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Dr. Vijay . Shinde


Deogiri College
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RESEARCH FRONT
ISSN
(Print) 2320 – 6446, (Online) 2320 – 8341

सिनेमा क्या है ?
डॉ. विजय स द
िं े
दे वगिरी महाववद्यालय, औरं िाबाद - 431005 (महाराष्ट्र).

जो सजीव नहीं परं तु सजीव होने का आभास पैदा करता है । एक ऐसी सपगनली दगु नया में लेकर
जाता है कक दर्शक जब तक दे ख रहे हैं तब तक उसका लुफ्त उठाते रहते हैं । मन के सारे भाव पदे पर
ववववध रं िों के साथ प्रकट होते हैं जजसे दे खकर वास्तववक दगु नया का यथाथश दर्शन होता है । गसनेमा,
किल्म अथवा चलगचत्र में एक के बाद एक कई गचत्र इस तरह दर्ाशए जाते हैं कक गनजीव भी सजीव होने
का आभास होता है । किल्मों का गनमाशण वीकियो कॅमरे से होता है परं तु उसके साथ जुड़कर ऐसे कई दस
ू रे
आयाम और ववर्ेष प्रभावकारी तकनीकों की वजह से उसे और अगधक मनोरं जक बनाया जाता है । परदे पर
चलनेवाली तस्वीरें ककसी न ककसी कहानी को प्रकट करती है , जो कहानी हमारे जीवन और अनुभवों से
जुड़कर साकार रूप लेती है ।
गसनेमा का प्रचार और प्रसार उदय के बाद बड़ी तेजी के साथ हुआ है और पूरी दगु नया में ववववध
भाषाओं में िैली यह इं िस्री लाखों लोिों की कला को नवाजती जा रही है , करोड़ों लोिों की जेबों में पैसा
पहुंचा रही है । यहां प्रवेर् बहुत कठीन है पर एक बार रास्ता बना कदया जाए और मेहनत लिन से काम
ककया जाए तो वबना र्क्ल-सूरत के अच्छी कला और मेहनत के बल पर चोटी तक पहुंच सकते हैं । दगु नया
की आबादी बहुत ज्यादा है , जजसमें किल्मी दर्शकों की कमी नहीं। नई तकनीकों के चलते अच्छी किल्में
कई भाषाओं में दे खने की सुववधा उपलब्ध है । अथाशत ् गसनेमा वह जाद ू की छड़ी बना है जजसको घुमाते ही
दर्शकों के चेहरे पर हं सी अंककत हो सकती है और आंखों से आसुओं की धारा भी गनकल सकती है ।
गसनेमा के दो पक्ष हमेर्ा से ताकतवर रहे हैं – एक है व्यावसागयक गसनेमा जजसमें केवल पैसा ही
काम करता है । व्यावसागयक गसनेमा में जजतना भी पैसा लिवाया जाता है उससे कई िुना लाभ कमाने की
अपेक्षा होती है । इसमें ववगर्ष्ट विश, समूह को केंद्र में रखे गसनेमा की कहानी को बुना जाता है और उसके
माध्यम से केवल दर्शकों के जेबों पर नजर होती है । दस
ू रा गसनेमा है कलात्मक, जजसमें पैसा लिाया जाता
है परं तु लाभ का कोई भरौसा नहीं; परं तु आज इसमें नुकसान भी नहीं है , जजतना लिाया जाता है उससे
अगधक जरूर गमलता है । साथ ही पुरस्कार, सराहनाएं, सामाजजक पररवतशन, समस्या अंकन और किल्म
गनमाशताओं तथा उससे जुड़ी प्रत्येक सदस्य के कलात्मक रुगच की परख भी होती है । इस सिलता से उसके
सामने कई व्यावसागयक गसनेमा के प्रस्ताव आने लिते हैं । मतलब पैसा कमाने की पहली सीढ़ी अपनी
कलात्मकता को कसौटी पर उतारने के बाद ही प्राप्त होती है ।

1. लोकविय कला
बीसवीं र्ताब्दी की लोकवप्रय कला गसनेमा है । यह एक ऐसी कला है जजसमें बाकी की सारी
कलाओं को समेटा जा सकता है । बाकी सारी कलाएं भी इसमें वबना रोकटोक समाने के गलए तत्पर है
क्योंकक यह दर्शकों के गलए सहज उपलब्ध होनेवाला साधन है । अपने आपको सबके सामने प्रस्तुत करना है
तो गसनेमा एक सवशसम्मत साधन है । गसनेमा में प्रकार् ववज्ञान, रसायन ववज्ञान, ववद्युत ववज्ञान, कॅमरा
तकनीक, िोटोग्रािी तथा दृवष्ट ववज्ञान के भीतर हुई नई खोजों के चलते अद्भत
ु पररवतशन आ चुके हैं ।
जजलेकटन किल्मों का प्रयोि, प्रोजेक्टर, लेंस ऑजटटक्स तथा कंटयुटर के नए पररवतशन और प्रोग्रॅमों के चलते
गसनेमा के दर्शकों पर पड़नेवाला अंगतम प्रभाव लोकवप्रय कला बनाने में सक्षम बन पाया है । गसनेमा के कई
ववकल्प बाजार में आए परं तु इसकी स्पधाश में वे कटक नहीं पाए। यह अभी भी लोिों पर अपना असर

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बनाए हुए है या युं कह सकते हैं कक पहले की अपेक्षा इसने अपनी पकड़ ज्यादा मजबूत की है । लोकवप्रय
कला बनने का एक और कारण यह भी है कक गसनेमा दर्शकों की मांि के कहसाब से ढलता िया और
अपने मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए नए पररवतशन और वैज्ञागनक िगत के साथ आिे बढ़ता िया।
किल्मी गसतारों के प्रगत लोिों का आकषशण चुब
ं क जैसा है । ककसी का पररचय करवाते हुए केवल यह बताया
जाए कक इस किल्म का संिीत इसने कदया है , इस किल्म के िीत इसने गलखे हैं या इस किल्म में इसने
यह काम ककया है तो लोिों की उसके प्रगत दे खने की दृवष्ट ही बदल जाती है । अथाशत ् मायावी दगु नया के
प्रगत लोिों के आंखों में सम्मान, आकषशण, प्रेम, कौतुहल है , अतः उसकी लोकवप्रयता बरकरार है । गसनेमा
ने टी. वी. वीकियो, सॅटेलाईट, िीवीिी, केबल जैसे अववष्कारों का गनमाशण भी ककया है । मोबाईल दगु नया के
गलए एक नया अववष्कार रहा है परं तु मोबाईल के भीतर के ऍटस भी गसनेमा के कहसाब से बनाए जाना
उसके लोकवप्रय कला होने को दर्ाशते हैं ।

2. िािवभौसमक अपील
गसनेमा का आकषशण और अपील सावभौगमक है । दगु नया में कोई भी व्यवि नहीं गमलेिा कक जजसे
गसनेमा पसंद नहीं हो। इसीगलए कई भाषाओं और कई इं िजस्रयों के बावजूद भी गसनेमा गनमाशण लाभ का
धंदा है । पूरे ववश्व में यह सावशभौगमकता बरकरार है । भारत का उदाहरण गलया जा सकता है । भारत कई
भाषाओं का दे र् है , जजसमें कहं दी, अंग्रेजी के साथ कई प्रादे गर्क भाषाओं में भी किल्में बनती है और उनकी
लाभकारी खपत होती है । पसंकदता किल्में एक भाषा से दस
ू री भाषा का सिर भी करती है या भाषा आए
न आए मूल भाषा में भी दे खी जाती है ।
गसनेमा गनमाशण के कई प्रमुख केंद्र हैं , ववश्वमंच के तौर पर हॉलीहुड़ का नाम गलया जाता है और
यहीं भारत में बॉलीहुड़ है । भारत में दजक्षण की किल्मों के गलए टॉलीहुड़ पयाशय बन चुका है । इसके अलावा
भारत के अन्य राज्यों में भी उनके प्रमुख र्हरों में प्रादे गर्क भाषा के अनुकूल केंद्र बन चुके हैं । संपूणश
दगु नया की तुलना में भारतीय किल्म इं िस्री के भीतर सबसे ज्यादा किल्में बनती है । गसनेमा आसानी से
नई तकनीक आत्मसात करता है । मूक गसनेमा (मूवीज) से लेकर सवाक गसनेमा (टॉकीज), रं िीन गसनेमा,
थ्री िी गसनेमा, िोर िी गसनेमा, स्टीररयो साऊंि, गसनेमास्कोप, वाइि स्रीन और आय मैक्स आकद
पररवतशन गसनेमा के सावशभौगमकता में एक-एक गसतारे को जोड़ते िए हैं । करकेट के बीस ओव्हर के मैचों
के गलए ‘टी ट्वेंटी’ कहा िया और तीन घंटों में खत्म होनेवाले एक मैच के गलए एक किल्म दे खने के
एहसास से जोड़ा िया अथाशत ् करकेट के भीतर भी किल्म का एहसास पाने की कोगर्र् हो रही है ; इससे
गसनेमा की सावशभौगमकता और एहमीयत रे खांककत होती है ।

3. परिं परागत कलाओिं का एकत्रीकरण


गसनेमा ने परं पराित कलाओं को अपनाया है और ववश्व की परं पराित कलाएं बेकहचक गसनेमा में
जैसे है वैसे स्थान पा चुकी है । या ऐसा भी कहा जा सकता है गसनेमा एक मंच है और उसके माध्यम से
सारी कलाओं का प्रदर्शन दगु नयाभर में हो रहा है , परं तु वह प्रदर्शन गसनेमा के मापदं ड़ और िॉमश के कहसाब
से हो रहा है । आरं गभक दौर में गसनेमा के गलए तकनीकी सीमाएं तो थी ही, दगु नया का एक कहस्सा दस
ू रे
कहस्से से अपररगचत होना भी अड़चनें गनमाशण करता था, परं तु आज गसनेमा और अन्य साधनों के माध्यम
से दगु नया का एक छोर दस
ू रे छोर से बहुत नजकदक आ चुका है और अपररगचत चीजें भी पररगचत हो चुकी
है । दगु नयाभर में घकटत सारी घटनाएं और कलाएं हमारे नजकदक आ चुकी है । अपररगचत घटनाएं और
कलाएं भी अपनी बनी है । इन कलाओं का इकठ्ठा िॉमश गसनेमा उसका पयाशय बन चुका है । गछपी हुई,
अपररगचत, उपेजक्षत, नजरं दाज तथा दगु नयां की नजरों से दरू की कलाओं को भरपूर सौंदयश के बावजूद भी

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वह स्थान और महत्त्व नहीं गमलता जजसका हक उन्हें हैं । अथाशत ् गसनेमा परं पराित कलाओं को इकठ्ठा
करने का माध्यम बन चुका है ।
ऊपर कलाओं के एकत्रीकरण का एक पक्ष है और उसका दस
ू रा पक्ष यह भी है कक गसनेमा जजन
कलाओं को अपनाता है उन्हें नुकसान ककए वबना जैसे के वैसे बना रहने दे ता है । उसे मूल सौंदयश के साथ
कदखाने के गलए गसनेमा ने अपनी र्ैली में नए तत्त्वों को जोड़ना पसंद ककया है । उदाहरणाथश कहानी और
उपन्यास की तरह मनुष्य की भौगतक करयाओं को उसके अंतमशन के साथ जोड़ दे ता है । गचत्रकला की तरह
सारी चीजों का संयोजन करते हुए कररने से सजाता है , छाया तथा प्रकार् के करया-प्रगतकरयाओं को
खूबसूरती के साथ सामने रखता है । साकहत्य, गचत्रकला, रं िमं च, संिीत, गर्ल्प को अपने सौंदयशस्थलों के
साथ गसनेमा ताकतवर बना है । अथाशत ् इन कलाओं से पूंजी पाकर गसनेमा इनसे बहुत आिे गनकल चुका
है । गसनेमा में साकहत्य (पटकथा और िीत), गचत्रकला (ऍगनमेर्न और काटू श न), रं िमंच (अगभनेता) और
ध्वगनर्ास्त्र (संवाद और संिीत) आकद र्ागमल है । इन कलाओं का लाभ उठाने के गलए गसनेमा ने आधुगनक
तकनीकों का सहारा भी गलया है ।

4. विश्व िभ्यता का बहुमूल्य खजाना


जो हमें बहुत अगधक पसंद है उसे हम अपनी आंखों का तारा कहते हैं , उसे अपने कदल में सजाकर
रखते हैं । गसनेमा के गलए हर एक के कदल, कदमाि और आंखों मे यहीं स्थान और टयार दे खा जा सकता
है । गसनेमा का इगतहास बहुत लंबा और पूराना तो है नहीं लेककन बहुत जजल्द वह दर्शकों के सर चढ़कर
बोलने लिा और अपनी चरम ववकास अवस्था तक पहुंच चुका है । गसनेमा सपनों की दगु नया को कदखाता है
लेककन ऐसा भी नहीं कक वह यथाथश से हट जाता है । यथाथश से जुड़कर सपने कदखाने का काम गसनेमा
करता है । इससे ववश्व की सारी सभ्यताएं और संस्कृ गतयां गसनेमा के माध्यम से सबके गलए सहज उपलब्ध
हो रही है । मानव द्वारा कई नए अववष्कारों का गनमाशण हो चुका है वह उसकी सभ्यता का अंर् भी बन
चुके हैं , उसमें गसनेमा बहुमूल्य खजाना और चमकता तारा है ।

5. यथाथव और यथाथव िे परे


टलेटो ने कलाओं के यथाशथवाकदता पर प्रश्न गचह्न खड़ा ककया और गचंतन की दगु नया में कला की
वास्तववकता और यथाथशता पर बहसें होती रही। खैर जो भी हो इन बहसों से कलाओं के खूबसूरती, प्रगसवि,
मांि, रुगच और तपस्या पर कोई असर पड़ा नहीं। मनुष्य यंत्र नहीं, उसके पास मन है , हृदय है , भाव हैं ।
इनके आधार पर वह कई कल्पनाएं करता हैं , वह साकार हो या नहीं हो किर भी काल्पगनक दगु नया में
ववचरण करने लिता है । श्याम के समय सिेद-काले उमड़ते बादलों को दे खकर उसकी आंखें उसमें कई
गचत्रकृ गतयां दे खती है । िमी की चांदनी रातों में आंिन में पड़े -पड़े चमककले तारों को दे ख उसके सपनों की
दगु नया गचत्रों में बदल जाती है । यह दगु नया झूठ होकर भी बड़ी टयारी होती। यहीं मनुष्य मन की खूबसूरती
किल्मों का आधार बनी व्यविित कल्पनाएं साकार रूप में तब्दील होकर परदे पर उतरने लिी तो वह
चककत हो िया। धीरे -धीरे किल्म गनमाशताओं ने यह भी पहचाना कक किल्म किल्म होती है परं तु उसे यथाथश
से दरू लेकर जाना उसकी आत्मा को मारना है । अतः यथाथश से जुड़कर कुछ यथाथश के परे जाकर किल्म
दर्शक की पसंद के कहसाब से बनाई जानेवाली तकनीक है । किल्मी गचंतक और समीक्षक भी किल्मों के
यथाथश और कल्पना में बहसें कर बेवजह समय की बबाशदी करते रहे हैं । यहां लड़ाई ककस पलड़े का भारी
होना नहीं है तो दोनों के उगचत गमश्रण की है । गसनेमा कुछ यथाथश और कुछ यथाथश से परे है इसे स्वीकार
कर बहसे खत्म करनी चाकहए।

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6. िमय और िमाज का िसतवबिंब
गसनेमा के भीतर किल्माएं दृश्य, घटनाएं और वववेगचत कहागनयां अपने समय और समाज का
प्रगतवबंब होती है । गसनेमा के पटकथा का मूल धरातल साकहत्य है और साकहत्य की कोई कृ गत गसनेमाई
रूप धारण कर परदे पर उतर रही है तो वह रचनाकार की ही बात करे िी। रचनाकार अपने समय की
उपज होता है । कहीं न कहीं साकहत्यकार को उसका समय आंदोगलत करता है और उससे आहत होकर वह
मन की बात कािज पर उतारते जाता है । जब कोई साकहजत्यक कृ गत पटकथा का रूप धारण कर गसनेमाई
िॉमश में ढल जाती है तो मूल रचना के कुछ अंतरों के साथ अपने समय की ही बात करती है । ओम पुरी
गलखते हैं , "गसनेमा को अपने समाज का, अपने समय का प्रगतवबंब होना चाकहए। जैसे आप अपने को
आईने में दे खते हैं , वैसे ही किल्म के माध्यम से समाज को उसमें दे ख सकें।" (कहं दी गसनेमा का सच, पृ.
63) अथाशत ् समय और समाज का प्रगतवबंब किल्मों में उतरे तो वह दर्शकों की पसंद में उतरती है । किल्में
दर्शकों से पसंद न की जाए, दे खी न जाए तो उसमें लिी लाित का भुितान करना संभव नहीं होिा,
अंततः किल्म गनमाशता कंिाल होता जाएिा। खैर दगु नया की आबादी इतनी बड़ी है कक आप उसकी रुगच
और समय-समाज का तालमेल वबठाकर चलने की कोगर्र् करें तो सिल बन सकते हैं । समय से आिे
जाकर बनती साय-िाय किल्में भी हमें लिता है समय और समाज का प्रगतवबंब नहीं है । ले ककन यह
किल्में भी समय और समाज का ही प्रगतवबंब होती है , जो ककसी लेखक, पटकथा लेखक, गनमाशता के
कदमाि में चल रहे समय और समाज के ही प्रगतवबंब को साकार करती है । वह भववष्य के नए अववष्कारों
की ओर संकेत करती है । गसनेमा के भीतर दर्ाशई िई काल्पगनक दगु नया नवीन अनुसंधान क्षेत्रों को खोल
दे ती है । केवल भववष्य के ही नहीं तो भूतकाल की कल्पानाओं को भी साकार रूप में लेकर आने का साधन
किल्म है । सारी किल्मी दगु नया में ऐसे ढे रों किल्में हम दे ख सकते हैं , जजसमें साय-िाय तकनीक का
उपयोि बड़ी चतुरता के साथ ककया है ।

7. िािवजसनक कला
किल्में एक समूह द्वारा समाज के गलए बनाई जाती है । किल्मों पर ककसी अकेले का अगधकार नहीं
होता है , उसे बनाते वि कई लोिों का योिदान होता है , तभी जाकर एक अच्छी और सिल किल्म बनती
है । किल्म बनाने में छोटी बड़ी भूगमका गनभानेवाला प्रत्येक सदस्य कहता है कक यह मेरी किल्म है , दर्शक
और समाज का प्रत्येक व्यवि भी उस किल्म में गचवत्रत घटना, प्रसंि और ववषय से जुड़कर कहता है कक
यह मेरी किल्म है । अथाशत ् इससे स्पष्ट होता है कक गसनेमा सावशजगनक कला है और इसे कोई भी नहीं
भूले। बनानेवाले भी इसे हमेर्ा याद रखते हैं तभी वह सावशजगनक कला बनती है और सावशजगनक स्वीकृ गत
पाती है । गसनेमा के आरं भ से ही इसे सावशजगनक कला के रूप में प्रस्तुत ककया है । इसगलए उसने एक के
बाद एक ववकास की सीकढ़यां पार की है । ववनोद भारद्वाज इस पर प्रकार् िालते हुए गलखते हैं कक "इस
ढांचे में दे खे, तो एक िंभीर किल्मकार जो अपनी गनयंवत्रत कल्पनार्वि से इतने लंबे समय तक किल्में
बनाता रहा है वह इस बात को नहीं भूलना चाहता कक दर्शकों का मेरे साथ कोई सीधा और दागयत्वपूणश
संबंध है । मुझे अिर उनसे गनयंवत्रत नहीं होना है , तो मैं इस बात को भूल भी नहीं सकता कक किल्म
सबसे पहले और सबसे बाद में एक सावशजगनक कला है ।" (गसनेमा – कल, आज, कल पृ. 45)
कुलगमलाकर गनष्कषश यह गनकलता है कक गसनेमा सावशजगनक कला है और उसी रूप में बने रहने में उसकी
सजीवता को बनाए रखता है ।

8. चमत्काररक कला
गनजीव वस्तुओं के सहारे सजीव होने का एहसास पाने की जिह गसने मा है , अतः उस बहाने
गसनेमा चमत्काररक कला है । गलगमएर बंधओ
ु ं (ऑिस्टी व लुईस गलगमएर) द्वारा बनाई पहली किल्म जब

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परदे पर दे खने के गलए दर्शक बैठें तो उसको चलते दे ख दर्शकों में चमत्कार, आश्चयश, भय जैसे भाव
गनमाशण हुए उसका कारण ‘अरायव्हल ऑि द रे न’ (1895) में वे जो भी दे ख रहे थे उसकी उन्हें आदत
नहीं थी। जजसकी हमें आदत नहीं होती हैं और हमारी कल्पना के परे की चीजें होती हैं उसे दे ख चमत्कार
गनमाशण होना स्वाभाववक है । यह चमत्काररक कला की ववर्ेषता आज भी गसनेमा में बरकरार है । कदनेर्
श्रीनेत गसनेमा के इस कला की ववर्ेषता बताते गलखते हैं , "पेररस ने गसनेमा की र्ुरुआत का श्रेय भले ही
गलया हो, जमशनी, इं िलैंि, इटली और अमेररका में भी इस गसलगसले में प्रयोि चल रहे थे। दरअसल
अववष्कार की प्रकरया के दौरान ही पजश्चम ने इसकी व्यावसागयक संभावनाओं को भांप गलया था। इसका
नतीजा यह हुआ कक पहले कदन से ही इस जादईु लालटे न का इस्तेमाल लोिों को लुभानेवाली एक
चमत्काररक कला के रूप में होने लिा।" (पजश्चम और गसनेमा, पृ. 7) हमारी कल्पना के परे की चीजें,
ववषय, घटना प्रसंि परदे की आंख से एकदम दे ख लेते हैं । आज थ्री िी, िोर िी की किल्में दे खना उसी
का अनुभव दे ती है । नई किल्में को दे खना हमारी सारी कल्पानाओं को धरार्ाही कर दे ता हैं और आधुगनक
तकनीकों के सहायता से उन चमत्कारों में पहले से ज्यादा जीवंत होने का एहसास पाते हैं । जब तक
किल्म चलती है तब तक उन चमत्कारों का लुफ्त दर्शक उठाते हैं लेककन उसमें अपने आस-पास को भूला
दे ने की क्षमता भी है ।

9. बीििीिं िदी की ििवश्रष्ठ


े कला
बीसवीं सदी के कई कला अववष्कारों में से एक अववष्कार किल्म कला भी है । बाकी अववष्कार
लोिों के साथ जुड़े परं तु उसका स्वरूप सामूकहक नहीं रहा, वे ववगर्ष्टता के साथ एक ही से जुड़े रहे या जब
जरूरत होती है तभी इन अववष्कारों की उपयोगिता सावबत होती है । लेककन गसनेमा एक ऐसा कला
अववष्कार है जो व्यवि और व्यवि-समूह के साथ हमेर्ा चलता रहा है । बहुत नया कला अववष्कार और
सबसे वप्रय कला अववष्कार होने के कारण मानो वह इं सान की जेब में ही उपलब्ध है । हमारे आस-पास
अब इतने साधन है कक बीसवीं सदी की सवशश्रष्ठ
े कला गसनेमा को चलते-चलते पा सकते हैं । उसकी यह
सहज उपलब्धता उसको सवशश्रष्ठ
े कला में स्थावपत कर दे ती हैं , साथ ही इसमें बाकी सारी कलाएं बड़े आराम
के साथ समा भी जाती है । गसनेमा को ‘बीसवीं सदी की सवशश्रष्ठ
े कला’ इसगलए कहा कक "एक तो यह सभी
कलाओं – नृत्य, िीत, अगभनय, लेखन, नाटक का संिम है , अनेक तरह की तकनीक के परिेक्र्न की
मांि करता है और दस
ू रे , अपने दर्शक को व्यविित और सामूकहक, दोनों स्तरों पर आनंद की अनुभूगत
कराता है । वह हॉल में भीड़ के साथ बैठकर किल्म दे खता है , परं तु दर्श क के तौर पर अकेले रस लेता है ।"
(किल्म पत्रकाररता, पृ. 78) गसनेमा की भीड़ में होकर भी अकेले में रस लेने की ववर्ेषता अनूठी है । आज
ववज्ञान ने कई नए अववष्कार ककए जो इस अकेले रस लेने की खूबी को पुष्ट कर रहे हैं । नई तकनीकें इस
सवशश्रष्ठ
े कला को और अगधक ताकतवर रूप में हमारे सामने रख सकती है ।

िारािं
गसनेमा वतशमान युि में इं सान को प्रभाववत करनेवाला अत्यंत सहज और सरल साधन है । इसका
स्वरूप, रूप, अथश और आकार इं सान के सर चढ़कर बोलने लिा है । हालांकक टलेटो बौविकवादी इं सान थे
और ऐंकद्रय सुखों और आनंद को नकारते थे परं तु उन्होंने भी यह बात कदल पर पत्थर रखे स्वीकारी होिी
या हो सकता है कक उन्होंने एक गसिांत को समाज के सामने रखा और उसके साथ अंत तक बने रहे । वैसे
ववचारक और दार्शगनक अपनी बातों पर अड़े रहना भगलभांगत जानते हैं चाहे वह सच हो न हो। बाद में
अपने ही अनुयायी, गर्ष्य उसी काल में नई स्थापनाएं करे तो भी उसको स्वीकारते नहीं। मौन रहें िे, नहीं
तो अपनी ही बांसूरी बजाते रहें िे। मन और बुवि की श्रेष्ठता और िौणता यहां वववाद का ववषय नहीं है । जो
बात मनुष्य के गलए उन पररजस्थगतयों में उपयोिी सावबत हो वह श्रेष्ठ हैं , चाहे वह बौविक पक्षवाला आनंद

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हो या ऐंकद्रय पक्षवाला आनंद हो। गसनेमा मनुष्य के सपनों को सजा रहा है , संवार रहा है और उसे अपने
काल्पगनक दगु नया के सहारे यथाथश को पररगचत करवा रहा है , तो अत्यंत लाभकारी है । आज दगु नया के
पास जो भी नव-नवीन खोजों की उपलब्धता है वह उसकी कल्पना का ही कमाल है । गसनेमा मनुष्य
ववकास में योिदान दे रहा है और उसको अपनी वास्तववकताओं से पररगचत करवाते हुए आनंद भी प्रदान
कर रहा है ।
गसनेमा चलती हुई तस्वीरों का और सपनों का कारखाना है । वह लोकवप्रय कला, सावशभौगमक
अपील, परं पराित कलाओं का एकत्रीकरण, ववश्व सभ्यता का बहुमूल्य खजाना, यथाथश और यथाथश से परे
लेकर जाने के गलए जाद ू की छड़ी, समय और समय के प्रगतवबंब को अंकीत करने का साधन, अपनी
दगु नया का प्रदर्शन करने का तरीका, सबके गलए उपलब्ध सावशजगनक कला, दगु नया को चौकानेवाली
चमत्काररक कला और बीसवीं सदी की सवशश्रष्ठ
े कला है । किल्मों में कहागनयां, िीत और संिीत जजस रूप
में समाववष्ट हुए हैं उन्हें गसनेमा को सक्षम बना रहा है , साथ ही भववष्य में यह और नए रूप में आने के
संकेत दे रहा है । नई तकनीकें और ववज्ञान इसे और सक्षम, प्रभावकारी और जीवंत बनाने में जुटा है । जो
कभी सजीव नहीं और हो नहीं सकता उसका सजीव होने का आभास गनमाशण करना दर्शकों के गलए लुभाता
है और हमेर्ा लुभाता रहे िा।
गलगमएर बंधु, दादासाहब िालके और अन्य किल्म गनमाशताओं ने अपनी पहली किल्म के पहले भी
किल्में बनाने का प्रयास ककया। वे सिल भी हुए परं तु सच्चे मायने में उन्हें किल्म कहने के गलए जो िॉमश
होना चाकहए उसमें नहीं था, अतः उन्होंने भी उन्हें किल्म मानने से इं कार ककया और दर्शकों ने भी। चलते
हुए गचत्रों में जब पहली बार कहानी को वपरोया िया तब वह किल्म मानी िई और गनमाशताओं के मन को
भी तसल्ली हो िई कक भई अभी सच्चे मायने में हमारे मन की किल्म परदे पर साकार हो चुकी है । धीरे -
धीरे जैसे समय आिे सरकता िया वैसे-वैसे गसनेमा के िॉमश में नई कलाएं और तकनीकें जुड़ती िई तो
गसनेमा अपना आकार ग्रहण करते िया। गसनेमा की ववर्ेषता यह है कक उसमें पुराना बना रहा और कदनों-
कदन नया जुड़ता िया।

ििंदभव ग्रिंथ िूची


1. पजश्चम और गसनेमा – कदनेर् श्रीनेत, वाणी प्रकार्न, नई कदल्ली, 2012.
2. किल्म पत्रकाररता – ववनोद गतवारी, वाणी प्रकार्न, नई कदल्ली, 2007.
3. किल्मक्षेत्रे-रं िक्षेत्रे – अमृतलाल नािर (सं.िॉ. र्रद नािर), वाणी प्रकार्न, नई कदल्ली, 2003.
4. गसनेमा : कल, आज, कल – ववनोद भारद्वाज, वाणी प्रकार्न, नई कदल्ली, 2006.
5. कहं दी गसनेमा का सच – (सं.) मृत्युंजय, समकालीन सृजन, कलकत्ता, अंक 17, 1997.

Volume 3, No. 4, Oct.- Dec., 2015 www.researchfront.in 124

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