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कहानियाां पढ़िे के लाभ

कहािी और कथा सि
ु िे-पढ़िे की रुचि मिष्ु य में स्वभावतः पाई जाती है । जो शिक्षा या उपदे ि निबांध के रूप
में पढ़िा और हृदयांगम करिा कठिि जाि पड़ता है वही कथा-कहािी के रूप में रुचिपव
ू क
व पढ़ शलया जाता है
और समझ में भी आ जाता है । कारण यही है कक निबांध या लेख वववेििात्मक होते हैं, उिका ममव ग्रहण करिे
में बद्
ु चध को वविेष पररश्रम करिा पड़ता है । जजि निबांधों की भाषा अचधक प्रौढ़ अथवा गढ़
ू होती है उिके
समझिे में प्रयत्ि भी अचधक करिा पड़ता है और उसके लायक ववद्या, बद्
ु चध तथा भाषा ज्ञाि सब व्यजततयों
के पास होता भी िहीां।

पर कहानी की बात इससे भिन्न है। वर्णनात्मक प्रसंग सनु ने का क्रम आरंभिक अवस्था से ही चलने लगता है। छोटे
बच्चे िी कहानी सनु ने का आग्रह करते हैं और उसे सनु ने के लालच से रात में जगते िी रहते हैं। कम पढे व्यभि िी
कहानी-भकस्सा की पस्ु तक शौक से पढ या सनु लेते हैं। कारर् यही भक कहानी में जो घटनाएँ कही जाती हैं उनमें से
अभिकाश ं हमको अपने या अन्य पररभचत व्यभियों के जीवन में घटी हुई सी जान पड़ती हैं। उन्हें समझ लेने में कुछ
कभिनाई नहीं होती। साथ ही कहानीकार उनमें जो थोड़ी बहुत भवभचत्र अथवा कुतहू ल की बातें भमला देता है उससे
पािक का मनोरंजन िी हो जाता है।

यह कहानियाां पां. श्री राम िमाव आिायव द्वारा शलखी गयी ककताब प्रेरणाप्रद कथा से ली गई हैं।

Pdf by www.hindisuccessstories.in
Contents
ििा एक बला ..................................................................................................................................... 4

मिष्ु य की अपण
ू त
व ाा ........................................................................................................................... 4
........................................................................................................... Error! Bookmark not defined.
पात्रता की परीक्षा ................................................................................................................................ 5

दे वता भी िहीां कर सकते ..................................................................................................................... 5

बासा मि ताजा करो ........................................................................................................................... 6

तलाि ............................................................................................................................................... 6

कुछ तो कर यों ही मत मर ................................................................................................................... 7

िबरी की महत्ता .................................................................................................................................. 7

भगवाि का प्यार ................................................................................................................................ 8

पश्िाताप ........................................................................................................................................... 9

रुपया रुपए को खीांिता है ................................................................................................................... 10

गधों का सत्कार ................................................................................................................................ 10

पण
ू त
व ा का अहां कार ............................................................................................................................ 11

िासमझ को समझ दो, वरदाि िहीां .................................................................................................. 11


........................................................................................................... Error! Bookmark not defined.
पढ़िे के साथ गुिो भी ........................................................................................................................ 12

अपिे शलए कम .................................................................................................................................. 12


........................................................................................................... Error! Bookmark not defined.
ईमािदार गरीब ................................................................................................................................ 13

छोटी भूल का बड़ा दष्ु पररणाम ........................................................................................................... 13

स्वप्ि पर मत रीझो .......................................................................................................................... 14

स्वगव और िरक भाविाओां में ............................................................................................................. 15

भय से मुजतत का उपाय ..................................................................................................................... 15

सफलता की तैयारी ........................................................................................................................... 16

अवसर की पहिाि ............................................................................................................................ 17

धमव का सौदा .................................................................................................................................... 18

िकल अच्छी िहीां ............................................................................................................................. 18


खााँड़ के खखलौिे ................................................................................................................................ 18

वववेक सबसे बड़ा धमव ........................................................................................................................ 19

मरिे से डरिा तया? .......................................................................................................................... 19

सांघषव से बड़ी िजतत िहीां .................................................................................................................... 21

पराया धि धशू ल समाि ..................................................................................................................... 21

धोखा िहीां दां ग


ू ा ................................................................................................................................. 21

शिक्षा दे िे से पहले ............................................................................................................................ 22

जैसा खाया अन्ि वैसा बिा मन ........................................................................................................... 22


ििा एक बला

मक
ु दमे के भलए कचहरी में हाभजर होने के भलए दो शराबी घर से भनकले। शराब की िनु में बोतल झोले में रख ली पर
कागज-पत्र घर में ही िल
ू गए।

घोड़े पर बैिकर चल पड़े। मध्याह्न िोजन के समय दोनों ने शराब िी पी। नशे में ितु , दोनों एक दसू रे से पछ
ू ते तो रहे
भक कोई चीज िल ू तो नहीं रहे, पर यह दोनों में से भकसी को िी याद न रहा भक घोड़े पर चढकर आए थे, अब वे
पैदल यात्रा कर रहे थे।

रात जहाँ भटके वहाँ भिर शराब पी। थोड़ी देर में चंद्रमा भनकला तो एक बोला"अरे यार! सरू ज भनकल आया चलो
जल्दी करो नहीं तो कचहरी लग जाएगी।" बजाय शहर की ओर चलने के वे गाँव की ओर चल पड़े और सवेरा होते-
होते जहाँ से चले वहीं भिर जा पहुचँ े। अनपु भस्थभत में मक
ु दमा खाररज हो गया।

मिुष्य की अपूणत
व ाा

ब्रह्माजी की इच्छा हुई "सृभि रचें।" उसे भक्रयाभन्वत भकया। पहले एक कुत्ता बनाया और उससे उसकी जीवनचयाण की
उपलभधि जानने के भलए पछ ू ा-"संसार में रहने के भलए तुझे कुछ अिाव तो नहीं?" कुत्ते ने कहा-"िगवन!् मझु े तो
सब अिाव ही अिाव भदखाई देते हैं, न वस्त्र, न आहार, न घर और न इनके उत्पादन की क्षमता।" ब्रह्माजी बहुत
पछताए।

भिर रचना शरू ु की-एक बैल बनाया। जब अपना जीवनक्रम पर्ू ण करके वह ब्रह्मलोक पहुचँ ा तो उन्होंने उससे िी यही
प्रश्न भकया। बैल दख
ु ी होकर बोला-"िगवन!् आपने िी मझु े क्या बनाया, खाने के भलए सख ू ी घास, हाथ-पाँवों में
कोई अतं र नहीं, सींग और लगा भदए। यह िोंडा शरीर लेकर कहाँ जाऊँ।"

तब ब्रह्माजी ने एक सवाांग संदु र शरीरिारी मनष्ु य पैदा भकया। उससे िी ब्रह्माजी ने पछ


ू ा-"वत्स, तझु े अपने आप में
कोई अपर्ू णता तो नहीं भदखाई देती?" थोड़ा भििक कर नवभनभमणत मनष्ु य ने अनुिव के आिार पर कहा-"िगवन!् मेरे
जीवन में कोई ऐसी चीज नहीं बनाई भजसे मैं प्रगभत या समृभि कहकर संतोष कर सकता।"

ब्रह्माजी गंिीर होकर बोले-"वत्स! तझु े हृदय भदया, आत्मा दी, अपार क्षमता वाला उत्कृ ि शरीर भदया। अब िी तू
अपर्ू ण है तो तझु े कोई पर्ू ण नहीं कर सकता।"
पात्रता की परीक्षा

एक महात्मा के पास तीन भमत्र गरुु -दीक्षा लेने गए। तीनों ने बड़े नम्र िाव से प्रर्ाम करके अपनी भजज्ञासा प्रकट की।
महात्मा ने भशष्य बनाने से पवू ण पात्रता की परीक्षा कर लेने के मतं व्य से पछ
ू ा-"बताओ कान और आँख में भकतना
अतं र है?"

एकने उत्तर भदया-"के वल पाँच अगं ल ु का, िगवन्!" महात्मा ने उसे एक ओर खड़ा करके दसू रे से उत्तर के भलए
कहा। दसू रे ने उत्तर भदया-"महाराज आँख देखती है और कान सनु ते हैं, इसभलए भकसी बात की प्रामाभर्कता के भवषय
में आँख का महत्त्व अभिक है।" महात्मा ने उसको िी एक ओर खड़ा करके तीसरे से उत्तर देने के भलए कहा। तीसरे ने
भनवेदन भकया-"िगवन!् कान का महत्त्व आँख से अभिक है।

आँख के वल लौभकक एवं दृश्यमान जगत को ही देख पाती है, भकंतु कान को पारलौभकक एवं पारमाभथणक भवषय का
पान करने का सौिाग्य प्राप्त है।" महात्मा ने तीसरे को अपने पास रोक भलया। पहले दोनों को कमण एवं उपासना का
उपदेश देकर अपनी भवचारर्ा शभि बढाने के भलए भवदा कर भदया। क्योंभक उनके सोचने की सीमा ब्रह्म तत्त्व की
पररभि में अिी प्रवेश कर सकने योग्य सक्ष्ू म बनी न थी।

दे वता भी िहीां कर सकते

गरुु के दो भशष्य थे। दोनों बड़े ईश्वरिि थे। ईश्वर उपासना के बाद वे आश्रम में आए रोभगयों की भचभकत्सा में गरुु की
सहायता भकया करते थे।

एक भदन उपासना के समय ही कोई किपीभड़त रोगी आ पहुचँ ा। गरुु ने पूजा कर रहे भशष्यों को बल
ु ा िेजा। भशष्यों ने
कहला िेजा"अिी थोड़ी पजू ा बाकी है, पजू ा समाप्त होते ही आ जाएँग।े "

गरुु जी ने दबु ारा भिर आदमी िेजा। इस बार भशष्य आ गए। पर उन्होंने अकस्मात बल ु ाए जाने पर अिैयण व्यि भकया।
गरुु ने कहा"मैंने तम्ु हें इस व्यभि की सेवा के भलए बुलाया था, प्राथणनाएँ तो देवता िी कर सकते हैं, भकंतु अभकंचनों
की सहायता तो मनष्ु य ही कर सकते हैं। सेवा प्राथणना से अभिक ऊँची है, क्योंभक देवता सेवा नहीं कर सकते।"

भशष्य अपने कृ त्य पर बड़े लभजजत हुए और उस भदन से प्राथणना की अपेक्षा सेवा को अभिक महत्त्व देने लगे।
बासा मि ताजा करो

श्रावस्ती का मृगारर श्रेभि करोड़ों मद्रु ाओ ं का स्वामी था। वह मन में मद्रु ाएँ ही भगनता रहता था। उसे िन से ही मोह था।
मद्रु ाएँ ही उसका जीवन थीं। उनमें ही उसके प्रार् बसते थे। सोते-जागते मद्रु ाओ ं का सम्मोहन ही उसे िल ु ाए रहता था।
संसार में और िी कोई सख ु है यह उसने किी अनुिव ही नहीं भकया।

एक भदन वह िोजन के भलए बैिा। पत्रु विू ने प्रश्न भकया"तात! िोजन तो िीक है न? कोई त्रभु ट तो नहीं रही?" मृगारर
कहने लगा-"आयष्ु मती! आज यह कै सा प्रश्न पछ ू रही हो? तमु जैसी सयु ोग्य पत्रु विू िी कहीं त्रभु ट कर सकती है,
तमु ने तो मझु े सदैव ताजे और स्वाभदि व्यंजनों से तृप्त भकया है।"

भवशाखा ने भन:श्वास छोड़ी, दृभि नीचे करके कहा-"आयण! यही तो आपका भ्रम है। मैं आज तक सदैव आपको बासी
िोजन भखलाती रही ह।ँ मेरी बड़ी इच्छा होती है भक आपको ताजा िोजन कराऊँ पर एषर्ाओ ं के सम्मोहन ने आप पर
पर्ू ाणभिकार कर भलया है। भखलाऊँ िी तो आपको उसका सख ु न भमलेगा। आपका जीवन बासा हो गया है भिर मैं क्या
करूँ।"

मृगारर को सारे जीवन की िल ू पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। अब उसने िभििावना स्वीकार की और िन का सम्मोहन
त्यागकर िमणकमण में रुभच लेने लगा।

िौभतकता का आकषणर् प्राय: मनष्ु य की सभदच्छाओ ं और िावनाओ ं को समाप्त कर देता है। उस अवस्था में तच्ु छ
स्वाथण के भसवाय जीवन की उत्कृ िताओ ं से मनष्ु य वभं चत रह जाता है।

तलाि

एक मनष्ु य को संसार से वैराग्य हुआ, उसने कहा-"यह जगत भमथ्या है, माया है, अब मैं इसका पररत्याग करके सच्ची
शाभं त की तलाश करूँगा।" आिी रात बीती और वैराग्य लेने वाले ने कहा-"अब वह घड़ी आ गई। मझु े परमात्मा की
खोज के भलए भनकल पड़ना चाभहए।"

एक बार पाश्वण में लेटी हुई िमणपत्नी और दिु महु े बच्चे की ओर भसर उिाकर देखा उसने। बड़ी सौम्य आकृ भतयाँ थीं
दोनों। वैरागी का मन भपघल उिा। उसने कहा-"कौन हो तमु जो मझु े माया में बाँिते हो।" िगवान ने िीमे से कहा-"मैं
तम्ु हारा िगवान!" लेभकन मनुष्य ने उनकी आवाज नहीं सनु ी। उसने भिर कहा-"कौन हैं ये भजनके भलए मैं आत्म-सुख
आत्म-शांभत खोऊँ?"

एक और िीमी आवाज आई-"बावरे , यही िगवान हैं, इन्हें छोड़कर तू नकली िगवान की खोज में मत िाग।"
बच्चा एकाएक चीखकर रो पड़ा। कोई सपना देखा था उसने। माँ ने बच्चे को छाती से लगाकर कहा-"मेरे जीवन आ,
मेरी छाती में जो ममत्व है वह तझु े शाभं त देगा।" बच्चा माँ से भलपटकर सो गया और आदमी अनसनु ा करके चल
भदया। िगवान ने कहा-"कै सा मख ू ण है यह मेरा सेवक, मझु े तजकर मेरी तलाश में िटकने जा रहा है।"

कुछ तो कर यों ही मत मर

रायगढ के राजा िीरज के अनेक शत्रु हो गए। एक रात शत्रओ ु ं ने पहरे दारों को भमला भलया और महल में जाकर राजा
को दवा संघु ा कर बेहोश कर भदया। उसके बाद उन्होंने राजा के हाथ-पाँव बाँिकर एक पहाड़ की गि ु ा में ले जाकर
बंद कर भदया।

राजा को जब होश आया तो अपनी दशा देखकर घबरा उिा। उस अँिेरी गि ु ा में उसे कुछ करते-िरते न बना। तिी
उसे अपनी माता का बताया हुआ मत्रं याद आ गया-"कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर।" राजा की भनराशा दरू हो गई
और उसने परू ी शभि लगाकर हाथ-पैरों की डोरी तोड़ डाली। तिी अँिेरे में उसका पैर साँप पर पड़ गया भजसने उसे
काट भलया।

राजा भिर घबराया, भकंतु भिर तत्काल ही उसे वही मत्रं "कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर" याद आ गया। उसने तत्काल
कमर से कटार भनकाल कर साँप के काटे स्थान को चीर भदया। खनू की िार बह उिने से वह भिर घबरा उिा। लेभकन
भिर उसी "कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर" के मत्रं से प्रेरर्ा पाकर अपना उत्तरीय िाड़कर घाव पर पट्टी बाँि दी भजससे
रि बहना बदं हो गया।

इतनी बािाएँ पार हो जाने के बाद उसे उस अँिेरी गिु ा से भनकलने की भचतं ा होने लगी, साथ ही िख ू -प्यास िी
व्याकुल कर ही रही थी। उसने अँिेरे से भनकलने का कोई उपाय न देखा तो पनु ः भनराश होकर सोचने लगा भक अब
तो यहीं पर बदं रहकर िखू -प्यास से तड़पतड़प कर मरना होगा। वह उदास होकर बैिा ही था भक पनु ः उसे माँ का
बताया हुआ मत्रं "कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर"याद आ गया और द्वार के पास आकर गि ु ा के मखु पर लगे पत्थर
को िक्का देने लगा। बहुत बार प्रार्पर् से जोर लगाने पर अतं त: पत्थर लढु क गया और राजा गि ु ा से भनकल कर
अपने महल में वापस आ गया।

िबरी की महत्ता

शबरी यद्यभप जाभत की िीलनी थी, भकंतु उसके हृदय में िगवान की सच्ची िभि िरी हुई थी। बाहर से वह भजतनी
गदं ी दीख पड़ती थी, अदं र से उसका अतं :करर् उतना ही पभवत्र और स्वच्छ था। वह जो कुछ करती िगवान के नाम
पर करती, िगवान के दशणनों की उसे बड़ी लालसा थी और उसे भवश्वास िी था भक एक भदन उसे िगवान के दशणन
अवश्य होंगे।
शबरी जहाँ रहती थी उस वन में अनेक ऋभषयों के आश्रम थे। उसकी उन ऋभषयों की सेवा करने और उनसे िगवान
की कथा सनु ने की बड़ी इच्छा रहती थी। अनेक ऋभषयों ने उसे नीच जाभत की होने के कारर् कथा सनु ाना स्वीकार
नहीं भकया और श्वान की िाँभत दत्ु कार भदया। भकंतु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोि उत्पन्न हुआ और न भनराशा।
उसने ऋभषयों की सेवा करने की एक यभु ि भनकाल ली।

वह प्रभतभदन ऋभषयों के आश्रम से सररता तक का पथ बहु ारकर कुश-कंटकों से रभहत कर देती और उनके उपयोग के
भलए जंगल से लकभड़याँ काटकर आश्रम के सामने रख देती।शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, भकंतु ऋभष को यह
पता न चला भक उनकी यह परोक्ष सेवा करने वाला है कौन? इस गोपनीयता का कारर् यह था भक शबरी आिी रात
रहे ही जाकर अपना काम परू ा कर आया करती थी।

जब वह कायणक्रम बहुत समय तक अभवरल रूप से चलता रहा तो ऋभषयों को अपने परोक्ष सेवक का पता लगाने की
अतीव भजज्ञासा हो उिी। भनदान उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही भलया भक यह वही िीलनी है भजसे अनेक बार
दत्ु कार कर द्वार से िगाया जा चक
ु ा था।

तपभस्वयों ने अंत्यज मभहला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओ ं पर आघात होते देखा और उसे उनके िमण-कमों में
भकसी प्रकार िाग न लेने के भलए िमकाने लगे। मातंग ऋभष से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी के समीप
िहराने के भलए ले गए। िगवान राम जब वनवास गए तो उन्होंने मातगं ऋभष को सवोपरर मानकर उन्हें सबसे पहले
छाती से लगाया और शबरी के झिू े बेर प्रेमपवू क
ण चख-चखकर खाए।

भगवान का प्यार

शाम हुई मनसख ु घर लौटे। आज िगवान कृ ष्र् गौएँ चराने नहीं गए थे। उनका जन्म भदवसोत्सव था। घर में पजू ा थी,
यशोदा ने उन्हें घर में ही रोक भलया था।

गोप-बालकों ने पछ ू ा-"मनसुख तम तो अनन्य िि और सखा हो गोपाल के , भिर आज कृ ष्र् ने तम्ु हें प्रसाद के भलए
नहीं पछ
ू ा। तुम तो कहते थे गोपाल मेरे भबना अन्न का ग्रास िी नहीं डालते।"

"हाँ-हाँ ग्वालो! ऐसा ही है, तम्ु हें भवश्वास कहाँ होगा। कन्हाई तो आज िी मेरे पास आए थे। आज तो उन्होंने मझु े
अपने हाथ से ही भखलाया था।"

"यह झिू है" यह कहकर गोप-बालक कृ ष्र् को पकड़ लाए और कहने लगे-"लो मनसख
ु ! अब तो कृ ष्र् सामने खड़े
हैं, पछ
ू ले इन्होंने तो आज देहलीज के बाहर पाँव तक नहीं रखा।"

कृ ष्र् ने गोप-बालकों का समथणन भकया और कहा-"हाँहाँ मनसख


ु ! तम्ु हें भ्रम हुआ होगा मैं तो आज बाहर भनकला
तक नहीं।"
मनसख
ु ने मसु कराते हुए कहा-"िन्य हो नटवर! तम्ु हारी लीलाएँ अगाि हैं, पर क्या आप बता सकते हैं भक यभद आज
आप मेरे पास नहीं आए तो आपका यह पीतांबर मेरे पास कहाँ से आ गया। देख लो न अिी िी भमिान्न का कुछ
अश
ं इसमें बँिा हुआ है।"

ग्वालों ने पीताबं र खोलकर देखा-वही िोग, वही भमिान्न जो पजू ा गृह में था, पीताबं र में बिं ा था। मनसख
ु को वह
कौन देने गया, भकसको पता था?

पश्िाताप

बौि िमण की नाभस्तकवादी भवचारिारा का खडं न करने के भलए कुमाररल िट्ट ने प्रभतज्ञा की और उसे परू ा करने के
भलए उन्होंने तक्षभशला के भवश्वभवद्यालय में बौि िमण का गहन अध्ययन परू ा भकया। उन भदनों की प्रथा के अनुसार
छात्रों को आजीवन बौि िमण के प्रभत आस्थागत रहने की प्रभतज्ञा करनी पड़ती थी, तिी उन्हें भवद्यालय में प्रवेश
भमलता था। कुमाररल ने झिु ी प्रभतज्ञा ली और भशक्षा समाप्त होते ही बौि मत का खडं न और वैभदक िमण का प्रसार
आरंि कर भदया।

अपने प्रयत्न में उन्हें सिलता िी बहत भमली। शास्त्राथण की िमू मचाकर उन्होंने शन्ू यवाद की भनस्सारता भसि करके
लड़खड़ाती हुई वैभदक मान्यताएँ भिर मजबतू बनाई।ं

कायण में सिलता भमली पर कुमाररल का अतं :करर् भवक्षधु ि ही रहा। गरुु के सामने की हुई प्रभतज्ञा एवं उन्हें भदलाए हुए
भवश्वास का घात करने के पाप से उनकी आत्मा हर घड़ी दख ु ी रहने लगी। अतं में उन्होंने इस पाप का प्रायभश्चत करने
के भलए अभग्न में जीभवत जल जाने का भनश्चय भकया। इस प्रायभश्चत के करुर् दृश्य को देखने देश िर के अगभर्त
भवद्वान पहुचँ ,े उन्हीं में आभद शक
ं राचायण िी थे।

उन्होंने कुमाररल को प्रायभश्चत न करने के भलए समझाते हुए कहा-"आपने तो जनभहत के भलए वैसा भकया था भिर
प्रायभश्चत क्यों करें ?" इस पर कुमाररल ने कहा-"अच्छा काम िी अच्छे मागण से ही भकया जाना चाभहए, कुमागण पर
चलकर श्रेि काम करने की परंपरा गलत है। मैंने आपभत्त िमण के रूप में वह छल भकया पर उसकी परंपरा आरंि नहीं
करना चाहता।

दसू रे लोग मेरा अनकु रर् करते हुए अनैभतक मागण पर चलते हुए अच्छे उद्देश्य के भलए प्रयत्न करने लगें तो इससे िमण
और सदाचार ही नि होगा और तब प्राप्त हुए लाि का कोई मल्ू य न रह जाएगा। अतएव सदाचार की सवोत्कृ िता
प्रभतपाभदत करने के भलए मेरा प्रायभश्चत करना ही उभचत है।"

कुमाररल प्रायभश्चत की अभग्न में जल गए, उनकी प्रभतपाभदत आस्था सदा अमर रहेगी।
रुपया रुपए को खीांिता है

एक मनष्ु य ने कहीं सनु ा भक रुपया रुपए को खींचता है। उसने इस बात को परखने का भनश्चय भकया।

सरकारी खजाने में रुपए का ढेर लगा था। वहीं खड़ा होकर वह अपना रुपया भदखाने लगा ताभक ढेर वाले रुपए
भखचं कर उसके पास चले आएँ।

बहुत चेिाएँ करने पर िी ढेर के रुपए तो न भखचं े वरन असाविानी से उसके हाथ का रुपया छूटकर ढेर में भगर
पड़ा। खजांची का ध्यान इस खटपट की ओर गया तो उस व्यभि को संभदग्ि समझकर पकड़वा भदया। पछ ू ताछ हुई तो
उसने सारी बात कह सनु ाई।

अभिकारी ने हँसते हुए कहा-"जो भसिांत तुमने सनु ा था वह िीक था, पर इतनी बात तम्ु हें और समझनी चाभहए भक
जयादा चीजें थोड़ी को खींच लेती हैं। जयादा रुपए के आकषणर् में तम्ु हारा एक रुपया भखंच गया। इस दभु नया में ऐसा ही
होता है। बरु ाई या अच्छाई की शभियों में से जो जब िी बढी-चढी होती हैं, तब प्रभतपक्षी भवचार के लोग िी बहुमत
के प्रवाह में बहने लगते हैं।"

गधों का सत्कार

भकसी समय एक जगं ल में गिे ही गिे रहते थे। परू ी आजादी से रहते, िरपेट खाते-पीते और मौज करते।

एक लोमड़ी को मजाक सझू ा। उसने महँु लटकाकर गिों से कहा-"मैं भचतं ा से मरी जा रही हँ और तमु इस तरह मौज
कर रहे हो। पता नहीं भकतना बड़ा संकट भसर पर आ पहुचँ ा है।"

गिों ने कहा-"दीदी, िला क्या हुआ, बात तो बताओ।" लोमड़ी ने कहा-"मैं अपने कानों सनु कर और आँखों देखकर
आई ह।ँ मछभलयों ने एक सेना बना ली है और वे अब तम्ु हारे ऊपर चढाई करने ही वाली हैं। उनके सामने तम्ु हारा
िहर सकना कै से संिव होगा?"

गिे असमजं स में पड़ गए। उनने सोचा व्यथण जान गँवाने से क्या लाि। चलो कहीं अन्यत्र चलो।जगं ल छोड़कर वे गाँव
की ओर चल पड़े।

इस प्रकार घबराए हुए गिों को देखकर गाँव के िोबी ने उनका खबू सत्कार भकया। अपने छप्पर में आश्रय भदया और
गले में रस्सी डालकर खटू े में बाँिते हुए कहा-"डरने की जरा िी जरूरत नहीं। मछभलयों से मैं िगु त लँगू ा। तुम मेरे
बाड़े में भनिणयतापवू क
ण रहो। के वल मेरा थोड़ा सा बोझ ढोना पड़ा करे गा।"

गिों की घबराहट तो दरू हुई पर उसकी कीमत महँगी चक


ु ानी पड़ी।
पण
ू त
व ा का अहां कार

बाप ने बेटे को िी मभू तणकला ही भसखाई। दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मभू तणयाँ बेचकर आते। बाप की मभू तण
डेढ-दो रुपए की भबकती पर बेटे की मभू तणयों का मल्ू य आि-दस आने से अभिक न भमलता।

हाट से लौटने पर बेटे को पास भबिाकर बाप उसकी मभू तणयों में रही हुई त्रभु टयों को समझाता और अगले भदन उन्हें
सिु ारने के भलए समझाता।

यह क्रम वषों चलता रहा। लड़का समझदार था, उसने भपता की बातें ध्यान से सनु ीं और अपनी कला में सिु ार करने
का प्रयत्न करता रहा। कुछ समय बाद लड़के की मभू तणयाँ िी डेढ रुपए की भबकने लगीं।

बाप अब िी उसी तरह समझाता और मभू तणयों में रहने वाले दोषों की ओर उसका ध्यान खींचता। बेटे ने और िी
अभिक ध्यान भदया तो कला िी अभिक भनखरी। मभू तणयाँ पाँच-पाँच रुपए की भबकने लगीं।

सिु ार के भलए समझाने का क्रम बाप ने तब िी बंद न भकया। एक भदन बेटे ने झझंु ला कर कहा-"आप तो दोष
भनकालने की बात बदं ही नहीं करते। मेरी कला अब तो आप से िी अच्छी है, मझु े पाँच रुपए भमलते हैं जबभक
आपको दो ही रुपए।"

बाप ने कहा-"पत्रु ! जब मैं तुम्हारी उम्र का था तब मझु े अपनी कला की पूर्तण ा का अहक
ं ार हो गया और भिर सिु ार
की बात सोचना छोड़ भदया। तब से मेरी प्रगभत रुक गई और दो रुपए से अभिक मल्ू य की मभू तणयाँ न बना सका। मैं
चाहता हँ वह िल ू तमु न करो। अपनी त्रभु टयों को समझने और सिु ारने का क्रम सदा जारी रखो ताभक बहुमल्ू य मभू तणयाँ
बनाने वाले श्रेि कलाकारों की श्रेर्ी में पहुचँ सको।"

नासमझ को समझ दो, वरदान नहीं

एक राजा वन भ्रमर् के भलए गया। रास्ता िल


ू जाने पर िख
ू प्यास से पीभड़त वह एक वनवासी की झोंपड़ी पर पहुचँ ा।
वहाँ उसे आभतथ्य भमला तो जान बची।

चलते समय राजा ने उस वनवासी से कहा-"हम इस राजय के शासक हैं। तम्ु हारी सजजनता से प्रिाभवत होकर अमक

नगर का चदं न बाग तम्ु हें प्रदान करते हैं। उसके द्वारा जीवन आनदं मय बीतेगा।"
वनवासी उस परवाने को लेकर नगर अभिकारी के पास गया और बहुमल्ू य चंदन का उपवन उसे प्राप्त हो गया। चंदन
का क्या महत्त्व है और उससे भकस प्रकार लाि उिाया जा सकता है, उसकी जानकारी न होने से वनवासी चंदन के
वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर शहर में बेचने लगा। इस प्रकार भकसी तरह उसके गजु ारे की व्यवस्था चलने लगी।

िीरे -िीरे सिी वृक्ष समाप्त हो गए। एक अभं तम पेड़ बचा। वषाण होने के कारर् कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी
बेचने का भनश्चय भकया। लकड़ी का गट्ठा लेकर जब बाजार में पहुचँ ा तो सगु िं से प्रिाभवत लोगों ने उसका िारी मल्ू य
चक ु ाया। आश्चयणचभकत वनवासी ने इसका कारर् पछ ू ा तो लोगों ने कहा-"यह चंदन काि है। बहुत मल्ू यवान है। यभद
तम्ु हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचरु मल्ू य प्राप्त कर सकते हो।" ___वनवासी अपनी नासमझी पर
पश्चात्ताप करने लगा भक उसने इतना बड़ा बहुमल्ू य चंदन वन कौड़ी मोल कोयले बनाकर बेच भदया। पछताते हुए
नासमझ को सांत्वना देते हुए एक भवचारशील व्यभि ने कहा-"भमत्र, पछताओ मत, यह सारी दभु नया तम्ु हारी ही तरह
नासमझ है। जीवन का एक-एक क्षर् बहुमल्ू य है पर लोग उसे वासना और तृष्र्ाओ ं के बदले कौड़ी मोल में गवाते हैं।
तम्ु हारे पास जो एक वृक्ष बचा है उसी का सदपु योग कर लो तो कम नहीं। बहुत गँवाकर िी अंत में यभद कोई मनष्ु य
सँिल जाता है तो वह िी बभु िमान ही माना जाता है।"

पढ़िे के साथ गि
ु ो भी

एक दक ु ानदार व्यवहारशास्त्र की पस्ु तक पढ रहा था। उसी समय एक सीिे-सािे व्यभि ने आकर कुतहू लवश पछ ू ा-
"क्या पढ रहे हो िाई?" इस पर दक ु ानदार ने झझंु लाते हुए कहा-"तमु जैसे मख
ू ण इस ग्रथं को क्या समझ सकते हैं।"
उस व्यभि ने हँसकर कहा"मैं समझ गया, तमु जयोभतष का कोई ग्रंथ पढ रहे हो, तिी तो समझ गए भक मैं मख ू ण ह।ँ "
दकु ानदार ने कहा-"जयोभतष नहीं, व्यवहारशास्त्र की पस्ु तक है।" उसने चटु की ली-"तिी तो तम्ु हारा व्यवहार इतना
संदु र है।" दसू रों को अपमाभनत करने वालों को स्वयं अपमाभनत होना पड़ता है। पढने का लाि तिी है जब उसे
व्यवहार में लाया जाए।

अपिे शलए कम

"बेटा ले ये दो टुकड़े भमिाई के हैं। इनमें से यह छोटा टुकड़ा अपने साथी को दे देना।"

"अच्छा माँ" और वह बालक दोनों टुकड़े लेकर बाहर आ गया अपने साथी के पास। साथी को भमिाई का बड़ा
टुकड़ा देकर छोटा स्वयं खाने लगा। माँ यह सब जगं ले में से देख रही थी, उसने आवाज देकर बालक को बल
ु ाया।
"क्यों रे ! मैंने तझु से बड़ा टुकड़ा खदु खाने और छोटा उस बच्चे को देने के भलए कहा था, भकंतु तनू े छोटा स्वयं
खाकर बड़ा उसे क्यों भदया?"

वह बालक सहज बोली में बोला-"माताजी! दसू रों को अभिक देने और अपने भलए कम से कम लेने में मझु े अभिक
आनंद आता है।"

माताजी गिं ीर हो गई।ं वह बहुत देर भवचार करती रहीं बालक की इन उदार िावनाओ ं के सबं िं में। उसे लगा सचमचु
यही मानवीय आदशण है और इसी में भवश्व शांभत की सारी संिावनाएँ भनिणर हैं। मनष्ु य अपने भलए कम चाहे और दसू रों
को अभिक देने का प्रयत्न करे तो समस्त संघषों की समाभप्त और स्नेह-सौजन्य की स्वगीय पररभस्थभतयाँ सहज ही
उत्पन्न हो सकती हैं।

ईमािदार गरीब

सीलोन में एक जड़ी-बटू ी बेचकर गजु ारा करने वाला व्यभि रहता था। नाम था उसका महता शैसा। उसके घर की
आभथणक भस्थभत बहुत ही खराब थी, कई कई भदन िख ू ा रहना पड़ता। उनकी माता चक्की पीसने की मजदरू ी करती,
बभहन िूल बेचती तब कहीं गजु ारा हो पाता। ऐसी गरीबी में िी उनकी नीयत साविान थी।

महता एक भदन एक बगीचे में जड़ी-बटू ी खोद रहे थे भक उन्हें कई घड़े िरी हुई अशभिण याँ गड़ी हुई भदखाई दीं। उनके
मन में दसू रे की चीज पर जरा िी लालच न आया और भमट्टी से जयों का त्यों ढक कर बगीचे के माभलक के पास
पहुचं े और उसे अशभिण याँ गड़े होने की सचू ना दी।

बगीचे के माभलक लरोटा की आभथणक भस्थभत िी बहुत खराब हो चली थी। कजणदार उसे तंग भकया करते थे। इतना िन
पाकर उसकी खश ु ी का भिकाना न रहा। सचू ना देने वाले शैसा को उसने चार सौ अशभिण याँ परु स्कार में देनी चाही पर
उसने उन्हें लेने से इनकार कर भदया और कहा-"इसमें परु स्कार लेने जैसी कोई बात नहीं, मैंने तो अपना कत्तणव्य मात्र
परू ा भकया है।"

बहुत भदन बाद लरोटा ने अपनी बभहन की शादी शैसा से कर दी और दहेज में कुछ िन देना चाहा। शैसा ने वह िी न
भलया और अपने हाथ-पैर की मजदरू ी करके भदन गजु ारे ।

छोटी भूल का बडा दष्ु पररणाम

कहते हैं भक कलगं देश का राजा मिपु कण खा रहा था। उसके प्याले में से थोड़ा सा शहद टपक कर जमीन पर भगर
पड़ा।
उस शहद को चाटने मभक्खयाँ आ गई।ं मभक्खयों को इकट्ठी देख भछपकली ललचाई और उन्हें खाने के भलए आ
पहुचँ ी। भछपकली को मारने भबल्ली पहुचं ी। भबल्ली पर दो-तीन कुत्ते टूटे। भबल्ली िाग गई और कुत्ते आपस में लड़कर
घायल हो गए।

कुत्तों के माभलक अपने-अपने कुत्तों के पक्ष का समथणन करने लगे और दसू रे का दोष बताने लगे। उस पर लड़ाई िन
गई। लड़ाई में दोनों ओर की िीड़ बढी और आभखर सारे शहर में बलवा हो गया। दगं ाइयों को मौका भमला तो
सरकारी खजाना लटू और राजमहल में आग लगा दी।

राजा ने इतने बड़े उपद्रव का कारर् पछ


ू ा तो मत्रं ी ने जाँचकर बताया भक िगवान आपके द्वारा असाविानी से भगराया
हुआ थोड़ा सा शहद ही इतने बड़े दगं े का कारर् बन गया है।

तब राजा समझा भक छोटी सी असाविानी िी मनष्ु य के भलए भकतना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकती है।

स्वप्ि पर मत रीझो

एक यवु क ने स्वप्न में देखा भक वह भकसी बड़े राजय का राजा हो गया है। स्वप्न में भमली इस आकभस्मक भविभू त के
कारर् उनकी प्रसन्नता का भिकाना न रहा।

प्रात:काल भपता ने काम पर चलने को कहा, माँ ने लकभड़याँ काट लाने की आज्ञा दी, िमणपत्नी ने बाजार से सौदा
लाने का आग्रह भकया। पर युवक ने कोई िी काम न कर एक ही उत्तर भदया-"मैं राजा ह,ँ मैं कोई काम कै से कर
सकता ह?ँ "

घर वाले बड़े हैरान थे, आभखर भकया क्या जाए? तब कमान सँिाली उनकी छोटी बभहन ने। एक-एक कर उसने
सबको बल ु ाकर चौके में िोजन करा भदया। अके ले खयाली महाराज ही बैिे के बैिे रह गए।

शाम हो गई,िख ू से आँतें कुलबल


ु ाने लगीं। आभखर जब रहा नहीं गया तो उसने बहन से कहा-"क्यों री! मझु े खाना
नहीं देगी क्या?"

बाभलका ने महँु बनाते हुए कहा-"राजाभिराज! रात आने दीभजए, पररयाँ आकाश से उतरें गी, वही आपके उपयि

िोजन प्रस्ततु करें गी। हमारे रूखे-सूखे िोजन से आपको संतोष कहाँ होता?"

व्यथण की कल्पनाओ ं में भवचरर् करने वाले युवक ने हार मानी और मान भलया भक िरती पर रहने वाले मनष्ु य को
भनरथणक लौभकक एवं िौभतक कल्पनाओ ं में ही न डूबे रहना चाभहए वरन जीवन का जो शाश्वत और सनातन सत्य है
उसे प्राप्त और िारर् करने का प्रयत्न िी करना चाभहए। इतना मान लेने पर ही उसे िोजन भमल सका।
स्वगग और नरक भावनाओं में

एक गरुु के दो भशष्य थे। दोनों भकसान थे। िगवान का िजन_पजू न िी दोनों करते थे। स्वच्छता और सिाई पर िी
दोनों की आस्था थी, भकंतु एक बड़ा सुखी था, दसू रा बड़ा दख
ु ी।

गरुु की मृत्यु पहले हुई पीछे दोनों भशष्यों की िी। दैवयोग से स्वगणलोक में िी तीनों एक ही स्थान पर जा भमले, पर
भस्थभत यहाँ िी पहले जैसी ही थी। जो पृथ्वी में सख ु ी था, यहाँ िी प्रसन्नता अनिु व कर रहा था और जो आएभदन
क्लेश-कलह आभद के कारर् पृथ्वी में अशांत रहता था, यहाँ िी अशांत भदखाई भदया।

दख
ु ी भशष्य ने गरुु देव के समीप जाकर कहा-"िगवन् ! लोग कहते हैं, ईश्वर िभि से स्वगण में सख
ु भमलता है पर हम
तो यहाँ िी दखु ी के दख ु ी रहे।"

गरुु ने गंिीर होकर उत्तर भदया-"वत्स! ईश्वर िभि से स्वगण तो भमल सकता है पर सुख और दःु ख मन की देन हैं। मन
शि ु हो तो नरक में िी सख ु ही है और मन शि ु नहीं तो स्वगण में िी कोई सख
ु नहीं है।"

भय से मक्ु ति का उपाय

रंिा मोहनदास करमचंद गांिी के पररवार की परु ानी सेभवका थी। वह पढी-भलखी नहीं थी, भकंतु इतनी िाभमणक थी भक
रामायर् को हाथ जोड़कर और तल ु सी को भसर नवाकर ही अन्न-जल ग्रहर् करती थी ।

एक रात बालक गांिी को सोने से पहले डर लगा। उसे लगा भक कोई ितू -प्रेत सामने खड़ा है। डर से उन्हें रात िर नींद
नहीं आई। सवेरे रंिा ने लाल-लाल आँखें देखीं, तो उन्होंने गांिी से इसके बारे में पछ
ू ा गांिी ने परू ी बात सच सच
बता दी ।

रंिा बोली, ‘मेरे पास िय िगाने की अचकू दवा है। जब िी डर लगे, तो राम नाम जप भलया करो। िगवान् राम के
नाम को सनु कर कोई बरु ी आत्मा पास नहीं िटकती।’

गािं ीजी ने यह नसु खा अपनाया, तो उन्हें लगा भक इसमें बहुत ताकत है। बाद में सतं लािा महाराज के मख
ु से
रामकथा सनु कर उनकी राम-नाम में आस्था और सदृु ढ हो गई। बड़े होने पर गांिीजी ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन
भकया, तो वे समझ गए भक िय से परू ी तरह मभु ि िी िीक नहीं होती।

ू ा, ‘बापू ! परू ी तरह ियमि


एक बार विाण में एक व्यभि उनसे भमलने आया। गांिीजी से उसने पछ ु होने के उपाय
बताएँ।’
गािं ीजी ने कहा, ‘मैं स्वयं सवणथा ियमिु नहीं ह।ँ काम क्रोि ऐसे शत्रु हैं, भजनसे िय के कारर् ही बचा जा सकता
है। इन्हें जीत लेने से बाहरी िय का उपद्रव अपने-आप भमट जाता है। राग-आसभि दरू हो, तो भनिणयता सहज प्राप्त हो
जाए। ‘

सफलिा की िैयारी

शहर से कुछ दरू एक बुजगु ण दम्पत्ती रहते थे . वो जगह भबलकुल शांत थी और आस -पास इक्का -
दक्ु का लोग ही नज़र आते थे .

एक भदन िोर में उन्होंने देखा की एक यवु क हाथ में िावड़ा भलए अपनी साइभकल से कहीं जा रहा
है , वह कुछ देर भदखाई भदया और भिर उनकी नज़रों से ओझल हो गया
.दम्पत्ती ने इस बात पर अभिक ध्यान नहीं भदया ,
पर अगले भदन भिर वह व्यभि उिर से जाता भदखा .अब तो मानो ये रोज की ही बात बन गयी ,
वह व्यभि रोज िावड़ा भलए उिर से गजु रता और थोड़ी देर में आँखों से ओझल हो जाता .

दम्पत्ती इस सन्ु सान इलाके में इस तरह भकसी के रोज आने -जाने से कुछ परे शान हो
गए और उन्होंने उसका पीछा करने का िै सला भकया
.अगले भदन जब वह उनके घर के सामने से गजु रा तो दपं त्ती िी अपनी गाडी से उसके पीछे -
पीछे चलने लगे .
कुछ दरू जाने के बाद वह एक पेड़ के पास रुक और अपनी साइभकल वही ँ कड़ी कर आगे बढने ल
गा . १५-२० कदम चलने के बाद वह रुका और अपने िावड़े से ज़मीन खोदने लगा .

दम्पत्ती
को ये बड़ा अजीब लगा और वे भहम्मत कर उसके पास पहुचं े ,“तमु यहाँ इस वीराने में ये काम
क्यों कर रहे हो ?”

यवु क बोला , “ जी, दो भदन बाद मझु े एक भकसान के यहाँ काम पाने क भलए जाना है ,
और उन्हें ऐसा आदमी चाभहए भजसे खेतों में काम करने का अनिु व हो ,
चँभू क मैंने पहले किी खेतों में काम नहीं भकया इसभलए कुछ भदनों से यहाँ आकार खेतों में काम करने
की तैयारी कर रहा ह!ँ !”

दम्पत्ती यह सनु कर कािी प्रिाभवत हुए और उसे काम भमल जाने का आशीवाणद भदया .
Friends, भकसी िी चीज में सिलता पाने के भलए तैयारी बहुत ज़रूरी है . भजस sincerity
के साथ यवु क ने खदु को खेतों में काम करने के भलए तैयार भकया कुछ उसी तरह हमें िी अपने-
अपने क्षेत्र में सिलता के भलए खदु को तैयार करना चाभहए।

अवसर की पहचान

एक बार एक ग्राहक भचत्रो की दक


ु ान पर गया । उसने वहाँ पर अजीब से भचत्र देखे । पहले भचत्र मे चेहरा परू ी तरह
बालो से ढँका हुआ था और पैरोँ मे पंख थे ।एक दसू रे भचत्र मे भसर पीछे से गजं ा था।

ू ा – यह भचत्र भकसका है?


ग्राहक ने पछ

ु ानदार ने कहा – अवसर का ।


दक

ू ा – इसका चेहरा बालो से ढका क्यो है?


ग्राहक ने पछ

दक
ु ानदार ने कहा -क्योंभक अक्सर जब अवसर आता है तो मनष्ु य उसे पहचानता नही है ।

ू ा – और इसके पैरो मे पंख क्यो है?


ग्राहक ने पछ

ु ानदार ने कहा – वह इसभलये भक यह तरु ं त वापस िाग जाता है, यभद इसका उपयोग न हो तो यह तरु ं त उड़ जाता
दक
है ।

ू ा – और यह दसू रे भचत्र मे पीछे से गंजा भसर भकसका है?


ग्राहक ने पछ

ु ानदार ने कहा – यह िी अवसर का है । यभद अवसर को सामने से ही बालो से पकड़ ले ँगे तो वह आपका है
दक
।अगर आपने उसे थोड़ी देरी से पकड़ने की कोभशश की तो पीछे का गजं ा भसर हाथ आयेगा और वो भिसलकर
भनकल जायेगा । वह ग्राहक इन भचत्रो का रहस्य जानकर हैरान था पर अब वह बात समझ चक ु ा था ।

दोस्तो,

आपने कई बार दसू रो को ये कहते हुए सनु ा होगा या खदु िी कहा होगा भक ‘हमे अवसर ही नही भमला’ लेभकन ये
अपनी भजम्मेदारी से िागने और अपनी गलती को छुपाने का बस एक बहाना है । Real मे िगवान ने हमे ढेरो
अवसरो के बीच जन्म भदया है । अवसर हमेशा हमारे सामने से आते जाते रहते है पर हम उसे पहचान नही पाते या
पहचानने मे देर कर देते है । और कई बार हम भसिण इसभलये चक ू जाते है क्योभक हम बड़े अवसर के ताक मे रहते हैं ।
पर अवसर बड़ा या छोटा नही होता है । हमे हर अवसर का िरपरू उपयोग करना चाभहये ।
धमव का सौदा

तथागत एक बार काशी में एक भकसान के घर भिक्षा माँगने चले गए। भिक्षा पात्र आगे बढाया। भकसान ने एक बार
उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा। शरीर पर्ू ाांग था। वह भकसान कमण पजू क था। गहरी आँखों से देखता हुआ बोला-"मैं तो
भकसान ह।ँ अपना पररश्रम करके अपना पेट िरता ह।ँ साथ में और िी कई व्यभियों का। तमु क्यों भबना पररश्रम भकए
िोजन प्राप्त करना चाहते हो?"

बि ु ने अत्यंत ही शांत स्वर में उत्तर भदया-"मैं िी तो भकसान ह।ँ मैं िी खेती करता ह।ँ " भकसान ने आश्चयण से िरकर
प्रश्न भकया-"भिर........अब क्यों भिक्षा माँग रहे हैं?"

िगवान बि ु ने भकसान की शंका का समािान करते हुए कहा"हाँ वत्स! पर वह खेती आत्मा की है। मैं ज्ञान के हल
से श्रिा के बीज बोता ह।ँ तपस्या के जल से सींचता ह।ँ भवनय मेरे हल की हररस, भवचारशीलता िाल और मन नरै ली
है। सतत अभ्यास का यान, मझु े उस गतं व्य की ओर ले जा रहा है जहाँ न दःु ख है न संताप, मेरी इस खेती से अमरता
की िसल लहलहाती है। तब यभद तमु मझु े अपनी खेती का कुछ िाग दो.......और मैं तुम्हें अपनी खेती का कुछ
िाग दंू तो क्या यह सौदा अच्छा न रहेगा।"

भकसान की समझ में बात आ गई और वह तथागत के चरर्ों में अवनत हो गया।

िकल अच्छी िहीां

एक व्यापारी एक घोड़े पर नमक और एक गिे पर रूई की गाँि लादे जा रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ी। पानी में
िँ सते ही घोड़े ने पानी में डुबकी लगाई तो कािी नमक पानी में घल
ु गया। गिे ने घोड़े से पछ
ू ा-यह क्या कर रहे हो?
घोड़े ने उत्तर भदया-वजन हलका कर रहा ह।ँ यह सनु कर गिे ने िी दो डुबकी लगाई ं पर उससे गाँि िीगकर इतनी िारी
हो गई भक उसे ढोने में गिे की जान आित में पड़ गई। सच है नकल के भलए िी बड़ी अकल चाभहए।

खााँड़ के खखलौिे

एक गृहस्थ तीन खाँड़ के भखलौने लाया जो भक तीन सािओ ु ं की मभू तणयाँ थीं। सयं ोगवश उसके यहाँ तीन अभतभथ सािु
िोजन करने आए। गृहस्थ ने उन्हें बड़ी श्रिा से बैिाया। इतने ही में गृहस्थ का एक छोटा लड़का आया वह उन
भखलौनों को लेकर पछू ने लगा-"यह क्या है, भपताजी!" गृहस्थ बोला-"यह सािू है।" बालक ने पछ ू ा, "इनका क्या
होगा?" गृहस्थ ने कहा-"इन्हें खाएँगे।" लड़का बोला, कब। गृहस्थ बोला-"पहले इन सािओ
ु ं को िोजन कराकर हम
खाना खा लें भिर एक-एक तीनों खा लेंग।े "

गृहस्थ तो इस प्रकार अपने बालक को उन खाँड़ के भखलौनों के बारे में बतला रहा था, उिर सािओ ु ं ने समझा भक
यह बातचीत उनके बारे में चल रही है। यह समझकर सािु उनके यहाँ से िागे, गृहस्थ को बड़ा अचरज हुआ, वह
उनके पीछे िागा। वे लोग एक जगह रुके , थक गए तो गृहस्थ ने उनके िागने का कारर् पछ ू ा। सािओ
ु ं ने कहा भक तमु
हमें मार डालना चाहते थे,हम तम्ु हारी सब बात सनु रहे थे। गृहस्थ ने कहा-"महाराज मैं तो बालक से खाँड़ के
भखलौनों के बारे में बातचीत कर रहा था।" तब सािओ ु ं की समझ में आया और वे भिर वापस उसके घर गए और
िोजन भकया। मन की दबु णलता से लोग ऐसे ही डरे रहते हैं जब भक वास्तभवकता कुछ और ही होती है।

वववेक सबसे बड़ा धमव

मअद को यमन का शासक भनयि ु भकया गया। राजयाभिषेक के उपलक्ष्य में जन-उत्सव सपं न्न हुआ, बहुत सी प्रजा
अभिषेक देखने आई। मअद बड़े नेक और ईश्वर िि राजकुमार थे।

ताज िारर् कराने से पूवण राजपरु ोभहत ने प्रश्न भकया-"आपके सामने जो मामले मक
ु दमे आएँगे उन्हें भकस प्रकार हल
करें ग।े " मअद ने उत्तर भदया-"कुरान शरीि को आिार मानकर, जो कुरान के भसिांत के अनसु ार होगा उसी का
समथणन करूँगा।"

पर यभद कुरान में वह बात न भलखी हो तो?"तब मैं िमाणचायों और भजन पर प्रजा का भवश्वास है ऐसे पैगबं रों का भनदेश
प्राप्त करूँगा।" मअद ने उत्तर भदया।

"यभद वह िी उपलधि न हो तो?" राजपरु ोभहत ने भिर प्रश्न भकया।

"तब मैं अपने भववेक के अनुसार न्याय करने का यत्न करूँगा" मअद ने भवनीत उत्तर भदया।

मरिे से डरिा तया?

राजा परीभक्षत को िागवत सुनाते हुए जब शक


ु देव जी को छह भदन बीत गए और सपण के काटने से मृत्यु होने का एक
भदन रह गया

तब िी राजा का शोक और मृत्यु िय दरू न हुआ। कातर िाव से अपने मरने की घड़ी भनकट आती देखकर वह क्षधु ि
हो रहा था।
शकु देव जी ने परीभक्षत को एक कथा सनु ाई-राजन! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा भकसी जगं ल में भशकार
खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता िल ू कर बड़े घने जगं ल में जा भनकला, राभत्र हो गई वषाण पड़ने लगी। भसंह व्याघ्र
बोलने लगे। राजा बहुत डरा और भकसी प्रकार राभत्र भबताने के भलए भवश्राम का स्थान ढूँढने लगा। कुछ दरू ी पर उसे
दीपक भदखाई भदया। वहाँ पहुचँ कर उसने एक गदं े बीमार बहेभलए की झोंपड़ी देखी। वह चल-भिर नहीं सकता था
इसभलए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल मत्रू त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के भलए जानवरों का मासं
उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गदं ी, छोटी, अिं ेरी और दगु िां यिु वह कोिरी थी। उसे देखकर राजा
पहले तो भििका, पर पीछे उसने और कोई आश्रय न देखकर उस बहेभलए से अपनी कोिरी में रातिर िहर जाने देने
के भलए प्राथणना की।

बहेभलए ने कहा-"आश्रय के लोिी राहगीर किी-किी यहाँ आ िटकते हैं और मैं उन्हें िहरा लेता हँ तो दसू रे भदन
जाते समय बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गिं उन्हें ऐसी िा जाती है भक भिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसी
में रहने की कोभशश करते हैं और अपना कधजा जमाते हैं। ऐसे झझं ट में मैं कई बार पड़ चकु ा ह।ँ अब भकसी को नहीं
िहरने देता। आपको िी इसमें नहीं िहरने दगँू ा।" राजा ने प्रभतज्ञा की, कसम खाई भक वह दसू रे भदन इस झोंपड़ी को
अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है। यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है भसिण एक रात काटनी है।

बहेभलए ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोंपडी के कोने में िहर जाने भदया, पर दसू रे भदन प्रात:काल ही भबना झझं ट
भकए झोंपड़ी खाली कर देने की शतण को भिर दोहरा भदया। राजा एक कोने में पड़ रहा। रात िर सोया। सोने में झोंपड़ी
की दगु िां उसके मभस्तष्क में ऐसी बस गई भक सवेरे उिा तो उसे वही सब परमभप्रय लगने लगा। राजकाज की बात िल ू
गया और वहीं भनवास करने की बात सोचने लगा।

प्रात:काल जब राजा और िहरने के भलए आग्रह करने लगा तो बहेभलए ने लाल-पीली आँखें भनकाली और झझं ट
शरू ु हो गया। झझं ट बढा। उपद्रव और कलह का रूप िारर् कर भलया। राजा मरने-मारने पर उतारू हो गया। उसे
छोड़ने में िारी कि और शोक अनिु व करने लगा।

शक ु देव जी ने पछ
ू ा-"परीभक्षत बताओ, उस राजा के भलए क्या यह झझं ट उभचत था?" परीभक्षत ने कहा-"िगवन!् वह
कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए। वह तो बड़ा मख ू ण मालमू पड़ता है भक ऐसी गदं ी कोिरी में, अपनी प्रभतज्ञा
तोड़कर राजकाज छोड़कर, भनयत अवभि से िी अभिक रहना चाहता था। उसकी मख ू णता पर तो मझु े िी क्रोि आता
है।"

शक ु देव जी ने कहा-"परीभक्षत! वह मख
ू ण तू ही है। इस मलमत्रू की गिरी देह में भजतने समय तेरी आत्मा को रहना
आवश्यक था वह अवभि परू ी हो गई। अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था। इस पर िी तू झंझट िै ला रहा
है। मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है। क्या यह तेरी मख ू तण ा नहीं है?"
सांघषव से बड़ी िजतत िहीां

द्रोर्ाचायण कौरव सेना के सेनापभत भनयि


ु हुए। पहले भदन का यि
ु वीरतापवू क
ण लड़े तो िी भवजयश्री अजनणु के हाथ
रही।

यह देखकर दयु ोिन को बड़ी भनराशा हुई। वह गरुु द्रोर्ाचायण के पास गए और कहा-"गरुु देव! अजनणु तो आपका भशष्य
मात्र है, आप तो उसे क्षर्िर में परास्त कर सकते हैं, भिर यह देर क्यों?"

द्रोर्ाचायण गंिीर हो गए और कहा-"आप िीक कहते हैं, अजनणु मेरा भशष्य है, उसकी सारी भवद्या से मैं पररभचत ह,ँ
भकंतु उसका जीवन कभिनाई से सघं षण करने में रहा है और मेरा सभु विापवू क
ण भदन भबताने का रहा है। भवपभत्त ने उसे
मझु से िी अभिक बलवान बना भदया है।"

पराया धि धूशल समाि

िि राँका बाँका अपनी स्त्री समेत िगवत उपासना में लगे थे। वे दोनों जगं ल से लकड़ी काट-काट अपना गजु ारा करते
थे और िभि िावना में तल्लीन रहते थे। अपने पररश्रम पर ही गजु र करना उनका व्रत था। दान या पराये िन को वे
िभि मागण में बािक मानते थे। एक भदन राँका बाँका जगं ल से लौट रहे थे। रास्ते में महु रों की थैली पड़ी भमली। वे पैर
से उस पर भमट्टी डालने लगे। इतने में पीछे से उनकी स्त्री आ गई। उसने पछ ू ा-"थैली को दाब क्यों रहे हैं?" उसने उत्तर
भदया-"मैंने सोचा तुम पीछे आ रही हो कहीं पराई चीज के प्रभत तम्ु हें लोि न आ जाए इसभलए उसे दाब रहा था।"
स्त्री ने कहा-"मेरे मन में सोने और भमट्टी में कोई अंतर नहीं, आप व्यथण ही यह कि कर रहे थे।" उस भदन सूखी लकड़ी
न भमलने से उन्हें िख ू ा रहना पड़ा तो िी उनका मन पराई चीज पर भवचभलत न हुआ।

पराये िन को िभू ल समान समझने वाले, अपने ही श्रम पर भनिणर करने वाले, सािारर् दीखने वाले िि िी उन लोगों
से अनेक गनु े श्रेि हैं जो संत-महतं का आडंबर बनाकर पराये पररश्रम के िन से गल
ु छरे उड़ाते हैं।

धोखा नहीं दं ग
ू ा

प्राचीन परंपराओ ं की तल ु ना में भववेकशीलता का अभिक महत्त्वपर्ू ण प्रभतपादन करने वाले सतं सक
ु रात को वहाँ के
काननू से मृत्यदु डं की सजा दी गई।

सक
ु रात के भशष्य अपने गरुु के प्रार् बचाना चाहते थे। उन्होंने जेल से िाग भनकलने के भलए एक सभु नभश्चत योजना
बनाई और उसके भलए सारा प्रबंि िीक कर भलया।
प्रसन्नता िरा समाचार देने और योजना समझाने को उनका एक भशष्य जेल में पहुचँ ा और सारी व्यवस्था उन्हें कह
सनु ाई। भशष्य को आशा थी भक प्रार्-रक्षा का प्रबंि देखकर उनके गरुु प्रसन्नता अनुिव करें ग।े

सक
ु रात ने ध्यानपवू क
ण सारी बात सनु ी और दख
ु ी होकर कहा"मेरे शरीर की अपेक्षा मेरा आदशण श्रेि है। मैं मर जाऊँ
और मेरा आदशण जीभवत रहे तो वही उत्तम है। भकंतु यभद आदशों को खोकर जीभवत रह सका तो वह मृत्यु से िी
अभिक किकारक होगा। न तो मैं सहज भवश्वासी जेल कमणचाररयों को िोखा देकर उनके भलए भवपभत्त का कारर् बनँगू ा
और न भजस देश की प्रजा ह,ँ उसके काननू ों का उल्लंघन करूँगा। कत्तणव्य मझु े प्रार्ों से अभिक भप्रय हैं।"

योजना रद्द करनी पड़ी। सक


ु रात ने हँसते हुए भवष का प्याला भपया और मृत्यु का संतोषपूवक
ण आभलंगन करते हुए
कहा-"हर िले आदमी के भलए यही उभचत है भक वह आपभत्त आने पर िी कतणव्यिमण से भवचभलत न हो।"

शिक्षा दे ने से पहले

सातवषीय बालक को माँ पीटे जा रही थी। पड़ोस की एक मभहला ने जाकर बचाया उसे। पछ ू ने पर उसकी माँ ने बताया
भक यह मंभदर में से चढौती के आम तथा पैसे चरु ाकर लाया है, इसीभलए पीट रही हँ इसे। उि मभहला ने बड़े प्यार से
उस बच्चे से पछ
ू ा-"क्यों बेटा! तुम तो बड़े प्यारे बालक हो। चोरी तो गदं े बच्चे करते हैं। तमु ने ऐसा क्यों भकया?"

बार-बार पछ
ू ने पर भससभकयों के बीच से बोला-"माँ िी तो रोज ऊपर वाले चाचाजी के दिू में से आिा भनकाल लेती
हैं और उतना ही पानी डाल देती हैं और हमसे कहती हैं भक उन्हें बताना मत। मैंने तो आज पहली बार ही चोरी की
है।"

मभहला के महँु की आिा देखते ही बनती थी उस समय। वास्तव में बच्चों के भनमाणर् में घर का वातावरर् बहुत ही
महत्त्वपर्ू ण स्थान रखता है।

जैसा खाया अन्ि वैसा बिा मन

शरशैया पर पड़े हुए िीष्म भपतामह उत्तरायर् सयू ण आने पर प्रार् त्यागने की तैयारी में लगे थे।

कुरु और पांडु कुल के नर-नारी उन्हें घेरे बैिे थे। भपतामह ने उभचत समझा भक उन्हें कुछ िमोपदेश भदया जाए। वे िमण
और सदाचार की भववेचना करने लगे।

सब ध्यानपवू क
ण सनु रहे थे पर द्रोपदी के चेहरे पर व्यंग हास की हलकी सी रे खा दौड़ रही थी।

िीष्म ने उसे देखा और अभिप्राय को समझा।


वे बोले-"बेटी! मेरी कल की करनी और आज की कथनी में अतं र देखकर तमु आश्चयण मत मानो। मनष्ु य जैसा अन्न
खाता है वैसा ही उसका मन बनता है। भजन भदनों में राजसिा में तम्ु हारा अपमान हुआ था उन भदनों कौरवों का
कुिान्य खाने से मेरी बभु ि मलीन हो रही थी इसभलए तम्ु हारे पक्ष में न्याय की आवाज न उिा सका। पर इन भदनों मझु े
लंबी अवभि का उपवास करना पड़ा है, सो िावनाएँ स्वतः वैसी हो गई ं जैसा भक मैं इस समय िमोपदेश में व्यि कर
रहा ह।ँ "

द्रोपदी ने आहार की शभु ि का महत्त्व समझा और क्षमा प्राथणना के रूप में अपनी िल
ू पर दःु ख प्रकट करते हुए
भपतामह के चरर्ों पर मस्तक झक ु ा भदया।

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