Class12 Flamingo in Hindi

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Chapter 1 The Last Lesson Hindi

Translation
Day
Night

Chapter 1 The Last Lesson


By Alphonse Daudet
हिन्दी अनुवाद- उस सुबह मैं स्कू ल के लिए काफी देर से रवाना हुआ था. तथा मुझे डाँट-डपट पड़ने का
अत्यधिक भय था, विशेष रूप से इसलिए, क्योंकि एम. हेमल ने कहा था कि, वह हमें “पाटिसिपल्ज” पर
प्रश्न करेंगे. और मैं तो इनका पहला शब्द भी नहीं जानता था। एक क्षण के लिए मैंने भाग जाने, तथा घर
से बाहर दिन गुजारने के बारे में सोचा। यह (मौसम) गरमाहट से भरा, तथा स्वच्छ (खिली धूप वाला) था।
जंगल के किनारे पक्षी चहचहा रहे थे; तथा आरा-मशीन के पीछे खुले खेत में, Prussia के सिपाही ड्रिल कर
रहे थे। यह सब “पाटिसिपल्ज” के नियमों की तुलना में अधिक आकर्षक थे, लेकिन मुझ में प्रतिरोध करने
की क्षमता थी, और मैं स्कू ल की ओर तेज गति से चल पड़ा।
जब मैं टाउन हाल के निकट से गजरा, तो नोटिस बोर्ड के सामने भीड थी। पिछले दो वर्षों से हमारे सारे
बूरे समाचार, यहीं से आये थे. हारे हुए यद्ध, सेना में सिपाहियों की भर्ती, सैनिक अधिकारी के आदेश.
और बिना रुके मैंने मन ही मन सोचा, “अब क्या मामला हो सकता है?”
फिर, जब मैं उतनी ही तीव्र गति से जा रहा था, जितनी तेज गति से मैं चल सकता था, तब वॉक्टर लुहार,
जो वहाँ अपने शिष्य के साथ था और समाचार पढ़ रहा था, ने मेरे पीछे से चिल्लाकर कहा, “इतने तेज मत
चलो, बब; अभी स्कू ल पहुँचने के लिए तुम्हारे पास पर्याप्त समय है।”
मैंने सोचा वह मेरा मज़ाक उड़ा रहा था, और मैं एम. हेमल के छोटे से बगीचे पर हाँफता हुआ जा पहुंचा।

हिन्दी अनुवाद- सामान्यतया, जब स्कू ल शुरू होता था, वहाँ अत्यधिक शोर-शराबा एवं हलचलें होती थीं जिसे
बाहर गली में सुना जा सकता था, डेस्कों का खुलना एवं बन्द होना, एक स्वर में पाठों को दोहराया जाना,
ऊँ चे स्वर में, हमारे हाथ हमारे कानों पर रखे हुए ताकि हम बेहतर समझ सकते तथा अध्यापक का
डरावना डंडा मेज पर खटखटाता हुआ। लेकिन अब यह सब इतना शान्त था ! मैंने अपनी मेज तक बिना
किसी के देखे पहुँच जाने हेतु इस हलचल पर ही भरोसा किया था, लेकिन उस दिन तो प्रत्येक चीज को
रविवार की सुबह के समान ही शान्त होना था। खिड़की में से मैंने अपने सहपाठियों को देखा, जो पहले ही
अपने-अपने स्थानों पर बैठे थे, तथा एम. हेमल अपनी बाँह के नीचे अपने भयानक डंडे को रखे कक्षा में
इधर से उधर घूम रहे थे। मुझे दरवाजा खोलना था और सभी के समक्ष कमरे में प्रवेश करना था। आप
कल्पना कर सकते हैं कि मैं कै सा शर्मिन्दा था और कितना डरा हुआ।
लेकिन कु छ भी नहीं हुआ। एम. हेमल ने मुझे देखा और बड़ी दयालुता के साथ बोले, “अपने स्थान पर
जल्दी से जाओ, छोटे-से फ्रें ज । हम तुम्हारे बिना ही (पाठ) शुरू करने वाले थे।”
हिन्दी अनुवाद-मैंने अपनी बेंच के ऊपर से छलांग लगाई, तथा अपनी डेस्क के पास जा बैठा । जब मैंने
अपने भय पर थोड़ा नियन्त्रण पा लिया, तब तक मैंने यह नहीं देखा था कि, हमारे अध्यापक ने उसका
सुन्दर हरे रंग का कोट, उसकी झालरदार कमीज तथा, छोटी-सी काली रेशमी टोपी पहन रखी थी, जिस पर
सभी तरफ कढ़ाई का काम किया हुआ था। इसे वह निरीक्षण, तथा पुरस्कार वितरण के दिनों के अलावा
कभी नहीं पहनता था। इसके अतिरिक्त, सारा स्कू ल ही काफी अजीब एवं गम्भीर प्रतीत हो रहा था। किन्तु
जिस चीज ने मुझे सर्वाधिक आश्चर्यचकित किया वह थी, पीछे की बैन्चों पर, जो हमेशा खाली रहा करती
थी, गाँव के लोगों का हमारे ही समान चुपचाप बैठे होना। ये थे-.बूढा होसर जो अपना तिकोना टोप पहने
था, भूतपूर्व मेयर, भूतपर्व पोस्ट-मास्टर तथा इनके अतिरिक्त कई दूसरे। प्रत्येक व्यक्ति उदास दिखाई देता
था, तथा होसर एक पुरानी प्रथम पुस्तिका लाया था जो किनारों पर, अंगूठों से पन्ने पलटे जाने के कारण,
गंदी हो चुकी थी और वह इसे अपने भारी-भरकम चश्मे की मदद से, जो पन्नों के ऊपर आर-पार रखा था,
अपने घुटनों पर रखे हुए खोले था।
हिन्दी अनुवाद- जब मैं इस सबके बारे में आश्चर्य कर रहा था, एम. हेमल अपनी कु र्सी पर बैठ गया तथा
उसी विनम्र एवं गम्भीर स्वर में, जो उसने मेरे लिए प्रयोग किया था, कहा, “मेरे बच्चो, यह आखिरी पाठ है
जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ गा। बर्लिन से आदेश आया है कि, अलसेक तथा लॉरेन के स्कू लों में के वल जर्मन भाषा
ही पढ़ाई जानी है। नया अध्यापक कल आ जायेगा। यह तुम्हारा फ्रें च भाषा का आखिरी पाठ है। मैं चाहता
हूँ कि तुम मेरी बात बहुत ध्यान से सुनो।
ये शब्द मेरे लिए बिजली की कडकडाहट के समान थे।
अरे, वे दुष्ट लोग; यही बात तो उन्होंने टाउन-हॉल के सूचना-पट्ट पर लगाई थी!
मेरा आखिरी फ्रें च भाषा का पाठ! अरे, मैं तो लिखना भी मुश्किल से ही जानता था। अब मैं आगे और कु छ
भी न सीख सकूँ गा! तब, मुझे वहीं रुक जाना होगा! अरे, मैं कितना दु:खी था कि मैंने अपने पाठ नहीं सीखे
थे, कि मैं पक्षियों के अण्डे तलाशता रहता था अथवा सार पर फिसलने के लिए चला जाता था! मेरी पुस्तकें
जो कु छ समय पूर्व ही मुझे मुसीबत लगती थीं, उठाकर चलने में इतनी भारी-भरकम, मेरी व्याकरण की
पुस्तक तथा संतों के इतिहास की मेरी पुस्तक, अब मेरी पुरानी मित्र लग रही थीं जिन्हें मैं त्याग नहीं
सकता था। तथा एम. हेमल भी; इस विचार ने कि अब वह जा रहा था, कि अब मैं उसे पुन: कभी न देख
सकूँ गा, मुझे उसके डंडे तथा वह कितना सनकी था, को भूलने को बाध्य कर दिया।
बेचारा! इस आखिरी पाठ के सम्मान में ही तो, उसने अपने रविवार के अच्छे वस्त्र पहने थे, और अब – मैं
समझ गया था कि, गाँव के वृद्ध लोग कमरे में पीछे की ओर क्यों बैठे हुए थे। ऐसा इसलिए था कि वे भी
दु:खी थे कि, वे स्कू ल में और अधिक क्यों नहीं गये थे। यह इन लोगों का हमारे अध्यापक को, उसकी
चालीस वर्ष की निष्ठापूर्ण सेवा के लिए धन्यवाद देने का, तथा अपने देश के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने
का, जो देश अब उनका नहीं रह गया था, एक तरीका था।

हिन्दी अनुवाद-जब मैं इस सबके बारे में सोच रहा था तो मैंने अपना नाम पुकारे जाते हुए सुना। अब
सुनाने की मेरी बारी थी। मैं पाटिसिपल के उस भयानक नियम को शुरू से अन्त तक, ऊँ ची एवं स्पष्ट
आवाज में, बिना कोई गलती किए सुनाने के योग्य होने के लिए क्या कु छ करने को तैयार न था? लेकिन
मैं तो प्रथम शब्दों पर ही उलझ गया और वहीं खड़ा रह गया, अपनी डेस्क को पकड़े हुए, मेरा दिल जोर से
धड़कते हुए और ऊपर देखने का साहस न जुटाते हुए।
मैंने एम. हेमल को मुझ से कहते हुए सुना, “मैं तुम्हें डॉदूंगा नहीं, छोटे-से फ्रे न्ज; तुम्हें तो अवश्य बुरा लग
रहा होगा। देखो, बात ऐसी है ! हम लोगों ने रोज स्वयं से कहा है, “आह! मेरे पास काफी समय है। मैं इसे
कल सीख लूँगा।” अब देखो, हम कहाँ आ पहुँचे हैं। अरे, अलसेक के साथ (यहाँ के लोगों के साथ) यही
परेशानी है; यहाँ के लोग अपनी पढ़ाई को आने वाले कल पर छोड़ देते हैं (स्थगित कर देते हैं)। अब वे
बाहर के लोग तुम से यह कहने का अधिकार रखेंगे, “ऐसा क्यों है: तुम फ्रान्सीसी होने का दावा करते हो,
लेकिन फिर भी तुम अपनी भाषा को न तो बोल सकते हो और न ही लिख सकते हो?” लेकिन तुम सबसे
खराब नहीं हो, छोटे-से फ्रे न्ज। हम सबके पास स्वयं को धिक्कारने के लिए बहुत सारा कारण है।”
“तुम्हारे माता-पिता पर्याप्त रूप से उत्सुक नहीं थे कि तुम सीख, पढ़ सको। उन्होंने तुम्हें खेतों अथवा मिलों
पर काम करने के लिए रख देने को अधिक पसन्द किया, ताकि कु छ अधिक पैसा प्राप्त किया जा सके ।
और मैं? मैं भी दोषी हूँ। क्या मैंने तुम्हें मेरे फू लों के पौधों को पानी देने प्राय: नहीं भेजा है, बजाय अपने
पाठ याद करने के ? और जब मैंने मछली पकड़ने के लिए जाना चाहा तो क्यों मैंने तुम्हारी छु ट्टी ही नहीं
कर डाली?”
हिन्दी अनुवाद-फिर, एक चीज से दूसरी चीज पर चर्चा करते हुए, एम. हेमल फ्रे न्च भाषा के बारे में बात
करता रहा, वह यह कहते रहे कि यह दुनिया की सबसे सुन्दर भाषा था-सवाधिक स्पष्ट, सवाधिक तर्क -
संगत, कि हमें इसकी हमारे बीच सुरक्षा अवश्य करनी चाहिए तथा इसे कभी नहीं भुलाना चाहिए, क्योंकि
जब लोग गुलाम बना लिये जाते हैं, तो जब तक वे अपनी भाषा से पक्की तरह जुड़े रहते हैं तब तक
उनके लिए उनकी भाषा जेल से बाहर निकलने की चाबी सिद्ध होती है। फिर उसने व्याकरण की एक
पुस्तक खोली और हमारा पाठ पढ़ कर हमें सुनाया। मैं यह देख कर इतना अचम्भित था कि मैं इसे
कितनी अच्छी तरह समझ गया था। जो कु छ उसने कहा वह कितना सरल लगा, कितना सरल ! मैं यह भी
सोचता हूँ कि मैंने कभी भी इतने ध्यान से नहीं सुना था और कि उसने भी हर चीज को इतने धैर्य से
कभी नहीं समझाया था। ऐसा लगता था जैसे कि वह बेचारा हमें वो सब जो वह जानता था, जाने से पूर्व
दे देना चाहता है और इस सबको हमारे दिमागों में एक ही बार में डाल देना चाहता है।
हिन्दी अनुवाद- ग्रामर के बाद हमारा लेखन का पाठ हुआ। उस दिन एम. हेमल हमारे लिए नई कॉपियाँ
लाये थे, जिन पर सुन्दर एवं गोल हस्तलेख में लिखा था-फ्रांस, अलसेक, फ्रान्स, अलसेक । वे छोटे छोटे झंडों
की भाँति दिखाई दे रहे थे जो स्कू ल के कमरे में सर्वत्र लहरा रहे थे और हमारी डेस्कों के ऊपर लगी छड़ों
से लटके हुए थे। आपको देखना चाहिए था कि किस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति काम में लगा था और कै सी
शान्ति छायी हुई थी। एक मात्र आवाज थी, कागज पर पैनों के रगड़े जाने की। एक बार कु छ भौंरे उड़कर
अन्दर आ गये; लेकिन किसी ने भी उन पर ध्यान नहीं दिया, सबसे छोटे बच्चों ने भी नहीं, जो मछली
पकड़ने के कांटों के चित्र खींचने में लगे थे, जैसे इन चित्रों को खींचना भी फ्रें च भाषा हो। छत पर कबूतर
धीमे स्वर में गुटरगूं कर रहे थे, और मैंने मन ही मन सोचा, “क्या वे कबूतरों को भी जर्मन भाषा में गाने
को बाध्य करेंगे?”
जब भी मैंने लिखते हुए ऊपर की ओर देखा, मैंने एम. हेमल को बिना हिले-डु ले उसकी कु र्सी पर बैठे देखा,
कभी एक वस्तु की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए, फिर दूसरी वस्तु की ओर, जैसे कि वह अपने दिमाग
में यह अंकित कर लेना चाहता है कि उस छोटे-से स्कू ल के कमरे में प्रत्येक वस्तु कै सी दिखाई देती थी।
जरा सोचो! चालीस वर्षों से वह उसी स्थान पर था, खिड़की से बाहर उसका बगीचा था तथा उसके समक्ष
उसकी कक्षा थी, सदैव ऐसा ही। के वल डेस्कें तथा बैंचें घिस-घिस कर चिकनी हो गयी थीं; बगीचे में अखरोट
के वृक्ष पहले की अपेक्षा अधिक ऊँ चे थे तथा जो होपवाइन (एक प्रकार की लता) जिसे उसने स्वयं ने
लगाया था खिड़कियों से लिपट कर छत तक पहुँच गयी थी। इस सब को छोड़ कर जाने की बात ने तो
उसका दिल ही तोड़ दिया होगा, बेचारा; साथ में ऊपर के कमरे में उसकी बहन की इधर-उधर चलने और
सामान को बाँधने की आवाज सुनना ! क्योंकि उन्हें तो अगले ही दिन देश छोड़ कर जाना होगा।
हिन्दी अनुवाद-किन्तु उसमें इतना साहस था कि वह प्रत्येक पाठ को अन्त तक सुन सकता था। लेखन के
बाद हमारा इतिहास का पाठ हुआ। और फिर बच्चों ने स्वर के साथ अपना बा, बे, बी, बो, बु बोला। कमरे के
पिछले हिस्से में बूढ़े हासर ने अपना चश्मा लगा लिया था तथा अपनी प्रथम पुस्तक को दोनों हाथों में
पकड़े हुए बच्चों के साथ अक्षरों को बोल रहा था। आप देख सकते थे कि वह भी रो रहा था; उसकी आवाज
भावुकता के कारण काँप रही थी और उसकी आवाज सुनना हम सबको इतना मजेदार लगा कि हम सब
हँसना और रोना चाहने लगे। अरे, मुझे कितनी अच्छी प्रकार याद है, वह आखिरी पाठ!
अचानक चर्च की घड़ी ने बारह बजा दिए। फिर एंजिलस ने (रोमन कै थोलिक चर्च में दुपहर की भक्ति के
लिए बजाये जाने वाली घण्टी एंजिलस कही जाती है।)। इसी क्षण प्रशियनों के (तुरही) हमारी खिडकियों के
नीचे बज उठे । ये प्रशियन सिपाही अपनी डिल करने के बाद वापस लौट रहे थे। एम.
कु र्सी से उठ खडा हआ. बहत पीला पडा हआ। मैंने उसे इतना ऊँ चा पहले कभी नहीं देखा था।
“मेरे मित्रो”, वह बोला, “मैं-मैं- किन्तु किसी चीज ने उसका गला अवरुद्ध कर दिया। वह आगे नहीं बोल सका।
फिर वह ब्लेकबोर्ड की ओर मुड़ा, चाक का एक टु कड़ा लिया तथा अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करते हुए,
उसने जितना बड़ा लिख सकता था, लिखा :’
“फ्रान्स जिन्दाबाद!”
फिर वह रुका तथा उसने अपना सिर दीवार से सटा दिया, और बिना एक भी शब्द बोले, उसने हमें अपने
हाथ से इशारा किया
“स्कू ल विसर्जित किया जाता है—तुम लोग जा सकते हो।”
Chapter -2, Lost Spring Hindi Translation
Day
Night

Chapter -2, Lost Spring


By- Anees Jung
हिन्दी अनुवाद- ‘कभी-कभी मुझे कू ड़े-कचरे में एक रुपया मिल जाता है।
“तुम यह क्यों करते हो?” मैं साहेब से पूछती हूँ, जिससे मेरा सामना प्रत्येक सुबह होता है, और जो मेरे
पडौस में कू ड़े-कचरे के ढेरों में, सोने की खोजबीन करता रहता है। साहेब ने अपना घर काफी समय पूर्व
छोड़ दिया था। ढाका के हरे-भरे खेतों के बीच स्थित, उसका घर अब दूर की स्मृति भी नहीं रह गया है।
कई तूफान जो उनके खेतों, एवं घरों को बहा ले गये थे, उसकी माँ उसे बताती है। इसी कारण वे छोड़कर
आ गये, सोने की तलाश करने, बड़े शहर में जहाँ वह अब रहता है। “मुझे करने को कु छ और काम नहीं है”,
वह दूसरी ओर देखते हुए उत्तर देता है। “स्कू ल जाया करो”, मैं लापरवाही के साथ कहती, तुरन्त यह
महसूस करते हुए कि, मेरी सलाह कितनी निरर्थक एवं खोखली प्रतीत होगी।
“मेरे पडौस में कोई स्कू ल नहीं है। जब वे स्कल बना देंगे, तो मैं चला जाऊँ गा।” “अगर मैं एक स्कू ल शुरू
कर दूं, तो क्या तुम आओगे?” मैं पूछती हूँ, थोड़े मजाक के साथ। “हाँ”, वह कहता है, खुलकर मुस्कराते हुए।
कु छ दिनों बाद, मैं उसे अपने पास दौड़कर आते हुए देखती हूँ। “क्या आपका स्कू ल तैयार हो गया है?”
“स्कू ल बनाने में काफी ज्यादा समय लगता है”, मैं असमंजस में उत्तर देती हूँ, एक ऐसा वादा करने के
कारण, जिसे पूरा करने का कोई मन्तव्य नहीं था। लेकिन मेरे जैसे वादे, उसकी नीरस एवं निराशापूर्ण
दुनिया के हर कोने में भरे पड़े रहते हैं।
महीनों तक उसे जानने के बाद, मैं उससे उसका नाम पूछती हूँ। “साहेब-ए-आलम”, वह जोर से बोलता है।
वह नहीं जानता कि, इसका तात्पर्य क्या होता है। अगर वह इसका अर्थ जाने,—संसार का मालिक तो उसे
विश्वास करने में बड़ी कठिनाई होगी। अपने नाम के अर्थ से अनभिज्ञ रहते हुए, वह अपने दोस्तों के साथ
गलियों में भटकता है, नंगे पैरों वाले लड़कों की फौज, जो सुबह के पक्षियों की भाँति प्रकट होते हैं, और
दुपहर तक गायब हो जाते हैं। इतने महीनों के बाद, मैं उन्हें पहचानने लगी हूँ, प्रत्येक को।
“तुम चप्पलें क्यों नहीं पहने हो?” मैं एक लड़के से पूछती हूँ। “मेरी माँ ने उन्हें (चप्पलों को) ताक से नीचे
नहीं उतारा।” उसने सरलता से जवाब दिया। “अगर उसने उतार कर दे भी दिया होता तो भी, वह उन्हें फें क
देगा”, दूसरे लड़के ने बताया, जिसने बेमेल जूते पहन रखे थे। जब मैं इस पर टिप्पणी करती हूँ, तो वह
अपने पैरों को इधर-उधर घसीटता है, और कु छ भी नहीं कहता है।
“मुझे जूतों की आवश्यकता है”, तीसरा लड़का कहता है जिसके पास, जिन्दगी भर से जूते नहीं रहे । देश-भर
में घूमते हुए, मैंने बच्चों को नंगे पैर चलते देखा है, शहरों में, गाँव की सड़कों पर। ऐसा पैसों की कमी के
कारण नहीं है, बल्कि नंगे पैर रहना एक परम्परा है, यह एक स्पष्टीकरण है। मुझे आश्चर्य होता है कि, क्या
यह एक बहाना मात्र है, दरिद्रता की एक स्थायी स्थिति को समझा डालने का।
हिन्दी अनुवाद- मुझे एक कहानी याद है, जिसे उडीपी के एक व्यक्ति ने, एक बार मुझे सुनाई थी। एक छोटे
लड़के के रूप में, वह एक पुराने मन्दिर के पास से गुजर कर स्कू ल पहुँचता था, जहाँ उसके पिता पुजारी
थे। वह मन्दिर पर थोड़े समय के लिए रुकता था, और जूतों की एक जोड़ी के लिए प्रार्थना करता था। तीस
वर्ष बाद, मैं उसके नगर तथा उसके मन्दिर में गई, जहाँ अब खालीपन एवं उजाड़ का वातावरण था।
पिछवाड़े में, जहाँ अब नया पुजारी रहता था, वहाँ लाल एवं सफे द प्लास्टिक की कु र्सियाँ थीं। एक लड़का
जिसने स्लेटी रंग की वर्दी, जुर्राबें तथा जूते पहन रखे थे, हाँफता हुआ आया और, उसने अपना स्कू ल का
थैला, सिमट जाने वाले पलंग पर फें क दिया।
लड़के की ओर देखते हुए, मुझे दूसरे लड़के की प्रार्थना का स्मरण हुआ. जो उसने देवी माँ से की थी, जब
उसे अन्त में जूते प्राप्त हो गये थे, “मैं इन्हें कभी न खोऊँ ।” देवी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली थी।
वर्तमान पुजारी के पुत्र के जैसे लड़के , अब जूते पहनते थे। किन्तु कई अन्य, जैसे मेरे पड़ोस में कचरा
बीनने वाले लड़के , आज भी जूतों के बिना ही हैं।
हिन्दी अनुवाद- नंगे पैर कचरा बीनने वालों से मेरा परिचय, मुझे सीमापुरी ले जाता है, जो दिल्ली की सीमा
पर है. लेकिन अन्य प्रकार से इससे (दिल्ली से) मीलों दूर है। जो लोग यहाँ रहते हैं, वे अवैध रूप से
सरकारी भूमि पर कब्जा जमाए बैठे हैं। ये बंगलादेश से 1971 में आये थे। साहेब का परिवार भी इन्हीं में
से एक है। तब सीमापुरी एक उजाड स्थान था। अभी भी यह ऐसा ही है, किन्तु अब यह खाली नहीं है।
मिट्टी से बने मकानों में, जिन पर टीन तथा त्रिपालों की छतें हैं, जो गंदे पानी के निकास, जमीन के अन्दर
गंदगी ले जाने वाले पाइपों की व्यवस्था, अथवा पीने योग्य नल के पानी की व्यवस्था से रहित हैं, दस
हजार कचरा बीनने वाले लोग रहते हैं।
ये लोग 30 से भी अधिक वर्षों से यहाँ रह रहे हैं, बिना किसी पहचान के , बिना आज्ञा-पत्र के , किन्तु राशन
कार्ड के सहित, जिससे उनके नाम मतदाता सूची में शामिल हो जाते हैं. और उन्हें अनाज खरीदने में समर्थ
बना देते हैं। भोजन जीवन के लिए अधिक आवश्यक होता है, पहचान की अपेक्षा ।
“अगर दिन के अन्त में हम अपने परिवारों को भोजन खिला सकते हैं. और बिना पेट में दर्द के सो सकते
हैं, तो हम यहाँ रहना चाहेंगे बजाय, उन खेतों पर जो हमें अनाज नहीं देते थे,” ऐसा औरतों के एक समूह
का कहना है, जो फटी पुरानी साड़ियाँ पहने हैं, जब मैं उनसे पूछती हूँ कि उन्होंने हरे-भरे खेतों, तथा नदियों
वाली जमीन को क्यों छोड़ दिया था। जहाँ भी उन्हें भोजन मिल जाता है, वे अपना तंबू वहीं गाड़ देते हैं,
जो उनके अस्थायी घर बन जाते हैं।
बच्चे इनमें बड़े होते हैं, और जिन्दा रहने में भागीदार बनते हैं। और सीमापुरी में जिन्दा रहने के मायने हैं,
कचरा बीनना। वर्षों की अवधि में कचरा बीनना, एक ललित कला का कलेवर ग्रहण कर चुका है। कचरा
उन लोगों के लिए सोना (स्वर्ण) होता है। यह कचरा उनकी रोजाना की रोटी, उनके सिरों पर एक छत, फिर
यह टपकने वाली छत ही क्यों न हो, होता है। लेकिन एक बच्चे के लिए, यह इससे भी कु छ अधिक होता
है।
हिन्दी अनुवाद- “मुझे कभी-कभी एक रुपया मिल जाता है, यहाँ तक कि दस रुपये का नोट भी”, साहेब
कहता है, उसकी आँखें चमक उठती हैं। जब आपको कचरे के ढेर में, चाँदी का एक सिक्का मिल जाता है
तो, आप छान-बीन बन्द नहीं कर देते हैं, क्योंकि और अधिक पीने की उम्मीद जो रहती है। ऐसा लगता है
कि बच्चों के लिए, कचरे का एक अलग ही अर्थ होता है, उनके माता-पिता के लिए अर्थ की तुलना में।
बच्चों के लिए कचरा आश्चर्य में लिपटी चीज होता है, बड़ों के लिए यह जिन्दा रहने का साधन होता है।
सर्दी की एक सुबह, मैं साहेब को पडौस के क्लब के बाड लगे दरवाजे के पास खडा देखती हैं. जो सफे द
वस्त्र पहने हुए दो युवकों को, टेनिस खेलता देख रहा है। “मैं इस खेल को पसन्द करता हूँ”, वह गुनगुनाकर
बोलता है तथा, वह इसे बाड़ के पीछे खड़े रहते हुए देखकर ही सन्तुष्ट है। “मैं अन्दर चला जाता हूँ, जब
कोई भी आसपास नहीं होता है”, वह स्वीकार करता है। “द्वारपाल मुझे झूला काम में लेने देता है।”
साहेब भी टेनिस के जूते पहने हुए है, जो उसके रंग उड़ चुकी कमीज, तथा निकर के साथ अटपटे दिखायी
देते हैं। “किसी ने मझे ये जते दिए थे” वह स्पष्टीकरण के रूप में कहता है। यह
धनाढ्य लड़के के ठु कराये हुए जूते थे, जिसने शायद इन्हें पहनने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि, किसी
एक जूते में छिद्र हो गया था, जो साहेब को परेशान नहीं करता है। नंगे पैरों से चलने वाले एक व्यक्ति के
लिए, छिद्र वाले जूते भी, किसी स्वप्न के सच हो जाने से कम नहीं होते। लेकिन जिस खेल को वह इतने
ध्यान से देख रहा है, वह उसकी पहुँच से बाहर है।
इस सुबह साहेब दूध के बूथ की ओर जा रहा है। उसके हाथ में एक स्टील का कनस्तर है। “अब मैं उधर
सड़क पर चाय की एक थड़ी पर काम करता हूँ।” वह दूर की ओर इशारा करते हुए बोलता है। “मुझे 800
रु. तथा सभी वक्त का भोजन मिलता है।” क्या उसे काम पसन्द है? मैं पूछती हूँ। मैं देखती हूँ कि उसके
चेहरे ने निश्चिन्तता का भाव खो दिया है। स्टील का कनस्तर, उस प्लास्टिक के थैले से अधिक भारी
प्रतीत होता है. जिसे वह अपने कं धे पर इतनी आसानी से ढोया करता था। वह थैला उसी का था। कनस्तर
उस व्यक्ति का है, जो चाय की । दुकान पर स्वामित्व रखता है। साहेब अब स्वयं का मालिक नहीं रहा।
“मैं कार चलाना चाहता हूँ।” । मुके श स्वयं का स्वामी होने पर जोर देता है। “मैं एक मोटर सुधारने वाला
मिस्त्री बनूँगा।” वह घोषणा करता है। ‘क्या तुम कारों के बारे में कु छ जानते हो?” मैं पूछती हूँ। “मैं कार
चलाना सीख लूँगा”, वह उत्तर देता है, सीधे मेरी आँखों में देखते हुए। उसका स्वप्न मृगमरीचिका की भाँति,
फिरोजाबाद नामक उसके शहर की गलियों में, भरी धूल के बीच अस्पष्ट दिखाई देता है। यह शहर यहाँ की
चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। फिरोजाबाद का हर दूसरा परिवार, चूड़ियाँ बनाने में लगा है। काँच उद्योग का
के न्द्र है, जहाँ के परिवारों ने कई पीढियाँ, भट्टियों के चारों ओर काम करते हुए, काँच जोड़ते हुए तथा देश
की सभी औरतों के लिए चूड़ियाँ बनाते हुए बिता दी हैं, ऐसा प्रतीत होता है।
मुके श का परिवार भी इन्हीं में से एक है। उनमें से कोई भी नहीं जानता है कि उस जैसे बच्चों के लिए
ऊँ चे तापक्रम वाली भट्टियों में, गंदी अंधेरी कोठरियों में, जहाँ हवा एवं रोशनी का अभाव है. काम करना गैर
कानूनी है; कि अगर कानून को लागू किया जाये तो वह, उसे तथा उन सभी 20,000 बच्चों को गर्म भट्टियों
से बाहर निकलवा सकता है. जहाँ वे दिन का समय कड़ी मेहनत करते हुए गुजारते हैं, प्रायः अपनी आँखों
की चमक खो देते हुए। मुके श की आँखें प्रसन्नता से चमक उठती हैं.
जब वह मुझे उसके घर ले जाने की स्वेच्छा प्रकट करता है, जिसके लिए वह गर्व से कहता है कि, उसे पुनः
बनाया जा रहा है। हम दुर्गन्ध से भरी, कचरे से अटी पड़ी गलियों में चलते हैं, उन घरों के पास से जो
टू टती हुई दीवारों वाली गंदी झौंपड़ियाँ ही हैं, जिनके दरवाजे डगमगाने वाले हैं, जो खिड़कियों से रहित हैं,
जिनमें मनुष्यों एवं जानवरों के परिवार आदिम युग की भाँति साथ-साथ जीते हैं। वह ऐसे ही एक घर के
दरवाजे पर रुकता है, अपने पैर से डगमग करते लोहे के दरवाजे पर धक्का मारता है, और इसे धके ल कर
खोल देता है।
हम एक अर्द्ध-निर्मित कु टिया में प्रवेश करते हैं। इसके एक हिस्से में जो सूखी घास के छप्पर से ढका है,
लकड़ी से जलने वाला चूल्हा है जिस पर एक बड़ा बरतन रखा है, जिसमें छन-छन की आवाज के साथ
पालक की पत्तियाँ उबल रही हैं। जमीन पर, बड़ी एलुमिनिअम की थालियों में और कटी हुई सब्जियाँ रखी
हैं। एक पतली-दुबली युवती सारे परिवार के लिए शाम का भोजन पका रही है। धुएँ से भरी आँखों से वह
मुस्कराती है। वह मुके श के बड़े भाई की पत्नी है। अधिक उम्र की न होते हुए भी उसने, परिवार की बहू के
रूप में सम्मान प्राप्त करना शुरू कर दिया है। पहले से ही उस पर तीन लोगों-उसका पति, मुके श तथा
उनके पिता की जिम्मेदारी है।
जब अधिक उम्र का व्यक्ति घर में प्रवेश करता है, तो वह आहिस्ता से टू टी हुई दीवार के पीछे चली जाती
है. और अपना धूंघट अपने चेहरे के निकट ले आती है। जैसी कि प्रथा है, बड़ी उम्र के पुरुषों के समक्ष
बहुओं को, अपने चेहरे पूँघट से ढक लेने होते हैं। इस मामले में बड़ी उम्र का पुरुष, चूड़ियाँ बनाने वाला एक
शक्तिहीन एवं कं गाल व्यक्ति है। वर्षों तक की लम्बी मेहनत के बावजूद, पहले एक दर्जी के रूप में तथा,
फिर एक चूड़ी बनाने वाले के रूप में, वह अपने घर की मरम्मत कराने में असफल रहा है. तथा अपने दो
पुत्रों को स्कू ल नहीं भेज सका है। के वल वह उन्हें वही सब सिखा पाया है, जो वह स्वयं जानता है,—चूड़ियाँ
बनाने की कला।
“यह इसकी नियति है”, मुके श की दादी बोलती है, जिसने चूड़ियों के काँच की पॉलिश करने से उड़ती धूल
से अपने पति को अंधा होते हुए देखा है। “क्या ईश्वर-प्रदत्त वंश-परम्परा को तोड़ा जा सकता है?” उसका
निहितार्थ होता है। चूड़ी बनाने वालों की जाति में पैदा होकर उन्होंने चूड़ियों के अतिरिक्त और कु छ भी
नहीं देखा है-घर में, अहाते में प्रत्येक दूसरे मकान में, प्रत्येक दूसरे अहाते में, फिरोजाबाद की प्रत्येक गली
में। चूड़ियों के मालानुमा बंडल, चमकदार सुनहरे, धान जैसे हरे, नीले, गुलाबी, बैंगनी, इन्द्रधनुष के सात रंगों
से जन्मे प्रत्येक रंग वाले–बिना संवरे अहातों में बड़े-बड़े ढेरों में पड़े होते हैं, चार पहियों वाली हाथ-गाड़ियों
में ढेर लगे होते हैं, जिन्हें झोंपड़ियों के इस शहर की संकरी गलियों में युवा लोग धके लते हैं।
और अन्धेरी झोंपडियों में टिमटिमाते दीपकों की ज्वालाओं की पंक्तियों के आगे, लडके लड़कियाँ अपने
माता-पिताओं के साथ बैठे होते हैं, रंगीन काँच के टु कड़ों को चूड़ियों को गोलाकार आकृ तियों में जोड़ते हुए।
उनकी आँखों का समायोजन बाहर की रोशनी की अपेक्षा, अन्धेरे के साथ अधिक रहता है। इसीलिए वे प्राय:
अपनी आँखों की रोशनी वयस्क होने से पूर्व ही खो देते हैं।
सविता, एक युवती एक भद्दी गुलाबी ड्रेस में एक बुजुर्ग महिला के निकट बैठती है, और काँच के टु कड़ों को
जोड़ती है (टाँका लगाती है)। जब उसके हाथ मशीन के चिमटों की भाँति, यान्त्रिकता के साथ चलते हैं. तो
मुझे आश्चर्य होता है कि क्या उसे पता है कि, इन चूड़ियों की पवित्रता क्या होती है, जिन्हें बनाने में वह
मदद कर रही है। यह एक भारतीय स्त्री के सुहाग का प्रतीक है, जिसका अर्थ है, वैवाहिक जीवन में शुभत्व।
एक दिन अचानक उसे मालूम होगा, जब उसका सिर लाल रंग के चूँघट से ढका होगा, उसके हाथ मेहंदी से
लाल रंगे होंगे और लाल रंग की चूड़ियाँ उसकी कलाइयों पर सरका दी जायेंगी। तब वह एक दुल्हन बन
जायेगी।
उस वृद्ध औरत के समान जो उसके पास बैठी है, जो कई वर्षों पूर्व ऐसी ही दुल्हन बनी थी। उसकी कलाई
पर अभी भी चूड़ियाँ हैं, लेकिन उसकी आँखों में रोशनी नहीं है। “एक बार भी सेर भर (पेट भर) खाना नहीं
खाया”, वह आनन्दरहित स्वर में कहती है। उसने पूरे जीवन-काल में एक बार भी, भरपेट भोजन का
आनन्द नहीं उठाया है। यही फसल उसने काटी है। उसका पति, एक वृद्ध व्यक्ति जिसकी लहराती हुई दाढ़ी
है, कहता है, “मैं चूड़ियों के अलावा और कु छ भी नहीं जानता। मैं इतना ही कर पाया हूँ कि, मैंने परिवार के
रहने हेतु घर बना लिया है।”
उसकी बात सुनकर, किसी व्यक्ति को आश्चर्य हो जाता है कि, क्या उसने वो पा लिया है. जो अन्य कई
लोग, अपने जीवन काल में प्राप्त करने में असफल रहे हैं। उसके सिर पर एक छत जो है!
चूड़ियाँ बनाने के काम को करते रहने के अलावा कु छ भी अन्य कार्य करने हेतु धन का अभाव होने, खाने
को भी पर्याप्त पैसा न होने, के दु:ख की कराहट हर घर में गूंजती है। युवा लोग अपने से बड़ों के विलाप
को दोहराते हैं। ऐसा लगता है कि, फिरोजाबाद में समय के साथ कु छ नहीं बदला है। वर्षों की चेतना शून्य
कर देने वाली मेहनत ने, पहल करने की सारी क्षमता तथा, स्वप्न देखने की सामर्थ्य को मार दिया है।
“आप लोग सहकारिता में संगठित क्यों नहीं हो जाते हैं?” मैं युवकों के एक समूह से पूछती हूँ, जो उन
बिचौलियों के कु चक्र में फँ स गये हैं, जिन्होंने उनके पिताओं तथा पूर्वजों को फाँस लिया था। “अगर हम
संगठित हो भी जाते हैं, तो हमें ही पुलिस के द्वारा घसीट लिया जायेगा, पीटा जायेगा तथा जेल में डाल
दिया जायेगा, किसी गैर-कानूनी कार्य को करने के अपराध में”, वे कहते हैं।
उन लोगों के बीच कोई मार्गदर्शक नहीं है, कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो उन्हें भिन्न प्रकार से देखने में
मदद कर सके । उनके पिता उतने थके हुए हैं, जितने वे स्वयं । वे अन्तहीनता के साथ उत्तरोत्तर बोलते
चले जाते हैं, गरीबी से उदासीनता, उदासीनता से लालच तथा अन्याय के बारे में।
उनकी बातें सुनते हुए मुझे दो दुनिया स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं-,एक परिवार की दुनिया जो गरीबी के जाल में
फँ सी है, तथा जन्म की जाति के कलंक से दबी है.दूसरी दुनिया है साहूकारों, बिचौलियों, पुलिसवालों, कानून
को लागू करने वालों, नौकरशाहों तथा राजनेताओं के कु चक्र की दुनिया। दोनों ने मिलकर बच्चे पर ऐसा
बोझ लाद दिया है. जिसे वह उतार नहीं सकता। एहसास होने से पूर्व ही वह, इसे उतने ही स्वाभाविक रूप
से स्वीकार कर लेता है. जितने स्वाभाविक रूप से उसके पिता ने स्वीकार किया था। इसके अलावा कु छ
और करना, चुनौती देना हो जायेगा। और चुनौती देना उसके बड़े होने का हिस्सा नहीं है।
जब मैं मुके श में इस बात की क्षणिक चमक देखती हूँ, तो मैं प्रसन्न हो उठती हूँ। “मैं एक मोटर सुधारने
वाला मिस्त्री बनना चाहता हूँ”, वह दोहराता है। वह किसी गैराज में जायेगा, और काम सीख लेगा। लेकिन
गैराज उसके घर से दूर है। “मैं पैदल चल लँगा”. वह जोर देकर कहता है। “क्या तुम हवाई जहाज उडाने
का स्वप्न भी देखते हो?” वह अचानक चुप हो जाता है।
“नहीं”, वह कहता है, जमीन की ओर घूरते हुए। उसकी छोटी सी गुनगुनाहट में एक लज्जा का भाव है, जो
अभी पश्चात्ताप में परिवर्तित नहीं हुआ है। वह कारों का स्वप्न देख कर ही सन्तुष्ट है, जिन्हें वह अपने
शहर की गलियों में, तेज गति से दौड़ती हुई देखता है। मुश्किल से ही कोई वायुयान, फिरोजाबाद के ऊपर
से उड़ते हैं।
Chapter-3 Deep Water Hindi Translation
Day
Night

Chapter-3 Deep Water


By-William O. Douglas
ऐसा तब हुआ जब मैं 10 अथवा 11 वर्ष की उम्र का था। मैंने तैरना सीखने का निश्चय किया था।
याकिमा में वाइ.एम.सी.ए. में एक तरणताल था जो ठीक ऐसा करने का अवसर प्रदान करता था। याकिमा
नदी जोखिमभरी थी। माँ लगातार इस नदी के विरुद्ध चेताती रहती थी तथा मेरे दिमाग में इस नदी में डू ब
जाने की प्रत्येक घटना के विवरण को ताजा बनाये रखती थी। लेकिन वाइ.एम.सी.ए. ताल सुरक्षित था। यह
उथले सिर की तरफ के वल 2-3 फीट गहरा था और यद्यपि दूसरे सिर पर यह 9 फीट गहरा था तथापि
ढलान । मैंने पानी के ऊपर तैरने के पंख लिए और ताल पर चला गया। मुझे इस ताल में नंगे वदन
चलकर जाने तथा अपनी पतली-दुबली टाँगों को प्रदर्शित करने से नफरत थी। लेकिन मैंने अपने अभिमान
पर काबू पा लिया और ऐसा कर गया।
फिर भी, प्रारम्भ से ही जब मैं पानी में होता था, मुझे इससे डर लगता था। ऐसा तब शुरू हुआ था जब मैं
3-4 साल का था और पिता मुझे कै लिफोर्निया में समुद्र के किनारे ले गये थे। वह एवं मैं लहरों के झाग में
साथ खड़े थे। मैं उन्हें पकड़े हुए था फिर भी लहरों ने मुझे धके ल कर गिरा दिया और मेरे ऊपर से चली
गयीं। मैं पानी में डू ब गया। मेरी सांस चली गयी। मैं भयभीत हो गया। पिता हँसे, लेकिन मेरे दिल में
लहरों की जबरदस्त ताकत का खौफ (आतंक) था।
वाइ.एम.सी.ए. के तरणताल में जाने से मेरी बुरी यादें पुनर्जीवित हो उठीं और बचकाना भय जाग उठे ।
लेकिन कु छ ही समय में मैंने आत्मविश्वास बटोर लिया। अपने नये जल-पंखों की मदद से मैं बतख की
भाँति तैरने लगा, अन्य लड़कों को देखने तथा उनकी नकल करके तैरना सीखने की कोशिश करने लगा।
अलग अलग दिनों में मैंने ऐसा 2-3 बार किया और मैंने पानी के भीतर थोड़ा निश्चिंत महसूस करना शुरू
किया ही था कि दुर्घटना घट गयी।
मैं तालाब पर गया था जब कोई दूसरा व्यक्ति वहाँ मौजूद नहीं था। स्थान शान्त था। पानी स्थिर था तथा
ताल का टाइलें लगा पेंदा उतना सफे द एवं स्वच्छ था जितना स्नान करने का टब हुआ करता है। मैं
अके ला ताल – में जाने से भयभीत था। इसलिए मैं ताल के पास दूसरों का इन्तजार करने हेतु बैठ गया।
मुझे वहाँ अधिक समय नहीं हुआ था कि एक लम्बा-तगड़ा मुक्के बाज-सा लड़का, जो करीब 18 वर्ष का था,
वहाँ आया। उसकी छाती पर घने बाल थे। वह एक सुन्दर शारीरिक मॉडल (नमूना) था जिसकी टाँगों एवं
भुजाओं पर उभरी हुई मांसपेशियाँ दिखाई देती थीं। उसने चिल्लाकर कहा, “अरे, पतलू ! तुम्हें पानी में डु बाया
जाना कै सा लगेगा?”
ऐसा कहने के साथ ही उसने मुझे उठा लिया एवं मुझे ताल के गहराई वाले सिरे की तरफ फें क दिया। मैं
बैठी हुई मुद्रा में गिरा, पानी निगल गया और तुरन्त पेंदे पर जा पहुंचा। मैं डरा हुआ था किन्तु इतना भी
डरा हुआ नहीं था कि कु छ सोच ही न पाऊँ अथवा किं कर्तव्यविमूढ़ हो जाऊँ । गिरते हुए मैंने योजना बनाई
: जब मेरे पैर ताल के पेंदे से टकरायेंगे तो मैं बड़ी छलाँग लगाऊँ गा, सतह पर आ पहुँचूँगा तथा इस पर
सपाट लेट जाऊं गा और बतख की भाति तैरता हुआ ताल के किनारे पहुच जाऊं गा।
नीचे जाने में काफी देर लगी प्रतीत हुई। वे नौ फीट नब्बे फीट जैसे अधिक प्रतीत हुए और मेरे पैर पेंदे को
छू ते उससे पूर्व ही मेरे फे फड़े फटने को तैयार हो गये। लेकिन जब मेरे पैर पेंदे से टकराये तो मैंने अपनी
सारी ताकत बटोरी और जैसा मैंने सोचा था मैंने ऊपर की ओर बड़ी छलाँग लगाई। मैंने कल्पना की थी
कि मैं बोतल के ढक्कन की भाँति तुरन्त सतह पर आ पहुँचूँगा। बजाय इसके , मैं धीरे-धीरे ऊपर आया।
मैंने आँखें खोली और पानी के अतिरिक्त और कछ न देख सका। पानी जो भददा-सा पीलापन लिए हा हो
गया। मैंने हाथों को ऊपर की ओर किया जैसे कि मुझे कोई रस्सी पकड़नी हो और मेरे हाथ के वल पानी
को ही पकड़ सके । मेरा दम घुट रहा था। मैंने चिल्लाने की कोशिश की लेकिन कोई आवाज नहीं आयी।
फिर मेरी आँखें एवं नाक पानी से बाहर आये लेकिन मेरा मुँह नहीं।
मैंने पानी की सतह पर हाथ मारे, पानी निगल गया और सांस अवरुद्ध हो गयी। मैंने अपनी टाँगों को ऊपर
लाने की कोशिश की लेकिन वे निर्जीव भार के समान लटक गयीं, गतिहीन एवं कठोर। मुझे एक बडी
ताकत नीचे की ओर खींच रही थी। मैं चिल्लाया किन्तु के वल पानी ने मेरी चीख सुनी। मैं ताल के पेंदे की
ओर लम्बी यात्रा पर वापस रवाना हो चुका था।..
मैंने पानी को पीटा, डू बते हुए, अपनी शक्ति इस तरह खर्च करते हुए जैसे कोई व्यक्ति दुःस्वप्न में किसी न
रोके जा सकने वाली ताकत से संघर्ष करता है। मैंने अपनी समस्त सांस खो दी थी। मेरे फे फड़े दर्द करते
थे, मेरा सिर धड़कता था। मैं चक्कर खा रहा था । लेकिन मुझे योजना याद थी.—मैं ताल के पेंदे से
उछाल मारूँ गा और कॉर्क की भाँति पानी की सतह पर आ जाऊँ गा। मैं पानी पर सपाट लेटा रहूँगा, अपनी
भुजाओं से पानी पर चोटें मारूँ गा, और टाँगों को फटकारूँ गा। फिर मैं तालाब के किनारे पर आ जाऊँ गा, और
सुरक्षित हो जाऊँ गा।
मैं अनन्त रूप से नीचे गिरता गया। मैंने अपनी आँखें खोलीं। पीली चमक वाले पानी के अतिरिक्त कु छ
नहीं था—.काला पानी जिसमें से होकर कोई देख नहीं सकता था।
और फिर शुद्ध, कठोर आतंक ने मुझे जकड़ लिया, आतंक जिसमें कोई समझ-बूझ नहीं रहती, आतंक जिस
पर कोई नियन्त्रण नहीं होता, आतंक जो कोई समझ नहीं सकता, जिसे स्वयं ने अनुभव न किया हो। मैं
पानी के नीचे चीख रहा था। मैं पानी के नीचे शक्तिहीन एवं निष्क्रिय हो गया था भय से कठोर, अकड़ा
हुआ। मेरे गले की चीखें भी जम गयी थीं। के वल मेरा हृदय तथा सिर के भीतर की धड़कन बताती थी कि,
मैं अभी भी जीवित था।
और फिर आतंक के बीच तर्क पूर्ण विचार का स्पर्श हुआ। मुझे उछलने की बात याद रखनी है जब मैं ताल
के पेंदे से टकराऊँ । अन्त में मैंने मेरे नीचे पेंदे की टाइलों को महसूस किया। मेरे पैरों की अंगुलियाँ पेंदे की
ओर बढ़ी जैसे कि वे टाइलों को पकड़ना चाहती हों। मैं पूरे जोर के साथ उछला।
किन्तु इस उछलने से कोई अन्तर नहीं पड़ा। पानी अभी भी मेरे चारों ओर था। मैंने रस्सियों, सीढ़ियों, जल-
पंखों की तलाश की। कु छ नहीं था सिवाय पानी के । पीले रंग की विशाल जल-राशि मुझे पकड़े थी। कठोर
भय ने मुझ पर और कठोर पकड़ बना ली जैसे विद्युत का बड़ा आघात करता है। मैं भय से हिलने काँपने
लगा। मेरी भुजाएँ नहीं हिलती थीं। मेरी टाँगें भी नहीं हिलती थीं। मैंने मदद के लिए चिल्लाना चाहा, माँ
को बुलाना चाहा। कु छ नहीं हुआ।
और फिर, आश्चर्य की बात थी, रोशनी हो गयी। मैं भयानक पीले पानी से बाहर आ रहा था। कम से-कम
मेरी आँखें तो बाहर आ रही थीं। मेरी नाक भी करीब-करीब बाहर निकल गयी थी।
फिर मैं तीसरी बार नीचे की ओर चला। मैंने हवा खींचनी चाही, किन्तु खींच गया पानी। पीली रोशनी गायब
होने लगी।
फिर सारा प्रयास ठहर गया। मैं ढीला पड़ गया। मेरी टाँगें भी ढीली महसूस होने लगीं। और एक कालापन
मेरे दिमाग पर छा गया। इसने भय को मिटा दिया; इसने आतंक को मिटा दिया। अब कोई हड़कम्प न
रहा। सब शान्त हो गया। डरने को कु छ न था। यह अच्छा है” “नींद में होना नींद में चले जाना “उछलने
की आवश्यकता न रहना “इतने थके होना कि उछल न पाना अच्छा है. धीरे धीरे आहिस्ता से ले जाये
जाना “अन्तरिक्ष में तैरना…”मेरे चारों ओर मुलायम भुजाओं का होना..”माँ के जैसी मुलायम भुजाएँ अब
मुझे नींद में जाना ही होगा।
मैं भुलावे (विस्मृति) की स्थिति में पहुँच गया, और जीवन का पर्दा गिर गया।
अगली बात जो मुझे याद है मैं पेट के बल तालाब के पास लेटा था, उल्टियाँ करता हुआ। जिस लड़के ने
मझे ताल में फें क दिया था कह रहा था, “लेकिन मैं तो के वल मजाक कर रहा था।” किसी ने कहा, “बच्चा
तो मर ही गया था। अब सब ठीक हो जायेगा। चलो हम उसे कपड़े बदलने वाले कमरे में ले चलें।”
कई घण्टों बाद, मैं घर चला गया। मैं कमजोर था तथा काँप रहा था। मैं काँपता था और रोता था जब मैं
अपने बिस्तर पर लेटा। मैं उस रात्रि खा-पी न सका। कई दिनों तक मेरे दिल में बार-बार छा जाने वाला
भय रहा। थोड़ी-सी भी थकान मुझे परेशान कर देती थी, मेरे घुटनों को कम्पनशील कर देती थी और मुझे
उल्टी आने को होती थी।
मैं ताल पर कभी वापस नहीं गया। मैं पानी से डरने लगा। मैं पानी से यथासम्भव दूर ही रहता।
कु छ वर्षों बाद जब मैंने प्रपातों के जल के बारे में जाना तो मुझे उसमें प्रवेश करने की इच्छा हई। और
जब कभी भी मैंने ऐसा किया, चाहे मैं टाइटन या बम्पिंग नदी में से चलकर जा रहा था, या गोट रोक्स की
वार्म झील में नहा रहा था, वही भय जिसने मुझे ताल में जकड़ लिया था, वह लौट आता। वह मुझ पर पूरी
तरह छा जाता। मेरी टाँगें गतिहीन हो जाती थीं। कं पकं पी पैदा करने वाला बर्फ जैसा ठंडा भय मेरे हृदय
को जकड़ लेता था।
यह बाधा मेरे साथ रही ज्यों-ज्यों वर्ष बीतते चले गये। मेन झीलों में हल्की नावों से जमीन से घिरी सैमन
मछलियाँ पकड़ने में, न्यू हैम्पशायर में बैस मछलियाँ पकड़ने में, ऑरेगन में डैशयुट्स एवं मैटोलियस पर
ट्राउट मछलियाँ पकड़ने में, कास्के ड में बम्पिंग झील पर कोलम्बिया में सैमन मछली पकड़ने में जहाँ कहीं
भी मैं गया, पानी का बार-बार छा जाने वाला भय मेरा पीछा करता रहा। इस भय ने मेरी मछली पकड़ने
की यात्राओं को बर्बाद कर दिया; मैं पैडल वाली हल्की नावें चलाने, नौका-विहार व तैरने के आनन्द से
वंचित रहा।
मैंने प्रत्येक तरीका जिसे मैं जानता था इन भय को काबू करने हेतु काम में लिया, लेकिन यह दृढ़ता से
मुझे अपनी पकड़ में जकड़े रहा। अन्त में, अक्टू बर के एक माह में मैंने एक प्रशिक्षक लेकर तैरना सीखने
का निश्चय कर लिया। मैं एक ताल पर गया तथा हफ्ते में 5 दिन तथा प्रत्येक दिन एक घण्टा मैंने
अभ्यास किया। प्रशिक्षक ने मेरे चारों ओर एक बेल्ट बाँधी । बेल्ट से जुड़ी रस्सी एक घिरनी में से गुजरती
थी जो स्वयं एक सिर के ऊपर लगे मजबूत रस्से पर चलती थी। वह प्रशिक्षक रस्सी के सिरे को पकड़े
रहता, और हम ताल के पार इधर से उधर जाते, घण्टों, दिनों तथा सप्ताहों तक। ताल के पार की प्रत्येक
यात्रा के दौरान भय का एक अंश मुझे जकड़ लेता था। हर बार जब प्रशिक्षक रस्सी पर से अपनी पकड़ को
ढीली करता था और मैं पानी के नीचे जाता था तो कु छ पुराना भय वापस लौट आता था और मेरी टाँगें
जम जाती थीं। तनाव को ढीले पड़ने में तीन माह का समय लगा। फिर उसने मुझे पानी के नीचे चेहरा
रखने एवं सांस छोड़ना तथा नाक को ऊपर उठा कर सांस भीतर लेना सिखाया। मैंने यह व्यायाम सैकड़ों
बार दोहराया। थोड़ा-थोड़ा कर मैंने उस आतंक के हिस्से को त्याग दिया जो मुझे तब जकड़ लेता था जब
मेरा सिर पानी के नीचे जाता था।
इसके पश्चात् वह मुझे ताल के एक ओर पकडे रहता और मुझसे लातें मारने को कहता। सप्ताहों तक मैं
वैसा ही करता रहा। पहले तो मेरी टाँगों ने काम करने से इनकार किया लेकिन धीरे-धीरे वे तनावरहित हो
गयीं और अन्त में मैं उन पर नियन्त्रण कर सका।
इस प्रकार एक-एक भाग करके उसने एक तैराक बना दिया। और जब उसने प्रत्येक भाग को त्रुटिरहित कर
दिया, उसने उन्हें इकट्ठा कर सम्पूर्ण रूप प्रदान कर दिया। अप्रेल में उसने कहा, “अब तुम तैर सकते हो।
डु बकी मारो तथा क्रोल स्ट्रोक से तैर कर ताल की पूरी लम्बाई पार करो।”
मैंने कर ली। प्रशिक्षक का कार्य पूरा
लेकिन मेरा काम समाप्त नहीं हुआ। मुझे अभी भी सन्देह था कि क्या मैं तब भयाक्रान्त हो जाऊँ गा जब
मैं ताल में अके ला होऊँ गा। मैंने उसे आजमाया। मैंने ताल की लम्बाई इधर से उधर तक तैर कर पार की।
पुराने भय के छोटे-छोटे अवशेष लौट आते थे। लेकिन अब मैं नफरत के साथ गुर्राते हुए उस भय से
कहता, “मुझे डराने की कोशिश करते हो, क्यों? अच्छा यह लो! देखो!” और मैं ताल की लम्बाई पुनः पार
करने हेतु कू द पड़ता था।
ऐसा जुलाई के महीने तक चलता रहा। लेकिन मैं अभी भी सन्तुष्ट नहीं था। मैं निश्चित नहीं था कि सारा
भय चला गया था। इसलिए मैं वेन्टवर्थ नामक झील पर गया जो न्यू हैम्पशायर में थी और ट्रिग्ज द्वीप
में नौका घाट से डु बकी मारी और झील में दो मील तैर कर स्टैम्प एक्ट द्वीप पर पहुँचा। मैं क्राल स्ट्रोक,
ब्रैस्ट स्ट्रोक, साइड स्ट्रोक और बैक स्ट्रोक से तैरा। के वल एक बार भय लौटा। जब मैं झील के मध्य में था,
मैंने अपना चेहरा अन्दर किया और मुझे अथाह पानी के सिवाय कु छ दिखाई नहीं दिया। पुरानी अनुभूति
का लघु रूप लौट आया। मैंने हँस कर कहा, “अच्छा मि. आतंक, तुम मेरा क्या बिगाड़ने का सोचते हो?” वह
भाग गया और मैं तैरता रहा।
फिर भी मुझे बचे-खुचे सन्देह थे। प्रथम अवसर मिलते ही मैं पश्चिम की ओर तुरन्त चल पड़ा, टाइटन पर
चढ़ता हुआ कोरेड घास के मैदानों पर पहुंचा, कोरेड क्रीक पगडंडी से मीड ग्लेशियर पहुँचा तथा वार्म झील
के पास ऊँ चे घास के मैदान पर अपना शिविर लगाया। अगली सुबह मैंने कपड़े उतारे, झील में कू दा तथा
दूसरे किनारे पर तैर कर गया और वापस आया-जैसाकि ड्रग कॉरप्रोन किया करता था। मैं आनन्द से
चीखा तथा गिल्बर्ट पीक (चोटी) ने प्रतिध्वनि की। मैंने पानी के भय को जीत लिया था।
यह अनुभव मेरे लिए गहरा अर्थ रखता था। के वल वे ही जिन्होंने कठोर आतंक को जाना है और इसे जीता
है, वे ही इस अर्थ को समझ सकते हैं। मृत्यु में शान्ति होती है। के वल मृत्यु के भय में ही आतंक होता है,
जैसाकि रूजवेल्ट जानते थे जब उन्होंने कहा था, “हमें के वल भय से ही भयभीत होना पड़ता है।” क्योंकि
मैंने मरने की अनुभूति तथा आतंक जो मृत्यु का भय उत्पन्न कर सकता है, दोनों को अनुभव किया था,
इस कारण जीने की इच्छा किसी तरह अधिक तीव्र हो गयी।
अन्त में मैंने मुक्त महसूस किया—,पगडंडियों पर चलने और, चोटियों पर चढ़ने एवं भय को नकार देने हेतु
मुक्त।
Chapter- 4 The Rattrap Hindi Translation
Day
Night

Chapter- 4 The Rattrap


By- Selma Lagerlof
एक समय एक आदमी था जो छोटी-छोटी तारों से बनी चूहेदानियाँ बेचता हुआ घूमता-फिरता था। वह इन्हें
स्वयं इच्छानुसार कभी भी बना लेता था। इन्हें वह दुकानों तथा बड़े फार्मों से माँग कर लायी गयी सामग्री
से तैयार करता था। लेकिन फिर भी यह काम बहुत फायदे का नहीं था, इसलिए उसे भिक्षावृत्ति एवं छोटी-
मोटी चोरी का सहारा लेना पड़ता था ताकि वह स्वयं को जीवित रख सके । फिर भी उसके कपड़े चिथड़ों के
रूप में थे, उसके गाल अन्दर बैठे हुए थे तथा भूख उसकी आंखों से झाँकती थी।
कोई भी कल्पना नहीं कर सकता कि ऐसे घुमक्कड व्यक्ति के लिए जीवन कितना नीरस एवं द:ख भरा
प्रतीत हो सकता है जो सड़कों के किनारे थके हुए कदमों से चलता रहता है और अपने ही चिन्तन में
खोया रहता है। लेकिन एक दिन यह व्यक्ति एक ऐसी चिन्तनधारा में पड़ गया था जो उसे वास्तव में
मजेदार लगी। स्वाभाविक रूप से वह अपनी चूहेदानियों के बारे में सोच रहा था कि अचानक उसके दिमाग
में एक विचार आया कि उसके चारों ओर की सारी दुनिया सारी दुनिया जिसमें इसकी जमीनें तथा समुद्र,
इसके शहर एवं गाँव शामिल हैं—एक बड़ी चूहेदानी के अतिरिक्त कु छ नहीं थी। यह दुनिया किसी और
उद्देश्य के लिए नहीं थी, सिवाय लोगों को ललचाने के लिए (फँ साने के लिए) चारा डालने के । यह लोगों को
धन-दौलत एवं खुशियाँ, घर एवं भोजन, गर्माहट एवं कपड़े आदि प्रस्तुत करती थी, ठीक उसी तरह जैसे
चूहेदानी चूहों को चीज एवं सूअर के माँस प्रस्तुत करती है और ज्यों ही कोई अपने-आप को ललचाये जाने
तथा फँ साने के लिए रखी गयी सामग्री को छू ने की इजाजत देता था, तो दुनिया-रूपी चूहेदानी बन्द हो
जाती थी और फिर सबकु छ समाप्त हो जाता था।
यह दुनिया उसके लिए कभी भी बहुत दयालु नहीं रही थी, इसलिए इस तरह दुनिया के बारे में बुरा सोच
कर उसे अस्वाभाविक आनन्द मिलता था। यह उसके लिए एक प्रिय मनोरंजन बन गया था, कई नीरस,
थकाऊ पद-यात्राओं के दौरान, उन लोगों के बारे में सोचना जिन्हें वह जानता था, जिन्होंने स्वयं को
खतरनाक फं दे में फँ सने दिया तथा अन्य लोगों के बारे में सोचना, जो ललचाने वाले भोजन (चारे) के चारों
ओर अभी भी चक्कर लगा रहे थे।
एक अंधेरी संध्या को जब वह सड़क के किनारे गिरते-पड़ते जा रहा था तो उसकी नजर सड़क के किनारे
स्थित एक छोटी-सी मटमैले रंग की झोंपड़ी पर पड़ी और उसने इसके दरवाजे पर दस्तक दी ताकि रात-भर
के लिए शरण माँग सके । उसे इनकार नहीं किया गया। बजाय कड़वाहट भरे चेहरों के , जो सामान्यतया उसे
दिखाई देते थे, इस झोंपड़ी का मालिक, जो एक वृद्ध व्यक्ति था, बिना पत्नी अथवा बच्चे के , वह अपने
अके लेपन में बातचीत करने हेतु किसी व्यक्ति को पाकर प्रसन्न हुआ। उसने तुरन्त आग पर दलिया चढ़ा
दिया और उसे शाम का भोजन दिया। फिर उसने अपने. तम्बाकू के पिण्ड से इतना बड़ा टु कड़ा काटा कि
यह अजनबी तथा उसकी स्वयं की चिलम के लिए पर्याप्त था। अन्त में उसने ताश की एक पुरानी गड्डी
निकाली और अपने मेहमान के साथ सो जाने के समय तक ‘म्जोलिस’ नामक खेल खेलता रहा।
वृद्ध व्यक्ति अपनी गोपनीय बातों में भी उतना ही उदार था जितना तम्बाकू एवं दलिये के मामले में था।
मेहमान को तुरन्त बता दिया गया कि समृद्धि के दिनों में उसका मेजबान (वृद्ध व्यक्ति) रेम्सजो आइरन
बाड़े वाला था और जमीन पर काम कर चुका था। अब जब वह दिन की मेहनत करने में समर्थ नहीं रहा
तो उसकी गाय ही उसका सहारा थी। हाँ, वह तगडी गाय असाधारण थी। वह रोजाना में भेजने हेतु दूध
देती थी और पिछले महीने वृद्ध व्यक्ति ने 30 क्रोनर की रकम दूध के बदले प्राप्त की थी।
अजनबी को अवश्य ही अविश्वसनीय लगा होगा, क्योंकि वृद्ध व्यक्ति उठा और खिड़की पर पहुँचा, एक चमड़े
की थैली उतारी जो खिड़की के फ्रे म से एक खूटी पर लटकी हुई थी, और सलवटें पड़े हुए 10-10 क्रोनर के
तीन नोट निकाले । इन नोटों को उसने मेहमान की आँखों के सामने पकड़े रखा, जानबूझ कर सिर हिलाते
हुए तथा फिर इन्हें थैली में लूंस दिया।
अगले दिन दोनों व्यक्ति समय पर उठे । किसान गाय का दूध निकालने की जल्दी में था। दूसरे व्यक्ति ने
सम्भवतया सोचा कि उसे बिस्तरों पर नहीं लेटे रहना चाहिए जब घर का मुखिया ही उठ चुका हो । वे
दोनों झोंपड़ी से एक ही समय रवाना हुए। किसान ने दरवाजे पर ताला लगा दिया और अपनी जेब में
चाबी रख ली। चूहेदानियों वाले व्यक्ति ने अलविदा कहा तथा धन्यवाद कहा, और फिर प्रत्येक अपने-अपने
रास्ते चला गया।
लेकिन आधा घण्टे बाद चूहेदानियाँ बेचने वाला (फे री वाला) पुनः दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। फिर भी, उसने
अन्दर घुसने की कोशिश नहीं की। वह के वल खिड़की पर पहुँचा, एक शीशा तोड़ा, हाथ अन्दर डाला और
तीस क्रोनर वाली थैली को पकड़ा। उसने धन निकाला और इसे अपनी जेब में लूंस लिया। फिर उसने
चमड़े की थैली को बहुत सावधानी के साथ इसके स्थान पर लटका दिया और चला गया।
जब वह अपनी जेब में पैसा लेकर चला तो वह अपने चातुर्य पर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसे महसूस हुआ कि
शुरू में तो वह सार्वजनिक रास्ते पर चलने का साहस नहीं कर सकता था, बल्कि उसे सड़क से हटना होगा
और जंगल में जाना होगा। शुरू के घंटों में तो इससे उसे कोई परेशानी नहीं हुई। दिन में देर से स्थिति
बिगड़ गयी क्योंकि यह एक बड़ा एवं उलझन में डाल देने वाला जंगल था जिसमें वह प्रवेश कर गया था।
उसने आश्वस्त होने के लिए एक निश्चित दिशा में चलने का प्रयास किया किन्तु रास्ते पीछे एवं आगे की
और अजीब प्रकार से घमते थे! वह चलता रहा और चलता रहा. बिना जंगल के अन्त पर पहुँचे और अन्त
में वह जान गया कि वह जंगल के एक ही हिस्से में चक्कर लगा रहा था। शीघ्र ही उसे दुनिया तथा
चूहेदानी के बारे में अपने विचार याद आ गये। अब उसी की बारी आ गयी थी। उसने स्वयं को एक चारे
के द्वारा मर्ख बन जाने दिया था और पकडा गया था। सारा जंगल इसके तनों एवं शाखाओं के साथ,
इसके झुरमुटों तथा गिरे हुए लट्ठों के साथ, उस पर बन्द हो चुका था, एक अभेद्य जेल की भाँति जिससे
वह कभी बच कर नहीं जा सकता था।
यह दिसम्बर का बाद वाला भाग था। अन्धेरा अब पहले से ही जंगल पर छाने लगा था। इसने खतरे को
बढ़ा दिया था और उसकी उदासी एवं निराशा को भी। अन्त में उसे कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया, और वह
जमीन पर लुढ़क गया, थक कर मरे समान, यह सोच कर कि उसका अन्तिम क्षण आ पहुँचा था। लेकिन
ज्यों ही उसने अपना सिर जमीन पर रखा कि उसने एक आवाज सुनी—एक जोरदार नियमित ठक-ठक की
आवाज। इसमें सन्देह नहीं था कि वह क्या आवाज थी। उसने स्वयं को उठाया। “वे किसी लोहे के
कारखाने में हथौड़ों की आवाज है”, उसने सोचा। “आस-पास अवश्य लोग होंगे।” उसने अपनी सारी शक्ति
बटोरी, उठा और ध्वनि की दिशा में लड़खड़ाता हुआ चल दिया।
रेम्सजो आइरन वर्क्स, जो अब बन्द हो चुका है वह थोड़े समय पहले ही एक बड़ा कारखाना था जिसमें
प्रगालक, बेलनी मिल तथा ढलाई भट्ठी थी। गर्मियों में ऊपर तक भरी चपटे तल की मालवाहक नावें, लम्बी
कतारों में, नहर में तैर कर जाती थीं जो एक बड़ी अन्त:स्थलीय झील की ओर ले जाती थीं। और सर्दियों
में कारखाने के निकट की सड़कें कोयले की धूल से काली हो जाती थीं जो कोयले के बड़े-बड़े खाँचों से छन
कर गिरती थी।
क्रिसमस से ठीक पहले की लम्बी अंधेरी संध्याओं में से एक संध्या को मुख्य लोहार और उसका सहायक
भट्ठी के पास लोहारखाने में बैठे हुए थे और पिग आइरन (कच्चा लोहा) जिसे आग में डाल दिया गया था,
के अहरन पर पीटे जाने योग्य होने का इन्तजार कर रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में उनमें से एक उठता और
पिग आइरन के चमकते ढेर को लोहे की एक लम्बी छड़ से हिला देता, कु छ क्षणों में वापस लौट आता,
पसीने से भीगा हुआ, यद्यपि जैसी कि प्रथा थी, वह एक लम्बी कमीज तथा लकड़ी के जूतों के सिवा कु छ
नहीं पहनता था।
पूरे समय लौहखाने में कई ध्वनियाँ सुनी जाती थीं। बड़ी धौंकनी कराहती थी तथा जलता हुआ कोयला
कड़कड़ाता था। आग जलाने वाला लड़का भट्ठी के पेट में कोयला झोकता था काफी खड़खड़ाहट क के साथ
। बाहर जल-प्रपात दहाड़ता था और एक तीखी उत्तरी हवा बरसात को ईंटों से बनी छत पर कोड़े की तरह
मारती थी।
सम्भवतया इसी शोर के कारण लोहार ने नहीं देखा कि एक आदमी ने दरवाजा खोला था और लौहखाने में
प्रवेश कर लिया था, जब तक कि वह आदमी भट्ठी के निकट खड़ा नहीं हो गया।
निश्चित ही गरीब घुमक्कड़ों के लिए जिनके पास रात के लिए कोई अच्छी जगह नहीं थी यह कोई
असाधारण बात नहीं थी कि वे लौहखाने की ओर आकृ ष्ट हों, जिसकी रोशनी की चमक कालिमा लगे शीशों
में से बाहर निकलती थी और आग के समक्ष स्वयं को गर्म करने हेतु वे इसमें प्रवेश कर जायें। लोहार
लोगों ने के वल लापरवाही से एवं उदासीनता से इस घुसपैठिए की ओर नजर डाली। वह वैसा ही दिखाई
देता था जैसे उसके जैसे लोग सामान्यतया दिखाई देते थे, लम्बी दाढ़ी वाले, गंदे, फटेहाल और उसकी छाती
पर झूलती हुई चूहेदानियों का एक गुच्छा था।
उसने ठहरने की इजाजत माँगी, तथा मुख्य लोहार ने घमण्डभरी सहमति सिर हिलाकर दे दी, उसके सम्मान
में एक भी शब्द बोले बिना।
घुमक्कड़ ने भी कु छ भी नहीं कहा। वह वहाँ बात करने नहीं आया था बल्कि स्वयं को गर्म करने एवं नींद
लेने आया था।
उन दिनों रेम्सजो आइरन कारखाने का मालिक एक बहुत प्रसिद्धि प्राप्त लौहपति था जिसकी सबसे बड़ी
महत्त्वाकांक्षा थी बाजार में अच्छी गुणवत्ता वाला लोहा जहाजों में भेजना। वह दिन एवं रात यह देखता
था कि काम जहाँ तक सम्भव हो बढ़िया हो और ठीक इस समय वह रात के दौरे पर निरीक्षण करने
कारखाने पर आया था।
स्वाभाविक रूप से पहली चीज जो उसने देखी वह थी, लम्बा फटेहाल व्यक्ति जो भट्ठी के इतने निकट आ
पहुँचा था कि उसके गीले चिथड़ों से वाष्प निकलती थी। लौहपति ने लोहारों के उदाहरण का अनुसरण नहीं
किया जिन्होंने मुश्किल से ही अजनबी की ओर देखना स्वीकार किया था। वह उसके पास गया, उसे
सावधानीपूर्वक निहारा, फिर उसने अपना झुका हुआ टोप हटाया ताकि अजनबी के चेहरे को बेहतर तरीके से
देख सके ।
“लेकिन यह तो तुम हो, निल्स ओलोफ!” वह बोला। “तुम कै से दिखाई दे रहे हो!”
चूहेदानियों वाले व्यक्ति ने उस लौहपति को पहले कभी रेम्सजो कारखाने पर नहीं देखा था और वह यह
भी नहीं जानता था कि उसका नाम क्या था। लेकिन उसके दिमाग में आया कि अगर यह बढ़िया सज्जन
व्यक्ति यह सोचता था कि वह (अजनबी) कोई पुराना परिचित था, तो वह उसको कु छ क्रोनर की राशि दे
सकता था। इसलिए उसने यह नहीं चाहा कि उसका भ्रम तुरन्त दूर कर दिया जाये।
“हाँ, ईश्वर जानता है कि मेरे साथ सब कु छ बड़ा गड़बड़ हुआ है”, वह बोला।
“तुम्हें रेजिमेंट से इस्तीफा नहीं देना चाहिए था”, लौहपति ने कहा। “वह एक गलती थी। अगर मैं उस समय
भी सेवा में होता, तो ऐसा कभी न हुआ होता। ठीक है, अब तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे।”
सामंत के घर जाना तथा मालिक के द्वारा पुराने रेजीमेन्ट के साथी के रूप में स्वागत करवाना—यह बात
घुमक्कड़ को नहीं झुंची।
“नहीं, मैं ऐसा नहीं सोच सकता!” वह बोला, बिल्कु ल भयभीत दिखाई देता हुआ।
उसने 30 क्रोनर के बारे में सोचा । सामंत के घर जाना स्वयं को शेर की गुफा में स्वेच्छा से फें क देना
होगा। वह तो के वल लौहखाने में सोने का अवसर चाहता था और चुपचाप बिना किसी के द्वारा देखे हुए
चले जाना चाहता था।
लौहपति ने यह माना कि वह उसके दयनीय वस्त्रों के कारण असमंजस में महसूस कर रहा था। “कृ पया
यह मत सोचो कि मेरे पास इतना बढ़िया घर है कि तुम अपने-आप को वहाँ प्रस्तुत नहीं कर सकते।” वह
बोला—’एलिजाबेथ मर चुकी है, जैसा कि तुम पहले ही सुन चुके होंगे। मेरे लड़के विदेश में हैं और घर पर
मेरी सबसे बड़ी पुत्री एवं मेरे सिवा और कोई नहीं है। हम यही कह रहे थे कि यह बड़ी खराब बात थी कि
क्रिसमस के त्यौहार पर हमारे पास कोई नहीं था। अब मेरे साथ आओ और क्रिसमस के भोजन को थोड़ा
जल्दी गायब करने में हमारी मदद करो।” 16 लेकिन अजनबी ने नहीं और नहीं, और पुनः नहीं कहा तथा
लौहपति ने देखा कि उसे समर्पण ही करना पड़ेगा। “ऐसा लगता है कि कै प्टन वान स्टाहले आज रात
तुम्हारे साथ रहना चाहता है, स्टजनस्ट्रम”, उसने मुख्य लोहार से कहा, और अपनी एड़ी पर घूम गया।।
ARE परन्तु वह जाते-जाते हँसने लगा, और लोहार जो उसकी बात समझता था, अच्छी तरह जान गया कि
उसने अपने अन्तिम शब्द नहीं बोले थे।
आधा घण्टे से अधिक समय नहीं हुआ था कि उन्होंने घोड़ा-गाड़ी के पहियों की वाज लौहखाने के बाहर
सनी और एक नया मेहमान अन्दर आया, लेकिन इस बार यह लौहपति नहीं था। उसने अपनी पुत्री को
भेजा था, स्पष्टतः यह सोचकर कि मना लेने की बेहतर शक्तियाँ उसके पास होंगी।
उसने प्रवेश किया, उसके पीछे उसका नौकर था। वह उसकी भुजा पर एक समूर का कोट उठगे हुए था। वह
बिल्कु ल भी सुन्दर नहीं थी, लेकिन वह शालीन एवं संकोची दिखाई देती थी। लौहखाने में सब कु छ वैसा ही
था जैसा पहले शाम को था। मुख्य लोहार तथा उसका प्रशिक्षु अभी भी अपनी बेंच पर बैठे थे तथा भट्ठी में
लोहा एवं कोयला अभी भी चमक रहे थे। अजनबी ने स्वयं को फर्श पर पसार लिया था और सिर के नीचे
कच्चे लोहे का एक टु कड़ा रख लिया था और उसका टोप उसकी आँखों पर खींच लिया था। ज्योंही युवती
ने उसको देखा, वह गयी और उसके टोप को उठा लिया। वह व्यक्ति स्पष्ट रूप से एक आँख खोलकर
सोने का आदी था। वह अचानक उछला और बिल्कु ल डरा हुआ दिखाई दिया।
“मेरा नाम एडला विलमनसन है”, युवती ने कहा। “मेरे पिता घर आये और उन्होंने कहा कि तुम आज रात
लौहखाने में सोना चाहते थे, और फिर मैंने इजाजत माँगी कि मैं आऊँ और तुम्हें अपने घर ले जाऊँ । मुझे
बड़ा खेद है, कै प्टन, कि तुम ऐसा कठिन समय गुजार रहे हो।”
उसने अजनबी की ओर सहानुभूतिपूर्वक देखा, अपनी भारी आँखों से, और फिर उसने देखा कि वह व्यक्ति
डरा हुआ था। “या तो उसने कोई चीज चुराई है अथवा वह जेल से बच निकला है”, उसने सोचा, और जल्दी
से यह बात जोड़ दी, “आप आश्वस्त हो सकते हो, कै प्टन, कि आपको हमारे पास से उतने ही स्वतन्त्र रूप
से चले जाने की अनुमति दे दी जायेगी जिस तरह आप आये थे। के वल क्रिसमस की पूर्व संध्या पर कृ पया
हमारे साथ ठहर जायें।”
उसने यह बात ऐसे मित्रतापूर्ण तरीके से कही कि चूहेदानियों को घूम-घूम कर बेचने वाले ने अवश्य उसमें
विश्वास महसूस किया होगा।
“ऐसा मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि आप मेरे लिए स्वयं को परेशान करेंगी, मिस” वह बोला। “मैं अभी
चलता हूँ।”
उसने समूर के कोट को स्वीकार कर लिया, जिसे नौकर ने काफी झुककर उसे सौंपा था, उसने इसे अपने
चिथडों पर पहन लिया तथा यवती के पीछे -पीछे बाहर घोडा-गाडी की ओर चल पडा। उसने आश्चर्यचकित
लोहारों की ओर नजर तक डालने की भी कृ पा नहीं की।
लेकिन जब वह सामंत के घर सवारी करता हुआ जा रहा था तो उसें अनिष्ट का पूर्वाभास हो रहा था।
“आखिर मैंने उस व्यक्ति का पैसा क्यों चुरा लिया था?” उसने सोचा। “अब मैं फं दे में फं स गया हूँ और
इससे कभी बाहर नहीं निकल पाऊँ गा।”
अगले दिन क्रिसमस की पूर्व संध्या थी, और जब लौहपति नाश्ते के लिए भोज कक्ष में आया तो
सम्भवतया उसने अपने पुराने सेना के साथी के बारे में सन्तुष्टि के साथ विचार किया जो उसे अचानक
मिल गया था।
“सर्वप्रथम हमें यह देखना होगा कि वह अपनी हड्डियों पर थोड़ा मांस चढ़ा ले” उसने अपनी पुत्री से कहा
जो टेबल पर भोजन जमाने में व्यस्त थी।”और फिर हमें यह भी देखना होगा कि उसके पास करने को
कोई दूसरा काम हो बजाय गाँवों में घूम-घूम कर चूहेदानियाँ बेचते फिरने के ।”
“यह बड़ी अजीब बात है कि उसके साथ सब कु छ इतना गड़बड़ हो गया है”, पुत्री ने कहा। “पिछली रात मैं
नहीं सोचती थी कि उसके बारे में कोई भी बात ऐसी थी जिससे यह दिखाई दे कि वह कभी एक शिक्षित
व्यक्ति रहा था।”
“तुम्हें धैर्य रखना होगा, मेरी छोटी-सी पुत्री”, पिता ने कहा। “ज्यों ही वह स्वच्छ एवं अच्छी तरह कपड़े पहन
कर तैयार हो जायेगा, तो तुम उसे कु छ अलग ही पाओगी। पिछली रात स्वाभाविक रूप से वह संकोच में
था। घुमक्कड़ों के तौर-तरीके उससे उसी तरह दूर हो जायेंगे जिस तरह घुमक्कड़ों के वस्त्र ।”
ज्यों ही उसने यह बात कही त्यों ही दरवाजा खुला और अजनबी ने प्रवेश किया। हाँ, अब वह वास्तव में
स्वच्छ था और अच्छी तरह कपड़े पहने था। नौकर ने उसे नहलाया था, उसके बाल काटे थे और उसकी
दाढ़ी बना दी थी। इसके अलावा उसने बढ़िया दिखने वाला सूट पहन रखा था जो लोहपति का था। वह
एक सफे द कमीज पहने था एवं एक कलफ लगी कड़क कॉलर तथा साबुत जूते उसने पहन रखे थे।
लेकिन, यद्यपि उसका मेहमान अब इतना चुस्त-दुरुस्त बन गया था, लौहपति प्रसन्न नहीं दिखाई दे रहा
था। उसने मेहमान की ओर भौंह पर शिकन (सलवट) के साथ देखा और यह समझ लेना आसान था कि
जब उसने दूर अजीब आदमी को भट्ठी की अनिश्चित (अस्पष्ट) रोशनी में देखा था तब उसने गलती कर दी
थी, लेकिन अब जब वह (अजनबी) वहाँ दिन की रोशनी में खड़ा था, तो उसे एक पुराने परिचित के रूप में
गलती से देखना असम्भव था।
“इसका क्या मतलब है?” वह गरजा।
अजनबी ने कपट करने का कोई प्रयास नहीं किया। उसने तुरन्त जान लिया कि शान-शौकत अब समाप्त
हो चुकी थी।
“यह मेरा दोष नहीं है, श्रीमान्”, वह बोला, “मैंने कभी भी गरीब विक्रे ता होने के अलावा कु छ और होने का
बहाना नहीं किया और मैंने लौहखाने में ठहरने की इजाजत के लिए याचना की थी। लेकिन कोई भी हानि
नहीं हुई है। बुरे से बुरा यह हो सकता है कि मैं अपने चिथड़े फिर से पहन लूँ और यहाँ से चला जाऊँ ।”
“ठीक है”, लौहपति ने थोड़ा सकु चाते हुए कहा, “लेकिन यह बात पूरी तरह ईमानदारी की भी नहीं थी। तुम्हें
यह स्वीकार करना ही होगा, और मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर शासनाधिकारी इस बारे में कु छ कहना
चाहें।”
घुमक्कड़ ने एक कदम आगे बढ़ाया और टेबल पर अपनी मुट्ठी को मारा।
“अब मैं आप को बताने जा रहा हूँ, लौहपति, कि असली बात क्या है”, वह बोला, “यह सारी दुनिया एक बड़ी
चूहेदानी के अतिरिक्त कु छ नहीं है। आपको जिन अच्छी चीजों का प्रस्ताव दिया जाता है वे पनीर के
छिलकों तथा मांस के टु कड़ों से अधिक कु छ नहीं होतीं जिन्हें किसी बेचारे आदमी को परेशानी में घसीट ले
जाने को रखा जाता है। और अगर शासनाधिकारी अभी आ जाता है और मुझे इसके लिए जेल में बन्द
कर देता है तो फिर आप, लौहपति, याद रखें कि एक दिन ऐसा आ सकता है जब आप स्वयं मांस का एक
बड़ा टु कड़ा प्राप्त करना चाहें, और फिर आप उस फं दे में फं स जायें।”
लौहपति ने हँसना शुरू कर दिया।
“यह बात तुमने इतनी बुरी भी नहीं कही, भले आदमी। शायद क्रिसमस की पूर्व संध्या पर हम
शासनाधिकारी की बात न करें। लेकिन अब यहाँ से जितना जल्दी तुम जा सकते हो चले जाओ।”
लेकिन जब वह व्यक्ति दरवाजा खोल ही रहा था, पुत्री ने कहा, “मैं सोचती हूँ कि आज उसे हमारे साथ ही
ठहरना चाहिए। मैं नहीं चाहती कि वह चला जाये।” और इसके साथ ही वह गयी और दरवाजा बन्द कर
दिया।
“आखिर तुम कर क्या रही हो?” पिता ने कहा।
लड़की वहाँ अत्यधिक असमंजस में खड़ी रही और वह नहीं जानती थी कि क्या उत्तर दिया जाये। उस
सुबह उसने यह सोचकर बड़ा प्रसन्न महसूस किया था कि वह उस गरीब, भूखे, दयनीय व्यक्ति के लिए
सब कु छ कितना घर जैसा एवं क्रिसमस के अनुरूप बनाने जा रही थी। वह इस विचार से तुरन्त दूर न
जा सकती थी और इसीलिए उसने इस घुमक्कड़ व्यक्ति के पक्ष में बीच-बचाव किया था।
“मैं यहाँ इस अजनबी के बारे में सोच रही हूँ”, उस युवती ने कहा, “वह पूरे साल चलता रहता है, और
सम्भवतया पूरे देश में एक भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ उसका स्वागत हो और उसे घर जैसा लगे। वह
जहाँ भी जाता है, उसे भगा दिया जाता है। वह हमेशा गिरफ्तारी से डरता रहता है और पूछताछ किए जाने
से भयभीत रहता है। मैं चाहूँगी कि वह हमारे साथ शान्ति का एक दिन गुजार कर आनन्दित हो-पूरे वर्ष
में के वल एक दिन।”
लौहपति अपनी दाढ़ी में ही कु छ बुदबुदाया। वह पुत्री का विरोध करने को तैयार न हो सका।
“बिल्कु ल यह एक गलती थी”, उसने कहना जारी रखा। “किन्तु फिर भी मुझे नहीं लगता कि हमें एक
मनुष्य को भगा देना चाहिए जिसे हमने यहाँ आने को कहा है और जिसको हमने क्रिसमस की खुशियों का
वादा किया है।”
“तुम तो एक पादरी से भी ज्यादा उपदेश देती हो” लौहपति ने कहा। “मैं के वल यही उम्मीद कर सकता हूँ
कि तुम्हें पश्चात्ताप नहीं करना पड़े।”
युवती ने अजनबी का हाथ पकड़ा और उसे भोजन की टेबल पर ले गयी।
“अब बैठ जाओ और खाओ”, वह बोली, क्योंकि वह जान गयी थी कि उसके पिता अब समर्पण कर चुके थे।
चूहेदानियों वाले व्यक्ति ने एक शब्द भी नहीं कहा; वह के वल बैठ गया और भोजन खाने लगा। समय-
समय पर वह युवती की ओर देखता था जिसने उसका पक्ष लिया था। उसने ऐसा क्यों किया था? आखिर
वह सनकपूर्ण विचार क्या हो सकता था?
इसके बाद रेम्सजो पर क्रिसमस की पूर्व संध्या ठीक वैसे ही गुजर गयी जैसा हमेशा होता था। अजनबी ने
कोई समस्या पैदा नहीं की क्योंकि सोने के अलावा उसने कु छ किया ही नहीं। पूरी दोपहर वह अतिथि
कक्षों में से एक में सोफे पर लेटा रहा और लगातार सोता रहा। दोपहर में उन्होंने उसे जगाया ताकि वह
क्रिसमस के अच्छे भोजन के अपने हिस्से का आनन्द ले सके , लेकिन इसके बाद वह फिर सो गया। ऐसा
लगता था जैसे कई वर्षों से वह उतनी शान्ति से एवं सुरक्षा से नहीं सो पाया था जैसा वह यहाँ रम्सजो में
सोया था।
शाम को जब क्रिसमस के पेड़ में रोशनी जला दी गयी तो उन्होंने उसे फिर जगा दिया, और वह वहाँ थोड़ी
देर के लिए ड्रॉइंग रूम में खड़ा रहा, पलकें झपकाता हुआ जैसे कि मोमबत्ती की रोशनी उसकी आँखों में
दर्द करती हो। लेकिन इसके बाद वह पुनः गायब हो गया। दो घण्टे बाद उसे फिर उठाया गया। तब उसे
नीचे भोजन कक्ष में जाना पड़ा और क्रिसमस की मछली एवं दलिया खाना पड़ा।
ज्यों ही वे भोजन की टेबल से उठे वह प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति के पास गया और धन्यवाद एवं शुभ रात्रि
कहा, लेकिन जब वह युवती के पास आया तो उसने उसे यह समझाया कि उसके पिता का इरादा यह था
कि जो सूट उसने पहन रखा था वह क्रिसमस का उपहार माना जाये—उसे इसे लौटाना नहीं होगा; वह
अगली क्रिसमस की पूर्व संध्या ऐसे किसी स्थान पर गुजारना चाहे जहाँ वह शान्ति से आराम कर सके
और आश्वस्त हो सके कि उसके साथ कु छ भी बुरा न हो, तो उसका वापस यहाँ आना स्वागत योग्य होगा।
चूहेदानियों वाले व्यक्ति ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। वह के वल युवती की ओर टकटकी लगाकर देखता
रहा, असीम आश्चर्य के साथ।
अगली सुबह लौहपति तथा उसकी पुत्री प्रसन्नचित्त उठे ताकि वे सुबह जल्दी होने वाली क्रिसमस की पूजा
में जा सकें । उनका मेहमान अभी भी सोया हुआ था, और उन्होंने उसे छे ड़ा नहीं।
जब करीब 10 बजे वे चर्च से गाडी में बैठ कर वापस चले तो यवती बैठी रही और उसने अपना सिर लिया,
सामान्य से अधिक निराशा के साथ। चर्च में उसने सुना था कि आइरन वर्क्स के एक पुराने किसान को
एक व्यक्ति ने लूट लिया था जो चूहेदानियाँ बेचता घूमता था।
“हाँ, वह अच्छा आदमी था जिसे तुमने घर में प्रवेश दे दिया”, उसके पिता ने कहा। “मुझे आश्चर्य है कि
हमारी अलमारी में इस समय तक चाँदी के कितने चम्मच बचे होंगे।”
घोड़ा-गाड़ी सामने की सीढ़ियों के सामने रुकी ही थी जब लौहपति ने नौकर से पूछा कि क्या अजनबी अभी
भी वहीं था। उसने यह भी कहा कि उसने चर्च में सुना था कि वह आदमी चोर था। नौकर ने उत्तर दिया
कि वह व्यक्ति चला गया था और कि वह अपने साथ कु छ भी नहीं ले गया था। इसके विपरीत, उसने एक
छोटा-सा पैके ट छोड़ दिया था जिसे कु मारी विलमनसन को क्रिसमस के उपहार के रूप में दयालुता के साथ
स्वीकार करना था।
युवती ने पैके ट को खोला जिसे इतनी खराब तरह से बाँधा गया था कि उसमें बन्द वस्तुएँ तुरन्त दिखाई
देने लगीं। उसने आनन्द की एक छोटी-सी चीख निकाली। उसे एक छोटी-सी चूहेदानी मिली और इसमें
तीन सलवटें भरे 10-10 क्रोनर के नोट पड़े थे। लेकिन यही सब-कु छ नहीं था। चूहेदानी में एक पत्र भी पड़ा
था जिसे बड़े तथा कटे-फटे अक्षरों में लिखा गया था
“सम्माननीय एवं महान मिस, चूँकि आप मेरे साथ इतनी भली रही हैं, पूरे दिन, जैसे कि मैं कोई कै प्टन था,
मैं भी बदले में आपके प्रति भला बनना चाहता हूँ, जैसे कि मैं वास्तविक कै प्टन होऊँ —क्योंकि मैं नहीं
चाहता कि इस क्रिसमस के अवसर पर आप एक चोर के द्वारा असमंजस में डाल दी जायें; लेकिन आप
इस पैसे को उस वृद्ध व्यक्ति को वापस सौंप सकती हैं जो सड़क के किनारे रहता है, जो खिड़की के फ्रे म से
पैसों की थैली लटका कर रखता है, जो गरीब घुमक्कड़ों के लिए ललचाने वाली वस्तु (चारा) बन जाती
“चूहेदानी एक चूहे की तरफ से क्रिसमस का उपहार है जो इस दुनिया की चूहेदानी में फँ स गया होता अगर
उसे कै प्टन न बना दिया गया होता, क्योंकि उस तरह से उसमें स्वयं को स्पष्ट करने को सामर्थ्य आ
गयी।”
“मित्रता एवं अत्यधिक सम्मान के साथ लिखित,
“कै प्टन वॉन स्टाहले”
Chapter 5 Indigo Hindi Translation
Day
Night

Chapter 4 The Rattrap Hindi Translation


लेखक परिचय
Louis Fischer (1896-1970) फिलाडेल्फिया में पैदा हुए थे । 1918 से 1920 तक उन्होंने ब्रिटिश सेना में
एक स्वयंसेवक के रूप में कार्य किया। फिशर ने एक पत्रकार के रूप में कार्य किया और The New York
Times, The Saturday Review, European और Asian publications के लिए लेख लिखे। उन्होंने
Princeton विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य भी किया। प्रस्तुत लेख उनकी पुस्तक “The Life of
Mahatma Gandhi’ का एक अंश है। Times Educational Supplement द्वारा इस पुस्तक की समीक्षा
गाँधीजी पर लिखी गई सर्वोत्तम पुस्तकों में से एक के रूप में की गई है।
पाठ का सारांश यह पाठ हमें बताता है कि गाँधीजी ने चम्पारण के गरीब किसानों के लिए किस तरह
अंग्रेजों से संघर्ष किया । भारतीय किसानों का अंग्रेज जमींदारों के साथ एक समझौता था कि वे जमीन के
15 प्रतिशत भाग पर Indigo (नील) उगायेंगे तथा इसे किराये के रूप में जमींदारों को देंगे ।
अंग्रेज जमींदारों को पता चला कि जर्मनी ने संश्लेषित indigo विकसित कर लिया था । अब उन्हें नील
की फसल की आगे जरूरत नहीं थी । समझौते से किसानों को मुक्त करने के लिए उन्होंने उनसे क्षतिपूर्ति
की माँग की । कु छ किसान क्षतिपूर्ति देने के लिए सहमत हो गये परन्तु दूसरों ने ऐसा करने से इन्कार
कर दिया । इस समय गाँधीजी चम्पारण आये और एक साल तक किसानों के लिए लड़े । उन्होंने उन्हें
(किसानों को) उनकी शक्ति तथा अंग्रेजों को उनकी कमजोरी का अहसास कराया ।
जब मैं सन् 1942 में गाँधीजी से, मध्य भारत में उनके आश्रम सेवाग्राम में पहली बार मिलने गया तो
उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें बताऊँ गा कि कै से मैंने अंग्रेजों के प्रस्थान का आग्रह करने का निश्चय किया। यह
सन् 1917 की बात थी ।” वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के दिसम्बर 1916 के वार्षिक सम्मेलन के लिए
लखनऊ गये थे।
वहाँ पर दो हजार तीन सौ एक प्रतिनिधि और बहुत से दर्शक थे। कार्यवाही के दौरान, गाँधीजी ने बताया,
“किसी भी भारतीय किसान की तरह गरीब और दुबला-पतला दिखने वाला एक किसान मेरे पास आया और
बोला, ‘मैं राजकु मार शुक्ला हूँ। मैं चम्पारण से हूँ और मैं चाहता हूँ कि आप मेरे जिले में आयें ।” गाँधीजी
ने इस स्थान के बारे में कभी नहीं सुना था। यह ऊँ चे हिमालय की तराई में नेपाल राज्य के समीप था ।
एक बहुत पुराने समझौते के अनुसार, चम्पारण के किसान बँटाईदार थे। राजकु मार शुक्ला उनमें से एक था
। वह अनपढ़ था परन्तु दृढ़-निश्चयी था। वह बिहार में जमींदारी व्यवस्था के अन्याय के बारे में शिकायत
करने के लिये कांग्रेस अधिवेशन में आया था और शायद किसी ने (उससे) कहा था, “गाँधीजी से बात करो।”
गाँधीजी ने शुक्ला से कहा कि उन्हें कानपुर में किसी से मिलना है और वह भारत के अन्य भागों में जाने
के लिए भी वचनबद्ध हैं। शुक्ला हर जगह उनके साथ गया। फिर गाँधीजी अहमदाबाद के पास अपने
आश्रम लौट आये । शुक्ला उनके पीछे -पीछे आश्रम तक आ पहुँचा। सप्ताहों तक उसने गाँधीजी का साथ
बिल्कु ल नहीं छोड़ा। “तारीख तय करो,” उसने प्रार्थना की।
बँटाईदार की लगन और कहानी से प्रभावित होकर गाँधीजी ने कहा, “मुझे अमुक-अमुक तारीख को
कलकत्ता में होना (रहना) है। आ जाना और मुझसे मिलना और मुझे वहाँ से ले जाना।” महीनों बीत गये ।
जब गाँधीजी आये तब शुक्ला कलकत्ता में नियत स्थान पर कू ल्हों के बल बैठा था; उसने गाँधीजी के
फु र्सत में आने तक प्रतीक्षा की। फिर दोनों बिहार के पटना शहर के लिए रेलगाड़ी में चढ़ गये। वहाँ शुक्ला
उन्हें एक वकील के घर ले गया जिनका नाम राजेन्द्र प्रसाद था जो बाद में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और
भारत के राष्ट्रपति बने। राजेन्द्र प्रसाद कस्बे से बाहर थे किन्तु नौकर शुक्ला को एक ऐसे गरीब किसान
के रूप में जानते थे जो उनके मालिक को नील की खेती करने वाले बँटाईदारों की सहायता करने के लिए
बातें कर-करके परेशान करता रहता था।
इसलिए उन्होंने उसे व उसके साथी गाँधीजी को जिन्हें उन्होंने दूसरा किसान समझा, जमीन पर ठहरने की
अनुमति दे दी। किन्तु गाँधीजी को कु एँ से पानी भरने की अनुमति इसलिए नहीं दी गई कि कहीं उनकी
बाल्टी की कु छ बूंदें पूरे स्रोत (सारे कुँ ए के पानी) को गन्दा न कर दें; उन्हें कै से पता चलता कि वह अछू त
नहीं थे ? (अर्थात् राजेन्द्र प्रसाद के यहाँ काम करने वालों को गाँधीजी के अछू त होने की आशंका थी।)
स्थितियों के बारे में शुक्ला जितनी जानकारी दे सकता था उससे ज्यादा पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के
लिए गाँधीजी ने पहले मुजफ्फरपुर जाने का निर्णय लिया जो चम्पारण के रास्ते में था । अतः उन्होंने
मुज्जफरपुर के कला महाविद्यालय के प्रोफे सर जे. बी. कृ पलानी जिनसे वे टैगोर के शान्ति निके तन में
मिल चुके थे, के लिए एक तार भेज दिया। रेलगाड़ी 15 अप्रैल 1917 की मध्यरात्रि को पहुँची।
कृ पलानी छात्रों के विशाल समूह के साथ स्टेशन पर प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ गाँधीजी सरकारी स्कू ल के
अध्यापक प्रोफे सर मलकानी के घर दो दिन ठहरे। गाँधीजी ने टिप्पणी की, “उन दिनों एक सरकारी प्रोफे सर
द्वारा मेरे जैसे व्यक्ति को ठहराना एक बड़ी असाधारण बात थी।” छोटे स्थानों पर स्व-शासन के पक्षधरों
के प्रति सहानुभूति दिखाने में भारतीय लोग डरते थे।
गाँधीजी के आने और उनके मकसद की प्रकृ ति का समाचार शीघ्र ही मुजफ्फरपुर से होकर चम्पारण तक
फै ल गया। चम्पारण के बँटाईदार पैदल तथा वाहनों से अपने पक्षधर (हितैषी नेता) से मिलने आने लगे।
मुजफ्फरपुर के वकील हालात की संक्षिप्त जानकारी देने के लिए गाँधीजी से मिले; वे समय-समय पर
न्यायालय में किसान समुदाय का प्रतिनिधित्व करते रहते थे; उन्होंने उन्हें उनके (किसानों के )
के सों के बारे में बताया और अपनी फीस के आकार की जानकारी दी अर्थात् यह बताया कि वे कितनी
फीस लेते थे । बँटाईदारों से बड़ी फीस लेने के कारण गाँधीजी ने वकीलों को फटकारा । उन्होंने कहा, “मैं
इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें न्यायालयों में जाना बन्द कर देना चाहिए । इस प्रकार के मुकदमों को
न्यायालयों में ले जाने से कोई भला नहीं होता। जहाँ किसान इतने कु चले हुए हैं और भयभीत हैं वहाँ
न्यायालय बेकार हैं । भय से मुक्त होना ही उनके . लिए असली राहत है ।” ।
चम्पारण जिले की ज्यादातर कृ षि योग्य भूमि बड़ी-बड़ी जागीरों में बँटी थी जिसके मालिक अंग्रेज थे और
जिस पर भारतीय काश्तकार काम करते थे। मुख्य व्यावसायिक फसल ‘नील’ थी। जागीरदार काश्तकारों को
पूरी जमीन के 3/20 भाग या 15 प्रतिशत पर नील बोने के लिए और नील की पूरी फसल को किराये के
रूप में देने के लिए मजबूर करते थे। यह दीर्घकालिक समझौते के अन्तर्गत किया जाता था।
अब जागीरदारों को पता चला कि जर्मनी ने संश्लेषित नील विकसित कर लिया था। इस पर, उन्होंने 15
प्रतिशत की व्यवस्था से मुक्त होने के लिए काश्तकारों से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए समझौते करवा
लिए। साझा फसल का समझौता किसानों के लिए परेशानी-भरा था और बहुतों ने स्वेच्छा से हस्ताक्षर कर
दिए। जिन्होंने विरोध किया उन्होंने वकील कर लिए; जागीरदारों ने ठगों को किराये पर रख लिया। इसी
दौरान संश्लेषित नील की सूचना उन अनपढ़ किसानों तक पहुँच गई जिन्होंने हस्ताक्षर कर दिए थे और
उन्होंने अपने पैसे वापस माँगने चाहे।
ऐसे समय पर गाँधीजी चम्पारण पहुँचे।उन्होंने तथ्यों को प्राप्त करने की कोशिश से (अपना काम) शुरू
किया। सबसे पहले वे अंग्रेज जमींदारों के संगठन के सचिव से मिले। सचिव ने उनसे कहा कि वे किसी
बाहरी आदमी को कोई जानकारी नहीं दे सकते । गाँधीजी ने उत्तर दिया कि वह कोई बाहरी आदमी नहीं
थे ।
फिर, गाँधीजी तिरहुत डिवीजन जिसमें चम्पारण जिला पड़ता था उसके ब्रिटिश अधिकारी कमिश्नर से
मिले। गाँधीजी बताते हैं, “कमिश्नर मुझे डराने-धमकाने लगा और मुझे तुरन्त तिरहुत छोड़ने की सलाह
दी।” गाँधीजी ने (तिरहुत) नहीं छोड़ा। बजाय इसके , वे चम्पारण की राजधानी मोतिहारी की ओर चल पड़े।
कई वकील उनके साथ चले। रेलवे स्टेशन पर एक विशाल भीड़ ने गाँधीजी का स्वागत किया। वे एक घर
पर गये और उसे
मुख्यालय की तरह काम में लेते हुए अपनी जाँच जारी रखी। एक सूचना आई कि पास के गाँव में एक
किसान के साथ दुर्व्यवहार किया गया था। गाँधीजी ने जाकर देखने का निश्चय किया; अगली सुबह वे एक
हाथी की पीठ पर बैठकर निकल पड़े। वे ज्यादा दूर नहीं गये थे कि पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट का सन्देशवाहक
आ पहुँचा और उन्हें अपने वाहन में कस्बा लौटने का आदेश दिया। गाँधीजी ने आज्ञा का पालन पिया।
सन्देशवाहक गाँधीजी को अपनी गाड़ी में बिठाकर घर लाया जहाँ उसने उन्हें तुरन्त चम्पारण छोड़ने की
आधिकारिक सूचना दी। गाँधीजी ने रसीद पर हस्ताक्षर किए और इस पर लिखा कि वह आदेश का
उल्लंघन करेंगे। |
परिणामस्वरूप, गाँधीजी को अगले दिन न्यायालय में उपस्थित होने का कानूनी आदेश मिल गया। पूरी रात
गाँधीजी जागते रहे। उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को प्रभावशाली मित्रों के साथ बिहार से आने के लिए तार
किया। उन्होंने आश्रम के लिए निर्देश भेजे। उन्होंने तार द्वारा पूरी रिपोर्ट वायसराय को भेजी ।सुबह
मोतिहारी कस्बा किसानों से भर गया। वे नहीं जानते थे कि दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी ने क्या किया था।
उन्होंने सिर्फ यह सुना था कि कोई महात्मा जो उनकी सहायता करना चाहता है वह अधिकारियों के साथ
उलझ गया था । न्यायालय के इर्द-गिर्द हजारों की संख्या में उनका सहज प्रदर्शन अंग्रेजों के भय से उनकी
मुक्ति की शुरुआत थी। गाँधीजी के सहयोग के बिना अधिकारी असहाय महसूस कर रहे थे। उन्होंने
(गाँधीजी ने) भीड़ को नियन्त्रित करने में उनकी (अधिकारियों की) मदद की। वे विनम्र और मिलनसार थे।
वे उनको अर्थात् अधिकारियों को (इस बात का) ठोस प्रमाण दे रहे थे कि अब तक डराने वाली और विरोध-
विहीन उनकी शक्ति को भारतीयों द्वारा चुनौती दी जा सकती थी । सरकार चकरा गई थी। पक्षकार के
वकील ने (सरकारी वकील ने) जज से सुनवाई टालने का आग्रह किया। स्पष्ट था, अधिकारीगण अपने
उच्चाधिकारियों से विचार-विमर्श करना चाहते थे।
गाँधीजी ने इस देरी का विरोध किया। उन्होंने अपराध स्वीकार करते हुए एक कथन पढ़ा। उन्होंने
न्यायालय में बताया कि वे “कर्त्तव्य के विरोधाभास” में फं से थे – एक तरफ, कानून तोड़ने वाले के रूप में
एक बुरा उदाहरण पेश नहीं करना चाहते; दूसरी तरफ, “मानवीय और राष्ट्रीय संवा” करना चाहते थे जिसके
लिए वे आये थे।
उन्होंने जाने के आदेश का उल्लंघन किया, “कानूनी अधिकारियों के प्रति आदर के अभाव के कारण नहीं,
वरन् हमारे अस्तित्व के और भी बड़े कानून-आत्मा की आवाज का पालन करते हुए।” उन्होंने उचित दण्ड
की माँग की। मजिस्ट्रेट ने घोषणा की कि वह दो घण्टे के अवकाश के बाद निर्णय सुनायेगा और उन 120
मिनटों के लिए गाँधीजी से जमानत देने के लिए कहा।
गाँधीजी ने मना कर दिया। जज ने उन्हें बिना जमानत के छोड़ दिया। जब अदालत फिर शुरू हुई तो जज
ने कहा कि वह कई दिन तक फै सला नहीं सुनायेगा। इस दौरान उसने गाँधीजी को स्वतंत्र रहने की
अनुमति दे दी ।
राजेन्द्र प्रसाद, ब्रज किशोर बाबू, मौलाना मज़हरुल हक तथा अन्य कई प्रमुख वकील बिहार से आ चुके थे।
उन्होंने गाँधीजी से विचार-विमर्श किया। गाँधीजी ने पूछा कि यदि उन्हें जेल भेजने की सजा सुनाई गई तो
वे क्या करेंगे। आश्चर्यचकित होकर वरिष्ठ वकील ने उत्तर दिया, वे उन्हें सलाह देने और सहायता करने
आये थे; यदि गाँधीजी जेल चले जायेंगे तो सलाह लेने के लिए कोई नहीं होगा और वे घर चले जायेंगे।
गाँधीजी ने पूछा- बँटाईदारों के साथ होने वाले अन्याय का क्या होगा ।
वकील विचार-विमर्श के लिए पीछे हट गये। राजेन्द्र प्रसाद ने उनके विचार-विमर्श का परिणाम लिख लिया
– “उन्होंने आपस में सोचा कि गाँधीजी एकदम बाहरी व्यक्ति थे तो भी वे किसानों के लिए जेल जाने को
तैयार थे, दूसरी ओर वे लोग जो न के वल ,आस-पास के जिलों के निवासी थे वरन् जो ऐसा दावा भी करते
थे कि उन्होंने किसानों की सेवा की थी, यदि वे किसानों को इस तरह छोड़कर चले जायेंगे तो यह शर्मनाक
पलायन होगा।”
तदनुसार ही वे गाँधीजी के पास वापस गये और उन्हें बताया कि वे उनके पीछे -पीछे जेल जाने को तैयार
थे। उन्होंने विस्मयपूर्ण प्रसन्नता के साथ कहा, “चम्पारण की लड़ाई जीत ली गई है।” फिर उन्होंने कागज
का एक टु कड़ा लिया और (वकीलों के ) समूह को (दो-दो के ) जोड़ों में विभक्त किया और (कागज पर
लिखकर) क्रम तय कर दिया जिस क्रम से प्रत्येक जोड़े को गिरफ्तारी देनी थी।
कई दिन बाद गाँधीजी को यह जानकारी देते हुए मजिस्ट्रेट का लिखित सन्देश मिला कि राज्य के
लेफ्टिनन्ट गवर्नर ने के स समाप्त करने का आदेश दिया था । आधुनिक भारत में पहली बार सविनय
अवज्ञा की जीत हुई थी। गाँधीजी और वकीलों ने किसानों की शिकायतों की व्यापक स्तर पर जाँच का
कार्य करना प्रारम्भ किया।
लगभग दस हजार किसानों के बयान लिखे गये और अन्य साक्ष्यों के आधार पर टिप्पणियाँ लिखी गईं ।
दस्तावेज जुटाए गये। पूरा क्षेत्र जाँचकर्ताओं की गतिविधियों तथा जमींदारों के उग्र प्रतिवाद से कं पित हो
गया। जून में गाँधीजी को लेफ्टिनेन्ट गवर्नर सर एडवार्ड गैट के पास बुलाया गया। जाने से पहले गाँधीजी
अपने प्रमुख सहयोगियों से मिले और न लौटने की स्थिति में फिर से सविनय अवज्ञा की विस्तृत योजना
तैयार की।
गाँधीजी ने लेफ्टिनेन्ट गवर्नर से चार लम्बी मुलाकातें कीं, परिणामस्वरूप उसने (लेफ्टिनेन्ट गवर्नर ने) नील
बँटाईदारों की हालत का पता लगाने के लिए एक आधिकारिक आयोग गठित कर दिया। आयोग में शामिल
थे-जमींदार, सरकारी अधिकारी और किसानों के एकमात्र प्रतिनिधि गाँधीजी स्वयं । गाँधीजी शुरू में सात
माह तक लगातार चम्पारण में रहे और फिर कई बार थोड़े-थोड़े समय के लिए जाते रहे।
एक अनपढ़ किसान की प्रार्थना पर की गई आकस्मिक यात्रा, जिसकी कु छ ही दिन चलने की सम्भावना
थी, ने गाँधीजी के जीवन का लगभग एक साल ले लिया आधिकारिक जाँच ने बड़े-जमींदारों के विरुद्ध ढेर
सारे ठोस सबूत इकट्ठा कर लिये और जब उन्होंने (सरकारी अधिकारियों ने) इसे देखा तो वे सिद्धान्ततः
किसानों को पैसा वापिस करने के लिए सहमत हो गये। उन्होंने गाँधीजी से पूछा, “किन्तु हमें कितना
चुकाना होगा?”
उन्होंने (सरकारी अधिकारियों ने) सोचा कि गाँधीजी पूरा पैसा वापस माँगेंगे जो उन्होंने गैर कानूनी रूप से
व धोखे से बँटाईदारों से ऐंठा था। उन्होंने सिर्फ पचास प्रतिशत माँगा। एक अंग्रेज मिशनरी आदरणीय J.Z.
Hodge जिन्होंने चम्पारण की पूरी घटना नजदीक से देखी थी ने लिखा, “वहाँ वह (गाँधीजी) जिद्दी या हठी
प्रतीत हुए ।”
“शायद यह सोचकर कि वह (गाँधीजी) नहीं मानेंगे, जमींदारों के प्रतिनिधि ने 25 प्रतिशत तक लौटाने का
प्रस्ताव किया और उसके (जमींदारों के प्रतिनिधि के ) आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब गाँधी ने उसकी बात
पकड़ ली और इस तरह गतिरोध समाप्त कर दिया।”
इस समझौते को आयोग ने निर्विरोध स्वीकार कर लिया। गाँधीजी ने समझाया कि वापसी की रकम इस
तथ्य की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण थी कि जमींदार लोग धन का कु छ हिस्सा देने के लिए मजबूर हो गये
और इसके साथ ही अपनी प्रतिष्ठा का कु छ हिस्सा भी देने को मजबूर हो गये। इसलिए, जहाँ तक किसानों
का सवाल था, जमींदारों ने उनके साथ ऐसे बड़े आदमियों जैसा व्यवहार किया था मानो वे कानून से ऊपर
हों । अब जबकि किसान ने देख लिया कि उसके पास अधिकार और रक्षक थे तो उसने साहस करना सीख
लिया ।
घटनाओं ने गाँधीजी की स्थिति को सही सिद्ध किया। कु छ ही वर्ष में अंग्रेज जागीरदारों ने अपनी जागीरें
छोड़ दीं जिन्हें किसानों को वापस दे दिया गया। Indigo की बँटाईदारी समाप्त हो गई।
गाँधीजी बड़े राजनीतिक तथा आर्थिक समाधानों से कभी भी सन्तुष्ट नहीं होते थे। उन्होंने चम्पारण के
गाँवों में सांस्कृ तिक तथा सामाजिक पिछड़ापन देखा और वह इस बारे में तुरन्त कु छ करना चाहते थे।
उन्होंने अध्यापकों से निवेदन किया। दो युवक महादेव देसाई और नरहरि पारिख, जो अभी-अभी गाँधीजी के
शिष्य बने थे, तथा उनकी पत्नियों ने काम के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया। मुम्बई, पूना तथा अन्य दूरवर्ती
भागों से कई लोग आ गये। गाँधीजी का सबसे छोटा पुत्र, देवदास आश्रम से आ गया और श्रीमती गाँधी
(उनकी पत्नी) भी आ गईं। छ: गाँवों में प्राइमरी स्कू ल खोले गये। कस्तूरबा वैयक्तिक स्वच्छता तथा
सामुदायिक स्वच्छता पर आश्रम के नियम सिखाती थीं।
स्वास्थ्य के हालात दयनीय थे। गाँधीजी ने छः माह स्वेच्छा से सेवा करने के लिए एक डॉक्टर तैयार कर
लिया। तीन दवाएँ उपलब्ध थीं- अरण्डी का तेल, कु नैन और गन्धक का मलहम। जिस किसी की जीभ पर
मैल जमा होता था उसे अरण्डी का तेल दिया जाता था, मलेरिया बुखार वाले को कु नैन तथा अरण्डी का
तेल दिया जाता, फोड़ा-फु न्सी वाले को गन्धक का मलहम तथा अरण्डी का तेल दिया जाता था।
गाँधीजी ने महिलाओं के कपड़ों की गन्दी हालत देखी। उन्होंने कस्तूरबा से उनसे इस विषय में बात करने
को कहा। एक औरत कस्तूरबा को अपनी झोंपड़ी में ले गई और बोली, “देखो, यहाँ कपड़ों के लिए कोई
अलमारी या सन्दूक नहीं है। जो साड़ी मैंने पहन रखी है यही एकमात्र साड़ी मेरे पास है।” चम्पारण में
अपने लम्बे ठहराव के दौरान, गाँधीजी अपने आश्रम पर दूर से निगाह रख रहे थे। वे डाक द्वारा नियमित
निर्देश भेजते थे तथा आर्थिक लेखा-जोखा मँगाते रहते थे। एक बार अपने आश्रम के निवासियों को उन्होंने
लिखा कि समय आ गया है कि latrine के पुराने गड्ढे भर दिये जायें तथा नये गड्ढे खोदे जायें अन्यथा
पुराने (गड्ढों) में से बदबू आने लगेगी।
चम्पारण की घटना गाँधीजी के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ थी। उन्होंने स्पष्ट किया, “मैंने बहुत
साधारण काम किया था। मैंने घोषणा की कि अंग्रेज मेरे अपने देश में मुझे आदेश नहीं दे सकते हैं।”
किन्तु चम्पारण की घटना अवज्ञा के एक कृ त्य की तरह शुरू नहीं हुई। यह बड़ी संख्या में किसानों के
कष्ट को दूर करने के एक प्रयास से उत्पन्न हुई।
यह गाँधीजी का अपना विशिष्ट तरीका था उनकी राजनीतिक विचारधाराएँ करोड़ों लोगों की रोजमर्रा की
व्यावहारिक समस्याओं में गुंथी हुई थीं। उनकी वफादारी काल्पनिक चीजों में नहीं थी, यह वफादारी जीते-
जागते मनुष्यों के प्रति थी। इसके अलावा, गाँधीजी जो कु छ करते उसमें वे एक नया स्वतन्त्र भारतीय
ढालना चाहते थे जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और इस तरह भारत को स्वतन्त्र करा सके ।
चम्पारण घटना के शुरू में ही एक अंग्रेज शांतिदूत Charles Freer Andrews जो महात्मा के समर्पित
अनुयायी बन चुके थे, फिजी टापू पर अपनी सरकारी सेवा पर जाने से पूर्व गाँधीजी से विदाई लेने आये।
गाँधी के वकील मित्रों ने सोचा कि Andrews का चम्पारण में ठहरना तथा उनकी मदद करना अच्छा
होगा। Andrews रुकना चाहते थे यदि गाँधीजी सहमत होते । परन्तु गाँधीजी इसके सख्त खिलाफ थे।

उन्होंने कहा, “तुम्हें लगता है कि इस गैर बराबरी की लड़ाई में किसी अंग्रेज का हमारे पक्ष में होना
फायदेमन्द होगा। इससे आपके हृदय की कमजोरी प्रकट होती है। मुद्दा न्यायसंगत है और युद्ध जीतने के
लिए आपको अपने ऊपर ही निर्भर होना चाहिए। Mr Andrews जो संयोगवश एक अंग्रेज हैं, उनके रूप में
आप बैसाखी न ढूँ ढें ।” राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं, “उन्होंने हमारे मन की बात ठीक-ठीक जान ली थी और
हमारे पास कोई उत्तर नहीं था … इस तरह गाँधीजी ने हमें स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया।” स्वावलम्बन,
भारत की स्वाधीनता और बँटाईदारों की सहायता ये सब एक-दूसरे से जुड़े थे।
Chapter 6 Poets and Pancakes Hindi
Translation
Day
Night

Chapter 6 Poets and Pancakes


लेखक परिचय : एक तमिल लेखक, अशोकामित्रन (1931) अपनी पुस्तक My Years with Boss में जैमिनी
स्टू डियोज़ में गुजारे अपने वर्षों को याद करते हैं जिससे भारत में जीवन के प्रत्येक पक्ष पर फिल्मों के
प्रभाव का पता चलता है । चेन्नई स्थित जैमिनी स्टू डियोज़ 1940 में स्थापित हुआ था । यह भारत में
फिल्म-निर्माण के प्रारम्भिक दिनों में भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली फिल्म निर्माता संगठनों में से एक था
। इसके संस्थापक S. S. Vasan थे ।
जैमिनी स्टू डियोज़ में अशोकामित्रन का कार्य होता था- विविध विषयों पर अखबारों की कतरनें काटकर उन्हें
फाइलों में लगाकर रखना । इनमें से बहुतों को हाथ से लिखना पड़ता था । यद्यपि वह एक बहुत छोटा
(तुच्छ) सा कार्य करते थे लेकिन वह जैमिनी परिवार के प्रत्येक सदस्य के बारे में सर्वाधिक जानकारी रखते
थे। यह पाठ उनकी पुस्तक ‘My Years with Boss’ का एक अंश है।
पाठ का सारांश असोकामित्रन एक तमिल लेखक हैं । प्रस्तुत पाठ में वे अपने जैमिनी स्टू डियो में बिताए
दिनों को याद करते हैं । Pancake जैमिनी स्टू डियो में बड़ी मात्रा में खरीदी जाने वाली सौन्दर्य प्रसाधन
सामग्री का नाम था । मेक-अप विभाग में भाँति-भाँति के लोग थे । मेक-अप रूम किसी बाल काटने की
दुकान जैसा दिखता था ।
अभिनेताओं को बल्बों की भयानक गर्मी सहन करनी पड़ती थी । भारत के भिन्न-भिन्न भागों के लोग
मेकअप विभाग में काम करते थे। इस विभाग में वरिष्ठता का भाव छाया हुआ था । अन्त में, लेखक एक
अंग्रेज कवि के आगमन का वर्णन करता है । कोई भी उसके बारे में कु छ नहीं जानता था । उसने स्टू डियो
में व्याख्यान दिया । बाद में लेखक को पता चला कि यह कवि Stephen Spender था ।
जैमिनी स्टू डियो में मेकअप के जिस सामान को भारी मात्रा में मँगाया जाता था उसका विशिष्ट नाम था
Pancake I Greta Garbo नामक Swedish actress ने इसे अवश्य ही काम में लिया होगा, कु मारी गौहर
ने भी इसे काम में लिया होगा, वैजयन्तीमाला ने भी इसे जरूर काम में लिया होगा किन्तु रति अग्निहोत्री
ने शायद इसके बारे में सुना भी नहीं होगा। जैमिनी स्टू डियो का मेक-अप विभाग उस भवन की ऊपरी
मंजिल था जिसके बारे में विश्वास किया जाता था कि वह कभी Robert Clive का अस्तबल था ।
शहर के एक दर्जन भवनों को उसका (Robert Clive का) निवास-स्थान बताया जाता था । भारत के
सुदूरवर्ती कोनों में कु छ असम्भव युद्ध लड़ने और मद्रास के Fort St. George के St. Mary’s Church में
एक कन्या से विवाह करने के अलावा, अपने छोटे जीवन, और मद्रास में उससे भी संक्षिप्त ठहराव के
दौरान लगता है Robert Clive ने बहुत निवास स्थानों को बदला होगा ।
वह मेक-अप रूम किसी हेयर कटिंग सैलून जैसा लगता था जिसमें आधा दर्जन बड़े दर्पणों के चारों ओर
हर दिशा में बत्तियाँ थीं । वे सभी तापदीप्त (बहुत तेज प्रकाश वाली) बत्तियाँ थीं, अत: मेक-अप करवाने
वालों के तप्त कष्ट से प्रभावित होने की आप कल्पना कर सकते हैं । पहले मेकअप (make-up) विभाग
का मुखिया एक बंगाली था जो स्टू डियो की तुलना में बहुत बड़ा हो गया जिसे वहाँ काम करना तुच्छ
लगने लगा और वह (काम छोड़कर) चला गया ।
उसके बाद एक महाराष्ट्रवासी आया जिसकी मदद एक धारवाड़ कन्नड़िया, एक आन्ध्र निवासी, मद्रास का
एक भारतीय ईसाई, एक एंग्लोबर्मी और आम स्थानीय तमिल लोगों द्वारा की जाती थी । यह सब यह
दिखाता है कि ऑल इण्डिया रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा राष्ट्रीय अखण्डता पर कार्यक्रमों के प्रसारण की
शुरुआत होने से बहुत पहले ही वहाँ अत्यधिक राष्ट्रीय अखण्डता थी ।
राष्ट्रीय अखण्डता में बँधे मेक-अप करने वाले लोगों का यह दल किसी भी अच्छे भले दिखने वाले आदमी
को भारी मात्रा में Pancake और अन्य स्थानीय स्तर पर बनायी गयी क्रीम और द्रवों के द्वारा भद्दे
लालिमायुक्त भयावह दैत्य में बदल सकता था । उन दिनों में शूटिंग मुख्यतः स्टू डियो के अन्दर ही होती
थी और के वल पाँच प्रतिशत शूटिंग बाहर होती थी ।
मुझे लगता है कि फिल्म में दर्शनीय दिख सकें इसके लिए सैट और स्टू डियो के प्रकाश में लड़कियों तथा
लड़कों को भद्दा दिखने की जरूरत होती थी । अर्थात् भद्दे मेक-अप के बाद वे फिल्म में सुन्दर दिखाई
पड़ते थे ।
मेकअप विभाग में कठोर पदानुक्रम कायम रखा जाता था । मुख्य मेकअप कर्ता मुख्य अभिनेताओं और
अभिनेत्रियों को बदसूरत बनाता था, उसका वरिष्ठ सहायक ‘दूसरे नम्बर’ के नायक और नायिका को,
कनिष्ठ सहायक मुख्य हास्य कलाकार को और फिर इसी क्रम में यह आगे बढ़ता था ।
भीड़ की भूमिका अदा करने वाले पात्रों की जिम्मेदारी आफिस बॉय की होती थी । (जैमिनी स्टू डियो के
मेकअप विभाग में भी एक ऑफिस बॉय था ।) जिस दिन भीड़ की शूटिंग होती थी, आप उसे बड़े बर्तन में
रंग घोलते और भीड़ की भूमिका अदा करने वाले पात्रों पर पोतते हुए या लगाते हुए देख सकते थे ।
मेकअप करते समय विचार यह रहता था कि चेहरे का प्रत्येक छिद्र ढक जाये । वह सही अर्थ में लड़का’
नहीं था, वह चालीस-पैंतालीस के बीच का था और उसने उत्कृ ष्ट कलाकार या बढ़िया पटकथा लेखक,
निर्देशक या गीतकार बनने की आशा में वर्षों पूर्व स्टू डियो में प्रवेश किया था । वह थोड़ा-सा कवि भी था ।
उन दिनों मैं एक कोठरी में काम करता था जिसकी पूरी दो साइड फ्रे न्च विन्डो थीं (उस समय मैं यह नहीं
जानता था कि इन्हें फ्रे न्च विन्डो कहा जाता है)। दिन भर काफी समय तक अखबार फाड़ते हुए मुझे बैठे
देखकर ज्यादातर लोग सोचते थे कि मैं कु छ भी नहीं करता था । यह भी सम्भव है कि बॉस भी ऐसा ही
सोचता हो। इसलिए जिसे भी लगता कि मुझे कु छ काम दिया जाना चाहिए, वह मेरे कक्ष में आता और
एक लम्बा भाषण दे देता था ।
मेक-अप विभाग का ‘लड़का’ तय कर चुका था कि मुझे यह जानकारी दी जानी चाहिए कि किस तरह से
एक साहित्यिक प्रतिभा एक ऐसे विभाग में बेकार हो रही थी जो के वल नाइयों (बाल बनाने वालों) और
किसी कु मार्गी के लिए उपयुक्त था । शीघ्र ही मैं प्रार्थना करता था कि भीड़ की शूटिंग हर समय चलती
रहे । अन्यथा मैं उसके काव्य से नहीं बच सकता था।
चिड़चिड़ाहट की हर अवस्था में आप पायेंगे कि खुले तौर पर अथवा गुप्त रूप से क्रोध किसी एक व्यक्ति
की ओर निर्देशित होता है और मेक-अप विभाग के इस आदमी को विश्वास था कि उसके सारे दु:ख,
अपयश और उपेक्षा कोटमंगलम सुब्बू के कारण थे । सुब्बू जैमिनी स्टू डियो में दूसरे नम्बर पर था ।
फिल्मों में हमारे बड़े मेकअप लड़के से ज्यादा उत्साहवर्धक शुरुआत उसकी नहीं हो सकती थी । इसके
विपरीत, उसने अपेक्षाकृ त अधिक अनिश्चित और कठिन समय देखा होगा क्योंकि जब उसने अपना करिअर
शुरू किया, उस समय कोई सुव्यवस्थित फिल्म निर्माण कम्पनी अथवा स्टू डियो नहीं थे । शिक्षा के मामले
में भी, खासकर औपचारिक शिक्षा के मामले में सुब्बू हमारे लड़के से ज्यादा आगे नहीं रहा होगा । परन्तु
ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण – जो कि वास्तव में एक गुण था ! – उसने अधिक समृद्धिपूर्ण
हालात तथा लोग देखे होंगे ।
असफल फिल्म में भाग लेने के बावजूद भी उसमें हर समय खुश दिखाई देने की क्षमता थी । उसके पास
हर समय दूसरों के लिए काम होता था – वह स्वयं कोई काम नहीं कर पाता था- किन्तु उसकी वफादारी ने
उसका तादात्म्य पूरी तरह से अपने संस्था प्रधान फिल्म निर्माता से करवा दिया था और उसकी सम्पूर्ण
रचनाशीलता को अपने संस्था प्रधान फिल्म निर्माता के फायदे में लगा दिया था। वह फिल्मों के लिए पूरी
तरह उपयुक्त था । वह एक ऐसा आदमी था जिसे जब आदेश दिया जाता तब प्रेरित किया जा सकता था

“चूहा पानी में बाधिन से लड़ता है और उसे मार देता है किन्तु शावकों पर दया करता है और प्यार से
उनकी देखभाल करता है – मैं नहीं जानता इस दृश्य का फिल्मांकन कै से किया जाये,” निर्माता कहता था
और सुब्बू चूहे के शिकार (बाघिन) के बच्चों के ऊपर चूहे द्वारा प्यार उड़ेलने के चार तरीके बता देता ।
“ठीक, लेकिन मैं नहीं जानता कि यह पर्याप्त प्रभावशाली है” निर्माता कहता और एक मिनट में ही सुब्बू
चौदह और विकल्प बता देता था ।
सुब्बू जैसे आदमी के आस-पास होने पर फिल्म बनाना बहुत आसान रहा होगा और ऐसा था भी और यदि
कोई आदमी कभी ऐसा था जिसने जैमिनी स्टू डियो को इसके स्वर्णिम वर्षों में दिशा और परिभाषा दी तो
यह सुब्बू था । एक कवि के रूप में सुब्बू की अलग पहचान थी और यद्यपि वह निश्चय ही ज्यादा जटिल
और उच्च रचनायें लिख सकता था तथापि वह जान-बूझकर अपने काव्य को जनसामान्य को सम्बोधित
करता था।
Chapter 7 The Interview Hindi Translation
Day
Night
लेखक परिचय
Christopher Silvester (1959) Peterhouse, Cambridge में इतिहास के विद्यार्थी थे । उन्होंने दस वर्ष
तक Private Eye के लिए एक रिपोर्टर का कार्य किया और Vanity Fair के लिए लेख लिखे हैं । आगे
दिया गया पाठ Penguin Book of Interviews, An Anthology from 1859 to the Present Day को
दिये उनके | परिचय का एक अंश है ।

पाठ का सारांश
भाग I
साक्षात्कार-पत्रकारिता का एक सामान्य भाग : 130 वर्षों से थोड़ा ज्यादा समय से जब से इसका
(साक्षात्कार का) आविष्कार हुआ है, साक्षात्कार पत्रकारिता में एक आम (साधारण) बात हो गयी है ।
साक्षात्कार के सम्बन्ध में विभिन्न मत : कु छ का मानना है कि साक्षात्कार सत्य का स्रोत है और व्यवहार
में एक कला है । दूसरी ओर, कु छ लोग साक्षात्कार को अपने जीवन में औचित्यहीन दखलंदाजी समझते हैं।
वे महसूस करते हैं कि किसी न किसी तरह यह (साक्षात्कार) उन्हें छोटा करता है ।
भाग – II
Umberto Eco इटली की Bologna University में एक प्रोफे सर हैं । इन्होंने semiotics (चिह्नों के
अध्ययन) पर अपने विचारों में अच्छा सम्मान हासिल किया है । उन्होंने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं ।
“The Name of the Rose’ नामक उनके उपन्यास ने उनको काफी प्रसिद्धि दिलाई।
मुकु न्द प्रोफे सर Umberto से पूछते हैं कि वे एक साथ इतने कार्य किस प्रकार सम्पन्न कर लेते हैं । Eco
अपने बारे में एक रहस्य बताते हैं । वह कहते हैं कि हम सभी के जीवन में बहुत सारे खाली स्थान होते
हैं । यदि हम इन खाली स्थानों को अपने कार्य से भर देंगे तो हम अपने जीवन में बहुत सफलता प्राप्त
कर सकते हैं ।
130 वर्ष से थोड़े ज्यादा समय से जब से इसका (साक्षात्कार का) आविष्कार हुआ है, साक्षात्कार पत्रकारिता
में एक आम बात हो गई है । आजकल, लगभग हर साक्षर आदमी ने जीवन में कभी न कभी साक्षात्कार
पढ़ा होगा, जबकि दूसरे दृष्टिकोण से, पिछले वर्षों में कई हजार प्रसिद्ध व्यक्तियों का साक्षात्कार लिया जा
चुका है, उनमें से कु छ का (साक्षात्कार) बार-बार लिया गया है ।
इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि साक्षात्कार के बारे में- उसके कार्यों के बारे में, तरीकों और गुणों के
बारे में- विचार काफी अलग-अलग हैं | कु छ लोग बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण दावा कर सकते हैं कि अपने
उच्चतम रूप में यह (साक्षात्कार) सत्य का स्रोत है और व्यवहार में एक कला । (अर्थात् साक्षात्कार लेना
और देना कला है जो उच्चतम बिन्दु पर पहुँचकर सत्य का पता लगा लेता है) ।
अन्य, आम तौर पर प्रसिद्ध लोग जो अपने आपको इसका शिकार समझते हैं, इसे अपने जीवन में
अनावश्यक दखलंदाजी समझकर घृणा कर सकते हैं अथवा ऐसा महसूस करते हैं कि किसी न किसी तरह
यह (साक्षात्कार) उन्हें छोटा करता है, ठीक वैसे ही जैसा कि कु छ प्राचीन संस्कृ तियों में ऐसा विश्वास किया
जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी का फोटो खींच लेता है तो वह उस आदमी की आत्मा को चुरा रहा
होता है ।
V.S. Naipaul (वैश्विक लेखक के रूप में प्रसिद्ध, ने अपनी यात्रा संबंधी पुस्तकों तथा अपने वृत्त-चित्र की
रचनाओं में अपने पूर्वजों के देश के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किये जो कि भारत है। उन्हें 2001 में
साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।) ‘महसूस करते हैं कि ‘कु छ लोग साक्षात्कारों से घायल होते हैं
और अपना कु छ हिस्सा खो देते हैं ।’
Alice in Wonderland के रचयिता Lewis Carroll के बारे में कहा जाता है कि उसे ‘साक्षात्कारकर्ता से
एक न्यायसंगत भय’ था और उसने साक्षात्कार देने को कभी हाँ नहीं की-उसका यह भय उसे बहुत महत्त्व
दिये जाने का था जो उसे सभी परिचितों, साक्षात्कारकर्ताओं और ऑटोग्राफ की माँग करने वाले अड़ियल
लोगों से विकर्षित करता था (दूर रखता था) तथा बाद में वह बड़े सन्तोष और विनोद के साथ ऐसे लोगों
को चुप रखने की अपनी सफलता की कहानी सुनाया करता था।
रुडयार्ड किपलिंग ने साक्षात्कारकर्ता के प्रति कहीं अधिक घृणापूर्ण दृष्टिकोण व्यक्त किया है । 14 अक्टू बर
1892 को उनकी पत्नी Caroline अपनी डायरी में लिखती हैं कि ‘बोस्टन से आये दो संवाददाताओं ने
उनका दिन खराब कर दिया ।’ वे लिखती हैं कि उनके पति ने संवाददाताओं से कहा,
“मैं साक्षात्कार देने से मना क्यों करता हूँ ? क्योंकि यह अनैतिक है ! यह एक अपराध है, उतना ही अपराध
जितना मेरे ऊपर किया गया आक्रमण और उतना ही दण्डनीय है । यह कायरतापूर्ण व अप्रिय है । कोई
सम्माननीय व्यक्ति साक्षात्कार लेना नहीं चाहेगा और देना तो और भी बहुत कम (चाहेगा) ।” तथापि कु छ
ही वर्ष पहले Kipling ने ऐसा ही आक्रमण Mark Twain पर किया था । सन् 1894 में H.G. Wells ने एक
साक्षात्कार में ‘साक्षात्कार की कठिन परीक्षा की ओर संके त किया है परन्तु (वे) अक्सर साक्षात्कार देते रहते
थे और चालीस वर्ष बाद (उन्होंने) स्वयं को
Joseph Stalin का साक्षात्कार लेते हुए पाया । Saul Bellow अनेक अवसरों पर साक्षात्कार देना स्वीकार
करने के बावजूद भी एक बार साक्षात्कार को अपनी श्वाँस नली पर अंगूठे के निशान जैसा (किसी के
द्वारा गला दबाये जाने जैसा) बताया । फिर भी, साक्षात्कार के दोषों के बावजूद यह संवाद का सर्वोच्च
उपयोगी माध्यम है ।
“अन्य किसी समय से ज्यादा इन दिनों हमारे समकालीन लोगों के बारे में हमारे स्पष्ट विचार साक्षात्कार
से ही बनते हैं ।” Denis Brian ने लिखा है, “लगभग हर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात हम तक एक आदमी के
दूसरे आदमी से प्रश्न पूछने के माध्यम से पहुँचती है । इसी वजह से, साक्षात्कारकर्ता अभूतपूर्व शक्ति और
प्रभाव का स्थान रखता है अर्थात् साक्षात्कारकर्ता की भूमिका बहुत ही अहम् होती है ।

Part – II
“मैं एक ऐसा प्रोफे सर हूँ जो रविवारों को उपन्यास लिखता है” – Umberto Eco. निम्न अवतरण
Umberto Eco के एक साक्षात्कार का अंश है । The Hindu के सम्पादक मुकु न्द पद्मनाभन साक्षात्कारकर्ता
हैं । इटली में Bologna विश्वविद्यालय के प्रोफे सर U. Eco उपन्यास लिखना शुरू करने से पहले
लक्षणशास्त्र, साहित्यिक व्याख्या और मध्ययुगीन सौन्दर्यशास्त्र पर अपने विचारों के लिए एक विद्वान के
रूप में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे ।
साहित्यिक उपन्यास, अकादमिक लेखन, निबन्ध, बच्चों की पुस्तकें , समाचार-पत्र के लिए लेख- उनके द्वारा
लिखित साहित्य अत्यन्त आश्चर्यजनक रूप से विशाल और व्यापक है । सन् 1980 में The Name of the
Rose के प्रकाशन के साथ, जिसकी एक करोड़ से भी ज्यादा प्रतियाँ बिकीं, उन्हें बौद्धिक सुपरस्टार के
समकक्ष दर्जा प्राप्त हो गया। |
मुकु न्द : अंग्रेजी उपन्यासकार और विद्वान David Lodge ने एक बार कहा था, “मैं नहीं समझ सकता कि
किस तरह एक ही आदमी इतने काम करता है जितने वह (Eco) करता है” ।
Umberto Eco : हो सकता है कि मैं बहुत सी चीजें कर लेने का एहसास कराता हूँ । पर अन्त में, मैं
संतुष्ट हूँ कि मैं हमेशा वही एक चीज करता रहता हूँ ।
मुकु न्द : वह कौन-सी चीज है ?
Umberto Eco : आह, अब यह समझाना कु छ ज्यादा ही मुश्किल है। मेरी कु छ दार्शनिक रुचियाँ हैं और
उन्हें मैं अपने शैक्षणिक कार्य और उपन्यासों के माध्यम से पाने की कोशिश करता हूँ। आप देखेंगे, यहाँ
तक कि मेरी बच्चों की पुस्तकें अहिंसा और शान्ति के बारे में हैं, वही नैतिक और दार्शनिक रुचियों का
गुच्छा (समूह) ।
और फिर मेरा एक रहस्य है । क्या आपको पता है कि यदि ब्रह्माण्ड की खाली जगह को समाप्त कर
दिया जाये, सारे परमाणुओं के खाली स्थान को समाप्त कर दिया जाये तो क्या होगा? ब्रह्माण्ड मेरी मुट्ठी
जितना हो जायेगा। इसी तरह हमारे जीवन में भी बहुत सारे खाली स्थान होते है । मैं उन्हें interstices
(खाली जगह) कहता हूँ ।
मान लो आप मेरे घर आ रहे हो । आप lift में हैं और जब आप ऊपर की ओर आ रहे हो, मैं आपकी
प्रतीक्षा कर रहा हूँ । यह एक interstice है, एक रिक्त स्थान । मैं खाली जगह (रिक्तावकाश) में काम
करता हूँ। आपकी लिफ्ट के प्रथम तल से तृतीय तल तक पहुँचने की प्रतीक्षा करते समय, मैं एक लेख
पहले ही लिख चुका हूँ ! (हँसता है) |
मुकु न्द : हर आदमी सचमुच ऐसा नहीं कर सकता । आपके उपन्यासेतर (अकाल्पनिक) लेखन और
विद्वत्तापूर्ण लेखन में एक खास विनोदपूर्ण तथा वैयक्तिक गुण है । यह नियमित अकादमिक शैली से
स्पष्टतः हटकर है – जो निश्चय ही निर्वैयक्तिक तथा अक्सर शुष्क और उबाऊ है । क्या आपने जान-
बूझकर अनौपचारिक मार्ग चुना है या यह ऐसी चीज है जो स्वाभाविक रूप से आपको प्राप्त हो गयी है।
Umberto Eco – जब मैंने इटली में अपना पहला डॉक्टरेट सम्बंधी शोधप्रबन्ध प्रस्तुत किया तब एक
प्रोफे सर ने कहा, “विद्वान किसी विषय के बारे में बहुत कु छ सीखते हैं, फिर वे बहुत सारी झूठी
परिकल्पनाएँ बनाते हैं, फिर वे उन्हें ठीक करते हैं और अन्त में वे निष्कर्ष रखते हैं । इसके विपरीत, आपने
अपने शोध की कहानी सुनाई है। यहाँ तक कि अपने प्रयासों और असफलताओं को भी शामिल किया है ।”
उसी समय, उसने जाना कि मैं सही था और मेरे शोधप्रबन्ध को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया,
इसका मतलब था उसने इसे (मेरे लेखन को) सराहा ।
उस समय 22 साल की उम्र में, मैं समझ गया कि विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें उसी तरह लिखी जानी चाहिए ।
जिस तरह मैंने लिखीं थीं – शोध की कहानी कहकर । यही कारण है मेरे निबन्धों में कथात्मक पहलू होता
है और शायद यही कारण है मैंने इतनी देर से कथा-साहित्य (उपन्यास) लिखना प्रारम्भ किया- पचास वर्ष
की उम्र के आस-पास ।
मुझे याद है मेरा प्रिय मित्र Roland Barthes हमेशा इस बात से परेशान रहता था कि वह एक
निबन्धकार है, एक उपन्यासकार नहीं । वह किसी न किसी दिन रचनात्मक लेखन करना चाहता था परन्तु
ऐसा करने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई । मैंने इस तरह की कु ण्ठा कभी महसूस नहीं की । मैंने
संयोगवश उपन्यास लिखना शुरु किया। एक दिन मेरे पास करने के लिए कु छ नहीं था इसलिए मैंने शुरू
कर दिया (उपन्यास लिखना) । उपन्यासों ने सम्भवतया कथा कहने की मेरी रुचि को सन्तुष्ट किया ।
मुकु न्द : उपन्यासों की बात करें, एक प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री होने से लेकर आप The Name of the Rose के
प्रकाशन के बाद शानदार तरीके से प्रसिद्ध हो गये । आपने कम से कम 20 विद्वत्तापूर्ण उपन्यासेतर
लेखन के साथ-साथ अपने पाँच उपन्यास लिखे हैं।
Umberto Eco – 40 से ज्यादा । मुकु न्द : 40 से ज्यादा ! उनमें एक लक्षणशास्त्र पर किया गया
प्रभावशाली लेखन कार्य है । किन्तु ज्यादातर लोगों से Umberto Eco के बारे में पूछिए और वे कहेंगे,
“अरे, वह उपन्यासकार है।” क्या इससे आप परेशान होते हैं ? Umberto Eco – हाँ, क्योंकि मैं अपने आपको
विश्वविद्यालय का प्रोफे सर मानता हूँ जो रविवारों को उपन्यास लिखता है । यह कोई मजाक नहीं है । मैं
अकादमिक (शैक्षिक) सम्मेलनों में भाग लेता हूँ, Pen Clubs या लेखकों की सभाओं में नहीं । मेरा तादात्म्य
अकादमिक (शिक्षा के क्षेत्र में विद्वान) लोगों से है । (अर्थात् मैं स्वयं को अकादमिक व्यक्ति (शिक्षा से
संबंधित) समझता हूँ।
किन्तु, ठीक है यदि उन (अधिकांश) लोगों ने के वल उपन्यास पढ़े हैं (हँसता है, कन्धे उचकाता है) । मैं
जानता हूँ कि उपन्यास लिखकर मैं ज्यादा पाठकों तक पहुँचता हूँ । मैं यह आशा नहीं कर सकता कि
लक्षणशास्त्र के लेखन के मेरे दस लाख पाठक होंगे ।”
मुकु न्द : यह (बात) मुझे अपने अगले प्रश्न तक ले जाती है। “The Name of the Rose’ एक अत्यन्त
गम्भीर उपन्यास है । एक स्तर पर यह एक लम्बी जासूसी कहानी है किन्तु यह तत्व मीमांसा, ईश्वर
मीमांसा और मध्ययुगीन इतिहास की गहराई में भी जाती है । तथापि इसे विशाल पाठक समूह मिला ।
क्या आप इससे किसी तरह चकराए ?
Umberto Eco – नहीं । पत्रकार चकराते हैं । और कभी-कभी प्रकाशक । यह इसलिए होता है कि पत्रकार
और प्रकाशक विश्वास करते हैं कि लोगों को कू ड़ा (निम्न स्तर का साहित्य) पसन्द होता है और (वे)
कठिनाई से पढ़कर प्राप्त अनुभवों को (पढ़ना) पसन्द नहीं करते हैं । सोचो इस धरती पर 6 अरब लोग हैं ।
The Name of the Rose की 1 से 1.5 करोड़ प्रतियाँ बिकीं । अतः इस तरह मैं पाठकों के छोटे से प्रतिशत
तक ही पहुँच पाया। परन्तु ये ही वे पाठक हैं जो सरल अनुभव नहीं चाहते हैं या कम से कम हमेशा ऐसा
नहीं चाहते । मैं स्वयं डिनर के बाद नौ बजे, टेलीविजन देखता हूँ और या तो ‘Miami Vice’ या
‘Emergency Room’ देखना चाहता हूँ। मैं इसका आनन्द लेता हूँ और मुझे इसकी जरूरत है । परन्तु पूरे
दिनभर नहीं देखता हूँ । मुकु न्द : क्या इस उपन्यास की बड़ी सफलता का इस तथ्य से कु छ लेना देना है
कि इसमें मध्ययुगीन इतिहास की चर्चा है जो कि…।
Umberto Eco – यह सम्भव है । परन्तु मैं आपको एक और कहानी सुनाता हूँ, क्योंकि मैं अक्सर चीनी
बुद्धिमान आदमी की तरह कहानी सुनाता हूँ। मेरी अमेरिकन प्रकाशक ने कहा जबकि उसे मेरी पुस्तक
पसन्द थी उसने 3000 प्रतियों से ज्यादा बिकने की ऐसे देश में उम्मीद नहीं की थी जहाँ किसी ने चर्च
नहीं देखा है या कोई लैटिन नहीं पढ़ता है । अतः मुझे 3000 प्रतियों की पेशगी दी गई परन्तु अन्त में
अमेरिका में 20 से 30 लाख प्रतियाँ बिकीं ।
मेरी पुस्तक से पहले मध्ययुगीन इतिहास के बारे में बहुत सारी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं । मैं समझता हूँ
पुस्तक की सफलता एक रहस्य है । कोई इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है । मैं समझता हूँ कि यदि
मैंने The Name of the Rose दस वर्ष पहले या दस वर्ष बाद लिखा होता तो (परिणाम) वही न होता ।
उस समय यह इतनी सफल कै से हो गई यह एक रहस्य है ।
Chapter 8 Going Places Hindi Translation
Day
Night
लेखक परिचय
A. R. Barton एक आधुनिक लेखक हैं जो Zurich में रहते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं । ‘Going Places’
कहानी में Barton किशोर-कल्पना और नायक-पूजा के विषय को खोजते हैं ।

पाठ का सारांश Sophie और jansie सहपाठी तथा मित्र थीं । विद्यालय से घर आते हुए वे पढ़ाई के बाद
कु छ कार्य तलाश करने की सोच रही थीं लेकिन दोनों के दृष्टिकोण (विचार) अलग-अलग थे । Sophie
हमेशा बड़े और सुन्दर कार्य करने का स्वप्न देखती थी जबकि Jansie अपने परिवार की सीधी-सादी
स्थिति के अनुसार ही कार्य करना चाहती थी ।
Sophie का भाई Geoff अपनी मोटरसाइकिल के किसी हिस्से पर तैलीय कार्य करने में व्यस्त था ! वह
उसके समीप गयी और उसने अपनी Danny Casey के साथ मुलाकात के सम्बन्ध में बताया । वह
फु टबाल का एक अद्भुत खिलाड़ी था । Sophie के परिवार के सभी सदस्य फु टबाल के दीवाने थे ।
सायंकाल को अंधेरा होने के बाद Sophie नहर के किनारे चलती हुई उस स्थान पर पहुंची जहाँ वह बचपन
में अक्सर खेलती थी । वह Danny Casey के आने की आशा में बैठी रही लेकिन वहाँ पर उसका कोई भी
चिह्न नहीं था । वह निराश हो गई । अपने घर की ओर वापस आते हुए अब भी वह Danny Casey के
आने का स्वप्न देख रही थी।
विद्यालय से घर आते हुए Sophie ने कहा, “पढ़ाई के बाद मेरा एक बुटीक होगा ।” उसकी बाँहों में बाँहें
डाले गली में चलते हुए Jansie को इस बात पर शंका हुई । “Soaf, ऐसा कु छ करने में धन खर्च होता है।”
गली में दूर घूरते हुए Sophie ने कहा, “मैं जुटा लूँगी ।’ “इतना धन जुटाने में तुम्हें बहुत समय लगेगा ।”
“ठीक है, तो हाँ सचमुच, शुरू में मैं मैनेजर बन जाऊँ गी, जब तक मेरे पास पर्याप्त (धन) न होगा ।
पर, जो कु छ भी हो, मैं जानती हूँ यह सब कै सा दिखेगा ।” “Soaf, लोग तुम्हें तुरंत ही मैनेजर नहीं बना
देंगे ।” Sophie ने कहा, “मैं Mary Quant जैसी बनूँगी । मैं अपनी योग्यता के अनुरूप कार्य करूँ गी । वे
यह शुरू से देखेंगे । मेरी बहुत ही आश्चर्यजनक दुकान होगी जैसी इस शहर में कभी नहीं रही होगी। यह
जानते हुए कि उन दोनों को तो बिस्कु ट की फै क्ट्री में काम करना था, Jansie दु:खी हो गई । वह चाहती
थी कि Sophie ऐसी बातें न कहे ।।
जब वे Sophie की गली पर पहुँची तो Jansie ने कहा, “Soaf, अब तो कु छ ही महीनों की बात है, तुम्हें,
सचमुच समझदार होना चाहिए । दुकान का काम करने के बदले में ज्यादा पैसा नहीं मिलता है, तुम यह
जानती हो, तुम्हारे पिताजी तुम्हें यह कभी नहीं करने देंगे ।”
“या फिर एक अभिनेत्री। इस काम में वास्तव में बहुत पैसा है । हाँ और हो सकता है साथ-साथ में बुटीक
भी रख लूँ। अभिनेत्रियाँ पूरे समय काम नहीं करती हैं, है ना? खैर या तो अभिनेत्री या फै शन डिजाइनर, तुम
जानती हो-कोई ऐसा ही सुन्दर काम ।” Jansie को वर्षा में खड़ी छोड़कर वह गली के खुले दरवाजे में होकर
अन्दर चली गई ।
“अगर कभी मेरे पास पैसा हो गया तो मैं एक बुटीक खरीदूंगी ।”
“हाँ, यदि तुम्हारे पास कभी पैसा हो तो…….यदि तुम्हारे पास कभी पैसा हो तो तुम हमारे रहने के लिए
आनन्ददायक सुन्दर घर खरीदोगी, बहुत-बहुत धन्यवाद ।” Sophie के पिता जितना हो सकता था उतनी
जोर से शेपड पाइ चम्मच से अपने मुँह में डाल रहे थे, उनका मांसल चेहरा अभी भी गन्दा और पसीना
भरा था दिन के काम से धुलधुसरित । “वह समझती है पैसा पेड़ों पर उगता है, है न पापा ?” छोटे Derek
ने अपने पिता की कु र्सी के पीछे लटकते हुए कहा । उनकी माँ ने आह भरी ।
Sophie ने सिंक के ऊपर अपनी माँ की झुकी हुई कमर देखी और उसके एप्रन की डोरी के ऊपर बंधे
सुन्दर फू ल की असंगतता के बारे में सोचा । सुन्दर दिखने वाला फू ल और झुकी कमर । शाम का
अन्धकार पहले ही खिड़कियों पर दिखने लगा था और छोटे कमरे में स्टोव का धुआँ भरा था तथा मेज पर
बनियान पहने खर्राटे मारता आदमी और कोने में पड़े गन्दे कपड़ों के ढेर से कमरा भरा हुआ था। Sophie
को गले में कठोरता महसूस हुई । वह अपने भाई Geoff को ढूँ ढने निकल पड़ी ।
वह कारपेट पर बिछे अखबार के ऊपर रखे मोटरसाइकिल के हिस्से से ठोका-पीटी करते हुए बगल वाले
कमरे में फर्श पर घुटनों के बल बैठा था । उसे स्कू ल छोड़े तीन वर्ष हो चुके थे, नौसिखिया मेके निक जो
शहर के दूसरे छोर पर प्रतिदिन काम के लिए जाता था । अब वह लगभग बड़ा हो गया था और वह
(Sophie) उसके जीवन के उन क्षेत्रों पर संदेह करती थी जिनके विषय में वह कु छ नहीं जानती थी, (तथा)
जिनके बारे में वह कभी भी बात नहीं करता था ।
वह अपनी मर्जी से कभी भी बिल्कु ल कु छ नहीं बोलता था । उसके अन्दर से शब्द उखाड़कर वैसे ही
निकालने पड़ते थे जैसे जमीन में से पत्थर । और वह (बहिन) उसकी चुप्पी से ईर्ष्या करती थी । जब वह
नहीं बोल रहा होता था तो लगता था जैसे वह कहीं दूर होता था, संसार के उन स्थानों पर जहाँ वह कभी
नहीं गई थी । चाहे वे शहर के बाहरी क्षेत्र थे या चारों ओर के देहात के स्थान -कौन जानता था ? उनके
प्रति उसे (Sophie को) सिर्फ इसलिए आकर्षण था क्योंकि वे उसके लिए अनजान थे और उसकी पहुँच से
परे थे ।।
शायद, वहाँ लोग भी थे, उत्तेजनात्मक, रुचिकर लोग जिनके बारे में वह कभी बात नहीं करता था- यह
सम्भव था, यद्यपि वह शान्त था और आसानी से नये मित्र नहीं बनाता था । वह उन्हें जानना चाहती थी
। वह चाहती थी कि उसे उसके भाई का ज्यादा प्यार मिले और किसी दिन वह उसे अपने साथ ले जाये ।
यद्यपि उनके पिता मना करते थे और Geoff ने (इस बारे में) कोई विचार नहीं रखा था, वह जानती थी
कि वह उसे कु छ ज्यादा ही छोटी समझता था । और वह अधीर थी ।
उसे पता था कि बाहर उसके लिए एक बड़ा संसार प्रतीक्षा कर रहा था और अन्तःप्रेरणा से उसे पता था
कि उसका मन वहाँ भी उतना ही लगेगा जितना कि उस शहर में जो सदैव उसका घर रहा था । (Sophie
अपने मन ही मन कल्पना करती है कि) यह (स्थान) आतुरता के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था ।
वह (कल्पना में) वहाँ स्वयं को Geoff के पीछे घुड़सवारी करते देखती थी । वह नये चमकीले काले चमडे
के कपड़े पहने होता था और वह पीली ड्रेस पहने होती थी जिसमें एक प्रकार का दुपट्टा था जो पीछे -पीछे
उड़ता आ रहा था। जब दुनिया उनका स्वागत करने को खड़ी होती तो जय-जयकार की ध्वनि होती थी ।
वह (Geoff) अपने हाथ में तैलीय पदार्थ (तेल से सने मोटर साइकिल के पुर्जे) को रखकर उसकी तरफ गुर्रा
रहा था, मानो यह कोई छोटा-सा गूंगा जानवर हो और वह उसे बुलवाना चाहता हो
Sophie ने कहा, “मैं Danny Casey से मिली थी।” उसने (Geoff ने) अचानक चारों ओर देखा। ‘कहाँ’ ।
“मजेदार बात यह है – गलियारे में ।” “यह कभी सच नहीं हो सकता है।” “मुझे भी यही लगा था ।”
“क्या तुमने डैडी को बताया ?” उसने ना में सिर हिलाया, उसकी अज्ञानता पर दु:ख जताया कि वह सदैव
उसके रहस्य का प्रथम भागीदार होता था। “मैं इस पर विश्वास नहीं करता ।” “मैं तो Royce की खिड़की
में कपड़ों को देख रही थी तभी कोई आया और मेरे पास खड़ा हो गया, और मैंने घूमकर देखा तो यह कोई
और नहीं बल्कि Danny Casey था ।”
हिन्दी अनुवाद – “ठीक है, वह कै सा लग रहा था ? “अरे छोड़ो, तुम्हें पता है वह कै सा लगता है ।” “मेरा
मतलब करीब-करीब ।” “अच्छा- उसकी हरी आँखें हैं । सौम्य आँखें और वह इतना लम्बा नहीं है जितना
तुम समझते हो…. ।” उसने सोचा कि क्या उसे उसके दाँतों के बारे में भी कु छ कहना चाहिए परन्तु उसने
ऐसा न करने का निश्चय किया । उनके पिता जब अन्दर आये तो वे स्नान कर चुके थे और उनका चेहरा
और बाँहें चमकीली और गुलाबी थीं और उनमें से साबुन की गन्ध आ रही थी। उन्होंने टेलीविजन चालू
किया, छोटे Derek का एक जूता अपनी कु र्सी से सोफा पर फें का और गुर्राते (तीखी आवाज के साथ) हुए
बैठ गये ।।
Geoff ने कहा, “Sophie, Danny Casey से मिली थी ।” Sohpie मेज पर बैठी छटपटाई। उसके पिता ने
अपनी मोटी गर्दन पर रखे सिर को उसकी ओर देखने के लिए घुमाया । उनका भाव घृणा का था ।
Geoff ने कहा, “यह सच है।” उसके पिता ने आदरपूर्वक टेलीविजन (टेलीविज़न से नज़रें हटाये बिना) से
कहा, “मैं एक बार ऐसे आदमी को जानता था जो Tom Finney को जानता था । परन्तु यह बहुत पुरानी
बात है ।” Geoff ने कहा, “आपने हमको बताया था ।” “किसी दिन Casey भी उतना ही अच्छा हो सकता
है ।” “उससे भी अच्छा । वह सबसे अच्छा है ।”
“यदि वह अपने दिमाग का सही प्रयोग करे (शानो-शौकत उसके सिर पर न चढ़ जाये) । यदि वे उसकी
ठीक प्रकार देखभाल करें । आजकल खेल में नवयुवकों के लिए बहुत सारी ध्यान भंग करने वाली चीजें
होती हैं ।”
“वह ठीक रहेगा, वह देश की सबसे अच्छी टीम में है ।” “अभी वह बहुत छोटा है ।” “वह मुझसे बड़ा है।”
“पहले नम्बर की टीम के हिसाब से बहुत छोटा है ।” । “आप इस तरह की योग्यता पर बहस नहीं कर
सकते हो ।” सोफी ने मेज पर से कहा, “वह एक दुकान खरीदने वाला है।” उसके पिता ने बुरा मुँह बनाया,
“तुमने यह कहाँ सुना ?” “उसने मुझे ऐसा बताया ।”
वे कु छ बड़बड़ाये जो सुना न जा सका और स्वयं को अपनी कु र्सी में समेट लिया । “यह तुम्हारी कपोल-
कल्पित कहानियों में से एक है ?’
“वह उससे गलियारे में मिली,” Geoff ने कहा और उन्हें बताया कि यह सब किस तरह हुआ था । “किसी
दिन तुम इन बातों से अपने आप को बहुत बड़ी परेशानी में डाल लोगी ।” उसके पिता ने गुस्से में कहा।
“Geoff जानता है कि यह सच है, क्या तुम नहीं जानते Geoff ?” ” वह तुम्हारा विश्वास नहीं करता –
यद्यपि वह (विश्वास करना) करना चाहेगा ।”
टेबल लैम्प, उसके भाई के बेडरूम की दीवार पर और अमेरिका की नं. 1 टीम के पोस्टर और उसके नीचे
रंगीन फोटोग्राफों की पंक्ति, जिसमें तीन फोटो आयरलैण्ड के विलक्षण प्रतिभासम्पन्न नवयुवक Casey के
थे, पर पीली भूरी चमक डाल रही थी । Sophie ने कहा, “वादा करो, किसी को नहीं बताओगे ?” “बताने को
कु छ है ही नहीं ?” “वादा करो Geoff-डैडी मुझे मार डालेंगे ।” “सिर्फ तभी जब वे यह सोचेंगे कि यह सही
था ।”
“कृ पया Geoff ।” “हे प्रभु, Sophie, तुम अभी स्कू ल में हो । Casey के पीछे लड़कियों की बड़ी संख्या होगी
।” “नहीं, उसके पीछे नहीं है ।” “तुम्हें यह कै से पता लगा ?” उसने उपहास किया । “उसने मुझे बताया, ऐसे
पता लगा।” । “मानो कोई भी किसी लड़की को ऐसी बात बतायेगा ।” “हाँ, उसने बताया । वह ऐसा नहीं है
। वह…………..शान्त है।” “उतना शान्त नहीं – जितना दिखाई पड़ता है ।”
“Geoff, ऐसा कु छ नहीं था – पहले मैंने बात शुरू की थी । जब मैंने उसे पहचान लिया तो मैंने कहा “क्षमा
करें, क्या आप Danny Casey नहीं हैं ?” और वह कु छ चकित लगा । और उसने कहा “हाँ, यह सच है ।”
और मैं जानती थी यह वही था क्योंकि उसका लहजा वैसा ही था जैसा कि तब था जब उसका टेलीविजन
पर साक्षात्कार लिया गया था । इसीलिए छोटे Derek के लिए मैंने उससे ऑटोग्राफ माँगा परन्तु हम दोनों
में से किसी के पास कागज
या पेन नहीं था । इसलिए हमने सिर्फ थोडी बातचीत की, Royce की खिड़की में रखे कपड़ों के बारे में ।
वह अके ला लग रहा था । कु ल मिलाकर, यह जगह पश्चिमी आयरलैण्ड से बहुत दूर है । और फिर, जब
वह जाने लगा, उसने कहा कि यदि मैं उससे अगले सप्ताह मिलूँगी तो तब वह मुझे autograph देगा ।
सचमुच मैंने कहा, “मैं मिलूँगी ।”
“मानो वह कभी दिखाई पडेगा ।” “अब तुम मेरा विश्वास करते हो, करते हो न ?
कु र्सी के पीछे से उसने (Geoff ने) अपनी जैके ट खींची जो चमकीली और आकृ तिविहीन (बेतरतीब) थी और
अपनी बाँहें उसमें घुसा दी । उसने (Sophie ने) चाहा वह अपने रूप स्वरूप पर ज्यादा ध्यान दे । चाहा कि
वह अपने कपड़ों पर ज्यादा ध्यान दे । वह लम्बा था, उसका चेहरा मजबूत और काला था । खूबसूरत,
उसने सोचा ।
“यह मेरे द्वारा कभी सुनी गई सर्वाधिक असम्भव बात है,” उसने (Geoff ने) कहा ।
शनिवार को वे United (टीम का नाम) को देखने अपनी साप्ताहिक तीर्थयात्रा (उनके लिए अत्यधिक रोचक
स्थान की यात्रा) पर गये । Sophie और उसके पिता और छोटा Derek गोल के पास गये – Geoff सदा की
भाँति अपने साथियों के साथ ऊपर गया । United ने 2-0 से मैच जीता और Casey ने दूसरा गोल किया,
Casey आयरलैण्ड की प्रतिभा और भोलेपन का सम्मिश्रण था, उसने पेनल्टी क्षेत्र के कोने पर दो बड़े
गोलरक्षकों के चक्कर काटकर गोल बनाया, Sophie के पिता चीखते रहे कि Casey 12 गज की दूरी से
पास दो और हिचकिचाने वाले गोलकीपर को परास्त करी ।
सोफी गर्व से चमक उठी । इसके बाद Geoff अति उल्लसित था ।
“काश, वह एक अंग्रेज होता.’ किसी ने बस में कहा ।
“आयरलैण्ट विश्व कप जीतेगा.” छोटे Derek ने अपनी माँ से उस समय कहा जब Sophie उसे घर लायी ।
उसके पिता जश्न मनाने पब (शराबघर) जा चुके थे ।
“यह क्या है जो तुम बताती रही हो (आजकल तुम क्या बातें कर रही हो) ?” अगले सप्ताह Jansie ने कहा।
“किस बारे में ?” “तुम्हारे Geoff ने हमारे फ्रे न्क को बताया कि तुम Danny Casey से मिली थीं ।” । यह
कोई जाँच नहीं थी, Jansie सिर्फ जानने को बेताब थी । परन्तु Sophie चौंक गई । “अरे, वह ।” यह जानते
हुए कि वह (Sophie) “बात’ को छिपा रही है, Jansie ने भौहें चढ़ाईं । “अच्छा-हाँ. मैं मिली थी ।”
“क्या तुम कभी नहीं मिली ?” Jansie ने विस्मय के साथ कहा । Sophie ने जमीन की ओर क्रोधपूर्वक
देखा, भाड़ में जाने दो उस Geoff को । यह Geoff की बात थी, Jansie की नहीं । यह सिर्फ उनके बीच की
विशेष बात थी । गुप्त बात । यह Jansie जैसी बात बिल्कु ल नहीं थी । बेढंगी Jansie से कु छ ऐसी बात
कह दो और पूरा पड़ोस इसे जान लेगा । भाड़ में जाये Geoff, क्या कु छ भी पवित्र नहीं था ?
“यह एक गुप्त बात है – गुप्त रखी जाने के लिए ।” “सोफ, मैं इसे गुप्त ही रखूगी, तुम जानती हो। किसी
को नहीं बताना चाहती थी, यदि मेरे पिताजी को पता चल गया तो फिर वही पुराना झंझट खड़ा हो जायेगा
।”
Jansie ने आँखें मिचकाईं “झंझट ? मैं समझती हूँ वे तो बहुत अधिक सन्तुष्ट (खुश) होंगे ।” । तब उसने
महसूस किया कि Jansie को उसके फिर से मिलने के वायदे के बारे में कु छ भी पता न था – Geoff ने
उस बारे में नहीं बताया था। उसने राहत की सांस ली । तो कु ल मिलाकर Geoff ने उसे निराश नहीं किया
था । कु ल मिलाकर उसने उस पर भरोसा किया । आखिर कु छ चीजें तो पवित्र हो ही सकती हैं । “यह
सचमुच छोटी सी बात थी । मैंने उससे autograph माँगा परन्तु हमारे पास कागज, पेन नहीं था इसलिए
इससे कोई फायदा न हुआ । Geoff ने कितना बताया ?
“हे भगवान, काश मैं वहाँ होती ।” “सचमुच, मेरे पिताजी इस पर विश्वास नहीं करना चाहते थे । तुम
जानती हो वह कितनी बड़ी मुसीबत हैं । और मैं बिल्कु ल नहीं चाहती कि उनसे पूछने के लिए हमारे घर
पर लोगों की कतार लगे, “Danny Casey वाली क्या बात है ?” वह मेरा कत्ल कर देंगे । और तुम जानती
हो मेरी माँ का क्या हाल होता है जब कोई झंझट होता है।” Jansie ने धीरे से कहा, “Soaf, तुम जानती हो,
तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो ।’
अंधेरा होने के बाद वह नहर के किनारे एक सुरक्षित मार्ग पर चली जो मात्र सामने के घाट से जल में
पड़ने वाली बल्बों की चमक से प्रकाशित था और (जहाँ) शहर की निरन्तर चलने वाली भिनभिनाहट धीमी
और दूर थी । यह वह स्थान था जहाँ वह बचपन में अक्सर खेला करती थी ।
अकले elm के वृक्ष के नीचे लकड़ी की बेन्च थी जहाँ कभी-कभी प्रेमी आते थे । वह (वहाँ) प्रतीक्षा करने के
लिए बैठ गई । उन लोगों के लिए जो दूसरों के द्वारा देखे जाना नहीं चाहते थे, उनके मिलन के लिए यह
स्थान श्रेष्ठ था, ऐसा वह हमेशा सोचती थी । उसे पता था वह (Casey) (इस स्थान को) पसंद करेगा ।
कु छ देर प्रतीक्षा करते हुए उसने कल्पना की कि वह आ रहा था । वह नहर के किनारे देखती रही, उसे
परछाइयों से निकलकर आता हुआ देखने के लिए और परिणामस्वरूप अपनी स्वयं की होने वाली
उत्तेजनाओं की कल्पना करते हुए। जब कु छ समय गुजर गया तो वह उसके न आने के बारे में भी सोचने
लगी ।।
उसने स्वयं से कहा, मैं यहाँ यह इच्छा करते हुए बैठी हूँ कि Danny आयेगा, और समय गुजरने का
अहसास उसे होता रहा । मैं अपने अन्दर संदेह के कष्टों को आन्दोलित होते महसूस कर रही हूँ, मैं उसकी
प्रतीक्षा कर रही हूँ । परन्तु अभी तक उसका कोई संके त नहीं है । मुझे याद है मैंने Geoff को यह कहते
सुना कि वह कभी नहीं आयेगा और किसी तरह जब मैंने उन्हें बताया तो किसी ने भी मेरा विश्वास नहीं
किया ।
मैं सोच रही हूँ मैं क्या करूँ गी, यदि वह नहीं आया तो मैं उन्हें क्या बता सकती हूँ ? परन्तु हम जानते हैं
कि बात क्या थी, Danny और मैं-यही मुख्य बात है । आप इसमें कु छ नहीं कर सकते कि लोग किस बात
में विश्वास करें और किस में न करें ? किन्तु फिर भी, इससे मुझे निराशा होती है, यह जानकर, मैं यह नहीं
दिखा सकूँ गी कि मुझ पर सन्देह करके उन्होंने गलती की थी। अपने अन्दर के इस प्रकार बदलावों को
भांपती, वह प्रतीक्षा करती रही । सम्पूर्ण आत्मसमर्पण यकायक नहीं हुआ।
अब मैं दुखी हो गई हँ, उसने सोचा । और इस दुःख को लादे रखना मुश्किल है । यहाँ बैठकर प्रतीक्षा
करते रहना, यह जानते हुए भी कि वह नहीं आयेगा, मैं भविष्य को देख सकती हूँ और जान सकती हूँ कि
मुझे इस बोझ के साथ कै से रहना होगा । सचमुच वे मुझ पर सन्देह करेंगे, जैसा कि उन्होंने सदैव मुझ
पर सन्देह किया है किन्तु अतीत का ध्यान रखते हुए मुझे अपना सिर ऊँ चा रखना होगा ।
पहले ही मैं देख रही हूँ कि मैं धीरे-धीरे घर लौट रही हूँ और Geoff का निराश चेहरा, जब मैं उसे बताऊँ गी,
“वह नहीं आया, वह Danny ” । और वह दरवाजा धड़ाम से बन्द करके बाहर भाग जायेगा । “परन्तु हम
जानते हैं कि बात कै सी थी ।” मैं स्वयं से कहूँगी, “Danny और मैं ।” यह उदासी बड़ी कठोर चीज है ।
उसने गली की जीर्ण-शीर्ण सीढ़ियाँ चढ़ी । शराबखाने के बाहर दीवार के सहारे रखी अपने पिता की
साइकिल के पास से गुजरी और वह खुश थी । वह जब घर पहुँचेगी वह घर पर न होंगे ।
“क्षमा करें, किन्तु क्या आप Danny Casey नहीं हैं ?” बाजार से आते हुए Royce के बाहर फिर से उसने
कल्पना की । लज्जा में थोड़ा लाल पड़ता हुआ वह मुड़ता है, “हाँ, यह सच है ।” “मैं अपने भाईयों और डैडी
के साथ आपको हर सप्ताह देखती हूँ । हमें लगता है आप महान हैं।” – “अरे, ठीक है – यह बड़ा अच्छा
है।”
“मैं जानने को उत्सुक हूँ – क्या आप एक autograph साइन करेंगे ?” उसकी आँखें उसी तल पर हैं जिस
पर आपकी अपनी । उसकी नाक पर धब्बे हैं और थोड़ी-सी ऊपर उठी है और जब वह मुस्कु राता है तो वह
शरमाते हुए छिछले दाँतों को दिखाता है
उसकी आँखें हरी हैं और वह जब आपकी ओर सीधे देखता है तो वे झिलमिलाती प्रतीत होती हैं । वे सरल
लगती हैं, लगभग डरी हुई । एक छोटे हिरन की तरह। और आप उससे निगाह हटा लें, और उसकी आँखें
जरा आपके ऊपर घूमने दें तो लौटकर देखने पर आप उन्हें थोड़ा बेचैन पाओगे ।
और वह कहता है, “लगता है मेरे पास पेन ही नहीं है ।” आप महसूस करते हो आपके पास भी नहीं है।
“मेरे भाई बहुत दुखी होंगे,” तुम कहती हो । और बाद में, तुम बाजार में कोमल, मधुर आवाज को, हरी
आँखों की झिलमिलाहट को याद करते हुए, लम्बे समय तक प्रतीक्षा करती हो वहाँ खड़े होकर जहाँ वह
खड़ा हुआ था, तुमसे ज्यादा लम्बा नहीं, तुमसे ज्यादा मोटा नहीं ।
भोला-भाला प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति महान Danny Casey और पिछले शनिवार उसने यह सब (अपनी
कल्पना में) फिर देखा – बेढंगे तरीके से धीरे-धीरे चलते हुए या मदमदाते आगे बढ़ते हुए रक्षकों के पास से
प्रेत की तरह निकलते हुए देखा, जब थोड़ी देर वह गेंद के ऊपर मंडराया, पचास हजार लोगों को सांस
थामते सुना और फिर धमाके दार आवाज (हुई) जब उसने फु र्ती से गेंद को गोल में डाला, तब अचानक
उसकी प्रशंसा में उल्लास फू ट पड़ा ।

फिल्मों में उसकी सफलता ने उसकी साहित्यिक उपलब्धियों को ढक लिया और उसे कम कर दिया – या
उसके समालोचकों को ऐसा लगता था । उसने लोक टेक पर आधारित तथा लोकभाषा में कई सचमुच
मौलिक कथा-काव्यों की रचना की तथा उसने अव्यवस्थित उपन्यास Thillana Mohanambal लिखा
जिसमें दर्जनों चरित्रों को चतुराई से उके रा गया । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ की देवदासियों की मन:स्थिति
तथा हाव-भावों का वर्णन उसने बहुत सफलतापूर्वक किया ।
वह एक आश्चर्यजनक अभिनेता था – उसने कभी भी मुख्य भूमिका पाने की इच्छा नहीं की – किन्तु किसी
भी फिल्म में जो भी सहयोगी भूमिका अदा की, उसने तथाकथित मुख्य कलाकारों से बेहतर भूमिका अदा
की । हर मिलने वाले के प्रति उसमें सच्चा प्यार था और उसका घर पास और दूर के रिश्तेदारों और
परिचितों का स्थायी निवास था ।
वह इतने लोगों को भोजन करा रहा था और मदद कर रहा था, इस बात के प्रति जागरूक होना भी सुब्बू
के स्वभाव के विपरीत था । ऐसा दानी और फिजूलखर्ची वाला आदमी और फिर भी उसके दुश्मन थे ! क्या
यह इसलिए था कि वह बॉस के बहुत करीब लगता था ? या फिर उसका सामान्य व्यवहार जो चापलूस से
मिलता-जुलता था ? या हर चीज़ के बारे में अच्छा बोलने की उसकी तत्परता ? जो भी हो, मेक-अप विभाग
में यह आदमी (office boy) था जो सुब्बू के लिए सर्वाधिक भयानक चीजों की कामना करता था ।
सुब्बू सदा बॉस के साथ दिखाई देता था किन्तु उपस्थिति पत्रक पर उसे कथा-विभाग में शामिल किया
जाता जिसमें एक वकील और लेखकों और कवियों का एक समूह शामिल था । वकील को आधिकारिक
तौर पर कानूनी सलाहकार भी कहा जाता था, परन्तु हर कोई उसे इसके विपरीत बताता ।
एक अत्यन्त प्रतिभावान अभिनेत्री, जो बहुत अधिक तुनकमिजाज भी थी, एक बार सैट पर भड़क उठी ।
जबकि सब सन्न. खड़े थे, वकील ने चुपचाप आवाज रिकार्ड करने वाला यन्त्र चालू कर दिया । जब
अभिनेत्री साँस लेने के लिए रुकी, वकील ने उससे कहा, “एक मिनट, कृ पया,” और रिकार्ड को फिर से चालू
कर दिया ।
फिल्म निर्माता के बारे में अभिनेत्री के क्रोध पूर्ण भाषण में कु छ भी अकथनीय रूप से बुरा या दोषी दिखने
वाला नहीं था । परन्तु जैसे ही ध्वनि यन्त्र के द्वारा उसने अपनी आवाज फिर से सुनी, वह अवाक रह गई
। देहात से आई यह लड़की, संसार के अनुभवों के उन सभी स्तरों से नहीं गुजरी थी जो आमतौर पर
महत्त्व और नजाकत का वह स्थान पाने से पहले होते हैं जिसमें उसे पहुँचा दिया गया था (अर्थात् लड़की
का व्यवहार उसके वर्तमान स्तर के अनुकू ल नहीं था) ।
उस दिन उसने जिस डर का अनुभव किया वह उससे कभी उबर न सकी । यह एक संक्षिप्त और अच्छे
अभिनय करिअर का अन्त था – कानूनी सलाहकार ने जो कथा विभाग का सदस्य भी था, मूर्खतापूर्ण तरीके
से यह दु:खद अन्त कर दिया था ।
जबकि विभाग का हर दूसरा सदस्य एक प्रकार का गणवेश पहनता था – खादी की धोती और बेढंगे तरीके
से सिली हुई ढीली सी सफे द खादी की शर्ट, कानूनी सलाहकार पैण्ट और टाई पहनता था और कभी-कभी
एक ऐसा कोट जो कि कवच जैसा लगता था । अक्सर वह अके ला और असहाय दिखता था- स्वप्नद्रष्टाओं
की भीड़ में नीरस तर्क वाला आदमीगाँधीवादी और खादीवादी लोगों के दल में निरपेक्ष (व्यक्ति)।
बॉस के करीबी बहुत से लोगों की भाँति- उसे फिल्म बनाने की अनुमति दी गई और यद्यपि बहुत सारा
कच्चा माल और Pancake इसमें काम में लिया गया, लेकिन फिल्म से कु छ ज्यादा हासिल नहीं हुआ ।
फिर एक दिन बॉस ने कथा-विभाग बन्द कर दिया और शायद पूरे मानव इतिहास में यह एकमात्र
उदाहरण था जहाँ एक वकील की नौकरी इसलिए छू ट गई क्योंकि कवियों को घर जाने के लिए कह दिया
गया था ।
जैमिनी स्टू डियो SDS Yogiar (एक स्वतंत्रता सेनानी तथा एक राष्ट्रीय कवि), सांगु सुब्रमण्यम, कृ ष्णा शास्त्री
और हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (एक कवि और नाटककार) जैसे कवियों का पसंदीदा भ्रमण-स्थल था । इसमें
एक सुन्दर भोजनालय था जिसमें सारे दिन और रात को बहुत समय तक अच्छी कॉफी मिलती थी ।
ये वे दिन थे जब कांग्रेस के शासन का मतलब पाबन्दी होती थी और कॉफी पीते हुए मिलना काफी
सन्तोषप्रद मनोरंजन होता था । दो-एक लिपिकों और आफिस बॉयज़ को छोड़कर हर आदमी खाली लगता
था जो काव्य की पूर्व शर्त है । (अर्थात् कविता लिखने के लिए लेखक के पास खाली समय होना चाहिए)।
उनमें से अधिकांश खादी पहनते थे और गाँधीजी की पूजा करते थे परन्तु इससे आगे उन्हें किसी प्रकार के
राजनीतिक विचार की जरा-सी भी समझ नहीं थी । स्वाभाविक रूप से, वे सभी कम्युनिज्म शब्द के
खिलाफ थे । एक कम्युनिस्ट एक ईश्वरहीन व्यक्ति होता था । उसके बच्चे माता-पिता को तथा पत्नी,
पति एक-दूसरे को प्यार नहीं करते,
उसे अपने माता-पिता या बच्चों की हत्या करके भी ग्लानि नहीं होती; वह हमेशा भोले और अज्ञानी लोगों
के बीच अशान्ति एवं हिंसा उत्पन्न करने और फै लाने को तैयार रहता था । ऐसे विचार जो उस समय भी
दक्षिण भारत में हर जगह फै ले थे वे स्वाभाविक रूप से, जैमिनी स्टू डियो के खादीधारी कवियों में अस्पष्ट
रूप से फै ले थे । इसका प्रमाण शीघ्र ही तैयार था अर्थात् शीघ्र ही मिल गया।
जब Frank Buchman का लगभग 200 आदमियों का दल Moral Re-Armament army, 1952 में कभी
मद्रास आया तो उन्हें भारत में जैमिनी स्टू डियो से बेहतर गर्मजोशी से स्वागत करने वाला मेज़बान कोई
और नहीं मिल सकता था । किसी ने इस दल को अन्तर्राष्ट्रीय सर्क स बताया ।
वे झूले पर अच्छा खेल नहीं दिखाते थे और पशुओं से उनका परिचय सिर्फ भोजन की मेज पर होता था ।
(अर्थात् वे पशुओं का माँस खाते थे, इसके अलावा पशुओं के बारे में कु छ नहीं जानते थे), किन्तु वे दो
नाटकों को अत्यन्त प्रशिक्षित अन्दाज में प्रस्तुत करते थे । उनके नाटक ‘Jotham Valley’ और “The
Forgotten Factor’ के मद्रास में अनेक shows हुए और शहर के अन्य नागरिकों के साथ-साथ जैमिनी
परिवार के छ: सौ लोगों ने भी इन नाटकों को बार-बार देखा ।
नाटकों का सन्देश सीधी सरल नैतिक शिक्षा होती थी किन्तु सैट और वस्त्र सज्जा अति उत्तम थी ।
मद्रास और तमिल नाटक मंडलियाँ बहुत ज्यादा प्रभावित थीं और कई वर्ष तक लगभग सारे तमिल नाटकों
में खाली मंच, पीछे की तरफ सफे द पर्दा और बाँसुरी पर बजती धुन के साथ ‘Jotham Valley’ की तर्ज पर
सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य होता था । कई वर्ष बाद मुझे पता चला कि MRA अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद
का एक विरोधी आन्दोलन था और मद्रास के श्री वासन जैसे बड़े आदमी उनके हाथों में खेल रहे थे अर्थात्
उनके प्रभाव में आ गए थे ।
तथापि मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि सचमुच ऐसा ही था क्योंकि इन बड़े लोगों के न बदलने वाले पक्ष
और उनके काम वैसे ही रहे, MRA तथा अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद के होने न होने का कोई फर्क नहीं था ।
जैमिनी स्टू डियो के स्टाफ का समय कम-से-कम 20 देशों के भिन्न-भिन्न रंग और आकार के दो सौ लोगों
का स्वागत करते हुए अच्छा गुजरा। मेक-अप विभाग में मेक-अप बॉय द्वारा मेक-अप की मोटी परत
चढ़ाये जाने की प्रतीक्षा करती भीड़ की भूमिका निभाने वाले लोगों के जमावड़े से यह बहुत अलग था ।
कु छ ही महीने बाद, मद्रास के बड़े लोगों के फोन बजे और एक बार फिर जैमिनी स्टू डियो में एक और
पर्यटक का स्वागत करने के लिए हमने पूरी स्टेज खाली कर दी । के वल इतना पता चला कि वह इंग्लैण्ड
के एक कवि थे । जैमिनी का सीधा सच्चा स्टाफ इंग्लैण्ड के जिन कवियों के बारे में जानता था या
जिनके बारे में उसने सुना था, वे थे Wordsworth और Tennyson, और अधिक पढ़े-लिखे लोग Keats,
Shelley तथा Byron के बारे में जानते थे, और एक या दो शायद Eliot नाम के किसी कवि के बारे में
थोड़ा बहुत जानते थे । अब जैमिनी स्टू डियो में आने वाला कवि कौन था ?
“वह कवि नहीं है । वह संपादक है । यही कारण है बॉस उसका इतना स्वागत कर रहे हैं।” वासन भी
सुपरिचित तमिल साप्ताहिक ‘Ananda Vikatan’ का सम्पादक था । मद्रास में जिन ब्रिटिश प्रकाशनों के
नाम पता थे अर्थात् जिन्हें जैमिनी स्टू डियो में लोग जानते थे वह उनका सम्पादक नहीं था ।
चूँकि “The Hindu’ के प्रमुख लोग पहल कर रहे थे इसलिए अन्दाज़ यह था कि वह कवि किसी दैनिक
समाचार पत्र का सम्पादक था – किन्तु वह Manchester Guardian या London Times से नहीं था ।
हम में से सर्वाधिक जानकारी रखने वाला आदमी भी बस इतना ही जानता था ।
अन्त में, दोपहर बाद लगभग 4 बजे, कवि (या सम्पादक) आया । वह एक लम्बा आदमी था, बिल्कु ल अंग्रेज,
बहुत गम्भीर और सचमुच हम सबसे बहुत अधिक अपरिचित । शूटिंग स्टेज पर रखे आधा दर्जन पंखों की
तेज हवा को झेलते हुए बॉस ने एक लम्बा भाषण पढ़ा। यह स्पष्ट था कि वह भी इस कवि (अथवा
सम्पादक) के बारे में बिल्कु ल भी नहीं जानते थे । भाषण में सामान्य शब्द थे परन्तु जहाँ-तहाँ इसमें
‘freedom’ तथा ‘democracy जैसे शब्दों का मिर्च-मसाला लगा था ।
फिर कवि बोले । वे इससे ज्यादा चकित और शान्त श्रोताओं को सम्बोधित नहीं कर सकते थे – कोई नहीं
जानता था कि वे किस बारे में बात कर रहे थे और उनकी बात को समझने के किसी भी प्रयास को उनके
बोलने की शैली (बोलने के लहजे) ने परास्त कर दिया अर्थात् उनकी बात किसी की समझ में नहीं आ रही
थी। यह सब लगभग एक घण्टे चला, फिर कवि चले गये और पूरी किं कर्तव्यविमूढ़ता में हम तितर-बितर
हो गये- हम क्या कर रहे हैं ?
एक अंग्रेज कवि का ऐसे फिल्म स्टू डियो में क्या काम है जो ऐसे सीधे-सरल लोगों के लिए तमिल फिल्म
बनाता है ? ऐसे लोग जिनके जीवन में अंग्रेजी काव्य के प्रति रुचि जाग्रत करने की सम्भावना नहीं थी ।
कवि भी काफी परेशान लग रहा था क्योंकि उसने एक अंग्रेज कवि की उत्तेजना और कष्टों के बारे में
अपने भाषण के बेतुकं पन को महसूस किया होगा । उसकी यात्रा एक अवर्णनीय रहस्य रही ।
हो सकता है संसार के महान गद्य लेखक इसे स्वीकार न करें लेकिन मेरा विचार दिनों-दिन मजबूत होता
जा रहा है कि किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति का सच्चा काम गद्य लेखन नहीं है और न ही हो सकता है।
यह धैर्यशील, दृढ़ प्रतिज्ञ और लगनशील, उबाऊ काम करने वाले व्यक्ति के लिए है जिसका हृदय इतना
सिकु ड़ा हो जिसे कु छ भी न तोड़ सके ; अस्वीकृ ति की पर्चियों का उसके लिए कोई मतलब नहीं होता है,
(अर्थात् संपादकों से उसकी रचना को अस्वीकार किए जाने पर प्राप्त अस्वीकृ ति पत्र उसे परेशान नहीं करते
हैं।) वह तुरन्त लम्बे गद्यांश की ताजा प्रति तैयार करने में जुट जाता है तथा लौटाने के लिए डाक टिकट
के साथ उसे किसी दूसरे सम्पादक के पास भेजता है । ऐसे लोगों के लिए ही हिन्दू (एक अखबार) में एक
महत्त्वहीन पेज के महत्त्वहीन कोने में छोटी-सी घोषणा प्रकाशित की गई थी- The Encounter’ नामक
अंग्रेजी पत्रिका लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित करती है ।
वास्तव में, जैमिनी साहित्य प्रेमियों में Encounter जानी-मानी चीज नहीं थी। पाण्डु लिपि को इंग्लैण्ड भेजने
में काफी डाकखर्च करने से पहले मैं मैगजीन के बारे में जानना चाहता था । उन दिनों British Council
Library के प्रवेश द्वार पर कोई लम्बे चौड़े साइन बोर्ड या सूचना पट्ट नहीं होते थे जिससे आपको यह लगे
कि आप निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं । और Encounter के विभिन्न अंक पाठकों द्वारा लगभग
अनछु ए इधर-उधर पड़े थे । जब मैंने सम्पादक का नाम पढ़ा तो मैंने अपने सिकु ड़े हृदय में एक घंटी
बजते हुए सुनी ।
यह वही कवि था जिसने जैमिनी स्टू डियो का भ्रमण किया था- मुझे लगा जैसे मुझे कोई पुराना बिछु ड़ा
हुआ भाई मिल गया और जब मैंने लिफाफा बन्द किया और उसका पता लिखा तो मैं गा रहा था । मैंने
महसूस किया कि वह भी इसी समय, वही गीत गा रहा होगा – भारतीय फिल्म के पुराने बिछु ड़े भाई पहली
रील और अन्तिम रील में गाये गये गीत को गाकर एक-दूसरे को ढूँढ लेते हैं । ‘Stephen Spender’ (एक
अंग्रेज कवि निबंधकार जिसने सामाजिक अन्याय तथा वर्ग संघर्ष के विषयों पर मनन किया) Stephen –
यही उसका नाम था ।
और वर्षों बाद, जब मैं जैमिनी स्टू डियो को छोड़ चुका था और मेरे पास खूब समय था परन्तु खूब पैसा
नहीं था, कोई भी घटी हुई कीमत की चीज मेरा ध्यान खींचती थी । मद्रास माउन्ट रोड पोस्ट ऑफिस के
सामने फु टपाथ पर पचास पैसे की एक के हिसाब से बिल्कु ल नई किताबों का ढेर लगा था ।
वस्तुतः वे एक ही पुस्तक की प्रतियाँ थीं, सुन्दर अमेरिकन पेपरबैक संस्करण में । रूसी आन्दोलन की
पचासवीं वर्षगाँठ के सम्बन्ध में ‘विशेष कम कीमत’ का विद्यार्थी संस्करण । मैंने पचास पैसे दिये और
“The God that Failed’ पुस्तक की एक प्रति उठा ली ।
छः प्रमुख विद्वानों ने छः अलग-अलग निबन्धों में कम्युनिज्म में अपनी यात्रा और उनकी निराशाजनक
वापसी का वर्णन किया था ; Andre Gide, (एक फ्रे न्च लेखक), जो मानववादी तथा नैतिकतावादी थे तथा
जिन्होंने 1947 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया, Richard Wright (एक अमेरिकन लेखक),
Ignazio Silone, Arthur Koestler, Louis Fischer (महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाला प्रसिद्ध
अमेरिकन लेखक) और Stephen Spender.
(अंग्रेज कवि और लेखक) । Stephen Spender ! अचानक इस पुस्तक ने जबर्दस्त महत्त्व ले लिया ।
Stephen Spender, कवि जो जैमिनी स्टू डियो में आया था ! एक क्षण में मुझे लगा मेरे दिमाग का अँधेरा
कक्ष धुंधले प्रकाश से जगमगा गया । जैमिनी स्टू डियो में Stephen Spender के प्रति प्रतिक्रिया अब
रहस्य नहीं रही। जैमिनी स्टू डियो के बॉस का Spender के काव्य से ज्यादा लेना-देना न रहा होगा ।
परन्तु उसकी पुस्तक “The God that Failed’ के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता अर्थात् जैमिनी स्टू डियो
का मालिक भी Stephen Spender की भाँति कम्युनिज्म के बारे में विचार रखता था ।

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