Prerak Prasang

You might also like

Download as docx, pdf, or txt
Download as docx, pdf, or txt
You are on page 1of 5

अरे, तुम क्या नहीं कर सकते !

- पूज्य बापूजी
एक माई चाहे तो हजारों बच्चों को, हजारों भाईयों को, हजारों पड़ोसवालों को
सुधार सकती है । एक भाई चाहे तो हजार पड़ोसियों को सुधार सकता है, इतनी
उनमें शक्ति है पर लोग वताया फकीर की तरह मरे हुए हैं । वताया फकीर
ज्योतिषी को हाथ दिखाया, पूछा : ‘‘मेरी उम्र कितनी ?’’
ज्योतिषी को पता था कि ‘वताया फकीर तो टका भी नहीं देगा’, वह बोला :
‘‘जब तुम 7 बार डकार दोगे तब तुम मरोगे ।’’
एक दिन कु छ खाया तो एक डकार आयी, 2 डकार आयी, 3 डकार आयी,
वताया फकीर घबराया । उसने कब्र खुदवाना चालू किया । कब्र खुदवाते-खुदवाते
चौथी डकार आयी । कब्रवाले बोले : ‘‘और बड़ी करूँ ?’’
इतने में पाँचवीं डकार आयी । वताया फकीर उनको जो दो रुपया देने थे देकर
रवाना किया तभी छठी डकार आयी । अब बाकी बची सातवीं डकार । फकीर ने
सोचा, ‘अगर सातवीं डकार आयी और दम कब्र के बाहर छू टा तो बाहर से अंदर
कब्र में कौन डालेगा ?’
तो वताया फकीर कब्र में लेट गया और पैर लम्बे किये तब सातवीं डकार आयी
। वताया ने सोचा ‘मैं मर गया हूँ ।’
सूरज ढल गया, अंधकार छाने लगा । जंगल में लकड़ियाँ इकट्ठा करनेवाले एक-
दो गरीब लकड़ी का भाड़ा बनाकर इधर-उधर निहारने लगे कि कोई उठानेवाला आये
। लकड़हारे ने जोर से आवाज लगायी : ‘‘कोई अल्लाह का प्यारा, खुदा का प्यारा
है तो आये हमें भाड़ा उठवा दे । हम थके हुए हैं ।’’
वताया फकीर बोलता है : ‘‘खुदा का प्यारा भी हूँ, अल्लाह का प्यारा भी हूँ,
भाड़ा भी उठवा सकता हूँ लेकिन यार ! मरा पड़ा हूँ ।’’
ऐसे ही लोग हिन्दू भी हैं, सनातन धर्म को जानते हैं, मानते भी हैं, श्रद्धालु भी
हैं पर वताया फकीर की तरह निराशा छा गयी है बोलते हैं ‘‘साँईं ! हम मरे पड़े हैं
।’’
अरे, तुम क्या नहीं कर सकते ! मदालसा रानी बच्चों को पयपान कराते-कराते
ब्रह्मज्ञान का दान कर रही है, चूडाला रानी राज्य चला रही है और अपने पति
राजा शिखिध्वज को ब्रह्मज्ञान का दान कर रही है । ध्रुव और प्रह्लाद अपने
सनातन धर्म में हुए हैं । झूलेलाल जैसे अवतार अपने सनातन धर्म में हुए हैं ।
फिर तुम क्यों निराश-हताश होते हो ?

(2)
भोज जब सत्संग में प्रविष्ट नहीं हुआ था, तब की बात है । एक संत बैठे थे
अपनी कु टिया में और राजा भोज गया उनके पास । भोज ने गुफा का दरवाजा
खटखटाया : ‘‘मैं कु छ विशेष बात जानने के लिए आया हूँ ।’’
संत ने कहा : ‘‘बाहर चले जाओ । तुमने दरवाजे को जूता मारा, द्वार को
खटखटाया, तुमने इससे अभद्र व्यवहार किया है । पहले जूते से माफी माँगो कि
तुमने उसको ज्यादा पछाड़ा और उसको चोट लगायी । दरवाजे को व जूते को दोनों
को चोट लगी है । पहले दोनों से माफी माँगो, बाद में मेरे से बात करो ।’’
सम्राट सोचता है कि ‘ये क्या अजीब व्यक्ति हैं ! परंतु आज कु छ पूछना
जरूरी था, आशीर्वाद लेना जरूरी था क्योंकि घर में जरा कलह है ।’
रानियाँ ज्यादा हैं तो गड़बड़ होती है, बच्चे ज्यादा हैं तो भी गड़बड़ है, धन
ज्यादा है तो भी गड़बड़ है, निर्धनता ज्यादा है तो भी गड़बड़ है परंतु आत्मानंद
ज्यादा है तो कोई गड़बड़ नहीं । सब गड़बड़ें भाग जाती हैं । तुम्हारी तो भाग
जाती हैं साथ ही तुम्हारे इर्द-गिर्द जो आता है उनकी भी भागने लगती हैं ।
लगा कि कितनी बेतुकी बात कर रहे हैं पर अब संत की बात क्या टालें ! गये
जूते के आगे ‘‘भैया ! मेरे को माफ कर देना, मैंने तेरा दुरुपयोग किया ।’’
द्वार को कहा ‘‘तुम भी माफी दे देना ।’’
एक बार दोहराया, दो बार दोहराया ।
फकीर ने कहा कि ‘‘प्रेमपूर्वक सच्ची नीयत से जब तक माफी नहीं माँगेंगा तब
तक तेरे से मैं बात नहीं करूँ गा ।’’
पहली माफी तो जरा कठिन लग रही थी, दूसरी माफी कु छ सुविधापूर्ण लगी,
तीसरी और लगी, चौथी और अच्छी लगी, पाँचवीं माफी में तो पिघलाहट आ गयी,
छठीं माफी में तो मजा आने लगा । अब तो बार-बार उसी दरवाजे से बात करने
में भी मजा आता है । गये संत के पास ।
संत ने कहा : ‘‘बेटा ! दरवाजा कु छ नाचीज है, जूता भी नाचीज है परंतु
नाचीज भी अस्तित्व के आधार से है, इसमें भी अस्तित्व छु पा है, घनीभूत रूप में
छु पा है तो तुम जब अस्तित्व को ठोकर मारोगे तो अस्तित्व के अनुभव की बात
तुम न सुन सकोगे ।
तुम सूर्य की किरणें पीते हो तुम 60 साल जीवन जीते हो तो कभी धन्यवाद दे
दिया कि हे सूर्यनारायण भगवान ! बड़ी कृ पा हुई 60 साल तेरे किरण लिये ।
नदियों का जल पीते हो, नदियों में भी वह बहने की सत्ता तो उसी परमात्मा की
है नदी को कभी धन्यवाद दे दिया ।
(3)
अनुपयोगी भी कितना उपयोगी !
गुरुकु ल में तीन शिष्यों ने अपना अध्ययन पूर्ण करने पर गुरुजी से गुरुदक्षिणा
के लिए प्रार्थना की । गुरुजी बोले : ‘‘मुझे गुरुदक्षिणा में एक थैलाभर के सूखी
पत्तियाँ चाहिए, ला सकोगे ?’’
वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले : ‘‘जी गुरुजी, जैसी आपकी आज्ञा ।’’
वे तीनों एक नजदीक जंगल में पहुँचे । परंतु वहाँ सूखी पत्तियाँ के वल एक
मुट्ठीभर ही थीं । उन्हें आश्चर्य हुआ कि आखिर जंगल से सूखी पत्तियाँ कौन
उठाकर ले गया ! इतने में उन्हें एक किसान आता हुआ दिखाई दिया । उन्होंने
उससे प्रार्थना की कि ‘वह उन्हें एक थैला भर सूखी पत्तियाँ दे दे ।’
किसान : ‘‘क्षमा कीजिये, मैंने सूखी पत्तियों का ईधन के रूप में पहले ही
उपयोग कर लिया है ।’’
अब वे तीनों पास के एक गाँव में गये, वहाँ एक व्यापारी से उन्होंने वही
प्रार्थना की परंतु उन्हें फिर से निराशा ही हाथ लगी क्योंकि उस व्यापारी ने पहले
ही सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिये थे । उस व्यापारी ने सूखी पत्तियाँ
एकत्रित करनेवाली वृद्धा के पास भेजा । पर उनके पहुँचने से पहले ही उस बूढ़ी
माताजी ने औषधियाँ बना ली थी । अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ लौट
आये । गुरुजी ने स्नेहपूर्वक पूछा : ‘‘पुत्रों ! ले आये गुरुदक्षिणा ?’’ तीनों ने सिर
झुका लिया । गुरुजी के दुबारा पूछने पर एक शिष्य बोला : ‘‘गुरुदेव ! हम आपकी
आज्ञा पूरी करने में असमर्थ रहे । हमने सोचा था कि सूखी पत्तियाँ तो जंगल में
सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं परंतु बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उसका भी
कितनी तरह से उपयोग करते हैं !’’
गुरुजी मुस्कराते हुए बोले : ‘‘निराश क्यों होते हो ? यह जो तुम्हें ज्ञान मिला
है इसीको तुम मुझे गुरुदक्षिणा में दे दो ।’’
‘‘गुरुजी ! हम समझे नहीं ।’’
‘‘जिस प्रकार सूखी पत्तियाँ भी निरर्थक नहीं होती हैं उसी प्रकार किसी भी
वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मानकर उसका तिरस्कार नहीं करना
चाहिए । चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक सभीका अपना-
अपना महत्त्व होता है । वे किसी-न-किसी रूप में समाज में उपयोगी सिद्ध हो
सकते हैं । बस, उसकी उपयोगिता समझने की परख होनी चाहिए ।
क्या तुम जानते हो कि संसार में सबसे बड़ा पारखी कौन है ?’’
‘‘गुरुजी ! कौन है ?’’
‘‘संसार में सबसे बड़े पारखी सद्गुरु होते हैं । जो साधारण जन्मने-मरनेवाले
जीव को भी अपनी करुणा-कृ पा से ब्रह्मत्त्व में जगाकर उसे सदा के लिए
भवसागर से मुक्त कर देते हैं । मनुष्य की सुषुप्त योग्यताओं की, ऊँ चाईयों की
परख जो उसे जीव से शिव बना दे, भला सद्गुरु के सिवाय कौन कर सकता है !
के वल ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु ही जीवमात्र के परम सुहृद, परम हितैषी, तारणहारे व
सच्चे पारखी होते हैं । उनके द्वार पर जीवरूपी पत्थर गुरुज्ञान से तराशे जाते और
अनमोल मोती बनकर समाजरूपी देवता की बहुआयामी सेवा में उपयोगी बनाये
जाते हैं ।’’
जीवन के इस मर्म को व सद्गुरु की महानता को जानकर शिष्यों की आँखें
गुरुदेव के प्रति प्रेम अश्रुधारा से छलक आयी व उन्होंने गुरुदेव के इस अमूल्य
ज्ञान को जीवन में आत्मसात् करने का ‘सकं ल्प’ रूपी गुरुदक्षिणा देकर,
कृ तज्ञतापूर्ण प्रस्थान किया ।

You might also like