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Study Material Class 7th
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प्रस्तुत पाठ के माध्यम से बाल मजदूरी के िवरोध में जन जागरूकता ईत्पन्न करने का प्रयास ककया गया है।
साथ-साथ आसे गैर कानूनी बताते हुए ििक्षा के ऄिधकार से िवद्यार्थथयों को ऄवगत कराया गया है।
प्रस्तुत नाटक के माध्यम से बालिोषण का िवरोध दिााकर ईनके ििक्षा के मौिलक ऄिधकार का ज्ञान कराया
गया है। एक ऄल्पवयस्का बािलका से गृहकाया करवाना ऄनुिचत है। ऄतः मािलनी दिाना को कहती है कक यह
समय तो ईसकी ऄल्पवयस्का पुत्री के पढ़ने और खेलने का है तो दिाना कहती है कक ईसकी पुत्री एक पररवार
का समस्त गृहकाया करती थी। धनाभाव के कारण ईन्हें यह सब करना पड़ता हैं क्योंकक ईसका बीमार पित कु छ
भी काम नहीं करता।
तो मािलनी दिाना को समझाती है कक ििक्षा बच्चों का मौिलक ऄिधकार है। बच्चों की ििक्षा के िलए सरकारी
िवद्यालयों में िनःिुल्क ििक्षा, िनःिुल्क पररधान, पुस्तकें , स्कू लबैग, जूत,े दोपहर का भोजन और छात्रवृिि
अकद दी जाती है। यह सुनकर दिाना की पुत्री खुिी से ताली बजाकर नाचती है और कहती है कक मैं भी
िवद्यालय जाउँगी और मािलनी के प्रित कृ तज्ञता प्रकट करती है।
(क) मािलिन – (प्रितवेििनीं प्रित) िगररजे! मम पुत्रः मातुलगृहं प्रित प्रिस्थतः कािचद् ऄन्यां कामिप मिहला
कायााथं जानािस तर्थह प्रेषय।
िगररजा – अम् सिख! ऄद्य प्रातः एव मम सहाियका स्वसुतायाः कृ ते कमााथं पृच्छित स्म। श्वः प्रातः एव तया सह
वातां कररष्यािम।
(ऄिग्रमकदने प्रातः काले षट्वादने एव मािलन्याः गृहघिटटका अगन्तारं कमिप सूययित मािलनी द्वारमुदघाटयित
पश्यित यत् िगररजायाः सेिवकया दिानया सह एका ऄष्टवषादि
े ीय, बािलका ितष्ठित)
सरलाथाः
मािलनी – (पड़ोिसनी से) हे िगररजा! मेरा पुत्र मामा के घर गया है, ककसी दूसरी मिहला (औरत) को काम के
िलए जानती हो तो भेजो।।
िगररजा – हाँ सखी! अज सुबह ही मेरी नौकरानी (सहाियका) ऄपनी बेटी के िलए काम हेतु पूछ रही थी। कल
सुबह ही ईसके साथ बात करूँगी। (ऄगले कदन सुबह छह बजे ही मािलनी के घर की घंटी ककसी अने वाले की
सूचना देती है, मािलनी दरवाजा खोलती है कक िगररजा की नौकरानी दिाना के साथ एक अठ वषा की, लड़की
खड़ी है
िब्दाथााः (Word Meanings) :
प्रितवोििनीम्-पड़ोिसनी (neighbour)। मातुलगृहम्-मामा के घर (house of maternal uncle)। प्रित-की
ओर (towards)। प्रिस्थतः-चला गया है (went away)। कािचद्-कोइ (any)। ऄन्याम्-दूसरी (another)।
कायााथाम्-काम के िलए (for work)। तर्थह-तो (then)। प्रेषय-भेजो (send)। कमिप-ककसी को भी (anyone)।
सूचयित-सूचना देती है (informs)| द्वारम् ईद्घाटयित-दरवाजा खोलती है (opens the door)। प्रातः-सुबह
(morning)। सहाियका-नौकरानी (maid)। स्वसुतायाः कृ ते-ऄपनी बेटी के िलए (for one’s daughter)।
कमााथाम्-काम के िलए (for work)। पृच्छित स्म-पूछ रही थी (was asking)। श्व:-कल (अने वाला)
(tomarrow)। तया सह-ईसके साथ (with him/her)। ऄिग्रमकदने-ऄगले कदन (next day)। षट्वादने-छह बजे
(at 6 o’ clock)। गृहघिटटका-घर की घंटी (bell of the house)। अगन्तारम्-अने वाले को (visitor)।
ऄष्टवषादि
े ीया-अठ वषा वाली (eight years of age)।
सिन्धिवच्छेदः
कमिप – काम् + ऄिप, कायााथाम् – काया + ऄथाम्
कमााथाम् – कमा + ऄथाम,् द्वारमुद्घाटयित – द्वारम् + ईद्घाटयित।
(ख) दिाना – महोदये! भवती कायााथं िगररजामहोदयां पृच्छित स्म कृ पया मम सुतायै ऄवसरं प्रदाय ऄनुगृह्णातु
भवती।
मािलनी – परमेषा तु ऄल्पवयस्का प्रतीयते। कक कायं कररष्यत्येषा? ऄयं तु ऄस्याः ऄध्ययनस्य क्रीडनस्य च
कालः।
दिाना – एषा एकस्य गृहस्य संपूणा कायं करोित स्म। सः पररवारः ऄधुना िवदेिं प्रित प्रिस्थतः।
कायााभावे ऄहमेतस्यै कायामेवान्वेषयािम स्म येन भवत्सदृिानां काया प्रचलेत् ऄस्मद्सदृिाना गृहसञ्चालनाय च
धनस्य व्यवस्था भवेत्।
सरलाथाः
दिाना – महोदया (मैडम)! अप काम के िलए िगररजा जी (देवी) से पूछ रही थीं कृ पया मेरी बेटी को मौका देकर
अप ईपकार करें ।
मािलनी – परं तु यह तो कम ईम्र की कदखाइ देती है। क्या काम करे गी यह? यह तो आसके पढ़ने और खेलने का
समय है।
दिाना – यह एक घर का सारा काम करती थी। वह पररवार आस समय िवदेि चला गया है। काम की कमी के
कारण मैं आसके िलए काम ढू ँढ रही थी िजससे अप जैसों का काम चले और हमारे जैसों के घर को चलाने के
िलए धन की व्यवस्था हो जाए।
सिन्धिवच्छेदः-
कररष्यत्येषा – कररष्यित + एषा, कायााभावे – काया + ऄभावे
ऄहमेतस्यै – ऄहम् + एतस्यै, कायामेवान्वेषयािम – कायाम् + एव +
ऄन्वेषयािम, ऄस्मद्सदृिानाम् – ऄस्मत् + सदृिानाम्
(ग) मािलनी – परमेतिु सवाथाऽनुिचतम्। कक न जानािस यत् ििक्षा तु सवेषां बालकानां सवाासां बािलकानां च
मौिलकः ऄिधकारः।
दिाना – महोदये! ऄस्मद् सदृिानां तु मौिलकाः ऄिधकाराः के वलं स्वोदरपूििरे वािस्त। एतस्य व्यवस्थायै एव
ऄहं सवािस्मन् कदने पञ्च-षड्गृहाणां कायं करोिम। मम रुग्णः पितः तु ककिञ्चदिप कायं न करोित। ऄतः ऄहं मम
पुत्री च िमिलत्वा पररवारस्य भरण-पोषणं कु वाः। ऄिस्मन् महाघाताकाले मूलभूतावश्यकतानां कृ ते एव धनं पयााप्तं
न भवित तर्थह कथं िवद्यालयिुल्कं , गणवेषं पुस्तकान्यादीिन क्रेतुं धनामानेष्यािम।
सरलाथाः
मािलनी – परन्तु यह तो पूरी तरह से ऄनुिचत (ठीक नहीं) है। क्या तुम नहीं जानती हो कक ििक्षा तो सभी
लड़कों और सभी लड़ककयों का मूलभूत (स्वाभािवक) ऄिधकार है।
दिाना – देवी (मैडम)! हमारे जैसों का तो मूलभूत ऄिधकार के वल ऄपना पेट भरना ही है। आसकी व्यवस्था के
िलए ही मैं सब कदन (पूरे कदन) में पाँच-छह घरों का काम करती हँ। मेरे बीमार पित तो कु छ भी काम नहीं करते
हैं। आसिलए मैं और मेरी बेटी िमलकर पररवार का भरण-पोषण (का काम) करते हैं। आस मँहगाइ के समय में
मूलभूत जरूरतों के िलए ही धन काफी नहीं होता है तो कै से िवद्यालय की फीस, वेिभूषा (Uniform), पुस्तकें
अकद को खरीदने के िलए धन लाएँगे
सिन्धिवच्छेदः –
सवाथाऽनुिचतम् – सवाथा + ऄनुिचतम्
स्वोदरपूर्थतरे वािस्त – स्व + ईदरपूर्थतः + एव + ऄिस्त
षड्गृहाणाम् – षट् + गृहाणाम्
ककिञ्चदिप – ककम् + िचत् + ऄिप
मूलभूतावश्यकतानाम् – मूलभूत + अवश्यकतानाम्
पुस्तकान्यादीिन – पुस्तकािन + अदीिन
धनमानेष्यािम – धनम् + अनेष्यािम।
(घ) मािलनी – ऄहो! ऄज्ञानं भवत्याः। कक न जानािस यत् नवोिर-िद्व-सहस्र (2009) तमे वषे सवाकारे ण सवेषां
बालकानां, सवाासां बालानां कृ ते ििक्षायाः मौिलकािधकारस्य घोषणा कृ ता। यदनुसारं षड्वषे्यः अर्य
चतुदिावषापयान्तं सवे बालाः समीपस्थं सवाकारीयं िवद्यालयं प्राप्य न के वलं िन:िुल्कं ििक्षामेव प्राप्स्यिन्त ऄिपतु
िनःिुल्कं गणवेषं पुस्तकािन, पुस्तकस्यूतम्, पादत्राणाम्, माध्याह्नभोजनम्, छात्रवृििम् आत्याकदकं सवामेव
प्राप्स्यिन्त।
सिन्धिवच्छेदः –
नवोिर – नव + ईिर
मौिलकािधकारस्य – मौिलक + ऄिधकारस्य
यदनुसारम् – यत् + ऄनुसारम्
षडवषे्यः – षट् + वषे्यः
आत्याकदकम् – आित + ऄकदकम्
सरलाथाः
मािलनी ऄरे यह अपकी मूखाता (नासमझी) है। क्या नहीं जानती हो कक सन् 2001 इ० वषा में सरकार ने सब
बच्चों, सभी बिच्चयों के िलए ििक्षा के मौिलक (स्वाभािवक) ऄिधकार की घोषणा की है। िजसके ऄनुसार छह
वषों से लेकर चौदह वषा तक के सारे बच्चे पास के (पास िस्थत) सरकारी स्कू ल में जाकर न िसफा िनिुल्क
(without fee) पढ़ाइ ही करें गे बिल्क िबना फीस वदी (Uniform), पुस्तकें , बस्ते (Bags), जूत,े दोपहर का
भोजन और वजीफा (Scholar ship) अकद सभी कु छ पाएँगे।
सिन्धिवच्छेदः
ऄप्येवम् – ऄिप + एवम्
ऄनुगृहीताऽिस्म – ऄनुगृहीता + ऄिस्म
ऄद्यैवास्याः – ऄद्य + एव + ऄस्याः
आत्युक्त्वा – आित + ईक्त्वा
मािलनीप्रित – मािलनीम् + प्रित
ऄहं िवद्यालयं गिमष्यािम – ऄहम् + िवद्यालयम् + गिमष्यािम
सरलाथाः
दिाना – ऐसा भी है (अश्चया से मािलनी को देखती है)
मािलनी – हाँ! वास्तव में यही है।
दिाना – (कृ ताथाता) (धन्यवाद) को प्रकट करती हुइ) मैडम! मैं अभारी हँ। यह बताने के िलए। मैं अज ही
आसका प्रवेि पास (िनकट) िस्थत िवद्यालय में कराउँगी।
दिाना की बेटी – (खुिी के साथ) मैं िवद्यालय जाउँगी। मैं भी पढंगी! (ऐसा कहकर ताली बजाकर नाचती है
और मािलनी के िलए अभार व्यक्त करती है
प्रश्न: 1) ईच्चारण कु रुत
ऄिग्रमकदने, षड्वादने, ऄष्टवषादि
े ीया, ऄनुगृह्णातु, भवत्सदृिानाम्, गृहसञ्चालनाय, व्यवस्थायै, महाधाताकाले,
ऄद्यैवास्याः, करतलवादसिहतम्!
ईिर
स्वयं प्रयास करें ।
प्रश्न 2.एकपदेन ईिरािण िलखत
(क) िगररजायाः गृहसेिवकायाः नाम ककमासीत्?
(ख) दिानायाः पुत्री कित वषीया असीत्?
(ग) ऄद्यत्वे ििक्षा ऄस्माकं कीदृिः ऄिधकारः?
(घ) दिानायाः पुत्री कथं नृत्यित?
ईिर
(क) दिाना
(ख) ऄष्टवषीया
(ग) मौिलकः
(घ) करतलवादनसिहतम्
प्रश्नः 6.(ऄ) समानाथाकपदािन मेलयत-(समानाथाक पदों को िमलाआए-Match with the synonyms words)
अश्चयेण – पठनस्य
ईल्लासेन – समयः
पररवारस्य – प्रसन्नतया
ऄध्ययनस्य – िवस्मयेन
कालः – कु टुम्बस्य
ईिरािण -
अश्चयेण – िवस्मयेन
ईल्लासेन – प्रसन्नतया
पररवारस्य – कु टुम्बस्य
ऄध्ययनस्य – पठनस्य
कालः – समयः
प्रश्नः 7. िविेषणपदैः सह िविेष्यपदािन योजयत-(िविेषण पदों के साथ िविेष्य पदों के साथ िमलाआए-Join
the adjectives with the nouns they quality)
सवेषाम् – बािलकानाम्
मौिलकः – िवद्यालयम्
एषा – बालकानाम्
सवाकारीयम् – ऄिधकारः
समीपस्थे – गणवेषम्
सवाासाम् – ऄल्पवयस्का
िनःिुल्कम् – िवद्यालये
ईिरम् -
सवेषाम् – बालकानाम्
मौिलकः – ऄिधकारः
एषा – ऄल्पवयस्का
सवाकारीयम् – िवद्यालयम्
समीपस्थे – िवद्यालये
सवाासाम् – बािलकानाम्
िनःिुल्कम् – गणवेषम्
(1) गद्यांि परठत्वा ऄधोिलिखतानां प्रश्नानाम् ईिरािण िलखत-(गद्यांि को पढ़कर िनम्निलिखत प्रश्नों के ईिर
दीिजए- Read the extract and answer the Questions the follow)
(क) मािलनी – (प्रितवेििनी प्रित) िगररजे! मम पुत्रः मातुलगृह प्रित प्रिस्थतः कािचद् ऄन्यां कामिप मिहला
कायााथं जानािस तर्थह प्रेषय।
िगररजा – अम् सिख! ऄद्य प्रातः एव मम सहाियका स्वसुतायाः कृ ते कमााथं पृच्छित स्म। श्वः प्रातः एव तया सह
वाताा कररष्यािम।
(ऄिग्रमकदने प्रातः काले षट्वादने एव मािलन्याः गृहघिटटका अगन्तारं कमिप सूचयित मािलनी द्वारमुदघाटयित
पश्यित यत् िगररजायाः सेिवकया दिानया सह एका ऄष्टवषादि
े ीय, बािलका ितष्ठित)
(ख) मािलनी- परमेतिु सवाथाऽनुिचतम्। कक न जानािस यत् ििक्षा तु सवेषां बालकानां सवाासां बािलकानां च
मौिलकः ऄिधकारः।
दिाना – महोदये! ऄस्मद् सदृिानां तु मौिलकाः ऄिधकाराः के वलं स्वोदरपूिि-रे वािस्त। एतस्य
व्यवस्थायै एव ऄहं सवािस्मन् कदने पञ्च-षड्गृहाणां कायं करोिम। मम रुग्णः पितः तु ककिञ्चदिप कायं न करोित।
ऄतः ऄहं मम पुत्री च िमिलत्वा पररवारस्य भरण-पोषणं कु वाः। ऄिस्मन् महाघाताकाले मूलभूतावश्यकतानां कृ ते
एव धनं पयााप्तं न भवित तर्थह कथं िवद्यालयिुल्कं , गणवेषं पुस्तकान्यादीिन क्रेतुं धनामानेष्यािम।
प्रस्तुत पाठ के द्वारा संसार में बन्धुत्व ऄथाात् भाइचारे की भावना की अवश्यकता और महत्त्व पर प्रकाि डाला
गया है। सभी िवकिसत, िवकासिील और ऄिवकिसत देिों में परस्पर प्रेम और िमत्रता का व्यवहार होना
चािहए। पाठ में वणान ककया गया है कक सूय,ा चन्र और प्रकृ ित भेदभाव नहीं करते हैं, तब मानव को भी वैरभाव
छोड़कर बन्धुत्व के भाव से संसार में व्यवहार करना चािहए। संसार के कल्याण के िलए सम्पूणा पृथ्वी को एक
पररवार के रूप में मानने वाले ईदार एवं महान् व्यिक्त होते हैं।
पाठस्य सार:
ईत्सवे, व्यसने, दुर्थभक्षे, राष्ट्रिवप्लवे, दैनिन्दनव्यवहारे च यः सहायतां करोित सः बन्धुः भवित। यकद िवश्वे सवात्र
एतादृिः भावः भवेत् तदा िवश्वबन्धुत्वम् सम्भवित।
ईत्सव में, व्यिक्तगत संकट में, ऄकाल पड़ने पर, देि पर अपदा अने पर और दैिनक व्यवहार में जो सहायता
करता है, वह िमत्र होता है। यकद संसार में सब जगह ऐसा भाव अ जाए तो िवश्वबन्धुता सम्भव है।
परन्तु ऄधुना िनिखले संसारे कलहस्य ऄिान्तेः च वातावरणम् ऄिस्त। मानवाः परस्परं न िवश्वसिन्त। ते परस्य
कष्टं स्वकीयं कष्टं न गणयिन्त। ऄिप च समथााः देिाः ऄसमथाान् देिान् प्रित ईपेक्षाभावं प्रदिायिन्त, तेषाम् ईपरर
स्वकीयं प्रभुत्वं स्थापयिन्त। संसारे सवात्र िवद्वेषस्य, ित्रुतायाः, त्तहसायाः च भावना दृश्यते। देिानां िवकासः
ऄिप ऄवरुद्ध: भवित।
परन्तु अजकल संसार में कलह और ऄिािन्त का वातावरण है। मनुष्य अपस में िवश्वास नहीं करते हैं। वे दूसरे
के कष्ट को ऄपना कष्ट नहीं समझते हैं। समथा देि ऄसमथा देिों के प्रित ऄनादर की भावना प्रदर्थित करते हैं और
ईन पर ऄपना प्रभुत्व स्थािपत करते हैं। संसार में सब जगह ित्रुता, वैर और त्तहसा की भावना कदखाइ पड़ती है।
देिों का िवकास भी बािधत होता है।
आयम् महती अवश्यकता वताते यत् एकः देिः ऄपरे ण देिन े सह िनमालने हृदयेन बन्धुतायाः व्यवहारं
कु याात।् िवश्वस्य जनेषु आयं भावना अवश्यकी। ततः िवकिसतािवकिसतयोः देियोः मध्ये स्वस्था स्पधाा
भिवष्यित। सवे देिाः ज्ञानिवज्ञानयोः क्षेत्रे मैत्रीभावनया सहयोगेन च समृिद्धम् प्राप्तुं समथााः भिवष्यिन्त।
सूयस्ा य चन्रस्य च प्रकािः सवात्र समानरूपेण प्रसरित। प्रकृ ितः ऄिप सवेषु समत्वेन व्यवहरित। तस्मात्
ऄस्मािभः सववः परस्परं वैरभावम् ऄपहाय िवश्वबन्धुत्वं स्थापनीयम्। ऄतः िवश्वस्य कल्याणाय एतादृिी भावना
भवेत-्
यह ऄपना है ऄथवा पराया है ऐसी सोच संकीणा मन वालों की होती है। ईदार मन वालों के िलए सम्पूणा पृथ्वी
ही पररवार होती है।
करठनिब्दा:
1 राष्ट्रिवप्लवे राष्ट्रसंकटे
2 िनमालन
े िवमलेन
3 िवश्वबन्धुत्वम् िवश्विमत्रत्वम्
4 प्रभुत्वं स्वािमत्वम्
5 समत्वेन समानरुपेण
6 िवकासः ईन्नित:
7 ऄवरुद्ध: बािधत:
8 बन्धुतायाः िमत्रताया:
परठत बोध:-1
परन्तु ऄधुना िनिखले संसारे कलहस्य ऄिान्तेः च वातावरणम् ऄिस्त। मानवाः परस्परं न िवश्वसिन्त। ते परस्य
कष्टं स्वकीयं कष्टं न गणयिन्त। ऄिप च समथााः देिाः ऄसमथाान् देिान् प्रित ईपेक्षाभावं प्रदिायिन्त, तेषाम् ईपरर
स्वकीयं प्रभुत्वं स्थापयिन्त। संसारे सवात्र िवद्वेषस्य, ित्रुतायाः त्तहसाया: च भावना दृश्यते। देिानां िवकासः
ऄिप ऄवरुद्ध: भवित।
I एकपदेन ईिरत---
(क) के षाम् िवकासः ऄवरुद्ध: भवित ?
(ख) के परस्परं न िवश्वसिन्त ?
II पूणावाक्येन ईिरत---
(क) समथााः देिाः कक कु वािन्त ?
(ख) कु त्र कलहस्य ऄिान्तेः च वातावरणम् ऄिस्त?
ईिरािण -
एक पदेन ईिरत---
(क) देिानां (ख) मानवाः
II पूणावाक्येन ईिरत---
(क) समथााः देिाः ऄसमथाान् देिान् प्रित ईपेक्षाभावं प्रदिायिन्त, तेषाम् ईपरर स्वकीयं प्रभुत्वं स्थापयिन्त।
(ख) िनिखले संसारे कलहस्य ऄिान्तेः च वातावरणम् ऄिस्त।
III िनदेिानुसारे ण ईिरत---
(क) मानवाः
(ख) ऄिस्त
(ग) स्वकीयम्
(घ) संसारे
परठत बोध:-2
आयं महती अवश्यकता वताते यत् एकः देिः ऄपरे ण देिेन सह िनमालेन हृदयेन बन्धुतायाः व्यवहारं कु याात्
। िवश्वस्य जनेषु आयं भावना अवश्यकी । ततः िवकिसतािवकिसतयोः देियोः मध्ये स्वस्था स्पधाा भिवष्यित
। सवे देिाः ज्ञानिवज्ञानयोः क्षेत्रे मैत्रीभावनया सहयोगेन च समृत्तद्ध प्राप्तुं समथााः भिवष्यिन्त । सूयस्ा य चन्रस्य
च प्रकािः सवात्र समानरूपेण प्रसरित। प्रकृ ितः ऄिप सवेषु समत्वेन व्यवहरित। तस्मात् ऄस्मािभः सववः परस्परं
वैरभावम् ऄपहाय िवश्वबन्धुत्वं स्थापनीयम्।
एक पदेन ईिरत---
(क) देिा: मैत्रीभावनया कां प्राप्तुं समथााः भिवष्यिन्त ?
(ख) कस्य जनेषु आयं भावना ऄत्यावश्यकी ?
II पूणावाक्येन ईिरत---
(क) सवे देिाः कथं समृत्तद्ध प्राप्तुं समथााः भिवष्यिन्त?
(ख) ऄस्मािभः सववः ककम् िवहाय िवश्वबन्धुत्वं स्थापनीयम्?
ईिरं
एक पदेन ईिरत---
(क) समृत्तद्ध (ख) िवश्वस्य
II पूणावाक्येन ईिरत---
क) सवे देिाः ज्ञानिवज्ञानयोः क्षेत्रे मैत्रीभावनया सहयोगेन च समृत्तद्ध प्राप्तुं समथााः भिवष्यिन्त ।
(ख) ऄस्मािभः सववः वैरभावम् ऄपहाय िवश्वबन्धुत्वं स्थापनीयम्।
III िनदेिानुसारे ण ईिरत---
(क) प्रकाि: (ख) भिवष्यित ग) ऄसमथााः (घ) िनमालन
े
मञ्जूषा
भिवष्यित , कु याात् , ऄिस्त , करोित , व्यवहरित
ईिरं
1. कु याात्
2. करोित
3. व्यवहरित
4. भिवष्यित
5. ऄिस्त
कतृापदै :ररक्तस्थानपूर्थत :कु रुत -
मञ्जूषा
ईिरं
1. कस्य ?
2. ककम् ?
3. कथं / ककमथंम् ?
4. के ?
5. के षाम् ?
.
एकादिः पाठः
समवायो िह दुजय
ा ः
पाठस्य सार: - पुरा एकिस्मन् वृक्षे एका चटका प्रितवसित स्म। कालेन तस्याः सन्तितः जाता। एकदा किश्चत्
प्रमिः गजःतस्य वृक्षस्य ऄधः अगत्य तस्य िाखां िुटडेन ऄत्रोटयत्। चटकायाः नीडं भुिव ऄपतत्। तेन ऄटडािन
िविीणाािन।ऄथ सा चटका व्यलपत्। तस्याः िवलापं श्रुत्वा काष्ठकू टः नाम खगः दुःखेन ताम् ऄपृच्छत्-“भरे,
ककमथं िवलपिस ?” आित।
सरलाथाः- पुराने समय में एक वृक्ष पर एक िचिड़या रहती थी। समय पर ईसकी सन्तान हुइ। एक बार ककसी
मतवाले हाथी ने ईस वृक्ष के नीचे अकर ईसकी िाखा को सूंड से तोड़ कदया। िचिड़या का घोंसला भूिम पर िगर
गया। ईससे ऄंडे टूट गए। ऄब वह िचिड़या रोने लगी। ईसका िवलाप सुनकर काष्ठकू ट नाम के पक्षी ने दुःखपूवाक
ईससे पूछा-“भली िचिड़या, क्यों रो रही हो ?”
2. चटकावदत्-“दुष्टन
े ैकेन गजेन मम सन्तितः नाििता। तस्य गजस्य वधेनैव मम दुःखम् ऄपसरे त्।” ततः काष्ठकू टः
तां वीणारवा-नाम्न्याः मिक्षकायाः समीपम् ऄनयत् । तयोः वाताा श्रुत्वा मिक्षकावदत्-“ममािप िमत्रं मटडू कः
मेघनादः ऄिस्त। िीघं तमुपेत्य यथोिचतं कररष्यामः।” तदानीं तौ मिक्षकया सह गत्वा मेघनादस्य पुरः सवं
वृिान्तं न्यवेदयताम्।
सरलाथा:-िचिड़या बोली-“एक दुष्ट हाथी ने मेरी सन्तान नष्ट कर दी। ईस हाथी के वध से ही मेरा दुःख दूर
होगा।” ईसके बाद काष्ठकू ट ईस (िचिड़या) को वीणारवा नाम वाली मक्खी के पास ले गया। ईन दोनों की
बातचीत सुनकर मक्खी ने कहा-“मेरा भी मेघनाद नाम वाला एक मेंढक िमत्र है। जल्दी ही ईसके पास जाकर
जो ईिचत होगा वही करें गे।” तब ईन दोनों ने मक्खी के पास जाकर मेघनाद के सामने सारा समाचार कह
कदया।
3. मेघनादः ऄवदत्-“यथाहं कथयािम तथा कु रुतम्। मिक्षके ! प्रथमं त्वं मध्याह्ने तस्य गजस्य कणे िब्दं कु रु, येन
सः नयने िनमील्य स्थास्यित। तदा काष्ठकू टः चञ्च्वा तस्य नयने स्फोटियष्यित। एवं सः गजः ऄन्धः भिवष्यित।
तृषाताः सः जलाियं गिमष्यित। मागे महान् गिाः ऄिस्त। तस्य ऄिन्तके ऄहं स्थास्यािम िब्दं च कररष्यािम। मम
िब्देन तं गतं जलाियं मत्वा स तिस्मन्नेव गते पितष्यित |
मररष्यित च।” ऄथ तथाकृ ते सः गज: मध्याह्ने मटडू कस्य िब्दम् ऄनुसृत्य महतः गतास्य ऄन्तः पिततः मृतः च।
तथा चोक्तम् ‘बहनामप्यसाराणां समवायो िह दुजायः।
सरलाथा:-मेघनाद ने कहा-“जैसा मैं कहता हँ वैसा तुम दोनों करो। हे मक्खी, पहले तुम दोपहर के समय ईस
हाथी के कान में िब्द करना (िभनिभनाना) िजससे वह दोनों अँखें बंद करके रुक जाएगा। तब काष्ठकू ट चोंच से
ईसकी दोनों अँखें फोड़ देगा। आस प्रकार वह ऄन्धा हो जाएगा। प्यास से पीिड़त वह (हाथी) तालाब पर
जाएगा। रास्ते में बड़ा गड्ढा है। ईस (गड्ढे) के पास मैं रुक जाउँगा और िब्द (टरा टरा ) करूँगा।
मेरी अवाज से ईस गड्ढे को तालाब समझकर वह (हाथी) ईस गड्ढे में िगर जाएगा और मर जाएगा।” आसके बाद
वैसा करने पर वह हाथी दोपहर में मेंढक की अवाज का ऄनुसरण करके बड़े गड्ढे के ऄन्दर िगर गया और मर
गया। और कहा भी गया है ‘ऄनेक िनबालों का संगठन करठनता से जीतने योग्य होता है।’ ऄथाात् संगठन में ही
ििक्त होती है।
िब्दाथााः-
पुरा = पहले, पुराने समय में।
प्रितवसित स्म = रहती थी।
कालेन = समय पर।
सन्तितः = सन्तान।
प्रमिः = मतवाला, मदमस्त।
ऄधः = नीचे।
अगत्य = अकर।
िुटडेन = सूड
ं से।
ऄत्रोटयत् = तोड़ कदया।
नीडम् = घोंसला।
भुिव = धरती पर/भूिम पर।
ऄपतत् = िगर गया।
िविीणाािन = नष्ट हो गए।
व्यलपत् (िव + ऄलपत्) = िवलाप करने लगी/रोने लगी।
िवलपिस = रो रही हो/िवलाप कर रही हो।
वधेनव ै (वधेन + एव) = वध से ही।
ऄपसरे त् = दूर होगा।
वीणारवा नाम्न्याःमिक्षकायाः = वीणारवा नाम की मक्खी के ।
तमुपत्े य (तम् + ईपेत्य) = ईसके पास जाकर ।
यथोिचतम् = जो, ईिचत हो।
तदानीम् = तब।
न्यवेदयताम् = (ईन दोनों ने) िनवेदन ककया।
मध्याह्ने = दोपहर में।
िनमील्य = बन्द करके ।
स्थास्यित = रुक जाएगा।
स्फोटियष्यित = फोड़ देगा।
तृषाताः (तृषा + अताः) = प्यास से पीिड़त।
ईिरम् -
ऄपठत् – पठित स्म।
ऄत्रोटयत् – त्रोटयित स्म।
ऄपतत् – पतित स्म।
ऄपृच्छत् – पृच्छित स्म।
ऄवदत् – वदित स्म।
ऄनयत् – नयित स्म।
( बहुिवकल्पीया : प्रश्ना: )
प्रस्तुत पाठ में श्लोकों के द्वारा िवद्या के महत्त्व को बताया गया है। िवद्या मनुष्य का सवाश्रेष्ठ धन है। िवद्यावान्
व्यिक्त का सवात्र सम्मान होता है, िवद्या मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। िवद्या कल्पतरु के समान मनुष्य के सभी
काया पूणा करती है। िवद्याहीन मनुष्य पिु के समान होता है। ऄतः मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनने के िलए िवद्या
रूपी धन को संिचत करना चािहए।
िवद्याधनम्
िवद्या कल्पलता की तरह होती है। आस पाठ में िवद्या का महत्त्व बताया गया है। यथा िवद्या को चोर चुरा नहीं
सकता, राजा छीन नहीं सकता और भाइ बाँट नहीं सकता। िवद्या सभी धनों में श्रेष्ठ है। आसे व्यय ककए जाने पर
यह बढ़ती है। िवद्या मनुष्य का सौन्दया है। यह गुप्त से गुप्त धन है। यह ऄनेक भोगों को देने वाली है तथा सुख
प्रदान करने वाली है। राजाओं में ज्ञान की पूजा होती है तथा धन की नहीं।मनुष्य की िोभा न तो हार से बढ़ती
है और न ही पुष्प ऄथवा ऄङ्गराग के द्वारा बढ़ती है। मनुष्य की िोभा ज्ञान से बढ़ती है। िवद्या माता की तरह
रक्षा करती है, िपता की तरह िहत का साधन करती है। यह िोभा को बढ़ाती है। िवद्या मनुष्य का सभी प्रकार
से भला करती है।
प्रथमः श्लोकः
न चौरहायं न च राजहायाम् ।
न भ्रातभाज्यं न च भारकारर।।
व्यये कृ ते वधात एव िनत्यं।
िवद्याधनं सवाधनप्रधानम्॥
िब्दाथााः
(1) चौरहायाम् = चोरों के द्वारा चुराने योग्य।
(2) राजहायाम् = राजा के द्वारा छीनने योग्य।
(3) भ्रातृभाज्यम् = भाआयों के द्वारा बाँटने योग्य।
(4) भारकारर = भार (बोझ) बढ़ाने वाली।
(5) वधाते = बढ़ता है।
(6) िनत्यं = हमेिा।
(7) प्रधानम् = प्रमुख। (सवोिम)
सरलाथा: -
न चोरों के द्वारा चुराने योग्य है और न राजा के द्वारा छीनने योग्य है, न भाआयों के द्वारा बाँटने योग्य है और न
भार (बोझ) बढ़ाने वाला है। हमेिा खचा करने पर बढ़ता ही है। िवद्या रुपी धन सभी धनों में प्रमुख (सवोिम)
है।
िद्वतीयः श्लोकः
िब्दाथााः
(1) प्रच्छन्नगुप्तम् =ऄत्यन्त गुप्त।
(2) भोगकरी = भोग का साधन ईपलब्ध कराने वाली।
(3) परा = सबसे बड़ी।
(4) गुरूणां = गुरुओं का।
(5) राजसु = राजाओं में।
(6) िवद्या-िवहीनः = िवद्या से रिहत।
सरलाथाः
िवद्या मनुष्य का ऄिधक (ऄच्छा) स्वरूप है, छु पा हुअ गोपनीय धन है, िवद्या भोग का साधन ईपलब्ध कराने
वाली है, कीर्थत और सुख प्रदान कराने वाली है, िवद्या गुरुओं का गुरु है। िवद्या िवदेि जाने पर बन्धु (िमत्र) के
समान होती है, िवद्या सबसे बड़ा देवता है। िवद्या राजाओं में पूजी जाती है, धन नहीं। िवद्या से रिहत (मनुष्य)
पिु के समान होता है।
तृतीयः श्लोकः
के यूराः न िवभूषयिन्त पुरुषं हारा न चन्रोज्ज्वला।
न स्नानं न िवलेपनं न कु सुमं नालङ् कृ ता मूधजा ाः।।
वाटयेका समलङ्करोित पुरुषं या संस्कृ ता धायात।े
क्षीयन्तेऽिखलभूषणािन सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥
िब्दाथााः
(1) के यूरा: = बाजूबन्द।
(2) चन्रोज्ज्वला (चन्र+ईज्ज्वला) = चन्रमा के समान चमकदार।
(3) िवलेपनम् = िरीर पर लेप करने योग्य सुगिन्धत-रव्य। (चन्दन, के सर अकद)
(4) मूधाजाः = वेणी/चोटी।
(5) नालङ्कृ ता (न + ऄलङ्कृ ता) = नहीं सजाया हुअ।
(6) वाटयेका (वाणी+एका) = एकमात्र वाणी।
(7) समलङ्करोित ( सम्+ऄलङ्करोित) = ऄच्छी तरह सुिोिभत करती है।
(8) संस्कृ ता = पररष्कृ त। (संस्कारयुक्त)
(9) धायाते = धारण की जाती है।
(10) क्षीयन्तेऽिखलभूषणािन (क्षीयन्ते ऄिखलभूषणािन) = सम्पूणा अभूषण नष्ट हो जाते हैं।
(11) वाग्भूषणम् = वाणी का अभूषण।
सरलाथाः
मनुष्य को न बाजूबन्द सुिोिभत करते हैं, न चन्रमा के समान चमकदार हार, न स्नान, न िरीर पर सुगिन्धत
लेपन (चन्दन, के सर अकद), न फू ल सुिोिभत करते हैं और ना ही सजाइ गइ चोटी ही। मनुष्य को एकमात्र
वाणी, भली प्रकार सुिोिभत करती है, जो पररष्कृ त (संस्कारयुक्त) रूप में धारण की जाती है (व्यवहार में लाइ
जाती है)। ऄन्य सभी अभूषण नष्ट हो जाते हैं, (परन्तु) वाणी का अभूषण सदैव रहने वाला अभूषण है।
चतुथःा श्लोकः
िब्दाथााः
िवद्या वास्तव में (नाम) मनुष्य की ऄतुल्य कीर्थत है, भाग्यक्षय (बदककस्मती) होने पर एक अश्रय/सहारा है।
कामनापूर्थत करने वाली गाय ऄथाात् कामधेनु है। िवरह में प्रेम करती है और वही मनुष्य की तीसरी अँख होती
है। सम्मान का स्थान है। कु ल की मिहमा है, (बहुमूल्य) रत्नों के िबना भी अभूषण है। ऄतः ऄन्य सब बातों को
छोड़ िवद्या पर ऄपना प्रभुत्व कर लो।
िवकल्पात्मक प्रश्ना: -
(1) सवाधनप्रधानम् कक ?
(क) धनं (ख) राज्ञ (ग) िवद्या (घ) भ्राता
ईिरम् = (ग) िवद्या।
(4) कः पिुसमान: ?
(क) राजसुपूज्यते (ख) बंधुजना: (ग) भ्राता (घ) िवद्याहीनः
ईिरम् = (घ) िवद्याहीनः।
(7) कः पिुः ?
ईिरम् = िवद्यािवहीनः।
(8) का भोगकारी ?
ईिरम् = िवद्या।
ईिरम्
(1) न। (2) न। (3) अम्। (4) अम्। (5) न। (6) अम्। (7) अम्।
ईिरम्
(क) 4 (ख) 3 (ग) 2 (घ) 5 (ङ) 1
(क) िपता + आव (ख) माता + आव (ग) कान्ता + आव (घ) राका + इिः (ङ) लता + आव
ईिरम्
(क) िपतेव। (ख) मातेव। (ग) कान्तेव। (घ) राके िः। (ङ) लतेव।
परठत पंद्याि:
श्लोकं परठत्वा प्रश्नानान् ईिरत -
न चौरहायं न च राजहायाम।्
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारर।।
व्यये कृ ते वधात एव िनत्यं।
िवद्याधनं सवाधनप्रधानम्॥
यथािनदेिम् ईिरत-
(1) (क) व्यये। (2) (क) न। (3) (ग) वधाते। (4) (क) वधान्ते।
ईिरम्
एकपदेन ईिरत।
(1) िवद्याधनम्। (2) िवद्या।
पूणावाक्येन ईिरत।
(1) िवद्या िवदेिगमने बंधुजनः। (2) िवद्या िवहीनः नरः पिुः।
यथािनदेि ईिरत।
(1) सप्तमी िवभिक्त। (2) बहुवचनम्। (3) दानवः। (4) स्त्रीिलङ्गम्।
त्रयोदिः पाठः
ऄमृतं संस्कृ तम्
पाठ का पररचय :-
प्रस्तुत पाठ में संस्कृ त-भाषा के महत्त्व का वणान है। यह भाषा संसार की भाषाओं में प्राचीनतम और ऄिधकतर
भाषाओं की जननी है। यह पररमार्थजत और वैज्ञािनक भाषा है। आसका सािहत्य संस्कृ ित का ज्ञान प्रदान करता
है। ऄतः संस्कृ ित, अचरण और श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने के िलए संस्कृ त ऄवश्य पढ़नी चािहए।पाठ से ‘आकारान्त
स्त्रीत्तलग’ िब्दों का ज्ञान प्राप्त होगा।
पाठ का सारांि:-
संसार की सभी भाषाओं में संस्कृ त प्राचीनतम भाषा है। यह प्रायः सभी भारतीय प्रादेििक भाषाओं की मूल
स्वीकार की गइ है। आसमें ज्ञान और िवज्ञान का खजाना सुरिक्षत है। संस्कृ त भाषा कम्प्यूटर के िलए सबसे
ईपयुक्त भाषा है। आसका सािहत्य ऄत्यिधक समृद्ध है। आसमें वेदों, िास्त्रों, पुराणों तथा ऄन्य अधुिनक िास्त्रों की
रचना हुइ है। संस्कृ त भाषा के कािलदास जैसे किव िवश्व में प्रिसद्ध हैं। संस्कृ त भाषा में ऄनेक िास्त्रों की रचना
हुइ। ऄनेक अचायों ने ईल्लेखनीय काया ककया है। अचाया भास्कर, महर्थष चरक और महर्थष सुश्रुत का नाम अज
भी अदर के साथ िलया जाता है। संस्कृ त की िविेषता सवातोमुखी है। आसका नीितिास्त्र िवश्व प्रिसद्ध है।
नीितिास्त्र में नीितिवषयक वचनों का संग्रह प्राप्त है। ये वचन मनुष्य को जीवनोपयोगी व समाजोपयोगी
व्यवहार िसखाते हैं। संस्कृ त के कारण ही भारत िवश्व का गुरु कहलाता है। आसके सवााितिायी गुणों के कारण ही
यह भाषा ऄजर-ऄमर है।
(क ) िवश्वस्य ईपलब्धासु भाषासु संस्कृ तभाषा प्राचीनतमा भाषािस्त। भाषेयं ऄनेकाषां भाषाणां जननी
मता। प्राचीनयोः ज्ञानिवज्ञानयोः िनिधः ऄस्यां सुरिक्षतः। संस्कृ तस्य महत्त्विवषये के नािप किथतम्-
‘भारतस्य प्रितष्ठे द्वे संस्कृ तं संस्कृ ितस्तथा’। आयं भाषां ऄतीव वैज्ञािनकी। के चन कथयिन्त यत् संस्कृ तमेव
सङ्गणकस्य कृ ते सवोिमा भाषा। ऄस्याः वाङ्मयं वेदःै , पुराणैः, नीितिास्त्रैः िचककत्सािास्त्राकदिभश्च
समृद्धमिस्त। कािलदासादीनां िवश्वकवीनां काव्यसौन्दयाम् ऄनुपमम्।कौरटल्यरिचतम् ऄथािास्त्रं जगित
प्रिसद्धमिस्त। गिणतिास्त्रे िून्यस्य प्रितपादनं सवाप्रथमम् अयाभट: ऄकरोत्। िचककत्सािास्त्रे चरकसुश्रुतयो:
योगदानं िवश्वप्रिसद्धम्। संस्कृ ते यािन ऄन्यािन िास्त्रािण िवद्यन्ते तेषु वास्तुिास्त्रं, रसायनिास्त्रं,
खगोलिवज्ञानं, ज्योितषिास्त्रं, िवमानिास्त्रं आत्यादीिन ईल्लेखनीयािन।
िब्दाथााः
ईपलब्धासु-ईपलब्ध भाषाओं में, प्राचीनतमा-सबसे पुरानी, भाषेयम् (भाषा+आयम् )-यह भाषा,
जननी-माता, मता-मानी गइ है, िनिधः-खजाना, प्रितष्ठे-दो प्रितष्ठाएँ/सम्मानप्रद तत्त्व, के चन-कु छ लोग,
सवोिमा-सवाश्रेष्ठ, वाङ्मयं-सािहत्य, ऄनुपमम्-ऄतुलनीय, जगित-संसार में, ऄथािास्त्रम्-ऄथािास्त्र,
गिणतिास्त्रे-गिणत िास्त्र में, िून्यस्य-िून्य का, सवाप्रथमं – सबसे पहले, योगदानम्- योगदान,
िवश्वप्रिसद्धम्- संसार में िवख्यात, खगोलिास्त्रं-ऄन्तररक्ष िास्त्र, वास्तुिास्त्रं-वास्तुिास्त्र, रसायनिास्त्रं-
रसायनिास्त्र, ज्योितषिास्त्रं-ज्योितषिास्त्र , िवमानिास्त्रं-िवमानिास्त्र, ईल्लेखनीयम्-िलखने (बताने)
योग्य.
सरलाथा :
संसार की सभी ईपलब्ध भाषाओं में संस्कृ त भाषा सबसे ऄिधक प्राचीन है। यह भाषा ऄनेक भाषाओं
की माता मानी गइ है। प्राचीन ज्ञान िवज्ञान का खजाना आसमें सुरिक्षत है। संस्कृ त के महत्त्व के िवषय
में ककसी के द्वारा कहा गया है- भारत की दो प्रितष्ठाएँ हैं- संस्कृ त और (देि की) संस्कृ ित। यह भाषा
बहुत वैज्ञािनकी है। कु छ लोग कहते हैं कक संस्कृ त ही कम्प्यूटर के िलए सवाश्रेष्ठ (सवोिम) भाषा है।
आसका सािहत्य वेदों से, पुराणों से, नीितिास्त्रों से और िचककत्सािास्त्र अकद को से सम्पन्न (पररपूणा)
है। कािलदास अकद िवश्वकिवयों का काव्य-सौन्दया ऄतुलनीय है। चाणक्य द्वारा रिचत ऄथािास्त्र
संसार में प्रिसद्ध है। गिणतिास्त्र में िून्य का प्रयोग सबसे पहले अयाभट्ट ने ककया था। िचककत्सािास्त्र
में चरक और सुश्रुत का योगदान िवश्विवख्यात है। संस्कृ त में जो दूसरे िास्त्र हैं, ईनमें वास्तुिास्त्र,
रसायनिास्त्र, ऄन्तररक्ष िवज्ञान, ज्योितषिास्त्र और िवमानिास्त्र आत्याकद ईल्लेखनीय हैं।
एकपदेन ईिरत :-
ईिरम्:ऄथािास्त्रम् |
पूणावाक्येन ईिरत :-
प्र.1. अयाभट्टः किस्मन् िास्त्रे िून्यस्य प्रितपादनम् ऄकरोत्?
ईिरम् – गिणतिास्त्रे
प्र.3. संस्कृ तभाषा प्राचीनतमा भाषािस्त। आत्यत्र कतृापदं गद्यांिे िचत्वा िलखत –
(ऄ ) प्राचीनतमा (ब ) भाषािस्त (स ) संस्कृ तभाषा (द ) िास्त्रं
ईिरम् – संस्कृ तभाषा
प्र.4. नूतना िब्दस्य िवलोमपदं गद्यांिे िचत्वा िलखत -
(ऄ ) िनिधः (ब ) संस्कृ त (स ) प्राचीनतमा (द ) ऄतीव
ईिरम् – प्राचीनतमा
(ख) संस्कृ ते िवद्यमानाः सूक्तयः ऄ्युदयाय प्रेरयिन्त। यथा-सत्यमेव जयते, वसुधैव कु टुम्बकम्,
िवद्ययाऽमृतमश्नुते, योगः कमासु कौिलम् आत्यादयः। सवाभूतेषु अत्मवत् व्यवहारं कतुं संस्कृ तभाषा सम्यक्
ििक्षयित। के चन कथयिन्त यत् संस्कृ तभाषायां के वलं धार्थमकं सािहत्यम् वताते-एषा धारणा समीचीना नािस्त।
संस्कृ तग्रन्थेषु मानवजीवनाय िविवधाः िवषयाः समािवष्टाः सिन्त।
महापुरुषाणां मितः, ईिमजनानां धृितः सामान्यजनानां जीवनपद्धितः च वर्थणताः सिन्त।
ऄतः ऄस्मािभः संस्कृ तम् ऄवश्यमेव पठनीयम्। तेन मनुष्यस्य समाजस्य च पररष्कारः भवेत्।
ईक्तञ्च —
ऄमृतं संस्कृ तं िमत्र!
सरसं सरलं वचः।
िब्दाथााः
िवद्यमानाः-िवद्यमान, ऄ्युदयाय-भौितक ईन्नित के िलए, सत्यमेव (सत्यम् + एव)-सत्य ही, वसुधैव (वसुधा +
एव)-पृथ्वी ही, िवद्ययाऽमृतम् (िवद्यया + ऄमृतम्)-िवद्या द्वारा ऄमरत्व, ऄश्नुते-प्राप्त करता है, कमास-ु कमों में,
सवाभूतेष-ु सब प्रािणयों के प्रित, सम्यक् भली-भाँित, के चन-कु छ, धारणा-सोच, समीचीना-ईिचता, समािवष्टाः-
समावेि (समाये हुए), मित:-बुिद्ध, धृितः - धैया, जीवनपद्धितः-जीवन की प्रणाली,पररष्कारः-िुिद्ध, वचः-वाणी,
महनीयम्-अदरणीय, पूज्य, पोषकम्-पोषण करने वाला.
सरलाथा :
संस्कृ त (सािहत्य) में िवद्यमान सूिक्तयाँ भौितक ईन्नित के िलए प्रेररत करती हैं। जैसे- ‘सत्य की ही सदा िवजय
होती है’ ‘सारी पृथ्वी ही एक छोटा सा पररवार है’, ‘िवद्या द्वारा ऄमरत्व की प्रािप्त होती है (ऄथाात् िवद्या द्वारा
मनुष्य ऄमर हो जाता है)’ ‘कमों में कौिल/िनपुणता ही योग है’ आत्याकद। सब के प्रित ऄपने जैसा व्यवहार करने
के िलए संस्कृ त भाषा ऄच्छी तरह से ििक्षा देती है। कु छ लोग कहते हैं कक संस्कृ त भाषा में के वल धार्थमक
सािहत्य है-यह सोच (धारणा) ईिचत नहीं है। संस्कृ त ग्रन्थों में मानव जीवन के िलए िविभन्न िवषयों का
समावेि (समाए हुए) है। महापुरुषों की बुिद्ध, सज्जनों का धैया और सामान्य मनुष्यों की जीवन प्रणाली (पद्धित)
वर्थणत की गइ है। आसिलए हमारे द्वारा संस्कृ त ऄवश्य ही पढ़ने योग्य है ऄथाात् हमें संस्कृ त ऄवश्य पढ़नी
चािहए। िजससे मानव की और समाज की िुिद्ध हो। और कहा गया है िमत्र संस्कृ त ऄमृत है। सरस और सरल
वाणी है। भाषाओं में जो सम्मान के योग्य है और ज्ञान एवं िवज्ञान की पोषक (पोषण करने वाली) है।
एकपदेन ईिरत-
ऄितररक्त प्रश्नोिरािण:-
प्रश्न िनमााणं :-
I.िनदेिा:- रे खांककत पदािन अधृत्य प्रश्निनमााणं कु रुत –
(1 ) संस्कृ तं प्राचीनतमा भाषा |
(ऄ ) कः (ब ) का (स ) के षाम् (द ) के न
ईिरम् : (ब ) का
(2 ) संस्कृ तं संगणकस्य कृ ते सवोिमा भाषा |
(ऄ ) कः (ब ) के न (स ) ककम् (द ) कस्य
ईिरम् : (स ) ककम्
(3 ) अयाभट्ट: िून्यस्य प्रितपादनम् ऄकरोत् |
(ऄ ) कः (ब ) कु त्र (स ) कस्य (द ) ककम्
ईिरम् : (ऄ ) कः
II. िनदेिा:- मञ्जूषातः समानाथाकपदािन िचत्वा िलखत
मञ्जूषा-सािहत्यं, पररवार: ,कोष:, किथतम् , वाणी, िवश्वे,
िनिध: -----------------------
वचः -----------------------
वाङ्मयं ------------------------
जगित ------------------------
कु टुम्बकम् -----------------------
ईक्तम् -----------------------
ईिरािण:- िनिध: कोषः
वचः वाणी
वाङ्मयं सािहत्यं
जगित िवश्वे
कु टुम्बकम् पररवार:
ईक्तम् किथतम्
III. िनदेिा:- ऄधोिलिखतानां पदानां सत्तन्ध/सिन्धिवच्छेदं कु रुत -
(ऄ ) भाषेयं (ब ) सवोिमा (स ) वसुधा + एव (द ) के न+ ऄिप
ईिरम् - (ऄ ) भाषा + आयं (ब ) सवा + ईिमा (स ) वसुधैव (द ) के नािप
IV. िनदेिा:- ऄधोिलिखतानां िब्दरूपािण िनर्ददष्टिवभक्ते : ऄनुसारं िलखत –
(क ) मित िद्वतीया िवभिक्तः
(ख ) प्रकृ ित तृतीया िवभिक्तः
ईिरम् -
िवभिक्त: एकवचनं िद्ववचनम् बहुचनम्
िद्वतीया िवभिक्तः मितम् मती मती:
तृतीया िवभिक्तः प्रकृ त्यै प्रकृ ित्याम् प्रकृ ितिभ:
V. िनदेिा:- ईपयुक्तकथनानां समक्षम् ‘अम्’, ऄनुपयुक्त कथनानां समक्षम् ‘न’ आित िलखत –
(ऄ ) कौरटल्यरिचतम् ज्योितषिास्त्रं जगित प्रिसद्धमिस्त।
(ब ) गिणतिास्त्रे िून्यस्य प्रितपादनं सवाप्रथमम् अयाभट: ऄकरोत्।
ईिरािण:- (ऄ ) न
(ब ) अम्
चतुदि
ा ः पाठः
ऊकारान्तपुिँ ल्लङ्गः
पाठसारः
प्रस्तुत पाठ की कथा के द्वारा बच्चों के मन में ईठने वाले भावों एवं िवचारों का वणान ककया गया है। आस पाठ में
ऄप्रत्यक्ष रूप में ऄनाररका के माध्यम से कहा गया है कक पुल का ईद्घाटन ईसके िनमााणकताा द्वारा होना चािहए।
पाठ से ‘ऊकारान्त’ िब्द रूपों का ज्ञान प्राप्त होता है।
पुल के ईद्घाटन के िलए मन्त्री जी अ रहे हैं। ऄनाररका ने पूछा कक क्या मन्त्री ने पुल का िनमााण ककया है ?
ईसके िपता ने बताया कक पुल का िनमााण मजदूर करते हैं। ईसके िपता ने अगे बताया कक प्रजा सरकार को धन
देती है। ईस धन से पत्थर आत्याकद सामग्री खरीदी जाती है। आससे पुल का िनमााण होता है। आस प्रकार ईसके
िपता ने ऄनाररका की िजज्ञासा को िान्त ककया।
(क) बािलकायाः ऄनाररकायाः मनिस सवादा महती िजज्ञासा भवित। ऄतः सा बहन् प्रश्नान्
पृच्छित। तस्याः प्रश्नैः सवेषां बुिद्धः चक्रवत् भ्रमित।
सरलाथा :
बािलका ऄनाररका के मन में हमेिा बड़ा कु तूहल (जानने की आच्छा) होता है। आसिलए वह बहुत प्रश्न पूछती है।
ईसके प्रश्नों से सबकी बुिद्ध पिहए के समान घूमने लगती है।
(ख) प्रातः ईत्थाय सा ऄन्वभवत् यत् तस्याः मनः प्रसन्नं नािस्त। मनोिवनोदाय सा भ्रिमतुं गृहात् बिहः ऄगच्छत्।
भ्रमणकाले सा ऄपश्यत् यत् मागााः सुसिज्जताः सिन्त। सा िचन्तयित- ककमथाम् आयं सज्जा? सा ऄस्मरत् यत् ऄद्य
तु मन्त्री अगिमष्यित।
िब्दाथााः (Word Meanings) :
ऄन्वभवत्-ऄनुभव ककया (felt), मनोिवनोदाय-मन को प्रसन्न करने के िलए (to make her mind happy),
भ्रिमतुं-घूमने के िलए (to stroll), भ्रमणकाले-घूमने के समय (at the time of strolling), सुसिज्जताः-सजे हुए
(decorated), ऄस्मरत्-याद ककया (remembered), मन्त्री-मन्त्री (minister).
सरलाथा : सुबह ईठकर ईसने ऄनुभव ककया कक ईसका मन प्रसन्न (खुि) नहीं है। मन प्रसन्न करने के िलए वह
घूमने के िलए घर से बाहर गइ। घूमने के समय ईसने देखा कक रास्ते सजे हुए हैं। वह सोचती है-ककस िलए यह
तैयारी है? ईसे याद अया कक अज तो मन्त्री अएँगे।
(ग) सः ऄत्र ककमथाम् अगिमष्यित आित िवषये तस्याः िजज्ञासाः प्रारब्धाः। गृहम् अगत्य सा िपतरम् ऄपृच्छत्-
“िपतः! मन्त्री ककमथाम् अगच्छित?” िपता ऄवदत्-“पुित्र! नद्याः ईपरर कक मन्त्री सेतोः िनमााणम् ऄकरोत्?”
सरलाथा :
वे यहाँ ककसिलए अएँगे आस िवषय में ईसका कु तूहल अरम्भ हुअ। घर अकर ईसने िपता से पूछा-“िपता जी!
मन्त्री ककसिलए अ रहे हैं।” िपता जी बोले-“पुत्री! नदी के उपर नया पुल बना है, ईसके ईद्घाटन के िलए मन्त्री
अ रहे हैं।” ऄनाररका ने कफर पूछा-“िपता जी! क्या मन्त्री ने पुल का िनमााण ककया है?”
(घ) िपता ऄकथयत्-“न िह पुित्र! सेतोः िनमााणं कमाकराः ऄकु वान्!” पुनः ऄनाररकायाः प्रश्न: असीत्-“यकद
कमाकराः सेतोः िनमााणम् ऄकु वान,् तदा मन्त्री ककमथाम् अगच्छित?” िपता ऄवदत्-“यतो िह सः ऄस्माकं देिस्य
मन्त्री।” “िपतः! सेतोः िनमााणाय प्रस्तरािण कु तः अयािन्त? कक तािन मन्त्री ददाित?”
(ङ) िवरक्तभावेन िपता ईदतरत्-“ऄनाररके ! प्रस्तरािण जनाः पवाते्यः अनयिन्त।”िपतः! तर्थह ककम्, एतदथं
मन्त्री धनं ददाित? तस्य पाश्वे धनािन कु तः अगच्छिन्त?” एतान् प्रश्नान् श्रुत्वा िपताऽवदत्-“ऄरे ! प्रजाः
सवाकाराय धनं प्रयच्छिन्त।” िविस्मता ऄनाररका पुनः ऄपृच्छत् “िपतः! कमाकराः पवाते्यः प्रस्तरािण अनयिन्त।
ते एव सेतुं िनमाािन्त। प्रजाः सवाकाराय – धनं ददित। तथािप सेतोः ईद्घाटनाथं मन्त्री ककमथाम् अगच्छित?”
सरलाथा :
िपता ने ईदासीन भाव से ईिर कदया, “ऄनाररका! पत्थर लोग पहाड़ों से लाते हैं।” “िपता जी! तो क्या! आसके
िलए मन्त्री धन देते हैं ? ईनके पास धन कहाँ से अता है?” आन प्रश्नों को सुनकर िपता बोले -“ऄरे ! प्रजा सरकार
को धन देती हैं।” अश्चयाचककत ऄनाररका ने कफर पूछा- “िपता जी! मजदूर पहाड़ों से पत्थर लाते हैं, वे ही पुल
बनाते हैं, प्रजा सरकार को धन देती हैं, तो भी मन्त्री पुल के ईद्घाटन के िलए ककसिलए (क्यों) अ रहे हैं?”
(च) िपता ऄवदत्-“प्रथममेव ऄहम् ऄकथयम् यत् सः देिस्य मन्त्री ऄिस्त।स जनप्रितिनिधः ऄिप ऄिस्त।
जनतायाः धनेन िनर्थमतस्य सेतोः ईद्घाटनाय जनप्रितिनिधः अमिन्त्रतो भवित। चल, सुसिज्जता भूत्वा िवद्यालयं
चल।” ऄनाररकायाः मनिस आतोऽिप बहवः प्रश्नाः सिन्त।
सरलाथा :
िपता बोले, “पहले ही मैंने कहा था कक वे देि के मन्त्री हैं। जनप्रितिनिध भी हैं। जनता के धन से बने हुए पुल के
ईद्घाटन के िलए जनता के प्रितिनिध िनमिन्त्रत ककए जाते हैं। चलो, तैयार होकर िवद्यालय जाओ।” ऄब भी
ऄनाररका के मन में बहुत से प्रश्न हैं।
परठत गद्यान्िः
बािलकायाः ऄनाररकायाः मनिस सवादा महती िजज्ञासा भवित। ऄतः सा बहन् प्रश्नान्
पृच्छित। तस्याः प्रश्नैः सवेषां बुिद्धः चक्रवत् भ्रमित। प्रातः ईत्थाय सा ऄन्वभवत् यत् तस्याः मनः प्रसन्नं नािस्त।
मनोिवनोदाय सा भ्रिमतुं गृहात् बिहः ऄगच्छत्। भ्रमणकाले सा ऄपश्यत् यत् मागााः सुसिज्जताः सिन्त। सा
िचन्तयित- ककमथाम् आयं सज्जा? सा ऄस्मरत् यत् ऄद्य तु मन्त्री अगिमष्यित। सः ऄत्र ककमथाम् अगिमष्यित
आित िवषये तस्याः िजज्ञासाः प्रारब्धाः। गृहम् अगत्य सा िपतरम् ऄपृच्छत्-“िपतः! मन्त्री ककमथाम् अगच्छित?”
िपता ऄवदत्-“पुित्र! नद्याः ईपरर कक मन्त्री सेतोः िनमााणम् ऄकरोत्?”
क. एकपदेन ईिरत-
I. सा भ्रमणकाले का ऄपश्यत् ?
II. के सुसिज्जताः सिन्त ?
ख. पूणावाक्येन ईिरत-
I. का मनोिवनोदाय गृहाद् बिहः ऄगच्छत् ?
II. नद्याः ईपरर सेतोः िनमााणं कः ऄकरोत् ?
ग. िनदेिानुसारं ईिरत-
I. “सः ऄत्र ककमथं अगच्छित” ऄिस्मन् वाक्ये कतृापदं ककम् ?
ऄत्र / सः / ककमथाम् / अगच्छित
II. अगत्य –आित िब्दे प्रत्ययः वताते –
क्त्वा / तुमुन् / ल्यप् / त्य
III. मितः ‘ आित िब्दस्य कक पयाायवािचपदम् ऄत्र गद्यान्िे प्रयुक्तम् ?
मितः / गृहं / मनः / बुिद्धः
IV. तस्याः प्रश्नैः सवेषां बुिद्धः चक्रवत् भ्रमित- ऄिस्मन् वाक्ये कक्रयापदं ककम् ?
सवेषां / चक्रवत् / भ्रमित / बुिद्धः
ईिरम् –
क. एकपदेन ईिरत-
I. ऄनाररका
II. मागााः
ख. पूणावाक्येन ईिरत-
I. ऄनाररका मनोिवनोदाय गृहाद् बिहः ऄगच्छत् |
II. नद्याः ईपरर सेतोः िनमााणं मन्त्री ऄकरोत् |
ग. िनदेिानुसारं ईिरत-
I. सः
II. ल्यप्
III. बुिद्धः
IVभ्रमित
क. एकपदेन ईिरत-
ख. पूणावाक्येन ईिरत-
ग. िनदेिानुसारं ईिरत-
IV. -“ऄरे ! प्रजाः सवाकाराय धनं प्रयच्छिन्त।” - ऄिस्मन् वाक्ये कक्रयापदं ककम् ?
I. प्रस्तरािण
II. धनम्
ख. पूणावाक्येन ईिरत-
ग. िनदेिानुसारं ईिरत-
I. तृतीया
III. लट्
IV. प्रयच्छिन्त
क. ख.
प्रस्तरं सररतः
मनिस ऄनेके
नद्याः नेता
बहवः चेतिस
मन्त्री पाषाणः
ईिरािण --क. ख.
प्रस्तरं पाषाणः
मनिस चेतिस
नद्याः सररतः
बहवः ऄनेके
मन्त्री नेता
मन्त्री=............................
िवद्यालयः =.......................
सेतुः=................................
कमाकराः =...........................
धनम्=.................................
प्रश्न:-3. “गहने िविपने व्याघ्रो गजाित” ऄत्र वने कस्य िब्दस्य ऄथा: ऄिस्त?
(1) गहने (2) िविपने(3) गजाित(4) व्याघ्र:
ईिरं - िविपने
ईिरं - षष्ठी
प्रश्न:-5. “तेषु डयन्ते िचत्रपतङ्गा:” ऄत्र ईत्पतिन्त कस्य िब्दस्य ऄथा: ऄिस्त?
(1) िचत्रपतङ्गा:(2) तेषु (3) डयन्ते
ईिरं - डयन्ते
प्रश्न:-6. घोटकराज: ऄस्य िब्दस्य पयााय: क: ऄिस्त?
(1) गज: (2)ईष्ट्र: (3) ऄश्व: (4) भुजंग:
ईिरं - ऄश्व:
ईिरं - नीचै:
चतुथ:ा सोपान:-िब्दाथाा:
धरणी –पृथ्वी
िवहसित – (िव+हसित)हंसती है
पक्षी –पक्षा: यस्य सिन्त स: (पक्षधर: )
सररत:- नद्या:
िवभाित –िविेष रूपेण भाित (रोचते )
तुङ्ग: - ईच्च:
करालम् –भयंकरम्