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जबान - निबंध (balkrishn bhatta)
जबान - निबंध (balkrishn bhatta)
Chapter – 4 जबान
DU – SOL- NEP बालकृष्ण भट्ट
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Eklavyasnatak 1
• Pdf notes
SATENDER PRATAP SINGH
जबान बालकृष्ण भट्ट द्वारा ललखा गया एक प्रलिद्ध लललत ननबंध है।
इि ननबंध में लेखक ने मनुष्य की पााँच इं द्रियों का निश्लेषण रोचक अंदाज में
ककया है।
आाँख, नाक, कान, त्वचा और लजह्वा नामक पााँच इन्द्रियों के
द्वारा मनुष्य िंिार के निनिध निषयों का अनुभि करता है।
'लजह्वा / जीभ
अर्ाथत इं द्रियों का प्राबल्य केिल अपने निषय में है। अपना निषय छोड़
ये दूिरे के निषय में कुछ अधधकार नहीं रखतीं।
िभी इन्द्रियों की महत्ता पर बात करते हुए
यानी स्वच्छ और आकषथक रूप िे प्रस्तुत ककया गया पदार्थ देखते ही जीभ िे
पानी टपकने लगता है।
यह ननबंध निभभन्न उदाहरणों के द्वारा एक ओर ज़बान के माध्यम िे अस्वाद्रदष्ट
और दुगंध युि भोजन पहचानने की शनि के कारण उिका महत्त्व लिद्ध करता
है तो दूिरी तरफ जबान के चटोरे पन िाली प्रकृनत िे होने िाले नुकिान के बारे
में भी िचेत करता है।
यहााँ ननबंधकार 'ज़बान' के लक्षणात्मक प्रयोग द्वारा मानि जीिन में व्याप्त लालच
और स्वार्थ के कारण होने िाली हानन को रे खांककत करते हैं।
'जबान' पर ननयंत्रण रखकर हम बाकी िभी पर अपना अधधकार जमा िकते हैं।
व्यनि का फायदा और नुकिान दोनों की िजह 'जबान' ही है।
इिके िही प्रयोग द्वारा हम अपने धमत्र और शत्रु दोनों बना लेते हैं।
'ज़बान' यानी िाणी की ओर इशारा करते हुए ननबंधकार एक उदाहरण देते हैं -
अर्ाथत् कौआ ककिी की धन िंपधत्त को नहीं हरता, ककिी को हानन नहीं पहुाँचाता और
ना ही कोयल ककिी को धन िंपधत्त प्रदान करती है। ककिंतु कफर भी कोयल िभी को
प्यारी होती है। इन दोनों ही जीिों में िाणी का ही अंतर है।
स्पष्ट है कक हम अपनी िाणी द्वारा ककिी के नप्रय तो ककिी के अनप्रय हो िकते हैं
िमाज की यह िामान्य प्रिृधत्त है कक कटुभाषी या बद्धबान व्यनि को कोई
पिंद नहीं करता।
मानि जीिन के इनतहाि की ओर दृधष्ट डालते हुए लेखक इि ननबंध में ललखते हैं कक
ललखने िे पहले बोलने की प्रकिया आरं भ हुई र्ी।
आरं भभक द्रदनों में कहना और उिे कान िे िुनकर याद रखने की प्रिृधत्त ही
निद्यमान र्ी।
िे ललखते हैं कक कोई भी निधा अगर पहले ज़बान की प्रकिया िे उत्पन्न नहीं हुई
होती तो नेत्र, स्पशथ या अन्य इं द्रियों का कोई कायथ नहीं रह गया होता।
मानि स्वभाि का िूक्ष्म परीक्षण करते हुए जबान के महत्त्व को भट्ट जी
ने िोध िे भी जोड़ कर देखा है।
जो िाचाल लोग होते हैं िह अपने बोलने की आदत िे मजबूर होते हैं।
िौपदी ने यद्रद 'अंधे के पुत्र अंधे होते हैं इि ममथबेधी िाक्य को कह ममथ
तांडि न ककया होता और दुयोधन को पांडिों िे खार न पैदा हुई होती
ऐिे गप्पाष्टक, िाचाल और िज्रभाषी लोगों पर व्यंग्य करते हुए बालकृष्ण भट्ट ललखते हैं
कक आिश्यक नहीं है कक ईश्वर ने मुाँह में जीभ दी है तो कुछ भी कहना चाद्रहए।
इि लिललिले में उन्होंने निाबों और स्त्रियों िे िंबंधधत कुछ उदाहरण भी द्रदए हैं।
लेखक ने यह माना है
हमारी पहचान हमारी ज़बान ही है। इिी के द्वारा हम पहचाने जाते हैं।