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वर्ष तीन अंक क्रमांक 24
वर्ष तीन अंक क्रमांक 24
वर्ष तीन अंक क्रमांक 24
साप्ताहिक
} वर्ष-3 } अंक-24 विक्रम सम्वत: २०81, वैशाख शुक्ल पक्ष पूर्णिमा तदानुसार गुरुवार 23 मई २०२4 }पृष्ठ-8 }मूल्य-10 ~
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वर्ष-3 अंक-24 गुरुवार, 23 मई 2024 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 2
कठिनाइयों से जूझने
का नाम ही पुरुषार्थ
"विपत्तियों" एवम् "कठिनाइयों" से जूझने
में ही हमारा "पुरुषार्थ" है। यदि हम कोई
महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो उसमें
अनेक आपत्तियों का मुकाबला करने के
लिए हमें तैयार ही रहना चाहिए। जिन्होंने
इस रहस्य को समझकर "धैर्य" का आश्रय
ग्रहण किया है, संसार में वे ही सुखी समझे
जाते हैं। "धैर्य" की परीक्षा सुख की अपेक्षा
दुःख में ही अधिक होती है। महापुरुषों की गतांक से आगे
प्रयाग संस्करण
कार्यकारी संपादक : आदेश भूषण पांडे | मोबाईल नंबर 91409 98956
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वर्ष-3 अंक-24 गुरुवार, 23 मई 2024 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 4
(श्रीनृसिंह जयन्ती-21 मई 2024 ई. पर विशेष)
“श्रीनरसिंह जय जय नरसिंह”
{ अंकुर नागपाल (दिल्ली)
भगवान् महाविष्णु के
असंख्य अवतारों में एकमात्र
‘श्रीनृसिंहावतार’ ऐसे हैं;
जिनका प्रयोजन अपने
भक्त की रक्षा के अतिरिक्त नृसिंहजयन्ती (वैशाख शुक्ला चतुर्दशी) को “जय जय नृसिंह” में पठित दो बार ‘जय’ शब्द
कुछ अन्य नहीं है। राम- ध्यान में रखते हुए हम मुख्यतः नृसिंहोपासना से साधक भगवान् नृसिंह को उसके लौकिक एवं
कृष्ण-आदि अवतारों में की ही बात करेंगे। प्रायः कलियुगीन लोगों की पारलौकिक भयों (अविद्या-काम-कर्म-आदि)
तो भले ही धर्मसंस्थापन, रुचि नृसिंहोपासना में नहीं है। किन्तु जो श्रद्धालु को जीतने की प्रार्थना करता है। दोनों खण्डों में
अधर्मप्रशमन, अमलात्मा भक्त उनमें स्वाभाविक भक्ति (निःस्वार्थ प्रेम) आया ‘नृसिंह’ सम्बोधन भगवान् श्रीलक्ष्मीनृसिंह
भक्तों को प्रेमदान इत्यादि रखता है; उसके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ के प्रत्यक्ष अनुभव का सहायक है। “हरे कृष्ण”
अनेक प्रयोजन रहे हों; नहीं रहता, उसके शत्रु स्वतः नष्ट हो जाते महामन्त्र के समान, इस ‘महाभयनिवारण
किन्तु नृसिंहरूप में हैं। जिस स्थान में नृसिंहोपासना होती है, वहाँ नृसिंह-नाममन्त्र’ में भी श्रीभगवान् के तीन
अकारणकरुण प्रभु का व्याधि-दुर्भिक्ष-राजभय-चोरभय-अनावृष्टि- सम्बुद्ध्यन्त नाम एकत्र हुए हैं (‘श्रीनरसिंह’,
आविर्भाव केवल अपने महामारी-अग्निकाण्ड-आदि नहीं होते। (देखें ‘जय’ एवं ‘नरसिंह’)। जैसे नामजप में सभी को
भक्त (प्रह्लाद) की रक्षा हेतु नरसिंहपुराण 32.9-10, एवं सम्पूर्ण 34वाँ अधिकार है तथा उसके लिए दीक्षा-गुरूपदेश-
हुआ-यह बात सर्वविदित है। अध्याय)। पुरश्चरण-शुद्धि-नियम-आदि की अनिवार्यता
जिनके सुकोमल श्रीचरण ‘दिव्यलक्ष्मीनृसिंहसहस्रनामस्तोत्र’ नहीं है : “अचाण्डालमभूल्लोकसुलभो वश्यश्च
भगवतीजी के करकमलों (184-201) के अनुसार; नृसिंहनाम मोक्षश्रियः। नो दीक्षां न च दक्षिणां न च पुरश्चर्यां
द्वारा छुए जाने योग्य भी का जप करने वाले उपासक को देखते ही मनागीक्षते”। ठीक ऐसे ही; इस नृसिंह-नाममन्त्र
नहीं हैं (श्रीमद्भागवत भूत-वेताल-कूष्माण्ड-पिशाच-ब्रह्मराक्षस- पर भी उक्त प्रतिबन्ध लागू नहीं होते। सभी
9.10.4), वे ही भगवान् शाकिनी-डाकिनी-ज्येष्ठा-बालग्रह-दुष्टग्रह- वर्ण-आश्रम-जाति-देश-आयु-अवस्था-आदि
अपने भक्त एवं उसके यक्ष-राक्षस-नाग-सन्ध्याग्रह-चाण्डालग्रह- के लोग अपनी सुविधानुसार इसको जप सकते
वचन की रक्षा करने के निशाचरग्रह-आदि नकारात्मक ऊर्जाएँ दूर भाग हैं।
लिए अतिशय वीभत्स एवं जाते हैं। श्रीनृसिंह का स्मरण करने से कुक्षि चूंकि ‘हरिभक्तिविलास’ में इस मन्त्र के साथ
(गर्भ) एवं हृदय के शूल (पीड़ा), अपस्मार सनातनी नृसिंहोपासना कैसे करे? दुर्भाग्यवश इन ‘21’ संख्या उल्लिखित है, अतः जपने वालों
विकराल रूप धारण कर दिनों किसी विदेशी संस्था के प्रभाव में आकर
लेते हैं; कि वही लक्ष्मी उनसे (मिर्गी), ज्वर आदि सभी आधि-व्याधियाँ तथा को निश्चित ही 21 के गुणन में इसका जप करना
अधिदेवता शान्त होने लगतीं हैं। नृसिंहोपासक के लोगों ने भगवान् नृसिंह के “उग्रं वीरं महाविष्णुं चाहिए। यदि तुलसीमाला एवं आसन उपलब्ध
भयभीत होकर दूर भाग …” इत्यादि मन्त्र को कण्ठस्थ कर लिया है और
जातीं हैं (वही 7.8.19-34, शत्रु, राजा (श्रेष्ठ अधिकारी) एवं जीवनसाथी न हो, तो भी पूर्णस्नान अथवा हाथ-पैर-मुख
सदैव अनुकूल रहते हैं। उसको जल-अग्नि-विष- वे यत्र-तत्र इसका शोर करते हैं; जो कि सर्वथा का प्रक्षालन करके नंगे पाँव करमाला (अर्थात्
7.9.2)। भगवान् नृसिंह ज्वर-सर्प-व्याघ्र-चोर-पर्वत-वन-बिल-आदि अनुचित है। नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद् (2.3) अंगुलियों) पर ही चलते-चलते इस नाममन्त्र का
का यह स्वभाव है कि वे का भय नहीं रहता। उसको राज्य, धन, विद्या, में प्राप्त यह मन्त्र ‘आनुष्टुभ नारसिंह सामराज/ जप कर लेना चाहिए। छोटे बच्चों को प्रह्लादभाव
अपने शरणागत को कष्ट बन्धनमुक्ति, सुपुत्र, धन-धान्य आदि सभी अभीष्ट मन्त्रराज’ कहलाता है; जो कि साक्षात् वेदमन्त्र से नृसिंहोपासना करनी चाहिए; ताकि भगवान्
देने वाले पर तत्काल पदार्थ प्राप्त होते हैं। ब्रह्महत्या-भ्रूणहत्या-पशुहत्या- है। किसी अधिकारी साधक को ही विधिवत् उनके रक्षक बनें। उस भाव में गति एवं स्थिति
कुपित होकर उसके गुरुपत्नीगमन-वेदनिन्दा-यज्ञनिन्दा-गुरुनिन्दा- दीक्षा लेकर जप करना चाहिए; अन्यों को नहीं। के लिए माता-पिता अपने बालक-बालिकाओं से
संसार को उद्विग्न कर देते पितृनिन्दा-आदि सभी पापों से वह सद्यः निवृत्त हो भविष्य में लोग इसका सार्वजनिक उच्चारण यह अभ्यास करवाएँ कि वे दिन में न्यूनतम पाँच
हैं (मेरुतन्त्र 26.145)। जाता है। यदि कोई स्त्री नृसिंहोपासना करे, तो वह करेंगे, यह जानने वालीं भगवती श्रुति ने पहले ही बार इस नृसिंह-नाममन्त्र को 21-21 बार जपें :
किन्तु वे उग्रमूर्ति प्रभु अखण्ड सौभाग्य को प्राप्त करती है तथा उसको हम सभी को सावधान किया है : “इदं साम यत्र (1-2) सुबह उठते ही एवं रात्रि में सोने से शय्या
अपने श्रीचरणों में भक्त वैधव्य या सपत्नी (सौतन) रूपी दोष प्राप्त नहीं कुत्रचिन्नाचष्टे। यदि दातुमपेक्षते पुत्राय शुश्रूषवे पर तथा (3-5) तीनों समय भोजन करने से
प्रह्लाद को देखते ही शान्त होते। कोई श्रद्धालु भक्त जहाँ कहीं भी शुद्ध मन से दास्यत्यन्यस्मै शिष्याय वा च” (वही 1.4)। और पहले। फिर धीरे-धीरे उनकी अवस्था एवं सुविधा
हो गए एवं उसके शिर पर “नृसिंह-नृसिंह” बोलता हुआ निकलता है, वहीं- फिर; सभी लोग सदैव उग्रनृसिंह की उपासना नहीं के अनुसार इस नाममन्त्र की प्रतिदिन न्यूनतम
अपना करकमल रख दिया वहीं भगवान् नृसिंह उसकी रक्षा करते हैं। अधिक करते। स्वयं भगवान् श्रीशंकराचार्यजी ने अपने जपसंख्या 1008 तो अवश्य करनी चाहिए [यदि
(श्रीमद्भागवत 7.9.5)। क्या कहें! गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज ‘लक्ष्मीनृसिंहकरावलम्बस्तोत्र’ के माध्यम से अधिक हो सके, तो बहुत अच्छा है]। वयस्क लोगों
निश्चित ही यह प्रभु के ‘नृसिंह’ नाम के उच्चारण की महिमा को बतलाते शान्तमूर्ति लक्ष्मीनृसिंह की उपासना की है; न कि को, नामापराध से बचते हुए, प्रतिदिन 1008 बार
वात्सल्य एवं शरणागत की हुए लिखते हैं कि जब श्रीरामलला सरकार को उग्रमूर्ति की। आगम-परम्पराओं में भगवान् नृसिंह इसका जप करना चाहिए। यदि अपने क्षेत्र में ग्रहण
रक्षा के अखण्ड व्रत का नज़र लगती थी; तब माता कौसल्या के बुलाने पर के 74 रूप प्रसिद्ध हैं; जिनमें से कुछ ही रूपों दृष्टिगोचर होवे, तो उसके स्पर्शकाल (आरम्भ)
अपूर्व उदाहरण है। इस महर्षि वसिष्ठजी, भय को भी भयभीत करने वाले की उपासना में पूर्वोक्त “उग्रं वीरं महाविष्णुं…” से पाँच मिनट पूर्व ही स्नान-आदि से निवृत्त होकर
कथा से हम सभी को एक ‘नृसिंह’ नाम का उच्चारण करके, श्रीरामलला की मन्त्र तो उपयोगी है। अतः हमें किसी ऐसे मन्त्र इस नाममन्त्र का जप आरम्भ करके मोक्षकाल
शिक्षा लेनी चाहिए। हम नज़र उतारते थे : की आवश्यकता है; जो सभी वर्ण-आश्रम-आयु- (ग्रहणसमाप्ति) तक जप करते रहना चाहिए। यदि
सभी अज्ञानी प्राणी कर्म- “सुनत आइ ऋषि कुस हरे नरसिंह मंत्र पढ़े जो सुमिरत देश-अवस्था-आदि वाले प्राणियों के लिए समानतः कोई भाग्यशाली साधक विशेष प्रसंगों (एकादशी,
ज्ञान-उपासना-सद्गुण- भय भीके” उपयोगी हो। ऐसे में भगवन्मूर्ति श्रीचैतन्यमहाप्रभु कोई सिद्ध ग्रहयोग अथवा नृसिंहनवरात्र—
आदि से सर्वथा विहीन हैं। (गीतावली 1.12.3)। की आज्ञा से लिखे गए ‘हरिभक्तिविलास’ नामक नृसिंहजयन्ती से नौ दिन पूर्व) में इस नाममन्त्र का
अधिकाधिक हम यही कर गोवर्धनमठ-पुरीपीठ के प्रथम आचार्य-जगद्गुरु ग्रन्थ में एक महत्त्वपूर्ण नाममन्त्र उपलब्ध है : अधिक संख्या में जप करना चाहे; तो वह प्रतिदिन
सकते हैं कि दिनभर में श्रीपद्मपादाचार्यजी महान् नृसिंहोपासक थे। एक “श्रीपूर्वो नरसिंहो द्विर्जयादुत्तरतस्तु सः। 2,700 अथवा 10,000 जप भी कर सकता है।
कुछ समय निकालकर समय किसी कापालिक के द्वारा जगद्गुरु भगवत्पाद त्रिःसप्तकृत्वो जपतस्तु महाभयनिवारणः” निश्चित ही इससे उसको भगवान् लक्ष्मीनृसिंह की
श्रीभगवान् के नामों का श्रीशंकराचार्यजी पर किए गए प्राणघातक प्रहार को (11.273 में उद्धृत कूर्मपुराण) कृपा से भोग एवं मोक्ष की प्राप्ति होगी। विपत्तिकाल
संकीर्तन (वाचिक जप) रोकने के लिए आपमें नृसिंहभगवान् के तेज का अर्थात् “श्रीनरसिंह जय जय नरसिंह”-यह मन्त्र आने पर लोगों को प्रत्येक क्षेत्र में इस मन्त्र का
कर सकते हैं। धीरे-धीरे आवेश हो गया था तथा आपने उस कापालिक का यदि इक्कीस बार जपा जाए, तो साधक के महान् सामूहिक एक करोड़ जप करना चाहिए। किन्तु
अभ्यास दृढ़ होने पर मन प्राणान्त करके श्रीभगवत्पाद के प्राणों की रक्षा की भयों का भी निवारण कर देता है। यहाँ कुछ लोग ध्यान रहे; इस नाममन्त्र की आड़ में यज्ञोपवीत-
उसमें लगने लगेगा और थी (माधवीय शंकरदिग्विजय 11.45-75)। स्वयं ‘नरसिंह’ के स्थान पर ‘नृसिंह’ भी पढ़ते हैं, किन्तु सम्पन्न अधिकारी साधकों को अपने सन्ध्यावन्दन-
संकीर्तन की कालावधि श्रीभगवत्पाद ने भी ‘नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद्’ पर श्रीसनातनगोस्वामीजी के अनुसार उससे कोई आदि विहित कर्मों का त्याग कदापि नहीं करना
स्वतः बढ़ने लगेगी। तब भाष्य लिखकर अपनी नृसिंहभक्ति को प्रकट किया अर्थान्तर नहीं होता। चाहिए (देखें नरसिंहपुराण 61.19-21)। साथ
स्वयं भगवान् हमसे आत्मीय है (वही 6.62)। जगन्नाथ-मन्दिर (पुरी) में यहाँ इसका मन्त्रार्थ लिखना भी सर्वथा प्रासंगिक ही; भैरव-शरभ-आदि उग्रदेवताओं की प्रधानतया
सम्बन्ध मानकर हमारी आज भी श्रीनृसिंहभगवान् पूजित हो रहे हैं। अतः होगा : इस नाममन्त्र के दो खण्ड हैं : (1) उपासना करने वालों को नृसिंहमन्त्र का जप किन्हीं
आवश्यकताओं का पूरा हम सभी श्रद्धालुओं को श्रीनृसिंहभक्ति में सदैव “श्रीनृसिंह” : यह भगवान् नृसिंह-नारायण की योग्य गुरु से पूछकर ही करना चाहिए। सामान्य
ध्यान रखने लगेंगे तत्पर रहना चाहिए। ‘श्री’ अर्थात् लक्ष्मी-ऐश्वर्य-ज्ञान-क्रिया-शक्ति- सद्गृहस्थ निश्चिन्त होकर इस नृसिंह-नाममन्त्र का
(गीता 9.14, 18.36, 9.34)। अब प्रश्न यह उठता है कि एक सामान्य इत्यादि से नित्य युक्तता को दर्शाता है। तथा (2) जप कर सकते हैं। •••
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वर्ष-3 अंक-24 गुरुवार, 23 मई 2024 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 5
धर्मसिद्धि
का परीक्षण हो रहा है, उसके इकाई अंक (1) धनात्मक आश्लेषक = 5
को आश्लेषक से गुणा कर गुणनफल को (2) इकाई अंक 5x5=25, 25+9
संख्या के टहाई अंक में जोड़ा या घटाया (टहाई अंक) = 34 लिखा 9 के नीचे
जाता है। यदि आश्लेषक ऋणात्मक तो (3) (34 में इकाई का अंक =
घटाना है। यदि आश्लेषक धनात्मक 4) 4x5=20, 20+3 (अर्थात् दहाई रचयिता-श्री गोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-
तो योग करना है । सम्पूर्ण विधि निम्न का अंक) = 23. श्रीमज्जगद्गुरु- शंकराचार्यस्वामी
उदाहरणों से स्पष्ट की जा रही है। 23+2=25 लिखा 2 के नीचे निश्चलानंदसरस्वती
उदाहरण (1) संख्या 1295 का 7 से (4) (25 की इकाई = 5) गतांक से आगे
भाज्यता का परीक्षण कीजिए । 5×5=25, 25+2=27.27+1=28 प्रतिपद्य नरो धर्म स्वर्गलोके महीयते ।
1295 -10 संकेत (1) भाजक 7 लिखा 2 के नीचे धर्मात्मकः कर्मविधिर्देहिनां नृपसत्तम ।।
के लिए प्रभावी भाजक = 21 (2) (5) अन्तिम योगफल 28 जो 7 (महाभारत - शान्तिपर्व २९०.७)
ऋणात्मक आश्लेषक = 2 से विभाज्य है । अत. पूरी संख्या 7 से "नृपश्रेष्ठ ! धर्मको जानकर उसका आश्रय लेनेवाला
119 (3) इकाई अंक 5x2=10, विभाज्य । मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है।
घटाया 129 में से उदाहरण (2) 14833 का संख्या वेदोंमें जो 'सत्यं वद'
-18 (4) शेषफल = 119, 9×2=18, 13 से भाज्यता का परीक्षण कीजिए । (तैत्तिरीयोपनिषत् १.११.१),
घटाया ।। में से हल-13x3=39, अतः भाजक 13 'ज्योतिष्टोमेन (स्वर्गकामो) यजेत'
का धनात्मक आश्लेषक 4 (आप० श्रौत० १०२.१),
-7 (5) शेषफल 7 अतः पूरी संख्या 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः'
विभाज्य 7 से 14833+12
(मैत्रायण्युपनिषत् ६. ३६)
अथवा हल II-1 4 8 3 3
1495 13 42 29 15 आदि वाक्यों द्वारा मनुष्योंके कर्त्तव्यका विधान किया
संकेत-1295 741 गया है, वही धर्मका लक्षण है।।"
(1) भाजक 7 के लिए प्रभावी भाजक + 20
169 + 36 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः'
7x7=49+25 (पूर्वमीमांसा १.१.२)-
(2) धनात्मक आश्लेषक = 5 अथवा-हल III 'वेदादिगम्य कल्याणप्रदा यागादिक्रिया धर्म है',
(3) इकाई अंक 5×5=25, जोड़ा 1 4 8 3 3 'यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धि : १.१.२)
129 में+20 52 13 16 16 15 'जिससे लौकिक स धर्मः' (वैशेषिकदर्शन
(4) योगफल = 154, 4×5=20, + 8 +13 +13 +13 पारलौकिक उत्कर्ष तथा तत्त्वज्ञानरूप अभ्युदय और
जोड़ा 15 में 13 +3 +3 +2 मोक्षसंज्ञक निः श्रेयसकी सिद्धि हो, वह धर्म है।'
(5) योगफल = 35 जो 7 से विभाज्य ध्यातव्य :- नीचे लिखी जाने वाली 'लक्ष्यते यत्तत् लक्षणम्' तथा 'लक्ष्यते अनेनेति
है, अतः पूरी संख्या भी 7 से विभाज्य है । संख्या यदि भाजक से बड़ी है तो लक्षणम्' इस व्युत्पत्तिलभ्य लक्षणसे लक्षित धर्मकी
35- ध्यातव्य (1) धनात्मक भाजक अथवा उसका गुणज घटायें उक्त उभयसम्मत परिभाषा चरितार्थ हो जाती है।
आश्लेषक + ऋणात्मक आश्लेषक और शेषफल से आगे क्रिया करें ।
भाजक (2) पिछले उदाहरण में कुछ { शेष अगले अंक में... शेष अगले अंक में...
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वर्ष-3 अंक-24 गुरुवार, 23 मई 2024 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 6
धर्म-कर्म- रहस्य
श्री रामचरितमानस : बालकांड क्रमशः....
चौपाई :
नारद कर मैं काह बिगारा।
भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥ गतांक से आगे निगम नीति अस कह सब कोई ॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। श्री पंडित भवानी शंकर जी के कौन काहु दुख सुख कर दाता ।
बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥ निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।।
भावार्थ:-मैंने नारद का क्या साघनसंग्रह के धर्म-कर्म प्रकरण मानसरामायण
बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता इंजी. पं. हर्ष शुक्ला के आधार पर संकलित- काल भी कर्मानुसार ही लोगों को फल देता
हुआ घर उजाड़ दिया और पी.जी.डी. बी.ई. (सिविल),
(मानवाधिकार) कर्म का फल सवको होता है। लिखा है- है। भागवत स्कन्ध ११, अध्याय २३ में कथा
जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश सामाजिक कार्यकर्ता
एवं सलाहकार
पूर्वदेहकृतं कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम् । प्राज्ञो है कि अवन्तीपुरी में एक ब्राह्मण था जो सदा
दिया कि जिससे उसने बावले मूढस्तथा शूरः भजते यादृशं कृतम् ॥४९॥ पाप-कर्म में रत रहता था। इस कारण उसको
वर के लिए तप किया॥1॥ महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय १७४ बहुत क्लेश भोगने पड़े। कष्ट पाने पर उसको
साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। पूर्व-जन्म में जैसा शुभ अथवा ज्ञान का उदय हुआ और तब उसने
उदासीन धनु धामु न जाया॥ अशुभ कर्म किया हुआ रहता अपने दुःख के कारण के
पर घर घालक लाज न भीरा। है वैसे ही फल विद्वान्, विषय में यों कहा-
बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥ मूढ़ और शूर पाते हैं। “नायं जनो मे
भावार्थ:-सचमुच उनके न किसी का मोह है, न क्योंकि - सुखदुःखहेतुर्न
माया, न उनके धन है, न घर शुभेन कर्मणा सैौख्य देवतात्माग्रहकर्म्म-
है और न स्त्री ही है, वे सबसे दुःखं पापेन कर्मणा । कालाः । मनः परं
उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे कृतं फलति सर्वत्र कारणमामनन्ति
का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें नाकृतं भुज्यते कचित् संसारचक्रं परिवर्त्तयेद्
न किसी की लाज है, न डर ।।१०।। यत् ॥ ४२ ॥
है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की महाभारत, अनुशासनपर्व, मेरे दुःख का कारण न
पीड़ा को क्या जाने॥2॥ अध्याय ६ मनुष्य है, न देवता, न आत्मा,
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते न ग्रह और न काल है; इसका
बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥ । सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥ प्रधान कारण तो मन ही है जिसके द्वारा यह
अस बिचारि सोचहि मति माता। भागवत, स्कन्ध १०, अध्याय २४ संसार-चक्र परिभ्रमित होता है। • महाभारत,
सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥ शुभ कर्म से सुख मिलता है और पाप कर्म अनुशासनपर्व, अध्याय १ में कथा है कि
भावार्थ:-माता को विकल देखकर पार्वतीजी के करने से दुःख होता है। किये हुए का ही गौतमी नाम की एक साध्वी स्त्रो का पुत्र साँप
विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता फल मनुष्य सर्वत्र पाता है और जो नहीं किया के काटने से मर गया । अर्जुन नामक व्याधा
रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम उसका फल कदापि कोई नहीं भोगता । कर्म ने उस साँप को पकड़कर गौतमी के पास
सोच मत करो!॥3॥ से जन्तु की उत्पत्ति होती है और उसी से लय लाकर उसके मारने की आज्ञा माँगी। गौवमी
करम लिखा जौं बाउर नाहू। भी होता है और कर्म ही द्वारा सुख, दुःख, भय ने क्षमा करने को कहा किन्तु व्याधा ने नहीं
तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥ और कुशल प्राप्त होते हैं ॥ १०-१३ ॥ और माना। साँप ने कहा कि मैं निर्दोप हूँ, मैंने मृत्यु
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। भी- की प्रेरणा से बालक को काटा है। व्याध ने
मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥ येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः । साँप को छोड़ने से इनकार किया। न मेरा दोष
भावार्थ:-जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तेन तेन शरीरेण तत्तत् फलमुपाश्नुते ॥ ४ ॥ है और न साँप का। मृत्यु ने आकर कहा कि
महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय ७
तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या काल की प्रेरणा से मैंने साँप को प्रेरणा कर
विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक जिस शरीर से जो कर्म करता है उसी बालक की मृत्यु करवाई। इस पर काल ने
का टीका मत लो॥4॥ शरीर से उस कर्म का फल पाता है। गोस्वामी स्वयं आकर कहा-
छन्द : तुलसीदासजी ने लिखा है- न हाई नाप्ययं मृत्युर्नाय लुब्धक पन्नगः ।
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं। चौपाई किल्विपी जन्तुमरणे न वयं हि प्रयेोजकाः ॥७०॥
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥ कर्म प्रधान विश्व करि राखा । अकरोद्यदयं कर्म तन्नोऽर्जुनक चोदकम् ।
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं। जो जस करें सा तस फल चाखा ॥ विनाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेऽय स्वकर्मणा ॥१७॥
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥ मेटि जाय नहिं राम-रजाई । महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय १ काल
भावार्थ:-हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, कठिन कर्म गति कछु न वसाई ॥ ने कहा कि इस बालक के मरने का दोषी न
यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जनम मरन सव दुख सुख भोगा । मैं हूँ, न मृत्यु और न लोभी सर्प है और न
जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा ।। हममें से कोई प्रेरक है। अर्जुन ! जैसा कर्म
पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन काल कर्म वस होहिं गुसाईं । इसने किया था उसी कर्म ने इस सर्प को प्रेरणा
सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति- वरवस राति-दिवस की नाई। करके कटवाया।
भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने शुभ अरु अशुभ कर्म अनुहारी । शेष अगले अंक में...
लगीं। ईश देइ फल हृदय विचारी ॥ ^द्वारा महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा,
करै जो कर्म पाव फल साई। वाईस चांसलर, इलाबाद यूनिवर्सिटी
{ शेष अगले अंक में...
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वर्ष-3 अंक-24 गुरुवार, 23 मई 2024 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 7
हरिवंश पुरण में शुकदेव इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के
जी की संतान के सम्बंध तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत
में जो वर्णन किया गया है वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था।
उसके अनुसार-
श्री शुकदेव जी
महाबलान।।52।। पुत्र-पुत्री 〰️श्लोक-
कृष्णं गौरं प्रभुं शम्भुं कृत्वीं काल्यां पराशराज्जज्ञे
कन्यां तथैव च। कृष्णद्वैपायन: प्रभु:।
ब्रह्मदत्तस्य जननीं महिर्षी द्वैपायनादरण्यां वै
त्वणुहस्य च।।53।। शुको जज्ञे गुणान्वित।।
अर्थ: - वे ही शुकदेव भूरिश्रवा प्रभु: शम्भु:
पितरों की कन्या पीवरी कृष्णौ गौरश्च पण्चम:।
में कृष्ण, गौर, प्रभु और कन्या कीर्तिमती चैव
शम्भु इन चार महाबली योगमाता धृतव्रता।।
योगाचार्य पुत्रों तथा जननी ब्रह्मदत्तस्य पत्नी
ब्रह्मदत्त की जननी और सात्वणुहस्य च।
अणुह की पत्नी कृत्वी श्वेता कृष्णाश्च गौराश्च
नामवाली कन्य को उत्पन्न श्यामा धूम्रास्तथारुणा।।
करेंगे।” नीलो वादरिकश्चैव
पुराणें में यह आख्यान सर्वे चैते पराशरा:।
भी आता है - वृहस्पति पाराशराणामष्टौ ते पक्षा:
जी ने ब्रह्मा जी के पास प्रोक्ता महात्मनाम्।।
जा शुकदेव जी का ब्रह्माण्डपुराण पाद 3
किसी योग्य कन्या से अध्याय 9 अनुसार
विवाह करने की प्रार्थना पाराशर मुनि से काली
की। उन्होंने वर्हिषद की (सत्यवती) में कृष्ण-
कन्या पीवरी को, इनके शुकदेवजी ने ब्राह्म विधि से विवाह शुकदेव जी के महान तपस्वी पांच द्वैपायन उत्पन्न हुए।
योग्य मान इसके साथ किया। इस पीवरी को योग-माता और पुत्र थे। जिनके नाम भरिश्रवा, प्रभु, कृष्णद्वैपायन से आरणी में
विवाह करने की आज्ञा धृतवृता (पतिव्रत धर्म का पालन करने शम्भु, कृष्ण और गौर थे और एक सर्वगुण सम्पन्न शुकदेव
दी। वर्हिषद “स्वर्ण” में वाली) शब्दों से भी पुकारा जाता है। कन्या जिसका नाम कीर्तिमती था जो उत्पन्न हुए। शुकदेव से
वभ्राज नाम के सुंदर लोक विवाह के समय शुकदेव जी की आयु योगिनी और पतिव्रत धर्म का पालन पीवरी से भूरिश्रवा, प्रभु,
में रहने वाले पितरों के 25 वर्ष की थी। शुकदेव जी गृहस्थ करने वाली थी। शम्भु, कृष्ण, गौर और
मुखिया थे, जिनकी पूजा आश्रम में रहकर तपस्या और योग मार्ग सौर पुराण के अनुसार कीर्तिमती कन्या जो अणुह
सभी देवगण, राक्षस, का अनुसरण करने लगे। 〰️भूरिश्रवा: प्रभु: शम्भु: ऋषि को ब्याही थी; जिसके
यक्ष, गन्धर्व, नाग, सुपर्ण राजा परीक्षित को अपने श्रीमद्भागवत कृष्णो गौरश्च पण्चम:। ब्रह्मदत्त उत्पन्न हुआ (जो
और सर्प भी करते हैं।” की कथा सुनाई व उसका उद्धार किया। कन्या कीर्तिमती योग शास्त्र का प्रधान
वर्हिषद को ऋषि पुलस्त्य वेदों के प्रचार के साथ-साथ शुकदेव नाम वंशायैते प्रकीर्तिता:।। आचार्य था) और श्वेत,
के आशीर्वाद से एक पुत्री जी युगद्रष्टा भी थे। वे गृहस्थ धर्म का (सौर पुराण) कृष्ण, गौरश्याम, धूम्र,
प्राप्त हुई थी। जिसका पालन करते हुए पत्नी, पुत्रों के भी भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण और गौर अरुण, नील बादरि ये पुत्र
नाम पीवरी रखा गया। सम्यक रूप से पालक थे। नाम के पांच पुत्र थे। तथा कीर्तिमती और उत्पन्न हुए।
इस कन्या ने ब्रह्माजी कूर्म पुराण के अनुसार शुकदेव जी नामक एक कन्या थी। ये सब ही अपने
की तपस्या की थी और 〰️शुकस्याsस्याभवन् पुत्रा: वंश की कीर्ति बढ़ाने वाले थे। कन्या
ब्रह्माजी से उसने वेदों के पञ्चात्यन्ततपस्विन:। कीर्तिमती भारद्वाज वंश काम्पिल्य नगर
ज्ञाता, ज्ञानी, योगी और भूरिश्रवा: प्रभु: शम्भु: के नृप अणुह जी को ब्याही गई थी।
अपने योग्य वर पाने का कृष्णो गौरश्च पण्चम:। महान योगी और सब जीवों को बोली
वरदान पाया था। ब्रह्माजी कन्या कीर्तिमतती चैव समझने वाले ब्रह्मदत्त जी का जन्म इसी
श्रीमती मनोरमा
की आज्ञा से इसी पीवरी योगमाता धृतवृता।। कीर्तिमती के उदर से हुआ था। रामकृष्ण जोशी
नामक कन्या के साथ (कूर्म पुराण) ब्रह्माण्ड पुराण अनुसार शुकदेव जी
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वर्ष-3 अंक-24 गुरुवार, 23 मई 2024 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 8
कार्यक्रम के अंत में महाप्रसादी भंडारे का आयोजन किया गया जिसमें समस्त धर्म आलू एवं शहर के नागरिकों ने प्रसादीग्रहण की
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