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2.5 तुलसीदास
2.5 तुलसीदास
कोसष कोड एििं िीर्षक / Course Code and Title A1-HLIT1T, हििंदी काव्य
मॉड्यूल िीर्षक / Module Title 2.5 गोस्िामी तुलसीदास (व्याख्या एििं समीक्षा)
1. िैक्षशिक उद्देश्य
2. शिर्य-िस्तु
2.1 प्रस्तािना- भशिकाल की सगुि काव्यधारा के अिंतगषत श्रीरामभशि िाखा के सिषश्रेष्ठ एििं मूधषन्य मिाकशि
गोस्िामी तुलसीदास का आशिभाषि ऐसे समय हुआ जब देि में राजनीशतक अराजकता और सामाशजक पतनिीलता चरम की
ओर अग्रसर थी। पतन को निजागरि में बदलने के शलए शजस सिंबल एििं नैशतक जीिन के पुनरुत्थान की आिश्यकता िोती िै,
उसका अजस्र स्रोत श्रीरामचररतमानस िै। इसके माध्यम से गोस्िामी तुलसीदास ने न के िल आदिष रामराज्य की कल्पना प्रस्तुत
की िरन मयाषदा पुरुर्ोत्तम श्रीराम का आदिष चररत्र भी जन सामान्य के समक्ष रखा। श्रीराम से जुडे सभी पात्र आदिष की कसौटी
पर खरे िैं, चािे उनके स्िजन िों या सामान्य प्रजा जन। इस सिंदभष में उदािरि के रूप में उल्लेखनीय िैं- त्याग और प्रेम की
प्रशतमूर्तष श्री भरत, शनर्ादराज गुि, भिराज के िट, धैयष शिरोमशि िबरी आदद ।
गोस्िामी तुलसीदास ने सनातन भारतीय सिंस्कृ शत एििं मतों की व्याख्या दािषशनक आदिों एििं व्याििाररक जीिन की
आिश्यकताओं का सिंतुलन बना कर की िै। गोस्िामीजी ने प्रभु-प्राशप्त का सुगम एििं श्रेष्ठ साधन भशि को माना िै । उनकी भशि,
साधन और साध्य दोनों िै। सिजता, सरलता, समपषि और शनष्कपट प्रेम, भशि का स्िाभाशिक गुि िै। इसके सिषश्रेष्ठ उदािरि
िबरी एििं के िट प्रसिंग िैं। के िट का समपषि, शनश्छल एििं सेिापूिष प्रेम और िैराग्य श्रीरामचररतमानस के अयोध्याकािंड का िी
निीं िरन सिंपूिष सगुि भशि साशित्य का शिशिष्ट प्रसिंग िै। भि की िाक् -पटुता ने सिषसमथष भगिान को शनरुत्तर कर ददया। शबन
मााँगे िी आत्म कल्याि का िरदान प्राप्त कर शलया। इस प्रकार के िट ने जन सामान्य को सीख दी दक जब प्रभु समक्ष खडे िों तो
िैभि, कीर्तष, सिंपन्नता, धनादद मााँगना स्ियिं को स्ियिं के द्वारा ठगना िै। भशि की परिंपरा के साधक तो के िल और के िल भशि
की आकािंक्षा रखते िैं। श्री रूपगोस्िामी जी ने शजस भशि रस का प्रशतपादन दकया, उसका पररपाक गोस्िामी तुलसीदास जी के
साशित्य में सिषत्र ददखायी देता िै।
दोिा-चौपाई-छन्द
रामलला - जानकी
पािषती मिंगल
निछू मिंगल
श्रीरामचररतमानस
मुि क
☛ अितारिाद का समथषन
☛ गुरु की मित्ता का प्रशतपादन
☛ आदिष रामराज्य की कल्पना
☛ सामाशजक आदिष का प्रस्तुतीकरि
☛ िैली- प्रबिंध एििं मुिक
☛ प्रमुख रस- भशि, िािंत, करुि
☛ शप्रय छिंद- दोिा, चौपाई
☛ काव्य प्रयोजन- स्िान्तः सुखाय, लोकमिंगल
☛ काव्य भार्ा- लोक भार्ा अिधी एििं ब्रज
श्रिा और शिश्वास का योग िी भशि िै। जिााँ भशि िो ििााँ पर भेद का स्थान निीं रि जाता िै। गोस्िामी
तुलसीदास के समय शिशभन्न सिंप्रदायों, मतों और मान्यताओं के मध्य परस्पर भेद चरम पर था, शजसे उन्िोंने अपने इष्ट
श्रीराम के काव्य के माध्यम से समाप्त दकया। उन्िोंने लोक भार्ा में साशित्य रचा और तत्कालीन समय में प्रचशलत काव्य
रचना की समस्त िैशलयों में राम काव्य को प्रस्तुत दकया, शजससे समन्िय का कायष सिज सिंभि िो सका। समन्िय की
चेष्टा के मिाकशि के रूप में शिख्यात गोस्िामी तुलसीदास जी ने शिशभन्न मतों एििं मान्यताओं के बीच शिभेद समाप्त कर
एकीकरि स्थाशपत दकया, जैसे- िैि- िैष्िि- िाि, सगुि- शनगुषि, नगर- ग्राम, मानि- दानि, मानि- पिु, उत्तर-
दशक्षि, देि भार्ा- लोक भार्ा आदद।
गोस्िामी तुलसीदास की सिषश्रेष्ठ कृ शत श्रीरामचररतमानस िै , शजसकी मूल कथा िाल्मीदक कृ त रामायि एििं
अध्यात्म रामायि से ली गई िै। सात सगों (काण्ड) में शिभि श्रीरामचररतमानस काव्योशचत रमिीयता, सगष बिता,
प्रख्यात कथािस्तु तथा रचना िैली की उत्कृ ष्टता, प्रयोजन की मित्ता, रस शनरूपि लोकमिंगल की अिधारिा, मयाषदा
का शनिाषि, आदिष का ददग्दिषन आदद समस्त दृशष्ट से उच्च कोरट का मिाकाव्य िै। सिंपूिष कथानक चार घाटों ( याज्ञिल्क्य-
भरद्वाज सिंिाद, शिि- पािषती सिंिाद, काकभुिुिंशड-गरुड सिंिाद और तुलसी -सिंत सिंिाद) में शिभि िै।
राम काव्य भारतीय साशित्य हचिंतन का मेरुदिं ड िै। राम काव्य के सनातन पात्र प्रत्येक युग की शिशभन्न
अिधारिाओं से प्रसूत प्रश्नों का समाधान जन सामान्य को प्रदान करते िैं। राम काव्य की यात्रा सिंस्कृ त, बौि, जैन
साशित्य से िोते हुए शिन्दी तक पहुाँची िै, शजसे सरल लोक भार्ा में जन-जन तक पहुाँचने का स्तुत्य कायष गोस्िामी
तुलसीदास ने दकया िै।
गोस्िामी तुलसीदास जी के मित्त्ि को शिशभन्न शिद्वानों के मत से समझा जा सकता िै-
☛ गोद शलए हुलसी दफरें, तुलसी सो सुत िोय- अब्दुल रिीम खानखाना
☛ कशल कु रटल जीि शनस्तार शित िाल्मीदक तुलसी भयो- नाभादास
☛ कशिता करके तुलसी न लसे, कशिता लसी पा तुलसी की कला- िररऔध जी
☛ मुगल काल का सबसे बडा आदमी -शिसेंट शस्मथ
☛ भारत का लोक नायक, समन्िय के कशि- आचायष िजारी प्रसाद शद्विेदी
☛ गौतम बुि के पश्चात सबसे बडा जननायक- डॉ. जॉजष शग्रयसषन
☛ लोकमिंगल के कशि- आचायष रामचिंद्र िुक्ल
पूि ष प्रसिंग- श्री राम के िनिास के समय गिंगा नदी पार करने के समय श्री राम ने के िट से सिायता िेतु आग्रि
दकया। मानस पीयूर् में के िट प्रसिंग की व्याख्या में के िट के पूिष जन्म की कथा का ििषन िै । मानस पीयूर् के अनुसार पूिष जन्म में
के िट कच्छप (कछु आ) थे, शजन्िें श्री शिष्िु भगिान् की सेिा का अिसर प्राप्त निीं िो सका था। इस जन्म में िे सेिा के इस अिसर
को िाथ से निीं जाने देना चािते थे। श्रीराम-के िट सिंिाद शनश्छल प्रेम, भशि, सेिा एििं समपषि का सिषश्रेष्ठ उदािरि िै।
2.4.1 सिंकेत- मागी नाि न के िटु आना । किइ तुम्िार मरमु मैं जाना ॥
चरन कमल रज कहुाँ सबु किई । मानुर् करशन मूरर कछु अिई॥॥
छु अत शसला भइ नारर सुिाई । पािन तें न काठ करठनाई ॥
तरशनउ मुशन घररनी िोइ जाई । बाट परइ मोरर नाि उडाई ॥
एहििं प्रशतपालउाँ सबु पररिारू। नहििं जानउाँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अिशस गा चिहू। मोशि पद पदुम पखारन किहू ॥
छन्द- पद कमल धोइ चढ़ाइ नाि न नाथ उतराई चिौं।
मोशि राम राउरर आन दसरथ सपथ सब साची किौं॥
बरु तीर मारहुाँ लखनु पै जब लशग न पाय पखाररिौं।
तब लशग न तुलसीदास नाथ कृ पाल पारु उताररिौं॥
सोरठा- सुशन के िट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे ।
शबिसे करुनाऐन, शचतइ जानकी लखन तन॥
(☛ करठन िब्दों के अथष- मरमु- ममष (भेद) , रज- धूल, मूरर- जड, शसला- शिला/ पत्थर , पािन- पत्थर, काष्ठ- लकडी,
तरशनऊ- तरुिी भी, नाि भी , घरनी- घरिाली, बाट – रास्ता, पखारना- धोना, कबार- व्यापार, उतराई- सेिा का पाररश्रशमक,
बैन- िचन, अटपटे- बेमेल, गिााँरु, गूढ़ , करुिाऐन- करुिा के धाम )
सिंदभष- प्रस्तुत पद्यािंि िमारे पाठ्यक्रम की इकाई-02 के अिंतगषत सिंकशलत िै। यि पद्यािंि गोस्िामी तुलसीदास जी द्वारा
रशचत श्रीरामचररतमानस के अयोध्याकािंड के दोिा क्रमािंक- 100 से उद्धृत िै।
प्रसिंग- भगिान श्रीराम जब के िट से गिंगा पार जाने िेतु किते िैं , तो के िट अशिल्या-प्रसिंग का उल्लेख कर पिले ले जाने
से मना कर देते िैं। दफर िे के िल पाद प्रक्षालन अथाषत् चरि धोने की अनुमशत की ितष रख देते िैं। के िट नाि उतराई
निीं चािते िैं। के िट की अटपटी िैली में बात सुनकर प्रभु श्री राम को िाँसी आ जाती िै।
व्याख्या- श्रीराम ने जानकी एििं लक्ष्मि के साथ गिंगा पार जाने िेतु के िट से आग्रि दकया ककिं तु उसने नाि लाने के स्थान
पर प्रेम पूिषक शनिेदन दकया दक प्रभु मैंने आपका ममष (भेद या रिस्य) जान शलया िै । मैंने सब के मुख से सुना िै दक
आपके चरि कमलों की रज (धूल) स्पिष से िी मनुष्य बनाने की भी कोई जडी िै, शजसके छू ते िी पत्थर की शिला एक
सुिंदर स्त्री िो गई। मेरी नाि तो मात्र काष्ठ (लकडी) की िै जो दक शिला (पत्थर) के समक्ष कम कठोर िै। यदद मेरी नाि
मुशन की स्त्री िो जाएगी और उसी प्रकार उड गई तो मेरी आजीशिका का साधन समाप्त िो जाएगा, इससे तो आप गिंगा
पार निीं कर सकें गे और मेरे पररिार के भरि पोर्ि का मागष अिरुि िो जाएगा। मेरी आय का एकमात्र साधन यिी
नौका िै। इसी से मैं अपने पररिार का पालन पोर्ि करता हूाँ, अन्य कोई साधन या व्यापार निीं जानता हूाँ। अत: िे
स्िामी! यदद आप गिंगा पार जाना चािते िैं, तो मुझे आप अपने चरि कमल पखारने (धोने) की आज्ञा प्रदान करें ।
िे नाथ! मैं चरि कमल धोकर आप सबको नाि पर चढा दूाँगा, इसके शलए मैं आपसे कोई उतराई (सेिा मूल्य)
निीं चािता हूाँ। मुझे आपकी दुिाई तथा मिाराज दिरथ की सौगिंध िै । मैं सच-सच किता हूाँ दक लक्ष्मि जी भले िी मुझे
धनुर् लेकर बाि मारे, पर मैं जब तक पैरों को पखार न लूग
ाँ ा, तब तक िे तुलसीदास के नाथ ! िे कृ पालु! मैं आपको पार
निीं उतारूाँगा।
के िट के शििुि प्रेम से भरे हुए अटपटे िचन सुनकर करुिाशनधान श्रीरामचिंद्रजी, माता जानकी और लक्ष्मिजी
की ओर देखकर िाँसे।
शििेर्- रस- भशि
छिंद- चौपाई, छिंद एििं सोरठा
िब्द गुि- माधुयष,
रीशत- िैदभी
िब्द िशि- अशभधा
अलिंकार- चरि-कमल में रूपक अलिंकार, पद पदुम पखारन में छेकानुप्रास अलिंकार, पद कमल में रूपक अलिंकार, लपेटे
अटपटे- अनुप्रास अलिंकार
भार्ा- अिधी
के िट ने प्रभु श्री राम का पाद प्रक्षालन कर अपना तथा अपने पूिज ष ों का उिार कर प्रभु श्रीराम को गिंगा पार कराया।
व्याख्या- श्रीरामचिंद्र ने के िट से मुस्कु राकर किा- भाई! ििी कायष कर चित्र स्रोत- https://m.bharatdiscovery.org/w/images/5/5d/Kevat.jpg
शजससे तेरी नाि न जाए। िीघ्र जाकर पानी ला और पैर धो लें, देर िो
रिी िै। िीघ्रता से िम सबको गिंगा पार उतार दें, एक बार शजनका नाम स्मरि करते िी मनुष्य दुगषम एििं अपार
भिसागर से पार उतर जाते िैं और शजन्िोंने अपने िामन अितार में जगत को तीन पग से भी छोटा कर ददया था , ििी
कृ पालु श्रीरामचिंद्रजी गिंगा से पार उतरने के शलए के िट से अनुनय- शिनय कर रिे िैं। प्रभु के इन िचनों को सुनकर
गिंगाजी की बुशि मोिग्रस्त िो गई, उन्िें भ्रम िो गया दक यि साक्षात भगिान िोकर भी पार उतरने के शलए के िट से
अनुनय- शिनय क्यों कर रिे िैं? ककिं तु श्री रामचिंद्र जी के शनकट आने पर उनके पदनख (पैरों के नाखून) अथाषत अपने जन्म
स्थान को देखते िी देिनदी गिंगाजी िर्र्षत िो गईं। उन्िें तुरिंत ज्ञान िो गया दक भगिान इस समय नररूप में िै और
इसीशलए नरलीला कर रिे िैं। इसी के साथ उनका मोि नष्ट िो गया और िे िर्र्षत िो गईं दक उन्िें अपने प्रभु के चरिों
का स्पिष प्राप्त िोगा।
के िट श्रीरामचिंद्रजी की आज्ञा पाकर कठौता अथाषत काष्ठ (लकडी) के
बडे बतषन में गिंगाजल ले आया। अत्यिंत आनिंद और प्रेम से उत्सािपूिषक भगिान
के चरि कमल धोने लगा। सब देिता फू ल बरसा कर के िट की प्रििंसा करने
लगे और किने लगे दक इसके समान पुण्य की राशि कोई निीं िै ।
के िट ने प्रभु के चरिों को धोकर और सारे पररिार सशित उस जल का
चरिामृत पीकर अपने शपतरों को भिसागर से पार कर मुि दकया, दफर
आनिंदपूिषक प्रभु श्रीरामचिंद्र जी को माता जानकी एििं लक्ष्मि जी के सशित गिंगा
जी के पार ले गये।
शििेर्- रस- भशि
छिंद- चौपाई, दोिा
अलिंकार- देिसरर िरर्ी में मानिीकरि अलिंकार, चरि सरोज में
रूपक अलिंकार, सुमन सुर सकल शसिािीं में िृत्यानुप्रास
भार्ा- अिधी
िब्द िशि- अशभधा
िब्द गुि- माधुयष
रीशत- िैदभी
चित्र स्रोत- File:কেৱটে ৰাম-লক্ষ্মণ-সীতাে গংগা নদী পাৰ েৰাইটে।.jpg - Wikipedia काव्य- मिाकाव्य
2.4.3 सिंकेत- उतरर ठाढ़ भए सुरसरर रे ता। सीय रामुगि ु लखन समेता॥
के िट उतरर दिंडित कीन्िा। प्रभुशि सकु च एशि नहििं कछु दीन्िा॥
शपय शिय की शसय जानशनिारी। मशन मुदरी मन मुददत उतारी॥
किेउ कृ पाल लेशि उतराई। के िट चरन गिे अकु लाई॥
नाथ आजु मैं काि न पािा । शमटे दोर् दुख दाररद दािा ॥
बहुत काल मैं कीशन्ि मजूरी। आजु दीन्ि शबशध बशन भशल भूरी॥
अब कछु नाथ न चाशिअ मोरें । दीन दयाल अनुग्रि तोरें ॥
दफरती बार मोशि जो देबा । सो प्रसादु मैं शसर धरर लेबा॥
दोिा- बहुत कीन्ि प्रभु लखन शसयाँ नहििं कछु के िटु लेइ।
शबदा कीन्ि करुनायतन भगशत शबमल बरु देइ॥
बी.ए. प्रथम िर्ष शिन्दी साशित्य, प्रथम प्रश्नपत्र, हििंदी काव्य
इकाई-02, माड्यूल-2.5 गोस्िामी तुलसीदास (व्याख्या एििं समीक्षा)
उच्च शिक्षा शिभाग, मध्यप्रदेि िासन 9
(☛ करठन िब्दों के अथष - सुरसरर- गिंगा, मुदरी- अिंगूठी, मुददत- प्रसन्न, दाररद- दररद्रता, दािा- अशि, शबशध- ब्रह्मा,
अनुग्रि-कृ पा, दफरती लौटते समय, शबमल- शनमषल)
सिंदभष- प्रस्तुत पद्यािंि िमारे पाठ्यक्रम की इकाई-02 के अिंतगषत सिंकशलत िै। यि पद्यािंि गोस्िामी तुलसीदास जी द्वारा
रशचत श्री रामचररतमानस के अयोध्याकािंड के दोिा क्रमािंक- 102 से उद्धृत िै।
प्रसिंग- गिंगा पार िोने के पश्चात जब माता सीता उतराई के रूप में अिंगूठी देना चािती िैं, तो के िट घबराकर प्रभु
श्रीराम के चरिों में पड जाते िैं । दफर के िट अपने भाग्य की सरािना करते हुए नाि उतराई लेने से मना कर देते िैं , तब
भगिान श्री राम के िट को शिमल भशि का िरदान प्रदान करते िैं ।
व्याख्या- शनर्ादराज गुि, लक्ष्मि जी सशित श्री सीताजी और श्रीरामचिंद्रजी नाि से उतरकर गिंगा जी की रेत (बालू) में
खडे िो गए। तब के िट ने नाि से उतरकर उन्िें दिंडित प्रिाम दकया। के िट को दिंडित प्रिाम करते हुए देखकर भगिान
श्री रामचिंद्र जी को सिंकोच हुआ दक इसको कु छ निीं ददया। अपने पशत के हृदय को जानने िाली माता सीता ने आनिंद भरे
मन से अपनी रत्नजशडत अिंगूठी उतार कर उन्िें दे दी, तब कृ पालु श्रीरामचिंद्रजी ने किा के िट नाि की उतराई लो। के िट
ने तुरिंत व्याकु ल िोकर भगिान के चरि पकड शलए।
के िट ने किा िे नाथ ! आज मैंने क्या निीं पाया अथाषत सब कु छ पा शलया। मेरे दोर्, दुःख और दररद्रता की आग
पूरी तरि से बुझ गई। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की लेदकन शिधाता ने आज बहुत अच्छी और भरपूर मजदूरी दे दी िै ।
िे नाथ! िे दीनदयाल! आपकी कृ पा से अब मुझे कु छ निीं चाशिए। लौटते समय आप मुझे जो कु छ देंगे िि प्रसाद में शसर
पर चढ़ा कर ले लूग
ाँ ा। प्रभु श्री राम जी, लक्ष्मि जी और सीता जी ने बहुत आग्रि दकया, प्रयास दकया परिंतु के िट अपने
प्रि से निीं शडगे, तब करुिा के धाम भगिान श्रीरामचिंद्रजी ने के िट को शनमषल भशि का िरदान देकर शिदा दकया।
शििेर्- रस- भशि, िािंत
छिंद- चौपाई एििं दोिा
अलिंकार- मशन मुदरी मन मुददत में छेकानुप्रास, दोर् दुख दाररद दािा में अनुप्रास अलिंकार
भार्ा- अिधी
काव्य- मिाकाव्य
िब्द िशि- अशभधा
3. सारािंि
राम काव्य भारतीय हचिंतन का मूल आधार िै। गोस्िामी तुलसीदास भशिकाल के अिंतगषत सगुि काव्यधारा की राम
काव्यधारा के सिषश्रेष्ठ कशि िैं और श्रीरामचररतमानस उनकी श्रेष्ठ कृ शत िै। दास्य भशि के अनुगामी गोस्िामी तुलसीदास के
साशित्य में भशि, िािंत एििं करुि रस की प्रधानता िै जबदक दोिा-चौपाई उनके शप्रय छिंद िैं। अपने गुरु नरियाषनन्द द्वारा
सूकरक्षेत्र में सुनी रामकथा को लोक भार्ा अिधी में जनसामान्य के समक्ष रखा। उनके द्वारा रशचत श्रीरामचररतमानस
जनसामान्य के घर में पूशजत िोने िाला अशद्वतीय ग्रिंथ िै। िनिास के समय गिंगा पार करने िेतु श्रीराम को के िट की सिायता की
आिश्यकता पडी। उस समय श्रीराम-के िट के मध्य जो सिंिाद हुआ, िि लौदकक एििं पारलौदकक दोनों दृशष्ट से सरस एििं जीिन
को साथषकता प्रदान करने िाला उत्कृ ष्ट सिंिाद िै। शिशभन्न तकों के द्वारा के द्वारा के िट श्रीराम को शनरुत्तर कर उनका पाद
प्रक्षालन करते िैं। इस प्रकार समन्िय की चेष्टा के मिाकशि गोस्िामी तुलसीदास जी ने भि एििं भगिान तथा राजा और प्रजा के
मध्य समन्िय और शनश्छल, आदिष प्रेम का का उदािरि प्रस्तुत दकया िै। के िट प्रसिंग के द्वारा गोस्िामी तुलसीदास ने सामान्य
प्रजा, शनधषन, श्रमजीिी एििं भि िगष का प्रशतशनशधत्ि करने िाले के िट के माध्यम से समाज की अिंशतम पिंशि में खडे मानि को
मुख्यधारा में लाने का मागष प्रिस्त दकया िै।
4. सिंदभष