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हरे कृष्ण चनु ौती

कृष्णकृपामर्ू ति
श्री श्रीमद् ए. सी. भर्िवेदान्त स्वामी प्रभपु ाद
संस्थापक-आचार्ि : हरे कृ ष्ण मवू मेंट

पस्ु तक पररचर्
1 विषय-सूची
र्वषर्-सचू ी

भर्ू मका
अध्र्ार् एक - अपणू ि जगत् में पणू ि ज्ञान की खोज
अध्र्ार् दो - इर्न्िर्तर्ृ ि पर्िर्ों के र्िए है
अध्र्ार् तीन - क्र्ा हम ज्ञान की र्तर्थ र्नर्ािररत कर सकते हैं ?
अध्र्ार् चार - मर्स्तष्कर्वहीन समाज
अध्र्ार् पााँच - सादा जीवन : उच्च र्वचार
अध्र्ार् छह - आत्मा का वैज्ञार्नक प्रमाण
अध्र्ार् सात - रार्ि तथा र्दवा स्वप्न
अध्र्ार् आठ - मांसाहार का नीर्तशास्त्र
अध्र्ार् नौ - स्त्री स्वातन््र्
अध्र्ार् दस - आप सवोपरर नहीं हैं
2 विषय-सूची
अध्र्ार् ग्र्ारह - कमि र्कस तरह पजू ा बन सकता है
अध्र्ार् बारह - ईसाई, साम्र्वादी तथा गो हत्र्ारे -
अध्र्ार् तेरह - र्ौन तथा दुःु ख भोग-
अध्र्ार् चौदह - प्रौद्योर्गकी तथा बेरोजगारी
अध्र्ार् पन्िह - र्वज्ञान तथा आस्था
अध्र्ार् सोिह - र्शिा तथा उत्तम जीवन
अध्र्ार् सिह - गभिपात तथा “शशक दशिन”
अध्र्ार् अट्ठारह - र्जसकी िाठी उसकी भैंस
अध्र्ार् उन्नीस - वैज्ञार्नक प्रगर्त: वाग्जाि
अध्र्ार् बीस - प्रौद्योर्गकी को आध्र्ार्त्मक प्रकाश में देखना
अध्र्ार् इक्कीस - र्मिर्नरपेि राज्र्
अध्र्ार् बाईस - हम व्र्ाघ्र-चेतना में नहीं रह सकते
अध्र्ार् तेईस - ईशर्वमख
ु वैज्ञार्नक

3 विषय-सूची
अध्र्ार् चौबीस - नोबेि परु स्कार ईश्वर को दीर्जए
अध्र्ार् पच्चीस - सामार्जक क्रार्न्त
अध्र्ार् छब्बीस - सामार्जक शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के र्िए
कॉिेज
िेखक पररचर्

4 विषय-सूची
भर्ू मका
र्वश्वव्र्ापी हरे कृ ष्ण आन्दोिन के संस्थापकाचार्ि श्री श्रीमद् ए.सी. भर्िवेदान्त स्वामी प्रभपु ाद (श्रीि प्रभपु ाद के
रूप में सर्ु वख्र्ात) सविप्रथम 1965 में भारत से न्र्र्ू ोकि आर्े, जहााँ पर उन्होंने एक वषि बाद अन्तरािष्रीर् कृ ष्णभावनामृत
संघ की स्थापना की। उनका उद्देश्र् कृ ष्णभावनामृत का प्रचार करना था। र्ह वैर्दक शास्त्रों में वर्णित ईशप्रेम को र्वकर्सत
करने की व्र्ावहाररक तथा पणू ि र्वर्र् है। श्रीि प्रभपु ाद द्वारा इन शास्त्रों के जो र्वशद अनवु ाद तथा भाष्र् र्िखे गर्े हैं; वे
उन्हें र्नर्ित रूप से सदा सविदा के महान्तम र्ार्मिक र्वद्वानों की पंर्ि में स्थार्पत करते हैं। उन्होंने ८० से अर्र्क पस्ु तकों
में कृ ष्ण के र्वज्ञान, दशिन तथा िीिाओ ं को प्रामार्णक रूप में प्रस्ततु र्कर्ा और उसी के साथ-साथ र्वश्व भर में हरे कृ ष्ण
आन्दोिन की प्रमख
ु र्ार्मिक शर्ि के रूप में स्थापना की।
श्रीि प्रभपु ाद ने कृ ष्णभावनामृत को आध्र्ार्त्मक मल्ू र्ों से र्वहीन समाज के र्िए सकारात्मक र्वकल्प के रूप में
र्जस तरह शर्िशािी ढंग से प्रस्ततु र्कर्ा, उससे पर्िम के र्वु ा बर्ु िजीवी र्वशेषतर्ा आकृ ष्ट हुए। इन र्वु ा बर्ु िजीर्वर्ों
में से बहुतेरे जीवन का सही अथि खोज रहे थे और वे भौर्तकतावाद, नार्स्तकतावाद तथा छद्म अर्ि-आर्स्तकतावाद से
ऊब चक
ु े थे। प्रभपु ाद की र्शिाएाँ तथा उनका जीवन प्रदर्शित करते हैं र्क प्राचीन वेदों का र्मि र्कसी भी तरह बासी नहीं;
अर्पतु प्रत्र्ेक स्थान के प्रत्र्ेक व्र्र्ि के र्िए, र्वशेषतर्ा इस आर्र्ु नक र्गु में, परू ी तरह से प्रासंर्गक है। प्रभपु ाद अपने
सभी पवू िवती असिी र्मािचार्ों की तरह भौर्तकतावादी समाज के र्वरुि बोिते रहे; जो िोगों को वास्तर्वक र्ार्मिक
आवश्र्कताओ ं के प्रर्त अन्र्ा बनाकर र्नत्र् बढ़ती रहती जर्टिताओ ं का दास बनाता है।

5 विषय-सूची
इसमें सन्देह नहीं र्क श्रीि प्रभपु ाद आर्र्ु नक समाज की आध्र्ार्त्मक बरु ाइर्ों के र्वरुि बिपवू िक तथा स्पष्ट रूप
से िगातार बोिते रहे; र्कन्तु उनके मन में द्वेष का िेश भी नहीं था। उन्होंने न तो स्वर्ं र्कसी की अन्र्ार्न्ु र् आिोचना
की, न ही अपने र्शष्र्ों को ऐसा करने र्दर्ा। अपने र्नजी व्र्वहार में बरु ाइर्ों की भत्सिना करने से बचते हुए वे अन्र्ों की
अच्छाइर्ों को प्रोत्सार्हत करते रहे। वे प्रामार्णक आध्र्ार्त्मक र्शिकों का, र्था ईसा मसीह का, सदैव सम्मान करते रहे
और उनकी प्रशंसा करते रहे। इस तरह उनका उद्देश्र् र्कसी का र्वरोर् करना र्ा उसकी भत्सिना करना न होकर, िोगों को
जागृत करना था। र्जससे वे कृ ष्णभावनामृत में जीवन का असिी सख
ु पा सकें ।
जब 1977 की साि के मध्र् में हरे कृ ष्ण आन्दोिन की पर्िका ‘बैक टु गॉडहेड’ में ‘श्रीि प्रभपु ाद वाणी’ नामक
स्तम्भ में उनकी बातचीत के कुछ ऐसे अंश प्रकट होने शरू
ु हुए; र्जसमें श्रीि प्रभपु ाद ने कृ ष्णभावना के र्सिान्तों को
अनौपचाररक तथा प्रभावर्ि
ु ढंग से प्रस्ततु र्कर्ा था, तब वे बहुत प्रसन्न हुए। इस श्रीि प्रभपु ाद वाणी' स्तम्भ के सग्रं ह से
पाठकों को आर्र्ु नक जगत् के प्रर्त एक शि
ु भि के दृर्ष्टकोण को जानने का िाभ उठाने का अवसर र्मिेगा।
इस पस्ु तक में संग्रहीत र्नबन्र् श्रीि प्रभपु ाद के र्वर्शष्ट भाव को र्चर्ित करते हैं। पाठक को र्ह नहीं सोचना
चार्हए र्क प्रभपु ाद सदैव इसी प्रबि स्वर में बोिते थे। इस पस्ु तक के अर्र्कांश र्नबन्र् श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके घर्नष्ट
र्शष्र्ों के मध्र् हुए वाताििाप हैं। र्िर भी, जब वे अभिों को सामान्र् उपदेश देते थे, तब वे दाशिर्नक रूप से जरा भी
समझौता करने वािे नहीं थे; र्द्यर्प वे इन्हीं उपदेशों को कम तीक्ष्ण स्वर में ढाि सकते थे। श्रीि प्रभपु ाद के दसू रे पहिू
को देखने के र्िए, उनकी पस्ु तकों को पहिी बार पढ़ने वािा पाठक, भर्िवेदान्त बक
ु रस्ट के दसू रे प्रकाशनों जैसे ‘पणू ि
प्रश्न, ‘पणू ि उत्तर’ को देख सकता है।

श्रीि प्रभपु ाद एक पररपणू ि वैर्दक सार्ु हैं। सार्ु शब्द का एक अथि “र्वच्छे द करने वािा" भी है और इस छोटी सी
पस्ु तक के पाठक र्नर्ित रूप से अनभु व करें गे र्क उनके जीवन भर की भ्रार्न्तर्ााँ र्वच्छे र्दत हो रही हैं। हरे कृ ष्ण चनु ौती
र्दग्भ्रर्मत सभ्र्ता का पदाििाश नामक र्ह पर्ु स्तका र्वचारोत्तेजक, र्ववादास्पद तथा प्रासंर्गक है। इसके र्नष्कषि साथिक हैं
और र्कसी भी र्वचारवान् व्र्र्ि को इसे आर्द से अन्त तक पढ़ जाने से र्हचकना नहीं चार्हए।

6 विषय-सूची
अध्र्ार् एक
अपणू ि जगत् में पणू ि ज्ञान की खोज
र्ह वाताििाप 1973 में िॉस एन्जर्िस के हरे कृ ष्ण के न्ि में श्रीि प्रभपु ाद तथा कै र्ििोर्निर्ा र्वश्वर्वद्यािर् –
इरर्वन के भौर्तकी के प्रोिे सर डॉ. ग्रेगरी बेनिोडि के मध्र् हुआ।
डॉ. बेनिोडि : शार्द आप पािात्र् र्मिशास्त्रों में चर्चित “बरु ाई की समस्र्ा” से पररर्चत होंगे। आर्खर,
बरु ाई का अर्स्तत्व क्र्ों है?
श्रीि प्रभपु ाद : बरु ाई तो अच्छाई की है, र्जस प्रकार अंर्कार की अनपु र्स्थर्त है। र्र्द आप सदा अपने
को प्रकाश में रखें, तो अंर्कार का प्रश्न कहााँ रहा? ईश्वर सवि मंगिमर् हैं। इसर्िए र्र्द आप अपने को सदैव
ईशभावनामृत में रखें, तो बरु ाई रहेगी ही नहीं।
डॉ. बेनिोडि : र्कन्तु र्ह जगत् बरु े िोगों से भरापरु ा बनार्ा ही क्र्ों गर्ा ?
श्रीि प्रभपु ाद : पर्ु िस र्वभाग क्र्ों बनार्ा गर्ा है? इसर्िए र्क उसकी आवश्र्कता है। इसी तरह कुछ
जीव इस भौर्तक जगत् का भोग करना चाहते हैं, अतएव ईश्वर इसका सजिन करते हैं। वे उस र्पता की भााँर्त हैं, जो
अपने उपिवी बच्चों को खेिने के र्िए एक अिग कमरा दे देता है। अन्र्था वे नटखट बच्चे सदैव उसके काम में
र्वघ्न डािते रहेंगे।
डॉ. बेनिोडि : तब तो र्ह जगत् एक कारागार के समान है?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ र्ह एक कारागार है। इसीर्िए र्हााँ कष्ट है। कारागार में आप सख ु -सर्ु वर्ा की आशा
नहीं कर सकते, क्र्ोंर्क जब तक कष्ट नहीं र्मिेगा, तब तक कै र्दर्ों को कोई र्शिा नहीं र्मिेगी। इसका उल्िेख
भगवद-् गीता में र्कर्ा गर्ा है - द:ु खािर्म् अशाश्वतम् / द:ु खािर्म् का अथि है, “कष्ट का स्थान।” और
अशाश्वतम् का अथि है, “अस्थार्ी।” आप समझौता करके र्ह नहीं कह सकते, “ठीक, मैं कष्ट भोग रहा ह;ाँ र्कन्तु
मझु े इसकी परवाह नहीं-मैं र्हीं रहता रहगाँ ा।” आप र्हााँ नहीं रह सकते; आपको ठोकर मारकर र्नकाि र्दर्ा
जाएगा। अब आप र्ह सोच रहे हैं र्क मैं अमरीकी ह,ाँ मैं एक महान् वैज्ञार्नक ह,ाँ मैं सख ु ी हाँ और अच्छी तनख्वाह
पा रहा ह।ाँ र्ह तो ठीक है; र्कन्तु आप इस पद पर बने नहीं रह सकते। ऐसा र्दन आएगा; जब आपको ठोकर
7 विषय-सूची
मारकर र्नकाि र्दर्ा जाएगा और आप र्ह नहीं जानते र्क आप अमरीकी बनेंगे र्ा वैज्ञार्नक र्ा र्बल्िी, कुत्ता
र्ा देवता। आप नहीं जानते।
डॉ. बेनिोडि : मैं सोचता हाँ र्क शार्द मैं कुछ भी न बनाँ।ू
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, र्ह तो दसू रे प्रकार का अज्ञान है। कृ ष्ण भगवद-् गीता (2.13) में बतिाते हैं-
देर्हनोऽर्स्मन् र्था देहे कौमारं र्ौवनं जरा, तथा देहान्तरप्रार्ि:-पहिे आप एक बािक के शरीर में रहते हैं, र्िर
एक र्वु ा परुु ष के और भर्वष्र् में आप एक वृि मानव-शरीर में होंगे।
डॉ. बेनिोडि : र्कन्तु वृि परुु ष होने पर हो सकता है र्क मैं कुछ न होऊाँ।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, नहीं। तथा देहान्तरप्रार्ि - मृत्र्ु के बाद आप दसू रे शरीर में चिे जाएाँगे। इसर्िए आप
र्ह नहीं कह सकते र्क मैं “कुछ नहीं होऊाँगा”। अवश्र्, आप कहने को कुछ भी कह सकते हैं; िेर्कन र्नर्म
इससे र्भन्न हैं। आप र्नर्म को जानते हों अथवा न जानते हों, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। र्नर्म अपना कार्ि
करे गा। उदाहरणाथि, र्र्द आप सोचते हैं, “मैं तो आग को छूऊाँगा; र्कन्तु र्ह मझु े जिार्ेगी नहीं।” र्ह तथ्र् नहीं
है। र्ह तो जिार्ेगी। इसी तरह आप सोच सकते हैं र्क मृत्र्ु के बाद कुछ नहीं है; र्कन्तु र्ह तथ्र् नहीं है।
डॉ. बेनिोडि : क्र्ा कारण है र्क मझु जैसा व्र्र्ि, जो जगत् को तकि पणू ि ढंग से समझने का प्रर्ास कर रहा
हो, कोई ऐसा मागि नहीं ढूाँढ़ पा रहा र्जससे इसको समझा जा सके ?
श्रीि प्रभपु ाद : आप चीजों को र्र्ु िर्ि ु जानने का प्रर्ास तो कर रहे हैं; र्कन्तु उर्चत र्शिक के पास
नहीं जा रहे।
डॉ. बेनिोडि : र्कन्तु मझु े िगता है र्क जगत् का अध्र्र्न करके मैं ज्ञान प्राि कर सकता हाँ और इस ज्ञान
को परखने का सार्न भी है। आप पहिे सक ं ल्पना करते हैं, प्रर्ोग करते हैं, अपने र्वचारों की पर्ु ष्ट करते हैं और
तब र्ह जानने का प्रर्ास करते हैं र्क क्र्ा आप इन र्वचारों को व्र्ावहाररक जगत् में िागू कर सकते हैं र्ा नहीं।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह अज्ञानता का एक अन्र् प्रकार है, क्र्ोंर्क आप र्ह जानते नहीं र्क आप अपणू ि हैं।
डॉ. बेनिोडि : ओह! मैं जानता हाँ र्क मैं पणू ि नहीं ह।ाँ
श्रीि प्रभपु ाद : तो र्िर आप के इस तरह र्ा उस तरह से जगत् का अध्र्र्न करने के प्रर्ास से क्र्ा
िाभ? र्र्द आप अपणू ि हैं, तो पररणाम अपणू ि ही होगा।
डॉ. बेनिोडि : र्ह सच है।
श्रीि प्रभपु ाद : तो र्िर अपना समर् क्र्ों बबािद करना चार्हए ?
डॉ. बेनिोडि : र्कन्तु ज्ञान प्राि करने का अन्र् कोई सार्न भी तो नहीं र्दख रहा।

8 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : भौर्तक ज्ञान के र्िए भी आपको र्वश्वर्वद्यािर् इसी तरह जब आप आध्र्ार्त्मक ज्ञान
अथाित् पणू ि ज्ञान सीखना चाहते हैं, तो आपको र्कसी पणू ि र्शिक के पास जाना होता है। तभी आपको पणू ि ज्ञान
र्मि पाएगा।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह कर्ठन नहीं है। पणू ि र्शिक वह है, र्जसने र्कसी अन्र् पणू ि र्शिक से र्शिा िी हो।
डॉ. बेनिोडि : र्कन्तु इससे तो समस्र्ा का हि एक कदम तक ही आगे जाता है।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, चाँर्ू क एक पणू ि र्शिक-कृ ष्ण-हैं, र्जन्हें सभी वगों के र्शिक स्वीकार करते हैं। भारत
में अभी भी वैर्दक संस्कृ र्त है, र्जसे वैर्दक र्वद्वान् पढ़ाते हैं और र्े सारे वैर्दक र्शिक कृ ष्ण का परम र्शिक के
रूप में स्वीकार करते हैं। वे कृ ष्ण से ज्ञान ग्रहण करके उसी की र्शिा देते हैं।
डॉ. बेनिोडि : तो मैं र्र्द र्कसी से र्मिें, जो कृ ष्ण को पणू ि र्शिक के रूप में स्वीकार करता हो, क्र्ा वह
पणू ि र्शिक होगा ?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। जो भी कृ ष्ण के उपदेशों की र्शिा देता है, वह पणू ि र्शिक है।
डॉ. बेनिोडि : तो क्र्ा र्हााँ के सारे भिगण पणू ि र्शिक हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : अवश्र्। क्र्ोंर्क वे के वि कृ ष्ण की र्शिाओ ं को ही पढ़ाते हैं। हो सकता है र्क वे पणू ि न
हों, र्कन्तु वे जो कुछ भी बोिते हैं वह सही है; क्र्ोंर्क इसकी र्शिा कृ ष्ण द्वारा दी गई है।
डॉ. बेनिोडि : तो क्र्ा आप पणू ि नहीं हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, मैं पणू ि नहीं ह।ाँ हममें से कोई र्ह दावा नहीं करता र्क हम पणू ि हैं-हममें अनेक दोष हैं;
िेर्कन चाँर्ू क हम कृ ष्ण की र्शिाओ ं से परे अन्र् कुछ नहीं कहते, इसर्िए हमारी र्शिा पणू ि है। हम तो उस
डार्कर्े के समान हैं, जो आपके र्िए एक हजार डॉिर का मनीऑडिर िाता है। वह र्नी व्र्र्ि नहीं होता, र्कन्तु
र्र्द वह मनीआडिर को उसी रूप में आपको देता है, तो आप िाभार्न्वत होते हैं। वह र्नी व्र्र्ि नहीं होता;
र्कन्तु उसका पणू ि व्र्वहार-उसकी ईमानदारी-पणू ि है। इसी तरह हम पणू ि नहीं हैं, हम अपणू िताओ ं से भरे हुए हैं;
र्कन्तु हम कृ ष्ण की र्शिा से परे नहीं जाते। र्ही हमारी र्वर्र् है। इसर्िए हमारी र्शिाएाँ पणू ि हैं।

9 विषय-सूची
अध्र्ार् दो
इर्न्िर्तर्ृ ि पर्िर्ों के र्िए है
र्ह वाताििाप रोम में प्रात: कािीन भ्रमण के समर् मई 1974 में श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके र्शष्र्ों के बीच हुआ
था।
श्रीि प्रभपु ाद : अदान्तगोर्भर्विशतां तर्मस्त्रं पनु ुः पनु िर्वित-चविणानाम-् —िोग जन्म-जन्मान्तरों में अपनी इर्न्िर्ों
का आनन्द िेने का प्रर्त्न करते हैं। जन्म-जन्मान्तर घमू र्िर कर वही चीजें-वही खाना, वही सोना, वही संभोग, वही
आत्मरिा-चाहे मनष्ु र् के रूप में हो र्ा कुत्ते के रूप में। पनु : पनु िर्वित-चविणानाम-् चबार्े हुए को बारम्बार चबार्े जाना।
आप देवता बन जार् र्ा कुत्ता, भौर्तक जगत् में हर एक को इन चार बातों की-खाने, सोने, संभोग करने तथा आत्मरिा
करने की-सर्ु वर्ा प्रदान की गई है।
वस्ततु : र्र्द इस िण कोई संकट आन खड़ा हो तो हम मनष्ु र् उसकी चपेट में आ सकते हैं; र्कन्तु एक पिी िुरि
से उड़ जाएगा। अत: पिी को अपनी रिा के र्िए अर्र्क अच्छी सर्ु वर्ा र्मिी है। है न? मान िीर्जर्े र्क सहसा कोई
मोटर कार हमारी ओर सीर्ी आ जार्े, तो हम सभी मारे जाएाँगे। हम कुछ भी नहीं कर सकते, र्कन्तु छोटे से छोटा पिी
कहेगा “र्त!् मैं तो चिा।” वह ऐसा कर सकता है। है न ? अतएव उसके रिा के उपार् हमसे बेहतर हैं।
इसी तरह र्र्द हम संभोग करना चाहते हैं, तो हमें उसके र्िए व्र्वस्था करनी होगी। उसके र्िए कोई संर्गनी तथा
उपर्ि ु समर् और स्थान तिाशना होगा; र्कन्तु मादा पिी सदैव ही नर पिी के इदि-र्गदि रहती है। चाहे कबतू र को िें र्ा
गौरै र्ा को। आपने देखा है? वे तरु न्त संभोग के र्िए उद्यत रहती हैं। और भोजन के र्िए पिी क्र्ा करते हैं? “ओह, वे रहे
कुछ िि!” तरु न्त ही पिी खाने िगता है। इसी तरह उनका सोना भी सरि तथा सर्ु वर्ाजनक होता है।
तो र्ह मत सोर्चर्े र्क र्े सर्ु वर्ाएाँ माि आपके गगनचम्ु बी भवनों में ही उपिब्र् हैं। पर्िर्ों तथा पशओ ु ं को भी
र्े सिु भ हैं। ऐसा नहीं है र्क जब तक आपके पास र्कसी गगनचम्ु बी प्रासाद में एक बहुत अच्छा घर न हो तब तक
आपको खाने, सोने, रिा करने तथा सभं ोग की र्े सभी सर्ु वर्ाएाँ प्राि नहीं हो सकतीं। आप इन्हें र्कसी भी र्ोर्न के र्कसी
भी भौर्तक शरीर में प्राि कर सकते हैं—र्वषर्ुः खिु सवितुः स्र्ात।् र्वषर् का अथि है भौर्तक इर्न्िर्-भोग की सर्ु वर्ाएाँ।

10 विषय-सूची
हमारी र्वर्र् है र्वषर् छार्डर्ा से रस मर्जर्ा/ मनष्ु र् को इस अतष्टु कारी भौर्तक भोग का त्र्ाग कर देना चार्हए और
र्दव्र् आनन्द का आस्वाद करना चार्हए, जो आध्र्ार्त्मक सख ु का रसास्वादन है। र्ह एक र्भन्न स्तर का आनन्द है।
र्कन्तु आजकि िोग देहात्मबोर् से इतने मख ू ि बन गर्े हैं र्क उनका एकमाि आनन्द र्ही तथाकर्थत भौर्तक
भोग है। इसीर्िए शास्त्र उपदेश देते हैं, “र्ह िर्णक र्नम्नकोर्ट का भोग पिी अथवा पशु के रूप में-उपिब्र् है।” तमु इस
र्वर्भन्न र्ोर्नर्ों में इसी एक अतष्टु कारी भोग के पीछे बारम्बार क्र्ों दौड़ िगाते रहते हो? पनु ुः पनु ुः चर्वितचविणानाम/् ”तमु
इन सभी र्वर्भन्न रूपों में उसी एक बेहदा अतष्टु कर कार्ि को बारम्बार करें जा रहे हो।”
र्कन्तु “मर्तनि कृ ष्णे परतुः स्वतो वा”- जो िोग भौर्तक इर्न्िर्भोग द्वारा मख ू ि बना र्दए गर्े हैं, वे न तो अपने
प्रर्त्न से, न ही गरुु के उपदेश से कृ ष्णभावनाभार्वत हो सकते हैं। “र्मथोऽर्भपद्येत”-र्े मख ू ि िोग र्ह पछू ने के र्िए
अनेकानेक गोर्िर्ााँ तथा बैठकें कर सकते हैं र्क “जीवन की समस्र्ाएाँ क्र्ा हैं?”-र्िर भी र्े कृ ष्णभावनामृत की र्वर्र् को
अपना नहीं सकते।
क्र्ों? गृह-व्रतानाम-् जब तक उनमें र्ह सक ं ल्प है र्क, “हम इस भौर्तक जगत् में सख ु ी रहेंगे,” तब तक वे
कृ ष्णभावनामृत को नहीं अपना सकते। गृह का अथि “घर” तथा “शरीर” दोनों है। जो िोग इस भौर्तक शरीर में सख ु ी
बनना चाहते हैं, वे कृ ष्णभावनामृत नहीं अपना सकते, क्र्ोंर्क उनकी इर्न्िर्ााँ “अदान्तगोर्भ:” अथाित् अत्र्र्र्क
अर्नर्र्न्ित हैं। इसर्िए इन िोगों को चबार्े हुए को पनु : पनु : चबाने की कर्ठन परीिा से बारम्बार गजु रना पड़ता है।
बारम्बार वही इर्न्िर् भोग खाना, सोना, सम्भोग करना तथा आत्मरिा करना।
र्शष्र् : तो क्र्ा हमारा कार्ि िोगों को र्ह र्वश्वास र्दिाना है र्क वे भौर्तक जगत् में सख ु ी नहीं हो सकते?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। उन्हें इसका र्वश्वसनीर् अनभु व पहिे से प्राि हो गर्ा है। वे र्नत्र् ही अनेकानेक दिों की
स्थापना करते रहते हैं, कई तरह की र्ोजनाएाँ बनाते रहते हैं र्िर भी वे सख ु ी नहीं हैं। और तो और, इतने पर भी वे ऐसे
महामख ू ि हैं र्क बारम्बार परार्जत होने पर भी वे पहिे चबार्े हुए को ही चबा रहे हैं-उसी वस्तु को बारम्बार, र्कन्तु कुछ
र्भन्न रूपों में। साम्र्वार्दर्ों तथा पाँजू ीपर्तर्ों में अन्तर क्र्ा है? आर्खर, र्े दोनों ही वगि इसी ताक में रहते हैं र्क अपने ही
इर्न्िर् भोग के र्िए वस्तुओ ं को र्कस तरह बेहतर रूप में व्र्वर्स्थत की जार्े। र्े दोनों वगि परस्पर िड़-र्भड़ रहे हैं;
िेर्कन प्रत्र्ेक का िक्ष्र् है। गृह-व्रतानाम-् हम इसी भौर्तक जगत् में रहेंगे और र्हीं सख ु ी होंगे।
र्शष्र् : भाव र्ह है र्क र्र्द हमें पर्ािि भोजन तथा र्वषर्वासना प्राि होगी, तो हम सख ु ी होगे ।
श्रीि प्रभपु ाद : बस। जब िोग नपसंु क बन जाते हैं और वैद्य से र्ाचना करते हैं, “मझु े कोई सभं ोग-वटी दीर्जर्े।”
देखा ? पनु ुः पनु ुः चर्वितचरण् ानाम् । उसी परु ानी र्घसी-र्पटी वस्तु को चबाना। और जब वे घर पर र्वषर्भोग से ऊब जाते
हैं तो कहते हैं, “चिो, वेश्र्ा के पास चिा जार्े। चिो, नंगा नाच देखा जार्े।” उनके पास कोई अन्र् र्वचार नहीं होते।

11 विषय-सूची
अत: िोगों का र्ह वगि कृ ष्णभावनामृत को नहीं अपना सकता। सविप्रथम मनष्ु र् को र्ह जान िेना चार्हए र्क “मैं इस
भौर्तक जगत् का कुछ भी नहीं ह।ाँ मैं आत्मा ह।ाँ मेरा सख ु तो आध्र्ार्त्मक जगत् में है।” तभी वह असिी मनष्ु र् बनता है
और आध्र्ार्त्मक उन्नर्त कर सकता है।
अतएव अगिा प्रश्न है, कोई आत्मा र्ा कृ ष्णभावनामृत में र्कस तरह रुर्च िे? कै से? र्ही प्रश्न है। पशु तथा
पशओ ु -ं जैसे मनष्ु र् इसमें रुर्च नहीं िे सकते।
नैषां मर्तस्तावदरुु क्रमाङ्क्िङ्क्र्घ्रं स्पृशत्र्नथािपगमो र्दथि: ।
महीर्सां पादरजोऽर्भषेकं र्नर्ष्कञ्चनानां न वृणीत र्ावत् ॥
श्रीमद-् भागवत (7.5.32) का वचन है, “इन र्तू ों तथा मख ु ों की चेतना को अद्भुत कार्ि करने वािे भगवान्
श्रीकृ ष्ण के उन चरणारर्वन्दों की ओर तब तक नहीं मोड़ी जा सकती; जब तक वे भगवान् के र्कसी ऐसे भि के
चरणकमिों पर अपना शीश नहीं झक ु ाते जो र्नर्ष्कंचन है, र्जसे इस भौर्तक जगत् से कोई िाभ नहीं उठाना है और जो
के वि कृ ष्ण में रुर्च िेता है। र्र्द ऐसे महान् भि के चरणों पर शीश झक ु ाने र्ा उसकी चरण-रज िेने का भी अवसर प्राि
हो सके , तो आपकी आध्र्ार्त्मक उन्नर्त सम्भव है; अन्र्था नहीं। महान् भि के चरणकमि की र्र्ू ि आपकी सहार्ता
कर सकती है।

12 विषय-सूची
अध्र्ार् तीन
क्र्ा हम ज्ञान की र्तर्थ र्नर्ािररत कर सकते हैं?
िन्दन में प्रात: कािीन भ्रमण के समर् एक अंग्रेजी छाि तथा श्रीि भर्िवेदान्त स्वामी प्रभपु ाद के बीच हुई
बातचीत।
श्रीि प्रभपु ाद : कृ ष्णभावना मृत का सन्देश आध्र्ार्त्मक जगत् से आता है। र्ह इस भौर्तक जगत् का नहीं है।
इसीर्िए कभी-कभी िोग इसका गित अथि िगा सकते हैं। अत: हमें इसकी सही ढंग से व्र्ाख्र्ा करनी पड़ती है। वे
इतना भी नहीं समझ पाते र्क आत्मा क्र्ा है। बड़े -बड़े र्वज्ञार्नर्ों, बड़े-बड़े दाशिर्नकों को आत्मा तथा आध्र्ार्त्मक जगत्
की कोई जानकारी नहीं है। इसीर्िए कभी-कभी इन्हें समझने में उनको बहुत कर्ठनाई होती है।
अर्तर्थ : इर्र मैं वेदों की र्तर्थ-र्नर्ािरण पर कुछ शोर्-कार्ि कर रहा ह।ाँ आप जानते हैं र्क कुछ परु ातत्वर्वदों का
मत है र्क हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में हुई खदु ाई से प्राि प्रमाण र्ह दशािते हैं र्क वास्तव में वेदों की र्तर्थर्ााँ पहिे मानी
र्तर्थर्ों से कािी बाद की हैं। इससे वेदों की प्रामार्णकता पर एक सीमा तक अवरोह प्रतीत होगा, क्र्ोंर्क तब वे र्वश्व के
सवािर्र्क प्राचीन र्ार्मिक शास्त्र नहीं िगेंगे।
श्रीि प्रभपु ाद : वेद का अथि “र्मि” नहीं है। वेद का अथि “ज्ञान” है। इसर्िए र्र्द आप ज्ञान के इर्तहास का पता
िगा सकें , तो आप वेद की उत्पर्त-र्तर्थ का पता िगा सकते हैं। क्र्ा आप र्ह पता िगा सकते हैं र्क ज्ञान कब शरू ु
हुआ? क्र्ा आप इसका पता िगा सकते हैं?
अर्तर्थ : मैं नहीं समझता र्क हम ऐसा कर सकते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : तो आप वेदों के इर्तहास का पता कै से िगा सकोगे? वेदों का अथि है ज्ञान। अत: सविप्रथम र्ह
ज्ञात करो र्क ज्ञान र्कस र्तर्थ से शरू ु हुआ। तब वेदों के काि का पता िगाओ।
वेदों का इर्तहास इस भौर्तक जगत् की सृर्ष्ट की र्तर्थ से शरू ु हुआ। कोई व्र्र्ि सृर्ष्ट की र्तर्थ नहीं बता सकता।
सृर्ष्ट का शभु ारम्भ ब्रह्मा के जन्म से होता है और आप ब्रह्मा के एक र्दन की माप की गणना तक नहीं कर सकते। ब्रह्मा की
रार्ि के समर् ब्रह्माण्ड का कुछ हद तक प्रिर् हो जाता है और ब्रह्मा के र्दन के समर् पनु ुः सृर्ष्ट हो जाती है। प्रिर् दो

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तरह का होता है। एक तो ब्रह्मा की रार्ि के समर् होता है और एक अर्न्तम प्रिर् होता है, र्जससे सम्पणू ि प्रकट सृर्ष्ट का
संहार होता है। र्कन्तु र्े ििु मानव वेदों की र्तर्थ के र्वषर् में अनमु ान िगाने में जुटे हैं। र्ह अत्र्न्त हास्र्ास्पद है।
ऐसे अनेक सक्ष्ू म जीवाणु होते हैं, जो शाम को जन्मते हैं और प्रात:काि होते होते मर जाते हैं। उनकी परू ी आर्ु
एक रात की ही होती है। हमारा जीवन भी उसी तरह है। आप कौन सा इर्तहास र्िख सकते हो? इसर्िए हम वैर्दक ज्ञान
वैर्दक प्रमाणों से ही पाते हैं।
मनष्ु र् को “दादरु -दाशिर्नक” नहीं होना चार्हर्े। क्र्ा आप दादरु -दशिन के र्वषर् में जानते हो ? दादरु महाशर्
(मेंढक) ने कभी “अटिांर्टक” महासागर नहीं देखा था, अत: जब र्कसी ने उसे बतार्ा र्क, “अरे , मैंने बहुत बड़ा
जिसमहू देखा है।” तो श्री दादरु ने कहा, “क्र्ा वह इस कुएाँ से बड़ा है?”
अर्तर्थ : हााँ, र्ह तो उसकी समझ से परे था।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। उसी तरह र्े र्वद्वान् भी अपने-अपने कुओ ं में सड़ रहे दादरु ों की तरह हैं। भिा, र्े वैर्दक ज्ञान
के बारे में सम्भवत: क्र्ा समझ पाएाँगे ?
अर्तर्थ : हााँ। मैं समझ रहा ह।ाँ र्वषर्ान्तर के रूप में, मैं सोचता हाँ र्क क्र्ा आप अनभु व करते हैं र्क वेद इसकी
पर्ु ष्ट करते हैं र्क असिी जीवन र्ानी जीवन का जो शि ु तम रूप है, वह प्रकृ र्त के साथ-साथ र्जर्ा जाता है; उसके
र्वपरीत होकर नहीं, जैसा र्क हम अपने शहरी पररवेश में करते प्रतीत होते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : जी हााँ। असिी जीवन का अथि र्ह है र्क शारीररक कार्ों को न्र्नू तम र्कर्ा जार्, र्जससे समर्
बचाकर आध्र्ार्त्मक ज्ञान में िगा जा सके । र्ही असिी जीवन है। वतिमान सभ्र्ता, जो र्क देहात्मबोर् पर आर्ाररत है,
पशजु ीवन है। र्ह सभ्र् जीवन नहीं है। अथातो ब्रह्मर्जज्ञासा-सभ्र् जीवन तब शरू ु होता है, जब मनष्ु र् इतना उन्नत बन
जाता है र्क वह आत्मा के र्वषर् में र्जज्ञासा करने िगता है। र्कन्तु जब ऐसी र्जज्ञासा नहीं होती, जब िोग र्ह नहीं पछू ते
र्क आत्मा क्र्ा है, तो वे कूकरों-सक ू रों की तरह होते हैं। वैर्दक जीवन र्सखाता है र्क मनष्ु र्, जहााँ तक सम्भव हो,
शारीररक उत्पातों से मि ु बने। इसीर्िए वैर्दक र्शिा ब्रह्मचर्ि से शरू ु होती है। समझे आप? र्कन्तु र्े र्तू ि अपने र्वषर्ी
जीवन पर रोक नहीं िगा सकते। इनका दशिन र्ह है र्क अर्नर्र्न्ित र्ौन-जीवन भोगते रहो और जब गभि ठहर जार्, तो
भ्रणू की हत्र्ा कर दो।
अर्तर्थ : हााँ।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह उनका दष्टु दशिन है। उन्हें इसका कोई अनमु ान नहीं है र्क प्रर्शिण के द्वारा मनष्ु र् र्ौन-जीवन
को भि ु ा सकता है। और र्र्द आप र्ौन-जीवन भि ू जाते हैं, तो र्िर गभिपात का प्रश्न ही कहााँ रहा? र्कन्तु वे ऐसा नहीं

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कर सकते। इसीर्िए कहा गर्ा है अदान्तगोर्भर्विशतां तर्मस्त्रं-वे अर्नर्र्न्ित इर्न्िर्–भोग के कारण क्रमशुः पश-ु जीवन के
स्तर की ओर नीचे जा रहे हैं।
जो व्र्र्ि गभि में र्शशु की हत्र्ा करके गभिपात कराने का काम करता है, उसे अगिे जन्म में गभि में स्थार्पत
र्कर्ा जाएगा और कोई व्र्र्ि उसका वर् करे गा। उसने र्जतने ही र्शशओ ु ं की हत्र्ा की रहती है, उसे उतने ही गभों में
रहना पड़ता है और उतनी बार उसका वर् र्कर्ा जाता है। इस तरह सैकड़ों वषों तक उसके र्िए सर्ू िप्रकाश को देख पाना
असम्भव होगा। वह गभि में ही रहेगा और उसकी हत्र्ा की जाएगी। िोग प्रकृ र्त के र्नर्मों को नहीं जानते। मनष्ु र् राज्र्
र्नर्मों के उल्िंघन की तरह प्रकृ र्त के र्नर्मों का उल्िंघन नहीं कर सकता। मान िो र्क आप र्कसी का वर् कर देते हो,
तो चािबाजी से आप बच सकते हो; िेर्कन आप प्रकृ र्त के र्नर्म से नहीं बच सकते। आपने र्जतनी बार वर् र्कर्ा है,
उतनी ही बार गभि में आपकी हत्र्ा की जाएगी। र्ही प्रकृ र्त का र्नर्म है।
अर्तर्थ : अभी र्पछिे ही सिाह मैं एक नसि से बातें कर रहा था, जो िन्दन के एक मख्ु र् अस्पताि में गभिपात-
र्वभाग में काम करती है। र्ह बहुत ही बीभत्स होता है। इनमें से कुछ भ्रणू इतने अर्र्क र्वकर्सत हो चक ु े होते हैं र्क उनमें
जीवन होने की प्रबि सम्भावना रहती है।
श्रीि प्रभपु ाद : सम्भावना का प्रश्न ही नहीं है। जीवन तो सम्भोग काि से ही शरू ु हो जाता है। जीव अर्त िघु
होता है। वह अपने कमि के अनसु ार, प्रकृ र्त के र्नर्म द्वारा र्पता के वीर्ि में प्रेर्षत र्कर्ा जाता है और माता के गभि में
प्रर्वष्ट करा र्दर्ा जाता है। परुु ष तथा स्त्री के वीर्ि तथा रज पार्स बनाकर मटर के बराबर शरीर का र्नमािण करते हैं।
तत्पिात् वह मटर जैसा शरीर र्ीरे -र्ीरे बढ़ता है। वैर्दक वाङ्मर् में इसका वणिन हुआ है। पहिी अवस्था में नौ र्छि प्रकट
होते हैं-र्े हैं कान, आाँख, नथनु े, माँहु , जनन अगं तथा गदु ा।
तत्पिात् र्ीरे -र्ीरे इर्न्िर्ााँ र्वकर्सत होती हैं, साढ़े छह महीनों में सब कुछ पणू ि हो जाता है और जीव की चेतना
वापस आ जाती है। शरीर बनने के पवू ि जीव अचेत रहता है मानो मछ ू ों में हो। तब वह स्वप्न देखता है और र्िर क्रमश:
उसमें चेतना आती है। उस समर् वह बाहर आने के र्िए अत्र्र्र्क अर्नच्छुक रहता है; र्कन्तु प्रकृ र्त उसे र्क्का देती है
और वह बाहर आ जाता है। जन्म की र्ही र्वर्र् है।
र्ह वैर्दक ज्ञान है। वैर्दक वाङ्मर् में सारी चीजें सचु ारु रूप से वर्णित र्मिेंगी। इसर्िए वेद इर्तहास के अर्ीन कै से
हो सकते हैं? र्कन्तु कर्ठनाई र्ह है र्क हम र्जन बातों के र्वषर् में बोि रहे हैं, वे आध्र्ार्त्मक हैं; इसर्िए कभी-कभी
र्नपट भौर्तकता वार्दर्ों के र्िए र्ह समझ पाना कर्ठन होता है। वे इतने मन्दबर्ु ि होते हैं र्क वे समझ ही नहीं पाते।

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अध्र्ार् चार
मर्स्तष्कर्वहीन समाज
र्ह वाताििाप मई 1974 में जीवन में श्रीि प्रभपु ाद एवं अन्तरािष्रीर् श्रम संघटन के चािसि हेर्न्नस के मध्र् हुआ ।
श्रीमान् हेर्नस : मैं अन्तरािष्रीर् श्रम संघटन के र्िए कार्ि करता ह;ाँ जो र्क संर्िु राष्र संघ का एक अंग है। हम
र्वश्वभर के िगभग समस्त राष्रों में सारे श्रर्मकों के संरिण तथा कल्र्ाण कार्ों से जड़ु े हुए हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : वैर्दक वाङ्मर् में चार सामार्जक श्रेर्णर्ों का वणिन हुआ है-बर्ु िमान,् प्रशासक, व्र्ापारी, श्रर्मक।
सामार्जक शरीर में श्रर्मक पााँव का कार्ि करते हैं, र्कन्तु पााँवों को मर्स्तष्क से र्नर्र्न्ित होना चार्हए। इस सामार्जक
शरीर का मर्स्तष्क बर्ु िमान् वगि है। संर्ि ु राष्र सामार्जक शरीर के पााँवों का ही ख्र्ाि करता है, र्कन्तु वह मर्स्तष्क
र्ानी बर्ु िमान् वगि के र्िए क्र्ा कर रहा है?
श्रीमान् हेर्नस : हम इस बात का ध्र्ान रखते हैं र्क समाज के आर्थिक िाभों में श्रर्मकों को समर्ु चत भाग र्मिे।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु मेरा कहना र्ह है र्क र्र्द आप समाज के मर्स्तष्क की उपेिा करते हैं, तो पााँवों पर ध्र्ान
देने के बावजदू कार्ि सचु ारु रूप से नहीं चिेगा, क्र्ोंर्क मर्स्तष्क व्र्वर्स्थत नहीं होगा।
श्रीमान् हेर्नस : िेर्कन क्र्ा आप नहीं सोचते र्क र्ह भी समाज का एक महत्वपणू ि पि है? हमारा िक्ष्र् र्वश्व के
तमाम श्रर्मकों के भाग्र् को सर्ु ारना है।
श्रीि प्रभपु ाद : अमरीका में तो श्रर्मकों को कािी अच्छी मजदरू ी दी जाती है, र्कन्तु क्र्ोंर्क उनका र्नदेशन
मर्स्तष्क द्वारा अथाित् बर्ु िमान् वगि द्वारा नहीं होता, इसर्िए वे सारा र्न शराब पीने में खचि कर देते हैं।
श्रीमान् हेर्न्नस : र्ह तथ्र् र्क अच्छी वस्तु का दरुु पर्ोग होता है, वह उस वस्तु को बरु ा नहीं बनाता।
श्रीि प्रभपु ाद : बात र्ह है र्क हर व्र्र्ि को मर्स्तष्क के द्वारा र्नदेर्शत होना चार्हए। समाज को सघं र्टत करने
का र्ही एकमाि सार्न है। र्बना बर्ु ि के , गर्े की तरह कर्ठन श्रम करने से क्र्ा िाभ ?
श्रीमान् हेर्न्नस : आप र्कसी मनष्ु र् को मर्स्तष्क का उपर्ोग करने के र्िए बाध्र् तो नहीं कर सकते ?
श्रीि प्रभपु ाद : इसीर्िए संर्ि ु राष्र को चार्हए र्क आदशि बर्ु िमान् मनष्ु र्ों की श्रेणी का समथिन करे , जो समाज
के मर्स्तष्क की तरह कार्ि करें और अन्र्ों का मागिदशिन करें , र्जससे हर व्र्र्ि सख ु ी बन सके ।
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श्रीमान् हेर्नस : आप पाएाँगे र्क र्वश्वभर में हर समाज में एक परु ोर्हत वगि र्ानी दाशिर्नक नेताओ ं का वगि होता है।
श्रीि प्रभपु ाद : परु ोर्हत र्ानी पादरी वगि! बाइबि कहती है, “तू वर् नहीं करे गा।” र्कन्तु पादररर्ों ने इसे अपनी
सनकों के अनक ु ू ि बनाने के र्िए इसमें संशोर्न कर र्िर्ा है। उन्होंने र्नदोष पशओ ु ं के वर् हेतु हजारों की संख्र्ा में बड़े-
बड़े कसाईघर खोिने की अनमु र्त देकर वर् करने को स्वीकृ र्त प्रदान की है। भिा ऐसे तथाकर्थत पादरी र्कस तरह
मागिदशिन कर सकते हैं? मैंने इसके बारे में अनेक ईसाई महानभु ावों तथा पादररर्ों से पछू ा है र्क आपकी बाइबि र्शिा
देती है “तू वर् नहीं करे गा।” तो र्िर आप इस आदेश का उल्िंघन क्र्ों करते हैं? र्कन्तु वे अस्पष्ट उत्तर देते हैं। उन्होंने
िोगों को र्ह भी र्शिा नहीं दी है र्क पापमर् क्र्ा है। इसका अथि है समाज में मर्स्तष्क का अभाव ।
श्रीमान् हेर्नस : मेरा संघटन िोगों के मर्स्तष्क से सीर्े सम्बि नहीं है।
श्रीि प्रभपु ाद : भिे ही आपका सघं टन इससे प्रत्र्ि जड़ु ा हुआ न हो; र्कन्तु र्र्द मानव समाज मर्स्तष्कर्वहीन
हो तो र्िर आप र्कतने ही सगं ठन क्र्ों न बनाएाँ िोग कभी भी सख ु ी नहीं हो पाएाँगे। र्र्द समाज का बर्ु िमान् वगि िोगों
को र्ह र्शिा नहीं देता र्क पण्ु र् तथा पाप कमों में कै से अन्तर र्कर्ा जार्, तो वे िोग पशवु त् हैं।
श्रीमान् हेर्नस : वस्ततु : जब आप पापकमों तथा पण्ु र्कमों में अन्तर की बात करते हैं तो
श्रीि प्रभपु ाद : उन्हें अब ऐसा अन्तर र्दखता ही नहीं। र्कन्तु हमारे कृ ष्णभावनामृत संघ में मैं अपने अनर्ु ार्र्ओ ं
को प्रारम्भ से ही पापकमों से बचने की र्शिा देता ह।ाँ उन्हें मांसाहार, झतू क्रीड़ा, अवैर् र्ौन तथा नशे का परू ी तरह
पररत्र्ाग करना होता है। अब आप उनके चररि तथा व्र्वहार की तुिना अन्र् र्कसी से कीर्जए। ईसाई पादरी तक भी
आिर्िचर्कत हो जाते हैं। वे कहते हैं, “र्े िड़के तो हमारे िड़के हैं। क्र्ा कारण है र्क वे आपके आन्दोिन में सर्म्मर्ित
होने के पवू ि कभी भी र्गरजाघर नहीं आर्े थे, र्कन्तु अब वे ईश्वर के पीछे पागि हैं?” सड़कों पर िोग पछू ते हैं, “क्र्ा आप
अमरीकी हैं?”
आपने देखा, हर वस्तु को समर्ु चत मागिदशिन द्वारा सर्ु ारा जा सकता है; र्कन्तु र्र्द समाज में मर्स्तष्क न हो, तो
आप र्कतने ही संघटन क्र्ों न बना िें, िोग कष्ट भोगते रहेंगे। र्ह प्रकृ र्त का र्नर्म है र्क र्र्द िोग पापी हैं, तो उन्हें कष्ट
भोगना होगा।
श्रीमान् हेर्नस : मैं नहीं सोचता र्क िोगों को र्शिा देने के र्िए र्कसी अन्तरािष्रीर् सगं ठन की अपेिा की जार्।
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ों नहीं? इसे अन्तरािष्रीर् होना चार्हएप्रत्र्ेक को। संर्ि ु राष्र-संघ अन्तरािष्रीर् कार्ि के र्िए है;
इसर्िए हमारा प्रस्ताव र्ह है र्क सर्ं ि ु राष्र-सघं उच्चकोर्ट के बर्ु िमान् िोगों का एक अन्तरािष्रीर् सगं ठन कार्म करे ,
जो समाज के मर्स्तष्क का कार्ि कर सके । तभी िोग सख ु ी हो सकें गे; र्कन्तु र्र्द आप र्बना र्नदेशन के , र्बना मर्स्तष्क
के , हाथ-पााँव चिाते रहना चाहते हैं, तो आप कभी सिि नहीं होंगे।

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श्रीमान् हेर्नस : आप जानते हैं र्क मैं अपने को मानव माि का सेवक मानता हाँ र्जसका उद्देश्र् िोगों को, एक
दसू रे को तथा र्वश्व को और अच्छी तरह समझने में सहार्ता करना है। अब मैं श्रर्मकों के र्शिण कार्िक्रमों को संगर्ठत
करने के प्रर्ास में हाँ ।
श्रीि प्रभपु ाद : िेर्कन आप कृ पर्ा समझने की कोर्शश करें । मैं समाज के मर्स्तष्क पर बि दे रहा ह।ाँ र्र्द आदशि
श्रेणी के मनष्ु र् न हो, र्र्द मर्स्तष्क सचु ारु न हो, तो आप चाहे र्कतनी ही र्शिा क्र्ों न दें र्ा र्कतने ही संगठन क्र्ों न
बना िें, वे सब असिि होंगे। संर्ि ु राष्र-संघ समस्त मानव समाज के हेतु एक संगठन है; र्कन्तु उसके पास कोई ऐसा
र्वभाग नहीं है, र्जसे वास्तव में मर्स्तष्क संघटन कहा जा सके ।
श्रीमान् हेर्नस : र्ह तो सच है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ही मझु े कहना है।
श्रीमान् हेर्नस : हम अपने सदस्र्-राज्र्ों के कणिर्ारों के सेवक माि हैं। र्र्द श्रीमान् र्नक्सन तथा अन्र् सभी
राज्र्ाध्र्िों के मर्स्तष्क नहीं हैं, तो संर्िु राष्र-संघ उन्हें मर्स्तष्क प्रदान करने के र्िए कुछ भी नहीं कर सकता।
श्रीि प्रभपु ाद : तब तो आपका र्ह र्वशाि संगठन शव को सजाने जैसा है। मर्स्तष्कर्वहीन शरीर मृत होता है।
आप शव को जी भर कर अिंकृत कर सकते हैं; र्कन्तु इससे क्र्ा िाभ? र्र्द समाज में िोगों को र्ह र्शिा देने के र्िए
मर्स्तष्क-वगि न हो र्क क्र्ा सही है और क्र्ा गित, तो सामार्जक शरीर मृत है, र्सररर्हत है। तब आप जो भी कार्ि करें गे,
वह मृत शरीर के व्र्थि अिंकरण जैसा होगा।
हमारा र्वज्ञान पररपणू ि है क्र्ोंर्क हम कृ ष्ण हैं, जो पररपणू ि स्रोत हैं।
आत्मा को हम अपनी स्थि ू इर्न्िर्ों से नहीं देख सकते, परन्तु हम उसकी अनभु र्ू त कर सकते हैं। चेतना की
अनभु र्ू त होना, र्ह आत्मा का ििण है।
आप गार् से दर्ू िेते हैं परन्तु जब वह बढ़ू ी हो जाती है और दर्ू नहीं दे पाती तब आप उसका गिा काट देते हैं।
क्र्ा र्ह मानवोर्चत व्र्वहार है?
र्े आहार, र्निा, भर् और मैथनु पशु भी करते हैं और आप भी करते हैं। परंतु मानव शरीर की श्रेिता र्ह है र्क
आप भगवान् का सािात्कार कर सकते हैं।

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19 विषय-सूची
अध्र्ार् पााँच
सादा जीवन : उच्च र्वचार
र्ह वाताििाप जनू 1976 में पर्िमी वजीर्नर्ा, नव वृन्दावन में श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके कर्तपर् र्शष्र्ों के बीच
हुआ था।
श्रीि प्रभपु ाद : पािात्र् सभ्र्ता गन्दी सभ्र्ता है-र्ह जीवन की आवश्र्कताओ ं को कृ र्िम रूप से बढ़ाने वािी
है। उदाहरणाथि, र्बजिी के प्रकाश को िें। र्बजिी के प्रकाश के र्िए एक जेनरे टर चार्हए और जेनरे टर चिाने के र्िए
पेरोर्िर्म चार्हए। ज्र्ोंही पेरोर्िर्म की आपर्ू ति ठप हो जाती है, सब कुछ ठप हो जार्ेगा। र्कन्तु पेरोर्िर्म पाने के र्िए
आपको कष्टप्रद खोज करनी होती है और पृथ्वी में गहराई में तथा कभी-कभी समिु के बीचोंबीच गहरी खदु ाई करनी
पड़ती है। र्ह उग्र-कम अथाित् भर्ावह कमि है। र्ही कार्ि कुछ अरंड वृि उगाकर, उसके बीजों को पेर कर तेि र्नकाि
कर तथा तेि को बत्ती से र्ि ु दीपक जिाकर सम्पन्न र्कर्ा जा सकता है। हम मानते हैं र्क र्बजिी के द्वारा आपने
प्रकाशपर्ू ति-प्रणािी सर्ु ार िी है, र्कन्तु अरें डी के तेि के दीर्े से र्बजिी के बल्ब तक प्रगर्त करने में आपको अर्त
कठोर श्रम करना होता है। आपको समिु के बीचोंबीच जाकर वेर्न करके पेरोर्िर्म र्नकािना होता है और इस तरह
जीवन का असिी िक्ष्र् छूट जाता है। आप बहुत ही शोचनीर् र्स्थर्त में हैं-र्वर्भन्न र्ोर्नर्ों में र्नरन्तर मरते तथा जन्म
िेते रहते हैं। इस जन्म-मृत्र्ु के चकर से अपने को कै से मि ु र्कर्ा जार्-र्ही आपकी असि समस्र्ा है और इस समस्र्ा
का हि मानव जीवन में ही होना होता है। आपके पास आत्म-सािात्कार पाने के र्िए उन्नत बर्ु ि है, र्कन्तु इस उन्नत
बर्ु ि का उपर्ोग आत्म-सािात्कार के र्िए न करके आप इसका प्रर्ोग अरंडी के तेि के दीपक को र्बजिी के िैम्प में
बदिने के र्िए कर रहे हैं। इतना ही है।
र्शष्र् : िोग कहेंगे र्क आपका सझु ाव अव्र्ावहाररक है। र्ही नहीं, र्बजिी प्रकाश उत्पन्न करने के अिावा और
भी अनेक कार्ि करती है। हमारे अर्र्कांश आर्र्ु नक सख ु -सार्न न्र्नू ार्र्क र्बजिी पर ही र्नभिर हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : हो सकता है र्क आप इस जीवन में बहुत ही आराम से रह रहे हों, र्कन्तु अगिे जीवन में आप
कुत्ता बन सकते हैं।
र्शष्र् : िोग इस पर र्वश्वास नहीं करते।
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श्रीि प्रभपु ाद : वे र्वश्वास करें र्ा न करें , र्ह एक तथ्र् है। उदाहरणाथि, एक बािक र्ह नहीं जानता र्क वह
बढ़कर र्वु क बनने जा रहा है, र्कन्तु उसके माता-र्पता जानते हैं। र्र्द बािक र्ह कहे र्क “नहीं, मैं र्वु क नहीं बनने
वािा ह.ाँ ” तो र्ह बचकानी बात होगी। माता-र्पता जानते हैं र्क बािक बढ़कर र्वु क बनेगा और उन्हें चार्हए र्क वे उसे
ऐसी र्शिा र्दिाएाँ र्जससे वह जीवन में सर्ु स्थत हो सके । र्ही अर्भभावक का कतिव्र् है।
इसी तरह जब हम आत्मा के देहान्तरण की बात चिाते हैं, तो कोई र्तू ि र्ह कह सकता है, “मैं इस पर र्वश्वास
नहीं करता,” र्कन्तु तो भी र्ह तथ्र् है। कोई र्तू ि, एक पागि र्ह कह सकता है र्क देहान्तरण तथ्र् नहीं है, र्कन्तु
असर्िर्त र्ही है र्क उसे इस जीवन में अपने कमि के गणु ानसु ार दसू रा शरीर अपनाना पड़ेगा-“कारणं गणु सङ्क्गोऽस्र्
सदसद्योर्नजन्मसु ।”
र्शष्र् : र्र्द कोई र्ह कहे र्क, “अरंड के वृि उगाना अर्त कर्ठन है और खेती करना भी सामान्र्तर्ा कर्ठन है।
र्कसी िै क्टरी में आठ घंटे के र्िए जाना और रुपर्े कमा कर घर आना तथा आनन्द करना अर्र्क सरि है।”
श्रीि प्रभपु ाद : आप आनन्द उठा सकते हैं, र्कन्तु आनन्द उठाने से आप जीवन के असिी िक्ष्र् को भि ू जाते
हैं। क्र्ा र्ह बर्ु िमानी है? आपको र्ह मानव शरीर अपना अगिा जीवन सर्ु ारने के र्िए र्मिा है। मान िीर्जर्े र्क
अगिे जीवन में आप कुत्ता बनते हैं। क्र्ा र्ह सििता है? आपको कृ ष्णभावनामृत का र्वज्ञान जानना चार्हए। तब आप
कुत्ता बनने के बजार् ईश्वर जैसे हो जाएाँगे।
र्शष्र् : आपने एक बार िन्दन में जान िेनन इस्टेट (जागीर) में र्ह कहा था र्क आज की अत्र्र्र्क परे शानी का
कारण रैक्टर है। इसने नौजवानों से सारा कार्ि छीन र्िर्ा है और काम करने के र्िए उन्हें शहर जाने के र्िए बाध्र् कर
र्दर्ा है; जहााँ वे इर्न्िर्तृर्ि में जटु जाते हैं। मैंने देखा है र्क देहात का जीवन अर्र्क सरि तथा अर्र्क शान्त है। वहााँ पर
आध्र्ार्त्मक जीवन के र्वषर् में सोचना अर्र्क सरि है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। देहात कम र्विब्ु र्कारी तथा मर्स्तष्क पर कम बोझ डािने वािा है। अपने भोजन के र्िए
थोड़ा काम कर िीर्जर्े और शेष समर् कृ ष्णभावनामृत में िगाइर्े। र्ही आदशि जीवन है।
[श्रीि प्रभपु ाद एक िूि उठा िेते हैं। इस िूि के सक्ष्ू म तन्तओ ु ं को देर्खर्े। क्र्ा कोई इतने सक्ष्ू म तन्तु र्कसी
िै क्टरी में तैर्ार कर सकता है? और इसका रंग भी र्कतना चटक है! र्र्द आप के वि एक िूि का ही अध्र्र्न कर िें,
तो आप कृ ष्णभावनाभार्वत हो जाएाँ। एक र्न्ि है, र्जसे आप “प्रकृ र्त” कहते हैं और इस र्न्ि से सारी वस्तुएाँ बन रही हैं।
र्कन्तु इस र्न्ि को र्कसने बनार्ा है ?
र्शष्र् : आपने िन्दन में कहा था र्क िोग र्ह नहीं जानते र्क िूिों को कृ ष्ण ने सोच-समझकर ही रंग प्रदान
र्कर्ा है।

21 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। क्र्ा आप र्ह सोचते हैं र्क र्बना किाकार के िूि इतना सन्ु दर बन सकता है? र्ह मख ू ताि
होगी। प्रकृ र्त क्र्ा है? र्ह कृ ष्ण का र्न्ि है। कृ ष्ण के र्न्ि द्वारा ही सब कुछ हो रहा है।
अत: आप नववृन्दावन में अपने रहन-सहन की रीर्त को सर्ु ारें । खि ु े स्थान में रहें, अपना अन्न, अपने र्िए दर्ू
स्वर्ं उत्पन्न करें , समर् बचा कर हरे कृ ष्ण का कीतिन करे सादा जीवन, उच्च र्वचार-र्ही आदशि जीवन है; र्कन्तु र्र्द
आप अपने जीवन की कृ र्िम आवश्र्कताएाँ-तथाकर्थत सख ु -सार्न बढ़ा िें और कृ ष्णभावनामृत के असिी कार्ि को
भि ू जाएाँ तो र्ह आत्मघातक होगा। हम इस आत्मघाती नीर्त को रोकना चाहते हैं। वस्ततु : हम इस पर बि नहीं देते र्क
िोग प्रौद्योर्गकी की आर्र्ु नक प्रगर्त को रोक दें। हम तो श्री चैतन्र् महाप्रभु द्वारा प्रदत्त सीर्ा सादा सिू प्रस्तुत करते हैं र्क
हरे कृ ष्ण का कीतिन करें । आप अपनी प्रौद्योर्गक िै क्टरी में भी कीतिन कर सकते हैं। इसमें क्र्ा कर्ठनाई है? आप अपने
र्न्ि का बटन दबाते रहें और साथ ही हरे कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । का
कीतिन करते रहें।
र्शष्र् : और र्र्द िोग कीतिन करने िगेंगे, तो वे क्रमश: प्रौद्योर्गकी का पररत्र्ाग कर देंगे ?
श्रीि प्रभपु ाद : र्नस्सन्देह।
र्शष्र् : तब तो आप उनके र्वनाश का बीज बो रहे हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, र्वनाश नहीं प्रत्र्तु र्नमािण का। जन्ममृत्र्ु की पनु रावृर्त्त, शरीरों का र्नरन्तर पररवतिन-र्ह
र्वनाश है। र्कन्तु हमारी र्वर्र् से आप सदा जीर्वत रहते हैं-त्र्क्त्वा देहं पनु जिन्म नैर्त (भगवद्गीता 4.9)-आपको दसू रा
भौर्तक शरीर नहीं र्मिता। र्कन्तु कृ ष्णभावनामृत के र्बना- तथा देहान्तर *श्री चैतन्र् महाप्रभु स्वर्ं भगवान् कृ ष्ण हैं, जो
स्वर्ं के भि की भर्ू मका र्नभा रहे हैं। वे पन्िहवीं शतार्ब्द के उत्तरार्ि में पर्वि भगवन्नाम के माध्र्म से भगवतप्रेम का
र्वतरण करने के र्िए प्रकट हुए।
प्रार्िुः (भगवद्गीता 2.13)-आपको दसू रा शरीर र्ारण करना पड़ता है, र्जसका अथि है कष्ट। तो र्िर क्र्ा अच्छा
है? एक के बाद दसू रा शरीर र्ारण करना र्ा आगे कोई शरीर र्ारण न करना? र्र्द हम इस शरीर के साथ अपने कष्ट को
समाि कर दें तो र्ह बर्ु िमानी है, र्कन्तु र्र्द हम आगे और कष्ट उठाने के र्िए दसू रा शरीर उत्पन्न करें , तो र्ह नादानी है;
र्कन्तु जब तक आप कृ ष्ण को समझ नहीं िेते, तब तक आपको दसू रा शरीर अपनाना ही पड़ेगा। इसका कोई र्वकल्प
नहीं है।

22 विषय-सूची
अध्र्ार् छह
आत्मा का वैज्ञार्नक प्रमाण
र्ह वाताििाप श्रीि प्रभपु ाद तथा एक भारतीर् डॉक्टर के मध्र् र्सतम्बर 1973 में िन्दन के हरे कृ ष्र् के न्ि में हुआ
था।
डॉक्टर : क्र्ा आप वैज्ञार्नक रीर्त से र्सि कर सकते हैं र्क आत्मा का अर्स्तत्व है? मेरा कहने का आशर् र्ह है
र्क क्र्ा र्ह के वि र्वश्वास की बात है र्ा...
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, र्ह वैज्ञार्नक तथ्र् है। हमारा र्वज्ञान पणू ि है, क्र्ोंर्क ज्ञान हमें पणू ि स्रोत अथाित् कृ ष्ण से प्राि
होता है। और तथाकर्थत आर्र्ु नक र्वज्ञान अपणू ि है; क्र्ोंर्क वैज्ञार्नक अपना ज्ञान अपणू ि स्रोतों से प्राि करता है। आप
र्कतने ही बड़े वैज्ञार्नक क्र्ों न हों, आपको र्ह स्वीकार करना होगा र्क आपकी इर्न्िर्ााँ अपणू ि हैं।
डॉक्टर : हााँ।
श्रीि प्रभपु ाद : अतुः अपणू ि इर्न्िर्ों से के वि अपणू ि ज्ञान ही प्राि हो सकता है। आप र्जसे वैज्ञार्नक ज्ञान कहते हैं
वह र्िजि ू है, क्र्ोंर्क र्जन िोगों ने र्ह ज्ञान उत्पन्न र्कर्ा है, वे अपणू ि हैं। भिा, अपणू ि व्र्र्ि से आप पणू ि ज्ञान की
आशा कै से कर सकते हैं ?
डॉक्टर : र्ह तो मािा की बात है।
श्रीि प्रभपु ाद : मैं र्ह कहना चाहता हाँ र्क र्र्द आप पणू ि ज्ञान नहीं दे पाते, तो आपसे ज्ञान प्राि करने से क्र्ा
िाभ ?
डॉक्टर: हााँ। मैं इस दृर्ष्टकोण को स्वीकार करता ह।ाँ र्कन्तु आप र्ह कै से र्सि करते हैं र्क आत्मा का अर्स्तत्व
है?
श्रीि प्रभपु ाद : आप पणू ि स्रोत कृ ष्ण से र्ा कृ ष्ण के प्रर्तर्नर्र् से, जो कृ ष्ण के शब्दों को ही दहु राता है, जानकारी
िीर्जर्े। र्ही हमारी प्रमाण की र्वर्र् है। एवं परम्पराप्रािम-् ”र्दव्र् ज्ञान को परम्परा से ही प्राि करना चार्हए।” हम र्कसी
र्तू ि से ज्ञान नहीं िेते; ज्ञान को हम कृ ष्ण अथाित् परम परुु ष से प्राि करते हैं। भिे ही मैं र्तू ि होऊाँ, र्कन्तु पणू ि स्रोत से ज्ञान
प्राि करने तथा उसको ही दोहराने के कारण मैं जो भी कहता हाँ वह पणू ि है। एक र्शशु अज्ञानी हो सकता है, र्कन्तु जब वह

23 विषय-सूची
कहता है र्क “र्पताजी! र्ह मेज है, “ तो उसके शब्द पणू ि (सही) होते हैं, क्र्ोंर्क उसने सीख रखा है र्क अमुक वस्तु मेज
कहिाती है। इसी तरह र्र्द आप र्कसी पणू ि व्र्र्ि से सनु ते हैं और उस पर र्वश्वास करते हैं, तो आपका ज्ञान पणू ि है। कृ ष्ण
कहते हैं तथा देहान्तरप्रार्िुः-”मृत्र्ु के पिात् आत्मा दसू रे भौर्तक शरीर में प्रवेश करता है।” हम इसे स्वीकार करते हैं। हमें
तथाकर्थत वैज्ञार्नक से प्रमाण नहीं चार्हए, क्र्ोंर्क वह अपणू ि होता है।
डॉक्टर : अत: र्वश्वास का प्रश्न पहिे उठता है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह र्वश्वास नहीं, तथ्र् है।
डॉक्टर : ठीक, र्कन्तु आप उस तथ्र् को र्कस तरह प्रमार्णत करते हैं ?
श्रीि प्रभपु ाद : चाँर्ू क कृ ष्ण कहते हैं, अत: र्ही प्रमाण है। डॉक्टर: (बड़े ही व्र्ंग्र् से) “इसे कृ ष्ण ने कहा है।”
र्कन्त.ु
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह हमारा वैर्दक प्रमाण है। जब हम कुछ कहते हैं, तो हम तरु न्त ही उसके समथिन में वैर्दक वाङ्मर्
से उिरण देते हैं। प्रमाण की र्ही हमारी र्वर्र् है, जो काननू ी कचहरी की र्वर्र् के समान है। जब कोई वकीि कचहरी में
दिीि देता है, तो उसे पवू िवती िै सिों से उिरण देने होते हैं। तभी उसकी दिीि काननू ी प्रमाण के रूप में न्र्ार्ार्ीश द्वारा
स्वीकार की जाती है। इसी तरह जैसे ही हम कोई बात कहते हैं, तरु न्त ही हम उसके समथिन में वैर्दक वाङ्मर् से उिरण देते
हैं। आध्र्ार्त्मक मामिों में प्रमाण की र्वर्र् र्ही है। अन्र्था शास्त्र र्कसर्िए हैं? र्र्द वे माि मनोकल्पनाएाँ होते, तो इन
ग्रन्थों की आवश्र्कता क्र्ा थी ? र्नस्सन्देह, वैर्दक वाङ्मर् परम सत्र् को भी तकि के साथ प्रस्ततु करता है। उदाहरणाथि,
भगवद-् गीता (2.13) में कृ ष्ण कहते हैं
देर्हनोऽर्स्मन्र्था देहे कौमारं र्ौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्रार्िर्ीरस्ति न मह्यु र्त ॥
“आत्मा अपना शरीर बाल्र्ावस्था से र्वु ावस्था में और र्वु ावस्था से वृिावस्था में बदिता रहता है। इसी तरह
आत्मा मृत्र्ु के समर् अन्र् शरीर में प्रवेश कर जाता है।” इसमें अतार्किक अर्भव्र्र्ि कहााँ है? र्ह वैज्ञार्नक है। बर्ु िमान्
व्र्र्ि के र्िए र्ह वैज्ञार्नक प्रमाण है। र्र्द इतने पर भी वह मन्दबर्ु ि है, तो र्िर र्कर्ा ही क्र्ा जा सकता है?
डॉक्टर : िेर्कन आत्मा तो अदृश्र् है। आप कै से आश्वस्त हो सकते हैं र्क इसका अर्स्तत्व है?
श्रीि प्रभपु ाद : र्कसी वस्तु के अदृश्र् रहने का अथि र्ह तो नहीं है र्क हम उसे जान नहीं सकते। मन, बर्ु ि तथा
अहक ं ार का सक्ष्ू म शरीर भी आप से अदृश्र् है, र्कन्तु आप जानते हैं र्क सक्ष्ू म शरीर होता है। हमारे शरीर दो प्रकार के होते
हैं-पृथ्वी, जि, अर्ग्न, वार्ु तथा आकाश से बना स्थूि शरीर तथा मन, बर्ु ि एवं अहक ं ार का सक्ष्ू म शरीर। आप पृथ्वी,

24 विषय-सूची
जि इत्र्ार्द के शरीर को देख सकते हैं; िेर्कन क्र्ा आप सक्ष्ू म शरीर को देख सकते हैं? क्र्ा आप मन को देख सकते हैं
? क्र्ा आप बर्ु ि को देख सकते हैं? र्िर भी हर व्र्र्ि जानता है र्क आपके मन है और मेरे भी मन है।
डॉक्टर : आप जानते हैं र्क र्े तो अमतू ि हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, अमतू ि नहीं। र्े सक्ष्ू म पदाथि हैं, इतना ही। इन्हें देख पाने के र्िए आपके पास आाँखें नहीं हैं।
डॉक्टर : ठीक, सम्प्रर्त बर्ु ि का अध्र्र्न करने के र्िए हमारे पास तीन र्वर्र्र्ााँ हैं ..................
श्रीि प्रभपु ाद : कुछ भी कहें, आप इतना तो स्वीकार करते हैं र्क सक्ष्ू म शरीर का अर्स्तत्व है, भिे ही आप उसे
देख नहीं पाते। र्ही मैं कहना चाहता ह।ाँ इसी तरह आत्मा का अर्स्तत्व है, भिे ही आप उसे देख नहीं सकते। आत्मा
सक्ष्ू म तथा स्थि ू शरीर से प्रच्छन्न है। र्जसे आप मृत्र्ु कहते हैं, वह स्थि ू शरीर का र्विोपन है। सक्ष्ू म शरीर बचा रहता है
और वह आत्मा को ऐसे स्थान पर िे जाता है, जहााँ वह पनु : दसू रे भौर्तक शरीर को जन्म दे सकता है, जो उसके मन की
इच्छाओ ं को परू ा करने के र्िए उपर्ि ु हो।
अंग्रेज अर्तर्थ : क्र्ा आपका आशर् र्ह है र्क सक्ष्ू म शरीर तथा आत्मा एक ही वस्तु है?
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। आत्मा, सक्ष्ू म शरीर से र्भन्न है। आत्मा बर्ु ि से अर्र्क सक्ष्ू म है। र्े बातें भगवद-् गीता
(3.42) में बतिाई गई हैं
इर्न्िर्ार्ण पराण्र्ाहुररर्न्िर्ेभ्र्: परं मन: ।
मनसस्तु परा बर्ु िर्ो बि ु े: परतस्तु स: ॥
सविप्रथम हम मोटे तौर पर शरीर की इर्न्िर्ों से ही अवगत रहते हैं। जो िोग पशतु ल्ु र् हैं, वे सोचते हैं र्क इर्न्िर्ााँ
ही सवेसवाि हैं। वे र्ह नहीं समझ पाते र्क इर्न्िर्ााँ मन के द्वारा र्नर्र्न्ित होती हैं। र्र्द र्कसी का मन र्वकृ त हो, तो उसकी
इर्न्िर्ााँ कार्ि नहीं कर सकतीं; वह मनष्ु र् पागि है। अत: इर्न्िर्ों का र्नर्न्िक मन है। और मन के ऊपर बर्ु ि है तथा बर्ु ि
के भी ऊपर आत्मा है।
जब हम मन तथा बर्ु ि तक को नहीं देख सकते, तो र्िर आत्मा को कै से देख सकते हैं? िेर्कन आत्मा का
अर्स्तत्व है, उसका पररमाप है। र्र्द र्कसी को आत्मा की जानकारी नहीं है, तो वह पशतु ल्ु र् है; क्र्ोंर्क वह अपनी
पहचान अपने स्थूि तथा सक्ष्ू म शरीरों से करता है।

25 विषय-सूची
अध्र्ार् सात
रार्ि तथा र्दवा स्वप्न
र्ह वाताििाप जनवरी 1974 में िास एन्जर्िस में श्रीि प्रभपु ाद एवं र्वर्श्वर्ािर् के छाि के मध्र् हुआ।
छाि : आपने अपनी पस्ु तकों में कहा है र्क र्ह जगत् स्वप्नवत।् है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, र्ह स्वप्न है।
छाि : र्ह स्वप्न र्कस तरह है ?
श्रीि प्रभपु ाद : उदाहरणाथि, गत रार्ि तम्ु हें कोई सपना आर्ा, र्कन्तु अब उसका कोई महत्व नहीं रह गर्ा है। वह
तो गर्ा और पनु : जब आज रात में तमु सोओगे, तो उन सारी बातों को भि ू कर दसू रा सपना देखोगे। जब आज रात तमु
सपना देखोगे, तब तुम्हें र्ाद नहीं रहेगा र्क, “मेरा घर है, मेरी पत्नी है।” तमु सब कुछ भि ू जाओगे, अत: र्ह सब सपना
है।
छाि : क्र्ा र्ह सच है र्ा सच नहीं है?
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह र्कस तरह सच हो सकता है? रात में तमु भि ू जाते हो। जब तमु सोते हो तो क्र्ा तम्ु हें र्ाद
रहता है र्क तुम्हारे पत्नी है और तमु शय्र्ा पर सो रहे हो? र्र्द तमु िगभग तीन हजार मीि दरू चिे जाओ और अपने
सपने में सविथा र्भन्न वस्तु देखो, तो क्र्ा तम्ु हें र्ाद रहता है र्क तम्ु हारे पास रहने के र्िए जगह है?
छाि : नहीं।
श्रीि प्रभपु ाद : अत: र्ह स्वप्न है। आज रात, जो तमु अब देख रहे हो, वह माि स्वप्न बन जाएगा, र्जस तरह
कि रात तमु ने जो देखा था-अब तमु जानते हो र्क र्ह के वि स्वप्न था। अत: दोनों स्वप्न हैं; तमु तो माि एक मि ु ाकाती
हो। बस! तमु र्ह र्ा वह स्वप्न देख रहे हो। आत्मा रूप तमु वास्तर्वक हो; र्कन्तु तम्ु हारा भौर्तक शरीर तथा र्जस भौर्तक
पररवेश को तमु देख रहे हो, वह स्वप्न है।
छाि : र्कन्तु मझु े िगता है र्क र्ह अनभु व सच है और मेरा स्वप्न सच नहीं है। तो अन्तर क्र्ा है.
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। र्ह सारा अनभु व असत्र् है। र्ह सच कै से हो सकता है? र्र्द र्ह सच होता, तो रात में तमु
इसे कै से भि ू जाते? र्र्द र्ह सच होता तो तमु इसे कै से भि ू सकते थे? क्र्ा रात में तमु र्ह सब स्मरण रखते हो?
26 विषय-सूची
छाि : मझु े स्मरण नहीं रहता।
श्रीि प्रभपु ाद : तो र्ह सच कै से हो सकता था? र्जस तरह तमु गत रात देखे सपने को स्मरण नहीं रख सकते,
अत: उसे “स्वप्न” कहते हो, उसी तरह र्ह अनभु व भी एक सपना है, क्र्ोंर्क तमु रात में इसे भि ू जाते हो.
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह र्दवा-स्वप्न है और वह रार्ि का स्वप्न है। बात इतनी सी है। जब तमु रात में सपना देखते हो,
तो तमु अनभु व करते हो र्क र्ह असिी है। हााँ। तमु सोचते हो र्क र्ह असिी है। र्ह स्वप्न है, र्कन्तु तमु र्चल्िाते हो,
“बाघ, बाघ, बाघ।” वह बाघ कहााँ है? र्कन्तु तमु उसे तथ्र् के रूप में-बाघ के रूप में देख रहे हो। “मझु े बाघ मारे जा रहा
है!” र्कन्तु वह बाघ है कहााँ? अथवा तमु र्ह सपना देखते हो र्क तमु र्कसी सन्ु दर िड़की को गिे िगा रहे हो। वह सन्ु दर
िड़की कहााँ है? र्कन्तु वास्तव में ऐसा हो रहा है।
छाि : क्र्ा ऐसा हो रहा होता है?
श्रीि प्रभपु ाद : एक अथि में ऐसा हो रहा होता है, क्र्ोंर्क वीर्ि स्खर्ित होता है। स्वप्नदोष। र्कन्तु वह िड़की
कहााँ है? क्र्ा र्ह स्वप्न नहीं है? र्कन्तु इसी तरह र्ह तथाकर्थत असिी जीवन का अनभु व भी एक स्वप्न है। तम्ु हें र्ह
वास्तर्वक िगता है, र्कन्तु र्ह है स्वप्न। इसर्िए र्ह मार्ा-सख ु ार्-मार्ामर् सखु कहिाता है। तम्ु हारा रार्िकािीन सख ु
तथा तम्ु हारा र्दन के समर् का सख ु एक ही वस्तु है। रात में तम्ु हें स्वप्न आता है र्क तमु एक सन्ु दर िड़की का आर्िंगन
कर रहे हो, र्कन्तु ऐसी कोई वस्तु नहीं होती। इसी तरह र्दन के समर् भी, तमु जो भी “उन्नर्त” करते हो--वह भी ऐसी है।
मार्ा-सख ु ार्-तमु स्वप्न देखते हो र्क “इस र्वर्र् से मैं सख ु ी बनाँगू ा” र्ा “उस र्वर्र् से सख
ु ी बनाँगू ा” र्कन्तु परू ी र्वर्र् माि
स्वप्न है। तमु इस र्दवास्वप्न को सचाई मान रहे हो, क्र्ोंर्क इसकी अवर्र् दीघि है। रात में जब तमु स्वप्न देखते हो, तो
अवर्र् के वि आर्े घंटे की रहती है। र्कन्तु र्ह र्दवास्वप्न बारह घंटे र्ा इससे भी अर्र्क चिता है। र्ही अन्तर है। र्ह
बारह घटं े का स्वप्न है और वह आर्े घटं े का-िेर्कन वास्तव में दोनों ही स्वप्न हैं। चाँर्ू क एक बारह घटं े का स्वप्न है, अत:
तमु उसे असिी मान िेते हो। इसे मार्ा कहते हैं।
छाि : मार्ा !
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। तमु पशु तथा अपने बीच अन्तर करते हो, र्कन्तु र्ह भि ू जाते हो र्क र्जस तरह पशु मरे गा,
उसी तरह तम्ु हारी भी मृत्र्ु होगी। तो र्िर कहााँ है तुम्हारी उन्नर्त ? क्र्ा तमु सदा र्हीं रहोगे? तमु भी मरोगे। तो र्िर पशु से
बढ़कर तुम्हारी उन्नर्त कहााँ है? इसका कथन वैर्दक ग्रंथों में हुआ है। आहार-र्निाभर्–मैथनु सू च समानसोतत्
पशर्ु भनिराणास— ू खाना, सोना, र्ौन– जीवन तथा आत्मरिा करना-र्े पशु के भी कार्ि हैं और तमु भी वही कार्ि कर रहे
हो। तो तमु पशु से र्कस तरह र्भन्न हुए? तमु मर जाओगे, पशु भी मरे गा; र्कन्तु र्र्द तमु कहो, “मैं सी वषों के बाद मरूंगा
और र्ह चींटी एक घंटे बाद मरे गी।” तो इसका अथि र्ह नहीं है र्क तमु वास्तर्वकता में हो। र्ह तो समर् का प्रश्न है। र्ा

27 विषय-सूची
इस र्वशाि ब्रह्माण्ड को ही िो-र्ह र्वनष्ट हो जाएगा। र्जस तरह तुम्हारा शरीर र्वनष्ट हो जाएगा, उसी तरह र्ह ब्रह्माण्ड
भी र्वनष्ट होगा। संहार। र्विर्। प्रकृ र्त का र्वर्ान है र्क सारी वस्तएु ाँ र्विीन हो जाएाँगी।
अतएव र्ह स्वप्न है। बस, र्ह दीघि अवर्र् का स्वप्न है, इतना ही। और कुछ नहीं; िेर्कन इस मनष्ु र्-शरीर को
पाने का िाभ र्ह है र्क इस स्वप्न में तमु असर्िर्त र्ा सचाई की ईश्वर की-अनभु र्ू त कर सकते हो। र्ही िाभ है। अत:
र्र्द तमु इस स्वप्न का िाभ नहीं उठाते, तो तमु सारी वस्तओ ु ं को गवा देते हो।
छाि : तो क्र्ा मैं अर्िसिु ह?ाँ
श्रीि प्रभपु ाद: हााँ। र्स्थर्त र्ही है, अतएव वैर्दक ग्रंथ कहते हैं उर्ति–उठो ! उठो ! जाग्रत–जगो। प्राप्र् वरान्
र्नबोर्त–अब तम्ु हें सअ ु वसर र्मिा है, इसका उपर्ोग करो। तमसो मा ज्र्ोर्तरर्म-अंर्कार में मत रहो, प्रकाश में आओ।
र्े वैर्दक आदेश हैं। हम इसी बात की र्शिा दे रहे हैं।” असर्िर्त अथाित् कृ ष्ण र्हााँ हैं। इस अाँर्ेरे स्थान पर मत रहो। इस
उच्चतर चेतना को प्राि करो।”

28 विषय-सूची
अध्र्ार् आठ
मांसाहार का नीर्तशास्त्र
र्ह वाताििाप श्रीि भर्िवेदान्त स्वामी प्रभपु ाद तथा कार्डिनि र्जन डैनीिू के मध्र् अगस्त 1973 में पेररस में
हुआ।
श्रीि प्रभपु ाद : ईसा मसीह ने कहा, “तू वर् नहीं करे गा।” तो र्िर ऐसा क्र्ों है र्क ईसाई िोग पशहु त्र्ा करने तथा
मांसाहार करने में िगे हुए हैं?
कार्डिनि डैनीिू : वर् करना ईसाई र्मि में र्नर्ित रूप से मना है; र्कन्तु हमारा र्वश्वास है र्क मनष्ु र् के जीवन
तथा पश-ु जीवन में अन्तर है। मनष्ु र् का जीवन पर्वि है, क्र्ोंर्क मनष्ु र् को ईश्वर के आकार में बनार्ा गर्ा है; इसीर्िए
बाइबि में मनष्ु र् का वर् करना मना है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु बाइबि सीर्े से ऐसा तो नहीं कहती, “तू मनष्ु र् का वर् नहीं करे गा।” र्ह व्र्ापक दृर्ष्ट से
कहती है, “तू वर् नहीं करे गा।”
कार्डिनि डैनीिू : मनष्ु र् के र्िए पशओ ु ं का वर् करना आवश्र्क है, र्जससे उसे भोजन र्मि सके ।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। मनष्ु र् िि, शाक तथा अन्न खा सकता है और दर्ू पी सकता है।
कार्डिनि डैनीिू : मांस नहीं?
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। मनष्ु र् शाकाहारी भोजन करने के र्िए है। बाघ आपके िि खाने नहीं आता। उसका र्नर्त
भोजन पशु का मासं है; िेर्कन मनष्ु र् का भोजन शाक, िि, अन्न तथा दर्ू की बनी वस्तएु ाँ है। तो र्िर आप र्ह कै से
कह सकते हैं र्क पशु का वर् करना पाप नहीं है?
कार्डिनि डैनीिू : हम र्वश्वास करते हैं र्क र्ह ध्र्ेर् पर र्नभिर करता है। र्र्द पशु का वर् भख
ू े को भोजन प्रदान
करने के र्िए है, तो र्ह वैर् है।
श्रीि प्रभपु ाद : िेर्कन गार् पर र्वचार करें । हम उसका दर्ू पीते हैं, इसर्िए वह हमारी माता है। आप इसे मानते हैं
न?
कार्डिनि डैनीिू : हााँ अवश्र्।
29 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : तो र्र्द गार् आपकी माता है, तो आप उसके वर् का समथिन र्कस तरह कर सकते हैं? आप
उसका दर्ू र्नकािते हैं और जब वह बढ़ू ी हो जाती है तथा दर्ू नहीं दे सकती, तो आप उसका गिा काट देते हैं। क्र्ा र्ह
उसी मानवता का तकाजा है? भारत में जो मांसाहारी हैं, उन्हें सिाह दी जाती है र्क वे बकरी, सअ ू र जैसे र्नम्न पशओु ं
का र्ा तो भैंस का भी वर् करें । र्कन्तु गो-वर् तो सबसे बड़ा पाप है। कृ ष्णभावनामृत का प्रचार करते समर् हम िोगों से
र्ही कहते हैं र्क वे र्कसी तरह का मांस न खाएाँ और मेरे र्शष्र् तो इस र्नर्म का कठोरता से पािन करते हैं; र्कन्तु र्र्द
र्कन्हीं पररर्स्थर्तर्ों में अन्र्ों को मांस खाना पड़े, तो वे र्कसी र्नम्न पशु का मांस खाएाँ। वे गार्ों का वर् न करें । र्ह सबसे
बड़ा पाप है। मनष्ु र् जब तक पापी बना रहता है, तब तक वह ईश्वर को नहीं समझ सकता। मनष्ु र् का कतिव्र् है र्क ईश्वर
को समझे और उनसे प्रेम करे ; र्कन्तु र्र्द आप पापी बने रहते हैं, तो आप कभी भी ईश्वर को समझ नहीं सकें गे-उनसे प्र्ार
करना तो दरू रहा।
जब कोई अन्र् भोजन न र्मिे, तो भख ू ों मरने से बचने के र्िए कोई व्र्र्ि मांस खा सकता है। र्ह ठीक है; र्कन्तु
अपनी जीभ को तष्टु करने के र्िए र्नर्र्मत कसाईघर चिाना अत्र्न्त पापमर् है। वस्ततु : जब तक आप कसाईघर चिाने
की इस क्रूर प्रथा को बन्द नहीं कर देते, आप मानव समाज नहीं बना सकते। र्द्यर्प कभी-कभी पश-ु वर् जीर्वत रहने के
र्िए आवश्र्क हो सकता है; र्कन्तु कम से कम माता-रूपी पशु र्ानी गार् का वर् तो न र्कर्ा जार्। र्ह सहज मानवीर्
र्शष्टाचार है। कृ ष्णभावानामृत आन्दोिन में हमारी नीर्त र्ह है र्क हम र्कसी भी पशु का वर् र्कर्े जाने की अनमु र्त नहीं
देते। कृ ष्ण कहते हैं-पि पष्ु प िि तोर् र्ो से भक्त्र्ा प्रर्च्छर्त-”मझु े भर्िभाव से शाक, िि, दर्ू तथा अन्न अर्पित र्कर्े
जाएाँ।” (भगवद-् गीता 9.26) हम कृ ष्ण के भोजन का उर्च्छष्ट प्रसाद ही ग्रहण करते हैं। वृि हमें तरह-तरह के िि देते हैं,
िेर्कन वृिों को मारा नहीं जाता। र्नस्सन्देह, एक जीव दसू रे जीव का भोजन है, र्कन्तु इसका अथि र्ह तो नहीं र्क भोजन
के र्िए आप अपनी माता का वर् कर सकते हैं। गार्ें र्नरीह होती हैं; वे हमें दर्ू देती हैं। आप उनका दर्ू दहु ते हैं और
बाद में आप कसाईघर में उन्हें मार डािते हैं। र्ह पापकमि है।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, ईसाई र्मि में मांसाहार की अनमु र्त इस दृर्ष्टकोण पर आर्ाररत है र्क र्नम्न जीव-र्ोर्नर्ों में
मनष्ु र्ों की तरह आत्मा नहीं होती।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह तो मख ू िता है। सविप्रथम हमें शरीर के भीतर आत्मा की उपर्स्थर्त के प्रमाण को समझना होता
है। तब हम देख सकते हैं र्क क्र्ा मनष्ु र् में आत्मा है और गार् में नहीं। गार् तथा मनष्ु र् के र्वर्भन्न गणु क्र्ा हैं? र्र्द हमें
गणु ों में अन्तर र्मिे, तो हम कह सकते हैं र्क पशु में आत्मा नहीं होती। र्कन्तु र्र्द हम देखें र्क मनष्ु र् तथा पशु में एक-से
गणु हैं, तो हम र्ह कै से कह सकते हैं र्क पशु के आत्मा नहीं होता ? सामान्र् ििण र्े हैं र्क पशु खाता है आप खाते हैं,
पशु सोता है आप सोते हैं, पशु संभोग करता है आप संभोग करते हैं, पशु आत्मरिा करता है आप आत्मरिा करते हैं। तो
अन्तर कहााँ रहा ?
30 विषय-सूची
कार्डिनि डैनीिू : हम स्वीकार करते हैं र्क पशु में मनष्ु र् सरीखा जैव शरीर है, र्कन्तु आत्मा नहीं होता। हमारा
र्वश्वास है र्क आत्मा तो मानव-आत्मा है।
श्रीि प्रभपु ाद : हमारी भगवद-् गीता कहती है सविर्ोर्नषु — “सभी र्ोर्नर्ों में आत्मा र्वद्यमान है।”
कार्डिनि डैनीिू : र्कन्तु मनष्ु र् जीवन पर्वि है। मनष्ु र् पशओु ं की अपेिा अर्र्क उच्च स्तर पर सोचते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : वह उच्चतर स्तर क्र्ा है? पशु अपने शरीर को बनार्े रखने के र्िए खाता है और आप भी अपने
शरीर के पािन हेतु भोजन करते हैं। गार् खेत में घास चरती है और मनष्ु र् आर्र्ु नक मशीनों से खचाखच भरे र्वशाि
कसाईघर से मांस िाकर खाता है। िेर्कन इसका मतिब र्ह नहीं र्क चाँर्ू क आपके पास बड़ी-बड़ी मशीनें हैं और बीभत्स
दृश्र् है, जबर्क पशु के वि घास खाता है तो आप इतने बढ़े-चढ़े हैं र्क आपके शरीर के भीतर ही आत्मा है और पशु के
शरीर के भीतर आत्मा नहीं है। र्ह तकि र्वरुि है। हम देख सकते हैं र्क पशु तथा मनष्ु र् में मि ू भतू गणु एकसरीखे हैं।
कार्डिनि डैनीिू : र्कन्तु एकमाि मनष्ु र्ों में जीवन के अथि हेतु आध्र्ार्त्मक खोज पाई जाती है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। तो र्िर आप इसकी आध्र्ार्त्मक दृर्ष्ट से खोज कीर्जर्े र्क आप ऐसा र्वश्वास क्र्ों करते हैं
र्क पशु के भीतर आत्मा नहीं है-र्ह है आध्र्ार्त्मक। र्र्द आप आध्र्ार्त्मक दृर्ष्ट से सोच रहे हैं, तो र्ह ठीक है; र्कन्तु
र्र्द आप पशु की तरह सोच रहे हों, तो आपके आध्र्ार्त्मक अध्र्र्न से क्र्ा िाभ? आध्र्ार्त्मक का अथि है, “भौर्तक
से परे ।” भगवद-् गीता में कृ ष्ण कहते हैं, सवर्ोर्नषु कौन्तेर्-प्रत्र्ेक प्राणी में आत्मा है। र्ही है आध्र्ार्त्मक समझ।

31 विषय-सूची
अध्र्ार् नौ
स्त्री स्वातन््र्
र्ह वाताििाप जुिाई 1975 में श्रीि प्रभपु ाद तथा एक मर्हिा संवाददाता के बीच र्शकागो के हरे कृ ष्ण के न्ि में
हुआ।
सवं ाददाता : जो मर्हिाएाँ परुु षों के अर्ीन नहीं रहना चाहतीं, उनके र्िए आपकी क्र्ा सिाह है ?
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह मेरा मत नहीं, अर्पतु वैर्दक ग्रन्थों का उपदेश है र्क स्त्री को पर्तव्रता तथा अपने पर्त के प्रर्त
आज्ञाकाररणी होना चार्हए।
सवं ाददाता : हमें सर्ं ि ु राज्र् में क्र्ा करना चार्हए? हम मर्हिाओ ं को परुु षों के समान बनाने का प्रर्ास कर रही
हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : आप कभी भी परुु षों के तल्ु र् नहीं हो सकें गी, क्र्ोंर्क कई प्रकार से आपके कार्ि र्भन्न हैं। आप
कृ र्िम रूप से क्र्ों कहती हैं र्क र्े र्स्त्रर्ााँ परुु षों के समान हैं? पत्नी को गभिर्ारण करना पड़ता है, पर्त को नहीं। आप इसे
कै से बदि सकती हैं? क्र्ा र्ह सम्भव है र्क पर्त-पत्नी दोनों गभिर्ारण करें ?
संवाददाता : (कोई उत्तर नहीं) ।
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ा र्ह सम्भव है?
सवं ाददाता : नहीं। र्ह सम्भव नहीं।
श्रीि प्रभपु ाद : तब स्वभावत: एक को दसू रे से पृथक् रीर्त से कार्ि करना होता है।
संवाददाता : तो इसका र्ह अथि क्र्ों र्िर्ा जाता है र्क र्स्त्रर्ों को अर्ीन (आर्श्रत) रहना है-र्सिि इसर्िए र्क वे
बच्चे पैदा करती हैं और परुु ष नहीं कर सकते?
श्रीि प्रभपु ाद : स्वभावत: ज्र्ोंही आपको बच्चा हो जाता है, आपको अपने पर्त का सहारा चार्हए। अन्र्था
आप कर्ठनाई में पड़ जाती हैं।
सवं ाददाता : बच्चेवािी बहुत सी मर्हिाओ ं को उनके पर्त का सहारा नहीं र्मिता।

32 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : तब उन्हें दसू रों का सहारा िेना पड़ता है। आप इससे इनकार नहीं कर सकतीं। उन्हें सरकार सहारा
देती है। आजकि सरकार परे शान है। र्र्द पर्त अपनी पत्नी तथा बच्चों का सहारा बने, तो सरकार बहुत से कल्र्ाणकार्ि
के व्र्र् से बच जार्। तो र्ह एक समस्र्ा है।
संवाददाता : तब क्र्ा होता है, जब मर्हिाएाँ परुु षों का सहारा बनती हैं ?
श्रीि प्रभपु ाद : सविप्रथम र्ह समझने का प्रर्त्न करें र्क आप आर्श्रत हैं। जब परुु ष तथा स्त्री सर्ं ि ु होते हैं तो
बच्चे होते हैं। और र्र्द परुु ष चिा जाता है तो आप परे शानी में पड़ती हैं स्त्री परे शानी में पड़ती है। क्र्ों? बेचारी स्त्री बच्चे
को िेकर परे शानी में पड़ती है-उसे सरकार से र्ाचना करनी पड़ती है। तो क्र्ा आपको िगता है र्क र्ह अच्छा है ?
वैर्दक र्वचार र्ह है र्क स्त्री का र्ववाह परुु ष से र्कर्ा जार् और परुु ष उस स्त्री तथा बच्चों की देखभाि करे -स्वतन्ि रूप
से-र्जससे वे सरकार र्ा जनता पर बोझ न बनें।
सवं ाददाता : क्र्ा आप सोचते हैं र्क सामार्जक अशार्न्त...
श्रीि प्रभपु ाद : मैं इस तरह सोच रहा ह।ाँ आप मझु े इसका जवाब दें! आप तो िगातार प्रश्न ही करती जा रही हैं।
अब मैं आप से प्रश्न करूंगा। क्र्ा आप सरकार तथा जनता पर इस बोझ को ठीक समझती हैं ?
संवाददाता : मैं समझ नहीं पा रही र्क आप क्र्ा कह रहे हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : प्रर्तवषि सरकार को आर्श्रत बच्चों की सहार्ता के र्िए िाखों डािर व्र्र् करने पड़ते हैं। जब
पर्त अपनी पत्नी से दरू चिा जाता है, तो इस तरह का जो बोझ सरकार तथा जनता पर पड़ता है, क्र्ा उसे आप अच्छा
समझती हैं?
सवं ाददाता : नहीं।
श्रीि प्रभपु ाद : ऐसा इसर्िए हुआ है, क्र्ोंर्क स्त्री को अर्ीनता स्वीकार नहीं। वह “समान स्वतन्िता” चाहती
है।
सवं ाददाता : और र्र्द र्स्त्रर्ााँ परुु षों के अर्ीन हों, तो क्र्ा उससे हमारी सारी समस्र्ाएाँ हि हो जाएाँगी ?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। पर्त चाहता है र्क उसकी पत्नी अर्ीन रहे-उसके प्रर्त आज्ञाकाररणी रहे। तब वह भार उठाने
के र्िए तैर्ार है। परुु ष की मनोवृर्त्त तथा स्त्री की मनोवृर्त्त र्भन्न-र्भन्न होती है। र्र्द स्त्री परुु ष की आज्ञाकाररणी तथा
उसके अर्ीन रहना स्वीकार करती है, तो पाररवाररक जीवन शार्न्तपणू ि होगा। अन्र्था पर्त चिा जाता है, स्त्री बच्चों से
परे शान रहती है और र्ह सब सरकार तथा जनता पर बोझ बन जाता है।
संवाददाता : जब कोई स्त्री काम करने िगती है, तो क्र्ा इसमें कोई बरु ाई है?

33 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : ऐसी अनेक बातें हैं जो बरु ी हैं, र्कन्तु पहिी बात र्ह है र्क र्कसी परुु ष की पत्नी तथा बच्चे
सरकार र्ा जनता पर भार क्र्ों बनें? सविप्रथम आप इसका उत्तर दें। वह भार क्र्ों बने ?
संवाददाता : (कोई उत्तर नहीं)
श्रीि प्रभपु ाद : आपका उत्तर क्र्ा है?
संवाददाता: परुु ष भी सरकार पर बोझ होते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ा आप सामार्जक दृर्ष्टकोण से र्ह सोचती हैं र्क र्स्त्रर्ों तथा र्पतृर्वहीन बािकों की र्ह
र्स्थर्त बहुत अच्छी बात है?
संवाददाता : मैं जो कहना चाह रही हाँ वह र्ह है र्क. ऐसा कुछे क र्स्त्रर्ों के साथ हो सकता है. मैं तो उन र्स्त्रर्ों की
बात
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह सामान्र् प्रवृर्त्त है। आप “कुछ” नहीं कह सकतीं। अमरीका में मैं देखता हाँ र्क अर्र्काश ं तर्ा
र्स्त्रर्ााँ ही हैं जो । स्त्री को पर्त के अर्ीन होना चार्हए, र्जससे परुु ष रुिी का भार अपने ऊपर िे सके । तब स्त्री जनता के
र्िए कोई समस्र्ा नहीं बनती।
संवाददाता : क्र्ा र्ह सारी र्स्त्रर्ों तथा सारे परुु षों के र्िए सत्र् ?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। र्ह प्रकृ र्त का र्नर्म है। आप कुत्तों को ही िें। वे भी अपने बच्चों की देखरे ख करते हैं। बाघ,
वे भी अपने बच्चों की देखरे ख करते हैं। अत: र्र्द मानव-समाज में स्त्री गभिवती हो जार् और मनष्ु र् चिा जार्, तो वह
कट में पड़ जाती है-उसे सरकार से र्ाचना करनी पड़ती है। र्ह बहुत अच्छी र्स्थर्त नहीं है।
संवाददाता : उन र्स्त्रर्ों के बारे में क्र्ा, र्जनके बच्चे नहीं होते? श्रीि प्रभपु ाद : र्ह तो दसू री अस्वाभार्वक
र्स्थर्त है। कभीकभी वे गभिर्नरोर्क सार्नों का इस्तेमाि करती हैं र्ा अपने बच्चों को मार डािती हैं-गभिपात कराती हैं।
र्ह भी बहुत अच्छी बात नहीं है। र्े सब पापकमि हैं।
सवं ाददाता : र्िर से कहें ?
श्रीि प्रभपु ाद : र्े पापकमि हैं-गभि में बच्चे का वर् और गभिपात कराना पापकमि है। इसके र्िए कष्ट भोगना पड़ता
है।
संवाददाता : क्र्ा इस देश में जो सामार्जक अशार्न्त है, वह
श्रीि प्रभपु ाद : इन्हीं कारणों से। िोग इसे नहीं जानते।

34 विषय-सूची
अध्र्ार् दस
आप सवोपरर नहीं हैं
र्ह वाताििाप वृन्दावन (भारत में र्सतम्बर 1975) में श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके कुछ र्शष्र्ों के बीच प्रात: कािीन
भ्रमण के समर् हुआ।
श्रीि प्रभपु ाद : जीव तथा भगवान् कृ ष्ण दोनों ही चेतना से ओत-प्रोत हैं। जीव की चेतना उसके भीतर रहती है,
र्कन्तु कृ ष्ण की चेतना सविि व्र्ाि रहती है। र्ही अन्तर होता है।
र्शष्र् : मार्ावादी (र्नर्विशेषवादी) कहते हैं र्क मि ु हो जाने पर हम भी सविि व्र्ाि हो जाएाँगे। हम ब्रह्म में र्मि
जाएाँगे और अपनी व्र्र्ष्ट पहचान खो देंगे।
श्रीि प्रभपु ाद : इसका अथि र्ह हुआ र्क तमु सब कुछ भि ू जाओगे। तमु में जो थोड़ी बहुत चेतना थी, वह समाि
हो जाएगी।
र्शष्र् : र्कन्तु हम जो भी भि ू ेंगे वह तो वैसे भी मार्ा है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्र्द र्ही मर्ु ि (मोि) है, तो मैं अभी तम्ु हें मारे डािता ह।ाँ तमु सब कुछ भिू जाओगे-मर्ु ि र्मि
जाएगी। (ठहाके िगते हैं) (एक राहगीर र्हन्दी में गाता जा रहा है) र्ह मर्ु ि है-वह गा रहा है, “हे भगवान् कृ ष्ण! मैं कब
आपके चरणकमिों की शरण पाऊाँगा?” र्ह मर्ु ि है। र्जस तरह एक बािक जो अपने माता-र्पता के प्रर्त पणू ितर्ा
समर्पित होता है-वह मि ु होता है। उसे कोई र्चन्ता नहीं रहती। वह आश्वस्त रहता है, “मेरे मातार्पता र्हााँ हैं। वे जो भी
करते हैं, वह मेरे र्िए ठीक है। मझु े कोई नक ु सान नहीं पहुचाँ ा सकता।”
र्शष्र् : र्नर्विशेषवादी तो कहते हैं र्क समस्त कष्ट से छुटकारा पाना ही मर्ु ि है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, र्र्द तुम र्चन्ताओ ं से िदे पड़े हो, तो तम्ु हारी मर्ु ि कहााँ हुई?
र्शष्र् : वे कहते हैं र्क र्र्द हम ब्रह्म से एकाकार हो जाएाँ तो मर्ु ि प्राि हो जाती है।
श्रीि प्रभपु ाद : कृ ष्ण परम चेतना हैं। र्र्द आप अपनी चेतना खो दें, तो आप उनसे एकाकार कै से हो सकते हैं?
र्शष्र् : पणू ि रूप से ऐसा नहीं है र्क हम अपनी चेतना खो देते हैं, अर्पतु हम परम चेतना में र्विीन हो जाते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : इसका अथि र्ह हुआ र्क तमु ईश्वर बनना चाहते हो। र्कन्तु इस समर् तमु ईश्वर से र्भन्न क्र्ों हो?
35 विषय-सूची
र्शष्र् : र्ह तो मेरी िीिा है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु र्र्द र्ह तम्ु हारी िीिा है, तो तुम मर्ु ि पाने के र्िए इतनी तपस्र्ा क्र्ों कर रहे हो?
र्शष्र् : बात र्ह है र्क परम चेतना अशरीरी है; र्कन्तु हम इस समर् देहर्ारी हैं। अत: जब हम परम चेतना को
प्राि कर िेंगे तो हम भी अशरीरी बन जाएाँगे।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु र्र्द तमु सवोपरर हो, तो तुम देहर्ारी कै से बने? तुम्हें शरीरर्ारी र्कसने बनार्ा? तम्ु हें
शरीरर्ारी बनना पसन्द नहीं-शरीर से इतने कष्ट र्मिते हैं-इसर्िए तमु मर्ु ि चाहते हो; र्कन्तु र्जस र्कसी ने तम्ु हें
शरीरर्ारी बनार्ा-वे परम हैं। तमु परम नहीं हो।
र्शष्र् : मैं अपने आप को मार्ा में रखता ह,ाँ र्जससे मैं मि ु बनने का आनन्द पा सकंू ।
श्रीि प्रभपु ाद : भिा कोई र्वज्ञ व्र्र्ि क्र्ों अपने को ऐसी र्स्थर्त में रखेगा, र्जसमें वह जन्म, मृत्र्,ु जरा तथा
व्र्ार्र् के रूप में भौर्तक प्रकृ र्त द्वारा बारम्बार िर्तर्ार्ा जार्? इसमें क्र्ा आनन्द है ?
र्शष्र् : र्बना कष्ट के आप आनन्द का अनभु व कै से कर सकते ?
श्रीि प्रभपु ाद : तो मझु े तम्ु हें िर्तर्ाने दो, और जब मैं रुक जाऊाँगा, तब तमु आनन्द का अनभु व करना।
र्शष्र् : भाव र्ह है र्क इस जगत् में कष्ट का अनभु व करने के बाद मर्ु ि अत्र्न्त मर्रु िगेगी।
श्रीि प्रभपु ाद : िेर्कन कट क्र्ों होता है? र्र्द तमु सवोपरर हो, तो तुम्हारे र्िए कुछ भी कष्ट क्र्ों है? र्ह क्र्ा
बेहदगी है”कष्ट तो मेरी िीिा है?” र्शष्र् : कष्ट तो उनके र्िए है, जो र्ह नहीं समझते र्क वे ब्रह्म हैं। वे ही कष्ट पाते हैं,
िेर्कन मैं नहीं।
श्रीि प्रभपु ाद : तब तो तमु कूकरों-सक ू रों के समान ही हो। वे र्ह नहीं समझते र्क र्ह कष्ट है। र्कन्तु हम समझते
हैं। इसर्िए मार्ावादी मढ़ू हैं-र्तू ि तथा मख ू ि हैं-जो र्ह भी नहीं जानते र्क कष्ट क्र्ा है र्ा आनन्द क्र्ा है। मढू ोऽर्ं
नार्भजानार्त मामेभ्र्ुः परम् अव्र्र्म/् (भगवद-् गीता 7.25) कृ ष्ण कहते हैं, “मख ू ि तथा र्तू ि र्ह नहीं जानते र्क मैं परम
परुु ष ह।ाँ ”
इसर्िए अनेक जन्मों तक कष्ट सहने तथा बेहदा बातें करने के बाद र्जसे असिी ज्ञान हो जाता है, वह कृ ष्ण की
शरण में आता है ( बहनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते ) । (भगवद-् गीता 7.19) ज्ञान र्ह है। जब कोई व्र्र्ि र्ह जान
िेता है र्क, “मैंने के वि कष्ट पार्ा है और मैंने शब्दजाि से अपने आपको र्ोखा र्दर्ा है,” तब वह कृ ष्ण की शरण में
जाता है।
र्शष्र् : तो मार्ावाद दशिन वस्ततु : सबसे बड़ा भ्रम है?

36 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। मार्ावादी भाष्र् शर्ु निे हर्। सविनाश (चैतन्र् चररतमृर्त 6.169)-”जो कोई मार्ावादी दशिन
को अपनाता है, वह नष्ट हो जाता है।” वह र्वनाशोन्मुख हो जाता है। वह उस र्मथ्र्ा दशिन में भ्रष्ट हो जाएगा और असिी
दशिन को कभी स्वीकार नहीं कर पार्ेगा। मार्ावादी अपरार्ी हैं। इसर्िए वे सदा-सदा अज्ञान में रहेंगे और अपने आप को
ईश्वर समझते रहेंगे। वे खि ु ा प्रचार करते हैं, “तमु र्ह क्र्ों सोचते हो र्क तमु पापी हो ? तमु ईश्वर हो।”
र्शष्र् : ईसाइर्ों में पाप की र्ारणा है। जब मार्ावादी अमरीका गर्े, तो उन्होंने ईसाइर्ों से कहा, “तमु इस पाप
भावना को भि ू जाओ। तमु जो भी करते हो वह सब ठीक है, क्र्ोंर्क तमु ईश्वर हो।”
श्रीि प्रभपु ाद : ईसाई पादररर्ों को मार्ावादी दशिन अच्छा नहीं िगा। मार्ावादी नार्स्तक होते हैं, बौिों से भी
बढ़कर। बौिजन वैर्दक प्रमाण को नहीं मानते। इसर्िए वे नार्स्तक माने जाते हैं। र्कन्तु र्े मार्ावादी र्तू ि वेदों को मानते
हैं और र्िर भी नार्स्तकता का प्रचार करते हैं। इसर्िए वे बौिों की अपेिा अर्र्क खतरनाक हैं। बौि र्द्यर्प नार्स्तक
समझे जाते हैं, तो भी र्े भगवान् बि ु को पजू ते हैं। बि ु कृ ष्ण के अवतार हैं, इसर्िए एक न एक र्दन उनका उिार हो
जाएगा; र्कन्तु मार्ावार्दर्ों का उिार कभी नहीं होगा।
भगवद-् गीता (1866) में कृ ष्ण हमें आश्वस्त करते हैं, “मेरी शरण में आओ और मैं तम्ु हें सारे सक ं टों से मि
ु कर
दगाँू ा।” और हम कृ ष्ण को स्वीकार करते हैं। बस। हमारी र्वर्र् अत्र्न्त आसान है। बािक चिने की कोर्शश करता है,
र्कन्तु वह नहीं चि पाता। वह िड़खड़ाता है। र्पता कहता है, “बच्चे! मेरा हाथ पकड़ िो।” तब वह बािक सरु र्ित हो
जाता है।
र्े मार्ावादी-जन ईश्वर के िै सिे के र्वरुि चिते हैं। ईश्वर कहते हैं, “सारे जीव मेरे र्वर्भन्नांश हैं।” और मार्ावादी
कहते हैं, “मैं ईश्वर ह।ाँ ” र्ही उनकी मख ू िता है। र्र्द वे ईश्वर के तल्ु र् होते, तो ईश्वर र्ह क्र्ों कहते, “मेरी शरण में आओ?”
वे ईश्वर नहीं हैं। वे र्नरे र्तू ि हैं, जो अपने को ईश्वर के तल्ु र् होने का दावा करते हैं, क्र्ोंर्क वे उसकी शरण में नहीं जाना
चाहते।
तो र्ह ज्ञान र्क “मझु े ईश्वर की शरण में जाना चार्हए” अनेकानेक जन्मों के बाद ही आता है। तब मनष्ु र् र्ह व्र्थि
का शब्दजाि त्र्ाग देता है और कृ ष्णभावना में असिी मर्ु ि पाता हैं ।

37 विषय-सूची
अध्र्ार् ग्र्ारह
कमि र्कस तरह पजू ा बन सकता है
र्ह वाताििाप जनू 1974 में जेनेवा में प्रात:कािीन भ्रमण के समर् श्रीि प्रभपु ाद एवं उनके कर्तपर् र्शष्र्ों के
बीच हुआ ।
र्शष्र् : जब भगवद-् गीता में कृ ष्ण कहते हैं र्क हमें र्नष्काम (इच्छारर्हत) होना चार्हए, तो वे क्र्ा कहना चाहते
हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : वे र्ह कहना चाहते हैं र्क हमें के वि उनकी सेवा करने की ही इच्छा करनी चार्हए। श्री चैतन्र्
महाप्रभु ने कहा हैं – न र्नं न जनं न सन्ु दरीं कर्वतां वा जगदीश कामर्े- “मैं र्न नहीं चाहता, मैं अनर्ु ार्ी नहीं चाहता, मैं
सन्ु दर र्स्त्रर्ााँ नहीं चाहता।” तो वे क्र्ा चाहते हैं?”मैं कृ ष्ण की सेवा करना चाहता ह।ाँ ” वे र्ह नहीं कहते र्क, “मझु े र्ह नहीं
चार्हए, वह नहीं चार्हए। मैं शन्ू र् बनना चाहता ह।ाँ ” नहीं।
र्शष्र् : अबि भी कहता है र्क वह जानता है र्क उसे क्र्ा चार्हए, र्कन्तु वह कहता है, “मैं कृ ष्ण के र्बना ही
अच्छे पररणाम पा सकता ह।ाँ ”
श्रीि प्रभपु ाद : तब तो वह मख ू ि है, क्र्ोंर्क वह नहीं जानता र्क अच्छे पररणाम वास्तव में हैं क्र्ा। वह आज र्कसी
एक “अच्छे पररणाम” के र्िए श्रम कर रहा है, र्कन्तु कि वह कुछ और चाहेगा, क्र्ोंर्क मरने पर उसका शरीर बदिेगा।
कभी वह कुत्ते का शरीर र्ारण करे गा और दसू रा “अच्छा पररणाम” चाहेगा। कभी वह देवता का शरीर र्ारण कर सकता
है; र्िर वह कोई और “अच्छा पररणाम” चाहेगा। भ्रमताम् उपर्र्:- वह ब्रह्माण्ड में ऊपर-नीचे घमू ता रहता है, र्जस तरह
र्क-उसे क्र्ा कहते हैं ?
र्शष्र् : गोि चक्का।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। कभी वह ऊपर आता है और पनु : उसे नीचे आना पड़ता है तथा कुत्ते र्ा शक ू र का शरीर
र्ारण करना पड़ता है। ऐसा चिता रहता है-

ब्रह्माण्ड भ्रर्मते कोन भाग्र्वान् जीव।


38 विषय-सूची
गरुु -कृ ष्ण-प्रसादे पार् भर्ि-िता-बीज।।
“कई जन्मों तक ब्रह्माण्ड में ऊपर-नीचे घमू ने के बाद जो व्र्र्ि अत्र्न्त भाग्र्शािी होता है, वह गरुु तथा कृ ष्ण
की कृ पा से भर्िमर् जीवन को प्राि होता है।”(चैतन्र् चररतामृत, मध्र् 19.151)
र्शष्र्: तब तो अभत कहेगा, “हम भी अच्छी सेवा कर रहे हैं। आप भोजन बााँट रहे हैं और हम भी भोजन बााँट रहे
हैं। आप पाठशािाएाँ खोि रहे हैं और हम भी वही कर रहे हैं।”
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, र्कन्तु हम वे पाठशािाएाँ खोि रहे हैं, र्जनमें कृ ष्णभावना का ज्ञान र्दर्ा जाता है, जबर्क
आपकी पाठशािाएाँ मार्ा पढ़ाती हैं। समस्र्ा र्ह है र्क र्े र्तू ि भर्ि (भर्िमर् सेवा) तथा कमि (भौर्तक कार्िकिाप) के
अन्तर को नहीं समझ सकते। भर्ि कमि जैसी िगती है, र्कन्तु र्ह कमि नहीं है। भर्ि में हम भी कार्ि करते हैं, र्कन्तु कृ ष्ण
के र्िए करते हैं। र्ही अन्तर है।
उदाहरणाथि, अजिनु कुरुिेि र्ि ु में िड़ा, िेर्कन चाँर्ू क वह कृ ष्ण के र्िए िड़ा इसर्िए वह महान् भि माना
जाता है। कृ ष्ण ने उससे कहा- भिोऽर्स मे.... र्प्रर्ोऽर्स मे (भगवद्गीता 4.3)- “हे अजिनु , तमु मेरे र्प्रर् भि हो।” अजिनु ने
क्र्ा र्कर्ा? वह िड़ा, बस इतना ही; र्कन्तु वह कृ ष्ण के र्िए िड़ा। र्ही रहस्र् है। उसने र्ोिा के रूप में अपनी िड़ाकू
िमता नहीं बदिी, अर्पतु उसने अपनी मनोवृर्त्त बदिी। पहिे तो वह सोच रहा था, “मैं अपने स्वजनों को क्र्ों मारूं? मैं
र्िु भर्ू म छोड़ कर जंगि चिा जाऊाँ और सार्ु बन जाऊाँ।” र्कन्तु कृ ष्ण चाहते थे र्क वह र्ि ु करे , अतएव अन्त में उसने
उनकी शरण ग्रहण की और कृ ष्ण की सेवा के रूप में र्ि ु र्कर्ा। अपनी इर्न्िर्तृर्ि के र्िए नहीं, अर्पतु कृ ष्ण की
इर्न्िर्तृर्ि के र्िए।
र्शष्र् : तो क्र्ा भर्ि में भी इर्न्िर्तृर्ि होती है?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। एक कमी (भौर्तकतावादी) अपनी खदु की इर्न्िर्तृर्ि के र्िए कार्ि करता है, र्कन्तु भि
कृ ष्ण की इर्न्िर्तृर्ि के र्िए कार्ि करता है। अभत तथा भि के बीच र्ही अन्तर है। दोनों र्कस्सों में इर्न्िर्तृर्ि रहती ही
है, र्कन्तु जब आप र्नजी इर्न्िर्तृर्ि के र्िए कार्ि करते हैं, तो र्ह कम है और जब कृ ष्ण की इर्न्िर्तृर्ि के र्िए, तो वह
भर्क है। भर्ि तथा कमि एक से र्दखते हैं, िेर्कन उनकी गणु ता र्भन्न है।
दसू रा उदाहरण है गोर्पर्ों का व्र्वहार। कृ ष्ण सन्ु दर कुमार थे और गोर्पर्ााँ उनके प्रर्त आकृ ष्ट हुई थीं। वे उन्हें
अपना प्रेमी बनाना चाहती थीं और वे उनके साथ नृत्र् करने के र्िए अर्िरार्ि में अपने घरों से बाहर चिी गई थीं। अत:
ऐसा िगता है र्क उन्होंने पापकमि र्कर्ा हो, र्कन्तु ऐसा नहीं है, क्र्ोंर्क के न्ि र्बन्दु कृ ष्ण थे। इसीर्िए चैतन्र् महाप्रभु
संस्तर्ु त करते हैंरम्र्ा कार्चद् उपासना व्रजवर्वू गेर्ा र्ा कर्ल्पता-”कृ ष्ण की पजू ा करने की कोई भी र्वर्र् गोर्पर्ों द्वारा
अपनाई गई र्वर्र् से श्रेि नहीं है।”

39 विषय-सूची
र्कन्तु र्तू िजन सोचते हैं, “ओह! र्ह बहुत उत्तम है। कृ ष्ण तो दसू रों की पर्त्नर्ों के साथ अर्िरार्ि में नाचे, अत:
चिो हम भी कुछ िड़र्कर्ााँ एकि करके नाचें और कृ ष्ण की ही तरह आनन्द िें।” गोर्पर्ों के साथ कृ ष्ण की िीिाओ ं के
र्वषर् में र्ह र्नपट भ्रम है। इस भ्रम को रोकने के र्िए ही श्रीमिा/वत के रचर्र्ता श्रीि व्र्ासदेव ने कृ ष्ण के पणू ि परुु षोत्तम
भगवान् के पद का वणिन करने के र्िए श्रीमिा/वत के नौ स्कन्र्ों की रचना की। उसके बाद वे गोर्पर्ों के साथ कृ ष्ण के
व्र्वहार का वणिन करते हैं; र्कन्तु र्े र्तू िजन कूदकर तुरन्त ही दशम स्कन्र् में पहुचाँ जाते हैं, र्जसमें गोर्पर्ों के साथ कृ ष्ण
के व्र्वहारों का वणिन है। इस तरह वे सहर्जर्ा (कृ ष्ण के नकिची) बन जाते हैं।
र्शष्र् : क्र्ा ऐसे व्र्र्िर्ों के हृदर्ों में पररवतिन होगा, क्र्ोंर्क वे र्कसी न र्कसी रूप में कृ ष्ण से सम्बर्न्र्त रहते
हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। कंस भी कृ ष्ण से सम्बन्र् रखता था, र्कन्तु शिु के रूप में। र्ह भर्क नहीं है। भर्ि को
अनक ु ू ल्र्ेन कृ ष्णानश ु ीिनस-ू अनक ु ू ि होना चार्हए। न तो कृ ष्ण का अनक ु रण करना चार्हए, न ही उनको मार डािने का
प्रर्ास करना चार्हए। र्ह भी कृ ष्णभावना है, र्कन्तु र्ह अनक ु ू ि नहीं है; इसर्िए भर्ि नहीं है। तो भी कृ ष्ण के शिु मर्ु ि
पाते हैं, क्र्ोंर्क वे र्कसी न र्कसी रूप में कृ ष्ण का र्चन्तन करते रहे हैं। उन्हें र्नर्विशेष मर्ु ि र्मिती है, र्कन्तु उन्हें वैकुण्ठ
की कृ ष्णिीिाओ ं में प्रवेश नहीं करने र्दर्ा जाता। र्ह वरदान तो उनके र्िए ही सरु र्ित रहता है, जो कृ ष्ण की शि ु
प्रेमाभर्ि करते हैं।

40 विषय-सूची
अध्र्ार् बारह
ईसाई, साम्र्वादी तथा गो–हत्र्ारे
र्ह बातचीत श्रीि प्रभपु ाद ओर उनके कुछ र्शष्र्ों के बीच माचि 1975 में डल्िास में प्रात: कािीन भ्रमण के
समर् हुई।
श्रीि प्रभपु ाद : ईसाई िोग कहते हैं, “हम सभी तरह के पाप कर सकते हैं, िेर्कन ईसा मसीह हमारे पापों को
अपने ऊपर िे िेंगे। उनका हमसे समझौता हुआ है।” क्र्ा वे कुछ ऐसा नहीं कहते ?
र्शष्र् : हााँ।
श्रीि प्रभपु ाद : बेचारे ईसा को उन सबके पापकमों के र्िए भगु तना पड़ता है। वे कहते हैं, “वे हमें पाप से बचाना
चाहते थे, अतएव उन्होंने हमें आदेश र्दर्ा है र्क हमें इसकी परवाह नहीं करनी है र्क हम पाप करते हैं र्ा नहीं।” र्ह तो
छिावा है।
मेिबोनि में कुछ पादररर्ों ने मझु े व्र्ाख्र्ान के र्िए बि ु ार्ा था। उन्होंने मझु से प्रश्न र्कर्ा, “आप ऐसा क्र्ों सोचते
हैं र्क ईसाई र्मि मरु झा रहा है? हमने क्र्ा र्कर्ा है?” अत: मैंने उत्तर र्दर्ा, “आपने क्र्ा नहीं र्कर्ा है? आप दावा करते हैं
र्क आप िोग ईसा मसीह के अनर्ु ार्ी हैं, र्िर भी आप सभी तरह के पापकमि करते रहते हैं। अतएव आप िोगों को
तरु न्त ही इस छिावे को बन्द करना होगा।” वे इस उत्तर से बहुत प्रसन्न नहीं हुए।
वे पछू ते हैं, “हमने क्र्ा र्कर्ा है?” उन्होंने र्कतने सारे पापकमि र्कर्े हैं, िेर्कन वे मानने को तैर्ार नहीं र्क वे पापी
हैं। र्ह दम्भ है। अपने दस आदेशों में बाइबि स्पष्ट कहती है, “तू वर् नहीं करे गा।” र्कन्तु र्े िोग आज्ञा नहीं मानते। र्ह
पापपणू ि है।
र्े जानबझू कर पाप करने वािे हैं। र्र्द कोई अज्ञानवश पापकमि करे , तो उसके र्िए कुछ छूट हो सकती है, र्कन्तु
र्े जान बझू कर पापी हैं। र्े जानते हैं र्क गोवर् पापमर् है, र्िर भी र्े ऐसा करते हैं।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, अर्र्कांश ईसाई र्ह नहीं मानते र्क मांसाहार”पाप है।
श्रीि प्रभपु ाद : इसका अथि र्ह हुआ र्क बाइबि की गित व्र्ाख्र्ा करने के कारण र्े पादरी र्तू ि हैं। र्ह छिावा
र्मि के नाम पर चि रहा है। र्कन्तु ऐसे र्वचारों का प्रचार करने वािे र्कतने समर् तक अन्र्ों को ठगते रहेंगे? आप सारे

41 विषय-सूची
िोगों को कभी-कभी ठग सकते हैं और कुछ िोगों को सदा ठग सकते हैं, र्कन्तु सभी िोगों को आप सदैव नहीं ठग
सकते।
र्शष्र् : साम्र्वादी भी तकि करते हैं र्क ईसाई र्मि दम्भ है। वे कहते हैं र्क र्ह (र्मि) “िोगों के र्िए अिीम है”
इसर्िए वे इसे र्मटा देना चाहते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : साम्र्वार्दर्ों को ईसाई र्मि का बहुत बरु ा अनभु व है और उन्हें इसकी जानकारी नहीं है र्क र्मि
की आवश्र्कता होती ही है। इसर्िए वे सारे र्मों का सिार्ा करना चाहते हैं।
र्शष्र् : साम्र्वादी कहते हैं र्क संसार की समस्र्ाएाँ इतनी बड़ी हैं र्क जब तक िोग र्वश्व- सरकार के प्रर्त अपनी
र्निा नहीं र्दखाते, समस्र्ाएाँ हि नहीं की जा सकतीं।
श्रीि प्रभपु ाद : हम भी र्ही कहते हैं। कृ ष्ण परमेश्वर हैं, उनकी शरण ग्रहण करो और सारी समस्र्ाएाँ हि हो
जाएाँगी। हम भी र्ही र्शिा देते हैं।
र्शष्र् : िेर्कन साम्र्वादी इस बात से भटक गर्े हैं र्क कृ ष्ण को ही परमेश्वर स्वीकार र्कर्ा जाए।
श्रीि प्रभपु ाद : एकिे ईश्वर कृ ष्ण, आर सब भत्ू र्—”एकमाि स्वामी कृ ष्ण हैं। अन्र् सारे जन उनके दास हैं।” र्ही
भगवद-् गीता का के न्िीर् र्सिान्त है। इस र्सिान्त को स्वीकार कीर्जए, तो सब कुछ तरु न्त ठीक हो जाएगा।
र्र्द आप भगवद-् गीता का अभ्र्ास करें गे, तो आपको एक भी ऐसा शब्द नहीं र्मिेगा, र्जसका आप खंडन कर
सकें र्ा जो आपके र्िए शभु न हो। सम्पणू ि भगवद-् गीता व्र्ावहाररक हैमानव सभ्र्ता के र्िए अनक ु ू ि। सविप्रथम कृ ष्ण
र्ह र्शिा देते हैं र्क आप र्ह अवश्र् समझे र्क आप कौन हैं। आप शरीर नहीं हैं। आप शरीर के भीतर आत्मा हैं। इसे
कौन जानता है? भगवद-् गीता में कृ ष्ण र्ही पहिी र्शिा देते हैं। ज्र्ोंही आप समझ जाते हैं र्क आप शरीर नहीं अर्पतु
शरीर के भीतर हैं, तो आप समझ जाते हैं र्क आत्मा है क्र्ा। तब आपका आध्र्ार्त्मक ज्ञान आगे बढ़ता है, र्कन्तु र्े मढ़ू
र्ही नहीं जानते र्क आत्मा क्र्ा है। अत: उन्हें कोई आध्र्ार्त्मक ज्ञान नहीं है।
र्शष्र् : वे समझते हैं र्क गार्ों में आत्मा नहीं होती।
श्रीि प्रभपु ाद : वे र्ह कै से कह सकते हैं र्क गार्ों में आत्मा नहीं होती ? आपको आत्मा है। आपका शरीर
चिता-र्िरता है, ज्र्ोंही आपके शरीर से आत्मा चिी जाती है, शरीर मृत पदाथि हो जाता है। हाथ-पााँव तब भी वहााँ होते
हैं, िेर्कन वे कार्ि नहीं करें गे, क्र्ोंर्क आत्मा चिी गर्ी है।
तो र्िर गार् के शरीर तथा आपके शरीर में अन्तर ही क्र्ा है? मानवीर् तकि पर उतररर्े । क्र्ा आपके शरीर तथा
गार् के शरीर में कोई महत्वपणू ि अन्तर है?

42 विषय-सूची
र्शष्र् : नहीं। र्कन्तु अब तो वे र्हााँ तक कहने िगे हैं र्क मनष्ु र्ों में भी आत्मा नहीं होती। वे कहते हैं र्क चाँर्ू क
गार्ों के आत्मा नहीं होती, अत: हम गार् का भिण कर सकते हैं और चाँर्ू क मनष्ु र्ों में आत्मा नहीं होती ....
श्रीि प्रभपु ाद : ....तो आप बच्चे को गभि में ही मार सकते हैं। अज्ञान की प्रगर्त को सभ्र्ता की प्रगर्त माना जाता
है। क्र्ों? क्र्ोंर्क कोई आध्र्ार्त्मक ज्ञान नहीं रहा। (श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके र्शष्र् गोल्ि खेि रहे एक व्र्र्ि के समीप
से गजु रते हैं।)
र्शष्र् : वह व्र्र्ि सोचता है र्क वह कर्ठन कार्ि से र्नवृर्त्त िे चक ु ा है, र्कन्तु र्िर भी वह गेंद को छे द में डािने
के र्िए कर्ठन श्रम कर रहा है।
श्रीि प्रभपु ाद : वह और कर ही क्र्ा सकता है? वह नहीं जानता र्क एक अन्र् कार्ि भी है-आध्र्ार्त्मक जीवन।
र्ही उसका अज्ञान है।
जब न्र्र्ू ाकि में र्बजिी गि
ु हो गई, तो आाँकड़े बताते हैं र्क अर्र्क र्स्त्रर्ााँ गभिवती हो गई। िोग आाँर्ेरे में और
कर ही क्र्ा सकते थे ? “चिो संभोग करें ।” बस। आध्र्ार्त्मक ज्ञान के र्बना मनष्ु र् पशतु ल्ु र् हो जाते हैं।

43 विषय-सूची
अध्र्ार् तेरह
र्ौन तथा दुःु ख–भोग
र्ह वाताििाप जनवरी 1974 में कै िीिोर्निर्ा के के र्नस तट पर प्रात:कािीन भ्रमण के समर् श्रीि प्रभपु ाद तथा
उनके कर्तपर् र्शष्र्ों के मध्र् हुआ।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, र्हााँ कै िीिोर्निर्ा में तिाक की दर िगभग 50% है। आपके र्वचार में ऐसा क्र्ों है?
श्रीि प्रभपु ाद : “भारत में कहावत है र्क जो र्ववार्हत है वह पछताता है” और जो अर्ववार्हत है वह भी पछताता
है। र्ववार्हत व्र्र्ि पछताता है र्क, “मैंने क्र्ों र्ववाह र्कर्ा? मैं स्वतन्ि रह सकता था।” और जो र्ववार्हत नहीं है वह
पछताता है, “ओह! मैंने पत्नी क्र्ों नहीं स्वीकार की ? मैं सख ु ी रहा होता।” (ठहाके )
सभं ोग से र्शशु उत्पन्न होता है और र्शशु उत्पन्न होते ही कष्ट शरू ु हो जाता है। र्शशु को कष्ट होता है और माता-
र्पता भी उसकी देखरे ख करते हुए कष्ट पाते हैं। िेर्कन र्िर से उन्हें दसू री सन्तान आ जाती है। इसीर्िए श्रीमद्भागवत
(7.9.45) में कहा गर्ा है- तृष्र्र्न्त नेह कृ पण। बहु-द:ु ख-भाज: / इस सन्तान को उत्पन्न करने में इतनी अर्र्क कर्ठनाई
तथा मसु ीबत है; िेर्कन इसे जानते हुए भी मनष्ु र् पनु : सन्तान उत्पन्न करता है।
इस भौर्तक जगत् में र्ौन प्रमख ु सख ु है। र्ह प्रमखु सख ु है और र्ह अतीव गर्हतं भी है। र्ह सख ु क्र्ा है?
कर्डूर्नेन करर्ोररव द:ु खद:ु खम/ू र्ह खजु िी से छुटकारा पाने के र्िए दोनों हाथों को रगड़ने से उत्पन्न सख ु के समान
सख ु है। संभोग से अनेक बरु े िि उत्पन्न होते हैं, िेर्कन र्िर भी मनष्ु र् सन्तष्टु नहीं होता। अब तो गभिर्नरोर् के सार्न,
गभिपात—अनेक सार्न हैं। मार्ा अत्र्न्त प्रबि है। वह कहती है, “हााँ, इसे करो और इसमें उिझ जाओ।”
इसर्िए भागवत में कहा गर्ा है-“कण्डूर्तवन्सनर्सज र्वषहेत र्ीर”-जो मनष्ु र् र्ीर है, वह र्ौन कामना की इस
खजु िाहट को सहता है। जो व्र्र्ि इस खजु िाहट को सह सकता है, वह कई मसु ीबतों से बच जाता है; र्कन्तु जो नहीं
सह पाता, वह उसमें तरु न्त िंस जाता है। र्ौन चाहे वैर् हो र्ा अवैर्, है कष्टप्रद।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, हम इर्र पहिी बार घमू ने आर्े हैं। हर वस्तु र्भन्न तथा नई िगती है।

44 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : (हाँसते हैं) र्ह भौर्तक जीवन है। कभी हम इर्र घमू ते हैं, कभी उर्र और सोचते हैं, “र्ह नर्ा है।”
“ब्रह्माण्ड भ्रर्मते”-हम कुछ न कुछ नर्ा खोजने के प्रर्ास में सारे ब्रह्माण्ड में घमू रहे हैं; िेर्कन कुछ भी नर्ा नहीं है; सब
कुछ परु ाना है।
जब मनष्ु र् बढ़ू ा हो जाता है तो सामान्र्तर्ा सोचता है, “ओह! र्ह जीवन इतना कष्टप्रद है!” अत: उसे बदि कर
नर्ा शरीर अथाित् बच्चे का शरीर र्ारण करने की अनमु र्त दे दी जाती है। बच्चे की देखरे ख की जाती है और वह सोचता
है, “अब मझु े इतना आरामदेह जीवन र्मि गर्ा है।” र्कन्तु पनु : वह बढ़ू ा होता है और खीज उठता है। अत: कृ ष्ण इतने
दर्ािु हैं र्क वे कहते हैं, “ठीक, तमु अपना शरीर बदि िो।” र्ह है पनु : पनु चर्वितचवणानाम-् चबार्े हुए को चबाना।
कृ ष्ण जीव को अनेक सर्ु वर्ाएाँ देते हैं, “िो, वृि बन जाओ। िो, सााँप बनो। िो, देवता बनो। िो, राजा बनो; मोची बनो।
स्वगि जाओ, नरक जाओ।” अनेकानेक वैर्वध्र्पणू ि जीवर्ोर्नर्ााँ हैं, िेर्कन इन सब में जीव इसी भौर्तक जगत् में हुसाँ ा
रहता है। वह स्वतन्िता की ताक में रहता है; र्कन्तु उसे र्ह ज्ञान नहीं रहता र्क स्वतन्िता एकमाि कृ ष्ण की शरण में र्मि
सकती है। इसे वह अपनार्ेगा नहीं।
इस भौर्तक जगत् के कष्ट को देखते हुए मार्ावादी (र्नर्विशेषवादी) जीवन को र्वर्वर्तार्वहीन (र्नर्विशेष) बनाना
चाहते हैं और बौि-जन इसे शन्ू र् बनाना चाहते हैं (शन्ू र्वादी)। र्कन्तु इनमें से कोई भी प्रस्ताव सम्भव नहीं। आप कुछ
काि तक र्वर्वर्तारर्हत रह सकते हैं; िेर्कन पनु : आप पररवतिन चाहेंगे। बड़े बड़े संन्र्ासी ब्रह्म सत्र् जगर्न्मथ्र्ा (ब्रह्म
सत्र् है, र्ह जगत् झठू ा है) का इतना प्रचार करते हैं, र्कन्तु वे पनु ुः राजनीर्तक तथा सामार्जक कार्ि करने के र्िए ब्रह्म से
बहुत नीचे चिे आते हैं। वे दीघिकाि तक ब्रह्म में नहीं रह सकते, अतएव उन्हें र्ह भौर्तक र्वर्वर्ता स्वीकार करनी
पड़ती हैं; क्र्ोंर्क र्वर्वर्ता ही भोग की जननी है। इसर्िए हमारा प्रस्ताव र्ह है : असिी र्वर्वर्ता कृ ष्णभावनामृत-को
प्राि होइर्े। तभी आपका जीवन सिि होगा।
र्शष्र् : अर्र्कांश िोग इस जीवन में इतना अर्र्क आनन्द िेने का प्रर्ास कर रहे हैं र्क वे अगिे जीवन के
र्वषर् में सोचते तक नहीं।
श्रीि प्रभपु ाद : वे नहीं जानते र्क अगिा जीवन क्र्ा होगा; इसर्िए वे इसे शन्ू र् बना देते हैं। वे कहते हैं र्क
अगिा जीवन होता ही नहीं और इस तरह वे सतं ष्टु रहते हैं। जब खरगोश कोई खतरा देखता है, तो वह आाँखें मंदू िेता है
और सोचता है र्क अब कोई खतरा नहीं है। र्े मढ़ू उसी तरह हैं। र्ह र्नपट अज्ञान है।
र्शष्र् : एक प्रकार का दशिन है, जो स्टोइकवाद (stoicism) कहिाता है, र्जसके अनसु ार र्ह जीवन कष्ट के
र्िए है, अत: मनष्ु र् को अत्र्न्त बर्िि बनना चार्हए और बहुत अर्र्क कष्ट भोगने चार्हए।
श्रीि प्रभपु ाद : तो उनका र्वचार है र्क जो र्बना र्कसी र्वरोर् के कष्ट सह सकता है, वह उच्चकोर्ट का व्र्र्ि है।
ऐसे दशिन में र्वश्वास करने का अथि र्ह होता है र्क मनष्ु र् र्ह नहीं जानता र्क कष्ट को कै से रोका जा सकता है। दाशिर्नकों
45 विषय-सूची
का एक वगि कहता है र्क चाँर्ू क कष्टों को नकारा नहीं जा सकता, इसर्िए हमें उन्हें सहने के र्िए प्रबि होना चार्हए। दसू रे
वगि के दाशिर्नक कहते हैं र्क चाँर्ू क जीवन कष्टमर् है; अत: हमें जीवन को शन्ू र् कर देना चार्हए; र्कन्तु इनमें से र्कसी भी
वगि को र्ह जानकारी नहीं है र्क ऐसा असिी जीवन भी होता है, र्जसमें कष्ट नहीं होता। र्ही कृ ष्णभावनामृत है। वहााँ
जीवन तो है, र्कन्तु कष्ट नहीं होता। आनन्दमर्ोऽभ्र्ासि-ू के वि आनन्द। नाचना, खाना तथा कीतिन करना, िेर्कन कोई
कष्ट नहीं। क्र्ा कोई इससे इनकार करे गा? क्र्ा कोई है ऐसा मख ू ि?
र्शष्र् : िोग इनकार करते हैं र्क ऐसा जीवन भी होता है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु कल्पना कीर्जर्े र्क ऐसा जीवन है, जहााँ आप के वि नाच, गा तथा अनन्त काि तक
सख ु पवू िक रह सकते हैं। क्र्ा आप इसे स्वीकार करना नहीं चाहेंगे?
र्शष्र् : इसे कोई भी स्वीकार करना चाहेगा। िेर्कन िोग सोचते हैं र्क इसका अर्स्तत्व नहीं है।
श्रीि प्रभपु ाद : इसर्िए हमारा पहिा सझु ाव र्ह होना चार्हए र्क इस तरह का जीवन है, र्जसमें के वि सख ु है,
कष्ट तर्नक भी नहीं है। हर व्र्र्ि कहेगा “हााँ मैं इसे चाहगाँ ा।” वे इसे स्वीकार करें गे। दभु ािग्र्वश िोग बारम्बार ठगे जाते रहे
हैं, इसर्िए वे सोचते हैं र्क र्ह एक और ठगी है। इसर्िए कृ ष्णभावनामृत के प्रचार का अथि िोगों को र्ह आश्वस्त करना
है र्क सख ु से भरापरू ा जीवन भी है, र्जसमें कष्ट नहीं है।
र्शष्र् : वे र्कस तरह आश्वस्त होंगे र्क उन्हें हमारे द्वारा ठगा नहीं जा रहा ?
श्रीि प्रभपु ाद : उन्हें हमारे मर्न्दर में आने तथा हमारे भिों को देखने के र्िए आमंर्ित करें । हम सन्ु दर ढंग से
कीतिन करते हैं, नाचते हैं और खाते हैं। र्ही व्र्ावहाररक प्रमाण है।
र्शष्र् : र्कन्तु क्र्ा मनष्ु र् को इन वस्तओ
ु ं की अनभु र्ू त होने के पवू ि शि
ु नहीं होना होगा?
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। हम कहते हैं, “आओ और हमारे साथ हरे कृ ष्ण का कीतिन करो। आप शि ु हो जाओगे। हम
आपसे कुछ नहीं चाहते। हम आपको भोजन देंगे, हम आपको हर वस्तु देंगे। के वि आओ और हमारे साथ कीतिन करो।
बस।” र्ह हमारा संदश े है।

46 विषय-सूची
अध्र्ार् चौदह
प्रौद्योर्गकी तथा बेरोजगारी
र्ह वाताििाप जनू 1974 में जेनेवा में श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके एक र्शष्र् के मध्र् हुआ ।
र्शष्र् : एक राजनेता ने भारत में अपने हाि के भाषण में कहा है र्क 80% भारतीर् िोग गााँवों में रहते हैं। उसका
प्रस्ताव था र्क खेतों पर प्रौद्योर्गकी को बढ़ावा र्दर्ा जार्। हाथ से गेहाँ की िसि काटने के बजार् िोगों के पास
मोटरचार्ित हावेस्टर (िसि काटने वािे र्न्ि) होंगे और वे हि को बैिों से न र्खचवा कर रैक्टर का इस्तेमाि करें गे।
श्रीि प्रभपु ाद : भारत में पहिे ही अनेक िोग बेरोजगार हैं, अतएव अर्र्क र्न्िों का प्रर्ोग करना बहुत अच्छा
प्रस्ताव नहीं है। र्न्ि पर कार्ि करने वािा एक व्र्र्ि सौ व्र्र्िर्ों का कार्ि कर सकता है; िेर्कन इतने अर्र्क िोग
बेरोजगार क्र्ों होने चार्हए? क्र्ों न एक व्र्र्ि को काम में िगाने के बजार् सौ िोगों को िगार्ा जार्? र्हााँ पर्िम में भी
कािी बेरोजगारी है। चाँर्ू क आपके पर्िमी देशों में हर काम र्न्ि से र्कर्ा जाता है, इसर्िए आप बहुत से र्हप्पी र्ानी
हताश नवर्वु क उत्पन्न कर रहे हैं, र्जनके पास करने को कुछ नहीं है। र्ह एक अन्र् प्रकार की बेरोजगारी है। अत: कई
मामिों में र्न्िों से बेरोजगारी उत्पन्न होती है।
हर व्र्र्ि को रोजगार र्मिना चार्हए, अन्र्था परे शानी होगी। ‘खािी र्दमाग शैतान का घर कहा गर्ा है।’ जहााँ
इतने सारे िोग र्बना र्कसी काम के हों, वहााँ और अर्र्क बेरोजगारी पैदा करने के र्िए हम र्न्िों को क्र्ों िाएाँ? सवोत्तम
नीर्त र्ही है र्क कोई भी व्र्र्ि बेरोजगार न रहे; हर व्र्र्ि काम में िगा हो।
र्शष्र् : िेर्कन कोई तकि कर सकता है, र्न्ि हमें कािी समर् िेने वािे श्रम से मि ु करता है।
श्रीि प्रभपु ाद : मि
ु र्कस काम के र्िए करता है? शराब पीने तथा सभी प्रकार की बेहदगी करने के र्िए? इस
स्वतन्िता का क्र्ा अथि है? र्र्द आप कृ ष्णभावनामृत के अनश ु ीिन के र्िए िोगों को मि ु करते हों, तो बात दसू री है।
र्नस्सन्देह, जब कोई हमारे कृ ष्णभावनामृत आन्दोिन में आता है, तो उसे भी परू ी तरह व्र्स्त होना चार्हए। र्ह आन्दोिन
खाने और सोने के र्िए नहीं है, अर्पतु कृ ष्ण के र्िए कार्ि करने के र्नर्मत है। अत: चाहे र्हााँ कृ ष्णभावनामृत में हो, र्ा
बाहर के समाज में, नीर्त र्ही होनी चार्हए र्क हर व्र्र्ि रोजगार में िगा हो तथा व्र्स्त रहे। तब अच्छी सभ्र्ता होगी।

47 विषय-सूची
वैर्दक सभ्र्ता में समाज के मर्ु खर्ा का र्ह कतिव्र् था र्क वह इस बात का ध्र्ान रखे र्क हर व्र्र्ि-ब्राह्मण,
िर्िर्, वैश्र् र्ा शिू -काम में िगा है। हर व्र्र्ि को कार्ि करना चार्हए; तभी शार्न्त होगी। सम्प्रर्त हम देख सकते हैं र्क
इतनी प्रौद्योर्गकी के कारण बेरोजगारी ही बेरोजगारी है और अनेक आिसी िोग हैं। र्हप्पीजन आिसी हैं। वे कुछ भी
करना नहीं चाहते ।
र्शष्र् : अन्र् तकि र्ह हो सकता है र्क प्रौद्योर्गकी से हम इतनी अच्छी तरह तथा इतनी अर्र्क दिता से कार्ि
कर सकते हैं, र्जससे कार्ि करने वािों की उत्पादकता बढ़ जाती है।
श्रीि प्रभपु ाद : अच्छा हो र्क अर्र्क िोग रोजगार पाएाँ चाहे वे कम दितापवू िक कार्ि करें । भगवद-् गीता
(18.48) में कृ ष्ण कहते हैं-
सहजं कमि कौन्तेर् सदोषमर्प न त्र्जेत् ।
सवािरम्भा र्ह दोषेण र्मू ेनार्ग्नररवावृताुः॥
“हर प्रर्त्न र्कसी न र्कसी तरह की िर्ु ट से ओतप्रोत रहता है, र्जस तरह अर्ग्न र्एु ाँ से प्रच्छन्न रहती है। इसर्िए हे
कुन्तीपिु , मनष्ु र् को चार्हए र्क वह अपने स्वभाव से उत्पन्न कार्ि को त्र्ागे नहीं, भिे ही ऐसा कार्ि िर्ु ट से भरा हो।”
र्हन्दी में एक कहावत है, “बेकारी से बेगारी अच्छी।” बेकारी का अथि है “बेरोजगारी” और बेरारी का अथि है “र्बना वेतन
के कार्ि करना।” भारत में हमने देखा है र्क कई ग्रामीण आकर र्कसी दक ु ानदार र्ा र्कसी भि व्र्र्ि से प्राथिना करते हैं,
“कृ पर्ा हमें कुछ काम दें। मझु े वेतन नहीं चार्हए। र्र्द आप चाहें तो मझु े खाने को कुछ दे दें, अन्र्था मझु े वह भी नहीं
चार्हए।” अत: र्र्द आप र्कसी के पास काम करें तो ऐसा कौन भि व्र्र्ि होगा, जो आपको खाने को भी कुछ न दे?
काम करने वािे को
तरु न्त ही भोजन तथा आश्रर् के साथ कोई न कोई वृर्त्त (पेशा) र्मि जाती है। तत्पिात् जब वह काम करने िगता है, तो
र्र्द वह भि व्र्र्ि देखता है र्क वह व्र्र्ि बहुत अच्छा काम कर रहा है तो वह कहेगा, “ठीक, कुछ वेतन िे िो।” अत:
र्बना काम के आिसी बने रहने की अपेिा र्बना पाररश्रर्मक के काम करना श्रेि होगा। र्ह अर्त भर्ावह र्स्थर्त है;
िेर्कन आर्र्ु नक सभ्र्ता में अनेक र्न्िों के होने से अनेकानेक बेरोजगार व्र्र्ि हैं और अनेक आिसी भी हैं। र्ह
अच्छा नहीं है।
र्शष्र् : अर्र्काश
ं िोग कहेंगे र्क र्े र्वचार बहुत परु ाने ढरे के हैं। वे प्रौद्योर्गकी का उपर्ोग करें गे, भिे ही इससे
बेरोजगारी की दर क्र्ों न बढ़ जार्, क्र्ोंर्क वे इसे कार्हिी से छुटकारे का सार्न तथा टेिीर्वजन, चिर्चि,
आटोमोबाइि का आनंद िेने को स्वतन्िता का सार्न मानते हैं।

48 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : प्रौद्योर्गकी स्वतन्िता नहीं है, प्रत्र्तु र्ह नरक जाने का खि
ु ा रास्ता है। र्ह स्वतन्िता नहीं है। हर
एक को उसकी र्ोग्र्ता के अनसु ार काम में िगार्ा जाना चार्हए। र्र्द आपके पास अच्छी बर्ु ि हो, तो आप ब्राह्मण का
कार्ि कर सकते हैं-शास्त्र का अध्र्र्न करने, पस्ु तकें र्िखने, दसू रों को ज्ञान प्रदान करने का कार्ि कर सकते हैं। र्ही
ब्राह्मण का कार्ि है। आपको जीवन-र्ापन की र्चन्ता नहीं करनी होगी। इसे समाज परू ा करे गा। वैर्दक सभ्र्ता में ब्राह्मण
वेतन के र्िए कार्ि नहीं करते थे। वे वैर्दक वाङ्मर् का अध्र्र्न करने तथा दसू रों को र्शिा देने में िगे रहते थे और समाज
उन्हें भोजन देता था।
जहााँ तक िर्िर्ों की बात है, उन्हें समाज के अन्र् सदस्र्ों को संरिण प्रदान करना चार्हए। जब संकट आएगा,
जब कोई आक्रमण होगा, तब िोगों की रिा िर्िर् ही करें गे। इसके र्िए वे कर िगा सकते हैं। र्िर जो िोग िर्िर्ों से
कम बर्ु िमान् हैं, वे वैश्र् अथाित् व्र्ापारी वगि के हैं, जो अन्न उत्पन्न करने तथा गार्ों को संरिण प्रदान करने में िगे रहते
हैं। इन वस्तओ ु ं की आवश्र्कता पड़ती है। अन्त में शिू आते हैं, जो इन तीन उच्च वगों की सहार्ता करते हैं।
र्ह समाज का प्राकृ र्तक र्वभाजन है और र्ह अर्त उत्तम है; क्र्ोंर्क इसे स्वर्ं कृ ष्ण ने रचा था (चतवु ण्र् सर्ा
सृष्ट)। हर व्र्र्ि कार्िरत रहता है। बर्ु िमान् वगि को कार्ि र्मिा हुआ है, सैर्नक वगि को तथा व्र्ापारी वगि को कार्ि र्मिा
हुआ होता है और शिू भी कार्ि में िगे रहते हैं। राजनीर्तक दि बनाने और िड़ने-झगड़ने की आवश्र्कता नहीं पड़ती है।
वैर्दक काि में र्ह सब नहीं होता था। राजा र्नरीिक होता था, जो देखता था र्क हर कोई अपने-अपने कार्ि में िगा रहे।
अत: िोगों के पास झठू े राजनीर्तक दि बनाने, संघषि चिाने तथा एक दसू रे से िड़ने-झगड़ने के र्िए समर् नहीं था। ऐसा
कोई अवसर नहीं र्मिता था।
िेर्कन हर वस्तु की शरुु आत र्ह समझने में है र्क, “मैं र्ह शरीर नहीं ह”ाँ और भगवद-् गीता में कृ ष्ण ने इस पर
बारम्बार बि र्दर्ा है।

49 विषय-सूची
अध्र्ार् पन्िह
र्वज्ञान तथा आस्था
र्ह वाताििाप मई 1975 में पथि (ऑस्रेर्िर्ा) में प्रात: कािीन भ्रमण के समर् श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके एक
र्शष्र् के बीच में हुआ था ।
र्शष्र् : (एक भौर्तकतावादी वैज्ञार्नक की भर्ू मका र्नभाते हुए) आप कृ ष्णभावनामृत को र्वज्ञान क्र्ों कहते हैं?
ऐसा िगता है र्क र्ह के वि आस्था है।
श्रीि प्रभपु ाद : तम्ु हारा तथाकर्थत र्वज्ञान भी आस्था है। र्र्द तमु अपने रंग-ढंग को र्वज्ञान कहते हो, तो हमारा
रंग-ढंग भी र्वज्ञान है।
र्शष्र् : र्कन्तु हम अपने र्वज्ञान से अपनी आस्थाओ ं को र्सि कर सकते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : तब र्ह र्सि करो र्क रसार्नों से जीवन बनता है। तुम्हारा र्वश्वास है र्क जीवन रसार्नों से बना
है। तो इसे र्सि करो। तभी र्ह र्वज्ञान है। र्कन्तु तमु इसे र्सि नहीं कर सकते; इसर्िए र्ह आस्था बना रहता है।
र्शष्र् : ठीक है। आप तो आत्मा में र्वश्वास करते हैं, र्कन्तु आप र्ह र्सि नहीं कर सकते र्क इसका अर्स्तत्व है।
चाँर्ू क हम आत्मा को देख नहीं सकते, अत: हमें र्ह र्नष्कषि र्नकािना पड़ता है र्क जीवन की उत्पर्त्त पदाथि से होती है।
श्रीि प्रभपु ाद : तमु अपनी स्थि ू इर्न्िर्ों से आत्मा को नहीं देख सकते; िेर्कन इसकी अनभु र्ू त की जा सकती है।
चेतना की अनभु र्ू त की जा सकती है और चेतना आत्मा का ििण है; र्कन्तु जैसार्क तमु कहते हो, र्र्द जीवन की
उत्पर्त पदाथि से होती है, तो तम्ु हें मृत शरीर को पनु : जीर्वत करने के र्िए ििु रसार्नों की पर्ू ति करके इसे प्रदर्शित करना
चार्हए। र्ही मेरी चनु ौती है।
र्शष्र् : उपर्ि ु रसार्नों की खोज करने में कुछ समर् िगेगा।
श्रीि प्रभपु ाद : इसका अथि र्ह है र्क तमु बकवास कर रहे हो। तम्ु हारा र्वश्वास र्ह है र्क जीवन रसार्नों से
उत्पन्न होता है, र्कन्तु तमु इसे र्सि नहीं कर सकते। इसर्िए तमु अपने आपको मढ़ू र्सि कर रहे हो।
र्शष्र् : िेर्कन आप भगवद-् गीता को श्रिावश स्वीकार करते हैं। र्ह र्वज्ञानसम्मत कै से है? र्ह तो के वि
आपकी आस्था है। क्र्ा र्ह सही नहीं है ?

50 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह वैज्ञार्नक कै से नहीं है? भगवद-् गीता कहती हैं- “अन्नाद्भवर्न्त भतू ार्न पजिन्र्ादन्नसम्भवुः”-
सारे जीव पर्ािि अन्न खाकर जीर्वत रहते हैं और अन्न वषाि से उत्पन्न होता है। क्र्ा र्ह आस्था है? –
र्शष्र्: र्ह तो सत्र् होना चार्हए।
श्रीि प्रभपु ाद: इसी तरह भगवद-् गीता की हर बात सत्र् है।
र्र्द इसके र्वषर् में ध्र्ानपवू िक सोचा जार्, तो पता चिेगा र्क इसकी सारी बातें सच हैं। भगवद-् गीता में कृ ष्ण
कहते हैं र्क समाज में मनष्ु र्ों का एक बर्ु िमान् वगि, ब्राह्मण, होना चार्हए, जो आत्मा तथा ईश्वर को जानता हो। र्ह सभ्र्
परुु ष है; र्कन्तु आज के समाज में मनष्ु र्ों का ऐसा वगि कहााँ है?
र्शष्र् : रब्बी, पादरी तथा र्ाजक तो बहुत सारे हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु वे ईश्वर के र्वषर् में क्र्ा जानते हैं? इस एक बात को ही ठीक से समझने का प्रर्ास करो।
एक परम सत्ता है; तमु स्वतन्ि नहीं हो, इसर्िए तम्ु हें स्वीकार करना होगा र्क कोई परम सत्ता है। र्कन्तु तमु जानते नहीं र्क
र्ह परम सत्ता कौन है? र्कन्तु र्र्द तमु परम सत्ता को नहीं जानते, तो तम्ु हारे ज्ञान से क्र्ा िाभ?
मान िो र्क कोई व्र्र्ि अपने देश की सरकार के बारे में नहीं जानता। तो वह र्कस तरह का व्र्र्ि है? वह माि
तृतीर् श्रेणी का व्र्र्ि है, मढ़ू है। एक सभ्र् व्र्र्ि अपने देश की सरकार के र्वषर् में जानता है। इसी तरह सम्पणू ि ब्रह्माण्ड
की एक सरकार है; िेर्कन र्र्द कोई इसे न जाने, तो वह तृतीर् श्रेणी का असभ्र् व्र्र्ि है। इसर्िए भगवान् कृ ष्ण
भगवद-् गीता में र्शिा देते हैं र्क मानव समाज में बर्ु िमान् व्र्र्िर्ों का एक ऐसा वगि होना चार्हए, जो ईश्वर को जानता
हो तथा सम्पणू ि ब्रह्माण्ड की व्र्वस्था को समझता हो र्क र्ह र्कस तरह ईश्वर के आदेश से चिता है। हम
कृ ष्णभावनाभार्वत भत र्े सारी बातें जानते हैं। अतएव हम सभ्र् हैं।
र्शष्र् : िेर्कन भगवद-् गीता तो पााँच हजार वषि पहिे र्िखी गई थी, अत: र्ह आज िागू नहीं होती है।
श्रीि प्रभपु ाद : भगवद-् गीता पााँच हजार वषि पवू ि नहीं र्िखी गई। र्ह पहिे से थी। र्ह सदैव र्वद्यमान रही है। क्र्ा
तमु भगवद्गीता पढ़ते हो?
र्शष्र् : हााँ।
श्रीि प्रभपु ाद : तो तम्ु हें भगवद-् गीता में र्ह कहााँ र्मिता है र्क र्ह पााँच हजार वषि पवू ि र्िखी गई? र्ह तो
सविप्रथम 12 करोड़ वषि पवू ि कही गई थी। कृ ष्ण कहते हैं-इस र्ववस्वते र्ोग प्रोिवात् अहमव्र्र्म-् ”मैंने इस र्वज्ञान को
12 करोड़ वषि पवू ि से भी पहिे र्ववस्वान् को बतार्ा था।” तमु इसे नहीं जानते क्र्ा? तमु भगवद-् गीता के कै से पाठक हो
? भगवद-् गीता अव्र्र्म् है-र्ह सदा से र्वद्यमान रही है। तो तमु र्ह कै से कह सकते हो र्क र्ह पााँच हजार वषि पवू ि
र्िखी गई थी ?

51 विषय-सूची
(श्रीि प्रभपु ाद अपनी छड़ी से उदर् होते सर्ू ि को र्दखाते हैं) र्हााँ हम देख रहे हैं र्क सर्ू ि अभी-अभी उदर् हो रहा
है, र्कन्तु अन्तररि में र्ह सदैव रहता है। भगवद-् गीता ऐसी ही है। र्ह शाश्वत सत्र् है। जब सर्ू ि उदर् हो रहा हो, तो हम
र्ह नहीं कहते र्क र्ह अभी अर्स्तत्व में आ रहा है। र्ह सदैव रहता है; र्कन्तु जब तक र्ह उदर् नहीं होता, हम इसे देख
नहीं सकते। िोग सोचते थे र्क सर्ू ि रार्ि में मर जाता है और प्रात:काि नर्ा सर्ू ि उत्पन्न होता है। वे र्ह भी र्वश्वास करते
थे र्क पृथ्वी सपाट है। र्ह है तम्ु हारा वैज्ञार्नक ज्ञान-र्नत नर्े नर्े मत।
र्शष्र् : इसका अथि र्ह है र्क हम सत्र् का उद्घाटन कर रहे हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। इसका अथि र्ह है र्क तमु िोग र्ह नहीं जानते र्क सत्र् क्र्ा है। तमु िोग के वि अनमु ान
िगाते हो। आज तमु र्कसी एक वस्तु को सत्र् मानते हो; र्कन्तु कुछ र्दन बाद कहते हो र्क र्ह सच नहीं है। और इसे तमु
र्वज्ञान कहते हो !
र्शष्र् : जी हााँ, आप ठीक कहते हैं। अनेक वैज्ञार्नक पस्ु तकें , जो कुछ वषि पवू ि र्िखी गई थीं, अप्रासंर्गक हो गई
हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : और अभी तमु र्जन वैज्ञार्नक पस्ु तकों का उपर्ोग कर रहे हो, वे कुछ वषों में व्र्थि हो जाएाँगी।
र्ही तुम्हारा र्वज्ञान है।
र्शष्र् : र्कन्तु इतना तो है र्क हम आज जो कुछ जानते हैं, वह पहिे की अपेिा अर्र्क सच है और र्र्द हम
इसी तरह प्रर्ास करते रहें, तो और अर्र्क जान सकें गे।
श्रीि प्रभपु ाद : इसका अथि र्ह है र्क तमु िोग सदैव अज्ञान में रहते हो। िेर्कन भगवद-् गीता ऐसी नहीं है। कृ ष्ण
अजिनु से कहते हैं, “मैंने सविप्रथम 12 करोड़ वषि पवू ि इस र्वज्ञान का उपदेश र्दर्ा और आज तम्ु हें उसी की र्शिा दे रहा
ह।ाँ र्ह है वैज्ञार्नक ज्ञान। सत्र् तो सदैव वही रहता है, र्कन्तु तमु वैज्ञार्नक िोग सदैव बदिते रहते हो। इसे तमु “सत्र् की
खोज” कहते हो। इसका अथि र्ह है र्क तमु र्ही नहीं जानते र्क सत्र् क्र्ा हैं।
र्शष्र् : (अपने आप) समस्र्ा र्ह है र्क हर कोई ठग है। हर व्र्र्ि अनमु ान िगा रहा है और अपने ही ज्ञान को
सत्र् के रूप में प्रस्ततु कर रहा है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ इसीर्िए हमने कृ ष्ण को स्वीकार र्कर्ा है, क्र्ोंर्क वे ऐसे परुु ष हैं, जो ठगते नहीं। और चाँर्ू क मैं
वही प्रस्ततु करता हाँ जो कृ ष्ण ने कहा है, इसर्िए मैं भी ठग नहीं ह।ाँ हममें तथा र्वज्ञार्नर्ों में र्ही अन्तर है।

52 विषय-सूची
अध्र्ार् सोिह
र्शिा तथा उत्तम जीवन
र्ह वाताििाप जि ु ाई 1973 में रार्ा-कृ ष्ण मर्न्दर, िन्दन में श्रीि प्रभपु ाद, एक नर्े भि की माता तथा जेसार्टु
पादरी के बीच हुआ था ।
श्रीि प्रभपु ाद ( भि की माता से) : हमारे वैर्दक ज्ञान के अनसु ार पापी जीवन के चार पार्े होते हैं-अवैर् र्ौन,
व्र्थि पशु हत्र्ा, नशा करना तथा जआ ु खेिना। हमारे अनर्ु ार्र्ओ ं को इनका पररत्र्ाग करने के र्िए प्रर्शर्ित र्कर्ा
गर्ा है। आप अपने पिु से ही देख सकती हैं र्क वे सब सख ु ी हैं और शाक तथा दर्ू से बना उत्तम भोजन खाकर एवं हरे
कृ ष्ण अथाित् ईश्वर के पर्वि नाम का कीतिन करके सन्तुष्ट हैं।
माता : हााँ, मैं देख रही हाँ र्क वह प्रसन्न है। िेर्कन आप जानते हैं र्क वह अत्र्न्त सख ु ी पररवार का है, अत: उसे
सख ु ी होना ही चार्हए। है न?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, िेर्कन अब वह अर्र्क सख ु ी है। वह सखु ी था, िेर्कन अब अर्र्क सख ु ी है। माता : मैं
माइकि के सख ु से सख ु ी ह,ाँ िेर्कन मझु े बड़ी र्नराशा है र्क वह अपनी र्वश्वर्वद्यािर् की र्शिा को चािू नहीं रहा।
श्रीि प्रभपु ाद : हमारा कृ ष्णभावनामृत आन्दोिन िोगों को उनकी र्शिा से वर्ं चत नहीं कर रहा। हम कहते हैं,
“आपकी र्वश्वर्वद्यािर् की र्शिा जारी रखो, र्कन्तु साथ ही साथ ईश्वर को जानने तथा उनसे प्रेम करने में दि बनो। तब
तम्ु हारा जीवन पणू ि होगा।”
जो भी हो, आर्खर र्शिा का प्रर्ोजन क्र्ा है? हमारी वैर्दक सभ्र्ता बताती है र्क र्शिा की पररणर्त ईश्वर को
जान िेना है। र्ही र्शिा है। अन्र्था र्कस तरह ठीक से खार्ा, सोर्ा, संभोग तथा आत्मरिा की जार्-इसे सीखने की
र्शिा तो पशओ ु ं में भी है। पशु भी जानते हैं र्क र्कस तरह खाना, सोना, संभोग करना तथा अपना संरिण करना चार्हए।
मनष्ु र्ों के र्िए र्शिा की र्े चार शाखाएाँ पर्ािि नहीं हैं। मनष्ु र् को तो र्ह जानना चार्हए र्क ईश्वर से र्कस तरह प्रेम र्कर्ा
जार्। र्ही पणू िता है।
माता : हााँ। मैं आपसे परू ी तरह सहमत ह।ाँ मैं ऐसे अनेक र्वद्वान् र्वज्ञार्नर्ों के नाम िे सकती ह,ाँ जो अब भी ईश्वर
के अर्त र्नकट हैं। हम अपने र्वज्ञार्नर्ों, डाक्टरों के र्बना कहााँ होते...

53 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु र्चर्कत्सा र्वज्ञान में माि डॉक्टर बन जाने से कोई बच नहीं सके गा। दभु ािग्र्वश, अर्र्कांश
डॉक्टर अगिे जीवन में र्वश्वास नहीं करते।
माता : अरे हााँ वे र्वश्वास करते हैं। मैं एक डॉक्टर को जानती ह,ाँ जो प्रत्र्ेक रर्ववार को र्गरजाघर आता है और
माइकि भी उसे जानता है। वह अगिे जन्म में र्वश्वास करता है। वह बहुत अनेक आदमी है।
श्रीि प्रभपु ाद : सामान्र्तुः पर्िम के वे िोग जो अगिे जीवन में र्वश्वास करते हैं, वे इसके र्वषर् में गम्भीर नहीं
होते। र्र्द वे सचमचु अगिे जीवन में र्वश्वास करते होते, तो वे इसके र्वषर् में अर्र्क र्चर्न्तत होते र्क उन्हें र्कस प्रकार
का अगिा जीवन प्राि होगा। जीवन के 84,00,000 रूप हैं। वृि, कुत्ते, र्बल्िी तथा मि के कीट भी जीवन के प्रकार हैं।
इस तरह कुि र्मिाकर 84,00,000 र्ोर्नर्ााँ हैं। चाँर्ू क हमें अगिा जीवन र्मिेगा; चाँर्ू क हम अपने वतिमान शरीर को
त्र्ाग कर अन्र् शरीर र्ारण करें गे, अतएव हमारी मुख्र् र्चन्ता र्ह होनी चार्हए र्क हमें र्कस तरह का भावी शरीर प्राि
होगा; र्कन्तु ऐसा र्वश्वर्वद्यािर् कहााँ है, जो छािों को अगिे जीवन की तैर्ारी करने की र्शिा देता हो ?
पादरी : इसे र्वश्वभर के कै थोर्िक र्वश्वर्वद्यािर् सम्पन्न कर रहे हैं और र्ही हमारा मख्ु र् उद्देश्र् है-इस जगत् में
र्वु कों र्ा र्वु र्तर्ों को सििता की र्शिा देना। र्कन्तु इससे भी बढ़कर अगिे जगत् में सििता पाना, र्जसका अथि है
अमरता के र्िए ईश्वर से र्मिन। र्ही सवोच्च प्राथर्मकता है।
श्रीि प्रभपु ाद : तो हम कै से जान सकते हैं र्क अगिे जीवन में हमें र्कस प्रकार का शरीर प्राि होगा? पादरी : मैं
इतना ही जानता हाँ र्क प्रिर् नहीं होनी है। मैं तो ईश्वर से र्मिने जा रहा ह।ाँ
माता : हम परमेश्वर से र्मिने जा रहे हैं। बस! मरने पर हम पर्ू के पास बाएाँ हों की तहक र्चतानाह की
श्रीि प्रभपु ाद : िेर्कन ईश्वर के पास जाने के र्िए र्ोग्र्ता क्र्ा है? क्र्ा हर व्र्र्ि ईश्वर के पास जाता है?
पादरी : हााँ, हर एक।
पादरी : वह हर व्र्र्ि जो ईश्वर में र्वश्वास रखता हो तथा अच्छा जीवन र्बताता हो और इस जगत् में अच्छे से
अच्छा कार्ि करता
श्रीि प्रभपु ाद : तो अगिा प्रश्न है-अच्छा जीवन क्र्ा है?
पादरी : ईश्वर के आदेशों का पािन करना। श्रीि प्रभपु ाद : इनमें से एक आदेश है-”तू वर् नहीं करे गा।” र्र्द कोई
दीन-हीन पशओ ु ं का वर् करके उन्हें खाता है, तो क्र्ा वह अच्छा जीवन र्बताता है?
पादरी : स्वामीजी, र्ह थोड़ा अनर्ु चत िगता है। “तू वर् नहीं करे गा” का अथि है, “तू व्र्थि ही र्कसी का जीवन
नहीं िेगा।” र्र्द हम मासं न खाए तो जीर्वत कै से रहेंगे?

54 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : हम कै से रह रहे हैं? हम शाक, अन्न, िि तथा दर्ू से तैर्ार र्कर्ा हुआ उत्तम भोजन खा रहे हैं।
हमें मांस की आवश्र्कता नहीं है।
पादरी : इसे इस प्रकार देर्खए। कुछ िण पहिे ही आपने अभी कहा था र्क जीवन की 80 िाख के िगभग
र्ोर्नर्ााँ हैं। क्र्ा आप सहमत हैं र्क आि,ू गोभी तथा दसू री शाक-सर्ब्जर्ों में भी जीवन है?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ।
पादरी : अत: जब इन शाकों को उबािा जाता है, तो आप उनका प्राण हर िेते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : आपका दशिन क्र्ा है-क्र्ा आिू को मारना तथा एक दीन-हीन पशु को मारना एक समान है?
पादरी : आपने कहा र्क “तू वर् नहीं करे गा,” र्कन्तु आप आिू का वर् करते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : हम सब को अन्र् जीवों को खाकर जीर्वत रहना होता है— जीवो जीवस्र् जीवनस/ू िेर्कन आिू
खाना तथा र्कसी पशु को खाना एक-सा नहीं है। क्र्ा आप सोचते हैं र्क वे एक समान हैं?
पादरी : हााँ। श्रीि प्रभपु ाद : तो आप र्कसी बच्चे को मार कर क्र्ों नहीं खा जाते?
पादरी : मैं बच्चे को मारने की सोच भी नहीं सकता।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु पशु तथा बच्चे इस बात में एक-से हैं र्क दोनों ही असहार् तथा अज्ञानी होते हैं। बच्चा
अज्ञानी है तो इसका अथि र्ह तो नहीं र्क हम उसे मार डािें। इसी तरह भिे ही पशु अज्ञानी र्ा मख ू ि हों, हमें व्र्थि ही
उनका वर् नहीं करना चार्हए। सही र्ार्मिक मनष्ु र् को अन्तर करना होगा। उसे सोचना चार्हए, “र्र्द मझु े शाक, िि
तथा दर्ू से अपना भोजन र्मि जार्, तो पशओ ु ं को क्र्ों मारूं और खाऊाँ?” इतना ही नहीं, जब आपको वृि से िि
प्राि होता है, तब इसमें कोई हत्र्ा नहीं होती। इसी तरह जब हम गार् दहु ते हैं, तो हम गार् को मारते नहीं। अत: र्र्द हम
र्बना वर् र्कर्े इस तरह से रह सकें , तो हम पशओ ु ं का वर् क्र्ों करें ?
पादरी : क्र्ा आप कहेंगे र्क चाँर्ू क मैं मांस तथा सअ ू र-मांस खाता ह,ाँ इसर्िए मैं पापी बनता ह?ाँ क्र्ा र्र्द मैं उन्हें
न खाता, तो कम पापी होता ?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ।
पादरी : र्र्द मैं मासं , सअ ू र-मासं तथा सॉसेज खाना बन्द कर दाँू तो क्र्ा मैं र्भन्न व्र्र्ि बन जाऊाँगा?
श्रीि प्रभपु ाद : आप शि ु बन जाएाँगे।
पादरी : र्ह तो र्दिचस्प बात है।
श्रीि प्रभपु ाद : पशु का वर् करने वािे ईश्वर को नहीं समझ सकते। मैंने र्ह देखा है और र्ह तथ्र् है। ईश्वर को
समझने के र्िए उनकी बर्ु ि नहीं होती।
55 विषय-सूची
अध्र्ार् सिह
गभिपात तथा “शशक दशिन”
कै िीिोर्निर्ा के वेर्नस तट पर र्दसम्बर 1973 में प्रात: कािीन भ्रमण के समर् श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके कर्तपर्
र्शष्र्ों के मध्र् हुई बातचीत ।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, कभी-कभी हम र्ह तकि करते हैं र्क र्द्यर्प प्रकृ र्त के र्नर्म अत्र्न्त प्रबि है; र्कन्तु र्र्द
हम श्रीकृ ष्ण की शरण में चिे जाएाँ, तो रोग तथा मृत्र्ु जैसी घटनाओ ं पर र्वजर् पा सकते हैं, क्र्ोंर्क वे प्रकृ र्त के र्नर्ंता
हैं; र्कन्तु संशर्वादी कहते हैं र्क ईश्वर के र्बना ही हम अपने आप प्रकृ र्त के र्नर्मों पर क्रमश: र्नर्न्िण कर िेंगे।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। हमें बाध्र् होकर प्रकृ र्त के र्नर्म स्वीकार करने पड़ते हैं। कोई र्ह कै से कह सकता है र्क
उसने प्रकृ र्त के र्नर्मों पर र्वजर् पा िी है?
र्शष्र् : र्कन्तु डाक्टरों तथा जीव-र्वज्ञार्नर्ों ने अनेकानेक रोगों पर र्वजर् पा िी है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्िर भी िोग रोगग्रस्त होते हैं। डाक्टरों ने र्कस तरह रोगों को रोका है ?
र्शष्र् : उदाहरणाथि, अफ्रीका तथा भारत में वे हर एक के माता (चेचक) के टीके िगा रहे हैं और उन्होंने हजारों
बच्चों को मरने से बचा र्िर्ा है।
श्रीि प्रभपु ाद : िेर्कन बच्चे बड़े होंगे और वृि होकर अन्त में मरें गे ही; अत: मृत्र्ु को रोका नहीं जा सका है।
और तो और, वे इन बच्चों के र्वषर् में र्चर्न्तत क्र्ों हैं? वे अर्र्क आबादी नहीं चाहते इसर्िए र्र्ु िर्ि ु तो र्ह होगा
र्क डॉक्टर उन्हें मरने दें। िेर्कन डॉक्टर िोग र्र्ु िर्ि ु नहीं हैं। एक ओर वे बच्चों की मृत्र्ु रोकना चाहते हैं और दसू री
ओर गभिर्नरोर्कों के उपर्ोग की संस्तर्ु त करते हैं और गभिपात द्वारा बच्चों को गभि में ही मार डािते हैं। क्र्ों? वे र्ह वर्
क्र्ों कर रहे हैं? र्ही न र्क जनसंख्र्ा न बढ़े। तो र्िर जब र्वश्व के र्कसी अन्र् भाग में बच्चे मर रहे होते हैं, तो वे उन्हें
बचाने के र्िए उत्सक ु क्र्ों हैं?
र्शष्र् : एक बार बच्चा उत्पन्न हो जाता है, तो वे उसे बचाना चाहते हैं। र्कन्तु जब बच्चा गभि में ही रहता है तो
उन्हें िगता है र्क वे उसे मार सकते हैं। वे कहते हैं र्क अभी वह मानव प्राणी नहीं बना।

56 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु स्त्री ज्र्ोंही गभिवती होती है, बच्चा उत्पन्न हो चक
ु ा होता है। गभिर्ारण करने का अथि है र्क
बच्चा उत्पन्न हो चक ु ा है। वे र्ह कै से कह सकते हैं र्क बच्चा नहीं है? र्ह कै सी बेहदगी है? जब स्त्री गभिवती होती है तो
र्िर आप क्र्ों कहते हैं र्क वह “बच्चे सर्हत” है? इसका अथि र्ह है र्क बच्चा उत्पन्न हो चक ु ा होता है। इसर्िए मैं
कहता हाँ र्क गभिपात का र्ह र्ंर्ा पणू ति ुः र्तू िता है।
र्शष्र् : उन्होंने इसको तकि संगत बना र्दर्ा है।
श्रीि प्रभपु ाद : वह कै से?
र्शष्र् : कभी-कभी वे कहते हैं र्क उन्हें जो सबसे अच्छा िगता है वे वही करते हैं। वस्ततु : वे इनसे ही इनकार
करते हैं र्क कमि जैसी कोई वस्तु है, जो उन्हें बाद में दर्ण्डत कर सकती है। ऐसा िगता है र्क उनमें एक प्रकार का “शशक
दशिन” है। जब खरगोश अपनी आाँखें बन्द कर िेता है, तो वह अपनी ओर झपटते भेर्ड़र्े को नहीं देखता। वह वास्तव में
र्ह सोचता हो र्क वह सरु र्ित है।
श्रीि प्रभपु ाद : तो र्े गभिपात समथिक “शशक दशिन” में र्वश्वास करते हैं। र्ह मनष्ु र्ों का दशिन नहीं है। र्ह तो
खरगोश का दशिन है, दादरु दशिन है, गदिभ दशिन है। और इनका वणिन श्रीमद-् भागवत (2.3.19) में हुआ है-
श्वर्वड्रवराहरखरें , सस्तुत: परुु ष, पशु / वे नेता, जो प्रार्: गभिपात का समथिन करते हैं, र्तू ि हैं और वे अन्र् मख ू ों तथा र्तू ों
के समहू द्वारा र्ानी सामान्र्जनों द्वारा प्रशंर्सत होते हैं। चाँर्ू क सारी जनसंख्र्ा र्तू ों से भरी है; इसर्िए वे र्कसी र्तू ि को ही
नेता चनु ते हैं। और र्िर उससे असन्तष्टु होने पर उसे पद-च्र्तु करके र्कसी अन्र् र्तू ि को चनु ते हैं। इसे ही ‘पनु ुः
पनु र्वंतचवणानाम’् अथाित् चबार्े को पनु ुः चबाना कहते हैं। िोग र्ह नहीं जानते र्क र्कसे चनु ा जाए। इसर्िए उन्हें र्शिा
दी जानी चार्हए र्क वे ऐसा नेता चनु ें जो ईशभावनाभार्वत हो, जो वास्तव में अगवु ा होने के र्ोग्र् हो। तभी वे सख ु ी हो
सकें गे। अन्र्था वे एक र्तू ि को चनु ेंगे और र्िर उसको अस्वीकृ त करके दसू रे र्तू ि को चनु ेंगे और उसको भी छोड़ेंगे। र्ही
चिता रहेगा।
अमरीका में एक नारा है, “ईश्वर में हम र्वश्वास करते हैं।” हम तो इतना ही कहते हैं र्क नेता का मानदण्ड र्ह होना
चार्हर्े र्क वह वास्तव में जाने र्क ईश्वर कौन है और वह उस पर र्वश्वास करे । और र्र्द िोग वास्तव में र्ह जानना चाहें
र्क ईश्वर कौन हैं, तो वे भगवद-् गीता पढ़ सकते हैं। वे इसे बर्ु िमानी से पढ़ें और समझने का प्रर्ास करें और उससे भी
आगे प्रगर्त करने के र्िए वे श्रीमिागवत का अध्र्र्न कर सकते हैं। हम कोई र्सिान्त नहीं गढ़ रहे हैं। हम ईश्वर र्वषर्क
अपना ज्ञान प्रामार्णक ग्रंथों से प्राि करते हैं।
र्शष्र् : राजनीर्त र्वषर्क अपने पचों में हम नेता की र्ोग्र्ताओ ं की सचू ी देते हैं। हम कहते हैं र्क सविप्रथम उसे
चार र्नर्ामक अनिु ानों का-मांसाहार न करने, अवैर् मैथनु न करने, जआ ु न खेिने तथा नशा न करने का-पािन करना
चार्हए। और इनसे भी बढ़कर हम जो एक सकारात्मक आदेश देते हैं वह र्ह है र्क नेता भगवान् के पर्वि नाम का कीतिन
57 विषय-सूची
करे ; िेर्कन कोई र्ह तकि कर सकता है र्क र्े आवश्र्कताएाँ र्गरजाघर तथा राज्र् को पृथक् करने वािे संवैर्ार्नक
र्सिान्त का उल्िंघन करती हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : र्र्द आपको ईश्वर में र्वश्वास है, तो ईश्वर के पर्वि नाम का कीतिन करने में आपको कोई आपर्त्त
क्र्ों हो ? र्र्द आप कहते हैं, “ईश्वर में हम र्वश्वास करते हैं,” तो आपको ईश्वर का नाम तथा पता ज्ञात होना चार्हए। तभी
आप ईश्वर में ठीक से र्वश्वास कर सकते हैं। और र्र्द आप इन बातों को नहीं जानते, तो हमसे सीर्खर्े। हम आपको ईश्वर
का नाम, पता, गणु -सब कुछ दे रहे हैं। और र्र्द आप र्ह कहते हैं र्क ईश्वर नहीं है, तो र्िर “ईश्वर में हम र्वश्वास करते
हैं,” का अथि ही क्र्ा रहा ?
र्शष्र् : उन्होंने र्गरजाघर तथा राज्र् को पृथक् करने की र्वज्ञापनबाजी कर रखी है, िेर्कन उन्होंने ईश्वर तथा देश
को भी पृथक् कर र्दर्ा है।
श्रीि प्रभपु ाद : जो ऐसी र्वज्ञापनबाजी करते हैं, वे र्ह नहीं समझते र्क ईश्वर क्र्ा हैं। ईश्वर को र्कसी भी वस्तु से
पृथक् नहीं र्कर्ा जा सकता, क्र्ोंर्क हर वस्तु ईश्वर है (मर्ा ततम् इदं सवं) । र्र्द वे भगवद-् गीता पढ़ें तो वे समझ सकें गे
र्क ईश्वर सविि उपर्स्थत हैं। उनसे र्कसी भी वस्तु को पृथक् करना सम्भव नहीं है। र्जस तरह तम्ु हारी चेतना तम्ु हारे शरीर
के हर अगं में उपर्स्थत है, उसी तरह परम चेतना र्ानी ईश्वर ब्रह्माण्ड में सविि उपर्स्थत हैं। कृ ष्ण कहते हैं- वेदाहं
समतीतार्न-”जो कुछ घट चक ु ा है उसे मैं जानता ह।ाँ ” जब तक वे सविि न हों, वे हर वस्तु को कै से जान सकते हैं? तमु क्र्ा
कहते हो?
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, र्ह तकि संगत है।
श्रीि प्रभपु ाद : आप ईश्वर को सरकार से कै से पृथक् कर सकते हैं? आप र्कसी भी ऐसे तथाकर्थत र्गरजाघर,
र्कसी भी ऐसे तथाकर्थत र्मि को बर्हष्कृ त कर सकते हैं, जो इस बात से सहमत होता है र्क “ईश्वर तथा राज्र् को पृथक्
होना चार्हए।”
र्ही ईश्वर का आदेश है र्क हम ऐसे तथाकर्थत र्मों का बर्हष्कार करें । भगवद-् गीता (18.66) में कृ ष्ण कहते
हैं”- “सविर्मािन् पररत्र्ज्र् मामेकं शरणं व्रज”- सभी प्रकार के तथाकर्थत र्मों का पररत्र्ाग करके के वि मझु एक की
शरण में आओ।” िोग र्ह कह सकते हैं र्क वे ईश्वर में र्वश्वास करते हैं; र्कन्तु जब वे ईश्वर को सरकार से पृथक् करना
चाहते हैं, तब आप जान सकते हैं र्क वे र्ह भी नहीं जानते र्क ईश्वर क्र्ा है।

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अध्र्ार् अट्ठारह
र्जसकी िाठी उसकी भैंस
र्ह वाताििाप जनू 1974 में पेररस में श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके एक र्शष्र् के मध्र् हुआ।
र्शष्र् : र्पछिी रात आपने अपने भाषण में र्ह उपमा दी थी र्क र्र्द िोग ईश्वर के र्नर्मों का पािन नहीं करते ,
तो वे ईश्वर द्वारा उसी तरह दर्ण्डत र्कर्े जाएाँगे, र्जस तरह राज्र् के र्नर्मों की अवज्ञा करने पर दर्ण्डत होना पड़ता है;
इसर्िए नौजवानों ने समझा र्क आप अवश्र् िार्सस्ट (असाम्र्वादी) होंगे।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु वास्तव में सारे र्वश्व में र्ही हो रहा है। वे इससे इनकार कै से कर सकते हैं? आज सरकार का
अथि है, “र्जसकी िाठी उसकी भैंस।” र्कसी तरह सत्ता हर्थर्ा िो, तो र्िर तुम ही सही हो। प्रश्न इसका है र्क कौन सा
पि र्ह सत्ता हर्थर्ा पाता है।
र्शष्र् : िेर्कन वे तो िोगों को सत्ता देना चाहते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह कै से सम्भव होगा? िोग अनेक हैं और मत अनेक प्रकार के हैं-तम्ु हारे पास तम्ु हारे अपने िोग
हैं और र्कसी दसू रे के पास उसके अपने िोग हैं। ज्र्ोंही आप अपने िोगों को सत्ता देना चाहेंगे; अन्र् िोग र्वरोर् करें गे।
र्ह मनष्ु र् का स्वभाव है। इसे तमु बदि नहीं सकते। वे सोचते हैं र्क सत्ता िोगों को दी जानी चार्हए; िेर्कन ऐसे बहुत से
अन्र् िोग हैं, जो इससे असहमत होंगे। र्ह भौर्तक जगत् का स्वभाव है र्क हर व्र्र्ि अन्र् व्र्र्ि से ईष्र्ा रखता है;
िेर्कन इन मढ़ू ों में इतनी भी बर्ु ि नहीं है र्क इसे समझे। भारत में एक बहुत भि व्र्र्ि, बहुत ही उत्तम राजनीर्तक व्र्र्ि
गार्ं ी थे, र्कन्तु िोगों ने उन्हें मार डािा। तो आप इसे रोक नहीं सकते। र्ह तो भौर्तक जगत् का स्वभाव है र्क िोग एक
दसू रे से ईष्र् करते हैं। आपको ऐसा भौर्तकतावादी वगि नहीं र्मि पाएगा, जो पणू ि हो। तो र्िर वे र्ह क्र्ों कहते हैं, “िोगों
को सत्ता दो?” वे र्नरे र्तू ि हैं।
इसीर्िए श्रीमद्भागवत में कहा है, “परमो र्नमत्सराणां सतां”-कृ ष्णभावनामृत ऐसे िोगों के र्िए है, जो पणू ि हैं तथा
ईष्र्र्ार्वहीन हैं। जो कृ ष्णभावनाभार्वत नहीं हैं, वे ईष्र्र्ािु होंगे ही। स्पर्ाि सविि र्मि जाएगी। कृ ष्ण के शिु थे। ईसा मसीह
के शिु थे, अन्र्था उन्हें क्रूस पर क्र्ों चढ़ार्ा जाता? उनमें कोई दोष न था, वे तो ईशभावनामृत का प्रचार कर रहे थे। र्िर
भी उन्हें क्रूस पर चढ़ा र्दर्ा गर्ा। र्ह है भौर्तक जगत।् पणू ि होते हुए भी मनष्ु र् के शिु होते हैं। आप इसे रोक भी कै से

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सकते हैं? वे कहते हैं, “सत्ता िोगों को दो, “र्कन्तु ज्र्ोंही कोई अच्छा वगि शासन करने िगता है, तो कोई दसू रा दि
उसका र्वरोर् करता है। वे कहेंगे “सत्ता हमें दो।” तो र्िर पणू िता कहााँ रही ? र्ह पणू िता नहीं है; इसर्िए हमें इस भौर्तक
जगत् से सारे सम्बन्र् तोड़ने होते हैं-र्ही पणू िता है।
र्शष्र् : र्कन्तु र्र्द आप इस जगत् से अपने सारे सम्बन्र् तोड़ िें, तो र्िर आप अराजकता से कै से बच सकते हैं
और अच्छी सरकार कै से पा सकते हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, र्ह भी एक बात है। आपको पणू ि सत्ता का अनगु मन करना होता है।
र्शष्र् : और उनको र्ही आपर्त्त थी : आप परम सत्ता का अनगु मन करने की सिाह देते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : र्र्द आप पणू ि समाज चाहते हैं, तो आपको पररपणू ि सत्ता का अनगु मन करना होगा। आप िौर्कक
राजनीर्त के माध्र्म से पणू िता नहीं पा सकते। आपको असिी, मान्र् अर्र्काररर्ों का अथाित् पणू ि मि ु आत्माओ ं का
अनगु मन करना होगा। वैर्दक संस्कृ र्त में र्ही पिर्त थी। कृ ष्ण तथा वैर्दक वाङ्मर् ही सत्ता थे और समाज का र्नदेशन
मानवजार्त के पवू िज मनु तथा मनसु ंर्हता द्वारा होता था। “महाजनो र्ेन गत स पन्ू था”-पणू िता प्राि करने के र्िए हमें
महाजनों अथाित् पणू ि स्वरूपर्सि अर्र्काररर्ों का अनगु मन करना चार्हए।
र्शष्र् : र्कन्तु र्े नौजवान कह रहे थे र्क आध्र्ार्त्मक अर्र्कारी भी अपणू ि हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : उन्हें कहने दो; र्कन्तु हम उनके मत को क्र्ों मानें? र्ह तो अपणू ि र्तू ों का मत है। सत्ता र्वषर्क
उनकी एकमाि र्ारणा र्ह है, “र्जसकी िाठी उसकी भैंस।” उदाहरणाथि कि एक पि दिीि दे रहा था, “िोगों को सत्ता
दो।” अत: उनके पास कुछ अर्र्कार होगा, इसीर्िए वे दबाव डाि रहे हैं, “तमु को र्ह र्वचार मानना होगा।” और र्ह
र्वश्वभर में चि रहा है-”र्जसकी िाठी उसकी भैंस।” सारे र्तू ि एक दसू रे से िड़-झगड़ रहे हैं और इनमें से जो थोड़ा भी
शर्िशािी होता है, वह प्रमख ु बन जाता है। बस।
र्शष्र् : वे कहते हैं र्क ऐसा सदा होता रहता है-र्कसी भी सत्ता के साथ। कोई भी नेता जोर िगा कर अपने आप
को आगे कर िेता है। इस तरह उन्होंने सारी सत्ताओ ं का बर्हष्कार कर र्दर्ा है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ क्र्ोंर्क उनकी सारी तथाकर्थत सत्ताएाँ अपणू ि रही हैं; र्कन्तु एक पणू ि सत्ता भी है—वह पणू ि
परुु षोत्तम भगवान् कृ ष्ण हैं। और जो भी अर्र्कारी कृ ष्ण के आदेशों का पािन करता है तथा उनकी र्शिा देता है, वह भी
पणू ि है। र्ही है सत्ता।
हम कृ ष्णभावनाभार्वत भि कृ ष्ण की सिा का अिरशुः पािन करते हैं। कृ ष्णभावनामृत प्रस्ततु करते समर् हम
के वि कृ ष्ण के शब्दों को प्रस्ततु करते हैं और िोगों को र्ह समझाना चाहते हैं र्क “असिी सत्ता र्हााँ है। र्र्द तमु इसका
अनगु मन करोगे, तो तमु सख ु ी होगे।” कृ ष्ण कहते हैं, “तमु मेरी शरण में आओ।” और हम कहते हैं, “कृ ष्ण की शरण में

60 विषय-सूची
जाओ।” हम जानते हैं र्क कृ ष्ण पणू ि हैं और उनकी शरण में जाना पणू िता है। और जब भी हम कुछ बोिते हैं, हम सदैव
कृ ष्ण तथा उनके प्रर्तर्नर्र्र्ों के उिरण देते हैं।
र्शष्र् : तो क्र्ा शरण में जाने के र्िए र्कसी व्र्र्ि को उस व्र्र्ि पर श्रिा नहीं होनी चार्हए, जो उसे शरण में
जाने को कहता है ?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ श्रिा तो होनी ही चार्हए। इसीर्िए भगवद-् गीता में सविप्रथम कृ ष्ण र्ह र्सि करते हैं र्क वे
परम सत्र् हैं। तब वे आपको शरणागत होने के र्िए कहते हैं; र्कन्तु र्ह समझने के र्िए आपके पास बर्ु ि होनी चार्हए
र्क “र्े कृ ष्ण हैं।” तब आप शरण में जा सकते हैं। भगवद-् गीता में कृ ष्ण प्रारम्भ में ही र्ह नहीं कह देते र्क “मेरी शरण में
आओ।” सविप्रथम वे सब कुछ समझाते हैं-शरीर, आत्मा, र्ोग के प्रकार, ज्ञान के र्भन्न रूपों की व्र्ाख्र्ा करते हैं, तब वे
र्ह सवािर्र्क गह्य ु ज्ञान प्रदान करते हैं, “अन्र् सब कुछ त्र्ाग कर मेरी शरण में आओ।”
इस भौर्तक जगत् में हर कोई अपणू ि है। पणू ि परुु ष के प्रर्त स्वेच्छा से आत्मसमपिण र्कर्े र्बना हर कोई अपणू ि है;
र्कन्तु र्जसने कृ ष्ण र्ा उनके प्रर्तर्नर्र् की पणू ि शरण िे िी है, वह पणू ि है; र्कन्तु र्र्द तमु पणू ि सता की शरण में नहीं आते
तो तमु अपणू ि एवं मढ़ू बने रहोगे। चाहे तमु नैपोर्िर्न हो र्ा छोटी सी चींटी, हम र्ह देखना चाहते हैं र्क तमु ने कृ ष्ण की
शरण ग्रहण की है र्ा नहीं। र्र्द नहीं, तो तमु र्तू ि हो। बस इतना ही।

61 विषय-सूची
अध्र्ार् उन्नीस
वैज्ञार्नक प्रगर्त : वाग्जाि
र्ह वाताििाप माचि 1975 में अटिांटा में श्रीि प्रभपु ाद एवं उनके र्शष्र् भर्िस्वरूप दामोदर स्वामी, पीएच डी
के मध्र् हुआ ।
भर्िस्वरूप दामोदर स्वामी : आर्र्ु नक वैज्ञार्नक प्रर्ोगशािा में जीवन उत्पन्न करने के र्िए कर्ठन पररश्रम कर
रहे हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह समझने का प्रर्ास करो : र्जस तरह ईश्वर पहिे से सविि र्वद्यमान हैं, उसी तरह सारे जीव भी
ईश्वर के र्भन्नांश होने के कारण पहिे से र्वद्यमान हैं-शाश्वत रूप से। इसर्िए तम्ु हें “सजिन” करने की आवश्र्कता नहीं है।
र्ह मख ू िता है; क्र्ोंर्क जीव शाश्वत है-उनका सजिन नहीं र्कर्ा जाता। र्े जीव सहज रूप से भौर्तक जगत् में चार र्भन्न
प्रकारों से प्रकट होते हैं। इनमें से कुछ बीजों के द्वारा, कुछ र्कण्वन (जामन) द्वारा, कुछ अंडों से और कुछ भ्रणू से प्रकट
होते हैं। िेर्कन सारे जीव पहिे से र्वद्यमान हैं, अत: सजिन का प्रश्न ही नहीं उठता। जीव का र्ही र्वज्ञान है।
पहिे से िाखों करोड़ों जीव हैं, र्िर भी भौर्तकतावादी वैज्ञार्नकजन इसके र्िए बड़े-बड़े सम्मिेन करते रहते हैं
र्क र्कसी चीज को कै से उत्पन्न र्कर्ा जार्। जरा इस बचकाने प्रस्ताव को तो देखो! वे समर् का अपव्र्र् करते हैं, िोगों
को र्दग्भ्रर्मत बनाते हैं और हर व्र्र्ि की गाढ़ी कमाई को र्वनष्ट करते हैं। इसर्िए मैं उन्हें र्तू ि कहता ह।ाँ वे “सजिन करने”
का प्रर्ास करते हैं। वे क्र्ा सजिन करें गे? सारी वस्तएु ाँ पहिे से हैं, र्कन्तु वे अपनी बढ़ी-चढ़ी र्शिा के बावजदू इसे नहीं
जानते। इसीर्िए भगवद-् गीता उन्हें मढ़ू र्ानी र्तू ि कहती है।
अब इन मढ़ू ों को बतिा दो, “भाइर्ो, तमु सजिन नहीं कर सकते, न ही कोई वस्तु सृर्जत की जा सकती है। जरा
र्ह पता िगाओ र्क जीव कहााँ से आ रहे हैं, उनका स्रोत क्र्ा है और सारी प्रकृ र्त के पीछे कौन-सा मर्स्तष्क कार्ि करता
है। इसको ढूाँढो। र्ही असिी ज्ञान है। र्र्द तमु इस ज्ञान के र्िए सघं षि करो और हर वस्तु के आर्द स्रोत को ढूाँढ़ने का
प्रर्ास करो, तो र्कसी न र्कसी र्दन तमु समझ सकोगे र्क ईश्वर ही हर वस्तु के स्रोत हैं और तब तुम्हारा ज्ञान पणू ि होगा-
वासदु वे ुः सविर्मर्त स महात्मा सदु ि ु िभुः।।” (भगवद-् गीता 7.19)

62 विषय-सूची
इस सन्ु दर िूि को देखो। क्र्ा तमु सोचते हो र्क र्ह र्कसी मर्स्तष्क के र्नदेशन के र्बना स्वतुः ही उत्पन्न हुआ
है? र्ह नासमझी का दशिन है। र्े तथाकर्थत वैज्ञार्नक अनेक आडम्बरपणू ि शब्दों का प्रर्ोग करते हैं, र्कन्तु उनमें से र्कतने
वास्तर्वक व्र्ाख्र्ा करते हैं? अन्र् कोई नहीं समझ सकता, इसे के वि वे ही समझ पाते हैं। वे ऐसी जर्टि भाषा का इस
तरह प्रर्ोग करते हैं र्क जब तक वे स्वर्ं व्र्ाख्र्ा नहीं करते, तब तक कोई समझ नहीं सकता। वे कहते हैं र्क सबकुछ
“प्रकृ र्त द्वारा” स्वत: र्कर्ा जाता है। र्ह तथ्र् नहीं है।
प्रकृ र्त एक उपकरण है। र्ह अद्भुत कम्प्र्टू र जैसी है। र्िर भी इसका एक संचािक है। इन र्तू ों में सामान्र् बर्ु ि
भी नहीं है। ऐसा र्न्ि कहााँ है, जो र्बना र्कसी संचािक का चिता है? क्र्ा उनके अनभु व-िेि में ऐसा कोई र्न्ि है? वे
कै से सझु ाव देते हैं र्क प्रकृ र्त स्वत: कार्ि करती है? प्रकृ र्त एक अद्भुत र्न्ि है; र्कन्तु उसके संचािक ईश्वर र्ा कृ ष्ण हैं।
र्ही वास्तर्वक ज्ञान है। क्र्ोंर्क र्न्ि अर्त अद्भुत रीर्त से कार्ि कर रहा है, तो क्र्ा इसका अथि र्ह हुआ र्क इसका कोई
संचािक नहीं है?
उदाहरणाथि, हामोर्नर्म भी एक र्न्ि है और र्र्द कोई दि संगीतज्ञ इसे बजाता है, तो र्ह अत्र्न्त सरु ीिी तथा
मनमोहक ध्वर्न उत्पन्न करता है। “ओह! र्कतना सन्ु दर!” र्कन्तु क्र्ा हामोर्नर्म स्वतुः बजेगा और सरु ीिी ध्वर्न उत्पन्न
करे गा ? अतुः उनमें कोई सामान्र्-बर्ु ि भी नहीं है, र्िर भी वे अपने को वैज्ञार्नक कहते हैं। इसी का हमें द:ु ख होता है र्क
इन िोगों में कोई सामान्र्-बर्ु ि भी नहीं है, र्िर भी वे वैज्ञार्नक कहिाते हैं।
भर्िस्वरूप दामोदर स्वामी : वे सोचते हैं र्क क्र्ोंर्क वे रसार्न र्वज्ञान के द्वारा कुछ प्रारर्म्भक ऐमीनो अम्िों का
सश्ल
ं े षण कर सकते हैं.
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह तो र्शल्पकारी है, ज्ञान नहीं। उदाहरणाथि, र्र्द हम कहें र्क आप गि ु ाब का एक र्चि बनाते
हैं, तो आप र्चिकार हैं, ज्ञानवान व्र्र्ि नहीं। “ज्ञानवान”् का अथि है ऐसा व्र्र्ि जो जानता है र्क वस्तएु ाँ कै से बनाई
जाती हैं। र्चिकार तो जो देखता है उसी का अनक ु रण भर करता है। अतएव किा तथा र्वज्ञान दो पृथक् र्वभाग हैं।
भर्िस्वरूप दामोदर स्वामी : तो र्र्द वे संशिेषी वस्तु उत्तपन करते हैं तो वह के वि किा हैं ।
प्रभपु ाद : हााँ। उदाहरणाथि, अच्छा रसोइर्ा जानता है र्क मसािों को कै से र्मिार्ा जाता है और र्कस तरह
स्वार्दष्ट वस्तएु ाँ तैर्ार की जाती हैं। अत: रसार्न शास्त्री को आप एक अच्छा रसोइर्ा कह सकते हैं। रसार्न शास्त्र र्वर्भन्न
रसार्नों को र्मिाने की एक किा है तेि होता है, िर होता है और र्र्द दोनों कारीगरी से र्मिा र्दर्ा जार्े, तो अत्र्न्त
उपर्ोगी साबनु बन जाता हैं ।
श्रीि प्रभपु ाद : समस्र्ा र्ह नहीं र्क र्र्द वे जीवन का सजिन नहीं करें गे, तो संसार नरक में र्मि जाएगा। जीवन तो
पहिे से है। उदाहरणाथि, कई मोटर कारें हैं। र्र्द मैं कोई अन्र् मोटर कार तैर्ार कर िाँ,ू तो क्र्ा र्ह मेरे र्िए बहुत बड़ी

63 विषय-सूची
शाबाशी है? न जाने र्कतनी मोटर कारें पहिे से हैं। जब मोटर कारें नहीं थीं, तो र्जस पहिे व्र्र्ि ने मोटर कार बनाई,
उसके र्िए कुछ श्रेर् की बात थी र्क “आपने बहुत अच्छी घोड़ा र्वहीन गाडी तैर्ार कर दी। िोग इससे िाभ उठाएाँगे;
सर्ु वर्ा होगी, बस “र्कन्तु जब अन्र् मोटर कार बनाऊाँ, तो इसमें मझु े क्र्ा श्रेर् है? मेरा श्रेर् क्र्ा हैं?
भर्ि स्वरूप दामोदर स्वामी : शन्ू र्।
श्रीि प्रभपु ाद : शन्ू र्। और इस शन्ू र् को पाने के र्िए वे कोई बहुत बड़ा सम्मेिन करने जा रहे हैं, र्जसमें अनेक
िोग आएाँगे और रुपर्ा खचि करें गे।
भर्ि स्वरूप दामोदर स्वामी : वे श्रेितर मानव बनाना चाहते हैं। वे जीवन को श्रेितर बनाना चाहते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ र्ही हमारा प्रस्ताव है। हम र्वज्ञार्नर्ों से कहते हैं, “आप िोग जीव बनाने में समर् बबािद न
करें । अपने जीवन को श्रेितर बनाने का प्रर्ास करें । अपनी वास्तर्वक आध्र्ार्त्मक पहचान को समझने का प्रर्ास करें ,
र्जससे आप इसी जीवन में सख ु ी बन सकें । ऐसा शोर्कार्ि होना चार्हए।” उन्हें जो पहिी बात सीखनी है, वह र्ह है र्क
शरीर रूपी मोटर कार का एक चािक अथवा आत्मा है। ज्ञान का र्ह पहिा र्बन्दु है। इस सामान्र् बात को समझे र्बना वे
र्नरे गर्े हैं। चािक र्ानी आत्मा इस शरीर रूपी मोटर कार को चिा रहा है। र्र्द चािक र्शर्ित है तो वह अपने शरीर
को आत्मसािात्कार के र्िए चिा सकता है, र्जससे वह अपने घर अथाित् भगविाम वापस जा सकता है। तब वह पणू ि
बनता है। अतएव हम चािक को र्शर्ित कर रहे हैं-हम र्टन की अन्र् कार नहीं बना रहे। र्ही कृ ष्णभावनामृत है।

64 विषय-सूची
अध्र्ार् बीस
प्रौद्योर्गकी को आध्र्ार्त्मक प्रकाश में देखना
र्ह र्वचार-र्वर्नमर् जि ु ाई 1975 में र्शकागों में प्रात:कािीन भ्रमण के समर् श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके कर्तपर्
र्शष्र्ों के बीच हुआ।
र्शष्र् : इसके पवू ि आप कह रहे थे र्क पािात्र् जगत् आध्र्ार्त्मक रूप से अन्र्ा है और भारत प्रौद्योर्गकी दृर्ष्ट से
िाँगड़ा है; र्कन्तु र्र्द वे अपने संसार्नों को र्मिा िें, तो भारत तथा पर्िम दोनों ही िाभार्न्वत होंगे।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। र्र्द पािात्र् जगत,् जो र्क अंर्े व्र्र्ि के समान है, भारत रूपी िैंगड़े व्र्र्ि को अपने कंर्े
पर चढ़ा िे, तो िैंगड़ा व्र्र्ि आध्र्ार्त्मक रूप से मागि बता सकता है और अंर्ा व्र्र्ि भौर्तक दृर्ष्ट से-प्रौद्योर्गक दृर्ष्ट
से-उसका पािन कर सकता है। र्र्द अमरीका तथा भारत अपने प्रौद्योर्गक तथा आध्र्ार्त्मक संसार्नों को एक साथ
र्मिा िें, तो र्ह संर्ोग सारे र्वश्व में पणू ि शार्न्त तथा सम्पन्नता िा देगा।
र्े अमरीकी र्कतने अन्र्े हैं! इन्होंने मनष्ु र्-जीवन पार्ा हैं-ऐसा बर्ु िमान् जीवन-र्िर भी र्े इसका उपर्ोग झीि में
भटव परचने के र्िए कते हैं देखने मनष्ु र् को हर िण का उपर्ोग अपनी ईशचेतना वापस पाने के र्िए करना चार्हए। एक
िण भी बबािद नहीं र्कर्ा जाना चार्हए। और र्े िोग हैं र्क समर् की बबािदी के र्नत नर्े तरीके र्नकाि रहे हैं।
र्नस्सदं हे , अमरीकी िोग इन कामों को अर्त उत्तम ढंग से, बहुत ही प्रौद्योर्गक उनर्त के साथ कर रहे हैं; र्कन्तु वे
जो कुछ कर रहे हैं वह अन्र्ा काम है। आप र्कतने ही अच्छे चािक क्र्ों न हों, र्कन्तु र्र्द आप अन्र्े हैं तो आप कै से
अच्छी तरह से मोटर चिा सकते हैं? आप दघु िटना कर बैठेंगे। अत: अमरीकी िोगों को चार्हए र्क वे अपनी आाँखों को
आध्र्ार्त्मक खोिें, र्जससे उनकी अच्छी चािन उपर्ोग हो सके । अब वे सक्ष्ू मदर्शिर्ों के माध्र्म से देखने का प्रर्ास कर
रहे हैं; र्कन्तु जब तक वे अपनी आध्र्ार्त्मक पहचान के प्रर्त अर्ं े बने रहेंगे, तब तक वे क्र्ा देख सकें गे? भिे ही उनके
पास सक्ष्ू मदशी अथवा र्ह र्न्ि र्ा वह र्न्ि हो, र्कन्तु वे हैं अर्ं े ही। वे र्ह बात नहीं जानते।
र्शष्र् : मेरे र्वचार से अर्र्काश ं अमरीकी आत्म-सािात्कार की अपेिा पररवार-पािन में अर्र्क रुर्च िेते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : पाररवाररक जीवन से कृ ष्णभावनामृत र्कसी भी कृ ष्णभावनामृत को चार प्रकार से सम्पन्न कर
सकते हैं-“प्रार्र अथि र्र्र्ा वाचा”-अपने जीवन, अपने र्न, अपनी बर्ु ि तथा अपनी वाणी से। र्र्द आप गृहस्थ बनना

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चाहते हैं-र्र्द आप प्रर्तर्दन चौबीस घण्टे िगे नहीं रह सकते, तो र्न कमाइए और इसका उपर्ोग कृ ष्णभावनामृत का
प्रचार करने में कीर्जए। र्र्द आप र्न नहीं कमा सकते, तो अपनी बर्ु ि का उपर्ोग कीर्जए। बर्ु िमत्ता का र्कतना ही
काम करने के र्िए पड़ा है-प्रकाशन, शोर् इत्र्ार्द। र्र्द आप र्ह नहीं कर सकते, तो िोगों को कृ ष्ण के र्वषर् में बतिाने
के र्िए अपनी वाणी का उपर्ोग कीर्जए। आप चाहे जहााँ रहें, र्कसी न र्कसी को बतिाइए र्क “कृ ष्ण ही पणू ि परुु षोत्तम
भगवान् हैं। कृ ष्ण को सादर नमस्कार कीर्जए।” बस, इतना ही।
तो र्िर अवसरों का अभाव कहााँ है? आप कृ ष्ण की सेवा र्कसी भी रूप में कर सकते हैं, बशति र्क आप सेवा
करना चाहें। र्कन्तु र्र्द आप कृ ष्ण को अपनी सेवा में िगाना चाहें, तो र्ह बहुत भारी भि ू है। िोग र्गरजाघर जाते हैं
और कहते हैं, “हे परमेश्वर, हमारी सेवा कीर्जर्े। हमें हमारी रोजी-रोटी दीर्जर्े।”
िोग स्वर्ं अपनी समस्र्ाएाँ बना िेते हैं। वस्ततु : समस्र्ाएाँ हैं ही नहीं। ईशावास्र्र्मद सवस-ू ईश्वर ने हर वस्तु की
व्र्वस्था कर रखी है। उन्होंने हर वस्तु को पणू ि बनार्ा है। तमु देखते हो र्क पर्िर्ों के र्िए अनेक िि हैं। पर्ू र्मदम-ू कृ ष्ण
ने पहिे से हर वस्तु की पर्ािि मािा दे रखी है। र्कन्तु र्े र्तू ि अन्र्े हैंवे इसे देखते नहीं। वे समार्ान करने में िगे रहते हैं।
उन्हें समार्ान करने की क्र्ा आवश्र्कता है? हर वस्तु पहिे से पर्ािि मािा में है। बात र्ह है र्क िोग वस्तओ ु ं का
दरुु पर्ोग कर रहे हैं। अन्र्था उनके पास पहिे से पर्ािि भर्ू म है, पर्ािि बर्ु ि है-हर वस्तु पर्ािि मािा में है।
अफ्रीका तथा ऑस्रेर्िर्ा में िोगों के पास पर्ािि भर्ू म है और वे िसिों जैसे प्राकृ र्तक उपहार पर आर्श्रत न रह
कर, पशओ ु ं को वर् करने के र्िए पािते हैं। र्ह उनकी बर्ु ि है। िोग र्ह जानते हुए भी र्क कॉिी, चार् तथा तम्बाकू
उनके स्वास्थ्र् को हार्न पहुचाँ ाने वािी िसिें हैं, उन्हें उगाते हैं। ससं ार के कुछ र्हस्सों में िोग अन्न की कमी से मर रहे हैं;
र्िर भी ससं ार के अन्र् भागों में िोग तम्बाकू उगा रहे हैं, जो के वि रोग तथा मृत्र्ु को िाती है। र्ह है उनकी बर्ु ि!
समस्र्ा र्ह है र्क र्े र्तू ि र्ह नहीं जानते र्क र्ह जीवन ईश्वर को समझने के र्िए है। आप र्कसी से भी पर्ू छए
कोई नहीं जानता। ऐसे मख ू ि हैं वे। क्र्ा आप नहीं देखते र्क वे कुत्तों की र्कतनी देखभाि करते हैं? वे अन्र्े हैं। वे नहीं
जानते र्क वे ईश्वरभावनाभार्वत होंगे र्ा कुकरभावनाभार्वत। कुत्ता चार पैरों के बि दौड़ता है, र्कन्तु िोग सोचते हैं र्क
चार पर्हए वािी कार पर दौड़ने से वे उन्नत बन गए हैं। वे सोचते हैं र्क वे सभ्र् बन गए हैं, र्कन्तु उनका व्र्ापार र्सिि
दौड़ना है। बस इतना ही।
र्शष्र् : दौड़-र्पू का उद्देश्र् एक-सा है-खाना, सोना, संभोग करना और आत्मरिा करना।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ र्र्द प्रर्ोजन कुत्ते का-सा ही है, तो कार के चिने से क्र्ा िाभ? हााँ, आप कार का इस्तेमाि
कृ ष्णभावनामृत का सन्देश िेकर िोगों तक पहुचाँ ने के र्िए कर सकते हैं। आप हर वस्तु का उपर्ोग कृ ष्ण के र्िए कर
सकते हैं। र्ही र्शिा हम देते हैं। र्र्द कोई सन्ु दर-सी कार है, तो मैं उसकी भत्सना क्र्ों करूं ? इसका उपर्ोग कृ ष्ण के
र्िए करें , तो र्ह सविथा सही है। हम र्ह नहीं कहते, “इसका पररत्र्ाग कर दो।” नहीं। जब आपने र्कसी वस्तु को अपनी
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ईश्वर-प्रदत्त बर्ु ि से बनार्ा है, तो र्ह सब ठीक है, बशतें र्क आप इसका इस्तेमाि भी ईश्वर के र्िए करें ; र्कन्तु जब आप
इसका उपर्ोग कृ ष्ण के अिावा अन्र् कार्ों के र्िए करते हैं, तो र्ह बकवास है।
इसी कार को िें-जो अच्छे ढंग से सजाई गई है। र्र्द मैं कहाँ र्ह बकवास है, तो क्र्ा र्ह बर्ु िमानी है? नहीं।
आपने इस कार को र्जस कार्ि के र्िए बनार्ा है, वह बकवास है। अत: हम चाहते हैं र्क िोग के वि अपनी चेतना
बदिें। हम उनके द्वारा उत्पन्न की गई वस्तओ ु ं की भत्सना नहीं करते।
उदाहरणाथि, चाकू से आप शाक तथा िि काट सकते हैं, र्कन्तु र्र्द इसका इस्तेमाि आप अपना गिा काटने के
र्िए करें , तो र्ह बरु ी बात है। अत: िोग प्रौद्योर्गकी के चाकू का इस्तेमाि अब अपना ही गिा काटने, आत्म-
सािात्कार अथाित् कृ ष्णभावनामृत को भि ु ाने के र्िए करते हैं। र्ह बरु ा है।

नृदहे म् आद्यं सि
ु भं सदु ि
ु िभं प्िवं सकु ल्पम-् हमारा मानव शरीर एक सन्ु दर नाव के समान है। अपनी मानवी बर्ु ि
से हम अज्ञान के सागर को, इस जगत् में बारम्बार जन्म तथा मृत्र्ु के सागर को, पार कर सकते हैं। तथा “गरुु कणिर्ारम्
मार्ानक ु ू िन नभस्वतेररतं पमु ान् भवार्ब्र्ं न तरे त् स आत्महा”—हमारे पास अनक ु ू ि वार्ु है-वैर्दक वाङ्मर् में कृ ष्ण के
उपदेश हैं-तथा उसी के साथ अच्छे किान अथाित् प्रामार्णक गरुु हैं, जो हमारा मागिदशिन कर सकते हैं तथा हमें प्रबि ु कर
सकते हैं। र्र्द इन समस्त सर्ु वर्ाओ ं के होते हुए भी हम अज्ञान-सागर को पार न कर पाएाँ तब तो हम अपना गिा काट रहे
हैं। नाव है, किान है, अनक ु ू ि वार्ु है, र्कन्तु हम उनका उपर्ोग नहीं कर रहे। इसका अथि है र्क हम अपने हाथों अपनी
हत्र्ा कर रहे हैं।

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अध्र्ार् इक्कीस
र्मिर्नरपेि राज्र्
र्ह वाताििाप र्सतम्बर 1973 में स्टाकहोम में श्रीि प्रभपु ाद एवं स्वीडन में भारत के राजदतू के मध्र् हुआ ।
श्रीि प्रभपु ाद : अमरीका तथा भारत में और र्वश्व भर के अनेक देशों में “र्मिर्नरपेि राज्र्” हैं। सरकारी नेता
कहते हैं र्क वे र्कसी र्मिर्वशेष का पि नहीं िेना चाहते, र्कन्तु वस्ततु ुः वे अर्मि का पि िे रहे हैं।
राजदतू : सही में हमारी एक समस्र्ा है। हमारा समाज बहुर्मािविम्बी है; इसर्िए हम जैसे सरकारी िोगों को
सतकि रहना पड़ता है। हम र्मि के र्वषर् में अर्त दृढ़ रुख नहीं अपना सकते।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, नहीं। सरकार को दृढ़ रुख अपनाना चार्हए। र्नस्सदं हे , सरकार को सभी प्रकार के प्रामार्णक
र्मों के प्रर्त र्नरपेि रहना चार्हए; िेर्कन उसका र्ह भी कतिव्र् है र्क वह देखे र्क िोग वास्तव में र्ार्मिक बनें। ऐसा
नहीं र्क सरकार, र्मिर्नरपेि राज्र् के नाम पर, िोगों को नरक की ओर जाने दे।
राजदतू : हााँ र्ह सच है।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, र्र्द आप मसु िमान हैं, तो सरकार का कतिव्र् है र्क वह देखे र्क आप सचमचु मसु िमान की
तरह व्र्वहार करते हैं। र्र्द आप र्हन्दू हैं, तो सरकार का कतिव्र् है र्क वह आपको र्हन्दू की तरह व्र्वहार करते देखे।
र्र्द आप ईसाई हैं, तो सरकार का कतिव्र् है र्क वह र्ह देखे र्क आप ईसाई की तरह कार्ि कर रहे हैं। सरकार र्मि को
त्र्ाग नहीं सकती। र्मेणहीनुः पशर्ु भुः समानम–् र्र्द िोग अर्ार्मिक हो जाते हैं, तो वे के वि पशु तल्ु र् हैं। इसर्िए
सरकार का कतिव्र् र्ह देखना है र्क नागररकजन पशु न बन जाएाँ । िोग र्भन्न प्रकार के र्मों के अनर्ु ार्ी हो सकते हैं।
इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। र्कन्तु उन्हें र्ार्मिक होना चार्हए। “र्मिर्नरपेि राज्र्” का अथि र्ह नहीं है र्क सरकार
िापरवाह रहे, “िोग कुत्ते-र्बर्ल्िर्ााँ बन जाएाँ , र्बना र्मि के रहें।” र्र्द सरकार परवाह नहीं करती, तो वह अच्छी सरकार
नहीं है।
राजदतू : मेरे र्वचार से आप जो कुछ कह रहे हैं उसमें बहुत सार है; र्कन्तु आप जानते हैं र्क राजनीर्त तो “सम्भव
की किा” है।

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श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। राजनीर्त का अथि र्ह देखना है र्क िोग आगे बढ़ें, नागररक आध्र्ार्त्मक दृर्ष्ट से बढ़ें। ऐसा
नहीं र्क वे पर्तत हो जाएाँ।
राजदतू : हााँ, मैं सहमत ह;ाँ िेर्कन मेरे र्वचार से सरकार का पहिा कतिव्र् है ऐसी सर्ु वर्ाएाँ प्रदान करना, र्जससे
प्रर्तभावान् व्र्र्ि, आप जैसे आध्र्ार्त्मक नेता, कार्ि कर सकें । र्र्द सरकार इससे कुछ अर्र्क करती है, तो वह र्वर्भन्न
र्ार्मिक समदु ार्ों को भ्रष्ट भी कर सकती है। मेरे र्वचार से सरकार को खेि के र्नणािर्क (अम्पार्र) की तरह होना चार्हए-
उसे स्वच्छन्द र्वचार प्रकट करने के र्िए पररर्स्थर्तर्ााँ प्रदान करनी चार्हए।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। सरकार इससे भी ज्र्ादा करना चार्हए। उदाहरणाथि, आपका वार्णज्र् र्वभाग है-सरकार
देखती है र्क व्र्ापार तथा उद्योग के सस्ं थान अच्छी तरह चि रहे हैं। सरकार िाइसेंस देती है। उनके पास र्नरीिक तथा
पर्िवेिक होते हैं। र्ा मान िीर्जए आपका र्शिा र्वभाग है-उसमें र्शिा के र्नरीिक होते हैं, जो र्ह देखते हैं र्क छािों
को ठीक से र्शिा र्मि रही है। इसी तरह सरकार ऐसे दि व्र्र्िर्ों को र्नर्ि ु कर सकती है, जो र्ह जाकर देखा करें र्क
र्हन्दू सचमचु र्हन्दओ ु ं की तरह कार्ि कर रहे हैं, मसु िमान मसु िमानों की तरह तथा ईसाई ईसाइर्ों की तरह कार्ि कर रहे
हैं। सरकार को र्मि के प्रर्त िापरवाह नहीं होना चार्हए। वह र्नरपेि भिे ही रहे। “चाहे आप र्जस र्मि को अपनाएाँ उससे
हमें कुछ भी िेना-देना नहीं।” िेर्कन र्ह देखना सरकार का कतिव्र् है र्क आप ठीक से कार्ि कर रहे हैं-आप र्ोखा नहीं
दे रहे।
राजदतू : अवश्र्. जहााँ तक नैर्तक आचरण की बात है। िेर्कन, आप जानते हैं, इससे अर्र्क र्कस तरह सम्भव
है?
श्रीि प्रभपु ाद : बात र्ह है र्क जब तक आप र्ार्मिक र्सिान्तों का पािन नहीं करते, तब तक सम्भवत: आपका
नैर्तक आचरण उत्तम नहीं हो सकता
र्स्र्ार्स्त भर्िभिगवत्र्र्कञ्चना
सवैगिणु ैस्ति समासते सरु ा: ।
हरावभिस्र् कुतो महद्गणु ा
मनोरथेनासर्त र्ावतो बर्ह: ॥
“र्जसमें ईश्वर के प्रर्त अर्वचि भर्ि होती है, उसमें र्नरन्तर समस्त दैवी गणु प्रकट होते हैं; र्कन्तु र्जसमें ऐसी
भर्ि नहीं होती, वह भगवान् की भौर्तक बर्हरंगा शर्ि का दरुु पर्ोग करने के र्िए सदैव र्ोजनाएाँ बनाता रहता है,
र्जससे उसमें कोई उत्कृ ष्ट नैर्तक गणु नहीं आ पाते।” (श्रीमद्भागवत 5.18.12) जब तक आपकी ईश्वर में श्रिा है, ईश्वर में

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भर्ि है, तब तक सब कुछ ठीक है। आर्खर ईश्वर एक हैं। ईश्वर न र्हन्दू हैं, न ईसाई हैं, न मर्ु स्िम हैं, ईश्वर एक हैं। इसीर्िए
वैर्दक ग्रन्थ हमें बताते हैं-
स वै पंसु ां परो र्मो र्तो भर्िरर्ोिजे।
अहैतक्ु र्प्रर्तहता र्र्ात्मा सप्रु सीदती।।
“समस्त मानवता का परम कतिव्र् भगवान् की प्रेममर्ी भर्िमर् सेवा प्राि करना है। एकमाि ऐसी अहैतक ु ी तथा
अनवरुि भर्ि आत्मा को परू ी तरह तष्टु कर सकती है।”(भागवत 1.2.6) अत: मनष्ु र् को र्ार्मिक होना चार्हए। र्ार्मिक
हुए र्बना कोई भी तष्टु नहीं हो सकता। आर्खर, र्वश्व भर में इतना अर्र्क असन्तोष तथा इतनी अर्र्क अव्र्वस्था क्र्ों
है? क्र्ोंर्क िोग अर्ार्मिक बन गए हैं।
राजदतू : मास्को में अनेकानेक िोग र्मि के र्वरोर्ी हैं। सरासर र्मि के र्वरुि।
श्रीि प्रभपु ाद : आप मास्को ही क्र्ों कहते हैं? सविि। हीकम से कम, मास्को में वे ईमानदार तो हैं। वे ईमानदारी के
साथ कहते हैं र्क, “हम ईश्वर में र्वश्वास नहीं करते।”
राजदतू : र्ह सच है, र्ह सच है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु अन्र् स्थानों में वे कहते हैं, “मैं र्हन्दू ह,ाँ ” “मैं मसु िमान ह,ाँ ” “मैं ईसाई ह,ाँ ” “मैं ईश्वर में
र्वश्वास करता ह।ाँ ” र्कन्तु र्िर भी वे र्मि के सम्बन्र् में कुछ भी नहीं जानते। वे ईश्वर के र्नर्मों का पािन नहीं करते।
राजदतू : मझु े तो िगता है र्क हममें से बहुत से वैसे ही हैं। र्ह सच है।
श्रीि प्रभपु ाद : (हाँसते हैं) मैं कहगाँ ा र्क कम से कम मास्को में वे भि हैं। वे र्मि को नहीं समझ सकते, अत: वे
कहते हैं, “हम र्वश्वास नहीं करते।” र्कन्तु र्े अन्र् र्तू ि तो कहते हैं, “हम र्ार्मिक हैं। हमें ईश्वर में र्वश्वास है।” र्िर भी वे
सवािर्र्क अर्ार्मिक कृ त्र् करते हैं। मैंने कई बार ईसाइर्ों से पछू ा है, “आपकी बाइबि कहती है, “तू वर् नहीं करे गा,” तो
र्िर आप वर् क्र्ों करते हैं?” वे इसका सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे पाते। र्ह स्पष्ट कहा गर्ा है, “तू वर् नहीं करे गा” और
वे कसाईघर चिा रहे हैं। र्ह सब क्र्ा है ?

70 विषय-सूची
अध्र्ार् बाईस
हम व्र्ाघ्र-चेतना में नहीं रह सकते
र्ह र्वचार-र्वर्नमर् िॉस-एंर्जर्िस झरे कृ ष्ण के न्ि में र्दसम्बर 1968 में श्रीि प्रभपु ाद तथा कुछ अर्तर्थर्ों के
बीच हुआ था ।
अर्तर्थ : र्र्द मनष्ु र् पशओ ु ं का मासं न खार्ें, तो सम्भवत: वे भख ू से अथवा कुछ इसी तरह से मर जाएाँ।
श्रीि प्रभपु ाद : आप पशओ ु ं के भखू ों मरने से इतने र्चर्न्तत क्र्ों हैं? आप अपनी परवाह कीर्जर्े। आप परोपकारी
मत बर्नर्े, “ओह! वे भख ू ों मरें गे, अत: मैं उन्हें खा िाँ।ू ” र्ह कै सा परोपकार है? भोजन तो कृ ष्ण प्रदान कर रहे हैं। र्र्द
कोई पशु भख ू से मरता है, तो र्ह कृ ष्ण की र्जम्मेदारी है। कोई भख ू ों नहीं मरता। र्ह गित र्सिान्त है। क्र्ा आपने र्कसी
पशु को भख ू ों मरते देखा है? ईश्वर के राज्र् में र्कसी के भख ू ों मरने का प्रश्न ही नहीं है। हम अपनी ही इर्न्िर्-तर्ु ष्ट के र्िए
इन र्सिान्तों को बना रहे हैं। अफ्रीका तथा भारत के जंगिों में िाखों हाथी हैं। उन्हें एक बार में खाने के र्िए एक सौ पौंड
भोजन चार्हए। र्ह भोजन कौन दे रहा है? अत: ईश्वर के राज्र् में भख ू ों मरने का प्रश्न ही नहीं उठता। भख ु मरी तो
तथाकर्थत
सभ्र् मनष्ु र् के र्िए है।
अर्तर्थ : र्र्द मनष्ु र्, मांस खाने के र्िए नहीं होता तो प्रकृ र्त में अन्र् पशु क्र्ों वर् करते?
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ा आप “अन्र् पश”ु हैं?
अर्तर्थ : सही में, हम सभी पशु तो हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ा आप अपनी गणना पशओ ु ं में करते हैं? क्र्ा आप अपने को पशओ ु ं के साथ वगीकृ त करते
हैं?
अर्तर्थ : हााँ हम सभी पशु हैं.
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं, र्बल्कुि नहीं। आप भिे ही हों, हम तो नहीं हैं। क्र्ा आप अपना वगीकरण पशओ ु ं में कराना
चाहेंगे ?
अर्तर्थ : मझु े नहीं िगता है र्क मैं पशओ ु ं से बेहतर ह।ाँ मैं ईश्वर के सभी प्रार्णर्ों का आदर करता ह।ाँ
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श्रीि प्रभपु ाद : आप सब का आदर करते हैं और पशओ ु ं का वर् करते हैं ?
अर्तर्थ : र्र्द मनष्ु र् मांस खाने के र्िए नहीं है, तो र्िर प्रकृ र्त में पशु एक दसू रे को क्र्ों खाते हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : जब पशु एक दसू रे को खाते हैं, तो वे प्रकृ र्त के र्नर्मों का पािन करते हैं। जब आप मासं खाते हैं,
तो आप प्रकृ र्त के र्नर्म को तोड़ते हैं।
अर्तर्थ : क्र्ा ?
श्रीि प्रभपु ाद : उदाहरणाथि, बाघ कभी अनाज के र्िए दावा नहीं करे गा, “ओह, आपके पास इतना सारा अन्न है।
थोड़ा मझु े दीर्जर्े।” नहीं। र्र्द आपके पास सैकड़ों बोरे भी अन्न हों, तो वह इसकी तर्नक भी परवाह नहीं करता; र्कन्तु
वह पशु पर झपट्टा मारे गा। र्ह उसका स्वभाव है। र्कन्तु आप अन्न, िि, दर्ू , मांस तथा जो भी उपिब्र् हो उसे क्र्ों
ग्रहण करते हैं? र्ह क्र्ा है? आप न तो पशु हैं न मनष्ु र्। आप अपनी मानवता का दरुु पर्ोग कर रहे हैं। आपको सोचना
चार्हए, “मेरे र्िए खाने र्ोग्र् क्र्ा है? बाघ मांस खा सकता है-वह आर्खर बाघ है। र्कन्तु मैं बाघ नहीं ह।ाँ मैं तो मनष्ु र् ह।ाँ
र्र्द मेरे पास ईश्वरप्रदत प्रचरु अन्न, िि, शाक तथा अन्र् वस्तएु ाँ हैं, तो मैं बेचारे पशु का वर् क्र्ों करूं?” र्ह मानवता है।
आप तो पशु के साथ मानव हैं। र्र्द आप अपनी मानवता भि ु ा देते हैं, तो आप पशु हैं। (िर्णक शार्न्त) अत:
हम के वि पशु नहीं हैं। हम पशु के साथ मानव हैं। र्र्द हम मानवता के गणु को र्वकर्सत करते हैं, तो हमारा जीवन पणू ि
है; र्कन्तु र्र्द हम पशतु ा में रहते रहें, तो हमारा जीवन अपणू ि है। अत: हमें अपनी मानव-चेतना अथाित् कृ ष्णभावना-को
बढ़ाना है। र्र्द आप कृ ष्ण द्वारा प्रदत्त अनेक प्रकार की खाद्य वस्तएु ाँ खाकर शर्न्तपवू िक अच्छे ढंग से रह सकते हैं, तो
आप र्कसी पशु का वर् क्र्ों करें ?
इसके अिावा भी वैज्ञार्नक दृर्ष्ट से आपके दााँत शाक खाने के र्िए बने हैं। बाघ के दााँत मांस खाने के र्िए होते
हैं। प्रकृ र्त ने उसे ऐसा बनार्ा है। उसे अन्र् पशु को मारना पड़ता है, अत: उसके नाखनू होते हैं, दााँत होते हैं, शर्ि होती है;
र्कन्तु आप में उतनी शर्ि नहीं होती। आप एक गार् को बाघ की तरह झपट्टा मार कर नहीं मार सकते। आपको कसाईघर
बनवाने होते हैं और आपको अपने घर पर ही बैठे रहना होता है। र्र्द कोई दसू रा व्र्र्ि गार् की हत्र्ा करता है, तो आप
अच्छी तरह खा सकते हैं। र्ह क्र्ा है? आप भी बाघ जैसा कीर्जए ! गार् के ऊपर झपट्टा माररर्े और उसे खाइर्े! आप
ऐसा नहीं कर सकते।
अर्तर्थ : तो आप प्रकृ र्त के र्नर्म में र्वश्वास नहीं करते। मेरे र्वचार से प्रकृ र्त का र्नर्म हर एक पर समान रूप से
िागू होता है। -
श्रीि प्रभपु ाद : प्रकृ र्त के र्नर्म द्वारा बाघ उसी तरह से बनार्ा गर्ा है, अतएव वह वैसा कर सकता है। आप नहीं
कर सकते; आपका स्वभाव र्भन्न है। आप में र्ववेक है, आप में कतिव्र् भावना है, आप अपने को सभ्र् मानव कहते हैं-

72 विषय-सूची
अतएव आपको इन सबका सही उपर्ोग करना चार्हए। र्ही कृ ष्णभावनामृत है-पणू ि चेतना। मानव-जीवन तो चेतना की
पणू िता तक ऊपर उठने के र्िए बना है और र्ही कृ ष्णभावना है। हम बाघ-चेतना में नहीं रह सकते। र्ह मानवता नहीं है।
दसू रा अर्तर्थ : क्र्ा हम ऊपर से नीचे र्गरे हैं र्ा हम पौर्ों तथा पशओ ु ं से ऊपर आर्े हैं?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ स्वाभार्वक रूप से आप ऊाँचे से नीचे र्गरे हैं-आध्र्ार्त्मक जगत् से इस भौर्तक जगत् में आर्े
हैं और तब र्नम्नतर र्ोर्नर्ों में पहुचाँ े हैं। र्िर आप उन्नर्त करते हैं और पनु : इस मनष्ु र् रूप को प्राि करते हैं। र्र्द आप
अपनी उच्चतर चेतना का उपर्ोग करते हैं, तो आप इससे भी ऊाँचे जाते हैं; आप ईश्वर के पास जाते हैं; र्कन्तु र्र्द आप
अपनी उच्चतर चेतना का उपर्ोग नहीं करते, तो पनु : नीचे चिे आते हैं।
अत: आप र्दग्भ्रर्मत न हों। ईशभावनामृत र्ा कृ ष्णभावनामृत ग्रहण करें और र्ही इस मनष्ु र् जीवन का सही
उपर्ोग होगा। अन्र्था र्र्द हम बाघ की तरह मासं ाहार की ित िगाएाँगे, तो हमें अगिे जन्म में बाघ का शरीर प्राि हो
सकता है; र्कन्तु इससे क्र्ा िाभ? मान िीर्जर्े र्क अगिे जीवन में मैं अर्त बिशािी बाघ बन जाऊाँ। क्र्ा र्ह बहुत
अच्छी उन्नर्त होगी? क्र्ा आप बाघ के जीवन को जानते हैं? उन्हें प्रर्त र्दन खाने को भी नहीं र्मिता। वे एक पशु पर
झपट्टा मारते हैं और उसे र्छपा कर रख देते हैं तथा सड़े हुए मासं को एक महीना भर खाते हैं, क्र्ोंर्क उन्हें पशु मारने का
अवसर हमेशा हाथ नहीं आता। ईश्वर उन्हें वह अवसर उपिब्र् नहीं होने देते। र्ह प्राकृ र्तक है-जहााँ कहीं भी जंगि में
बाघ होता है, तो अन्र् पशु भाग जाते हैं। आत्म-रिा के र्िए। अतएव र्बरिे ही जब बाघ अत्र्न्त भख ू ा होता है, तो ईश्वर
उसे अन्र् पशु पर झपट्टा मारने का अवसर देते हैं। बाघ र्नत्र् अनेकानेक स्वार्दष्ट व्र्जं न नहीं पा सकता। र्ह तो मनष्ु र्
जीवन ही है, र्जसमें हमें इतनी सारी सर्ु वर्ाएाँ र्मिती हैं; र्कन्तु र्र्द हम उनका दरुु पर्ोग करें तो. हमें बाघ जीवन र्मिता
है-अर्त बर्िि तथा झपट्टा मारने की परू ी िमता से र्ि ु जीवन ।

73 विषय-सूची
अध्र्ार् तेईस
ईशर्वमख
ु वैज्ञार्नक
र्ह बातचीत र्दसम्बर 1973 में प्रात: कािीन भ्रमण के समर् िॉस एन्जर्िस के वेर्नस तट में श्रीि प्रभपु ाद तथा
उनके कुछ र्शष्र्ों के बीच हुई ।
र्शष्र् : वैज्ञार्नक कहते हैं र्क उनकी तकि शर्ि बताती है र्क ईश्वर नहीं हैं। वे कहते हैं र्क र्र्द आप ईश्वर में
र्वश्वास करते हैं, तो र्ह माि आस्था का र्वषर् है।
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह आस्था का र्वषर् नहीं है-र्ह तथ्र् है। ]
र्शष्र् : जब वैज्ञार्नक “तथ्र्” की बात कहते हैं, तो उनका आशर् होता है कोई ऐसी वस्तु र्जसकी अनभु र्ू त वे
इर्न्िर्ों के माध्र्म से कर सकते हैं। -
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। और कृ ष्णभावनामृत में हम अपनी इर्न्िर्ों के माध्र्म से ईश्वर की अनभु र्ू त कर सकते हैं। हम
अपनी इर्न्िर्ों को र्जतना अर्र्क भर्िमर् सेवा में-ईश्वर की सेवा में-िगाते हैं, उतना ही अर्र्क हम ईश्वर की अनभु र्ू त
कर सकते हैं। हृषीके ण हृषीके शसेवन भर्करुच्र्ते-”जब कोई व्र्र्ि अपनी इर्न्िर्ों को सवोपरर की सेवा में िगाता है, तो
वह सम्बन्र् भर्ि कहिाता है।” उदाहरणाथि, हम अपने पैरों का प्रर्ोग मर्न्दर तक जाने में तथा अपनी जीभ का प्रर्ोग
ईश्वर का गणु गान करने एवं प्रसाद िेने में करते हैं।
र्शष्र् : िेर्कन वैज्ञार्नक कहते हैं र्क र्े श्रिा के कार्ि हैं। वे कहते हैं र्क जब आप ईश्वर को भोजन अर्पित करते
हैं, तो र्ह के वि आपकी आस्था रहती है र्जससे आप सोचते हैं र्क ईश्वर उसे ग्रहण करते हैं। उनका कहना है र्क वे ईश्वर
को खाते नहीं देख सकते।
श्रीि प्रभपु ाद : वे भिे न देख सकें , र्कन्तु में देख सकता ह।ाँ मैं उनके जैसा मूखि नहीं ह।ाँ वे आध्र्ार्त्मक रूप से
अन्र्े हैं; वे अज्ञान रूपी मोर्तर्ार्बन्द से ग्रस्त हैं। र्र्द वे मेरे पास आएाँ तो मैं आपरे शन कर दगाँू ा और तब वे भी ईश्वर को
देखने िगेंगे।
र्शष्र् : हााँ, िेर्कन वैज्ञार्नक ईश्वर को अभी देखना चाहते हैं।

74 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : र्कन्तु कृ ष्ण उनके समि अभी नहीं प्रकट होंगे, क्र्ोंर्क वे र्तू ि हैं-बहुत बड़े पश।ु
“श्वर्वड्वराहरखरें : सस्तुत: परुु ष, पश”ु -“जो भगवान् का भत नहीं है, वह बहुत बड़ा पश-ु ऊाँट, कुत्ता, र्ा सअ ू र-है और
उसकी प्रशंसा करने वािे भी उसी जैसे हैं।”
र्शष्र् : वे कहते हैं र्क आप िोग माि स्वप्नदृष्टा हैं-आप ईश्वर तथा वैकुण्ठ के र्वषर् में कहार्नर्ााँ गढ़ते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : वे “कहार्नर्ााँ” क्र्ों कहते हैं? चाँर्ू क उनमें समझने की बर्ु ि नहीं है, इसीर्िए वे “कहार्नर्ााँ” कहते
हैं।
र्शष्र् : वस्तपु रकता का उनका मानदण्ड वह है, र्जसे वे अपनी इर्न्िर्ों से अनभु व कर सकें ।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ, वे अपनी इर्न्िर्ों से ही ईश्वर की अनभु र्ू त कर सकते हैं। जब वे अपनी इर्न्िर्ों से बािू की
अनभु र्ू त करते हैं, तो बािू र्कसने बनाई के बारे में वे क्र्ा सोचते हैं? उन्होंने नहीं बनाई है। जब वे अपनी इर्न्िर्ों से समिु
देखते हैं, तो वे क्र्ा सोचते हैं र्क इसे र्कसने बनार्ा? वे ऐसे मख ू ि क्र्ों हैं र्क इतना भी नहीं समझ पाते?
र्शष्र् : वे कहते हैं र्क र्र्द ईश्वर ने र्े वस्तएु ाँ बनाई होतीं, तो वे ईश्वर को भी देख सकते थे र्जस तरह वे समिु को
देख सकते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : मैं उनसे कहता ह,ाँ “तमु ईश्वर को देख सकते हो, र्कन्तु पहिे तम्ु हारे पास उन्हें देखने के र्िए आाँखें
होनी चार्हए। तमु अन्र्े हो; तम्ु हारे मोर्तर्ार्बन्द है। मेरे पास आओ, मैं आपरे शन कर दगाँू ा। तब तमु ईश्वर को देख
सकोगे।” इसीर्िए वैर्दक शास्त्र कहते हैं- तद् र्वज्ञानाथ स गरुु सेवार्भगच्छे तई् श्वर को देख पाने के र्िए तम्ु हें प्रामार्णक गरुु
के पास जाना चार्हए। अन्र्था वे अपनी अंर्ी आाँखों से ईश्वर को कै से देख सकते हैं ?
र्शष्र् : िेर्कन र्वज्ञार्नर्ों को इस तरह के देखने में, र्जसकी आप बात कर रहे हैं, कोई आस्था नहीं। वे र्जस
एकमाि देखने में कोई श्रिा रखते हैं, वह है र्जसे वे अपनी आाँखों से तथा अपने सक्ष्ू मदशी र्िं तथा दरू बीन से पा सकते
हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ों? र्र्द इस समर् तमु आकाश को र्नहारो, तो तमु सोचोगे र्क वह ररि है; र्कन्तु वह ररि नहीं
है-तम्ु हारी आाँखें अिम हैं। आकाश में असंख्र् ग्रह तथा तारे हैं, र्कन्तु तमु उन्हें देख नहीं सकते-उनके प्रर्त तमु अन्र्े हो।
अत: चाँर्ू क तमु ग्रह तथा तारे नहीं देख सकते, तो क्र्ा इसका अथि र्ह हुआ र्क वे र्वद्यमान नहीं हैं ?
र्शष्र् : वैज्ञार्नक स्वीकार करते हैं र्क कुछ वस्तओ ु ं के र्वषर् में वे अज्ञानी हैं। र्िर भी वे ऐसी वस्तओ
ु ं के र्वषर्
में आपकी व्र्ाख्र्ा को नहीं मानेंगे, र्जन्हें वे अपनी आाँखों से नहीं देख सकते।
श्रीि प्रभपु ाद : क्र्ों नहीं? र्शष्र् : क्र्ोंर्क वे सोचते हैं र्क आप जो कुछ उन्हें बताते हैं, वह गित हो सकता है।

75 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : र्ह तो उनका दभु ािग्र् है। हमारी स्थि ू इर्न्िर्ााँ ईश्वर तक नहीं पहुचाँ पातीं। उन्हें जानने के र्िए हमें
र्कसी अर्र्कारी से सनु ना होगा-उच्चतर ज्ञान प्राि करने की र्ही र्वर्र् है।
र्शष्र् : िेर्कन इसमें श्रिा की जरूरत है-गरुु में श्रिा की।
श्रीि प्रभपु ाद : श्रिा नहीं, सामान्र् ज्ञान की। र्र्द आपको आर्वु ेद सीखना हो, तो आपको दि वैद्य के पास
जाना होगा। आप अपने से इसे नहीं सीख सकते।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, आपने जो कुछ कहा है, उससे स्पष्ट है र्क हम अपने र्वचारों का समथिन भिीभााँर्त कर
सकते हैं; र्जस तरह नार्स्तक वैज्ञार्नक अपने र्वचारों का करते हैं; िेर्कन वे समाज के र्नर्न्िक हैं; उनकी प्रर्ानता है।
श्रीि प्रभपु ाद : प्रर्ानता? (हाँसते हैं) मार्ा (कृ ष्ण की भौर्तक शर्ि) की एक िात खाते ही उनकी सारी
“प्रर्ानता” िण भर में गार्ब हो जाती है। वे मार्ा द्वारा र्नर्र्न्ित होते हैं, र्कन्तु वे अपने को स्वतन्ि समझते हैं। र्ह
उनकी मख ू िता है।
र्शष्र् : वे होश में आना नहीं चाहते।
श्रीि प्रभपु ाद : इसीर्िए वे र्तू ि हैं। र्तू ि वह है, जो आपके द्वारा गित र्सि र्कए जाने पर भी अपने को सही
बताता रहता है। वह कभी भी अच्छी र्शिा ग्रहण नहीं करे गा। और वे र्तू ि क्र्ों बने रहते हैं? “न मां दष्ु कृ र्तनो मढू ाुः
प्रपद्यन्ते नरार्मा:” (भगवद-् गीता 7.15)-क्र्ोंर्क वे दष्ु कृ र्तन अथाित् अत्र्न्त पापी हैं। क्र्ा तमु देख नहीं रहे हो र्क वे
ससं ार को र्कस तरह कसाईघर तथा वेश्र्ािर् बनाए दे रहे हैं; र्कस तरह वे इर्न्िर् र्विास को बढ़ावा देकर हर एक का
जीवन चौपट कर रहे हैं? र्े सब पापकमि हैं। चाँर्ू क वैज्ञार्नक इतने पापी हैं, अत: उन्हें घोर नरक की र्ातना सहनी होगी।
अगिे जन्म में वे मि के कीड़े बनेंगे। र्िर भी अज्ञान के कारण वे अपने आप को सरु र्ित मान रहे हैं।

76 विषय-सूची
अध्र्ार् चौबीस
नोबेि परु स्कार ईश्वर को दीर्जए
र्ह वाताििाप जनू 1974 को जेनेवा में प्रात:कािीन भ्रमण के समर् श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके कुछ र्शष्र्ों के बीच
हुआ
श्रीि प्रभपु ाद : जरा इस अंजीर को देखो। इस एक अंजीर में तम्ु हें हजारों बीज र्मिेंगे और हर नन्हा बीज एक नए
पणू ि वृि को जन्म देगा। वह रसार्न वेत्ता कहााँ है, जो ऐसा कार्ि कर सके ! पहिे वृि बनाए, र्िर वृि में िि िगाए और
इसके बाद िि में बीज बनाए तथा अन्त में बीजों से अनेक वृि बनाए। बताओ मझु े, वह रसार्न वेत्ता कहााँ है?
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, वे गवि से बातें करते हैं, िेर्कन इनमें से कोई भी रसार्न वेत्ता तथा ऐसे िोग कुछ भी करके
नहीं र्दखा सकते।
श्रीि प्रभपु ाद : एक बार एक बहुत बड़े रसार्न वेत्ता मेरे पास आए और उन्होंने र्ह स्वीकार र्कर्ा, “हमारी
रासार्र्नक प्रगर्त, हमारी वैज्ञार्नक प्रगर्त उस व्र्र्ि के समान है, र्जसने भोंकना सीख र्िर्ा है। पहिे से अनेक
प्राकृ र्तक कुत्ते भोंक रहे हैं, िेर्कन कोई उन पर ध्र्ान नहीं देता; र्कन्तु र्र्द कोई मनष्ु र् कृ र्िम रूप से भोंकने की किा
सीख िे, तो कई िोग उसे देखने आएाँगे-र्हााँ तक र्क दस, बीस डॉिर का र्टकट भी खरीद िेंगे-के वि एक बनावटी कुत्ते
को देखने के र्िए। हमारी वैज्ञार्नक प्रगर्त ऐसी ही है।
र्र्द कोई व्र्र्ि प्रकृ र्त की कृ र्िम नकि उतारता है, जैसे र्क भोंकने की, तो िोग उसे देखने जाते हैं और र्न भी
खचि करते हैं; र्कन्तु जहााँ प्राकृ र्तक भोंकने की बात होती है, तो कोई परवाह नहीं करता। और जब र्े तथाकर्थत बड़े -बड़े
वैज्ञार्नक र्तू ि र्ह दावा करते हैं र्क वे जीवन का र्नमािण कर सकते हैं, तो िोग सभी तरह से प्रशसं ा करते हैं तथा परु स्कार
प्रदान करते हैं। जहााँ तक ईश्वर की पणू ि प्राकृ र्तक र्वर्र् की बात है, करोड़ों करता। िोग ईश्वर की प्रर्क्रर्ा को अत्र्र्र्क
श्रेर् नहीं देते।
जो मख ू ि मृत भौर्तक रसार्नों से जीव बनाने की कोई आदशिवादी र्ोजना का ढोंग रचता है, उसे सारा श्रेर् प्रदान
र्कर्ा जाता है-र्े िो, नोबेि परु स्कार। वे कहेंगे, “देखो, र्हााँ है सजिनशीि प्रर्तभा।” और प्रकृ र्त प्रर्त िण भौर्तक शरीरों
में करोड़ों आत्माएाँ प्रर्वष्ट कराती रहती है-र्ह ईश्वर की व्र्वस्था है। र्कन्तु इस पर कोई ध्र्ान नहीं देता। र्ही र्तू िता है।
77 विषय-सूची
र्र्द हम र्ह कल्पना कर भी िें र्क आप अपनी प्रर्ोगशािा में एक मनष्ु र् र्ा पशु का र्नमािण कर सकते हैं, तो
इसमें आपका श्रेर् क्र्ा है? आर्खर, आपने के वि एक मनष्ु र् र्ा पशु को उत्पन्न र्कर्ा और भगवान् तो करोड़ों को जन्म
देते हैं। अत: हम कृ ष्ण को श्रेर् देना चाहते हैं, जो उन सारे प्रार्णर्ों के असिी जन्म देने वािे हैं, र्जन्हें हम र्नत्र् देखते हैं।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, क्र्ा आपको एल्डुअस हक्सिे का स्मरण है, र्जसने अपनी पस्ु तक ब्रेव न्र्ू वल्र्ड में
आनवु ांर्शक र्वर्र् से र्शशओ ु ं की छंटाई तथा कुछ गणु ों के आर्ार पर मनष्ु र्ों के प्रजनन की भर्वष्र्वाणी की थी ?
उसका र्वचार गणु ों की एक प्रजार्त को िेकर श्रर्मकों की एक श्रेणी का प्रजनन करना, दसू री प्रजार्त से प्रशासकों का
प्रजनन करना तथा अन्र् प्रजार्त से सभ्र् सिाहकारों तथा र्वद्वानों का प्रजनन करना था।
श्रीि प्रभपु ाद : र्िर वही बात, र्ह भी ईश्वर की प्राकृ र्तक व्र्वस्था में पहिे से उपर्स्थत है। “गणु कमिर्वभागशुः”-
र्वगत जन्म में अपने गणु ों तथा कमों के अनसु ार मनष्ु र् इस जीवन में उपर्ि ु शरीर पाता है। र्र्द र्कसी ने अज्ञान के गणु ों
तथा कमों का अनश ु ीिन र्कर्ा होगा, तो उसे अज्ञानी शरीर र्मिता है और उसे शारीररक श्रम करके जीना पड़ता है। र्र्द
र्कसी ने रजोगणु ी कमों का अनश ु ीिन र्कर्ा है, तो उसे रजोगणु ी शरीर र्मिता है और उसे अन्र्ों का भार उठाने का
प्रशासर्नक कार्ि करके जीना होता है। र्र्द र्कसी ने प्रबि ु ता के गणु ों तथा कमों का अनश ु ीिन र्कर्ा है, तो उसे प्रबि ु
शरीर र्मिता है और उसे िोगों को प्रबि ु करके तथा उपदेश देकर जीना होता है।
आप देर्खर्े तो ! ईश्वर ने पहिे से ऐसी पणू ि व्र्वस्था कर रखी है। प्रत्र्ेक आत्मा को उसकी इच्छा तथा र्ोग्र्ता
के अनसु ार शरीर र्मिता है और सामार्जक व्र्वस्था में वार्ं छत गणु ों वािे नागररक र्मिते हैं। ऐसा नहीं है र्क आपको इन
गणु ों को िेकर शरीर सजिन करने होते हैं। भगवान् अपनी प्राकृ र्तक व्र्वस्था द्वारा आत्मा-र्वशेष को र्वर्शष्ट प्रकार के
शरीर से ससु ज्ज करते हैं। जो कुछ ईश्वर तथा प्रकृ र्त पहिे से भिीभााँर्त करते आ रहे हैं, उसकी नकि करने के प्रर्ास से
क्र्ा िाभ?
मैंने उस वैज्ञार्नक से, जो मझु े र्मिने आर्ा था, कह र्दर्ा, “तमु वैज्ञार्नक िोग व्र्थि ही समर् नष्ट कर रहे हो।”
बच्चों का र्खिवाड़। वे कुत्तों के भोंकने की नकि माि कर रहे हैं। वैज्ञार्नक उस असिी कुत्ते पर ध्र्ान नहीं देता, उसे
कोई श्रेर् नहीं देता, जो स्वाभार्वक भोंकने का कार्ि करता है। वस्ततु : आज र्ही र्स्थर्त है। जब प्राकृ र्तक कुत्ता भोंकता
है, तो वह र्वज्ञान नहीं होता। जब नकिी बनावटी कुत्ता भोंकता है, तो वह र्वज्ञान है। है न? भगवान् की प्राकृ र्तक
व्र्वस्था जो कुछ पहिे से कर रही है, उसकी नकि करने में र्जस स्तर तक र्े वैज्ञार्नक सिि होते हैं, वही र्वज्ञान है।
र्शष्र् : श्रीि प्रभपु ाद, जब आपने र्वज्ञार्नर्ों को र्ह दावा करते सनु ा था र्क अब वे परखनिी में र्शशु उत्पन्न
कर सकते हैं, तब आपने कहा था, “िेर्कन र्ह तो पहिे से माता के गभािशर् में र्कर्ा जा रहा है। गभािशर् पररपणू ि
परखनिी है।”

78 विषय-सूची
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ प्रकृ र्त पहिे से हर काम र्नतान्त पणू िता के साथ सम्पन्न कर रही है; िेर्कन कोई दम्भी
वैज्ञार्नक भद्दा अनक ु रण करे गा और वह भी प्रकृ र्त के द्वारा दी गई सामग्री का उपर्ोग करके , नोबेि परु स्कार पा िेगा।
और र्शशु उत्पन्न करने की बात जाने दें, र्े वैज्ञार्नक अपनी गविी प्रर्ोगशािाओ ं में घास की एक पत्ती बना कर
र्दखाएाँ।
र्शष्र् : तब तो उन्हें भगवान् एवं प्रकृ र्त माता को नोबेि परु स्कार प्रदान करना चार्हए।
श्रीि प्रभपु ाद : अवश्र्! अवश्र्!
र्शष्र् : सचमचु , मेरे र्वचार से उन्हें आपको नोबेि परु स्कार देना चार्हए। आपने न जाने र्कतने मख ू ि नार्स्तकों को
अपनाकर ईश-भि उत्पन्न र्कर्े हैं। श्रीि प्रभपु ाद : ओह मैं, मैं तो “प्राकृ र्तक कुत्ता” हाँ अत: वे मझु े क्र्ों परु स्कृ त करने
िगे? (हाँसते हैं) वे तो बनावटी कुत्ते को परु स्कार देंगे।

79 विषय-सूची
अध्र्ार् पच्चीस
सामार्जक क्रांर्त
र्ह वाताििाप जनू 1974 में श्रीि प्रभपु ाद एवं सर्ंि
ु राष्र के र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन के सदस्र्ों के बीच जेनेवा में
हुआ ।
श्रीि प्रभपु ाद : आप सारे र्वश्व में, र्ा र्वश्व में कहीं पर भी, आप इस प्रर्ोग को कर सकते हैं; र्जस प्रकार हम कर
रहे हैं। सीर्ा सादा जीवन व्र्तीत कीर्जए, आत्मर्नभिर होइए, अपनी आवश्र्क वस्तएु ाँ िै क्टररर्ों से न िेकर खेतों से
िीर्जए तथा ईश्वर के पर्वि नामों का गणु गान कीर्जए।
इस औद्योर्गक तन्ि में, र्ह चाहे पाँजू ीवादी हो र्ा साम्र्वादी, के वि थोड़े से बड़े िोग अन्र् कई िोगों का शोषण
करके सख ु ी-तथाकर्थत सख ु ी-हो सकते हैं। चाँर्ू क इन कर्तपर् भ्रष्ट िोगों के द्वारा अन्र् िोगों का शोषण र्कर्ा जाता है र्ा
उन्हें बेरोजगार कर र्दर्ा जाता है, इसर्िए अन्र् िोग भी भ्रष्ट हो जाते हैं। वे काम से जी चरु ाते हैं और र्ों ही समर् गवाते
हैं र्ा र्िर ईमानदारी से कार्ि नहीं करते। और भी अनेक बातें हैं।
अतएव एकमाि औषर्र् र्ही है र्क हर एक को स्वाभार्वक ढंग से रहना चार्हए और ईश्वर के पर्वि नामों का जप
करना चार्हए। ईश-भावनाभार्वत होइए; र्ह औषर्र् सरि है और र्हााँ उसके कुछ पररणाम आप प्रत्र्ि देख सकते हैं।
मेरे तरुण र्रू ोपीर् तथा अमरीकी अनर्ु ार्र्ओ ं में नशीिी दवाएाँ िेने, शराब पीने, र्म्रू पान करने तथा अन्र् आर्र्ु नक बरु े
व्र्सनों की ित थीं। र्कन्तु अब देखो न! वे र्कतने गम्भीर हो गए हैं और र्कस तरह ईश्वर के पर्वि नाम का गार्न कर रहे
हैं।
आप दर्ु नर्ा को बदि सकते हैं और हर चीज को ठीक कर सकते हैं, बशति र्क आप र्ह र्शिा ग्रहण करें । अन्र्
कोई औषर्र् नहीं है। र्र्द आप सनु ना ही न चाहें, तो क्र्ा र्कर्ा जा सकता है? असिी औषर्र् तो है, र्कन्तु र्र्द आप
उसे ग्रहण न करना चाहें, तो रोग कै से ठीक होगा?
र्वश्व स्वास्थ्र् सगं ठन (WH.O.) का सदस्र् : इसके पवू ि आपने देहातवार्सर्ों के शहर की ओर दभु ािग्र्पणू ि
पिार्न करने का उल्िेख र्कर्ा। आपने र्ह इर्ं गत र्कर्ा र्क शहरी जीवन में देहातवासी िै क्टरी-मजदरू बन जाते हैं और

80 विषय-सूची
तब उनमें अनेक बरु ाइर्ााँ घर करने िगती हैं। तत्पिात् आपने र्ह हि सझु ार्ा र्क र्र्द हम गााँवों में रहें और माि तीन
महीने खेतों में काम करें , तो परू े वषि के र्िए भोजन जटु जाएगा।
िेर्कन मैं र्ह बात उठाना चाहगाँ ा र्क हमारे कस्बों तथा देहातों में र्वकट रूप में बेरोजगारी है। वहााँ बहुत से िोगों
को र्वनाश का भर् खार्े जाता है। वे अपने र्िए पर्ािि खाद्य सामग्री उत्पन्न नहीं कर पाते , क्र्ोंर्क उनके पास जमीन नहीं
है। व्र्ापारी िोग भर्ू म का उपर्ोग अपने र्नजी कार्ों के र्िए करते हैं, इसीर्िए अनेक सामान्र्जन बेरोजगार हैं। इसीर्िए
वे शहरों में जाते हैं। ऐसा जरूरी नहीं है र्क शहरों का “अच्छा जीवन” उन्हें आकृ ष्ट करता है; अर्पतु इसर्िए र्क जमीन
पर उनकी पहुचाँ नहीं है। र्ह जमीन व्र्ापारी िोगों के द्वारा काम में नहीं िाई जाती है और सामान्र्जन गााँवों में स्वतन्ि
होकर रहने तथा अपने र्िए पर्ािि खाद्यान्न उत्पन्न करने में असमथि हैं।
अब व्र्ापारी वगि शोषण कर रहा है। वे शोषण करते हैं। अतएव जब तक कोई ऐसी क्रार्न्त नहीं होती, र्जसके
द्वारा इस व्र्ापारी वगि की शर्ि सीर्मत कर दी जाए, तब तक आप र्ह आशा कै से कर सकते हैं र्क कभी न कभी िोग
अपने गााँवों में रह सकें गे और भर्ू म पर अपना खाद्यान्न उत्पन्न कर सकें गे?
श्रीि प्रभपु ाद : बात र्ह है र्क सरकार का दार्र्त्व बनता है र्क वह देखे र्क कोई भी व्र्र्ि बेकार न रहे। वही
अच्छी सरकार है। वैर्दक प्रणािी में समाज में चार स्वाभार्वक वगि हैं- ब्राह्मण अथाित् र्वचारशीि वगि जो र्शिा और
सिाह देता है; िर्िर् र्ा प्रभावशािी वगि जो रिा करता है और सगं ठन करता है। तत्पिात् वैश्र् र्ा व्र्ापारी वगि जो
भर्ू म तथा गार्ों की देखभाि करता है तथा खाद्यान्न उत्पादन की ओर ध्र्ान देता है। तथा शिू र्ा श्रर्मक वगि जो अन्र्
वगों की सहार्ता करता है।
इसका अथि र्ह है र्क सरकार में प्रभावशािी िर्िर्ों का होना आवश्र्क है, जो अन्र् सभी िोगों की रिा करें
और इसका ध्र्ान रखें र्क र्वर्भन्न वगि के िोग अपना-अपना कार्ि करें । सरकार को देखना होता है र्क हर व्र्र्ि को
ठीक से रोजगार र्मिे। तभी बेरोजगारी की सारी समस्र्ा हि हो सके गी।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (WH.O.) का सदस्र् : िेर्कन सम्प्रर्त व्र्ापारी वगि भी सरकार में सर्म्मर्ित है। वस्ततु : वे
मजबतू जड़ें जमाए हैं। सरकार में उनकी बात मानी जाती है और कई बार वे सरकार में खदु अर्र्कारी होते हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। इसका अथि है बरु ी सरकार।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (WH.O.) का सदस्र् : हााँ! र्ह. र्ह सच है।
श्रीि प्रभपु ाद : वह बरु ी सरकार है। व्र्ापारी वगि को सरकार से कोई सरोकार नहीं होना चार्हए। अन्र्था सरकार-
र्बना र्कसी र्नम्न उद्देश्र् के -र्कस तरह हर एक के रोजगार के र्वषर् में देख सकती है ?

81 विषय-सूची
सरकार को चार्हए र्क वह व्र्ापारी वगि को अपनी कार्ि– कुशिता का मि ु -रूप से उपर्ोग करने के र्िए
प्रोत्सार्हत करे , िेर्कन वह ऐसे अस्वाभार्वक उद्योगों की र्ोजना न बनाए जो बनें, र्बगड़ें और िोग बेकार हो जाएाँ।
सरकार को देखना होगा र्क हर व्र्र्ि सही रोजगार में िगे।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (WH.O.) का सदस्र् : मैं उस र्दन की तिाश में हाँ जब कृ ष्णभावनामृत आन्दोिन असिी
क्रार्न्तकारी अन्दोिन बन सके गा और समाज की आकृ र्त को बदि देगा।
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। मैं सोचता हाँ र्क र्ह क्रार्न्त िाएगा, क्र्ोंर्क अमरीकी तथा र्रू ोपीर् िोग इसे गम्भीरता से िे
रहे हैं। मैंने इसका सिू पात उनके बीच कर र्दर्ा है और वे अत्र्न्त बर्ु िमान् हैं; वे हर बात को गम्भीरता से िेते हैं।
हम के वि कुछ ही वषों से कार्ि कर रहे हैं, र्िर भी हमने सारे र्वश्व में इस आन्दोिन का प्रसार कर र्दर्ा है। र्र्द
िोग इसे गम्भीरता से िेंगे, तो र्ह आगे चिेगा और क्रार्न्त आएगी, क्र्ोंर्क हम मनमाने ढंग से तथा ईष्र्ा-द्वेषवश कार्ि
नहीं कर रहे। हम शास्त्र से प्रामार्णक र्नदेश ग्रहण कर रहे हैं। इसमें पर्ािि जानकारी है। िोग इन ग्रन्थों को पढ़कर
जानकाररर्ााँ पा सकते हैं। र्र्द वे इसे गम्भीरता से िें, तो र्ह क्रांर्त आ सके गी।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (WH.O.) का सदस्र् : मैं आपकी एक बात से सहमत नहीं हो सकता। भारतीर् होने के
नाते एक प्रश्न प्रार्: मझु े परे शान करता रहता है। आपने र्जस प्रकार प्राकृ र्तक और सीर्े-सादे जीवन की ओर िौटने की
बातें कही हैं, उनमें से बहुत में मेरा र्वश्वास है। आध्र्ार्त्मक तर्ु ष्ट पाने के र्वषर् में भी मैं सहमत ह।ाँ उसके र्वषर् में कोई
प्रश्न नहीं है। मैं वह “पर्िमी मानर्सकता” वािा भारतीर् नहीं ह।ाँ मैं र्जस बात से सहमत नहीं हो पाता, वह र्ह है र्क हम,
र्जनके पास र्ह आध्र्ार्त्मक ज्ञान तथा सांस्कृ र्तक र्दशार्नदेश थे, र्जन्हें आपने अभी-अभी हमारी समस्र्ाओ ं का हि
बतार्ा है, अपने समाज को उन र्वर्वर् बरु ाइर्ों से मुि नहीं रख पाए जो अब घर कर गई हैं। मैं के वि गरीबी का उल्िेख
नहीं कर रहा, अर्पतु बेरोजगारी तथा भख ु मरी एवं अन्र् अनेक बातों का भी उल्िेख कर रहा ह।ाँ
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। र्ह हमारे सांस्कृ र्तक र्दशार्नदेश के कारण नहीं, अर्पतु उन बरु े नेताओ ं के कारण है, जो
उनका अनगु मन नहीं करते। र्ह सब इन्हीं बरु े नेताओ ं के कारण है।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (W.H.O.) का सदस्र् : वे तो अपने ही िोग हैं। वे....
श्रीि प्रभपु ाद : रहे वे अपने ही िोग। वे हमारे अपने र्पता क्र्ों न हों। प्रह्वाद महाराज भगवित थे, र्िर भी उनका
र्पता र्हरण्र्कर्शपु र्नपट असरु था। तो र्कर्ा क्र्ा जा सकता है? अर्र्काश ं िोग नेक हैं; र्िर भी हम देखते हैं र्क उनका
नेता ईश्वरर्वहीन असरु होता है।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (W.H.O.) का सदस्र् : हााँ, र्हरण्र्कर्शपु का र्वनाश तो होना ही था।

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श्रीि प्रभपु ाद : इसीर्िए वह र्वनष्ट कर र्दर्ा गर्ा। ईश्वर की कृ पा से वह र्वनष्ट कर र्दर्ा गर्ा। और इन आर्र्ु नक
आसरु ी नेताओ ं में से हर एक का र्वनाश होगा। वे सभी र्वनष्ट होंगे। र्कन्तु हर काम में समर् िगता है।
सम्प्रर्त हमारे नेतागण बहुत नेक नहीं हैं। वे अन्र्े हैं। उन्हें कोई ज्ञान नहीं है और र्िर भी वे मागिदशिन कर रहे हैं।
“अन्र्ा र्थान्र्ैरूपनीर्ामानास”् —एक अन्र्ा दसू रे अन्र्े को िे जा रहा है-गड़े में। इन नेताओ ं ने ससं ार की मि ू
आध्र्ार्त्मक संस्कृ र्त की हत्र्ा कर दी है और र्े उसकी जगह पर कुछ नहीं दे सकते।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (WH.O.) का सदस्र् : तो इसीर्िए आपके आन्दोिन ने सामार्जक दशिन में अपने को
िगा रखा है ?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ। र्ह आन्दोिन सवािर्र्क व्र्ावहाररक है। उदाहरणाथि, हम मांस न खाने को कहते हैं, िेर्कन
नेतागण इसे पसन्द नहीं करते। हम उनके प्रचार के अर्र्क अनक ु ू ि नहीं हैं। इसर्िए नेता हमें पसन्द नहीं करते। आर्खर,
उन्होंने ही र्हााँवहााँ सभी जगह कसाईघरों तथा गोमासं की दक ु ानों की अनमु र्त दे रखी है और हम हैं र्क कहे जा रहे हैं,
“मासं ाहार न करें ।” तो भिा वे हमें क्र्ों चाहने िगे ? र्ही कर्ठनाई है। “जहााँ अज्ञान ही वरदान हो, वहााँ चतरु ाई र्दखाना
मखू िता है।” र्िर भी हम संघषि कर रहे हैं।
तथा हम र्जस र्वकल्प की संस्तर्ु त करते हैं, वह भी व्र्ावहाररक है। र्े ईशभावनाभार्वत खेर्तहर गााँव सिि र्सि
हुए हैं। इनके र्नवासी अपने जीवन को सख ु ी एवं समृि पा रहे हैं। प्रकृ र्त उन्हें िि, शाक तथा अन्न उपहार-रूप में प्रदान
करती है। गार्ें दर्ू देती हैं र्जससे वे दही, पनीर, मक्खन तथा मिाई प्राि कर सकते हैं। इन वस्तओ ु ं से आप हजारों प्रकार
के स्वार्दष्ट व्र्ंजन तैर्ार कर सकते हैं और परू ी तरह संतोष का अनभु व कर सकते हैं। र्ही मि ू भतू र्सिान्त है।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (W.H.O.) का सदस्र् : र्ह तो सिि प्रर्ास का उदाहरण है, र्कन्तु आप कोई ऐसी बात
बताइए र्जसका अभी तक प्रर्ास नहीं र्कर्ा गर्ा हो ?
श्रीि प्रभपु ाद : “नई बात” र्ह है र्क ईशभावनाभार्वत खेर्तहर गााँवों में रहने वािे इन िोगों को जीर्वकोपाजिन
के र्िए दरू नहीं जाना पड़ता है। आर्र्ु नक समाज के र्िए र्ह नई बात है।
सम्प्रर्त बहुत से िोगों को िै क्टरी र्ा कार्ाििर् तक पहुचाँ ने के र्िए कुछ दरू र्ािा करनी पड़ती है। जब रे िवे
हड़ताि हुई थी तो सर्ं ोगवश मैं बम्बई में था। अरे , िोगों को अपार कष्ट झेिना पड़ा। देखा आपने? प्रात:काि पााँच बजे
से गाड़ी पकड़ने के र्िए वे पर्ं िबि खड़े थे। र्नस्सन्देह, हड़ताि के दौरान शार्द ही कोई गाड़ी चि रही थी। अत: िोग
कािी मसु ीबत में थे। र्र्द एक-आर् गार्ड़र्ााँ चि भी रही थीं, तो र्डब्बों में घसु ने के र्िए मारा-मारी थी। वे र्पसे जा रहे
थे। र्हााँ तक र्क वे गाड़ी की छत पर भी चढ़ गर्े थे।

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असि में, अर्र्क औद्योगीकृ त बढ़े-चढ़े देशों में िोग अपनी-अपनी मोटरकारों से िै क्टरी र्ा कार्ाििर् जाते हैं
और राजमागि में उनकी दघु िटना से मारे जाने का जोर्खम बना रहता है। तो प्रश्न र्ह उठता है र्क र्कसी को माि अपनी
जीर्वका कमाने के र्िए अपने घर से मीिों दरू र्ािा करने के र्िए बहकार्ा क्र्ों जाए? र्ह बहुत बरु ी सभ्र्ता है। खाना-
पीना तो हर एक को अपने रहने के स्थान पर ही र्मिना चार्हए। र्ही अच्छी सभ्र्ता है।
र्वश्व स्वास्थ्र् संगठन (W.H.O.) का सदस्र् : जहााँ तक मैं समझ सका ह,ाँ आपका उद्देश्र् भोजन के मामिे में हर
एक को आत्मर्नभिर बनाना है; र्कन्तु र्र्द सारे िोग भोजन के उत्पादन में िग जाएाँगे, तो अन्र् वस्तएु ाँ कौन जटु ाएगा?
श्रीि प्रभपु ाद : हम र्ह नहीं कहते र्क हर व्र्र्ि अन्न-उत्पादन में िगे। भगवद-् गीता के अनसु ार स्वभावत: कुछ
िोग भोजन उत्पन्न करें गे। एक वगि आध्र्ार्त्मक मागिदशिन कराएगा और कुछ िोग सरकार र्ा राजा के रूप में प्रबन्र्
साँभाि िेंगे। शेष िोग श्रर्मक होंगे, जो अन्र् समदु ार्ों की सहार्ता करें गे।
ऐसा नहीं है र्क हर व्र्र्ि खेर्तहर होगा। नहीं। एक मर्स्तष्क र्वभाग, एक प्रबन्र्क र्वभाग और एक श्रर्मक
र्वभाग होना चार्हए। र्कसी भी समाज में ऐसे समदु ार् स्वाभार्वक हैं और इनको आध्र्ार्त्मक अनश ु ीिन के र्िए
र्मिकर काम करना चार्हए।

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अध्र्ार् छब्बीस
सामार्जक शरीर को स्वस्थ बनार्े रखने के र्िए कॉिेज
र्ह वाताििाप माचि 1974 में वृन्दावन-भारत में श्रीि प्रभपु ाद तथा उनके र्शष्र्ों के मध्र् हुआ ।
श्रीि प्रभपु ाद : इस र्गु में राजनीर्तज्ञों का कार्ि गरीब नागररकों का शोषण करना होगा और नागररक गण
अत्र्र्र्क आकुि तथा सताए हुए रहेंगे। एक ओर अपर्ािि वषाि होगी र्जससे भोजन का अभाव हो जाएगा। दसू री ओर
सरकार अत्र्र्र्क कर िगाएगी। इस तरह िोग इतने सताए जाएाँगे र्क वे अपने-अपने घर छोड़ कर जंगिों में चिे जाएाँगे।
अिेर् ऋर्ष दास : आजकि सरकार के वि र्न वसि ू ती है और कुछ भी नहीं करती।
श्रीि प्रभपु ाद : सरकार का कतिव्र् र्ह देखना होता है र्क हर व्र्र्ि अपनी िमता के अनसु ार रोजगार पाए।
बेरोजगारी नहीं रहनी चार्हए। र्ह समाज के र्िए अर्त खतरनाक र्स्थर्त है। िेर्कन सरकार ने िोगों को जमीन से हटा कर
शहरों में िा पटका है। ऐसा िगता है, सरकारी अर्र्काररर्ों ने र्ह र्ारणा बना रखी है, “जमीन पर इतने सारे िोगों के
काम करने से क्र्ा िाभ? इसके बजाए हम पशओ ु ं को मार कर खा सकते हैं।” र्ह अर्त सरि है, क्र्ोंर्क आजकि िोग
कमि के र्नर्म की कोई परवाह नहीं करते, र्जसके अनसु ार पापों का िि अर्नवार्ि है। र्र्द हम गार्ों को खा सकते हैं, तो
र्िर जमीन जोतने में इतना कि क्र्ों उठाएाँ ? र्ह संसार में चि रहा हैं।
अिेर् ऋर्ष दास : हााँ, खेर्तहरों के बेटे खेती छोड़-छोड़ कर शहर जा रहे हैं।
श्रीि प्रभपु ाद : इस “टॉपिेस” “बाटमप्िेस” की बेहदगी को कॉिेज की छािाएाँ उठा िे आएाँ और वे अर्तर्थर्ों
के द्वारा भोगी जाएाँ। सारे र्वश्व में समग्र जनता दर्ू षत हो रही है। तो िोग अच्छी सरकार की उम्मीद कै से कर सकते हैं?
इन्हीं में से कुछ िोग सरकार का भार साँभािेंगे, र्कन्तु वे भ्रष्ट हैं।
अतएव जहााँ-जहााँ हमारे हरे कृ ष्ण के न्ि हैं, वहााँ-वहााँ हमें तरु न्त ही िोगों को प्रर्शर्ित करने के कॉिेज स्थार्पत
करने होंगे, र्े उनकी स्वाभार्वक प्रर्तभा के अनसु ार होने चार्हए (बौर्िक, प्रशासर्नक, उत्पादक तथा श्रमशीि) । और
हम र्जन आध्र्ार्त्मक कार्ों को बताएाँगे उन्हें सम्पन्न करके -हरे कृ ष्ण मन्ि का कीतिन करके , भगवद-् गीता से आत्म-
सािात्कार के र्वज्ञान को सनु कर और हर कार्ि को कृ ष्ण को अर्पित करके वे आध्र्ार्त्मक जागरूकता तक ऊाँचे उठ
सकें गे। तब हर व्र्र्ि का जीवन भगवान् की भर्िमर् सेवा का बन सके गा।
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साथ ही, व्र्ावहाररक मामिों के प्रबंर् के र्िए हमें र्वर्भन्न आवश्र्कता पड़ेगी; क्र्ोंर्क िोग र्वर्भन्न प्रकार के
मर्स्तष्क वािे होंगे। र्जनकी बर्ु ि तेज हो उन्हें ब्राह्मण र्ानी परु ोर्हत, र्शिक, सिाहकार बनना चार्हए। जो िोग प्रबन्र्न
तथा अन्र्ो की सरु िा के र्िए उपर्ि ु हों, उन्हें िर्िर् र्ानी प्रशासक एवं सैर्नक बनना चार्हए। जो िोग अन्न उत्पन्न
करने तथा गार्ों की रखवािी करने में उपर्ि ु हैं, उन्हें वैश्र् र्ानी व्र्ापारी बनना चार्हए। और जो अन्र्ों की सहार्ता कर
सकें और र्शल्प तथा उद्यम अपना सकें , उन्हें शिू र्ानी श्रर्मक बनना चार्हए।
सामार्जक संगठन में, हमारे शरीर की ही तरह, कार्ि का र्वभाजन होना चार्हए। र्र्द हर कोई मर्स्तष्क (बौर्िक)
र्ा बाहें (प्रशासक) बनना चाहे, तो र्िर उदर (र्कसान) र्ा पााँव (श्रर्मक) कौन बनेगा? हर प्रकार के पेशे (वृर्त्त) की
आवश्र्कता है। मर्स्तष्क चार्हए, बाहें चार्हए, उदर चार्हए और पााँव चार्हए। अत: आपको सामार्जक शरीर को संगर्ठत
करना होगा। आपको िोगों को भगवान् के का कार्ि करें गे, कुछ बाहों का, कुछ उदर का और शेष पााँवों का। मख्ु र् उद्देश्र्
सामार्जक शरीर को परू ी तरह स्वस्थ रखना है।
आपको र्ह देखना होगा र्क हर व्र्र्ि ऐसे पेशे में िगें, र्जसके र्िए वह उपर्ि ु है। र्ह महत्वपणू ि है। बात र्ह है
र्क हर प्रकार का कार्ि भगवान् की सेवा हो सकता है-मख्ु र् बात है र्ह देखना र्क िोग अपने स्वाभार्वक कार्ि में इसी
भावना में िगे रहें। उदाहरणाथि, जब आप चिते हैं, तो आपका मर्स्तष्क कार्ि करता रहता है, “इर्र चिी, उर्र जाओ,
मोटर आ रही है” और आपका मर्स्तष्क पााँवों से कहता है, “इर्र आ जाओ।” मर्स्तष्क का कार्ि तथा पााँवों का कार्ि
र्भन्न-र्भन्न है, िेर्कन मख्ु र् बात एक ही है-सड़क पार करते हुए आपकी सरु िा। इसी तरह सामार्जक शरीर की मख्ु र्
बात एक ही होनी चार्हए-हर एक को कृ ष्ण की सेवा करने में सहार्ता करना।
सत्स्वरूप दास गोस्वामी : क्र्ा ऐसा कॉिेज सामान्र् जनता के र्िए होगा?
श्रीि प्रभपु ाद : हााँ हर एक के र्िए। उदाहरणाथि, इजं ीर्नर्री कॉिेज हर एक के र्िए खि ु ा होता है। आवश्र्कता
के वि इतनी रहती है र्क िोग प्रर्शर्ित होने के र्िए तत्पर हों। र्ह हमारा सबसे महत्वपणू ि कार्िक्रम है, क्र्ोंर्क र्वश्व भर
के िोग इन तथाकर्थत नेताओ ं के द्वारा गमु राह र्कर्े जा रहे हैं। बच्चे कृ ष्णभावनाभार्वत प्रारर्म्भक पाठशािा में जा
सकते हैं और जब वे बड़े हो जाएाँ , तो वे अपने-अपने पेशों तथा अपने भर्िमर् जीवन में आगे र्वकास के र्िए
कृ ष्णभावनामर् कॉिेज में जा सकते हैं।
अिेर् ऋर्ष दास : क्र्ा हम उन्हें व्र्ापार भी र्सखार्ेंगे ?
श्रीि प्रभपु ाद : इस आर्र्ु नक व्र्ापार को नहीं। कभी नहीं। र्ह र्तू िता है। व्र्ापार का अथि र्ह है र्क पर्ािि अन्न
तथा अन्र् सामार्जक शरीर को स्वस्थ बनार्े िसिें उगाना, र्जससे आप अच्छी तरह खा सकें और सब को-मनष्ु र्ों तथा
पशओ ु ं (र्वशेषतर्ा गार्ों) को-बााँट सकें र्जससे वे हृष्ट-पष्टु बन सकें । इस तरह गार्ें दर्ू दे सकती हैं और मनष्ु र् जार्त
र्बना रोगी बने कर्ठन पररश्रम कर सकती है। हम मीिें तथा िै क्टररर्ााँ नहीं खोिेंगे। कदार्प नहीं।
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र्दबु र दास: श्रीि प्रभपु ाद, किा तथा हस्तर्शल्प र्कस श्रेणी में आते हैं? आर्र्ु नक समाज में किाकारों तथा
संगीतज्ञों को दाशिर्नक समझा जाता है।
श्रीि प्रभपु ाद : नहीं। किाकार एक कामगार होता है। इस समर् आपके कॉिेजों तथा र्वश्वर्वद्यािर्ों में किा
तथा हस्तर्शल्प पर बहुत जोर र्दर्ा जाता है। इसर्िए सारी जनसंख्र्ा कामगार है। कोई असिी दाशिर्नक नहीं है। कोई
ज्ञान नहीं है। र्ही कर्ठनाई है। हर व्र्र्ि अर्र्क वेतन पाने के र्िए िािार्र्त है। वे तथाकर्थत प्रौद्योर्गक र्ा वैज्ञार्नक
र्शिा प्राि करते हैं और िै क्टरी में काम करने में उसका समापन करते हैं। र्नस्सन्देह, वे खेत में िसिें उत्पन्न करने के
र्िए काम नहीं करें गे। ऐसे िोग दाशिर्नक नहीं हैं। दाशिर्नक वह है, जो परम सत्र् की खोज करता हो।
आपके पािात्र् देशों में र्तू िगण र्ौन-दशिन के र्वषर् में िेखनी चिाते हैं, जो कुत्ते तक को ज्ञात है। इस तरह के
दशिन की प्रशसं ा र्तू िगण ही करें गे, हम कभी नहीं कर सकते। जो कोई परम सत्र् की खोज करता है, तो वह दाशिर्नक है-
र्ह र्तू ि फ्रार्ड नहीं, जो र्वस्तार से र्ह बताता है र्क संभोग कै से करना चार्हए। पािात्र् देशों में सभी िोग र्नम्न श्रेणी के
बन चक ु े हैं और फ्रार्ड उनका दाशिर्नक बन गर्ा है। “जंगि में र्सर्ार भी राजा बन जाता है।” बस ।
इस तथाकर्थत पािात्त्र् दशिन में वास्तर्वक ज्ञान क्र्ा है? सारा पािात्त्र् जगत् उद्योग के पीछे - र्न कमाने के र्िए
सघं षि कर रहा है, “खाओ, पीओ और मौज करो।” के र्िए, शराब तथा र्स्त्रर्ों के पीछे दीवाना है। बस। वे र्नम्नश्रेणी से
भी गर्ेगजु रे हैं। हम पहिी बार उन्हें मनष्ु र् बनाने का प्रर्ास कर रहे हैं। मेरे कटु शब्दों का बरु ा मत मार्नर्ेगा-र्ह तथ्र् है।
वे पशु हैं, दोपार्े पश।ु र्तरस्कृ त व्र्र्ि। वैर्दक सभ्र्ता उन्हें अर्म कह कर उनका र्तरस्कार करती है, र्कन्तु उनका उिार
र्कर्ा जा सकता है।
पर्िमवार्सर्ों का उिार र्कर्ा जा सकता है, र्जस प्रकार तमु सब मेरे पर्िमवासी छािों का उिार र्कर्ा गर्ा है।
र्द्यर्प तमु िोग र्नम्नतम र्स्थर्त से आर्े हो, र्कन्तु प्रर्शर्ित होकर तमु िोग ब्राह्मण से भी बढ़कर बन रहे हो। र्कसी के
र्िए कोई अवरोर् नहीं है। िेर्कन दभु ािग्र्वश र्े र्तू िगण इस सअ ु वसर को स्वीकार करने के र्िर्े राजी नहीं होते। जैसे ही
आप कहेंगे र्क “अवैर् र्ौन बन्द, मासं ाहार बन्द” त्र्ोंही वे कृ ि हो उठते हैं। र्े र्तू ि तथा मखू ि! ज्र्ोंही कोई उन्हें सदपु देश
देता है-र्शिा देता है-वे कुि हो उठते हैं। सााँप को दर्ू और के िा देने से उसका र्वष और भी बढ़ता है।
र्कन्तु कृ ष्ण की कृ पा से र्कसी तरह भी आप िोग प्रर्शर्ित हो रहे हैं। प्रर्शर्ित होकर आप िोग पािात्त्र्
सभ्र्ता के र्वशेषतर्ा अमरीका में सारे ढााँचे को पररवर्तित कर देना। तब नर्े अध्र्ार् की शरुु आत होगी। र्ही हमारा
कार्िक्रम है। इसीर्िए कृ ष्णभावनाभार्वत कािेजों की आवश्र्कता है।

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