भारत में यूरोपियों का आगमन

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भारतीय इततहास - भारत में यूरोतियों का आगमन

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- अटठारहवीं शताब्दी के पवू ाार्द्ा में मगु ल साम्राज्य के शीघ्र ववघटन के कारण
ववववध भारतीय शवियों में राजनीवतक शन्ू यता को भरने के वलए तीव्र
प्रवतद्ववं द्वता दृविगोचर हुई। कुछ समय के वलए ऐसा प्रतीत हुआ, वक मराठे मगु लों
के स्थान पर भारत में सवाावधक शविशाली हैं। लेवकन उनकी शवि के हास ने
भी यरू ोपीय व्यापाररक कंपवनयों को भारतीय राजनीवत में सविय होने का
अवसर प्रदान वकया।
- आरंभ में यरू ोपीय कंपवनयों ने स्थानीय शासकों के राजनीवतक मामलों में
हस्तक्षेप करना शरू ु वकया। इस चरण में सवोच्चता के वलए पारस्पररक द्वद्वों में
भी उलझ गए। अंतत: अंग्रेज़ उप-महाद्वीपीय राजनीवतक शवि की प्रवतस्पधाा में
सविय हो गए और अंवतम ववजयी के रूप में सफल हुए।
- उनकी इस सफलता के पीछे भारतीय शवियों की सामान्य दर्ु ालताएँ थीं।
भारतीय व्यापार से अवजात धन को यर्द् ु की श्रेष्ठ वववधयों के साथ प्रयोग करते
हुए, अग्रं ेज़ों ने भारत में विवटश साम्राज्य स्थावपत वकया।
- यरू ोप से भारत पहुचँ ने हेतु दो मागा थे:-
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1. स्थल मागा:- र्ाल्कन प्रदेशों से टकी, फारस ईरान से अफगान तक पहुचँ ता था
वफर खैर्र, कुरा म, र्ोलन, तथा गोमल आवद दरों से होते हुए भारत पहुचँ ता था।
2. जलमागा:- भमू ध्यसागर अथवा कालासागर द्वारा लालसागर, फारस की खाड़ी
और अरर् सागर होते हुए भारत पहुचँ ता था। 15वीं सदी में इन दोनों मागों पर
अरर्ों का प्रसार र्ढ़ता गया।
- 1453 ई. में उस्मावनया तक ु ों ने कुस्तनु तवु नया पर अवधकार कर वलया और धीरे -
धीरे सम्पणू ा दवक्षण-पविम व दवक्षण-पवू ी यरू ोपीय क्षेत्रों व व्यापार पर अवधकार
हो गया।
इस अवधकार के साथ ही स्थल मागा व्यापार हेतु र्ंद हो गया, अत: यरू ोपीयों को
नए जल मागा की आवश्यकता पड़ी।
- भारत में यरू ोवपयों के आगमन का िम:-
पतु ागाल – डच – अग्रं ेज – डेवनस – फ्ांवससी
(1498 ई.) (1595 ई.) (1600 ई.) (1616 ई.) (1664 ई.)
- भारत में स्थापना-
1. पतु ागाल – 1503 ई. – कोचीन
2. अंग्रेज – 1608 ई. – सरू त
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3. डच – 1610 ई. – पल ु ीकट
4. डेनमाका – 1620 ई. (तजं ौर)
5. फ्ावसंसी – 1668 ई. (सरू त)
भारत में पतु ागावलयों का आगमन:-
- आधवु नक यगु में भारत आने वाले यरू ोपीय व्यापाररयों के रूप में पतु ागाली
सवाप्रथम रहे। पोप अलेक्जेण्डर ने एक आज्ञा पत्र द्वारा पवू ी समद्रु ों में पतु ागावलयों
को व्यापार करने का एकावधकार प्रदान वकया। प्रथम यरू ोपीय यात्री वास्को-वड
गामा 90 वदन की समद्रु ी यात्रा के र्ाद अब्दल ु मनीक नामक गजु राती पथ
प्रदशाक की सहायता से 1498 ई. में कालीकट (भारत) के समद्रु ी तट पर उतरा।
- वास्को-वड-गामा के भारत आगमन से पतु ागावलयों एवं भारत के मध्य व्यापार के
क्षेत्र में एक नये यगु का शभु ारम्भ हुआ। वास्को-वड-गामा ने भारत आने और
पतु ागाल जाने पर हुए यात्रा व्यय के र्दले में लगभग 60 गनु ा अवधक कमाई की।
धीरे -धीरे पतु ागावलयों का भारत आने का िम जारी हो गया। पतु ागावलयों के दो
प्रमख ु उद्देश्य -
- अरर्ों और वेवनस के व्यापाररयों का भारत से प्रभाव समाप्त करना।
- ईसाई धमा का प्रचार करना।

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- 9 माचा, 1500 को 13 जहाजों के एक र्ेड़े का नायक र्नकर पेड्रो अल्वारे ज
के िोल जलमागा द्वारा वलस्र्न से भारत के वलए रवाना हुआ। वास्को-वड-गामा
के र्ाद पतु ागावलयों ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के
र्ंदरगाहों में अपनी व्यापाररक कोवठयाँ स्थावपत की। पवू ी जगत के कालीवमचा
और मसालों के व्यापार पर एकावधकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पतु ागावलयों ने
1503 ई. में कोचीन (भारत) में अपने पहले दगु ा की स्थापना की।
- 1505 ई. में फ्ांवसस्को द अल्मेडा भारत में प्रथम पतु ागाली वायसराय र्न कर
आया। उसने सामवु द्रक नीवत (नीले पानी की नीवत) को अवधक महत्त्व वदया तथा
वहन्द महासागर में पतु ागावलयों की वस्थवत को मजर्तू करने का प्रयत्न वकया।
1509 ई. में अल्मेडा ने वमस्र, तक ु ी और गजु रात की सयं ि ु सेना को परावजत
कर दीव पर अवधकार कर वलया।
- अल्मेडा के र्ाद अलफासं ो द अल्र्क ु का 1509 ई. में पतु ागावलयों का वायसराय
र्नकर भारत आया। यह भारत में पतु गा ाली गवनार था। उसने कोचीन को अपना
मख्ु यालय र्नाया।
- 1510 ई. में उसने र्ीजापरु के शासक यसू फ ु आवदल शाह से गोवा को छीन कर
अपने अवधकार में कर वलया। गोवा के अलावा अल्र्क ु का ने 1511 ई. में
मलक्का (द.प.ू एवशया) और 1515 में फारस की खाड़ी में वस्थत हरमजु पर
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अवधकार कर वलया। इस प्रकार दमन, दीव, सालमेट, र्सीन, चोला, मम्ु र्ई
हरमजु तथा सेन्ट थोमे पर पतु ागावलयों का अवधकार हो गया।
- पतु ागावलयों की आर्ादी को र्ढ़ाने के उद्देश्य से अल्र्क ु का ने भारतीय वियों से
वववाह को प्रोत्साहन वदया। उसने अपनी सेना में भारतीयों को भी भती वकया।
1515 ई. में अल्र्क ु का की मत्ृ यु हो गई। उसे गोवा में दफना वदया गया।
- अल्र्क ु का के र्ाद नीनो-डी-कुन्हा अगला पतु ागीज गवनार र्नकर भारत आया।
1530 में उसने अपना कायाालय कोचीन से गोवा स्थानान्तररत वकया और गोवा
को पतु ागाल राज्य की औपचाररक राजधानी र्नाई। कुन्हा ने सैन्थोमी (चेन्नई),
हुगली (र्ंगाल) तथा दीव (काठमाण्डू) में पतु ागीज र्वस्तयों को स्थावपत कर
भारत में पवू ी समद्रु तट की ओर पतु ागाली वावणज्य का ववस्तार वकया। उसने
1534 ई. में र्सीन और 1535 में दीव पर अवधकार कर वकया।
- मेवड्रक सवं ध:- 1633 ई.
यह संवध विटेन व पतु ागावलयों के मध्य हुई थी। इसकी शता पतु ागाल व विटेन के
मध्य व्यापाररक शत्रतु ा समाप्त करना था।
पतु ागावलयों का पतन
- अपनी शवि के ववस्तार के साथ ही पतु ागावलयों ने भारतीय राजनीवत में भी
हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर वदया। इसका स्वाभाववक पररणाम यह हुआ, वक यह
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कालीकट के राजा से, वजसकी समवृ र्द् अरर् सौदागरों पर वनभार थी, शत्रतु ा रखने
लगे। यह कालीकट के राजा के शत्रओ ु ं से, वजनमें कोचीन का राजा प्रमख
ु था,
संवधयां करने लगे।
1. धावमाक असवहष्णतु ा की नीवत।
2. अल्र्क ु का के अयोग्य उत्तरावधाकारी।
3. डच तथा अंग्रेज शवियों का ववरोध।
4. र्र्ारतापवू ाक समद्रु ी लटु मार की नीवत का पालन।
5. स्पेन द्वारा पतु ागाल की स्वतन्त्रता का हरण।
6. ववजयनगर साम्राज्य का ववध्वसं आवद ।
- िाजील का पता लग जाने पर पतु ागाल की उपवनवेश सर्ं ंधी वियाशीलता
पविम की ओर उन्मख ु हो गई। अत: उनके पीछे आने वाली यरू ोपीय कंपवनयों
से उनकी प्रवतद्ववं दता हुई वजसमें वे वपछड़ गए।
- वहन्द महासागर और दवक्षणी तट पर पतु ागावलयों के पतन के वलए वनम्नवलवखत
कारण वजम्मेदार थे-
 एवशयाई जहाजों की तल
ु ना में पतु ागाली नौसेना का अवधक कुशल होना।

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- मगु ल शासक शाहजहाँ ने 1632 ई. में पतु ागावलयों से हुगली छीन वलया, क्योंवक
पतु ागाली वहाँ पर लटू मार तथा धमा पररवतान आवद वनन्दनीय काया कर रहे थे।
- भारत पर पतु ागाली प्रभाव:-

गोवथक स्थापत्य कला


- भारत में गोवथक स्थापत्य कला का आगमन पतु ागावलयों के साथ हुआ
पतु ागावलयों ने गोवा, दमन और दीव पर 1661 ई. तक शासन वकया।
- भारत व जापान के मध्य व्यापार प्रारंभ करने का श्रेय पतु ागावलयों को वदया जाता
है।
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- ईसाई वमशनररयों ने भारत में धमा पररवतान के प्रयास वकए। 1540 ई. में गोवा के
सभी वहदं ु मवं दरों को नि कर वदया गया।
- इसके द्वारा 1560 ई. में गोवा में ईसाई धावमाक न्यायालय की स्थापना।
- 1556 ई. में गोवा में सवाप्रथम वप्रवटंग प्रेस की स्थापना पतु ागावलयों द्वारा की गई
थी।
- 1563 ई. में भारतीय जड़ी-र्वु टयाँ व वनस्पवत पर आधाररत प्रथम पस्ु तक ‘द
इवं डयन मेवडसनल पलांटस’ प्रकावशत की गई।
भारत में डचों का आगमन
दवक्षण-पवू ा एवशया के मसाला र्ाजारों में सीधा प्रवेश प्राप्त करना ही डचों का
महत्वपणू ा उद्देश्य था। डच लोग हालैण्ड के वनवासी थे। भारत में 'डच ईस्ट
इवं डया कम्पनी की स्थापना 1602 ई. में की गई। 1596 ई. में भारत में आने
वाला प्रथम डच नागररक कारनोवलस डेडस्तमान था।
10 माचा 1602 ई. की एक राजकीय घोषणा के आधार पर "यनु ाईटेड ईस्ट
इवण्डया कम्पनी ऑफ द नीदरलैण्ड की स्थापना की गई।
भारत में डचों की महत्वपणू ा कोवठयाँ
- डचों ने भारत में अपना पहला कारखाना 1605 ई. में मछलीपट्टम में खोला।
मछलीपट्टम से डच लोग नील का वनयाात करते थे। डच लोग भारत में मख्ु यतः
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मसालों , नील, कच्चे रे शम, शीशा, चावल व अफीम का व्यापार करते थे।
डचों ने मसालों के स्थान पर भारतीय कपड़ों को अवधक महत्त्व वदया। यह कपड़े
कोरोमण्डल तट, र्ंगाल और गजु रात से वनयाात वकए जाते थे।
- डचों का भारत में अवन्तम रूप से पतन 1759 ई. में अग्रं ेजों एवं डचों के मध्य
हुए ‘र्ेदारा के यर्द्
ु ’ में हुआ। इस यर्द्
ु में अंग्रेजी सेना का नेतत्ृ व क्लाइव ने
वकया था। डचों के पतन के कारणों में अंग्रजों की तल ु ना में नौ-शक्ति का
कमजोर होना, मसालों के द्वीपों पर अवधक ध्यान देना, वर्गड़ती हुई आवथाक
वस्थवत, अत्यवधक के न्द्रीयकरण की नीवत आवद को वगना जाता है।
भारत में अग्रं ेजों का आगमन
- इग्ं लैण्ड की रानी एवलजार्ेथ-I के समय में 31 वदसम्र्र, 1600 को वद गवनार
एण्ड कम्पनी ऑफ लन्दन ट्रेंवडंग इन्टू वद ईस्ट इडं ीज अथाात विवटश ईस्ट इवं डया
कम्पनी की स्थापना हुई। इस कम्पनी की स्थापना से पवू ा महारानी एवलजार्ेथ ने
पवू ी देशों से व्यापार करने के वलए चाटार तथा एकावधकार प्रदान वकया। प्रारंभ में
यह अवधकार मात्र 15 वषा के वलए वमला था, वकन्तु कालान्तर में इसे 20-20
वषों के वलए र्ढ़ाया जाने लगा। ईस्ट इवं डया कम्पनी में उस समय कुल करीर्
217 साझेदार थे। कम्पनी का आरवम्भक उद्देश्य व्यापार था।

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- भारत में व्यापाररक कोवठयाँ खोलने के प्रयास के अन्तगात ही विटेन के सम्राट
जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में कै पटन हॉवकन्स को अपने राजदतू के रूप में मगु ल
सम्राट जहाँगीर के दरर्ार में भेजा। 1609 ई. में हॉवकन्स ने जहाँगीर से वमलकर
सरू त में र्सने की इजाजत मांगी परन्तु पतु ागावलयों तथा सरू त के सौदागरों के
ववद्रोह के कारण उसे स्वीकृवत नहीं वमली।
- हॉवकंस फारसी भाषा का ज्ञाता था। कै पटन हॉवकंस तीन वषा आगरा में रहा।
जहाँगीर ने उससे प्रसन्न होकर 400 का मनसर् तथा जागीर प्रदान की।
- 1615 ई. में सम्राट जैम्स-I ने सर टामस-रो को अपना राजदतू र्ना कर जहाँगीर
के पास भेजा।
- 1611ई. में दवक्षण-पवू ी समद्रु तट पर सवाप्रथम अग्रं जे ों ने मसु लीपट्टम में
व्यापाररक कोठी की स्थापना की। यहाँ से विों का वनयाात होता था। 1632 ई.
में गोलकुन्डा के सल्ु तान ने एक सनु हरा फरमान वदया, वजसके अनसु ार 500
पगोड़ा सालाना कर देकर गोलकुण्डा राज्य के र्न्दरगाहों से व्यापार करने की
अनमु वत वमल गई।
- 1639 ई. में मद्रास में तथा 1651 ई. में हुगली में व्यापाररक कोवठयाँ खोली गई।
1661ई. में इग्ं लैण्ड के सम्राट चाल्सा -II का वववाह पतु ागाल की राजकुमारी

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कै थरीन से हुआ तथा चाल्सा को र्म्र्ई दहेज के रूप में प्राप्त हुआ वजसे उन्होंने
1668ई. में दस पौण्ड वावषाक वकराये पर कम्पनी को दे वदया था।
- पवू ी भारत में अग्रं ेजों ने र्ंगाल, वर्हार, पटना एवं ढाका में अपने कारखाने
खोले। 1639 ई. में अग्रं ेजों ने चद्रं वगरर के राजा से मद्रास को पट्टे पर लेकर
कारखाने की स्थापना की तथा कारखाने की वकलेर्न्दी कर उसे फोटा सेंट जाजा
का नाम वदया। फोटा सेन्ट जाजा शीघ्र ही कोरोमण्डल समद्रु तट पर अंग्रेजी
र्वस्तयों के मख्ु यालय के रूप में मसु लीपट्टम से आगे वनकल गया।
- 1651 ई. में र्ंगाल में सवाप्रथम अग्रं ेजों को व्यापाररक छूट प्राप्त की, जर्
ग्रेववयन वांटन जो र्ंगाल के सर्ू ेदार शाहशजू ा के साथ दरर्ारी वचवकत्सक के
रूप में रहता था, यह कम्पनी के वलए एक फरमान प्राप्त करने में सफल हुआ। इस
फरमान से कम्पनी की 3000 रू. वावषाक कर के र्दले र्ंगाल, वर्हार तथा
ओड़ीसा में मि ु व्यापार करने की अनमु वत वमल गई। राजकुमार शजु ा की
अनमु वत से अंग्रजे ों ने र्ंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651 ई. में हुगली में
स्थावपत की। कम्पनी ने 1672 ई. में शाइस्ता खाँ से तथा 1680 ई. में औरंगजेर्
से व्यापाररक ररयायतों के सर्ं ंध में फरमान प्राप्त वकया। धीरे -धीरे अग्रं ेजों का
मगु ल राजनीवत में हस्तक्षेप प्रारम्भ हो गया।

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- 1698 ई. में तत्कालीन र्ंगाल के सर्ू ेदार अजीमश्ु शान द्वारा कम्पनी ने तीन
गाँव-सतु ानाती, कलकत्ता एवं गोववन्दपरु की जमींदारी 12000 ुपपये भगु तान
कर प्राप्त कर ली। 1700 ई. तक जर् चारनाक ने इसे ववकवसत कर कलकत्ता का
रूप वदया। कलकत्ता में फोटा वववलयम की स्थापना हुई। इसका पहला गवनार
चाल्सा आयर र्ना।
- डॉक्टर वववलयम हैवमल्टन, वजसने सम्राट फुपाखवसयर को एक प्राण घातक
र्ीमारी से वनजात वदलाई थी,इस सेवा से खश ु होकर 1717 ई. में सम्राट
फुपाखवसयर ने ईस्ट इवं डया कम्पनी के वलए फरमान जारी वकया, वजसके तहत-
- र्ंगाल में कम्पनी को 3000 ुपपये वावषाक देने पर वन:शल्ु क व्यापार का
अवधकार वमल गया।
- कम्पनी को कलकत्ता के आस-पास की भवू म वकराये पर लेने का अवधकार वदया
गया।
- कम्पनी द्वारा र्म्र्ई की टकसाल से जारी वकए गए वसक्कों को मगु ल साम्राज्य में
मान्यता प्रदान की गई।
- सरू त में 10,000 ुपपये वावषाक कर देने पर वनःशल्ु क व्यापार का अवधकार प्राप्त
हो गया।

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इवतहासकार ओसा (Orms) ने फुपाखवसयर द्वारा जारी वकए गए इस फरमान को
कम्पनी का महावधकार पत्र (Magna Carta of the Company) कहा।
1669 ई. से 1677 ई. तक र्म्र्ई का गवनार रहा गोराल्ड औवगयार ही वास्तव में
र्म्र्ई का महानतम सस्ं थापक था। 1687 ई. तक र्म्र्ई पविमी तट का प्रमख ु
व्यापाररक के न्द्र र्ना रहा। गोराल्ड औवगयार ने र्म्र्ई में वकलेर्न्दी के साथ ही
गोदी का वनमााण करवाया तथा र्म्र्ई नगर की स्थापना और एक न्यायालय
और पवु लस दल की स्थापना की। गोराल्ड औवगयार ने र्म्र्ई के गवनार के रूप
में यहाँ से तांर्े और चाँदी के वसक्के ढालने के वलए टकसाल की स्थापना
करवाई।
- औवगयार के समय में र्म्र्ई की जनसख्ं या 60,000 हो गई थी। उसका
उत्तरावधकारी रौल्ड (1677-82 ई.) र्ना।
- ईस्ट इवं डया कम्पनी- ईस्ट इवं डया कम्पनी एक वनजी व्यापाररक कम्पनी थी,
वजसने 1600 में शाही अवधकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अवधकार प्राप्त कर
वलया था। कम्पनी का मख्ु य उद्देश्य धन कमाना था। 1708 ई. में ईस्ट इवं डया
कम्पनी की प्रवतद्वन्दी कम्पनी न्यू कम्पनी का ईस्ट इवं डया कम्पनी में ववलय हो
गया। पररणामस्वरूप द यनू ाइटेड कम्पनी आफ मचेटस ऑफ इग्ं लैण्ड ट्रेवडंग टू
ईस्ट इडं ीज की स्थापना हुई।
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- कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रे ख ‘गवनार-इन- काउवन्सल’ करता था।
भारत में फ्ांसीवसयों का आगमन:-
- फ्ांसीवसयों ने भारत में सर्से अन्त में प्रवेश वकया। इनसे पहले यहाँ पर
पतु ागाली, डच और अग्रं ेज लोग अपनी व्यापाररक कोवठयाँ स्थावपत कर चक ुे
थे। फ्ांस के सम्राट लईु 14वें के मंत्री कोलर्टा के सहयोग से 1664 ई. में भारत
में फ्ांसीसी ईस्ट इवं डया कम्पनी की स्थापना हुई। यह सरकारी आवथाक सहायता
पर वनभार थी, इसवलए इसे सरकारी व्यापाररक कम्पनी भी कहा जाता है।
- भारत में फ्ांसीवसयों की पहली कोठी फ्ें कों कै रो द्वारा सरू त में 1668 ई. में
स्थावपत हुई। गोलकुण्डा ररयासत के सल्ु तान से अवधकार पत्र प्राप्त करने के र्ाद
फ्ांसीवसयों ने अपनी दसू री व्यापाररक कोठी की स्थापना 1669 ई. में
मसु लीपट्टम में की थी।
- 1673 ई. में फ्ास्ं वा मावटान तथा र्ेलागर द लेवस्पन ने ववलकोण्डपरु म के
मवु स्लम सर्ु ेदार शेर खाँ लोदी से एक छोटा गांव पडु ु चेरी प्राप्त वकया। पडु ु चरे ी में
ही फ्ांसीवसयों ने पांवडचेरी की नींव डाली।
- र्ंगाल के तत्कालीन नवार् शाइस्ता खाँ ने 1674 ई. में फ्ासं ीवसयों को एक
जगह दी जहाँ पर 1690-92 ई. के मध्य चन्द्रनगर की सप्रु वसर्द् फ्ांसीवसयों की

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कोठी की स्थापना हुई। पांवडचेरी के कारखाने में ही मावटान ने फोटा लईु का
वनमााण कराया।
- 1742 ई. से पवू ा फ्ांसीवसयों का मल ू उद्देश्य व्यापाररक लाभ कमाना था, परन्तु
1742 ई. के र्ाद डूपले के पांवडचेरी का गवनार वनयि ु होने पर राजनीवतक लाभ
व्यापाररक लाभ से महत्वपणू ा हो गया। डूपले की इस महत्वाकांक्षा ने ही भारत में
फ्ांसीवसयों के पतन के मागा को प्रशस्त वकया।
डेन : डेनमाका की "ईस्ट इवण्डया कम्पनी" की स्थापना 1616 ई. में हुई। इस
कम्पनी ने 1620 ई. में त्रैकोवार (तवमलनाडु) तथा 1667 ई. में सेरामपरु (र्ंकार)
में अपनी व्यापाररक कंपवनयां स्थावपत की। सेरामपरु डेनों का प्रमख ु व्यापाररक
के न्द्र था। 1854 ई. में डेन लोगों ने वावणज्य कंपनी को अग्रं ेजों को र्ेच वदया।
यरू ोपीय (आग्ं ल-फ्ांसीसी) वावणवज्यक कंपवनयों के मध्य संघषा -
- भारतीय सदं भा में हुए कनााटक यर्द् ु की एक ऐवतहावसक पष्ठृ भवू म विटेन एवं फ्ांस
के र्ीच मध्यकाल से ही चल रही प्रवतस्पधााओ ं से रही है। 13वीं-14वीं सदी में
चलने वाला 100 वषीय यर्द् ु इसका स्पि प्रमाण है। 15वीं सदी में राष्ट्र-राज्यों
के ववकास के साथ इन दोनों देशों में राष्ट्र के ववस्तार एवं समवृ र्द् के ववकास के
वलए वववभन्न प्रयास प्रारम्भ हुए। इन्हीं प्रयासों के पररणामस्वरूप ये दोनों यरू ोप

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के दो मजर्तू प्रवतद्वन्द्वी र्नकर उभरे और यहाँ तक की 18वीं सदी के मध्य से
चले तीन कनााटक यर्द् ु ों को इस प्रवतस्पधाा के पररप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
प्रथम कनााटक यर्द् ु (1746-1748 ई.)
- प्रथम कनााटक यर्द् ु ऑवस्ट्रया के उत्तरावधकार यर्द् ु से प्रभाववत था, जो 1740 ई.
से ही प्रारम्भ था। चंवू क यरू ोप में फ्ांस और विटेन एक दसू रे के प्रर्ल ववरोधी थे,
अतः भारत में भी इस ववरोध का असर पड़ा वजसके पररणामस्वरूप अंग्रजे और
फ्ांसीसी सेना के र्ीच 1746 ई. में यर्द् ु प्रारम्भ हो गया।
- 1740 ई. में डूपले फ्ांवसवसयों गवनार र्नकर भारत आया। इसने यरू ोपीय
कम्पवनयों द्वारा भारतीय राजनीवत में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की शरू ु आत की वजसकी
पररणवत कनााटक यर्द् ु के रूप में हुई।
- कनााटक यर्द् ु मख्ु यतः यरू ोप में चल रहे अंग्रेजों एवं फ्ांसीवसयों के र्ीच
ऑवस्ट्रया के उत्तरावधकार यर्द् ु का भारतीय ववस्तार माना जाता है।
- अंग्रेज अवधकारी र्ानेट द्वारा कुछ फ्ांसीसी जलपोतों को पकड़े जाने की
प्रवतवियास्वरूप डूपले ने 'लार्डु ााने' (मॉरीशस का फ्ांवसवसयों अवधकारी) की
सहायता से मद्रास पर अवधकार कर वलया था।

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- इसी समय हैदरार्ाद के वनजाम के तहत आने वाले कनााटक क्षेत्र में उत्तरावधकार
का वववाद भी चल रहा था, वजसमें एक ओर विवटश समवथात अनवरूद्दीन तथा
दसू री ओर फ्ांवसवसयों समवथात प्रवतवनवध था।
- मद्रास पर अवधकार के मद्दु े को लेकर यर्द् ु की वस्थवत र्न गई थी। कनााटक
समवथात नवार् अनवरूद्दीन ने 1748 ई. में फ्ांवसवसयों के ववुपर्द् 'सेन्ट थोमे' की
लड़ाई लड़ी। वजसमें अनवरूद्दीन की हार हुई। लड़ाई के पिात ‘ए. ला. शापेल'
की सवं ध हुई, वजसके तहत फ्ांसीवसयों ने अग्रं ेजों को मद्रास तो वापस कर वदया
पर उसके र्दले उसे अमेररका का एक क्षेत्र वमला।
- कनााटक का प्रथम यर्द् ु सेन्ट टोमे के यर्द्
ु के वलए स्मरणीय है। यह यर्द् ु फ्ांसीसी
सेना एवं कनााटक के नवार् अनवरूद्वीन के मध्य लड़ा गया था। यह यर्द् ु
फ्ांसीवसयों द्वारा मद्रास की ववजय पर हुआ, वजसका पररणाम फ्ांसीवसयों के
पक्ष में रहा क्योंवक कै पटन पेराडाइज के नेतत्ृ व में फ्ासं ीसी सेना ने महफूज खाँ के
नेतत्ृ व में लड़ रही भारतीय सेना को अदमार नदी पर वस्थत सेन्ट टोमे नामक
स्थान पर परावजत कर वदया। ऑवस्ट्रया का उत्तरावधकार यर्द् ु जो 1740 ई. में
प्रारम्भ हुआ था और अप्रत्यक्ष रूप से प्रथम कनााटक यर्द् ु के वलए भी उत्तरदायी
था, 1748 ई. में सम्पन्न ए-ला शापेल की संवध के द्वारा समाप्त हो गया । इसी

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संवध के तहत प्रथम कनााटक यर्द् ु भी समाप्त हुआ और संवध में वनवित की गई
शतों के अनसु ार फ्ांसीवसयों ने अग्रं जे ों को जीते हुये क्षेत्र वापस कर वदए ।
वद्वतीय कनााटक यर्द् ु (1749-54 ई.)
- वद्वतीय कनााटक यर्द् ु , जो 1749 ई. से 1754 ई. तक चला वजसका मल ू कारण
हैदरार्ाद एवं कनााटक में उत्तरावधकार के वलए दो गटु ों के र्ीच संघषा था।
हैदरार्ाद में नावसरजंग विवटश समवथात था, तो मजु फ्फरजंग फ्ांवसवसयों समवथात
था। वैसे ही कनााटक में अनवरूद्दीन विवटश समवथात तथा चदं ा साहर्
फ्ांवसवसयों प्रवतवनवध थे। अतः इस प्रकार दो गटु र्ने। दोनों गटु ों में 1749 ई. में
अम्र्रू की लड़ाई हुई वजसमें फ्ांवसवसयों समवथात गटु ववजयी हुआ। अनवरूद्दीन
मारा गया तथा चन्दा सावहर् नवार् र्ने। कुछ समय र्ाद नावसरजगं की जगह
हैदरार्ाद में फ्ांवसवसयों समवथात मजु फ्फरजंग नवार् र्ना। इस प्रकार प्रारवम्भक
स्तर पर फ्ांवसवसयों का प्रभाव स्थावपत हुआ पर कुछ ही समय र्ाद अनवरूद्दीन
के पत्रु महु म्मद अली ने अंग्रेजों के साथ वमलकर चन्दा साहर् एवं फ्ांवसवसयों
को हराकर कनााटक पर अपनी सत्ता स्थावपत की, लेवकन हैदरार्ाद पर
फ्ांवसवसयों प्रभाव र्ना रहा। 1756 ई. में अग्रं ेजों एवं फ्ासं ीवसयों के र्ीच
पावण्डचेरी की संवध हुई। वजसमें यह तय हुआ वक दोनों एक दसू रे के आन्तररक
मामलों में हस्तक्षेप नहीं करें गे।
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ततृ ीय कनााटक यर्द् ु (1756-63 ई.)
- यह यर्द् ु यरू ोप में विटेन एवं फ्ांस के र्ीच चल रहे सप्तवषीय यर्द्
ु (1756-63
ई.) का भारतीय ववस्तार था। 1761 ई. में विवटश सेना ने फ्ांवसवसयों मख्ु यालय
पावण्डचेरी पर अवधकार कर वलया। 1763 ई. में सप्तवषीय यर्द् ु की समावप्त पर
पेररस की संवध हुई, वजसके तहत पावण्डचेरी फ्ांवसवसयों को वापस कर वदया
गया। यह तय हुआ वक फ्ांवसवसयों भववष्य में वकसी भी प्रकार का राजनीवतक
हस्तक्षेप नहीं करें गे और वसफा एक व्यापाररक कम्पनी र्नकर रहेंगे।
- वांवडवाश का यर्द् ु (1760 ई.) यह फ्ांसीवसयों के वलए वनणाायक यर्द्
ु था,
क्योंवक फ्ासं ीवसयों के समक्ष में यह र्ात पणू ा रूप से आ चकु ी थी, वक वे कम से
कम भारत में विवटश कम्पनी के रहते सफल नहीं हो सकते, चाहे वह उतर-पवू ा
हो या पविम या वफर दवक्षण भारत। 1763 ई. में सम्पन्न हुई पेररस संवध के द्वारा
अग्रं ेजों ने चन्द्रनगर को छोड़कर शेष अन्य प्रदेश, जो फ्ांसीवसयों के अवधकार में
1749 ई. तक थे, वापस कर वदए और ये क्षेत्र भारत के स्वतंत्र होने तक इनके
पास र्ने रहे थे।
- फ्ांसीवसयों की पराजय के अनेक कारण -

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1. फ्ांसीसी अत्यवधक महत्वाकांक्षा के कारण यरू ोप में अपनी प्राकृवतक सीमा
इटली, र्ेवल्जयम तथा जमानी तक र्ढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे और भारत के
प्रवत वे उतने गम्भीर नहीं थे।
2. इस दोनों कम्पवनयों में गठन तथा सरं क्षण की दृवि से काफी अतं र था। फ्ांसीसी
कम्पनी जहाँ पणू ा रूप से राज्य पर वनभार थी, वहीं विवटश कम्पनी व्यविगत स्तर
पर काया कर रही थी।
3. फ्ासं ीसी नौसेना अगं ेजी नौसेना की तल ु ना में काफी कमजोर थी।
4. भारत में र्ंगाल पर अवधकार कर अंग्रेजी कम्पनी ने अपनी वस्थवत को आवथाक
रूप से काफी मजर्तू कर वलया था, दसू री ओर फ्ांसीवसयों को पांवडचेरी से
उतना लाभ कदावप नहीं हुआ, वजतना अगं ेजों को र्ंगाल से हुआ।
दवक्षण भारत
- अग्रं ेज़ों द्वारा शवि प्राप्त करने की प्रविया दवक्षण भारत से शरू
ु हुई। 1748 ई. में
हैदरार्ाद के वनज़ाम की मत्ृ यु के पिात उसके उत्तरावधकाररयों के र्ीच वसंहासन
के वलए उत्तरावधकारी संघषा शरू ु हो गया। इसके र्ाद इसी प्रकार का एक संघषा
आरकॉट के नवार् के पत्रु ों के र्ीच हुआ, जो सैर्द्ांवतक रूप से वनज़ाम का
सर्ू ेदार था, परंतु अपनी शवि और महत्वाकांक्षा के कारण वास्तव में स्वतंत्र हो

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गया था। इन दोनों ही संघषों में फ्ांसीवसयों और विवटशों ने ववरोधी दावेदारों का
पक्ष वलया।
- संघषा के प्रथम चरण में वजसे र्ाद में वद्वतीय कनााटक यर्द् ु (1749-1754 ई.)
कहा गया, पांवडचेरी के गवनार डूपले के नेतत्ृ व में फ्ासं ीवसयों को हैदरार्ाद और
आरकॉट के वसंहासनों पर अपना उम्मीदवार र्ैठाने में सफलता वमली थी। इस
घटना से दो वषा पवू ा प्रथम कनााटक यर्द्ु (1746-1748 ई.) में डूपले ने आरकॉट
के नवार् अनवर-उद-दीन के ववुपर्द् पहली जीत अवजात की थी। सैन्य दृविकोण
से यह एक छोटी लड़ाई थी। लेवकन इसका प्रचरु ऐवतहावसक महत्त्व था।
- इवतहासकार एम.एन. दास के अनसु ार, कुछ पविमी सैवनकों और उनके
प्रवशवक्षत भारतीय वसपावहयों, वजनकी सख्ं या के वल पाँच सौ थी, इन्होंने अपने
से र्ीस गनु ा र्ड़ी नवार् की शविशाली सेना को लड़ाई में अत्यंत आसानी से
हरा वदया। दसू री ववजय के साथ ही उसकी महत्वाकाक्ष ं ा ऊँची उड़ान भरने लगी।
- विवटश जनरल आयर कूट ने वांडीवाश की लड़ाई (1760 ई.) में फ्ांसीवसयों को
हराकर भारत में इनकी औपवनवेवशक महत्वाकांक्षाओ ं को समाप्त कर वदया।
- इन वदनों यरू ोपीय लोग कोरोमडं ल तट के उस भाग को कनााटक कहते थे, जो
आरकॉट के अवधकार क्षेत्र में था। चँवू क तीनों यर्द्
ु उसी क्षेत्र में हुए थे, अतः उन्हें
कनााटक यर्द्ु ों के नाम से जाना गया है।
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पलासी का यर्द्ु (1757 ई.)
- इस यर्द्
ु के र्ाद में ईस्ट इवं डया कंपनी के सहयोग से मीर जाफर र्ंगाल का
नवार् र्ना। ईस्ट इवं डया कंपनी को अपदस्थ नवार् वसराज-उद-दौला से
कलकत्ता पर आिमण करने के मआ ु वज़े स्वरूप17,700,000 ुपपए भी वमले।
साथ ही वर्ना वकसी शल्ु क अदायगी के कंपनी को र्ंगाल, वर्हार और ओवडशा
में उन्मि
ु व्यापार का अवधकार भी वमला। इसके अवतररि कंपनी को नवार् मीर
जाफर से र्ंगाल के 24 परगना की ज़मींदारी भी वमली। इस प्रकार रातों-रात यह
कंपनी भारत में एक क्षेत्रीय शवि र्न गई। वफर भी कंपनी की लालसा और
अवधक धन पाने की थी, वजसको सतं िु करने में मीर जाफर सक्षम नहीं था।
इसवलए कंपनी ने उसके दामाद मीर कावसम के साथ गप्तु समझौता कर 1760 ई.
में मीर जाफर को वसंहासन त्यागने के वलए मजर्रू कर वदया। यह पररवतान र्हुत
थोड़े से अतं राल पर उस समय हुआ, जर् क्लाइव इग्ं लैंड में था। र्ंगाल के
वसंहासन का उत्तरदावयत्व लेते ही मीर कावसम ने इस कृपा के र्दले कंपनी को
र्दावान, वमदनापरु और चटगाँव की ज़मींदारी सौंप दी और कंपनी के
अवधकाररयों को कीमती उपहार वदए।
- इन कायों के र्दले मीर कावसम ने यह आशा की थी, वक कंपनी र्ंगाल के
नवार् के रूप में उसकी सप्रं भतु ा का सम्मान करे गी। अपनी वास्तववक शवि को
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सवु नवित करते हुए उसने अपनी राजधानी मवु शादार्ाद से मंगु ेर स्थानांतररत कर
दी थी। उसने भारतीय व्यापाररयों को अग्रं ेज़ व्यापाररयों के समान ही वर्ना वकसी
शल्ु क अदायगी के व्यापार करने की अनमु वत दे दी। यह कदम कंपनी की
अपेक्षाओ ं के प्रवतकूल थे। अतः मीर कावसम और कंपनी के र्ीच लड़ाई
आवश्यक हो गई। मीर कावसम ने अवध के नवार् शजु ा-उद-दौला और मगु ल
र्ादशाह शाह आलम वद्वतीय, जो अवध में रह रहा था, का समथान प्राप्त वकया।
हमेशा की भाँवत अग्रं ेजों ने दांव-पेंच का सहारा वलया और शजु ा-उद-दौला के
र्हुत से अवधकाररयों और अधीनस्थों को अपने पक्ष में कर वलया। अंत में दोनों
सेनाओ ं के र्ीच 1764 ई. में र्क्सर की लड़ाई हुई। इस लड़ाई में कंपनी की सेना
के कमांडर हेक्टर मनु रो ने शजु ा-उद-दौला और मीर कावसम को र्रु ी तरह परास्त
कर वदया। इस र्ीच मगु ल र्ादशाह शाह आलम वद्वतीय ने र्नारस में कंपनी के
समक्ष आत्मसमपाण कर वदया। मीर कावसम वदल्ली भाग गया जहाँ अत्यतं
वनधानता में 1777 ई. में उसकी मत्ृ यु हो गई। इस प्रकार पलासी में शरू
ु हुई
प्रविया को र्क्सर की ववजय ने पणू ा कर वदया। र्ंगाल अंग्रेज़ों के अधीन आ
गया।
- मई, 1765 में क्लाइव को यर्द् ु ोत्तर औपचाररकताओ ं को परू ा करने के वलए
पनु :भारत के गवनार के रूप में भेजा गया। इनके आगमन पर सवाप्रथम क्लाइव ने
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नवार् शजु ा-उद-दौला के साथ एक सवं ध की। इस संवध के द्वारा नवार् ने
इलाहार्ाद और कड़ा कंपनी को सौंप वदया और लड़ाई के मआ ु वजे के रूप में
पचास लाख ुपपए देना भी स्वीकार वकया। र्ाद में क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765
को मगु ल र्ादशाह शाह आलम-II के साथ इलाहार्ाद की सवं ध पर हस्ताक्षर
वकए। इस संवध के अनसु ार मगु ल र्ादशाह को कंपनी की सरु क्षा में ले वलया
गया और अवध के नवार् द्वारा वदए गए दोनों इलाके उसे सौंप वदए गए। पनु ः,
कंपनी ने र्ंगाल, वर्हार और ओवडशा की दीवानी का स्थायी अवधकार सौंपने
के र्दले मगु ल र्ादशाह को एक फरमान के अनसु ार 26 लाख ुपपए वावषाक
पेंशन देना स्वीकार वकया।
- इलाहार्ाद की सवं ध ने र्ंगाल पर नवार् की सत्ता का अतं कर वहाँ 'दोहरे
शासन' की स्थापना का मागा प्रशस्त वकया। इस व्यवस्था के अंतगात नवार्
काननू और प्रशासन की देखभाल करता था, जर्वक कंपनी ने राजस्व सग्रं ह का
अवधकार अपने हाथों में रखा था। सक्षं ेप में, नवार् को वर्ना शवि के
उत्तरदावयत्व वदया गया था और कंपनी वर्ना वकसी उत्तरदावयत्व के शवि का
आनंद ले रही थी। वनवित रूप से ऐसी व्यवस्था र्हुत वदनों तक नहीं चल
सकती थी।
भारत में विवटश साम्राज्य का ववस्तार
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- 1772 ई. में वॉरे न हेवस्टंग्स को र्ंगाल का गवनार वनयि
ु वकया गया। इसने 'मगु ल
संप्रभतु ा के मख
ु ौटे को उतार फें का' और र्ंगाल का परू ा प्रशासन अपने हाथों में
ले वलया। मगु ल र्ादशाह इस समय मराठों के सरं क्षण में रहउ रहे थे। ववश्वासघात
के वलए उसे दवं डत करने हेतु उसका वावषाक अनदु ान रोक वदया गया। इसके

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अवतररि उसने र्ादशाह से इलाहार्ाद और कड़ा लेकर इन क्षेत्रों को अवध के
नवार् के हाथों र्ेच वदया।
- अवध पर वॉरे न हेवस्टंग्स की कृपा दृवि के पीछे उसकी अवध को, कंपनी क्षेत्रों
और मराठों के र्ीच अतं :स्थ राज्य के रूप में स्थावपत करने की मश ं ा थी। इस
कारण इसने अवध के नवार् (वजनकी अंग्रेजों से कोई सीधी शत्रतु ा नहीं थी) की
रूहेलखंड जीतने में सहायता की।
- वॉरे न हेवस्टंग्स द्वारा डाली गई नींव पर ही उसके उत्तरावधकारी लॉडा कानावावलस
ने भारत ववजय अवभयान परू ा वकया। मैसरू में हैदर अली और उसके र्ाद उसके
पत्रु टीपू सल्ु तान की र्ढ़ती हुई ताकत से क्षेत्र के अन्य प्रवतस्पधी राज्यों के वहत
प्रभाववत हुए।
- 1789 ई. में जर् टीपू ने त्रावणकोर के छोटे राज्य पर ववजय पाई, तो कानावावलस
ने उससे र्दला लेने का वनिय वकया। इस यर्द् ु में मराठों और वनज़ाम ने भी
विवटशों का साथ वदया। तीसरा आग्ं ल-मैसरू यर्द् ु (1790 1792 ई.) दो वषों तक
चला। टीपू के वलए अपने ववरोवधयों की सवम्मवलत शवि का मक ु ार्ला करना
कवठन था। पररणामस्वरूप, टीपू शांवत के वलए सहमत हो गया। श्रीरंगपट्टम की
संवध' पर 1792 ई. में हस्ताक्षर वकए गए थे। इस प्रकार यह यर्द् ु तर् तक
अवनणीत ही रहा, जर् तक वक ररचडा माववस वेलेजली 'भारत में विवटश
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साम्राज्य को भारत का विवटश साम्राज्य' र्नाने की मंशा से भारत में नहीं आ
गया।
आग्ं ल - मैसरू यर्द्
ु के समय र्ंगाल के अंग्रेज गवनार जनरल-
यर्द्
ु गवनार जनरल समय

प्रथम आग्ं ल-मैसरू यर्द्


ु वेरेल्स्ट 1767-69

वद्वतीय आग्ं ल-मैसरू यर्द्


ु लॉडा वारे न हेवस्टंग्स 1780-84

ततृ ीय आग्ं ल-मैसरू यर्द्


ु लॉडा कानावावलस 1790-92

चतथु ा आग्ं ल-मैसरू यर्द्


ु लॉडा वेलेजली 1799

यर्द्
ु कारण पररणाम

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प्रथम § अंग्रेजों की मद्रास की संवध,
आग्ं ल- महत्वाकाक्षाएँ। 1769 ई. -
मैसरू § मालार्ार के नायक हैदरअली व ईस्ट
यर्द्
ु सामन्तों पर हैदरअली इवं डया कम्पनी दोनों
(1767- का वनयत्रं ण। पक्षों ने एक-दसू रे के
69 ई.) § कनााटक के नवार् वववजत प्रदेश तथा
महु म्मद अली व यर्द्
ु र्ंदी लौटा वदए।
हैदरअली में शत्रतु ा। दोनों पक्षों ने एक-
§ हैदरअली का अंग्रेजों दसू रे पर वकसी भी
की वमत्रता का प्रस्ताव न शवि के आिमण के
मानना। समय सहायता देने
का वचन वदया।

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वद्वतीय § अंग्रेजों द्वारा संवध की मगं लौर की संवध,
आग्ं ल- शता का पालन न करना। 1784 ई. - टीपू को
मैसरू § अग्रं ेजों का माहे पर मैसरू राज्य में अग्रं जे ों
यर्द्
ु अवधकार। के व्यापाररक
(1780- § हैदरअली द्वारा वत्रगटु अवधकार को मानना
84 ई.) का वनमााण। पड़ा। अग्रं ेजों ने
§ हैदरअली के आश्वासन वदया, वक
फ्ांसीवसयों के साथ वे मैसरू के साथ
संर्ंध। वमत्रता र्नाए रखेंगे
तथा संकट के समय
उसकी मदद करें गे।

ततृ ीय § मंगलौर की संवध का श्रीरंगपटटनम की


आग्ं ल- अस्थावयत्व । संवध, 1792 ई. -इस
मैसरू § टीपू का फ्ांसीवसयों से सवं ध के अनसु ार
यर्द्
ु सम्पका । अंग्रेजों अथाात
(1790- § मराठों को टीपू के कानावावलस को टीपू
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92 ई.) ववुपर्द् उकसाना। सल्ु तान द्वारा अपना
§ वनजाम के भेजे पत्र में आधा राज्य तथा तीन
कॉनावावलस द्वारा टीपू करोड़ ुपपये जमु ााना
को वमत्रों की सचू ी में के रूप में वदया।
शावमल न करना।
चतथु ा § टीपू का फ्ांसीवसयों से § टीपू के राज्य का
आग्ं ल- सम्पका । ववभाजन।
मैसरू § भारत पर नेपोवलयन के § दवक्षणी भारत पर
यर्द्
ु आिमण का खतरा। अंग्रेजी प्रभत्ु व तथा
(1799 § वेलेजली की वेलेजली की प्रवतष्ठा
ई.) आिामक नीवत। में ववृ द्व, टीपू की मत्ृ य।ु
आग्ं ल-मराठा यर्द्

प्रथम आग्ं ल-मराठा यर्द्
ु (1775-82 ई.) :-
- 1775 ई. में रघनु ाथ राव और अंग्रेजों के र्ीच सरू त की संवध हुई। इस संवध के
अनसु ार रघनु ाथ राव को पेशवा र्नना था तथा कम्पनी को सालसेट तथा र्ेसीन
वमलने थे।
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- अंग्रेज तथा रघनु ाथ राव ने वमलकर अरास के यर्द् ु में पेशवा को परावजत वकया।
अग्रं ेजों की कलकत्ता कौंवसल ने इसकी तीव्र आलोचना की। फलस्वरूप अग्रं ेजों
और पेशवा के मध्य 1776 ई. में पनू ा की संवध हुई। इसके अनसु ार कम्पनी ने
रघनु ाथ राव का साथ छोड़ वदया।
- लेवकन अंग्रजे ों और मराठों के र्ीच शांवत स्थावपत नहीं हो सकी और पेशवा की
सेना ने 1778 ई. में अंग्रेजों को तेलगाँव एवं र्ड़गांव में परावजत वकया। 1779
ई. में र्ड़गाँव की सवं ध हुई इसके अतं गात अग्रं ेजों को मराठों के प्रदेश वापस
करने थे। लेवकन अंग्रेजों ने इसे नहीं माना और उनमें अनेक यर्द् ु हुए।
- 1782 ई. में महादजी वसवं धया के प्रयासों के फलस्वरूप दोनों पक्षों में सालर्ाई
की सवं ध हुई और प्रथम आग्ं ल-मराठा यर्द् ु समाप्त हो गया। इसके अतं गात
सालसेट एवं एलीफैं टा अंग्रेजों को वमला तथा अंग्रेजों ने माधवराव को पेशवा
मान वलया।
वद्वतीय आग्ं ल-मराठा यर्द्ु (1803-06 ई.):-
- आग्ं ल-मराठा संघषा का दसू रा दौर फ्ांसीसी भय से सल ं ग्न था। लॉडा वेलेजली ने
इससे र्चने के वलए समस्त भारतीय प्रान्तों को अपने अधीन करने का वनिय
वकया।

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- लॉडा वेलेजली के मराठों के आतं ररक मामलों में हस्तक्षेप की नीवत और
सहायक सवं ध थोपने के कारण वद्वतीय आग्ं ल-मराठा यर्द् ु आरम्भ हुआ।
- 1802 ई. में पेशवा ने अंग्रेजों के साथ र्ेसीन की संवध की। वजसके अंतगात
पेशवा ने अग्रं ेजों का सरं क्षण स्वीकार कर वलया। एक तरह से वह पणू ा रूप से
अंग्रेजों पर वनभार हो गए।
- इसवलए अनेक यर्द् ु हुए और अंत में 1806 ई. में होल्कर और अंग्रेजों के मध्य
राजघाट की सवं ध हुई और यर्द् ु समाप्त हो गया।
ततृ ीय आग्ं ल-मराठा यदु ध (1817-18 ई.) :-
- मराठा सरदारों द्वारा अपनी खोई हुई स्वतत्रं ता की पनु ः प्रावप्त तथा अग्रं ेज रे जीडेंट
द्वारा मराठा सरदारों पर कठोर वनयत्रं ण के प्रयासों के चलते यह यर्द्ु हुआ।
- लॉडा हेवस्टंग्स के वपण्डाररयों के ववुपर्द् अवभयान से मराठों के प्रभत्ु व को चनु ौती
वमली तथा दोनों पक्षों में यर्द्
ु आरम्भ हो गया।
- 1818 ई. को र्ाजीराव-II ने सर जॉन मेल्कम के सामने आत्मसमपाण कर वदया।
इसके र्ाद पेशवा का पद समाप्त कर वदया गया और पेशवा को ववठूर भेज वदया
गया। पनू ा पर अग्रं जे ों का अवधकार स्थावपत हो गया।
- मराठों के आत्मसम्मान की तवु ि के वलए सतारा नामक एक छोटे राज्य का
अग्रं ेजों द्वारा वनमााण वकया गया तथा इसे वशवाजी के वश ं ज को सौंप वदया गया।
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- अपने उद्देश्यों की पवू ता के वलए लॉडा वेलेजली ने एक नीवत अपनाई, जो
‘सहायक सवं ध' कहलाई। इस सवं ध के वनयम र्हुत सरल थे। वे भारतीय शासक,
वजन्हें इस संवध को स्वीकार करने के वलए आमंवत्रत वकया जाता था, उनसे यह
अपेक्षा की जाती थी, वक वे विवटश अनमु वत के वर्ना वकसी अन्य शवि से न तो
लड़ाई करें गे और न ही वकसी प्रकार का संर्ंध रखेंग।े
- सहायक संवध स्वीकार करने वाले राज्य की आतं ररक शांवत और व्यवस्था
र्नाए रखने के वलए विवटश जनरलों के वनयत्रं ण में एक विवटश सेना रखी जाती
थी। इस सेना के खचा को वहन करने के वलए उस राज्य को अपने क्षेत्र का एक
वहस्सा कंपनी को देना पड़ता था या वफर के वल वावषाक अनदु ान देना पड़ता था।
इसके र्दले में कंपनी सहायक राज्यों को उनके आकार का ववचार वकए वर्ना
र्ाह्य आिमणों से सरु क्षा प्रदान करती थी।
- कमज़ोर भारतीय राज्यों के वलए सहायक सवं ध का यह प्रस्ताव वरदान की तरह
था। सहायक संवध को खश ु ी-खशु ी स्वीकार करने वाला प्रथम भारतीय शासक
हैदरार्ाद का वनज़ाम था। लेवकन टीपू ऐसा भारतीय शासक नहीं था जो चपु चाप
अग्रं ेजों के समक्ष घटु ने टेक देता। फ्ांसीसी सहायता से अपनी सेना को वनरंतर
आधवु नक र्नाने के टीपू के प्रयासों को अंग्रेज़ों द्वारा एक शत्रतु ापणू ा कायावाही के
रूप में वलया गया। इस प्रकार 1799 ई. में चतथु ा आग्ं ल-मैसरू यर्द् ु हुआ, वजसमें
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अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की रक्षा के वलए र्हादरु ी से लड़ता हुआ टीपू मारा
गया। पररणामस्वरूप, मैसरू राज्य का एक र्ड़ा भाग विवटश साम्राज्य में वमला
वलया गया।
- मैसरू की ववजय सैन्य और ववत्तीय दृवि से क्लाइव के समय से विवटश शवि की
सवाावधक महत्वपणू ा ववजय थी। यर्द् ु और कूटनीवत की प्रत्येक ववधा में अग्रं ेजों
ने अपने को मैसरू के र्हादरु राजाओ ं से श्रेष्ठ वसर्द् कर वदया। एक ओर जहाँ
हैदरअली और टीपू सल्ु तान दोनों ही अन्य भारतीय शवियों का समथान पाने में
असफल रहे, वहीं दसू री ओर अंग्रेज़ दवक्षण भारत के प्रभावशाली राज्यों का
समथान पाने अथवा उन्हें अपने समथान में तटस्थ रखने में सफल रहे। अतं में,
टीपू के राज्य पर ववजय के साथ विवटश साम्राज्य दक्कन के एक छोर से दसू रे
छोर तक ववस्ततृ हो गया।
- टीपू के पतन के तरु ं त र्ाद विवटश शवि के सामने मराठों को भी झक ु ना पड़ा।
वद्वतीय आग्ं ल-मराठा यर्द्
ु (1803-1805) के आरंभ होने के एक वषा पवू ा,
पेशवा र्ाजीराव- II ने र्सीन की संवध पर हस्ताक्षर कर अंग्रेजों के साथ
सहायक सवं ध कर ली थी। वास्तव में जसवतं राव होल्कर द्वारा पनू ा को हस्तगत
करने के र्ाद पेशवा विवटश सरु क्षा लेने के वलए वववश हुआ, लेवकन यह
शीघ्रता में उठाया गया कदम था। इसमें सदं हे नहीं वक अग्रं ेज़ों ने पेशवा को
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राजगद्दी पर पनु ः प्रवतवष्ठत कर वदया लेवकन उन्हें मराठों के मामलों में हस्तक्षेप
करने का अवसर भी वमल गया। इस कायावाही से मराठा सम्मान को भी चोट
पहुचँ ी, क्योंवक प्रथम आग्ं ल मराठा यर्द् ु (1775-1782 ई.) में वे मराठा शवि
को चोट पहुचँ ाने की वदशा में वॉरे न हेवस्टंग्स के प्रयासों को वनष्फल करने में
सफल रहे थे। अतः मराठा प्रमख ु ों ने अर् अंग्रेज़ों के ववुपर्द् हवथयार उठा वलए।
वखन्न पेशवा ने स्वयं गप्तु रूप से उन्हें लड़ाई के वलए प्रोत्सावहत वकया। वकंत,ु
मराठे सयं िु होने के र्जाय अनश ु ावसत विवटश सेनाओ ं से अलग-अलग लड़ते
रहे। पररणामस्वरूप, 1803 ई. में असाय की लड़ाई में दौलत राव वसंवधया और
रघजु ी भोंसले वद्वतीय की सयं ि ु सेनाएँ गवनार जनरल लॉडा वेलेजली के छोटे
भाई आथार वेलेजली से हार गई।ं इसके तरु ं त र्ाद अरगाँव में रघजु ी भोंसले-II
पनु ः हार गया और उसने एक संवध पर हस्ताक्षर करना स्वीकार वकया। इस संवध
के द्वारा भोंसले राजा ने अग्रं ेज़ों को ओवडशा सौंप वदया। इसी प्रकार उत्तर में
लसवारी नामक स्थल में जनरल लेक द्वारा दौलत राव वसंवधया र्रु ी तरह
परावजत हुआ और इसने सरु जी-अजानगाँव में एक संवध पर हस्ताक्षर वकए। इस
सवं ध के अनसु ार वसवं धया ने गगं ा और यमनु ा नवदयों के मध्य वस्थत अपने राज्य
का एक ववशाल भाग अंग्रेज़ों को सौंप वदया।

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- इन ववजयों के फलस्वरूप भारत में राजनीवतक हवा अग्रं ेजों के समथान में र्हने
लगी। ओवडशा के तटीय क्षेत्र को वमला लेने के र्ाद विवटश राज्य पवू ा में र्ंगाल
और दवक्षण में मद्रास तक भवू म द्वारा जड़ु गया। भय से राजपतू राजाओ ं ने
अग्रं ेज़ों के साथ सवं धयाँ कीं। 1803 ई. में मराठों पर वेलेजली की ववजय ने
भारत में अंग्रेज़ों को सवोच्च सत्ता र्ना वदया, लेवकन वे मराठों की शवि को
परू ी तरह नहीं कुचल पाए। मक ु ंु द दारा में जसवंत राव होल्कर की कनाल मानसन
के ववुपर्द् ववजय एवं उसके वदल्ली कूच करने के पिात वेलेजली को 1805 ई.
में कंपनी प्रशासन ने इग्ं लैंड वापस र्ल ु ा वलया। लॉडा वेलेजली द्वारा अपणू ा छोड़े
गए इस काया को परू ा करने में लॉडा हेवस्टंग्स को 12 वषों का समय लगा।
- लॉडा हेवस्टंग्स भारत में अहस्तक्षेप की नीवत का अनसु रण करने की इच्छा से
आया था। लेवकन अंग्रेज़ों द्वारा वपंडाररयों के दमन ने ततृ ीय मराठा यर्द् ु का
रास्ता खोल वदया। ततृ ीय आग्ं ल-मराठा यर्द् ु (1817-1818 ई.) का प्राथवमक
कारण पेशवा र्ाजीराव-II का अपनी अधीनस्थ वस्थवत से असंतिु होना था।
इसवलए उसने अंग्रजे ों के ववुपर्द् अन्य मराठा प्रमख ु ों को संगवठत करना शरूु
वकया। हालांवक, र्ड़ौदा का गायकवाड़ उसके पक्ष में नहीं था। अतः उस पर
दर्ाव डालने के वलए पेशवा ने गायकवाड़ से अहमदार्ाद क्षेत्र की माँग की।
यहाँ तक वक पनू ा में गायकवाड़ों के दतू की भी र्हुत र्रु ी तरह से हत्या कर दी
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गई। इस हत्या में पेशवा के मंत्री वत्रम्र्क जी का हाथ होने की आशंका थी।
इसवलए पनू ा में विवटश रे जीडेंट एलवफंस्टन ने गायकवाड़ों की ओर से हस्तक्षेप
वकया। उसने वत्रम्र्क जी के आत्मसमपाण और पेशवा के साथ एक नई सहायक
सवं ध करने की माँग की। इसी प्रकार, गायकवाड़, भोंसले प्रमख ु अपपा साहेर्
और दौलतराव वसंवधया को अंग्रेजों के साथ नई संवधयाँ करनी पड़ी। मराठा
सरदारों के साथ हुए इस प्रकार के व्यवहार को पेशवा ने पसंद नहीं वकया। अतः
उसने अग्रं ेज़ों पर आिमण कर वदया। इसी समय नागपरु में अपपा साहेर् भोंसले
ने और इदं ौर में मल्हार राव- II ने अंग्रजे ों के ववुपर्द् हवथयार उठा वलए। अग्रं ेज़ों
ने शीघ्र ही इन तीनों को अलग-अलग हरा वदया और इस प्रकार ततृ ीय आग्ं ल-
मराठा यर्द्
ु का अतं 1818 ई. में हो गया।
- वपंडाररयों का उद्भव अज्ञात है। उनका यह नाम संभवतः कनााटक के र्ेदर अथवा
र्ैदर से वलया गया है। वे अपने प्रमख ु ों के अधीन समहू ों में काया करते थे और
उनकी जातीय अथवा धावमाक पहचान वभन्न थी। पेशवा र्ाजीराव प्रथम के
समय से ही वे मराठा सेना से अवनयवमत घड़ु सवारों के रूप में जड़ु े थे। पानीपत
की तीसरी लड़ाई के र्ाद वे मालवा क्षेत्र में र्स गए और इन्होंने अपने को
वसंवधया और होल्करों से जोड़ वलया। लेवकन ज्योंही मराठों की शवि का ह्रास
हुआ, यह मध्य भारत, राजस्थान के कुछ भागों और दक्कन के कुछ वजलों तक
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फै ले वहृ द भौगोवलक क्षेत्र में अंधाधधंु लटू मार करने लगे। अंग्रेजों ने भारत में
अपने साम्राज्य का ववस्तार करने की प्रविया में उनका दमन करना आवश्यक
समझा। 1817 ई. में विवटश जनरलों जॉन मैलकॉम और थामस वहस्लॉप ने लॉडा
हेवस्टंग्स की देख-रे ख में वपंडारी दलों को कुचल वदया।
- इस यर्द्ु के पररणाम मराठों के वलए र्हुत भयानक वसर्द् हुए। पेशवा के पद को
समाप्त कर वदया गया तथा उसका सपं णू ा राज्य अंग्रेजों द्वारा हस्तगत कर वलया
गया। छत्रपवत वशवाजी के एक वश ं ज को सतारा के वसहं ासन पर र्ैठाया गया।
इसी प्रकार, अपपा साहेर् को पदच्यतु कर वदया गया और नमादा नदी के उत्तर में
वस्थत उनका सपं णू ा क्षेत्र हस्तगत कर वलया गया। नागपरु में रघजु ी भोंसले-II के
स्थान पर उनके अवयस्क पत्रु को वसहं ासन पर र्ैठाया गया। मल्हार राव होल्कर
वद्वतीय को सहायक संवध स्वीकार करने और राजपतू राज्यों से अपने सारे दावे
छोड़ने के वलए र्ाध्य वकया गया। अतः इस नवीन राजनीवतक पररदृश्य में
अंग्रेज़ों का प्रभत्ु व संपणू ा हो गया।
- मराठों को परावजत करने से पवू ा लॉडा हेवस्टंग्स ने भारत में एक र्ड़ी यर्द्ु नीवतक
कायावाही कर दी थी। नेपाल के गोरखा उस समय शविशाली हो रहे थे। उत्तर
भारतीय मैदानों के क्षेत्र हवथयाने के उनके वनिय ने विवटश वहतों को प्रभाववत
वकया। अतः आग्ं ल-नेपाल यर्द् ु (1814-1816 ई.) अवश्यभं ावी हो गया। प्रारंभ
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में अंग्रेजों को कुछ पराजयों का सामना करना पड़ा। अतं तः गोरखा नेता अमर
वसहं को परावजत कर वदया गया और माचा, 1816 में 'सगौली की सवं ध' पर
हस्ताक्षर वकए गए। इस संवध द्वारा गोरखों ने गढ़वाल और कुमायँू अंग्रेज़ों को
सौंप वदए। इससे अग्रं ेजों का क्षेत्रीय ववस्तार उत्तर-पविम में पहाड़ों तक हो गया।
पवू ा में गोरखों ने वसवक्कम को भी छोड़ वदया, जो विवटश संरवक्षत राज्य र्न
गया। इन सर्के साथ ही गोरखों ने काठमांडू में एक विवटश रे जीडेंट रखना भी
स्वीकार कर वलया।
- 1816 ई. में विवटश-भारत और नेपाल के र्ीच स्थावपत संर्ंध आज भी कायम
हैं। तभी से भारतीय सेना में सेवा के वलए ववशाल सख्ं या में गोरखों की भती की
जाती है। यह आज भी सम्मान के साथ विवटश सेना में सेवारत हैं।
- लॉडा हेवस्टंग्स के र्ाद सर्से र्ड़ा ववलयकताा लॉडा डलहौज़ी (1846-1856 ई.)
था। लेवकन इन दोनों साम्राज्यवादी गवनार जनरलों का मध्यवती काल भी
घटनाप्रधान था। इस समय र्माा (म्यांमार) और वसंध पर अंग्रेज़ों का वनयंत्रण
स्थावपत हो गया।
- वसधं ववजय के र्ाद ही पंजार् पर ववजय प्राप्त की गई। अग्रं ेजों के वलए यह
ववजय उनके साम्राज्य की सीमाओ ं को उत्तर-पविम में उसकी प्राकृवतक सीमा
तक ववस्ततृ करने के वलए आवश्यक थी। पंजार् में महाराजा रणजीत वसहं की
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मत्ृ यु से जो राजनीवतक अव्यवस्था उत्पन्न हुई। मेजर िॉडफूट को पंजार् में लॉडा
हावडिंग (1844- 1848 ई.) द्वारा अग्रं जे ों के राजनीवतक प्रवतवनवध के रूप में भेजा
गया था, वजसने वसक्ख कुलीनों को ववभावजत करने और वसक्ख सेना को
सतलजु नदी पार करने के वलए प्रवत्तृ करने हेतु हर तरह का प्रयास वकया। 1809
ई. में अमतृ सर में की गई संवध द्वारा इस नदी को विवटश और महाराजा रणजीत
वसंह के राज्यक्षेत्रों के मध्य की सीमा वनधााररत कर वदया गया था। वसक्ख सेना ने
मवु श्कल से नदी पार की ही थी, वक लॉडा हावडिंग ने यर्द् ु की घोषणा कर दी। यह
यर्द्
ु प्रथम आग्ं ल-वसक्ख यर्द् ु (1845-1846 ई.) के नाम से जाना गया। वसक्खों
के सेनापवत तेजवसहं और अन्य सेनापवतयों द्वारा की हार के साथ ही यह यर्द् ु
समाप्त हुआ। अग्रं ज़े लाहौर की ओर र्ढ़े।
- और शांवत की शतों का वनदेश वदया। इसी के अनरू ु प माचा, 1846 में लाहौर की
सवं ध पर हस्ताक्षर वकए गए। इस सवं ध द्वारा महाराजा दलीप वसहं ने सतलजु नदी
के र्ाई ंतरफ और सतलजु व व्यास नदी के र्ीच के सभी क्षेत्र अंग्रेज़ों को सौंप
वदए। यर्द्ु के एक र्ड़े मआ ु वजे के रूप में उसे जम्मू और कश्मीर भी सौंपना
पड़ा। उसकी सेना की शवि र्हुत कम कर दी गई। इसके अवतररि लाहौर में
सरु क्षा सेना के साथ एक विवटश रे जीडेंट को वनयि ु वकया गया।

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- 1846 ई. के शांवत समझौते ने न तो अंग्रेज़ों की साम्राज्यवादी आकांक्षाओ ं की
पवू ता की और न ही वसक्खों को सतं िु वकया। वसक्खों ने ववशेष रूप से पंजार् के
आतं ररक मामलों में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को पसंद नहीं वकया। अज़ान तथा गौ-
वध में मसु लमानों को छूट वदए जाने को उन्होंने स्वीकृवत नहीं दी। हटाए गए
सैवनक स्वाभाववक रूप से अपनी नौकररयों को खोने के र्ाद खश ु नहीं थे।
महाराजा दलीप वसंह की पदच्यतु प्रवतशासक, रानी वजदं न को षडयंत्र के आरोप
में चनु ार वनवाावसत वकए जाने की घटना ने भी आग में ईधन ं का काम वकया।
लॉडा डलहौज़ी पंजार् को अवधगहृ ीत वकए जाने के अवसर का इतं ज़ार कर रहा
था। उसको यह अवसर उस समय वमला जर् गवनार मल ू राज द्वारा 'उत्तरावधकार
शल्ु क' चक ु ाने में असमथाता के कारण मल्ु तान में ववद्रोह हुआ। इसी र्ीच 20
अप्रैल,1848 ई. को दो अंग्रेज़ अवधकाररयों की हत्या कर दी गई। डलहौज़ी की
राय में यह 'वसक्ख जावत का यर्द् ु के वलए आह्वान' था। इस प्रकार का 'ववश्वास-
भगं ' होने पर वद्वतीय आग्ं ल-वसक्ख यर्द्
ु (1848-1849 ई.) हुआ। कई लड़ाइयों
के र्ाद अंततः 12 माचा, 1849 को वसक्खों ने आत्मसमपाण कर वदया। इसके
सत्रह वदनों र्ाद पजं ार् का विवटश साम्राज्य में अवधग्रहण कर वलया गया।
महाराजा दलीप वसंह को इग्ं लैंड वनवाावसत कर वदया गया और पेंशन दी गई।

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प्रवसर्द् कोहेनरू हीरा कोहेनरू भी उससे लेकर महारानी ववक्टोररया के पास भेज
वदया गया।
- वद्वतीय आग्ं ल-वसक्ख यर्द्
ु उन यर्द्
ु ों की श्रख
ंृ ला में अवं तम था, वजन्हें अग्रं ेजों ने
भारत की प्राकृवतक सीमाओ ं के अदं र अपने साम्राज्य ववस्तार के वलए लड़ा था।
लेवकन क्षेत्रों के अवधग्रहण के वलए के वल सामररक ववजय ही डलहौज़ी द्वारा
अपनाया गया एक मात्र तरीका नहीं था। सतारा, जैतपरु , उदयपरु , संर्लपरु ,
नागपरु , भगत और झाँसी के अवधग्रहण के वलए उसने 'ववलय नीवत' का प्रयोग
वकया। र्रार और अवध का अवधग्रहण उसने कुप्रशासन का आरोप लगाकर
वकया। इसी प्रकार उसने शासकों की उपावधयों और पेंशनों को समाप्त करते हुए
कनााटक और तजं ौर का भी ववलय कर वलया था।
- लॉडा डलहौज़ी द्वारा 'ववलय नीवत' को इस मान्यता पर लागू वकया गया, वक
इवं ग्लश ईस्ट इवं डया कंपनी भारत में सवोच्च शवि थी। वर्ना कंपनी की अनमु वत
के आवश्रत शासकों द्वारा गोद वलए गए पत्रु ों को सत्ता हस्तांतररत नहीं की जा
सकती थी।
- इन सभी कवमयों के र्ावजदू भारत पर अग्रं ेज़ों की ववजय ने कम-से-कम एक
उद्देश्य की पवू ता की। इसने भारत के भौगोवलक क्षेत्र को अपेवक्षत राजनीवतक
एकता प्रदान की। वजस समय लॉडा डलहौज़ी ने भारत छोड़ा, उस समय विवटश
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साम्राज्य की सीमाएँ एक ओर वहदं क ु ु श तो दसू री ओर र्माा को छू रही थीं और
इसके अंतगात वहमालय से लेकर कन्याकुमारी तक का सपं णू ा भ-ू भाग आ गया
था। वनस्संदहे , एक ववदेशी शवि के अधीन राजनीवतक एकीकरण अपने साथ
वहृ द औपवनवेवशक शोषण लेकर आया था। साथ ही इसने भारतीयों को एक
राष्ट्र के रूप में सजग होने, उपवनवेशवाद के वखलाफ लड़ने और स्वतंत्रता प्रावप्त
हेतु एक आधार प्रदान वकया।
अग्रं ेजों एवं भारतीय राज्यों के र्ीच हुई प्रमख
ु सवं धयाँ-
सवं ध वषा सवं धकताा

अलीनगर की 9 फरवरी, र्ंगाल के नवार् वसराजद्दु ौला और


संवध 1757 ईस्ट इवं डया कंपनी के र्ीच। इस
सवं ध में अग्रं ेजों के प्रवतवनवध के रूप
में क्लाइव और वाटसन शावमल थे।

अमतृ सर की 28 अप्रैल, महाराजा रणजीत वसंह और ईस्ट


सवं ध 1809 इवण्डया कंपनी के र्ीच। इस सवं ध के
समय भारत के गवनार जनरल लॉडा
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वमन्टों थे वजन्होंने ईस्ट इवण्डया
कंपनी की और से प्रवतवनवधत्व
वकया था।

इलाहार्ाद 1765 ई. क्लाइव और मगु ल र्ादशाह


की संवध शाहआलम-II के र्ीच।

उदयपरु की 1818 ई. उदयपरु के राजा राणा और अग्रं ेजों


सवं ध के र्ीच।

गडं मक की 1879 ई. वायसराय लॉडा वलटन और


सवं ध अफगावनस्तान के अपदस्थ अमीर
शेर अली के र्ीच।

देवगाँव की 17 रघजु ी भोंसले और अंग्रेजों के र्ीच।


संवध वदसम्र्र,
1803 ई.

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परु ं दर की माचा, मराठों और ईस्ट इवं डया कंपनी के
संवध 1776 ई. र्ीच।

पनू ा की सवं ध 1817 ई. पेशवा र्ाजीराव-II और अग्रं ेजों के


र्ीच।

र्ड़गाँव की 1779 ई. मराठों और कंपनी के र्ीच (प्रथम


सवं ध आग्ं ल-मराठा यर्द् ु के समय )। इस
सवं ध पर अग्रं ेजों की ओर से कनाल
काकवना ने हस्ताक्षर वकया था।

र्नारस की प्रथम सवं ध अवध के नवार् शजु ाउद्दौला और


सवं ध - 1773 ई. अग्रं ेज ईस्ट इवण्डया कम्पनी के
र्ीच।

वद्वतीय काशी नरे श चैत वसंह और ईस्ट


सवं ध - इवण्डया कंपनी के र्ीच।
1776 ई.
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र्सीन की 31 मराठा पेशवा र्ाजीराव-II और
संवध वदसम्र्र, अंग्रेजों के र्ीच।
1802 ई.
सालर्ाई की 1782 ई. महाराजा वशन्दे और ईस्ट इवण्डया
सवं ध कंपनी के र्ीच।

सजु ीअजान 1803 ई. अंग्रेजों और दौलत राव के र्ीच।


गाँव की संवध

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