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षताएं

सामाजिक विकास की अवधारणा, परिभाषा, वि षताएंशे


रश्न; सामाजिक विकास की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

अथवा", सामाजिक विकास से आप क्या समझते हैं?

अथवा", सामाजिक विकास का अर्थ बताते हुए सामाजिक विकास को परिभाषित कीजिए।

षताएंबताइए।
अथवा", सामाजिक विकास की वि षताएंशे

उत्तर--

सामाजिक विकास की अवधारणा (samajik vikas ki avdharna)

सामाजिक विकास समाज मे तिहासिक परिवर्तन को दर्र्र्शा


ता
र्ता र्है।

सामाजिक दृष्टि से विकास सामाजिक संस्थाओं की वृध्दि को कहा जा सकता है। विकास एक प्रकार से ऐसी आंतरिक शक्ति है जो किसी प्राणी या समाज को
उन्नति की ओर ले जाता है। विकास उस स्थिति का नाम है जिससे प्राणी मे कार्य क्षमता बढती हैं।

विकास की भाँति सामाजिक विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इस रूप में सामाजिक विकास की अवधारणा भी समय के साथ-साथ परिवर्तित होती
रहती है। प्राचीकाल में जिसे सामाजिक विकास कहा गया वह मध्यकाल में बदल गया और आधुनिक काल में पुनः इसकी अवधारणा बदल गयी। इसका
सीधा अर्थ है कि जब समाज परम्परागत मान्यताओं पर आधारित था तो सामाजिक विकास की व्याख्या उन्हीं आधारों पर की जाती थी, लेकिन स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद क्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार प्रौद्योगिकी उन्नति, आधुनिकीकरण, नगरीकरण व औद्योगीकरण ने सामाजिक विकास की अवधारणा को पूर्णतः
बदल दिया।

मूरे और पारसन्स ने अपनी पुस्तकों में सामाजिक विकास की अवधारणा का उल्लेख किया है। सामाजिक विकास पर सबसे महत्वपूर्ण विचार हाॅबहाउस
का उनकी पुस्तक सोल डेवलपमेंट में देखने को मिलता हैं। हाॅबहाउस ने सामाजिक विकास का अर्थ मानव मस्तिष्क के विकास में लगया हैं, जिससे
मनुष्य का मानसिक विकास होता है और अन्ततः सामाजिक विकास होता हैं।

अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वास्तव में सामाजिक विकास एक परिवर्तित अवधारणा है जिसकी व्याख्या समय के अनुसार परिवर्तित होती
रहती हैं।

सामाजिक विकास की परिभाषा (samajik vikas ki paribhasha)

स् त्
रीयों
सामाजिक विकास एक व्यापक प्रक्रिया है। इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष आर्थिक विकास भी हैं, अतः समाज स्त्रीयों शा स् त्
रियों
व अर्थ स्त्रियों शा
द्वारा सामाजिक
विकास की मिली-जुली परिभाषाएं निम्नलिखित हैं--
हाॅबहाउस के अनुसार," किसी भी समुदाय का विकास उसकी मात्रा, कार्यक्षमता, स्वतंत्रता और सेवा की पारस्परिकता में वृद्धि से होता हैं।"

टी. बी. बाॅटोमोर के अनुसार," सामाजिक विकास से हमारा अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें समाज के व्यक्तियों में ज्ञान की वृद्धि हो तथा व्यक्ति
प्रौद्योगिक आविष्कारों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लें एवं साथ ही साथ वे आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जायें।"

कताओंश्य
मोरिस जिन्सबर्ग के अनुसार," सामाजिक विकास अपने सदस्यों की सामान्य आवयकताओं की पूर्ति के लिये होता हैं।"

डब्ल्यू. लाॅयड वार्नर के अनुसार," समाज में रहने वाले व्यक्तियों के जीवन स्तर में वृद्धि ही सामाजिक विकास हैं।"

बी. एस. डिसूजा के अनुसार," सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके कारण अपेक्षाकृत सरल समाज एक विकसित समाज के रूप में परिवर्तित होता
हैं।"

अमर्त्य सेन के अनुसार," विकास लोगों को मिलने वाली वास्तविक स्वतंत्रता को बढ़ाने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया हैं।"

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार," विकास का अभिप्राय सामाजिक संरचना, सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संस्थाओं, सेवाओं की बढ़ती क्षमता जो
संसाधनों का उपयोग इस ढंग से कर सके ताकि जीवनस्तर में अनुकूल परिवर्तन आये। विकास एक जटिल प्रक्रिया है जो आर्थिक, सामाजिक,
राजनीतिक और प्र सनिक सनि कशा
तत्वों के समन्वय का परिणाम होती हैं।"

षताएं(samajik vikas ki visheshta)


सामाजिक विकास की वि षताएंशे

षताएंइस प्रकार से हैं--


सामाजिक विकास की मुख्य वि षताएंशे

1. मानवीय ज्ञान में वृद्धि

षतामानवीय ज्ञान में वृद्धि हैं क्योंकि जब समाज के अधिकां सदस्यों में ज्ञान की वृद्धि हो जाती है तो समाज
सामाजिक विकास की एक मुख्य वि षताशे
का विकास हो जाता हैं।

2. प्राकृतिक शक्तियों पर मानवीय नियंत्रण में वृद्धि

षताप्राकृतिक शक्तियों पर मानवीय नियंत्रण में वृद्धि है। जब व्यक्ति प्रकृति का दास न रहकर प्रौद्योगिक आविष्कारों के
सामाजिक विकास की दूसरी वि षताशे
कारण उस पर नियंत्रण पा लेता है तो समाज का विकास होता हैं।

3. बाह्य तत्वों की मुख्य भूमिका

उद्विकास के विपरीत, सामाजिक विकास में बाह्य तत्वों की प्रमुख भूमिका होती है। अनुकूलन, भौगोलिक पर्यावरण, खनिज पदार्थों की प्रचुरता आदि
विकास में सहायक ऐसे ही कुछ प्रमुख बाह्य तत्व है।
4. मानवीय शक्तियों का समग्र विकास

सामाजिक विकास सिर्फ मात्र आर्थिक विकास न होकर मानवीय शक्तियों का समग्र विकास हैं क्योंकि इसमें जीवन के सभी पक्षों तथा समाज के सभी
क्षेत्रों में विकास होता हैं।

5. सार्वभौमिकता का अभाव

सामाजिक विकास में सार्वभौमिकता का अभाव पाया जाता हैं क्योंकि एक तो इसकी गति एक जैसी नही होती तथा दूसरे प्रतिकूल परिस्थितियाँ कई बार
विकास को अवरूद्ध कर देती हैं।

6. विज्ञान व प्रौद्योगिकी पर आधारित

मरविभाजन में वृद्धि होती हैं, संचार साधनों में भी वृद्धि होती है
सामाजिक विकास विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित होता है। इसके कारण रम
तथा संस्थाओं एवं समितियों की संख्या भी बढ़ जाती हैं।

सतत विकास किसे कहते हैं?

जैसा कि शब्द सरलता से बताता है, Sustainable Development in Hindi का उद्देय श्यभविष्य की पीढ़ियों की जरूरतों की अनदेखी न करते हुए वर्तमान
कता
मांगों की आवयकताओं ओंश्य
को पूरा करने के बीच संतुलन लाना है। यह दुनिया के विभिन्न पहलुओं के विकास की दिशा में काम करने के लिए मनुष्य के
उद्देय श्य कता
के साथ प्रकृति की आवयकताओं ओंश्य
को स्वीकार करता है। इसके अलावा, सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर अपने निबंध में, आपको यह उल्लेख
करना चाहिए कि यह कांसेप्ट कैसे समझती है कि विकास और विकास समावे शेहोने के साथ-साथ पर्यावरण की दृष्टि से भी सुदृढ़ होना चाहिए ताकि
गरीबी कम हो और विव
व वकी आबादी के लिए साझा समृद्धि आए। इसका उद्देय श्य संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करना है, साथ ही मानव, ग्रह के साथ-
साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए तत्काल और दीर्घकालिक लक्ष्यों की पूर्ति की योजना बनाना भी है।

षताएं
सस्टेनेबल डेवलपमेंट की वि षताएंशे
Sustainable Development in Hindi के लक्ष्यों को पहली बार 2015 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्यों द्वारा अपनाया गया था। सस्टेनेबल
डेवलपमेंट कांसेप्ट का उद्देय श्य प्रोडक्ट्स और सेवाओं के उपयोग को इस तरह से प्रोत्साहित करना है जो पर्यावरण पर प्रभाव को कम करता है
और मानव को संतुष्ट करने के लिए संसाधनों का अनुकूलन करता है। जरूरत है। यह समझने के लिए कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट समय की
कता
आवयकता श्य
क्यों है, निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर एक नज़र डालें जो इसके महत्व को स्पष्ट करते हैं-

 गैर-प्रदूषणकारी नवीकरणीय ऊर्जा प्रणालियों का विकास


 जनसंख्या स्थिरीकरण
 एकीकृत भूमि उपयोग योजना
 स्वस्थ फसल भूमि और घास का मैदान
 वुडलैंड और सीमांत भूमि का पुन: वनस्पति
 जैविक विविधता का संरक्षण
 जल और वायु में प्रदूषण का नियंत्रण
 कचरे और अव षों का पुनर्चक्रण
 पारिस्थितिक रूप से अनुकू ल मानव बस्तियाँ
 पर्यावरण क्षा और सभी स्तरों पर जागरूकता

सस्टेनेबल डेवलपमेंट के तीन स्तंभ


Sustainable Development in Hindi का कांसेप्ट तीन मुख्य स्तंभों में निहित है जिसका उद्देय श्य
समावे शेविकास प्राप्त करना और साथ ही वर्तमान
पीढ़ी के लिए साझा समृद्धि बनाना और भविष्य की पीढ़ियों की जरूरतों को पूरा करना जारी रखना है। ये तीन स्तंभ आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण
विकास हैं और आपस में जुड़े हुए हैं और सामुदायिक विकास और सामाजिक और पर्यावरणीय स्थिरता के लक्ष्यों को दर्शाते हैं। आइए इन स्थायी
विकास के स्तंभों को और विस्तार से देखें-

आर्थिक स्थिरता
आर्थिक स्थिरता उन गतिविधियों को बढ़ावा देने का प्रयास करती है जिनके माध्यम से समुदाय के पर्यावरणीय, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर
नेगेटिव प्रभाव डाले बिना लॉन्ग-टर्म आर्थिक विकास प्राप्त किया जा सकता है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट का कांसेप्ट के लिए एक प्रमुख सूत्रधार
के रूप में, आर्थिक स्थिरता के बुनियादी मूल तत्व इस प्रकार हैं:

 पर्यावरणीय दृष्टि से विव व वमें भूख और गरीबी के लिए प्रभावी समाधान खोजना।
 अर्थशास्त्र इस बात का अध्ययन है कि समाज अपने संसाधनों (पानी, वायु, भोजन, ईंधन, आदि) का उपयोग कैसे करता है और जब इसे स्टेनेबल डेवलपमेंट
के कांसेप्ट के साथ जोड़ा जाता है, तो यह आर्थिक विकास प्राप्त करने पर केंद्रित होता है जो केवल टिकाऊ होता है और साथ ही साथ हमारे जीवन
की गुणवत्ता में सुधार करता है और वातावरण;
 णियों
आर्थिक स्थिरता को तीन सामान्य रेणियों
रे रे
में बांटा गया है ताकि स्टेनेबल डेवलपमेंट, यानी मूल्य और मूल्यांकन, नीतिगत साधन और गरीबी और
पर्यावरण मिल हो।

सामाजिक स्थिरता
सामाजिक स्थिरता सामाजिक जिम्मेदारी का एक रूप है जो महत्वपूर्ण रूप से तब होता है जब किसी समुदाय के स्थिर और अस्थिर फैक्टर्स को समाप्त
संसाधनों के रेस्टोरेशन की आवयकता कता श्य
होती है। यह सामाजिक वातावरण के साथ भौतिक पर्यावरण के डिजाइन को जोड़ती है और एक समुदाय में
विभिन्न वर्गों की जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करती है और कमजोर वर्ग को सही बुनियादी ढांचा और आवयककयसहायता प्रदान करने पर वि ष जोर देती
है। यह सस्टेनेबल डेवलपमेंट के कांसेप्ट को समझने में मिल एक अन्य पैरामीटर है और सामाजिक स्थिरता के प्रमुख बुनियादी सिद्धांत
हैं-

 व्यवस्थित सामुदायिक भागीदारी


 सरकार सहित मजबूत नागरिक समाज
 ईमानदारी के आम तौर पर स्वीकृत मानक (सहिष्णुता, करुणा, सहन लता, प्रेम)
 लैंगिक समानता

सांस्कृतिक स्थिरता
संस्कृति सस्टेनेबल डेवलपमेंट के कांसेप्ट के मुख्य घटकों में से एक है। सांस्कृतिक अधिकारों के महत्व और सांस्कृतिक विरासत के
कता
संरक्षण के बारे में बढ़ती जागरूकता से सांस्कृतिक स्थिरता की आवयकता श्य
उत्पन्न होती है। कुछ प्रमुख कारक जिन पर सांस्कृतिक स्थिरता
आधारित है, वे हैं-

 सुसंस्कृत व्यक्ति : मन की एक विकसित स्थिति के परिणामस्वरूप समुदायों के बीच जागरूकता बढ़ सकती है जो सार्वभौमिक मानव अधिकारों के
लिए महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विविधता की रक्षा और बढ़ावा देगी।
 वैवीकरण : विभिन्न देशों में फैली विविध संस्कृतियों के साथ, बहुसांस्कृतिक राष्ट्रों के उदय के साथ-साथ उनके सामने आने वाले
करणश्वी
विभिन्न मुद्दों को संबोधित करने के लिए वैवीकरण करणश्वी
के प्रभावों पर अनिवार्य रूप से चर्चा करने की आवयकताकताश्य
है।

अब जब आप Sustainable Development in Hindi के कॉन्सेप्ट्स के इन तीन स्तंभों से परिचित हो गए हैं, तो उनके प्रमुख अंतरों पर एक नज़र
डालें-

आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण


धन और गरीबी के चरम का उन्मूलन जाति, पंथ और रंग के बावजूद महिलाओं प्रकृति और जीवित प्राणियों के
एक्सट्रीम और पुरुषों के बीच समानता। बीच समग्र संतुलन परमात्मा का
प्रतिबिंब है।
स्वैच्छिक देने और लाभ-बंटवारे सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों/सार्वभौमिक अनेकता में एकता; स्वच्छता;
के महत्व को समझने में लोगों सनी
अनिवार्य क्षा/विवसनीयता यता श्वऔर विवासों जानवरों के प्रति दया और
की सहायता करना का उन्मूलन पर्यावरण संरक्षण

सस्टेनेबल डेवलपमेंट का महत्व


हम जिस पर्यावरण में रहते हैं उसके लिए जिम्मेदार होने के महत्व को ध्यान में रखते हुए सस्टेनेबल डेवलपमेंट विकास की दिशा में काम
कर रहा है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट का मूल विचार कल की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आज के लिए काम करना है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट
का महत्व यह है कि यह आने वाली पीढ़ियों की जरूरतों से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ियों की जरूरतों को पूरा करता है। सस्टेनेबल
डेवलपमेंट हमें अपने संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करना सिखाता है। नीचे सूचीबद्ध कुछ बिंदु हैं जो हमें सस्टेनेबल डेवलपमेंट के
महत्व को बताते हैं-

 सतत कृषि विधियों पर ध्यान – सस्टेनेबल डेवलपमेंट महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आने वाली पीढ़ियों की जरूरतों का ख्याल रखता है और यह सुनिचित
करता है कि बढ़ती आबादी धरती माता पर बोझ न डालें। यह कृषि तकनीकों को बढ़ावा देता है जैसे फसल चक्रण और प्रभावी बीज बोने की तकनीक।
 जलवायु को स्थिर करने का प्रबंधन करता है – हम जीवाम
म मईंधन के अत्यधिक उपयोग और जानवरों के प्राकृतिक आवास को मारने के कारण जलवायु
परिवर्तन की समस्या का सामना कर रहे हैं। सस्टेनेबल डेवलपमेंट, टिकाऊ विकास प्रथाओं द्वारा जलवायु परिवर्तन को रोकने में एक प्रमुख भूमिका
निभाता है। यह जीवाम
म मईंधन के उपयोग को कम करने को बढ़ावा देता है जो वातावरण को नष्ट करने वाली ग्रीनहाउस गैसों को छोड़ते हैं।
 कता
य एं
महत्वपूर्ण मानवीय आवयकताएं यप्रदान करता है – सस्टेनेबल डेवलपमेंट भविष्य की पीढ़ियों के लिए बचत के विचार को बढ़ावा देता है और यह
सुनिचित करता है कि संसाधन सभी को आवंटित किए जाएं। यह एक से बुनियादी ढांचे को विकसित करने के सिद्धांत पर आधारित है जिसे लंबे समय
तक कायम रखा जा सकता है।
 सतत जैव विविधता – यदि सस्टेनेबल डेवलपमेंट की प्रक्रिया का पालन किया जाता है, तो अन्य सभी जीवित जानवरों के घर और आवास समाप्त नहीं
होंगे। चूंकि सस्टेनेबल डेवलपमेंट पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने पर केंद्रित है, यह जैव विविधता को बनाए रखने और संरक्षित करने
में स्वचालित रूप से मदद करता है।
 वित्तीय स्थिरता – जैसा कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट स्थिर विकास का वादा करता है, जीवाम
म मईंधन के उपयोग की तुलना में ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों
का उपयोग करके दे की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत हो सकती हैं, जिनमें से हमारे ग्रह पर केवल एक वि ष रा है।

सतत विकास के उदाहरण


नीचे उल्लेखित सस्टेनेबल डेवलपमेंट के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। एक नज़र देख लो-

 पवन ऊर्जा – पवन ऊर्जा आसानी से उपलब्ध होने वाला संसाधन है। यह एक मुफ्त संसाधन भी है। यह ऊर्जा का अक्षय स्रोत है और पवन की क्ति का उपयोग
करके जो ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है वह सभी के लिए फायदेमंद होगी। पवन चक्कियां ऊर्जा का प्रोडक्नशन कर सकती हैं जिसका उपयोग हमारे लाभ
क्
के लिए किया जा सकता है। यह ग्रिड बिजली की लागत को कम करने का एक सहायक स्रोत हो सकता है और सस्टेनेबल डेवलपमेंट का एक अच्छा उदाहरण
है।
 सौर ऊर्जा – सौर ऊर्जा, ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है जो आसानी से उपलब्ध है और इसकी कोई सीमा नहीं है। सौर ऊर्जा का उपयोग कई चीजों को
बदलने और करने के लिए किया जा रहा है जो पहले ऊर्जा के गैर-नवीकरणीय स्रोतों का उपयोग करके किए जा रहे थे। सोलर वॉटर हीटर इसका एक
अच्छा उदाहरण हैं। यह एक ही समय में लागत प्रभावी और टिकाऊ है।
 क्रॉप रोटेन – बागवानी भूमि की वृद्धि की संभावना को बढ़ाने के लिए फसल चक्र एक आदर्श और टिकाऊ तरीका है। यह किसी भी रसायन से मुक्त है और
मिट्टी में रोग की संभावना को कम करता है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट का यह रूप वाणिज्यिक किसानों और घरेलू माली दोनों के लिए फायदेमंद है।
 कुल जल फिक्स्चर – हमारे .चालयों में हाथ और सिर की बौछारों की स्थापना जो कुल हैं और पानी बर्बाद या रिसाव नहीं करते हैं, पानी के संरक्षण की
एक विधि है। पानी हमारे लिए जरूरी है और हर बूंद का संरक्षण जरूरी है। 9वर के नीचे कम समय बिताना भी सस्टेनेबल डेवलपमेंट और पानी के
संरक्षण का एक तरीका है।
 सस्टेनेबल फॉरेस्ट्री – यह सस्टेनेबल डेवलपमेंट का एक अद्भुत तरीका है जहां कारखानों द्वारा काटे जाने वाले लकड़ी के पेड़ों को दूसरे पेड़
से बदल दिया जाता है। जो काटा गया उसके स्थान पर एक नया पेड़ लगाया जाता है। इस तरह, मिट्टी का कटाव रोका जाता है और हमें एक बेहतर, हरित
भविष्य की आ है।

राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ, परिभाषा, महत्व/उपयोगिता


रश्न; राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ एवं महत्व बताइए।
अथवा" राजनीतिक सिद्धांत से आप क्या समझते है? राजनीतिक सिद्धांत की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।

अथवा" राजनीतिक सिद्धांत क्या है? राजनीतिक सिद्धांत के लाभों का वर्णन कीजिए।

अथवा" राजनीतिक विज्ञान में राजनीतिक सिद्धांत की भूमिका स्पष्ट कीजिए।

राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ (rajnitik siddhant kya hia)

राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक घटनाओं, तथ्यों और अवलोकन पर आधारित निष्कर्षों के समूह को कहते हैं। ये निष्कर्ष परस्पर सम्बद्ध होते हैं तथा इनके
आधार पर वैसे ही तथ्यों या घटनाओं की व्याख्या या पूर्व कथन किया जा सकता हैं। नवीन घटनाओं एवं तथ्यों के सन्दर्भ में उक्त निष्कर्षों एवं उपलब्धियों
धनशो
में सुधार या सं धन किया जाता हैं। अनुभव पर आधारित तथ्यों की जांच की जा सकती हैं तथा उन्हें दूसरे व्यक्तियों तक संचारित या प्रेषित किया जा
सकता हैं। इस तरह राजनीतिक सिद्धांत राजनीति से निष्कर्षों का समूह हैं।

राजनीतिक सिद्धांत अंग्रेजी भाषा के शब्द Political Theory का हिंदी रूपांतरण हैं। Theory शब्द की उत्पत्ति यूनायी भाषा के Theoria से हुई हैं,
जिसका अर्थ होता हैं-- एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो एक वस्तु के अस्तित्व और उसके कारणों को प्रकट करती हैं। कार्ल पाॅपर की के मतानुसार सिद्धांत
एक प्रकार का जाल है, जिसमें संसार को समझा जा सकता हैं। ये एक ऐसी मानसिक स्थिति है जो एक वस्तु के अस्तित्व और उसके कारणों को सामने
रखती हैं।

वर्तमान समय में राजनीति सिद्धान्त शब्दावली का प्रयोग विस्तृत अर्थ में होता है। राजनीति सिद्धान्त, राजनीति के अथवा उसके विषय से जुड़ा
एक सिद्धान्त है। यह राजनीति का विज्ञान है, उसका दर्शन है और उसका इतिहास भी है। अपने शा ब्दिकरूप में यह दो शब्दों से मिलकर बना है,
राजनीति व सिद्धान्त।

अपने अस्तित्व की रक्षा एवं विषय के विकास की दृष्टि से राजनीति विज्ञान को एक सामान्य सिद्धान्त (General Theory) की सबसे अधिक आवयकता
कताश्य
है।

कैटिलन ने लिखा हैं," किसी भी विज्ञान की परिक्वता उसके सामान्य सिद्धान्त की एकरूपता एवं अमूर्तिकरण की स्थिति से जानी जाती हैं।" डेविड
ईस् टन ने राजनीति विज्ञान में सिद्धान्त की भूमिका एवं महत्व पर सबसे अधिक जोर दिया है। उसी ने सर्वप्रथम राजनीतिक विज्ञानियों का ध्यान
राजनीतिक सिद्धान्त या राज्य सिद्धान्त की आवयकता कता श्य
की ओर खींचा हैं। उसके अनुसार किसी भी विज्ञान की अभिवृद्धि आनुभाविक अनुसंधान एवं
सिद्धान्त दोनों के विकास एवं उनके मध्य घनिष्ठ संबंध पर निर्भर करती हैं।

राजनीतिक सिद्धांत की परिभाषा (rajnitik siddhant ki paribhasha)

राजनीति विज्ञान शब्दकोष के अनुसार," राजनीति सिद्धान्त राजनीतिक घटनाचक्र का मूल्यांकन है, उसकी व्याख्या तथा उसकी भविष्यवाणी करने वाले
चिन्तन का समूह है।"
डेविड हैल्ड ने अपनी पुस्तक 'Political Theory Today' मे लिखा है कि," राजनीति सिद्धान्त राजनीतिक जीवन विषयक अवधारणाओं व सामान्य सिद्धान्त
षताओं उनकी प्रकृति व उद्देय श्य
का ताना-बाना है। जिसमें हम सरकार, राज्य व समाज की मुख्य वि षताओंशे से सम्बन्धित विचारों मान्यताओं व वक्तव्यों तथा
मनुष्यों के राजनीतिक सामर्थ्य का अध्ययन करते है।"

एण्ड्यू हैक्कर के अनुसार," राजनीति सिद्धान्त एक ओर बिना किसी पक्षपात के अच्छे राज्य तथा अच्छे समाज और दूसरी ओर राजनीतिक एवं
सामाजिक वास्तविकताओं की पक्षपातरहित जानकारी की तलाश है।"

जॉन प्लेमेन्टज के मतानुसार," राजनीतिक सिद्धांत सरकार के कार्यों की व्याख्या के साथ-साथ सरकार के उद्देयोंश्यों
का भी व्यवस्थित चिन्तन है।"

नेडल के अनुसार," सिद्धान्त का अर्थ हैं, प्रत्यात्मक योगना की तार्किक रूपरेखा अथवा ढाँचा।"

णरहैं, जहाँ सम्पूर्ण सामाजिक जीवन के नियंत्रण


जार्ज कैटलीन के अनुसार," राजनीतिक सिद्धान्त राजनीति विज्ञान और राजनैतिक दर्शन दोनों का मिरण
के विभिन्न स्वरूपों की प्रक्रिया की ओर ध्यान आकर्षित करता हैं।

जार्ज सेबाइन के अनुसार,"व्यापक तौर पर राजनीतिक सिद्धांत से अभिप्राय उन सभी बातों से है जो राजनीति से सम्बन्धित हैं और संकीर्ण अर्थ
में यह राजनीतिक समस्याओं की विधिवत छानबीन से सरोकार रखता है।"

गुल्ड और कोल्ब ने राजनीतिक सिद्धांत को परिभाषित करते हुए लिखा है कि," राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीति विज्ञान का एक उप-क्षेत्र है, जिसमें
निम्नलिखित का समावे है--

1.राजनीतिक दर्शन-राजनीति का एक नैतिक सिद्धान्त और राजनीतिक विचारों का एक ऐतिहासिक अध्ययन

2. एक वैज्ञानिक मापदंड,

3. राजनीतिक विचारों का भाषाई विलेषण,

4. राजनीतिक व्यवहार के बारे में सामान्यीकरणों की खोज और उनका व्यवस्थित विकास।

राजनीतिक सिद्धान्त की उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि राजनीतिक सिद्धान्त मुख्यतः दार्शनिक और व्यावहारिक
दृष्टिकोण से राज्य का अध्ययन है। सिद्धान्तों का सम्बन्ध केवल राज्य तथा राजनीतिक संस्थाओं की व्याख्या, वर्णन तथा निर्धारण से ही नहीं हैं बल्कि
उसके नैतिक उद्देयोंश्यों
का मूल्यांकन करने से भी है। इनका सम्बन्ध केवल इस बात का अध्ययन करना ही नहीं है कि राज्य कैसा है बल्कि यह भी कि
राज्य कैसा होना चाहिए।

राजनीतिक सिद्धांत का महत्व अथवा उपयोगिता (rajnitik siddhant ka mahatva)

राजनीतिक सिद्धांतों द्वारा एक आदर्समाज की रूपरेखा बनती हैं इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राजनीतिक सिद्धान्तों का बहुत महत्व हैं।
राजनीतिक सिद्धांतों के महत्व का अध्ययन निम्नांकित रूप में किया जा सकता हैं--
1. सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक

मानव समाज एक गति ललशी संस्था है जिसमें लगातार परिवर्तन होता रहता हैं। ये परिवर्तन समाज मे राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर
अपना कुछ न कुछ प्रभाव तो जरूर डालते ही है। इतिहास इस बात का गवाह है कि जिन देशो में स्थापित सामाजिक व्यवस्थाओं के विरूद्ध क्रान्ति हुई
अथवा विद्रोह हुआ उसका मुख्य कारण उस समय की स्थापित सामाजिक व्यवस्थाएं नई उत्पन्न परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थीं। जैसे की फ्रांस की सन्
1789 की क्रांति हमारे सामने इसका एक अच्छा उदाहरण है। कार्ल मार्क्स ने राजनीतिक सिद्धान्त को एक विचारधारा का ही रूप माना है और उसका
विचार था कि जब नई सामाजिक व्यवस्था (वर्ग-विहीन तथा राज्य विहीन समाज) की स्थापना हो जाएगी तो फिर सिद्धान्तीकरण की आवयकता
कताश्य
नहीं रहेगी।
मार्क्स ने एक वि ष विचारधारा और कार्यक्रम के आधार पर वर्गविहीन और राज्य विहीन समाज की कल्पना की थी। उसका यह विचार ठीक नहीं है कि समाज
स्थापित हो जाने के पचात तश्चा
सिद्धान्तीकरण की जरूरत नहीं रहेगी।

2 . राजनीतिक सिद्धान्त की राजनीतिज्ञों, नागरिकों तथा प्र सकों


सकोंशा
के लिए उपयोगिता

राजनीतिक सिद्धान्त के द्वारा वास्तविक राजनीति के अनेक स्वरूपों का शी घ्रही ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस कारण वे अपने सही निर्णय ले सकते
हैं।

मला
या लया
डॉ. यामलाल वर्मा ने लिखा है, " उनका यह कहना केवल ढ़ोंग या अहंकार है कि उन्हें राज सिद्धान्त की कोई आवयकता
कताश्य
नहीं है या उसके बिना ही अपना
कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं अथवा कर सकते हैं। वास्तविक बात यह है कि ऐसा करते हुए भी वे किसी-न-किसी प्रकार के राज सिद्धान्त को काम
में लेते हैं।

3. वास्तविकता का ज्ञान

सनशा
राजनीतिक सिद्धांत से हमे वास्तविकता के बारें में जानकारी मिलती हैं। राजनीतिक सिद्धांत अपनी वैज्ञानिक विषयवस्तु के द्वारा अनु सन में
सना त्
मकशा
एकरूपता तथा सम्बद्धता का विकास करते है। इस प्रक्रिया में अनु सनात्मक स्तर उच्चतर बनता है जिससे अनेक घटनाओं तथा तथ्यों को समझने में
सहायता मिलती हैं।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक

राजनीतिक सिद्धांतों का महत्व राजनीतिक समस्याओं के समाधान से जुड़ा हुआ हैं। एक राजनीतिक चिंतक परिस्थितियों का गहन अध्ययन करता है
और उस परीक्षण के आधार पर अपने कुछ समाधान प्रस्तुत करता हैं, जिनसे मानव-जीवन यानि सम्पूर्ण व्यवस्था को लाभ प्राप्त होता हैं। अतः
समस्याओं के समाधान के दृष्टिकोण से राजनीतिक सिद्धांत की बहुत उपयोगिता हैं।

5. वैज्ञानिक व्याख्या में सहायक

सिद्धांत वैज्ञानिक व्याख्याएँ प्रस्तुत करने में सहायक होते है। यह राजनीति विज्ञान को सामान्यीकरणों पर आधारित करके राजनीतिक व्यवहार
को एक विज्ञान बनाने का प्रयास करता है। यह नवीन क्षेत्रों की खोज कर नवीन सिद्धांतों को नियमिऔ करता हैं। राजवैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धांतों
के आधार पर ही भविष्य में घटने वाली घटनाओं और प्राप्त होने वाले परिणामों के संबंध में पूर्व कथन कर सकते हैं।
6. मावन समाज की प्रगति के लिए आवयककश्य

राजनीतिक सिद्धांत मानव समाज की राजनीतिक, संवैधानिक तथा वैधानिक प्रगति में सहायक होते हैं। इनके द्वारा नवीन तथ्यों का ज्ञान तथा आने वाली
समस्याओं के संबंध में पूर्वानुमान करने में सहायता प्राप्त होती है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में राजनीतिक सिद्धांत और अधिक उपयोगी हैं।

7. भविष्य की योजना में सहायक

राजनीतिक सिद्धांत का उद्देय श्य केवल वर्तमान परिस्थितियों की समालोचना करना ही नही हैं, वरन् भविष्य के लिए योजना निर्धारित करना भी है, ताकि एक
वादीरचना 'The Republic' में न्याय, क्षा और
बेहतर भविष्य का निर्माण किया जा सके। उदाहरणार्थ, प्लेटो के द्वारा अपनी प्रथम व महत्वपूर्ण आदर्वादीर्श
साम्यवादी सिद्धान्तों के साथ-साथ अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन आदर्राज्य की परिकल्पना हेतु किया गया है। इसी प्रकार सकारात्मक उदारवादी
चिन्तकों के द्वारा न्यायपूर्ण समाज के लिए लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता रहा हैं।

8. औचित्यपूर्ण सिद्ध करना

राजनीतिक क्षेत्र में विभिन्न कार्यों का औचित्य प्रतिपादित करने का कार्य राजनीतिक सिद्धांत करते हैं। जनता की दृष्टि में शा सनप्रणाली एवं
सकों को औचित्यपूर्णता प्रदान करने में सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण उपकरण की भूमिका निभाते हैं। वि ष्ट वर्ग प्रायः अपनी श्रेरेष्ठता को बनाये
रखने हेतु इसी उपकरण की मदद लेता हैं।

9. नवीन धारणाओं का विकास

सभी समयों में परिस्थितियाँ एक जैसी नही होती। प्रत्येक राजनीतिक विचारक अपने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नई-नई
अवधारणाएँ प्रस्तुत करता हैं। मध्यकालीन युग के बाद बौद्धिक जागरण, धार्मिक सुधार आंदोलन व औद्योगिक क्रांति ने उदारवाद को सामने लाया और
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा का जन्म हुआ, उसी प्रकार परम्परागत उदारवादी सिद्धांत के विरोध में समाजवादी और मार्क्सवादी सिद्धांत का
उदय और आर्थिक समानता की अवधारणा का विकास हुआ। अतः यह कहा जा सकता हैं कि बदलती परिस्थितियों में राजनीतिक सिद्धांत नवीन मानवीय
मूल्यों की स्थापना में सहायक साबित होते हैं।

10. अनु सन
सनशा
बनाये रखना

सनशा
राजनीति विज्ञान का एकीकरण, ध विभाजन आदि राजनीतिक सिद्धांत पर ही निर्भर रहता हैं क्योंकि इससे व्यवहार में अनु सन बनाये रखने में
सहायता मिलती हैं।

11. संतुलनकारी भूमिका

राजनीतिक सिद्धांत घटनाओं तथा मानवीय मूल्यों के बीच संतुलन स्थापित करने का कार्य अच्छी तरह से करते हैं। घटनाओं और मानवीय मूल्यों के
बीच सन्तुलन स्थापित करने के लिए ही राजनीतिक सिद्धांतों को अपने स्वरूप में परिवर्तन लाना पड़ता हैं।
प्रन; राजनीति विज्ञान की परिभाषा देते हुए राजनीति विज्ञान के विषय-क्षेत्र का वर्णन कीजिए।

अथवा" राजनीति विज्ञान से आप क्या समझते हैं? इसके क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।

अथवा" राजनीति विज्ञान का अर्थ बताइए तथा उसके क्षेत्र के संबंध में परम्परागत एवं आधुनिक दृष्टिकोणों की विवेचना कीजिए।

अथवा" राजनीति विज्ञान क्या हैं? इसकी परिभाषायें कीजिए। विभिन्न दी गई परिभाषाओं में कौन-सी उपयुक्त और रेष्ठ हैं? उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर
राजनीति- स्त्र क्या हैं? समझाइए।

उत्तर--
राजनीति विज्ञान का अर्थ (rajniti vigyan kya hai)
राजनीति विज्ञान या राजनीति स्त्र सामाजिक विज्ञान की एक खा है। यह मानव जीवन के राजनीतिक पक्ष का अध्ययन करता है। अंग्रेजी भाषा मे राजनीति विज्ञान को
'political science' कहते है। इसके अन्तर्गत सामाजिक जीवन के राजनैतिक सम्बन्ध एवं संगठनों का अध्ययन आता है।

प्राचीन एवं आधुनिक अनेक राजनीति स्त्रियों ने राजनीति विज्ञान को राज्य का पर्याय मानते हैं। इनका मानना है कि राजनीति का प्रधान विषय राज्य है। अतः
राजनीति विज्ञान को राज्य का सिद्धान्त मानना उचित होगा क्योंकि राजनीति में राज्य, उसका उदभव, अतीत में राज्य कैसा था वर्तमान में कैसा है तथा भविष्य
मे कैसा होगा का अध्ययन किया जाता हैं।

राजनीतिक विज्ञान की परिभाषा (rajniti vigyan ki paribhasha)


राजनितिक विज्ञान की परिभाषा देते हुए विद्वानों ने उसके अलग-अलग पहलुओं को देखा है। राजनीतिक विज्ञान की परिभाषा के निम्न दो दृष्टिकोण से है--

(अ) परम्परावादी दृष्टिकोण

(ब) आधुनिक दृष्टिकोण

(अ) परम्परागत दृष्टिकोण


राजनीति विज्ञान एक गति ल विज्ञान हैं, अतः इसे समय-समय पर परिभाषित किया गया हैं। परम्परागत तरीके से राजनीति विज्ञान की विषय-वस्तु को परिभाषित
करने का क्रम यूनान के समय से लेकर 19 वीं ताब्दी तक प्रचलित रहा। इसे परम्परावादी दृष्टिकोण (Traditional Approch) अथवा संस्थागत दृष्टिकोण (Instituonal
Approch) भी कहा जाता हैं। इस दृष्टिकोण से संबंधित विद्वानों द्वारा राजनीति विज्ञान को राज्य, सरकार अथवा दोनों का अध्ययन करने वाले विषय के रूप में
परिभाषित किया गया। सरकार के बिना कोई राज्य संभव ही नही हैं, क्योंकि एक बाध्यकारी समुदाय (Coercive Association) के रूप के अंदर आने वाली भूमि का तब तक
कोई अर्थ नही हैं जब तक कि राज्य की ओर से नियमों का निर्धारण करने वाले और उसका अनुपालन सुनिचित करने वाले कुछ व्यक्ति न हों। इन्हीं व्यक्तियों के
संगठित रूप को सरकार कहते हैं। इस प्रकार राजनीति विज्ञान की परम्परागत परिभाषाओं को सामान्यतः तीन रेणियों णियों
रे रे
में रखा गया हैं--

1. राजनीतिक विज्ञान राज्य का अध्ययन है

2. राजनीति विज्ञान सरकार का अध्ययन है

3. राजनीति विज्ञान सरकार और राज्य दोनों का अध्ययन हैं

1. राजनीति विज्ञान राज्य का अध्ययन हैं


णी
कुछ विद्वान राजनीति विज्ञान को राज्य का अध्ययन मानते हैं। इनके विचार में राज्य के अध्ययन में सरकार का भी अध्ययन सम्मिलित हैं। इस रेणी रे
रे
के कुछ प्रमुख
विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं--

गार्नर के अनुसार," राजनीति विज्ञान के अध्ययन का आरंभ और अंत राज्य हैं।"

ब्लंली के अनुसार," राजनीति विज्ञान वह विज्ञान हैं जिसका संबंध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधारभूत तत्व क्या हैं,
इसका तात्विक रूप क्या हैं, इसकी अभिव्यक्ति किन विविध रूपों में होती है तथा इसका विकास कैसे हुआ हैं।"

गैरिस के अनुसार," राजनीति विज्ञान राज्य के उद्भव, विकास, उद्देय


य यतथा समस्त राजनीय समस्याओं का उल्लंघन करता हैं।"

जकारिया के अनुसार," राजनीति विज्ञान व्यवस्थित रूप से उन आधारभूत सिद्धांतो को प्रस्तुत करता है जिनके अनुसार एक समष्टि के रूप में राज्य को संगठित
किया जाता हैं तथा संप्रभुता को क्रियान्वित किया जाता हैं।"
उपर्युक्त परिभाषाएँ मूलतः राज्य के यूनानी दृष्टिकोण पर आधारित हैं जिसके अंतर्गत राज्य को समाज के पर्यायवाची के रूप में सर्वरेष्ठ समुदाय माना जाता था।
इन विद्वानों ने सरकार या मनुष्य के अध्ययन को राज्य के अध्ययन में ही सम्मिलित किया हैं।
2. राजनीति विज्ञान सरकार का अध्ययन हैं
दूसरे वर्ग के विद्वानों ने राजनीति विज्ञान को सरकार का अध्ययन करने वाले विषय के रूप में परिभाषित किया है। इसके पीछे एक सामान्य धारणा यह है कि
राज्य एक अमूर्त अवधारणा (Abstract Concept) हैं, जिसे किसी भी प्रकार की सार्थकता प्रदान करने के लिए सरकार अपरिहार्य हैं। सरकार के कार्य राज्य के होने का
आभास कराते हैं अतः इस विचार को केन्द्र में रखकर राजनीति विज्ञान की भी परिभाषा की गई हैं। इस रेणी णीरे
रे
की कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं--

लीकाॅक के अनुसार," राजनीति विज्ञान सरकार से संबंधित हैं, सन जो वृहत अर्थ मे सत्ता के मूलभूत विचार पर आधारित होता हैं।"

सीले के अनुसार," राजनीति विज्ञान के अंतर्गत सन व्यवस्था का उसी प्रकार अनुशीलन किया जाता है जिस प्रकार अर्थशास्त्र में धन का, प्राणि स्त्र में जीवन का,
बीजगणित में अंकों का एवं रेखागणित में स्थान का तथा दूरी का।"

विलियम राॅब्सन के अनुसार," राजनीति विज्ञान का उद्देय


य यराजनीतिक विचारों तथा राजनीतिक कार्यों पर प्रका डालना हैं, ताकि सरकार का समुन्नयन किया जा
सके।"

उपर्युक्त परिभाषाएँ एक इकाई के रूप में राज्य के सैद्धांतिक पक्ष की तुलना में इसके व्यावहारिक पक्ष अर्थात् सरकार को महत्व प्रदान करती हैं। ये परिभाषाएँ
इस अवधारणा पर आधारित हैं कि एक सुसंगठित समाज के रूप में राज्य का परिचालन व्यवहार में उन लोगों की समष्टि पर ही आधारित हैं जिनके द्वारा कानूनों का
निर्माण और क्रियान्वयन किया जाता है।
3. राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार दोनों का अध्ययन है
परम्परागत दृष्टिकोण की तीसरी कोटि में वे परिभाषाएं आती हैं जो राजनीति विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय राज्य और सरकार दोनों को मानती हैं, क्योंकि राज्य
णी
के अभाव में सरकार की कल्पना नही की जा सकती और सरकार के अभाव में राज्य एक सैद्धांतिक और अमूर्त अवधारणा मात्रा है। इस रेणी रे
रे
की कुछ मुख्य परिभाषाएँ
निम्नलिखित हैं--

विलोबी के अनुसार," साधारणतया राजनीति विज्ञान तीन प्रमुख विषयों से संबंधित हैं-- राज्य, सरकार तथा कानून।"

पाॅल जेनेट के अनुसार," राजनीति विज्ञान समाज विज्ञान का वह भाग हैं जो राज्य के आधारों और सरकार के सिद्धांतों पर विचार करता हैं।"

गिलक्राइस्ट के अनुसार," राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार की सामान्य समस्याओं का अध्ययन करता हैं।"

डिमाॅक के अनुसार," राजनीति विज्ञान का संबंध राज्य और इसके साधन सरकार से हैं।

राजनीति विज्ञान की परिभाषा विषयक परम्परावादी दृष्टिकोण की तीसरी रेणी णी पहली (जो राजनीति विज्ञान को राज्य का अध्ययन मानती हैं) तथा दूसरी (जो राजनीति
रे
रे
विज्ञान को सरकार का अध्ययन मानती हैं) रेणियों णियों
रे रे
की तुलना में अधिक विस्तृत और स्पष्ट मानी जा सकती हैं, क्योंकि इस रेणीणीरे
रे
की परिभाषाएँ राज्य के मूर्त
(Abstract) तथा अमूर्त (Concrete) दोनों पक्षों को अपने में समाहित करती हैं।

राजनीति विज्ञान की परिभाषा के परम्परावादी दृष्टिकोण को इस रूप में अपूर्ण माना जाता हैं कि यह कमोवे रूप से औपचारिक संस्थाओं या संरचनाओं के अध्ययन को
णी
ही राजनीति विज्ञान के केंद्र में मानता हैं। इस रेणी रे
रे
के विद्वान इस बात पर ध्यान देने की कोई आवयकता कता
य यनही समझते कि राज्य और इसकी संस्थाएँ व्यक्ति
कता
य ओंयऔर उसके कल्याण की किस सीमा तक पूर्ति करती हैं? दूसरे ब्दों में, यह दृष्टिकोण सीमित अर्थों में ही राज्य तथा अन्य संस्थाओं का अध्ययन करता
की आवयकताओं
हैं।
(ब) राजनीतिक विज्ञान की आधुनिक दृष्टिकोण पर आधारित परिभाषाएं
द्वितीय विवयुद्ध के बाद विव
व वमें आए व्यापक परिवर्तन के कारण राजनीति विज्ञान की विषयवस्तु एवं परिभाषाओं के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आया हैं।
सामान्यतः इस परिवर्तन को बौद्धिक क्रांति (Intellectual Revoluton) अथवा व्यवहारवादी क्रांति (Behavioural Revolution) के रूप में जाना जाता हैं। इस क्रांति ने
परम्परावादी दृष्टिकोण को 'संकुचित' (Parochial) और 'औपचारिक' (Formal) कहकर आलोचना की हैं। व्यवहारवादियों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि पारम्परिक
दृष्टिकोण मूल रूप से औपचारिक संस्थाओं और उनके वैधानिक प्रतिमानों (Legal Norns), नियमों तथा विचारों पर केन्द्रित रहा है न कि उन संस्थाओं के व्यवहार
(Behavior), कार्य (Performance) तथा अन्तःक्रिया पर। कैप्लान, जाॅर्ज, कैटलिन, एफ.एम. वाटकिन्स, बर्ट्रेण्ड रसेल, बर्ट्रेण्ड जावेनल, ज्याँ ब्लाण्डेल, डिविट
एप्टर आदि विचारक इसी रेणी णी रे
रे
में आते हैं। मोटेतौर पर इन विचारकों ने राजनीति विज्ञान को सत्ता का अध्ययन माना हैं। इसके अंतर्गत वे सभी गतिविधियाँ आ
जाती हैं जिनका या तो 'सत्ता के लिए संघर्ष' से संबंध होता हैं अथवा जो इस संघर्ष को प्रभावित करती हैं। आधुनिक या व्यवहारवादियों ने राजनीति विज्ञान की
परिभाषा इस प्रकार की हैं--

बर्ट्रेण्ड डी. जोवेनल के अनुसार," राजनीति का अभिप्राय उस संघर्ष से है जो निर्णय के पूर्व होता है और उस नीति से है जिसे लागू किया जाता हैं।

डेविड ईस्टन के अनुसार," राजनीति मूल्यों के प्राधिकृत विनिधान से संबंधित हैं।"

लासवेल और कैप्लान के अनुसार," एक आनुभविक खोज के रूप में राजनीति विज्ञान क्ति के निर्धारण और बँटवारे का अध्ययन हैं।"

हसजार एवं स्टीवेंसन के अनुसार," राजनीति विज्ञान अध्ययन का वह क्षेत्र है जो मुख्य रूप से क्ति संबंधों का अध्ययन करता हैं।"

वस्तुतः आधुनिक या व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को राज्य या सरकार जैसी औपचारिक संस्थाओं का अध्ययन मात्र न मानकर, इसे वृहत आयाम प्रदान
करने का प्रयास मानता हैं। व्यवहारवाद हर उस गतिविधि को राजनीति विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय मान लेता है जिसका संबंध समाज में सत्ता या क्ति-प्राप्ति
से हैं।
उपयुक्त परिभाषा
उपरोक्त सभी परिभाषाओं के अध्ययन के आधार पर राजनीतिक स्त्र की एक ही उपयुक्त परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है कि राजनीति स्त्र समाज विज्ञान का वह अंग
है, जिसके अन्तर्गत राज्य तथा सन के अध्ययन के साथ-साथ मनुष्य के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यकलापों तथा उनकी प्रकियाओं का अध्ययन भी किया जाता
है। संक्षेप मे, राजनीति स्त्र को सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन कहा जा सकता है।

राजनीति विज्ञान का क्षेत्र (rajniti vigyan ka kshetra)


राजनीति के अध्ययन का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसका निर्धारण भी बहुत कठिन है क्योंकि व्यक्ति और समाज का ऐसा यद ही कोई पक्ष हो जो राजनीतिक इकाई से न
जुड़ा हो।
राजनीतिक विज्ञान की परिभाषा की भाँति ही राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र के संदर्भ मे भी मूलतः दो प्रकार के दृष्टिकोण पाए जाते है--
(अ) परम्परागत दृष्टिकोण ( Traditional approach) तथा
(ब)आधुनिक या व्यवहारवादी दृष्टिकोण (Modern or behavioural approach)।
परम्परागत दृष्टिकोण के अंतर्गत गार्नर, गेटिल, गिलक्राइस्ट, ब्लंली
ली ली
आदि के दृष्टिकोण को सम्मिलित किया जा सकता है। ये सभी विद्वान राजनीतिक विज्ञान के
क्षेत्र के अंतर्गत राज्य, सरकार तथा इसी प्रकार की अन्य राजनीतिक संस्थाओं के औपचारिक अध्ययन को रखते है।
गिलक्राइस्ट और फ्रेडरिक पोलक ने राजनीतिक विज्ञान के दो विभाजन किए है-- सैद्धांतिक और व्यावहारिक।
गिलक्राइस्ट का विचार है कि सैद्धांतिक राजनीतिक के अंतर्गत राज्य की आधारभूत समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। इसके अंतर्गत इस बात का अध्ययन सम्मिलित
नही है कि कोई राज्य अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किन साधनों का प्रयोग करता है।
इसके विपरीत व्यावहारिक राजनीति के अंतर्गत सरकार के वास्तविक कार्य संचालन तथा राजनीतिक जीवन की विभिन्न संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।
सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार सैद्धान्तिक राजनीतिक के अंतर्गत राज्य, सरकार, विधि-निर्माण तथा राज्य का अध्ययन किया जाता है, जबकि व्यावहारिक राजनीति के
अंतर्गत सरकारों के विभिन्न रूप अथवा प्रकार, सरकारों के संचालन तथा प्र सन, कूटनीति, युद्ध, ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार एवं समस्याओं आदि का अध्ययन किया जाता
है।"
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र को राज्य और सरकार के अध्ययन तक सीमित नही मानता वरन् मनुष्य के व्यवहार का समग्रता मे अध्ययन
करता है। व्यवहारवादियों का मत है कि राजनीति विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार तक सीमित नही है वह व्यापक है क्योंकि मनुष्य के
राजनीतिक क्रिया-कलाप, उसके जीवन के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक आदि सभी क्रिया-कलापों से प्रभावित होते हैं और उन्हें प्रभावित भी करते है।
राजनीति विज्ञान के विषय-क्षेत्र के अध्ययन में निम्नलिखित अध्ययन सम्मिलित हैं--

1. मनुष्य का अध्ययन
राजनीति विज्ञान मूलतः मनुष्य के अध्ययन से सम्बंधित है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह राज्य से किंचित मात्र भी अपने को पृथक नही रख सकता। इसी
कारण अरस्तु की यह मान्यता है कि राज्य या समाज मे ही रहकर मनुष्य आत्मनिर्भर हो सकता है। मनुष्य राज्य की गति लता का आधार है। राज्य की समस्त
गतिविधियां मनुष्य के इर्द-गिर्द केन्द्रीत होती है। मानव के विकास की प्रत्येक आवयकता कता
य यराज्य पूरी करता है, उसे अधिकार देता है तथा उसे स्वतंत्रता का सुख
प्रदान करता है। परम्परागत दृष्टिकोण मनुष्य के राजनीतिक जीवन को राजनीति विज्ञान के विषय-क्षेत्र मे रखता है, जबकि व्यावहारवादी दृष्टिकोण मनुष्य के
समग्र जीवन को इसमें सम्मिलित करता है।
2. राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन
राज्य राजनीतिक विज्ञान का केन्द्रीय विषय है, सरकार इसको मूर्तरूप देती है। राज्य की आवयकता कता
य यइसलिए है क्योंकि इसके माध्यम से ही जीवन की
कता
आवयकताएंय एं यपूरी की जा सकती है। परन्तु राजनीतिक जीवन का उद्देय
य यमात्र दैनिक जीवन की आवयकताओं य ओंयकी पूर्ति नही है। जैसा कि अरस्तु ने लिखा है " राज्य का
कता
जन्म दैनिक जीवन की आवयकताओं कता
य ओंयकी पूर्ति के लिए होता है, परन्तु इसका अस्तित्व एक अच्छे जीवन के लिए कायम रहता है।" इस रूप मे राज्य मानव के लिए अपरिहार्य
संस्था है।

राजनीति विज्ञान के क्षेत्र का वर्णन करते हुए गैटिल ने लिखा है," राजनीति विज्ञान राज्य के भूतकालीन स्वरूप की ऐतिहासिक गवेषणा, उसके वर्तमान स्वरूप की
षणा
ले त्
विलेषणात्मकमकले
व्याख्या तथा उसके आदर् श स्वरूप की राजनीतिक विवेचना है।"
राजनीतिक विज्ञान मे सर्वप्रथम राज्य के अतीत का अध्ययन किया जाता है। इससे हमें राज्य एवं उसकी विभिन्न संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप को समझने तथा
भविष्य मे उनके सुधार एवं विकास का आधार निर्मित कर सकने मे सहायता मिलती है।
राजनीतिक विज्ञान राज्य के वर्तमान स्वरूप का भी अध्ययन करता है। राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र का यह अंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति
राज्य से अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। वर्तमान के संदर्भ मे राज्य के अध्ययन के अंतर्गत हम राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करते है, उसी रूप मे जिस रूप मे वे
क्रिया ल है। हम व्यावहारिक निष्कर्षों के आधार पर राज्य के कार्यों एवं उसकी प्रकृति का अध्ययन करते है। इसके अतिरिक्त हम राजनीतिक दलों एवं हित-समूहों,
स्वतंत्रता एवं समानता की अवधारणाओं एवं इनके मध्य सम्बन्धों सत्ता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के एक सदस्य के रूप मे राज्य के विकास आदि
का भी अध्ययन करते है। इतना ही नही राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र मे हम यह भी अध्ययन करते है कि राज्य आने वाले समय मे कैसा हो सकता है अथवा अपने
आदर् श रूप मे उसे कैसा होना चाहिए।

3. सरकार का अध्ययन

परम्परागत राजनीति विज्ञान में सरकार का अध्ययन किया जाता है सरकार राज्य का अभिन्न अंग है राज्य एक अमूर्त संस्था है जबकि सरकार उसका मूर्त रूप है।

क्रॉसे के अनुसार," सरकार ही राज्य है और सरकार में ही राज्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है, वस्तुतः सरकार के बिना राज्य का अध्ययन अपूर्ण है।"

सरकार राज्य की प्रभुसत्ता का प्रयोग करती है। सरकार ही राज्य की इच्छाओं और आकांक्षाओं को व्यावहारिक रूप प्रदान रकती है। सरकार के विभिन्न रूपों का
अध्ययन राजनीति स्त्र में किया जाता है।
सरकार के विभिन्न अंगों (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) का अध्ययन भी इसमें किया जाता है। लीकॉक ने तो स्पष्टतया राजनीति स्त्र को सरकार का
अध्ययन कहा जाता है।।

4. सन प्रबन्ध का अध्ययन

लोक प्र सन राजनीति विज्ञान का एक भाग होते हुए भी आज पृथक विषय बन गया है परन्तु उसकी मूल बातों का अध्ययन राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत आज भी किया जाता
है। असैनिक कर्मचारियों की भर्ती, प्र क्षण, उन्नति, उनका जनता के प्रतिनिधियों से सम्बन्ध तथा प्र सन को अति कुल और लोकहितकारी तथा उत्तरदायी बनाने के
बारे में अध्ययन राजनीति विज्ञान में किया जाता है।

5. राजनीति सिद्धांतों का अध्ययन


इसके अन्तर्गत राज्य की उत्पत्ति, विकास, संगठन, स्वभाव, उद्देय
य यएवं कार्य आदि का अध्ययन सम्मिलित है। इस प्रकार राजनीतिक विज्ञान का सम्बन्ध मुख्यतः
राजनीतिक दल के लक्ष्य संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं से होता है। इसके आधार पर सामान्य नियम निर्धारित करने का प्रयत्न किया जाता है।
6. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का अध्ययन
वर्तमान युग मे अन्तर्राष्ट्रीय विकास की बढ़ती हुई गति ने यह स्पष्ट कर दिया है कि समस्त संसार एक होता जा रहा है फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का महत्व बढ़ता जा
रहा है। विज्ञान ने दूरी और समय पर विजय प्राप्त करके संसार के राष्ट्रों मे सम्बन्धों को स्थापित करने की प्रेरणा दी है। अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, अन्तर्राष्ट्रीय
विधि एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आदि का अध्ययन अब राजनीतिक विज्ञान के विषय क्षेत्र बन गये है।

7. राजनीतिक दलों तथा दबाव गुटों का अध्ययन

राजनीतिक दल और दबाव गुट वे संस्थाएँ हैं जिनके द्वारा राजनीतिक जीवन को गति दी जाती है। आजकल तो राजनीतिक दलों और दबाव गुटों के अध्ययन का महत्व
संविधान और सन के औपचारिक संगठन के अध्ययन से अधिक है। इस प्रकार का अध्ययन राजनीतिक जीवन को वास्तविकता से सम्बन्धित करता है।

उपरोक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि राजनीति-विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इसमे राज्य के साथ मनुष्य के उन सम्पूर्ण क्रियाकलापों का अध्ययन
किया जाता है, जिसका सम्बन्ध राज्य अथवा सरकार से होता है। इस प्रकार राजनीति-विज्ञान मनुष्य और मनुष्य के तथा मनुष्य और राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों
पर विचार करता है। सरकार के विभिन्न अंगों, उनके संगठन, उनमे सन सत्ता का विभाजन तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का भी अध्ययन करता है।

rajya ki utpatti ka devi siddhant,राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अब तक जितने भी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, उनमें दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त
सबसे प्राचीन है। यह सिद्धान्त बताता है कि राज्य मानवीय नहीं वरन् ईवर रवद्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है। ईवर
रवराजा के रूप में अपने किसी प्रतिनिधि को
नियुक्त करता है। चूँकि राजा ईवर रवका प्रतिनिधि है। अत: वह ईवररवके प्रति ही उत्तरदायी है। राजा की आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का परम पवित्र कर्तव्य है।

रवने की हैं। राज्य मानव निर्मित संस्था न होकर दैवी संस्था हैं। राज्य ईवर
इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की सृष्टि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ईवर रवका अभिकर्ता
अथवा प्रतिनिधि हैं। मानव जाति के कल्याण के लिए ईवर रवने राज्य का निर्माण किया है, इसलिए मानव का एकमात्र कर्त्तव्य हैं राज्य के आदे का बिना किसी र्त
के पालन करना।

व वके अन्य सभी धर्मों के लोग इस मत को मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता का मूल दैवी वरदान हैं। उदाहरण के लिए 'महाभारत'
हिन्दु, यहूदी, ईसाई, मुसलमान तथा विव
के न्ति पर्व मे भीष्म ने कहा हैं," राजनीतिक सत्ता के अभाव में स्थिति को असहनीय पाकर लोग ब्रह्रा जी के पास पहुँचे और प्रार्थना कि," हे भगवान, किसी
रक्षक के बिना हम नष्ट हो रहे हैं। हमें संरक्षक दीजिए जिसकी हम सब मिलकर पूजा करेंगे और वह हमारी रक्षा करेगा।" भगवान् ने प्रार्थना स्वीकार की तथा
उन पर सन करने के लिए मनु को नियुक्त किया। तथापि मनु इस नियुक्ति को स्वीकार करने में हिचकिचाए क्योंकि उन्हें उन लोगों पर सन करना बड़ा कठिन लगा
जिनका आचरण सदा छलपूर्ण होता हैं। परन्तु अन्ततः उन्हें आवस्त स्
त किया गया कि लोग उन्हें वित्तीय, नैतिक एवं आध्यात्मिक समर्थन देंगे।"
वव

यहूदियों का भी ऐसा मत हैं। "ओल्ड टैस्टामेण्ड" में इस आरणा का स्पष्ट उल्लेख हैं कि ईवर
रवसकों को चुनता हैं, नियुक्त करता हैं, पदमुक्त करता है और यहाँ
रवके प्रति उत्तरदायी हैं।
तक कि बुरे सकों की हत्या करता है। ऐसा माना जाता है कि जानबूझकर अथवा भूल से किए गए अपने सभी कृत्यों के लिए राजा ईवर

ईसाइयों की "न्यू टैस्टामेण्ड" में सत्ता का स्त्रोत ईवरीय


रीय इच्छा में निहित माना गया हैं। बड़े स्पष्ट या प्रबल ब्दों में पाॅल के रोम लोगों ने कहा,"
वव

री
प्रत्येक आत्मा उच्च क्तियों के अधीन हो, क्योंकि ईवरीयय क्ति को छोड़कर कोई क्ति नहीं हैं, जो क्तियाँ हैं वे ईवर
वव
व रवके निर्दे से हैं, अतः जो कोई क्ति का
प्रतिरोध करेगा वह दैवी कोप भोगेगा।"

मध्य युग में यही विचार चलता रहा कि पोप इस धरती पर ईसा मसीह का प्रतिनिधि हैं और इसलिए उसका ब्द ईसा मसीह की क्षाओं जैसा सत्य हैं।

रकृ
व तवया दैवी समझा जाता था और सरकार का स्वरूप धार्मिक था।"
गेटेल के अनुसार," मानव इतिहास में दीर्घ काल तक राज्य को ईवरकृत

दैवी सिद्धान्त के प्रचलन काल में जनता के जीवन में धर्म का अत्यधिक महत्व था और ईवर रवके प्रति भय की भावना विद्यामान थी। इसलिए राज्य का निर्माता भी
रवको मान लिया गया। राजा को ईवर
ईवर रवका प्रतिनिधि माना गया जो अपने कार्यों के प्रति सिर्फ ईवर
रवके प्रति उत्तरदायी ठहराया गया। चूँकि राजा ईवर
रवका प्रतिनिधि
हैं, इसीलिए उसकी आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का पुनीत कर्त्तव्य माना गया। उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करने का अर्थ है ईवर रवकी आज्ञाओं का उल्लंघन
करना अर्थात् पाप करना।

संक्षेप में, दैवी सिद्धान्त की व्याख्या तीन रूपों में की गई हैं--

रवने स्वयं इस पृथ्वी पर आकर सन की स्थापना की।


प्रथम, ईवर

रवने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता पर सन स्थापित किया।


द्वितीय, ईवर

रवने मनुष्यों में ऐसी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न की जिनसे सन और व्यवस्था की आवयकता


तृतीय, ईवर कता
य यप्रतीत हुई और उनमें अनुशासन व आज्ञापालन की भावना का जन्म
हुआ।
षताएं
दैवी सिद्धांत की वि षताएंशे
राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख वि षताएं हैं--

1. राजा ईवर
रवका प्रतिनिधि हैं, उसे ईवर
रवने राजा बनाया हैं।

2. राजा का पद पैतृक हैं।

3. राजा केवल ईवर


रवके ही प्रति उत्तरदायी हैं। यदि वह कोई गलती करता हैं तो इसका मतलब हैं ईवर
रवने उससे वैसा करने के लिये कहा हैं।

4. ईवर
रवने ही उसे यह राजसत्ता उपहार स्वरूप प्रदान की हैं। वह उसका जन्म से अधिकारी हैं। राजा का दैवीय सिद्धांत राजा को दैवी अधिकार प्रदान करता हैं।
निरंकु एवं स्वेच्छाचारी सकों ने इस सिद्धान्त के माध्यम से राजा के दैवी अधिकारों की स्थापना की।

5. राजा की आज्ञा ईवर


रवकी आज्ञा हैं, उसका उल्लंघन करना पाप हैं।

दैवी सिद्धांत का पतन


सत्रहवीं ताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस सिद्धान्त का पतन होने लगा। जैसे-जैसे मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ, इस सिद्धान्त के समर्थन में कम प्रमाण दिखाई
देने लगे। गिलक्राइस्ट के अनुसार इस सिद्धान्त के ह्रास या पतन के तीन प्रमुख कारण थे--
रवके द्वारा न होकर लोगों के आपसी समझौते के परिणामस्वरूप
प्रथम, सामाजिक समझौता सिद्धान्त द्वारा इस धारणा का प्रतिपादन करना कि राज्य की उत्पत्ति ईवर
हुई।

द्वितीय, चर्च की क्ति का ह्रास होना अर्थात् चर्च का राज्य से पृथक किया जाना और जीवन में लौकिक प्रनों
नों नोंके महत्व का सर्वोपरि माना जाना।

तृतीय, इस सिद्धान्त को सबसे करारी चोट लोकतंत्र की भावना के विकास से मिली। लोकतंत्रवाद ने राजा के स्वेच्छाचारी एवं निरंकु सन का विरोध और खण्डन
किया।
दैवी सिद्धान्त की आलोचना
इस सिद्धान्त ने लोगों के ह्रदयों में राजा के प्रति असीम सम्मान और आदर भाव भर दिया था जिसके परिणामस्वरूप राजाओं ने मध्य युग में जनता पर ईवर रवके
नाम का सहारा लेकर घोर अत्याचार किये। वर्तमान वैज्ञानिक युग ने यह प्रमाणित कर दिया कि राजा की वास्तविक क्ति राजा के राज्य हाथ में नहीं हैं, वह तो
जनता के हाथों में निहित हैं। राजा अपने सम्मान का उपभोग जनता के समर्थन पर ही कर सकता हैं। इस भावना के कारण प्रजातंत्र राज्यों का निर्माण हुआ और
रकृ
व तवनहीं बल्कि मानवकृत हैं।
यह प्रमाणित हो गया कि राज्य ईवरकृत

दैवीय सिद्धान्त की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती हैं--

1. आलोचकों की राज्य के दैवी सिद्धान्तों के संबंध में यह धारणा रही है कि जब राजा निरंकुता को स्वीकार कर लेते हैं तब वे राज्य की सभी क्तियों का
उपयोग अनैतिक कार्यों की पूर्ति में करने लगते हैं।

2. दैवीय उत्पत्ति सिद्धान्त प्रजातंत्र विरोधी है। प्रजातांत्रिक प्रणाली मे सन का चुनाव जनता द्वारा किया जाता हैं, जो गलत कार्यों के करने पर उसे हटा भी
सकती हैं। इसमें सक जनता के प्रति उत्तरदायी होता हैं, किन्तु यह सिद्धान्त प्रजातंत्र की इन मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता हैं।

3. इस सिद्धान्त के विषय में आलोचकों का विचार रहा है कि यह पूर्ण रूप से अनैतिहासिक हैं, क्योंकि इसका इतिहास के अंदर कोई विवरण नहीं प्राप्त होता। इतिहास
रवद्वारा की गई हैं।
में इस बात का कहीं भी कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता कि राज्य की स्थापना ईवर

5. दैवी सिद्धान्त की मान्यता रूढ़िवाद पर आधारित हैं। यह अहितकर इसलिए भी है कि यह राजा की स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुता का समर्थन करता हैं।

6. आज के वैज्ञानिक युग मे यह रूढ़िवादी सिद्धान्त सर्वथा अमान्य हैं। आधुनिक युग में कोई सिद्धान्त तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता, जब तक कि वह तर्क
और तथ्यों की कसौटी पर सत्त सिद्ध नहीं हो जाता। यह सिद्धान्त भी मनुष्य की जिज्ञासाओं का संतोषजनक उत्तर नही देता हैं, अतः इसे भी स्वीकार नही किया जा
रवइस या उस व्यक्ति को राजा बनाता हैं, अनुभव एवं साधारण ज्ञान के एकदम विपरीत हैं।"
सकता। गिलक्राइस्ट के ब्दों में," यह विचार कि ईवर

7. यह सिद्धान्त राजा को ईवर


रवका प्रतिनिधि बनाकर उसकी स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुता का समर्थन करता हैं। इससे राजाओं को मनमाने ढंग से सन करने का
अधिकार मिल जाता हैं। यह राजा को अत्यधिक क्ति ली बना देता हैं तथा उसे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं रखता।
दैवी सिद्धान्त का महत्व
यह सिद्धान्त आज मृतप्राय हो चुका है फिर भी राज्य के संबंध मे इस सिद्धान्त की उपयोगिता हैं।

सर्वप्रथम, यह सिद्धान्त राज्य के नैतिक आधार पर जोर देता है। राज्य को ईवर रवकी कृति मानने का अर्थ राज्य को उच्च स्तर प्रदान करना हैं। राजा का यह नैतिक
कर्त्तव्य है कि सुराज्य स्थापित करे अर्थात् इसमें अर्थ निहित हैं कि राज्य का उद्देय
य यलोककल्याण हैं।
रवसे
द्वितीय, अराजकता और अव्यवस्था को समाप्त कर समाज में ति व सुव्यवस्था कायम करने में यह सिद्धान्त काफी सहायक सिद्ध हुआ हैं। प्रारंभिक मनुष्य ईवर
डरता था, धर्म प्रेमी था, इसलिए सकों के लिए इस सिद्धान्त के आधार पर जनता पर सन करने में बड़ी सुविधा हो गई। इससे लोगों में आज्ञाकारिता की भावना
का विकास हुआ।

गेटेल के ब्दों में," इस सिद्धान्त ने उस समय लोगों को आज्ञा का पालन करना सिखाया, जिस समय वे अपने ऊपर सन करने के लिए तैयार नहीं थे।

यरे
गिलक्राइस्ट ने भी लिखा हैं," यह कितना ही गलत और विवेक)न्य सिद्धान्त क्यों न हो, कम से कम अराजकता के निवारण का रेय रे
इसे अवश्य प्राप्त हैं।"

राज्य की उत्पत्ति का शक्ति सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है। राज्य का उदय शक्ति ली लीशा
व्यक्तियों के द्वारा निर्बल व्यक्तियों को अपने अधीन
करने की प्रकृति के कारण हुआ दूसरे शब्दों में युद्ध राज्य की उत्पत्ति का प्रमुख कारण था युद्ध में विजेता सक और पराजित प्रजा बन गए। वाल्टेयर
के अनुसार प्रथम राजा एक भाग्य ली लीशायोद्धा था। जैक्स के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नहीं है कि आधुनिक राजनैतिक
समाजों का अस्तित्व सफल युद्धों में निहित है। ब्लंशली भी इस मत का समर्थन करता है वह कहता है कि शक्ति के बिना न कोई राज्य जीवित रहता है
और न जीवित रह सकता है। इस प्रकार युद्ध शक्ति को पैदा करता है और शक्ति राज्य को जन्म देती है तथा शक्ति ही इसे कायम रखती है। बिस्मार्क के
अनुसार राज्य का आधार रक्त और लोहा होना चाहिये। ट्रिस्के के अनुसार राज्य में आक्रमण करने और रक्षा करने की जन शक्ति है।

षताएँसामने आती है--


इस सन्दर्भ में शक्ति सिद्धान्त की निम्नलिखित वि षताएँशे

1. शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक मात्र आधार है।

2. शक्ति का आय भौतिक और सैनिक शक्ति से है।

3. प्रभुत्व की लालसा और आक्रामकता, मानव स्वभाव का अनिवार्य घटक है।

4. प्रकृति का नियम है कि शक्ति ही न्याय है।

5. प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक शक्ति ली


लीशा
शा सनकरते है और बहुसंख्यक शक्तिहीन अनुकरण करते है। वर्तमान में राज्यों का अस्तित्व शक्ति
पर ही केन्द्रित है।

शक्ति सिद्धान्त का प्रयोग

1. मध्ययुग में धर्मगुरुओं ने राज्य को दूषित और चर्च को रेष्ठ संस्था बताने में किया।

2. व्यक्तिवादियों ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में सरकार के हस्तक्षेप को रोकने के लिये इसका उपयोग किया।

3. अराजकतावादी समाजवादी विचारकों ने भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता हेतु इस सिद्धान्त का प्रयोग किया।


4. फासीवादी और नाजीवादियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन और प्रयोग किया।

शक्ति सिद्धांत की आलोचना

राज्य के शक्ति सिद्धांत की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की जाती हैं--

1. शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक मात्र तत्व नहीं है। यद्यपि इसने राज्य की उत्पत्ति में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया परन्तु इसकी उत्पत्ति के अन्य
कारण चेतना, धर्म, रक्त सम्बन्ध आदि भी रहे।

2. टी. एच. ग्रीन के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का आधार इच्छा है न कि शक्ति लोगों की इच्छा के बिना न तो राज्य संगठित हो सकता है और न कायम रह
सकता है। लोग राज्य के आदे शे- का पालन शक्ति के भय से नहीं, अपने विवेक और बुद्धि से करते हैं।

3. शक्ति सिद्धान्त जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे सिद्धान्तों को जन्म देता है जिसका अर्थ है कि सिर्फ बल ली
लीशा
को जीवित रहने का अधिकार है।

4. यह सिद्धान्त राज्य को निरकुंश बनाता है, जिसके लोगों की स्वतन्त्रता का लोप और जनतन्त्र का विनाश होता है।

5. यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय शा न्तिऔर विव


व वबन्धुत्व का विरोधी है, शक्ति पर ही जोर देने के कारण यह एक साम्राज्यवादी सिद्धान्त है।

6. यह सिद्धान्त केवल भौतिक शक्ति पर जोर देता है। आधुनिक युग में आध्यात्मिक, तकनीकी और वैधानिक शक्ति को में भी महत्व दिया जाता है। शक्ति
सिद्धान्त की आलोचना

इन आलोचनाओं के अनुसार राज्य की उत्पत्ति में शक्ति सिद्धान्त मान्य नहीं है परन्तु राज्य के जन्म और विकास में शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका रही
है। प्राचीन समय में अराजक समाज को संगठित करने में तथा अनु सन सनशाऔर आज्ञापालन का भाव शक्ति के कारण ही आया। आधुनिक समय में भी जब
लीशा
राज्य शक्ति ली नहीं होते है तो अराजकता और विघटन का कार हो जाते हैं।

rajya ki utpatti ka samajik samjhauta siddhant;सामाजिक समझौते का सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के
अनुसार राज्य ईवरीय री यश्वसंस्था न होकर एक मानवीय संस्था है। इस (समझौता) सिद्धान्त के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौते द्वारा
किया है। समझौते से पूर्व व्यक्ति प्राकृतिक अवस्था में रहते थे। किन्हीं कारणों से व्यक्तियों ने प्राकृतिक अवस्था त्यागकर समझौते द्वारा
राजनीतिक समाज की रचना की। इस समझौते से व्यक्तियों को सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए।

लीकॉक के अनुसार," राज्य व्यक्तियों के स्वार्थों द्वारा चालित एक ऐसे आदान-प्रदान का परिणाम था जिससे व्यक्तियों ने उत्तरदायित्वों के बदले
वि षाधिकार प्राप्त किये।"
सामाजिक समझौता सिद्धान्त का विकास

महाभारत के 'शा न्तिपर्व' तथा कौटिल्य की पुस्तक 'अर्थ स्त्र


स् त्
रशा
' में इस स्थिति का वर्णन मिलता है कि अराजकता की स्थिति से त्रस्त होकर मनुष्यों ने
परस्पर समझौते द्वारा राज्य की स्थापना की।

यूनान में सोफिस्ट वर्ग ने सर्वप्रथम इस विचार का प्रतिपादन किया। इपीक्यूरिन विचारधारा वाले वर्ग तथा रोमन विचारकों द्वारा भी इसका समर्थन किया
गया। मध्ययुग में मेनगोल्ड तथा थॉमस एक्वीनास द्वारा भी इसका समर्थन किया गया। सर्वप्रथम रिचार्ड हूकर ने वैज्ञानिक रूप में समझौते की तर्कपूर्ण
व्याख्या प्रस्तुत की। डच न्यायाधीश प्रो यस, पूफेण्डोर्फ तथा स्पिनोजा ने इसका समर्थन किया किन्तु इस सिद्धान्त का वैज्ञानिक और विधिवत् प्रतिपादन
'संविदावादी विचारक' हॉब्स, लॉक तथा रूसो द्वारा किया गया है।

सामाजिक समझौता सिद्धांत की मूल मान्यताएँ

1. समझौते के पूर्व मानव जीवन का अस्तित्व था तथा उनके ही बीच समझौता हुआ।

2. सामाजिक समझौता के द्वारा राज्य की स्थापना के पूर्व का समय प्राकृतिक अवस्था का था। प्राकृतिक अवस्था के संबंध में समझौता सिद्धान्त के
प्रतिपादकों के दो मत हैं। कुछ विचारक प्राकृतिक अवस्था को अंधकार पूर्ण और कपटपूर्ण मानते हैं। यह अवस्था 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की
अवस्था थी। कोई कानून नहीं, कोई नैतिकता नहीं मनुष्य का जीवन एकाकी और पाविक था। प्रत्येक समय व्यक्ति संघर्ष में था। अन्य विचारक प्राकृतिक
अवस्था को आदर् , सरलता और परम सुख की अवस्था मानते हैं जिसमें लोग स्वर्गिक आनंद का उपभोग करते थे। इन विचारकों के अनुसार प्राकृतिक
अवस्था शां तितथा मैत्रीपूर्ण थी। यह मानव जीवन का स्वर्णिम काल था। प्राकृतिक अवस्था में किसी प्रकार का राजनीतिक संगठन नहीं था। मनुष्यों के
पारस्परिक संबंध का नियमन अस्पष्ट प्राकृतिक नियमों द्वारा होता था।

3. प्राकृतिक अवस्था में विभिन्न कारणों से अनेक असुविधाएँ पैदा होने लगीं अतः मनुष्यों ने समझौते द्वारा नागरिक समाज और राज्य की स्थापना की।
समझौते की प्रकृति क्या थी, इस पर विचारकों में मतभेद हैं। हाॅब्स के अनुसार मनुष्यों ने जीवन की रक्षा के लिए, लाॅक के अनुसार मनुष्यों ने
प्राकृतिक अवस्था की असुविधाओं को दूर करने के लिए और रूसो के अनुसार मनुष्यों ने सभ्यता की बढ़ती हुई पेचीदगी के कारण आपस में समझौता कर
राजनीतिक संगठन का निर्माण किया। कुछ विचारक एक समझौते का तथा कुछ अन्य विचारक दो समझौतों का होना स्वीकार करते हैं।

4. समझौते के परिणामस्वरूप नागरिक समाज का निर्माण हुआ, राज्य का जन्म हुआ और प्राकृतिक कानूनों के स्थान पर राज्य के कानून निर्मित हुए। समझौते
के स्वरूप के विषय में दो मत हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार समझौता करते हुए लोगों को अपने समस्त अधिकार त्याग देने पड़े। अन्य विद्वानों के
अनुसार समझौता के कारण लोगों को केवल कुछ ही अधिकार त्यागने पड़े। कुछ विचारकों के अनुसार एक ही समझौता हुआ तो कुछ के अनुसार दो समझौते
हुए। लेकिन इस बात से सभी समझौता सिद्धान्त के समर्थक विचारक सहमत हैं कि समझौता के बाद प्राकृतिक अवस्था के स्थान पर लोगों को सुरक्षा
प्राप्त हुई और समझौते द्वारा राज्य का निर्माण हो गया।

5. समझौता सिद्धान्त के अनुसार जिन उद्देयोंश्यों


के लिए समझौता किया गया यदि वे उद्देय श्य पूरे नही होते तो समझौता तोड़ा जा सकता हैं। कुछ विचारकों
ने समझौता तोड़ने का उद्देय श्य
व्यक्ति की आत्मरक्षा की प्रवृत्ति को बतलाया हैं। लाॅक के अनुसार प्राकृतिक कानूनों की व्याख्या और क्रियान्वयन तथा
रूसों के अनुसार समाज के सामान्य हितों की पूर्ति न होगा। समझौता तोड़ने का आधार हैं।
हाॅब्स का सामाजिक समझौता सिद्धांत

ब्रिटि नागरिक हॉब्स (1588-1679) का जीवन काल राजनीतिक उथल-पुथल का काल था जिसका हॉब्स के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसने इंग्लैण्ड का
गृहयुद्ध (1642-1649) देखा, इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स प्रथम का मृत्यु दण्ड (1649) देखा और इसी पृष्ठभूमि से प्रभावित हो उसने 1651 में प्रका ततशि
अपनी
पुस्तक 'लेवियाथन' में राजाओं की निरंकु शता को उचित ठहराते हुए सामाजिक समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने अपनी पुस्तक 'लेवियाथान'
में इस सिद्धान्त का वर्णन किया हैं--

1. प्राकृतिक अवस्था एवं मनाव-स्वभाव

हाॅब्स का कथन है कि उत्पत्ति के पूर्व मनुष्य प्राकृतिक रूप से जंगली अवस्था मे रहता था। मनुष्य स्वभाव से झगड़ालू, स्वार्थी, संघर्षप्रिय और
असामाजिक था सभी एक-दूसरे के साथ संघर्षरत थे। जीवन एकाकी, दीन, अपवित्र, पार्वक श्वक
र्वर्
वव र्और क्षणिक होता था।

2. सामाजिक समझौते की अवस्था

निरन्तर संघर्ष ऊबकर मनुष्यों ने आपस में समझौता कर उस दशा का अंत कर दिया। इस समझौते में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं--

(अ) राजा स्वयं समझौता करने वालों में नहीं हैं अतः स्वयं पूर्ति से बंधा हुआ नहीं है,

(ब) समझौता करने वाले व्यक्तियों ने अपने सार अधिकारों को समझौते के बाद राजा को सौंप दिये हैं वे विरोध नहीं कर सकते हैं।

3. नवीन राज्य का स्वरूप

हाॅब्स ने समझौता के द्वारा एक ऐसे निरंकु श राजतंत्र की स्थापना की जिसका शा सनसंपूर्ण शक्ति सम्पन्न हैं और जिसका प्रजा के प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं
हैं व प्रजा को विद्रोह करने का अधिकार नहीं हैं।

जाॅन लाॅक का सामाजिक समझौता सिद्धांत

स्त्
री
हाॅब्स की तरह लाॅक भी एक अंग्रेज दार्शनिक एवं राज स्त्री शा
था, यद्यपि दोनों के समय में बहुत अधिक अंतर नहीं है। यद्यपि उसके विचार हाॅब्स के
विपरीत थे क्योंकि लाॅक के समय की परिस्थितियाँ हाॅब्स की परिस्थितियों से भिन्न थी तथा दोनों प्रतिबद्धताएँ भी अलग-अलग थी। हाॅब्स ने ब्रिटेन
का गृहयुद्ध देखा था किंतु लाॅक के समय तक ब्रिटेन की संसद राजा की निरंकु शता के विरूद्ध विजयी हो चुकी थी। लाॅक ने 1688 की गौरव ली
लीशा
क्रांति, और
उसके परिणामस्वरूप जेम्स द्वितीय को राडगद्दी से उतरते देखा था। लाॅक ने सन् 1688 की क्रांति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए समझौता सिद्धान्त
का प्रतिपादन किया। लाॅक के समझौता संबंधी विचारों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती हैं--

1. मानव स्वभाव की धारणा


षता
हाॅब्स मनुष्य में केवल विक प्रवृत्तियों का दर्शन करता है किन्तु लाॅक उसके मानवीय गुणों पर बल देता है। लाॅक के अनुसार मनुष्य की बड़ी वि षताशे
बुद्धिमान तथा विचारवान प्राणी होना है। वह अपनी विवेक बुद्धि से एक नैतिक व्यवस्था की सत्ता स्वीकार करता है और इसके अनुसार कार्य करना अपना
कर्तव्य समझता हैं। उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति, प्रेम और दयालुता के गुण होते हैं।

संक्षेप में, लाॅक की कल्पना का मनुष्य हाॅब्स की कल्पना के मनुष्य की तरह केवल स्वार्थी ही नही होता वरन् वह परमार्थी होता है।

2. प्राकृतिक अवस्था

हाॅब्स ने मनुष्य को घोर स्वार्थी बतलाया था तथा प्राकृतिक अवस्था को तदनुसार सतत् संघर्ष और युद्ध की दशा माना था। परन्तु लाॅक ने मनुष्य को स्वभावतः
परमार्थी, दयुलु, सहयोगी व समाजप्रिय माना है तथा उसी के अनुसार उसकी प्राकृतिक अवस्था की कल्पना भी इस प्रकार की है जिसमें मनुष्य 'पारस्परिक
युद्ध' की अवस्था में न रहकर 'पारस्परिक-सहयोग' की अवस्था में रहते हैं। लाॅक की प्राकृतिक अवस्था की कई वि षताएंशे षताएंहैं--

(अ) प्रथम, प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य समान हैं क्योंकि सभी सृष्टि के एक ही स्तर पर और सब एक ही सर्वशक्तिमान और अनन्त बुद्धिसम्पन्न
सृष्टा की कृतियाँ हैं।

(ब) द्वितीय, प्राकृतिक अवस्था शां तिव पारस्परिक सद्भावना पर आधारित होने के कारण सभी व्यक्ति समान व स्वतंत्र माने जाते हैं, कोई किसी को हानि
पहुंचाने का प्रयत्न नहीं करता, सब समान रूप से प्राकृतिक समाज के लाभों को प्राप्त करते हैं और कोई किसी के अधीन नही होता।

(स) तृतीय, प्राकृतिक अवस्था में लोग पूर्णतः स्वतंत्र होते है। किन्तु यह स्वतंत्रता स्वच्छन्दता या स्वेच्छाचारिता नहीं है क्योंकि प्राकृतिक
अवस्था का नियंत्रण प्राकृतिक नियम हैं।

3. सामाजिक समझौता की अवस्था

नियां
रेष्ठ प्राकृतिक अवस्था के बावजूद निवासियों को कुछ परे नियां शा
जैसे-- नियम अस्पष्ट थे, नियमों की व्याख्या हेतु निष्पक्ष न्यायाधीश नही थे। नियमों को लागू
करने वाली सत्ता का अभाव था। इन कारणों से व्यक्तियों ने समझौते की आवयकता कता श्य
महसूस की। लाॅक के अनुसार दो समझौते हुए। पहले के द्वार
प्राकृतिक अवस्था का अंत करके समाज की स्थापना हुई। दूसरा समझौता व्यक्ति समूह और राजा के मध्य हुआ जिसके परिणामस्वरूप सक को कानून बनाने,
व्याख्या करने का अधिकार दिया गया, लेकिन सक की शक्ति पर प्रतिबंध लगाया गया कि निर्मित कानून प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होंगे। जनता को
स्वतंत्रता, सम्पत्ति की रक्षा का अधिकार प्राप्त होगा।

नवीन राज्य का स्वरूप

संवैधानिक राज्य की स्थापना हुई। यदि सक अपने उद्देय श्य


में विफल हो जाता है तो समाज को एक प्रकार की सरकार की जगह दूसरी सरकार स्थापित
करने का अधिकार होगा। वास्तविक शक्ति जनता के हाथ में निहित होती हैं।
रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धांत

सामाजिक समझौता के विचारकों की त्रयी में रूसों का क्रम तीसरे विचारक के रूप में आता है। जहाँ, हाॅब्स और लाॅक अपने-अपने समय की राजनीतिक
परिस्थितियों से प्रभावित थे और उन्होंने क्रम, निरंकु श राजतंत्र तथा सीमित राजतंत्र समर्थन में अपने विचारों को व्यक्त किया वही रूसों के
साथ ऐसी कोई स्थिति नही थी। पर यह माना जाता है कि उसके विचारों ने सन् 1789 ई. की फ्रांस की क्रांति के लिए उत्प्रेरक का काम किया तथा एक नवीन
लोकतंत्रीय व्यवस्था के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 1726 ई. में रूसों की प्रसिद्ध पुस्तक 'सोल काॅन्ट्रेक्ट' प्रका ततशि
हुई। इसमें रूसों ने सामाजिक
समझौते के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। रूसो ने सामान्य इच्छा के सिद्धांत के द्वारा सावयवयी समाज का विचार भी दिया हैं।

रूसों ने अपनी पुस्तक 'द सोल कान्ट्रेन्ट' में सामाजिक समझौता सिद्धांत की व्याख्या की हैं--

1. प्राकृतिक अवस्था एवं मानव स्वभाव

रूसो की कल्पना के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य प के समान जीवन व्यतीत करता था। वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र था, उसके ऊपर किसी प्रकार का
नियंत्रण नही था। शा न्त, सरल और सुखमय जीवन था, आवयकताएं
कताएंश्य कता
कम थीं धीरे-धीरे जनसंख्या में वृद्धि हुई, आवयकताएं एंश्य
बढ़ी और सम्पत्ति का अभ्युदय
हुआ, स्वार्थ की भावना की उत्पत्ति एवं मानवगत बुराईयां आने लगी।

2. समझौता

सभ्यता के विकास के साथ, सम्पत्ति के उदय के साथ बुराइयों से निराकरण के लिए मनुष्यों ने आपस में समझौता किया। प्रत्येक व्यक्ति ने अपने
अधिकार समाज को समर्पित कर दिये। इसे वह सामान्य इच्छा का नाम देता हैं।

3. नवीन राज्य का स्वरूप

राज्य का स्वरूप लोकतंत्रिक हैं। इसका आधार सामान्य इच्छा हैं। रूसो के अनुसार सम्प्रभुता संपूर्ण समाज अथवा जनता में निहित होती हैं।

सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना

सामाजिक समझौता सिद्धान्त की राजनीतिक विचारकों द्वारा कटु आलोचना की गई है। ब्लंटशली ने इस सिद्धान्त को अत्यधिक भयंकर, वूल्जे ने 'सरासर
झूठा' तथा ग्रीन ने इसे कपोल-कल्पना, कहकर सम्बोधित किया है। सर हेनरीमेन ने तो यहाँ तक कहा है कि," समाज तथा सरकार की उत्पत्ति के इस वर्णन
से बढ़कर व्यर्थ की वस्तु और क्या हो सकती है।" वेग्थम सर फ्रेडरिक पोलक, वाहन, एडमण्ड वर्क आदि विचारकों ने भी इस सिद्धान्त की कटु आलोचना
की है। इस सिद्धान्त की आलोचना ऐतिहासिक, दार्शनिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक निम्नलिखित आधारों पर की गई है--

सामाजिक समझौता सिद्धांत की तिहासिक आधार पर आलोचना

ऐतिहासिक आधार पर आलोचना निम्न रूपों में की गई है--

1. समझौता अनैतिहासिक
ऐतिहासिक दृष्टि से यह समझौता सिद्धान्त असत्य है क्योंकि इतिहास में कहीं भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्यों ने पारस्परिक समझौते के
आधार पर राज्य की स्थापना की हो। इस सम्बन्ध में डॉ. गार्नर का कथन सत्य ही है कि," इतिहास में कोई ऐसा प्रामाणिक उदाहरण नहीं मिलता जिसके
अनुसार ऐसे व्यक्तियों द्वारा, जिन्हें पहले से राज्य का पता नहीं था, अपने समझौते से राज्य की स्थापना की गई है।"

2. प्राकृतिक अवस्था की धारणा गलत

सामाजिक समझौता सिद्धान्त मानव इतिहास को दो भागों में विभाजित करता है--

(अ) प्राकृतिक अवस्था तथा (ब) सामाजिक अवस्था।

ऐतिहासिक दृष्टि से यह विभाजन असत्य है, क्योंकि इतिहास में हमें ऐसी अवस्था का प्रमाण नहीं मिलता। जब मनुष्य संगठन-विहीन अवस्था में रहा हो।

3. राज्य विकास का परिणाम है, निर्माण का नहीं

इतिहास से पता चलता है कि राज्य अन्य मानव संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास हुआ है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य प्रारम्भ में परिवारों
में, फिर कुलों, फिर कबीलों और जनपदों तथा राज्यों में संगठित हुआ। लाॅ फर के शब्दों में, " परिवार की भाँति ही राज्य समाज के लिए आवयककयहै
और वह समझौते का नहीं वरन् वस्तुस्थिति के प्रभाव का परिणाम है।"

अतः सामाजिक समझौता सिद्धान्त के इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि राज्य का किसी एक वि ष समय पर निर्माण हुआ है।

निक आधार पर आलोचना


सामाजिक समझौता सिद्धांत की दार्निकर्श

दार्शनिक आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न प्रकार की जाती है--

1. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, च्छिक नहीं

राज्य की सदस्यता ऐच्छिक नहीं वरन् अनिवार्य होती है। व्यक्ति उसी प्रकार राज्य के सदस्य होते है जिस प्रकार परिवार के। बर्क के शब्दों में, "
राज्य को काली मिर्च, कहवा, वस्त्र या तम्बाकू अथवा ऐसे ही अन्य सामान्य व्यापार की साझेदारी समझौते के समान नहीं समझा जाना चाहिए जिसे अस्थायी
स्वार्थ के लिए कर लिया गया हो और समझौते के पक्ष इच्छानुसार भंग कर सकते हों। इसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। यह तो समस्त
विज्ञान, समस्त कला, समस्त गुणों और समस्त पूर्णता के बीच साझेदारी है।"

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को ऐच्छिक समुदाय बताता है जो पूर्णरूपेण गलत है।

2. राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की अनुचित व्याख्या

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की गलत व्याख्या प्रस्तुत करता है। व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध मानवीय
स्वभाव पर आधारित होते हैं किसी समझौते पर नहीं।
वॉन हॉलर के शब्दों में, " यह कहना कि व्यक्ति और राज्य में समझौता हुआ उतना ही युक्तिसंगत है जितना यह कहना कि व्यक्ति और सूर्य में इस
प्रकार का समझौता हुआ कि सूर्य व्यक्ति को गर्मी दिया करे।"

3. राज्य प्राकृतिक संस्था है

सामाजिक समझौता सिद्धान्त के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों द्वारा किया गया है। अतः यह एक कृत्रिम संस्था है जबकि आलोचकों के अनुसार
राज्य मानव के स्वभाव पर आधारित एक प्राकृतिक संस्था है।

कताओंश्य
मालबर्न का कथन है कि," राज्य व्यक्तियों के बीच स्वेच्छा से किये गए समझौते से नहीं बना है। मनुष्यों को उन सामाजिक आवयकताओं से वाध्य
होकर राज्य में रहना पड़ा, जिनसे वह बच नहीं सकता था।"

4. विद्रोह का पोषक

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताकर विद्रोह, क्रान्ति तथा अराजकता का मार्ग प्रशस्त करता है।

लाइवर के अनुसार, " इस सिद्धान्त को अपनाने से अराजकता फैलने का डर है।

ब्लंटशली के अनुसार, " सामाजिक समझौता सिद्धान्त अत्यन्त भयानक है, क्योंकि यह राज्य और अन्य संस्थाओं को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताता
है।"

5. प्राकृतिक अवस्था में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं

लॉक का विचार है कि प्राकृतिक अवस्था में भी व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करते थे किन्तु यह धारणा नितान्त भाम्रक है, क्योंकि अधिकारों
का जन्म समाज में होता है तथा राज्य में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है।"

ग्रीन के शब्दों में, " प्राकृतिक अवस्था में, जो कि एक असामाजिक स्थिति होती है, अधिकारों की कल्पना स्वयं ही एक विरोधाभास है।"

तार्किक आधार पर आलोचना

अतार्किक

सामाजिक समझौता सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भी असंगत है। प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों में जो कि राज्य संस्था से बिल्कुल
अपरिचित थे, एकाएक ही राजनीतिक चेतना कैसे उत्पन्न हुई? यह बात समझ में नहीं आती है, क्योंकि राजनीतिक चेतना सामाजिक जीवन में ही
उत्पन्न होती है, प्राकृतिक अवस्था में नहीं। कहावत है कि, " एक रात में चीता अपना नहीं बदल सकता।"
सामाजिक समझौता सिद्धांत की वैधानिक आधार पर आलोचना

वैधानिक आधार पर इस सिद्धान्त पर निम्न आक्षेप लगाये जाते हैं--

1. प्राकृतिक अवस्था में समझौता असम्भव

आलोचकों के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में किये गये समझौते का वैधानिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है क्योंकि कोई समझौता तभी वैध होता है जब
उसे राज्य की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है लेकिन प्राकृतिक अवस्था में राज्य का अभाव होने के कारण समझौता वैध नहीं है।

ग्रीन के शब्दों में, " समझौता सिद्धान्त में चित्रित प्राकृतिक स्थिति के अन्तर्गत कानूनी दृष्टि से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है।"

2. समझौता वर्तमान में लागू नहीं

कोई भी समझौता जिन निश्चित लोगों के मध्य होता है उन्हीं पर लागू होता है। कानूनी दृष्टि से किसी अज्ञात समय में अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गया
समझौता उसके बाद के समय और वर्तमान लोगों पर लागू नहीं किया जा सकता।

बेग्यम के अनुसार, " मेरे लिए आज्ञापालन आवयक कयहै, इसलिए नहीं कि मेरे प्रपितामह ने तृतीय जार्ज के प्रपितामह से कोई समझौता किया था, वरन्
इसलिए कि विद्रोह से लाभ की अपेक्षा हानि अद होती है। "

सामाजिक समझौता सिद्धान्त का महत्व

समाजिक समझौता सिद्धान्त का राजनीतिक विचारों के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है--

1. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त का खण्डन किया जिसमें राज को ईवर
रवका प्रतिनिधि माना जाता था। समझौता
सिद्धान्त ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया कि राज्य दैवीय नहीं वरन् मानवीय संस्था है।

2. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने इस सत्य का प्रतिपादन किया कि जनसहमति ही राज्य का आधार है, शक्ति अथवा सक की व्यक्तिगत इच्छा नहीं।

3. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने प्रभुत्व सम्बन्धी विचारधारा में महत्वपूर्ण योग दिया है। हॉब्स के विचारों के आधार पर ऑस्टिन ने वैधानिक
सम्प्रभुता के विचार का प्रतिपादन किया। लॉक ने राजनीतिक प्रभुत्व के सिद्धान्त को प्रेरणा प्रदान की और रूसो के सामान्य इच्छा सम्बन्धी विचारों ने
लोकप्रिय सम्प्रभुता की धारणा का प्रतिपादन किया।

rajya ki utpatti ka vikaswadi siddhant;राज्य के विकासवादी सिद्धान्त अनुसार, राज्य न तो दैवीय कृति है, न वह शक्ति या युद्ध से उत्पन्न हुआ है और न
ही वह व्यक्तियों के बीच परस्पर समझौते का परिणाम है। इस सिद्धान्त के अनुसार, राज्य कोई कृत्रिम संस्था नहीं वरन् एक स्वाभाविक समुदाय है।
ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त ही राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या प्रस्तुत करता है। राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रतिपादित दैवीय
सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, पैतृक तथा मातृक सिद्धान्त तथा सामाजिक समझौता सिद्धान्त, इस मान्यता पर आधारित हैं कि राज्य की उत्पत्ति किन्हीं
वि ष परिस्थितियों में अथवा किसी वि ष समय पर हुई है। इसी कारण ये सभी सिद्धान्त स्वीकार नहीं किये गये है। यह सिद्धान्त बताता है कि राज्य
विकास का परिणाम है, निर्माण का नहीं। आदिकालीन समाज से क्रमिक विकास करते-करते इसने वर्तमान राष्ट्रीय राज्यों के स्वरूप को प्राप्त कर लिया
है।

रवकी कृति है न वह उच्चकोटि के शा रीरिकबल का परिणाम है, न किसी प्रस्ताव या


इस सम्बन्ध में डॉ. गार्नर का कथन सत्य ही है कि," राज्य न तो ईवर
समझौते की कृति है और न परिवार का ही विस्तृत रूप है। यह तो क्रमिक विकास से उदित एक ऐतिहासिक संस्था है।"

विकासवादी सिद्धान्त यह कहता है कि राज्य का एक वि ष काल में जन्म नहीं हुआ बल्कि इसका तो धीरे-धीरे परिस्थितियों व विकास हुआ हैं। अब देखना
यह है कि विकास किस क्रम में हुआ हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार राज्य के विकास का यह क्रम इस प्रकार हैं--

1. परिवार

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तथा सामाजिकता के कारण वह सबसे पहले एक परिवार के रूप में संगठित हुआ होगा। इस तरह परिवार एकाकी व्यक्ति
से राज्य तक की संस्थागत यात्रा का पहला कदम हैं। यह परिवार राज्य का शुरू का स्वरूप हैं। इसमें राज्य के लगभग सारे गुण मौजूद हैं।

2. कुटुम्ब

समाज के विकास का दूसरा सौपान कुटुम्ब अथवा कबीला हैं। परिवार बढ़ाकर जब इसमें विभिन्न खाएं विकसित हो जाती हैं तो कुटुम्ब अथवा कबीला हो
जाता हैं। इसमें परिवार से विस्तृत विस्तृत रितोंश्तों
के लोग मिल होते हैं जो रक्त संबंध से जुड़े होते हैं, ये कबीले पहले बंजारा जीवन
बिताते थे। इनका सरदार होता था, जो राजा का पहले का रूप होता हैं।

3. गाँव

पहले समाज का प्रमुख व्यवसाय प पालन या प चराना या कार था तब घास और कार की खोज में ये कबीले घूमा करते थे, बाद में कृषि का विकास हो
जाने से एक स्थान पर बसने लगे। जिससे ग्राम संस्था का विकास हुआ। इसमें भी राज्य के सभी मूलभूत लक्षण मौजूद रहते है। हालांकि इसमें कई
जातियों तथा परिवार के कुटुम्ब, कबीलों के लोग मिलकर रहते हैं। इनका मुखिया राजा का पूर्ववर्ती रूप होता हैं।

4. शहर

छोटे ग्राम धीरे-धीरे तरक्की कर बड़े-बड़े ग्राम बन गए। इन्होंने कस्बों का रूप धारण किया। आगे चलकर इन्हीं से राजनीतिक चेतना के
परिणामस्वरूप नगर राज्य का विकास हुआ। ये छोटे-छोटे नगर आर्थिक सामाजिक दृष्टि से स्वावलम्बी होकर इनमें राजा के पद की स्थापना हुई अथवा
सरकार का अन्य स्वरूप विकसित हुआ। ये छोटे-छोटे राज्य थे।

5. साम्राज्य
परिवार से शुरू होकर आधुनिक राज्य तक की विकास यात्रा की विकास यात्रा में नगर राज्य के बाद साम्राज्य का विकास पहले हुआ। यह ऐसे हुआ कि आगे
चलकर नगर राज्य के योद्धा राजाओं ने अन्य पास के छोटे-छोटे नगर राज्यों को जीतकर महान यूनान रोमन साम्राज्य बेवीलोन, मगध राज्य जैसे
वि ल साम्राज्यों को जन्म दिया। इनके विकास में सिकंदर, सीजर, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त और चोल जैसे राजाओं की प्रमुख भूमिका रही।

राज्य के तत्व

राज्यों की एक समय में उत्पत्ति हुई, बाद में धीरे-धीरे विकास हुआ। राज्य के विकास में निम्न सहायक तत्वों की प्रमुख भूमिका थी--

1. सामाजिक प्रवृत्ति

राज्य के विकास में सामाजिक चेतना का भी प्रमुख हाथ था। सामाजिक चेतना ने उसे समाज का सुयोग्य नागरिक बनाया था तथा विभिन्न समुदायों में
बांटा व राज्य को इन समुदायों ने मदद की।

2. राजनैतिक चेतना

मनुष्य एक राजनैतिक प्राणी है और उसमें एक राजनैतिक चेतना होती हैं। यह राजनैतिक चेतना समाज में व्यक्तियों को एक सूत्र में बांधकर
शा सनकी स्‍थापना तथा शा सनकी आज्ञा मानने व शा सनके कार्यों में भाग लेने, अधिकार कर्त्तव्यों का पालन करने हेतु प्रेरित करते हैं।

3. आर्थिक गतिविधियाँ

कता
मनुष्य में एक आर्थिक चेतना होती हैं, जो आर्थिक क्रियाकलाप व आर्थिक कार्यों हेतु प्रेरित करती हैं। वह वस्तुओं को खरीदता व आवयकता श्य
से
अधिक वस्तुओं को बेचकर धन कमाकर अन्य जरूरत की वस्तुएं खदीदता हैं। इससे समाज का आर्थिक जीवन संगठित होता हैं।

4. शक्ति

राज्य के विकास तथा उसकी रक्षा में शक्ति ने भी प्रमुख भूमिका निभाई हैं। इस बात के इतिहास में कई प्रमाण उपलब्ध हैं।

5. रक्त संबंध

रक्त संबंधों ने उक्त विकास क्रम में परिवार, कुटुम्ब, कबीले के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई क्योंकि ये सभी रक्त संबंधों में बंधे होते हैं।

6. धर्म

राज्य के प्रारंभिक स्वरूप के विकास में धर्म की भी प्रमुख भूमिका थी। धर्म ने ही सबसे पहले जंगली मनुष्यों को मर्यादित किया। इस संबंध में
पुरोहित, जादू-टोना, ओझा की महत्ता रही। ये मनुष्य को अलौकिक शक्ति का भय दिखाकर मर्यादित अथवा नियमित करके कुछ नियम कानून मनवाते थे।
राज्य की उत्पत्ति विकासवादि सिद्धान्त की समीक्षा

यह एक माना हुआ तथ्य है, कि आधुनिक युग में राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त माना जाता हैं, क्योंकि यह सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से उत्तम
रवने बनाया है। यह सिद्धान्त सामाजिक समझौते की तरह काल्पनिक भी
हैं। यह सिद्धान्त सिद्ध कर देता है कि राज्य न तो शक्ति की उपज है और न इसे ईवर
नही हैं। इसके सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति मनुष्य की सामाजिकता व सहयोग की स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम हैं।

यह सिद्धान्त इसलिए भी मूल्यवान है क्योंकि यह राज्य को एक प्राकृतिक संस्था मानता हैं, जिसका धीरे-धीरे विकास हुआ हैं।

राज्य की उत्पत्ति के संबंध में दो प्रकार के दृष्टिकोण प्रचलित हैं-- परम्परावादी और आधुनिक। दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत, शक्ति सिद्धान्त आदि
परम्परावादी दृष्टिकोण है और आधुनिक दृष्टिकोण दो प्रकार के हैं-- प्रथम, उदारवादी और द्वितीय मार्क्सवादी दृष्टिकोण। उदारवादी दृष्टिकोण में दो सिद्धान्त
महत्वपूर्ण हैं-- सामाजिक समझौते का सिद्धान्त जिसका प्रतिपादन हाॅब्स, लाॅक तथा रूसो ने किया और विकासवादी सिद्धान्त जिसका प्रतिपादन
बेजहाट, स्पेन्सर, गिडिंग्स, लोवी आदि लेखकों ने किया। आज सभी उदारवादी लेखक, जिनमें गार्नर और मैकाईवर भी मिल हैं, राज्य की उत्पत्ति
के संबंध में विकासवादी सिद्धान्त को ही मानते हैं। इसके विपरीत मार्क्स एंगेल्स, लेनिन आदि साम्यवादी लेखक राज्य की उत्पत्ति के संबंध
में वर्ग-व्यवस्था के सिद्धान्त को मानते है। उदारवादी और मार्क्सवादी लेखक वस्तुतः समान रूप से राज्य को एक विकासजन्य संस्था मानते हैं।
मैकाईवर और एंगेल्स दोनों ही राज्य की उत्पत्ति में रक्त, वं, धर्म, शक्ति, आर्थिक कारणों और राजनीतिक चेतना के महत्व को कम या अधिक मात्रा
में स्वीकार करते हैं।

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