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“मोहन राके श का व्यक्तित्व एवं कृ तित्व’’ व्यक्तित्व

आदमी का चरित्र व्यक्तित्व की प्रतिछाया होती है व्यक्तित्व का अर्थ है


व्यक्ति के बोलने का ढंग कार्य व्यापार, रूचि आदि । संपूर्ण शारीरिक और
मानसिक' संगठन का नाम ही व्यक्तित्व है| व्यक्तित्व मे बाह्य और
आंतरिक गुणों का समावेश होता है व्याक्तित्व से चरित्र उभरता है दरअसल
व्यक्तित्व और चरित्र एक ही है बहुत कम व्याक्ति है जिनके व्यक्तित्व
और चरित्र में फर्क होता है। ऐसे लोगों को ढंग से जानने में थोड़ा मुश्किल
होता है मोहन राके श ऐसे व्यक्ति थे जिनका व्यक्तित्व बाह्य आन्तरिक
शब्दों में विश्लेषित किया जा सकता है। राके श का बाह्य व्यक्तित्व प्रभावी
था। राके श आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे जिनके सम्पर्क में आते, उनके मन
में अपनी छाप छोड़ जाते थे। गम्भीर, सन्तुलित बाह्य व्यक्तित्व के राके श
आकर्षण की क्षमता रखते थे।
मोहन राके श का बाह्य व्यक्तित्व जितना सरल एवं संतुलित दिखाई देता
था,इतना सरल आन्तरिक व्यक्तित्व नहीं था। बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व
में बहुत फर्क था राके श की पत्नी अनीता कहती है -“बाहर से राके श जितने
सीधे थे उतने थे नहीं || उन्हें ठीक से अंदर तक समझना एक समस्या थी|
वे बाहर से जितने इन्फार्मल' थे उतने ही ज्यादा मन से ‘फार्मल’|”1 मोहन
राके श पंजाबी युवक थे। गोरा रंग, छोटा कद, घुंघराले बाल, आँखो पर
चश्मा,टाई. कोट और हाथ में जलता महत्वपूर्ण बात तो ये थी कि राके श
सिगार यही बातें व्यक्तित्व की ठोस पहचान है। की हंसी और चश्मे के पीछे
गहरी नजर। राके श का ठहाके लगाकर हँसना उनके मस्ती भरे जीवन की
पहचान थी। पास बैठने वाली की चाय की प्याली छलका देने वाली ताकत थी
राके श के ठहाकों में सिगार के टु कडे, माचीस की तीलियों के 1
चद संतरे और ले अनिता राके श पेज 86
बीच जग भूलकर ठहाके मारने वाले राके श, मोहन राके श पहचान थी | राके श
जी का व्यावसायिक जीवन की तरह उनका पारिवारिक जीवन भी उथल-
पुथल भरा रहा, मोहन राके श का पारिवारिक जीवन दु:ख-सुख की धूप-छाव
का मिश्रण था। राके श जी को साहित्यिक संस्कार और कलात्मक रुचि के
साथ साथ ऋण ग्रस्तता भी विरासत में मिली थी| इनका वैवाहिक जीवन
भी बिखराव की कहानी है इन्होंने तीन शादी की थी, अंत में अनीता औलक के
साथ ही इन्होंने अपनी शेष जीवन व्यतीत किया। मोहन राके श का वैवाहिक
जीवन अभिशप्त था । वैवाहिक जीवन में राके श ने इतनी विसंगतियों का
सामना किया था कि वे अन्दर ही अन्दर घुटन महसूस करने लगे थे! सुखी
जीवन की तलाश में वे एक से ज्यादा संबंध बनाते रहे, लेकिन "शादी" और
"अपना घर" इन दोनों बातों से सदैव वंचित रहे|प्रथम विवाह 1950 ई. में
हुआ| नौकरी में राके श का मन न लगने के कारण नौकरी छोड़ दी थी। राके श
अपनी लेखनी पर निर्भर रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने सुशीला से विवाह
किया। यह राके श की प्रथम पत्नी आगरा के दयालबाग में ट्रेनिंग कालेज की
आध्यापिका थी |राके श का विचार था पत्नी नौकरी के साथ गृहस्थी
संभालेगी और राके श लेखन में व्यस्त रहेगा। यह सपना पूरा नहीं हुआ
,राके श का
होने तक सुशीला ने साथ निभाया और फं ड खत्म होते ही इस संबंध में तनाव
आने लगे। विचार एक दूसरे से बिल्कु ल नहीं मिलते थे ,दोनों में ऐसी कोई
बात नहीं थी जिससे वे एक दूसरे से जुड़ सके |फिर भी ये रिश्ता पाँच साल
तक निभाया गया, दोनों दो कोसों पर रहते थे, और कभी-कभी मिलते थे
सुशीला और राके श' दोनों यह दिखानेका प्रयास करते थे कि वे आधुनिक रूप
से जीवन बिता रहे हैं उनकी अलग-अलग इकाइयां हैं लेकिन यह रिश्ता सिर्फ
डेढ़ साल का था| दोनों ने यह साथ शिमला में बिताया था। और दोनो के
प्रोविडेंट और फं ड खत्म सुशीला का व्यवहार राके श के प्रति अच्छा नहीं था
क्योंकि सुशीला राके श से ज्यादा कमाती थी, स्वतंत्र रहती थी और उसकी
बातचीत का ढंग मर्दानी था |किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकती थी
यह एक-एक बात आगे चलकर राके श और सुशीला के तनावग्रस्त संबंध को
समाप्त करने के कारण बने| 1957 ई० में विवाह विच्छे द हो गया। इसी
दौरान सुशीला राके श के बच्चे की माँ बनने वाली थी। उनका पहला बच्चा माँ
के पास रह गया। इस शादी के बारे में स्वयं राके श ने अपने मित्र राजेन्द्र पाल
को कहा था- “ विवाह के पश्चात् राके श की पत्नी आकाश पूर उड़ी जा रही थी
कि आखिर तुम्हे मेरे हठ के सामने झुकना पड़ गया | बहुत जिद करे रहे थे,
विजयी आखिर किसकी हुयी ? मेरी न ? घर के मानसिक तनाव से तंग आकर
छोटा भाई वीरेन घर छोड़कर चला गया था|”2
राके श की दूसरी शादी भी गलती बनकर रह गयी। दूसरी पत्नी मानसिक रूप
से असंतुलित थी |यह लड़की घनिष्ट मित्र की बहन थी। प्रथम पत्नी से
इसकी लड़की का व्यक्तित्व भिन्न था। इस लड़की में विनय था, दीनता थी।
सुख की चाह राके श में पहले भी थी । सुखप्राप्ति की क्षमता भी थी और घर
भी बदल लिया था लेकिन राके श के नसीब मे घर और सुख दोनों ही नहीं थे
दूसरी पत्नी बिक्षिप्त थी हँसते-हँसते बेहाल हो जाती थी। समझाने पर पेट
पटकती, बाल बिखेरकर देवी का रूप धारण कर लेती, श्राप देती,ऐसी हरकते
एक विवाहित स्त्री को शोभा नहीं देती इससे राके श के आत्मसम्मान को ठे स
पहुंचती थी तो राके श ने दूसरी पत्नी ‘सारिका’ को भी छोड़ दिया था|
राके श ने तीसरी शादी की। अनीता के साथ की यह शादी सिर्फ
शादी नहीं थी बल्कि प्रथम सफल प्रेम था। रस्म और रिवाज देखें
तो यह सौ प्रतिशत कानूनी नहीं थी। लोग इस सम्बन्ध को किस
रूप में देखें, यह बात अलग कर दी गई तो ‘घर’ नाम की वस्तु
राके श को मिली। अनिता राके श की जिन्दगी का सुनहरा हिस्सा है
अनीता जी ने ‘चंद संतरे’ और सुनहरे पलों का इजहार किया है।
2- मोहन राके श-संपादक सुन्दरलाल कथूरिया पृष्ठ -25-26
अनीता के सहवास में राके श को सचमुच घर, गृहस्थी, और अपने बच्चों का
सुख मिला । दोनों की एक ही चाह थी.- ‘घर’ की। इसके लिये वे दोनों कु छ भी
करने को तैयार थे |राके श के एक व्यक्तित्व से हमें उन दोनों के अटू ट प्रेम
का परिचय मिलता है |-“मैं अपना दाहिना हाथ भी अनीता के लिये काट
सकता हूँ .मैं इसके लिये कु छ भी कर सकता हूँ । "3
1 जन्म- मोहन राके श का जन्म 8 जनवरी सन् 1925 को अमृतसर में हुआ
था इनका वास्तविक नाम मदन मोहन गुगलानी था।जो धीरे- धीरे अर्थात
समय के साथ-साथ मदन मोहन राके श फिर मोहन राके श और फिर अन्तरंग
आत्मीय मित्रों के लिये सिर्फ राके श रह गया, उनके नाम का रूप जैसे- जैसे
छोटा होता गया उनके उनके व्यक्तित्व एवं कृ तित्व का कद उसी अनुपात में
बढ़ता चला गया। राके श के जन्म के समय परिवार में जो परिवेश प्राप्त हुआ
वह संतोषजनक नहीं था।राके श ने स्वयं अपनी डायरी में लिखा है-“क्योंकि
मेरा जन्म एक तंग शहर की एक छोटी सी गली के एक बहुत अंधेरे घर में
हुआ और जो वातावरण मुझे आरम्भ से मिला, उसमें भी श्लाघनीय कु छ नहीं
था। "4
2 माता पिता- मोहन राके श के पिता जी का नाम श्री करमचन्द्र
गुगलानी था, और इनकी माता जी का नाम सावित्री देवी था
मोहन राके श की माताजी धार्मिक विचारों और संस्कारों में विश्वास
करती थी। चेहरा इतना शान्त और सौम्य कि जैसे,अभी ममता
रूपी स्नेह प्यार छलक पड़ेगा। मोहन राके श से अत्यधिक स्नेह
रखती थी यही कारण था कि राके श बारह वर्षों तक अपनी माता
के आँचल में ही सोते रहें जब तक कि उनके छोटे भाई विरेन्द्र
3-अनिता, सितम्बर 1974, पृष्ठ-67
4 मोहन राके श, मोहन राके श की डायरी, राजपाल और संज कश्मीरी
गेट दिल्ली- 1985 पृष्ठ -38
अरोरा का जन्म नहीं हुआ। मोहन राके श ने स्वयं अपनी डायरी में
माँ के विषय में लिखा है-“ माँ का जीवन अनात्मस्त और निःस्वार्थ है, जैसे
उनकी अपनी आप है ही नही सब जो है घर के लिये है., मेरे लिये है और मैं हूँ
कि अम्मां से झगड़ने लगता हूँ । अम्मा धरती की तरह शांत रहती हैं। मेरे हर
गुस्से को तो धरती की तरह सह लेती हैं। इतनी स्थिरता, इतनी डेडिके शन
इससे बड़ा योग और क्या हो सकता है ? और इस पर भी वे अपने को मूर्ख,
नासमझ और कमजोर कहती है ? मौ माँ के त्याग में कहीं त्याग की चेतना
नहीं है और इसी बात में माँ की महत्ता है। उनकी सहिष्णुता में तनिक भी
शिकायत नहीं होती। सच मेरी माँ बहुत बड़ी है - बहुत ही बड़ी। काश! मुझमें
माँ के गुणों का शतांश भी होता।” 5 राके श का हृदय माँ के प्रति अत्यन्त
संवेदनशील था उनके जीवन में माँ का क्या महत्व था, इस तथ्य से अनुमान
लगाया जा सकता है कि – “ मैने अपने आज तक के जीवन में जिस सबसे
महान व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त किया है वह मेरी माँ है|” और जीवन के
अन्तिम क्षणों तक राके श की इस सोच तथा भावना में कोई भी अन्तर नहीं
आया। बल्कि सच तो यह है। कि अम्मां की मृत्यु ने ही राके श को भीतर से
खोखला बुरी तरह तोड़कर अके ला कर दिया कि उसके बाद वह स्वयं भी
अधिक दिनों तक जीवित न रह सके |
मोहन राके श की माँ अत्यन्त शान्त स्वभाव की महिला थीं |उनका
व्यक्तित्व बड़ा ही निष्कपट था। जब वह बोलती थी तो ऐसा प्रतीत होता था
कि मानो अमृत रूपी धारा प्रवाहित हो रही हो। प्रथम दर्शन में ही वह दर्शक
को प्रभावित कर देती थी। 'राजेन्द्र पाल', जो कि राके श के शिष्य थे, एक बार
माताजी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
5 मोहन राके श, मोहन राके श की डायरी, राजपाल और संज कश्मीरी
गेट दिल्ली- 1985 पृष्ठ -38
“ये 'लिखते हैं कि-मॉडल टाउन जालन्धर में राके श और माँ जी के साथ यह
पहला परिचय था। मैं राके श से ज्यादा माँ जी से प्रभावित हुआ था। बहुत ही
सौम्य चेहरा, बड़ा ही निष्कपट व्यक्तित्व जिसमें से स्नेह छलका पड़ रहा
था। मुझे उनके बेदाग, सफे द साड़ी में लिपटे बेदाग सफे द व्यक्तित्व को
देखकर जाने क्यों शिव के रंग का आभास मिला था। जहर पियो और अमृत
दो। लगा था दुनियाभर की कड़वाहट पी है उन्होंने पी नहीं, हजम की है,
इसलिये शांति बाँटने का हक रखती है। "6
मोहन राके श के पिता जो पेशे से शहर के प्रतिष्ठित वकील थे। सांस्कृ तिक,
संस्थाओं के पदाधिकारी भी थे। परन्तु आर्थिक दशा ठीक नहीं थी। समय-
समय पर कर्ज लेते रहें और कर्जदार बनते गये। धीरे-धीरे कर्ज का बोझ बड़ता
गया तथा कर्ज चुकाने में असमर्थ हो गये। कर्जदारों का आतंक घर पर इस
तरह छा गया कि घर में कोई भी अच्छी आने पर उसे लोगों के समझ खाने
पीने, पहनने ओड़ने पर पाबन्दी हो गयी। खुलकर समाज में जीने की इच्छा
उस दिन की कील पर टंगी रहती थी, जिस दिन कर्जदारों का कर्ज उतरेगा।
अपना कर्ज वसूलने आये इन लेनदारों से तथा इनके आने से घर में उत्पन्न
परिस्थितियों से बचपन के मोहन राके श को उलझन होती थी। डॉ० सुषमा
अग्रवाल कहती हैं-" सचमुच एक भावी कलाकार के मानस में ऐसे पारिवारिक
परिवेश की प्रतिक्रिया स्वरूप क्या कु छ नहीं जन्मा होगा ? निश्चय ही उनका
मन सामाजिक प्रति घृणा खीझ और विद्रोह से भर उठा पिता या तो अक्सर
बीमार रहते थे या वकालत परिवेश के होगा । "7
6 सुंदरलाल कथूरिया, संपादक, नाटककार मोहन राके श, कु मार

प्रकाशन नई दिल्ली, 1974 पृष्ठ 23


7 डॉ. सुषमा अग्रवाल, मोहन राके श: व्यक्तित्व और कृ तित्व, पंचशील
प्रकाशन जयपुर 1986, पृष्ठ- 23-24
सांस्कृ तिक, या सामाजिक संस्थाओं का करते थक जाते थे। इस
कारण माँ आधी-आधी रात तक बैठकर उनके पैर दबाती रहती थीं।
जब मोहन राके श मात्र सोलह वर्ष के हुये तो 8 फरवरी 1941 को
पिता जी का स्वर्गवास हो गया उनकी मृत्यु के कु छ ही समय पश्चात
शव के पास दो तरह की आवाज सुनाई पड़ने लगी थी। राके श ने
स्वयं लिखा है - “उनकी मृत्यु के एक-दो घंटे बाद उनके शव के पास
दो दो तरह की आवाज सुनाई दे रहा था एक शब्द था घर के लोगो
के रोने-चिल्लाने का, और दूसरा था एक व्यक्ति का गला फाड़ फाड़
कर धमकियाँ देने का। धमकियाँ देने वाला उस मकान का मालिक
था, जिसमें वह प्रतिष्ठित नागरिक लगभग पंद्रह साल तक रहे थे।
मकान मालिक का कई महीनो का किराया उन पर बाकी था और वह
कह रहा था कि जब तक किराया अदा नहीं किया जाता, वह मुर्दा
नहीं उठने देगा’’8।
बहुत देर तक चारो तरफ खामोशी छायी रही। किसी को किसी सें भी
कु छ कहने की हिम्मत नही हुयी। रोने की भी नहीं जितने लोग शव
के पास खड़े थे एक-एक करके खिसक गये। यह वह समय था जब
मोहन किश को एक सहारे की आवश्यकता थी परन्तु कोई सामने
नहीं आया थोड़ी देर बाद धमकियों की आवाज देना बन्द हो गई,
क्योंकि किराये के बदले में मृतक की विधवा की सोने की चूड़ियाँ
उतारकर दे दी गयी थी जो वैसे भी उतरती
पिता की मृत्यु के बाद राके श का समाज के लोगों के प्रति मोह भंग
हो गया था। उसकी आँखे आस-पास की जिन्दगी के प्रति बहुत ही
सतर्क हो गयी थी और घर के बाहर सामाजिक बन्धनों को प्रश्नात्मक
8 कमलेश्वर, गर्दिश के दिन, राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट
दिल्ली, प्रथम संस्करण 1980. पृष्ठ-9
दृष्टि से देखने लगी थी। इसी बीच उसने समाज के अनेक लोगों के
ऐसे चेहरे देखे, देखा कि वे चेहरे न हो करके उन पर स्नेह सहानुभूति
साहस और उत्साह के मुखौटे चढ़े हुये हैं। यदि इन चेहरों से मखौटे
मुखौटे उतार उतार लिये जायें तो इनके पीछे मजबूर, डरपोक लाचार
और हतोत्साह चेहरे नजर आयेंगे उसे लगता रहा कि क्यों नहीं लोग
मुखौटे उतारकर बात करते। ऐसी कौन सी विवशता है जो उन्हें झूट
बोलने, दिखावा करने और वास्तविकता को छिपाने पर मजबूर करती है
3 पारिवारिक परिवेश- मोहन राके श की अल्पायु में पिता का देहान्त
होगया पिता की मृत्यु के साथ छोटे राके श कठिनाइयों का पहाड़ टट
पड़ा माँ, बहन और छोटे भाई का दायित्व राके श पर आ पड़ा घर की
हालत ठीक नहीं थी आर्थिक स्थिति खराब थी कि मकान मालिक के
लड़के ने मुर्दा तभी उठाने दिया जब उसका किराया अदा कर दिया
गया इस घाटना का गहरा असर अंत तक रहा कड़ी सर्दियों हाथों से
खिड़की की सलाखें पकड़कर आकाश की ओर देखता रहता राके श
अपने मृत्यु तक एक के बाद सदमें में झेलता रहा जिस घर घर में
में राके श का बचपन व्यतीत हुआ वहाँ सीलन से भरा था घर के
वातावरण में दम छू टता था आर्थिक अभाव और अप्रिय वातावरण में
बचपन झुलसता रहा। राके श के पिता धार्मिक व्यक्ति के साथ
अन्धविश्वासी भी थे| गर्मी में भी बारह घण्टे बिना पानी पिये
जीना राके श के पिता के अन्धविश्वासी स्वभाव का नमूना है | राके श
अपने पिता से बहुत प्यार करते थे | मोहन राके श ने स्वयं 1947 में
सरस्वती पत्रिका में लिखे लेख में कहा है कि -" बाबा बहुत प्यार
करते थे उनकी नजर में भलमनसाहत किसी श्रेणी के जानवरो से
किसी तरह से कम नहीं हूँ| चार पैसे कमाने लगा
हूँ| |
किसी तरह से 21 वर्ष का हो गया हूँ |”9 बचपन से राके श झूठ,
दिखावा और वास्तविकता का छिपाने का निषेध करते थे। अपने
आसपास के लोग एवं परिवार सदस्यों का उनके उनके आपसी रिश्तों
का राके श के गहराई से विचार करते थे| राके श का परिवार ऋण- भार
से परेशान था कर्जेवाले उन्हें परेशान करते थे। अच्छी चीजें खाने
और पहनने की मनाही रहती थी बचपन में उनके घर का परिवेश भी
ऐसा नहीं था कि उनके मन को उबार सके |राके श के घर के पीछे
कं जरों के घर थे।कं जरों के बच्चे नाचते-खेलते थे | उन्ही की तरह
राके श भी नाचना खेलना चाहता था| मगर दादी माँ कर्मठ स्वभाव की
थी| वह उन्हें झाँकने तक भी नहीं देती थी| राके श का घर धार्मिक
और अंधविश्वास से भरा हुआ था।दादी माँ छोटी जाति के लोगों 'साथ
संबंध नहीं संबंध नहीं रखने देती थी। इसी कारण राके श का घर में
दम घुटता थ पिता का प्रभाव उन पर होता जा रहा था किताबों से
राके श क |पिता का प्रभाव उन पर होता जा रहा था किताबों से राके श
की मित्रता धीरे- धीरे बढ़ रही थी। -
जहाँ मोहन राके श रहते थे वो किराये के घर में रहते थे वह किराये
का था। वहाँ का वातावरण अच्छा नहीं था स्वयं राके श अपनी डायरी
में लिखते हैं मेरा जन्म अमृतसर की जिस गली में हुआ, वहाँ ताजी
हवा तक तो पहुँच नहीं"पाती थी। हमारा घर अंधेरा तो था ही, साथ
ही साथ वह काफी छोटा भी था। "10
4-शिक्षा- दीक्षा - मोहन राके श के पिता जी घर पर ही संस्कृ त पढ़ाते
थे। राके श कीआरंभिक शिक्षा पंजाब में अमृतसर के हिन्दू कॉलेज में
हुई बाद में ये लाहौर ओरिएंटल कॉलेज में पढ़ने गये।
9 सरस्वती पत्रिका, संपादक सारिका, राके श विशेषांक पृष्ठ 66 -
10 मोहन राके श ,मोहन राके श कीडायरी-पेज 6
वहाँ उन्होंने सन् 1941 में सोलह साल की उम्र में ‘शास्त्री' की उपाधि
पायी । इसी साल इम्तिहान के तीन महीने पहले ( फरवरी में) उनके
पिता का देहान्त हो गया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी में
बी० ए० किया। बाद में 17 साल की उम्र में लाहौर कॉलेज में गए|
लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय में सन् 1944 में अपनी उन्नीस साल
की उम्र में उन्होंने संस्कृ त में एम० ए० किया | पंजाब के
विश्वविद्यालय से सन 1952 में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाकर
हिन्दी एम० ए० की उपाधि प्राप्त की। अध्ययन के समय उनका मन
अस्थिर रहता था। क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी|
अपनी शिक्षा के लिये आर्थिक प्रबंध स्वयं करना पड़ता था। डॉ.
घनानंद जदली ने इस संबंध में ठीक ही कहा है-“ छात्रावस्था में
ट्यूशन कर अपनी पढ़ाई का खर्च चलाते थे|’’11 तत्पश्चात राके श
जी ने अध्यापन कार्य मुम्बई, शिमला, जालन्धर तथा दिल्ली
विश्वविद्यालय में किया, परन्तु इस कार्य में विशेष रुचि न रहने के
कारण त्यागपत्र देकर सन 1962-63 में मासिक पत्रिका 'सारिका' का
सम्पादन भी किया। राके श की प्रतिभा को ध्यान में रखकर एम० ए०
करने के बाद उन्हें दो वर्ष के लिये शोध छात्रवृति दी गई थी
5-स्वाभिमानी एवं स्वतन्त्र व्यक्तित्व - मोहन राके श स्वाभिमानी
वृति के थे उन्हें किसी के सामने झुकना अच्छा नहीं लगता था उनके
जीवन के अनेक प्रसंग है, वहाँ उनका स्वाभिमान दिखायी देता है वे
जो भी कु छ कहते थे उनके प्रति उनकी निष्ठा थी
1 राके श अंत तक स्वाभिमान राके श के व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण
विशेषता रही है | कलाकार कोई भी हो उसका व्याक्तित्व उसके
कृ तित्व में प्रतिक्षेपित होता है। मोहन राके श का साहित्य भी उनके
11-डॉ. घनानंद एम० शर्मा जदली पृष्ठ - 22
व्याक्तित्व को काफी हद तक प्रतिबिम्ब करता है। असल में उनकी
हर यातना-गाथा, हर पीड़ा, हर टू टन और हर नयी शुरुआत न कहीं
प्रत्यक्ष उनके साहित्य में कहीं और अप्रत्यक्ष रूप में विद्यमान एवं
प्रतिबिम्बित हुई है। मध्यवर्गीय जीवन की समूची संगतियों
असंगतियों, विकृ तियों और स्वीकृ तियों टू टन और असफलताओं को
अपने साहित्य में बड़ी ईमानदारी से व्यक्त किया है जिसमें उनका
स्वाभिमानी एवं स्वतन्त्र व्यक्तित्व दृष्टिगोचर होता है|
मोहन राके श का स्वाभिमान बड़ा प्रबल था। अनेक लोगों का कहना है
कि वे बहुत ही स्वाभिमानी हैं। उनकी मित्र मण्डली में भी यह बात
चर्चित रही है कि वे अपनी शर्तों पर जीवन जीने की हिमायती रहे थे।
अनीता राके श ने स्वयं लिखा है कि –“ उसने मित्रता भी की तो अपनी
शर्त पर - जिन-जिन लोगों ने उसे स्वीकारा था सिर्फ उसकी शर्तों का
मानकर ही स्वीकारा था। अतः उनका कोई मित्र ऐसा नहीं जो उन्हें न
समझा हो - लेकिन उनकी शर्तें मानने के बाद वो फिर उन सबका
गुलाम भी हो जाता था।” 12. वस्तुतः मोहन राके श का स्वाभिमान
बड़ा ही प्रबल था। वे कभी किसी से दबे नहीं। हिन्दी नाट्य-साहित्य
में अनेक वर्षो तक बोलबाला रहा, किन्तु उन्होंने कभी अनुचित लाभ
नहीं कु माया। वें स्वाभिमानी तो थे किन्तु दूसरों की प्रतिभा को आदर
की दृष्टि से देखते थे। यदि वे दूसरों की कमी को सहन नहीं कर
सकते थे तो अपनी कमियों को भी नहीं । वे कभी- कभी छोटी -
छोटी बातों से आवेश में आ जाते थे। उस समय अनीता राके श तक
का हस्तक्षेप पसन्द नहीं होता था कभी यदि अनीता रकिश उन्हें
सम्भालती तो उनका स्वाभिमान बीच में आ जाता था 12 अनिता
राके श, चद संतरे और राधाकृ ष्ण प्रकाशन 2/38 अंसारी रोड दरियागंज
दिल्ली, 1975, पृष्ठ-101

कृ तित्व
मोहन राके श को मसीहा सम्बोधित करके "आधुनिक नाटक का मसीहा
मोहन राके श’’नामक शीर्षक से पुस्तक ही लिख डाली। इसी सन्दर्भ में
जयदेव तनेजा का यह कथन सार्थक है कि –“यदि जीवन के प्रति
अगाध, अटू ट आस्था और मानव-जीवन की अपूर्णता के भीतर से
सम्पूर्णता को पाने की अन्तहीन तलाश को कोई सार्थक नाम दिया
जा सकता है तो वह नाम है मोहन राके श।" 13 मोहन राके श का
सम्पूर्ण जीवन संघर्षों में ही व्यतीत हुआ | यह संघर्ष उनके सम्पूर्ण
कृ तित्व में एक तीखी संवेदना के दर्शन कराते हैं|
1 उपन्यास - मोहन राके श ने उपन्यासों की रचना की है । कु छ का तो प्रकाशन हो चुका है और कु छ उपन्यास उनके

अभी प्रकाशधीन उपन्यास है “अंधेरे बंद कमरे’’ मोहन राके श का उपन्यास ‘अंधेरे बंद कमरे’ लगभग साढ़े चार सौ पृष्ठों

- "मैं सोच कर भी नहीं तय कर पर रहा है कि अपने


में लिखा गया है। इसकी भूमिका में ही मोहन राके श ने लिखा है कि

इस उपन्यास को क्या कहूँ.. आज की दिल्ली का रूप रेखाचित्र ? पत्त्रकार मधुसूदन की आत्मकथाएँ हरवंस और

नीलिमा के अन्तर्द्वन्द्व की कहानी ?’’ 14 ‘न आने वाला कल’1968 ‘ न आने वाला


'
कल इस उपन्यास - का प्रकाशन सन् 1968 ई०में हुआ था इस उपन्यास-में मोहन राके श ने व्याक्तिगत अनुभवों

का उपयोग पर्याप्त मात्रा में किया है। स्कू ल के वातावरण को उपन्यास की कहानी के के न्द्र में रखने का मुख्य कारण यही

हो सकता है कि इस वातावरण को मोहन राके श ने स्वयं भोगा था । 13 जयदेव तनेजा,


लाहौर के राजहंस: विविध आया तक्षशिला प्रकाशन, 23/4761,पृष्ठ-20
14 मोहन राके श, अँधेरे बंद कमरे, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
भूमिका, पृष्ठ-147
'डॉ. " '
श्रीमती मीना पिपलापुरे ’ ने लिखा है कि उसके बाद उसने शिमला के बिशप काटन स्कू ल में नौकरी की और

इसी बीच 1950 के अन्त में विवाह भी किया|’’,15


अन्तराल 1972 में आजू की भाषा में लिखी गयी आज के मानव संबंधों की सिमटी हुई दुनिया की अपनी कहानी है।
श्याया की, एक बेटी है जो सब उसे बेबी नाम से बुलाते हैं। मृत्यु के बाद श्यामा के मन से देव की स्मृति निकल नी पाती है

कठिनाई यह है कि देव श्यामा की स्मृति में निरन्तर उपस्थित रहता है और यह उसमें कई तरह के काम्पलेक्स पैदा कर

देता है |" 16 2- कहानी -"मोहन राके श का कृ तित्व बहुआयामी है बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न
|
साहित्यकार मोहन राके श ने हिन्दी जगत् के सर्वप्रथम कहानीकार के रूप में ही दस्तक दी थी रचनाकार के रूप में मोहन

राके श की प्रतिष्ठा की शुरुआत कहानियों से ही मानी जाती है सर्वप्रथम राके श की कहानियों की यात्रा का प्रारम्भ सन्

1944 19 वर्ष की आयु में ही 'नन्हीं' नामक कहानी लिखी थी जो


से माना जाता है।उन्होंने पहले पहल मात्र

अप्रकाशित ही रह गई परन्तु उनके मरणोपरांत सारिका' पत्रिका में मार्च 1973 में प्रकाशित की गयी| मोहन राके श

की कहानी 'भिक्षु के नाम से सन् 1946 में प्रकाशित हुयी थी। और ये कहानी मोहन की पहली कहानी थी जो प्रकाशित

हुयी थी | 3 नाटक - हिन्दी नाट्य साहित्य में मोहन राके श का नाम गर्व तथा चर्चा का विषय है। मोहन राके श
ने बहुत कम नाटक लिखें हैं लेकिन प्रसिद्ध बहुत .
हुए हैं।

15 श्रीमती मीना पिंपलापुरे, मोहन राके श का नारी संसार, प्रकाशन संस्थान,


21/47145, दयानंद मार्ग, दरियागंज दिल्ली 1987, पृष्ठ 20
16- श्रीमती मीना पिंपलापुरे, मोहन राके श का नारी संसार, प्रकाशन
संस्थान, 21/47145, दयानंद मार्ग, दरियागंज दिल्ली 1987, पृष्ठ -138
मोहन राके श के अब तक के लिखित पूर्णकालिक नाटक में कु छ इस प्रकार है -

i आषाढ का एक दिन -1958 ii लहरों


के राजहंस -1963
iii आधे अधूरे -1969
लहरों के राजहंस- -नाटक की रचना मोहन राके श ने अश्वघोष के महाकाव्य सौरानन्द' के आधार पर किया
है |

आधे अधूरे - 'आधे अधूरे ' नाटक को समकालीन जिंदगी का पहला सार्थक हिन्दी नाटक माना जाता है 'आधे

अधूरे ' नाटक को 'मील का पत्थर भी कहा जाता है |तथा एक अपूर्ण नाटक ‘पैर तले की जमीन' है इस
अपूर्ण नाटक को मोहन राके श के ‘'अवसानोपरांत ‘कमलेश्वर’ द्वारा पूरा किया गया|’’17 इसका

प्रकाशन सन 1977 में राजपाल प्रकाश दिल्ली से किया गया| |


“हिन्दी नवनाट्य लेखन को व्यापक और सर्वजातमक ठोस आन्दोलन के रूप में प्रतिष्ठित करने में और

भारतीय नाटक में समकक्ष लाने में मोहन राके श के नाटक उल्लेखनीय है।’’18 ० उनके नाटक सामाजिक
यथार्थ के परिदृश्य को उभारते हैं मोहन राके श के एक सम्पूर्ण नाटक इस बात के साक्षी हैं कि हिन्दी नाट्य

साहित्य में पहली बार एक नई दृष्टि की शुरुआत हुई एक नवीन चेतना का विकास हुआ|

4 - ,
एकांकी मोहन राके श नई दिशा दी ने जहाँ हिन्दी नाट्य साहित्य और 17-डॉ. सुषमा अग्रवाल
.मोहन राके श व्यक्तित्व और कृ तित्व, पंचशील प्रकाशन फिल्म
कॉलोनी, जयपुर 1986 पृष्ठ 6
18-गिरीश रस्तोगी, हिंदी नाटक और रंगमंच नई दिशाएँ नये प्रश्न,
ग्रंथम प्रकाशन, कानपुर 1966, पृष्ठ -32
,
रंगमंच अपने नये नाट्य से एक नई दिशा दी वही पूर्ण नाटक के अतिरिक्त एकांकी और कु छ नये नाटक विधाओं का

प्रयोग जिसके माध्यम हिन्दी नाटय साहित्य को एक और दिशा मिल गयीं मोहन राके श की एकांक्रियों उनके नाटकों के

नाटकों के समान ही महत्वपूर्ण कृ तियाँ इसके


सन्दर्भ में डॉ. सुषमा अग्रवाल ने कहा है कि -"उनके एकांकी भी उनके नाटकों की भाँति ही साहित्य और मंचन

दोनों के लिये समान महत्व के हैं|’’19

मोहन राके श की एकांकी संग्रह दो कृ तियो के रूप में सामने आती है। इस एकांकी संग्रह में चार एकांकी हैं|

i अंडे के छिलके ii सिपाही की माँ


iii प्यालियाँ टू टती हैं

iv बहुत बड़ा सवाल

बीज नाटक को वस्तुतः लघु नाटक कहा जाता है अर्थात बीज नाटक लघु आकार के ऐसे नाट्य प्रयोग होते हैं जिनमें

विस्तार को समेटने की क्षमता होती है


उनके दो बीज नाटक है

i शायद

ii हं: !
19-डॉ. सुषमा, मोहन राके श पंचशील प्रकाशन, फिल्म कॉलोनी, जयपुर
1986, पृष्ठ-170

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