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Unit - 3 Hindi – ‘ख’ GE

Chapter – 4 जबान
DU – SOL- NEP बालकृष्ण भट्ट
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Eklavyasnatak 1
• Pdf notes
SATENDER PRATAP SINGH
जबान बालकृष्ण भट्ट द्वारा ललखा गया एक प्रलिद्ध लललत ननबंध है।
इि ननबंध में लेखक ने मनुष्य की पााँच इं द्रियों का निश्लेषण रोचक अंदाज में
ककया है।
आाँख, नाक, कान, त्वचा और लजह्वा नामक पााँच इन्द्रियों के
द्वारा मनुष्य िंिार के निनिध निषयों का अनुभि करता है।

इन इं द्रियों के अभाि में मनुष्य िांिाररक निषयों का ज्ञान प्राप्त


कर पाने में अिमर्थ है

यही इन्द्रियााँ मनुष्य की निनिध कियाओं को प्रेररत भी करती हैं ।


लेखक बालकृष्ण भट्ट ने मानि की इन पााँच इं द्रियों में

'लजह्वा / जीभ

को अन्य चारों इन्द्रियों िे बेहतर माना है।

िभी इं द्रियों का िूक्ष्म अिलोकन कर उनकी तुलना िे 'जबान'


िे करते हैं और उिे बाकी इं द्रियों िे महत्त्वपूणथ मानते हैं।
इि ननबंध में व्यनिगत जीिन के अनेक उदाहरणों के माध्यम
िे लेखक ने 'जबान' को ताककिकता और रोचकता के िार्
श्रेष्ठ बताया है।

बालकृष्ण भट्ट जी ने इं द्रियों के गुण और दोष दोनों की


िमीक्षा करते हुए –

इन्द्रियों को ननयंत्रण में रखने के लाभ और ननयंत्रण में न रखने


पर हुई हानन का भी लजि ककया है।
ननबंध के शुरुआत में ही िभी इं द्रियों की चचाथ करते हुए िह कहते हैं
कक प्रत्येक इन्द्रिय का अपना निलशष्ट काम है और इनका एक दूिरे िे
अधधक िरोकार नहीं रहता।

लजि प्रकार आाँखों का काम है देखना

कानों का िुनना है पर दोनों का एक दूिरे िे कोई िरोकार नहीं है।

ठीक िैिे ही नाक का काम है िूाँघना लजिका स्पशथ िे कोई लेना-देना


नहीं है।

अर्ाथत इं द्रियों का प्राबल्य केिल अपने निषय में है। अपना निषय छोड़
ये दूिरे के निषय में कुछ अधधकार नहीं रखतीं।
िभी इन्द्रियों की महत्ता पर बात करते हुए

ननबंधकार इि ननबंध में 'जबान' को िबिे प्रबल और अन्य चारों


इं द्रियों पर प्रभाि डालने िाला मानते हैं।

'जबान' अपने क्षेत्र के िार्-िार् अन्य इं द्रियों की िीमा में भी प्रिेश


करके िब को प्रभानित करती है।
"ज़बान िब इन्द्रियों में इतनी प्रबल है

कक यह जायका लेने के िमय, लििाय रि के जो इिका प्रधान


निषय है , शब्द, स्पशथ, रूप, गंध िबों को अपने िार् िमेटती है।"
अपनी बात को पुष्ट करने के ललए ननबंधकार ने

भोजन को आधार बनाकर अनेक उदाहरण द्रदए हैं।

िह ललखते हैं कक 'भोजन अगर गंधाता हो, या भोजन के आिपाि


दुगंध आ रही हो, या भोजन करने के स्थान पर गन्दगी द्रदखाई दे तो िह
कभी भी गले के नीचे नहीं उतरे गा।'
उिे ज़बान पर रखा ही नहीं जा िकेगा।

यानी जबान का प्रधान निषय यद्यनप रि है ककिंतु नेत्रों के माध्यम िे गंदगी की


िीमा में या नालिका के माध्यम िे दुगंध की िीमा में प्रिेश कर जबान अपनी
महत्ता स्थानपत करती है।

िुगंध या दुगंध का अन्य इं द्रियों के िार् िरोकार हो या न हो जबान के िार्


उिका िंबंध है।

ऐिे ही इि 'ज़बान' का िंबंध नेत्र िे भी जुड़ा है। ककिी भी खाद्य पदार्थ का


रूप 'रि' की उत्पधत्त का कारण बनता है।

यानी स्वच्छ और आकषथक रूप िे प्रस्तुत ककया गया पदार्थ देखते ही जीभ िे
पानी टपकने लगता है।
यह ननबंध निभभन्न उदाहरणों के द्वारा एक ओर ज़बान के माध्यम िे अस्वाद्रदष्ट
और दुगंध युि भोजन पहचानने की शनि के कारण उिका महत्त्व लिद्ध करता
है तो दूिरी तरफ जबान के चटोरे पन िाली प्रकृनत िे होने िाले नुकिान के बारे
में भी िचेत करता है।

ज़बान के चटोरे पन िे तात्पयथ मनुष्य की लालची प्रिृधत्त िे है।

यह प्रिृधत्त कई बार मुिीबतों को बुलािा देती है।

यह एक अिगुण है जो िदैि नुकिान का कारण बनता है।


"चटोरी जीभ लाखों रुपया चाट बैठती है

यहााँ ननबंधकार 'ज़बान' के लक्षणात्मक प्रयोग द्वारा मानि जीिन में व्याप्त लालच
और स्वार्थ के कारण होने िाली हानन को रे खांककत करते हैं।

इि ननबंध में उन्होंने स्पष्ट रूप िे कहा है कक मनुष्य तब तक लजतेंद्रिय नहीं हो


िकता जब तक िह िभी इं द्रियों में िे 'रिना' को अपने िश में न कर ले।

'जबान' पर ननयंत्रण रखकर हम बाकी िभी पर अपना अधधकार जमा िकते हैं।
व्यनि का फायदा और नुकिान दोनों की िजह 'जबान' ही है।

इिके िही प्रयोग द्वारा हम अपने धमत्र और शत्रु दोनों बना लेते हैं।

'ज़बान' यानी िाणी की ओर इशारा करते हुए ननबंधकार एक उदाहरण देते हैं -

"कागा काको धन हरै , कोयल काको देय


मीठी िचन िुनाय के, िब अपनो करर लेय।"

अर्ाथत् कौआ ककिी की धन िंपधत्त को नहीं हरता, ककिी को हानन नहीं पहुाँचाता और
ना ही कोयल ककिी को धन िंपधत्त प्रदान करती है। ककिंतु कफर भी कोयल िभी को
प्यारी होती है। इन दोनों ही जीिों में िाणी का ही अंतर है।
स्पष्ट है कक हम अपनी िाणी द्वारा ककिी के नप्रय तो ककिी के अनप्रय हो िकते हैं
िमाज की यह िामान्य प्रिृधत्त है कक कटुभाषी या बद्धबान व्यनि को कोई
पिंद नहीं करता।

"लोग कटुभाषी या बज़बान के पाि जाने िे द्रहचकते हैं ,

बालकृष्ण भट्ट जी ने िभ्य आचरण के ललए भी 'ज़बान' को ही प्रतीक के तौर पर िही


माना है।

ककिी भी व्यनि के व्यनित्व की पहचान उिकी िाणी िे ही हो जाती है।

मानि जीिन के इनतहाि की ओर दृधष्ट डालते हुए लेखक इि ननबंध में ललखते हैं कक
ललखने िे पहले बोलने की प्रकिया आरं भ हुई र्ी।
आरं भभक द्रदनों में कहना और उिे कान िे िुनकर याद रखने की प्रिृधत्त ही
निद्यमान र्ी।

िभी निधाएाँ इिी प्रकिया के िार् एक दूिरे तक पहुाँचती रहीं।

ननबंधकार ने 'ज़बान' के ही आधार पर मनुष्य को जानिरों िे अलग और श्रेष्ठ माना


है।

बोलना, िुनना ललखना यही िभ्यता के निकाि की प्रकिया है।

िे ललखते हैं कक कोई भी निधा अगर पहले ज़बान की प्रकिया िे उत्पन्न नहीं हुई
होती तो नेत्र, स्पशथ या अन्य इं द्रियों का कोई कायथ नहीं रह गया होता।
मानि स्वभाि का िूक्ष्म परीक्षण करते हुए जबान के महत्त्व को भट्ट जी
ने िोध िे भी जोड़ कर देखा है।

िे कहते हैं कक 'िोध पर ननयंत्रण रखने का एकमात्र उपाय है जबान


पर ननयंत्रण रखना।’

यही िह इं द्रिय है जो हमें भारी नुकिान होने िे बचा िकती है।

िे ललखते हैं कक "जबान को दबाना िोध को दबाये रखने का ही उपाय है।


इिी के िार्-िार् ज्यादा बोलने िे होने िाले नुकिान के बारे में भी
उन्होंने अलग-अलग उदाहरणों िे स्पष्ट ककया है ।

जो िाचाल लोग होते हैं िह अपने बोलने की आदत िे मजबूर होते हैं।

उनका ध्यान धबल्कुल नहीं रहता कक ककि बात को बोलने िे ककिी को


कोई हानन या लाभ हो िकता है।

िही िमय और िही जगह पर नहीं बोलने या चुप रहने िे कभी


हानन और कभी लाभ भी हो िकता है।
ननबंध में 'जबान' पर ननयंत्रण नहीं रख पाने िे होने िाले नुकिान को
महाभारत के िंग्राम के उदाहरण िे उन्होंने िमझाने की कोलशश की है।

िे ललखते हैं कक "महाभारत का ऐिा ििथनाशी िंग्राम इिी जीभ के न


दबाने की बदौलत ककया गया।

िौपदी ने यद्रद 'अंधे के पुत्र अंधे होते हैं इि ममथबेधी िाक्य को कह ममथ
तांडि न ककया होता और दुयोधन को पांडिों िे खार न पैदा हुई होती

तो पररणाम में 18 अक्षौद्रहन्द्रण िेना काहे को कट मरती।"

िे यह भी कहते हैं कक इिका अर्थ यह धबल्कुल नहीं लगाना चाद्रहए कक


बोलना छोड द्रदया जाए या ना बोला जाए ककिंतु िही िमय और िही जगह
पर बोलना ही द्रहतकर होता है।
बेिजह ककिी की बुराई या ननिंदा अपने द्रदल को बहलाने हे तु नहीं की जानी चाद्रहए।

ऐिे गप्पाष्टक, िाचाल और िज्रभाषी लोगों पर व्यंग्य करते हुए बालकृष्ण भट्ट ललखते हैं
कक आिश्यक नहीं है कक ईश्वर ने मुाँह में जीभ दी है तो कुछ भी कहना चाद्रहए।

क्योंकक कई बार जो नहीं कहना चाद्रहए िह भी कह द्रदया जाता है


और बाद में पछताना पड़ता है।

इि लिललिले में उन्होंने निाबों और स्त्रियों िे िंबंधधत कुछ उदाहरण भी द्रदए हैं।
लेखक ने यह माना है

कक मृदुभाषी और मीठी बोली के द्वारा ही हम ककिी को आकनषित कर िकते हैं।

कम बोलना, िही बोलना और उभचत िमय और स्थान पर बोलना ही हमारे व्यनित्व


को िंिारता है।

हमारे िंस्कार और स्वभाि को प्रदलशित करता है।

हमारी पहचान हमारी ज़बान ही है। इिी के द्वारा हम पहचाने जाते हैं।

यह ज़बान ही िभी इं द्रियों में श्रेष्ठ और महत्त्वपूणथ है ।

इिी िंदेश के िार् लेखक अपनी बात को िमाप्त करते हैं।


जबान ननबंध की
िमीक्षा कीलजये ?
िैयनिकता
ननबंध के द्वारा ननबंधकार के गुण
और उिके व्यनिगत अनुभि की
छाप पाठक पर पड़ती है
भट्ट जी ने अपने निचार को धबना ककिी िंकोच के
पाठक के िामने प्रस्तुत ककया है

उन्होंने जबान के चटोरे पन के माध्यम िे मनुष्य की


लालची प्रिती का िणथन ककया

िार् ही उन्होंने िाचाल होने की हानी का िणथन


ककया
भट्ट जी ने जबान को पांचो इन्द्रियों में िबिे
बेहतर बताया और जबान के महत्त्व को तकथ
के िार् िमझाया
निबंध एक स्वच्छं द, भावात्मक और नवचारप्रधाि नवधा ै।

जिसमें लेखक ि केवल ककसी नवषय पर अपिी भाविाओं


और नवचारों को अभभव्यक्त करता ै। बल्कि उन्मुक्त भाव से
बडी ैी सैिता के साथ नवषय पर अपिी बात रखता ै।
इस प्रकिया में कभी-कभी ऐसा भी ैोता ै। कक वै नवषय से
भटक िाता ै। यैीं पर पाठक की तारतम्यता टूटती ै। और
निबंध नबखरिे लगता ै। इस तारतम्यता का बिे रैिा अच्छे
निबंध के जलए अत्यंत आवश्यक ैोता ै। भट्ट जी ने जबान
ननबंध में इि बात का ध्यान रखा है
रोचकता
ननबंध के द्वारा ननबंधकार ने पाठकों
को नीरि िामग्री नहीं दी है बल्कल्क
उदाहरण के िार् िभी निषय को
िमझाया है

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