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■■■■■■■ ■■■■■ Ayodhya kand 2

Shrimad Valmiki Ramayana Gita press


Valmiki
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■■■■■ ■■■■■ Yudh kand 6 Shrimad Valmiki Ramayana Gita


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Ramayana (Gita press ) Valmiki

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■■■■■ ■■■■■ Uttar kand 7 Shrimad Valmiki Ramayana Gita


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Shrimad Valmiki Ramayana Hindi Edition Valmiki

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Shrimad Valmiki Ramayana Hindi Edition Maharishi


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Be Her Defender Lizuka Myori

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Valmiki Ramayan Aacharya Vishwa Prakash Dixit

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I ll Be Your Wife Jho Hyo-Eun

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॥ ीसीतारामच ा ां नम:॥
ीम ा ीक य रामायण

अयो ाका
पहला सग
ीरामके स णु का वणन, राजा दशरथका ीरामको युवराज बनानेका वचार तथा
व भ नरेश और नगर एवं जनपदके लोग को म णाके लये अपने दरबारम बुलाना
(पहले यह बताया जा चुका है क) भरत अपने मामाके यहाँ जाते समय काम आ द
श ु को सदाके लये न कर देनेवाले न ाप श ु को भी ेमवश अपने साथ लेते गये थे॥
१॥
वहाँ भा◌इस हत उनका बड़ा आदर-स ार आ और वे वहाँ सुखपूवक रहने लगे। उनके
मामा युधा जत्, जो अ यूथके अ धप त थे, उन दोन पर पु से भी अ धक ेह रखते और बड़ा
लाड़- ार करते थे॥ २ ॥
य प मामाके यहाँ उन दोन वीर भाइय क सभी इ ाएँ पूण करके उ पूणत: तृ
कया जाता था, तथा प वहाँ रहते ए भी उ अपने वृ पता महाराज दशरथक याद कभी
नह भूलती थी॥ ३ ॥
महातेज ी राजा दशरथ भी परदेशम गये ए महे और व णके समान परा मी अपने
उन दोन पु भरत और श ु का सदा रण कया करते थे॥ ४ ॥
अपने शरीरसे कट ◌इ चार भुजा के समान वे सब चार ही पु ष शरोम ण पु
महाराजको ब त ही य थे॥ ५ ॥
परंतु उनम भी महातेज ी ीराम सबक अपे ा अ धक गुणवान् होनेके कारण सम
ा णय के लये ाजीक भाँ त पताके लये वशेष ी तवधक थे॥ ६ ॥
इसका एक कारण और भी था—वे सा ात् सनातन व ु थे और परम च रावणके
वधक अ भलाषा रखनेवाले देवता क ाथनापर मनु लोकम अवतीण ए थे॥ ७ ॥
उन अ मत तेज ी पु ीरामच जीसे महारानी कौस ाक वैसी ही शोभा होती थी,
जैसे व धारी देवराज इ से देवमाता अ द त सुशो भत होती ह॥ ८ ॥
ीराम बड़े ही पवान् और परा मी थे। वे कसीके दोष नह देखते थे। भूम लम
उनक समता करनेवाला को◌इ नह था। वे अपने गुण से पता दशरथके समान एवं यो पु
थे॥ ९ ॥
वे सदा शा च रहते और सा नापूवक मीठे वचन बोलते थे; य द उनसे को◌इ
कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उ र नह देते थे॥ १० ॥
कभी को◌इ एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकारसे सदा संतु
रहते थे और मनको वशम रखनेके कारण कसीके सैकड़ अपराध करनेपर भी उसके अपराध को
याद नह रखते थे॥ ११ ॥
अ -श के अ ासके लये उपयु समयम भी बीच-बीचम अवसर नकालकर वे
उ म च र म, ानम तथा अव ाम बढ़े-चढ़े स ु ष के साथ ही सदा बातचीत करते (और
उनसे श ा लेते थे)॥ १२ ॥
वे बड़े बु मान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये ए मनु से पहले
यं ही बात करते और ऐसी बात मुँहसे नकालते जो उ य लग; बल और परा मसे
स होनेपर भी अपने महान् परा मके कारण उ कभी गव नह होता था॥ १३ ॥
झूठी बात तो उनके मुखसे कभी नकलती ही नह थी। वे व ान् थे और सदा वृ
पु ष का स ान कया करते थे। जाका ीरामके त और ीरामका जाके त बड़ा
अनुराग था॥ १४ ॥
वे परम दयालु ोधको जीतनेवाले और ा ण के पुजारी थे। उनके मनम दीन-
दु: खय के त बड़ी दया थी। वे धमके रह को जाननेवाले, इ य को सदा वशम रखनेवाले
और बाहर-भीतरसे परम प व थे॥
अपने कु लो चत आचार, दया, उदारता और शरणागतर ा आ दम ही उनका मन लगता
था। वे अपने यधमको अ धक मह देते और मानते थे। वे उस यधमके पालनसे
महान् ग (परम धाम) क ा मानते थे; अत: बड़ी स ताके साथ उसम संल रहते थे॥
१६ ॥
अम लकारी न ष कमम उनक कभी वृ नह होती थी; शा व बात को
सुननेम उनक च नह थी; वे अपने ाययु प के समथनम बृह तके समान एक-से-एक
बढ़कर यु याँ देते थे॥ १७ ॥
उनका शरीर नीरोग था और अव ा त ण। वे अ े व ा, सु र शरीरसे सुशो भत तथा
देश-कालके त को समझनेवाले थे। उ देखकर ऐसा जान पड़ता था क वधाताने संसारम
सम पु ष के सारत को समझनेवाले साधु पु षके पम एकमा ीरामको ही कट कया
है॥ १८ ॥
राजकु मार ीराम े गुण से यु थे। वे अपने स ण ु के कारण जाजन को बाहर
वचरनेवाले ाणक भाँ त य थे॥ १९ ॥
भरतके बड़े भा◌इ ीराम स ूण व ा के तम न ात और छह अ स हत स ूण
वेद के यथाथ ाता थे। बाण व ाम तो वे अपने पतासे भी बढ़कर थे॥ २० ॥
वे क ाणक ज भू म, साधु, दै र हत, स वादी और सरल थे; धम और अथके ाता
वृ ा ण के ारा उ उ म श ा ा ◌इ थी॥ २१ ॥
उ धम, काम और अथके त का स क् ान था। वे रणश से स और
तभाशाली थे। वे लोक वहारके स ादनम समथ और समयो चत धमाचरणम कु शल थे॥
२२ ॥
वे वनयशील, अपने आकार (अ भ ाय)-को छपानेवाले, म को गु रखनेवाले और
उ म सहायक से स थे। उनका ोध अथवा हष न ल नह होता था। वे व ु के ाग
और सं हके अवसरको भलीभाँ त जानते थे॥ २३ ॥
गु जन के त उनक ढ़ भ थी। वे त थे और अस ु को कभी हण नह
करते थे। उनके मुखसे कभी दुवचन नह नकलता था। वे आल र हत, मादशू तथा अपने
और पराये मनु के दोष को अ ी कार जाननेवाले थे॥ २४ ॥
वे शा के ाता, उपका रय के त कृ त तथा पु ष के तारत को अथवा दूसरे
पु ष के मनोभावको जाननेम कु शल थे। यथायो न ह और अनु ह करनेम वे पूण चतुर थे॥
२५ ॥
उ स ु ष के सं ह और पालन तथा दु पु ष के न हके अवसर का ठीक-ठीक ान
था। धनक आयके उपाय को वे अ ी तरह जानते थे (अथात् फू ल को न न करके उनसे रस
लेनेवाले मर क भाँ त वे जा को क दये बना ही उनसे ायो चत धनका उपाजन
करनेम कु शल थे) तथा शा व णत य कमका भी उ ठीक-ठीक ान था१॥ २६ ॥
उ ने सब कारके अ समूह तथा सं ृ त, ाकृ त आ द भाषा से म त नाटक
आ दके ानम नपुणता ा क थी। वे अथ और धमका सं ह (पालन) करते ए तदनुकूल
कामका सेवन करते थे और कभी आल को पास नह फटकने देते थे॥ २७ ॥
वहार ( डा या मनोर न)-के उपयोगम आनेवाले संगीत, वा और च कारी आ द
श के भी वे वशेष थे। अथ के वभाजनका भी उ स क् ान था।२ वे हा थय और
घोड़ पर चढ़ने और उ भाँ तभाँ तक चाल क श ा देनेम भी नपुण थे॥ २८ ॥
ीरामच जी इस लोकम धनुवदके सभी व ान म े थे। अ तरथी वीर भी उनका
वशेष स ान करते थे। श ुसेनापर आ मण और हार करनेम वे वशेष कु शल थे। सेना-
संचालनक नी तम उ ने अ धक नपुणता ा क थी॥ २९ ॥
सं ामम कु पत होकर आये ए सम देवता और असुर भी उनको परा नह कर सकते
थे। उनम दोष का सवथा अभाव था। वे ोधको जीत चुके थे। दप और ◌इ ाका उनम
अ अभाव था॥ ३० ॥
कसी भी ाणीके मनम उनके त अवहेलनाका भाव नह था। वे कालके वशम होकर
उसके पीछे -पीछे चलनेवाले नह थे (काल ही उनके पीछे चलता था)। इस कार उ म गुण से
यु होनेके कारण राजकु मार ीराम सम जा तथा तीन लोक के ा णय के लये
आदरणीय थे। वे अपने मास ी गुण के ारा पृ ीक समानता करते थे। बु म बृह त
और बल-परा मम शचीप त इ के तु थे॥ ३१-३२ ॥
जैसे सूयदेव अपनी करण से का शत होते ह। उसी कार ीरामच जी सम
जा को य लगनेवाले तथा पताक ी त बढ़ानेवाले स ण ु से सुशो भत होते थे॥ ३३ ॥
ऐसे सदाचारस , अजेय परा मी और लोकपाल के समान तेज ी ीरामच जीको
पृ ी (भूदेवी और भूम लक जा)-ने अपना ामी बनानेक कामना क ॥ ३४ ॥
अपने पु ीरामको अनेक अनुपम गुण से यु देखकर श ु को संताप देनेवाले राजा
दशरथने मन-ही-मन कु छ वचार करना आर कया॥ ३५ ॥
उन चर ीवी बूढ़े महाराज दशरथके दयम यह च ा ◌इ क कस कार मेरे जीते-जी
ीरामच राजा हो जायँ और उनके रा ा भषेकसे ा होनेवाली यह स ता मुझे कै से
सुलभ हो॥ ३६ ॥
उनके दयम यह उ म अ भलाषा बार ार च र लगाने लगी क कब म अपने य पु
ीरामका रा ा भषेक देखूँगा॥ ३७ ॥
वे सोचने लगे क ‘ ीराम सब लोग के अ ुदयक कामना करते और स ूण जीव पर
दया रखते ह। वे लोकम वषा करनेवाले मेघक भाँ त मुझसे भी बढ़कर य हो गये ह॥ ३८ ॥
‘ ीराम बल-परा मम यम और इ के समान, बु म बृह तके समान और धैयम
पवतके समान ह। गुण म तो वे मुझसे सवथा बढ़े-चढ़े ह॥ ३९ ॥
‘म इसी उ म अपने बेटे ीरामको इस सारी पृ ीका रा करते देख यथासमय सुखसे
ग ा क ँ , यही मेरे जीवनक साध है’॥ ४० ॥
इस कार वचारकर तथा अपने पु ीरामको उन-उन नाना कारके वल ण,
स नो चत, असं तथा लोको र गुण से, जो अ राजा म दुलभ ह, वभू षत देख राजा
दशरथने म य के साथ सलाह करके उ युवराज बनानेका न य कर लया॥ ४१-४२ ॥
बु मान् महाराज दशरथने म ीको ग, अ र तथा भूतलम गोचर होनेवाले
उ ात का घोर भय सू चत कया और अपने शरीरम वृ ाव ाके आगमनक भी बात बतायी॥
४३ ॥
पूण च माके समान मनोहर मुखवाले महा ा ीराम सम जाके य थे। लोकम
उनका सव य होना राजाके अपने आ रक शोकको दूर करनेवाला था, इस बातको राजाने
अ ी तरह समझा॥ ४४ ॥
तदन र उपयु समय आनेपर धमा ा राजा दशरथने अपने और जाके क ाणके
लये म य को ीरामके रा ा भषेकके लये शी तैयारी करनेक आ ा दी। इस उतावलीम
उनके दयका ेम और जाका अनुराग भी कारण था॥ ४५ ॥
उन भूपालने भ - भ नगर म नवास करनेवाले धान- धान पु ष तथा अ
जनपद के साम राजा को भी म य ारा अयो ाम बुलवा लया॥ ४६ ॥
उन सबको ठहरनेके लये घर देकर नाना कारके आभूषण ारा उनका यथायो स ार
कया। त ात् यं भी अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे उसी कार मले, जैसे
जाप त ा जावगसे मलते ह॥ ४७ ॥
ज ीबाजीके कारण राजा दशरथने के कयनरेशको तथा म थलाप त जनकको भी नह
बुलवाया।* उ ने सोचा वे दोन स ी इस य समाचारको पीछे सुन लगे॥ ४८ ॥
तदन र श ुनगरीको पी ड़त करनेवाले राजा दशरथ जब दरबारम आ बैठे, तब
(के कयराज और जनकको छोड़कर) शेष सभी लोक य नरेश ने राजसभाम वेश कया॥ ४९

वे सभी नरेश राजा ारा दये गये नाना कारके सहासन पर उ क ओर मुँह करके
वनीतभावसे बैठे थे॥ ५० ॥
राजासे स ा नत होकर वनीतभावसे उ के आस-पास बैठे ए साम नरेश तथा नगर
और जनपदके नवासी मनु से घरे ए महाराज दशरथ उस समय देवता के बीचम
वराजमान सह ने धारी भगवान् इ के समान शोभा पा रहे थे॥ ५१ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पहला सग पूरा
आ॥ १॥
१. शा म यका वधान इस कार देखा जाता है—
क दाय :
चाधन चतुभागेन वा पुन । पादभागै भवा प य : संशु ाते तव॥ (महा० सभा० ५। ७१)
नारदजी कहते ह—यु ध र! ा तु ारी आयके एक चौथा◌इ या आधे अथवा तीन चौथा◌इ भागसे तु ारा
सारा खच चल जाता है?
२. नीचे लखी पाँच व ु के लये अथका वभाजन करनेवाला मनु इहलोक और परलोकम भी सुखी होता है। वे
व ुएँ ह—धम, यश, अथ, आ ा और जन। यथा—

धमाय यशसेऽथाय कामाय जनाय च। प धा वभजन् व महामु च मोदते॥

( ीम ा० ८। १९। ३७ ) १६१
* के कयनरेशके
साथ भरत-श ु भी आ जाते। इन सबके तथा राजा जनकके रहनेसे ीरामका रा ा भषेक स हो
जाता और वे वनम नह जाने पाते—इसी डरसे देवता ने राजा दशरथको इन सबको नह बुलानेक बु दे दी।
दस
ू रा सग

राजा दशरथ ारा ीरामके रा ा भषेकका ाव तथा सभासद ारा ीरामके गुण का
वणन करते ए उ ावका सहष यु यु समथन

उस समय राजसभाम बैठे ए सब लोग को स ो धत करके महाराज दशरथने मेघके


समान श करते ए दु ु भक नके स श अ ग ीर एवं गूँजते ए उ रसे सबके
आन को बढ़ानेवाली यह हतकारक बात कही॥ १-२ ॥
राजा दशरथका र राजो चत ता और ग ीरता आ द गुण से यु था, अ
कमनीय और अनुपम था। वे उस अ तु रसमय रसे सम नरेश को स ो धत करके बोले
—॥ ३ ॥
‘स नो! आपलोग को यह तो व दत ही है क मेरे पूवज राजा धराज ने इस े
रा का (यहाँक जाका) कस कार पु क भाँ त पालन कया था॥
‘सम इ ाकु वंशी नरेश ने जसका तपालन कया है, उस सुख भोगनेके यो
स ूण जग ो अब म भी क ाणका भागी बनाना चाहता ँ ॥ ५ ॥
‘मेरे पूवज जस मागपर चलते आये ह, उसीका अनुसरण करते ए मने भी सदा जाग क
रहकर सम जाजन क यथाश र ा क है॥ ६ ॥
‘सम संसारका हत-साधन करते ए मने इस शरीरको ेत राजछ क छायाम बूढ़ा
कया है॥ ७ ॥
‘अनेक सह (साठ हजार) वष क आयु पाकर जी वत रहते ए अपने इस जराजीण
शरीरको अब म व ाम देना चाहता ँ ॥ ८ ॥
‘जग े धमपूवक संर णका भारी भार राजा के शौय आ द भाव से ही उठाना स व
है। अ जते य पु ष के लये इस बोझको ढोना अ क ठन है। म दीघकालसे इस भारी
भारको वहन करते-करते थक गया ँ ॥ ९ ॥
‘इस लये यहाँ पास बैठे ए इन स ूण े ज क अनुम त लेकर जाजन के हतके
कायम अपने पु ीरामको नयु करके अब म राजकायसे व ाम लेना चाहता ँ ॥ १० ॥
‘मेरे पु ीराम मेरी अपे ा सभी गुण म े ह। श ु क नगरीपर वजय पानेवाले
ीरामच बल-परा मम देवराज इ के समान ह॥ ११ ॥
‘पु -न से यु च माक भाँ त सम काय के साधनम कु शल तथा धमा ा म
े उन पु ष शरोम ण ीरामच को म कल ात:काल पु न म युवराजके पदपर नयु
क ँ गा॥ १२ ॥
‘ल णके बड़े भा◌इ ीमान् राम आपलोग के लये यो ामी स ह गे; उनके -जैसे
ामीसे स ूण लोक भी परम सनाथ हो सकती है॥ १३ ॥
‘ये ीराम क ाण प ह; इनका शी ही अ भषेक करके म इस भूम लको त ाल
क ाणका भागी बनाऊँ गा। अपने पु ीरामपर रा का भार रखकर म सवथा ेशर हत—
न हो जाऊँ गा॥ १४ ॥
‘य द मेरा यह ाव आपलोग को अनुकूल जान पड़े और य द मने यह अ ी बात
सोची हो तो आपलोग इसके लये मुझे सहष अनुम त द अथवा यह बताव क म कस कारसे
काय क ँ ॥ १५ ॥
‘य प यह ीरामके रा ा भषेकका वचार मेरे लये अ धक स ताका वषय है
तथा प य द इसके अ त र भी को◌इ सबके लये हतकर बात हो तो आपलोग उसे सोच;
कम पु ष का वचार एकप ीय पु षक अपे ा वल ण होता है, कारण क वह
पूवप और अपरप को ल करके कया गया होनेके कारण अ धक अ ुदय करनेवाला
होता है’॥ १६ ॥
राजा दशरथ जब ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उप त नरेश ने अ स
होकर उन महाराजका उसी कार अ भन न कया, जैसे मोर मधुर के कारव फै लाते ए वषा
करनेवाले महामेघका अ भन न करते ह॥ १७ ॥
त ात् सम जनसमुदायक ेहमयी हष न सुनायी पड़ी। वह इतनी बल थी क
सम पृ ीको कँ पाती ◌इ-सी जान पड़ी॥ १८ ॥
धम और अथके ाता महाराज दशरथके अ भ ायको पूण पसे जानकर स ूण ा ण
और सेनाप त नगर और जनपदके धान- धान य के साथ मलकर पर र सलाह
करनेके लये बैठे और मनसे सब कु छ समझकर जब वे एक न यपर प ँ च गये, तब बूढ़े राजा
दशरथसे इस कार बोले—॥ १९-२० ॥
‘पृ ीनाथ! आपक अव ा क◌इ हजार वष क हो गयी। आप बूढ़े हो गये। अत:
पृ ीके पालनम समथ अपने पु ीरामका अव ही युवराजके पदपर अ भषेक क जये॥ २१

‘रघुकुलके वीर महाबलवान् महाबा ीराम महान् गजराजपर बैठकर या ा करते ह और
उनके ऊपर ेत छ तना आ हो—इस पम हम उनक झाँक करना चाहते ह’॥ २२ ॥
उनक यह बात राजा दशरथके मनको य लगनेवाली थी; इसे सुनकर राजा दशरथ
अनजान-से बनकर उन सबके मनोभावको जाननेक इ ासे इस कार बोले—॥ २३ ॥
‘राजागण! मेरी यह बात सुनकर जो आपलोग ने ीरामको राजा बनानेक इ ा कट
क है, इसम मुझे यह संशय हो रहा है जसे आपके सम उप त करता ँ । आप इसे सुनकर
इसका यथाथ उ र द॥ २४ ॥
‘म धमपूवक इस पृ ीका नर र पालन कर रहा ँ , फर मेरे रहते ए आपलोग
महाबली ीरामको युवराजके पम देखना चाहते ह?’॥ २५ ॥
यह सुनकर वे महा ा नरेश नगर और जनपदके लोग के साथ राजा दशरथसे इस कार
बोले— ‘महाराज! आपके पु ीरामम ब त-से क ाणकारी स ण ु ह॥ २६ ॥
‘देव! देवता के तु बु मान् और गुणवान् ीरामच जीके सारे गुण सबको य
लगनेवाले और आन दायक ह, हम इस समय उनका य त्कं चत् वणन कर रहे ह, आप उ
सु नये॥ २७ ॥
‘ जानाथ! स परा मी ीराम देवराज इ के समान द गुण से स ह।
इ ाकु कु लम भी ये सबसे े ह॥ २८ ॥
‘ ीराम संसारम स वादी, स परायण और स ु ष ह। सा ात् ीरामने ही अथके
साथ धमको भी त त कया है॥ २९ ॥
‘ये जाको सुख देनेम च माक और मा पी गुणम पृ ीक समानता करते ह। बु म
बृह त और बल-परा मम सा ात् शचीप त इ के समान ह॥ ३० ॥
‘ ीराम धम , स त , शीलवान्, अदोषदश , शा , दीन-दु: खय को सा ना
दान करनेवाले, मृदभु ाषी, कृ त , जते य, कोमल भाववाले, रबु , सदा
क ाणकारी, असूयार हत, सम ा णय के त य वचन बोलनेवाले और स वादी ह॥
३१-३२ ॥
‘वे ब ुत व ान , बड़े-बूढ़ तथा ा ण के उपासक ह—सदा ही उनका संग कया
करते ह, इस लये इस जग ीरामक अनुपम क त, यश और तेजका व ार हो रहा है॥ ३३

‘देवता, असुर और मनु के स ूण अ का उ वशेष पसे ान है। वे सा वेदके
यथाथ व ान् और स ूण व ा म भलीभाँ त न ात ह॥ ३४ ॥
‘भरतके बड़े भा◌इ ीराम गा ववेद (संगीतशा )म भी इस भूतलपर सबसे े ह।
क ाणक तो वे ज भू म ह। उनका भाव साधु पु ष के समान है, दय उदार और बु
वशाल है॥ ३५ ॥
‘धम और अथके तपादनम कु शल े ा ण ने उ उ म श ा दी है। वे ाम
अथवा नगरक र ाके लये ल णके साथ जब सं ामभू मम जाते ह, उस समय वहाँ जाकर
वजय ा कये बना पीछे नह लौटते॥ ३६ १/२ ॥
‘सं ामभू मसे हाथी अथवा रथके ारा पुन: अयो ा लौटनेपर वे पुरवा सय से जन क
भाँ त त दन उनके पु , अ हो क अ य , य , सेवक और श का कु शल-
समाचार पूछते रहते ह॥
‘जैसे पता अपने औरस पु का कु शल-म ल पूछता है, उसी कार वे सम
पुरवा सय से मश: उनका सारा समाचार पूछा करते ह। पु ष सह ीराम ा ण से सदा
पूछते रहते ह क ‘आपके श आपलोग क सेवा करते ह न?’ य से यह ज ासा करते ह
क ‘आपके सेवक कवच आ दसे सुस त हो आपक सेवाम त र रहते ह न?’॥ ३९ १/२ ॥
‘नगरके मनु पर संकट आनेपर वे ब त दु:खी हो जाते ह और उन सबके घर म सब
कारके उ व होनेपर उ पताक भाँ त स ता होती है॥ ४० १/२ ॥
‘वे स वादी, महान् धनुधर, वृ पु ष के सेवक और जते य ह। ीराम पहले
मुसकराकर वातालाप आर करते ह। उ ने स ूण दयसे धमका आ य ले रखा है। वे
क ाणका स क् आयोजन करनेवाले ह, न नीय बात क चचाम उनक कभी च नह
होती है॥ ४१-४२ ॥
‘उ रो र उ म यु देते ए वातालाप करनेम वे सा ात् बृह तके समान ह। उनक
भ ह सु र ह, आँ ख वशाल और कु छ ला लमा लये ए ह। वे सा ात् व ुक भाँ त शोभा
पाते ह॥ ४३ ॥
‘स ूण लोक को आन त करनेवाले ये ीराम शूरता, वीरता और परा म आ दके ारा
सदा जाका पालन करनेम लगे रहते ह। उनक इ याँ राग आ द दोष से दू षत नह होती ह॥
४४ ॥
‘इस पृ ीक तो बात ही ा है, वे स ूण लोक क भी र ा कर सकते ह। उनका
ोध और साद कभी थ नह होता है॥ ४५ ॥
‘जो शा के अनुसार ाणद पानेके अ धकारी ह, उनका ये नयमपूवक वध कर डालते
ह तथा जो शा से अव ह, उनपर ये कदा प कु पत नह होते ह। जसपर ये संतु होते
ह, उसे हषम भरकर धनसे प रपूण कर देते ह॥ ४६ ॥
‘सम जा के लये कमनीय तथा मनु का आन बढ़ानेवाले मन और इ य के
संयम आ द स ण ु ारा ीराम वैसे ही शोभा पाते ह, जैसे तेज ी सूय अपनी करण से
सुशो भत होते ह॥ ४७ ॥
‘ऐसे सवगुणस , लोकपाल के समान भावशाली एवं स परा मी ीरामको इस
पृ ीक जनता अपना ामी बनाना चाहती है॥ ४८ ॥
‘हमारे सौभा से आपके वे पु ीरघुनाथजी जाका क ाण करनेम समथ हो गये ह
तथा आपके सौभा से वे मरी चन न क पक भाँ त पु ो चत गुण से स ह॥ ४९ ॥
‘देवता , असुर , मनु , ग व और नाग मसे ेक वगके लोग तथा इस रा और
राजधानीम भी बाहर-भीतर आने-जानेवाले नगर और जनपदके सभी लोग सु व ात
शील भाववाले ीरामच जीके लये सदा ही बल, आरो और आयुक शुभ कामना करते
ह॥ ५०-५१ ॥
‘इस नगरक बूढ़ी और युवती—सब तरहक याँ सबेरे और सायंकालम एका च
होकर परम उदार ीरामच जीके युवराज होनेके लये देवता से नम ारपूवक ाथना कया
करती ह। देव! उनक वह ाथना आपके कृ पा- सादसे अब पूण होनी चा हये॥ ५२ ॥
‘नृप े ! जो नीलकमलके समान ामका से सुशो भत तथा सम श ु का संहार
करनेम समथ ह, आपके उन े पु ीरामको हम युवराज-पदपर वराजमान देखना चाहते
ह॥ ५३ ॥
‘अत: वरदायक महाराज! आप देवा धदेव ी व ुके समान परा मी, स ूण लोक के
हतम संल रहनेवाले और महापु ष ारा से वत अपने पु ीरामच जीका जतना शी हो
सके स तापूवक रा ा भषेक क जये, इसीम हमलोग का हत है’॥ ५४ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म दूसरा सग पूरा
आ॥ २॥
तीसरा सग

राजा दशरथका व स और वामदेवजीको ीरामके रा ा भषेकक तैयारी करनेके लये


कहना और उनका सेवक को तदनु प आदेश देना; राजाक आ ासे सुम का ीरामको
राजसभाम बुला लाना और राजाका अपने पु ीरामको हतकर राजनी तक बात बताना
सभासद ने कमलपु क -सी आकृ तवाली अपनी अ लय को सरसे लगाकर सब
कारसे महाराजके ावका समथन कया; उनक वह प ा ल ीकार करके राजा दशरथ
उन सबसे य और हतकारी वचन बोले—॥ १ ॥
‘अहो! आपलोग जो मेरे परम य े पु ीरामको युवराजके पदपर त त देखना
चाहते ह इससे मुझे बड़ी स ता ◌इ है तथा मेरा भाव अनुपम हो गया है’॥ २ ॥
इस कारक बात से पुरवासी तथा अ ा सभासद का स ार करके राजाने उनके
सुनते ए ही वामदेव और व स आ द ा ण से इस कार कहा—॥ ३ ॥
‘यह चै मास बड़ा सु र और प व है, इसम सारे वन-उपवन खल उठे ह; अत: इस
समय ीरामका युवराजपदपर अ भषेक करनेके लये आपलोग सब साम ी एक कराइये’॥ ४

राजाक यह बात समा होनेपर सब लोग हषके कारण महान् कोलाहल करने लगे।
धीरे-धीरे उस जनरवके शा होनेपर जापालक नरेश दशरथने मु न वर व स से यह बात कही
—॥ ५ १/२ ॥
‘भगवन्! ीरामके अ भषेकके लये जो कम आव क हो, उसे सा ोपा बताइये और
आज ही उस सबक तैयारी करनेके लये सेवक को आ ा दी जये’॥ ६ १/२ ॥
महाराजका यह वचन सुनकर मु नवर व स ने राजाके सामने ही हाथ जोड़कर खड़े ए
आ ापालनके लये तैयार रहनेवाले सेवक से कहा—॥ ७ १/२ ॥
‘तुमलोग सुवण आ द र , देवपूजनक साम ी, सब कारक ओष धयाँ, ेत पु क
मालाएँ , खील, अलग-अलग पा म शहद और घी, नये व , रथ, सब कारके अ -श ,
चतुर णी सेना, उ म ल ण से यु हाथी, चमरी गायक पूँछके बाल से बने ए दो जन,
ज, ेत छ , अ के समान देदी मान सोनेके सौ कलश, सुवणसे मढ़े ए स ग वाला एक
साँड, समूचा ा चम तथा और जो कु छ भी वांछनीय व ुएँ ह, उन सबको एक करो और
ात:काल महाराजक अ शालाम प ँ चा दो॥ ८—१२ ॥
‘अ :पुर तथा सम नगरके सभी दरवाज को च न और माला से सजा दो तथा वहाँ
ऐसे धूप सुलगा दो जो अपनी सुग से लोग को आक षत कर ल॥ १३ ॥
‘दही, दूध और घी आ दसे संयु अ उ म एवं गुणकारी अ तैयार कराओ, जो
एक लाख ा ण के भोजनके लये पया हो॥ १४ ॥
‘कल ात:काल े ा ण का स ार करके उ वह अ दान करो; साथ ही घी,
दही, खील और पया द णाएँ भी दो॥ १५ ॥
‘कल सूय दय होते ही वाचन होगा, इसके लये ा ण को नम त करो और
उनके लये आसन का ब कर लो॥ १६ ॥
‘नगरम सब ओर पताकाएँ फहरायी जायँ तथा राजमाग पर छड़काव कराया जाय।
सम तालजीवी (संगीत नपुण) पु ष और सु र वेष-भूषासे वभू षत वारा नाएँ (नत कयाँ)
राजमहलक दूसरी क ा ( ौढ़ी) म प ँ चकर खड़ी रह॥ १७ १/२ ॥
‘देव-म र म तथा चै वृ के नीचे या चौराह पर जो पूजनीय देवता ह, उ पृथक् -
पृथक् भ -भो पदाथ एवं द णा ुत करनी चा हये॥ १८ १/२ ॥
‘लंबी तलवार लये और गोधाचमके बने द ाने पहने और कमर कसकर तैयार रहनेवाले
शूर-वीर यो ा व धारण कये महाराजके महान् अ ुदयशाली आँ गनम वेश कर’॥
१९ १/२ ॥
सेवक को इस कार काय करनेका आदेश देकर दोन ा ण व स और वामदेवने
पुरो हत ारा स ा दत होने यो या को यं पूण कया। राजाके बताये ए काय के
अ त र भी जो शेष आव क कत था उसे भी उन दोन ने राजासे पूछकर यं ही स
कया॥ २० १/२ ॥
तदन र महाराजके पास जाकर स ता और हषसे भरे ए वे दोन े ज बोले
—‘राजन्! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब काय स हो गया’॥ २१ १/२ ॥
इसके बाद तेज ी राजा दशरथने सुम से कहा— ‘सखे! प व ा ा ीरामको तुम शी
यहाँ बुला लाओ’॥ २२ १/२ ॥
तब ‘जो आ ा’ कहकर सुम गये तथा राजाके आदेशानुसार र थय म े ीरामको
रथपर बठाकर ले आये॥ २३ १/२ ॥
उस राजभवनम साथ बैठे ए पूव, उ र, प म और द णके भूपाल, े , आय तथा
वन और पवत म रहनेवाले अ ा मनु सब-के -सब उस समय राजा दशरथक उसी कार
उपासना कर रहे थे जैसे देवता देवराज इ क ॥ २४-२५ १/२ ॥
उनके बीच अ ा लकाके भीतर बैठे ए राजा दशरथ म ण के म देवराज इ क
भाँ त शोभा पा रहे थे; उ ने वह से अपने पु ीरामको अपने पास आते देखा, जो ग वराजके
समान तेज ी थे, उनका पौ ष सम संसारम व ात था॥ २६-२७ ॥
उनक भुजाएँ बड़ी और बल महान् था। वे मतवाले गजराजके समान बड़ी म ीके साथ
चल रहे थे। उनका मुख च मासे भी अ धक का मान् था। ीरामका दशन सबको अ
य लगता था। वे अपने प और उदारता आ द गुण से लोग क और मन आक षत कर
लेते थे। जैसे धूपम तपे ए ा णय को मेघ आन दान करता है, उसी कार वे सम
जाको परम आ ाद देते रहते थे॥ २८-२९ ॥
आते ए ीरामच क ओर एकटक देखते ए राजा दशरथको तृ नह होती थी।
सुम ने उस े रथसे ीरामच जीको उतारा और जब वे पताके समीप जाने लगे, तब सुम
भी उनके पीछे -पीछे हाथ जोड़े ए गये॥ ३० १/२ ॥
वह राजमहल कै लास शखरके समान उ ल और ऊँ चा था, रघुकुलको आन त
करनेवाले ीराम महाराजका दशन करनेके लये सुम के साथ सहसा उसपर चढ़ गये॥ ३१ १/२

ीराम दोन हाथ जोड़कर वनीतभावसे पताके पास गये और अपना नाम सुनाते ए
उ ने उनके दोन चरण म णाम कया॥ ३२ १/२ ॥
ीरामको पास आकर हाथ जोड़ णाम करते देख राजाने उनके दोन हाथ पकड़ लये
और अपने य पु को पास ख चकर छातीसे लगा लया॥ ३३ १/२ ॥
उस समय राजाने उन ीरामच जीको म णज टत सुवणसे भू षत एक परम सु र
सहासनपर बैठनेक आ ा दी, जो पहलेसे उ के लये वहाँ उप त कया गया था॥ ३४ १/२

जैसे नमल सूय उदयकालम मे पवतको अपनी करण से उ ा सत कर देते ह उसी कार
ीरघुनाथजी उस े आसनको हण करके अपनी ही भासे उसे का शत करने लगे॥ ३५
/२ ॥

उनसे का शत ◌इ वह सभा भी बड़ी शोभा पा रही थी। ठीक उसी तरह जैसे नमल ह
और न से भरा आ शरत्-कालका आकाश च मासे उ ा सत हो उठता है॥ ३६ १/२ ॥
जैसे सु र वेश-भूषासे अलंकृत ए अपने ही त ब को दपणम देखकर मनु को बड़ा
संतोष ा होता है, उसी कार अपने शोभाशाली य पु उन ीरामको देखकर राजा बड़े
स ए॥ ३७ १/२ ॥
जैसे क प देवराज इ को पुकारते ह, उसी कार पु वान म े राजा दशरथ
सहासनपर बैठे ए अपने पु ीरामको स ो धत करके उनसे इस कार बोले॥
‘बेटा! तु ारा ज मेरी बड़ी महारानी कौस ाके गभसे आ है। तुम अपनी माताके
अनु प ही उ ए हो। ीराम! तुम गुण म मुझसे भी बढ़कर हो, अत: मेरे परम य पु हो;
तुमने अपने गुण से इन सम जा को स कर लया है, इस लये कल पु न के योगम
युवराजका पद हण करो॥ ३९-४० १/२ ॥
‘बेटा! य प तुम भावसे ही गुणवान् हो और तु ारे वषयम यही सबका नणय है
तथा प म ेहवश स ण ु स होनेपर भी तु कु छ हतक बात बताता ँ । तुम और भी
अ धक वनयका आ य लेकर सदा जते य बने रहो॥ ४१-४२ ॥
‘काम और ोधसे उ होनेवाले दु सन का सवथा ाग कर दो, परो वृ से
(अथात् गु चर ारा यथाथ बात का पता लगाकर) तथा वृ से (अथात् दरबारम सामने
आकर कहनेवाली जनताके मुखसे उसके वृ ा को देख-सुनकर) ठीक-ठीक
ाय वचारम त र रहो॥ ४३ ॥
‘म ी, सेनाप त आ द सम अ धका रय तथा जाजन को सदा स रखना। जो
राजा को ागार (भ ारगृह) तथा श ागार आ दके ारा उपयोगी व ु का ब त बड़ा सं ह
करके म ी, सेनाप त और जा आ द सम कृ तय को य मानकर उ अपने त अनुर
एवं स रखते ए पृ ीका पालन करता है, उसके म उसी कार आन त होते ह, जैसे
अमृतको पाकर देवता स ए थे॥ ४४-४५ ॥
‘इस लये बेटा! तुम अपने च को वशम रखकर इस कारके उ म आचरण का पालन
करतेरहो।’ राजाक ये बात सुनकर ीरामच जीका य करनेवाले सु द ने तुरंत माता
कौस ाके पास जाकर उ यह शुभ समाचार नवेदन कया॥ ४६ १/२ ॥
ना रय म े कौस ाने वह य संवाद सुनानेवाले उन सु द को तरह-तरहके र ,
सुवण और गौएँ पुर ार पम द ॥ ४७ १/२ ॥
इसके बाद ीरामच जी राजाको णाम करके रथपर बैठे और जाजन से स ा नत
होते ए वे अपने शोभाशाली भवनम चले गये॥ ४८ ॥
नगर नवासी मनु ने राजाक बात सुनकर मन-ही-मन यह अनुभव कया क हम शी ही
अभी व ुक ा होगी, फर भी महाराजक आ ा लेकर अपने घर को गये और अ
हषसे भरकर अभी - स के उपल म देवता क पूजा करने लगे॥ ४९ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तीसरा सग पूरा
आ॥ ३॥
चौथा सग

ीरामको रा देनेका न य करके राजाका सुम ारा पुन: ीरामको बुलवाकर उ


आव क बात बताना, ीरामका कौस ाके भवनम जाकर माताको यह समाचार बताना
और मातासे आशीवाद पाकर ल णसे ेमपूवक वातालाप करके अपने महलम जाना
राजसभासे पुरवा सय के चले जानेपर काय स के यो देश-कालके नयमको
जाननेवाले भावशाली नरेशने पुन: म य के साथ सलाह करके यह न य कया क ‘कल
ही पु -न होगा, अत: कल ही मुझे अपने पु कमलनयन ीरामका युवराजके पदपर
अ भषेक कर देना चा हये’॥ १-२ ॥
तदन र अ :पुरम जाकर महाराज दशरथने सूतको बुलाया और आ ा दी—‘जाओ,
ीरामको एक बार फर यहाँ बुला लाओ’॥ ३ ॥
उनक आ ा शरोधाय करके सुम ीरामको शी बुला लानेके लये पुन: उनके
महलम गये॥ ४ ॥
ारपाल ने ीरामको सुम के पुन: आगमनक सूचना दी। उनका आगमन सुनते ही
ीरामके मनम संदेह हो गया॥ ५ ॥
उ भीतर बुलाकर ीरामने उनसे बड़ी उतावलीके साथ पूछा—‘आपको पुन: यहाँ
आनेक ा आव कता पड़ी?’ यह पूण पसे बताइये॥ ६ ॥
तब सूतने उनसे कहा—‘महाराज आपसे मलना चाहते ह। मेरी इस बातको सुनकर वहाँ
जाने या न जानेका नणय आप यं कर’॥ ७ ॥
सूतका यह वचन सुनकर ीरामच जी महाराज दशरथका पुन: दशन करनेके लये तुरंत
उनके महलक ओर चल दये॥ ८ ॥
ीरामको आया आ सुनकर राजा दशरथने उनसे य तथा उ म बात कहनेके लये उ
महलके भीतर बुला लया॥ ९ ॥
पताके भवनम वेश करते ही ीमान् रघुनाथजीने उ देखा और दूरसे ही हाथ जोड़कर वे
उनके चरण म पड़ गये॥ १० ॥
णाम करते ए ीरामको उठाकर महाराजने छातीसे लगा लया और उ बैठनेके लये
आसन देकर पुन: उनसे इस कार कहना आर कया—॥ ११ ॥
‘ ीराम! अब म बूढ़ा आ। मेरी आयु ब त अ धक हो गयी। मने ब त-से मनोवा त
भोग भोग लये, अ और ब त-सी द णा से यु सैकड़ य भी कर लये॥ १२ ॥
‘पु षो म! तुम मेरे परम य अभी संतानके पम ा ए जसक इस भूम लम
कह उपमा नह है, मने दान, य और ा ाय भी कर लये॥ १३ ॥
‘वीर! मने अभी सुख का भी अनुभव कर लया। म देवता, ऋ ष, पतर और ा ण के
तथा अपने ऋणसे भी उऋण हो गया॥ १४ ॥
‘अब तु युवराज-पदपर अ भ ष करनेके सवा और को◌इ कत मेरे लये शेष नह
रह गया है, अत: म तुमसे जो कु छ क ँ , मेरी उस आ ाका तु पालन करना चा हये॥ १५ ॥
‘बेटा! अब सारी जा तु अपना राजा बनाना चाहती है, अत: म तु युवराजपदपर
अ भ ष क ँ गा॥ १६ ॥
‘रघुकुलन न ीराम! आजकल मुझे बड़े बुरे सपने दखायी देते ह। दनम व पातके
साथ-साथ बड़ा भयंकर श करनेवाली उ ाएँ भी गर रही ह॥ १७ ॥
‘ ीराम! ो त षय का कहना है क मेरे ज -न को सूय, म ल और रा नामक
भयंकर ह ने आ ा कर लया है॥ १८ ॥
‘ऐसे अशुभ ल ण का ाक होनेपर ाय: राजा घोर आप म पड़ जाता है और
अ तोग ा उसक मृ ु भी हो जाती है॥ १९ ॥
‘अत: रघुन न! जबतक मेरे च म मोह नह छा जाता, तबतक ही तुम युवराज-पदपर
अपना अ भषेक करा लो; क ा णय क बु च ल होती है॥
‘आज च मा पु से एक न पहले पुनवसुपर वराजमान ह, अत: न य ही कल वे
पु न पर रहगे—ऐसा ो तषी कहते ह॥ २१ ॥
‘इस लये उस पु न म ही तुम अपना अ भषेक करा लो। श ु को संताप देनेवाले
वीर! मेरा मन इस कायम ब त शी ता करनेको कहता है। इस कारण कल अव ही म तु ारा
युवराजपदपर अ भषेक कर दूँगा॥ २२ ॥
‘अत: तुम इस समयसे लेकर सारी रात इ यसंयमपूवक रहते ए वधू सीताके साथ
उपवास करो और कु शक श ापर सोओ॥ २३ ॥
‘आज तु ारे सु द ् सावधान रहकर सब ओरसे तु ारी र ा कर; क इस कारके शुभ
काय म ब त-से व आनेक स ावना रहती है॥ २४ ॥
‘जबतक भरत इस नगरसे बाहर अपने मामाके यहाँ नवास करते ह, तबतक ही तु ारा
अ भषेक हो जाना मुझे उ चत तीत होता है॥ २५ ॥
‘इसम संदेह नह क तु ारे भा◌इ भरत स ु ष के आचार- वहारम त ह, अपने बड़े
भा◌इका अनुसरण करनेवाले, धमा ा, दयालु और जते य ह तथा प मनु का च ाय:
र नह रहता—ऐसा मेरा मत है। रघुन न! धमपरायण स ु ष का मन भी व भ कारण से
राग- ेषा दसे संयु हो जाता है’ ॥ २६-२७ ॥
राजाके इस कार कहने और कल होनेवाले रा ा भषेकके न म तपालनके लये
जानेक आ ा देनेपर ीरामच जी पताको णाम करके अपने महलम गये॥ २८ ॥
राजाने रा ा भषेकके लये तपालनके न म जो आ ा दी थी, उसे सीताको बतानेके
लये अपने महलके भीतर वेश करके जब ीरामने वहाँ सीताको नह देखा, तब वे त ाल ही
वहाँसे नकलकर माताके अ :पुरम चले गये॥ २९ ॥
वहाँ जाकर उ ने देखा माता कौस ा रेशमी व पहने मौन हो देवम रम बैठकर
देवताक आराधनाम लगी ह और पु के लये राजल ीक याचना कर रही ह॥ ३० ॥
ीरामके रा ा भषेकका य समाचार सुनकर सु म ा और ल ण वहाँ पहलेसे ही आ
गये थे तथा बादम सीता वह बुला ली गयी थ ॥ ३१ ॥
ीरामच जी जब वहाँ प ँ च,े उस समय भी कौस ा ने बंद कये ान लगाये बैठी थ
और सु म ा, सीता तथा ल ण उनक सेवाम खड़े थे॥ ३२ ॥
पु न के योगम पु के युवराजपदपर अ भ ष होनेक बात सुनकर वे उसक
म लकामनासे ाणायामके ारा परमपु ष नारायणका ान कर रही थ ॥ ३३ ॥
इस कार नयमम लगी ◌इ माताके नकट उसी अव ाम जाकर ीरामने उनको
णाम कया और उ हष दान करते ए यह े बात कही—॥ ३४ ॥
‘माँ! पताजीने मुझे जापालनके कमम नयु कया है। कल मेरा अ भषेक होगा।
जैसा क मेरे लये पताजीका आदेश है, उसके अनुसार सीताको भी मेरे साथ इस रातम उपवास
करना होगा। उपा ाय ने ऐसी ही बात बतायी थी, जसे पताजीने मुझसे कहा है॥
‘अत: कल होनेवाले अ भषेकके न म से आज मेरे और सीताके लये जो-जो म लकाय
आव क ह , वे सब कराओ’॥ ३७ ॥
चरकालसे माताके दयम जस बातक अ भलाषा थी, उसक पू तको सू चत
करनेवाली यह बात सुनकर माता कौस ाने आन के आँ सू बहाते ए ग द क से इस कार
कहा—॥ ३८ ॥
‘बेटा ीराम! चर ीवी होओ। तु ारे मागम व डालनेवाले श ु न हो जायँ। तुम
राजल ीसे यु होकर मेरे और सु म ाके ब -ु बा व को आन त करो॥
‘बेटा! तुम मेरे ारा कसी म लमय न म उ ए थे, जससे तुमने अपने गुण ारा
पता दशरथको स कर लया॥ ४० ॥
‘बड़े हषक बात है क मने कमलनयन भगवान् व ुक स ताके लये जो त-
उपवास आ द कया था, वह आज सफल हो गया। बेटा! उसीके फलसे यह इ ाकु कु लक
राजल ी तु ा होनेवाली है’॥ ४१ ॥
माताके ऐसा कहनेपर ीरामने वनीतभावसे हाथ जोड़कर खड़े ए अपने भा◌इ
ल णक ओर देखकर मुसकराते ए-से कहा—॥ ४२ ॥
‘ल ण! तुम मेरे साथ इस पृ ीके रा का शासन (पालन) करो। तुम मेरे तीय
अ रा ा हो। यह राजल ी तु को ा हो रही है॥ ४३ ॥
‘सु म ान न! तुम अभी भोग और रा के े फल का उपभोग करो। तु ारे लये ही
म इस जीवन तथा रा क अ भलाषा करता ँ ’॥ ४४ ॥
ल णसे ऐसा कहकर ीरामने दोन माता को णाम कया और सीताको भी साथ
चलनेक आ ा दलाकर वे उनको लये ए अपने महलम चले गये॥ ४५ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौथा सग पूरा
आ॥ ४॥
पाँचवाँ सग

राजा दशरथके अनुरोधसे व स जीका सीतास हत ीरामको उपवास तक दी ा देकर


आना और राजाको इस समाचारसे अवगत कराना; राजाका अ :पुरम वेश
उधर महाराज दशरथ जब ीरामच जीको दूसरे दन होनेवाले अ भषेकके वषयम
आव क संदेश दे चुके, तब अपने पुरो हत व स जीको बुलाकर बोले—॥ १ ॥
‘ नयमपूवक तका पालन करनेवाले तपोधन! आप जाइये और व नवारण प
क ाणक स तथा रा क ा के लये ब स हत ीरामसे उपवास तका पालन
कराइये’॥ २ ॥
तब राजासे ‘तथा ’ु कहकर वेदवे ा व ान म े तथा उ म तधारी यं भगवान्
व स म वे ा वीर ीरामको उपवास- तक दी ा देनेके लये ा णके चढ़नेयो जुत-े
जुताये े रथपर आ ढ़ हो ीरामके महलक ओर चल दये॥ ३-४ ॥
ीरामका भवन ेत बादल के समान उ ल था, उसके पास प ँ चकर मु नवर व स ने
उसक तीन ो ढ़य म रथके ारा ही वेश कया॥ ५ ॥
वहाँ पधारे ए उन स ाननीय मह षका स ान करनेके लये ीरामच जी बड़ी
उतावलीके साथ वेगपूवक घरसे बाहर नकले॥ ६ ॥
उन मनीषी मह षके रथके समीप शी तापूवक जाकर ीरामने यं उनका हाथ पकड़कर
उ रथसे नीचे उतारा॥ ७ ॥
ीराम य वचन सुननेके यो थे। उ इतना वनीत देखकर पुरो हतजीने ‘व !’
कहकर पुकारा और उ स करके उनका हष बढ़ाते ए इस कार कहा—॥ ८ ॥
‘ ीराम! तु ारे पता तुमपर ब त स ह, क तु उनसे रा ा होगा; अत:
आजक रातम तुम वधू सीताके साथ उपवास करो॥ ९ ॥
‘रघुन न! जैसे न षने यया तका अ भषेक कया था, उसी कार तु ारे पता महाराज
दशरथ कल ात:काल बड़े ेमसे तु ारा युवराज-पदपर अ भषेक करगे’॥ १० ॥
ऐसा कहकर उन तधारी एवं प व मह षने म ो ारणपूवक सीतास हत ीरामको उस
समय उपवास- तक दी ा दी॥ ११ ॥
तदन र ीरामच जीने महाराजके भी गु व स का यथावत् पूजन कया; फर वे मु न
ीरामक अनुम त ले उनके महलसे बाहर नकले॥ १२ ॥
ीराम भी वहाँ यवचन बोलनेवाले सु द के साथ कु छ देरतक बैठे रहे; फर उनसे
स ा नत हो उन सबक अनुम त ले पुन: अपने महलके भीतर चले गये॥ १३ ॥
उस समय ीरामका भवन हष ु नरना र य से भरा आ था और मतवाले प य के
कलरव से यु खले ए कमलवाले तालाबके समान शोभा पा रहा था॥ १४ ॥
राजभवन म े ीरामके महलसे बाहर आकर व स जीने सारे माग मनु क भीड़से भरे
ए देखे॥ १५ ॥
अयो ाक सड़क पर सब ओर ंडु -के - ंडु मनु , जो ीरामका रा ा भषेक देखनेके
लये उ ुक थे, खचाखच भरे ए थे; सारे राजमाग उनसे घरे ए थे॥
जनसमुदाय पी लहर के पर र टकरानेसे उस समय जो हष न कट होती थी, उससे
ा आ राजमागका कोलाहल समु क गजनाक भाँ त सुनायी देता था॥ १७ ॥
उस दन वन और उपवन क पं य से सुशो भत ◌इ अयो ापुरीके घर-घरम ऊँ ची-
ऊँ ची जाएँ फहरा रही थ ; वहाँक सभी ग लय और सड़क को झाड़-बुहारकर वहाँ छड़काव
कया गया था॥ १८ ॥
य और बालक स हत अयो ावासी जनसमुदाय ीरामके रा ा भषेकको देखनेक
इ ासे उस समय शी सूय दय होनेक कामना कर रहा था॥ १९ ॥
अयो ाका वह महान् उ व जा के लये अलंकार प और सब लोग के आन को
बढ़ानेवाला था; वहाँके सभी मनु उसे देखनेके लये उ त हो रहे थे॥ २० ॥
इस कार मनु क भीड़से भरे ए राजमागपर प ँ चकर पुरो हतजी उस जनसमूहको एक
ओर करते ए-से धीरे-धीरे राजमहलक ओर गये॥ २१ ॥
ेत जलद-ख के समान सुशो भत होनेवाले महलके ऊपर चढ़कर व स जी राजा
दशरथसे उसी कार मले, जैसे बृह त देवराज इ से मल रहे ह ॥ २२ ॥
उ आया देख राजा सहासन छोड़कर खड़े हो गये और पूछने लगे—‘मुन!े ा आपने
मेरा अ भ ाय स कया।’ व स जीने उ र दया— ‘हाँ! कर दया’॥ २३ ॥
उनके साथ ही उस समय वहाँ बैठे ए अ सभासद् भी पुरो हतका समादर करते ए
अपने-अपने आसन से उठकर खड़े हो गये॥ २४ ॥
तदन र गु जीक आ ा ले राजा दशरथने उस जनसमुदायको वदा करके पवतक
क राम घुसनेवाले सहके समान अपने अ :पुरम वेश कया॥ २५ ॥
सु र वेश-भूषा धारण करनेवाली सु रय से भरे ए इ सदनके समान उस मनोहर
राजभवनको अपनी शोभासे का शत करते ए राजा दशरथने उसके भीतर उसी कार वेश
कया, जैसे च मा तारा से भरे ए आकाशम पदापण करते ह॥ २६ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पाँचवाँ सग पूरा
आ॥ ५॥
छठा सग

सीतास हत ीरामका नयमपरायण होना, हषम भरे पुरवा सय ारा नगरक सजावट,
राजाके त कृ त ता कट करना तथा अयो ापुरीम जनपदवासी मनु क भीड़का
एक होना
पुरो हतजीके चले जानेपर मनको संयमम रखनेवाले ीरामने ान करके अपनी
वशाललोचना प ीके साथ ीनारायणक * उपासना आर क ॥ १ ॥
उ ने ह व -पा को सर क ु ाकर नम ार कया और लत अ म महान् देवता
(शेषशायी नारायण) क स ताके लये व धपूवक उस ह व क आ त दी॥ २ ॥
त ात् अपने य मनोरथक स का संक लेकर उ ने उस य शेष ह व का
भ ण कया और मनको संयमम रखकर मौन हो वे राजकु मार ीराम वदेहन नी सीताके साथ
भगवान् व ुके सु र म रम ीनारायणदेवका ान करते ए वहाँ अ ी तरह बछी ◌इ
कु शक चटा◌इपर सोये॥ ३-४ ॥
जब तीन पहर बीतकर एक ही पहर रात शेष रह गयी, तब वे शयनसे उठ बैठे। उस समय
उ ने सभाम पको सजानेके लये सेवक को आ ा दी॥ ५ ॥
वहाँ सूत, मागध और बं दय क वणसुखद वाणी सुनते ए ीरामने ात:का लक
सं ोपासना क ; फर एका च होकर वे जप करने लगे॥ ६ ॥
तदन र रेशमी व धारण कये ए ीरामने म क क ु ाकर भगवान् मधुसूदनको
णाम और उनका वन कया; इसके बाद ा ण से वाचन कराया॥ ७ ॥
उन ा ण का पु ाहवाचनस ी ग ीर एवं मधुर घोष नाना कारके वा क
नसे ा होकर सारी अयो ापुरीम फै ल गया॥ ८ ॥
उस समय अयो ावासी मनु ने जब यह सुना क ीरामच जीने सीताके साथ
उपवास- त आर कर दया है, तब उन सबको बड़ी स ता ◌इ॥ ९ ॥
सबेरा होनेपर ीरामके रा ा भषेकका समाचार सुनकर सम पुरवासी अयो ापुरीको
सजानेम लग गये॥ १० ॥
जनके शखर पर ेत बादल व ाम करते ह, उन पवत के समान गगनचु ी देवम र ,
चौराह , ग लय , देववृ , सम सभा , अ ा लका , नाना कारक बेचनेयो व ु से
भरी ◌इ ापा रय क बड़ी-बड़ी दूकान तथा कु टु ी गृह के सु र समृ शाली भवन म
और दूरसे दखायी देनेवाले वृ पर भी ऊँ ची जाएँ लगायी गय और उनम पताकाएँ फहरायी
गय ॥ ११—१३ ॥
उस समय वहाँक जनता सब ओर नट और नतक के समूह तथा गानेवाले गायक क मन
और कान को सुख देनेवाली वाणी सुनती थी॥ १४ ॥
ीरामके रा ा भषेकका शुभ अवसर ा होनेपर ाय: सब लोग चौराह पर और घर म
भी आपसम ीरामके रा ा भषेकक ही चचा करते थे॥ १५ ॥
घर के दरवाज पर खेलते ए ंडु -के - ंडु बालक भी आपसम ीरामके रा ा भषेकक
ही बात करते थे॥ १६ ॥
पुरवा सय ने ीरामके रा ा भषेकके समय राजमागपर फू ल क भट चढ़ाकर वहाँ सब
ओर धूपक सुग फै ला दी; ऐसा करके उ ने राजमागको ब त सु र बना दया॥ १७ ॥
रा ा भषेक होते-होते रात हो जानेक आश ासे काशक व ा करनेके लये
पुरवा सय ने सब ओर सड़क के दोन तरफ वृ क भाँ त अनेक शाखा से यु दीप खड़े
कर दये॥ १८ ॥
इस कार नगरको सजाकर ीरामके युवराजपदपर अ भषेकक अ भलाषा रखनेवाले
सम पुरवासी चौराह और सभा म ंडु -के - ंडु एक हो वहाँ पर र बात करते ए
महाराज दशरथक शंसा करने लगे—॥
‘अहो! इ ाकु कु लको आन त करनेवाले ये राजा दशरथ बड़े महा ा ह, जो क अपने-
आपको बूढ़ा आ जानकर ीरामका रा ा भषेक करने जा रहे ह॥ २१ ॥
‘भगवा ा हम सब लोग पर बड़ा अनु ह है क ीरामच जी हमारे राजा ह गे और
चरकालतक हमारी र ा करते रहगे; क वे सम लोक के नवा सय म जो भला◌इ या
बुरा◌इ है, उसे अ ी तरह देख चुके ह॥ २२ ॥
‘ ीरामका मन कभी उ त नह होता। वे व ान्, धमा ा और अपने भाइय पर ेह
रखनेवाले ह। उनका अपने भाइय पर जैसा ेह है, वैसा ही हमलोग पर भी है॥ २३ ॥
‘धमा ा एवं न ाप राजा दशरथ चरकालतक जी वत रह, जनके सादसे हम
ीरामके रा ा भषेकका दशन सुलभ होगा’॥ २४ ॥
अ भषेकका वृ ा सुनकर नाना दशा से उस जनपदके लोग भी वहाँ प ँ चे थे, उ ने
उपयु बात कहनेवाले पुरवा सय क सभी बात सुन ॥ २५ ॥
वे सब-के -सब ीरामका रा ा भषेक देखनेके लये अनेक दशा से अयो ापुरीम
आये थे। उन जनपद नवासी मनु ने ीरामपुरीको अपनी उप तसे भर दया था॥ २६ ॥
वहाँ मनु क भीड़-भाड़ बढ़नेसे जो जनरव सुनायी देता था, वह पव के दन बढ़े ए
वेगवाले महासागरक गजनाके समान जान पड़ता था॥ २७ ॥
उस समय ीरामके अ भषेकका उ व देखनेके लये पधारे ए जनपदवासी मनु ारा
सब ओरसे भरा आ वह इ पुरीके समान नगर अ कोलाहलपूण होनेके कारण मकर, न ,
त म ल आ द वशाल जल-ज ु से प रपूण महासागरके समान तीत होता था॥ २८ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छठा सग पूरा
आ॥ ६॥
* ऐसा माना जाता है क यहाँ नारायण श से ीर नाथजीक वह अचा-मू त अ भ ेत है; जो क पूवज के समयसे ही
दीघकालतक अयो ाम उपा देवताके पम रही। बादम ीरामजीने वह मू त वभीषणको दे दी थी, जससे वह वतमान
ीरंग े म प ँ ची। इसक व ृत कथा प पुराणम है।
सातवाँ सग

ीरामके अ भषेकका समाचार पाकर ख ◌इ म राका कै के यीको उभाड़ना, परंतु


स ◌इ कै के यीका उसे पुर ार पम आभूषण देना और वर माँगनेके लये े रत करना
रानी कै के यीके पास एक दासी थी, जो उसके मायके से आयी ◌इ थी। वह सदा
कै के यीके ही साथ रहा करती थी। उसका ज कहाँ आ था? उसके देश और माता- पता कौन
थे? इसका पता कसीको नह था। अ भषेकसे एक दन पहले वह े ासे ही कै के यीके
च माके समान का मान् महलक छतपर जा चढ़ी॥ १ ॥
उस दासीका नाम था—म रा। उसने उस महलक छतसे देखा—अयो ाक सड़क पर
छड़काव कया गया है और सारी पुरीम य -त खले ए कमल और उ ल बखेरे गये ह॥ २

सब ओर ब मू पताकाएँ फहरा रही ह। जा से इस पुरीक अपूव शोभा हो रही है।
राजमाग पर च न म त जलका छड़काव कया गया है तथा अयो ापुरीके सब लोग उबटन
लगाकर सरके ऊपरसे ान कये ए ह॥ ३ ॥
ीरामके दये ए मा और मोदक हाथम लये े ा ण हषनाद कर रहे ह,
देवम र के दरवाजे चूने और च न आ दसे लीपकर सफे द एवं सु र बनाये गये ह, सब
कारके बाज क मनोहर न हो रही है, अ हषम भरे ए मनु से सारा नगर प रपूण है
और चार ओर वेदपाठक क न गूँज रही है, े हाथी और घोड़े हषसे उ ु दखायी देते
ह तथा गाय-बैल स होकर रँभा रहे ह॥ ४-५ ॥
सारे नगर नवासी हषज नत रोमा से यु और आन म ह तथा नगरम सब ओर
ेणीब ऊँ चे-ऊँ चे ज फहरा रहे ह। अयो ाक ऐसी शोभाको देखकर म राको बड़ा
आ य आ॥ ६ ॥
उसने पासके ही कोठे पर रामक धायको खड़ी देखा, उसके ने स तासे खले ए थे
और शरीरपर पीले रंगक रेशमी साड़ी शोभा पा रही थी। उसे देखकर म राने उससे पूछा—॥
७॥
‘धाय! आज ीरामच जीक माता अपने कसी अभी मनोरथके साधनम त र हो
अ हषम भरकर लोग को धन बाँट रही ह? आज यहाँके सभी मनु को इतनी अ धक
स ता है? इसका कारण मुझे बताओ! आज महाराज दशरथ अ स होकर कौन-
सा कम करायगे’॥ ८-९ ॥
ीरामक धाय तो हषसे फू ली नह समाती थी, उसने कु ाके पूछनेपर बड़े आन के
साथ उसे बताया—‘कु !े रघुनाथजीको ब त बड़ी स ा होनेवाली है। कल महाराज
दशरथ पु न के योगम ोधको जीतनेवाले, पापर हत, रघुकुलन न ीरामको युवराजके
पदपर अ भ ष करगे’॥ १०-११ ॥
धायका यह वचन सुनकर कु ा मन-ही-मन कु ढ़ गयी और उस कै लास- शखरक भाँ त
उ ल एवं गगनचु ी ासादसे तुरंत ही नीचे उतर गयी॥ १२ ॥
म राको इसम कै के यीका अ न दखायी देता था, वह ोधसे जल रही थी। उसने
महलम लेटी ◌इ कै के यीके पास जाकर इस कार कहा—॥ १३ ॥
‘मूख! उठ। ा सो रही है? तुझपर बड़ा भारी भय आ रहा है। अरी! तेरे ऊपर वप का
पहाड़ टूट पड़ा है, फर भी तुझे अपनी इस दुरव ाका बोध नह होता?’॥ १४ ॥
‘तेरे यतम तेरे सामने ऐसा आकार बनाये आते ह मानो सारा सौभा तुझे ही अ पत कर
देते ह , परंतु पीठ-पीछे वे तेरा अ न करते ह। तू उ अपनेम अनुर जानकर सौभा क ड ग
हाँका करती है, परंतु जैसे ी ऋतुम नदीका वाह सूखता चला जाता है, उसी कार तेरा वह
सौभा अब अ र हो गया है— तेरे हाथसे चला जाना चाहता है!’॥ १५ ॥
इ म भी अ न का दशन करानेवाली रोषभरी कु ाके इस कार कठोर वचन कहनेपर
कै के यीके मनम बड़ा दु:ख आ॥ १६ ॥
उस समय के कयराजकु मारीने कु ासे पूछा— ‘म रे! को◌इ अम लक बात तो नह
हो गयी; क तेरे मुखपर वषाद छा रहा है और तू मुझे ब त दु:खी दखायी देती है’॥ १७

म रा बातचीत करनेम बड़ी कु शल थी, वह कै के यीके मीठे वचन सुनकर और भी ख
हो गयी, उसके त अपनी हतै षता कट करती ◌इ कु पत हो उठी और कै के यीके मनम
ीरामके त भेदभाव और वषाद उ करती ◌इ इस कार बोली—॥
‘दे व! तु ारे सौभा के महान् वनाशका काय आर हो गया है, जसका को◌इ
तीकार नह है। कल महाराज दशरथ ीरामको युवराजके पदपर अ भ ष कर दगे॥ २० ॥
‘यह समाचार पाकर म दु:ख और शोकसे ाकु ल हो अगाध भयके समु म डू ब गयी ँ ,
च ाक आगसे मानो जली जा रही ँ और तु ारे हतक बात बतानेके लये यहाँ आयी ँ ’॥
२१ ॥
‘के कयन न! य द तुमपर को◌इ दु:ख आया तो उससे मुझे भी बड़े भारी दु:खम पड़ना
होगा। तु ारी उ तम ही मेरी भी उ त है, इसम संशय नह है॥ २२ ॥
‘दे व! तुम राजा के कु लम उ ◌इ हो और एक महाराजक महारानी हो, फर भी
राजधम क उ ताको कै से नह समझ रही हो?॥ २३ ॥
‘तु ारे ामी धमक बात तो ब त करते ह, परंतु ह बड़े शठ। मुँहसे चकनी-चुपड़ी बात
करते ह, परंतु दयके बड़े ू र ह। तुम समझती हो क वे सारी बात शु भावसे ही कहते ह,
इसी लये आज उनके ारा तुम बेतरह ठगी गयी॥ २४ ॥
‘तु ारे प त तु थ सा ना देनेके लये यहाँ उप त होते ह, वे ही अब रानी
कौस ाको अथसे स करने जा रहे ह॥ २५ ॥
‘उनका दय इतना दू षत है क भरतको तो उ ने तु ारे मायके भेज दया और कल
सबेरे ही अवधके न क रा पर वे ीरामका अ भषेक करगे॥ २६ ॥
‘बाले! जैसे माता हतक कामनासे पु का पोषण करती है, उसी कार ‘प त’
कहलानेवाले जस का तुमने पोषण कया है, वह वा वम श ु नकला। जैसे को◌इ
अ ानवश सपको अपनी गोदम लेकर उसका लालन करे, उसी कार तुमने उन सपवत् बताव
करनेवाले महाराजको अपने अ म ान दया है॥ २७ ॥
‘उपे त श ु अथवा सप जैसा बताव कर सकता है, राजा दशरथने आज पु स हत तुझ
कै के यीके त वैसा ही बताव कया है॥ २८ ॥
‘बाले! तुम सदा सुख भोगनेके यो हो, परंतु मनम पाप (दुभावना) रखकर ऊपरसे झूठी
सा ना देनेवाले महाराजने अपने रा पर ीरामको ा पत करनेका वचार करके आज सगे-
स य स हत तुमको मानो मौतके मुखम डाल दया है॥ २९ ॥
‘के कयराजकु मारी! तुम दु:खजनक बात सुनकर भी मेरी ओर इस तरह देख रही हो, मानो
तु स ता ◌इ हो और मेरी बात से तु व य हो रहा हो, परंतु यह व य छोड़ो और
जसे करनेका समय आ गया है, अपने उस हतकर कायको शी करो तथा ऐसा करके अपनी,
अपने पु क और मेरी भी र ा करो’॥ ३० ॥
म राक यह बात सुनकर सु र मुखवाली कै के यी सहसा श ासे उठ बैठी। उसका दय
हषसे भर गया। वह शर ू णमाके च म लक भाँ त उ ी हो उठी॥ ३१ ॥
कै के यी मन-ही-मन अ संतु ◌इ। व य वमु हो मुसकराते ए उसने कु ाको
पुर ारके पम एक ब त सु र द आभूषण दान कया॥ ३२ ॥
कु ाको वह आभूषण देकर हषसे भरी ◌इ रमणी शरोम ण कै के यीने पुन: म रासे इस
कार कहा— ‘म रे! यह तूने मुझे बड़ा ही य समाचार सुनाया। तूने मेरे लये जो यह य
संवाद सुनाया, इसके लये म तेरा और कौन-सा उपकार क ँ ॥ ३३-३४ ॥
‘म भी राम और भरतम को◌इ भेद नह समझती। अत: यह जानकर क राजा ीरामका
अ भषेक करनेवाले ह, मुझे बड़ी खुशी ◌इ है॥ ३५ ॥
‘म रे! तू मुझसे य व ु पानेके यो है। मेरे लये ीरामके अ भषेकस ी इस
समाचारसे बढ़कर दूसरा को◌इ य एवं अमृतके समान मधुर वचन नह कहा जा सकता। ऐसी
परम य बात तुमने कही है; अत: अब यह य संवाद सुनानेके बाद तू को◌इ े वर माँग ले,
म उसे अव दूँगी’॥ ३६ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सातवाँ सग पूरा
आ॥ ७॥
आठवाँ सग
म राका पुन: ीरामके रा ा भषेकको कै के यीके लये अ न कारी बताना, कै के यीका
ीरामके गुण को बताकर उनके अ भषेकका समथन करना त ात् कु ाका पुन:
ीरामरा को भरतके लये भयजनक बताकर कै के यीको भड़काना
यह सुनकर म राने कै के यीक न ा करके उसके दये ए आभूषणको उठाकर फ क
दया और कोप तथा दु:खसे भरकर वह इस कार बोली—॥ १ ॥
‘रानी! तुम बड़ी नादान हो। अहो! तुमने यह बेमौके हष कस लये कट कया? तु
शोकके ानपर स ता कै से हो रही है? अरी! तुम शोकके समु म डू बी ◌इ हो, तो भी तु
अपनी इस वप ाव ाका बोध नह हो रहा है॥ २ ॥
‘दे व! महान् संकटम पड़नेपर जहाँ तु शोक होना चा हये, वह हष हो रहा है। तु ारी
यह अव ा देखकर मुझे मन-ही-मन बड़ा ेश सहन करना पड़ता है। म दु:खसे ाकु ल ◌इ
जाती ँ ॥ ३ ॥
‘मुझे तु ारी दुबु के लये ही अ धक शोक होता है। अरी! सौतका बेटा श ु होता है।
वह सौतेली माँके लये सा ात् मृ ुके समान है। भला, उसके अ ुदयका अवसर आया देख
कौन बु मती ी अपने मनम हष मानेगी॥ ४ ॥
‘यह रा भरत और राम दोन के लये साधारण भो व ु है, इसपर दोन का समान
अ धकार है, इस लये ीरामको भरतसे ही भय है। यही सोचकर म वषादम डू बी जाती ँ ;
क भयभीतसे ही भय ा होता है अथात् आज जसे भय है, वही रा ा कर लेनेपर
जब सबल हो जायगा, तब अपने भयके हेतुको उखाड़ फ के गा॥ ५ ॥
‘महाबा ल ण स ूण दयसे ीरामच जीके अनुगत ह। जैसे ल ण ीरामके
अनुगत ह, उसी तरह श ु भी भरतका अनुसरण करनेवाले ह॥ ६ ॥
‘भा म न! उ के मसे ीरामके बाद भरतका ही पहले रा पर अ धकार हो सकता है
(अत: भरतसे भय होना ाभा वक है)। ल ण और श ु तो छोटे ह; अत: उनके लये
रा ा क स ावना दूर है॥
‘ ीराम सम शा के ाता ह, वशेषत: यच र (राजनी त) के प त ह तथा
समयो चत कत का पालन करनेवाले ह; अत: उनका तु ारे पु के त जो ू रतापूण बताव
होगा, उसे सोचकर म भयसे काँप उठती ँ ॥ ८ ॥
‘वा वम कौस ा ही सौभा वती ह, जनके पु का कल पु न के योगम े
ा ण ारा युवराजके महान् पदपर अ भषेक होने जा रहा है॥ ९ ॥
‘वे भूम लका न क रा पाकर स ह गी; क वे राजाक व ासपा ह
और तुम दासीक भाँ त हाथ जोड़कर उनक सेवाम उप त होओगी॥ १० ॥
‘इस कार हमलोग के साथ तुम भी कौस ाक दासी बनोगी और तु ारे पु भरतको
भी ीरामच जीक गुलामी करनी पड़ेगी॥ ११ ॥
‘ ीरामच जीके अ :पुरक परम सु री याँ— सीतादेवी और उनक स खयाँ न य
ही ब त स ह गी और भरतके भु का नाश होनेसे तु ारी ब एँ शोकम हो जायँगी’॥
१२ ॥
म राको अ अ स ताके कारण इस कार बहक -बहक बात करती देख देवी
कै के यीने ीरामके गुण क ही शंसा करते ए कहा—॥ १३ ॥
‘कु !े ीराम धमके ाता, गुणवान्, जते य, कृ त , स वादी और प व होनेके
साथ ही महाराजके े पु ह; अत: युवराज होनेके यो वे ही ह॥
‘वे दीघजीवी होकर अपने भाइय और भृ का पताक भाँ त पालन करगे। कु !े
उनके अ भषेकक बात सुनकर तू इतनी जल रही है?॥ १५ ॥
‘ ीरामक रा ा के सौ वष बाद नर े भरतको भी न य ही अपने पता-
पतामह का रा मलेगा॥ १६ ॥
‘म रे! ऐसे अ ुदयक ा के समय, जब क भ व म क ाण-ही-क ाण
दखायी दे रहा है, तू इस कार जलती ◌इ-सी संत हो रही है?॥ १७ ॥
‘मेरे लये जैसे भरत आदरके पा ह, वैसे ही ब उनसे भी बढ़कर ीराम ह; क वे
कौस ासे भी बढ़कर मेरी ब त सेवा कया करते ह॥ १८ ॥
‘य द ीरामको रा मल रहा है तो उसे भरतको मला आ समझ; क ीरामच
अपने भाइय को भी अपने ही समान समझते ह’॥ १९ ॥
कै के यीक यह बात सुनकर म राको बड़ा दु:ख आ। वह लंबी और गरम साँस ख चकर
कै के यीसे बोली—॥ २० ॥
‘रानी! तुम मूखतावश अनथको ही अथ समझ रही हो। तु अपनी तका पता नह
है। तुम दु:खके उस महासागरम डू ब रही हो, जो शोक (इ से वयोगक च ा) और सन
(अ न क ा के दु:ख) से महान् व ारको ा हो रहा है॥ २१ ॥
‘के कयराजकु मारी! जब ीरामच राजा हो जायँग,े तब उनके बाद उनका जो पु होगा,
उसीको रा मलेगा। भरत तो राजपर रासे अलग हो जायँगे॥ २२ ॥
‘भा म न! राजाके सभी पु रा सहासनपर नह बैठते ह; य द सबको बठा दया जाय
तो बड़ा भारी अनथ हो जाय॥ २३ ॥
‘परमसु री के कयन न! इसी लये राजालोग राजकाजका भार े पु पर ही रखते
ह। य द े पु गुणवान् न हो तो दूसरे गुणवान् पु को भी रा स प देते ह॥ २४ ॥
‘पु व ले! तु ारा पु रा के अ धकारसे तो ब त दूर हटा ही दया जायगा, वह
अनाथक भाँ त सम सुख से भी व त हो जायगा॥ २५ ॥
‘इस लये म तु ारे ही हतक बात सुझानेके लये यहाँ आयी ँ ; परंतु तुम मेरा अ भ ाय
तो समझती नह , उलटे सौतका अ ुदय सुनकर मुझे पा रतो षक देने चली हो॥ २६ ॥
‘याद रखो, य द ीरामको न क रा मल गया तो वे भरतको अव ही इस
देशसे बाहर नकाल दगे अथवा उ परलोकम भी प ँ चा सकते ह॥ २७ ॥
‘छोटी अव ाम ही तुमने भरतको मामाके घर भेज दया। नकट रहनेसे सौहाद उ
होता है। यह बात ावर यो नय म भी देखी जाती है (लता और वृ आ द एक-दूसरेके नकट
होनेपर पर र आ ल न-पाशम ब हो जाते ह। य द भरत यहाँ होते तो राजाका उनम भी
समान पसे ेह बढ़ता; अत: वे उ भी आधा रा दे देत)े ॥ २८ ॥
‘भरतके अनुरोधसे श ु भी उनके साथ ही चले गये (य द वे यहाँ होते तो भरतका काम
बगड़ने नह पाता। क—) जैसे ल ण रामके अनुगामी ह, उसी कार श ु भरतका
अनुसरण करनेवाले ह॥ २९ ॥
‘सुना जाता है, जंगलक लकड़ी बेचकर जी वका चलानेवाले कु छ लोग ने कसी वृ को
काटनेका न य कया, परंतु वह वृ कँ टीली झा ड़य से घरा आ था; इस लये वे उसे काट
नह सके । इस कार उन कँ टीली झा ड़य ने नकट रहनेके कारण उस वृ को महान् भयसे बचा
लया॥ ३० ॥
‘सु म ाकु मार ल ण ीरामक र ा करते ह और ीराम उनक । उन दोन का उ म
ातृ- ेम दोन अ नीकु मार क भाँ त तीन लोक म स है॥ ३१ ॥
‘इस लये ीराम ल णका तो क त् भी अ न नह करगे, परंतु भरतका अ न कये
बना वे रह नह सकते; इसम संशय नह है॥ ३२ ॥
‘अत: ीरामच महाराजके महलसे ही सीधे वनको चले जायँ—मुझे तो यही अ ा
जान पड़ता है और इसीम तु ारा परम हत है॥ ३३ ॥
‘य द भरत धमानुसार अपने पताका रा ा कर लगे तो तु ारा और तु ारे प के
अ सब लोग का भी क ाण होगा॥ ३४ ॥
‘सौतेला भा◌इ होनेके कारण जो ीरामका सहज श ु है, वह सुख भोगनेके यो तु ारा
बालक भरत रा और धनसे व त हो रा पाकर समृ शाली बने ए ीरामके वशम
पड़कर कै से जी वत रहेगा॥ ३५ ॥
‘जैसे वनम सह हा थय के यूथप तपर आ मण करता है और वह भागा फरता है, उसी
कार राजा राम भरतका तर ार करगे; अत: उस तर ारसे तुम भरतक र ा करो॥ ३६ ॥
‘तुमने पहले प तका अ ेम ा होनेके कारण घमंडम आकर जनका अनादर
कया था, वे ही तु ारी सौत ीराममाता कौस ा पु क रा ा से परम सौभा शा लनी
हो उठी ह; अब वे तुमसे अपने वैरका बदला नह लगी॥ ३७ ॥
‘भा म न! जब ीराम अनेक समु और पवत से यु सम भूम लका रा ा
कर लगे, तब तुम अपने पु भरतके साथ ही दीन-हीन होकर अशुभ पराभवका पा बन
जाओगी॥ ३८ ॥
‘याद रखो, जब ीराम इस पृ ीपर अ धकार ा कर लगे, तब न य ही तु ारे पु
भरत न ाय हो जायँगे। अत: ऐसा को◌इ उपाय सोचो, जससे तु ारे पु को तो रा मले
और श ुभूत ीरामका वनवास हो जाय’॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म आठवाँ सग पूरा
आ॥ ८॥
नवाँ सग

कु ाके कुच से कैकेयीका कोपभवनम वेश

म राके ऐसा कहनेपर कै के यीका मुख ोधसे तमतमा उठा। वह लंबी और गरम साँस
ख चकर उससे इस कार बोली—॥ १ ॥
‘कु !े म ीरामको शी ही यहाँसे वनम भेजूँगी और तुरंत ही युवराजके पदपर भरतका
अ भषेक कराऊँ गी॥ २ ॥
‘परंतु इस समय यह तो सोचो क कस उपायसे अपना अभी साधन क ँ ? भरतको
रा ा हो जाय और ीराम उसे कसी तरह भी न पा सक— यह काम कै से बने?’॥ ३ ॥
देवी कै के यीके ऐसा कहनेपर पापका माग दखानेवाली म रा ीरामके ाथपर
कु ठाराघात करती ◌इ वहाँ कै के यीसे इस कार बोली—॥ ४ ॥
‘के कयन न! अ ा, अब देखो क म ा करती ँ ? तुम मेरी बात सुनो, जससे के वल
तु ारे पु भरत ही रा ा करगे ( ीराम नह )॥ ५ ॥
‘कै के य! ा तु रण नह है? या रण होनेपर भी मुझसे छपा रही हो? जसक
तुम मुझसे अनेक बार चचा करती रहती हो, अपने उसी योजनको तुम मुझसे सुनना चाहती
हो? इसका ा कारण है?॥
‘ वला स न! य द मेरे ही मुँहसे सुननेके लये तु ारा आ ह है तो बताती ँ , सुनो और
सुनकर इसीके अनुसार काय करो’॥ ७ ॥
म राका यह वचन सुनकर कै के यी अ ी तरहसे बछे ए उस पलंगसे कु छ उठकर उससे
य बोली—॥ ८ ॥
म रे! मुझसे वह उपाय बताओ। कस उपायसे भरतको तो रा मल जायगा, कतु
ीराम उसे कसी तरह नह पा सकगे’॥ ९ ॥
देवी कै के यीके ऐसा कहनेपर पापका माग दखानेवाली म रा ीरामके ाथपर
कु ठाराघात करती ◌इ उस समय कै के यीसे इस कार बोली—॥ १० ॥
‘दे व! पूवकालक बात है क देवासुर-सं ामके अवसरपर राज षय के साथ तु ारे
प तदेव तु साथ लेकर देवराजक सहायता करनेके लये गये थे॥ ११ ॥
‘के कयराजकु मारी! द ण दशाम द कार के भीतर वैजय नामसे व ात एक
नगर है, जहाँ श र नामसे स एक महान् असुर रहता था। वह अपनी जाम त म ( ल े
मछली) का च धारण करता था और सैकड़ माया का जानकार था। देवता के समूह भी
उसे परा जत नह कर पाते थे। एक बार उसने इ के साथ यु छे ड़ दया॥ १२-१३ ॥
‘उस महान् सं ामम त- व त ए पु ष जब रातम थककर सो जाते, उस समय रा स
उ उनके ब रसे ख च ले जाते और मार डालते थे॥ १४ ॥
‘उन दन महाबा राजा दशरथने भी वहाँ असुर के साथ बड़ा भारी यु कया। उस यु म
असुर ने अपने अ -श ारा उनके शरीरको जजर कर दया॥ १५ ॥
‘दे व! जब राजाक चेतना लु -सी हो गयी, उस समय सार थका काम करती ◌इ तुमने
अपने प तको रणभू मसे दूर हटाकर उनक र ा क । जब वहाँ भी रा स के श से वे घायल
हो गये, तब तुमने पुन: वहाँसे अ ले जाकर उनक र ा क ॥ १६ ॥
‘शुभदशने! इससे संतु होकर महाराजने तु दो वरदान देनेको कहा—दे व! उस समय
तुमने अपने प तसे कहा—‘ ाणनाथ! जब मेरी इ ा होगी, तब म इन वर को माँग लूँगी।’ उस
समय उन महा ा नरेशने ‘तथा ’ु कहकर तु ारी बात मान ली थी। दे व! म इस कथाको नह
जानती थी। पूवकालम तु ने मुझसे यह वृ ा कहा था॥ १७-१८ ॥
‘तबसे तु ारे ेहवश म इस बातको मन-ही-मन सदा याद रखती आयी ँ । तुम इन
वर के भावसे ामीको वशम करके ीरामके अ भषेकके आयोजनको पलट दो॥ १९ ॥
‘तुम उन दोन वर को अपने ामीसे माँगो। एक वरके ारा भरतका रा ा भषेक और
दूसरेके ारा ीरामका चौदह वषतकका वनवास माँग लो॥ २० ॥
‘जब ीराम चौदह वष के लये वनम चले जायँगे।’ तब उतने समयम तु ारे पु भरत
सम जाके दयम अपने लये ेह पैदा कर लगे और इस रा पर र हो जायँगे॥ २१ ॥
‘अ प तकु मारी! तुम इस समय मैले व पहन लो और कोपभवनम वेश करके कु पत-
सी होकर बना ब रके ही भू मपर लेट जाओ॥ २२ ॥
‘राजा आव तो उनक ओर आँ ख उठाकर न देखो और न उनसे को◌इ बात ही करो।
महाराजको देखते ही रोती ◌इ शोकम हो धरतीपर लोटने लगो॥ २३ ॥
‘इसम त नक भी संदेह नह क तुम अपने प तको सदा ही बड़ी ारी रही हो। तु ारे
लये महाराज आगम भी वेश कर सकते ह॥ २४ ॥
‘वे न तो तु कु पत कर सकते ह और न कु पत अव ाम तु देख ही सकते ह। राजा
दशरथ तु ारा य करनेके लये अपने ाण का भी ाग कर सकते ह॥ २५ ॥
‘महाराज तु ारी बात कसी तरह टाल नह सकते। मु !े तुम अपने सौभा के बलका
रण करो॥ २६ ॥
‘राजा दशरथ तु भुलावेम डालनेके लये म ण, मोती, सुवण तथा भाँ त-भाँ तके र
देनेक चे ा करगे; कतु तुम उनक ओर मन न चलाना॥ २७ ॥
‘महाभागे! देवासुर-सं ामके अवसरपर राजा दशरथने वे जो दो वर दये थे, उनका उ
रण दलाना। वरदानके पम माँगा गया वह तु ारा अभी मनोरथ स ए बना नह रह
सकता॥ २८ ॥
‘रघुकुलन न राजा दशरथ जब यं तु धरतीसे उठाकर वर देनेको उ त हो जायँ, तब
उन महाराजको स क शपथ दलाकर खूब प ा करके उनसे वर माँगना॥ २९ ॥
‘वर माँगते समय कहना क नृप े ! आप ीरामको चौदह वष के लये ब त दूर वनम
भेज दी जये और भरतको भूम लका राजा बनाइये॥ ३० ॥
‘ ीरामके चौदह वष के लये वनम चले जानेपर तु ारे पु भरतका रा सु ढ़ हो
जायगा और जा आ दको वशम कर लेनेसे यहाँ उनक जड़ जम जायगी। फर चौदह वष के
बाद भी वे आजीवन र बने रहगे॥ ३१ ॥
‘दे व! तुम राजासे ीरामके वनवासका वर अव माँगो। पु के लये रा क कामना
करनेवाली कै के य! ऐसा करनेसे तु ारे पु के सभी मनोरथ स हो जायँगे॥ ३२ ॥
‘इस कार वनवास मल जानेपर ये राम राम नह रह जायँगे (इनका आज जो भाव है
वह भ व म नह रह सके गा) और तु ारे भरत भी श ुहीन राजा ह गे॥
‘ जस समय ीराम वनसे लौटगे, उस समयतक तु ारे पु भरत भीतर और बाहरसे भी
ढ़मूल हो जायँगे॥
‘उनके पास सै नक-बलका भी सं ह हो जायगा; जते य तो वे ह ही; अपने सु द के
साथ रहकर ढ़मूल हो जायँगे। इस समय मेरी मा ताके अनुसार राजाको ीरामके
रा ा भषेकके संक से हटा देनेका समय आ गया है; अत: तुम नभय होकर राजाको अपने
वचन म बाँध लो और उ ीरामके अ भषेकके संक से हटा दो’॥ ३५ १/२ ॥
ऐसी बात कहकर म राने कै के यीक बु म अनथको ही अथ पम जँचा दया।
कै के यीको उसक बातपर व ास हो गया और वह मन-ही-मन ब त स ◌इ। य प वह
ब त समझदार थी, तो भी कु बरीके कहनेसे नादान बा लकाक तरह कु मागपर चली गयी—
अनु चत काम करनेको तैयार हो गयी। उसे म राक बु पर बड़ा आ य आ और वह उससे
इस कार बोली—॥ ३६-३७ १/२ ॥
‘ हतक बात बतानेम कु शल कु !े तू एक े ी है; म तेरी बु क अवहेलना नह
क ँ गी। बु के ारा कसी कायका न य करनेम तू इस पृ ीपर सभी कु ा म उ म है।
के वल तू ही मेरी हतै षणी है और सदा सावधान रहकर मेरा काय स करनेम लगी रहती है॥
३८-३९ ॥
‘कु !े य द तू न होती तो राजा जो ष रचना चाहते ह, वह कदा प मेरी समझम नह
आता। तेरे सवा जतनी कु ाएँ ह, वे बेडौल शरीरवाली, टेढ़ी-मेढ़ी और बड़ी पा पनी होती
ह॥ ४० ॥
‘तू तो वायुके ारा कु ायी ◌इ कम लनीक भाँ त कु छ क ु ◌इ होनेपर भी देखनेम
य (सु र) है। तेरा व : ल कु ताके दोषसे ा है, अतएव कं ध तक ऊँ चा दखायी
देता है॥ ४१ ॥
‘व : लसे नीचे सु र ना भसे यु जो उदर है, वह मानो व : लक ऊँ चा◌इ
देखकर ल त-सा हो गया है, इसी लये शा —कृ श तीत होता है। तेरा जघन व ृत है
और दोन न सु र एवं ूल ह॥
‘म रे! तेरा मुख नमल च माके समान अ तु शोभा पा रहा है। करधनीक ल ड़य से
वभू षत तेरी क टका अ भाग ब त ही —रोमा दसे र हत है॥ ४३ ॥
‘म रे! तेरी प लयाँ पर र अ धक सटी ◌इ ह और दोन पैर बड़े-बड़े ह। तू
वशाल ऊ (जाँघ ) से सुशो भत होती है। शोभने! जब तू रेशमी साड़ी पहनकर मेरे आगे-
आगे चलती है, तब तेरी बड़ी शोभा होती है॥ ४४ १/२ ॥
‘असुरराज श रको जन सह माया का ान है, वे सब तेरे दयम त ह; इनके
अलावे भी तू हजार कारक मायाएँ जानती है। इन माया का समुदाय ही तेरा यह बड़ा-सा
कु ड़ है, जो रथके नकु ए (अ भाग) के समान बड़ा है। इसीम तेरी म त, ृ त और बु ,
व ा (राजनी त) तथा नाना कारक मायाएँ नवास करती ह॥ ४५-४६ १/२ ॥
‘सु री कु !े य द भरतका रा ा भषेक आ और ीराम वनको चले गये तो म
सफलमनोरथ एवं संतु होकर अ ी जा तके खूब तपाये ए सोनेक बनी ◌इ सु र
णमाला तेरे इस कु ड़को पहनाऊँ गी और इसपर च नका लेप लगवाऊँ गी॥ ४७-४८ १/२ ॥
‘कु !े तेरे मुख (ललाट) पर सु र और व च सोनेका टीका लगवा दूँगी और तू ब त-
से सु र आभूषण एवं दो उ म व (लहँ गा और दुप ा) धारण करके देवा नाके समान
वचरण करेगी॥ ४९-५० ॥
‘च मासे होड़ लगानेवाले अपने मनोहर मुख ारा तू ऐसी सु र लगेगी क तेरे मुखक
कह समता नह रह जायगी तथा श ु के बीचम अपने सौभा पर गव कट करती ◌इ तू
सव े ान ा कर लेगी॥ ५१ ॥
‘जैसे तू सदा मेरे चरण क सेवा कया करती है, उसी कार सम आभूषण से वभू षत
ब त-सी कु ाएँ तुझ कु ाके भी चरण क सदा प रचया कया करगी’॥
जब इस कार कु ाक शंसा क गयी, तब उसने वेदीपर लत अ - शखाके
समान शु श ापर शयन करनेवाली कै के यीसे इस कार कहा—॥ ५३ ॥
‘क ा ण! नदीका पानी नकल जानेपर उसके लये बाँध नह बाँधा जाता, (य द रामका
अ भषेक हो गया तो तु ारा वर माँगना थ होगा; अत: बात म समय न बताओ) ज ी उठो
और अपना क ाण करो। कोपभवनम जाकर राजाको अपनी अव ाका प रचय दो’॥ ५४ ॥
म राके इस कार ो ाहन देनेपर सौभा के मदसे गव करनेवाली वशाललोचना
सु री कै के यी देवी उसके साथ ही कोपभवनम जाकर लाख क लागतके मो तय के हार तथा
दूसरे-दूसरे सु र ब मू आभूषण को अपने शरीरसे उतार-उतारकर फ कने लगी॥ ५५-५६ ॥
सोनेके समान सु र का वाली कै के यी कु ाक बात के वशीभूत हो गयी थी, अत: वह
धरतीपर लेटकर म रासे इस कार बोली—॥ ५७ ॥
‘कु !े मुझे न तो सुवणसे, न र से और न भाँ त-भाँ तके भोजन से ही को◌इ योजन
है; य द ीरामका रा ा भषेक आ तो यह मेरे जीवनका अ होगा। अब या तो ीरामके
वनम चले जानेपर भरतको इस भूतलका रा ा होगा अथवा तू यहाँ महाराजको मेरी
मृ ुका समाचार सुनायेगी’॥ ५८-५९ ॥
तदन र कु ा महाराज दशरथक रानी और भरतक माता कै के यीसे अ ूर
वचन ारा पुन: ऐसी बात कहने लगी, जो लौ कक से भरतके लये हतकर और ीरामके
लये अ हतकर थी—॥ ६० ॥
‘क ा ण! य द ीराम इस रा को ा कर लगे तो न य ही अपने पु भरतस हत
तुम भारी संतापम पड़ जाओगी; अत: ऐसा य करो, जससे तु ारे पु भरतका रा ा भषेक
हो जाय’॥ ६१ ॥
इस कार कु ाने अपने वचन पी बाण का बारंबार हार करके जब रानी कै के यीको
अ घायल कर दया, तब वह अ व त और कु पत हो अपने दयपर दोन हाथ
रखकर कु ासे बारंबार इस कार कहने लगी—॥ ६२ ॥
‘कु !े अब या तो रामच के अ धक कालके लये वनम चले जानेपर भरतका मनोरथ
सफल होगा या तू मुझे यहाँसे यमलोकम चली गयी सुनकर महाराजसे यह समाचार नवेदन
करेगी॥ ६३ ॥
‘य द राम यहाँसे वनको नह गये तो म न तो भाँ त-भाँ तके बछौने, न फू ल के हार, न
च न, न अ न, न पान, न भोजन और न दूसरी ही को◌इ व ु लेना चा ँ गी। उस दशाम तो म
यहाँ इस जीवनको भी नह रखना चा ँ गी’॥ ६४ ॥
ऐसे अ कठोर वचन कहकर कै के यीने सारे आभूषण उतार दये और बना ब रके ही
वह खाली जमीनपर लेट गयी। उस समय वह गसे भूतलपर गरी ◌इ कसी क रीके
समान जान पड़ती थी॥ ६५ ॥
उसका मुख बढ़े ए अमष पी अ कारसे आ ा दत हो रहा था। उसके अ से उ म
पु हार और आभूषण उतर चुके थे। उस दशाम उदास मनवाली राजरानी कै के यी जसके तारे
डू ब गये ह , उस अ कारा आकाशके समान तीत होती थी॥ ६६ ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म नवाँ सग पूरा
आ॥ ९॥
दसवाँ सग

राजा दशरथका कै के यीके भवनम जाना, उसे कोपभवनम त देखकर द:ु खी होना और
उसको अनेक कारसे सा ना देना
पा पनी कु ाने जब देवी कै के यीको ब त उलटी बात समझा द , तब वह वषा
बाणसे व ◌इ क रीके समान धरतीपर लोटने लगी॥ १ ॥
म राके बताये ए सम कायको यह ब त उ म है—ऐसा मन-ही-मन न य करके
बातचीतम कु शल भा मनी कै के यीने म रासे धीरे-धीरे अपना सारा म बता दया॥ २ ॥
म राके वचन से मो हत एवं दीन ◌इ भा मनी कै के यी पूव न य करके
नागक ाक भाँ त गरम और लंबी साँस ख चने लगी और दो घड़ीतक अपने लये सुखदायक
मागका वचार करती रही॥ ३ १/२ ॥
और वह म रा जो कै के यीका हत चाहनेवाली सु द् थी और उसीके मनोरथको स
करनेक अ भलाषा रखती थी, कै के यीके उस न यको सुनकर ब त स ◌इ; मानो उसे
को◌इ ब त बड़ी स मल गयी हो॥
तदन र रोषम भरी ◌इ देवी कै के यी अपने कत का भलीभाँ त न य कर मुखम लम
त भ ह को टेढ़ी करके धरतीपर सो गयी। और ा करती अबला ही तो थी॥ ५ १/२ ॥
तदन र उस के कयराजकु मारीने अपने व च पु हार और द आभूषण को उतारकर
फ क दया। वे सारे आभूषण धरतीपर य -त पड़े थे॥ ६ १/२ ॥
जैसे छटके ए तारे आकाशक शोभा बढ़ाते ह, उसी कार फ के ए वे पु हार और
आभूषण वहाँ भू मक शोभा बढ़ा रहे थे॥ ७ १/२ ॥
म लन व पहनकर और सारे के श को ढ़ता-पूवक एक ही वेणीम बाँधकर कोपभवनम
पड़ी ◌इ कै के यी बलहीन अथवा अचेत ◌इ क रीके समान जान पड़ती थी॥ ८ १/२ ॥
उधर महाराज दशरथ म ी आ दको ीरामके रा ा भषेकक तैयारीके लये आ ा दे
सबको यथासमय उप त होनेके लये कहकर र नवासम गये॥ ९ १/२ ॥
उ ने सोचा—आज ही ीरामके अ भषेकक बात स क गयी है, इस लये यह
समाचार अभी कसी रानीको नह मालूम आ होगा; ऐसा वचारकर जते य राजा दशरथने
अपनी ारी रानीको यह य संवाद सुनानेके लये अ :पुरम वेश कया॥ १० १/२ ॥
उन महायश ी नरेशने पहले कै के यीके े भवनम वेश कया, मानो ेत बादल से
यु रा यु आकाशम च माने पदापण कया हो॥ ११ १/२ ॥
उस भवनम तोते, मोर, ौ और हंस आ द प ी कलरव कर रहे थे, वहाँ वा का मधुर
घोष गूँज रहा था, ब त-सी कु ा और बौनी दा सयाँ भरी ◌इ थ , च ा और अशोकसे
सुशो भत ब त-से लताभवन और च म र उस महलक शोभा बढ़ा रहे थे॥ १२-१३ ॥
हाथीदाँत, चाँदी और सोनेक बनी ◌इ वे दय से संयु उस भवनको न फू लने-
फलनेवाले वृ और ब त-सी बाव ड़याँ सुशो भत कर रही थ ॥ १४ ॥
उसम हाथीदाँत, चाँदी और सोनेके बने ए उ म सहासन रखे गये थे। नाना कारके
अ , पान और भाँ त-भाँ तके भ -भो पदाथ से वह भवन भरा-पूरा था। ब मू
आभूषण से स कै के यीका वह भवन गके समान शोभा पा रहा था॥ १५ १/२ ॥
अपने उस समृ शाली अ :पुरम वेश करके महाराज राजा दशरथने वहाँक उ म
श ापर रानी कै के यीको नह देखा॥ १६ १/२ ॥
कामबलसे संयु वे नरेश रानीक स ता बढ़ानेक अ भलाषासे भीतर गये थे। वहाँ
अपनी ारी प ीको न देखकर उनके मनम बड़ा वषाद आ और वे उनके वषयम पूछ-ताछ
करने लगे॥ १७ १/२ ॥
इससे पहले रानी कै के यी राजाके आगमनक उस बेलाम कह अ नह जाती थ ,
राजाने कभी सूने भवनम वेश नह कया था, इसी लये वे घरम आकर कै के यीके बारेम पूछने
लगे। उ यह मालूम नह था क वह मूखा को◌इ ाथ स करना चाहती है, अत: उ ने
पहलेक ही भाँ त तहारीसे उसके वषयम पूछा॥ १८-१९ १/२ ॥
तहारी ब त डरी ◌इ थी। उसने हाथ जोड़कर कहा—‘देव! देवी कै के यी अ
कु पत हो कोपभवनक ओर दौड़ी गयी ह’॥ २० १/२ ॥
तहारीक यह बात सुनकर राजाका मन ब त उदास हो गया, उनक इ याँ च ल एवं
ाकु ल हो उठ और वे पुन: अ धक वषाद करने लगे॥ २१ १/२ ॥
कोपभवनम वह भू मपर पड़ी थी और इस तरह लेटी ◌इ थी, जो उसके लये यो नह
था। राजाने दु:खके कारण संत -से होकर उसे इस अव ाम देखा॥ २२ १/२ ॥
राजा बूढ़े थे और उनक वह प ी त णी थी, अत: वे उसे अपने ाण से भी बढ़कर मानते
थे। राजाके मनम को◌इ पाप नह था; परंतु कै के यी अपने मनम पापपूण संक लये ए थी।
उ ने उसे कटी ◌इ लताक भाँ त पृ ीपर पड़ी देखा—मानो को◌इ देवा ना गसे
भूतलपर गर पड़ी हो ॥ २३-२४ ॥
वह ग क री, देवलोकसे ुत ◌इ अ रा, ल माया और जालम बँधी
◌इ ह रणीके समान जान पड़ती थी॥ २५ ॥
जैसे को◌इ महान् गजराज वनम ाधके ारा वष ल बाणसे व होकर गरी ◌इ
अ दु: खत ह थनीका ेहवश श करता है, उसी कार कामी राजा दशरथने महान्
दु:खम पड़ी ◌इ कमलनयनी भाया कै के यीका ेहपूवक दोन हाथ से श कया। उस समय
उनके मनम सब ओरसे यह भय समा गया था क न जाने यह ा कहेगी और ा करेगी? वे
उसके अ पर हाथ फे रते ए उससे इस कार बोले—॥ २६-२७ ॥
‘दे व! तु ारा ोध मुझपर है, ऐसा तो मुझे व ास नह होता। फर कसने तु ारा
तर ार कया है? कसके ारा तु ारी न ा क गयी है?॥
‘क ा ण! तुम जो इस तरह मुझे दु:ख देनेके लये धूलम लोट रही हो, इसका ा
कारण है? मेरे च को मथ डालनेवाली सु री! मेरे मनम तो सदा तु ारे क ाणक ही भावना
रहती है। फर मेरे रहते ए तुम कस लये धरतीपर सो रही हो? जान पड़ता है तु ारे च पर
कसी पशाचने अ धकार कर लया है॥ २९ १/२ ॥
‘भा म न! तुम अपना रोग बताओ। मेरे यहाँ ब त-से च क ाकु शल वै ह, ज मने
सब कारसे संतु कर रखा है, वे तु सुखी कर दगे॥ ३० १/२ ॥
‘अथवा कहो, आज कसका य करना है? या कसने तु ारा अ य कया है? तु ारे
कस उपकारीको आज य मनोरथ ा हो अथवा कस अपकारीको अ अ य—कठोर
द दया जाय?॥ ३१ १/२ ॥
‘दे व! तुम न रोओ, अपनी देहको न सुखाओ; आज तु ारी इ ाके अनुसार कस
अव का वध कया जाय? अथवा कस ाणद पानेयो अपराधीको भी मु कर दया
जाय? कस द र को धनवान् और कस धनवा ो कं गाल बना दया जाय?॥ ३२-३३ ॥
‘म और मेरे सभी सेवक तु ारी आ ाके अधीन ह। तु ारे कसी भी मनोरथको म भंग नह
कर सकता—उसे पूरा करके ही र ँ गा, चाहे उसके लये मुझे अपने ाण ही न देने पड़;
अत: तु ारे मनम जो कु छ हो, उसे कहो॥ ३४ १/२ ॥
‘अपने बलको जानते ए भी तु मुझपर संदेह नह करना चा हये। म अपने स म क
शपथ खाकर कहता ँ , जससे तु स ता हो, वही क ँ गा॥ ३५ १/२ ॥
‘जहाँतक सूयका च घूमता है, वहाँतक सारी पृ ी मेरे अ धकारम है। वड़, स -ु
सौवीर, सौरा , द ण भारतके सारे देश तथा अ , व , मगध, म , काशी और कोसल—
इन सभी समृ शाली देश पर मेरा आ धप है॥ ३६-३७ ॥
‘के कयराजन न! उनम पैदा होनेवाले भाँ त-भाँ तके , धन-धा और बकरी-भड़
आ द जो भी तुम मनसे लेना चाहती हो, वह मुझसे माँग लो॥ ३८ ॥
‘भी ! इतना ेश उठाने— यास करनेक ा आव कता है? शोभने! उठो, उठो।
कै के य! ठीक-ठीक बताओ, तु कससे कौन-सा भय ा आ है? जैसे अंशुमाली सूय कु हरा
दूर कर देते ह, उसी कार म तु ारे भयका सवथा नवारण कर दूँगा’॥ ३९ ॥
राजाके ऐसा कहनेपर कै के यीको कु छ सा ना मली। अब उसे अपने ामीसे वह
अ य बात कहनेक इ ा ◌इ। उसने प तको और अ धक पीड़ा देनेक तैयारी क ॥ ४० ॥
इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म दसवाँ सग पूरा
आ॥ १०॥
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Soft music from within stole upon the air, and sweet voices sang:

Warrior! rest; thy toil is o’er,


The trumpet’s sound calls thee no more,
The Eagle Standard floats on high,
But closed is its defender’s eye.

Strewn flowers above the honored dead,


Shed fragrance o’er his hallowed bed;
Let the unfading Amaranth twine
With Cypress and the Eglantine.

Glory to Him, whose home of love


Waits to receive his soul above!
Glory to Him, whose mighty power
Supports the Christian’s dying hour!

Christian! now thy warfare ends;


Thy God his gracious love extends;
Through Him the victory is won;
The triumph gained, the conflict done.

The reign of the depraved and barbarous persecutor of the


Christians had closed with the succession of Servius Galba, a new
era had dawned upon their fortunes; and, although the “blood of the
Martyrs” had proved “as seed to the Church,” yet the season of
peace and quiet, which now ensued served to foster and ripen the
Christian graces, which, in those days of cruelty and inhuman bigotry
acquired a stern and almost gloomy character. The mild and
beautiful religion of our Saviour, when allowed its free course, in the
sweet scenes of domestic life, shone with a more benignant lustre,
and its votaries, no longer shuddering with the terror incident to
human nature, at the consequences of avowing their faith, fearlessly
taught and practised its heaven-born precepts.
The virtues of the noble family whose fortunes we have been
following, were expanded beneath the rays of the sun of prosperity,
and, for ages, some of the most undaunted defenders of the
Christian faith were ranked among its descendants. Connected with
illustrious and powerful houses, they were no longer exposed to
persecution themselves, and, were enabled, by their influence, not
only to promote the rapidly progressing cause of Christianity, but to
save many of its disciples from suffering in the days of trial, which
ensued in some of the subsequent reigns.

We have now closed our tale of the early Christians,” said Herbert,
“and, tho’ it is a simple story, and pretends to no romance or mystery,
yet it is not destitute of a moral.” “Very far from it,” said Mrs. Wilson,
“who can read the short, but well authenticated account of the death
of Nero, and contrast it with that of the aged Christian, or even with
the last moments of the erring but misguided Sybil, without saying,
‘Let my death be that of the righteous.’”
“Well, my little brother,” said Herbert, addressing Charles, “you
have very kindly abstained from criticisms during the course of our
reading. Now tell us if you have discovered any discrepancies,
through the narrative, as you are now, no doubt, by your
acquaintance with Roman history, able to discover.” “You are
laughing at me, Herbert, but I will tell you one error. It was not Nero, I
believe, who compelled the Senate to sanction the election of his
horse to the consulship, but Heliogabas.” “I think you are right,” said
Herbert. “He was, however, a kindred spirit; and now, we will
compare notes upon our improvement this winter; beginning with
you, Charles, of whose progress I can, in some measure report,
being your instructor.” “And, besides my regular lessons,” said
Charles, “I have read more than half through Rollins Ancient History
aloud to Susan.” “And,” said Susan, “besides listening to Charles,
while I sewed, I have reviewed the History of England, and read
Cowper’s Task, not to mention reading the newspaper, etc., etc., and
all this in addition to my Latin lesson with Herbert.” “Please do
explain those et ceteras, my pretty cousin.” “Not I,” she replied, “I
cannot burden my memory with any more of my multifarious
occupations.” “You have forgotten that we have read the Pilgrim’s
Progress again.” “Ah! true,” said Susan, “and the life of the good old
dreamer; now, for as good an account of your winter studies, my
dear sister and cousin; but I am inclined to believe you will be
deficient unless you dignify with the name of study the art of making
bread, puddings, and pies, etc.” “One of the most useful studies,
Susan,” said Herbert, “only not leave the rest undone.” “Do not
imagine we have become mere household automatons,” said
Elizabeth. “In addition to a tolerable stock of the knowledge to which
Susan refers, we have read Gibbon’s Decline and Fall of the Roman
Empire and Hunter’s Sacred Biography, besides reaping some
benefit from Charles’ reading.” “And I have initiated Elizabeth into my
little stock of French,” said Mary, “but, Herbert, we shall not allow you
to be sole catechist; we shall require an account of the manner in
which you have spent your solitary hours, which, I am sure, have not
been few.” “Must I make full confession,” said he. “Full and free,
without prevarication or equivocation.” “Seriously, then, dear Mary, it
requires no little labor to retain my position in my class, the other
members of which are now pacing the halls of old Harvard, in
addition to those pleasant employments enjoyed in common with the
rest of you.” “Setting apart a little time,” said Susan, laughing merrily,
“devoted to the Muses. Ah! Herbert, I have made the discovery,
partly by my own sagacity, and partly by the tell-tale expression of
Aunt Wilson’s countenance, that you are the author of much of the
poetry which has entertained us this winter.” “’Twas but the
amusement of a passing hour, dear Susan, and if it has been a
source of interest to you, an important end is attained.” “And you
must continue that interest, my son,” said Mrs. Wilson, “if it will not
interfere with other duties. I think,” added she, addressing Mary and
Susan, “that your parents will approve your winter employment, and
that in after time you will review them without regret.” “That I am sure
we shall,” said Mary.
Chapter XIII

They had borne all unmoved; disease and death,


The pangs of famine, hard and weary toil;
That, to their sons, they might bequeath a land,
The home of liberty. Shall those sons now
Barter the rich inheritance?

Some days had passed after the conversation which closed the
last chapter. A cold stormy evening found our little family without
visitors and prepared, as they drew around the table, which
displayed a goodly collection of needlework, etc., to listen to Herbert
as he read from a manuscript provided by Mrs. Wilson for the
entertainment of the evening.

Years have passed away and the events of the War of the
American Revolution are mingling with the obscurity of the past, the
glorious achievement of our liberty has opened a new era in our
history, “old things are done away,” but the imagination delights to
linger around the scenes of what seems now “olden times”; scenes
of peril and distress, but, over whose remembrance a deep interest,
a magical charm, is thrown by the knowledge that our kindred and
friends bore important parts in the drama, and that the closing act
was the freedom of our country. Many were the events of deep and
thrilling interest which are now buried in oblivion, or known only to
those immediately concerned. The reminiscences which are the
subject of these remarks may be wanting in that intense interest, but
as being a delineation of the times, of their manners and feelings,
and true, in all their main incidents, they may claim some share of
attention. It was towards the latter part of May, 1775, but a short time
before the memorable battle of Bunker Hill, that a horseman,
wearied and worn with travel, exposed to the rays of the burning sun,
on a day of uncommon heat for the season, and whose horse
seemed sinking with fatigue, turned into a shady lane, leading from
the more public road to a small cluster of buildings, in the
comparatively thinly settled town of Malden, about four miles from
Boston. As he entered the pleasant shade, formed by the apple trees
which skirted the road, he permitted the tired animal to slacken its
pace, first casting an anxious and inquiring glance about him.
Apparently seeing no immediate cause for fear, he continued to ride
slowly; removed his hat, and wiping his warm and dusty brow,
appeared to breathe more freely. His dress was that of a gentleman,
and his countenance, though pale and disturbed, was intelligent and
open. After pursuing this pace for about half a mile, the cool and
pleasant sound of running water directed his attention to a watering
place, at the side of the road, and the renewed spirit of the steed,
and his evident wish to taste the luxury, induced his master to
dismount, and lead him to the fountain. At this moment a small dog
springing up, and barking vehemently, he perceived a woman seated
upon a bank near. He started, for his looks and manner had
indicated that he sought concealment, and, aiming a blow at the
waspish little animal, was preparing to remount his horse. “Come
back, Faith,” said the woman, sharply, then, as the dog slunk back to
her feet, she continued, in an apologetic tone: “He can’t do much
harm, sir; he has seen his best days; only he might frighten the
beast, though, to be sure, he looks too tired to mind a trifle.” “Do you
live in this neighborhood?” said the traveler, permitting his horse to
graze the green herbage around the watering place. “Just over the
edge of yonder hill,” said she, “but it’s something of a walk, and I’ve
nobody now to do my errands since John has gone.” “Do you know
Capt. B.’s family? Is he at home?” “Know the family! That’s what I do;
at home? No; bless your heart, no; at home! indeed, you’ll find no
able-bodied men at home now, more especially the Captain. Where
is he? Did you say? That’s what I don’t know. Sent on some service
or other; left every thing, sir, family, land, cattle, and all at loose
ends, for the sake of his country; for the matter of that, old Sam
Lynde, who has lost one leg, and is nearly seventy, is the only man
left behind; and he would be glad to go; I can tell you. The country is
all in arms, sir, it’s as much as ever the reg’lars over in Boston can
get any food to eat, or wood to burn.” Without waiting to hear more
the questioner turned his horse. “Well,” said she, in a low soliloquy,
as he rode away, “I shouldn’t wonder if he was a Tory, for his face
didn’t brighten a bit when I told him how alive and stirring our people
were; I’ll warrant Faithful mistrusted him, or he wouldn’t have been
so spiteful.” So saying she rose, and passing through a stile, into a
path which led through a meadow, bent her course in the direction
she had indicated as her home.
Meanwhile, the rider had pursued his way; as he passed he
regarded the objects around him with much interest and, when he
arrived at a spring of water at the side of the road, about a mile from
the last stopping place, he rested his horse upon the little stone
bridge which crossed the stream proceeding from the spring. Gazing
earnestly upon the pleasant spot, overshadowed by tall trees, a train
of sad, not unpleasant, reflections passed through his mind. Who,
that after long years of absence, has revisited the spot where his
infancy and childhood had passed in the bosom of affection, but can
sympathize with such reflections? The well remembered perfume of
the mint and sweet herbs which grew around the never-failing spring
in rich profusion revived in his memory the playful hours of youth; he
could, in imagination, see the never-to-be-forgotten form of his
mother, as she came down the avenue which led to the house, to
watch the sports of her children, could retrace the pleasant smile and
beaming glance of her eye as she witnessed their little feats of skill
and strength, and hear her kindly voice warn them of danger; and a
mild but grave face of his father, as he would sometimes join them,
and, leaning over the balustrade of the little bridge, would address to
them some remark of affectionate interest, was present to his mind,
as if but a day had intervened. Where were now those kind
guardians, where the happy group which had then mingled in sweet
communion? The grave had closed over the first, and time, absence
and civil dissension had separated the last. As these thoughts
saddened his heart, tears filled his eyes, but the heavy roll of cannon
from some ship in the harbor aroused him from his reverie and,
turning from the spot which had awakened these memories, he
passed up the avenue we have referred to, to the mansion of his
birth, and now the residence of the family of his brother. All was quiet
around, except, at intervals, the merry laugh or gleeful shout of
childish mirth echoed from the green lawn, where he saw three little
beings pursuing their happy sport. “The children of my brother,” he
thought, but they were too far for him to distinguish them particularly.
Alighting and approaching the door, he saw an elderly female seated
and engaged in knitting. As he drew near she looked up, and, after
scanning his countenance attentively a few moments, she rose
hastily, dropped her work, and ejaculated: “Mercy upon me, Mr.
Nathaniel! Is it you?” “It is indeed myself, Prudy; how has it
happened that, after so many years, you have not forgotten me?”
“There is not one of your family I shall forget while I have reason,”
said she, “but the news reached us that you had sailed for England
and I never thought to see you again.” “I am now on my way to
Boston, to embark in the first vessel that leaves the harbor for the
home of my ancestors, but I am escaping from enemies, my good
Prudy, enemies to me and, as I believe, to their lawful king. Will you
afford refreshment to one whom you no doubt believe to be a traitor
to his country?” “You should not talk so, Mr. Nathaniel; you are in
your brother’s house, though, may be, if he were here, he would look
upon you with a frowning brow; yet his wife will not, I am sure, and I
will but let her know you are here before I take care of you and your
horse.” She then led the way into the house and, showing him into
an apartment, she left him alone. How well remembered was the
prospect from those windows! The pleasant green that sloped from
the house, the old pear trees at the foot of the declivity, while, in the
distance, but directly opposite, lay the town of Boston, with its tall
spires, and the harbor, with its masts. There was the clump of walnut
trees where he had gathered nuts and, near by, the old apple tree
which had obtained the name of “mother’s tree,” because it bore an
apple which was her favorite fruit, and even as he gazed, the old bell
of Brattle Street Church, with its deep tone, struck its well
remembered chime. There is something in the breath of spring that
especially revives the memory of the past and it was with many a
sweet and sad recollection that the wanderer lingered near the
window and turned reluctantly at the opening of the door. The wife of
his brother greeted him with affectionate kindness and her sympathy
and soothing words cheered his heart. In answer to her wish that he
could stay with them, could enter into the feelings of his countrymen
and aid them in their exertions for freedom from unjust exactions, he
said: “It is in vain, dear Hester, to think of it; though I may feel as you
do, that our king has been misled by evil counsellors; that he has
imposed harsh restrictions upon these colonies, and, by these
means, alienated the affections of the people, still, in my opinion, my
allegiance is due to him and to him it must be paid. Other influences
have contributed to strengthen my early attachment to the English
government; since I last saw you I have been betrothed to the
daughter of a British officer, most amiable and beloved, and have
had my hopes and anticipations blasted by her death. Her country
must still be mine; but I have been almost a martyr to my loyalty, for I
have been seized as a Tory, accused, though most unjustly, of
transmitting intelligence to the royal army, immured in close
confinement, and, though not harshly treated, yet debarred from
communication with my friends. The hours spent in such solitude
were dreary enough, uncheered by sympathy or affection, though
not abandoned by hope, for I still trusted in the exertions of those
who, I was confident, would use their utmost endeavors for my
release. I was not mistaken in my expectations, for two days ago, as
I paced my gloomy apartment in solitary musing, the door was
unlocked and a person entered who had a few times officiated as my
jailor. He performed some trifling offices and, as he retired, left the
door ajar, casting, as I thought, a significant glance at me. I followed
at some distance, but, losing sight of him at the foot of the stairs, I
passed out at the door; and, seeing a horse, prepared for a journey,
fastened to the railing, I mounted without any hesitation, concluding,
I have no doubt rightly, that the means of escape were thus provided
by friends. I have scarcely allowed myself rest or refreshment, being
fearful of pursuit, and, by changing horses, I have at last arrived so
near the place of my destination, which is Boston, from whence, as
soon as possible, I shall embark for England; for I can not join
against my countrymen in this contest. You will sympathize with me
in this resolution, my dear sister?” “Yes,” said she, “but you are
exhausted and must stay here until you are refreshed.” “No,” he said,
“if I can elude the Argus vigilance of your excited populace I shall be
in Boston tonight and, besides, I must not subject your good
husband to the mortification of knowing that his Tory brother has
obtained an asylum under his roof. I know too well his
uncompromising zeal in behalf of the colonies and his determined
animosity to those whom he considers their enemies.” Prudy now
entered and placed upon the table the refreshments she had
prepared, with many excuses for what she termed the homely fare;
but the fine fish, the fresh, though coarse, bread, and sweet butter
needed no apology and were duly appreciated by the way-worn
traveler. To renew what she called his exhausted spirits she had
prepared what was, at that time, a luxury, a cup of tea, and, as he
inhaled the perfume so grateful to the wearied frame, he smiled at
the good woman and said: “How is this, Prudy, are you not too much
of a patriot to use this prohibited beverage, and in the house, too, of
one of the most determined rebels against his king?” The color
mounted in the cheeks of the faithful domestic as she prepared to
make an energetic defence, but her mistress replied, with a ready
smile: “Nay, brother, you must not quarrel with your physician, or the
medicine, though it be contraband. Your brother, being far away, is
not responsible for the misdemeanors of the two lonely inhabitants of
his deserted home. And, truly, this cheering herb is now only used as
a medicine. We join heart and hand, however, with our brave
countrymen in deprecating the tyrannical laws which have deprived
us of many comforts, besides, this more especially,” she said, and
the tears glittered in her eyes, “of the society of those nearest and
dearest to our hearts.” “God grant, dear Hester, that this most
unnatural war may soon cease, for, if continued, misery and
extermination will be the fate of these flourishing colonies.” “We hope
for better things, brother, the united exertions of so many true and
noble hearts as are scattered through the country, with the help of
God, in a just cause, will effect miracles.” Three beautiful little girls
now appeared at the door and, being told by their mother to
approach, received the caresses of their uncle. The eldest was a
bright and beautiful child of nine years, full of life and animation; the
second a mild, sedate and quiet little creature of five, and the
youngest a fair, rosy and plump little one of two, whose every step
was a bound and whose joyous laugh exhilarated the listener. “You
are happy, Hester, in this little group; they are very lovely and health
and light-hearted pleasure is expressed in every motion.” The praise
of these objects of her affection brought a bright glow of satisfaction
to her cheeks. “Ah,” said she, “if their father was but with us; while
danger and death surround him we can not be happy.” The tears that
again filled her eyes at this recollection dimmed the flush of affection
and Prudy, who was most devotedly attached to her, said, with some
indignation: “Shame upon the tyrant who has cast such a shadow
over our happy homes! I must say what I think, Mr. Nathaniel, if he is
your king. What business had he to interfere with our rights, and to
impose taxes upon us to support his unjust wars and wicked
extravagance?” “He has had bad advisers, Prudy, and the time will
come when he will be advised of this.” “Too late for his good,” said
she. “Our people would not have known their strength, perhaps, but
when they once find it out they will no longer live subjects to
England.” “Perhaps you are right,” said he, “and when these cruel
difficulties are all settled, my good friend, we will yet hope to meet
and discuss these questions amicably. I must now leave you, my
kind sister, with my prayer that the blessing of Heaven may rest upon
you and your dear family; and you, Prudy, you, who watched over
my youth, and was ever kind and affectionate to the wayward boy”—
his voice faltered—“if I never meet you again on earth, may we meet
in Heaven!” The good woman now sobbed aloud as he shook her
hand, and no less affectionate was the farewell upon the part of the
mother and her little family. “You will let us hear of your safety, dear
brother, before you leave the country?” “If I possibly can; I am not,
however, without serious fears of being apprehended this side of
Boston.” At this moment an energetic but cracked voice was heard,
singing the chorus to one of the patriotic songs of the day:

“So, one and all, my merry boys,


Be up, and bravely doing;
We’ll drive the British o’er the seas,
And fairly prove their ruin.”

“There,” said Prudy, hastily wiping her eyes; “there’s old Sam
Lynde, going with the market cart, over to Charlestown; now, if we
could but make him think you were sent by your brother, he never
would suspect you to be a Tory, and then you might go safely.” She
went out in haste and they soon heard her voice at the door
conferring with the old man: “People are so suspicious now, you
know, Sam,” said she, “that he might be stopped and hindered, when
it is of so much importance that he should be there by sundown.” “I’ll
see to it; I’ll see to it,” said he, as he adjusted his basket, and
mounted the vehicle with difficulty. “Well, wait a minute,” said she,
and, returning, she told them, what they had already gathered, that it
would be expedient for him to proceed immediately under the
auspices of the old gardener. With a most affectionate but sad adieu
they parted, fearing what proved but too true, that they should never
meet again on earth. This was but one of the many parting scenes of
that eventful period; that season of civil war, for it truly deserved that
name, though three thousand miles of wide ocean lay between the
contending nations. Families were divided, father against son and
brother against brother; kindred ties were severed and the heavy
cloud of domestic dissension hung over this once peaceful country.
But, confident in a just cause, a band of noble spirits joined in a holy
league to resist oppression, to rise above the crushing hand of
tyrannical power, and force their way to freedom. It was a glorious
resolution and gloriously did it triumph.
The soft breeze of evening, laden with the sweets of spring, stole
over the fading landscape, the light tinkle of some solitary cow-bell
and the shrill and monotonous notes of the frogs alone breaking the
stillness immediately around the anxious listeners who were awaiting
the return of the old market man, which, they hoped, would relieve
their suspense as to the safety of the fugitive. But, notwithstanding
the calm repose of this scene was undisturbed, the busy sounds of
life were heard in the distance, for, though the road to Boston by the
highway was four miles, yet the distance across the marshes, which
lay opposite the house, was but little over a mile, and the roll of the
drum, with other martial sounds, was distinctly heard. Sad and
depressing the thought that weighed upon the mind of the mistress
of the mansion; her little ones were at rest and all was quiet around,
but how long would it remain so? Her husband was far away, the
time of his return uncertain, if, indeed, he would ever again return.
The enemy were becoming more and more incensed at the insults
and aggressions of the colonists, who, in their turn, were burning
with indignation at the tyranny of the regular troops, as they were
called, and each day produced some new cause of hatred and
defiance on both sides. Scarcely a ray of hope lighted the deep
gloom of the future and, though striving to resign herself and her all
into the hands of Almighty Love, her heart throbbed with anxious
fears. The good Prudy sat near, plying her knitting needles, which, in
those days of simplicity, before the inventions of modern times
rendered their use obsolete, or, at least unfashionable, were
indispensable accompaniments of the female; and, with the earnest
freedom and interest which her long residence in the family
warranted, endeavored to wile away the melancholy which shaded
the brow of her mistress. “It seems but a few days,” said she, “since
they were all children and I, though not quite so young, as blithe and
happy, for never had a poor orphan ever found a happier home than
I had. I was treated as one of the family and as long as I live I shall
cleave to it. The sight of Mr. Nathaniel has brought old times to my
mind and I can not abide the thought that the son of his father is a
Tory, but he never had the firm judgment of his brother. Trust in the
Lord, my mistress, and all will be right, let what may happen. It is a
great lesson to learn but, once learned, it serves us all the rest of our
lives. I much wonder old Sam is so long coming; he is not gone,
usually, more than two hours.” “He is old and infirm, Prudy, and we
need not wonder if we do not see him before morning; but we will
watch some time longer.” And, changing the conversation, they
conferred upon their household affairs and domestic matters in
which the kind handmaid took an affectionate interest. Another hour
passed and, becoming convinced that something had occurred to
prevent the return of the old man, they retired to rest.

“Would it have been better, mother,” said Elizabeth, “if the colonies
had been contented to remain under the English government? When
I hear of these sad times of war, I am almost tempted to wish they
had continued in quiet subjection.” “The exactions and
encroachments of the parent country,” said Mrs. Wilson, “were too
flagrant; the colonists would have dishonored their ancestors had
they borne unmoved the tyranny of the English ministry, but it was
long before they could divest themselves of the feeling of
dependence upon England, the home of their fathers, and break the
tie which had bound them to their laws and institutions. They
submitted to many petty abuses and extortions, they petitioned and
remonstrated for the redress of more palpable ones, and it was not
until a series of gross insults and unpardonable neglect of every
appeal to the justice of the king and his ministers had aroused the
indignation of the people of these States to a pitch that could not be
controlled that they had recourse to arms as a last resort.”
“And the result showed,” said Herbert, “that the God of justice was
upon their side, and fought their battles, for, surely, there was never
a more apparently hopeless cause than that of the united colonies,
against their powerful oppressor.”
“Here is a young hero,” said Susan, turning to Charles, “who would
have joined heart and hand with his countrymen. I wish you had
marked how he winced at your unpatriotic question, Elizabeth.”
“Notwithstanding which question,” said Herbert, “I am very sure if
our gentle sister had lived in those days she would have assisted
energetically in melting the weights of the old clock for bullets, or any
other measure deemed necessary by the fair enthusiasts of those
trying times.”
“I am very sure, dear brother, however much I might deprecate the
war, and its train of evils, the comforts of those dear to me would
have been uppermost in my thoughts.” After cheerful conversation,
they separated for the night.
Chapter XIV

A charm lingers over the tales of the past,


The grey mist of time o’er their beauty is cast;
Its thin texture heightens the power of the spell,
And the mystic enchantment we would not dispel.

A mild and pleasant morning tempted the young party to a walk,


which was rendered more delightful by anecdotes related by Herbert
relative to the first settlement of the place, with which he had
become familiar from his intercourse with some of the aged people
of the town, and which caused many a laugh from their quaint
simplicity. He pointed out to them the site of the first building erected
for public worship, for the earliest object with our pious ancestors
was to provide a suitable place in which to bow together before the
God who had guided them over the wide waters to this pleasant
home; and the bell, which even at this time summoned the
inhabitants to their devotions, was the same which was sent by kind
friends from England for the service and ornament of the original
sanctuary. It was a spot, retired from the village, upon the seashore,
and, though the sacred building had long since been removed, there
was a quiet loneliness about it, which seemed suited to the purpose
to which it had been dedicated. “When we return home,” said
Herbert, “I will read you some lines founded upon an anecdote
connected with the old church which formerly occupied this situation;
the moss-grown tombstone, covered with so many ancient
inscriptions, which you remember, Elizabeth, we have so often
endeavored to decipher, covers the remains of the good minister,
who figures as one of the characters, but I cannot hope to inspire
you with the same interest which I felt, when in my twelfth year, I first
listened to the story from the lips of a good old dame, who is no
longer among the living.” At the appointed time, after their return
home, he read the following lines; which they decided should be
called
A Tradition of the Year 1650
Time was, when tyrant power in Britain’s Isle
Ruled with despotic sway; when pious men
Were hunted like wild beasts if they should dare
To worship God in their own way; the way
Which they believed, in pure simplicity
To be acceptable to Him, whose eye
All seeing and all knowing, looks alone
At the intent and purpose of the heart.
With firm resolve they left their native land,
Their home, their own green fields, and shady lawns,
And o’er the pathless ocean took their course
To the wild shores of a far distant clime;
There, no proud king or haughty priest has power,
To mar their quiet peace and pious prayers.
Now, happy homes and fertile fields arose
On those far shores, and pointing to the heavens
The tall church spire reflected the bright sun;
The sons of God had gathered here, but, as
It was, in ancient time, when Satan came
Amidst their councils, and, with wily art
Laid schemes to tempt the holy man to sin,
So now, among the pious race, crept in
Some bad designing ones, whose cunning aim
Was to seduce the good and pious heart;
Or, failing this, to turn his holy zeal
To ridicule; to watch for some weak spot;
For, who, in this imperfect world of ours
Is free from imperfection; and, when found
With jeering mockery, to cause him shame,
In a small village dwelt a good old man
Beloved and honored for his kindly heart;
Zealous in prayer, in duty prompt and true;
With guileless life, and firm and holy faith,
The peaceful tenour of his life passed on;
The Sexton of the parish, his white hairs
Were reverenced by the simple pious flock,
To whom his services were duly paid,
Save by some graceless ones, who long had made
The kind old man the butt of many a joke;
But, as we often mark, the wicked jest
Would harmlessly rebound from its rude aim
And wound the miscreant who had sped the bolt.
’Twas on a windy, dark and stormy night
That the old sexton rose from his warm hearth
To brave the old and dreary autumn rain;
For, on each night, at nine, the old church bell
Was rung, with the intent that all should then
Go to their quiet rest; that peaceful sleep
Might be the portion of each weary frame
Till morn should rouse them to their daily toil.
Those were the days when superstition’s power
Was felt by all; none from its gloomy chains
Were free; the grave divine and the wise sage
Alike confessed its sway, its potent rule;
And, if dark fears of unknown ill had power
To shake the nerves of learned ministers,
We need not wonder if our worthy friend
Was not exempt from this besetting ill.
It was a night, he thought, when wicked fiends
Would triumph in the mischief they might cause;
And, though his faith in the Almighty power
To guard his steps, was all unshaken still,
Yet dismal fears and dark foreboding thought,
Would rush, unbidden, thro’ his beating heart.
The kind old dame shared in his fears of ill,
And, as with care, she wrapped about his neck
The warm and woolly comforter, with words
Of warning kind, she urged his quick return.
He sallied forth, and onward bent his way
To the lone church, which stood so near the shore
That the rude waves on such a night as this
Would almost dash their spray upon its side;
The wild wind roared amongst the woods, and seemed
Contending with the loud and deafening surge,
While the pale rays, which from his lantern gleamed
But served to show the black and muddy pools
That filled the road. Onward the good man strode,
And the same courage, summoned to his aid
Would have been lauded in the warrior bold.
Slowly the ponderous key turned in the bolt;
Through the broad aisle, he moved, with cautious tread,
Starting at the dull echo of his steps.
But, as he raised the light to seize the rope,
Its beams shone full upon the sacred desk;
What fearful sight appalled his shuddering gaze!
A Gorgon’s head usurped the holy place,
Which, to his terror-stricken mind appeared
The embodied form of Lucifer himself!
He stopped not to encounter the foul fiend,
But, rushing forth, stayed not his course, until
Safe landed at the reverened pastor’s door.
Great was the wonder, strong was the dismay
With which the pious man heard the dark tale;
But, with the conscious rectitude of truth,
He seized the Holy Book, with firm resolve
That the foul spirit should no longer hold
Usurped dominion o’er that hallowed spot.
Torrents of rain descending, seemed to warn
The zealous pair from the encounter rash,
Still, strong in faithful confidence, they gained
The fatal spot, when, with his talisman
Uplifted, uttering words of mighty power,
The pious pastor, with firm step and slow
Approached the dreaded form, though, strange to tell,
The wicked Tempter seemed to stand his ground,
Nearer and nearer they advance, and then
Ascend the stairs, armed for the conflict dire.
But, now, the shameless mockery unveiled
Shows but the head and horns of an old sheep,
A moment’s pause, and, then a pleasant smile
Illum’ed the good man’s face, as he addressed
The indignant sexton in a kindly tone.
“We have been weakly credulous, my friend,
“Our foolish fears have stolen our better sense,
“’Tis the vile trick of some rude infidel;
“But, we will turn his bad intent to good,
“And learn a lesson from this seeming ill.
“Henceforth, we will not suffer coward fear
“To thwart our judgment, or disturb our peace.”
So saying, with strong arm, he drew away
The unseemly object; and, with ready hand
The bell was rung by the old servitor;
And as they parted, each to his own home,
With mild and gentle tone, the pastor said,
“Do not forget, my good old friend, tonight,
“Ere you lie down upon your peaceful bed,
“To offer to our God, the prayer of faith,
“That He would turn the erring mind from sin.”
The morn arose, and the dark clouds dispersed,
Before the fresh and health inspiring gale,
When the malicious jester made his way
Towards the old church, to mark what the effect
Had been, of his vile mockery; whether
His trick had been discovered, or, unseen
By the old man, the foul caricature
Still occupied the holy preacher’s desk.
The beast he rode was vicious as himself,
For, as he turned the angle of the wall
From the highroad, upon the level green,
Scared by some object, which beset his path,
The fiery steed reared high, then plunging down
Threw his unwary master to the ground.
’Twas the grim object, which, with cunning skill,
He had prepared for the good Sexton’s harm,
And, which, on that dark night, the pious pair
Had drawn away, and thrown beside the wall.
With many a deep and heavy groan, he lay,
Till guided by the same wise Providence
The kind old man ’gainst whom the plot was laid,
Came to his rescue, and, with kindly care,
Soothed his distress, and brought him timely aid.

“I hope your memory is stored with many of these ‘legends of the


days of yore,’” said Mary, “and that you will find leisure to arrange
them in the same interesting form.” “It will be a powerful inducement
to attempt it, my dear cousin, if it will interest you.”
Chapter XV

On the succeeding evening Herbert proceeded to read to the


assembled listeners the continuation of the reminiscences of the
times of the American Revolution.
While the heart of many a patriotic American was throbbing with
indignation and anxiety, and the countenances of many a mother,
wife, daughter or sister was pale with watching and tears, the face of
nature was delightful and undisturbed. The soft breezes were rich
with the perfume of flowers and shrubs, the verdant fields glittered
with the dew, the sweet melody of birds and hum of insects
enlivened the scene, while the cattle, with measured steps, were
pacing the accustomed path, toward their green pasture. With the
early dawn the old marketman had returned, and brought stirring
news. The roads, he said, were filled with soldiers, and tents were
pitched in every convenient place; they would permit no provisions to
be carried into Boston, and had even succeeded in carrying off the
cattle which were pastured on the islands in the harbor, so that it was
supposed that the British troops were likely to have much difficulty in
procuring food. “Our troops are ready and brave enough,” said he, “if
they be not trained for service, and, what if their muskets be of all
sizes and shapes, the main thing is to know how to use them, which,
I’ll warrant they do.” They had proceeded without any interruption, he
said, until they had crossed Malden Bridge, when they were stopped
by a small party of soldiers, who, after some questions, permitted
him to go on, but refused to let the gentleman pass until they
received further orders from their commander; that he had waited
until they applied to him, who “luckily,” said the old man, “proved to
be General Knox, and you may be sure that he would see that any
friend of Captain B.’s had his rights, so, after some talk apart, he not
only allowed him to proceed, but sent a man with him, that he might
not be again stopped, and I saw him depart, after he had shaken
hands with me, and left this piece of money with me, like a
gentleman as he is.” He proceeded to say, that as it was late before
he concluded his business, he had stopped at the house of an old

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