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October 2015: Article
October 2015: Article
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All content following this page was uploaded by Dr. Vijay . Shinde on 03 September 2016.
सिनेमा क्या है ?
डॉ. विजय स द
िं े
दे वगिरी महाववद्यालय, औरं िाबाद - 431005 (महाराष्ट्र).
जो सजीव नहीं परं तु सजीव होने का आभास पैदा करता है । एक ऐसी सपगनली दगु नया में लेकर
जाता है कक दर्शक जब तक दे ख रहे हैं तब तक उसका लुफ्त उठाते रहते हैं । मन के सारे भाव पदे पर
ववववध रं िों के साथ प्रकट होते हैं जजसे दे खकर वास्तववक दगु नया का यथाथश दर्शन होता है । गसनेमा,
किल्म अथवा चलगचत्र में एक के बाद एक कई गचत्र इस तरह दर्ाशए जाते हैं कक गनजीव भी सजीव होने
का आभास होता है । किल्मों का गनमाशण वीकियो कॅमरे से होता है परं तु उसके साथ जुड़कर ऐसे कई दस
ू रे
आयाम और ववर्ेष प्रभावकारी तकनीकों की वजह से उसे और अगधक मनोरं जक बनाया जाता है । परदे पर
चलनेवाली तस्वीरें ककसी न ककसी कहानी को प्रकट करती है , जो कहानी हमारे जीवन और अनुभवों से
जुड़कर साकार रूप लेती है ।
गसनेमा का प्रचार और प्रसार उदय के बाद बड़ी तेजी के साथ हुआ है और पूरी दगु नया में ववववध
भाषाओं में िैली यह इं िस्री लाखों लोिों की कला को नवाजती जा रही है , करोड़ों लोिों की जेबों में पैसा
पहुंचा रही है । यहां प्रवेर् बहुत कठीन है पर एक बार रास्ता बना कदया जाए और मेहनत लिन से काम
ककया जाए तो वबना र्क्ल-सूरत के अच्छी कला और मेहनत के बल पर चोटी तक पहुंच सकते हैं । दगु नया
की आबादी बहुत ज्यादा है , जजसमें किल्मी दर्शकों की कमी नहीं। नई तकनीकों के चलते अच्छी किल्में
कई भाषाओं में दे खने की सुववधा उपलब्ध है । अथाशत ् गसनेमा वह जाद ू की छड़ी बना है जजसको घुमाते ही
दर्शकों के चेहरे पर हं सी अंककत हो सकती है और आंखों से आसुओं की धारा भी गनकल सकती है ।
गसनेमा के दो पक्ष हमेर्ा से ताकतवर रहे हैं – एक है व्यावसागयक गसनेमा जजसमें केवल पैसा ही
काम करता है । व्यावसागयक गसनेमा में जजतना भी पैसा लिवाया जाता है उससे कई िुना लाभ कमाने की
अपेक्षा होती है । इसमें ववगर्ष्ट विश, समूह को केंद्र में रखे गसनेमा की कहानी को बुना जाता है और उसके
माध्यम से केवल दर्शकों के जेबों पर नजर होती है । दस
ू रा गसनेमा है कलात्मक, जजसमें पैसा लिाया जाता
है परं तु लाभ का कोई भरौसा नहीं; परं तु आज इसमें नुकसान भी नहीं है , जजतना लिाया जाता है उससे
अगधक जरूर गमलता है । साथ ही पुरस्कार, सराहनाएं, सामाजजक पररवतशन, समस्या अंकन और किल्म
गनमाशताओं तथा उससे जुड़ी प्रत्येक सदस्य के कलात्मक रुगच की परख भी होती है । इस सिलता से उसके
सामने कई व्यावसागयक गसनेमा के प्रस्ताव आने लिते हैं । मतलब पैसा कमाने की पहली सीढ़ी अपनी
कलात्मकता को कसौटी पर उतारने के बाद ही प्राप्त होती है ।
1. लोकविय कला
बीसवीं र्ताब्दी की लोकवप्रय कला गसनेमा है । यह एक ऐसी कला है जजसमें बाकी की सारी
कलाओं को समेटा जा सकता है । बाकी सारी कलाएं भी इसमें वबना रोकटोक समाने के गलए तत्पर है
क्योंकक यह दर्शकों के गलए सहज उपलब्ध होनेवाला साधन है । अपने आपको सबके सामने प्रस्तुत करना है
तो गसनेमा एक सवशसम्मत साधन है । गसनेमा में प्रकार् ववज्ञान, रसायन ववज्ञान, ववद्युत ववज्ञान, कॅमरा
तकनीक, िोटोग्रािी तथा दृवष्ट ववज्ञान के भीतर हुई नई खोजों के चलते अद्भत
ु पररवतशन आ चुके हैं ।
जजलेकटन किल्मों का प्रयोि, प्रोजेक्टर, लेंस ऑजटटक्स तथा कंटयुटर के नए पररवतशन और प्रोग्रॅमों के चलते
गसनेमा के दर्शकों पर पड़नेवाला अंगतम प्रभाव लोकवप्रय कला बनाने में सक्षम बन पाया है । गसनेमा के कई
ववकल्प बाजार में आए परं तु इसकी स्पधाश में वे कटक नहीं पाए। यह अभी भी लोिों पर अपना असर
2. िािवभौसमक अपील
गसनेमा का आकषशण और अपील सावभौगमक है । दगु नया में कोई भी व्यवि नहीं गमलेिा कक जजसे
गसनेमा पसंद नहीं हो। इसीगलए कई भाषाओं और कई इं िजस्रयों के बावजूद भी गसनेमा गनमाशण लाभ का
धंदा है । पूरे ववश्व में यह सावशभौगमकता बरकरार है । भारत का उदाहरण गलया जा सकता है । भारत कई
भाषाओं का दे र् है , जजसमें कहं दी, अंग्रेजी के साथ कई प्रादे गर्क भाषाओं में भी किल्में बनती है और उनकी
लाभकारी खपत होती है । पसंकदता किल्में एक भाषा से दस
ू री भाषा का सिर भी करती है या भाषा आए
न आए मूल भाषा में भी दे खी जाती है ।
गसनेमा गनमाशण के कई प्रमुख केंद्र हैं , ववश्वमंच के तौर पर हॉलीहुड़ का नाम गलया जाता है और
यहीं भारत में बॉलीहुड़ है । भारत में दजक्षण की किल्मों के गलए टॉलीहुड़ पयाशय बन चुका है । इसके अलावा
भारत के अन्य राज्यों में भी उनके प्रमुख र्हरों में प्रादे गर्क भाषा के अनुकूल केंद्र बन चुके हैं । संपूणश
दगु नया की तुलना में भारतीय किल्म इं िस्री के भीतर सबसे ज्यादा किल्में बनती है । गसनेमा आसानी से
नई तकनीक आत्मसात करता है । मूक गसनेमा (मूवीज) से लेकर सवाक गसनेमा (टॉकीज), रं िीन गसनेमा,
थ्री िी गसनेमा, िोर िी गसनेमा, स्टीररयो साऊंि, गसनेमास्कोप, वाइि स्रीन और आय मैक्स आकद
पररवतशन गसनेमा के सावशभौगमकता में एक-एक गसतारे को जोड़ते िए हैं । करकेट के बीस ओव्हर के मैचों
के गलए ‘टी ट्वेंटी’ कहा िया और तीन घंटों में खत्म होनेवाले एक मैच के गलए एक किल्म दे खने के
एहसास से जोड़ा िया अथाशत ् करकेट के भीतर भी किल्म का एहसास पाने की कोगर्र् हो रही है ; इससे
गसनेमा की सावशभौगमकता और एहमीयत रे खांककत होती है ।
7. िािवजसनक कला
किल्में एक समूह द्वारा समाज के गलए बनाई जाती है । किल्मों पर ककसी अकेले का अगधकार नहीं
होता है , उसे बनाते वि कई लोिों का योिदान होता है , तभी जाकर एक अच्छी और सिल किल्म बनती
है । किल्म बनाने में छोटी बड़ी भूगमका गनभानेवाला प्रत्येक सदस्य कहता है कक यह मेरी किल्म है , दर्शक
और समाज का प्रत्येक व्यवि भी उस किल्म में गचवत्रत घटना, प्रसंि और ववषय से जुड़कर कहता है कक
यह मेरी किल्म है । अथाशत ् इससे स्पष्ट होता है कक गसनेमा सावशजगनक कला है और इसे कोई भी नहीं
भूले। बनानेवाले भी इसे हमेर्ा याद रखते हैं तभी वह सावशजगनक कला बनती है और सावशजगनक स्वीकृ गत
पाती है । गसनेमा के आरं भ से ही इसे सावशजगनक कला के रूप में प्रस्तुत ककया है । इसगलए उसने एक के
बाद एक ववकास की सीकढ़यां पार की है । ववनोद भारद्वाज इस पर प्रकार् िालते हुए गलखते हैं कक "इस
ढांचे में दे खे, तो एक िंभीर किल्मकार जो अपनी गनयंवत्रत कल्पनार्वि से इतने लंबे समय तक किल्में
बनाता रहा है वह इस बात को नहीं भूलना चाहता कक दर्शकों का मेरे साथ कोई सीधा और दागयत्वपूणश
संबंध है । मुझे अिर उनसे गनयंवत्रत नहीं होना है , तो मैं इस बात को भूल भी नहीं सकता कक किल्म
सबसे पहले और सबसे बाद में एक सावशजगनक कला है ।" (गसनेमा – कल, आज, कल पृ. 45)
कुलगमलाकर गनष्कषश यह गनकलता है कक गसनेमा सावशजगनक कला है और उसी रूप में बने रहने में उसकी
सजीवता को बनाए रखता है ।
8. चमत्काररक कला
गनजीव वस्तुओं के सहारे सजीव होने का एहसास पाने की जिह गसने मा है , अतः उस बहाने
गसनेमा चमत्काररक कला है । गलगमएर बंधओ
ु ं (ऑिस्टी व लुईस गलगमएर) द्वारा बनाई पहली किल्म जब
िारािं
गसनेमा वतशमान युि में इं सान को प्रभाववत करनेवाला अत्यंत सहज और सरल साधन है । इसका
स्वरूप, रूप, अथश और आकार इं सान के सर चढ़कर बोलने लिा है । हालांकक टलेटो बौविकवादी इं सान थे
और ऐंकद्रय सुखों और आनंद को नकारते थे परं तु उन्होंने भी यह बात कदल पर पत्थर रखे स्वीकारी होिी
या हो सकता है कक उन्होंने एक गसिांत को समाज के सामने रखा और उसके साथ अंत तक बने रहे । वैसे
ववचारक और दार्शगनक अपनी बातों पर अड़े रहना भगलभांगत जानते हैं चाहे वह सच हो न हो। बाद में
अपने ही अनुयायी, गर्ष्य उसी काल में नई स्थापनाएं करे तो भी उसको स्वीकारते नहीं। मौन रहें िे, नहीं
तो अपनी ही बांसूरी बजाते रहें िे। मन और बुवि की श्रेष्ठता और िौणता यहां वववाद का ववषय नहीं है । जो
बात मनुष्य के गलए उन पररजस्थगतयों में उपयोिी सावबत हो वह श्रेष्ठ हैं , चाहे वह बौविक पक्षवाला आनंद