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ISSN 2320 – 0871

भारतीय भाषाओं की अंतरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 दििम्बर 2013

िंत कबीर के काव्य में िामाजिक चेतना


(गुरु ग्रंथ िादिब में िंगि
ृ ीत वचनों के िंिभा में )
डॉ.शीतल राठौर
दिन्िी ववभाग
द्वारा ववक्रम ववश्वववद्यालय,
उज्िैन, म.प्र., भारत

शोध िंक्षेप

िंत कबीर उन मिान िंत िादित्यकारों में िे िैं, जिन्िोंने मानव-कल्याण के सलए िमन्वयवािी दृजष्ट्ि अपनाई।
तत्कालीन िामाजिक पररजथथततयों व वविंगततयों िे िमाि को छुिकारा दिलवाने के सलए उन्िोंने ववसभन्न प्रचसलत
धमों, िाततयों, वगों, िंप्रिायों तथा धारणाओं में िमन्वय करने का प्रयाि ककया। िाथ िी कबीरिाि िी ने तत्कालीन
िमाि व्यवथथा में व्याप्त अनेकानेक रूदि़यों और परं पराओं को ज्ञान की किौिी के आधार िे समथ्या सिद्ध ककया।
आमिन में फेली अज्ञानता को िरू करने के सलए उन्िोंने अनेक िगि पर कठोर शब्िों का प्रयोग भी ककया। िंत
कबीर के वचनों को गुरुग्रंथ िादिब में िजम्मसलत ककया गया िै। प्रथतुत शोध पि में गुरुग्रंथ िादिब में िंगृिीत
वचनों के िंिभा में कबीर की िामाजिक चेतना पर प्रकाश डाला गया िै ।

कबीर के काव्य में िामाजिक चेतना बल िे कर िोनों धमों के बीच की खाइयों को


भरने का काम ककया। िमन्वयवादिता के माध्यम
िंत कबीर के काव्य में िमन्वय के बिुत िे िूि
िे धासमाक मतभेिों व झगडों को समिाने में िंत
यि-ति असभव्यक्त िुए िैं। कबीर के काव्य में
कबीर का योगिान अत्यंत मित्वपूणा िै । उन्िोंने
दिन्ि,ू मुजथलम एकता की भावना पररलक्षक्षत िोती
ज्ञान व प्रेम, राम व रिीम, योग व भजक्त तथा
िै । उन्िोंने मानव माि की एकता की घोषणा
ववसभन्न मतों में िमन्वय ककया िै । परथपर
करते िुए किा कक दिन्ि ू और मुिलमान िोनों
ववरोधी धारणाओं का समलन व िमन्वय उनके
एक िमान िैं। िंत कबीर का कथन िै :
काव्य की ववसशष्ट्ि उपलजब्ध िै । आचाया ििारी

दिन्ि ू तरु क का िादिबु एक, कि करै मल


ु ां कि प्रिाि द्वववेिी के अनुिार, ‘‘कबीरिाि ऐिे िी

करै शेख’’1 समलन त्रबंि ु पर खडे थे, ििां िे एक ओर दिंित्ु व


तनकल िाता िै , तो िि
ू री ओर मि
ु लमानत्व, ििां
अथाात शेख और मुल्ला चािे िो कि ले, परं तु
एक ओर ज्ञान तनकल िाता िै , तो िि
ू री ओर
दिन्ि ू और मि
ु लमान िोनों एक िी ईश्वर की
भजक्त, ििां एक ओर योगमागा तनकल िाता िै ,
िंतान िैं। तत्कालीन पररजथथततयों में दिन्ि-ू
तो िि
ू री ओर िगुण िाधना। उिी प्रशथत चैरािे
मुिलमान को एक किना उि युग की िबिे बडी
पर वे खडे थे। वे िोनों ओर िे ख िकते थे और
आवश्यकता थी। उन्िोंने दिन्ि-ू मुजथलम एकता पर

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भारतीय भाषाओं की अंतरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 दििम्बर 2013

परथपर ववरुद्ध दिशा में गए िुए मागों के िोष मध्ययुग में पंडडत, मुल्ला, कािी, िुल्तान िी िन-
उन्िें थपष्ट्ि दिखाई िे िाते थे।’’2 िाधारण को पथभ्रष्ट्ि कर रिे थे। ये िनता के
मन में भ्रम पैिा कर रिे थे और उं च-नीच के
िंत कबीर ने थवयं को राम और अल्लाि की
भाव िाग्रत कर रिे थे। अतः कबीर ने इन
िंतान माना िै । वे किते िैं कक िे प्रभु तूने
कािी, मुल्ला और पंडडत को भी फअकार लगाते
जितने औरतों और मिों की रचना की िै , ये िब
िुए उनके कताव्यों का बोध कराया और
तुम्िारे िी रूप िैं। कबीर तो राम और अल्लाि
िनिाधारण को इनिे िरू रिने की िलाि िी।
िोनों का िी पि
ु िै और ये िभी िमारे गरु
ु और
कबीर ने माना कक िब ईश्वर की दृजष्ट्ि में उं च-
पीर िै :
नीच, िात-पात, अमीर-गरीब का कोई अंतर निीं

एते अउ रत मरिा िािे ए िभ रूप तुम्िारे िै , तो मनष्ट्ु य इन व्यथा के भेिभाव में क्यों पडा
िै ? मनुष्ट्य अज्ञानता के कारण उं च-नीच के
कबीरु पूंगरा राम अलि का िभ गुर पीर िमारे ’’3
भेिभावों में िी पडा रिता िै , िबकक प्रभु की

उन्िोंने दिन्ि-ू मुिलमान के भेिभाव को िरू करने शरण में िाने पर उं च-नीच, िात-पात के भेिभाव

के सलए िभी मनुष्ट्यों को उि एक परमात्मा की समि िाते िैं।

िंतान माना। वि परमात्मा के सलए राम शब्ि


कबीर के काव्य में ववद्रोि की भावना थपष्ट्ि
का प्रयोग करते थे। बेशक यि ‘राम’ िशरथ िुत
पररलक्षक्षत िोती िै । उन्िोंने ििां भी बुराई िे खी,
न िोकर घि-घि रमने वाले राम िैं। िंत कबीर
भेिभाव िे खा उिका ववरोध ककया। वे कडेऱे् शब्िों
ने आध्याजत्मक ित्य के द्वारा िातत और
में पंडडत, कािी, मुल्ला, िुल्तान को फअकार
कुलगत असभमान एवं उचं-नीच की भावना को
लगाकर उन्िें अपने कताव्य का बोध कराते िैं।
भ्रममाि घोवषत करके िामाजिक िाम्य के आिशा
डाॅ.ववियेंद्र थनातक ने भी भक्त कबीर के
की प्रततष्ट्ठा की। वे किते िैं कक िमने माया की
काव्य में असभव्यक्त ववद्रोि का कारण उनकी
ओर िे अपना मन उलिा कर अपनी िातत और
मानव िेव और िुधार की भावना को माना िै ।
कुल परं परा को भुलाकर त्याग दिया िै । िम तो
उनके अनुिार, ‘‘कबीर न तो िमाि िुधारक की
अब शून्य और ििि भाव में िी ओतप्रोत िो
भांतत ककिी िामाजिक िीवन िशान का उपिे श
गए िैं। अब िमारा ककिी िे कोई झगडा निीं
िे ने आए थे और न ककिी धमा या िातत में
रिा, क्योंकक िमने पंडडत और मुल्ला िोनों को
एकता ि ़े्ॅाजॅॅावपत करना उनका उद्देश्य था,
छोड दिया िै ।
ककं तु िब उन्िोंने अपने चारों ओर धमा के नाम

उलदि िातत कुल िोउ त्रबिारी, िुन ििि मदि पर मानव कल्याण के बीच भेिभाव की खाई

बुनत िमारी िे खी, छल-कपि का व्यविार िे खा, तो वे अपने


िःु ख-िुख को छोड मानव पीडा को िरू करने में
िमर झगरा रिा न कोउ, पंडडत मल
ु ां छाडे िोउ’’4
मनोयोग िे िि
ु गए।’’5

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इि िंिभा में डाॅ.वािुिवसिंि ने भी यि माना िै िाथ उन्िोंने कमा करने पर भी बल दिया िै ।


कक िमाि में फेली अरािकता व मानवता के अथाात वे किते िैं कक मनुष्ट्य को प्रभु भजक्त के
पतन के प्रतत भक्त कबीर की पीडा िी उनके िाथ िीववका अिान भी करना चादिए। प्रभु की
काव्यगत ववद्रोि का कारण िै । उनके शब्िों में , भककत िंगल में िाकर तपथया करने िे या भख
ू े
‘‘वथतुतः कबीर ने जिि ित्य का िाक्षात्कार रिकर निीं िो िकती। अतः कबीर किते िैं कक
ककया था, वि न वेिों में दिखाई पडा, न कुरान मनुष्ट्य को कमाप्रधान बनना चादिए। कबीर थवयं
में , उिका िमाधान न पंडडत के पाि था, न कमायोगी थे, िो िीवनपयंत कडे पररश्रम द्वारा
कािी मुल्ला के पाि। उिका थवरूप न योगगयों िाधारण िुलािे का काया करते िुए िीववका
में था, न ििियातनयों में । इिसलए उन्िोंने इन अिान करते रिे । तनम्न वगा िे िंबंगधत िोने पर
िबको अथवीकार कर दिया और ऐिे मागा का भी थवासभमान और आत्मववश्वाि िे सिर उं चा
अनुिंधान ककया िो मानव िीवन का उन्नायक उठाकर िमाि के उच्च वगा िे िककर लेते रिे ।
था।’’6 उनके िीवन िशान में लौककक िीवन की
अविे लना निीं िै । वि नाम िपते िुए काम करने
अतः िंत कबीर के िंपण
ू ा काव्य में मानव
का िंिेश िे ते िैं। वि किते िैं कक मरणोपरांत
कल्याण की भावना दिखाई िे ती िै । उन्िोंने
िमारे िाथ कुछ भी निीं िाएगा। इि कारण
कमाकाण्डों, बाहयांडबरों को व्यथा बताया, क्योंकक
उनकी आवश्यकताएं भी बिुत कम िैं। परमात्मा
उि युग में लोग बाहयाडम्बरों एवं कमाकाण्डों में
के िाथ उनका आत्मीय िंबंध िै । अतः एक बेिे
बिुत ववश्वाि करने लगे थे। अतः कबीर ने इन
की तरि िै तनक आवश्यकताओं की पूतता के सलए
कमाकाण्डों एवं बाहयाडम्बरों का ववरोध करते िुए
वे प्रभु िे मांग करते िैं:
िच्चे हृिय िे प्रभु की भजक्त करने को किा। िो
लोग माथे पर ततलक लगाकर और िाथ में माला िई
ु िेर मांगउ चूना, पाउ घीउ िंगग लूना
लेकर, मन में कपि रखकर प्रभु भजक्त का
अध िेरु मांगउ िाले, मोकउ िोनउ बखत
दिखावा करते, ऐिे लोगों को कबीर ने बडी
जिवाले’’8
फअकार लगाई िै । वे किते िैं कक पूिा के सलए
न तो मैं पत्ते तोडता िूं, और न िी ककिी िे वता और यदि प्रभु उनकी इन बुतनयािी
की पि
ू ा करता िूं, क्योंकक प्रभु की भजक्त के आवश्यकताओं की पूतता निीं करते तो भक्त
त्रबना िारी िेवा तनष्ट्फल िै । कबीर उन्िें चन
ु ौती िे ते िुए उनका नाम न िपने
की धमकी िे ते िैं:
तोरउ न पाती पूिउ न िे वा

भूखे भगतत न कीिै, यि माला अपनी लीिै’’9


राम भगतत त्रबनु तनिफल िेवा’’7

इि प्रकार िंत कबीर एक ऐिे िमाि-िुधारक के


कबीर का मानना था कक ईश्वर को प्राप्त करना
रूप में िामने आए, जिन्िोंने िमाि की प्रत्येक
िै तो उिे अपने हृिय में िी खोिो, क्योंकक ये
बुराई को िरू करने का प्रयाि ककया। उनके
बािरी प्रपंच तो दिखावा िै । प्रभु भजक्त के िाथ-

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अनुिार प्रभु में अिूि आथथा िी मुजक्त का ििी कभी भी शाथि ज्ञान का ववरोध निीं ककया बजल्क
मागा िै । भक्त के सलए केवल ववषय वािनाओं िे उन्िोंने शाथिों की आड में अपना थवाथा िाधने
रदित िोकर प्रभु भजक्त िी उिे परमात्मा तक वाले तथाकगथत पंडडतों का ववरोध ककया। उि
पिुंचाने का मागा िशााती िै । उन्िोंने बिुिे ववाि िमय ि़ोंगी िाध,ु कािी, पीर आदि अगधक िंख्या
का भी खण्डन ककया और तनगण
ुा राम की में समलते थे। इिसलए िंत कबीर को आवश्यकता
उपािना पर बल दिया। पडी कक वे इनके वाथतववक रूप का थपष्ट्िीकरण
करें । वथतुतः वे ित्य के प्रचारक थे। वे
तनष्ट्कषा
िामाजिक रूदि़यों को िमाप्त करके भेिभाव और

वे िो कुछ भी किते व्याविाररक किौिी पर अंधववश्वाि िे मुक्त िमाि की रचना करना

इतना किा िुआ िोता कक िनिाधारण द्वारा चािते थे। अतः िंत कबीर का िंपण
ू ा काव्य
िरलता िे आत्मिात कर सलया िाता। उन्िोंने लोकमंगल पर आधाररत िै ।

सन्दर्भ
1 गुरुग्रंथ िादिब पष्ट्ृ ठ 1158

2 कबीर, आचाया ििारी प्रिाि द्वववेिी, पष्ट्ृ ठ 182

3 विी, पष्ट्ृ ठ 1349

4 गुरुग्रंथ िादिब पष्ट्ृ ठ 1158

5 कबीर, ववियेंद्र थनातक, पष्ट्ृ ठ 131, राधाकृष्ट्ण


प्रकाशन, दिल्ली,

6 दिन्िी िंत कबीर: एक िमािशाथिीय अध्ययन,


डाॅ.वािुिेव सिंि, पष्ट्ृ ठ 222

7 गुरुग्रंथ िादिब पष्ट्ृ ठ 1158

8 विी पष्ट्ृ ठ 656

9 विी पष्ट्ृ ठ 656

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