Valmiki Ramayan Vigyan

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MAGAZINE KING

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(वाल्मीकि रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भों के
आकाशीय चित्र तथा अन्य वैज्ञानिक प्रमाण)

MAGAZINE KING
सरोज बाला
(पूर्व निदेशक, वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्‍थान)

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अनुक्रम
चित्रों की सूची 11
प्रस्तावना ः श्रीमती सुमित्रा महाजन 17
भूमिका ः पुस्तक को लिखने का औचित्य 19
परिचय ः पृष्ठभूमि तथा दृष्टिकोण 25

अध्याय-1
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श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह तक 39
1. महर्षि वाल्मीकि द्वारा श्रीराम के जीवनकाल के दौरान रामायण की रचना 41
2. राजा दशरथ का कल्याणकारी राज्य; अयोध्या में पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन 44
3. श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म 52
4. श्रीराम और लक्ष्मण का ऋषि विश्वामित्र के साथ प्रस्थान 69
5. मिथिला की ओर यात्रा; मार्ग में वर्णित गंगा की कहानी 74
6. श्रीराम द्वारा विश्वप्रसिद्ध शिवधनुष का भंजन, सीता के साथ उनका विवाह संपन्न 85

अध्याय-2
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों का वनवास 95
1. विधि का विधान : श्रीराम को राज्याभिषेक की जगह 14 वर्षों का वनवास 97
2. श्रीराम के साथ सीता और लक्ष्मण का वन गमन; महलों में शोक की लहर 110
3. अयोध्या से चित्रकूट की यात्रा और शृंग्वेरपुर में गुह निषाद से मिलन 120
4. शाही तपस्वी गए गंगा पार; लक्ष्मण द्वारा चित्रकूट में सुंदर पर्णकुटी का निर्माण 128
5. वनगमन के पश्चात् अयोध्या में घटित घटनाएँ; सम्राट् दशरथ की दुःखद मृत्यु 134
6. चित्रकूट में भरत और श्रीराम का रोमांचकारी व मार्मिक मिलन 154

अध्याय-3
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंचवटी तक 165
1. तीनों शाही तपस्वियों द्वारा शरभंग मुनि तथा सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रमों में जाना 167
2. श्रीराम को अगस्त्य मुनि से दिव्य अस्त्रों-शस्त्रों की प्राप्ति 175
3. पंचवटी में जीवन; लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक कान काटना 179
4. राक्षस खर और दूषण के साथ युद्ध से पहले पंचवटी से सूर्यग्रहण का अवलोकन 183
5. रावण ने सीता का छल-बल से अपहरण कर उन्हें अशोक वाटिका में बंदी बनाया 190
6. शोक संतप्त राजकुमारों द्वारा सीता की खोज में जाना, मतंगवन में शबरी से मिलना 205

अध्याय-4
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श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता की खोज
1. श्रीराम और लक्ष्मण की ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान और सुग्रीव से भेंट
213
215
2. श्रीराम के बाण से वाली का वध, उससे पहले देखा गया किष्किंधा में सूर्य ग्रहण 221
3. सुग्रीव का राजतिलक; श्रीराम का वर्षा ऋतु में प्रस‍्रवण पर्वत पर निवास। 232
4. सुग्रीव का भोग-विलास में डूबकर अपना कर्तव्य भूलना; लक्ष्मण द्वारा चेतावनी 237
5. सीताजी की खोज में सुग्रीव द्वारा वानर सेना को सभी दिशाओं में भेजना 240
6. संपाति द्वारा हनुमान और अंगद को सीता का पता तथा लंका का मार्ग बताना 244

अध्याय-5
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम का वर्णन 251
1. सीता की खोज में लंका पहुँचने के लिए हनुमान ने महेंद्रगिरि से छलाँग लगाई 253
2. हनुमान ने अशोक वाटिका में शिंशपा वृक्ष के नीचे सीताजी को बैठे देखा 260
3. रावण जब सीता को धमका रहा था, उस समय लंका में चंद्रग्रहण दिखाई दिया 264
4. हनुमान से मिलकर सीताजी ने जीवन से संबंधित नई आशा का अनुभव किया 272
5. हनुमान द्वारा अशोक वाटिका का विनाश; रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध 278
6. रावण ने हनुमान की पूँछ में आग लगवाई; हनुमान ने सोने की लंका जलाई 283
7. लौटने से पहले हनुमान ने सीता में साहस तथा रावण में भय का संचार किया 285

अध्याय-6
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का वध किया 299
1. समुद्र तट पर पहुँचने के लिए सहय-मलय पर्वत शृंखला को पार किया;
आकाशीय दृश्य ने किया तिथि निर्धारण 301
2. रावण द्वारा विभीषण का अपमान; विभीषण का श्रीराम की शरण में जाना 311
3. समुद्र के आर-पार सेतु का निर्माण; सेना ने लंका की ओर कूच किया 314
4. सुवेल पर्वत पर सेना ने शिविर का निर्माण कर लंका काे सभी ओर से घेर लिया 322
5. श्रीराम की सेना ने प्रहस्त, कुंभकर्ण व अतिकाय जैसे महाबलियों का वध किया 334
6. इंद्रजीत के ब्रह्म‍ास्त्र प्रहार के बाद पुनः चेतना में आए लक्ष्मण द्वारा इंद्रजीत का वध 341
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7. कई दिनों तक चले युद्ध के पश्चात‍् श्रीराम ने रावण का वध किया 346
8. रावण का दाह-संस्कार; विभीषण का लंका के राजा के रूप में राज्याभिषेक 351
9. पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या वापसी और श्रीराम का अयोध्या में राजतिलक 354

अध्याय-7
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को
वाल्मीकि आश्रम भेजा 363
1. श्रीराम द्वारा आदर्श कल्याणकारी राज्य की स्थापना, जो आजतक अतुलनीय है 365
2. लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश्रम भेजा 369
3. श्रीराम ने अत्याचारी लवणासुर का वध करने के लिए शत्रुघ्न को मधुरापुरी भेजा 372
4. सीताजी की सोने की प्रतिमा रखकर नैमिषारण्य में अश्वमेध यज्ञ किया गया 375
5. लव-कुश द्वारा रामायण का गायन; सीता की चुनौती से अयोध्या की प्रजा हुई स्तब्ध 376
6. श्रीराम की आज्ञा से आठों राजकुमारों के लिए आठ नई राजधानियों का विकास 379
7. श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों की अंतिम यात्रा 382
8. रामायण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा देवी सीता के द्वारा स्थापित किए गए
आदर्शों की अद्वितीय कहानी है 389

परिशिष्ट ः एक से छह 399
1. दृष्टिगोचर ग्रहों, नक्षत्रों तथा खगोलीय विन्यासों की आधारभूत अवधारणा 401
2. अन्‍य विद्वानों तथा वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित
रामायण की खगोलीय तिथियों का आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण 413
3. रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भों की क्रमिक खगोलीय तथा ऐतिहासिक तिथियाँ 424
4. युगों की परिकल्पना : व्याख्या एवं स्पष्टीकरण 427
5. इस पुस्तक में शामिल किए गए कई तथ्य जनमान्य तथ्यों से अलग क्यों हैं? 434
6. महत्त्वपूर्ण निविष्टियाँ तथा टिप्पणियाँ देनेवाले वैज्ञानिकों और विद्वानों के नामों की सूची 440
ग्रंथ सूची 445

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चित्रों की सूची
व्योमचित्र
(प्लैनेटेरियम तथा स्टेलेरियम से देखे गए आकाशीय दृश्य)
अध्याय-1
1. जनवरी 5116 वर्ष ई.पू. को वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास के आरंभ का व्योम चित्र (प्लैनेटेरियम) 46
2. जनवरी 5116 वर्ष ई.पू. को वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास के आरंभ का व्योम चित्र (स्टेलेरियम) 47
3. जनवरी 5115 ई.पू. अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ के आरंभ आकाशीय दृश्य (प्लैनेटेरियम) 48
4. जनवरी 5115 ई.पू. अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ के आरंभ आकाशीय दृश्य (स्टेलेरियम) 49
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5. श्रीराम के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य (प्लैनेटेरियम) 55
6. श्रीराम के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य (स्टेलेरियम) 56
7. भरत के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य (प्लैनेटेरियम) 57
8. भरत के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य (स्टेलेरियम) 58
9. लक्ष्मण और शत्रुघ्न के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य (प्लैनेटेरियम) 59
10. लक्ष्मण और शत्रुघ्न के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य (स्टेलेरियम) 60

अध्याय-2
11. श्रीराम के वनगमन से एक दिन पहले का व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 99
12. श्रीराम के वनगमन से एक दिन पहले का व्योमचित्र (स्टेलेरियम) 100
13. वनवास के लिए प्रस्थान के समय का आकाशीय दृश्य (प्लैनेटेरियम) 117
14. वनवास के लिए प्रस्थान के समय का आकाशीय दृश्य (स्टेलेरियम) 118

अध्याय-3
15. खर-दूषण के साथ युद्ध से पहले 5077 वर्ष ई.पू. का सूर्य ग्रहण (प्लैनेटेरियम) 184
16. खर-दूषण के साथ युद्ध से पहले 5077 वर्ष ई.पू. का सूर्य ग्रहण (स्टेलेरियम) 185
17. नासिक से 5077 ई.पू. में देखे गए सूर्य ग्रहण का विस्तारित चित्र (स्टेलेरियम) 186
18. वर्ष 2010 में देखे गए सूर्य ग्रहण का एक दृश्य (स्टेलेरियम) 186

अध्याय-4
19. वाली के वध से पहले किष्किंधा से देखा गया सूर्य ग्रहण (प्लैनेटेरियम) 223
20. वाली के वध से पहले किष्किंधा से देखा गया सूर्य ग्रहण (स्टेलेरियम) 228

अध्याय-5
21. लंका में रावण द्वारा सीताजी को धमकाते समय देखा गया चंद्रग्रहण (प्लैनेटेरियम) 265
22. लंका में रावण द्वारा सीताजी को धमकाते समय देखा गया चंद्रग्रहण (स्टेलेरियम) 266
23. 5076 ई.पू. में चंद्रग्रहण के समय चंद्रमा पर धरती की छाया का चित्र (स्टेलेरियम) 267
24. हनुमान की लंका से सुनाभ पर्वत तक यात्रा के समय का व्‍योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 289
25. हनुमान की लंका से सुनाभ पर्वत तक यात्रा के समय का व्‍योमचित्र भाग-1 (स्टेलेरियम) 290
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26. हनुमान की लंका से सुनाभ पर्वत तक यात्रा के समय का व्‍योमचित्र भाग-2 (स्टेलेरियम) 291

अध्याय-6
27. किष्किंधा से रामेश्वरम् यात्रा के दौरान खगोलीय स्थितियाँ का व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 304
28. किष्किंधा से रामेश्वरम् यात्रा के दौरान खगोलीय स्थितियाँ का व्योमचित्र भाग-1 (स्टेलेरियम) 305
29. किष्किंधा से रामेश्वरम् यात्रा के दौरान खगोलीय स्थितियाँ का व्योमचित्र भाग-2 (स्टेलेरियम) 306

परिशिष्ट-2
30. अयोध्या से 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को दोपहर के समय का व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 415
31. अयोध्या से 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को दोपहर का दूसरा व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 415
32. अयोध्या से 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू. का व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 416
33. अयोध्या से 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू. का दूसरा व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 417
34. अयोध्या से 11 फरवरी, 4433 वर्ष ई.पू. को दोपहर के समय का व्योमचित्र (प्लैनेटेरियम) 420
पुरातात्त्विक व अन्य चित्र
अध्याय-1
1. बाबरी मस्जिद के तटबंधों से जुड़े हुए 14 काले पत्थर के खंभों में से दो की तस्वीरें 64
2. बाबरी मस्जिद के तटबंधों से जुड़े हुए 14 काले पत्थर के खंभों में से दो और चित्र 64
3. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से दक्षिणी क्षेत्र में उत्खनित गड्ढों का सामान्य दृश्य 66
4. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से पूर्वी क्षेत्र में उत्खनित गड्ढों का सामान्य दृश्य 66
5. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से उत्खनित टैंक जैसी संरचना वाला राम चबूतरा 66
6. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से उत्खनित मकर-प्रणाल का चित्र 66
7. अयोध्या में उत्खनित बेल बूटा वाले पैटर्न के स्तंभों का निकटवर्ती दृश्य 66
8. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से उत्खनित अष्टकोणिए पत्थर का आधार स्तंभ 66
9. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से उत्खनित अयोध्या में खुदाई में मिली एक मूर्ति 67
10. बाबरी संरचना क्षेत्र के नीचे से उत्खनित स्तंभों पर फूलों की सजावट के कुछ टुकड़े 67
11. अयोध्या में जन्मभूमि क्षेत्र से उत्खनित विष्णु हरि शिलालेख 67
12. प्राचीन कोशल साम्राज्य में स्थित लहुरादेवा से उत्खनित स्टैंड पर बर्तन 75
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13. प्राचीन कोशल साम्राज्य में स्थित लहुरादेवा से उत्खनित सेलखड़ी के मनके 75
14. प्राचीन कोशल साम्राज्य में स्थित लहुरादेवा से उत्खनित ताम्र का बाणाग्र 75
15. प्राचीन कोशल साम्राज्य में स्थित लहुरादेवा से उत्खनित ताम्र का हुक 75
16. लहुरादेवा से उत्खनित 7000 वर्ष पुराने चावल, जौ, गेहूँ,
मूंग, मटर, तिल, आँवला और अंगूर आदि का चित्र 75
17. गंगोत्तरी पर सूर्यास्त : गोमुख की तरफ गंगा घाटी से देखते हुए, अँगूठे की आकृति वाली
भगीरथ चोटी बाईं ओर एवं सर्पाकार ग्‍लेशियरों वाला शिवलिंग पर्वत दाईं ओर 79
18. राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान द्वारा तैयार किया गया नूतन युग का समुद्र जलस्तर वक्र 82
19. नौवीं से चौथी सहस्राब्दी ई.पू. के दौरान दक्षिण एशिया के
उत्तरवर्ती क्षेत्र से उत्खनित स्थलों को दर्शाता हुआ चित्र 84

अध्याय-2
20. शृंग्वेरपुर में उत्खनित टैंक—प्राचीन इंजीनियरिंग का एक अजूबा 124
21. झुस्सी और हेटा-पट्टी की भौगोलिक स्थिति का चित्र 129
22. झुस्सी से उत्खनित लगभग 7000 वर्ष पुराना समुद्रकूप टीला 130
23. झुस्सी से उत्खनित लगभग 7000 वर्ष पुराने हड्डियों के वाणाग्र 130
24. झुस्सी से उत्खनित लगभग 7000 वर्ष पुरानी छेदवाली चिलमची 130
25. झुस्सी से उत्खनित लगभग 7000 वर्ष पुराना कुटिया का फर्श 130
26. संगम के निकट झुस्‍सी में खुदाई के दौरान पाई गई फसलों के अवशेष 131
27. विलुप्त सरस्वती नदी के पुरामार्गों का उपग्रह चित्र—इसरो, जोधपुर की प्रस्तुति 140
28. सतलुज, सरस्वती (घग्गर), यमुना, गंगा व गोमती का भौगोलिक अनुक्रम—उपग्र‌ह चित्र 144
29. रामायण के अयोध्याकांड में वर्णित चित्रकूट क्षेत्र के पौधों के चित्र 152
30. चित्रकूट में भरत का श्रीराम से मिलाप, नागार्जुनकोंडा से प्राप्‍त तीसरी शताब्दी की कलाकृति 158

अध्याय-3
31-32. जगदलपुर, जिला बस्तर, छत्तीसगढ़ (भारत) में कौटुमसर की गुफाओं के चित्र 174
33. वाल्मीकि रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण स्थानों तथा दंडक वन के क्षेत्रों को दर्शाता मानचित्र 178
34. अरण्यकांड में वर्णित पंचवटी क्षेत्र के प्राचीन पौधे, जो आज भी पाए जाते हैं 180
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35. समुद्री तट के किनारे लंका से पंचवटी तक रावण की यात्रा के दौरान वर्णित पौधे
36. केला (प्लांटैन) का मूल क्षेत्र-5000 वर्ष ई.पू. की स्थिति दर्शाता हुआ
192
193

अध्याय-4
37. पंपा सरोवर तथा माउन्ट प्रस‍्रवण के कुछ पौधे, जो तुंगभद्रा
नदी के किनारे कर्नाटक के कोप्पल जिले में आज भी पाए जाते हैं 235
38. दक्षिणी समुद्र का उत्तरी छोर, जिसमें जलमग्न सेतु स्पष्ट दिखाई देता है 247

अध्याय-5
39. सुंदरकांड में वर्णित लंका में अशोक वाटिका के कुछ पौधे, जो आज भी पाए जाते हैं 262
40. श्रीलंका का नुवारा एल्या पर्वत शिखर 286
41. रावण गुफा, नुवारा एल्या पर्वत शृंखला, श्रीलंका 286
42. रावण झरने, कई गुफाओं सहित, नुवारा एल्या पर्वत शृंखला, श्रीलंका 286
43. उदाकिरिंदा गुफाएँ, नुवारा एल्या पर्वत शृंखला, श्रीलंका 286
44. बनावली, हरियाणा से प्राप्त 5000 वर्ष से अधिक पुराने सोने के आभूषण 294
45. बनावली, हरियाणा से 5000 वर्ष से अधिक पुराने अर्धकीमती पत्‍थरों के मनके 294
46. मोहनजोदड़ो से प्राप्त सोने व मोतियों की चूड़ामणि, 5000 वर्ष से अधिक पुरानी 295

अध्याय-6
47. किष्किंधा से रामेश्वरम् जाते हुए राम सेना द्वारा पार किए गए स्‍थल मा‌नचित्र पर चि‌िह्न‍त 311
48. धनुषकोटि और थलाईमन्नार के बीच रामसेतु का गूगल प्रतिबिंब 317
49. भारत को श्रीलंका से जोड़नेवाले रामसेतु का नासा चित्र 317
50. प्राकृतिक शृंखला के अंतराल भरने में मानवीय हाथ के योगदान को दर्शाता रामसेतु 318
51. राष्‍ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्‍थान द्वारा तैयार नूतन युग का समुद्री जल स्तर वक्र 319

अध्याय-7
52. श्रीराम द्वारा स्‍थापित तक्षशिला नगरी में विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालय के अवशेष 380
53. श्रीराम द्वारा स्‍थापित नगरी चंद्रकेतुगढ़ से उत्‍खनित टेराकोटा की आभूषण सज्जित यक्षिणियाँ 381
54. भोपाल के मुद्राशास्त्री श्री जे.पी. जैन के द्वारा दर्शाए गए विदिशा से उत्‍खनित सिक्के 386
55. मानचित्र पर चि‌िह्न‍त रामायण में वणित महत्त्वपूर्ण स्‍थान 387
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परिशिष्ट-4
56. जग्गी वासुदेवजी द्वारा चतुर्युगों तथा विषुवों के अग्रगमन चक्र का स्पष्टीकरण 429
57. आधुनिक काल के खगोलविदों द्वारा तैयार किए गए अग्रगमन चक्र का चतुर्युगों से सहसंबंध 431

400 से 200 सौ वर्ष पुराने लघुचित्र-


(राष्ट्रीय संग्राहलय तथा ब्रिटिश लाइब्रेरी से मिनिएचर पेंटिंग्स)
अध्याय-1
1. ऋषि विश्वामित्र के साथ जाते हुए श्रीराम व लक्ष्मण का 200 वर्ष पुराना लघुचित्र 71
2. मिथिला में राजा जनक के महल में चारों राजकुमारों के विवाह का 300 वर्ष पुराना लघुचित्र 90

अध्याय-2
3. श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के वनगमन के समय अयोध्या के लोगों के दुःख
और बढ़ते उन्माद को रेखांकित करता हुआ 400 वर्ष पुराना एक लघुचित्र 119
अध्याय-3
4. शरभंग मुनि के आश्रम में तीनों शाही तपस्वियों के स्वागत का 300 वर्ष पुराना लघुचित्र 169
5. रावण बलपूर्वक सीता का अपहरण करते हुए तथा जटायु सीता
को बचाने का प्रयास करते हुए—300 वर्ष पुराना लघु‌िचत्र 202

अध्याय-4
6. श्रीराम और लक्ष्मण की सुग्रीव तथा हनुमान से भेंट—300 वर्ष पुराना लघुचित्र 218
7. वाली और सुग्रीव के बीच लड़ाई का 300 वर्ष पुराना लघुचित्र—ब्रूकलिन संग्रहालय 226

अध्याय-5
8. जब रावण सीता को अशोक वाटिका में धमका रहा था, तब शिंशपा के पेड़
पर छुपकर बैठे हनुमान सब देख रहे थे—400 वर्ष पुराना दुर्लभ लघुचित्र 270
9. चित्रकूट में सीता के वक्षस्‍थल पर कौए ने किया जख्म और श्रीराम ने
उसके पीछे छोड़ा एक अचूक वाण-400 वर्ष पुराना दुर्लभ लघुचित्र 295

अध्याय-6
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10. रावण के साथ युद्ध रणनीति की चर्चा करते हुए कुंभकर्ण का लघुचित्र 338
11. श्रीराम और रावण के बीच हुए महायुद्ध का 200 वर्ष पुराना लघुचित्र 350
12. अयोध्या में गुरु वसिष्ठ द्वारा श्रीराम का राजतिलक; 200 वर्ष पुराना लघुचित्र 360

अध्याय-7
13. सीताजी के साथ श्रीराम स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान; 200 वर्ष पुराना लघुचित्र 368
14. अयोध्या की प्रजा को स्तब्ध तथा शोकग्रस्त छोड़कर सीताजी रसातल में समा गईं 378
प्रस्तावना
श्री मतीही सालोसाल
सरोज बाला द्वारा लिखित ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ पुस्तक सामने आते
से मन में उठनेवाले भाव फिर एक बार जाग्रत् हो गए। मेरे अंदर का वह प्रवचनकार
आनंदित हो गया। हाँ, राजनीति में प्रवेश करने से पहले मैं प्रवचन करती थी, किंबहुना प्रवचन करने का
प्रयास करती थी। अभ्यास करके समाज के सामने मैं कुछ श्रेष्ठ व्यक्तित्व-प्रसंग-चरित्र वर्णन करने का
प्रयास करती थी—विशेष रूप से रामायण का अभ्यास। राष्ट्र सेविका समिति की सेविका के नाते हमारी
प्रमुख व मावशी उपाख्य लक्ष्मीबाई केलकर के रामायण प्रवचनों को आधार बनाकर, वाल्मीकि रामायण
को साक्षी मानकर प्रभु रामचंद्र, राजाधिराज रामचंद्र, श्रेष्ठ पुत्र राम, एक पत्नीव्रती, सच्चरित्र राम, सज्जन
रक्षक, संस्कृति रक्षक, अनेकानेक स्वरूप में श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मानव श्रीराम नर से नारायण कैसे बने—उच्च
आदर्श राम इस भाव से रामचरित्र समाज में रखने का प्रयास था, क्योंकि मेरी मान्यता है कि किसी को
भगवान् मानकर उच्च आसन पर बैठाकर भक्तिभाव से पूजा करके वरदान माँगने का आसान रास्ता हम
MAGAZINE KING
सामान्य मानव बहुत सुलभता से अपनाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि वह तो भगवान् थे, भगवान् तो
सर्वश्रेष्ठ है, सबकुछ कर सकता है। हम तो सामान्य मानव याचना ही कर सकते हैं, यह बोलकर ईश्वरीय
गुणों की केवल पूजा करना भले ही आसान है, लेकिन सामर्थ्यशाली समाज निर्मिती के लिए योग्य नहीं।
इसलिए मेरी मान्यता थी कि प्रभु श्रीराम, दशरथपुत्र राम एक श्रेष्ठ मनुष्य, उनका चरित्र सामने रखते हुए
हम भी उनका अनुकरण करते हुए श्रेष्ठत्व की राह पर आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए श्रीराम एक इतिहास-
पुरुष हैं, यह भूमिका रखते हुए राम चरित्र का अध्ययन-अध्यापन हो।
‘रामायण’ महर्षि वाल्मीकि द्वारा श्रीराम के जीवनकाल के दौरान रचित मूल महाकाव्य है। महर्षि
वाल्मीकि ने श्रीराम के समकालीन प्रशंसक के रूप में हजारों वर्ष पहले रामायण की रचना की थी। उन्होंने
श्रीरामचंद्रजी को पृथ्वी पर पैदा हुए सबसे प्रतिष्ठित दिव्य मानव के रूप में चित्रित किया था। मूल रामायण
की रचना के बाद विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में विभिन्न शीर्षकों से इसका लेखन-पुनर्लेखन,
कथन-पुनर्कथन, अनुवाद-पुनार्नुवाद और वाचन-मंचन आदि किया गया। विभिन्न शताब्दियों में विभिन्न
भाषाओं में, रामायण के 300 से भी अधिक संस्करण और अनुवाद हो चुके हैं, लेकिन इन सभी को
रामायण ही कहा जाता है, क्योंकि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित जीवनगाथा श्रीराम के जीवन और समय
की सर्वाधिक मौलिक एवं वास्तविक रचना है। भारत और विश्व भर के कम-से-कम 30 से भी अधिक
देशों के लाखों-करोड़ों लोग कई हजार वर्षों से रामायण का पठन, चित्रण, गायन एवं अभिनय कर रहे हैं।
कई बार हमारे यहाँ श्रीराम को भगवान्, ईश्वर या एक काल्पनिक चरित्र मानकर पढ़ाया या सिखाया
जाता है; उन्हें एक मिथक कहा जाता है। जिज्ञासु सदैव यह जानना चाहते हैं कि श्रीराम मिथक हैं या दैवीय
18 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

गुणोंवाले वास्तविक इतिहास-पुरुष हैं और इसके लिए शास्त्रीय-वैज्ञानिक आधार माँगा जाता है। श्रीमती
सरोज बाला ने इस पुस्तक ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ में भगवान् राम के जीवन और
समय का यथार्थवादी विवरण प्रस्तुत करके उपर्युक्त जिज्ञासाओं का समाधान करने का अत्यंत सुंदर प्रयास
किया है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता एवं आकर्षण का केंद्र हैं वे आकाशीय दृश्य, खगोलीय
स्वरूप, जो क्रमिक रूप से रामायण में दिए गए विवरणों से हू-ब-हू मेल खाते हैं।
इस पुस्तक में शामिल किए गए 7000 वर्ष पुराने उत्खनित पुरावशेषों के चित्रों को देखकर हमें
भारतीय संस्कृति और विरासत की प्राचीनता पर हृदय से गर्व महसूस होगा। रोचक बात यह है कि ये
सभी चित्र रामायण में उल्लेख की गई वस्तुओं, जैसे कि ताँबे के बाणाग्र, कीमती रत्न, सोने और चाँदी
के सिक्के, अँगूठियाँ और चूड़ामणि आदि आभूषण, मिट्टी के बरतन, चावल, जौ और कपास आदि के
विवरणों से मेल खाते हैं। इस पुस्तक में अत्यंत विश्वसनीय और सुंदर रूप से यह सिद्ध किया गया है
कि 7000 वर्ष पुरानी रामायण की कहानी भारतीय उपमहाद्वीप में पिछले 2000 हजार वर्षों से न केवल
विमर्शों, नाटकों, मंच-प्रस्तुतियों और रचनात्मक कथनों के लिए, अपितु मूर्तियों और चित्रकला के लिए भी
सर्वाधिक लोकप्रिय स ्रोत रही है।
पुस्तक में लेखिका वाल्मीकि रामायण की रचना के हजारों वर्षों बाद लिखे गए संस्करणों में श्रीराम के
चरित्र के बारे में उत्पन्न हुई कई भ्रांतियों एवं त्रुटियों को दूर करने में भी सफल हुई हैं। उदाहरण के लिए, प्रभु
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श्रीराम ने कभी समाज में किसी प्रकार की जाति-व्यवस्था का समर्थन नहीं किया, अपितु समाज में केवल
प्रकार्यात्मक विभाजन किया; श्रीराम ने गर्भवती सीता का त्याग नहीं किया, अपितु झूठे अपयश के कलंक
से अपनी भावी संतान को बचाने के लिए सीताजी को वाल्मीकि आश्रम में भेज दिया। वास्तव में, श्रीराम
सर्वाधिक आदर्श व्यक्ति एवं समर्पित पति थे। उन्होंने धर्मपरायण लोगों को दुष्टों के अत्याचारों से बचाने तथा
अपने पिता को दिए गए वचन को पूर्ण करने के लिए अयोध्या से लंका तक की यात्रा की तथा उत्तर भारत
और दक्षिण भारत के लोगों को एकता के सूत्र में बाँधने का अभूतपूर्व प्रयत्न किया।
इस पुस्तक से श्रीमती सरोज बाला ने प्राचीन इतिहास का पुनर्लेखन विभिन्न वैज्ञानिक साक्ष्यों के
आधार पर करने की पहल की है। इतिहास का शास्त्रोक्त अभ्यास, साथ ही खगोल विज्ञान आधारित काल
समीक्षा किताब को एक विशेष स्थान दिलाता है। वास्तव में श्रीराम ने संपर्ण ू मानवता के लिए सर्वगुण
संपन्न व्यक्ति का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि नर से नारायण की भारतीय संकल्पना साक्षात् साकार
होती दिखती है और दशरथ पुत्र श्रीराम भगवान् श्रीराम स्वरूप माने जाते हैं।
मैं आशा करती हूँ कि यह पुस्तक पढ़कर श्रीराम के भक्तों, उपासकों, अनुयायियों, आलोचकों सहित
विश्व के लोगों को कुछ नया ज्ञान व दृष्टिकोण प्राप्त करने में मदद मिलेगी।
शुभं भवतु।
(सुमित्रा महाजन)
अध्यक्ष, लोक सभा
भूमिका

पुस्तक को लिखने का औचित्य

आ दिकवि महर्षि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में तेजस्वी, यशस्वी तथा मनस्वी श्रीराम के जीवन-चरित्र
का वास्तविक एवं रोचक वर्णन किया है। यह एक ऐसी अद्वितीय रचना सिद्ध हुई कि पिछले
हजारों वर्षों से विश्व भर के करोड़ों लोगों के लिए यह निरंतर प्रेरणा का स‍्रोत बन गई। उन्होंने रामायण की
कहानी का लेखन और पाठन, चित्रण और गायन, अनुवाद और मंचन इतनी बारंबार किया कि यह एक
जीवंत परंपरा तथा जीवंत विश्वास बन गई। इसका कारण शायद रामायण के माध्यम से दिए गए आदर्श
पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्य हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति
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तथा आदर्श मित्र का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर दिया कि वह आजतक अनन्य तथा निरंतर अनुकरणीय है।
उन्होंने एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना की, जो आज तक अतुलनीय है।
महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा रचित श्रीराम और सीताजी की इस अद्वितीय जीवनगाथा को श्रुति-स्मृति
परंपरा के माध्यम से लव-कुश ने भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचाया। तत्पश्चात् विश्व की सभी प्रमुख
भाषाओं में इसका लेखन-पुनर्लेखन, कथन-पुनर्कथन, अनुवाद-पुनर्नुवाद और वाचन-मंचन होता रहा
तथा इसके अलग-अलग नामों से सैकड़ों संस्करण छपते गए, परंतु मूलभाव वैसा का वैसा रहने के कारण
इन्हें रामायण के नाम से ही जाना जाने लगा। पिछले हजारों वर्षों में रामायण भारतीयों की कला व संस्कृति,
साहित्य व मनोरंजन, आस्था व उत्सव का अभिन्न अंग बन गई। न केवल भारत, अपितु विश्व के विभिन्न
भागों में स्थित तीस से अधिक देशों के लोगों के कला, साहित्य तथा जीवन-मूल्यों पर रामायण ने गहरी
छाप छोड़ी है।
जब श्रीराम की जीवनगाथा का व्याख्यान करनेवाले सैकड़ों संस्करण पहले से ही विद्यमान हैं तो
प्रश्न उठता है कि एक और पुस्तक लिखने का औचित्य क्या है और इसे पाठक क्यों पढ़ें? इस प्रश्न का
उत्तर देना अत्यावश्यक है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब तक लिखी गई लगभग सभी रामायणों का लेखन
भक्तिभाव की दृष्टि से हुआ है। इन्हें पढ़कर पाठक सोच में पड़ जाते हैं कि श्रीराम काल्पनिक थे या
वास्तविक, वे भगवान् थे या फिर इंसान? यदि वे काल्पनिक भगवान् थे तो फिर वे वास्तविक महानायक
नहीं हो सकते, जिनके द्वारा स्थापित आदर्शों का अनुकरण करने का मानव समाज प्रयत्न करता रहे। इस
20 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

पुस्तक को लिखने का ध्येय इन प्रश्नों का वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत उत्तर ढूँढ़ना है। विभिन्न वैज्ञानिक
साक्ष्यों के माध्यम से वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाक्रम की ऐतिहासिकता तथा वास्तविकता की खोज
करना ही इस पुस्तक का वास्तिवक उद्देश्य है। क्या श्रीराम का वास्तव में ही अयोध्या में जन्म हुआ था
और क्या उन्होंने सचमुच सज्जन पुरुषों की राक्षसों के अत्याचारों से रक्षा करने के लिए अयोध्या से लंका
तक की यात्रा की थी? इन प्रश्नों का बहुआयामी वैज्ञानिक प्रमाणों के माध्यम से उत्तर ढूँढ़कर उन्हें महर्षि
वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण की रोचक कहानी में रच-बुनकर बताने का प्रयत्न इस पुस्तक के माध्यम
से किया गया है।
वास्तव में इन रहस्यमय प्रश्‍नों का उत्तर सबसे पहले 20वीं शताब्दी के महानतम वैज्ञानिक डॉ.
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने दिया था। उन्होंने कहा था कि “रामायण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि
वाल्मीकिजी ने महाकाव्य रामायण की रचना करते समय उसमें बहुत से प्रमाण सम्मिलित किए।’’ एक
तरफ उन्होंने उस समय पर आकाश में ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति एवं बहुत से स्थलों का भौगोलिक चित्रण
तथा ऋतुओं का वर्णन किया है तो दूसरी ओर राजाओं की वंशावलियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी
है; इन सबका वैज्ञानिक विधि से प्रयोग करके उन घटनाओं का समय ज्ञात करना कोई टेढ़ी खीर नहीं है।
डॉ. अब्दुल कलाम ने यह भी बताया कि ‘‘आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग करके खगोलीय
गणनाओं ने यह सिद्ध किया है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाएँ वास्तव में 7000 वर्ष पूर्व उसी क्रम
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में घटित हुई थीं, जैसे कि रामायण में वर्णित हैं... रामसेतु उसी स्थान पर जलमग्न पाया गया है, जिस स्थान
का विवरण वाल्मीकि रामायण में किया गया है... जलवायु परिवर्तन पर नासा के अनुमान के मुताबिक,
पिछले 7000 वर्षों के दौरान समुद्र के स्तर में लगभग 2.8 मीटर की वृद्धि हुई। वर्तमान में रामसेतु के
अवशेष समुद्र सतह से लगभग इसी गहराई पर जलमग्न पाए गए हैं।’’
इस पुस्तक में बहुआयामी वैज्ञानिक अनुसंधान रिपोर्टों से उद्धृत किए गए तथ्यों तथा साक्ष्यों के आधार
पर रामायण में वर्णित घटनाओं का सटीक तथा अानुक्रमिक तिथि-निर्धारण किया गया और निष्कर्ष यह
निकाला गया कि आदरणीय डॉ. कलाम द्वारा पेश किए गए तथ्य बिल्कुल सत्य हैं। ऐसा करने के लिए
अपनाई गई विधि का यथाक्रम वर्णन इस पुस्तक के परिचय में दिया गया है। पहले समस्त खगोलीय संदर्भ
क्रमिक रूप से रामायण से निकाले गए। फिर फॉगवेयर कंपनी की प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण
4.1) तथा स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2/2017) का प्रयोग कर इन संदर्भों का खगोलीय तिथि
निर्धारण किया गया। तत्पश्चात् साक्ष्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि पुरातत्त्व तथा पुरा-
वनस्पति विज्ञान, भूगोल तथा समुद्र विज्ञान, रिमोट सेंसिंग और आनुवंशिक अध्ययन भी रामायण में वर्णित
घटनाओं के इस खगोलीय काल-निर्धारण की संपुष्टि करते हैं।
पिछले एक सौ वर्षों में लिखा गया इतिहास भाषाई अनुमानों और कुछ पुरानी पुरातात्त्विक रिपोर्टों पर
आधारित है, क्‍योंकि इतिहासकारों के पास प्राचीनकाल में घटित घटनाओं की वास्तविक तिथियाँ निर्धारित
पुस्तक को लिखने का औचित • 21

करने के लिए कोई भी वैज्ञानिक साधन अथवा साक्ष्य उपलब्‍ध नहीं थे। हमारी इतिहास की पुस्‍तकों में
वर्तमान नूतनयुग (होलोसीन) अर्थात्् 10,000 वर्षों के दौरान सभ्‍यता के विकास का लेखा-जोखा तक
नहीं है। इन पुस्‍तकों में अभी भी यह दोहराया जाता है कि सिंधु, सरस्‍वती और गंगा नदियों के संजाल द्वारा
सिंचित भारतवर्ष की सर्वाधिक उपजाऊ भूमि पर 1500 वर्ष ई.पू. से पहले असभ्‍य तथा जंगली लोग रहते
थे। पुरातात्त्विक रिपोर्टें कई हजार वर्ष पुरानी घटनाओं का काल निर्धारण करने के लिए अपर्याप्त हैं। जब
पुरातत्त्वीय रिपोर्टें यह तक नहीं निर्धारित कर पाईं कि 500 वर्ष पहले बाबरी मस्जिद के निर्माण के समय
वहाँ कोई मंदिर विद्यमान था या नहीं, तो यह पिछले 7000 वर्षों से भी अधिक पुरानी घटनाओं की तिथियों
का सटीक निर्धारण कैसे कर सकती हैं? फिर यह भी सर्वविदित है कि 7000 वर्ष पहले बनाए जानेवाले
घर तथा अन्य संरचनाएँ पर्यावरण के अनुकूल होते थे; इसीलिए 7000 वर्षों बाद उनका खुदाई में मिल
पाना लगभग असंभव है। वास्तव में 7000 वर्ष पुराने उत्खनित दस पुरावशेष 1500 वर्ष पुराने उत्खनित
200 पुरावशेषों से भी अधिक महत्त्व रखते हैं।
प्लेनेटोरियम सॉफ्टवेयर का उपयेाग करके प्राचीन पुस्‍तकों में दिए गए खगोलीय संदर्भों के व्योमचित्र-
अत्यंत प्राचीन काल में घटित घटनाओं का सही तथा सटीक तिथि-निर्धारण करने में पूर्णत: सक्षम हैं।
इसका एक कारण यह भी है कि अभी तक मनुष्‍य ने खगोलीय स्थितियों के साथ छेड़छाड़ करने की क्षमता
प्राप्‍त नहीं की है। आधुनिक काल में खगोल विज्ञान और रिमोट सेंसिंग, पुरातत्त्व विज्ञान एवं पुरावनस्पतिक
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अनुसंधान, समुद्र विज्ञान और भू-विज्ञान, पुराजलवायु विज्ञान तथा आनुवंशिक अध्ययनों पर आधारित नए
वैज्ञानिक साक्ष्यों की जैसे बाढ़ सी आ गई है। इन तर्कसंगत तथा विश्वसनीय बहुआयामी वैज्ञानिक विवरणों
में पिछले दस हजार वर्षों में घटित घटनाओं का अानुक्रमिक व सटीक तिथि-निर्धारण करने की क्षमता है
तथा विश्व के संपर्ण ू इतिहास का यथावत् पुनर्लेखन करने की योग्यता भी है। पारंपरिक इतिहासकारों को
भी सुदूर प्राचीनकाल में घटित घटनाओं का यह वैज्ञानिक तिथि-निर्धारण अधिक विश्वासप्रद तो लगता है,
परंतु वे सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करने में संकोच करते हैं, क्योंकि ऐसा करने से उनके द्वारा रचित
अनेक पुस्तकें अप्रचलित तथा अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुँच जाएँगी। परंतु ज्ञान तो सतत गतिशील
है, नए यंत्रों के प्रयोग से किए गए अन्वेषणों तथा नए तथ्यों के आधार पर प्राचीन असत्य धारणाओं को
बदलना मनुष्य जाति के निरंतर विकास के लिए अति आवश्यक है।
मैंने इस विषय पर पिछले 16 वर्षों से भी अधिक समय से अध्ययन तथा अनुसंधान किया है। इस
प्रयास के मार्ग में सबसे बड़ी चुनौती थी विज्ञान के इन आठ विभिन्न विषयों से विश्वसनीय वैज्ञानिक
प्रमाणों को एकत्रित करना और फिर उनमें सहसंबंध स्थापित करना। इसी कारण ऐसे प्रतिष्ठित तथा
प्रख्यात वैज्ञानिकों से निविष्टियाँ प्राप्त करने का प्रयास किया गया, जिन्हें संबंधित विषय में उत्कृष्ट विशेषज्ञ
माना जाता था। इन बहुआयामी वैज्ञानिक रिपोर्टों को पढ़ने, समझने और प्रासंगिक प्रमाणों को उद्धृत करने
के लिए संबधि ं त विषयों के पी-एच.डी. शोधार्थियों की सहायता भी ली गई। तत्पश्चात् एकत्रित किए गए
22 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

इन वैज्ञानिक तथ्यों तथा साक्ष्यों को संगोष्ठियों तथा कार्यशालाओं के माध्यम से वैज्ञानिकों तथा विद्वानों के
समक्ष रखा गया, ताकि उनसे आलोचनात्मक टिप्पणियाँ प्राप्त की जा सकें।
‘2000 वर्ष ई.पू. से पहले की प्राचीन घटनाओं का वैज्ञानिक तिथि-निर्धारण’ विषय पर 30-31
जुलाई, 2011 को दिल्ली में सेमिनार आयोजित किया गया। इसका उद्घाटन भाषण माननीय डॉ. ए.पी.जे.
अब्दुल कलाम जी द्वारा दिया गया था। उनका संपूर्ण वक्तव्य पुस्तक ‘वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आकाश की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण’ में प्रकाशित किया
है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रत्येक अध्याय के प्रांरभ में दिए गए कुछ बहुमूल्य शब्द इसी वक्तव्य में से उद्धृत
किए गए हैं।
तत्पश्चात् फरवरी 2014 में ‘वेदों तथा महाकाव्यों के युग से भारतवर्ष में सांस्कृतिक निरंतरता का
निर्धारण ः खगोलीय संदर्भों के आकाशीय दृश्यों तथा वैदिक प्रमाणों के माध्यम से’ विषय पर अंतरराष्‍ट्रीय
संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका बीज-वक्तव्य आई.सी.सी.आर. के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ.
कर्ण सिंह ने दिया था। सितंबर 2015 में दिल्ली में तथा फरवरी 2016 में हिसार में ‘ऋग्वेद से रोबोटिक्स
तक सांस्कृतिक निरंतरता’ पर प्रदर्शनियाँ संयोजित की गईं। इनका उद्घाटन क्रमश: केंद्रीय संस्कृति मंत्री
डॉ. महेश शर्मा तथा हरियाणा के राज्यपाल प्रोफेसर कप्तान सिंह सोलंकीजी के कर-कमलों से हुआ।
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इसी विषय पर नवंबर 2014 तथा जुलाई 2016 में कार्यशालाओं का आयोजन भी किया गया। न केवल
भारतवर्ष से अपितु विश्वभर से महान् वैज्ञानिकों ने इन सभी कार्यक्रमों में भाग लिया और उनसे महत्त्वपूर्ण
निविष्टियाँ तथा जानकारियाँ प्राप्त हुईं। हमें अपने अनुसंधान के निष्कर्षों की कमियों को दूर करने का
भरपूर अवसर भी मिला।
इन कार्यशालाओं के दौरान कई वैज्ञानिकों द्वारा दी गई प्रस्तुतियों को मैंने पूर्ण रूप से आत्मसात् कर
लिया। उनमें से कई वैज्ञानिक अभी तक शोध-पत्र नहीं भेज पाए, इसीलिए इन कार्यक्रमों में से कुछ में
प्रस्तुत अनुसंधान रिपोर्टों को अभी तक अधिकृत रूप से प्रकाशित नहीं किया जा सका; हालाँकि इन सभी
काे sarojbala.blogspot.in/Rigveda to Robotics पर अपलोड कर दिया गया है। मैं उन सभी
वैज्ञानिकों का आभार अभिव्यक्त करती हूँ, क्योंकि इस पुस्तक में उल्लिखित वैज्ञानिक तथ्यों एवं साक्ष्यों
को मैंने इन्हीं वैज्ञानिकों से सीखा तथा प्राप्त किया है। इस पुस्तक के विषयवस्तु के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण
सूचनाएँ पाठकों के साथ साझा करने की आवश्यकता है—
• यह पुस्तक गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में समाहित मूल संस्कृत
पाठ पर आधारित है। अनुवाद संबंधी सभी विवादों को संस्कृत के तीन उत्कृष्ट विद्वानों—
डॉ. उपेंद्र राव, डॉ. बलदेवानंद सागर और डॉ. दिव्या त्रिपाठी के मार्गदर्शन में सुलझाया गया।
• प्लेनेटोरियम गोल्ड तथा स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर के आकाशीय दृश्यों को मुद्रित तथा लेखांकित
पुस्तक को लिखने का औचित • 23

करने में श्री अशोक भटनागर, श्री दीपक विश्वकर्मा, श्री पीयूष संधीर, श्री अभिजीत अवधिया
श्री कमल मलिक तथा श्री गिरीश गिल ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
• पुरातात्त्विक जानकारियाँ डॉ. बी.आर. मणि, श्री जे.एन. पाल, श्री के.एन. दीक्षित, श्री आर.एस.
बिष्ट, डॉ. राकेश तिवारी, श्री वसंत शिंदे, श्री कुलभूषण मिश्रा और कई अन्य पुरातत्त्वविदों
से प्राप्त हुई हैं। रामायण में वर्णित प्राचीन पौधों के जीवाश्मों और परागों के तिथि निर्धारण
से संबधि ं त पुरावनस्पतिक वैज्ञानिक निविष्टियाँ मुख्य रूप से डॉ. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी से प्राप्त हुई
हैं। डॉ. अजय सिंह, डॉ. सी.एम. नैटियाल और डॉ. चंचला श्रीवास्तव से भी कुछ महत्त्वपूर्ण
पुरावनस्पतिक जानकारियाँ उपलब्ध हुईं।
• डॉ. के.एस. वल्दिया और डॉ. ए.आर. चौधरी ने अहम भू-वैज्ञानिक निविष्टियाँ प्रदान की हैं।
डॉ. बी.के. भद्रा और डॉ. जे.आर. शर्मा ने महत्त्वपूर्ण विवरणों सहित दूर संवेदी चित्र उपलब्ध
करवाए। डॉ. राजीव निगम और उनकी टीम ने नूतन युग समुद्र जल स्तर वक्र तैयार किया और
समझाया। इन जानकारियों का सहसंबंध स्थापित करके गंगा, यमुना और सरस्वती सहित नदियों
का अानुक्रमिक प्रवाह और रामायण में वर्णित उनके पुरामार्गों को विश्वसनीय ढंग से चिह्न‍‍ित
करना संभव हो पाया। 7000 वर्ष से भी अधिक पहले रामसेतु के निर्माण में मानवों के योगदान
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के साक्ष्य बड़े विश्वसनीय तथा नए ढंग से इस पुस्तक में दिए गए हैं।
• अधिकतर भौगोलिक सूचनाएँ डॉ. राम अवतार शर्मा से प्राप्त हुई हैं। मानचित्र पर रामायण के
स्थानों की जी.पी.एस. प्लॉटिंग इंजीनियर राहुल शंकर और इंजीनियर दीपक विश्वकर्मा की
सहायता से की गई है। रामायणकालीन जनजातियों और अन्य भारतीय लोगों के आनुवंशिक
अध्ययन संबंधी सूचनाएँ डॉ. ज्ञानेश्वर चौबे, डॉ. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी और डॉ. वी.आर. राव से प्राप्त
हुई हैं। डॉ. आर.के गंजू से ग्लेशियोलॉजी के अध्ययन की अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई।
• भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व सर्वेक्षण, भारतीय पुरातत्त्व परिषद, बीरबल
साहनी पुरा-विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, भारत का भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण,
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण, श्रीराम सांस्कृतिक शोध
संस्थान आदि की मैं अत्यधिक आभारी हूँ। इन्होंने अपनी अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान रिपोर्टें
उपलब्ध करवाईं, जिनके बिना विज्ञान के आठ अनुशासनों से प्राप्त विश्वसनीय निष्कर्षों का
सहसंबंध स्थापित करना लगभग असंभव होता और परिणामस्वरूप रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण
घटनाओं की सटीक तारीखें निर्धारित भी न हो पातीं।
• महत्त्वपूर्ण निविष्टियाँ तथा टिप्पणियाँ देनेवाले वैज्ञानिकों और विद्वानों के नामों की विस्तृत सूची
इस पुस्तक के परिशिष्ट-6 में शामिल की गई है। इस पुस्तक को लिखने में सबसे महत्त्वपूर्ण
24 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

योगदान श्री हरीश जैन (एम. फिल, हिंदी अनुवाद) ने दिया, जिन्होंने इस पुस्तक के लिए
महत्त्वपूर्ण तथ्यों तथा साक्ष्यों का हिंदी अनुवाद व भाषा संपादन किया। डॉ. आशा जोशी, जो
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामाप्रसाद मुखर्जी कॉलेज से असोशिएट प्रोफेसर के पद से रिटायर
हुईं और आजकल भारतीय पुरातत्त्व परिषद‍् में पुराप्रवाह पत्रिका की संपादक हैं, ने इस पुस्तक
की भाष्‍ाा में अंतिम संशोधन कर इसे परिष्कृत किया।
इस पुस्तक में दिए गए तथ्य इस प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम होने चाहिए कि श्रीराम एक काल्पनिक
चरित्र थे या ऐतिहासिक व्यक्तित्व? श्रीराम के भक्तों के लिए, इस पुस्तक में दिए गए तथ्य तथा साक्ष्य
श्रीराम की महानता और देवत्व में उनके निरंतर विश्वास को और अधिक सुदृढ़ करेंगे। इतिहासकारों और
इंडॉलाेजिस्टों को इस पुस्तक में वर्णित तथ्य व प्रमाण भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन इतिहास को नए सिरे
से वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर लिखने के लिए विवश कर देंगे। इस पुस्तक में दिए गए वैज्ञानिक साक्ष्य
उनको यह मानने के लिए मजबूर कर देंगे कि श्रीराम एक ऐतिहासिक चरित्र थे, जो सर्वाधिक प्रतिष्ठित,
सर्वगुणसंपन्न मर्यादा पुरुषोत्तम थे, जिन्होंने 7000 हजार वर्ष पूर्व वास्तव में एक अतुलनीय कल्याणकारी
राज्य की स्थापना की और संपूर्ण भारत में बसे भद्र पुरुषों की राक्षसों के अत्याचारों से रक्षा की। इसीलिए
तो लाखों करोड़ों लोगों ने उन्हें देवता मानकर पूजना प्रारंभ कर दिया और श्रीराम वास्तव में उनके लिए
भगवान् स्वरूप बन गए।
MAGAZINE KING
इस पुस्तक में वर्णित तथ्य श्रीराम के द्वारा मानवता के उद्धार के लिए किए गए अभूतपूर्व योगदान के
बारे में युवा पीढ़ी को शिक्षित तथा प्रेरित करने में सक्षम होने चाहिए। सूर्यवंशी श्रीराम ने एक आदर्श राजा,
आदर्श पुत्र, एक आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति और एक आदर्श समाजसुधारक के रूप में सर्वोच्‍च
मानकों की स्थापना की। उन्हें वास्तविक नायक मानकर उनके द्वारा स्थापित आदर्शों का अनुसरण करने
का प्रयत्न समाज में सुधार तथा संतुष्टि लाने का कारक बन सकता है। श्रीराम ने संपूर्ण भारतवर्ष में जाति,
स्थान या धर्म के आधार पर भेदभाव मिटाकर एकता के सूत्र में बाँधने का अभूतपूर्व प्रयत्न किया। उन्होंने
दक्षिण भारत के लोगों को उत्तर भारतीयों के साथ अटूट प्रेम-बंधन में बाँध दिया।
इन शब्दों के साथ यह पुस्तक सर्वशक्तिमान भगवान् के चरणों में अर्पित करती हूँ और साथ ही विनम्र
निवेदन भी करती हूँ कि श्रीराम के भक्तों, अनुयायियों तथा प्रशंसकों के लिए या फिर उनके अस्तित्व को
नकारने वाले लोगों के लिए भी इस पुस्तक से कुछ रोचक तथा उपयुक्त जानकारी मिल सके।

—सरोज बाला
परिचय

पृष्ठभूमि तथा दृष्टिकोण

मु झे यह स्‍पष्‍ट रूप से याद है कि बचपन में मैं अन्‍य कई बच्‍चों के साथ नवरात्रों के दिनों के दौरान
रामलीला के विभिन्‍न प्रसंगों को देखना पसंद किया करती थी। हम बार-बार तुलसी रामायण और
राधेश्‍याम रामायण को सुनकर आनंद लेते थे। परिवार में बच्‍चों के जन्‍म, विद्यालय में प्रवेश, विवाह-
संपादन और अंत में मृत्यु के पश्‍चात् अंत्‍येष्टि संस्‍कार आदि सभी श्रीराम का स्‍मरण करते हुए संपन्‍न किए
जाते थे। दशहरा और दीपावली भारत के सबसे बड़े त्योहार हैं और इनमें रावण पर श्रीराम की विजय तथा
अयोध्‍या के राजा के रूप में उनके राज्‍याभिषेक का उत्‍सव मनाया जाता है। चूकि ँ मैं और मेरा परिवार यात्रा
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करने के शौकीन थे, हमने रघुकुलवंशी श्रीराम के जीवन और समय से जुड़े हुए कई स्‍थलों की यात्रा भी
की। इनमें अयोध्या, चित्रकूट, शृंग्वेरपुर, पंचवटी, बस्‍तर, किष्किंधा, रामेश्वरम्, श्रीलंका आदि शामिल हैं।
हम बड़े गौर के साथ यह देखते थे कि स्थानीय लोगों के त्यौहार, नृत्य तथा गीत उनके अपने-अपने क्षेत्रों
से श्रीराम के जीवनकाल में घटी घटनाओं की स्मृतियों से संबंध रखते हैं। अयोध्या तथा कोशल साम्राज्य
के अन्य भागों में मर्यादा पुरुषोत्तम राजा राम का गुणगान किया जाता है, जबकि संगम के आस-पास के
क्षेत्र के लोग राम, लक्ष्मण और सीताजी को गंगा पार करानेवाले केवट (नाविक) के बारे में भक्तिभाव
से गीत गाते हैं। दंडक वन के आस-पास के क्षेत्र में वनवासी श्रीराम की याद में लोकगीत गाए जाते हैं,
जबकि दक्षिण भारत में, किष्किंधा से लेकर रामेश्वरम्् तक, वे कोदंड राम अर्थात्् धनुष और बाण धारण
करनेवाले पराक्रमी योद्धा श्रीराम की स्तुति करते हैं।
रामेश्वरम्् के निकट सेतपु तियों का राजवंश विद्यमान रहा है, जिनके बारे में ऐसा माना जाता है कि
उन्होंने हजारों वर्षों तक रामसेतु की देख-रेख और रक्षा की। श्रीलक
ं ा में, वहाँ के लोग श्रीराम का प्रतिनिधित्व
करनेवाले लक्ष्मण द्वारा विभीषण के राज्याभिषेक का उत्सव मनाते हैं। उन्होंने अपने संसद् भवन के सामने
विभीषण की प्रतिमा स्थापित की हुई है, न कि रावण की। उत्तर भारत में रावण के वध को बड़े उत्साह से
दशहरे के रूप में मनाया जाता है, लेकिन राजस्थान के जोधपुर जिले में स्थित मंदौर गाँव में लोग दशहरे
का उत्सव नहीं मनाते, क्योंकि उनका मानना है कि उस दिन मंदोदरी विधवा हो गई थी और मंदोदरी तो
मंदौर के राजा की पुत्री थी, इसलिए वे अपने दामाद रावण की मृत्यु का उत्सव नहीं मना सकते। मिथिला
26 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

और जनकपरु क्षेत्रों में सभी आयोजनों के दौरान लोग श्रीराम के साथ सीताजी के विवाह के गीतों का
गायन करते हैं। वे श्रीराम द्वारा सीताजी के निर्वासन पर शोक भी मनाते हैं और अपनी सर्वगुण संपन्न
पुत्री मैथिली द्वारा लव-कुश के जन्म तथा पालन-पोषण का भी उत्सव लोकनृत्यों तथा गीतों के माध्यम
से धूमधाम से मनाते हैं। मिथिला के पुजारी अभी भी अयोध्या से आनेवाले यात्रियों को टीका और शगुन
देते हैं। मेरे बचपन के दौरान बड़े-बुजुर्ग लोग बच्‍चों को आज्ञाकारी बालक बनने के लिए श्रीराम का
अनुकरण करने और आदर्श भाई बनने के लिए भरत और लक्ष्मण का अनुसरण करने का परामर्श देते थे।
उन दिनों सुदूर प्राचीन काल में राजा दशरथ के पुत्र के रूप में श्रीराम का जन्म मेरे लिए तथा भारत के
अन्य करोड़ों लोगों के लिए सर्वाधिक वास्तविक घटना थी। श्रीराम सदैव विश्व के सभी भागों में बसे हुए
भारतीय मूल के लोगों की नैतिकता एवं आस्था के मूल आधार रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगे। रामायण
की कहानी हजारों वर्षों से इन करोड़ों लोगों को निरंतर आकर्षित व प्रेरित करती रही है और करती रहेगी।
परंतु मेरे बचपन में स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई गई पुस्तकों में, उसके पश्चात् मेरे बच्‍चों के स्कूल
और कॉलेज में पढ़ाई गई पुस्तकों में तथा अब मेरे पोतों को पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों में यह धारणा व्यक्त
की जाती रही है कि श्रीराम एक काल्पनिक चरित्र थे, जिसकी परिकल्पना 1500 वर्ष ई.पू. के पश्चात्
किसी समय कथित तौर पर मध्य एशिया से आए आर्य खानाबदोशों ने की और उन्होंने ही ‘रामायण’
नामक काल्पनिक महाकाव्य की रचना कर डाली! भारत के स्कूलों तथा कॉलेजों में यह भी पढ़ाया जाता
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रहा है कि ये आक्रमणकारी आर्य अपने पशुओं तथा रथों के साथ हिंदु-कुश और हिमालय पर्वतमालाओं
को पार कर भारत में आ गए! परंतु यहाँ आते ही वे अपनी भाषा भूल गए, वे अपनी मूल मातृभूमि का
नाम तक भूल गए, वे अपनी मातृभूमि के नदियों व पर्वतों, गाँवों व शहरों के नाम भी भूल गए! तत्पश्चात्
अचानक ही कुछ ऐसा जादू हुआ कि इन खानाबदोशों ने अत्यंत तीव्र गति से सभ्य बनना शुरू कर दिया!
उन्होंने उत्तर भारत से उन तथाकथित असभ्य मूल निवासियों को दक्षिण भारत की ओर खदेड़कर द्रविड़
बना दिया, संस्कृत भाषा विकसित कर ली और वेदों तथा महाकाव्यों की रचना प्रारंभ कर दी! 1200 वर्ष
ई.पू. के आस-पास उन्होंने ऋग्वेद की रचना कर दी तथा लगभग दो सौ वर्षों के पश्चात् उन्होंने रामायण
की रचना कर डाली!
कई दशकों तक मेरा तर्कशील मस्तिष्क भारतीय उपमहाद्वीप के विद्यालयों में पढ़ाए जानेवाले इस
अविश्वसनीय इतिहास से संघर्षरत रहा। यह इतिहास पश्चिमी और वामपंथी पूर्वाग्रहों के साथ लिखा
गया था और इसका आधार केवल भाषाई अनुमान, धार्मिक जनश्रुतियाँ और कुछ जीर्ण-शीर्ण प्राचीन
पुरातात्त्विक रिपोर्टें थीं। अन्य करोड़ों लोगों की तरह मेरा विवेकीमन भी यह मानने को तैयार नहीं था
कि श्रीराम और श्रीकृष्ण काल्पनिक चरित्र थे और ये दोनों रामायण तथा महाभारत की रचना करनेवाले
कवियों द्वारा रचित काल्पनिक साहित्य का भाग थे। मेरा जिज्ञासु मन कई प्रश्नों के उत्तरों की माँग कर
रहा था, जो अन्य लोगों की तरह मुझे निरंतर परेशान कर रहे थे—
पृष्ठभूमि तथा दृष् • 27

1. क्या श्रीराम एक ऐतिहासिक चरित्र थे? क्या उन्होंने मनुष्य के रूप में वास्तव में जन्म लिया था;
यदि हाँ, तो कब और कहाँ तथा इस तथ्य के क्या वैज्ञानिक प्रमाण हैं?
2. क्या श्रीराम ने अयोध्या से लंका तक वास्तव में यात्रा कर लाखों भारतीयों को राक्षस राजा रावण
और उसके खर व दूषण जैसे सगे-संब​ि‍ं धयों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी और एक अद्वितीय
कल्याणकारी राज्य की स्थापना की थी?
3. क्या आधुनिक प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयरों का उपयोग करके वाल्मीकि रामायण में वर्णित खगोलीय
विन्यासों के व्योमचित्रों के माध्यम से श्रीराम के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की वास्तविक व
अनुक्रमिक तिथियों को निर्धारित किया जा सकता है?
4. क्या ऐसे आनुवंशिक, पुरातात्त्विक तथा पुरावानस्पतिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिनके अनुसार
रामायण में वर्णित धनुष तथा बाण, गहने तथा बर्तनों, पौधों तथा जड़ी-बूटियों की कार्बन डेटिगं
उनका संबधं रामायण की घटनाओं के खगोलीय तिथिकरण से स्थापित करती हो?
मेरा परिवार था, जिसकी देखभाल मुझे करनी होती थी और आयकर आयुक्त के रूप में मेरा कार्य
बहुत श्रमसाध्य भी था। परंतु 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक दिनों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिनका तर्कसगं त
औचित्य बताना कठिन है। सबसे पहले अमेरिका से एक मित्र ने वाल्मीकि रामायण में वर्णित स्थान पर
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समुद्र में लगभग 9.3 फीट नीचे जलमग्न पाए गए रामसेतु का नासा द्वारा लिया गया दूर संवदे ी चित्र मुझे
इ-मेल किया। इसके कुछ दिनों पश्चात् एक अन्य मित्र ने मुझे वर्ष 1932 ईस्वी में प्रकाशित पुस्तक
‘अयोध्या का इतिहास’ भेंट की, जिसके लेखक श्री राय बहादुर सीतारामजी थे। इसका चरमबिंदु तब आया,
जब मेरे युवा सहकर्मी श्री पुष्कर भटनागर रामायण के खगोलीय संदर्भों के आकाशीय दृश्यों के प्रिंट आउट
लेकर मेरे पास आए, जो श्रीराम के जीवन से संबधि ं त महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रमिक खगोलीय तिथिकरण
करते हुए इनका संबधं 5100 वर्ष ई.पू. से जोड़ रहे थे। उन्हीं दिनों मैंने समाचार-पत्रों में कुछ ऐसी रिपोर्टें भी
पढ़ीं, जिनके अनुसार कोशल क्षेत्र में की गई खुदाइयों में 7000 वर्ष पुराने ताँबे के बाणाग्र, टैराकोटा बर्तन,
सोने तथा कीमती पत्थरों के आभूषण तथा पेड़-पौधे पाए गए हैं, जिनके संदर्भ रामायण में हैं।
ऐसी घटनाओं ने मेरे जीवन का उद्देश्य ही परिवर्तित कर दिया। इन साक्ष्यों तथा कई अन्य तथ्यों ने मेरे
उन अनेक विचारों और विश्वासों को चुनौती दी, जिन्हें मैंने अपने बचपन से स्कूल और कॉलेज के शिक्षकों
से जाना, समझा एवं सुना था। मेरा मस्तिष्क यह सोचकर निरंतर अचंभित था कि स्वाधीनता के पश्चात्
भारतीय लोगों की तीन पीढ़ियाँ क्या विकृत तथा असत्य प्राचीन भारतीय इतिहास का पठन-पाठन करती
आ रही हैं! मेरा मन तथा मस्तिष्क मुझे यह विश्वास करने के लिए मजबूर कर रहे थे कि रामायण और
महाभारत के युगों की ऐतिहासिकता को सिद्ध करनेवाले अनेक विश्वनीय वैज्ञानिक साक्ष्य कई विभागों और
संस्थानों के पास पहले से ही मौजूद हैं, परंतु पिछले दस हजार वर्षों में नूतन युग के आरंभ से हमारी संस्कृति
और सभ्यता के वास्तविक इतिहास का पुनर्लेखन करने के लिए ऐसे तथ्यों तथा प्रमाणों को पहचानने और
28 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

उनको सह-संबधि ं त करने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं। मेरा दिमाग मुझे यह सुनिश्चित करने के
लिए लगातार मजबूर कर रहा था कि क्या हम अपने गौरवशाली अतीत के वास्तविक इतिहास को मिथक
बताकर विगत, वर्तमान और भावी पीढ़ियों के साथ अन्याय कर रहे हैं? क्या हम उन्हें अपनी महान् विरासत
में सामूहिक राष्ट्रीय गर्व का सच्‍चा अनुभव करने से वंचित कर रहे हैं? इसके अलावा कई और प्रश्न मेरे
मानस-पटल पर कौंधने लगे—
• क्या हम अपने बच्‍चों को श्रीराम और श्रीकषृ ्ण जैसे हमारे सुदूर अतीत के वास्तविक नायकों से वंचित
कर रहे हैं, जिन्होंने जीवन में विभिन्न भूमिकाओं और संबधं ों में आदर्श मानव आचार के उदाहरण पेश
किए थे?
• क्या रामराज्य की स्थापना करनेवाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और जनकल्याण के लिए शासन
करनेवाले उनके सूर्यवशं ी पूरज
्व सम्राट् नूतन युग के प्रारंभिक भारतीय इतिहास का प्रतिनिधित्व
नहीं करते?
• क्या श्रीराम ने वास्तव में आदर्श जन कल्याणकारी राज्य का उदाहरण पेश किया था? क्या यह
अभी तक अतुलनीय है?
करोड़ों अन्य भारतीयों की तरह, मेरा मस्तिष्क भी इन सभी प्रश्नों के विश्वसनीय उत्तरों को ढूढ़ँ ने की
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उत्कट इच्छा रखने लगा और मैंने अनेक रातें इन प्रश्नों के संभावित उत्तरों के बारे में सोचते हुए बिता दीं।
फिर कुछ समय के पश्चात् मैंने महसूस किया कि मेरा मस्तिष्क, मेरा मन और मेरी आत्मा सभी
इस कार्य को करने के लिए तारतम्य में हैं और वैज्ञानिक आधार पर इन प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ँ ने की चुनौती
को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। शुरुआत में मैंने थोड़ी डगमगाहट महसूस की, क्योंकि मुझे न तो
खगोलशास्त्र का ज्ञान था और न ही विज्ञान की मेरी पृष्ठभूमि थी। इस कार्य को करने के लिए पहले तो
मैंने भारतीय राजस्व सेवा से त्यागपत्र देने के बारे में भी विचार किया, परंतु फिर कई सहयोगियों के परामर्श
को स्वीकार कर मैंने भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत रहने के साथ-साथ इस अनुसंधान को विश्वसनीय
व तर्कसगं त निष्कर्ष पर पहुँचाने का निश्चय कर लिया। उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और
तन-मन तथा धन से अपने आपको इस महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समर्पित कर दिया। मैंने भारत
देश के अलग-अलग क्षेत्रों की यात्रा करते समय विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक साक्ष्यों को एकत्रित करने का
कार्य प्रारंभ कर दिया। बड़ी तत्परता से पोजिशनल एस्ट्रॉनोमी सेंटरों, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, भारतीय
पुरातत्त्व परिषद्, मानव विज्ञान सर्वेक्षण, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन,
भारतीय भू-गर्भ सर्वेक्षण, बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान आदि जैसे विभिन्न संगठनों में कार्यरत
वैज्ञानिकों से सूचना एकत्रित करना प्रारंभ कर दिया। इन संस्थानों में उपलब्‍ध अनुसंधान रिपोर्टों के बारे
में सूचना एकत्रित की और उनमें से कई प्रासंगिक रिपोर्टों का अध्ययन भी किया। वर्ष 2009-2010 तक
मैंने उन वरिष्ठ वैज्ञानिकों की पहचान कर उनसे संपर्क स्थापित कर लिया, जिन्होंने इस विषय में वैज्ञानिक
पृष्ठभूमि तथा दृष् • 29

अनुसंधान किए थे और जिन्होंने अपने संगठनों के भीतर अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अनुसंधानों का
अच्छा ज्ञान भी अर्जित कर रखा था।
धीरे-धीरे रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण घटनाओं की ऐतिहासिकता और तिथियों को वैज्ञानिक ढंग से
निर्धारित करने हेतु अपनाई जानेवाली पद्धति तथा प्रविधि मेरे मस्तिष्क में स्पष्ट होती गई। मुझे यह भी ज्ञात
था कि रामायण के 300 से भी अधिक संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं, लेकिन मुझे तथ्यों तथा साक्ष्यों के
आधार पर यह विश्वास था कि महर्षि वाल्मीकिजी ने श्रीराम के जीवनकाल में उनकी जीवनगाथा की मूल
रचना की थी। इस मूल रचना को लव और कुश के द्वारा श्रुति-स्मृति परंपरा के माध्यम से भावी पीढ़ियों
तक पहुँचाया गया। लव और कुश ने राम-दरबार में ही अपनी मधुर आवाज में संपर्ण ू रामायण का गायन
किया था। मूल रामायण के बाद में लिखे गए संस्करणों में स्वाभाविक रूप से उन कवियों के व्यक्तित्व
तथा उनके समय की सामाजिक धारणाओं की छाप समाहित हो गई। एक प्रसिद्ध साहित्यकार ने कहा है कि
साहित्य समाज का दर्पण होता है और लेखक या रचनाकार अपने आस-पास की परिस्थितियों से प्रभावित
हुए बिना लेखन कर ही नहीं सकता। 11वीं शताब्दी में श्री कंबन ने ‘रामअवतारम्’ शीर्षक से तमिल में
श्रीराम के जीवन-वृत्तांत का पुनर्लेखन किया। 14वीं शताब्दी में असमिया में माधव कांडली ने ‘सप्तकांड
रामायण’ का लेखन किया। 16वीं शताब्दी में संत एकनाथ ने मराठी भाषा में ‘भावार्थ रामायण’ का लेखन
किया। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनँ ी ने 16वीं शताब्दी में वाल्मीकि रामायण का फारसी में अनुवाद किया।
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17वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी-हिंदी भाषा में ‘रामचरितमानस’ की रचना की और भक्ति
आंदोलन का नेततृ ्व किया। गुरु गोविंद सिंह ने 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में गोविंद रामायण की रचना की
और इसका पंजाबी अनुवाद 1915 में गुरुमुखी लिपि में प्रकाशित किया गया। 19वीं शताब्दी में हिंदी भाषा
में रचित राधेश्याम रामायण ने संपर्णू उत्तर भारत में मंचित की जानेवाली रामलीलाओं के लिए रोचक संवाद
एवं प्रसंग प्रदान किए। यह ध्यान देने योग्य बात है कि उपर्युक्त सभी श्रीराम जीवन-वृत्तांत विभिन्न शीर्षकों
से प्रकाशित किए गए, लेकिन इन सभी को रामायण के नाम से ही जाना जाता है। ऐसा शायद इसलिए कि
इन सभी संस्करणों में महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा रचित मूल रामायण में दिए गए श्रीराम के जीवन-वृत्तांत को
कुछ परिवर्तनों तथा परिवर्धनों के साथ बनाए रखा गया है।
इसीलिए श्रीराम के जीवन संबधि ं त तथ्यों तथा महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पता लगाने और वैज्ञानिक
साक्ष्यों का सहसंबधं उनसे स्थापित करने के लिए मैंने गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण
पर निर्भर रहने का निर्णय लिया। मैं यहाँ पर बताना चाहूँगी कि महर्षि वाल्मीकि के लिए, श्रीराम इस धरती
पर जन्म लेनवे ाले सर्वाधिक सुदं र, सर्वाधिक सद्गुणी, परम पराक्रमी, सर्वाधिक दयालु और शायद सर्वाधिक
प्रतिष्ठित देवतास्वरूप मानव थे। इक्ष्वाकुवश
ं ी श्रीराम ने आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र,
आदर्श पति और इन सबसे बढ़कर एक आदर्श समाज-सुधारक के रूप में सर्वोच्‍च मानक स्थापित किए।
उन्होंने कोल जनजाति के मुखिया गुह निषाद को अपना भाई मानते हुए गले से लगाकर, भील जनजाति की
शबरी द्वारा दिए गए फलों को प्रेम तथा आदर सहित खाकर और फिर असाधारण ज्ञान एवं बुद्धि से संपन्न
30 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

एक शूद्र कहे जानेवाले महर्षि वाल्मीकिजी के आश्रम में अपनी गर्भवती पत्नी सीता को रहने के लिए भेजकर
सभी प्रकार के सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध सख्त संदश े दिया। इस संदशे को घर-घर पहुँचाने की आज
बहुत आवश्कता है।
वाल्मीकिजी द्वारा दिए गए सीता-चरित्र के वृत्तांतों के अनुसार, सीता एक देवी-स्वरूपा बुद्धिमान व
साहसी स्त्री थीं। वे अपने माता-पिता की आदर्श पुत्री, अपने पति की आदर्श पत्नी और अपने दोनों पुत्रों
(लव और कुश) की आदर्श माँ भी थीं। सीताजी ने अपने जीवन-चरित्र से यह दर्शाया कि एक स्त्री को
कितना मजबूत एवं दृढ़ होना पड़ सकता है और वह प्रतिकूल समय में भी जीवन के मूल्यों को किस प्रकार
अक्षुण्ण बनाए रख सकती है। लक्ष्मण एक ऐसे उत्कृष्ट भाई थे, जिन्होंने अपने बड़े भाई की सेवा करने के
लिए राजमहल के आनंद और सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया था। रावण द्वारा सीता का अपहरण हो
जाने के पश्चात् लक्ष्मण ने ही मुश्किल घड़ियों में श्रीराम को साहस तथा धैर्य बँधाया।
महर्षि वाल्मीकि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के समकालीन प्रशंसक थे, जबकि महान् संत कवि तुलसीदास
श्रीराम के भक्त थे। प्रशंसक से अनुयायी तथा अनुयायी से भक्त तक की इस यात्रा में कुछ हजार वर्ष लग
ही जाते हैं। तो श्रीराम के जीवन का वाल्मीकिजी द्वारा रचित वृत्तांत वास्तविक है, इसकी भाषा सुदं र तथा
उपमाएँ अभूतपूर्व हैं और इसकी अभिव्यक्तियाँ उत्कृष्ट हैं। वाल्मीकि रामायण की मौलिकता और इसकी
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भाषा की सुदं रता को बनाए रखने के लिए मैंने सभी संभव प्रयास किए हैं। इस पुस्तक ‘रामायण की कहानी,
विज्ञान की जुबानी’ में महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा रचित श्रीराम की मूल जीवनगाथा में दिए गए घटनाक्रम को
विवरणपूरक ्व बताते हुए उनके बहुआयामी वैज्ञानिक तिथि-निर्धारण के प्रमाणों को इस प्रकार बुन दिया है कि
वे चरितावली में अंतर्निहित हो गए। इस प्रक्रिया का संक्षिप्त क्रमिक विवरण इस प्रकार है—
1. वाल्मीकि रामायण के प्रत्येक शब्द का बारीकी से अध्ययन किया गया तथा सभी खगोलीय संदर्भों
को क्रमिक रूप से निकाल लिया गया। अनुवाद संबधं ी सभी विवादों को उत्कृष्ट संस्कृत विद्वानों
की सहायता से सुलझाया गया। इन विवरणों को प्लैनेटरे ियम गोल्ड (संस्करण 4.1) सॉफ्टवेयर
में प्रविष्ट करके यह देखा गया कि ये सभी खगोलीय विन्यास दिए गए स्थानों के अक्षांशों और
रेखांशों से आकाश में किस समय और किस तिथि को अवलोकित किए जा सकते थे। 5116 वर्ष
ई.पू. से 5076 वर्ष ई.पू. तक के 40 वर्षों की अवधि में देखे गए 12 क्रमिक आकाशीय दृश्यों के
स्क्रीनशॉट लिए गए। ये सभी श्रीराम के जीवन में घटित महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय वाल्मीकिजी
द्वारा आकाश में देखे गए नक्षत्रों एवं ग्रहों की स्थितियों के विवरण से हूबहू मिलते हैं। ये आंतरिक
रूप से सुसगं त हैं, क्रमिक रूप से सटीक हैं और पिछले 26000 वर्षों के दौरान अन्य किसी भी तिथि
को इन्हें आकाश में देखा नहीं जा सकता था। इन सभी बारह व्योमचित्रों को इस पुस्तक में शामिल
किया गया है। पाठक यह देखकर आनंदित अनुभव कर सकते हैं कि जब श्रीराम का जन्म हुआ था
तो पाँच ग्रहों को अपने-अपने उच्‍च स्थान में दर्शाते हुए आकाश किस प्रकार सुदं र और चमकदार
पृष्ठभूमि तथा दृष् • 31

दिखाई दे रहा था और जब हनुमानजी द्वारा अशोक वाटिका में सीता को रावण द्वारा धमकाते हुए
देखा गया तो ग्रहण से ग्रसित चंद्रमा लंका के आकाश में दिखाई दिया। इन आकाशीय दृश्यों को
समझने, सराहने और इनका आनंद लेने के लिए पाठकों को इस पुस्तक का के परिशिष्ट ‘दृष्टिगोचर
ग्रहों, नक्षत्रों तथा खगोलीय विन्यासों की आधारभूत अवधारणा’ को पढ़ना सहायक सिद्ध होगा।
2. चूकि
ँ प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर द्वारा अपनाए गए ग्रिगोरियन कैलड ें र अर्थात्् पंचांग के बारे में कुछ
विवाद थे, इसलिए नासा JPL DE 431 पंचांग का प्रयोग करनेवाले स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण
0.15.2/2017) का उपयोग कर रामायण के खगोलीय संदर्भों के व्योमचित्र-देखकर उनके स्क्रीन
शॉट लिए गए। स्टेलेरियम ने इन सभी 12 आकाशीय दृश्यों को 5116 वर्ष ई.पू. से 5076 वर्ष ई.पू.
के दौरान प्लैने‌टरे ियम द्वारा दिखाई गई तिथियों से 40 दिन (+/- 2 दिन) बाद क्रमिक रूप से
दर्शाया। 40 दिनों के इस अंतराल (5255/131=40) का मुख्य कारण प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर द्वारा
ग्रिगेरियन सुधार से पहले की अवधि के 131 वर्षों में 1 दिन के अंतर को समायोजित न करना है,
जबकि स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर ने पिछले 13200 वर्षों की संपर्ण ू अवधि में इस अंतर को समायोजित
कर लिया है। यहाँ यह स्पष्ट किया जाता है कि प्रत्येक 131 वर्षों के पश्चात् 1 दिन के अंतर का
समायोजन करने की आवश्यकता होती है, क्योंकि वास्तव में एक वर्ष में 365 दिन 6 घंटे नहीं,
अपितु 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट और 46 सेकड ं होते हैं। प्रतिवर्ष 11 मिनट और 14 सेकड ें का ये
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अंतर 131 वर्ष में एक दिन के बराबर हो जाता है। तत्पश्चात् यह जाँचा तथा सत्यापित किया गया
कि पिछले 25920 वर्षों के दौरान किसी अन्य तिथियों को यह व्योमचित्र-अवलोकित नहीं किए
गए। यह आकाशीय चित्र 11000 वर्ष ई.पू. के आस-पास, 7323 वर्ष ई.पू. या 4433 वर्ष ई.पू.
में निश्चित रूप से किसी भी तिथि को अवलोकित नहीं किए गए। इस कथन की पुष्टि के लिए
पाठक इस पुस्तक के परिशिष्ट 2, ‘अन्य विद्वानों तथा वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित की गई रामायण की
खगोलीय तिथियों का आलोचनात्मक विश्लेषण’ का संदर्भ ले सकते हैं।
3. आधुनिक प्लैनेटरे ियम तथा स्टैलेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करते हुए निर्धारित की गई इन
खगोलीय तिथियों को वर्ष 2011 से 2016 के दौरान आयोजित की गई संगोष्ठियों तथा कार्यशालाओं
के दौरान प्रख्यात खगोलशास्त्रियों और विशिष्ट वैज्ञानिकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया। दिनांक
30-31 जुलाई, 2011 को आयोजित प्रथम सेमिनार के दौरान, 20वीं शताब्दी के महानतम वैज्ञानिक
डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने उद्घाटन भाषण दिया। रामायण की ऐतिहासिकता और तिथियों
के बारे में इस महान् व्यक्ति द्वारा अभिव्यक्त किए गए विचार हमारे निष्कर्षों से पूर्णत: मिलते हैं।
सभी प्रतिभागी वैज्ञानिकों द्वारा की गई आलोचनाओं तथा सुझावों को बड़ी गहराई से जाँचा गया और
सत्यापित हो जाने की स्थिति में शामिल कर लिया गया, ताकि हमारे द्वारा निर्धारित की गई खगोलीय
तिथियों में किसी तरह की विसंगतियाँ न रहें। अंतत: हमारे द्वारा पेश किए गए निष्कर्षों का लगभग
32 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

सभी प्रख्यात वैज्ञानिकों ने अनुमोदन किया। इसके पश्चात् ही श्रीराम के जीवन में घटित महत्त्वपूर्ण
घटनाओं की खगोलीय तिथियों के व्योमचित्रों को इस पुस्तक में शामिल करने का निर्णय लिया गया।
4. इस तथ्य को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि इस पसु ्तक में ईस्वी पूर्व (ई.पू) के रूप में
उल्लिखित सभी तिथियाँ वास्तव में ई.पू. की खगोलीय तिथियाँ हैं, जबकि उनकी समकक्ष ऐतिहासिक
तिथियों को ज्ञात करने के लिए एक वर्ष का समय जोड़ना होगा, क्योंकि कपं ्यूटर पर चलनेवाली
प्लैनेटरे ियम तथा स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर में शून्य वर्ष का प्रावधान नहीं है। इस प्रकार 5114 वर्ष ई.पू. में
निर्धारित किया गया, श्रीराम के जन्म का वर्ष वास्तव में ई.पू. का खगोलीय वर्ष है, जबकि ऐतिहासिक
वर्ष 5115 वर्ष ई.पू. होगा। पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए दोनों सॉफ्टवेयरों द्वारा दर्शाई
गई खगोलीय तिथियाँ तथा वर्षों को उनके ऐतिहासिक वर्षों के साथ इस पसु ्तक में दिए गए परिशिष्ट
(3) में उल्लिखित किया गया है, जिसका शीर्षक है ‘रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भों की क्रमिक
खगोलीय तथा ऐतिहासिक तिथियों की सूची।’
5. जब एक बार पुत्र-कामेष्टि यज्ञ से लेकर श्रीराम की सेना के रामेश्वरम्् की ओर प्रस्थान तक
की क्रमिक तथा सटीक खगोलीय तिथियाँ निर्धारित हो गईं, तो फिर इनके साथ पुरातात्त्विक तथा
पुरावानस्पतिक साक्ष्यों का सह-संबंध ढूँढ़ा गया। रामायण में दिए हथियारों और बर्तनों, आभूषणों
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और रत्नों, फलों और सब्जियों, अनाज और जड़ी-बूटियों आदि के संदर्भों को उद्धृत किया गया।
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण और भारतीय पुरातत्त्व परिषद् के पास उपलब्ध पुरातात्त्विक रिपोर्टों का
बारीकी से अध्ययन किया गया। कई सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वविदों की प्रस्तुतियों और व्याख्यानों का भी
संदर्भ लिया गया। बड़े ही आश्चर्यजनक परंतु संतोषजनक परिणाम निकले, जिनके अनुसार रामायण
में वर्णित लगभग सभी वस्तुएँ विशेष रूप से ताँबे के बाणाग्र, अँगूठी और चूड़ामणि, मृदभांड, चावल
और जौ, अनार और जामुन आदि सिंधु, सरस्वती और गंगा के क्षेत्र में उत्खनित विभिन्न स्थलों पर
पाए गए और इनकी कार्बन डेटिंग इन्हें 7000 वर्ष पुराना बताती है। इन सभी वैज्ञानिक साक्ष्यों ने
रामायण की हमारी खगोलीय तिथियों की संपुष्टि की और हमें और अधिक अन्वेषण तथा खोजबीन
करने की प्रेरणा भी दी।
6. महर्षि वाल्मीकि को भारतीय उपमहाद्वीप के भूगोल का उत्तम ज्ञान था। उन्होंने बड़ी बारीकी से
विभिन्न स्थानों का विवरण उनकी उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशाओं को इंगित करते हुए
दिया है। ऐसा करते हुए उन्होंने भारत के उत्तर-पूर्व में हिमालय से दक्षिण में रामेश्वरम्् तक, पश्चिम
में नासिक से, पूर्व में मिथिला तथा कोटुमसर तक अनेक स्थानों का संदर्भ दिया है। श्रीराम अवतार
शर्मा जैसे अनुसंधानकर्ताओं ने रामायण में दिए गए दिशा-निर्देशों का अनुसरण करते हुए यात्राएँ की
हैं और अयोध्या से लेकर रामेश्वरम्् तक श्रीराम की वनवास यात्रा के मार्ग में आनेवाले सौ से भी
अधिक स्मारकों की पहचान की है। इस पड़ाव पर मैंने यह विचार करना प्रारंभ कर दिया कि क्या
पृष्ठभूमि तथा दृष् • 33

रामायण की ऐतिहासिकता और वास्तविक तिथियों के बारे में अनुसंधान के परिणामों को लोगों के


साथ साझा करने के लिए एक बड़ी संगोष्ठी का आयोजन करना चाहिए।
7. जनवरी, 2011 में मुझे डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से मुलाकात करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ,
क्योंकि मुझे इस विषय पर उनके विशाल ज्ञान और गहन रुचि के बारे में जानकारी थी। उन्होंने अपने
व्यस्त समय में से 70 मिनट का अनमोल समय दिया और मुझे इस विषय पर अनुसंधान करने के
लिए कुछ नई अंतर्दृष्टि तथा दिशा-निर्देश दिए। मुझे इस बात से भी संतोष हुआ कि रामायण की
घटनाओं से संबधि ं त हमारी खगोलीय तिथियों का 7100 वर्ष पूर्व से संबधि ं त होने से कलाम साहब
पूर्णतः सहमत थे। उन्होंने समुद्र में जलमग्न रामसेतु की गहराई के बारे में विश्वसनीय जानकारी
एकत्रित करने के लिए राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान से संपर्क स्थापित करने की सलाह दी, ताकि
यह सुनिश्चित किया जा सके कि क्या 7100 वर्ष पहले जलमग्न रामसेतु पर चलना संभव था?
उन्होंने रामायण में वर्णित सूर्यवश
ं ी शासकों की वंशावलियों के संदर्भों का जिक्र किया और इनका
सह-संबधं आनुवंशिक अध्ययनों के साथ स्थापित करने का अमूल्य सुझाव भी दिया। उन्होंने बहु
आयामी वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर प्राचीन भारतीय इतिहास के लेखन की आवश्यकता पर जोर
दिया, ताकि सभी जनतातियों तथा समुदायों से संबधं रखनेवाले भारतीय हमारी समृद्ध सांस्कृतिक
विरासत में साँझे गर्व का अनुभव कर सकें।
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8. 20वीं शताब्दी के इस महानतम वैज्ञानिक तथा अद्वितीय महापुरुष डॉक्टर कलाम के इस बहुमूल्य
मार्गदर्शन से अत्यंत प्रेरित होकर मैंने उनके दिए गए दिशा-निर्देशों के आधार पर अनुसंधान को
आगे बढ़ाया। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा से संपर्क किया और उनके द्वारा पिछले पंद्रह
हजार वर्षों में समुद्र के जल स्तर के उतार-चढ़ाव पर तैयार किए गए वक्र को देखकर मैं अचंभित
रह गई। उनके द्वारा तैयार किए गए इस वक्र में दर्शाया गया था कि 7000 वर्ष पहले समुद्र का
जलस्तर वर्तमान स्तर की तुलना में लगभग 9.3 फीट नीचे था और रामसेतु के अवशेष वर्तमान स्तर
से 9-10 फीट नीचे पाए गए हैं। इस प्रकार एक और अत्यंत ठोस प्रमाण ने रामायण के खगोलीय
तिथिकरण की संपष्ु टि कर दी। दिल्ली विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान के प्रोफेसरों ने ग्यारह हजार
वर्षों से भारतीय लोगों की आनुवंशिक निरंतरता के साक्ष्य पेश किए। इन प्रमाणों ने महर्षि वाल्मीकि
के इस अभिकथन की संपष्ु टि की कि श्रीराम सूर्यवश ं के 64वें शासक थे। इससे स्वत: एक और
निष्कर्ष भी निकलता है कि रामायण काल से 3000 वर्ष पहले से लेकर आधुनिक समय तक भारत
में आनुवंशिक निरंतरता है और आज भी हम रामायण काल के भारतवासियों के वंशज हैं।
9. संगोष्ठिओं के दौरान यह प्रश्न भी कई बार उठता था कि विशाल जनसमूह की मान्यता है कि
चतुर्युगों की व्याख्या के अनुसार त्रेता युग के श्रीराम का समय लगभग 9,36,000 वर्ष पहले का
होना चाहिए, जबकि श्रीकषृ ्ण का समय 5100 वर्ष पहले होना चाहिए। भले ही यह बात तर्कसगं त
34 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

नहीं लगती थी, परंतु मैंने बहुत गंभीरता से इसका विश्लेषण तथा अध्ययन करने का फैसला किया।
अध्ययन के बाद मुझे यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि अनेक प्राचीन एवं आधुनिक विद्वान् यह
मानते हैं कि आरंभ में चतुर्युग 12000 मानव वर्षों के योग से ही बना था, परंतु बाद में इसे 12000
दिव्य वर्षों का मान लिया गया। मनुस्मृति (1/67) में निर्दिष्ट है कि “मानवों का एक वर्ष (360
दिन) देवताओं के एक दिन रात के बराबर है। उत्तरायण उनका दिन (180 दिन) तथा दक्षिणायन
(180 दिन) उनकी रात्रि है।” संभवत: कभी सुदूर अतीत में 12000 वर्षो के चतुर्युग को 360
से गुणा करने के कारण 43,20,000 वर्षों की संख्या प्राप्त कर ली गई तथा अनेकों वर्षों से यह
विश्वास हमारे मनों में घर कर गया। इसका पूरा विश्लेषण इस पुस्तक के परिशिष्ट (4) ‘युगों की
अवधारणा : व्याख्या एवं स्पष्टीकरण’ में दे दिया गया है।
10. रामायण में वर्णित अनेक स्थानों की यात्रा भी मैंने की, ताकि उनकी पुरातनता के बारे में अनुमान
लगाने के साथ-साथ रामायण के संदर्भों के साथ उनकी समरूपता भी निर्धारित की जा सके।
पिछले 16 वर्षों के दौरान, ऐसे कई स्थानों की यात्रा मैंने स्थानीय पुरातत्त्वविदों तथा भूगर्भ शास्त्रियों
की संगति में की। चित्रकूट, शृंग्वेरपुर, अकबर फोर्ट, किष्किंधा तथा लंका की यात्राओं के दौरान
वाल्मीकि रामायण के प्रसंगों की ज्वलंत यादें मेरे मानस-पटल पर कौंध गईं। बस्तर जिले में
कौटुमसर की गुफाओं की यात्रा ने तो मेरी आँखें ही खोल दीं, क्योंकि दंडक वन की इन प्राचीन
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गुफाओं में से अनाज के दाने मिले, जिनका कार्बन तिथि निर्धारण उन्हें 7000 वर्ष पूर्व का बताता है।
रामेश्वरम्् के विभिन्न स्थलों तथा श्रीलकं ा की नुवारा एल्या पर्वत श्रेणी के भ्रमण के दौरान रामायण
में वर्णित समुद्र, शिवलिंग, पहाड़ियों, गुफाओं तथा बगीचों की यादें मन-मस्तिष्क में ताजा हो उठीं।
11. वाल्मीकि रामायण पर आधारित इस पुस्तक में लक्ष्मण रेखा का कोई संदर्भ नहीं और परशुराम तथा
लक्ष्मण के बीच दिलचस्प नोक-झाेक ं भी नहीं। कई अन्य तथ्य भी साधारण जनस्मृति में बसी हुई
रामायण की घटनाओं से अलग हैं, क्योंकि वे मुख्यतः तुसली के श्रीरामचरितमानस व रामानंद सागर
के टी.वी. सीरियल ‘रामायण’ पर आधारित है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ ऐसे तथ्यों को
परिशिष्ट-5 में सूचीबद्ध किया गया है।
इस तरह 16 वर्षों से भी अधिक समय तक कठिन परिश्रम तथा अनुसंधान करने के पश्चात् मुझे
विश्वास हो गया कि 7100 वर्ष पूर्व श्रीराम का जन्म वास्तव में अयोध्या में ही हुआ था और उन्होंने अधर्मियों
तथा दुष्टों के अत्याचारों से पुण्यात्माओं एवं भद्र जनों की रक्षा करने के लिए अयोध्या से श्रीलक ं ा तक
सचमुच ही यात्रा की थी। उन्होंने वास्तव में एक ऐसे आदर्श कल्याणकारी राज्य का उदाहरण पेश किया था,
जिसमें राजा अपनी प्रजा की प्रसन्नता और संतष्ु टि के लिए अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं का बलिदान
कर देता है। उन्होंने आदिवासी और दलित समझे जानेवाले लोगों को गर्व और आदर का स्थान प्रदान करने
के लिए समाज में सुधार लाने का बीड़ा भी उठाया। श्रीराम ने दक्षिण-भारत और उत्तर-भारत के लोगों
पृष्ठभूमि तथा दृष् • 35

को एकजुट किया। श्रीराम के मन और मस्तिष्क के इन विशिष्ट गुणों के कारण लाखों-करोड़ों लोग उन्हें
भगवान् के रूप में पूजने लगे और आज तक पूज रहे हैं। वास्तव में ईश्वर एक ही है, परंतु देवता अनेक
हैं। श्रीराम एक ऐसे असाधारण दिव्य मानव थे, जिन्होंने राक्षसों के अत्याचारों से लाखों लोगों की निस्स्वार्थ
भाव से रक्षा की तथा न्यायपरायण कल्याणकारी शासन स्थापित किया। इसीलिए तो उनके जीवनकाल में ही
उनके लाखों प्रशंसक बन गए। कुछ वर्षों पश्चात् प्रशंसकों का स्थान अनुयायियों ने ले लिया और फिर कुछ
हजार वर्षों बाद अनुयायियों की जगह भक्तों ने ले ली। यह सर्वविदित है कि भक्त अपने आराध्य देव का
बढ़ा-चढ़ाकर गुणगान करने में विश्वास रखते हैं और उनकी पूजा-अर्चना के लिए मंदिरों तथा स्मारकों का
निर्माण करवाते हैं। इन्हीं भक्तों ने पिछले तीन-चार हजार वर्षों से लेकर आजतक श्रीराम की याद में मंदिरों
तथा मूर्तियों, कलाकृतियों तथा लघुचित्रों का निर्माण किया।
सभी वैज्ञानिक अब सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं कि पिछले हिमयुग के पश्चात् आधुनिक नूतन युग
का प्रारंभ लगभग ग्यारह हजार वर्ष पहले हुआ। यह भी सर्वविदित है कि प्राचीनकाल में भवन पर्यावरण
अनुकूलन सामग्री के बने होते थे और उनमें हजारों वर्षों तक बरकरार रहनेवाली धातुओं का प्रयोग बहुत
कम होता था। अयोध्या, मिथिला तथा लंका के महलों के संदर्भों को छोड़कर रामायण में ऐसे घरों तथा
आश्रमों के संदर्भ हैं, जो कुशा, लकड़ी तथा बाँस से बने हुए थे। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार, वर्षा ऋतु के
चार महीने श्रीराम तथा लक्ष्मण को प्रस‍्रवण पर्वत की गुफाओं में रहना पड़ा था। इन सभी तथ्यों से यह भी
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पता चलता है कि 7000 वर्ष पूर्व मानसून की अच्छी वर्षा होती थी; इसीलिए रामायण में वर्णित अधिकतर
पौधे 7000 वर्ष पहले वास्तव में मौजूद थे, जो कि मध्य नूतन युग के अनुकूलतम जलवायु का समय भी था।
इस शोध के पश्चात् मैं हर दिन इस सोच में पड़ी रही कि मेरे जैसे लाखों-करोड़ों अन्य लोग हैं, जो इस
असमंजस में रहते हैं कि श्रीराम वास्तविक थे या काल्पनिक। उनका हृदय उनको श्रीराम की दिव्यता तथा
वास्तविकता में विश्वास करने को कहता है, परंतु मस्तिष्क इस विश्वास के रास्ते में अनेक प्रश्न खड़े कर
देता है। उनका जिज्ञासु मन ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर माँगता है, जिनके आधार पर वे श्रीराम के वास्तविक
ऐतिहासिक चरित्र होने के बारे में विश्वास अथवा अविश्वास कर सकें। इन लाखों-करोड़ों लोगों के प्रश्नों
का वैज्ञानिक तथा तर्कसगं त ढंग से उत्तर देने के लिए मैंने इस पुस्तक को लिखने का निर्णय लिया। यह ध्यान
देने योग्य बात है कि अन्य लगभग 300 रामायणों के संस्करण श्रीराम के प्रति भक्तिभाव की अभिव्यक्ति की
दृष्टि से लिखे गए हैं, जबकि यह पुस्तक ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ श्रीराम की ऐतिहासिकता
से जुड़े अनेक प्रश्नों के उत्तर देने के लिए लिखी गई है। ये सभी उत्तर वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हैं, जो
पाठकों को यह समझाने में सक्षम हैं कि श्रीराम काल्पनिक चरित्र थे या ऐतिहासिक और क्यों करोड़ों लोग
उन्हें भगवान् मानकर उनकी पूजा करते हैं? यह पुस्तक श्रीराम के जीवनकाल के दौरान महर्षि वाल्मीकि
द्वारा रचित श्रीराम के मूल और वास्तविक जीवनचरित्र के बारे में प्रकाश डालने के साथ-साथ, बाद के
संस्करणों में आए परिवर्तनों या विकृतियों के बारे में समझाने में भी सहायक सिद्ध होगी।
36 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

मैंने इस पुस्तक पर पिछले 11-12 वर्ष पहले से ही काम करना शुरू कर दिया था। उन्हीं दिनों श्रीराम
और रामसेतु के अस्तित्व पर अनेक विवाद उत्पन्न कर दिए गए थे। भारत सरकार ने अपनी तत्कालीन
संस्कृति मंत्री के माध्यम से माननीय सर्वोच्‍च न्यायालय में यहाँ तक कह दिया था कि श्रीराम काल्पनिक
पात्र थे, इसलिए उन्होंने कोई रामसेतु बनवाया ही नहीं था। वामपंथी इतिहासकार और उनके अनुयायियों ने
मीडिया के सहयोग से एक ऐसा भ्रम फैलाया, जिसके अनुसार न तो प्रभु श्रीराम थे और न ही उनके अस्तित्व
का कोई प्रमाण था। उनके अनुसार ब्रिटिश शासन विरोधी आंदोलन और विशेष रूप से बाबरी मस्जिद
विध्वंस के पश्चात् श्रीराम की दिव्यता तथा सत्यता का मिथ्या प्रचार हिंदवू ादी संगठनों द्वारा किया गया। इस
मुद्दे पर वास्तविक तथ्यों का पता लगाने के लिए मैंने ऐसे प्राचीन भवनों, मूर्तियों, शिलालेखों, मुहरों, चित्रों
तथा नक्काशियों आदि के बारे में सूचना और आँकड़े एकत्रित करना शुरू किया, जिनमें रामायण के दृश्य
चित्रित किए गए हों। कश्मीर से कन्याकुमारी और बंगाल से गुजरात तक भारतीय उपमहाद्वीप के प्रत्येक
हिस्से में रामायण के दृश्यों का चित्रण करनेवाली अनेकों मूर्तियाँ, चित्र, शिलालेख, नक्काशियाँ तथा मुहरें
आदि पाई गई हैं, जिनका तिथि निर्धारण चार हजार वर्ष पूर्व से प्रारंभ होकर आधुनिक काल से उनका संबधं
स्थापित कर रहा है। इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि श्रीराम के जीवन का वृत्तांत बाबरी मस्जिद
और राम जन्मभूमि विवाद के कारण 19वीं-20वीं शताब्दी में ही लोकप्रिय नहीं हुआ, अपितु पिछले 3000
वर्षों से भी अधिक समय से भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों लोगों के लिए रामायण प्रेरणा का स‍्रोत रही है।
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ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग 3000 वर्ष पहले, जब से मंदिरों तथा मूर्तियों का निर्माण करने की प्रथा चलन
में आई, तब से पहला मंदिर, पहली मूर्ति और पहला शिलालेख आदि ये सभी शंकर महादेव, भगवान् विष्णु
तथा श्रीराम के सम्मान में ही बने होंग।े
भारतवर्ष में रामायण के लघुचित्रों की परंपरा 500 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। सबसे पहले 16वीं
शताब्दी में अकबर के दरबार में, तत्पश्चात् 17वीं शताब्दी में मालवा और ओरछा के लघुचित्र-प्रसिद्ध हुए।
उन्हीं दिनों 1640 से 1652 ई. के दौरान मेवाड़ दरबार में महान् कलाकार साहिबदीन ने मेवाड़ रामायण
के आकर्षक लघुचित्रों की रचना की। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली
और ब्रिटिश पुस्तकालय, ब्रिटेन में उपलब्ध 17वीं से 19वीं शताब्दी के कुछ लघुचित्रों को इस पुस्तक में
शामिल करने का निर्णय लिया गया। राम जन्मभूमि स्थल से उत्खनित मंदिर के कुछ स्तंभों के चित्र और
कुछ उत्खनित पुरानी मूर्तियों के चित्र भी इस पुस्तक में शामिल किए गए हैं। उनमें से कुछ का तिथि निर्धारण
2000 वर्ष से भी अधिक पहले से संबधि ं त है। श्रीराम भारतीय लोगों के मानस का अभिन्न अंग है। जब लोग
मुसीबत में होते हैं तो श्रीराम द्वारा स्थापित किए गए आदर्श उन्हें इन विपत्तियों का धैर्य से सामना करने के
लिए प्रेरित करते हैं। वे बार-बार पढ़ते तथा याद करते हैं कि कैसे अपने वनवास के 14वें वर्ष में श्रीराम ने
लंकापति रावण के चंगुल से सीताजी को छुड़वाने के लिए समुद्र पर सेतु का निर्माण करवाया और तत्पश्चात‍्
बंध-ु बांधवों तथा शक्तिशाली सेना सहित रावण का वध किया। तीन सौ वर्ष पूर्व अंग्रेजों द्वारा बँधआ ु मजदूर
बनाकर फिजी भेजे गए भारतीय श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्शों से प्रेरित होकर ही अपने आप को जीवित रख
पृष्ठभूमि तथा दृष् • 37

पाए। फिजी की यात्रा करने पर मुझे पता चला कि 300 वर्ष पहले जब ब्रिटिश लोगों ने बँधआ
ु मजदूरों को
भारत से फिजी भेजा था, तब ये लोग अपने साथ तुलसी रामायण लेकर गए थे और वे लोग अपने दुःख एवं
मुश्किलों के दिनों में रामायण में वर्णित घटनाओं से प्रेरणा लेते रहते थे।
इस पुस्तक को सात अध्यायों में विभाजित किया गया है। लव और कुश द्वारा मनमोहक स्वरों में सुनाई
गई श्रीराम के जीवन की कहानी को वैज्ञानिक तथ्यों से जोड़ते हुए सभी तथ्यों की मौलिकता को सुनिश्चित
करने के लिए हर संभव प्रयास किया गया है। अध्याय 1 में पाठक पुत्र-कामेष्टि यज्ञ आरंभ होने तथा राजा
दशरथ के चारों राजकुमारों के जन्म के समय के आकाशीय दृश्यों को देख सकेंग।े वे देखगें े कि श्रीराम के
जन्म के समय चैत्र शुक्ल नवमीवाले दिन कैसे पाँच ग्रह अपन-अपने उच्च स्‍थान में मध्याह्न‍ के समय में
आकाश को अलोकित कर रहे थे। इसके बाद पाठक इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय के आदेश से अयोध्या
में रामजन्म भूमि के आस-पास किए गए पुरातात्त्विक उत्खननों के साथ-साथ कुछ महत्त्वपूर्ण पुरावशेषों
के चित्रों का भी अवलोकन कर सकेंग।े अयोध्या से मिथिला के मार्ग में पाए गए 7000 वर्ष पुराने ताँबे के
बाणाग्र, मिट्टी के बर्तन, चावल, गेहूँ और दालें आदि पुरातात्त्विक अवशेष बहुत अधिक विश्वसनीय लगेंग।े
अध्याय 2 में, हम उस समय के आकाशीय दृश्यों का अवलोकन करेंग,े जिस समय श्रीराम, लक्ष्मण और
सीताजी 14 वर्षों के वनवास के लिए अयोध्या से जा रहे थे। कलाकार साहिबदीन द्वारा रचित लघुचित्र के
माध्यम से पाठक श्रीराम के वन गमन के समय पर अयोध्यावासियों के हृदयविदारक भावों को भी महसूस
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कर सकेंग।े शृंग्वेरपुर में गुह निषाद के किले की झलक और वाल्मीकिजी द्वारा रामायण में वर्णित चित्रकूट
क्षेत्र के पौधों के 7000 वर्ष पुराने अवशेष भी निश्चित रूप से इस अध्याय का मुख्य आकर्षण हैं।
अध्याय 3 में शरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य आश्रम में तीनों राजसी तपस्वियों की यात्राओं के
चित्रात्मक वर्णनों से दंडकवन तथा अंत में पंचवटी में उन तीनों राजसी तपस्वियों के सुखद जीवन का वर्णन
किया गया है। उसके बाद इन तीनों तपस्वियों के जीवन का मुश्किल समय आता है। शूर्पणखा के वृत्तांत
के पश्चात् खर और दूषण के साथ युद्ध से पहले देखे गए सूर्यग्रहण का आकाशीय दृश्य देख,ें जो रामायण
के वृत्तांतों से हूबहू मिलता है। रावण द्वारा सीताजी के अपहरण के पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण सीताजी की
खोज करने के लिए गए और वे पंपा सरोवर क्षेत्र में शबरी आश्रम पहुँच।े यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है
कि पंपा सरोवर की वनस्पतियाँ आज के समय में भी रामायण में दिए गए वर्णन के अनुरूप ही हैं। अध्याय 4
में दोनों राजसी तपस्वियों का सुग्रीव और हनुमानजी से भेंट का भी वर्णन किया गया है। इस अध्याय में वाली
के वध से पहले सुबह के समय के सूर्य ग्रहण का भी अवलोकन किया जा सकता है। सुग्रीव को किष्किंधा
का राजा बनाने के पश्चात् श्रीराम तथा लक्ष्मण तुगं भद्रा नदी के तट पर माउंट प्रस‍्रवण की गुफाओं में रहने
लगे। विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित किए गए हंपी क्षेत्र में पाए गए रामायण युग के अनेक साक्ष्यों
का वर्णन भी इसी अध्याय में किया गया है।
अध्याय 5 में सीता की खोज करते हुए हनुमानजी के पराक्रम, शक्ति और बुद्धि का जीवंत वर्णन किया
38 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

गया है। अशोक वाटिका में जब रावण सीताजी को डरा-धमका रहा था, उस समय लंका के आकाश में
उदीयमान चंद्रमा पर लगे ग्रहण के आकाशीय दृश्य का अवलोकन भी इसी अध्याय में किया जा सकता है।
उत्तर भारत में विभिन्न स्थलों से खुदाई में प्राप्त की गई 5000 वर्ष से भी अधिक पुरानी अँगठि
ू यों और चूड़ामणि
के परु ातात्त्विक साक्ष्य भी इस अध्याय में शामिल किए गए हैं। अध्याय 6 में किष्किंधा से रामेश्वरम्् तक जाने
के लिए श्रीराम की सेना के मार्ग का वर्णन करने के साथ-साथ 7000 वर्ष पहले रामसेतु के निर्माण में मनुष्यों
के योगदान के विस्तृत वैज्ञानिक साक्ष्य भी प्रदान किए गए हैं। इसके पश्चात् लंका में युद्ध, रावण का वध,
विभीषण को लंका का राजा बनाए जाने आदि का वर्णन भी इसी अध्याय में किया गया है। पाठक 200 वर्ष
परु ाने लघुचित्र-के माध्यम से अयोध्या के राजा के रूप में श्रीराम के राजतिलक का भी आनंद उठा सकते हैं।
अध्याय 7 में कुछ अज्ञात तथा सर्वाधिक गलत समझे गए तथ्यों का स्पष्टीकरण किया गया है। श्रीराम
और सीताजी ने अयोध्या के राजा और रानी के रूप में दस वर्षों तक राज्य किया तथा वे दिव्य एवं अटूट प्रेम
के बंधन में बँध गए। अयोध्यावासियों द्वारा दिए गए अपयश से अपनी भावी संतान को बचाने के लिए श्रीराम
ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश्रम में भेज दिया। इस अध्याय में पाठक उस क्षण का जीवंत अनुभव भी
कर सकेंग,े जब सीताजी लव और कुश के भविष्य को सुरक्षित करने के पश्चात् धरती में समा गईं और
अयोध्या के लोग स्तब्ध रह गए। तत्पश्चात् श्रीराम ने उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आठों राजकुमारों के
लिए आठ राजधानियों को विकसित किया। पुरातात्त्विक खुदाइयों में इन सभी नगरों एवं राजधानियों के साक्ष्य
MAGAZINE KING
भी पाए गए हैं। प्रत्येक अध्याय में सभी कठिन अवधारणाओं के अर्थ को विभिन्न बॉक्सों में स्पष्ट किया गया
है, ताकी रामायण की कहानी का प्रवाह न टूट।े जटिल एवं विस्तृत वैज्ञानिक तथ्यों को निशान ( v )
लगाकर अलग दर्शाया गया है। इस पुस्तक की विषयवस्तु को समझने तथा उसे जानने के लिए अनुपूरक
एवं अनिवार्य सामग्रियों को परिशिष्ट 1 से 5 में दिया गया है।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद खोजी मस्तिष्क वाले कुछ लोग यदि यह सोचना प्रारंभ कर दें कि शायद
श्रीराम पृथ्वी पर जन्म लेनवे ाले सर्वाधिक प्रतिष्ठित, बुद्धिमान तथा महापराक्रमी दिव्य मानव थे और वे
काल्पनिक चरित्र न होकर वास्तविक प्रेरणास ्रोत हैं, तो इस पुस्तक को लिखने का आंशिक उद्देश्य पूर्ण हो
जाएगा। यदि इस पुस्तक में शामिल सभी विवरणों का अध्ययन करने के पश्चात् पाठक यह विश्वास करने
लग जाएँ कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण विश्व की पहली काव्यात्मक तथा वास्तविक जीवनगाथा
है तो यह मेरे लिए संतोष की बात होगी, परंतु यदि पाठक यह विश्वास करना प्रारंभ कर दें कि मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम ने भद्रजनों और पुण्यात्माओं की दुष्टात्माओं एवं राक्षसों से रक्षा करने के लिए वास्तव में
अयोध्या से श्रीलक ं ा तक की यात्रा की थी, उन्होंने वास्तव में एक आदर्श कल्याणकारी राज्य का अद्वितीय
उदाहरण पेश किया था तो मेरा इस पुस्तक को लिखने का ध्येय पूर्ण रूप से प्राप्त हो जाएगा और यह मेरे
लिए परम आनंद का निरंतर स ्रोत होगा।
—सरोज बाला
अध्याय-1

श्रीराम का आरंभिक जीवन


जन्म से लेकर विवाह तक
MAGAZINE KING
“...रामायण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि
वाल्मीकिजी ने महाकाव्य रामायण की रचना करते समय
उसमें बहुत से प्रमाण सम्मिलित किए। एक तरफ उन्होंने
उस समय पर आकाश में ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति एवं
बहुत से स्थलों का भौगोलिक चित्रण एवं ऋतुओं का
वर्णन किया है, तो दूसरी ओर राजाओं की वंशावलियों के
बारे में विस्तृत जानकारी दी है, जिसका वैज्ञानिक विधि से प्रयोग करके उन घटनाओं
का समय ज्ञात करना कोई टेढ़ी खीर नहीं है।
MAGAZINE KING
आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग करके खगोलीय गणनाओं ने यह
सिद्ध किया है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाएँ वास्तव में 7000 वर्ष पूर्व उसी
क्रम में घटित हुई थीं, जैसाकि रामायण में वर्णित है। रामसेतु उसी स्थान पर जलमग्न
पाया गया है, जिस स्थान का विवरण वाल्मीकि रामायण में किया गया है।”

—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम


30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-1

श्रीराम का आरंभिक जीवन


जन्म से लेकर विवाह तक
1. महर्षि वाल्मीकि द्वारा श्रीराम के जीवनकाल के दौरान रामायण की रचना
महर्षि वाल्मीकि ने देवऋ​ि‍र्ष नारद से पूछा, “मुझे वर्तमान में संसार में उस सर्वाधिक गुणवान,
MAGAZINE KING
वीर्यवान, धर्मज्ञ, सदाचारी एवं विद्वान् व्यक्ति के बारे में बताइए, जो बहादुर तथा दयालु हो, बुद्धिमान
तथा मेधावी हो, यशस्वी तथा सत्यवादी हो एवं असुरों के अत्याचारों से सज्जन पुरुषों की रक्षा करने की
सामर्थ्य रखता हो।” देवऋ​ि‍र्ष नारद ने कहा, “वर्तमान समय में इक्ष्वाकु राजवंश के वंशज एवं अयोध्या
के राजा श्रीराम एक ऐसे पुरुष हैं, जिनमें ये सभी गुण विद्यमान हैं। संपूर्ण गुणों से युक्त कौशल्यानंदन
राम गंभीरता में समुद्र तथा धैर्य में हिमालय के समान हैं।” देवर्षि नारद से ये सुखकारी वचन सुनकर
वाल्मीकिजी ने उनका विधिवत् पूजन किया। तत्पश्चात् उन्हें अलविदा कहकर महर्षि वाल्मीकि गंगा नदी
के निकट तमसा नदी के तट पर चले गए और श्रीराम के जीवन के वृत्तांत की रचना करने के बारे में
चिंतन-मनन करने लगे।
नदी में स्नान करने के पश्चात् वाल्मीकि ऋषि ने क्रौंची पक्षियों का एक जोड़ा देखा, जो एक-
दूसरे में घुल-मिलकर मधुर गीत गा रहे थे। उसी समय अचानक ही एक निषाद के बाण ने उस जोड़े
में से नर-पक्षी को मार डाला। यह देखकर क्रौंची ने संताप और वेदना से दयनीय विलाप किया। महर्षि
वाल्मीकि इस घटना को देखकर अत्यंत दुःखी हुए और इस घटना के तुरंत पश्चात् सृष्टि के निर्माता
ब्रह्म‍ाजी महर्षि वाल्मीकि के मानस-पटल पर प्रकट हुए और महर्षि वाल्मीकि को सुंदर एवं मधुर श्लोकों
में अयोध्या के सदाचारी, बुद्धिमान और पराक्रमी राजा श्रीराम के संपूर्ण जीवन के वृत्तांत की रचना करने
की प्रेरणा देने लगे।
इसके पश्चात् महर्षि वाल्मीकि ने सभी स‍्रोतों से श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के जीवन-वृत्तांत सहित
42 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अयोध्या के राजवंश की विस्तृत जानकारी एकत्रित की। उन्होंने ये सभी जानकारियाँ स्वयं अपने प्रत्यक्ष
ज्ञान से तथा अन्य विभिन्न विश्वसनीय स‍्रोतों से और अपनी योगिक शक्ति से एकत्रित कीं। वास्तव में
आदिकवि वाल्मीकि ने अयोध्या के राजा के रूप में श्रीराम का राज्यरोहण होने के पश्चात् उनके जीवन
की कहानी की रचना करना प्रारंभ कर दिया था। इस महाकाव्य को रामायण का नाम दिया गया था,
इसमें श्रीराम के जीवन का वृत्तांत चौबीस हजार मधुर श्लोकों में दिया गया था। रामायण छह कांडों
(अध्यायों) एवं एक उत्तरकांड में विभाजित है—बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड किष्किंधाकांड,
सुंदरकांड, युद्धकांड तथा उत्तरकांड।
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित यह महाकाव्य सभी अभिव्यक्तियों से परिपूर्ण है, जिसमें प्रेम, आनंद,
करुणा, क्रोध, घृणा, आश्चर्य, धैर्य, शक्ति और पराक्रम के सभी नौ मनोभावों को समाहित किया गया
है। प्रस्तुत पुस्तक में रामायण के इन सात अध्यायों में दिए गए घटनाक्रम तथा तथ्यों के संक्षिप्त वर्णन
के साथ-साथ इन्हीं में दिए गए संदर्भों व घटनाओं की वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित तिथियों को लवकुश
द्वारा राम-दरबार में सुनाई गई कहानी में बुन दिया गया है।
रामायण शीर्षक से इस महाकाव्य की रचना करने के पश्चात् महर्षि वाल्मीकि ने इसे अपने दो महान्
शिष्यों लव और कुश को पढ़ाया एवं कंठस्थ करवाया। ये दोनों (लव और कुश) वेदों में पारंगत और
अत्यंत उच्‍च कोटि के विद्वान् एवं संगीतज्ञ थे। इनकी मंत्रमुग्ध कर देनेवाली मधुर वाणी अत्यंत आकर्षक
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थी। इस उत्कृष्ट और ऐतिहासिक कविता को अपनी स्मृति में रखकर, इन दोनों तपस्वी राजकुमारों ने
इसको अनेक ऋषि-मुनियों के सामने गाया और उनकी प्रशंसा के पात्र बने। तत्पश्चात् नैमिषआरण्य में
अश्वमेध यज्ञ हेतु गए श्रीराम के राजभवन के बाहर, यज्ञभूमि के आस-पास एवं सामान्य मार्गों एवं पथों
पर ऋषियों और दरबारियों के समक्ष सुनाया। सभी श्रोता मधुर आवाज में सुंदर गायन को सुन आनंद-
विभोर हो जाते थे और इस उत्कृष्ट मधुर महाकाव्य की रचना के लिए महर्षि वाल्मीकि की नितांत प्रशंसा
करते थे, जिसमें श्रीराम और सीता के जीवन का सच्‍चा वृत्तांत समाहित है। लव और कुश की लयबद्ध
संगीतात्मक प्रस्तुति और श्रीराम के साथ उनकी प्रबल समानता होने के कारण अयोध्या के निवासी उन
दोनों बालकों से मंत्रमुग्ध हो उनके पीछे-पीछे चलने लगते थे।
श्रीराम ने अपने जीवन का अत्यंत सूक्ष्म और अंतरंग विवरण मनोहर एवं मधुर वाणी में लव और
कुश को गाते हुए सुना। तत्पश्चात् उन्हें राजदरबार में कुलीन जनों व दरबारियों के समक्ष रामायण का
गायन करने के लिए लव कुश को आमंत्रित किया। उन दोनों संन्यासी राजकुमारों ने अपना परिचय
महर्षि वाल्मीकि के शिष्यों के रूप में देते हुए श्रीराम और सीताजी की जीवनगाथा सुनाना आरंभ किया।
लव और कुश ने अपनी संगीतमय मधुरवाणी में रामायण की गाथा सुनाई। इस गाथा को श्रुति-स्मृति
परंपरा के माध्यम से सुदीर्घकाल तक संरक्षित रखा गया और फिर किसी समय में दो हजार पाँच सौ
वर्ष पूर्व के आसपास आधुनिक समय में उपलब्ध संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध कर दिया गया। लव-कुश
द्वारा सुनाया गया और वाल्मीकिजी द्वारा रचित श्रीराम का यही जीवन वृत्तांत इस पुस्तक का आधार है।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 43

साथ ही इस पुस्तक में श्रीराम की इस जीवनगाथा को वाल्मीकि रामायण में वर्णित संदर्भों की खगोलीय
तिथियों तथा अन्य वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ सुनाया जा रहा है।
यह कहानी लगभग 10,000 वर्ष पहले वर्तमान नूतन युग (बॉक्स 1.1 देखें) के आरंभ से शुरू
होती है। सरयू नदी के किनारे कोशल देश का विकास हो रहा था। इसकी सुंदर राजधानी अयोध्या
(जिसे साकेत के नाम से भी जाना जाता है) का निर्माण विवस्वान मनु ने करवाया था, लेकिन सूर्यवंशी
राजवंश के संस्थापक शासक इक्ष्वाकु ने इसे विकसित और समृद्ध बनाया था। सूर्यवंश के राजा परोपकारी
शासक थे और कोशल देश की जनता प्रसन्न, संतुष्ट और सदाचारी थी। कोशल राज्य का संरक्षण एक
शक्तिशाली सेना द्वारा किया जाता था, जिसके आस-पास भी किसी शत्रु का आना असंभव था। सूर्यवंशी
राजा अत्यंत शक्तिशाली थे, उन्होंने इस पृथ्वी पर हजारों वर्षों तक शासन किया। प्राचीन संस्कृत साहित्य
में सम्राट् इक्ष्वाकु के एक सौ अट्ठाईस उत्तराधिकारियों के नाम अभिलिखित हैं, जिनमें से सत्यवादी राजा
हरिश्चंद्र 33वें, राजा सगर 40वें और राजा भगीरथ 44वें प्रख्यात शासक थे। राजा दशरथ इस राजवंश
के 63वें सुप्रसिद्ध सम्राट् थे, जो कि एक महान् और शक्तिशाली राजा थे। वे परोपकारी शासक थे और
उनके राज्य में कार्य के आधार पर बँटे सभी चार वर्णों के लोग सुखी एवं समृद्ध थे। ऐसे बुद्धिमान एवं
पराक्रमी राजा दशरथ के पुत्र के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म हुआ था।

MAGAZINE KING बॉक्स 1.1 नूतन युग (Holocene)


वर्तमान हिम-अंतराल युग को नूतन युग का नाम दिया गया है। इस युग की शुरुआत
विगत ‘हिम युग’ के अंत में लगभग 11,700 वर्षों पहले हुई थी। यह भू-वैज्ञानिक समयसीमा
की चतुर्थांश अवधि का हिस्सा है और इसे वर्तमान उष्‍ण युग के रूप में भी पहचाना जाता है, जो
हिमयुग से अंतराल युग की जलवायु परिस्थितियों को चिह्न‍‍ित करता है। भू-वैज्ञानिक समयसीमा
आधुनिक नूतन युग (Holocene) का प्रारंभ लगभग 11700 वर्ष पहले हुआ मानती है तथा
उससे पूर्व 18 लाख वर्ष पहले से 11700 वर्ष पहले के समय को प्रातिनूतन (Pleistocene)
युग की संज्ञा देती है।
नूतन युग को ‘मानव उद्भव’ युग भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘मनुष्य का युग’। यह
कुछ भ्रामक प्रतीत होता है, क्योंकि हमारी उपजातियों के मनुष्य अर्थात्् होमो सेपियंज वर्तमान
नूतन युग की शुरुआत होने से बहुत पहले भी समस्त विश्व में उत्पन्न हुए और फैल गए थे। फिर
भी, नूतन युग ने मानवता के संपूर्ण घटित एवं अभिलिखित इतिहास को देखा है और इसकी सभी
सभ्यताओं के उदय एवं पतन को भी देखा है। मनुष्य जाति ने नूतन युग के पर्यावरण पर बहुत
व्यापक प्रभाव डाला है। यह सत्य है कि सभी जीव कुछ मात्रा में अपने वातावरण को प्रभावित
करते हैं, परंतु जिस प्रकार हमारी मनुष्य जाति इस ब्रह्म‍ांड को तेजी से परिवर्तित कर रही है, वह
अभूतपूर्व है।
44 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वातावरण के गरम होने से ग्लेशियरों का पिघलना शुरू हुआ, जिसका परिणाम नदियों के
रूप में जल का प्रवाह हुआ। मनुष्यों ने बहती नदियों के निकट रहना प्रारंभ किया। मौखिक
भाषा का विकास हुआ और ग्रामीण संस्कृति का उद्भव हुआ। तत्पश्चात् धीरे-धीरे रियासतें
भी अस्तित्व में आईं। मनुष्य सभ्यता का विकास करने में अग्रसर होता गया; धीरे-धीरे
व्याकरण और फिर लिखित भाषा का भी विकास हुआ। विश्व की सभी मुख्य सभ्यताओं
का जन्म तथा विकास इसी नूतन युग में हुआ था। आधुनिक वैज्ञानिक साक्ष्यों से यह सिद्ध
हो गया है कि वैदिक सभ्यता, जोकि ऋग्वेद और रामायण काल के समय में समृद्ध हुई थी,
वह हड़प्पा और हड़प्पा के बाद के चरणों तक भी जारी

2. राजा दशरथ का कल्याणकारी राज्य; अयोध्या में पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन


सूर्यवंशी राजकुल के 63वें प्रख्यात शासक राजा दशरथ थे। उन्होंने राजधानी अयोध्या से कोशल
देश पर शासन किया था। पराक्रम और बुद्धि के असाधारण गुणों से संपन्न राजा दशरथ ने अयोध्या
को उसी प्रकार धनवान एवं समृद्ध बनाया, जिस प्रकार देवराज इंद्र ने अमरावती का विकास किया
था। अयोध्या में अत्यंत सुंदर घर और ऊँची-ऊँची अटारियों, ध्वजों और स्तंभोंवाले सुसज्जित प्रासाद
MAGAZINE KING
थे। वहाँ के लोग सुखी एवं संपन्न थे। राज्य में चावल, गेहूँ, मटर, मूँग, जौं, बाजरा, मसूर और अंगूर
सहित कई समृद्ध फसलें होती थीं। लोगों के पास घरेलू जानवर, हथियार, बर्तन और बड़ी मात्रा में
संगीत यंत्र होते थे। विभिन्न राज्यों के राजकुमार सूर्यवंशी राजाओं का आभार व्यक्त करने के लिए
प्रत्येक वर्ष अयोध्या आते थे और अयोध्या के गली-बाजारों में खूब चहल-पहल रहती थी।
राजा दशरथ ने वेदों में पारंगत एवं ज्ञानी प्रख्यात विद्वानों और प्रसिद्ध ऋषियों को अयोध्या में
निवास करने के लिए प्रोत्साहित किया। कार्य-संचालन हेतु राजा दशरथ की सहायता उनके आठ
बुद्धिमान मंत्री किया करते थे, जो निष्ठावान, सत्यवादी और राज्य के मामलों में राजा दशरथ की
सहायता करने और उन्हें परामर्श देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। उनके नाम धृष्टि, जयंत, विजय,
सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमंत्र थे। महान् ऋषि वसिष्ठ और वामदेव के अतिरिक्त
जाबालि, कश्यप और गौतम ऋषि भी महाराज को मंत्रणा देते थे। मुनि वसिष्ठ राजा दशरथ के पुरोहित
थे। इन महर्षियों ने शास्त्रों में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार, कई धार्मिक कार्य तथा पवित्र यज्ञ संपन्न
करवाए थे। अयोध्या में रहनेवाले सभी पुरुष और महिलाएँ धनवान, शिक्षित और सदाचारी थे। चारों
वर्णों के लोग उदार, वीरतापूर्ण और निपुण थे। अयोध्या में सिंधुक्षेत्र से कांबोज और बाहिका में उत्पन्न
हुए घोड़े थे। इस नगरी में हिमालय, विंध्य और सह्य‍ पर्वतमालाओं में उत्पन्न होनेवाले अत्यंत बलशाली
हाथी भी थे। राजा दशरथ ने अयोध्या से शासन करते हुए विश्व के लोगों को उसी प्रकार संरक्षित किया,
जिस प्रकार स्वर्ग में भगवान् इंद्र देवों की रक्षा करते हैं। अयोध्या के सभी निवासी राजा दशरथ को प्रेम
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 45

किया करते थे। उनकी प्रजा स्वस्थ और प्रसन्न रहती थी और उनका साम्राज्य समृद्ध एवं वैभवशाली था।
राजा दशरथ अपने पास संसार के सभी वैभव होते हुए भी पुत्र-प्राप्ति के लिए सदा चिंतित रहते
थे, क्योंकि उनके वंश को चलानेवाला उनका कोई पुत्र नहीं था। पहले उनकी एक पुत्री थी, जिसे बहुत
समय पहले उन्होंने अपने मित्र राजा रोमपद को गोद दे दिया था। उन दिनों लोग वरदान पाने और
संतान-प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया करते थे। पुत्र-प्राप्ति की चिंता करते-करते
एक दिन राजा दशरथ के मन में अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने का विचार आया। उन्होंने इस बारे में
सुमंत्र और वसिष्ठ सहित अपने पुरोहितों व ऋषियों से परामर्श किया। उनके सुझावों को स्वीकार कर
राजा दशरथ पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाने के लिए ऋषि ऋष्यशृंग से प्रार्थना करने के लिए गए। इन्होंने राजा
दशरथ की पुत्री शांता से विवाह किया था, जिसे अंगदेश के राजा रोमपद को गोद दे दिया गया था।
राजा दशरथ के अनुरोध करने पर ऋषि ऋष्यशृंग अपने परिवार के साथ अयोध्या में कुछ समय
तक रहे। ऋषि ने राजा दशरथ को अश्वमेध यज्ञ के लिए सरयू नदी के उत्तरी किनारे पर यज्ञभूमि का
निर्माण करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह परामर्श भी दिया कि यज्ञसंबंधी अश्व को भू-मंडल भ्रमण के
लिए तत्काल छोड़ दिया जाए। राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ को बुलाया और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार
बिना किसी बाधा के यज्ञ पूरा करने का अनुरोध किया। उन्होंने जाबालि, कश्यप और वामदेव जैसे अन्य
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महान् मुनियों को भी आमंत्रित किया और उनसे परामर्श किया। उन सभी ऋषियों ने ऋष्यशृंग ऋषि की
सलाह का समर्थन किया। तदनुसार यज्ञ के अश्व को एक मुख्य पुरोहित के साथ 400 बहादुर सैनिकों
की देख रेख में छोड़ दिया गया। इस अश्व को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करके वापस आना था।
यह वसंत ऋतु की शुरुआत का समय था, जब राजा दशरथ ने यज्ञ प्रारंभ करने के लिए ऋष्यशृंग
से प्रार्थना की थी (वाल्मीकि रामायण 1/12/1,2)—
बसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टुं मनोऽभवत्॥
तत: प्रणम्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिनम्।
यज्ञाय वरयामास सन्तानार्थं कुलस्य च॥
अर्थात्् वसंत ऋतु के प्रारंभ के शुभ समय में राजा दशरथ ने यज्ञ आरंभ करने का विचार किया।
तत्पश्चात् उन्होंने देवकांतिवाले विप्र ऋष्यशृंग को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और वंश-परंपरा की
रक्षा हेतु पुत्र-प्राप्ति के निमित्त यज्ञ कराने की प्रार्थना की।
यह वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास का आरंभ था। प्राचीन समय से हिंदुओं द्वारा अपनाए गए चंद्रसौर
कलेंडर के अनुसार वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास से होता था। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार 10 जनवरी,
5116 वर्ष ई.पू. को पूर्ण चंद्रमा चित्रा नक्षत्र (Alpha Vir Spica) कन्या राशि (Virgo) में था,
जिस कारण से इस महीने को चैत्र मास का नाम भी दिया गया। चैत्र मास का प्रारंभ पंद्रह दिन बाद
46 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चैत्र अमावस्या के बाद चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रारंभ से माना जाता था। ऋग्वेद के संदर्भों के आकाशीय
दृश्य यह सिद्ध करते हैं कि लगभग 6000 वर्ष ई.पू. से वर्ष (संवत्सर) का प्रारंभ प्राचीन भारत में चैत्र
मास से माना जाने लगा, जब अश्विनी नक्षत्र शीतकालीन अयनांत के समय आकाश में दिखाई देने
बंद हो गए, परंतु ठीक सामने चित्रा नक्षत्र चमकने लगे5 (ऋग्वेद-7/4/8)। (देखें व्योमचित्र-1-2)
जनवरी 5116 वर्ष ई.पू. को वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास के आरंभ का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-1 : अयोध्या 270 उत्तर, 820 पूर्व; 10 जनवरी, 5116 वर्ष ई.पू. 06:45 बजे,
प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित, चित्रा नक्षत्र में पूर्ण चंद्रमा स्पष्ट दृश्यमान
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 47

MAGAZINE KING
व्योमचित्र-2 : अयोध्या 270 उत्तर, 820 पूर्व; 19 फरवरी, 5116 वर्ष ई.पू. 08:30 बजे,
स्टेलेरियम का स्क्रीनशॉट, चित्रा नक्षत्र में पूर्ण चंद्रमा स्पष्ट दृश्यमान

इस दौरान यज्ञ के लिए तैयारियाँ पूरी की जा चुकी थीं। राजा दशरथ के निर्देशन में मुनि वसिष्ठ ने यज्ञ
के लिए पहले ही तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। सुमत्रं को पृथ्वी के सभी महान् राजाओं, विशेष रूप से मिथिला,
काशी, अंग, मगध, सिंधस ु ुवीर, सुराष्ट्र आदि के महान् राजाओं को आमंत्रित करने का दायित्व सौंपा गया
था। ये सभी राजा दशरथ के अच्छे मित्र थे (वा.रा.1/13/23-29)। ये सभी राजा अपने दरबारियों, संबधि ं यों
और अनुयायियों के साथ अयोध्या पहुँच।े सुमत्रं को प्रतिष्ठित ब्राह्म णों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों को हजारों
की संख्या में आमंत्रित करने का निर्देश दिया गया था और उन सभी से गरिमा और सम्मान के साथ व्यवहार
करने का निर्देश भी दिया गया था (वा.रा.1/13/20-22)। यज्ञ अनुष्ठान के लिए व्यापक प्रबंध किए गए थे।
राजाओं के लिए प्रासादों का निर्माण किया गया था। क्षत्रियों के लिए मकानों का निर्माण किया गया था और
अन्य नागरिकों के लिए विशाल आवासों का निर्माण किया गया था। उन सभी को परम उत्कृष्ट, स्वादिष्ट
और विविध प्रकार के भोजन परोसे जाते थे।
48 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

यज्ञ के अश्व को पृथ्वी का एक पूरा चक्कर लगाकर वापस आने में लगभग 12 महीनों का समय
लगा। इसके पश्चात् वसंत ऋतु के पुन: आगमन पर सरयू नदी के उत्तरी तट पर अश्वमेध यज्ञ की प्रक्रिया
शुरू की गई। राजा दशरथ अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ की प्रक्रिया शुरू करवाने के लिए मुनि वसिष्ठ
के पास गए। राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ को यज्ञ शुरू करने और बिना किसी बाधा के यज्ञ को पूरा
करवाने का अनुरोध किया। (वा.रा. 1/13/1) यज्ञ का प्रारंभ दिनांक 15 जनवरी, 5115 वर्ष ई.पू. को
चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रथमा के पश्चात् हुआ होगा, जैसा कि रामायण में स्पष्ट रूप से वर्णित है—
पुन: प्राप्ते वसन्ते तु पूर्ण: संवत्सरोऽभवत्
प्रसवार्थं गतो यष् टुं हयमेधेन वीर्यवान्॥ वा.रा.1/13/1॥
अर्थात्् एक वसंत ऋतु के बीतने पर दूसरे वसंत ऋतु का पुनः आगमन हुआ और यज्ञसंबंधी अश्व
को मुक्त छोड़े हुए एक वर्ष पूर्ण हो चुका था। उस समय राजा दशरथ संतान-प्राप्ति के लिए यज्ञ शुरू
करवाने के लिए मुनि वसिष्ठ के पास गए। (देखें व्योमचित्र-3-4)
जनवरी 5115 ई.पू. अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ के आरंभ के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-3 : अयोध्या 270 उत्तर, 820 पूर्व; 15 जनवरी, 5115 वर्ष ई.पू. 06: 50 बजे,
प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित, चैत्र माह शुक्ल पक्ष की प्रथमा। 15 दिन पहले पूर्ण चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में था
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 49

जनवरी 5115 ई.पू. अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ के आरंभ के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-4 : अयोध्या 270 उत्तर, 820 पूर्व; 24 फरवरी, 5115 वर्ष ई.पू. 08: 30 बजे,
स्टेलेरियम का स्क्रीनशॉट, चैत्र माह शुक्ल पक्ष की प्रथमा। 15 दिन पहले पूर्ण चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में था।

प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा दिखाए गए आकाशीय दृश्य के अनुसार 31 दिसंबर, 5116 वर्ष ई.पू.
को पूर्ण चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में था तथा इसके 15 दिन पश्चात् अर्थात्् 15 जनवरी 5115 वर्ष ई.पू. को चैत्र
मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा थी। यह श्रीराम के जन्म से लगभग 1 वर्ष पहले वसंत ऋतु के प्रारंभ का
समय भी था 6। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा 24 फरवरी, 5115
वर्ष ई.पू. को थी। इसका स्क्रीन शॉट भी नीचे दिया गया है।
राजा दशरथ के अनुरोध पर मुनि वसिष्ठ ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार यज्ञ के लिए सभी तैयारियाँ
पूरी कर लीं। वेदों में पारंगत मुनियों की देख-रेख में बेल, खैर, बिल्व तथा पलाश की लकड़ियों के
50 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

छह-छह यूपों (यज्ञ के स्तंभ) का निर्माण किया गया। बहेड़े एवं देवदार की लकड़ियों का भी एक-
एक यूप तैयार किया गया।
शास्त्रों में वर्णित लंबाई-चौड़ाई के अनुसार ईंटें बनाई और लगाई गईं। रानी कौशल्या ने यज्ञ
के अश्व का यथाविधि संस्कार करके बड़ी प्रसन्नता के साथ तीन तलवारों से उसका स्पर्श किया।
तत्पश्चात् उस अश्वमेध यज्ञ के अंगभूत जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋत्विज
ब्राह्म‍ण अग्नि में विधिवत् आहुति देने लगे। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा दशरथ ने ब्राह्म‍णों को बड़ी मात्रा में
धन-दौलत दान किया, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने राजा दशरथ को विभिन्न प्रकार के आशीर्वाद दिए,
ताकि उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो। अश्वमेध यज्ञ पूर्ण होने पर राजा दशरथ ने अत्यंत प्रसन्नता महसूस की
और उसके पश्चात् ऋष्यशृंग से अपने वंश को बढ़ाने हेतु अपेक्षित विनती की। अत्यंत बुद्धिमान और
ज्ञानी ऋष्यशृंग ने राजा दशरथ को चार पुत्रों की प्राप्ति का वरदान दिया। उसके पश्चात् ऋष्यशृंग ने
पुत्रेष्टि यज्ञ शुरू किया, जिसे वैदिक मंत्रों के अनुसार उसके अचूक प्रभाव के लिए जाना जाता था।
उसी समय यज्ञ के लिए एकत्रित हुए देवताओं और ऋषियों ने ब्रह्म‍ाजी से उन्हें रावण के अत्याचारों
से बचाने की प्रार्थना की। रावण ब्रह्म‍ाजी से यह वरदान पाने के बाद राक्षस बन गया था कि उसका
वध देवता या राक्षस, गंधर्व या यक्ष कोई नहीं कर सकता। रावण ने मनुष्य से सुरक्षा के लिए कोई भी
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वरदान नहीं माँगा था, क्योंकि रावण मनुष्य को हेयदृष्टि से देखता था और उसने कभी यह कल्पना भी
नहीं की थी कि उसका वध एक मनुष्य द्वारा किया जाएगा। देवताओं और ऋषियों ने रावण से रक्षा के
लिए ब्रह्म‍ाजी से प्रार्थना इसलिए की थी, क्योंकि ब्रह्म‍ाजी का वरदान प्राप्त होने के बाद रावण अत्यंत
शक्तिशाली और क्रूर राक्षस बन गया था, जो पुण्य आत्माओं और ऋषियों पर अत्याचार करने से प्रसन्न
होता था। उस समय ब्रह्म‍ाजी को याद आया कि रावण का वध एक मनुष्य द्वारा किया जा सकता है,
इसीलिए उन्होंने देवताओं तथा ऋषियों को भगवान् विष्णु से प्रार्थना करने की सलाह दी।
सभी देवताओं और ऋषियों ने सृष्टि के तारणहार और उद्धारक भगवान् विष्णु का स्मरण किया।
उन्होंने विष्णुजी से महाप्रतापी राजा दशरथ के पुत्र के रूप में मनुष्य जन्म लेकर रावण और अन्य राक्षसों
का वध कर डालने की प्रार्थना की। इस पुत्रकामेष्टि यज्ञ के दौरान वहाँ पर उपस्थित ऋषियों और अन्य
मनुष्यों ने भी भगवान् विष्णु से प्रार्थना की कि किसी भी तरह रावण और उसके रिश्तेदारों के अत्याचारों
से मुक्ति दिलाने के किसी उपाय की खोज अवश्य करें। इस प्रकार सृष्टि के उद्धारक भगवान् विष्णु ने
राजा दशरथ के पुत्र के रूप में मनुष्य अवतार लेने और सज्जन पुरुषों को रावण और उसके अन्य संबधं ी
राक्षसों के अत्याचारों से मुक्त करवाने का निर्णय लिया।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 51

बॉक्स 1.2
रामायण तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में दिए गए खगोलीय संदर्भों से उनमें वर्णित
घटनाओं का तिथि निर्धारण कैसे किया जाता है?
महर्षि वाल्मीकि एक महान् खगोलशास्त्री थे। उन्होंने श्रीराम के जीवन से संबंधित
सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय पर आकाश में देखी गई खगोलीय स्थितियों का विस्तृत
एवं क्रमिक वर्णन रामायण में किया है। यह सर्वविदित है कि नक्षत्रों तथा ग्रहों की वही
स्थिति 25920 वर्षों के भीतर पुनः देखी नहीं जा सकती। इस वैज्ञानिक तथ्य के स्पष्टीकरण
के लिए परिशिष्ट1 का संदर्भ लें। यदि कोई व्यक्ति खगोलशास्त्र की आधारभूत जानकारी भी
प्राप्त कर ले तो रामायण में वर्णित इन खगोलीय संदर्भों को सॉफ्टवेयर में डालकर, निर्धारित
स्थानों से आकाशीय दृश्य को देख सकता है। इस तरह से इन घटनाओं के घटित होने की
सटीक तिथियों व समय का निर्धारण किया जा सकता है।
पिछले दो दशकों में साधारण कंप्यूटरों पर प्रयोग के लिए कई प्रकार के आकाशीय
सिमुलेशन सॉफ्टवेयर उपलब्ध हो गए हैं। यह सभी सॉफ्टवेयर पर्याप्त सटीकता के साथ
भविष्य या भूतकाल में कई हजार वर्षों में देखी गई खगोलीय स्थितियों को आकाश में
दिखाकर किसी भी भूगोलीय स्थिति से उनकी तिथि व समय निर्धारित करने की क्षमता रखते
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हैं। हमने मुख्य रूप से प्लैनेटेरियम गोल्ड सॉफ्टवेयर (संस्करण 4.1) का उपयोग किया
है, क्योंकि यह सॉफ्टवेयर समय, तारीख और स्थान के साथ-साथ उच्‍च रिजोल्यूशन वाले
आकाशीय दृश्य प्रदान करती है, जिनका प्रिंट लेना भी आसान होता है।
प्लैनेटरे ियम गोल्ड सॉफ्टवेयर चंद्रमा के विभिन्न चरणों को भी प्रदर्शित करती है,
इसीलिए चंद्र-तिथि, चंद्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण की तिथि, पूर्णिमा या अमावस्या के दिन आदि
का पता लगाना अत्यंत सरल हो जाता है, जिनका उल्लेख रामायण और अन्य प्राचीन भारतीय
ग्रंथों में बार-बार किया गया है। यह ग्रहों तथा नक्षत्रों के परंपरागत या आधुनिक वैज्ञानिक नामों
को प्रदर्शित करने का भी विकल्प प्रदान करती सॉफ्टवेयर विषुव अग्रगमन जैसे जटिल चक्रों
का समावेश कर आकाशीय दृश्य प्रदान करता है।
हमने स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2/2017) का भी उपयोग करते हुए
रामायण में वर्णित संदर्भों के आकाशीय दृश्यों को प्रस्तुत किया है। यह सॉफ्टवेयर नासा
जेपीएल डीई 431 पंचांग का प्रयोग करता है। प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर के साथ 40 दिनों
(+/- 2 दिन) के कैलड ें र संबधं ी अंतर को छोड़कर स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग
करके देखे गए आकाशीय दृश्य रामायण में वर्णित खगोलीय संदर्भों के साथ क्रमिक रूप
से हूबहू मिलते हैं। स्टेलेरियम एक ओपन सोर्स आकाशीय सिमुलश े न सॉफ्टवेयर है, जो कि
डाउनलोड के लिए मुफ्त में उपलब्ध है। यह सॉफ्टवेयर लाइनक्स, मैकिन्तोष, और विंडोज
में उपयोग के लिए उपलब्ध है।
52 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

फिफ्थ स्टार लैब्स का स्काई गाइड सॉफ्टवेयर भी स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा दर्शाए
गए इन क्रमिक आकाशीय दृश्यों की तिथियों का पूर्ण समर्थन करता है। इन दोनों सॉफ्टवेयरों
के परिणाम एक जैसे होने के कारण पाठक अपने मोबाइल, आईपैड, लैपटॉप या कंप्यूटर पर
इस पुस्तक में दिए गए आकाशीय दृश्यों की तिथियों का सत्यापन कर सकते हैं।
प्लैनेटरे ियम सिमुलशे न सॉफ्टवेयरों का उपयोग करते हुए रामायण के संदर्भों की इन
क्रमिक खगोलीय तिथियों का पुष्टीकरण आधुनिक पुरातत्त्व विज्ञान, पुरावनस्पति विज्ञान,
समुद्र विज्ञान, भू-विज्ञान, जलवायु विज्ञान, उपग्रह चित्रों और अानुवशि
ं की अध्ययनों ने भी
किया है।

ऋष्यशृंग द्वारा यज्ञ पूर्ण किए जाने के तुरतं बाद यज्ञ की वेदी से एक दिव्याकृति प्रकट हुई और उसने
राजा दशरथ को दिव्य खीर से भरी हुई एवं चाँदी के ढक्कन से ढकी स्वर्ण की परात (थाली) भेंट की और
उस खीर को अपनी तीनों पत्नियों में बाँटने के लिए कहा। राजा ने देवता के उपहार को बड़ी प्रसन्नता से
ग्रहण किया और उस अमृत रूपी खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का
आधा भाग रानी सुमित्रा को अर्पण किया। उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बच रही थी, उसका आधा
भाग तो उन्होंने कैकये ी को दे दिया, तत्पश्चात् उस खीर के अवशिष्ट भाग को पुन: रानी सुमित्रा को दे दिया।
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इस तरह पुत्र-प्राप्ति के लिए प्रतिष्ठित अश्वमेध यज्ञ और पुत्रकामेष्टि यज्ञ संपूर्ण हुए। सभी अतिथियों
को अत्यंत आदर-सत्कार और कीमती उपहारों के साथ विदा किया गया। राजा दशरथ ने दान तथा उपहारों
के रूप में बहुत बड़ी मात्रा में धनराशि दान दी। सभी राजाओं ने अपने-अपने दरबारियों, संबं​ि‍धयों व
सेनाओं के साथ अपने-अपने राज्यों के लिए प्रस्थान किया। ऋष्यशृंग तथा अन्य महामुनियों को स्वयं राजा
दशरथ, उनके मंत्रियों और दरबारियों ने व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद ज्ञापित करते हुए विदा किया।
यह माना जाता है कि इसके साथ-साथ सृष्टि के निर्माता ने श्रीराम को उनके महान् कार्यों में सहायता
प्रदान करने के लिए अनेक सर्वोच्‍च शक्तियों और देवताओं को अलग-अलग रूपों में पृथ्वी पर अवतरित
होने का आदेश दिया। इसके परिणामस्वरूप, श्रीराम के जन्म के समय अनेक अन्य महान् योद्धाओं का
भी जन्म हुआ। सूर्य की ऊर्जा से सुग्रीव का जन्म हुआ, विश्वकर्मा ने नल को जन्म दिया। वरुण ने सुषेन
नामक वानर योद्धा को उत्पन्न किया तथा अग्नि ने तेजस्वी नील को जन्म दिया। वानरों में सबसे अधिक
बुद्धिमान तथा बलवान हनुमान वायु देवता के औरस पुत्र थे। इन सभी और अन्य बहुत से जन्में हुए
महापुरुषों में अनंत श​ि‍क्तयाँ और क्षमताएँ विद्यमान थीं।

3. श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म


इसके पश्चात् राजा दशरथ अपनी पत्नियों के साथ पुत्र-प्राप्ति की प्रतीक्षा करते हुए सुख से रहने
लगे। कुछ दिनों के बाद तीनों रानियाँ गर्भवती हो गईं। यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् छह ऋतुएँ बीत जाने के
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 53

बाद, 12वें मास में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने
दिव्य लक्षणों से युक्त एक यशस्वी एवं प्रतिभाशाली पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम ‘राम’ रखा गया।
बालकांड (1/18/8-10) में महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय पर ग्रहों, राशियों एवं नक्षत्रों की
स्थितियों का विस्तृत विवरण दिया है7—
ततो यज्ञे समाप्‍ते तु ऋतूनां षट् समत्‍ययु:।
ततश्रच द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥ वा.रा.1/18/8॥
नक्षत्रे‍ऽदितिदैवत्‍ये स्‍वोच्‍चसंस्‍थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कटे लगने वाक्‍पताविन्दुना सह॥ वा.रा.1/18/9॥
प्रोद्यमाने जगन्‍नाथं सर्वलोकनमस्‍कृतम् ।
कौसल्‍याजनयद् रामं दिव्‍यलक्षणसंयुतम्॥ वा.रा.1/18/10॥
अर्थात्् यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् छह ऋतुएँ बीत जाने के बाद, 12वें मास में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी
तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त एक अत्यंत प्रतिभाशाली
पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम श्रीराम रखा गया। श्रीराम शुभ लक्षणों एवं दैवीय गुणों से युक्त थे। उस
समय चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में था, सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि, बृहस्पति ये पाँच ग्रह अपने-अपने उच्‍च स्थान
में विद्यमान थे अर्थात् ये पाँच ग्रह अपने-अपने उच्‍च स्थान की राशि मेष, मीन, मकर, तुला, कर्क में
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क्रमश: विद्यमान थे और बृहस्पति एवं चंद्रमा एक साथ चमक रहे थे।
वैदिक काल से लेकर आजतक ग्रहों की स्थितियों को उच्‍च स्थान तथा निम्न स्थान से वर्णित किया
जाता रहा है और सभी ग्रहों की यह स्थितियाँ वैसे ही बिना परिवर्तन के आजतक भी दर्शाई जाती हैं। यह
एक खगोलीय नियम है कि जब सूर्य अपने उच्‍च स्थान (मेष) में होता है, तब बुद्ध (Mercury) अपने
उच्‍च स्थान अर्थात्् कन्या (Virgo) में नहीं हो सकता। इसलिए वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित पाँच ग्रहों में बुद्ध
शामिल नहीं है 8। वर्णित किए गए इन सभी तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि वाल्मीकिजी के अनुसार
श्रीराम का जन्म दोपहर के समय चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ था। श्रीराम के जन्म के
समय अन्य ग्रहों तथा राशियों की स्थिति निम्नानुसार थी—

i. सूर्य मेष में   vii. अमावस्या के पश्चात् नवमी तिथि


  ii. शुक्र मीन में viii. चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र के निकट*
iii. मंगल मकर में ix. चंद्रमा और बृहस्पति एक साथ कर्क में
iv. शनि तुला में चमक रहे थे
v. बृहस्पति कर्क में x. कर्क राशि पूर्व से उदय हो रही थी।
vi. चैत्र माह, शुक्ल पक्ष *(पुनर्वसु नक्षत्र की सीमा मिथुन में 20 डिग्री
से कर्क में 4 डिग्री तक)
54 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बॉक्स 1.3
वाल्मीकिजी द्वारा रामायण में वर्णित खगोलीय विन्यासों का अर्थ क्या है?
प्राचीन भारत के आधारभूत खगोलीय ज्ञान की जानकारी के बिना श्रीराम के जन्म
के समय के आकाशीय दृश्य तथा खगोलीय विन्यास की स्पष्ट जानकारी समझ नहीं आ
पाएगी। वैदिक खगोलशास्त्र की आधारभूत जानकारी से परिचित हो जाने के पश्चात् और
प्लैनेटेरियम और स्टेलेरियम जैसे आधुनिक सॉफ्टवेयर द्वारा प्राप्त किए गए आकाशीय
दृश्यों में दृष्टिगोचर खगोलीय विन्यासों के साथ उनकी तुलना करने पर हमें यह ज्ञात होता
है कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण में वर्णित खगोलीय स्थितियाँ कितनी परिशुद्धता के
साथ दी गई है। शायद महर्षि वाल्मीकि विश्व के पहले महान् खगोल वैज्ञानिक थे, जिन्हें
दृष्टिगोचर ग्रहों तथा नक्षत्रों की इतनी विस्तृत जानकारी थी। जब कौशल्या ने श्रीराम को
जन्म दिया था, उस समय सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि, और बृहस्पति ये पाँच ग्रह अपने अपने
उच्‍च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। यह वैदिक
काल से भारत में ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति को व्यक्त करने का तरीका रहा है, जो कि
उसी तरह बिना किसी परिवर्तन के आज भी भारतीय गणित ज्योतिष का आधार है।
उच्‍चस्थान की Constellation of
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ग्रह Planet
राशि Exalted Position

सूर्य Sun मेष Aries

चंद्रमा Moon वृषभ Taurus

मंगल Mars मकर Capricornus

बुद्ध Mercury कन्या Virgo

बृहस्पति Jupiter कर्कट Cancer

शुक्र Venus मीन Pisces

शनि Saturn तुला Libra

प्राचीन भारतीयों द्वारा रिकॉर्ड किए गए 27 नक्षत्रों की सूची, उनके वैज्ञानिक तथा अंग्रेजी
नामों सहित नौ ग्रहों के भारतीय और अंग्रेजी नामों की सूची परिशिष्ट 1 में दी गई है।
इन सभी खगोलीय विन्यासों को अयोध्या के अक्षांश और रेखांश (27० उत्तर और 82० पूर्व) से 10
जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को दोपहर 12 बजे से 2 बजे के बीच के समय में देखा जा सकता था। यह चैत्र
माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी। यह बिल्कुल वही समय और तिथि थी, जिस समय समस्त भारत
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 55

में आजतक भी रामनवमी मनाई जाती है। प्लैनेटेरियम गोल्ड सॉफ्टवेयर का प्रयोग करते हुए प्राप्त किए गए
आकाशीय दृश्य को देखें (व्योमचित्र-5)।
यह आधनु िक सॉफ्टवेयर महर्षि वाल्मीकि द्वारा दी गई खगोलीय स्थितियों की परिपुष्टि करता है, क्योंकि
श्रीराम के जन्म के समय वाल्मीकिजी द्वारा दी गई इन सभी स्थितियों को 10 जनवरी, 5114 ई.पू. को आकाश
में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। पिछले 25000 वर्षों के दौरान किसी भी अन्य दिन यह खगोलीय विन्यास
नहीं बन पाए हैं। इसके अतिरिक्त यह सॉफ्टवेयर यह भी दर्शाता है कि 19 दिसंबर, 5115 वर्ष ई.पू. को पूर्ण
चंद्रमा चित्रा नक्षत्र अर्थात् Alpha vir spica में था। इससे यह पुष्टि होती है कि उस दिन चैत्र का महीना
प्रारंभ हुआ था। शुक्ल पक्ष की नवमी अर्थात्् बढ़ते चंद्रमा का नौवाँ दिन 10 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को था।
श्रीराम के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-5 : अयोध्या / भारत 270 उत्तर, 820 पूर्व; 10 जनवरी, 5114 ई.पू., 12:30 बजे,
श्रीराम का जन्म समय, प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित (सूर्य मेष में, शुक्र मीन में, मंगल मकर में, शनि तुला में,
बृहस्पति कर्क में, चंद्रमा पुनर्वसु में, पूर्व में उदय होती हुई कर्क राशि; चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी
56 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण-0.15.2/2017; NASA JPL DE 431 Ephemeris) के अनुसार


महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित श्रीराम के जन्म के समय के सभी खगोलीय संदर्भ 19 फरवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को
दोपहर के समय आकाश में देखे गए। 19 फरवरी, 5114 वर्ष ई.पू. का यह आकाशीय दृश्य नीचे दिया गया है।
श्रीराम के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-6 : अयोध्या / भारत 270 उत्तर, 820 पूर्व; 19 फरवरी, 5114 ई.पू., 13 : 30 बजे,
श्रीराम का जन्म समय, स्टेलेरियम द्वारा मुद्रित (सूर्य मेष में, शुक्र मीन में, मंगल मकर में, शनि तुला में,
बृहस्पति कर्क में, चंद्रमा पुनर्वसु में, पूर्व में उदय होती हुई कर्क राशि; चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी)

बाल राम का रूप सुदं र तथा आकर्षक था। श्रीराम के नेत्र लालिमा से परिपूर्ण थे, उनके होंठ लाल,
भुजाएँ लंबी, उनके स्वर दुंदुभी के शब्द के समान गंभीर थे। मुख पर दिव्य आलोक के साथ पुत्र को गोद
में लिए माता कौशल्या जी उज्ज्वल और प्रसन्नचित दिखाई दे रही थी। श्रीराम के जन्म के पश्चात् कैकये ी
ने सत्यपराक्रमी भरत को पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में जन्म दिया, अर्थात्् जन्म के समय चंद्रमा पुष्य नक्षत्र
में था और मीन राशि पूर्व दिशा से क्षितिज में उदय हो रही थी। इसके पश्चात् सुमित्रा के दो पुत्रों लक्ष्मण
और शत्रुघ्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में हुआ अर्थात्् चंद्रमा अश्लेषा नक्षत्र के समीप था
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 57

और कर्क राशि पूर्व में उदय हो रही थी। अन्य ग्रहों की स्थितियाँ वही थीं, जो श्रीराम के जन्म के समय थीं।
पुष् ये जातस् तु भरतो मीनलग् ने प्रसन् नधी:।
सार्पे जातौ तु सौमित्री कुलीरेऽभ् युदिते रवौ॥ वा.रा.1/18/15॥
अर्थात् सदा प्रसन्नचित्त रहनेवाले भरत का जन्म पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में हुआ था, सुमित्रा के
दो पुत्रों, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में हुआ था, अर्थात्् चंद्रमा अश्लेषा
नक्षत्र में था और कर्क राशि पूर्व में उदय हो रही थी।
जब इन खगोलीय स्थितियों को प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर के माध्यम से आकाश में देखा गया तो
प्रदर्शित किए गए आकाशीय दृश्य से यह ज्ञात हुआ कि भरत के जन्म का समय दिनांक 11 जनवरी, 5114
वर्ष ई.पू. (बढ़ते हुए चंद्रमा के 10वें दिन अर्थात्् चैत्र शुक्ल दशमी) को लगभग 04.30 बजे का था।
स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर भरत के जन्म के समय के इसी आकाशीय दृश्य को 20 फरवरी, 5114 वर्ष ई.पू.
सुबह 6 बजे दर्शाता है। यह चैत्र शुक्ल दशमी का दिन था, मीन राशि पूर्व से उदय हो रही थी और चंद्रमा
पुष्य नक्षत्र में विराजमान था। महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित खगोलीय विन्यासों को दर्शाने वाले इन दोनों
आकाशीय दृश्यों को देखें। (देखें व्योमचित्र-7-8)
भरत के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य
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व्योमचित्र-7 : 11 जनवरी 5114 वर्ष ई.पू. 04:30 बजे (जीएमटी+5: 30) 270 उत्तर, 820 पूर्व; अयोध्या/भारत,
चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में, पूर्व में उदय होती हुई मीन राशि, प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित
58 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

भरत के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-8 : अयोध्या/भारत, 270 उत्तर, 820 पूर्व; 20 फरवरी 5114 ई.पू.; 06:00 बजे (जीएमटी+5:30)
चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में, पूर्व में उदय होती हुई मीन राशि, स्लेटेरियम का स्क्रीनशॉट

दिनांक 11 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को 11.30 बजे का प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का आकाशीय दृश्य
लक्ष्मण और शत्रुघ्न के जन्म के समय महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित ग्रहों व नक्षत्रों की स्थितियाँ दर्शाता
है। पूर्व दिशा में कर्क राशि का उदय और चंद्रमा अश्लेषा नक्षत्र में थे। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर इन दोनों
राजकुमारों के जन्म के समय के इन सभी खगोलीय विन्यासों को 20 फरवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को दिन के
2 बजे दर्शाता है, जोकि प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा दर्शाई गई तिथि के 40 दिन बाद का समय है। 40 दिन
के इस अंतर का कारण बॉक्स 1.4 में स्पष्ट कर दिया गया है। (देखें व्योमचित्र-9)
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 59

लक्ष्मण और शत्रुघ्न के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-9 : अयोध्या / भारत, 270 उत्तर, 820 पूर्व; 11 जनवरी 5114 वर्ष ई.पू. 11:30 बजे (जीएमटी+5: 30)
चैत्र शुक्ल दशमी को लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म, प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित

इस प्रकार दोनों आधुनिक सॉफ्टवेयर महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित खगोलीय स्थितियों की परिपुष्टि
करने के साथ-साथ यह भी सिद्ध करती हैं कि श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को 5114 वर्ष ई.पू. में
हुआ था, जबकि भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म अगले दिन अर्थात्् चैत्र शुक्ल दशमी को हुआ। उनके
ये वर्णन अनन्य हैं, जो केवल 5114 वर्ष ई.पू. चैत्र मास में दिखाई दिए और यह क्रमिक व्योमचित्र-पिछले
25000 वर्षों में और किसी भी दिन दिखाई नहीं देते। (देखें व्योमचित्र-10)
60 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

लक्ष्मण और शत्रुघ्न के जन्म के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-10 : अयोध्या/भारत, 270 उत्तर, 820 पूर्व; 20 फरवरी 5114 वर्ष ई.पू. 14:00 बजे (जीएमटी+5:30)
चंद्रमा अश्लेषा नक्षत्र में, पूर्व में कर्क राशि उदय होते हुए, स्टेलेरियम का स्क्रीनशॉट

बॉक्स 1.4
प्लैनेटेरियम और स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा एक ही समय के समान
आकाशीय दृश्यों की अलग-अलग तिथियाँ क्यों हैं?
प्लैनेटेरियम गोल्ड और स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।
इन दोनों सॉफ्टवेयर का प्रयोग इस पुस्तक में महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण में वर्णित
खगोलीय विन्यासों के आकाशीय दृश्य दर्शाने के लिए तथा इस प्रकार निर्धारित खगोलीय
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 61

तिथियों के बारे में सभी विवादों का अंत करने के लिए किया गया है। एक ही आकाशीय
दृश्य की दो अलग-अलग तिथियाँ दिखने का साधारण शब्दों में स्पष्टीकरण यह है कि
जूलियन कलेंडर एक वर्ष में 365 दिन 6 घंटे का समय लेकर चलता था, परंतु वास्तव में
एक वर्ष में 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट और 46 सेकंड होते हैं। प्रतिवर्ष 11 मिनट और 14
सेकंड का ये अंतर 131 वर्ष में एक दिन के बराबर हो जाता है।
जूलियन कैलेंडर 365.25 दिनों की एक वर्ष की अवधि मानकर चलता था। ग्रेगोरियन
सुधार पोप ग्रेगरी XIII द्वारा 1582 ईस्वी में लागू किए गए थे, जिनके फलस्वरूप इटली में,
4 अक्तूबर, 1582 को 15 अक्तूबर, 1582 मानकर 11 दिन कम कर दिए गए। फ्रांस में भी,
जहाँ स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर विकसित किया गया, 9 दिसंबर, 1582 को 20 दिसंबर, 1582
के रूप में अपना कर 11 दिन कम कर दिए गए। (संदर्भ : द ग्रेगोरियन कन्वर्जन-प्रोफेसर
रॉबर्ट ए हैच—https://bit.ly/2IVCY9f)
इसके अलावा पुराने जूलियन कलेंडर के मुताबिक, हर वर्ष जो कि चार से विभाज्य
होता था, वह लीप वर्ष था, जिसमें 266 दिन होते थे तथा फरवरी के 29 दिन हो जाते थे।
ग्रेगोरियन सुधार के बाद चार से विभाज्य हर वर्ष एक लीप वर्ष है, परंतु 100 से विभाज्य
वर्ष लीप वर्ष नहीं माना जाता, लेकिन 400 से विभाज्य वर्ष लीप वर्ष होगा। उदाहरणतः वर्ष
1700, 1800 और 1900 लीप वर्ष नहीं हैं, लेकिन वर्ष 2000 लीप वर्ष है।
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सन् 1582 ई. में लाए गए ग्रिगोरियन सुधार के आधार पर 4 अक्तूबर को 15 अक्तूबर
मानकर 11 दिन का लोप कर दिया गया, जिससे पिछले 1441 वर्षों में आए 131 वर्ष में
एक दिन के अंतर का शोधन कर लिया गया। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर ने इसी ग्रिगोरियन
कलेंडर को अपनाया, फलस्वरूप सन् 0141 ई. (1582-1441= 0141) से पहले 131
वर्ष में एक दिन के उस अंतर को समाहित नहीं किया गया।
परंतु स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर ने पिछले 13200 वर्षों में 131 वर्षों में एक दिन के इस
अंतर को समाहित किया। इसीलिए, प्लैनेटरे ियम द्वारा दिखाए गए आकाशीय दृश्य को
स्टेलेरियम 40 दिन (+/- 2 दिन) के अंतराल (5255/131=40) पर दर्शाता है। यही
कारण है कि 5114 वर्ष ई.पू. के चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि का व्योमचित्र-
प्लैनेटरे ियम 10 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को दर्शाती है जबकि स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर उसी
आकाशीय दृश्य की तिथि 19 फरवरी 5114 वर्ष ई.पू. दर्शाता है। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर में
नासा JPL DE 431 पंचांग का प्रयोग किया गया है।
हमने फॉगवेयर पब्लिशिंग कंपनी के प्लैनेटेरियम गोल्ड (संस्करण 4.1) का उपयोग
कर आकाशीय दृश्य पेश किए हैं। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा दर्शाए गए आकाशीय दृश्यों
को मुख्य आधार इसलिए बनाया है, क्योंकि इससे रंगीन स्लाइड प्रिंट किए जा सकते हैं,
यह चंद्रमा की सटीक स्थिति दर्शाती है, जिससे ग्रहण, अमावस्या, पूर्णिमा तथा घटते-
बढ़ते चंद्रमा की तिथियाँ साफ दिखाई जा सकती हैं। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर सभी ग्रहों
62 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

तथा नक्षत्रों के आधुनिक नाम दर्शाने के साथ-साथ पारंपरिक नाम दर्शाने का विकल्प भी
उपलब्ध कराता है।
स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2/2017) द्वारा दर्शाए गए आकाशीय दृश्यों
के स्क्रीन शॉट इस पुस्तक में इसलिए शामिल किए गए हैं, ताकि रामायण के संदर्भों की
खगोलीय तिथियों के बारे में सभी विवादों का समाधान किया जा सके। स्टेलेरियम एक
ओपन-सोर्स सॉफ्टवेयर है, इसे जी.एन.यू. जनरल पब्लिक लाइसेंस वर्जन 2 की शर्तों के
अधीन लाइसेंस प्राप्त है। यह लाइनक्स, विंडोज और मैक ओपरेटिंग सिस्टमों के लिए
उपलब्ध है। इसे फ्रांस के एक प्रोग्रामर फैबियन चैरयू ने बनाया था, जिसने 2001 की ग्रीष्म
ऋतु में यह परियोजना शुरू की थी। वर्तमान में स्टेलेरियम एलेक्जेंडर वॉल्फ, जॉर्ज जोट्टी.
मार्कोज कार्डिनोट, गिल्योम चैरयू, बॉग्डन मैरीनोव, ट्रीमथी रीवास, फर्डीनांड माजैरेच और
जॉर्ग मुल्लर द्वारा इसका रखरखाव एवं विकास किया जा रहा है। यह सॉफ्टवेयर सटीक
खगोलीय तिथि-निर्धारण के लिए विश्व भर में विख्यात है।

राजा दशरथ अपने चारों तेजस्वी पुत्रों का जन्म होने पर अत्यंत आनंदित तथा प्रफुल्लित हो गए।
चारों ओर प्रसन्नता की लहर छा गई। गंधर्वों ने मधुर वाणी में गीत गाए और अप्सराओं ने भी मनोरम नृत्य
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किए। अयोध्या नगरी में लोगों ने मंत्र उच्‍चारण, पुष्पों की वर्षा करके और संगीत यत्रों को बजाकर चारों
राजकुमारों के जन्म का उत्सव मनाया। पुत्रों के जन्म पर हर्षित हुए राजा दशरथ ने अपार धन-दौलत दान
की और संगीतकारों, नर्तकों तथा मंत्र उच्‍चारकों को बहुमूल्य उपहार दिए। चारों राजकुमार धीरे-धीरे बड़े
हो रहे थे। उनके पिता राजा दशरथ और तीनों रानियाँ उन चारों राजकुमारों को एक साथ बड़ा होते हुए,
भोजन करते हुए और एक साथ क्रीड़ा करते हुए देखकर आनंद-विभोर हो जाते थे।

श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न को राजकुमारों के लिए निर्धारित सभी प्रकार की शिक्षाएँ तथा
प्रशिक्षण प्रदान किया गया। सभी राजकुमार सुसभ्य, सद‍्व्यवहारी एवं विद्वान् बने। वे सभी वेदों में
पारंगत थे और कोशल साम्राज्य का भला करने की इच्छा रखते थे। सभी राजकुमार सर्वगुण संपन्न
थे और अपने माता-पिता के प्रति समर्पित थे। वे अयोध्या के लोगों के लिए दया तथा प्रेम का भाव
रखते थे, परंतु श्रीराम उन सभी राजकुमारों में से अत्यंत तेजस्वी, यशस्वी एवं धैर्यवान थे। अयोध्या
के सभी लोग उनसे अत्यधिक प्रेम किया करते थे। श्रीराम को धनुर्विद्या अर्जित करना और अपने पिता
की सेवा में समर्पित रहना प्रसन्नता प्रदान करता था। समय के साथ-साथ एक ओर लक्ष्मण का प्रेम
श्रीराम के प्रति प्रगाढ़ होता गया, जबकि दूसरी ओर शत्रुघ्न भरत के प्रति अधिक समर्पित होते गए।
v
कुछ नवीनतम पुरातात्त्विक खुदाइयों, भूगर्भीय अनुसंधानों और दूरसंवेदी चित्रों ने ऐसे पर्याप्त
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 63

साक्ष्य प्रदान किए हैं, जो न सिर्फ चारों राजकुमारों के जन्म की खगोलीय तिथियों को संपुष्ट करते
हैं, बल्कि आधुनिक समय की अयोध्या की भौगोलिक स्थिति के साथ उनका संबंध भी जोड़ते हैं।
कोशल साम्राज्य की तत्कालीन राजधानी, अयोध्या में न्यायालय के आदेशों पर की गई दो बार की
सीमित पुरातात्त्विक खुदाइयों में यह पाया गया है कि कई हजार वर्षों से अयोध्या में सभ्य मानवबस्तियों
का अस्तित्व रहा है। यहाँ से हिंदू मंदिरों के भग्नावशेष भी खुदाई में मिले हैं। लगभग सभी तथ्यों
को माननीय इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय ने ‘राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद’ में दिए अपने
फैसले में शामिल किया है। इसे 2010 ए.डी.जे. 1 (विशेष एफ.बी.) में रिपोर्ट किया गया है, जिसे
मल्होत्रा लॉ हाउस, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। श्रीमती मीनाक्षी जैन द्वारा लिखित पुस्तक
‘श्रीराम और अयोध्या’ में इसका अच्छा सारांश दिया है।

प्राचीन कोशल साम्राज्य की राजधानी अयोध्या में पुरातात्त्विक खुदाई और अन्वेषण का एक लंबा
इतिहास रहा है। डॉ. बी.बी. लाल द्वारा परिकल्पित परियोजना पर भारत के पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ए.एस.
आई.) द्वारा 1975 में ‘रामायण स्थलों के पुरातात्त्विक उत्खनन’ का कार्य प्रारंभ किया गया। अयोध्या में
उत्खनन श्री के.एन. दीक्षित की अध्यक्षता में किए गए, जो बाबरी मस्जिद की सीमा की दीवार के समांतर
चलते थे। पत्थर के चौदह स्तंभ बाबरी मस्जिद के तटबंधों से जुड़े पाए गए, जो सामान्य हिंदू मंदिरों के
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स्तंभों से बिल्कुल मिलते थे। इनके मूल चित्र ए.एस.आई. के कब्जे में हैं 9। माननीय इलाहाबाद उच्च
न्यायालय ने रामजन्मभूमि एवं बाबरी मस्जिद विवाद में दिए गए अपने पूर्ण खंडपीठ के निर्णय में इन
स्तंभों के अस्तित्व का संज्ञान लिया है ओर उन्होंने इनके रंगीन चित्रों काे अभिलेख संख्या 200 सी-1
में 2881 से 2912 पृष्ठों पर सूचीबद्ध किया था। (संदर्भ ः 2010 ADJ; देखें चित्र-1, 2)

इसके बाद 1992 में, फैजाबाद जिलाधिकारी की देखरेख में बाबरी मस्जिद के सामने भूमि को
समतल किए जाते समय, एक मंदिर की चालीस खंडित मूर्तियों तथा प्रतिमूर्तियों के भग्न अवशेष जून,
1992 में पाए गए। आखिरकार डॉ. राकेश तिवारी, निदेशक उ.प्र. राज्य पुरातत्त्व विभाग ने माननीय
इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय से उस जगह से प्राप्त 263 कलाकृतियों की एक सूची प्रस्तुत की, जिनमें
से अधिकांश सीधे हिंदू मंदिरों से संबंधित थीं10। हालाँकि दिसंबर 1992 में बाबरी ढाँचे के विध्वंस के
बाद, मस्जिद से पहले मंदिर के अस्तित्व के विषय में विवाद बहुत अधिक बढ़ गए।
64 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-1 व 2 ः 14 काले पत् थर के खंभों में से कुछ की तस्वीरें, जो बाबरी ‌मस्जिद के तटबंधों के साथ जोड़े हुए थे।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 65

अंततः माननीय इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय के आदेशों के अनुसार ए.एस.आई. ने 2003 में
उत्खनन का आयोजन किया। टीम लीडर डॉ. बी.आर. मणी ने 22 सितंबर, 2003 को रिपोर्ट सौंपी,
जिसमें कहा गया कि निस्संदेह बाबरी मस्जिद पहले से मौजूद हिंदू मंदिर के खँडहरों पर बनाई गई
थी11। इस खुदाई ने कई सदियों से अयोध्या में सभ्य बस्तियों के अस्तित्व का खुलासा भी किया।
इस खुदाई में मिले प्राचीन हिंदू मंदिरों के खँडहरों के चित्र भी इस रिपोर्ट में शामिल थे। इस रिपोर्ट में
स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया कि ईंटों की पक्की नींव के ऊपर लगभग पचास आधार-स्तंभ मिले
तथा उनके ऊपर बलुआ पत्थर ब्लॉक और सबसे ऊपर कंक्रीट ब्लॉक पाए गए। खुदाई से यह भी
पता चला कि उत्तर से दक्षिण तक स्तंभों की सत्रह पंक्तियाँ थीं, प्रत्येक पंक्ति में पाँच आधार स्तंभ थे।
इसी विशाल संरचना के ऊपर बाबरी मस्जिद का निर्माण सोलहवीं शताब्दी में हुआ था (अयोध्या :
2002-03, खंड 1 : ए.एस.आई. 2003; पेज 41-54)। ए.एस.आई. रिपोर्ट ने आखिर में निष्कर्ष
निकाला कि सभी साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए और दसवीं शताब्दी के बाद से संरचनात्मक चरणों
में निरंतरता के साक्ष्यों को देखते हुए और एक ईश्वरीय जोड़े, कमल आकृति, गोलाकार पुण्यस्थान
के साथ प्रणाले और पचास आधार-स्तंभों के साक्ष्य बाबरी संरचना के नीचे उत्तर भारत के मंदिरों के
साथ जुड़े विशिष्ट लक्षणों का संकेत देते हैं (अयोध्या : 2002-03, खंड 1 : ए.एस.आई. 2003,
पृष्ठ 272)11। संरचनात्मक अवशेषों की योजना से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि बाबरी मस्जिद के
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निर्माण से पहले वहाँ मंदिर मौजूद था; उदाहरणतः गर्भगृह (जहाँ रामलल्ला वर्तमान में विराजमान हैं),
अर्ध मंडप और विस्तृत मंडप, पहले मंदिरों के क्षतिग्रस्त संरचनात्मक भागों का मस्जिद के निर्माण में
उपयोग किया जाना आदि।

लगभग सभी तथ्यों को माननीय इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय ने 2010 में दिए अपने निर्णय में
शामिल किया। यह निर्णय मल्होत्रा लॉ हाउस, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित ‘राम जन्मभूमि और बाबरी
मस्जिद विवाद’ नामक पुस्तक, जिसके तीन खंड हैं, में दिया गया है।12 श्रीमती मीनाक्षी जैन द्वारा
लिखी गई पुस्तक ‘द बैटल फॉर रामा’ में न्यायालय के समक्ष उठाए गए प्रश्नों और उनके द्वारा दिए
गए निर्णयों का बहुत ही सटीक सारांश दिया गया है।13 ये सभी तथ्य तथा साक्ष्य बाबरी संरचना के
नीचे ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी के हिंदू मंदिर के पूर्व अस्तित्व को स्पष्ट करते हैं। श्री के.एन. दीक्षित
ने अपने नवीनतम लेख पुराप्रवाह-2017 में 2003 में अयोध्या में न्यायालय के आदेशों के तहत हुई
खुदाई का विस्तृत विवरण दिया है, जिसमें कुछ उत्खनित कलाकृतियों तथा बाबरी मस्जिद से पहले
के मंदिरों की संरचनाओं के चित्र भी शामिल किए हैं।14 इनमें से कुछ चित्रों को नीचे दर्शाया गया है।
इनके मूल चित्रों को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) के पास सुरक्षित रखा गया है। (देखें
चित्र-3 से 11)
66 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चित्र-3 ः दक्षिणी क्षेत्र में उत्खनित गड्ढों का सामान्य दृश्य चित्र-4 ः पूर्वी क्षेत्र में उत्खनित गड्ढों का सामान्य दृश्य
(सौजन्य : के.एन. दीक्षित) (सौजन्य : के.एन. दीक्षित)

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चित्र-5 ः टैंक जैसी संरचना वाला राम चबूतरा चित्र-6 ः उत्खनित मकर-प्रणाल का चित्र
(सौजन्य : के.एन. दीक्षित), पुराप्रवाह-2017©ASI (सौजन्य : के.एन. दीक्षित), पुराप्रवाह-2017©ASI

चित्र-7 ः बेल बूटा वाले पैटर्न के स्तंभों का निकटवर्ती दृश्य चित्र-8 ः अष्टकोणिए पत्थर का आधार स्तंभ
(सौजन्य : के.एन. दीक्षित), पुराप्रवाह-2017 ©ASI (सौजन्य : के.एन. दीक्षित), पुराप्रवाह-2017©ASI
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 67

चित्र-9 ः अयोध्या में खुदाई में मिली एक मूर्ति; चित्र-10 ः अयोध्या में उत्खनित स्तंभों पर फूलों की सजावट के कुछ टुकड़े;
(सौजन्य : के.एन. दीक्षित), पुराप्रवाह-2017©ASI (सौजन्य : के.एन. दीक्षित), पुराप्रवाह-2017©ASI

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चित्र-11 ः अयोध्या में जन्मभूमि क्षेत्र से उत्खनित विष्णु हरि शिलालेख, पुरतत्त्व संख्या 33: 2002-2003 (© एएसआई) 17 चित्र
(सौजन्य : द बैटल फॉर रामा, मीनाक्षी जैन और आर्यन बुक्स इंटरनेशनल)

6 दिसंबर, 1992 को बाबरी संरचना के विध्वंस के दौरान, 5 फुट लंबा व 2.25 फुट चौड़ा
शिलालेख मिला था। माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ए.एस.आई. के एपिग्राफी के पूर्व निदेशक,
डॉ. के.वी.वी. रमेश को शिलालेख को समझने और अनुवाद प्रदान करने के लिए निर्देश दिया। डॉ.
रमेश ने 3 फरवरी, 2002 को रिपोर्ट जमा की, जिसे उच्च न्यायालय के फैसले के पृष्ठ 3688-3697
पर अनुलग्नक-वी 3 के रूप में शामिल किया गया है। इस शिलालेख की तसवीर भी इसमें शामिल है
(ए.डी.जे. 2010)।
यह शिलालेख विष्णु हरि शिलालेख के नाम से जाना जाता है। डॉ. के.वी.वी. रमेश ने बताया कि
68 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

शिलालेख ‘काफी शुद्ध संस्कृत’ में लिखा गया है और इसे 12वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में लिखा गया।
उन्होंने सबसे महत्त्वपूर्ण जानकारी यह दी कि शिलालेख पर गढ़वाल वंश के राजा गोविंदचंद्र का उल्लेख
था, जिन्होंने 1114 ईस्वी से 1155 ईस्वी के दौरान उत्तरी भारत के विशाल क्षेत्र पर राज्य किया था।
यह शिलालेख निस्संदेह उसी मंदिर की दीवार पर चिनी हुई थी, जिसके निर्माण से संबंधित सूचना इस
शिलालेख पर अत्यंत स्पष्ट अक्षरों में उकेरी गई थी। डॉ. रमेश ने बताया कि इस शिलालेख के पद 19 में
कहा गया है कि मेघसुत को पृथ्वी के वरिष्ठ अधिपति गोविंदचंद्र की कृपा से साकेत-मंडल का प्रभुत्व
दिया गया था। श्लोक 21 में उत्कीर्ण किया गया है कि मेघसुत ने भगवान् विष्णु हरि के लिए एक ऊँचे
तथा बुलंद मंदिर का निर्माण किया। श्लोक 22 में कहा गया है कि आयुषचंद्र साकेत-मंडल में मेघसुत
के उत्तराधिकारी बने और वह अयोध्या शहर में रहने लगे।
आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त श्लोक 27 में भगवान् विष्णु को राजा वली और राजा दशानन (अर्थात्
रावण) के संहारक के रूप में वर्णित किया गया है। डॉ. रमेश ने निष्कर्ष निकाला कि पत्थरों से निर्मित
इस भव्य मंदिर का निर्माण मेघसुत द्वारा किया गया था, जबकि शिलालेख उनके उत्तराधिकारी आयुषचंद्र
द्वारा उकेरा गया था (पेज 3702-03, पैरा 3639)। डॉ. रमेश द्वारा की गई शिलालेख की यह व्याख्या
माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार कर ली गई थी। इस प्रकार खुदाई में मिले 20 पंक्ति के
इस शिलालेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाबरी संरचना के स्थल पर पहले से भगवान् विष्णु हरी का
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भव्य मंदिर था, जिसे गढ़वाल के राजा गोविंदचंद्र ने 1114-1154 ईस्वी के दौरान बनवाया था।
विध्वंसित बाबरी संरचना के नीचे तथा इर्दगिर्द किए उत्खननों ने यह निर्विवाद रूप से सिद्ध किया
है कि बाबरी संरचना ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में बने एक भव्य मंदिर के ऊपर बनी थी। इलाहाबाद
हाई कोर्ट के न्यायाधीश शर्माजी के अनुसार भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने सिद्ध कर दिया है कि मसजिद
एक हिंदू मंदिर को ध्वस्त कर उसके ऊपर बनाई गई थी, जबकि न्यायमूर्ति अग्रवाल तथा न्यायमूर्ति खान
के अनुसार बाबरी मसजिद हिंदू मंदिर के खँडहरों पर बनाई गई थी। तीनों न्यायाधीशों ने यह स्पष्ट रूप
से कहा कि मसजिद के निर्माण के दौरान मंदिर के खँडहरों तथा स्तंभों का उपयोग भी किया गया था
(ऐ.डी.जे. 2010)।
उत्खनित भवन संरचनाओं, मंदिर के स्तंभों और शिलालेखों आदि सहित विभिन्न पुरावशेषों के
अस्तित्व ने प्रभावी रूप से यह भी सिद्ध किया है कि पिछले 2500 वर्षों से भारतीय लोग अयोध्या में विष्णु
मंदिरों का निर्माण और पुनर्निर्माण करते आ रहे हैं तथा श्रीराम को विष्णु का अवतार मानकर शिलालेख
भी लिखते रहे हैं। साहित्य तथा मूर्तिकला के साक्ष्यों से भी यही सिद्ध होता है कि 5वीं शताब्दी ईसापूर्व तक
श्रीराम को भारतीय उपमहाद्वीप में विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। कालिदास
ने 5वीं शताब्दी ईसापूर्व में ‘रघुवंश’ की रचना की थी। बड़ी संख्या में उत्खनित मूर्तियों में ब्राह्म‍ी लिपि में
अंकित ‘राम’ नाम के साथ नचारखेरा से तीसरी शताब्दी की टेराकोटा आकृति भी शामिल है।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 69

भवन निर्माण तथा मूर्तिकला के साक्ष्यों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि लगभग 11वीं शताब्दी
तक तमिल क्षेत्र के मंदिरों में श्रीराम को मुख्य देवता के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। हमें यह
भी स्वीकार करना होगा कि मंदिरों के निर्माण की संस्कृति केवल 3000 वर्ष पुरानी है। इसके अतिरिक्त
यह समझ लेने की और भी अधिक आवश्यकता है कि 5000 साल से अधिक पुरानी इमारतों को खोदना
आसान नहीं है क्योंकि ये पर्यावरण के अनुकूल, लकड़ी और कुशा घास आदि से बनी होती थीं; इसलिए
हजारों वर्षों बाद इनका खुदाई में मिल पाना लगभग असंभव है। निस्संदेह 5000 वर्ष से अधिक पुराने
दस पुरावशेष 2000 वर्ष पुराने सौ पुरावशेषों से कहीं अधिक महत्त्व रखते हैं। इसीलिए हजारों वर्ष पुराने
पुराता​ि‍त्त्वक, मूर्तिकला, शिलालेख और साहि​ित्यक साक्ष्यों को भगवान् राम के जीवन और समय के साथ
जोड़कर देखना ही अधिक तर्कसंगत व उचित होगा।
v

4. श्रीराम और लक्ष्मण का ऋषि विश्वामित्र के साथ प्रस्थान


राजा दशरथ के चारों पुत्र शक्तिशाली, सदाचारी, गुणवान तथा मधुर व्यक्तित्ववाले थे। उन्हें इस तरह
बढ़ते हुए देखकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती थी। ऐसे यशस्वी एवं तेजस्वी पुत्रों की प्राप्ति
से राजा दशरथ बहुत प्रसन्नचित्त रहने लगे थे। अपने चारों पुत्रों में से राजा दशरथ अपने सबसे बड़े पुत्र
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श्रीराम से उनके सद‍्व्यवहार, दृढ़ता तथा विनम्रता आदि सद्गुणों के कारण सबसे अधिक प्रेम करते थे।
कुल पुरोहित ऋषि वसिष्ठ ने जातकर्म से लेकर उपनयन संस्कार (इस समारोह में सात से सोलह वर्ष
की आयु के लड़के को आध्यात्मिक अध्ययन में प्रतिष्ठापित किया जाता है)15 तक, सभी संस्कारों से
राजकुमारों का परिष्कार किया। एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ अपने पुरोहित वसिष्ठ तथा बंधु-बांधवों
के साथ बैठकर अपने पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे। मंत्रियों के साथ इस प्रकार विचार
विमर्श करते समय, राजा दशरथ के यहाँ महा तेजस्वी महामुनि विश्वामित्र पधारे, वह राजा से मिलना
चाहते थे और उन्होंने द्वारपालों से कहा कि शीघ्र जाकर महाराज को सूचना दे दो कि विश्वामित्रजी आए
हैं। राजा के दरबार में पहुँचकर द्वारपालों ने विश्वामित्र के पधारने की सूचना दी। विश्वामित्र अत्यंत
शक्तिशाली महामुनि थे और राजा महाराजा उनका विशेष आदर करते थे। द्वारपालों की बात सुनकर राजा
दशरथ सावधान होकर तुरंत अपने सिंहासन से उतरे, ऋषि विश्वामित्र का आदरपूर्वक स्वागत कर उन्हें
आसन ग्रहण करने का आग्रह किया।
इसके पश्चात् विश्वामित्रजी ने बताया, “मैंने सिद्धि के लिए एक यज्ञ का अनुष्ठान किया, लेकिन
इसके पूर्ण होने से पहले मारीच और सुबाहु नामक दो अति क्रूर राक्षस विघ्न डाल रहे हैं। उन्होंने मेरी
यज्ञवेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है। इसीलिए मेरा निवेदन है कि आप अपने सत्य, पराक्रमी
तथा शूरवीर ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को दस दिन के लिए मुझे दे दो। श्रीराम अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी
70 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

राक्षसों का विनाश करने में समर्थ हैं। मैं इन्हें अनेक प्रकार का श्रेय प्रदान करूँगा, इसमें कोई संशय नहीं
है। उस श्रेय को पाकर ये तीनों लोकों में विख्यात होंगे। श्रीराम के सामने आकर वे दोनों राक्षस किसी
तरह ठहर नहीं सकते। राजन्, आप पुत्र स्नेह को बीच में न लाइए, मैं आपसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि
उन दोनों राक्षसों को श्रीराम के हाथों से मरा हुआ ही समझिए। आपके यशस्वी एवं महा तेजस्वी पुत्र
श्रीराम की ताकत को मैं भलीभाँति जानता हूँ। अतः आप यज्ञ के अवशिष्ट दस दिनों के लिए अपने पुत्र
कमलनयन श्रीराम को मुझे दे दीजिए।”
विश्वामित्रजी के ये वचन सुनकर महाराज दशरथ पुत्र वियोग की आशंका से भयभीत व चिंतित
हो गए। फिर वे सहसा काँप उठे और कुछ क्षण के लिए बेहोश हो गए। विश्वामित्र मुनि के वचन राजा
के हृदय और मन को विदीर्ण करनेवाले थे। उन्हें सुनकर उनके मन में बड़ी व्यथा हुई। राजा दशरथ ने
ऋषि विश्वामित्र से विनयपूर्वक कहा, “महर्षि मेरा कमलनयन राम अभी पूरे 16 वर्ष का भी नहीं हुआ
है (1/20/2)। मैं इसमें राक्षसों के साथ युद्ध करने की योग्यता नहीं देखता, यह मेरी अक्षौहिणी सेना
है, जिसका मैं पालक और स्वामी भी हूँ। मेरी आयु इस समय लगभग साठ वर्ष की होगी और इस सेना
के साथ मैं स्वयं ही चलकर उन राक्षसों के साथ युद्ध करूँगा। यह मेरे शूरवीर सैनिक, जो अस्त्र विद्या
में कुशल और पराक्रमी हैं राक्षसों के साथ लड़ने की योग्यता रखते हैं। (उस समय अक्षौहिणी सेना में
21870 रथवान, 21870 हाथी, 65610 अश्व और 109350 पैदल सैनिक होते थे)16। अतः इतनी विशाल
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सेना को छोड़कर राम को ले जाना उचित नहीं होगा, क्योंकि मेरा राम अभी बालक है। वह राम न तो
अस्त्र-शस्त्र विद्या में पारंगत है और न ही युद्ध की कला में निपुण है।”
राजा दशरथ के ऐसे वचन सुनकर विप्रवर विश्वामित्र के मन में महान् क्रोध उत्पन्न हुआ। महर्षि
विश्वामित्र के कुपित होते ही सारी पृथ्वी काँप उठी और देवताओं के मन में भी भय समा गया। उनके रोष
से सारे संसार को त्रस्त हुआ जान बुद्धिमान महर्षि वसिष्ठ ने राजा दशरथ से इस प्रकार कहा, “दिए हुए
वचन के अनुसार, आप श्रीराम को विश्वामित्रजी के साथ भेज दीजिए। जैसे प्रज्वलित अग्नि द्वारा सुरक्षित
अमृत को कोई हाथ नहीं लगा सकता, उसी प्रकार कुशिकनंदन विश्वामित्र से सुरक्षित हुए श्रीराम का वे
राक्षस कुछ नहीं बिगाड़ सकते।” मुनि वसिष्ठ के ऐसा कहने पर राजा दशरथ की चिंता दूर हो गई और
उन्होंने लक्ष्मण सहित श्रीराम को अपने पास बुलाया और प्रसन्न मन से उन्हें विश्वामित्रजी को सौंप दिया
और उनकी सभी आज्ञाओं का पालन करने का आदेश भी दे डाला।
श्रीराम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र इन तीनों महापुरुषों ने अयोध्या से प्रस्थान किया। आगे-आगे
ऋषि विश्वामित्र और उनके पीछे-पीछे हाथों में धनुष लेकर तथा पीठ पर तरकस बाँधकर श्रीराम तथा
लक्ष्मण जा रहे थे। देखें 300 वर्ष पुरानी एक मिनिएचर पेंटिंग (संदर्भ लघुचित्र-1) अयोध्या से कुछ दूर
जाकर उन्होंने सरयू नदी के दक्षिणी तट पर चलना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने पहली रात्रि सरयू नदी के
किनारे पर व्यतीत की। रात्रि में सोने से पहले विश्वामित्र ने मधुर वाणी में श्रीराम को संबोधित करते हुए
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 71

कहा, “मैं तुम्हें बला और अतिबला नाम से प्रसिद्ध दो मंत्र प्रदान करने जा रहा हूँ। इन्हें ग्रहण करो। इनके
प्रभाव से तुम्हें कभी थकावट का अनुभव नहीं होगा, रोग या कष्ट नहीं होगा तथा भूख और प्यास भी तुम्हें
न सता पाएँगी।” (वा.रा. 1/22/15)17 शुद्ध अंत:करण वाले श्रीराम ने एकाग्र मन से दोनों विद्याओं को
ग्रहण किया; इनको महामुनि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से अर्जित किया था। इसके पश्चात् सूर्य उदय
होने पर उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी और कामाश्रम पहुँचे।

ऋषि विश्वामित्र के साथ अयोध्या से प्रस् थान करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण

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लघुचित्र-1 ः बीकानेर-दक्कन मिश्रित शैली, प्रारंभिक 18वीं शताब्दी, अधिप्राप्ति संख्या-47.110/216, राष्ट्रीय संग्रहालय
72 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

दूसरी रात्रि कामाश्रम में व्यतीत करने के बाद वे गंगा और सरयू नदी के संगम पर पहुँचे। तीसरे दिन
उन तीनों महापुरुषों ने पवित्र गंगा नदी को नाव से पार किया और उस वन में पहुँचे, जहाँ पर ताड़का नाम
की राक्षसी रहती थी। उन्होंने तीसरी रात्रि उसी वन में व्यतीत की और चौथे दिन श्रीराम ने ताड़का नामक
राक्षसी का वध कर दिया।
ताड़का वध से प्रसन्न होकर ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम को दिव्य अस्त्र–शस्त्र प्रदान किए।
दिव्यास्त्रों में मिसाइल अर्थात्् प्रक्षेपास्त्र शामिल थे जैसे कि दंडचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र
तथा इंद्रचक्र आदि। ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम को सम्मोहनास्‍त्र, मानवास्‍त्र, तेजोप्रभास्‍त्र तथा ब्रह्म‍ास्त्र
भी प्रदान किए। ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें बहुत से शस्त्र दिए, जिनमें शामिल थी मोदकी व शिखरी
नाम की दो गदाएँ। उन्होंने उन्हें कालपाश, धर्मपाश और वरुणपाश भी प्रदान किए। उन्होंने सर्वाधिक
शक्तिशाली अग्नेयास्त्र भी श्रीराम को प्रदान किया। महर्षि विश्वामित्र ने यह सभी अस्त्र-शस्त्र और
पाश अत्यंत कठोर साधना और कई वर्षों के अनुसंधान व तपस्या से प्राप्त किए थे। उन्होंने श्रीराम को
इन दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग, नियंत्रण और उन्हें स्मरण करने की विद्या भी सिखाई। इसके पश्चात्
श्रीराम ने ये सभी विद्याएँ लक्ष्मण को प्रदान कीं। अस्त्र-शस्त्रों का वर्गीकरण और अक्षौहिणी का अर्थ
बॉक्स 1.5 में दिया गया है।

MAGAZINE KING बॉक्स 1.5


प्राचीन भारत में अक्षौहिणी सेना का अर्थ
प्राचीन भारत में सेना को परंपरागत रूप से चतुरंगिणी सेना के नाम से जाना जाता था।
यह चतुरगि ं णी सेना पैदल सैनिक, अश्वारोही सैनिक, गजारोही और रथसवार योद्धाओं से
मिलकर बनी होती थी। सेना की सबसे छोटी इकाई को पट्टी कहा जाता था और उसकी
संरचना एक रथवान, एक गजारोही, तीन अश्वारोही और पाँच पैदल सैनिकों को मिलाकर
होती थी। इसके पश्चात् बढ़ते हुए क्रम में 7 इकाइयाँ होती थी, जिनके नाम सेनामुख,
गुल्म, गण, वाहिनी, प्रतन, कामू तथा अंकिनी होते थे। संरचना में, इन सभी इकाइयों में से
प्रत्येक इकाई अपनी पूर्ववर्ती इकाई से 3 गुना बड़ी होती जाती थी। इस प्रकार अंकिणी में
2187 रथसवार सैनिक, 2187 गजसवार सैनिक और 6561 अश्वारोही सैनिक तथा 10935
पैदल सैनिक शामिल होते थे। इसकी सबसे बड़ी इकाई अक्षौहिणी होती थी, जो कि अपनी
संरचना में अंकिणी से 10 गुना अधिक बड़ी होती थी। इस प्रकार अक्षौहिणी सेना में 21870
रथसवार, 21870 गजसवार, 65610 अश्वारोही सैनिक और 109350 पैदल सैनिक शामिल
होते थे।16 अक्षौहिणी सेना का स्वामी होना राजा के लिए प्रतिष्ठा का विषय होता था।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 73

प्राचीन भारत में अस्त्रों एवं शस्त्रों का वर्गीकरण


प्राचीन भारत में युद्ध के हथियारों को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था।
यह तीन श्रेणियाँ थीं—अस्त्र, शस्त्र और पाश (1) अस्त्र—यह मिसाइलें अर्थात्् प्रक्षेपास्त्र
होते थे, जिन्हें धनुष आदि जैसे लाॅञ्च पैड का उपयोग करते हुए फेंका जाता था। इनमें
मोहन अस्त्र, मानवास्त्र, मायामय अस्त्र, संवर्त अस्त्र, तेजाेप्रभा अस्त्र, आग्नेय अस्त्र और
ब्रह्म‍ास्त्र सहित विभिन्न प्रकार के तीर आदि शामिल होते थे। (2) शस्त्र—यह हस्तचालित
होते थे, जैसे तलवारें, गदा, मूसल और कुल्हाड़ियाँ आदि। (3) पाश—यह जालों और
रस्सियों के रूप में बाँधनेवाले हथियार होते थे, जैसे धर्मपाश, कालपाश और नागपाश
आदि। रामायण में लगभग इन सभी हथियारों का वर्णन मिलता है। वाल्मीकि रामायण में इन
हथियारों का अविष्कार करनेवाले वैज्ञानिक ऋषियों और इन हथियारों को श्रीराम को प्रदान
करनेवाले महान् ऋषियों का वर्णन भी किया गया है। ऋषि विश्वामित्र और ऋषि अगस्त्य
द्वारा श्रीराम को प्रदान किए गए लगभग सभी हथियारों के प्रयोग का उल्लेख भी वाल्मीकि
द्वारा रामायण में किया गया है। यहाँ पर यह स्पष्ट कर दिया जाए कि प्राचीनकाल में
हथियारों का बड़ी मात्रा में औद्योगिक उत्पादन नहीं होता था और यह हथियार सामान्यतया
एक या दो संख्या में ही होते थे।

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महर्षि विश्वामित्र ने दोनों राजकुमारों अर्थात्् श्रीराम और लक्ष्मण को साथ लेकर अपनी यात्रा जारी
रखी। वे सभी सिद्धाश्रम नामक पवित्र स्थान पर पहुँच।े उस सिद्धाश्रम में मुनि विश्वामित्र तपस्या किया
करते थे। सिद्धाश्रम में ऋषियों के आदेशों के अनुसार दोनों रघुवंशी वीर श्रीराम और लक्ष्मण सावधान
होकर लगातार छह दिन और छह रात तक विश्वामित्रजी द्वारा किए जा रहे यज्ञ की रक्षा करते रहे। छठे
दिन की सुबह श्रीराम ने देखा कि मारीच और सुबाहु नामक दो राक्षस सब ओर अपनी माया फैलाते हुए
यज्ञमंडप की ओर दौड़ते हुए आ रहे हैं और वे दोनों भयंकर राक्षस वहाँ आकर यज्ञमंडप में रक्त धाराएँ,
मांस एवं अन्य अस्वच्छ वस्तुओं को फेंकने की तैयारियाँ करने लगे। फिर परम पराक्रमी श्रीराम ने अपने
धनुष पर मानवास्त्र का संधान किया। वह अस्त्र अत्यंत तेजस्वी था। श्रीराम ने बड़े रोष में भरकर मारीच
की छाती में उस बाण का प्रहार किया। उस उत्तम मानवास्त्र का गहरा आघात लगने से मारीच सौ योजन
की दूरी पर समुद्र में जा गिरा। इसके बाद श्रीराम ने शीघ्र ही महान् अग्नियास्‍त्र का संधान करके उसे
सुबाहु की छाती पर चलाया। उसकी चोट लगते ही वह प्राण त्याग कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर वहाँ
पर उन दोनों परम यशस्वी राजकुमारों ने शेष निशाचरों का भी संहार कर डाला, जो ऋषि विशवामित्र
को प्रताड़ित करते थे तथा उनकी तपस्या को पूर्ण नहीं होने देते थे। उन दोनों राक्षसों का संहार करके
श्रीराम ने मुनियों को परम आनंद प्रदान किया। यज्ञ समाप्त होने पर महामुनि विश्वामित्र ने संपर्ण
ू दिशाओं
को विघ्न-बाधाओं से रहित देखकर श्रीरामचंद्रजी को साधुवाद दिया और उनकी अत्यंत प्रशंसा करते हुए
उन दोनों राजकुमारों के साथ सांध्योपासना की। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करके कृतकृत्य हुए श्रीराम
74 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

और लक्ष्मण ने उस यज्ञशाला में ही वह रात बिताई, उसके पश्चात् उन दोनों ने ऋषि विश्वामित्र से कहा,
“महाराज आज्ञा दीजिए, हम आपकी और क्या सेवा करें”, तब ऋषि विश्वामित्र ने कहा, “हे रघुनंदन!
मिथिला के राजा जनक का परम यज्ञ प्रारंभ होनेवाला है, उसमें हम सब लोग जाएँग,े तुम्हें भी हमारे साथ
वहाँ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही प्रबल व अद्भुत धनुष रखा है, तुम्हें उसे देखना चाहिए।”

5. मिथिला की ओर यात्रा; मार्ग में वर्णित गंगा की कहानी


मिथिला के राजा जनक महामुनि विश्वामित्र को अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर से संबंधित धर्म यज्ञ
उत्सव में पहले ही आमंत्रित कर चुके थे। उन दिनों में प्राचीन शासक और राजा अपनी पुत्री को उसके
लिए सर्वश्रेष्ठ जीवनसाथी चुनने का अवसर देने के लिए स्वयंवर का आयोजन किया करते थे। इसलिए
श्रीराम व लक्ष्मण व अन्य ऋषिओं को साथ लेकर महामुनि विश्वामित्र मिथिला की ओर उत्तर-पूर्व
दिशा में चलने लगे। वास्तव में विश्वामित्रजी की यह इच्छा थी कि राजा जनक की पुत्री सीता का
विवाह श्रीराम से संपन्न हो। सिद्धाश्रम से मिथिला के मार्ग में निश्चित रूप से ये लोग उत्तर प्रदेश के
आधुनिक जिले संत कबीर नगर से होकर गुजरे होंगे। इस जिले में लहुरादेवा नामक स्थान पर की गई
खुदाई में ऐसे अनेक साक्ष्य उपलब्ध हुए हैं, जो वाल्मीकि रामायण के संदर्भों का संबंध 7000 वर्ष पूर्व
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की सभ्यता अर्थात् रामायण काल से स्थापित करते हैं। पुरातत्त्वविदों ने इस स्थल पर 7000 वर्ष पूर्व
से लेकर ईसाई युग की शुरुआत तक पाँच सांस्कृतिक कालक्रमों के सतत विकास को दर्शाया है।18
v
लहुरादेवा में कृष्ट चावल, सुसज्जित बर्तनों के ठीकरे, अर्धकीमती पत्थरों के मोती, ताँबे के तीर
का फल व धनुष का किनारा आदि अनेक कलाकृतियाँ उत्खनन में मिली हैं तथा इनकी कार्बन डेटिंग
इन्हें 7000 वर्ष पुराना बताती है। 19 वाल्मीकि रामायण में इन सभी वस्तुओं का उल्लेख किया गया
है। मध्यवर्ती गंगा के मैदानों में किए गए कई अन्य उत्खननों में पाए गए विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों
के कार्बन तिथि निर्धारण में भी रामायण के युग की खगोलीय तिथियों का पुष्टीकरण किया है। इनकी
सी-14 तिथियों ने सिद्ध किया है कि 7000 वर्ष पहले रामायण युग के दौरान भारत में चावल, जौ,
गेहूँ, मूँग, मटर, तिल, आँवला और अंगूर आदि की खेती की जा रही थी। (तिवारी और अन्य, 2001-
2002, 2007-2008 (पुरातत्त्व)।20-21 उत्खनित प्राचीन पुरावशेषों और सामग्रियों की तिथि निर्धारण
की वैज्ञानिक पद्धति के बारे में जानने के लिए बॉक्स 1.6 देखें। कुछ उत्‍खलित वस्तुओं की तस्वीरों
के चित्र-12 से 16 में दर्शाया गया है।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 75

चित्र-12 ः स्टैंड पर बर्तन, लहुरादेवा; 5000 वर्ष ई.पू. चित्र-13 ः सेलखड़ी के मनके, लहुरादेवा; 5000 वर्ष ई.पू.
(सौजन्य : तिवारी राकेश) (सौजन्य : तिवारी राकेश)

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चित्र-14 ः ताम्र का बाणाग्र, लहुरादेवा; 5000 वर्ष ई.पू. चित्र-15 ः ताँबे का एक हुक धनुष का किनारा, लहुरादेवा;
(सौजन्य : तिवारी राकेश) 5000 वर्ष ई.पू. (सौजन्य : तिवारी, सारस्वत)

चित्र-16 ः धान, जौ, गेहूँ, दाल, हरा चना, मटर, घुड़, चना, तिल,
आँवला, अंगूर, स्वीट पी, घास, मनका (सौजन्य : तिवारी राकेश)
76 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बॉक्स 1.6
हम इन पुरावशेषों और उत्खनित वस्तुओं की तिथि का निर्धारण कैसे करते हैं?
सन् 1950 तक हमारे पास उत्खनित पुरावशेषों की तिथि का निर्धारण करने के लिए
कोई विश्वसनीय पद्धति उपलब्ध नहीं थी, परंतु तत्पश्चात् उत्खनित पुरावशेषों का भरोसेमंद
तिथि निर्धारण करने की नई वैज्ञानिक पद्धतियाँ खोज कर ली गई थीं। शुरुआत में, रेडियो
कार्बन तिथि निर्धारण पद्धति (सी14)की खोज की गई और उसके थोड़े समय पश्चात्
थर्मोल्युमिनेसेंस डेटिंग, ऑप्टिकली सटिम्युलेटिड ल्युमिनेसेंस पद्धति (ओएसएल) आदि
का आविष्कार किया गया।
लगभग सभी उत्खनित सामग्रियों के तिथि निर्धारण के लिए विश्व में सभी जगह
रेडियो कार्बन तिथि निर्धारण पद्धति का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। यह पद्धति किसी
ज्ञात दर पर समय के साथ-साथ रेडियो कार्बन (सी14) की राशि परिवर्तन के सिद्धांत
पर आधारित है। रेडियोकार्बन, कार्बन का रेडियो एक्टिव आइसोटोप है, जो 5730 वर्षों में
अपने आधे जीवन को कम कर लेता है। आधे-आधे के नियम के अनुसार ही यह प्रक्रिया
जारी रहती है, तदनुसार शेष आधा अर्थात्् मूल का एक चौथाई अगले 5730 वर्षों में
अतिरिक्त आधा हो जाएगा और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
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इस पद्धति से किसी उत्खनित चारकोल के टुकड़े की निर्धारित आयु के आधार पर,
वहाँ के निवासियों व उनके समय के बारे में स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार
सैडिमेंट की उम्र को उस समय का मापदंड माना जा सकता है, जब कोई पौधा जीवित था।
सी14 तिथि निर्धारण में, उस विशेष समय बिंदु का तिथि निर्धारण किया जाता है, जब वह
पौधा जीवित नहीं था और पौधे में रेडियो कार्बन के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया समाप्त
हो गई थी। यदि कोई पौधा या पेड़ किसी क्षेत्र में एक या दो हजार वर्षों तक अस्तित्व में
रहा था तो उसका सी14 तिथिकरण उसके उस क्षेत्र में अस्तित्व के समय को उतने वर्षों
से कम दर्शाएगा।
किसी प्राचीन संस्कृति के तिथि निर्धारण की सटीकता को सुनिश्चित करने के लिए
स्थल से एकत्र किए गए नमूने अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं। यदि सी14 तिथि निर्धारण के लिए
भेजा गया नमूना तल के निम्नतम स्तर से नहीं प्राप्त किया गया है तो नमूने और उससे
संबधिं त सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनता कम निर्धारित होगी। उदाहरण के लिए, लहुरादेवा
में ऊपरी स्तर पर उगाए गए चावल की आयु 5000 वर्ष पुरानी थी, जबकि निम्नतम स्तर
से उत्खनित चावल की आयु 7000 से 7200 वर्ष पुरानी थी, जोकि रामायण की खगोलीय
तिथियों की पुष्टीकरण करती है।

महर्षि विश्वामित्र के साथ दोनों राजकुमारों की मिथिला की ओर यात्रा जारी रही। वे सभी सोनभद्र
नदी के तट पर पहुँचे। अयोध्या से प्रस्थान के पश्चात् 11वीं रात्रि सोनभद्र नदी के किनारे व्यतीत करने
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 77

के पश्चात् वह पुनः आगे बढ़े और शाम के समय में पवित्र एवं पावन नदी गंगा के तट पर पहुँचे।
उस समय सभी ने गंगाजी के तट पर डेरा डाला। फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं और पितरों का
तर्पण किया। उसके बाद श्रीराम ने विश्वामित्रजी से पूछा कि त्रिपथगामिनी गंगाजी किस प्रकार तीनों
लोकों में घूमकर नदियों के स्वामी समुद्र में जा मिली हैं। श्रीराम ने महामुनि से गंगा की उत्पत्ति और
वृद्धि की पूरी कहानी सुनाने का निवेदन किया।

महामुनि विश्वामित्र द्वारा वर्णित गंगा की चित्ताकर्षक कहानी


महामुनि विश्वामित्र ने गंगाजी की उत्पत्ति तथा संवर्धन की आकर्षक कहानी को अत्यंत रोचक
ढंग से सुनाया। ऋषि विश्वामित्र ने बताया कि श्रीराम के सूर्यवंशी पूर्वज राजा सगर से लेकर राजा
भगीरथ तक ने गंगा के रूप में भगीरथी के जल को प्रवाहित करने के भरसक प्रयास किए थे, जिससे
कि पूर्वी भारत के लोग सूखे से और पश्चिम भारत के लोग बाढ़ के प्रकोप से बच सके। सूर्यवंश के
40वें शासक राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ किया। यज्ञ संबंधी अश्व के लौटने पर ही अश्वमेध
यज्ञ का समापन किया जा सकता था। यज्ञ के अश्व को आधुनिक समय के बंगाल में गंगासागर में
कपिल मुनि के आश्रम में छिपाया गया था। यज्ञ के अश्व का पता लगाने के लिए राजा सगर ने अपने
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साठ हजार सैनिकों को एक-एक योजन भूमि का बँटवारा करके पूरी पृथ्वी को रसातल अर्थात् समुद्र
तक खोदने का आदेश दिया। महाराजा सगर की आज्ञा को शिरोधार्य कर वे पृथ्वी की निरंतर खुदाई
करते हुए रसातल की ओर बढ़े। इतनी कठोर खुदाई करने के पश्चात् उन्होंने कपिल मुनि के आश्रम
के समीप अश्व को चरते हुए देखा। कपिल मुनि का आश्रम संभवत: आधुनिक बंगाल के गंगा सागर
क्षेत्र में होता था। थकान और प्यास के कारण एवं कपिल मुनि के प्रतिरोध के कारण राजा सगर के
60,000 सैनिकों की इस उद्यम को करते हुए मृत्यु हो गई। जब लंबे समय तक राजा सगर के सैनिक
लौटकर वापस नहीं आए, तब राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को उनका पता लगाने और यज्ञ के
अश्व को वापस लाने के लिए भेजा और कहा कि सैनिकों द्वारा खोदे गए मार्ग से ही जाना।
राजा सगर की आज्ञानुसार अंशुमान साठ हजार सैनिकों द्वारा खोदे गए मार्ग से होते हुए आगे
बढ़े और कपिल मुनि के आश्रम में यज्ञ के अश्व को खड़ा देखा। राजकुमार अंशुमान सबसे पहले
मृत सैनिकों की आत्मा का तर्पण करना चाहते थे, लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें जल नहीं मिला।
उस समय उन्हें पक्षियों के राजा गरुड़ ने मंत्रणा दी कि हिमालय से गंगा नदी को वहाँ तक प्रवाहित
करने के पश्चात् ही मृत सैनिकों का तर्पण गंगाजल से किया जाए। अंशुमान यज्ञ संबधी अश्व लेकर
तुरंत लौट आए और यह वृत्तांत राजा सगर को सुनाया। तत्पश्चात् राजा सगर यज्ञ समाप्त कर अपनी
राजधानी में वापिस आए और उन्होंने 30 वर्षों तक प्रयास किया, लेकिन वह हिमालय से रसातल तक
गंगा के लिए मार्ग खोजने के कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सके थे।
78 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

राजा सगर की मृत्यु के पश्चात् प्रजा ने उनके पौत्र अंशुमान को राजा बनाया। अंशुमान 32 वर्षों
तक हिमालय के शिखर पर जाकर गंगा के पानी को धरती पर उतारने के लिए खोजबीन करते रहे,
परंतु सफल नहीं हुए। यहाँ पर यह स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि पाठकों को वाल्मीकि रामायण में
दिए गए उपर्युक्त वर्षों की संख्या के साथ ‘सहस‍्राणी’ शब्द पढ़कर भ्रमित नहीं होना चाहिए, क्योंकि
प्राचीन संस्कृत में सहस‍्राणी का अर्थ ‘लगभग’ होता था22। तत्पश्चात् अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप ने
लगभग 30 वर्षों तक इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयास किया, लेकिन अपने पूर्वजों की आत्मा के
तर्पण एवं श्राद्ध के लिए हिमालय से गंगासागर की ओर गंगाजल का प्रवाह लाने में वह भी सफल नहीं
हो पाए। उसके बाद वे अपने पुत्र भगीरथ को राज सिंहासन पर बैठा कर स्वर्गवासी हो गए। सूर्यवंश
के 44वें शासक भगीरथ अपने शासन कार्य को अपने मंत्रियों को सौंपकर गंगासागर तक गंगा नदी का
प्रवाह बनाने के लिए मार्ग खोजने हेतु हिमालय पर चले गए।
ऋषि विश्वामित्र ने गंगा के अवतरण की कहानी का वर्णन जारी रखा और बताया कि राजा
भगीरथ ने एक पहाड़ी की चोटी, जिसकी आकृति अँगूठे की नोक की तरह की थी, से शिवलिंग
शिखर के आसपास शक्तिशाली ग्लेशियरों को देखा—‘देवदेवे गते तस्मिन्सोऽङ्गुष्ठाग्रनि पीडिताम्’
(वा.रा./1/43/1)। बाद में इस शिखर का नाम ‘भगीरथ शिखर’ रख दिया गया। गौमुख ग्लेशियरों की
दूसरी तरफ स्थित हिमालय की शिवलिंग चोटी के चारों तरफ फैले शक्तिशाली ग्लेशियरों को अँगूठे
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की आकृति जैसी पहाड़ी से राजा भगीरथ द्वारा देखे जाने की इस कहानी से संबंधित तथ्यों का नीचे
दिया गया चित्र भी समर्थन करता है। (देखें चित्र-17)
भगवान् ब्रह्म‍ा और भगवान् शिव से प्रार्थना करते हुए, तपस्वी राजा भगीरथ ने पुन: कठोर प्रयास
किया और ब्रह्म‍ा तथा शिव के आशीर्वाद से वे ऐसा करने में आंशिक रूप से सफल हुए। उन्होंने देखा
कि गंगा के ग्लेशियर शिवलिंग पहाड़ी की गगनचुंबी चोटी से निकलकर शिवलिंग पहाड़ियों के सर्पाकार
ग्लेशियरों और गौमुख ग्ले​ि‍शयर से होकर घूम रहे थे, जो भगवान् शिव की उलझी जटाओं जैसे प्रतीत हाे
रहे थे। (वा.रा. 1/43/4,5,9)
ततो हैमवती ज्येष्ठा सर्वलोकनमस्कृता।
तदा सातिमहद्रूपं कृत्वावेगं च दुःसहम्॥1/43/4॥
आकाशादपतद राम शिवेशिवशिरस्युत॥1/43/5॥
नैव सा निर्गमं लेभे जटामण्डलमन्तत:॥1/43/9॥
अर्थात् इसका पारंपरिक अर्थ यह है कि हिमवान की अत्यधिक बलशाली सबसे बड़ी पुत्री गंगा बहुत
बल के साथ नीचे उतरी। आकाश से गंगा भगवान् शिव के सिर पर अवतरित हुई। शिव की जटाओं में
घूम-घूमकर गंगा को कई वर्षों तक मार्ग नहीं मिल पाया। यदि हम महर्षि वाल्मीकि की अद्भुत तुलनात्मक
क्षमताओं को समझते हुए इसका सार्थक एवं वास्तिविक अर्थ निकालें तो यहाँ पर हेमवती ज्येष्ठा
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 79

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(गंगा की कहानी की वास्तविकता एवं दिव्यता को समझने के लिए इस चित्र को देखें)
चित्र-17 ः गंगोत्तरी पर सूर्यास्त : गोमुख की तरफ गंगा घाटी को देखते हुए, अँगूठे की आकृतिवाली भगीरथ चोटी बाईं ओर
एवं सर्पाकार ग् लेशियरों वाला शिवलिंग पर्वत दाईं ओर है (चित्र सौजन् य ©Nick Barootian)

(हिमालय की सबसे बड़ी पुत्री) शब्द को गंगा के लिए प्रयोग किया गया है और शिव के मस्तक शब्द का
प्रयोग शिवलिंग की चोटी के लिए किया गया है। जटामंडल का संबंध सर्पाकार ग्ले​ि शयरों से है। इसलिए
इन शलोकों का वास्तविक अर्थ यह है कि पावन-पवित्र गंगा स्वर्ग जैसी ऊँची शिवलिंग की पहाड़ियों से
सर्पाकार ग्लेशियरों पर अत्यधिक बल से अवतरित हुई और उसके बाद पृथ्वी पर प्रवाहित होने का मार्ग न
मिल पाने के कारण बहुत लंबे समय तक ग्ले​ि शयरों में घूमती रही।
प्रारंभिक काल में, भगीरथ ने निराशा का अनुभव किया, क्योंकि गंगा पृथ्वी पर जानेवाले मार्ग पर
प्रवाहित नहीं हो रही थी। परिणामस्वरूप राजा भगीरथ निराश थे क्योंकि वे अपने पूर्वज राजा सगर के
आदेश पर गंगा के लिए मार्ग खोदते हुए अपने प्राणों से हाथ धो बैठे 60 हजार सैनिकों को जलांजलि नहीं
दे पा रहे थे। सम्राट भगीरथ ने और अधिक खोजबीन की और अंत में वे उस मार्ग को पहचानने तथा उस
मार्ग को आंशिक रूप से बनाने में सफल हो गए, जिससे शिवलिंग पर्वत से गंगा जल को मैदानों की ओर
ले जाया जा सके। इस मार्ग से गंगा का जल शिवलिंग पर्वत तथा गंगोत्तरी से पश्चिम बंगाल तक राजा सगर
80 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

द्वारा खुदवाए गए लंबे मार्ग से ले जाया जा सकता था। अपने रथ पर सवार होकर राजा भगीरथ इस खोदे
गए मार्ग पर आगे बढ़ते गए और जिस-जिस दिशा में राजा भगीरथ आगे बढ़ रह थे, उधर ही उनके पीछे-
पीछे गंगा भी उसी दिशा में प्रवाहित हो रही थी (वा.रा.1/44/30,31,33)। राजा सगर के सैनिकों द्वारा खोदे
गए मार्ग से गुजर कर अंतत: गंगा बड़े वेग से रसातल (आधुनिक गंगा सागर क्षेत्र) में जा पहुँची, जहाँ
कपिल मुनि का आश्रम स्थित था। इस विषय पर रामायण के कुछ श्लोकों का संदर्भ लेना उचित रहेगा।
भगीरथो हि राजर्षिर्दिव्यं स्यन्दनमास्थितः॥ 1/43/30॥
प्रायादग्रे महातेजास्तं गङ्गा पृष्ठतोऽन्वगात्॥ 1/43/31॥
यतो भगीरथो राजा ततो गङ्गा यशस्विनी॥ 1/43/33॥
स गत्वा सागरं राजा गङ्गयानुगतस्तदा।
प्रविवेश तलं भूमेर्यत्र ते भस्मसात्कृताः॥ 1/44/1॥
अर्थात् राजर्षि महाराज भगीरथ अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ हो आगे-आगे चल रहे थे, जबकि गंगाजी
उनके पीछे-पीछे चली जा रही थीं। जिस भी दिशा में भगीरथ आगे बढ़ रहे थे, उसी दिशा में गंगा भी
प्रवाहित होती रही। इस प्रकार राजा भगीरथ के रथ का अनुसरण करते हुए, गंगा उस स्थान पर पहुँच गई,
जहाँ राजा सगर के आदेश से गहन खुदाई करते हुए उनके पुत्रों जैसे सैनिकों की मृत्यु हुई थी।

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तत्पश्चात् उन 60 हजार मृत सैनिकों के अस्थि अवशेष गंगा के पवित्र जल में पूर्णत: बह गए और
राजा भगीरथ उन्हें जलांजलि देने की अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने में सफल हुए। उस समय भगवान् ब्रह्म‍ा ने
यह कहते हुए राजर्षि भगीरथ के अथक प्रयासों की सराहना की कि गंगा को ‘भगीरथी’ के नाम से भी जाना
जाएगा और इसे त्रिपथगा के नाम से भी जाना जाएगा, क्योंकि इसने तीन क्षेत्रों से अपना मार्ग बनाया है।
गङ्गा त्रिपथगानाम दिव्या भगीरथीति च।
त्रीन‍् पथो भावयन्तीति तस्मात‍् त्रिपथगा स्मृता॥ 1/44/6॥
अर्थात् गंगा को भगीरथी और त्रिपथगा नामों से जाना जाएगा, क्योंकि गंगा तीन क्षेत्रों अर्थात्् गगन
चुंबी पर्वत, पृथ्वी और रसातल को पवित्र करते हुए बहती है।
यहाँ पर यह ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के बालकांड के सर्ग
39-45 में बड़े मनोहर ढंग से गंगा के जल को पूर्व की ओर बहाने हेतु सूर्यवंशी राजाओं द्वारा किए गए
प्रयासों का अभूतपूर्व वर्णन किया है, जिसमें आस्था तथा वैज्ञानिक तथ्यों का अद्भुत सम्मिश्रण था। उन्होंने
कहा—स्वर्ग जैसी ऊँची शिवलिंग की पहाड़ियों से पिघलकर शिवजी की जटाओं जैसे उलझे हुए ग्लेशियरों
में घूमने के बाद गंगा का पानी सूर्यवंश के 44वें राजा भगीरथ के प्रयत्नों से राजा सगर (40वें राजा) द्वारा
खुदवाए गए मार्ग से धरती पर प्रवाहित हो गंगासागर में जा मिला। जो इस वृत्तांत का दैवीय प्रस्तुतीकरण
चाहते हैं, उनके लिए गंगा (भगीरथी) स्वर्ग से उतर कर भगवान् शंकर की जटाओं में उलझी, फिर भगीरथ
की तपस्या से धरती पर अवतरित हो समुद्र तक बह गई। वैज्ञानिक व तर्कसंगत अर्थ निकालनेवालों के
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 81

लिए गंगा का जल गगनचुंबी शिवलिंग पर्वत की चोटियों से पिघलकर गोमुख तथा गंगोत्तरी ग्लेशियरों के
घुमावदार रास्तों से होता हुआ, राजा भगीरथ के प्रयत्नों से उत्तर पूर्वी भारत के मैदानों से बहकर रसातल
में जा मिला। महामुनि विश्वामित्र द्वारा राजकुमारों को सुनाई गई पवित्र गंगा की संपूर्ण कहानी की संपुष्टि
आधुनिक बहुआयामी वैज्ञानिक साक्ष्यों से भी होती है।

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गंगा नदी की कहानी की पुष्टि करनेवाले वैज्ञानिक साक्ष्य


खगोल विज्ञान, समुद्र विज्ञान, भू विज्ञान, पुरातत्त्व विज्ञान, दूर संवदे ी चित्रों आदि सहित अनेक
साहित्यिक तथा वैज्ञानिक साक्ष्यों से रामायण में वर्णित गंगा की इस कहानी की संपष्ु टि होती है। श्रीराम के
जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय महर्षि वाल्मीकि ने जिन खगोलीय स्थितियों को चित्रित किया है,
उन्हें 5100 वर्ष ई.पू. के आस-पास आकाश में क्रमिक रूप से देखा जा सकता था। श्रीराम सूर्यवश ं ी परंपरा
के 64 वें शासक थे। राजा सगर इसके 40वें और भगीरथ 44वें शासक थे। (वंशावली इसी अध्याय में आगे
दी गई है) इसलिए, यदि हम सूर्यवश ं के 20 राजाओं के लिए 40-50 वर्ष का कार्यकाल निर्धारित करते हैं,
तो गंगा नदी लगभग 6000 वर्ष ई.पू. के आसपास हिमालय से निकालकर बंगाल की खाड़ी तक प्रवाहित
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हुई। समुद्र के जलस्तर में उतार-चढ़ाव से उपरोक्त जानकारी की पुष्टि होती है और यह स्पष्ट रूप से ज्ञात
होता है कि 8000 वर्ष पूर्व से लेकर 7000 वर्ष पूर्व (अर्थात् 6000 वर्ष ई.पू. से 5000 वर्ष ई.पू.) के दौरान
समुद्र के जलस्तर में अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (एन.आई.ओ.), गोआ द्वारा
तैयार किया गया समुद्र जलस्तर का नूतन युग का वक्र नीचे दिया गया है।23-24 (देखें चित्र-18)
यह वक्र नूतन युग के पिछले 15000 वर्षों के दौरान समुद्र के जलस्तर में उतार-चढ़ाव को दर्शाता
है। 9500 वर्ष पूर्व से 8000 वर्ष पूर्व के दौरान समुद्र के जलस्तर में 20 मीटर की बढ़ोतरी हुई थी। इस वक्र
के अनुसार 8000 वर्ष पूर्व से 7000 वर्ष पूर्व के बीच समुद्र के जलस्तर में 8 मीटर की अतिरिक्त वृद्धि
हुई।25 आश्चर्यजनक बात यह है कि वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में भी इस घटना का उल्लेख किया
गया है, जब विभीषण ने श्रीराम को बताया था कि सेतु के निर्माण के लिए समुद्र उथले जलमार्ग को अवश्य
उजागर करेगा, क्योंकि श्रीराम के सूर्यवंशी पूर्वजों द्वारा ही समुद्र के जल स्तर का संवर्धन किया गया था
(6/19/31, 6/22/50)। इससे संबंधित श्लोक नीचे दिया गया है—
खानितःसगरेणायाम प्रमेयो महोदधिः।
कर्तुरमर्ह तिरामस्य ज्ञातेः कार्यंमहोदधिः॥ 6/19/31॥
अर्थात् इस विशाल महासागर को श्रीराम के पूर्वज राजा सगर ने खुदवाया था तथा इसमें जल का
संवर्धन किया था। इसलिए सेतु का निर्माण करने के लिए उथला क्षेत्र दिखाकर समुद्र श्रीराम के कार्य को
संपन्न कराने में अवश्य सहायता करेगा।
82 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-18 ः आर. 2012, निगम (http://bit.ly/2r8ke1A)

कई अन्य साहित्यिक साक्ष्य तथा इनके तिथिकरण भी इन विवरणों का समर्थन करते हैं। ऋग्वेद के
पहले नौ मंडलों में सरस्वती को सबसे अधिक शक्तिशाली और पूजनीय नदी बताया गया है, जबकि सिंधु
नदी को दूसरी महत्त्वपूर्ण नदी के रूप में वर्णित किया गया है। ऋग्वेद के दसवें मंडल से ही गंगा नदी
का नाम दिया गया है, जिसमें क्रमिक रूप से उल्लिखित दस नदियों को प्रार्थना अर्पण की गई है—गंगा,
यमुना, सरस्वती, सतलुज, रावी, चिनाब, मरुवृद्धा, झेलम, व्यास और सिंधु (ऋग्वेद—10/75/5)26-28।
ऋग्वेद के पहले छह मंडलों में खगोलीय संदर्भों की खगोलीय तिथियों ने यह दर्शाया है कि 7000 वर्ष
ईस्वी पूर्व (अर्थात्् 9000 वर्ष पूर्व) के आसपास इन मंडलों की रचना की गई होगी, जबकि ऋग्वेद के
बाद के मंडलों में इन मंत्रों की खगोलीय तिथियाँ 6000 ईस्वी पूर्व अर्थात् 8000 वर्ष पूर्व के आसपास से
संबंधित हैं (भटनागर, अशोक)29। इसलिए यह स्पष्ट है कि 6000 वर्ष ईस्वी पूर्व गंगा का जल मंदाकिनी
और अलकनंदा के जल को आत्मसात् करने के पश्चायत बंगाल की खाड़ी तक प्रवाहित होना शुरू
हो गया था। उस समय तक यमुना नदी शायद गंगा में शामिल नहीं हुई थी। परंतु विवर्तनिक हलचलों,
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 83

भूकंपों, तथा बारवानी-जैसलमेर फॉल्ट लाइन के कारण यमुना नदी सरस्वती से अलग होकर पूर्व की
ओर बहने लगी तथा धीरे-धीरे गंगा नदी में जा मिली।
भू-वैज्ञानिक और जल वैज्ञानिक साक्ष्यों से भी उपर्युक्त निष्कर्षों की संपुष्टि होती है। 5100 ईस्वी
पूर्व के आसपास जब श्रीराम बनवास जाते समय संगम के किनारे रहनेवाले ऋषि भारद्वाज से मिलने गए
थे, उस समय यमुना नदी पहले से ही गंगा नदी में मिल चुकी थी। (वा.रा. 21/54/6) आरआरएससी-
डब्ल्यू, एनआरएससी/इसरो (RRSC-W, NRSC/ISRO), जोधपुर द्वारा लिए गए भारत की नदियों
के पुरामार्गों के दूर संवेदी चित्र भी गंगा नदी के इन ऐतिहासिक विवरणों का समर्थन करते हैं। पुरातत्त्व
विभाग, सेडिमेंटोलॉजी और हाइड्रॉलोजी से संपुष्ट ऑप्टिकल सेटैलाइट डाटा और माइक्रोवेव डाटा के
आधार पर डाॅ. जे.आर. शर्मा और डॉ. बी.के. भद्रा ने यह व्याख्या की है कि वर्तमान समय के सिंधु नदी
तंत्र की तरह, वैदिक सरस्वती नदी तंत्र 6000 वर्ष ईस्वी पूर्व के आसपास पूर्ण ऐश्वर्य के साथ प्रवाहित
हो रहा था। इस शक्तिशाली नदी प्रणाली ने हिमालय से अरब सागर तक 1500 से अधिक कि.मी. की
दूरी को तय किया; यमुना और सतलुज इसकी सहायक नदियाँ थीं। विर्वतनिक प्रभावों और कई फॉल्ट
रेखाओं के कारण यमुना नदी सरस्वती से अलग होकर धीरे-धीरे पूर्व की ओर बहने लगी और फिर गंगा
नदी में जा मिली। उधर सतलुज पश्चिम की ओर बहने लगी और धीरे-धीरे व्यास के माध्यम से सिंधु में
जा मिली।30-31
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इन निष्कर्षों की परिपुष्टि करनेवाले अनेक पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिनके अनुसार, 6000 वर्ष
ईस्वी पूर्व के पश्चात् किसी समय में सरस्वती नदी के स्थान पर गंगा नदी सबसे अधिक शक्तिशाली और
सर्वाधिक पूजनीय नदी बन गई थी। यहाँ पर प्रत्येक पुरातात्विक स्थल का विवरण दिए जाने की आवश्यकता
प्रतीत नहीं होती। सिंध,ु सरस्वती और गंगा नदी तंत्रों के प्राचीन तटों पर उत्खनित पुरातात्त्विक स्थलों का नीचे
दिया गया, मानचित्र सही एवं वास्तविक स्थिति स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। सिंधु क्षेत्र से (जैसे मेहरगढ़)
और सरस्वती क्षेत्र से (जैसे भिराना और राखीगढ़ी) के किनारे उत्खनित प्राचीन स्थलों से प्राप्त किए गए
पुरावशेष 7000-6000 ईस्वी पूर्व (9000-8000 वर्ष पूर)्व की तिथियाँ संस्कृति के विकास की शुरुआत
के लिए दर्शाते हैं, लेकिन लहुरादेवा, कोल्डीहवा और झूस्सी जैसे मध्य गंगा के मैदानों से लगभग 5000
वर्ष ई.पू. (7000 वर्ष पहले) से संबधि ं त सांस्कृतिक गतिविधियों के साक्ष्य मिले हैं।32-33 (देखें चित्र-19)
भू-वैज्ञानिक और जल वैज्ञानिक साक्ष्यों से भी उपर्युक्त निष्कर्षों की संपष्ु टि होती है। सर्वाधिक
प्रतिष्ठित भू-वैज्ञानिक प्रो. के.एस. वल्दिया ने यह विस्तार से बताया है कि किस प्रकार सरस्वती से
यमुना तथा दृशद्वती का जल लेकर गंगा नदी सरस्वती के स्थान पर सर्वाधिक पूजनीय नदी बन गई।34
वास्तव में, यमुना नदी बहुत तेजी से अपना मार्ग बदल रही है। महाभारतकाल के पश्चात् यमुना नदी ने
10 से 40 कि.मी. तक अपना मार्ग बदल लिया है। डॉ. वल्दिया (पद्मश्री) ने यह निष्कर्ष निकाला है कि
प्राचीन ऋग्वैदिक युग में सरस्वती और सिंधु सबसे शक्तिशाली नदियाँ थीं, जबकि उत्तर वैदिक युग और
84 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-19 ः नौवीं से चौथी सहस‍्राब्दी ई.पू. के दौरान दक्षिण एशिया के उत्तरवर्ती स्थलों को
दर्शाता हुआ चित्र (सौजन्य : बी.आर. मणि)

रामायण काल में गंगा, सिंधु और सरस्वती को शक्तिशाली नदियों के रूप में पूजा जाने लगा था। धीरे-धीरे
सरस्वती नदी लुप्त हो गई, क्योंकि इसका अविरल प्रवाह बंद हो गया था। गंगा नदी मानवता की जीवन धारा
एवं उसकी उद्धारक के प्रतीक के रूप में उभरकर सामने आई। स्वाभाविक रूप से उसके पश्चात् गंगा को
देवी रूप में पूजा जाने लगा।35
v
लक्ष्मण सहित श्रीराम ने गंगा की इस अद्भुत कहानी को सुना और उक्त कहानी पर विचार-मनन
करते हुए पूरी रात्रि जागते रहे। प्रात:काल होते ही श्रीराम ने गंगा की इस पवित्र एवं रोचक कहानी सुनाने के
लिए ऋषि विश्वामित्र का आभार व्यक्त किया। उन्होंने नदी पार करने के लिए मुनियों द्वारा भेजी गई नाव से
नदी पार करने का सुझाव भी दिया।
राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र, अन्य ऋषि मुनियों को साथ लेकर, उन नावों में बैठकर गंगा के दूसरे
तट पर पहुँच गए। अपनी यात्रा जारी रखते हुए, ये सभी वैशाला नगरी पहुँच।े राजा सुमति के आदरणीय
मेहमानों के रूप में वैशाला में 12वीं रात्रि व्यतीत करने के पश्चात् वे अगले दिन अहल्या और गौतम के
आश्रम में पहुँच।े अहल्या अपने पति ऋषि गौतम द्वारा त्याग किए जाने के पश्चात् बीमार और शिला की
तरह अचल हो गई थी। वह दीर्घकाल से तपस्या कर रही थी। (वा.रा. 1/51/4) जब श्रीराम ने उसकी
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 85

कुटिया में प्रवेश किया और अपने रोग हरनेवाले हाथों से अहल्या को स्पर्श किया, तब वह अचानक ही ठीक
एवं स्वस्थ हो उठी और पूर्णिमा के चाँद की तरह सुदं र दिखाई देने लगी। उसी समय ऋषि गौतम भी अपने
आश्रम में लौट आए। उन्होंने अपनी स्वस्थ एवं सुदं र पत्नी को पुन: स्वीकार किया। उन दोनों ने श्रीराम का
धन्यवाद किया और उनकी विधिवत् पूजा-अर्चना की।

6. श्रीराम द्वारा विश्वप्रसिद्ध शिवधनुष का भंजन, सीता के साथ उनका विवाह संपन्न
श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्रजी को आगे करके महर्षि गौतम के आश्रम से उत्तर-पूर्व की ओर
आगे बढ़ते गए और मिथिला नरेश के यज्ञमंडप में जा पहुँचे। वहाँ लक्ष्मण सहित श्रीराम ने मुनि श्रेष्ठ
विश्वामित्र के समक्ष राजा जनक के भव्य यज्ञ समारोह के आयोजन की प्रशंसा की। राजा जनक और
उनके पुरोहित शतानंद (अहल्या और गौतम ऋषि के पुत्र) ने ऋषि विश्वामित्र को उच्‍च आसन प्रदान
करते हुए उनका भव्य स्वागत किया। राजा जनक साधुवृत्ति के सज्जन राजा थे, उन्होंने बताया कि यज्ञ
अनुष्ठान के लिए तैयारियाँ पूर्ण कर ली गई हैं और यज्ञदीक्षा पूर्ण होने में बारह दिन ही शेष रह गए हैं।
उन्होंने ऋषि विश्वामित्र से बारह दिनों के लिए राजा जनक का आतिथ्य स्वीकार करने का अनुरोध किया।
श्रीराम और लक्ष्मण को देखकर राजा जनक ने कुशिकनंदन विश्वामित्र से पूछा, “देवता के समान
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पराक्रमी और सुंदर धनुष धारण करनेवाले यह दोनों ही कमलनयनोंवाले राजकुमार सिंह के समान
शक्तिशाली व यशस्वी दिखाई देते हैं तथा अपने मनोहर रूप से अश्विनीकुमारों को भी लज्जित कर रहे
हैं। देवलोक से उतरकर पृथ्वी पर आए हुए देवताओं के समान दिखाई देनेवाले सुंदर व पराक्रमी ये दोनों
राजकुमार किसके पुत्र हैं और यहाँ कैसे, किसलिए अथवा किस उद्देश्य से पैदल ही पधारे हैं? मैं इन
दोनों वीरों का परिचय यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ।” महात्मा जनक का यह प्रश्न सुनकर महामुनि
विश्वामित्र ने बताया कि वे दोनों अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र हैं। विश्वामित्र ने राजा जनक से
दोनों राजकुमारों के सिद्धाश्रम में निवास, राक्षसों के वध, बिना किसी घबराहट के मिथिला तक आगमन,
विशाला पुरी के दर्शन, अहल्या से साक्षात्कार और महर्षि गौतम के साथ समागम आदि का विस्तारपूर्वक
वर्णन किया। फिर अंत में यह भी बताया कि राजा जनक के यहाँ रखे हुए अनन्य शिव धनुष के संबंध
में ये दोनों राजकुमार कुछ जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं।
राजा जनक ने दोनों पराक्रमी एवं सुंदर राजकुमारों को मिथिला लाने के लिए ऋषि विश्वामित्र का
आभार व्यक्त किया और तत्पश्चात‍् रात्रि विश्राम के लिए वे अपने कक्ष में चले गए। दूसरे दिन प्रभात
काल आने पर राजा जनक ने अपना नित्य नियम पूरा कर श्रीराम और लक्ष्मण सहित ऋषि विश्वामित्र
को बुलाया और शास्त्रीय विधि के अनुसार महामुनि तथा उन दोनों राजकुमारों का स्वागत किया। उस
समय मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने राजा जनक से फिर कहा कि राजा दशरथ के दोनों पुत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय
वीर हैं तथा मिथिला में रखे विश्वविख्यात शिव धनुष को देखने की इच्छा रखते हैं। इसके पश्चात् राजा
86 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जनक ने भगवान् शिव के दिव्य धनुष की संप्राप्ति का वृत्तांत सुनाया और बताया कि किस प्रकार उनके
पूर्वजों द्वारा अधिग्रहीत वह धनुष उनको धरोहर में मिला है। उसके पश्चात् राजा जनक ने भगवान् शिव के
दिव्य धनुष और अपनी पुत्री सीता के साथ उसके संबंध को स्थापित करनेवाला वृत्तांत बताना जारी रखा।
राजा जनक ने बताया कि एक दिन वह यज्ञ के लिए भूमि की जुताई करते समय खेत में हल चला
रहे थे। उसी समय हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई और उस कन्या का नाम
सीता रखा गया। राजा जनक ने सीता का पालन-पोषण अपनी पुत्री की तरह किया। राजा जनक सीता
को एक सुंदर, सुशील, बहादुर तथा कुशल लड़की के रूप में बढ़ते हुए देखकर बहुत प्रसन्न होते थे।
सीताजी ने अपनी बाल्यावस्था में एक बार भगवान् शिव के धनुष को बड़ी आसानी से उठा लिया था।
सीताजी की इस उपलब्धि को ध्यान में रखते हुए राजा जनक ने अपनी सुंदर और प्रतिभाशाली पुत्री सीता
का विवाह विश्व के सबसे शक्तिशाली और बहादुर राजा से करने का संकल्प लिया। उन्होंने प्रण किया
कि वे सीताजी का विवाह उसी व्यक्ति से कराएँगे, जो शिव के शक्तिशाली धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा पाएगा।
राजा जनक ने क्षुब्ध मन से कहा कि इससे पहले कई राजकुमारों और राजाओं ने शक्तिशाली धनुष पर
बाण चढ़ाने का प्रयास किया, परंतु वे तो इस धनुष को हिला भी न सके। विवाह हेतु अस्वीकृत हो जाने
पर इन राजाओं ने एक बार मिथिला को घेर लिया था, लेकिन राजा जनक की चतुरंगिणी सेना, जिसमें
पैदल, घुड़सवार, हाथीसवार, रथसवार सैनिक शामिल थे, ने सभी को परास्त कर दिया।
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सीताजी के विवाह से संब​ि‍ं धत इस वृत्तांत को सुनने के पश्चात् कुशिकनंदन ऋषि विश्वामित्रजी ने राजा
जनक से उस दिव्य धनुष को श्रीराम को दिखाने का अनुरोध किया, क्योंकि विश्वामित्रजी को विश्वास था
कि श्रीराम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देंगे और सीताजी से विवाह करेंग।े राजा जनक ने विश्वामित्र के शब्दों
के आशय को समझा और मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए। इसके पश्चात् राजा जनक ने धनुष दिखाने के
लिए राजकुमार श्रीराम को आमंत्रित किया और कहा कि यदि वह इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा सकेंगे तो वे
राजकुमारी सीता का हाथ जीत लेंगे अर्थात् राजा जनक अपनी पुत्री सीता का विवाह श्रीराम से कर देंग।े
राजा जनक ने मंत्रियों को आज्ञा दी कि चंदन और मालाओं से सुशोभित वह दिव्य धनुष वहाँ लाया
जाए। राजा जनक की आज्ञा पाकर वह तेजस्वी मंत्री 8 पहियों वाले भारी भरकम संदूक, जिसमें धनुष
रखा हुआ था, को ले आए। राजा जनक ने बताया कि उस धनुष पर देवता, असुर, राजा, महाराजा बाण
संधान नहीं कर पाए हैं। इसके पश्चात् महामुनि विश्वामित्र से आज्ञा पाकर श्रीराम ने संदूक खोला और
उस धनुष को बीच से पकड़कर आसानी से उठा लिया और फिर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर महा यशस्वी
श्रीराम ने उस धनुष को कान तक खींचा तो इतने में ही भयंकर आवाज करता हुआ वह धनुष बीच
में से टूट गया। धनुष टूटते ही आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। राजा जनक ने प्रसन्न होकर यह
घोषणा कर दी कि उनकी परम प्रिय पुत्री सीता का विवाह उस कांतिमान एवं महाबलवान दशरथनंदन
राजकुमार श्रीराम के साथ होगा।
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 87

विश्वामित्र ने राजा जनक से कहा, “यह शुभ समाचार राजा दशरथ को सुनाने के लिए अयोध्या
में अपने शीघ्रगामी संदेशवाहकों को भेजो और उन्हें परिवार, मित्रों और मंत्रियों सहित आमंत्रित करो।”
राजा जनक के द्रुतगामी संदेशवाहक चौथे दिन ही अयोध्या पहुँच गए। वहाँ पर वह राजा दशरथ से
मिले। अपने सिंहासन पर बैठे हुए इंद्र के समान शोभायमान राजा दशरथ को संदेशवाहकों ने राजा
जनक का संदेश दिया, “कुशिकनंदन विश्वामित्र के साथ आए आपके पुत्र श्रीराम ने दिव्य शिव धनुष
पर बाण संधान कर उसे तोड़ डाला है। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैं अपनी सुंदर व सुशील पुत्री सीता
का विवाह श्रीराम से करना चाहता हूँ। विवाह संबंधी अनुष्ठान एवं समारोह शुरू करने के लिए हम
आपकी सगे-संबंधियों और दरबारियों के साथ उत्सुकता से मिथिला में प्रतीक्षा कर रहे हैं।” यह शुभ
समाचार सुनते ही राजा दशरथ पुलकित हो गए। उन्होंने मुनि वसिष्ठ और वामदेव सहित अपने मंत्रियों
को श्रीराम के पराक्रम के बारे में बताया और श्रीराम के द्वारा शिव का धनुष तोड़ने का वृत्तांत अत्यंत
गर्व से सुनाया और यह भी बताया कि राजा जनक अपनी पुत्री सीता का विवाह श्रीराम के साथ करना
चाहते हैं। इसके बाद राजा दशरथ ने सभी मुनियों और मंत्रियों से पूछा कि यदि उन सबको यह प्रस्ताव
मंजूर हो तो अगले दिन ही मिथिला की ओर यात्रा प्रारंभ कर देनी चाहिए। उन सभी मंत्रियों एवं मुनियों
ने बड़े हर्ष के साथ इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया।
रात्रि में राजा दशरथ ने सुमंत्र के साथ गुप्त परामर्श किया और उन्हें प्रचुर मात्रा में धन-दौलत,
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कीमती रत्न, रेशमीवस्त्र और आभूषण आदि मिथिला ले चलने के लिए कहा। उन्होंने अपने कोषाध्यक्ष
को सबसे आगे चलने के लिए कहा। जिसके पीछे चतुरंगिणी सेना, जिसमें पैदल, घुड़सवार, गजसवार
और रथसवार सैनिक थे, को ले जाने की आज्ञा दी। राजा दशरथ ने अपना रथ भी अद्वितीय रूप से
सजाने और अगले दिन ही मिथिला की ओर यात्रा के लिए प्रस्थान करने का आदेश दिया। दशरथ अपने
मंत्रियों, महर्षियों, पुरोहित वसिष्ठ तथा पुत्रों को लेकर सेना सहित चार दिनों में मिथिला पहुँच गए, जहाँ
पर उनका परम उत्साहपूर्ण और स्नेहपूर्ण स्वागत किया गया। राजा दशरथ का भव्य स्वागत करने के
पश्चात् राजा जनक ने दशरथ से कहा, “मेरा यज्ञ जल्दी ही समाप्त हो जाएगा। मेरा विचार है कि यज्ञ
पूरा होते ही विवाह करवाना श्रेष्ठ होगा” और उनकी सहमति माँगी। राजा दशरथ ने उत्तर दिया, “आप
वधू के पिता हैं और आप अपनी इच्छा के अनुसार निर्णय ले सकते हैं।”
राजा जनक ने अपने छोटे भाई एवं सांकाश्या देश के राजा कुशध्वज को मिथिला आने के लिए
पहले ही आमंत्रित कर रखा था। कुशध्वज अपनी दोनों पुत्रियों मांडवी एवं श्रुतकीर्ति के साथ शीघ्र ही
मिथिला पहुँच गए। राजा दशरथ गुरु वसिष्ठ के साथ राजा जनक और उनके भ्राता कुशध्वज से मिले।
उन्होंने इक्ष्वाकु-कुल के पूजनीय पुरोहित महर्षि वसिष्ठ का परिचय करवाते हुए वसिष्ठजी से सूर्यवंशी
राजाओं व रघुकुल की परंपराओं का परिचय राजा जनक से देने का आग्रह किया। गुरु वसिष्ठ ने प्रतिष्ठित
सूर्यवंशी शासकों की वंशावली बताते हुए इक्ष्वाकु कुल की महिमा का वर्णन किया (वा.रा. 1/70)36।
88 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

संदर्भ ः श्रीमदवाल्मीकीय रामायण बालकांड, सर्ग 70, श्रीमदभागवत महापुराण, सकंध 9, अध्याय
6 से 1237, तथा विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय 538 से विवरणों को शामिल करके सूर्यवंशी शासकों
की वंशावली निम्नलिखित तालिका में दी गई है। पंडित सीता राम शर्मा द्वारा रचित ‘अयोध्या का
इतिहास’39 में से भी संदर्भ लिए गए हैं—

1 मनु 17 सहंताश्व 33 हरिश्चंद्र 49 अयुतायुस


2 इक्ष्वाकु 18 अकृषाश्व 34 रोहित 50 ऋतपर्ण
3 विकुक्शी-शषाद 19 प्रसेनजित 35 हरित केनकु 51 सर्वकाम
4 ककुत्स्थ 20 युवनाश्व (दूसरा) 36 विजय 52 सुदास
5 अनेनस 21 मान्धातृ 37 रुरुक 53 मित्राशा
6 पृथु 22 पुरुकुत्स 38 वृक 54 अस्मक
7 विश्वरास्व 23 त्रसदस्यु 39 बाहु 55 मूलक
8 आर्द्र 24 संभूत 40 सगर 56 सतरथ
9 युवनाष्व (प्रथम) 25 अनरण्य 41 असमंजस 57 अदिविद
10 श्रावस्त 26 त्राशदश्व 42 अंशुमान 58 विश्वसह (प्रथम)
11
12
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वृहदष्व
कुवलष्व
27
28
हर्यश्व (दूसरा)
वसुमाता
43
44
दिलीप (प्रथम)
भगीरथ
59
60
दिलीप (दूसरा)
दीर्घबाहु
13 दृधाष्व 29 तृधन्वन 45 श्रुत 61 रघु
14 प्रमोद 30 त्रैयारुण 46 नाभाग 62 अज
15 हर्यष्व (प्रथम) 31 त्रिशंकु 47 अंबरीश 63 दशरथ
16 निकुंभ 32 सत्यव्रत 48 सिंधुद्वीप 64 राम

राजा जनक ने भी राजा निमि से लेकर अपनी वंशावली का वर्णन किया और उन्होंने सुकेतु,
देवरात, सुधृति, धृष्टिकेतु, हर्यश्व, स्वर्णरोमा और ह्रस्वरोमो समेत अपने तीस से भी अधिक प्रतिष्ठित
पूर्वजों का गुणगान किया। रामायण के समय से ही, लगभग 7000 वर्षों से भी अधिक समय पहले से
भारत में विवाह आदि अनुष्ठान का आरंभ करने से पहले पूर्वजों के नामों का स्मरण और वर्णन करने
की परंपरा आज तक उसी तरह चली आ रही है।
राजा जनक ने अपनी पहली प्रिय पुत्री सीता का विवाह श्रीराम से और अपनी दूसरी पुत्री उर्मिला
का विवाह लक्ष्मण से करने का प्रस्ताव रखा। राजा दशरथ ने प्रसन्नता के साथ राजा जनक के प्रस्ताव
को स्वीकार किया। उस शुभ समय पर राजा जनक ने यह सुझाव दिया कि 3 दिन पश्चात् उत्तर फाल्गुनी
नक्षत्र उदीयमान होगा और वह समय विवाह संबंधी अनुष्ठानों के लिए अत्यंत शुभ एवं मंगलकारी
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 89

होगा। उसी समय गुरु वसिष्ठ की सहमति से ऋषि विश्वामित्र ने कहा कि इक्ष्वाकु और निमि दोनों वंश
महान्, शक्तिशाली और धर्मज्ञ हैं। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि राजा जनक के भाई और सांकाश्या
देश के राजा कुशध्वज की दोनों पुत्रियों का विवाह भरत और शत्रुघ्न से कर दिया जाए। राजा जनक
ने अपने भाई कुशध्वज की सहमति के साथ इस प्रस्ताव को भी बड़े हर्ष से स्वीकार किया और दोनों
महान् ऋषियों के प्रति अपना आभार व्यक्त किया।
राजा जनक की सराहना करते हुए राजा दशरथ ने अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करने के लिए
अपने कक्ष में जाने की अनुमति माँगी। उन्होंने विधिपूर्वक श्राद्ध करने के पश्चात् अपने चारों पुत्रों के
मंगल की कामना करते हुए अनेक गौएँ दान में दीं। उसी दिन कैकेयी के भाई एवं भरत के मामा
पराक्रमी युधाजित ने भी मिथिला में पधारकर राजा दशरथ और चारों राजकुमारों के उत्सव में शामिल
होकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।
तत्पश्चात् अपने महामनस्वी पुत्रों के साथ रात्रि व्यतीत कर प्रात:काल नित्य कर्म पूर्ण कर राजा
दशरथ राजा जनक की यज्ञशाला में पहुँचे। कुछ समय पश्चात् मुनि वसिष्ठ के साथ दूल्हों की वेशभूषा
से अलंकृत चारों राजकुमार भी वहाँ पधारे। तभी मुनि वसिष्ठ ने राजा जनक को सूचित किया कि
विवाहसूत्र बाँधने का मंगलाचार संपन्न करने के पश्चात् राजा दशरथ अपने चारों पुत्रों के साथ पधार
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चुके हैं तथा भीतर आने के लिए आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजा जनक ने उत्तर दिया,
“मेरी कन्याएँ मंगलसूत्र बाँधकर यज्ञवेदी के पास आकर बैठी हैं। मैं राजा दशरथ, चारों राजकुमारों
और आप सभी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अत: उन सभी को तुरंत सादर अंदर लाइए।” उसके पश्चात्
राजा जनक की कही हुई बात को वसिष्ठजी के मुख से सुनकर महाराज दशरथ अपने पुत्रों, मुनियों
और मंत्रियों को महल के भीतर विवाह की यज्ञवेदी के समीप ले आए।
वसिष्ठ मुनि ने विश्वामित्र और धर्मात्मा शतानंदजी को आगे करके विवाह मंडप के मध्य भाग
में विधिपूर्वक वेदी बनाई तथा विवाह संबंधी अनुष्ठानों को संपन्न कराया। इसके पश्चात् राजा जनक
ने सभी प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीता को लाकर अग्नि के समक्ष श्रीरामचंद्रजी के सामने बिठा
दिया और उनसे कहा, “रघुनंदन, तुम्हारा कल्याण हो, यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप
में उपस्थित है। इसे स्वीकार करो और उसका हाथ अपने हाथ में ले लो, यह परम पतिव्रता, महान्
सौभाग्यवती और छाया की भाँति सदा तुम्हारे पीछे चलनेवाली होगी।” फिर राजा जनक ने उर्मिला का
हाथ लक्ष्मण, मांडवी का हाथ भरत और श्रुतकीर्ति का हाथ शत्रुघ्न को सौंप दिया। राजा जनक का
यह वचन सुनकर उन चारों राजकुमारों ने चारों राजकुमारियों के हाथ अपने-अपने हाथ में लिए। (देखें
300 वर्ष पुराना एक लघुचित्र।)
90 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

मिथिला में राजा जनक के महल में चारों राजकुमारों का विवाह होते हुए

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लघुचित्र-2 ः 18वीं शताब्दी, मंडी शैली, शंगरी रामायण से चित्र, अधिप्राप्ति संख्या 62.2436; सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय

फिर मुनि वसिष्ठजी के दिशा-निर्देश से रघुकुल के चारों राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नियों के


साथ अग्नि, वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि-मुनियों की परिक्रमा की और वेदोक्त विधि के अनुसार वैवाहिक
समारोह संपन्न किया। उस समय आकाश से पुष्पों की सुहावनी वर्षा हुई। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं, गीतों
के मनोहर शब्द, वाद्य यंत्रों की मधुर ध्वनि के बीच में वर तथा वधुओं ने अग्नि के चारों ओर परिक्रमा
करके विवाह कार्य संपन्न किया।
आधुनिक समय में मिथिला नेपाल के जनकपुर में स्थित है, जबकि राजा जनक का राज्यक्षेत्र भारत
के बिहार राज्य के बड़े भाग और निकटस्थ नेपाली मिथिला प्रांत में फैला हुआ था। इनमें मधुबनी, सीता-
मरही, नेपाल का जनकपुर और बिहार के जनकपुर के आधुनिक नगर शामिल थे।
विवाह आदि अनुष्ठान पूर्ण होने के पश्चात् ब्रह्म र्षि विश्वामित्र ने राजा दशरथ और राजा जनक से
अनुमति लेकर हिमालय पर्वत पर अपने आश्रम के लिए प्रस्थान किया। राजा दशरथ ने अपने पुत्रों और
उनकी नवविवाहित पत्नियों के साथ अयोध्या के लिए प्रस्थान की तैयारी शुरू की। उस समय राजा जनक
ने अत्यंत मूल्यवान उपहार भेंट किए, जिनमें कालीन, रेशमी वस्त्र, चाँदी, सोने तथा रत्नों के आभूषण, मोती
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 91

तथा कीमती मूँगे, घोड़े और रथ आदि शामिल थे। सभी ऋषियों और सेना के साथ राजा दशरथ ने अपने
चारों पुत्रों और उनकी पत्नियों के साथ अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।
मार्ग में अत्यंत क्रोधी एवं क्षत्रियों के कट्टर दुश्मन परशुराम गुस्से से लाल हुए और हाथ में कुल्हाड़ी
लिए अचानक ही उनके समक्ष प्रकट हो गए। मुनि वसिष्ठ और अन्य ऋषियों ने परशुराम का अभिवादन
किया। परशुराम श्रीराम द्वारा भगवान् शिव के दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने और उसे तोड़ने के कारण
अत्यंत क्रोध में थे। परशुराम ने श्रीराम को उनसे अकेले युद्ध करने की चुनौती दी। राजा दशरथ चिंतित
होकर परशुराम से अपने किशोर पुत्रों के लिए दया की याचना करने लगे। उस समय परशुराम ने विष्णु
धनुष की कहानी सुनाई और उन्होंने श्रीराम को विष्णु धनुष पर भी बाण संधान करने की चुनौती दी।
भगवान् विष्णु के धनुष पर बाण चढ़ाते हुए और उसे अमोघ घोषित करते हुए श्रीराम ने परशुराम से पूछा
कि इस बाण को किस स्थान में छोड़ा जाए। परशुराम के अनुरोध पर श्रीराम ने बाण उस दिशा में छोड़ा
जिसके कारण परशुराम की तीनों लोकों में स्वच्छंदता से आवागमन की शक्ति नष्ट हो गई। इस शक्ति को
परशुराम ने कठोर तपस्या से प्राप्त किया था। श्रीराम को भगवान् विष्णु का अवतार स्वीकार करते हुए
परशुराम अपनी तपस्या पुनः आरंभ करने के लिए महेंद्र पर्वत की ओर चले गए।
परशुराम द्वारा दी गई चुनौती का सामना अपने पराक्रमी पुत्र राम द्वारा इतनी दक्षता से किए जाने पर
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राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न तथा गर्वान्वित हो गए। श्रीराम ने विष्णु धनुष को जल में विसर्जित कर वरुण
देवता को भेंट कर दिया। इसके पश्चात् अपनी चतुरंगिणी सेना के संरक्षण में राजा दशरथ ने अपने चारों
पुत्रों और उनकी पत्नियों, ऋषियों तथा मंत्रियों के साथ अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। वहाँ पर उन सभी
का भव्य स्वागत किया गया। अयोध्या के सभी मार्गों को फूलों से सज्जित किया हुआ था और सड़कों पर
जल का छिड़काव भी किया गया था। पुष्पों एवं पताकाओं से समस्त अयोध्या नगरी को अलंकृत किया
गया था। अयोध्या के प्रमुख नागरिकों और मुनियों ने उन सभी का भव्य स्वागत किया। कौशल्या, सुमित्रा
और कैकेयी अत्यंत प्रसन्न थी और उन्होंने मंगल गीतों से गूँजती ध्वनि के साथ अपने पुत्रों तथा बंधुओं का
उत्साहपूर्वक व विधिपूर्वक स्वागत किया। महल में अपने-अपने कक्ष में प्रवेश करते समय आशीर्वचनों के
साथ राजकुमार तथा उनकी दुल्हनें रेशमी वस्त्रों में अति सुंदर दिखाई दे रहे थे।
राजा दशरथ के सभी पुत्र प्रतिभावान, पराक्रमी और धनुर्विद्या में पारंगत थे। सभी पुत्रवधुएँ सुंदर,
सुसभ्य और सदाचारी थीं। राजा दशरथ और उनकी तीनों पत्नियाँ-कौशल्या, कैकेयी तथा सुमित्रा चारों
पुत्रों और पुत्रवधुओं को बहुत लाड़-प्यार करते थे। उन सभी ने अपने निजी कक्षों में एकांत में तथा
संबं​ि‍धयों के साथ घुल-मिलकर अत्यंत सुखी एवं संपन्न जीवन व्यतीत किया। कुछ समय पश्चात् युधाजित
के निवेदन को स्वीकार करते हुए, राजा दशरथ ने भरत और शत्रुघ्न को उनकी पत्नियों के साथ कैकेय
प्रदेश में उनके मामा युधाजित के साथ रहने के लिए भेज दिया।
चारों राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नियों के साथ कई वर्षों तक सुखी जीवन व्यतीत किया। श्रीराम
92 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

और सीता को एक-दूसरे से अद्वितीय प्रेम हो गया था। यह कहना कठिन था कि उनके बीच का आपसी
प्रेम उनके गुणों के कारण घनिष्ठ हुआ था या फिर यह दैवीय प्रेम था। श्रीराम और सीता मन-ही-मन
एक-दूसरे से संवाद कर लेते थे। श्रीराम के प्रेम में आनंदित सीता स्वर्ग में विराजमान लक्ष्मी की तरह
यशस्वी दिखाई देती थीं। उन्होंने लगभग 9 वर्षों तक, जिनमें कई ऋतुएँ बीत गईं, अयोध्या में सुखी जीवन
व्यतीत किया। (वा.रा. 1/77/25)

संदर्भ सूची—
1. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का वर्तमान
से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता :
समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक—सरोज बाला, अशोक
भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर : पृष्ठ 1-8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyuJ6fF Zo&t=429s- डॉ. कलाम का भाषण,
भाग 1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU_m-X7Pc&t=10s- डॉ. कलाम का भाषण,
भाग 2
4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminaron-scientific-dating-ofancient.
MAGAZINE KING
html,http://bit.ly/2r8ke1A
5. अशोक भटनागर, 2011-2012.‘एस्ट्रॉनोमिकल डेटिंग ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स
यूजिंग प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर’। हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज
फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशंज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक—सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-
सर्व दिल्ली चैप्टर : पृष्ठ संख्या 55-80
6. http://bit.ly/2r8ke1A
7. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण, 2008 (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), गीता प्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
8. नरसिंह राव, 1990 ‘डेट ऑफ श्रीराम’, प्रकाशक-इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर द इन्वेस्टिगेशन ऑफ
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9. डॉ. बी.बी. लाल, ‘रामा; हिज हिस्टोरिसिटी, मंदिर ऐंड सेतु : एविडेंस ऑफ लिटरेचर, आर्केयोलॉजी ऐंड
अदर स्टोरीज’, नई दिल्ली : आर्यन बुक्स इंटरनेशनल (1 फरवरी, 2008)
10. मीनाक्षी जैन, 2013. ‘रामा ऐंड अयोध्या’, नई दिल्ली, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल
11. अयोध्या : 2002-03 संस्करण 1 : ए.एस.आई. (भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण)-2003
12. 2010 ए.डी.जे.1 (स्पेशल एफ.बी.) रामजन्मभूमि ऐंड बाबरी मस्जिद डिस्प्यूट : जजमेंट बाय इलाहाबाद
हाई कोर्ट स्पेशल फुल बेंच, संपादक—आशीष मल्होत्रा: मल्होत्रा लॉ हाउस, इलाहाबाद
13. श्रीमती मीनाक्षी जैन, 2017, ‘‘द बैटल फॉर रामा’’ नई ‌‌दिल्ली, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल
14. जे.एन. दीक्षित, ‘अयोध्या उत्खनन : पुनरावलोकन’; पुराप्रवाह, भारतीय पुरातत्त्व सोसाइटी की प्रतिष्ठित
पत्रिका-हिंदी में, क्रमांक 2, वर्ष 2017
श्रीराम का आरंभिक जीवन जन्म से लेकर विवाह • 93

15. एनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज्म, 2011, संस्करण XI, पृष्ठ 34, इंडियन हैरिटेज रिसर्च फाउंडेशन,
अमेरिका तथा रूपा ऐंड कंपनी द्वारा प्रकाशित
16. एनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज्म, 2010 इंडियन हैरिटेज रिसर्च फाउंडेशन, अमेरिका तथा रूपा ऐंड
कंपनी द्वारा प्रकाशित, संस्करण 1, पृष्ठ 156
17. श्रीमद्‍वाल्मीकीय रामायण, 2008 (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), बालकांड, सर्ग 22, श्लोक, 15, गीता
प्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
18. राकेश तिवारी, आर.के. श्रीवास्तव, के.के सिंह, 2001-2002, ‘एक्सकेवेशन एट लहुरादेवा, डिस्ट्रिक्ट संत
कबीर नगर’, पुरातत्त्व 32, पृष्ठ 54-62 (भारतीय पुरातत्त्व सोसाइटी की प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका)
19. राकेश तिवारी, आर.के. श्रीवास्तव, के.के. सिंह और के.एस. सारस्वत, 2005-06, “फर्दर एक्सकेवेशन
एट लहुरादेवा, डिस्ट्रिक्ट संत कबीर नगर”, प्रिलिमिनरी ऑब्जर्वेशन्ज; पुरातत्त्व 36, पृष्ठ 68-75
20. राकेश तिवारी, आर.के. श्रीवास्तव, के.के सिंह और के.एस. सारस्वत, 2007-2008. ‘अर्ली फार्मिंग एट
लहुरादेवा’, परागधारा 18, पृष्ठ 347-373, पुरातत्त्व महानिदेशालय, उत्तर प्रदेश की प्रतिष्ठित वार्षिक
पत्रिका
21. जे.एन. पाल, 2007-2008, ‘द अर्ली फार्मिंग कल्चर ऑफ द मिडल गंगा प्लेन विद स्पेशल रेफरेंस टू द
एक्सकेवेशन एट झुस्सी ऐंड हेट्टा-पट्टी”; परागधारा 18 पृष्ठ 263-281
22. पंडित भगवद्दत्त सत्यश्रवा, 2000, ‘भारतवर्ष का बृहद‍् इतिहास’, प्रणव प्रकाशन, नई दिल्ली, भाग 2;
पृष्ठ 58
MAGAZINE KING
23. राजीव निगम, वैज्ञानिक, NIO का लेख, 2012 ‘सी लेवल फ्लक्चूएशंज ड्‍यूरिंग लास्ट 15000 ईयर्ज ऐंड
देयर इंपैक्ट ऑन ह्य‍‍ूमन सेटलमेंट्स’ पुस्तक हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक
एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशंस टू द हाइट्स ऑफ स्काइज, संपादक—सरोज बाला, कुलभूषण
मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर; पृष्ठ 193-210
24. http://bit.ly/2r8ke1A
25. एन.एच. हाशमी, आर. निगम, आर.आर. नायर और सी. राजगोपालन, NIO और BSIP, ‘होलोसीन सी
लेवल फ्लकच्यूएशंज ऑन वेस्टर्न इंडियन कॉन्टिनेंटल मार्जिन : एन अपडेट’, जर्नल ऑफ जियोलॉजिकल
सोसाइटी, 46: अगस्त 1995, पृष्ठ 157-162
26. ऋग्वेद संहिता, सरल हिंदी भावार्थ सहित, संपादक—वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशक—
ब्रह्म‍वर्चस्, शांतिकुंज, हरिद्वार, उ.प्र. प्राचीन नदियों के आधुनिक नाम इस पुस्तक में उपलब्ध हैं।
27. संपादक—रवि प्रकाश आर्य और के.एल. जोशी, ऋग्वेद संहिता विद् इंग्लिश ट्रांसलेशन एकोर्डिंग टू
एच.एच. विल्सन, भाग-4 : परिमल प्रकाशन-प्राचीन नदियों के आधुनिक नाम इस पुस्तक में उपलब्ध हैं
28. https://en.wikipedia.org/wiki/Jhelum_River,http://www.thefullwiki.org/
Ravi_Riverhttps://www.gktoday.in/gk/rigvedic-name-and-modern-names-
of-indian-rivers/
29. अशोक भटनागर, 2011-2012, ‘एस्ट्रॉनोमिकल डेटिंग ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स
यूजिंग प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर’, हिस्टोरिसिटी अॉफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज
फ्रॉम द डेप्थ्स अॉफ ओशंज टू द हाइट्स अॉफ स्काईज, संपादक—सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-
सर्व दिल्ली चैप्टर, पृष्ठ संख्या 55-80
94 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

30. जे.आर. शर्मा और बी.के. भद्रा, 2009a, सैटेलाइट इमेजरी अॉफ सरस्वती : ट्रेसिंग लोस्ट रिवर,
जियोस्पेशियल टुडे, अप्रैल, 2009 : 18-20
31. जे.आर. शर्मा, बी.के. भद्रा, आरआरएससी-डब्ल्यू, इसरो, जोधपुर, 2012, ‘सिग्नेचर्स अॉफ पैलियो रिवर्स
नेटवर्क इन नॉर्थवेस्ट इंडिया यूजिंग सैटेलाइट रिमोट सेंसिंग’, हिस्टोरिसिटी अॉफ वैदिक ऐंड रामायण
एराज: साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स अॉफ ओशंज टू द हाइट्स अॉफ स्काईज, संपादक—सरोज
बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर : पृष्ठ संख्या 171-192
32. बी.आर. मणि, 2004-05, प्री हडप्पन विलेज सेटलमेंट्स ऐंड अर्ली फार्मिंग कम्यूनिटीज, इन नॉर्दर्न साउथ
एशिया (9th-4th मिलेनियम बीसी), पुरातत्त्व 35, पृष्ठ 7-20
33. बी.आर. मणि, 2006, कश्मीर नियोलिथिक ऐंड अर्ली हड़प्पन : ए लिंकेज, प्रागधारा 18 : 229-247,
पुरात्तव महानिदेशालय, उ.प्र. की प्रतिष्ठित वार्षिक पत्रिका
34. के.एस. वल्दिया, 2002 ‘सरस्वती—द रिवर दैट डिसअपीयर्ड’, हैदराबाद यूनिवर्सिटी प्रेस
35. के.एस. वल्दिया, 2002, एक थी नदी सरस्वती, दिल्ली : आर्यन बुक्स इंटरनेशनल
36. श्रीमद‍् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत, बाल कांड,
सर्ग 70, श्लोक 21-43
37. श्रीमद्भागवत महापुराण, पंडित रामतेज पांडेय द्वारा हिंदी अनुवाद, चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान, स्कंध 9,
अध्याय 6 से 12
38. विष्णु पुराण, के.एल. जोशी द्वारा अनुवाद, परिमल प्रकाशन; चतुर्थ अंश, अध्याय 5
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39. पंडित सीता राम शर्मा, 1932, ‘अयोध्या का इतिहास’, आर्य बुक डिपो द्वारा प्रकाशित

अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 95

अध्याय-2

अयोध्या का घटनाक्रम और
श्रीराम को चौदह वर्षों का वनवास
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“सामान्य रूप से, प्राचीन काल से मानव तथा उसकी
संस्कृति के विकास को समझने के लिए दो बिल्कुल अलग
तरीके अपनाए जाते रहे हैं। प्रथम है, पुरातात्त्विक उत्खननों
तथा प्रमाणों के माध्यम से और दूसरा है आनुवंशिक
अध्ययनों के आधार पर। आधुनिक समय में मानव जीनोम
के अानुक्रमिक विकास में नवीनतम अनुसंधानों के कारण
आनुवंशिक अध्ययनों के माध्यम से मानव तथा उसकी संस्कृति के विकास को समझना
अधिक विश्वासप्रद तथा रोचक हो गया है।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि ऐसे जीनोम अध्ययनों से हमें ज्ञात हुआ है कि
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हड़प्पा सभ्यता किन्हीं रहस्यमयी मनुष्यों की नहीं थी, जिनका जैविक मूल अज्ञात
था अथवा जो मध्य एशिया के ऊँचे सांस्कृतिक केंद्रों से आए हुए प्रवासी थे। उनकी
पहचान इसी उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में प्रफुल्लित हुई हड़प्पा सभ्यता से पूर्व में
विकसित संस्कृतियों से संबंधित व्यक्तियों के वंशजों के रूप में हो चुकी है।
महाकाव्यों की काल गणना करते समय भी उनमें उल्लेख की गई वंशावलियों को
मानव जीनोम अनुक्रम एवं जीवाश्म के रूप में मिले साक्ष्यों के साथ मिलाकर देखा
जाना चाहिए।”
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-2

अयोध्या का घटनाक्रम और
श्रीराम को चौदह वर्षों का वनवास
1. विधि का विधान : श्रीराम को राज्याभिषेक की जगह 14 वर्षों का वनवास
भरत और शत्रुघ्न का कैकेय प्रदेश में स्नेहपूर्वक स्वागत किया गया। उनके मामा युधाजित् उन
दोनों को पुत्र से भी बढ़कर प्यार करते थे और बड़े दुलार से विशेष सुविधाएँ देकर उन्हें कैकेय प्रदेश के
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राजमहलों में रखते थे। अयोध्या में श्रीराम और लक्ष्मण अपने दोनों भाइयों अर्थात्् भरत और शत्रुघ्न को
याद किया करते थे। राजा दशरथ और उनकी तीनों रानियाँ भी उनको बहुत याद किया करती थीं।
यों तो राजा दशरथ अपने चारों पुत्रों को अत्यधिक प्रेम करते थे, लेकिन उनमें से वह सबसे अधिक
स्नेह श्रीराम को किया करते थे। श्रीराम अत्यंत रूपवान और प्रतिभावान, पराक्रमी और दयालु थे। वे किसी
के दोष नहीं देखते थे, वह सदा शांत चित्त रहते थे और प्रार्थनापूरक ्व मीठे वचन बोला करते थे। श्रीराम ने
सभी विज्ञानों तथा वेदों का अध्ययन कर लिया था तथा अस्त्रों-शस्त्रों के प्रयोग में पारंगतता प्राप्त कर ली
थी। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी थे। किसी भी युद्ध और संग्राम में समस्त देवता और असुर भी उनको
परास्त नहीं कर सकते थे। अपने पुत्र श्रीराम को अनेक अनुपम गुणों से युक्त देखकर राजा दशरथ के मन
में श्रीराम का राज्य अभिषेक करके उन्हें अयोध्या का युवराज बनाने का विचार आया, क्योंकि राजा दशरथ
दिन-प्रतिदिन बूढ़े और दुर्बल होते जा रहे थे। इसीलिए वे श्रीराम का बिना किसी विलंब के अयोध्या के
युवराज के रूप में राज्याभिषेक करना चाहते थे। राजा दशरथ ने तुरतं अयोध्या नगरी के सभी प्रमुख विद्वानों
और मंत्रियों को बुलाया, जिससे कि अयोध्या के युवराज के रूप में श्रीराम के राज्याभिषेक के बारे में उन
सभी के विचारों को जाना जा सके।
सभा को संबोधित करते हुए राजा दशरथ ने अयोध्या के राजकार्य से स्वयं को विश्राम देकर अपने प्रिय
पुत्र श्रीराम को अगले दिन पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा होने पर राज्य का शासन सौंपने की अपनी इच्छा व्यक्त की
(2/4/1-2)। सभा में उपस्थित सभी विद्वानों, मंत्रियों एवं शुभचिंतकों ने राजा दशरथ के प्रस्ताव की प्रशंसा
98 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

की और उनके सुझाव का एकमत से स्वागत किया। उन सभी ने श्रीराम के दैवीय गुणों की प्रशंसा की और
कहा कि श्रीराम सत्यवादी, सत्यपरायण, शांत, दीन-दुःखियों के संरक्षक, मृदुभाषी एवं समस्त प्रजाजनों को
स्नेह करनेवाले हैं। उन्होंने यह भी कहा कि श्रीराम अस्त्र-शस्त्र के उपयोग में भी निपुण हैं और वह सभी
राक्षसों और शत्रुओं से अयोध्या की रक्षा करने में भी समर्थ हैं। उन सभी ने राजा दशरथ को श्रीराम का
राज्याभिषेक बिना किसी विलंब से करने के लिए अपनी सहमति प्रदान की। सभा के मंतव्य से प्रसन्न होकर
राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ और मुनि वामदेव को बुलवाया और कहा, “यह चैत्र का महीना बड़ा सुदं र
और पवित्र है। सारे वन और उपवन खिल उठे हैं। इसलिए शास्त्रों में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार श्रीराम का
युवराज के पद पर राज्याभिषेक करने के लिए सब सामग्री एकत्र कराएँ।”
इसके पश्चात् राजा दशरथ ने श्रीराम को राजसभा में बुलाया और अपने निर्णय के बारे में उन्हें जानकारी
देते हुए कहा, “अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, मैंने बहुत से मनोवांछित भोगों का भोग कर लिया है और मैंने अभीष्ट
सुखों का अनुभव भी कर लिया है। अब तुम्हें युवराज पद पर अभिषिक्त करने के सिवाय और कोई कर्तव्य
मेरे लिए शेष नहीं रह गया है। अब समस्त प्रजा तुम्हें अपना शासक बनाना चाहती है, इसलिए अतिशीघ्र मैं
तुम्हें युवराज का पद सौंप देना चाहता हूँ। प्रिय पुत्र राम! ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्म नक्षत्र को
सूर्य मंगल और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रांत कर लिया है, ऐसे अशुभ लक्षणों के प्रकट होने पर प्राय:
राजा घोर आपत्ति में पड़ जाता है और अंतोतगत्वा उसकी मृत्यु भी हो जाती है। आज चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में
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विराजमान है, अतः निश्चय ही कल वह पुष्य नक्षत्र पर रहेंग,े इसलिए कल पुष्य नक्षत्र के शुभ मुहूर्त में ही
तुम अपना अभिषेक करा लो। शत्रुओं को संताप देनवे ाले वीर मेरा मन इस कार्य में बहुत शीघ्रता करने को
कहता है। इस कारण कल अवश्य ही मैं तुम्हारा युवराज पद पर अभिषेक कर दूगँ ा।” राजा ने यह भी कहा
कि ‘‘तुम्हारे भाई भरत इस नगर से बाहर, अपने मामा के यहाँ निवास करते हैं, फिर भी तुम्हारा अभिषेक हो
जाना मुझे उचित प्रतीत होता है।’’ इसके पश्चात् राजा ने अगले दिन होनेवाले राज्याभिषेक के निमित्त व्रत
पालन के लिए श्रीराम को तैयार रहने के लिए आज्ञा दी।
राजा दशरथ द्वारा वर्णित किए गए खगोलीय विन्यासों को वाल्मीकि रामायण में अयोध्या कांड के सर्ग
4 में निम्नानुसार वर्णित किया गया है—
अवष्‍टब्‍धं च मे राम नक्षत्रं दारूणग्रहै:।
आवेदयन्ति दैवज्ञा: सूर्या�ारकराहुभि:॥ वा.रा.2/4/18॥
अद्य चन्द्रोऽभ्‍युपगमत् पुष्‍यात् पूर्वं पुनर्वसुम्।
श्रव: पुष्‍ययोगं नियतं वक्ष्‍यन्‍ते दैवचिन्‍तका:॥ वा.रा.2/4/21॥
तत्र पुष्ये अभिषिंचस्व मनस्त्वरयतीव माम्। (2/4/22)
अर्थात् ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्म नक्षत्र (अर्थात्् मीन राशि में रेवती) को सूर्य, मंगल
और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रांत कर लिया है। वे कहते हैं कि आज चंद्रमा पुष्य से एक नक्षत्र पहले
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 99

पुनर्वसु पर विराजमान है, अतः निश्चय ही कल पुष्य नक्षत्र पर रहेंग,े इसलिए उस पुष्य नक्षत्र में ही तुम
अपना अभिषेक करा लो।
खगोलशास्त्र की कुछ आधारभूत जानकारी के साथ प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करते हुए इन
सभी खगोलीय विन्यासों को दिनांक 4 जनवरी, 5089 वर्ष ई.पू. प्रातः 7:00 से 8:00 बजे के बीच अयोध्या
से आकाश में देखा जा सकता था। नीचे दिए गए आकाशीय दृश्य में यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि
उस समय सूर्य और मंगल राजा दशरथ के नक्षत्र रेवती में थे, अर्थात्् मीन राशि में थे। अब हमें जाननी है
राहु की स्थिति। राहु व केतु उन बिंदुओं का नाम है, जहाँ प्रत्येक माह चंद्रमा सूर्य के क्रांतिवृत्त को काटता
है। राहु को उसी राशि में स्थित माना जाता है, जहाँ चंद्रमा उस मास में सूर्य का पथ काटता है। पिछली
अमावस्या को, अर्थात्् 28 दिसंबर, 5090 वर्ष ई.पू. को चंद्रमा ने मीन राशि में सूर्य का पथ काटा है, जिससे
इस बात की पुष्टि होती है कि राहु भी रेवती नक्षत्र अर्थात्् मीन राशि में थे। (देखें व्योमचित्र-11)
श्रीराम के वनगमन से एक दिन पहले का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-11 ः अयोध्या/भारत, 27° उत्तर, 82° पूर्व, दिनांक 4 जनवरी, 5089 वर्ष ई.पू. 7 बजकर 10 मिनट,
सूर्य और मंगल ग्रह मीन राशि में और चंद्रमा पुनर्वसु (मिथुन) में, प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित
100 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

स्टैलेरियम सॉफ्टवेयर ने ग्रहों तथा नक्षत्रों की इन्हीं स्थितियों को 39 दिन बाद 12 फरवरी, 5089 वर्ष
ई.पू. को सुबह 8 बजे दर्शाया है। 39 दिन के इस अंतर के कारण बाॅक्स 1.4 में स्पष्ट कर दिए गए हैं।
(देखें व्योमचित्र-12)
श्रीराम के वनगमन से एक दिन पहले का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-12 ः अयोध्या/भारत, 270 उत्तर, 820 पूर्व, दिनांक 12 फरवरी, 5089 वर्ष ई.पू. 8 बजे ,
सूर्य और मंगल ग्रह मीन राशि में और चंद्रमा पुनर्वसु (मिथुन) में, स्टेलेरियम का स्क्रीनशॉट

राजा दशरथ द्वारा राज्य अभिषेक का समाचार सीताजी को देने के लिए शीघ्र ही श्रीराम अपने महल
में गए, परंतु उन्होंने सीता को वहाँ नहीं देखा। तब वे तत्काल वहाँ से निकलकर माता कौशल्या के कक्ष
में पहुँच गए। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि माता कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने महल के मंदिर में बैठकर
देवता की आराधना में लगी हुई हैं और पुत्र के लिए राजलक्ष्मी की याचना कर रही हैं।
श्रीराम के युवराज पद पर राज्याभिषेक का समाचार सुनकर सुमित्रा, लक्ष्मण और सीताजी भी वहाँ
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 101

पर पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे। माता कौशल्या के ध्यान अवस्था से बाहर आने के पश्चात् श्रीराम ने
कौशल्या माता से कहा, “पिताजी ने मुझे प्रजापालन के कर्म में नियुक्त किया है। कल मेरा राज्याभिषेक
किया जाएगा। पिताजी का आदेश है, सीता को भी मेरे साथ आज रात उपवास करना होगा।” इस बात
को सुनकर कौशल्या माता ने अत्यंत प्रसन्नता महसूस की और कहा, “यह बड़े हर्ष की बात है कि जो
व्रत एवं उपवास आदि मैंने किया था, उसी के फल और तुम्हारे गुणों के कारण से इस इक्ष्वाकु कुल की
राजलक्ष्मी तुम्हें प्राप्त होनेवाली है।” इसके पश्चात् श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण की ओर देखकर उससे
कहा, “लक्ष्मण तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य का शासन सँभालो। तुम मेरी द्वितीय अंतरात्मा हो। यह
राजलक्ष्मी तुम ही को प्राप्त हो रही है। तुम अभीष्ट भोगों और राज्य के श्रेष्ठ फलों का उपभोग करो।
तुम्हारे लिए ही मैं इस जीवन तथा राज्य की अभिलाषा करता हूँ।” लक्ष्मण से ऐसा कहकर श्रीराम ने
दोनों माताओं को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर सीताजी के साथ अपने महल में चले गए।
राजा दशरथ ने श्रीराम और सीता द्वारा शास्त्रों में निर्धारित विधि के अनुसार व्रत तथा उपवास आदि
के पालन को सुनिश्चित करने के लिए मुनि वसिष्ठ को आदेश दिया। मुनि वसिष्ठ ने श्रीराम के श्वेत
महल में जाकर उन्हें सीता सहित व्रत उपवास की दीक्षा दी। श्रीराम के राज्य अभिषेक का शुभ समाचार
संपूर्ण अयोध्या नगरी में फूलों की सुगंध की तरह फैल गया और बड़ी संख्या में अयोध्या की सड़कों पर
नर-नारी एकत्र हो गए थे। अयोध्यापुरी के घर-घर में ऊँची-ऊँची पताकाएँ नजर आ रही थीं। वहाँ की
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सभी गलियों और सड़कों को झाड़-बुहार कर छिड़काव किया गया था, क्योंकि अयोध्या के निवासियों
के लिए अपने प्रिय श्रीराम का राज्याभिषेक किसी उत्सव से कम नहीं था।
उधर कमलनयन श्रीराम और सीताजी ने स्नान करके श्री नारायण की उपासना आरंभ की। उसके
पश्चात् श्री नारायण भगवान् का ध्यान करके विष्णुजी के सुंदर मंदिर में श्रीराम अपनी कमलनयना पत्नी
सीता के साथ कुशा की चटाई पर सो गए। सवेरा होने से पहले ही अयोध्या के वासियों ने अयोध्यापुरी
को सजाना प्रारंभ कर दिया। राजमार्ग पर पुष्प बिखरा दिए और मंदिरों में मधुर आवाज में मंत्रोच्‍चारण
किया जा रहा था। अयोध्या के वासी धर्मपरायण, पराक्रमी और प्रज्ञावान श्रीराम का राज्याभिषेक करने
के निर्णय के लिए राजा दशरथ की प्रशंसा कर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे।
रानी कैकेयी की एक कुबड़ी दासी मंथरा अभिषेक से एक दिन पहले स्वेच्छा से ही कैकेयी के
महल की छत पर जा चढ़ी, उसने उस महल की छत से देखा कि अयोध्या की सड़कों पर छिड़काव
किया गया है और सारी अयोध्या नगरी में इधर-उधर कमल और उत्पल बिखरे हुए हैं। वह अयोध्या
की चहल-पहल, उत्सव, मंत्र उच्‍चारण आदि को देखकर अचंभित हुई। उसने श्रीराम की एक धाय से
पूछा, “आज श्रीरामचंद्रजी की माता अत्यंत प्रसन्न होकर लोगों को धन क्यों बाँट रही हैं? आज यहाँ
के सभी मनुष्यों को इतनी अधिक प्रसन्नता क्यों हैं? इसका कारण मुझे बताओ।” श्रीराम की सेविका ने
अत्यंत हर्ष एवं आनंद के साथ बताया कि कल महाराज दशरथ पुष्य नक्षत्र के योग में पराक्रमी श्रीराम
102 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

का युवराज के पद पर अभिषेक करेंगे। उस सेविका का यह वचन सुनकर मंथरा दासी मन-ही-मन


अत्यंत कुपित हो गई और महल से नीचे जा उतरी। उसको श्रीराम के राज्याभिषेक में कैकेयी का
अनिष्ट दिखाई देता था। वह क्रोध से जल उठी। उसने रानी कैकेयी के मस्तिष्क में यह कहकर जहर
भरने का प्रयत्न किया कि राजा दशरथ ने कैकेयी तथा उसके पुत्र भरत को बर्बाद करने का षड्‍यंत्र
रच लिया है। मंथरा ने कहा कि राजा दशरथ भरत को उसके मामा के यहाँ भेजकर यहाँ पर अयोध्या
में श्रीराम को युवराज का पद प्रदान करनेवाले हैं। मंथरा की यह बात सुनकर रानी कैकेयी अत्यंत
प्रसन्न हुई, उसका हृदय हर्ष से भर गया, वह मन-ही-मन अत्यंत संतुष्ट हुई और मुस्कुराते हुए अपनी
दासी मंथरा को पुरस्कार के रूप में एक बहुत सुंदर दिव्य आभूषण प्रदान करने लगी। मंथरा को वह
दिव्य आभूषण देकर रानी कैकेयी ने मंथरा को कहा, “तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है। मैं
श्रीराम और भरत में कोई भेद नहीं समझती। अतः यह जानकर कि राजा दशरथ श्रीराम का अभिषेक
करनेवाले हैं मुझे बहुत खुशी हुई है।”
रानी कैकेयी के ये वचन सुनकर, मंथरा ने कैकेयी की भर्त्सना करते हुए उसके द्वारा दिए हुए
आभूषण को उठाकर फेंक दिया और रानी कैकेयी से कहा, “तुम अपनी बर्बादी का उत्सव मना रही हो।
तुम श्रीराम से भरत को उत्पन्न होनेवाले खतरे के बारे में नहीं समझ पा रही हो। राजा दशरथ तुम्हें अपनी
तीनों रानियों में से सबसे अधिक प्यार करते हैं, लेकिन यदि श्रीराम को अयोध्या का युवराज बना दिया
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गया है, तो उनकी माता कौशल्या भू-मंडल का निष्कंटक राज्य पाकर शक्तिशाली बन जाएगी और तुम
दासी की भाँति हाथ जोड़कर उनकी सेवा में उपस्थित रहोगी। तुम्हारे पुत्र भरत को भी श्रीरामचंद्रजी की
गुलामी करनी पड़ेगी।” मंथरा की ऐसी विषैली बातों को सुनकर कैकेयी ने उसे समझाने का प्रयत्न करते
हुए कहा कि श्रीराम धर्म के ज्ञाता, गुणवान, सत्यवादी एवं योग्य ज्येष्ठ पुत्र हैं। अतः युवराज होने के
योग्य वही हैं, श्रीराम राजा बनने के बाद भी अपने छोटे भाइयों के प्रति पितातुल्य व्यवहार करते रहेंगे,
परंतु दासी मंथरा ने और अधिक मुखर होते हुए कहा, “भरत को उसके मामा के यहाँ भेज दिया गया है
और भरत का अनुसरण करनेवाले शत्रुघ्न भी उनके साथ ही चले गए। जैसे सुमित्रानंदन लक्ष्मण राम के
अनुगामी हैं, उसी प्रकार शत्रुघ्न भरत का अनुसरण करनेवाले हैं। यदि श्रीराम को अयोध्या का शासन
मिल जाता है तो वह भरत को अवश्य ही इस देश से बाहर निकाल देंगे या उन्हें परलोक में भी पहुँचा
देंगे। अतः इस समय यह सुनिश्चित करना तुम्हारा कर्तव्य है कि श्रीराम का राज्य अभिषेक न हो पाए।”
अंततः मंथरा अपने अमंगलकारी एवं अशुभ प्रपंच में सफल हुई। इसके पश्चात् व्यथित, चिंतित और
भ्रमित रानी कैकेयी ने श्रीराम को वनवास दिलाने और भरत को अयोध्या का युवराज बनाने की योजना
के बारे में मंथरा से उपाय पूछा।
कैकेयी के पूछने पर मंथरा उस समय इस प्रकार बोली, “स्मरण करो, पूर्वकाल की बात है, जब
देवासुर संग्राम के अवसर पर राज ऋषियों के साथ तुम्हारे पतिदेव राजा दशरथ तुम्हें साथ लेकर देवराज
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 103

की सहायता करने के लिए गए थे। उन दिनों महाबाहु राजा दशरथ ने वहाँ असुरों के साथ बड़ा भारी युद्ध
किया था। उस युद्ध में असुरों ने अपने शस्त्रों और अस्त्रों द्वारा उनके शरीर को जर्जर कर दिया था। जब
राजा की चेतना लुप्त हो गई थी, उस समय तुमने सारथी का काम करते हुए अपने पति को रणभूमि से
दूर हटाकर उनके प्राणों की रक्षा की थी। जब वहाँ भी राक्षसों के शस्त्रों से वह घायल हो गए, तब तुमने
पुन: वहाँ से अन्यत्र ले जाकर उनके प्राणों की रक्षा की। इससे संतुष्ट होकर महाराज दशरथ ने तुम्हें दो
वरदान दे देने को कहा। उस समय तुमने अपने पति से कहा कि जब मेरी इच्छा होगी, तब मैं इन दोनों
वरों को माँग लूँगी। अब वह सही समय आ गया है कि तुम उन दोनों वर अपने स्वामी से माँग लो। एक
वर के द्वारा तुम भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर के द्वारा तुम श्रीराम को चौदह वर्ष तक का वनवास
माँग लो।” मंथरा ने रानी कैकेयी को यह सलाह भी दी कि तुम इस समय मैले वस्त्र पहन लो और कोप
भवन में कुपित होकर बिना बिस्तर के ही भूमि पर लेट जाओ। राजा जब आएँगे तो उनकी आँखों और
उनकी तरफ नजर उठाकर न देखना और न ही उनसे कोई बात करना। महाराज को देखते ही रोती हुई
शोकमग्न होकर धरती पर लेट जाना। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि तुम अपने पति को सदा ही बड़ी
प्यारी रही हो; तुम्हारे लिए वह महाराज अग्नि में भी प्रवेश कर सकते हैं। इसके अलावा मंथरा ने कैकेयी
को यह भी कहा कि वह उन दो वरदानों के अलावा किसी और विकल्प पर राजा से सहमत न हो।
कैकेयी ने मंथरा की सारी बातें मान लीं, क्योंकि मंथरा और रानी कैकेयी दोनों ही यह बात जानती थीं कि
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राजा अपना दिया हुआ, वचन अपने प्राणों की आहुति देकर भी पूरा करेंगे।
सुनियोजित योजना के अनुसार रानी कैकेयी धरती पर लेट गई, उन्होंने अपने अमूल्य और दिव्य
आभूषणों को उतारकर फेंक दिया। मलिन वस्त्र पहनकर कोपभवन में पड़ी हुई कैकेयी अचेत हुई
किन्नरी के समान दिखाई देने लगी। दूसरी ओर महाराज दशरथ सुमंत्र को श्रीराम के राज्याभिषेक की
तैयारियों के लिए आज्ञा देकर सबको उस समय उपस्थित होने के लिए कहकर राजनिवास में गए। राजा
दशरथ श्रीराम के राज्याभिषेक का शुभ समाचार सबसे पहले रानी कैकेयी को सुनाने सीधे उनके कक्ष
में गए, लेकिन रानी कैकेयी को अंत:पुर में न देखकर भीतर गए तो देखा कि कोपभवन में रानी कैकेयी
क्षत-विक्षत अवस्था में भूमि पर कटी हुई लता की भाँति लेटी हई थी। रानी ने अपने सभी आभूषणों को
इधर-उधर फेंककर, बालों को खोलकर बिखरा दिया था। राजा का हृदय अत्यंत निर्मल था। वे अनभिज्ञ
थे कि कैकेयी अपने हृदय में पापपूर्ण संकल्प लिए हुए है। राजा दशरथ बूढ़े थे और अपनी पत्नी कैकेयी
को इस अवस्था में देखकर उन्हें अत्यंत दुःख हुआ। राजा ने कहा, “तुम अपने दुःख का कारण बताओ।
मैं और मेरे सभी सेवक तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं। तुम्हारे किसी भी मनोरथ को मैं पूरा करके ही रहूँगा,
चाहे उसके लिए मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें। जहाँ तक सूर्यचक्र घूमता है, वहाँ तक सारी पृथ्वी
मेरे अधिकार में है। द्रविड़, सिंधु-सौवीर, सौराष्ट्र, दक्षिण भारत के सारे प्रदेश, अंग, बंग, मगध, काशी,
और कौसल—इन सभी समृद्धिशाली देशों पर मेरा आधिपत्य है। मुझे अपने दुःख का कारण बताओ, मैं
वही करूँगा, जिससे तुम्हें प्रसन्नता होगी।”
104 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

कैकेयी ने क्रोध प्रकट करते हुए राजा से कहा, “न तो किसी ने मेरा अपकार किया है और न ही
किसी के द्वारा मैं अपमानित या निंदित हुई हूँ। मेरा कोई एक अभिप्राय (मनोरथ) है और मैं आपके
द्वारा उसकी पूर्ति चाहती हूँ।” राजा दशरथ कैकेयी की बात सुनकर मुस्‍कुराए और उसके केशों को हाथ
में पकड़कर उसके सिर को अपनी गोद में रखकर उससे बोले, “क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि नरश्रेष्ठ
श्रीराम के अतिरिक्त दूसरा कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो मुझे तुमसे अधिक प्रिय हो। मैं उस महात्मा
श्रीराम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारी कामना पूर्ण होगी। अतः तुम्हारे मन की जो इच्छा है, उसे
निर्भीकता से बताओ।” यह सोचकर कि अब अपना स्वार्थ साधने का अवसर आ गया है, रानी कैकेयी
ने कहा, “राजन, उस पुरानी बात को याद कीजिए, जब देवासुर संग्राम हो रहा था, वहाँ असुरों ने आप
को घायल करके गिरा दिया था। उस युद्धस्थल में सारी रात जागकर अनेक प्रकार के प्रयत्न करके
मैंने आपके जीवन की रक्षा की थी। उससे संतुष्ट होकर आपने मुझे दो वरदान दिए थे। उन दो वरों
को मैं आज प्राप्त करना चाहती हूँ।” जब राजा दशरथ ने कहा कि उनकी इच्छाओं का सम्मान किया
जाएगा, तब कैकेयी ने कहा कि पहले वर के द्वारा श्रीराम के राज्याभिषेक की जो तैयारी की गई है, उसी
अभिषेक सामग्री द्वारा भरत का अभिषेक किया जाए और दूसरा वर यह है कि श्रीराम तपस्वी के वेश में
वल्कल वस्त्र तथा मृगचर्म धारण करके चौदह वर्षों के लिए वनों में जाकर निवास करें। भरत को आज
ही इस निष्कंटक राज्य का युवराज घोषित कीजिए, यही मेरी दो कामनाएँ हैं, जिनकी आपूर्ति मैं माँग रही
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हूँ। आप ऐसी व्यवस्था करें, जिससे मैं आज ही श्रीराम को वन की ओर जाते हुए देख सकूँ।”
रानी कैकेयी के ऐसे कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथ अत्यंत संताप करते रहे और कुछ क्षण
के लिए मू​ि‍र्च्छत हो गए। शोक के कारण उनकी चेतना ही लुप्त-सी हो गई थी। कुछ देर के बाद, जब
उन्हें फिर से चेतना आई, तब वह राजा अत्यंत दुःखी होकर कैकेयी से क्रोधपूर्वक बोले, “मैंने अथवा
श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, तू किसलिए उनका इस तरह अनिष्ट करने पर उतारू हो गई है, मुझे भरत
को राजा बनाने में कोई भी संकोच नहीं है, लेकिन श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू उन्हें चौदह वर्षों
के वनवास के लिए भेज रही है। संभव है कि सूर्य के बिना संसार टिक सके, पानी के बिना खेती उपज
सके, परंतु श्रीराम के बिना मेरे शरीर में प्राण नहीं रह सकेंगे। इसलिए मुझ पर दया कर और श्रीराम के
लिए वनवास को छोड़कर कोई अन्य वर माँग ले।”
राजा दशरथ के ऐसे दीन वचनों को सुनकर भी कैकेयी अपनी बात पर दृढ़ रही और राजा की एक
भी न सुनी; राजा के वचनों का उत्तर देते हुए बोली, “यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होता है तो मैं आपके
सामने आपके देखते-देखते आज ही बहुत सारा विष पीकर मर जाऊँगी। एक दिन के लिए भी कौशल्या
को राजमाता के रूप में देखने से तो मैं स्वयं मर जाना ही बेहतर समझूँगी। मैं आपके सामने अपनी और
भरत की शपथ खाकर कहती हूँ कि श्रीराम को इस देश से निकाल देने के सिवाय दूसरी किसी और
बात से मुझे संतोष नहीं होगा।” रानी कैकेयी के निश्चयपूर्वक बोले हुए कटु शब्द की ओर ध्यान जाते
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 105

ही राजा दशरथ राम-राम पुकारते हुए साँस खींचकर कटे हुए वृक्ष की भाँति जमीन पर गिर पड़े। उनकी
सारी चेतना लुप्त हो गई, लेकिन रानी कैकेयी अविचल रही।
थोड़े समय के पश्चात् एवं चेतना आने के उपरांत राजा ने कैकेयी से कहा, “दयाहीन, दुराचारिणी
कैकेयी! श्रीराम और मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? तू इस कुल का विनाश करनेवाली डायन है। श्रीराम के
बिना भरत कभी भी राज्य लेना स्वीकार नहीं करेगा और न ही वह अयोध्या में निवास कर पाएगा। जब
बहुत से गुणवान एवं वृद्ध पुरुष आकर मुझसे पूछेंगे कि श्रीराम कहाँ है, तब मैं उनसे कैसे यह कहूँगा कि
कैकेयी को वचन देने के कारण मैंने अपने प्रिय एवं निर्दोष पुत्र श्रीराम को घर से निकाल दिया है। बेचारी
सीता को एक ही साथ श्रीराम के वनवास और मेरी मृत्यु के बारे में दो दुःखद एवं अप्रिय समाचार सुनने
पड़ेंगे। मैं श्रीराम को विशाल वन में निवास करते और मिथिलेश कुमारी सीता को रोती देखकर अधिक
समय तक जीवित नहीं रह पाऊँगा। ऐसी दशा में तू ही निश्चय कर कि तू विधवा होकर अपने बेटे भरत
के साथ अयोध्या का राज करना पसंद करेगी या नहीं?”
राजा दशरथ की इन सभी बातों का रानी कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसके विपरीत रानी
कैकेयी राजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने और दोनों वरदान प्रदान करने की प्रतिज्ञा याद दिलाती
रही। इस प्रकार विलाप करते-करते राजा दशरथ का चित्त विषाद में अत्यंत व्याकुल हो उठा। इतने में
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सूर्यदेव अस्ताचल को चले गए और प्रदोष काल आ पहुँचा। राजा दशरथ अचेत होकर पुन: मू​ि‍र्च्छत
हो गए। इसके पश्चात् अपने विकल नेत्रों से कुछ भी देखने में असमर्थ राजा दशरथ ने अत्यंत क्रोध
में कैकेयी से कहा, “मैंने अग्नि को साक्षी मानकर तथा वैदिक मंत्रों का पाठ करके तेरे जिस हाथ को
पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा हूँ, साथ ही तेरे और अपने द्वारा उत्पन्न हुए तेरे पुत्र भरत का भी परित्याग
करता हूँ। यदि भरत को भी श्रीराम का वन में जाना प्रिय लगता हो तो मेरी मृत्यु के बाद वह मेरे शरीर
का दाह-संस्कार न करे। श्रीराम ने भरत से अधिक तुम्हारी सेवा की है, उन्होंने कभी कठोर वचन नहीं
बोले और वे सर्वगुणसंपन्न हैं तथा मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। इसलिए तू मुझ पर कृपा कर।” राजा
के अश्रूपूर्ण नेत्र तथा ऐसे दीन विलाप को सुनकर भी कैकेयी टस-से-मस नहीं हुई और अपनी माँग पर
अड़ी रही।
धीरे-धीरे रात बीत गई, प्रभातकाल में सूर्य देव का भी उदय हो गया और पुष्य नक्षत्र के योग
में अभिषेक का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा। उस समय ऋषियों से घिरे हुए शुभगुणसंपन्न महर्षि वसिष्ठ
अभिषेक की आवश्यक सामग्रियों का संग्रह करके शीघ्रतापूर्वक अयोध्यापुरी पहुँचे और सुमंत्र से अपने
आगमन की सूचना राजा दशरथ को देने को कहा। महर्षि वसिष्ठ ने सुमंत्र से यह भी कहा कि राजा
दशरथ को बताओ कि श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए सारी सामग्री एकत्रित कर ली गई हैं। गंगाजल
से भरे कलश है, सोने के कलशों में समुद्र से लाया हुआ जल भरा हुआ है। गूलर की लकड़ी का बना
हुआ भद्रपीठ है, जो अभिषेक के लिए लाया गया है, इसी पर बिठाकर श्रीराम का अभिषेक होगा। सब
106 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

प्रकार के बीज, गंध, रत्न, मधु, दही, खील, कुशा तथा फूल लाए गए हैं। इसके अतिरिक्त गजराज,
चार घोड़े वाला रथ, उत्तम धनुष, चंद्रमा के समान श्वेत छत्र, सिंहासन भी प्रस्तुत हैं। सब प्रकार के
बाजे यहाँ उपस्थित हैं। वसिष्ठजी के यह वचन सुनकर सुमंत्र ने राजा दशरथ की स्तुति करते हुए उनके
भवन में प्रवेश किया। सुमंत्र राजा के महल में पहले की ही भाँति हाथ जोड़कर उन महाराज की स्तुति
करने लगे और कहा, श्रीराम के अभिषेक की तैयारी हो चुकी है। नगर और जनपद के लोग तथा मुख्य
व्यापारी भी हाथ जोड़े हुए उपस्थित हैं। राजन! विद्वान तथा ऋषि-मुनि भी ब्राह्म‍णों के साथ द्वार पर
खड़े हैं, अतः आप श्रीराम के अभिषेक का कार्य आरंभ करने के लिए शीघ्र आज्ञा दीजिए। सुमंत्र के
इस प्रकार कहे हुए वचनों को सुनकर राजा दशरथ पुनः शोक से ग्रस्त हो गए। जब दुःख और दीनता
के कारण राजा स्वयं कुछ भी न कह सके, तब मंत्रणा का ज्ञान रखनेवाली कैकेयी ने सुमंत्र से इस
प्रकार कहा, “तुम तुरंत जाओ और राजकुमार श्रीराम को यहाँ बुला लाओ।”
इसके पश्चात् सुमंत्र उल्लास में भरकर सभी ओर दृष्टि डालते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ने लगे
और मार्ग में सब लोगों के मुँह से श्रीराम के राज्याभिषेक की आनंददायनी बातें सुनते जा रहे थे। इसके
पश्चात् सुमंत्र को श्रीराम का सुंदर भवन दिखाई दिया और सुमंत्र हाथ जोड़कर श्रीराम की वंदना करने
के लिए उपस्थित हुए असंख्य मनुष्य से घिरे हुए महल के द्वार पर जा पहुँचे और महल के आंतरिक
द्वार पर तैनात रक्षकों के माध्यम से अपने आगमन की सूचना श्रीराम तक पहुँचाई। श्रीराम के महल में
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प्रवेश करने के बाद सुमंत्र ने श्रीराम को सूचित किया कि रानी कैकेयी और राजा दशरथ अभी तत्काल
उनसे मुलाकात करना चाहते हैं। सीताजी से आज्ञा लेते हुए श्रीरामचंद्रजी सुमंत्र के साथ अपने महल
से बाहर निकले। श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण भी हाथ में विचित्र चँवर लिए उस रथ पर बैठ गए और
पीछे से अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम की रक्षा करने लगे। श्रीराम विशाल जनसमूह के अभिवादन और
आशीर्वादों को स्वीकार करते हुए अपने पिता दशरथ के महल में जा पहुँचे।
महल में जाकर श्रीराम ने पिता दशरथ को आँसू बहाते हुए, विषाद में डूबे हुए देखा, उनकी
स्थिति अत्यंत दयनीय दिखाई दे रही थी। निकट पहुँचने पर श्रीराम ने बड़े विनीत भाव से पहले अपने
पिता के चरणों में प्रणाम किया और उसके बाद बड़ी सावधानी के साथ उन्होंने माता कैकेयी के चरणों
में भी मस्तक झुकाया। उस समय दीन दशा में पड़े हुए राजा दशरथ एक बार ‘राम’ कहकर चुप हो
गए। इससे आगे उनसे कुछ नहीं बोला गया। उनके नेत्रों में आँसू भर आए थे। वे राम की ओर न तो
देख सके और न ही उनसे कोई बात कर सके। वे बारंबार लंबी साँसें भर रहे थे, मानो वे दुःख के
अथाह समुद्र में डूबे हुए हों। राजा का यह अत्यंत दयनीय रूप देखकर श्रीराम भी शोकातुर हो गए।
उन्होंने पिता दशरथ के मुख पर छाए हुए विषाद का कारण पूछा। उत्तर में निर्लज्ज कैकेयी ने
अत्यंत क्रूरता के साथ अपने मतलब की बात इस प्रकार बोली, “राम! महाराज को कुछ नहीं हुआ है
और न इन्हें कोई कष्ट ही है, इनके मन में कोई बात है, जिसे तुम्हारे डर से ये कह नहीं पा रहे हैं।
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 107

तुम इनके प्रिय हो, तुमसे कोई अप्रिय बात कहने के लिए उनकी जुबान नहीं खुलती। इन्होंने जिस कार्य
के लिए मेरे सामने प्रतिज्ञा की है, उसका तुम्हें अवश्य पालन करना चाहिए। राजा दशरथ पहले मुझे
वर देने की प्रतिज्ञा करके मुझे दो वर दे चुके हैं और अब उनके निवारण के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर
रहे हैं। यदि तुम राजा दशरथ द्वारा की गई प्रतिज्ञा को पूर्ण करना चाहते हो तो मैं तुम्हें सबकुछ बता
दूँगी।” श्रीराम ने कैकेयी को यह आश्वासन दिया कि “अपने पिता की आज्ञा से मैं अग्नि में भी कूदने
के लिए तैयार हूँ, समुद्र में भी छलाँग लगाने के लिए तैयार हूँ। इसलिए पिता दशरथ को जो अभीष्ट
है, वह बात मुझे बताओ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं उसे पूर्ण करूँगा।”
इसके पश्चात् कैकेयी ने बताया, ‘‘बहुत पहले की बात है कि देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता
शत्रुओं के बाणों से बिंध गए थे, उस महासमर में मैंने इनकी रक्षा की थी, उससे प्रसन्न होकर उन्होंने
मुझे दो वर दिए थे। राघव! उन्हीं में से एक वर के द्वारा तो मैंने महाराज से यह याचना की है कि
भरत का युवराज पद पर राज्याभिषेक हो और दूसरा वर यह माँगा है कि तुम्हें आज ही 14 वर्ष के
लिए वनवास के लिए भेज दिया जाए। यदि तुम अपने पिता को सत्यवादी तथा प्रतिज्ञानिष्ठ सिद्ध करना
चाहते हो और अपने को भी सत्यवादी सिद्ध करने की इच्छा रखते हो तुम्हें चौदह वर्षों के लिए वन
में वास करना चाहिए और भरत को कोसल देश पर राज्य करना चाहिए। तुम्हारे वियोग के कष्ट को
असहनीय समझकर महाराज दुःख में डूब गए हैं। इसी शोक से इनका मुख सूख गया है और इनकी
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आँखों से अश्रु बह रहे हैं और इन्हें तुम्हारी तरफ देखने का साहस नहीं हो रहा है।
ऐसे अप्रिय और अत्यंत कष्टदायक वचन सुनकर भी श्रीराम व्यथित नहीं हुए। उन्होंने माता कैकये ी
से इस प्रकार कहा, “आज ही महाराज की आज्ञा से दूत शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर भरत को मामा
के यहाँ से बुलाने के लिए चले जाएँ। भरत के राज्याभिषेक के बारे में मुझे व्यक्तिगत रूप से बताने की
जरूरत नहीं है। मैं प्रसन्नता से भरत को यह राज्य दे दूगँ ा और अपने पिता के आदेश पर किसी भी तरह
का प्रश्न किए बिना चौदह वर्षों के लिए आज ही वनगमन के लिए प्रस्थान करूँगा।” उत्तर में कठोर हृदया
कैकये ी ने कहा, ‘श्रीराम! तुम अत्यंत शीघ्रता के साथ इस नगर से वन की ओर चले जाओ, तब तक
तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंग।े ’ कैकये ी के ऐसे कठोर वचन सुनकर महातेजस्वी श्रीराम के
हृदय में शोक नहीं हुआ, परंतु महाराजा दशरथ पुत्र के भावी वियोग जनित दुःख से संतप्त एवं व्यथित हो
उठे। राजा दशरथ लंबी-लंबी साँस खींचकर ‘राम, राम, राम’ का नाम पुकारते हुए फिर अचेत होकर गिर
पड़े। महातेजस्वी राम उस समय अचेत पड़े हुए पिता महाराज दशरथ तथा कैकये ी के भी चरणों में प्रणाम
करके उस भवन से निकल गए। लक्ष्मण उस अन्याय को देखकर अत्यंत कुपित हो उठे थे, तथापि दोनों
नेत्रों में आँसू भरकर चुपचाप श्रीरामचंद्र के पीछे-पीछे चलने लगे। दुर्भाग्यवश यह श्रीराम के राज्याभिषेक
के लिए ऋषियों द्वारा बताया गया वही सटीक समय था, जब पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा था तथा श्रीराम के
जन्मवाला कर्क लग्न भी उपस्थित था। यह श्रीराम के जन्म का 25वाँ वर्ष था। (2/15/3, 3/47/10)
108 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

श्रीराम माता कैकये ी तथा पिता दशरथ की आज्ञा का पालन करने के लिए चौदह वर्षों के वनवास हेतु
प्रस्थान करने की शीघ्रता में थे। वे सारी पृथ्वी का राज छोड़ रहे थे, फिर भी उनके चित्त में सर्वलोकातीत
जीवन उन्मुक्त महात्मा की भाँति कोई विकार नहीं दिखाई दे रहा था, अर्थात् मन को वश में रखनेवाले
श्रीराम ने अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता नहीं छोड़ी। इसके पश्चात् वह अपने वनवास का समाचार अपनी
माता कौशल्या को सुनाने गए। उस समय देवी कौशल्या पुत्र की मंगलकामना से रातभर जागकर सवेरे
एकाग्रचित्त होकर भगवान् विष्णु की पूजा कर रही थी। श्रीराम ने माता के चरणों में प्रणाम किया और
माता कौशल्या ने उन्हें दोनों भुजाओं से कसकर छाती से लगा लिया और बड़े प्यार से उनका मस्तक
सूघँ ा। इसके पश्चात् शांत एवं प्रसन्नचित्त श्रीराम ने अपनी माँ को बताया कि माता कैकये ी तथा महाराज
दशरथ युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दंडकारण्य में भेज रहे हैं। अतः मैं
चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा और जंगल में सुलभ होनेवाले वल्कल आदि को धारण करके फल-
मूल के आहार से ही जीवन निर्वाह करता रहूँगा। ऐसी अप्रिय बात सुनकर फरसे से कटी हुई सालवृक्ष
की शाखा के समान कौशल्या देवी अचानक ही पृथ्वी पर अचेत होकर गिर पड़ीं। श्रीराम ने उन्हें हाथ
का सहारा देकर उठाया।
यह समाचार सुनते ही अंतःपुर में रहनेवाली राजमहिलाओं ने अत्यंत आर्तनाद एवं शोक प्रकट
किया। जोर-जोर से रोते हुए कौशल्या ने कैकये ी के आदेश को धर्म के विरुद्ध बताते हुए श्रीराम को
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वनवास जाने से रोकने का प्रयास किया। माता कौशल्या ने यह भी कहा कि 17 वर्ष पहले ही श्रीराम
का उपनयन संस्कार हुआ था। उपनयन संस्कार अर्थात्् यज्ञोपवीत संस्कार सात से सोलह वर्ष की आयु
में होता था।5 जिसके पश्चात् गुरुओं तथा शिक्षकों के आश्रम में श्रीराम का प्रवेश हुआ होगा (वाल्मीकि
रामायण 2/20/45)। इस प्रकार यह माना जा सकता है कि श्रीराम का उपनयन संस्कार 8 वर्ष की आयु
में हुआ था और 17 वर्ष बाद वनगमन के समय उनकी आयु केवल 25 वर्ष की थी। माता कौशल्या ने
यह शोक भी व्यक्त किया कि राजा दशरथ की सबसे बड़ी रानी होने के बावजूद उन्हें कभी अपने पति
द्वारा उचित सम्मान नहीं दिया गया और कई बार उन्हें कैकये ी जैसी अपनी सौतेली रानियों से तिरस्कार
सहना पड़ा और अत्यंत कठोर वचन सुनने पड़े हैं। कौशल्या बहुत समय से प्रतीक्षा कर रही थी कि
अयोध्या के युवराज के रूप में श्रीराम का राज्याभिषेक हो जाने पर वह कुछ वर्षों के लिए अच्छा समय
व्यतीत कर पाएँगी। यदि कोई मनुष्य भारी दुःख से पीड़ित होकर इच्छा के अनुसार मृत्यु पा सके तो “मैं
तुम्हारे बिना, अपने बछड़े से बिछड़ी हुई गाय की भाँति आज ही यमराज की सभा में चली जाऊँगी।”
लक्ष्मण ने रोष और क्रोध व्यक्त करते हुए श्रीराम से कहा, “क्या राजा दशरथ कैकये ी को प्रसन्न
करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं? आप सबसे बड़े, सबसे अधिक प्रतिभावान, बुद्धिमान एवं पराक्रमी
हैं। इसलिए आप ही अयोध्या के राजा बनने के पात्र हैं। राजमहल में घटित घटना के बारे में अयोध्या
के वासियों को पता चलने से पहले अपने हाथों में अयोध्या का प्रशासन ले लो और भरत के समर्थकों
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 109

को कारावास में डाल दो। मैं सदैव आपके साथ रहूँगा और आपके मार्ग में आनेवाले किसी भी संकट
या बाधा को दूर कर दूगँ ा, और यदि जरूरत पड़ी तो मैं राजा दशरथ का भी वध कर दूगँ ा।” अपने इन
शब्दों के साथ लक्ष्मण ने चौदह वर्षों के लिए श्रीराम के वनवास जाने के विचार का विरोध किया, क्योंकि
उन्होंने कोई पाप नहीं किया था और उनसे राजलक्ष्मी छीनकर भरत को दे देने का कोई नैतिक अथवा
न्यायिक औचित्य नहीं था।
माता कौशल्या ने अत्यंत विलाप करते हुए राम से कहा, “मैं तुम्हें वनवास में जाने की आज्ञा प्रदान
नहीं करूँगी और यदि फिर भी तुम वनवास के लिए जाते हो तो मैं उपवास करके अपने प्राणों का त्याग
कर दूगँ ी, परंतु श्रीराम अपने पिता राजा दशरथ द्वारा कैकये ी को दिए गए वचन के अनुसार वनवास जाने
के लिए दृढ़ संकल्प थे। उन्होंने अपने प्रिय भाई लक्ष्मण को धर्मपरायणता निभाने और कटुता का आश्रय
छोड़ने का आदेश दिया। इसके पश्चात् कौशल्या ने पुन: विलाप करना शुरू कर दिया और श्रीराम के
साथ वनवास जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपनी माता कौशल्या को
अपने पति एवं अयोध्या के राजा दशरथ के प्रति उनके कर्तव्यों का स्मरण करवाया तथा आश्वासन दिया
कि चौदह वर्षों के वनवास के बाद वे अयोध्या में माता कौशल्या के श्री चरणों में लौट आएँग।े
इसके पश्चात् श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण की ओर देखकर कहा, “सुमित्रानंदन! अब तक
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अभिषेक के लिए सामग्री जुटाने में जो तुम्हारा उत्साह था, वही उत्साह अब मेरे वन जाने की तैयारी
करने में होना चाहिए। मेरे अभिषेक के कारण जिसके चित्त में संताप हो रहा है, उस हमारी माता
कैकेयी को किसी तरह की शंका न रह जाए, वही काम करो। लक्ष्मण उसके मन में संदेह के कारण
दुःख उत्पन्न हो, इस बात को मैं दो घड़ी के लिए भी सहन नहीं कर सकता। यदि इस अभिषेक संबंधी
कार्य को रोक नहीं दिया गया तो पिताजी को भी मन-ही-मन यह सोचकर संताप होगा कि वे अपने
दिए हुए वचन का पालन नहीं कर पाए और उनका वह मनस्ताप मुझे सदैव संतप्त करता रहेगा। मेरे
इस प्रवास में तथा पिताजी द्वारा दिए हुए राज्य के हाथ से निकल जाने में दैव को ही कारण समझना
चाहिए। मेरी समझ से कैकेयी का यह विपरीत मनोभाव विधि का ही विधान है। यदि ऐसा न होता तो
वह मुझे वन में भेजकर पीड़ा देने का विचार क्यों करतीं? मुझे अपने पुत्र से भी बढ़कर स्नेह देनेवाली
वही माता कैकेयी इतने भयंकर कटुवचनों का प्रयोग कर मुझे वन भिजवाने की चेष्टा क्यों करतीं?
इसी प्रकार तुम भी मेरे विचार का अनुसरण करके मेरे राज्याभिषेक के इस आयोजन को शीघ्र बंद
करा दो। राज्याभिषेक के लिए सँजोकर रखे गए इन्हीं सब कलशों द्वारा मेरा तापस-व्रत के संकल्प
के लिए स्नान अवश्य होगा।”
परंतु श्रीराम के इन वचनों से लक्ष्मण शांत नहीं हो पाए। कुपित होते हुए लक्ष्मण ने कहा, “मैं
यह सिद्ध करने की प्रतिज्ञा लेता हूँ कि मानवीय कर्म भाग्य से श्रेष्ठ होते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि
कैकेयी और पिता दशरथ का आदेश धर्म के विरुद्ध है, इसलिए उस आदेश का पालन नहीं किया जाना
110 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चाहिए। लक्ष्मण ने श्रीराम का अयोध्या के राजा के रूप में अभिषेक होने के मार्ग में आनेवाली किसी
भी प्रकार की बाधा को दूर करने के संकल्प को पुनः दोहराया और तत्पश्चात् वह जोर-जोर से विलाप
करते हुए अश्रू बहाने लगे। लक्ष्मण के आँसू पोंछते हुए तथा उन्हें बारंबार सांत्वना देते हुए, श्रीराम ने
अपने माता-पिता के आदेश का पालन करने के और धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए वनवास
के लिए जाने का अपना संकल्प पुन: दोहराया। श्रीराम के इन वचनों को सुनकर माता कौशल्या भी
अत्यंत दुःखी हो गईं और उन्होंने श्रीराम के साथ वनवास जाने का अपना संकल्प दोहराया। उस समय
श्रीराम ने माता कौशल्या से विनती करते हुए कहा, “कैकेयी से धोखा खाने और मुझसे अलग होने के
शोक से ग्रस्त राजा दशरथ असहनीय दुःख में डूबे हुए हैं। यदि ऐसे समय में तुमने भी उनका त्याग
कर दिया, तो राजा दशरथ इन दुःखों को सहन न कर पाने के कारण जीवित नहीं रह पाएँगे। इसलिए
तुम यहीं रहकर जैसे भी संभव हो, महाराज की सेवा में लगी रहना और धर्म के मार्ग का अनुसरण
करना।” वनवास जाने के लिए श्रीराम के दृढ़ संकल्प को जानकर माता कौशल्या आशीर्वाद देती हुई
बोलीं, “अब मैं तुम्हें रोक नहीं सकती, तुम इसी क्षण वनवास के लिए प्रस्थान करो और सत्पुरुषों के
मार्ग पर स्थिर रहो। समस्त पर्वत, समुद्र, वरुण, अंतरिक्ष, पृथ्वी, वायु, नक्षत्र, सभी ग्रह तथा छह ऋतुएँ
वन में जाने पर सदा तुम्हारी रक्षा करें और तुम्हें सुख प्रदान करें। मुनि का वेश धारण करके उस विशाल
वन में विचरते हुए तुम्हारे लिए समस्त देवता सदैव कल्याणकारी हों। भयंकर राक्षसों, मांसभक्षी जंतुओं,
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किसी भी पशु एवं पक्षी का तुम्हें भय न हो, ये सभी वन में तुम्हारे लिए हिंसक न हों।”

2. श्रीराम के साथ सीता और लक्ष्मण का वन गमन; महलों में शोक की लहर


माता कौशल्या के आशीर्वचन और स्वस्तिवचन प्राप्त हो जाने के पश्चात् उन्हें प्रणाम करके
रघुकुल के प्रज्ञावान राजकुमार श्रीराम ने सीताजी के कक्ष में प्रवेश किया। सीताजी अभी तक श्रीराम
के राज्याभिषेक में उत्पन्न हुई बाधा के संपूर्ण वृत्तांत से अनभिज्ञ थीं। उनके हृदय में यही बात समाई
हुई थी कि मेरे पति का युवराज पद पर अभिषेक हो रहा होगा। सीता उन्हें देखते ही आसन से उठकर
खड़ी हो गईं; उनकी अवस्था देखकर काँपने लगीं और चिंता से व्याकुल अपने शोक संतप्त पति को
निहारने लगीं। श्रीराम को इस अवस्था में देखकर सीता दुःख से संतप्त हो उठीं और बोली, “प्रभु!
इस समय आपकी यह कैसी दशा है? रघुनंदन आज बृहस्पति देवता से संबंधित मंगलमय पुष्य नक्षत्र
है, जो अभिषेक के योग्य है। उसी पुष्य नक्षत्र के योग में विद्वान् ऋषियों ने आपका अभिषेक बताया
है। ऐसे समय में जबकि आपको प्रसन्न होना चाहिए था, आपका मन इतना उदास क्यों है?” इस
प्रकार विलाप करती हुई सीता से रघुनंदन श्रीराम ने कहा, “आज पूज्य पिताजी मुझे वन में भेज रहे
हैं। महान् कुल में उत्पन्न धर्मपरायणा जनकनंदिनी! जिस कारण से ये वनवास मुझे प्राप्त हुआ है,
उसका कारण ध्यानपूर्वक सुनो। मेरे पिता सत्यपरायण महाराज दशरथ ने माता कैकेयी को पहले कभी
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 111

दो वर देने का वचन दिया था। इधर जब महाराज के आदेश से मेरे राज्य अभिषेक की तैयारी होने
लगी, तब माता कैकेयी ने दो वर देने की प्रतिज्ञा को याद दिलाया, महाराज को उनके दिए हुए वचन
से बाँधकर अपने काबू में कर लिया और फिर दो वर माँगे। इससे विवश होकर पिताजी ने भरत को
तो युवराज के पद पर नियुक्त किया और मेरे लिए जो दूसरा वर स्वीकार किया, उसके अनुसार मुझे
चौदह वर्ष के लिए वनों में निवास करना होगा। इस समय मैं निष्कंटक वन में जाने के लिए प्रस्थान
का निश्चय कर चुका हूँ और तुमसे मिलने तथा आज्ञा लेने के लिए यहाँ आया हूँ। राजा ने भरत को
युवराज का पद दे दिया है। इसलिए तुम विशेष प्रयत्न कर उन्हें प्रसन्न रखना, क्योंकि अब वही राजा
होंगे। मैं तत्काल वन को जा रहा हूँ। तुम मेरे माता-पिता एवं भाइयों का ध्यान रखना और किसी से
भी बुरा-भला या अपशब्द न कहना।”
श्रीराम के उपर्युक्त वचनों को सुनकर सीताजी कुछ कुपित होकर पति से इस प्रकार बोलीं,
“श्रीराम! आप मुझे ओछी समझकर यह सब क्या कह रहे हैं? आपकी यह बातें सुनकर मुझे हँसी
आती है। आपने जो कुछ कहा है, वह वेदों तथा शास्त्रों के ज्ञाता वीर राजकुमारों को शोभा नहीं देता।
शास्त्रों के अनुसार केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अत: आपके साथ ही
मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गई है। रघुनंदन, यदि आप आज ही वन की ओर प्रस्थान कर रहे
हैं तो मैं रास्ते की घास और काँटों को कुचलती हुई आपके आगे-आगे चलूँगी।” श्रीराम ने वनवास
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के कष्टों का वर्णन करते हुए सीता को वनवास में साथ चलने से मना किया। उन्होंने कहा कि वन
में भयानक सिंह दहाड़ते हैं, मतवाले हाथी घूमते हैं तथा रास्ते काँटों से भरे होते हैं। वल्कल वस्त्र
धारण कर वनवासी को भूख-प्यास का कष्ट भी सहन करना पड़ता है। महलों में रहनेवाली तुम जैसी
राजकुमारी के लिए वनों में जाना उचित नहीं है, परंतु सीता श्रीराम के साथ वन जाने का दृढ़ संकल्प
कर चुकी थीं। सीता ने कहा वन में कितने ही दुःख एवं दोष हों तथापि ज्योतिषियों के मुख से मैं पहले
ही यह बात सुन चुकी हूँ कि मुझे वन में अवश्य रहना पड़ेगा। मैं स्वीकार करती हूँ कि आपका भाग्य
ही मेरा भाग्य है और यदि श्रीराम को वनवास जाने का आदेश दिया गया है तो उस आदेश में मैं,
उनकी पत्नी भी शामिल हूँ, क्योंकि मैं आपका ही अंश हूँ। मैं वनवास के जीवन की कठिनाइयों और
दरिद्रता को खुशी-खुशी आपके साथ साझा करूँगी। यदि आप आज वन को जा रहे हैं तो मैं भी आज
ही आपके साथ वन को चली जाऊँगी। मैं पक्षियों तथा पुष्पों के साथ नदियों में स्नान करते हुए और
रोजमर्रा के दैनिक कार्यों को करते हुए वनवास के समय को प्रसन्नता से व्यतीत कर लूँगी। मैं आपके
साथ अवश्य वन में चलूँगी, इसमें कोई संशय नहीं है। मुझे अभी स्वर्गलोक की भी चाह नहीं है। मैं
वनों में सूर्य तथा वर्षा में, वायु और भूख, लताओं तथा काँटों आदि सभी कष्टों को प्रसन्नता से सहन
कर लूँगी। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि आप और मैं दो शरीरों में वास करनेवाली एक आत्मा हैं।”
मनस्विनी सीता की दृढ़ प्रतिज्ञा को देखते हुए श्रीराम ने सीताजी को अपने साथ वनवास में चलने की
अनुमति दे दी और वनवास हेतु यात्रा की तैयारियाँ करने के लिए कहा। तदंतर अपना मनोरथ पूर्ण हो
112 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जाने से अत्यंत हर्ष से भरी हुई यशस्विनी और मनस्विनी सीतादेवी अपने स्वामी श्रीराम के आदेश पर
विचार करके धर्मात्मा लोगों तथा ब्राह्म‍णों को आभूषण और रत्नों का दान करने के लिए उद्यत हो गईं।
जिस समय श्रीराम और सीता में बातचीत हो रही थी, लक्ष्मण वहाँ पहले से ही आ गए थे। उन
दोनों का ऐसा संवाद सुनकर उनका मुख मंडल आँसुओं से भीग गया। भाई के विरह का शोक अब
उनके लिए भी असह्य‍‍‍हो उठा था। सुमित्रानंदन लक्ष्मण ने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचंद्रजी के दोनों पैर जोर से
पकड़ लिए और सीता तथा श्री रघुनाथ जी से कहा, “यदि आपने सहस्रों वन्य पशुओं तथा हाथियों से
भरे हुए वन में जाने का निश्चय कर ही लिया है तो मैं भी आपका अनुसरण कर, धनुष हाथ में लेकर
आगे-आगे चलूँगा तथा आपकी सुरक्षा, सुख तथा सुविधा सुनिश्चित करूँगा।” श्रीराम ने लक्ष्मण के
समर्पण और स्नेह की सराहना करते हुए उन्हें अयोध्या में ही रुककर माता सुमित्रा, माता कौशल्या तथा
दुःख से पीड़ित पिता राजा दशरथ की देखभाल करने को कहा। लेकिन लक्ष्मण ने कहा, “मैं श्रीराम
और सीता के लिए वन में कंद-मूल एवं फलों को एकत्र करने के साथ-साथ झोंपड़ियों का निर्माण भी
करूँगा। पहाड़ियों या नदी के किनारे भ्रमण करते समय श्रीराम तथा सीता की रक्षा करूँगा। मैं वन में
दिन-रात आपकी रक्षा करूँगा और श्रीराम को सीताजी के साथ वन में कभी भी अकेले नहीं जाने दूँगा।”
श्रीराम ने लक्ष्मण को बार-बार अपने साथ वन में ले जाने से मना किया, लेकिन लक्ष्मण की
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दृढ़ता और प्रतिबद्धता को देखकर उन्होंने लक्ष्मण को भी अपने साथ वन में जाने की स्वीकृति दे दी।
लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला भी लक्ष्मण के साथ वन में जाना चाहती थी, लेकिन लक्ष्मण ने उर्मिला को
श्रीराम और सीता की सुरक्षा के लिए समर्पित अपने जीवन के बारे में समझाया और कहा कि यदि मैं
तुम्हें अपने साथ वन में ले जाता हूँ तो मैं श्रीराम और सीता की रक्षा करने के अपने कर्तव्यों का निर्वहन
नहीं कर पाऊँगा। इस प्रकार उर्मिला लक्ष्मण के अनुरोध से सहमत हो गईं। इसके पश्चात् श्रीराम ने
लक्ष्मण से उन अस्त्रों एवं शस्त्रों को लाने को कहा, जो सीताजी के साथ विवाह के समय राजा जनक
ने भेंट स्वरूप उन्हें प्रदान किए थे। इसमें दो दिव्य धनुष, दो अभेद्य कवच, बाणों से भरे हुए दो दिव्य
तरकस तथा दो स्वर्णजड़ित खड्ग शामिल थे। लक्ष्मण शीघ्र जाकर इन सभी अस्त्रों-शस्त्रों को ले आए।
सीता तथा लक्ष्मण सहित वनगमन के लिए प्रस्तुत हुए श्रीराम ने ब्राह्म‍णों तथा गरीबों को दान में
अपार धन एवं संपदा दी। उन्होंने गुरु वसिष्ठ के पुत्र सुयज्ञ को उनकी पत्नी के साथ बुलाकर बहुमूल्य
आभूषण दान कर दिए। इसके पश्चात् श्रीराम ने दुःख में डूबे हुए अपने सेवकों को चौदह वर्षों तक
जीविका चलाने योग्य बहुत-सा धन दान कर दिया। तत्पश्चात् सीताजी और लक्ष्मण सहित श्रीराम अपने
पिता और सौतेली माता कैकेयी से प्रस्थान की आज्ञा लेने के लिए आगे बढ़े। इस समय तक श्रीराम
के वनवास की खबर अयोध्या में जंगल की आग की तरह फैल गई थी। अयोध्या के सभी निवासी
सड़कों पर एकत्रित हो गए और प्रासादों तथा राजभवनों की ऊपरी छत पर चढ़कर उदासीन भाव से
उन तीनों की ओर देखने लगे। श्रीराम को अपने छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ पैदल जाते
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 113

देख अयोध्यावासी शोक से व्याकुल होने के साथ-साथ श्रीराम को वनवास भेजने के राजा के निर्णय की
भर्त्सना करने लगे। वे सभी सदाचारी, दयालु और सुशील श्रीराम को देखकर अत्यंत दुःख से व्यथित
होकर सीता तथा लक्ष्मण की तरह वनवास को साथ जानेवाले श्रीराम के पीछे-पीछे चलने की इच्छा
व्यक्त करने लगे।
सीताजी और लक्ष्मणसहित श्रीराम ने सुमंत्र के माध्यम से राजा दशरथ को अपने आगमन की
सूचना दी। दशरथ अपनी तीनों रानियों की उपस्थिति में श्रीराम से मिलना चाहते थे। तब सुमंत्र ने
अत्यंत शीघ्रता के साथ अंत:पुर में जाकर दोनों रानियों से कहा कि आप लोगों को महाराज बुला रहे
हैं। राजा की आज्ञा से सुमंत्र के ऐसा कहने पर कौशल्या तथा सुमित्रा इसे स्वामी का आदेश समझकर
रानी कैकेयी के कक्ष की ओर गईं। उन सबके आ जाने पर उन्हें देखकर दशरथ ने सुमंत्र से कहा कि
अब मेरे पुत्र को ले आओ। इसके पश्चात् श्रीराम, लक्ष्मण और सीता महाराज दशरथ के सामने आए
और महाराज दूर से ही अपने पुत्र श्रीराम को हाथ जोड़कर आते देख सहसा अपने आसन से उठ खड़े
हुए। उस समय रानियों से घिरे हुए राजा दशरथ शोक से आर्त हो रहे थे। श्रीराम को देखते ही महाराज
बड़े वेग से उनकी ओर दौड़े, किंतु उनके पास पहुँचने से पहले ही दुःख से व्याकुल होकर पृथ्वी पर
गिर पड़े और मू​ि‍र्च्छत हो गए। उस समय श्रीराम और लक्ष्मण बड़ी तेजी से चलकर दुःख के कारण
अचेत से हुए शोकमग्न महाराज दशरथ के पास जा पहुँचे। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उस समय
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सीता सहित रो पड़े और उन तीनों ने महाराज को दोनों भुजाओं से उठा कर पलंग पर बिठा दिया।
शोक संतप्त महाराज दशरथ को दो घड़ी में जब फिर चेतना आई, तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे
कहा, “महाराज! आप हम लोगों के स्वामी हैं। मैं आपकी आज्ञा से चौदह वर्षों तक वनों में निवास
करने के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ, इसलिए इस संबंध में आप से आज्ञा तथा आशीर्वाद लेने आया हूँ।
मेरे साथ लक्ष्मण को भी वन में जाने की आज्ञा दीजिए। साथ ही यह भी स्वीकार कीजिए कि सीता भी
मेरे साथ वन को जाए। मैंने बहुत से ठोस कारण बताकर इन दोनों को रोकने की चेष्टा की है, परंतु
ये यहाँ रहना नहीं चाहते हैं। अतः आप से निवेदन है कि आप शोक छोड़कर हम सबको, मुझको,
लक्ष्मण को और सीता को भी वनगमन की आज्ञा दीजिए।”
इस प्रकार शांतभाव से वनवास के लिए राजा की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए श्रीरामचंद्रजी की
ओर देखकर महाराज ने उनसे कहा, “रघुनंदन! मैं कैकये ी को दिए हुए वर के कारण असहाय हो गया
हूँ। तुम मुझे कैद करके स्वयं ही अयोध्या के राजा बन जाओ।” इसके पश्चात् राजा दशरथ ने श्रीराम
से एक रात्रि और अयोध्या में रुकने का अनुरोध किया, लेकिन पिता की आज्ञापालन हेतु वनगमन की
आज्ञा लेने का दृढ़ निश्चय कर आए हुए श्रीराम ने कहा, “मेरा वनगमन का निश्चय अब बदल नहीं
सकेगा। आपने देवासुर संग्राम में माता कैकये ी को जो दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी, उन्हें पूर्ण रूप से
दीजिए और सत्यवादी बनिए। मुझे न तो इस राज्य की, न सुख की, न पृथ्वी की, न इन संपर्ण ू भोगों
114 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

की, न ही स्वर्ग की और न धन-धान्य की इच्छा है।” श्रीराम के ऐसा कहने पर शोकाकुल पिता राजा
दशरथ ने दुःख और संताप से पीड़ित हो कर उन्हें छाती से लगाया, फिर अचेत होकर पृथ्वी पर गिर
पड़े और उनका शरीर प्राण-विहीन लगने लगा। कौशल्या तथा सुमित्रा फूट-फूटकर रो पड़ीं और सुमत्रं
भी रोते-रोते मू​ि‍र्च्छत हो गए।
तदनंतर होश में आने के पश्चात् अत्यंत व्यथित मन से सारथी सुमंत्र ने कैकेयी के हृदय में
परिवर्तन की आशा लेकर कैकेयी के मन को विदीर्ण करनेवाली बात सुनाई। उन्होंने बताया, “एक
साधु से उत्तम वर प्राप्त करने के पश्चात् तुम्हारे पिता कैकेय-नरेश समस्त प्राणियों की भाषा समझने
लगे। एक बार जृम्भ नामक पक्षी की आवाज सुनकर वे शय्या पर लेटे हुए हँस पड़े। तुम्हारी माता यह
समझकर कि तुम्हारे पिता उसकी हँसी उड़ा रहे हैं, अत्यंत कुपित हो उठीं और उनके हँसने का कारण
तुरंत जानने की जिद पर अड़ गईं। तब कैकेयराज ने कहा कि यदि मैं अपने हँसने का कारण बता दूँ
तो वर देनेवाले साधु के कथनानुसार मेरी इसी क्षण मृत्यु हो जाएगी। यह उत्तर सुनने के बाद भी तुम्हारी
माता ने तुम्हारे पिता कैकेय राज से फिर कहा, तुम जियो या मरो, परंतु मुझे अपने हँसने का कारण
बता दो। अपनी प्यारी रानी के ऐसा कहने पर कैकेय नरेश ने उस वर देनेवाले साधु के पास जाकर
सारा समाचार ठीक-ठीक कह सुनाया। तब उस वर देनेवाले साधु ने राजा को उत्तर दिया—रानी मरे
या घर से निकल जाए, तुम कदापि यह बात उसे न बताना। उस साधु का यह वचन सुनकर कैकेय
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नरेश ने तुम्हारी माता को तुरंत घर से निकाल दिया और स्वयं कुबेर के समान विहार करने लगे। तुम
भी इसी प्रकार दुर्जनों के मार्ग पर स्थित हो पाप पर ही दृष्टि रखकर मोहवश राजा से यह अनुचित
आग्रह कर रही हो।” इस प्रकार सुमंत्र ने हाथ जोड़कर कैकेयी को पापपूर्ण व्यवहार तथा कटु वचनों
से विचलित करने की चेष्टा की, परंतु रानी कैकेयी टस-से-मस न हुई।
थोड़ी देर के पश्चात् जब राजा की चेतना लौट आई, तब राजा दशरथ ने सुमंत्र को रथ तैयार
करके अपने पुत्रों और जानकी को अयोध्या के जनपद क्षेत्र से बाहर छोड़ आने का आदेश दिया और
धन-धान्य तथा चतुरंगिणी सेना को भी श्रीराम के पीछे-पीछे भेजने की आज्ञा दी। जब महाराज दशरथ
ऐसी बातें कहने लगे, तब कैकेयी कुपित हो उठी और वह बोली, “धनहीन और सूने राज्य को भरत
कदापि ग्रहण नहीं करेंगे।” तब राजा दशरथ ने कैकेयी को फटकारकर कहा, “तुम्हें मेरे अथवा अपने
हित का बिल्कुल ध्यान नहीं है। अब मैं भी यह राज्य, धन और सुख छोड़कर श्रीराम के पीछे चला
जाऊँगा। तू अकेली राजा भरत के साथ चिरकाल तक सुखपूर्वक राज्य भोगती रहना।” उस समय
श्रीराम ने विनीत भाव से कहा, “मैं भोगों का परित्याग कर चुका हूँ। मुझे तपस्वी का जीवन व्यतीत
करना है, इसलिए मुझे धन-धान्य अथवा सेना से क्या प्रयोजन है?”
कैकेयी अब तक लाज और शर्म छोड़ चुकी थी। वह स्वयं ही जाकर मुनियों के वल्कल वस्त्र
श्रीराम और लक्ष्मण के पहनने के लिए ले आई तथा पहनने को कहा। कैकेयी के ऐसा कहने पर,
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 115

श्रीराम और लक्ष्मण ने राजा दशरथ और जन समुदाय के समक्ष ही संन्यासियों के वल्कल वस्त्र धारण
कर लिए। कैकेयी चाहती थी कि सीता भी संन्यासिनी वाले दो वल्कल वस्त्र धारण कर ले। इसलिए
कैकेयी ने सीता को कुश घास के बने दो चीरवस्त्र लाकर दिए। जनकनंदिनी सीता भयभीत हो गईं और
माता कैकेयी के हाथ से दो वल्कल वस्त्र लेकर लज्जित भी हो गईं। उनके मन में बड़ा दुःख हुआ
और नेत्रों से आँसू बहने लगे। उस समय उन्होंने अपने पति श्रीराम से पूछा कि वनवासी लोग चीर कैसे
बाँधते हैं? बारंबार प्रयत्न करने पर भी सीता वल्कल वस्त्र नहीं पहन पाई और अंतत: श्रीराम ने उन्हें
वल्कल वस्त्र पहना ही दिए। कैकेयी के कठोर वचनों को सुनकर गुरु वसिष्ठ ने उसकी भर्त्सना की
और यह चेतावनी दी—“सीता वनवास के लिए प्रस्थान नहीं करेंगी, वह श्रीराम द्वारा रिक्त किए गए
राज्य को ग्रहण करेंगी, क्योंकि वह श्रीराम की अर्धांगिनी होने के नाते श्रीराम की अनुपस्थिति में इस
समस्त पृथ्वी पर शासन करने की हकदार हैं। यदि सीता श्रीराम के साथ वन में जाएगी तो हम लोग भी
इनके साथ चले जाएँगे। यह सारा नगर भी चला जाएगा और अंतःपुर के रक्षक भी चले जाएँगे। अपनी
पत्नी के साथ श्रीरामचंद्रजी जहाँ भी निवास करेंगे, वहीं इस राज्य और नगर के लोग भी धन-दौलत
और आवश्यक सामान लेकर चले जाएँगे। भरत और शत्रुघ्न भी चीर वस्त्र धारण करके वन में रहेंगे
और वन में निवास करनेवाले अपने बड़े भाई श्रीराम की सेवा करेंगे। फिर तू वृक्षों के साथ अकेली
रहकर इस निर्जन एवं सूनी पृथ्वी का राज्य करना। तू बड़ी दुराचारिणी है और प्रजा का अहित करने में
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लगी हुई है।” इसके पश्चात् उन्होंने दृढ़ता से कहा कि केवल श्रीराम को ही वनवास दिया गया है न
कि सीता को। वसिष्ठ ने आदेश दिया कि यदि देवी सीता श्रीराम के साथ जाना चाहती हैं तो वे अपने
वस्त्रों, आभूषण और परिचारिकाओं के साथ राजकुमारी के रूप में वनवास जाएँगी।
उस समय अंत:पुर में रहनेवाली राज महिलाओं को अत्यंत दुःख हुआ और उनके नेत्रों से आँसू
बहने लगे। राजा दशरथ ने दुःख का त्याग करते हुए दृढ़ता से कहा, “ओ कुल की कलंकिनी कैकेयी!
तूने अकेले श्रीराम के लिए ही वनवास का वर माँगा है, सीता के लिए नहीं। अत: यह राजकुमारी
वस्त्रों तथा आभूषणों से विभूषित होकर सदा शृंगार धारण करके वन में श्रीराम के साथ निवास करे।”
उस समय वनगमन के लिए प्रस्थान करते हुए श्रीराम ने पिता से इस प्रकार कहा, “मेरी माता कौशल्या
अब वृद्ध हो गई हैं। इनका स्वभाव बहुत ही मधुर और उदार है। यह कभी आपकी निंदा नहीं करती हैं।
इन्होंने पहले कभी ऐसा भारी संकट नहीं देखा। ये मेरे न रहने से शोक के समुद्र में डूब जाएँगी, अतः
आप सदा इनका ध्यान रखें तथा अधिक सम्मान करते रहें। आप जैसे पूज्य पति से सम्मानित हो, यह
पुत्र शोक का अनुभव न करें और आपके आश्रय में ही मेरी माता जीवन धारण करती रहें, ऐसा प्रयत्न
आपको करना चाहिए। महाराज ये निरंतर अपने बिछड़े हुए बेटे को देखने के लिए उत्सुक रहेंगी। कहीं
ऐसा न हो मेरे वन में रहते समय ये असहनीय शोक से पीड़ित होकर अपने प्राणों का त्याग करके
यमलोक चली जाएँ। अतः आप मेरी माता को सदा विशेष आदर प्रदान करना।’’
116 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

तत्पश्चात् राजा दशरथ की आज्ञा शिरोधार्य करके शीघ्रगामी सुमंत्र गए और सीता सहित श्रीराम
व लक्ष्मण को जनपद से बाहर तक पहुँचाने के लिए रथ ले आए। इसके पश्चात् राजा दशरथ ने तुरंत
ही धन संग्रहण के कार्य में नियुक्त कोषाध्यक्ष को बुलाकर सीता के पहनने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और
आभूषण लेकर आने का आदेश दिया, जो 14 वर्षों के लिए पर्याप्त हों। महाराज दशरथ के आदेशानुसार
कोषाध्यक्ष ने ऐसी सब चीजें लाकर शीघ्र ही सीता को समर्पित कर दीं। उस समय माता कौशल्या ने
सीता को अपनी दोनों भुजाओं से कसकर छाती से लगा लिया और उनके मस्तक को सूँघकर कहा,
“बेटी, तुम मेरे पुत्र श्रीराम का जिन्हें वनवास की आज्ञा मिली है, कभी अनादर न करना। ये निर्धन हों
या धनी, तुम्हारे लिए देवता के तुल्य हैं।” कौशल्या के धर्मयुक्त वचनों का तात्पर्य भलीभाँति समझकर
उनके सामने खड़ी हुई सीता ने हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा, “माते, आप मेरे लिए जो कुछ
उपदेश दे रही हैं, मैं उसका पूर्ण रूप से पालन करूँगी। जैसे प्रभा चंद्रमा से दूर नहीं हो सकती, उसी
प्रकार में पतिव्रत धर्म से विचलित नहीं हो सकती।” इसके पश्चात् श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने हाथ
जोड़कर राजा दशरथ के चरणों का स्पर्श करके उनकी परिक्रमा की। उनसे विदा लेकर सीता तथा लक्ष्मण
सहित रघुनाथजी ने माता का कष्ट देखकर शोक से व्याकुल हो उनके चरणों में प्रणाम किया और उन्हें
सांत्वना दी कि चौदह वर्ष तो शीघ्र ही निकल जाएँगे तथा वापिस आकर उनकी छत्रच्छाया में रहेंगे।
श्रीराम के बाद लक्ष्मण ने भी पहले माता कौशल्या को प्रणाम किया, फिर अपनी माता सुमित्रा के
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भी दोनों पैर पकड़े। अपने पुत्र लक्ष्मण को प्रणाम करते देख उनका हित चाहनेवाली माता सुमित्रा ने
बेटे के मस्तक को सूँघकर कहा, “तुम अपने बड़े भाई श्रीराम के अनुरागी हो, इस बात पर मुझे गर्व
है। वनों में श्रीराम तथा सीता की रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य होगा। तुम अपने बड़े भाई को अपना गुरु
भी समझना और शासक भी। मेरे स्नेहपूर्ण आशीर्वाद के साथ तुम वन को जाओ। इन चौदह वर्षों के
दौरान तुम श्रीराम को अपने पिता महाराज दशरथ समझो, जनकनंदिनी सीता को ही अपनी माता सुमित्रा
मानो और वन को ही अयोध्या समझो। अब यहाँ से सुखपूर्वक प्रस्थान करो।”
यहाँ पर विधि का विधान देखिए कि महान् ऋषियों, मुनियों द्वारा श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए
अत्यंत शुभ समझा जानेवाला समय श्रीराम के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ और उसी समय उन्हें
14 वर्षों के वनवास के लिए जाना पड़ा। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करते हुए यह समय 5
जनवरी, 5089 वर्ष ई.पू. में दिखाई देता है। यह श्रीराम का 25वाँ जन्मदिवस भी था, जैसा कि अध्याय
3 के सर्ग 47, श्लोक 10 में स्पष्ट तौर पर लिखा भी है। उस समय सूर्य और मंगल ग्रह रेवती नक्षत्र
के नजदीक मीन राशि में थे, जो राजा दशरथ की राशि थी। चंद्रमा कर्क राशि में पुष्य नक्षत्र के पास
था। उस समय बृहस्पति, बुद्ध, शुक्र तथा शनि सभी आकाश में दिखाई दे रहे थे, परंतु सभी ग्रह तथा
नक्षत्र निस्तेज दिखाई दे रहे थे (वा.रा.2/41/11-12)। इन सभी खगोलीय विन्यासों को प्लैनेटेरियम
सॉफ्टवेयर का उपयोग करके प्राप्त किए गए आकाशीय दृश्य में 5 जनवरी, 5089 वर्ष ई.पू. को अपराह्न‍
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 117

2:30 बजे से 4 बजे के बीच में देखा जा सकता था। शाम 3.20 बजे का आकाशीय दृश्य नीचे दिया
गया है। (देखें व्योमचित्र-13)
वनवास के लिए प्रस्थान के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-13 ः अयोध्या/भारत, 27° उत्तर, 82° पूर्व, दिनांक 05 जनवरी, 5089 वर्ष ई.पू. 15 बजकर 20 मिनट,
सूर्य तथा मंगल रेवती अर्थात्् मीन में, चंद्रमा कर्क राशि में पुष्य नक्षत्र के पास, बृहस्पति, मंगल और
बुद्ध आकाश में दृश्यमान; प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित

स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण—0.15.2/2017; NASA JPL DE 431 Ephemeris) का


उपयोग करते हुए जब इस आकाशीय दृश्य का सत्यापन किया गया, तब इसकी समकक्ष तिथि 13 फरवरी
5089 वर्ष ई.पू. 16:30 बजे निकली। उस समय सूर्य और मंगल ग्रह रेवती नक्षत्र में थे तथा चंद्रमा कर्क
राशि में पुष्य नक्षत्र के पास था। उस समय बृहस्पति, बुद्ध, शुक्र सभी आकाश में दिखाई दे रहे थे, परंतु
सभी ग्रह तथा नक्षत्र निस्तेज थे। दोनों सॉफ्टवेयरों के आकाशीय दृश्यों में 39 दिनों के अंतर के कारण को
118 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

प्रथम अध्याय के बॉक्स 1.4 में स्पष्ट कर दिया गया है। यह महत्त्वपूर्ण है कि प्लैनेटरे ियम तथा स्टेलेरियम
दोनों के आकाशीय दृश्यों की तिथि चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की नवमी अर्थात्् श्रीराम के 25वें जन्मदिन की
तिथि है। यह वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित खगोलीय अवलोकनों को भी संपुष्ट करती है। (देखें व्योमचित्र-14)
वनवास के लिए प्रस्थान के समय का आकाशीय दृश्य

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व्योमचित्र-14 ः अयोध्या/भारत, 27° उत्तर, 82° पूर्व, 13 फरवरी, 5089 ई.पू, 16:30 बजे;
स्टेलेरियम का स्क्रीनशॉट, सूर्य तथा मंगल रेवती (मीन) में, चंद्रमा कर्क राशि में पुष्य नक्षत्र के पास, बृहस्पति,
मंगल और बुद्ध आकाश में दृश्यमान

राजा की आज्ञा शिरोधार्य करके सुमत्रं उत्तम एवं द्रुत घोड़ों से सुशोभित रथ और अन्य वस्तुएँ ले आए,
जिनमें चौदह वर्षों के लिए पर्याप्त संख्या में सीता के लिए वस्त्र तथा आभूषण शामिल थे। कौशल्या ने भी
सीताजी को उचित परामर्श और निजी उपभोग की कुछ वस्तुएँ प्रदान कीं। श्रीराम के रथ में कवच, धनुष,
तीर और अन्य हथियार भी रख दिए गए और रथ के पिछले भाग में पिटारी तथा कुदारी भी रख दिए गए,
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 119

क्योंकि यह सभी वनवास में रहने के लिए आवश्यक वस्तुएँ थीं। वनवास जाने से पहले श्रीराम ने अपनी
माता कौशल्या को सांत्वना देने का प्रयास किया, जो फूट-फूटकर रो रही थीं। तत्पश्चात् श्रीराम, सीता और
लक्ष्मण शीघ्रता से रथ पर आरूढ़ हुए और सुमत्रं को रथ तेजी से चलाने के लिए कहा। अचानक ही, उन्होंने
चारों दिशाओं से अयोध्या वासियों को रथ की ओर पीछे-पीछे आते हुए देखा। जब रामचंद्रजी वनवास के
लिए जाने लगे, उस समय समस्त अयोध्यावासी अत्यंत दुःखी थे और उनकी आँखों से आँसओं ु की धारा
बह रही थी। वह सभी लोग उच् च स्वर में कहने लगे, ‘आदरणीय सुमत्रं घोड़ों की लगाम खींचो। रथ को
धीरे से चलाओ। हम श्रीराम का मुख देखगें ।े ’ उसी समय दयनीय दशा को प्राप्त हुई अपनी स्त्रियों से घिरे
हुए राजा दशरथ अत्यंत दीन होकर अपने प्यारे पुत्र श्रीराम को देखने के लिए महल से बाहर निकल आए।
राजा दशरथ सारी अयोध्यापुरी के लोगों को व्याकुल देखकर अत्यंत दुःख के कारण अचेत होकर एक बार
फिर भूमि पर गिर पड़े। पुन: चेतना लौट आने पर वन की ओर जाते हुए श्रीराम के रथ की धूल जब तक
दिखाई देती रही, तब तक इक्ष्वाकुवश ं के राजा दशरथ ने उधर से अपनी आँखें नहीं हटाईं। इस घटना का
मार्मिक चित्रण 400 वर्ष पुराने लघुचित्र में कलाकार साहिब दीन ने बखूबी किया है। (देखें लघुचित्र-3)

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लघुचित्र-3 ः मेवाड़ रामायण से एक पन्ना, कलाकार साहिब दीन। एमएस 15296 (1) एफएफ 55 वी (पाठ)
और 56 आर (चित्र); https: //www.bl.uk/ramayana (सौजन्य : ब्रिटिश लाइब्रेरी बोर्ड)

{श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वल्कल वस्त्र पहने हुए थे, जो कैकेयी ने उन्हें दिए थे। सुमंत्र द्वारा संचालित रथ को
अयोध्यावासियों ने घेर लिया। शोक संतप्त दशरथ ने रथ का पीछा करना चाहा, लेकिन नहीं कर पाए। यह घनी बनावटवाली
मेवाड़ रामायण की लघु पेंटिंग का एक पन्ना है, जो अयोध्या के लोगों के दुःख और बढ़ते उन्माद को रेखांकित करता है।
(मेवाड़ कोर्ट के कलाकार साहिब दीन ने 1640 ईस्वी से 1652 ईस्वी तक इन पेंटिंग्स पर काम किया। मेवाड के महाराणा
ने इन चित्रों को कर्नल जेम्स टॉड को उपहार में दिया, जिन्होंने इन्हें 1823 में ड् यूक ऑफ ससेक्स को भेंट कर दिया। ब्रिटिश
लाइब्रेरी ने ड् यूक की लाइब्रेरी से इनका अधिग्रहण किया)}
120 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

राजा दशरथ ने रथ के पीछे पैदल भागने का व्यर्थ प्रयत्न किया, परंतु जब रथ उनकी आँखों से
बिल्कुल ओझल हो गया, तब वह अत्यंत आर्त और विषादग्रस्त होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय
उन्हें सहारा देने के लिए उनकी धर्मपत्नी कौशल्या उनके दाहिनी बाँह के पास आईं और कैकेयी उनके
वामभाग में जा पहुँचीं। कैकेयी को देखते ही राजा दशरथ की समस्त इंद्रियाँ व्यथित हो उठीं और वे बोले,
“पापपूर्ण विचार रखनेवाली कैकेयी! तू मेरे अंगों का स्पर्श न कर। मैं तुझे देखना नहीं चाहता। तू न तो मेरी
भार्या है और न ही बांधवी।” तत्पश्चात् शोक से कातर हुई कौशल्या घोर दुःख से विचलित हुए महाराज
को उठाकर उनके साथ राज भवन की ओर लौटीं। राजा दशरथ अपने प्रिय पुत्र श्रीराम का बारंबार स्मरण
करके दुःख से आतुर हो विलाप करने लगे। उन्होंने कौशल्या के महल में जाने की इच्छा प्रकट की, परंतु
श्रीराम और सीता के बिना उनको वह महल भी चंद्रमाहीन आकाश की तरह श्रीहीन दिखाई देने लगा।
उधर कौशल्या को विलाप करती देख, धर्मपरायण तथा अत्यंत बुद्धिमान सुमित्रा ने कौशल्या को
यह धर्मयुक्त बात बोली, “तुम्हारे पुत्र श्रीराम उत्तम गुणों से युक्त और पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। उनके लिए इस
प्रकार विलाप करना और दीनतापूर्वक रोना व्यर्थ है। इस तरह रोने धोने से क्या लाभ है। श्रीराम की जैसी
शारीरिक शोभा है, जैसा पराक्रम है और जैसी कल्याणकारी शक्ति है, उससे जान पड़ता है कि वह वनवास
से लौटकर शीघ्र ही अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे। श्रीराम शीघ्र ही पृथ्वी, सीता और लक्ष्मी इन तीनों के साथ
राज्य पर अभिषिक्त होंगे। जिनको नगर से निकलते देख अयोध्या का सारा जनसमुदाय शोक के वेग से
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आहत हो नेत्रों से दुःख के आँसू बहा रहा है, वन को जाते हुए जिन विजयीवीर श्रीराम के पीछे-पीछे सीता
के रूप में साक्षात् लक्ष्मी ही गई है, उनके लिए क्या दुर्लभ है? जिनके आगे धनुर्धारियों में श्रेष्ठ लक्ष्मण
स्वयं बाण और खड्ग आदि अस्त्र लिए जा रहे हैं, उनके लिए जगत् में कौन सी वस्तु दुर्लभ है? देवी, मैं
तुमसे सत्य कहती हूँ। तुम वनवास की अवधि पूर्ण होने पर यहाँ लौटे हुए श्रीराम को फिर देखोगी, इसलिए
तुम शोक और मोह छोड़ दो। तुम नवोदित चंद्रमा के समान अपने पुत्र को पुनः अपने चरणों में मस्तक
रखकर प्रणाम करते देखोगी।”

3. अयोध्या से चित्रकूट की यात्रा और शृंग्वेरपुर में गुह निषाद से मिलन


अयोध्या का जनसैलाब सुमंत्र को रथ वापिस लाने के लिए जोर दे रहा था और वे श्रीराम को वापस
लौटने तथा उन्हें राजा बनने का भी आग्रह कर रहे थे। श्रीराम ने उन्हें समझाया कि वह अपने पिता राजा
दशरथ की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए वनवास को जा रहे हैं। श्रीराम ने रथ के पीछे आते हुए लोगों को
बताया कि भरत का चरित्र बड़ा ही सुदं र और सबका कल्याण करनेवाला है। वे आप लोगों के लिए योग्य
राजा होंगे और प्रजा के भय का निवारण करेंग।े दशरथ पुत्र श्रीराम ने ज्यों-ज्यों धर्म का आश्रय लेने के लिए
दृढ़ता दिखाई, त्यों-त्यों ही प्रजाजनों के मन में उन्हीं को अपना शासक बनाने की इच्छा प्रबल होती गई।
अयोध्या के प्रजाजन, विद्वान् तथा बुजरु ्ग आदि श्रीराम की वनयात्रा में उनके पीछे-पीछे चलते रहे और
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 121

श्रीराम के निरंतर अनुरोध पर भी अयोध्या वापिस जाने से इनकार करते रहे। उन सभी ने तमसा नदी के तट
तक श्रीराम का पीछा किया। इसके पश्चात् रथ को तमसा नदी के तट पर रोका गया। वहाँ पहुँचने पर श्रीराम
ने भी थके हुए घोड़ों को शीघ्र ही रथ से खोलकर उन सबको टहलाया, फिर पानी पिलाया और नहलाया।
तत्पश्चात् तमसा के निकट ही चरने के लिए छोड़ दिया। श्रीराम ने तमसा नदी के तट पर रात्रि व्यतीत करने
की इच्छा प्रकट की। अत्यंत थके हुए अयोध्यावासी भी जल्दी सो गए। तमसा नदी का आधुनिक नाम
‘मंदाह’ है; यह अपने प्राचीन स्थान से काफी दूर जा चुकी है और बहुत बारीक धारा के रूप में बहती है6।
लक्ष्मण ने श्रीराम और सीता के लिए धरती पर वृक्षों के पत्तों तथा घास से शय्या बनाई, लेकिन सुमत्रं
और लक्ष्मण तमसा के किनारे अयोध्या में हुए घटनाक्रम पर चर्चा करते हुए रातभर जागते रहे। इतने ही में
सूर्य उदय का समय निकट आ पहुँचा। महा तेजस्वी श्रीराम उठे और प्रजाजनों को सोते हुए देख भाई लक्ष्मण
से इस प्रकार बोले, “लक्ष्मण! इन पुरवासियों की ओर देखो। ये इस समय वृक्षों की जड़ों से सटकर सो रहे
हैं। इन्हें केवल हमारी चाह है। ये अपने घरों की ओर से भी पूर्ण निरपेक्ष हो गए हैं। हमें लौटा ले चलने के
लिए ये जैसा परिश्रम कर रहे हैं, इससे जान पड़ता है कि ये अपने प्राण त्याग देंग,े किंतु अपना निश्चय नहीं
छोड़ेंग।े अतः जब तक ये सो रहे हैं, तभी तक हम लोग रथ पर सवार होकर शीघ्रतापूरक ्व यहाँ से चल दें।
फिर हमें वनवास के मार्ग पर किसी और के आने का भय नहीं रहेगा। उसी समय श्रीरामचंद्र, लक्ष्मण और
सीता सहित रथ में बैठकर तमसा नदी के उस पास चले गए। तभी श्रीराम ने पुरवासियों को भुलावा देने के
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लिए सुमत्रं से यह बात कही, “हम लोग तो यहीं उतर जाते हैं, परंतु आप रथ पर आरूढ़ होकर पहले उत्तर
दिशा की ओर जाइए। दो घड़ी तक तीव्र गति से उत्तर दिशा में जाकर फिर दूसरे मार्ग से रथ को यहीं लौटा
लाइए। जिस तरह भी पुरवासियों को रथ के मार्ग का पता न चले, वैसा एकाग्रतापूरक ्व प्रत्यन कीजिए।”
श्रीरामजी का यह वचन सुनकर सारथि ने वैसा ही किया और लौटकर पुनः श्रीराम की सेवा में रथ उपस्थित
कर दिया। तब तीनों शाही तपस्वी रथ पर आरूढ़ हो गए और तपोवन की ओर चल दिए।
इधर रात्रि बीतने पर जब सवेरा हुआ, तब अयोध्यावासी उठे और श्री रघुनाथजी को न देखकर अत्यंत
दीन तथा दुःखी होकर आँसू बहाने लगे। वे अपनी निद्रा को धिक्कारने लगे और श्रीराम को इधर-उधर
ढूँढ़ने लगे। फिर रास्ते पर रथ की लीक देखते हुए सबके सबकुछ दूर तक गए, किंतु फिर अचानक मार्ग
का चिह्न‍‍ न मिलने के कारण वे शोक में डूब गए। उस समय यह कहते हुए कि यह क्या हुआ? अब हम
क्या करें? भाग्य ने हमें मार डाला, इस तरह विलाप करते हुए वे मनस्वी पुरुष रथ की लीक का अनुसरण
करते हुए अयोध्या वापिस लौट पड़े।
छोटे-बड़े गाँव में रहनेवाले मनुष्यों की बातें सुनते हुए, फिर श्रीराम कोसल जनपद की सीमा
लाँघकर आगे बढ़ गए। तदनंतर शीतल और सुखद जल बहानेवाली वेदश्रुति नामक नदी को पार करके
श्रीरामचंद्रजी मुनि अगस्त्य द्वारा सेवित दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गए। इस प्रकार आगे बढ़ते हुए, उन्होंने
समुद्रगामिनी गोमती नदी को पार किया, जो शीतल जल का स‍्रोत थी। उसके कछार में बहुत सी गौएँ
122 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

विचरती थीं। शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा गोमती नदी को लाँघ करके रघुनाथजी ने मोरों और हंसों के कलरवों से
व्याप्त स्यंदिका नामक नदी को भी पार किया। वहाँ जाकर श्रीराम ने धन-धान्य से संपन्न अनेक जनपदों
से घिरी उस भूमि का सीता को दर्शन करवाया, जिसे पूर्व काल में राजा मनु ने सूर्यवंश के संस्थापक राजा
इक्ष्वाकु को दिया था। इस प्रकार विशाल और रमणीय कोसल देश की सीमा को पार करके लक्ष्मण के
बड़े भाई श्रीरामचंद्रजी ने अयोध्या की ओर अपना मुख किया और हाथ जोड़कर अयोध्या और उसकी रक्षा
करनेवाले देवताओं से वन में जाने की आज्ञा माँगी। इसके पश्चात् तीनों शाही तपस्वियों ने त्रिपथगामिनी
दिव्य नदी गंगा का दर्शन किया, जिसके तट पर अनेक सुंदर आश्रम तथा उपवन थे। तब श्रीराम ने एक
रमणीय स्थान में एक महान् इंगुदी वृक्ष के नीचे रात्रि बिताने की इच्छा व्यक्त की। यह शृंग्वेरपुर के बिल्कुल
समीप था। (वाल्मीकि रामायण 2/50/26)
शृंग्वेरपुर में गुह निषाद नाम का राजा राज्य करता था। वह श्रीरामचंद्रजी का प्राणों के समान प्रिय मित्र
था। उसका जन्म निषाद कुल अर्थात्् कोल जनजाति में हुआ था। वह शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्ति
की दृष्टि से भी बलवान था तथा वहाँ के निषादों का सुविख्यात राजा था। उसने जब सुना कि श्रीराम उसके
राज्य में पधारे हैं, तब वह मंत्रियों और बंधु-बांधवों के साथ वहाँ आया। निषादराज गुह को दूर से आया
देख श्रीरामचंद्रजी लक्ष्मण के साथ आगे बढ़कर उनसे मिले। श्रीरामचंद्रजी को वल्कल आदि धारण किए
देख गुह को बड़ा दुःख हुआ। उसने रघुनाथजी को हृदय से लगाकर कहा, “श्रीराम! जैसे आपके लिए
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अयोध्या का राज्य है, उसी प्रकार यह राज्य भी आपका है। बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?” फिर गुह
निषाद (कोल जनजाति) अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन लेकर श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुआ और
उसने निवेदन किया—“यह सारी भूमि जो मेरे अधिकार में है, आपकी है, हम आपके सेवक हैं और आप
हमारे स्वामी, आज से आप ही हमारे इस राज्य का शासन करें। यह भक्ष्य, भोज्य, पेय और लेह्य‍‍र सभी
प्रकार के भोजन आपकी सेवा में उपस्थित हैं। इन्हें स्वीकार करें। यह उत्तम शय्याएँ हैं तथा आपके घोड़ों
के खाने के लिए चने और घास आदि भी प्रस्तुत हैं। यह सब सामग्री ग्रहण करें।”
गुह के ऐसा कहने पर श्रीरामचंद्रजी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया, “मित्र तुम्हारे यहाँ तक पैदल आने
और स्नेह दिखाने से ही हमारा भलीभाँति पूजन, स्वागत और सत्कार हो गया है। तुमसे मिलकर हमें बड़ी
प्रसन्नता हुई है।” फिर श्रीराम ने अपनी दोनों भुजाओं से गुह का आलिंगन करते हुए कहा, “यह सौभाग्य की
बात है कि मैं आज तुम्हें बंध-ु बांधवों के साथ स्वस्थ एवं सानंद देख रहा हूँ। बताओ तुम्हारे राज्य में मित्र
तथा सगे-संबधं ी, मंत्री तथा साधारणजन सर्वत्र कुशल तो है? इन सामग्रियों में जो घोड़ों के खाने-पीने की
वस्तु है, उसी की इस समय मुझे आवश्यकता है, दूसरी किसी वस्तु की नहीं। घोड़ों को खिला-पिला देने मात्र
से तुम्हारे द्वारा मेरा पूर्ण सत्कार हो जाएगा। ये घोड़े मेरे पिता महाराज दशरथ को बहुत प्रिय हैं। इनके खाने-
पीने का सुदं र प्रबंध कर देने से मेरा भलीभाँति पूजन हो जाएगा।” तब गुह ने अपने सेवकों को उसी समय
घोड़ों के खाने-पीने के लिए आवश्यक वस्तुएँ शीघ्र लाकर देने की आज्ञा दी। तत्पश्चात् वल्कल वस्त्र धारण
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 123

करनेवाले श्रीराम ने संध्या काल में उपासना करके भोजन के नाम पर स्वयं लक्ष्मण का लाया हुआ केवल
जलमात्र पी लिया। इसके पश्चात् पत्नी सहित श्रीराम लक्ष्मण द्वारा तैयार की गई तृण की शय्या पर सो गए।
इस प्रकार श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी ने दूसरी रात्रि गंगा नदी के तट पर गुह निषाद के राज्य
शृंगवेरपुर में व्यतीत की। आधुनिक समय में शृंग्वेरपुर को ‘सिंगरौर’ के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्तर
प्रदेश के इलाहाबाद जिले में स्थित है। सिंगरौर की एक यात्रा रामायण की ऐतिहासिकता तथा वास्तविकता
के दिलचस्प प्रमाण पेश करती है। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में गंगा के बाएँ तट पर स्थित शृंग्वेरपुर
में उत्खनित स्थल को देखने के पश्चात् गुह निषाद के इस छोटे से साम्राज्य के बारे में रामायण में दिए गए
संदर्भों की स्मृतियाँ मस्तिष्क में ताजा हो जाती हैं (रामायण 2/50-52)। यहाँ पर खुदाई डॉक्टर बी.बी.
लाल के नेततृ ्व में एक दल ने संपन्न की थी। इस खुदाई में गेरुआ रंग के मिट्टी के पात्र और ताँबे के बर्तन,
तलवारें आदि पाई गई हैं, जिनका तिथिकरण दूसरी सहस‍्राब्दी ई.पू. के समय का है। हम यहाँ पर अध्याय 1
में दिए गए समुद्र जल स्तर के वक्र का संदर्भ ले सकते हैं। 5000 ईस्वी पूर्व से 3500 ईस्वी पूर्व के दौरान
समुद्र के जल का स्तर 8 मीटर से भी अधिक नीचे चला गया था, इसलिए कई प्राचीन सभ्यताएँ अस्थायी
रूप से अपसर्जित हो गई थीं और लोगों ने जल की खोज में विस्थापन कर लिया होगा। यह वैज्ञानिक तथ्य
है कि कार्बन डेटिगं तभी की जाती है, जब कोई स्थान काफी समय से खाली रहा हो। वहाँ के पेड़-पौधे मृत
हो जाएँ और उन्होंने कार्बन उत्सर्जन करना छोड़ दिया हो। इसलिए यह प्रबल संभावना है कि इन स्थानों पर
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छह सात हजार वर्ष पहले मनुष्य का आवास था। यहाँ पर खुदाई में प्राप्त पुरा-अवशेषों की कार्बन तिथि
दो सहस‍्राब्दी ई.पू. के आसपास की है, इसलिए 5000 वर्ष ई.पू. में इनके बसे होने की प्रबल संभावना है।
शृंग्वेरपुर में पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त हुआ प्राचीन किला और अद्भुत जलटैंक परिसर रामायण
के संदर्भों का पुष्टकीरण करते हैं। यह उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद के नजदीक ऋंग्वेरपुर में खुदाई किए गए
टैंक का चित्र है। श्रीराम ने अपने 14 वर्षों के वनवास की यात्रा इसी स्थान से आरंभ की थी। खुदाई में
ईंटों की लाइन से बना टैंक परिसर प्राप्त हुआ है, जिसकी लंबाई 800 फीट, चौड़ाई 60 फीट और गहराई
72 फीट है। टैंक परिसर में गंगा के जल को चैनलों के माध्यम से किले में लाने की व्यापक व्यवस्था
थी। जल की गति को धीमा करने के लिए मुख्य टैंक का प्रवेश द्वार घुमावदार दीवारों के साथ सीढ़ियों पर
खत्म होता है। शुष्क दिनों अर्थात्् वर्षा न होनेवाले मौसम में पर्याप्त जल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के
लिए टैंक के तल में कई कुओं की भी खुदाई की गई थी। जल वितरण के लिए नालियों का जाल, उफान
के पानी को सिल्टिंग चैंबर के माध्यम से एकत्रित करना और सीपेज से जलहानि को रोकने के लिए सतह
के भीतर कुएँ आदि की भी व्यवस्था थी। (डॉ. बी.बी. लाल, ‘राम, हिज़ हिस्टोरिसिटी, मंदिर और सेतु’,
प्रकाशक : आर्यन बुक इंटरनेशनल 7) (देखें चित्र-20)
124 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चित्र-20 ः ऋंग्वेरपुर में उत्खनित टैंक—प्राचीन इंजीनियरिंग का अजूबा (सौजन्य : दीक्षित एवं आर्यन बुक्स इंटरनेशनल)

डॉ. बी.बी. लाल के अनुसार, खुदाई के दौरान पाया गया अद्वितीय जल टैंक कॉम्प्लेक्स एक चैनल
के माध्यम से गंगा के जल के प्रवाह को इंगित कर रहा था; उस टैंक में जल वितरण के लिए नाले थे
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और एक अवसाद-कोष्ठ के माध्यम से अतिरिक्त बहनेवाले जल को काम में लाने के प्रबंध भी थे और
इसके साथ-साथ इस में रिसाव के कारण होनेवाली हानि से बचाने के लिए टैंक के तल पर भूमिगत जल
के कुओं की भी व्यवस्था थी8।
खुदाई में पाए गए इस टैंक परिसर में देखी गई जल-संरक्षण और वितरण की प्राचीन प्रौद्योगिकी की
सराहना भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के सी.पी.आर. पर्यावरण शिक्षा केंद्र ने भी की है।
(www.cpreec.org)
लक्ष्मण श्रीराम व सीता की रक्षा के लिए रातभर धनुष-बाण लेकर बैठे रहे। राजा गुह निषाद भी सावधानी
के साथ धनुष धारण करके सुमत्रं तथा सुमित्राकुमार लक्ष्मण से बातचीत करते हुए श्रीराम की रक्षा के लिए
रात भर जागते रहे। अत्यंत व्यथित मन से लक्ष्मण ने राजभवन में कैकये ी द्वारा रचे हुए षड् यंत्र की कहानी
गुह को सुनाई और श्रीराम के गुणों की व्याख्या की। जब रात बीत गई और प्रभात हुआ उस समय श्रीराम ने
सुमित्रा कुमार लक्ष्मण से इस प्रकार कहा, “रात्रि व्यतीत हो गई है। अब सूर्य उदय का समय आ पहुँचा है।
वह कोकिला कू-कू बोल रही है। मयूर नाच रहे हैं, सुदं र फूल खिल रहे हैं। अब हमें तीव्र गति से बहनेवाली
समुद्रगामिनी गंगाजी के पार उतरना चाहिए।” लक्ष्मण ने श्रीरामचंद्रजी के कथन का अभिप्राय समझकर गुह
और सुमत्रं को बुलाकर गंगा पार उतरने की व्यवस्था करने के लिए कहा और स्वयं वह भाई के सामने
आकर खड़े हो गए। श्रीरामचंद्रजी का वचन सुनकर उनका आदेश शिरोधार्य करके निषादराज ने तुरतं अपने
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 125

सचिवों को बुलाया और गंगा नदी को पार करने के लिए केवट के साथ नाव की व्यवस्था करवाई।
तत्पश्चात् सारथी सुमंत्र ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर श्रीरामचंद्र से पूछा, “अब मैं आपकी क्या
सेवा करूँ?” श्रीराम ने सुमंत्र के अव्यक्त दुःख को समझकर उनको अपने दाहिने हाथ से स्पर्श किया
और कहा, “सुमंत्रजी! अब आप शीघ्र ही पुन: महाराज के पास लौट जाइए। अब आपका कर्तव्य महाराज
दशरथ की देखभाल करना है।” सुमंत्र ने करुणा भाव से कहा, “श्रीराम, मैं समझता हूँ कि ब्रह्म‍चर्य-पालन,
वेदों के स्वाध्याय, दयालुता अथवा सरलता और सभ्यता का कोई मूल्य नहीं रह गया है। जब सीता और
भाई लक्ष्मण के साथ आप ही वन में रहनेवाले हैं, तो हमारा क्या होगा? अब हम कैकेयी के शासन में किस
प्रकार जीवन व्यतीत करेंगे?” श्रीरामचंद्रजी से ऐसी बात कहकर सुमंत्र दुःख से व्याकुल होकर बालकों
की तरह देर तक रोते रहे।
सुमंत्र की आँखों से अश्रुओं को साफ करते हुए श्रीराम ने कहा, “इक्ष्वाकुवंशियों का हित करनेवाला
सुहृदय आपके समान कोई दूसरा नहीं है। मेरे पिता को सांत्वना देना आपका कर्तव्य है। उनका हृदय रोग
तथा दुःख से पीड़ित है। आपको उनके सभी आदेशों का कर्तव्यपूर्वक पालन करना जरूरी है। आप मेरे
शोक संतप्त पिता से कहना कि उन्हें हमारे बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। मेरी तरफ से उनके चरणों को
स्पर्श करके उन्हें यह स्पष्ट करना कि हम लोग अयोध्या से निकल गए हैं और हमें वन में रहना पड़ेगा,
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इस बात को लेकर न तो मैं शोक करता हूँ, न ही लक्ष्मण या सीता को इसका शोक है। चौदह वर्ष समाप्त
होने पर हम शीघ्र ही लौट आएँगे और उस समय हम आशीर्वाद के लिए आपके चरणो में आ जाएँगे।
माता कौशल्या से कहना कि तुम्हारा पुत्र तुम्हारी मंगल कामनाओं तथा आशीर्वाद से स्वस्थ एवं सुरक्षित
है। कैकेयी से भी बारंबार मेरा कुशल समाचार कहना। वह कभी यह न सोचें कि हम गुस्से में अयोध्या से
गए हैं। मेरी ओर से महाराज से भी यह निवेदन करना कि आप भरत को शीघ्र ही बुला लें और युवराज के
पद पर उनके अभिषेक की प्रक्रिया तेज कर दें, जिससे कि भरत हमारी अनुपस्थिति में पिता की देखभाल
कर सकें और अयोध्या का शासन सँभाल सकें।”
परंतु अपना दुःख न रोक पाने के कारण सुमंत्र फिर से रो पड़े और कहा कि वह इक्ष्वाकु कुल के
राजकुमार के बिना अयोध्या वापिस लौटने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे हैं। यह उत्तम घोड़े भी चलने से
इंकार कर देंगे। यदि इन घोड़ों को किसी तरह मना भी लिया जाता है तो आपके अयोध्या से निकलते समय
पुरवासियों ने जैसा आर्तनाद किया था, आपके बिना मुझे खाली रथ लिए लौटा आते हुए देखकर उससे भी
सौ गुना हाहाकार करेंगे। सुमंत्र ने यह भी कहा कि वह स्वयं भी अयोध्या वापस नहीं लौटना चाहते और
वे वनवास में 14 वर्षों के लिए श्रीराम के समर्पित सेवक के रूप में रहेंगे। दयालु एवं उदार हृदय श्रीराम ने
उत्तर दिया कि आप स्वामी के प्रति स्नेह रखनेवाले हैं। मुझसे आपका जो उत्कृष्ट स्नेह है, उसे मैं जानता
हूँ, लेकिन आपका अयोध्या लौटना अत्यंत जरुरी है, क्योंकि आपको कैसे भी हो यह बताना है कि राम,
लक्ष्मण और सीता वन को चले गए हैं और अयोध्या का समृद्ध शासन भरत के लिए सुरक्षित छोड़ दिया
126 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

गया है। ऐसा कहकर श्रीराम ने सुमंत्र को बार-बार सांत्वना दी और उसका उत्साहवर्धन किया तथा सुमंत्र
को इस प्रकार समझा कर श्रीराम ने अयोध्या वापस भेज दिया।
तत्पश्चात् श्रीराम ने गुहनिषाद से कहा कि वह निश्चित रूप से अत्यंत आराम से उनके राज्य में
चौदहवर्ष व्यतीत करते लेकिन उससे उनका अयोध्या छोड़ने की प्रण पूर्ण नहीं हो पाएगा, क्योंकि उन्होंने
तपस्वियों की तरह 14 वर्षों तक वन में जीवन व्यतीत करने के लिए ही अयोध्या छोड़ी है। इसके पश्चात्
श्रीराम ने केशों को जटा का रूप देने के लिए गुह से बरगद का दूध मँगवाया। गुह ने तुरंत ही बड़ वृक्ष
का दूध लाकर श्रीराम को दे दिया। श्रीराम ने उसके द्वारा लक्ष्मण की तथा अपनी जटाएँ बनाईं। श्रीराम
और लक्ष्मण वल्कल वस्त्र तथा जटामंडल धारण करके ऋषियों के समान शोभा पा रहे थे। इसके पश्चात्
दोनों राजकुमारों ने स्वयं को कवच, तरकस और तलवार से सुसज्जित किया। गुह द्वारा मँगवाई गई नाव में
बैठकर दोनों राजकुमारों ने सीता को नाव में सवार होने में मदद की। तत्पश्चात् मल्लाहों को नाव चलाकर
पार करने का आदेश दिया।
v
यहाँ पर यह उल्लेख करना उचित होगा कि गुह निषाद जनजाति का राजा था, जिसे वर्तमान में कोल
जनजाति से संबंधित माना जाता है। एस्टोनियाई बायो सेंटर, तार्तू द्वारा संचालित किए गए कोल जनजाति
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के अानुवंशिकी अध्ययन ने यह स्पष्ट किया है कि उनके प्राचीन आनुवंशिकी गुण भारत की आधुनिक
जनसंख्या के अानुवंशिकी गुणों से मिलते-जुलते हैं9। यह आसपास के अन्य लोगों के अानुवंशिकी गुणों
से भी मिलते हैं। कैवली-सफ्रोजा और कैनेथ कैनेडी ने विश्व की जनसंख्या का व्यापक आनुवंशिकी
अध्ययन संचालित करते समय पहले भी इसी प्रकार के निष्कर्ष निकाले थे।10-11 भारत में 10,000 वर्षों
से भी अधिक समय के सभ्य मानव के अानुवंशिकी गुणों (कोल जनजाति के अानुवंशिकी गुण सहित)
की निरंतरता पाई गई है। यह संयोग का विषय नहीं है कि यह अानुवंशिकी अध्ययन न केवल रामायण में
वर्णित तथ्यों की ऐतिहासिकता की पुष्टि करते हैं, अपितु महाकाव्य में 7000 वर्ष पूर्व श्रीराम के होने के
समय के साथ-साथ 9000 वर्षों पूर्व श्रीराम के पूरवर्ती
्व सूर्यवंशी राजाओं के उल्लेखों की भी संपुष्टि करते
हैं। आनुवंशिकी अध्ययन किस प्रकार किए जाते हैं, यह समझने के लिए बॉक्स 2.1 का संदर्भ लें।

बॉक्स 2.1
अानुवंशिकी अध्ययन किस प्रकार किया जाता है?
आनुवंशिक अध्ययन जीन का अध्ययन है। किसी भी व्यक्ति को अपने माता-पिता
से जीन प्राप्त होते हैं और उस व्यक्ति के माता-पिता को उनके जीन उनके परिवार के दीर्घ
वंशक्रम में पूर्वजों से प्राप्त होते हैं। इसलिए जीन का अध्ययन करने से हमें अपने पूर्वजों के
बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 127

यहाँ पर “महाकाव्य रामायण में वर्णित भील, कोल और गोंद जनजातियों की


आनुवंशिक संबद्धता” शीर्षक के लेख का संदर्भ दिया जा सकता है। यह लेख प्लोस वन
पत्रिका (public library of sciences (PLOS)) में 4 जून, 2015, को प्रकाशित
हुआ तथा इसके लेखक थे—
1. आनुवंशिकीविद् डॉ. ज्ञानेश्वर चौबे, एस्टोनियाई बायोसेंटर, टार्टू
2. परंपरागत मानवविज्ञानी, प्रो. वी आर राव
3. रामायण अध्येता, श्रीमती सरोज बाला,
4. श्री अनुराग कादियान
इस लेख को पढ़ने का लिंक है—
http://dx.plos.org/10.1371/journal.pone.0127655
इस कार्य को करने के लिए, इस टीम ने तीन मुख्य जनजातियों अर्थात्् कोल (गुह
निषाद की जनजाति), भील (भीलनी की उपजाति) और गोंद (दंडकवन के गोंद निवासी)
का चयन किया। तत्पश्चात् रामायण के विभिन्न अध्यायों में वर्णित इन जनजातियों की
भौगोलिक स्थिति तथा अन्य तथ्यों के विभिन्न संदर्भ निकाले। इसके पश्चात् प्रो. राव
तथा डॉ. ज्ञानेश्वर चौबे ने इन तीन प्राचीन जनजातियों से संबधि ं त 97000 से भी अधिक
एकल न्यूक्लियोटाइड पोलीमॉर्फिज्म्स की जाँच की और प्राप्त परिणामों की तुलना पड़ोसी
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जनसमूहों और विश्व के अन्य जनसमूहों के जीन से की।
विभिन्न सांख्यिकीय विधियों तथा आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हुए विश्लेषण
करने के बाद श्री ज्ञानश्व
े र चौबे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन जनजातियों के जीन की संरचना
10 हजार वर्षों से भी अधिक समय से उनकी आनुवशि ं क निरंतरता स्थापित करती है। इनके
जीन काफी हद तक अन्य समकालीन जनजातियों तथा जातियों के जीन से भी मिलते हैं।
स्थानांतरण के कारण पिछले हजारों वर्षों में हुए जीन के अंतर्वाह तथा बहिर्वाह का अध्ययन
करने के पश्चात् यह प्रमाणित किया गया कि इनके जीन मुख्य रूप से स्वदेशी हैं, जिनमें
जीन का बाहर से अंतर्वाह न के बराबर है तथा दस हजार वर्षों से भारत में ही निरंतरता
बनी हुई है।12
भारतवर्ष की अन्य आबादियों के जीन से तुलना के बाद यह निष्कर्ष भी निकाला गया
कि आनुवंशिक रूप से इनके जीन की अन्य भारतीयों से समानता स्पष्ट दिखाई देती है। ऐसे
ही निष्कर्ष विश्वप्रसिद्ध आनुवंशिकीविद् डॉ. कैनेथ कैनेडी तथा डॉ. कैवेले सफरोजा द्वारा
पहले ही दिए जा चुके हैं।
इस प्रकार आधुनिक आनुवंशिक अध्ययन रामायण में वर्णित जनजातियों तथा
सूर्यवंशी शासकों का संबंध 9000 वर्ष पहले से स्थापित करते हैं। श्रीराम सूर्यवंश के 64वें
राजा थे।
128 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

4. शाही तपस्वी गए गंगा पार; लक्ष्मण द्वारा चित्रकूट में सुंदर पर्णकुटी का निर्माण
श्रीराम, लक्ष्मण और सीता नाव में आराम से बैठे और नाविक ने नाव को तेजी से चलाया। समुद्रगामिनी
गंगा के बीच की धारा में पहुँचकर, सीता ने हाथ जोड़कर गंगाजी से यह प्रार्थना की—“देवी गंग,े यह मेरे
पति श्रीराम परम बुद्धिमान महाराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए वन में
जा रहे हैं। यह आपसे सुरक्षित होकर पिता की इस आज्ञा का पालन कर सकें, ऐसी कृपा कीजिए। वन में
पूरे 14 वर्षों तक निवास करके यह मेरे तथा अपने भाई के साथ पुन: अयोध्यापुरी को सकुशल लौट पाएँ।”
सीताजी इस प्रकार गंगाजी से प्रार्थना करती रहीं तथा नाव शीघ्र ही दक्षिण तट पर जा पहुँची। यह पहला
ऐसा समय था, जब ये तीनों अपने मित्रों तथा शुभच्छुे लोगों से दूर गए हों। इसके पश्चात् श्रीराम लक्ष्मण से
बोले, “तुम सजन या निर्जन वन में सीता की रक्षा के लिए सावधान हो जाओ। तुम आगे-आगे चलो, सीता
तुम्हारे पीछे-पीछे चले और मैं सीता की तथा तुम्हारी रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूगँ ा। लक्ष्मण, आज
महाराज निश्चय ही बड़े दुःख से सो रहे होंग,े क्योंकि वे असहाय हो गए हैं, परंतु कैकये ी सफल मनोरथ
होने के कारण बहुत संतुष्ट होगी। सौम्य! मैं समझता हूँ कि महाराज दशरथ के प्राणों का अंत करने, मुझे
देशनिकाला देने और भरत को राज्य दिलाने के लिए ही कैकये ी इस राजभवन में आई थी।”
इस समय भी नियति से भ्रमित हुई कैकये ी माता कौशल्या और माता सुमित्रा को कष्ट पहुँचा सकती है।
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हम लोगों के कारण तुम्हारी माता सुमित्रा को बड़े दुःख के साथ वहाँ रहना पड़ेगा। अत: तुम यहीं से कल
प्रातःकाल अयोध्या को लौट जाओ। मैं अकेला ही सीता के साथ दंडकवन को जाऊँगा। तुम वहाँ असहाय
माता कौशल्या तथा माता सुमित्रा के सहायक हो जाओगे।’’ ऐसी बहुत सी बातें कहकर श्रीराम ने उस निर्जन
वन में करुणाजनक विलाप किया। तत्पश्चात् वे उस रात में चुपचाप बैठ गए। उनकी आँखों से आँसओं ु की
धारा बह रही थी और मुख पर दीनता छा रही थी। उस समय लक्ष्मण ने आश्वासन देते हुए कहा, “पुरुषोत्तम
श्रीराम! आप जिस तरह शोकग्रस्त हो रहे हैं, यह आपके लिए कदापि उचित नहीं है। आप ऐसा करके सीता
को और मझ ु को भी दुःख में डाल रहे हैं। रघुनंदन! आपके बिना सीता और मैं दोनों ही दो घड़ी भी जीवित नहीं
रह सकते। मैं आपकी और सीताजी की चौदह वर्षों तक देखभाल करने के अपने संकल्प पर दृढ़ प्रतिज्ञ हूँ।”
तदनंतर श्रीराम तथा सीता ने थोड़ी दूर वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा बिछाई गई सुंदर शय्या को
देखा। उन सभी ने वह रात्रि वटवृक्ष के नीचे व्यतीत की और अगली सुबह सूर्योदय के बाद मुनि भरद्वाज
के आश्रम के लिए प्रस्थान किया। वनों में चलते हुए वे उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ यमुना का गंगा नदी
से संगम हो रहा था। प्रयाग में, संगम के निकट (आधुनिक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में) उन्होंने ऋषि
भरद्वाज का आश्रम देखा और उसमें प्रवेश किया। उसके भीतर प्रवेश करने पर मुनि भरद्वाज ने उन सभी
का स्नेहपूर्वक स्वागत किया और तीनों शाही तपस्वियों ने वह रात्रि उनके आश्रम में ही व्यतीत की। श्रीराम
के पूछने पर, ऋषि भरद्वाज ने वनवास के कुछ वर्ष व्यतीत करने के लिए चित्रकूट को सबसे अनुकूल
स्थान बताया। मुनि भरद्वाज ने वनों के मार्ग से चित्रकूट जाने का रास्ता समझाकर तथा अपना आशीर्वाद देते
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 129

हुए उन तीनों को चित्रकूट के लिए प्रस्थान करने की आज्ञा दी। उन्होंने बताया कि वे संगम से यमुना नदी
के पार उतरकर, श्यामवट के नीचे बैठकर प्रार्थना करने के पश्चात् नीलवन होते हुए चित्रकूट पहुँच जाएँ।
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में स्थित प्रयाग में संगम के निकटवर्ती क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण
उत्खनन किए गए हैं। यहाँ पर विश्व की दो प्राचीनतम बस्तियों नामत: झुस्सी और हेटा-पट्टी की खुदाई
की गई है। यहाँ पर पाए गए पुरावशेषों के कार्बन तिथि निर्धारण में इनकी प्राचीनता सातवीं सहस ्राब्दी से
लेकर पाँचवीं सहस ्राब्दी ई.पू. के आसपास पाई गई है13। इलाहाबाद में नेहरू परिवार के पैतृक घर आनंद
भवन के ठीक सामने स्थित नगर निगम उद्यान के नीचे भरद्वाज मुनि के आश्रम से संबंधित भी कुछ खुदाई
की गई है।14 यह स्थान रामायण में वर्णित स्थान ‘संगम’ के निकट स्थित है (वा.रा. 2/54/8-13)। ये
खुदाई डॉ. बी.बी. लाल की देख-रेख में की गई थी। वहाँ पर कोई पुरातात्त्विक टीला भी चिह्न  ित नहीं
किया गया था और नगर निगम उद्यान के ठीक नीचे अत्यंत सीमित खुदाई ही की गई थी। खुदाई किए गए
स्थल के निम्नतम स्तर पर एन.बी.पी.डब्ल्यू. के टुकड़ों सहित बालू मिट्टी के निक्षेप के साथ-साथ किसी
आश्रम जैसे विन्यास में बेंत और मिट्टी की झोंपड़ियों का संकेत देते हुए नर्कट (बेंत) के निशानों के साथ
चिकनी बलुआ मिट्टी के टुकड़े भी पाए गए थे।
झुस्सी और हेटा-पट्टी के स्थल पर की गई खुदाइयों का रोचक एवं वास्तविक विवरण श्री जे.एन.
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पाल ने परागधारा संख्या 1815 में प्रकाशित अपने लेख, ‘द अर्ली फार्मिंग कल्चर ऑफ मिडल गंगा प्लेन
विद स्पेशल रेफरेंस टू एक्सकेवेशन एट झूँ्सी ऐंड हेटा-पट्टी’ में दिया है। ये नियोलिथिक काल से संबंधित
पाई गई हैं और यहाँ से उत्खनित पुरावशेषों की कार्बन तिथियाँ सातवीं सहस ्राब्दी से लेकर चौथी सहस ्राब्दी
ई.पू. तक निर्धारित की गई हैं। इस संदर्भ में उत् खनित कलाकृतियों के पाँच चित्रों का अवलोकन करें (देखें
चित्र-21 से 25)

चित्र-21 ः झुस्सी और हेटा-पट्टी की भौगोलिक स्थिति (सौजन्य : जे.एन. पाल, प्रागधारा सं.18)
130 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चित्र-22 ः समुद्रकूप टीला, झुस्सी चित्र-23 ः हड्ड‍ियों के वाणाग्र, झुस्सी


(सौजन्य : जे.एन. पाल, प्रागधारा सं.18) (सौजन्य : जे.एन. पाल, प्रागधारा सं.18)

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चित्र-24 ः छेदवाली चिलमची, झुस्सी चित्र-25 ः कुटिया का फर्श, झुस्सी
(सौजन्य : जे.एन. पाल, प्रागधारा सं.18) (सौजन्य : जे.एन. पाल, प्रागधारा सं.18)

इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में यमुना और गंगा नदी के संगम स्थल, झूँसी में की गई खुदाइयों के
दौरान एकत्र किए गए पुरातात्त्विक-वनस्पतिक नमूनों के अध्ययन के परिणाम अत्यंत रोचक हैं।
बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान के डॉ. अनिल, के. पोखरियाल और प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व
और संस्कृति विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ. जे.एन. पाल और वनस्पतिशास्त्र विभाग, डीजी
(पीजी) कॉलेज की डॉ. अल्का श्रीवास्तव द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन में यह पता चला है
कि धान, जौ, गेहूँ, दाल, हरा चना, घुरचना, तिल, आँवला, अंगूर, स्वीट पी, घास, मनका आदि की
खेती 7000 वर्ष पहले रामायण काल में की जाती थी। वाल्मीकि रामायण में इस तरह के कई पौधों
का संदर्भ भी है (वा.रा 1/27/7-13, वा.रा. 2/15/7-10, वा.रा. 7/91/19-20 आदि)16। इस प्रकार
इन फसलों तथा पौधों के पुरातात्त्विक-वनस्पतिक अवशेषों की कार्बन तिथियाँ रामायण की खगोलीय
तिथियों का समर्थन करती हैं और इन्हें कम-से-कम 7000 वर्ष पुराना सिद्ध करती हैं। खुदाई में मिली
फसलों के चित्र। (देखें चित्र-26)
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 131

संगम के नजदीक झुस् सी में खुदाई के दौरान पाई गई फसलें

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चित्र-26 ः धान, जौ, गेहूँ, दाल, हरा चना, घुरचना, तिल, आँवला, अंगूर, स्वीट पी, घास, मनका आदि
(सौजन्य : जे.एन. पाल व अनिल पोखरियाल, कर्रेंट साइंस-2009)

चित्रकूट पहुँचने के लिए वे तीनों राजसी तपस्वी ऋषि भरद्वाज द्वारा बताए गए मार्ग पर आगे बढ़ने
लगे। दोनों भाइयों ने जंगल के सूखे बाँस काटकर एक बेड़ा बनाया। लक्ष्मण ने बेंत और जामुन की टहनियों
को काटकर सीताजी के बैठने के लिए एक सुखद आसन तैयार किया। इसके पश्चात् श्रीराम ने अपनी
प्रिया सीता को उस बेड़े पर चढ़ा दिया और उसके बगल में वस्त्र और आभूषण रख दिए। फिर श्रीराम
ने बड़ी सावधानी के साथ खंती (कुदारी) और पिटारी को भी बेड़े पर ही रख दिया। इस प्रकार पहले
सीताजी को बैठाकर, वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उस बेड़े को पकड़कर खेने लगे। उन्होंने बड़े प्रयत्न
और प्रसन्नता के साथ नदी को सुरक्षित पार कर लिया। यमुना की धारा के बीच में आने पर सीता ने उन्हें
प्रणाम किया और कहा “देवी इस बेड़े द्वारा मैं आपके पार जा रही हूँ और आप ऐसी कृपा करें, जिससे
132 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

मेरे पतिदेव अपने वनवास की प्रतिज्ञा को निर्विघ्न पूर्ण करें।” पार उतरकर उन्होंने बेड़े को तो वहीं तट
पर छोड़ दिया और यमुना के तटवर्ती वन से प्रस्थान करके वे हरे-हरे पत्तों से सुशोभित शीतल छायावाले
श्यामवट के पास जा पहुँचे। वट के समीप पहुँचकर सीता ने उसे मस्तक झुकाया और प्रार्थना की कि
वनवास विषयक अपने व्रत को पूर्ण कर वे तीनों सकुशल लौटकर माता कौशल्या और सुमित्रा देवी का
दर्शन कर सकें। इस प्रकार कहकर सीता ने हाथ जोड़कर उस वृक्ष की परिक्रमा की।
इस स्थल का दौरा करने से यह पता लगा कि इलाहाबाद में संगम के नजदीक अकबर के किले के
भीतर एक अद्भुत वृक्ष है, जो अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। इसकी जड़ें भूमि के स्तर से कई मीटर
नीचे हैं और यह चारों ओर कई सौ मीटर में फैली हुई हैं, जो हमें इस अभूतपूर्व वृक्ष के बारे में रामायण
में वर्णित संदर्भों का स्मरण कराती हैं। (2/53/33, 2/54/1) अकबर ने इस किले का निर्माण इस प्रकार
करवाया था, ताकि हर तरफ से अक्षय वट के इस पवित्र पेड़ को किले में समावृत्त किया जा सके। इस
पेड़ की कुछ शाखाओं को किले की दक्षिणी दीवार के बाहर से देखा जा सकता है। ऐतिहासिक काल में
कभी इस वृक्ष को एक तरफ से काट दिया गया होगा, लेकिन यह पुनः उग गया। इसका दूसरा किनारा
जला हुआ है, लेकिन जली हुई शाखाओं के आसपास से प्रशाखाएँ और पत्तियाँ भी निकल रही हैं। इस
वृक्ष की जड़ें आधे किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में फैली हुई हैं और इसकी सदाबहार पत्तियाँ मोटी, छोटी
तथा गहरे हरे रंग की हैं।
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श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “तुम सीता को साथ लेकर आगे-आगे चलो और मैं धनुष धारण किए
पीछे से तुम लोगों की रक्षा करता हुआ चलूगँ ा। जनकनंदिनी सीता जो-जो फल या फूल माँगें अथवा जिस
वस्तु को पाकर इनका मन प्रसन्न रहे, वह सब इनको देते रहो। लक्ष्मण सीता की इच्छापूर्ति व प्रसन्नता
के लिए भाँति-भाँति के वृक्षों की मनोहर टहनियाँ और फूलों के गुच्छे लाकर उन्हें देने लगे। उस समय
सीता हंसों और सारसों के कलनाद से मुखरित यमुना नदी को देखकर बहुत प्रसन्न हो रही थीं। उधर
श्रीराम अपने माता-पिता के असहय दुःख का स्मरण करके एक बार फिर व्यथित हो उठे। लक्ष्मण ने
उन्हें सांत्वना दी तथा एक बड़े वटवृक्ष के नीचे श्रीराम तथा सीता के लिए आरामदायक शय्या तैयार कर
दी। उन्होंने कहा कि वह किसी भी अवस्था में श्रीराम तथा सीता को वनों में छोड़कर अयोध्या वापिस नहीं
जाएँगे। श्रीराम ने अब निर्वासन के चौदह वर्ष लक्ष्‍मण के साथ व्‍यतीत करने का संकल्‍प किया। तत्‍पश्‍चात्
उन तीनों तपस्वियों ने बरगद के पेड़ के नीचे रात बिताई।
अगली सुबह उठकर उन्‍होंने चित्रकूट की तरफ अपनी पैदल यात्रा जारी रखी। वनों के दुर्गम कँटीले
रास्‍तों पर चलते हुए जनकनंदिनी प्रसन्‍नचित्‍त दिखाई दे रहीं थीं। वन वृक्षों व सुंदर लताओं को देखकर
उत्‍सुकता से वो उनकी सुंदरता की प्रशंसा करती जा रही थीं। दिनभर यात्रा का आनंद उठाते हुए उन्‍होंने
नदी के किनारे समतल मैदान में रात्रि व्‍यतीत करने का निश्‍चय किया। जंगल के सौंदर्य का वर्णन करते
हुए श्रीराम ने सीता से कहा, “मानवीय हस्‍तक्षेप के बिना यह प्राकृतिक जंगल कितना सुंदर लग रहा है।
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 133

उधर पेड़ों पर लटकते हुए मधुमक्खियों के छत्तों को देखें। झड़ी हुई फूलों की पत्तियों से रंग-बिरंगी दिखाई
देनेवाली धरती को देखें। पक्षियों के मधुरगान का रसपान करो। कितनी खुशी से वे एक-दूसरे के लिए गीत
गाते हैं तथा आनंदमग्न हो कर रहते हैं। यदि हमें इनके ऐसे मधुरगीत सुनने का सदैव अवसर मिल सके तो
हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।” फिर उन्होंने दूर से चित्रकूट पर्वत को देखा और फिर सीता सहित श्रीराम
और लक्ष्मण तेज गति से पैदल यात्रा करते हुए रमणीय एवं मनोहर पर्वत चित्रकूट पर जा पहुँचे। श्रीराम ने
कहा, यह क्षेत्र कितना सुंदर और मनोहर है। यहाँ के वनों में खाने योग्य फल और मूल भी हैं। यहाँ का जल
अत्यंत स्वच्छ और मीठा है। मुझे जान पड़ता है कि यहाँ बड़े सुख से जीवन निर्वाह हो सकता है, क्योंकि
इस पर्वत पर बहुत से महात्मा-मुनि भी निवास करते हैं। यही हमारा निवास स्थान होने के योग्य है। श्रीराम
ने चित्रकूट को गंगा की सहायक नदी मंदाकिनी के तट पर स्थित अद्वितीय सुंदरता वाले स्थान के रूप में
वर्णित किया (वा.रा. 2/94-95)। उन्‍होंने कहा, यह स्‍थान वनस्‍पतियों एवं जीवों में बहुत समृद्ध है। पशुओं
तथा पक्षियों की विशाल विविधता है। सुंदर झरने तथा फब्‍बारे इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहे हैं। यहाँ
पर मनुष्‍यों के निवास के लिए सुंदर गुफाएँ भी हैं। यहाँ कामदगिरि की पहाड़ियाँ फूलों तथा फलों के पौधों
से महक रही हैं तथा पक्षियों के कलरव के साथ चहक रही हैं।
तत्पश्चात् तीनों राजसी तपस्वी चित्रकूट में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम जा पहुँचे। उन्होंने आश्रम में
प्रवेश कर महर्षि के चरणों में अपने मस्तक झुकाए तथा महामुनि ने श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता का बड़े
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उत्साह से स्वागत किया। महर्षि वाल्मीकि से अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् श्रीराम ने वहीं रहने का
निश्चय किया तथा लक्ष्मण से एक कुटिया का निर्माण करने का अनुरोध किया। लक्ष्मण ने शीघ्र ही विभिन्न
प्रकार के वृक्षों की डालियाँ तथा बाँस आदि काटकर कुटिया की दीवारें बनाईं, वृक्षों के पत्तों से उसकी छत
बनाई। भीतर प्रचंड वायु तथा वर्षा से बचने का पूरा प्रबंध कर दिया। एक दक्षि‍ण भारतीय विद्वान् कंबन,
जिन्‍होंने 12वीं शताब्‍दी में ‘रामावतारम’ की रचना की, ने लवकुश द्वारा राम दरबार में वर्णित कुटिया की
भव्‍यता तथा सुंदरता का व्‍याख्‍यान करते हुए लिखा कि उस सुंदर पर्णकुटी को देख श्रीराम ने लक्ष्मण को
प्रेम सहित हृदय से जकड़ लिया और कहा, “तुमने यह सब शिल्‍पकारी कब और कहाँ सीखी? मिथिला
की राजकुमारी ने अपने फूलों जैसे कोमल पैरों से वन के कठिन रास्‍तों को पार कर आश्‍चर्य चकित किया,
तो लक्ष्‍मण तुम्‍हारे हाथों ने इस सुंदर पर्णकुटी का निर्माण कर और भी बड़ा चमत्‍कार किया। आज मैं दु:खों
से होनेवाले लाभ को देख रहा हूँ।” इसके पश्‍चात् श्रीराम ने देवताओं और प्राकृतिक शक्तियों की पूजा
की तथा शास्‍त्रोक्‍त विधि‍के अनुसार उस पर्णकुटी का शुद्धीकरण भी किया। इस सुंदर कुटिया में निवास
करते हुए वो तीनों शाही संन्यासी धर्म कर्म में विलीन रहते थे। वो भूल गए थे कि उन्‍हें 14 वर्ष के वनवास
हेतु महलों से निर्वासित किया गया है, वो बड़ी प्रसन्‍नता से प्रा‍कृतिक सौंदर्य का आनंद उठा रहे थे। श्रीराम
अवतार शर्मा ने अपनी पुस्‍तक ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’ में चित्र‍कूट के लालापुर गाँव के पास एक
विशिष्‍ट पहाड़ी की पहचान की है, जिसे वे संभवत: वाल्‍मीकि आश्रम का स्‍थान मानते हैं, इसी के पास
वाल्‍मीकि नाम की एक छोटी सी नदिया भी बहती है।17 वास्‍तव में चित्रकूट की एक यात्रा आ‍ज भी रामायण
134 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

में वर्णित कई संदर्भों को आगंतुक की यादों में ताजा कर देती है—वह फल, फूलों तथा पक्षियों से भरा
कामद‍गिरी, वे गुफाएँ तथा झरने आदि सभी वहाँ देखे जा सकते हैं!

5. वनगमन के पश्चात् अयोध्या में घटित घटनाएँ; सम्राट् दशरथ की दुःखद मृत्यु
इधर जब श्रीराम गंगा के दक्षिण तट पर उतर गए, तब गुह निषाद दुःख से व्याकुल होकर सुमंत्र के
साथ बड़ी देर तक बातचीत करते रहे। उसके पश्चात् अत्यंत शोकाकुल होकर सुमंत्र ने सीधा अयोध्या
की ओर प्रस्थान किया। अयोध्‍या पहुँचकर उन्‍होंने देखा कि सारी अयोध्‍या नगरी निर्जन, वीरान तथा जीवन
की सामान्‍य हलचल से वंचित दिखाई दे रही है। दु:ख तथा चिंता में डूबे हुए सारथी सुमंत्र ने शीघ्रगामी
घोड़ोंवाले रथ से जैसे ही नगर के भीतर प्रवेश किया तो सैकड़ों-हजारों अयोध्यावासी दौड़े आए और
पूछने लगे, “श्रीराम कहाँ हैं?” यह पूछते हुए वे उनके रथ के साथ-साथ दौड़ने लगे। सुमंत्र ने व्‍यथित
मन से उनकी बातें सुनीं। सुमंत्र ने शोकग्रस्‍त अयोध्यावासियों को बताया कि श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी
गंगा नदी के पार चले गए है। इसके पश्चात् झुंड-के-झुंड लोग खड़े होकर कहने लगे कि अब हम यहाँ
श्रीरामचंद्रजी को नहीं देख पाएँगे। बाजार के बीच से निकलते समय सारथी के कानों में स्त्रियों के रोने की
आवाज सुनाई दी, जो श्रीराम के वियोग से संतप्त होकर विलाप कर रही थीं। वो सुमंत्र से पूछ रही थीं कि
श्रीराम, लक्ष्‍मण तथा सीता को वनों में छोड़कर तुम रथ लेकर वापिस अयोध्‍या कैसे और क्‍यों आ गए?
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राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमंत्र ने कपड़े से अपना मुँह ढक लिया और उसी महल की ओर गए, जहाँ
राजा दशरथ मौजूद थे।
सुमंत्र ने राजा दशरथ के राजमहल के सामने रथ रोका और उससे उतर गए। राजा के महल के
बाहर बड़ी संख्या में भीड़ एकत्रित होकर कहने लगी, “यह सारथी सुमंत्र श्रीराम के साथ यहाँ से गए
थे और उनके बिना ही यहाँ लौट आए हैं। ऐसी दशा में करुण-क्रंदन करती हुई कौशल्या को यह क्या
उत्तर देंगे? क्‍या वह रानी कौशल्या को यह बताएँगे कि वह श्रीराम को वन में छोड़ आए हैं। क्‍या माता
कौशल्‍या ऐसे दु:खद समाचार को सुनकर जीवित रह पाएँगी? गहरे दुःख तथा चारों ओर फैली हुई
अस्‍तव्‍यस्‍तता के बीच सुमंत्र ने रानी के कक्ष में प्रवेश किया। वहाँ पर उन्होंने राजा दशरथ को जीवित से
अधिक मृत पाया। सुमंत्र ने अत्यंत मंद स्वर में श्रीराम का सम्‍मानपूर्ण व आश्‍वासनपूर्ण संदेश राजा दशरथ
को सुनाया और राजा ने भी उस संदेश को विदीर्ण व व्‍यथित मन से चुपचाप सुना। सुमंत्र ने लक्ष्मण का
क्रोध और रोष से भरा संदेश भी महाराजा दशरथ को दिया, जिसमें उन्‍होंने स्‍पष्‍ट रूप से कहा था कि
कैकेयी को दिए वरदान के कारण हो या फिर किसी अन्‍य कारण से, सम्राट् द्वारा श्रीराम को चौदह वर्ष
के वनवास के लिए भेजना सर्वथा अनुचित था। सुमंत्र ने अयोध्या के वासियों की चिंता और दुःख के
बारे में भी राजा को बताया। सारथी सुमंत्र ने राजा दशरथ को श्रीराम का आश्वासन देनेवाला वह संदेश
दोहराया, जिसमें श्रीराम ने कहा था कि वह पिता दशरथ की आज्ञा का प्रसन्नता से पालन कर रहे हैं और
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 135

उन्‍हें कोई असुविधा नहीं है। श्रीराम की यह बात सुमंत्र से सुनते ही राजा दशरथ शोक संतप्‍त हो गए और
यह कहते हुए मूर्च्छित हो गए कि “मुझे उसी जगह छोड़ आओ, सुमंत्र, जहाँ पर तुम मेरे प्रिय पुत्र राम
को छोड़कर आए हो।”
इसके पश्चात् अपने क्रोध पर नियंत्रण करने में असमर्थ रानी कौशल्या ने राजा दशरथ से कहा, “यह
तुम्हारा मंत्री तुम्हारे आदेश का पालन करने के लिए मेरे पुत्र को वन में छोड़ने के पश्चात् वापस लौट आया
है। आप मौन क्यों हैं? कैकेयी को वरदान देना आसान और सुखद था। आप अब इतनी लज्जा महसूस क्यों
कर रहे हैं? क्या आपको यह नहीं पता कि यह आपके ही कर्मों का फल है? आपने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण
की है, आप इस बात से अत्यंत प्रसन्न होंगे, लेकिन मेरे दुःख को कौन समझ सकता है? यह सब मुझे ही
सहन करना पड़ेगा। मेरा दुःख आपकी पीड़ा से कम नहीं हो सकता।” सुमंत्र ने कौशल्या रानी को सांत्वना
देने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया और कहा, “हे महारानी! बहादुर बनो, इस दुःख को त्याग दो।
श्रीराम वन में अयोध्या से भी अधिक प्रसन्न होकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उन्हें कोई भी दुःख नहीं
है और लक्ष्मण भी अपने प्रिय भाई श्रीराम तथा सीता की सेवा करने के कार्य में अत्यंत आनंद महसूस कर
रहे हैं। वह श्रीराम के साथ प्रत्येक क्षण अत्यंत प्रसन्नता के साथ व्यतीत कर रहे हैं और उन्हें कोई भी भय
या दुःख नहीं है। सीता वन में अपना समय वन देवी की तरह व्यतीत करती है और वह वन में इस प्रकार
आनंदित महसूस कर रही हैं कि मानो वह अयोध्या के उपवनों एवं उद्यानों में क्रीड़ा कर रही हों।” सुमंत्र
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की इन बातों से कौशल्या को एक क्षण के लिए सांत्वना मिली, लेकिन जल्द ही वह अश्रु बहाने लगीं और
‘हाय राम, हाय राम, मेरा बच्‍चा’ कहकर पुन: रुदन करने लगी। फिर उन्‍होंने महाराज से कहा, “आपने
निर्दोष राम को तथा सुकुमारी सीता को वन में भेजकर बड़ा ही निदर्यतापूर्ण काम किया है। मेरा हृदय भी
शायद लोहे का बना हुआ है, जिसके अभी तक सहस्रों टुकड़े नहीं हुए। आपने अयोध्या की प्रजा को बर्बाद
कर दिया, सिंह के समान बलशाली अपने धर्म-परायण पुत्र को राज्य से वंचित कर वन में भेज दिया और
मैं तो हर प्रकार से आपके द्वारा मारी गई।”
कौशल्या के इन कठोर शब्दों को सुनकर राजा दशरथ को बड़ा दुःख हुआ। वे राम राम कहकर
मूर्च्छित हो गए। राजा शोक में डूब गए। फिर उसी समय उन्हें अपने एक पुराने दुष्कर्म का स्मरण हो
आया, जिसके कारण उन्हें यह दुःख प्राप्त हुआ था। इसके पश्चात् राजा दशरथ ने रानी कौशल्या को
कहानी सुनाना आरंभ किया। राजा ने बताया कि पिता के जीवनकाल में जब राजा दशरथ अविवाहित
राजकुमार थे, तो एक अच्छे धनुर्धर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। सब लोग यही
कहते थे कि राजकुमार दशरथ शब्द भेदी बाण चलाना जानते हैं और उनके जैसा धनुर्धारी कोई अन्य
व्‍यक्ति नहीं है। एक दिन वर्षा ऋतु के उस अत्यंत सुखद सुहावने समय में ‘मैं धनुष बाण लेकर रथ पर
सवार हो गया और शिकार खेलने के लिए सरयू नदी के तट पर गया। मैंने सोचा था कि पानी पीने के लिए
घाट पर रात के समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी या सिंह आदि जैसा कोई हिंसक पशु आ
136 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जाएगा तो मैं उसे शब्‍दभेदी बाण से मारूँगा। उस समय वहाँ सब ओर अंधकार छा रहा था। मुझे अकस्मात्
पानी में गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई पड़ी, जो मुझे हाथी के पानी पीते समय होनेवाले शब्द के समान
जान पड़ी। तब मैंने तरकस से एक तीर निकाला और उस आवाज को लक्ष्य बनाकर चला दिया। बाण को
जैसे ही मैंने छोड़ा, वैसे ही वहाँ गिरते हुए किसी वनवासी का हाहाकार मुझे स्पष्ट रूप से सुनाई दिया। उस
पुरुष के धराशायी हो जाने पर वहाँ यह मानव वाणी प्रकट सुनाई देने लगी’, “आह! मेरे जैसे तपस्वी पर
शस्त्र का प्रहार कैसे संभव हुआ? मैं तो नदी के इस एकांत तट पर रात में पानी के लिए आया था। किसने
मुझे बाण मारा है, मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? घातक ने एक ही बाण से मुझे और मेरे बूढ़े माता-पिता
को मौत के घाट उतार दिया है, क्योंकि मैं उनका एकमात्र सहारा था।” मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म
करता है, उसी कर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख को प्राप्त होता है, जो कर्मों का आरंभ करते समय उनके
फलों की गुरुता और लघुता को नहीं जानता, उनसे होनेवाले लाभ रूपी गुणों या हानि रूपी दोषों को नहीं
समझता, वह मनुष्य मूर्ख कहलाता है।
ये करुणा भरे वचन सुनकर व्यथित राजा दशरथ उस स्थान पर गए, जहाँ से मनुष्य के कराहने का
स्वर सुनाई दे रहा था। वहाँ जाकर देखा कि सरयू के किनारे एक तपस्वी उनके बाण से घायल होकर गिर
पड़ा था और उसके शरीर से खून बह रहा था। उसके पास में एक घड़ा भी पड़ा हुआ था। उस पतस्वी का
नाम श्रवण था, जो अपने अंधे माता-पिता के लिए जल लेने आया था। फिर उसने कठोर शब्दों में कहा,
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“राजन्! मेरे किस अपराध के लिए आपने मुझे बाण मारा? मेरे शरीर से इस बाण को तुरंत निकाल दो,
क्योंकि इससे मेरे मर्मस्थान को अत्यंत पीड़ा हो रही है। तत्पश्चात् आश्रम में मेरे अंधे माता-पिता के पास
जाओ और उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना करो।” दशरथ ने व्यथित मन से बाण श्रवण कुमार के
शरीर से निकाला। उसके पश्चात् अत्यंत कष्ट से विलाप करते हुए श्रवण ने प्राण त्याग दिए। अत्यंत चिंतित
तथा व्यथित राजा दशरथ ने घड़े में ताजा जल भरा और श्रवण कुमार के माता-पिता की कुटिया में जा
पहुँचे। श्रवण कुमार के बूढ़े माता-पिता अपने पुत्र के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। राजा दशरथ के चरणों
की आवाज को अपने पुत्र के चरणों की आवाज समझकर उन बूढ़े माता-पिता ने कहा, “बेटा! इतनी देर
क्यों कर दी। तुम्हारी माता ने या मैंने तुम्हारा कुछ अप्रिय किया हो तो उसे तुम्हें अपने मन में नहीं लाना
चाहिए, क्योंकि तुम तपस्वी हो और हम असहाय हैं, तुम ही हमारा एकमात्र सहारा हो। हम अंधे हैं, तुम
ही हमारे नेत्र हो। हम लोगों के प्राण तुम ही में अटके हुए हैं। बताओ, कुछ बोलते क्यों नहीं हो?” श्रवण
के माता-पिता को देखते ही राजा दशरत के मन में भय-सा समा गया, उनकी जुबान लड़खड़ाने लगी।
उनसे एक शब्द का भी उच्‍चारण नहीं हो पाया। मानसिक भय को बाहरी प्रयत्नों से दबाकर उन्होंने कुछ
कहने की क्षमता प्राप्त की और श्रवण की मृत्यु से जो संकट आ पड़ा था, उसे बताते हुए उन्होंने कहा,
“महात्मन, मैं आपका पुत्र नहीं, अपितु राजा दशरथ नाम का क्षत्रिय हूँ। मैंने अपने कर्मवश यह ऐसा दुःख
पाया है जिसकी सत्पुरुषों ने सदा निंदा की है। मैं धनुष बाण लेकर सरयू के तट पर आया था। मेरे आने
का उद्देश्य यह था कि कोई जंगली हिंसक पशु अथवा हाथी घाट पर पानी पीने के लिए आएगा, तो मैं
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 137

शब्दभेदी बाण चलाकर उसका शिकार कर दूँगा। थोड़ी देर बाद मुझे जल में गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई
पड़ी, मैंने समझा कोई हाथी आकर पानी पी रहा है। इसलिए मैंने उस आवाज को लक्ष्य बनाकर बाण चला
दिया। एक मुनिकुमार के कराहने की आवाज सुनाई दी तो मैंने सरयू के तट पर जाकर देखा कि मेरा बाण
एक तपस्वी की छाती में लगा है और वह मृतप्राय होकर धरती पर पड़े हैं। इस प्रकार अनजाने में मेरे हाथों
आपके पुत्र की हत्या हो गई।’’
श्रवण कुमार के बूढ़े माता-पिता की आँखों से आँसू बहने लगे और वे शोक से मूर्च्छित से होकर
गहरे श्वास लेने लगे। दशरथ हाथ जोड़कर उनसे क्षमा की याचना करते रहे। वे अपने प्रिय पुत्र का अंतिम
संस्कार करने से पहले उसे अपने हाथों से स्पर्श करना चाहते थे। राजा दशरथ श्रवण के अंधे माता-पिता
को सरयू नदी के किनारे ले गए, जहाँ उनका पुत्र मृत पड़ा हुआ था। श्रवण के माता-पिता ने अपने मृत
पुत्र के शरीर को स्पर्श करके रुदन किया और उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते हुए अंतिम
संस्कार किया। इसके पश्चात् उन दोनों माता-पिता ने दशरथ की तरफ देखा और कहा, ‘‘हमें यह दुःख
तुम्हारे कारण प्राप्त हुआ है, राजा तुम्हें इसका फल तुम्हारे अच्छे समय में भुगतना होगा। तुम भी अपने
पुत्र के वियोग में मृत्यु को प्राप्त होओगे।” युवराज दशरथ को इस प्रकार शाप देकर श्रवण के बूढ़े माता-
पिता ने स्वयं को भी अग्नि में जला दिया और स्वर्ग सिधार गए। तब अत्यंत व्यथित मन से राजा दशरथ
ने रानी कौशल्या से कहा कि उनके शाप का फल भुगतने का समय अब आ गया है। अब मैं पुत्र शोक
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के कारण अपने प्राणों का त्याग करूँगा। मुझे यमराज के दूत दिखाई देने लगे हैं।’’
अपने प्रिय पुत्र श्रीराम के वनवास से शोकाकुल हुए राजा दशरथ पुत्र वियोग में दुःख से अत्यंत
पीड़ित हो गए और रात में ही किसी समय राजा ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया। रामायण के आरंभ में
वाल्मीकिजी ने विस्तारपूर्वक बताया है कि राजा दशरथ वेद और शास्त्रों में पारंगत, दूरद्रष्टा, अनेक युद्धों
के विजेता, अनेक यज्ञों को संपन्न करानेवाले, धर्म के अनुपालक, सुप्रसिद्ध राजा थे, जिनके अनेक मित्र
और कोई भी शत्रु नहीं थे। राजा दशरथ की शक्ति देवराज इंद्र के समान थी। कुबेर की तरह राजा दशरथ
के पास भी अथाह धन-संपत्ति थी। राजा के रूप में, राजा दशरथ मनु की तरह शक्तिशाली थे, परंतु विधि
का विधान देखो! भाग्य ने यह निर्धारित कर रखा था कि ऐसे महान् एवं धर्मपरायण राजा को अपने प्रिय
पुत्र को वनवास देना पड़ा और उसके वियोग से पीड़ित होकर प्राणों का त्याग करना पड़ा। राजा दशरथ
की मृत्यु के बारे में सुमित्रा या कौशल्या को तत्काल नहीं पता लग पाया था, क्योंकि वह दोनों रानियाँ भी
थकान, दुःख एवं शोक से पीड़ित होकर राजा के समीप ही सो गई थीं।
इसके पश्चात् रात बीतने पर दूसरे दिन सवेरे ही वंदीजनों और गायकों ने विभिन्न यंत्र बजाए और राजा
का हर रोज की तरह से यशोगान किया; लेकिन सूर्य उदय होने के बाद भी राजा बाहर नहीं निकले। तदनंतर
राजा दशरथ के समीप रहनेवाली स्त्रियाँ उनकी शय्या के पास जाकर उनको जगाने लगीं। परंतु राजा दशरथ
तो शय्या पर प्राणविहीन लेटे हुए थे। शीघ्र ही राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार जंगल में आग की तरह
138 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अयोध्या में फैल गया और राजमहल में शोक की लहर छा गई। राजा दशरथ की विधवा रानियाँ अनाथ
बच्‍चों की तरह फूट-फूटकर रो रही थीं। नगर के सभी मनुष्य आँसू बहा रहे थे, स्त्रियाँ हाहाकार कर रही
थीं। सड़कों तथा चौराहों पर शोक से रुदन करते हुए मनुष्यों की भीड़ एकत्रित हो गई थी।
कौशल्या और सुमित्रा ने राजा के शरीर का स्पर्श किया और क्रंदन करते हुए कहा कि वो भी अपने
पति के साथ यमलोक जाना चाहती हैं। पति की मौत तथा पुत्र वियोग से संतप्त कौशल्या इस प्रकार बोली,
“ओ क्रूर कैकये ी! अब राजा को भी त्यागकर अपने निष्कंटक राज्य का भोग कर। मैं तो राजा के साथ
ही चिता में प्रवेश कर जाऊँगी।” महल के मंत्रियों और परिचरों ने विलाप करती हुई उन रानियों से अलग
कर राजा के मृत शरीर को महल के यथोचित स्थान पर पहुँचाया और तेल से भरे कड़ाहे में उनके शव को
सुरक्षित रखा। उन्होंने राजा के अंतिम संस्कार के बारे में चर्चा की, लेकिन राम और लक्ष्मण के वनवास में
होने तथा भरत और शत्रुघ्न का उनके मामा के यहाँ होने के कारण राजा का अंतिम संस्कार तत्काल नहीं
किया जा सकता था। इसलिए भरत को कैकये देश से बुलाने और भरत के अयोध्या आगमन तक राजा के
शव को तेल में सुरक्षित रखने का निर्णय लिया गया। इस दौरान झुड ं -के-झुड
ं स्त्री और पुरुष एक साथ खड़े
होकर उस की माता कैकये ी की निंदा करने लगे। उस समय महाराज की मृत्यु से अयोध्या पुरी में रहनेवाले
सभी लोग शोकाकुल हो रहे थे। अयोध्या नगरी आनंद से शून्य हो गई थी। संपर्ण ू अयोध्या नगरी में राजा
के उपस्थित न होने के कारण अराजकता का भय उत्पन्न हो गया था। उन दिनों राजा के बिना प्रजा अपनी
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सुरक्षा की कल्पना भी नहीं कर पाती थी। अयोध्या में लोगों की वह रात रोते-रोते ही व्यतीत हो गई थी।
जब रात बीत गई और फिर सूर्योदय हुआ, तब राज्य का शासन चलानेवाले मंत्री तथा ब्राह्म‍ण
लोग एकत्रित होकर दरबार में आए। मार्कंडेय, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतम और महायशस्वी
जाबालि—इन सभी ने राजपुराेहित वसिष्ठजी से प्रार्थना की कि वे भरत का शीघ्र ही राजतिलक कर प्रजा
को अराजकता से बचाएँ। वसिष्ठजी ने भरत तथा शत्रुघ्न को तुरंत उनके ननिहाल से बुलवाने का फैसला
किया। वसिष्ठजी ने द्रुतगामी दूतों को बुलवाया और कहा, “तुम लोग शीघ्र ही घोड़ों पर सवार होकर
कैकेय प्रदेश जाओ और शोक का भाव बिना प्रकट किए भरत तथा शत्रुघ्न को शीघ्र बुला लाओ। उनसे
कहना कि अयोध्या में उनकी उपस्थिति की आवश्यकता है। भरत को श्रीरामचंद्र के वनवास और राजा
दशरथ की मृत्यु का समाचार मत बताना और जिन परिस्थितियों के कारण अयोध्या में कोहराम मचा हुआ
है, इसकी चर्चा भी न करना।”
इसके पश्चात् वसिष्ठजी की आज्ञा लेकर द्रुतगामी दूतों ने वहाँ से तुरतं प्रस्थान किया। उन्होंने मार्ग में
अनेक नदियों, जंगलों, पहाड़ियों तथा खाइयों को पार किया और कैकये देश पहुँच गए, जोकि आधुनिक
समय के जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रों, उत्तरी पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों सहित पंजाब की
उत्तरी पश्चिमी दिशा में स्थित था। अयोध्या के दूतों ने मार्ग में हस्तिनापुर और पांचाल देश को पार किया।
उन्होंने अपरताल और प्रलंबगिरी पर्वतों के बीच से बहनेवाली मालिनी नदी को भी पार किया। इसके पश्चात्
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 139

वे हस्तिनापुर में गंगा नदी को पार करके शरदंडा नदी के पश्चिमी तट पर पहुँच।े अभिकला गाँव से, उन्होंने
पवित्र नदी इक्षुमति (सरस्वती) को पार किया और बा​ि�का देश (आधुनिक बल्ख) के मध्य भाग में स्थित
सुदामा नामक पर्वत के पास जा पहुँच।े उस पर्वत के शिखर से विपाशा (व्यास) नदी का दर्शन करते हुए वे
सारे दूत शीघ्र ही बिना किसी कष्ट के कैकये देश की राजधानी गिरिव्रज में जा पहुँच।े (वाल्मीकि रामायण
2/68)।18 भरत और शत्रुघ्‍न अपने अत्यंत प्रिय मामा युधाजित् के महल में आनंद से रह रहे थे। प्रात:काल
में दूतों ने नगर में आकर कैकये देश के राजा अश्वजीत और राजकुमारों का सत्कार किया। फिर उन्होंने
राजकुमार भरत के चरणों का स्पर्श किया और बोले कि राजपुरोहितजी तथा समस्त मंत्रियों ने आपसे कुशल
मंगल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र चलिए, अयोध्या में आपकी शीघ्र उपस्थिति आवश्यक है। भरत ने
अपने पिता राजा दशरथ, श्रीराम और लक्ष्मण सहित संपर्णू अयोध्या के कुशल-मंगल के बारे में पूछते हुए,
अपने मामा और नाना से अयोध्या के लिए प्रस्थान की अनुमति ली।
इसके पश्चात् सभी प्रियजनों से विदा लेकर शत्रुघ्न सहित रथ पर सवार होकर भरत ने अयोध्या के
लिए यात्रा आरंभ की। उन्होंने थकान पर ध्यान दिए बिना तीव्र गति से यात्रा की। उन्होंने सुदामा, ह्रादिनी तथा
शतद्रु (सतलुज) नदियों को पार किया।19 फिर दक्षिणी पश्चिमी दिशा में चलते हुए महाशिला पहाड़ियों को
पार करने के पश्चात् वे सरस्वती नदी के तट पर पहुँचे (वाल्मीकि रामायण 2/71)। सरस्वती को पार करने
के बाद, भरत और उनकी पार्टी ने कुलगं ा और यमुना नदियों को तेजी से पार कर लिया; इसके बाद, वे
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परागवत से तीव्र प्रवाहवाली गंगा नदी को पार कर गए।20 सेनाओं को पीछे छोड़ने के बाद भरत और शत्रुघ्न
ने कपिवति, स्थानुमती और गोमती नदियों को पार किया।21 अयोध्या (2/71/7-18) से दूतों के प्रस्थान के
बाद आठवें दिन की सुबह उन्होंने अयोध्या शहर में प्रवेश किया था।
v
सरस्वती नदी अब लुप्त हो चुकी है, लेकिन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा
उत्तर भारतीय नदियों के पुरामार्गों के दूरसंवेदी चित्रों और अन्य वैज्ञानिक प्रमाणों ने यह सिद्ध किया है कि
सरस्वती नदी उन्हीं क्षेत्रों से बहती थी, जहाँ का संदर्भ लव-कुश ने रामदरबार में रामायण का गायन करते
हुए दिया। मजे की बात तो यह है कि अन्य सभी नदियों के भौगोलिक क्रम भी उनकी आधुनिक स्थिति
से लगभग मिलते हैं। ऋग्वेद और रामायण में सरस्वती और उसकी सहायक नदियों के अनेक संदर्भ
मौजूद हैं, परंतु 19वीं शताब्दी के मध्य तक इस लुप्त सरस्वती नदी को काल्पनिक ही मान लिया गया था;
हालाँकि पिछले 100 वर्षों के दौरान भू-वैज्ञानिक, पुरातात्त्विक, जलवैज्ञानिक, विभिन्न देशों के दूरसंवेदी
चित्रों ने सुदूर अतीत में सरस्वती नदी के प्रवाह, प्रवासन और क्षय के बारे में ठोस वैज्ञानिक साक्ष्य प्रदान
किए हैं। डॉ. जे.आर. शर्मा और डॉ. वी.के. भद्रा द्वारा प्रस्तुत किए गए, उत्तर पश्चिमी भारत में विलुप्त
सरस्वती नदी के पुरामार्गों का उपग्रह चित्र देखें 22। (चित्र-27)
140 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-27 ः विलुप्त सरस्वती नदी के पुरामार्गों का उपग्रह चित्र (सौजन्य : जे.आर. शर्मा और बी.के. भद्रा, इसरो, जोधपुर, 2012)

प्राचीन साहित्य में दिए गए सरस्वती नदी के संदर्भ और आधुनिक विज्ञान से प्राप्त
साक्ष्य : ऋग्वेद में सरस्वती नदी के नाम का 72 बार उल्लेख किया गया है। इसे पर्वत से समुद्र तक
बहनेवाली सबसे विशाल तथा शक्तिशाली नदी बताया गया है। इसकी प्रशंसा ‘अम्बितमे, नदीतमे,
देवितमे’ कहकर की गई है अर्थात्् सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम, नदियों में उत्कृष्टतम एवं देवियों में
श्रेष्ठतम है।23 ऋग्वेद के खगोलीय संदर्भों का तिथि निर्धारण 7000 वर्ष ई.पू. से 5500 वर्ष ई.पू. के
बीच में निर्धारित किया गया है24। रामायण में भी सरस्वती नदी के संदर्भ मिलते हैं, जिनका खगोलीय
तिथिकरण 5100 वर्ष ईसा पूर्व का है। ऋग्वेद के मंत्रों की रचना करनेवाले 10 ऋषि घरानों में से 5
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 141

ऋषि रामायण युग में भी जीवित थे और श्रीराम ने उनका आदर सत्कार किया तथा उनसे वैदिक एवं
युद्ध विद्या का उपार्जन भी किया। इनमें विश्वामित्र, अगस्त्य, वसिष्ठ, अत्रि, गौतम ऋषि शामिल थे।
पिछले लगभग सौ वर्षों के दौरान भू-वैज्ञानिक, पुरातात्त्विक, जलवैज्ञानिक, पारिस्थितिक विज्ञान की
अनुसंधान रिपोर्टें तथा दूरसंवेदी चित्र प्राप्त हुए हैं। इन सभी वैज्ञानिक साक्ष्यों ने पिछले 10000 वर्षों
के दौरान सरस्वती नदी के विभिन्न चरणों में इसके प्रवाह, स्थानांतरण और क्षय के बारे में दिलचस्प
तथा विश्वसनीय प्रमाण प्रदान किए हैं। ऐसे बहुआयामी वैज्ञानिक साक्ष्यों का अत्यंत संक्षिप्त विवरण
नीचे दिया गया है।
सुदूर अतीत में सरस्वती नदी के विभिन्न चरणों का विवरण
8000 वर्षों से भी पहले सरस्वती सर्वाधिक विशालतम नदी-समूह था। इसकी सहायक नदियों
में यमुना और सतलुज शामिल थीं और इसकी धाराएँ हिमालय से लेकर समुद्र तक विभिन्न मार्गों
से अरावली पर्वतमाला के साथ-साथ बहती थीं। भारतीय उपमहाद्वीप की प्लेट के उत्तर दिशा में
स्थानांतरण, अरावली पर्वतमाला की टेक्टोनिक गतिविधि, भयंकर भूकंपों और जलवायु संबंधी बदलावों
के कारण यमुना और सतलुज नदियाँ धीरे-धीरे विपरीत धारा में स्थानांतरित हो गईं। अर्थात्् यमुना नदी
पूर्व की ओर स्थानांतरित होकर गंगा में जा मिली, जबकि सतलुज नदी पश्चिम की ओर खिसकती
हुई सिंधु की सहायक नदी व्यास में शामिल हो गई। वर्तमान में, सतलुज और यमुना दोनों नदियाँ
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बारहमासी नदियाँ हैं, जबकि सरस्वती नदी का अस्तित्व भूमिगत जल, झीलों तथा तालाबों के रूप में
ही दिखाई देता है। इस नदी के कुछ पुरामार्ग, जैसे घग्गर, हकरा और लूणी आज भी बाढ़/वर्षा के
जल को निकासी प्रदान करते हैं।25
भू-वैज्ञानिक और जल वैज्ञानिक अध्ययन
21 जनवरी, 2001 को भुज में आए भूकंप के पश्चात् सरस्वती नदी के पैलेयोचैनल पुनर्जीवित हो
ऊपरी सतह में दिखाई देने लगे। इसी प्रकार की घटना दिसंबर, 2005 में भूकंप के पश्चात् हरियाणा
के जींद जिले के कलायत गाँव में देखी गई थी, जब उप-सतह पर सरस्वती के पानी का अचानक
रिसाव देखा गया था। प्रतिष्ठित भू-वैज्ञानिक डॉ. ए.आर. चौधरी ने हरियाणा के जींद और कैथल
जिलों के आसपास गहन अध्ययन किया। तलछटों के आकार, खनिजों की मात्रा, क्षेत्र की भू-आकृति,
पुरातात्त्विक साक्ष्यों और उपग्रहों के चित्रों के विश्लेषण के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि
सुदूर अतीत की विशाल सरस्वती नदी हरियाणा के क्षेत्रों से बहती हुई समुद्र की ओर जाती थी और
अपने साथ हिमालय के तलछटों को बहाकर लाती थी।26 हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के कुछ
हिस्सों के मैदानों में अधिक उत्पादकता इसी कारण से है, क्योंकि इनका पोषण प्राचीन हिमालयी
नदी सरस्वती द्वारा किया जाता था और इन मैदानों के नीचे की परतें तथा पुरामार्ग अभी भी जलभृत
हैं। सरस्वती नामक यह विशाल नदी वर्तमान समय में बहती नहीं है, परंतु इसकी प्राचीन भव्यता का
अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
142 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बड़ी संख्या में वैदिक-हड़प्पन पुरातात्त्विक स्थलों की खोज


प्राचीन सरस्वती नदी द्वारा पोषित भूमि में हड़प्पा सभ्यता की लगभग 2378 बस्तियों की पहचान
कर वहाँ उत्खनन किए गए हैं। इन उत्खनित स्थलों में बनावली विश्व के प्राचीनतम दुर्ग के लिए,
कालीबंगन डिजाइनवाली प्राचीनतम टायलों के फर्श के लिए, लोथल विश्व के प्राचीनतम डॉकयार्ड
के लिए और ढोलवीरा विश्व के प्राचीनतम चट्टान निर्मित जलाशयों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध हैं।
भीराना, कुणाल और राखीगढ़ी आदि भी विश्व के अति प्राचीन पुरातात्त्विक स्थलों में शामिल हैं।27-29
इन स्थलों से 7000 वर्ष पुराने गेहूँ और चावल, ताँबे के तीर, टैराकोटा के बर्तन, मोतियों तथा सोने के
आभूषण, अर्धकीमती पत्थर और मुहरों आदि के प्रमाण पाए गए हैं।30 ये सभी उत्खनित कलाकृतियाँ
व वस्तुएँ सरस्वती नामक शक्तिशाली नदी समूह के तटों पर विकसित हुई विश्व की प्राचीनतम सभ्यता
की झलक प्रस्तुत करते हैं।31 परंतु भारत देश के स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली इतिहास की पुस्तकों में
यह सभी विवरण शामिल नहीं किए गए। इनका लेखन वामपंथी लेखकों द्वारा ही किया किया गया
था, जिनको वास्तविक प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं को लिखने में कोई रुचि नहीं थी, परंतु वे तो दो
राष्ट्रों के सिद्धांत को जीवित रखकर हिंदू तथा मुस्लिमों के बीच की खाई को गहरा करने की राजनीति
में रुचि रखते थे। इसीलिए वे भारत की प्राचीन सभ्यता को सिंधु-सरस्वती-गंगा सभ्यता कहने के
बजाय केवल सिंधु सभ्यता ही कहते रहे।
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विभिन्न देशों के सेटैलाइट्स द्वारा लिए गए उपग्रह चित्र
अमेरिका के लैंडसैट, भारत के आई.आर.एस.-आई.सी., फ्रांस के फ्रेंच स्पॉट सेटैलाइट और
यूरोप के ई.आर.एस.एस. द्वारा लिए गए उपग्रह चित्रों ने प्राचीन सरस्वती नदी समूह के जिन पुरामार्गों
की पहचान की है, उनके संदर्भ ऋग्वेद तथा रामायण में भी मिलते है। पुरातत्त्व विभाग, सेडिमेंटोलॉजी
और हाइड्रोलॉजी के साक्ष्यों से विधिवत रूप से संपुष्ट किए गए ऑप्टिकल सेटैलाइट डाटा और
माइक्रोवेव डाटा के आधार पर इसरो, जोधपुर के डॉ. जे.आर. शर्मा और डॉ. बी.के. भद्रा ने यह
व्याख्या की कि वर्तमान समय की सिंधु नदी प्रणाली की तरह, वैदिक सरस्वती नदी प्रणाली 6000
वर्ष ईस्वी पूर्व के आसपास पूर्ण महिमा के साथ प्रवाहित हो रही थी। इस शक्तिशाली नदी प्रणाली
ने हिमालय से अरब सागर तक 1500 से अधिक कि.मी. की दूरी को पार किया। अंतरिक्ष वैज्ञानिक
डॉ. शर्मा ने यह भी स्पष्ट किया कि यमुना और सतलुज सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं। विवर्तनिक
प्रभावों और कई फॉल्ट रेखाओं के कारण यमुना नदी पूर्व की ओर बहने लगी और धीरे-धीरे गंगा
नदी में जा मिली। उधर व्यास के माध्यम से सिंधू नदी में शामिल होने के लिए सतलुज नदी धीरे
धीरे पश्चिम की ओर बढ़ती गई। इस प्रकार सरस्वती नदी के पुरामार्गों के दूरसंवेदी चित्रों ने 7000
वर्ष पुराने रामायण के संदर्भों की संपुष्टि करते हुए सिद्ध किया है कि रामायण युग में सरस्वती नदी
उत्तर-पश्चिमी भारत में हिमालय से समुद्र तक बहती थी और सिंधु इसके पश्चिम में तथा गंगा इसके
पूर्व में बहती थी।32
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 143

रामायण में महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित नदियों का भौगोलिक अनुक्रम भी आधुनिक समय
में उनकी स्थिति से मेल खाता है—
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में कई नदियों का संदर्भ दिया है, क्योंकि 7000 वर्ष पहले भारतीय
उपमहाद्वीप की जलवायु आर्द्र थी और उस समय मानसून की अच्छी वर्षा होती थी और ऐसी अनेक
नदियाँ थी, जो बहुत अधिक मात्रा में समुद्र तक जल पहुँचाती थी। रामायण में वर्णित कुछ नदियाँ
या तो विलुप्त हो गई हैं या फिर उनके वर्तमान नामों का पता नहीं है, परंतु फिर भी महर्षि वाल्मीकि
द्वारा वर्णित लगभग सभी प्रमुख नदियाँ आज भी उसी भौगोलिक अनुक्रम में बहती हैं। उदाहरण के
लिए, अयोध्या कांड के सर्ग 71 से यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेय प्रदेश की राजधानी गिरिवराज
से निकलने के पश्चात् भरत ने सुदामा और ह्रदिनी नदियों को पार किया था, जिनका अभी तक पता
नहीं लगाया जा सका है। इसके पश्चात् भरत ने अयोध्या के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए शतद्रु अर्थात्
सतलुज, सरस्वती (आधुनिक घग्गर), यमुना, गंगा और गोमती नदियों को पार किया था। ये आज
भी भारत की प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण नदियाँ हैं और ये इसी भौगोलिक अनुक्रम में बहती हैं। इस तथ्य
की जाँच भारत सरकार की विभिन्न संस्थाओं द्वारा लिए गए दूर संवेदी चित्रों तथा तैयार किए गए
मानचित्रों से की जा सकती है।33 देखें इसरो (ISRO), जोधपुर के वैज्ञानिकों द्वारा पेश किया गया
एक दूर-संवेदी चित्र। (देखें चित्र-28)
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भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट
सुप्रसिद्ध जियाेलॉजिस्ट डॉ. के.एस. वल्दिया की अध्यक्षता में जल संसाधन मंत्रालय द्वारा जल
संसाधन विकास तथा भारत के पुरामार्गों से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर सिफारिशें देने के लिए
जनवरी 2016 में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने 15 अक्तूबर, 2016
को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।34 समिति ने बताया कि उत्तरी हरियाणा में घग्गर-पटियालिवाली उपनदियों
(रिवूलेट्स) ने हिमालय से जन्मी सरस्वती (पुरा सतलुज) नदी की पश्चिमी शाखा को मार्ग प्रदान
किया। उधर मारकंडा व सरसुती रिवूलेट्स के मार्गों के माध्यम से हिमालय से निकली सरस्वती नदी
की पूर्वी शाखा (पुरा यमुना) प्रवाहित होती थी। ये दोनों शाखाएँ दक्षिण पटियाला के 25 कि.मी. की
144 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-28 ः सतलुज, सरस्वती (घग्गर), यमुना, गंगा और गोमती को स्पष्ट भौगोलिक अनुक्रम में देखा जा सकता है
(सौजन्य : जे.आर. शर्मा और बी.के. भद्रा, इसरो, जोधपुर, 2012)

दूरी पर आ मिलीं तथा घग्गर-हकरा-नारा के असाधारण विस्तृत चैनल के माध्यम से प्रवाहित होती रहीं
और फिर वर्तमान में अरब सागर के नाम से विख्यात खाड़ी में जा गिरीं। सिरसा में घग्गर के किनारे
पर सरसुती नामक एक प्राचीन किला है, जो कुरुक्षेत्र जिले में पेहोवा में घग्गर में शामिल होनेवाले
रिवुलेट सरसुती के नाम का स्मरण करवाता है। इन सभी साक्ष्यों तथा तथ्यों के आधार पर समिति ने
यह निष्कर्ष निकाला कि हरियाणा और उससे सटे राजस्थान में सरसुती-घग्गर-हकरा क्षेत्र के असंख्य
पुरामार्गों को रिचार्ज करने के उपाय शुरू करना लाभदायक हो सकता है। इन प्रयासों से भूमिगत धाराओं
का प्रवाह जारी रखा जा सकता है, जो धीरे-धीरे परंतु निश्चित रूप से प्रवाहित होती रहेंगी (के.एस.
वल्दिया)35। सरस्वती के पूर्वी स ्रोत अर्थात्् यमुना और सरस्वती की पश्चिमी शाखा अर्थात्् सतलुज से
निकलनेवाली कई नहरों को या तो खोद दिया गया है या खोदा जा रहा है और ये तेजी से आसपास
के क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों की जीविका का सहारा बनती जा रही हैं।
v
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 145

परागवत नगर से पावन नदी गंगा को पार करने के पश्चात् कदंब वृक्षों से भरी नगरी अज्जिहाना
को पार कर, सर्वतीर्थ ग्राम में रात बिताकर, भरत ने अपनी अयोध्या नगरी का दर्शन किया। अपनी
सेना को पीछे आने का आदेश देते हुए भरत और शत्रुघ्न ने गोमती नदी को पार करने के पश्चात्
आठवें दिन के प्रात:काल में अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। (वाल्मीकि रामायण 2/71) सूनी तथा
उजाड़ अयोध्यापुरी को देखकर भरत का मन अपने बांधवों के कुशल मंगल को लेकर भय तथा संदेह
से भर गया। भरत ने मन-ही-मन विचार किया कि पहले अयोध्या में चारों ओर नर एवं नारियों का
महान् तुमुलनाद सुनाई पड़ता था। अब अयोध्या पहले जैसी प्रतीत नहीं हो रही। “मुझे अनेक प्रकार के
अनिष्टकारी, क्रूर और अशुभ अपशकुन दिखाई दे रहे हैं।’’ भरत ने यह निष्कर्ष निकाला कि निश्चित
रूप से अयोध्या में कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी है, जिसके कारण ही उसे इतने उतावलेपन में कैकेय
प्रदेश से अयोध्या बुलाया गया है।
इसके पश्चात् भरत ने राजा दशरथ के महल में प्रवेश किया, लेकिन राजा को वहाँ न देखकर
उनकी चिंता बढ़ गई। फिर उन्होंने अपनी माता कैकेयी के महल में प्रवेश किया। कैकेयी बहुत लंबे
समय के पश्चात् अपने पुत्र को देखकर हर्ष से भर गई और अपने स्वर्णमयी आसन को छोड़कर अपने
प्रिय पुत्र को छाती से लगाया। कैकेयी ने भरत को सारे घटनाक्रम का वृत्तांत सच्‍चाई के साथ सुनाया
और कहा कि अयोध्या का समृद्धिशाली राज्य तुम्हारे द्वारा कोई प्रयत्न किए बिना ही तुम्हारे पास आ
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गया है। कैकेयी ने इच्छा व्यक्त की कि गुरु वसिष्ठ और अन्य विद्वानों के अनुदेशों का पालन करते
हुए, भरत को अपने पिता का अंतिम संस्कार करना चाहिए और उसके पश्चात् एक सच्‍चे क्षत्रिय की
भाँति राज्याभिषेक के लिए तैयार हो जाना चाहिए। भरत अपने पिता के स्वर्गवास और दोनों भाइयों के
वनवास का समाचार सुनकर अत्यंत दुःख से संतप्त हो उठे और कैकेयी से बोले, “तूने मुझे मार डाला,
मैं पिता से सदा के लिए बिछड़ गया और पितातुल्य बड़े भाई से भी अलग हो गया। अब तो मैं गहरे
शोक में डूब गया हूँ, मुझे यह राज्य लेकर क्या करना है? तूने राजा को स्वर्गवासी तथा श्रीराम को
संन्यासी बनाकर मुझे असहनीय दुःख दिया है, अब उनकी जगह राजा बनने को कहकर तूने मेरे घाव
पर नमक छिड़क दिया है। तू इस कुल का विनाश करने के लिए कालरात्रि बनकर आई थी। मेरे पिता ने
तुझे अपनी पत्नी बनाकर बहुत बड़ा पाप किया था। कौशल्या, सुमित्रा भी शायद इतने असहनीय शोक
से पीड़ित हो स्वर्ग सिधार जाएँगी। परम आदरणीय माता कौशल्या तुम्हें अपनी सगी बहन से भी अधिक
मानती थीं, फिर तुमने उनके तथा उसके पुत्र राम के खिलाफ इतना बड़ा षड्‍यंत्र क्यों रचा? तुझे यह
पता नहीं है कि मेरा श्रीरामचंद्रजी के प्रति कैसा स्नेह तथा कैसा भाव है, तभी तो तूने राज्य के लिए यह
अनर्थ कर डाला है। मैं श्रीराम, लक्ष्मण को न देखकर किस शक्ति के प्रभाव से इस राज्य की रक्षा कर
सकता हूँ? मेरे बल तो मेरे भाई ही हैं। मेरे धर्मात्मा पिता महाराज दशरथ भी सदा श्रीराम का ही आश्रय
लेते थे। उन्हीं से अपने लोक-परलोक की सिद्धि की आशा रखते थे। तुमने ऐसा कैसे सोच लिया कि मैं
उनकी अनुपस्थिति में अयोध्या पर शासन कर सकता हूँ। मेरे द्वारा तुम्हारी इच्छा कभी भी पूर्ण नहीं की
146 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जाएगी। मैं तुम्हें अपनी माता नहीं मानता, मैं तुमसे अपने सभी संबंध तोड़ता हूँ। इस कुल में जो सबसे
बड़ा होता है, उसी का राज्याभिषेक होता है, दूसरे भाई सावधानी के साथ बड़े की आज्ञा के अधीन
रहकर कार्य करते हैं। सभी राजाओं के यहाँ समान रूप से इस नियम का पालन होता है। इक्ष्वाकुवंशी
नरेशों के कुल में इस नियम का विशेष रूप से पालन करने की प्रथा रही है। मैं वन को जाऊँगा और
श्रीराम को वापस लाऊँगा। मैं श्रीराम का राज्यभिषेक कराकर अपने पिता की प्रतिज्ञा एवं वचन को पूर्ण
करने के लिए चौदह वर्षों तक संन्यासी के रूप में दंडकवन में स्वयं निवास करूँगा।”
इसके तुरंत पश्चात् भरत माता कौशल्या से मिलने पहुँचे। कौशल्या का हृदय अपने पति की मृत्यु
और पुत्र के वनवास के कारण संतप्त था। मध्यम स्वर में कौशल्या ने कहा, “भरत! तुम राज्य चाहते
थे न, वह निष्कंटक राज्य अब तुम्हें प्राप्त हो गया है, राज सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, तुम्हें
हमारी ओर से किसी समस्या या बाधा का भय नहीं करना चाहिए। तुम राजसिंहासन ग्रहण करो और
तुम्हें सभी प्रकार की खुशियाँ मिलें। मैं तुमसे सिर्फ एक वरदान चाहती हूँ कि मुझे भी अपने पिता राजा
दशरथ की चिता पर उनके साथ बैठा देना।” माता कौशल्या के इन शब्दों से भरत के मन पर गहरी
चोट लगी, वह माता कौशल्या के चरणों में गिर पड़े और निशब्द होकर उनके चरणों से चिपक गए।
इसके पश्चात् कौशल्या ने पुन: कहा, “भरत मुझे मौत नहीं दे सकते तो मुझे वहीं पहुँचा दो जहाँ मेरे
पुत्र श्रीराम निवास करते हैं।” इस तरह बहुत ही कठोर बातें कहकर जब कौशल्या ने निरपराध भरत की
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भर्त्सना की, तब उनको बड़ी पीड़ा हुई, उस समय उनके चित्त में बड़ी घबराहट थी, परंतु बारंबार शोक
संतप्त विलाप करके कुछ भी बोलने में असमर्थ भरत मूर्च्छित हो गए। थोड़ी देर बाद उन्हें जब तक
चेतना आई, तब भरत अनेक प्रकार के शोक से घिरी हुई माता कौशल्या से हाथ जोड़कर इस प्रकार
बोले, ‘‘माते! यहाँ जो कुछ हुआ है, इसकी मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं थी। मैं सर्वथा निरपराध हूँ, तो
भी आप मुझे क्यों दोष दे रही हैं? आप तो जानती हैं कि श्रीराम में मेरा कितना प्रगाढ़ प्रेम है। क्या मैं
कभी श्रीराम का सिंहासन छीनकर उन्हें वन भिजवाने की बात सोच सकता हूँ? यदि मैंने ऐसा नीच कर्म
किया हो, तो दुनिया के सभी पाप मुझ पर उतर आएँ। न तो मेरी माता द्वारा किए गए इस पापकर्म से
मेरा कुछ लेना-देना है और न ही मैं इसका फल भोगने की इच्छा रखता हूँ।”
इस प्रकार पति और पुत्र से बिछड़ी हुई माता कौशल्या को बारंबार शपथ के द्वारा आश्वासन देते हुए
राजकुमार भरत दुःख से व्याकुल होकर पृथ्वी पर फिर गिर पड़े। पारदर्शी ईमानदारी के साथ भरत द्वारा
कहे गए इन भावनात्मक शब्दों को सुन माता कौशल्या का दिल पिघल गया और भरत पर उनकी ममता
उमड़ आई। उसके सिर को अपनी गोद में लेकर सहलाते हुए उन्होंने कहा, “बेटा, तुम्हारे निर्दोष हृदय से
उमड़ते हुए दु:ख के इस वेग को देखकर मेरे मन को और भी पीड़ा हो रही है। तुम निर्दोष हो, सत्यप्रतिज्ञ
हो तथा राम कीं अनुपस्थिति में मेरा सहारा हो।” ऐसा कहकर भरत को गले से लगाकर रानी कौशल्या
फूट-फूटकर रोने लगीं। मुनि वसिष्ठ और अन्य विद्वानों व बुजुर्गों ने अपने शास्त्रों के ज्ञान के आधार पर
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 147

भरत को शास्त्रोक्त सांत्वना दी और राजा दशरथ के शव का दाह-संस्कार करने के लिए उत्तम प्रबंध करने
को कहा। वसिष्ठजी का प्रवचन सुनकर भरत ने उन्हें प्रणाम किया और मंत्रियों द्वारा पिता के अंत्येष्टि
संस्कार का उत्तम प्रबंध करवाया। राजा दशरथ का शव तेल के कड़ाहों से निकालकर भूमि पर रखा गया।
इसके पश्चात् उनके मृत शरीर को नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित कर उत्तम शय्या पर रख दिया।
इसके बाद महाराज दशरथ के प्राणहीन शरीर को पालकी में बिठाकर श्मशान भूमि ले जाया गया।
उस समय आँसुओं से भरत का गला रुँध गया और मन-ही-मन उन्हें पिता के असमय में निधन पर बड़ा
दुःख हो रहा था। श्मशान भूमि पहुँचकर देवदार तथा चंदन की लकड़ी से चिता तैयार की गई, जिस पर
राजा के शव को रखा गया। उस समय अग्नि में आहुति देकर उनके ऋत्विजों ने वेदोक्त मंत्रों का जप
किया। इसके बाद चिता में आग लगाई गई। तीनों रानियाँ, परिवार के सदस्य, मं​ित्रगण आँखों से आँसू
बहाते हुए चिता की परिक्रमा करने लगे। दस दिन तक शोक मनाया गया। तदनंतर ग्यारहवें दिन भरत ने
आत्मशुद्धि के लिए स्नान किया और बारहवें दिन श्राद्ध कर्म किया। फिर भरत ने ब्राह्म‍णों, निर्धनों तथा
दास-दासियों को बहुत सा धन दान में दिया। तेरहवें दिन शत्रुघ्न को साथ लेकर भरत अपने पिता की
अस्थियाँ एकत्रित करने गए और वहाँ पर वे दोनों फूट-फूटकर दयनीय स्थिति में रोने लगे। वे अपने पिता
को पुकार-पुकारकर उन्हें अनाथ तथा निसहाय छोड़कर चले जाने पर हृदयविदारक रुदन करने लगे। उस
समय मुनि वसिष्ठ तथा मंत्री सुमंत्र ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि जीवन तथा मृत्यु, सुख तथा दुःख,
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लाभ और हानि सभी मानव जीवन का अभिन्न अंग हैं। उन्होंने भरत से मृत सम्राट् के अंतिम संस्कार के
सभी कार्य शीघ्र पूर्ण करने को कहा।
तत्पश्चात‍् चौदहवें दिन प्रात:काल समस्त मंत्रियों ने सभा को आमंत्रित किया और भरत से इस
प्रकार बोले, “महा यशस्वी राजकुमार! हमारे सर्वश्रेष्ठ महाराजा दशरथ तो अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम तथा
लक्ष्मण को वन में भेजकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गए हैं। अब इस राज्य का कोई स्वामी नहीं है,
इसलिए अब आप ही हमारे राजा हैं। अतः आपका अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठना आवश्यक है।
राज्य अभिषेक की सभी तैयारियाँ पूर्ण कर ली गई हैं। आप अति शीघ्र राजा के पद पर अपना अभिषेक
कराइए और प्रजा की रक्षा कीजिए।’’ यह सुनकर भरत ने अभिषेक के लिए रखी हुई कलश आदि सब
सामग्री की प्रदक्षिणा की और वहाँ उपस्थित हुए सब लोगों को गंभीर स्वर में उत्तर दिया, “आप सब
बुद्धिमान है आपको मुझे राजसिंहासन पर विराजमान होने की सलाह नहीं देनी चाहिए, हमारे कुल में
सदा ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता आया है और यही उचित भी है। श्रीरामचंद्रजी हम लोगों
के बड़े भाई हैं, अतः वही राजा होंगे, उनके स्‍थान पर मैं ही 14 वर्षों तक वन में निवास करूँगा। आप
लोग विशाल चतुरंगिणी सेना तैयार कीजिए, मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचंद्रजी को वन से लौटा लाऊँगा।
कारीगर आगे जाकर रास्ता बनाए, ऊँची-नीची भूमि को बराबर करें तथा मार्ग में दुर्गम स्थानों की
जानकारी रखनेवाले रक्षक भी साथ चलें। राजसिंहासन स्वीकार न करने का यह मेरा अंतिम और अटल
148 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

निर्णय है।” भरत के इन वचनों को सुनकर सभी प्रसन्न हुए और उन्होंने भरत के सुझाव की सराहना
की। भरत के साथ वन में जाने के लिए सेना और एक बड़े दल को तैयार किया गया। तत्पश्चात् ऊँची-
नीची एवं सजल-निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, मार्ग की रक्षा करनेवाले, भूमि खोदनेवाले, नदियों पर
पुल बाँधने वाले, पेड़ काटनेवाले, बाँस की चटाई और सूप आदि बनानेवाले, चमड़े का चारजामा आदि
बनानेवाले, रास्ते की विशेष जानकारी रखने वाले सामर्थ्यशील लोगों ने उत्साह से प्रस्थान किया, क्योंकि
वे सभी अपने प्रिय श्रीराम को अयोध्या वापिस ले आने के लिए अत्यंत उत्सुक थे।
दुःख से आक्रांत जब भरत चित्रकूट की ओर यात्रा के बारे में विचार कर रहे थे, तब अचानक ही
मंथरा को देखा और शत्रुघ्न से कहा कि यही सारी बुराइयों तथा मुसीबतों की जड़ है। इसी के कारण
हमारे यशस्वी पिता का स्वर्गवास हुआ है; श्रीराम को लक्ष्मण तथा सीता सहित चौदह वर्षों के लिए
वनवास जाना पड़ा है। तभी क्रोध से लाल शत्रुघ्न ने कहा कि इस पापिनी ने मेरे पिता, भाइयों तथा
माताओं को घोर दुःख पहुँचाया है, ऐसे क्रूर कर्म का फल इसे भी मिलना चाहिए। यह कहकर रोषपूर्ण
भाव से शत्रुघ्न ने मंथरा को जमीन पर जोर-जोर से घसीटा। उस समय उसे छुड़ाने के लिए कैकेयी
उनके पास आई, तब शत्रुघ्न ने उसे धिक्कारते हुए उसके प्रति भी बड़ी कठोर बातें कहीं। शत्रुघ्न को
इस प्रकार क्रोध में भरा देखकर भरत ने उससे कहा, ‘‘क्षमा करो, स्त्रियाँ सभी प्राणियों के लिए अवध्य
होती हैं। यदि मुझे श्रीराम का डर नहीं होता तो मैं भी अपनी माता पापिनी कैकेयी को मार डालता।”
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उन सबने मिलकर अयोध्या से गंगा तट तक आरामदायक शिविरों, जल के कुओं, सड़कों तथा
पुलों का निर्माण अतिशीघ्र कर डाला। इस प्रकार थककर भरत रात में सो गए। सवेरा होते ही सूतों ने
वाद्यों की ध्वनि से भरत का स्तुतिगान आरंभ कर दिया। भरत ने उठकर तुरंत उन बाजों को बंद कराया
और स्वयं शोक संतप्त होकर विलाप करने लगे। उन्हें देख महलों की स्त्रियाँ भी फूट-फूटकर रोने
लगीं। गुरु वसिष्ठजी ने एक बार फिर विद्वानों, ऋषियों तथा मंत्रियों को सभा में बुलाया और भरत को
युवराज का पद स्वीकार कर लेने के लिए समझाते हुए एक बार फिर कहा, “तुम्हारे पिता और ज्येष्ठ
भ्राता दोनों ने ही तुम्हें यह निष्कंटक राज्य प्रदान किया है। अतः तुम उनकी आज्ञा का पालन करो और
शीघ्र ही अपना अभिषेक करा लो।” राजकुमार भरत भरी सभा में आँसू बहाते हुए विलाप करने लगे और
उन्होंने राज पुरोहितजी को उपालंभ देते हुए कहा, “गुरुदेव, जिन्होंने ब्रह्म‍चर्य का पालन किया, जो संपूर्ण
विद्याओं में निष्णात हुए तथा जो सदा ही धर्म के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, उन बुद्धिमान श्रीरामचंद्रजी के
राज्य का मेरे जैसा कौन मनुष्य अपहरण कर सकता है? महाराज दशरथ का कोई भी पुत्र अपने बड़े
भाई के राज्य का अपहरण कैसे कर सकता है? यह राज्य और मैं दोनों ही श्रीराम के हैं, यह समझकर
आपको इस सभा में धर्मसंगत बात कहनी चाहिए। श्रीराम मुझसे आयु में बड़े और गुणों में भी श्रेष्ठतर
हैं। वह दिलीप तथा नहुष के समान तेजस्वी हैं, अतः वे ही इस राज्य को पाने के अधिकारी हैं।”
भरत के धर्मयुक्त वचन सुनकर सभी सभासद हर्ष के आँसू बहाने लगे। असह्य‍‍ दुःख में डूबे हुए
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 149

भरत ने सभी मंत्रियों तथा सभासदों को फिर संबोधित किया, ‘‘आप सभी सद्गुण युक्त बरताव करनेवाले
पूजनीय श्रेष्ठ सभासदों का यह कर्तव्य है कि श्रीरामचंद्रजी को प्रेमपूर्वक या फिर बलपूर्वक लौटा लाने
के लिए सब प्रकार के प्रयत्न करें। मैं वह सभी कार्य करूँगा, जिससे श्रीराम को अयोध्या वापिस लाया
जा सके और उन्हें राजा बनाया जा सके।’’ सभासदों से ऐसा कहकर राजकुमार भरत ने पास बैठे हुए
सुमंत्र से कहा, “सुमंत्रजी! आप जल्दी उठकर जाइए और कल सवेरे ही वन प्रस्थान की सूचना दीजिए
और सेना को भी प्रस्थान हेतु तैयार रहने को कहिए।” सुमंत्र ने आज्ञानुसार घोषणा की, जिसे सुनकर
बड़ी संख्या में ब्राह्म‍ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र अपने–अपने घोड़ों, हाथियों तथा रथों को जोतने लगे,
ताकि वे भरत के साथ वनों से श्रीराम को वापिस लाने के लिए जा सकें।
प्रातः काल उठकर भरत और शत्रुघ्न ने उत्तम रथ पर सवार होकर श्रीरामचंद्रजी के दर्शन करने
की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान किया। उनके साथ उनकी तीनों माताएँ कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा,
राजपुरोहित वसिष्ठ, मं​ित्रगण, विद्वान् ऋषियों, कारीगरों, सेना और अयोध्या के निवासियों ने भी प्रस्थान
किया। अयोध्या से रथों, घोड़ों और पालकियों आदि पर सवार होकर सभी चल पड़े। वे सब लोग
शृंग्वेरपुर में गंगाजी के तट पर जा पहुँचे। यहाँ श्रीरामचंद्रजी के मित्र निषादराज गुह सावधानी के साथ उस
देश पर शासन करते हुए अपने भाई-बंधुओं के साथ निवास करते थे। गंगा के तट पर पहुँचकर भरत
का अनुसरण करनेवाली वह सेना ठहर गई। गंगा नदी के तट पर भरत और शत्रुघ्न ने अपने मृत पिता के
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सम्मान में श्राद्ध और तर्पण किया। मृत व्यक्ति की आत्मा को भोजन और जल का अर्पण करना हजारों
वर्षों से भारतवर्ष की वैदिक परंपरा रही है। भरत के इरादों पर संदेह करते हुए निषादराज गुह ने अपनी
सेना को नावों की रक्षा करने का आदेश दिया, जिससे कि भरत और उसकी सेना को गंगा पार करने से
रोका जा सके। भरत के मन का भाव जानने के लिए स्वयं निषादराज गुह उनसे मिलने चले गए। भरत
से बातचीत के बाद उनके मनोरथ से संतुष्ट होने के पश्चात् गुह ने भरत और उनकी सेना का फलों एवं
कंद-मूल से स्वागत किया। जब भरत और उनकी विशाल सेना की थोड़ी सी थकान दूर हुई, तब गुह
ने उन्हें आगे के मार्ग के बारे में बतलाया। श्रीराम के परम मित्र निषादराज गुह ने भरत को लक्ष्मण के
सद्भाव व सेवाभाव के बारे में विस्तार से बताया और दोनों भाइयों के केशों को जटारूप देने के बारे में
भी बताया। यह सुनकर भरत को बड़ा दुःख हुआ और वे शोक संतप्त होकर जोर-जोर से रोने लगे। भरत
के पूछने पर गुह ने वह इंगुदी का वृक्ष भी दिखाया, जिसके नीचे लक्ष्मण द्वारा बनाई हुई शय्या पर श्रीराम
तथा सीता ने रात्रि में शयन किया था। गुह निषाद ने यह भी बताया कि उस रात्रि श्रीराम और सीता की
रक्षा के लिए वे तथा लक्ष्मण संपर्ण
ू रात्रि जागते रहे और श्रीराम पर आई विपत्ति पर शोक व्यक्त करते रहे।
गुह का धन्यवाद करते हुए भरत ने ऋषि भरद्वाज के आश्रम का मार्ग पूछा, जहाँ पर श्रीराम गए थे।
भरत के बारे में गुह की सभी शंकाएँ दूर होने के पश्चात् गुह ने मार्गदर्शक के रूप में भरत का साथ देने का
वचन दिया। भरत ने श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी की सुरक्षा के बारे में माता कौशल्या को पुनः आश्वस्त
150 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

करने के लिए गुह को भेजा। जिस कुशा घास की शय्या पर श्रीराम और सीता ने रात्रि व्यतीत की थी, उसे
देखकर और उसकी तुलना अयोध्या में श्रीराम के सर्वोत्तम महलों में निवास से करते हुए भरत श्रीराम और
सीता के दुर्भाग्य और कष्टों के लिए स्वयं को दोषी ठहराने लगे और कहने लगे कि लक्ष्मण ही धनी एवं
बड़भागी हैं, जो संकट के समय बड़े भाई श्रीराम के साथ रहकर उनकी सेवा कर रहे हैं। सीता भी अपने
पति का अनुसरण करके वन में आकर कृतार्थ हो गई हैं। फिर भरत ने इस प्रकार संकल्प लिया कि आज
से मैं भी पृथ्वी पर अथवा तिनकों पर ही सोऊँगा। फल-मूल का ही भोजन करूँगा तथा सदा वल्कल वस्त्र
तथा जटा धारण किए रहूँगा। वनवास के जितने दिन बाकी हैं, उतने दिनों तक मैं शत्रुघ्न को साथ लेकर वनों
में रहूँगा और मेरे बड़े भाई श्रीराम लक्ष्मण को साथ लेकर अयोध्या पर शासन करेंग।े अयोध्या में श्रीराम
का अभिषेक होगा। मैं उनके चरणों पर मस्तक रखकर श्रीराम को मनाने का हर संभव प्रयत्न करूँगा,
यदि मेरे कहने पर भी वह लौटने को राजी नहीं होंगे तो उन वनवासी श्रीराम के साथ मैं भी दीर्घकाल तक
वहीं वनों में ही निवास करूँगा। संब​ि‍ं धयों, मंत्रियों तथा सेना सहित भरत ने वह रात ऋंग्वेरपुर में गंगातट
पर बिताई। प्रात:काल जल्दी उठकर निषादराज गुह द्वारा दी गई नौकाओं के माध्यम से सब लोग गंगा के
उस पार उतर गए, ताकि वे मुनि भरद्वाज के आश्रम पर पहुँच सकें।
श्रीराम से भेंट करने की अत्यंत शीघ्रता में भरत ने मुनि वसिष्ठ और अपने भाई शत्रुघ्न के साथ
ऋषि भरद्वाज के आश्रम में प्रवेश किया और अपनी सेना को आश्रम से कुछ मील पहले छोड़ दिया। मुनि
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वसिष्ठ और भरद्वाज के बीच आपसी अभिवादन के पश्चात् भरत ने भरद्वाज मुनि के चरण स्पर्श करके
प्रणाम किया और श्रीराम को वन से वापस लाने का अपना मनोरथ भरद्वाज मुनि को बताया। भरत मुनि
ने भरद्वाज से श्रीराम के आवास के बारे में पूछा। भरद्वाज मुनि ने भरत को बताया कि श्रीराम चित्रकूट में
निवास कर रहे हैं। भरत ने मुनि भरद्वाज के आतिथ्य, आशीर्वाद और मार्गदर्शन के लिए उनका आभार
व्यक्त किया। इसके पश्चात् समय नष्ट किए बिना उन सभी ने चित्रकूट की ओर प्रस्थान किया। चित्रकूट
की पावन धरती पर प्रवेश करते ही, भरत ने श्रीराम की कुटिया को खोजना आरंभ कर दिया। दूर से ही
एक कुटिया को देखकर भरत ने अपनी सेना को विश्राम का आदेश दिया और वह सुमंत्र और धृति को
साथ लेकर श्रीराम से भेंट करने के लिए स्वयं शीघ्रता से आगे बढ़ गए। (वाल्मीकि रामायण 2/93)
उस समय श्रीराम सीता को प्रसन्न करने के लिए चित्रकूट के अभूतपूर्व सौंदर्य का वर्णन करते हुए
पावन नदी मंदाकिनी का भी उल्लेख कर रहे थे। श्रीराम ने सुंदर पर्वतमालाओं की ओर इशारा किया,
जिन पर विभिन्न प्रकार के पक्षी चहचहा रहे थे। ये पर्वत, हिरणों, तेंदुओं, बाघों जैसे जंतुओं से भरे हुए
थे। वहाँ के परिवेश में चारों तरफ फूलों-फलों से लदे हुए भाँति-भाँति के पेड़-पौधे उस स्थान की
शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। इनमें शामिल थे—आम, जामुन, बिल्व, कदंब, बैंत, केवड़ा, कटहल,
दालचीनी, बेर, अनार आदि। रंग-बिरंगे फल-फूलों से भरपूर ये वृक्ष न केवल मनोरम प्रतीत होते थे,
बल्कि मन व तन को स्वस्थ तथा स्वच्छ करने की भी क्षमता रखते थे।
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 151

रामायण के अयोध्याकांड में वर्णित चित्रकूट क्षेत्र के पौधे


क्रम रामायण में वर्णित संदर्भ कांड/ सामान्य नाम सामान्य नाम
वैज्ञानिक नाम
संख्या पौधे का नाम सर्ग (हिंदी) (अंग्रेजी)

1. आम्र 2 / 94 आम Mango Mangifera indica

2. जम्बू 2 / 94 जामुन Malabar plum Syzygium cumini

3. बिल्व 2 / 94 बेल Bael Aegle marmelos

4. वेणु 2 / 94 बाँस Bamboo Bambusa sp.

5. अरिष्ट 2 / 94 नीम Neem Azadirachta indica

6. बीजक 2 / 94 अनार Pome-granate Punica granatum

7. पनस 2 / 94 कटहल Jackfruit Artocarpus


heterophyllus

8. तिलक 2 / 94 दालचीनी Cinnamon Cinnamo-muminers

9. बदरी 2 / 94 बेर Berry Ziziphus mauritiana

10
11
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आमल
केतक
2 / 94
2/94
आँवला
केवड़ा
Amala

Kewra
Phyllanthus emblica

Pandanus odorifera

परु ावनस्पति विज्ञान और पैलने ॉलोजी अध्ययन में यह पाया गया है कि इनमें से कई पेड़ और पौधे 7000
वर्ष पहले अर्थात्् लगभग 5000 वर्ष ई.पू. में इस क्षेत्र में उपलब्ध थे। 5000 वर्ष ई.पू. का समय मध्य नूतन
युग के अनुकूलतम जलवायु का था। इस अवधि में भारत के मध्यवर्ती और पश्चिमी क्षेत्रों में मानसून की
वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती थी। इसके परिणामस्वरूप, हरे-भरे वनों की बहुतायत थी और इन सघन जंगलों में
विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु थे। रामायण में वर्णित अनेक पौधे उत्तर भारत में लगभग 5000
वर्ष ई.पू. की वनस्पति में भी पाए गए हैं। यह संपर्ण ू परिदृश्य मध्य-नूतन युग के अनुकूलतम जलवायु के
पूर्ण रूप से अनुरूप है। इसके परिणामस्वरूप यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पुरावानस्पतिक साक्ष्य
भी रामायण की घटनाओं की खगोलीय तिथियों की पुष्टि करते हैं (प्रियदर्शी 2014)।36 पुरावनस्पतिक और
पैलिनॉलोजी का अध्ययन किस प्रकार किया जाता है, इसके बारे में जानने के लिए बॉक्स 2.3 को देख।ें
152 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रामायण के अयोध्याकांड में वर्णित चित्रकूट क्षेत्र के पौधों के चित्र (चित्र-29)

जम्बू (जामुन) वेणु (बाँस), Courtesy: www.TopTropicals.com

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बिल्व (बेल) आम्र (आम) Courtesy: www.TopTropicals.com

बीजक (अनार) अरिष्ट (नीम)


अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 153

बॉक्स 2.3
पुरावानस्पतिक और पैलिनॉलोजी का अध्ययन किस प्रकार किया जाता है?
पुरावनस्पति विज्ञान पुरातात्त्विक अन्वेषणों में मिले उन पौधों के अवशेषों का अध्ययन
करता है, जिनको प्राचीन काल में मनुष्य या तो उगाते थे अथवा उनको प्रयोग में लाते थे। यह
पुरातात्त्विक अध्ययन का ही उप-क्षेत्र है, जिसमें उत्खनित स्थलों से मिले पौधों के अवशेषों
का अध्ययन तथा तिथिकरण किया जाता है। पौधों के ऊतक, पराग, अनाज, लकड़ी आदि
प्राकृतिक तथा कृत्रिम तलछटों में संरक्षित रह जाते हैं। पौधों के इन अवशेषों में साक्षात् (सहज
रूप से दृश्यमान) तथा सूक्ष्म आण्विक जानकारी होती है, जिसके आधार पर उस पौधे के
प्राचीनकाल में उपयोग, आहार या खेती आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इसीलिए ये
उस समय की वनस्पति, कृषि प्रथा, पारिस्थितिकी आदि के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान
करते हैं। इस अध्ययन में नूतन युग (होलोसीन) से संबंधित पुरातत्त्व स्थलों से उत्खनित पौधों
पर प्राचीन डी.एन.ए. का विश्लेषण भी शामिल है।
आम तौर पर आर्किओबोटनी और पैलेयोएथनोबोटनी, पुरातात्त्विक संदर्भ में पौधों के
अध्ययन संबंधी समानार्थक शब्द माने जाते हैं, परंतु कुछ विद्वान् इन दो शब्दों के अर्थ में
निम्नानुसार अंतर निकालते हैं—
• आर्किओबोटनी पौधों के अवशेषों की वसूली पर केंद्रित होती है तथा उनकी
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वानस्पतिक पहचान पर केंद्रित होती है।
• पैलेयोएथनोबोटनी प्राचीन लोगों और पौधों के बीच संबंधों की पुरातात्त्विक व्याख्या
पर फोकस करती है।
पैलिनॉलोजी पुरावनस्पति विज्ञान की वह एक शाखा है, जिसमें पुरातात्त्विक और भू-
वैज्ञानिक स्थलों पर तलछटों से मिले परागों तथा बीजाणुओं का अध्ययन किया जाता है। इस
प्रकार उत्खनित परागों तथा बीजाणुओं की रेडियो-कार्बन डेटिंग कर उनका तिथि-निर्धारण करने
के साथ-साथ संबधि ं त प्राचीन समय की जलवायु का अध्ययन भी किया जाता है। प्राप्त हुई
जानकारी से उस स्थल पर मानव के निवास तथा संस्कृति का समय निर्धारित किया जा सकता
है। इस अध्ययन से उन दिनों में पैदा होनेवाले अथवा उगाए जाने वाले पौधों की जानकारी
मिलती है और उस प्राचीन समय में अपनाई गई कृषि पद्धतियों के बारे में पर्याप्त संसच ू ना भी
मिल जाती है। 37-38
पुरातात्त्विक संदर्भ में उन पौधों से संबधि
ं त मानवीय कार्यकलापों के बारे में
भी काफी सूचना एकत्रित हो जाती है।
इस प्रकार वेदों और महाकाव्यों सहित प्राचीन ग्रंथों की रचना की तिथियों का निर्धारण
इन प्राचीन ग्रंथों में वर्णित भौगोलिक स्थानों के पैलिनॉलोजिकल, पुरावनस्पतिक और
पैलेयोएथनोबोटेनिकल अध्ययनों के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है एवं वेदों तथा महाकाव्यों
आदि में वर्णित पेड़ों, पौधों, फसलों, जड़ी-बूटियों आदि से मिलान भी किया जा सकता है।
यह आश्चर्यजनक है कि कई भौगोलिक स्थानों में किए गए ऐसे अध्ययनों से पता चला है
कि रामायण में वर्णित कई पौधे वास्तव में लगभग 7000 साल पहले मौजूद थे, इस प्रकार ये
रामायण में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तिथियों का समर्थन करते हैं।39
154 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

6. चित्रकूट में भरत और श्रीराम का रोमांचकारी व मार्मिक मिलन


सीताजी को प्रसन्न करने के लिए जब श्रीराम चित्रकूट की विचित्र सुंदरता का वर्णन कर रहे थे, उस
समय अचानक ही भरत की सेना की धूल और कोलाहल दोनों एक साथ प्रकट हुए। श्रीराम ने इसका
कारण पता लगाने के लिए लक्ष्मण को भेजा। श्रीराम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण तुरंत ही एक साल वृक्ष पर
चढ़ गए और संपूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए उन्होंने पूर्व दिशा की ओर से आती हुई विशाल सेना को
देखा, जिसके आगे कोशल देश की ध्वजा को फहराता हुआ रथ था। भरत के इरादों पर कुछ संदेह करते
हुए लक्ष्मण ने तुरंत यह सूचना श्रीराम को दी। लक्ष्मण ने क्रोधपूर्वक कहा कि वह एक आक्रमणकारी के
रूप में आए हुए भरत का वध कर देंगे। श्रीराम ने भरत के सद्भाव के बारे में आश्वासन देते हुए लक्ष्मण
को शांत किया। उन्होंने यह भी कहा कि शायद शोकग्रस्त भरत उन्हें अयोध्या का सिंहासन देने के लिए
आ रहे हों। श्रीराम ने लक्ष्मण को चेतावनी दी कि भरत से कोई भी कठोर शब्द नहीं बोलेंगे।
उधर सेना को पीछे छोड़कर भरत श्रीरामचंद्रजी की कुटिया की ओर तेजी से बढ़े। भाई के दर्शन के
लिए उत्सुक होकर भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न को आश्रम के चिह्न‍‍ दिखाते हुए उसकी ओर चले। भरत
महर्षि वसिष्ठ को यह संदेश देकर कि आप मेरी माताओं को साथ लेकर शीघ्र ही आइए, तुरंत आगे बढ़
गए। सुमंत्र भी शत्रुघ्न के समीप ही पीछे पीछे चल रहे थे। उन्हें भी भरत के समान ही श्रीरामचंद्रजी के
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दर्शन की तीव्र अभिलाषा थी। चलते-चलते ही श्रीमान भरत ने तपस्वी जनों के आश्रमों के समान प्रतिष्ठित
हुई भाई की पर्णकुटी को देखा। अपने भाई श्रीराम की ओर दृष्टि पड़ते ही भरत आर्तभाव से विलाप करने
लगे और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। इसके पश्चात् वे श्रीराम के चरणों में गिर पड़े। श्रीराम ने भरत
को उठाया और उनका मस्तक अपने हृदय से लगा लिया। इसके बाद भरत को गोद में बिठाकर श्रीराम
ने अपने पिता राजा दशरथ, माताओं और अन्य लोगों का कुशलक्षेम पूछा।
श्रीराम ने भरत से अयोध्या के युवराज के रूप में उनके कर्तव्यों के निर्वहन के बारे में भी विस्तार
से पूछा। श्रीराम ने यह आशा व्यक्त की कि युवराज भरत ने बुद्धिमान और प्रतिभाशाली लोगों को शासन के
सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपे होंग।े भरत पुजारियों, विद्वानों तथा ऋषियों का सम्मान श्रद्धा के साथ करते होंग।े
श्रीराम ने यह भी पूछा कि क्या भरत ने शूरवीर, धैर्यवान, बुद्धिमान तथा वफादार व्यक्ति को अपना सेनापति
नियुक्त किया है। श्रीराम ने भरत से पूछा कि क्या वे वेतनभोगी कर्मचारियों के वेतन का भुगतान समय पर
कर रहे हैं। जासूसों के नेटवर्क के माध्यमों से दुश्मनों के महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों तथा उनकी गतिविधियों पर
क्या नजर रखी जा रही है। श्रीराम भरत के शासन के बारे में जानने की जिज्ञासा के साथ-साथ उन्हें अच्छे,
धर्मसंगत तथा कल्याणकारी शासन के नियमों से परिचित भी करवाना चाहते थे। इसीलिए श्रीराम ने भरत से
यह भी पूछा कि यदि कभी एक अमीर तथा एक गरीब आदमी में विवाद हो जाता है तो क्या उनके न्यायाधीश
निष्पक्ष तथा न्यायोचित रवैया बनाए रखते हैं। श्रीराम ने यह भी जानना चाहा कि क्या भरत ने ऐसे तीन-चार
बुद्धिमान सालाहकारों का चयन कर लिया है, जो मेधावी, कुशल तथा वफादार हों?
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 155

श्रीराम ने एक बार फिर पिता दशरथ तथा तीनों माताओं के कुशलक्षेम के बारे में पूछा। फिर वल्कल
वस्त्र पहन, अयोध्या छोड़ इस प्रकार वनों में आने का कारण भी पूछा। अपने भाई श्रीराम के लिए प्रगाढ़
प्रेम तथा अत्यंत दुःख का अनुभव करते हुए, भरत ने अश्रु बहाते हुए हाथ जोड़कर उत्तर दिया, “हमारे
पिता महाबाहु दशरथ अपनी प्रिय पत्नी कैकेयी को संतुष्ट करने के लिए अपने सबसे प्रिय तथा ज्येष्ठ
पुत्र श्रीराम को राज्य से वंचित कर, चौदह वर्षों के लिए वनों में भेजने का दुष्कर कार्य कर हम सबको
छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। अपनी स्त्री एवं मेरी माता कैकेयी की प्रेरणा से ही विवश होकर पिताजी ने
ऐसा कठोर तथा अन्यायपूर्ण कार्य किया था। मेरी माँ ने अपने यश को नष्ट करनेवाला यह बड़ा भारी पाप
किया है, जिसके फलस्वरूप वह नरक में उतर जाएँगी। अब आप अपने दासस्वरूप मुझ भरत पर कृपा
कीजिए और इंद्र की भाँति आज ही राज्य ग्रहण करने के लिए अपना अभिषेक कराइए, क्योंकि नियमों के
अनुसार, राजा बनने का अधिकारी कुल का ज्येष्ठ पुत्र ही होता है।’’ ऐसा कहकर भरत ने नेत्रों से आँसू
बहाते हुए पुनः श्रीरामचंद्रजी के चरणों में माथा रख दिया।
उस समय श्रीराम ने भाई भरत को उठाकर हृदय से लगा लिया और कहा कि “उत्तम कुल में उत्पन्न
एवं श्रेष्ठ व्रतों का पालन करनेवाला, मेरे जैसा मनुष्य राज्य के लिए अपने पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन
रूपी पाप कैसे कर सकता है? मेरे पिता राजा दशरथ को तुम्हें युवराज बनाने और मुझे 14 वर्ष का
वनवास देने का अधिकार था। तुम्हें भी अपनी माता कैकेयी की भर्त्सना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने
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राजा से उनकी प्रतिज्ञा के अनुसार दो वर ही माँगे थे। इसके अतिरिक्त जब माता कैकेयी का विवाह हमारे
पिता राजा दशरथ के साथ संपन्न हुआ था, उस वक्त कैकेयी के पिता अश्वजीत ने भी यह शर्त रखी थी
कि केवल कैकेयी के पुत्र को ही राजा बनाया जाना चाहिए। इसलिए समस्त विश्व में सम्मानित अयोध्या
का साम्राज्य तुम्हें ही मिलना चाहिए।’’ परंतु भरत ने श्रीराम से कहा कि इक्ष्वाकु वंश में सदा से इस
शाश्वत नियम का पालन होता आया है कि ज्येष्ठ पुत्र के रहते छोटा पुत्र राजा नहीं बन सकता।
इसके पश्चात् भरत ने श्रीराम से मृत पिता राजा दशरथ की आत्मा को जलांजलि देने का अनुरोध
किया, जो सीता और लक्ष्मण के साथ श्रीराम के अयोध्या से निकलते ही दुःख एवं शोक से पीड़ित होकर
स्वर्ग सिधार गए।
राजा दशरथ की मृत्यु का दुःखद समाचार सुनते ही श्रीराम असहनीय दुःख से कुछ क्षण के लिए
अचेत हो गए। सुमंत्र द्वारा सांत्वना दिए जाने के पश्चात् श्रीराम अपने भाइयों और सीताजी को साथ लेकर
मंदाकिनी के तट पर गए और दिवगंत आत्मा के लिए जलदान और पिंडदान किया। तत्पश्चात् वे सब
कुटिया में वापस लौट आए। श्रीराम ने भरत की ओर देखा और कहा कि जब पिताजी परलोकवासी हो
गए हैं, तब अयोध्या में चलकर अब मैं क्या करूँगा? पिता राजा दशरथ से हीन हुई उस अयोध्या का
अब कौन पालन करेगा? जो पिताजी मेरे ही शोक से मृत्यु को प्राप्त हुए, उन्हीं का मैं दाह संस्कार तक न
कर सका। श्रीरामचंद्रजी के ऐसा कहने पर सीता सहित उन चारों यशस्वी भाइयों ने अत्यंत विलाप करते
156 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

हुए इतने ऊँचे स्वर में रुदन किया कि उस ध्वनि से समस्त चित्रकूट पर्वत गूँज उठा। अयोध्या से भरत
के साथ आए सभी लोग अपने रथ, पालकियों और घोड़ों को छोड़कर उनकी ओर दौड़े। उस समय,
कैकेयी और मंथरा सहित वहाँ पर उपस्थित समस्त लोग इतना अधिक भावुक हो उठे कि सभी अपनी
आँखों से आँसू बहाने लगे।
उधर मं​ित्रगण, सेना, तीनों माताएँ तथा सगे-संबंधी श्रीराम की कुटिया में पहुँच चुके थे। वहाँ उन
सभी ने भोगों का परित्याग करके तपस्वी जीवन व्यतीत करनेवाले श्रीराम को ध्यानपूर्वक देखा। उनकी
माताएँ शोक से कातर हो गईं और आर्तभाव से फूट-फूटकर रोती हुई आँसू बहाने लगीं। सत्यप्रतिज्ञ
श्रीराम माताओं को देखते ही उठकर खड़े हो गए और बारी-बारी से उन सबके चरणों का स्पर्श किया।
श्रीराम के बाद लक्ष्मण भी उन सभी माताओं को देखकर दुःखी हो गए और उन्होंने स्नेहपूर्वक धीरे-धीरे
उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके पश्चात् उन्होंने मुनि वसिष्ठ के चरण स्पर्श किए। उनकी उपस्थिति
में भरत ने बार-बार श्रीराम से अयोध्या लौटने और अयोध्या के साम्राज्य को स्वीकार करने का अनुरोध
करते हुए यह भी कहा, “यदि ऐसा नहीं होता है तो मैं भी अयोध्या वापस नहीं जाऊँगा और वन में आपके
साथ निवास करूँगा।” परंतु श्रीराम ने भरत को कहा कि पिता की आज्ञा का पालन करना तुम्हारा और
मेरा कर्तव्य है। इस प्रकार जब श्रीराम द्वारा भरत को चुप करा दिया गया, तब ब्राह्म‍ण शिरोमणि जाबालि
ने कहा, “आपको पिता का राज्य छोड़कर इस दुःख में नीचे-ऊँचे तथा बहु कंटक वन के मार्ग पर नहीं
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चलना चाहिए। आप अयोध्या में राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइए, यही न्यायसंगत होगा। वह
नगरी आपकी प्रतीक्षा कर रही है। राजकुमार श्रीराम जैसे देवराज इंद्र स्वर्ग में विहार करते हैं, उसी प्रकार
आप बहुमूल्य राजमार्गों का उपयोग करते हुए उस अयोध्या में विहार कीजिए।”
लेकिन श्रीराम जाबालि की बात से सहमत नहीं हुए। भरत ने अयोध्या पर राज्य करने की अपनी
अक्षमता बताते हुए और श्रीराम को अयोध्या वापस लौट चलने तथा राजा के रूप में राज्याभिषेक कराने
का अनुरोध करते हुए बहुत अधिक अश्रु बहाए, लेकिन इन सभी प्रयासों से दृढ़ प्रतिज्ञ श्रीराम का मन
विचलित न हो सका। वसिष्ठजी ने सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की परंपरा बता ज्येष्ठ पुत्र के
ही राज्याभिषेक का औचित्य सिद्ध करते हुए तथा श्रीराम को राज्याभिषेक के लिए सर्वाधिक योग्यतम
बताते हुए राज्य ग्रहण करने का भरत का अनुरोध स्वीकार करने का आग्रह किया। दूसरी ओर श्रीराम
ने कहा कि भरत न सिर्फ अयोध्या पर बल्कि समस्त पृथ्वी पर राज्य करने के योग्य हैं। इसके पश्चात्
गुरु वसिष्ठ ने इस राजवंश के महत्त्वपूर्ण राजाओं के नामों का उल्लेख किया और विस्तार में यह बताया
कि ज्येष्ठाधिकार के नियम का अनुपालन करते हुए राजा के रूप में सबसे ज्येष्ठ पुत्र का ही सदैव
राज्य अभिषेक किया जाता है। उन्होंने सूर्यवंश के 40वें शासक सगर का उदाहरण दिया, जिन्हें पापकर्म
में प्रवृत्त होने के कारण अपने पुत्र असमंजस को राज्य से निकाल देना पड़ा था। ऐसी स्थिति में भी
असमंजस के सबसे बड़े पुत्र अंशुमान को राजा बनाया गया था। (2/110)
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 157

भरत ने पुनः कहा कि उनके पिता राजा दशरथ ने कैकेयी के मोह में पड़कर उन्हें राज्य का भार और
श्रीराम को वनवास दिया था। श्रीराम ने स्पष्ट किया कि उनके पिता दशरथ द्वारा भरत को राजा बनाना
उनका कर्तव्य था, क्योंकि उन्होंने कैकेयी से विवाह करते समय कैकेयी के पिताजी को यह वचन दिया था
कि कैकेयी के पुत्र का ही युवराज के पद पर अभिषेक किया जाएगा। वह राक्षसों के साथ हुए संग्राम के
दौरान कैकेयी द्वारा उनके प्राणों की रक्षा के ऋण को भी चुकाना चाहते थे। परंतु भरत ने श्रीराम को मनाने
के लिए कहा कि कैकेयी को संतुष्ट करने के लिए उन्हें यह राज्य दिया गया था और उस राज्य को ग्रहण
करने के पश्चात् भरत वह राज्य श्रीराम को दे रहे हैं। जब श्रीराम ने भरत के इस प्रस्ताव को भी अस्वीकार
कर दिया, तब भरत ने श्रीराम पर दबाव बनाने के लिए आमरण अनशन शुरू करने की धमकी दी।
भरत की यह बात सुनकर श्रीराम ने क्षत्रियों की आचार संहिता के प्रतिकूल बात कहने के लिए भरत
को डाँटा। उसके बाद भरत ने श्रीराम को अयोध्या की संप्रभुता को स्वीकार करने के लिए फिर प्रार्थना
की। उन्होंने कहा कि वह अपने स्वर्गवासी पिता की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए श्रीराम के बदले में 14
वर्षों तक वन में निवास करने के लिए तैयार हैं। परंतु श्रीराम ने कहा कि मानसिक तथा शारीरिक रूप से
समर्थ व्यक्ति का अपने कर्तव्यों को किसी प्रतिनिधि को सौंप देना शास्त्रों में निषिद्ध है। श्रीराम ने भरत को
अयोध्या वापिस जाकर, समाज के सभी चारों वर्णों (कार्यात्मक विभागों) के सर्वोत्तम हित में शासन करने
की आज्ञा दी। उन्होंने यह वायदा भी किया कि चौदह वर्षों की अवधि पूर्ण करने के बाद जब वे वनों से
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अयोध्या लौटेंगे तो धर्मपरायण भाई भरत की इच्छापूर्ति के लिए राजसिंहासन सँभाल लेंगे। (देखें चित्र-30)
उन अनुपम तेजस्वी भ्राताओं का वह रोमांचकारी संवाद सुनकर वहाँ आए हुए व्यक्तियों को बड़ा
विस्मय हुआ। जब श्रीराम को मनाने के सभी प्रयास असफल हो गए और वहाँ आए मुनि वसिष्ठ तथा
सभी अन्य ऋषियों को यह विश्वास हो गया कि श्रीराम अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा से एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे,
तो उन्होंने भरत को वापिस जाकर अयोध्या का शासन सँभालने की आज्ञा दी। तब भरत ने श्रीराम से इस
प्रकार कहा, “यह दो सुवर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इन पर चरण रखें। ये ही संपूर्ण
जगत् के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी।’’ तब श्रीराम ने पादुकाओं पर चढ़कर उन्हें फिर अलग कर दिया और
महात्मा भरत को सौंप दिया। उन पादुकाओं को प्रणाम करके भरत ने श्रीराम से कहा, मैं भी 14 वर्षों तक
जटा और चीर धारण करके फल-मूल का भोजन करता हुआ, आपके आगमन की प्रतीक्षा में नगर के बाहर
ही रहूँगा। इतने दिनों तक राज्य का सारा भार आपकी इन चरणपादुकाओं के ऊपर रखकर मैं आपकी राह
देखता रहूँगा। यदि 14 वर्ष पूर्ण होने पर अगले वर्ष के प्रथम दिन ही मुझे आपका दर्शन नहीं होगा तो मैं
आत्मदाह कर लूगँ ा। श्रीराम ने सहमति व्यक्त करते हुए बड़े आदर के साथ भरत को हृदय से लगाया और
भरत, शत्रुघ्न और अपनी सभी माताओं को अश्रुपूर्ण विदाई दी।
158 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

MAGAZINE KING
चित्र-30 ः चित्रकूट में भरत का श्रीराम से मिलाप, नागार्जुनकोंडा, आंध्र प्रदेश से प्राप्त (पत् थर पर नक् काशी)
तीसरी शताब्दी की कलाकृति (सौजन्य ः श्री बी.बी. लाल व आर्यन बुक्स इंटरनेशनल)

इसके पश्चात् श्रीरामचंद्रजी की दोनों चरण पादुकाओं को अपने मस्तक पर रखकर भरत शत्रुघ्न
के साथ रथ पर बैठे। मुनि वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि तथा मंत्रियों को आगे कर भरत ने अपने संबंधियों,
अयोध्यावासियों तथा सेना सहित अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। अयोध्या की ओर लौटते समय भरत ने
ऋषि भरद्वाज के आश्रम में उतर कर उनके चरणों में प्रणाम किया और चित्रकूट में श्रीराम के साथ मिलन
का सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया। यमुना नदी पार करने के पश्चात् वे गंगा नदी के तट पर पहुँचे और शृंग्वेरपुर
के सुंदर नगर में प्रवेश किया। इसके आगे यात्रा करते हुए उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया।
राजा दशरथ और श्रीराम के बिना अयोध्या नगरी अनाथ दिखाई दे रही थी। सारे नगर में अंधकार
छा रहा था। वहाँ घरों के किवाड़ बंद थे। जो अयोध्या पहले धूल रहित सुनहरी कांतिवाली प्रज्वलित
अग्निशिखा के समान प्रकाशित होती थी, वही अयोध्या आज अमावस्या की काली रात के समान अंधकार
में डूबी हुई जान पड़ती थी। भरत ने पिछली घटनाओं को याद किया और वर्तमान पर विचार करते हुए
बारंबार विलाप किया। इसके पश्चात् उन्होंने सुमंत्र से कहा कि शहर में कहीं भी पहले की भाँति सब ओर
फैला हुआ गाने-बजाने का सुखद नाद नहीं सुनाई पड़ता था। संपूर्ण अयोध्या नगरी अनाथ और शोक
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 159

संतप्त लग रही थी। सभी अयोध्यावासियों की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसके पश्चात् भरत ने राजा
दशरथ से हीन राजमहल में प्रवेश किया, जो सिंह से विहीन गुफा की भाँति उजाड़ दिखाई दे रहा था। वे
शोकमग्न रानियों को उनके महलों में ले गए, जो शोभाहीन दिखाई दे रहे थे।
इसके पश्चात् भरत सभाकक्ष में गए और नंदीग्राम जाने के लिए गुरु वसिष्ठ से आज्ञा माँगी। उस
समय भरत ने यह भी कहा कि वह श्रीराम को दिए गए वचन को पूर्ण करने के लिए कोशल देश के
नागरिकों के कल्याण के लिए श्रीराम के वनवास के चौदह वर्ष पूर्ण होने तक राजा के कर्तव्यों का निर्वाह
करते रहेंगे। गुरु वसिष्ठ की आज्ञा मिलने के पश्चात् भरत ने सुमंत्र को नंदीग्राम जाने के लिए सभी प्रबंध
करने का आदेश दिया। इसके पश्चात् माताओं का अभिवादन करने के पश्चात् शत्रुघ्न सहित चरणपादुका
को मस्तक पर धारण कर भरत रथ पर सवार हो गए। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई मंत्रियों तथा पुरोहितों
सहित शीघ्रतापूर्वक वहाँ से प्रस्थान कर गए। आगे-आगे मुनि वसिष्ठ आदि सभी गुरुजन एवं ब्राह्म‍ण चल
रहे थे। उन सब लोगों ने अयोध्या से पूर्वाभिमुख होकर यात्रा की और उस मार्ग को पकड़ा जो नंदीग्राम की
ओर जाता था। भरत के प्रस्थित होने पर हाथी, घोड़े, रथों से भरी हुई सारी सेना भी बिना बुलाए ही उनके
पीछे-पीछे चल दी और अनेक पुरवासी भी उनके पीछे-पीछे चल दिए।
नंदीग्राम पहुँचने के पश्चात् भरत रथ से उतरे और सभी उपस्थित जनों एवं गुरुजनों से बोले कि यह
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राज्य श्रीराम का है। कुछ समय के लिए उन्होंने मुझे इसका दायित्व सौंपा है। मैं अपने भाई श्रीराम की जगह
उनकी चरणपादुका को स्थापित करता हूँ। मैं इन चरणपादुकाओं से ही शक्ति प्राप्त करूँगा और राजा के
कर्तव्यों का निर्वाह करूँगा। अयोध्या के सिंहासन पर अपने भाई श्रीराम की चरणपादुकाएँ स्थापित करने के
पश्चात् भरत मुनियों के वेष में नंदीग्राम में रहने लगे। वे वल्कल वस्त्र पहनते थे और केवल फल-मूल ही
खाते थे। विद्वान् मंत्रियों एवं पुरोहितों की सहायता से भरत ने अयोध्या पर यह सोचते हुए राज्य किया कि 14
वर्षों के वनवास को पूरा करने के बाद श्रीराम के लौटने तक अयोध्या की प्रजा का संरक्षण तथा कल्याण
करना उनका कर्तव्य है। भरत शासन का समस्त कार्य श्रीराम की चरण-पादुका को निवेदन करके करते थे।
भरत के अयोध्या लौट जाने के कुछ दिनों पश्चात् श्रीराम ने देखा कि चित्रकूट के तपस्वियों को थोड़ी
तकलीफ महसूस हो रही थी और ऐसा प्रतीत होता था कि वे श्रीराम को नजरअंदाज कर रहे हैं। श्रीराम ने
व्यथित महसूस करते हुए ऋषियों से अपनी किसी भी प्रकार की गलती अथवा भूल के बारे में बताने का
अनुरोध किया। उत्तर में ऋषियों ने बताया कि श्रीराम की उपस्थिति में भी राक्षस उन्हें परेशान कर रहे हैं।
उन्होंने यह बताया कि चित्रकूट के नजदीक ही वनप्रांत में रावण का छोटा भाई खर रहता है, जिसने वहाँ
पर रहनेवाले समस्त तापसों को उखाड़ फेंका है। वह घमंडी तथा नरभक्षी है। जब से श्रीराम यहाँ रहने
लगे हैं, तब से वह तपस्वियों को और भी अधिक सताने लगा है। राक्षस इस वन में प्रवेश करते हैं और
ऋषियों को उत्पीड़ित करके उनकी यज्ञ-सामग्रियों को इधर-उधर फेंक देते हैं तथा प्रज्वलित अग्नि में
पानी डाल देते हैं और कलशों को तोड़ डालते हैं। उन राक्षसों ने ऋषियों का जीवन इतना असुरक्षित बना
160 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

दिया कि ऋषियों ने चित्रकूट क्षेत्र में से अपने आश्रमों का त्याग करने का निर्णय लिया है। श्रीराम ने उन्हें
पुनः आश्वासन देने का प्रयास किया, लेकिन वह सहमत नहीं हुए और एक-एक करके चित्रकूट से चले
गए। इसके पश्चात् श्रीराम ने भी कई कारणों से उस स्थान पर रहना पसंद नहीं किया। पहला कारण यह
कि वे पुण्यात्मा ऋषियों के साथ से वंचित हो गए थे। दूसरा, उनके भाइयों और माताओं के अश्रुपर्ण ू चेहरे
उन्हें चित्रकूट में रहते हुए उनकी याद दिला रहे थे। इसके परिणामस्वरुप श्रीराम ने भी चित्रकूट छोड़कर
दंडकवन में किसी अन्य उचित स्थान की खोज करने का निर्णय लिया।
श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी ने चित्रकूट छोड़ दिया और मुनि अत्रि के आश्रम की ओर प्रस्थान
किया। अत्रि ऋषि को समस्त दंडकवन क्षेत्र का ज्ञान था। श्रीराम निवास के लिए अनुकूल स्थान के बारे
में मार्गदर्शन प्राप्त करने की इच्छा से अत्रि मुनि के पास गए। मुनि अत्रि ने भी उनका स्नेहपूर्वक स्वागत
किया और सीताजी ने तो अत्रि मुनि की पत्नी तपस्विनी अनसूया के हृदय को जीत लिया। अनसूया सीताजी
में अर्धांगिनी के सभी गुणों को देखकर प्रसन्न हुईं और उनको दिव्य वस्त्र और आभूषण प्रदान किए।
अनसूया में स्त्रियोचित सभी गुण मौजूद थे और अनसूया के उपहार से सीताजी के सौंदर्य और आंतरिक
शक्ति में वृद्धि हुई। सीताजी ने उन उपहारों को स्वीकार किया और कहा कि मेरे पति श्रीराम मुझे माता और
पिता से भी अधिक प्रेम करते हैं। मैं निश्चित रूप से अत्यंत सौभाग्यशाली हूँ। रात्रि में ऋषियों के आतिथ्य
को स्वीकार करते हुए प्रात:काल होने पर श्रीराम लक्ष्मण और सीताजी ने दंडक वन में प्रवेश करने के
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लिए अत्रि ऋषि से आज्ञा माँगी। महर्षि अत्रि, जिन्होंने ऋग्वेद के अनेक मंत्रों की रचना भी की है, ने कहा
कि दंडकवन का मार्ग राक्षसों से आक्रांत है, यहाँ उनका उपद्रव होता रहता है। इस विशाल वन में नाना
रूपधारी नरभक्षी राक्षस तथा हिंसक पशु निवास करते हैं। ऋषि अत्रि ने ऋषियों द्वारा अपनाए जानेवाले
सुरक्षित मार्ग के बारे में बताया। इस प्रकार तीनों राजसी तपस्वियों ने दंडक वन के भीतर इस प्रकार प्रवेश
किया, जैसे काले मेघों के भीतर सूर्यदेव प्रविष्ट हो गए हों।

संदर्भ-सूची—
1. डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक—सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर:1-8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyuJ6fFZo &t=429s-डॉ. कलाम का भाषण,
भाग-1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU_m-X7Pc&t=10s-डॉ. कलाम का भाषण,
भाग-2
4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminar-on-scientific-dating-of-ancient.
html, http://bit.ly/2r8ke1A
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 161

5. एनसाइक्लोपीडिया अॉफ हिंदुइज्म, 2011, संस्करण XI, पृष्ठ 34, इंडियन हैरिटेज रिसर्च फाउंडेशन,
अमेरिका तथा रूपा ऐंड कंपनी द्वारा प्रकाशित
6. डॉ. राम अवतार शर्मा ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, पृष्ठ 93, प्रकाशक—श्रीराम सांस्कृतिक
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7. डॉ. बी.बी. लाल, ‘रामा; हिज हिस्टोरिसिटी, मंदिर ऐंड सेतु : ‘एविडेंस ऑफ लिटरेचर, ऑर्कोलॉजी ऐंड
अदर स्टोरीज’, नई दिल्ली : आर्यन बुक्स इंटरनेशनल (1 फरवरी, 2008)
8. डॉ. बी.बी. लाल, ‘रामा : हिज हिस्टोरिसिटी, मंदिर ऐंड सेतु : एविडेन्स ऑफ लिटरेचर, ऑर्कोलॉजी ऐंड
अदर स्टोरीज’, नई दिल्ली, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल (1 फरवरी, 2008)
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11. कैनेडी, कैनथ ए.आर., 2000 ‘गॉड—एप्स ऐंड फॉसिल मैन : पैलियोन्थ्रोपोलोजी ऑफ साउथ एशिया’,
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12. जी. चौबे, ए. कादियान, एस. बाला, वी.आर. राव (2015) ‘जेनेटिक एफनिटी ऑफ द भील, कोल
ऐंड गोंड ट्राईब्ज मेन्शन्ड इन द एपिक रामायण;’ PLoS ONE 10 (6) : e0127655. https://doi.
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14. डॉ. बी.बी.लाल, ‘रामा; हिज हिस्टोरिसिटी, मंदिर ऐंड सेतु : एविडेन्स ऑफ लिटरेचर, ऑर्कोलॉजी ऐंड
अदर स्टोरीज’, प्रकाशक आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली
15. जे.एन. पाल, 2007-2008. ‘द अर्ली फार्मिंग कल्चर ऑफ द मिडल गंगा प्लेन विद स्पेशल रेफरेंस टू
द एक्सकेवेशन एट झुस्सी ऐंड हेट्टा-पट्टी’ . परागधारा 18: पृष्ठ 263-281
16. अनिल के. पोखरियाल, जे.एन. पाल, अल्का श्रीवास्तव, 2009. ‘प्लांट मैक्रो रिमेंस फ्रॉम नियोलॉथिक
झुस्सी इन गंगा प्लेन: एविडेंस फॉर ग्रेन बेस्ड एग्रीकल्चर’; करेंट साइंस-अगस्त 2009
17. डॉ. राम अवतार शर्मा ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, पृष्ठ 93, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध
संस्थान न्यास, दिल्ली
18. श्रीमद्‍वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत, अयोध्या
कांड, सर्ग 68, श्लोक 12-21
19. ‘ऋग्वेद संहिता, सरल हिंदी भावार्थ सहित’, संपादक वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य,
प्रकाशक—ब्रह्म‍वर्चस्, शांतिकुंज, हरिद्वार, प्राचीन नदियों के आधुनिक नाम इस पुस्तक में उपलब्ध हैं
20. संपादक-रवि प्रकाश आर्य और के.एल. जोशी, ‘ऋग्वेद संहिता विद् इंग्लिश ट्रांसलेशन एकोर्डिंग
टू एच.एच. विल्सन’, भाग-4 : परिमल प्रकाशन, प्राचीन नदियों के आधुनिक नाम इस पुस्तक में
उपलब्ध हैं
162 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

21. https://en.wikipedia.org/wiki/Jhelum_River, http://www.thefullwiki.org/


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22. जे.आर. शर्मा, बी.के. भद्रा, RRSC-W, ISRO, JODHPUR, 2012. ‘सिग्नेचर्ज़ ऑफ पैलियो
रिवर्ज़ नेटवर्क इन नॉर्थवेस्ट इंडिया यूज़िंग सेटैलाइट रिमोट सेंसिंग’, हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड
रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज,
संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर, पृष्ठ संख्या 171-192
23. संपादक रवि प्रकाश आर्य और के.एल.जोशी, ‘ऋग्वेद संहिता विद् इंग्लिश ट्रांसलेशन एकोर्डिंग टू
एच.एच. विल्सन’, भाग-4, परिमल प्रकाशन
24. अशोक भटनागर, 2011-2012. ‘एस्ट्रॉनोमिकल डेटिंग ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स
यूजिंग प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर’, हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज
फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-
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ऑन ‘क्रोनोलॉजी ऑफ इंडियन कल्चर सिंस द बिगनिंग ऑफ होलोसीन थ्रू साइंटिफिक एविडेंसेज’ 16
MAGAZINE KING
जुलाई, 2016 की प्रस्तुति (sarojbala.blogspot.in and www.bhootkaal.com–link-
http://bit.ly/2DfYZ2k
27. के.एन. दीक्षित, बी.आर. मणि—“द ऑरिजिन ऑफ इंडियन सिविलाइजेशन वरीड अंडर द सैंड्‍य ऑफ
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(भारतीय पुरात्त्व परिषद् की प्रतिष्ठित वार्षिक पत्रिका)
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32. जे.आर. शर्मा और बी.के. भद्रा, 2009a. सेटैलाइट इमेजरी ऑफ सरस्वती : ट्रेसिंग लोस्ट रिवर,
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एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स अॉफ स्काईज, 2012, संपादक सरोज बाला,
कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 171-192
अयोध्या का घटनाक्रम और श्रीराम को चौदह वर्षों • 163

34. प्राचीन नदियों के पुरामार्गों संबंधी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट http://www.cgwb.gov.in/


Ground-water/Final%20print%20version_Palaeochannel%20Expert%20
Committee _15thOct2016.pdf
35. के.एस. वल्दिया, 2017. ‘प्रीहिस्टोरिक रिवर सरस्वती, वेस्टर्न इंडिया : जियोलॉजिकल एप्रेजल ऐंड
सोशल आस्पेक्टस; स्प्रिन्गर इंटरनेशल पब्लिशिंग
36. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, ‘इन क्वेस्ट ऑफ द डेट्स ऑफ वेदाज, प्रकाशक प्रैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस
की कंपनी। प्रियदर्शी विज्ञान को इतिहास लेखन का स‍्रोत मानते हैं
37. सी.एम. नौटियाल, 2012 ‘रेडियोकार्बन डेटिंग इन डिटरमाइनिंग द एटिक्विटी ऑफ कल्चरल रिमेंज इन
इंडिया’ हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ
ओशंज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर, पृष्ठ
संख्या 125-142
38. http://bit.ly/2r8ke1A-पर उपलब्ध (सी.एम. नौटियाल की प्रस्तुति)
39. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, ‘इन क्वेस्ट ऑफ द डेट्स ऑफ वेदाज, पैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस की कंपनी

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तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 165

अध्याय-3

तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में


जीवन; चित्रकूट से पंचवटी तक
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महर्षि वाल्मीकि ने नक्षत्रों एवं ग्रहों की आकाशीय
स्थितियों का उल्लेख करते हुए रामायण में विभिन्न
घटनाओं की तिथियों का विस्तार से वर्णन किया है। इन
खगोलीय विवरणों को समझना सरल कार्य नहीं है और
बहुत लोगों ने इन्हें समझने का प्रयास भी नहीं किया है।
इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि प्राचीन
भारतीय लोगों के पास समय मापने एवं इसके उल्लेख का एक सटीक तरीका मौजूद
था। वे चंद्रमा की नक्षत्रों में स्थिति के अनुसार ‘तिथि’ अर्थात्् दिन एवं मास की गणना
करते थे तथा इसी प्रकार ऋतुओं एवं अयनांत को भी दर्ज करते थे। ग्रहों तथा नक्षत्रों
के खगोलीय विन्यासों की हूबहू पुनरावृत्ति कई हजार वर्षों (25920 वर्ष) में भी नहीं
होती। इसीलिए रामायण में वर्णित इन खगोलीय स्थितियों तथा संदर्भों के आकाशीय
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दृश्यों को प्रस्तुत कर इसमें वर्णित विभिन्न घटनाओं की तिथियों का सटीक निर्धारण
किया जा सकता है।
जिस प्रकार संगम साहित्य तमिल राजाओं के अस्तित्व और शासन के बारे में
दस्तावेजी प्रमाण है, उसी प्रकार रामायण और महाभारत श्रीराम और श्रीकृष्ण के
अस्तित्व तथा जीवनकाल के प्रलेखीय प्रमाण हैं। पुरातात्त्विक और साहित्यिक साक्ष्य
प्राचीन घटनाओं की तिथियों का केवल अनुमान देते हैं, जबकि खगोलीय साक्ष्य
वास्तविक तिथियों का निर्धारण करते हैं। इसीलिए रामायण की घटनाओं का सटीक
तिथि-निर्धारण करने के लिए वैज्ञानिकों को खगोलीय गणनाओं का उपयोग करना
चाहिए।
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-3

तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन;


चित्रकूट से पंचवटी तक
1. तीनों शाही तपस्वियों द्वारा शरभंग मुनि तथा सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रमों में जाना
अत्रि मुनि द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करके श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता ने दंडकवन में
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प्रवेश किया। दंडकवन के घने जंगल में चलते हुए उन्होंने तपस्वी मुनियों के बहुत से आश्रम देखे। फिर
वे तीनों एक ऐसे आश्रम-समूह में जा पहुँचे, जो सूर्य-मंडल की तरह उद्दीप्त हो रहा था। उस स्थान
पर पहुँचते ही उन्होंने बड़ी-बड़ी अग्निशालाएँ, यज्ञपात्र, मृगचर्म, कलश, मुनियों के वस्त्र आदि देखे।
उन्हें यह ज्ञात था कि वह मुनियों का निवास स्थान है। वह स्थान देखने में अत्यंत मनोरम था। स्वादिष्ट
फल देनेवाले बड़े-बड़े वृक्षों से वह आश्रम आच्छादित था। वहाँ चारों ओर वेद-मंत्रों के पाठ की ध्वनि
गूँज रही थी। नजदीक जाने पर उन्होंने मुनियों के उज्‍ज्वल कांतिमान मुख देखे और आश्रम के साधुओं
ने तपस्वियों का वेश धारण किए हुए श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी का स्नेहपूर्वक हार्दिक स्वागत एवं
सत्कार किया। इसके पश्चात् वे धर्मज्ञ मुनि हाथ जोड़कर बोले, “श्रीराम, राजा ही प्रजा का पालक तथा
सत्य का संरक्षक होता है, वह भले नगर में रहे या फिर वन में। इसलिए हे रघुनंदन! आप ही समस्त जन
समुदाय के शासक एवं पालक हैं।” उन संन्यासियों ने तीनों राजसी तपस्वियों का हार्दिक स्वागत किया,
फल-मूल आदि का आहार दिया और विश्राम के लिए स्थान भी प्रदान किया। रात्रि में उन महर्षियों का
आतिथ्य स्वीकार करने के पश्चात् सवेरे सूर्य उदय होने पर समस्त मुनियों से विदा लेकर वे तीनों पुन:
वन में ही आगे बढ़ने लगे। आगे का वन पहले से भी अधिक घना और भयंकर था; वहाँ पर खूँखार
बाघ और अन्य जंगली पशु भी दिखाई दे रहे थे। धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक वे आगे की ओर चलने लगे।
अचानक ही भयंकर जंगली पशुओं से भरे हुए उस दुर्गम वन में सीता और श्रीरामचंद्रजी ने एक
नरभक्षी राक्षस को देखा, जो पर्वतशिखर के समान ऊँचा था और उच्‍च स्वर में गर्जना कर रहा था।
168 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

उसकी आँखें गहरी, मुँह विकराल और पेट बहुत बड़ा, विशाल आकार का था। वह देखने में बड़ा
भयंकर, घृणित, बेडौल और विकृत शरीर वाला था। उसने खून से भीगा और चरबी से गीला व्याघ्रचर्म
पहन रखा था। समस्त प्राणियों को कष्ट पहुँचाने वाला वह राक्षस यमराज के समान मुँह खोले हुए खड़ा
था। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को देखते ही वह क्रोध में भरकर उन सब की ओर दौड़ पड़ा। इसके
पश्चात् सीता को बलपूर्वक गोद में उठाकर दूर जाकर खड़ा हो गया। फिर उन दोनों भाइयों से बोला,
“तुम दोनों जटा और चीर धारण करके भी स्त्री के साथ रहते हो, हाथ में धनुष-बाण और तलवार लिए
दंडकवन में घुस आए हो। तुम दोनों तो तपस्वी जान पड़ते हो, फिर तुम्हारा युवती के साथ रहना कैसे
संभव हुआ? तुम दोनों कौन हो? मैं विराध नामक राक्षस हूँ और प्रतिदिन ऋषियों के मांस का भक्षण
करता हुआ दुर्गम वन में विचरण करता रहता हूँ। मैंने तपस्या के द्वारा ब्रह्म‍ाजी को प्रसन्न करके यह
वरदान प्राप्त किया है कि किसी भी अस्त्र-शस्त्र से मेरी मृत्यु नहीं हो सकती। मैं संसार में अछेद्य और
अभेद्य हूँ। कोई भी मेरे शरीर को छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता।’’ सीता की ओर देखकर राक्षस विराध
बोला, “यह स्त्री बड़ी सुंदर है। अतः यह मेरी भार्या बनकर रहेगी और तुम दोनों का वध करके मैं
रक्तपान करूँगा।” राक्षस के ये वचन सुनकर सीता बहुत घबरा गईं।
अपनी सती-साध्वी प्रिय पत्नी की दयनीय अवस्था देखकर श्रीराम ने अपना स्वाभाविक धैर्य तथा
आत्मनियंत्रण खो दिया। उन्होंने घबराकर लक्ष्मण से कहा कि कैकेयी को जो अभीष्ट था, वह हो रहा
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है, परंतु जनकनंदिनी सीता का कोई दूसरा व्यक्ति स्पर्श करे, मेरे लिए असहनीय दुःख की बात है। उस
समय लक्ष्मण ने सर्प की भाँति क्रोध से फुफकारते हुए श्रीराम को उनकी शक्ति का स्मरण करवाया;
तुरंत श्रीरामचंद्रजी की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। श्रीराम उस विकट रूप वाले पापी राक्षस विराध से
इस प्रकार बोले, “निश्चय ही तू अपनी मौत ढूँढ़ रहा है और वह तुझे युद्ध में मिलेगी। अब तू जीवित
नहीं रह सकेगा।’’ यह कहकर भगवान् श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और तुरंत ही तीखे बाणों
से राक्षस के शरीर का छेदन आरंभ कर दिया। प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाण राक्षस विराध के
शरीर को छेद रहे थे। रक्तरंजित हो पृथ्वी पर पड़े हुए घायल विराध ने सीता को अलग रख दिया और
अत्यंत कुपित होकर श्रीराम तथा लक्ष्मण पर तत्काल टूट पड़ा। उन दोनों राजकुमारों ने राक्षस पर बाणों
की वर्षा कर दी।
बाणों की वर्षा का उस राक्षस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह देखकर वह राक्षस अट्टहास कर
श्रीराम और लक्ष्मण की हँसी उड़ाने लगा और अपनी दोनों भुजाओं से उन दोनों राजकुमारों को पकड़कर
अपने कंधों पर चढ़ाकर घने वन की ओर चल दिया। सीता ने उन्हें जंगल के अँधेरे में अदृश्य होते हुए
देखा और रोने लगीं। श्रीराम और लक्ष्मण को यह ज्ञात था कि इस राक्षस का वध अस्त्र-शस्त्रों से नहीं
किया जा सकता। इसलिए उन्होंने उसकी दोनों भुजाएँ तोड़ डालीं और उसे उठा-उठाकर पटकने लगे।
उसके पश्चात् श्रीराम तथा लक्ष्मण विराध को भुजाओं, मुक्कों और लातों से मारने लगे। बहुसंख्यक
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 169

बाणों से घायल और तलवारों से क्षत-विक्षत होने पर तथा पृथ्वी पर बार-बार पटका जाने पर भी वह
राक्षस मरा नहीं, परंतु उसके घावों की पीड़ा इतनी तीव्र थी कि वह दर्द के कारण चीख-चिल्ला रहा था।
श्रीराम ने राक्षस को जमीन पर फेंक दिया और अपने एक पैर से विराध का गला दबाकर खड़े हो गए,
जिससे कि उस भयंकर राक्षस को खड़ा न होने दिया जा सके।
राक्षस विराध के शरीर पर श्रीराम के चरणों का स्पर्श होते ही उसे अपने पूर्व जन्म के शाप का
स्मरण हो गया और उसने श्रीराम से कहा, “मैं आपको पहचान न सका, केवल आप ही मुझे बचा सकते
हैं। मैं जन्म से राक्षस नहीं हूँ। मैं एक गंधर्व हूँ। यदि आप मेरे शरीर को गड्ढे में गाड़ देंगे तो मैं अपने
मूल स्वरूप में लौटकर स्वर्ग लोक चला जाऊँगा।” इसके पश्चात् श्रीराम ने उस राक्षस रूपी गंधर्व को
बिना उठाए लक्ष्मण द्वारा जमीन में खोदे गए गड्ढे में गाड़ दिया। इसके पश्चात् वह राक्षस शापमुक्त
हो जाने पर गंधर्व लोक में चला गया। तत्पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण उस स्थान पर लौट आए, जहाँ
सीताजी अत्यंत चिंतित खड़ी हुई थीं। उन्होंने सीताजी को हृदय से लगाकर सांत्वना दी तथा राक्षस विराध
के वध का सारा वृत्तांत सुनाया। उन्होंने यह भी कहा कि अब हम शीघ्र ही तापस-शिरोमणि शरभंगजी
के आश्रम में जाएँगे। 200 वर्ष पुराना लघुचित्र। (देखें लघुचित्र-4)

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लघुचित्र-4 ः ऋषि शरभंग के आश्रम में तीनों राजसी तपस्वी, शंगरी रामायण से 18वीं शताब्दी का एक लघुचित्र;
अधिप्राप्ति संख्या-62.2593, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय
170 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

तत्पश्चात् वे शाही तपस्वी मुनि शरभंग के आश्रम की ओर चलने लगे। मुनि के समीप पहुँचकर
श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। उस समय श्रीराम ने एक अद्भुत दृश्य
देखा—आकाश में रथ पर इंद्र तथा देवतागण सवार थे, फिर वे सभी महाज्ञानी शरभंग का सत्कार कर
अंतर्ध्यान हो गए। महातपस्वी शरभंग ने श्रीराम से कहा कि जब मुझे मालूम हो गया कि “आप इस
आश्रम के निकट आ गए हैं, तब मैंने निश्चय किया कि आप जैसे प्रिय अतिथि का दर्शन किए बिना मैं
ब्रह्म‍ लोक को नहीं जाऊँगा। अब मेरी इच्छा पूर्ण हो गई है। अब मैं अपनी तपस्या से प्राप्त सभी फलों
एवं गुणों को तुम्हें प्रदान करूँगा।” श्रीराम ने उत्तर दिया, “भगवन, क्या यह सब मुझे स्वयं अर्जित
नहीं करना चाहिए? मैं आपके द्वारा अर्जित की गई शक्तियों को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मैंने वन में
निवास करने के लिए सबकुछ त्याग दिया है, कृपया मुझे वन में रहने के लिए सर्वश्रेष्ठ निवासस्थान के
बारे में बताएँ और अपना आशीर्वाद देकर मुझे यहाँ से विदा करें।” मुनि शरभंग को श्रीराम के अवतार
की गुप्त सूचना थी और उन्होंने श्रीराम से कहा कि तुम्हें महातेजस्वी धर्मात्मा सुतीक्ष्ण मुनि से पूछना
चाहिए कि जंगल में तुम्हें कहाँ निवास करना चाहिए। आप मंदाकिनी नदी के स‍्रोत से विपरीत दिशा में
किनारे-किनारे चलने के पश्चात् ऋषि सुतीक्ष्ण के आश्रम में पहुँच जाऐंगे।” यह कहकर महातेजस्वी
शरभंग मुनि ने विधिवत् अग्नि की स्थापना करके उसे प्रज्वलित किया और मंत्र उच्‍चारण कर, घी की
आहुति देकर वे स्वयं भी उस अग्नि में प्रविष्ट हो गए। उस समय अग्नि ने उन महात्मा के शरीर को
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जलाकर भस्म कर दिया और उनकी आत्मा अग्नि तुल्य तेजस्वी कुमार के रूप में प्रकट होकर, उस
अग्नि राशि से ऊपर उठकर महात्मा, मुनियों और देवताओं के लोक को लाँघकर ब्रह्म‍लोक में जा पहुँची।
शरभंग मुनि के स्वर्गलोक में पहुँच जाने के पश्चात् तपस्वियों का समूह वहाँ उपस्थित हुआ। इन
मुनियों ने श्रीराम के हाथों विराध राक्षस के वध के बारे में सुना था। वे दशरथनंदन श्रीराम के पास गए
और उनसे कहा, “यह हमारा परम सौभाग्य है कि आप इस क्षेत्र में निवास करने आए हैं। आप इक्ष्वाकु
कुल के राजकुमार हैं, जोकि एक ऐसा कुल है, जिसके राजाओं ने पृथ्वी पर उसी प्रकार शासन किया
है, जिस प्रकार भगवान् इंद्र समस्त देवताओं पर शासन करते हैं। श्रीराम! राजा अपने राज्य में रहनेवाले
सभी लोगों की रक्षा और पालन-पोषण करने के लिए प्रतिबद्ध होता है। राजा के राज्य में ऋषि-मुनि
फल-मूल का आहार करके जिस उत्तम धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसका चौथा भाग प्रजा की रक्षा
करनेवाले राजा को प्राप्त हो जाता है, परंतु राक्षस प्रतिदिन महान् ऋषियों का संहार करके भक्षण कर
जाते हैं। आप इन राक्षसों का वध करके हमारी रक्षा कीजिए। इसके पश्चात् ही हम राक्षसों के अत्याचारों
से भयमुक्त होकर अपनी तपस्या कर सकेंगे। चारों ओर फैली हुई उन हड्ड‍ियों को देखो। भयंकर राक्षसों
द्वारा बारंबार मारे गए बहुसंख्यक पवित्रात्मा मुनियों के शरीर के ये कंकाल हैं। पंपा सरोवर और उसके
निकट बहनेवाली तुंगभद्रा नदी के तट पर जिनका निवास है तथा जिन्होंने चित्रकूट पर्वत के किनारे
अपना निवास-स्थान बना लिया है, उन सभी ऋषि-मुनियों का राक्षसों द्वारा संहार किया जा रहा है। आप
देवराज इंद्र के समान तेजस्वी हैं। हमें राक्षसों के अत्याचारों से बचा लीजिए। आप ही हमारे तारणहार
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 171

हैं।” श्रीराम ने उत्तर दिया—“राक्षसों के द्वारा आपको जो कष्ट पहुँच रहा है, इसे दूर करने के लिए ही
मैं पिता के आदेश का पालन करता हुआ इस वन में आया हूँ। आपकी सेवा का अवसर मिलना मेरा
सौभाग्य है और ऐसा करने से मेरे लिए यह वनवास की शेष अवधि सार्थक हो जाएगी। मैं वन में निवास
करूँगा और राक्षसों का विध्वंस करके आप सभी को चिंता व विपत्ति से मुक्त करूँगा। अपना भय त्याग
दीजिए।” श्रीराम के इन वचनों से तपस्वियों एवं ऋषियों को राहत मिली और आनंद की अनुभूति हुई।
इसके पश्चात् शत्रुओं को संताप देनवे ाले श्रीरामचंद्रजी ने लक्ष्मण, सीता और उन ब्राह्म‍णों के साथ
सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम की ओर प्रस्थान किया। आगे बढ़ते हुए वे तीनों शाही संन्यासी वृक्षों से भरे हुए एक
वन में पहुँच।े उस घनघोर वन में प्रविष्ट होकर श्रीराम ने इधर-उधर टँगे हुए चीर वस्त्रों तथा आभूषणों से
शोभायमान एक आश्रम को देखा। वहाँ उन्होंने परम तेजस्वी सुतीक्ष्ण मुनि को देखा। श्रीराम ने उन तपोधन
मुनि को नमस्कार करते हुए कहा, “मैं राम हूँ और यहाँ आपका दर्शन करने तथा आपका आशीर्वाद प्राप्त
करने आया हूँ।” श्रीराम का दर्शन करके महर्षि सुतीक्ष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से उनका आलिंगन किया
और इस प्रकार बोले, “धर्म के संरक्षक श्रीराम! आपका स्वागत है। आपके पदार्पण से मेरा आश्रम सनाथ
हो गया है। अब यह आश्रम आपका हो गया है। मैंने सुना था कि आप अयोध्या छोड़कर चित्रकूट पर्वत
पर निवास करने लगे हैं। मुझे यह ज्ञात था कि आप यहाँ जरूर पधारेंगे और तभी से मैं आशावान होकर
आपकी प्रतीक्षा कर रहा था।” श्रीराम ने उत्तर दिया—“मैं वन में निवास करना चाहता हूँ और आपके
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लिए किसी भी प्रकार की असुविधा उत्पन्न नहीं करना चाहता। मुनि शरभंग के सुझाव अनुसार मैं यहाँ पर
आपका आशीर्वाद प्राप्त करने आया हूँ और यह जानने आया हूँ कि मुझे दंडक वन में किस स्थान पर
अपने वनवास की शेष अवधि के लिए कुटिया का निर्माण करना चाहिए?” श्रीरामचंद्रजी के ऐसा कहने
पर सुतीक्ष्ण मुनि ने बड़े हर्ष के साथ मधुर वाणी में कहा, “श्रीराम! आप मेरे आश्रम में सुखपूरक ्व निवास
कर सकते हैं। यहाँ ऋषियों का समुदाय सदा आता-जाता रहता है और फल-मूल भी सर्वदा उपलब्ध रहते
हैं, लेकिन यहाँ पर मुनियों का उत्पीड़न करने और उनकी तपस्या में बाधा उत्पन्न करने के लिए चारों
ओर भयंकर राक्षस तथा जंगली जानवर भी घूमते रहते हैं। यहाँ के ऋषि-मुनि इस कष्ट को सहन करने में
असमर्थ हैं, अन्यथा यह स्थान निश्चित रूप से रहने के लिए उत्तम है।”
रघुकुलनंदन सुतीक्ष्ण मुनि के गूढ़ वचनों को समझ गए, अर्थात् श्रीराम यह समझ गए थे कि समस्त
दंडक वन में रहनेवाले साधुओं को संरक्षण की जरूरत है। इसके पश्चात् श्रीराम ने हाथ में धनुष-बाण
उठाकर कहा, “पूज्य ऋषिवर! मैं इन सभी उपद्रवियों का नाश कर दूँगा, परंतु यहाँ आए हुए उन
उपद्रवकारी राक्षसों के साथ-साथ यदि मैंने अपने तीक्ष्ण बाणों से उपद्रवकारी मृगसमूहों का भी संहार
कर डाला तो इसमें आपका अपयश होगा और आपकी तपस्या में अवरोध उत्पन्न होगा। हम अपने
लिए आपके पड़ोस के किसी स्थान में निवास के लिए स्थान ढूँढ़ लेंगे। ऐसा करने के लिए हमें आज्ञा
दीजिए।” इसके पश्चात् उन सभी ने वह रात्रि महात्मा सुतीक्ष्ण के रमणीय आश्रम में बिताई। अगली
172 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

सुबह उन्होंने सुगंधित शीतल जल से स्नान किया, यज्ञशाला में यज्ञ किया, पूजा-अर्चना की और मुनि
के चरणों को स्पर्श करते हुए कहा, “आपकी कृपा से हमने रात्रि आनंद एवं आराम से व्यतीत की। हम
इस क्षेत्र में अन्य ऋषियों के भी दर्शन करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। सूर्य
की ऊष्मा तेज होने से पहले यहाँ से प्रस्थान करना श्रेयस्कर होगा। आप हमें प्रस्थान करने की अनुमति
दें।” सुतीक्ष्ण मुनि ने दोनों राजकुमारों का आलिंगन किया और यह कहते हुए आशीर्वाद दिया—“तुम
दंडकवन में ऋषियों के दर्शन करो। उन सभी ऋषियों ने कठोर तपस्या करके दैवी श​ि‍क्तयाँ प्राप्त की हैं।
आप उनके रमणीय आश्रमों का दर्शन करें। निश्चित रूप से यह वन सुंदर हिरणों के झुंडों, पक्षियों के
समूहों, कमल के पुष्पों से सज्जित सरोवरों, स्वच्छ जल की झीलों, पर्वत-शृंखलाओं तथा मोरों की ध्वनि
से गुँजायमान वनों से युक्त है। इन सभी स्थलों का दर्शन करके आप पुन: इस आश्रम में लौट आइए।”
सुतीक्ष्ण मुनि ने श्रीराम को क्रूर राक्षसों का वध करने की उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए
आशीर्वाद दिया और उन्हें यह कहकर आश्रम से प्रस्थान करने की अनुमति दी कि वे अपनी इच्छानुसार
कभी भी उनके आश्रम में पधार सकते हैं। उनके ऐसा कहने पर लक्ष्मण सहित श्रीराम ने ‘बहुत अच्छा’
कहकर मुनि की परिक्रमा की और वहाँ से प्रस्थान करने की तैयारी की। उसके पश्चात् सीता ने उन
दोनों भाइयों के हाथ में दो सुंदर तूणीर, धनुष और खड़ग प्रदान किए। तूणीर और धनुष धारण किए हुए
दोनों राजकुमार पहले से भी अधिक रूपवान और तेजस्वी दिखाई दे रहे थे। इसके पश्चात् सीताजी के
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मन में एक भयरूपी पूर्वाभास हुआ। उन्होंने कहा, “आप और लक्ष्मण वन में मात्र तपस्वी जीवन व्यतीत
करने के लिए आए हैं। आपको दंडकारण्य के निवासी ऋषियों की रक्षा के लिए युद्ध में राक्षसों का वध
करने की प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए थी। आप यहाँ पर अपने स्वर्गीय पिता राजा दशरथ की प्रतिज्ञा को
पूर्ण करने के लिए आए हैं। ऋषियों की रक्षा करना असली राजा का कर्तव्य होता है। यह आपके लिए
उचित नहीं है कि आप तपस्वी होते हुए उन ऋषियों की रक्षा के लिए राक्षसों का वध करें। आत्मरक्षा
को छोड़कर किसी भी स्थिति में किसी और का वध करना तपस्वी जीवन के नियम के विरुद्ध होता है,
लेकिन आपने ऋषियों की रक्षा का वचन दे दिया है। आपके प्रतिज्ञा पालनरूपी व्रत पर विचार करके मैं
चिंता में पड़ जाती हूँ कि इसका क्या परिणाम होगा?’’
सीताजी की ये बातें सुनकर श्रीराम का सीताजी के प्रति प्रेम तथा आदर और अधिक बढ़ गया,
उन्होंने कहा, “तुम राजा जनक की सच्‍ची पुत्री की तरह बोल रही हो, लेकिन हे सीते! क्या तुमने एक
बार भी यह विचार किया है कि क्षत्रियों द्वारा धारण किए जानेवाले अस्त्र-शस्त्र अन्य लोगों की रक्षा
के लिए होते हैं। यदि कोई दुःख या संकट में पड़ा हो तो उस असहाय की पीड़ा देखकर क्षत्रिय किस
प्रकार शांत बैठ सकता है? जब हम दंडकवन में आए थे, तब ऋषियों ने अपनी पीड़ा हमें बताई थी और
हमसे संरक्षण माँगा था। वे राक्षसों के अत्याचारों का सामना करने में असमर्थ हैं। क्या उन्होंने उन क्रूर
राक्षसों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के प्रमाण के रूप में कंकाल और मनुष्यों की हड्ड‍ियों का ढेर नहीं
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 173

दिखाया था? उन्होंने यह भी कहा था कि आप सूर्यवंशी राजा दशरथ के पराक्रमी पुत्र और इक्ष्वाकु कुल
के महान् राजकुमार भी हैं। क्या आप दोनों राजकुमार हमारी याचना को सुनेंगे और हमारी रक्षा करेंगे?
सभी को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, न कि सिर्फ राजा को।” इस प्रकार बातचीत करते हुए जंगल के
रास्ते में विचरण करते हुए श्रीराम और सीता के बीच का यह संवाद उसी प्रकार आनेवाले कष्टदायक
दिनों का पूर्वाभास या संकेत था, जिस प्रकार घने बादल वर्षा का संकेत होते हैं।
श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी ने लगभग दस वर्ष तक दंडकवन में विचरण किया। उन्होंने झीलों
में सारस तथा कमल और वनों में हिरण व हाथी देखे। उन्होंने अनेक पर्वतशिखर, गुफाएँ और जंगल
भी देखे तथा अनेक मनोहर नदियों को भी पार किया। (3/11/2-3) मध्य भारत में दंडकवन का भू-
आकृतिक क्षेत्र 92,300 वर्ग मीटर से भी अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है। उस समय इसमें मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र, उड़ीसा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश राज्यों के बड़े हिस्से शामिल थे। इससे सिद्ध
होता है कि इन तीनों राजसी तपस्वियों ने निश्चित रूप से महानदी और गोदावरी नदियों को भी पार किया
और यह भी निश्चित है कि इन नदियों के जल से सिंचित आसपास के क्षेत्र भी उन्होंने देखे। आधुनिक
समय में छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र, जिसमें रायपुर, जगदलपुर आदि शामिल हैं, दंडकवन क्षेत्र के अंतर्गत
आते थे और इन तीनों राजसी तपस्वियों ने उस क्षेत्र में भी विचरण किया। वे विभिन्न अवधि के लिए
ऋषियों और तपस्वियों के आश्रमों में भी गए थे; उन्होंने विभिन्न अवधि के लिए उनके साथ निवास भी
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किया था। इसी कारण से इस क्षेत्र में तथा इसके आसपास के क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में श्रीराम के पदार्पण
के स्मृति-चिह्न‍‍ संरक्षित हैं। इन स्मृति-स्थलों में शामिल हैं—पेसर घाट, मंडव्य आश्रम, सारंगी आश्रम,
कर्क आश्रम, कांगेर तथा सीताकुंड आदि5। छत्तीसगढ़ के रायपुर और बस्तर जिलों में तथा उसके
आसपास बड़ी संख्या में जनजातीय लोगों द्वारा इन स्मृति-चिह्न‍ों तथा पवित्र स्थलों को संरक्षित रखा गया
है, जिनमें शामिल हैं कोटुमसर गुफाएँ, बागेश्वर का श्रीराम मंदिर, शिव मंदिर, सीता कुंड, गुप्तेश्वर और
कोटिमहेश्वर आदि6। (संदर्भ ः श्रीराम अवतार द्वारा लिखित पुस्तक ‘जहाँ-जहाँ राम चरण चलि जाहीं’)
बस्तर जिले में जगदलपुर से 20 किलोमीटर दूर घने वन के मध्य में स्थित कोटुमसर गुफाएँ
आगंतुकों को वाल्मीकि रामायण में वर्णित संदर्भों का स्मरण करवाती हैं। इन गुफाओं की खोज 1985
में की गई थी, लेकिन इन भव्य गुफाओं में प्रवेश का मार्ग 1993 तक ही खुल पाया था। इन गुफाओं
में पाए गए अनाजों और बीजों के चारकोल अवशेषों की रेडियो कार्बन तिथियों ने इनका तिथि निर्धारण
6940 से 4030 वर्ष पूर्व का किया है।7 यह लगभग 5089 वर्ष ई.पू. के आसपास का वही समय है,
जब तीनों राजसी तपस्वी इस पुस्तक में दिए गए पुरातात्त्विक तथा खगोलीय प्रमाणों के अनुसार उस
क्षेत्र के आसपास विचरण कर रहे थे। इस विषय को और अधिक रहस्यमयी बनाते हुए इन गुफाओं के
भीतर पेयजल के कुएँ भी पाए गए हैं। लेखक द्वारा लिए गए चित्रों के माध्यम से ऐसा आभास होता है
कि रामायण में वर्णित संदर्भों के साथ इन गुफाओं का रहस्यमयी सहसंबंध है। (देखें चित्र-31-32)
174 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चित्र-31 व 32 ः जगदलपुर, जिला बस्तर, छत्तीसगढ़ (भारत) में कौटुमसर की गुफाएँ, 2008 का चित्र; स‍्रोत : लेखिका

दंडक वन में घूमते हुए आगे-आगे श्रीराम, उनके पीछे उनकी परमसुंदरी व सुशील पत्नी सीता और
उनके पीछे हाथ में धनुष लिए लक्ष्मण चलने लगे। उन्होंने कई नदियाँ पार कीं और उनके तटों पर सारस
तथा चक्रवाक देखे। झीलों में खिले हुए सुंदर कमल के फूल तथा तपोवनों में मस्त घूमते हुए हिरणों के
झुंड देखे। फिर अचानक उन्होंने साफ पानी की एक खूबसूरत झील देखी, जहाँ से गायन और संगीत
वाद्ययंत्र बजानेवाली मधुर आवाजें सुनाई दे रही थीं। पूछने पर मुनि धर्मभृत ने बताया कि उस झील का
नाम पंचाप्सर है, जहाँ पर मांडकर्णि नामक महान् ऋषि ने घोर तपस्या की थी। उन्होंने यह भी बताया
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कि संगीत की मधुर ध्वनियाँ उन पाँच अप्सराओं (दिव्य सुंदरियों) की हैं, जो ऋषि मंडाकर्णि को प्रसन्न
करने के लिए संगीत-यंत्रों को बजा रही हैं और गायन भी कर रही हैं। जब यह संवाद चल रहा था तो
रघुकुल-पल्लव श्रीराम की नजरें अचानक ही एक अत्यंत सुंदर आश्रमों के समूह पर पड़ी। श्रीराम ने
तेजस्वी लक्ष्मण तथा जनकनंदिनी सीता सहित उस आश्रम मंडल में प्रवेश किया। वहाँ महर्षियों ने उनका
स्नेहपूर्वक स्वागत किया। वहाँ कुछ आश्रमों में कुछ दिनों, अन्य में कुछ महीनों के लिए तथा कहीं पर तो
एक वर्ष तक भी उन्होंने निवास किया। वह समस्त तपोवन अत्यंत सुदं र था, जिसमें हिरण तथा हाथी, पेड़
तथा लताएँ, कमल तथा कुमुदिनी के फूल उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। इस प्रकार दस वर्ष बीत गए तथा इन
दस वर्षों के दौरान श्रीराम ने सीता तथा लक्ष्मण के साथ ऋषियों के सानिध्य में खुशी से वनवास का समय
व्यतीत किया। (3/11/21-26)
तत्पश्चात् तीनों शाही संन्यासी बारी-बारी उन सभी तपस्वियों के आश्रम पर गए, जिनके यहाँ वे पहले
रह चुके थे। इस प्रकार सब ओर भ्रमण कर धर्मज्ञ तथा तेजस्वी श्रीराम सीता और लक्ष्मण सहित सुतीक्ष्ण
मुनि के आश्रम में पुन: लौट आए। उन तीनों राजसी तपस्वियों का आश्रम में एक बार फिर स्नेहपूरक ्व
सत्कार किया गया और कुछ समय तक उस आश्रम में उन्होंने निवास किया। इसके पश्चात् एक दिन श्रीराम
ने हाथ जोड़कर विनीत भाव से अगस्त्य मुनि के आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त की, जो दंडक वन में किसी
स्थान पर निवास करते थे, परंतु वन की विशालता के कारण श्रीराम उस स्थान तक नहीं पहुँच पाए थे।
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 175

2. श्रीराम को अगस्त्य मुनि से दिव्य अस्त्रों-शस्त्रों की प्राप्ति


महान् और प्रसिद्ध तपस्वी मुनि सुतीक्ष्ण ने श्रीराम को बताया कि वे भी चाहते थे कि श्रीराम अगस्त्य
मुनि के पास जाएँ। उन्होंने बताया कि अगस्त्य मुनि की अग्निशाला तक पहुँचने के लिए दक्षिण दिशा की
ओर कुछ दूर तक जाना होगा। फिर उन्हें जंगल में एक सुदं र पिप्पली का कुज ं मिलेगा, वहाँ ऋषि अगस्त्य
के भाई का आश्रम है। वह स्थान फूलों एवं फलों से भरा हुआ है। नाना प्रकार के पक्षियों के कलरवों से
गूजँ ते हुए उस रमणीय आश्रम के पास तरह-तरह के कमल मंडित सरोवर हैं, जो स्वच्छ जल से भरे हुए
हैं। हंस और चक्रवाक आदि पक्षी उस आश्रम की शोभा बढ़ाते है। तीनों राजसी तपस्वी बताए गए मार्ग
का अनुसरण करके ऋषि अगस्त्य के छोटे भाई के आश्रम पर पहुँचे और उन महर्षि के चरणों में मस्तक
झुकाया। मुनि ने उनका आदर-सत्कार किया। सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम फल-मूल खाकर एक रात
उस आश्रम में सुखपूरक ्व रहे। रात बीतने पर जब सूर्योदय हुआ, तब श्रीरामचंद्रजी ने अगस्त्य मुनि के भाई से
विदा माँगी और उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। मार्ग में उन्होंने कटहल,
कदंब, अशोक, महुआ तथा बिल्व आदि के फूलों से लदे वृक्ष देख।े फिर अचानक कमलनयन श्रीराम ने
दूर से ही वन में एक आश्रम से यज्ञ के धुएँ को देखा। श्रीराम ने आस-पास के उदीप्त वातावरण को भी
देखा, वहाँ पर पशु-पक्षियों को भय रहित क्रीड़ा करते हुए देखा और पूजन के लिए पुष्प एकत्रित करते हुए
ऋषियों को भी देखा। तभी श्रीराम ने निष्कर्ष निकाला कि वही अगस्त्य मुनि का शोभा संपन्न आश्रम है और
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वे उनके आश्रम के समीप पहुँच गए हैं। श्रीराम ने लक्ष्मण को पहले प्रवेश करने की आज्ञा दी और महर्षि
अगस्त्य को सीता के साथ उनके आगमन की सूचना देने को कहा।
लक्ष्मण ने आश्रम में प्रवेश करके अगस्त्य ऋषि के शिष्य से भेंट की और उनके माध्यम से यह संदश े
पहुँचाया, “अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षि के दर्शन करने तथा
उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पधारे हैं। शिष्य ने अगस्त्य मुनि की अग्निशाला में प्रवेश किया और
लक्ष्मण तथा सीताजी सहित श्रीराम के आगमन की सूचना दी। ऋषि अगस्त्य ने सीता सहित श्रीराम और
लक्ष्मण को सत्कारपूरक ्व आश्रम में लाने की आज्ञा दी। अगस्त्य मुनि ने तीनों राजसी तपस्वियों का स्वागत
किया। उन्होंने कहा, “मैंने आपके चित्रकूट और दंडकवन में निवास के बारे में सुना था। आपका वनवास
समाप्त होनेवाला है। अपने वनवास की शेष अवधि आप यहाँ मेरे आश्रम में शांति से बिताइए। यह स्थान
राक्षसों के भय से रहित है।’’ इसके पश्चात् ऋषि अगस्त्य ने फल, मूल और फूलों से उनका आदर-सत्कार
किया। तत्पश्चात् अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को दिव्य धनुष, अमोघ बाण, बाणों से भरे हुए दो तरकस और
उत्कृष्ट तलवार आदि भेंट किए। श्रीराम ने आदरपूरक ्व इन अस्त्र-शस्त्रों को ग्रहण किया।
रामायण (3/11/85) और महाभारत (3/103/12-14) दोनों में ही अगस्त्य मुनि का महिमागान करते
हुए कहा गया है कि उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए अगस्त्य मुनि ने विंध्य पर्वत के और अधिक
ऊँचा न बढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। आकाश में सबसे अधिक चमकते हुए दूसरे तारे ‘कैनोपस’ का नाम
176 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

संस्कृत में अगस्त्य ही है। ऐसा विदित होता है कि विंध्याचल पर्वत के उत्तर से दक्षिण दिशा में अग्निशाला
की स्थापना करने हेतु चलते हुए विंध्य पर्वत से अगस्त्य मुनि ने इस तारे को देखा था। दक्षिण पहुँचकर
उन्होंने भव्य आश्रम तथा अग्निशाला की स्थापना की। शायद यहाँ पर निर्मित अस्त्र-शस्त्रों को ही 5078 वर्ष
ई.पू. में श्रीराम के वनवास के 12वें वर्ष में उन्हें तब सौंपा गया था, जब श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम में
गए थे (3/12/32-37)। ऋषि अगस्त्य ऋग्वेद के मंत्रों की रचना करनेवाले दस महान् ऋषियों में से एक
हैं; इसीलिए यह सर्वथा संभव है कि ऋषि अगस्त्य भी श्रीराम के समकालीन थे। ऋषि अगस्त्य अपने ज्ञान
और बुद्धि के लिए विख्यात थे और यह कहा जाता था कि यदि हिमालय और विंध्य के बीच संपर्ण ू बुद्धि
और आध्यात्मिक गुणों को मिलाकर तराजू के एक तरफ और तराजू की दूसरी तरफ ऋषि अगस्त्य के ज्ञान
को रखा जाए तो भी अगस्त्य मुनि का ज्ञान और उनकी बुद्धि का संचय अधिक भारी पड़ेंग।े
रामायण में गोदावरी के निकट स्थित अगस्त्य मुनि के आश्रम का सजीव चित्रण उपलब्ध है, जिसमें
आश्रम के निकट तालाब तथा वाटिका के साथ-साथ एक अग्निशाला अर्थात् फाउंडरी का भी संदर्भ है,
जिसमें विभिन्न प्रकार के अस्त्र–शस्त्र निर्मित किए जाते थे (3/12/5-6,21-22)। अगस्त्य आश्रम के
स्थल (3/11-12) को आधुनिक काल में पहचाना नहीं जा सका है, परंतु अगस्त्य मंदिर के अवशेषों को
अभी भी महाराष्ट्र में प्रवर नदी के तट पर, नासिक के पास भंडारदरा में स्थानीय लोगों द्वारा अभी तक
पहचाना जाता है। कुछ अन्य लोगों का मानना है कि नासिक के पिंपलनेर क्षेत्र में अगस्तेश्वर आश्रम एक
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ऐसा स्थान है, जहाँ श्रीराम अगस्त्य मुनी से मिले थे। एक प्राचीन मंदिर के खँडहरों पर, उस स्थल पर एक
नए मंदिर का निर्माण किया जा रहा है।7
अगस्त्य मुनि से दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को प्राप्त करने के पश्चात् श्रीराम ने उन अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों
का संहार करने का अपना संकल्प पुनः दोहराया। ऋषि अगस्त्य ने उन्हें वनवास की शेष अवधि पंचवटी
में व्यतीत करने का सुझाव दिया। पंचवटी ऋषि अगस्त्य के आश्रम के निकट उत्तर दिशा की ओर स्थित
था। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को आशीर्वाद देते हुए कहा, “अरुंधति के समान पवित्र पत्नी सीता का ध्यान
रखना, क्योंकि सीता आपके प्रति प्रेम और समर्पण के कारण प्रसन्नता से ऐसी कठिनाइयों से भरपूर जीवन
व्यतीत कर रही हैं, जिनके लिए न तो सीता का जन्म हुआ था और न ही वे उनको भोगने की आदी हैं।
श्रीराम! लक्ष्मण और सीता के साथ तुम जिस भी स्थान पर निवास करोगे, वह स्वयं ही सुंदर बन जाएगा,
लेकिन पंचवटी एक ऐसा सुंदर एवं मनोहर स्थान है, जहाँ सीता का मन खूब लगेगा और वह आप दोनों
राजकुमारों के संरक्षण में सुख तथा आराम से रह सकेंगी। यह स्थान प्रचुर मात्रा में फल-मूल से संपन्न,
पवित्र एवं रमणीय है। आप गोदावरी के तट पर निवास कीजिए। आपके वनवास का समय जल्दी पूर्ण
होनेवाला है।” उन तीनों राजसी तपस्वियों ने ऋषि अगस्त्य के बताए हुए मार्ग से पंचवटी की ओर प्रस्थान
किया। बीच में श्रीरामचंद्रजी को एक विशालकाय गृध्र मिला। वन में बैठे हुए उस विशाल पक्षी को
देखकर, श्रीराम और लक्ष्मण ने उसे राक्षस ही समझा और उससे उसका परिचय पूछा। तब उस पक्षी ने
बड़ी मधुर और कोमल वाणी में उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा, “मुझे अपने पिता का मित्र समझो। मैं अरुणा
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 177

का पुत्र तथा संपाति का भाई हूँ। जब आप सीता को छोड़कर अपनी पर्णशाला से कभी बाहर वन में चले
जाया करोगे, उस समय मैं सीताजी की रक्षा करूँगा।” यह बात सुनकर इक्ष्वाकु कुल के राजकुमार श्रीराम
प्रसन्न हुए तथा बड़े सम्मान के साथ जटायु पक्षी के प्रस्ताव को स्वीकार किया। इसके पश्चात् वह पंचवटी
में अपनी पर्णशाला के निर्माण के लिए उचित स्थान की खोज करने के लिए आगे बढ़ गए।
हमने रामायण में वर्णित स्थलों की आधुनिक भौगोलिक स्थिति को आलेखित कर एक मानचित्र तैयार
किया है। इस मानचित्र में उस स्थान का चित्रण भी है, जिसे संभवतया 7000 वर्ष पूर्व रामायण युग के दौरान
दंडकवन क्षेत्र माना जाता था। इस मानचित्र में वनवास के दौरान श्रीरामजी द्वारा अपनाए गए मार्ग में आनेवाले
कुछ महत्त्वपूर्ण स्थलों को दिखाने का प्रयत्न भी किया गया है, जिनकी सूची नीचे दी गई है। (देखें चित्र-33)
राजा दशरथ द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ हेतु आमंत्रित राज्य (संदर्भ : वा.रा./1/13/23-29)
1. अयोध्या 2. कैकेय 3. काशी
4. अंगदेश 5. मगध 6. सिंधुसौवीर
7. सौराष्ट्र 8. मिथिला
श्रीराम की मिथिला यात्रा से संबं​ि‍धत स्थान

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1. रामघाट, मऊ–संदर्भ : वा.रा./1/22 /11
3.अहिल्याआश्रम—संदर्भ : वा.रा./1/48/ 11
2. विश्वामित्रआश्रम–संदर्भ : वा.रा./1/29
जनकपुर–संदर्भ : वा.रा./1/50
श्रीराम के 14 वर्ष की वनवास यात्रा से संबं​ि‍धत स्थान
1. शृंगवेरपुर–संदर्भ : वा.रा./2/50/26 2. भरद्वाज आश्रम–संदर्भ : वा.रा./2/54/5
3. अक्षयवट–संदर्भ : वा.रा./2/55/23 4. चित्रकूट–संदर्भ : वा.रा./2/56/10
5. कामदगि​िर–संदर्भ : वा.रा./2/56/12 6. शरभंग आश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/5
7. सुतीक्ष्ण आश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/7 8. पैसरघाट–संदर्भ : वा.रा./3/7-11
9. कोटुमसर–संदर्भ : वा.रा./3/7-11 10. पंचपसर–संदर्भ : वा.रा./3/11/11
11. अगस्त्य आश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/12 12. पंचवटी–संदर्भ : वा.रा./3/15
13. जनस्थान–संदर्भ : वा.रा./3/18/25 14. शबरी आश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/74
15. पंपासर–संदर्भ : वा.रा./3/75, 4/1 16. ऋष्यमूक पर्वत-वा.रा./4/5/1
17. किष्किंधा-संदर्भ : वा.रा./4/11-26 18. प्रस‍्रवण पर्वत-वा.रा. /4/27
19. हसन (कावेरी क्षेत्र)-वा.रा. 6/4/71 20. सत्यागला, मैसूर-वा.रा. 6/4/71
21. त्रिचुरापल्ली-वा.रा. 6/4/71 22. पोडूकोटाई-वा.रा. 6/4/71
23. मदुरई-वा.रा. 6/4/71 24. रामनाथपुरम्-वा.रा. 6/4/94-98
25. महेंद्रगिरि (गंधमादन) वा.रा. 6/4/92-94 26. रामेश्वरम्–वा.रा./6/4/94, 6/123/19
27. धनुषकोटि–संदर्भ : वा.रा./6/123/19 28. लंका, अशोकवाटिका-वा.रा./5/14-16
178 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-33 ः वाल्मीकि रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण स्थान, राज्य, पर्वत व वन—मानचित्र पर चिह्न‍‍ित; स‍्रोत : लेखिका
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 179

3. पंचवटी में जीवन; लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक कान काटना


चलते-चलते तीनों शाही संन्यासियों ने महाराष्ट्र में नासिक के निकट स्थित पंचवटी में प्रवेश किया।
श्रीराम पंचवटी की रमणीयता से बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने इस स्थान के बारे में जानकारी देने के लिए मन-
ही-मन अगस्त्य मुनि का धन्यवाद किया। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “हम इस स्थान पर अपना आश्रम बना
सकते हैं और यहाँ पर कितनी भी अवधि के लिए निवास कर सकते हैं। गोदावरी नदी के तट पर स्थित यह
स्थान अत्यंत सुंदर एवं रमणीय है। इसमें हंस और कारंडव आदि पक्षी विचरण कर रहे हैं। पानी पीने के
लिए आए हुए मृगों के झुंड तथा मयूरों की मधुर बोली इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। पुष्पों, गुल्मों तथा लता-
वल्लरियों से युक्त साल, ताल, तमाल, खजूर, कटहल, जलकदंब, तिनिश, आम, अशोक, तिलक, केवड़ा,
चंपा, तुलसी, बाँस, चंदन आदि वृक्षों से घिरा हुआ यह स्थान बहुत ही पवित्र और रमणीय है। यहाँ बहुत
से पशु-पक्षी निवास करते हैं। हम लोग भी पक्षीराज जटायु के साथ यहीं रहेंगे। श्रीराम के ऐसा कहने पर
लक्ष्मण ने शीघ्र ही आश्रम बनाकर तैयार किया। लक्ष्मण ने सुंदर एवं सुदृढ़ लकड़ी के खंभों के साथ मिट्टी
की दीवार तथा लंबे बाँस की लकड़ी के साथ छत बनाकर उन बाँसों पर शमी वृक्ष की शाखाएँ फैला दीं।
उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बाँध दिया और इसके ऊपर कुशा घास को बिछा दिया। इस प्रकार लक्ष्मण
ने एक अत्यंत सुंदर पर्णशाला का निर्माण कर दिया (3/15/21-23)।

क्रम
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अरण्यकांड (अध्याय-3) में वर्णित पंचवटी क्षेत्र के पौधे
रामायण में पौधे संदर्भ (कांड/ सामान्य नाम सामान्य नाम
वैज्ञानिक नाम
सं. का नाम सर्ग) (हिंदी) (अंग्रेजी)
1 आम्र 3 / 15 आम Mango Mangifera indica

2 अशोक 3 / 15 अशोक Ashok Saraca asoca

3 चंदन 3 / 15 चंदन Sandal wood Santalum album

4 खजूर 3 / 15 खजूर Date Phoenix dactylifera

5 किंषुक 3 / 15 पलाश Palas Butea monosperma

6 तमाल 3 / 15 तमाल Gamboge Garcinia hanburyi

7 साल 3 / 15 साल Piney varnish Vateria indica

8 पनस 3 / 15 कटहल Jackfruit Artocarpus heterophyllus

9 तिनिशा 3 / 15 तिनिशा Queen crape Lagerstroemia speciosa

10 चंपक 3/15 चंपा Champa Michelia champaca

11 केतकी 3 / 15 केवड़ा Kewda Pandanus tectorius

12 परनास 3 / 15 तुलसी Tulsi Ocimum sanctum

13 बाँस 3 / 15 बाँस Bamboo Dendrocalamus strictus

14 कुशा 3 / 15 दूर्भा Kusha grass Desmostachya bipinnata


180 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अरण्यकांड (अध्याय-3) में वर्णित पंचवटी क्षेत्र के पौधे (चित्र-34)

अशोक खजूर

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तुलसी (परनासा) कटहल (Katahal,Jackfruit) (© www.toptropicals.com)

चंपा साल
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 181

उस सुंदर कुटिया का निर्माण करने के पश्चात् लक्ष्मण ने गोदावरी नदी के तट पर जाकर उसमें स्नान
किया और कमल के फूल तथा फल लेकर वे फिर कुटिया में लौट आए। फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार
देवताओं के लिए फूलों की उपहार सामग्री अर्पित की तथा वास्तुशांति करने के पश्चात् श्रीराम व सीता को
वह मनोरम कुटिया दिखाई। श्रीराम सीता के साथ उस नई कुटिया को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और अत्यंत
हर्ष से उन्होंने दोनों भुजाओं से लक्ष्मण को कसकर हृदय से लगा लिया और बड़े स्नेह से बोले, ‘‘लक्ष्मण
तुम मेरे मनोभाव को तत्काल समझ जाते हो। तुम्हारे जैसे कृतज्ञ तथा धर्मज्ञ पुत्र के कारण मेरे धर्मात्मा पिता
अब भी जीवित प्रतीत होते हैं।” यहाँ हमें यह विचार करना चाहिए कि महान् राजकुमार लक्ष्मण ने यह
कौशल किस प्रकार अर्जित किया होगा। हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि उन दिनों राजकुमारों की शिक्षा
में जीवन की वास्तविकताओं तथा हस्त-शिल्पों की शिक्षा भी शामिल होती थी, जिसके कारण लक्ष्मण वन
में से नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित करके सुंदर कुटिया का निर्माण कर पाए।
पंचवटी शब्द का अर्थ पाँच वट वृक्षोंवाला स्थान होता है। पाँच वट वृक्ष गूलर पेड़ों की विभिन्न
प्रजातियों के भी हो सकते हैं। ये हैं—अष्टावतार पीपल (ficus religiosa), न्योग्रोधार बरगद (ficus
benghalensis), पलाश (ficus infectoria), उदुंबरा (ficus glomerasta) तथा उदुंबरी (ficus
oppositifolia)। लव-कुश द्वारा रामदरबार में वर्णित किए गए वट वृक्षों और अन्य वृक्षों के जीवाश्म-
परागों और चारकोल के कार्बन तिथि निर्धारण से यह भी ज्ञात हुआ है कि इस प्रकार के कई वृक्ष विशेष रूप
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से बरगद, खजूर, साल, अंजीर आदि रामायण युग के दौरान 7000 वर्ष पहले भारत में विद्यमान थे। यह युग
मध्य नूतन युग के अनुकूलतम जलवायु का युग था, जिसमें मानसून की वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती थी।8-9
कुछ दिनों तक तीनों प्रतापी तपस्वी उस मनोहर आश्रम में आनंदपूरक ्व रहे। वह प्रतिदिन गोदावरी में स्नान
किया करते थे और भरत को याद किया करते थे, जो अयोध्या के राजा होने के बावजूद संन्यासी का जीवन
व्यतीत कर रहे थे तथा वे इसी प्रकार सरयू नदी में स्नान करने जाते होंग।े
धीरे-धीरे शरद ऋतु के पश्चात् हेमतं ऋतु आ गई। आहिस्ता-आहिस्ता रातें ओस की बूदँ ों से आच्छादित
होने लगीं तथा प्रात:काल का समय कोहरे से ढका जाने लगा; तत्पश्चात् ठंड और फिर शीत ऋतु प्रारंभ हो
गई, जिसमें दोपहर के समय सैर करना अच्छा लगता था। एक दिन सुबह शीतकाल में वे तीनों हमेशा की
तरह सबु ह की प्रार्थना करने और रोजमर्रा के उपयोग के लिए आवश्यक जल लेने के लिए गोदावरी नदी पर
गए। घर के बारे में सोचते हुए तथा भरत की स्नेहपूरक ्व याद करते हुए तीनों कुलीन तपस्वियों ने गोदावरी नदी
में स्नान किया। पूरज्व ों का तर्पण और सूर्य को नमस्कार करने के पश्चात् श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण सहित,
गोदावरी में स्नान करने के पश्चात् उसी प्रकार शोभा पाने लगे जैसे उमा तथा नंदी के साथ गंगास्नान के पश्चात्
भगवान् शिव सुशोभित होते हैं।
अपनी पर्णकुटी में वापस आने के पश्चात् श्रीरामचंद्रजी लक्ष्मण के साथ पुरानी मनोहर स्मृतियों का स्मरण
कर रहे थे। तब अचानक ही वहाँ एक राक्षसी आ पहुँची। वह रावण की बहन शूर्पणखा थी। वह वन में बुरे
विचारों तथा दुराचार की दृष्टि से विचरण कर रही थी। वह राक्षसी कुरूप और डरावनी थी, लेकिन वह अपनी
182 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

इच्छा से किसी भी प्रकार का सुदं र रूप धारण कर लेती थी। जब उसने कमलनयन, सुकमु ार तथा तेजस्वी
श्रीराम की सदुं रता देखी तो वह राक्षसी काम भावना से पीड़ित हो गई तथा उसने श्रीराम के पास आकर पूछा,
“तपस्वी के वेश में मस्तक पर जटा धारण किए हुए, साथ में स्त्री को रखे और हाथों में अस्त्र-शस्त्र को ग्रहण
करनेवाले तमु कौन हो, तुम राक्षसों के इस वन में क्यों आए हो, सत्य बताओ?” राक्षसी शूर्पणखा के प्रश्न
का उत्तर श्रीराम ने इस प्रकार दिया, “मैं महान् सम्राट् राजा दशरथ का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। मेरा नाम राम है। यह
मेरा भाई लक्ष्मण और यह मेरी पत्नी सीता है। मैं अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करने और धर्मपालन
की इच्छा से तपस्वी का जीवन व्यतीत करने के लिए इस वन में आया हूँ। अब तुम अपना परिचय दो, तुम्हारा
परिवार कौन सा है? तुम राक्षस कुल की स्त्री के समान दिखाई देती हो, तुम यहाँ किस उद्देश्य से आई हो?”
शूर्पणखा ने उत्तर दिया, “क्या तुमने विश्रवा मुनि के शूरवीर पुत्र और लंका के राजा रावण का नाम सुना
है? मैं उसकी बहन हूँ और मेरा नाम शूर्पणखा है। मेरे दूसरे भाई प्रसिद्ध योद्धा कुभं करण और विभीषण हैं।
इस क्षेत्र के संरक्षक खर और दूषण भी मेरे भाई हैं। वे भी बलवान तथा पराक्रमी हैं और इस क्षेत्र पर उनका
शासन है। तुम्हारे प्रथम दर्शन से ही मेरा मन तुम पर आसक्त हो गया है। मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। मैं तुमसे
तत्काल विवाह करना चाहती हूँ।” श्रीराम ने शूर्पणखा की इस बात का यह कहते हुए जवाब दिया कि मैं पहले
से ही विवाहित हूँ और मैं अपनी प्रिय पत्नी सीता के साथ यहाँ आया हूँ, जबकि मेरे भाई लक्ष्मण अपनी पत्नी
को वन में नहीं लाए हैं, इसलिए यदि तुम चाहो तो उनसे अनुरोध कर सकती हो।” चूकि ँ शूर्पणखा उस समय
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कामपाश से बँधी हुई थी, उसने लक्ष्मण को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए तुरतं अनुरोध किया,
लेकिन तभी लक्ष्मण ने भी यह प्रस्ताव ठुकरा दिया और कहा कि वह अपने भाई श्रीराम पर निर्भर हैं तथा उनके
सेवक हैं। निश्चित रूप से रावण की बहन शूर्पणखा दासी का जीवन व्यतीत करना पसंद नहीं करेगी। शूर्पणखा
ने सोचा कि यदि वह सीता का वध कर देती है तो उसकी इच्छा पूरी हो सकती है और वह श्रीराम की पत्नी
के रूप में उनके साथ रह सकती है। उसके पश्चात् शूर्पणखा मृगनयनी सीताजी का भक्षण करने की इच्छा से
तेजी से उनकी ओर दौड़ी और झपट पड़ी।
ऐसा देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण पर रोष प्रकट करते हुए कहा, “कभी भी निर्दयी और क्रूर व्यक्ति के
साथ उपहास नहीं करना चाहिए। विदेहनं​िदनी की रक्षा करने और शूर्पणखा को सबक सिखाने के लिए लक्ष्मण
तुम्हें इस चरित्रहीन स्त्री का अंग-भंग कर देना चाहिए।” लक्ष्मण ने अपनी तलवार निकाली और शूर्पणखा के
कान-नाक काट दिए। शूर्पणखा ने उच्‍च स्वर में विलाप किया और जंगल में अदृश्य हो गई। वह जनस्थान
में रहनेवाले अपने भाई राक्षस खर के पास पहुँची।
खून में लथपथ और पीड़ा तथा क्रोध में पागल हुई शूर्पणखा खर के समक्ष धरती पर गिर पड़ी। क्रोध में
चिल्लाते हुए उसने अपने अंग विकृत होने की संपर्णू घटना का वर्णन करते हुए अपनी इस दुर्दशा के लिए पूर्ण रूप
से श्रीराम तथा लक्ष्मण को उत्तरदायी बताया। खर का क्रोध प्रबल करने के लिए उसने यह भी कहा कि उसका
अंग विकृत होना संपर्णू राक्षस कुल का अपमान है। शूर्पणखा ने कहा कि यह बड़ी शर्मनाक बात है कि उसकी यह
दुर्दशा करने के पश्चात् भी वह दोनों राजकुमार जीवित हैं और खर के क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे हैं।
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 183

राक्षसों के इस अपमान का बदला लिया जाना चाहिए और वह सीता तथा उन दोनों राजकुमारों का रक्त पान करना
चाहती है। अपनी बहन शूर्पणखा को अंग विकृत देखकर खर क्रोध से लाल होकर बोला, “मेरी प्रिय बहन, यह
सब क्या है? जिसने यह करने का दुस्साहस किया है, क्या वह इस वन में है? वह कौन है, जो चील और कौवों
का भोजन बनना चाहता है? मुझे उनका पता बताओ। मैं अभी उसका वध करना चाहता ह।ूँ यह धरती उसके रक्त
की प्यासी है। बहन उठो और जो कुछ भी घटित हुआ, वह सब मझु े सुनाओ।”
शूर्पणखा ने खड़े होकर खर को उत्तर दिया, “दो सुदं र राजकुमार इस वन में पधारे हैं। वे साधु-तपस्वियों
के वेश में हैं और उनके साथ एक सुदं र स्त्री भी है। वह अपना परिचय अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्रों
के रूप में देते हैं। इन दोनों राजकुमारों ने मिलकर मुझ पर हमला किया और मेरी यह दुर्दशा की है। मैं उन
शत्रुओं के रक्त की प्यासी हूँ। शीघ्र ही उनका वध करो।” खर ने अपने 14 बहादुर सेनापतियों को बुलाया
और कहा, “आप इसी समय प्रस्थान करो और उन दोनों मृगचर्म धारण किए हुए शस्त्रधारी पुरुषों को मार
डालो तथा उनके साथ उस दुराचारिणी स्त्री का भी मृत शरीर यहाँ ले आओ, मेरी बहन उन तीनों के रक्त की
प्यासी है। इस कार्य में विलंब न करो, शीघ्र जाओ।” उन 14 बहादुर योद्धा राक्षसों के साथ शूर्पणखा भी गई।
उन चौदह सेनापतियों ने पराक्रमी श्रीराम को सीताजी के साथ बैठा हुआ देखा और गदा, भालों, तलवारों से
उन पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने श्रीराम पर 14 भाले फेंके और श्रीराम ने अपने तीरों से उन्हें काट डाला।
उसके पश्चात् श्रीराम ने तेजी से 14 बाण छोड़े और उन 14 राक्षसों का वध कर दिया।
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4. राक्षस खर और दूषण के साथ युद्ध से पहले पंचवटी से सूर्यग्रहण का अवलोकन
शूर्पणखा रोते एवं सिसकते हुए वापस लौटी। उसने भयभीत और विषादग्रस्त हो उन चौदह राक्षसों के
वध की कहानी खर को सुनाई। शूर्पणखा ने खर की कड़ी भर्त्सना करते हुए उसे चुनौती दी, “यदि तुम स्वयं
को शूरवीर मानते हो तो समरांगण में राम और लक्ष्मण का वध करो अन्यथा राक्षस कुल को कलंक लगाकर
जनस्थान से भाग जाओ।” शूर्पणखा द्वारा इस प्रकार तिरस्कृत होकर, शूरवीर एवं निर्दयी राक्षस खर ने दूषण को
उसका रथ और 14,000 बहादुर सैनिकों की सेना को तैयार करने का आदेश दिया। आदेश के तुरतं बाद, शीघ्र
ही स्वर्ण से विभूषित एवं पताकाओं तथा तलवारों से सज्जित विशालकाय रथ आ गया। तलवारों, कुल्हाड़ियों,
भालों, गदाओं, बाणों तथा तीक्ष्ण तीरों को वहन करनेवाली शक्तिशाली सेना का बारीकी से अवलोकन करके
खर और दूषण ने श्रीराम का वध करने की इच्छा से पंचवटी में श्रीराम के आश्रम की ओर प्रस्थान किया। जब
सेना आगे बढ़ रही थी, उस समय सूर्य के चारों ओर गहरे अलातचक्र के समान गोलाकार घेरा दिखाई दिया,
जिसका रंग काला और किनारे का रंग लाल था। सब ओर अंधकार छा गया और रक्त के रंग जैसी संध्या
प्रकट हो गई (वा.रा. 3/23/3)। महान् ग्रह राहु ने दिन के समय सूर्य को ढक लिया था (वा.रा. 3/23/12)।
यह संदर्भ स्पष्ट रूप से उस समय देखे गए सूर्यग्रहण का है, जब खर अपने रथ पर सवार होकर आकाश में
ग्रहों के मध्य में उदित हुए मंगल ग्रह की तरह प्रतीत हो रहा था (वा.रा. 3/25/5)। प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर का
उपयोग करके इन खगोलीय संदर्भों को दिखानेवाले आकाशीय दृश्य को देखा तो पाया कि दिनांक 7 अक्तूबर,
184 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

5077 वर्ष ई.पू. को दोपहर के समय सूर्य ग्रहण दिखाई दिया था, जिसे नासिक (200 उत्तर 730 पूर)्व से देखा
जा सकता था। उस समय के खगोलीय विन्यास वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित विन्यासों से हूबहू मिलते थे अर्थात्
मंगल ग्रह मध्य में था, एक तरफ बधु , शक्रु और बृहस्पति ग्रह थे और दूसरी तरफ सूर्य, चंद्रमा और शनि ग्रह
साफ देखे जा सकते थे।
श्यामं रुधिरपर्यन्तं बभूव परिवेषणम्।
अलातचक्रप्रतिमं प्रतिगृह्य‍ दिवाकरम्॥ वा. रा. 3/23/3
स तेषां यातुधानानां मध्ये रथगत: खर:।
बभूव मध्ये ताराणां लोहिता� इवोदित:॥ वा. रा. 3/25/5
अर्थात् सूर्यमंडल के चारों ओर अलातचक्र जैसा गोलाकार घेरा दिखाई देने लगा, जिसका रंग काला तथा
किनारे का रंग लाल था। उस समय राक्षसों के बीच रथ पर बैठा खर तारों (ग्रहों) के मध्य में मंगल की भाँति
दिखाई दे रहा था। इस सूर्यग्रहण को तीनों राजसी तपस्वियों के वनवास के 13वें वर्ष में पंचवटी से दिनांक 7
अक्तूबर, 5077 वर्ष ई.पू. को देखा जा सकता था। (देखें व्योमचित्र-15)
खर-दूषण के साथ युद्ध से पहले 5077 वर्ष ई.पू. का सूर्य ग्रहण

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व्योमचित्र-15 ः पंचवटी, नासिक (20° उत्तर, 73° पूर्व), 7 अक्तूबर, 5077 वर्ष ई.पू.,14:15 बजे देखें सूर्यग्रहण, मंगल मध्य में;
शनि, सूर्य और चंद्रमा एक तरफ व बुद्ध, शुक्र और बृहस्पति दूसरी तरफ; प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 185

स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2/2017) से भी खर–दूषण के पंचवटी की ओर प्रस्थान के


समय के आकाशीय दृश्य को देखा। यह सॉफ्टवेयर इस सूर्य ग्रहण की तिथि 15 नवंबर, 5077 वर्ष ई.पू. को
22:00 बजे दर्शाता है। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर में सूर्यग्रहण रात के समय दिखाई देने के कारण परिशिष्ट-1
में स्पष्ट कर दिए गए हैं।
उस तारीख को सूर्यग्रहण सहित महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित सभी खगोलीय स्थितियों को आकाश में
देखा गया। मंगल ग्रह सभी ग्रहों के मध्य में विराजमान थे। इसके अतिरिक्त सूर्य ग्रहण के समय सूर्य के चारों
ओर काले-लाल रंग का घेरा जैसा दिखाई दे रहा था। इस प्रकार यह व्योमचित्र-वाल्मीकिजी द्वारा दिए गए
श्रीराम के जीवन से संबधि
ं त खगोलीय संदर्भों के क्रमिक तिथिकरण की संपुष्टी भी करता है। वर्ष 2010 में
शाम के समय घटित सूर्यग्रहण के साथ दिनांक 15 नवंबर, 5077 ईस्वी पूर्व के आकाशीय दृश्य को देख।ें
(देखें व्योमचित्र-16-18)
खर-दूषण के साथ युद्ध से पहले 5077 वर्ष ई.पू. का सूर्य ग्रहण

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व्योमचित्र-16 ः पंचवटी, नासिक (20°उत्तर, 73°पूर्व), 15 नवंबर, 5077 वर्ष ई.पू. को 22:00 बजे सूर्यग्रहण,
मंगल ग्रह मध्य में; शनि, सूर्य और चंद्रमा एक तरफ तथा बुद्ध, शुक्र और बृहस्पति दूसरी तरफ, स्टेलेरियम का स्कायशॉट
186 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

सूर्य ग्रहण

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व्योमचित्र-17 ः दिनांक 15.11.5077 वर्ष ई.पू. को नासिक से देखा गया सूर्य ग्रहण

व्योमचित्र-18 ः 2010 के सूर्यग्रहण का दृश्य, स‍्रोत—http://www.space.com/39-total-solar-eclipse-2010.html


तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 187

बॉक्स 3.1
प्राचीन भारत के चंद्र-सौर कैलेंडर में अधिक मास का महत्त्व
हिंदू कैलड ें र जो कि चंद्र-सौर कलेंडर है, उसमें अधिक मास (Embolismic
Month) होता है। चंद्र महीना 29 दिन, 12 घंट,े 44 मिनट और 3 सेकड ं का होता है।
इसलिए एक चंद्र वर्ष 354 दिन, 8 घंट,े 48 मिनट और 36 सेकड ं से मिलकर बनता है।
जबकि सूर्य वर्ष में 365 दिन, 5 घंट,े 48 मिनट तथा 46 सेकड ं होते हैं। इस प्रकार प्रति वर्ष
दोनों में 10 दिन 21 घंटे व 10 सेकड ं का अंतर आ जाता है। प्राचीन काल से भारत में चंद्र
वर्ष का सौर वर्ष के साथ मेल बिठाने के लिए अधिक मास की संकल्पना की गई। अधिक
मास प्रत्येक 32 से 33 महीनों में होता है। यह सौर कैलड ें र की तुलना में 12 चंद्र महीनों में
प्रतिवर्ष लगभग 11 कम दिनों की क्षतिपूर्ति करता है।
इस प्रकार, हिंदू त्योहार हर वर्ष जूलियन-ग्रिगेरियन कैलेंडर की प्रदत्त अवधि में ही
मनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, दीवाली के उत्सव की अमावस्या मध्य-अक्तूबर और
मध्य-नवंबर के दौरान ही होती है। नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, म्याँमार, कंबोडिया और
लाओस में हिंदू कैलेंडर को कुछ सरलीकरण करने के पश्चात् या फिर सरलीकरण के
बिना ही उपयोग किया जाता है। महर्षि वसिष्ठ के प्राचीन ग्रंथ में वर्णित है कि अधिक मास
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(अतिरिक्त चंद्रमास) प्रत्येक 32 महीनों, 16 दिनों, 3 घंटे और 12 मिनट के बाद होता है।
इस प्राचीन चंद्र-सौर कैलेंडर का प्रयोग महाकाव्य की रचना करते समय महर्षि
वाल्मीकि ने स्पष्ट रूप से किया है। शायद यही कारण है कि उनके द्वारा उल्लेख की
गई चंद्रतिथियाँ या तारीखें समकालीन सॉफ्टवेयरों द्वारा उपयोग किए जानेवाले आधुनिक
कैलेंडरों से मेल खाती हैं। स्टेलेरियम और प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा पेश किए गए
व्योमचित्रों के बीच 40 दिनों (+/-2 दिनों) के अंतर को पहले ही अध्याय एवं परिशिष्ट
एक में स्पष्ट किया जा चुका है।

क्रोध से लाल हुआ शक्तिशाली राक्षस खर 12 महान् साहसी योद्धाओं को साथ ले पंचवटी की
ओर तेजी से बढ़ रहा था। उसके पीछे-पीछे दूषण चार शक्तिशाली योद्धाओं के नेतृत्व में 14000 सैनिकों
की सेना के साथ चल रहा था। खर और दूषण तथा उनकी सेना को अपनी ओर तेज गति से बढ़ते हुए
देखकर श्रीराम को बड़े युद्ध तथा अत्यधिक विध्वंस की आशंका हुई। इसलिए उन्होंने लक्ष्मण को सीताजी
की रक्षा के लिए उन्हें गुफा में ले जाने का आदेश दिया और श्रीराम ने कुपित होकर अपने भयंकर धनुष
तथा तीखे तीरों का प्रयोग कर खर एवं उसकी सेना के साथ युद्ध करने का निर्णय किया।
सीताजी को लक्ष्मण के साथ सुरक्षित स्थान पर भेज देने के पश्चात् श्रीराम ने नाना प्रकार के आयुध
धारण किए। शत्रु सेना को अपनी ओर आते देखकर श्रीराम ने अपने शक्तिशाली धनुष की टंकार कर
188 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अपने तरकस से अनेक प्रकार के तीक्ष्ण बाण निकाले। उस समय श्रीराम ने अग्नि के समान कांतिवाले
अपने कवच को पहना, उनके प्रत्यंचा की टंकार सुनकर शत्रुओं के बीच भय उत्पन्न हो गया। फिर
भयानक युद्ध शुरू हुआ। खर और उसकी बहादुर सेना ने भयंकर हथियारों से श्रीराम के अंगों को छेद
दिया। श्रीराम ने अत्यंत कुपित होकर रोष में नलिकाओं (लोहे की धारवाले तीरों), नाराचों (लोहे के बने
तीरों) और विकर्णियों (कँटीले तीरों) को निकाला और इनसे शत्रु सेना पर प्रहार किया। श्रीराम के इन
प्रहारों से घायल राक्षसों ने दयनीय स्थिति में उच्‍च स्वर में रोना शुरू कर दिया। श्रीराम द्वारा छोड़े गए इन
हथियारों ने खर के आदेश पर लड़नेवाले हजारों राक्षसों का वध कर दिया। उस समय रावण के मौसेरे भाई
राक्षस खर और उसके योद्धाओं ने श्रीराम के ऊपर हजारों तीर छोड़े। राक्षसों की बाणवर्षा से आच्छादित
तथा घायल हुए महाबली श्रीराम ने गंधर्व नामक अस्त्र (Missile) का प्रयोग किया, जिसके फलस्वरूप
उनके मंडलाकार धनुष से सहस्रों बाण छूटने लगे। तब तेजी से सभी दिशाओं से तीरों के प्रहार से सैंकड़ाें
राक्षसों का एक साथ वध होने लगा।
अपने सैनिकों को घायल एवं परास्त हुए देख, दूषण उत्तेजित हो गया। उसने तीव्र गति से प्रहार
करनेवाले 5000 राक्षसों को सभी प्रकार के अस्त्रों एवं शस्त्रों से तथा सभी दिशाओं से श्रीराम पर हमला
करने का आदेश दिया, परंतु श्रीराम अपने शक्तिशाली बाणों से दूषण के घोड़ों तथा सारथियों का वध
करने में सफल हो गए। राक्षस दूषण के 5000 समर्थकों पर प्रहार करते हुए श्रीराम ने उन सभी को
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यमलोक भेज दिया। अपनी सेना की ऐसी दयनीय स्थिति को देखकर तथा अत्यंत कुपित होकर दूषण
श्रीराम की ओर दौड़ा। तब श्रीराम ने अपने बाणों से उसकी दोनों भुजाएँ काट दीं और फिर दूषण का
वध कर दिया।
अपने भाई दूषण की मृत्यु से क्रोधित होकर राक्षस खर अपने बारह महापराक्रमी सेनापतियों को साथ
लेकर श्रीराम पर टूट पड़ा। उसने चारों दिशाओं से बाण तथा अन्य अस्त्र छोड़े, परंतु श्रीराम ने प्राणघातक
तीरों का उपयोग कर खर के सभी बारह शक्तिशाली सेनापतियों का वध कर दिया। इस युद्ध में श्रीराम ने
कर्णि नामक सौ बाणों से एक साथ सौ निशाचरों का वध कर दिया। अब समरांगण में केवल खर तथा
उसका मुख्य सेनापति त्रिशिरा ही बाकी बचे थे। एक तेजस्वी रथ पर सवार होकर त्रिशिरा ने रणभूमि में
श्रीराम पर आक्रमण कर दिया। भयानक गर्जना करते हुए उसने श्रीराम पर भयानक बाणों की वर्षा कर
दी। तीन बाणों से उसने श्रीराम के ललाट को बींध डाला। श्रीराम ने अत्यधिक कुपित होकर साँप जैसे
14 बाणों को छोड़ा और त्रिशिरा के रथ को ध्वस्त करने के साथ-साथ उसके सारथी को भी मार डाला।
तत्पश्चात् श्रीराम ने अपने शीघ्रगामी बाणों से त्रिशिरा की छाती छेद डाली और उसके तीनों मस्तकों को
काट डाला। इस प्रकार रघुकुलभूषण श्रीराम युद्धभूमि में त्रिशिरा का वध करने में सफल हो गए।
खर ने इंद्र के वज्र के समान दिखाई देनेवाले सात बाण श्रीराम के मर्मस्थान पर छोड़े, जिसके
परिणामस्वरूप श्रीराम घायल हो गए, उनके अस्त्र धरती पर गिर गए तथा उनका धनुष भी टूट गया। उस
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 189

समय श्रीराम ने अगस्त्य मुनि द्वारा दिए गए भगवान् विष्णु के शक्तिशाली धनुष को निकाला और लक्ष्य
साधकर छह तीर छोड़े, जिनसे खर बहुत बुरी तरह से घायल हो गया। खर ने अपनी गदा निकाली और
श्रीराम पर फेंक दी। श्रीराम ने अपने धनुष-बाण से आकाश में ही उस गदा के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
खर के शरीर के विभिन्न हिस्सों से रक्त बह रहा था। फिर भी पराक्रमी खर ने श्रीराम से संघर्ष जारी
रखा तथा वह श्रीराम की ओर बड़े वेग से भागा। तभी क्रोध से गर्जना करते हुए श्रीराम ने तपस्वियों तथा
ऋषियों का भक्षण करनेवाले खर को खूब फटकारा। श्रीराम ने मुनि अगस्त्य द्वारा दिए गए बाण को
अपने धनुष पर चढ़ाने के लिए 2-3 कदम पीछे की ओर उठाए। श्रीराम ने इंद्र के उस शक्तिशाली बाण
से राक्षस राज खर पर प्रहार किया और वह खर की छाती में लगा तथा वह युद्धभूमि में मृत होकर गिर
पड़ा। खर और दूषण के वध का समाचार जंगल में आग की तरह फैल गया। तब अगस्त्य मुनि सहित
तपस्वी तथा महान् ऋषि मुनि वहाँ एकत्रित हो गए। वे सभी श्रीराम की प्रशंसा करके उन्हें आशीर्वाद प्रदान
करने लगे। उस समय लक्ष्मण के साथ सीताजी सुरक्षित स्थान से आश्रम में लौट आईं। विदेहनंदिनी सीता
ने श्रीराम के इस महान् कृत्य पर बड़े गर्व का अनुभव किया। फिर सीताजी ने प्रेम तथा आदर से श्रीराम
का आलिंगन किया तथा श्रीराम का मुख भी हर्ष से खिल उठा।
पंचवटी के समरांगण में जीवित बचे हुए कुछ राक्षसों में से एक राक्षस ‘अकंपन’ लंका भाग गया
और उसने रावण को बताया, “जनस्थान में रहनेवाले हमारे लगभग सभी लोगों का वध हो गया है और
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अब जनस्थान राक्षस-विहीन हो गया है। सिर्फ मैं ही जीवित बचकर भाग आने में सफल हो पाया हूँ।”
रावण क्रोध में कुपित हो उठा और चिल्लाने लगा, “मेरे प्रिय जनस्थान का विध्वंस किसने किया? क्या
विध्वंसक यम या अग्नि अथवा विष्णु थे? मैं यमराज से भी टक्कर ले लूँगा।” तब अकंपन ने संपूर्ण
घटनाक्रम सुनाते हुए कहा, “दशरथ पुत्र राम, जो युवा योद्धा तथा अत्यंत पराक्रमी, यशस्वी तथा तेजस्वी
हैं, उन्होंने पंचवटी में खर और दूषण तथा उनकी शक्तिशाली सेना के साथ लड़ाई लड़ी और उन सभी
को मौत के घाट उतार दिया। श्रीराम ने हमारी समस्त सेना तथा सेनापतियों से अकेले ही युद्ध किया और
खर तथा दूषण सहित सभी चौदह हजार राक्षसों का वध कर दिया। राम के धनुष से पंचमुखी सर्प की
भाँति निकले प्राणघाती तीरों ने सभी राक्षसों को ढूँढ़-ढूँढ़कर निकाला और मार डाला।” अकंपन ने यह
भी बताया—“श्रीराम का वध करने का एक ही तरीका है। श्रीराम के साथ उसकी अति सुंदर पत्नी सीता
है। वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते हैं। यदि आप उसके अपहरण की युक्ति निकाल लेंगे तो सीता
के बिछोह से दुःखी राम कदापि जीवित नहीं रह पाएँगे। अत्यंत पराक्रमी तथा अभूतपूर्व शक्तिवाले श्रीराम
के साथ युद्ध करने का विचार भी मत कीजिए।” जब रावण ने सीता की दिव्य सुंदरता के बारे में सुना
तो रावण की इच्छा उत्तेजित हो गई। उसने यह विचार करना शुरू कर दिया कि खर और दूषण सहित
उनकी सेना तथा सेनापतियों की दुर्भाग्यपूर्ण हार तथा हत्या एक और सुंदर रानी तथा पत्नी प्राप्त करने का
अवसर लेकर आई है।
190 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

5. रावण ने सीता का छल-बल से अपहरण कर उन्हें अशोक वाटिका में बंदी बनाया
रावण सीधा मारीच के निवास स्थान पर गया। मारीच ने अपने राजा रावण का विधिवत् आदर किया
और उनके तत्काल पधारने का प्रयोजन पूछा। रावण ने इस प्रकार उत्तर दिया, “दशरथ के पुत्र राम ने
जनस्थान का विध्वंस कर दिया है तथा खर-दूषण को मार दिया है। इसका प्रतिशोध लेने के लिए मैंने राम
की पत्नी सीता का हरण करने का संकल्प लिया है। मुझे आपका परामर्श और सहायता चाहिए।” मारीच
ने उत्तर दिया—“यह कार्य विषधर सर्प के मुँह में हाथ डालने जैसा है। क्या तुम अपनी सुंदर एवं सुशील
पत्नियों से संतुष्ट नहीं हो? उनके पास जाओ और जीवन के आनंद का अनुभव करो। श्रीराम की पत्नी
सीता का अपहरण समस्त राक्षस कुल के अपयश, विध्वंस तथा संहार का कारण बनेगा।” मारीच के ये
वचन सुनकर तथा मारीच के परामर्श को उचित समझकर रावण लंका लौट गया।
रावण अपने मंत्रियों के साथ सिंहासन पर बैठा हुआ था। उसके मुख पर यज्ञ की अग्नि के समान
भव्य तेज दिखाई दे रहा था। रावण की शक्ति एवं साहस असीमित थे। उसमें अनैतिकता तथा क्रूरता
इतनी कूट-कूटकर भरी हुई थी कि वह सभी प्राणियों के लिए खौफ का कारण बन गया था। धन-संपदा
तथा विभिन्न आनंद का अनुभव करते हुए तथा मृत्यु के भय से मुक्त लंकापति रावण का न तो कोई
समकक्ष था और न ही प्रतिद्वंद्वी; वह न तो भगवान् से डरता था और न ही पापकर्म से। बड़ी आँखों और
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लंबी भुजाओं के साथ उसका रूप खौफनाक दिखाई देता था, लेकिन उसमें राजसी गौरव भी मौजूद था।
शालीन रूप से वस्त्रालंकृत एवं स्वर्णभूषित होकर अपने मंत्रियों को चारों ओर बैठाकर स्वयं सिंहासन पर
बैठा हुआ राजा रावण भव्य दिखाई दे रहा था। तभी उसके समक्ष उसकी बहन शूर्पणखा उपस्थित हुई, जो
खून से लथपथ, अंग-भंग होने के कारण कुरूप, पीड़ित तथा लज्जित अवस्था में थी। सभी सभासदों ने
भौचक्के होकर मौन अवस्था में शूर्पणखा को देखा तो उसका गुस्सा अग्नि के तेज की तरह फूट पड़ा।
शूर्पणखा ने रावण से कहा, “आप कितने मूर्ख हैं, इंद्रियों के सुख में मग्न तुम्हें अपने ऊपर आए हुए
भयंकर खतरे के बारे में कोई ज्ञान नहीं है। क्या आप जानते हो कि आपके मौसेरे भाई खर और भूषण का
14,000 राक्षसों की पराक्रमी सेना के साथ एक मनुष्य श्रीराम द्वारा वध कर दिया गया है? क्या आपको
मालूम है कि आपके जनस्थान का विध्वंस किया जा चुका है?”
शूर्पणखा के इन कठोर वचनों को सुनकर अत्यधिक कुपित हुए रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा से
ऐसी दुर्दशा में पहुँचने का कारण पूछा तथा उस पर अत्याचार करनेवाले राम और लक्ष्मण का परिचय
माँगा। शूर्पणखा ने उत्तर दिया कि राम अयोध्या के राजा दशरथ का यशस्वी पुत्र है, जो अपनी पत्नी सीता
और भाई लक्ष्मण के साथ दंडकवन में तपस्वी का वेश धारण करके रह रहा है। शूर्पणखा ने अपने भाई
रावण को उत्तेजित करने के लिए सीताजी की अभूतपूर्व सुंदरता का विस्तार से उल्लेख किया और कहा
कि सीता की सुंदरता के बारे में उसके पास शब्द नहीं हैं। “मैंने किसी भी प्राणी में सीता जैसी अभूतपूर्व
सुंदरता कभी नहीं देखी। सीता को देखकर मुझे महसूस हुआ कि सीता संसार में सिर्फ राजा रावण के
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 191

ही लायक है। वह आपकी पत्नी बनने के लिए पूर्ण रूप से योग्य है। मैंने आपकी सेवा में उसे प्रस्तुत
करने के लिए उसे उठाने का प्रयत्न किया। तभी उसके पास खड़े हुए लक्ष्मण ने उसकी रक्षा की और
तलवार से मेरे नाक-कान काटकर मुझे विकृत तथा तिरस्कृत किया। आपके भले के लिए ही मुझे यह
सब सहन करना पड़ा। यदि आपको इस अपमान का प्रतिशोध लेना है और राक्षस कुल की प्रतिष्ठा की
रक्षा करनी है तो उठिए और तुरंत प्रस्थान करिए।” रावण ने अपनी सभा तुरंत भंग कर दी और स्थिति
पर सोच-विचार करने के लिए वह अपने कक्ष में चला गया। रावण को बार-बार इसलिए सोचना पड़
रहा था, क्योंकि उसे मारीच के शब्द भी याद थे। उसने इस संबंध में संभावित लाभ और हानि पर विचार
किया और अंत में सीता हरण का निर्णय लेकर उसने अपने पुष्पक विमान (हवाई रथ) को तैयार रखने
का आदेश दिया।
पुष्पक विमान (हवाई कार) पर सवार होकर तथा लंका से हवाई मार्ग से यात्रा करते हुए रावण
समुद्री तट का सर्वेक्षण करता हुआ, लंका से पंचवटी की ओर बढ़ रहा था। वह समुद्री तट हजारों प्रकार
के फूलों तथा फलों के पेड़ों से आच्छादित था। वहाँ पर स्वच्छ जल के सुंदर सरोवर भी मौजूद थे और
महान ऋषियों के आश्रम भी दिखाई पड़ रहे थे। यह समुद्र तट रेखा हंसों, हिरणों, बगुलों, कछुओं तथा
सारसों के साथ मनोरम प्रतीत हो रही थी। वह तटरेखा कमल के सरोवरों, नारियल, साल और ताड़ के
वृक्षों से अलंकृत हो रही थी और यह केलों के उपवनों से मनोरम प्रतीत हो रही थी। (वा.रा. 3/35/13)
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अरण्यकांड (अध्याय 3) में समुद्री तट के किनारे लंका से पंचवटी तक रावण की यात्रा के
दौरान वर्णित पौधे
क्रम रामायण में पौधे संदर्भ (कांड/ सामान्य नाम
सामान्य नाम (अंग्रेजी) वैज्ञानिक नाम
सं. का नाम सर्ग) (हिंदी)
1 कदली 3 / 35 केला Banana / Plantain Musa balbisiana/
acuminata
2 ना​िरकेल 3 / 35 नारियल Coconut Cocos nucifera

3 ताल 3 / 35 ताल Palm tree Borassus flabellifer

4 तमाल 3 / 35 तमाल Gamboge Garcinia hanburyi

5 साल 3 / 35 साल Sal Shorea robusta

6 पद्म 3 / 35 कमल Lotus Nelumbo nucifera

7 चंदन 3 / 35 चंदन Sandalwood Santalum album

8 मारीच 3 / 35 काली मिर्च Pepper Piper longum

9 न्यग्रोध 3 / 35 बरगद Large Banyan tree Ficus bengalensis


192 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अरण्यकांड (अध्याय-3) में समुद्री तट के किनारे लंका से पंचवटी तक


रावण की यात्रा के दौरान वर्णित पौधे। (देखें चित्र-35)

ताल (Palm tree) केला (Banana, plaintain) Courtesy:TopTropicals.com

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चंदन (Sandalwood) न्याग्रोध (Banyan Tree) Courtesy:TopTropicals.com

नारियल (Coconut) काली मिर्च (Pepper)


Courtesy:www.TopTropicals.com Courtesy:TopTropicals.com
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 193

दिलचस्प बात यह है कि महर्षि वाल्मीकि के अनुसार रावण ने दक्षिणी समुद्र तट पर लंका और


दक्षिण भारत में केले के उपवन देखे। हमें यह जानने की जरूरत है कि केला, जो कि इन दिनों भारत में
बहुत उगाया जाता है, वह 5000 वर्ष ई.पू. के आसपास दक्षिणी भारत में प्रचुर मात्रा में उगता था। परंतु
तब उत्तरी भारत में यह प्रचलित फल नहीं था। प्लांटैन एक प्रकार का केला है, जिसका मूल भारतीय है।
यह तुलना में थोड़ा मोटा होता है और 5000 वर्ष ई.पू. में भारत के तटीय क्षेत्रों तथा श्रीलंका में पाया जाता
था।10 (देखें चित्र-36) लव-कुश द्वारा राम दरबार में दिए गए केले के ये संदर्भ भी रामायण के संदर्भों
की पुरातात्त्विक खगोलीय तिथियों की पुष्टि करते हैं।11 (प्रियदर्शी 2014)

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चित्र-36 ः केला (प्लांटैन) का मूल क्षेत्र (स‍्रोत: Edmond De Langheet, 2009; सौजन्य-प्रेमेंद्र प्रियदर्शी।

पुष्पक विमान में उड़ते हुए रावण ने चंदन के पेड़, तमाल तथा ताल वृक्षों के उपवनों को देखा
और संपदा, खाद्यान्न, आभूषणों आदि से समृद्ध सुंदर शहरों को भी देखा। उसने मोतियों के ढेर तथा
प्रचुर मात्रा में कोरल भी देखे। रावण ने समुद्र के दूसरे किनारे (भारत के पश्चिमी तट) पर समुद्र
के नजदीक सुगम और समतल भूमि देखी, जिस पर एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ भी मौजूद था।
रावण ने अपनी हवाई कार (पुष्पक विमान) को धरती पर उतारा और मारीच के आश्रम में जा पहुँचा,
जो जंगल के कोने में स्थित था। मारीच ने फल-मूल से रावण का सत्कार किया और फिर उसके
अचानक पधारने का कारण पूछा। रावण ने उत्तर दिया, “साधु का वेश धारण करनेवाले तपस्वी राम
को अपनी शक्ति पर बहुत अभिमान है। उसने मेरी बहन की नाक व कान काटने तथा हमारे कुल
का अपमान करने का दुस्साहस किया है। मेरी बहन ने इस पीड़ा और अपमान को सहन किया है
और उसने दुःख से आतुर हो मुझसे शिकायत भी की है। इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए मैंने
194 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

दंडकवन से श्रीराम की पत्नी सीता का अपहरण करने का निर्णय लिया है। राम को अपमानित तथा
दंडित करना मेरा कर्तव्य है। सीता के अपहरण के कार्य में मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है।
तुम्हें अभूतपूर्व सुंदरता धारण करके, चमकीले बिंदुओं वाले स्वर्ण मृग का रूप धारण करके श्रीराम
के आश्रम के बाहर विचरण करना होगा। नारी के गुणों के अनुरूप सीता तुम पर आकर्षित हो जाएगी
और राम तथा लक्ष्मण से तुम्हें पकड़कर लाने का आग्रह करेगी। जब वह तुम्हें पकड़ने में व्यस्त हो
जाएँगे, तब सीता आश्रम में अकेली पड़ जाएगी और मैं आसानी से उसका हरण कर सकूँगा। सीता
सर्वाधिक सुंदर और सुशील स्त्री है, ऐसी पत्नी को खोने के गम से श्रीराम दुःख और शोक में दुर्बल
हो जाएँगे तथा अपना साहस भी खो देंगे। ऐसी अवस्था में उनका वध करना तथा उनसे अपनी बहन
के अपमान का प्रतिशोध लेना आसान हो जाएगा।”
मारीच रावण की तरफ चकित होकर देखने लगा, उसका चेहरा पीला पड़ गया और उसका मुँह
सूखने लगा। वह रावण की योजना से भयभीत हो गया। श्रीराम के बल एवं पराक्रम के अनुभव तथा
अपनी तपस्या से उत्पन्न अपनी बुद्धि से मारीच को भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास हो गया था। वह
जानता था कि रावण का ऐसा पापपूर्ण कार्य उसके कुल तथा परिवार का सर्वनाश कर देगा। मारीच ने
रावण को बताया कि श्रीराम दुर्बल एवं कमजोर नहीं हैं, अपितु वे तो एक शक्तिशाली योद्धा हैं, जिन्होंने
अपनी शक्ति और साहस का प्रयोग धर्म की सेवा तथा रक्षा के लिए किया है। मारीच ने रावण को
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यह भी कहा कि इंद्र निश्चित रूप से देवताओं में प्रथम हैं, लेकिन श्रीराम नश्वर मनुष्यों में प्रथम हैं।
श्रीराम का वध करना अथवा उनसे बदला लेना आसान कार्य नहीं है। मारीच ने उस समय रावण को
कहा कि उसे सीता पर अपनी बुरी दृष्टि डालने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए। “यदि राजा जनक
की पुत्री के प्रज्वलित अग्नि रूपी शरीर का स्पर्श भी करोगे तो आपका सर्वनाश निश्चित है। श्रीराम के
बाणों का शिकार मत बनो। राजन, अपनी मृत्यु को निमंत्रण मत दो। क्या आपको स्मरण है कि पुराने
दिनों में किस प्रकार अपनी शक्ति के अहंकार में मैंने ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ को खंडित कर दिया था,
फिर श्रीराम ने अपने तीर से एक ओर तो सुबाहु का वध कर दिया था और उनके दूसरे बाण ने मुझे
सौ योजन दूर समुद्र में फेंक दिया था। सीता में अनुरक्ति का विचार त्याग दो और अपने समृद्ध तथा
सुंदर साम्राज्य के विध्वंस को निमंत्रण मत दो। यदि आप अपनी मूर्ख योजना पर अडिग रहते हैं तो
हे रावण! मैं अपनी आँखों से तुम्हारा तथा तुम्हारे समस्त कुल का सर्वनाश देख रहा हूँ। मैं लंका को
अग्नि की गोद में बैठा हुआ देख रहा हूँ तथा उसकी गलियों में मृत शवों के ढेर लगे हुए देख रहा हूँ।”
रावण ने मारीच का सुझाव मानने से इनकार कर दिया और कहा, “इस विषय पर मैं सब तथ्यों
तथा संभावनाओं पर विचार करने के बाद ही इस निर्णय पर पहुँचा हूँ। राम नाम का वह तुच्छ व्यक्ति
मेरे साथ युद्ध के लिए औपचारिक चुनौती के सम्मान के लायक भी नहीं है। इस प्रकार के व्यक्ति का
सही उपचार उसकी पत्नी का हरण करके उसे अपमानित करना ही है। यह मेरा अंतिम फैसला है तथा
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 195

इसे कार्यान्वित करने के लिए मैं दृढ़ संकल्प हूँ। इसलिए इस पर अब किसी टिप्पणी का कोई औचित्य
नहीं है। अत: अब तुम एक विचित्र सुनहरे एवं सुंदर मृग का रूप धारण करके सीता के समक्ष उपस्थित
हो जाओ और उसका ध्यान आकर्षित करो। सीता तुम्हें पकड़कर लाने के लिए राम को भेजेगी। तुम्हें
राम को उसकी कुटिया से किसी दूर स्थान पर ले जाना होगा और वहाँ पहुँचकर राम की नकली
आवाज में तुम्हें ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहकर पुकारना होगा। श्रीराम की यह नकली आवाज सुनकर
सीता यह समझेगी कि श्रीराम विपत्ति में पड़ गए हैं और वह लक्ष्मण को उनकी सहायता करने के
लिए जाने को विवश करेगी। जब इस प्रकार सीता आश्रम में अकेली रह जाएगी, तब मैं उसका हरण
करके लंका में ले जाऊँगा। एक बार मेरी यह सहायता करने के बाद तुम अपनी इच्छा से कुछ भी
करने के लिए स्वतंत्र हो। यदि तुमने मेरी यह सहायता नहीं की तो मैं इसी क्षण तुम्हारा वध कर दूँगा।”
मारीच ने एक बार फिर रावण को समझाने का प्रयास किया और कहा कि तुम्हें सीता हरण की
मंत्रणा देने वाले मंत्री वास्तव में मृत्युदंड के काबिल हैं तथा श्रीराम तुम्हारे सामने यमराज के समान
हैं। जब रावण ने कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया तो मारीच ने मन-ही-मन विचार किया कि मूर्ख
रावण पहले से ही विनाश के कगार पर खड़ा है, वह उसके सुझाव को नहीं सुनेगा। इसलिए पापी
रावण के हाथों मृत्यु प्राप्त करने से तो बेहतर है कि मैं रघुकुल भूषण श्रीराम के हाथों से मृत्यु प्राप्त
करूँ। यह सोचकर मारीच रावण के प्रस्ताव पर सहमत हो गया। उस ने रावण को कहा, “जब तुम
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दुष्टता पर उतारू हो ही गए हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ। आओ, दंडकवन में पंचवटी की ओर चलें।”
मारीच से यह शब्द सुनकर रावण हर्ष से फूला नहीं समा रहा था और फिर वह दोनों पुष्पक विमान
पर सवार हुए। उन्होंने दंडकवन में पंचवटी के लिए प्रस्थान किया। वे पर्वतों, नदियों और जंगलों के
ऊपर से उड़ते हुए जा रहे थे। दंडकवन पहुँचकर उन्होंने पंचवटी में केले के वृक्षों के बीच में स्थित
श्रीराम का आश्रम देखा। वे कुछ दूरी पर रुके तथा रावण ने अपने हाथ से इशारा करते हुए मारीच को
श्रीराम का आश्रम दिखाया तथा उसे योजना के अनुसार कार्य करने को कहा। इसके पश्चात् मारीच ने
अभूतपूर्व सुंदरता वाले स्वर्ण मृग का रूप धारण कर लिया। स्वर्ण मृग का प्रत्येक अंग विलक्षण तथा
उत्कृष्ट सुंदरता वाला था। आकाश में जिस प्रकार इंद्रधनुष मनोहर दिखाई देता है, उसी प्रकार वह मृग
भी देखनेवाले सभी लोगों की दृष्टि को मनोहर लग रहा था। उसकी सुंदर त्वचा के आगे सोने, चाँदी,
हीरे, रत्न और फूलों की सुंदरता भी फीकी प्रतीत हो रही थी। वह सुंदर स्वर्णमयी शरीर अनेक रजतमयी
बिंदुओं से युक्त था तथा अत्यंत सुंदर व आकर्षक दिखाई दे रहा था।
इस प्रकार की आकर्षक तथा उत्कृष्ट सुंदरता के साथ, वह जादुई हिरण इधर-उधर विचरता
रहा, कभी धीरे से आश्रम के नजदीक गया और कूदने लगा। फिर अदृश्य हो गया और फिर कुछ दूरी
पर जाकर पुन: दिखाई देने लगा। अन्य मृग उस स्वर्ण मृग को सूँघते तथा फिर उससे भयभीत होकर
दूर भाग जाते थे। उस समय जंगल में पुष्प एकत्रित करती हुई सीताजी ने मृग को देखा तो उसकी
196 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

आश्चर्यजनक सुंदरता पर मंत्रमुग्ध हो गईं। वह स्वर्ण मृग भी सीता को देखकर उसके समक्ष इधर-उधर
भागते हुए धरती पर एक नई प्रकार की सुंदरता बिखेरने लगा। उस विचित्र मृग को देखकर श्रीराम की
प्राणवल्लभा सीता उन्हें पुकारने लगी, “आर्यपुत्र! अपने भाई के साथ शीघ्र यहाँ आइए।” श्रीराम और
लक्ष्मण आश्रम से शीघ्र ही बाहर आए तथा उन्होंने भी उस अद्भुत मृग को देखा तथा उसकी सुंदरता
पर आश्चर्यचकित हो गए। परंतु लक्ष्मण को कुछ संदेह हुआ और वह बोले, “यह कोई साधारण मृग
प्रतीत नहीं होता, बल्कि यह भेष बदलकर आया कोई राक्षस है।” राम और लक्ष्मण दोनों ने मारीच के
बारे में सुना हुआ था और वे यह जानते थे कि मारीच मृग का रूप धारण करना जानता है और वह
जंगल में हिरण का शिकार करने आए हुए लोगों का छल से वध कर देता है। लक्ष्मण ने यह भी कहा
कि यह कोई साधारण जंतु नहीं है, यह राक्षसों की चाल है और हमें इसे अनदेखा कर देना चाहिए।
परंतु मारीच के सौंदर्य तथा छल ने सीता की विचारशक्ति छीन ली थी और वह लक्ष्मण की उपेक्षा
कर श्रीराम से विनय करने लगी—“मेरे लिए इस मृग को पकड़कर लाओ। हम इसे अपने आश्रम में
पालतू बनाकर रख लेंगे। यह सृष्टि की सबसे सुंदर निर्मिति है, जो मैंने इस जंगल में अभी तक कहीं
नहीं देखी है। हमें थोड़े समय बाद अयोध्या नगरी लौटना होगा। क्या हमें जंगल से अयोध्या के लिए
कुछ विलक्षण वस्तु नहीं ले जानी चाहिए? हमारे महल के आंतरिक कक्षों में विचरण करता हुआ
यह उत्कृष्ट मृग इतना सुंदर प्रतीत होगा कि भरत भी इसे देखकर बहुत प्रसन्न हो जाएँगे। मैं उन्हें यह
MAGAZINE KING
उपहार देना चाहती हूँ। मेरे प्रिय राम! मेरे लिए इसे पकड़ लाओ। किसी भी तरह से मेरे लिए इसे
पकड़कर ले आओ। यदि आप इसे जीवित नहीं पकड़ सकते, तो कम-से-कम इसका शिकार करके
ले आओ, हम इसकी सुंदर त्वचा को घर ले जाएँगे। मैंने इस प्रकार की सुंदर त्वचा पहले कभी नहीं
देखी। इसकी त्वचा पर बैठना बहुत प्रिय लगेगा।” श्रीराम सीता के इस विनम्र निवेदन को अनदेखा
नहीं कर पाए और उन्होंने मन में यह विचार किया कि लक्ष्मण की बात भी सच हो सकती है, परंतु
यदि यह जानवर एक मायावी राक्षस भी है तो भी इसका वध करना उचित होगा। तो फिर डरना किस
बात से, मैं इसे जीवित नहीं पकड़ सका तो मैं अपने धनुष-बाण से इसे मार तो सकता हूँ तथा इसकी
त्वचा सीता को भेंट कर सकता हूँ। यदि सीता इस सुनहरी मृग को प्राप्त करने के लिए इतनी उत्सुक
है तो क्या उसकी इच्छापूर्ति करना मेरा कर्तव्य नहीं है?
श्रीराम ने लक्ष्मण से अपने धनुष-बाण लाकर देने को कहा, परंतु लक्ष्मण श्रीराम को धनुष बाण
लाकर नहीं देना चाहते थे, फिर भी उन्होंने श्रीराम की आज्ञा का पालन किया। श्रीराम यह कहते हुए
मृग को पकड़ने के लिए निकल गए कि “ध्यान रहे लक्ष्मण! तुम सीता के साथ रहना तथा सतर्कता के
साथ उसकी रक्षा करना। इस मृग को मारने का मुख्य हेतु है इसकी सुंदर चमड़ी को प्राप्त करना। तुम
गृध्रराज जटायु को साथ लेकर मिथिलेश कुमारी को अपने संरक्षण में लेकर राक्षसों से चौकन्ने रहना।”
इस प्रकार नियति ने आनेवाली विपत्ति के लिए मंच निर्धारित कर दिया था। यह बड़ा विचित्र क्षण था
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 197

जब फुरतीले तथा तेज गति से कार्य करने की प्रकृति वाले लक्ष्मण को उस मायावी मृग के पीछे जाने
पर संदेह था, लेकिन सदा सावधान एवं सतर्क रहनेवाले श्रीराम ने लक्ष्मण की समझदारीयुक्त चेतावनी
को नजरअंदाज करते हुए सीता की दुर्भाग्यपूर्ण इच्छा को पूर्ण करने का निश्चय कर लिया। जब श्रीराम
मारीच मृग की खोज में निकल पड़े, तब रावण को पर्याप्त समय देने के लिए मारीच श्रीराम की दृष्टि
में तो रहा, लेकिन वह उनकी पहुँच से बाहर रहा और उन्हें लगातार अपने पीछे दौड़ाकर दूर ले जा
रहा था। ऐसा करते-करते मायामृग मारीच श्रीराम को उनके आश्रम से बहुत दूर ले गया।
भागते-भागते स्वर्ण मृग रूपी मारीच राक्षस को यह महसूस हो गया था कि अब यह खेल और
अधिक नहीं चलेगा। तत्पश्चात् मृग के पीछे भागने से थके हुए श्रीराम ने अपने धनुष से एक तीर छोड़
दिया। उस तीर ने उस मृग के शरीर को छेद दिया। मारीच तीर लगने के पश्चात् अपने स्वाभाविक
रूप में लौट आया और श्रीराम की नकली आवाज निकालकर ‘आह सीता! आह लक्ष्मण!’ की पुकार
करने के बाद गिर पड़ा।
श्रीराम ने सोचा कि लक्ष्मण का संदेह बिल्कुल सही था। यह मृग निश्चित रूप से राक्षस ही था।
तब श्रीराम को यह चिंता हो गई कि मारीच की नकली पुकार सुनकर सीता भी भ्रमित होकर राक्षसों
के छल में फँसकर भयभीत हो गई होगी, परंतु फिर श्रीराम यह सोचकर आश्वस्त हो गए कि लक्ष्मण
MAGAZINE KING
सीता का संरक्षण करने के लिए आश्रम में मौजूद हैं। उधर सीता वास्तव में ही बहुत भयभीत हो गई थीं
और वह भ्रमित होकर रावण द्वारा बिछाए गए छल-कपट के जाल में पूर्णत: फँस चुकी थीं। तूफान
में केले के वृक्ष की भाँति काँपते हुए सीता रोने लगी और लक्ष्मण को कहने लगीं, “क्या तुम्हें अपने
भाई की आवाज नहीं सुनाई दी, जल्दी उनकी सहायता करने जाओ।” परंतु लक्ष्मण सीता को आश्रम
में अकेला छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं थे। उधर घबराई हुई जनकनंदिनी सीता ने लक्ष्मण से
बार-बार श्रीराम की सहायता के लिए तुरंत जाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, “मैंने संकट में पड़े
हुए अपने प्रभु श्रीराम की आवाज सुनी है। जल्दी जाओ, विलंब मत करो। वे बहुत बड़े संकट में फँस
गए हैं। क्या तुमने मदद के लिए उनकी पुकार नहीं सुनी? उनके बचाव में जाने की बजाय तुम यहाँ पर
स्थिर खड़े हो।” लक्ष्मण ने सीताजी को समझाया कि यह राक्षसों की चाल है, क्योंकि लक्ष्मण राक्षसों
की इस चाल को भलीभाँति जानते थे। लक्ष्मण को अपने भाई श्रीराम के आदेश का स्मरण था। वह
सीता के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े रहे, लेकिन वहाँ से हिले नहीं। सीता भय की वेदना तथा संदेह में
और अधिक कुपित हो गईं। दोनों हाथों से अपनी छाती पीट-पीटकर चिल्लाते हुए बोली, “सुमित्रानंदन
लक्ष्मण! क्या तुम भी हमारे शत्रु बन गए हो? क्या तुम इतने वर्षों तक एक ढोंगी का रूप धारण किए
हुए थे? क्या तुम भी श्रीराम की मृत्यु का इंतजार कर रहे थे? क्या तुम उनके मित्र का रूप धारण
करके उनकी मृत्यु के इंतजार में मुझे प्राप्त करने की कामना कर रहे थे? तुम यहाँ क्यों खड़े हो?
श्रीराम की सहायता करने के लिए जाने से इनकार क्यों कर रहे हो? बताओ, विश्वासघाती लक्ष्मण?”
198 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

सीता के इन कठोर वचनों ने लक्ष्मण के हृदय पर विषधारी बाणों के समान प्रहार किया। लक्ष्मण
ने अपने हाथों से कानों को बंद कर लिया तथा शालीनता से सीताजी से कहा, “मिथिला की राजकुमारी
सीता! श्रीराम विश्व में किसी भी शत्रु का सामना करने और उसका संहार करने में समर्थ हैं। आपको भय
करने की जरूरत नहीं है। आप मेरे लिए मेरी माता से भी बढ़कर और उनसे भी अधिक सम्मानजनक
हो। शांत हो जाइए। इस समस्त ब्रह्म‍ांड में श्रीराम को हानि पहुँचाने या उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट
पहुँचाने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। आपने जो भी कठोर वचन बोले हैं, वे आपको शोभा नहीं देते।
आप मेरी माता हैं, आप दुःखी न हों। आप श्रीराम को उस मृग के शरीर के साथ बहुत जल्दी ही यहाँ
देखेंगी। जो पुकार आपने सुनी थी, वह श्रीराम की नहीं है। वह राक्षसों की एक चाल थी और हमें
राक्षसों के किसी भी छल, झूठी आवाज या चाल में नहीं फँसना चाहिए। ऐसी किसी बात से दुःखी भी
नहीं होना चाहिए। आपकी रक्षा के लिए मेरे भाई ने मुझे यहाँ तैनात किया है। मुझे आप को अकेला
छोड़कर यहाँ से जाने के लिए बाध्य मत कीजिए। मैं अपने भाई की आज्ञा की अवज्ञा नहीं कर सकता।
जबसे हमने जनस्थान में राक्षसों का वध किया है, तभी से राक्षस विभिन्न तरीकों से हमसे प्रतिशोध
लेने का प्रयास कर रहे हैं। हमें उनकी झूठी चाल में नहीं फँसना चाहिए। यह उनकी झूठी और मायावी
आवाज थी। यह श्रीराम की पुकार नहीं थी। आपको भयभीत होने की जरूरत नहीं है।” परंतु सीता का
भय विकराल हो चुका था और उनकी आँखें गुस्से से लाल हो गई थीं। तब सीता ने यह भयानक शब्द
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बोले, “लक्ष्मण! तुम अपने भाई की आज्ञा की आड़ में स्थिति का फायदा उठाना चाहते हो। तुम यहाँ
उनकी संकट भरी पुकार सुनकर भी स्थिर खड़े हुए हो और उन्हें मरने के लिए छोड़ने को तैयार हो।
मैं श्रीराम की पत्नी हूँ, मैं तुम्हारी ओर अथवा किसी ओर की तरफ कभी भी नहीं देखूँगी। यदि राम
की मृत्यु हो जाती है तो मैं भी उनके साथ मर जाऊँगी। यह निश्चित समझो।”
सीताजी के इन क्रूर एवं कठोर शब्दों से निर्दोष लक्ष्मण को अत्यधिक वेदना हुई। उन्होंने समर्पण
भाव से सीता के समक्ष हाथ जोड़े और कहा कि माता! देवी! आप अपने मुख से ऐसे शब्द कैसे कह
सकती हैं? इस तरह के शब्द क्रूरता एवं अधर्म के प्रतीक हैं। मैं सभी देवी देवताओं को साक्षी मानकर
यह शपथ लेता हूँ कि आपका संदेह गलत है। मुझे आपके ऊपर बहुत बड़ी विपत्ति आनेवाली प्रतीत
होती है, नहीं तो आप मेरे बारे में इस तरह के शब्द नहीं बोलतीं। इसके पश्चात् लक्ष्मण आनेवाली
किसी घोर विपत्ति के भय से काँपने लगे। सीता ने पुन: कहा, “देखो, लक्ष्मण! यहाँ पर बहुत सारा
शुष्क ईंधन पड़ा है। मैं उसमें आग लगाकर स्वयं अग्नि में प्रवेश कर लूँगी तथा अपने प्राणों का त्याग
कर दूँगी अथवा मैं गोदावरी नदी में डूबकर मर जाऊँगी। अब अंतिम बार पूछती हूँ कि तुम्हें श्रीराम की
सहायता के लिए यहाँ से तुरंत जाना मंजूर है या फिर मेरी मौत स्वीकार करते हो।” लक्ष्मण सीताजी
के इस रूप को बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे। तब उन्होंने विनम्र भाव से अपने हाथ जोड़कर कहा,
“अच्छा ठीक है, मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हूँ और अपने भाई श्रीराम की दी हुई आज्ञा का
अनादर करता हूँ और आपको अकेला छोड़कर श्रीराम की सहायता करने के लिए जाता हूँ। आप यहाँ
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 199

सुरक्षित रहें, ऐसी मेरी कामना है। जंगल के देवी-देवता आपकी रक्षा करें। मुझे बहुत बड़ा अपशकुन
होता हुआ दिखाई दे रहा है। मुझे बहुत डर लग रहा है, मुझे यह डर है कि शायद मैं आपको अब पुनः
श्रीराम के साथ नहीं देख पाऊँगा। फिर भी, मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए यहाँ से जाऊँगा।”
तत्पश्चात् लक्ष्मण ने न चाहते हुए भी वहाँ से प्रस्थान किया और मार्ग में बार-बार पीछे की ओर
मुड़कर देख रहे लक्ष्मण अपने विदीर्ण हृदय, क्रोध तथा दुःख से ग्रसित होकर आगे बढ़ते गए। लक्ष्मण
सीताजी के क्रूर शब्दों को कैसे बरदाश्त कर पाते? उनका हृदय असहनीय दुःख से विदीर्ण क्यों नहीं
होता? उन्होंने तो वनवास में 14 वर्षों तक वन में अपने भाई और भाभी सीता की सेवा करने के लिए
अपनी माता तथा पत्नी को भी त्याग दिया था।
पेड़ों के पीछे छिपकर खड़ा हुआ रावण इस अवसर की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। उसने
आश्रम से लक्ष्मण के चले जाने के बाद श्रीराम की पर्णकुटि में प्रवेश किया। उसने एक संन्यासी का
रूप धारण कर लिया था, जिसके शरीर पर गेरुआ रंग के वस्त्र थे, हाथ में कमंडल था और मुख
पर वैदिक मंत्रों का सुंदर उच्‍चारण हो रहा था, परंतु उसके हृदय में कुविचार एवं पापी षड्‍यंत्र चल
रहा था। रावण ने सीता को देखा और सीता के दिव्य सौंदर्य को देखते ही रावण के मन में शूर्पणखा
द्वारा भड़काई हुई सीता को प्राप्त करने की इच्छा और भी अधिक प्रबल हो गई। अब वह सीता को
हासिल करने के लिए पहले से भी अधिक कृत-निश्चय हो गया था। नारंगी रंग के वस्त्रों में तथा हाथ
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में कमंडल लिए हुए इस साधु का सीता ने यथोचित आदर भाव से अभिवादन किया।
रावण ने सोचा कि सीता उसकी धन-संपदा तथा शक्ति के प्रलोभन में आकर उसकी पत्नी बनने
के लिए सहमत हो जाएगी और वह गरीबी से ग्रसित श्रीराम का त्याग कर देगी। रावण ने यह भी सोचा
कि राम का अपमान और उसे दंडित करने का सबसे अच्छा तरीका यही है। रावण इस भ्रम में भी
था कि सीता उन अन्य स्त्रियों की भाँति बरताव करेगी, जिन्हें वह धन-दौलत तथा ऐश्वर्य का लालच
देकर अपने साथ ले आया था। सीताजी द्वारा अर्पित किए गए फलों और कंद-मूलों के आगे बैठे हुए
रावण ने सीता की सुंदरता की प्रशंसा करना प्रारंभ कर दिया। रावण ने सीता से पूछा, “तुम कौन हो?
तुम राक्षसों और जंगली जानवरों से भरे हुए इस जंगल में अकेली क्या कर रही हो?” साधु के रूप में
आए हुए रावण की ऐसी बात सुनकर सीता चकित रह गईं, लेकिन सीता ने रावण के प्रश्नों के उत्तर
दिए। सीता को यह आशा थी कि शायद दोनों राजकुमार जल्द ही लौट आएँगे, इसलिए उसने आश्रम
के द्वार पर अपनी नजरें जमा रखी थीं। धीरे-धीरे रावण ने अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया।
उसने अपने वंश, परिवार, शक्ति तथा धन-संपदा का गुणगान करना शुरू कर दिया था। रावण ने कहा,
“मैं लंका का राजा रावण हूँ और मेरे नाम से देवता, असुर तथा मनुष्य भी थर्रा उठते हैं। यदि तुम मेरी
भार्या बन जाओगी तो सभी प्रकार के सुखों तथा ऐश्वर्य का भोग करोगी।”
इस अप्रत्याशित स्थिति में सीता की पवित्रता ने उस शक्तिशाली राक्षस को चुनौती देने का
200 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

साहस दिया, जिसे वह अभी तक जानती भी नहीं थी। तब सीता ने रावण को यह कहते हुए फटकार
लगाई—“अधम-पापी रावण! तुम्हारा अंत नजदीक आ गया है। यदि तुम अपने प्राणों की रक्षा चाहते
हो, तो अभी इसी क्षण इस आश्रम से वापिस चले जाओ। मेरे पति श्रीराम मुझे प्राणों से भी अधिक
प्रेम करते हैं। वे इंद्र के समान पराक्रमी हैं तथा पर्वत के समान अविचल हैं। युद्ध में उनको कोई
भी पराजित नहीं कर सकता। तू उनकी पत्नी का अपहरण करके अपनी मौत को न्योता दे रहा है।
जो अंतर वन में रहनेवाले सिंह और सियार में, हाथी और बिलाव में होता है, वही अंतर दशरथनंदन
श्रीराम और तुझ में है।” सीता के ऐसे कटु वचन सुनकर राक्षसराज रावण क्रोधित हो गया। रावण ने
अपने बनावटी रूप और भद्रता को पूर्णत: त्याग दिया तथा असली रूप धारण कर लिया। फिर गुस्से
में लाल हुई आँखोंवाले रावण ने सिंह के समान गर्जना करते हुए कहा, “तुम शायद पागल हो गई हो।
मेरी शक्ति का तुम्हें अभी तक आभास नहीं हुआ है, मैं काल के समान विकराल हूँ और युद्ध में मौत
को भी मात दे सकता हूँ।” यह कहकर फिर रावण ने एक हाथ से सीता के बालों को पकड़ा और
दूसरे हाथ से उसने सीता को उठाया तथा उसे घसीटकर अपने दिव्य रथ (पुष्पक विमान) में ले गया।
सीता को बलपूर्वक उसमें बैठाकर वह हवा में उड़ गया। सीता जोर-जोर से चिल्लाने लगीं कि मेरे प्रभु
श्रीराम! आप कहाँ हैं? हे लक्ष्मण! मेरे सर्वाधिक विश्वसनीय मित्र, मैंने तुम्हें हठपूर्वक नकली पुकार
से भ्रमित होकर आश्रम से जाने के लिए विवश क्यों किया?” रावण ने सीता को मजबूती से पकड़ा
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और अपने पुष्पक विमान में उड़ता रहा। सीता ने पेड़ों और पौधों को संबोधित किया तथा इस दुःखद
घटना के बारे में श्रीराम को सूचित करने का आग्रह किया। उस समय वृद्ध पक्षीराज जटायु एक पेड़
के ऊपर अर्ध-निद्रित अवस्था में सो रहे थे, तब उन्होंने आकाश में तेजी से उड़ते हुए रथ को देखा।
विपत्ति में महिला की पुकार से चकित होकर जटायु तुरंत जाग गए और उन्होंने कमलनयनी सीता
की आवाज को पहचान लिया। जटायु ने सहायता के लिए उनकी पुकार भी सुनी। सीता की दयनीय
दशा को देखकर जटायु का रक्त उबल गया, वह क्रोधित हो गए, स्वयं रथ के मार्ग में खड़े हो गए
और चिल्लाने लगे, “रुको, यह सब क्या है?” सीता ने कहा कि लंका का राजा रावण उसे छल और
बल का प्रयोग कर जबरदस्ती उठाकर ले जा रहा है। ओ मेरे वृद्ध मित्र जटायु! आप उड़कर शीघ्र ही
श्रीराम तथा लक्ष्मण के पास जाओ और मेरी इस असहाय स्थिति के बारे में उन्हें बताओ, परंतु उसने
स्वयं ही सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने का फैसला किया। जटायु ने अपने मित्र दशरथ को याद
करते हुए श्रीराम को दिए गए वचन के बारे में भी विचार किया और फिर संकल्प लिया कि वह सीता
पर किसी भी प्रकार का संकट नहीं आने देगा।
तत्पश्चात् जटायु ने सीधा रावण से कहा, “हे रावण! मैं गरुड़ों का राजा जटायु हूँ। भाई राजा
रावण! मेरी बात सुनो। इस पाप कार्य को रोको। परस्‍त्री का छल-बल से अपहरण करने वाला व्यक्ति
अपने आप को राजा कैसे कह सकता है? तुम यह शर्मनाक कार्य कैसे कर सकते हो? मैं तुम्हें चेतावनी
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 201

देता हूँ कि यदि तुम सीता को उसके आश्रम में वापस नहीं छोड़कर आए तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।
सीता की दृष्टि तुम्हें भस्म कर देगी। तुम अपने साथ विषधारी सर्प को ले जा रहे हो। यमराज की दृष्टि
तुम पर है और वह तुम्हें नरक की ओर खींच रही है। मैं वृद्ध और निहत्था हूँ और तुम युवा, पूर्ण रूप
से हथियारों से सज्जित तथा हवाई रथ पर सवार हो, परंतु फिर भी जब तुम सीता का अपहरण करके
ले जा रहे हो तो मैं पीछे नहीं हटूँगा। तुम श्रीराम के पीठ पीछे यह कायरतापूर्ण कार्य क्यों कर रहे हो?
यदि तुम कायर और चोर नहीं हो तो अपने विमान से नीचे उतरो और मुझसे युद्ध करो।’’
यह बात सुनकर रावण क्रोध में भड़क उठा। उसने जटायु पर हमला किया। रावण और जटायु के
बीच संघर्ष शक्तिशाली वायु और भारी वर्षा वाले बादल के बीच होने वाले संघर्ष के समान था। ऐसी
प्रतीत हो रहा था, जैसे दो माल्यवान पर्वत एक-दूसरे से भिड़ गए हों। रावण ने जटायु पर प्राणघातक
नुकीले शस्त्रों से प्रहार किया, लेकिन गरुड़ राज ने अपने पंखों का प्रयोग करके उन सभी को बीच
में अपनी तरफ आने से रोक दिया। इससे रावण का क्रोध और बढ़ गया। तब कुपित राक्षस रावण
ने नुकीली एवं सर्प की भाँति मिसाइलें जटायु पर छोड़ीं। तब पक्षीराज जटायु बुरी तरह से घायल हो
गए, लेकिन सीता ने काँपते हृदय से रुदन करते हुए रावण और जटायु के बीच इस असमान युद्ध को
देखा। सीता की व्यथा को देखते ही रावण पर जटायु का प्रहार तेज होता जा रहा था। अपने घावों पर
ध्यान दिए बिना जटायु ने रावण पर उग्रतापूर्वक निरंतर हमले किए। उसने रावण के स्वर्णभूषित मुकुट
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को नीचे फेंक दिया, उसका चँदवा तोड़ दिया और उसका धनुष भी उसके हाथों में से छीनकर नीचे
फेंक दिया। पराक्रमी एवं वृद्ध पक्षीराज जटायु रावण की पीठ पर चढ़ गया और उसकी उन भुजाओं
को तोड़ने का प्रयास करने लगा, जिनसे उसने सीताजी को जबरदस्ती पकड़ा हुआ था। सीता हरण
में प्रयासरत रावण के साथ युद्ध करते हुए जटायु के इस दृश्य को 200 वर्ष पुराने लघुचित्र में बखूबी
दिखाया गया है। (देखें लघुचित्र-5)
अंत में रावण ने अपनी तलवार निकाली और पक्षीराज जटायु के पंखों को काट दिया। तब वृद्ध
जटायु असहाय होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जनकनंदिनी सीता जटायु की ओर दौड़ीं तथा उन्हें आलिंगन
करके रुदन करने लगीं, “हे मेरे सच्‍चे पिता! आप को मेरी वजह से अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है।
आप मेरे प्रभु के दूसरे पिता हैं, अब आप अपने प्राणों से हाथ धो बैठे हैं।” तत्पश्चात् रावण सीता को
पकड़ने के लिए उसकी ओर दौड़ा। सीता असहाय अवस्था में इधर-उधर रोते हुए दौड़ी, वह पेड़ों से
चिपक गई और विलाप करने लगी कि मेरे राम, कहाँ हैं आप? हे लक्ष्मण! कहाँ हो तुम? क्या तुम
मेरी रक्षा करने के लिए नहीं आओगे? अंत में रावण ने सीता को बलपूर्वक उठाकर पुष्पक विमान में
बिठा लिया और हवा में तीव्र गति से उड़ गया। जैसे ही भयंकर और विकराल रावण सीता को पकड़कर
आकाश में उड़ा, तभी सीता ने रावण के बंधन से मुक्त होने का प्रयास किया, लेकिन वह सफल नहीं
हो पाई। इस प्रकार राक्षसों का क्रूर राजा रावण साध्वी सीता का अपहरण करके ले गया। उस समय
202 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

धरती पर सूर्य का प्रकाश कम होने लगा तथा संध्या का समय नजदीक आ गया था। आस-पास के
सभी लोगों ने विलाप करते हुए कहा कि धर्म का नाश हो गया, नेकी और सच् चाई का अस्तित्व नहीं
रह गया, दया और गुण अब मौजूद नहीं हैं। दुष्ट राजा रावण छल-बल का प्रयोग कर देवी सीता का
हरण कर ले गया और पृथ्वी के पशु, पक्षी मौन होकर आकाश की ओर देखकर आँसू बहाते रहे।

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लघुचित्र-5 ः रावण बलपूर्वक सीता का अपहरण करते हुए तथा जटायु सीता को बचाने का प्रयास करते हुए;
चंबा शैली, 18वीं शताब्दी, अधिप्राप्ति संख्या 71.137, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय

रावण मिथिला की राजकुमारी सीता को क्रूरता से पकड़े हुए लंका की ओर उड़ने लगा। सीताजी
ने क्रोध तथा दुःख से लाल हुई अपनी आँखों को खोला और रावण को देखकर रोते हुए बोली, “पापी
रावण! तुम मुझे इस प्रकार उठाकर क्या आशा कर रहे हो? तुम्हें अपनी मौत का भय नहीं है क्या? शीघ्र
ही श्रीराम के बाण तुम्हें ढूँढ़कर तुम्हारे जीवन का अंत कर देंगे। तब तुम्हें इससे क्या लाभ होगा? मैं तुम्हारी
कभी नहीं हो पाऊँगी? मैं तुम्हारी होने से पहले मरना पसंद करूँगी। इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार श्रीराम ने
जनस्थान में कुछ घंटों के भीतर ही तुम्हारी 14000 राक्षसों वाली सेना का संहार कर दिया था। क्या तुम्हारे
इस अपकृत्य के लिए वे तुम्हें क्षमा करेंगे? वे जल्द ही तुम्हें यमलोक भेज देंगे।” जब सीता रावण को इस
प्रकार फटकार लगा रही थी, तब रावण आकाश में तीव्र गति से लंका की ओर बढ़ रहा था। रावण का
पुष्पक विमान अनेक नगरों, वनों, पर्वतों और नदियों के ऊपर से होकर गुजरा। अचानक ही सीता ने नीचे
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 203

पर्वत शिखर पर खड़े हुए कुछ लोगों को देखा, तब उसने अपने रेशमी वस्त्र का एक टुकड़ा लिया और
उसमें अपने आभूषण बाँधकर उन्हें नीचे फेंक दिया। सीता ने यह कार्य इस आशा से किया था कि इस
प्रकार आभूषण नीचे फेंकने पर शायद श्रीराम और लक्ष्मण उन्हें देख लेंगे और इस तरह सीताजी की खोज
करने में आभूषण उन्हें दिशानिर्देश देने में सहायक हो सकेंगे।
पंपा झील और ऋष्यमूक पहाड़ियों को पार करने के पश्चात् रावण शोक संतप्त सीता को जबरन
पकड़े हुए, लंका की ओर आगे बढ़ा। अपने पुष्पक विमान में तेजी से आगे बढ़ते हुए रावण ने अनेक
जंगलों, पहाड़ियों और झीलों को पीछे छोड़ दिया। उसके पश्चात् उसका पुष्पक विमान मछलियों और
मगरमच्छों से भरे हुए समुद्र के ऊपर से जाने लगा। उस विशाल समुद्र को पार करने के पश्चात् रावण ने
लंका नगरी में प्रवेश किया। रावण सीताजी को बलपूर्वक घसीटते हुए अपने महल में ले गया। मूर्ख रावण
ने यह भी सोचा कि वह पुरस्कार जीत लाया है, लेकिन उसे यह आभास भी नहीं था कि वह सीता के रूप
में अपनी मौत को अपने घर लेकर आया था। रावण ने शोक संतप्त सीताजी को अपनी अपार धन-संपदा
दिखाई और उसका व्याख्यान भी किया, लेकिन सीता यह सब सुनने की इच्छुक नहीं थी। रावण ने सीताजी
से उसकी पत्नी बनने की याचना की और कहा कि यदि तुम मेरी पत्नी बनना स्वीकार कर लेती हो तो
तुम रानियों की पटरानी अर्थात्् महारानी बन जाओगी और संपूर्ण साम्राज्य पर शासन करने के साथ-साथ
इस अपार धन और संपदा की स्वामिनी भी बन जाओगी। शोक संतप्त सीता ने अपने तथा रावण के बीच
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घास की एक फलक रखकर निर्भीकता से उत्तर दिया, “मैं इक्ष्वाकु कुल के राजकुमार श्रीराम की पत्नी हूँ,
जिन्होंने अकेले ही जनस्थान में 14000 राक्षसों का वध कर दिया था। वे तुम्हें भी निश्चित रूप से यमलोक
भेज देंगे। तुम्हारी मृत्यु का समय निकट है। मैं धर्मपरायण और पतिव्रता पत्नी हूँ, इसलिए मेरे बारे में विचार
करना छोड़ दो।”
परंतु रावण सीता को पाने के लिए अत्यंत उत्सुक था और इसके लिए वह हर संभव प्रयत्न करने को
तैयार था। रावण ने सोचा कि यदि वह सीता को अपनी धन-दौलत तथा शक्ति का दर्शन कराएगा तो वह
उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेगी। इसलिए रावण ने बलपूर्वक सीता को रत्नों और हीरों से जड़े हुए
फर्शवाले महल दिखाए तथा हाथी के दाँत, स्वर्ण व स्फटिक से बने हुए स्तंभ भी दिखाए, परंतु सीता का
मन कहीं और ही था, वह हर क्षण श्रीराम और लक्ष्मण की प्रतीक्षा कर रही थी। रावण ने अपनी सेना की
विशालता के बारे में बताकर भी सीता की सहमति प्राप्त करने का प्रयास किया और कहा, “यह कल्पना
कर आनंद महसूस कर सकती हो कि कितनी विशाल सेना की तुम स्वामिनी बन जाओगी। तुम मेरे प्राणों
से भी प्रिय मेरी पटरानी बनोगी। मेरी कई पत्नियाँ हैं, लेकिन तुम उन सभी की स्वामिनी बनोगी। अब से मेरा
प्रेम सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए होगा। मेरी बात ध्यान से सुनो और मेरे बारे में सोचो। लाखों शक्तिशाली
सैनिकों द्वारा संरक्षित इस द्वीप के चारों ओर कई सौ मील समुद्र है और कोई भी इस नगरी में प्रवेश नहीं
कर सकता। राम तो राज्य से विहीन, दीन तथा वन-वन में भटक रहा है। देवताओं, यक्षों तथा गंधर्वों में
204 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

भी मेरे बराबर पराक्रमी कोई नहीं है। इसलिए मैं ही तुम्हारे योग्य पति हूँ और मेरी पत्नी बनकर तुम संपूर्ण
समृद्ध लंका पर शासन करोगी। तुम्हें अपनी सुंदरता की रक्षा करने के लिए मेरी धन-संपदा तथा शक्ति
की जरूरत है। राम इस नगरी की खोज कभी भी नहीं कर सकता। सीता! तुम इस लंका नगरी के साम्राज्य
को और मुझे स्वीकार कर लो। चलो, पुष्पक विमान में विश्व भ्रमण का आनंद लेते हैं। अपने मुख पर से
शोक के बादलों को छँटने दो और प्रसन्नता के चंद्रमा को उदय होने दो।” जब रावण इस प्रकार बोलता जा
रहा था, तब सीता की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। उस समय रावण ने एक बार फिर कहा, “सुंदरी
सीता! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक झुकाता हूँ और तुम्हारी सहमति रूपी आशीर्वाद की याचना करता हूँ।
अपनी महानता को भूलकर मैं तुमसे यह याचना कर रहा हूँ। मैंने इससे पहले अपने जीवन में कभी किसी
के समक्ष इस प्रकार मस्तक नहीं झुकाया है।”
शोक संतप्त सीता ने रावण तथा अपने बीच में फिर से घास की एक फलक रखी और राक्षसराज रावण
से निर्भीकता से कहा, “तुम जानते हो, मैं कौन हूँ? राजा दशरथ को धर्म के रक्षक के रूप में तीनों लोकों
में ख्याति प्राप्त थी। ईश्वर जैसे व्यक्तित्व तथा शेर जैसे पराक्रमवाले उनके पुत्र श्रीराम मेरे पति हैं। मेरे प्रभु
श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण अवश्य ही तुम्हारा वध कर देंग।े तुम्हें यह वरदान प्राप्त है कि कोई देवता या
राक्षस, कोई गंधर्व या यक्ष तुम्हारा वध नहीं कर सकता है। इसीलिए तुमने श्रीराम को अपना शत्रु बनाने का
दुस्साहस किया है। यह तुम्हारी भूल है कि तुम्हारा वरदान तुम्हारे प्राणों की रक्षा करेगा, क्योंकि कोई पराक्रमी
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मानव अवश्य ही तुम्हारा वध कर सकता है। इस धरती पर जन्म लेनवे ाले सर्वाधिक प्रतापी, पराक्रमी और
प्रतिष्ठित मानव श्रीराम ने जिस भी क्षण अपनी क्रोधपूर्ण दृष्टि तुम पर डाल दी, उसी क्षण तुम्हारा अंत हो
जाएगा। मेरे प्रभु श्रीराम तुम्हारा वध करने के लिए और मुझे पुनः प्राप्त करने के लिए, यदि आवश्यक हुआ
तो सागर को भी जलविहीन कर देंग।े यह निश्चित है कि तुम्हारा यह पापकृत्य तुम्हारा, तुम्हारे साम्राज्य तथा
तुम्हारे कुल के अंत का कारण बनेगा। तुम मुझसे स्वयं को स्वीकार करने की बात करते हो मूर्ख रावण! क्या
कभी कौआ किसी हंस की बराबरी कर सकता है? क्या किसी दुष्ट आत्मा को यज्ञ की अग्नि के नजदीक
जाने की अनुमति दी जा सकती है? मुझे अपने जीवन या शरीर से प्यार नहीं है।” सीता ये सभी बातें बोलकर
मौन हो गईं। रावण ने क्रोध में कठोरता से सीता के प्रश्नों का उत्तर दिया, “मिथिलेशकुमारी सीता! मेरी बात
ध्यान से सुनो। मैं तुम्हें 12 महीनों का समय देता हूँ। यदि तुम इस समय सीमा में मुझे स्वीकार करने के लिए
सहमत हो जाती हो तो बहुत अच्छा होगा, परंतु यदि इस समयावधि में तुमने मेरे प्रस्ताव को अस्वीकार कर
दिया तो मेरा भोजन बनाने वाले लोग मेरे नाश्ते के लिए तुम्हारे शरीर का मांस पकाकर देंग।े
तत्पश्चात् रावण ने भयंकर दिखाई देनेवाली राक्षसियों को बुलाया और सीता को अशोक वाटिका
में अपने साथ ले जाने का आदेश दिया। रावण ने उन राक्षसियों को आदेश दिया, “तुम सीता को पहले
तो गर्जन-तर्जन करके डराना, फिर मीठे-मीठे वचनों से इसे वश में लाने की चेष्टा करना। सीता पर हर
समय नजर रखना और मेरी अनुमति के बिना कोई भी व्यक्ति सीता से बात तक भी न कर पाए। सीता जो
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 205

कुछ भी चाहे, वही उसे दे देना। वस्त्र हो या आभूषण, कुछ भी चाहे वह उसे शीघ्र प्राप्त हो जाना चाहिए।
सीता की सेवा और आदर उसी प्रकार करो जिस प्रकार तुम मेरी सेवा और आदर करते हो।” रावण ने
यह चेतावनी भी दे डाली कि यदि किसी ने भी सीता को कष्ट देने वाले शब्द कहे तो उसे मृत्युदंड दिया
जाएगा। जाने-अनजाने में भी सीता को दुःख देनेवाले कार्य नहीं करने को भी कहा। रावण ने निशाचरियों
को यह भी आदेश दिया—“तुम्हें किसी भी तरह सीता के अभिमान को तोड़ना होगा। जाओ, अब सीता को
अशोक वाटिका में ले जाओ और उसकी अक्ल को ठिकाने लाने के लिए कुशलता से भय और प्रलोभन
का उपयोग करो, जिस प्रकार जंगली हथिनी को भय तथा प्रलोभन दिखाकर वश में किया जाता है, तुम्हें
भी उसी प्रकार सीता को वश में करना है।”
तदुपरांत वे राक्षसियाँ सीता को अशोक वाटिका में ले गईं। यह वाटिका अत्यंत सुंदर थी। वहाँ पर
विभिन्न प्रकार के पेड़ों पर भरपूर मात्रा में फूल और फल लदे हुए थे और उन पेड़ों पर सुंदर पक्षी भी क्रीड़ा
कर रहे थे। यहाँ पर भयंकर व कुरूप राक्षसियों से घिरी और उन्हीं के द्वारा रक्षित सीता को बंदी बनाकर
रखा गया। सीता की अवस्था बाघिनों के बीच में घिरी हुई हिरणी के समान हो गई थी। यद्यपि सीताजी
शोक एवं दुःख से संतप्त थी, परंतु उन्हें यह विश्वास भी था कि श्रीराम और लक्ष्मण किसी भी तरह उन्हें
खोजकर बचा लेंगे और पापी रावण का अंत कर देंगे। तत्पश्चात् वह श्रीराम के साथ फिर से सुखदायक
जीवन व्यतीत कर पाएँगी।
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इसके पश्चात् रावण ने कुछ चालाक गुप्तचरों को बुलाया और उन्हें यह आदेश दिया कि वे जनस्थान
में जाएँ और सतर्कता से वहाँ देखकर उसे यह सूचित करें कि राम और लक्ष्मण क्या कर रहे हैं। रावण
ने कहा कि जब तक राम जीवित है, तब तक वह चैन की नींद नहीं सो सकता, राम उसका सबसे बड़ा
शत्रु है। उसका किसी भी तरह वध करना जरूरी है। अपने गुप्तचरों को जनस्थान भेज देने के बाद रावण
अशोक वाटिका में सीता के पास गया। उसने सीता को शोक संतप्त तथा आँसू बहाते हुए देखा। राक्षसियाँ
सीता की देखभाल कर रही थीं। समुद्र से घिरे हुए उस द्वीप में अशोक वाटिका के भीतर कैद हुई सीताजी
को यह ज्ञात नहीं था कि वह किस स्थान पर है और वह श्रीराम से कितनी दूर हैं, परंतु सीताजी को यह
आशा थी और विश्वास भी था कि किसी भी तरह श्रीराम वहाँ आएँगे और रावण का वध करके उन्हें अपने
साथ ले जाएँगे। इस विश्वास के कारण सीताजी न तो खतरों से डरीं और न रावण के प्रलोभनों के जाल में
फँसीं। सीताजी उन भयंकर राक्षसनियों के बीच में अशोक वाटिका में एक कैदी की तरह कई महीनों तक
पीड़ा सहन करती हुई श्रीराम की प्रतीक्षा करती रहीं।

6. शोक संतप्त राजकुमारों द्वारा सीता की खोज में जाना, मतंगवन में शबरी से मिलना
अब पंचवटी के घटनाक्रमों पर लौटते हैं। मारीच का वध करने के पश्चात् श्रीराम मायामृग द्वारा
उनके साथ किए गए छल से स्तब्ध रह गए और मन-ही-मन पछताने तथा चिंतित होने लगे। अपनी
206 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

कुटिया की ओर जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए वे सोचने लगे, मृगरूपधारी मायावी राक्षस ने जानबूझकर मेरी
आवाज की नकल करते हुए आर्तपुकार इसलिए की थी, ताकि लक्ष्मण तथा सीता उसे सुन लें और लक्ष्मण
सीता को अकेले छोड़कर मेरी सहायता के लिए चल पड़े। राक्षस आश्रम में अकेली पड़ी सीता का वध
कर देंगे। तरह-तरह के अपशकुन भी दिखाई दे रहे थे। इस प्रकार शंकित हृदय तथा दुःखी मन से श्रीराम
अपनी कुटिया की तरफ बढ़ रहे थे कि उन्होंने सामने से लक्ष्मण को आते हुए देखा। लक्ष्मण दुःख और
विषाद में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे। तभी विषादग्रस्त श्रीराम ने निराश होकर कहा, “आह! लक्ष्मण मुझे इसी
बात का डर था। तुम जंगल में सीता को अकेले क्यों छोड़ आए? शायद राक्षसों ने सीता का अबतक वध
कर दिया हो और उसका भक्षण भी कर लिया हो?” निरंतर दौड़ने से थके हुए, प्यासे तथा अत्यधिक क्रोध
और असहनीय पीड़ा से ग्रस्त श्रीराम ने विलाप करते हुए फिर कहा, “लक्ष्मण, यदि आश्रम में वापस लौटने
पर मुझे सीता नहीं मिली तो मैं निश्चित रूप से मर जाऊँगा। हम तीनों में से केवल तुम ही अकेले अयोध्या
जीवित जाना और वहाँ पर सब बताना कि यहाँ पर क्या-क्या घटित हुआ था। हाय! कौशल्या माता इस
दुःख को कैसे सहन कर पाएँगी? अब तक तो राक्षसों ने सीता को पकड़ लिया होगा और असहाय एवं
असुरक्षित सीता का वध अवश्य कर दिया होगा। तुम उसे अकेले छोड़कर यहाँ कैसे आ गए लक्ष्मण? तुम
भी मारीच की झूठी पुकार से कैसे भ्रमित हो गए? अब मैं क्या करूँ? मैं सीता को पुन: नहीं देख पाऊँगा।
राक्षसों की योजना सफल हो गई है। स्वर्ण कांतिवाली जनकनंदिनी सीता के बिना मैं न तो पृथ्वी का राज्य
MAGAZINE KING
चाहता हूँ और न ही देवताओं पर आधिपत्य। यदि सीताजीवित नहीं होगी तो मैं भी प्राणों का त्याग कर दूँगा।
लक्ष्मण बोलो, सीताजीवित है या नहीं? तुम उसे अकेली छोड़कर क्यों आए?”
लक्ष्मण ने आँसू बहाते हुए कहा, “मैं क्या करता भैया, मैं कुछ न कर सका। आज जब सीताजी ने
सहायता के लिए आपकी संकटभरी पुकार सुनी, तब वे चिंतित हो गई थीं। भय से व्याकुल होकर उन्होंने
मेरी एक भी बात नहीं सुनी और मुझे आपकी सहायता के लिए तुरंत जाने का आदेश दिया। उन्होंने जाने में
मेरे किसी भी प्रकार के विलंब को सहन नहीं किया। वे हठ करती रहीं तथा मेरी एक भी बात नहीं सुनी।
उन्होंने मुझ पर विश्वासघाती हो जाने का आरोप लगाया। भैया, सीताजी ने यह भी कहा कि लक्ष्मण, तुम
अपने भाई श्रीराम की मृत्यु का इंतजार कर रहे हो, क्योंकि तुम मुझे हासिल करने की इच्छा से वन में आए
हो। मैं सीताजी के इन कठोर शब्दों और आरोपों को सुनकर अर्ध मृत-सा हो गया था, परंतु मैंने आश्रम में
उन्हें अकेला छोड़कर प्रस्थान नहीं किया। फिर उन्होंने मुझे यह चेतावनी दी कि यदि तुम इसी क्षण यहाँ से
नहीं जाओगे तो मैं अग्नि में जलकर अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी। उन्होंने मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं
छोड़ा और मुझे तुरंत आश्रम छोड़कर आना पड़ा।”
लक्ष्मण की ये बातें सुनकर, संतप्त मन से श्रीराम ने कहा, “मैं राक्षसों का वध करने में समर्थ हूँ,
यह जानते हुए भी सीता के क्रोध भरे वचनों को सुनकर तुम्हारा उसे अकेले छोड़कर आना सर्वथा अनुचित
था। मेरा बाण लगते ही वह मायामृग मृत्यु को प्राप्त हो राक्षस बन गया और मरने से पहले मेरी आवाज
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 207

में उसने आर्त पुकार लगाई। राक्षसों की माया को जानते हुए भी तुम्हारा सीता को अकेले छोड़कर आना
उचित नहीं था।” इस प्रकार किसी अनिष्ट के होने की चिंता करते हुए दोनों राजकुमार अपने आश्रम की
ओर दौड़े। आश्रम पहुँचने पर उन्हें आश्रम खाली मिला। वहाँ सीताजी मौजूद नहीं थी। मृगचर्म, कुशा
घास और बैठने का आसन आदि सब कुछ फैले हुए थे। सभी चीजें जमीन पर इधर-उधर पड़ी हुई थीं।
यह देखकर श्रीराम रोने लगे और सीता की खोज में आश्रम के चारों ओर इधर-उधर दौड़ने लगे, परंतु
उन्हें सीताजी कहीं भी नहीं दिखाई दीं।
श्रीराम यह सोचकर सीता को पेड़ों के बीच में ढूँढ़ने गए कि शायद सीता पेड़ के पीछे छुपी हुई हो
और वह उनके साथ मजाक कर रही हो। शोक के समुद्र में डूबे हुए श्रीराम विलाप करते हुए पेड़ों, पर्वतों
तथा जंतुओं को एक-एक करके पूछने लगे कि क्या उन्होंने जनकनंदिनी सीता को देखा है और उनसे मदद
की प्रार्थना भी करने लगे। उस विशाल वन में वृक्षों, पशुओं तथा पक्षियों से सीता का पता पूछने के बाद उसे
ढूँढ़ने में विफल हुए, श्रीराम दुःखी होकर धरती पर गिर पड़े और लक्ष्मण से बोले, “सीता कहीं भी नहीं है।
राक्षसों ने पकड़कर उसका भक्षण कर लिया है। अब मैं जीवित कैसे रह पाऊँगा? मेरा अंत नजदीक आ
गया है। मैं अपने जीवन में असफल हो गया हूँ।” लक्ष्मण अपने प्रिय भाई श्रीराम की पीड़ा को सहन नहीं
कर पा रहे थे। इसलिए लक्ष्मण ने श्रीराम से इस प्रकार कहा, “भैया! आपको इस तरह विलाप नहीं करना
चाहिए। चलिए, वन में सीताजी की खोज करने चलें। आपको पता है न कि सीताजी को गुफाओं और घनी
MAGAZINE KING
झाड़ियों में घुसने का कितना शौक है। वे नदी में स्नान कर रही होंगी या फिर कहीं पर फूलों से खेल रही
होंगी। चलिए, फिर से सीताजी की खोज करते हैं।”
लक्ष्मण ने आशा भरे शब्दों से श्रीराम को साहस देने का प्रयास किया, लेकिन श्रीराम शोकाकुल
होकर बोले, “नहीं, नहीं मेरे भाई! अब कोई आशा नहीं है। सीता कहीं भी नहीं है। मैंने हमेशा के लिए उसे
खो दिया है। अब मैं अयोध्या कैसे लौट पाऊँगा? राक्षसों द्वारा सीता का वध और भक्षण हो जाने पर, जब
मैं अकेला ही अयोध्या वापस जाऊँगा, तब क्या अयोध्यावासी मुझ पर हँसेंगे नहीं? सीता को वन में ले जाने
पर और उसकी रक्षा करने में असफल होने पर, मैं राजा जनक को क्या जवाब दूँगा? नहीं, लक्ष्मण! तुम्हें
अकेले ही अयोध्या जाना होगा। मैं जीवित नहीं रहूँगा। लक्ष्मण! तुम अयोध्या जाओ और हमारी माताओं
की देखभाल करो। मेरी तरफ से भरत को अभिवादन करना और उससे यह कहना कि मेरी यह अंतिम
इच्छा थी कि भरत ही राजा के रूप में अयोध्या का पालन करते रहें। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा, “भैया!
मेरा साहस मत तोड़ो। आपको भी धैर्य रखना चाहिए। विश्व में आपसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति कोई नहीं
है। संसार में हर प्राणी पर विपत्तियाँ आती हैं। यदि आप ही अपने ऊपर आई विपत्ति का धैर्यपूर्वक सामना
नहीं करेंगे तो दूसरा कौन पुरुष ऐसा कर पाएगा।”
उन दोनों राजकुमारों ने जोर-जोर से पुकारते हुए, उपवनों, जंगलों और नदी के तट पर सीता को ढूँढ़ा,
लेकिन उनके सभी प्रयास असफल हो गए। श्रीराम का दुःख और चिंता निरंतर बढ़ रहे थे। तभी उन्होंने
किसी राक्षस के बड़े-बड़े पैरों के निशान के पास छोटे पैरों के निशान देखे। उन्होंने सीता के आभूषणों
208 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

से निकले हुए सोने के कुछ मनकों को रक्त की कुछ बूँदों के साथ चारों ओर फैले हुए देखा। तत्पश्चात्
उन्होंने किसी विमान के अनेक खंड भी देखे। वहाँ भूमि पर एक राजसी मुकुट तथा आभूषण भी बिखरे
हुए थे। उन्होंने रत्नों की परत वाला बड़ा धनुष, एक तरकस का जोड़ा और एक राजसी कवच भी देखा।
सीताजी के साथ किसी अनिष्ट का भय करते हुए श्रीराम को हृदय विदीर्ण कर देनेवाला दुःख हुआ और
वे पुन: रोते हुए बोले, “देखो लक्ष्मण! राक्षसों ने सीता का भक्षण करने के लिए जानवर के पीछे पड़े हुए
शिकारी की भाँति उसका पीछा किया होगा।” इस प्रकार अत्यधिक क्रोध के साथ असहनीय दुःख में श्रीराम
ने समस्त विश्व का संहार करने की धमकी दी। उन्होंने कहा कि सीता को कष्ट देने वाले राक्षसों का वध
करने के लिए मैं प्रचंड रूप धारण कर लूगँ ा और अब गंधर्व, किन्नर, राक्षस अथवा मनुष्य चैन से नहीं
रह पाएँगे।
तब लक्ष्मण ने समझा-बुझाकर श्रीराम को शांत किया और कहा कि जिसने भी सीताजी का अपहरण
किया है, अभी उसी को ढूँढ़ना चाहिए और उसको मौत के घाट उतार देना चाहिए। अभी हमें पृथ्वी के
हर कोने में सीता की खोज करनी होगी। कुछ समय पश्चात् फिर श्रीराम शोक से संतप्त होकर अनाथ की
तरह विलाप करने लगे। लक्ष्मण ने फिर श्रीराम को सांत्वना देने का प्रयास किया और कहा कि हमें शत्रु
का पता लगाकर उससे युद्ध करना चाहिए। तभी उन्होंने खून से लथ-पथ एवं अंग-विकृत होकर धरती
पर पड़े हुए जटायु को देखा। जटायु ने अपने खून से लथपथ शीर्ष को अत्यंत दुःख से उठाते हुए बताया,
MAGAZINE KING
“लंका के राजा रावण ने श्रीराम की प्राणप्रिया और राजा जनक की पुत्री सीता का अपहरण कर लिया है।
आकाश में रावण के उड़ते हुए पुष्पक विमान में सीता को रोते हुए देखकर मैंने उसके मार्ग के बीच में खड़े
होकर उसे रोकने का प्रयत्न किया और रावण के चंगुल से सीता को बचाने का प्रयास किया। मैंने अपना
सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया, लेकिन रावण मेरे पंखों को काटने और मेरे पैरों को तोड़ने में सफल हो गया। जैसे
ही मैं घायल होकर गिरा, तभी रावण ने सीता को बलपूर्वक उठाया और उनको लेकर दक्षिण दिशा की
ओर उड़ गया। अब मैंने आपको यह तथ्य बता दिया है। मुझे आशीर्वाद दीजिए, क्योंकि मेरा अंत नजदीक
है।” जटायु के मुख से सीता के अपहरण की कहानी सुनते ही श्रीराम की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी
और उन्होंने जटायु को गोद में उठा लिया, परंतु श्रीराम को यह आशीर्वाद देते हुए कि श्रीराम रावण का
वध करके शीघ्र ही जनकनंदिनी के साथ पुन: सुखपूर्वक रहेंगे, जटायु ने अपने प्राण त्याग दिए। श्रीराम ने
कहा, “हे लक्ष्मण! मुझे सीता के अपहरण से उतना दुःख नहीं हुआ, जितना कि पक्षीराज जटायु की मृत्यु
से मुझे दुःख हुआ है (वा.रा. 3/68/23-25)।”12
तब श्रीराम और लक्ष्मण दोनों को असहनीय दुःख की अनुभूति हुई और उनकी आँखों से आँसू बहने
लगे। उन्होंने अपने पिता की तरह जटायु को सम्मान दिया और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार मंत्रोच्‍चारण
करते हुए दिवंगत आत्मा को चिता पर चढ़ाकर उसका अंतिम संस्कार किया। इस स्थान का नाम अब
‘सर्वतीर्थ’ है और यह नासिक से लगभग 58 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उसके पश्चात् वह सीता
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 209

की खोज में दक्षिण-पश्चिमी दिशा में आगे बढ़े। अचानक ही विकराल आकार के एक राक्षस ने दोनों
राजकुमारों को पकड़ लिया। वह राक्षस अत्यंत कुरूप था और उसकी एक ही आँख थी, जो उसकी छाती
पर मौजूद थी। उसकी टाँगें भी नहीं थीं। कबंध नामक इस राक्षस से पकड़े जाने के बाद दोनों राजकुमार
एक क्षण के लिए बेसुध हो गए थे और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए? तब
अपनी सुध में वापस आ जाने पर, दोनों राजसी तपस्वियों ने राक्षस के दोनों हाथ काट दिए। भुजा कटने
पर वह राक्षस दर्द से भरी गर्जना करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। परिचय पूछने पर लक्ष्मण ने कबंध को
राम का परिचय सूर्यवंशी दशरथनंदन के रूप में दिया। यह जानकर कबंध को प्रसन्नता हुई, उसने कहा
कि यदि आप दोनों मेरा दाह-संस्कार कर देंगे तो मुझे मुक्ति मिल जाएगी। दोनों राजकुमारों ने राक्षस की
इच्छानुसार उसका अंतिम संस्कार किया। परलोक सिधारने से पहले कबंध राक्षस ने श्रीराम से कहा, “आप
निश्चित रूप से सीता को पुनः प्राप्त करेंगे। आप पंपा के सुंदर तट पर जाएँ और ऋष्यमूक पर्वत पर निवास
करनेवाले सुग्रीव से सहायता माँगें। अपने भाई वाली द्वारा राज्य से निकाले जाने के पश्चात् वह निरंतर भय
और खतरे में रहता है। आप उनसे मित्रता कीजिए और निश्चित रूप से आप अपने मनोरथ में सफलता
प्राप्त करेंगे।” यह कहकर वह राक्षस अदृश्य हो गया।
तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण मतंगवन में स्थित पंपा सरोवर की दिशा में आगे बढ़े। उस मनोरम क्षेत्र में
उन्होंने मतंग ऋषि की शिष्या एवं वृद्ध संन्यासिनी शबरी के आश्रम में पदार्पण किया और उसका आतिथ्य
MAGAZINE KING
प्रेमपूर्वक स्वीकार किया। शबरी भील जनजाति की महिला थी। उसने योग और साधना के माध्यम से सिद्धि
प्राप्त कर ली थी। वह राम और लक्ष्मण की प्रतीक्षा करते हुए मतंग के आश्रम में रहती थी, क्योंकि उसे
यह बताया गया था कि वह श्रीराम के दर्शन करने के पश्चात् श्रेष्ठ तथा अक्षय लोकों में जाएगी। उसने
ईमानदारी से आश्रम की देखभाल करते हुए तथा अपने गुरु मतंग की सेवा करते हुए अपने अतिथि श्रीराम
की प्रतीक्षा में एक संन्यासी का जीवन व्यतीत किया। जब श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के आश्रम में पधारे,
तब उसने उन दोनों राजकुमारों की सेवा में पंपा झील के तट पर उगे हुए फलों को अर्पण किया। उसने उन
फलों को इकट्ठा करके श्रीराम के लिए रखा था। शबरी अर्थात्् भीलनी ने उन दोनों भाइयों को वन की
विशालता का दर्शन कराया और मतंग वन के चमत्कारों का भी उल्लेख किया। उसने उन दोनों राजकुमारों
को प्रत्यक्षस्थली के नाम से विख्यात वेदी भी दिखाई, जहाँ पर उसके द्वारा महान् ऋषियों की आराधना
तथा पुष्पों के साथ भगवान् की पूजा होती थी। उसके पश्चात् श्रीराम की अनुमति से शबरी गहन साधना के
माध्यम से उच्‍च स्वर्ग लोक अर्थात्् साकेत धाम में पहुँच गई और सद्गुणी तथा तपस्या करनेवाले प्रतिष्ठित
तपस्वियों के समूह में शामिल हो गई।
v
शबरी उर्फ भीलनी भील जनजाति की थी, जिसे भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति के
रूप में अधिसूचित किया गया है। आनुवंशिक अध्ययनों से पता चला है कि भील जनजाति के लोग
210 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

पिछले दस हजार वर्षों से भारत में, विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों में, रह रहे हैं। एस्टोनियन बायोसेंटर,
टारटू के डॉ. ज्ञानेश्वर चौबे द्वारा लिखित लेख 4 जून, 2015 के साइंस जर्नल ‘पीएलओएस वन’
(PLOS ONE) में प्रकाशित हुआ13, जिसके अनुसार इस जनजाति में हजारों एकल न्यूक्लियोटाइड
पोलीमॉरफेस स्कैन किए गए थे और परिणाम उनकी पड़ोसी आबादी और दुनिया की अन्य आबादी
के साथ मिलान भी किए गए थे।
विश्लेषण विभिन्न सांख्यिकीय तरीकों/उपकरणों का उपयोग कर किया गया था। निष्कर्ष यह निकाला
गया कि इस जनजाति की आनुवंशिक संरचना 10000 से भी अधिक वर्षों की आनुवंशिक निरंतरता स्थापित
करती है। इनके जीन काफी हद तक अन्य समकालीन आदिवासी और अन्य जातियों की आबादी के समान
हैं। विभिन्न आबादियों की आनुवंशिक संरचना की तुलना के आधार पर, अन्य भारतीय आबादियों की
आनुवंशिक संरचना से तुलना के आधार पर तथा हजारों वर्षों से आबादियों के अंतर्गमन तथा बहिर्गमन के
आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि भीलों के जीन मूल रूप से स्वदेशी दक्षिण भारतीय (ए.एस.
आई.) हैं और पिछले दस हजार वर्षों से इनकी निरंतरता है। उनके जीनों में अन्य भारतीय आबादी के जीनों के
साथ मजबूत समानता है। इस अध्ययन से न केवल रामायण में इस जनजाति के लोगों के संदर्भों की पुष्टि हुई
है, बल्कि रामायण की खगोलीय तिथियों को भी समर्थन मिला है, जिनके अनुसार लगभग 7100 वर्ष पहले
भील जनजाति के लोग भारत में रहते थे और उनके अन्य जातियों के लोगों के साथ बहुत अच्छे संबधं थे।
MAGAZINE KING v
तत्पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण पंपा झील की ओर बढ़े, जो कि ऋष्यमूक पर्वत के बहुत निकट थी।
ऋष्यमूक पर्वत पर पवित्र आत्मा वाले सुग्रीव निवास करते थे। तेजी से चलते हुए दोनों भाई पंपा के किनारे
पर पहुँच गए। वहाँ चारों ओर कमल तथा कुमुदनियों के फूलों से आच्छादित उस सुंदर झील को देखकर
सीताजी से बिछड़े हुए श्रीराम का कष्ट और अधिक बढ़ गया। श्रीराम ने बार-बार सीता के वियोग में
विलाप किया और निरंतर यह कहते रहे कि वह सीता के बिना जीवित नहीं रहना चाहते। श्रीराम को सीता
से बिछड़कर पक्षियों का चहचहाना, मधुमक्खियों का गुनगुनाना, पुष्पों की सुगंध और कोयल के गीत
अच्छे नहीं लग रहे थे, क्योंकि ये तो उनके विरह की पीड़ा को बढ़ा रहे थे। उस सुंदर मनोहर पंपा सरोवर
को देखकर भी श्रीराम के हृदय में सीता से वियोग की व्यथा उद्दीप्त हो उठी और वे फिर दुःखी मन से
विलाप करने लगे। लक्ष्मण ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि सुग्रीव कहीं निकट ही निवास करते होंगे। उस
समय श्रीराम ने कहा, “प्रिय लक्ष्मण, तुम शीघ्र ही वानरराज सुग्रीव के पास चलो, मैं सीता के बिना जीवित
नहीं रह सकता हूँ।” ऐसा कहकर विरही राम शोक में डूबे हुए पंपा सरोबर में स्नान के लिए उतरे। राम तथा
लक्ष्मण दोनों ने पंपा झील में स्नान किया और उसके चारों ओर स्थित सुंदर वनों तथा वाटिकाओं को देखा।
तीनों राजसी तपस्वियों का दंडकवन में जीवन; चित्रकूट से पंच • 211

संदर्भ सूची—
1. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक-सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली, चैप्टर 1- 8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyuJ6fFZo&t=429s—डॉ कलाम का भाषण,
भाग 1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU_m-X7Pc&t=10s-डॉ. कलाम का भाषण,
भाग 2
4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminar-on-scientific-dating-of-ancient.
html, http://bit.ly/2r8ke1A
5. डॉ. राम अवतार शर्मा, ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
न्यास, दिल्ली
6. डॉ. राम अवतार शर्मा, ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
न्यास, दिल्ली
7. एम.जी. यादव, के.एस. सारस्वत, आई.बी. सिंह 2007, एविडेंस अॉफ अर्ली ह्य‍ूमन ऑक्यूपेशन इन द
लाइमस्टोन केव्स अॉफ बस्तर, छत्तीसगढ़, करेंट साइंसेज 92 (6) : 820-823
MAGAZINE KING
8. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, ‘द क्लाइमेट चेंज ऐंड द इन्वायरमेंटल बेसिस ऑफ द ह्य‍ूमन माइग्रेशन ड्‍यूरिंग होलोसीन’;
कॉन्फ्रेंस ऑन क्रोनोलॉजी ऑफ इंडियन कल्चर सिंस द बिगनिंग ऑफ होलोसीन थ्रू साइंटिफिक एविडेंसेज
(आई-सर्व दिल्ली चैप्टर) में 16 जुलाई, 2016 की प्रस्तुति http://bit.ly/2DfYZ2k
9. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, ‘इन क्वेस्ट अॉफ द डेट्स अॉफ वेदाज’, प्रकाशक प्रैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस
की कंपनी
10. एडमंड डी लाँघे, ‘रेलीवेंस अॉफ बनाना सीड्स इन आर्कियोलॉजी’ एथनोबोटनी रिसर्च ऐंड एप्लिकेशन्स—ए
जर्नल ऑफ प्लांट्स, पीपल ऐंड एप्लाइड रिसर्च 2009; 271-282
11. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, ‘इन क्वेस्ट अॉफ द डेट्स अॉफ वेदाज, प्रकाशक प्रैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस की
कंपनी।
12. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत, अरण्य
कांड, सर्ग 68, श्लोक 23-25
13. जेनेटिक एफिनिटी ऑफ द भील, कोल ऐंड गोन्द ट्राइब्ज़ मेंशन्ड इन द एपिक रामायण : एस्टोनियन
बायोसेंटर के डॉ. ज्ञानेश्वर चौबे की अनुसंधान रिपोर्ट (PLOS ONE, 4 जून, 2015)
o
MAGAZINE KING
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 213

अध्याय-4

श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट,


वाली का वध और सीता की खोज
MAGAZINE KING
पुरा-मानवशास् त्र के द्वारा प्राचीन मानव इतिहास का
खुलासा बेहद खुबसूरती के साथ हुआ है। आधुनिक मनुष् य
2 लाख वर्ष पूर्व ही विकसित हुआ। इसके बाद उसने
अपनी उत् पत्ति के स् थान से बाहर निकलना आरंभ किया
एवं पिछले 50,000 वर्षों में समस् त विश् व में जाकर बस
गया। बोलचाल की भाषा 10,000 वर्ष पूर्व विकसित हुई,
परंतु लिखित भाषा का जन् म कुछ हजार वर्ष पूर्व ही हुआ। यह अभूतपूर्व प्रगति मानव
की 200 से 400 पीढि़यों के द्वारा अर्थात् 5,000 से 10,000 वर्षों के दौरान हुई।
प्रो. तोबायस के अनुसार बोलचाल की भाषा की उत् पत्ति का समय 10000 वर्ष
पुराना है। चैत्रमास की शुक् ल नवमी को श्रीराम का जन् म 5114 वर्ष ई.पू. अर्थात्् 7125
MAGAZINE KING
वर्ष पहले हुआ। हमें भाषा की उत् पत्ति एवं वाल् मीकि रामायण के उद्विकास के बीच क् या
संबंध रहा, इसका अध् ययन करना होगा।
नई डी.एन.ए. तकनीक के प्रयोग से हमें मनुष् य के इतिहास के बारे में बेहतर
जानकारी प्राप् त हुई है। शोधकर्ताओं ने भारतीय उपमहाद्वीप में सभ् यता के स् वदेशी
मूल एवं विकास को साबित किया है। यह एक महत्त्वपूर्ण निष् कर्ष है, जो पूरे देश के
एकीकरण में सहायक है, क् योंकि इसके अनुसार सभी भारतीयों के पूर्वज एक ही मूल
के थे।
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-4

श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट,


वाली का वध और सीता की खोज
1. श्रीराम और लक्ष्मण की ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान और सुग्रीव से भेंट
श्रीराम ने खिले हुए कमल और कुमुदिनियों से भरे हुए पंपा सरोवर की ओर देखा, जो चारों ओर से
MAGAZINE KING
सभी प्रकार के मनोहारी वृक्षों से घिरा हुआ था। सरोवर के किनारे नयनाभिराम वनभूमि थी, जिसमें लगभग
हर स्थान पर विभिन्न प्रकार से सुगंधित पुष्प खिले हुए थे। वह क्षेत्र फूलों तथा फलों से लदे अशोक,
तिलक, बकुल, बरगद और उड्डाल आदि वृक्षों सहित अत्यंत सुंदर दिखाई दे रहा था, परंतु ऐसी प्राकृतिक
सुंदरता श्रीराम की सीताजी से वियोग की पीड़ा को बढ़ा रही थी। वे बारंबार उनको याद कर गहरे दुःख
में डूब जाते थे तथा कहते थे कि वे सीताजी के बिना जीवित नहीं रहना चाहते। ये पक्षियों का मधुर गान,
भौंरों का गुंजन, कोयलों का कूजन व पुष्‍पों की अद्भुत महक सीता के बिना श्रीराम की अनंग वेदना को
उद्दीप्‍त कर रहे थे। इसके पश्चात् श्रीराम यह चिंता करने लगे कि चैत्र के महीने के साथ वसंत ऋतु प्रारंभ
हो चुकी है, लेकिन राक्षसों द्वारा प्रताड़ित की जाती हुई, उनकी प्राणप्रिया सीता उनके बिना नहीं जी पा रही
होगी। उन्होंने विलाप करते हुए लक्ष्मण से कहा, “विदेहनंदिनी सीता का हार्दिक अनुराग मुझमें है और मेरा
संपूर्ण प्रेम सर्वथा कमलनयनी सीता में ही प्रति‍ष्ठित है। पुष्‍पों की सुगंध वाली यह पवन मुझे दुःख दे रही है
तथा उस भद्र तथा धर्मनिष्ठ सीता को भी यह यातना ही दे रही होगी।”
इस प्रकार विलाप करते हुए श्रीराम लक्ष्मण सहित सुग्रीव की खोज करने के लिए पंपा सरोवर के
दूसरे किनारे गए। वह शोकातुर थे और पुनः विलाप करने लगे। “सुमित्रानंदन! नाना प्रकार के नर तथा
मादा पक्षियों का संयुक्‍त कलरव मेरे विरह के शोक को बढ़ा रहा है। मयूरियों से घिरे मस्‍त नाचते हुए मोर
मानो मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। भाँति-भाँति के खिले हुए फूल इस चैत्र के महीने में अपनी सुंदरता तथा
सुगंध चारों ओर फैला रहे हैं, परंतु मेरा मन उदास है। पराधीन हुई सीता भी शोक में डूब रही होगी। पंपा
216 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

में खिले हुए नील कमल मुझे सीता की आकर्षक आँखों का स्‍मरण करवा रहे हैं। सीता के साथ रहते
हुए मुझे जो-जो वस्‍तुएँ रमणीय प्र‍तीत होती थीं—वे अब दुःखदायी जान पड़ती हैं। पंपा का सुंदर सरोवर
कमलों, हंसों तथा चक्रवाक पक्षियों से भरा है। काश! सीता मेरे साथ होती तो हम इसी रमणीय स्‍थान में
लंबे समय तक रहते।”
इसी तरह विरह पीड़ा को व्‍यक्‍त करते करते श्रीराम फिर अपने दुर्भाग्‍य पर विलाप करने लगे, “हे
लक्ष्‍मण! पहले तो मुझे मेरे राज्याभिषेक से वंचित कर दिया गया और फिर वनवास दे दिया गया। महल के
ऐश्वर्य को ठुकरा कर मेरी अनुरागी व वफादार पत्नी सीता मेरे साथ वन में आ गई, किंतु मैं उसकी रक्षा
करने में असमर्थ रहा। मैं मिथिला की राजकुमारी, अपनी प्राणप्रिया सीता के बिना जीवित नहीं रह पाऊँगा। हे
लक्ष्मण! तुम वापस अयोध्या जाओ और माता कौशल्या तथा भरत को इस आपदा के विषय में बताओ।”
श्रीराम को किसी अनाथ की भाँति विलाप करते हुए देख लक्ष्‍मण ने उन्‍हें सांत्वना दी तथा उनका
हौसला भी बढ़ाया, “हे राम! धैर्य रखें, समृद्धि और सौभाग्य आपका होगा। यदि रावण पाताल लोक में
भी चला जाए तो भी वह बचने वाला नहीं है। पहले इस पापी राक्षस का पता चल जाने दीजिए और उसके
पश्चात् मैं निश्चित तौर पर उसका वध कर डालूँगा। यदि वह राक्षस रावण सीता को लेकर अदिति के
गर्भ में जाकर भी छुप जाए तो भी मैं उसका वध कर मिथिलेशकुमारी को ले आऊँगा। आप धैर्य रखें,
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दीनतापूर्वक विचार त्‍याग दें। हम लोग उत्‍साह का आश्रय लेकर ही जनकनंदिनी को प्राप्‍त कर सकते हैं।
इसलिए आप अपनी असाधारण शक्ति तथा पराक्रम का स्‍मरण कर, सीता की खोज में जुट जाइए, ताकि
उस अधम अपहर्णकर्ता रावण को शीघ्रातिशीघ्र मौत के घाट उतारा जा सके।” लक्ष्‍मण के इस प्रकार
समझाने पर श्रीराम ने धैर्य धारण किया। इसके पश्चात् दोनों राजसी संन्यासियों ने सीता को प्रत्येक गुफा,
झरने और वन में ढूँढ़ा। साथ ही लक्ष्मण सभी ओर से श्रीराम की रक्षा भी कर रहे थे।
ऋष्यमूक पर्वत के शिखर पर अपने मंत्रियों के साथ रह रहे सुग्रीव ने एक दिन इन दोनों शस्‍त्रधारी
राजकुमारों को देखा। वह यह सोचकर डर गया कि उसके बड़े भाई वाली ने उन्हें उसका वध करने के
लिए भेजा है। भयभीत होकर उसने इस स्थिति से निपटने के लिए मंत्रणा करने हेतु वानर सैनिकों को
बुलाया, परंतु हनुमान ने कहा कि वह मलय पर्वत पर है, जहाँ वाली से कोई भी खतरा नहीं है, क्‍योंकि
अभिशाप के कारण वाली यहाँ आ ही नहीं सकता। फिर भी सुग्रीव जानना चाहते थे कि योद्धाओं जैसे
दिखनेवाले ये अपरिचित राजसी तपस्‍वी कौन हैं? तब उसने अपने मंत्री हनुमान को यह पता लगाने के लिए
भेजा कि उन दोनों तपस्‍वी राजकुमारों के मन में क्या चल रहा है? हनुमान संन्यासी के वेश में रघुकुल के
उन दोनों वंशजों के पास पहुँचे। उनके सामने शीश नवाकर उन्होंने पूछा, “आप कौन हैं? सुंदर बदन वाले,
सत्‍यपराक्रमी तथा देवताओं के समान कांतिवाले आप दोनों संन्यासी इस क्षेत्र में क्यों आए हैं? इंद्रधनुष की
भाँति चमकते हुए धनुषों के साथ नयनाभिराम छविवाले तथा राजसी व्यक्तित्व वाले आप दोनों इस एकांत
मनोहारी क्षेत्र में कैसे और क्‍यों प्रविष्ट हुए हैं?
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 217

उन राजसी तपस्‍वियों से कोई उत्तर न मिलने पर, उनके भक्‍त बने हनुमान ने स्‍वयं ही अपना परिचय
भी दे डाला और कहा कि मैं वानरराज सुग्रीव का मंत्री हूँ और धर्मात्‍मा सुग्रीव से मित्रता का प्रस्‍ताव लेकर
आप दोनों के पास पधारा हूँ। हनुमानजी की ये बातें सुनकर श्रीरामचंद्र का मुख प्रसन्‍नता से खिल उठा
और उन्‍होंने लक्ष्‍मण से हनुमान के गुणों की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक अद्वितीय दूत कहा और लक्ष्‍मण से
अत्यंत मधुर वाणी में बात करने के लिए कहा। तब लक्ष्‍मण ने हनुमान से कहा कि वह दोनों भाई सुग्रीव से
मैत्री की इच्‍छा लेकर यहाँ आए हैं। उन्होंने अपना संपूर्ण परिचय भी दिया।
इसके पश्चात् हनुमान ने, सभी सावधानियों का त्याग करते हुए उन दोनों राजसी संन्यासियों को सुग्रीव
की संपर्ण
ू जीवन-कथा सुनाई। उन्होंने उन दोनों राजकुमारों को बताया कि वानरराज सुग्रीव को उसके भाई
वाली ने उसके राज्य से निष्कासित कर दिया है तथा उसकी पत्‍नी को छीन लिया है। तत्‍पश्‍चात् सुग्रीव
ऋष्यमूक पर्वत पर निवास कर रहा है। हनुमान के शिष्टतापूर्ण वचनों को सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण
आश्वस्त हो गए और एक-दूसरे से निःसंकोच रूप से बातें करने लगे। एक ओर श्रीराम और लक्ष्मण ने अपने
ऊपर आई विपत्ति से हनुमान को अवगत कराया तथा दूसरी आेर हनुमान ने सुग्रीव की दर्दभरी जीवनगाथा
सुनाई। उन्होंने अपने हर्ष और विषादों, आशा और भय के विषय में भी बातचीत की। श्रीराम ने हनुमान के
बोलने की शैली की प्रशंसा करते हुए कहा कि वह किसी ऐसे वैदिक विद्वान् की भाँति बोलते हैं, जिसका
भाषा पर पूर्ण नियंत्रण हो। इस बातचीत के पश्चात् लक्ष्मण को हनुमान से बहुत लगाव हो गया और उन्होंने
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कहा कि उनके भाई श्रीराम जो कि सुख-समृद्धि में पैदा हुए हैं और एक सम्राट् के सबसे बड़े पुत्र हैं, वे राज्य
को छोड़कर वन में आ गए हैं। यहाँ पर प्राणों से भी प्रिय उनकी पत्नी सीता को रावण धोखे से बल प्रयोग
कर उठा ले गया है। हम उसे रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए यहाँ पर सुग्रीव की सहायता माँगने आए हैं।
हनुमान ने उत्तर दिया कि सुग्रीव को भी वाली के द्वारा सताया जा रहा है और उन्हें उनके राज्य तथा
पत्नी से वंचित भी कर दिया है। अब यह तो निश्चित हो गया है कि उसे दोनों ही वापस मिल जाएँगे।
आपकी मित्रता से हमारे राजा सुग्रीव को अत्यधिक लाभ होगा और उनकी सहायता से आप भी अपने
प्रयासों में सफल होंगे। इसके पश्चात् वे तीनों सुग्रीव के पास गए। उससे मिलने के लिए वह मलय पर्वत
पर चढ़े। हनुमान सबसे पहले सुग्रीव के पास गए और कहा कि श्रीराम एक राजसी तपस्वी, बुद्धिमान तथा
गुणवान व्‍यक्ति हैं। वह कोशल राज्य के प्रसिद्ध सम्राट दशरथ के सबसे बड़े पुत्र हैं। अपने पिताजी के
वचन और सौतेली माता कैकेयी की इच्छा को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी
सीता के साथ अयोध्या छोड़ दी और चौदह वर्षों के लिए वन में रहने के लिए आ गए। वन में इन दोनों
राजकुमारों की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर एक दिन राक्षसराज रावण श्रीराम की पत्नी सीता का अपहरण
कर ले गया। श्रीराम उनकी खोज में आपसे सहायता माँगने यहाँ आए हैं। ये दोनों राजकुमार आप के साथ
मित्रता के योग्य हैं। आपको भी ऐसे वीरों की मित्रता करके बहुत लाभ होगा।
सुग्रीव ने दोनों शाही तपस्वियों का स्वागत किया और श्रीराम की ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए उनसे कहा,
218 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

“यदि आप वानर योद्धाओं से मित्रता करना चाहते हैं तो मित्रता के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा रहा हूँ, आप
इसे स्वीकार कर सकते हैं। हनुमान ने मुझे आपके गुणों और महानता के विषय में सब कुछ बता दिया है।”
श्रीराम ने सुग्रीव के हाथ को पकड़ लिया और उन्हें हृदय से लगा लिया। उन्होंने शपथ ली कि हमारी मित्रता
अनंत काल तक चलेगी। अपने वास्तविक रूप में आकर हनुमान ने अग्नि प्रज्वलित की। श्रीराम और सुग्रीव
दोनों ने अपनी मित्रता को प्रगाढ़ करने के लिए अग्नि के चारों ओर परिक्रमा की। श्रीराम और सुग्रीव साल वृक्ष
की सूखी शाखा पर तथा हनुमान और लक्ष्मण चंदन वृक्ष की सूखी डाल पर बैठ गए। (देखें लघुचित्र-6)

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लघुचित्र-6 ः श्रीराम और लक्ष्मण की सुग्रीव तथा हनुमान से भेंट, गूलर शैली, पहाड़ी,
18वीं शताब्दी, अधिप्राप्ति संख् या 61.1000, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 219

इसके पश्चात् सुग्रीव ने रघुवंशी राजकुमारों पर पंचवटी में आई विपत्ति की कहानी सुनी तथा सीता
के वियोग से व्‍यथित तथा पीड़ि‍त श्रीराम से संपूर्ण घटनाक्रम को पूर्ण सहानुभूति से सुना। तत्‍पश्‍चात्
अत्यंत भावुक होकर सुग्रीव ने श्रीराम को सांत्वना देने का प्रयास किया और आश्वस्त किया कि
मिथिला की राजकुमारी को खोज निकाला जाएगा, चाहे उसे कहीं भी छुपाकर रखा गया हो और
निश्चित रूप से श्रीराम व सीता का पुनर्मिलन होगा। इसके पश्चात् वह गुफा के अंदर गए और कुछ
आभूषण लेकर आए, जो एक रेशमी वस्त्र के टुकड़े में बँधे हुए थे। सुग्रीव ने वह आभूषण उन दोनों
राजसी तपस्वियों को दिखाकर कहा कि ये आभूषण ‘हे राम! हे लक्ष्मण!’ पुकारते हुए एक स्त्री द्वारा
गिराए गए थे, जब उसे रावण बलपूर्वक वायुमार्ग से ले जा रहा था।
लक्ष्मण ने दो आभूषणों अर्थात् पायलों को पहचान लिया, क्योंकि वह नियमित रूप से सीताजी
के चरणों में अपना शीश झुकाते थे, लेकिन वे बाजूबंद और कर्णफूल को न पहचान सके। ये जान
लेने के बाद कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, जिसका ध्यान एक विरोधाभास की ओर न गया होगा।
एक ओर लक्ष्मण की सीताजी के प्रति अगाध श्रद्धा है और दूसरी ओर सीताजी के क्रूर शब्द, जोकि
उन्होंने उस दुर्भाग्यपूर्ण समय में लक्ष्मण को बोले थे, जिसके पश्‍चात् उनका हरण हुआ था। श्रीराम
ने उन सभी आभूषणों को अपने हाथों में लिया और एक-एक करके अपनी आँखों से लगाया। वह
अपनी प्रिय पत्नी सीता से अपने वियोग से उत्पन्न दुःख में पुनः डूब गए। उनकी आँखों से आँसू बहने
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लगे। दुःख से भरे हृदय और क्रोध से भरे मस्तिष्क से उन्होंने सीताजी को दुःख देनेवाले लंकापति
रावण से प्रतिशोध लेने के लिए उसका तथा उसके कुल का संहार करने की शपथ ली।
व्यथित श्रीराम के शब्दों को सुनकर सुग्रीव ने उन्हें सांत्वना देने का प्रयास करते हुए कहा कि वह
नहीं जानता कि क्रूर रावण सीताजी को कहाँ ले गया है, लेकिन वह यह अवश्‍य सुनिश्चित करेगा कि
उनको ढूँढ़ निकाला जाए, रावण का वध हो और श्रीराम अपनी प्रिय पत्नी से पुन: मिल सकें। सुग्रीव
ने आगे यह भी कहा कि ‘‘मैं भी इसी प्रकार के दुःख का सामना कर रहा हूँ। मुझे भी मेरे राज्य से
निकाल दिया गया है और मेरी पत्नी से अलग कर दिया गया है, लेकिन मैं अपना साहस और दृढ़ता
बनाए हुए हूँ।’’ इसलिए उसने श्रीराम को उचित सलाह दी कि वीर पुरुष दुःख से विचलित नहीं
होते और दृढ़ता का सहारा लेते हैं। इस प्रकार आश्वासन तथा सांत्वना दिए जाने के पश्चात् श्रीराम
अपनी सामान्य अवस्था में लौट आए। उन्होंने सुग्रीव को सच्‍चे मित्र के रूप में स्वीकार करते हुए
उसको हृदय से लगा लिया और उसे आश्‍वासन दिया कि वे निश्चित रूप से वाली का वध करके
प्रिय मित्र सुग्रीव को उसका राजपाट और उसकी पत्नी वापस दिलाएँगे। इसके पश्चात् श्रीराम ने वह
कारण जानना चाहा, जिसके चलते दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव हुआ तथा जिसके परिणामस्वरूप
वाली तथा सुग्रीव के बीच शत्रुता हुई।
श्रीराम द्वारा आश्वासन दिए जाने पर सुग्रीव ने उस सारे घटनाक्रम को बताया, जिसके कारण
220 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

दोनों भाइयों में हुई शत्रुता सभी सीमाओं को लाँघ गई। सुग्रीव ने कहा, “प्रारंभ में मैं और मेरा बड़ा
भाई एक-दूसरे से बहुत प्‍यार करते थे, लेकिन एक दिन मेरे दुर्भाग्य के रूप में मायावी नामक राक्षस
हमारी राजधानी किष्किंधा के द्वार पर आया, उसने वाली को तत्काल द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा।
वाली गुस्‍से में अधीर होकर उसकी ओर दौड़ा तथा पीछे-पीछे मैं (सुग्रीव) भी दौड़ा। वह राक्षस हमें
देखकर एक बड़ी गुफा में छिप गया, जिसके द्वार पर झाड़-झँखाड़ खड़े हुए थे। वाली ने मुझे गुफा
के द्वार पर प्रतीक्षा करने का आदेश दिया और स्वयं मायावी के पीछे अँधेरी गुफा में कूद पड़ा। मैंने
उससे मुझे अपने साथ गुफा में ले जाने की प्रार्थना की लेकिन मुझे बाहर प्रतीक्षा करने का आदेश देते
हुए वह गुफा की गहराई में चला गया। वाली की प्रतीक्षा करते-करते एक वर्ष से भी अधिक समय
बीत गया, लेकिन मेरा भाई वाली बाहर नहीं आया। फिर एक दिन मैंने वहाँ पर गुफा से झागनुमा रक्त
निकलते हुए देखा, जिससे मुझे यह विश्वास हो गया कि मायावी राक्षस ने युद्ध में मेरे बड़े भाई वाली
का वध कर दिया है। इसके अतिरिक्त मैंने चिल्लाते हुए राक्षसों की आवाज भी सुनी, लेकिन मैं वाली
की गर्जना को नहीं सुन पाया। मुझे यह पूर्ण विश्वास हो गया कि मेरे भाई का वध हो गया था। तब
मैंने यह सुनिश्चित करने के लिए एक बहुत विशाल पत्थर से गुफा का प्रवेश द्वार रोक दिया, जिससे
कि जीत के उत्साह में विजयी राक्षस किष्किंधा नगरी में न आ सके और वहाँ विध्वंस न कर पाए।
मैंने अपने भाई की दिवंगत आत्मा का तर्पण किया और वाली के वध की कहानी के साथ किष्किंधा
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लौट गया। मंत्रियों और बड़े लोगों ने मुझसे रिक्त साम्राज्य को ग्रहण करने का आग्रह किया। उन्होंने
मुझे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और मैं न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा।’’
सुग्रीव ने कहानी को आगे बढ़ाया और बताया, फिर एक दिन अचानक वाली किष्किंधा लौट
आया। उसने मुझे राजा के वस्त्र पहने हुए देखा तो उसे मेरे ऊपर विश्वासघात का संदेह हुआ। मैंने
अपना मस्तक झुकाकर अपने शीश से उनके चरण स्पर्श किए और उसे सच्‍ची कहानी सुनाई तथा
दया की याचना की, लेकिन वाली ने मेरी एक नहीं सुनी। क्रोध और अपने घावों से परेशान तथा
मुझ पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए वाली ने तिरस्कारपूर्वक मुझे राज्य से बाहर निकाल दिया और
प्राणों से भी अधिक प्रिय मेरी पत्‍नी रूमा को भी छीन लिया। जो मेरे सुहृद थे, उनका या तो वध कर
दिया या फिर उन्‍हें कैद में डाल दिया। वाली द्वारा राज्य से निकाल दिए जाने पर तथा अपनी पत्नी से
वंचित हो जाने के पश्चात् मैं व्यथित और असुरक्षित होकर वाली के निरंतर भय में इधर-उधर भटक
रहा हूँ। अंत में मैंने ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करने का निश्चय किया, जो कि मतंग मुनि द्वारा दिए
गए श्राप के कारण वाली की पहुँच से बाहर है। इसलिए मुझे आपके द्वारा संरक्षण की जरूरत है।”
फिर एक सच्‍चे मित्र की भाँति श्रीराम ने उत्तर दिया, “क्रोध से भरे मेरे सभी अचूक बाण वाली
के अनैतिक आचरण का अंत कर देंगे, क्‍योंकि स्वयं उसने अपने छोटे भाई की पत्नी का अपहरण
करके अनैतिकता का आश्रय लिया है। आपको जल्द ही आपकी पत्नी एवं साम्राज्य पुनः प्राप्त
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 221

होगा।” सुग्रीव को थोड़ा साहस मिला, लेकिन सुग्रीव के मन में वाली का वध करने में श्रीराम की
क्षमता के बारे में गंभीर संदेह भी उत्पन्न हुआ था। उसने विस्तार से वर्णन किया कि वाली अत्यंत
शक्तिशाली है। वह पर्वतों की चोटियों पर चढ़कर बडे़-बडे़ शिखरों को बलपूर्वक उठा लेता है तथा
पश्चिमी समुद्र से पूर्वी सागर तक तथा दक्षिण सागर से उत्तरी समुद्र तक घूम आता है। वाली में 100
हाथियों का बल है और उसने सर्वशक्तिमान राक्षस दुंदुभी का भी वध कर दिया था। वाली के बल
एवं पराक्रम से अभिभूत सुग्रीव ने यह भी कहा कि वाली साल के उन सात वृक्षों को भी छेद सकता
है। यदि श्रीराम एक बाण से इनमें से एक वृक्ष को भी चीर देंगे तो मुझे यह विश्वास हो जाएगा कि
श्रीराम के पास वाली का वध करने की शक्ति है।
सुग्रीव को पूर्णतः आश्वस्त करने के लिए श्रीराम ने अपने प्रबल धनुष पर बाण चढ़ाकर उसको
खींचा। इस प्रकार छोड़ा हुआ बाण साल के सातों वृक्षों को विदीर्ण करने के पश्चात् उनके तरकस में
पुनः वापस आ गया। इस असंभव करतब को देखकर सुग्रीव को परम आनंद की अनुभूति हुई और
वह बोले, “हे श्रीराम! मुझे आपके रूप में सर्वशक्तिमान मित्र मिल गया है, अब बिना विलंब किए
वाली का वध कर दीजिए।” श्रीराम ने उत्तर दिया कि हम इस पर्वत से किष्किंधा की ओर प्रस्थान
करते हैं। तुम वाली को चुनौती देने के लिए आगे चलो और मैं जंगल के वृक्षों के पीछे छिपता हुआ
तुम्हारे पीछे-पीछे चलूँगा। तब उन्होंने शीघ्रता से प्रस्थान किया। सुग्रीव ने गर्जना की और वाली को
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चुनौती दे डाली। वाली सुग्रीव पर पहले ही क्रोधित तथा कुपित था। फिर वाली और सुग्रीव के बीच
भयंकर युद्ध शुरू हुआ। दोनों भाइयों ने एक-दूसरे पर लात और मुक्कों से प्रहार किए। हाथ में धनुष
और बाण लिए श्रीराम सुग्रीव और वाली में अंतर नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि दोनों भाई दो अश्विनी
नक्षत्रों की भाँति एक समान प्रतीत हो रहे थे। वाली से पछाड़ खाकर तथा यह सोचकर कि श्रीराम
उसकी रक्षा नहीं करेंगे, सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत की ओर भाग खड़ा हुआ। वाली भी सुग्रीव के पीछे-
पीछे दौड़ा, परंतु थके हुए तथा घायल सुग्रीव ने मतंग मुनि के वन में प्रवेश कर लिया। तब वाली
यह कहते हुए वापस लौट गया कि श्राप के कारण वह इस वन में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए
सुग्रीव के प्राण बच गए।

2. श्रीराम के बाण से वाली का वध, उससे पहले देखा गया किष्किंधा में सूर्य ग्रहण
लक्ष्मण और हनुमान सहित श्रीराम भी मतंग वन में लौट गए और सुग्रीव ने यह कहते हुए
अपना क्रोध प्रकट किया कि राघव ने अपने वचन को पूरा नहीं किया और यदि वह यह जानता कि
श्रीराम अपने तीखे बाण वाली पर नहीं छोड़ेंगे, तो वह वाली को कभी चुनौती नहीं देता। परंतु श्रीराम
ने अत्यंत मीठे तथा मधुर शब्दों में समझाया, “प्रिय मित्र सुग्रीव! क्रोध का त्याग करो। मैं अपना
प्राणघातक बाण इसलिए नहीं छोड़ पाया, क्योंकि मैं तुम दोनों भाइयों में अंतर नहीं कर पा रहा था।
222 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

इसलिए मैं अज्ञानता तथा मूर्खता से बाण छोड़कर आप जैसे प्रिय मित्र को खोना नहीं चाहता था।
इसके अतिरिक्त हमारे लिए तुम्हारा जीवन बहुमूल्य है, क्योंकि राक्षसराज रावण के बंधन से सीता को
मुक्त कराने के कार्य को पूरा करने के लिए हम सभी आप पर निर्भर हैं।’’ श्रीराम ने सुग्रीव से कहा
कि वाली से अलग दिखाई देने के लिए कुछ पहचान चिह्न‍‍ धारण करो और वाली को पुनः चुनौती दो,
तब मेरे बाणों द्वारा उसका वध निश्चित समझो। लक्ष्मण ने गजपुष्पी लता तोड़ी और उसे पहचान के
लिए सुग्रीव की गर्दन पर बाँध दिया। तत्‍पश्‍चात् पुनः आश्वस्त हुए सुग्रीव ने श्रीराम के साथ ऋष्‍यमूक
से किष्किंधा की ओर प्रस्थान किया।
पराक्रमी एवं धनुर्धारी श्रीराम के आगे-आगे सुग्रीव तथा लक्ष्मण उनके पीछे-पीछे हनुमान नल,
नील और वानर यूथपति तार चल रहे थे। सभी अभूतपूर्व ऊर्जा तथा पराक्रम के धनी थे। मार्ग में
उन्होंने जल से भरे हुए सरोवर को पार किया। बतखों, हंसों, सारसों तथा चक्रवाकों को भी देखा।
उन्होंने हरे-हरे पेड़ों के उपवनों के मध्य में स्थित सप्तजनों के आश्रम को भी पार किया। वाली की
राजधानी किष्किंधा में तेजी से पहुँचते हुए तथा स्वयं को पेड़ों के पीछे छुपाते हुए वे एक घने जंगल
में रुक गए। श्रीराम ने सुग्रीव को भयंकर गर्जना करते हुए तथा समर्थकों से घिरकर युद्ध के लिए फिर
से वाली को ललकारने को कहा। सुग्रीव की ललकार सुनकर वाली निश्चित रूप से बाहर आएगा।
तब बादलों की गर्जना के समान सुग्रीव ने भयंकर गर्जना करते हुए वाली को ललकारा। उस समय
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वाली अंत:पुर में ही था। तब सुग्रीव की एक दहाड़ सुनकर वाली का घमंड तो चूर-चूर हो गया,
परंतु उसका क्रोध बहुत अधिक उग्र हो गया। उस समय आकाश में उदय होते हुए राहुग्रस्‍त सूर्य के
समान वाली का मुख भी श्रीहीन दिखाई देने लगा। (वा.रा. 4/15/3)5।
ततो रोषपरीताङ्गो वाली स कनकप्रभः।
उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः॥ 4/15/3॥
अर्थात् सुनहरी शरीरवाले वाली का प्रत्येक अंग क्रोध से तमतमा उठा। वह उदय होते हुए राहुग्रस्त
सूर्य के समान श्रीहीन दिखाई देने लगा।
वाल्मीकि रामायण के सर्ग 4/15/3 में वर्णित इस सूर्य ग्रहण को दिनांक 3 अप्रैल, 5076 वर्ष
ई.पू. को आषाढ़ महीने में अमावस्या के दिन किष्किंधा से सुबह आठ बजे के आसपास देखा जा
सकता था। प्लैनेटेरियम गोल्ड सॉफ्टवेयर का उपयोग करके प्राप्त किए गए आकाशीय दृश्य को देखें।
(देखें व्योमचित्र-19)
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 223

वाली के वध से पहले किष्किंधा से देखा गया सूर्य ग्रहण

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व्योमचित्र-19 ः कर्नाटक, 15°उत्तर 76°पूर्व, 3 अप्रैल, 5076 ईस्वी पूर्व 8:00 बजे,
किष्किंधा से सूर्यग्रहण; प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित

इस सॉफ्टवेयर को थोड़ा पीछे के समय पर चलाकर हमने यह भी जाँच की कि यह आषाढ़ की


अमावस्या का ही दिन था, क्योंकि 15 दिन पहले अर्थात्् 19 मार्च, 5076 वर्ष ई.पू. को पूर्ण चंद्रमा ने
पूर्वाषाढ़ नक्षत्र (34σ) के निकट धनु राशि (Sagittarius) में प्रवेश किया था तथा इस प्रकार आषाढ़
महीने का प्रारंभ हो गया था। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण-0.15.2 / 2017) इसी सूर्य ग्रहण को 11
मई, 5076 वर्ष ई.पू. वाले दिन 20:18 बजे दिखाता है। यह आकाशीय दृश्य भारत के कर्नाटक राज्य के
कोप्पल जिले के अक्षांश एवं रेखांश से प्राप्त किया गया है, क् योंकि इसी जिले में किष्किंधा स्थित है। दोनों
सॉफ्टवेयरों द्वारा दर्शाए गए एक ही आकाशीय दृश्य में लगभग 38-39 दिनों के अंतर के कारण को इस
पुस्तक के अध्याय एक में तथा परिशिष्ट एक में स्पष्ट कर दिया गया है। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर में सूर्यग्रहण
रात के समय दिखाई देने के कारण भी परिशिष्ट-1 में स्पष्ट कर दिए गए हैं। (देखें व्योमचित्र-20)
224 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वाली के वध से पहले किष्किंधा से देखा गया सूर्य ग्रहण

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व्योमचित्र-20—कोप्पल, कर्नाटक, 15°उत्तर 77°पूर्व,


11 मई, 5076 ई. पू., 20:18 बजे सूर्यग्रहण; स् टेलेरियम का आकाशीय दृश् य

उस समय वाली का मुख आकाश में दिखाई दे रहे सूर्य ग्रहण की भाँति तेजहीन प्रतीत हो रहा
था। सुग्रीव की गर्जना सुनने पर वाली उससे लड़ने के लिए अपने महल से बाहर बड़ी तेजी से जाने
लगा, लेकिन उसकी बुद्धिमती पत्नी तारा ने उसे जाने से रोकने का प्रयास किया। प्रेम से वाली का
आलिंगन करते हुए तारा ने कहा, “प्रिय वाली! अपना क्रोध पूर्णत: त्याग दो। तुम्हें आज की सुबह
सुग्रीव से युद्ध नहीं करना चाहिए। सुग्रीव बहुत कम समय के अंतराल में ही दूसरी बार आपको चुनौती
देने आया है। वह किसी शक्तिशाली मित्र की सहायता के बिना ऐसा करने की हिम्मत नहीं रखता है।
मुझे राजकुमार अंगद ने बताया था कि इक्ष्वाकु कुल तथा अयोध्या के राजा दशरथ के दोनों पराक्रमी
पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण वन में आए हैं तथा उन् होंने अपनी किसी इच्छा की पूर्ति के उद्देश्य से सुग्रीव
के साथ मित्रता कर ली है। मैंने यह भी सुना है कि श्रीराम अग्नि के समान तेजस् वी हैं, शत्रु सेना का
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 225

संहार करने में सर्वथा समर्थ हैं तथा उत्तम गुणों के भंडार हैं। इसलिए श्रीराम के साथ आपकी शत्रुता
वांछनीय नहीं है। चाहे कुछ भी हो सुग्रीव आपका छोटा भाई है, उससे मित्रता कीजिए और उसे युवराज
के पद पर नियुक्त कीजिए। मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि सुग्रीव आपका सच्‍चा मित्र है और वह आपके
लिए बहुत अधिक सद्भावना रखता है।” परंतु तारा के इस मूल्यवान और उत्तम सुझाव का वाली पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
वाली ने यह कहते हुए तारा को फटकार लगाई—“मेरा छोटा भाई मेरा शत्रु है और मैं उसके
घमंड को कभी भी सहन नहीं करूँगा। सच्‍चे वीर चुनौती मिलने के पश्चात् कभी युद्ध से नहीं भागते।
तुम किसी बात की चिंता मत करो। श्रीराम धर्म के ज्ञाता हैं तथा धर्म को समझनेवाले हैं, वे मेरा वध
नहीं करेंगे, क्योंकि मैंने उनका कुछ भी बुरा नहीं किया है। अतः अब इन स्त्रियों के साथ तुम अंत:पुर
में जाओ। मैं युद्ध में सुग्रीव पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् शीघ्र ही लौटता हूँ।” धार्मिक ग्रंथों की
विदुषी तथा उदार स्‍वभाव वाली तारा ने मं‍द स्‍वर में रोते-रोते वाली की परिक्रमा की, मंगलकामना
से स्‍वस्तिवचन किया और अन्य स्त्रियों के साथ अंत:पुर में चली गई। सुग्रीव की दुस्साहसी ललकार
को सुनकर वाली क्रोधित सर्प की भाँति फुफकारते हुए अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को विदीर्ण सा
करता हुआ बड़े वेग से अपने महल से युद्ध करने के लिए निकल गया।

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अपनी दृष्टि चारों ओर डालते हुए पराक्रमी वाली ने देखा कि सुग्रीव दृढ़ता के साथ डटा हुआ
है और उसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा है। अपना मुक्का तानकर तथा क्रोध से लाल होकर
वाली सुग्रीव की ओर दौड़ा तथा सुग्रीव भी वाली की तरफ दौड़ा। वाली ने सुग्रीव के सिर पर प्रहार
किया तो उसके मुँह से रक्त निकलने लगा। सुग्रीव ने बलपूर्वक साल के वृक्ष को तोड़कर वाली के
शरीर पर प्रहार किया। तत्पश्चात् दोनों भाई वृक्षों, नखों, मुक्कों, घुटनों, लातों और हाथों की मार से
भयंकर संग्राम करने लगे। इस युद्ध का 300 वर्ष पुराना एक लघुचित्र देखें। (लघुचित्र-7)
वे दोनों वानर वीर लहूलुहान होकर लड़ रहे थे और दो बादलों की तरह अत्यंत भयंकर गर्जना
कर रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे सुग्रीव का पराक्रम मंद पड़ने लगा तथा वाली उस पर हावी होने लगा।
श्रीराम ने देखा कि वानरराज सुग्रीव कमजोर पड़ रहे हैं और बारंबार इधर-उधर देख रहे हैं। तब सु्ग्रीव
को पीड़ित देखकर महा तेजस्वी श्रीराम ने वाली के वध की इच्छा से अपने धनुष पर विषधर सर्प के
समान भयंकर बाण को रखा, जोर से खींचा और छोड़ दिया। फिर वह भयकंर एवं शक्तिशाली तीर
वाली की छाती में जा लगा। उस वेगपूर्वक बाण से आहत होकर महा तेजस्वी वानरराज वाली तत्काल
पृथ्वी पर गिर पड़ा और वह तेजहीन व अचेत हो गया। यद्यपि वाली धरती पर अचेत होकर गिर पड़ा
था, लेकिन न तो उसकी साँसें रुकी थीं और न ही उसके मर्मस्थलों की ऊर्जा शरीर से निकली थी।
शायद इंद्र द्वारा उपहार में दिए गए रत्नजड़ित एवं सोने के अलौकिक हार ने उसके प्राणों की रक्षा की।
226 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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लघुचित्र-7 ः ब्रूकलिन संग्रहालय-वाली और सुग्रीव के बीच में लड़ाई, शंगरी रामायण का चित्र, 1700-1710,
(courtesy : https://www.brooklynmuseum.org/opencollection/ objects/103729)

श्रीराम ने वाली को इस अवस्था में देखा और वे लक्ष्मण को साथ लेकर उनके समीप गए। ज्वाला
रहित आग की भाँति गिरा हुआ वाली धीरे-धीरे श्रीराम की तरफ देख रहा था। पराक्रमी वाली ने महापराक्रमी
श्रीराम से कहा, “आप राजा दशरथ के तेजस्वी पुत्र हैं। आप विश्वास के पात्र हैं। आपने युद्ध के लिए मुझे
चुनौती दिए बिना ही मेरा वध करने का प्रयास किया है और आपने मेरे ऊपर उस वक्त प्रहार किया, जब मैं
किसी अन्य व्यक्ति के साथ युद्ध कर रहा था। राजा इस प्रकार वार नहीं करते हैं। मुझे यह प्रतीत होता है कि
आपको सत्य का विवेक नहीं है और आप वास् तव में अधर्मी हैं। आपने मेरा वध कैसे कर दिया, जब मैंने
कोई भी पाप नहीं किया? मेरी पत्नी तारा ने मुझे सचेत किया था, लेकिन मैं आपके सभी सुने सुनाए सद्गुणों
पर विश्वास करके ही तारा के मना करने पर भी सुग्रीव के साथ लड़ने चला आया। लेकिन मैं गलत था; इस
तरीके से मेरे ऊपर बाण छोड़कर आपने नैतिकता का वध कर दिया है, अपनी धर्म परायणता का अपमान
किया है तथा सदाचार का हरण किया है। श्रीराम! जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आपने सुग्रीव से मित्रता
की है, उसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए यदि आपने पहले मुझसे कहा होता तो मैं मिथिलाकुमारी जानकी को
एक दिन में ढूढ़ँ कर आपके पास ला देता। आपकी पत्नी का अपहरण करनेवाले पापी राक्षस रावण को मैं
युद्ध में मारे बिना ही उसके गले में रस्सी बाँधकर पकड़ लाता और आपके हवाले कर देता। लेकिन आपका
ध्यान सुग्रीव को प्रसन्न करने में ही था। क्या आप मेरे इन प्रश्नों का उचित उत्तर दे सकते हैं?”
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 227

वाली द्वारा शिष्टता के साथ बोले गए इन कठोर शब्दों को सुनने के पश्चात् श्रीराम ने उत्तर दिया,
“अपने वध के पीछे संपर्ण ू कारणों और औचित्य को जाने बिना ही तुम बालकों की तरह मेरी निंदा क्यों
कर रहे हो? पर्वतों, वनों, काननों, शहरों सहित यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकु वंशी राजाओं की है। इसीलिए वह
यहाँ के पशु, पक्षी और मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दंड देने के अधिकारी हैं। धर्मात्मा राजा भरत इस
पृथ्वी का पालन करते हैं। भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत् में धर्म
के पालन और प्रसार के लिए प्रयत्‍न किया जाए। इसलिए हम लोग सदाचार तथा धर्म को स्‍थापित करने
की इच्छा से सारी पृथ्वी पर विचरते हैं। राजा भरत से ही हमें धर्म के विरुद्ध आचार करनेवाले व्यक्तियों
को दंडित करने का अधिकार मिला है। नैतिक आचार संहिता में यह व्यवस्था की गई है कि बड़ा भाई,
पिता तथा गुरु ये तीनों धर्म मार्ग पर स्थित रहनेवाले पुरुषों के लिए पिता के तुल्य माननीय हैं। इसी प्रकार
छोटा भाई, पुत्र और शिष्य, ये तीन पुत्र के तुल्य समझे जाने चाहिए। मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, उसका
अभिप्राय तुम्हें स्पष्ट करके बताता हूँ। तुम्हें केवल रोषवश मेरी निंदा नहीं करनी चाहिए। मैंने तुम्हें क्यों मारा
है? उसका कारण सुनो और समझो। तुमने धर्म का त्याग कर अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रूमा का
अपहरण कर लिया। इस प्रकार तुमने अपनी पुत्रवधू के समान स्त्री का कामवश उपभोग किया। तुम्हारे इस
पापपूर्ण व्‍यवहार के लिए मैं दंड के सिवा और कोई उपाय नहीं देखता। तुम्हें दिया गया दंड समानता और
न्याय के सिद्धांतों के पूर्ण रूप से अनुरूप है। इसलिए किष्किंधा के पराक्रमी राजा वाली! तुम्हें मेरे ऊपर न
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तो क्रोध, न रोष करना चाहिए और न ही मेरे द्वारा तुम्हारे वध पर पश्चात्ताप करना चाहिए।”
श्रीराम के इन शब्दों को सुनकर अत्यंत दुःख तथा पीड़ा का अनुभव करते हुए वाली ने यह स्वीकार
किया कि वह सत्‍यमार्ग से भ्रष्ट हो गया था। इतना कहते-कहते आँसुओं से वाली का गला भर आया और
वह आर्तनाद करता श्रीराम से इस प्रकार बोला, “मुझे अपने लिए, तारा के लिए तथा बंधु-बांधवों के लिए
शोक नहीं है, परंतु मैं अपने गुणसंपन्‍न प्रिय पुत्र अंगद के लिए शोक संतप्त हूँ, जो अभी बालक है। मैंने
बचपन से ही उसको बड़ा दुलार किया है। अब मुझे न देखकर वह बहुत दुःखी होगा, इसलिए आप मेरे
उस महाबली पुत्र की रक्षा कीजिए। आप यह भी सुनिश्चित करें कि सुग्रीव मेरी पत्‍नी तारा का अनादर न
करे।” रघुकुल के यशस्वी राजकुमार श्रीराम ने यह कहकर वाली को पुन: आश्वासन दिया, “तुम्हें इन
दोनों में से किसी भी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है। कुमार अंगद तुम्हारे जीवित रहने पर जैसे
रहता था, उसी प्रकार सुग्रीव के और मेरे पास खुशी से रहेगा, इसमें कोई संशय नहीं है। अपने पापों के लिए
शास्त्रोक्त निर्धारित दंड को स्वीकार करने के पश्चात् तुम्हें स्वयं को अपराध से मुक्त समझना चाहिए।”
गहरे घाव और अत्यधिक रक्तस‍्राव के कारण वाली की मृत्यु अब अवश्यंभावी थी।
वाली के वध का शोकपूर्ण तथा दिल दहला देनेवाला समाचार सुनकर व्यथित हुई तारा ने अपने पुत्र
के साथ शीघ्र ही किष्किंधा के राजमहल से प्रस्थान किया। उसके साथ हजारों वानर सैनिक भी थे। अंगद
को चारों ओर से घेरकर उनकी रक्षा करनेवाले महाबली वानर सैनिक श्रीराम को देख भयभीत होकर भागने
228 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

लगे। तारा ने वेग से भागकर आते हुए उन भयभीत वानरों को देखा। उन्होंने तारा को भी वहाँ से भाग जाने
तथा अंगद के प्राणों की रक्षा करने का सुझाव दिया। परंतु तारा ने उत्तर दिया कि जब उसके पतिदेव वाली
मृत्‍यु को प्राप्‍त हो चुके हैं, तब उसे पुत्र से, राज्य से अथवा अपने जीवन से भी क्या प्रयोजन है। वो तो
अपने पति वाली के चरणों के समीप जाने के लिए उत्सुक थी। ऐसा कहकर शोकाकुल हुई तारा रोते हुए
और शोकमग्‍न हो अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटती हुई बड़े जोर से वाली की ओर दौड़ी। राम और
लक्ष्मण को पार करके वह रणभूमि में घायल पड़े हुए अपने पति के पास जा पहुँची। उसे देखकर उसके
मन में बड़ी व्यथा हुई। अत्यंत व्याकुल और अचेत होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ी। वाली के शरीर पर बाणों
के आघातों को देखकर और कटे हुए वृक्ष की भाँति धरती पर पड़ा हुआ देखकर उसने विलाप किया और
कहा, “आप मेरे सुझावों तथा आलिंगनों की अवहेलना कर अपने भाई से लड़ाई करने युद्धभूमि में आ गए।
पृथ्वीनाथ! आपको निश्चय ही यह पृथ्वी मुझसे अधिक प्यारी है, तभी तो निष्प्राण होने पर भी आप आज
मुझे छोड़कर अपने अंगों से इस धरती का ही आलिंगन करते हुए सो रहे हैं। आपने सुग्रीव को राज्य से
बाहर निकाल दिया था और उसकी पत्नी का अपहरण कर लिया था, इसलिए आपको अपने अपकृत्यों का
दंड दिया गया है। अब मैं और हमारा प्रिय पुत्र अंगद भी इस दुःख के कारण अपने प्राणों का त्याग कर
देंगे। आप हमें छोड़कर क्यों चले गए? यदि मुझसे कोई अपराध हुआ है तो मुझे क्षमा करें।”
इस प्रकार शोक संतप्त और करुण विलाप करते हुए तारा धरती पर गिर पड़ी, उसने अन्न और जल
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त्याग करने का संकल्प लिया और अपने पति वाली के साथ ही चिता पर बैठने की इच्छा व्यक्त की। तारा
का विलाप सुनकर सुग्रीव का भी हृदय पिघल गया। वह शोकातुर होकर जोर-जोर से रुदन करने लगा।
इसके बाद हनुमान ने शोकसंतप्त विदुषी तारा को यह कहते हुए सांत्वना दी—“वाली के लिए शोक मत
करो, इस संसार में सभी जीवों को अपने अच्छे एवं बुरे कर्मों का फल भोगकर यहाँ से जाना होता है।
जिस प्राणी ने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है। यह शरीर एक बुलबुले की भाँति है, इसके लिए
शोक करना उचित नहीं है। आपको बालक अंगद की देखभाल एवं लालन-पालन करना है। वाली, जिस
पर हजारों लोग निर्भर रहते थे, वह अपने जीवन की अवधि पूर्ण कर चुका था। मैं आपसे विनती करता हूँ
कि शोक त्यागकर वाली के अंतिम संस्कार पर ध्यान केंद्रित करें, जो कि परलोक में वाली की आत्मा की
शांति के लिए किया जाना आवश्यक है।’’
“हे देवी! किष्किंधा की समस्त प्रजा तथा आपका एकमात्र पुत्र अंगद आपसे रक्षा की अपेक्षा करते
हैं। अंगद का राज्याभिषेक कर देने के बाद आप धीरे-धीरे सुग्रीव और अंगद दोनों को उचित तथा धर्मसंगत
कार्य करने की प्रेरणा देते रहना।” इन शब्दों को सुनने के बाद तारा ने उत्तर दिया, “मेरा न तो किष्किंधा
राज्य पर और न ही अंगद पर कोई अधिकार है। पिता की अनुपस्थिति में चाचा (पिता के छोटे भाई) को
पुत्र की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। मैं तो वाली के साथ ही अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।”
वाली अभी भी होश में था, उसने सुग्रीव की ओर देखा और कहा, “मुझे दोषी मत समझो, प्रारब्ध
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 229

ने अपना खेल दिखाया है। शायद हम दोनों भाइयों का प्रेमपूर्वक सुख के साथ रहना हमारे भाग्य में नहीं
लिखा था। तुम किष्किंधा का साम्राज्य स्वीकार करो। अंगद की रक्षा करो तथा अपना पुत्र समझकर उसका
लालन-पालन करना। सुषेन की पुत्री और मेरी पत्नी तारा अत्यंत बुद्धिमान है, उसकी सलाह को बिना
किसी हिचकिचाहट के स्वीकार कर लेना। श्रीराम के उद्देश्य को तुम अवश्य पूर्ण करना। मेरा बुद्धिमान
और बहादुर पुत्र अंगद राक्षसों का वध करने तथा श्रीराम का उद्देश्य पूरा करने में अत्यंत सहायक सिद्ध
होगा। यह मेरा पुत्र अंगद मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है, तुम इसके पिता, दाता तथा रक्षक बनकर रहना।
अब तुम इस अलौकिक सोने के हार को मेरे गले से निकालकर पहन लो, क्योंकि इसमें विजय की देवी
का वास है” (4/22)। वाली के निर्देशानुसार सुग्रीव ने वाली को इंद्र के द्वारा दिए गए सोने के हार को
स्वीकार किया। इसके बाद वाली ने अपना सिर अंगद की ओर मोड़ते हुए कहा, “समय और स्थान का
हमेशा अपेक्षाकृत सम्मान करना, सुग्रीव के नियंत्रण में हमेशा आज्ञाकारी बने रहना, तुम वैसे व्यक्ति के
संपर्क में कभी नहीं रहना जो सुग्रीव का हितैषी न हो। हमेशा अनुशासित बने रहना तथा सुग्रीव के अधीनस्थ
बने रहना। न तो किसी के प्रति अत्यधिक लगाव रखना और न ही स्नेहहीन हो जाना, हमेशा मध्य-मार्ग का
अनुसरण करना।” इन शब्दों के साथ ही वाली ने आँखें बंद कर लीं, उसका स्वर्गवास हो गया।
किष्किंधा के इस बलवान राजा की मृत्यु पर आस-पास के सभी प्रजाजन शोकाकुल हो गए; औरतें
विलाप करने लगीं, सभी वानर सैनिक चीखने-चिल्लाने लगे। तारा बार-बार प्यार से वाली के चेहरे को
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चूमना चाहती थी, इसके बाद वह विलाप करने लगी, “निष्कलंक मनोबलयुक्त जाति में जन्म लेकर आपने
मुझे अकेला छोड़ दिया। राजा की पत्नी कहलाने वाले गौरव को कुचल दिया। एक बुद्धिमान व्यक्ति को
अपनी बेटी का विवाह शूरवीर योद्धा से कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि मेरी तरह वह कभी भी विधवा
बन सकती है। मैं शोक के सागर में पूरी तरह से डूब चुकी हूँ। आप, मेरे प्रिय पति, खून से लथपथ धरती
पर पड़े हुए हैं, ऐसा श्रीराम के द्वारा उस बाण के चलाए जाने के कारण हुआ है, जिससे आपके हृदय को
निशाना बनाया गया था, मैं आपको आलिंगन तक नहीं कर सकती हूँ।”
सुग्रीव के सेनापति नील ने जैसे ही उस बाण को वाली के हृदय से निकाला तो रक्त की धारा बहने
लगी और वाली का सारा शरीर धूल तथा खून से लथपथ हो गया। तारा ने अपने आँसुओं से वाली के शरीर
को पोंछते हुए अपने पुत्र अंगद से कहा, “मेरे पुत्र, अपने पिता के क्रूर वध को गौर से देख लो, इस वध का
एकमात्र कारण उसकी अपने भाई सुग्रीव से अनुचित दुश्मनी थी। स्वर्गवास हेतु प्रस्थान करने वाले अपने
बलवान पिता के चरणों में प्रणाम करो।” अंगद ने पिता के पैरों को पकड़कर प्रणाम किया। तारा फिर से
विलाप करने लगी और बोली, “आप अपने पुत्र को आशीर्वाद क्यों नहीं देते? मेरे द्वारा दिए गए हितकारी
परामर्श को आपने नहीं माना; इसका फल यह हुआ कि आप युद्ध में मारे गए तथा आपके मारे जाने के
दुःख में मैं अपने पुत्र सहित मारी गई।”
तारा को दुस्सह शोक के सागर में डूबा देखकर सुग्रीव को अपने भाई के वध पर बड़ा संताप हुआ।
230 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। सुग्रीव ने चारों ओर देखा और फिर श्रीराम के समीप
जाकर कहा, “इसमें कोई संशय नहीं है कि आपने वाली का वध कर अपना वचन पूरा किया है, लेकिन
महारानी तारा को विलाप करते देखकर तथा बालक अंगद को असहनीय दुःख में डूबा देखकर मैं ग्लानि
तथा वेदना का अनुभव कर रहा हूँ। अपने भाई का वध करवाकर किष्किंधा का राजा बनने की अब मुझे
इच्छा नहीं है। वास्तव में वाली ने मुझे मारने की इच्छा कभी नहीं रखी थी। आपका बाण लगने के बाद भी
जब वाली दर्द से कराह रहा था तो उस समय भी उसने मेरे प्रति भाईचारे और महानता का भाव दिखाया।
मैं अपने भाई के वध जैसा घृणित कार्य करने के पश्चात् स्वयं को किष्किंधा का राजा बनने के लायक नहीं
समझता हूँ। अंगद जैसा आज्ञाकारी तथा सदाचारी पुत्र मिलना कठिन है, लेकिन वह भी इस समय शोक
को सहन नहीं कर पा रहा है।” इसके बाद सुग्रीव ने अपने अग्रज के साथ ही मृत्युलोक में जाने की इच्छा
व्यक्त की। दूसरी ओर तारा अभी भी वाली के शरीर का आलिंगन कर विलाप कर रही थी। काफी प्रयास
के बाद वाली के विश्वसनीय मंत्री ने तारा को वाली के शरीर से अलग किया। इन दृश्यों को देखकर श्रीराम
ने भी अत्यंत बेचैनी तथा दुःख का अनुभव किया।
तारा इधर-उधर देखते हुए श्रीराम के पास जाकर बोली, “आपमें संपूर्ण पृथ्वी के समान धैर्य की
क्षमता है, आप श्रेष्ठतम गुण धारण किए हुए हैं तथा श्रेष्ठ धनुष तथा अचूक बाण लिए हुए हैं, मेरी आपसे
विनती है कि आप मेरा भी उसी बाण से वध कर डालें, जिससे आपने मेरे युवा पति वाली का वध किया
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है। मुझे उपस्थित न देखकर वाली स्वर्ग में भी ठीक उसी प्रकार विलाप करेंगे, जिस प्रकार आप ऋष्यमूक
की भव्य वाटिका में रहते हुए भी सीता के बिना शोकातुर हैं।” श्रीराम ने तारा को सांत्वना देने का प्रयत्न
करते हुए कहा, “संपूर्ण विश्व, जिसमें जीवन, मृत्यु, सुख और दुःख शामिल हैं, सृजनकर्ता के नियंत्रण
में है; आपके पुत्र अंगद को युवराज का पद प्राप्त होगा तथा आपको उसी प्रकार के सभी सुख सुग्रीव से
प्राप्त होंगे, जिसका भोग आपने वाली के जीवित रहते हुए किया है। यह घटनाक्रम विधि का विधान है। एक
वीर योद्धा की पत्नी को विलाप करना शोभा नहीं देता। आपको स्थिति के अनुकूल कार्य करना चाहिए।”
इसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण तारा, अंगद तथा सुग्रीव को समय-समय पर सांत्वना तथा मंत्रणा दे
रहे थे। श्रीराम ने कहा, “शोक संताप करने से मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती। संसार में नियति
अर्थात्् प्रारब्ध ही सब कर्मों का कर्ता व कारक है, इसको वश में करने का कोई उपाय नहीं है। वाली ने
पहले अपने अच्छे कर्मों से पुण्यों को संचित किया था और अब मेरे द्वारा शरीरमुक्त होने से उसने सर्वश्रेष्ठ
गति को प्राप्त किया है। इसलिए शोक करना व्यर्थ है।” तभी लक्ष्मण ने कहा, “सुग्रीव, अब तुम अंगद
तथा तारा के साथ मिलकर दाह-संस्कार संबंधी कार्यों को संपन्न करो। सूखी लकड़ियाँ, चंदन, पुष्प,
वस्त्र, घी, तेल तथा सुगं​ि‍धत पदार्थों को शीघ्र एकत्रित करो। शीघ्रातिशीघ्र एक पालकी का भी प्रबंध करो।
शक्तिशाली वानर वाली के शरीर को पालकी पर रखकर श्मशान स्थल तक शीघ्र ले जाएँ।” धैर्यवान तथा
नीति निपुण तारा ने तुरंत इन सारी सामग्रियों की व्यवस्था कर दी। सुंदर पालकी रथ के समान बनी हुई थी
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 231

और उसे विभिन्न रंगों तथा फूलों से सजाया गया था। सुग्रीव और अंगद ने वाली के शरीर को इस शिबिका
पर चढ़ाकर अन्य वानरों की मदद से ढोया। इसके बाद सुग्रीव ने आदेश दिया कि वाली का अंतिम
संस्कार उसी तरह होना चाहिए, जिस प्रकार एक महान् राजा की अंत्येष्टि होती है। पालकी के साथ वाली
को जाननेवाले सभी पुरुष और स्त्रियाँ रुदन कर रहे थे, उनके पीछे सेना भी शोकमग्न हो चल रही थी।
शास्त्रोक्त विधि से पालकी को चिता के पास लाया गया, जिसे तुंगभद्रा नदी के एकांत तट पर तैयार किया
गया था। वाली का सिर अपनी गोद में रखकर तारा फिर से असहनीय दुःख से विलाप करने लगी। सुग्रीव
की मदद से शोकाकुल अंगद ने वाली के शरीर को चिता पर रखा। विधि के अनुसार अग्नि देते हुए अंगद
ने अपने पिता के शरीर के चारों ओर परिक्रमा की। दाह-संस्कार हो जाने के पश्चात् शक्तिशाली वानरों ने
मृतक की आत्मा का तर्पण करने के लिए तुंगभद्रा नदी का जल लाकर दिया। तब और अब की तुंगभद्रा
नदी तथा किष्किंधा नगरी के बारे में कुछ और अधिक तथ्य बॉक्स 4.1 में देखें।

बॉक्स 4.1
तुंगभद्रा नदी और किष्किंधा : तब और अब
महर्षि वाल्मीकि ने तुंगभद्रा नदी का चित्रात्मक संदर्भ दिया है, जो कि कर्नाटक राज्य
से होकर प्रवाहित होती है। रामायण काल में पंपासरोवर, किष्किंधा और प्रस‍्रवण पर्वत
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तुंगभद्रा नदी के सन्निकट स्थित थे। वे सब अभी भी इस प्राचीन नदी के निकट ही स्थित हैं।
तुंगभद्रा नदी ‘तुंग’ नदी और ‘भद्रा’ नदी के संगम से बनी है। ‍100 से भी अधिक
सहायक नदियों, झरनों, धाराओं और नालों आदि ने इस नदी में समाहित होकर इसे संवर्धित
किया है। इन नदियों का संगम ‘कुदली’ नामक स्थान पर हुआ है। वहाँ से तुंगभद्रा नदी
531 कि. मी. तक समतल क्षेत्र में से टेढ़ी-मेढ़ी धारा में बहती है। तत्पश्चात् गोंडीमाला
नामक स्थान पर कृष्णा नदी से मिलती है, जो तेलंगाना राज्य के प्रसिद्ध महबूबनगर जिले
के आलमपुर के पास स्थित है।
किष्किंधा तुंगभद्रा नदी के समीप स्थित है तथा इससे ठीक चार किलोमीटर दूर
प्रस‍्रवण पर्वत है। कर्नाटक के जिला कोपल के हंपी में स्थित ‘एनागोंडी’ नामक गाँव को
प्राचीन किष्किंधा की राजधानी माना जाता है। यह तुंगभद्रा नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित
है। यह एक असाधारण प्राचीन उपनिवेश है, जिसमें एक ही स्थान पर माइक्रोलिथिक,
मैगालिथिक और निओलिथिक युगों के मानव जीवन के अवशेष मिलते हैं। यह क्षेत्र
विजयनगर साम्राज्य, जिसके अवशेष सब तरफ बिखरे हैं, से भी कहीं अधिक प्राचीन है।
पुरातत्त्वविदों के अनुसार सबसे प्राचीन घिसाई तथा पॉलिश की गई पत्थर की
कुल्हाड़ियों और सेल्ट तुंगभद्रा घाटी के बेल्लारी क्षेत्र में पाए गए हैं6। इनमें से अधिकांश
पत्थर के औजारों को 6000 वर्ष ईसा पूर्व से 3000 वर्ष ईसा पूर्व से संबं​ि‍धत बताया गया
है। क्या इन साक्ष्यों को भी रामायण में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तिथियों को प्रमाणित व
232 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

समर्थित करते हुए नहीं मानना चाहिए?


इस क्षेत्र में नवपाषाण इतिहास का प्रतिनिधित्व मौर्या मेन नामक कई हजार वर्ष पुरानी
पाषाण युग काॅलोनी करती है। नवपाषाण युग की कई प्राचीन बस्तियों में अभी भी बहुत सी
पेंटिंग बनी हुई हैं, जो ‘ओंके किंडी’ में आज भी बरकरार हैं। ये रामायण में दिए गए वर्णनों
से मिलती हैं, जिनके अनुसार उच्‍च शारीरिक तथा बौद्धिक क्षमताओं वाले बंदर सैनिक भी
गुफाओं व जंगलों में रहते थे तथा पत्थरों का प्रयोग हथियारों के रूप में करते थे।
एनागोंडी सहित हंपी विश्व विरासत स्थल है। यहाँ पर वाली का भंडार, अंजनी अर्थात््
ऋष्यमूक पर्वत, कोदंडराम मंदिर, जो रामायण के संदर्भों से मेल खाते हैं, सभी स्थित हैं।
यहाँ पर प्रसिद्ध हजारा राम मंदिर परिसर के खँडहर हैं, जहाँ हजारों अत्यंत प्राचीन कार्विंग
तथा शिलालेख रामायण की कहानी बताते हैं।

3. सुग्रीव का राजतिलक; श्रीराम का वर्षा ऋतु में प्रस‍्रवण पर्वत पर निवास।


वाली के दाह-संस्कार के बाद समस्त वीर वानर सेना ने सुग्रीव को घेर लिया तथा वे सब
श्रीराम के पास पहुँच गए। हनुमान हाथ जोड़कर श्रीराम से विनती करने लगे, “आपके आशीर्वाद
से किष्किंधा का यह महान् पैतृक राज्य सुग्रीव को प्राप्त हुआ है, सुग्रीव का राजतिलक धर्मग्रंथों में
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बताए गए नियमानुसार किया जाना चाहिए। हम सबकी इच्छा है कि किष्किंधा नगर में राजतिलक के
दौरान आपकी विशेष पूजा-अर्चना करें।” श्रीराम ने यह कहकर हनुमान का आग्रह मानने से इनकार
कर दिया कि उनको 14 वर्ष के वनवास के दौरान किसी गाँव या शहर में प्रवेश की अनुमति नहीं
है, परंतु उसी समय उन्होंने हनुमान को आदेश दिया कि वह अंगद को किष्किंधा का युवराज घोषित
करें। तत्पश्चात् श्रीराम ने कहा, “वर्षा ऋतु का श्रावण मास अभी प्रारंभ हुआ है, इसलिए मैं लक्ष्मण
के साथ मलयवान श्रेणी के पर्वत प्रस‍्रवण की गुफा में निवास करूँगा तथा उसी स्थान पर वर्षा ऋतु
के पूरे चार महीने व्यतीत करूँगा’’ (4/28/1-8)। उन्होंने सुग्रीव से कहा कि तुरंत इस भयावह वर्षा
ऋतु के समाप्त होने तथा कार्तिक माह के प्रारंभ हो जाने के बाद सीता की खोज में जुट जाना तथा
रावण के वध का हर संभव प्रयत्न करना।
हजारों वानरों के साथ सुग्रीव ने हर्षित मुद्रा में किष्किंधा नगर में प्रवेश किया। समस्त प्रजागण ने
उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन किया। इसके बाद सुग्रीव को आनुष्ठानिक स्नान कराया गया। सोने तथा बहुमूल्य
मणिकों से सज्जित एक सफेद राजछत्र लाया गया। सभी प्रकार की आवश्यक सामग्रियाँ जैसे हल्दी,
अक्षत, पुष्प, घी, मधु, दही, सुगंधित चंदन इत्यादि लाए गए। इसके बाद धर्मग्रंथों के मंत्रोच्‍चारण के
साथ सुग्रीव को विधिपूर्वक किष्किंधा का राजा घोषित किया गया। श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा का पालन
करते हुए वानरराज सुग्रीव ने अंगद को अपने हृदय से लगाकर उसे किष्किंधा का युवराज नियुक्त
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 233

किया। इसके साथ ही सभी आनंदित हुए और सभी श्रीराम तथा लक्ष्मण की बारंबार स्तुति करने लगे।
पर्वत की गुफा में स्थित किष्किंधा की राजधानी खुशहाल तथा संतुष्ट लोगों से युक्त, ध्वजाओं तथा
पताकाओं से सजी हुई मनोभावन लगने लगी। इसके बाद सुग्रीव ने अपने राज्याभिषेक तथा पत्नी रूमा
से फिर मिलवाने के लिए श्रीराम का आभार व्यक्त किया।
तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित एनागोंडी गाँव प्राचीन किष्किंधा माना जाता था। यह आधुनिक
हंपी के किष्किंधा क्षेत्र में स्थित है तथा कर्नाटक के कोपल जिले में है। इस स्थान को यूनेस्को के
विश्व विरासत स्थल के रूप में मान्यता दी गई है और इस स्थल के बारे में यहाँ के लोगों को इनकी
सांस्कृतिक संपदा के बारे में जागरूक कर तथा उन्हें रोजगार प्रदान करके इस स्थल को विश्व स्तरीय
पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है। वाल्मीकि रामायण के संदर्भ भी इस स्थान से मेल
खाते हैं। इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण स्थलों के नाम प्राचीन समय से जैसे के तैसे चल रहे हैं, जैसे वाली का
भंडार, अंजनी पर्वत, कोदंडराम मंदिर और मतंग पहाड़ियाँ।7 एनागोंड़ी का राजकीय परिवार यह दावा
करता है कि वे अंगद के वंशज हैं। मौर्य मेन द्वारा इस स्थान का नियोलिथिक इतिहास दर्शाया गया
है, यह हजारों वर्ष पुरानी पाषाण युगीन कॉलोनी है। कई नियोलोथिक स्थानों पर अभी भी पेंटिंग मौजूद
हैं, जो आज के समय में भी ‘औनके किंडी’ में स्पष्ट और हूबहू प्रतीत होती हैं। हजारा राम मंदिर के
अवशेष रामायण की कहानी का जीवंत वर्णन करने वाले शिलालेखों और नक्काशियों के लिए प्रसिद्ध है।8
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जब वानरराज सुग्रीव का राज्याभिषेक हो गया और वे किष्किंधा में जाकर रहने लगे, उस समय
लक्ष्मण के साथ श्रीराम प्रस‍्रवण पर्वत पर चले गए, जोकि किष्किंधा नगर के ठीक सामने स्थित था।
इस पर्वत शिखर पर राम, लक्ष्मण तथा सीता की प्रतिमावाला एक मंदिर भी है। यही एकमात्र ऐसा
मंदिर है, जिसमें श्रीराम को धनुष और बाण के साथ नहीं दिखाया गया है।
श्रीराम और लक्ष्मण ने अपने आवास हेतु प्रस‍्रवण पर्वत पर एक गुफा की खोज की, जो सुंदर,
खुली तथा हवादार थी। श्रीराम ने इस स्थान की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा कि यह स्थान काफी
मनमोहक था तथा यहाँ अत्यंत सुंदर तरह-तरह के वृक्ष थे। श्रीराम ने उस जगह के सुंदर परिवेश का
वर्णन करते हुए लक्ष्मण से कहा, ‘‘पास में ही तुंगभद्रा नदी है, जो पश्चिम दिशा से पूर्व की ओर बहती
है तथा चित्रकूट की मंदाकिनी नदी के समान दिखाई देती है। इसके तट पर अशोक, अर्जुन, साल,
चंदन, जंबू आदि के वृक्ष फलों एवं फूलों से लदे हुए हैं। केतक, वकुल, मालती और चमेली पुष्पों से
वातावरण सुगंधित हो रहा है। पास के तालाब में कमल के पुष्प खिल रहे हैं।’’ (वा.रा 4/27,28) वह
स्थान बाघों, हिरणों, सिंहों, वानरों, जंगली बिल्लियों, हंसों, सारसों, बत्तखों और मेढकों की आवाज से
काफी कोलाहलपूर्ण था। चकवे तथा मोर उस स्थान की सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे। उस क्षेत्र में
साधुओं तथा तपस्वियों के आश्रम भी स्थित थे।
234 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रामायण में वर्णित पंपा सरोवर तथा माउंट प्रस‍्रवण के कुछ पौधे जो तुंगभद्रा नदी के किनारे
कर्नाटक के कोप्पल जिले में आज भी पाए जाते हैं—
रामायण में पौधे संदर्भ सामान्य नाम
क्रम सं. सामान्य नाम (अंग्रेजी) वैज्ञानिक नाम
का नाम (कांड/सर्ग) (हिंदी)
1 अशोक 4/1 अशोक Ashok Saraca asoca

2 तिलक 4/1 दालचीनी Cinnamon Cinnamomum iners

3 मालती 4/1 मालती Jasmine Jasminum


sambac

4 वट 4/1 बरगद Banyan Ficus


benghalensis

5 मल्लिका 4/1 चमेली Chameli Jasminum


grandiflorum

6 कर्णिकर 4/1 अमलतास Golden


Shower
Cassia fistula

7 कुर्वाक 4/1 मेहँदी Henna Lawsonia


inermis

8 केतकी 4/1 केवड़ा Kewra Pandanus

9 MAGAZINE KING
​किंशुक 4/1 पलाश Palas
tactorius
Butea
monosperma

10 माधवी 4/1 मधुमालती Haladvel Gaertnera-racemosa

11 चंदन 4 / 27 चंदन Sandalwood Santalum album

12 पद्म 4 / 27 कमल Lotus Prunus


cerasoides

13 जम्बू 4 / 28 जामुन Malabar


plum
Syzygium
jambos

14 कदंब 4 / 28 कदंब Burflower


tree
Neolamarckia
cadamba

15 अर्जुन 4 / 28 अर्जुन Arjuna Terminalia


arjuna

16 तिलक 4 / 27 दालचीनी Cinnamon Cinnamomum


tamale
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 235

पंपा सरोवर तथा माउन्ट प्रस ्रवण के कुछ पौधे, जो तुंगभद्रा नदी के किनारे
कर्नाटक के कोप्पल जिले में आज भी पाए जाते हैं। (चित्र-37)

माधवी (Madhumalati) मालती (Jasmine) Courtesy : TopTropicals.com

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अर्जुन (Arjuna) तिलक (Cinnamon); Courtesy: TopTropicals.com

केतकी (Kewada); कर्णिकर (Amaltas);


Courtesy: TopTropicals.com Courtesy: TopTropicals.com
236 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

पुरावनस्पति विज्ञान और पैलने ॉलोजी अध्ययन में यह पाया गया है कि इनमें से कई पेड़-पौधे 7000
वर्ष पहले अर्थात्् लगभग 5000 वर्ष ई.पू. इस क्षेत्र में उपलब्ध थे, क्योंकि 5000 वर्ष ई.पू. का समय मध्य
नूतन युग के अनुकूलतम जलवायु का था (प्रियदर्शी 2014, 2016)।9 इसके परिणामस्वरूप उपर्युक्त
जीव-जंतुओं से भरपूर हरे भरे जंगलों का विकास हुआ। इन पुरा-जलवायु अध्ययनों का पुष्टीकरण श्रीराम
के वर्षा ऋतु से संबंधित उन संदर्भों से होता है, जिनमें उन्होंने कहा है कि वर्षा ऋतु के चार मास के दौरान
वे और लक्ष्मण माउंट प्रस‍्रवण की गुफा में रहेंगे और उसके पश्चात् कार्तिक मास में जल्द से जल्द सीता
की खोज का हर संभव प्रयास करेंगे। रामायण काल के दौरान पाए जाने वाले कई पेड़-पौधे वर्तमान समय
में भी इस क्षेत्र में पाए जाते हैं।10
ऐसे सुंदर वातावरण के बीच दो राजकीय तपस्वियों ने वर्षा ऋतु व्यतीत करने के लिए पर्वत की चोटी
पर स्थित गुफा में रहना प्रारंभ किया। सीता के वियोग में वर्षा ऋतु श्रीराम को और अधिक शोकातुर कर
रही थी। एक दिन चंदन के पेड़ों के बीच से गुजरते हुए तथा लक्ष्मण से बातचीत करते हुए श्रीराम ने कहा,
“यह स्थान काफी मनमोहक है, यहाँ का मौसम भी काफी सुहावना है। पत्नी से मिलने के बाद वानरराज
सुग्रीव तो जीवन का आनंद उठा रहा है, लेकिन मैं सीता के रमणीय साथ से वंचित होकर बहुत निराश तथा
उदास महसूस कर रहा हूँ।” उन दिनों सीताजी से अलग होने के कारण श्रीराम प्रायः निराशा तथा क्रोध की
मुद्रा में रहते थे। निराशा तथा शोक का एक कारण यह भी था कि कई महीनों के बाद भी वह सीताजी को
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रावण के चंगुल से स्वतंत्र नहीं करवा पाए थे।
मनमोहक वर्षा ऋतु उनकी चिंता को कम करने में सक्षम नहीं हो पा रही थी। शोकाकुल हृदय से
श्रीराम ने वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए लक्ष्मण से कहा, “सूर्य की किरणों के माध्यम से सागर का जल
सोखकर बादल जीवनदायिनी वर्षा कर रहे हैं, ग्रीष्म ऋतु से तपी हुई पृथ्वी वर्षा की बूँदें पड़ने के बाद
शोकसंतप्त होकर सीता की तरह वाष्प-विमोचन कर रही है। बादल के अंदर चमकती हुई बिजली मुझे
उस प्रकार प्रतीत हो रही है, जैसे कि बेचारी सीता रावण की कैद में दिखाई दे रही हो। जामुन के पेड़ का
फल, काले जामुन लोग जी भर के खाते हैं तथा आम के बहुरंगी फल हवा के झोंकों से जमीन पर गिर रहे
हैं। भाद्र का महीना प्रारंभ हो गया है। बादल से मिलने की इच्छा लेकर उड़ते हुए बगुलों के झुंड आकाश
में सुंदर फूलों के हार की तरह दिखाई दे रहे हैं। कदंब का पेड़ फूलों से लदा हुआ है। काले बादल को
देखकर मयूर आनंदित होते हुए नाच रहे हैं तथा हाथी वन में अपने बल का प्रदर्शन कर रहे हैं। अपनी पत्नी
के साथ सुग्रीव आनंद का अनुभव कर रहा है, परंतु मैं अपनी प्रियतमा से अलग होकर तथा राज्य से वंचित
होकर असहनीय दुःख का अनुभव कर रहा हूँ।” उस समय उनका वफादार अनुज लक्ष्मण बार-बार उन्हें
सांत्वना दे रहा था और स्मरण करवा रहा था कि वर्षा ऋतु की समाप्ति पर तथा सुग्रीव से सहायता लेकर वे
रावण का वध करने में एवं सीताजी को उसके चंगुल से स्वतंत्र करवाने में अवश्य सफल होंगे। शोकाकुल
श्रीराम को लक्ष्मण ने प्रोत्साहन देते हुए कहा, “आप अपने शोक को जड़ से उखाड़कर फेंक दें तथा एक
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 237

शपथ लें कि आप राक्षसराज रावण का उसके संपर्ण ू परिवार समेत वध कर देंगे। आपमें संपूर्ण पृथ्वी को
पलट देने की क्षमता है। वर्षा ऋतु के समाप्त होते ही हम रावण का विनाश अवश्य कर देंगे। इस उद्देश्य
को पूरा करने में सुग्रीव हमारा हर संभव सहयोग अवश्य करेगा।”

4. सुग्रीव का भोग-विलास में डूबकर अपना कर्तव्य भूलना; लक्ष्मण द्वारा चेतावनी
उधर सुग्रीव राज्यसत्ता का आनंद भोग रहा था और अपनी मनोवांछित पत्नी रूमा तथा अभीष्ट सुंदरी
तारा के साथ भोग-विलास में मग्न था। वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी थी और कार्तिक माह प्रारंभ हो चुका
था, परंतु सुग्रीव सीताजी को खोजने हेतु हर संभव प्रयत्न करने का श्रीराम को दिया गया वचन भूल चुका
था। इसलिए हनुमान ने सुग्रीव के पास जाकर उन्हें मित्रवत्, अधिकारपूर्वक एवं उचित सलाह दी, “संप्रभुता
और उन्नति सिर्फ वही राजा कायम रख सकता है, जो राजकोष, सैनिक शक्ति, सहयोगियों तथा स्वयं को
समान रूप से देखता है। आपको यह संप्रभुता तथा धन अपने मित्र श्रीराम के कारण मिला है, परंतु सीताजी
को खोजने के उद्देश्य में विलंब हो रहा है। आप सीताजी की खोज में सभी दिशाओं में भेजने के लिए
वानर सेनाओं के दल क्यों नहीं तैयार कर रहे? हमें बिना किसी विलंब के श्रीराम का कार्य पूरा करना
चाहिए।” हनुमान के द्वारा इस प्रकार याद दिलाने के बाद सुग्रीव ने अपने वीर सेनापति नील को बुलाया
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और आदेश दिया कि योग्य तथा शक्तिशाली वानर सेनाओं को बुलाकर सभी दिशाओं में सीताजी की खोज
करने हेतु भेजें तथा यह सुनिश्चित करें कि यह कार्य ‍15 दिन के अंदर संपन्न हो जाए। इसके बाद सुग्रीव
ने नील को यह आदेश भी दिया कि वह कोई भी आवश्यक कदम उठाने के लिए अंगद से संपर्क कर
सकता है। तत्पश्चात् सुग्रीव अपने भवन में चला गया और मदिरा तथा स्त्रियों के साथ रंग-रलियाँ मनाने
में व्यस्त हो गया।
श्रीराम ने सोचा कि वर्षा ऋतु समाप्त हो गई, आकाश में बादल नहीं दिखाई दे रहे तथा शरद ऋतु का
चमकता हुआ चाँद दिखाई देने लगा था, लेकिन सुग्रीव का कहीं कोई पता ही नहीं था। लक्ष्मण से अपने
शोक तथा क्रोध को व्यक्त करते हुए श्रीराम ने कहा, “स्वभाव से मधुर बोलने वाली कमलनयनी सीता के
बिना अब मैं नहीं रह पा रहा हूँ। मुझे दिन-रात यह चिंता सताती है कि सुकुमारी सीता राक्षसों द्वारा दी गई
यातनाओं को तथा मेरे वियोग को कैसे सह पा रही होगी।” श्रीराम को चिंता से भरा देखकर सुमित्रानंदन
लक्ष्मण ने उत्साहवर्धक बातें कहीं, “मेरे प्यारे भाई! आपके मन का धैर्य शोक से विचलित हो गया है, मन
को शांत बनाए रखें, अपनी दिनचर्या को पूरा कर अपनी शक्ति को बढ़ाएँ तथा मजबूती से इसकी मदद लें।
आपके जैसे रक्षक के होते हुए यदि कोई सीताजी को स्पर्श करने का प्रयास भी करेगा तो वह उसके लिए
धधकती हुई ज्वाला के समान साबित होंगी।” श्रीराम ने लक्ष्मण के शब्दों पर संतोष व्यक्त किया, लेकिन
उन्होंने सुग्रीव की निष्क्रियता पर असंतोष व्यक्त किया, जो सीता को ढूँढ़ निकालने का कोई प्रयत्न ही
नहीं कर रहा था। श्रीराम ने कहा, “वर्षा ऋतु के ये चार मास सीता से अलग रहकर मेरे लिए सौ वर्ष के
238 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

समान थे। अपने वचन को पूरा करने के लिए सुग्रीव कुछ भी नहीं कर रहा है। वह हमारी अनदेखी शायद
इसलिए कर रहा है, क्योंकि मैं अपने राज्य से वंचित हूँ तथा रावण के अत्याचार से पीड़ित हूँ, जिसने मेरी
प्रिय पत्नी का अपहरण कर लिया है। इसलिए किष्किंधा जाकर उस मूर्ख सुग्रीव को चेतावनी दो तथा उसे
अपने कर्तव्य के प्रति सचेत करो।”
मन-ही-मन क्षुब्ध होकर चरम क्रोध से लाल हुए लक्ष्मण ने उत्तर दिया, “सुग्रीव कृतघ्न हो गया है,
वह अभद्र रंगरलियाँ मनाने में व्यस्त हो गया है। मैं तत्काल किष्किंधा जाऊँगा और सुग्रीव का वध करके
वाली के पुत्र अंगद को सिंहासन पर स्थापित करूँगा। तत्पश्चात् तत्काल सीताजी की खोज कराऊँगा।”
परंतु श्रीराम ने लक्ष्मण को कोई भी ऐसा अविवेकी कदम उठाने से मना किया। उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव
से सहजता से पेश आने के लिए कहा तथा उसके स्नेह तथा वफादारी को जीतने की सलाह दी।
हाथ में धनुष-बाण लेकर क्रोध की अग्नि में जल रहे लक्ष्मण शीघ्र ही किष्किंधा पहुँच गए। उन्होंने
अंगद से कहा कि सुग्रीव को उनके यहाँ आगमन की सूचना दें। लक्ष्मण के आगमन की सूचना मिलने
के समय सुग्रीव शराब के नशे में तथा तारा के साथ भोगासक्त था और तुरंत बाहर आने में असमर्थ था।
वह स्थिति की गंभीरता को भी महसूस नहीं कर पाया। वानर सेना लक्ष्मण की आँखों को देखकर डर गई
थी, क्योंकि उनकी आँखों से क्रोधाग्नि निकल रही थी। सुग्रीव अभी स्थिति की गंभीरता को समझने में भी
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असमर्थ था। उस समय सुग्रीव के दो मंत्रियों ने उससे कहा कि श्रीराम पराक्रमी तथा सत्यप्रतिज्ञ हैं। उनके
छोटे भाई तेजस्वी लक्ष्मण अत्यंत क्रोध तथा रोष से भरे हुए हैं। आप तुरंत जाकर उनका क्रोध शांत करें।
मंत्रियों तथा अंगद के वचन सुनकर सुग्रीव आसन छोड़ खड़ा हो गया, परंतु लक्ष्मण के क्रोध का
कारण नहीं समझ पा रहा था। तब हनुमान ने उसे समझाया कि आप मित्रता का धर्म निभाने में चूक गए हैं।
आपको सीताजी की खोज के लिए जिस तरह का प्रयत्न करना चाहिए था, वह नहीं किया, इसलिए आपको
लक्ष्मण से क्षमा-याचना करनी चाहिए। फिर अंगद ने लक्ष्मणजी से किष्किंधा की गुफा में प्रवेश करने की
प्रार्थना की। सुग्रीव के भवन में प्रवेश करने पर लक्ष्मण को संगीत और नृत्य की आवाज सुनाई दी। इन
आवाजों को सुनकर लक्ष्मण और अधिक कुपित हो गए। उन्होंने अपने धनुष पर टंकार दी, जिसे सुनकर
सबके दिल दहल गए। इसकी आवाज सुनते ही सुग्रीव ने लक्ष्मण को शांत करने के लिए तारा को भेजा।
इसके बाद तारा उन्हें अंतःपुर में लेकर गई, वहाँ लक्ष्मण ने मतवाले सुग्रीव को शानदार गद्दी पर बैठकर
रूमा को बाँहों में लिए देखा। इसके बाद लक्ष्मण ने तारा से कहा, ऐसा लगता है कि आपके इस पति ने
अपना मानसिक संतुलन खो दिया है, इसके द्वारा अपने प्रिय मित्र श्रीराम को दिए गए वचन की इसे कोई
याद नहीं है; यह कृतघ्न हो चुका है। यदि यह सत्मार्ग पर नहीं आता है तथा अपने द्वारा की गई गलतियों
में सुधार कर सीताजी की तुरंत खोज नहीं करता तो आपको इसका परिणाम भी पता होना चाहिए। सुग्रीव
भी यशस्वी श्रीराम के बाणों से आहत होकर वाली के मार्ग का अनुसरण करेगा।” इस चेतावनी के अर्थ
को पूरी तरह समझते हुए, तारा बहुत ही मृदुल शब्दों में लक्ष्मण से बोली तथा उन्हें शांत होने का आग्रह
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 239

किया। उन्हें आश्वासन दिया कि शीघ्र ही सीताजी की खोज के लिए बहुत बड़ा अभियान चलाया जाएगा।
इसी बीच सुग्रीव होश में आया। लक्ष्मण ने उसे काफी फटकार लगाई।
उस समय कोमल स्वभाववाली बुद्धिमान तारा ने लक्ष्मण को शांत करने के लिए हस्तक्षेप किया तथा
उनसे विनती की कि वे उस सुग्रीव को, जिसने काफी समय बाद राज्य का सुख प्राप्त किया है तथा जिसे
काफी समय के बाद पत्नी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, क्षमा कर दें। तारा ने आगे यह भी कहा,
“सुग्रीव रघुकुल के वंशज श्रीराम के प्रति पूरी तरह से वफादार और कृतज्ञ हैं। उनके लिए वे मेरे साथ-
साथ रूमा का भी त्याग कर सकते हैं। उस राक्षसराज रावण का अंत कर सुग्रीव श्रीराम और सीताजी को
अवश्य मिलाएँगे। आपको अवगत करा दूँ कि सुग्रीव सेना प्रमुख नील को पहले ही आदेश दे चुके हैं कि
वे चारों दिशाओं से उन सभी वीर और शक्तिशाली वानरों को एकत्रित करें, जिन्हें सीताजी की खोज के
लिए भेजा जाना है।” लक्ष्मण का क्रोध शांत हो गया। डर से आँसू बहाते हुए सुग्रीव ने अपने गले के सुंदर
हार को तोड़ डाला तथा अपने घमंड का त्याग कर दिया। इसके बाद सुग्रीव बोला, “राघव की कृपा से
मेरी पत्नी, प्रसिद्धि तथा शासन मुझे पुनः प्राप्त हुए हैं। मैं उनका एक तुच्छ मित्र, सीताजी को खोजने का
हर संभव प्रयत्न करूँगा तथा जब श्रीराम दुष्ट रावण का वध करने जाएँगे तो मैं भी उनके साथ जाऊँगा।”
अपनी गलती के लिए उन्होंने लक्ष्मण से क्षमा-याचना की, परंतु लक्ष्मण ने उन्हें सुझाव दिया कि वह श्रीराम
के पास जाकर उनसे क्षमा याचना करें।
MAGAZINE KING
सुग्रीव ने हनुमान को आदेश दिया कि वे चारों दिशाओं से शक्तिशाली वानरों के दल इकट्ठे करने
के लिए दूत भेजें। उन्होंने हनुमान से कहा कि वे सभी दिशाओं से अति बलशाली वानर सेना एकत्रित करें,
ताकि उन्हें सीताजी की खोज में भेजा जा सके। नील और हनुमान के प्रयास से लाखों वानर यूथपति व
सेनापति सुग्रीव के समक्ष पेश हुए तथा अपने नए राजा के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार भी लाए। वानर
सेना से घिरे, लक्ष्मण के साथ पालकी पर बैठकर सुग्रीव किष्किंधा से निकलकर प्रस‍्रवण पर्वत पर उस
ओर चले जहाँ श्रीराम आश्रय लिए हुए थे। वह उनके सामने हाथ जोड़कर झुके तथा उनका चरण स्पर्श
किया एवं उनके द्वारा स्वयं पर किए गए उपकार के लिए आभार व्यक्त किया। श्रीराम ने सुग्रीव को हृदय
से लगाया तथा उन्हें बैठने के लिए स्थान दिया।
जब श्रीराम और सुग्रीव विचार-विमर्श कर रहे थे तो उन्हें धूल रूपी बादल आकाश में उड़ते दिखाई
दिए, ऐसा लगा जैसे कि समूची पृथ्वी हिल गई हो। पलक झपकते ही असंख्य वानर सेनाएँ वहाँ प्रकट हो
गईं, वे बादल के समान गरज रहे थे। श्रीराम ने समस्त भारतीय उप महाद्वीप से आई उन वानर सेनाओं की
ओर ध्यानपूर्वक देखा। उनमें कई वीर सेनापति अपनी सेना की टुकड़ी को साथ लिए हुए थे। उनमें सतबली
भी थे, जिनके साथ हजारों की संख्या में वानर सैनिक थे। उसके आगे तारा के पिता सुषेण थे, जो सोने के
पर्वत की तरह दिखाई दे रहे थे और असंख्य वानर सेना लिए हुए थे। हनुमान के पिता केसरी भी अनेक
पराक्रमी वानर सैनिकों के साथ उपस्थित थे। सेनापति पुनासा और धूम्र भी अपनी-अपनी टोली के साथ
240 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

मौजूद थे। वीर नील वानर सेना के बड़े दल के साथ दिखाई दे रहे थे। वहाँ मेंडा और द्विविधा भी अपनी-
अपनी शक्तिशाली सेना के साथ उपस्थित थे। भालुओं के राजा जामवंत भी अपने साथ हजारों की संख्या
में भालू लिए वहाँ उपस्थित थे। उस समय बलशाली हनुमान भी वानर सेनाओं के बीच दिखाई दिए। वहाँ
हजारों वीर सैनिकों से घिरे नल भी थे। दधिमुख भी वहाँ अपनी सेना से साथ उपस्थित थे। इस प्रकार लाखों
की संख्या में वानर यूथपतियों तथा सैनिकों ने पहुँचकर अपने राजा सुग्रीव को चारों ओर से घेर लिया।
सुग्रीव से मिलकर तथा उनके निर्देशानुसार उन्होंने श्रीराम की वंदना की तथा उनकी विजय के नारे लगाए।

5. सीताजी की खोज में सुग्रीव द्वारा वानर सेना को सभी दिशाओं में भेजना
उसके बाद सुग्रीव ने श्रीराम को जानकारी दी, “ये महान् वानर-यूथपति अपने साथ असंख्य योद्धाओं
को लाए हैं। इनमें से बहुत से युद्धस्थल में अपना पराक्रम सिद्ध कर चुके हैं और दैत्यों तथा दानवों से भी
अधिक शक्तिशाली हैं। ये सभी आपकी सेवा के लिए तत्पर हैं, आप इन्हें कोई भी आदेश दे सकते हैं। इन
सभी को पता है कि इन्हें सीताजी की खोज में जाना है, लेकिन यह उचित होगा कि आप इन्हें यथोचित
आदेश दें तथा इनका मार्गदर्शन करें।” सुग्रीव के इस सुझाव अनुसार श्रीराम ने उस विशाल वानर सेना से
कहा कि पहले इस बात का पता लगाएँ कि सीताजीवित भी हैं या नहीं तथा उस जगह का पता लगाएँ,
MAGAZINE KING
जहाँ रावण ने सीता को छुपा रखा है और वह स्वयं कहाँ रहता है। इसके बाद हम अगले कदम के बारे में
निर्णय लेंगे। आपकी मदद के बिना लक्ष्मण और मैं मिलकर भी इस कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकते हैं।
इसके बाद सुग्रीव ने वानर सेनाओं को सीताजी की खोज में विभिन्न दिशाओं में भेजा। विनत नामक
यूथपति को, जो एक शक्तिशाली दल का नेता था, हजारों वानर सैनिकों के साथ पूर्वी भाग में सीताजी को
खोजने का कार्य सौंपा गया। सुग्रीव ने उन्हें विस्तार से बताया कि वह सीताजी की खोज विदेह, काशी,
कोशल, मगध, पुंड्र और अंग क्षेत्र में करे। सुग्रीव ने शिशिर नामक पर्वत क्षेत्र में वैदेही की खोज करने के
लिए कहा और उसके बाद सुनहरी पर्वत की ओर बढ़ने के लिए कहा, जो पूर्व की ओर सौ योजन की दूरी
पर था। सुग्रीव ने उन्हें साल (बेर), तमाल (विनामोन) और कार्निकर (कनक चंपा) पेड़ों के घने वनों में
भी सीता को ढूँढ़ने के लिए कहा। जावा तथा सुमात्रा के द्वीप समूहों में तथा उदयगिरि के पृष्ठ भाग में भी
सीताजी की खोज करने की आज्ञा सुग्रीव ने दी। (वाल्मीकि रामायण 4/40)
इसके बाद वीर एवं पराक्रमी राजकुमार अंगद के नेतृत्व में एक बहुत शक्तिशाली सेना को भारतीय
उप महाद्वीप के दक्षिणी क्षेत्र में सीताजी को खोजने का कार्य सौंपा गया। इस शक्तिशाली दल में हनुमान,
जांबवान और नील जैसे पराक्रमी शूरवीर शामिल थे। इन सभी के पास तीव्र गति, पराक्रम और असाधारण
बल था। उन्होंने इस दल को विंध्य शृंखला और मलय पर्वत क्षेत्र में सीताजी को खोजने के लिए कहा।
नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा (कृष्णावेणी) और कावेरी क्षेत्र में तथा विदर्भ, कलिंग, आंध्र और केरल के क्षेत्र में
खोजने का काम दिया। तत्पश्चात् सुग्रीव ने उन्हें मलय पर्वत, महेंद्र पर्वत, वनों तथा वाटिकाओं में सीताजी
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 241

की खोज करने के लिए कहा। इसके बाद उन्हें दक्षिणी महासागर के मध्‍य में बसे हुए द्वीप अर्थात्् लंका में
सीताजी की खोज के लिए जाने की आज्ञा दी। (वा.रा. 4/41)
सुग्रीव ने तारा के पिता सुषेण के नेतृत्व में पश्चिमी क्षेत्र में भी एक शक्तिशाली सेना को भेजा। उन्होंने
उनसे सौराष्ट्र तथा बहलिका (आधुनिक बल्ख) क्षेत्र में सीताजी की खोज करने को कहा। उन्होंने उनसे
यह भी कहा कि वे पश्चिमी क्षेत्र (अरब सागर) में जाएँ और केतक की झाडि़यों, सघन तमाल वृक्षों और
नारियल के समूहों में सीताजी की खोज करें। उन्होंने उन्हें उस क्षेत्र में जाने के लिए कहा, जहाँ सिंधु नदी
समुद्र से मिलती है और उसके निकट स्थित सोमगिरि पर्वत पर भी जाने के लिए कहा। सुग्रीव ने इस बात
का जिक्र किया कि यह पर्वत एक विस्तृत भूभाग पर स्थित है, जहाँ काफी संख्या में सिंह और हाथी हैं।
यहाँ बताए गए संदर्भ वास्तव में पश्चिमी घाट के पर्वतों के हैं, जिसमें आज के गुजरात और महाराष्ट्र के
तटीय क्षेत्र शामिल हैं। सोमनाथ, ​िगर वन, सतपुड़ा और दातार जैसे पर्वतीय क्षेत्र वास्तव में इस सोमगिरि
पर्वत क्षेत्र के भाग हैं। इसके बाद सुग्रीव ने सुषेण को परियात्रा पर्वतीय क्षेत्र में सीताजी की खोज करने की
सलाह दी, जो कि सौ योजन लंबा था तथा गंधर्वों का निवास स्थल था। यहाँ आज के अफगानिस्तान के
साथ-साथ हिंदुकुश पर्वत शृंखला का भी संदर्भ मिलता है। इसके बाद उन लोगों को रावण तथा वैदेही को
सात सुनहरी पर्वतों वाली पर्वत-शृंखला में खोज करने के लिए कहा, जहाँ वे सिर्फ समुद्र को पार कर ही
पहुँच सकते थे। इस पर्वत शृंखला के बीच में उन्हें पर्वत मेरु मिलेगा। मेरु पर्वत पर मेरुसावर्णि नामक एक
MAGAZINE KING
तपस्वी रहता था; रावण और सीता के बारे में उनसे भी पूछताछ करने की सलाह दी। सुग्रीव ने उस पर्वत
के चारों ओर सुषेण और उनकी वानर सेना को मिथिला की राजकुमारी और श्रीराम की प्रिय पत्नी सीताजी
की खोज करने के लिए कहा। (वाल्मीकि रामायण 4/42)
शतबलि के नेतृत्व में एक अन्य दल को उत्तरी क्षेत्र की ओर भेजा गया तथा उन्हें निर्देश दिया गया
कि वे भरत, कुरु, मद्र, कंबोज, यवन तथा शकों के राज्यों में और अन्‍य हिमालय क्षेत्रों में सीताजी की
खोज करें। उन्होंने उन्हें सीताजी को सुदर्शन पर्वत, माउंट कैलाश तथा काँचा पर्वत के उपवनों, गुफाओं,
वनों में खोजने का भी आदेश दिया। काँचा पर्वत के चारों ओर खोज करने मे बाद शतबलि को मैनाक
पर्वत श्रेणी में जाने का आदेश दिया गया, जहाँ किन्नर अपनी सुंदर स्त्रियों के साथ निवास करते थे। उन्होंने
उन्हें अयोध्या की राजकुमारी सीता को अन्य उत्तरी क्षेत्रों में भी खोजने का आदेश दिया, जहाँ उत्तर कुरु,
गंधर्व, किन्नर, सिद्ध तथा नाग अपनी सुंदर स्त्रियों के साथ प्राकृतिक सुंदरता और समृद्ध जीवन का आनंद
ले रहे थे। (वा.रा. 4/43)
सुग्रीव ने अपने सभी दलों को प्रत्येक कोने में सीताजी की खोज करने की लिए कहा। नगरों, गाँवों,
पर्वतों तथा उनको आवंटित क्षेत्रों के वनों, उपवनों, गुफाओं इत्यादि में ढूँढ़ने के लिए कहा। सुग्रीव ने उन्हें
यह भी आदेश दिया कि वे सभी एक महीनों के अंदर वापस आकर रिपोर्ट दें। (वा.रा. 4/45/3-4)
242 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बॉक्स 4.2
महर्षि वाल्मीकि ने इन वीर सैनिकों का वर्णन वानरों के रूप में क्यों किया
है?
महर्षि वाल्मीकि ने हनुमान, सुग्रीव, अंगद, वाली, सुषेण तथा इनके जैसे हजारों वीर
योद्धाओं का विवरण वानरों के रूप में किया है। उनके पास मनुष्‍यों वाले सभी गुण थे। वे
प्रेम तथा घृणा, लालसा तथा उत्‍साह, वफादारी तथा भावुकता को अनुभव करते थे। उनके
घरेलू झगड़े मनुष्‍यों की तरह ही होते थे। उनके पास हारने तथा जीतने के लिए साम्राज्‍य
भी थे। वे सेनाएँ रखते थे, पत्थरों के हथियार बनाते थे तथा उनका उपयोग भी करते थे।
वे अपनी-अपनी शक्ति तथा सामर्थ्य में वृद्धि का हर संभव प्रयत्‍न करते थे। उनकी अपनी
नैतिक आचार संहिता भी थी, जो मनुष्‍यों से मिलती थी। इनमें मानव-वर्ग के समान ही
इंजीनियरिंग का कौशल था और ये नदियों और समुद्रों पर पुलों का निर्माण भी कर सकते
थे। इन्हें धर्मग्रंथों की जानकारी भी थी, इनकी स्त्रियाँ शिक्षित और बुद्धिमान होती थी तथा
इनका सम्मान किया जाता था। इसके बावजूद इनका विवरण वानरों के रूप में क्यों किया
गया है?
संभवतः एक कारण यह हो सकता है कि ये उन जनजातियों से संबंध रखते थे,
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जिनके चेहरों पर वानरों के मुखवाली झलक थी। शायद ये लोग वानर की आकृति वाले
चेहरों की जातियों से संबंधित होंगे। आधुनिक समय में भी दक्षिण भारत में वानरों जैसे मुख
वाली जातियाँ उपलब्ध हैं, जो बहादुर हैं। इनकी एक या दो शादियाँ हो सकती हैं। तलाक
तथा विधवा पुनर्विवाह की अनुमति भी है। इन्हें ‘कल्‍लार’ के नाम से जाना जाता है, जिसका
उपनाम ‘अनबलकरन’ है। सन् 1871 में इनकी संख्या 3,54,554 थी।11
दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि वानर कहे जाने वाली इन जनजातियों में
लंगोटी पहनते समय पूँछ बनाने की प्रथा थी। यह एक ऐसा रिवाज है, जिसका प्रचलन
आज भी दक्षिण भारत की कुछ जनजातियों में है, जो औपचारिक अवसरों पर प्रचलित है।
संभवतः रामायण काल में इस प्रकार का लंगोटी पहनने का रिवाज था, जिसे पूँछ के रूप
में अतिशयोक्ति से वर्णित किया गया है।
तीसरा कारण संभवत: यह था कि ये लोग बहुत बलशाली तथा फुरतीले होते थे। ये
लंबी दूरी तक छलाँग लगा सकते थे तथा उनमें से कई शक्तिशाली योद्धा वीर वानरों की
तरह एक पर्वत शिखर से दूसरे शिखर तक छलाँग लगा सकते थे।
ये शायद अभी वानरों से मनुष्‍यों में विकसित होने की अग्रवर्ती अवस्‍था में थे। उनके अन्य
मनुष्यों के साथ मधुर संबंध थे। (संदर्भः 1. इंडियन एनसाइक्लोपेडियाः इंडिया (सेंट्रल
प्रोविंस)–इंडोलॉजी, सुबोध कपूर के द्वारा संपादित) 2. साॅउदर्न इंडिया ः इट्स हिस्ट्री,
पीपल, कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्रियल रिसोर्सेज, लेखक आर्नोल्ड राइट 12।
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 243

ऐसा लगता है कि श्री सुबोध कपूर तथा आर्नोल्ड राइट को कभी वाल्‍मीकि रामायण
पढ़ने का अवसर नहीं मिला था। इसलिए एक बात, जिसका इन दोनों विद्वानों ने संज्ञान नहीं
लिया, वह यह कि इन दक्षिण भारतीय जन-जातियों के रीति-रिवाज आर्य कहलाने वाले
उत्तर भारतीयों के रीति-रिवाजों से बिल्‍कुल मेल खाते थे। इन दक्षिण भारतीय जनजातियों
में वेदों का अध्ययन करने की प्रथा थी तथा औपचारिक अवसरों पर ये प्राचीन भारतीय
धर्मग्रंथों का अनुसरण भी करते थे। ये लोग वास्तव में उत्तर भारत के लोगों के साथ प्रेम
तथा मित्रता का दृष्टिकोण रखते थे, जैसा कि वाली का इक्ष्वाकु के वंशज श्रीराम के प्रति
व्यवहार से स्पष्ट होता है।

बुद्धिमान और पराक्रमी सुग्रीव ने हनुमानजी के ऊपर दृढ़ विश्वास प्रकट करते हुए कहा कि वे अपनी
शक्ति, बुद्धि और पराक्रम से सीताजी को ढूँढ़ निकालने में सक्षम हैं। पृथ्‍वी, जल तथा अकाश में कोई भी
हनुमानजी की गति का अवरोध करने में समर्थ नहीं है। इसके बाद श्रीराम ने प्रत्युत्तर में कहा, “हनुमान
की कार्य संपादन क्षमता के बारे में महाराज सुग्रीव का कहना बिल्कुल सही है, मुझे भी हनुमान पर अटूट
विश्वास है।” ऐसा कहते हुए महातेजस्‍वी श्रीराम ने हनुमान को अपनी अँगूठी दे दी, जिसके ऊपर उनका
नाम लिखा हुआ था और उनसे कहा कि यह अँगूठी सीताजी को पहचान के रूप में अर्पित करें। उस अँगूठी
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को लेकर अपने मस्‍तक पर रखते हुए हनुमान ने श्रीराम के चरणों में अपना सिर झुका दिया। इसके बाद
श्रीराम ने हनुमान को कहा, “मैं तुम्हारे बल पर आश्रित हूँ, हे पवनपुत्र हनुमान! अपने अद्भुत बल का
प्रयोग इस प्रकार करें, ताकि राजा जनक की पुत्री और मेरी प्रेयसी सीता का पता लग जाए।”
राजा सुग्रीव के निर्देशानुसार वानर यूथपति अपने-अपने दल के साथ उन्हें सौंपे गए क्षेत्रों की ओर
चले। उधर श्रीराम सुग्रीव की विश्व के भूगोल की जानकारी पर स्तब्ध थे, उन्होंने पूछा कि भू-मंडल के
स्‍थानों की स्थिति का इतना विस्‍तृत परिचय सुग्रीव ने कब और कैसे प्राप्‍त किया? सुग्रीव ने उत्तर दिया कि
‘‘वाली दुदुंभि के पुत्र मायावी राक्षस का वध करके जब गुफा से बाहर आया तो उसने मुझे राज्य से बाहर
खदेड़ दिया, मेरी पत्नी रूमा को मुझसे छीन लिया और मेरे खून का प्यासा हो गया। इसीलिए मैं वाली से
अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में जगह बदलकर रहने लगा। इस प्रकार
मैंने समस्‍त भू-मंडल को प्रत्‍यक्ष देखा था। फिर मुझे मतंग मुनि द्वारा वाली को दिए गए शाप का स्‍मरण
आया कि यदि वाली मतंग आश्रम मंडल में प्रवेश करेगा, तो उसके मस्‍तक के टुकड़े हो जाएँगे। फिर मैं
मतंग आश्रम मंडल के ऋष्‍यमूक पर्वत की गुफा में निवास करने के लिए आ गया।’’
सीताजी की खोज में सभी वानर सेनापति अपने-अपने शूरवीरों के साथ निर्धारित दिशाओं की ओर
उत्‍साहपूर्वक चल दिए। वे अपने-अपने क्षेत्र में सरोवरों, उपवनों, नगरों, पर्वतों तथा दुर्गम क्षेत्रों में घूम-
घूमकर सीताजी की खोज करने लगे। अंगद और हनुमान अपने वीर बाँकुरों के साथ सीताजी की खोज
244 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

विंध्य और मलय पर्वत शृंखलाओं के घने वनों और गुफाओं में कर रहे थे, लेकिन उन्हें इसमें सफलता
नहीं मिली। वानर सेना हताश और निराश होकर एक एकांत स्‍थान में वृक्ष के नीचे खिन्‍नचित् होकर बैठ
गई। उस समय अंगद ने उनका उत्‍साहवर्धन करते हुए कहा कि असफलता से डर कर उद्योग को छोड़ना
कदापि उचित नहीं है। उसने यह भी कहा कि सुग्रीव अत्यंत क्रोधी है, सीता को ढूँढ़े बगैर वापस जाना
खतरे से खाली नहीं है। इसलिए भी आपको वैदेही की खोज के प्रयत्‍नों में तेजी लानी चाहिए। आप समूह
में चारों ओर वैदेही की खोज करें। उन सभी ने वन से आच्छादित दक्षिणी क्षेत्र में सीताजी की पुन: खोज
की, लेकिन उन्हें सीताजी कहीं नहीं मिलीं। इसके तत्काल बाद हनुमान, जांबवान, मैंडा, द्विविदा तथा अन्य
वानर सैनिकों को एक गुफा दिखाई दी। उन सभी ने एक साध्‍वी की उस अद्भुत गुफा में प्रवेश किया। इस
गुफा में एक साध्वी स्त्री रहती थी, जिसका नाम स्वयंप्रभा था। उन्होंने फल और मूल के द्वारा उन सभी
वानर यूथपतियों का स्वागत किया। हनुमानजी ने साध्‍वी स्‍वयंप्रभा को बताया कि सीताजी की खोज हेतु
सुग्रीव द्वारा दिया एक महीने का समय समाप्‍त हो गया है, परंतु हमें सफलता नहीं मिल पाई। तभी साध्‍वी
ने गुफा के मार्ग से उन सभी को समुद्र तट पर पहुँचा दिया। गुफा से बाहर आने के बाद राजकुमार अंगद
ने उन्हें एक महीने के अंदर दिए गए समय पर बताए गए कार्य को पूरा नहीं होने पर सुग्रीव के कथन की
याद दिलाई। वे सभी एक ओर पर्वत-शृंखला और दूसरी ओर अथाह सागर को देखकर भयभीत हो गए।

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6. संपाति द्वारा हनुमान और अंगद को सीता का पता तथा लंका का मार्ग बताना
अधिकांश वानरों को डर था कि उद्देश्य की पूर्ति नहीं होने की स्थिति में सुग्रीव उन्हें अवश्य ही
दंडित कर डालेगा। कुछ वानरों ने कहा कि वे तेजी से तथा अपनी अंतिम साँस तक सीता की खोज करेंगे।
कुछ अन्य, जिनका नेतृत्‍व यूथपति तार कर रहा था का कहना था कि वे अपना शेष जीवन स्वयंप्रभा की
गुफा में ही व्यतीत करेंगे। हनुमान ने देखा कि अंगद ने इस प्रकार के सुझाव का विरोध नहीं किया। अतः
हनुमान ने अंगद का दिल जीतने के लिए उसे बहुत प्रशंसनीय तथा उचित सुझाव दिया। उन्होंने अंगद को
उन्हें युवराज बनाने में सुग्रीव की स्नेहशीलता, श्रीराम के विशाल हृदय के बारे में आश्वस्त कराया एवं
उनकी अपनी विशिष्ट ताकत तथा शक्ति का स्‍मरण कराया। एक महीने का समय समाप्त हो गया था और
वानर सेना बताए गए कार्य को संपादित किए बिना सुग्रीव या श्रीराम के पास वापस जाने में डर रही थी।
इसलिए उन्होंने अंगद के नेतृत्व में आमरण भूख हड़ताल करने का निश्चय किया। अंगद दोगुना दुःखी था,
उसकी कदापि यह इच्छा नहीं थी कि वह एक कमजोर और असफल व्यक्ति की तरह किष्किंधा में प्रवेश
करे। उसने अन्य वानर सेनापतियों से कहा कि वे वापस जाकर सुग्रीव और माँ रूमा को उनके पलायन से
अवगत कराएँ तथा उसकी अपनी माँ तारा को सांत्वना दें। इसके बाद रोते-रोते अंगद निराश होकर धरती
पर बैठ गया।
अचानक गिद्धों का राजा और जटायु का बड़ा भाई संपाति वहाँ पर्वत की चोटी पर प्रकट हुआ। गुफा
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 245

के बाहर कई वानरों को देखकर संपाति खुश हुआ कि उसे तैयार भोजन मिल गया, क्योंकि उसने सोचा कि
वह उन वानरों को एक-एक करके मारकर अपना भोजन बना लेगा। वानर काफी व्यथित थे और अंगद
ने उन्‍हें श्रीराम की जीवनकथा सुनाना प्रारंभ किया और सीताजी का रावण के द्वारा अपहरण, जटायु की
कुर्बानी व त्याग के बारे में बताया। अपने भाई जटायु का नाम सुनकर बुरी तरह से व्यथित हुए संपाति ने
अंगद से आग्रह किया कि उसे पर्वत की चोटी से नीचे आने में वह उसकी मदद करे। पर्वत से नीचे आने
में उसकी मदद करने के बाद संपाति के आग्रह पर अंगद ने श्रीराम की पूरी कहानी सुनाई। उन्‍होंने बताया
कि सीताजी का पंचवटी से रावण ने बलपूर्वक हरण कर लिया और उन्‍हें आकाशमार्ग से लंका की ओर
ले जाने लगा। विदेह कुमारी की चीख-पुकार सुनकर जटायु रावण पर टूट पड़ा, उसका मुकुट तथा रथ
तोड़ डाला। परंतु अंतत: रावण ने उसके पंख तथा पैर काट दिए और गृध्रराज जटायु मारे गए। उसने यह
भी बताया कि उसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव से मित्रता कर वाली का वध किया और सुग्रीव को किष्किंधा
का राजा बना दिया। उन सभी को सुग्रीव ने सीताजी की खोज के लिए भेजा है, मगर वे अभी तक उन्‍हें
ढूँढ़ने में असमर्थ रहे हैं।
इन शब्दों को सुनकर गिद्धों के राजा संपाति की आँखों में आँसू भर आए। उसने बताया कि ‘‘जटायु
मेरा छोटा भाई था। उसको सूर्य की किरणों से बचाने के लिए मैंने स्‍नेहवश अपने पंखों से उसे ढक लिया।
वह तो बच गया, परंतु मेरे दोनों पंख जल गए। उसके बाद मैं विंध्य पर्वत पर गिर गया। उड़ने में असमर्थ
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हो जाने के कारण अपने छोटे भाई जटायु का समाचार न पा सका।’’ तत्‍पश्‍चात् युवराज अंगद ने संपाति से
इस प्रकार कहा, “आप जटायु के बड़े भाई हैं। यदि आप सीता का हरण करनेवाले राक्षस का निवास स्‍थान
जानते हैं तो हमें बताइए।” संपाति ने बताया कि मेरे पुत्र सुपार्श्व ने एक बार एक जवान रूपवती स्त्री को
रावण के द्वारा दक्षिणी समुद्री किनारे के ऊपर से अपहरण करते हुए देखा था और वह ‘श्रीराम, श्रीराम’
चिल्ला रही थी। इस सूचना की पुष्टि वहाँ के प्रसिद्ध तपस्वियों नें भी की थी।
वानरों में विश्वास को बढ़ाने के लिए संपाति ने सीता के अपहरण की कहानी को विस्तार से बताना
प्रारंभ किया। उसने उन्हें कहा कि सीता का अपहरण रावण ने किया है, जो ऋषि विश्रवा का पुत्र और कुबेर
का भाई है। उसने उन्हें सुंदर सुनहरी नगरी लंका में कैद करके रखा है, जिसका निर्माण विश्वकर्मा के द्वारा
किया गया था। संपाति ने अंगद को आगे यह भी सूचना दी कि कई कोस की दूरी पर चारों ओर समुद्र से
घिरी हुई लंका नगरी स्थित है। उसी में रावण ने सीता को कैद कर रखा है। उसने वानर सेना को जल्द ही
दक्षिणी समुद्र (Indian Ocean) के उत्तरी तट पर पहुँचने की मंत्रणा दी तथा समुद्र के पार लंका नगरी
पहुँचने का उद्यम करने की सलाह दी। संपाति ने उन सभी वानर यूथपतियों को आश्वासन दिया कि वे
सीताजी से अवश्य मिलकर वापस आएँगे।
संपाति ने यह भी कहा कि वह भी रावण से अपने छोटे भाई जटायु के साथ क्रूरता का बदला लेना
चाहता है और समुद्र तट पर जाकर अपने भाई जटायु को जलांजलि देना चाहता है। उसने उनसे यह भी
246 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

कहा कि जब सूर्य की तपती किरणों से उसके पंख जल गए थे तो वह विंध्य पर्वत पर गिर गया था। काफी
कठिनाई से नीचे उतरकर तपस्वी निशाकर की कुटिया तक गया। इसके बाद उसने तपस्वी को अपनी
सारी बात बताई और आत्महत्या करने की इच्छा जाहिर की। उसकी कहानी सुनकर और कुछ समय तक
ध्यानमग्न होकर तपस्वी निशाकर, जो अपनी तपस्या के बल पर भविष्य के बारे में बताने की क्षमता रखते
थे, ने संपाति से कहा कि उसे उसके पंख फिर से प्राप्‍त हो जाएँगे। तपस्वी ने यह भी कहा कि भगवान्
विष्णु जब श्रीराम के रूप में अवतार लेंगे तो वे सीताजी की खोज में वानर सेना भेजेंगे और उस समय
संपाति उन्हें सीताजी के बारे में बताकर अपने पंख वापस पाएगा। जिस समय संपाति इस कहानी के बारे
में बता रहा था, उसे अपने पंख वापस मिल गए। खुशी से झूमते हुए वह आकाश में विचरण करने लगा।
यह सब देखकर और सुनकर वानर सेनाओं ने अपनी हताशा को भुला दिया और उनमें फिर से नए साहस
तथा उत्साह का संचार हुआ।
संपा​ित की उन बातों को सुनने के बाद उत्‍साहित होकर, वानर सेना तीव्र गति के साथ सागर की ओर
चलने लगी। दक्षिणी सागर (हिंद महसागर) के उत्तरी छोर पर पहुँचने के बाद वे सब वीर योद्धा वहाँ रुक
गए। (4/64/4) दक्षिणी समुद्र का यही उत्तरी छोर वास्‍तव में असमतल भूमि संरचना थी, जो बहुत उथले
पानी के नीचे डूबी हुई थी। यही ऊबड़-खाबड़ भूमि संरचना 7100 वर्ष पहले भी भारत को लंका से जोड़ती
थी। यह भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र के एक चित्र को देखने से स्पष्ट हो जाता है, जो भारत और श्रीलंका के
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बीच डूबे जलमग्‍न उथले व ऊबड़-खाबड़ उस भूमि मार्ग को भी दर्शाता है, जिसके ऊपर बाद में रामसेतु
का निर्माण हुआ। स्पेन की एक बेबसाइट, फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड चित्र में दक्षिणी समुद्र के
उत्तरी छोर एवं सेतु को देख13
ें (देखें चित्र-38)
गहरे असीमित समुद्र की ओर देखकर सभी वानर यूथपति निराश हो गए, क्योंकि उन्हें यह समझ नहीं
आ रहा था कि वे समुद्र पार कैसे जाएँ और सीता की खोज करने के लिए लंका तक कैसे पहुँचें। अंगद ने
वानर सेना की हिम्मत को बनाए रखने की कोशिश की। रात में अंगद ने वानर यूथपतियों से संपर्क किया
तथा यह जानने की कोशिश की कि उनमें से कोई समुद्र को छलाँगें लगाकर पार करने की क्षमता रखता है
या नहीं। पहले तो सभी चुप हो गए, परंतु फिर एक-एक कर उन सभी ने अपनी छलाँग लगाने की क्षमता
के बारे में बताया; कुछ ने ‍दस योजन या बीस योजन या तीस योजन बताया। रामायण काल के एक योजन
का वास्तविक माप आज भी पता नहीं है; शायद यह एक किलोमीटर का कुछ भाग था।
इस स्थिति में जांबवान ने हस्तक्षेप किया और हनुमान से कहा, “हे हनुमान! आपकी ताकत व
बुद्धिमत्ता, ऊर्जा और साहस आपको सभी अन्य जीवों से अलग करते हैं। आप अंजना और केसरी के पुत्र
के रूप में जाने तो जाते हैं, लेकिन वास्तव में आप पवन देवता के पुत्र हैं, जो अंजना के शरीर में मन के
माध्‍यम से प्रवेश कर चुके थे। आप पवन देवता के मानसिक संकल्‍प द्वारा पैदा हुए पुत्र हैं और इसलिए
आप छलाँग लगाने में भी पवन देवता के तुल्‍य हो। आपको यह वरदान प्राप्‍त है कि कोई अस्‍त्र-शस्‍त्र
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 247

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चित्र-38 ः दक्षिणी समुद्र का उत्तरी छोर (रामसेतु) © http://canalviajes.com (Spanish website), https://twitter.
com/Canalviajes, https://www.facebook.com/Canalviajes-293052490709330/

या वज्र आपके प्राण नहीं हर सकता। इसलिए हे पराक्रमी वीर हनुमान! आप अपने असीम बल को याद
कीजिए और इस विशाल समुद्र को लाँघ जाइए।” इस प्रकार अपनी अंदरूनी शक्ति और असाधारण
गति के बारे में याद दिलाए जाने पर हनुमान को अपने वेग का स्मरण हो गया। उन् होंने अपने शरीर
को खींचकर लंबा किया और वेग से परिपूर्ण होने लगे। उन् हें देखकर सभी वानर वीर हर्ष से भर गए
तथा हनुमान की स् तुति तथा गुणगान करने लगे।
हर्षित हो दीप्तिमान मुख से रोमांच तथा उत् साह से भरे हनुमान ने कहा, “मैं पवनपुत्र हनुमान
घोषणा करता हूँ कि मैं अपने वेग से महासागर को लाँघकर अवश् य ही इसके पार पहुँच जाऊँगा।
मैं अब विदेह कुमारी सीता से मिलकर ही वापस आऊँगा चाहे मुझे समूची लंका को हिलाना पड़े।”
हनुमान के इन उत् साहवर्धक शब् दों को सुनकर जांबवान, अंगद तथा अन् य सभी वानर वीर प्रसन् न तथा
निश्चिंत हो गए। उन् होंने कहा कि हनुमान के वापस लौटकर आने तक वे सब वहीं उनकी प्रतीक्षा करेंगे।
समुद्र को छलाँग लगाकर पार करने के लिए हनुमान निकटवर्ती महेंद्र पर्वत पर चढ़े, जो लताओं और
248 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

फूलों से लदा हुआ था, पक्षियों के झुंडों के कलरव से कोलाहलपूर्ण था तथा जल-प्रपातों से भरा हुआ
था। उन्होंने घोषणा की कि उस पर्वत के अतिरिक्त कोई भी आस-पास का अन्‍य स्‍थान उनके छलाँग
लगाते समय पैदा होनेवाले दबाव को सहन नहीं कर सकता। अपने मन को एकाग्रचित्त कर तथा मन
को लंका पर केंद्रित कर महातेजस्‍वी हनुमान अद्भुत गति से युक्त हो महेंद्र पर्वत को पैरों से दबाकर
वेगपूर्वक छलाँग लगाने को तैयार हो गए। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि सात हजार वर्ष
पहले समुद्र का स्तर आज से लगभग दस फीट नीचे था। उस समय बहुत कम ऊँचाई के प्रायःद्वीप
क्षेत्र को भी पर्वत या पहाड़ कहा जाता था। इसलिए यह ‘महेंद्र’ पर्वत निश्चित रूप से वह पर्वत नहीं
है, जो उड़ीसा में स्थित है। यह ‘माउंट महेंद्र’ वास्तव में कम ऊँचाई वाली पहाड़ी का नाम है, जो
दक्षिण सागर अर्थात्् हिंद महासागर के ऊपरी छोर के सन्निकट भारत के पूर्वी तट क्षेत्र पर स्थित था,
जैसा कि ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है। शोधार्थियों के अनुसार यह वास्तव में रामनाथपुरम् में स्थित
कम ऊँचाई वाला पर्वत था, जिसे आजकल ‘गंधमादन’ के नाम से जाना जाता है।

संदर्भ सूची—
1. डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
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ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर, पृष्‍ठ 1-8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyuJ6f FZo&t=429s-डॉ कलाम का भाषण,
भाग 1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU_m-X7Pc&t=10s-डॉ कलाम का भाषण,
भाग 2
4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminar-on-scientific-dating-of-ancient.
html, http://bit.ly/2r8ke1
5. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत, किष्किंधा
कांड, सर्ग 15, श्लोक-3
6. सी.बी. पाटिल “द फर्स्ट नियोलिथ इन इंडिया : ए रिव्यू विद स्पेशल रेफरेंस टू कर्नाटक”, पुरातत्त्व 33
7. डॉ. राम अवतार शर्मा, ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
न्यास, दिल्ली
8. डॉ. राम अवतार शर्मा, ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’ 2010, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
न्यास, दिल्ली
9. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, ‘इन क्वेस्ट ऑफ द डेट्स अॉफ वेदाज’, प्रकाशक प्रैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस
कंपनी
श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट, वाली का वध और सीता क • 249

10. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, ‘इन क्वेस्ट ऑफ द डेट्स ऑफ वेदाज’, प्रकाशक-प्रैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस
की कंपनी
11. सुबोध कपूर (संपादक), द इंडियन एनसाइक्लोपीडिया : इंडिया (सेंट्रल प्रोविंसिज), इंडोलॉजी
12. आर्नोल्ड राइट, साॅदर्न इंडिया : इट्स हिस्ट्री, पीपल, कॉमर्स, ऐंड इंडस्ट्रियल रिसोर्सेज, एशियन एज्यूकेशन
सर्विसेज, 1914—इंडिया
13. ©http://canalviajes.com (Spanish website), https://twitter.com/Canalviajes,
https://www.facebook.com/Canalviajes-293052490709330/

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हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 251

अध्याय-5

हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा


श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम का वर्णन
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“मेरा जन्म रामेश्वरम्् में हुआ था और मैं वहाँ लगभग
सोलह वर्षों तक रहा। रामेश्वरम्् द्वीप के सभी स्थानों से मैं
भलीभाँति परिचित हूँ, क्योंकि मैं युवावस् था में इस भू-भाग
पर फैले कई घरों में प्रतिदिन अखबार बाँटने का काम
करता था। इस द्वीप का केंद्रबिंदु रामनाथास्वामी मंदिर है,
वहाँ पर वह शिवलिंग विद्यमान है, जिसकी पूजा भगवान्
श्रीराम ने की थी।
MAGAZINE KING
“इस बात से सबसे अधिक प्रसन्नता मुझे होगी, यदि वैज्ञानिक विभिन्न वैज्ञानिक
साक्ष्यों के माध्यम से उन स् थानों की पहचान कर सकें, जहाँ भगवान् राम, लक्ष्मण,
हनुमान, सुग्रीव और वानर सेना ने लंका पर आक्रमण करने के लिए आधार स् थल तैयार
किए थे। वास्तव में मुझे वैज्ञानिक रूप से रामायण के काल का निर्धारण किए जाने में
अत्यधिक रुचि है।”
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-5

हनुमान की लंका में सीता से भेंट


तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम का वर्णन
1. सीता की खोज में लंका पहुँचने के लिए हनुमान ने महेंद्रगिरि से छलाँग लगाई
सीताजी की खोज में समुद्र लाँघकर लंका पहुँचने की इच्छा से हनुमानजी महेंद्र पर्वत पर गए। उन्होंने
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इस कठिन कार्य को करने में सफलता प्राप्त करने के लिए सूर्य, वायु और इंद्र आदि देवताओं की आराधना
की। इसके बाद पर्वत की चोटी को अपने हाथों तथा पैरों से दबाते हुए हनुमान ने महेंद्र पर्वत की चोटी से
प्रबल छलाँग लगाई। इस दबाव का प्रभाव इतना अधिक था कि कई वृक्षों की शाखाएँ टूट गईं तथा जल के
स‍्रोतों से जल तेजी से बहने लगा। वहाँ निवास करने वाले विद्याधर भयभीत हो उठे तथा वहाँ की महिलाएँ
डर से काँपने लगीं। इसके बाद ऋषि-मुनियों ने यह स्पष्ट किया कि वास्तव में सीताजी की खोज में समुद्र
लाँघने के लिए हनुमान पर्वत से छलाँग लगा रहे हैं। छलाँग लगाने से पहले हनुमान ने वानर सेना से कहा
था कि वह सीता के बारे में पता लगाकर ही वापस लौटेंगे और यदि वह ऐसा नहीं कर पाते हैं तो वे राक्षसों
के राजा रावण को जंजीर से बाँधकर श्रीराम के पास लाएँगे। हनुमानजी ने बड़े वेग से हवा में छलाँग लगाई
थी, इसलिए आकाश में उनकी दो भुजाएँ इस तरह दिखाई दे रही थीं जैसे कि दो पाँच-फनधारी सर्प पर्वत
शिखर से ऊपर उठ रहे हों। इस जोरदार छलाँग के कारण शक्तिशाली पवन के झोंकों से समुद्र में भारी
हलचल उत्पन्न हो गई। इस प्रकार तीव्र गति से छलाँग लगाते हुए वे सबसे पहले सागर के बीच में स्थित
मैनाक पर्वत पर पहुँचे तथा पुनः पूरी ताकत से छलाँग लगाई। उनकी आँखें हवा की दिशा का अनुसरण
कर रही थीं। उस समय व्हेल, घड़ियाल, मगरमच्छ, साँप इत्यादि समुद्री जलचर जीवों में काफी हलचल
मच गई तथा वे बहुत भयभीत हो गए। बार-बार बादलों में छिप जाने और फिर एकाएक प्रकट होने से
हनुमान बादलों के साथ लुका-छिपी खेलते हुए चंद्रमा की तरह दिखाई दे रहे थे।
उस समय देवताओं और सिद्धों ने हनुमान के समर्पण तथा उनकी प्रचंड गति की प्रशंसा की। वास्‍तव
254 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

में वे सब हनुमान की शक्ति का पता लगाना चाह रहे थे। अतः वे सर्पों की माता सुरसा के पास गए तथा
उससे विकराल राक्षसी के रूप में प्रकट होकर हनुमान को कुछ समय तक रोकने के लिए कहा। विकराल
रूप धारण करके सुरसा ने हनुमान का मार्ग रोक दिया। उसने गुफा के समान चौड़ा मुँह खोलते हुए कहा,
“तुम्हें मेरे पास आज का मेरा भोजन बनाकर भेजा गया है, अतः मैं तुम्हारा भक्षण कर जाऊँगी।” उसने यह
भी कहा कि उसे यह वरदान प्राप्त है कि कोई भी जीव उसके मुँह में प्रवेश करने के पश्चात् ही लंका में
प्रवेश कर सकता है। सुरसा के द्वारा इस तरह संबोधित किए जाने पर हनुमान ने उसे सीताजी के अपहरण
की कहानी सुनाई तथा यह भी बताया कि वह श्रीराम के द्वारा सौंपे गए शुभ कार्य को पूर्ण करने के लिए
जा रहे हैं। हनुमान ने उसे इस बात का आश्वासन भी दिया कि उन्हें सौंपे गए कार्य को पूर्ण कर लेने के
बाद वह स्वयं ही उसके पास भोजन के रूप में आ जाएँगे। सुरसा इस प्रकार के किसी आग्रह को मानने
के लिए तैयार नहीं थी; कुछ समय तक वे इस प्रकार तर्क-वितर्क करते रहे। इसके बाद सुरसा ने अपना
चौड़ा मुँह खोला और हनुमान को निगलने का प्रयास किया। उस समय सुरसा ने अपने शरीर को फैला
रखा था तथा वह अपने विस्तृत रूप में थी, जबकि हनुमान ने अपने शरीर को सिकोड़कर सूक्ष्‍म रूप धारण
कर लिया था। सुरसा के मुँह के रास्‍ते से पेट में प्रवेश कर वह उसे मारे बिना उसके विशालकाय शरीर से
बाहर आ गए तथा अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया। हनुमान को अपने मुँह से बाहर आते देखकर
सुरसा बोली, “जाओ और रघुवंशी श्रीराम के कार्य को पूर्ण करो।”
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लंका की ओर बढ़ने की इच्‍छा से हनुमान ने फिर से हवा में छलाँग लगाई और अपने साथ बादलों
को खींच ले गए। इसके बाद उन्होंने अचानक महसूस किया कि किसी शक्तिशाली बल के द्वारा उनकी
गति में अवरोध डाला जा रहा है, जो कि उन्हें नीचे खींचने की कोशिश कर रहा है, तब उन्हें सिम्हिका
नामक उस दूसरी विशाल राक्षसी को देखा, जो अपने विशाल मुँह को खोलकर खड़ी हुई थी। वह हनुमान
को अपनी छाया से रोके हुई थी, उनकी गति को अवरुद्ध कर रही थी और उन्हें नीचे भी खींच रही थी। उन्हें
निगलने के लिए वह अपना पूरा मुँह खोलकर खड़ी हो गई। हनुमान ने फिर से अपने शरीर को सिकोड़कर
छोटा कर लिया, सिम्हिका के मुँह में प्रवेश किया और उसके पेट को फाड़ते हुए बाहर आ गए। इस तरह
उन्होंने उसका वध कर डाला। फिर से प्रचंड छलाँग लगाकर हवा में बाज की तरह उड़ते हुए हनुमान ने
एक द्वीप देखा, जो चारों तरफ से पानी से घिरा हुआ था, उस द्वीप पर मलय पर्वत पर पाए जाने वाले वृक्षों
जैसे कई वृक्ष थे। आगे बढ़ते हुए वे लांबा पर्वत के शिखर पर उतरे, जहाँ काफी मात्रा में केतक, उड्डलक
और नारियल के पेड़ थे। वहाँ से हनुमान ने त्रिकूट पर्वत पर स्थित उस लंका को देखा जो इंद्र देवता की
अमरावती के समान समृद्ध एवं वैभवशाली प्रतीत हो रही थी।
त्रिकूट पर्वत के एक शिखर पर खड़े होकर हनुमान ने रावण के राज्य की अपार संपत्ति तथा किलेबदं
नगर के अभूतपूर्व सौंदर्य को देखा; उन्होंने वनों, वाटिकाओं तथा सुदं र पर्वतों को देखा। उन्होंने कमल, लिली
के फूलों से सुसज्जित तथा राजहंसों व बत्तखों से भरे सरोवर देख।े यह विचार करने के लिए कि वह सीता
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 255

को कहाँ खोजे, हनुमान ने पर्वत के शिखर से संपर्ण ू लंका को देखा। तब हनुमान ने स्‍वयं से कहा, “मैं अपने
गंतव्य स्थान पर पहुँच गया हूँ,” आवश्‍यक है कि राक्षस “अब मेरे बारे में कुछ भी न जान सकें और मुझे
उस स्थान को अवश्य खोजना है जहाँ सीताजी को रखा गया है।” हनुमान ने चारों ओर देखा तथा रावण के
राज्य की दौलत तथा शोभा को देखकर वे आश्चर्यचकित हो गए। वहाँ की गलियाँ स्वच्छ एवं सुसज्जित थीं,
वहाँ के सभी भवन पताकाओं और तोरणों से चमक रहे थे, उनकी अटारियों में सोना तथा बहुमूल्‍य रत्‍न जड़े
हुए थे। समुद्र की ओर से मंद-मंद पवन बह रहा था। इंद्र की अमरावती और कुबरे की अलकापुरी की तरह
ही रावण की राजधानी लंका में सारी सुख-सुविधाएँ थीं। इस नगर का निर्माण स्वयं भवन-निर्माण के देवता
विश्वकर्मा के द्वारा किया गया था तथा इसका संरक्षण रावण के द्वारा किया गया था। लंका बहुत असमतल
भू-भाग था, जिसमें किसी पूर्व निर्धारित स्‍थान पर पहुँचना काफी कठिन था तथा इसके चारों ओर शक्तिशाली
राक्षस पहरा दे रहे थे। उस समय हनुमान के मन में शंका हुई कि संभवतः श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त नहीं
कर सकेंग।े फिर उन्होंने इस प्रकार की किसी शंका अथवा भय से स्वयं को दूर रखने का निश्चय किया।
उन्‍होंने सबसे पहले उन्हें सौंपे गए कार्य अर्थात्् सीताजी के बारे में पता लगाने का निश्चय किया।
हनुमान चकित होकर आगे बढ़ते जा रहे थे, तभी उन्हें भयावह रूप वाली नगर की संरक्षिका देवी
लंकिनी ने निर्दयतापूर्वक फटकार लगाई। उसने पूछा, “तुम कौन हो, सूक्ष्म वानर? तुम यहाँ आने में किस
प्रकार सफल हुए और तुम्हारा यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? सत्य बताओ।” हनुमान ने कहा, “हाँ, मैं
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वास्तव में एक सूक्ष्म वानर हूँ और मैं यहाँ इस सुंदर नगर को देखने आया हूँ। मैं चारों ओर घूमकर सभी
चीजों को देखकर तथा अपनी उत्सुकता को संतुष्ट कर लेने के पश्चात् यहाँ से वापिस चला जाऊँगा।’’
संरक्षिका देवी लंकिनी क्रोध में आकर वानर पर एक मुष्टि का जोरदार प्रहार किया। हनुमान ने अपने बाएँ
हाथ से लंकिनी को एक मुक्‍का मारा और वह पीड़ा से तिलमिलाते हुए धरती पर गिर पड़ी। अचानक ही
लंका नगरी की आत्मा का प्रतिनिधित्व करनेवाली वह राक्षसी लंकिनी उठी तथा उस भविष्यवाणी को याद
करने लगी, जिसके अनुसार जब किसी वानर द्वारा मुष्टि प्रहार से उसे धराशायी कर दिया जाएगा तो उसके
द्वारा संरक्षित नगरी लंका नष्ट हो जाएगी। तब उसके मन में यह विचार आया कि रावण ने अनेक गंभीर
तथा संगीन पाप किए हैं। सीता का अपहरण करने वाले रावण तथा अन्य राक्षसों के विनाश का समय
आ गया है। लंका का अब अंत समीप आ गया है। मेरे द्वारा पहले सुनी हुई भविष्यवाणी वास्तविकता में
परिवर्तित होनेवाली है। फिर उसने हनुमान से कहा, “हे वानर, आप लंका नगरी के अंदर प्रवेश कर सकते
हैं तथा अपने सभी उद्देश्यों को पूर्ण कर सकते हैं।”
इसके बाद वह भयानक दिखाई देनेवाली लंकिनी चुपचाप एक ओर खड़ी हो गई। हनुमान दीवार
पर चढ़ गए और नगर में प्रवेश कर गए। वे उस राजकीय गली में गए, जहाँ सुंदर फूल बिखरे पड़े थे।
अट्टालिकाओं पर चढ़ते हुए तथा सुंदर भवनों की छतों से होते हुए, उन्होंने नगर की सुंदरता की प्रशंसा की।
राक्षसों के राजा का महल, गलियाँ तथा वहाँ की सजावट अभूतपूर्व सुंदरता से चमक रहे थे। नगर पूर्णतः
256 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

आनंदित जीवन से परिपूर्ण था। पहरेदार तीर, तलवारों, लाठियों, भालों तथा अन्य औजारों से सुसज्जित थे।
सभी योद्धा युद्ध में निपुण थे। हनुमान ने कई भवनों का निरीक्षण किया, कई सुंदर नारियों को देखा, लेकिन
श्रीराम की प्राणप्रिया सीताजी कहीं दिखाई नहीं दे रही थीं। इसके बाद हनुमान एक विशाल भवन के पास
गए, जिसके चारों ओर कई शानदार भवन दिखाई दे रहे थे। सामने हाथी, घोड़े और पैदल सैनिक चारों ओर
दिखाई दे रहे थे। उसके चारों ओर ऊँची दीवारें थीं, उस महल की संरचना की सुंदरता तथा सजावटों की
भव्‍यता से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह भवन रावण का है, जो लंका का केंद्रीय गौरव है।
सीताजी को खोजते हुए हनुमान ने रावण के महल का अंतःपुर देखा। उन्होंने उस कक्ष में कई सुंदर
नारियों को विश्राम करते हुए देखा, सभी एक-दूसरे से अधिक सुंदर एवं रूपवान थीं, लेकिन उन्होंने वहाँ
भी सीताजी को नहीं पाया। इसके बाद हनुमान ने गलीचे पर बिछे बिस्तरों के चारों ओर स्त्रियों को देखा।
कुछ स्त्रियाँ संगीत गाते-गाते ही सो गई थीं, क्योंकि वे अपने वाद्य यंत्रों को सोते समय भी गले से लगाए
रखे हुई थीं, लेकिन सीताजी कहीं भी नहीं दिखाई दीं। अत्यंत निराश होकर हनुमान ने सीताजी को रावण के
मंत्रियों तथा सेनापतियों के घरों में खोजना प्रारंभ किया। वह रावण के सबसे शक्तिशाली सेना प्रमुख प्रहस्‍त
के घर गए। उसके बाद उन्होंने वैदेही को रावण के भाई कुंभकरण और विभीषण के भवनों में खोजा।
तत्पश्चात् उन्होंने सीताजी को दशानन के नाना सुमाली के भवन में खोजा। इनमें से किसी भी स्थान पर
सीताजी का कोई भी अता-पता न मिलने पर हनुमान ने रावण के सबसे बड़े और शक्तिशाली पुत्र इंद्रजीत
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के भवन में प्रवेश किया, लेकिन उन्हें वहाँ भी मिथिला की राजकुमारी सीताजी कहीं दिखाई नहीं दीं।
सीताजी का पता कहीं नहीं लगने पर हनुमान बहुत चिंतित हो गए। इसके बाद हनुमान ने घमंडी तथा
शराबी राक्षसों के कुछ भवनों को देखा। सभी नशे में डगमगा रहे थे तथा अपनी महिला साथियों के साथ
प्रेमालाप कर रहे थे। उस लंका में हनुमान ने कुछ बुद्धिमान तथा सुजान महिलाओं को भी देखा, जिनके
पति उनका बहुत सम्मान करते थे। सीता का कुछ भी पता नहीं लगने पर हनुमान ने रावण के विशालकाय
तथा सुरक्षित भवन के सभी कोनों में फिर से खोज करने का निर्णय लिया। उन्होंने कई भव्‍य भवनों को
देखा, जो कि रावण के महल के भीतर थे। उन्होंने त्रिकूट पवर्त शिखर पर स्थित रावण के महल की हृदय-
आह्ल‍ादित कर देनेवाली सुंदरता को एक बार फिर देखा, जिसमें सोने की जालियाँ तथा अट्टालिकाओं
में मणियाँ, रत्‍न, चमकीले मूगँ े, हीरे तथा अन्‍य कीमती पत्‍थर जड़े हुए थे। सभी भवन शानदार रूप से
सुसज्जित थे। इसके बाद हनुमान को एक हवाई यान दिखाई दिया, जिसमें सुंदर चित्रकारी के साथ–साथ
अत्यंत कीमती पत्थर भी लगे हुए थे तथा अति सुंदर प्रतीत हो रहा था। इसे भूमि पर उस जगह रखा हुआ
था, जहाँ से राक्षसराज रावण आसानी से उसके ऊपर सवार हो सकता था। यह पुष्पक विमान था, जिसमें
आकाश मार्ग से लंबी दूरी तय करने की क्षमता थी। हनुमान पुष्पक विमान के दोनों ओर तथा अंदर भी गए,
लेकिन उन्हें सीताजी कहीं नहीं दिखाई दीं।
यहाँ पर रावण और उसके परिवार का संक्षिप्त परिचय देना उचित होगा। रावण कौन था? उसने
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 257

इतनी अधिक संपत्ति और शक्ति कैसे एकत्रित की? उसने लंका जैसे सुंदर व उन्नत नगर का निर्माण कब
और कैसे किया?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर यह है कि वास्तव में रावण पुलस्त्य नामक ब्राह्म‍ण ऋषि का पौत्र था।
(7/3/1) पुलत्स्य स्मृति के लेखक, महर्षि पुलत्स्य नर्मदा नदी के किनारे रहते थे। उनका विश्रवा नामक
एक पुत्र था, जिसका विवाह ऋषि भरद्वाज की पुत्री देववर्णी से हुआ। उसके गर्भ से कुबेर का जन्म हुआ,
जो बड़ा यशस्‍वी तथा तेजस्वी हुआ।
सुकेश नाम का एक शक्तिशाली राक्षस राजा था। उसके तीन बलशाली पुत्र हुए, जिनके नाम थे
माल्‍यवान, सुमाली तथा माली। सुमाली रूपवान तथा शक्तिवान था। उसने अति सुंदर कन्‍या केतुमति से
शादी कर ली। उन्‍होंने कई बहादुर पुत्रों को जन्‍म दिया, जिनमें शामिल थे प्रहस्‍त, धूम्राक्ष तथा अकंपन, जो
रावण की सेना के सर्वाधिक शक्तिशाली कमांडर थे। सुमाली व केतुमति ने चार पुत्रियों को भी जन्‍म दिया,
जिनमें शामिल थीं—कुम्‍भीनासी तथा कैकसी। (7/5)
सुमाली अपनी अति सुंदर कन्‍या कैकसी का विवाह विश्‍व के सबसे अधिक शक्तिशाली पुरुष के
साथ करना चाहता था, ताकि एक असाधारण वारिस पैदा हो सके। सुमाली ने विश्‍व के कई शक्तिशाली
राजाओं को अपनी पुत्री के अयोग्‍य घोषित कर दिया, क्‍योंकि वह पराक्रम में सुमाली से कम थे। तत्पश्चात्
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अपने पिता सुमाली के सुझाव के अनुसार कैकसी ने ऋषियों के बीच में अपने योग्‍य वर की खोज करनी
प्रारंभ कर दी। उसने पुलस्‍त्‍य मुनि के पुत्र ऋषि विश्रवा को अपना पति बनाने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की। मुनि
विश्रवा ने उसे चेतावनी दी कि कैकसी ने अशुभ समय में उनसे संभोग की इच्‍छा व्‍यक्‍त की है, इसलिए
उनके बच्‍चे बुराई में स्थिर रहेंगे, लेकिन इसके बावजूद विश्रवा ने कैकसी के विवाह प्रस्‍ताव को स्‍वीकार
कर लिया। उनका पहला पुत्र महाबली दशग्रीव अर्थात्् रावण हुआ, दूसरा पुत्र विशालकाय कुंभकर्ण हुआ।
फिर विकराल मुखवाली शूर्पणखा पैदा हुई, अंत में धर्मात्‍मा विभीषण का जन्‍म हुआ (7/9)।5
महोदर तथा महाप्रस्‍व रावण के दो सौतेले भाई थे, जिनको शायद विश्रवा तथा अनला ने जन्म दिया
था। रावण की सौतेली बहन कुंभिनी का जन्‍म भी विश्रवा तथा अनला के मिलन से हुआ। वही बाद में राक्षस
मधु की पत्‍नी तथा लवणासुर की माँ बनी। लवणासुर का वध श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्‍न ने किया था।
रावण जन्‍म से ही आक्रामक तथा अभिमानी था, परंतु वह बहुत बड़ा विद्वान् भी था। अपने पिता
विश्रवा के संरक्षण में रावण ने वेदों तथा शास्‍त्रों का अध्‍ययन किया तथा कई कलाओं में महारथ हासिल
कर ली। रावण के नाना सुमाली, रावण में राक्षसी गुणों का संचार करने का हर संभव प्रयत्‍न करते थे।
रावण का मूल नाम दशग्रीव था, जिसका अर्थ शायद दस संकायों का स्‍वामी होगा, क्‍योंकि उसने चार वेदों
और छह शास्‍त्रों का ज्ञान अर्जित कर रखा था। रावण ने अपनी तपस्या से ब्रह्म‍ाजी को प्रसन्न कर वरदान
प्राप्त किया कि देवता अथवा दानव, गंधर्व अथवा यक्ष उसका वध न कर सकें। ब्रह्म‍ा से वरदान प्राप्‍त हो
258 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जाने के पश्‍चात् दशग्रीव की राक्षसी प्रवृत्तियाँ अपने चरम पर पहुँच गईं। तत्पश्चात् उसे ‘रावण’ के नाम
से जाना जाने लगा।
रावण के दो मौसेरे भाई खर तथा दूषण भी थे, जिनको कैकसी की बहन ने जन्‍म दिया था। एक युद्ध
के दौरान रावण के हाथों अपनी बहन शूर्पणखा के पति विद्युज्जिह्व‍ा का वध हो गया था। तत्‍पश्‍चात् उसे
सांत्वना देने के लिए रावण ने खर के साथ जनस्‍थान में उसे अपनी मनमानी करने के लिए छोड़ दिया था।
जनस्‍थान क्षेत्र, जिसमें पंचवटी शामिल थी, आधुनिक महाराष्‍ट्र में स्थित था। (7/24)
विश्रवा का सबसे ज्येष्ठ पुत्र कुबेर था, जो बड़ा यशस्‍वी तथा तेजस्‍वी हुआ। वही लंका का राजा
बना। उसने देवताओं के वास्‍तुकार विश्वकर्मा के नेतृत्व में लंका नगरी में निर्माण करवाकर उसे बहुत सुंदर
तथा समृद्ध बना दिया। अपने प्रारंभिक जीवनकाल में रावण हिंदू देवता ब्रह्म‍ा के प्रति बेहद समर्पित था।
अपने पिता विश्रवा के मार्गदर्शन में प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद उस भगवान् को प्रसन्‍न करने के लिए ब्रह्म‍ा
की कठिन तपस्या की, जो कई वर्षों तक चली। कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्म‍ाजी ने रावण को एक
वरदान दिया; जिसके अनुसार न तो देवता और न ही असुर, न तो यक्ष और न ही गंधर्व रावण का वध करने
में सक्षम होंगे। मानव जाति को तुच्‍छ समझने वाले रावण ने ब्रह्म‍ाजी से मनुष्‍यों से सुरक्षा का वरदान नहीं
माँगा। इस वरदान को पाकर रावण अपने नाना सुमाली के पास गया और उसकी सेना का नेतृत्‍व ग्रहण
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कर लिया। इसके बाद उसने अपने धर्मनिष्‍ठ बड़े भाई कुबेर द्वारा बसाई गई सुंदर लंका नगरी को अपने
अधीन करने का मन बना लिया।
धर्मपरायण कुबेर ने उदारतापूर्वक अपनी संपूर्ण संपत्ति को सभी भाइयों और बहनों के साथ साझा
किया था। इसके बावजूद रावण ने उससे संपर्ण ू लंका की माँग की तथा धमकी दी कि यदि वह आसानी
से ऐसा नहीं करता है तो वह लंका को बलपूर्वक छीन लेगा। विश्रवा ने कुबेर को सलाह दी कि वह रावण
को लंका द्वीप दे दे, क्योंकि रावण बहुत शक्तिशाली हो गया था और कुबेर के लिए उसे हराना संभव नहीं
था। इस प्रकार रावण ने अपने बड़े भाई से लंका नगरी छीन ली और इसके बाद इसे दिव्‍य वास्तुकार माया
की मदद से विश्व के सबसे सुंदर तथा समृद्ध नगर के रूप में विकसित कर लिया।
रावण ने कुबेर से हवाई विमान ‘पुष्पक’ भी छीन लिया। रावण की मानसिकता क्रूर होने के साथ-
साथ काफी विकृत भी हो गई थी। उसने इस हवाई विमान का उपयोग यक्ष, गंधर्व, दानवों तथा मानवों
की सुंदर कन्याओं के पतियों, भाइयों और पिताओं की हत्या कर उन्हें बलपूर्वक अपहरण करने में किया।
इसके बाद वह इन सुंदर युवतियों का उपभोग करता था, जो हमेशा चिल्लाती, सिसकती तथा रोती रहती थीं
और मन-ही-मन शाप भी देती थीं कि एक दिन किसी महिला के कारण ही रावण मृत्‍यु को प्राप्‍त होगा।
कुछ समय पश्‍चात् रावण ने एक दिन अप्‍सराओं में भी श्रेष्‍ठ रंभा को देखा और उस पर जबरदस्‍ती अपना
अधिकार जमाने लगा। काँपती हुई रंभा ने रावण को बताया कि वह उसकी पुत्रवधू के समान है, क्‍योंकि वह
नलकूबर, जो कुबेर का पुत्र है, उसकी होने वाली पत्‍नी है, परंतु रावण ने बलपूर्वक रंभा को एक शिला पर
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 259

बैठा लिया और कामभोग में आसक्‍त हो उसके साथ जबरदस्‍ती समागम किया।
भय, लज्‍जा तथा दुःख से काँपती हुई रंभा नलकूबर के पास गई और उसे पूरे घटनाक्रम से अवगत
करवाया। शोकग्रस्‍त नलकूबर ने ब्रह्म‍ा में अपने मन को स्थिर कर ध्‍यान लगाया तथा रावण द्वारा किए गए
जघन्य पाप को समझकर उसे शाप दिया। उन्‍होंने कहा कि अगर भविष्‍य में रावण किसी अनिच्‍छुक युवती
पर बलात्‍कार करेगा तो उसके मस्‍तक के सात टुकड़े हो जाएँगे (7/26)।6 उस भयंकर शाप को सुनने के
पश्‍चात् रावण ने अपने को न चाहनेवाली स्त्रियों से बलात्‍कार करना छोड़ दिया (7/26)।
रावण का विवाह सुप्रसिद्ध वास्तुकार माया की पुत्री मंदोदरी से हुआ तथा विभीषण का विवाह
महात्मा शैलूष की भद्र कन्या सरमा से हुआ। (7/12) बाद में किसी समय रावण ने धन्यमालिनी तथा
एक अन्य स्त्री से विवाह किया। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के अनुसार, रावण की इन तीन पत्नियों
से छह पुत्र हुए—
1. मेघनाद—इंद्रजीत के नाम से भी जाना जाता था, रावण का सबसे शक्तिशाली पुत्र था।
2. अतिकाय—इसे धनुष तथा बाण के रहस्यों को समझने तथा जानने के बारे में भगवान् शिव से
वरदान मिला था।
3. देवांतक—यह रावण की सेना का एक शक्तिशाली सेनापति था।
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4. नरांतक—यह लाखों दानवों की एक सेना का प्रभारी था।
5. त्रिशिरा—खर-दूषण के साथ पंचवटी में युद्ध करते समय इसकी हत्या श्रीराम ने की थी।
6. अक्षय कुमार—रावण का सबसे छोटा पुत्र, जिसका वध हनुमान ने अशोक वाटिका में किया।

हनुमान अब भी सीताजी को सभी ओर खोज रहे थे। इसके बाद उन्होंने देखा कि रावण के भव्य
महल के केंद्र में बहुत ही आलीशान भवन था। उन्होंने वहाँ पक रहे विभिन्न भोजनों की खुशबू महसूस
की और फिर उन्हें रावण की आवाज सुनाई दी, जो किसी को पुकार रहा था। इसके बाद हनुमान ने रावण
के शानदार, बड़े तथा पसंदीदा कक्ष को ध्‍यानपूर्वक देखा। उन्होंने देखा कि कमरे की सतह हाथी-दाँत,
मोतियों और मूगँ ों से सुसज्जित है; वहाँ लंबे, सुनहरी और काफी सुसज्जित स्तंभ भी थे। वहाँ सुंदर कालीन
था, जिसके ऊपर अनेक सुंदर युवतियाँ भिन्न-भिन्न पोशाकों में विश्राम कर रही थीं। वे सभी रत्नों एवं
आभूषणों से सुसज्जित थीं और मदिरा पान तथा नृत्य के बाद मदहोश होकर सो रही थीं। वे रात के पँखुड़ी
बंद कमल के समान दिखाई दे रही थीं तथा बहुत ही सुहावनी सुगंध फैला रही थीं। हनुमान ने यह भी देखा
कि तपस्वियों, गंधर्वों और मानवों की कई पुत्रियाँ भी विलासिता और धन की लालसा में रावण के साथ
रहती थीं। उन्होंने रावण को एक कक्ष में एक बड़े पलंग पर स्वर्णिम पोशाक में मूल्‍यवान आभूषण पहने
सोते हुए देखा। साथ ही दूसरे बहुमूल्‍य पलंग पर सोई हुई अति सुंदर मंदोदरी को देखा, जो सोते हुए भी
आभा तथा महक का उत्‍सर्जन कर रही थी। कुछ समय के लिए हनुमान को लगा कि वह सुंदर प्रतापी नारी
260 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

ही सीता है, लेकिन फिर उसे ऐसा लगा कि अपने पति श्रीराम से अलग होकर, पवित्र आत्मा सीता न तो
भोजन और पेय का आनंद ले सकती है और न ही रावण के कक्ष में आराम से सो सकती हैं, जब सीता
का कोई चिह्न‍‍ कहीं भी नहीं मिला तो हनुमान कुछ समय के लिए निराश हो गए।

2. हनुमान ने अशोक वाटिका में शिंशपा वृक्ष के नीचे सीताजी को बैठे देखा
कुछ समय के लिए हनुमान को यह डर सताने लगा कि कहीं पवित्रात्मा सीताजी की रावण के द्वारा
हत्या न कर दी गई हो। उनकी सारी आशाएँ धूमिल होती दिखाई दे रही थीं। फिर उन्होंने सोचा कि वे अपना
चेहरा सुग्रीव तथा श्रीराम को कभी नहीं दिखाएँग।े ऐसा सोचते हुए हनुमान ने आवासीय घरों में सीताजी
को खोजना प्रारंभ किया, लेकिन वहाँ भी सीताजी का कोई पता नहीं चला। इसके बाद हनुमान ने सीताजी
की खोज पुष्पक विमान में की, जो कि रावण के महल के मध्‍य में रखा हुआ था। इसे विश्वकर्मा के द्वारा
विशेष रूप से बनाया गया था। इसमें सभी प्रकार के मनोरम रूपांकन थे। इसमें कीमती पत्थरों, मणियों,
रत्‍नों तथा मूगँ ों का समुचित उपयोग किया गया था। वह एक अद्भुत विमान था, जिसे रावण के बड़े भाई
कुबरे के लिए बनाया गया था। कुबरे को पराजित कर रावण ने इस पुष्पक विमान को उससे छीन लिया था।
वह अत्यंत ही सुदं र विमान था और अपने विशेष रूप से निर्मित स्थान पर रखा हुआ था। उस हवाई विमान
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के अंदर सीताजी को नहीं पाकर हनुमान ने सीताजी के बारे में पता लगाए बिना वापस जाने के परिणाम के
विषय में विचार किया। उन्होंने सोचा कि सुग्रीव अवश्य ही क्रोधित होगा और अंगद तथा अन्य वानर सेना
सुग्रीव के क्रोध से बच नहीं पाएँग।े रावण का वध करने की योजना भी उनके दिमाग में आ रही थी।
उस समय कई अन्य अप्रिय विचार हनुमान के मस्तिष्क में आ रहे थे। उन्हें यह भी भय था कि
रावण के चंगुल से स्वयं को मुक्‍त कराने के लिए कहीं सीताजी पुष्‍पक विमान से समुद्र में न कूद गई हों।
फिर उन्हें स्‍मरण हुआ कि संपाति ने तो कहा था कि सीताजी रावण की लंका में कैद हैं तथा जीवित हैं!
उन्होंने इसके बाद निश्चय किया कि मुझे हर हाल में इस बात का पता लगाना है कि सीताजी जीवित हैं
या मृत। श्रीराम को सही तथ्यों की जानकारी देना आवश्यक है, जो कि अपनी पत्नी को अपने प्राणों से भी
अधिक प्‍यार करते हैं। हनुमानजी इस बात से भी भयभीत थे कि यदि वे श्रीराम के पास सीताजी के बारे
में पता लगाए बिना वापस लौटे तो वे अपने प्राण भी त्याग सकते हैं। मेधावी लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न
भी इसके बाद अपने प्राण त्याग सकते हैं। श्रीराम के अनन्य भक्त सुग्रीव भी इसके बाद धैर्य खो सकते
हैं। परिणामस्वरूप समस्त वानर सेना निराशा के समुद्र में डूब सकती है और आत्महत्या की प्रवृत्तियों को
विकसित कर सकती है। एक बार फिर से संपूर्ण लंका में सीताजी की खोज करने के विचार से हनुमानजी
ने चारों ओर देखा। अचानक उन्हें एक सुंदर वाटिका दिखाई दी, जिसमें कई तरह के अनेक सुंदर पेड़-पौधे
थे, जिसकी रखवाली कई राक्षस और राक्षसियाँ कर रहे थे। सीताजी का पता लगाने के लिए सफलता पाने
हेतु ईश्वर से प्रार्थना करते हुए हनुमान ने उस दीवार से वाटिका में झाँककर देखा।
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 261

वह स्थान अशोक वाटिका था, जिसमें अशोक, साल, अमलतास, चंपा, नागकेसर और आम जैसे
कई वृक्ष थे और तरह-तरह के पुष्प खिले हुए थे। हनुमानजी ने सूर्य और चद्रमा, इंद्र और वरुण, विष्णु
और अश्‍विन से इक्ष्वाकु वंश की असहाय सीताजी को खोजने में सफलता प्रदान करने के लिए प्रार्थना
की। अपने शरीर को सिकोड़ते हुए हनुमान उस वाटिका में कूद गए तथा बहुत सूक्ष्मता से उसका सर्वेक्षण
करने लगे। वाटिका में चारों ओर घूमते हुए हनुमान ने वहाँ हरे-भरे मैदान, कमल और कमलनियों से
भरे सुंदर तालाब देखे। उन्होंने बत्तखों और चकवों की आवाजें भी सुनीं। हनुमान ने सैकड़ों लताओं से
घिरे बड़े-बड़े वृक्षों को भी देखा। इसके बाद हनुमान ने एक कृत्रिम आयताकार तालाब भी देखा, जिसमें
शांत ठंडा जल था, उसमें रत्‍नजडि़त सीढ़ियाँ बनी हुई थीं तथा उसके चारों ओर सुंदर भवन थे। वहाँ
उन्हें एकमात्र शिंशपा अर्थात्् शीशम का पेड़ दिखाई दिया, जिस पर सुनहरी फूलों से लदी हुई अनेक
लताएँ थीं। शीशम के उस ऊँचे पेड़ पर चढ़कर हनुमान ने सीताजी का पता लगाने के लिए चारों ओर
देखा। हनुमान ने देखा कि वाटिका कई किस्म के वृक्षों जैसे अशोक, अमलतास, पलाश, सप्तपर्ण, चंपा,
नागकेसर और आम से सजी हुई है और उसमें हजारों पेड़ ऐसे थे, जिनके फूल विभिन्न रंगों के कीमती
पत्थरों की तरह चमक रहे थे।
सुंदरकाण्ड में वर्णित लंका में अशोक वाटिका के पौधे (अध्याय-5)
क्रम
सं.
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रामायण में पौधे
का नाम
संदर्भ :
(कांड/ सर्ग)
सामान्य नाम
(हिंदी)
सामान्य नाम (अंग्रेजी) वैज्ञानिक नाम

1. उद्दालक 5/14 लसोरा Indian Lasora Cordia myxa

2. नागवृक्ष 5/14 नागकेसर Nagachampa Mesua ferrea

3. चूता 5/14 आम Mango Mangifera indica

4. अशोक 5/14 अशोक Ashok Saraca asoca

5. कार्निकर 5/14 अमलतास Amaltas Cassia fistula

6. किंशुक 5/14 पलाश Palas Butea monosperma

7. पुन्‍नाग 5/14 कल्पवृक्ष Laurel Calophyllum


inophyllum

8. सप्‍तपर्ण 5/14 छितवन Milkwood /


Blackboard
Alstonia scoleris

9. चंपक 5/14 चंपा Champa Michelia champaca

10. शिंशपा 5/14 शीशम Shisham/Rose


wood
Dalbergia sissoo
262 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

श्री प्रियदर्शी के कथनानुसार यहाँ वर्णित अधिकांश वृक्ष और पौधे, विशेषकर शिंशपा (शीशम),
अशोक, साल, आम आदि इस क्षेत्र में 7000 वर्ष पहले भी पाए जाते थे। पूरा विवरण मध्य नूतन युग
(Mid Holocene) के अनुकूलतम जलवायु के अनुसार सही बैठता है।7-8 उस समय अच्छी वर्षा होती
थी। रामायण में वर्णित ये पेड़-पौधे रामायण की घटनाओं के खगोलीय तिथि निर्धारण की भी संपुष्टि करते
हैं, जो 5100 वर्ष ई.पू. क्रमिक रूप से घटित हुई थीं।
सुंदरकांड में वर्णित लंका में अशोक वाटिका के कुछ पौधे,
जो आज भी पाए जाते हैं (देखें चित्र-39)

MAGAZINE KING

शिंशपा (शीशम)

किंशुक (पलाश) नागवृक्ष (नागकेसर)


हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 263

शिंशपा पेड़ को भारतीय रोजवुड या शीशम के रूप में भी जाना जाता है, इसका वैज्ञानिक नाम
दलबर्गिया सिस्सू (Dalbergia sissoo) है, ये पेड़ एशिया के मूल निवासी हैं और भारत, बर्मा और
श्रीलंका में पाए जाते हैं। पेड़ के औषधीय मूल्य हैं और इसकी लकड़ी का उपयोग ऋग्वैदिक और
रामायण युग के दौरान रथ बनाने के लिए भी किया जाता था। पुरातात्त्विक व वनस्पति अध्ययन ने
श्रीलंका और भारत में इस पेड़ की उपस्थिति के साक्ष्य 7000 वर्ष पूर्व से दिए गए हैं (प्रियदर्शी-2014,
2016 )।9
शिंशपा वृक्ष के ऊपर बैठकर हनुमान को कुछ ही दूरी पर एक ऊँचा मंदिर दिखाई दिया। इसके
बाद हनुमान की नजर एक मलिन कपड़े धारण किए हुए दुर्बल स्‍त्री पर पड़ी, जो राक्षसियों से घिरी
हुई अत्यंत शोक संतप्त दिखाई दे रही थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे तथा वह काफी कमजोर
और निराश दिखाई दे रही थी। वह तपस्विनी मंगल ग्रह से आक्रांत रोहिणी के समान शोक से पीडि़त,
दु:ख से संतप्त तथा क्षीणकाय दिखाई दे रही थी। वह सुंदर मुखाकृतिवाली देवी-तुल्य स्त्री किसी
असहनीय दुःख से संतप्त थी और ऐसा लग रहा था, मानो चाँद की चमक को बादलों ने छिपा लिया
हो। जब वह अपनी आँखों को दूसरी तरफ फेरती थी तो वह केवल राक्षसियों को ही देखती थी, जिन्हें
दानवियों के नाम से भी जाना जाता था। वह उस हिरणी की तरह महसूस कर रही थी, जो अपने झुंड
से अलग हो गई हो और अनेक जंगली कुत्तों से घिर गई हो। वह हनुमान को एक साथ पूजनीय व
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दयनीय अवस्‍था में दिखाई दी और देखने पर ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे उनका सौभाग्य बर्बादी में
बदल गया हो, बुद्धि विक्षिप्‍त हो गई हो तथा दोषरहित पवित्रता पर झूठा कलंक लग गया हो।
हनुमान ने स्वयं को दृढ़ विश्‍वास के साथ कहा, “निश्चित रूप से यह दिव्य सुंदर स्त्री, जो कि
सागर में तूफान जैसी कष्टप्रद स्थितियों में भी अपने सच्‍चे प्‍यार में अडिग दिखाई दे रही है, वह ही
श्रीराम की प्रेयसी एवं मिथिला की राजकुमारी सीता है। यह वही स्त्री है, जिसके लिए श्रीराम को
तीन-स्तरीय पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है, इनके कष्टों का शोक, इनके अपमान के लिए क्रोध तथा
इनसे अलग रहने के कारण विरह की पीड़ा।” जब हनुमान लगातार सीता को देख रहे थे, हनुमान
का हृदय समुद्र के पार छलाँग लगाकर भगवान् श्रीराम को नमन करने के लिए उनके पैरों को खोज
रहा था। हनुमान ने फिर से सीताजी की ओर देखा और स्‍वयं से कहा, इसी सुंदर, सुशील तथा पवित्र
महिला के कारण शक्तिशाली वाली का वध हुआ, इन्हीं की वजह से कबंध और विराध मृत्यु को
प्राप्त हुए तथा इन्हीं की वजह से चौदह हजार राक्षसों सहित खर और दूषण का वध हुआ। यह श्रीराम
की वही समर्पित पत्नी है, जो दुःख निवारक अशोक वाटिका के बीच में रहते हुए भी अथाह शोक
सागर में डूबी हुई है। हनुमान ने यह भी अनुभव किया कि उनकी सुरक्षा में लगी राक्षसियाँ अत्यंत
कुरूप तथा भयानक हैं।
संध्या का समय था, लगभग सौ सुंदर स्त्रियों से घिरे हुए रावण ने अशोक वाटिका में प्रवेश
264 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

किया। वे सभी स्त्रियाँ सोने तथा कीमती रत्नों से जड़े आभूषणों से सुसज्जित थीं तथा कुछ स्त्रियाँ नशे
में झूमती हुई सी दिखाई दे रही थीं। काम, दर्प और मद से युक्‍त रूपवान रावण साक्षात् कामदेव दिखाई
दे रहा था। जैसे ही हनुमान ने रावण को अपनी ओर आते हुए देखा तो स्‍वयं को सिकोड़कर शिंशपा
पेड़ के घने पत्तों में छिप गए।

3. रावण जब सीता को धमका रहा था, उस समय लंका में चंद्रग्रहण दिखाई दिया
जब रूप-यौवन से संपन्‍न रावण सीताजी की ओर बढ़ रहा था, तो सीताजी का शरीर दु:ख तथा डर
से इस प्रकार काँपने लगा, जैसे कि तूफान में कोई कदली का पेड़ हिल रहा हो। वह अत्यंत दीन और
दु:खी दिखाई दे रही थीं तथा शोक और भय से ग्रसित थीं। इसके बाद शोकसंतप्त सीता रोने लगीं। उस
समय उनका मुख पूर्णिमा के दिन राहु से ग्रसित उदय हो रहे चंद्रमा के समान आभाहीन दिखाई देने लगा।
वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित पौष की पूर्णिमा की रात्रि के इस चंद्रग्रहण को प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर ने कोलंबो
के अक्षांश और रेखांश से दिनांक 12 सितंबर, 5076 को शाम 4:15 बजे से 6:55 बजे तक दिखाया है।
यह पूरी तरह महर्षि वाल्मीकि के द्वारा वर्णित घटनाक्रम के अनुसार भी है10—
पौर्णमासीमिव निशां तमोग्रस्तेन्दुमण्डलाम्।
पद्मिनीमिव विध्वस्तां हतशूरां चमूमिव॥ वा. रा. 5/19/13
MAGAZINE KING तस्या: पुनर्बिम्बफलोपमोष्ठं स्वक्षिभ्रुकेशान्तमरालपक्ष्म
वक्‍त्रं बभासे सितशुक्लदंष्ट्रं रहोर्मुखाच्‍चंद्र इव प्रमुक्त:॥ वा.रा. 5/29/7

अर्थात्् रावण को अपने निकट आते देखकर सीताजी का मुख उस पूर्णिमा की रात में ग्रहण से ग्रसित
चंद्रमा के समान दिखाई दे रहा था, जिसे उस समय लंका के आकाश में देखा गया था। सीताजी उस समय
तुषारपात से जीर्ण-शीर्ण कमलिनी या फिर ऐसी सेना के समान दिखाई दे रही थीं, जिसका सेनापति मारा
गया हो। यह उस समय की स्थिति है, जब रावण सीताजी को धमका रहा था तथा राक्षसियाँ उन्हें यातनाएँ
दे रही थीं। (यह चंद्रग्रहण लगभग 2 घंटे 40 मिनट तक दिखाई दिया और चंद्रग्रहण के समाप्त होने के
दृश्य को भी वाल्मीकिजी ने 5/29/7 में बखूबी वर्णित किया है)
5/29/7 : रावण के जाने के पश्चात‍् राहु के ग्रास से मुक्‍त हुए चंद्रमा के समान सीताजी का मुख
लाल होंठों, सुंदर नेत्रों, मनोहर भौंहों, रुचिर केशों और उज्‍ज्वल दाँतों से सुशोभित हो चमकने लगा।
प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करके आकाशीय दृश्य निकाला गया, जिससे यह पता चला कि
12 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. को श्रीलंका में चंद्रग्रहण का अवलोकन किया गया था, जो 4.15 बजे शाम
से 6:55 बजे शाम तक देखा गया था। इस आकाशीय दृश्य का स्क्रीन शॉट नीचे दिया गया है, जिससे यह
स्पष्ट हो जाता है कि यह चंद्रग्रहण कोलंबो (7° उत्तर, 80°पूर्व) से देखा गया था। इस दिन को भारतीय
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 265

पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष माह की समाप्ति तथा पौष माह का आरंभ माना जाता है। अर्थात‍् शिशिर ऋतु
का प्रारंभ हुआ। यह पूरी तरह से उस मौसम के क्रम को भी इंगित करता है, जिसके बारे में रामायण में
संदर्भ मिलते हैं। (देखें व्योमचित्र-21)
लंका में रावण द्वारा सीताजी को धमकाते समय का चंद्रग्रहण

MAGAZINE KING

व्योमचित्र-21 ः कोलंबो, 7° उत्तर, 80° पूर्व, 12 सितंबर, 5076 ई.पू., 18:30 बजे,
अशोक वाटिका में रावणके द्वारा सीताजी को धमकाते समय का चंद्रग्रहण; प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित

हमने स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (0.15.2 / 2017, NASA JPL DE 431 पंचांग) का उपयोग
करके इस चंद्रग्रहण को दर्शानेवाले आकाशीय दृश्य का स्क्रीन शॉट भी लिया है। इस सॉफ्टवेयर ने इस
चंद्रग्रहण को कोलंबो से 22 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. को शाम के 6:30 बजे प्रारंभ होते हुए दिखाया
है। ग्रहण के स्क्रीन शॉट के साथ नीचे दिया गया, दूसरा चित्र पृथ्वी पर पड़ने वाली चंद्रमा की छाया
को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, यह सॉफ्टवेयर इस दिन को मार्गशीर्ष की समाप्ति तथा
266 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

पौष माह की पहली पूर्णिमा भी दर्शाता है। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर बढ़ते घटते चंद्रमा के फेज को स्क्रीन
पर नहीं दिखाती। इसीलिए सूर्य से ठीक 180° पर स्थित चंद्रमा के ऊपर पड़ती धरती की छाया को
अलग से दिखाया गया है। (देखें व्योमचित्र-22-23)
लंका में रावण द्वारा सीताजी को धमकाते समय का चंद्रग्रहण

MAGAZINE KING

व्योमचित्र-22—कोलंबो, 7° उत्तर, 80° पूर्व, 22 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. 19:25 बजे,
चंद्रग्रहण चंद्रमा तथा सूर्य ठीक 180° के अंतर पर; स् टेलेरियम का स्क्रीन शॉट
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 267

चंद्रग्रहण

MAGAZINE KING
व्योमचित्र-23 ः चंद्रमा पर धरती की छाया, 22 अक्तूबर, 5076 ई.पू., 19:25 बजे;
कोलंबो, 7° उत्तर, 80° पूर्व, स्टेलेरियम का स्क्रीन शॉट

उस समय सीता के चेहरे की अभिव्यक्ति लंका के आकाश में राहु से ग्रसित हुए चंद्रमा के समान
प्रतीत हो रही थी। राक्षसियों से घिरी हुई आनंदशून् य तपस्विनी सीताजी को संबोधित करते हुए कामभावना
से मदग्रस् त रावण ने अभिप्राययुक् त मधुर वचन कहे—“मैं तुम् हें बहुत चाहता हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो
और संसार की सारी सुख-सुविधाओं का आनंद लो। मैं सारे विश्व पर विजय प्राप् त करके उसे तुम्हारे
बदले में तुम्हारे पिता जनक को दे दूँगा। तुम मेरी सर्वप्रिय पत्नी बनोगी तथा राजभवन की सभी रानियों
और स्त्रियों की स्वामिनी बनोगी। मेरी संपत्ति तथा मेरा राज्य, सभी तुम्हारे भोग के लिए होंगे। लंका और
मेरे साथ-साथ संपूर्ण पृथ्वी तुम्हारी होगी। मेरी शक्ति और साहस से देवता और दानव सभी भलीभाँति
परिचित हैं। तुम्हारे लिए तैयार किए गए आभूषणों और वस्त्रों से मेरी दासियाँ तुम्हें सजा देंगी। मैं तुम्हें
शानदार और सुसज्जित देखने के लिए तड़प रहा हूँ। तुम दान में किसी को भी कोई भी चीज देने के लिए
स्वतंत्र होगी। संपूर्ण मानव जगत् पर तुम्हारा प्राधिकार होगा। मेरी प्रजा और कुटुंब तुम्हारी सेवा करके
आनंदित होंगे। तुम अपने हृदय के भावों को वन-वन भटकनेवाले अभागे व श्रीहीन राम के लिए क्यों गँवा
रही हो? मुझे तो यह भी संदेह होने लगा है कि वह अब जीवित है या नहीं। तुम विश्वास करो कि राम
268 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अब न तो कभी तुम्‍हारे पास आ सकता है और न ही तुम्‍हें देख सकता है। सुनो सीते! राम न तप से, न
बल से, न पराक्रम से और न धन से मेरी समानता कर सकता है। तुम मेरे साथ रहकर हर अभीष्ट सुख
तथा आनंद को भोगोगी। अपने भय को दूर करो। हम पुष्पक विमान में बैठकर पूरी दुनिया की सैर करेंगे,
एक-दूसरे के साथ खुश रहेंगे। हे सुंदरी, मेरे ऊपर दया करो।” इस प्रकार रावण ने सीताजी से प्यार तथा
करुणा की जोरदार अपील की।
रावण की ऐसी बातें सुनकर सीताजी को बहुत दु:ख हुआ। उन्‍होंने तिनके की ओट करके शोकातुर
हो दीन वाणी में उत्तर देना आरंभ किया, “रावण! तुम मेरे प्रति इस अनुचित आसक्ति को त्याग दो। तुम
अपनी ही स्त्रियों में अनुरक्त रहो अन्‍यथा तुम्‍हें पछताना पड़ेगा। मैं कभी भी तुम्‍हारी पत्‍नी होना स्‍वीकार
नहीं करूँगी। मैंने जिस महान् परिवार में जन्म लिया है, उसके बारे में विचार करो। मेरा विवाह जिस
पवित्र कुल में हुआ है, उसके बारे में सोचो। तुम मुझे अपनी पत्‍नी बनाने के बारे में सोच भी कैसे सकते
हो? जब मैं किसी और की पत्नी हो चुकी हूँ तो मैं तुम्हारी पत्नी कैसे बन सकती हूँ? यह धर्म के विरुद्ध
काम मैं कभी नहीं करूँगी? तुम ऐसा पाप क्यों कर रहे हो और अपने परिवार तथा अपनी प्रजा के
सर्वनाश का कारण क्यों बन रहे हो? जब कोई राजा आत्म-नियंत्रण खो देता है तो उसका राज्य और
संपदा दोनों का विनाश हो जाता है। यह भलीभाँति समझ लो कि यदि तुम अपने अधर्मी विचारों पर कायम
रहे तो यह लंका और इसकी विशाल संपत्ति पूरी तरह से नष्‍ट हो जाएगी, और जिन शत्रुओं का तुमने
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अपमान किया है, वे इसका भोग करेंगे। मुझे उस धन-दौलत या उन खुशियों में कोई दिलचस्‍पी नहीं है,
जिनका प्रभोलन तुम मुझे दे रहो हो। ये सभी प्रभोलन मुझे अपने पथ से विचलित नहीं कर सकेंगे। मैंने
श्रीराम से विवाह किया है और मैं अपने मन और मस्तिष्क को उनसे दूर नहीं कर सकती हूँ। मैं उनसे
ठीक उसी तरह अलग नहीं हो सकती, जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य से अलग नहीं हो सकतीं। अपने
आपको पाप, दुराचार तथा विनाश से बचाने के लिए तुम भी स्वयं ही शुद्ध हृदय होकर मुझे श्रीराम के
पास लौटा दो और स्‍वयं शरणागत वत्‍सल की शरण में जाकर क्षमा-याचना कर लो। अन्‍यथा श्रीराम
लक्ष्‍मण के साथ लंका पहुँचकर अपने तीक्ष्ण बाणों द्वारा शीघ्र ही तुम्‍हारे प्राण हर लेंगे।”
रावण ने पुनः लुभावने शब्दों के प्रयोग से सीताजी को मनाने का प्रयास किया। उसने सीताजी के
सामने स्वयं को उच्‍च व्यक्तित्व तथा गुणवान साबित करने का प्रयास भी किया। उसने कहा, “मैं तुम्हें
तब तक स्पर्श नहीं करूँगा, जब तक कि तुम स्वयं मेरे प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं करती। इस संदर्भ
में तुम्हें किसी प्रकार के भय की आवश्यकता नहीं है। मेरे ऊपर विश्वास रखो। तुम स्त्रियों के बीच में
एक सुंदर आभूषण की तरह हो इसलिए दरिद्रता का जीवन व्यतीत मत करो। अपने सुंदर शरीर पर सबसे
उत्तम रेशमी वस्त्रों को धारण करो तथा कीमती आभूषण ग्रहण करो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी
सुंदरता को चरम सीमा पर पहुँचाकर, संसार के सृजनकर्ता सेवानिवृत्त हो गए, क्योंकि संसार में कोई अन्य
ऐसी स्त्री नहीं है, जिसकी तुलना तुम्हारी सुंदरता से की जा सके। मेरी धन-संपत्ति, समृद्धि और पराक्रम
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 269

को देखो। राम जैसे तुच्‍छ व्‍यक्ति के बारे में भूल जाओ और मेरे साथ संसार की खुशियों का आनंद लो।”
रावण की ऐसी बातें सुनकर सीताजी और अधिक दुःखी और क्रोधित हो गईं। उन्होंने रावण को
यह कहते हुए फटकार लगाई—“क्या तुम भूल गए कि श्रीराम ने जनस्थान में तुम्हारे दो भाइयों खर और
दूषण को चौदह हजार राक्षसों के साथ अकेले मौत के घाट उतार दिया था? क्या तुम उनकी शक्ति से
परिचित नहीं हो? मेरा अपहरण करने के लिए तुम मेरी कुटिया में किसी चोर की तरह उस समय आए,
जब श्रीराम और लक्ष्मण स्वर्ण मृग को पकड़ने कुटिया से दूर गए हुए थे? क्या तुम कुछ क्षण के लिए
भी उनके आस-पास खड़े रह सकते हो? श्रीराम और लक्ष्मण के बाण जल्द ही लंका में गिरनेवाले हैं
और तुम्हारी यह भव्य नगरी आग में समाहित हो जाएगी। जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी की नमी को सोख लेता
है, उसी प्रकार श्रीराम और लक्ष्मण तुम्हारा रक्तपान कर लेंगे और तुम्हारे राज्य का विनाश कर देंगे।”
रावण ने क्रोधित और निराश होकर उत्तर दिया, “हे सीता, तुम्हारे मोह एवं प्रेम में मैं बहुत आसक्‍त
हो गया अन्‍यथा जैसी कठोर बातें तुमने कही हैं, उनके बदले तुरंत तुम्‍हें प्राणदंड देना ही उचित होता। मैंने
तुम्‍हारे लिए जो अवधि निश्चित की थी, उसमें केवल दो महीने ही शेष बचे हैं। इन दो महीने के अंदर
अपने मन को बदल लो और मेरी पत्नी बनना स्वीकार कर लो। यदि तुम मेरे इस प्रस्ताव को अस्वीकार
कर देती हो, तो मेरे रसोइए तुम्हारे शरीर के टुकड़े कर कलेवा में पकाकर ​ि‍खला देंगे। तुम्हें यह ज्ञात होना
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चाहिए कि राक्षसों के भोजन में मानव का मांस भी शामिल होता है। इसलिए मेरी इस चेतावनी में किसी
प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है, यह सुनिश्चित है।”
अभी भी सीता निडर थी और उन्होंने उत्तर दिया, “ओ पापी रावण! क्या तुम्हें अच्छी सलाह देने के
लिए कोई नहीं मिला? तुम श्रीराम के दंड से बच नहीं सकते। अरे नीच एवं अधर्मी रावण, तुमने श्रीराम
की अनुपस्थिति में मेरा अपहरण किया है, क्या तुम्हें लज्जा नहीं आई? धर्मात्मा राम की धर्मपत्नी पर
अपवित्र दृष्टि डालते समय तुम्हारी ये क्रूर आँखें पृथ्वी पर क्यों नहीं गिर पड़ीं और तुम्हारी जीभ क्यों नहीं
गल गई। तुम्हारा अंत निश्चित है।” रावण की आँखें क्रोध से लाल हो गईं और उसने सीता की ओर साँप
की तरह फुफकारते हुए गुस्से से देखा। उसके क्रोध को देखकर मंदोदरी और धान्यमालिनी उसके पास
गईं और बोलीं, “राजन! आप क्यों इस तुच्छ स्त्री के लिए अपना समय बर्बाद कर रहे हैं? इसके पास
आपकी पत्नी बनने का सौभाग्य नहीं है। किसी स्त्री की मर्जी के बिना उससे प्रेम करने की चाहत रखने
वाला व्यक्ति बहुत कष्ट भोगता है और अपने प्रति अनुराग रखने वाली स्त्री की कामना करनेवाले मनुष्य
को उत्तम प्रसन्नता प्राप्त होती है। इसलिए अब यहाँ से चलिए, हम सब मिलकर आनंद लेंगे।” मंदोदरी
और धान्यमालिनी स्नेहपूर्वक रावण को दूर ले गईं और वह विकराल राक्षसराज उनके साथ हँसता हुआ
चला गया। शिंशपा के पेड़ पर छुपकर बैठे हनुमान सब देख रहे थे। सत्रहवीं शताब्दी के कलाकार साहिब
दिन ने इस दृश्य का बड़ा वास्तविक और मार्मिक चित्रण किया है। (देखें लघुचित्र-8)
270 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

लघुचित्र-8 ः मेवाड़ रामायण से एक पन्ना, कलाकार साहिब दीन, IO San 3621 ff.3v (text) and
3r (picture); https://www.bl.uk/ramayana (सौजन्य : ब्रिटिश लाइब्रेरी बोर्ड)
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{लंका के द्वीप पर पहुँचने के बाद, अशोक वाटिका में साध्वी सीता को देखकर हनुमान सिकुड़कर शीशम के पेड़ के
ऊपर छुपकर बैठ गए। वह अत्यंत उदास तथा श्रीहीन होकर धरती पर बैठी हैं और चारों तरफ भयंकर राक्षसियों ने उन्हें घेर
रखा है। रावण अपनी पत्नियों तथा अन्य स्त्रियों को साथ लेकर आता है और सीताजी से अपने साथ शादी करने के लिए
कहता है, लेकिन वे उसे फटकार लगाती हैं तो रावण ने उन्हें जान से मार देने की धमकी दी। रावण की पत्नियों में से एक
उसे वहाँ से ले जाने का प्रयत्न करती है। (मेवाड़ कोर्ट के कलाकार साहिब दीन ने 1640 ईस्वी से 1652 ईस्वी तक इन
पेंटिंग्स पर काम किया। मेवाड़ के महाराणा ने इन चित्रों को कर्नल जेम्स टॉड को उपहार में दिया, जिन्होंने इन्हें 1823 में
ड् यूक ऑफ ससेक्स को भेंट कर दिया। ब्रिटिश लाइब्रेरी ने ड् यूक की लाइब्रेरी से इनका अधिग्रहण किया)}

वहाँ से जाने से पहले, रावण ने वहाँ उपस्थित सीता की देख-रेख करने वाली राक्षसियों को आदेश
दिया कि वे किसी भी युक्ति से सीता को समझाने का प्रयास करें। तत्पश्चात् अपनी सभी स्त्रियों के साथ
वह अशोक वाटिका से वापस चला गया। इसके बाद उन विकराल राक्षसियों ने सीताजी से बातचीत
की और कहा, “अरे मूर्ख स्त्री! जब राजकीय परिवार का उत्तराधिकारी रावण, एक विश्वप्रसिद्ध योद्धा,
आपको पसंद करता है तो आप उन्हें कैसे अस्वीकार कर सकती हैं? आप रावण के बारे में क्या जानती
हैं? वह तपस्वी पुलत्स्य का पौत्र है, ऋषि विश्रवा का पुत्र है तथा शक्तिशाली राक्षसराज सुमाली का
दामाद है। वह एक ऐसा सम्राट् है, जिसने अनेक युद्ध जीते हैं तथा अनेक शत्रुओं को परास्त भी किया है।
वह विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति है। उसका तिरस्कार करना मूर्खता है!” दूसरी राक्षसी बोली,
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 271

“अपनी सभी योग्य पत्नियों की उपेक्षा कर राजा रावण ने आपकी सुंदरता पर मोहित होकर आपसे प्रेम
की भीख माँगी है तथा आपको अपनी पत्नियों में सबसे उच्‍च दर्जा देने का प्रस्ताव भी दिया है। आप इतनी
मूर्ख और हठी क्यों हैं? सूर्य और पवन देवता भी राक्षसराज रावण से डरते हैं। वे आपको खोजते हुए
आए और आपको अपनी प्रिय पत्नी बनाना चाहते हैं! क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि आपका घमंड
आपको ऐसा करने से रोक रहा है? क्या आप अपने उस सौभाग्य को नहीं ठुकरा रही हैं, जो आपके पास
स्वयं चलकर आया है? हमने आपको एक अच्छा सुझाव दिया है। यदि आप इस प्रस्ताव को ठुकरा देंगी
तो आपका वध निश्चित है।”
राक्षसियों की ऐसी क्रूर बातें सुनकर सीताजी रोने लगीं। राक्षसियाँ फिर से बोलीं, “रावण के भवन में,
उनके कक्ष में सभी प्रकार के आनंद, सुख और वैभव हैं। उनके प्रस्ताव को ठुकराकर आप सदैव अपने
तुच्छ वनवासी पति के बारे में सोचती रहती हैं, आप इस प्रकार के अभागे मनुष्य श्रीराम के लिए क्यों मर
रही हैं, जिसे अपने राज्य से भी निकाल दिया गया है? आप श्रीराम को पुनः कभी नहीं देख पाएँगी। रावण
को स्वीकार कर खुशी से जीवन व्यतीत करिए।” इन शब्दों को सुनकर सीताजी आँसू बहाते हुए बोलीं,
“तुम किस प्रकार के अपशब्द बोल रही हो, जैसा तुम सोच रही हो, वैसा कभी नहीं होगा। मुझे अपनी पत्नी
बनाने के बारे में सोचना भी राक्षसराज रावण के लिए पाप है। जैसे सूर्य की रोशनी सूर्य से अलग नहीं हो
सकती, ठीक उसी प्रकार मैं भी श्रीराम से अलग नहीं हो सकती।” जब सीता को मनाने हेतु राक्षसियों के
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सभी प्रयास विफल हो गए तो उनमें से एक राक्षसी बोली, “मुझे मानव का मांस बहुत दिनों से नहीं मिला
है। मैं तुम्हें काटकर तुम्हारे कोमल शरीर का भोजन तैयार करूँगी।” दूसरी राक्षसी बोली, “इस हठी स्त्री
के कारण राजा को बहुत दुःख का सामना करना पड़ रहा है।” तीसरी बोली, “मुझे इसकी कलेजी खानी
है, वह बहुत ही स्वादिष्ट होगी।”
इन डरावने शब्दों को सुनकर और उन राक्षसियों के विकराल रूप को देखकर सीताजी डर गईं और
जोर-जोर से रोने लगीं। उनका साहस टूट गया और वे बालकों की तरह बिलखने लगीं, “जनस्थान में
श्रीराम ने मेरे लिए हजारों राक्षसों का विनाश किया था। वे अब तक मुझे यहाँ से वापस ले जाने के लिए
क्यों नहीं आए हैं? राजवंशी तपस्वी, जिन्होंने दंडक में विराध को मार गिराया था, वे मेरे साथ ऐसा क्यों
कर रहे हैं? ऐसा शायद इसलिए हो रहा है, क्योंकि उन्हें मेरे यहाँ होने का पता ही नहीं लगा होगा। रावण
ने गिद्धों के राजा जटायु का वध कर दिया था। यदि वे जीवित होते तो उन्होंने श्रीराम को मेरी खबर दे दी
होती, क्योंकि उन्होंने रावण को मेरा अपहरण करते हुए देखा था, परंतु जटायु ने मेरी रक्षा करने के लिए
अपने प्राणों की आहुति दे दी। मैंने पूर्वजन्म में अवश्य ही कई पाप किए होंगे, जिनके कारण मुझे यह सब
झेलना पड़ रहा है। क्या अब श्रीराम मुझे प्रेम नहीं करते? क्या वे मुझे भूल गए हैं? नहीं, नहीं ऐसा सोचना
भी पाप है! मेरे प्रिय राम मुझे कैसे भूल सकते हैं! शायद रावण ने किसी जादू के द्वारा धोखे से अयोध्या
के पराक्रमी राजकुमारों का वध कर दिया हो।” इस प्रकार सीताजी के मन में भिन्न-भिन्न बुरे खयाल आ
272 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रहे थे। और वे शोक सागर में पूरी तरह से डूबी हुई थीं। इसके बाद उन्होंने स्वयं से कहा कि अपने प्रिय
राम से अलग रहकर जीने से तो मृत्यु ही बेहतर है। अतः उन्होंने अपने प्राणों का त्याग कर यमराज के पास
जाने का निर्णय कर लिया।
सीता को मनाने और उन्हें भयभीत करने की अपनी योजना में असफल होने के बाद राक्षसियाँ
किकंर्तव्यविमूढ़ सी हो गईं। वे सीता से कई तरह के कठोर शब्द कहकर उन्हें धमकाने लगीं। उस समय
उनके बीच से प्रकट हुई त्रिजटा नामक एक राक्षसी ने अपने एक रोमांचकारी स्वप्न के बारे में अन्य
राक्षसियों को बताया, जो राक्षसों के विनाश तथा श्रीराम की विजय का सूचक था। त्रिजटा ने कहा, “मैंने
अपने स्वप्न में देखा कि सूरज की भाँति चमकने वाले श्रीराम अपनी प्रिय पत्नी सीता की खोज में लंका
आए हैं। मैंने श्वेत वस्त्रों में सीता को सूर्य तथा चाँद को छूते हुए देखा। फिर देखा कि सत्यपराक्रमी श्रीराम
अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण को साथ लेकर पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो उत्तर दिशा की ओर जा
रहे हैं। मैंने रावण और अन्य सभी राक्षसों को मिट्टी में सने हुए पोशाक पहने हुए देखा, जिन्हें यम द्वारा
घसीटा जा रहा था। स्वप्न में मैंने रावण को सूअर पर, इंद्रजीत को सूँस (घूस) पर और कुंभकरण को ऊँट
पर सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा। राक्षसों में केवल विभीषण ही श्वेत वस्त्र तथा छत्र धारण
किए दिखाई दिए।” इस विचित्र स्वप्न का राक्षसियों को वर्णन करते हुए त्रिजटा ने उन्हें चेतावनी दी—“इस
साध्वी स्त्री सीता को प्रताड़ित मत करो। अपने विनाश को निमंत्रण मत दो। इनके चरणों में गिरकर क्षमा
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की याचना करो।” जब त्रिजटा अपनी साथियों से यह बात कह रही थी, तब सीताजी ने आत्महत्या की
योजना को त्याग दिया, क्योंकि उन्हें अचानक ही कई अच्छे शकुन दिखने प्रारंभ हो गए थे। उनका बाईं
पलक, हाथ और पैर फड़कने लगे थे और सीताजी को ऐसा लग रहा था, मानो श्रीराम उनके पास ही हों।
एक बार फिर उनके चेहरे पर उस पूर्णिमा के चाँद के समान चमक और खुशी आ गई, जो कि ग्रहण से
मुक्त होकर चमक उठा था।

4. हनुमान से मिलकर सीताजी ने जीवन से संबंधित नई आशा का अनुभव किया


हनुमान शिंशपा पेड़ पर छिपकर बैठे हुए वाटिका के संपूर्ण घटनाक्रम को देख रहे थे। वे समझ नहीं
पा रहे थे कि आगे क्या करें? उन्होंने सोचा, ‘‘सीताजी को सिर्फ देखना ही काफी नहीं है। मुझे उनसे
बातचीत अवश्य करनी चाहिए; उन्हें श्रीराम का समाचार देना जरूरी है तथा उनके दिल में आशा और
साहस भरना जरूरी है, जिससे कि वे इस कठिन समय में अपने प्राणों की रक्षा कर सकें। यदि मैं सीताजी
से बात किए बिना ही वापस गया तो श्रीराम को क्या उत्तर दूँगा? मुझे उनसे इस तरीके से मिलना चाहिए
कि उन्हें मुझ पर संदेह न हो। अच्छा तो मुझे मंद स्वर में श्रीराम का गुणगान करना चाहिए, जिसे केवल
सीताजी ही सुन सकें। श्रीराम के गुणगान को सुनने के बाद उनका हृदय शंकारहित होकर खुशी और
विश्वास से भर जाएगा। इसके बाद ही मैं उनसे बात करने का साहस कर सकूँगा।’’ अतः हनुमान ने पेड़
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 273

की शाखा में छिपे रहकर धीमे और मीठे स्वर में श्रीराम के बचपन तथा वनगमन से लेकर खर-दूषण के
वध, धोखे से रावण द्वारा सीताजी का अपहरण, श्रीराम का साध्वी सीता की खोज में जाना तथा सुग्रीव से
मित्रता का वर्णन करते हुए श्रीराम की जीवनगाथा का वर्णन शुरू कर दिया।
किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा बोले जा रहे इन मीठे स्वरों ने मिथिला की राजकुमारी सीता को आश्चर्यचकित
और प्रसन्नचित्त कर दिया। उन्होंने इस घटनाक्रम का वर्णन इतने सुंदर एवं मधुर स्वर में करने वाले की
खोज करने के लिए चारों ओर देखा। फिर उन्होंने अपने ऊपर पेड़ की डाल पर बैठे केवल एक छोटे से
वानर को देखा। जब सीताजी की दृष्टि उस डाल के ऊपर पड़ी तो हनुमान को दिव्य प्रसन्नता का अनुभव
हुआ। सीताजी को आश्चर्य हुआ कि जो कुछ उन्होंने सुना, वह स्वप्न था या वास्तविकता। “हे ईश्वर, क्या
यह मेरे प्रिय प्रभु श्रीराम का दूत हो सकता है? काश ऐसा ही हो!” हनुमान सीताजी को देखकर खुशी से
कांतिमान हो गए। पेड़ से जमीन पर उतरकर हाथ जोड़कर और नमन करते हुए अपना मस्तक झुकाते हुए
वे सीताजी के सामने खड़े हो गए। उन्होंने गहरे मृदुल स्वर में कहा, “माता, आपकी आँखों से गिरते हुए
आँसू ठीक उसी प्रकार दिखाई दे रहे थे, जिस प्रकार कमल की पँखुड़ियों से बूदँ ें टपकती हैं। क्या मैं जान
सकता हूँ कि पेड़ के तने का सहारा लेकर मन में दुःख रूपी बादल भरे और आँखों में आँसू लिए आप
कौन हैं? क्या आप कोई देवी हैं या गंधर्व स्त्री हैं या फिर राजकुमारी सीताजी हैं, जिनका रावण जनस्थान
से छल और बल का प्रयोग कर अपहरण कर लाया था? क्या मुझे इक्ष्वाकुवंशी श्रीराम की प्रेयसी सीताजी
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के दर्शन का सौभाग्य मिला है?”
सीता ने प्रफुल्लित होकर कहा, “मेरे पुत्र, मैं सीता ही हूँ, विदेह के राजा जनक की पुत्री, सम्राट्
दशरथ की बहू और श्रीरामचंद्र की पत्नी। विवाह के पश्चात् कई वर्ष तक अयोध्या में मैंने उनके साथ
प्रत्येक मानवीय सुख का भोग करते हुए खुशी से जीवन व्यतीत किया। फिर राजा दशरथ ने मेरे पति का
अयोध्या के युवराज के रूप में राजतिलक करने का निर्णय लिया। इसके बाद उनकी छोटी पत्नी कैकेयी
ने उन्हें उन दो वचनों का स्मरण कराया, जो उन्होंने उसे कई वर्ष पहले देने का वादा किया था। कैकेयी ने
अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाने और श्रीराम को चौदह वर्षों के लिए वनों में भेजने को कहा।
वचनबद्ध होकर राजा दशरथ को कैकेयी के हठ को स्वीकार करना पड़ा। उनकी इच्छा के अनुसार श्रीराम
ने राज्य का त्याग किया और बिना किसी पछतावे के चौदह वर्ष के वनवास के लिए निकल पड़े, ताकि
उनके पिता के वचन का सम्मान हो सके। मैंने भी उनके बिना अयोध्या के महलों में रहने से मना कर दिया
और श्रीराम के साथ वनवास में जाने की जिद की। मुझसे पहले लक्ष्मण ने भी मृगचर्म वस्त्र धारण कर
लिए थे और अपने भाई के साथ वन जाने तथा वहाँ रहकर हम दोनों की सेवा करने का निर्णय कर लिया
था। हम तीनों ने वन में प्रवेश किया। हम चित्रकूट और दंडक वन के कई ऋषि आश्रमों में रहे। तत्पश्चात्
हमने दंडकवन में पंचवटी में अपनी पर्णकुटी बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया।
“एक दिन दुष्ट रावण मुझे जबरदस्ती छल तथा बल से अपहरण करके ले आया और तब से मुझे इस
274 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा है। रावण ने मुझे उस को पति के रूप में स्वीकार करने के लिए बारह
महीने का समय दिया था और इस समय सीमा में से अब मात्र दो महीने का समय शेष बचा है। जब वह
सीमा समाप्त हो जाएगी, तब मैं अपने प्राण त्याग दूँगी।” इस प्रकार असहाय स्त्री की तरह आँसू बहाते हुए
सीताजी ने यह कहते हुए अपनी कहानी समाप्त की कि रावण द्वारा दिए गए समय में दो माह शेष हैं और
इसके बाद मेरी जीवन-लीला समाप्त हो जाएगी। हनुमान ने शोकसंतप्त सीताजी से कहा, “हे विदेहनंदिनी,
श्रीराम परमगुणी व्यक्ति तथा सर्वशक्तिमान योद्धा हैं, उन्होंने मुझे आपके पास भेजा है। आपके लिए सदैव
चिंतित रहने वाले उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने भी अपनी ओर से आपको प्रणाम करने के लिए कहा है।”
सीताजी ने आश्चर्य से कहा, “आह, मेरा कितना अच्छा सौभाग्य है, यह कहावत सत्य है कि जीवन
के अंत तक आशा नहीं छोड़नी चाहिए।” इस प्रकार, इन दो अजनबियों के बीच एक अटूट विश्वास और
स्नेह इस प्रकार उमड़ आया, जिस प्रकार इंद्र देवता की पुष्पवाटिका में पारिजात का फूल अचानक खिलने
लगता है। इसके बाद सीताजी यह सोचकर हनुमान पर संदेह करने लगीं कि यह दुष्ट रावण की कोई चाल
भी हो सकती है। इसके बाद उन्होंने हनुमान से यह बताने के लिए कहा कि उसे राम और लक्ष्मण कहाँ
मिले और वह उनके संपर्क में कैसे आए? उन्होंने उन दोनों राजसी तपस्वियों के बारे में तथा उनके शरीर
के किसी विशिष्ट चिह्न‍ के बारे जानना चाहा। इसके बाद हनुमान ने उत्तर दिया, “श्रीराम और सुग्रीव ने
आपके बारे में जानने के लिए विस्तृत स्तर पर खोज अभियान चलाया और मैं उनके द्वारा ही लंका भेजा
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गया हूँ। श्रीराम सूर्य के समान तेजस्वी हैं, वे चंद्रमा के समान सुंदर हैं। उनके कंधे चौड़े, भुजाएँ लंबी, गला
शंख के समान, मुख अति सुंदर और नेत्रों में लालिमा है। श्रीराम विष्णु के समान योद्धा हैं तथा बृहस्पति के
समान चतुर हैं। श्रीराम पराक्रमी योद्धा हैं, अपने धैर्य को बनाए हुए हैं तथा वेदों के ज्ञाता हैं। वे सत्यनिष्ठ
तथा धर्मपरायण हैं। लक्ष्मण भी राम का प्रतिरूप हैं, स्वर्ण मुखरित, प्रखर एवं निपुण हैं।”
इसके बाद हनुमान ने घटनाक्रम बताना जारी रखा और कहा, “जब एक सुनहरे मृग के वेश में एक
राक्षस मारीच ने श्रीराम को धोखा दिया तथा उन्हें वन में दूर तक खींच ले गया, तो आप उस समय अकेली
रह गई थीं और रावण ने छल तथा बलपूर्वक आपका अपहरण कर लिया था। इसके पश्चात् वल्कल वस्त्र
धारण किए वे दोनों तपस्वी आपकी खोज करते-करते ऋष्यमूक पर्वत के पास जा पहुँचे। सुग्रीव ने मुझे
उनकी पहचान करने के लिए भेजा था। उस स्थिति में सुग्रीव की सहायता श्रीराम ने की, जिसकी पत्नी
को वाली ने छीन लिया था; सुग्रीव ने भी श्रीराम को सांत्वना दी, जिनकी प्रिय पत्नी का अपहरण रावण ने
कर लिया था। श्रीराम ने वाली का वध किया तथा सुग्रीव को किष्किंधा का राजा घोषित किया। सुग्रीव ने
आपके बारे में पता लगाने के लिए वानर सेना को श्रीराम की सेवा में लगा दिया। मैं सुग्रीव का एक मंत्री
तथा श्रीराम का दूत हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मैंने आपको जीवित
देखा। अब और अधिक समय बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं है। शीघ्र ही श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव
अपनी संपर्णू वीर वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण करनेवाले हैं। मैं समुद्र को पार कर लंका पहुँचा
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 275

हूँ। आप इसे इस प्रकार समझ सकती हैं कि रावण का अंत समय आ चुका है।” हनुमान ने अश्रुपूर्ण आँखों
से कहा, “मेरे कथनों पर विश्वास करें, माता।” हनुमान के इन कथनों ने सीताजी को विश्वास दिलाया तथा
उनका भय समाप्त करके साहस एवं भरोसा दिया।
इस संवाद के समाप्त होने के पश्चात् हनुमान ने सीताजी को श्रीराम के द्वारा दी गई मुद्रिका भेंट की।
सीताजी ने उस मुद्रिका को अत्यंत प्रसन्न होकर अपनी आँखों से लगा लिया। अब सीता के मन में रावण
तथा राक्षसों का भय समाप्त हो गया था। उन्हें हनुमान पर पूर्ण विश्वास और उनके प्रति असीमित स्नेह हो
गया था। सीता ने कहा, “हम सुख और दुःख के धागों से बँधी हुई कठपुतलियाँ हैं। कोई भी इन दोनों से
अछूता नहीं रह सकता। मेरे पति, लक्ष्मण और हम सभी इस नियम के अधीन हैं। आप कह सकते हैं कि
मेरे पति उस नाव की तरह हैं, जो बीच समुद्र में उठे तूफान के बीच फँस गई है। हाय! वे कब आएँगे?
मेरे प्यारे वानर मित्र, वे कब लंका, रावण और अन्य दानवों का विनाश करेंगे? यह सब सिर्फ दो महीने
के भीतर हो जाना चाहिए। कृपया इसके बारे में मेरे भगवान् श्रीराम को अवश्य बता देना।” इसके बाद
सीताजी ने अयोध्या के बारे में जानना चाहा। उन्होंने कहा कि मैं आशा करती हूँ कि कौशल्या और सुमित्रा
माता तथा भरत भैया का समाचार दूतों के द्वारा श्रीराम तक नियमित रूप से पहुँच जाता होगा। क्या श्रीराम
के प्रिय भाई भरत मुझे रावण के चंगुल से बचाने के लिए अपनी विशाल अक्षौहिणी सेना भेजेंगे? क्या
सुमित्रानंदन शूरवीर लक्ष्मण अपने बाणों की वर्षा से राक्षसों का संहार कर मुझे मुक्त कराएँगे? मेरे परम
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प्रिय राम कैसे हैं? श्रीराम ने जो स्नेह मुझे दिया है, वह न तो सम्राट् दशरथ और न ही माता कौशल्या को
प्राप्त हो पाया।”
इसके बाद वैदेही ने पुनः व्यथित होकर हनुमान हो स्मरण कराया—“रावण का वध और लंका का
विनाश दो महीने के अंदर हो जाना चाहिए। रावण के छोटे भाई विभीषण ने रावण को समझाने का भरपूर
प्रयत्न किया। उसने रावण से अनुरोध किया कि यदि वह सीता को सकुशल से श्रीराम के पास वापस
छोड़ आएँ तो लंका एवं राक्षस जाति के अस्तित्व को बचाया जा सकता है, परंतु उसकी सभी बातें व्यर्थ
चली गईं। मुझे पूर्ण विश्वास है और मैं यह जानती हूँ कि रावण का अंत निकट है। मेरे प्रभु श्रीराम शीघ्र
ही अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करेंगे और मुझे यहाँ से मुक्त करा ले जाएँगे। मुझे इसमे कोई संदेह नहीं है।
मेरा निर्दोष मन ऐसा कह रहा है और यह गलत नहीं हो सकता।” इस प्रकार सीताजी भाव विभोर होकर
बोलती जा रही थीं।
पवनपुत्र हनुमान सीताजी की पीड़ा को सहन नहीं कर पाए और बोले, “मैं जल्द ही वापस जाकर
श्रीराम को यहाँ ले आऊँगा। वे शक्तिशाली एवं विशाल सेना के साथ लंका पर विजय प्राप्त करेंगे। अब
आपको अधिक दिनों तक दुःख नहीं सहना होगा। यदि आप सहमत हों तो आप मेरे कंधों पर बैठ जाइए।
मैं आपको समुद्र के पार लेकर जाऊँगा और शीघ्र ही श्रीराम के पास पहुँचा दूँगा। आप मेरी योग्यता पर
शंका न करें।” इस प्रकार स्नेह, आदर और उत्साह से हनुमान बोलते जा रहे थे। परंतु सीताजी को यह
276 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

आश्चर्य हो रहा था कि यह छोटा सा वानर उन्हें समुद्र के पार ले जाने की कैसे सोच सकता है। हनुमान ने
उनकी शंका को भाँपकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने शरीर को फैलाना शुरू किया। यह
देखकर सीता प्रसन्न हुईं, लेकिन उन्होंने कहा, “हे पवनपुत्र, मुझे आपकी शक्ति और पराक्रम पर विश्वास
हो गया है, लेकिन यह उचित नहीं होगा कि आप मुझे यहाँ से इस प्रकार ले जाएँ। मार्ग में भयंकर पराक्रमी
राक्षस अवश्य ही आपका पीछा करेंगे तथा बहुत से अस्त्र-शस्त्रधारी राक्षस तुम पर आक्रमण करेंगे। ऐसी
अवस्था में मैं तुम्हारे कंधों से फिसलकर समुद्र में अवश्य गिर जाऊँगी। पतिभक्ति की दृष्टि से भी मैं अपने
पति श्रीराम के सिवाय किसी दूसरे पुरुष के शरीर का स्वेच्छा से स्पर्श नहीं करना चाहती। उचित यही होगा
कि राक्षसों सहित दुराचारी रावण का वध करके श्रीराम मुझे यहाँ से ले जाएँ। युद्ध में श्रीराम तथा लक्ष्मण
इंद्रतुल्य महाबली और पराक्रमी हैं और उनका कोई सामना नहीं कर पाएगा। क्षत्रिय कुल का सम्मान इसी
में है कि वे यहाँ आएँ, रावण से युद्ध करें और रावण पर विजय करके मुझे यहाँ से मुक्त कराकर ले जाएँ।
हे पुत्र, वापस जाओ और शीघ्र ही श्रीराम तथा लक्ष्मण को बड़ी सेना के साथ यहाँ ले आओ। मेरे प्रभु
श्रीराम के बाणों से लंका का विनाश होने दो तथा रावण को यमलोक जाने दो। उनकी विजय निश्चित है।
दोपहर के जलते सूर्य के समान श्रीराम के बाण राक्षसों को जलाकर भस्म कर देंगे।”
केसरीनंदन हनुमान ने कहा, “आप सही कहती हैं माता, मैं अकेला ही यहाँ से वापस जाऊँगा, लेकिन
मैं श्रीराम से क्या कहूँगा? आपसे भेंट तथा बातचीत करने का मेरे पास क्या प्रमाण है?” यह सुनकर
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सीताजी की स्मृति में श्रीराम के साथ व्यतीत किए गए खुशी के कुछ विशेष पल जीवंत हो उठे और उनकी
आँखें आँसुओं से भर गईं। सीता ने हनुमान से कहा, “यदि मैं तुम्हें कोई ऐसी प्रिय घटना के बारे में बताऊँ
जो सिर्फ मैं और श्रीराम जानते हैं तो वह सुखद घटना तुम मेरे प्रिय राघव को जाकर सुना देना। यही मुझसे
भेंट तथा संवाद करने का प्रमाण होगा।” आँसू बहाते हुए सीताजी ने वन में व्यतीत किए गए उन खुशी के
पलों को याद किया और कहा, “जब हम लोग चित्रकूट पर्वत पर निवास करते थे, एक दिन श्रीराम भीगे
हुए आए और मेरी गोद में सिर रखकर लेट गए। एक कौआ आकर बार-बार मुझे चोंच मारकर नोचने
लगा। मैं कौए की हरकत से तंग आकर श्रीराम की गोद में बैठ गई और वे मुझे सांत्वना देने लगे। तब
मैं उनकी गोद में सिर रखकर सो गई। फिर उस कौए ने सहसा झपटकर मेरी छाती में चोंच मार दी। यह
देखकर पराक्रमी श्रीराम क्रोधित हो गए; उन्होंने एक बाण छोड़ा, जिसने उस कौए का तीनों लोक में पीछा
किया, लेकिन उसे कोई भी न बचा सका। थका हुआ कौआ वापस आया और श्रीराम के चरणों में गिर
पड़ा तथा दया की याचना करने लगा। इसके बाद श्रीराम ने उसकी दाईं आँख फोड़कर उसे छोड़ दिया।
युद्ध में श्रीराम से कोई भी नहीं जीत सकता तथा उनके शक्तिशाली बाणों से कोई नहीं बच सकता।”
जब सीताजी बीते हुए खुशी के दिनों को याद कर रही थीं, तब वर्तमान का दुःख उनके ऊपर हावी
हो गया। उन्होंने रोते हुए कहा, “मुझे श्रीराम से क्या कहना चाहिए? ऐसा क्या है, जो उन्हें पता नहीं है?
मेरे आराध्य से सिर्फ यही कहना कि मैं उनके चरण स्पर्श करती हूँ। यही पर्याप्त है। निर्मल हृदय एवं प्यारा
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 277

लक्ष्मण, अपनी माँ तथा पत्नी को पीछे छोड़कर हमारे साथ वनवास में आ गया। उसने अपने जीवन के
चौदह वर्ष अपने बड़े भाई श्रीराम और मेरी सेवा में लगा दिए। मुझे अपनी माँ के समान सम्मान दिया।
उनसे जाकर कहना कि वे यहाँ आकर मेरे दुःखों का निवारण करें।” जैसे ही उन्होंने लक्ष्मण की वीरता
और उनकी निष्ठा को याद किया, तो सीताजी की आँखें आँसुओं से भर गईं। उन्होंने स्मरण किया, “जब
श्रीराम मेरे अनुरोध पर स्वर्ण मृग का पीछा करने गए थे, तो उस समय मैंने अपशब्द कहकर लक्ष्मण जैसे
स्वार्थहीन तथा आज्ञाकारी भाई का अनादर किया था।” यह सोचकर वह पछताने लगीं और उन्हें काफी
पीड़ा महसूस हुई। उन्होंने हनुमान से आग्रह किया कि वे उनकी ओर से लक्ष्मण का कुशलक्षेम पूछें।
सीताजी हनुमान से अलग होना नहीं चाहती थीं, क्योंकि वे उनके पास आकर उन्हें उस समय सांत्वना
दे रहे थे, जब वह आत्महत्या करनेवाली थीं, परंतु उनकी यह इच्छा भी थी कि हनुमान शीघ्र ही श्रीराम के
पास जाएँ और उनसे संबंधित समाचार उन्हें सुनाएँ। इसके बाद एक वस्त्र की गाँठ को खोलकर उन्होंने
माथे पर पहना जाने वाला एक आभूषण निकाला, जिसे चूड़ामणि कहा जाता है, उस चूड़ामणि को हनुमान
के हाथों में देते हुए उन्होंने कहा, “श्रीराम को यह देखकर तीन लोगों की तत्काल याद आ जाएगी, ‘मेरी
माँ की, मेरे श्वसुर सम्राट् दशरथ की और मेरी, क्योंकि यह मेरी माँ के द्वारा मुझे उस समय दिया गया था,
जब मेरा विवाह श्रीराम के साथ हो रहा था और इसे मेरे ललाट पर स्वर्गीय सम्राट् दशरथ के द्वारा लगाया
गया था। इसे ले जाओ और मेरे स्मृति चिह्न‍ के रूप में मेरे पति को दे देना। मेरी स्थिति को इस तरह से
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प्रस्तुत करना, ताकि वे मुझे दो महीने के अंदर यहाँ से जीवित बचा सकें।” जब हनुमान ने अपने हाथ में
उस आभूषण को लिया तो उनका मन आदर, गर्व और खुशी से भर गया। हनुमान का मन दूर होते हुए भी
श्रीराम के पास पहुँच चुका था। मन-ही-मन में उन्होंने श्रीराम को याद किया और उनसे लंका में सीताजी
से मिलने की खुशखबरी सुनाई। जब हनुमान वहाँ से जाने को थे, तो सीताजी ने फिर से कहा, “प्यारे
हनुमान! मेरा स्नेह दोनों राजकुमारों, राजा सुग्रीव और अन्य वानर सेना को देना। मेरी ओर से उन्हें कहना
कि उनसे मेरी विनती है कि वे शोकरूपी समुद्र से मेरी रक्षा करने में श्रीराम की सहायता करें। मैं आशा
करती हूँ कि तुम अयोध्या के राजकुमार श्रीराम को शीघ्र लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करोगे
और मार्गदर्शन भी करोगे।”
चलने से पहले हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया, “अपने भय को मन से निकाल दीजिए।
श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव शक्तिशाली वानर सेना के साथ जल्द ही लंका पर चढ़ाई करेंगे और राक्षसों
का विनाश कर आपको यहाँ से मुक्त कराएँगे। इसमें कोई शंका नहीं है। अतः अपने दुःख को भूल जाएँ,
आप दोनों राजकुमारों को अपने हाथों में धनुष और कमान लिए लंका के द्वार पर खड़ा देखेंगी। वे दानवों
के शक्तिशाली राजा रावण का विनाश कर देंगे। आप श्रीराम की संपूर्ण सेना को लंका के विनाश पर
आनंदोत्सव मनाते हुए देखेंगी। जब वे आपके बारे में मुझसे समाचार सुनेंगे, वे किंचित् भी विलंब नहीं
करेंगे। मुझे उन्हें केवल सूचना देने की आवश्यकता है, वे तुरंत महान् एवं वीर सेना के साथ प्रस्थान कर
278 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

देंगे। अपना साहस और धैर्य मत छोड़ना।” यह कहते हुए और सीताजी के समक्ष भद्रता से नमन करते
हुए हनुमान वापस जाने के लिए तैयार हो गए। सीताजी ने फिर हनुमान से कहा कि श्रीराम और लक्ष्मण
से जाकर कहना कि वह अभी जीवित है; और वे और अधिक समय बर्बाद न करें। अंत में उन्होंने हनुमान
को आशीर्वाद देकर विदा किया।

5. हनुमान द्वारा अशोक वाटिका का विनाश; रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध


हनुमान कुछ क्षण के लिए वाटिका के सबसे ऊपर स्थान पर बैठकर विचार करने लगे, ‘मुझे सीताजी
को साहस दिलाने के लिए और रावण तथा उसके सहयोगियों के मन में भय उत्पन्न करने के लिए क्या
करना चाहिए, जिससे कि उनका घमंड तोड़ा जा सके। रावण सीताजी को इस बीच यातना न दे, इसके
लिए रावण के मन में कुछ भय उत्पन्न करना आवश्यक है। इसके लिए चार उपाय हैं–साम, दाम, दंड और
भेद। समझौता यहाँ संभव नहीं है। रावण और उसके मंत्रियों के पास इतना अपार धन है कि धन-दौलत का
लालच किसी काम नहीं आ सकता। रावण के अनुयायी शक्ति-संपन्न और धनी हैं, उनमें मतभेद का बीज
भी नहीं बोया जा सकता है। अतः इस परिस्थिति में पराक्रम का प्रदर्शन ही एकमात्र उपाय दिखाई देता है।
मुझे कुछ ऐसी भयावह स्थिति पैदा करनी चाहिए, जो कि राक्षसों में डर पैदा कर सके तथा उन्हें चेतावनी
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भी मिल सके, जिससे वे सीताजी को और प्रताड़ित न कर सकें। हाँ, मुझे यहाँ से जाने से पहले ऐसा कुछ
अवश्य करना चाहिए।’ वाल्मीकि रामायण से इस अंश को पढ़ने के बाद हम यह सोचने के लिए मजबूर
हो जाएँगे कि चाणक्य ने संभवतः शत्रु से चुनौती के लिए चार वैकल्पिक साधन साम, दाम, दंड और भेद
शायद रामायाण से ही लिए होंगे (5/41/2-4)।
एकाएक हनुमान ने अपने शरीर का खिंचाव कर लिया और वाटिका में उत्पात मचाना शुरू कर दिया।
हनुमान वृक्षों को तोड़-तोड़कर जमीन पर गिराने लगे, फिर बड़े-बड़े भवन गिराने लगे, कृत्रिम तालाबों
तथा पर्वतों को क्षतिग्रस्त करने लगे। सुंदर अशोक वाटिका का जल्द ही विनाश हो चुका था, जिससे हिरण,
मोर और अन्य पक्षी भयभीत होकर कोलाहल करते हुए भाग रहे थे। जब अर्धनिद्रा में राक्षसियाँ जागीं तो
इस भयावह दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित रह गईं। इसके बाद हनुमान अशोक वाटिका की ऊपरी चोटी
पर बैठ गए, वे देखने में डरावने और क्रोधित लग रहे थे और अपने द्वारा दी गई इस चुनौती के परिणाम की
प्रतीक्षा कर रहे थे। उस स्थान पर राक्षसियाँ डर से चिल्लाने लगीं तथा उनमें कुछ रावण के पास दौड़कर
इसका समाचार देने के लिए गईं। उन्होंने सूचना दी—“हे महाराज, एक अत्यंत भयावह एवं विशाल वानर
ने अशोक वाटिका का विनाश कर दिया है। जिस शिंशपा वृक्ष के नीचे सीता बैठी है, उसको छोड़कर संपूर्ण
सुंदर वाटिका पूरी तरह से बर्बाद कर दी गई है। हमें संदेह है कि यह कोई साधारण जंगली वानर नहीं है।
इसे अवश्य आपके किसी दुश्मन, इंद्र या कुबेर के द्वारा या फिर श्रीराम के द्वारा भेजा गया होगा? इस
भयावह जानवर को पकड़ने के लिए अपने योद्धाओं को जल्द भेजें।”
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 279

रावण अपनी सुंदर अशोक वाटिका के विनाश के बारे में सुनकर अत्यंत क्रोधित हुआ, क्योंकि उसने
इसे अपनी रानियों और पत्नियों के लिए बड़े प्रेम से बनवाया था। रावण ने अपने पीछे खड़े रक्षकों की ओर
देखा और शीघ्र ही उन्हें आदेश दिया कि वे वाटिका में जाकर उस विकराल वानर का वध कर दें। राजा
के आदेश का पालन करने के लिए भाला, फरसा तथा अन्य औजार लेकर एक विशाल सेना वाटिका की
ओर चल पड़ी। राक्षसों ने उस विकराल वानर को आश्चर्यचकित होकर देखा, जो वाटिका के द्वार पर बैठा
था और उन राक्षसों को देखकर क्रोधित हो चिल्लाने लगा। इसके बाद वह बड़े जोर से तथा साफ-साफ
शब्दों में बोला, “रघुवंशी श्रीराम की जय तथा रामभक्त सुग्रीव की जय। मैं रामभक्त हनुमान हूँ तथा दुश्मन
की सेना का विनाशक हूँ। लंका नगरी का विनाश कर तथा मिथिला की राजकुमारी सीताजी को प्रणाम कर
वापस श्रीराम के पास जाऊँगा।” इसके बाद हनुमान ने रास्ते में रखे लोहे का बड़ा स्तंभ उठाया (आयसं
भीमं परिघं-वा.रा.5/42/39)। उस लोहे के बड़े डंडे को कसकर पकड़कर हनुमान बलपूर्वक राक्षसों पर
प्रहार करने लगे। वे कूदते हुए सभी दिशाओं में घूमकर लोहे के बड़े छड़ के प्रहार से सभी दानवों का
एक-एक कर वध कर रहे थे। इस बात पर ध्यान देना चहिए कि रामायण में लोहे का सर्वप्रथम विवरण
लंका के संदर्भ में ही किया गया है।
v

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यह ध्यान देने योग्य तथा दिलचस्प बात है कि रामायण में लंका में लोहे का संदर्भ है, न कि उत्तर भारत
में। पारंपरिक इतिहासकारों का मानना है कि मौजूदा नूतन युग (Holocene period) के दौरान लगभग
1500 वर्ष ईसा पूर्व में लोहे की खोज की गई थी। इस आधार पर वे इस पुस्तक में वर्णित रामायण घटनाओं
के पुरातात्त्विक व खगोलीय तिथि निर्धारण के अनुक्रम को चुनौती देने का प्रयत्न भी कर सकते हैं। उनके
लिए लेखिका केवल यह सुझाव देना चाहेगी कि हजारों साल पहले हुई घटनाओं के अनेक प्रमाण भूमि और
समुद्री जल के नीचे छिपे हुए हैं। अब तक संपर्ण ू मानव जाति द्वारा की गई खोज समुद्र में एक बूदँ की तरह
है अर्थात् बहुत कम है। आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों, साधनों और तकनीकों का उपयोग करके, अत्यंत
प्राचीन काल में घटी घटनाओं के बारे में नई-नई जानकारियाँ हर दिन सामने आ रही हैं। इसलिए नकारात्मक
निष्कर्ष निकलने के बजाय इतिहासकारों को केवल सकारात्मक निष्कर्ष निकालने चाहिए। वे यह कह सकते
हैं कि अब तक लोहे की उत्खनित वस्तुओं का ति‌िथकरण उन्हें 1500 वर्ष ईसा पूर्व तक से संब​ि‍ं धत मानता
है, परंतु यह निष्कर्ष निकलना गलत होगा कि 1500 वर्ष ईसा पूर्व से पहले मानव ने लोहे का अाविष्कार नहीं
किया था। यहाँ पर यह बताना सार्थक होगा कि हाल ही में 5वीं सहस‍्राब्दि ईसा पूर्व (5000 BCE) से संब​ि‍ं धत
लौह कलाकृतियों के उत्खनन की सूचना ईरान से प्राप्त हुई है, जबकि चीन और मिस‍्र में 4000 वर्ष ई.पू. से
संब​ि‍ं धत लोहे की कलाकृतियों की खोज की गई है।11 इसलिए वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब हम पाँचवीं
सहस‍्राब्दी ईसा पूर्व (5000 BCE) से संब​ि‍ं धत लौह कलाकृतियों के दक्षिण भारत तथा लंका में उत्खनन
के बारे में पढ़ रहे होंग।े यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि परंपरागत इतिहासकारों ने हमेशा ताँबे को 2500
280 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वर्ष ईसा पूर्व से जोड़ा है तथा माना है कि उससे पहले मानव ने ताँबे का अाविष्कार नहीं किया था, परंतु
ताँबे (कॉपर) की कलाकृतियाँ तो बहुत भारी मात्रा में सिंध,ु सरस्वती और गंगा के क्षेत्रों में हुए उत्खननों में
मिली हैं, जिनकी कार्बन डेटिगं इन्हें छठी से चौथी सहस‍्राब्दी ई.पू. (6000 BCE–4000 BCE) से संबधि ं त
बताती है। 12-14

v

जब रावण को यह खबर मिली कि उसके द्वारा भेजे गए सभी सैनिकों का वध कर दिया गया
है, तो वह आश्चर्यचकित और क्रोधित हो उठा। उसने जल्द ही प्रहस्त के पुत्र जंबुमाली को बुलाया
और उसे उत्पात मचाने वाले वानर का वध करने का आदेश दिया। पराक्रमी दानव जंबुमाली ने अपने
दुश्मन का सामना करने के लिए हथियार और युद्ध सामग्री एकत्र करने में कुछ समय लगाया। इस
बीच हनुमान शांति से नहीं बैठे। वे दानवों के कुल देवता के पवित्र स्थान चैत्य प्रासाद पर चढ़ गए।
अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण हनुमान ने चैत्य प्रासाद का विध्वंस करना प्रारंभ कर दिया। अशोक वाटिका
के सबसे ऊँचे चैत्य प्रासाद पर खड़े हुए हनुमान क्षितिज में चमक रहे दूसरे सूर्य के समान दिखाई
दे रहे थे। उनकी गर्जना ने लंका नगरी में भय उत्पन्न कर दिया तथा उसकी प्रतिध्वनि सभी दिशाओं
में गूँजने लगी। दानवों का हृदय भय से काँपने लगा। उस समय हनुमान घोषणा करने लगे, “भगवान्
MAGAZINE KING
श्रीराम और महाबली लक्ष्मण की जय हो। महाराज सुग्रीव की जय हो। मैं पवनपुत्र हनुमान हूँ; मैं यहाँ
श्रीराम के शत्रुओं का पूरी तरह से विनाश करने आया हूँ। मैं विशाल लंकापुरी को तहस-नहस कर
डालूँगा। तत्पश्चात् मिथिलेश कुमारी को प्रणाम करके और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद ही
वापिस जाऊँगा। फिर हनुमान ने चैत्य प्रासाद के एक लोहे के स्तंभ को उखाड़ लिया। लोहे के इस
विशाल स्तंभ को बल्ले की तरह आसानी से घुमाते हुए हनुमान ने मंदिर के संतरियों को मार गिराया।
जैसे ही हनुमान ने जमीन से स्तंभ को उखाड़ा, उसी समय चारों ओर आग की लपटें दिखाई
देने लगीं। उन्होंने गरजकर कहा, “सुग्रीव की सेना में मुझसे भी अधिक वीर एवं शक्तिशाली वानर हैं
और वे सभी जल्द ही यहाँ आएँगे।” तुम, तुम्हारी नगरी और तुम्हारे राजा का वे सर्वनाश कर देंगे।
तुम्हारे राजा रावण ने इक्ष्वाकु वंश के प्रभु श्रीराम की पत्नी का अपहरण कर उनसे शत्रुता मोल ली
है और एक चोर की तरह व्यवहार किया है। लंका का अंत निकट है। राक्षसों का सर्वनाश होनेवाला
है। मृत्यु के देवता अर्थात्् यमराज रावण के पास आने वाले हैं।” तभी अपने रथ पर सवार होकर,
अपने विशाल धनुष को लेकर पराक्रमी जंबुमाली अशोक वाटिका में पहुँचा तथा उसने हनुमान को
फाटक के छज्जे पर खड़ा देखा। अपने रथ पर बैठे हुए उसने अपने धनुष से हनुमान पर बाणों की
वर्षा कर दी, जिनसे हनुमान के चेहरे पर कुछ घाव आ गए। इससे हनुमान कुपित हो गए, उन्होंने
एक बड़ी चट्टान उठाई तथा रथ के ऊपर फेंक दी। उन्होंने साल के एक वृक्ष को उखाड़ा और उसे
घुमाकर जंबुमाली के ऊपर फेंक दिया। हनुमान की शक्ति का एहसास करते हुए जंबुमाली ने कई
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 281

बाण चलाए, जिससे चट्टान तथा साल के वृक्ष के कई टुकड़े हो गए। इसके बाद हनुमान ने फिर से
उसी लोहे की छड़ को उठाया तथा उससे जंबुमाली के चौड़े सीने पर प्रहार किया। वह तत्काल मृत्यु
को प्राप्त होकर गिर गया; उसका शरीर इस प्रकार चूर-चूर हो गया था कि उसके सिर और विभिन्न
अंगों को पहचाना नहीं जा सकता था।
रावण को इस युद्ध का परिणाम बताया गया। वह आश्चर्यचकित था। उसने शक्तिशाली सेनापतियों
को विशाल सेना के साथ जाकर उस वानर को पकड़कर लाने का आदेश दिया। रावण के मुख्य
मंत्री के सात पुत्र, सेना तथा अस्त्र-शस्त्र लेकर रथों पर सवार होकर उस वानर को पकड़ने के लिए
निकल पड़े। उन्होंने पूरी ताकत के साथ हनुमान पर आक्रमण किया तथा घमंड में चूर हो वे हनुमान
का उपहास भी उड़ाने लगे। उन्होंने हनुमान के ऊपर बाणों की बौछार कर दी, हनुमान उसी तरह
बाणों से आच्छादित हो गए, जैसे पर्वत शिखर वर्षा से ढक जाता है। हनुमान ने अत्यंत शीघ्रता से
इधर-उधर कूदते हुए अपनी रक्षा की। राक्षसों ने जितने अधिक तीर और बाण हनुमान के ऊपर छोड़े,
हनुमान उतने ही अधिक पराक्रमी और खूँखार होते जा रहे थे। हनुमान अपनी पूरी ताकत से रावण के
सैनिकों पर तब तक चट्टानें और बड़े-बड़े वृक्ष फेंकते रहे, जब तक वे सभी मारे नहीं गए। रावण
के मुख्यमंत्री के सात पुत्रों का वध कर और पाँच सेनापतियों के साथ उसके हजारों राक्षसों का वध
कर हनुमान ने अपनी जीत पर जोर से गर्जना की और उनकी गर्जना से लंका कंपायमान हो उठी। वे
MAGAZINE KING
वाटिका के द्वार के ऊपर रखे पत्थर पर बैठ गए।
अपने पाँच सेना प्रमुखों के वध के बारे में तथा हनुमान को पकड़ने के लिए भेजी गई सेना की
हार के बारे में सुनकर रावण के हृदय में पहली बार भय उत्पन्न हुआ, लेकिन उसने वह भय स्वयं
तक ही सीमित रखा तथा वह उपहासपूर्वक हँसने लगा। उसके छोटे पुत्र, वीर अक्षय कुमार ने युद्ध
में जाने की इच्छा जताई और रावण ने उसे गौरवान्वित होकर भेज दिया। अपने यौवन से दीप्तिमान
और साहस से देदीप्यमान अक्षय कुमार स्वयं को सर्वोत्तम साबित करने के इस अवसर को देखकर
विजयी होने की इच्छा से अपने चमकते हुए रथ में बैठकर सेना को साथ लेकर चल पड़ा।
रावण का सबसे छोटा पुत्र रक्षा कवच पहनकर अपनी तपस्या से प्राप्त किए गए स्वर्णरथ पर
आरूढ़ हुआ था। वह आठ घोड़ों से संचालित रथ पर तलवारों, धनुष व बाणों, भालों से सुसज्जित
होकर पूरे स्वाभिमान तथा विश्वास सहित हनुमान को बंदी बनाने के लिए चल पड़ा। जब उसने
हनुमान को सिंहद्वार के ऊपर मुँडे़र पर बैठा हुआ देखा तो अक्षय कुमार ने उसकी गति और बल का
अच्छी तरह से आकलन किया। तत्पश्चात् अक्षय कुमार ने हनुमान के ऊपर तीन तीक्ष्ण बाण छोड़े,
जो उनके शरीर में जा लगे। हनुमान जख्मी हो गए और उनके जख्मों से रक्त बहने लगा, परंतु हनुमान
के प्रबल मनोबल तथा इच्छाशक्ति के कारण उनकी शक्ति क्षीण नहीं हुई। दोनों के बीच भयंकर
युद्ध हुआ। रथ पर बैठे पराक्रमी अक्षय कुमार ने एकाग्रतापूर्व हनुमान पर अनेक बाण चलाए। एक
282 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बाण हनुमान की छाती में लगा और रक्त की धारा बहने लगी। शक्तिशाली अक्षय कुमार के बाण
से जख्मी होने के बाद हनुमान ने अक्षय कुमार की अभूतपूर्व शक्ति का अनुमान लगा लिया और
तत्पश्चात् उसका वध करने का निश्चय किया। इसके बाद हनुमान उसके रथ की ओर तेजी से बढ़े
तथा चट्टान फेंककर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। रथ के घोड़े भी मरणासन्न स्थिति में जमीन पर
गिर गए। राक्षस राजकुमार धरती पर रथ के बिना ही उठ खड़ा हुआ। इसके बाद उसने तीरों और
तलवार के साथ हवा में छलाँग लगाई और हनुमान पर प्रहार किए। हवा में दोनों के बीच महासंग्राम
हुआ। इसके बाद वीर वानर हनुमान ने हवा में बार-बार घुमाकर अक्षय कुमार को धरती पर पटक
दिया। अक्षय कुमार के शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गए, हड्ड‍ियाँ चूर-चूर हो गईं, रक्त की धाराएँ बह
गईं और वह मौत की नींद सो गया।
यह सुनकर कि हनुमान ने राजकुमार अक्षय का वध कर दिया है, रावण कुपित हो गया, लेकिन
स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए उसने अपने पुत्र इंद्रजीत को बुलाकर उससे कहा, “तुम सभी अस्त्र-शस्त्र
के ज्ञाता हो, तुम देवताओं के साथ-साथ दानवों से भी युद्ध में जीत चुके हो। तुमने तपस्या अर्थात््
कठिन परिश्रम और संयम के द्वारा शक्ति प्राप्त की है। उस भयानक वानर ने तुम्हारे प्रिय भाई अक्षय
कुमार का वध कर दिया है और अब तुम उससे प्रतिशोध लो। अपने मन को कहीं और भटकाए
बिना, केंद्रित होकर युद्ध करो तथा विजयी होकर लौटो।” मन-ही-मन युद्ध में विजय प्राप्त करने
MAGAZINE KING
का निश्चय करके इंद्र के समान पराक्रमी मेघनाद पक्षीराज गरुड़ के समान तीव्र गतिवाले चार सिंहों
से जुते हुए उत्तम रथ पर सवार होकर अशोक वाटिका की ओर चल दिया। अस्त्रों-शस्त्रों के ज्ञाता
इंद्रजीत के धनुष की प्रत्यंचा का गंभीर घोष सुनकर हनुमान सचेत हो गए। इंद्रजीत ने तरह-तरह के
तीर हनुमान पर छोड़े, परंतु वह इधर-उधर कूदकर उन सभी को बेकार कर देते थे या फिर तोड़ देते
थे। अपने अमोघ बाणों को भी व्यर्थ होते देखकर इंद्रजीत ने महसूस किया कि वानर का वध करना
कठिन है, इसलिए उसे जीवित पकड़ने का निर्णय लिया।
इसके बाद बाण छोड़ने में निपुण इंद्रजीत ने अपने धनुष पर ब्रह्म‍ाजी के द्वारा दिए गए ब्रह्म‍ास्त्र
का संधान किया। उसने उस ब्रह्म‍ास्त्र से हनुमान को जल्द ही बाँध लिया; हनुमान बेसुध होकर पृथ्वी
पर गिर पड़े। ब्रह्म‍ास्त्र का सम्मान करने के लिए हनुमान ने अनुग्रहपूर्वक बंधन में ही रहने का निश्चय
किया। उस समय हनुमान को याद आया कि उसे ब्रह्म‍ास्त्र से केवल एक मुहूर्त (अर्थात्् 48 मिनट
तक)15 तक ही बाँधा जा सकता है। इसलिए हनुमान ने स्वयं ब्रह्म‍ास्त्र से मुक्त होने का कोई प्रयत्न
नहीं किया। इंद्रजीत की आक्रमणकारी सेना ने उन्हें अपमानित किया और घसीटा, लेकिन उन्होंने
इसका विरोध नहीं किया। इसके बाद उन राक्षसों ने हनुमान को रस्सी से बाँध दिया। वल्कल के रस्से
से बँध जाने के बाद हनुमान तत्काल ब्रह्म‍ास्त्र के बंधन से मुक्त हो गए, क्योंकि उस अस्त्र का बंधन
किसी दूसरे बंधन के साथ नहीं रहता, लेकिन फिर भी हनुमान जान-बूझकर ब्रह्म‍ास्त्र में बँधे होने का
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 283

नाटक करते रहे, क्योंकि वह रावण से मिलने हेतु अवसर की तलाश में थे। इस स्थिति को जानकर
इंद्रजीत को चिंता हुई। दूसरी ओर क्रूर राक्षस पवनपुत्र हनुमान के ऊपर मुष्टि प्रहार कर रहे थे और
उन्हें घसीट भी रहे थे, लेकिन हनुमान यह प्रकट नहीं कर रहे थे कि वे ब्रह्म‍ास्त्र से मुक्त हो चुके हैं।

6. रावण ने हनुमान की पूँछ में आग लगवाई; हनुमान ने सोने की लंका जलाई


रावण का ज्येष्ठ तथा पराक्रमी पुत्र इंद्रजीत हनुमान को दरबार में रावण के समक्ष ले गया।
हनुमान ने चारों ओर देखा और रावण के वैभव और महिमा को देखकर आश्चर्यचकित हो गए।
उन्होंने लंका के उस पराक्रमी सम्राट् की सभी चीजों की ओर गौर से देखा। रावण कीमती रेशम के
वस्त्रों में, बड़ी तथा लाल आँखों से तेजस्वी दिखाई देता हुआ, चमकते हुए तेज दाँतों के साथ, बाँहों
में चंदन का लेप लगाए हुए भव्य सिंहासन पर बैठा था। उस समय हनुमान चकित रह गए, “राक्षसों
के राजा रावण के पास सभी प्रकार की मनमोहक तथा वैभवशाली वस्तुएँ थीं। उसके पास सुंदर
रूप, अनुपम शक्ति तथा आश्चर्यजनक राजोचित तेज था; यदि वह अधर्मी न होता तो संपूर्ण संसार
पर राज्य करने योग्य था।” रावण के आदेश पर प्रहस्त ने हनुमान से परिचय देने के लिए कहा तथा
पूछा कि वह लंका में क्यों आया है? उसका अशोक वाटिका के विनाश तथा राक्षसों के सेनापतियों
तथा सेना का वध करने के पीछे क्या उद्देश्य है? हनुमान ने उत्तर दिया कि ‘‘मैं केवल एक वानर
MAGAZINE KING
हूँ तथा लंका के राजा रावण का दर्शन करना चाहता हूँ। मैंने वाटिका का विनाश इसलिए किया,
ताकि मुझे बंदी बनाया जाए और राजा रावण के पास लाया जा सके। परंतु आत्मरक्षा के लिए मैंने
उन सभी का वध कर दिया, जो मेरे मार्ग में बाधा बन रहे थे।’’ अंत में हनुमान ने स्वयं को श्रीराम
का दूत भी घोषित किया।
रावण की ओर जानबूझकर देखते हुए हनुमान ने कहा, “किष्किंधा के राजा तथा आपके मित्र
सुग्रीव ने आपके लिए एक सुझाव दिया है। उन्होंने कहा है कि अयोध्या के राजकुमार और राजा
दशरथ के प्रिय पुत्र श्रीरामचंद्र ने अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ, अपने पिता की आज्ञा
का पालन करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया था। वे दंडक वन में बहुत अंदर
तक चले गए थे। तेरहवें वर्ष के उनके वनवास के दौरान श्रीराम की पत्नी सीता का जनस्थान से
अपहरण हो गया। मैंने स्वयं तुम्हें हवाई मार्ग से ऋष्यमूक पर्वत के ऊपर से सीताजी का अपहरण
करके जाते हुए देखा था, जब वह बार-बार श्रीराम का नाम पुकार रही थी। सीताजी की खोज में
दोनों राजसी तपस्वी ऋष्यमूक पर्वत पहुँचे, सुग्रीव से मित्रता की शर्तें रखीं, वाली का वध किया और
सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाया। इसके बाद सुग्रीव ने मिथिला की राजकुमारी की खोज में
वानर सेना को सभी दिशाओं में भेज दिया। मैं समुद्र को लाँघकर यहाँ उन्हीं की खोज में आया था।
जब मैं सीताजी की खोज में इधर-उधर भटक रहा था, मैंने उन्हें तुम्हारे यहाँ देखा, जब तुम अशोक
284 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वाटिका में उन्हें फुसलाने तथा धमकाने का प्रयत्न कर रहे थे। एक बुद्धिमान और सदाचारी राजा को
दूसरे व्यक्ति की पत्नी का अपहरण नहीं करना चाहिए। अतः तुम्हें जनक की पुत्री को तत्काल श्रीराम
को वापस कर देना चाहिए, अन्यथा श्रीराम संपूर्ण लंका का सर्वनाश कर तुम्हें तुम्हारे सभी संबं​ि‍धयों
सहित मौत के घाट उतारकर सीताजी को ले जाएँगे।”
केसरीनंदन हनुमान ने आगे कहा, “मुझे पता है कि तुम्हारे पास ब्रह्म‍ाजी का दिया हुआ वरदान है,
लेकिन वह भी श्रीराम से तुम्हारे प्राणों की रक्षा नहीं कर पाएगा। मैं तुम्हें बताना चाहूँगा कि श्रीराम न
तो राक्षस हैं और न ही देवता, न तो कोई यक्ष हैं और न ही गंधर्व; वे वास्तव में एक मनुष्य हैं और
इस प्रकार तुम्हारा विनाश करने में सक्षम हैं। तुम्हें याद रखना चाहिए कि सदाचार तथा धर्म श्रीराम
के पक्ष में है। यह भी याद रखो कि श्रीराम इतने अधिक शक्तिशाली हैं कि वे राक्षस, यक्ष, भूत और
सिद्ध सहित किसी से भी युद्ध करने में सक्षम हैं।” हनुमान के इन कर्कश शब्दों को सुनकर रावण
ने क्रोधित होकर आदेश दिया कि उसे तत्काल मार दिया जाए, परंतु रावण के छोटे भाई विभीषण ने
इस प्रकार का अनैतिक कार्य करने से मना किया और याद दिलाया कि दूत का वध करना शास्त्र के
नियमों के विरुद्ध है। मौत का दंड उस व्यक्ति को दिया जाना चाहिए, जिसने इसे दूत बनाकर यहाँ
भेजा है। अतः विभीषण ने रावण को सुझाव दिया, “आप अपने विश्वसनीय वीर योद्धाओं को भेजें जो
सेना के साथ तत्काल जाएँ और दोनों राजकुमारों, राम और लक्ष्मण को बंदी बनाकर यहाँ ले आएँ।”
MAGAZINE KING
मजबूर होकर रावण को स्वीकार करना पड़ा कि शास्त्रों में किसी दूत का वध करना अपराध माना
गया है। इस परिस्थिति में हनुमान को दंडित करने के लिए रावण ने आदेश दिया कि उनकी पूँछ में
आग लगा दी जाए तथा उसे जली हुई पूँछ के साथ श्रीराम के पास भेज दिया जाए।
हनुमान की पूँछ में बहुत से सूती कपड़े लपेटकर तथा उसे तेल में डुबाेकर दानवों ने उसमें आग
लगा दी। उन्होंने हनुमान को रस्सी से बाँधकर पूरे नगर में जुलूस निकाला। हनुमान ने इसका कोई
विरोध नहीं किया, क्योंकि उन्हें लंका के प्रमुख क्षेत्रों का सर्वेक्षण करने का अवसर मिल रहा था और
उन्होंने कुछ सुंदर भवनों की पहचान कर ली थी। राक्षसों ने घोषणा की कि हनुमान एक जासूस है,
जिसे बंदी बना लिया गया है। लंका के निवासी, विशेषकर बच्‍चे और औरतें, उस दृश्य को देखने
के लिए अपने घरों से बाहर आए। इस समाचार को सुनकर सीताजी परेशान थीं। उन्होंने अग्नि देवता
से हनुमान की सुरक्षा हेतु विनती की। धीरे-धीरे आग कम होने लगी। हनुमान चकित थे कि उनके
शरीर का कोई भी भाग, यहाँ तक कि पूँछ भी नहीं जल पाई। हनुमान ने इसके बाद निर्णय लिया कि
राक्षसों के इस दुस्साहस का प्रतिशोध लेना आवश्यक है। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक ऐसा
कार्य करने के विषय में सोचा, जो राक्षसों को लंबे समय तक संताप दे सके। वे अपनी जलती हुई
पूँछ लेकर लंका के सुंदर महलों पर घूमने लगे।
तेजी से कूदते हुए हनुमान ने सबसे पहले रावण के शक्तिशाली मंत्री प्रहस्त के भवन में आग
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 285

लगाई। इसके बाद रावण के सबसे ज्येष्ठ पुत्र इंद्रजीत के भवन को जलाया। आगे जाते हुए हनुमान
ने सुमाली और कुंभकरण के भवनों को जला दिया, परंतु हनुमान ने रावण के भाई विभीषण के घर
में आग नहीं लगाई। अंत में हनुमान ने रावण के भव्य एवं वैभवशाली भवन में भी आग लगा दी।
हवा के कारण धधकती हुई आग और अधिक फैल गई, जिसके फलस्वरूप सोने की जालियाँ भी
जल गईं तथा कीमती पत्थर से सज्जित भवन में दरार आ गई। राक्षस सभी दिशाओं में यह कहते हुए
इधर-उधर भाग रहे थे कि लंका का विनाश करने के लिए अग्नि देवता हनुमान के रूप में आए हैं।
घना धुआँ घने बादलों सा प्रतीत हो रहा था। आग की लपटों से घिरे और अपने नजदीकी लोगों की
जान जाते देखकर राक्षसों ने खिन्नता तथा निराशा का अनुभव किया।

7. लौटने से पहले हनुमान ने सीता में साहस तथा रावण में भय का संचार किया
जलती हुई लंका पुरी को देखकर हनुमानजी को किसी अनहोनी का डर सताने लगा। वह यह
सोचकर दुःखी तथा निराश हो गए कि कहीं सीताजी भी इस अग्नि से जल तो नहीं गई हैं। उस समय
उन्हें सीताजी के जीवन को खतरे में डालने पर पछतावा हुआ। इसके बाद उन्होंने कुछ राक्षसियों को
उस विध्वंस के पश्चात् हैरान होते हुए सुना कि सीता इस अग्नितांडव से कैसे सुरक्षित रह गईं! लंका
के विध्वंस के इस शुभ समाचार को सुनाने के लिए तथा सीताजी से अनुमति लेने के लिए हनुमान
MAGAZINE KING
एक बार फिर सीताजी से मिलने गए। सीताजी अपने वीर पुत्र से अलग नहीं होना चाहती थीं और
हनुमान से एक दिन और रुकने की आग्रह करने लगीं। उन्होंने यह भी कहा कि संसार में केवल तीन
प्राणियों में लंका और भारत के बीच के इस समुद्र को पार करने का सामर्थ्य है—गरुड़, वायु देवता
तथा हनुमान। इसके बाद उन्होंने कहा, “श्रीराम को कृपा कर यह बता दें कि सेना के साथ समुद्र
पार करने के लिए सभी बाधाओं को दूर कर, यदि श्रीराम समस्त लंका का विनाश कर देंगे और
फिर मुझे यहाँ से वापस ले जाएँगे, तो यह उनकी इक्ष्वाकु वंशीय परंपरा व स्वाभिमान के अनुरूप
होगा।” हनुमान ने उन्हें आश्वस्त किया कि ‘‘जल्द ही श्रीराम और लक्ष्मण, वानर राज सुग्रीव की
विशाल वानर सेना की सहायता से लंका की ईंट से ईंट बजा देंगे, रावण के जीवन का अंत कर देंगे
तथा आपको यहाँ से मुक्त करा लेंगे।’’ इसके पश्चात् हनुमान ने श्रीराम और सुग्रीव को इसके बारे
में बताने के लिए तत्काल जाने का निर्णय लिया।
तत्पश्चात् हनुमान अरिष्ट पर्वत पर चढ़ गए, जो साल, ताल, बाँस तथा पद्मक के वृक्षों से भरा
हुआ था, वहाँ काफी संख्या में गुफाएँ भी थीं। (5/56) श्रीराम से मिलने की लालसा तथा असीम
आनंद की अनुभूति से उत्सुक होकर हनुमान ने उस पर्वत को पूरी ताकत से दबाया और समुद्र को
पार करने के लिए हवा में छलाँग लगाई। इससे अरिष्ट पर्वत बुरी तरह से कंपित हो गया; उस पर्वत
की गुफा में रहनेवाले बाघ तथा अन्य जंतुओं ने भयानक गर्जना की। श्रीलंका के नुवारा एल्या पर्वत
286 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

की, उसकी गुफाओं सहित आधुनिक तसवीरों को देखें। यह बिल्कुल उसी पर्वत जैसा है, जिसका
वर्णन 7000 वर्ष पूर्व रामायण में अरिष्ट पर्वत के नाम से किया गया। इस पुस्तक की लेखिका ने इस
स्थान का भ्रमण किया है और श्रीलंका में स्थित नुवारा एल्या पर्वत की तथा इसके नीचे बिछे गुफाओं
तथा सुरंगों के जाल की कुछ तस्वीरें ली हैं। इनमें रावण फॉल्स (झरने) तथा उनके पीछे की गुफाएँ,
रावण गुफा, उदाकिरिंदा गुफा शामिल हैं। ये सभी नुवारा एल्या पर्वत के आसपास हैं और रामायण के
विवरण से मेल खाते हैं। इसके समीप ही अशोक वाटिका भी स्थित है। इस भ्रमण के दौरान रामायण
में वर्णित इन स्थानों के बारे में कई संदर्भ मानस-पटल पर दृष्टिगोचर हो गए। इनमें से कुछ तस् वीरों
को नीचे दिया गया है। (देखें चित्र-40-43)

MAGAZINE KING
चित्र-40 ः नुवारा एल्या पर्वत शिखर चित्र-41 ः रावण गुफा

चित्र-42 ः रावण झरने, कई गुफाओं सहित चित्र-43 ः उदाकिरिंदा गुफाएँ

अब हम घटनाक्रमों के अनुक्रम को उनकी तिथियों के साथ स्मरण करते हैं। लंका पहुँचकर
हनुमान ने सीताजी को नगर के हर कोने में खोजा। अंत में उन्होंने सीताजी को अशोक वाटिका में एक
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 287

शिंशपा वृक्ष के नीचे बैठा पाया। उस समय रावण उन्हें लुभाने तथा डराने का प्रयत्न कर रहा था तथा
वे चारों ओर कुरूप तथा भयंकर राक्षसियों से घिरी हुई थीं। उनका चेहरा उस समय लंका के क्षितिज
में दिखाई दिए ग्रसित चंद्रमा की तरह सौंदर्यविहीन लग रहा था। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा निकाले
गए आकाशीय दृश्य के अनुसार हनुमान सीताजी से 12 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. को तथा स्टेलेरियम
सॉफ्टवेयर के व्योमचित्र-के अनुसार 22 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. को सीताजी से मिले थे। उस समय
चंद्रग्रहण लगा हुआ था। अगले दिन हनुमान ने अशोक वाटिका का विध्वंस किया था, रावण के हजारों
सैनिकों का वध करने के साथ-साथ रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध भी किया था। इसके बाद
इंद्रजीत ने ब्रह्म‍ास्त्र से उन्हें बाँध दिया था और दरबार में रावण के सामने पेश किया था। रावण से
आदेश प्राप्त कर राक्षसों ने हनुमान की पूँछ में बहुत सूती कपड़ा लपेटा और उसमें आग लगाई। हनुमान
ने उसी जलते हुए सूती कपड़े से लंका नगरी को जलाया था। उसके बाद वे पुनः सीताजी से मिले थे
और इसके बाद तत्काल अपनी वापसी यात्रा प्रारंभ की थी। इस प्रकार उन्होंने सीताजी से मिलने के दो
दिन के भीतर ही वापसी यात्रा प्रारंभ की थी और वह दिन 14 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. होना चाहिए।
महर्षि वाल्मीकि ने काव्यात्मक ढंग से विविध ग्रहों, नक्षत्रों और राशियों की स्थिति के साथ हनुमान
की समुद्र के ऊपर से वापसी यात्रा का बहुत सुंदर, चित्रात्मक तथा रुचिकर विवरण प्रस्तुत किया है।
उपमाओं और रूपकों का उपयोग कर महर्षि वाल्मीकि ने आकाश की तुलना विशाल सागर से की है;
MAGAZINE KING
उस समय अवलोकित खगोलीय स्थितियों के विवरण की तुलना सागर की वनस्पतियों, प्राणियों और
टापुओं से की है। (5/57/1-4) सुंदर कांड के सर्ग 57 के ये चार श्लोक साबित करते हैं कि अद्भुत
काव्यात्मक कौशल के साथ-साथ महर्षि वाल्मीकि को खगोलशास्त्र तथा समुद्रविज्ञान की भी विस्तृत
जानकारी थी। आज भी आकाश में राशियों का विवरण उनकी उन्हीं आकृतियों के आधार पर दिया
जाता है, जैसा कि आदिकवि वाल्मीकि ने किया है। ऐसा न सिर्फ भारतीय खगोल परंपरा में है, बल्कि
मिस्त्र और पश्चिमी खगोलविज्ञान में भी यही परंपरा है। इस अवलोकन का मूल्यांकन व तिथिनिर्धारण
करने के लिए हम सर्ग 57 के इन चार श्लोकों को पढ़ते हैं16 (5/57/1-4)—
॥ आपल्यु च महावेग: पक्षवानिव पर्वत:।
भुजंग्यक्षगन्धर्वप्रबुद्धकमलोत्पलम्॥ 1॥
॥ स चन्द्रकुमुदं रम्‍यं सार्ककारण्‍डवं शुभम्।
तिष्‍यश्रवणकादम्‍बमभ्रशैवलशाद्वलम्॥ 2॥
॥ पुनर्वसुमहामीनं लोहिता�महाग्रहम्।
ऐरावतमहाद्वीपं स्‍वातीहंसविलासितम्॥ 3॥
॥ वातसंघातजालोर्मिचंद्रांशुशिशिराम्‍बुमत्।
हनूमानपरिश्रान्त: पुप्लुवे गगनार्णवम्॥ 4॥
288 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

अर्थ—
1. महान् पराक्रम से संपन्न हनुमान पंखों वाले पर्वत की तरह दिखाई दे रहे थे। उन्होंने शीघ्रता
से उस रमणीय समुद्र को पार किया, जिसमें हंस स्वाति नक्षत्र की तरह तथा कमल यक्षों व
गंधर्वों की तरह दिखाई दे रहे थे।
2. उस समय चंद्रमा एक सफेद कुमुदिनी की तरह प्रतीत हो रहा था, जबकि सूर्य सारस की
तरह दिखाई दे रहा था।
3. कर्क राशि (पुष्य नक्षत्र) और मकर राशि (श्रावन नक्षत्र) समुद्र में हंसों की तरह दिखाई दे
रही थीं।
4. पुनर्वसु नक्षत्र वाली मिथुन राशि बड़ी मछली की तरह प्रतीत हो रही थी।
5. मंगल ग्रह एक बड़े मगरमच्छ की तरह दिखाई दे रहा था, जबकि बृहस्पति ऐरावत (हाथी)
के सदृश दिखाई दे रहा था।
6. स्वाति नक्षत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली कन्या राशि हंस की तरह दिखाई दे रही थी।
7. आकाश में हाथी की सूँड़ के सदृश्य दिखाई दे रही वृश्चिक राशि समुद्र में टापू की भाँति
दिखाई दे रही थी।
8. प्रचंड वायु की तुलना समुद्र में उठती तरंगों से की गई है तथा चंद्रमा की तुलना शीतल जल
से की गई है।
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आकाश में इन सभी खगोलीय स्थितियों को देखते हुए, हनुमान को समुद्र को पार करने में कोई
कठिनाई नहीं हुई। मेघ में प्रवेश करते हुए और इसके बाद उससे बाहर निकलते हुए सफेद कपड़े पहने
हुए हनुमान ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे कि चाँद अदृश्य होकर फिर से निकल आता है। अपनी अभूतपूर्व
सफलता से खुश होकर, सीताजी से मिलकर, अशोक वाटिका का विध्वंस कर, राक्षस सेनापति का
वध कर और लंका नगरी को जलाकर हनुमान समुद्र के बीच में सुनाभ पर्वत (मैनाक पर्वत) पर गर्जते
हुए बहुत तेजी से नीचे उतरे। (5/57/13-14)। तत्पश्चात् बिना विश्राम किए, महेंद्र पर्वत पर जाने की
जल्दबाजी में हनुमान ने पुनः पूरी ताकत से छलाँग लगाई, क्योंकि महेंद्र पर्वत पर अंगद, जांबवान तथा
अन्य वानर सैनिक उत्साहपूर्वक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
इन श्लोकों में महर्षि वाल्मीकि ने मिथुन से लेकर मकर राशि तक कुल आठ राशियों का वर्णन
किया है, जबकि एक समय केवल छह राशियाँ ही क्षितिज के ऊपर दिखाई दे सकती हैं। एक नई
राशि के उदय होने में लगभग दो घंटे का समय लगता है, इसलिए यदि आठ राशियाँ देखी गई थीं तो
इसका अर्थ है कि हनुमान के समुद्र में सुनाभ पर्वत तक पहुँचने तक दो नई राशियाँ क्षितिज के ऊपर
उदय हो गईं। आकाश का यह विवरण प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर के प्रयोग से निकाले गए 14 सितंबर,
5076 वर्ष ई.पू. के आकाशीय दृश्य से हूबहू मिलता है। नीचे दिखाए गए आकाशीय दृश्य से यह
ज्ञात होता है कि हनुमानजी ने अपनी वापसी यात्रा 14 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. को सुबह 6.15 बजे
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 289

प्रारंभ की होगी; उस समय ग्रह - सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बृहस्पति दिखाई दे रहे थे और राशियाँ - मिथुन
(Gemini), कर्क (Cancer), वृश्चिक (Scorpius) और कन्या (Virgo) क्षितिज के ऊपर साफ
दिखाई दे रही थीं। लगभग डेढ़ घंटे में, मिथुन (Gemini) राशि क्षितिज से नीचे चली गई, जबकि
धनुर (Sagittarius) राशि क्षितिज से ऊपर दिखाई देने लगी। उसके दो घंटे बाद कर्क (Cancer)
राशि क्षितिज के नीचे तथा मकर (Capricornus) राशि क्षितिज के ऊपर आ गई थी। आकाश का
यह विवरण दर्शाता है कि हनुमानजी को लंका के अरिष्ट पर्वत से सागर के बीच स्थित सुनाभ पर्वत
(मैनक पर्वत) तक यात्रा में लगभग साढ़े तीन घंटे का समय लगा होगा, जहाँ वे सुबह लगभग 9:30
बजे पहुँचे होंगे। (देखें व्योमचित्र-24)
हनुमान की लंका से सुनाभ पर्वत तक यात्रा के समय का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-24 ः कोलंबो, 70 उ. 800 पू., 14 सितंबर 5076 वर्ष ई.पू., 06:15 बजे; प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित लंका से
यात्रा लगभग 06:15 बजे प्रारंभ हुई, हनुमान लगभग 9 बजकर 30 मिनट पर सुनाभ पर्वत पर पहुँचे
290 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर इसी आकाशीय दृश्य को 24 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. को दर्शाता है। 40 दिनों
का यह अंतर अध्याय एक में स्पष्ट किया गया है कि प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर ग्रिगोरियन सुधार से पूर्व 131
वर्ष में एक दिन के अंतर को समायोजित नहीं करती, जबकि स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर में संपूर्ण अवधि में इस
अंतर को समायोजित कर लिया गया है। (देखें व्योमचित्र-25-26)
हनुमान की लंका से सुनाभ पर्वत तक यात्रा के समय का व्योमचित्र-1

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व्योमचित्र-25 ः कोलंबो, 7०उ. 80०पू., 24 अक्तूबर, 5076 ई.पू., 06:16 बजे; स्टेलेरियम का स्क्रीनशॉट मिथुन
(Gemini)से लेकर वृश्चिक (Scorpius) तक सभी छह राशियाँ दृश्यमान
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 291

हनुमान की लंका से सुनाभ पर्वत तक यात्रा के समय का व्योमचित्र-2

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व्योमचित्र-26 ः कोलंबो, 7०उ. 80०पू., 24 अक्तूबर 5076 ई.पू., 9:31 बजे; स्टेलिरियम का स्क्रीनशॉट मिथुन और कर्क क्षितिज से
नीचे तथा धनु (Sagittarius) एवं मकर राशियाँ (Capricornus) क्षितिज में ऊपर आईं

मैनाक पर्वत से महेंद्र पर्वत तक हनुमान की छलाँग की गति धनुष से छूटे बाण की गति के समान थी।
वह जल्द ही महेंद्र पर्वत पर पहुँच गए तथा उन्होंने मेघ की तरह गर्जना की। वानर सेना ने उनकी गर्जना को
आनंदित होकर सुना। जांबवान ने उन्हें कहा, “बलशाली हनुमान पूरी तरह से सफल हुए हैं, यह आनंद की
गर्जना है।” अति प्रसन्न होकर वे सब वानर मस्त हो एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर तथा एक पर्वत से दूसरे पर्वत
पर छलाँग लगाने लगे। हनुमान महेंद्र पर्वत पर एक सुदं र जलधारा के तट पर उतरे। जांबवान तथा अन्य
वानर यूथपतियों ने महेंद्र पर्वत के शिखर से हनुमान का अभिवादन करते हुए, उन्हें स्वादिष्ट फल तथा मूल
परोसे। हनुमान ने संक्षेप में बताया कि देवी स्वरूपा सीताजी को उन्होंने वास्तव में लंका में देखा है। उन्होंने
कहा कि राजा जनक की पुत्री के गुणों का गुणगान करना उनकी पहुँच से बाहर है। श्रीराम से जल्द मिलने
की बेचनै ी और राक्षसियों की प्रताड़ना सहकर वे दुर्बल दिखाई दे रही थीं, उनका शरीर धूल से सना हुआ
292 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

था, वस्त्र मलिन थे और केश जटाओं की तरह दिखाई दे रहे थे। राजकुमार अंगद ने हनुमान की प्रशंसा
करते हुए कहा, “साहस तथा वीरता में आपकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। आपकी भक्ति तथा शक्ति
दोनों अनमोल हैं। आपका अपने इरादे पर अडिग रहना भी सराहनीय है। आप हम सभी के लिए जीवनदाता
बनकर वापिस आए हैं। आपकी कृपा से अब हम लोग मिथिला की राजकुमारी को रघुवंशी श्रीराम से
मिला पाएँग।े ” इसके बाद यशस्वी अंगद तथा अन्य वानर सैनिक हनुमान की जुबानी विस्तारपूरक
्व संपर्ण

घटनाक्रम को सुनने के लिए उत्सुक थे, इसलिए वे सभी एक विशाल तथा समतल चट्टान पर बैठ गए।
जांबवान के द्वारा पूछे जाने पर हनुमान ने लंका यात्रा का संपर्ण
ू घटनाक्रम विस्तार से सुनाया; सुरसा
से उनकी लड़ाई, लंका पहुँचने से पहले सिंहिका का वध इत्यादि। उन्होंने लंकिनी को पराजित करने, पूरी
लंका नगरी तथा रावण के भवन का दौरा करने, अशोक वाटिका में शीशम के वृक्ष के नीचे बैठी सीताजी
से बातचीत, जब रावण ने उनको प्रलोभन देने का प्रयास किया तो सीताजी की रावण को फटकार, इत्यादि
के बारे में बताया। उन्होंने विस्तार से बताया कि किस तरह उन्होंने अशोक वाटिका का विनाश किया,
लंका के पूजास्थल को गिराया और युद्ध में कई सेनापतियों के साथ-साथ रावण के सबसे छोटे पुत्र अक्षय
कुमार का वध किया। इसके बाद हनुमान ने यह भी बताया कि इंद्रजीत ने उन्हें ब्रह्म‍ास्त्र से बाँध दिया था
और रावण के समक्ष ले गया था। रावण उन्हें मार देना चाह रहा था, लेकिन उसके छोटे भाई विभीषण ने
यह कहते हुए हस्तक्षेप किया कि शास्त्रों में किसी दूत का वध करना वर्जित है। समस्त वानर सेना इस
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घटनाक्रम को विस्तार से सुनने के लिए उत्सुक थी और हनुमान से यह अपेक्षा कर रही थी कि वे और
विस्तार से सभी घटनाएँ सुनाएँ। हनुमान ने इसके बाद कहा कि रावण के द्वारा आदेश दिए जाने के बाद
राक्षसों ने उनकी पूँछ में बहुत लंबे कपड़े लपेट दिए और उसमें आग लगा दी। इससे हनुमान ने रावण,
उसके पुत्रों तथा उसके सेनापतियों के भवनों के साथ-साथ पूरी लंका में आग लगा दी।
हनुमान ने यह भी बताया कि वह अरिष्ट पर्वत से छलाँग लगाने से पहले भी सीताजी से मिले थे तथा
उन्हें श्रीराम से मिलाने के लिए अपने कंधे पर बैठाकर लाने का प्रस्ताव भी दिया था। असहनीय शोक से
ग्रसित होने के बावजूद राजा जनक की उस साहसी और बुद्धिमान पुत्री ने कहा कि इक्ष्वाकु वंशीय श्रीराम
की गरिमा के अनुरूप यही होगा कि श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव के द्वारा लंका का विनाश और रावण का
वध किया जाए, इसके बाद ही उन्हें सम्मान के साथ अयोध्या ले जाया जाए। इसके बाद हनुमान ने उन्हें
आश्वस्त किया कि उनकी इच्छा बहुत जल्द पूर्ण होगी। उस समय राजकुमार अंगद ने रावण सहित सभी
दानवों को जड़मूल से मिटाने, सीताजी को लंका से वापस लाने और इसके बाद उन्हें श्रीराम से मिलाने की
इच्छा जताई। परंतु जांबवान, जो दूरदर्शी तथा अत्यंत बुद्धिमान थे, उन्होंने ठोस कारण बताकर ऐसा करने
से रोका। उन्होंने अंगद की वीरता और प्रतिभा की प्रशंसा की, लेकिन उन्हें याद दिलाया, “हमें सीताजी की
खोज के लिए तथा उनके ठिकाने का पता लगाने के लिए भेजा गया था। इस महान् कार्य को हनुमान ने पूरा
किया है। रघुकुलवंशी श्रीराम ने सीताजी को स्वतंत्र कराने की शपथ ली है। वे शायद सीताजी को जीतकर
लाने के हमारे प्रयास का अनुमोदन न करें। हमें सभी तथ्यों को सुग्रीव और श्रीराम के सामने पेश कर देना
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 293

चाहिए, तत्पश्चात् उनके द्वारा लिए निर्णय अनुसार हम उनकी हर संभव सहायता करें।”
जांबवान द्वारा दिए गए सुझाव को सभी ने स्वीकार कर लिया। राजकुमार अंगद, हनुमान और
जांबवान के नेतृत्व में संपर्ण
ू वानर सेना महेंद्र पर्वत से किष्किंधा की ओर चल पड़ी। युवराज अंगद की
अनुमति से रास्ते में मधुवन में उपलब्ध मधु और फलों का आनंदविभोर सभी वानरों को भोजन कराया
गया। वह सुग्रीव की एक सुंदर एवं विशाल वाटिका थी, उसमें सबसे उत्तम फल थे तथा काफी मात्रा में
मधु था। सुग्रीव का मामा दधिमुख मधुवन का संरक्षक था। वानर सैनिक वाटिका में स्वादिष्ट फलों, मूल
और मधु का आनंद उठा रहे थे। वे वृक्षों के ऊपर नाच-गा रहे थे तथा कूद रहे थे, ऐसा करते हुए उन्होंने
कई वृक्षों की शाखाओं को तोड़ डाला। यह जानकर कि वाटिका को काफी क्षति पहुँच चुकी है; दधिमुख
ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया, उन्होंने बल प्रयोग करने की कोशिश भी की। लेकिन सफलता के आनंद
में मदमस्त वानर सेना अपना उत्सव बंद करने को तैयार नहीं थी। उन्होंने दधिमुख के पहरेदारों पर भी
आक्रमण कर दिया। हनुमान ने दधिमुख को समझाने का प्रयत्न किया, लेकिन इसका कोई विशेष प्रभाव
नहीं पड़ा। इसके बाद युवराज अंगद ने हस्तक्षेप किया और दधिमुख से कहा कि वे वानर सेना को मधु
और फलों का आनंद लेने दें। तत्पश्चात् शीघ्रता से दधिमुख सुग्रीव के पास पहुँचा और उसने मधुवन में
इन पराक्रमी और उल्लसित वानरों के द्वारा की गई क्षति के बारे में बताया।
आनंदविभोर वानर सेना के द्वारा वाटिका को पहुँचाई गई क्षति के बारे में सुनने के बाद सुग्रीव ने
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निष्कर्ष निकाला कि वे सीताजी का पता लगाने में सफल हुए हैं। इसी कारण उन्होंने दधिमुख को यह
कहते हुए वापस भेज दिया कि “मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि वाटिका का उपयोग वानर सेना
ने आनंद उत्सव मनाने के लिए किया, इससे इंगित होता है कि उन्होंने अपना कार्य पूरा किया है। वापस
जाओ, वाटिका के संरक्षक बने रहो तथा समस्त वानर सेना के साथ अंगद को मेरे पास तत्काल भेज दो।”
इस बातचीत के विषय में लक्ष्मण के द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में सुग्रीव ने बताया कि वानर सेना की
ओर से ऐसा व्यवहार स्पष्ट रूप से इस तथ्य का संकेत है कि उन्होंने लक्ष्य पूरा कर लिया है और वे दिव्य
महिला सीताजी का पता लगाने में सफल हो गए हैं।
सदाचारी एवं आज्ञाकारी लक्ष्मण के साथ-साथ श्रीराम सुग्रीव के मुँह से ये वचन सुनकर बहुत प्रसन्न
हुए। उन राजसी तपस्वियों की आँखें खुशी से नम हो गईं तथा उनके सभी अंग खुशी से रोमांचित हो उठे।
सुग्रीव के आदेश अनुसार मधुवन वापस जाकर दधिमुख ने युवराज अंगद से क्षमा-याचना की और उन्हें
बताया कि आप शीघ्र सेना सहित सुग्रीव के पास पहुँच जाएँ। अंगद के नेतृत्व में हनुमान, जांबवान और
अन्य वानर सेना ने मधुवन से प्रस्थान किया और सुग्रीव तथा श्रीराम के पास शीघ्र ही पहुँच गए। अंगद ने
श्रीराम और सुग्रीव को प्रणाम किया; उन्होंने उन्हें हनुमान के कौशल और पराक्रम के बारे में तथा सीताजी
की खोज से संबधि ं त जानकारी दी। तत्पश्चात् मस्तक झुकाकर प्रणाम करने के बाद शक्तिशाली हनुमान ने
बताया कि ‘‘देवी समान पवित्रात्मा सीताजी से मैं मिला था, मैंने उन्हें कैदी के रूप में रावण की अशोक
294 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वाटिका में शिंशपा वृक्ष के नीचे बैठे हुए देखा था। श्रीराम द्वारा एक विशेष प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने
विस्तार से साध्वी सीताजी की दयनीय अवस्था के बारे में बताया तथा उन्हें राक्षसियों के द्वारा प्रतिदिन
प्रताड़ित किए जाने के बारे में भी बताया, ताकि वे रावण की इच्छानुसार स्वयं को उसके आगे समर्पण कर
दें तथा उसे अपना पति मान लें, परंतु राजा जनक की पुत्री सीता श्रीराम के प्रति अपनी वफादारी से तनिक
भी विचलित नहीं हुई। उन्होंने श्रीराम के द्वारा चिह्न‍ स्वरूप भेजी गई मुद्रिका सीताजी को देने के बाद उनके
निराश तथा उदास मन में जगी आशा की चिंगारी के बारे में भी बताया। इसके बाद उन्होंने सीताजी के द्वारा
दी गई चूड़ामणि श्रीराम को सौंप दी और उनका संदेश श्रीराम को दिया, “हे रघुवंशी राम! मैंने बहुत मेहनत
से इस चूड़ामणि (माथे पर पहननेवाला एक आभूषण) को सँभालकर रखा है। यह चूड़ामणि मेरे विवाह के
समय मेरी माँ द्वारा दी गई थी और आपके पिता सम्राट् दशरथ के द्वारा आपकी उपस्थिति में मेरे माथे पर
पहनाई गई थी। राक्षसों के चंगुल में फँसने के बाद मैं असहनीय दर्द और पीड़ा से गुजर रही हूँ और एक
महीने से अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाऊँगी।”
कई पारंपरिक इतिहासकारों, विशेषकर वामपंथी विचार रखनेवालों ने रामायण की ऐतिहासिकता तथा
ति‌िथकरण को चुनौती दी है और दावा किया है कि सोने के आभूषण, विशेषकर मुद्रिका तथा गले या माथे पर
पहने जाने वाले आभूषणों के बारे में भारतवासी 2500 वर्ष से पहले अनभिज्ञ थे, परंतु ऐसी मान्यता अज्ञानता
तथा पूरग्र्व ह पर आधारित थी, जिसे आज के पुरातात्त्विक साक्ष्यों ने गलत साबित कर दिया है। भारतीय
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महाद्वीप के उत्तरी भागों में हुए अनेक पुरातात्त्विक उत्खननों में हूबहू इसी तरह के आभूषण मिले हैं तथा
इनकी कार्बन डेटिगं इन्हें 5000 वर्षों से भी अधिक पुराना सिद्ध करती है17-18। (देखें चित्र-44, 45 तथा 46)

चित्र-44, 45 ः बनवाली, हरियाणा से प्राप्त सोने के आभूषण और पत्थर के मनके,


5000 वर्ष से अधिक पुराने (अग्रवाल, 2007) (सौजन्य : आर्यन बुक्स इंटरनेशनल)
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 295

चित्र-46 ः मोहनजोदड़ो से प्राप्त सोने का हार या (ललाट का आभूषण),


5000 वर्ष से अधिक पुराना (अग्रवाल, 2007) (सौजन्य : आर्यन बुक्स इंटरनेशनल)
सीता के द्वारा भेजे गए इस बहुमूल्य आभूषण को अपने सीने से लगाकर उस समय श्रीराम शोकातुर
हो आँसू बहाने लगे, लक्ष्मण भी उनके साथ रो पड़े। उन्हें इसके बाद याद आया कि विवाह के समय
स्वर्गीय पिता दशरथ द्वारा पहनाए गए इस अद्भुत आभूषण के साथ सीता बहुत ही सुंदर दिखाई दे रही थीं।
चूड़ामणि की ओर देखकर श्रीराम को उस समय ऐसा महसूस हुआ, जैसे वे साक्षात् सीताजी से ही मिल
रहे हैं। इसके बाद श्रीराम ने विस्तार से हनुमान और सीताजी की मुलाकात के बारे में जानना चाहा और यह
भी जानना चाहा कि वे उनके बिना कैसे जी पा रही हैं? इसके बाद हनुमान ने विस्तार से सीता की दयनीय
स्थिति के बारे में बताया कि सीताजी ने कैसे श्रीराम के साथ वन में बिताए कुछ सुंदर लम्हों को याद किया।
उन्होंने सीताजी के द्वारा सुनाई गई उस घटना को दोहराया, जब एक कौए ने उनके वक्षस्थल पर जख्म
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कर दिया और श्रीराम ने उस कौए के पीछे अचूक बाण चलाया था, तत्पश्चात् किस प्रकार श्रीराम ने लंबे
समय तक सीताजी को स्नेह के साथ सांत्वना दी थी। (देखें लघुचित्र-9)

लघुचित्र-9 ः मेवाड़ रामायण से एक पन्ना, कलाकार साहिब दीन, M.S 15296(1)


ff.110v, 111r, ©https://www.bl.uk/ramayana (सौजन्य : ब्रिटिश लाइब्रेरी बोर्ड)
296 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

{श्रीराम सीताजी को चित्रकूट पर्वत की सुंदरता, फलों से लदे वृक्षों, बहती हुई मंदाकिनी नदी तथा संन्यासियों द्वारा
किए जा रहे स्नान व ध्यान के बारे में बता रहे हैं। श्रीराम ने सीता के ललाट को लाल चंदन से सजाया और प्रेम सहित उन्हें
अपनी बाँहों में भर लिया। इसके बाद कलाकार ने दर्शाया है कि कैसे कौए ने सीता के वक्ष-स्थल पर चोंच मारी, जिससे
रक्त बहने लगा। क्रोधित श्रीराम ने उस पर एक बाण छोड़ा। तीनों लोकों में कौए को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो वह श्रीराम
के चरणों में आकर दया की भीख माँगने लगा। श्रीराम थोड़े नरम हुए और उसकी दाईं आँख में बाण से प्रहार किया, इस
प्रकार उसे जीवन दान दे दिया। (मेवाड़ कोर्ट के कलाकार साहिब दीन ने 1640 ईस्वी से 1652 ईस्वी तक इन पेंटिंग्स पर
काम किया। मेवाड़ के महाराणा ने इन चित्रों को कर्नल जेम्स टॉड को उपहार में दिया, जिन्होंने इन्हें 1823 में ड्‍यूक ऑफ
ससेक्स को भेंट कर दिया। ब्रिटिश लाइब्रेरी ने ड्‍यूक की लाइब्रेरी से इनका अधिग्रहण किया)}

हनुमान ने सीताजी की उस प्रारंभिक शंका के बारे में भी बताया कि एक वानर विशाल समुद्र को कैसे
लाँघ सकता है। रघुकुल नंदन श्रीराम को यह भी बताया कि कैसे उन्होंने शोकातुर सीता को यह प्रस्ताव
भी दिया था कि वे उन्हें अपने कंधे पर बैठाकर लंका से बाहर ले जाकर श्रीराम से मिला सकते हैं। अंत
में उन्होंने मिथिला की बुद्धिमान तथा सम्मानित राजकुमारी के द्वारा दिए गए उत्तर के बारे में भी बताया,
“श्रीराम या उनके सेनापतियों के द्वारा मुझे गुप्त रूप से यहाँ से वापस ले जाना उचित नहीं। यदि अपने बल
से लंका का विनाश और युद्ध में रावण का वध कर श्रीराम विजयी होकर मुझे अयोध्या लेकर जाते हैं, तो
यह उनके क्षत्रिय धर्म के अनुरूप होगा।’’ इस उत्तर तथा इसके आंतरिक अर्थ का इक्ष्वाकु के वंशज श्रीराम
ने सम्मान किया और इसमें निहित अर्थ को अच्छी तरह से समझ लिया।
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श्रीराम के द्वारा पूछे गए अन्य प्रश्नों के उत्तर में हनुमान ने शोक संतप्त सीताजी में कुछ विश्वास पैदा
करने के लिए तथा राक्षसों के मन में भय पैदा करने के लिए अपने द्वारा उठाए गए कुछ कदमों के बारे में
भी विस्तार से बताया। उन्होंने अपने द्वारा अशोक वाटिका में किए गए विध्वंस के बारे में बताया, लंका में
राक्षसों के कुलदेवता के पवित्र स्थान चैत्य प्रासाद को तहस नहस कर देने के बारे में भी बताया। तपस्वी
राजकुमारों को प्रसन्न करने के लिए हनुमान ने उन्हें प्रहस्त के शक्तिशाली पुत्र जंबुमाली के वध के विषय
में बताया। हनुमान ने बताया कि ‘‘मैंने पाँच सेनापतियों का वध करने के पश्चात् रावण के सबसे छोटे पुत्र
अक्षय कुमार का भी वध कर दिया। तत्पश्चात् रावण के सबसे बड़े तथा शक्तिशाली पुत्र इंद्रजीत ने मुझे
ब्रह्म‍ास्त्र से बाँध लिया तथा रावण के दरबार में ले गया। रावण के आदेश से राक्षसों ने मेरी पूँछ में कपड़ा
लपेट दिया और तेल छिड़कने के बाद उसमें आग लगा दी। उन्होंने मुझे ढोल-बाजे के साथ पूरी लंका
नगरी में घुमाया। मैंने इसका बदला सोने की लंका, वहाँ के भवनों, पूजा स्थलों तथा रावण के महल में आग
लगाकर लिया।’’ इसके बाद पवनपुत्र हनुमान ने यह भी बताया कि लंका से वापस आने से पहले वे एक
बार फिर मिथिला की राजकुमारी सीताजी से मिले और उन्हें आश्वासन दिया कि सुग्रीव की सेना में और
कई वानर हैं, जो उनसे भी अधिक शक्तिशाली हैं और उन्हें अतिशीघ्र श्रीराम से मिलाया जाएगा। हनुमान
की इन बातों को सुनकर श्रीराम ने उन्हें प्रेमपूर्वक गले से लगाया और कहा, “तुमने एक महान् कार्य किया
है, जो इस पृथ्वी पर किसी और के द्वारा नहीं किया जा सकता था।”
हनुमान की लंका में सीता से भेंट तथा श्रीराम के सम्मुख घटनाक्रम • 297

संदर्भ सूची—
1. डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली, चैप्टर ः पृष्‍ठ 1-8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyu J6fFZo&t=429s-डॉ. कलाम का
भाषण, भाग 1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU_m-X7Pc&t=10s-डॉ. कलाम का
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4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminar-on-scientific-dating-of-
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5. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत;
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6. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत;
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कॉन्फ्रेंस ऑन क्रोनोलॉजी ऑफ इंडियन कल्चर सिंस द बिगनिंग ऑफ होलोसीन थ्रू साइंटिफिक
एविडेंसेज’; 16 जुलाई, 2016 की प्रस्तुति http://bit.ly/2DfYZ2k।
9. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, 2014, इन क्वेस्ट ऑफ द डेट्स ऑफ वेदाज, प्रकाशक प्रैट्रिड्ज, पेंग्विन रेंडम हाऊस
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10. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत;
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75
15. एनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज्म, 2010. इंडियन हैरिटेज रिसर्च फाउंडेशन, अमेरिका तथा रूपा ऐंड
कंपनी द्वारा प्रकाशित, संस्करण 7, पृष्ठ 214
298 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

16. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत;
सुंदरकांड
17. डी.पी. अग्रवाल 2007, ‘द इंडस सिविलाइजेशन : एन इंटर डिसिप्लनेरी प्रस्पेक्टिव’, प्रकाशक आर्यन
बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली
18. आर.एस. बिश्ट, 1978. ‘बनावली : ए न्यू हड़प्पन साईट इन हरियाणा’; मैन ऐंड एनवायरमेंट 2,
पृष्ठ 86-88
o

MAGAZINE KING
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 299

अध्याय-6

समुद्र पर सेतु का निर्माण कर


श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता
रावण का वध किया
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आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके
खगोलीय गणनाओं से साबित होता है कि वाल्मीकीय
रामायण में वर्णित खगोलीय घटनाएँ वास्तव में वर्तमान से
7000 वर्ष पूर्व उसी क्रम में घटी थीं जैसा कि रामायण में
वर्णित है। रामसेतु उसी स्थान पर समुद्र में डूबा हुआ पाया
गया है, जहाँ रामायण में उसका संदर्भ है।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (नासा, ग्लोबल चेंज मास्टर
डायरेक्टरी) के अनुमान के अनुसार पिछले 7000 वर्षों में समुद्र जल सतह का स्तर
लगभग 2.8 मीटर अर्थात ् 9.3 फीट बढ़ा है। वर्तमान में रामसेतु के अवशेष समुद्र सतह
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से लगभग इसी गहराई पर (9-10 फीट नीचे) पाए गए हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है
कि वर्तमान से 7000 वर्ष पूर्व इस सेतु का प्रयोग भूमि मार्ग के रूप में किया जा सकता
था। हजारों वर्ष पूर्व मानव द्वारा निर्मित सेतु का विश्वभर में यही एकमात्र उदाहरण है।
यहाँ मैं अनुरोध करूँगा कि हमारे शोधकर्ता भारत के प्रतिभाशाली इतिहासकारों,
भू-वैज्ञानिकों, खगोलविदों, अंतरिक्ष वैज्ञानिकों व अन्य वैज्ञानिकों को साथ लेकर
महाकाव्यों पर कम-से-कम 100 पी-एच.डी. के लिए एक शोध कार्यक्रम आरंभ करें,
जिससे महाकाव्यों में घटनाओं के इतिहास की सच् चाई को सुनिश्चित किया जा सके।
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-6

समुद्र पर सेतु का निर्माण कर


श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का वध किया
1. समुद्र तट पर पहुँचने के लिए सहय-मलय पर्वत शृंखला को पार किया; आकाशीय
दृश्य ने किया तिथि निर्धारण
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हनुमान के द्वारा लाए गए समाचार को सुनकर एवं हनुमान के द्वारा संपन्न किए गए कार्य से
प्रसन्न होकर श्रीराम ने उनकी खूब सराहना की और उनको अपनी छाती से लगा लिया। अपनी आँखों
से आँसू बहाते हुए उन्होंने कहा, “हनुमान ने वास्तव में अद्भुत कार्य किया है। उन्होंने अपने पराक्रम
से राक्षसों द्वारा संरक्षित लंका में प्रवेश किया, सीता की खोज की और उनका उत्साहवर्धन किया,
रावण और उसके सेनापतियों के मन में कुछ भय उत्पन्न किया। इसके बावजूद बड़ा प्रश्न यह है कि
सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए हम समुद्र को कैसे पार करेंगे?” प्रत्युत्तर में सुग्रीव ने
आश्वासन दिया कि “हे रघुवंशी, सीता के बारे में सूचना मिल चुकी है और दुश्मन के ठिकाने का
पता लग चुका है, अपने धैर्य को बनाए रखें। ये वानर यूथपति बहुत बहादुर और पराक्रमी हैं, इसलिए
ये लक्ष्य हासिल करने में अवश्य सफल होंगे। अब आप कोई योजना बनाएँ, ताकि जल्द-से-जल्द
समुद्र के आर-पार एक सेतु बनाया जा सके। जिस क्षण हमारी सेना लंका पहुँच जाएगी, उसी क्षण ये
लोग रावण का वध करने तथा सीताजी को उसके चंगुल से मुक्त कराने में अवश्य सफल होंगे। आप
सूर्यवंश के एक बहादुर क्षत्रिय राजा हैं तथा असाधारण कार्य करने में भी सक्षम हैं, अतः आप अपनी
क्षमता में विश्वास न खोएँ।”
सुग्रीव की समुचित सलाह को स्वीकार करते हुए श्रीराम ने हनुमान से कहा, “मैं अपनी इच्छाशक्ति
से समुद्र पर सेतु बनाकर अथवा समुद्र का पानी सुखाकर समुद्र पार करने में सक्षम हूँ, परंतु लंका
302 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

में कितने किलों तथा भवनों आदि को ध्वस्त करना होगा, कृपया विस्तार से बताएँ। हनुमान ने उत्तर
दिया, “लंका नगरी में कई किले हैं, जिनकी सुरक्षा दानवों के दल द्वारा की जाती है। चारों दिशाओं में
चार द्वार हैं, जिनके दरवाजे बहुत मजबूत हैं। उन पर सैकड़ों काँटों वाली लौह गदाएँ अर्थात् शतघ्नियाँ
रखी हुई हैं, ताकि सैकड़ों आक्रमाणकारियों का वध एक साथ किया जा सके। त्रिकूट पर्वत पर बसाई
गई समुद्री जल से घिरी लंका में आक्रमणकारियों के लिए कोई सुरक्षित स्थान नहीं है। लाखों दानवों
को तलवारें और कवच देकर सभी चारों दरवाजों पर तैनात कर दिया गया है, परंतु मैंने लंकापुरी को
जलाकर, हजारों राक्षसों का वध कर उनके उत्साह को कम किया है। यदि हम किसी प्रकार लंका
नगरी में प्रवेश कर जाते हैं तो नील के नेतृत्व में वानर योद्धा, जिनमें शामिल हैं अंगद, मैंडा, जांबवान,
नल और मैं, निश्चित रूप से लंका का विनाश करने में तथा साध्वी सीताजी को वापस लाने में सफल
हो जाएँगे।” इसके पश्चात् हनुमान ने श्रीराम को रावण के सैनिकों की वीरता के बारे में, किलों की
संरचना तथा मजबूती, संतरियों की सजगता, द्वारों तथा दरवाजों, प्रक्षेपकों तथा पुलों इत्यादि के बारे में
भी बताया। इसके पश्चात् हनुमान ने बताया कि वानर सेना की शक्ति भी कम नहीं है, केवल लंका
पहुँचकर आक्रमण का शुभ मुहूर्त तय करना है और वानर सेना रावण की लंका का विनाश कर देगी
तथा सीताजी को मुक्त करा लेगी। इस बात में तनिक भी संशय नहीं है।
इस प्रकार का आश्वासन पाकर महापराक्रमी श्रीराम बोले, “उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र (कन्या राशि)
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आज उदीयमान है, जबकि कल चंद्रमा हस्ता नक्षत्र (कन्या राशि) में होगा। इसलिए हमें आज ही विजय
मुहुर्त में दोपहर के समय कूच करना चाहिए।” (वा.रा. 6/4/3,5) वह 19 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. का
दिन था, जैसा कि बाद के श्लोकों में दिए गए खगोलीय विन्यासों से सिद्ध होता है। यह सुनकर पराक्रमी
राजा सुग्रीव ने अपनी विशाल सेना को आदेश दिया कि वे श्रीराम का अनुसरण करें और दक्षिणी दिशा
की ओर कूच करें। तीव्र गति से सेना ने पर्वतों और वनों को पार किया, इस सेना का नेतृत्व सुग्रीव
कर रहे थे। महान् योद्धा केसरी ने सेना के दाएँ भाग को सँभाल रखा था, जबकि गज और अर्क ने
बाईं ओर से सेना की कमान सँभाल रखी थी। सुषेण और जांबवान ने सावधानीपूर्वक पीछे की स्थिति
को सँभाल रखा था। सामने से सतबली ने कमान सँभाल रखी थी, जबकि सुग्रीव के सेना प्रमुख नील
संपूर्ण सेना को नियंत्रण में रख रहे थे। राजा सुग्रीव, अंगद, श्रीराम और लक्ष्मण मध्य में थे। श्रीराम
ने स्पष्ट आदेश दे रखा था कि सेना रास्ते में आ रहे गाँवों तथा नगरों को कोई हानि नहीं पहुँचाएगी।
सेना किष्किंधा से 19 सितंबर को आगे बढ़ी, उन्होंने ऋषभ पर्वत को पार करने के पश्चात् कई
वनों को पार किया और फिर वे सहय पर्वत-शृंखला की ओर बढ़ रहे थे। जब श्रीराम की सेना समुद्र
तट की ओर बढ़ रही थी, तो लक्ष्मण ने आकाश में नक्षत्रों तथा ग्रहों की कल्याणकारी स्थिति को
देखकर प्रसन्नता व्यक्त की। युद्ध कांड के सर्ग 4 (वा.रा. 6/4/5,48-51)5 में महर्षि वाल्मीकि ने
लक्ष्मण द्वारा वर्णित निम्नलिखित खगोलीय स्थितियों का संदर्भ दिया है—
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 303

उत्तराफाल्गुनी ह्राद्य श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते।


अभिप्रयाम सुग्रीव सर्वानीकसमावृताः॥6/4/5॥
उशना च प्रसन्नार्चिरनु त्वां भार्गवो गतः।
ब्रह्म‍राशिर्विशुद्धश्च शुद्धाश्च परमर्षयः।
अर्चिष्मन्तः प्रकाशन्ते ध्रुवं सर्वे प्रदक्षिणम्॥48॥
त्रिशडकुर्विमलो भाति राजर्षिः सपुरोहितः।
पितामहः पुरोऽस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनाम्॥49॥
विमले च प्रकाशेते विशाखे निरुपद्रवे।
नक्षत्रं परमस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनाम्॥50॥
नैर्ऋतं नैर्ऋतानां च नक्षत्रमतिपीडयते।
मूलो मूलवता स्पृष्टो धूप्यते धूमकेतुना॥51॥
वा.रा. 6/4/5—आज चंद्रमा (Moon) उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में है, जबकि कल चंद्रमा हस्ता
नक्षत्र के पास होगा (उत्तरफाल्गुनी और हस्ता दोनों कन्या राशि (Virgo) में है)। इसलिए सुग्रीव!
हम लोग आज ही सारी सेनाओं के साथ यात्रा प्रारंभ कर दें।
वा.रा. 6/4/48—भृगुनंदन शुक्र (Venus) भी अपनी उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित हो पीछे की दिशा
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में प्रकाशित हो रहे हैं। जहाँ ब्रह्म‍राशिः अर्थात् ब्रह्म‍ज्ञान के भंडार सप्तर्षियों का समुदाय (Big Dipper)
शोभा पाता है, वह ध्रुव तारा भी निर्मल दिखाई दे रहा है। शुद्ध और प्रकाशमान समस्त सप्तर्षिगण ध्रुव
(Pole star) को दाहिने रखकर उसकी परिक्रमा कर रहे हैं।
वा.रा.6/4/49—इक्ष्वाकु वंश के संरक्षक त्रिशंकु (Southern Cross), पुरोहित राजर्षि के साथ
हम लोगों के सामने दक्षिण दिशा में प्रकाशित हो रहे हैं।
वा.रा. 6/4/50—विशाखा नाम के दो उज्ज्वल सितारे, जो इक्ष्वाकुवंशियों के लिए सर्वोत्तम हैं, वे
निर्मल और दुष्ट ग्रहों से रहित तुला राशि (Libra) में स्पष्ट प्रकाशित हो रहे हैं।
वा.रा.6/4/51—राक्षसों का नक्षत्र मूला, जिसके देवता निर्ऋति हैं, धूमकेतु (या फिर केतु) से
आक्रांत होकर अत्यंत पीड़ित दिखाई दे रहा है।
ग्रहों तथा नक्षत्रों की यह सभी स्थितियाँ कर्नाटक के आकाश में सूर्योदय के समय 20 सितंबर,
5076 वर्ष ई.पू. प्लैनेटेरियम द्वारा दर्शाए गए व्योमचित्र में स्पष्ट दिखाई देती हैं। (देखें व्योमचित्र-27)
304 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

किष्किंधा से रामेश्वरम् यात्रा के दौरान खगोलीय स्थितियों का आकाशीय दृश् य

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व्योमचित्र-27 ः कर्नाटक/भारत 16० उत्तर, 76० पूर्व, सितंबर 20, 5076 ई.पू., 06:10 बजे;
माउंट प्रस ्रवण से रामेश्वरम् तक श्रीराम की सेना के जाते समय का आकाशीय दृश्य (प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित)

इस आकाशीय दृश्य में 20 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. वाले दिन—


1. कन्या राशि (Virgo) में हस्ता नक्षत्र के संयोजन में चंद्रमा साफ दिखाई दे रहे हैं।
2. उत्तरी आकाश में सप्तर्षि (Great Bear our Big Dipper) स्पष्ट चमक रहे हैं।
3. सप्तर्षि (Big Dipper) लिटल डिपर में ध्रुव तारे (Pole Star) को दाहिने रखकर उसकी
परिक्रमा कर रहे हैं।
4. त्रिशंकु (Crux or Southern Cross) दक्षिणी आकाश में चमक रहे हैं।
5. दो चमकीले विशाखा तारे, तुला राशि (Libra) में उज्ज्वल चमक रहे हैं।
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 305

6. शुक्र ग्रह (Venus) पीछे रह गया है, अतः यह अदृश्य हो गया है।
7. मूला नक्षत्र धनुर राशि (Sagittarius) में केतु से प्रभावित है। धूमकेतु को यह सॉफ्टवेयर
नहीं दिखाता।
हमने इसी आकाशीय दृश्य को देखने के लिए स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2/ 2017)
का उपयोग कर कर्नाटक से आकाशीय दृश्य का स्क्रीन शॉट भी लिया। यह सॉफ्टवेयर ऊपर बताई
गई सभी खगोलीय स्थितियों को 30 अक्तूबर 5076 वर्ष ई.पू. को सवेरे आठ बजे दर्शाता है। इन सभी
खगोलीय विन्यासों को सुबह आठ बजे दो आकाशीय दृश्यों के माध्यम से नीचे दर्शाया गया है—
(देखें व्योमचित्र-28-29)
किष्किंधा से रामेश्वरम् यात्रा के दौरान खगोलीय स्थितियों का आकाशीय दृश् य-1

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व्योमचित्र-28 ः कर्नाटक/भारत 16० उत्तर, 76० पूर्व, 30 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. 08 बजे;
माउंट प्रस ्रवण से रामेशवरम तक श्रीराम की सेना के जाते समय का आकाशीय दृश्य (स्टेलेरियम द्वारा प्रदर्शित)
306 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

किष्किंधा से रामेश्वरम् यात्रा के दौरान खगोलीय स्थितियों का आकाशीय दृश् य-2

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व्योमचित्र-29 ः कर्नाटक/भारत 16० उत्तर, 76० पूर्व, 30 अक्तूबर, 5076 ई पू. 08 बजे;
माउंट प्रस ्रवण से रामेश् वरम् तक श्रीराम की सेना के जाते समय उत्तर में सप्तर्षि ध्रुवतारे की परिक्रमा करते हुए और
दक्षिण में त्रिशंकु दृश्यमान (स्टेलेरियम द्वारा प्रदर्शित)

• पहले आकाशीय दृश्य (व्योमचित्र-28) में कन्या राशि (Virgo) में हस्ता नक्षत्र के संयोजन
में चंद्रमा साफ दिखाई दे रहे हैं। दो चमकीले विशाखा तारे, तुला राशि (Libra) में उज्ज्वल
चमक रहे हैं। शुक्र ग्रह (Venus) पीछे रह गया है, अतः यह अदृश्य हो गया है।
• दूसरे आकाशीय दृश्य (व्योमचित्र-29) में सप्तर्षि (Big Dipper in Ursa Major) उत्तरी
आकाश में चमक रहे हैं। लिटल डिपर में ध्रुव तारे को दाहिने रखकर उनकी परिक्रमा कर रहे
हैं। त्रिशंकु (Crux) दक्षिणी आकाश में चमकते हुए दिखाई दे रहे हैं।
दोनों सॉफ्टवेयर के द्वारा दर्शाए गए आकाशीय दृश्य एक जैसे हैं, यह रामायण के महर्षि वाल्मीकि
के द्वारा बताए गए सभी खगोलीय अवलोकनों से मिल रहे हैं (6/4)। 40 दिनों के कैलेंडरीय अंतर का
कारण इस पुस्तक के अध्याय 1 तथा परिशिष्ट-1 में समझाया गया है। 27 नक्षत्रों, 9 ग्रहों की तालिका,
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 307

उनके वैज्ञानिक नामों के साथ तथा उनसे संबं​ि‍धत राशियों तथा महीनों के नाम बॉक्स 6.1 तथा परिशिष्ट
1 में दिए गए हैं।

बॉक्स 6.1
नक्षत्रों; 9 ग्रहों के वैज्ञानिक नाम तथा उनके संबंधित राशियों तथा महीनों
के नाम
क्रम नक्षत्रों के संस्कृत इन नक्षत्रों के वैज्ञानिक संबंधित राशियों के नाम चंद्र माह का नाम रोमन /
सं. नाम देवनागरी / रोमन नाम अंग्रेजी तथा हिंदी में देवनागरी लिपि में
लिपि में
1 अश्विनी/Ashwini 13 α Aries Aries/ मेष Ashwin/आश्विन

2 भरणी/Bharani 41 Aries Aries/ मेष


3 कृत्तिका/Krittika 25 η Tau Taurus/वृषभ Kartik/कार्तिक

4 रोहिणी/Rohini 87 α Tau Taurus/वृषभ

5 मृगशिरा/ 112 β Tau Taurus/वृषभ Margshirsha/मार्गशीष


Mrigashīrsha

6 आर्द्रा/Ardra Gemini/मिथुन

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24 γ Gem

7 पुनर्वसु/Punarvasu 78 β Gem Gemini/मिथुन

8 पुष्य/Pushya 17 β Cnc Cancer/कर्क Paush/पौष

9 अश्लेषा/Āshleshā 47 δ Cnc Cancer/कर्क

10 माघ/Maghā 32 α Leo Leo/सिंह Maagha/माघ

11 पूर्वा फाल्गुनी/ 70 θ Leo Leo/सिंह


Pūrva Phalgunī

12 उत्तर फाल्गुनी/ 5 β Vir Virgo/कन्या Phalgun/फाल्गुन


Uttara Phalgunī

13 हस्ती/Hasta 29 γ Vir Virgo/कन्या

14 चित्रा/Chitra 67 α Vir Virgo/कन्या Chaitra/चैत्र

15 स्वाति/Swāti 99 ι Vir Virgo/कन्या

16 विशाखा/Vishakha 92 α 2 Lib Libra/तुला Vaishakh/वैशाख

17 अनुराधा/Anuradha 7 δ Sco Scorpius/वृश्चिक

18 ज्येष्ठा/Jyeshtha 21 α Sco Scorpius/वृश्चिक Jyeshtha/ज्येष्ठ

19 मूल/Mula 42 θ OPH Sagittarius/ धनु


20 पूर्व आषाढ़/ 34 δ Sgr Sagittarius/ धनु Ashadh/आषाढ़
PurvaAshadha
308 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

21 उत्तर आषाढ़/ 5 α Capr Capricornus/मकर


Uttara Ashadha

22 श्रावण/Sravana 49 δ Capr Capricornus/मकर Shravan/श्रावण

23 धनिष्ठा/Dhanishta 5 ζ 1 Aqr Aquarius/कुंभ

24 शतभिषा/ 91 ϕ Aqr Aquarius/कुंभ


Shatabhisha

25 पूर्व भद्रा/ Purva 28 ω Piscium Pisces/मीन Bhadrapad/भाद्रपद


Bhadrapada

26 उत्तर भद्रा/Uttara 63 δ Piscium Pisces/मीन


Bhādrapadā

27 रेवती/Revati ζ Piscium Pisces/मीन

नवग्रहों के नाम : सूर्य (Sun), चंद्रमा (Moon), मंगल (Mars), बुध (Mercury), बृहस्पति (Jupiter),
शुक्र (Venus), शनि (Saturn), राहु (North Lunar Node-moon cuts the path of Sun)
and केतु (South Lunar Node)

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ऐसी खगोलीय स्थितियों में, जो कि इक्ष्वाकु वंशज श्रीराम के लिए शुभ तथा राक्षसों के लिए
अशुभ मानी गई थीं, श्रीराम की विशाल सेना, जिसमें लाखों पराक्रमी तथा शूरवीर वानर यूथपति
शामिल थे, ने सह्य‍‍ तथा मलय पर्वत क्षेत्रों को पार किया। उत्साहपूर्वक चलते हुए धूल उड़ाती हुई
वानर सेना दक्षिण दिशा में आकाश को आच्छादित करते हुए समुद्र की ओर अग्रसर हो रही थी।
उनमें कई वायु के समान तेजगति से चल रहे थे, कई उछल-कूद करते हुए वृक्षों की शाखाओं को
तोड़ रहे थे और कई सिंहनाद करते हुए आगे बढ़ रहे थे। सीता को छुड़वाने की कामना से वे दिन-
रात चलते ही जा रहे थे। सह्य‍‍ अर्थात्् सह्य‍‍ा​िद्र पर्वत-शृंखला भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिमी तट के
समानांतर चलती है। जैविक विविधता के कारण इसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है।
इसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु के कई भाग शामिल थे। सहय पर्वत को पार कर श्रीराम और
उनकी सेना मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों तथा झरनों की शोभा देखते हुए आगे बढ़ रही
थी। (6/4/71) आधुनिक काल में सह्य‍‍ा​िद्र पर्वत शृंखला के दक्षिणी भाग को, जो मुख्यतः कर्नाटक
तथा केरल में हैं, इन्हीं को प्राचीन मलय पर्वत माना जाता है। इस पर्वत-शृंखला में चंदन के समान
शीतल, मंद व सुगंध वायु चल रही थी।
रास्ते में उन्होंने विभिन्न प्रकार के वृक्षों को पार किया, जिनमें शामिल थे—आम, अशोक, तिलक,
करवीरा, करंजा, पलाश, जामुन आदि। पराक्रमी वानर सैनिकों ने अपने भोजन के लिए फलों के
साथ कई वृक्षों की शाखाओं को भी तोड़ डाला। (वा.रा.6/4) पर्वतों पर प्रचुर मात्रा में खनिज पदार्थ
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 309

थे, वनों के कुछ वृक्ष चट्टानों पर खड़े थे और वह चारों ओर से वानर सेना से घिरे थे। उस समय
अर्जुन, अशोक, पद्मक, अंकोला और शिंशपा वृक्ष पूर्ण रूप से प्रफुल्लित थे। वहाँ सुंदर कुएँ और
तालाब थे, जहाँ चक्रवाक (चील) पक्षी बार-बार आ रहे थे तथा वहाँ बत्तखों जैसे जलीय जीवों और
सारसों के निवास स्थान थे। (वा.रा.6/4/72-83) नदियों तथा झीलों में स्नान कर और फल-मूल
खाकर समस्त वानर सैनिक आतुर होकर आगे बढ़ते रहे।
इस तरह श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव और उनकी सेना ने सह्य‍ और मलय पर्वत-श्रेणियों को पार
किया; ये दोनों सह्य‍ाद्रि पर्वत-शृंखला का हिस्सा हैं, जो भारत के पश्चिमी तट के साथ-साथ चलता
है, चूँकि पार किए गए स्थानों के नामों का उल्लेख रामायण में नहीं किया गया है, इसलिए कुछ
अन्वेषण के बाद यात्रा के वास्तविक मार्ग का अनुमान लगाया गया। इसके लिए रामायण के संदर्भों
का आधुनिक काल में विद्यमान स्मृति-चिह्न‍ों तथा स्थानीय निवासियों के विश्वासों के साथ सहसंबंध
भी जाँचा गया। रामायण में 6/4/71 में यह उल्लेख किया गया है कि श्रीराम के सैनिक आगे बढ़ते
हुए सह्य‍ और मलय क्षेत्रों के सुंदर नदियों, झरनों और उद्यानों का आनंद ले रहे थे। यहाँ संदर्भ स्पष्ट
रूप से तुंगभद्रा और कावेरी तथा उनकी सहायक नदियों का है। कर्नाटक के कोप्पल जिले के पर्वत
प्रस‍्रवण से वे आधुनिक हसन जिले के क्षेत्र से होते हुए चले, जहाँ कावेरी के निकट प्राचीन रामेश्वर
और लक्ष्मणेश्वर मंदिर मौजूद हैं और स्थानीय लोगों का मानना है कि श्रीराम की सेनाएँ इन क्षेत्रों
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को पार करते हुए समुद्र की ओर गईं।6 इसके बाद ये सेनाएँ मैसूर क्षेत्र में पहुँच गईं, जहाँ एक शिव
मंदिर को सत्यागला नगर में आजतक सुरक्षित रखा गया है, क्योंकि स्थानीय लोग दृढ़ विश्वास करते
हैं कि श्रीराम ने उस स्थान पर भगवान् शिव की पूजा की थी। वहाँ से वे त्रिचुरापल्ली चले गए, जहाँ
एक प्राचीन विष्णु मंदिर स्थानीय लोगों को याद दिलाता है कि प्राचीन काल मैं श्रीराम की सेना उस
क्षेत्र के पार गई थी। स्पष्ट तौर पर श्रीराम की सेना यहाँ से पोडूकोटाई चली गई, जहाँ कल्याण राम
मंदिर और शिव मंदिर जैसे स्मारक लोगों के विश्वास को जीवित रखते हैं।7 फिर मदुरई के इलाकों
को पार कर वे रामनाथपुरम् पहुँचे।
लव-कुश ने राम के दरबार में रामायण का गायन करते हुए याद किया कि वहाँ से भगवान्
राम महेंद्रगिरि पहुँचे। श्रीराम जल्दी से उस पहाड़ी पर चढ़ गए और विशाल समुद्र को देखने लगे,
जिसकी लहरें बड़ी भयानक आवाजें कर रही थीं (वा.रा.6/4/92-94)। यह स्पष्ट रूप से रामेश्वरम्
में स्थित कम ऊँचाई का पर्वत था, जिसे आधुनिक समय में गंधमादन के नाम से जाना जाता है।
हमें याद रखना चाहिए कि 7100 वर्ष पहले समुद्र के पानी का स्तर लगभग 10 फीट नीचे था और
इसलिए इस पहाड़ी के ऊपर से विशाल समुद्र स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। इस पहाड़ी को
‘राम झरोखा’ के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि श्रीराम ने इस स्थान से
समुद्र का निरीक्षण (झाँका) किया था और हनुमान ने इस पहाड़ी से लंका तक पहुँचने हेतु समुद्र पार
310 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

करने के लिए बड़ी ऊँची और लंबी छलाँग लगाई थी। इसे उन दिनों महेंद्रगिरि के नाम से जाना जाता
था। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस पहाड़ी के निकट एक प्राचीन कोदंडराम मंदिर है,
जिसमें श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, जांबवंत और विभीषण की खूबसूरत मूर्तियाँ हैं, क्योंकि यह
माना जाता है कि उस स्थान पर विभीषण का राज्याभिषेक किया गया था। यहाँ का रामनाथास्वामी
मंदिर, जिसमें श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है, विश्व के भव्यतम तथा विशालतम मंदिरों में से एक
है। इस के अंदर 22 कुंड हैं, जिनमें अलग-अलग रंगों तथा भिन्न भिन्न स्वाद के जल हैं; लाखों
यात्री प्रतिदिन उनमें से जल निकालते हैं, परंतु इनमें जल का स्तर सदा जैसा-का-तैसा बना रहता है।
महेंद्रगिरि तथा समुद्र के बीच एक विशाल क्षेत्र भी था, जहाँ बड़ी सेनाओं के लिए शिविर लगाए जा
सकते थे। इस प्रकार ये सभी साक्ष्य रामायण में दिए संदर्भों से बिल्कुल मिलते हैं। संलग्न मानचित्रों
पर एक नजर दौड़ाने से सभी तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाएँगे।
भारतीय प्रायद्वीप के पूर्वी क्षेत्र में दक्षिणी समुद्र (हिंद महासागर) के उत्तरी किनारे अर्थात््
रामेश्वरम् में स्थित था महेंद्रगिरि। उसे पारकर तथा समुद्र के किनारे सेना के लिए शिविर बनवाने के
बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “किसी विशेष युक्ति तथा संसाधन के बिना इस गहरे समुद्र को पार
करना असंभव है। इसलिए यहीं सेना के पड़ाव की व्यवस्था कर ली जाए। सभी सेनापति अपनी
सेनाओं को साथ रख सावधान रहे।” श्रीराम ने यह भी कहा कि अब उस दुर्गम विशाल सागर को
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पार करने की युक्ति ढूँढ़ने का समय आ गया है। देखें किष्किंधा से रामेश्वरम् जाते हुए श्रीराम की
सेना द्वारा पार किए गए स्थल-मानचित्र पर आधुनिक स्थिति के साथ—(देखें चित्र-47)

किष्किंधा से रामेश्वरम् जाते हुए श्रीराम की सेना द्वारा पार किए गए स्थलों के नाम
1. किष्किंधा-संदर्भ : वा.रा./4/11-26 2. प्रस‍्रवण पर्वत-वा.रा./4/27
3. हसन (कावेरी क्षेत्र)-वा.रा. 6/4/71 4. सत्यागला, मैसूर-वा.रा. 6/4/71
5. त्रिचुरापल्ली-वा.रा. 6/4/71 6. पोडूकोटाई-वा.रा. 6/4/71
7. मदुरई-वा.रा. 6/4/71 8. रामनाथपुरम्-वा.रा. 6/4/94-98
9. महेंद्रगिरि (गंधमादन) वा.रा. 6/4/92-94 10. रामेश्वरम्–वा.रा./6/4/94, 6/123/19
11. धनुषकोटि–संदर्भ : वा.रा./6/123/19 12. लंका, अशोकवाटिका–संदर्भ :
वा.रा./5/14-16
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 311

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चित्र-47

2. रावण द्वारा विभीषण का अपमान; विभीषण का श्रीराम की शरण में जाना


श्रीराम के आदेश को सुनकर सुग्रीव और लक्ष्मण ने अपनी सेना के आश्रय के लिए एक विशाल
शिविर का निर्माण किया। समुद्रतट पर स्थित विशाल सेना एक अन्य महासागर की भाँति प्रतीत हो रही
थी। जिस समय वे वीर योद्धा समुद्र का सर्वेक्षण कर रहे थे, तो गहरे समुद्र में पानी की लहरें भयानक
312 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

कोलाहल के साथ गरज रही थीं। एक बार फिर श्रीराम उस समय निराशा से घिर गए, जब उन्हें बेचारी
सीताजी की याद आई, जिसका अपहरण रावण ने कर लिया था और उन्हें क्रूर राक्षसियों के पहरे में
समय व्यतीत करना पड़ रहा था। ऐसा याद कर वे लक्ष्मण के समक्ष विलाप करने लगे, “मैं कब सीता
के कमल सदृश मुख को चूमकर जीवनरूपी अमृत का पान कर सकूँगा और खुशी के आँसू बहाऊँगा?
मेरी राह निहारने वाली सीता को मैं कब गले से लगा सकूँगा?” लक्ष्मण ने श्रीराम को आश्वासन देते हुए
और शांत करते हुए कहा, “जल्द ही हम रावण का विनाश कर देंगे, सीताजी को वापस लाएँगे और उन्हें
अपने साथ अयोध्या लेकर जाएँगे। अपनी निराशा को त्याग दें और स्वयं में साहस का संचार करें।” यहाँ
यह बताना अनुचित नहीं होगा कि वाल्मीकि ने श्रीराम को देवता समान सर्वोच्‍च मानव के रूप में चित्रित
किया है। उधर सीता का चरित्र देवी स्वरूपा मजबूत स्त्री का दर्शाया है। सीता ने लंका में अशोक वाटिका
में बंदी रहते हुए भी रावण को फटकार लगाई तथा हनुमान को अत्यंत शांत एवं दार्शनिक अंदाज में कहा
कि सभी मनुष्य सुख और दुःख के धागों से बँधी हुई कठपुतलियाँ हैं।
उधर लंका में हनुमान द्वारा मचाए गए उत्पात से रावण कुछ चिंतित और घबराया हुआ था। उसने
राक्षसों की एक सभा बुलाई और उनसे विचार-विमर्श कर श्रीराम और उनकी वानर सेना से युद्ध की स्थिति
में विजय की रणनीति बनाई। उस सभा में उपस्थित सभी योद्धा रावण की चापलूसी करते रहे तथा उसकी
अजेय सेना द्वारा पूर्वकाल में जीते हुए महान् युद्धों का स्मरण करवाते रहे। रावण के सेनापति प्रहस्त ने डींग
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मारते हुए कहा कि श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव समेत उनके संपूर्ण वानर योद्धाओं का वध करने के लिए
मैं अकेला ही काफी हूँ। उसने आगे यह भी कहा कि सर्वप्रथम तो श्रीराम की सेना का समुद्र पार करना
असंभव है; यदि ऐसा कर भी लेते हैं तो प्रहस्त और उनके पराक्रमी दानव योद्धा उन्हें अवश्य पराजित कर
देंगे। उस समय रावण के छोटे भाई विभीषण ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि सीताजी का अपहरण धर्म के
सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत था। जब से सीताजी लंका में कैद हुई हैं, लंका में प्रतिदिन अपशकुन दिखाई
दे रहे हैं। विभीषण ने यह भी कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि महाराज रावण और उनकी सेना बहुत
ही पराक्रमी है, लेकिन स्वयं को एक सामान्य दूत बताने वाला वानर लंका में इतना बड़ा कहर बरपाकर
चला गया। इसलिए उन्होंने रावण से अनुरोध किया कि सीताजी को राम के पास वापस भेज दें और लंका
को विनाश से बचा लें। परंतु रावण को विभीषण का यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था। इसलिए सभा को खारिज
कर रावण अपने महल में चला गया।
दूसरे दिन जब सब ओर सुबह के मधुर स्तोत्र सुनाई दे रहे थे तो विभीषण रावण के महल में गए।
उन्होंने रावण को पुन: समझाने का प्रयत्न किया और बताया कि लंकावासी भी सीता के अपहरण को एक
अपराध मानते हैं; परंतु रावण के सामने ऐसा कहने से डरते हैं। विभीषण ने सुझाव दिया कि लंका को
विनाश से बचाने के लिए यही उचित होगा कि सीताजी श्रीराम को लौटा दी जाएँ। परंतु अहंकारी रावण
ने सुझाव को अस्वीकार करते हुए कहा कि समरांगण में उसके सामने वे दो तपस्वी राजकुमार दो घड़ी
भी नहीं टिक पाएँगे। तत्पश्चात् रावण ने फिर से सभा को आमंत्रित किया। सभी दरबारियों, सलाहकारों
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 313

और सेनापतियों ने रावण के समक्ष सिर झुकाया और उन्हें विजय का आश्वासन दिया। रावण ने मुख्य
सेनापति प्रहस्त को आदेश दिया कि लंका की सुरक्षा के लिए सभी रथी, घुड़सवार, हाथीसवार तथा पैदल
योद्धाओं को तैयार रखे। तत्पश्चात् छह महीने बाद जगकर सभा में आए कुंभकरण की उपस्थिति में रावण
ने सीता के प्रति अपनी आसक्ति और उसको छल तथा बल से हर लाने के कारण भी बताए। रावण ने
कहा, “सीता जैसी सुंदरी विश्व में अन्यत्र नहीं है। परंतु सीता उसके सभी प्रलोभनों को हमेशा नकार देती
है और यह विश्वास के साथ कहती है कि श्रीराम एक दिन आएँगे और उसे अवश्य वापस ले जाएँगे। मैंने
सीता को अपनी शय्या पर आरूढ़ होने की सहमति देने के लिए एक वर्ष का समय दिया था, जो समाप्त
होने वाला है और मैं कामपीड़ा से थक चुका हूँ।”
रावण का विलाप सुनकर कुंभकर्ण क्रोधित होकर बोला, “तुमने परायी स्त्री का छलपूर्वक हरण
करके बहुत अनुचित कार्य किया है। तथापि मैं तुम्हारे शत्रुओं का संहार कर तुम्हारी विजय निश्चित करूँगा।
राम के द्वारा दूसरा बाण छोड़ने से पहले ही मैं राम और लक्ष्मण दोनों को निगल जाऊँगा और तुम्हारी
विजय निश्चित करूँगा। राम की मृत्यु के पश्चात् सीता स्वयं को तुम्हारे हवाले कर देगी और तुम हमेशा
के लिए जीवन का आनंद लेते रहना।” इस स्थिति में महापार्श्व नामक एक वरिष्ठ सेनापति ने हस्तक्षेप
करते हुए रावण को सुझाव दिया कि वे सीताजी के साथ बलात्कार करें और अपनी इच्छा को पूरा करें।
परंतु रावण ने पूरी सभा के समक्ष यह स्वीकार किया कि वह सीताजी से बलपूर्वक समागम करने में डर
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रहा है। इसके पश्चात् रावण ने अपने बीते समय के एक रहस्य के बारे में सभा को बताया कि एक बार
उसने पुंजिकास्थला नामक एक स्वर्ग की अप्सरा को बलपूर्वक निरावृत्त कर उसका बलात्कार किया
था। वह ब्रह्म‍ाजी के पास गई और उनसे शिकायत की। ब्रह्म‍ाजी ने अत्यंत क्रोधित होकर रावण को शाप
दिया— ‘आज के बाद यदि तुमने किसी अन्य स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विपरीत बलपूर्वक समागम
किया तो तुम्हारे मस्तक के सौ टुकड़े हो जाएँगे, इसमें कोई संशय नहीं है।” इस अभिशाप के भय से मैं
सीताजी के साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर रहा हूँ, अन्यथा मैं ऐसा नहीं समझता कि मेरे पराक्रम के सामने
राम और लक्ष्मण कहीं भी खड़े हो सकेंगे (वा.रा. 6/13)।8 रावण ने इस बात का जिक्र भी किया कि
उसने अपने बड़े भाई कुबेर से लंका पर विजय केवल अपनी बाँहों की ताकत के बल पर की है। मुख्य
सेनापति प्रहस्त, इंद्रजीत, कुंभकर्ण और उसके पुत्र निकुंभ ने कहा कि आप बिना किसी भय के अपनी
इच्छानुसार जो चाहे करें, क्योंकि श्रीराम और उनकी समस्त वानर सेना का विनाश करने में वे निश्चित
रूप से सफल होंगे।
इस स्थिति में विभीषण ने कुछ अच्छी सलाह देने के लिए पुनः हस्तक्षेप किया और कहा कि सीताजी
लंका का जहरीले साँपों की भाँति विनाश कर देंगी, अतः उन्हें वापस कर लंका को विनाश से बचाया जा
सकता है। उन्होंने रावण को राम के विशिष्ट बल तथा अचूक बाण के बारे में याद दिलाई, जिनसे रावण का
कोई भी योद्धा नहीं बच पाएगा। उसी क्षण प्रहस्त ने हस्तक्षेप किया और कहा कि ‘‘मैंने युद्ध में देवताओं
और दानवों, गंधर्वों और यक्षों को हराया है। मेरे साथ युद्ध करके श्रीराम और उनकी सेना के बचने की
314 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

कोई उम्मीद नहीं है।’’ विभीषण ने फिर से दोहराया कि न तो प्रहस्त न ही कुंभकर्ण, न तो नरांतक और न
ही अकंपन, रघुवंशी के सामने युद्ध में टिक पाएँगे। श्रीराम अपनी ताकत जनस्थान में चौदह हजार राक्षसों
की हत्या कर प्रदर्शित कर चुके हैं। विभीषण ने यह भी कहा कि एक राजा को चापलूसों की शेखी से
प्रभावित न होकर अपनी भलाई के लिए दी जा रही उचित सलाह को सुनना चाहिए। उस समय रावण के
ज्येष्ठ पुत्र इंद्रजीत ने विभीषण की सलाह को नकारने के लिए हस्तक्षेप किया और कहा, “हे मेरे छोटे
चाचा, आप संपूर्ण राक्षस जाति में अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो साहस और पराक्रम से वंचित हैं। मैंने तीनों
लोकों के स्वामी इंद्र को युद्ध में हरा दिया था। तो भला दो निर्वासित राजकुमारों को जीतने में असफल
कैसे हो जाऊँगा?” परंतु बुद्धिमान विभीषण ने इंद्रजीत की बातों को बचकाना कहते हुए फिर से सुझाव
दिया कि रघुवंशी के साथ युद्ध से बचें तथा सीता को सम्मान के साथ श्रीराम को सौंप दें।
रावण के सिर पर तो काल मँडरा रहा था, इसीलिए उसे विभीषण की हितकर सलाह बहुत बुरी
लगी और क्रोधित होकर उसने विभीषण से अत्यंत कठोर शब्द कहे, “तू मेरा भाई होकर मेरे शत्रु का
उपासक बन विषधर सर्प के समान व्यवहार कर रहा है। हमें आग, अस्त्र-शस्त्र से उतना खतरा नहीं है,
जितना अपने इस सजातीय भाई से है। यदि कोई अन्य ऐसे शब्द कहता, तो मैं उसका तत्काल वध कर
देता। वास्तव में तुम राक्षस जाति पर एक कलंक हो।” रावण द्वारा लगाई गई इस फटकार को सुनकर,
विभीषण ने अत्यंत अपमानित महसूस किया और क्रोधित होकर वह तत्काल अपने चार मंत्रियों के साथ
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सभागृह से बाहर आ गए। कुछ घंटों के अंदर ही वे श्रीराम के शिविर में पहुँच गए। उन्होंने रावण को
दिए गए सुझावों से संबंधित संपूर्ण घटनाक्रम श्रीराम को बताया। उन्होंने श्रीराम से अपने प्राणों की रक्षा
करने की प्रार्थना भी की। सुग्रीव, अंगद और मैंडा को विभीषण के इरादों पर शंका हुई, लेकिन श्रीराम ने
विभीषण को अपनों की तरह गले से लगा लिया। विभीषण ने रावण के द्वारा किए गए अपमान की पूरी
कहानी सुनाई तथा पूछे जाने पर उन्होंने रावण और लंका के बारे में कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ भी दीं।
उन्होंने रावण के विरुद्ध श्रीराम को पूरा सहयोग देने का आश्वासन भी दिया। अति प्रसन्न होकर श्रीराम ने
विभीषण को अपना मित्र बनाया और लक्ष्मण से कहा, “जाओ समुद्र से जल लाकर सदाचारी विभीषण
को लंका के राजा के रूप में प्रतिष्ठित करो।” लक्ष्मण ने श्रीराम के आदेश का तत्काल पालन किया और
विभीषण को लंका के राजा के रूप में अधिष्ठापित किया।

3. समुद्र के आर-पार सेतु का निर्माण; सेना ने लंका की ओर कूच किया


इसके पश्चात् हनुमान और सुग्रीव ने अपनी सेना के साथ समुद्र को पार करने की युक्ति से संबधि
ं त
सुझाव विभीषण से माँगा। विभीषण ने कहा कि समुद्र में इतना अधिक पानी श्रीराम के पूरज
्व राजा सगर तथा
राजा भगीरथ की कृपा से ही आया है, इसलिए श्रीराम को स्वयं सागर का सर्वेक्षण करना चाहिए, ताकि
लंका जाने के लिए समुद्र के अंदर उस उथले भाग का पता लग सके, जहाँ समुद्र के नीचे भूमि संरचनाएँ भी
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 315

हों। (वा.रा.6/19/29-31) राम और लक्ष्मण दोनों को विभीषण का सुझाव उचित लगा। उधर राम की सेना
के पास घूमते हुए रावण के गुप्तचर शार्दूल ने यह सब देख लिया और शीघ्र ही रावण के पास जाकर उन्हें
सभी घटनाओं की जानकारी दी। परेशानी महसूस करते हुए रावण ने सुग्रीव के पास शुक को दूत के रूप में
भेजा, ताकि सुग्रीव को अपने पक्ष में किया जा सके। सुग्रीव ने उसके आग्रह को अस्वीकार कर दिया और
वीर वानर सैनिकों ने शुक को गिरफ्तार कर लिया। सुग्रीव के नेततृ ्व में वानर योद्धाओं ने शुक को यातना
देना प्रारंभ किया। शुक जोर-जोर से विलाप करने लगा; उसकी चीख को सुनकर श्रीराम ने उसे मुक्त करने
का आदेश दिया और कहा कि किसी दूत को न तो बंदी बनाना चाहिए और न ही उसे यातनाएँ देनी चाहिए।
श्रीराम और उनकी सेना समुद्र के निकटवर्ती क्षेत्र में शिविर लगाए हुए थी, जिसे आधुनिक चेन्नई में
रामनाथपुरम् के नाम से जाना जाता है। दूसरी बड़ी चुनौती थी समुद्र के ऊपर सेतु बनाना, ताकि सेना समुद्र
को पार कर लंका पहुँच सके। अगले तीन दिनों तक श्रीराम ने मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करते हुए
समुद्र में सेतु बनाने हेतु उचित स्थान की खोज के लिए अन्वेषण व अनुसंधान किया। संभवतः श्रीराम की
कार्यशैली वही थी, जिसे स्पैलमैन ने आधुनिक काल में इस तरह वर्णित किया, “प्रार्थना ऐसे करो कि जैसे
सब कुछ ईश्वर पर ही निर्भर है और मेहनत इस प्रकार करो कि सब कुछ मनुष्य पर निर्भर है।” श्रीराम को
अपने अनुसंधान के परिणाम का इतना इंतजार करना पड़ा कि एक बार तो उन्होंने अपने बाणों के उपयोग
से समुद्र के एक छोर को सुखाने के विषय में विचार करना प्रारंभ कर दिया। अंत में सागर ने सेतु बनाने हेतु
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उचित स्थान दिखाया, अर्थात‍् श्रीराम समुद्र में सेतु बनाने हेतु उपयुक्त मार्ग को पहचानने में सफल हुए। पुल
के निर्माण हेतु प्रसिद्ध वास्तुकार नल के नाम का सुझाव दिया गया। सुग्रीव ने उसी समय नल को बुलाया।
खुशी से उछलते हुए नल ने कहा, “जिस मार्ग की पहचान श्रीराम ने की है, मैं बिना किसी संदहे के उस
मार्ग पर समुद्र में सेतु बनाने में समर्थ हूँ। वीर वानर सेना को सामग्री इकट्ठा करने के लिए तत्काल आदेश
दिया जाए।” (वा.रा.6/22/51-53)
प्रसिद्ध वास्तुकार नल ने वानर सेना को साल तथा ताड़, अश्वकर्ण और बाँस, अर्जुन और ताल, बिल्व
और नारियल, आम और अशोक, वकुल और तिलक (दालचीनी), अनार और नीम इत्यादि के पेड़ तथा
पत्थरों और चट्ट्नों को लाने का निर्देश दिया। (6/22/56-59) शक्तिशाली वानर सैनिक अनगिनत पेड़ों को
उखाड़कर तथा तोड़कर ले आए। उन्होंने चट्टानों के विशाल टुकड़ों को भी यांत्रिक उपकरणों का उपयोग
कर समुद्र तट पर एकत्रित कर दिया। यशस्वी वास्तुकार नल ने कुछ वीर वानर सैनिकों को दोनों ओर रस्से
पकड़कर खड़े होने के लिए कहा तथा कुछ अन्य को नापने के यंत्रों के साथ खड़े होने के लिए कहा। इसके
पश्चात् नल ने शक्तिशाली वानर सैनिकों को पेड़ों, पत्थरों तथा चट्ट्नों को समुद्र में पूरन्व िर्धारित क्षेत्रों में
डालने के लिए कहा। समुद्र में इस सेतु की संरचना नल के निरीक्षण में इन पेड़ों तथा पत्थरों को बाध्यकारी
सामग्रियों से बाँधकर पाँच दिन में पूरी कर ली गई (वा.रा.6/22/68-75)।
महर्षि वाल्मीकि के दिए गए विवरण से यह स्पष्ट होता है कि सेतु का निर्माण वहाँ पहले से विद्यमान
316 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

द्वीपों, चट्टानों तथा बरेतियों की प्राकृतिक शृंखला के अंतरालों को भरकर किया गया। (वा. रा. 6/22/68-
73) सेतु की चौड़ाई दस योजन बताई गई है, जबकि इसकी लंबाई को सौ योजन बताया गया है। सामान्यतः
यह विश्वास किया जाता है कि उन दिनों एक योजन आठ मील के बराबर होता था, लेकिन यह निश्चित रूप
से नहीं कहा जा सकता है। यह भी संभव है कि उन दिनों एक योजन एक मील के तीसरे हिस्से के लगभग
होता हो। वैकल्पिक रूप से हम श्लोक में वर्णित अतिशयोक्ति को सुदं र काव्यात्मक रचना का एक अभिन्न
अंग भी मान सकते हैं।
सेतु की संरचना शानदार तथा अचंभित कर देने वाली थी, जिसकी ओर देखकर देवता, गंधर्व और मानव
सभी आश्चर्यचकित हो रहे थे। लंबी और बड़ी छलाँगें लगाते हुए और खुशी से झूमते हुए वानर सैनिक उस
नल-सेतु की ओर देख रहे थे, जिसकी संरचना अद्भुत तथा अतुलनीय थी। उस शक्तिशाली वानर सेना के
लाखों वानर सैनिक समुद्र के दूसरे छोर तक जल्द ही पहुँच गए। कभी वे समुद्र में छलाँग लगाते थे तो कभी
हवा में, वे उस रोमांचक सेतु संरचना पर चलकर अभूतपूर्व आनंद का अनुभव कर रहे थे। अपने मंत्रियों के
साथ सुग्रीव शत्रुओं को उखाड़ फेंकने के लिए हाथ में गदा लेकर पुल के इस किनारे पर खड़े थे। लक्ष्मण
और सुग्रीव तथा पूरी वानर सेना के साथ यशस्वी श्रीराम ने विजय तथा गर्व का अनुभव करते हुए सेतु पर
कदम रखा और लंका के तट पर पहुँच गए। सुग्रीव ने वानर यूथपतियों से लंका के तट पर ऐसे क्षेत्र में शिविर
लगाने का आग्रह किया, जहाँ फल, मूल और जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे।
MAGAZINE KING v
कुछ वर्ष पहले, नासा ने एक सेतु की तसवीरें इंटरनेट पर डाली थीं, जिसके अवशेष भारत के रामेश्वरम्
(धनुषकोटि) और श्रीलक ं ा के मन्नार (थलाईमन्नार) के बीच, पाक स्ट्रेट में जलमग्न दिखाए गए थे।
तत्पश्चात‍् गुगल ने भी सेतु के चित्र दिखाए हैं, यह सेतु द्वीपों, चट्टानों और बरेतियों की एक शृंखला को
जोड़कर बना है, जो 48 किमी (30 मील) लंबा है और पाक स्ट्रेट से मन्नार की खाड़ी को अलग करता
है। बालू के कुछ टीले शुष्क हैं और कुछ हिस्से समुद्र में बहुत कम गहराई पर हैं। इनकी गहराई आज भी
केवल 2 से 10 मीटर (6 से 30 फीट) तक है। यह सेतु वास्तव में हूबहू वाल्मीकि रामायण में वर्णित स्थान
पर ही मिला है। (देखें चित्र-48-49)
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 317

चित्र-48 ः धनुषकोटि और थलाईमन्नार के बीच रामसेतु का गूगल प्रतिबिंब

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चित्र-49 ः रामसेतु का नासा चित्र, https://pics-about-space.com/rama-sethu-bridge-nasa?p=3#img852135


5688668560571(Source-en.wikipedia.org)
318 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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चित्र-50 ः रामसेतु की यह तस्वीर प्राकृतिक शृंखला के अंतराल भरने में मानवीय हाथ के योगदान को स्पष्ट दर्शाती है;
Source-en.wikipedia.org
(https://pics-about-space.com/rama-sethu-bridge-nasa?p=2#img14703967499322163185)
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 319

गूगल चित्र-48 दर्शाता है कि 7100 वर्ष पहले पानी का स्तर आज के जल स्तर से लगभग तीन मीटर
नीचे था। इस चित्र में द्वीपों, पर्वतों और बरेतियों की एक अनियमित शृंखला समुद्र में दिखाई देती है। चित्र-
49 नासा का रिमोट अर्थ सेंसिंग बिंब हैं जो रामायण में वर्णित स्थान पर भारत और श्रीलंका को जोड़ने
वाले जलमग्न सेतु को दर्शाता है। तीसरी तस्वीर अर्थात‍् चित्र-50 डूबे हुए सेतु के एक ऐसे भाग को दर्शाती
है, जो वास्तुकार नल के पर्यवेक्षण में पाँच दिनों में भरे गए पाँच भागों में से एक भाग को स्पष्ट दिखाती है।
इस सेतु के एक छोटे से भाग में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही भराई इस सेतु के निर्माण में मानवों तथा वानर
सैनिकों की भूमिका को इंगित करती है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा द्वारा तैयार किए गए नूतन युग
के समुद्र जल स्तर वक्र के अनुसार (जिसे डॉ. निगम के द्वारा प्रदर्शित किया गया), 7200-7000 वर्ष पूर्व
के बीच जल का स्तर आज के जल के स्तर से लगभग तीन मीटर नीचे था।9-10 देखें चित्र-51
राष्‍ट्रीय समुद्र विज्ञान संस् थान द्वारा तैयार किया गया
नूतन युग का समुद्री जल स्तर वक्र (चित्र-51)

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भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम के शब्दों में, “प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग
कर खगोलीय गणनाओं से साबित होता है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाएँ वास्तव में 7000 वर्ष
पहले घटित हुई थीं और उनका क्रमानुसार तिथि निर्धारण किया जा सकता है। रामसेतु उसी स्थान पर
320 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जलमग्न पाया गया, जैसा कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित किया गया है। नासा के आंकलन के अनुसार,
पिछले 7000 वर्षों में समुद्री जल स्तर में लगभग 2.8 मीटर की वृद्धि हुई है, जो लगभग 9.3 फीट के
बराबर होता है। रामसेतु के अवशेष लगभग 9-10 फुट नीचे जलमग्न पाए गए हैं। इस प्रकार, 7000 वर्ष
पहले यह सेतु भू-मार्ग के रूप में उपयोग किए जाने योग्य था।”11
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि लगभग 7100 वर्ष पूर्व यह सेतु समुद्री जल स्तर से ऊपर था तथा इसका
उपयोग भारत और लंका के बीच भू-मार्ग के रूप में किया जा सकता था। अगले तीन हजार वर्षों तक अर्थात‍्
4000 वर्ष पूर्व तक रामसेतु समुद्र के जल में जलमग्न रहा। तत्पश्चात् 4000 से 3000 वर्ष पूर्व यह सेतु
दिखाई दिया, क्योंकि तब समुद्र का जल स्तर बहुत नीचे चला गया था, जैसा कि होलोसीन समुद्री जल स्तर
वक्र दर्शाता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारत के पश्चिमी और पूर्वी घाटों के अधिकांश क्षेत्रों को
वाल्मीकिजी के द्वारा पर्वतों और पहाड़ों के रूप में क्यों वर्णित किया गया है। उस समय समुद्र का जलस्तर
आज के जलस्तर की तुलना में लगभग 10 फुट नीचे था और कम ऊँचाई के स्‍थानों को भी पर्वतों का नाम देने
का चलन था। समुद्री जलस्तर वक्र एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण, परंतु अल्प ज्ञात एक अन्य तथ्य की संपष्ु टि भी
करता है। वाल्मीकि रामायण में (6/19/31 और 6/22/50) विभीषण ने कहा कि श्रीराम के पूरज ्व ों, विशेषकर
महाराजा सगर और महाराजा भगीरथ ने इस समुद्र के जल का संवर्धन किया। सगर सूर्यवश ं के 40वें शासक,
भागीरथ 44वें शासक तथा श्रीराम 64वें शासक थे। प्रत्येक शासक के शासन को औसतन चालीस वर्ष देने
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से लगभग 1000 वर्ष का समय निकल जाता है। जलस्तर वक्र यह स्पष्ट दर्शाता है कि 8000 वर्ष पूर्व से
7000 वर्ष पूर्व (6000 वर्ष ई.पू. से 5000 ई.पू) के बीच समुद्र में जल का स्तर 10 मीटर से भी अधिक बढ़ा।
यह आश्चर्यजनक है कि रामायण के अत्यंत साधारण संदर्भों को भी आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों
तथा अनुसंधानों के माध्यम से न केवल सत्यापित किया जा सकता है, अपितु उनका तिथिकरण भी संभव
है। क्या यह संयोग की बात हो सकती है कि रामायण के इन संदर्भों की वैज्ञानिक तिथियाँ भी हमें 7000
वर्ष पूर्व के काल में ले जाती हैं? केवल यही नहीं, रामायण में श्रीराम के पूर्वजों (महाराजा सगर से लेकर
राजा भगीरथ तक) द्वारा किए गए प्रयासों के सजीव विवरण भी हैं, जिनके अनुसार उन्होंने गंगाजल को
शिवलिंग पर्वत के हिमनदों से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक पहुँचाने के लिए विशाल क्षेत्र में उपयुक्त रास्ते
की खोज की व बहुत बड़े पैमाने पर खुदाई का काम भी करवाया। इसका विवरण इस पुस्तक के अध्याय
1 में दिया गया है। इस भव्य मानवीय प्रयास से इन सूर्यवंशी शासकों ने भारत के पश्चिमी भाग को बाढ़ से
बचाया तथा पूर्वी भाग को गंभीर सूखे की स्थिति से बचाया। (वाल्मीकि रामायण 1/39-45)
ऊपर दर्शाए गए समुद्री जलस्तर का ग्राफ भी यह सूचित करता है कि सेतु का निर्माण हो जाने के
पश्चात‍् लगभग दो सौ वर्षों के अंदर ही समुद्री जल स्तर ऊपर चढ़ने के कारण यह जलमग्न हो गया और
4000 वर्ष पूर्व तक जलमग्न ही रहा। संभवतः इस कारण से भी सेतु के अस्तित्व को भुला दिया गया हो।
इसकी पुष्टि भूगर्भीय रिपोर्टों और रिमोट सेंसिंग डाटा से भी की गई है, जिनसे यह ज्ञात हुआ कि सरस्वती
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 321

नदी लगभग 6000 वर्ष ई.पू.-3500 वर्ष ई.पू. तक वृहद् हिमालय से समुद्र की ओर अपने पूरे प्रवाह के
साथ बह रही थी।12-13 परंतु इसके पश्चात् धीरे-धीरे विवर्तनिक तथा पुरा जलवायु परिवर्तनों के कारण
इसका बारहमासी स्वरूप खत्म होना शुरू हो गया। गंगा नदी, भगीरथी तथा यमुना नदी जैसी विशाल
सहायक नदियों को मिलाकर 6000 वर्ष ई.पू.-4000 वर्ष ई.पू. के आस-पास समुद्र में प्रचुर मात्रा में जल
ले जाती थी और यह भारत की सर्वाधिक पूजनीय नदी बन गई।14
डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी पुस्तक ‘रामसेतु ः सिंबल आ‍ॅफ नेशनल यूनिटी’ में रामसेतु तथा
सेतुसमुद्रम् परियोजना के बारे में कई दिलचस्प तथ्य दिए हैं, जो विश्वसनीय वैज्ञानिक साक्ष्यों से संपुष्ट
हैं।15 इनमें से कुछ का सारांश इस प्रकार है—
1. भारत के भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के भूतपूर्व निदेशक, डॉ. बद्रीनारायण ने ‘सेतु समुद्रम चैनल
परियोजना’ के भू-गर्भीय एवं भू-तकनीकी मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा था कि रामसेतु एक
प्राकृतिक संरचना है, जिसका ऊपरी भाग मानव-निर्मित है, क्योंकि यहाँ पर कोरल पत्थरों के
टुकड़ों को लाकर बिछाया गया है। इसके नीचे ढीली समुद्री बालू की उपस्थिति इंगित करती है
कि यह प्राकृतिक नहीं है, अपितु इसे बाहर से लाकर यहाँ बिछाया गया है। यह रामसेतु नामक
संरचना उत्तर में बंगाल की खाड़ी तथा दक्षिण में हिंद महासागर को अलग करती है।
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2. भारत के पृथ्वी विज्ञान विभाग ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
को भेजी गई प्रतिक्रिया में लिखा था, “एडम ब्रिज (रामसेतु) क्षेत्र के विषय में हमने पाया कि
कोरल संरचनाएँ लगभग 1 से 2.5 मीटर लंबाई की हैं और ढीले समुद्री रेत पर टिकी हैं। इनमें
अधिकांश कोरल के टुकड़े गोलाकार हैं।” इन सभी तथ्यों से यह प्रतीत होता है कि कोरल के
ये टुकड़े किसी अन्य स्थान से लाए गए हैं। इसके अतिरिक्त रामेश्वरम्् के आसपास के क्षेत्र में
एडम ब्रिज के दोनों तरफ मेसोलिथिक तथा माइक्रोलिथिक उपकरण भी मिले हैं, जो इस क्षेत्र
में 9000 से 4000 वर्ष पहले मानव आबादी तथा उसके क्रियाकलापों की उपस्थिति को इंगित
करते हैं। एडम सेतु के दोनों ओर मानव गतिविधियों से संबंधित ये सभी प्रमाण 7000 वर्ष पहले
श्रीलंका और भारत के बीच संपर्क स्थापित होने की संभावनाओं के प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं।
3. केंद्रीय अंतरिक्ष मंत्रालय ने राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग एजेंसी द्वारा लिए गए उपग्रह चित्रों को शामिल
करते हुए एक पुस्तक प्रकाशित की है (आई. एस.बी.एन.—817525 6524), जिसमें लिखा
है—“पुरातात्त्विक अध्ययन यह दर्शाते हैं कि रामसेतु मानव निर्मित हो सकता है।” अंतरिक्ष
मंत्रालय ने यह पुस्तक सभी सांसदों को मुफ्त में वितरित की थी। यह आश्चर्य की बात है
कि तत्कालीन सरकार इस तरह के ठोस साक्ष्यों को नकारकर भारतीयों को अपने पूर्वजों की
उपलब्धियों पर गौरवान्वित होने से वंचित कर उनमें हीनता की भावना भरने के प्रयत्न क्यों
करती रही?
322 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

4. सेतु शिपिंग चैनल परियोजना (एस.एस.सी.पी.) को पूरा कर जहाज मार्ग बनाने के अभी तक
के सभी प्रयास असफल हो चुके हैं। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने 23 जनवरी, 2007 को अंग्रेजी
अखबार ‘एशियन एज’ में छपी एक रिपोर्ट का सारांश प्रस्तुत करते हुए कहा है कि भारतीय
ड्रेजिंग निगम (डी.सी.आई.) के द्वारा हॉलैंड से आयातित ड्रेंजर एस.एस.सी.पी. पर कार्य प्रारंभ
करते ही दो भागों में टूट गया तथा समुद्र में डूब गया। डी.सी.आई. की क्रेन से जब उस डूबे
ड्रेंजर को निकालने की कोशिश की तो वह भी टूटकर जलमग्न हो गई। जब रूसी इंजिनियर
दुर्घटना की जाँच करने के लिए गए तो उनकी टाँग टूट गई। ये सभी अनहोनी घटनाएँ श्रीराम से
संबंधित दैवीय रहस्यों में तथा रामसेतु में लोगों के विश्वास को मजबूत करती हैं।
यहाँ यह बताना अधिक प्रासंगिक होगा कि भू-वैज्ञानिकों ने इन दुर्घटनाओं की सबसे विश्वसनीय
वैज्ञानिक व्याख्या दी, जिसके अनुसार सेतु के उत्तर में अर्थात्् पॉक स्ट्रेट क्षेत्र में समुद्री सतह ऊँचे स्तर
पर है, जबकि सेतु के दक्षिणी क्षेत्र अर्थात्् मन्नार की खाड़ी में समुद्री सतह निचले स्तर पर है। इसलिए
ड्रेज़र के प्रयोग से सेतु को ब्लास्ट करना संभव नहीं था। इसी कारण सरकार द्वारा रामसेतु के अवशेषों को
नष्ट करने के सभी प्रयास अभी तक विफल रहे हैं तथा सेतु समुद्रम शिपिंग चैनल परियोजना वास्तविकता
नहीं बन पाई है। करोड़ों भारतीयों को राहत देते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में सरकार ने
एस.एस.सी.पी. के कार्यान्वयन में रामसेतु को अछूता छोड़ने का निर्णय लिया। वैसे भी राष्ट्रीय इंजिनियरिंग
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अनुसंधान (नीरी) ने एस.एस.सी.पी. को कभी भी मंजूरी नहीं दी और न ही श्रीलंका सरकार ने कभी इसका
समर्थन किया है।
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4. सुवेल पर्वत पर सेना ने शिविर का निर्माण कर लंका काे सभी ओर से घेर लिया
राजा सुग्रीव द्वारा युद्ध के लिए प्रोत्साहित किए जाने के पश्चात् वानर योद्धा बहुत उच्‍च मनोबल
बनाए हुए थे। वे जोर-जोर से गरज रहे थे और ढ़ाेल बजा रहे थे। श्रीराम का हृदय पुनः सीताजी के लिए
विलाप कर रहा था, जिनका रावण ने हरण कर रखा था। समृद्ध तथा अच्छी तरह से संरक्षित लंका को
देखकर श्रीराम ने अंगद, नील, गंधमादन, जांबवान तथा सुषेण जैसे बहादुर सेनानायकों को सेना की पुरुष
व्यूह रचना करने के लिए कहा, जिसके हृदय के स्थान पर अंगद तथा नील हों और जिसे चारों ओर से
सुग्रीव सुरक्षा दे रहे हों। इस संरचना में आगे बढ़ती हुई ये शक्तिशाली सेना बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही थी।
श्रीराम की सेना के बारे में सूचना पाने के लिए रावण द्वारा भेजे गए शुक नामक एक गुप्तचर को वानर सेना
ने बंदी बना लिया परंतु श्रीराम ने उस गुप्तचर को छोड़ देने का निर्देश दिया। शुक ने वापस जाकर समुद्र
में सेतु बनाने तथा शक्तिशाली वानर सेना के सुवेल पर्वत पर पहुँचने के बारे में संपूर्ण सूचना रावण को दी।
उसने यह भी बताया कि वे अभी लंका की सुरक्षात्मक दीवार को पार नहीं कर सके हैं। इसलिए राजा रावण
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 323

के पास अब दो ही विकल्प शेष हैं—पहला, सीताजी को तत्काल श्रीराम को सौंपना और दूसरा, लंका की
सुरक्षात्मक दीवार पार करने से पहले श्रीराम की सेना पर आक्रमण कर देना। रावण क्रोधित हो गया तथा
अपनी वीरता का गुणगान करते हुए उसने ‘शुक’ को फटकार लगाई।
मन-ही-मन चिंतित रावण ने अपने दो मंत्रियों शुक और सारण को श्रीराम की सेना में प्रवेश कर
महत्त्वपूर्ण सूचना लाने के लिए भेजा। वानरों का वेश धारण कर दोनों जासूस पराक्रमी वानर सेना के बीच
प्रवेश कर गए। उन्होंने देखा कि वानर सेना लंका के चारों ओर फैल गई है और वानर सैनिक पर्वतों तथा
गुफाओं में, समुद्र के किनारे तथा वनों-उपवनों में भी प्रवेश कर चुके हैं। दिल दहला देने वाली गरज के
साथ वानर सेना ने या तो लंका को चारों ओर से घेर लिया था या उसे घेर रही थी। विभीषण ने शुक और
सारण को देखते ही पहचान लिया; उन्हें पकड़कर श्रीराम के सामने पेश किया। उन दोनों ने स्वीकार किया
कि उन्हें श्रीराम की सेना के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए रावण ने भेजा है। श्रीराम ने
कहा कि शास्त्रों के अनुसार दूत की हत्या करना पाप है। अतः यदि शुक और सारण ने अपना कार्य पूरा
कर लिया हो तो वे वापस लौट सकते हैं। श्रीराम ने उन्हें रावण को यह संदेश देने के लिए भी कहा कि
सीताजी का अपहरण करने जैसे पाप की सजा देने के लिए श्रीराम अब उसे उसकी सेना और बंधुजनों
सहित मार डालेंगे तथा लंका का विध्वंस कर देंगे।

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शीघ्र ही लंका वापस जाकर दोनों जासूस रावण के पास पहुँचे तथा उसे श्रीराम की सेना के बारे में
विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने महापराक्रमी श्रीराम तथा लक्ष्मण, शक्तिशाली विभीषण तथा महातेजस्वी
सुग्रीव और उनकी सेना को अजेय बताया और कहा कि वे सब लंका का विध्वंस कर सभी लंकावासियों
का वध करने में समर्थ हैं। यशस्वी श्रीराम का संपूर्ण परिचय भी उन्होंने रावण को दिया तथा उनसे शांति
समझौता करने की सलाह भी दी। परंतु रावण ने कहा कि वह सीता को कभी नहीं लौटाएगा, भले ही देवता,
दानव तथा गंधर्व सब मिलकर उस पर हमला कर दें। उसने कहा कि समरांगण में रावण को हराने का
सामर्थ्य किसी में नहीं है। इसके बाद रावण श्रीराम की उस शक्तिशाली विशाल वानर सेना की एक झलक
लेने के लिए अपने भवन के शिखर पर चढ़ गया। शुक और सारण ने रावण को पराक्रमी वानरराज सुग्रीव,
महाबली युवराज अंगद को दिखाया। उन्होंने रावण को वीर योद्धाओं नल और नील, केसरी और सुषेण,
पनस और विनत की पहचान भी कराई। इसके बाद शुक और सारण ने श्रीराम की सेना के उन योद्धाओं
के विषय में बताया, जिनका नेतृत्व पराक्रमी सुग्रीव कर रहा था। तत्पश्चात् दोनों जासूसों ने रावण से कहा,
“वह बल और रूप से संपन्न, निडर व श्रेष्ठ वानर हनुमान है, जो लंका में सीता से मिलकर तथा अनेक
सैनिकों का वध कर वापस चला गया था। वह वायुपुत्र के नाम से जाना जाता है। उधर देखें वह साँवले
शरीरवाले इक्ष्वाकुवंशी श्रीराम हैं, जिनकी भार्या सीता का अपहरण आप कर लाए हैं; उन्होंने विराध और
कदंब, खर और दूषण का वध किया है। इस पृथ्वी पर उनके पराक्रम का मुकाबला कोई नहीं कर सकता।
श्रीराम के साथ खड़े हुए वह कंचन वदन, विशाल वक्षस्थल वाले पराक्रमी लक्ष्मण हैं। वह नल है, जिसने
324 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रामसेतु का निर्माण किया है। आप अपने भाई विभीषण को भी देख सकते हैं, जो लंका का सम्राट् घोषित
किए जाने के बाद राम के परमभक्त बन गए हैं।” उस विशाल शक्तिशाली सेना को देखकर रावण का
हृदय उद्विग्न हो उठा, परंतु अडिग रहने का निश्चय कर उसने अपने दोनों जासूसों को फटकार लगाई।
उसने शुक और सारण को दरबार से निष्कासित कर दिया और शार्दूल तथा कई अन्य राक्षसों को जासूसी
कार्य के लिए भेजा।
गुप्तचरों से यह पता लगने के बाद कि श्रीराम ने अपनी अजेय सेना का शिविर सुवेल पर्वत पर बना
लिया है, रावण ने अपने मंत्रियों से सलाह ली। इसके पश्चात् उसने महान् जादूगर विद्युज्जिह्व‍ा को बुलाया।
रावण ने उससे श्रीराम का मायानिर्मित सिर लाने का आदेश दिया, ताकि वह स्वयं सीताजी को श्रीराम का
मृत रूप दिखा सके। जादूगर ने अपने जादू का कमाल तत्काल दिखाया। इसके पश्चात् रावण शोकग्रसित
सीता के पास पहुँचा और उन्हें एक बनावटी और झूठी कहानी सुनाई, “मेरे सेनापति ने आपके पति श्रीराम
का वध कर दिया है। समुद्र में सेतु बनाने के बाद आपके पति ने सुग्रीव और कुछ वानर सेना के साथ समुद्र
को पार किया तथा सुवेल पर्वत के पास अपना शिविर लगाया। अर्ध रात्रि में जब वे पूरी तरह थककर सोए
हुए थे तो लंका की सेना ने उनके ऊपर आक्रमण कर दिया तथा गदा, बाण, आयुध, त्रिशूल और मूसलों के
द्वारा समस्त वानर सेना को नष्‍ट कर दिया। उसके पश्चात् मेरे सेनापति प्रहस्त ने तलवार से श्रीराम का सिर
काट लिया। उसने लक्ष्मण और विभीषण को भी पकड़ लिया। राक्षसी सेना ने हनुमान को भी मार डाला।
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श्रीराम का रक्तरंजित सिर मैं यहाँ लाया हूँ।” उसी वक्त विद्युज्जिह्व‍ा ने वह राम का जादुई सिर सीताजी के
सामने रख दिया।
जादूगर ने जादुई सिर हूबहू श्रीराम के सिर जैसा ही बनाया था। उसे देखकर सीताजी असहनीय शोक
से संतप्त होकर जोर-जोर से विलाप करने लगीं। जादू को सच मानकर सबसे पहले उन्होंने माता कैकेयी
की निंदा की, जो इन सारे दुःखों का एकमात्र कारण थीं। इसके बाद उन्होंने कौशल्या के लिए विलाप
किया, जो अपना एकमात्र पुत्र खो चुकी थीं। तत्पश्चात् सीताजी ने अपने पूर्व जन्म में किए गए कुकर्मों को
दोष दिया, क्योंकि लंबी आयु की भविष्यवाणी होने के बावजूद उनके तेजस्वी व यशस्वी पति यौवनावस्था
में ही स्वर्ग को सिधार गए। इसके पश्चात् सीताजी ने रावण से कहा, “एक पत्नी को उसके मृत पति से
मिलवाने का कल्याणकारी कार्य करो। मेरा सिर भी मेरे धड़ से अलग कर दो तथा मेरे इस सिर का मेरे
प्रिय पति के सिर से संयोग करा दो।” जिस समय सीताजी रावण से यह सब कह रही थीं, पहरा दे रहे एक
राक्षस ने रावण से हाथ जोड़कर विनती की कि मंत्रियों सहित प्रहस्त तुरंत महाराज के दर्शन करना चाहते
हैं। यह बात सुनकर रावण तुरंत अशोक वाटिका से निकलकर अपने मंत्रियों से मिलने के लिए चला गया।
रावण के वहाँ से प्रस्थान करने के तत्काल बाद श्रीराम का वह जादुई सिर गायब हो गया। सीताजी
को दुःखी देखकर ‘सरमा’ नामक एक राक्षसी ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “श्रीराम सोते हुए भी स्वयं
की सुरक्षा करने में सक्षम हैं। वे स्वयं लक्ष्मण, सुग्रीव और अन्य वानर सेना को सुरक्षित रखने में भी सक्षम
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 325

हैं तथा लंका के विनाश एवं रावण के वध की तैयारी कर रहे हैं। रावण ने एक जादूगर की सेवाओं का
उपयोग करके आप को बेवकूफ बनाया है। आप धैर्य और विश्वास बनाए रखें कि कमलनयन श्रीराम पापी
रावण का वध कर आपको वापस ले जाएँगे तथा आप उनकी छाती से लगकर शीघ्र ही आनंद के आँसू
बहाएँगी।” उसने सीता से यह भी कहा, “रावण की अपनी माँ कैकसी ने भी आपको वापस लौटाने का
सुझाव रावण को दिया था, लेकिन वह मरने के लिए तैयार है, पर आपको वापस करने के लिए तैयार नहीं।
इसलिए यही नियति है कि श्रीराम युद्ध में रावण का वध करेंगे और आपको अयोध्या वापस ले जाएँगे।
इसलिए अपने आँसुओं को पोंछकर उस शुभ तथा मंगल घड़ी की प्रतीक्षा करें।”
दूसरी ओर रावण अपने मंत्रियों के साथ युद्ध की रणनीति के बारे में चर्चा कर रहा था। उस समय
रावण के नाना माल्यवान् ने सुझाव दिया कि बुद्धिमान राजा वही होता है, जो अपने से अधिक शक्तिशाली
शत्रु के साथ संधि कर लेता है। रावण ने अपने नाना का सुझाव भी नहीं माना। दूरदर्शी माल्यवान् ने फिर
कहा, “ब्रह्म‍ा ने जो वरदान तुम्हें दिया था, उसके अनुसार तुम्हारा वध देवताओं, दानवों, गंधर्वों और यक्षों
के हाथों नहीं हो सकता, लेकिन इस समय लंका में आक्रमण करने के लिए जो आए हैं, वे मानव तथा
वानर सैनिक हैं, जो अत्यंत पराक्रमी तथा महाबली हैं। श्रीराम, जिन्होंने शानदार सेतु का निर्माण करवाया है,
उन्हें एक सामान्य मानव नहीं समझा जा सकता, वास्तव में उन्हें भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता है।
मैं तो बहुत से अपशकुनों तथा राक्षसों के विनाश के लिए होने वाले उत्पातों को भी देख रहा हूँ। इसलिए
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उचित यही होगा कि सीता को लौटाकर श्रीराम के साथ समझौता कर लो।”
दुष्ट रावण, जिसके सिर पर मौत का साया मंडरा रहा था, अपने नाना माल्यवान की बात को सहन
नहीं कर पाया। रावण ने उन्हें कड़े शब्दों में फटकार लगाते हुए कहा, “मुझे अपनी सेना तथा अपने
पराक्रम पर पूरा विश्वास है। कुछ वानरों के साथ समुद्र पार कर लंका में आने के पश्चात् राम वापस
जीवित नहीं जा सकेगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है।” इसके पश्चात् माल्यवान् अपने आवास पर वापस चले गए।
अपने अन्य मंत्रियों से विचार विमर्श करने के पश्चात् रावण ने लंका की रक्षा के लिए पर्याप्त प्रबंध किए।
रावण ने लंका के पूर्वी द्वार की रक्षा के लिए प्रहस्त को तैनात किया। महापार्श्व और महोदर को दक्षिणी
द्वार पर, अपने सबसे शक्तिशाली पुत्र इंद्रजीत को पश्चिमी द्वार की रक्षा के लिए तैनात किया। शुक और
सारण को उत्तरी द्वार पर रखा, जहाँ रावण ने स्वयं तैनात रहने का निश्चय किया। विरूपाक्ष को शूल, खड्ग
और धनुष धारण करनेवाली विशाल राक्षस सेना के साथ नगर के बीच छावनी पर खड़ा किया गया। उन
सभी सेनापतियों के साथ लाखों वीर और वफादार राक्षस थे, जो रावण के एक इशारे पर अपने प्राण तक
न्योछावर करने के लिए तैयार थे। यहाँ पर रावण के परिवार के सदस्यों का संक्षिप्त वर्णन देना उचित होगा।
इसके लिए बॉक्स 6.2 देखें।
326 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बॉक्स 6.2
राक्षस राज रावण के परिवार का विवरण
पुलत्स्य स्मृति के लेखक महर्षि पुलत्स्य नर्मदा नदी के किनारे रहते थे। उनका
विश्रवा नामक एक पुत्र था, जिसका विवाह ऋषि भारद्वाज की पुत्री देववर्णी से हुआ।
उन्होंने पुत्र कुबेर को जन्म दिया, कुछ समय पश्चात् मुनि विश्रवा ने राक्षसराज सुमाली की
पुत्री कैकसी से भी विवाह किया। रावण के संबंधियों की सूची निम्नलिखित है—
1. ऋषि पुलस्तय रावण के दादा, तृणबिंदु की पुत्री हविर्भू उसकी दादी थी। (वा.रा.
7/2)
2. केतुमती रावण की नानी तथा शक्तिशाली दानवराज सुमाली रावण के नाना थे (वा.
रा. 7/5/38)। माल्यवान सुमाली के भाई थे (7/5/6)।
3. कुबेर अर्थात्् वैश्रवण रावण का सौतेला बड़ा भाई था, जिसका जन्म विश्रवा और
देववर्णी से हुआ था। (वा.रा. 7/3) कुबेर ने लंका नगरी का निर्माण किया था और
इसे समृद्ध बनाया था। रावण ने कुबेर से उसकी लंका नगरी तथा पुष्पक विमान
छीन लिए थे।
4. मुनि विश्रवा रावण के पिता थे और राक्षसी कैकसी रावण की माता थी। विश्रवा
और कैकसी ने कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा को भी जन्म दिया। (वा.रा.
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7/9)
5. रावण, विभीषण तथा कुंभकरण ने ब्रह्म‍ाजी को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या
की। प्रसन्न होकर ब्रह्म‍ाजी ने रावण को वरदान दिया कि देवता या दानव, गंधर्व या
यक्ष उसका वध नहीं कर सकेंगे। (वा.रा. 7/10)
6. रावण के भाई विभीषण की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्म‍ाजी ने यह वरदान दिया की
वे सदैव धर्म और सत्य के मार्ग पर अडिग रहेंगे। (वा.रा. 7/10)
7. रावण के छोटे भाई कुंभकरण को ब्रह्म‍ाजी से आराम की लंबी नींद सोने का वरदान
मिला। (वा.रा. 7/10)
8. रावण की बहन शूर्पणखा सीता के अपहरण का और रावण तथा संपूर्ण राक्षस कुल
के विनाश का कारण बनी थी। उसी ने अपने भाई रावण को श्रीराम से युद्ध करने
के लिए उकसाया था।
9. महोदर और महापार्श्व रावण के सौतेले भाई थे, जिनका जन्म संभवत: विश्रवा
और अनला से हुआ था (वा.रा. 6/68/8, 7/10)। इनका वध लंका में युद्ध के
दौरान क्रमश: नील और ऋषभ ने किया था।
10. विश्रवा और अनला से रावण की सौतेली बहन कुंभिनी का भी जन्म हुआ था।
यह लवणासुर की माता थी, जिसका वध श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने किया
था।
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 327

11. रावण के कई मामा थे, जो सुमाली के पुत्र थे। इनमें रावण के चार शक्तिशाली
सेनापति प्रहस्त, धूम्राक्ष, अकंपन और सुपार्श्व शामिल थे। (वा.रा. 7/5)।
12. खर और दूषण रावण के मौसेरे भाई थे, जिन्हें कैकसी की बहन ने जन्म दिया था
(वा.रा. 7/5)। श्रीराम ने पंचवटी के निकट खर और दूषण का उनके 14 हजार
सैनिकों सहित वध कर दिया था।
13. कुंभ और निकुंभ कुंभकर्ण के पुत्र थे, जबकि मकराक्ष और यूपाक्ष खर और दूषण
के पुत्र थे। ये सभी श्रीराम की सेेना के हाथो युद्ध में मारे गए थे।
14. रावण की तीन पत्नियाँ थीं—महान् वास्तुकार माया तथा अप्‍सरा हेमा की पुत्री
मंदोदरी (वा.रा. 7/12), धन्यमालिनी और एक अन्य तीसरी पत्नी।
15. रावण के छह पुत्र थे—
• मेघनाद—इंद्रजीत के नाम से भी जाना जाता था। रावण का सबसे शक्तिशाली
पुत्र वही था।
• अतिकाय—वह तीरंदाजी तथा अस्त्रों-शास्त्रों के रहस्यों को खूब समझता
था।
• देवांतक—यह रावण की सेना का एक शक्तिशाली सेनापति था।
• नरांतक—यह लाखों दानवों की सेना का शूरवीर सेनापति था।
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• त्रिशिरा—पंचवटी में खर और दूषण का वध करते समय उसे भी श्रीराम ने
मौत के घाट उतार दिया था।
• अक्षय कुमार—रावण का सबसे छोटा और बहादुर पुत्र था। हनुमान ने
अशोक वाटिका में उसका वध कर दिया था।

श्रीराम की सेना सुवेल पर्वत पर शिविर लगाए हुए थी। वानर सैनिकों ने रावण के द्वारा संरक्षित लंका
का सर्वेक्षण किया। इसके पश्चात् श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, जांबवान, अंगद, नल, विभीषण और
कई अन्य वानर सैनिकों ने युद्ध जीतने की रणनीति के बारे में चर्चा की। उस समय विभीषण ने बताया
कि उनके चार मंत्रियों अनल, पनस, संपाति और प्रमति ने रावण की युद्ध संबंधी तैयारियों के बारे में कुछ
सूचना एकत्रित की है। विभीषण ने रावण के सैन्य प्रबंध संबंधी कई रहस्यों का खुलासा करते हुए कहा
कि रावण की सेना में दस हजार हाथी, दस हजार रथ, बीस हजार घोड़े तथा लाखों पैदल सैनिक हैं। उसने
लंका के चारों द्वारों पर रावण द्वारा किए गए सुरक्षा प्रबंधों के बारे में भी बताया। विभीषण से ये महत्त्वपूर्ण
सूचनाएँ प्राप्त करने के पश्चात् श्रीराम ने विजय सुनिश्चित करने के लिए उचित सैन्य प्रबंध किए। उन्होंने
नील को, जो हजारों वानर सैनिकों के साथ था, आदेश दिया कि वह पूर्वी द्वार पर प्रहस्त के साथ युद्ध
करे। अनेक पराक्रमी वानर सैनिकों को साथ लेकर अंगद दक्षिणी द्वार पर महापार्श्व और महोदर पर
आक्रमण करने के लिए तैयार रहे। पश्चिमी द्वार पर पवनपुत्र हनुमान को अनेक वानर यूथपतियों सहित
328 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

महापराक्रमी इंद्रजीत से युद्ध करने के लिए कहा गया। लंका के उत्तरी द्वार पर, जहाँ स्वयं रावण अपनी
शक्तिशाली सेना के साथ तैनात था, श्रीराम ने लक्ष्मण के साथ प्रवेश करने का निर्णय लिया। सुग्रीव,
जांबवान और विभीषण को मुख्य स्थल पर अडिग रहने का आदेश दिया गया।
इसके पश्चात् लक्ष्मण, विभीषण और सुग्रीव के साथ श्रीराम सुवेल पर्वत की चोटी पर चढ़ गए तथा
उपयुक्त स्थल ढूँढ़कर उन्होंने वहाँ से संपूर्ण लंका का सर्वेक्षण किया। शीघ्र ही तेजी से चलते हुए सैकड़ों
वानर सैनिक भी सुवेल पर्वत पर पहुँच गए। वे सभी लंका के सुंदर भवनों, लुभावने हरे भरे उपवनों व
सुंदर वाटिकाओं को देखने लगे, जिनमें अशोक, बकुल, साल, अर्जुन, कदंब तथा सप्तपर्ण आदि वृक्ष
अति सुंदर दिखाई दे रहे थे तथा लंका के यह सुंदर उपवन इंद्र के नंदनवन की बराबरी कर रहे थे। पर्वत
की चोटी से श्रीराम और सुग्रीव ने संपूर्ण लंका नगरी का सर्वेक्षण किया, जो संध्या के सूर्य के प्रकाश की
लालिमा में तथा पूर्णिमा की चाँदनी में अत्यंत सुशोभित हो रही थी। यह 12 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू.
की चाँदनी रात थी; जब पौष माह की समाप्ति और माघ मास का प्रारंभ हो रहा था। उन सभी ने इस रात
को सुवेल पर्वत पर ही बिताया। कई वानर सेनापति प्रबल उत्साह के साथ पृथ्वी को पैरों से रौंदते हुए
वाटिकाओं के काफी अंदर तक पहुँच गए। सुवेल पर्वत की सबसे ऊपरी चोटी पर चढ़कर श्रीराम और
सुग्रीव ने रावण को लंका के एक गोपुर की छत पर विजय छत्र के नीचे बैठे देखा, वहाँ उसके सेवक
चँवर डुला रहे थे। क्रोध की अग्नि में उतावला होकर सुग्रीव ने छलाँग लगाई और रावण के शरीर पर
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कूद पड़ा तथा रावण के सिर से मुकुट उतारकर फेंक दिया। दोनों योद्धा वीरों की तरह लड़े। रावण ने
सुग्रीव को जमीन पर पटक दिया, वापस उठकर सुग्रीव ने भी रावण को जमीन पर फेंक दिया। दोनों महा
पराक्रमी थे, वे दोनों लंबे समय तक मल्लयुद्ध करते रहे। बार-बार एक-दूसरे को उछालते व जकड़ते
हुए, हाथों व पैरों के दाव-पेंच से एक-दूसरे पर झपटते हुए दोनों एक चबूतरे से जा लगे और फिर एक
खाई में जा गिरे, परंतु उठकर फिर लड़ने लगे। अंत में थके तथा हाँफते रावण को छोड़कर सुग्रीव ने एक
छलाँग लगाई और श्रीराम के खेमे में जा पहुँचा।
सुग्रीव के शरीर पर जख्मों को देखकर उसे गले लगाते हुए श्रीराम ने सुग्रीव को सलाह दी कि इस
प्रकार अनियोजित साहसिक कृत्यों का प्रयत्न न करें। यदि कुछ अनहोनी हो जाती तो सब प्रयास असफल
हो जाते। तत्पश्चात् श्रीराम ने ऐसे कई अपशकुनों का वर्णन किया, जो भयानक विनाश का पूर्वाभास दे रहे
थे। पर्वत से नीचे उतरते समय श्रीराम ने अपनी सेना और रावण की सेना की शक्ति का मूल्यांकन किया।
वे इस बात से संतुष्ट थे कि उनकी सेना लंका की राक्षसी सेना को चुनौती देने में सक्षम है। इसके पश्चात्
शुभ मुहुर्त में श्रीराम ने अपनी सेना को सैनिक कार्यवाही प्रारंभ करने के लिए अपना-अपना स्थान लेने के
आदेश दिए। फिर श्रीराम तथा अंसख्य पराक्रमी वानर सैनिक लंका के चारों तरफ अपना-अपना स्थान
ग्रहण करने के लिए कूच करने लगे। लक्ष्मण तथा हजारों वानर योद्धाओं को साथ लेकर श्रीराम ने लंका
के उत्तरी द्वार को रोक लिया। पूर्वी द्वार पर पहुँचकर नील ने मैंडा, द्विविदा और हजारों वीर वानर सैनिकों
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 329

के साथ अपना स्थान ग्रहण किया। अंगद अपनी सेना के साथ दक्षिणी द्वार पर पहुँच गए, जबकि हनुमान
अनेक वानर यूथपतियों को साथ लेकर पश्चिमी द्वार पर जाकर डट गए। सुग्रीव ने लाखों महान् योद्धाओं
के साथ उत्तरी और पश्चिमी द्वार के बीच में आक्रमण की तैयारी की। जांबवान के साथ बलशाली सुषेण
ने श्रीराम के ठीक पीछे मोरचा सँभाल लिया।
उत्सुकतापूर्वक आगे बढ़ते हुए तथा श्रीराम के उद्देश्यों को पूरा करने की चाहत में ये वानर योद्धा
लंका की ओर बढ़ते जा रहे थे। सभी ओर से लाखों की संख्या में वानर सैनिकों से लंका को घिरा देखकर
रावण एवं उसके साथी आश्चर्यचकित थे। उधर अपनी सेना को लंका पर आक्रमण करने का आदेश देने
से पहले श्रीराम को युद्ध को रोकने के लिए हर संभव प्रयत्न करने का राजधर्म याद आया। उन्होंने अंगद
को बुलाया और अपना यह संदेश देकर रावण के पास भेजा, “ब्रह्म‍ाजी का वरदान पाकर तुम पथभ्रष्ट
हो गए हो, कई पापों को अंजाम दे चुके हो। पंचवटी से सीता का अपहरण कर तुमने एक अनैतिक तथा
अत्यंत पापपूर्ण कार्य किया है। इसके दंडस्वरूप मैं युद्ध के मैदान में तुम्हारा वध करूँगा। तुम अपनी
अंत्येष्टि तथा श्राद्ध का कार्य पहले ही कर लो, क्योंकि तुम्हारा अंतिम संस्कार करने के लिए एक भी
राक्षस जीवित नहीं बचेगा। लंका पर राज करने के लिए केवल सदाचारी विभीषण ही बच पाएँगे।” श्रीराम
के ऐसा कहने पर ताराकुमार अंगद परकोटा लाँघकर शीघ्र ही रावण के राजभवन में जा पहुँचे। वहाँ
उन्होंने रावण को अपने मंत्रियों के साथ बैठे विचार-विमर्श करते हुए देखा। अंगद ने श्रीराम का संदेश
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रावण के समक्ष साफ-साफ शब्दों में बता दिया। अंत में उन्होंने श्रीराम द्वारा रावण को दी गई चेतावनी
से भी आगाह करते हुए कहा, “यदि तुम सीताजी को मेरे चरणों में गिरकर आदरपूर्वक नहीं लौटाओगे तो
मैं तुम्हारा वध कर दूँगा।” ऐसा सुनते ही रावण और उसके मंत्री क्रोधित हो गए तथा अंगद को उन लोगों
ने बंदी बनाना चाहा। चार राक्षसों ने मिलकर अंगद को पकड़ लिया। अंगद चारों राक्षसों को अपनी दोनों
भुजाओं में जकड़कर छत की तरफ उछल पड़ा तथा उन चारों राक्षसों को पृथ्वी पर पटक दिया। फिर
उसने रावण के महल की एक मीनार को तोड़ दिया। इसके पश्चात् एक बड़ी छलाँग लगाते हुए अंगद
श्रीराम के पास लौट आए।
राक्षसों ने रावण को सूचना दी कि शक्तिशाली वानर योद्धाओं ने लंका को चारों ओर से घेर लिया
है, जो लंका का विध्वंस करने और राक्षस सेना का विनाश करने के लिए बहुत उत्सुक हैं। क्रोधित
होकर रावण अपने महल के बुर्ज पर चढ़ गया; उसने चारों ओर वानर योद्धाओं को देखा, जो चट्टानों
तथा वृक्षों की शाखाओं से सशस्त्र होकर लंका का विध्वंस करने के लिए तैयार खड़े थे। इसके पश्चात्
रावण ने अपनी सेना की एक बड़ी टुकड़ी को बुलाया और उन वानर सैनिकों का वध करने का आदेश
दिया। रावण की सेना की उस टुकड़ी ने ढोल और नगाड़े बजाकर युद्ध की घोषणा की, जिससे पूरा
आकाश प्रतिध्वनित हो उठा। वे राक्षस सैनिक वानर यूथपतियों पर टूट पड़े। वानर सैनिकों ने पेड़ों,
चट्टानों, नाखूनों और मुक्कों से राक्षसों के आक्रमण का प्रत्युत्तर दिया। राक्षसी सेना और वानर सेना के
330 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

बीच भयानक युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ओर के कई योद्धा मारे गए। युद्धस्थल रक्त तथा मृत शरीरों से भर
गया। इस भयानक तथा विनाशकारी युद्ध के अतिरिक्त दोनों सेनाओं के पराक्रमी सेनापतियों के बीच कई
दिनों तक मल्लयुद्ध भी होता रहा। असाधारण शक्ति से संपन्न इंद्रजीत का युद्ध अंगद से हुआ। इंद्रजीत
के रथ को अंगद ने क्षतिग्रस्त कर दिया और बदले में इंद्रजीत ने अंगद को गदा से चोट पहुँचाई। दानव
विद्युन्माली गदा लेकर कूद पड़ा और उसने सुषेण पर आक्रमण किया, जिसने उसे पत्थर से पीटकर मार
डाला। जैसे-जैसे दिन बीतता गया, युद्ध भयानक होता गया और दोनों सेनाओं के अनेक योद्धा मारे गए।
कुंभकर्ण के पुत्र निकुंभ के बाणों से नील गंभीर रूप से घायल हो गया। दोनों ओर के वीर योद्धा अपने-
अपने सेनापतियों के लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार थे। इस प्रकार कई योद्धा कई
दिनों तक लड़ते रहे, अनेक मौत की नींद सो गए तथा अनगिनत शूरवीर गंभीर रूप से घायल हो गए।
जब दानव सेना और वानर सेना के बीच भयानक संग्राम चल रहा था, इसी बीच सूर्य क्षितिज के
नीचे चला गया और सूर्यास्त के पश्चात् भी राक्षसों तथा वानरों ने युद्ध नहीं रोका। चारों ओर युद्ध की
चीखें सुनाई दे रही थीं, “मारो, और मारो, चीर दो, तुम क्यों भाग रहे हो?” क्रोधित वानर सैनिकों ने
दानवों को हतोत्साहित कर दिया। श्रीराम और लक्ष्मण ने भी हजारों राक्षसों का वध कर दिया तथा अपने
तीखे बाणों से महापार्श्व और महोदर तथा शुक और सारण को घायल कर दिया। अंगद ने इंद्रजीत तथा
उसके रथ के घोड़ों को घायल कर दिया। उस समय अंगद की वीरता और कौशल की श्रीराम, लक्ष्मण
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और सुग्रीव ने हृदय से प्रशंसा की। इसके बाद इंद्रजीत ने छल, कपट व तंत्र विद्या का सहारा लिया और
वह अदृश्य हो गया। अदृश्य इंद्रजीत ने श्रीराम के शरीर को भेदने के लिए कई प्रकार के बाण चलाए;
जिनमें शामिल थे—नाराच (वृत्त के समान नोकवाले), भाला (कुल्हाड़ी जैसी नोकवाले), क्षूरा (उस्तरे
की तरह तेज नोकवाले)। फिर अदृश्य होकर इंद्रजीत ने श्रीराम और लक्ष्मण की ओर नागपाश छोड़ दिए,
जिनमें बँधकर वे दोनों चलने में असमर्थ हो गए और युद्धभूमि में असहाय हो गए। श्रीराम तथा लक्ष्मण
को कष्ट में देखकर हनुमान तथा अन्य वानर यूथपति शोकग्रस्त व क्रोधित हो गए और वे सभी उनको
घेरकर खड़े हो गए।
इंद्रजीत ने वापस जाकर दानव सेना को बधाई दी। वह अपने पिता रावण के पास जाकर बोला
कि राम और लक्ष्मण के जीवन की कहानी समाप्त हो गई है, क्योंकि वे उन नागपाशों से कभी नहीं बच
सकते। रावण ने आनंद का अनुभव करते हुए अपने पुत्र इंद्रजीत को हृदय से लगाया तथा उसके पराक्रम
की प्रशंसा की। दूसरी ओर घायल वानर सेना श्रीराम तथा लक्ष्मण की स्थिति को देखकर उदास थी। वे
यह सोचकर हताश थे कि सबकुछ समाप्त हो गया। सुग्रीव का चेहरा आँसुओं से गीला हो गया था। इस
कठिन परिस्थिति में विभीषण ने सुग्रीव की आँखों के आँसुओं को पोंछते हुए वानर योद्धाओं में साहस
भरने की कोशिश करते हुए कहा कि दोनों तपस्वी राजकुमार जीवित हैं और जब तक वे होश में नहीं आ
जाते, उन्हें अपना मनोबल ऊँचा रखना चाहिए।
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 331

इंद्रजीत अपने महल में वापस चला गया। रावण ने सीता की सुरक्षा में लगी राक्षसियों को आदेश
दिया कि वे हवाई यान में सीता को युद्धस्थल पर लेकर जाएँ तथा दोनों संन्यासी राजकुमारों की दुर्दशा
की एक झलक दिखाएँ, जो अचेत अवस्था में युद्धस्थल में पड़े हुए थे। दोनों वीर राजकुमारों को अचेत
अवस्था में देखकर सीताजी विलाप करने लगीं तथा शिष्टतापूर्वक त्रिजटा से बोलीं, “मुझे कई विद्वान्
तथा जाने-माने ज्योतिषियों ने कहा था कि मैं कभी विधवा नहीं हो सकती तथा मुझे अपना पुत्र भी होगा।
उनकी ये सभी बातें कैसे गलत साबित हो सकती हैं?” इसके पश्चात् आत्महत्या की इच्छा जाहिर करते
हुए सीताजी ने अपनी सास कौशल्या के प्रति वेदना व्यक्त की कि वे बेचारी चौदह वर्ष के वनवास की
समाप्ति पर अपने पुत्र के लौटने का इंतजार हमेशा करती रहेंगी। उस समय त्रिजटा ने सीता को सलाह दी
कि वे निराश न हों, क्योंकि राम और लक्ष्मण अभी जीवित हैं, केवल बेहोश हैं। इसके पश्चात् वह सीताजी
को अशोक वाटिका में वापस ले गई।
कुछ समय पश्चात् इंद्रजीत के जादुई बाण का प्रभाव कम होने लगा। श्रीराम ने अपनी आँखें खोलीं।
लक्ष्मण को नागपाश में बँधा तथा रक्त रंजित देखकर श्रीराम विलाप करने लगे, “मैं अपना उद्देश्य पूर्ण
करके क्या करूँगा, यदि मैं लक्ष्मण जैसे असाधारण तथा स्नेही अनुज को खो दूँगा? अपने भाई को खोकर
मैं अयोध्या वापस नहीं जाऊँगा और मैं भी अपना शरीर त्याग दूँगा। हे लक्ष्मण! जब मैं उदास होता था,
तब तुम मुझे बार-बार सांत्वना देते रहे; आज घायल अवस्था में तुम उस प्रकार प्रतीत हो रहे हो, जैसे
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क्षितिज के नीचे सूर्य डूब रहा हो। तुम्हारा कोई दोष नहीं है, क्योंकि तुमने तो कभी कठोर शब्दों का भी
प्रयोग नहीं किया, मुझे शायद अतीत में किए गए पापकर्मों की सजा मिली है।” उस समय श्रीराम इतने
निराश हो गए थे कि उन्होंने सुग्रीव से अपनी सेना लेकर किष्किंधा वापस जाने के लिए कह दिया था।
ठीक उसी क्षण हाथ में गदा लिए विभीषण वहाँ आए। उन्होंने श्रीराम और सुग्रीव की विजय का नारा
लगाया।
तत्पश्चात् विभीषण ने सुग्रीव के वानर यूथपतियों से कहा कि इंद्रजीत ने तंत्र-मंत्र का सहारा लेकर
दोनों राजकुमारों के साथ जादुई छल किया था, जिसका प्रभाव जल्द ही समाप्त हो जाएगा। जब सुग्रीव,
जांबवान और सुषेण समस्त वानर सेना के विश्वास को बहाल करने की कोशिश कर रहे थे तो उस
समय समुद्र और आकाश आँधी से आच्छादित हो गए। एकाएक पक्षियों के राजा गरुड़ वहाँ दिखाई
दिए; गरुड़राज ने श्रीराम और लक्ष्मण को नागपाश के बंधनों से मुक्त कर दिया। इसके बाद गरुड़राज ने
दोनों राजकुमारों को प्यार से स्पर्श किया और उन्हें विजय का आशीर्वाद दिया। श्रीराम ने भावुक होकर
गरुड़राज का आभार प्रकट किया। इसके पश्चात् पक्षीराज गरुड़ वायु की गति से आकाश की ओर चले
गए। एक बार फिर वानर सेना में आत्मविश्वास व उत्साह की उमंग जाग उठी और वे खुशी से झूम उठे।
वानर सेना को खुश देखकर रावण के जासूसों ने उन्हें यह सूचना दी कि किस प्रकार गरुड़राज ने
दोनों संन्यासी राजकुमारों को साँपों के बंधन से मुक्त किया। यह समाचार सुनकर निराश और चिंतित
332 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रावण ने धूम्राक्ष को श्रीराम का वध करने के लिए युद्ध के मैदान में भेजा। धूम्राक्ष हजारों सैनिकों को साथ
लेकर विशाल रथ पर बैठकर युद्धभूमि में पहुँचा। उसने वीरतापूर्वक लड़ाई की, लेकिन अंत में हनुमान
ने उसका वध कर दिया। धूम्राक्ष के वध का समाचार सुनने के बाद क्रोधित होकर रावण ने अयोध्या के
दोनों संन्यासी राजकुमारों का वध करने के लिए वज्रदंष्ट्र को एक शक्तिशाली सेना के साथ भेजा। वज्रदंष्ट्र
दोधारी तलवार, लोहे की अद्भुत गदा, धारदार फर्सों से सुसज्जित होकर युद्ध स्थल पहुँचा। राक्षसी सेना
मेघ की तरह गरजती हुई श्रीराम के वानर सैनिकों पर टूट पड़ी। इस बार उन्होंने लंका के दक्षिणी द्वार से
प्रवेश किया था जहाँ अंगद अपने योद्धाओं के साथ डटे हुए थे। राक्षसी सेना तथा वानर सेना के बीच
भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ओर के हजारों सैनिकों का वध हुआ और कई बुरी तरह से घायल हो गए। अपनी
सेना को युद्ध में हारते देखकर अंगद क्रोधित हो गया; वृक्षों को जड़ समेत उखाड़कर अंगद ने राक्षसी सेना
पर फेंका और कई सैनिकों की हड्डी-पसली तोड़ डालीं। फिर उन्होंने वज्रदंष्ट्र के रथ के टुकड़े-टुकड़े
कर दिए। वज्रदंष्ट्र अपनी सेना का विनाश देखकर क्रोध से आग-बबूला हो गया। दोनों सेनाओं के बीच
भयंकर संग्राम हुआ। उसी समय वज्रदंष्ट्र ने अंगद पर एक शक्तिशाली बाण चलाया, जिससे अंगद का
मर्मस्थल जख्मी हो गया। बलशाली अंगद ने क्रोध में आकर एक बड़ी चट्टान को उखाड़ा और वज्रदंष्ट्र
के सिर पर फेंक दिया। वज्रदंष्ट्र खून की उल्टी करने लगा और अचेत अवस्था में जमीन पर गिर गया,
अंततः अपने प्राणों से हाथ धो बैठा।
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यह सुनकर कि अंगद ने वज्रदंष्ट्र का वध कर दिया है, रावण ने अपने मुख्य सेनापति को आदेश
दिया कि वह अकंपन को युद्ध में भेजे। अकंपन बहुत ही शक्तिशाली था और उसे बाण तथा अन्य
प्रक्षेपास्त्र चलाने में महारथ हासिल थी। रावण ने उसे आदेश दिया कि वह सेना के साथ युद्धस्थल
जाए और श्रीराम तथा लक्ष्मण का वध कर या उन्हें जीवित बंदी बनाकर लाए। मेघ की गरज के समान
आवाजवाला अकंपन विशाल रथ पर बैठकर उग्र राक्षसी सेना को साथ लेकर युद्धस्थल में पहुँचा और
वानर योद्धाओं पर टूट पड़ा। एक बार फिर भयानक युद्ध प्रारंभ हुआ। राक्षसी सेना लोहे की गदाओं तथा
बाणों से वानर योद्धाओं पर प्रहार कर रही थी जबकि वानर योद्धा उन राक्षसी सैनिकों का सामना पेड़ों
की शाखाओं और चट्टानों के प्रहार से कर रहे थे। उस युद्ध में भी दोनों ओर के कई पराक्रमी योद्धा मौत
की नींद सो गए। अपनी विलक्षण प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए नल, कुमुद और मैंडा ने कई राक्षसों को
मौत के घाट उतार दिया। अकंपन ने हिंसक क्रोध का प्रदर्शन करते हुए हनुमान को लक्ष्य बनाया और
कई घातक बाणों से उन पर प्रहार किया। तब हनुमान ने एक विशाल चट्टान उठाकर अकंपन के ऊपर
फेंकी, अकंपन ने अपने बाण से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। यह देखकर हनुमानजी को क्रोध आ गया
और उन्होंने एक अश्वकर्ण वृक्ष को उखाड़कर अकंपन के सिर पर फेंक दिया। वह तुरंत पृथ्वी पर गिर
गया और अपने प्राण गँवा बैठा।
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 333

बॉक्स 6.3
वानर सैनिक हथियारों के रूप में पत्थरों और चट्टानों का प्रयोग करते थे;
संबंधित पुरातात्त्विक साक्ष्य
रामायण में वर्णित युद्ध के सभी विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि सभी वानर सैनिक
हथियारों के रूप में चट्टानों, पत्थरों तथा पेड़ों का उपयोग कर रहे थे। उनके पास विशाल
और असीमित शारीरिक श​ि‍क्तयाँ थीं, लेकिन धनुष और तीर, तलवारें और भालों जैसे
हथियारों के उपयोग में वे प्रशिक्षित नहीं थे।
पिछले पचास वर्षों में प्रायद्वीपीय भारत में खुले क्षेत्रों और गुफाओं में रॉक-शेल्टर्स
का 25 से अधिक स्थलों पर उत्खनन हुआ है, जिससे क्षेत्रीय सांस्कृतिक इतिहास की
बेहतर जानकारी प्राप्त हुई है। पत्थर के युग के पत्थरों के औजार और कलाकृतियों के
बहुत समृद्ध संग्रह, जो हजारों व लाखों वर्ष पुराने हैं, दक्षिणी भारत में पाए गए हैं। इनमें
पत्थरों के आकार दिए गए उपकरण, कटिंग उपकरण, क्लीवर और चूना पत्थर ब्लॉक
आदि शामिल हैं।16
पुरातत्त्वविदों के अनुसार, पाषाण युग नवपाषाण काल (Neolithic age) की
शुरुआत के साथ समाप्त हुआ, जो दक्षिण एशिया (भारत और श्रीलंका सहित) में लगभग
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7000 वर्ष ईसा पूर्व शुरू हुआ। तुंगभद्रा घाटी के बेल्लारी क्षेत्र में और कावेरी घाटी के मैसूर
क्षेत्र में सबसे प्राचीन घिसाये गए और पॉलिश किए गए पत्थर के कुल्हाड़े व सेल्ट मिले।
इनमें से अधिकांश पत्थरों के औजारों का तिथिकरण 6000 वर्ष ईसा पूर्व से 3000 वर्ष ईसा
पूर्व तक किया गया है।17
इस प्रकार भारत के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाले अलग-अलग लोग शायद मनुष्य के
सांस्कृतिक विकास के विभिन्न चरणों में रहते थे और वे एक-दूसरे से कई तरह से भिन्न
हो सकते थे। पुरातत्त्वविदों ने दक्षिण भारत में, विशेष रूप से कर्नाटक और चेन्नई क्षेत्रों में,
बहुत ही दिलचस्प प्रमाण पाए हैं। यहाँ पर कुछ प्रजातियाँ नव पाषाण युग में लगभग 8000
से 6000 साल पहले बने पत्थरों के उपकरणों और हथियारों का इस्तेमाल कर रहीं थीं।
क्या लंका में युद्ध के दौरान वानर सैनिकों द्वारा पत्थर के हथियार तथा औजारों
के उपयोग के संदर्भों के साथ खुदाई में मिले इन पत्थर के उपकरणों के तिथिकरण को
सहसंबंधित करना दिलचस्प नहीं होगा? आखिरकार, हमारे पास आज भी कुछ जनजातियों
के लोग हैं, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में रहते हैं और आज तक धनुष-बाण का इस्तेमाल
करते हैं, और उनमें से कई तो अभी भी पेड़ों के ऊपर रहते हैं! युद्ध के इन दो अलग-
अलग तरीकों, एक तीर और तलवारें से और दूसरा पत्थर और चट्टानों से, का 7000
वर्ष पहले सह-अस्तित्व सर्वथा संभव था। यही निष्कर्ष पुरातात्त्विक और मानव-विज्ञान
संबंधी अध्ययनों ने निकाला है। वास्तव में ये विवरण भी रामायण की उन खगोलीय तथा
पुरातात्त्विक तिथियों का समर्थन करते हैं, जो इस पुस्तक में वर्णित हैं।
334 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

5. श्रीराम की सेना ने प्रहस्त, कुंभकर्ण व अतिकाय जैसे महाबलियों का वध किया


अकंपन के वध का समाचार सुनकर दानवराज रावण क्रोधित होकर सेनापति प्रहस्त से बोला, “मुझे
इस युद्ध से किसी प्रकार का शुभ संकेत आता दिखाई नहीं देता है। अब मुझे या कुंभकर्ण या इंद्रजीत या
तुम्हें एक बड़ी सेना लेकर युद्धभूमि में जाना होगा।” इसके बाद प्रहस्त ने उत्तर दिया—“आपने सदैव मेरी
सहायता व सत्कार किया है, इसलिए मैं आपके आदेश पर अपने प्राण तक न्यौछावर करने के लिए तैयार
हूँ।” फिर प्रहस्त ने एक विशाल सेना को अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर आने के लिए कहा। फिर स्वयं
कवच धारण कर तथा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो प्रहस्त ने भयंकर रणभेरी बजवाई। तत्पश्चात् विशाल
राक्षस सेना लेकर महापराक्रमी प्रहस्त लंका के पूर्वी द्वार की ओर चला। विभीषण ने श्रीराम को सूचित
किया कि रावण का सेनापति प्रहस्त लंका की एक-तिहाई सेना के साथ युद्धभूमि में आ रहा है। तब वानर
योद्धाओं ने भयंकर युद्ध की इच्छा से वृक्ष, पर्वत तथा बड़े-बड़े पत्थर उठा लिए और दूसरी ओर राक्षसी
सैनिक खड्ग, शूल, बाण, मूसल, गदा, परिघ, प्रास आदि लेकर लड़ने के लिए उत्सुक सिंहों की तरह
दहाड़ने लगे। प्रहस्त और उसकी सेना ने कुछ वानर सैनिकों को बाणों से मार डाला, कुछ को फरसों से
काट डाला तथा कई वानर सैनिकों को लोहे की छड़ों से मार डाला।
वानरों ने भी अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए चट्टाने फेंककर कई राक्षसी योद्धाओं को मार डाला। प्रहस्त
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इसे सहन नहीं कर सका और धनुष लेकर वानर योद्धाओं पर टूट पड़ा। असंख्य बाण छोड़ते हुए उसने
अनेक वानर सैनिकों काे मार डाला। युद्ध स्थल रक्त के तालाब में बदल गया। उस समय, जैसे प्रचंड वायु
आकाश में मेघों की घटा को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अत्यंत क्रोधित हुए महापराक्रमी नील
भी पेड़ों तथा चट्टानों के प्रहार से राक्षस सैनिकों का हर तरफ से संहार करने लगे। प्रहस्त ने भी कुपित
होकर नील की ओर तीक्ष्ण तथा विषैले बाण बरसाने प्रारंभ कर दिए। बाणों के प्रहार से क्रोधित होकर नील
ने एक विशाल साल के वृक्ष को उखाड़ा तथा प्रहस्त के रथ के घोड़ों के ऊपर प्रहार किया। एक-दूसरे के
शत्रु परंतु गजब के पराक्रमी उन दोनों सेनापतियों के बीच भयंकर युद्ध हुआ, वे एक-दूसरे पर आक्रमण
करने लगे। उनके शरीर से रक्त बह रहा था, लेकिन दोनों में से कोई भी हार मानने के लिए तैयार नहीं था।
राक्षस सेनापति प्रहस्त ने नील के ललाट पर मूसल से वार किया तो उसके माथे से रक्त की धारा बह चली।
तब क्रोध से बेकाबू हुए नील ने एक बड़ी शिला उठाई और तेजी से प्रहस्त के सिर पर आघात किया।
परिणामस्वरूप प्रहस्त के मस्तक के कई टुकड़े हो गए और वह जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर
गिर पड़ा। उसके जीवन के साथ-साथ उसका वैभव, ताकत और बुद्धि सभी चले गए। शेष राक्षसी सैनिक
भयभीत होकर सभी दिशाओं में भाग खड़े हुए।
इस महान् विजय के पश्चात् नील श्रीराम और लक्ष्मण के पास आए। सिर झुकाते हुए उन्होंने सारा
वृत्तांत संक्षिप्त रूप में सुनाया। श्रीराम और लक्ष्मण ने नील की वीरता की प्रशंसा की और उन्हें इस
महत्त्वपूर्ण जीत के लिए बधाई दी। कुछ राक्षसी सैनिक, जो युद्धभूमि से भागे थे, रावण के पास यह समाचार
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 335

लेकर गए कि सुग्रीव की सेना के सेनापति नील ने प्रहस्त का वध कर दिया है। रावण क्रोध और शोक से
भर गया। वह विलाप करने लगा, “मेरे पराक्रमी सेनापति, जिसने इंद्र के साथ-साथ कई अन्य देवताओं
को भी युद्ध में हराया था, का इन वानरों ने वध कर दिया। हम इस घटना को हल्के में नहीं ले सकते। मैं
जिनको बहुत छोटा समझता था, मेरे उन्हीं शत्रुओं ने मेरे महापराक्रमी मुख्य सेनापति को मार गिराया। अब
मुझे राम और उसके वानर योद्धाओं का विनाश करने के लिए स्वयं रणनीति बनानी होगी।”
यह कहते हुए रावण रथ पर सवार हो गया और अचूक तथा विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों से सजकर
राम तथा लक्ष्मण को अपने बाणों से भस्म कर देने की कामना से चल दिया। अपने प्रदीप्त एवं दिव्य रथ पर
बैठकर वह लंका नगर के बाहर निकला। रावण का मन शोक और क्रोध से भरा हुआ था। राक्षसों की एक
नई और शक्तिशाली सेना को लंका से बाहर आते देखकर वानर सैनिक हाथों में पत्थर और वृक्ष लेकर खड़े
हो गए। विभीषण ने एक-एक राक्षस सैनिक का परिचय श्रीराम को दिया, “ये कुभं कर्ण के पुत्र कुभं और
निकुभं हैं, जो लोहे की गदा लिए हुए हैं। सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर रथ पर बैठा नरांतक
है, जिसके रथ की ध्वजा पर सिंह का चिह्न‍‍ है, वह अत्यंत बहादुर योद्धा इंद्रजीत है। बड़े रथ पर बैठे रावण
को आप देख सकते हैं, जो कि सोने और बहुमूल्य रत्नों से सुसज्जित हैं तथा सूर्य के समान कांतिमान दिखाई
दे रहा है। राक्षसों के राजा रावण ने महाबली इंद्र देवता को भी पराजित किया था।” उधर रावण ने अपने साथ
आए हुए उन महाबली राक्षसों से लंका के द्वार तथा राजमार्गों पर डटे रहने के लिए कहा, जबकि उसने स्वयं
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आगे जाकर अयोध्या के दोनों तपस्वी राजकुमारों का वध करने का निश्चय किया।
इसके बाद रावण ने निर्दयतापूर्वक वानर सैनिकों का संहार करना प्रारंभ किया। वानरों ने भी पेड़ों
और चट्टानों से आक्रमण किया, जिन्हें रावण ने अपने बाणों से टुकड़े-टुकड़े कर डाला। फिर रावण ने
सुग्रीव पर तीक्ष्ण बाणों का तेजी से प्रहार किया और वह पीड़ा से कराहते हुए जमीन पर गिर पड़े। इसके
बाद श्रीराम ने युद्धभूमि में मोरचा सँभाला और लक्ष्मण को सुझाव दिया कि अपनी रक्षा सावधानीपूर्वक करें
तथा फिर से अपना पराक्रम दिखाएँ। रावण के हाथों हजारों वानर सैनिकों का संहार होते देखकर पराक्रमी
हनुमान क्रोधित हो गए। उन्होंने रावण के रथ पर छलाँग लगाई तथा उसे जोर से एक तमाचा लगाया,
जिससे दानव राज उसी तरह काँप उठा, जैसे भूचाल आने पर पर्वत हिलने लगता है। श्वास लेते हुए रावण
ने कहा, हनुमान! तुम पराक्रम की दृष्टि से मेरे प्रशंसनीय प्रतिद्वंद्वी हो। रावण ने मुट्ठी बाँधी और हनुमान
के सीने में एक घूँसा लगाया, जिससे हनुमान भी अत्यंत विचलित हो गए। इसके पश्चात् रावण अपना रथ
सेनापति नील के पास ले गया तथा कई बाण चलाकर उसके अंगों में चोट पहुँचाई। उस समय नील ने साल
और अश्वकर्ण के पेड़ों को जड़ से उखाड़कर रावण की ओर फेंका, परंतु इन पेड़ों को रावण ने अपने
बाणों से काट गिराया। तत्पश्चात् महापराक्रमी रावण क्रोधित हो गया, उसने एक शक्तिशाली आग्नेयास्त्र
सेनापति नील पर चलाया। उस बाण से नील की छाती पर गहरी चोट आई और अग्नि से जलते हुए नील
तत्काल ही अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े।
336 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

नील को अचेत हुआ देखकर रावण ने लक्ष्मण पर धावा बोल दिया। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ;
दोनों अद्भुत पराक्रमी, बुद्धिमान तथा शक्तिशाली योद्धा थे। रावण के द्वारा छोड़े गए बाणों के लक्ष्मण ने
कई टुकड़े कर दिए, जबकि सुमित्रा-नंदन के द्वारा चलाए गए बाणों को लंकेश ने भी काट डाला। अंत में
लक्ष्मण ने रावण का धनुष काट दिया और उसे बुरी तरह घायल कर दिया। क्रोधित होकर रावण ने अग्नि
के समान दिखाई देनेवाली ब्रह्म‍ा द्वारा दी गई शक्ति लक्ष्मण पर चलाई। रावण के द्वारा लगी ब्रह्म‍-शक्ति
से लक्ष्मण तत्काल अचेत होकर पृथ्वी पर गिर गए। मूर्च्छित लक्ष्मण को हनुमान उठाकर सुरक्षित स्थान
पर ले आए, जहाँ वानर सैनिकों ने उनकी देखभाल की। इसके पश्चात् रावण ने हनुमान के सीने में एक
शक्तिशाली बाण से प्रहार किया और उन्हें घायल कर दिया। क्रोधित होकर श्रीराम ने रावण के ऊपर पूरी
ताकत से प्रहार किया, उन्होंने रावण के रथ को तोड़ डाला; घोड़ों तथा सारथी को भी मार डाला। इसके
पश्चात् श्रीराम ने रावण के चौड़े सीने पर अग्नि के समान तेजस्वी एक बाण छोड़ा, रावण कंपित हो उठा,
उसके हाथों से धनुष नीचे गिर गया। इसके बाद एक अर्धचंद्राकार बाण से श्रीराम ने रावण का देदीप्यमान
मुकुट काट डाला। फिर श्रीराम ने धनुषविहीन, रथविहीन तथा मुकुटविहीन रावण को लंका वापस जाने की
सलाह दी और रावण का तिरस्कार करते हुए यह भी कहा, “धनुष-बाण से सज्जित हो और रथ पर सवार
हो, वास्तविक युद्ध के लिए तैयार होकर आओ।” फिर रावण निराश तथा चिंतित होकर लंका लौट गया।
शर्म तथा भय से रावण ने पूर्वकाल में किए दुष्कर्मों के कारण मिले श्रापों को याद किया।
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महर्षि वाल्मीकि ने इसका ब्योरा नहीं दिया है कि युद्ध कितने दिनों तक चलता रहा, न ही उन्होंने ऐसी
खगोलीय स्थितियों के बारे में बताया है, जिनसे इसका पता लगाया जाए। फिर भी घटनाओं के क्रम से यह
स्पष्ट होता है कि 12 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. को सुवेल पर्वत से देखी गई पूर्णिमा की चाँदनी रात के बाद
एक तरफ श्रीराम की सेना तथा दूसरी ओर रावण की सेना के बीच यह युद्ध छह सप्ताह से अधिक समय
तक चला। इस पूर्णिमावाले दिन पौष के महीने का अंत तथा माघ मास का प्रारंभ हुआ था।
लंका नगर में पुनः प्रवेश कर श्रीराम के बाणों से आहत रावण का अभिमान चूर-चूर हो चुका था।
रावण अपने सोने के सिंहासन पर बैठकर अपने सेनापतियों से परामर्श करने लगा। कुछ समय विचार-
विमर्श करने के बाद रावण में फिर से साहस आया, उसने अपनी सेना से लंका के द्वारों की सुरक्षा
सुनिश्चित करने के लिए तथा वहाँ अडिग रहने के लिए कहा। उसने अपने भाई कुंभकर्ण को जगाने का
आदेश दिया। कुंभकर्ण लगातार कई महीने तक सोता था तथा जागने के बाद कई मन भोजन करता था।
उसका आकार बहुत बड़ा था तथा उसमें अद्भुत शक्ति थी। उसकी एक झलक देखकर ही युद्धस्थल से
शत्रु सैनिक भाग खड़े होते थे। राक्षस इस आदेश को सुनकर अचंभित थे, क्योंकि कुंभकर्ण मात्र नौ दिन
पहले ही सोया था। उन्होंने कुंभकर्ण को इतनी जल्दी कभी भी जागते हुए नहीं देखा था। उस समय रावण
ने कहा, “यदि कुंभकर्ण अपनी निद्रा से जागकर युद्धभूमि में जाता है तो दुश्मन अवश्य पराजित होगा।”
राक्षसों ने विशालकाय कुंभकर्ण को जगाने के लिए अनेक प्रयत्न किए। उन्होंने शंख, भेरी, ढोल
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 337

तथा नगाड़े बजाए। उसके शरीर को हिलाने तथा ढकेलेने की हजार कोशिशें करते हुए वे सब परेशान
हो गए। अंत में राक्षसों ने उसके दोनों कानों पर पानी डाल दिया तथा भयानक कोलाहल किया। अंत में
कुंभकर्ण की आँखें धीरे-धीरे खुलीं और उसने अपने सामने प्रचुर मात्रा में रखे भोजन को खाना प्रारंभ
किया। कुंभकर्ण ने उसे जगाए जाने का कारण पूछा, तब रावण के मंत्री यूपाक्ष ने कहा, “मेरे स्वामी! हम
युद्ध में हार गए हैं और लंका पर घोर संकट आया है। शायद आपको सीता के संदर्भ में चल रही लड़ाई
के बारे में पता होगा। राम और लक्ष्मण के नेतृत्व में वानर सेना समुद्र पर सेतु बनाकर लंका पहुँच चुकी
है। उन्होंने हमारे अनेक सैनिक योद्धाओं काे मार दिया है, जो इससे पहले कभी हारना जानते ही नहीं थे।
उन्होंने हमारे सेनापति प्रहस्त का भी वध कर दिया है। उन शक्तिशाली वानर योद्धाओं ने संपूर्ण लंका नगरी
को घेर लिया है। रावण स्वयं भी युद्ध में गए थे, लेकिन वे भी परास्त होकर युद्ध से वापस आ गए, इससे
बुरी बात और क्या हो सकती है?”
यह सुनकर कुंभकर्ण क्रोध से आग-बबूला हो गया और शत्रु का विनाश करने के लिए, वानर सैनिकों
का वध करने के लिए तथा श्रीराम और लक्ष्मण का खून पीने के लिए उसने युद्ध के लिए तत्काल जाना
चाहा। उस समय महोदर ने सुझाव दिया कि पहले महाराज रावण से अवश्य मिल लें। एक बार फिर नाना
प्रकार के भोजन खाकर तथा मदिरापान कर कुंभकर्ण रावण से मिलने उसके भवन में गया और बिना किसी
शर्त के अपना पूर्ण सहयोग देने की बात कही। रावण ने कहा, “तुम पूर्ण रूप से सोए हुए थे। राम मेरे लिए
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वास्तविक खतरा बन गया है। उसने समुद्र के आर-पार सेतु बनाया है, जिस कार्य को हम असंभव मान
रहे थे। अब वानर सेना ने लंका को बुरी तरह से घेर लिया है। हमारे जिन दानव योद्धाओं ने वानर सैनिकों
से मुकाबला करना चाहा और उनसे युद्ध करने गए, उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा और उनका वध
कर दिया गया। अब केवल तुम ही हमें तथा अपनी लंका को विनाश से बचा सकते हो। मैं यह जानता
हूँ कि तुम ऐसा कर सकते हो। तुरंत जाओ और इन दुश्मनों का सर्वनाश कर दो।” (देखें लघुचित्र-10)
कुंभकर्ण को सर्वप्रथम दुश्मनों पर क्रोध आया, लेकिन फिर शीघ्र ही संपूर्ण घटनाक्रम याद आ गया।
वह बोला, “मेरे प्यारे भाई, मुझे क्षमा करना, आप अपनी गलती तथा पाप का फल भुगत रहे हैं। लालच
तथा काम-वासना से ग्रसित हो आपने सीता का अपहरण किया। यदि आप में विश्वास तथा पराक्रम होता
तो पहले आप राम और लक्ष्मण का वध करते और फिर सीता का हाथ थामते। जब कोई राजा बुद्धिमान
तथा विश्वसनीय व्यक्ति के परामर्श के विपरीत कोई कार्य करता है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह
उस कार्य में सफल नहीं हो पाता और उसका विनाश हो जाता है।” रावण को कुंभकर्ण का यह धिक्कार
भरा उपदेश पसंद नहीं आया। उसने कहा कि ‘‘जो कुछ होना था, वह तो हो गया। अब मैं सब तुम्हारे
सहयोग तथा शक्ति पर निर्भर हूँ और तुम्हारा धर्म है कि मेरा साथ दो।’’ रावण के इस अनुरोध से कुंभकर्ण
का हृदय पिघल गया। उसने यह कहते हुए रावण को आश्वस्त किया—“मैं आपका भाई हूँ और आपके
आदेशों की अवहेलना कभी नहीं करूँगा। निश्चिंत रहें, मेरे पराक्रम पर विश्वास करें और यह मानकर
338 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रावण के साथ युद्ध रणनीति की चर्चा करते हुए कुंभकर्ण

लघुचित्र-10 ः काँगड़ा पहाड़ी शैली, प्रारंभिक 19वीं सदी, अधिप्राप्ति संख्या 60.1727, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय

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चलें कि राम और लक्ष्मण का वध हो गया है। मैं उनकी वानरी सेना को कुचल दूँगा, उन सभी योद्धाओं
को तितर-बितर कर दूँगा तथा उनका भक्षण कर लूँगा। मैं राम के सिर को काटकर आपके चरणों में
रख दूँगा तथा आप देखेंगे कि वानर यूथपतियों का रक्त युद्धभूमि में बह रहा होगा। राम मेरे मृत शरीर पर
चढ़कर ही आप तक पहुँचने का साहस कर पाएगा।”
लंबे तथा शक्तिशाली अंगोंवाला विशालकाय राक्षस कुंभकर्ण आभूषणों से सज्जित होकर, हाथों में
फरसा लेकर विशाल सेना के साथ आगे बढ़ा। फूलों तथा शुभकामनाओं से आच्छादित होकर रावण
से आदेश तथा आशीर्वाद प्राप्त कर, कुंभकर्ण जल्द ही युद्धभूमि तक पहुँच गया। उसने हजारों वानर
सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, जबकि कई वानर सैनिक भयभीत होकर भाग खड़े हुए। अंगद के
द्वारा आश्वासन देने के बाद वानर यूथपतियों में कुछ साहस आया। उन्होंने कुंभकर्ण की ओर चट्टानों
तथा पेड़ों से प्रहार किया, लेकिन उनका उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा वह अपने चेहरे पर
मुसकुराहट लाते हुए बड़ी आसानी से वानर सैनिकों का क्रूरतापूर्वक वध करता रहा, जो अब तक
का सबसे भयावह दृश्य था। द्विविदा, हनुमान, नील, ऋषभ, मैंडा तथा अन्य सेना प्रमुखों ने कुंभकर्ण
पर चारों ओर से आक्रमण किया, लेकिन किसी का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा उसने
वानर सैनिकों को कुचलना जारी रखा। अंगद को भी उसके आक्रमण का सामना करना पड़ा और वह
अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ा। सुग्रीव को भी चोट पहुँची। किष्किंधा के अचेत राजा सुग्रीव को
एक खिलौने की भाँति उठाकर कुंभकर्ण लंका की ओर बढ़ा, ताकि वानरों के राजा को बंदी बनाकर
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 339

अपने भाई तथा लंकापति रावण को भेंट कर सके, लेकिन रास्ते में सुग्रीव होश में आ गए। क्रोध में
आकर सुग्रीव ने नाखूनों से कुंभकर्ण का कान फाड़ दिया तथा उसकी नाक को अपने तेज दाँतों से
काट लिया। कुंभकर्ण ने सुग्रीव को पैर से कुचलने के इरादे से नीचे फेंक दिया लेकिन सुग्रीव ने जोर
से छलाँग लगाई और श्रीराम के पास पहुँचने में सफलता प्राप्त कर ली।
कटे नाक और कानों के साथ डरावना और बीभत्स रूप लिए कुंभकर्ण संध्या के लाल मेघ
की तरह रक्तरंजित तथा क्रोध से लाल होकर हाथ में लोहे का बड़ा फरसा लेकर युद्धभूमि की ओर
वापस लौटा। उस समय कोई भी योद्धा कुपित कुंभकर्ण को रोक नहीं पाया। उसने वानर सैनिकों का
अंधाधुंध वध करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार वानर सेना समाप्त होने लगी। वानर सैनिकों ने उसके
पर्वत स्वरूप भारी भरकम शरीर पर चढ़कर अपने नाखूनों और दाँतों से चीरकर उसे रोकना चाहा,
लेकिन उसने अनायास ही उन्हें मक्खी की तरह उठाकर दूर फेंक दिया। वानर सेना ने उसके ऊपर
चट्टाने भी फेंकीं, लेकिन इससे कुंभकर्ण के विशाल और शक्तिशाली शरीर पर कोई चोट नहीं आई।
कोई भी वानर सेनापति एवं यूथपति उसके सामने टिककर मुकाबला न कर सका। लक्ष्मण ने अपने
बाण से उसे अपने पास आने से रोकना चाहा, लेकिन शक्तिशाली दानव उसे नकारते हुए श्रीराम के
पास पहुँच गया। लंबे समय तक श्रीराम उस विशाल दानव की ओर शक्तिशाली बाण का लक्ष्य साधते
रहे। फिर श्रीराम ने तेज और प्रचंड बाण छोड़कर कुंभकर्ण की बाँहों और पैरों को घायल कर दिया,
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लेकिन इससे भी वह नहीं रुका। श्रीराम ने उसके पैरों को काट गिराया, लेकिन बिना पैरों के भी वह
दानवी अंदाज में आगे बढ़ता जा रहा था। अंत में श्रीराम ने अपने सूर्य की किरणों के समान उद्दीप्त
तथा ब्रह्म‍ाजी के त्रिशूल के समान देदीप्यमान एक शक्तिशाली बाण से कुंभकर्ण का सिर काट दिया।
श्रीराम के बाण के प्रभाव से कुंभकर्ण का कुंडलों से अलंकृत विशाल मस्तक उसके धड़ से अलग हो
गया और आकाश में ऊपर की ओर उठकर लंका के द्वार पर जा गिरा। वानर सैनिक अत्यंत प्रसन्न
हुए और उस समय उनके आनंदित चेहरे पूर्ण रूप से खिले कमल के समान दिखाई दे रहे थे। श्रीराम
ने भी प्रसन्नता और शांति का अनुभव किया।
युद्धभूमि से जीवित बचकर कुछ राक्षस सैनिक वहाँ से भाग निकले। उन्होंने रावण को कुंभकर्ण
के वध का समाचार सुनाया। दानव सेना ने पूरी कहानी यह कहते हुए सुनाई कि “वानर सेना को
तितर-बितर कर तथा बहुत से वानर योद्धाओं का भक्षण करने के बाद महापराक्रमी कुंभकर्ण रघुवंशी
श्रीराम के तेज बाणों के प्रहार से मारा गया। उसका धड़ समुद्र में जा गिरा तथा रक्तरंजित मस्तक लंका
के द्वार पर पड़ा है।” अपने पराक्रमी एवं शक्तिशाली भाई कुंभकर्ण का राम के हाथों वध के बारे में
सुनकर शोक से रावण अचेत हो जमीन पर गिर पड़ा। चेतना आने के बाद वह दुःख और क्रोध से
विलाप करने लगा। अपने चाचा की मृत्यु का समाचार पाकर रावण के पुत्र देवांतक, नरांतक और
अतिकाय भी शोक में डूब गए और फूट-फूटकर रोने लगे। असहनीय पीड़ा, वेदना तथा मानसिक संताप
340 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

से गुजर रहे रावण ने विलाप करते हुए कहा, “मेरा कोई भी उद्देश्य अब लंका या सीता के द्वारा पूरा
नहीं किया जा सकेगा। कुंभकर्ण को खोकर मैं भी जीवित नहीं रहना चाहता। प्रहस्त तथा कुंभकर्ण को
खोकर मैं धर्मात्मा विभीषण को निष्काषित करने पर पछता रहा हूँ।”
अपने पिता को शोक में डूबा देखकर देवांतक, नरांतक और अतिकाय उसे सांत्वना देने आए।
उन्होंने रावण से कहा कि आप संसार में सबसे पराक्रमी योद्धा हैं, आपको साधारण मनुष्य की तरह
विलाप नहीं करना चाहिए। हम युद्धभूमि में जाएँगे और अवश्य विजयी होकर लौटेंगे। रावण के दो
सौतेले भाई महोदर और महापार्श्व (6/68/8) ने भी रावण के तीन पुत्रों की रक्षा हेतु युद्धभूमि में जाने
का निर्णय लिया। इसके पश्चात् महोदर हाथी पर तथा महान् धनुर्धर अतिकाय रथ पर सवार हुआ।
उसने अपने सुंदर रथ को धनुष तथा बाणों, खड्ग तथा परिघों से भर लिया। नरांतक अपने विशाल
भाले को साथ लेकर एक वेगवान अश्व पर सवार होकर युद्धभूमि में गया; देवांतक ने लोहे की भारी
गदा को साथ लिया, जबकि महापार्श्व हाथ में गदा लेकर आगे बढ़ा। वे शीघ्र ही युद्धभूमि में पहुँच गए
तथा सभी ओर से वानर सैनिकों पर आक्रमण करने लगे।
वानर सैनिक भी पेड़ों, पत्थरों और चट्टानों से राक्षसों पर आक्रमण करने लगे। वानर सैनिकों
के सभी प्रहार दानवों के तेज बाणों के प्रहार से निष्फल हो रहे थे। दोनों ओर के हजारों सैनिक मारे
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गए। नरांतक ने अकेले ही अपने भाले से सात हजार से अधिक वानर योद्धाओं को मौत के घाट उतार
दिया। युवराज अंगद नरांतक का सामना कर रहे थे। अंगद ने नरांतक के सीने पर प्रहार किया, जिससे
वह खून की उल्टी करते हुए जमीन पर गिर गया और उसका अंत वहीं हो गया। नील ने चट्टान से
महोदर पर प्रहार किया तथा उसका काम तमाम कर दिया। हनुमान देवांतक से लड़ रहे थे। उन्होंने
उसका वध कर दिया। रावण के छोटे भाई महापार्श्व ने वानर सेना के सेनापति ऋषभ पर अपनी गदा
से प्रहार किया। प्रत्युत्तर में ऋषभ ने पास पहुँचकर मुक्का ताना तथा महापार्श्व के सीने में जोर से प्रहार
किया। ऋषभ ने उसकी भयंकर गदा को छीन लिया और महापार्श्व के मुँह और दाँतों को तोड़ डाला
और उसके मुुँह से रक्त बहने लगा। वह अपनी ही गदा से चोट खाकर घराशायी हो गया।
अपनी सेना को खतरे एवं अपने चाचा तथा भाइयों के वध को देखकर अतिकाय क्रोध से आग-
बबूला हो गया। अतिकाय रावण का पराक्रमी पुत्र था, जिसका जन्म रावण की दूसरी पत्नी धान्यमालिनी
की कोख से हुआ था। अतिकाय का शारीरिक गठन और पराक्रम कुंभकर्ण के जैसे ही थे। एक विशाल
रथ, जिसे चार सारथियों की मदद से नियंत्रित किया जा रहा था तथा जिसके अंदर बीस विशाल धनुष,
अनेक तीक्ष्ण तीर और दो शक्तिशाली तलवारें रखी हुई थीं, पर सवार होकर अतिकाय मेघ की तरह
गरजते हुए युद्धभूमि की ओर बढ़ा। वानर सेना के बीच में आकर अतिकाय ने लोहे की तेज धारवाले
हजारों बाणों से वानर सैनिकों पर आक्रमण किया तथा उन सभी वानर सेनापतियों को भी घायल कर
दिया, जो युद्धभूमि में उसके सामने खड़े थे। इसके बाद वह श्रीराम की ओर बढ़ा तथा उसने उनका
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 341

वध करना चाहा, लेकिन लक्ष्मण ने बीच में हस्तक्षेप किया तथा उसे युद्ध की चुनौती दी। अतिकाय
क्रोधित होते हुए बोला, “मेरी शक्ति यमराज की शक्ति के बराबर है, मेरे बाण की शक्ति को हिमालय
पर्वत भी सहन नहीं कर सकता।” इसके पश्चात् अतिकाय ने एक शक्तिशाली बाण छोड़ा, वह लक्ष्मण
के सीने में चुभ गया और रक्त बहने लगा। लक्ष्मण ने उस बाण को अपने सीने से निकाला तथा अग्नि
देवता को याद कर अतिकाय की ओर एक बाण छोड़ा, लेकिन अतिकाय ने सूर्य देवता को याद कर
उनसे प्राप्त किए बाण के माध्यम से उसे प्रभावहीन कर दिया। इसके बाद अतिकाय ने विषैले सर्प की
तरह दिखनेवाला एक बाण छोड़ा, जिसके प्रभाव से लक्ष्मण कुछ समय के लिए मूर्च्छित हो गए। उस
समय लक्ष्मण को एक भविष्यवाणी सुनाई दी, जिसमें कहा गया था कि अतिकाय को केवल ब्रह्म‍ास्त्र
के प्रयोग से ही मारा जा सकता है। लक्ष्मण ने ब्रह्म‍ास्त्र छोड़ा, अतिकाय ने उसकी दिशा बदलने के
लिए हरसंभव प्रयास किया और हर प्रकार के बाण छोड़े, लेकिन ऐसा करने में वह असफल रहा।
परिणामस्वरूप ब्रह्म‍ास्त्र से अतिकाय का सिर कट कर मुकुट के साथ जमीन पर आ गिरा। जीत की
खुशी में वानर सेना नृत्य करने लगी। उन्होंने लक्ष्मण के पराक्रम की बहुत सराहना की।

6. इंद्रजीत के ब्रह्म‍ास्त्र प्रहार के बाद पुनः चेतना में आए लक्ष्मण द्वारा इंद्रजीत का वध
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अपने तीनों पुत्रों, विशेषकर पराक्रमी पुत्र अतिकाय के वध का समाचार पाकर रावण अत्यंत
चिंतित और व्याकुल था। उसने लंका नगर की सुरक्षा का निरीक्षण किया और प्रहरियों को चेतावनी
दी कि राम और उनकी वानर सेना लंका में प्रवेश नहीं कर पाए। लंका को सभी ओर से, विशेषकर
अशोक वाटिका की रक्षा को सुनिश्चित करने के लिए उसने राक्षसों को आदेश दिया। इसके पश्चात्
रावण उदास और हतप्रभ स्थिति में अपने भवन में वापस आया। उस समय उसके महापराक्रमी पुत्र
इंद्रजीत ने उसे सांत्वना देने का प्रयास किया कि वह युद्धभूमि में जाएगा। अपने पराक्रमी पिता से यह
भी कहा कि वे इंद्रजीत के हाथों श्रीराम और लक्ष्मण का वध हुआ ही समझें। उसने सेना को संगठित
किया और पारंपरिक नियमानुसार अग्नि देवता की पूजा की। अपने पराक्रमी प्रिय पुत्र को विशाल सेना
के साथ युद्धभूमि में जाते देखकर रावण ने इंद्रजीत से कहा, “इस पृथ्वी पर तुमसे अधिक शक्तिशाली
योद्धा कोई नहीं है, तुम इंद्र देवता को भी जीत चुके हो, तुम राम और लक्ष्मण जैसे तुच्छ प्राणियों का
वध करने में अवश्य सफलता प्राप्त करोगे।”
क्रोध से आग-बबूला होकर इंद्रजीत वानर सेना पर टूट पड़ा, उसने कई हजार वानर यूथपतियों
का नाश कर दिया तथा अनेक को घायल कर दिया। अपने मायावी कौशल का उपयोग करते हुए वह
आगे बढ़ा तथा स्वयं को अदृश्य कर लिया। उस स्थिति में उसने धनुष, भाले और गदा जैसे जादुई
हथियारों का उपयोग भी किया। इन अस्त्रों-शस्त्रों से उसने हजारों वानर सैनिकों को मार डाला। वानर
सेना को वह दिखाई तो नहीं दे रहा था, लेकिन बाणों के प्रहार की दिशा में ही वे भी चट्टानें और
342 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वृक्ष फेंकने लगे। तभी पराक्रमी इंद्रजीत ने एक बार में ही सात बाण छोड़े, जिनके प्रभाव से नल और
नील, जांबवान और मैंडा, सुग्रीव और अंगद तथा सुषेण गंभीर रूप से घायल हो गए। वास्तव में, सभी
वानर योद्धाओं को इंद्रजीत ने घायल कर दिया था। फिर शूरवीर इंद्रजीत ने श्रीराम और लक्ष्मण पर
बाण बरसाना प्रारंभ कर दिया। इंद्रजीत के हाथों से छोड़े गए ब्रह्म‍ास्त्र श्रीराम और लक्ष्मण के ऊपर
भी प्रभावी रहे। वे दोनों अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। प्रसन्नचित्त इंद्रजीत ने अपने दुःखी पिता के
पास पहुँचकर उन्हें यह समाचार सुनाया।
वानर सेनापतियों को बड़ी संख्या में अचेत अवस्था में देखकर तथा कुछ को गंभीर रूप से घायल
तथा उनमें से कइयों को हतोत्साहित देखकर विभीषण ने वानर सेना के सेनापतियों की सभा बुलाई और
उनके बीच आशा एवं साहस भरने का प्रयास किया। विभीषण ने उनसे कहा कि ब्रह्म‍ास्त्र के प्रभाव
से श्रीराम व लक्ष्मण केवल अचेत हुए हैं। इसके पश्चात् हनुमान और विभीषण ने संपूर्ण युद्धस्थल
का दौरा किया। उन्होंने जांबवान को गंभीर रूप से घायल अवस्था में पड़ा देखा। उस समय जांबवान
हनुमान के पास आए और उनसे कहा कि केवल तुम ही श्रीराम, लक्ष्मण तथा हजारों वानर योद्धाओं
के जीवन की रक्षा करने में समर्थ हो। फिर उन्होंने हनुमान की तरफ देखा और कहा, “उत्तर दिशा
की ओर समुद्र के उस पार हिमालय पर्वत श्रेणी पर तुरंत जाओ। ऋषभ और कैलाश पर्वत शिखर
के बीच औषधियों और जड़ी-बूटियों से आच्छादित एक पर्वत है। उस पर्वत शिखर पर चिकित्सा के
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लिए उपयुक्त चार औषधियाँ हैं, जिनके नाम मृतसंजीवनी (चेतनावस्था में वापस लाने हेतु औषधि),
विशल्यकरणी (जहरीले बाण के घाव को भरने के लिए औषधि), सवर्णकरणी (त्वचा के मूल रंग को
वापस लाने हेतु औषधि) और संधानी (टूटी हड्ड‍ियों को फिर से जोड़ने हेतु औषधि) हैं। यदि तुम इन
औषधियों को शीघ्र ले आओ तो श्रीराम, लक्ष्मण तथा वानर सेना के ये महान् योद्धा फिर से चेतनावस्था
में वापस जौट आएँगे। उनके जख्म भर जाएँगे तथा वे फिर से युद्धस्थल में जा सकेंगे। तुम तत्काल
समय व्यर्थ किए बिना ऐसा करो। यह कार्य केवल तुम ही कर सकते हो।” (वा.रा.6/74/32-34)
हनुमान ने शीघ्र ही त्रिकूट पर्वत से छलाँग लगाई और मलयपर्वत की चोटियों पर जा पहुँच।े फिर
बड़े वेग से छलाँग लगाते हुए उन्होंने विंध्य पर्वत की चोटियों को छू लिया। एक पर्वत शिखर से दूसरे
पर्वत तक छलाँगें लगाते हुए; इस प्रकार बहुत लंबी दूरी तय करने के पश्चात् अंततः हनुमान उस पर्वत
चोटी पर पहुँच गए, जिसका वर्णन जांबवान ने किया था। उस स्थान पर हनुमान ने कई तपस्वियों की
कुटिया देखीं और पर्वत श्रेणी को अनेक प्रकार की औषधियों से आच्छादित पाया। वे जांबवान के द्वारा
बताई गई आवश्यक चार जड़ी-बूटियों की पहचान करने में असमर्थ थे। अतः उन्होंने पर्वत की चोटी
का ऊपरी हिस्सा ही उखाड़ लिया या फिर ये कहें कि उन्होंने औषधियों के एक बड़े ढेर को उठा लिया
और उसे लंका के त्रिकूट पर्वत पर लेकर आ गए। उन दिव्य औषधियों की अनूठी सुगंध से श्रीराम और
लक्ष्मण होश में आ गए और उठकर बैठ गए। इनकी सुगंध से वानर सेना के कई अन्य योद्धा भी होश
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 343

में आ गए। फिर इन जड़ी-बूटियों का उपयोग कर उन सबके घावों को भरने तथा टूटी हड्ड‍ियों को जोड़ने
का प्रयास किया गया। इस प्रकार उनके जख्म भर गए। उन्हें शक्ति मिलने लगी और वे खड़े हो गए।
श्रीराम से सलाह लेकर सुग्रीव ने कुछ पराक्रमी वानर योद्धाओं को लंका में प्रवेश कर वहाँ आग लगाने
का आदेश दिया। सूर्यास्त होने के बाद उन्होंने मशालें लेकर नगर में प्रवेश किया और लंका के भवनों और
बुर्जों में आग लगा दी। हजारों भवन जलकर भस्म हो गए। सुदं र तथा समृद्ध लंका नगरी जले हुए खँडहरों में
परिवर्तित हो गई। जब रावण ने यह देखा कि वानर सैनिकों ने लंका में आग लगा दी है तो वह अत्यंत क्रोधित
हो उठा। उसने कुभं कर्ण के पुत्र कुभं और निकुभं को युद्धभूमि में भेजा। रावण ने उनके साथ अनेक अन्य
राक्षस योद्धाओं को भी भेजा, जिनमें शामिल थे—यूपाक्ष, मकराक्ष तथा प्रजंघ। वे सभी हाथों में चमकीले
अस्त्र-शस्त्र लेकर वानर योद्धाओं से युद्ध करने के लिए निकल पड़े। एक बार फिर भयानक युद्ध हुआ,
जिसमें सुग्रीव ने कुभं का, हनुमान ने निकुभं का और मैंडा ने यूपाक्ष का वध कर दिया। खर का पुत्र मकराक्ष,
जो युद्ध भूमि में श्रीराम का सामना कर रहा था, उसने श्रीराम के साथ घमासान युद्ध किया। दोनों ने एक-दूसरे
के सैंकड़ों अस्त्रों को काट डाला। फिर श्रीराम ने मकराक्ष के धनुष को काट गिराया। उसने एक दीप्तिमान
शूल श्रीराम के ऊपर फेंका, जिसे उन्होंने रास्ते में ही खंडित कर दिया। फिर एक अाग्नेयास्त्र का संधान कर
श्रीराम ने मकराक्ष को धराशायी कर दिया। अन्य कई शक्तिशाली दानव भी मारे गए।

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इसके पश्चात् रावण की आज्ञा लेकर इंद्रजीत फिर से युद्धभूमि में आ गया। अपने हवाई वाहन से
अभेद्य बाणों की वर्षा करते हुए, श्रीराम की सेना में भगदड़ का माहौल उत्पन्न कर इंद्रजीत अदृश्य हो
गया। उसने अनेक वानर योद्धाओं को मार गिराया तथा श्रीराम व लक्ष्मण को भी कई घाव पहुँचाए।
इसके पश्चात् श्रीराम ने लक्ष्मण को कहा कि उन्हें भी अभेद्य तथा दिव्य अस्त्र-शस्त्र छोड़ने होंगे।
श्रीराम के मुख से निकले उन शब्दों को सुनकर इंद्रजीत ने युद्धक्षेत्र से स्वयं को अलग करते हुए नगर
में पुनः प्रवेश कर लिया। अपने मायावी कौशल का उपयोग करते हुए उसने मायानिर्मित जादुई सीता
को अपने रथ पर बिठाया। उसका इरादा दोनों राजकुमारों और वानर सैनिकों के समक्ष सीता के वध
को दिखाना था। श्रीराम की सेना का नेतृत्व हनुमान कर रहे थे। हनुमान का ध्यान मायानिर्मित सीता के
कमजोर रूप की ओर गया। इस दृश्य को देखकर वे अचंभित हो गए। उस जादुई सीता को असली
सीता समझकर हनुमान अन्य वानर सैनिकों की ओर दौड़कर गए। इसके पश्चात् इंद्रजीत ने उस जादुई
सीता पर प्रहार किया तथा वहाँ से ‘हे राम, हे राम’ की आवाज सुनाई दी। हनुमान ने इंद्रजीत को इस
पापकार्य के लिए बहुत फटकार लगाई। इस घिनौने कार्य को देखकर और छल में फँसकर वानर
सैनिकों ने स्वयं से कहा कि अब इस युद्ध को जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। अपने आपको
युद्ध का विजेता महसूस कर इंद्रजीत प्रसन्नतापूर्वक जोर से गरजा तथा वानर सेना ने अपना धैर्य तथा
साहस खो दिया। इस कपटपूर्ण चाल से इंद्रजीत ने वानर सेना को हतोत्साहित कर दिया तथा स्वयं देवी
निकुंभिला को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करने का समय भी प्राप्त कर लिया।
344 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

हनुमान के साथ अन्य वानर सैनिक युद्धस्थल को छोड़कर भाव-विह्व‍ल एवं हृदय-विदीर्ण करने
वाले समाचार के साथ श्रीराम के पास गए। उस समय हनुमान ने श्रीराम से कहा, “जिस समय हम
लोग इंद्रजीत से युद्ध कर रहे थे, उसी समय उसने रथ में सीताजी का वध कर दिया। वे ‘श्रीराम,
श्रीराम’ कहते हुए युद्धस्थल में रो भी रही थीं। अन्य वानर सैनिकों की तरह श्रीराम और लक्ष्मण ने
भी यह विश्वास कर लिया कि सीता की मृत्यु हो चुकी है, वे सभी विलाप करने लगे। उस असहनीय
शोक से श्रीराम अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े, लेकिन लक्ष्मण ने उस समय शपथ ली कि वे रावण
और इंद्रजीत समेत पूरी लंका का सर्वनाश कर देंगे। श्रीराम की सेना पूरी तरह से घबरा गई थी और
अत्यंत उदास थी। उसी समय वहाँ विभीषण आए, उन्होंने पूरी स्थिति की जानकारी ली। उनकी बात
सुनकर वे बोले, “आप सभी को धोखा दिया गया है। रावण सीता का वध करने की अनुमति कभी
नहीं दे सकता। यह इंद्रजीत के द्वारा किया गया केवल जादुई कौशल था। इंद्रजीत, जिसे मेघनाद के
नाम से भी जाना जाता है, ने आपको मायावी कौशल से हराना चाहा था। सामान्य साधनों से विजय
पाने की अपनी पूरी कोशिश को असफल होते हुए देखकर उसने जादू का सहारा लिया और आपके
सामने मायानिर्मित सीताजी का वध कर दिया। इसके बाद वह देवी निकुंभिला के मंदिर में यज्ञ करने
चला गया, ताकि उसे युद्ध में अपराजेय का वरदान प्राप्त हो सके। यज्ञ का अनुष्ठान संपन्न हो जाने
के बाद इंद्रजीत अपराजेय हो जाएगा और उसे कोई पराजित नहीं कर सकेगा। इस समय यही उचित
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होगा कि आप वहाँ जाकर उसके यज्ञ में व्यवधान डालें। लक्ष्मण को तत्काल जाकर इंद्रजीत को यह
अनुष्ठान करने से रोकना चाहिए, क्योंकि उसके द्वारा यज्ञ कार्य संपन्न कर लेने की स्थिति में युद्ध में
उसे हराना असंभव हो जाएगा।”
विभीषण का सुझाव मानते हुए श्रीराम ने लक्ष्मण, विभीषण, हनुमान, कई अन्य वानर सेनापतियों,
यूथपतियों और सैनिकों को बुलाकर निकुंभिला के मंदिर भेजा, जहाँ इंद्रजीत यज्ञ कार्य में संलग्न था।
श्रीराम ने कहा कि इंद्रजीत को उसका अनुष्ठान पूर्ण करने से रोककर वहीं उसका वध कर दिया जाए।
लंबी दूरी तय कर वे सब निकुंभिला के मंदिर पहुँचे। तभी विभीषण ने सुझाव दिया कि वानर योद्धा शीघ्र
ही युद्ध छेड़ दें। निकुंभिला की रक्षा में तैनात राक्षस सैनिकों के वध के पश्चात् ही इंद्रजीत तक पहुँचा
जा सकेगा। तत्पश्चात् निकुंभिला मंदिर की सुरक्षा में तैनात रावण के वीर राक्षसों के साथ वानर योद्धा
युद्ध में उलझ गए और दोनों ओर के हजारों सैनिक मारे गए। हनुमान ने चट्टानों, पेड़ों तथा वृक्षों की
शाखाओं से राक्षसों पर प्रहार किया और हजारों राक्षसी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। राक्षस
सेना के हनुमान द्वारा किए जा रहे अनवरत विनाश को देखते हुए इंद्रजीत स्वयं हनुमान का वध करने
की इच्छा से रथ पर सवार हुआ। उस समय इंद्रजीत का ध्यान विभीषण की ओर गया, जिसे उसने
लक्ष्मण को कुछ इशारा करते हुए तथा उस कार्य को पूरा करने के लिए उत्साहित करते हुए देखा।
उस समय इंद्रजीत ने विभीषण को कुछ अपशब्द कहे, “तुमने अपने सगे-संबंधियों और कुल के लोगों
को छोड़कर शत्रुओं के साथ मित्रता की है। तुम्हारा मस्तिष्क कुविचारों से भरा है, इसलिए ये अजनबी
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 345

एवं शत्रु लोग तुम्हारा नाश अवश्य करेंगे।” इंद्रजीत द्वारा इन कटु शब्दों से किए गए तिरस्कार भरे
कथनों का उत्तर देते हुए विभीषण ने कहा, “क्या तुम जानते हो कि रावण ने मुझे लंका से किस प्रकार
बेइज्जत करके निष्कासित किया, जब मैंने रावण द्वारा अपहृत श्रीराम की पत्नी को उन्हें वापस देने की
उचित सलाह दी थी। पराए धन का अपहरण, पराई स्‍त्री के साथ संसर्ग और अपने हितैषी सुहृदों पर
अविश्वास करना, ये तीन विनाशकारी दोष हैं और इनके कारण तुम और तुम्हारे पिता रावण शीघ्र ही
मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।”
विभीषण के इशारे पर लक्ष्मण ने इंद्रजीत को युद्ध के लिए ललकारा। इसके बाद दोनों के बीच
भयानक युद्ध हुआ, दोनों ओर से तीक्ष्ण बाणों का प्रहार हुआ, इसके पश्चात् तेजधारवाले पंखधारी बाणों
का प्रयोग किया गया। इंद्रजीत ने वेगशाली बाणों से लक्ष्मण को घायल कर दिया। फिर अत्यंत क्रोधित
होकर लक्ष्मण ने इंद्रजीत पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा कर दी। अंत में लक्ष्मण ने चार बाणों से इंद्रजीत के
रथ के चारों घोड़ों को मार दिया। तत्पश्चात् लक्ष्मण ने इंद्रजीत के सारथी का सिर काट गिराया। इसे
देखकर इंद्रजीत निराश हो गया तो वानर सैनिक आनंदित हो उठे। राक्षस सेना को युद्ध जारी रखने का
आदेश देते हुए इंद्रजीत लंका नगरी गया और शानदार रथ पर सवार होकर पुनः वापस आया। उस रथ
में अस्त्र और शस्त्र, धनुष-बाण बड़ी संख्या में रखे हए थे। दोनों योद्धाओं के बीच बाणों की बौछार
होने लगी। लक्ष्मण ने इंद्रजीत के बाणों को काटते हुए उसके सीने में पाँच बाण मारे, जो उसके सीने में
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अंदर तक चले गए। (वा.रा. 6/90) इंद्रजीत के मुँह से रक्त बहने लगा और वह जमीन पर धराशायी
हो गया। तत्पश्चात् होश में आकर उसने लक्ष्मण के ऊपर बाण चलाया। अपने चाचा विभीषण के
ऊपर भी उसने कई बाण छोड़े। विभीषण ने भी इंद्रजीत के सीने में बाणों से प्रहार किया। इंद्रजीत ने
मृत्यु देवता की अध्यक्षता वाले एक बाण को विभीषण की ओर छोड़ा, परंतु लक्ष्मण ने उस बाण की
दिशा परिवर्तित करके उसे प्रभावहीन कर दिया। दोनों ओर से भयानक युद्ध हो रहा था। दोनों योद्धा
एक-दूसरे के बाणों की काट ढूँढ़ते रहे। दोनों परेशान और उत्तेजित दिखाई दे रहे थे। इसके पश्चात्
लक्ष्मण ने इंद्र देवता के द्वारा दिए गए बाण को धनुष पर चढ़ाकर, श्रीराम को ध्यान में रखकर इंद्रजीत
की ओर छोड़ा। उस बाण से इंद्रजीत का सिर धड़ से अलग हो गया। इस प्रकार इंद्रजीत के जीवन का
अंत हो गया। मेघनाद एक ऐसा पराक्रमी योद्धा था कि लक्ष्मण, विभीषण तथा हनुमान को उसका वध
करने के लिए तीन दिन और तीन रात लगातार युद्ध करना पड़ा था। (वा.रा.6/91/15-16)
गौरवशाली विजय के लिए विभीषण, हनुमान और जांबवान ने हृदय से लक्ष्मण की प्रशंसा की।
वे सभी श्रीराम के पास गए। लक्ष्मण भी बुरी तरह से घायल थे, उनके शरीर से रक्त बह रहा था। वे
हनुमान और जांबवान की सहायता से धीरे-धीरे चल रहे थे। श्रीराम को इंद्रजीत के वध का समाचार
मिल चुका था। बुरी तरह से घायल लक्ष्मण विनम्रतापूर्वक पीछे खड़े थे, लेकिन श्रीराम ने उन्हें अपनी
गोद में बैठाया, उनके सिर को चूमा तथा अपनी खुशी जाहिर की। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “तुमने
346 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

एक अद्वितीय कार्य किया है, जो किसी और के लिए संभव नहीं था। तुमने रावण को उसके दाएँ हाथ
से वंचित कर दिया है। इस विश्व में तुम्हारे, विभीषण या हनुमान से बढ़कर कौन हो सकता है? अब
मुझे कोई चिंता नहीं है। तुमने इंद्रजीत को मौत के घाट उतार दिया है। मुझे महसूस हो रहा है कि अब
मुझे सीता मिल गई है।” तत्पश्चात् श्रीराम ने बुद्धिमान वानर यूथपति सुषेण से लक्ष्मण तथा विभीषण के
शरीर से बाण निकालकर उनके घावों का उपचार करने के लिए कहा। सुषेण ने तुरंत उनका इलाज किया।

7. कई दिनों तक चले युद्ध के पश्चात‍् श्रीराम ने रावण का वध किया


रावण के मंत्रियों ने इंद्रजीत की वीरगति के बारे में बताते हुए कहा, “आपका अति गौरवशाली
पुत्र इंद्रजीत लक्ष्मण के हाथों मारा गया, इस कार्य मेंे उसकी सहायता विभीषण ने की। अति पराक्रमी
योद्धा, जिसने देवेंद्र को भी जीत लिया था, युद्ध में लक्ष्मण के बाणों का शिकार हुआ।” जब रावण
को यह पता चला कि इंद्रजीत की हत्या में विभीषण ने भी लक्ष्मण का साथ दिया था, तो उसका शोक
तथा क्रोध और बढ़ गए। वह बेहोश-सा हो गया और उसकी आँखों में आँसू आ गए। रावण असहनीय
शोक में विलाप करने लगा, “युवराज पद को त्यागकर, लंका को सूना बनाकर तथा अपनी माता
मंदोदरी और मेरी गोद उजाड़कर तुम कहाँ चले गए?” इसके पश्चात् रावण क्रोध से भर गया, उसकी
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आँखें लाल हो गईं। उसने लंका नगरी की रक्षा के लिए राक्षसों को आदेश दिया तथा स्वयं सीता का
वध करने का निर्णय लिया। तलवार लेकर मंदोदरी और अपने मंत्रियों के साथ रावण अशोक वाटिका
में सीता के पास गया। इस डर से कि रावण का इरादा मेरा हत्या करना है, सीताजी का दिल फिर से
अपनी सास कौशल्या के दुःखों को यादकर शोक में डूब गया।
जब रावण सीता का वध करने के लिए उद्यत हो रहा था तो उस समय सुपार्श्व नाम का उसका मंत्री
इस आचरण से भयभीत हो गया। उसने रावण से प्रार्थना की कि आपको स्त्री का वध करने जैसा शर्मनाक
तथा पापपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए। फिर उसने रावण के क्रोध को श्रीराम की ओर मोड़ दिया। वह
दिवस कृष्ण पक्ष का चौदहवाँ दिन था, उसके एक दिन बाद अमावस्या थी। सुपार्श्व ने रावण को सलाह
दी कि वह उसी अमावस्या वाले दिन राम को युद्धभूमि में चुनौती दें। इन संदर्भों से यह निष्कर्ष निकाला
जा सकता ‌है कि इंद्रजीत का वध 23 नवंबर, 5076 वर्ष ई.पू. (प्लैनेटोरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार) तथा
2 जनवरी, 5075 वर्ष ई.पू. स्टेलेरियम के अनुसार) को, फाल्गुन मास की अमावस्या के एक दिन पहले
हुआ था (वा.रा.6/92/66)। रावण ने सुपार्श्व का सुझाव मान लिया और वह राजभवन वापस चला गया।
सभाकक्ष में प्रवेश कर राक्षसराज ने सभी को युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा, क्योंकि उसने स्वयं
युद्धस्थल में जाकर श्रीराम को मार डालने का निश्चय कर लिया था।
रावण के हृदय में शोक, शर्म तथा क्रोध समुद्र की भाँति उमड़ रहे थे। स्वयं युद्ध करने का निर्णय
लेकर उसे अपने पराक्रम तथा ब्रह्म‍ाजी द्वारा दिए गए वरदान पर पूर्ण विश्वास था। उसे अपने दिव्य रथ पर
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 347

भी विश्वास था, जिसमें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र भरे रहते थे। फाल्गुन की अमावस्या जो 24 नवंबर,
5076 वर्ष ई.पू. को थी, उस दिन रावण वीर राक्षसी योद्धाओं के साथ युद्धभूमि में गया। ये सभी योद्धा
रावण के आदेश पर अपने प्राण भी देने के लिए तत्पर रहते थे। वे धनुष, तलवार, कुल्हाड़ी और गदा
आदि हथियारों से सज्जित होकर युद्धभूमि पहुँचे। उन्होंने वानर सेना पर चौतरफा आक्रमण किया। घायल
तथा रक्तरंजित वानर सैनिकों ने वृक्ष, चट्टान तथा पत्थर फेंककर राक्षस सेना का प्रतिकार करने का हर
संभव प्रयत्न किया। दोनों ओर के अनेक सैनिकों ने अपनी जान गँवाई। इसके बाद श्रीराम ने बाणों की
वर्षा कर दी, जिसका राक्षस सेना पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा तथा उनमें से अनेक मृत्यु को प्राप्त हो गए।
श्रीराम के अचूक बाण ने रावण के रथ को तोड़ दिया, उसके घोड़ों को मार दिया और उसकी ध्वजा को
भी तोड़ दिया। अनेक राक्षसी सैनिकों का वध कर दिया और शेष सैनिक लंका की ओर भाग गए। लंका में
राक्षसियाँ व्याकुल थीं, क्योंकि उन्होंने अपने पिता, पति, पुत्रों और भाइयों को खोया था। उन्होंने शूर्पणखा
को अभिशाप दिया, जिसकी वजह से यह विनाश हुआ था। उन्होंने रावण की भी आलोचना की, क्योंकि
उसने विभीषण की बुद्धिमानी भरी सलाह को नहीं माना था। रावण तथा उसकी राक्षसी सेना एवं श्रीराम
और उनकी वानर सेना के बीच का यह भयंकर युद्ध कई दिनों तक चला।
रावण विरुपाक्ष तथा कई अन्य महापराक्रमी राक्षस योद्धाओं को साथ लेकर फिर युद्धभूमि में गया।
सुग्रीव ने पूरे जोश तथा उत्साह से राक्षसी सेना पर प्रहार किया तथा वह विरुपाक्ष का वध करने में सफल
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हुआ। तत्पश्चात् रावण और उसके राक्षसी सैनिकों ने वानर सैनिकों पर सभी ओर से आक्रमण कर दिया।
यह जानकर कि वानर सैनिकों का युद्ध में भारी नुकसान हो रहा है, श्रीराम ने भी अपना धनुष उठाया।
उनकी इच्छा थी कि पापी रावण को अपने बाणों का निशाना बनाएँ, लेकिन उस समय लक्ष्मण बीच में
आ गए। लक्ष्मण को छोड़कर रावण श्रीराम के विरुद्ध जा खड़ा हुआ। फिर क्रोधित मन और प्रतिशोध की
भावना से रावण ने श्रीराम के ऊपर बाणों की बौछार कर दी। श्रीराम ने आसानी से इन बाणों को विफल
कर दिया या काट डाला। तत्पश्चात् श्रीराम ने रावण पर अनेक तीर छोड़े, परंतु वे उसके कवच को भेदने
में असफल रहे। इस प्रकार ये दोनों महान धनुर्धर लड़ते रहे, दोनों एक-दूसरे का वध करने की आकांक्षा से
शक्तिशाली बाणों का उपयोग करते रहे, लेकिन कोई भी सफल नहीं हुआ। फिर श्रीराम ने अपने बाणों से
रावण के सारे अंगों को गहरी चोट पहुँचाई, परंतु फिर भी रावण नहीं मरा। दूसरी ओर रावण ने भी श्रीराम के
सीने पर कई तीक्ष्ण बाणों से प्रहार किया, लेकिन श्रीराम ने उन बाणों को बाहर निकाल दिया और युद्धभूमि
में डटे रहे। एक-दूसरे पर उनके द्वारा छोड़े गए दिव्य प्रक्षेपास्त्रों को भी दोनों ने निष्प्रभावी कर दिया।
इसके बाद लक्ष्मण और विभीषण ने एक साथ रावण पर आक्रमण किया। क्रोधित होकर उसकी
हत्या करने के दृढ़ संकल्प के साथ रावण ने विभीषण के ऊपर भाला फेंका, लेकिन तीन शक्तिशाली बाणों
से लक्ष्मण ने उस भाले के कई टुकड़े कर दिए। इसके बाद रावण ने विभीषण पर एक जलता हुआ भाला
फेंकने की कोशिश की, जिसे अचूक माना जाता था, परंतु लक्ष्मण ने रावण पर बाणों की वर्षा कर दी;
348 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

परिणामस्वरूप रावण उस भाले को विभीषण पर फेंक नहीं पाया। क्रोध से आग-बबूला होकर रावण ने
उस भाले को पूरी ताकत से लक्ष्मण की ओर फेंका। प्रचंड तेज गति से वह असाधारण भाला लक्ष्मण के
चौड़े सीने पर जा लगा। इसके प्रभाव से लक्ष्मण अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। श्रीराम ने लक्ष्मण के
शरीर से उस भाले को बाहर निकाला और हनुमान को लक्ष्मण की देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी। इसके
बाद श्रीराम ने प्रज्वलित लोहे के समान बाण रावण पर छोड़े, जिनको रावण निरंतर निष्प्रभावित करता जा
रहा था। उस समय श्रीराम रक्तरंजित लक्ष्मण को अचेत अवस्था में पड़े देखकर बहुत चिंतित हो गए। वे
निराश तथा हताश हो रहे थे और उन्हें अपने भाई की जान की कीमत पर रावण से लड़ने की कोई इच्छा
नहीं थी। उन्होंने उस समय सुषेण से भी आग्रह किया कि वे लक्ष्मण की देख-रेख करें।
जिस समय श्रीराम और रावण के बीच युद्ध चरम पर था, उस समय वाली की पत्नी तारा के पिता
तथा वानर योद्धा सुषेण ने एक बार फिर हनुमान को पर्वत से संजीवनी, विशल्यकरणी, सावर्ण्यकरणी
तथा संधानी नामक जड़ी-बूटियाँ लाने के लिए कहा। यह स्पष्ट है कि हनुमान द्वारा हिमालय पर्वत से लाई
गई इन जड़ी-बूटियों को कहीं निकट स्थान पर ही रखा गया था। हनुमानजी उन बूटियों को फिर से ले
आए, जिससे लक्ष्मण के प्राणों को बचाया जा सके तथा उनका उपचार भी किया जा सके। उन बूटियों को
कूटकर सुषेण ने नाक के द्वारा लक्ष्मण को सुँघाया। उसे सूँघकर लक्ष्मण जल्द ही उठ खड़े हुए। वे फिर
से स्वस्थ हो गए तथा युद्ध में अपना स्थान ले लिया, ताकि रावण के वध में श्रीराम की सहायता कर सकें।
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लक्ष्मण ने श्रीराम को उनकी शपथ का स्मरण कराया, जिसके अनुसार उन्होंने रावण का वध कर विभीषण
को लंका के राजा के रूप में स्थापित करने की प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने यह भी कहा कि सत्यवादी कभी
भी झूठी प्रतिज्ञा नहीं करते।
अपने छोटे भाई के परामर्श को सुनकर श्रीराम ने अपना शक्तिशाली धनुष उठाया तथा तीक्ष्ण
बाणों का संधान किया और रावण को लक्ष्य बनाकर छोड़ना शुरू किया। दशमुख रावण दिव्य रथ पर
बैठा था, जबकि श्रीराम पृथ्वी पर खड़े थे। उस समय इंद्र ने अपने सारथी मातलि को बुलाया और
उसे अपना रथ लेकर रघुवंशी श्रीराम के पास जाने का आदेश दिया। मातलि श्रीराम के कार्य के लिए
जल्द ही इंद्र के उत्तम रथ को युद्धभूमि में लेकर आ गए। श्रीराम ने देवताओं को नमन किया, उस
दिव्य रथ की परिक्रमा की तथा प्रणाम करके उसपर आरूढ़ हो गए। इसके पश्चात् दोनों योद्धाओं के
बीच भयंकर युद्ध प्रारंभ हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। रावण ने शक्तिशाली अस्त्रों से श्रीराम
पर प्रहार किया, परंतु अस्त्रों के ज्ञाता श्रीराम ने उन्हें प्रत्युत्तर में काटकर निष्क्रिय कर दिया। रावण ने
इंद्र के रथ की ध्वजा तोड़ दी तथा मातलि को बुरी तरह से घायल कर दिया। रावण के द्वारा चलाए
गए बाणों को श्रीराम ने कई बाण चलाकर निष्क्रिय किया। इसके बाद श्रीराम ने मातलि के द्वारा लाए
गए दिव्य भाले को राक्षसराज रावण पर फेंका, लेकिन रावण ने अपने बाण से उसे अपने तक पहुँचने
से पहले ही रोक दिया। युद्ध में रावण ने रघुवंशी श्रीराम से परेशान होकर तथा अत्यंत क्रोधित होकर
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 349

उन पर अनेक बाणों से एक साथ प्रहार किया, परंतु श्रीराम ने अपने बाणों के प्रहार से रावण के सभी
निशानों को निष्क्रिय कर दिया। फिर दुष्टात्मा रावण ने एक भयंकर शूल श्रीराम पर फेंका। श्रीराम ने
अनेक बाण छोड़े, परंतु वे सभी बाण आकाश में शूल का स्पर्श करते ही चूर-चूर हो जाते थे। फिर
इंद्र द्वारा दी हुई शक्ति को शूल पर छोड़कर उसे निष्क्रिय कर दिया।
इस युद्ध के दौरान श्रीराम ने रावण को यह कहकर बहुत फटकार लगाई—“तुमने मेरी अनुपस्थिति
में मेरी असहाय पत्नी सीता का अपहरण कर कायरता तथा पापपूर्ण कार्य किया है, परंतु फिर भी तुम
अपने आप को महान् योद्धा समझते हो। आज इसी समय अपने इस घोर पाप, धोखेबाजी तथा घिनौने
कार्य के परिणाम को भुगतोगे। मैं तुम्हें आज अपने अचूक बाण से मौत के घाट उतार दूँगा।” ऐसा कहते
हुए श्रीराम ने रावण के ऊपर कोई अत्यंत शक्तिशाली बाणों से प्रहार किया, इन प्रहारों से रावण घायल हो
गया, चलने-फिरने के लायक भी नहीं रहा तथा अपना धनुष उठाने के योग्य भी नहीं रहा। इस स्थिति को
देखकर रावण का सारथी तत्काल रावण को समरभूमि से बाहर ले गया। होश में आने के बाद रावण ने
अपने सारथी को युद्धभूमि से बाहर लेकर आने के लिए फटकार लगाई; उसे आदेश दिया कि ‘‘मुझे श्रीराम
से सामना करने के लिए युद्धभूमि में वापस ले चलो।’’ सारथी रथ को फिर से युद्धभूमि में वापस ले आया।
पुनः दोनों के बीच घोर युद्ध प्रारंभ हो गया। वे दोनों एक-दूसरे के द्वारा छोड़े गए बाणों को निष्क्रिय करते
रहे। नए तथा अद्भुत तरीके से दोनों के रथ आगे बढ़ रहे थे और दोनों योद्धा लंबे समय तक लड़ते रहे।
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दोनों ओर की सेनाएँ श्वास रोककर तथा चिंतित मुद्रा में उस दृश्य को देख रही थीं। यह स्पष्ट है कि रावण
और श्रीराम के बीच युद्ध अमावस्या से शुरू होकर शुक्ल पक्ष के दौरान आठ से दस दिनों तक जारी रहा
था (वा.रा. 6/92/66)। युद्ध का एक 200 वर्ष पुराना लघुचित्र देखें। (देखें लघुचित्र-11)
क्रोध की आग में जलते हुए रावण ने रघुवंशी श्रीराम के ऊपर दस नुकीले तीरों से आक्रमण
किया, जिससे श्रीराम के साथ-साथ उनका सारथी मातलि भी घायल हो गया। उस प्रहार से क्रोधित
होकर श्रीराम ने रावण के रथ और उसके सारथी पर सैकड़ों बाण चलाए। तत्पश्चात् दोनों के बीच
भयंकर, विध्वंसक तथा तीनों लोकों को हिला देने वाला युद्ध हुआ। उस समय श्रीराम को अगस्त्य
ऋषि के द्वारा दिए गए बाणों की याद आई। कुछ शक्तिशाली बाणों का अपने विशाल धनुष पर संधान
करते हुए श्रीराम ने रावण को बुरी तरह से घायल कर दिया। उस समय सारथी मातलि ने श्रीराम को
धीमे स्वर में कहा, “प्रभु, अब दानवराज रावण का अंतिम समय आ गया है। अधिक देर न करें। आप
अगस्त्य मुनि द्वारा दिए गए अमोघ ब्रह्म‍ास्त्र का प्रयोग करें।” श्रीराम ने मंत्रोच्‍चारण किया और वह
मर्मभेदी ब्रह्म‍ास्त्र रावण पर छोड़ दिया। ब्रह्म‍ास्त्र आग छोड़ता हुआ रावण की ओर गया और उसके
सीने को विदीर्ण कर डाला। इस प्रकार श्रीराम द्वारा छोड़े गए अमोघ अस्त्र की चोट से रावण अपने
जीवन से हाथ धो बैठा।
350 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

श्रीराम और रावण के बीच महायुद्ध

MAGAZINE KING

लघुचित्र-11 ः राघोगढ़ शैली, मध्य भारत, 19वीं सदी, अधिप्राप्ति संख्या 51.72/54, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 351

राक्षसराज के हाथों से धनुष फिसल गया और वह युद्धभूमि में गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ।
सभी देवताओं, साधुजनों तथा मानवों ने प्रसन्नतापूर्वक बिगुल बजाया। स्वर्ग से हो रही पुष्पवर्षा से श्रीराम
और उनका रथ ढक गया। लक्ष्मण, विभीषण, जांबवान, सुग्रीव, हनुमान और अन्य वानर योद्धाओं ने
श्रीराम को चारों ओर से घेर लिया। वे आनंद और श्रद्धा में जय-जयकार करने लगे।

8. रावण का दाह-संस्कार; विभीषण का लंका के राजा के रूप में राज्याभिषेक


जब विभीषण ने अपने मृत भाई के शरीर को रणभूमि में पड़ा देखा, तो उनका हृदय शोक से व्याकुल
हो गया। बचपन में रावण के साथ बिताए हुए अच्छे दिनों की स्मृतियाँ उन्हें सताने लगीं। वे अपने भाई
के मृत शरीर को देखकर फूट-फूटकर विलाप करने लगे और चिल्लाते हुए बोले, “हे पराक्रमी योद्धा, हे
विद्वान्, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे वैभवशाली, राजाओं के भी राजा! आपकी शक्तिशाली भुजाएँ युद्धभूमि में
असहाय पड़ी हुई हैं। अपने अहंकार, कामवासना तथा चापलूस सलाहकारों के वशीभूत होकर आपने मेरी
कल्याणकारी मंत्रणा को अस्वीकार कर दिया। राघव रूपी तूफान ने युद्धभूमि में रावण रूपी अडिग तथा
विशाल वृक्ष को गिरा दिया। जिस बुरे दिन की कल्पना कर मैं डर रहा था, आज उसे देख भी लिया!”
विभीषण को विलाप करते देखकर श्रीराम ने सांत्वना देते हुए कहा, “रावण एक सच्‍चे योद्धा की
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तरह लड़ा। उसने प्रचंड पराक्रम का प्रदर्शन किया। जो योद्धा युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त होता है, उसके
लिए विलाप करना उचित नहीं होता। इस सच्‍चाई को जानते हुए हमें इस स्थिति में अपने कर्तव्य के बारे में
विचार करना चाहिए।” विभीषण पुनः विलाप करते हुए बोला कि मेरे भाई रावण ने कठिन तपस्या की थी,
वह वेदों में पारंगत था, जरूरतमंदों को धन देता था, परंतु अब वह पराजित तथा मृत पड़ा है। इसका कारण
यह है कि उसने समय पर दी गई उपयुक्त सलाह को नहीं माना।” श्रीराम ने विभीषण से अपने मृत भाई
का दाह-संस्कार करने का आग्रह किया, क्योंकि रावण के वध के साथ ही किसी की भी उससे शत्रुता का
स्वत: ही अंत हो गया।
महारानी मंदोदरी के नेततृ ्व में रावण के राजमहल की सारी महिलाएँ युद्धभूमि में आईं और रावण
को मृत देखकर विलाप करने लगीं। मंदोदरी ने कहा, “वास्तव में भाग्य बहुत ही शक्तिशाली होता है, मेरे
आराध्य मैंने आपको बहुत पहले ही चेतावनी दी थी। क्या मैंने आपको नहीं कहा था कि श्रीराम एक सामान्य
मानव नहीं हैं, वे मानव के वेश में साक्षात् भगवान् विष्णु हैं? जब हनुमान ने लंका में प्रवेश किया था, उसी
समय मुझे सच्‍चाई का पता चल गया था, मैंने आपसे श्रीराम के साथ दुश्मनी न करने की विनती की थी,
लेकिन आपने मेरी एक न मानी। आपने साध्वी सीता की ओर कामुकता भरी नजरों से क्यों देखा? क्या उसे
अकेले देखकर उसका अपहरण करना अपराध नहीं था? सीता के रूप में मृत्यु आपको उस ओर खींचकर
ले गई। सीता और श्रीराम फिर से एक-दूसरे से मिल जाएँग।े वे अल्प समय के वियोग के बाद आनंदपूरक ्व
अपना जीवन बिताएँग,े लेकिन मैं और आपकी अन्य पत्नियाँ हमेशा के लिए विधवा हो गई हैं। हमारी संपर्ण ू
352 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जाति सागर रूपी दुःख की गहराई में डूब चुकी है।” इस प्रकार विलाप करती हुई मंदोदरी रावण के मृत
शरीर पर गिरकर बेहोश हो गई। श्रीराम की सलाह मानकर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए रावण की अंत्येष्टि
करने के लिए विभीषण आगे बढ़े। शायद यह फाल्गुन की शुक्ल पक्ष की दशमी का दिन रहा होगा। यजुर्वेद
में बताई गई विधियों के अनुसार रावण का पार्थिव शरीर एक शैय्या पर डालकर उसे अरथी पर रखा गया।
चंदन की लकड़ी और कमल के समान सुगंधित पद्मक की लकड़ी से चिता तैयार की गई। रावण के मृत
शरीर को सुगंधित पदार्थों और फूलों की माला से सजाकर चिता के ऊपर रखा गया, इसके पश्चात् शास्त्रों के
अनुसार विभीषण ने रावण को मुखाग्नि दी (वा.रा.6/111/109-121)। तत्पश्चात् विलाप करती हुई रावण
की स्त्रियों को बारंबार सांत्वना देकर विभीषण ने महल में वापिस भेजा।
श्रीराम ने मातलि सहित इंद्र के रथ, धनुष, बाण तथा कवच आदि को वापिस लौटाकर शांतरूप धारण
कर लिया। फिर उन्होंने लक्ष्मण को लंका जाकर विभीषण का राज्याभिषेक करने की आज्ञा दी। एक भव्य
समारोह में विभीषण का लंका के राजा के रूप में राज्यतिलक किया गया। लक्ष्मण ने वैदिक प्रथा के अनुसार
उन्हें राज सिंहासन पर आसीन किया। लंका के सम्राट् के रूप में अभिषिक्त होने के पश्चात् विभीषण वानर
सेना के शिविर में आए और श्रीराम को प्रणाम किया। इसके बाद श्रीराम ने हनुमान को विभीषण से अनुमति
लेकर लंका में प्रवेश कर सीताजी को पूरे घटनाक्रम से अवगत कराने के लिए कहा। हनुमान ने श्रीराम के
संदश
े को सीताजी तक पहुँचाते हुए कहा, “हे सीता माता! धैर्य रखें तथा चिंतामुक्त हो जाएँ, क्योंकि रावण
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का वध हो चुका है तथा विभीषण को लंका का राजा बना दिया गया है। मैंने आपको लंका पर विजय प्राप्त
करके वापस श्रीराम से मिलाने का आश्वासन दिया था। गहरे समुद्र में सेतु बनाकर तथा सुग्रीव और विभीषण
की सहायता पाकर श्रीराम ने रावण के लगभग संपर्ण ू परिवार का विनाश कर दिया है।” हनुमान ने यह भी
कहा कि श्रीराम ने आपके लिए संदश े दिया है, “मैंने रावण का वध करके तुम्हारे उद्धार की प्रतिज्ञा को पूरा
किया है। अब आपका भला चाहने वाले विभीषण लंका के राजा हैं और शीघ्र ही वे आपसे मिलने आएँग।े
तब तक धैर्य बनाए रखें।” हनुमान के इन वचनों को सुनकर सीताजी खुशी से भाव-विभोर हो गईं, लेकिन
उन्होंने शांति व धैर्य बनाए रखा। हनुमान के स्नेह तथा कर्तव्य भावना को याद कर उनकी आँखें भर आईं।
हनुमान ने उन राक्षसियों का वध करना चाहा, जिन्होंने सीताजी को दुःख पहुँचाया था, लेकिन सीताजी ने यह
कहते हुए हनुमान को ऐसा करने से रोक दिया कि राक्षसियाँ केवल रावण के आदेश का पालन कर रही थीं।
सीताजी ने श्रीराम से अपने शीघ्र मिलन की उत्सुकता अभिव्यक्त की।
हनुमान श्रीराम के पास वापस गए तथा उन्हें सीताजी से मिलने के बारे में सारी जानकारी दी। उन्होंने
श्रीराम को सीताजी का संदश े भी सुनाया, “मैं अपने दशरथनंदन एवं भक्तवत्सल पति श्रीराम के दर्शन
शीघ्रातिशीघ्र करना चाहती हूँ।” इसके बाद हनुमान ने आगे कहा, “शोकसंतप्त सीताजी से जल्द ही मिलना
चाहिए, जो अभी-अभी शोकरूपी समुद्र से बाहर निकली हैं तथा जिनके लिए युद्धादि कर्मों का सारा उद्योग
किया गया था।”
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 353

श्रीराम किसी कारणवश अचानक शोक में डूब गए और उनके कमल सदृश नयनों में आँसू भर आए।
कुछ समय पश्चात् वे विभीषण से बोले, “सीता को स्नान कराकर तथा दिव्य आभूषणों से सजाकर यहाँ
आने के लिए कहें।” लगभग एक वर्ष तक रावण की कैद में रहने के कारण सीताजी तत्काल उसी जीर्ण-
शीर्ण अवस्था में श्रीराम से मिलना चाहती थीं। फिर भी आदेश का पालन करते हुए उन्होंने स्नान किया और
स्वयं को आभूषणों से सुसज्जित किया। सीताजी एक पालकी पर सवार होकर श्रीराम के शिविर में पहुँचीं।
सीताजी के आने का समाचार सुनकर श्रीराम ने अपने ध्यान को तोड़ा। उस समय शोक, हर्ष तथा दुःख की
भावनाएँ तरंगों की तरह उनके मस्तिष्क में आ और जा रही थीं। पालकी से बाहर निकलकर आँखें झुकाकर
सीताजी श्रीराम की ओर बढ़ीं। सौम्यभाव से युक्त सीताजी ने अपने प्रियतम श्रीराम के मुख को जी भरकर
निहारा, परंतु श्रीराम ने अपना हार्दिक अभिप्राय बताने के लिए कहा, “मैंने यह युद्ध केवल इसलिए नहीं
किया कि मैं आपका पति हूँ। एक क्षत्रिय होने के नाते रावण द्वारा किए गए इस घोर अपमान का बदला
लेना मेरा कर्तव्य था। आपको वापस पाकर मैं अत्यंत खुश हूँ, परंतु शंका की वजह से आपका चरित्र काले
धुएँ रूपी बादल से ढक गया है, क्योंकि आप जैसी दिव्य सौंदर्यवाली नारी से रावण का अधिक समय तक
दूर रहना मुश्किल था। अब मेरी आप में आसक्ति नहीं है, आप अपना जीवन जिस तरह जीना चाहें, जी
सकती हैं।”
सीताजी ने श्रीराम की ओर क्रोध भरी नजरों से देखा और कहा, “आपके मुख से ऐसे शब्द शोभा नहीं
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देत।े मैंने आपकी कड़वी बातों को अपने कानों से सुना है तथा मेरा दिल टूट चुका है। कोई असभ्य व्यक्ति तो
इस प्रकार की बातें कर सकता है, लेकिन आपके जैसा सभ्य परिवार में उत्पन्न और सूर्यवश ं में पला-बढ़ा
व्यक्ति ऐसा व्यवहार करे, यह स्वीकार्य नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आपके क्रोध ने आपकी समझ एवं
बुद्धि का विनाश कर दिया है। मेरे आराध्य! शायद आप यह भूल गए हैं कि मैंने किस कुल में जन्म लिया है।
एक महान् तपस्वी राजा जनक मेरे पिता हैं और उन्हीं के लालन-पालन में मैं पली-बढ़ी हूँ। इसमें मेरा क्या
अपराध है कि दुष्ट रावण ने अपहरण कर मुझे कैद कर लिया?” इसके पश्चात् लक्ष्मण की ओर मुड़कर
सीताजी बोलीं, “लक्ष्मण! मेरे लिए एक चिता तैयार करो, मैं अब जीने की इच्छा नहीं रखती हूँ, जब मैं अपने
पति के द्वारा सभी के समक्ष त्याग दी गई हूँ तो मेरे लिए एकमात्र रास्ता यही बचा है।” सीता के प्रति श्रीराम
के व्यवहार को देखकर लक्ष्मण विस्मित रह गए और क्रोध से भर गए। श्रीराम से आदेश लेने के लिए वे
उनकी ओर मुड़े, लेकिन श्रीराम ने सीताजी के आग्रह को पूरा करने पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई
तथा किसी प्रकार की नरमी भी नहीं दिखाई।
सीताजी के आदेश का पालन करते हुए लक्ष्मण ने एक बड़े अग्निकुड ं का प्रबंध किया, सीताजी ने
अपनी आँखों को धरती पर स्थिर रखते हुए श्रीराम की परिक्रमा की और बोलीं, “यदि मैं सर्वथा निष्कलंक
रही हूँ और मेरा चरित्र शुद्ध है तो संपर्ण
ू जगत् के साक्षी अग्निदेव मेरी सब ओर से रक्षा करना। यदि मैंने मन,
वाणी या कर्म द्वारा अपने पति श्रीराम का अतिक्रमण न किया हो, तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें।” इन शब्दों
354 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

का उच्‍चारण करती हुई सीताजी अग्नि में कूद पड़ीं। उस असहनीय व दारुण दृश्य को देखकर वानर सैनिकों
के साथ-साथ राक्षस भी शोकग्रस्त हो हाहाकार करने लगे। फिर सभी लोग आश्चर्यचकित होकर देखते रह
गए। आग की उन लपटों में से सीता को साथ लिए अग्नि देव स्वयं प्रकट हुए। सीता अपने रेशमी वस्त्रों तथा
आभूषणों में पहले से भी अधिक कांतिमान दिखाई दे रही थीं। अग्निदेव ने इस प्रकार समस्त जगत् के सामने
प्रमाणित किया कि विदेहनंदिनी सीता सर्वथा निष्कलंक हैं। रावण की कैद में भयानक राक्षसियों द्वारा सताए
जाने के बावजूद उनका चित्त हमेशा श्रीराम में ही लगा रहता था। श्रीराम की आँखों में खुशी के आँसू आ
गए। तब उन्होंने यह कहते हुए सीताजी को स्वीकार किया कि उन्हें सीताजी के अटूट सतीत्व तथा पवित्रात्मा
के बारे में पहले से ही पूर्ण विश्वास था। रावण कभी भी विशुद्धात्मा सीता की पवित्रता का उल्लंघन नहीं कर
सकता था, क्योंकि वह अपने निर्मल चरित्र के बल पर अपनी रक्षा करने में समर्थ थीं। यह अग्नि परीक्षा
दुनिया के लोगों को संतुष्ट करने के लिए थी। ऐसा कहते हुए उन्होंने सीताजी को अपनी बाँहों में भर लिया।
इसके पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण ने पिता दशरथ की आत्मा को श्रद्धांजलि दी। उन्होंने महसूस किया
कि उनकी आत्मा स्वर्ग से नीचे उतरकर उन्हें आशीर्वाद दे रही है। संभवतः वे उनकी आत्मा से बातचीत
कर रहे हैं और अपनी अंतरात्मा की आवाज उन्हें सुना रहे हैं। उन्हें लगा कि राजा दशरथ की आत्मा उनसे
यह कहने के लिए प्रकट हुई है कि इस दृश्य को देखकर उनका मन अब पूरी तरह से दुःख से मुक्त हो गया
है। श्रीराम और लक्ष्मण ने युद्ध में रावण का वध कर दिया है, उनका मन अब पूरी तरह से संतुष्ट है। राजा
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दशरथ की आत्मा ने सीता को बेटी कहकर सांत्वना दी कि वह अपनी अग्निपरीक्षा से कुपित न हो, क्योंकि
यह लोगों के सामने उसकी पवित्रता को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक थी। राजा दशरथ की आत्मा
शायद यह कह रही थी कि चौदह वर्ष के वनवास का समय अब समाप्त हो चुका है; स्वर्गीय सम्राट् के द्वारा
कैकयी को दिया गया वचन अब पूर्ण हो गया है, अब उन्हें अयोध्या वापस जाना चाहिए। श्रीराम अपने छोटे
भाइयों के साथ एक लंबे समय तक शासन करें? श्रीराम ने हाथ जोड़कर स्वर्गीय पिता की आत्मा से विनती
की कि वे कैकयी को भी माफ कर दें। इसके पश्चात् सम्राट् दशरथ की आत्मा ने वहाँ से प्रस्थान करने से
पहले श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को पुनः आशीर्वाद दिया।

9. पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या वापसी और श्रीराम का अयोध्या में राजतिलक


विभीषण ने हाथ जोड़कर श्रीराम से विनती की कि उनकी सेवा में विभिन्न प्रकार की पोशाकें, स्नान
करने के लिए जल, सुगंधित तेल और आभूषण तैयार हैं। श्रीराम ने उत्तर दिया कि आप सुग्रीव और अन्य
वानर सेनापतियों को इन विलासपूर्ण वस्तुओं का आनंद उठाने के लिए आमंत्रित करें, स्वयं तो मैं अपने प्यारे
भाई भरत से शीघ्रातिशीघ्र मिलने के साधनों पर विचार कर रहा हूँ। विभीषण ने पुष्पक विमान उनकी सेवा
में देने का प्रस्ताव रखा। उनके इस प्रस्ताव को इक्ष्वाकुवश
ं ी श्रीराम ने तुरतं स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात्
श्रीराम से सलाह लेकर विभीषण ने वानर सेना के लिए विशेष सम्मान समारोह का आयोजन किया और उन्हें
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 355

धन-दौलत तथा बहुमूल्य हीरे-रत्नों से अनुगृहीत किया। इसके पश्चात् विभीषण ने तत्काल पुष्पक विमान
मँगवाया और उसे श्रीराम की सेवा में खड़ा कर दिया।
यशस्वी तथा तेजस्वी श्रीराम सीताजी और लक्ष्मण के साथ विमान में आरूढ़ हो गए। उन्होंने सुग्रीव
और विभीषण को वापस अपने-अपने राज्य में जाने का सुझाव दिया, परंतु सुग्रीव और विभीषण ने अनुरोध
किया कि उनकी हार्दिक इच्छा है कि अयोध्या में श्रीराम के राजतिलक समारोह में शामिल हों। श्रीराम ने
उनके आग्रह को स्वीकार किया और उन्हें विमान में सवार होने की अनुमति दी। पुष्पक विमान आकाश
में तेज आवाज करता हुआ उड़ने लगा। इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि लंका से उनके
प्रस्थान के समय चैत्र मास प्रारंभ हो चुका था। रावण का वध फाल्गुन की शुक्ल दशमी को हो चुका था।
उसके पश्चात् उसका दाह संस्कार, विभीषण का राजतिलक, सीताजी को अशोक वाटिका से लाना तथा
उनकी अग्निपरीक्षा और फिर विभीषण द्वारा वानर सैनिकों के आदर में सम्मान समारोह। इन सभी कार्यों को
संपन्न करने में कम-से-कम सात आठ दिनों का समय तो लगा होगा। इस प्रकार चैत्र मास के कृष्ण पक्ष के
प्रारंभ होने के बाद ही श्रीराम ने पुष्पक विमान में अयोध्या के लिए प्रस्थान किया होगा। जब वे आकाश मार्ग
से जा रहे थे तो श्रीराम ने सीताजी को उन क्षेत्रों के विषय में जानकारी दी जिनके ऊपर से वो उड़ान भर रहे
थे, “वहाँ देखो, लंका नगरी की युद्धभूमि तथा राख का ढेर बनी रावण की चिता। यह वही सेतु है, जिसका
निर्माण नल ने किया था। अंतहीन समुद्र को देखो; समुद्र के हृदय अर्थात्् रामेश्वरम् को देखो, जहाँ मेरी सेना
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ने शिविर लगाया था और मैंने भगवान् शिव की आराधना की थी। उस सेतबु धं नामक स्थल को देखो, जहाँ
से सेतु का निर्माण प्रारंभ किया गया था, जो आनेवाली पीढ़ी के लिए विशेष धार्मिक स्थल होगा।” यात्रा में
आगे बढ़ते हुए श्रीराम ने सीताजी को किष्किंधा नगर दिखाया, उस समय सीताजी ने इच्छा व्यक्त की कि
सुग्रीव की पत्नियाँ रूमा और तारा को भी अपने साथ अयोध्या लेकर जाना चाहिए।
श्रीराम ने किष्किंधा में हवाई विमान को रोका और सुग्रीव से आग्रह किया कि वे अंतःपुर जाएँ और
तारा तथा रूमा को हमारे साथ अयोध्या जाने के लिए आमंत्रित करें। पूरी तैयारी करने के बाद तथा अपने
साथ सुदं र वस्त्र और आभूषण लेकर पुनः वे सब लोग पुष्पक विमान पर सवार होकर अयोध्या की ओर
चल पड़े। इसके पश्चात् श्रीराम ने सीताजी को ऋष्यमूक पर्वत दिखाया, जहाँ उन्होंने तथा लक्ष्मण ने हनुमान
और सुग्रीव से मित्रता की थी। फिर श्रीराम ने सीताजी को उन स्थानों का परिचय भी दिया, जहाँ वह और
लक्ष्मण उनकी खोज में लगातार निराशापूरक ्व भटक रहे थे; इनमें पंपा सरोवर, शबरी का आश्रम तथा
जनस्थान शामिल थे। फिर उन्होंने पंचवटी की वह कुटिया भी दिखाई, जहाँ से रावण ने सीता का अपहरण
किया था।
मार्ग में सुतीक्ष्ण, शरभंग, अत्रि आश्रम और चित्रकूट को दिखाते हुए श्रीराम ने वनवास का चौदहवाँ
वर्ष पूर्ण होने पर पंचमी के दिन भारद्वाज आश्रम में विमान को नीचे उतारा और उनका आशीर्वाद लेने के
लिए आश्रम में प्रवेश किया। (वा.रा.6/124/1) यह शायद चैत्र शुक्ल पंचमी ही रही होगी। श्रीराम ने पहले
356 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

ही हनुमान को शृंग्‍वेरपुर में गुह निषाद और नंदीग्राम में भरत से मिलने के लिए भेज दिया था, ताकि वहाँ
उनके पहुँचने की पूर्व सूचना दे दी जाए और उनकी प्रतिक्रिया के बारे में जानकारी भी प्राप्त की जा सके।
ऋषि भारद्वाज ने श्रीराम को सूचना दी कि भरत भी वनवासी की पोशाक में एक तपस्वी की तरह जीवन
व्यतीत कर रहे हैं। वे आपके लौटने की लगातार प्रतीक्षा करते रहते हैं। भरत ने आपके आदेशानुसार राज्य
संचालन के सभी दायित्वों का निर्वाह अच्छी तरह से किया है। उन्होंने श्रीराम को यह भी सूचना दी कि कई
अन्य तपस्वियों तथा शिष्यों के माध्यम से श्रीराम के चौदह वर्ष के वनवास के दौरान हुई सभी घटनाओं,
कठिनाइयों और उपलब्धियों से वे अपने आपको निरंतर अवगत कराते रहे हैं।
हनुमान ने पहले गुह निषाद और फिर भरत को श्रीराम के जल्द पहुँचने के विषय में सूचित किया। इस
सुखद समाचार को सुनकर राजकुमार भरत अति-आनंदित हुए और उन्होंने हनुमान को गले से लगा लिया।
आनंद-विभोर हो वे पृथ्वी पर गिर पड़े और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। हनुमान ने भरत को मुख्य-
मुख्य घटनाओं के विषय में विस्तार से बताया, जो श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के चौदह वर्ष के वनवास
के दौरान घटित हुई थीं। इसके पश्चात् हनुमान ने भरत को बताया कि अगले दिन जब चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में
होगा, तो श्रीराम भरत से अवश्य मिलेंग।े वे लक्ष्मण, सीताजी और कुछ वानर मित्रों के साथ हवाई विमान से
संगम के पास ऋषि भारद्वाज के आश्रम में पहुँच चुके हैं। जब श्रीराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को
चौदह वर्ष के लिए प्रस्थान किया था तो वे चैत्रमास में ही अयोध्या लौटे होंग,े परंतु हम दीपावली कार्तिक
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अमावस्या के दिन क्यों मनाते हैं? इसके कारण जानने के लिए बॉक्स 6.3 देख।ें

बॉक्स 6.3
हम दीपावली कार्तिक अमावस्या के दिन क्यों मनाते हैं?
जब श्रीराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अपने पच्‍चीसवें जन्मदिन पर चौदह
वर्ष के वनवास के लिए प्रस्थान किया था तो वे चैत्रमास में ही अयोध्या लौटे होंगे, परंतु
हम रामनवमी चैत्र में, दशहरा आश्विन मास में तथा दीपावली कार्तिक अमावस्या के दिन
मनाते हैं, ऐसा क्यों?
इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने के लिए हमने बहुत परिश्रम तथा खोजबीन की। कई पंचांगों
को भी पढ़ा। हमने इस विषय पर बहुत परिश्रम से शोध किया है। इस प्रश्न का एकमात्र
उत्तर/संभावित स्पष्टीकरण जो हम ढूँढ़ पाए हैं, वह इस प्रकार है—
प्रत्येक चंद्र वर्ष 354 दिन, 12 घंटे, 44 मिनट और 3 सेकंड का होता है, जबकि सौर
वर्ष 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट तथा 46 सेकंड का होता है। इस प्रकार लगभग ढाई वर्षों
के पश्चात् चंद्र वर्ष सौर वर्ष से लगभग एक महीने पीछे रह जाता है। इनके बीच सामंजस्य
स्थापित करने के लिए, प्राचीन काल से लगभग 30 माह के पश्चात् एक अधिक मास की
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 357

प्रथा को अपनाया जा रहा है। इस प्रकार प्रत्येक पाँच वर्ष में दो अधिमास (अधिक मास)
आते हैं, जो चंद्र वर्ष के साथ सौर वर्ष को श्रेणीबद्ध करते हैं।
यदि चंद्र वर्ष को सौर वर्ष के साथ श्रेणीबद्ध न करना हो तो कोई भी अधिक मास
नहीं होगा। परिणामस्वरूप चौदह वर्षों में लगभग पाँच से भी अधिक महीनों की कमी हो
जाएगी। ऐसा प्रतीत होता है कि सुदूर ऐतिहासिक काल में कभी दीपावली तथा दशहरा की
तिथियों को निर्धारित करने के लिए चैत्र शुक्ल नवमी से लेकर 14 चंद्र वर्षों की ही गणना
कर ली गई। परिणामस्वरूप रावण पर राम की विजय के पर्व दशहरे को आश्विन मास में
मनाया जाने लगा। हर वर्ष दशहरा के बीस दिन बाद कार्तिक अमावस्या वाले दिन दीपावली
बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी।
ऐसा करना सुविधाजनक भी था, क्योंकि ऐसी स्थिति में दशहरा को विजयदशमी के
साथ मनाया जाने लगा, जिसे देवी दुर्गा की महिषासुर दानव पर विजय के उपलक्ष्य में पहले
से ही आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाता था। संभवतः यही कारण है कि हम आश्विन
मास की शुक्ल दशमी को दशहरा मनाते हैं, जो कि जूलियन-ग्रिगेरियन कलेंडर के अनुसार
अक्तूबर मास के आस-पास पड़ता है। यह चैत्र शुक्ल नवमी से लगभग साढ़े पाँच महीने
पीछे है।
अक्तूबर मास के आसपास पहले 9 दिन नवरात्रों के रूप में मनाए जाते हैं, जबकि
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दसवें दिन को विजयदशमी और दशहरे के रूप में मनाया जाता है। ये फसल कटाई के
दिन भी होते हैं। उस समय मौसम अच्छा होता है और फसल की खरीद बेच के कारण
किसानों तथा अन्य व्यक्तियों के पास धन भी अर्जित हो जाता है। इसलिए भी विजयदशमी
पर्व के साथ दशहरे का आयोजन सुविधाजनक माना गया होगा।
भारत में चंद्र-सूर्य कलेंडर के प्रचलन के कारण तथा चंद्र वर्ष के साथ सौर वर्ष को
श्रेणीबद्ध करने के लिए लगभग हर ढाई वर्ष बाद अधिक मास की प्रथा के कारण दशहरा
दीपावली के यह त्यौहार हर वर्ष अक्तूबर तथा नवंबर के आसपास ही मनाये जाते हैं।
पिछले तीन वर्षों की प्रासंगिक तिथियाँ देखें—

रामनवमी दशहरा दीपावली


(चैत्र शुक्ल नवमी) (आश्विन शुक्ल दशमी) (कार्तिक अमावस्या)
25 मार्च, 2018 30 सितंबर, 2017 19 अक्तूबर, 2017
4 अप्रैल, 2017 11 अक्तूबर, 2016 30 अक्तूबर 2016
15 अप्रैल, 2016 22 अक्तूबर, 2015 11 नवंबर , 2015
श्रीराम का राज्याभिषेक बड़ी धूमधाम से आयोजित किया गया था। चारों दिशाओं से
समुद्रों का जल लाया गया था। पूरे भारतवर्ष से कई राजा आए थे। उसी दिन को दीपावली
के रूप में मनाया जाता है।
358 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

परम आनंद का अनुभव करते हुए भरत ने शत्रुघ्न को आदेश दिया कि श्रीराम का भव्य एवं
अभूतपूर्व स्वागत करने के लिए असाधारण प्रबंध किए जाएँ। सभी मंदिरों में विशेष प्रार्थना का आयोजन
किया गया। संगीत यंत्रों को बजाने में कुशल लोगों को एकत्रित कर लिया गया। अयोध्या से नंदीग्राम
तक के मार्ग को साफ कर, उसे फूलों तथा पताकाओं से सजा दिया गया। राजमाताएँ विशिष्ट अतिथियों
के साथ नंदीग्राम पहुँचीं। शत्रुघ्न का आदेश सुनकर सभी आठों मं​ित्रगण धृष्टि, जयंत, विजय, सिद्धार्थ,
अर्थसाधक, अशोक, मंत्रपाल और सुमंत्र ने शानदार तैयारियाँ कीं।
जैसे ही बड़ी संख्या में ये लोग अयोध्या से नंदीग्राम की ओर चलने लगे तो घोड़ों, हाथियों तथा
रथों के पहियों से और शंखों तथा दुंदुभियों की ध्वनि से धरती प्रतिध्वनित हो उठी। नगाड़ाें तथा ढोलकों
की आवाज से समस्त पृथ्वी गूँज उठी; वातावरण चारों ओर फैले फूलों की सुगंध से सुगंधित हो उठा।
जब भरत अयोध्या से नंदीग्राम आई अपनी अनग​िणत प्रजा के साथ उतावलेपन से श्रीराम की प्रतीक्षा
कर रहे थे, उस समय हनुमान ने उन्हें दिखाया कि श्रीराम अपने साथियों के साथ पुष्पक विमान में आ
रहे हैं। इसी में सुग्रीव तथा लंका के नए राजा विभीषण भी बैठे हुए हैं। हवाई विमान नंदीग्राम में जमीन
पर उतरा, श्रीराम ने भरत को अपनी बाँहों में भर लिया और गले लगा लिया। भरत ने सीताजी को
प्रणाम किया; उन्होंने लक्ष्मण, सुग्रीव, जांबवान, अंगद, सुषेण और नील को गले लगाया तथा स्नेहपूर्वक
सुग्रीव से कहा कि तुम हमारे पाँचवें भाई हो। (वा.रा.6/127/43-45) वीर शत्रुघ्न ने भी श्रीराम और
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सीताजी को प्रणाम किया; उन्होंने वहाँ पधारे सभी अतिथियों का भव्य स्वागत किया। अयोध्या से आए
समस्त नागरिकों ने श्रीराम के स्वागत में नारे लगाए।
इसके पश्चात् श्रीराम ने तीनों माताओं कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा तथा महर्षि वसिष्ठ के चरण
स्पर्श किए। तीनों माताएँ बहुत प्रसन्न थीं। उन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता को अपना आशीर्वाद
दिया। श्रीराम की चरण पादुकाओं को लेकर भरत उनके चरणों के पास बैठ गए और बोले, “प्रभो,
मेरे पास धरोहर के रूप में रखा हुआ आपका सारा राज्य मैंने आपके श्रीचरणों में लौटा दिया है। मेरा
कार्य पूर्ण हो गया है। अपने राज्य के खजाने, भंडार और सेना, सब देख लें। आपके प्रताप से ये सभी
पहले से दस गुना बढ़ गए हैं।”
भरत के द्वारा अयोध्या का राज्य श्रीराम को वापस दे देने के बाद वे सब अयोध्या की शोभायात्रा
पर निकले। श्रीराम और लक्ष्मण ने संन्यासी पोशाक एवं वल्‍कल वस्त्र उतार दिए थे। उन्होंने स्नान
किया तथा इसके पश्चात् शत्रुघ्न ने उन्हें वस्त्रों तथा आभूषणों से सजाया। दशरथ की तीनों रानियों ने
मिलकर सीताजी को आभूषणों से अलंकृत किया। कौशल्या ने सुग्रीव की पत्नियों को शानदार तरीके से
सजाया। राजसी पोशाक में, चमकते हुए आभूषणों से सुसज्जित सुग्रीव और हनुमान अति सुंदर दिखाई
दे रहे थे। ऋषि-मुनियों तथा साधुओं के वैदिक मंत्रोच्‍चारण के बीच श्रीराम रथ पर बैठे, रथ के सारथी
स्वयं भरत थे। शत्रुघ्न हाथों मे राजछत्र पकड़े हुए थे। लक्ष्मण और विभीषण दोनों ओर से चँवर डुला
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 359

रहे थे। सभी मंत्री, अतिथि तथा प्रजाजन हाथियों, घोड़ों तथा रथों पर सवार होकर साथ चलने लगे।
उस समय श्रीराम ऐसे शोभा पा रहे थे, जैसे तारों के मध्य में पूर्णिमा का चाँद।
उधर भरत की आज्ञानुसार भव्य राजतिलक की तैयारियाँ जोरों पर थीं। श्रीराम ने अपने सलाहकारों
और दरबारियों को हनुमान की अद्भुत शक्ति की कहानी, सुग्रीव के साथ संबंध तथा वानर सेना के
द्वारा दिखाए गए अद्भुत पराक्रम के बारे में बताया। सुग्रीव को श्रीराम के मणिजड़ित विशाल भवन में
ठहराया गया तथा उन्हें उत्कृष्ट आतिथ्य प्रदान किया गया। भरत ने उनसे आग्रह किया कि राज्याभिषेक
के लिए वे अपने शक्तिशाली वानर योद्धाओं को चारों दिशाओं के चारों समुद्रों से जल लाने को यथाशीघ्र
ही आदेश दें। सुग्रीव ने तीव्र गतिवाले चार वानर प्रमुखों को सोने के चार रत्नजड़ित बहुमूल्य घड़े
देकर चारों समुद्रों से जल लाने का आदेश दिया। आदेश मिलते ही वे जल लेने के लिए निकल पड़े
और श्रीराम के राजतिलक के लिए निर्देशानुसार जल लेकर आ गए। जांबवान पूर्वी समुद्र (बंगाल की
खाड़ी) से, गवय पश्चिमी समुद्र (अरब सागर) से, ऋषभ दक्षिणी समुद्र (इंडियन ओशन) से तथा
हनुमान उत्तरी समुद्र से जल भर लाए।
शत्रुघ्न ने इस पवित्र जल को महर्षि वस‌िष्ठ के पास रखा। मुनि वसिष्ठ ने श्रीराम और सीताजी
को बहुमूल्य मणि से जड़ित सोने के सिंहासन पर बैठाया। (6/28) इसके पश्चात् वसिष्ठ, वामदेव,
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जाबालि, कश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ, गौतम और विजय, इन आठ मंत्रियों और ऋषियों ने चारों समुद्रों
से लाए इस स्वच्छ-सुगं​ि‍धत जल से सीता सहित श्रीराम का अभिषेक कराया (वा.रा.6/128/59-
61)। ऋषियों, मंत्रियों, ब्राह्म‍णों तथा व्यापारियों के समक्ष महर्षि व​िसष्ठ ने सुगंधित तथा पवित्र जल
का छिड़काव किया तथा श्रीराम के ललाट पर तिलक लगाया। तत्पश्चात् विभिन्न रत्नों से देदीप्यमान
सूर्यवंशी राजाओं का सुवर्ण निर्मित पैतृक किरीट महात्मा वसिष्ठ ने श्रीराम के मस्तक पर पहनाया। उस
वक्त लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उस स्वर्ण सिंहासन के पीछे खड़े अत्यंत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। अनेक
शासकों, दरबारियों तथा साधारण प्रजाजनों ने समारोह का आनंद उठाया। उस समय संगीतकार गीत
गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। पृथ्वी हरी-भरी हो गई, वृक्षों में फल आ गए और फूलों में
सुगंध छा गई; यह वसंत ऋतु वाला चैत्र का महीना भी था। लगभग 200 वर्ष पहले, एक लघुचित्रकार
ने राजतिलक के इस मनोहारी दृश्य को अति सुंदर ढंग से चित्रित किया है। (देखें लघुचित्र-12)
राज्याभिषेक के बाद श्रीराम ने बड़ी मात्रा में धन-दौलत दान में दिया। उन्होंने सुग्रीव, अंगद और
अन्य वानर योद्धाओं को हीरे से जड़ित बहुमूल्य आभूषण, चमकते पत्थर और बहुमूल्य रत्न भेंट किए।
उन्होंने सुग्रीव को रत्नों तथा मणियों से जड़ित एक दिव्य स्वर्णमाला दी। इसके पश्चात् सीताजी ने पराक्रमी,
बलवान, बुद्धिमान और विवेकी हनुमान की ओर कृतज्ञता से देखा। उन्होंने हनुमान को बहुमूल्य मोतियों
का हार भेंट किया।
360 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

MAGAZINE KING

लघुचित्र-12 ः श्रीराम का राजतिलक, जोधपुर शैली, राजस्थान,


19वीं शताब्दी, अधिप्राप्ति संख्या. 61.916, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय
समुद्र पर सेतु का निर्माण कर श्रीराम ने सीता के अपहरणकर्ता रावण का व • 361

अयोध्या के राजा के रूप में राजतिलक किए जाने के बाद श्रीराम ने अपने भाई भरत को अयोध्या
का युवराज घोषित किया। प्रजा के कल्याण को सर्वोत्तम प्राथमिकता देने की जिम्मेदारी लेते हुए श्रीराम ने
एक आदर्श राजा का उदाहरण प्रस्तुत किया, जो आज तक अद्वितीय बना हुआ है। श्रीराम ने अपने राज्य
के सामान्य जन की देख-रेख और कल्याण की ओर स्वयं को केंद्रित किया और वे सभी प्रसन्न, स्वस्थ,
समृद्ध और संतुष्ट थे। उनके राज्य में कहीं भी चोरी तथा लूटपाट और हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था।
वसुधा हरी-भरी रहती थी तथा पेड़ों पर फूल और फल लदे रहते थे। लोग धार्मिक और दयालु थे। वे सभी
तरह के लालच से मुक्त थे, लोग अपने व्यवसाय में लगे रहते थे तथा चारों व्यवसायिक वर्ग संतुष्ट एवं
संपन्न थे। इस प्रकार श्रीराम ने लगभग ग्यारह वर्षों तक राज्य किया। (वा.रा.6/128/106)

संदर्भ सूची—
1. डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर पृष्ठ 1-8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyu J6fFZo&t=429s-डॉ. कलाम का
MAGAZINE KING
भाषण, भाग 1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU _m-X7Pc&t=10s-डॉ. कलाम का
भाषण, भाग 2
4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminar-on-scientific-dating-of-
ancient.html, http://bit.ly/2r8ke1
5. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत; युद्धकांड
6. डॉ. राम अवतार शर्मा ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
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7. डॉ. राम अवतार शर्मा ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, 2010, प्रकाशक श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
न्यास, दिल्ली
8. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत; युद्धकांड
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ऐंड देयर इंपैक्ट ऑन ह्य‍ूमन सेटलमेंट्स’ पुस्तक हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज :
साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला,
कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर
10. एन.एच. हाशमी, आर. निगम, आर.आर. नायर और सी. राजगोपालन, NIO और BSIP ‘होलोसीन सी
लेवल फ्लक्चुएशंज ऑन वेस्टर्न इंडियन कॉ​ि‍ण्टनेंटल मार्जिन : एन अपडेट’; जर्नल ऑफ जियोलॉजिकल
सोसाइटी, 46 : अगस्त, 1995, पृष्ठ 157-162
11. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
362 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक—सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर : 1-8 & http://bit.ly/2r8ke1
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नेटवर्क इन नॉर्थवेस्ट इंडिया यूजिंग सेटैलाइट रिमोट सेंसिंग’, हिस्टोरिसिटी अॉफ वैदिक ऐंड रामायण
एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक
सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर : पृष्ठ संख्या 171-193 & http://bit.
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14. के.एस. वल्दिया 2002 एक थी नदी सरस्वती, प्रकाशक आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, दिल्ली
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17. सी.बी. पाटिल, द फर्स्ट नियोलिथ इन इंडिया—ए रिव्यू विद स्पेशल रेफरेंस टू कर्नाटक; पुरातत्त्व 33

MAGAZINE KING 
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 363

अध्याय-7

रामराज्य की स्थापना,
लोक निंदा के भय से श्रीराम ने
गर्भवती सीता को वाल्मीकि KING
MAGAZINE आश्रम भेजा
वैदिक एवं उत्तर-वैदिक साहित्य में ज्ञान का प्रचुर
भंडार उपलब्ध है, जोकि मानवता के लिए अत्यंत उपयोगी
सिद्ध हो सकता है। इस साहित्य में विश्वास पैदा करने के
लिए आवश्यक है कि इन ग्रंथों अर्थात्् वेदों तथा महाकाव्यों
में वर्णित घटनाओं का सटीक तिथिनिर्धारण किया जाए।
परिणामस्वरूप ये काल्पनिक पौराणिक विवरणों के दायरे
से निकलकर वास्तविक इतिहास के ज्ञानक्षेत्र में रूपांतरित हो जाएँगे। निस्संदेह, वैज्ञानिक
ज्ञान कल्पना में नहीं अपितु वास्तविकता में निहित होता है।
मुझे प्रसन्नता है कि इस संगोष्ठी में उपस्थित वैज्ञानिक खगोलशास्त्र, पुरातत्त्व,
पुरा-पर्यावरण, मानवशास्त्र एवं अंतरिक्ष विज्ञान जैसे विषयों के प्रख्यात शोधकर्ता हैं।
MAGAZINE KING
वे सब मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक जगत् के सामने वेदों तथा महाकाव्यों का वैज्ञानिक
तिथिकरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे।
आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों तथा उपकरणों के प्रयोग से भारतीय पुरातत्त्व विभाग
का दृष्टिकोण भी बदल गया है, जिससे शोधकर्ताओं को भारतीय उपमहाद्वीप में सभ्यता
के स्वदेशी मूल एवं विकास को सिद्ध करने में सहायता मिलती है। यह एक महत्त्वपूर्ण
निष्कर्ष है, जो पूरे देश के एकीकरण में सहायक है, क्योंकि इसके अनुसार सभी
भारतीयों के पूरज्व एक ही मूल के थे...यह विचार प्रक्रिया सभी भारतीयों में वैज्ञानिक
और सांस्कृतिक स्तर पर शामिल होनी चाहिए, जिससे हमें यह अनुभूति हो कि राष्ट्र
व्यक्ति से ऊपर है और हम सबको राष्ट्र की प्रगति तथा विकास में योगदान करना है।
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
30 जुलाई, 20111-4
अध्याय-7

रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से


श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश्रम भेजा
1. श्रीराम द्वारा आदर्श कल्याणकारी राज्य की स्थापना, जो आजतक अतुलनीय है
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की बाँहें लंबी, आँखें कमल के समान तथा सीना चौड़ा था। कोशल देश
MAGAZINE KING
का सम्राट् बनने के पश्चात् उन्होंने भरत को युवराज घोषित कर दिया। प्रजा के कल्याण को सर्वोच्‍च
प्राथमिकता देने के लिए श्रीराम ने एक ऐसे आदर्श कल्याणकारी राज्य का उदाहरण पेश किया, जो
आज तक नायाब तथा अद्वितीय है। श्रीराम ने सामान्य प्रजाजनों को सुख-सुविधाएँ और समृद्धि प्रदान
करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। प्रजा उनके शासन के दौरान प्रसन्न, संपन्न, स्वस्थ और संतुष्ट थी।
वहाँ न तो कोई लुटेरे या चोर थे और न ही किसी प्रकार की हिंसा होती थी। लालच से मुक्त, अपने-
अपने धंधे से संतुष्ट ब्राह्म‍ण (शिक्षक वर्ग), क्षत्रिय (योद्धा वर्ग), वैश्य (व्यापारी और कलाकार)
और शूद्र (सेवा क्षेत्र में संलग्न लोग) अपने-अपने कर्तव्यों का प्रसन्‍न्‍ता तथा निपुणता से निर्वाह करते
थे। यह स्‍पष्‍ट है कि रामायण युग में यह सभी केवल कार्यात्‍मक विभाजन थे। समाज में जातिप्रथा की
विकृति पिछले दो-ढाई हजार वर्षों से पैदा हुई है तथा पिछले चार-पाँच सौ वर्षों में उसने उग्र रूप ले
लिया। रामराज्‍य में सभी चार कार्यात्मक वर्गों में व्यस्त लोगों को आदर और सम्मान दिया जाता था।
वृक्ष फलों और फूलों से लदे रहते थे; मेघ समय से पानी बरसा देते थे। लोग सात्त्विक तथा दयालु थे
और वे अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वाह आनंदपूर्वक करते थे। श्रीराम के शासन काल में सभी निर्णय
उचित विचार विमर्श के पश्चात् लिए जाते थे। प्रमुख परियोजनाओं की घोषणा उन परियोजनाओ पर
कार्य प्रारंभ करने के बाद की जाती थी। प्रतिभावान और बुद्धिमान लोगों को महत्त्वपूर्ण कार्यों में लगाया
जाता था तथा कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन दिया जाता था।
विश्व के विभिन्न भागों तथा जनपदों के राजा और राजकुमार रघुवंशी श्रीराम का अभिवादन
366 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

करने और अपनी शुभकामनाएँ देने के लिए आते थे। मिथिला के राजा जनक और कैकेय प्रदेश के
राजकुमार युधाजित् तथा काशी के राजा प्रतर्दन भी बहुमूल्य उपहार लेकर आए थे। वे सभी राजा
श्रीराम के साथ बैठकर, उनके पवित्र वचन सुनकर और उनको राज्य का कामकाज चलाते देखकर
बहुत आनंदित होते थे। श्रीराम का ध्यान हमेशा अपने राज्य के सामान्य लोगों की सुख-सुविधाओं पर
केंद्रित रहता था। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनकी सेवा प्रसन्नचित्त होकर करते थे और प्रशासन को
चलाने में उनकी सहायता करते थे। साधु और तपस्वी उनके पास अकसर आते थे। श्रीराम उनका भव्य
स्वागत एवं सत्‍कार करते थे और वे उनसे वेदों, शास्त्रों का ज्ञान साझा करते थे। विभीषण, सुग्रीव और
अन्य अतिथि जो लंका से श्रीराम के साथ आए थे, आतिथ्य का आनंद ले रहे थे तथा कुछ दिनों तक
अयोध्या में उनके पास रुके।
तत्पश्चात् कुछ दिनों के बाद श्रीराम ने हाथ जोड़कर मिथिला के राजा जनक को कहा, “स्नेह
का जो बंधन इक्ष्वाकुवंशियों और निमिवंशियों के बीच वैवाहिक संबंधों से उत्पन्न हुआ था, वह अब
बहुत मजबूत हो गया है। मेरे द्वारा भेंट किए गए इस विनम्र उपहार को स्वीकार कर आप भरत और
शत्रुघ्न के संरक्षण में मिथिला जा सकते हैं।” जनक के प्रस्थान करने के बाद श्रीराम ने अपने मामा
युधाजित् को कुछ बहुमूल्य उपहार दिए और उनसे आग्रह किया कि वे लक्ष्मण के साथ अपने बूढ़े
पिता अश्वजीत के पास शीघ्र लौट जाएँ। इसके पश्चात् श्रीराम ने काशी के शासक तथा अपने मित्र
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प्रतर्दन को बहुमूल्य भेंट देकर स्नेहपूर्वक विदा किया।
फिर रघुवंशी श्रीराम ने हनुमान और अंगद को अपनी गोद में बैठाया और सुग्रीव से कहा, “ये
दोनों सभी प्रकार के सम्मान के पात्र हैं। ये आपको अच्छी सलाह और बहुमूल्य सहयोग देते आ रहे हैं
और मेरे हितों के प्रति समर्पित भी रहे हैं।” इसके पश्चात् श्रीराम ने अपने शरीर से अत्यंत बहुमूल्य कुछ
आभूषण उतारे और उन आभूषणों को अत्यंत स्नेह के साथ अंगद और हनुमान को पहना दिया। फिर
उन्होंने मणि तथा अन्य बहुमूल्य रत्न नील और नल, सुषेण और जांबवान तथा अन्य वानर सेनापतियों
को उपहार में दिए। उन्होंने सभी को संबोधित किया, “आप मेरे मित्र होने के साथ-साथ मेरे भाई भी
हैं। आपके प्रयासों से मैं बहुत बड़ी विपत्ति से मुक्त हो पाया हूँ। आपके कारण ही राजा सुग्रीव भी अब
आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आप सभी एक माह से अधिक समय से अयोध्या में रह रहे हैं।
अतः सुग्रीव को रूमा और तारा, अंगद और हनुमान, नील और नल तथा अन्य वानर सेनापतियों के
साथ किष्किंधा वापस लौट जाना चाहिए।” इसके पश्चात् श्रीराम ने विभीषण की ओर देखा और बोले,
“लंका पर न्यायपरायण तथा नीतिपरायण होकर दृढ़ता से शासन करें। मैं आपको सदैव परम सर्वोच्‍च
स्नेह के साथ याद रखूँगा।”
अत्यधिक आदर और स्नेह के साथ हनुमान ने श्रीराम से निवेदन किया, “हे नाथ, आपका मेरे
प्रति सर्वोच्‍च स्नेह हमेशा बना रहे तथा आपके प्रति मेरा भक्तिभाव निरंतर बढ़ता ही रहे।” अपने उत्कृष्ट
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 367

सिंहासन से उठकर श्रीराम ने हनुमान को गले से लगा लिया और बोले, “मैं हमेशा तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
मेरे दिल में तुम्हारे प्रति आभार सदा बना रहेगा।” हर्षित और आनंदित सुग्रीव और धर्मपरायण विभीषण
को श्रीराम ने स्नेह के साथ हृदय से लगाया। रघुवंशी श्रीराम से बिछड़ते समय दबे हुए आँसुओं से
उनका गला रुँध गया। अयोध्या में उत्कृष्ट आतिथ्य से प्रसन्न होकर, बहुमूल्य उपहार प्राप्त करने के
पश्चात् सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जांबवान सभी किष्किंधा लौट गए और विभीषण लंका वापस चले गए।
अयोध्या की प्रजा मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम के शासन में अत्यंत संतुष्ट थी। एक दिन हाथ जोड़कर
भरत ने श्रीराम से कहा, “आपके द्वारा अयोध्या का शासन सँभालने के पश्चात् मरणासन्न व्यक्ति भी
रोगमुक्त हो गए हैं और प्रजा में प्रचुर मात्रा में उत्साह भर गया है, मेघ भी समय से वर्षा कर रहे हैं
तथा पौधे भी फलों और फूलों से लदे रहते हैं। फसल भी काफी अच्छी मात्रा में हो रही है। राज्य की
प्रजा यह कामना कर रही है कि आपके जैसा राजा लंबे समय तक उनका शासक बना रहे।” रामराज्य
में पानी की मुफ्त आपूर्ति सुनिश्चित की गई थी, सामाजिक पर्व तथा धार्मिक उत्सवों को बढ़ावा दिया
गया था, खेतों में अच्छी फसल उगाने की सुविधा दी गई थी और व्यापार, कृषि एवं पशुपालन को
भी बढ़ावा दिया गया था। इस प्रकार श्रीराम ने लगभग दस-ग्यारह वर्षों तक शासन किया। (वा.रा.
6/120/106) यहाँ पर यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि ‘सहस‍्राणी’ शब्द का अर्थ प्राचीन संस्कृत
में ‘लगभग’ होता था। इसका संदर्भ सत्याश्रव द्वारा लिखित पुस्तक ‘भारत वर्ष का बृहद् इतिहास,
MAGAZINE KING
संस्करण 2’ के पृष्ठ-58 से भी लिया जा सकता है।5
कमलनयन श्रीराम सीता के साथ आनंद का जीवन व्यतीत करते रहे, अपने सिंहासन पर श्रीराम
परम सुंदरी सीताजी के साथ बैठकर ऐसे शोभा पाते थे, जैसे अरुंधती के साथ वसिष्ठजी। श्रीराम सीताजी
के साथ अपनी रमणीय अशोक वाटिका में अपरा� के समय आनंद उठाते थे। यह वाटिका सुगंधित
फूलों से भरी हुई थी और वहाँ कुमुदिनी के फूल, कमल, हंस और सारस भी थे। विदेहनंदिनी सीताजी
एक दिव्य युवती के समान प्रतीत होती थीं और श्रीराम उसमें उत्सर्जित दैवी महिमा से परम आनंदित
होते थे। उनके बीच दिव्य प्रेम का यह संबंध कई वर्षों तक फलता-फूलता रहा। (वा.रा.7/42/25-26)
देखें 200 वर्ष पुराना राज ‌सिंहासन पर विराजमान श्रीराम और सीता का एक चित्र। (देखें लघुचित्र-13)
दिन के पूर्वाह्न‍ काल में श्रीराम शासन के कार्य को देखते थे और सीताजी घर के कार्य के साथ-
साथ अपनी तीनों सासों की देखभाल करती थीं। दिन के दूसरे भाग में वे दोनों एक-दूसरे के साथ रहने
का आनंद लेते थे। इसके पश्चात् एक दिन अपनी पत्नी को गर्भवती देखकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुए
और बोले, “बहुत खूब, बहुत खूब। अब संतान प्राप्ति का समय निकट आ गया है। हे सुंदरी! बताएँ
मैं आपकी कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ?” एक दिन इस प्रकार के प्रेम भरे वार्त्तालाप के दौरान सीताजी ने
ऋषियों-मुनियों के साथ गंगा के किनारे स्थित वाटिका में कुछ दिन व्यतीत करने की अपनी इच्छा व्यक्त
की। (वा.रा.7/42/30)6
368 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

MAGAZINE KING

लघुचित्र-13 ः सीताजी के साथ श्रीराम स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हुए, देवगढ़ शैली, मेवाड़, राजस्थान; 19वीं शताब्दी,
कलाकार : बैजनाथ, अधिप्राप्ति सं. 62.96, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 369

2. लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश्रम भेजा


श्रीराम का जीवन बहुत दिनों तक सुखमय नहीं चल पाया। कई वर्षों तक श्रीराम के कल्याणकारी
शासन से लाभान्वित होकर धनी, समृद्ध तथा सुखी हो जाने के पश्चात् अयोध्या की प्रजा ने अपने लोकप्रिय,
दयालु तथा पराक्रमी राजा श्रीराम पर ही उँगलियाँ उठानी प्रारंभ कर दीं। वे सेतु निर्माण तथा रावण वध के
लिए उनके पराक्रम की प्रशंसा तो करते थे, लेकिन वे यह प्रश्न भी उठाते थे कि जब सीताजी रावण तथा
अन्य राक्षसों के बीच लगभग एक वर्ष तक रही थीं तो फिर श्रीराम सीताजी के साथ क्यों रहते हैं? अयोध्या
की प्रजा को इस बात की आशंका भी परेशान कर रही थी कि उन्हें भी अपनी पत्नियों के ऐसे आचरण
को भुगतना पड़ सकता है, क्योंकि राजा का ही अनुसरण प्रजा करती है। श्रीराम के अधिकांश गुप्तचरों ने
उन्हें अयोध्या की जनता द्वारा उठाए जा रहे इस तरह के प्रश्नों की सूचना दी। राज्य की प्रजा के बीच ऐसी
बदनामी से रघुवंशी श्रीराम असहनीय शोक में डूब गए और उनकी आँखों में आँसू आ गए। इसके पश्चात्
उन्होंने अपने तीनों भाइयों को अपने अंत:पुर में बुलाया।
श्रीराम को व्यथित, दुःखी और आँसू बहाते देखकर उनके भाइयों को बहुत दुःख हुआ। इसके पश्चात्
श्रीराम ने उनसे कहा, “मैं तुम्हें अपनी पत्नी सीता के बारे में अयोध्या की प्रजा के बीच चल रही अफवाहों
की सच्‍चाई के बारे में बताता हूँ। तुम सभी को यह ज्ञात ही है कि सीता को सुनसान जंगल से किस प्रकार
MAGAZINE KING
रावण छल-बल से अपहरण कर ले गया था और मैंने राक्षस प्रजाति के साथ-साथ रावण का वध किस
प्रकार किया था। उसी समय मुझे इस बात का आभास हो गया था कि रावण की कैद से छुड़वाई हुई
सीता को मैं शायद अयोध्या नहीं ले जा पाऊँगा। मुझे तथा वहाँ उपस्थित अन्य लोगों को अपने सतीत्व
एवं पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए उस समय सीता ने अग्नि परीक्षा भी दी थी और अग्नि देवता
ने यह प्रमाणित किया था कि सीता पूर्णत: पवित्र एवं निर्दोष हैं तथा वे सभी पापों से मुक्त हैं। सीता की
अग्निपरीक्षा के पश्चात् ही मैं सीता को अयोध्या लेकर आया था, लेकिन अब मेरे राज्य की प्रजा सीता पर
कलंक लगा रही है तथा मेरी निंदा कर रही है। एक राजा का अपयश उसे नरक के द्वार तक ढकेल देता
है। अपयश तथा लोकनिंदा से बचने के लिए मैं अपना जीवन त्याग सकता हूँ और तुम सबको भी एक
साथ त्याग सकता हूँ।” गंभीर मनन-चिंतन करने के पश्चात‍् श्रीराम ने अपनी भावी संतान को लोकनिंदा
की शर्मिंदगी से बचाने का निर्णय ले लिया था। इसके पश्चात् उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि वे गर्भवती
सीताजी को गंगा नदी के किनारे स्थित वाल्मीकि आश्रम में छोड़कर वापस आ जाएँ। सीता ने गंगा तट पर
ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा भी व्यक्त की थी, इस प्रकार उनकी वह इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी। ऐसा
कहते-कहते श्री रघुनाथजी के दोनों नेत्र आँसुओं से भर गए। उनका हृदय शोक से व्याकुल हो गया और
वे लंबी-लंबी साँसें लेने लगे।
शोकसंतप्त लक्ष्मण ने सीताजी को सुमंत्र के द्वारा हाँके जा रहे रथ पर बैठाया और गोमती नदी के
किनारे पहुँचे। रात्रि में विश्राम करने के पश्चात् लक्ष्मण ने सुमंत्र को गंगा नदी के किनारे रथ ले जाने का
370 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

आदेश दिया। दोपहर के समय, भगीरथी की धारा को देखते हुए, शोकातुर लक्ष्मण उच्‍चस्वर में फूट-
फूटकर रोने लगे। शांत स्वभाव और शालीन चरित्रवाली सीताजी ने उन्हें यह कहते हुए शांत करने की
कोशिश की, “आप गंगा नदी के किनारे आकर क्यों रो रहे हैं? क्या आप श्रीराम से दो दिनों के लिए दूर
होने के कारण दुःखी हैं? श्रीराम मेरे लिए भी अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, लेकिन मैं इस प्रकार दुःखी
तो नहीं होती। मुझे गंगा के दूसरे छोर पर ले चलो और तपस्वियों से मिलाओ, ताकि मैं उनको वस्त्र तथा
आभूषण दान कर सकूँ और उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकूँ।” लक्ष्मण ने अपने आँसू पोंछते हुए एक
नाविक को बुलाया; नाव में सीताजी को बैठाकर, उन्होंने सावधानी से उसको आगे बढ़ाया और गंगा के
दूसरे किनारे पर पहुँच गए। महर्षि वाल्मीकिजी की कुटिया के पास पहुँचकर लक्ष्मण पुनः फूट-फूटकर
रोने लगे और सोचने लगे कि मुझे सौंपे गए ऐसे कार्य को करने से तो मृत्यु ही बेहतर होती।
लक्ष्मण को इस प्रकार शोकग्रस्त व परेशान देखकर सीताजी ने उनसे सच्‍चाई बताने का आग्रह
किया। आँसू बहाते हुए लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर कहा, “हे जनकनंदिनी! अयोध्या में आपके विषय में जो
भयंकर अपवाद फैला हुआ है, उसे सुनकर श्रीराम का हृदय संतप्त हो उठा। आप निर्दोष सिद्ध हो चुकी हैं,
उसके बावजूद लोकनिंदा से डरकर उन्होंने मुझे आज्ञा दी है कि मैं आपको वाल्मीकि आश्रम में छोड़कर
वापस चला जाऊँ। वाल्मीकि मेरे पिता के घनिष्ठ मित्र तथा महायशस्वी ब्रह्म‍र्षि हैं। अत: अब आप आश्रय
माँगकर उस महान् तपस्वी के आश्रम में निवास करें।” इस भयानक एवं दुःखदायक कथन को सुनकर
MAGAZINE KING
तेजस्विनी सीताजी को असहनीय कष्ट हुआ, वे बोलीं, “मेरा यह नश्वर शरीर विधाता के द्वारा दुःख भोगने
के लिए ही बनाया गया है। मैंने कौन सा पाप किया है, जो अपने पति से बारंबार अलग की जा रही हूँ और
गर्भावस्था में पति के द्वारा निर्वासित की जा रही हूँ। मैं अपनी पवित्रता एवं सतीत्व का प्रमाण पहले ही दे
चुकी हूँ, जिसमें कोई भी संदेह बाकी नहीं है। अब मैं अपने प्राण भी त्याग नहीं सकती क्योंकि इससे मेरे
पति का राजसी परिवार अपने उत्तराधिकारी से वंचित रह जाएगा। जाओ और श्रीराम से कह दो कि उन्होंने
मेरा त्याग लोकनिंदा के भय से किया है, जिसका कारण मेरे बारे में फैलाया गया अपवाद है। इन कलंकों
को धो डालने का कर्तव्य भी अब मैं ही निभाऊँगी। रघुनंदन पुरवासियों के अपवादों से बचकर सुख से रहें।
मैं तो अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पति का भला करूँगी।” (वा.रा.7/48/13)
लक्ष्मण जब शोक से ग्रसित होकर दुःखी मन से वापस लौट रहे थे; सीता उस वन में अकेली ही
अनाथ की तरह रोने लगीं। महर्षि वाल्मीकि की कुटिया के छोटे बच्‍चों ने महर्षि को इस विषय में सूचना
दी। महर्षि वाल्मीकि ने गंगा तट पर पहुँचकर सीता को सांत्वना दी, जो वहाँ असहाय अवस्था में विलाप
कर रही थीं। इसके पश्चात् वाल्मीकिजी ने सीता से मधुर वचन कहे, “आप राजा दशरथ की पुत्रवधू हैं,
श्रीराम की प्यारी पत्नी हैं और परोपकारी जनक की पुत्री हैं। मैं जानता हूँ कि आपने कोई पाप नहीं किया
है, आपने अग्नि-परीक्षा देकर ऐसा सिद्ध भी कर दिया है। मेरी कुटिया के पास ही कई तापसी स्त्रियाँ
रहती हैं, वे स्नेहपूर्वक आपकी देखभाल करेंगी। इस अनुरोध को स्वीकार करें और निराश मत होवें।”
सीता हाथ जोड़कर महान् ऋषि के पीछे-पीछे चलने लगीं। इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि सीताजी को अपने
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 371

आश्रम में ले गए, जहाँ महिला तपस्विनियों ने उनका स्नेहपूर्वक स्वागत किया। वाल्मीकिजी ने आश्रम में
निवास करने वाली उन तापसी स्त्रियों से कहा, “यह सीता हैं, अयोध्या के रघुवंशी राजा राम की पत्नी
और राजा जनक की पुत्री; निर्दोष होने के बावजूद, श्रीराम ने इनका परित्याग कर दिया है। इसलिए अब
हमें ही इनका लालन-पालन करना है। आप इन पर स्नेह की दृष्टि रखें तथा आदरपूर्वक एवं स्नेहपूर्वक
इनकी देखभाल करें।”
निराश और उदास लक्ष्मण आँसू बहाते हुए नाव पर सवार होकर गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर
पहुँचे। शोक सागर में डूबे हुए लक्ष्मण ने सुमंत्र से कहा, “पुरवासियों के कहने पर अपनी निर्दोष पत्नी
का त्याग करना मुझे निर्दयतापूर्ण कृत्य लगता है तथा कीर्तिनाशक भी। अपने जीवन के चौदह वर्ष घने
दंडकवन में व्यतीत करने के पश्चात् अपनी प्रजा के कठोर शब्द सुनने के पश्चात् पुनः सीताजी के
निर्वासन का यह कार्य बहुत पीड़ादायक है। सीता के निर्वासन जैसा अधम कार्य करने से श्रीराम को किस
प्रकार का धार्मिक पुण्य मिलेगा? निर्दयी भाग्य द्वारा इस प्रकार अलग किए जाने पर श्रीराम और सीता
द्वारा अनुभव किए जा रहे असीम शोक एवं दुःख के बारे में सोचकर मैं स्वयं शोकसागर में डूबा जा रहा
हूँ।” उस समय सुमंत्र ने लक्ष्मण से कहा, “जो हुआ वह भाग्य में लिखा था। दुर्वासा ऋषि ने एक बार
राजा दशरथ, गुरु वसिष्ठ और मेरी उपस्थिति में भविष्यवाणी की थी कि श्रीराम के जीवन में अल्प सुख
और अधिक दुःख होंगे। वे अपनी पत्नी से लंबी अवधि के लिए अलग रहेंगे, लेकिन उनके प्रति समर्पित
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भी रहेंगे। उन्हें अपने अधिकांश प्रियजनों से बिछड़ना ही पड़ेगा और कुछ समय के बाद वे आपको,
शत्रुघ्न को और भरत को भी छोड़ देंगे।” स्वर्गीय सम्राट दशरथ ने उस समय मुझसे कहा था कि मैं इस
भविष्यवाणी को किसी के साथ साझा न करूँ और सुमंत्र ने लक्ष्मण से इस भविष्यवाणी को किसी और
से साझा न करने का आग्रह भी किया।
उस समय लक्ष्मण को कुछ सांत्वना और धैर्य देने के लिए सुमंत्र ने आगे कहा, “ऋषि दुर्वासा ने
स्वर्गीय सम्राट से यह भी कहा था कि श्रीराम अयोध्या के राजा के रूप में लंबे समय तक शासन करेंगे
और उनकी प्रजा प्रसन्न तथा समृद्ध जीवन व्यतीत करेगी। कई अश्वमेध यज्ञों का आयोजन कर वे कई
रियासतों तथा राजवंशों की स्थापना भी करेंगे। उन्होंने स्वर्गीय सम्राट से यह भी कहा था कि रघुवंशी श्रीराम
के दो पुत्र सीताजी के गर्भ से जन्म लेंगे। ऋषि ने यह भी भविष्यवाणी की थी कि इसके बाद रघुवंशी श्रीराम
अयोध्या के बाहर किसी स्थान पर सीता के उन दो पुत्रों का राज्याभिषेक भी करेंगे। इसलिए तुम निराशा
को छोड़ दो।” वापस आने पर लक्ष्मण सीधे श्रीराम के कक्ष में गए और उन्हें उदास तथा निराश बैठे देखा।
लक्ष्मण ने कहा कि सीता को वाल्मीकि आश्रम के बाहर छोड़कर वे वापस आ गए हैं। यह सुनकर श्रीराम
की आँखों में आँसू भर आए। भाग्य की निर्दयता को कोसते हुए लक्ष्मण ने इक्ष्वाकुवंशी श्रीराम को यह
कहते हुए सांत्वना देने की कोशिश की कि दुःख और सुख, उतार और चढ़ाव, मिलना और बिछड़ना, सभी
जीवन के अभिन्न अंग हैं, जिनका सामना हर व्यक्ति को करना ही पड़ता है। इसके पश्चात् चार दिनों तक
372 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

श्रीराम इतने उदास रहे कि वे सामान्य कार्य करने की स्थिति में भी नहीं थे, लेकिन फिर उन्हें याद आया
कि एक राजा का सबसे पहला और सर्वोच्‍च कर्तव्य अपनी प्रजा की रक्षा तथा पोषण करना होता है; यदि
प्रजा का विश्वास शासक पर से उठ जाता है तो सुशासन संभव नहीं होता तथा राज्य में अराजकता फैल
जाती है। यही कारण है कि उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी सीता को त्यागकर शोक और पीड़ा सहन करते हुए भी
प्रजा का कल्याण करने का मार्ग चुना। इसके बाद उन्होंने लक्ष्मण से प्रजागण की बैठक बुलाने का आदेश
दिया। उन्होंने स्वयं को प्रजा के कल्याण के लिए पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।

3. श्रीराम ने अत्याचारी लवणासुर का वध करने के लिए शत्रुघ्न को मधुरापुरी भेजा


कुछ समय पश्चात् श्रीराम के पास कुछ ऋषि-मुनि आए। च्यवन मुनि को आगे करके उन्होंने
विभिन्न तीर्थस्थलों से संग्रह किए गए पवित्र जल से भरा घड़ा, मूल और फल भेंट किए। इसके पश्चात्
इन तपस्वियों और साधुओं ने श्रीराम से आग्रह किया—“आप हमें राक्षसराज मधु के पुत्र लवणासुर के
अत्याचारों से मुक्त कराएँ, जो कि मानवभक्षी बन चुका है।” उन्होंने कहा कि ‘पहले राक्षस मधु एक
सदाचारी और धर्मात्मा व्यक्ति था, उसने कठोर तपस्या भी की थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान्
शिव ने उसे एक त्रिशूल दिया और कहा कि यदि तुम ऋषियों और देवताओं पर अत्याचार नहीं करोगे, तो
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यह त्रिशूल तुम्हारे शत्रु का वध कर तुम्हारे पास लौट आएगा। तुम्हारे बाद यह त्रिशूल तुम्हारे पुत्र का हो
जाएगा।’ राक्षस राज मधु का विवाह रावण की सौतेली बहन कुंभिनी से हुआ था। उसने एक पुत्र को जन्म
दिया, जिसका नाम लवण था। वह बहुत अत्याचारी तथा दुष्ट था। कई राजाओं ने इससे पहले लवणासुर
को परास्त करने का प्रयास किया, लेकिन वे ऐसा करने में सफल नहीं हुए। अतः तपस्वियों ने श्रीराम से
हार्दिक आग्रह किया कि वे उन्हें लवणासुर के अत्याचारों से बचाएँ, जिसे तपस्वियों के शरीर का मांस
बहुत स्वादिष्ट लगता था।
श्रीराम ने लवणासुर के वध का कार्य शत्रुघ्न को सौंपा और कहा, “मैं तुम्हें मधु नाम का पवित्र
राज्य सौंपता हूँ और तुम्हें वहाँ के राजा के रूप में अभिषिक्त करता हूँ। तुम यमुना के समीप एक नए
नगर की स्थापना करो और उसका विकास करो। लवणासुर का वध करने के पश्चात् तुम उस राज्य पर
धर्मपरायणता से न्यायपूर्वक शासन करना।” इसके बाद मंत्रोच्‍चारण के साथ शत्रुघ्न को औपचारिक रूप
से अधिष्ठापित कर दिया गया। तत्पश्चात् उन्होंने तीनों राजमाताओं कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा का
आशीर्वाद लिया। इसके बाद श्रीराम ने उन्हें अमोघ अस्त्र नामक एक अचूक दिव्य बाण लवणासुर का
वध करने के लिए दिया और उनसे यह भी कहा कि लवणासुर के आवास में प्रवेश करने से पहले उसे
युद्ध के लिए चुनौती देना। इसके बाद श्रीराम ने आदेश दिया कि रथ, हाथी, अश्व और पैदल सेनावाली
एक विशाल सेना शत्रुघ्न के साथ भेजी जाए और उन्हें यह भी परामर्श दिया कि वह अपने साथ एक लाख
से अधिक शुद्ध सोने के सिक्के लेकर जाएँ, ताकि सैनिकों और सहायकों को प्रसन्न और संतुष्ट रखा जा
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 373

सके। इसके पश्चात् श्रीराम ने शत्रुघ्न को सलाह दी—“लवणासुर को बिना बताए, यहाँ तक कि उसे युद्ध
का संकेत तक दिए बिना मधु के वन में अकेले जाना। तुम्हारी सेना साधुओं के नेतृत्व में आगे जा सकती
है। तुम्हें ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति तक गंगा नदी पार कर लेनी चाहिए। ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति और वर्षा ऋतु
के प्रारंभ तक तुम लवणासुर का वध कर दो।”
शत्रुघ्न ने एक महीना पहले ही विस्तृत निर्देशों के साथ सेना को भेज दिया। श्रीराम, लक्ष्मण और भरत
का अभिवादन किया, मुनि वसिष्ठ का आशीर्वाद लिया इसके पश्चात् अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए
निकल पड़े। मार्ग में दो रात्रि व्यतीत करने के बाद शत्रुघ्न ऋषि वाल्मीकि के पवित्र आश्रम में पहुँच।े उन्होंने
महान् ऋषि से आश्रम में रात्रि व्यतीत करने की आज्ञा माँगी। महर्षि वाल्मीकि ने उनका भव्य स्वागत किया
और उन्हें फल, मूल दिए तथा रहने की सुविधा उपलब्ध कराई। उसी रात्रि में तपस्विनी सीताजी ने दो पुत्रों को
जन्म दिया। (वा.रा. 7/66/1,12) उत्साह से भरी कुछ तापसी स्त्रियों ने वाल्मीकिजी को यह शुभ समाचार
सुनाया। महर्षि वाल्मीकि तत्काल गए और नवजात शिशुओं की रक्षा के लिए धार्मिक संस्कार किए। उन्होंने
दोनों बालको के नाम कुश और लव रखे। कुटिया की बुजरु ्ग महिलाएँ सीताजी की पूरी देखभाल करती थीं।
जिस समय धार्मिक अनुष्ठान किए जा रहा थे, तो शत्रुघ्न ने श्रीराम का नाम सुना और सीता के द्वारा दो पुत्रों
के जन्म का समाचार पाया। आधी रात को शत्रुघ्न ने लतामंडप में प्रवेश किया, सीताजी को प्रणाम किया
और बोले, “हे माता, ईश्वर की असीम कृपा से आपने दो पुत्र रत्नों को जन्म दिया है।” (वा.रा. 7/66/12)7
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अगली सुबह शत्रुघ्न ने वाल्मीकिजी से अनुमति माँगी और प्रस्थान किया। शत्रुघ्न ने तपस्वियों के साथ एक
रात रास्ते में ही व्यतीत की। महर्षि च्यवन ने लवणासुर की शक्ति और कमजोरी के विषय में विस्तार से उन्हें
बताया। उन्होंने कहा, “हे शत्रुघ्न! यदि उसके पास शिव का दिया हुआ त्रिशूल रहेगा तो उसे मारना असंभव
है। अतः आप उन्हें सुबह के समय मार सकते हैं, जब वह बिना अस्त्र-शस्त्रों के होता है।”
अगली सुबह लवणासुर भोजन की तलाश में निकला। उसी समय शत्रुघ्न ने यमुना नदी को पार
किया और हाथ में धनुष लिए वे मधु शहर के द्वार पर खड़े हो गए। इसके पश्चात् पूर्वाह्न‍ के समय उस
शक्तिशाली दानव ने शत्रुघ्न को हाथ में धनुष लिए नगर के द्वार पर खड़े देखा तो क्रोधित लवणासुर ने
शत्रुघ्न का वध कर उसका मांस खाना चाहा, परंतु शत्रुघ्न ने उसे अपनी पहचान बताई और युद्ध के लिए
चुनौती दी। लवणासुर वापस जाकर अपना त्रिशूल लाना चाहता था, लेकिन शत्रुघ्न ने कहा कि किसी
दुश्मन को इस प्रकार गायब होने देना मूर्खता है। यह सुनकर और फिर क्रोध से पागल होकर लवणासुर
ने एक पेड़ उखाड़ा और शत्रुघ्न पर फेंक दिया। शत्रुघ्न ने अपने बाणों से पेड़ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
दूसरा पेड़ उखाड़कर लवणासुर ने शत्रुघ्न के सिर पर प्रहार किया। शत्रुघ्न बेहोश हो गए और लवणासुर
ने शत्रुघ्‍न को मृत समझ लिया। होश में आने के पश्चात् शत्रुघ्न ने अपना शक्तिशाली धनुष हाथ में लिया,
उसे पूरी तरह से खींचा और अमोघ अस्त्र नामक अचूक दिव्यबाण लवणासुर पर चला दिया। उस बाण के
प्रहार से लवणासुर तत्काल मृत होकर जमीन पर गिर गया। देवता, ऋषि और मानव, सभी प्रसन्‍न हो गए।
374 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वे सभी शत्रुघ्न को अपनी-अपनी शुभकामनाएँ और आशीर्वाद देने लगे। शत्रुघ्‍न ने उनसे आशीर्वाद माँगा,
ताकि मधुरा नगर एक समृद्ध राजधानी के रूप में विकसित हो सके।
शत्रुघ्न के हाथों लवणासुर के वध का समाचार सुनने के पश्चात् संपर्ण ू सेना और सभी सहायक शत्रुघ्न
के पास आए। नगर के विकास का कार्य श्रावण माह में ही प्रारंभ कर दिया गया। अगले बारह वर्षों में
इसका विकास सूरसेना के जनपद के पवित्र नगर के रूप में किया गया। इस प्रकार बारह वर्ष में मधुरापुरी
तथा शूरसेन जनपद पूर्ण रूप से बस गए जिनमें सभी सुख-सुविधाएँ उपलब्‍ध थी (7/70/9)। यमुना नदी
के तट पर बसा अर्धचंद्र के आकार का यह नगर ‘मधुरा’ कई भवनों और बाजारों से शोभायमान हो रहा था।
जल्द ही विभिन्न व्यवसायों में लगे लोग, विशेषकर व्यापारी वर्ग, नगर में बस गए। मधुरापुरी (आधुनिक
मथुरा) में बारह वर्षों के सुशासन के बाद शत्रुघ्न ने अपने भाई श्रीराम से अयोध्या में जाकर मिलने का निर्णय
लिया। शत्रुघ्न अपनी यात्रा के दौरान विभिन्न आश्रमों में सात रात के विश्राम के बाद ऋषि वाल्मीकि के
आश्रम में गए। साधुओं ने शत्रुघ्न को सत्कार के साथ-साथ आशीर्वाद भी दिया, क्योंकि उन्होंने लवणासुर
के अत्याचारों से हजारों धर्मात्‍माओं की रक्षा की थी। जब वे महर्षि वाल्मीकि के यहाँ भोजन ग्रहण कर रहे थे
तो शत्रुघ्न को श्रीराम के द्वारा किए गए महान् कार्यों का गुणगान सुरीले एवं मधुर स्‍वरों में वीणा की ध्वनि
के साथ सुनकर आश्चर्य हुआ। उस संगीत को सुनकर, जिसमें सारी सच्‍चाई बताई गई थी, शत्रुघ्न की आँखों
से अश्रु बहने लगे तथा उनके सैनिक अचंभे में पड़ गए। रामायण का यह मधुरगान कुश और लव कर रहे
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थे, जिनकी आयु उस समय लगभग 12 (बारह) वर्ष की थी, परंतु महर्षि वाल्मीकि से उस दिव्य गीत के
निर्माता, संगीतकार और गायक के बारे में पूछने का साहस शत्रुघ्न जुटा नहीं पाए। इसके बाद उन्‍होंने महर्षि
वाल्मीकि से वहाँ से जाने की आज्ञा माँगी। महर्षि ने उन्‍हें अपना आशीर्वाद दिया। अपने चमकते हुए रथ पर
सवार होकर शत्रुघ्न रघुवंशी श्रीराम से मिलने की उत्सुकता में तेजी से अयोध्या पहुँच।े
श्रीराम का मुख पूर्णिमा की चाँदनी रात के चंद्रमा की तरह तेजस्‍वी दिखाई दे रहा था तथा अपने
मंत्रियों के बीच बैठे श्रीराम इंद्र देवता की तरह प्रतीत हो रहे थे। शत्रुघ्न ने हाथ जोड़कर श्रीराम को प्रणाम
किया और कहा, “आपने मुझे जैसा आदेश दिया था, वह पूर्ण हो गया। दुष्ट लवणासुर का वध हो गया
है, मधुरापुरी (मथुरा) नगर का निर्माण हो गया है और उसे सुंदर राजधानी के रूप में विकसित कर लिया
गया है। मैं आपसे बारह वर्षों तक अलग रहा, अब मुझे अपने साथ रहने की अनुमति दें।” श्रीराम ने उन्हें
स्नेह से गले लगाया और कहा कि आप अपना दिल छोटा न करें। क्षत्रिय राजा दूर रहकर निराश नहीं होते,
क्योंकि उनका सबसे महत्त्वपूर्ण और आवश्यक कर्तव्य अपनी प्रजा की देखभाल करना तथा उनकी सुरक्षा
करना होता है। तुम मेरे लिए मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो, लेकिन अपने राज्य की देख-रेख करना
अत्यंत आवश्यक होता है। अतः तुम मेरे साथ सात रात्रि तक रहो, इसके पश्चात् मधुरापुरी (मथुरा) के
लिए प्रस्थान करो। परंतु समय-समय पर आते रहना।” श्रीराम के आदेश का पालन करते हुए सात दिन
अयोध्या में रहने के बाद एक शानदार रथ पर सवार होकर शत्रुघ्न मधुरापुरी नगर वापस चले गए।
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 375

4. सीताजी की सोने की प्रतिमा रखकर नैमिषारण्य में अश्वमेध यज्ञ किया गया
श्रीराम अपनी प्रजा के कल्याण के लिए पूरी तरह समर्पित रहते थे। वे एक बार न्याय व्यवस्था की
जानकारी लेने के लिए अगस्त्य ऋषि के पास गए। इसके बाद उनके मन में विचार आया कि शाश्वत न्याय
व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उन्हें राजसूय यज्ञ आयोजित करना चाहिए। उन्होंने भरत और लक्ष्मण को
बुलाया और इसके विषय में उनका विचार जानना चाहा। दोनों हाथ जोड़कर वाक्यविशारद भरतजी ने अपनी
राय दी—“आपमें उत्तम धर्म प्रतिष्ठित है। यह सारी पृथ्वी भी आप पर ही आश्रित है तथा आप में ही यश
की प्रतिष्ठा है। पुत्र जैसे पिता को देखते हैं, उसी प्रकार आपके प्रति सब राजाओं का भी स्नेह तथा भाव है।
आप ही समस्त पृथ्वी और संपर्ण ू प्राणियों के आश्रय हैं। आपमें ही वास्तविक न्याय व्यवस्था का वास है।
फिर आप ऐसा यज्ञ कैसे कर सकते हैं, जिसमें भू-मंडल के सभी राजवंशों का विनाश दिखाई देता हो। मानव
जाति का पोषक होने के नाते आपको पृथ्वी पर होनेवाली बर्बादी में शामिल नहीं होना चाहिए।” श्रीराम ने
भरत के अमृत समान इन वचनों का हृदय से स्वागत किया और तत्काल राजसूय यज्ञ करने के विचार का
त्याग कर दिया। उसी समय लक्ष्मण ने श्रीराम को यह कहते हुए संबोधित किया, “हे रघुवंशी, अश्वमेध
यज्ञ सभी पापों को दूर करनेवाला, परम पावन और दुष्कर है। अतः आप इसी का अनुष्ठान करें।” (वा.रा.
7/84/2) लक्ष्मण संभवतः सीताजी के साथ किए गए अन्याय रूपी पाप की ओर इशारा कर रहे थे। श्रीराम
ने इन सुझावों को स्वीकार किया और लक्ष्मण को अश्वमेध यज्ञ की तैयारी करने और वसिष्ठ, वामदेव,
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जाबा​िल और कश्यप समेत सभी महान् तपस्वियों को निमंत्रित करने का आदेश दिया। उन सभी ने अश्वमेध
को बहुत उत्तम अनुष्ठान बताया। उन सभी के विचारों को जानकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा पृथ्वी के
सबसे अधिक कल्याणकारी राजा ने अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ करने का निर्णय लिया। उन्होंने लक्ष्मण से विभीषण
और सुग्रीव को भी उनके सेनापतियों और मंत्रियों के साथ निमंत्रित करने के लिए कहा।
इसके बाद श्रीराम ने लक्ष्मण को विस्तृत निर्देश दिए, “नैमिष आरण्य में सबसे पवित्र यज्ञमंडप स्थान
का चुनाव करना है, जो गोमती नदी के किनारे के वन में स्थित हो और उसे पवित्र स्थान माना जाता हो।
हजारों धर्मात्माओं को आमंत्रित किया जाए। भोज्य पदार्थों की असीमित तथा निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित की
जाए। भरत को कई लाख सोने के सिक्कों का प्रबंध करने तथा माताओं को ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी।
उन्होंने कहा कि भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की पत्नियों को भी मेरी पत्नी सीता की सोने की प्रतिमा के साथ
आना चाहिए। सभी नागरिकों, जिनमें ब्राह्म‍ण, बढ़ई, मजदूर, व्यापारी, वैदिक ऋषि और कोषाध्यक्ष भी
शामिल हों, को आदरपूर्वक निमंत्रित किया जाए और भरत उन सबको लेकर पहले ही नैमिष आरण्य के
लिए प्रस्थान करें। (वा.रा.7/91) राजाओं और उनके सेवकों के लिए रमणीय आवास भी बनाए जाएँ।”
इन सभी कार्यों को तत्परता से विधिवत् प्रारंभ किया गया। इसके पश्चात् श्रीराम ने शुभ मुहूर्त में अश्व
छोड़ा। अश्व की देखभाल का कार्य लक्ष्मण और ऋषियों-मुनियों को सौंपकर इक्ष्वाकु वंशी श्रीराम ने भी
सेना के साथ नैमिष आरण्य की ओर प्रस्थान किया। नैमिष आरण्य में निवास करते समय श्रीरामचंद्रजी के
376 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

पास भू-मंडल के सभी नरेश भाँति-भाँति के बहुमूल्य उपहार लाए और श्रीराम ने भी उनका आदर-सत्कार
किया तथा उन्हें यज्ञ के पश्चात् वापस जाते समय मूल्यवान उपहार भेंट किए। भरत और शत्रुघ्न व्यक्तिगत
रूप से राजाओं, तपस्वियों और अन्य मुख्य अतिथियों की देखभाल कर रहे थे। सुग्रीव, विभीषण और कई
अन्य राजा तपस्वियों तथा अन्य अतिथियों को भोजन दे रहे थे। इस प्रकार अश्वमेध यज्ञ बहुत ही उत्तम ढंग
से संपन्न किया जा रहा था। लक्ष्मण अश्व की गतिविधि को सुरक्षात्मक तरीके से देख रहे थे। उस समय
कोई भी मलिन, भूखा या गरीब नहीं था और श्रीराम के द्वारा किया जा रहा यह अश्वमेध यज्ञ अभी तक के
सभी अश्वमेध यज्ञों से श्रेष्ठ था। सभी मेहमानों की सेवा खुशी-खुशी और अच्छी तरह से की जा रही थी।
कई लाख सोने और चाँदी के सिक्के, आभूषण और वस्त्र भी बाँटे गए।

5. लव-कुश द्वारा रामायण का गायन; सीता की चुनौती से अयोध्या की प्रजा हुई स्तब्ध
जब यह भव्य यज्ञ चल रहा था, पूज्य महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। वे कुश और
लव के साथ अश्वमेध यज्ञ में शामिल होने के लिए आए थे, जिनकी उम्र उस समय लगभग सत्रह-अठारह
वर्ष की होगी। उन्होंने अपने दोनों शिष्यों से कहा, “तुम दोनों भाई एकाग्रचित्त होकर, सब ओर घूम-घूमकर
बड़े आनंद के साथ संपूर्ण रामायण काव्य का गायन करो। ऋषियों और ब्राह्मणों के पवित्र स्थानों पर,
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गलियों में, राजमार्गों पर, राजाओं के निवास स्थानों में भी इस काव्य का गायन करना। श्रीरामचंद्रजी का
नैमिष आरण्य में जो भवन बना है, उस के दरवाजे पर, जहाँ ब्राह्म‍ण लोग यज्ञकार्य कर रहे हैं, वहाँ तथा
ऋत्विजों के आगे भी इस काव्य का विशेष रूप से गायन करो। मैंने पहले भिन्न-भिन्न संख्यावाले श्लोकों
से युक्त रामायण काव्य के सर्गों का जिस तरह तुम्हें उपदेश दिया है, उसी के अनुसार प्रतिदिन 20-20 सर्गों
का मधुर स्वर में गायन करना। यदि रघुनाथ श्रीरामजी तुम्हारा परिचय पूछें तो तुम दोनों महाराज से केवल
इतना ही कह देना कि हम दोनों भाई महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हैं। तुम दोनों भाई प्रसन्न और एकाग्रचित्त
होकर कल सवेरे ही वीणा की लय पर मधुर स्वर में रामायण का गायन प्रारंभ कर दो।
मैथिली के उन दोनों यशस्वी पुत्रों ने महर्षि की आज्ञा के अनुसार संपूर्ण रामायण का गायन प्रारंभ
कर दिया। श्री रघुनाथजी ने भी वह गायन सुना। वे बहुत सुरीले तथा आकर्षक स्वर में गा रहे थे। उनकी
सुरीली और संगीतमय वाणी से वहाँ की प्रजा और दरबारी सभी मंत्रमुग्ध हो गए और वे उनके पीछे-पीछे
वहाँ तक जाने लगे, जहाँ तक वे गाते जा रहे थे। वीणा की लय से संपूर्ण सामंजस्य के साथ उन दोनों
बालकों का वह मधुर गायन सुनकर श्रीरामचंद्रजी को बड़ा कौतूहल हुआ। उनसे पूरी तरह से प्रभावित
होकर उन्होंने उन दोनों बालकों को यज्ञस्थल में आमंत्रित किया। श्रीराम ने उन दोनों बालकों को साधुओं
और ऋषियों, राजाओं तथा दरबारियों, संगीतकारों और साधारण प्रजाजनों के सामने गाने का आग्रह
किया। कुश और लव ने गाना प्रारंभ किया और सभी श्रोतागण को मंत्रमुग्ध कर दिया। जिन लोगों ने उन्हें
आनंदपूर्वक सुना वे आपस में बातचीत करने लगे, “ये दोनों बालक हूबहू श्रीराम के जैसे दिखाई देते हैं।
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 377

यदि इन्होंने वल्कल वस्त्र नहीं पहने होते तो दोनों गायकों को श्रीराम के पुत्र ही मान लिया जाता।” कुश
और लव ने केवल बीस सर्ग ही गाए। श्रीराम ने पुरस्कार के रूप में अठारह हजार सोने के सिक्के देने
चाहे, परंतु उन्होंने विनम्रतापूर्वक उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया। श्रीराम के प्रश्नों के उत्तर में लव
और कुश ने बताया कि रामायण में कुल चौबीस हजार श्लोक हैं, जिन्हें पाँच सौ सर्गों में व्यवस्थित किया
गया है और इसकी रचना हमारे गुरु महर्षि वाल्मीकि ने की है, वे भी इस महान् अश्वमेध यज्ञ में शामिल
होने आए हैं। श्रीराम के द्वारा आग्रह किए जाने के बाद कुश और लव ने यज्ञभूमि में प्रतिदिन रामायण
(या सीतायन कहें) का गायन किया। कई दिनों तक श्रीराम ने अपने भाइयों, राजाओं, मंत्रियों, ऋषियों,
वानर सैनिकों और अयोध्या के प्रजाजनों की उपस्थिति में उन दो तपस्वी बालकों का संगीत सुना। उनके
रामायण गान को सुनकर श्रीराम को ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे दोनों सीताजी के ही पुत्र हैं। श्रीराम ने
महर्षि वाल्मीकि के पास एक दूत भेजकर बुलवाया और उनसे आग्रह किया कि यदि सीता का चरित्र
शुद्ध है और यदि उनमें किसी तरह का पाप नहीं है तो उन्हें यहाँ आकर अपने सतीत्व का प्रमाण ऋषियों,
दरबारियों और प्रजाजनों के समक्ष देना चाहिए।
अगले ही दिन नैमिष आरण्य की यज्ञभूमि में वाल्मीकिजी सीताजी को लेकर आ गए। महर्षि
वाल्मीकि ने राजा जनक की उस तेजस्विनी पुत्री के सतीत्व की शपथ ली और उन्होंने श्रीराम से कहा,
“सच्‍चे चरित्रवाली इस पवित्र सीता को आपने इनकी गर्भावस्था में अपनी लोकनिंदा तथा अपयश के डर
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से मेरी कुटिया में छोड़ दिया था। मेरे आश्रम की साध्वियों ने इनकी देखभाल की; लव और कुश वास्तव
में आपके ही पुत्र हैं। मैंने कभी कोई झूठ नहीं बोला है और न कभी कोई पाप किया है।” परंतु श्रीराम ने
हाथ जोड़कर उत्तर दिया कि वह वास्तविकता से परिचित हैं, क्योंकि सीताजी अपना सतीत्व राक्षसों, वानर
सैनिकों, देवताओं और मानवों के समक्ष अग्निपरीक्षा देकर पहले ही प्रमाणित कर चुकी हैं। फिर भी प्रजा
के द्वारा लगाए जा रहे कलंकों को एक राजा नहीं धो सकता। अतः प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सीता को
अपने सतीत्व का प्रमाण स्वयं ही देना होगा। उस समय श्रीराम लोकनिंदा से भयभीत नजर आए, लेकिन
सीताजी बहुत साहसी, निर्भीक और विश्वस्त दिखाई दे रही थीं। श्रीराम के मंतव्य को समझकर, सीताजी ने
हाथ जोड़कर, दृष्टि और मुख नीचे की ओर करते हुए कहा, “मैंने श्रीराम के सिवाय दूसरे किसी पुरुष का
स्पर्श तो दूर रहा, मन से भी चिंतन नहीं किया; यदि यह सत्य है तो पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान
दें। रघुनंदन श्रीराम को छोड़कर दूसरे किसी पुरुष को नहीं जानती। यदि मेरी कही हुई यह बात सत्य है तो
हे पृथ्वी देवी! मुझे अपनी गोद में स्थान दें।” (वा.रा.7/97/14-17)
विदेहकुमारी सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही अचानक धरती कपं ायमान हो उठी और धरती से एक दिव्य
सिंहासन निकला, जिसमें सीताजी बैठ गईं। जब सिंहासन पर बैठकर सीताजी रसातल में प्रवेश कर रही थीं तो
वहाँ उपस्थित सब लोग स्तब्ध रह गए। इस प्रकार सीताजी के चरित्र पर उँगली उठाने वाले अयोध्यावासियों
को पछतावे, शोक तथा आश्चर्य में छोड़कर सीताजी रसातल में समा गईं। (देखें लघुचित्र-14)
378 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

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लघुचित्र-14 ः अयोध्या की प्रजा को स्तब्ध तथा शोकग्रस्त छोड़कर सीताजी रसातल में समा गईं।
काँगड़ा शैली, 19वीं सदी, अधिप्राप्ति संख्या. 87.501/4, सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय

असहनीय मानसिक व्यथा, शोक और कष्ट से पीड़ित श्रीराम की आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने
कहा, “हे धरती माता! या तो मुझे मेरी सीता वापस कर दे या मुझे भी अपने में समा ले।” इस प्रकार पूरे
संसार के सामने सिद्ध हो गया कि श्रीराम ही कुश और लव के पिता हैं। अयोध्या की प्रजा को अपनी
साध्वी रानी तथा कल्याणकारी राजा के प्रति इतना निर्दयतापूर्वक व्यवहार करने के लिए पछताना पड़ा।
असहनीय दर्द का अनुभव करते हुए और सीता के विषय में सोचते हुए श्रीराम पूरी रात सो नहीं सके।
मंत्रियों और ऋषियों के द्वारा सांत्वना दिए जाने के बाद श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण किया और
कुश तथा लव को अपने साथ अयोध्या ले गए। वे लव और कुश को साथ लेकर रहने लगे और कभी
दूसरा विवाह नहीं किया। तदुपरांत उन्होंने कोशल राज्य के लोगों की भलाई के लिए और दस वर्ष तक
राज्य किया। (वा.रा. 7/99/9) (यहाँ फिर यह स्पष्ट कर दें कि प्राचीन संस्कृत में ‘सहस ्राणी’ शब्द
का सामान्य अर्थ ‘लगभग’ होता था)।8 श्रीराम के शासन में सभी गाँवों और नगरों के वासी समृद्ध और
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 379

खुशहाल थे। उन्हीं दिनों में कौशल्या, कैकये ी और सुमित्रा एक-एक कर स्वर्ग सिधार गईं। प्रत्येक यज्ञ
में जब-जब श्रीराम को धर्मपत्नी की आवश्यकता होती थी तो सीताजी की स्वर्णमयी प्रतिमा अधिष्ठापित
करवा लेते थे। श्रीराम ने अनेक अश्वमेध यज्ञ किए और प्रचुर मात्रा में धन-दौलत भी दान में दिया।

6. श्रीराम की आज्ञा से आठों राजकुमारों के लिए आठ नई राजधानियों का विकास


कुछ समय बाद ब्रह्म‍र्षि गार्ग्य कैकेय देश के राजा युधाजित् का एक संदेश लेकर आए और सिंधु
के दोनों ओर स्थित गंधर्व क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने में श्रीराम की सहायता का आग्रह किया। युधाजित्
की यह भी इच्छा थी कि गंधर्व क्षेत्र को जीतने के बाद इसे कोशल राज्य में मिला दिया जाए। श्रीराम
के आदेश पर अपने दोनों पुत्रों तक्ष और पुष्कल को साथ लेकर भरत अपने मामा युधाजित् की सहायता
के लिए शक्तिशाली सेना को लेकर गए। एक भयंकर युद्ध प्रारंभ हुआ, जो सात दिनों तक निरंतर चलता
रहा; दोनों ओर के हजारों सैनिक मारे गए। अंत में भरत ने संवर्त नामक एक बाण छोड़ा, जिससे हजारों
शक्तिशाली गंधर्वों का एक साथ वध हो गया। इस प्रकार भरत और युधाजित् ने गंधर्वों को पराजित
करने में सफलता प्राप्त की। इसके पश्चात् तक्षशिला और पुष्कलावत नामक दो सुंदर नगर बसाए गए।
(वा.रा.7/101) गांधार देश को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। भरत के पुत्र तक्ष को सिंधु नदी
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के पूर्वी क्षेत्र का राज्य सौंप दिया गया, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। दूसरे पुत्र पुष्कल का राजधानी
पुष्कलावत में राजतिलक किया गया और उसका साम्राज्य सिंधु नदी के पश्चिमी क्षेत्र में था। इन नगरों
को रमणीय और समृद्ध बनाने के लिए वाटिकाओं और तपोवनों, बाजारों और गलियों को सुंदर तथा
सुचारु ढंग से बनाया गया। शोभासंपन्न घरों और मंदिरों से भी उन दोनों नगरों की रमणीयता बढ़ रही
थी। अपने पुत्रों को राजा के रूप में स्थापित करने में पाँच वर्षों तक सहायता करने के उपरांत भरत
श्रीराम के पास अयोध्या लौट गए और श्रीराम को गंधर्वों से युद्ध के बारे में तथा दो नगरों के विकास
के बारे में विस्तार से बताया। इस विवरण को सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हुए।
तक्षशिला में जॉन मार्शल और कनिंघम ने लगभग सौ वर्ष पहले कुछ सीमित उत्खनन कार्य
करवाया था। वहाँ जिन पुरातात्त्विक स्थलों का उत्खनन हुआ है उनमें से सराई खोला, भीर, सिरकल्प
और सिर्सुख महत्त्वपूर्ण हैं। सराई खोला के पुरातात्त्विक स्थल से मिली कलाकृतियों ने रामायण तथा
महाभारत के तिथिकरण को समर्थित किया है। यहाँ से टैराकोटा की वस्तुएँ, पक्की मिट्टी के बर्तन
तथा अर्धकीमती पत्थरों के मनके मिले हैं, जिनका कार्बन तिथिकरण इन्हें 3200-2200 वर्ष ई.पू. के
आस-पास का बताता है। तक्षशिला में उत्खनित विश्व का प्राचीनतम विश्वविद्यालय, वहाँ की संस्कृति
की पुरातनता तथा निरंतरता का जीवंत उदाहरण है। इसके महत्त्व को देखते हुए यूनेस्को ने इसे विश्व
विरासत स्थल घोषित किया है। यह पाकिस्तान के आधुनिक रावलपिंडी जिले का सर्वाधिक लोकप्रिय
पर्यटक नगर है। (संदर्भ–ए गाइड टू तक्षशिला, लेखक सर जॉन मार्शल; देखें चित्र-52)
380 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

तक्षशिला © यूनेस्को लेखक : अलेक्जेंडर सायन विटगेंशन


चित्र-52 ः विश्व धरोहर स्थलों की सूची से डाउनलोड किया गया-http://whc.unesco.org/en/list/139/gallery/
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स् वात और काबुल नदियों के संगम पर स्थित प्राचीन स्थल पुष्कलावती में भी बहुत सीमित उत्खनन
कार्य किया गया था। यह पाकिस्तान के खैबर पखतुन्खवा प्रांत (एन.डब्लू.एफ.पी.) की पेशावर घाटी में
स्थित है। इसे पुष्कलावती नाम दिया गया था, क्योंकि इसकी स्थापना भरत के पुत्र पुष्कल के लिए लगभग
7000 वर्ष पहले की गई थी। दो हजार वर्ष बाद, महाभारत काल में भी इस नगर के संदर्भ मिलते हैं।
पुष्कलावती पुन: छठी शताब्दी ई.पू. से दूसरी शताब्दी ई.पू. तक गंधर्व के एकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी
थी। पुरातत्त्वविद् जॉन मार्शल ने सबसे पहले 1902 में इस स्थान की खुदाई की; सर मॉर्टिमर व्हिलर ने इस
स्थान की कुछ खुदाई 1962 में की थी।
कुछ समय के पश्चात् श्रीराम ने लक्ष्मण के दो पराक्रमी पुत्रों अंगद और चंद्रकेतु का राजतिलक उस
क्षेत्र के राजा के रूप में करने का निर्णय लिया, जहाँ राजाओं को किसी अधम व्यक्तियों के द्वारा परेशान
नहीं किया जा रहा हो, जो स्थान विघ्न-बाधाओं से रहित हो तथा उस क्षेत्र के तपस्वियों की रक्षा वहाँ के
शासकों और मंत्रियों के द्वारा की जा रही हो। सदाचारी भरत ने कारुपथ क्षेत्र का सुझाव दिया, जो अत्यंत
सुंदर होने के साथ-साथ शांत भी था। वर्तमान समय में यह क्षेत्र बंगाल, ओडिशा और बिहार में स्थित है।
श्रीराम ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस क्षेत्र को अपने सीधे नियंत्रण में कर लिया। दो
सुंदर नगर विकसित किए गए। महान धनुर्धर अंगद को कारुपथ देश का राजा बनाया गया, जिसके लिए
‘अंगदीया’ नाम की राजधानी को विकसित किया गया। महाबली चंद्रकेतु को मल्ल देश का राजा बनाया
गया, उसके लिए राजधानी ‘चंद्रकांता’ को विकसित किया गया। (वा.रा. 7/102)
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 381

रामायण काल के इस प्राचीन नगर ‘चंद्रकांता’ का उत्खनन चंद्रकेतुगढ़ में किया गया था, यह पश्चिम
बंगाल के उत्तर 24-परगना जिले में स्थित है। कई स्थलों के उत्खनन से सभ्यता के सात चरणों का पता
चला है—काल I और II मौर्य काल तथा पूर्व मौर्य काल अर्थात्् 500 वर्ष ई.पू. से पहले को दर्शाता है,
जबकि काल III से VII शुंग, कुषाण, गुप्त और उत्तर गुप्त काल को इंगित करते हैं। पूर्व मौर्यकाल युग
से संबंधित सबसे महत्त्वपूर्ण पुरावशेषों में लाल, भूरे और काले रंग के मृदभांड, ताँबे और चाँदी के सिक्के
तथा उत्कृष्ट पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ शामिल हैं। इन मूर्तियों में अधिकांश मूर्तियाँ यक्षिणियों और अप्सराओं
की हैं, जिनका संदर्भ वाल्मीकि रामायण में बार-बार मिलता है। इनमें से अधिकांश को खान-मिहिर-धिपी
स्थल से उत्खनन किया गया है, जहाँ प्राचीन हिंदू मंदिरों के अवशेष भी मिले थे। इन अधिकांश उत्खननों
का विवरण इंडियन आर्कियोलॉजी-ए रिव्यू (आई.ए.आर.) में किया गया है और इसकी शिल्पकृतियों/
कलाकृतियों को आशुतोष संग्रहालय आ ॅफ इंडियन आर्ट कोलकाता (ए.एम.सी.) में सुरक्षित रखा गया है।
इनका विस्तृत विवरण इनेमुल हक ने अपनी पुस्तक ‘चंद्रकेतुगढ़ ः ए ट्रैजर हाउस आ ॅफ बंगाल टेराकोटाज’
में दिया है।10 (देखें चित्र-53)

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चित्र-53 ः आभूषण से सज्जित यक्षिणियाँ-प्लेट C-50, C-51, AMC (नाचती अप्सराएँ)


प्लेट C-100, C-101, C-103, C-104, AMC
http://www.caluniv.ac.in/museum/museum.html सौजन्य : बी.आर. मणि
382 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

रामायण में अंगदीया के रूप में संदर्भित अंग प्रदेश के चंपा और ओरियप में किए गए उत्खननों
से भी इसी प्रकार के सांस्कृतिक विकास की प्राचीनता पता चली है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से हम इस
निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 2000 वर्ष ई.पू. के आसपास राजनीतिक रियासतें सुस्थापित हो चुकी थीं,
परंतु उन स्थानों पर बस्तियों की स्थापना इससे पहले अवश्य हो गई होगी। वास्तव में अंगदिया और
चंद्रकेतुगढ़ के संदर्भ महाभारत में भी आते हैं। महाभारत की खगोलीय तथा पुरातात्त्विक तिथियाँ 3000
वर्ष ईसा पूर्व निर्धारित हुई हैं।11-14 इस प्रकार पिछले सात हजार वर्षों से इन दोनों नगरों के उत्थान
और पतन का क्रम चलता रहा।
लक्ष्मण ने अंगद के साथ एक वर्ष तक निवास किया और भरत ने चंद्रकेतु के साथ एक वर्ष
से अधिक समय तक निवास किया, ताकि उन दोनों को उनका साम्राज्य चलाने के लिए भलीभाँति
प्रशिक्षित किया जा सके तथा वे लोगों के हित में उनकी सुरक्षा और समृद्धि को सुनिश्चित करने के
लिए अपने-अपने राज्यों को संचालित करने में पूरी तरह प्रशिक्षित हो जाएँ। इसके पश्चात् दोनों अयोध्या
वापस लौट आए और श्रीराम को इसकी सूचना दी। वे श्रीराम के साथ हृदय से जुड़े हुए थे; अतः वे
उनसे आवश्यकता से अधिक समय तक अलग होकर रहना नहीं चाहते थे। इसके पश्चात् श्रीराम ने
भरत और लक्ष्मण की सहायता से अपने राज्य को लगभग और दस वर्षों तक खुशहाल और संपन्न
बनाए रखा। (वा.रा. 7/102/16)
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7. श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों की अंतिम यात्रा
कुछ समय और बीत जाने पर जब श्रीराम धर्मपूर्वक अयोध्या की प्रजा का पालन करते हुए परोपकार
में लगे हुए थे, तो एक दिन मानो साक्षात‍् काल ही एक तपस्वी के रूप में राजभवन के द्वार पर आ
गया। उसने द्वार पर खड़े हुए धैर्यवान एवं यशस्वी लक्ष्मण से कहा, “मैं महर्षि अतिबला का दूत हूँ और
श्रीराम से मिलने की इच्छा से आया हूँ।” लक्ष्मण ने तपस्वी के आने की सूचना तत्काल श्रीराम को दे
दी। श्रीराम ने लक्ष्मण से तपस्वी को कक्ष में लाने का आदेश दिया। रघुवंशी श्रीराम के पास पहुँचने के
बाद तपस्वी का स्वागत किया गया और उन्हें सुवर्णमय आसन पर बैठाया गया। तपस्वी ने श्रीराम से
कहा, “मेरा संदेश केवल आपको बताने के लिए ही है। यदि किसी अन्य व्यक्ति ने हमें बातचीत करते
हुए देख लिया या हमारी बातों को सुन लिया, तो उसे मृत्युदंड देना होगा।” श्रीराम ने तपस्वी की शर्त
स्वीकार कर ली और लक्ष्मण से द्वार की रक्षा करने के लिए कहा। तपस्वी ने श्रीराम से कहा, “आपके
मर्त्यलोक में जन्म लेने का उद्देश्य पूर्ण हो गया है और मानव के रूप में पृथ्वी पर वास करने की
आपकी अवधि समाप्त हो चुकी है; अतः आपको साकेत धाम जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।”
इन दोनों के बीच इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि ठीक उसी समय राज द्वार पर महर्षि
दुर्वासा पधारे और वे भी तत्काल श्रीराम से मिलना चाहते थे। लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर दुर्वासा से निवेदन
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 383

किया कि श्रीराम दूसरे महर्षि के साथ व्यस्त हैं अत: दो घड़ी उनकी प्रतीक्षा करें। ऐसा सुनकर महर्षि
दुर्वासा क्रोधित हो गए और लक्ष्मण से बोले, “सुमित्राकुमार! यदि इसी क्षण मेरे आगमन की सूचना
श्रीराम को नहीं दी तो मैं श्रीराम, उनके संपूर्ण कुल और साम्राज्य को शाप दे दूँगा।” उनकी धमकी से
सचेत होकर और दुर्वासा के पराक्रम एवं उनके अभिशाप की शक्ति को पूरी तरह से समझ लेने के
बाद लक्ष्मण ने सूर्यवंश तथा इसके साम्राज्य को बचाने के लिए अकेले अपनी मृत्यु का मार्ग चुना।
अतः वह अत्रि ऋषि के पुत्र दुर्वासा ऋषि के आगमन की सूचना देने के लिए श्रीराम के कक्ष में गए।
श्रीराम दुर्वासा ऋषि से मिलने बाहर आए, उन्होंने श्रीराम से कहा कि लगभग एक वर्ष का उपवास पूर्ण
करने के बाद उन्हें तत्काल पका हुआ भोजन चाहिए। उन्हें भोजन परोसा गया; भोजन ग्रहण करके तृप्त
हो जाने के पश्चात् और श्रीराम की सराहना करते हुए दुर्वासा ऋषि अपने आश्रम को वापस चले गए।
दूसरी ओर अतिबला के दूत तपस्वी ने माँग की कि श्रीराम को लक्ष्मण को मृत्युदंड देने का
अपना वचन निभाना चाहिए। ऐसा कहकर वह कालरूपी तपस्वी वहाँ से चला गया। श्रीराम को भावी
भ्रातृ वियोग के बारे में विचार करके पीड़ा और दुःख का अनुभव हुआ। तत्पश्चात् काल के वचनों पर
बुद्धिपूर्वक सोच-विचार करके महायश्स्वी श्रीराम इस निर्णय पर पहुँचे कि अब यहाँ कुछ भी यथावत्
नहीं रहेगा। श्रीराम पुन: अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय भाई लक्ष्मण से वियोग के बारे में सोचकर
दुःखी हुए और उनका चेहरा राहुग्रस्त चंद्रमा के समान दीन-हीन दिखाई दे रहा था, हालाँकि लक्ष्मण ने
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हर्ष के साथ मधुर वाणी में श्रीराम से कहा, “आपको मेरे लिए संताप करने की आवश्यकता नहीं है।
यह तो विधि का विधान है। इसलिए आप निश्चिंत होकर मेरा वध कर डालें और ऐसा करके अपनी
प्रतिज्ञा का पालन करें।” श्रीराम ने अपने भाइयों, मंत्रियों और ऋषियों को बुलाकर उन सभी को यह
संपूर्ण घटनाक्रम बताया। महर्षि वसिष्ठ ने सुझाव दिया कि वचन की मर्यादा बनाए रखने के लिए
श्रीराम अपने प्रिय भाई लक्ष्मण का त्याग कर दें, क्योंकि अपनों का इस प्रकार त्याग मृत्यु दंड देने के
समान ही होता है। इसके बाद श्रीराम ने लक्ष्मण को त्याग दिया, जो उसके बाद तत्काल सरयू नदी के
तट पर गए। नदी में स्नान कर, अपनी इंद्रियों को अवरोधित कर और श्वास को रोककर, लक्ष्मण ने
सरयू नदी में प्रवेश किया और इस प्रकार वे साकेतधाम पहुँच गए।
लक्ष्मण को त्यागकर, उनके वियोग की गहरी वेदना महसूस करते हुए श्रीराम ने ऋषियों, मंत्रियों
और प्रजाजनों से कहा, “मैं अयोध्या के सिंहापन पर भरत का अभिषेक करूँगा और स्वयं लक्ष्मण द्वारा
अपनाए गए मार्ग का अनुसरण करूँगा।” परंतु भरत ने राजा बनना स्वीकार नहीं किया, श्रीराम से अलग
होकर रहना भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सुझाव दिया कि दक्षिण कोशल पर कुश का राजतिलक
कर दिया जाए और लव का उत्तरी कोशल के राजा के रूप में राज्याभिषेक कर दिया जाए। इस संपूर्ण
घटनाक्रम के बारे में शत्रुघ्न को समाचार देने के लिए उनके पास द्रुत गति के दूत भेजे जाएँ। भरत के
इस सुझाव का महर्षि वसिष्ठ ने समर्थन किया। उस समय अयोध्या के दरबारी और प्रजाजन अत्यंत
384 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

दुःखी हो गए और उन सभी ने श्रीराम से आग्रह किया कि वे उन्हें भी अपने साथ लेकर चलें। पृथ्वी
पर अपने मानव जीवन की समाप्ति का पूर्वानुमान लगाते हुए श्रीराम ने उसी दिन कुश और लव का
राजतिलक कर दिया। कुश का दक्षिणी कोशल के राजा के रूप में राजतिलक किया गया और उसे
सुंदर राजधानी ‘कुशावती’ भेजा गया, जो विंध्य पर्वत के किनारे स्थित थी। लव को उत्तरी कोशल का
राजा बनाया गया और उसे उसकी राजधानी ‘श्रावस्ती’ भेजा गया, जो उत्तर प्रदेश में नेपाल सीमा के
साथ स्थित थी। (वा.रा.7/108) कुश और लव को अपनी गोद में बैठाकर, स्नेह से गले लगाते हुए,
श्रीराम ने उन्हें बहुत-सा धन और बहुमूल्य रत्न दिए। श्रीराम ने सेना को भी उन दोनों में बाँट दिया
और बहुत बड़ी संख्या में रथ, हाथी, अश्व, सैनिक और हथियार उन्हें प्रदान किए। इसके पश्चात्
उन्होंने लव और कुश को सेना और अन्य प्रतिनिधियों के साथ अपने-अपने नए राज्यों में भेज दिया।
v

अयोध्या, श्रावस्ती, लहुरादेवा और सिसवानिया, जो कि प्राचीन कोशल साम्राज्य का हिस्सा थे, में
हुए सीमित उत्खननों से पता चला है कि ये दूसरी सहस‍्राब्दी ईसा पूर्व में अच्छी तरह से स्थापित उपनिवेश
थे; हालाँकि इन साइटों में से कई बस्तियों में मानव सभ्यता के विकास के और अधिक प्राचीन प्रमाण भी
मिले हैं।15-16 लहुरादेवा में सुसज्जित बर्तनों के ठीकरे, अर्धकीमती पत्थरों के मोती, ताँबे के तीर का फल
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व धनुष का किनारा आदि अनेक कलाकृतियाँ उत्खनन में मिली है तथा इनकी कार्बन डेटिंग इन्हें 7000
वर्ष पुराना बताती है। सी-14 तिथियों ने सिद्ध किया है कि 7000 वर्ष पहले रामायण युग के दौरान, भारत
में चावल, जौ, गेहूँ, मूँग, मटर, तिल, आँवला और अंगूर आदि की खेती की जा रही थी। (तिवारी और
अन्य, 2001-2002 2007-2008, पुरातत्त्व)17-18 इन सभी का संदर्भ रामायण में बार-बार आता है। (वा.
रा. 1/27/7-13, वा.रा. 2/15/7-10, 7/91/19-20)
वास्तव में छठी शताब्दी ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई.पू. के बीच बहुत बड़ी संख्या में हिंदुओं ने बौद्ध
धर्म और जैन धर्म को अपनाया था। परिणामस्वरूप अधिकांश विकसित स्थलों या मंदिरों के स्थान पर
स्तूप, बौद्ध विहार, बुद्ध की प्रतिमाएँ अस्तित्व में आईं। वाल्मीकि रामायण के विषयवस्तु से अनभिज्ञ
अधिकांश पुरातत्त्वविद्, इन उत्खनित स्थलों के बौद्ध काल से पूर्व के इतिहास पर प्रकाश नहीं डाल सके।
इस बात को ध्यान में रखते हुए कि पिछले 7000 वर्षों में कई भूकंप, बाढ़, अकाल और युद्ध हुए
होंगे, क्या यह मानना अनुचित होगा कि इन स्थानों से संबधि
ं त इतिहास वास्तव में मिली हुई कलाकृतियों के
कार्बन तिथिकरण से बहुत पुराना होगा? यहाँ पर यह बताना भी उचित होगा कि श्रीराम के समय में बसाए
गए इन आठों नगरों में 60-70 वर्ष से भी पहले अत्यंत सीमित उत्खनन हुए थे। उस समय इनमें लगभग
3500-1500 वर्ष पुरानी कलाकृतियाँ खुदाई में मिली थीं।19 हम सब यह अच्छी तरह जानते हैं कि काेशल
देश में लहुरादेवा नामक स्थान पर भी 2001-2002 में हुए उत्खननों में पहले इसी तरह 3000 वर्ष पुरानी
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 385

कलाकृतियाँ ही खोदी गई थीं, परंतु 5 वर्ष बाद 2005-2006 में एक और टीले को चिह्न‍‍ित कर, डॉ. राकेश
तिवारी के नेतृत्व में जब खुदाई की गई तो वहाँ 7000 वर्ष से भी अधिक पुरानी कलाकृतियों तथा फसलों के
अवशेष प्राप्त हुए। इन उत्खनित वस्तुओं के संदर्भ रामायण में भी मिलते हैं। इनकी जानकारी इस पुस्तक
के अध्याय एक में दी गई है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि यदि इन आठ नगरों में
नए टीले/स्थान चिह्न‍‍ित करने के पश्चात् व्यापक उत्खनन किए जाएँ तो 7000 वर्ष पुराने साक्ष्य भी अवश्य
मिलेंगे। यहाँ पर यह बताना सार्थक होगा कि सिंधु, सरस्वती तथा गंगा क्षेत्रों में ऐसे अनेक स्थान उत्खनित
किए गए हैं, जिनमें सात-आठ हजार वर्ष पुराने अवशेष मिले हैं, तो भला इन नगरों में क्यों नहीं मिलेंगे?

v
भरत ने सुझाव दिया था कि इस संपर्ण ू घटनाक्रम के बारे में समाचार देने के ‌लिए शत्रुघ्न के पास भी
दूत को भेजा जाए। भारत के इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए श्रीराम ने शत्रुघ्न के पास भी द्रुत गति वाला
संदश
े वाहक भेजा और उसने उन्हें संपर्ण ू घटनाक्रम से अवगत कराया। दूत ने शत्रुघ्न को श्रीराम द्वारा लक्ष्मण
के परित्याग, लव और कुश के राजतिलक और श्रीराम और भरत के साकेत धाम में जाने के निर्णय के बारे में
भी बताया। इस अत्यंत दुःखद घटनाक्रम के बारे में सुनकर शत्रुघ्न ने अपने राज्य को दो भागों में विभाजित कर
दिया। उन्होंने अपने पुत्र सुबाहु को मधुरापुरी (मथुरा) का राजा बनाया और दूसरे पुत्र शत्रुघाती को विदिशा
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का राजा बनाया (वा.रा. 7/108)। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा यह स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है कि सुदं र
नगर मथुरा की स्थापना शूरसेन जनपद के साथ-साथ की गई थी (वा.रा. 7/70)। इस अर्द्धचंद्राकार सुदं र
नगर को यमुना नदी के किनारे मधु राज्य के राजधानी के रूप में विकसित किया गया था।
आनुवंशिक अध्ययनों के साथ पुरातात्त्विक तथा खगोलीय साक्ष्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि वेद
7500 वर्ष ई.पू.-2500 वर्ष ई.पू. के ज्ञान का संकलन है, जबकि रामायण और महाभारत में उस काल
के इतिहास को अभिलिखित किया गया है। यह काफी रुचिकर है कि मथुरा के कुछ प्राचीन सिल्वर पंच
चिह्न‍‍ित सिक्कों का शूरसेन से स्पष्ट संबंध दिखाई देता है। इन्हें ब्रिटिश संग्रहालय के साथ-साथ मथुरा
संग्रहालय में रखा गया है। अधिकांश परंपरागत आंकलित तिथियाँ इन्हें पूर्व मौर्य काल अर्थात्् चौथी
शताब्दी ई.पू. से जोड़ती है। (संदर्भ ः परमेश्वरी लाल गुप्ता द्वारा लिखित पुस्तक)20
विदिशा में तथा उसके आस-पास के उत्खननों से कई अचंभित करने वाले निष्कर्ष सामने आए हैं।
वहाँ पंच-मार्क चाँदी के सिक्कों का काफी संग्रह मिला है, जिनमें से कुछ ब्रिटिश संग्रहालय तथा भोपाल
संग्रहालय में रखे हुए हैं। भोपाल के पुरातत्त्वविद् और संग्रहालय के मुद्राशास्त्री श्री जे.पी. जैन ने ऐसे कुछ
सिक्कों के चित्र दिखाए हैं, जिनका ब्यौरा ‘विदिशा थ्रू द एजेज़’ में दिया है तथा इसका संपादन के.के.
चक्रवर्ती ने किया है।21 एगाथोक्लिज के ड्रैक्म के चाँदी के सिक्के पर एक तरफ श्रीकृष्ण को चक्र के साथ
तथा दूसरी तरफ बलराम को हल के साथ पंचचिह्न‍‍ित किया गया है।
386 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

चित्र-54 ः भोपाल के मुद्राशास्त्री श्री जे.पी. जैन के द्वारा दर्शाए गए विदिशा के सिक्के।
एगाथोक्लिज के ड्रैक्म-चक्र के साथ श्रीकृष्ण, सौजन्य : बी.आर. मूर्ति

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मथुरा और विदिशा के ये दो नगर विकास-पतन-विनाश-पुनर्निर्माण या


फिर समृद्धि, विध्वंस और पुनःनिर्माण के कई चरणों से निरंतर गुजरे हैं; लेकिन इन्हें न तो लोगों की स्मृति
से और न ही भारत के मानचित्र से मिटाया जा सका है। इन विवरणों को यहाँ देने का उद्देश्य यही है कि
आज से 2500 वर्ष पहले भी भारतवर्ष के इन क्षेत्रों में श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूजनीय माना जाता था।
शत्रुघ्न तत्काल अकेले ही अपने रथ पर मथुरा के लिए निकल पड़े। अयोध्या पहुँचकर और श्रीराम
के सामने मस्तक झुकाकर शत्रुघ्न ने बताया कि वे अपने दोनों पुत्रों का राजतिलक करने के पश्चात् श्रीराम
का अनुसरण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उसी समय सुग्रीव भी वहाँ आए और उन्होंने श्रीराम से कहा कि
MAGAZINE KING
अंगद को किष्किंधा का राजा बनाकर वह भी श्रीराम का अनुसरण करने का निर्णय लेकर आए हैं।
श्रीराम ने साकेतधाम जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की। भरत और शत्रुघ्न ने भी उनके साथ जाने का
निर्णय लिया। सुग्रीव, कई और वानर योद्धा तथा अयोध्या के अनेक नागरिक श्रीराम के बिना पृथ्वी पर रहना
नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने भी श्रीराम का अनुसरण करने का निर्णय लिया। अगली सुबह श्रीराम ने मुख्य
परु ोहित से अग्निहोत्र का अनुष्ठान करने तथा उन्हें अंतिम यात्रा के लिए तैयार करने का आग्रह किया। महर्षि
वसिष्ठ ने सभी अनुष्ठान किए। इसके बाद उत्तम वस्त्र पहनकर, मंत्रोच् चारण करते हुए, हाथ में कुशा घास
लेकर श्रीराम सरयू नदी पर गए। भरत और शत्रुघ्न भी अंतःपुर की अन्य महिलाओं के साथ उस अग्निहोत्र
अनुष्ठान में शामिल हुए। अपनी श्वास को रोकते हुए ब्रह्म ाजी को स्मरण करते हुए श्रीराम ने अपने भाइयों के
साथ सरयू नदी में प्रवेश किया। इस तरह वे सभी साकेत धाम पहुँच गए और विष्णु रूप में प्रवेश कर गए।
कई तपस्वियों, मंत्रियों, सुग्रीव, वानर सैनिकों और अयोध्या के अनेक नागरिकों ने भी श्रीराम के
पीछे-पीछे सरयू नदी में प्रवेश किया; वे सभी अपने शरीर को सरयू नदी में त्याग कर संतानक लोक पहुँचे।
जो साकेत धाम का ही एक हिस्सा है। जब वे रघुवंशी श्रीराम के पीछे सरयू में प्रवेश कर रहे थे, तो उस
समय उस नदी का जल भँवरों के माध्यम से कंपायमान हो रहा था।
रामायण में वर्णित कुछ महत्त्वपूर्ण स्थलों, विशेष रूप से श्रीराम द्वारा आठ राजकुमारों के लिए
विकसित किए गए आठ राजधानी नगरों की आधुनिक समय की स्थिति दर्शाते हुए मानचित्र को देखें।
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 387

वाल्मीकि रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण स्‍थान, जिनमें राज्य, नगर, पवर्त तथा वन भी शामिल हैं, उन्हें इस
मानचित्र पर इनकी जी.पी.एस. स्थिति के साथ इस मानचित्र पर चि‌िह्न‍त किया गया है। (देखें चित्र-55)

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388 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

वाल्मीकि रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण स्थान, राज्य, पर्वत व वन–मानचित्र पर चिह्न‍‍ित
राजा दशरथ द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ हेतु आमंत्रित राज्य (संदर्भ : वा.रा./1/13/23-29)
1. अयोध्या 2. कैकय 3. काशी
4. अंगदेश 5. मगध 6. सिंधुसौवीर
7. सौराष्ट्र 8. मिथिला
श्रीराम की मिथिला यात्रा से संबं​ि‍धत स्थान
1. रामघाट, मऊ—संदर्भ : वा.रा./1/22/11 2. विश्वामित्र आश्रम—संदर्भ : वा.रा./1/29
3. अहिल्याआश्रम—संदर्भ : वा.रा./1/48/11 जनकपुर–संदर्भ : वा.रा./1/50
श्रीराम के 14 वर्ष की वनवास यात्रा से संबं​ि‍धत स्थान
1. शृंग्‍वेरपुर–संदर्भ : वा.रा./2/50/26 2. भरद्वाजआश्रम–संदर्भ : वा.रा./2/54/5
3. अक्षयवट–संदर्भ : वा.रा./2/55/23 4. चित्रकूट–संदर्भ : वा.रा./2/56/10
5. कामदगि​िर–संदर्भ : वा.रा./2/56/12 6. शरभंगआश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/5
7.
9.
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सुतीक्ष्णआश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/7
कौटुमसर–संदर्भ : वा.रा./3/7-11 10.
8. पैसरघाट–संदर्भ : वा.रा./3/7-11
पञ्चपसर–संदर्भ : वा.रा./3/11/11
11. अगस्त्यआश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/12 12. पंचवटी–संदर्भ : वा.रा./3/15
13. जनस्थान–संदर्भ : वा.रा./3/18/25 14. शबरीआश्रम–संदर्भ : वा.रा./3/74
15. पम्पासर–संदर्भ : वा.रा./3/75, 4/1 16. ऋष्यमूक पर्वत-वा.रा./4/5/1
17. किष्किंधा-संदर्भ : वा.रा./4/11-26 18. प्रस‍्रवण पर्वत-वा.रा. /4/27
19. हसन (कावेरी क्षेत्र)-वा.रा. 6/4/71 20. सत्यागला, मैसूर-वा.रा. 6/4/71
21. त्रिचुरापल्ली-वा.रा. 6/4/71 22. पोडूकोटाई-वा.रा. 6/4/71
23. मदुरई-वा.रा. 6/4/71 24. रामनाथपुरम-वा.रा. 6/4/94-98
25. महेंद्रगिरि (गंधमादन) वा.रा. 6/4/92-94 26. रामेश्वरम्– वा.रा./6/4/94, 6/123/19
27. धनुषकोटि–संदर्भ : वा.रा./6/123/19 28. लंका, अशोकवाटिका-वा.रा./5/14-16

वाल्मीकि रामायण में वर्णित पर्वत


1. ऋष्यमूकपर्वत–संदर्भ : वा.रा./4/5/1 2. प्रस‍्रवणपर्वत–संदर्भ : वा.रा./4/27/1
3. सह्य‍‍ापर्वत–संदर्भ : वा.रा./6/4/94 4. मलयपर्वत–संदर्भ : वा.रा./6/4/94
5. सोमागिरि–संदर्भ : वा.रा./4/42/16 6. त्रिकूटपर्वत–संदर्भ : वा.रा./6/39/17
7. कैलाशपर्वत–संदर्भ : वा.रा./6/74/30
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 389

वाल्मीकि रामायण में वर्णित प्रमुख वन


1. दंडकवन–संदर्भ : वा.रा./3/7-11 2. नैमिषारण्य–संदर्भ : वा.रा./7/91/15

राजा दशरथ के 8 पौत्रों में विभाजित राज्यों की राजधानियाँ


*सभी 8 राजधानियों को नए शहरों के रूप में बसाया गया
1. तक्षशिला (गंधर्व)–भरत के पुत्र तक्ष की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/101/11
2. पुष्कलावत (गांधार)–भरत के पुत्र पुष्कल की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/101/11
3. चंद्रकान्ता (मल्लदेश)–लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/102/8
4. अंगदिया (करुपथ)–लक्ष्मण के पुत्र अंगद की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/102/8
5. श्रावस्ती (उत्तर कौशल)–राम के पुत्र लव की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/108/5
6. कुशावती (दक्षिण कौशल)–राम के पुत्र कुश की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/108/5
7. मथुरा (यमुना के पास)–शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/108/10
8. विदिशा–शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती की राजधानी-संदर्भ : वा.रा./7/108/10

8. रामायण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा देवी सीता के द्वारा स्थापित किए गए
आदर्शों की अद्वितीय कहानी है
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महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा देवीस्वरूपा स्त्री सीताजी के जीवन
की कहानी है तथा श्रुति-स्मृति (सुनाने, सुनने, याद रखने और सुनाने) की परंपरा के माध्यम से कुश और
लव के द्वारा भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचाई गई। इसके बाद कुछ समय पश्चात् इसे लिपिबद्ध किया गया।
तत्पश्चात् विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका लेखन-पुनर्लेखन, कथन-पुनर्कथन, अनुवाद-पुनअर्नुवाद
और वाचन-मंचन आदि किया गया। लगभग तीन सौ वर्ष पहले रामायण के विभिन्न संस्करणों का बहुत
बड़ी संख्या में मुद्रण होना शुरू हुआ। इससे पहले हाथ से लिखित पांडलिपि ु याँ प्रचलन में होती थीं। किसी
पांडलिपि
ु की सामान्य जीवनावधि सौ वर्ष होती है, लेकिन इसे 500 वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
संभवतः विश्व में संरक्षित पांडलिपि
ु यों में सबसे पुरानी पांडलिपि
ु यों में वाल्मीकि रामायण भी है, जिसे 1041
ई. में नेवाडी लिपि में लिखा गया था। यह आज भी नेपाल के संग्रहालय में संरक्षित है। रामायण महर्षि
वाल्मीकि द्वारा श्रीराम के जीवनकाल के दौरान रचित मूल महाकाव्य है। रामायण के अन्य सभी हजारों रूप
उसके बाद रचित किए गए हैं और उन्हें अलग-अलग नाम दिए गए, जैस— े 12वीं शताब्दी में तमिल भाषा
में कंबन द्वारा रचित ‘रामावतारम्’, 14वीं शताब्दी में तेलुगु भाषा में रचित ‘श्रीरगन
ं ाथ रामायण तथा 16वीं
शताब्दी में तुलसीदास द्वारा अवधि हिंदी में रचित ‘श्रीरामचरितमानस’।
रामायण में वर्णित घटनाओं के अनुक्रम से यह सिद्ध होता है कि वर्तमान नूतन युग (होलोसीन) के
प्रारंभ में सूर्यवश
ं प्राचीन भारत का प्रथम सर्वोच्‍च राजवंश था। श्रीराम इस धरती पर अभी तक जन्म लेने वाले
390 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

लोगों में सबसे अधिक खूबसूरत, सद्गुणी, पराक्रमी, दयालु और संभवत: सर्वाधिक प्रतिष्ठित तथा श्रेष्ठतम
थे। उन्होंने एक आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति और इन सबसे अधिक
एक आदर्श समाज सुधारक जैसे सर्वोच्‍च उदाहरण विश्व के समक्ष पेश किए। महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित
तथ्यों का बहुआयामी वैज्ञानिक साक्ष्यों के साथ अध्ययन करने से यह ज्ञात हुआ है कि श्रीराम प्राचीन भारत
के सूर्यवशं ी राजवंश के सबसे महान् राजा थे। उन्होंने लंका के राक्षसराज रावण और उसके सगे-संबधि ं यों
द्वारा किए जा रहे, अत्याचारों से पीड़ित लोगों को राहत प्रदान करने के लिए 7000 वर्ष से भी अधिक पहले
अयोध्या से लंका तक वास्तव में यात्रा की थी।
श्रीराम ने एक ऐसे आदर्श कल्याणकारी राज्य का उदाहरण स्थापित किया था, जो अभी तक अद्वितीय
है। श्रीराम को दृढ़ विश्वास था कि एक राजा के लिए उसकी प्रजा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है और
प्रजा का कल्याण करना ही राजा का प्रमुख कर्तव्य होता है। उनके शासनकाल में ब्राह्म‍ण, क्षत्रिय, वैश्य
और शूद्र सभी कार्यकारी वर्गों के लोग प्रसन्नता तथा निपुणता से अपने-अपने कर्तव्य में संलग्न रहते थे।
उन सभी के पास आय के पर्याप्त संसाधन थे। वह समृद्ध जीवन व्यतीत किया करते थे और उन्हें आदर एवं
सम्मान भी दिया जाता था। उस समय वहाँ पर किसी भी प्रकार की चोरी की वारदातें नहीं हुआ करती थीं
और न ही गरीबी और भुखमरी थी। गरीब तथा कमजोर लोगों के साथ न्याय हो, इस बात का विशेष ध्यान
रखा जाता था। राज्य के सभी निर्णय प्रभावित लोगों के साथ विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही लिए जाते
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थे। महत्त्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा योजना पर कार्य शुरू करने के पश्चात् ही की जाती थी।
श्रीराम की सर्वाधिक सम्मानित भूमिका एक समाज सुधारक के रूप में थी। विश्व कभी भी पूर्णत:
दोषरहित नहीं बन सकता। किसी भी समय और किसी भी युग में समाज में गुण और दोष, अच्छाई और
बुराइयाँ विकसित हो सकती हैं। श्रीराम के समय में भी जाति प्रथा, सामाजिक भेदभाव और बाहुबलियों द्वारा
कमजोर वर्ग पर अत्याचार करने का सिलसिला शुरू हो गया था। श्रीराम ने समाज में से इन कुप्रथाओं और
बुराइयों का अंत करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। उन्होंने पहला संदश े दिया कि मनुष्य अपने जन्म
या जाति से राक्षस नहीं बनता, बल्कि वह अपने कृत्यों से राक्षस बनता है। श्रीराम ने रावण, खर, दूषण और
त्रिशिरा का वध किया। ये सभी मूलत: ब्राह्म‍ण थे, परंतु अपने अधम तथा पापपूर्ण कृत्यों के कारण राक्षस बन
गए थे। श्रीराम ने रावण के सगे भाई विभीषण को लंका का राजा बनाया। यह भी प्रतीत होता है कि श्रीराम
के जीवनकाल के दौरान लोगों ने दलितों और आदिवासी लोगों को नीच मानना शुरू कर दिया था। इस बुराई
के विरुद्ध कठोर संदशे देने के लिए, श्रीराम ने कोल जनजाति के मुखिया गुह निषाद को गले लगाया था और
उन्हें भरत की तरह प्रिय भाई का दर्जा दिया था। श्रीराम भीलनी (शबरी) के आश्रम में भी गए थे और वहाँ
उस निम्न जाति की कही जाने वाली स्त्री का आतिथ्य बड़े प्रेम तथा आदर से स्वीकार किया था। उन्होंने
अपनी पत्नी और बच्‍चों को महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा पोषित तथा शिक्षित करने के लिए भेजा। महर्षि वाल्मीकि
को शूद्र माना जाता था, लेकिन वे बहुत महान् विद्वान्, उत्कृष्ट खगोलशास्त्री और सम्मानित ऋषि थे।
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 391

एक आदर्श पुत्र के रूप में दशरथनंदन श्रीराम अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हुए बड़े
हुए और उन्होंने अपने आचरण, व्यवहार और उपलब्धियों से अपने माता-पिता को गौरवान्वित किया।
अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए श्रीराम 16 वर्ष की आयु में राक्षसों के अत्याचारों से ऋषियों
और मुनियों की रक्षा करने के लिए ऋषि विश्वामित्र के साथ वन में चले गए। श्रीराम ने भगवान् शिव के
शक्तिशाली धनुष को तोड़कर और स्वयंवर में सीता का हाथ जीतकर दशरथ को गर्व का अनुभव कराया।
जब श्रीराम का युवराज के पद पर राज्याभिषेक किया जाने वाला था, तब वे अपने पिता दशरथ द्वारा अपनी
सौतेली माता कैकये ी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए 14 वर्षों के वनवास के लिए चले गए। ऐसा
करते हुए भी श्रीराम के मन में अपनी सौतेली माता कैकयी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं आई।
एक आदर्श शिष्य के रूप में श्रीराम ने अपने शिक्षकों और गुरुओं, जैसे गुरु वसिष्ठ, ब्रह्म‍र्षि विश्वामित्र,
ऋषि वामदेव, अगस्त्य मुनि के प्रति सदैव उच्‍च आदर भाव प्रदर्शित किया। श्रीराम ने सभी परिस्थितियों में
उनकी आज्ञा का पालन किया। जब दंडक वन में ऋषियों और तपस्वियों ने मानव भक्षक बने राक्षसों से
अपनी सुरक्षा का निवेदन किया, तब श्रीराम ने वचन दिया कि ने उन अधर्मी राक्षसों के अत्याचारों से सभी
पुण्यात्माओं की रक्षा करने हेतु इन सभी राक्षसों का वध कर देंग।े ये राक्षस अत्यंत दुराचारी तथा अत्याचारी थे
और दंडक वन के साधुओं को उनकी यज्ञशाला तथा पाठशाला भी चलाने नहीं देते थे। रघुकल ु नंदन श्रीराम
ने एक सर्वश्रेष्ठ मित्र का उदाहरण विश्व के समक्ष पेश किया। श्रीराम ने वाली का वध करके किष्किंधा का
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साम्राज्य जीत लिया और तत्पश्चात् उस राज्य को अपने मित्र सुग्रीव को सौंप दिया। उन्होंने रावण का वध
करने के पश्चात् लंका नगरी भी जीत ली, लेकिन रावण के भाई एवं अपने मित्र विभीषण को लंका का राजा
बनाया। श्रीराम ने विपत्ति में पड़े लोगों की मदद की। उन्होंने अहल्या को असाध्य रोग से मुक्त किया। उन्होंने
जटायु को भी बहुत अधिक प्रेम दिया और अपने पिता के समान जानकर उसका अंतिम संस्कार किया।
श्रीराम ने एक आदर्श भाई के रूप में भी सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने तीनों भाइयों
को अथाह प्रेम किया और वे चाहते थे कि भरत ही अयोध्या के राजा बने रहें। जब इंद्रजीत ने अपने बाण से
लक्ष्मण को अचेत कर दिया, तब श्रीराम भी लक्ष्मण के साथ अपने प्राणों का त्याग कर देना चाहते थे। उन्होंने
यह भी सुनिश्चित किया कि उनके तीनों भाइयों के 6 पुत्र उसी प्रकार अपने-अपने राज्य में राजा के रूप में
स्थापित हो जाएँ, जिस प्रकार उनके दो पुत्र अपने-अपने राज्य में स्थापित किए गए। श्रीराम के इन गुणों के
कारण उनके भाई उनका बहुत सम्मान किया करते थे और श्रीराम के साथ ही जीना और मरना चाहते थे।
वास्तव में रघुवंशी श्रीराम एक आदर्श पति भी थे, परंतु उनके इस आदर्श को उचित परिप्रेक्ष्य में समझा
नहीं गया। इस भ्रांति का कारण महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा रचित मूल रामायण के पश्चात् रामायण के संस्करणों,
अनुवादों, पुनर्लेखनों, रूपांतरणों आदि में शामिल किए गए गलत तथ्य तथा भ्रांतियाँ हैं। उन दिनों में प्राचीन
प्रथा के अनुसार राजाओं की एक से अधिक पत्नियाँ होती थीं। राजा दशरथ की भी तीन पत्नियाँ थीं, परंतु
श्रीराम ने पुनर्विवाह करने का विचार कभी नहीं किया। सीताजी के साथ विवाह होने के पश्चात् श्रीराम ने
392 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

सीताजी के साथ अयोध्या में नौ वर्ष प्रसन्नतापूरक


्व व्यतीत किए। श्रीराम को सीताजी से बहुत अधिक प्रेम हो
गया था और सीता भी श्रीराम के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो गई थीं। श्रीराम और सीता बिना बोले मन ही
मन एक दूसरे से संवाद कर लेते थे। उन्होंने दिव्य प्रेम के आनंद का अनुभव किया था। जब सीताजी श्रीराम
के साथ 14 वर्षों के लिए वनवास जाना चाहती थीं, तब श्रीराम ने उन्हें राजमहल के सुख और आनंद का
भोग करने का अनुरोध किया, इस अनुरोध का दूसरा कारण यह भी था कि श्रीराम के वृद्ध माता-पिता की
देखभाल के लिए सीताजी की जरूरत थी, परंतु सीताजी ने वन में श्रीराम के साथ जाने का हठ किया और
अंत में श्रीराम सीताजी के इस हठ के आगे झुक गए।
वाल्मीकिजी ने विस्तार से यह वर्णन किया है कि किस प्रकार श्रीराम और लक्ष्मण, दोनों ने वनों में
इधर-उधर विचरण करते हुए सीताजी की देखभाल की थी तथा उनको प्रसन्न रखने के लिए सभी प्रयास
किए थे। उन्होंने मिथिला की राजकुमारी सीता को किसी भी प्रकार का कोई दुःख पहुँचाने का प्रयास करने
वालों को कभी माफ नहीं किया था। सीताजी के लिए ही राक्षस विराध का वध हुआ और सीताजी की रक्षा
तथा प्रतिष्ठा के लिए ही शूर्पणखा की नाक-कान काट लिए गए थे। जब खर और दूषण 14,000 सैनिकों
के साथ आक्रमण करने आए थे, तब श्रीराम ने लक्ष्मण को सीताजी की रक्षा करने का आदेश दिया और
अकेले ही लड़ते हुए उन सभी का वध कर डाला था।

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तत्पश्चात् मारीच स्वर्ण मृग को देखकर सीताजी उसे प्राप्त करना चाहती थीं। लक्ष्मण द्वारा राक्षसों की
चाल के बारे में सचेत करने के बावजूद सीताजी ने बालकों की तरह हठ करते हुए उस सुदं र एवं आकर्षक
मायामृग को मृत या जीवित प्राप्त करने की इच्छा अभिव्यक्त की। जब मारीच ने श्रीराम की आवाज में
सहायता के लिए पुकार लगाई, सीताजी चिंतित हो गईं और उन्होंने लक्ष्मण को तत्काल श्रीराम की सहायता
के लिए जाने की आज्ञा दी। जब लक्ष्मण वहाँ उन्हें अकेला छोड़कर जाने के अनिच्छुक लगे, तब सीताजी
भय और संदहे की पीड़ा में कुपित हो गईं। उन्होंने लक्ष्मण को अत्यंत कठोर शब्द कह डाले, जबकि लक्ष्मण
वनवास में लगभग 13 वर्षों तक पूर्ण निष्ठा और समर्पण से श्रीराम और सीता की सेवा में लगे रहे थे। आँखों
से आँसू बहाते हुए लक्ष्मण ने सीताजी की आज्ञा का पालन किया और उन्हें कुटिया में अकेला छोड़कर वे
श्रीराम की सहायता करने के लिए चले गए। इस प्रकार सीताजी रावण के बिछाए हुए जाल में फँसने में स्वयं
भी जिम्मेदार थी? कुटिया में सीताजी को न देखकर श्रीराम को असहनीय पीड़ा हुई और उनकी आँखों से
अश्रुधारा बह चली।
इसके पश्चात् श्रीराम के जीवन का एकमात्र उद्देश्य लक्ष्मण की सहायता से सीताजी की खोज करना
और उन्हें मुक्त कराना ही था, क्योंकि सीता के बिना श्रीराम न तो जीना चाहते थे और न ही अयोध्या में
वापस लौटना चाहते थे। सीताजी को रावण के चंगुल से मुक्त कराने के लिए श्रीराम ने जिस प्रकार का कठोर
प्रयास किया वह मानवता के इतिहास में सदा अद्वितीय रहा है और रहेगा। अयोध्या लौटने के पश्चात् श्रीराम
ने सीताजी के साथ अयोध्या पर शासन किया और अधिकतर समय एक साथ व्यतीत करते हुए दिव्य प्रेम
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 393

के बंधन का अद्वितीय आनंद उठाया। श्रीराम ने सीताजी के साथ विवाह के पश्चात् नौ वर्ष प्रसन्नतापूरक्व
अयोध्या में बिताए और अत्यंत प्रेमभाव के साथ उनकी देखभाल करते हुए 14 वर्ष वनवास में व्यतीत किए
और फिर अयोध्या में उनके ग्यारह वर्षों के शासन के दौरान उन दोनों ने अभूतपूर्व प्रेम का अनुभव किया।
रामराज्य के दौरान अयोध्या के लोग समृद्ध तथा प्रसन्न जीवन व्यतीत कर रहे थे।
प्रकृति का यह नियम है कि समृद्धि के साथ-साथ कुटिलता भी आ जाती है। प्रकृति के इसी नियम
का अनुपालन अयोध्यावासियों ने भी किया। जब श्रीराम के शासन में चारों ओर सुख और समृद्धि थी, तब
अयोध्या के नागरिकों के मस्तिष्क में मिथ्या मक्कारी ने भी प्रवेश कर लिया। उन्होंने लंका में रावण की कैद
में रहने के कारण सीताजी के चरित्र पर सवाल उठाने के साथ-साथ श्रीराम पर भी सीताजी के साथ रहने
के कारण कलंक लगाना शुरू कर दिया। एक आदर्श राजा होने के कारण श्रीराम का यह दृढ़ विश्वास था
कि लोक निंदा और अपवाद राजा को नरक की ओर धकेल देते हैं। अत्यंत शोकग्रस्त तथा निराश होकर
श्रीराम ने लक्ष्मण को गर्भवती सीताजी को वाल्मीकि आश्रम में छोड़ आने के लिए कहा था। श्रीराम ने ऐसा
इसलिए भी किया था, ताकि वे ऐसा आदर्श स्थापित कर सकें, जिसके अनुसार एक राजा के कर्तव्यों को
पति के कर्तव्यों से अधिक प्राथमिकता दी जाए? श्रीराम को सीताजी की क्षमता में विश्वास था कि वह लोगों
के समक्ष अपनी पवित्रता और सतीत्व को प्रमाणित कर देंगी। उन्हें यह भी विश्वास था कि राजा के लिए
अपयश सदा परिहार्य होता है। इस कठोर निर्णय को लेने का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि श्रीराम
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को सीताजी के गर्भवती होने के बारे में ज्ञान था और वे बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनकी संतान अपनी माता
के चरित्र के बारे में लोगों से अपशब्द सुने। सीताजी को वाल्मीकि आश्रम भेजने के पश्चात् श्रीराम ने सीता
के प्रति पूर्णत: समर्पित रहते हुए अनेक वर्षों तक अयोध्या पर शासन किया। क्या मानवता के इतिहास में
ऐसा कोई उदाहरण है कि एक राजा इतने वर्षों तक अपनी परित्यक्त पत्नी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित रहा
हो और उसने दूसरा विवाह विवाह न किया हो?
आदिकवि वाल्मीकिजी के द्वारा दिए गए विवरणों के अनुसार सीताजी देवी स्वरूपा बुद्धिमान तथा
साहसी स्त्री थीं। उनके व्यक्तित्व में सुदं रता, कोमलता, करुणा, निष्ठा, बुद्धिमत्ता, साहस और सहनशीलता
का अद्भुत सामंजस्य था। वह अपने माता-पिता की आदर्श पुत्री थीं, अपने पति की आदर्श पत्नी और अपने
पुत्रों लव और कुश की आदर्श माँ भी थीं। अपने जीवन की कहानी के माध्यम से सीताजी ने यह दर्शाया है
कि कोई स्त्री कितनी दृढ़ता के साथ जीवन निर्वाह कर सकती है और विपत्ति के समय जीवन-मूल्यों को
किस प्रकार बनाए रख सकती है। इसके कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं—
राजा जनक अपनी पुत्री सीता पर अत्यधिक गर्व करते थे, क्योंकि सीताजी एक मेधावी, प्रतिभाशाली
और तेजस्विनी लड़की के रूप में बड़ी हो रही थीं। सीताजी ने एक बार शिव के शक्तिशाली धनुष को बड़ी
आसानी से उठा लिया था। राजा जनक अपनी अत्यंत सुदं र और सर्वगुण संपन्न पुत्री सीता का विवाह विश्व
के सबसे अधिक बहादुर और पराक्रमी राजकुमार से करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने यह संकल्प लिया
394 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

कि वे सीता का विवाह उसी व्यक्ति से करेंग,े जो भगवान् शिव के शक्तिशाली धनुष पर बाण का संधान कर
देगा। विश्वभर के अनेक राजाओं तथा योद्धाओं ने शिव के धनुष को उठाने का प्रयास किया था, लेकिन वे
उस शक्तिशाली ​​ि‍शव धनुष को हिला भी न सके, जिसे सीताजी ने बहुत आसानी से उठा लिया था। केवल
श्रीराम ही ऐसा करने में सफल हुए थे। उन्होंने शिव के शक्तिशाली धनुष पर बाण चढ़ाकर प्रत्यंचा खींची।
धनुष मध्य में से टूट गया तथा उसके टूटने पर वहाँ भयंकर मेघों की गर्जना वाला शब्द उत्पन्न हुआ।
श्रीराम के साथ विवाह के पश्चात् सीताजी ने अयोध्या में नौ वर्षों तक आनंदपूरक्व जीवन व्यतीत किया।
इस अवधि के दौरान उन्होंने सभी को प्यार और सत्कार दिया तथा सभी से अभूतपूर्व स्नेह प्राप्त भी किया।
उनके तथा श्रीराम के बीच सच्‍चे प्रेम का अटूट बंधन बँध गया। श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास दिए जाने
के बारे में सुनकर सीताजी ने उनके साथ वन जाने का निर्णय कर लिया। श्रीराम ने कई तर्क देकर उनको
वन जाने से रोका, लेकिन वे अपनी बात पर दृढ़ रहीं और बोलीं, “मैंने आपके भाग्य को अपना भाग्य माना
है; मैं आपके साथ वन्य जीवन के कष्टों तथा कठिनाइयों को प्रेमपूरक ्व साझा करूँगी। मैं धूप, वर्षा, हवा,
भूख तथा काँटदे ार लताओं को खुशीपूरक ्व सहन करूँगी तथा अपनी इंद्रियों पर भी काबू पा चुकी हूँ।” अंत
में श्रीराम सीताजी को अपने साथ वन में ले जाने के लिए सहमत हो गए।
जब श्रीराम ने राक्षसों के अत्याचारों से तपस्वियों तथा भद्र पुरुषों की रक्षा करने के लिए सभी राक्षसों
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का वध करने की प्रतिज्ञा की, तब सीताजी ने इसका विरोध करते हुए तर्क दिया, “आप और लक्ष्मण को
वन में केवल वनवासियों की तरह रहना चाहिए। राक्षसों के संहार की जिम्मेदारी लेना अनुचित होगा। वास्तव
में यह तो राज करनेवाले वास्तविक शासक का कर्तव्य है। आत्मसुरक्षा के अलावा अन्य कारण से किसी
भी व्यक्ति का वध करना तपस्वी जीवन के नियमों के विरुद्ध है, लेकिन आपने ऋषियों-मुनियों की रक्षा के
लिए बिना-विचार किए दैत्यों के वध का वादा कर दिया है। मुझे आश्चर्य है कि ऐसा आचरण हमें कहाँ ले
जाएगा?” श्रीराम ने सीताजी को स्मरण कराया कि उन्होंने स्वयं एक बार कहा था कि क्षत्रिय द्वारा धारण
किए जाने वाले अस्त्र-शस्त्र कमजोर तथा पुण्यात्माओं की रक्षा करने के लिए होते हैं। जब तपस्वियों ने
अपने कष्टों की शिकायत की है और रक्षा की गुहार लगाई है, तो अयोध्या के राजकुमारों का यह कर्तव्य
है कि वे उनकी रक्षा करें।
सीताजी दृढ़ इच्छाशक्ति वाली साहसी स्त्री थीं। जब उन्होंने अभूतपूर्व एवं विलक्षण सुदं रतावाले स्वर्ण-
मृग को देखा, तो उनकी इच्छा हुई कि श्रीराम और लक्ष्मण उसे पकड़कर ले आएँ, परंतु लक्ष्मण ने यह
संदहे व्यक्त किया कि खर और दूषण के वध तथा शूर्पणखा के अंग विकृत कर देने के पश्चात् यह राक्षसों
की छलपूरक ्व चाल भी हो सकती है। तो भी सीताजी नहीं मानीं, वे स्वर्ण मृग प्राप्त करने का हठ करती रहीं।
उन्होंने यह आग्रह किया कि वे अभूतपूर्व सुदं रतावाले स्वर्ण मृग को मृत या जीवित प्राप्त करना चाहती हैं।
श्रीराम सीता के आग्रह को अस्वीकार नहीं कर सके, इसलिए वे मायावी मृग मारीच को पकड़ने के लिए
उसके पीछे चल दिए। जब श्रीराम ने बाण छोड़ा, तो मायामृग मारीच ने श्रीराम की आवाज में मदद की पुकार
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 395

लगाई। यह पुकार सुनकर सीताजी विचलित हो गईं और उन्होंने लक्ष्मण को तत्काल श्रीराम की सहायता के
लिए जाने की आज्ञा दी, अंततः उन्हें जाने के लिए मजबूर भी कर दिया।
जब सीताजी पंचवटी में अकेली रह गईं, तब रावण अपने छल और बल से सीताजी का अपहरण करने
में सफल हो गया। रावण ने सीता से विवाह करने का बहुत आग्रह किया और यह वादा भी किया कि वह
महारानी बनकर रहेंगी और अपार धन संपदा तथा राजकीय सत्ता का भोग कर सकेंगी, परंतु सीताजी ने रावण
को खूब फटकार लगाई। उसने निर्भीकता से रावण को याद दिलाया कि जनस्थान में 14000 राक्षसों समेत
खर और दूषण का वध करनेवाले महापराक्रमी योद्धा श्रीराम ही थे। सीता ने रावण से निडरतापूरक ्व यह भी
कह दिया था कि उसका श्रीराम के हाथों वध होना निश्चित है। सीताजी ने यह भी कहा कि क्या एक कौवा
कभी हंस बन सकता है? क्या एक पापी एवं अधर्मी को यज्ञ की पवित्र अग्नि के पास आने की अनुमति दी
जा सकती है? अंततः श्रीराम की सेना समुद्र पर सेतु बनाने के पश्चात् रावण का वध करने में सफल हो गई,
लेकिन जब सीताजी श्रीराम के पास वापस गईं तो उन्होंने लोकनिंदा के भय से सीताजी को कई कठोर शब्द कह
डाले। सीताजी ने उस समय यह कहते हुए श्रीराम को फटकार लगाई कि उनके चरित्र पर कोई भी प्रश्नचिह्न‍
लगाना सूर्यवश
ं ी श्रीराम को शोभा नहीं देता। सीताजी ने अपनी पवित्रता को सिद्ध करने के लिए अग्नि में प्रवेश
किया और उसमें से सुरक्षित बाहर आकर उन्होंने अपने चरित्र की पवित्रता का प्रमाण संपर्ण
ू जगत् को दे दिया।

MAGAZINE KING
अयोध्या में श्रीराम के जनकल्याणकारी शासन के प्रारंभिक वर्षों के दौरान अयोध्या की रानी के रूप
में कुछ वर्ष व्यतीत करने के पश्चात् अयोध्या की प्रजा द्वारा सीताजी के चरित्र पर लगाए गए अपमानजनक
लांछनों के कारण श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश्रम भेज दिया। उस असहनीय पीड़ा के समय में
भी सीताजी ने दृढ़ता के साथ लक्ष्मण से कहा, “मैं तो अपने जीवन का त्याग भी नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा
करने से मेरे पति के राजसी परिवार को कोई वंशज प्राप्त नहीं हो पाएगा। अत: जाओ और श्रीराम से कह
दो कि उन्होंने लोकनिंदा के कारण अपयश के भय से मेरा परित्याग कर दिया है। इसका कारण सिर्फ और
सिर्फ मैं ही हूँ, इसलिए मेरे चरित्र के ऊपर लगाए गए लांछनों को दूर करने का कर्तव्य भी मैं ही निभाऊँगी।”
सीताजी ने लव और कुश को जन्म दिया तथा वाल्मीकिजी की देख-रेख में उनका लालन-पालन
किया। जब अयोध्या के लोगों ने लव और कुश के मुख से श्रीराम और सीताजी के जीवन की कहानी सुनी,
तब श्रीराम के अनुरोध पर महर्षि वाल्मीकि सीताजी को नैमिषारण्य की यज्ञभूमि में लेकर आए। तब भी
सीताजी ने श्रीराम और अयोध्या के लोगों के समक्ष कोई कमजोरी नहीं दिखाई। शांत भाव से सीताजी ने ऊँची
आवाज में कहा, “यदि मैंने श्रीराम के सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्पर्श तो दूर रहा, मन से भी चिंतन किया हो
तो पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें; रघुनंदन श्रीराम को छोड़कर मैं दूसरे किसी पुरुष को नहीं जानती,
मेरी कही हुई यह बात यदि सत्य हो तो पृथ्वी देवी! मुझे अपनी गोद में स्थान दें।” विदेहकुमारी सीता के
इस प्रकार शपथ लेते ही अचानक धरती कंपायमान हो उठी और धरती से एक अद्भुत स्वर्ण सिंहासन प्रकट
हुआ, जिसमें सीताजी बैठ गईं। सिंहासन पर बैठकर जब सीताजी रसातल में प्रवेश कर रही थीं तो अयोध्या
396 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

की प्रजा स्तब्ध रह गई और पश्चात्ताप करने लगी। इस प्रकार रसातल में प्रवेश करने से पहले सीताजी ने
एक जिम्मेदार माँ की भूमिका भी निभाई। अपने बच्‍चों का भविष्य विश्व के सामने यह बताते हुए सुरक्षित
कर दिया कि अयोध्या के सूर्यवश
ं ी सम्राट् श्रीराम ही लव-कुश के पिता हैं।
महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा मूल रूप से वर्णित श्रीराम और सीताजी के जीवन की कहानी को संपर्ण ू
भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बाँधने वाला कारक माना जाना चाहिए। श्रीराम सच्‍चे देशभक्त तथा संसार के
वास्तविक संरक्षक थे, जिन्होंने अधर्मियों के अत्याचारों से पुण्य आत्माओं की रक्षा की और जिन्होंने भारतवर्ष
के ऋषियों, मुनियों और शिक्षकों को उनकी पाठशालाओं, यज्ञशालाओं का सुचारु रूप से संचालन करने में
संपर्ण
ू समर्थन तथा संरक्षण प्रदान किया। श्रीराम अपनी दिव्यता से अनभिज्ञ थे। उन्होंने सदैव मर्यादा पुरुषोत्तम,
सबसे प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठतम व्यक्ति की तरह व्यवहार किया। श्रीराम ने दक्षिण भारत में स्थानीय जनजातियों
के बहादुर लोगों को एकजुट करके एक ऐसी अपराजेय सेना खड़ी की, जिसने समुद्र पर सेतु बाँधकर रावण
को युद्ध में परास्त कर दिया था। श्रीराम ने दुनिया को एकता का संदश े दिया और उत्तर-पश्चिमी भारत,
दक्षिण भारत और श्रीलक ं ा के लोगों के साथ मित्रता के संबधं विकसित किए। सुग्रीव, विभीषण, अंगद और
हनुमानजी निरंतर अयोध्या आते रहते थे और उन्होंने अनेक धार्मिक एवं राजनीतिक अनुष्ठानों एवं आयोजनों
में भाग लिया था। हर पढ़े-लिखे और समझदार व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह श्रीराम का नाम विवादों में
न उलझने दे और हमारे बच्‍चों तथा भावी पीढ़ियों से एक अभूतपूर्व आदर्श नायक न छीने। श्रीराम के महान्
MAGAZINE KING
गुणों का हृदय से अनुसरण करके उन्हें अपने जीवन में आत्मसात् करने दें और उन्हें एक आदर्श संतान,
आदर्श भाई, आदर्श शासक, तथा आदर्श समाज सुधारक बनने दें। श्रीराम और रामायण को मिथक बताकर
हम युवावर्ग को उनके सच्‍चे आदर्श नायकों से वंचित न होने दें।

संदर्भ सूची—
1. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का उद्घाटन वक्तव्य, दिनांक 30.07.2011, शीर्षक ‘प्राचीन काल का
वर्तमान से मिलन—एक बेहतर भविष्य की रचना के लिए’ पुस्तक वैदिक युग एवं रामायण काल की
ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आसमान की ऊँचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण, संपादक सरोज
बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली चैप्टर, पृष्ठ 1-8
2. https://www.youtube.com/watch?v=vEvyuJ6fFZo&t=429s-डॉ. कलाम का भाषण,
भाग-1
3. https://www.youtube.com/watch?v=2QaU_m-X7Pc&t=10s-डॉ.
कलाम का भाषण, भाग-2
4. http://sarojbala.blogspot.in/2018/01/seminar-on-scientific-dating-of-ancient.
html, http://bit.ly/2r8ke1
5. पंडित भगवद्दत्त सत्यश्रवा, 2000, ‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास’, प्रकाशक प्रणव प्रकाशन, नई दिल्ली,
भाग-2
रामराज्य की स्थापना, लोक निंदा के भय से श्रीराम ने गर्भवती सीता को वाल्मीकि आश • 397

6. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत; उत्तरकांड
7. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिंदी भाषांतर सहित), 2008, गीता प्रेस, गोरखपुर, भारत; उत्तरकांड
8. पंडित भगवद्दत्त सत्यश्रवा, 2000. ‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास’, प्रकाशक प्रणव प्रकाशन, नई दिल्ली,
भाग-2, पृष्ठ 58
9. सर जॉन मार्शल, ‘ए गाईड टू तक्षशिला’, प्रकाशक इंडोलॉजिकल बुक हाऊस, 1972
10. इनैमुल हक, ‘चंद्रकेतुगढ़: ए ट्रीजर हाऊस ऑफ बंगाल टैराकोटाज’, प्रकाशक इंटरनेशनल सेंटर फॉर
स्टडी ऑफ बंगाल आर्ट, ढाका बांग्लादेश
11. सरोज बाला, 2017, महाभारत की कहानी, विज्ञान की जुबानी, पुराप्रवाह, 2017, पृष्ठ 242-251
12. सरोज बाला, 2017, ‘महाभारत रिटोल्ड विद साइं​ि‍टफिक एविडेंसेज’, डायलॉग-संस्करण 18, जनवरी-
मार्च, 2017, आस्था भारती, नई दिल्ली की प्रतिष्ठित पत्रिका
13. ‘वैदिक काल एवं महाकाव्यों के युग से संस्कृति की निरंतरता का निर्धारण’ आई-सर्व दिल्ली चैप्टर
सेमिनार दिनांक 23-24 फरवरी 2014 में ‘रिविजिटिंग दे डेट ऑफ महाभारत वार : एस्ट्रोनोमिक्ल मैथ्डस
यूजिग प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर’ विषय पर नरहरी अचार की प्रस्तुति http://bit.ly/2FDUCNd
14. ‘क्रोनोलॉजी ऑफ इंडियन कल्चर सिन्स द बिगनिंग ऑफ द होलोसीन थ्रू साइंटिफिक एविडेन्सेज’, आई-
सर्व दिल्ली चैप्टर के सम्मेलन, 16 जुलाई, 2016 में ‘महाभारत रिटोल्ड विद साइंटिफिक एविडेन्सिज’
पर सरोज बाला की प्रस्तुति http://bit.ly/2DfYZ2k
15. ‘क्रोनोलॉजी ऑफ इंडियन कल्चर सिन्स द बिगनिंग ऑफ द होलोसीन थ्रू साइंटिफिक एविडेन्सेज’,
MAGAZINE KING
आई-सर्व दिल्ली चैप्टर के सम्मेलन 16 जुलाई 2016 में ‘आर्कियोलॉजी ऐंड क्रोनोलॉजी ऑफ सेकंड
ऐंड फर्स्ट मिलिनिया बी.सी.’ पर डॉ. बी.आर. मणि की प्रस्तुति http://bit.ly/2DfYZ2k
16. डॉ. बी.आर. मणि, 2013, ‘नो डार्क एज इन इंडियन हिस्ट्री; आर्कियोलॉजिकल एविडेंसेज’ डायलॉग-
संस्करण 15, संख्या, 1, आस्था भारती, नई दिल्ली की प्रतिष्ठित पत्रिका
17. राकेश तिवारी, आर.के. श्रीवास्तव, के.के सिंह, 2005-2006, ‘फर्दर एक्सकेवेशन एट लहुरादेवा,
डिस्ट्रिक्ट संत कबीर नगर’, प्रिलिमनरी ऑब्जर्वेशन’; पुरातत्त्व 36 पृष्ठ 68-75, (भारतीय पुरातत्त्व
सोसाइटी की प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका)
18. राकेश तिवारी, आर.के. श्रीवास्तव, के.के सिंह और के.एस. सारस्वत, 2007-2008. अर्ली फार्मिंग एट
लहुरादेवा, परागधारा 18, पृष्ठ 347-373; पुरात्त्व महानिदेशालय, उ.प्र की प्रतिष्ठित वार्षिक पत्रिका
19. ‘क्रोनोलॉजी ऑफ इंडियन कल्चर सिंस द बिगनिंग ऑफ द होलोसीन थ्रू साइंटिफिक एविडेंसेज’, आई-
सर्व दिल्ली चैप्टर के सम्मेलन, 16 जुलाई, 2016 में ‘आर्कियोलॉजी ऐंड क्रोनोलॉजी ऑफ सेकंड ऐंड
फर्स्ट मिलिनिया बी.सी.’ पर डॉ. बी.आर. मणि की प्रस्तुति http://bit.ly/2DfYZ2k
20. परमेशवरी लाल गुप्ता, ‘अर्ली कुआयन्ज़ ऑफ मथुरा रिजन’, डी.एम. श्रीनिवास द्वारा संपादित ‘मथुरा:
द कल्चरल हैरिटेज’ में प्रकाशित
21. ‘विदिशा थ्रू दे एजेस’, संपादक के.के. चक्रवर्ती, डी.आर. विर्दी, पी. माथुर, ओ.पी. मिश्रा और दीपक
कुमार, आगम कला प्रकाशन, 1990
o
MAGAZINE KING
परिशिष्ट एक से • 399

परिशिष्ट

एक से छह

MAGAZINE KING
एक राष्ट्र के लिए समृद्धि के उच्चतम शिखर पर
पहुँचने के लिए, उनके पास अपने अतीत के महान नायकों
और उनके पराक्रमों की, उनके रोमांचकारी कार्यों तथा
उनकी विद्वत्ता की साझा स्मृतियाँ होनी चाहिए।
दुर्भाग्यवश भारत में ऐतिहासिक शक्तियों ने पिछली
एक सहस्राब्दी पहले के इतिहास का निष्पक्ष व वैज्ञानिक
अध्ययन कर सभी समुदायों को अपने वास्तविक अतीत के बारे में साझा स्मृतियाँ नहीं
दी हैं।
यदि हम आपस में लड़ते झगड़ते रहेंगे; न अपने अतीत में गर्व का अनुभव करेंगे
और न ही भविष्य पर भरोसा रखेंगे तो निराशा, पराजय तथा मायूसी के सिवा क्या हाथ
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लगेगा ?
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
(‘इग् नाइटिड माइंडज’ के अध्याय 5 से उद्धृत)
परिशिष्ट-1

दृष्टिगोचर ग्रहों, नक्षत्रों तथा


खगोलीय विन्यासों की आधारभूत अवधारणा

ल गभग 11,000 वर्ष पहले नूतन युग के प्रारंभ में मनुष्‍य ने नदियों के किनारे रहना प्रारंभ कर दिया।
वे गुफाओं, जंगलों और झोंपड़ियों में रहते थे। आधुनिक मनुष्‍यों की तरह उनके पास भी आँखें,
नाक, कान, दिल और दिमाग थे। उनके पास भी अवलोकन, स्मरण तथा विश्लेषण की क्षमताएँ थीं। खुले
में रहने के कारण वे हर समय आकाश को देख सकते थे। वे चंद्रमा के बढ़ते और घटते चरणों, सूर्य
की उत्तर और दक्षिण दिशा की ओर गति एवं उससे जुड़े मौसम के परिवर्तनों को सहजता से देख सकते
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थे। सूर्य के चारों ओर घूमने वाले अन्य ग्रहों की गति, स्थिति तथा दिशा को भी वे देख सकते थे, जिनमें
बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि शामिल थे। एक और सामान्य अवलोकन यह था कि क्षितिज पर
सूर्योदय के समय में नित्यप्रति बदलाव आता था। दक्षिणी से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की ओर सूर्य के
प्रदोलन को भी उन्‍होंने देखा, जिससे चार मुख्य बिंदुओं की पहचान हुई, अर्थात्् शीतकालीन अयनांत और
ग्रीष्मकालीन अयनांत, वसंत विषुव और शरत्कालीन विषुव। यही कारण है कि उन्होंने वर्ष को दो हिस्सों
में बाँट दिया—उत्तरायण, जब सूर्य शीतकालीन अयनांत से उत्तर की और चलता था और दक्षिणायन, जब
सूर्य ग्रीष्मकालीन अयनांत से दक्षिणी दिशा की ओर चलता था।1

प्राचीन भारतीयों द्वारा ग्रहों तथा नक्षत्रों का अपलोकन


भारतीय लोगों सहित प्राचीन समय के लोग प्रत्‍येक सुबह सूर्य को पूर्व में उदय होते हुए, दोपहर के
समय उच्‍चतम शिखर पर पहुँचते हुए और फिर संध्‍या के समय पश्चिम में अस्‍त होते हुए देख सकते थे।
न केवल सूर्य, बल्कि चंद्रमा को भी नियमित रूप से बढ़ते, घटते तथा आकाश में घूमते हुए देख सकते थे।
अन्‍य पाँच दृष्टिगोचर ग्रह अर्थात्् बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्‍पति तथा शनि और दो काल्पनिक ग्रह राहु और
केतु सभी एक ही निश्चित पथ पर घूमते भी उन्हें स्पष्ट दिखाई देते थे। इस पथ को ‘क्रांतिवृत्त’ कहा जाता
है। इस प्रकार ‘क्रांतिवृत्त’ पृथ्‍वी के इर्द-गिर्द वह काल्‍पनिक वृत्त है, जिसमें सूर्य, चंद्रमा, पाँच दृष्टिगोचर
402 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

ग्रह, दो काल्पनिक ग्रह राहु-केतु घूमते हुए प्रतीत होते हैं। राहु और केतु दो काल्‍पनिक ग्रह वास्तव में वे
प्रतिच्छेदन बिंदु हैं, जहाँ प्रत्येक माह चंद्रमा सूर्य का पथ काटता है। प्राचीन भारतीयों ने सुविधा के लिए इन
सभी नौ खगोलीय निकायों को ‘नवग्रह’ का नाम दिया।2 उन्‍होंने यह भी देखा कि इन नवग्रहों की स्थिति
क्रांतिवृत्त पथ में उनकी गति तथा संचलन के कारण बदलती रहती है।
हमारे पूरज्व आकाश में लाखों-करोड़ों सितारों को भी देख सकते थे और उन्‍होंने आकाश में स्थिर
प्रतीत होने वाली विभिन्‍न आकृतियों के रूप में दिखाई देनवे ाले कई नक्षत्रों के समूहों को भी देखा, जिन्हें
नक्षत्र-मंडल अथवा राशि भी कहा जाता था। अभी तक ऐसे 88 नक्षत्र-मंडलों की पहचान की जा चुकी है।
प्राचीन भारतीय लोग सौरमंडल के गतिमान ग्रहों की स्थितियों का अवलोकन करने, रिकाॅर्ड करने और उनको
स्‍मरण रखने के लिए उत्‍सुक रहते थे। इसके लिए उन्‍हें आकाश में कुछ ऐसे संदर्भ बिंदुओं की आवश्‍यकता
थी, जो कुल मिलाकर निरंतर स्थिर रहें। इस उद्देश्‍य के लिए कई वर्षों तक किए गए अवलोकन के पश्‍चात्
उन्‍होंने 12 नक्षत्र-मंडलों अर्थात्् राशियों का चयन किया, जो क्रांतिवृत्त पथ की पृष्‍ठभूमि बनाते थे और जो
एक-दूसरे से लगभग समान दूरी पर स्थित थे। इन 12 नक्षत्र-मंडलों को 12 राशियाँ (constellations)
या राशि-चिह्न‍ (Zodiacs) भी कहा जाता है, जिनके नाम हैं मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्‍या, तुला,
वृश्चिक, धनु, मकर, कुभं व मीन। ये सभी राशियाँ एक-दूसरे से लगभग 300 की दूरी पर स्थित हैं। चूकि ँ
इन 12 राशियों ने नौ ग्रहों के क्रांतिवृत्त पथ की पृष्‍ठभूमि बनाई, इसलिए इन बारह राशियों के भीतर गति
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करते हुए नौ ग्रहों की पहचान करना और उनकी स्थिति रिकॉर्ड करना संभव तथा सुविधाजनक हो गया।
श्री पुष्‍कर भटनागर ने अपनी पुस्‍तक ‘श्रीराम के युग का तिथि-निर्धारण’ में एक खगोलीय घड़ी के
माध्‍यम से इस अवधारणा को अत्‍यंत सुदर ढंग से समझाया है।3 उन्‍होंने बताया कि यदि हम आकाश की
खगोलीय घड़ी की वर्तमान समय की घड़ी से तुलना करते हैं, तो हम पाएँगे कि बारह राशि समूह डायल
पर एक से बारह अंकों के प्रतीक हैं, जो पृष्ठभूमि बनाते हैं। यदि इन बारह राशियों में शामिल 27 मुख्य
नक्षत्रों को आधार बना लिया जाए, तो घड़ी के डायल पर अंक 12 से बढ़कर 27 हो जाएँगे। घूमते हुए ग्रह
घड़ी के सेकंड, मिनट तथा घंटे की सुइयाँ हैं। वर्तमान समय की सामान्‍य घड़ी के तीन हाथ होते हैं, जबकि
प्राचीन भारतीय खगोलीय घड़ी में नौ हाथ होते थे, जिनको नवग्रह कहा जाता था। हम यह नहीं जानते कि
इन प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने किसी घटना के घटित होने के समय को रिकॉर्ड करने की इच्‍छा से खगोलीय
विन्‍यासों का उल्‍लेख किया था या ये उनके आकाशीय अवलोकनों के आधार पर स्वाभाविक रूप से
रिकॉर्ड हो गए थे, परंतु एक निर्विवाद तथ्य यह है कि यदि लगभग सभी महत्त्वपूर्ण ग्रहों की स्थितियों का
समग्र तरीके से वर्णन किया गया है तो इन खगोलीय विन्यासों को पिछले 25920 वर्षों के दौरान किसी एक
ही समय बिंदु पर आकाश में देखा जा सकता है। आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयरों ने वेदों और महाकाव्‍यों
जैसी प्राचीन पुस्‍तकों में अनायास ही रिकॉर्ड किए गए ऐसे खगोलीय विन्यासों के अवलोकनों की सटीक
तिथि एवं समय निर्धारित करना संभव बना दिया है।
परिशिष्ट एक से • 403

कंप्यूटिंग प्रौद्योगिकियों में प्रगति और स्काई सिमुलेशन सॉफ्टवेयर का अाविष्कार


तथा विकास
कंप्यूटिंग टेक्नोलॉजी में तेजी से प्रगति और सितारों तथा सौर मंडल की स्थिति के बारे में उच्‍च
परिशुद्धता वाले विशाल डेटा की उपलब्धता ने तारामंडल सॉफ्टवेयरों के विकास में मदद की है।
ये सॉफ्टवेयर किसी भी अक्षांश और रेखांश से, भूतकाल अथवा भविष्य के किसी विशेष दिनांक
और समय पर आकाश का अनुकरण कर सकते हैं। आमतौर पर उपलब्ध कुछ सॉफ्टवेयर्स के नाम
हैं—प्लैनेटेरियम गोल्ड, स्टेलेरियम और वायेजर। इस पुस्तक में हमने प्लैनेटेरियम गोल्ड (फोगवेयर
पब्लिशिंग) का उपयोग किया है, जो अधिक लोकप्रिय और उपयोगकर्ता के अनुकूल है। इसके पंचांग
में जूलियन कैलेंडर का उपयोग ग्रेगोरियन सुधारों को शामिल कर के किया गया है।
हमने रामायण में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तिथियों के बारे में सभी विवादों को समाप्त
करने के लिए, स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2/2017) का उपयोग करते हुए भी रामायण
में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तिथियों के स्काई शॉट लिए हैं, क्योंकि इसे और अधिक सटीक
माना जाता है और यह नासा JPL DE 431 Ephemeris (पंचांग) पर आधारित है। स्टेलेरियम
एक ओपन सोर्स मुफ्त तारामंडल सॉफ्टवेयर है, जिसे जी.एन.यू. की शर्तों के तहत लाइसेंस प्राप्त है।
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इसका प्रयोग लिनक्स, विंडोज और मैक ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ किया जा सकता है। स्टेलेरियम
फ्रांसीसी प्रोग्रामर फैबियन चिरौऊ द्वारा बनाया गया था, जिन्होंने 2001 की गर्मियों में इस परियोजना
का शुभारंभ किया था। वर्तमान में, स्टेलेरियम का रख-रखाव तथा विकास अलेक्जेंडर वुल्फ, जॉर्ज
जॉटी, मार्कोस कार्डिनोट, ग्यूएलौम चिरौउ, बोगदान मारिनोव, टिमोथी रियवेज, फर्डिनेंड मेजेरेच तथा
जॉर्ज म्युलर द्वारा किया जा रहा है।
रामायण में वर्णित विभिन्न अनुक्रमिक घटनाओं के समय के खगोलीय संदर्भों के आकाशीय
दृश्य प्लैनेटेरियम गोल्ड सॉफ्टवेयर ने क्रमशः 5116 वर्ष ईसा पूर्व से 5076 वर्ष ईसा पूर्व के दौरान
दिखलाए। स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर भी इन्हीं आकाशीय दृश्यों को 40 दिनों के अंतराल के बाद (+/-2
दिन) इन्हीं वर्षों के दौरान आकाश में क्रमशः प्रदर्शित करता है। इस पुस्तक में इन दोनों सॉफ्टवेयर्स
द्वारा दर्शाए गए व्योमचित्रों को शामिल किया गया है। 40 दिनों के इस अंतर की सबसे सरल व्याख्या
यह है कि पहले जूलियन कलेंडर का नियमित वर्ष 365.25 दिन का था, जिसे 12 महीनों में बाँटा गया
था और हर चार साल में एक लीप का दिवस फरवरी में जोड़ा जाता था, परंतु वास्तव में एक वर्ष
में 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सेकंड होते हैं। 11 मिनट और 14 सेकंड प्रति वर्ष का यह
अंतर 131 वर्षों में एक दिन का अंतर बन जाता है।
जूलियन कलेंडर 365.25 दिन एक वर्ष की अवधि मानकर चलता था। ग्रेगोरियन सुधार पोप
ग्रेगरी XIII द्वारा 1582 ईस्वी में लागू किए गए थे, जिनके फलस्वरूप इटली में, 4 अक्तूबर, 1582
404 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

को 15 अक्तूबर, 1582 मानकर 11 दिन कम कर दिए गए। फ्रांस में भी जहाँ स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर
विकसित किया गया, 9 दिसंबर, 1582 को 20 दिसंबर 1582 के रूप में अपना कर 11 दिन कम
कर दिए गए।4 (संदर्भ : द ग्रेगोरियन कन्वर्जन : प्रोफेसर रॉबर्ट ए हैच—https://bit.ly/2IVCY9f)
फलस्वरूप, पिछले 1441 वर्षों में आए 131 वर्ष में एक दिन के अंतर का शोधन कर लिया गया।
प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर ने इसी ग्रिगोरियन कलेंडर को अपनाया, फलस्वरूप सन् 0141 ई. (1582-
1441=0141) से पहले 131 वर्ष में एक दिन के उस अंतर को समाहित नहीं किया गया।
5114 वर्ष ईसा पूर्व से 0141 ईस्वी तक 5255 वर्षों का अंतर बनता है, जो 40 दिन के बराबर
है (5255/131)। यही कारण है कि स्टेलेरियम 40 दिन (+/-2 दिन) के अंतराल के बाद उसी
आकाशीय दृश्य को प्रदर्शित करता है, जिसे प्लैनेटेरियम गोल्ड सॉफ्टवेयर द्वारा 40 दिन पहले दिखाया
गया था, क्योंकि स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर ने पिछले 13200 वर्षों में 131 वर्षों में एक दिन के इस अंतर
को समाहित किया। इसीलिए प्लैनेटेरियम द्वारा दिखाए गए आकाशीय दृश्य को स्टेलेरियम 40 दिन
(+/-2 दिन) के अंतराल (5255/131=40) पर दर्शाता है। यही कारण है कि 5114 वर्ष ई.पू. के
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि का व्योमचित्र-प्लैनेटेरियम 10 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को
दर्शाती है, जबकि स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर उसी आकाशीय दृश्य की तिथि 19 फरवरी, 5114 वर्ष ई.पू.
दर्शाता है, परंतु दोनों में चैत्र माह शुक्ल पक्ष की नवमी को साफ देखा जा सकता है।
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इसके अलावा पुराने जूलियन कलेंडर के मुताबिक, हर वर्ष जो कि चार से विभाज्य होता था,
वह लीप वर्ष था, जिसमें 266 दिन होते थे तथा फरवरी के 29 दिन हो जाते थे। ग्रेगोरियन सुधार के
बाद चार से विभाज्य हर वर्ष एक लीप वर्ष है, परंतु 100 से विभाज्य वर्ष लीप वर्ष नहीं माना जाता,
लेकिन 400 से विभाज्य वर्ष लीप वर्ष होगा। उदाहरणतः वर्ष 1700, 1800 और 1900 लीप वर्ष नहीं
हैं, लेकिन वर्ष 2000 लीप वर्ष है।
प्लैनेटेरियम और स्‍टेलेरियम सॉफ्टवेयरों के माध्यम से देखे गए व्योमचित्रों में यह दर्शाया गया है
कि ऋग्‍वेद में वर्णित खगोलीय संदर्भ 7000 वर्ष ई.पू. से 5500 वर्ष ई.पू. से संबंध रखते हैं। श्रीराम के
जीवन में महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय अवलोकित और रामायण में महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित किए
खगोलीय विन्यास 5100 वर्ष ई.पू. के आसपास की तिथियों को क्रमिक रूप से देखे गए आकाशीय
दृश्‍यों से संबंध रखते हैं, जबकि ‘महाभारत’ में वर्णित किए गए ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थितियों
को 3100 वर्ष ई.पू. के आसपास के समय में आकाश में क्रमिक रूप से देखा जा सकता था 5-6।
अब हमें यह समझने की आवश्यकता है कि क्‍यों किन्हीं विशेष खगोलीय विन्‍यासों की पुनरावृत्ति
25920 वर्षों में नहीं होती?
परिशिष्ट एक से • 405

25920 वर्षों में खगोलीय विन्यासों के विशेष संयोजन की पुनरावृत्ति न होने के मुख्य
कारण—
सौर मंडल के भीतर सूर्य स्थिर है, लेकिन अवलोकन करने पर यह पृथ्वी के चारों ओर घूमता हुआ
प्रतीत होता है, जबकि वास्तव में पृथ्‍वी अपनी धुरी पर तथा सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है, परंतु
पृथ्‍वी से अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य परिक्रमा कर रहा है। यह अवधारणा उसी प्रकार
है, जैसे एक चलती हुई रेलगाड़ी में सफर करते समय बाहर स्थिर खड़े पेड़ हमें तेजी से चलते हुए प्रतीत
होते हैं। पृथ्वी की तरह सभी अन्य ग्रह भी सूर्य की परिक्रमा करते हैं, परंतु ये सभी ग्रह सूर्य का एक चक्‍कर
पूरा करने में भिन्‍न-भिन्न समय लेते हैं—
• पृथ्‍वी एक वर्ष में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। वास्‍तव में यह 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट
और 46 सेकंड का समय लेती है। प्रत्‍येक वर्ष 11 मिनट 14 सेकंड या प्रत्‍येक 2160 वर्ष में 30
डिग्री के इस अग्रगमन चक्र की चर्चा हम बाद में करेंगे।
• शनि लगभग 29.46 वर्षों में एक चक्‍कर पूरा करता है।
• बृहस्‍पति सूर्य का एक चक्‍कर लगभग 11.86 वर्षों में पूरा करता है।
• मंगल ग्रह सूर्य की एक परिक्रमा करने में 1.88 वर्ष का समय लेता है।
• शुक्र ग्रह सूर्य के चारों ओर एक परिक्रमण को पूर्ण करने में लगभग 0.615 वर्ष लेता है।
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• बुध ग्रह सूर्य के चारों ओर एक क्रांति को पूर्ण करने में मात्र 88 दिवस लेता है।
• चंद्रमा आकाश में सबसे तेज गति से चलता है; यह क्रांतिवृत्त पथ का एक चक्‍कर लगभग 29.55
दिनों में ही पूर्ण कर लेता है और यह एक नक्षत्र में केवल एक दिन ही रहता है।
• अंत में, सोचें कि सूर्य 25920 वर्षों में एक अग्रगमन चक्र पूर्ण करते हुआ प्रतीत होता है, वास्तव
में यह धरती के वसंत विषुव और शरद विषुव का अग्रगमण चक्र होता है।
• हम सभी यह जानते हैं कि पृथ्‍वी सूर्य की परिक्रमा करती है और चंद्रमा पृथ्‍वी की परिक्रमा करता
है। यह तथ्य ऋग्वेद की रचना करनेवाले भारतीयों को आठ हजार वर्ष पहले ही मालूम था। उन्होंने
ऋ.10/189/1 में कहा, “आयंगौ प्रश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुर। पितरं च प्रयन्त्स्व:॥” अर्थात्् चंद्रमा
अपनी माता समान पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काट रहा है और पृथ्वी अपने पिता समान सूर्य के
चारों ओर घूम रही है। राहु और केतु दो काल्‍पनिक ग्रह वास्तव में दो प्रतिच्छेदन बिंदु हैं, जहाँ
प्रत्‍येक माह चंद्रमा सूर्य का पथ काटता है। इसीलिए ये दो बिंदु सूर्य और चंद्र ग्रहण से भी जुड़े हैं।
ये प्रतिच्‍छेदन बिंदु पूर्व निर्धारित ढंग से क्रांतिवृत्त पथ पर अपनी स्थिति बदलते रहते हैं।
अब उपर्युक्‍त खगोलीय तथ्‍यों के स्वाभाविक परिणामों को जाना जाए, ताकि हम यह समझ सकें
कि किसी विशिष्‍ट खगोलीय विन्‍यासों के संयोजन को 25920 वर्षों में पुन: क्यों नहीं दोहराया जा सकता।
आइए किसी भी समय के आकाश का निरीक्षण करें। यदि शनि वृश्चिक में है और बृहस्पति कन्या में,
406 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

तो 60 वर्षों से पहले ये दोनों इन्हीं स्थितियों में वापस नहीं आ सकते। 1.88 वर्ष में सूर्य का चक्र पूरा
करनेवाला मंगल आज वृषभ में है तो 120 या 180 वर्ष पश्चात् भी शनि और बृहस्पति की इन्हीं स्थितियों
के साथ यह वृषभ में वापस नहीं आएगा। तेजी से और कम समय में चक्र काटनेवाले ग्रहों से स्थिति और
जटिल होती जाएगी। इसीलिए तेजी से चक्र काटने वाले शुक्र और बुद्ध को अधिक समय में चक्र काटने
वाले ग्रहों के साथ लेने से सभी ग्रहों को अपनी पुरानी स्थिति में लौटने के लिए हजारों वर्षों का समय
लग सकता है। चंद्रमा एक नक्षत्र में केवल एक दिन विराजमान रहता है और किसी एक राशि में दो दिन
से थोड़ा अधिक समय तक रहता है। इसीलिए तो सभी ग्रहों की किसी निर्धारित समय में किन्हीं विशिष्ट
राशियों में स्थिति की पुनरावृत्ति 25920 वर्षों के भीतर लगभग असंभव है।

अग्रगमन चक्र
अंतरिक्ष में पृथ्‍वी के अभिविन्‍यास पर सूर्य, चंद्रमा और अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के संयोजन
को अग्रगमन कहा जाता है। विषुव क्रांतिवृत्त पर सूर्य की गति के विपरीत प्रतिवर्ष लगभग 50.3 सेकंड की
चाप की दर से स्थिर नक्षत्रों के सापेक्ष पश्चिम की ओर बढ़ते हैं। साधारणत: हम एक वर्ष में पृथ्वी का
सूर्य के इर्द-गिर्द 360 डिग्री का चक्र पूर्ण हुआ मान लेते हैं, परंतु एक वर्ष बाद वास्तव में पृथ्वी अपनी
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पूर्व स्थिति से लगभग 0.0136 डिग्री पीछे रह जाती है। 100 वर्ष बाद पृथ्वी अपनी वास्तविक स्थिति
से लगभग 1.36 डिग्री पीछे होगी और 1000 वर्ष बाद 13.6 डिग्री पीछे रह जाएगी। चूँकि एक राशि
(constellation) 30 डिग्री के अंतर पर स्थित है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि लगभग 2160 वर्षों
में पृथ्वी 30 डिग्री अर्थात्् एक राशि के बराबर पीछे हो जाएगी। 2160 वर्षों में विषुवों का अग्रगमन 30
डिग्री होता है, जो कि एक राशि अर्थात्् कॉन्सटेलेशन के समतुल्‍य है। इसीलिए तो इन सभी 12 राशियों
(constellation) को कवर करने वाला 360 डिग्री का अग्रगमन चक्र 25920 (2160×12) वर्षों में
पूरा होता है।7 इस अग्रगमन चक्र के कारण, सूर्य प्रत्‍येक 960 वर्षों में एक नक्षत्र पीछे की ओर गति करता
हुआ दिखाई देता है (25920/27)। चूकि ँ अवलोकन करने वाला पृथ्वी पर है, सूर्य 2160 वर्षों में एक
राशि चिह्न‍‍ से पीछे की ओर गति करता प्रतीत होगा। इस तथ्‍य को समझने और जाँचने के लिए हम पाठकों
को प्लैनेटेरियम या स्‍टेलेरियम सॉफ्टवेयर खोलने का सुझाव देते है, तत्पश्चात् निम्‍नलिखित अवलोकन नोट
करने का आग्रह करते हैं—
• 10 जनवरी, 8123 वर्ष ई.पू. को सूर्य वृषभ में विराजमान था।
• 10 जनवरी, 5963 वर्ष ई.पू. को सूर्य मेष में था। (10 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को भी यही
स्थिति थी)
• 10 जनवरी, 3803 वर्ष ई.पू. को सूर्य मीन राशि में दिखाई दिया।
• 10 जनवरी, 1643 वर्ष ई.पू. को सूर्य कुंभ राशि में दिखाई दिया।
परिशिष्ट एक से • 407

• 10 जनवरी, 0517 ईस्वी को सूर्य मकर राशि में विराजमान था।


• 10 जनवरी, 2017 ईस्वी वाले दिन सूर्य धनु राशि में विराजमान था। (और 600 वर्ष तक जनवरी
में सूर्य धनु राशि में ही दिखाई देगा)
सूर्य लगभग 25920 वर्षों में 360 डिग्री का अग्रगमन चक्र पूरा करने के पश्चात् ही 10 जनवरी के
आसपास वृषभ राशि में पुन: लौट पाएगा। यह नग्न आँखों से अवलोकन किए जाने योग्‍य सबसे धीमा चक्र
है और हमारे पूर्वज इस प्रकार कोरी आँखों के अवलोकनों पर ही भरोसा करते थे। यह स्‍पष्‍ट है कि प्राचीन
भारतीयों द्वारा वर्णित सभी नौ ग्रह क्रांतिवृत्त पर अलग-अलग गतियों से गति करते हैं और इन सभी नौ ग्रहों
की कोई विशिष्‍ट सापेक्ष स्थिति 25920 वर्षों से कम समय में पुन: नहीं दोहराई जा सकती।

नक्षत्रों की संकल्‍पना और भारतीय खगोल विज्ञान में उनका महत्त्व


प्राचीन भारत के खगोलशास्त्रियों ने 12 राशियों अर्थात्् नक्षत्र मंडलों के भीतर एक-दूसरे से
लगभग 13.33 डिग्री की समान दूरी पर स्थित 27 प्रमुख और चमकते हुए नक्षत्रों की पहचान की।
चंद्रमा प्रतिदिन लगभग 12.4 डिग्री आगे बढ़ता है, इसलिए यह प्रतिदिन एक नक्षत्र के निकट रहता है।
इन 27 नक्षत्रों को चंद्रमा के घर कहा जाता है और चंद्रमा एक नक्षत्र में लगभग एक दिन विराजमान
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रहता है। इन 27 नक्षत्रों की पहचान से चंद्र कलेंडर का जन्‍म हुआ। जिस नक्षत्र के निकट पूर्ण चंद्रमा
होगा, चंद्रवर्ष के माह का वही नाम होगा।8 उदाहरण—यदि पूर्ण चंद्रमा विशाखा नक्षत्र के निकट होगा
तो उस माह को वैशाख के नाम से जाना जाएगा।
इन नक्षत्रों की संकल्पना केवल भारतीय खगोलशास्‍त्र में ही अद्वितीय नहीं है। ये नक्षत्र अन्य
प्राचीन सभ्‍यताओं जैसे बेबीलोनिया, मिस‍्र या अरब सभ्‍यता ने भी पहचाने हैं। परंतु आधुनिक तारामंडल
सॉफ्टवेयरों द्वारा प्राचीन साहित्‍य में रिकॉर्ड किए गए खगो‍लीय विन्‍यासों का तिथिकरण होने से यह
स्‍पष्‍ट रूप से सिद्ध हो गया है कि प्राचीन भारत के लोगों को इन नक्षत्रों और ग्रहों का प्राचीनतम,
व्यापक और समग्र ज्ञान था। इन 27 नक्षत्रों के नाम ऋग्‍वेद में 7000 वर्ष ई.पू. से 5500 वर्ष ई.पू.
में, रामायण में 5100 वर्ष ई.पू. के आसपास, महाभारत में 3100 वर्ष ई.पू., शतपथ ब्राह्मण में 2200
वर्ष ई.पू., वेदांग ज्‍योतिष में 1200 वर्ष ई.पू., आर्यभटीयम् में 400 ईस्वी में रिकॉर्ड किए गए हैं9। इन
सॉफ्टवेयरों द्वारा दिखाए गए प्राचीन खगोलीय संदर्भों के आकाशीय दृश्यों ने यह सिद्ध कर दिया है
कि खगोलशास्त्र में भारत का ज्ञान मौलिक एवं प्राचीनतम है। इसे केवल 2000 वर्ष पुराना बताना या
फिर बेबीलोनिया या मिस‍्र से उधार लिया बताना अज्ञानता या फिर शरारतपूर्ण असत्य है, जिसकी पोल
आधुनिक वैज्ञानिक प्रमाणों ने खोल दी है।
बारह राशियों के अलावा हमारे पूर्वजों ने कुछ अन्य नक्षत्रों तथा नक्षत्र-समूहों को भी देखा। एक
408 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

नक्षत्र-समूह पर्यवेक्षक द्वारा आसानी से पहचाने जाने वाले सितारों का एक समूह है। एक नक्षत्र-समूह
(एस्टैरिज़म) किसी राशि का हिस्सा हो सकता है, परंतु स्वयं राशि नहीं होता। जैसे सप्तर्षि उर्सा मेजर
(ग्रेट वियर) कॉन्स्टेलशन का हिस्सा होते हैं। रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने सप्तर्षि के अतिरिक्त
त्रिशंकु को भी संदर्भित किया गया है, जिसे क्रक्स या दक्षिणी क्रॉस कहा जाता है। दक्षिणी गोलार्ध में
क्रक्स को आसानी से देखा जा सकता है।

प्राचीन भारत में चंद्र-सौर कैलेंडर और अधिक मास की अवधारणा


प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों ने चंद्र-सौर कैलेंडर का अनुसरण किया। एक चंद्र वर्ष में 354
दिन, 12 घंटे, 44 मिनट और 3 सेकंड होते हैं, जबकि सौर वर्ष 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और
46 सेकंड का होता है। इस प्रकार लगभग ढ़ाई साल बाद एक चाँद वर्ष से एक सौर वर्ष एक महीना
पीछे हो जाता है। चंद्र तथा सौर तिथियों के मिलाप को सुविधाजनक बनाने के लिए लगभग 30-32
महीनों के बाद एक अधिक मास की प्रथा का पालन हमारे पूर्वजों द्वारा किया गया।10 दो सॉफ्टवेयर का
इस्तेमाल करते हुए, इनके द्वारा दर्शाई गई सौर तारीखों को वाल्मीकि रामायण में वर्णित चंद्र-तिथियों की
चंद्रमा के फेज और उसके निकटतम नक्षत्र से तुलना करके भी सत्यापित किया जा सकता है, क्योंकि
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वाल्मीकि रामायण में चंद्र तिथियों के पूर्ण तथा क्रमिक संदर्भ हैं। इसीलिए जूलियन या ग्रेगोरियन आदि
कलेंडरों पर आधारित तारामंडल सॉफ्टवेयरों का उपयोग करते समय हमने सौर तिथियाँ निकालने के
साथ-साथ रामायण में वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित चंद्र तिथियों को भी सत्यापित किया है।

प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का वर्णन


8000 साल पहले ऋग्वेद की रचना के समय भारतीयों को मालूम था कि पृथ्वी अपने पिता समान
सूर्य के चारों ओर घूमती है, जबकि चंद्रमा अपनी माता समान धरती के चरों ओर घूमता है (ऋग्वेद
:10/189/111 और यजुर्वेद 3/612) परिणाम स्वरुप हर महीने चंद्रमा सूर्य के पथ को दो बिंदुओं पर
काटता था। सूर्य सिद्धांत, जो 2000 वर्ष से अधिक पुराना भारतीय ग्रंथ है, में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण की
घटनाओं के कारणों को सटीक विधि से तथ्यों के साथ समझाया गया है। जिस मार्ग पर सूर्य आकाशीय
क्षेत्र में घूमता प्रतीत होता है, उसे क्रांतिवृत्त (कक्षा) कहा जाता है। चंद्रमा भी इसी क्रांतिवृत्त पर घूमता
है, परंतु नियमित रूप से पाँच-पाँच डिग्री कक्षा के दोनों ओर दोलायमान होता रहता है, जिस बिंदु पर
चंद्रमा उत्तरार्ध को पार करता है, उसे आरोही नोड कहा जाता है और जिस बिंदु पर चंद्रमा दक्षिणार्ध
को पार करता है उसे अवरोही नोड कहा जाता है। आरोही और अवरोही नोड्स को हिंदू खगोलविदों
द्वारा राहु और केतु का नाम दिया गया।
परिशिष्ट एक से • 409

सूर्य सिद्धांत ने सटीक विवरण देते हुए निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य ग्रहण केवल अमावस्या के
दिन ही लग सकता है और जब सूर्य और चंद्रमा दोनों ही राहु और/अथवा केतु के करीब होते हैं।
इस ग्रंथ में यह भी समझाया गया है कि चंद्र ग्रहण केवल पूर्णिमा के दिन ही लग सकता है तथा तब
होता है जब चंद्रमा पृथ्वी के पीछे और उसकी छाया में सीधे गुजरता है।13 यह तभी हो सकता है,
जब सूर्य और चंद्रमा एक ही कटान बिंदु पर या फिर 180 डिग्री की दूरी पर होते हैं। दोनों सॉफ्टवेयर्स
का इस्तेमाल करते हुए इस पुस्तक में दिखाए गए आकाशीय दृश्यों ने सत्यापित किया है कि महर्षि
वाल्मीकि द्वारा उल्लिखित ग्रहण पूरी तरह से इन सभी मानदंडों पर खरे उतरते हैं।

स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा रात के समय दो सूर्यग्रहणों के प्रदर्शन का औचित्य


पाठक एक बहुत ही उपयुक्त प्रश्न पूछ सकते हैं—इस पुस्तक के अध्याय 3 और 4 में, दो
सूर्यग्रहणों को प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर ने दिन के समय में ही दर्शाया है परंतु स्टेलेरियम द्वारा इन सूर्य
ग्रहणों को रात के समय दर्शाता है, जब सूर्य क्षितिज से ऊपर नहीं है। नासा ने इस सवाल का बहुत
ही ठोस जवाब दिया है।14 नासा एक्लिप्स स्काईगाइड पर Delta T अर्थात् ΔT में अनिश्चितताओं का
चार्ट दिया है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 1600 ईस्वी से पहले के ग्रहणों को दर्शाने में समय
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तथा देशांतर की अशुद्धियाँ होनी आवश्यक हैं। मॉरिसन और स्टीफेंसन द्वारा तैयार किए गए चार्ट के
आधार पर, पैराबोलिक एक्सप्रेशंज की एक शृंखला बनाई गई, जिसके आधार पर 4000 वर्ष पहले से
1000 वर्ष पहले के दौरान के ग्रहणों में समय तथा देशांतर की अनिश्चितताओं का आकलन किया गया।

Table 3-Uncertainty of ΔT (estimated)


Year σ (seconds) Longitude
-4000 16291 67.9°
-3500 12378 51.6°
-3000 8978 37.4°
-2500 6094 25.4°
-2000 3732 15.6°
-1500 1900 7.9°
-1000 622 2.6°

इस प्रकार एक ग्रहण जो 4000 वर्ष से अधिक समय पहले देखा गया था, सॉफ्टवेयर उसे 16291
सेकंड यानी 11:31 घंटे के समय के अंतर से दर्शा सकता है। इस पुस्तक में रामायण काल के दो
सूर्यग्रहणों को शामिल किया गया है, जो स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर द्वारा रात के समय के दौरान दर्शाए
गए हैं। वास्तव में ये दिन के समय में ही देखे गए होंगे। डेल्टा टी (Delta T) टेरेस्ट्रिअल टाइम
410 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

(Terrestrial Time) और यूनिवर्सल टाइम (Universal Time) के बीच का अंतर है, जिसे कुछ
मानदंडों के अनुसार निर्धारित किया गया है, हालाँकि वास्तव में यूनिवर्सल टाइम भूकंप, उच्‍च ज्वार,
ज्वालामुखी विस्फोट आदि जैसे कई अन्य कारणों से भी भिन्न हो जाता है।
SAO/NASA Astrophysics Data System ने चंद्रमा की दोलायमानता में दो अज्ञात स‍्रोतों
का विवरण दिया है, एक 250-300 वर्ष के बीच 15”-20” के गुणांक और दूसरा 60 से 70 वर्ष के
बीच 3” के गुणांक तक के दोलन को प्रदर्शित करता है। नासा द्वारा दिए गए इन वैज्ञानिक तथ्यों से
यह निष्कर्ष निकलता है कि हजारों साल पहले देखे गए ग्रहणों को सॉफ्टवेयर कुछ घंटों के अंतराल
पर दर्शा सकती है। इसलिए यह सर्वथा संभव है कि 15 नवंबर, 5077 वर्ष ईसा पूर्व को स्टेलेरियम
द्वारा रात के समय दर्शाया गया सूर्यग्रहण वास्तव में पंचवटी से दिन के मध्यांत में देखा गया। इसी
प्रकार 13 मई, 5076 का सूर्य ग्रहण दिन चढ़ते ही किष्किंधा से देखा गया।

निष्कर्ष
ऊपर दिए गए सभी तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी प्राचीन घटनाओं के समय वर्णित
किए गए ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति से उन घटनाओं के समय का खगोलीय तिथि निर्धारण अनुमान अथवा
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परिकल्पना पर आधारित हो ही नहीं सकता। इसके माध्यम से तो पिछले 25920 वर्षों में किसी एक
वर्ष, एक माह, एक दिन में दो घंटे के आकाशीय दृश्य को सुनिश्चित किया जाता है, क्‍योंकि दो घंटों
के पश्चात् एक राशि क्षितिज से नीचे चली जाती है और दूसरी राशि पूर्व से उदय हो जाती है और
फिर रामायण में दिए गए क्रमिक खगोलीय संदर्भों की तरह यदि चालीस वर्ष की घटनाओं की क्रमिक
खगोलीय तिथियाँ हूबहू मिल जाती हैं, तो वैज्ञानिक आधार पर उन खगोलीय विन्यासों के व्योमचित्रों के
माध्यम से हुए अवलोकनों के समय की विश्वसनीयता को चुनौती देना लगभग असंभव है। यही कारण
है कि मैं पूर्ण विश्‍वास के साथ यह कह पाई हूँ कि इस पुस्तक में दिया गया रामायण की घटनाओं
का खगोलीय तिथिकरण एकदम सटीक, सही और विश्वसनीय है। हमने प्लैनेटेरियम के व्योमचित्र के
साथ-साथ स्टेलेरियम के आकाशीय दृश्यों के माध्यम से रामायण के संदर्भों का खगोलीय तिथि निर्धारण
किया और तत्पश्चात् आठ अन्य वैज्ञानिक विषयों से उपलब्ध साक्ष्यों का सह-संबंध इन तारा-मंडल
सॉफ्टवेयरों द्वारा किए गए तिथि निर्धारण से स्थापित किया। इन सभी ने रामायण में वर्णित घटनाक्रम
का संबंध 7000 वर्ष पूर्व के इतिहास से स्थापित किया।
परिशिष्ट एक से • 411

प्राचीन भारतीयों द्वारा रिकॉर्ड किए गए 27 नक्षत्रों की सूची, उनके वैज्ञानिक तथा अंग्रेजी नामों
सहित तथा नौ ग्रहों के भारतीय और अंग्रेजी नामों की सूची निम्नलिखित है—
क्रम नक्षत्रों के संस्कृत नाम देवनागरी/ इन नक्षत्रों के वैज्ञानिक संबंधित राशियों के चंद्र माह का नाम रोमन /
संख्या रोमन लिपि में नाम नाम अंग्रेजी/हिंदी में देवनागरी लिपि में
1. अश्विनी/Ashwini 13 α Aries Aries/ मेष Ashwin/आश्विन

2. भरणी/Bharani 41 Aries Aries/ मेष


3. कृत्तिका/Krittika 25 η Tau Taurus/वृषभ Kartik/कार्तिक

4. रोहिणी/Rohini 87 α Tau Taurus/वृषभ

5. मृगशिरा/Mrigashīrsha 112 β Tau Taurus/वृषभ Margshirsha/मार्गशीष

6. आर्द्रा/Ardra 24 γ Gem Gemini/मिथुन

7. पुनर्वसु/Punarvasu 78 β Gem Gemini/मिथुन

8. पुष्य/Pushya 17 β Cnc Cancer/कर्क Paush/पौष

9. अश्लेषा/Āshleshā 47 δ Cnc Cancer/कर्क

10. माघ/Maghā 32 α Leo Leo/सिंह Maagha/माघ

11. पूर्वा फाल्गुनी/ Pūrva Phalgunī 70 θ Leo Leo/सिंह

12. उत्तर फाल्गुनी/ Uttara Phalgunī 5 β Vir Virgo/कन्या Phalgun/फाल्गुन

13.
14.
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हस्ती/Hasta
चित्रा/Chitra
29 γ Vir

67 α Vir
Virgo/कन्या

Virgo/कन्या Chaitra/चैत्र

15. स्वाति/Swāti 99 ι Vir Virgo/कन्या

16. विशाखा/Vishakha 92 α 2 Lib Libra/तुला Vaishakh/वैशाख

17. अनुराधा/Anuradha 7 δ Sco Scorpius/वृश्चिक

18. ज्येष्ठा/Jyeshtha 21 α Sco Scorpius/वृश्चिक Jyeshtha/ज्येष्ठ

19. मूल/Mula 42 θ OPH Sagittarius/ धनु


20. पूर्व आषाढ़/ PurvaAshadha 34 δ Sgr Sagittarius/ धनु Ashadh/आषाढ़

21. उत्तर आषाढ़/Uttara Ashadha 5 α Capr Capricornus/मकर

22. श्रावण/Sravana 49 δ Capr Capricornus/मकर Shravan/श्रावण

23. धनिष्ठा/Dhanishta 5 ζ 1 Aqr Aquarius/कुंभ

24. शतभिषा/Shatabhisha 91φ Aqr Aquarius/कुंभ

25. पूर्व भद्रा/Purva Bhadrapada 28 ω Piscium Pisces/मीन Bhadrapad/भाद्रपद

26. उत्तर भद्रा/Uttara Bhādrapadā 63 δ Piscium Pisces/मीन

27. रेवती/Revati ζ Piscium Pisces/मीन

नवग्रहों के नाम : सूर्य (Sun), चंद्रमा (Moon), मंगल (Mars), बुध (Mercury), बृहस्पति (Jupiter), शुक्र
(Venus), शनि (Saturn), राहु (North Lunar Node-moon cuts the path of Sun) and केतु
(South Lunar Node)
412 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

संदर्भ सूची—
1. अशोक भटनागर, 2012, ‘एस्ट्रॉनोमिकल डेटिगं ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स यूजिगं
प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर’, हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज—साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द
डेप्थ्स ऑफ ओशंज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली
चैप्टर, पृष्ठ संख्या 55-80।
2. भारतीय ज्योतिष, श्री शिवनाथ झारखंडी द्वारा हिंदी में अनूदित, मूल पुस्तक मराठी भाषा में एस.बी. दीक्षित
द्वारा लिखी गई है, प्रकाशक उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान 1957
3. पुष्कर भटनागर, 2012, ‘श्रीराम के युग का तिथिनिर्धारण’, प्रकाशक वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान
4. ‘द ग्रेगोरियन कन्वर्जन’, प्रोफेसर रॉबर्ट ए हैच—https://bit.ly/2IVCY9f)
5. ‘ऋग्वेद से रोबोटिक्स तक सांस्कृतिक निरंतरता’ विषय पर दिनांक 3-4 फरवरी, 2016 को, जी.जे
यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी, हिसार में आई-सर्व दिल्ली चैप्टर के सेमिनार और प्रदर्शनी में
सरोज बाला की प्रस्तुति-http://sarojbala.blogspot.in/2017/05/blog-post.html, http://bit.
ly/2FDUCNd
6. सरोज बाला—‘इंडिया: साइं​ि‍टफिक डेटिगं ऑफ एनशियंट इवेन्ट्स फ्रॉम 7000 बी.सी. टू 2000 बी.सी.
कवरिंग ऋग्वैदिक ऐंड रामायण इराज़’, डायलॉग (आस्था भारती की प्रतिष्ठित पत्रिका) संस्करण 15,
संख्या 1, नई दिल्ली
7. अशोक भटनागर, 2012, ‘एस्ट्रॉनोमिकल डेटिगं ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स यूजिगं
MAGAZINE KING
प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर’, हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द
डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली
चैप्टर, पृष्ठ संख्या 55- 80
8. भारतीय ज्योतिष, श्री शिवनाथ झारखंडी द्वारा हिंदी में अनूदित; मूल पुस्तक मराठी भाषा में एस.बी. दीक्षित
द्वारा लिखी गई है, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित 1957
9. अशोक भटनागर, 2012. ‘एस्ट्रोनॉमिकल डेटिगं ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स यूजिगं
प्लैनेटरे ियम सॉफ्टवेयर’, हिस्टोरिसिटी ऑफ वैदिक ऐंड रामायण एराज़ : साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम द
डेप्थ्स ऑफ ओशन्ज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व दिल्ली
चैप्टर, पृष्ठ संख्या 55- 80
10. भारतीय ज्योतिष, श्री शिवनाथ झारखंडी द्वारा हिंदी में अनूदित; मूल पुस्तक मराठी भाषा में एस.बी. दीक्षित
द्वारा लिखी गई है, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित, 1957
11. रवि प्रकाश आर्य और के.एल. जोशी, संपादक-ऋग्वेद संहिता विद इंग्लिश ट्रांसलेशन एकोर्डिंग टू एच.एच.
विल्सन, भाग-4 : प्रकाशक परिमल प्रकाशन, दिल्ली
12. यजुर्वेद संहिता, सरल हिंदी भावार्थ सहित, संपादक—वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा; प्रकाशक ब्रह्म‍वर्चस्,
शांतिकुज ं , हरिद्वार, उत्तराखंड।
13. सूर्य सिद्धांत, खगोलविज्ञान की लगभग 2000 वर्ष पुरानी पुस्तक, पर दी गई व्याख्या के अनुसार http://
users.hartwick.edu/hartleyc/hindu/suryadescribe.html
14. https://eclipse.gsfc.nasa.gov/SEhelp/uncertainty 2004.html
परिशिष्ट-2

अन्‍य विद्वानों व वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित रामायण की


खगोलीय तिथियों का आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण

मैं ने कई अन्‍य वैज्ञानिकों और विद्वानों द्वारा निर्धारित श्रीराम के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की
खगोलीय तिथियों का अध्‍ययन पूर्ण सम्मान के साथ किया। प्लैनेटेरियम और स्‍टेलेरियम साफ्टवेयर
का उपयोग करते हुए उन विद्वानों द्वारा उल्लिखित तिथियों के आकाशीय दृश्‍य भी निकाले, परंतु ये
आकाशीय दृश्‍य न तो इन वैज्ञानिकों और विद्वानों द्वारा निर्धारित तिथियों की संपुष्टि करते हैं और न ही
वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाक्रम का आंतरिक रूप से सुसंगत तिथि अनुक्रम प्रस्‍तुत करते हैं। इन
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प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा किए गए कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयासों का आलोचनात्मक विश्लेषण नीचे दिया गया है—
डॉ. पी.वी. वर्तक ने अपनी पुस्‍तक ‘द साइंटिफिक डेटिंग ऑफ द रामायण ऐंड द वेदाज’ में श्रीराम
के जन्‍म की तिथि 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. निर्धारित की है।1 डॉ. वर्तक भी इस बात से सहमत है कि
वाल्मीकिजी के अनुसार श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को दोपहर के समय हुआ था, उस समय पाँच
ग्रह (सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि और बृहस्‍पति) अपने-अपने उच्‍च स्थान में उदीयमान थे तथा बृहस्‍पति और
चंद्रमा कर्क लग्न में एक साथ चमक रहे थे, परंतु प्लैनेटेरियम साफ्टवेयर द्वारा निकाले गए व्योमचित्र-यह
दर्शाते हैं कि 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को दोपहर के समय केवल मंगल और शुक्र ग्रह अपने-अपने
उच्‍च स्थान क्रमश: मकर और मीन राशियों में स्थित थे। अन्‍य तीन ग्रह अपने-अपने उच्‍च स्थान में न
होकर आकाश में निम्‍नलिखित स्थितियों में थे—
1. सूर्य का उच्‍च स्थान मेष राशि में है, जबकि वह 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को मीन राशि में
था।
2. बृहस्‍पति का उच्‍च स्थान कर्क राशि में है, लेकिन वह उस समय वृषभ में था।
3. शनि का उच्‍च स्थान तुला राशि में है, परंतु यह 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को वृश्चिक में था।
इस प्रकार की विसंगतियों का कारण जानने के लिए, लेखिका ने इस विषय पर डॉ. वर्तक द्वारा
414 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

लिखित पुस्‍तक का बारंबार अध्‍ययन किया। वास्‍तव में डॉ. वर्तक ने न तो वाल्मीकि रामायण में से
खगो‍लीय संदर्भ लिए हैं और न ही उन्‍होंने आकाशीय दृश्‍यों को निकालने के लिए किसी सॉफ्टवेयर का
उपयोग किया है। उन्‍होंने मैनुअल गणना करके भी किसी भी घटना की तारीखों की गणना करने का कोई
भी प्रयास नहीं किया। उन्‍होंने रामायण से विभिन्‍न ऋतुओं के संदर्भ लिए हैं और अपने अनुमान लगाए हैं
कि 7000 वर्ष ई.पू. के आसपास उन दिनों उस ऋतु के अनुरूप समकक्ष चंद्रमाह कौन से होंगे? महाभारत
युद्ध की तारीख को 5516 वर्ष ई.पू. मानकर और कुछ वर्ष पीछे गणना करके डॉ. वर्तक ने रामायण युग
की ये तिथियाँ निकाली हैं।
इसके अतिरिक्‍त रामायण में दिए गए स्‍पष्‍ट तथ्‍यों तथा संदर्भों को नजरअंदाज करते हुए उन्‍होंने कई
अनुमान लगाते हुए यह मान लिया कि जब श्रीराम ने अयोध्‍या से वनवास के लिए प्रस्‍थान किया था,
तब उनकी आयु 17 वर्ष थी और उनका विवाह एक वर्ष पहले ही हुआ था। इसके पश्‍चात् उन्‍होंने अपने
अनुमानों के आधार पर रामायण में वर्णित विभिन्‍न तथ्‍यों को जोड़-तोड़कर श्रीराम और सीताजी के विवाह
की तारीख 7 अप्रैल, 7307 वर्ष ई.पू. निर्धारित की, जिसके लिए वह यह दावा करते हैं कि उस दिन भाद्रपद
शुद्ध तृतीया थी। तत्पश्चात् और पीछे की गणना करते हुए उन्‍होंने श्रीराम के जन्‍म की‍ तिथि 4 दिसंबर,
7323 वर्ष ई.पू. बता दी। उन्‍होंने रामायण में वर्णित सूर्य, मंगल और शुक्र की स्थितियों का सत्यापन करने
की आवश्यकता ही नहीं समझी, क्योंकि उनके शब्‍दों में, “ये तेज गति से चलने वाले ग्रह हैं और इसलिए
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ये हजारों वर्षों की गणना में उपयोगी नहीं हैं।” डॉ. वर्तक जैसे प्रख्‍यात विद्वानों को परम आदर के साथ
लेखिका यह निवेदन करना चाहेगी कि किसी भी घटना की सटीक खगोलीय तिथि ज्ञात करने के लिए मंद
गति वाले और तेज गति वाले सभी ग्रहों की स्थितियों का परिशुद्धता के साथ मिलान करना जरूरी है तथा
यह संभव भी है। श्रीराम के जन्म के समय की रामायण में वर्णित सभी खगोलीय स्थितियाँ पिछले 25920
वर्षों में केवल एक बार ही दिखाई दीं और वह 5114 वर्ष ई.पू. की चैत्र शुक्ल नवमी थी।
इससे भी अधिक एक और महत्त्वपूर्ण तथ्‍य यह है कि वाल्मीकिजी के अनुसार, श्रीराम के जन्‍म के
समय शुक्‍ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र उदीयमान था और पाँच ग्रह (सूर्य, शुक्र मंगल, शनि,
और बृहस्पति) अपने-अपने उच्‍च स्‍थान में विराजमान थे। (1/18/8-10 वा.रा) इसका अर्थ है कि ये
सभी अपने-अपने उच्‍च स्थान की राशियों अर्थात्् मेष, मीन, मकर, तुला, कर्क में क्रमश: विद्यमान थे।
लग्‍न में चंद्रमा के साथ बृहस्‍पति कर्क राशि में विराजमान था, जो उस समय पूर्व में आकाश में उदय
हो रही थी। व्‍यावहारिक रूप से इनमें से अधिकतर स्थितियाँ 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को आकाश में
नहीं देखी जा सकती थीं, जैसा कि नीचे दिए गए प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर के आकाशीय दृश्‍यों से स्पष्ट हो
जाएगा। (देखें व्योमचित्र-30 व 31)
परिशिष्ट एक से • 415

अयोध्या से 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. को दोपहर के समय का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-30 व 31 ः अयोध्या/भारत; 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित


416 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

यह व्योमचित्र-स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि 4 दिसंबर, 7323 वर्ष ई.पू. दोपहर को 12:30 बजे सूर्य
मीन में है, बृहस्पति वृषभ में तथा शनि वृश्चिक में। चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में नहीं है और उस समय शुक्लपक्ष
की नवमी तिथि का चाँद भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। इस तरह की बड़ी अशुद्धियों के कारण डॉ. वर्तक
द्वारा बताई गई, श्रीराम की जन्मस्थिति काे संपुष्टि करना असंभव है।
डाॅ. पी. वी. वर्तक की पुस्तक ‘रामायण और वेदों का वैज्ञानिक तिथि निर्धारण’ के अनुसार, श्रीराम
ने दिनांक 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू. को 14 वर्षों के वनवास के लिए प्रस्‍थान किया था। उस समय श्री
वर्तक के अनुसार उनकी आयु 17 वर्ष की थी, जबकि महर्षि वाल्मीकि ने बड़े स्पष्ट रूप से यह कहा
है कि वन गमन वाले दिन श्रीराम का 25वाँ जन्म दिन था (3/47/10)। प्लैनेटेरियम साफ्टवेयर द्वारा
निकाले गए व्योमचित्र-नीचे दिए गए हैं। ये आकाशीय दृश् य वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित खगोलीय स्थितियाँ
29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू. को प्रदर्शित नहीं करते। रामायण के अनुसार राजा दशरथ की मीन राशि उस
समय सूर्य, मंगल और राहु द्वारा घिरी हुई थी, परंतु इस व्योमचित्र-में केवल सूर्य ही मीन में दिखाई दे रहे
हैं। मंगल तो उस समय कुंभ राशि में हैं। (देखें व्योमचित्र-32 व 33)
अयोध्या से 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू. का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-32 ः अयोध्या/भारत; 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू.


परिशिष्ट एक से • 417

अयोध्या से 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू. का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-33 ः अयोध्या/भारत; 29 नवंबर, 7306 वर्ष ई.पू.

यहाँ यह अत् यंत स् पष् ट है कि डॉ. वर्तक ने किसी भी तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग नहीं किया।
इस तथ्य का सत्यापन करने के लिए मैंने स् टेलिरियम साफ्टवेयर का उपयोग करके 4 दिसंबर, 7223
वर्ष ई.पू. के आकाशीय दृश् य निकाले। स् टेलेरियम के अनुसार 4 दिसंबर, 7223 वर्ष ई.पू. को न तो सूर्य
मेष राशि में विराजमान थे और न ही बृहस्पति कर्क राशि में और शनि भी तुला राशि में दिखाई नहीं दे
रहे थे। व्योमचित्र-तो चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का चाँद भी नहीं दिखा रहा और पुनर्वसु नक्षत्र
चंद्रमा के आसपास नहीं है। न तो बृहस् पति और चंद्रमा उस समय एक साथ चमक रहे थे और न ही
उस तारीख को दोपहर के समय में पूर्व दिशा से कर्क राशि उदय हो रही थी। इसलिए इन साफ्टवेयरों से
दर्शाए गए व्योमचित्रों के अनुसार डॉ. वर्तक द्वारा निर्धारित खगोलीय तिथियाँ किसी भी प्रकार से रामायण
में वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित खगोलीय विन्यासों से मेल नहीं खाती। इन् हें मात्र गलत अनुमान मानकर
नजरअंदाज कर देना ही उचित होगा।
डॉ. नीलेश ओक, एक अन् य प्रतिष्ठित विद्वान् ने यह दावा किया है कि रामायण 11000 वर्ष ई.पू.
के बाद के समय की नहीं हो सकती। उन् होंने रामायण में वर्णित खगोलीय संदर्भों की अानुक्रमिक तिथियों
418 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

पर पहुँचने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। उन्‍होंने वा.रा. (6/4/48) में लक्ष्‍मण के उस कथित व्याख्यान
पर रामायण की सभी घटनाओं का तिथिकरण कर डाला, जिसमें उनके अनुसार लक्ष्‍मण ने कहा था कि
‘सप्‍तऋ​ि‍र्ष उत्तरी आकाश में ब्रह्म‍राशि के चारों ओर परिक्रमा करते हुए चमक रहे हैं।’ उन्‍होंने ब्रह्म‍राशि
को ध्रुव तारा मानते हुए यह भी परिकल्‍पना कर डाली कि उस समय ध्रुव तारा अभिजीत नक्षत्र होता था।
उनका यह भी दावा है कि अभिजीत नक्षत्र 11000 वर्ष ई.पू. से पहले ही ध्रुव तारा हो सकता था। उनके
यह दोनों अनुमान निराधार हैं। वास्‍तव में श्‍लोक 6/4/48 का शब्दकोश के अनुसार अर्थ है—“जहाँ
ब्रह्म‍राशिः अर्थात्् ब्रह्म‍ज्ञान के भंडार सप्तर्षियों का समुदाय शोभा पाता है, वह ध्रुवतारा भी निर्मल दिखाई दे
रहा है। शुद्ध और प्रकाशमान समस्त सप्त ऋषिगण ध्रुव को अपने दाहिने रखकर उनकी परिक्रमा कर रहे
हैं।” इसके अतिरिक्‍त लक्ष्‍मण द्वारा कई अन्‍य खगोलीय स्थितियों का भी वर्णन किया गया है। वास्‍तविक
एवं विश्‍वसनीय खगोलीय तिथियों को जानने के लिए इन सभी खगोलीय विन्यासों से हूबहू मिलान होना
आवश्यक है। ऐसा पिछले 25920 वर्षों में केवल एक बार 20 सितंबर, 5076 वर्ष ई.पू. को हुआ था,
जिसके आकाशीय दृश्‍य को इस पुस्‍तक में शामिल किया गया है। यहाँ पर यह भी स्पष्ट करना आवश्यक
है कि किसी भी डिक्शनरी में ब्रह्म‍राशि का अर्थ अभिजीत नहीं हैं और कोई भी ध्रुवतारा कभी भी पृथ्वी के
क्रांतिवृत्त का भाग नहीं हो सकता। वास्तव में शब्दकोश के अनुसार ब्रह्म‍राशिः का अर्थ ब्रह्म‍ज्ञान का भंडार
है, जिसे सप्तर्षियों के लिए प्रयोग किया गया है।
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ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि श्री नीलेश ओक ने किसी भी विशिष्‍ट अक्षांश और रेखांश से
रामायण के किसी भी खगोलीय संदर्भों के व्योमचित्र-दर्शाने का कष्‍ट नहीं किया, जबकि यह सर्वविदित
है कि ग्रहों, नक्षत्रों और सप्‍तऋ​ि‍र्षयों सहित तारा-उपमंडलों की दृश्‍यता और‍ स्थिति विभिन्‍न अक्षांशों और
रेखांशों से भिन्‍न हो सकती हैं। श्रीमान नीलेश ओक रामायण के किसी भी अन्‍य खगोलीय विवरण को
11000 वर्ष ई.पू. से पहले के किसी भी व्योमचित्र-से नहीं मिला पाए हैं। परंतु ब्रह्म‍राशि को गलत तरीके से
अभिजीत नक्षत्र मानकर और केवल उसी आधार पर वे दावा करते है कि रामायण का तिथिकरण 11000
वर्ष ई.पू. के बाद हो ही नहीं सकता। श्री नीलेश ओक द्वारा किए गए दावे को मैं वाल्मीकि रामायण में
वर्णित घटनाओं के तिथि निर्धारण करने की दिशा में गंभीर प्रयास नहीं मानती। क्‍या कोई रामायण में केवल
एक ही श्‍लोक की स्‍वेच्‍छा चारी व्‍याख्‍या देकर महर्षि वाल्मीकिजी जैसे प्रख्यात खगोलीय वैज्ञानिक द्वारा
रचित अन्‍य 23999 श्‍लोकों में दिए गए सभी खगोलीय संदर्भों को नजरदांज कर सकता है? मुझे यह कहने
में कोई संकोच नहीं है कि श्री नीलेश ओक ने रामायण में वर्णित संदर्भों की खगोलीय तिथियों को निर्धारित
करने का कोई प्रयास ही नहीं किया, अपितु वे ऐसे सभी प्रयासों में बाधा उत्‍पन्‍न करने के लक्ष्‍य से ऐसा
दावा कर रहे हैं।
महाभारत के तिथि निर्धारण के लिए भी श्रीमान नीलेश ओक ने केवल एक ही संदर्भ (6/2/31) का
गलत अर्थ निकालकर एक लाख श्लोकों वाले महाभारत का तिथिकरण कर डाला। उनके अनुसार इस
परिशिष्ट एक से • 419

श्लोक का अर्थ है कि ‘तीनों लोकों में वंदनीय अरुंधति सप्तर्षियों में वसिष्ठ के साथ चलने की बजाय उसे
पीछे छोड़कर चल रही है।’ फिर वे तारामंडल सॉफ्टवेयर के माध्यम से दिखाते हैं कि ऐसा 7000 वर्ष
ई.पू. से पहले ही संभव था। इसलिए महाभारत का युद्ध 7000 वर्ष ई.पू. के बाद का हो ही नहीं सकता।
सुप्रसिद्ध खगोलविद् डॉ. आयंगार के अनुसार, “महाभारत का यह श्‍लोक 6/2/31 केवल दृष्टिगोचरता
का संदर्भ देता है। अरुंधति एवं वसिष्‍ठ सदैव एक साथ देखे गए थे, यह वास्‍तविक तथ्‍य है। चूँकि ये
सप्‍तऋ​ि‍र्ष नक्षत्रमंडल (7+1) के भाग हैं, इसलिए ये उत्तर भारत में अवलोककों के लिए काफी लंबी
अवधि तक उदय या अस्‍त नहीं हुए। पी.एल.वी.एस. स्‍टार विजिब्लिटी साफ्टवेयर (www.alcyone.
de) यह दर्शाता है कि पटना से 4 डिग्री की ऊँचाई से वसिष्‍ठ ने 415-416 वर्ष ई.पू. के दौरान अपनी
परिध्रुवीयता (circum polarity) छोड़ दी थी, जबकि अरुंधति के साथ यह 10 वर्षों पश्चात् हुआ
(404-405 ई.पू.)। 410 वर्ष ई.पू. में आकाश में दिखाई देने वाले नक्षत्रों के स्‍क्रीनशॉट यह दर्शाते हैं कि
अगस्‍त-सितंबर में प्रात:काल में पहले अरुंधति दिखाई दी और कुछ मिनटों के पश्चात् वसिष्ठ दृश्‍यमान
हुए। इसलिए महाभारत में वसिष्‍ठ-अरुंधति श्‍लोक (6/2/31) केवल दृष्टिगोचरता का संदर्भ प्रदान करता
है और उसका महाभारत युद्ध की घटनाओं के खगोलीय तिथिकरण से कोई संबंध नहीं है।
मुझे श्री एन. नरसिंह राव द्वारा 1990 में प्रकाशित उनकी पुस्‍तक ‘डेट ऑफ श्रीराम’ में निर्धारित
रामायण की तारीखों का अध्‍ययन करने का भी अवसर मिला। उन्‍होंने श्रीराम के जन्‍म की तिथि 11
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फरवरी, 4433 वर्ष ई.पू. निर्धारित की है। उनके अनुसार यह भी चैत्र शुक्‍ल नवमी का दिन था। श्री एन.
नरसिंह राव ने श्रीराम के 14 वर्षों के वनवास हेतु प्रस्‍थान की तिथि 17 फरवरी, 4409 वर्ष ई.पू. निर्धारित
की है, जिस दिन उनका 25वाँ जन्‍मदिन भी था। उन्‍होंने श्रीराम के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के संपूर्ण
तिथि अनुक्रम को मैनुअल गणनाओं के आधार पर निर्धारित किया है, जिसका विवरण उनकी पुस्‍तक में
दिया गया है। उनकी घटनाओं का तिथि अनुक्रम हमारे तिथि अनुक्रम से मेल खाता है, लेकिन उन्‍होंने
श्रीराम के जन्‍म की तिथि 11 फरवरी, 4433 वर्ष ई.पू. मानी है, जबकि हमने श्रीराम के जन्‍म की तिथि 10
जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. निर्धारित की है।
वास्तव में, श्री राव ने किसी तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग नहीं किया है। मेरा यह मानना है कि
यदि श्री नरसिंह ने प्लैनेटेरियम साफ्टवेयरों की सहायता ली होती तो वे कुछ आश्‍चर्यजनक व त्रुटिहीन
तथ्‍य प्रस्‍तुत करने में सक्षम थे। उन्‍होंने एक वर्ष में 365 दिन और 6 घंटे माने और प्रत्‍येक तीन वर्ष में
365 दिन और प्रत्‍येक चौथे वर्ष को लीप वर्ष माना अर्थात् फरवरी माह में एक दिन जोड़ा, परंतु अब यह
सर्वसम्मति से माना गया खगोलीय तथ्य है कि एक वर्ष में वास्‍तव में 365 दिन, 5 घंटे 48 मिनट, 46
सेकंड होते हैं। इस प्रकार प्रत्‍येक वर्ष में 11 मिनट और 14 सेकंड कम होने को संगणना में नहीं लिया,
जिसके फलस्‍वरूप गलत परिणाम निकलना स्‍वाभाविक ही था। श्री राव के खगोलीय तिथिकरण में गलती
आने का एक अन्य कारण यह भी है कि उन्होंने वसंत विषुव और शरद् विषुव के अयनांत को गणना
420 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

में नहीं लिया, परंतु फिर भी यह मानना होगा कि श्री एन. नरसिंह राव ने रामायण में वर्णित घटनाओं की
खगोलीय तिथियों की मैनुअल गणना करने के लिए अत् यंत बुद्धिमत्तापूर्ण और प्रतिभाशाली प्रयास किया
है। लेखिका ईमानदारी से यह स्वीकार करती है कि उनके द्वारा की गई अत्यंत जटिल खगोलीय गणनाओं
को तारामंडल सॉफ्टवेयर के बिना समझने का उसमें सामर्थ्य नहीं है। उन् हें सादर नमन करते हुए यह
कहना भी आवश्यक है कि उनकी पुस् तक ‘डेट ऑफ श्रीराम’ में उनके द्वारा निर्धारित की गई रामायण की
महत्तवपूर्ण घटनाओं की खगोलीय तिथियाँ सही नहीं हैं और कोई भी आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयर इनका
सत्यापन नहीं करती। 11 फरवरी, 4433 वर्ष ई.पू. दोपहर के सवा बारह बजे का प्लैटेनेरियम द्वारा दर्शाए
गए व्योमचित्र का संदर्भ लें। (देखें व्योमचित्र-34)
अयोध्या से 11 फरवरी 4433 वर्ष ई.पू. को दोपहर के समय का व्योमचित्र

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व्योमचित्र-34 ः अयोध्या/भारत; 11 फरवरी, 4433 वर्ष ई.पू. दोपहर का समय

उस समय केवल सूर्य ही अपने उच् च स्थान मेष में थे, अन्य चारों ग्रह अपने-अपने उच् च स्थान में
नहीं थे; शुक्र मीन में नहीं थे, मंगल मकर में नहीं थे, शनि तुला में नहीं थे। उस समय चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र
परिशिष्ट एक से • 421

में नहीं थे और उस दिन शुक्लनवमी का चंद्रमा नहीं, अपितु शुक्ल एकम का चंद्रमा था।
लेखिका को स्‍वर्गीय पुष्‍कर भटनागर द्वारा लिखित एवं रूपा ऐंड कंपनी द्वारा प्रकाशित पुस्‍तक
‘डेटिंग द एरा आफ लॉर्ड श्रीराम’ (श्रीराम के युग का तिथि निर्धारण) पढ़ने का भी अवसर मिला।3
वास्‍तव में उनकी इस पुस्‍तक के लेखन की प्रक्रिया के दौरान पुष्‍कर भटनागर जी से जुड़ना लेखिका के
लिए सौभाग्‍य की बात थी। इस विषय में लेखिका की रुचि संभवत: उन दिनों उनके अनुसंधान कार्य
से प्रेरणा लेकर ही बनी। श्री पुष्‍कर भटनागर ने श्रीराम के जन्‍म की तिथि 10 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू.
निर्धारित की है और उन्होंने श्रीराम की सेना के 12 अक्तूबर, 5076 वर्ष ई.पू. को श्रीलंका के सुवेल पर्वत
पर पहुँचने तक के आकाशीय दृश्‍य निकाले थे।4 लेखिका ने गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि
रामायण का संपूर्ण पाठ (टैक्स्ट) बहुत ध्‍यान से पढ़ा और उसमें से सभी खगोलीय संदर्भ निकाले और
उनके अनुवाद संबंधी सभी विवादों को संस्‍कृत के विद्वानों की सहायता से सुलझाया। इसके पश्‍चात्
प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करके अनुक्रमिक व्योमचित्र-निकाले जो दिए गए स्‍थानों के अक्षांशों
और रेखाशों से वाल्मीकि रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भों से हूबहू मिलते हैं। इन आकाशीय दृश्‍यों
की तिथियाँ श्री पुष्‍कर भटनागर की पुस्‍तक ‘श्रीराम के युग का तिथि निर्धारण’ (वेदों पर वैज्ञानिक शोध
संस्थान द्वारा प्रकाशित) में दी गई खगोलीय तिथियों से मेल खाती हैं।

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परंतु यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ पुस्‍तक का
विषय क्षेत्र बहुत विशाल है और इसका उद्देश्‍य बहुत व्यापक तथा बहुआयामी है। लेखिका ने श्रीराम
के जन्‍म से दो वर्ष पहले रामायण में वर्णित खगोलीय संदर्भों के आकाशीय दृश्‍यों से तिथिकरण प्रारंभ
किया, जब राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी। खगोलीय तिथि अनुक्रम
निर्धारित करने और बहुआयामी वैज्ञानिक साक्ष्‍य एकत्रित करने के पश्‍चात् इस विषय पर विशेषज्ञों से
निविष्टियाँ तथा आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियाँ प्राप्‍त करने के लिए विभिन्‍न संगोष्ठियों और सम्‍मेलनों के
दौरान प्रस्‍तुतियों का आयोजन किया गया। खगोलविदों द्वारा दी गई टिप्पणियों से यह ज्ञात हुआ कि
विभिन्‍न सॉफ्टवेयरों से निकाले गए रामायण के संदर्भों के आकाशीय दृश्‍यों की तिथियों में अंतर था।
तत्‍पश्‍चात् लेखिका ने प्लैनेटेरियम, स्टैलेरियम तथा वॉयेजर आदि विभिन्‍न सॉफ्टवेयरों का उपयोग करके
और इन सॉफ्टवेयरों द्वारा अपनाए गए पंचांगों/कलेंडरों की तुलना करके इस पुस्‍तक के माध्‍यम से
रामायण के संदर्भों के खगोलीय तिथि निर्धारण पर किसी भी मतभेद को जड़ से ही समाप्त कर देने का
निश्चय किया। यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि श्री पुष्‍कर भटनागर ने केवल प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का
उपयोग किया था, जिसे अब अप्रचलित माना जाता है।
खगोलीय तिथि निर्धारण संबंधी सभी विवादों के समाधान के लिए स्‍टेलेरियम सॉफ्टवेयर
(संस्‍करण—0.15.2/2017; NASA JPL DE 431 पंचांग) का उपयोग करके वाल्मीकि रामायण के
सभी अनुक्रमिक खगोलीय संदर्भों के सभी आकाशीय दृश्य निकाले गए। यह सॉफ्टवेयर श्रीराम की जन्म
422 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

तिथि 19 फरवरी, 5114 वर्ष ई.पू. दर्शाता है, उस दिन श्रीराम के जन्म के समय वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित
सभी खगोलीय विन्यासों को अयोध्या से आकाश में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। यह 5114 वर्ष
ई.पू. चैत्र शुक्‍ल नवमी का दिन भी था। 40 दिनों (+1/-1 दिन) का यह अंतर प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर
द्वारा ग्रिगेरियन सुधार अवधि से पहले के वर्षों के लिए 131 वर्षों में 1 दिन के अंतर का समायोजन
न करने के कारण है, जबकि स्‍टेलेरियम सॉफ्टवेयर ने इस संपूर्ण अवधि के लिए इस अंतर को अपने
कैलेंडर में समाहित कर लिया है। इस अंतर की साधारण व्‍याख्‍या यह है कि एक वर्ष में 365 दिन और
6 घंटे नहीं होते, अपितु वास्‍तव में 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सेकंड होते हैं। स्‍टेलेरियम
सॉफ्टवेयर ने अपने पंचांग में पिछले 13,200 वर्षों के लिए 11 मिनट और 14 सेकंड के इस अंतर को
समायोजित कर लिया है, जबकि प्‍लैटेनेरियम ने जूलियन कलेंडर के ग्रिगेरियन सुधार का अनुपालन
करके केवल 0141 ईस्वी के बाद के समय के लिए इस अंतर का समायोजन किया है। एक वर्ष में 11
मिनट और 14 सेकंड का यह अंतर 131 वर्ष में एक दिन के बराबर हो जाता है।
लेखिका ने यह भी देखा कि प्लैनेटेरियम और स्‍टेलेरियम सॉफ्टवेयर सहित लगभग सभी तारामंडल
सॉफ्टवेयरें महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा वर्णित चंद्र तिथि के अनुरूप ही क्रमिक आकाशीय दृश्‍य दर्शाती हैं।
उदाहरण के लिए, प्लैनेटेरियम, स्टेलेरियम तथा वॉयेजर सॉफ्टवेयर श्रीराम के जन्म की खगोलीय तिथि
5114 वर्ष ई.पू. की चैत्र शुक्ल नवमी ही निर्धारित करती हैं, परंतु व्योमचित्र-प्रस्तुत करने में 40 दिन
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(+/- एक दिन) का अंतर इन सॉफ्टवेयरों द्वारा उपयोग में लाए गए पंचांगों पर निर्भर करता है।
इसके अतिरिक्‍त श्री पुष्‍कर भटनागर ने रामायण में वर्णित महत्त्वपूर्ण घटनाओं की खगोलीय तिथियों
को निर्धारित करने पर ही अपना ध्‍यान केंद्रित किया था, परंतु इस पुस्तक की लेखिका ने विज्ञान के आठ
विषयों से वैज्ञानिक अनुसंधान रिपोर्टों का सह संबंध स्‍थापित करके इस अध्‍ययन के विषय क्षेत्र को बहुत
विस्तृत कर दिया है। ये सभी बहुआयामी वैज्ञानिक साक्ष्‍य 5100 वर्ष ई.पू. अर्थात् सात हजार वर्ष पहले
की अवधि के दौरान के समय से संबंधित रामायण के संदर्भों के इस खगोलीय तिथिक्रम का समर्थन
करते हैं। इन वैज्ञानिक प्रमाणों में पुरातत्त्व विज्ञान, पुरा-वनस्‍पति विज्ञान, भूगोल, भूगर्भविज्ञान, जलविज्ञान,
समुद्र विज्ञान, रिमोट सेन्सिंग और आनुवंशिक अध्‍ययनों तथा अनुसंधानों के विभिन्‍न साक्ष्‍य शामिल हैं। इन
विषयों पर महत्त्वपूर्ण निविष्टियाँ एवं जानकारियाँ विज्ञान के इन विषयों के सर्वाधिक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों
से प्राप्त की गई हैं। इन वैज्ञानिक साक्ष्‍यों को महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित और लव-कुश द्वारा श्रीराम के
समक्ष नैमिषारण्‍य में सुनाई गई श्रीराम की मूल जीवनगाथा में बुना गया है। ऐसा करते समय वाल्मीकि
रामायण में वर्णित रामायण युग के मूल इतिहास को बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया गया है।
हजारों वर्ष बाद आए रामायण के नए संस्करणों, उदाहरणत: श्री तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ और
श्री कंबन द्वारा रचित ‘रामावतारम्’ आदि में आई भिन्नताओं तथा विकृतियों को पूर्णत: नजरअंदाज कर
दिया गया है।
परिशिष्ट एक से • 423

खगोलीय तिथिकरण संबं​ि‍धत सभी विवादों का समाधान करने के बाद यह सुनिश्चित हो गया कि
श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को 5114 वर्ष ई.पू. के खगोलीय वर्ष अर्थात्् 5115 वर्ष ई.पू. के
ऐतिहासिक वर्ष में हुआ। अन्य आठों विज्ञानों के अनुसंधान प्रमाण इस निष्कर्ष का पूरी तरह से समर्थन
करते हैं। इसीलिए विश्वसनीय तथ्यों तथा साक्ष्यों के आधार पर एक ही निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि
रामायण में प्राचीन भारतवर्ष का वास्तविक इतिहास निहित है और रामायण में वर्णित घटनाओं का संबंध
7000 वर्ष पूर्व अर्थात्् 5000 वर्ष ई.पू. से है।

संदर्भ सूची—
1. पी.वी. वर्तक, ‘द साइंटिफिक डेटिंग ऑफ द रामायण ऐंड द वेदाज’, प्रकाशक वेद विज्ञान मंडल, पुणे
2. एन. राव, 1990 डेट ऑफ श्रीराम, प्रकाशक इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर द इंवेस्टिगेशन ऑफ एंशियट
सिविलाइजेशंज, माउंट रोड, मद्रास
3. पुष्कर भटनागर, 2004, ‘डेटिंग द इरा ऑफ लॉर्ड राम’ प्रकाशक रूपा ऐंड कंपनी, नई दिल्ली
4. पुष्कर भटनागर, 2012 : श्रीराम के युग का तिथिनिर्धारण, प्रकाशक वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान

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परिशिष्ट-3

रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भों की क्रमिक


खगोलीय तथा ऐतिहासिक तिथियाँ

इ स तथ्य को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि इस पुस्तक में ईस्वी पूर्व (ई.पू) के रूप में
उल्लिखित सभी तिथियाँ वास्तव में ई.पू. की खगोलीय तिथियाँ हैं, जबकि उनकी समकक्ष ऐतिहासिक
तिथियों को ज्ञात करने के लिए एक वर्ष का समय जोड़ना होगा, क्योंकि कंप्यूटर पर चलने वाली
प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर में शून्य वर्ष का प्रावधान नहीं है, जबकि स्टेलेरियम ने 0 वर्ष शामिल तो किया,
परंतु 1 बी.सी.ई. को 0वें खगोलीय वर्ष के रूप में सामान्यीकृत कर दिया। किसी भी अवस्था में, दोनों
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सॉफ्टवेयर द्वारा बी.सी.ई. में दिए गए खगोलीय वर्ष में 1 को जोड़कर, ऐतिहासिक वर्ष निकल आएगा।
उदाहरण के लिए, श्रीराम का जन्मवर्ष, जिसे इस पुस्तक में 5114 वर्ष ईसा पूर्व निर्धारित किया गया
है, वास्तव में ईसा पूर्व का खगोलीय वर्ष है, जबकि ऐतिहासिक वर्ष 5115 वर्ष ईसा पूर्व होगा। इसी प्रकार
हनुमान ने जब सीताजी को अशोक वाटिका में देखा , उस समय चंद्र ग्रहण लगा था। इसका निर्धारित वर्ष
5076 वर्ष ईसा पूर्व वास्तव में खगोलीय वर्ष है, जबकि 5077 वर्ष ईसा पूर्व इस घटना का ऐतिहासिक वर्ष
होगा। पाठकों की सुविधा के लिए, स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर के स्क्रीन शॉट लेते हुए और प्लैनेटेरियम गोल्ड
से व्योमचित्र-लेते हुए, पुस्तक में शामिल किए गए सभी आकाशीय दृश्यों के नीचे प्रदर्शित खगोलीय वर्ष,
बी.सी.ई. वर्षों के रूप में उल्लिखित किए गए हैं। औचित्य यह था कि सॉफ्टवेयर में व्योमचित्र-के नीचे
दिखाए गए वर्ष और पुस्तक की टेक्स्ट में दिए हुए वर्षों में कोई अंतर न हो। ऐसा अंतर देखकर पाठक
भ्रमित हो सकते थे। वैज्ञानिक तथ्य यही है कि खगोलीय वर्ष में एक वर्ष को जोड़कर सही ऐतिहासिक
वर्ष का पता लगा सकते हैं।
परिशिष्ट एक से • 425

रामायण में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तारीखों के साथ-साथ ऐतिहासिक तिथियाँ देते हुए
एक चार्ट तैयार किया गया है, इसे नीचे दिया गया है—
ई.पू. में खगोलीय वर्ष व ई.पू में खगोलीय वर्ष व ऐतिहासिक वर्ष
घटना का विवरण/ वाल्मीकि रामायण
तिथि और प्लैनेटेरियम का तिथि और स्टेलेरियम का ई.पू., तिथि वही
से संदर्भों के समकक्ष आकाशीय दृश्य
आकाशीय दृश्य आकाशीय दृश्य रहती है
राजा दशरथ ने संतान-प्राप्ति के लिए यज्ञ
10 जनवरी, 5116 ई.पू., 27° 19 फरवरी, 5116 ई.पू.,
करने हेतु ऋष्यशृंग से अनुरोध करने के बारे
उ., 82° पू.; 6:45 बजे/ 27° उ., 82° पू.; 8:30 5117 ई.पू.
में सोचा, चैत्र में पूर्ण चंद्रमा के साथ बसंत
अयोध्या बजे/ अयोध्या
ऋतु की शुरुआत, वा.रा.1/21/1
15 जनवरी, 5115 ई.पू., 27° 24 फरवरी, 5115 ई.पू. 27° पुत्र कामेष्टि यज्ञ का आरंभ–श्रीराम के जन्म
उ., 82° पू.; 6:50 बजे/ उ., 82° पू.; 8:30 बजे/ 5116 ई.पू से लगभग एक वर्ष पहले, चैत्रशुक्ल प्रथमा,
अयोध्या अयोध्या वा.रा. 1/13/1
पुनर्वसु नक्षत्र, कर्कलग्न में चैत्र शुक्ल नवमी
10 जनवरी, 5114 ई.पू./ 27° 19 फरवरी, 5114 ई.पू./
को कौशल्या ने श्रीराम को जन्म दिया। उस
उ., 82° पू.; 12:30 बजे / 27° उ, 82° पू.; 13.30 बजे 5115 ई.पू.
समय पाँच ग्रह अपने-अपने उच्‍च स्थान में
अयोध्या / अयोध्या
थे, वा.रा. 1/18/8-10
11 जनवरी, 5114 ई.पू./ 27° 20 फरवरी, 5114 ई.पू. /
कैकेयी ने पुष्य नक्षत्र, मीन लग्न में भरत को
अयोध्या
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उ., 82° पू.; 04:30 बजे / 27° उ., 82° पू.; 6:00 बजे 5115 ई.पू.
/ अयोध्या
जन्म दिया, वा.रा. 1/18/15

11 जनवरी, 5114 ई.पू./ 27° 20 फरवरी, 5114 ई.पू./ सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न को अश्लेषा
उ., 82° पू.; 11:30 बजे / 14:00 बजे; 27° उ. 82° 5115 ई.पू. नक्षत्र, कर्कलग्न में जन्म दिया, वा.रा.
अयोध्या पू./ अयोध्या 1/18/15
श्रीराम के वनवास से एक दिन पहले, राजा
04 जनवरी, 5089 ई.पू./ 27° 12 फरवरी, 5089 ई.पू. /
दशरथ के रेवती नक्षत्र को सूर्य, मंगल और
उ., 82° पू.; 07:05 बजे / 8:00 बजे; 27° उ., 82° 5090 ई.पू.
राहु ने घेर लिया था। चंद्रमा ‘पुनर्वसु’ में था,
अयोध्या पू./ अयोध्या
वा.रा. 2/4/18, 21
जिस समय श्रीराम वनवास के लिए प्रस्थान
कर रहे थे, उस वक्त सूर्य और मंगल ग्रह
05 जनवरी, 5089 ई.पू./ 27° 13 फ़रवरी, 5089 ई.पू./
रेवती नक्षत्र को घेरे हुए थे। चंद्रमा पुष्य नक्षत्र
उ., 82° पू.; 15:20 बजे / 16.30 बजे; 27° उ., 82° 5090 ई.पू.
में तेजहीन था। आकाश में बृहस्पति, मंगल
अयोध्या पू./ अयोध्या
और बुध को देखा जा सकता था। वा.रा.
2/15/3-4, 2/41/11-12
खर-दूषण के साथ युद्ध के दौरान सूर्य ग्रहण;
07 अक्तूबर, 5077 ई.पू./ 20° 15 नवंबर, 5077 ई.पू./
उस समय मंगल मध्य में था; शनि, सूर्य और
उ., 73° पू.; 14:15 बजे / 22:00 बजे; 20° उ., 73° 5078 ई.पू.
चंद्रमा एक तरफ थे, जबकि बुध, शुक्र और
नासिक (महाराष्ट्र) पू./ नासिक (महाराष्ट्र)
बृहस्पति दूसरी ओर थे, वा.रा. 3/25/05
426 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

03 अप्रैल, 5076 ई.पू/ 16° 13 मई, 5076 ई.पू./ 20ः18 सुग्रीव की वाली के किले के सामने दहाड़ के
उ., 76° पू.; 08:30 बजे / बजे; 16° उ., 76° पू./ 5077 ई.पू. समय वाली के वध से पहले सूर्य ग्रहण देखा
कोप्पल,कर्नाटक कोप्पल, कर्नाटक गया था, वा.रा. 4/15/3
जब अशोक वाटिका में हनुमान ने रावण द्वारा
12 सितंबर, 5076 ई.पू./ 22 अक्तूबर, 5076 ई.पू./ सीता को डराते-धमकाते देखा था, उस समय
18:30 बजे; 07° उ., 80° 19.25 बजे; 7° उ., 80° 5077 ई.पू. चंद्रग्रहण देखा गया था। यह दो से भी अधिक
पू./ कोलंबो/ श्रीलंका पू./ कोलंबो/ श्री लंका घंटों तक लंका के आकाश से दिखाई दिया
वा.रा. 5/19/11-14
लंका से सुनाभ पहाड़ी के लिए हनुमान की
14 सितंबर,5076 ई.पू./ 24 अक्तूबर, 5076 ई.पू/ वापसी यात्रा; लगभग साढ़े तीन घंटे की
6:00- 09:30 बजे; 07°उ., 6:15- 09:45 बजे; 07°उ., 5077 ई.पू. अवधि के दौरान वर्णित खगोलीय स्थितियों
80°पू./ कोलंबो, श्रीलंका 80°पू./ कोलंबो, श्रीलंका का सत्यापन करनेवाला व्योमचित्र, वा.रा.
5/57/2-4
माउंट प्रस‍्रवण से श्रीराम की सेना का समुद्रतट
की ओर प्रस्थान; उस समय चंद्रमा कन्या
20 सितंबर, 5076 ई.पू./ 30 अक्तूबर, 5076 ई.
राशि में और शुक्र क्षितिज के नीचे चला गया;
06:05 बजे; 16° उ., 76° पू./7:30 बजे; 16° उ., 76° 5077 ई.पू.
दक्षिणी आकाश में त्रिशंकु, उत्तरी आकाश में
पू./ कोप्पल / कर्नाटक पू./ कोप्पल / कर्नाटक
सप्तर्षि, तुला में विशाखा नक्षत्र कांतिमान थे,
6/4/5,48-51
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परिशिष्ट-4

युगों की परिकल्पना : व्याख्या एवं स्पष्टीकरण


मनुस्मृति 1 (1/65-71) के अनुसार, मानव वर्षों और दिव्य वर्षों में चतुर्युग के विवरण का सारांश
निम्नलिखित है—
संध्या + 1 दिव्य वर्ष=360 मानववर्ष
युग मुख्य अवधि कुल अवधि
संध्यांश (इसलिए 360 से गुणा)
सतयुग 4000 400+400 4800 वर्ष 17, 28, 000
त्रेतायुग 3000 300+300 3600 वर्ष 12, 96, 000

कलियुग
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द्वापर युग 2000
1000
200+200
100+100
2400 वर्ष
1200 वर्ष
8, 64, 000
4, 32, 000
कुल 10,000 2000 12,000 वर्ष 43,20,000 वर्ष

कई प्राचीन एवं आधुनिक वैज्ञानिकों एवं विद्वानों का मानना है कि चतुर्युग (सतयुग, त्रेता युग,
द्वापर युग और कलियुग) में मूल रूप से केवल 12,000 मानव वर्ष ही थे। कुछ अल्पाधिक वर्षों सहित
चतुर्युग के अवरोही तथा आरोही क्रम भी थे, परंतु सुदूर प्राचीन काल में किसी समय एक मानव वर्ष को
देवताओं के एक दिव्य दिवस के बराबर मानकर चतुर्युग को 12,000 दिव्य वर्षों का मान लिया गया
(सूर्य की उत्तरायण चाल के 180 दिन+सूर्य की दक्षिणायण चाल के 180 दिन =1 दिव्य दिवस)। इसके
परिणामस्वरूप चतुर्युग को 43,20,000 वर्षों (12000×360) का मान लिया गया था।
मनुष्यों के लिए ‘दिव्य वर्ष’ लागू करने का क्या औचित्य हो सकता था और फिर सूर्य की उत्तरायण
और दक्षिणायण चाल के 360 दिनों के साथ चतुर्युग के 12000 वर्षों को गुणा करने का भी क्या औचित्य
हो सकता था?
इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने के लिए लेखिका ने मनुस्मृति के संदर्भों को समझने का प्रयत्न किया।
मनुस्मृति के अध्याय-1 के श्लोक 65, 67, 69-71 में चतुर्युग का निम्नलिखित विवरण दिया गया है—
428 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

“65. सूर्य मनुष्यों और देवताओं दोनों के लिए दिन और रात का विभाजन करता है। उसमें प्राणियों
के लिए सोने के लिए रात और कर्म करने के लिए दिन होता है।
67. मनुष्य के एक वर्ष में देवताओं का अहोरात्र (दिन और रात) होता है। उसमें उत्तरायन दिन और
दक्षिणायन रात होते हैं।
69. ऐसा माना गया है कि कृतयुग (सतयुग) में चार हजार वर्ष होते हैं। इसकी पूर्ववर्ती संध्या
(संध्या) चार सौ वर्ष की होती है और उत्तरवर्ती संध्या (संध्यांश) में भी उतने ही वर्ष होते हैं।
70. अन्य तीन युग अपनी संध्या तथा संध्यांश के साथ एक एक हजार तथा एक सौ की संख्या से
कम होते जाएँगे (अर्थात्् 3000+300+300, 2000+200+200, 1000+100+100 हो जाएँगे)
71. इस प्रकार इन 12000 वर्षों (4800+3600+2400+1200) को मानवों का एक चतुर्युग कहा
गया; उसे देवताओं का एक युग कहा जाता है।”
अत्यंत प्राचीनकाल में, उत्तरायण (सूर्य की 180 दिनों की उत्तर दिशा में चाल) और दक्षिणायण (सूर्य
की 180 दिनों की दक्षिण दिशा में चाल) के लिए देवताओं के एक दिन और एक रात की अभिव्यक्ति की
इस तरह व्याख्या कर दी गई कि ये 360 दिन देवताओं का एक दिन और एक रात होते हैं। संभवत: यह
व्याख्या ध्रुव देवता के एक दिन और एक रात के लिए की गई थी। फलस्वरूप 360 मानव वर्षों को देवताओं
के एक वर्ष के बराबर मान लिया गया। तत्पश्चात् चतुर्युग को 12000 दिव्य वर्षों का मानकर, इन 12000
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दिव्य वर्षों को 360 से गुणा करके चतुर्युग की समयावधि 43,20,000 मानव वर्ष निर्धारित कर दी गई।
अत्यंत प्राचीन काल से आधुनिक समय तक अनेक विद्वानों ने इस व्याख्या से असहमति प्रकट की
है, परंतु फिर भी अधिकांश लोग अनेक वर्षों से इस व्याख्या के औचित्य की समीक्षा किए बिना ही इसे
शत प्रतिशत सही मानते आए हैं—
1. महाभारत में बड़े स्पष्ट शब्दों में चतुर्युगों की व्याख्या करते हुए कृतयुग को 4000 वर्षों का,
त्रेतायुग को 3000 वर्षों का, द्वापर को 2000 वर्षों का तथा कलियुग को 1000 वर्षों का कहा
गया है; वहाँ किसी भी दिव्यवर्ष का संदर्भ नहीं है (भीष्म पर्व-अध्याय 10)।
2. 2500 से भी अधिक वर्ष पहले, संस्कृत के प्रख्यात विद्वान्, मेधातिथि ने इस व्याख्या में आई
त्रुटि पर विचार करने के पश्चात् चतुर्युग की अवधि को 12000 मानव वर्ष ही निर्धारित किया
था। पिछले 60 वर्षों में कई विद्वानों, संतों और वैज्ञानिकों ने भी श्री मेधातिथि के इस विचार से
सहमति प्रकट की है। जग्गी वासुदेवजी, स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी, पंडित भगवद्दत्त सत्याश्रवा,
श्री के.एम. गांगुल, और कई अन्य विद्वानों ने 12000 मानव वर्षों के चतुर्युग की व्याख्या करते
हुए कई पुस्तकें एवं आलेख लिखे हैं और व्याख्यान भी दिए हैं। इनके माध्यम से उन्होंने चतुर्युग
की इस अवधारणा का औचित्य भी समझाया है।
3. इन विद्वानों के अनुसार एक चतुर्युग में 12000 मानव वर्ष होते हैं तथा चतुर्युग के अवरोही तथा
परिशिष्ट एक से • 429

आरोही चक्रों के बीच कुछ अल्पाधिक वर्ष भी हो सकते हैं। आधुनिक खगोल विज्ञान भी यह
स्वीकार करता है कि पृथ्वी अपना एक अग्रगमन चक्र पूरा करने में 25920 वर्ष का समय लेती
है। लगभग इतने वर्षों में ही चतुर्युगों का अवरोही तथा आरोही क्रम भी पूर्ण हो जाता है। यहाँ
तक कि ग्लेशियोलॉजी ने भी इस विचार का समर्थन किया है और यह माना है कि यह संभवत:
सातवाँ मन्वंतर चल रहा है।
4. आदरणीय जग्गी वासुदेवजी ने चार युगों के चक्र की व्याख्या करते हुए कहा कि “विषुवों का
अग्रगमण वह समयावधि है, जो पृथ्वी की धुरी सभी बारह राशियों का एक चक्र पूर्ण करने के
लिए लेती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर एक डिग्री पीछे होने में 72 वर्ष लेती है और 360 डिग्री का
अग्रगमण चक्र पूर्ण करने में 25,920 वर्ष लेती है। आधी यात्रा 12,960 वर्ष में पूरी हो जाती है।
इस प्रकार एक चतुर्युग का चक्र पूर्ण हो जाता है। सतयुग की अवधि 5184 वर्ष, त्रेता युग की
अवधि 3888 वर्ष, द्वापर युग की अवधि 2592 वर्ष तथा कलियुग की अवधि 1296 वर्ष होती है।
चार युगों की इस अवधि का कुल जोड़ 12,960 वर्ष होता है। चतुर्युग के अवरोही और आरोही
चक्र 25920 वर्षों में पूर्ण हो जाते हैं। सद्गुरुजी ने चतुर्युगों के इन अवरोही और आरोही चक्रों का
संबधं मानव चेतना की अधोगामी और ऊर्ध्वगामी गति से भी जोड़ा है।2-3 शुभ समाचार यह है कि
उनका मानना है कि कलियुग नहीं, अपितु वर्तमान में द्वापर युग अपने आरोही चरण में चल रहा
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है। आदरणीय जग्गी वासुदेवजी ने निम्नलिखित चित्र की सहायता से धरती के विषुवों के एक पूर्ण
अग्रगमन चक्र को चतुर्युगों के चक्र के साथ जोड़कर समझाया है। (देखें चित्र-56)

चित्र-56
430 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

आदरणीय जग्गी वासदेव जी ने यह भी कहा है कि सौर मंडल, सूर्य और ग्रहों को साथ


लेकर आकाशगंगा में घूम रहा है। सौर मंडल किसी बड़े सितारे के चारों ओर एक चक्र को
पूरा करने में 25,920 वर्ष लेता है। पृथ्वी पर होनेवाले प्रभावों को देखकर हम यह निष्कर्ष
निकाल सकते हैं कि यह बड़ा सितारा, जिसके इर्द-गिर्द हमारा सौर मंडल घूम रहा है, कक्षा
के केंद्र में स्थित नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं पक्ष में स्थित है। जब भी हमारा सौर मंडल
इस बड़े सितारे के करीब आता है, हमारे सौर मंडल में रहने वाले सभी प्राणियों में संभावनाएँ
अधिकतम होती हैं। जब भी हमारा सौर मंडल इस बड़े सितारे से दूर हो जाता है, तो हमारे
सौर मंडल में रहने वाले प्राणियों की संभावना निम्नतम आ जाती है। इसीलिए जब भी हमारा
सौर मंडल "सुपर सन" के निकट आएगा तो सत्य युग का प्रारंभ हो जाएगा। उस समय
मानव मन तथा मस्तिष्क अपनी उच्‍चतम क्षमता में होंगे। लोगों की जीवन को समझने की,
बातचीत करने की तथा खुशी से रहने की क्षमता भी अपने उच्‍चतम शिखर पर होगी।
5. स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी ने आंतरिक जगत् के मानसिक गुणों के साथ विषुव के अग्रगमन का
सहसंबंध स्थापित करके चतुर्युगों के 12000 के अवरोही और 12000 के आरोही वर्षों की
व्याख्या की है।4 उन्होंने यह स्पष्ट किया कि सूर्य विष्णुनाभि नामक महाकेंद्र के चारों ओर
घूमता रहता है। यह विष्णुनाभि सार्वभौमिक चुंबकत्व का केंद्र है, जो ब्रह्म‍ाजी का स्थान है।
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जब सूर्य विष्णुनाभि के निकटम आ जाता है, तब शरदकालीन विषुव मेष में पहले बिंदु पर
आ जाता है। उस अवधि के दौरान मानसिक गुण सर्वाधिक विकसित हो जाते हैं, इसलिए यह
सतयुग कहलाता है। जब सूर्य सबसे दूर के बिंदु पर चला जाता है तब मानसिक गुण निम्नतम
स्तर पर पहुँच जाते हैं और इसे कलियुग का समय कहा जाता है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी
के अनुसार शरदकालीन विषुव 11501 वर्ष ई.पू. के आसपास मेष के प्रथम बिंदु में था, इस
प्रकार उस समय मानव बुद्धि अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर पर थी और तत्पश्चात्, इसका ह्रास होना
शुरू हुआ। इसीलिए 499 ई. के आसपास अवरोही कलियुग के अंत में मानव प्रज्ञा सबसे
कम स्तर पर थी। तत्पश्चात् आरोही कलियुग के 1200 वर्ष बीत गए और वर्तमान में द्वापर
युग चल रहा है।
परिशिष्ट एक से • 431

अब हम आधुनिक काल के खगोलविदों द्वारा तैयार किए गए अग्रगमन चक्र के माध्यम से वसंत
विषुव और शरद अयनांत का अग्रगमन और युग चक्रों से उनका सहसंबंध समझेंगे—
विषुव प्रत्येक 72 वर्षों में एक डिग्री और 25920 वर्षों में 360 डिग्री का अग्रगमण करते हैं। इस
प्रकार लगभग 50.3 सेकंड चाप प्रति वर्ष की दर क्रांतिवृत्त पथ पर पश्चिम की ओर संचलन करते हैं। कुल
27 नक्षत्र होने के कारण, विषुव 960 वर्षों में एक नक्षत्र से और 2160 वर्षों में एक तारामंडल अर्थात्् एक
राशि से पीछे रह जाते हैं।5 यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि शरदकालीन विषुव वसंतकालीन विषुव
का बिल्कुल उल्टा होता है। वर्तमान में शरदकालीन विषुव कन्या और सिंह राशि के बीच है। इसीलिए
तो वसंतकालीन विषुव मीन राशि और कुंभ राशि के बीच में है। रामायण युग के दौरान 7100 वर्ष पूर्व
वसंतकालीन विषुव मिथुन राशि में पुनर्वसु नक्षत्र में था। इस प्रकार यह आधुनिक स्थिति से लगभग आठ
नक्षत्र पीछे था। यह चित्र आधुनिक खगोलशास्त्रियों द्वारा तैयार किया गया है। (देखें चित्र-57) यदि घटते
और बढ़ते युग चक्र के 24000 वर्षों को 25920 वर्षों से बदल दिया जाता है तो प्राचीन भारतीय खगोल
विज्ञान की सभी व्याख्याएँ सही और सटीक सिद्ध हो जाती हैं।

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चित्र-57

यदि हम आधुनिक खगोलशास्त्र के सिद्धांतों को देखें, तो चतुर्युगों की अवधि को 12000 वर्षों के


स्थान पर 12960 वर्ष मानना होगा या फिर अवरोही और आरोही क्रम के बीच में कुछ वर्षों का अल्पाधिक
समय मानना होगा। 24000 वर्षों के अवरोही और आरोही चतुर्युगों के क्रम को 25920 वर्षों में बदलना
होगा। एक वर्ष की समयावधि 360 दिनों की बजाय 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सेकंड लेनी
होगी। यह भी मानना होगा कि संध्या तथा संध्यांश प्रत्येक युग की अवधि में लचीलापन प्रदान करने के
लिए होते हैं।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार पंडित भगवददत्त सत्याश्रवा ने अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास’ में
432 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

यह बताया है कि प्रभु श्रीराम का युग त्रेता और द्वापर की संधि अवधि में था और यह विक्रम संवत के शुरू
होने से लगभग 5200 वर्ष पहले का समय था। उन्होंने यह भी कहा है कि श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग के
अंतिम समय में हुआ था और उनके महानिर्वाण के पश्चात् कलियुग शुरू हुआ। यह विक्रम संवत से लगभग
3200 वर्ष पहले का समय था। इस प्रकार इन्होंने रामायण और महाभारत के युगों के बीच लगभग 2000
वर्षों का अंतराल दिया। श्री सत्याश्रवा ने दृढ़तापूरक
्व कहा कि त्रेता और द्वापर युगों में निश्चित रूप से लाखों
वर्ष की अवधि नहीं होती।6 उन्होंने चतुर्युगों के अवरोही और आरोही चक्र के बीच अंतराल की बहुत अलग
व्याख्या की है, जिसका उद्देश्य 24000 वर्ष के युगचक्र का 25920 वर्षों के युग चक्र के साथ सामंजस्य
स्थापित करना भी है। उन्होंने सतयुग से पहले प्रचलित देवयुग (दिव्य युग) का संदर्भ देते हुए रामायण और
महाभारत के पाठ से उन उद्धरणों का भी संदर्भ दिया है, जिनमें कृत युग से पहले देव युग के प्रचलन का
प्रसंग है। इस प्रकार उन्होंने दिव्य युग शब्द की अभिव्यक्ति के कारण पैदा हुई भ्रांतियों को भी समझाने का
प्रयत्न किया। उन्होंने यह भी कहा कि अवरोही और आरोही युगचक्रों के बीच में कुछ अतिरिक्त वर्ष भी हो
सकते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग करके रामायण और महाभारत
के खगोलीय संदर्भों का तिथिकरण भगवदृत्त सत्यश्रवा द्वारा दिए गए तथ्यों को सही साबित करता है।
रामायण में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तिथियाँ 5100 वर्ष ईसा पूर्व से संबधं रखती हैं, जबकि महाभारत
की खगोलीय तिथियाँ उन घटनाओं से संबधि ं त हैं, जो 3100 वर्ष ईसा पूर्व में घटित हुई थीं।7-8 इस प्रकार
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आधुनिक सॉफ्टवेयर भी रामायण तथा महाभारत में 2000 साल का अंतराल ही देती है।
एक और बात जो ध्यान देने योग्य है, वह यह कि सभी प्राचीन गणनाओं में एक वर्ष की अवधि 360
दिन मानी गई है, जबकि वास्तव में एक वर्ष में 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सेकंड होते हैं। एक
वर्ष की लंबाई में इस अंतर को युगों की अवधि में समायोजित करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, यदि
हम एक चतुर्युग की अवधि 43,20,000 वर्ष मानते हैं तो क्या हम यह एेलान करने के लिए तैयार हैं कि
कलियुग की अवधि 4,32,000 वर्ष है जिसमें से 4,27,000 वर्ष अभी शेष हैं? क्या हम यह सिद्ध करने का
सामर्थ्य रखते हैं कि श्रीराम के त्रेता युग और श्रीकृष्ण के द्वापर युग के बीच 9,27,000 वर्ष के अंतराल
के बीच क्या घटनाएँ घटित हुईं?
इसलिए हम अपने संतों और विद्वानों को चतुर्युग की परंपरागत व्याख्या की पुनर्समीक्षा करने का
विनम्र निवेदन करते हैं। युगों के अर्थ में आई विसंगतियों को दूर करने के पश्चात् ही हम रामायण एवं
महाभारत को काल्पनिकता के क्षेत्र से निकालकर वास्तविक प्राचीन इतिहास के क्षेत्र में ला सकेंगे, जिससे
उनका वास्तव में संबंध हैं। तत्पश्चात्, हम विश्व के समक्ष विश्वसनीयता से दावा कर पाएँगे कि भारत की
सभ्यता वर्तमान नूतन युग में विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तथा आर्य लोग भारतवर्ष के ही मूल निवासी
थे, जो हजारों वर्षों से स्वदेशी वैदिक सभ्यता का विकास करते आ रहे हैं।
परिशिष्ट एक से • 433

संदर्भ सूची—
1. मनुस्मृति (टेक्सट विद कुल्लुभट्ट कमेंट्री, इंग्लिश ट्रांसलेशन, श्लोक इंडेक्स ऐंड वर्ड इंडेक्स), मैत्रेयी
देशपांडे, न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली
2. सद्गुरु जग्गी वासुदेव, ‘मिस्टिक म्यूजिंग्ज’, विजडम ट्री द्वारा 2003 में प्रकाशित
3. https://www.youtube.com/watch?v=eaHV NQwO68E
4. ‘द होली साइंस’, स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी; प्रकाशक योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया, पृष्ठ 9-24
5. अशोक भटनागर, 2012, ‘एस्ट्रॉनोमिकल डेटिंग ऑफ प्लेनेटरी रेफरेंसिज इन ऋग्वेद ऐंड एपिक्स यूजिंग
प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर’, हिस्टोरिसिटी अॉफ वैदिक ऐंड रामायण एराज : साइंटिफिक एविडेंसिज फ्रॉम
द डेप्थ्स अॉफ ओशंज टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, संपादक सरोज बाला, कुलभूषण मिश्र, आई-सर्व
दिल्ली चैप्टर, पृष्ठ संख्या 55-80
6. पंडित भगवद्दत्त सत्यश्रवा, 2000, ‘भारतवर्ष का बृहत् इतिहास’, प्रकाशक प्रणव प्रकाशन, नई दिल्ली
भाग 1, पृष्ठ 80, 163
7. ‘ऋग्वेद से रोबोटिक्स तक सांस्कृतिक निरंतरता’ विषय पर दिनांक 3-4 फरवरी 2016 को जी.जे.
यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड टेक्नॉलोजी, हिसार में आई-सर्व दिल्ली चैप्टर के सेमिनार और प्रदर्शनी में
सरोज बाला की प्रस्तुति http://sarojbala.blogspot.in/2017/05/blog-post.html , http://
bit.ly/2FDUCNd
8. ‘महाभारत रीटोल्ड विद साइंटिफिक एविडेंसेज’, लेखक सरोज बाला; डायलाॅग-क्वार्टरली जर्नल अॉफ
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आस्था भारती, वॉल्यूम 18 नंबर 3, जनवरी-मार्च, 2017

परिशिष्ट-5

इस पुस्तक में शामिल किए गए


कई तथ्य जनमान्य तथ्यों से अलग क्यों हैं?

भा रत में रहने वाले अधिकांश लोग भगवान राम के जीवन और समय से संबधि ं त घटनाओं से
भली-भाँति अवगत हैं, क्योंकि इन्हें तुलसीदासजी के रामचरितमानस में तथा रामानंद सागर के
टी.वी. धारावाहिक ‘रामायण’ में वर्णित किया गया है। परंतु यहाँ पर यह जान लेना आवश्यक है कि महर्षि
वाल्मीकि ने अपने जीवनकाल के दौरान लगभग 7100 वर्ष पहले श्रीराम के मूल जीवन चरित की रचना
की थी, जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने 16वीं-17वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान रामायण की कहानी को दोबारा
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रामचरितमानस के माध्यम से अति सुंदर ढंग से सुनाया था। रामानंद सागर द्वारा निर्मित और निर्देशित तथा
1987-1988 में प्रसारित टी.वी. धारावाहिक ‘रामायण’ ने भारतीय लोगों की मानसिकता और मान्यताओं
को बड़ी गहराई से प्रभावित किया। यह धारावाहिक भी मुख्य रूप से तुलसी के रामचरितमानस पर आधारित
था, जबकि पाठकों के हाथ में पुस्तक ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ पूर्णतया ऋषि वाल्मीकि
द्वारा रचित रामायण पर आधारित है। ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचे गए मूल जीवन चरित्र में वर्णित तथ्यों और
तुलसी दासजी द्वारा रचित रामचरितमानस में दिए गए तथ्यों में कई महत्त्वपूर्ण अंतर व बदलाव हैं। यह
सुनिश्चित करने के लिए कि हमारे सम्मानित पाठक इस कारण से उलझन में न पड़ जाएँ, इस परि‌िशष्ट में
कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण तथ्यों को सूचीबद्ध करने का प्रयास किया गया है, जो भारत के लोगों की आम स्मृति
में बसे तथ्यों से भिन्न हैं।
1. ऋषि वाल्मीकि ने श्रीराम के जीवनकाल के दौरान पृथ्वी पर पैदा हुए सबसे प्रतिष्ठित और सबसे
महान् इनसान के समकालीन प्रशंसक के रूप में रामायण की रचना की थी। कुश और लव ने अपनी
मधुर व सुरीली आवाज में राम दरबार के सम्मुख, नैमिष आरण्य में इस महान् कविता को गाया था। इसे
आदिअलंकृत कविता तथा वाल्मीकिजी को आदिकवि माना जाता है। महान् कवि गोस्वामी तुलसीदास
ने 16वीं-17वीं शताब्दी में अवधि-हिंदी में श्रीरामचरितमानस की रचना की, जो महर्षि वाल्मीकि के मूल
महाकाव्य पर आधारित है। उन्होंने इसे भगवान् राम के महान् भक्त व अनन्य श्रद्धालु के रूप में लिखा
था। यही कारण है कि रामायण में ऋषि वाल्मीकि ने श्रीराम को उस समय पृथ्वी पर रहने वाले सबसे
परिशिष्ट एक से • 435

महान् इनसान के रूप में चित्रित किया था, जो बहादुर और दयालु, बुद्धिमान और सतर्क, गौरवशाली और
सत्यनिष्ठ, राक्षसों के विनाशक और भद्र पुरुषों के संरक्षक थे। जबकि तुलसीदास के लिए राम भगवान्
विष्णु का अवतार थे, जिन्होंने अपने जन्म के समय से ही सभी ज्ञान, बुद्धिमत्ता और कौशल को प्राप्त कर
लिया था और जो कभी भी कोई गलती कर ही नहीं सकते थे। महर्षि वाल्मीकि के राम मर्यादा पुरुषोत्तम
थे, जिन्होंने ऋषियों, मुनियों और अध्यापकों से ज्ञान, कौशल और युद्ध की कला हासिल की थी। उन्होंने
आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श पति, आदर्श सामाजिक सुधारक और आदर्श राजा के रूप में व्यवहार
करने में ही गर्व का अनुभव किया।
2. वाल्मीकि रामायण संस्कृत में रचित थी; इसके 24000 छंद सात कांडों में विभाजित थे—बाल
कांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, युद्ध कांड और उत्तर कांड। तुलसीदास
ने रामायण की कहानी की पुनर्रचना कर इसे अवधी-हिंदी में ‘श्रीरामचरितमानस’ शीर्षक देकर आम
आदमी के लिए सुलभ बनाया। उन्‍होंने 10902 छंदों को आठ अध्यायों में विभाजित किया—बाल कांड,
अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, लंका कांड, उत्तर कांड और लवकुश कांड।
जब तक तुलसीदासजी का युग आया, तब तक भारत ने अपनी पिछली महिमा खो दी थी, मुगलों ने इस
पर हमला कर इसे अपना गुलाम बना लिया था, जाति व्यवस्था समाज की पूरी संरचना को नष्ट कर चुकी
थी और महिलाओं की स्थिति बहुत बिगड़ चुकी थी, वे जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के अधीनस्थ कर दी
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गई थीं। तुलसी दास ने उन दिनों में महान् महाकाव्य श्रीरामचरितमानस की रचना कर भारत के लोगों को
सहानूभूति प्रदान की तथा उनमें आत्म विश्वास का संचार किया। रामचरितमानस को भक्ति साहित्य का
सबसे महत्त्वपूर्ण काव्य माना गया और भारतीय लोगों के जीवन-मूल्यों के लिए सबसे भरोसेमंद मार्गदर्शक
के रूप में स्वीकार किया गया।
3. वाल्मीकि रामायण में सीताजी के योग्य वर चयन के लिए किसी भी विशेष तारीख पर आयोजित
कोई औपचारिक स्वयंवर का संदर्भ नहीं है। राजा-महाराजा समय-समय पर आते थे, लेकिन शिव के धनुष
‘पिनाका’ को उठाने में असफल रहते थे और इसी लिए सीता के साथ विवाह-बंधन में बँधने के अयोग्य
घोषित हो जाते थे। परंतु श्रीराम ने बड़ी आसानी से शिव धनुष को उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई, खींचा और मध्य
से तोड़ डाला। सीता के साथ उनका विवाह संपन्न हुआ; इसके साथ ही उनके तीनों भाइयों की भी तीनों
राजकुमारियों से शादी हुई। जब राजा दशरथ के चारों पुत्र अपनी-अपनी दुल्‍हनों के साथ अयोध्या वापस
लौट रहे थे, तो परशुराम ने रास्ते में श्रीराम को ललकारा और उन्हें विष्णु के धनुष पर भी प्रत्यंचा चढ़ाने
की चुनौती दे डाली। श्रीराम ने विष्णु के धनुष को उठाकर उस पर भी प्रत्यंचा चढ़ा दी और इस प्रकार
परशुराम को अपने दिव्य चरित्र के बारे में आश्वस्त भी कर दिया। उसके बाद परशुराम अपनी तपस्या को
आगे बढ़ाने के लिए पहाड़ों पर चले गए। संत तुलसीदास तथा रामानंद सागर ने परशुराम वाली घटना के
वर्णन को अधिक दिलचस्प और सुरम्य बना दिया है। उन्होंने एक स्वयंवर को संदर्भित किया है, जिसमें
अधिकांश राजा-महाराजा शिव के दिव्य धनुष को उठाने में असफल रहे, लेकिन श्रीराम ने इसे आसानी से
436 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई, खींचा और मध्य से तोड़ डाला। उसी समय क्रोध से लाल हुए परशुराम स्वयंवर
के स्थान पर राजाओं के मध्य में पहुँचकर यह ऐलान कर डालते हैं कि वह शिव के धनुष को तोड़नेवाले
व्यक्ति का वध कर डालेंगे। चारों तरफ शोरगुल के बीच में महाकवि तुलसी ने बहुत ही रोचक संवादों की
रचना कर डाली, जब लक्ष्मण ने परशुराम पर व्यंग्य कसने शुरू कर दिए, लेकिन श्रीराम ने उन्हें अपनी
विनम्रता से शांत करने की कोशिश की। अंत में परशुराम श्रीराम के ईश्वरीय चरित्र के बारे में आश्वस्त हो
गए और पहाड़ियों पर तपस्या हेतु चले गए।
4. लक्ष्मण रेखा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में नहीं किया गया है। जब सीता ने असाधारण सुंदरता
वाले सुनहरे हिरण को देखा तो उन्होंने श्रीराम से हठपूर्वक आग्रह किया कि वे उस हिरण को उसके लिए
जीवित या मृत लेकर आएँ। सीता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए लक्ष्मण को वहाँ छोड़कर श्रीराम
जादुई हिरण के पीछे चले गए। जब मारीच मायामृग ने श्रीराम की आवाज में सहायता की माँग की तो
सीता लक्ष्मण को तत्काल प्रस्थान करने की आज्ञा देने लगीं, परंतु वे सीताजी को अकेले छोड़कर जाने
के लिए तैयार नहीं थे। भय और संदेह की पीड़ा में सीता ने बहुत से भले-बुरे शब्द कहकर लक्ष्मण को
तत्काल जाने के लिए मजबूर कर दिया। रावण निकट ही तपस्वियों का वेश धारण कर इस अवसर की
इंतजार कर रहा था; वह तुरंत कुटिया के द्वार पर आया। सीता ने उसे हरी घास का आसन दिया और कुछ
फल परोसे, ताकि तपस्वी उसके पति को शाप न दे दे। रावण ने तरह-तरह के मधुर वचन कहकर सीताजी
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को आकर्षित करने का प्रयत्न किया और फिर अपने असली स्वरूप में आकर कहने लगा कि उसे पति
के रूप में स्वीकार कर, सीता पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली रानी बन जाएगी। फिर उसने जोर-जबरदस्ती
करने की कोशिश की, परंतु सीताजी ने उसे धमकाया कि उनसे इस तरह दुर्व्यवहार कर, रावण श्रीराम के
शक्तिशाली तीरों से बच नहीं पाएगा। रावण ने उस समय छल-बल का प्रयोग कर सीताजी का अपहरण
कर लिया और पुष्पक विमान में जबरन बैठाकर लंका की ओर जाने लगा। परंतु रामचरितमानस में गोस्वामी
तुलसीदास ने अत्यंत रोचक ढंग से इस घटना का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि सीता को कुटिया में
अकेले छोड़ने से पहले लक्ष्मण ने कुटिया के चारों ओर एक परिधि खींच दी, जिसे लक्ष्मण रेखा का नाम
दिया गया। उस समय लक्ष्मण ने यह भी कहा कि जो भी व्यक्ति उस परिधि का उल्लंघन कर कुटिया में
प्रवेश करने का प्रयत्न करेगा, उसकी मौत अवश्य हो जाएगी। सीता का अपहरण करने से पहले रावण ने
धोखे से उन्हें लक्ष्मण रेखा से बाहर आकर भिक्षा देने की बात कही। इस घटना का वर्णन अनेक कवियों
तथा लेखकों ने और श्रीरामानंद सागर ने भी अत्यंत सुंदर ढंग से किया है। इसीलिए वाल्मीकि रामायण पर
आधारित इस पुस्तक में लक्ष्मण रेखा का कोई संदर्भ इसीलिए नहीं है, परंतु वाल्मीकि रामायण में वर्णित
सीताजी के अपहरण की कहानी सविस्तार बताई गई है।
5. वाल्मीकि रामायण और तुलसीजी के श्रीरामचरितमानस में सीता का चरित्र-चित्रण करने में
अनेक भिन्नताएँ हैं। दोनों में सीता के चरित्र का एक ही आधार है—वह पवित्र महिला है, निष्ठा से अपने
पति को समर्पित है और उसके लिए धर्म सर्वोपरि है। वाल्मीकि ने सीता को एक बहुत ही मजबूत और
परिशिष्ट एक से • 437

बुद्धिमान महिला के रूप में चित्रित किया है, जो कभी-कभी आक्रामक भी हो जाती है और अपने पति
के साथ समानता का व्यवहार करती है। परंतु श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने सीताजी को
विनम्र, विनीत और मृदुभाषी महिला के रूप में चित्रित किया है जो अपने पति को अपना ईश्वर मानती
हैं। ऋषि वाल्मीकि की सीता मानवीय है और उनके दुख असली हैं। सभी प्रतिरोधों के बावजूद रावण ने
जबरन उनका अपहरण कर लिया। वे रावण की कैद में असहनीय दुःख तथा पीड़ा का अनुभव करती हैं,
परंतु उन्हें अपने पति की क्षमता पर पूर्ण विश्वास है कि वे रावण का वध कर उसे अवश्य छुड़वा लेंगे।
उधर रावण ब्रह्म‍ा के अभिशाप के कारण और सीता की अपनी पवित्रता के कारण उसका उल्लंघन करने
की हिम्मत नहीं कर सका। रावण की हत्या के बाद वाल्मीकिजी के अनुसार असली सीता अपनी पवित्रता
को साबित करने के लिए अग्नि में प्रवेश करती है; परंतु संत तुलसीदासजी के राम तो भगवान् हैं, इसलिए
रावण जैसे राक्षस उनकी पत्नी को कैसे छू सकते थे? इसलिए तुलसीदासजी ने माया सीता की अवधारणा
बनाई; उनके अनुसार मारीच जादुई हिरण का पीछा करने से पहले श्रीराम ने सीता को स्वयं को आग में
छिपाने और अपनी छाया को अपने स्थान पर छोड़ने के लिए कहा। इसलिए तुलसीजी के अनुसार, रावण
ने केवल माया की सीता का अपहरण किया था और उसकी कैद में माया सीता ही एक वर्ष तक रही थीं।
रावण की हत्या के बाद भगवान् श्रीराम ने अग्नि परीक्षा के माध्यम से माया सीता को छुपाकर असली सीता
को वापस बुला लिया।
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6. तुलसी के श्रीरामचरितमानस के अनुसार और रामानंद सागर के टी.वी. धारावाहिक ‘रामायण’
के अनुसार रावण के पुत्र इंद्रजीत ने ब्रह्म‍ास्त्र का वार कर केवल लक्ष्मण को ही बेहोश किया था। तुलसी
के राम तो भगवान् थे, इसलिए वे बेहोश हो ही नहीं सकते थे। परंतु वाल्मीकि के अनुसार, इंद्रजीत ने
रहस्यवादी हथियारों का उपयोग किया, उसके ब्रह्म‍ास्त्र श्रीराम और लक्ष्मण दोनों के विरुद्ध प्रभावी थे और
वे दोनों युद्ध के मैदान में बेहोश हो गए थे। महात्मा तुलसीदास ने कहानी के अगले हिस्से को वर्णित करते
हुए हनुमान को लक्ष्मण के इलाज के लिए लंका के डॉक्टर सुषेण को लेने के लिए भेजा। हनुमान सुषेण
को लाए और उन्होंने ही हनुमानजी से लक्ष्मण के जीवन की रक्षा हेतु हिमालय से संजीवनी बूटी लाने के
लिए कहा। परंतु मूल वाल्मीकि रामायण में वर्णित तथ्य काफी अलग हैं। वाल्मीकि रामायण में लंका से
सुषेण नाम के किसी भी वैद्य या डॉक्टर को लाने का कोई संदर्भ नहीं है। श्रीराम की सेना के जांबवान नमक
एक वृद्ध सेनापति ही डॉक्टर के कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं और हनुमान को समुद्र पार हिमालय पर्वत
पर जाकर ऋषब और कैलाश पर्वतों के बीच स्थित जड़ी-बूटियों की पहाड़ी से चार औषधियाँ लाने का
अनुरोध करते हैं। इन जड़ी-बूटियों में शामिल थीं मृतसंजीवनी (चेतनावस्था में वापस लाने हेतु औषधि),
विशल्यकरणी (जहरीले बाण के घाव को भरने के लिए औषधि), सवर्णकरणी (त्वचा के मूल रंग को
वापस लाने हेतु औषधि) और संधानी (टूटी हड्डियों को फिर से जोड़ने हेतु औषधि)। हनुमान चार जड़ी-
बूटियों की पहचान करने में असमर्थ थे, अतः उन्होंने पर्वत की चोटी का ऊपरी हिस्सा ही उखाड़ लिया
और उसे लंका के त्रिकूट पर्वत पर लेकर आ गए। जांबवान ने इन औषधियों को दवा के रूप में दिया,
438 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

जिसका परिणाम यह हुआ कि श्रीराम, लक्ष्मण और कई अन्य बहादुर सैनिकों की चेतना लौट आई और
उनके घाव भी भर गए। इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में नंदीग्राम में हनुमान के रुकने का भी कोई
संदर्भ नहीं है। वाल्मीकि रामायण में सुषेण श्रीराम की सेना में एक बहादुर कमांडर थे, जो राजकुमार अंगद
के नाना भी थे।
7. रामराज्य के अधीन 9-10 साल के लिए सुख-समृद्धि में रहने के बाद अयोध्या के लोगों ने अपने
सबसे उदार राजा और रानी के चरित्रों पर ही उँगलियों उठानी शुरू कर दीं और आरोप लगाया कि सीता
के लंका में एक साल तक रहने के बाद श्रीराम को उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए
था। राज्य की प्रजा के बीच ऐसी बदनामी से रघुवंशी श्रीराम असहनीय शोक में डूब गए। उनका मानना
था कि एक राजा का अपयश उसे नरक के द्वार तक ढकेल देता है। तुलसीदासजी के अनुसार, श्रीराम ने
फिर से सीता को साकेत धाम में रहने और अपनी छाया पीछे छोड़ देने के लिए कहा। उसके बाद श्रीराम
ने लक्ष्मण से कहा कि वे एक घने जंगल के बीच में (माया) सीता को अकेले छोड़ आएँ। जब सीता घने
जंगल में असहाय रो रही थीं तो महर्षि वाल्मीकि वहाँ आए और सीता को अपने आश्रम परिसर में ले गए।
वहाँ कुछ समय पश्चात् सीता ने कुश और लव को जन्म दिया। गोस्वामी तुलसी दासजी ने यह बताने का
कोई प्रयास नहीं किया कि क्या कुश और लव को जन्म माया सीता ने दिया था। हालाँकि घटनाओं के पूरे
अनुक्रम को मूल वाल्मीकि रामायण में बहुत अलग तरीके से वर्णित किया गया है। श्रीराम जानते थे कि
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सीता गर्भवती है, इसीलिए गंभीर सोच-विचार करने के बाद उनहोंने तीन फैसले लिए—1. जनता के प्रति
एक राजा के कर्तव्यों को पत्नी के प्रति पति के कर्तव्यों पर प्राथमिकता दी जाए, 2. अपनी भावी संतान
को बदनामी की उलझन से बचाया जाए, 3. सीता वाल्मीकि आश्रम में आसानी से रहने में और जनता के
सामने अपनी पवित्रता साबित करने में सक्षम हैं। परिणामस्वरूप श्रीराम ने लक्ष्मण को वाल्मीकि आश्रम
में गर्भवती सीता को छोड़कर आने का आदेश दिया और स्वयं उन्होंने कभी भी दूसरी शादी न करने का
फैसला किया। अत्यंत उदास मन से लक्ष्मण ने सीताजी को उनके निर्वासन के बारे में बताया और गहरे
शोक में डूबी हुई सीताजी ने साहसपूर्वक लक्ष्मण से कहा, “जाओ और श्रीराम से कह दो कि उन्होंने मेरा
त्याग लोक निंदा के भय से किया है, जिसका कारण मेरे बारे में फैलाए गए अपवाद हैं। उन कलंकों को
धो डालने का कर्तव्य भी अब मैं ही निभाऊँगी। रघुनंदन पुरवासियों के अपवादों से बचकर सुख से रहें। मैं
तो अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पति का भला करूँगी।” इस प्रकार वाल्मीकि के राम सीता का
त्याग करने में भी लगभग निर्दोष सिद्ध हो गए और सीता का चरित्र एक शक्तिशाली एवं बुद्धिमान स्त्री के
रूप में उभरकर आया।
8. रामायण के दो संस्करणों में सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर श्रीराम के जीवन की कहानी के अंतिम भाग
में है। सीता और वाल्मीकिजी की देखरेख में कुश और लव बहुत कुशल और निपुण होकर बड़े हुए।
तुलसीदासजी के अनुसार, एक बार श्रीराम ने राजसूय यज्ञ किया, जिसमें सीताजी की सोने की मूर्ति को
अपनी पत्नी का स्थान दिया। यज्ञ के घोड़े के साथ शत्रुघ्न के अधीन सेना भेजी गई, ताकि पूरी धरती पर
परिशिष्ट एक से • 439

अयोध्या के राजा राम की विजय सुनिश्चित की जाए। घोड़े के माथे पर लिखा गया कि ‘‘जो अयोध्या के
राजा को अपने राजा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, उसे इस घोड़े को बाँधना होगा और
सेना के साथ युद्ध करना होगा।’’ वाल्मीकि आश्रम से कुछ दूर कुश और लव ने घोड़े को बाँध लिया
और श्रीराम की सेना के साथ युद्ध में शत्रुघ्न, लक्ष्मण, भरत व हनुमान को पराजित कर दिया तथा उनकी
सेनाओं को गंभीर रूप से घायल कर दिया। अंत में महर्षि वाल्मीकि वहाँ पहुँचे और श्रीराम को सत्य का
बोध कराया कि कुश और लव उनके ही पुत्र हैं। लड़ाई तुरंत बंद कर दी गई; लव और कुश को रामायण
का गान करने के लिए कहा गया। उसी समय सीताजी ने रसातल में प्रवेश कर लिया। परंतु वाल्मीकि
रामायण में मूल कहानी बिल्‍कुल अलग है और अधिक यथार्थवादी व दमदार भी। श्रीराम ने राजसूय यज्ञ
का संचालन नहीं किया अपितु नैमिष आरण्य में केवल पापनाशक व परमपावन अश्वमेध यज्ञ का आयोजन
किया। इसलिए वाल्मीकि रामायण में लव-कुश और श्रीराम की सेना के बीच किसी भी युद्ध का कोई भी
संदर्भ नहीं है। इस अश्वमेध यज्ञ के दौरान सीता की स्वर्ण मूर्ति श्रीराम की पत्नी के रूप में स्थापित की गई,
क्योंकि सीता से शादी करने के बाद श्रीराम ने कभी किसी और के साथ किसी अन्य विवाह गठबंधन में
प्रवेश करने का विचार तक नहीं किया। कुश और लव ऋषि वाल्मीकि के साथ यज्ञ-भूमि में आए थे और
गलियों तथा राजमार्गों में रामायण का मधुर गायन कर रहे थे। उन्हें सुनकर सभी श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो रहे थे,
क्योंकि वे देखने में हू-ब-हू श्रीराम जैसे लगते थे और गायन अत्यंत सुरीली व मनमोहक आवाज में कर रहे
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थे। अंत में श्रीराम ने महर्षि वाल्मीकि से सीता को दरबारियों और जनता के सामने पेश करने का अनुरोध
किया, ताकि वह अपनी पवित्रता का प्रमाण दे सकें। सीताजी वहाँ आईं और उन्होंने पूर्ण आत्मविश्वास
से कहा, “मैंने श्रीराम के सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्पर्श तो दूर रहा, मन से भी चिंतन नहीं किया; यदि
यह सत्य है तो पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें।’’ विदेहकुमारी सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही
अचानक धरती कंपायमान हो उठी और धरती से एक दिव्य सिंहासन निकला, जिसमें सीता जी बैठ गईं।
इस प्रकार सीताजी के चरित्र पर उँगलियाँ उठानेवाले अयोध्यावासियों को पछतावे, शोक तथा आश्चर्य में
छोड़कर सीताजी रसातल में प्रवेश कर गईं। श्रीराम को असहनीय दुःख का अनुभव हुआ; यज्ञ को समाप्त
कर वे कुश और लव को साथ लेकर अयोध्या चले गए।

परिशिष्ट-6

महत्त्वपूर्ण निविष्टियाँ तथा टिप्पणियाँ देनेवाले


वैज्ञानिकों और विद्वानों के नामों की सूची

नि म्नलिखित वैज्ञानिकों एवं विद्वानों से प्राप्त महत्त्वपूर्ण जानकारियों और आलोचनात्मक टिप्पणियों


ने लेखिका को इस पुस्तक को सत्यापित तथ्यों के साथ तर्कसंगत रूप से लिखने में बहुत सहायता
दी है। इस पुस्तक में शामिल सभी वैज्ञानिक तथ्य और साक्ष्य विज्ञान के उन विषयों से संबंधित सुप्रसिद्ध
वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अनुसंधानों का परिणाम हैं। इस पुस्तक में केवल उन्हीं वैज्ञानिक साक्ष्यों को
शामिल किया गया है, जिनकी संपुष्टि लगभग सभी उपस्थित वैज्ञानिकों एवं विद्वानों द्वारा प्रमाणों के आधार
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पर की गई। लेखिका इन सभी का हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ।
वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान (आई-सर्व) के दिल्ली चैप्टर की निदेशक के रूप में श्रीमती सरोज
बाला ने दिनांक 30-31 जुलाई 2011, 23-24 फरवरी 2014, नवंबर 2014, सितंबर 2015, फरवरी
2016 और जुलाई 2016 को संगोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रदर्शनियों का आयोजन किया।
इन्हीं आयोजनों के दौरान इन अनुसंधान परिणामों की प्रस्तुति तथा संपुष्टि करनेवाले
वैज्ञानिकों एवं विद्वानों के नाम वर्णानुक्रमिक रूप में, उनकी मौजूदगी की तिथियों पर पदनाम के
साथ नीचे दिए गए हैं—
1. डॉ. ए.आर. चौधरी, भू-विज्ञान के प्रोफेसर, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय (भू-विज्ञान)
2. डॉ. अंकित अग्रवाल, प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व में व्याख्याता, पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज,
दिल्ली (पुरातत्त्व विज्ञान)
3. श्री अशोक भटनागर, खगोलविद्, पूर्व अपर महानिदेशक, आई.एम.डी., दिल्ली और कोलकाता
के पोजिशनल एस्ट्रोनॉमी सेंटर के पूर्व निदेशक (खगोलविज्ञान)
4. डॉ. बी.के. भद्रा, वैज्ञानिक, आर.आर.एस.सी., इसरो, जोधपुर केंद्र (अंतरिक्ष विज्ञान)
5. डॉ. बी.आर. मणि, सचिव, भारतीय पुरातत्त्व परिषद् तथा महानिदेशक, राष्ट्रीय संग्रहालय (पुरातत्त्व
विज्ञान)
परिशिष्ट एक से • 441

6. डॉ. सी.एम. नौटियाल, वैज्ञानिक, रेडियोकार्बन डेटिंग, बी.एस.आई.पी., लखनऊ (कार्बन डेटिंग)
7. डॉ. चंचला श्रीवास्तव, पुरावनस्पति शास्त्र प्रोफेसर, बी.एस.आई.पी., लखनऊ (पुरावनस्पति
विज्ञान)
8. डॉ. डी.पी. तिवारी, प्रोफेसर, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय
(पुरातत्त्व विज्ञान)
9. डॉ. ज्ञानेश्वर चौबे, एस्टोनियाई बायो सेंटर, तार्तू (आनुवंशिक अध्ययन)
10. डॉ. जे.आर. शर्मा, निदेशक, आर.आर.एस.सी., इसरो, जोधपुर (अंतरिक्ष विज्ञान)
11. प्रो. के.बी. पांडेय, पूर्व अध्यक्ष, यू.पी.पी.सी.एस. एवं पूर्व उप-कुलपति, सी.एस.जे.एम.
यूनिवर्सिटी, कानपुर (रसायन विज्ञान)
12. श्री के.एन. दीक्षित, अध्यक्ष, भारतीय पुरातत्त्व परिषद् (पुरातत्त्व विज्ञान)
13. प्रोफेसर के.एस. वल्दिया (पद्म भूषण), भू-वैज्ञानिक, जे.एन.सी.ए.एस.आर., बंगलौर (भू-विज्ञान)
14. डॉ. के.वी.आर.एस. मूर्ति, निदेशक (तकनीकी), वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान, हैदराबाद
(वैज्ञानिक)
15. डॉ. के. सिन्हा, पूर्व वैज्ञानिक, आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान, नैनीताल (खगोलविज्ञान)
16. श्री कुलभूषण मिश्रा, पी-एच.डी. शोधार्थी, मानव विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय (पुरातत्त्व
MAGAZINE KING
विज्ञान)
17. डॉ. प्रेमेंद्र प्रियदर्शी, फैलो ऑफ द रॉयल कॉलेज ऑफ फिजीशियन्ज ऑफ एडिनवर्ग (पुरावनस्पति
विज्ञान)
18. प्रो. मनोज कुमार सिंह, मानव विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय (आनुवंशिक अध्ययन)
19. श्री मुरारी रत्नम, निदेशक, केंद्रीय मृदा एवं सामग्री अनुसंधान केंद्र (वैज्ञानिक)
20. डॉ. नवरत्न एस. राजाराम, गणितज्ञ, भाषाविद् और प्रतिष्ठित लेखक
21. श्री पीयूष संधीर, वैदिक खगोलविद् और कंपनी सचिव, रुड़की
22. प्रो. आर.के. गंजू, निदेशक, इंस्टीट्‍यूट ऑफ हिमालयन ग्लेशियाेलॉजी, जम्मू विश्वविद्यालय
(ग्लेशियोलॉजी)
23. श्री आर.एस. बिष्ट (पद्मश्री), पूर्व संयुक्त महानिदेशक, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (पुरातत्त्व
विज्ञान)
24. डॉ. राजीव सारस्वत, वैज्ञानिक-एफ, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा (समुद्र विज्ञान)
25. डॉ. राजीव निगम, वैज्ञानिक-जी, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा (समुद्र विज्ञान)
26. प्रो. रंजन गुप्ता, प्रोफेसर, खगोल विज्ञान, इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्राेनॉमी ऐंड एस्ट्रोफिजिक्स,
पुणे (खगोल विज्ञान)
27. सुश्री रथनाश्री, निदेशक, नेहरू तारामंडल, नई दिल्ली (खगोल विज्ञान)
442 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

28. डॉ. एस. कल्याणरमन, वैदिक विद्वान‍् तथा सरस्वती नदी व सभ्यता के प्रख्यात लेखक
29. प्रो. वसंत शिंदे, उप-कुलपति, डेक्कन कॉलेज, पुणे (पुरातत्त्व विज्ञान)
30. प्रो. वी.एच. सोनावने, भूतपूर्व प्रोफेसर, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व विभाग, बड़ौदा
(पुरातत्त्व विज्ञान)
31. डॉ. वी.आर. राव, प्रोफेसर, मानव विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय (आनुवंशिक अध्ययन)
32. डॉ. विमल तिवारी, सहायक पुरातत्त्वविद्, लखनऊ (पुरातत्त्व विज्ञान)
33. प्रो. विभा त्रिपाठी, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
(पुरातत्त्व विभाग)

प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं पर वैज्ञानिक शोध के कार्य में योगदान देने वाले विद्वानों ने नाम—
1. इंजीनियर अभिजीत अवधिया, सहायक आयुक्त, भारतीय राजस्व सेवा
2. डॉ. अंबा कुलकर्णी, विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग, केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
3. डॉ. बलदेवानंद सागर, प्रभारी, संस्कृत समाचार प्रसारण, आकाशवाणी
4. प्रो. सी उपेंद्र राव, प्रोफेसर संस्कृत अध्ययन विशेष केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
5. श्री कॉम कारपेंटियर, संयोजक, विश्व मामलों का संपादकीय बोर्ड
MAGAZINE KING
6. श्री दर्शन लाल जैन, अध्यक्ष, सरस्वती नदी शोध संस्थान
7. इंजीनियर दीपक विश्वकर्मा, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से बी.टेक. तथा वेब डवलपर
8. डॉ. दिव्या त्रिपाठी, विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग, सेंटेनरी डी.ए.वी. कॉलेज, फरीदाबाद
9. श्री गौरव गर्ग, सहायक आयुक्त (प्रशिक्षु), भारतीय राजस्व सेवा
10. श्री के.वी. कृष्णमूर्ति, अध्यक्ष, वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान, हैदराबाद
11. श्रीमती नीलम नाथ (भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्त), पूर्व सचिव (रक्षा कल्याण)
12. श्रीमती पूनम किशोर सक्सेना (भारतीय राजस्व सेवा से सेवानिवृत्त), पूर्व अध्यक्ष, केंद्रीय प्रत्यक्ष
कर बोर्ड
13. इंजीनियर दीपक विश्वकर्मा, वेबसाइट डेवलपर
14. इंजीनियर राहुल शंकर भारद्वाज, आई.आई.टी., मुंबई से बी.टेक. तथा एम.टेक.
15. डॉ. राम अवतार शर्मा, ‘जहँ जहँ राम चरण चलि जाहिं’ के लेखक
16. श्रीमती संगीता गुप्ता (भारतीय राजस्व सेवा), आयकर आयुक्त, प्रतिष्ठित कलाकार, लेखक,
पेंटर तथा फिल्म निर्माता
17. श्री विजय सिंगल, पूर्व मुख्य आयकर आयुक्त और प्रतिष्ठित लेखक
18. श्री खुशी राम, प्रशासक, वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्‍थान
परिशिष्ट एक से • 443

अन्य मुख्य अतिथियों और सम्माननीय अतिथियों के नाम, जिन्होंने इस वैज्ञानिक अनुसंधान की


सराहना करते हुए प्रेरणा प्रदान की—
1. माननीय डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (भारत रत्न), भारत के पूर्व राष्ट्रपति तथा भारत के
प्रक्षेपास्त्रों के विशेषज्ञ
2. माननीय न्यायमूर्ति अशोक भान, पूर्व न्यायाधीश, सर्वोच्‍च न्यायालय और अध्यक्ष, नेशनल
कंज्यूमर डिस्पयूट रिडरैसल कमीशन
3. डॉ. डेविड फ़्रॉली (पद्म विभूषण), प्रख्यात वैदिक विद्वान् तथा लेखक
4. श्री के.वी. कृष्‍णमूर्ति, अध्यक्ष व मुख न्यासी, वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्‍थान
5. डॉ. कपिल कपूर, प्रख्यात विद्वान्, लेखक और भाषाविद्
6. प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी, राज्यपाल, हरियाणा प्रदेश
7. डॉ. कर्ण सिंह, सदस्य राज्यसभा और अध्यक्ष, आई.सी.सी.आर.
8. डॉ. कृष्ण गोपालजी, संयुक्त महासचिव, राष्ट्रीय स्वयंसवे क संघ
9. डॉ. महेश शर्माजी, संस्कृति मंत्री, भारत सरकार
10. श्री मनबीर सिंह, भारतीय विदेश सेवा, पूर्व सचिव (आर्थिक संबंध) और सदस्य, संघ लोक
सेवा आयोग
MAGAZINE KING
11. श्री पवन कुमार बंसल, पृथ्वी विज्ञान व संसदीय कार्यों के तत्कालीन कैबिनेट मंत्री
12. डॉ. सोनल मानसिंह (पद्म विभूषण), अध्यक्ष, सी.आई.सी.डी. तथा पारंपरिक भारतीय नृत्यों
की प्रख्यात विशेषज्ञ
13. न्यायमूर्ति सोमनाथ अग्रवाल, पूर्व न्यायाधीश, पंजाब और हरियाणा उच्‍च न्यायालय तथा सुप्रसिद्ध
लेखक
14. डॉ. तंकेश्वर कुमार, उप-कुलपति, गुरु जंबेश्वर विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (जी.
जे.यू.), हिसार, हरियाणा
15. प्रोफेसर वाई. सुदर्शन राव, अध्यक्ष, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्

हिंदी अनुवाद व संपादन में योगदान कर्ता—


1. डॉ. आशा जोशी, रिटायर्ड एसोशिएट प्रोफेसर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी कॉलेज, दिल्ली। संप्रति-
भारतीय पुरातत्त्व परिषद‍् में हिंदी सलाहकार व पुराप्रवाह शोधपत्रिका की संपादक
2. श्री हरीश जैन, हिंदी अनुवाद में एम.फिल. करने के पश्चात‍् भारत सरकार के अधीन सेवारत
3. संतोष कुमार, आशुलिपिक और टाइपिस्ट
444 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

सेमिनारों, सम्मेलनों और प्रदर्शनियों के दौरान की गई प्रस्तुतियों तथा शोधपत्रों के लघु ब्लॉग/


वेब लिंक नीचे दिए गए हैं—
1. Seminar on Scientific Dating of Ancient Events before 2000 BC, full papers 30-
31 July 2011 / http://bit.ly/2r8ke1A
2. Determining Cultural Continuity since Vedic and Epic Eras 23-24 Feb 2014 /
http://bit.ly/2FDUCNd
3. Chronology of Indian Culture since the Beginning of Holocene through Scientific
Evidences, 16 July, 2016 / http://bit.ly/2DfYZ2k
4. Cultural Continuity since Vedic and Epic Eras 1st Nov 2014 /
http://bit.ly/2Dg9WBe
6. Exhibition on Cultural Continuity from Rigveda to Robotics 17-23 Sept 2015/
http://bit.ly/2mz0QoW
7. Rigveda to Robotics, 3-4 Feb, 2016 at Hisar/ http://bit.ly/2FDUCNd

MAGAZINE KING
ग्रंथ सूची
पुरातात्त्विक तथा पुरालेखीय स‍्रोत
1. अयोध्या : 2002-03, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, 2003
2. एपिग्राफिया इंडिका
3. इंडियन आर्कियोलॉजी 1971-72 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 1975
4. इंडियन आर्कियोलॉजी 1976-77 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 1980
5. इंडियन आर्कियोलॉजी 1979-80 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 1983
6. इंडियन आर्कियोलॉजी 2002-03 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 2009
MAGAZINE KING
7. मेमोआयर्ज ऑफ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, संख्या 55, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, 1999
8. मेमोआयर्ज ऑफ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, संख्या 70, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, 1999
9. साउथ इंडियन इंस्क्रिप्शंज
10. द इंडियन एंटीक्वेरी

संग्रहालय एवं पुस्तकालय (कुछ चित्रों एवं पेंटिंगों के स‍्रोत)


1. भोपाल संग्रहालय, भारत
2. ब्रिटिश पुस्तकालय, ब्रिटेन
3. ब्रिटिश संग्रहालय, भारत
4. राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली

जर्नल तथा पत्रिकाएँ


1. एनुअल रिव्यू ऑफ एंथ्रोपोलॉजी
2. करेंट साइंस—ए पियर रिव्यूड मल्टीडिसिप्लिनरी साइंटिफिक जर्नल
3. करेंट ट्रेंड्स इन जियोलॉजी
446 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

4. डायलॉग—आशाभारती, नई दिल्ली की पत्रिका


5. एथनोबोटनी रिसर्च एंड एप्लिकेशंस—ए जर्नल ऑफ प्लांट्स, पीपल एंड एप्लाइड रिसर्च
6. जिओस्‍पेशिअल टुडे
7. हिस्टरी टुडे—भारतीय पुरातत्त्व सोसाइटी की पत्रिका
8. इंडियन जर्नल ऑफ हिस्टरी ऑफ साइंस
9. इंडियन सबकॉन्टिनेंट, इंटरनेशनल जर्नल—हॉस्पिटैलिटी एंड टूरिज्म सिस्टम्स, वी.2(1)
10. जर्नल ऑफ जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया
11. जर्नल ऑफ इंडियन ओशन आर्कियोलॉजी—भारतीय पुरातत्त्व सोसाइटी की पत्रिका
12. जर्नल ऑफ इंटर डिसिप्लिनरी स्टडीज इन हिस्टरी एंड आर्कियोलॉजी
13. जर्नल ऑफ मैरीन आर्कियोलॉजी
14. जर्नल ऑफ ओशियनोग्राफी
15. जर्नल ऑफ द इंडियन सोसाइटी ऑफ रिमोट सेंसिंग
16. मैन एंड इन्‍वायरनमेंट
17. मेमोयर्स—जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया,
MAGAZINE KING
18. पाकिस्तान आर्कियोलॉजी
19. प्लोस वन—प्रतिष्ठ विज्ञान जर्नल
20. प्रागधारा—डायरेक्टरेट ऑफ आर्कियोलॉजी, उत्तर प्रदेश की पत्रिका
21. पुराप्रवाह—जर्नल ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी सोसाइटी—हिंदी पत्रिका
22. पुरातत्त्व—जर्नल ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी सोसाइटी की वार्षिक पत्रिका (47 संस्करण प्रकाशित)
23. द जर्नल ऑफ एशियन स्टडीज
24. द पैलेयोबोटेनिस्ट—जर्नल ऑफ द बीरबल साहनी इंस्टिट‍्यूट ऑफ पैलेयोबोटनी

समाचार-पत्र/अखबार
1. दैनिक भास्कर
2. दैनिक जागरण
3. द एशियन ऐज
4. द हिंदू
5. द हिंदुस्तान टाइम्स
6. द पायनियर
ग्रंथ सू • 447

7. द स्टेट्समैन
8. द टाइम्स ऑफ इंडिया
9. द ट्रिब्यून

सेमिनारों और सम्मेलनों में हुईं प्रस्तुतियों तथा शोध-पत्रों की रिपोर्टें


1. कुरुक्षेत्र में नवंबर 2009 के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की काररवाई—शर्मा जे.आर. और बी.के. भद्रा। वैदिक
सरस्वती जलमार्ग और हिमालयी नदी स‍्रोतों के साथ इनकी संभावित कनेक्टिविटी : सैटेलाइट इमेजरी,
डी.ई.एम., पुरातात्त्विक और ड्रिलिंग डेटा पर आधारित एक अध्ययन
2. वैज्ञानिक साक्ष्यों के माध्यम से होलोसीन की शुरुआत के बाद से भारतीय संस्कृति के कालानुक्रम
तथा निरंतरता पर सम्मेलन की काररवाई। आई-सर्व,16 जुलाई, 2016; sarojbala.blogspot.in पर
अपलोड, लिंक—http://bit.ly/2DfYZ2k
3. वैदिक और एपिक युगों से लेकर सांस्कृतिक निरंतरता पर सम्मेलन की काररवाई। आई-सर्व, 1 नवंबर
2014; sarojbala.blogspot.in पर अपलोड, लिंक—http://bit.ly/2Dg9WBe
4. ऋग्वेद से रोबोटिक्स तक सांस्कृतिक निरंतरता पर प्रदर्शनी की काररवाई। आई-सर्व, 17-23 सितंबर,
2015; sarojbala.blogspot.in पर अपलोड, लिंक—http://bit.ly/2mz0QoW
MAGAZINE KING
5. वैदिक और एपिक युगों से सांस्कृतिक निरंतरता निर्धारित करने पर आई-सर्व द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय
संगोष्ठी की काररवाई। आई-सर्व, 23-24 फरवरी, 2014। sarojbala.blogspot.in पर अपलोड,
लिंक—http://bit.ly/2FDUCNd
6. 2000 वर्ष ईसा पूर्व से पहले की प्राचीन घटनाओं का वैज्ञानिक तिथिकरण पर राष्ट्रीय संगोष्ठी की काररवाई।
आई-सर्व द्वारा 30-31 जुलाई, 2011 को आयोजित वैदिक युग और रामायण काल की ऐतिहासिकता
पुस्तक में शामिल। sarojbala.blogspot.in पर अपलोड, लिंक—http://bit.ly/2r8ke1A
7. ऋग्वेद से रोबोटिक्स पर संगोष्ठी, प्रदर्शनी और प्रश्नोत्तरी कार्यक्रमों की काररवाई। 3-4 फरवरी, 2016
को गुरु जंबेश्वर यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, हिसार (हरियाणा) में प्रायोजित sarojbala.
blogspot.in पर अपलोड, लिंक—http://bit.ly/2FDUCNd
8. राम सेतु : मई 2007 में चेन्नई में सेतुसमुद्रम् चैनल परियोजना के वैज्ञानिक और सुरक्षा पहलुओं पर
अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी की काररवाई

किताबें और लेख
1. 2010 ए.डी.जे.-1 (स्पेशल एफ.बी.)। रामजन्‍मभूमि एंड बाबरी मस्जिद डिस्प्यूट; जजमेंट बाय
अलाहाबाद हाई कोर्ट स्पेशल फुल बेंच। आशीष मल्होत्रा (संपादक) : मल्होत्रा लॉ हाउस, इलाहाबाद
2. अब्दुल कलाम ए.पी.जे., 2002। इग्नाइटेड माइंड्स। पब्लिशर—वाइकिंग, पेंगुइन बुक्स इंडिया
3. अब्दुल कलाम ए.पी.जे., 1999। विंगज ऑफ फायर : एन ऑटोबायोग्राफी। पब्लिशर—यूनिवर्सिटीज प्रेस
448 • रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी

4. के.डी. अभ्यंकर, 2005। अर्लिएस्ट वैदिक कैलेंडर। इंडियन जर्नल ऑफ हिस्टरी ऑफ साइंस ,40
5. डी.पी. अग्रवाल, 1982। द आर्कियोलॉजी ऑफ इंडिया। पब्लिशर—कर्जन प्रेस
6. डी.पी. अग्रवाल, 2007। द इंडस सिविलाइजेशन : एन इंटरडिसिप्लिनरी प्रस्‍पेक्टिव। पब्लिशर—आर्यन
बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली
7. डी.पी. अग्रवाल एंड जे.एस. खरक्वाल, 2003। ब्रोंज एंड आयरन एजेस इन साउथ एशिया। पब्लिशर—
आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली
8. अजय सिंह, 2008 : प्लांट्स इन एंशिएंट इंडियन सिविलाइजेशन। पब्लिशर—अगम कला प्रकाशन,
दिल्ली
9. बी. अल्चिन एंड आर. अल्चिन, 1982। राइज ऑफ सिविलाइजेशन इन इंडिया एंड पाकिस्तान।
पब्लिशर—कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
10. अनिल के. पोखरिया, जे.एन.पाल, अलका श्रीवास्तव, ‘प्लांट मैक्रो-रेमैंस फ्रॉम निओलिथिक झूसी इन
गंगा प्लेन : एविडेंस फ्रॉम ग्रेन-बेस्ड एग्रीकल्चर’। पब्लिशर—करंट साइंस, अगस्त 2009 (विज्ञान की
एक प्रतिष्ठित पत्रिका)
11. अर्नाल्ड राइट। साउदर्न इंडिया : इट्स हिस्टरी, पीपल, कॉमर्स एंड इंडस्ट्रियल रिसोर्सेज। पब्लिशर—
एशियन एजुकेशनल सर्विसेज, 1914 इंडिया
MAGAZINE KING
12. अयोध्या: 2002-03 वॉल्यूम 1 एंड 2 : ए.एस.आई. 2003
13. बी.पी. राधाकृष्णन एंड एस.एस. मरह (संपादक)। मेमोआयर्ज ऑफ जियोलाॅजिकल सोसाइटी ऑफ
इंडिया, वॉल्यूम 42
14. बी.के भाद्रा, ए.के गुप्ता, एंड जे.आर. शर्मा, 2009। सरस्वती नदी इन हरियाणा एंड इट्स लिंकेज विद द
वैदिक सरस्वती रिवर—इंटीग्रेटेड स्टडी बेस्ड ऑन सैटेलाइट इमेज्स एंड ग्राउंड बेस्ड इनफार्मेशन। जर्नल
ऑफ जियोलाॅजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, बैंगलोर (स्प्रिंगर को-पब्लिशर), वॉल्यूम, 73
15. पुष्कर भटनागर, 2004। डेटिंग द एरा ऑफ लार्ड राम। पब्लिशर—रूपा एंड कंपनी, नई दिल्ली
16. पुष्कर भटनागर, 2012 (अनुवादक—कृष्णानंद सिन्हा)। श्रीराम के युग का तिथि निर्धारण। पब्लिशर—
आई-सर्व दिल्ली चैप्टर
17. आर.एस. बिष्ट, 1978। बनवाली : अ न्यू हड़प्पन साइट इन हरियाणा। मेन एंड इन्‍वायरनमेंट-2
18. आर.एस. बिष्ट, 1997। ढोलावीरा एक्सकेवशंज : 1990-94। फेट्स ऑफ इंडियन सिविलाइजेशन—
रीसेंट पस्‍पेक्टिव्स, जगत पति जोशी (चीफ एडिटर)। पब्लिशर— आर्यन बुक इंटरनेशनल, नई दिल्ली
19. एन.बोइविन (2007)। एंथ्रोपोलॉजिकल, हिस्टोरिकल, आर्कियोलाजिकल एंड जेनेटिक प्रस्‍पेक्टिव्स ऑन
द ओरिजिंस ऑफ कास्ट इन साउथ एशिया। द एवोल्यूशन एंड हिस्टरी ऑफ ह्य‍ूमन पॉपुलेशंस इन साउथ
एशिया
20. सी.बी.पाटिल। द फर्स्ट नेओलिथ इन इंडिया; ए रिव्यू विद स्पेशल रिफरेंस टू कर्नाटक। पुरातत्त्व 33
ग्रंथ सू • 449

21. कैवेली-सफ्रोजा, एल.एल, 2001। जींस, पीपल्स एंड लैंग्वेजेज। लंदन : पेंगुइन
22. कैवेली-सफ्रोजा, एल.एल एंड फ्रांसिस्को कैवेली-सफ्रोजा, 1995। द ग्रेट ह्य‍ूमन डायस्पोरास : द हिस्टरी
ऑफ डाइवर्सिटी एंड एवोल्यूशन। हेलिक्स बुक्स
23. जी. चौबे, एम. मेत्स्पालू, टी. किविसिल्ड, आर. विलेम्स (2007)। पीप्लिंग ऑफ साउथ एशिया :
इन्वेस्टिगेटिंग द कास्ट-ट्राइब कॉन्‍टीन्यूम इन इंडिया। बायो एसेज-29
24. ए.आर. चौधरी, 2008-सी। सिविलाइजेशन अलोंग द सरस्वती रिवर—ए साइंटिफिक एप्रोच। एस. कल्याण
रमन द्वारा एडिटेड वैदिक रिवर सरस्वती एंड हिंदू सिविलाइजेशन। पब्लिशर—आर्यन बुक्स इंटरनेशनल,
न्यू दिल्ली
25. ए.आर.चौधरी, 2009। जियोलॉजी ऑफ सरस्वती रिवर; द लॉस्ट नेचुरल हेरिटेज ऑफ द इंडियन
सबकॉन्टिनेंट। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हॉस्पिटैलिटी एंड टूरिज्म सिस्टम्स, वॉल्यूम 2 (1)
26. ए.आर. चौधरी, 2009 ए। सरस्वती रिवर सिस्टम ऑफ नोर्दर्न इंडिया; ए जिओसाइंटिफिक पर्सपेक्टिव।
ए.आर. चौधरी द्वारा संपादित ‘सरस्वती रिवर’। पब्लिकेशन—सरस्वती नदी शोध संस्थान
27. कोस्टांटिनी लोरेंजो, 2008। द फर्स्ट फार्मर्स इन वेस्टर्न पाकिस्तान : द एविडेंस ऑफ द निओलिथिक
एग्रो-पैस्टोरल सेटलमेंट ऑफ द मेहरगढ़। प्रागधारा-18
28. डैनिनो मिशेल, 2010। द लॉस्ट रिवर : ऑन द ट्रेल ऑफ द सरस्वती। पब्लिशर—पेंग्विन बुक्स
MAGAZINE KING
29. एड्मंड डी लंघे, 2009। रेलेवेंस ऑफ बनाना सीड्स इन आर्कियोलॉजी। एथ्नोबोटेनी रिसर्च एंड
एप्लिकेशन—ए जर्नल ऑफ प्लांट्स, पीपल एंड एप्लाइड रिसर्च
30. जे.एन. दीक्षित, 2017। अयोध्या उत्खनन : पुनर्वलोकन (एक्स्केवेशंस एट अयोध्या : ए रीलुक)।
पुराप्रवाह (इंडियन आर्कियोलॉजी सोसाइटी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका)
31. के.एन. दीक्षित एंड बी.आर.मनी। द ओरिजिन ऑफ इंडियन सिविलाइजेशन बरीड अंडर द सेंड्स ऑफ
‘लॉस्ट’ रिवर सरस्वती। डायलाग—ए जर्नल ऑफ आस्था भारती, वॉल्यूम—15, 1 नवंबर, 2013
32. एस.बी.दीक्षित, ‘भारतीय ज्योतिष’ ट्रांस्लेटेड बाय श्री शिवानाथ झारखंडी इन हिंदी फ्रॉम ओरिजिनल बुक
इन मराठी। पब्लिशर—उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, 1957।
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एविडेंसिज फ्रॉम द डेप्थ्स ऑफ ओशंस टू द हाइट्स ऑफ स्काईज, 2012। पब्लिशर—आई-सर्व,
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15. सूर्य सिद्धांत—अबाउट 2000 इयर्स ओल्ड इंडियन टेक्स्ट बुक ऑफ एस्ट्रोनॉमी एज एक्सप्लेनड ऑन
http://users.hartwick.edu/hartleyc/hindu/suryadescribe.html

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