों और कु रीवतयों का
विरोध भी कबीर करते िंैं। इसमें मूर्ततपूजा, माला जपना, कां ठी लटकाना आकद प्रमुख िंैं।
इसीवलये िे वनगुषण राम को मिंत्ि देते िंैं। िे किंते िंैं, राम-राम जपने से क्या िंोगा, राम
नाम का ममष आना चाविंए: राम नाम को मरमु िंै आना! पांवडत-िाद के झूठ को िे जाविंर
करते िंैं:

पांवडत िाद बदांते झूठा


राम किंे दुवनया गवत पािे, खाांड किंे मुख मीठा!

मतलब, राम-राम रटने भर से अगर उत्तम गवत वमलती िंै तो खाांड यानी र्क्कर किंने से मुांिं
मीठा िंो जाना चाविंए।

विंन्द्द ू धमष की कु रीवतयों के साथ िंी कबीर ने मुवस्लम धमष की कु रीवतयों का भी विरोध
ककया। सच तो यिं िंै कक उन्द्िंें इस तरिं धमों का व्यििंार अच्छा निंीं लगता। इस व्यििंार
में लोग धमष के मूल तत्त्ि से अलग िंो गए िंैं। बस आडम्बर िंी आडम्बर बचा िंै। जैसे विंन्द्द ू
या ब्राह्मण जप, माला, छापा, वतलक आकद में अपना धमष समझता िंै िैसे िंी मुसलमान भी
मवस्जद के ऊपर चढ़ कर बाांग देने में अपने धमष की बड़ाई समझता िंै:

कां कड़ पत्थर जोड़ के


मवस्जद वलयो बनाय।
ता चढ मुल्ला बाांग दे
क्या बिंरा हुआ खुदाय।

विंन्द्द ू िंो या मुसलमान दोनों सिंी रास्ते पर निंीं िंैं। दोनों कु रीवतयों की तरफ जा रिंे िंैं।
दोनों पाखण्ड में जीते िंैं। अपने-अपने कु कमों को दोनों निंीं देखते। बस अपने को श्रेष्ठ वगनाते
रिंते िंैं। असवलयत यिं िंै कक इन दोनों को सिंी रािं निंीं वमली िंै -- इन दोउन रािं न पाई।
दोनों के पाखण्ड को पेर् करती उनकी पांवियाेँ देखने लायक िंैं:

जौ तू बाेँभन बांभनी जाया


तो आन िाट िंै क्यों नहिं आया
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जौ तू तुरक तुरकनी का जाया


तौ भीतर खतना कािंे न कराया

किंने का आर्य िंै कक प्राकृ वतक या ईश्वरीय आधार पर विंन्द्द ू या मुवस्लम एक िंी िंैं। इन्द्िंोने
जो भी अांतर पैदा ककया िंै, इनका खुद का पैदा ककया िंै। जो इनकी अज्ञानता ि मूखषता का
सूचक िंै।

कबीर ने समाज सुधारक की तरिं सोचने का काम ककया। समाज में जो-जो उन्द्िंें
समस्यामूलक लगा, उसका उन्द्िंोंने विरोध ककया। राम-रिंीम के नाम पर िंोने िाली
लड़ाइयों को उन्द्िंोंने बेिकू फी बताया और पूछा कक ऐसी लड़ाई क्यों करते िंो जब ििं ईश्वर
स्ियां कोई भेद निंीं करता, और सब जगिं सामान भाि से समाया हुआ िंै:

राम रिंीमा एकै िंै रे ,


कािंे करौ लड़ाई।
ििं वनरगुवनया अगम अपारा,
तीनहुेँ लोक समाई।

समाज में धमष और जावत का विभाजन िंी निंीं िंै, लैंवगक विभाजन भी िंै। स्त्री को लेकर
समाज के विचार काम पूिाषग्रिं से भरे निंीं िंैं। अक्सर यिं देखने में आता िंै कक कोई ककसी
भी जावत या धमष का िंो, ििं स्त्री को लेकर सांकुवचत सोच का पररचय देता िंै। परम्परािादी
समाज स्त्री को लेकर सिंी व्यििंार निंीं करता। कबीर की सोच भी इस मायने में
परम्परािादी कदखाई देती िंै। िे नारी को ििंी स्थान निंीं दे पाते जो पुरुर् को देते िंैं। िे
नारी के सम्बन्द्ध में कठोर बातें रखते हुए किंते िंैं कक उससे पुरुर् को दूर िंी रिंना चाविंए:

नारी की झाांई पड़त,


अांधे िंोत भुजांग।
कबीर वतनकी कौन गवत,
जो वनत नारी के सांग।।

उत्पीवड़त और गरीब के पक्ष में कबीर की कविता सिंानुभूवत पूणष दावयत्ि वनभाती िंै। िे इस
दृवि से बड़े मानितािादी वसद्ध िंोते िंैं। उनके इस पक्ष का उल्लेख करते हुए विद्वान्
पारसनाथ वतिारी किंते िंैं कक सच्ची बात यिं िंै कक विंन्द्दी साविंत्य में कबीर से बड़ा
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मानितािादी कोई निंीं हुआ। ककसी भी दृवि से ककसी दुबषल को सताया हुआ िे निंीं देख
सकते थे। उनका किंना था: दुबषल को न सताइये जाकी मोटी िंाय। अपनी सम्पन्नता को गिष
ककसी को निंीं करना चाविंए। उस गिष के मद में चूर िंोकर यिं निंीं भूल जाना चाविंए कक
यिं सब नार्िान िंै। इसवलए सभी प्रावणयों के साथ सौिंादष रखना चाविंए। जीिन की
क्षणभांगुरता के प्रवत सचेत करते हुए कबीर लोगों को सामवजक सन्द्दर्
े भी देते िंैं:

कवबरा गरब न कीवजये


ऊांचे देवख अिास।
कावल्िं परे भुइेँ लोटना
ऊपर जामै घास।।

कबीर ने इन मिंान वबचारों को पिंले जीिन में वजया कफर लोगों को उपदेर् के रूप में
कदया। इसीवलये ये विचार इतने मिंत्िपूणष और ताकतिर िंैं। समाज में जो कदक्कतें कबीर को
कदखाई देती थीं, उनको लेकर िे बेचैन रिंते थे। समस्याओं से मुांिं मोड़ना उन्द्िंें निंीं आता
था। िे सामावजक दर्ा पर विचार करते थे और पररिेर् की समस्याओं को देखकर दुखी िंोते
थे। उससे मुवि का उपाय ढू ांढते थे। उन्द्िंोंने किंा भी िंै: दुवखया दास कबीर िंै , जागै अरु रोिै।
इां सावनयत की जमीन पर कबीर की सबसे बड़ी साधना यिंी थी कक उन्द्िंोंने अपने को जावत-
धमष आकद के बांधनो से मुि कर वलया था। इसीवलये िे वबना लागलपेट के ऐसी बातें किं
सके । कबीर पिंले स्ियां ऐसा िंो सके थे , जो तब या अब भी आसान निंीं िंै। इस बात की
पुवि के वलए आचायष िंजारी प्रसाद वद्विेदी की बात रखते हुए मैं इस आलेख को विराम दूग
ां ा:
''िे मुसलमान िंोकर भी असल में मुसलमान निंीं थे। िे विंन्द्द ू िंोकर भी विंन्द्द ू निंीं थे। साधु
िंोकर भी योगी निंीं थे, िे िैष्णि िंोकर भी िैष्णि निंीं थे।''

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