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महाभारत के बाद

उप यास
भुवने र उपा याय

रे ड ैब बु स व एनीबुक
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महाभारत के बाद (उप यास)
भुवने र उपा याय
काशक :
रे ड ैब बु स
942, मु ीगंज, इलाहाबाद-3 उ र देश, भारत
वेबसाइट - www.redgrabbooks.com
ईमेल - contact@redgrabbooks.com
एवं
एनीबुक
जी248, ि तीय तल, से टर-63
नोयडा, उ र देश 201301
सं करण : थम, जुलाई 2018
आवरण : ी क यूटस, इलाहाबाद
टाइप से टंग : ी क यूटस, इलाहाबाद
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समपण
ये कृ ित
मेरे पू य पापा जी को सम पत है
जो शु से ही मेरे लेखन के िलए िवशु
आलोचक क भूिमका िनभाते आये ह।
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पूवाभास
महाभारत के कु छ पा और उनके जीवन-च र लगभग दो तीन वष से मेरे िवचार
से िनरं तर जुड़े रहे। मंथन कई बार मानिसक ं क ि थित तक भी प च ँ ा। आज
आदमी छोटी-छोटी महाभारत अपने घर म, जीवन म, सहता और देखता आ रहा है।
इस टू टन, इस िबखराव का असर उसके जीवन म साफ दखाई देता है। जीवन के अंितम
ण म कये गये कम क िनरथकता क अनुभूित और अिधक तािड़त करती है।
कभी-कभी ये उठता है क आदमी देख, सुन और भोगकर भी नह चेतता... मगर
य ? उ र म िसफ एक ही श द क धता है ‘ वभाव'; िजसके कारण वह वैसे ही कम
क ओर अ सर होता है, जैसी उसक सोच और अंतः ेरणा होती है। और फर जब वह
अपने कये का प रणाम भोगते ए वयं का िव ेषण करता है, तब मन म एक ताप
उ प होता है, जो भीतर ही भीतर उसे िनरं तर जलाता है। पीड़ा देता है। मगर उसे
सुधारने का समय नह देता। जब प रणाम सामने होते ह, तब ब त सी बात अपने आप
ही मह वहीन हो जाती ह।
मने कु छ महीन म महाभारत के ऐसे ही कई पा के बहाने, एक आम आदमी के
मनः ताप को श द देने का यास कया है। कै से आदमी ज़रा सी ितकू लता को,
ितशोध का कारण मानकर, उसे जीवन का येय बना लेता है। उसके कम कु छ और नये
ितशोध के जनक बन जाते ह; तब पी ढ़याँ उसके दु प रणाम भोगती ह। िवकास के
िमक उप म के थान पर मनु य, िवनाश के िलये आयुध जुटाता है, िसफ अपनी कुं ठा
और अहं क पू त के िलये।
महाभारत एक ऐसा अ भुत ंथ है, िजसम जीवन को समझने के िलए उसके िविभ
आयाम मौजूद ह और य द जीवन सम प म सामने हो तो उसे समझने म और
आसानी होती है। मनु य के जीवन म कई अवसर ऐसे आते ह, जहाँ से वह अपने उ म
कृ य के ारा देव व तक ा कर सकता है और वही अपने घृिणत कम के ारा
अधोगित को भी ा कर सकता है। मानव के मानवीय कमजो रय से ऊपर उठकर,
मानवेतर होने का यास ही तो देव व है और यही सही मायन म मनु य होने क
साथकता भी है। ये ि थित एक ि का ि गत आ मो सग है, जो समाज म आदश
के प म थािपत हो जाता है।
एक ओर एकल उपेि त होने पर भी मजबूत आ मबल, आ था के ित समपण
और विववेक का सहारा लेकर सव े बन जाता है। वह घृणा क जगह याग और धम
को आदश के प म थािपत कर, वयं के िलए अमरता का माग श त कर लेता है,
जब क कण, उसी िव ा के िलये छल का सहारा लेता है। घृणा एवं ितशोध को धारण
करता है और फर उसके यही कृ य उसक अधोगित के कारण बनते ह। उसके सम
जीवन को िव ेिषत करते ए, कभी-कभी लगता है क उसका याग, दान आ द सब
एक हताशा- ज य या थी, जो के वल उसे दुिनया के सम अ छा सािबत करने के
िलए थी। अितमह वाकां ा, ेम और स मान कहाँ दला पाती है, बि क वह वयं के
कम , वहार से दय म कटु ता और भर देती है।
कण, जब सूयदेव के मना करने पर भी इ देव को कवच-कुं डल दान कर देता है और
माता कुं ती को पांडव को न मारने का वचन देता है, तब उसका च र ऊँचा उठता
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दखाई देता है, साथ ही जीवन के ित उसक उदासीनता भी प रलि त होती है।
कारण, वही उपे ा, जो उसके नाम के साथ ‘सूत’ श द जुड़ने से दुिनया ने उसे दी है।
कण म एक और उ म मानवीय गुण नजर आता है, वो है कृ त यता और इसी गुण के
कारण वह सदैव दुय धन के साथ खड़ा दखता है। यही कण का उसके उपकार के ित
स ा समपण है। वह दुय धन के ित इसीिलए िन ावान रहा, य क वह उसक
किमय के साथ खड़ा रहा। ऐसे ही कु छ मामल म दुय धन भी े तीत होता है।
महाभारत, कु े म लड़ा गया के वल एक यु नह था, िजसे के वल दो सेना और
यो ा ने लड़ा हो, बि क ये तो वो महासं ाम था, िजसे उस समय उपि थत हर एक
ि ने अपने अंतर ं के प म, वयं से ही लड़ा था। कौन कसके प म खड़ा है,
इसका िनधारण भी कसी और ने नह कया था, बि क वयं उसी क इ छा ,
कुं ठा , मह वाकां ा और मानवीय मू य के ित आ था ने कया था। यु के पहले
भी ब त कु छ ऐसा घटा था, िजसके प रणाम व प ये भीषण सं ाम आ, िजसे
धमयु का नाम दया गया था। धमयु , धन-संपि और स ा मक अिधकार के िलये
नह होते, बि क दो मानिसकता के म य होते ह; मानवीय मू य और
मह वाकां ा के म य होते ह।
जब ित या, ितशोध का प ले लेती है तो और भी भयानक हो जाती है।
महाभारत ऐसे ही ितशोध क एक शृंखला है, िजसम हर-बार कु छ नय किड़याँ
जुड़ती रह । कारण कु छ भी रहे ह , परं तु इसे रोकने म समथ कोई नह दखा... मगर
य ? यही तो िवचारणीय प है। य सभी का ान पंगु हो गया था? य सभी का
बल, पौ षहीन हो गया था, जो स य क थापना न कर सका और बचाव म
प पातपूण तक गढ़ता रहा।
वह एक ओर वयं के बनाये घेर म क़ै द भी म, ोण जैसे शूरवीर क साम य बेबस
दखती है तो वह युयु सु और िवकण जैसी यूनता म भी मुखरता नजर आती है; परं तु
वह शि के अभाव म अथहीन होकर रह जाती है। िवदुर का नीित ान, राज प रवार
क िनजी मह वाकां ा के नीचे दबकर रह जाता है। िजनम अ याय को रोकने क
साम य थी, वो मौन-दशक बने रहे और अपनी किमयाँ, ये कहकर छु पाते रहे क शि
और स ा जो करे वही धम है... मगर समय मौन नह रहा।
ौपदी के अनु रत के उ र यु भूिम म खोजे गये। गांधारी क आँख पर बँधी
प ी का प रणाम, कु वंश के पतन के प म सामने आता है, इसीिलए उनके कृ य पर
वतः ही िच ह लग जाता है। या वा तव म एक औरत का िसफ औरत होना
इतना िवनाशकारी होता है क उसके ितशोध क आग म तमाम र ते भ म हो जाते
ह और इस ित पधा म पु ष ब त पीछे छू ट जाते ह।
बुराई म उपजे अहंकार को, दूसरे क साम य नह सूझती, इसिलये उसका पतन हो
जाता है और य द अ छाई म अहंकार क भावना आ जाये तो उसे सहज मानवीय
कत और दूसरे का दुःख नह सूझता; प रणाम यहाँ भी दुःखद और ितकू ल ही होता
है। इितहास गवाह है और महाभारत इसक पूण प रिणित कै से एक ि , दुिनया के
दये एक नाम को साकार करने के िलए, सम त मानवीय गुण और दैिहक
आव यकता का यागकर, जड़ता को ा हो जाता है और रसहीन जीवन जीता है।
महाभारत के पा को जब अलौ ककता के संहासन से उतारकर जमीनी धरातल
पर एक आम मनु य के प म टटोला जाता है, तो अिधकांश पा , वयं के अंत वरोध
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से जूझते और मानवीय कमजो रय को ढोते तीत होते ह और कु छ, वैचा रक उ कृ ता
ारा इनसे पार पाने म संघषरत नजर आते ह। उनम िसफ ीकृ ण के प म ही एक
महामानव नजर आता है, जो अपने नवीन िवचार एवं कम से एक देवता के प म
उभरकर सामने आता है। वह ेम का पाठ पढ़ाते ए दीन-दुःिखय का उ ार करता है,
िनरं कुश आतताइय का िवनाश करता है। उसे न स ा का मोह है, न कोई आसि और
जीवन का उ े य, के वल मानव मा का क याण करना। धम के िनिम शि और
साम य का इससे सुंदर उपयोग और या हो सकता है!
असल म मानवीय कमजो रय पर िवजय क घोषणा ही देव व है। ािण मा के
क याण क कामना एवं उससे ेम ही देव व है और इसके िलए कया गया हर एक
सफल य , मनु य को ई र क ेणी म लाकर खड़ा कर देता है। यहाँ शि और
साम य से अिधक वो भरोसा मह वपूण है, िजसके बल पर एक याचक अपने आरा य
से, अपने क याण क याचना कर सकता है और उसे पा भी सकता है।
यत: धम तत: कृ ण:, यत: कृ ण ततो जया:' ...और ीकृ ण ने यही भरोसा दखाया
है। महाभारत के इस घटना म म, भले ही सभी काय और कारण, वभावगत और
प रि थितज य ही रहे ह , परं तु प रणाम के सू धार तो के वल ीकृ ण ही रहे और
यही उनके कम क दैवीय प रणित है, इसीिलये उ ह अंत म सभी ने एक अलौ कक
शि के प म वीकार कया है। उनका संपूण जीवन यही कहता है, क वो धम, वो
जड़ता, वो ान और वो सभी कु छ याग दो, जो मनु य के मनु य बने रहने म बाधक
हो; अिन कारी हो... के वल ेम का वरण करो; उससे अिधक सुंदर और स ी कोई व तु
इस संसार म दूसरी नह है।
जब सम त कारण, काय और प रणाम, सभी के सम उपि थत ह , तो
आ मिव ेषण ज री हो जाता है और तब, स य से सा ा कार होने म देर नह लगती।
यु के बाद जो घट रहा था, वो मानवीय संवेदना के दृि कोण से, यु से कह अिधक
भयावह था। उन माँ के दय से पूछो, िज ह ने यु म कशोरवय संिध पर कदम
रखते ए, अपने पु को खोया है और उन पि य से भी पूछो, िज ह ने दांप य के नाम
पर के वल कु छ सुखद पल ही िजये थे।
स ा, महज भोगिवलास के िलये नह होती और अगर कह हो जाती है तो राजा
और रा य, दोन का ही पतन हो जाता है। यु के बाद नविनमाण का काय ब त क ठन
होता है, इसीिलये सभी चाहते थे क युिधि र राजा बन और यु के बाद पुनरो थान
क चुनौती को वीकार कर। यहाँ हालात कु छ अलग थे और हारे -जीते प अिभ ।
महाभारत के कु छ पा , न पूण प से मानव तीत होते ह और न पूण प से
मानवेतर; इसीिलये ये कभी-कभी समय क धारा म बहते ए असहाय तीत होते
ह, तो कभी चम कार क अलौ कक आभा रचते ये ऩजर आते ह। भी म िपतामह
जैसा यो ा, बाण क श या पर पड़े ए भी अपने अनुभव के ारा, और के िलये
सुख-शांित के नये माग अपने उपदेशा मक वचन से श त करता है; वह युिधि र,
वधम और समय क आव यकता से, बेमन से ही सही, परं तु सामंज य िबठाने के
साथ-साथ कु छ जड़ता को कमजोर करते ए भी दखाई देते ह। यहाँ कु छ पा ऐसे
भी ह, िज ह ने सम त मानवोिचत गुण को यागकर अधोगित पाई, िजनम गु पु
अ थामा मुख ह और ीकृ ण के ारा उनके िलये चुना गया दंड, िवल ण।
य द अ थामा का जीवन और च र देखा जाये, तो ोणाचाय क मह वाकां ा का
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ज़हर, उसके जीवन को कलुिषत करता दखाई देता है। उसके वभाव म ा ण वाले
गुण, कु छ और ही प लेते दखाई देते ह... उसके िलए धम के अथ का के वल दुय धन के
ित िन ा तक ही िसमटकर रह जाना, कह -न-कह उसक मानिसक दासता क ओर
इशारा करता है, िजसक जड़ म, वाथ और हीनताज य मह वाकां ा का खाद पड़ा
दखाई देता है। अ थामा के ि व म न कोई िवशेषता प रलि त होती है और न
वो िववेक दखता है, िजसे गु ोणाचाय क ितछाया के प म उभरकर सामने आना
चािहए था।
जो घटना और दुिनया के ित उ रदायी नह होते, परं तु सहभागी होते ह, वो
एक सहयोगी के प म ही याद कये जाते ह, दोिषय म नह । यु भूिम म जो वीरगित
को ा हो गये, उनके बारे म तो इितहास िलखेगा, परं तु जो बच गये ह, उ ह अपने
आ मिव ेषण क आव यकता इसीिलए और महसूस ई, य क इसके िबना
नविनमाण संभव ही नह था। वो सब अपनी-अपनी भूिमका का मंथन वयं कर रहे
थे। या कया है, और या- या कर सकते थे? परं तु वो नह कया? य नह कया या
य नह कर पाये, जब इन के उ र सामने आये, तो अहं, दंभ, मह वाकां ा और
थोथे धम पर खड़े महल, भरभराकर िगर गये। ‘महाभारत के बाद' ऐसे ही कु छ
आ मिव ेषण का ताना-बाना है।
सबसे थम, इसका एक अंश मेरे पापा जी ने देखा था और उ ह ने ही इसे उप यास
के प म पूरा करने के िलए ो सािहत भी कया था। गांधारी के जीवन को उ ा टत
करता वह अंश, मै ेयी पु पा जी के संपादन म इ थ भारती के फरवरी-2018 अंक
म छपकर आया; खूब सराहना िमली। त प ात, जब व र समी क डॉ. अवध िबहारी
पाठक जी ने भी इसे देखा, तो उ ह ने इसको पढ़कर ब त ही सकारा मक ित या दी,
साथ ही इसको औप यािसक कृ ित के प म लाने के िलए े रत कया। उन सभी को
ध यवाद, िज ह ने मुझ पर भरोसा जताया है, िजनम रे ड ैब बु स पि लके शन एवं
वीनस के सरी जी भी शािमल ह, जो इसे कािशत कर, पाठक के िलए ला रहे ह।
भुवने र उपा याय
डबलगंज सेवढ़ा,
दितया, म. . 475682
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1
यु का दसवाँ दन ख म होते-होते, भी म के परा म का सूय भी अ त हो गया था,
मगर उनके िलए यु अभी समा नह आ था; उ ह अब अपने िथत दय क शांित
के िलए वयं से और लड़ना था। यु े से थक और र रं िजत देह, अपने-अपने
िशिवर क ओर थान कर चुक थ , ता क कल फर सूय दय के साथ ही उसी
मारकाट के म को पुनः आगे बढ़ाया जा सके । दूर-दूर तक फै ले िवशाल यु े क
भूिम, र से सन गई थी... उस पर उगी घास-घोड़ , हािथय और सैिनक के पैर तले
कु चली जाने के बाद और उस पर जमे र के कारण अ यिधक र ाभ होकर अिधक
भयावह लग रही थी। धम-अधम से परे , यु भूिम म पड़ा र , समानभाव से एकाकार
होकर मनु य क ू रता क कहानी कह रहा था।
ेत रे शमी धोती, िजस पर चमकदार कनारी लगाई गई थी; जो ेत, मगर रं गीन
कनारी वाले अंगव के साथ, भी म के शरीर पर शोभायमान हो रही थी; िजसे अजुन
के बाण ने कवच समेत वेधकर र -रं िजत कर दया था। कु छ ज री अंग को छोड़कर
धँसे वही बाण, भी म क देह के भार को, श या क तरह भूिम से कु छ ऊपर उठाये ए
थे। इ छामृ यु का वरदान पाये भी म ने, अभी मृ यु को वरने का िवचार याग दया था
और वयं, सूय के उ रायण होने क ती ा कर रहे थे। समय-समय पर दोन ही प
उनसे िमलने आते रहते थे।
दुय धन ने कु छ सैिनक, भी म क सुर ा हेतु छोड़ रखे थे, ता क जंगली जानवर
आघात न कर सक। उ ह देखकर भी म के चेहरे पर मु कान तैर गई थी, परं तु साथ ही
उभर आई पीड़ा क एक लहर ने उनके चेहरे को कु छ यादा ही िवकृ त कर दया था।
उनके ह ठ िहले, ‘‘जाओ, कु छ दूर बैठकर तुम भी िव ाम कर लो; अब इस देह को
सुर ा क आव यकता नह है।’’ सुनकर सैिनक वह खड़े रहे, िजससे उ ह ोध हो
आया।
‘‘मुझे एकांत चािहए!’’ उनके ह ठ फर िहले। इस बार वर म ती ता थी। सुनकर,
सैिनक कु छ कदम पीछे हट गए, मगर राजा ा ने उ ह वहाँ से पूणतः हटने क अनुमित
नह दी। राि के भयावह स ाटे को चीरती ई िसयार और कु क आवाज और
भयानक तीत हो रही थ । मगर भी म पर इसका कोई भाव नह था। कभी-कभी
जीवन, मौत से भी अिधक क ठन हो जाता है और तब मृ यु ही मुि का एक मा माग
बचता है। भी म भी उसी समय क ती ा कर रहे थे, परं तु उसे आने म अभी कु छ
समय और शेष था।
आसमान म िबखरे असं य तार क तरह ही, भी म के मन म अनिगनत उठ रहे
थे, िजनके उ र वे वयं ही अपनी मृितय / अनुभव से खोजने का य कर रहे थे।
उठते के साथ-साथ दैिहक पीड़ा भी िनरं तर उनक चेतना तक प च ँ रही थी, परं तु
उनका आ मबल, पीड़ा क उस ती ता को चेतना पर हावी होने से रोक रहा था;
इसीिलए उनक चेतना, धम-अधम और कत से मु होकर, जीवन के कु छ
वा तिवक प को पलटने का यास ज र कर रही थी।
स य को कतना भी दबाकर रखा जाये, वह पानी म डू बी लकड़ी क तरह ऊपर आ
ही जाता है। भले ही भी म के िलए ‘काश’, ‘ये’, ‘वो’, ‘ कं तु’, ‘परं तु’ जैसे श द,
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अथहीन होकर अपनी साम य खो चुके ह , फर भी उनके पास ान और अनुभव के
प म दुिनया को देने के िलये ब त कु छ था, िजसे ा करने के िलये आने वाले येक
सद य को वे िनः वाथ भाव से दान कर रहे थे, फर भी राि के एकांत म उ ह
आ ममंथन, कह अिधक संतुि कारक तीत हो रहा था। उनक मृित उ ह कु वंश के
अतीत म भी ब त दूर ले गई थी, िजसे िसफ उ ह ने कथा म सुना था। वतमान और
अतीत के घटना म एवं कु वंश म ज मे लोग के साथ, भी म क वैचा रक किड़याँ
जुड़ने लगी थ । उन बूढ़ी आँख म ब त कु छ प नजर आ रहा था, िजसे समय ने रचा
था या फर दोहराया था।
दानव , असुर को परािजत कर, इ पद पाने वाले राजा न ष, काम से हारकर
पतन को ा ए। ‘उनके पु कभी सुखी नह रह सकते!' ये शाप उनके पु ने ही
नह , अिपतु उनक पी ढ़य ने भी भोगा है। काम, एक ओर सृजन के नये माग श त
करता है, तो वह असंयिमत होकर पतन के माग पर भी ले जाता है। या वा तव म
काम का वेग इतना ती होता है क मनु य अपना िववेक, ान सब खो देता है? उ र,
वयं प रणाम के प म सामने थे... शायद हाँ।
इसी कु ल म पु ने अपने यौवन का याग कया था। ठीक वैसे ही मने भी तो कृ ित
के िव जाकर, आजीवन चय के पालन का ण िलया था; परं तु या इससे
उ थान आ? शायद नह । कसी के ि गत िहत के िलए कया गया याग, आदश
भले ही बन जाये, परं तु सामूिहक उ थान के नये माग तो मानवीय कमजो रय से ऊपर
उठकर ही बनाये जा सकते ह।
प ाताप ने भले ही बेहतर भिव य के िलए आशाि वत कर दया हो, परं तु ित ा
ने जड़ता के अित र कु छ भी नह दया। जन क याण हेतु, समय के साथ और उसके
अनु प चलना ही सही मायन म सामूिहक उ कष है... काश! म ये पहले समझ पाता;
तब शायद भी म भले ही नह बनता, परं तु ये कु वंश इस महायु से अव य बच
जाता। ‘जो होना है वो तो होकर ही रहता है।' ये कहकर अपने उ रदािय व से बचना
आज ेय कर तो नह लगता।
संहासन पर बैठकर िजसने अपने अिधकार और शि का उपयोग, वयं के
भोगिवलास से अिधक, जा क सेवा, र ा और उ ित म कया हो, ऐसे उदाहरण
ब त कम ही दखते ह। स ा ाि के बाद इससे बचकर, याग और धम के माग पर
चलना ब त क ठन तीत होता है। ये तो वो घृिणत दलदल है, िजसम कोई कमल के
सदृश िखलकर ऊपर रह ही नह सकता... वह उसी म डू ब जाता है, या फर
मह वाकां ा और ष ं क कोई तेज आरी उसे काटकर ही दम लेती है। संहासन भी
कमाल क चीज है; इससे चरम आसि होती है या फर चरम िवरि ; इसम कोई
बीच का रा ता संभव ही नह होता।
यित और ययाित के प म एक ने िवरि चुनी और वन चला गया; वह दूसरा,
संहासन से जुड़कर वासना के दलदल म धँसता ही चला गया, उसे कोई रोक ही नह
पाया। के वल काम के कारण ही न ष, ययाित क संतान सदैव दुःख भोगत रही ह; पु
ने असमय वृ व भोगा और मने भी म होना वीकार कया। कोई कसी को कु छ भी
करने से नह रोक सकता; इसीिलए सभी अपने कये कम और प रणाम के ित वयं
ही उ रदायी होते ह।
आज म, वयं भी म, िजस गित को ा ,ँ वो मेरे ही कम का प रणाम ह और मेरे
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भी म होने का मू य भी। जो भी हो, परं तु समय अब कु छ भी सुधारने का अवसर नह
देने वाला। मनु य का अंतरमन तो सभी को चेतावनी देता है परं तु, वो मानिसक दृढ़ता
सभी म नह दखती, िजससे उस आवाज को कम म थान दया जाता और न वो
िववेक से प रपूण समझ, जो समय क आव यकता को जानकर, जड़ता को तोड़ सके ।
तभी तो शायद अपनी उसी अंतरा मा क आवाज पर िपता शा तनु ने, माता
स यवती के िपता ारा रखी शत को अ वीकार कर दया था। वो एक पु के साथ
अ याय तो नह कर सकते थे, परं तु वे उस जड़ को न काट सके , िजस पर आसि क
क पल फू ट रही थ । उ ह सुखी करना मेरा कत था; उनक दुिवधा को िमटाकर,
उनक इ छा के अनु प ही मने काय कया था। एक ी के भीतर पनपी असुर ा क
भावना और लोभ के कारण, म देव त से भी म हो गया और उ भर उसी एक श द
(भी म) को और पु करता रहा।
असुर ा क भावना और भिव य के ित अ यिधक सजगता, वतमान को ज टल
बनाने के साथ-साथ ि को वाथ और ू र भी बना देती है। ‘म आजीवन संहासन
पर नह बैठँू गा।' मेरा ये आ ासन उ ह संतु न कर सका; उ ह मेरे उन पु से भी भय
था, जो पैदा ही नह ए थे। तब मुझे आजीवन चय- त धारण करने का ण लेना
पड़ा था। िपता क काम भावना क पू त हेतु मने अपनी संपूण कामना का याग
कया, परं तु प रणाम िवपरीत ही आया। ये दैव का दंड था या फर कम क प रणित;
जो भी हो, प रणाम तो उ ह के कु वंश ने भुगता।
िच ांगद और िविच वीय के प म हि तनापुर को दो कु मार िमले, मगर उनके
पालन-पोषण पर भोगिवलास का असर रहा। िपता शा तनु, देह याग चुके थे;
िच ांगद, अकाल मृ यु को ा हो गये थे। उसके बाद िविच वीय ने संहासन ा
कया। युवा होते ए भी उसक भुजा म इतना साम य नह था क वह अपने िलये
वयंवर म कोई ी जीत सकता। मुझे मरण है, माता स यवती ने मुझे इनके िववाह के
िलये आदेिशत करते ए कहा था,
‘‘भी म! तुम तो सब कु छ जानते ही हो और ये भी, क संहासन को उ रािधकारी
क आव यकता होती है; अब तु ह ही इसक व था करनी है।’’ मने िबना कु छ सोचे
अपनी सहमित कट कर दी थी; इसके अित र मेरे पास कोई और िवक प भी तो
नह था। म संहासन के आदेश से बँधा था, इसीिलए हर कार से हि तनापुर के
संहासन क र ा करना ही मेरा एकमा कत था। पाषाण होते मेरे दय म, उस
समय ोध के भाव थे या घृणा के , ये तो म नह कह सकता, परं तु मुझे ये सब करते ए
स ता तो कदािप नह ई। कसी पु षाथहीन ि के साथ कसी क या का
िववाह; वो भी उसक इ छा के िव करना अ याय ही था, फर भी मुझे ये सब बार-
बार करना पड़ा।
काशी नरे श क तीन पुि याँ अ बा, अि बका और अ बािलका, मेरे रथ पर सवार
थ और म उ ह उनके वयंवर से अ य राजा को परा त करके हर लाया था।
अि बका, अ बािलका दोन ने िविच वीय से िववाह करना वीकार कर िलया था,
परं तु अ बा कसी और से ेम करती थी इसीिलये मने उसे मु कर दया था; परं तु हर
िलये जाने के कारण वह ठु करा दी गई थी। तब उसने लौटकर मुझसे िववाह का ताव
रखा था, परं तु मेरे ित ाब होने के कारण उसे िनराश ही होना पड़ा था। मने अपने
ण हेतु गु के आदेश का अनादर कया और उसके अनुरोध को अ वीकार करते ए
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मने उससे कहा था,
‘‘अ बा, म आज म चय के पालन का ण ले चुका ,ँ इसीिलये म तुमसे िववाह
नह कर सकता, मुझे मा करना।’’
सुनकर उसने ोध से भरकर कहा था,
‘‘आपने ये तो मुझसे हरण करते समय नह कहा था क देव त जैसा वीर धनुधारी
मजबूर है; मने आपका पौ ष देखा था, इसीिलए पुन: लौट आई... परं तु आज देखा;
पु ष तो सदैव मजबूर ही होता है; कभी वह अपने अहंकार को धारण कर मजबूर हो
जाता है और कभी उन कुं ठा त धारणा से िजसे वयं पु ष ने ही बनाया है। एक
परािजत पु ष क कुं ठा के सम , ेम मह वहीन हो गया और उसने मुझे हरण होने के
कारण ितर कृ त कर दया; वह दूसरा पु ष, अपने ण के कारण मुझे वीकारने म
असमथ है... इसम म कहाँ दोषी ?ँ एक ी के बारे म कसी ने नह सोचा। मुझे उस
पु ष क आँख म ेम नह दखा, बि क उसम आपसे पराजय क पीड़ा अिधक थी, जो
उसके अहंकार के भंग होने से उ प ई थी। या कभी कोई पु ष, ी से स ा ेम कर
ही नह सकता? शायद कभी नह ।’’ वह कहती जा रही थी।
‘‘ ी को पु ष, सेिवका के प म चाहता है या फर भो या के ; इसीिलए वह ी से
तभी तक ेम कर सकता है, जब तक वह वयं के अहं से पीिड़त नह है। िध ार है ऐसे
पौ ष पर, जो एक ी को आसरा न दे सके ।’’ कहकर वह मौन हो गई थी और म
िन र खड़ा था। तब मने उससे बड़े ही दै य भाव से कहा था,
‘‘देिव! आप िविच वीय का वरण कर।’’
‘‘नह , म ऐसे पौ षहीन पु ष से िववाह नह कर सकती, िजसे एक नारी को जीतने
के िलये कसी और का सहारा लेना पड़े। स यता के उ िशखर पर बैठे होने का दम
भरने वाले इन पु ष के आचरण तो पशु से भी घृिणत ह; पशु के संघष म तो फर
भी काम के साथ-साथ भावी पीढ़ी के अ छी और बलवान होने क चाह भी समािहत
होती है। मेरे िलए के वल मृ यु ही अब अंितम िवक प के प म शेष है और म उसी का
वरण क ँ गी।’’
अ बा के श द, मेरे दय म शूल के समान चुभ रहे थे। उसने आ मदाह कर िलया; वो
भी इस ण के साथ क वह मेरी मृ यु का कारण बनेगी और वह बनी भी। इसीिलए
िशखंडी के सम मेरा श न उठाना, मेरा प ाताप भी था और मेरी मुि का माग
भी। म उसका दोषी था... उसका ही य , म तो उन सभी ि य का दोषी था िज ह म
हर लाया था।
काम-वासनाएँ आदमी को भीतर से खोखला और बुि से िववेकहीन बना देती ह;
ऐसे ि य को भिव य दखाई ही नह देता। िविच वीय भी िवलािसता के इसी
घृिणत दलदल म पड़ा-पड़ा य रोग से िसत होकर िनःसंतान मर गया। माता
स यवती क इ छा और संहासन फर खाली होकर रह गये थे।
समय जब अपराधबोध कराता है तो उसक वेदना भी बड़ी िवकट होती है; वही
वेदना मने माता स यवती के मुख पर कई बार देखी थी। एक दन उ ह ने मेरे पास
आकर कहा था,
‘‘भी म! समय ने मुझे हरा दया है; हि तनापुर के संहासन को राजा क ज रत
है... इसे वीकार करो और िविच वीय क पि य से संतान पैदा कर इस वंश को आगे
बढ़ाओ; इसे मेरा अनुरोध समझकर मान लो भी म।’’ उनके वर म आ म लािन और
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दै यता समािहत थी। माता स यवती का अनुरोध सुनकर म कु छ देर मौन रहा, फर मने
उ र देते ए कहा था,
‘‘माता, अब इसके िलये ब त िवलंब हो गया है; अब मेरे भीतर कत - भावना के
अित र कोई और भावना या इ छा शेष नह है और फर म ित ाब भी तो ।ँ ’’
‘‘पु , एक बार पुनः िवचार करो; म वयं तु ह तु हारे सम त ण से मु करती ,ँ
आज हि तनापुर को तु हारी ज रत है पु !’’
‘‘माते, आप आ ा द; हि तनापुर के संहासन क र ा हेतु म सदैव ाण देने को
त पर र ग ँ ा।’’
‘‘मुझसे ितशोध ले रहे हो पु ; मने वा तव म तु हारे साथ अ याय कया था, फर
भी हि तनापुर के िलये ये अनुरोध वीकार कर लो; आज ये िनणय तु हारे अिधकार म
है, या तुम मेरी इस आ ा का पालन नह करोगे?’’ सुनकर म मौन न रह सका।
मुझे ोध हो आया था और मने माता स यवती के िववाह से पूव जो ण िलया था,
वही ण मने और कठोर श द म, उ ह के सम जस-का-तस दोहरा दया। या ऐसा
करके म उ ह उनके पूवकम का मरण कराकर तािड़त करना चाहता था क देखो,
दैव ने तुमसे मेरा ितशोध िलया है? शायद नह ; म ये कहना चाहता था क ि
अपने िनजी वाथ, भय और असुर ा के कारण ही वयं अपने िलये सुख और उ ित के
माग बंद कर लेता है... म भी आप ही के ारा बंद कया गया एक ऐसा ही ार ,ँ जो
कभी नह खुल सकता; अब मेरी यही गित है और इसी गित म मेरे लोक और परलोक
समािहत ह।’’ माता स यवती मौन थ और म मजबूर। हि तनापुर के संहासन और
माता को कोई और िवक प तलाशना था। जीवन म एक समय ऐसा आ जाता है, जहाँ
से लौटना संभव ही नह होता; म भी उ और हालात के ऐसे ही पड़ाव पर अके ला
खड़ा था।
मेरे ारा उनके अनुरोध को ठु कराये जाने के बाद, माता स यवती ने तब मह ष ास
जी को बुलाया एवं उ ह िविच वीय क पि य से संतान उ प करने को कहा। ास
जी ने उनके कथन का अनुसरण कया, त प ात धृतरा , पांडु और एक दासी से िवदुर
का ज म आ था।
अिन छा और ेमरिहत संसग से उपजी संतान अपूण ही होती ह और वही आ।
धृतरा ज मांध थे और पांडु भी रोग त ए। िवदुर दासीपु थे, इसीिलये व य
होते ए भी वह रा य के अिधकारी नह थे। माता स यवती के दय म संहासन से
जुड़ी अनेक मह वाकां ाएँ पनपती रह और वही आज म उनके दुःख और पीड़ा का
कारण भी बनी रह । रा यसुख और वैभव के ित उनक लालसा ने उ ह उसी म
उलझाये रखा।
िनयम, धम और पा ता क बहस के बाद, हि तनापुर के संहासन पर पांडु का
अिधकार आ। एक बार फर धृतरा का अंध व उ ह छल गया। उसके इस हीनताबोध
को धीरे -धीरे अंधी मह वाकां ा म बदलते, मने वयं देखा था। समय जो कु छ रचता है,
उसक किड़याँ भी वही जोड़ देता है। गांधारी और धृतरा के िववाह का िनिम भी म
ही बना था। साम य जो करे वही धम है; ये बात आज उतनी ही अस य तीत होती है,
िजतनी क सूय का शीतल होना। ि गत वाथ क पू त हेतु शि का दशन, कु छ
और नये ितशोध को ज म दे ही देता है, िजसक प रणित सदैव अिन कारक ही होती
है।
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कसी ि के अपमान का ितकार य द त काल न हो तो उसक हीनताबोध ज य
अनुभूितयाँ, कभी-न-कभी ितशोध का प ले ही लेती ह; तब शि हीनता ष ं
रचने लगती है और मह वाकां ाएँ जैसे भी ह दूसर के अिधकार का हनन करने का
यास करने लगत ह। शकु िन क आँख म मुझे कु छ ऐसी ही कु टलता नजर आने लगी
थी, परं तु म िवक पहीन था, इसीिलए न कु छ कह सका और न कु छ कर सका।
मह वाकां ी अंध व क िववेकहीन संतान को अगर शकु िन जैसा मागदशक और
उ ेरक िमल जाये तो उनका सवनाश अव यंभावी हो जाता है, ये सब जानते ए भी
म मौन रहा, य क म संहासन के िनणय और आदेश से बँधा था। जब मयादाएँ
ख म इ तो हि तनापुर के िलये म के वल एक र क यो ा बनकर रह गया था। मेरा
भी म होना सदैव मेरे िलए ही बेिड़याँ बना रहा और म कु छ न कर सका। समय ने मुझे
कहाँ लाकर खड़ा कर दया... जब भी सोचता ँ तो मन ोध और पीड़ा से भर आता है।
कभी सोचता ँ क इस िवनाश के िलए म कतना दोषी ँ और मुझसे या- या
ु टयाँ ई ह, तो मेरे सम कई चेहरे उभरते ह, िजनके साथ म याय न कर सका था।
या वा तव म आदेश से बँधे लोग, सही-गलत और धम-अधम के ित उ रदायी होते
ह? और अगर उ र ‘हाँ’ है तो मने अपराध कये ह... तब ये तीर ही मेरा दंड ह और
य द उ र ‘न’ है तो फर मेरी ये दशा य है। इस का उ र तो वयं मेरी देह म
धँसे यही तीर ही ह जो मेरी ित ा के ित िन ा क तरह ही, मेरे कम से जुड़ गये
ह। म िववेकहीन नह था, परं तु मेरी मानिसक दृढ़ता ने जड़ता का प लेकर, मेरे इस
पराभव का माग श त कया था। जो मुझे वयं करना चािहये था, उसे मने दैव पर
छोड़ दया, यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी।
दुय धन ने भीम को जहर दया था, तभी उसे दंिडत कर रोका जाना चािहये था; जब
पांडव के िलये शकु िन और दुय धन ने ला ागृह सजाया था, तब भी उ ह रोका जाना
चािहये था... ूत ड़ा जब मनोरं जन का साधन न रहकर, मह वाकां ा क पू त और
घृिणत कृ य का साधन बन गई थी, तब भी उ ह नह रोका गया। ये होना चािहये, था
मगर न हो सका। मुझम रोकने क साम य तो थी, कं तु म ये तय ही नह कर पाया क
वा तव म धम या है... मेरे िलये तो मेरे ण ही मेरा सब कु छ थे।
अपनी लाज क र ा के िलए िगड़िगड़ाती ौपदी के म तक पर हाथ रखकर उसे
अभयदान देना, या मेरे िलये धम नह था? य द म चाहता तो ूत ड़ा क जगह,
युिधि र को संहासन पर बैठाकर, धम और याग से प रपूण एक राजा, हि तनापुर क
जा को दे सकता था; मगर मने जो हो रहा है वही होने दया... ये यु और ये देह म
धँसे तीर, शायद इसी के प रणाम ह; मेरा सारा पु षाथ थ चला गया।
ऐसा नह है क मने यु रोकने का यास न कया हो, मगर दंभी मूखता और
मह वाकां ा से प रपूण कौरव के आगे मेरे सम त यास थ ही रहे। पुनः एक
बार फर खेले गये ूत ने ही महाभारत के यु क न व रख दी थी। म पराधीन के
सदृश, पांडव को वन जाते देखता रहा।
कण और शकु िन जैसे िहत चंतक ने दुय धन क बुि को स िलया था। पांडव के
लौट आने पर, संिध के सम त माग को बंदकर, वयं दुय धन ने ीकृ ण का भी
अनादर कया, जो दैवीय शि य से प रपूण पु ष थे। मेरे ारा पांडव के साम य और
बल का बखान करना भी इन म दमितय को समझ नह आया। म कौरव सेना का
सेनापित तो बना, मगर पांडव का वध न कर सका; सेना और अ य महारथी ही मेरे
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िशकार बनते रहे। इस यु ने मेरे तन के साथ-साथ मेरी आ मा को भी थका दया था;
ये मेरे िलये अपने कम के िहसाब का समय था, इसीिलये जब ीकृ ण और युिधि र ने,
मुझसे मेरी मृ यु का माग पूछा, तो मने उ ह सहष ही बता दया था। मुझे िशखंडी के
प म अ बा का ण और मेरी मुि , दोन ही दख रही थ ।
यु भूिम म ीकृ ण ने जब अपना, श न उठाने का ण तोड़ते ए मुझ पर श
उठाया, तभी म सब समझ गया था, ण, के वल मानव मा क भलाई के िलये ही होने
चािहये; कं तु जब यही ण, अधम का प और उसक साम य बनने लग, तो उ ह
तोड़ने म ही भलाई है। धम का अथ के वल ठहराव या जड़ता नह है, अिपतु ेम, याग
और वो कत है, जो मानव मा के िहत क कामना करते ए जीवन को गितशील
रखता है और उसी के िलए पु षाथ करता है। सचमुच, ीकृ ण के जीवन-च र म एक
महामानव और पूणपु ष के दशन होते ह, जो अपने कम से वयं को देव व तक ले गये
ह। उ ह ने अपने दशन से जीवन को सहज और सुखी करने का माग श त कया था
और म वयं जीवन भर भी म होने का अहं ही ढोता रहा।
आ मिव ेषण ने मेरे भीतर क कई धारणा को तोड़कर, मेरे ानच ु को पुन:
स य कर दया था। मेरी देह इस अव था म भी मेरी सम त चेतना का भार ढोने म
स म थी, इसीिलए आज मेरी आ मा सम त कत और ण से मु होकर मुि के
िलए सूय के उ रायण होने क राह देख रही है। सं या या राि म जब भी मुझसे कोई
िमलने आता, तो उसके पास ब त से होते और म उनके उ र देता। मने ये महसूस
कया था क जब ि , देह क आव यकता से मु और िन प हो जाता है तो
उसक दृि और दृि कोण दोन ही बदल जाते ह; दय, संतुि और संतुलन क
अनुभूितय से भर जाता है, जीवन वत: ही ब त सरल तीत होने लगता है। म उ ह
िबना कसी भेदभाव के ‘जो है और जो होना चािहये।' के बारे म बताता रहा। उस व
म उस दये क तरह था, िजसका बुझना तय था, इसीिलए शी ही उस दये क लौ म,
सभी अपनी राह खोजना चाहते थे।
न जाने य मुझे आज उस िवकण का मरण हो रहा था, जो ये जानते ए भी, क
िजस सभा म भी म, ोण और पांडव जैसे वीर, बेबस होकर बैठे ह; वह उस सभा म
याय, धम और मानवता के प म खड़ा हो जाता है। उसका ये कृ य, हमारे परा म
और वधाय धम को पुनः िव ेिषत करने के िलये बा य करता है।
आज ये महसूस होता है क धम का सीधा संबंध आ मो थान से है, जहाँ ािणमा के
सुख क क पना क जाती है और व क वतं ता क र ा भी। यहाँ मुझे युयु सु
अनुकरणीय लगता है, िजसने अपना प कतनी सरलता से चुन िलया। उसने धमयु
अपना प चुनने म जो मानिसक दृढ़ता दखाई, वो सराहनीय थी। िबना कसी दबाव
के उसने बड़ी सहजता से ि गत र त , संबंध और वाथ को यागकर अ याय के
िव खड़े होने म अपना िहत समझा, जब क हम वयं को े सािबत करने के िलये
तक खोजते और गढ़ते रहे।
ितभा तो एक बेल क तरह िव तार चाहती है और जो उसे बढ़ने के मौके उपल ध
कराता है, वह उसी से िलपट जाती है। मने परशुराम िश य, कण क ितभा रं गभूिम म
देखी थी। ये उ कु ल के होने का दंभ ही तो था, िजस कारण म उसका हाथ पकड़कर ये
न कह सका क तुम े हो और तुम जैसे वीर धनुधर क हि तनापुर को आव यकता
है। तब शायद दुय धन, उसक ितभा को अपने ितशोध और वाथ िसि का साधन
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न बना पाता।
ये काय तो युिधि र भी कर सकता था, मगर उसने भी नह कया। य द वह कर
लेता तो एक शि , स य और धम के साथ और खड़ी होती। चूक तो हम दोन से ही ई
है। कण अगर वयं बुरा होता, तो याग और दान को जीवन म े थान न देता; जो
काम हम करना चािहये था उसे दुय धन ने कया, इसीिलए कण क ितभा अ याय के
माग पर अ सर हो गई।
शायद हम रामरा य क अवधारणा और उसके आदश को अपना ही न सके , जहाँ
समता क भावना ज म लेती है; वरना जा के िहत के िलए अंध व के थान पर, िवदुर
क यो यता, दूरद शता और धमपरायणता भी तो संहासन पर आसीन हो सकती थी...
परं तु िवदुर का दासी पु होना उसक यो यता पर भारी रहा। या वा तव म हम उस
समाज का िह सा थे, जहाँ न ी जाित का स मान था और न कसी क ितभा और
यो यता का वागत। भोगिवलास और शि क कामना म डू बे इन राज ासाद म न
जाने कतनी चीख घुटकर खो गय , इसका िहसाब तो समय के पास भी नह होगा। म
वयं भी म, मा एक िनिम ही था; कारण तो कोई और ही थे।
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इधर अपने क म िवदुर भी भी म िपतामह से िमलने का मन बना रहे थे। एक वो
ही थे, जो उनके मन क दुिवधा को समा कर सकते थे। मन म उठते और
अ त वरोध से जूझकर वे वयं को कमजोर महसूस कर रहे थे।
अपने शयनक के झरोखे से बाहर झाँककर, िवदुर पुनः श या पर आ पड़े। उनके
हाथ ने भले ही अ -श न उठाये ह और यु े म उनके कं ध ने लाश का बोझ न
ढोया हो, परं तु थकान और चंता से वे उतने ही िथत थे िजतने क और। ि ितज क
र ाभ पृ भूिम, कु े क र रं िजत भूिम का मरण करा रही थी। यु के प रणाम
को देखकर मुझे खुश होना चािहए या दुखी; म वयं असमंजस म ।ँ
य म दासीपु होने का बोझ उठाये; उ भर हि तनापुर के दरबार म खड़ा रहा;
जब क वहाँ मेरी कोई आव यकता ही नह थी। आज ये मेरे सम आ खड़े ए ह
और अब इन सब के उ र खोजे िबना मेरे मन को शांित नह िमलेगी; शायद इनके
उ र ही मेरे जीवन को कु छ साथकता दान कर सक।
म न कौरव ँ और न पांडव, फर...? म तो दासी पु ;ँ वो दासीपु , िजसक बात
का, ान का कोई मू य नह रहा; मू य तो शि और दंभ क संतान क इ छा का
होता है। मुझे भी और क तरह ासपु होने का सौभा य तो िमला, परं तु वो स मान
और अिधकार नह , जो कौरव और पांडव को िमले थे। इस िपतृस ा मक समाज म,
म माँ के नाम से पहचाना गया... इस दोहरे मानदंड पर म या कहता; मगर इसक
पीड़ा तो उ भर रही।
मने वयं देखा है; ये वो समय है, जहाँ शि और स ा जो करे वही याय है,
इसीिलए ये पराभव भी उसी स ा और दंभ का है... फर मुझे दुःख य हो रहा है?
मुझे तो युिधि र क िवजय का हष होना चािहए था; म भी तो धम के ित अपनी
िन ा रखता आया ।ँ
मेरी तरह वे यापु युयु सु ने भी वही पीड़ा भोगी है, कं तु मने उसक तरह श
नह चुने, बि क शा चुने थे; वो भी कु वंश को कहाँ बचा पाए। मगर य नह बचा
पाए? इसके उ र के िलए, भूतकाल क गहराइय म दबी घटना का िव ेषण करना
अिनवाय है और भिव य के िलए आ मिव ेषण भी ज री है। िवदुर, कायर नह था,
परं तु स य को फलीभूत करने क साम य भी इस दासीपु म नह थी; फर भी म याय
और धम के िनिम संघष करता रहा, मुझे ये संतोष अव य है। काश! म भी युयु सु क
तरह उ रदािय व से मु होकर अपना प चुन पाता।
महाराज धृतरा को मने वयं नीित ान दया था, वो सब थ ही रहा। तो या ये
वीकार कर िलया जाए क साम य क मनमानी के सम , नीित ान सब कार से
बेबस है? इन बात म भी प रणाम बदलने क साम य नह है? नीित ान, महज भोगे
ए यथाथ के , वे खोजे गये कारण ह, िज ह शाि दक िश प से सकारा मक, सुधारा मक
और संभावनाशील बना दया जाता है... फर भी अिधकांशतः मनु य सीखता, ठोकर
खाकर ही है।
कु कु ल के पराभव का म वयं सा ी ,ँ परं तु दोष कसे दू?ँ िजनके दोष थे, वे
प रणाम देख चुके ह। मने तो सदैव िबखरे को समेटने और सँभालने का यास कया है;
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अब भी यही क ँ गा... शायद तभी मेरे मन को शांित िमलेगी।
राजा, जा का सेवक और िनयं क बन कर रहे तो राजा और जा दोन सुखी रहते
ह। मगर जब स ा, दंभी और वाथ हो जाती है तो एक दन उसका पतन अव य हो
जाता है; इस यु के कारण और प रणाम ने मुझे यही िसखाया है।
िवदुर के मन म िवकलता बढ़ रही थी। का वाह िनरं तर तेज हो रहा था।
शोकातुर दन ने राजमहल के गिलयार तक को दुःख-शोक से भर दया था। ‘‘अब भी
कोई है, िजससे म अपने मन क कह सकता ।ँ ’’ िवदुर के ह ठ िहले। उनके कदम उसी
ण भी म क उस देह क तरफ बढ़ गये, जो बाण क श या पर अपनी मृ यु के सही
समय क ती ा कर रही थी।
‘‘ णाम ये !’’ वहाँ प च ँ कर िवदुर ने कहा।
‘‘आओ िवदुर! म भी तु हारी ही ती ा कर रहा था; बड़े िथत लग रहे हो।’’
भी म ने मु कराकर पूछा।
‘‘मन अिधक बेचैन हो रहा था; आपका मरण आ तो िमलने यहाँ चला आया।’’
‘‘ठीक ही कया; मुझे भी तु ह देखकर स ता हो रही है... शायद मेरे कटु अनुभव,
भिव य म तु हारे कसी काम आ सक। तु ह तो अभी ब त कु छ करना है।’’ भी म ने
कहा।
‘‘आया तो इसीिलए ही था... कु छ ह मन म, िजनके उ र तलाशने ह।’’ िवदुर
बोले।
‘पूछो।' भी म ने कहा, तो िवदुर ने कहना शु कर दया।
‘‘ऐसे नीित ान और धम का या लाभ, जो कु छ कर ही नह सकता; न आपका ान
और धम कु छ बदल पाया और न मेरा, बि क इसने तो उलटे हम सभी क साम य को
बंधन म जकड़ िलया था।’’
‘‘िवदुर, ये तु हारा ोध और हताशा बोल रही है, जो उिचत नह है। जब तक कोई
वयं न चाहे; कोई कु छ नह कर सकता, ये तुम भी जानते हो और म भी; आवेश म िलए
गये िनणय सदैव पीड़ादायी होते ह।’’
‘‘अब म या क ँ ? ये अपराधबोध तो रहेगा ही क म कु छ न कर सका और मेरे
सामने ही हि तनापुर अपने पराभव क ओर अ सर होता रहा।’’
‘‘आज जहाँ तुम खड़े हो, म भी वह खड़ा ,ँ परं तु तुम तो ान के वाहक हो और
ान का काम तो मागदशन देना है, उसका पालन कराना नह । पालन तो ि वयं
करता है या शि कराती है; तब दोष भी उ ह का आ। िवदुर, कु छ िनणय समय पर
िलए जाय तो ही सही होते ह, परं तु जब समय गुजर जाये तो प ाताप के अित र
कु छ भी शेष नह रहता। मने भी म को बचाने के िलए देव त क बिल दे दी। बेबस को
न दुिनया दोष देती है और न इितहास; वह तो वयं ही कु ढ़ता है।’’
‘‘मगर मने तो पूरी िन ा और ईमानदारी से यास कया था फर भी।?’’ सुनकर
भी म मु कराये।
‘‘िवदुर, हम सभी जीवन भर उसी र ता को भरने का य करते ह, िजसे हम
ती ता से महसूस करते ह; तरीका कोई भी हो सकता है... यु का, ान का, हठ का,
धम का या फर वाथ का।’’
‘‘तो या आप अपनी इस दशा से ु ध नह ह?’’ िवदुर ने पूछा।
‘‘नह ; मने भी म होने का मू य चुकाया है। म भी सम त राजसुख भोग सकता था;
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समय ने अवसर भी दये थे, परं तु मने भी म होने को चुना। मने ही नह , अिपतु िजसके
साथ जो आ वो वयं उसका ही का चुनाव था और जो प रणाम आया, उसी चुनाव का
मू य है... अगर तुम भी श चुनते तो इस र पात के सा ी नह , बि क िह सा होते।’’
सुनकर िवदुर मौन हो गये। फर कु छ देर सोचकर बोले,
‘‘ठीक है; परं तु ये दुःख, शोक और ये आ ोश य है?’’
‘‘ य क तुम िन प रहे और ये उसी ान का अहंकार है; जब अहं जागता है तभी
आ ोश पैदा होता है; रही बात दुःख और शोक क , तो ये दैिहक जुड़ाव के प रणाम
ह।’’
‘‘ला ागृह से बचने के बाद य द पांडुपु , हि तनापुर सीधे लौट आते तो या
हालात कु छ बदल सकते थे?’’
‘‘जो आ वो िनयित थी। समय अपने िलए भूिमका और माग वयं ही तैयार कर
लेता है। या आ और या होना चािहए था, इससे कह अिधक मह वपूण था क हम
या कर सकते थे। शायद चूक हम सभी से यह ई है... हम ि और ि गत म ही
िसमटे रहे। इसीिलए इस प रणाम को न धम रोक पाया और न अधम; उस व तो
सभी िनणय धृतरा को ही लेने थे, जो नह िलए गये। हम मयादा और ण म बँधे
रहे और धृतरा , पु मोह म। काश! हम ये पहले सोच लेते क प रणाम ये होगा।
दुय धन के कृ य, बचपन क नादािनयाँ नह , अिपतु िपता क मह वाकां ा और
मामा क कु बुि का प रणाम ह। तब कु छ बदल सकता था, परं तु हमने ये आव यक ही
नह समझा।’’
‘‘मने तो समय रहते चेताया था।’’
‘‘हाँ िवदुर, तुम दोषी कह नह हो; तु हारी चेतावनी, हमारी कमजो रय के नीचे
दब के रह गयी थ ।’’
‘‘कोई अपराधबोध न सही, फर भी मन िथत और अशांत है।’’
‘‘ िथत और अशांत तो म भी ँ िवदुर; परं तु इससे उबरने के माग िभ है। तु ह
नविनमाण का सा ी और सहयोगी बनना है और मुझे मृ यु का वरण करना है... अब
तुम थान करो।’’
‘‘ णाम ये !’’ िवदुर ने कहते ए हाथ जोड़ िलए। उ ह भी म के चेहरे पर पीड़ा से
अिधक, संतोष दख रहा था।
लौटते िवदुर के मन-मि त क म, उठते ए के म य काश क एक करण
जगमगा उठी थी। उनके ह ठ िहले। ‘‘ ीकृ ण... हाँ, बस एक तु ह हो, जो हि तनापुर
और मुझे इस पीड़ा से मुि दला सकते हो। यु से पहले आपके साि य का मरण है
मुझे और आज उन श द के मायने भी प ह, जो आपने अपने ीमुख से कहे थे।
अहंकार, जो माग बंद करता है, उसे खोलने क साम य, धैय और पु षाथ के अित र
कसी म नह होती; मुझे पांडुपु का सहयोगी बनना ही पड़ेगा, वरना समय मुझे कभी
मा नह करे गा... अभी ये िवर होने का उिचत समय नह है।’’
धीरे -धीरे मन क िवकलता को शांित का तट नजर आ रहा था। दुिवधाएँ िमट रह
थ । िवदुर के कदम कु छ और तेज उठने लगे थे।
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3
राज ासाद का वह क , िजसक दीवार कभी वैभव और भोगिवलास क सा ी रही
थ । आज वहाँ उपि थत हरे क ि के साथ दुःखी और शोकसंत थ । गांधारी वह
मौन बैठ थ और धृतरा बेचैन होकर टहल रहे थे। जहाँ कभी गु मं णा और
अनुमान से रा य के सम त काय-भार संचािलत होते थे, आज उसी क म महाराज
धृतरा के पैर यहाँ-वहाँ टकराकर पीड़ा क लहर उठा रहे थे। प रि थितयाँ इतनी
िवपरीत और दयिवदारक थ क िन य का अ यास भी उनसे छल कर रहा था। इस
सबसे अलग उनके मन म जो चल रहा था, वो कह अिधक पीड़ादायी था।
िजसका सव व न हो गया हो उसे न मृ यु का भय रहता है और न प रणाम क
चंता; उसे जो समझ म आता है वह कर-गुजरता है धृतरा कु छ ऐसी ही मनोदशा से
गुजर रहे थे।
‘‘उस समय मेरे भीतर लावे क तरह खौलता ोध, एक धमाके के साथ फटकर,
सम त पांडुपु के अि त व को, उसम बहाकर न करने क कामना कर रहा था। यु
म िवजयी होकर पांडव हि तनापुर आ रहे ह; ये समाचार जब से मने सुना था, तभी से
मेरे मन म उ ि ता हर ण बढ़ रही थी। मह वाकां ा क िजस बेल को म अब तक
स चता आ रहा था, वो आज जड़ से कटकर न हो गई थी। म आवेश से भरा आ भीम
क ह या कर, उससे अपने पु क मृ यु का ितशोध लेना चाहता था, िजसके िलए मेरे
पास के वल छल ही एक मा उपाय था... मने वही कया। जब पांडुपु आये तो मने
भीम के िलए बाँह फै ला द । संजय के ये श द मेरे कान म अब भी गूँज रहे थे,
‘‘भीम ने दुय धन समेत आपके सम त पु का संहार कर दया ह।’’ उस व मेरे
हाथ के बीच जो आया, मने उसे चूर-चूर कर दया था; मगर ीकृ ण ने भीम को बचा
िलया था।
िजनके साथ ीकृ ण जैसा सव हो, उ ह भला कोई कै से मार सकता है और फर
मेरे पु के साथ तो वो थे, जो पराधीन थे या फर उपकृ त। म भीम को नह मार पाया,
इससे कह अिधक मुझे इस बात का दुःख था क अब मुझे पुनः पांडुपु के अधीन रहना
पड़ेगा। म ये भी जानता था क युिधि र माशील और धमवान ह; वे इतना सब घ टत
होने के बाद भी मुझे वही स मान और सुख के सभी साधन दगे, जो मुझे दुय धन देता
और यही सोचकर मन म कह यादा आ म लािन हो रही थी।
मने उनके साथ होने वाले हर अ याय म दुय धन का साथ दया था। अ थामा
अपने िजन कम से अधोगित को ा आ, मने भी तो वही कया था; परं तु अब
सोचता ँ तो मेरा असफल होना ही सही था... धम और ान के िबना मनु य का
क याण हो ही नह सकता। ये समय मेरे िलये वयं के कृ य के िव ेषण का है; शायद
इससे और प ाताप करने से मन को कु छ शांित िमले।
या ितशोध के िलये एक ि इतना िनमम हो सकता है क वह मनु य का र
पान करे ? मगर भीम ने कया था। ोध और घृणा ने ितल-ितल सं िहत होकर भीम को
नरिपशाच तक बना डाला और म भी उसे, इसी कामना से मारना चाहता था।
मुझे अपने पु के कृ य को देखकर ये अंदश े ा तो पहले ही होने ही लगा था, िजस
दन पांडव के धैय क सीमाएँ और धम क मयादाएँ टू टगी, उस दन भयंकर भूचाल
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आयेगा; परं तु वह इस तरह आयेगा, ये तो कसी ने सोचा भी नह होगा। म िजसके िलये
डरता रहा, आिखर वही आ। धम, पांडव क कमजोरी नह थी, उनका आ मबल था;
काश! ये शकु िन और दुय धन भी समझ पाते।’’
संहासन पर बैठे धृतरा आ ममंथन म लीन थे। उनक मृितयाँ चेतना को िनरं तर
पीछे क ओर खीच रही थ । उनके िलए अब भी ब त कु छ उलझा था, िजसे वे वयं
सुलझाने का यास कर रहे थे। अब उ ह लगने लगा था क जो आ उसके पीछे के
कारण को िमटाया जा सकता था और जो हो रहा था उसे रोका जा सकता था। एक
राजा के प म मने वो सब होने दया, िजसे मेरा एक आदेश ही रोक सकता था; परं तु
वो मेरे मुख से कभी िनकला ही नह । आज तो यही स य लगता है क म वयं ही अपने
कु ल के पराभव के िलये उ रदायी ।ँ
मने वाथ और भय के वशीभूत होकर, यु न हो, इसीिलए संजय को पांडुपु के
पास भेजा था और प रणाम भी अनुकूल ही आया था; परं तु खोट तो दुय धन क बुि
और नीयत म थी, िजस कारण सारे यास िवफल ही रहे। वो मूख तो ीकृ ण को भी
बंदी बनाकर रखने क चे ा करने लगा था। आज हमारे संयु कृ य के सम त
प रणाम य ह... आज हि तनापुर का स ाट धृतरा अपने ही कु ल क लाश के ढेर
पर बैठा आ इस िवनाश पर रो रहा है।
इस कु वंश म अपनी पीढ़ी का ये पु होने के कारण हि तनापुर के संहासन पर
मेरा ही अिधकार था, परं तु मेरे अंध व ने मुझे उससे वंिचत कर दया था। अगर कह
उस व मुझे वो संहासन िमल गया होता, तो शायद हालात कु छ और ही होते; मेरे
भीतर इतनी असुर ा क भावना पैदा ही नह होती; म यही सोचता क ये संहासन
मुझे मेरे अिधकार के कारण िमला है, कसी क कृ पा या मजबूरी म नह । पांडु क मृ यु
के बाद, जब मुझे संहासन ा आ तो मेरी हालत उस दुबल ब े क तरह थी, जो
वयं को बेहद असुरि त महसूस करता है; उसे हर ण यही भय बना ही रहता है क
कह कोई आकर उससे उसका िखलौना छीन न ले और फर इसी दुबलता ने मुझे
वाथ बना दया था।
हम जो चाहते ह और य द कोई उसके अनुकूल और सहायक तीत होने लगे तो
उसम किमयाँ नजर ही नह आत , बि क उस पर भरोसा और गाढ़ हो जाता है; वही
स ा िहतैषी जान पड़ता है... शकु िन भी मुझे कु छ ऐसा ही िहतैषी तीत आ था।
उसके ष ं , संहासन पर मेरे अिधकार को और थािय व देते लग रहे थे; इसिलए
मुझे न धम दखा और न दूसरे कसी क साम य; प रणाम के बारे म सोचना तो मेरे
बौि क अंध व के िलये ब त दूर क बात थी।
समय ने मेरे साथ कै से-कै से छल कये, ये मेरे अित र और कौन जान सकता है।
ने हीन होने से बड़ा दुभा य मेरे िलए और या होगा: मेरे िलये तो सारी दुिनया के वल
होकर रह गई थी और जो भी मेरे आस-पास रहा, उसे के वल पश से ही महसूस
कर पाया।
जब मने चेहर के हाव-भाव कभी देखे ही नह , तो पांडव के दुःखी और पीिड़त
चेहर पर या- या उभरा है, म कै से देख लेता? ी क देह को मसलने और के वल
संभोग के िलये टटोलने पर मेरे हाथ सुख का अनुभव करते थे। के वल ी के अधर के
रसपान से संतु होने वाला मुझ जैसा मनु य, ौपदी के चेहरे क ल ा, पीड़ा, भय
और आ ोश को कै से देख लेता? म तो के वल ूत सभा म अपने पु के हा य और
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िवजयो लास का आनंद ले रहा था; मेरी हीन ंिथ, मुझे कु छ और सुनने-समझने से रोके
जा रही थी। काश! म उस व क वो मा मक ि थित देख पाता, तो शायद मौन न रह
पाता।
जब गांधारी ने अपने ने पर प ी बाँध ली थी, तब मुझे बड़ा दुःख आ था। म
उसके ने से दुिनया देखना चाहता था; नगर और व य- देश के वणन उसके मुख से
सुनना चाहता था... परं तु कु छ और ही आ। मेरे सम त सुख के वल ऐि क होकर देह
तक ही िसमटकर रह गये थे; कसी दूसरे क पीड़ा का मेरे िलये कोई मह व नह था। म
अपने िलये वो सब चाहता था, जो मेरे ने न होने के कारण मुझसे िछन गया था। जब
भी गांधारी गभवती होती, तब कोई अ य ी मेरी सेवा म होती थी और म उसी क
देह को अपने हाथ से महसूसता और उसके अधर को अपने अधर से जोड़ देता। तृि
क जगह देह क भूख और बढ़ जाती। सुरा, यास बुझाने के थान पर और बढ़ा देती।
परा यी म... और मेरे पास इसके अित र करने को कु छ था ही नह । मेरे सम त
उ रदािय व और पु षाथ दूसर के ही आि त थे; के वल एक संहासन ही था, िजसने
मेरी दुबलता को शि संप कर दया था।
मने, गांधारी के साि य म कभी ेम के उस उ लास का अनुभव नह कया, जो मन
को शांित और तृि के ऐसे अथाह सागर म डु बो देता, जहाँ से मेरा मन कभी बाहर
िनकलने क चे ा ही न करता; मगर ऐसा कभी आ ही नह । उसका मौन कभी-कभी
ब त खलता था, जो सदैव मुझे मेरे अंधे होने का मरण कराता रहता था; म कभी उस
अपराधबोध से िनकल ही नह पाया, िजसे मने कभी कया ही नह था।
कामातुर पु ष देह को तो ी क आव यकता होती है... इससे कोई फक नह पड़ता
क वो राजकु मारी क हो, वे या क हो या फर कसी और क ... एक अंधे पु ष को तो
िब कु ल भी नह । कु ल, रा य और संहासन को फक पड़ता है; तभी तो माता ने मेरा
िववाह एक राजकु मारी से कराया था... परं तु ेम न करा सक । स मान अलग बात है
और ेम अलग। मुझे तो वो काश चािहए था, जो मेरे अंधकारमय जीवन म सुख के
बीज बो सके ।
ेम का वो उ लास तो मने कसी और के साि य म महसूसा था। दुिनया उसे वे या
कहती है; उसने ही मेरे जीवन म ेम के कु छ ण बोये थे, िजसके फल व प उसके
भीतर, युयु सु के प म वही ेम पनपने लगा था। वो मेरा पु होकर भी उपेि त रहा,
फर भी उसने धम का माग नह छोड़ा। एक बार उसक माँ ने मुझसे पूछा था,
‘महाराज! हमारे इस पु का या भिव य होगा? ये समाज और आपका राजप रवार,
दंभ और शि क ऊँची मीनार पर आ ढ़ है, वो इसे अ य युवराज क तरह कहाँ
अिधकार देगा; ये भी अ य अवैध संतान क तरह ही उपेि त जीवन िजयेगा।’’
उसक बात मुझे कचोट रही थ , परं तु म मौन था। उसका ेम, मेरे संहासन और
वासना के नीचे दब गया था। मुझे मौन देख उसने फर कहा,
‘‘आह! ये कै सी िनयित है, एक स ाट का पु , वे या-पु कहलायेगा। भूिम, कब पैदा
कये ए धा य पर अपना हक जताती है; परं तु जो दाने भा यवश उपेि त होकर वह
पड़े रहते ह, वे य द समय क परी ा म उ ीण ए तो पेड़ अव य बनते ह महाराज;
राजा हो या कोई अ य; पु ष का वहार कभी नह बदलता। उसे तो अपने
उ रािधका रय को पैदा करने के िलए एक कु लीन ी ही चािहए और वासना-पू त
हेतु एक वे या।’’ उसके का मेरे पास कोई उ र नह था। उसका कथन स य ही
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िनकला; युयु सु ने धम का माग, वयं अपने िववेक से चुना और वह आज जीिवत है।
शायद मुझे कभी अपने पु से ेम था ही नह । ेम तो सभी का िहत सोचता है। मेरे
पु तो मेरी अंधीमह वाकां ा के साधन मा थे और म उनके अहं क पू त का साधन
भर। मने दुय धन के ने से दुिनया देखी और शकु िन के ष ं से महसूस क ; मेरा
िववेक तो लोभ-मोह और उस ितशोध क भट चढ़ गया, जो इस संसार क उपे ा के
फल व प मेरे भीतर ज मा था। संहासन ने मुझे अिधकार तो दये, परं तु समभाव और
कत क भावना के थान पर मेरे भीतर असुर ा के िवष को भर दया, िजसने कभी
मुझे मेरे हीनताबोध से मु होने ही नह दया।
कभी-कभी भय भी कु छ अ छे काय करा देता है; मने भी उस दन भय के कारण ही
सही, परं तु उिचत िनणय िलए थे; ौपदी के साथ-साथ कु वंश का मान भी बच गया
था। ूतसभा म ए चम कार से, सभा म हा य क जगह भय क आहट सुनाई दे रही
थ । मुझे लगा क इस समय पांडुपु को मु कर, उनका सब लौटाना ही उिचत और
ेय कर है।
एक बार के ूत के िवनाशकारी प रणाम देखकर भी मुझे बुि नह आई; मने पुनः
पु मोह म एक बार फर वही कया; प रणाम व प, पांडुपु सब कु छ हारकर,
वनवास और अ ातवास के िलये चल पड़े थे। मुझे सुख का अनुभव उतना नह आ,
िजतनी क आशंका ने पीड़ा दी। जब पांडुपु लौटगे तब या होगा; वो आकर पुनः
अपना अिधकार माँगगे। भीतर से म भी उ ह कु छ नह देना चाहता था, इसीिलए म भी
दुय धन के साथ खड़ा हो गया था। काश! म धम के माग पर चलकर उसक
मह वाकां ा को िनयं ण म रख पाता। अहंकार ने दुय धन को िनरं कुश कर दया था
और म तो ज म से ही पराधीन था।
िवराट नगर से परािजत होकर लौट आई कौरव सेना को देखकर भी दुय धन नह
चेता। यु अव यंभावी तीत हो रहा था। मगर मेरे भीतरी ने जो देख रहे थे वो बड़ा
पीड़ादायी था; िपतामह भी म जैसे यो ा का साथ भी के वल दैिहक था। उनका दय
तो स य और पांडुपु के प म खड़ा था। यु भूिम म एक तरफ वाथ और उदासीनता
खड़ी थी, तो दूसरी तरफ धम और ितशोध क अि ... िजसक ऊ णता मने
हि तनापुर म महसूस क थी। जब यु शु होने वाला था, तब मने संजय से पूछा था।
‘‘संजय! कौरव सेना ने या रणनीित बनाई है, मुझे भी बताओ।’’
‘‘युवराज दुय धन ने िपतामह को सेनापित बनाया है।’’ संजय ने बताया तो म च क
गया था। म उस प म कण को देखना चाहता था। मुझे िपतामह भी म क िन ा पर
तो संदह े नह था, परं तु पांडुपु के ित उनके ेम को कौन नह जानता था; इसीिलए
वो पांडुपु के ाण हरगे, इस पर ज र संदह े था और आ भी वही। उनक देह म धँसे
तीर, मेरा दय आशंका से भर रहे थे।
संजय के श द, तीर क तरह मेरे दय म धँस जाते थे और म छटपटाकर रह जाता;
मेरे पु पर भीम के गदा क हर चोट, मुझे ममातक पीड़ा देती थी, परं तु म कु छ कर
नह सकता था... कये गए कम के प रणाम बदलने क साम य इस अंधे म नह थी। म
अपने कम से कारण को िनयंि त कर सकता था, परं तु मने कये ही नह ; ये उसी का
प रणाम है, िजसे आज हि तनापुर के साथ म भी भोग रहा था। एक-एक कर मने अपने
सौ पु को खो दया था, फर भी म जंदा ।ँ सचमुच, ाण का मोह बड़ा बल होता
है... संहासन के मोह से भी चंड; उनक खंड-खंड होती देह के बारे म सुनकर भी मेरे
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ाण नह िनकले।
मेरे कान अब मेरी िवधवा पु वधु का क ण- ं दन सुन रहे थे; िज ह ने न िपतामह
भी म क सलाह सुनी और न िवदुर का दूरद शता से प रपूण नीित ान। म अब
संहासन से उतरकर एक ऐसे अंधकार म समािहत होने जा रहा था, जो मेरा ार ध
और मेरी िनयित थी; जहाँ प ाताप क अि म जलकर, मुझे अपने लोक-परलोक दोन
सुधारने थे। ये तो मुझे ात नह क इितहास मेरे बारे म या िलखेगा, परं तु ये बात
मुझे जीवन के अंितम ण तक कचोटती रहेगी क पु मोह म िलये गये कु छ
प पातपूण िनणय ने, इस महायु क भूिमका बाँधी थी, िजसके सम त ितकू ल
प रणाम मेरे ही सम साकार खड़े ह। मेरे बंद ने ने तो कु छ भी नह देखा, िजसका
उदाहरण देकर म अपनी पीड़ा कर देता।’’
धृतरा क देह, िशिथल होकर िब तर पर पड़ी थी। मन म िवचार का वार चढ़ता
और फर उतर जाता। उ ह इस ताड़ना से कब मुि िमलेगी, इसे तो ई र के
अित र कोई नह जानता था।
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भी म के आ ममंथन और यु क िवभीिषका के म य, समय आगे बढ़ते ए सभी का
लेखा-जोखा तैयार कर रहा था। इसके साथ-साथ ही आ मिव ेषण के ारा, यु म
बचने वाल को, जीिवत रहने के कारण तलाशने थे और भिव य के िलए उ मीद
बाँधनी थी। के वल एक के हठ और अंधी मह वाकां ा के िलए आज सम त हि तनापुर,
िवनाश के कगार पर खड़ा है; इसका उ रदािय व तो उ ह ही वीकारना था, जो
जीिवत बचगे। वह दन भी आ गया, जब अ -श एक ओर रख दये गए और सभी के
हाथ, मृतक क आ मशांित के िलए ई र क ओर सहज ही उठ गये, य क यु भूिम
म घ टत घटना म को उसी ई र क इ छा का प रणाम मानकर सभी, मन को धैय
बँधा रहे थे। मानवीय कमजो रय और ु टय को िव ेिषत कर वीकारने वाले ब त
कम ही थे।
समय भी कभी-कभी कहाँ लाकर छोड़ देता है, जहाँ दुिवधा ही ि क िनयित बन
जाती है। भीतर क आग जलते-जलते पता नह कब बाहर तक आये; परं तु जब वह
बाहर आती है, तब तक सारा वजूद जलकर राख हो चुका होता है... तब कया गया
प ाताप भी िन फल होकर रह जाता है। भीतर क आग जब तक जलती रहती है, उसे
सारी दुिनया को जलते देखना सुखद तीत होता है। उस आग का, जलने वाले धन से
कोई सरोकार नह होता; उस जलती आग म या होमा जा रहा है, इसका भी उसे कोई
भान नह होता है। ये आग का वभाव है क उसे जब तक जलाने को िमलता है, वह
जलाती है।
हालात तो तब बदलते ह, जब आग सब कु छ जलाकर शांत हो जाती है; तब ि ,
आ मिव ेषण क ओर वृ होता है। यु को समा ए ब त समय हो गया था। जली
लाश क दुगध, अब मि त क से जाती रही थी, परं तु खोने क पीड़ा अब भी शेष थी।
जो जीिवत बचे थे, उनके िलये ये क ठन समय था। सभी अपनी-अपनी भूिमका को
कारण, काय और प रणाम के तराजू म तोल रहे थे... इनम गांधारी, धृतरा और
पांडुपु के अलावा ौपदी भी शािमल थी, िजसने इस यु मे ब त कु छ खोया था।
ऊँचे गुंबद और मीनार से अपनी िवशालता और वैभव क कहानी कहते ये िवशाल
राज ासाद, जहाँ न रोशनी क कमी थी और न कसी भौितक सुख क ; फर भी कोमल
िब तर पर लेटी, उि गांधारी क चेतना, वतमान क भयावहता और वधाय
अंधकार को छोड़कर, जीवन के उन सुखद पल क ओर लौट रही थी, जहाँ उसने अपने
सुखमय जीवन क क पना क थी, जो उसे कभी िमला ही नह ।
सुंदर सपने और क पनाएँ, उ को पंख क तरह ह का कर हवा म उड़ा देती ह; मने
यह तब जाना, जब मेरे युवा होने पर माता ी ने, िपता ी से मेरे िववाह क बात छेड़ी
थी। उस समय मने दपण म अपने सौ दय को िनहारा था। बड़ी-बड़ी आँख, मोहक छिव,
दूध सी देह। सचमुच, काम-ि या के समान शोभन, मोहन प। मन ऐसी ही अनेक
अनुभूितय म डू ब गया था, िजसका वणन श द से परे था। गव और संकोच क िमि त
क पना से मेरा मुख कै से लाल हो गया था। ाता शकु िन भी ब त स थे और वर
तलाशने को त पर थे। ऐसे म मेरा एक अंधे के साथ बलपूवक िववाह, मुझ पर कसी
व पात से कम नह था। उस उ को राजपाट और वैभव से कह अिधक, एक
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पूणपौ ष क आव यकता होती है और सौ दय को एक ऐसी ेमातुर दृि क , जो समु
क तरह अपने म सब समेटने और यौवन को प रपूण करने क साम य रखती हो।
कं तु उ ह तो अंध व को सहारा और रा य के िलए उ रािधकारी चािहये था। परं तु
मेरे ितशोध ने उस अंध व को दुगना कर दया था और उ रािधकारी भी ऐसा ज मा,
जो सम त कु वंश के पतन का कारण बना। कभी-कभी धम और धारणाएँ भी गलत को
छु पाने म सहायक हो जाती ह... तभी तो सही दशा नह सूझती; जीवन, कोरे म म
गुजर जाता है।
मने अपने ितभासंप और कू टनीित के ाता, ाता शकु िन क आँख म वो आग
देखी थी, जो समूचे कौरववंश को जलाने को त पर थी; परं तु उसम उतनी साम य नह
थी क जला पाती। शायद इसी अ मता ने उसे अिधक मह वाकां ी और ू र बना
दया था। ितशोध कसे न करे गा, ये तो हालात पर िनभर करता है; मगर वो य
करने से नह चूकता, यह तय है। उसका िनशाना, अंधे के धनुष से िनकले तीर क तरह
होता है और प रणाम सदैव अिनि त। जब ाता शकु िन ने मेरे ारा अपनी आँख पर
प ी बाँधने और आजीवन अंध व को वीकारने के ण के बारे म सुना, तो उ ह ने
आकर पूछा था,
‘‘बिहन! ये तो दुिनया भर के सौ दय क अवहेलना है और भावी पीढ़ी के साथ
अ याय; तु हारे ब े, मातृ व के उस मागदशन से वंिचत रह जायगे, जो जीवन को
वा तिवक दशाबोध कराते ह; या तुम इ ह इस अपराध के िलए मा नह कर
सकती?’’
‘‘कदािप नह !’’ मने आवेश म कहा था।
‘‘इसके प रणाम जानती हो?’’ ाता ने मुझे चेताया था, परं तु म आवेश म कु छ
सोचना-समझना ही नह चाहती थी।
‘‘मुझे कु छ भी नह जानना; िज ह ने मेरे जीवन क उ वलता को कािलख से ढक
दया हो, उ ह तो कदािप नह ।’’ मने बड़ी कठोरता से कहा था। मेरी दृढ़ता ने उ ह मौन
तो कर दया था, परं तु मेरी पीड़ा ने उनके मन म दबी ितशोध क चंगारी को ऐसी
हवा दी, क वह कभी बुझी ही नह । काश! म कौरववंश को अपने सपन क ह या के
िलए मा कर पाती, तो शायद ये िवनाश नह होता। मुझे अपने दांप य म खुश देख,
उनके मन क पीड़ा भी एक दन शांत हो ही जाती। काश! म महाराज धृतरा क आँख
बन पाती... तो ये कु वंश, पराभव के अंधकार म न डू बता।
ोध म िलए गए िनणय िववेक से रिहत होते ह और उ भर के दुःख के कारण बन
जाते ह। मने हालात से समझौता कर, सुखी राजसी जीवन जीने का अवसर ठु करा दया
था और अ याय के िवरोध- व प आँख पर प ी बाँध ली थी, जो बाद म पाित त धम
का आदश बन गया, और म उसी आदश से बँधकर रह गई थी। दुिनया यही तो करती है,
और स ाएँ अपने अनु प इितहास रचती ह।
कई बार ऐसे मौके आये और मन भी कया क ये प ी खोल दूँ और उस बीज को
ढू ँढ़कर न कर दू,ँ िजसके फल, नफरत के जहर से भरे ए ह गे; ले कन चाहकर भी
ऐसा नह कर पाई। भीतर क आग कभी पूणत: शीतल ई ही नह , और न म कभी
लोक नंदा के भय से मु हो सक ! तीर, धनुष से छू ट चुका था। कभी-कभी सोचत ँ
क म न अ छी प ी बन सक और न ही अ छी माँ; वरना यूँ सं कारहीन होकर हमारे
सौ पु न मरते। या वा तव म ितशोध इतना भयानक होता है? या इससे उबरना
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असंभव है? अब ये य और कससे... जब प रणाम वयं उ र ह। आ ममंथन क
अनुभूितयाँ भी कमाल क होती ह। दूध और पानी को बड़ी आसानी से अलगकर सारे
छ -आवरण उतार देती है।
काश! हमने उस व आ म-बिलदान का माग चुना होता और िपतामह से यु म
वीरगित को ा हो गए होते; मगर राजप रवार तो वाथ और कत के दो पाट के
बीच िपसता है। यही स य है। कभी असुर ा से उपजे ष ं उसके पतन का कारण बन
जाते ह तो कभी कसी ि क मह वाकां ा उसे ले डू बती है। स ा-भोग-िवलास का
साधन तो बन सकती है, परं तु सुख और शांित का कभी नह , ये मुझसे यादा और कौन
समझ सकता है।
ेम से संिचत, नम और नम भूिम पर जमे पौध के फल भी रसीले और मीठे होते ह,
परं तु ोध और ितशोध क आग से झुलसी भूिम से अगर मह वाकां ाय क लोभी
और दंभी संतान पैदा हो जाय तो इसम संदह
े या है।
किमयाँ, मौन ह या मुखर; मन म मह वाकां ा के बीज तो बो ही देती ह और य द
ये अंध व को ा हो जाय तो िववेकहीन भी बना देती ह। साधन जब तक िनयंि त है,
उपयोगी है; मगर जब संतान, साधन हो जाये तो वह िनयंि त होकर भी और
अिनयंि त होकर भी न हो ही जाती है। जब महाराज कभी सही िनणय न ले सके , तो
म कौन होती थी सही-गलत का फै सला करने वाली? मने ये अिधकार तो प ी बाँधने के
साथ ही खो दया था। सचमुच, औरत का के वल औरत होना कतना िव वंसक होता है।
मने भी तो सारे िनणय के वल औरत बनकर ही िलये थे; माँ और प ी बनकर तो कभी
सोच ही नह पाई। मेरे पु , महाराज के भी पु थे... या शायद उनके पु मेरे पु से
कह अिधक थे, इसीिलये म एक भी न बचा पाई; सब-के -सब एक-एक कर
मह वाकां ा क अि म भ म हो गये। म दोष कसे दू,ँ जब क म खुद भी उतनी ही
दोषी ,ँ िजतने क और।
अि थर बहाव वाली नदी म, डोलती नाव के सवार, कभी सुख-शांित ा नह कर
सकते, यही सच है और म भी कु छ इसी तरह के आंत रक ं म िघरी एक डगमगाती
नाव म सवार रही; मेरे जीवन म कभी ऐसे कनारे आए ही नह , जहाँ म अपने मन से
जी पाती... हमारे र ते क िम ी को वो अनुकूलता कभी िमली ही नह , िजसम ेम के
बीज अंकु रत हो पाते। फर भी िजतना कर सकती थी, मने कया... मोह से भला कौन
मु हो सकता है।
वैचा रक-जड़ता, जीवन क गित को रोक देती है और यहाँ हि तनापुर म आकर मने
यही देखा। अपने ही ारा ख चे गए घेर म िववेक, बेबस दखा और शि , पराधीन।
भूतकाल, वतमान को संक ण बनाता रहा और दंभ ने वो उमंग छीन ली, िजसे देखकर
जीने का मन करता है। म भी उसी तरह क जड़ता ओढ़कर सुख का अनुभव कर रही
थी।
महाराज के ज मजात अंध व पर मेरा यूँ आँख मूँद लेना, कह -न-कह अपनी ही
इ छा का दमन था, परं तु मने इसे ही वीकार कया। महाराज से हमारा जुड़ाव,
दैिहक और सहानुभूितज य ही अिधक रहा। जीवन म सदैव घृणा और हीनताबोध क
उपि थित बनी ही रही, इसीिलए अनुभूितय म भी पश से अिधक कु छ आ ही नह
पाया। संतान भी पैदा होकर मातृ व का अनुभव तो कराती रह , मगर उनका पलना-
बढ़ना म न देख सक । ऐसा भी नह है क मन न कया हो; कया था। म भी और क
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तरह ही माँ थी, परं तु उस पर एक औरत का दंभीय हट भारी पड़ा, िजसे मने भी और
क तरह ण का आवरण ओढ़ा रखा था।
जब हम वयं को भीतर से बंद कर लेते ह, तो पुरानी याद कु छ अिधक ही यातनाएँ
देती ह। कभी जो ने से देखा था, वो सब भीतर ही घुटकर रह गया और िजसे देखकर
ने बंद कये थे, वो पीड़ा से प रपूण था। मेरा जीवन एक ं बनकर रह गया था। वयं
क भावना को कु चलकर जीने को दुिनया आदश मान लेती है। िजस पर धम क मुहर
लगी हो और लोक नंदा का भय सम खड़ा हो, उस लीक को तोड़ना बड़ा ही क ठन हो
जाता है। वा तव म यही एक ी क िनयित है, िजसे मने पूणतः वीकार कर िलया
था।
िवक पहीनता और समय के साथ, ोध क ती ता कु छ कम ई तो जीवन आसान
हो गया था; या यूँ कह क अंधकार ही जीवनचया म समािहत हो गया था, तो भी
अस य नह होगा। मेरी बढ़ती उदासीनता ने मेरे भीतर गजब का आ मबल भर दया
था, िजसम तट थता और िवरि दोन ही थ । ने पर बँधी प ी ने मेरी पीड़ा को
भीतर ही थामे रखा। एक तरह से ये भी मेरी जीत ही थी। मेरा थोड़ा मौन भी
राजप रवार को आ म लािन के गत म ढके लने म समथ था। मुझे इसम खुशी िमलती
थी।
ययाित ह या िच ांगद या फर िविच वीय, राज ासाद के कायकलाप को कौन
नह जानता। आदमी क वृि याँ कभी नह बदलत । वासना हो या मह वाकां ा...
एक ओर िवकास और सृजन क न व रखती है तो दूसरी ओर उसके पतन के बीज भी बो
देती है। वाथ और स ा, िसफ दूसर से याग चाहते ह और वयं भोग करते ह। म भी
इसी शृंखला का एक मोहरा थी, जो िबना कसी अपे ा के तुत थी।
मृितयाँ भी कमाल क चीज होत ह; जब ये आती ह तो मनःि थित बदल देती ह;
इनका िणक भाव इतना ती होता है क कु छ भी नह टकता। जब गांधार क
मृितयाँ झकझोरती ह, तो कु वंश से घृणा होने लगती है और जब हि तनापुर के बारे
म सोचती ,ँ तो मेरे ज म दये सुत, सुखद-भिव य तीत होते ह। वाथ, पा -कु पा
नह देखता और मोह वयं ही ेम के सारे रा ते बंद कर देता है।
जब म िववाह के बाद पहली बार आयपु से िमली थी तो उ ह ने कहा था,
‘‘ि ये, म मायाचना के ारा तु हारी पीड़ा तो कम नह कर सकता, परं तु हो सके
तो कु वंश को इस अपराध के िलए मा कर देना; ये तु हारे ने पर बँधी प ी,
कु वंश के साम य का सावजिनक उपहास है। काश! म इसे खोलने क साम य रखता...
फर भी इतना आ ह तो कर ही सकता ँ क इसे खोल दो ि ये और मेरी आँख बन
जाओ।’’
‘‘नह आय, अब ये संभव नह है; ण, तोड़ने के िलये नह िलये जाते... ये ण, मरी
ई भावना पर उगे पाषाण क तरह होते ह, जो समय के साथ और स त हो जाते ह;
हम सभी क यही िनयित है... अब हमारे िलए तो पश और वण ही एक दूसरे को
महसूसने और अिभ ि के साधन ह गे।’’ मने कहा। सुनकर उ ह ने कहा था,
‘‘ये कु वंश का दुभा य ही है और इितहास भी, क यहाँ सुख कभी पूण होकर नह
आया; कसी न कसी को बिलदान देना ही पड़ा है... इसे एक अंधा या बदलने क
साम य रखेगा; इसका वीकाय ही हमारी िनयित है।’’ कहकर, आयपु ने मेरे हाथ
थाम िलये थे। उ ह ने मेरी पीड़ा को समझा था या शायद अंध व क बेबसी को वो
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मुझसे बेहतर समझते थे।
‘‘आय! िनराश न ह ; म अंितम ास तक आपक सेवा क ँ गी।’’ कहकर मने उनके
चरण पर हाथ रख दये तो वो हँस पड़े और बोले,
‘‘ि ये, मुझे तु हारे ने चािहये थे, जो भा य ने मुझे नह दये; एक अंधा, सहानुभूित
के अित र दूसरे अंधे को और दे ही या सकता है!’’ वो हाथ से मेरे सौ दय को
महसूस रहे थे। समय कु छ और ही िसरज रहा था।
आयपु क अपंगता ने एक बार फर उनके अिधकार, पांडु को दे दये थे। उनका
बढ़ता हीनताबोध अब मह वाकां ी होने लगा था, जो महाराज पांडु के कु -रा य क
सीमा के िव तार के साथ-साथ िनरं तर बढ़ रहा था। परं तु समय कब अपनी चाल बदल
दे, ये तो िवधाता के अित र कोई नह जान पाता। पाप जाने म हो या अनजाने म,
सामने आकर खड़ा हो ही जाता है। ऐसा ही एक कम, महाराज पांडु के सामने शाप के
प म आ खड़ा आ और मानवीय कमजो रयाँ, उनक ाणहंता हो ग । िवक पहीनता
ने आय पु को संहासन तो दला दया, मगर वो संतोष न दला सक , जो उ ह उनके
हीनताबोध से मुि दला सकती। युिधि र के ज म के बाद उनके िलए धैय क डोर
थामना ब त मुि कल हो गया था।
िवधाता के खेल िनराले ह। मेरे पु आ तब िवदुर ने कहा था क ये कु ह म ज मा
है, कु लघाती होगा। उस व मुझे ोध आया था, मगर सच तो सच ही है। तब हालात
कु छ और ही थे और दुय धन हमारी मह वाकां ा का के था। आज जब उस घटना
का मरण हो आता है, तो लगता है क हमारे पु के वल हमारी अंधी मह वाकां ा क
पू त हेतु साधन भर थे। वे उसी के अनु प ढले थे और हम सभी ने उ ह इसी प म
ढाला था।
कु वंश म कोई अ छे ह म ज म लेने वाला ऐसा नह था, जो इस िवनाशलीला को
रोक लेता... परं तु कोई नह रोक पाया, य क इसके िलए पी ढ़याँ जवाबदेह थ ; कु छ
कामी और लोभी थे, तो कु छ अहंकारी। वा तिवकता को तो कसी ने समझा ही नह ;
धम के मनमाने मानदंड गढ़ते रहे और याग के नाम पर स य को छलते रहे। कु वंश ने
अपने पतन का माग वयं श त कया था।
किमय और हीनताबोध ने हम कसी से ेम करने ही नह दया। ेम तो जीवन का
माग श त करता है और लोभ एवं मोह, वयं के अित र कसी को कु छ देने या
सोचने ही नह देता, वरना संहासन के अिधकार, पु मोह म इतने कमजोर न ए
होते। महाराज का एक सही िनणय... एक आदेश, कु वंश क दशा और दशा दोन ही
बदल देता, मगर ये न हो सका। म भी तो कह न कह उ ह फै सल क सहभागी रही।
मौन भी तो एक कार क सहमित ही है या फर उपे ा। आँख क प ी, दािय य से
मुख मोड़ने का साधन नह थी, बि क मेरे ितशोध के िलये थी। हमने अपने आ म को
कभी टटोला ही नह और न उसक आवाज सुनी। कारण कु छ भी रहे ह परं तु, भी म
जैसे यो ा के साथ होने पर भी महाराज के अिधकार, पौ षहीन ही रहे। एक दन
महाराज ने ये वयं ही कहा था,
‘‘ि ये! मेरे आदेश, स य और धम देखते ह, तो मेरे ि य पु दुय धन के साथ भी वही
अ याय होगा, जो ने न होने पर मेरे साथ आ था; फर भी म य क ँ गा क धम
क राह पर चल सकूँ और लोक नंदा का भागी न बनूँ।’’ उ ह इससे भी अिधक, िववेक
और दूरद शता दखानी थी, मगर हमारे ने तो बंद थे ही, िववेक ने भी आँख बंद कर
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ली थ ।
जब प रणाम सामने ह तो सही-गलत का फै सला करना कतना सहज हो जाता है,
परं तु कु छ बदलता नह है; यथाथ को वीकार करने के बाद भी नह । उस समय तो हम
कु छ और ही देख रहे थे।
बढ़ते पु म हम वो आशा नजर आने लगी थी, जो आयपु के अिधकार को
थािय व दला सकती थी। ाता शकु िन भी हि तनापुर म रहने आ गये थे। कु वंश के
ित उनक घृणा, अब संहासन के लोभ म प रव तत हो गई थी। ितशोध भी दो तरह
का होता है; एक दु मन का िवनाश या दूसरा वयं के अिधप य क थापना और ये
के वल दुय धन के संहासन पर बैठने से ही संभव था। ि गत ित िं ता, बढ़ते-बढ़ते
कौरव और पांडुपु के बीच खुलकर सामने आने लगी थी। जब पांडव को छल से
मारने के सारे यास िवफल हो गए तो शकु िन के ष ं और बढ़ने लगे... मगर पाँच
पांडुपु , सौ कौरव पर भारी पड़े।
हमारे अंध व और पु मोह ने दुय धन को उ ंड और दंभ से प रपूण कर दया था;
उस पर ाता शकु िन क कु टल दृि उसे कस प म ढाल रही थी, ये हम समझ तो
रहे थे, परं तु उसे रोकना हमरे अिधकार म नह रहा था... उसके घृिणत कु कम को
‘बाल चे ा’ कहकर मा करना और या था? पु -मोह और मह वाकां ा ने राजधम
को वाथ-िसि का साधन बना दया था।
भीम, जब िवषपान के बाद भी जीिवत बचकर लौट आया और उसने सारा घटना म
बताया, तब महाराज ने आकर मुझसे कहा था,
‘‘कल को मुझसे आकर कुं ती कहेगी क महाराज याय क िजये, तो म या क ग ँ ा
गांधारी? या म याय कर सकूँ गा?’’ सुनकर म मौन रह गई थी। सचमुच, दुिवधा बड़ी
दुःखदायी होती है। धम क ओट म अधम करना कतना कु टल और घृणा पद काय
होता है, जो कभी सुख से नह रहने देता। म भी पु मोह से कहाँ बच पाई थी। काश!
उसी समय याय हो गया होता तो शायद... मगर याय तो कभी आ ही नह ; वो धम
ही था, जो पांडव को हर बार बचा लेता था। दुिनया म अ याचार को सहायक िमल
जाते ह, तो याय के प म भी कोई आ खड़ा हो सकता है, ये तो कसी ने सोचा ही नह
था। संहासन के िलये दये गये तक, स य ह या कु तक, ये मह वपूण होते ही नह ह; ये
तो प और िवप म रखे गये मत मा ह; इ ह मानना और नकारना सदैव शि के
हाथ म रहा है। युिधि र का युवराज बनना हमारे िलये कसी व पात से कम नह था।
शकु िन क ोधाि पुनः जाग गई थी; िपतामह के ित आ ोश ने उसे फर वह ला
खड़ा कर दया था। उसने कहा भी था,
‘‘बिहन, महाराज मजबूर हो सकते ह, परं तु म नह ; कु वंश को अपने कये का मू य
चुकाना ही पड़ेगा।’’ म या कहती। जब बुि और मन, दो अलग-अलग दशा म
जाएँ तो मौन ही उ म िवक प है... तब और अिधक, जब जो हो रहा है वो प म
उ मीद क आस जगाता हो।
ये तो सारी सृि जानती है क संहासन का मोह कतना बल होता है। पांडव,
ला ागृह म भ म हो गये थे, ये सुनकर म और महाराज खुश थे या दुःखी, ये कभी तय
ही नह कर पाए, परं तु दुय धन का युवराज बनना अव य ही हष-कारक था।
कु वंश का एक भाग, काल का ास बन गया था, इसीिलए सब दुःखी थे। िपतामह
को तड़पता देखना हमारे िलये सुखद अनुभूित थी... शायद यही मेरा और ाता शकु िन
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का ितशोध था। हाँ, कभी-कभी मन लािन से अव य भर जाता था। संहासन, मनु य
को कतना पितत बना देता है ये य था; परं तु ये अनुभूित िणक ही होती थी।
कु छ समय और बीत गया था। कह कोई संघष नह था। िजनके दय पीड़ा महसूस
रहे थे, वे िवक पहीन होकर मौन थे। हालात से उपजे सम त दुःख उनके भीतर ही
घुटकर रह गए थे। हमारी दुिनया इतनी औपचा रक होती जा रही थी क भावना का
दशन भी सीमा म बँधा था। दुय धन अब िब कु ल िनरं कुश हो गया था; उसे देखकर
तो कभी-कभी मुझे भी चंता होने लगती थी... फर ये सोचकर संतोष भी कर लेती थी
क वह िन यानबे बलशाली भाइय का ये है और संहासन को िपतामह का संर ण
ा है। असुर ा को भयभीत होने म देर ही कतनी लगती है।
भा य के िलखे को िमटाने क चे ा िवफल ही होती है। पांडव पुनः और सश होकर
सकु शल, ौपदी के साथ सामने खड़े थे। महाराज के संहासन के पाये फर अि थर
तीत होने लगे थे, मगर इस बार हालात कु छ और ही थे। दुय धन, पद छोड़ने को
तैयार ही नह था। स ा तो शि क दासी होती है और याग, धम का आधार। एक
तरफ अंधी मह वाकां ा और शि थी, तो दूसरी तरफ शि और याग... यही वजह
रही थी बँटवारे क । मगर खुशी इसी बात क थी क खांडव थ क बंजर भूिम
पांडुपु को िमली थी और हि तनापुर, दुय धन क राजधानी बना।
सभी ह षत थे क पांडुपु फर छले गये ह; िजनम कण भी शािमल था। उपे ा और
अपमान का दंश झेल रहे कण के िलये दुय धन क िम ता, उसक ितभा को
राजप रवार के सम थान देना ही था, िजसने दुय धन के प म एक ऐसा महारथी
यो ा खड़ा कर दया था, जो अजुन के बाण को चुनौती दे सकता था। कण क कृ त ता
ने उसे िववेक-रिहत कर दया हो, ऐसा नह था; फर भी अधम का साथ, उसके
अंत वरोध और ितशोध का प रणाम ही था।
ये सभी जानते थे क छल-कपट, पांडव को परे शािनय म तो डाल सकता है, मगर
तोड़ नह सकता। वे सभी वीरता और पौ ष से प रपूण ह, इसम कसी को संदह े नह
था; ये तो उसी व सािबत हो गया था जब अजुन के बाण और भीम क गदा ने प ु द
नरे श का मान भंग कया था। कपट, िणक जीत तो दला सकता है, मगर वो िवजयी
उ लास नह दे सकता, जो रण म जीतने पर होता है।
पांडव के दो सबल प थे... एक उनका धम और दूसरा ीकृ ण का साथ; िजसके
सहारे एक बार फर पांडव ने इ थ को भ राजधानी बनाकर अपनी े ता िस
कर दी थी और फर अ मेध य ... कौरव के िलये ये ण ई या से भरे ए थे। ष े वो
िवष है, जो दूसर को सुखी देखकर वयं धारक के सुख-चैन को ही जला डालता है।
हमारी मह वाकां ा, संपूण कु वंश को भीतर-ही-भीतर सुलगा रही थी और ाता
शकु िन उस अि म कू टनीित के नाम पर अपना आ ोश होम रहे थे।
रा यादश और संहासन, शि के साथ उ रदािय व भी देता है, मगर महाराज न
उ रदािय व िनभा सके और न साम य का उपयोग कर सके ; म भी उ ह के साथ थी...
जो हो रहा था, उसे कसी ने नह रोका और जो रोकना चाहते थे, वे ित ा और
उपकार के ऋण से बँधे थे।
इ थ म जो आ, वो भी नह होना चािहये था। दंभ का अपमान भी ब त शी
होता है। ौपदी का कटा , दुय धन के अहंकार पर भारी पड़ा। वह ितशोध के िलये
छटपटा रहा था और उसे वो अवसर, ि यता के अहं ने ही दे दया था। शकु िन क
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कु टलता सचमुच ब त भावी थी।
जड़ता कसी क भी हो, हािन तो करती ही है। एक ओर वाथ था, तो दूसरी तरफ
धम के नाम पर कु छ और जड़ताएँ थ , जो दुय धन के िलए पांडव के कमजोर-प थे,
जहाँ वह िनरं तर चोट कर रहा था। उनक साम य, उ ह के बनाए घेर म बंदी थी।
ूत ड़ा का प रणाम तो सभी जानते थे, मगर कसी के यास म इतनी साम य नह
थी क इस कु टल उप म को रोका जा सकता। यास तो मने भी नह कया और य
करती? भी म िपतामह ने जो कया, या वो सही था? उ ह ने बल से छीना था और
मेरे पु , छल से पाने का य कर रहे थे।
जो होना था वही आ; युिधि र ने सब कु छ हारने के बाद भाईय और वयं को दाँव
पर लगाया; फर ौपदी को और उसे भी हार गए। राजसभा मौन रहकर तमाशा देख
रही थी। सभी बेबस थे और संहासन अंधा। ितशोध, साकार हो, दुःशासन के प म
खड़ा था, िजसके हाथ म पांचाली के के श थे। दुय धन के ये श द अब भी मेरे कान म
गूँज रहे ह, ‘इस ौपदी को नंगा कर मेरी जाँघ पर िबठा दो।' और फर भीषण
अ हास... त प ात कणा द के , एक नारी के मान के िव ू र वचन। म तब भी मौन
थी, मगर मन िवचिलत था। पांचाली का दन, याचना, तक-िवतक, मुझे सब याद ह।
अगर ीकृ ण ये चम कार न दखाते तो ...
वे तो ह ही धम और स य के र क। मने ब त देर बाद यास कया था... शायद ये
मेरा भय था क कह मेरे पु का अिन न हो जाये। उस व तो नह आ; मगर कम
का फल तो सम त कु वंश ने भोगा ही।
‘‘िवनाशकाले िवपरीत बुि ।’’ ीकृ ण के इन श द ने यु को टालने के सम त ार
बंद कर दये थे। बंद तो दुय धन ने कये थे; उनका तो अंितम अवसर था, जो थ गया
था। यु के िलये दोन प स थे और पूरे दल-बल से स थे। पांडव के साथ
ीकृ ण का होना मुझे खटक रहा था, मगर दंभ म दुय धन न समझ सका। सम त धम
और कम के अब सही-गलत होने का िनणय होना था और कु छ भार होती देह क
मुि का माग श त। संहासन, अब र क माँग कर रहा था और शांित, यु क ।
समय के गभ म या िछपा है ये तो कोई नह जानता, परं तु अनुमान तो हो ही जाता
है। उस दन महाराज भी कु छ ऐसी ही दुिवधा से िथत होकर कहने लगे थे,
‘‘ि य गांधारी! इस यु का प रणाम कु छ भी हो, मू य तो कु वंश ही चुकायेगा;
कं तु हम दुय धन के जीतने क कामना तो कर ही सकते ह य क उसके साथ भी म,
ोण, कण आ द कई महारथी यो ा ह और उस ओर तो के वल कृ ण ह।’’
‘‘माता-िपता होने के नाते हम ये कामना करनी भी चािहये; परं तु यु न हो, ये
कामना भी हम ही करनी चािहये, य क धम और ीकृ ण िजस ओर ह , उसक
पराजय ब त दु कर काय है।’’ मने भी स य कह ही दया था, िजसे सुनकर महाराज
उदास हो गए थे। तब मने उ ह समझाया था।
‘‘नारी का संबंध, पु ष के च र से जुड़ा होता है, परं तु वही, दृढ़ता के अभाव म
ि क च र हीनता एवं नैितकपतन का कारण भी बन जाती है। च र हीनता,
भिव य और भावी पीढ़ी के िलए न तो आदश रख पाती है और न उसे धमवान और
सं का रत कर पाती है; शायद आप को मरण हो... इस कु ल को इसके ही कारण कई
शाप लगे ह, जैसे ‘न ष के पु कभी सुखी नह रहगे।' कु वंश क पौ षहीनता क जड़
म भोगिल सा और वाथ ही नजर आता है, िजसने कु लक त और नयी पीढ़ी को सदैव
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ही अंधकार का माग सुझाया है।
भी म क आजीवन चय क ित ा ने याग के साथ-साथ इस तरह क कुं ठा और
लालसा को भी सहयोग दान कया था। यो य क अवहेलना और अयो य के अिधकार,
दोन ही पतन के कारण बनते ह। ऐसे धम का या फायदा, जो स य के ित ने बंद
करने पर बा य कर दे। के वल भी म कहलाने का लोभ और लोकयश के िलए, देव त ने
भी म बनकर एक ित ा का भार, जीवन-भर ढोया। वो कु वंश को एक दशा दे सकते
थे, परं तु न दे सके । झूठ के अहंकार से स य का अहंकार यादा घातक होता है... ये
झुकता नह है; पंजरे के पं ी क तरह सब देखता है, मगर कर कु छ नह सकता... घुटन
ही उसक िनयित होती है।
‘‘लंपट और अपंग के िलये बलपूवक, ना रय का हरण, साम य- दशन के िलए तो
ठीक है, परं तु धम कै से हो सकता है? अपने िलये वर चुनना तो नारी का अिधकार है
और कसी के अिधकार का हनन, धम तो कदािप नह हो सकता था महाराज!’’
सुनकर धृतरा मौन थे। गांधारी के आ ोश-जिनत तक अका थे। वो एक ऐसी माँ
थी, िजसके पु , पराभव के माग पर चल िनकले थे और िज ह रोकना अब संभव नह
था।
जीवन को दशा देने के िलये ि के कम िजतने मह वपूण होते ह, उतनी ही
उसक सोच। जहाँ सकारा मकता, उ ित के नये माग खोल देती है, वह नकारा मकता,
ितशोध और असुर ा क भावना बनकर, सुख-चैन सब कु छ छीन लेती है। म भी तो
ऐसी ही नकारा मकता म अब तक जीती आई ;ँ मगर मुझे ये ात नह था क
यु भूिम म खड़े होकर ीकृ ण, अजुन को जो ान दगे, वो मेरे मन पर छाये इस
नकारा मकता के घने मेघ को दूर उड़ा देगा।
संजय, वेद ास से द -दृि ा कर, महाराज को यु भूिम का सारा हाल सुना
रहे थे; म भी वह बैठी सब सुन रही थी। मोह-लोभ तो सभी को हो जाता है, परं तु
उससे मुि उसे ही िमलती है, जो चाहता है; ई र क कृ पा ऐसे ही कसी पर नह हो
जाती। उस समय यही लगा था क सब कम से ही िमलता है और कम तो हम ही तय
करने होते ह; फर दोष कसे द? मने भी तो एक ु ट के बदले एक और ु ट कर ली
थी... दोष तो मेरा भी है। अब ये समय प ताप का नह है; जो हो रहा है, उससे
िवरि का है।
िजस तरह बाढ़ का पानी देवालय और वे यालय म भेद नह करता, उसी तरह यु
के चंड वेग म सभी एक-एक कर बहते जा रहे थे; यहाँ तक क धम और अधम भी।
कु छ भी शेष नह रहा। कु छ ने धम क र ा म सब कु छ खोया तो कसी ने अधम और
कु कृ य के प रणाम- व प। शायद िबना यु के शांित संभव ही नह थी। िवनाश,
कह -न-कह नई शु आत क न व रख ही जाता है।
मनु य, समय के कतना अधीन है; वह जो चाहता है वही करा लेता है। ितशोध ने
मेरी आँख पर प ी बाँध दी थी; और जब ान ा आ तो मने धम का हाथ थाम
िलया। िवरि दोन म ही ई थी, मगर दोन क िवरि म अंतर था; एक ओर शांित
का सागर है तो दूसरी ओर धधकती अि । लोभ-मोह मनु य को वाथ बना देता है
और ोध िववेकहीन। अगर नह बनाता होता, तो म ीकृ ण को कु लनाश का शाप
य देती? धम तो मनु य मा के क याण के िलये होता है; उसक आड़ लेकर अपने
कु कम छु पाना और अ याय करना सवथा अनुिचत ही है... जो धम तो हो ही नह
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सकता।
ीकृ ण ने जो कया वो गलत तो नह था; उ ह ने तो धम का साथ दया था। धम
का अथ, कोरी मानिसक जड़ता नह है। भी म, ोण, कण, दुय धन सभी अपने-अपने
कम से काल के ास बने; ीकृ ण ने तो धम- र ाथ माग सुझाये थे। वे ऐसा न करते
तो इितहास ये िलखता क यु भूिम म पांडव, धमयु लड़ते-लड़ते वीरगित को ा हो
गये। तब भिव य और मानवता को कौन जवाब देता? ा रकाधीश! आपने तो उस
धा मक जड़ता को तोड़ा था, िजसे ित ा के प म कु वंश ढोते-ढोते न हो गया
और न जाने कतने वंश ऐसे ही िववेक-रिहत होकर न हो गये ह गे।
आपने तो मुझ पितता के कटु श द को, एक सती के वचन सा मान देकर उसे
वीकार कया और ये बताया क िजसम मनु य-मा का क याण िनिहत न हो वो धम
तो हो ही नह सकता; धम तो याग है, ेम है और वे संवेदनाएँ, जो मनु य को ािण
जगत म े होने का स मान देत ह। मनु य को देव व तक ले जाने वाले उसके कम ही
होते ह। सब उसी काल के अधीन ह, जो दवस और राि बनाता है, सृजन एवं संहार
करता है और वही सा ी भी रहता है... आपके चरण म कोट-को ट नमन भु!
हि तनापुर म अब भी सब वैसा ही था। सारे महल-दुमहले जस-के -तस खड़े थे,
राज ासाद का वैभव तिनक भी कम नह आ था, मगर इनम रहने वाल के मन, सुख
के थान पर दुःख, पीड़ा और नैरा य से भरे थे। कभी-कभी सोचती ँ क मने ने पर
प ी बाँधकर अ छा ही कया, वरना इन नवयौवना का वैध प कै से देख पाती।
इस स ाटे को तोड़ने वाली विनयाँ कुं ती क होती ह या फर उसके पु क । उ ह ने
भी हमारी सेवा म कोई कसर नह छोड़ी, परं तु ये पीड़ा तो हमारे भीतर क ही है, िजसे
हम भोग रहे ह। कु ती ने तो खूब स मान और सहारा दया। कल महाराज ने कहा था,
‘‘ि य गांधारी, अब हम ये सब छोड़कर वन को थान करना चािहए; अब न
उलाहने सहन होते ह और न उपकार... जीवन के ये अंितम ण, ई र क आराधना मे
बीत यही कामना है।’’
‘‘ये तो ब त उ म िवचार है; मुझे भी तीत होता है क वान थ के िलए ये उ म
समय है, कु वंश का भिव य अब सुरि त है।’’ मने कहा तो सुनकर उ ह ने काँपते हाथ
से मेरे हाथ पकड़ िलये और बोले,
‘‘तुमने जीवन भर मेरा साथ दया है और हमने सभी सुख-दुःख साथ बाँटे ह; अब
यही कामना करता ,ँ ये साथ जीवन के अंितम ण तक बना रहे।’’ कहते ए उनका
गला भर आया था। मने उ ह इतना भावुक कभी नह देखा था।
‘‘ये तो ई र क मज है।’’ मने कहा तो कहने लगे,
‘‘आज म ही इस कु वंश म सभी से ये ,ँ इसीिलये सोचता ँ एक बार सभी के
िलए ा कर, उनक आ मा क शांित के िलये ाथना कर सकूँ तो मेरे मन को भी
शांित िमलेगी; मने युिधि र से बात क थी, उ ह ने सहमित जताई है, देखो ये सब कब
होता है... ये सुख-वैभव अब काटने को दौड़ता है।’’
इतने वष म ब त कु छ बदल गया था। हम वन जाने को तैयार थे। कुं ती भी हमारे
साथ थी। कु छ मन अब भी आ ोश से भरे थे, ये जानकर आ य और दुःख दोन ए।
पांडुपु ने कुं ती को रोकने का यास कया था; अनुनय-िवनय के साथ कु छ और
उलाहने भी थे, मगर कुं ती अपने फै सले पर दृढ़ संकि पत थ ... उ ह ने कहा,
‘‘पु , तुम सुखी रहो; मुझे भी अपने कु छ जाने-अनजाने म ए गलत कम का
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ायि त करना है और अपनी मुि का माग श त भी।’’
कृ ित के साि य म अपूव शांित का अनुभव हो रहा था। मन, बालपन क मृित से
ब त कु छ महसूसने का य कर रहा था। महाराज भी त उपवास और ह रभजन म
लीन थे। कुं ती अब भी हमारे ने बनकर सहयोगी बनी थ । हम सभी इस देह और उससे
जुड़े दुःख , पीड़ा से मुि क ती ा म थे।
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5
राजवैभव से ब त दूर, अर य देश क राि , िन य क तरह ही चाँदनी के मि ा
काश से काशमान थी। कह दूर से आती ई हंसक पशु क आवाज भयावह
तीत हो रह थ ; मगर िज ह जीवन के ित मोह ही न रहा हो उनके िलए कै सा भय;
मृ यु तो उनके िलए देह क पीड़ा से मुि मा है।
ऐसी ही मानिसक अव था म गांधारी और धृतरा , एक पणकु टी म गहन िन ा म
लीन थे। कुं ती भी उ ह के साथ थ , मगर िन ा तो जैसे उनके ने का माग ही भूल गई
थी। उनका मन पीछे लौटकर अतीत क ओर भागा जा रहा था। समय ने दंभ, ष े और
ितशोध क खाइय को तो कु वंश के र से भर दया था, परं तु मन क र ता को
कोई न भर सका। जीवन क ज टलताएँ और मजबू रयाँ, आज भी कुं ती के दय म शूल
बनकर चुभ रही थ , परं तु चेतना उन पल को एक-एक कर पुनः जीवंत कर सामने ला
रही थी।
अपराध-बोध कै सा भी हो, जीने नह देता; ये बात मा ी जानती थी, इसीिलए उसने
मुि का माग चुना। उसक दृढ़ता के आगे म कु छ न कर सक थी; वो नकु ल और सहदेव
को मेरी गोद म िबठाकर वग चली गई और वह से मेरा जीवन एक अंतहीन या ा म
बदल गया और तभी से म इस क ठन माग पर िनरं तर चल रही ;ँ कभी कत के
िलए, कभी धम और कभी मोह के िलए। एक बार अ ानता के साथ भी चली थी और
मने उसके प रणाम भी भोगे ह।
सभी के जीवनकाल म एक उ ऐसी भी होती है, जहाँ िज ासाएँ बलवती हो जाती
ह और दूरद शता ीण ही रहती है। उमंग और उ साह के उसी मौसम म मुझे ऋिष
सेवा के फल व प देवता के आवाहन और उनसे संतान ा करने का वरदान िमला
था। संदह े और रोमांच ने मुझे एक अजीब सी उ सुकता से भर दया था और ये तब
िमटी, जब सूयदेव सा ात मेरे सम तुत थे। म रोई, मा-याचना क ; मगर दये
वरदान कहाँ िन फल होते ह... मुझे गभाधान करना पड़ा। िनि त समय पर म िबन
याही माँ भी बन गई थी। उस समय म एक ी, राजक या और माँ के प म वयं को
ब त बेबस महसूस कर रही थी। अब या होगा? ये रह-रह कर मन म उठ रहा था;
दुिनया, समाज या कहेगा? ऐसे ही अनेक , मि त क म गूँजकर मुझे मृ युतु य पीड़ा
दे रहे थे।
लोक नंदा का भय बड़ा ही चंड होता है। समाज या कहेगा, ये सोच-सोच कर मन
िवचिलत आ जा रहा था। एक िव ासपा दासी के साथ मने अपने हाथ से, अपने ही
पु को ये सोचकर नदी क जलधारा म वािहत कर दया क कवच-कुं डल से यु
इस तेज वी पु क र ा वयं उसके िपता सूयदेव करगे। उस समय मेरा दय
हाहाकार कर रहा था, मगर एक माँ मजबूर थी और अन याही राजकु मारी भी।
लोकरीित से तो सब बँधे होते ह। म मन मारकर रह गई थी। समय ने ब त कु छ िव मृत
कर दया था।
समय बड़ा बलशाली होता है; ये मने तब जाना, जब मेरा पु ...नह -नह , मेरा पु
नह ... ये अिधकार तो मने उसी समय खो दया था, जब उसका याग कया था; ये तो
मेरी भूल थी, जो मेरे ही सम साकार होकर, मेरे ही पु अजुन क श ु बनकर खड़ी
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थी और मेरी िववशता तो देखो, म इस यु को रोकने का यास भी नह कर सकती
थी। कण को तो उसक ज मदा ी ने देखते ही पहचान िलया था, मगर वह न कह सक
और न ेह से भरकर उसके म तक को चूम सक ।
इस यु म एक पु तो मेरा भी वीरगित को ा आ था। और समय क ये
िवड बना देखो, उसक माँ ही उसक मृ यु का माग श त करने म सहायक बनी थी।
या एक माँ भी इतनी िन ु र और वाथ हो सकती है? शायद हाँ... या फर यह अजुन
के ित मेरा लगाव और उसके साि य का भाव था; मेरे सम उसका बचपन और
उसक जवानी थी, िजसे मने हर एक पल सभी पु के साथ महसूस कया था,
इसीिलए अजुन का पलड़ा भारी था। ज म देने से कोई माता कहाँ बन जाती है... उसे
तो राधा ने पाला था, इसीिलए वो तो राधेय था और उ भर वही रहा।
मने तो उसके ण और उसे ज म देने का ही अनुिचत लाभ उठाया था। अपने पु के
ाण न लेने का वचन लेने के बाद मने उसे कतना समझाया था क अधम का प छोड़
दे, मगर वो नह समझा; अपने िम -धम से जो बँधा था। दुिनया ने जो उसे दया, वो
वही तो लौटा रहा था; वो भी अपने वभाव के िवपरीत... वभाव से तो वो दानवीर
और कृ त था। उसक ितभा को सदैव उपे ा और अपमान ही िमला। उसने तो
िनद ष होकर भी वो सहा, िजसके िलये दोषी कोई और था। उसे सूतपु तो मने ही
बनाया था; वो तो सूयपु था।
ये उसके अंतर म बसा धम ही था, जो वह वयं अपनी मृ यु का माग तैयार कर रहा
था। देवराज इ ने कवच-कुं डल और मने उससे अपने पु के ाण माँग िलये और
उसने उतनी ही सहजता से दे भी दये थे। मने िथत होकर उससे पूछा था, ‘‘पु !
तु ह ाण का मोह नह है, जो तुमने िबना सोचे समझे ही मुझे वचन दे दया?’’
‘‘नह माते, अब ाण का मोह नह रहा: उपे ा, ितर कार और खुद से लड़ते-लड़ते
तेरा ये अभागा पु थक गया है; ेम और स मान को तरसती ये आँख भावशू य हो ग
ह और दय पाषाण। राधा माँ से दुलार और वजाित से स मान के अित र , मुझे न
कसी ने ेम कया और न वो स मान दया, िजसक हकदार मेरी ितभा थी। कसी ने
उपकार कर मुझे वचनब कर िलया तो कसी ने अपमान कर मेरे दय म ष े के बीज
रोप दये। माँ... म भी सुख और स मान से जीवन जीना चाहता था; न मुझे रा य क
कामना थी और न कसी पद क । इन िवशाल महल म रहने वाल क वाथपरता और
अहंकार ने मुझे भी उ ह क तरह मह वाकां ी और वाथ बना दया है। सफलता
और असफलता तो जीवन को देखने और समझने क दो पृथक दृि याँ ह, िज ह भा य
दान कर देता है; िजससे एक ओर ल य ाि के िलये िनरं तर संघष दखाई देता है तो
दूसरी ओर उपलि धय के थािय व क चंता... सुख तो दोन म िणक ही है और फर
थाई सुख चाहता भी कौन है।
म भी उ ह म से एक ,ँ िजसे वही सब चािहए था, िजससे दुिनया म स मान- ाि
का अिधकार िमलता है; राह सही है या गलत, ये सोचने का अवसर तो समय ने कभी
दया ही नह ।’’ कहकर वह मौन हो गया था, मगर उसके चेहरे पर एक मु कान उभर
आई थी। उसी के सम खड़ी म, उस मु कान का अथ खोज रही थी।
मुझसे, उसके भीतर क पीड़ा देखी नह जा रही थी। अगर कह समय मुझे एक
मौका देता तो म सब कु छ यागकर अपनी उस भूल को सुधार आती... मगर समय ऐसा
कहाँ करता है। मने ेह उसके सर पर हाथ फे रा तो एक मासूम बालक क तरह वह मेरे
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दय से आ लगा। उसके साथ-साथ मेरे िथत दय को भी असीम आनंद क अनुभूित
हो रही थी। तभी वह यकायक िछटककर मुझसे दूर हो गया और बोला, ‘‘नह माते!
अब इस ेम का यथाथ क कठोर भूिम पर कोई थान नह है; ये मुझे कमजोर कर देगा
और तु हारे ेम को ये दुिनया वाथ कहेगी, हम दोन अपयश के भागी ह गे... मुझे
राधेय ही रहने दो; वो राधेय, जो सदैव अपमान क अि म जलता रहा; इसके िलए म
कसी को दोष भी नह दूग ँ ा, य क मह वाकां ा से यु ये काँट भरी राह मने वयं
ही चुनी थी; म ही सूतपु होते ए भी इ ह संहासन के सम आ खड़ा आ था।
काश! म वा तव म सूतपु ही होता।’’
‘‘यही तो िविध क िवड बना है पु ; तुम तो कौ तेय हो और तु हारे भीतर सूय का
तेज गितमान है, इसीिलए ये तो होना ही था; इसम तु हारा दोष कहाँ है पु , सारा
दोष तो मेरा है... इस अभागी माँ का, जो अपने वयं जाये पु को वचनब कर मृ यु
क ओर भेज रही है। काश! ये दुिनया जाितगत वहार से ऊपर उठकर के वल मनु य
मा से ेम कर सकती।’’
‘‘नह माते, ये तो मेरे ार ध का िलखा है, जो मने भोगा; तुम तो पाँच वीर पु क
माता हो और रहोगी भी... ये राधेय रहे न रहे, इससे कसी को फक नह पड़ेगा, आप
िथत न ह माते; अब अपे ाएँ नह रह तो कसी का लोभ, मोह भी नह रहा... इस
जीवन का भी नह ; इसीिलए देने से बड़ा संतोष, मेरे जीवन म कोई और नह रहा; आप
ाण भी माँगत तो भी म उतने ही हष के साथ दे देता, कम-से-कम दुिनया मुझे मेरे
दु कम के अित र , दान के िलए भी तो मरण करे गी।’’
उसके श द मेरे दय को िवदीण कर रहे थे, उसक मु कराहट मेरे कृ य को और
घृणा पद बनाये जा रही थी। म मौन खड़ी उसे जाते ए देख रही थी।
म िव कु ल िन र थी, मगर मेरे अ ु, िन छल और मम व से भरे थे, िजनसे वह मुँह
फे रकर दूसरी ओर बढ़ गया था। म जानती थी क ये कण से मेरी अंितम भट होगी।
उसका अधम के साथ होना, कह न कह दुिनया से उसका ितशोध ही था; िज ह ने
उसे पीिड़त और ितर कृ त कया था, वह भी उ ह के िव खड़ा हो गया। समय ने उसे
कहाँ लाकर खड़ा कर दया। काश! उसक ितभा को सूतपु होने पर भी वही स मान
िमला होता, िजसका वह हकदार था तो शायद प रणाम कु छ और ही होते। जब तक
ऊँचाई पर बैठे लोग अपनी असुर ा और कुं ठा से िन से घृणा करते रहगे, तब तक
कण ितशोध लेते रहगे और यु भी होते रहगे।
यु तो म भी चाहती थी, मगर राज संहासन के िलए नह , बि क ौपदी के प म
एक नारी के अपमान के िलए; जो मुझे हि तनापुर म रहते ए भी हर एक पल खटकता
रहा था। इसीिलए जब ीकृ ण ने यु के िलए मुझसे आ ा और आशीवाद माँगा, तो
मने सहज ही हाँ कर दी थी, य क ि गत हािन-लाभ से ऊपर, मानवीय मू य क
थापना आव यक थी। चाहती तो म भी यु रोक सकती थी, परं तु ये ौपदी के साथ-
साथ सम त नारी जाित के साथ अ याय होता और इितहास मुझे कभी मा नह
करता। धम क र ा हेतु आ मो सग के िलए अिभम यु, घटो कच जैसे वीर को दुिनया
सदैव याद रखेगी।
समय ने मुझसे ही ौपदी को पाँच भाइय म बँटवा दया था, तब मुझे भी ब त
दुःख आ था। मने अपने पु के साथ-साथ ौपदी क भी िवकलताएँ और ं देखे थे,
मगर ौपदी के याग और समपण ने पाँच पु को एक सू से बाँधे रखा; तब कह
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जाकर मुझे संतोष आ था। काम को मया दत कर उसे कत का प देकर उसे जीवन
म उतारने वाली ौपदी के याग को ये कु वंश सदैव याद करे गा, फर भी अनजाने म
ही सही, मगर क गयी भूल का ायि त तो मुझे भी करना ही पड़ेगा। इसीिलए मन
क शांित के िलये मेरा वन म आना भी अ यंत आव यक था। मने भी इस सं ाम म
ब त कु छ खोया था। यु के बाद वष तक उसक कसक बनी रही। अब समय इन
सबसे मु होने का था, मगर ये भीम कहाँ समझने वाला था। बंधन टू ट जाय तो मृ यु
पीड़ादायी नह रहती; देह के सम त दुःख से मुि का माग बन जाती है और म इस
वन म उसी अंितम या ा क बाट जोह रही थी।
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यु के बाद आ मिव ेषण और मानिसक ं से के वल भी म, धृतरा , कुं ती,
गांधारी ही नह गुजर , बि क कु छ और भी थे, िजनके ितशोध ने कु वंश क नीव
िहला दी थी; उनम एक ौपदी भी थी, िजसका तो ज म ही ितशोध क अि से आ
था। महाराज प ु द के ितशोध क उस अि से, िजसने य कुं ड क अि का प ले
िलया था, तब या सेनी ौपदी का ज म आ था। ोणाचाय के ितशोध के प रणाम
व प, प ु द के भीतर भी अपमान और ितशोध क वाला धधक उठी थी, िजसे शांत
करने हेतु पु - ाि के िलये कये गये य क अि से उ ह दो संतान, धृ ु के प म
पु और ौपदी के प म पु ी क ाि ई थी। वही ौपदी, समय के बहाव म बहकर
आज कहाँ आ खड़ी ई है।
सुभ ा को परीि त के साथ अठखेिलयाँ करते देख, ौपदी को अपने पु और
अिभम यु क सुध हो आई थी, जो उसके भीतर क अि को शांत करने म वयं जलकर
राख हो गए थे। ौपदी, सोचते-सोचते अपने क तक आ गई थी; उसके मि त क म
िवचार सघन मेघ क तरह ती ता से उमड़-घुमड़ रहे थे।
‘‘सचमुच मेरे भीतर जीवन-पय त एक वाला सी जलती ही रही। जीवन भर न
जाने कतनी ही परी ाएँ देनी पड़ , िजनका मुझे मरण भी नह है। समय ने मुझे
संसार के या- या प दखाये, ये तो म ही जान सकती ।ँ कृ ण सा सखा और
मागदशक न िमलता तो ये ौपदी कब क टू टकर िबखर गई होती। मेरा रोम-रोम
उनका ऋणी है।
मेरा सारा समय ितशोध क अि क चंडता को महसूसते ए गुजरा था। इसे
िनरं तर बढ़ते देखना कसी यातना से कम नह होता। एक ितशोध ने, एक नये
ितशोध को ज म दे दया था। ोणाचाय ने ितशोध तो ले िलया था, मगर उसक
अि , िपता ी के दय म अपमान के प म जलती ही रही। म ाता धृ ु के साथ
पल-बढ़ रही थी; साथ ही पांडुपु अजुन के परा म के क से भी सुनती रहती थी,
िजनम ोणाचाय क मह वाकां ा, वाथ एवं गु दि णा क भी कथाएँ होती थ ।
अचानक एकल का कटा अँगूठा मेरी आँख के सामने कट हो जाता। मन घृणा से
भर जाता। दूसरी गु दि णा पांडुपु ने दी थी। उस युवा अजुन के बाण क धार और
धनुष क टंकार कतनी िवकट होगी, िजसने िपता ी को बंदी बना िलया था। इसम
पांडुपु का दोष ही या था? वो तो ोणाचाय क मह वाकां ा पू त हेतु वचनब
साधन भर थे।
ोणाचाय क अभावज य मह वाकां ा, कु वंश क अंधी और वाथ से प रपूण
मह वाकां ा से जुड़कर हो गई थी, इसीिलए कु वंश भी मुझे तिनक भी नह
सुहाया। जब भी पांडुपु के धमाचरण और उन पर ए अ याय के बारे म सुना तो
उनसे सहानुभूित अव य हो गई थी।
सभी कहते थे क ौपदी अ नं सुंदरी है और कसी भी पु ष को आक षत करने म
समथ है; सुनकर, मन गव और हष से भर जाता था। अपने मन क क ँ तो मेरा मन
पांडुपु अजुन जैसे वीर पित क कामना करता था, जो अपने पौ ष से िपता ी के
ितशोध को पूण करने म सहायता के साथ-साथ मुझे भी पूणता दान करे । फर
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िवचार आता क एक िश य, अपने गु के िव श य उठायेगा? परं तु काल क
गित कोई नह जानता।
समय भी अजीब खेल खेलता है। िपता ी ने जब ये समाचार सुनाया क पांडुपु
अपनी माता के साथ ला ागृह म जलकर भ म हो गए ह, तो मुझे अ यंत पीड़ा ई थी।
अजुन ही एक ऐसा नाम था, जो पूणपौ ष के प म मेरे दय म अं कत हो गया था।
नारी का दय ऐसा ही होता है। पीड़ा तो मने िपता ी के मुख पर भी देखी थी; शायद
वो भी अजुन को मेरे भावी पित के प म देखना चाहते ह । उ ह कौरव ारा पांडव
के िव आचरण का पूण अनुमान था। िपता ी के मुख से अजुन क वीरता क कथाएँ
सुन-सुनकर मेरी िज ासा अ यिधक बढ़ गई थी, परं तु इस घटना ने मेरे मन को िनराशा
क ओर धके ल दया था।
म िववाह यो य हो गई थी और िपता ी यही चाहते थे क कोई अतु य वीर यो ा
ही मेरा पित बने। कसी के ित लगाव भी एक झटके से समा नह होता, कह -न-कह
कोई आशा शेष बची ही रहती है। यही वो आशा थी, िजसके कारण मेरे वयंवर म
िपता ी ने धनु व ा वाली ितयोिगता रखी थी... शायद अजुन जीिवत ह । ऐसे वीर
पु ष को अि इतनी सहजता से भ म कर देगी; इस स य को वीकार करने के िलए
मन तैयार ही नह था।
म वयंवर के िलए पूण शृंगार के साथ स खड़ी थी। सभागृह म उपि थत राजा ,
युवराज के अित र और भी लोग थे, िजनक कामुक दृि को म अपनी देह पर
महसूस रही थी और कु छ के मुख पर आ य और शंसा के भाव थे; उनका आक षत
होना संयिमत था। सभी क दृि मुझ पर ही टक ई थी। ाता ने वयंवर के िनयम
और ल य को कै से बेधना है, समझा दया था। सखा ीकृ ण और बलराम जी भी वह
उपि थत थे। म भी उनके मुख को कई बार देख चुक थी। वही मन मोहक मु कान मेरा
संबल बढ़ा रही थी; जैसे कह रही हो, ौपदी धैय रखो; सब ठीक ही होगा।
जहाँ ितभािगय के प म एक साथ ोध, वासना, अहंकार, छल और वीरता हो,
वहाँ सब सही कै से हो सकता है; िजनम हि तनापुर से आये दुय धन, ोण पु
अ थामा और सूतपु कण भी थे और यही मेरी चंता का कारण था। मने परशुराम
िश य कण क ितभा के बारे म सुन रखा था, कं तु वह उ ह के साथ था, िजनके
आचरण, घृणा के पा थे।
वहाँ उपि थत ितभागी यो ा एक के बाद एक असफल होकर अपमान और
उपहास के पा बन रहे थे। उनम से कु छ पलायन भी कर गये थे। जब कण अपने आसन
से उठा तो मुझे अ छा नह लगा। उसका बल, पौ ष से प रपूण था और उसने सहज ही
धनुष पर यंचा चढ़ा दी थी। तब मने अपने सखा ीकृ ण क ओर देखा था। उनके
मुख पर वीकृ ित के िच ह नह थे। यह देखकर मुझम न जाने कहाँ से इतना साहस आ
गया था, क मने उसी ण सूतपु क प रणीता होने से साफ मना कर दया था।
प पात के आरोप भी लगे, मगर िनयम ने र ा क । ोध से तमतमाते कण के ने म
अपने िलये मने घृणा और ितशोध के भाव देखे थे।
ये ी का अिधकार था क वह भावी जीवन और उ म संतान के िलए कसे वरण
करे और मने वही कया था। िपता ी और ाता के मुख पर चंता क लक र प नजर
आ रही थ ; उ ह ने उठकर कु छ कहा भी था, फल व प वह खड़ी भीड़ से िनकलकर
एक ा ण कु मार आया, िजसे देखकर सभी उसका उपहास करने लगे थे, परं तु वह
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शांतिच होकर धनुष तक आ गया था। उसे देखकर, सखा ीकृ ण मु करा रहे थे। म
मौन हो सब देख रही थी।
िजस धनुष पर कोई यंचा भी नह चढ़ा पा रहा था, उसने एक पल म सटीक
ल यभेद कर दया था। उसक जय जयकार हो रही थी। मने संकोच और भावी
आशंका के साथ उसे वरमाला पहना दी थी, जो ि य कु ल के दंभ को तिनक भी
नह भाई थी; प रणाम व प सभागृह यु भूिम म बदल गया। उन ा ण कु मार के
पौ ष के सम सब परािजत ए थे, और म सस मान उनके साथ िवदा हो गई थी।
म उनक वीरता और पौ ष को तो देख ही चुक थी और कु टी तक प च ँ ने से पहले
उनके हास-प रहास और ेम को देखकर मन को संतोष हो रहा था। जो नजर मुझे सभा
म घूर कर देख रह थ , अब संकोच से मया दत थ । म उन पाँच कु मार के साथ कु टी
के ार पर खड़ी थी। िज ह सभी ये कह रहे थे, उ ह ने कहा,
‘‘माँ! देिखये हम िभ ा म आज या िमला है?’’ सुनकर म सोच रही थी क ौपदी
कोई व तु या चेतना-िवहीन देह तो नह है, िजसे ये िभ ा कह रहे ह; म भावना और
संवेदना से प रपूण एक ी ।ँ परं तु जो मने देखा था उससे यही अनुमान लगाया जा
सकता था क ये प रहास ही है और था भी। फर जो कु छ भी घ टत आ, उसने मेरी ही
नह , सभी क दुिनया ही बदल दी थी।
‘‘पाँच भाई आपस म बाँट लो।’’ भीतर से आये उस नारी वर म एक सहज आदेश
था, िजसे सुनकर सभी कं कत िवमूढ़ से हो गए थे। हास-प रहास, धू क तरह हवा
म िवलीन हो गया। सभी के मुख देखकर यही तीत हो रहा था जैसे कोई अनथ हो गया
हो। कोई मौन था तो कोई अनथ क आशंका से भयभीत। पहले राजभवन से ये कु टी
और फर ये धमसंकट; मेरे िलये ये समय कसी यं णा से कम नह था। माँ, वा दान कर
चुक थ और उसका पालन करना पु का धम था।
उ र न पाकर माँ बाहर आ गय । अपने पु के साथ एक सुंदर ी को देखकर उ ह
ि थित को समझते देर न लगी। इससे पहले क वो कु छ कहत वही ये बोले,
‘‘माँ, ये तुमने या कह दया!’’ कहते ए उनके वर म हताशा थी, मगर अब देर हो
चुक थी। माँ तो अनजान थ , इसम उनका कोई दोष नह था; सारा दोष तो मेरे भा य
का था। उस दन मने जाना, धम म कतना आ मबल होता है और ेम म कतना याग।
सभी क मनोदशा देखकर ये तो लगने लगा था क इस िवकट प रि थित से िनकलने के
िलए हम ही संयिमत रहकर यास करने ह गे। हमारे सामने धम, समाज, लोक और न
जाने कतन को संतु करने क चुनौती थी।
कभी-कभी ये सोचकर मन आ ोश से भर जाता था क ी, इस पु ष धान समाज
म के वल उपभोग क व तु है और कोई भी उसक सहमित के िबना, उसका भिव य तय
कर सकता है, जहाँ उसक भावना का कोई मह व नह है; परं तु दूसरे ही ण ये
लगने लगता था क ये उन पु ष म से नह ह... माँ भी तो एक ी ही है, जब उसके
वचन का इतना स मान है तो मेरा य नह होगा। सभी क उि ता तो यही दशा
रही थी क सभी दुःखी ह, वरना मेरे िलए संघष होता या फर सामूिहक खुशी... म
अपनी समझ से इस मझधार म डू बते-उतराते कनारा तलाश रही थी, जो अभी ब त
दूर था।
दूसरे दवस, ातःकाल ही सखा ीकृ ण और ाता धृ ु मेरे सम खड़े थे;
उ ह ने बताया, िजसे मने वरमाला पहनाई थी वो पांडुपु अजुन ह। सुनकर मेरी खुशी
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का ठकाना न रहा, मगर हम दूसरे ही पल फर उसी जगह खड़े थे। िवचार मंथन और
फर तक -उदाहरण के बाद मेरा पाँच पांडुपु से िववाह होना तय हो गया था।
हम सभी पाँचाल म थे और हम ही इस संकट से उबरना था। ऐसा पहले भी आ था,
िजसम ज टला नामक गौतम गो ी क या ने सात ऋिषय से िववाह कया था। और
फर माता और गु क वाणी भी धम यु होती है। म पाँच पितय क प ी बनकर
हि तनापुर आ गई थी।
चार तरफ वागत स कार हो रहा था, मगर मेरा दय एकांत चाहता था। कु छ नये
रा ते िनकालने थे। आिखर हम सभी मनु य ही तो ह और हमारी कमजो रयाँ भी
मानवोिचत ही थ , िजनसे ऊपर उठकर ही वासना पर संयम क िवजय हो सकती थी।
मने सभी के मुख पर पीड़ा और दुिवधा क गहरी रे खाएँ देखी थ , िजससे हम सभी
को िमलकर ही उबरना था। इन सभी के म य अब मुझे ही वो धुरी बनना था, िजससे
पांडुपु सदैव एक बने रह। इसके िलए सभी के ित मेरा समभाव होना अिनवाय था
और यही मेरे िलए सबसे क ठन काय था।
मेरा सौ दय अब पाँच पितय के िलये था और अब चार भाइय को अजुन के साथ
मुझे अपने दय म थािपत करना था। सचमुच ये काय मेरे िलए दु कर था। ेम तो
ि गत होता है और मेरा थम ेम तो अजुन ही था; मने उसक ही पित प म
कामना क थी... परं तु मेरी उमंग, मेरा उ लास, धमाथ पाँच भाग मे बँट गया। मुझसे
कसी ने नह पूछा क म या चाहती ?ँ मेरे अंतर म कौन है? अब ये मेरी िनिजता है
और के वल मेरी ही रहेगी। िववाह तो समाज और प रवार के ित उ रदायी होता है,
तभी तो इसे समाज म मा यता दलाने के िलये हम सभी को कतने यास करने पड़े थे।
वीर धनुधर अजुन ने मुझे वयंवर म ा कया था, परं तु मेरा थम पािण हण
धमराज युिधि र ने कया। सचमुच कमाल का धम है। कु छ लोग आशंकावश ितलो मा
क कथा कह रहे थे, िजसम दो सगे भाई एक ी के कारण लड़कर न हो गये थे।
उनक आशंकाएँ िनमूल नह थ । काम का वेग बड़ा बल होता है। बड़े-बड़े ऋिष
मुिनय के पराभव क कथाएँ तो मने भी सुनी थ ; मगर पांडुपु का संयम, याग और
ेम मुझे ब त संबल दान कर रहा था।
अब प ी के प म मुझे अपने समभाव को वहार म प रणत करना था। एक के
साथ रहकर म कह दूसर के साथ अ याय न कर बैठँू या फर अपने कम से कह
कु लीन होने का गौरव न खो दू,ँ इ ह िवचार ने मन-बुि को पंगु सा कर दया था।
एक के साथ गृह थ जीवन क शु आत करना कतना सरल होता है; परं तु मेरे िलए
पाँच पितय को शारी रक और मानिसक प से संतु करना कै से संभव होगा? अब इस
तरह के अनेक मेरे सम खड़े थे। हम िमलकर ब त कु छ तय करना था।
पु षोिचत कामे छा हो या फर ीयोिचत ई या, ये अपना भाव तो छोड़ती ही
है। मेरी दुिवधा, माता कुं ती से भी छु पी नह थी। एक दन उ ह ने मेरे पास आकर कहा
था,
‘‘पु ी! तेरे इस धमसंकट का कारण म ही ;ँ मेरे ही अनिभ ता से पूण वचन ने तुझे
कहाँ लाकर खड़ा कर दया और मेरे पु का सुख-चैन छीन िलया है; ये उनका आपसी
ेम, स ाव और याग ही है, जो उ ह धम के माग से कभी पितत नह होने देगा; कं तु
अब इस ेम को तु ह ही एक सू म िपरोना है।’’ वो भी तो एक नारी ही ह... शायद
उ ह ने मेरे मनोभाव को समझा था। मने भी उ ह आ त कया था।
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ये समय के वल हमारे दांप य क अि थरता का ही नह था, बि क राजनैितक
मह वाकां ा और अिधकार को ा करने के िलए संघष का भी था। रा य का
बँटवारा हो गया था; दुय धन को हि तनापुर और पांडव को खांडव थ का अिधकार
िमला था। जहाँ पु षाथ और ेम हो, वहाँ कु छ भी असंभव नह होता और फर
ीकृ ण जैसा सखा और पथ- दशक हो तो हर मुि कल कतनी आसान हो जाती है।
मनु य होकर पितत होना कतना आसान होता है; परं तु मनु य होकर मानवीय
आदश क थापना करके देव व को ा करना उतना ही क ठन और काँट से प रपूण
होता है। ेम म तो याग क भावना वतः ही फू ट पड़ती है। पाँच भाई बाहर से कतने
भी तट थ ह , परं तु भीतर से ब त िथत और एक दूसरे के िलए चंितत थे, ये तो म
ही समझ सकती थी। जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी िनकल ही आती है। अब हम काम-
वासना के पंक से ऊपर उठकर एक आदश और संयिमत दांप य क थापना करनी थी,
िजसका माग वयं देव षनारद ने खांडव थ वास से पूव आकर हम दखाया था और
मुझे सौभा यशािलनी होने का आशीवाद भी दया था। उ ह ने कहा था,
‘‘ ौपदी, तुम वयं अनोखी हो और तु हारा दांप य जीवन भी और से िभ होगा;
इसीिलये तु ह इसे आदश प से चलाने के िलए कु छ कठोर िनयम भी बनाने ह गे,
िजसका पालन तु ह और पांडुपु को बड़े धैय और संयम से करना होगा, िजससे
आपसी ेम भी बना रहेगा और तुम भी अपने प ी होने के दािय व का पूण िन ा से
िनवहन कर सकोगी।’’ सुनकर धमराज ने कहा,
‘‘ऋिषवर, आपने स य कहा है, अत: अब आप ही कोई िनयम िनधा रत कर, िजससे
हमारे बीच सब पूववत ही बना रहे।’’ तब नारद जी ने कहा था,
‘‘ये िनि त कर लो क जब एक भाई ौपदी के साथ एकांत म हो तो कोई दूसरा
वहाँ वेश न करे और य द करता भी है तो वयं बारह वष का वनवास दंड व प
भोगे।’’ उनके वचन को सभी ने वीकर कर िलया था। त प ात ‘क याणम तु' कहकर
वे चले गये थे। इस तरह हमारा दांप य जीवन शु आ।
ेम और कत सदैव याग और समपण क अपे ा रखता है। इसी से हमारे दांप य
क गाड़ी चल रही थी। म क के एकांत म भले ही जो उपि थत हो, उसी एक क
सहध मणी रही ,ँ मगर क के बाहर मने सभी को समान भाव से ही देखा और मह व
दया है। मेरी भावना से मेरे दािय व सदैव ऊपर रहे ह। मने अजुन के मौन को समझा
और उसक पीड़ा को महसूस कया था। हमारे दय कु छ ही समय सही, मगर सभी से
पूव ही जुड़ गए थे। उसके याग और ात ेम ने मेरी दृि म अजुन के मान को और
अिधक बढ़ा दया था। ये सब मेरे भीतर ही दबा रह गया; िनयित ने इसके बाहर आने
का माग, पूव ही बंद कर दया था।
म सभी क आ म लािन को कत माग के दािय व बताकर धम संगत ठहराती रही
और उनका साहस बनती रही। सभी के भीतर उठते ं को य द म बहने का माग न
देती तो प रणाम ितकू ल भी हो सकते थे; परं तु मने सभी को सँभालने म कोई कसर
नह छोड़ी।
मने अंतरं ग और बा जीवन को सदैव पृथक ही रखा, इसीिलए मुझे वयं दो जीवन
जीने पड़े। म ये समझती थी, य द हमारे आपसी वहार अमया दत नह ह गे, तो
ई या और ं भी नह ह गे... इस कार म सभी क होकर भी रही और पृथक-पृथक
भी। इस तरह हमने सफल दांप य क न व रखी थी।
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मेरे आने के बाद भी पांडुपु के आपसी भाईचारे म तिनक भी प रवतन नह आया
था, वरन् वो और अिधक नजदीक आ गये थे। खांडव थ अपने राजसी वैभव को ा
हो गया था। हम सुखी जीवन जी रहे थे।
मने सभी पितय से ये भी कह दया था, वो चाह तो और िववाह कर सकते ह; वे
अपने िनणय लेने के िलए पूण वतं ह। ये आव यक भी था, य क सभी क अपनी
ज रत भी होती ह। आिखर हम मनु य ही तो ह। और जहाँ संकोच एवं वभावगत ेम
हो, वहाँ िव ास और वतं ता, र त को और गाढ़ बना देती है।
िजस ी के जीवन म पाँच वीर और सवगुण स प पित ह , उसके जीवन म
उ लास क कमी तो हो ही नह सकती, इसीिलये सभी के ित मेरे कत और अिधक
सजग हो गए थे। समय ने मुझे समु के तट क रे त के सदृश बना दया था, िजस पर
उके री गई हर आकृ ित एक िनि त अंतराल के बाद आती लहर के साथ ही िमट जाती
और म पुनः अपने मूल व प म आ जाती थी। ये एक ी के िलए ब त क ठन काय
था, मगर ेम ने इसे सहज कर दया था।
राजधम हो या ि य धम... ये दोन ही याचक और शरणागत क र ा के िलये
ितब होते ह, इसीिलए इनके कत न समय देखते ह और न प रणाम। अजुन भी
िबना कु छ सोचे-समझे मेरे क म रखे गांडीव को उसी ण उठाने चला आया था। उस
समय म धमराज के साथ थी। मुझे िजसका डर था... वही आ। अजुन ने ा ण क
गाय क र ा कर ली और श ु को परािजत कर अपना धम भी िनभा िलया, मगर
उस िनयम क र ा न कर सका, जो हमने मया दत दांप य जीवन के िलए बनाये थे
अजुन, बारह वष के िलए वन जाने को तुत था। मुझे नारद जी के कहे वचन के
अथ समझ म आ रहे थे। ये उसके िलये मानिसक ं पर िवजय ा कर नई शु आत
करने का समय था। सभी ने उपजे हालात का वा ता देकर रोकना चाहा, मगर वह
का नह । जाते समय अजुन ने मुझे देखा था; उसक आँख म ब त पीड़ा थी, िजससे
उसे वयं ही मु होना था। मुझे भी अपना ी धम िनभाना था, इसीिलए म मौन,
ई र से उसके सकु शल लौटने क ाथना कर रही थी।
...ये बारह वष भी बीत गए थे। अजुन लौट आये थे, मगर अके ले नह ; उनके साथ
प ी के प म सखा ीकृ ण क बहन सुभ ा भी थी। देखकर मुझे थोड़ी ई या अव य
ई थी, मगर अजुन को खुश देख मुझे भी स ता होने लगी थी। मने सुभ ा को दय
से लगा िलया। ये उसके याग और तप का ितफल था। समय अपनी गित से आगे
बढ़ता रहा और म, प ी से पाँच पु क माँ बन गई थी। ये एक ी के प म मेरी
पूणता थी।
मेरे पितय के पु षाथ और सखा ीकृ ण के सहयोग से इ थ अपने िव तार और
वैभव म िसि ा कर चुका था। धमराज ने राजसूय य का संक प ले िलया था।
यही गु जन और वजन क इ छा थी। कौरव को भी िनमं ण भेजा गया था।
वभाव, मनु य के कम और उसक दशा तय कर देते ह; इसीिलए ई यालु और
िववेकहीन क गित, उ ह के कम के ारा बुरी और हा या पद हो ही जाती है।
दुय धन अपने िम और अनुज सिहत इ थ आया था। यहाँ क समृि और वैभव
देखकर, अ यिधक जल-भुन गया था। उसने िमत हो ऐसे कृ य कये क वह वयं
उपहास का पा बना।
इस संसार म कु छ लोग ऐसे होते ह जो वयं अपने हीनताबोध का ितशोध हर उस
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साम यवान से लेने लगते ह, िजसे वो वयं से े समझते ह। ऐसे लोग को और का
सुख तिनक भी नह सुहाता। दुय धन और उसके िम कु छ ऐसे ही थे। उनके मुखमंडल
ये प दखा रहे थे क इनके दय ब त पीड़ा म ह। य के समा होने पर सभी
अितिथ अपने रा य को लौट गये।
समय के गभ म या पल रहा है ये तो कोई नह जानता, मगर ि का वभाव
और उसके पूव कम कु छ आशंकाएँ और भावी क ओर इशारा अव य करते ह। इनक
अवहेलना कर जो काय करता है उसे हािन ही उठानी पड़ती है। धमराज ने िबना कसी
िवचार के हि तनापुर क ओर से आये ूत ड़ा के आमं ण को वीकार कर िलया था
और वहाँ सप रवार प च ँ भी गये थे।
जहाँ माण और आशंकाएँ प प से सामने ह , वहाँ भा य को दोष देना सवथा
अनुिचत ही तीत होता है। वहाँ जो आ, उसम धमराज का भी उतना ही दोष था
िजतना क दुय धन का। अनीित का भागीदार बनना भी अनीित ही है; यहाँ इ छा-
अिन छा का कोई मह व नह होता। ऐसे सभी कम के प रणाम ितकू ल ही आते ह।
वाथ और धारणा पर आि त िवचार, धम तो हो ही नह सकते; सब कु छ और
वयं को हारने के बाद वो ूत म मुझे भी हार गये थे।
अपे ाएँ और आ मबंधन, मनु य को कतना लाचार और नपुंसक बना देता है; वह
हीनताज य ितशोध ि को कतना घृणा पद... ये मने दुःशासन ारा घसीटकर
सभा म लाये जाने के बाद ही महसूस कया था। वहाँ अंधी मह वाकां ा के सम
कु वंश का सारा पौ ष नत था। गु , लोभ और उपकार के भार से दबे थे।
नीित और धम को अपनी आ मा पर ढोने वाले इन महान ि य से मने अपनी
र ा क ाथना क थी; नारी के स मान और उसके अबला होने क दुहाई भी दी थी...
मगर कसी का पौ ष नह जागा। मेरे अनु रत रहे। कु वंश के पूवज के च र
और कये कम, ूतसभा म साकार खड़े थे और कु वंश का वैभव अपने पराभव का माग
वयं श त कर रहा था।
पांडुपु के दय अपराधबोध, आ म लािन और अपमान से उबल रहे थे, परं तु सर,
शम और बेबसी से झुके थे। दास, इसके अित र कर भी या सकते थे? धम क बेिड़याँ
उनके पौ ष को जकड़े थ । उनसे अपे ा करना थ था, परं तु िजन रथी-महारिथय से
अपे ा रख सकते थे, वे उपकार और ण से जकड़े मौन बैठकर अपनी मजबू रय का
रोना रो रहे थे। कु छ बोले भी थे, मगर उनके श द मह वहीन होकर रह गए... वो वयं
िनबल थे। मेरे कान म दुय धन, कण और उसके भाइय के श द गूँज रहे थे। मेरे दय
म अपमान और ितशोध क वाला धधक रही थी।
दुःशासन मेरी लाज का छोर पकड़े मुझे न करने को त पर था। अब तो सखा
ीकृ ण ही थे जो मेरी लाज बचा सकते थे। म असहाय उ ह ही पुकार रही थी और
के वल उ ह ने ही आकर अपने सम त धम िनभाये। भयभीत और आ यच कत लोग के
बीच म ूतसभा म सस मान खड़ी थी।
तूफान गुजर चुका था, मगर भय अब भी ा था। सोई आ मा म चेतना क
हलचल महसूस हो रही थी। चीखने और आदेश देने वाले मुख भय से त ध थे। सम त
कु वंश, स य और धम क शि से प रिचत हो चुका था। भीम ने मौन क बेिड़याँ
तोड़ते ए दुय धन क उस जाँघ को तोड़ने का ण िलया, जो उसने मुझे भरी सभा म
दखाई थी और दुःशासन के उन हाथ को उखाड़कर ल पीने क ित ा क , िज ह ने
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मेरे के श पकड़े थे। तब तक म भी उसी के ल से अपने के श धोकर बाँधने का ण ले
चुक थी।
मेरे भीतर क िजस नारी का अपमान आ था, उसे सारे कु वंश से ितशोध चािहए
था। जब कु वंश के छली-दंभी राजकु मार क साम य अथहीन हो गई, तो संहासन को
धम का मरण हो आया। मुझे दास व से मु कर दया गया था। महाराज धृतरा ने
मुझसे वर माँगने को कहा, तो मने अपने पितय क मुि माँग ली थी; मगर उ ह ने
सब जीता आ लौटा दया। भय भी अपना भाव दखाता है।
म फर भी उि थी। मेरे खुले के श नाग क तरह हर पल फुँ कारते रहते थे,
इसीिलए ितशोध क अि भी मुझे िनरं तर जलाये जा रही थी। धमराज के श द मेरी
पीड़ा को कम भले करते रहे ह , मगर िमटा न सके । अपन का ेम घाव पर शीतल लेप
तो लगा देता है, परं तु घाव को भरने म स म नह होता। वह िणक ही सािबत होता
है। म तो एक आम ी के समान ही प रवार के साथ सुख से रहना चाहती थी, मगर
समय तो कु छ और ही चाहता था।
मा, भूल के िलए होती है और अपराध के िलए दंड, मगर कु वंश म ये यायसंगत
प रपाटी समा हो चुक थी, इसीिलए शि अहंकारी और िनरं कुश हो गई थी।
दुय धन क मह वाकां ा, वाथ और ू रता क चरमसीमा तक प च ँ गई थी, िजस पर
अंकुश लगाने क साम य न िपतामह भी म के बल म थी और न माता गांधारी क
ममता म। महाराज धृतरा तो सदैव उसे पोिषत और शकु िन उसे विलत करता
रहा। हम इ थ म भी सुख से न रहने दया गया।
धम म अगर लचीलापन न हो तो वो भी अनथकारी हो जाता है। शि संप और
धूत को यही जड़ता शोषण और तािड़त करने के िलये े रत करती है। हमारी
अव था उस रोगी और िनबल पशु सी थी, िजस पर दुय धन नाम के ा क पैनी
नजर थी जो िशकार के िलये अवसर क ताक म घात लगाए बैठा था।
धमराज का स य और धम एक बार फर उनक कमजोरी सािबत आ था। वे पूव
घ टत घटना को िव मृत कर फर ूत ड़ा के िनमं ण पर हि तनापुर प च ँ गये थे।
इस बार शत-िनयम कु छ िभ थे, मगर मंत वही था हारने वाले को बारह वष
वनवास और एक वष अ ातवास का भोगना था। और य द उसम पकड़े गये तो फर
वही या अपनानी थी।
धमराज, शकु िन के पाँस से फर हार गये। हम वनगमन के िलये तैयार खड़े थे। इस
बार माता कुं ती, िवदुर के यहाँ क गइ थ । उनक अव था अब वन क क ठनता सहने
लायक नह रही थी। उ ह ने जाते समय मुझसे कहा था, ‘‘ ौपदी, अब इन सभी का
यान तुझे ही रखना है।’’ बाक सब उपयु थान पर चले गये थे। भीम, धमराज के
इस कृ य से नाराज थे और अजुन दुःखी... मगर सभी को वन क पीड़ाएँ साथ ही सहनी
थी।
धमराज शांत थे, मगर मेरा दय अब भी उसी य कुं ड क अि क तरह धधक रहा
था, िजसने मुझे ज म दया था। मुझे, कौरव के पतन के प म अपना ितशोध चािहए
था। इसके िलए धमराज का तैयार होना अित आव यक था। उनक अनुमित के िबना,
न भीम का बल काम आने वाला था और न अजुन के तूणी के तीर। मने उनसे कहा तो वे
माशीलता और ई र म आ था के गुण का बखान करने लगे, जब क म ीकृ ण क
दु को दंिडत करने वाली नीित का अनुसरण कर रही थी। भीम का खौलता ल मेरे
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प म खड़ा था।
एक दन मने धमराज से पूछा था, ‘‘आपने धम पालन के नाम पर पुनः ूत खेला
और सब हारकर वन म पड़े हो, या ये सही है? एक राजा का धम तो जा का पालन
करना है और आपने सारी जा को दुय धन जैसे आततायी के सुपुद कर दया। या
उनके ित आपका धम उ रदायी नह था? आपके भाई आपके चाहने भर से ाण
योछावर करने का साहस और चाह रखते ह; उनके ित आपका कोई धम नह था?
आपका प रवार, आपके इस कृ य से िबखरा पड़ा है; उनके ित आपका कोई धम नह
था। अगर बात राजा ा क होती तो आप भी तो राजधम से बँधे थे। आपके पास तो
साम य के साथ-साथ धमसंगत तक भी थे, फर भी आपने उसे अ वीकार नह कया।
तो या आज म ये मान लूँ क आप भी आम मनु य क तरह ही मानवीय कमजो रय से
िसत थे? आप के भाइय ने भी आपके इस कृ य का िवरोध नह कया, बि क ेम के
िलए साथ खड़े रहे। इसे म उनका बड़ पन ही क ग ँ ी, मगर आपके भी तो कु छ
उ रदािय व थे, िज ह पूरा करने म आप चूके ह।’’
उ र म के वल मौन था और मुख पर प ाताप और लािन क कु छ लक र। मने ोध
के वशीभूत होकर उनका दय आहत कया था, इसिलए आ म लािन तो मुझे भी हो
रही थी।
एक दन सखा ीकृ ण आये थे, तब उ ह ने श ववध का क सा सुनाया था। उिचत
समय देख मने भी अपने मन क पीड़ा उ ह सािधकार सुनाई थी। उ ह ने मुझे आ त
कया था क अब कौरव के पतन का समय िनकट ही है। उस दन मन को थोड़ी शांित
अव य िमली थी। ाता धृ ु भी कभी-कभी आ जाया करते थे।
मेरे पाँच पितय ने िमलकर कृ ित के साि य म जो पणकु टी बनाई थी, उसे मने
यथायो य बना िलया था। आस-पास िखले पु प, मन म उ लास पैदा कर देते थे, परं तु
दूसरे ही ण इ थ क याद आते ही जीवन के अभाव िवकराल हो सम खड़े हो
जाते थे। वन जाते समय माता कुं ती ने नकु ल सहदेव क ओर इं िगत करते ए कहा था
क ये मा ी के पु ह, इनका यान रखना। म माता कुं ती क भावना को समझ रही
थी, इसीिलए अपनी स पूण साम य के साथ अपने दािय व िनभा रही थी। इन सब
हालात और वैचा रक मतभेद के बाद भी हमारा आपसी ेम और एक दूसरे के ित
समपण कायम रहा, मेरे िलए यही संतोष ब त था; इनक एकता ही मेरी शि थी,
िजसके दम पर मेरा ितशोध पूण हो सकता था। धमराज के धैय पर मेरे खुले के श क
पीड़ा कब अपना भाव दखायेगी, इसी इं तजार म कई वष बीत गये थे।
अब यु क भूिमका बँधने लगी थी। भी म, ोण, कण जैसे महारिथय से पार पाने
के िलए अजुन ने अ -श और द ा को ा करने के िलए थान कया था और
उ ह िनयत समय पर ा करके लौट भी आये थे। उनक स मुखमु ा, उनक
सफलता क कहानी प कह रही थी। मुझे देखकर कहने लगे, ‘‘पांचाली अब इन खुले
के श को वेणी प म आने से कोई नह रोक सकता।’’ सुनकर मेरा मन गव और हष से
भर गया था। फर मन ही मन सोचने लगी थी क इ ह ा करने म अजुन को न जाने
कतना तप, कतना प र म करना पड़ा होगा। समय ने परी ा के िलये के वल अजुन
को ही य चुना है? कु छ सदैव अनु रत ही रह जाते थे। अजुन क सफलता से
सभी आशाि वत थे। के वल धमराज को छोड़कर सभी को यु के होने के आसार नजर
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आने लगे थे।
मुझे कभी-कभी ाता िशखंडी क याद आ जाती थी और फर अ बा का ण। समय
कै से-कै से खेल रचता है, और मनु य भी उसी के अनु प आचरण करता है। अब कये
कम के प रणाम को भोगने का समय आ चुका था। सभी के ितशोध र के िपपासु
हो गये थे और उस यु के के म के वल और के वल ौपदी अके ली खड़ी थी।
वनवास का अंितम वष चल रहा था। ऋिषय के साि य म धमापदेश और चचाएँ
होती थ । इसी बीच एक दन सखा ीकृ ण अपनी पवती प ी स यभामा के साथ
आये थे। पांडुपु के साथ उनक मं णा ई। स यभामा मेरे ही पास आकर बैठ गई और
हास प रहास होने लगा। तभी वह मुझसे कहने लगी,
‘‘ ौपदी! हम कई रािनय , पटरािनय और पि य के ा रकाधीश अके ले पित ह
और हम सब उ ह ब त ेम करते ह, परं तु वे कसी के वश म नह आते; जब भी कह
कसी या ा या यु पर गये नह क कसी न कसी को प ी बनाकर ले ही आते ह और
तुम पाँच पितय क अके ली भाया हो, फर भी ये ेम म पड़े, तु हारा ही मुख देखते
रहते ह।’’ म स यभामा का आशय खूब समझ रही थी और उसक ठठोली भी। मने
कहा,
‘‘सखा ीकृ ण तो ह ही ऐसे मनमोहन, जो देखे वो उनके ेम म पड़ जाये और फर
वो भी तो इतने उदार ह क कसी का दय आहत नह करते।’’ कहकर म भी
मु कराई।
‘‘आप भी ठठोली करने लग ।’’ स यभामा ने कहा तो मने िव तार से उसे बताया
था।
‘‘स यभामे! मने सदैव ोध और अहंकार को छोड़कर समभाव से, सभी के ित ेम
और सेवाभाव रखा; साथ ही काम म संयम को अपनाकर, उनक अ य ि य को भी
ेमभाव से देखा है। मने अपने पाँच सवगुण से यु पितय के अलावा कसी और क
क पना भी नह क और उनके प रवार, संबंधीजन को स मान देकर यथोिचत कत
कये, तब म उनक ेम और स मान क पा बनी।’’ मेरी बात सुनकर वह स हो
गई थी। वो समय वन म भी सुखमय था।
इसे म अपना भा य क ँ या कु छ और। समय तो िवपरीत था ही, कभी-कभी मेरा ही
प-सौ दय, मेरे ही िवपरीत आ खड़ा होता। एक दन म वन म अके ली थी, तभी वहाँ
से गुजरते जय थ क नजर मुझ पर पड़ी तो वह कामातुर हो, मेरे िनकट आकर णय
िनवेदन करने लगा; तब मने उसे अपना प रचय दया, मगर वह नह माना और उस
दु ने मेरा हरण कर िलया। मने चीखकर पांडुपु को सहायता के िलये पुकारा। दैव
अनुकूल था, इसीिलए वो मेरी आत पुकार सुनकर शी ही आ गए। उ ह देखकर, मने
ोध और अपमान क अि म जलते ए कहा,
‘‘इस दु को जीिवत मत छोड़ना!’’ वह भयभीत होकर भागने लगा, मगर भीम ने
उसे पकड़ िलया था; उसक सम त सेना का संहार कया और उसे तािड़त कर, उससे
दास व वीकार करवाया, त प ात उसे धमराज के सामने ले गये। उ ह ने ‘ये बहन
दु:शला का पित है।' कहकर उसे दास व से मु कर, मा कर दया था। हम सब मौन
देखते रह गए थे।
जीवन, संघष और िह मत का दूसरा नाम है; हम कु छ इसी तरह वन म रहकर जीते
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जा रहे थे। वनवास क अविध समा होने को थी, हम शी ही अपने अ ातवास के
िलये सुरि त नगर तलाशकर, उस ओर थान करना था।
वनवास का अंितम दवस था। सूरज, पूव से िनकलकर समूचे वन देश को पीलाभ
से भर गया था। अंधकार के जाते ही सम त व य ािणय म गितमय उ साह आ गया
था। वो भय मु होकर व छंद िवचरण कर रहे थे... मगर हमारे िलये अब भी ऐसी
सुबह आने म एक वष क देर थी।
धमराज और सभी के साथ म भी कु टया म बैठी थी और हम सभी अ ातवास के
िलये मं णा कर रहे थे। जब मं णा म िवराट नगर जाकर रहना तय हो गया, तो हमने
गुण और ात काय के अनु प अपने-अपने थान भी सुिनि त कर िलये थे। सं या
को हम सभी िवराट नगर क ओर चल पड़े थे।
आपस म ेम और िव ास हो तो कतनी ही दु ा रय से पार पाया जा सकता है।
हम, एक-दूसरे क परे शािनय क चंता थी, इसीिलए हम सभी एक दूसरे क
सुिवधा का यान भी रख रहे थे; यही वजह थी क धमराज अपने भाइय से कह रहे
थे,
‘‘ ाण के सदृश ि य पांचाली, अ ातवास क क ठनाइय से कै से पार पायेगी; ये
हमारा कतना यान रखती है, मगर हम इसे वो सुख-सुिवधाएँ नह दे रहे ह जो इसक
कोमल देह क आव यकता है... इसे िनद ष होते ए भी ये सब सहना पड़ेगा।’’ कहते
ए उनके चेहरे पर प ाताप के भाव उभर रहे थे। उन सभी क ये स ावनाएँ मुझम
अपूव शि का संचार कर रही थ । तब मने उनसे कहा था,
‘‘आप मेरी चंता न कर; ये या सेनी इतनी दुबल नह है; म धैय पूवक अपने िलये
उपयु काय चुनकर, अपने दािय व िनभा लूँगी और फर आप सभी साथ तो ह ही।’’
मेरे वचन सुनकर उ ह संतोष तो आ, मगर वे दु:खी भी थे, ये मने महसूस कया था।
इस पु ष- धान समाज म जहाँ नारी के वल भोग-िवलास, संतित और सेवा के िलये
हो, वहाँ एक नारी का इतना स मान, क वह पित के कं ध पर सवार हो, वो भी ेम क
प रणित के प म... इससे सुखद मेरे िलए और या हो सकता था। धमराज ने वन म
चलते समय मुझे क म देखा तो अजुन से कहा था,
‘‘अजुन! पांचाली को कं ध पर उठा लो; इसके कोमल चरण, इन दुगम पथ के िलये
उपयु नह ह।’’ सुनकर, अजुन ने मुझे सहष उठा िलया और स होकर चलने लगे
थे। चाँदनी के काश म नहाया व य देश कतना उ मादी लग रहा था। मेरे दय म
ेम तो जैसे उमड़ा आ रहा था। अजुन के ेिहल वातालाप ने या ा को सहज बना दया
था। मने हि तनापुर क ूतसभा म मनु य का ऐसा घृणा पद और ू र चेहरा देखा था
क उस घटना क मृित होने पर देह सुलगने लगती है; इसके िवपरीत, ेम से प रपूण
ये पाँच पु ष, िज ह पाकर पांचाली संपूण हो गई थी। ...नह तो इतनी ताड़ना और
अपमािनत होकर कोई भी ी जीने के थान पर मृ यु का वरण करने म संकोच नह
करती। मेरा ेम और सेवाभाव ही था, क म इन पाँच भाइय के दय क वािमनी
थी।
वहाँ प च
ँ कर धमराज, कं क बनकर िवराट नरे श के साथ चौसर खेलने लगे थे। भीम
ने व लभ बनकर रस ई के काय का स पूण भार उठा िलया था। नकु ल, अ पाल और
सहदेव गोपालक बन गये थे। अजुन के िलए तो शाप भी वरदान हो गया था; उसने
बृह ला का प धारणकर, उ रा को नृ य-गायन िसखाना आरं भ कर दया था। म भी
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सैरं ी बनकर महारानी का ृंगार करने लगी थी।
यहाँ भी मुझे अनेक परी ाएँ देनी पड़ी थ । मेरा सौ दय, महारानी सुदे णा के मन म
असुर ा क भावना भर रहा था। उ ह, मुझ पर महाराज के मोिहत होने क आशंका
थी। मुझे देखकर उ ह ने कहा था,
‘‘सैर ी! तुम उ म के श और तन वाली हो; तु हारे तन और िनतंब कठोर ह;
तु हारा गला शंख के समान, भ ह व , कमर पतली और लाल ह ठ ह... तुम सुल णा
हो और तु हारी नािड़याँ भी नह दखत ह। ऐसे चं मा के समान मुख वाल दािसयाँ
नह होत , तुम कौन हो? अपना प रचय दो।’’
ि य म ई या, नैस गक होती है; इसीिलए एक ी को अपनी शंसा कसी दूसरी
ी से सुनकर जो संतोष िमलता है, वो पु ष के कहे पर भी नह िमलता। म गव से भर
गई थी, परं तु दूसरे ही ण मन म भेद खुलने का भय आ गया था। तभी मने पाँच गंधव
पितय क प ी और क ठनाइय का एक नाटक रच दया। महारानी ने संतु होकर
मुझे वीकार कर िलया था। जीवन के रं गमंच पर समय, िन य नये अिभनय िसरज रहा
था और हम भी उसी के इशारे पर नृ य कर रहे थे।
िजन हाथ म क ठन अ -श और वैभव के िच ह आ करते थे, उनम कु छ और ही
था; सब समय का खेल और कये कम के प रणाम थे। यहाँ कु छ समय तो शांित से
गुजरा, मगर मेरा प एक बार फर मेरे िलए अिभशाप बन गया था। िवराट का
सेनापित और महारानी का ाता, क चक, मेरे प पर मोिहत हो गया था; वह मुझे
ा करने के िलए िन य नये यास कर रहा था, मगर मेरे िलये उसके सम त कृ य
मह वहीन थे। मेरी उपे ा से तािड़त होकर, उसने महाराज के सम मुझे तािड़त भी
कया। वहाँ धमराज भी थे, मगर वो प रि थितवश मौन रहे; महारानी भी दु
कामातुर क चक का प ले रही थ । मुझे अपनी र ा हेतु भीम को बताना पड़ा और
भीम ने उस दु क चक को एक योजना के अनुसार मार डाला। दुभा य ने यहाँ भी मेरा
पीछा नह छोड़ा। जटासुर के बाद अब क चक भी मृ यु को ा हो चुका था। अभी कु छ
और थे, िज ह भी अब तक मृ यु को ा हो जाना था, परं तु वो जीिवत थे और मेरा
ितशोध भी।
कभी-कभी िनराशा और हताशा क अव था म, म ई र से पूछती थी, क ये सब मेरे
ही भा य म य िलखा है? तब हमेशा िन र ही रहती और जब पितय का मुख
देखती तो फर जीवन म नई ऊजा का संचार हो जाता।
क चक के वध ने सब ओर हाहाकार मचा दया था। उपक चक ने मुझ पर
दोषारोपण कया और अपने साथ ले गये। तब पांडुपु ने आकर मेरी र ा क और
उ ह मृ युलोक प च ँ ाया और फर सभी पुनः आकर अपना-अपना काम करने लगे।
अ ातवास का एक वष भी पूण होने को था, मगर क चक वध क सूचना ने
िवराटनगर म हमारे होने क शंका, दुय धन के मन म पैदा कर दी थी और वह हम
खोजने का कोई अवसर खोना नह चाहता था, इसीिलये उसने िवराट नगर पर चढ़ाई
कर दी थी। उसी समय सुशमा ने भी आ मण कर दया था, िजनसे यु लड़ने के िलये
िवराट नरे श के साथ, अजुन को छोड़ चार पांडुपु गये थे।
उस समय िवराट नगर के युवराज उ र के अित र , महल म और कोई नह था।
मने उसे यु के िलये े रत कया और सारथी के प म बृह ला को साथ ले जाने को
कहा, िजसे महारानी ने नह माना था; परं तु जब मने उ ह समझाया, तो िवक प के
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अभाव म उ ह मानना पड़ा।
दोन यु म िवराट नगर क िवजय ई। मेरे हाथ म कौरव के अंगव थे, जो मुझे
पूण संतोष तो नह , परं तु भिव य के िलए उ मीद तो बँधा ही रहे थे। मुझे ात था क
जीत कसके यास से ई है, मगर धमराज के माथे से बहती र क बूँद ने मन
िवचिलत कर दया था। मने अजुन के देखने से पहले ही उसे प छ दया था, वरना अनथ
हो जाता। जब िवराट नरे श को वा तिवकता का पता चला, तो उ ह ने बार-बार मा-
याचना करते ए यथोिचत आदर और स मान दया। जब उ ह ने अपनी पु ी उ रा के
साथ अजुन के िववाह का ताव रखा, तो अजुन ने ये कहकर ठु करा दया क उ रा
मेरी िश या है... परं तु अिभम यु के िलये उसे वधु प म वीकार भी कर िलया था।
समय ने यु क किड़याँ जोड़नी शु कर दी थ । उ रा और अिभम यु का िववाह
ऐसी ही एक कड़ी थी, िजसम सभी एकि त ए और भावी समय म यु हेतु मं णा भी
ई। इन सब गितिविधय के बीच, िववाह संप आ। धमराज अब भी यु के प म
नह थे और वे जीवन यापन के िलए पाँच गाँव भी दये जाने पर ही संतु हो जाते,
मगर उ ह वो भी नह िमले।
कौरव क अंधी मह वाकां ा, सब कु छ वयं के िलए ही चाहती थी और वही आ;
दुय धन ने सुई क नोक बराबर भी भूिम देने से मना कर, संिध के सम त माग बंद कर
दये थे। अब अिधकार के िलए यु आव यक हो गया था। मुझे संतोष तो था, मगर
ोध भी आ रहा था। म नह चाहती थी क धमराज यु टालने का यास कर। मेरे
खुले के श ितशोध चाहते थे, अ बा क अतृ आ मा, िशखंडी के प म भी म क मृ यु
के िलये िवकल थी; िपता ी का ितशोध और ाता धृ ु के ज म क साथकता,
के वल और के वल यु से ही संभव थी। ऐसे न जाने कतने ही ितशोध थे, जो वष से
इसी ण क ती ा कर रहे थे।
मा, धैय, याग और धम का आचरण करने वाले धमराज के िलए यु का िनणय
कर पाना क ठन तीत हो रहा था, फर भी उ ह यु का िनणय लेना ही पड़ा। मने
प कह दया था... अपमान मेरा आ है, के श मेरे ख चे गये थे और मुझे एक व ा
होने पर भी सभा म ख चकर लाया गया था; कण ने मुझे वे या कहा और दुय धन ने
मुझे अपनी जाँघ खोलकर दखाई थी। एक ी का अपमान होता रहा और कसी ने
कु छ नह कहा, पूरी सभा मौन थी... अगर इ ह इनके कु कृ य के िलये दंिडत न कया
गया, तो इितहास पांडव को कभी मा नह करे गा; मेरे सम त संबंिधय को ये संसार
कायर कहेगा।
ूत सभा म दये गये सम त घाव, मेरे दय पर आज भी अं कत ह। मुझे मेरे खुले
के श पीड़ा प च ँ ाते ह; जब तक म कौरव और उनके सहयोिगय का पतन न देख लूँ, तब
तक मेरे दय को शांित नह िमलेगी। ितशोध, प रणाम नह देखता; िवजयी होता है
या वीरगित को ा होता है। मेरे भीतर क औरत के वल ितशोध चाहती थी और
...के वल ितशोध।
यु से पहले, संिध के अंितम यास हेतु, धमराज क पहल पर, सखा ीकृ ण को
शांित दूत के प म भेजने को सभी सहमत हो गये थे, परं तु मुझे कु छ और ही चािहये
था। म जानती थी क दुय धन जैसा दुबुि , धमसंगत आचरण कर ही नह सकता, परं तु
मने इसका िवरोध नह कया। जब ीकृ ण जाने लगे तो मने उनसे कहा था,
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‘‘हे सखा! आपके िलये तो म भी सुभ ा क तरह आपक बिहन ही ई और आप मुझे
सखी भी कहते ह; इसीिलये हि तनापुर जाने से पहले मेरे साथ ये अ याचार, अ याय
और अपमान को याद कर लेना; आपक इस सखी ने ब त पीड़ा भोगी है... आपने ही
तो आकर इस अबला क र ा क थी और म कु छ नह क ग ँ ी, आप तो सव ह।’’
कहकर म मौन हो गई। तब सखा ीकृ ण ने मुझे आ त कया था क 'जो उिचत
होगा वही कया जायेगा और म वयं सदैव स य और धम के प म ही र ग ँ ा; वहाँ
जाकर, पांडुपु के िलए, बुआ कुं ती का आशीवाद भी ा पर लूँगा।’’ उ ह ने
मु कराकर कहा था, इसीिलए म उनके श द का आशय समझ गई थी और उनके
हि तनापुर से लौटने क ती ा कर रही थी।
दुय धन ने मामा श य और यादव सेना को अपने प म कर िलया था, मगर सखा
ीकृ ण, पांडुपु के ही प म रहे; उनके साथ से बड़ा संबल और या हो सकता था...
मुझे संतोष था। हि तनापुर म जो आ, उसने यु होने पर जैसे मुहर ही लगा दी थी।
वो दंभी, अहंकारी, नीच दुय धन, ीकृ ण क साम य और परा म को कहाँ समझ
सकता था; उसने उनका अपमान कर, बंदी बनाने का आदेश तक दे दया था। तब
उ ह ने जो चम कार दखाये, सभी दंग रह गये। सभी ने दुय धन को भला-बुरा कहा
और मा-याचना क ।
सखा, माता कुं ती का आशीवाद लेकर लौट आये थे। उ ह ने माता कुं ती क मंशा को
जस का तस कह सुनाया था। वो भी याय और ितकार चाहती थ । ौपदी के
ितशोध क भावना को माता कुं ती के श द से और अिधक बल िमला। वयं ीकृ ण
ने यु होने क घोषणा कर दी थी। शांित के सारे यास िवफल हो गए थे। उसके बाद
रणनीितयाँ बनने लगी थ और यो ा अपने आयुध तैयार करने म जुट गए थे... सूयादय
के साथ रणभूिम क ओर थान जो करना था।
अंितम िवक प के तौर पर यु होना अव यंभावी हो गया था। आज प रणाम भी
सम है। क मत तो सभी ने चुकाई है।
कभी-कभी सोचती थी, क शांित से रहने म ही सभी क भलाई है; मा, धैय और
संतोष, परम सुख के साधन ह। धमराज भी तो यही कहते थे और म अपने दय को
बदलने का यास भी करती थी; परं तु तभी कोई ऐसी घटना घट जाती क म फर वह
आ खड़ी होती। पु ष अपनी नजर से िसफ ी क सुंदर देह ही देखता है और उसे ही
पाने का यास करता है... ेम से नह , बलात् या फर छल से। म चाहकर भी ितशोध
क अि को न बुझा सक और समय हर बार ितकू ल हो गया। हर बार कु छ ण और
बढ़ गए, जो सदैव चेतना को झुलसाते ही रहे। मन, शांित के िलये ितकार क कामना
करने लगा था। अब वो समय आ गया था, जब दोन सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थ ।
ाता धृ ु , पांडव क ओर से सेनापित िनयु थे और िपतामह भी म, कौरव क
ओर से सेनापित थे। संतोष क बात ये थी क यु म सखा ीकृ ण, अजुन के सारथी
थे।
जो िस ांत और धम, बुरे से बुरे हालात म टके रह, वही स े होते ह। जो धमराज के
िलए धमयु काय था, वही भीम के िलये थ क कवायद। यु से पहले धमराज का
यु भूिम म िपतामह, गु आ द से अनुमित और आशीवाद ाि के िलये अके ले जाना
कसी को अ छा नह लगा था, परं तु यु भूिम म औपचा रकताएँ और कत का
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िनवहन उ ह और से े बनाता है। दुय धन, अगर संिध के िलए एक भी माग छोड़
देता तो धमराज यु नह होने देते; जब उ ह लगा क अब यु ही धम है, तभी वो
राजी ए थे। लालसा , वाथ और वासना से परे , धमराज के हाथ, आज अ -
श से सजे थे।
िजसका सारथी कमयोगी ीकृ ण ह , उस अजुन ने भी मोह के वशीभूत होकर
गांडीव रख दया था, परं तु सखा ने सारे मोह-जाल तोड़कर, उ ह िन काम कम के िलये
े रत कया था। सचमुच, अपने संबंिधय से अिधकार के िलये लड़ने से, िवरि का
माग कह अिधक ेयकारक तीत होता है; परं तु स य, धम और याय क थापना
करने के िलये तो यु ही आव यक था। िवरि से आ मो सग तो हो सकता था, परं तु
शांित, संतुलन और प रवतन के िलए यु के अित र कोई और माग था ही नह ।
इस यु म कौरव क ओर से लड़ने वाल म वो यो ा अिधक थे, िज ह ित ा ने
जकड़ा था, या फर राजप रवार के उपकार ने; मगर उनके दय सदैव स य के प म
ही रहे। िपतामह भी म, मन म दुिवधा, ोभ और बेबसी लेकर सेनापित बने थे। उ ह ने
दस दन यु भी कया, मगर वयं ही अपनी मृ यु का माग भी श त कया था। इस
तरह अ बा का ितशोध पूण आ और िपतामह क , अपराधबोध से मुि । िपतामह
जहाँ खड़े थे, उनके िलये मृ यु से बेहतर कोई और मुि का माग था भी नह ।
कभी-कभी ित ाएँ भी मनु य को इतना िवक पहीन बना देती ह, क वह आ मा
क पुकार भी नह सुन पाता; वह वयं ही अपने कम के ारा, अपने िलए इतनी गहरी
लीक बना लेता है, क उसे जीवन-पथ पर आगे बढ़ते ए, स य दखाई ही नह देता।
िपतामह क देह म धँसे बाण, उनके िलये उतने पीड़ादायी नह थे, िजतना क उनके
िलए अ याय के साथ खड़ा होना था; तभी तो यु भूिम म शरश या पर पड़ी उनक देह,
वे छा से ाण को धारण कये रही और कु वंश के सुख और उ वल भिव य क
कामना करती रही। िजस याग से वे कु वंश को यश-क त के उ तम िशखर पर देखना
चाहते थे, उसका पराभव भी देखना पड़ा। समय क िबड बना देिखये, आज उसी ने
हि तनापुर और उ ह, कहाँ लाकर खड़ा कर दया था।
यु क र रं िजत भूिम पर, िवजय क ओर पांडव का ये पहला कदम था। कौरव
सेना के सेनापित अब गु ोण थे, िज ह वाथ और ितशोध ने अपने ही ि य िश य
के सम श ुवत खड़ा कर दया था। ि अपने जीवनकाल म वयं के अभाव को
भरने और मह वाकां ा क पू त हेतु जो माग चुनता है, वही उसे उसक अंितम गित
तक ले जाता है; स ित या दुगित ये उसके चुनाव और कम तय करते ह। िनणय भले ही
ि ले, परं तु प रणाम, समय के पास सुरि त रहता है। अ थामा का दुय धन के
प म खड़ा होना, गु ोणाचाय क परव रश और उनक मह वाकां ी वृि क देन
था, जो उनके जीवन क सबसे बड़ी िवफलता थी; इसका मू य, िपता और पु दोन को
चुकाना पड़ा।
सेनापित ोणाचाय, े यो ा होने के साथ-साथ एक उ म ूह रचनाकार भी थे;
उ ह ने च ूह क रचनाकर, पांडव के सम एक क ठन चुनौती तुत क थी,
िजसम अके ले, िनह थे अिभम यु को ोण और उसके सहयोिगय ने िमलकर मारा था
और वयं यु धम से पथ- हो गए थे। ये एक गु के , गु व से चरम पतन का ण
था।
उस दन पांडुकुल ने, अजुन सुत अिभम यु के प म एक ऐसा शूरवीर खोया था,
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िजसने युवाव था के थम चरण म ही धम और स मान के िलए, आ मबिलदान करने
का साहस दखाया था। उसके प ात, अजुन के ितशोध ने जय थ के ाण ले िलये थे।
गु ोण ने यु -धम भंग कर, जो माग श त कया था, उसी के कारण उ ह भी अपने
ाण से हाथ धोना पड़ा था। ाता और िपता ी का ितशोध पूण आ था, मगर वो
कृ य एक नये ितशोध को ज म दे गया था... अ थामा अपने िपता क मृ यु से अ यंत
दु:खी था।
आपसी बैर, वाथ और घृणा ने कु कु ल को एक ऐसी ि थित पर छोड़ा था, जहाँ
दोन ओर से मरने वाले हर एक यो ा के िलये, आँसू बहाने वाला के वल हि तनापुर
और कु कु ल ही था; अभी उसे न जाने कतना और रोना था।
पांडव ने िवजय क ओर दूसरा कदम रख दया था। ोणाचाय क मृ यु के बाद
सेनापित, कण बने। दुय धन और दुःशासन अब भी जीिवत थे। म अपने ितशोध के पूण
होने क ती ा कर रही थी। यु म भीम ारा उनके अनेक भाई मारे जा चुके थे। भीम
ने दुःशासन से यु करते ए उसे भूिम पर पटककर उसक छाती चीर डाली थी और
एक नर िपशाच क तरह, उसका उâ ण र पान कर अपना ण पूरा कया। आज जब
सोचती ँ तो दय काँप जाता है, वो दृ य कतना भयानक रहा होगा। वा तव म
ितशोध और घृणा, मनु य को या से या बना देती है; मगर इसम भीम का दोष या
था; उसे ये सब करने के िलये बा य तो दुय धन के कृ य ने ही कया था।
हम तो सुख और शांित से ही जीवन जीना चाहते थे, परं तु न जी सके । हमारे कम,
दूसरे के कम पर कतने िनभर होते ह, ये हम तभी जान पाये, जब उसके प रणाम देखे
और भोगे। कभी-कभी वयं के कत , दूसर के वहार के साथ कतने शी बदल
जाते ह, जैसे हमारा कोई िनजी िवचार या अि त व ही न हो; धमराज इसके अपवाद
रहे। भीम, जब दुःशासन क बाँह उखाड़कर लाया, तब मने भी उसके र से अपने खुले
के श धोये थे और मुझे भी भीम क तरह ही घृणा और लािन क जगह आ मसंतोष आ
था। तब मन का कलुष पूरी तरह धुला नह था।
कण, शाप और अपने कृ य के कारण पतन को ा आ। एक भीषण यु के बाद,
अजुन के तीर ने उसके ाण हर िलये थे। कौरव सेना को अब म राज श य के संर ण
म यु करना था। यु के अठारहव दन कौरव के िवनाश क अंितम कड़ी, दुय धन के
प म बची थी, मगर वही दुय धन, सेनापित श य के मरते ही भागकर कह छु प गया
था। सभी आ यच कत थे। दुय धन जैसा यो ा, कु लघाती होने का कलंक लेकर कै से
भाग सकता है, जब क उसके िलए तो िवजय के सारे माग बंद हो चुके थे। अब लड़कर
वीर गित ही उसके िलए अंितम िवक प था; मगर वह पलायन कर चुका था, यही स य
है। दोन प उसे ही तलाश रहे थे।
पांडव ने ीकृ ण के साथ िमलकर उसे तलाश िलया था। वह भागकर एक तालाब
मे छु प गया था। सखा ीकृ ण ये जानते थे क अहंकारी ि क सबसे बड़ी
कमजोरी, अहंकार ही होता है; उनके कहने पर भीम ने वह चोट क । वह ितलिमला
कर बाहर आ गया था।
उसक व क देह, भीम पर भारी पड़ रही थी, तभी सखा ने भीम को उनका ण
याद कराया। भीम ने उसक जाँघ तोड़ दी थी और उसे मरने के िलए छोड़ दया। पांडव
यु म िवजयी ए थे। बलदाऊ जी ने भीम के इस िनयम िव काय का िवरोध कया
था, मगर सखा ने उ ह अपने तक से शांत कर िलया। सचमुच धम क थापना, अधम
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का नाश कये िबना हो ही नह सकती थी। उसके िलये िनयम जैसे छोटे साधन क
र ा के िलये, अ याय के प म खड़े होना भी अधम ही होगा। िजसका दंड िपतामह,
ोण आ द भुगत चुके थे। मेरा ितशोध पूण हो गया था। मन िवजय के उ लास से भर
गया था, मगर मन से अशांित अभी गई नह थी। शायद ितशोध भी उतना सुख नह
देता, िजतना उसे पूण करने के िलए यास कया जाता है। एक िणक सुख क तरह
वह अव था शी ही बीत गई थी। जो खोया था उसका मू य ितशोध से कह अिधक
था, इसीिलए ज द ही दय पीड़ा से भर गया था।
उस रात एक और ितशोध के साथ एक ण भी अपने चरम तक प च ँ ा था।
अ थामा ने राि म सोते ाता धृ ु क ह या कर दी थी और मेरे पाँच पु को
भी पांडुपु समझकर मार डाला था। उ रा के गभ पर हमा से आघात कया था।
यु और ितशोध क भयानकता और मनु य के पतन का इससे घृिणत चेहरा तो हो ही
नह सकता था। मने इस यु के समा होने के बाद भी ब त कु छ खो दया था। भाई,
पु के शव देखकर म रोती िवलाप करती रही। धैय, मन से लु हो गया था। मन एक
बार फर ितशोध क नई कड़ी के प म मुझसे जुड़ गया था। म चीखकर अ थामा
क मृ यु क कामना कर रही थी और पांडव को उसक ह या के िलये े रत। मेरा ही
जीवन मुझे भार तीत हो रहा था।
सखा पांड़व के साथ अ थामा को पकड़ लाये थे और उसे मिणिवहीन कर दया
था, त प ात उसे सखा ीकृ ण ने शािपत कर अनंतकाल तक प ाताप और रसते
घाव क पीड़ा के साथ छोड़ दया था। सखा ने उ रा के गभ को पुनः जीवनदान देकर
पांडुवंश को एक नए काश और संभावना से भर दया था।
मेरे ही ितशोध ने मुझे एक ऐसी पीड़ा दी थी, िजससे पार पाना अब मेरे वश म
नह था। फर भी जीना तो था और जो शेष था उसी से उ वल भिव य क न व रखनी
थी। कई मानिसक ं और वाद-िववाद से जूझकर धमराज ने संहासन वीकार
कया था। अब शायद समय ही इस पीड़ा से मुि के िलए कु छ करे । यही सोचकर
जीवन म हम आगे बढ़ने क कोिशश कर रहे थे, िजसम सखा ीकृ ण सदैव हमारे साथ
थे।
ितशोध, ोध बनकर कसके दय से पनपकर मूत प लेने को मचल रहा है, ये
जानना ब त मुि कल काय है; परं तु सखा के िलये नह था। मनोभाव को पढ़कर
समझना और उसी के अनु प रणनीित बनाने का काय उनसे बेहतर और कौन कर
सकता था।
यु म िवजय ा कर हम सभी हि तनापुर के राज भवन म प च ँ गये थे और सभी
से िमल रहे थे। वैध क पीड़ा ने िजन ने को अ ु के सागर म डु बो दया था,
उसक नमी महल क दीवार पर भी झलक रही थी। माता कुं ती, गांधारी सभी दुःखी
और शोक म डू ब थ । जब पांडुपु , महाराज धृतरा के पास प च ँ े तो उ ह ने भीम को
गले लगाने क इ छा जािहर क थी। तभी सखा के कहने पर भीम ने लोहे का पुतला
आगे कर दया। धृतरा के बा पाश ने उसे चूण कर दया था और फर, हा भीम! , हा
भीम! कहकर प ाताप करने लगे थे।
हम सभी अवाक् देखते रह गए थे, परं तु सखा मु करा रहे थे। कतनी दूरद शता थी
उनम और दूसरी ओर कतना भयानक ितशोध। एक मह वाकां ी िपता का िणक
आवेश या घोर घृणा; जो भी था, एक ही ण म गुजर गया और फर प ाताप। या
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सचमुच स य का ान, मन के सारे कलुष धो देता है या फर के वल मा, श ु के मन से
भी घृणा और ष े का सारा िवष िमटाने म स म होती है। परं तु जहाँ अहंकार और ोध
है, वहाँ सुधार के सम त माग वयं ही बंद हो जाते ह, जैसे दुय धन ने अपने िलए कये
थे।
इतने पर भी धमराज ने उ ह वही मान-स मान दया, िजसके वो हकदार थे। वो
धमराज ही थे िज ह दूसरे के कम भािवत न कर सके ; उ ह ने अपने माग वयं िनि त
कये। अ थामा क मिण, महाराज धमराज के मुकुट क शोभा बढ़ा रही थी और
पांडव-वंश अपने भिव य क ओर देख रहा था... परीि त के प म परीि त।
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7
ौपदी के मुख पर उदासी के सघन मेघ देखकर मेरा दय भी िवचिलत हो जाता था;
िजसके िलए मुझे अमानवीय कृ य करने म भी संकोच न आ था। आज वही ौपदी,
समय क चोट से ममा तक पीड़ा भोग रही है। िवजय का इतना अिधक मू य चुकाना
पड़ा, क उसको पाने क खुशी ही ख म हो गई। हम सभी िसफ कत को जी रहे थे।
सहदेव और नकु ल, हमेशा क तरह ये के आदेश का अनुगमन करते ए अपने काय
म संल थे और अजुन अब भी वयं को सँभालने का यास कर रहा था... और म; मेरे
सुख-दुःख तो आज भी सभी से जुड़े ह।
भीम आज कु छ अिधक ही बेचैन से नजर आ रहे थे। यु के तमाम संघष और सतत्
प र म के बाद उनके िलये समय ब त धीरे -धीरे तीत हो रहा था। उनके िलये बल के
थान पर बुि का योग, उ ह कु छ अिधक ही भावुक कर रहा था। यु क र रं िजत
भूिम पर संवेदना के अंकुरण कहाँ होते ह। सौ कौरव को मारने वाले हाथ, दुःशासन
क छाती चीरने और दुय धन क जाँघ तोड़ने वाले हाथ, उन अपन के बारे म सोचकर
कं िपत हो रहे थे, जो अब नह ह। घटो कच ने अजुन क ाण-र ा हेतु अपना
आ मो सग कर, भीम का सीना गव से चौड़ा कर दया था। ऐसा ही ब त कु छ था, जो
भीम के दय को मथ रहा था।
ितशोध, के वल िणक सुख के अित र कु छ भी नह है; ये वो सुख है, िजसक
जड़ म पीड़ा क अनुभूितयाँ समायी होती ह। ाणहंता से ाण-र क का थान
सचमुच कतना े होता है... सही मायन म ये भी सजक ही ह। अगर भीम के ाण
क र ा, दुय धन के दये ए िवष से न ई होती, तो सब वह ख म हो जाता; मगर म
जीिवत रहा, शायद इसी यु के िलये... और इन आतताइय के िवनाश के िलए भीम
का होना ज री था। जहाँ बल, बुि , िववेक और स ाव के साथ धम हो, तो उसे कौन
हरा सकता है? हम पाँच भाई भी तो कु छ ऐसे ही थे।
िजसका अहंकार खंिडत नह होता, वो वयं ही खंड-खंड हो जाता है। शि , िसफ
शासन करने के िलए नह होती; उसे समाज म संतुलन थािपत करना होता है, ये मने
बल और बुि के िनधान, पवनपु हनुमान से सीखा था। उ ह ने एक ण म मेरे
अहंकार को िमटा दया था, मगर अब मेरे सम कु छ ह, िजनके उ र ही मेरे मन
को शांित दान कर सकते ह और ये मुझे वयं ही करना है।
पाँच वीर पितय के होते ए भी पांचाली ने कतना कु छ सहा; जय थ, क चक जैसे
कामुक दुराचा रय से मने उसक र ा क । िजन ि य के पितय म इतनी साम य
नह होती है, उ ह न जाने कतना कु छ सहना पड़ता होगा। मने जो उनके ाण हर
िलये, तो ठीक ही कया और पांचाली के साथ और भी ि य के शील क र ा क ; यही
बल का सही धम है।
मने एक बार ाता युिधि र से पूछा था,
‘‘चार ओर फै ली इस उदासीनता के बीच आप वयं को कै से शांत रख लेते हो?’’ तो
उ ह ने बड़ी ही सहजता से कहा था।
‘‘िजस कम को धारण करो, उसका पूरी िन ा और ईमानदारी से िनवहन करो और
जब इसम स य, धम और िववेक का समावेश हो जायेगा, तब सारी दुिवधाएँ और सारे
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लेश वयं ही न हो जायगे।’’
‘‘और प रणाम...?’’ मने पूछा था, तो कु छ समय मौन रहे, फर कहने लगे,
‘‘उसके बाद प रणाम उतने मह वपूण रहते ही कहाँ ह, िजतने क काय और कत
हो जाते ह; ल य सामने हो तो भटकन, अपने आप ही न हो जाती है।’’
उस समय तो मुझे कु छ समझ नह आया था, परं तु आज वो सब बात मरण करके
मन, शांित का अनुभव कर रहा था; य क जो आ वो ज री था और धम भी... तभी
तो एक मागदशक के प म ीकृ ण हमारे साथ थे।
ाता युिधि र के पास धैय और धम था और मेरे पास बल; िजसे उ ह ने ितशोध
क अि म जलने के बाद भी, अधम क राह पर नह जाने दया। उनके ेम और याग
ने, मेरे ोध को सदैव िनयं ण म रखा और मेरे कटु वचन को मेरी भूल समझकर मा
करते रहे। मने ूत के बाद उनके मुख पर और दय म असीम-पीड़ा के िच ह देखे और
महसूस कये थे... शायद यही उनके अपराधबोध के फल व प उपजी आ म लािन थी।
ला ागृह के अि कांड के बाद, जब हम छ -वेश धारण-कर वन म रहे थे, तब उनके
मुख पर तिनक भी ोभ नह था। म भी उ ह कटु वचन कहकर प ाताप कर लेता था
और वो सहज ही मुझे मा भी कर देते थे।
आज अपने पितय और पु को लेकर रोती िबलखती ि य को देखकर मुझे भी
घटो कच क माता का मरण हो आया था। उसने भी तो अपना वीर और मायावी पु
खोया था। पता नह उससे कसी ने सहानुभूित से भरे कु छ श द कहे भी ह गे या नह ।
सचमुच ेम कतना बदल देता है, मुझे अ छी तरह याद है। जब िहिड बा ने मुझसे
िववाह और णय-िनवेदन कया था, तो मने उसके रहन-सहन और रा सी वहार के
कारण ठु करा दया था, परं तु उसने वयं को बदलने म तिनक भी देर नह क और मेरी
हर शत को वीकार कया; तब मने उसे णय-सुख और पु दोन ही दये थे।
इस यु के िलये मने उससे, उसका पु ले िलया था। म तो उसके ज म म सहायक ही
था, परं तु उसक माता-िपता तो वह वयं ही थी। इस धम-यु म वो भी अपनी आ ित
देकर वग चला गया। सचमुच, ेम िबना कसी अपे ा के कतना याग करता है।
कभी-कभी लगता था क म दु के संहार के िलये ही ज मा ।ँ पहले िहिड ब, फर
बकासुर और न जाने कतने नराधम मेरे हाथ मारे गये थे। जब भी सुख के ण आये,
उनसे पहले हम यु क भीषणता के दशन ए। अजुन ने ौपदी को वयंवर म जीता,
तब भी हम यु लड़ना पड़ा था। दूसरे के सुख से जो सदैव ही दुःिखत होता रहा हो,
उसके पास जो है, उसे वह स िच होकर कभी भोग ही नह सकता।
कभी-कभी सम त जीवन ही यु -सा तीत होता था। ौपदी को धम ने पाँच क
प ी बना दया, परं तु हम उसके िनवहन म वयं से ही यु लड़ना पड़ा; तब कह सुख
से सा ा कार आ। ौपदी भी धम के िलए, वयं एक से पाँच हो गई और उसके िलए
हम, पाँच से एक। उसका कत ोिचत ेम और सेवाभाव, उसके अपार प-स दय का
सदैव अित मण करता रहा; इसीिलये हम मानवीय दुबलता से ऊपर उठ सके ।
हमारा ेम अनेक आशंका के बाद भी अ ुण बना रहा। ौपदी हम सभी के िलए
प ी, ेयसी से भी कह अिधक थी। व य देश क क ठनाई हो या राज साद का भोग-
वैभव, ौपदी सदैव एक-सी ही रही। उसका संपूण ि व हम पांडव के िलये कसी
धुरी से कम नह था।
समय ने मुझे ितशोध और ोधाि म इतना जलाया क भीम वयं वही हो गया।
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आज शांित भी र ता का बोध कराती है। वो तो ा रकाधीश का साि य ही है, जो
हर अंधकार को काश क एक करण से िमटाने क साम य रखता है। उनका
मागदशन, सदैव िनराशा और हताशा के गत से िनकालकर, पुनः संघष और सृजन के
िलये ेरणा- ोत बन जाता है; उनके िबना इस धमयु का िवजेता बनना मुि कल ही
था।
भीम, इसी आ ममंथन म लीन थे, तभी वहाँ से युिधि र गुजरे और उ ह ने भीम को
वयं म खोये देखा तो टोकते ए कहा,
‘‘ या बात है भीम! कोई सम या है?’’
‘‘नह ाता, बस भीतर क र ता को मृितय के मंथन से भरने का यास कर
रहा था।’’ वतमान म लौटते ए भीम ने कहा। सुनकर युिधि र मु कराये।
‘‘ ाता, एक मन म बार-बार आ रहा है, आ ा हो तो पूछ!’’
‘‘ य नह ; मेरा जीवन तो के उ र खोजते ही बीता है।’’
‘‘धम या इतना कमजोर होता है क वयं अपनी र ा भी नह कर पाता है?
अधम , सुख भोगता है और जो धम क राह पर चलता है, वह जीवन म ब त दुःख
पाता है।
‘‘सुनो भीम! धम जब तक ि गत है, वह वयं रि त ही होता है, य क वो
धारक क ि गत मता और मानिसक-दृढ़ता पर आि त होता है; परं तु जब उसी
धम का अनुसरण करने वाले अनेक हो जाय, तब उसका र ण, िस ांत , िनयम के
ारा ज री है... ये उस धम के आदश क थापना है। धम, मनु य के कम से जुड़ा होता
है, इसीिलये कये गए कम मह वपूण हो जाते ह। जैसे तुमने अपना धम, यु और
ितशोध चुना था, उसी तरह तु हारे साथ खड़े रहना, हम सभी का धम था। ूत ड़ा
और उससे उ प दुःख म भी तुम सभी मेरे साथ खड़े रहे, ये तु हारा ातृ-धम था और
तु हारे हर कृ य म, मेरा तु हारे साथ खड़ा रहना, मेरा ात धम था। भाई, भाई के
साथ सुख-दुःख म सहयोगी और साथी रहे, यही ातृ धम का मु य िनयम है। ऐसे ही
सभी धम ह; जो िजसे आ मसात करता है, वही उसके र ण के िलये उ रदायी होता है;
यही अनुसरण, समाज म स य, ि थरता और सकारा मकता बनाये रखते ह।
मानवता के सवमा य िस ांत और मू य के िव आचरण करना ही अधम है...
और रही बात सुख-दुःख क , तो ये वभावगत और ि गत कम पर ही आधा रत
होता है। यहाँ मनु य आ मो थान चाहता है या फर ऐि क िणक सुख।’’ कहकर
युिधि र चुप हो गये।
‘‘अब तक मने जो भी कया, वो सब मेरा ही चुना आ था?’’ भीम ने कहा।
‘‘हाँ भीम; तुम उ ह, उनके कु कृ य के िलये मा भी कर सकते थे, परं तु तुमने दंड़ को
चुना; चूं क तु हारे िनणय म जनक याण, मानवीय संवेदना और मू य का समावेश
था, इसीिलये तु हारे ारा क गई हंसा भी धम क ही ेणी म रखी जायेगी और य द
यही काय तुम िनजी िहत और वाथ से े रत होकर करते, तो ये अधम हो जाता।
साम य जब अपने उ रदािय व का बोझ, पूरी िन ा और जनक याण क भावना के
साथ उठाती है, तो ि के कम वयं आदश बन जाते ह। धम-र ाथ जो तुमने कया
है, यही बल क आदश परिणित है।’’ सुनकर भीम मौन होकर मु करा रहे थे। उ ह
संतु देख युिधि र भी आगे बढ़ गये। भीम अब भी आसमान के शू य म कु छ और
खोजने का यास करने लगे थे। तभी कु छ मरण करते ए उनके ह ठ िहले।
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‘‘माता गांधारी ने पु मोह म अपना ण तोड़ते ए, दुय धन क देह को व का
बना दया था, मगर उसके च र क तरह ही उसक देह भी कमजोर रह गई थी; मुझे,
ारकाधीश ने वयं दुय धन क उसी कमजोरी पर हार करने के िलए े रत कया था,
वरना पता नह या होता... य द सचमुच दुय धन अजेय हो जाता तो...? परं तु अधम
तो अहंकार को ढोते-ढोते वयं ही मर जाता है; उसम वो आ मबल होता ही कहाँ है, जो
यथाथ को सहज ही वीकार कर ले। ...और फर िजसके साथ ीकृ ण जैसा मागदशक
हो, उसक िवजय पर कसी मूढ़मित को ही संदह े होगा।
जरासंध को मारना, अके ले मेरे बस म नह था; सारी युि तो के शव के ही पास थी;
तभी तो िवजय पांडुपु के िह से म आई। िसफ एक ही चीज थी, िजस पर भीम कभी
िवजय ा नह कर सका। भीम को भोजन क आव यकता महसूस हो रही थी। उ ह
ौपदी का मरण हो आया था। उनके कदम रसोइ क तरफ बढ़ चले थे। अभी ब त
कु छ करना शेष था।
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8
यु के भीषण नरसंहार के बाद भी, गांडीव और अ य-तुणीर के ित मेरी अशि
कम नह ई थी। गांडीव का मेरे पास होना ही मेरे सव े होने का माण बन गया
था। इस सव े क जंग ने मुझे न जाने कतनी बार ठगा है, परं तु फर भी म वयं को
उस प म थािपत करने के िलए सदैव त पर रहा ।ँ आज जब सव े होने के
वा तिवक अथ के बारे म सोचता ँ तो स य और धमयु आचरण क आव यकता
महसूस होती है; के वल शौय ही मह वपूण नह है... इसके अभाव म े ता, िणक
होकर रह जाती है। मेरे जीवन म कई बार ऐसे ण आये, िज ह ने मुझे वयं के बारे म
सोचने के िलए बा य कर दया। मेरा सव े होना, कभी-कभी मुझे ही खंिडत तीत
होने लगता था।
गु ोणाचाय का मुझे ेह ा था, जो मुझे मेरी लगन और धनु व ा के ित
समपण के फल व प िमला था। जब भी मुझे कोई सव े धनुधर कहता, तब मुझे
एकल क मृित अनायास ही हो आती। आज भले ही वह एक े धनुधर न रहा हो,
परं तु उसने अपनी कला मक ितभा और े ता तो उसी दन िस कर दी थी, जब
उसने कु े का मुख, िबना उसे चोट प च ँ ाये बंद कर दया था; उस समय मेरे सम , वह
एक े धनुधर के प म खड़ा था। उसक ितभा को नकारने का साहस, वयं गु
ोण म भी नह था; अगर कह होता, तो वह गु , दि णा म उससे अँगूठा नह माँगते।
े ता, साधन क आि त नह होती; वह तो एक गुण है। एकल ने त ण गु
दि णा म अँगूठा देकर अपनी वैचा रक और धा मक दृढ़ता िस कर दी थी। सचमुच
वह सव े था; इितहास सदैव उसका मरण उसी प म करे गा। वह सहज ही आदश
बन गया। गरीब के तीर कहाँ संहासन जीतते ह; परं तु उसका ये कृ य उसे अमर व
दान कर देगा, ये तो गु देव ने भी नह सोचा होगा। उसने गु के ित स मान और
ा का जो उदाहरण तुत कया है, वो सदैव अनुकरणीय रहेगा।
उस समय मन म कई बार ये उठा क गु जी ने एकल के साथ ये अ याय य
कया? परं तु कोई तक मेरे मन को संतु न कर सका। कु छ समय बाद ये घटना िव मृत
हो गई और िसफ अ यास ही याद रहा; मुझे सव े धनुधर जो बनना था।
दूसरा कण... परं तु वह अपनी सोच और मह वाकां ा के कारण ही न हो गया। भले
ही वह एक सव े यो ा के प म याद न कया जाये, परं तु दानवीर कण के प म
सदैव याद कया जायेगा। सूयदेव के रोकने पर भी उसने सब कु छ जानते ए भी,
देवराज इ को कवच-कुं डल दान म दे दये थे। अधम के साि य ने उसके ितशोध
को आधार तो दया, परं तु पूरी तरह से उसके मानवीय गुण न छीन सका। े ता,
सम ता िलये हो, तो थािय व देती है और य द अहंकार िलये हो, तो पराभव का
कारण बन जाती है; शायद कण, वयं को दूसरे क ऊँचाई से नापते-नापते ही ख म हो
गया। वह कसी एक जगह पर खड़ा होकर िवशालता को ा कर ही नह सका।
जीवन, यु के अित र भी ब त कु छ होता है; जहाँ ेम, नवसृजन के ार खोलता
है और धमयु आचरण, मनु य को देव व तक ले जाने क साम य रखता है। एक ेम
ही था, जो हम पाँच भाइय को आपस म जोड़े रहा। ला ागृह क अि हम भ म न
कर सक , परं तु समय क ितकू लता और माग के अवरोध ने ितशोध क अि को
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सदैव हमारे भीतर जलाये रखा, िजसे दुय धन का हर एक अ याय और भीषणता दान
करता गया। हम सभी इसम झुलस रहे थे और ये हमारे बीच के ेम और हमारे
धमाचरण क परी ा लेता रहा। धम और धैय क ितमू त ाता युिधि र, हम सभी
को धैय और आ मसंतोष क िश ा देते ए सदैव धम पर चलने के िलये े रत करते
रहे; तभी तो हम िभ ा माँगकर भी ेम और सौहा पूण तरीके से रह लेते थे।
समय एक माग बंद करता है तो दूसरा खोल भी देता है; हमारे िलये वो माग था
ौपदी का वयंवर, जहाँ मने अपनी धनु व ा के बल पर ौपदी को जीत िलया था
और भीम के बा बल के साथ उन सबको परािजत कया था, जो इस जीत को पचा नह
पाये थे। एक ा ण कु मार उनक उपि थित म वयंवर जीत लेगा, ये सोचकर ही
उनके अहं त-िव त पड़े थे।
िजस समय को मेरे िलये स ता और उमंग से भरा होना चािहए था, उसे हमारे
तिनक से िवनोद ने पीड़ा और कई धम-संकट से भर दया था। हम ौपदी के साथ कु टी
के ार पर खड़े थे।
‘‘देखो माता, हम आज िभ ा म या िमला है!’’
‘‘जो भी िमला हो उसे पाँच भाई िमलकर आपस म बाँट लो!’’ माता कुं ती ने िबना
देखे ही कह दया था। हम पाँच भाई आ य से एक दूसरे का मुख देख रहे थे।
‘‘माता, ये तुमने िबना देखे या अनथ कर डाला!’’ कहते ए ाता युिधि र के मुख
पर चंता क गहरी रे खाएँ उभर आइ थ । वा तिवकता और ि थित क गंभीरता को
समझ, माता प ाताप कर रही थ । कहे श द लौटाये जा सकते, तो वे एक ण क भी
देर न करत , मगर तीर धनुष से छू ट चुका था।
हम सभी के मन, आशंका और वेदना से भर गये थे। हमारे बीच का ेम, याग क
कसौटी पर कसा जाना था, िजसके िलए सभी तैयार थे और म मौन... मेरे पास कहने
को कु छ भी नह था। ौपदी मेरी ओर बड़े ही कातर भाव से देख रही थी; शायद वह
भी मेरी बेबसी को महसूस कर रही थी। दय म उमड़ते ेम को य होने का समय
भी हम भा य ने नह दया। ये तो मेरे भा य का ही दोष था, क ौपदी मेरे दय क
वािमनी बनने आई थी और अब व तु क तरह िवभािजत होने को मौन खड़ी थी।
मेरे भाई, इस धमसंकट से िनकलने के िलये सब कु छ यागकर वन गमन को तैयार थे,
मगर एक भाई के प म म और माता, अपयश के भागी बनने को तैयार नह थे। ौपदी
भी ये जानकर क हम पाँच ही पांडुपु ह, वह भी ये नह चाहती थी क हम िबखर
जाय।
ी के िलये लड़कर मरने वाले सहोदर के उदाहरण हमारे सामने थे। मेरे भीतर ं
चरम पर था, िजसे म कसी से बाँट भी नह सकता था। एक ओर मेरा सुख, ौपदी के
प म सामने खड़ा था, तो दूसरी ओर मेरे ाता और माँ के वचन का स मान था।
मेरे मुख से िनकले श द, मुझे कसी एक के प म खड़े कर देते और दूसरे के िव ; मेरा
ये कृ य मुझे ही मेरे धम और कत से िवमुख कर देता और यह ि थित मेरे िलए मृ यु-
तु य पीड़ादायी होती, इसीिलये म ये सोचकर वन क ओर िनकल आया क सूय क
पहली करण मेरे िलये जो िनणय सुनायेगी वो मुझे वीकार होगा। मुझे मेरे अपन पर
ब त भरोसा था।
राि कालीन चाँदनी के म म काश के कारण, सघन वन म भी सब प नजर आ
रहा था, मगर मेरे जीवन म छाये इस कु हासे के कारण मुझे सब कु छ धुँधला सा तीत
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हो रहा था। वेदना का कु हरा िनरं तर सघन होकर मुझे तािड़त कर रहा था। म वह
एक पाषाण िशला पर बैठा, वयं के अंत वरोध से जूझ रहा था। ...आिखर म भी तो
एक इं सान ही था, जो अपने मन और मानवीय कमजो रय पर िवजय पाना चाहता
था। ये सब मेरे िलए ब त क ठन था। उस एकांत म मेरे ं को समझने वाला कोई
नह था। रह-रह कर ौपदी क मृित, देह म दाह पैदा कर रही थी। उ म आकार म
ढली उसक देह, सौ दय का संपूण संसार तीत हो रही थी।
श ु से यु लड़ना कतना सरल होता है... परं तु जहाँ हार-जीत अपने मायने खो
दे, वहाँ संघष और अिधक पीड़ादायी हो जाता है। सचमुच, अपन और वयं से जूझना
कतना क ठन हो जाता है और उससे भी अिधक क ठन हो जाता है इन प रि थितय म
मनु य बने रहना। मने मादा के िलए व य पशु को लड़ते देखा है और मनु य को
भी; मगर हम इस सबसे ऊपर उठकर ेम और सौहा से प रपूण िवक प खोजना था।
िनराशा के ण म, म दैव को दोष दे रहा था, क िसफ हमारे भा य म ही सुख य
नह है; य कोई न कोई वधान हमारे सम आ खड़ा हो जाता है? उ र िसफ एक
ही था- स य, ेम और आदश क थापना के िलये मू य तो चुकाना ही पड़ता है। म
वयं को अिधक देर तक उस एकांत म न रख सका। मुझे रह-रह कर माता, ौपदी और
अपने ाता क पीड़ा का मरण हो रहा था, इसिलए म भारी मन से कु टीर क ओर
चल पड़ा।
वहाँ ीकृ ण, धृ ु आ द मौजूद थे और मह ष ासजी का भी आगमन हो गया
था, िजसक प रणित ये ई क ौपदी हम पाँच ाता क प ी बन गई थी। हमारे
िलए दांप य िनभाने के कु छ कठोर िनयम थे, िज ह हम सभी को पूण िन ा के साथ
िनभाने थे। प रवार पर आया धम संकट तो टल गया था, परं तु मेरे दय म अब भी
उथल-पुथल मची ई थी।
म वयं ही अपने भीतरी ताप को तक से शीतलता दान करने का यास करता
रहा और शायद ौपदी भी यही कर रही थी, य क उसक राह तो और भी क ठन
होनी थी। ेम क उ छृ ंखलता और आनंद क जगह हम िनयम-संयम और आदश पु ष
होने के माण देने थे।
समय ने हम फर हि तनापुर के राज ासाद म लाकर खड़ा कर दया। बात अिधकार
क आई तो फर वही आ, िजसे हम सभी जानते थे। पांडुपु के िह से म खांडव थ
आया, िजसे ीकृ ण क सहायता और अपने पु षाथ के बल पर हम सभी ने इ थ
का िनमाण-कर सुख क कामना क थी... परं तु मेरे िलये तो समय ने कु छ और ही रचा
था।
ौपदी और ाता युिधि र के एकांतवासीय क म रखा गांडीव और शरणागत
ा ण को उसक गौ र ा के िलये मेरा आ ासन देना... धम ने फर एक बार मुझे ही
परी ाथ चुना था और म भी िबना कसी प रणाम क चंता कये गांडीव लेने चला
गया था। सकु चाती पांचाली और आ यच कत ाता को देखकर, िबना कु छ कहे, म
गांडीव लेकर लौट आया था। मेरा दय, भीतर के ताप को िजस तरह महसूस कर रहा
था, वो श ु पर काल बनकर टू टा। गाय क र ा कर म लौट आया था, मगर मन म
िवजयो लास जैसा कु छ भी नह था... मन म िवकलता भरी थी।
शायद ास जी और देव ष नारद ने ब त सोचकर ही ये िनयम हमारे िलए
िनधा रत कये थे। उ ह ात था क िजन मानवीय कमजो रय ने बड़े-बड़ को पतन के
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ार पर खड़ा कर दया हो, उनसे पांडव कै से बच सकते ह। म, न तो उस जलन का
ितकार कर सकता था और न उससे बच सकता था। ेम क ये प रणित मेरे िलये
कसी दंड से कम नह थी। दय भी कमाल क व तु है, जो एक ण म ेम से प रपूण
होकर क पना के ऐसे महल खड़े कर लेता है, िजनसे मु होना असंभव तीत होता
है। िववेक से बाहर के वहार तो यथोिचत हो जाते ह, परं तु भीतर क उि ता शांत
नह होती। म िनयम भंग-होने पर िनयमानुसार बारह वष के वनवास म अपने मन क
शांित तलाशने लगा था... शायद तभी म सभी से दूर रहकर धम पर दृढ़ता और िव ास
कायम रखने का यास कर सकता था। ये यु , मेरे और वयं मेरे ही अंतर ं और
िवरोध से था। मने वयं को इतना असहाय कभी भी महसूस नह कया था।
हम पाँच भाई, ौपदी के मान-स मान और अिधकार के िलये वचनब थे। हमारे
बीच के ेम म मा के िलये ब त थान था। ाता युिधि र के साथ-साथ सभी ने
प रि थितय का वा ता देकर वन जाने से मुझे रोकना चाहा था, मगर म वयं ही
जाना चाहता था। म मृगचम और व कल-व धारणकर तुत था। तब ौपदी ने मेरे
पास आकर कहा था,
‘‘ये ौपदी, सदैव पांडुपु अजुन क दासी और दय क वािमनी रहना चाहेगी; म
आपके दय क पीड़ा समझ सकती ,ँ इसीिलये रोकूँ गी भी नह और आपको, मुझसे
जुड़े उन सभी उ रदािय व से मु करती ,ँ जो आपके सुख म बाधक बन... आप दूसरे
िववाह करने के िलये वतं ह।’’
म मौन हो उसक बात सुन रहा था। ौपदी के याग, धम और कत के ित
समपण के कारण, उसका स मान और ेम मेरी दृि म और बढ़ा गया था। उपजी
प रि थितय से सामंज य थािपत करने और स य को वीकारने के िलये, मुझे िजस
समय क आव यकता थी, वो समय मुझे वयं समय ने ही दे दया था। म राज ासाद
का याग कर वन क ओर चल पड़ा था।
मेरे भीतर ब त कु छ चल रहा था और अव था ऐसी क जैसे कोई ब ा अपनी ि य
व तु, ाता म बाँट देने से फककर रोने लगता है; परं तु म तो अपनी पीड़ा द शत
भी नह कर सकता था। म वयं इस पीड़ा से उबरने हेतु तीथ थान और ऋिषय के
साि य के िलये भटकता रहा और आ मो सग का यास करता रहा। इस दौरान मुझे
ये भी अनुभव आ क जो व तु जहाँ से टू टती है, उसे वह से जोड़ा जा सकता है;
इसीिलए जब नागक या उलूपी ने कामास होकर मुझसे णय-िनवेदन कया, तो मने
सहज ही उसे वीकार कर िलया। उसक त देह और रसयु अधर ने मेरे भीतर के
सम त ताप को शीतल अनुभूित म प रणत कर दया था। मन क र ता भरते ही,
वेदना जैसे िमट-सी गई थी। कु छ समय उलूपी के साथ रहने के बाद म अपने पथ पर
आगे बढ़ गया। मन, ं से बाहर आने लगा था। कु छ समय प ात उसने एक पु को
ज म दया। ये मेरे िलये सुखद समाचार था। जीवन तो नदी के जल क तरह बहता रहे
तो िनमल रहता है, परं तु ठहराव ही उसे संकुिचत और गँदला कर समा कर देता है। म
अब बहती नदी के जल क ही तरह गितमान था।
मेरी इस या ा म मिणपुर, एक सुखद पड़ाव था, जहाँ म कु छ देर ठहर गया था।
राजा िच वाहन क पु ी िच ांगदा के अभूतपूव सौ दय ने मेरा मन मोह िलया था।
उसक प लाव य से प रपूण और बड़ी ही कला मकता से तराशी देह म अ भुत
आकषण था। मने अपना प रचय देकर उसके िपता के सम िववाह का ताव रखा तो
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वे तैयार हो गये; मगर उनक कु छ शत थ , िज ह मने वीकार कर िलया था। मन,
धा मक जड़ता से मु होने के िलये िवक प तैयार कर रहा था। जो कम, त, आचरण
य द सजा-तु य तीत होने लग, तो िवकृ ितय से बचने के िलए उनके िवक प खोज लेने
चािहये, वरना वयं का ही अिहत होता है, म ये भली-भाँित समझ चुका था। िववाह के
बाद म कु छ समय तक वहाँ का रहा। संतान होने पर, िच ांगदा और पु को
शतानुसार वह छोड़कर आगे बढ़ गया।
ेम, सचमुच याग चाहता है। मुझे ौपदी का मरण हो आया था और उसके कहे
श द का भी। वा तव म ेम, िनजता, वतं ता, समपण और याग से ही फलीभूत
होता है; जो ेम, सीिमत और संक ण हो जाये, वो फर ेम नह रहता, ये मने ौपदी
से ही सीखा था। वनवास के अंितम वष ा रका म गुजरे । सुभ ा से ेम, हरण और
िववाह; जो ारकाधीश ीकृ ण क इ छा और कृ पा के िबना संभव ही नह था, वो
सब आ।
मेरे लौटने पर ौपदी और सुभ ा ने एक दूसरे को िजस सहज भाव से अपनाया,
उससे सम त पीड़ा और पुराने ं , सब िमट गये थे; ाता का साथ और माता का
आशीवाद, स ी सुखानुभूित दान कर रहा था।
ूत ड़ा से पहले का समय सुख, समृि और वैभव से प रपूण रहा। सुभ ानंदन
अिभम यु और पाँच ौपदी पु ने भिव य के ित आशाि वत कर दया था। ूतसभा
म जो घ टत आ, वह अ य था। ाता युिधि र और धम क मयादा का मरण न
होता तो लय आ जाती और फर भीम को रोकना भी असंभव ही होता। म ौपदी का
अपमान, मौन होकर सह गया था... मेरे िलये इससे बड़ी ासदी और या होगी। धम,
मयादा और ितशोध के म य, गांडीवधारी अजुन िपसता रहा। मेरा धैय और संयम ही
भीम को िनयंि त कर सकता था, ये सभी जानते थे।
ूत ड़ा क पुनरावृि ने हम पुनः वन म धके ल दया था। बारह वष बीत गये थे।
म अनेक अ -श को ा कर इसीिलए शी लौट आया था, ता क ौपदी को उसके
ितशोध क अि से मु कर सकूँ , साथ ही उवशी से नपुंसक होने का शाप भी लेकर
आया था; काम के ित आसि को याग... ये संयमी अजुन का पुर कार था। धमाfपता
देवराज ने कहा था, ये शाप, अ ातवास को पूण करने म सहायक होगा। अजुन बृह ला
बन गया था। समय अपनी गित से आगे बढ़ रहा था।
क चक-वध ने कौरव के मन म संदह े के जो बीज बोये थे, वे िवराट नगर पर
आ मण के प म अंकु रत ए थे; दूसरी तरफ सुशमा ने भी चढ़ाई कर दी थी। चार
भाई, िवराट नरे श क सहायता के हेतु यु म स मिलत थे। समय ने ौपदी को कौरव
के िव खड़ा होने का एक मौका दे दया था, प रणाम- व प म उ र का सारथी
बनकर रणभूिम क ओर दौड़ा जा रहा था। ितशोध, ोध का चंड प लेकर मुझे
जलाये जा रहा था। िवशाल कौरव सेना देख, पलायन करते उ र को पकड़कर मने उसे
अ क लगाम थमा दी थी और मेरे हाथ म फर गांडीव था, िजसक टंकार से चार
दशाएँ गुंजायमान थ । भीषण यु के बाद सम त कौरव-सेना िपतामह, गु ोण, कण
समेत रणभूिम म अचेत पड़ी थी। कौरव-प के यो ा के उ रीय व को उ र के
ारा उतारते देखा, तो इस कृ य म उ रा क इ छा से कह अिधक, मुझे ौपदी क
पीड़ा और इ छा नजर आ रही थी। म िवजयो लास म नगर क ओर लौट रहा था।
हमारा वा तिवक प रचय जानने के बाद, िवराट नरे श ने मेरे सम , अपनी पु ी
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उ रा से िववाह का ताव रखा था और ये समय को देखते ए हमारे प म ही था,
परं तु मने अपने िलये अ वीकार करते ए पु अिभम यु से कराने क इ छा रखी, तो वे
सहष तैयार हो गये थे। िववाह हष लास से संप हो गया था। सुख के ण बीतते ही,
अपने अिधकार को ा करने के िलए यास ती हो गए थे। जीवन म अथ कतना
आव यक होता है, ये अभाव ने हम िसखा दया था। ाता युिधि र अब भी शांित और
समझौते के प म थे, िजसके िलये ीकृ ण को शांितदूत बनाकर भेजने पर मं णा हो
रही थी। तभी पांचाली ने आकर कहा था,
‘‘मेरे खुले के श कै से बँधगे धमराज? अपमान तो मेरा आ था और ितशोध भी मेरा
ही है; पाँच गाँव भोजन तो दे सकते ह, मगर मेरे के श क यास तो र से ही बुझेगी...
बात, राज-पाट, सुख-वैभव आ द क होती तो म भी संतोष कर लेती; इनके िबना
स िच होकर वन म सभी के साथ रही ,ँ परं तु इस कृ य का दंड तो कौरव को
भुगतना ही पड़ेगा; भूल के िलए मा कया जा सकता है, परं तु अपराध अ य होते
ह।’’ ौपदी के इन , तक के उ र कसी के पास नह थे। ीकृ ण ने पांचाली को ये
आ ासन दया था क वही होगा, जो वह चाहती है। कु छ काय, धमाथ और लांछन से
बचने के िलये भी करने पड़ते ह।
समय, यु क किड़याँ जोड़ रहा था। माता कुं ती का संदश े और आशीवाद लेकर लौटे
ीकृ ण ने भावी यु क घोषणा कर दी थी। दोन प , धम और अधम के ितिनिध के
प म आमने-सामने खड़े थे। इस यु म सि मिलत यो ा भी अपने िनजी वाथ ,
संबंध , उपकार , मजबू रय और वचन से बँधे ए और एक दूसरे के िव लड़ने को
स खड़े थे। आज मनु य िस ांत , वाथ और ितशोध के िनिम िसफ साधन था
और सहयोगी भी।
मानवीय मन क भी अजीब ि थित है; दूर रहकर जो ष े और घृणा क ट ारा
िनरं तर दीवार खड़ी करता रहता है, वही सम आने पर उनके ेह और उपकार को
याद कर मोह म पड़ जाता है; म भी कु छ ऐसी ही ि थित म दोन सेना के म य,
कु े म खड़ा था। मन के घोड़े, कत पथ से दूर भागने का य कर रहे थे और मेरे
हाथ उनका वध करने के िनिम गांडीव धारण करने से बच रहे थे; िज ह ने कभी
उँ गली थामकर ेह दया था, उन पर तीर चलाना क ठन तीत हो रहा था।
तब ीकृ ण ने सारथी का कम याग, एक गु और उ ेरक क भूिमका का िनवहन
कया था। उ ह ने िन काम कमयोग का जो उपदेश दया था, उसके ारा ही मानवीय
कमजो रय पर के वल वैचा रक उ कृ ता, दृढ़ता और िन काम कम से ही िवजय पाई
जा सकती है। ये न र देह भले ही उस क चड़ से जुड़ी रहे, परं तु जीवन के उ े य, कमल
के सदृश, उससे कह अिधक ऊपर शोभायमान होने चािहये।
वा तिवकता से सा ा कार के बाद सब कु छ प हो गया था। दुय धन के प म खड़े
हर ि क अ छाइय पर, ूतसभा का घृिणत कृ य भारी पड़ रहा था। मन,
ितशोध क अि से झुलसने लगा था। बेबस ौपदी का लांत मुख रह-रह कर सम
आ खड़ा होता और याय क माँग करने लगता। उसके खुले के श, िवषधर क तरह
फुँ कारकर मन को तािड़त कर रहे थे। मेरी मु ी गांडीव पर कस रही थी।
त प ात मेरे हाथ कभी नह काँपे; न िपतामह को शरश या देने म और न कसी
संबंधी का वध करने म। यु भूिम तो वो जगह है, जहाँ के वल श ु को मारना ही धम
और कम है; कं तु इस यु म कु छ हाथ ऐसे थे, जो हि तनापुर के भिव य का वध न
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करने का ण ले चुके थे। इससे यही िस होता है क ये यु , धमयु के प म लड़ा जा
रहा था। यु म लगी येक दैिहक और मानिसक चोट, पीड़ा के साथ-साथ ोध भी
बढ़ा देती, िजससे ितशोध क भावना और बलवती हो जाती। अिभम यु क त-
िव त मृत देह देखकर ही मेरी मनःि थित पीड़ा और दुःख के चरम तक प च ँ गई थी।
कतनी पीड़ा सही होगी उसने, ये सोचकर ही मेरी ोधाि सम त संसार को भ म
करने को त पर थी, मगर के शव ने उस ोध को िनयंि त कर एक दशा दी और मेरा
ितशोध पूण आ।
एक ओर के शव वयं समय बन हम राह सुझाते जा रहे थे, तो दूसरी ओर समय,
भिव य के िलये नीव के प थर तराश रहा था। यु भूिम म एक क मृ यु, दूसरे के जीवन
का माग श त कर रही थी। यु , मनु य के मनु य होने क परी ा दो बार लेता है;
एक ारं भ होने से पूव और एक समा होने के बाद। यु काल म तो वह के वल िवजय
क ही कामना करता है और उसका अंितम ल य िवजय ा करना ही होता है।
यु भूिम म जलती हर िचता, कसी-न- कसी के ितशोध का भार ढोकर मु हो
रही थी। कये कृ य का मरण कसी को नह था।
कण क यु भूिम म मनःि थित, हताशा और िनराशा से प रपूण थी। भूिम म धँसे
रथ के पिहये को िनकालते ए कण मुझे वीर पु ष के ल ण बता रहा था; के शव मुझे
उसके कु कृ य का मरण करा रहे थे और म उसक देह को अपने नुक ले तीर से काट
रहा था। समय यह -कह खड़ा होकर, िन प रहते ए सभी को कमफल दान कर
रहा था।
म भी उ ह म से एक था, िजसने भी इस यु म ब त कु छ खोया था। एक यो ा के
प म भले ही ये अजुन, िवजय के रथ पर आ ढ़ रहा हो, परं तु एक िपता ने अपना ि य
पु खोया था, ये पीड़ा तो उ भर रहनी ही थी। मुझे ात है क कोई भी सुख इस
र ता को नह भर सकता था। हमने जो खोया था, वो हमारे धम और आदश का
मू य था, िजसे हमने शांित और बेहतर समाज क थापना के िलए चुकाया था।
यु के बाद का समय, के वल खोने-पाने और आ ममंथन से कह अिधक पूण साम य
को समेटकर, जीवटता के साथ जीवन को पुनः मु य धारा म लाने का होता है और अब
हम िमलकर इसी के िलये काय करना था।
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समय तो अपनी गित से िनरं तर आगे बढ़ रहा था, मगर यु के बाद सभी के जीवन
म जो ठहराव और उदासीनता आ गई थी, उसने नकु ल और सहदेव के जीवन म भी
उथल-पुथल मचा रखी थी। ेम और अनुसरण को जीवनादश मानने वाले दोन भाई,
इस घ टत घटना म म अपनी भूिमका तलाशने को तुत थे... साथ ही उ रदािय व
से मु , उनके मन आज वयं से संवाद करते ए कु छ और ही सोच रहे थे।
सहदेव, कु छ समय से जीवन म यकायक उतर आई इस र ता से ु ध थे; वे भी
सभी के सदृश अपनी ता और पीड़ा के कारण मन म उठ रहे वार से मुि पाना
चाहते थे, िजसके िलए वे मुि का माग अपने क के एकांत म वयं ही ढू ँढ़ रहे थे।
हा य को तरसते उनके कान, िसस कय से त थे; ऊब ने देह क जकड़न के साथ-साथ
मन को भी अशांत कर दया था।
िन े य ही सही, सहदेव, र रं िजत तलवार को धार देकर वयं को त रखना
चाहते थे, मगर ये उप म उनके िलए कोई सुखद अनुभव नह था। उठते के साथ
सभी के मन कु छ सकारा मक प रवतन चाहते थे, ता क इस सब से उबरकर, सुखद
भिव य के बीज रोपे जाय। मन म उठते िवचार को काटने का यह य उनके िलए
थ ही हो रहा था, इसीिलए उनका मन और अिधक िख ता का अनुभव कर रहा था।
उभरते , यकायक नह उभरे थे; कु छ टीस थ , जो उसके मानवीय मन को कचोट
रही थ , िजसे सहदेव मानवेतर तक से िनरं तर शांत करने का यास तो कर रहे थे,
मगर मन उ ह मानवीय कमजो रय को आ मसात कये जा रहा था जो दुःख का मूल
कारण थ । आज माता कुं ती के ेह, ौपदी के ेम और ये के भरोसे को, मन अपनी
ही कई कसौ टय से गुजारने का य कर रहा था। तलवार एक ओर फक, श या पर
लेटे ए सहदेव सोचने-िवचारने म त लीन हो गये थे।
‘‘म तो सभी से छोटा था और मुझे ेह भी सभी से अिधक िमला, इसीिलए दोष तो
कसी को दे ही नह सकता; जो आ, वो तो उसी का वीकाय था, िजसे हमने धम
कहकर धारण कर िलया था... जो यकायक नह , बि क आपसी ेम और िव ास के
फल व प पनपा था। हम उसे ही तो जीते रहे। हमारे बीच के ेम म तक तो कभी आये
ही नह । ेम का बंधन ब त दृढ़ होता है, जो ेमी से उसक आ मा तक को भी बाँध
देता है; जब क घृणा, के वल िवनाश के िलए ही भूिमका तैयार करने म लगी रहती है।
जो काय हम ब त पहले करना था, उसम इतना िवलंब आ क सब कु छ बरबाद हो
गया। हम िसफ र त , संबंध और लोक के बारे म ही सोचते रहे, इसीिलए धम हमारी
कमजोरी सािबत आ... या फर हम सभी धम को प रभािषत करने म चूक गये थे; तब
तक अधम एकजुट होकर शि शाली हो गया था और हम कु छ न कर सके ; के वल वयं
के ितशोध के िलए साधन भर रह गए थे।
ये ितशोध के वल ौपदी का नह था, हमारे ही कृ य उसे यहाँ तक ले आये थे। उसने
तो िबना कु छ कये ही ब त कु छ भोगा था, इसीिलए दंभी और मह वाकां ी पु ष के
इन घृणा पद कृ य को दंड िमलना आव यक था और उ ह वही िमला... ौपदी ने भी
यही चाहा था।
प रणाम भले ही हमारे प म हो, परं तु धम-अधम के इन दो पाट के बीच सब कु छ
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िपसकर रह गया था। ात नह है क हम इितहास कस प म याद रखेगा; परं तु ेम
हमारे जीवन का िह सा था, वह हमारी कमजोरी कभी नह रहा, जब क हमारे धारण
कये ए तथाकिथत धम ही हम ठगते रहे। िसफ के शव के साथ ने ही हमारी िवजय का
माग श त कया और इस यु म मानवीय मू य क र ा के साथ-साथ धम के नये
संदभ भी गढ़े गये, वरना अधम क धम पर जीत ही इितहास म दज होती।
मेरे वयं के तो कोई िनणय ही नह थे और न उनके अनुसार कोई कत ... जो थे,
उ ह हमारे वधाय धम ने ही संपा दत कया था; हम तो ेम और याग से उन पर
के वल चलते रहे और प रणाम भी सहष ही भोगते रहे, फर चाहे जीवन के सुखद ण
संघषमय होकर ही य न रह गये ह ।
हम ेम ने एक सू म बाँधे रखा, तो वह कौरव को उनक मह वाकां ा ने िबखरने
नह दया। हमने तो याग और संतोष का माग चुना; तब भी यु लड़ना पड़ा, कौरव
ने तो के वल छीनने के िलए ही यु लड़ा था। पांडुपु ने धम के प म रहकर भी ब त
कु छ खोया, तो अधम क ओर खड़े सभी िमट गये। सच तो ये है क हम सभी ने अपने-
अपने धम और ितशोध िजये ह और उसी का मू य चुकाया है। पराधीन तो हम सभी
थे; फर चाहे धम के ह , अधम के ह या फर दूसर के कृ य के । के शव ठीक ही कहते
थे, कम ही मह वपूण है, कारण और प रणाम तो सदैव ही अिनि त होते है।
हम िमलकर दुिनया के वैभव और सुख का आनंद ले सकते थे, परं तु न ले सके , बि क
र पात क पीड़ा और भोगी। िबलखते प रजन और अपन को खोने के दुःख से हम न
धम बचा पाया और न अधम... तो फर सही या है?’’ सोचते-सोचते सहदेव का
म तक भारी हो गया था। तभी ौपदी ने क म वेश करते ए कहा,
‘‘आज कु छ लग रहे हो, या बात है?’’
‘‘हाँ पांचाली, परे शान तो ;ँ जब कु छ भी हमारे हाथ म ही नह है, फर सही और
गलत के या मायने ह?’’
‘‘आज यकायक ये य ?’’
‘‘बस यूँ ही मि त क म कु छ िवचार आ रहे थे, इसीिलए पूछ िलया।’’
‘‘ऐसे के उ र तो धमराज ही दे सकते ह या फर सखा के शव; परं तु म तो इतना
ही कह सकत ँ क जो िनयित है या जो होना है, वो तो होकर ही रहता है; दोषी तो
हम सभी होते ह और कोई नह होता, परं तु धम के साथ होने पर एक संतोष तो अव य
रहता है क हमारे कये का मरण जब समय करे गा, तो याग, धम और जनक याण के
साथ जोड़कर करे गा... यही मानवीय जीवन का आदश है और कम क साथकता, ये
मुझसे एक दन के शव ने कहा था... जब कारण हाथ म नह ह तो कम के ित दुिवधा
य हो और प रणाम क चंता य हो?’’
‘‘सच कहती हो पांचाली; अगर दुय धन ये सब नह करता, तो यु ही नह होता...
जब अधम ही नह हो तो धम के मायने ही या ह? इसका मतलब तो यही आ क यु
से भी मानवीय गुण क थापना हो सकती है; यु , शांित का णेता है।’’ कहकर
सहदेव चुप हो गए। ौपदी ने वह पड़ी तलवार देखकर कहा,
‘‘आज तलवार को धार देना थ ही है; अब तो नविनमाण क आव यकता है,
िबखरे को समेटकर सहेजने क आव यकता है। ये ि गत सुख-दुःख से ऊपर उठकर
राजधम िनभाने का समय है... जब तक ज म नह भरते, कह कोई यु नह होगा।’’
सुनकर सहदेव, पांचाली के गंभीर चेहरे को देख रहे थे, िजसम उ ह ने ेम और
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समपण क उ कं ठा और उ कृ ता को देखा था। समय सचमुच ब त कु छ बदल देता है।
‘‘अरे , मने ये तो पूछा ही नह क पांचाली के आने का कारण या है।’’ सहदेव ने
मु कराकर कहा।
‘‘सोचा, सभी को भोजन के िलए वयं ही बुला लूँ। आज वा द ंजन बनवाये ह,
इस वादहीन जीवन म फर से जीवन के रं ग भरे जाय, ितशोध और दुःख ब त हो
चुके; हम िजतना खोना था खो चुके, अब और नह ...' कहकर ौपदी ने नम आँख से
सहदेव क ओर देखा। सहदेव ने आगे बढ़कर हाथ थाम िलए।
‘‘ब त हो चुका पांचाली, अब इन अ ु को मत बहाओ; इन ने म हमारे िलए
ेम के अित र कु छ और नह होना चािहये... सुखद भिव य के िलए हमारे ि गत
दुःख का कोई मू य नह है; ाता नकु ल को भी बुला ल, म स होकर आता ।ँ ’’
ौपदी मु कराकर नकु ल के क क ओर चल दी। ब त दन बाद, मन कु छ ह का सा
महसूस कर रहा था।
समय रोज नये ं से मि त क को जोड़ देता और जीवन वह थमकर रह जाता।
सभी एक दूसरे क िह मत बनकर जीवन को गित दान कर रहे थे; ीकृ ण िजसक
धुरी थे और उनका साथ होना पांडुपु का संबल था।
दपण के सम खड़े होकर आज नकु ल का दय उस गव से नह भरा, जो कभी वयं
के दैिहक स दय को देखकर भर जाता था। ‘इस ल बी मारकाट के बाद शायद मेरे मन
क कोमल भावनाएँ भी ख म हो गई ह।' सोचते ए नकु ल ने दपण से मुख फे र िलया
और िखड़क पर आ खड़े ए। बाहर भी अंतस क तरह ही नीरवता छाई थी।
न जाने कतने खंिडत शरीर क मृितय ने दय को घृणा से भर दया था। देह क
न रता क अनुभूितयाँ इतनी बल थ , क दय म एक िवरि सी बस गई थी। थके
तन-मन, िव ाम क गहन शांित चाहते थे। तभी ौपदी ने पुकारा। च ककर नकु ल ने
मुड़कर देखा और कहा, 'आओ पांचाली, शायद तु हारा साि य मन क पीड़ा कु छ कम
कर सके ।’’
‘‘आज भोजन आप सभी क िच के अनु प ही बनवाया है, इसीिलए वयं बुलाने
यहाँ चली आई थी; आपका वा य तो उ म है!’’
‘‘हाँ, परं तु मन कु छ अ व थ तीत हो रहा है, इसीिलए देह भी तिनक िशिथल है;
ेम और सौ दय को महसूसने वाले दय ने भयंकर र पात देखा है और कया है,
उि तो होगा ही।’’
‘‘स य कहते हो; मने तो सदैव ही पाँच गुनी पीड़ा महसूस क है... म तो पाँच अलग-
अलग ि य के िलए एक थी, परं तु मेरे िलए तो पाँच एक थे; म तुमसे अिधक थक
,ँ फर भी िह मत नह हारी। ये समय युग प रवतन और सृजन का समय है, टू टने या
थकने का नह है।’’
‘‘ठीक है पांचाली, परं तु जब वयं को एक ि के प म देखता ँ तो जीवन क
िनरथकता कह अिधक महसूस होती है।’’
‘‘य द आप पाँच का अि त व पृथक होता तो उसी दन कु छ शेष नह रहता, जब
माता ी ने मुझे आप पाँच म बाँट दया था; जब तक सोच और ेम से हम एक ह, तभी
तक हमारा अि त व है; हम पूरक ह, यही हमारी पहचान है और यही हमारी िनयित,
यही बात म अभी आपके ाता से कहकर आ रही .ँ .. यहाँ आने से पहले म उनके क
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म गई थी, वो भी तु हारी ही तरह उि थे, कह रहे थे,
‘‘ ात नह य , कु छ अ छा नह लग रहा है; मेरे गुण, मेरी ितभा... वो भी इ ह
श द म वयं को खोज रहे थे, बेचैन मन या- या नह सोचता; परं तु ये नह सोच रहे
थे क हमारे दुःख, हमारे सुख सब साझा ह, अब हम ि गत नह सोच सकते, यही
एक व हमारी साम य है। हम पृथक तो कदािप नह ह; हम तो एक दूसरे को देखकर ही
सुख का अनुभव करते आये ह, हमारे िलए साधन कभी मह वपूण रहे ही नह ह।’’
नकु ल, मौन होकर ौपदी के कहे श द के अथ खोज रहे थे और वो कहती जा रही
थी।
‘‘वे भी स होकर यह आते ह गे, शायद उनक भी दुिवधा अब तक समा हो
चुक होगी; हम अके ले नह रह सकते...’’ ौपदी कु छ आगे कहती, इससे पहले सहदेव
ने आवाज दी।
‘ ाता...!'
‘‘आ जाओ ार खुला है।’’ नकु ल ने कहा।
सामने सहदेव मु करा रहा था। ौपदी ने मु कराते ए दोन हाथ बढ़ा दये, िजसे
नकु ल और सहदेव ने थाम िलए थे और फर तीन रसोइ क तरफ बढ़ चले थे, जहाँ
युिधि र, भीम और अजुन; नकु ल, सहदेव और ौपदी क राह देख रहे थे। दुिवधाएँ दूर
हो चल थ । सभी के दय फर वही अपन व महसूस कर रहे थे, िजसम सभी क
पीड़ाय घुल रही थ ।
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10
कभी-कभी जीवन क सम त िनरथकताएँ िमलकर, एक ऐसी साथकता को ज म
देती ह, िजसके बाद जीवन ब त सरल हो जाता है; तब जो िवरि आती है, वो नैरा य
से भरी ई नह होती, बि क कु छ और ही होती है। यही मनःि थित, पूणता का भान
कराती है, क अब िजतना कर सकते थे, उतना कर िलया, अब और नह ... तब मुि
अथात मृ यु ही एक मा िवक प बचता है और वही इस न र संसार क सम त
दैिहक, मानिसक पीड़ा और दुिवधा से मु होने क घोषणा करती है।
म पांडुपु युिधि र, उसी को वरने िहमालय क ओर थान करने को स हो रहा
था। िज ह ने जीवन भर साथ नह छोड़ा, वो भी इस महा थान म साथ ही रहना
चाहते थे। हमारा अि त व सदैव साझा ही रहा था और पांचाली उसक धुरी थी,
इसीिलए हम सभी इस अंितम-या ा म भी साथ ही थे।
ये मानवीय वभाव ही है क वह अपने िहत चंतक , संबंिधय और ेिमय के साथ
ही रहना चाहता है और य द वे ही न रह तो मन म हताशा और िवरि के भाव पैदा
होने लगते ह, जीवन िनःसार तीत होने लगता है। यादव वंश के िवनाश के बाद
बलदाऊ और ीकृ ण भी अपने धाम लौट गये थे, माता कुं ती आ द भी देह यागकर
दूसरे लोक चले गए थे। म भी परीि त को रा य भार स पकर वयं को मु महसूस
कर रहा था... अब इस देह से मु होने का ये उ म समय था।
समय, एक नये युग के आरं भ क परे खा तैयार कर चुका था। न जाने य , मन
आ ममंथन क ओर अ सर हो रहा था। इस जीवन म ब त कु छ ऐसा घटा था, जो
िवचारणीय है। मने मानवीय मू य का साथ कभी नह छोड़ा और धमाचरण करते ए
जीवन िजया। मुझे प रि थितयाँ भी कभी नह तोड़ पाय , परं तु दुिवधा और ं मुझे
भी तािड़त करते रहे... कु छ मेरे दय म शूल से गड़े रहे और म अिधकार और
कत के म य बैठा उसक पीड़ा को सहता रहा।
माता के मुख से िनकले श द को अपना धम समझने वाला युिधि र, ौपदी को
दासी या भो या समझकर दाँव पर कै से लगा सकता था? परं तु मने ये कया है। म ऐसे
धम का यागकर, ूत छोड़कर उठ सकता था, परं तु न कर सका; ोध और अहंकार,
स य के िलए हो या वाथ के िलए, बुि अव य ही हर लेता है। या धमवान और छल-
कपट रिहत दय ही ठगने के यो य होते ह? और फर म तो दो बार ठगा गया। शायद
ये मेरी धा मक जड़ता का ही ितफल था क म प रणाम जानते ए भी उसे न टाल
सका। या वा तव म, म एक धम-भी ि था, या फर मेरे चुने धम म वो िववेक
नह था, जो संबंध से ऊपर उठकर स य को वीकार कर, िवरोध का माग अपना लेता।
मेरे मन म कई उठ रहे थे, िजनके उ र वयं मुझे ही खोजने थे।
मेरे िलए तो राजभवन और अर य दोन एक ही थे; शायद तभी मुझसे ये अनथ
आ। अगर ूत ड़ा इस यु का कारण नह होती तो कोई और कारण होता, य क
दुय धन का वभाव और उसके कृ य, यु क भूिमका बाँध रहे थे। म न भी चाहता
शायद तब भी, धम-अधम के िलये वयं क थापना हेतु अंितम िवक प यु ही होता।
म यु को िजतना टाल सकता था, उतना टालता रहा; यहाँ मुझसे ये समझने म एक
ु ट अव य ई क सभी युिधि र नह हो सकते और म अपने िस ांत और पर थोप
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रहा ।ँ जैसे मा को मने अपना धम समझा, वैसे ही भीम आ द ने दंड को अपना धम।
समय ने वभाव के प म वही रचा, जो वह रचना चाहता था। यही िविवधता तो
जीवन क वा तिवक गितशीलता है; हम तो िनिम मा ह, जो अपने वभाव के
वशीभूत होकर कम करते ह।
म भीम को िवष देने और ौपदी का अपमान करने वाले दुय धन को भी मा कर
सकता था, परं तु नह कर पाया; मेरी ि गत सोच पर समाज, प रवार और याय
क अवधारणा हावी रही और म न चाहते ए भी सभी के ितशोध का िह सा बन
गया, परं तु मने स य और धम का याग कभी नह कया।
म के वल धम के र ाथ और शांित क थापना के िलए ही लड़ रहा था, तभी तो यु
के भयंकर िवनाश ने भी नवयुग के सृजन के िलए ार खोले; यही सही अथ म यु धम
है। अपने जीवन को स ित देना हर मनु य का काय है, जहाँ पु षाथ सदैव धमाथ काय
हेतु े रत करता है, यही सोचकर म सदैव भोजन और जनन से ऊपर उठकर मनु य
होने का य करता रहा।
मह वाकां ाएँ, न चाहते ए भी हर नकारा मक एवं ितकू ल या के फल व प
ोध को ज म दे ही देती ह और फर ोध से भरा ि न अपना िहत कर सकता है
और न दूसरे का। यही कारण रहा क म ितशोध क आग म उतना नह जला, िजतने
क ौपदी और मेरे भाई जले। मने अपने दय म ष े , प पात और घृणा के बीज कभी
अंकु रत होने ही नह दये। इसी यागपूण सम वभाव ने तो मुझे सभी दुिवधा से
बचाकर, िनणय लेने का साहस दया।
इस धमयु के बाद, मेरे दय म संहासन के ित कोई इ छा या लगाव नह रह
गया था। अध मय से लड़ते-लड़ते हम भी उसी राह पर चल िनकले थे। मेरे मन क
दुिवधा समझते ए ीकृ ण ने कहा था,
‘‘कभी-कभी काँटे से, काँटे को िनकालना ज री हो जाता है, नह तो शरीर म पीड़ा
होती ही रहती है और िवष फै लने का अंदश े ा रहता है; ठीक उसी तरह अगर इ ह
उपयु काय करके न मारा गया होता, तो अधम पर धम क िवजय असंभव थी।’’ फर
भी मने धम क राह नह छोड़ी। ीकृ ण सव थे और उनके तक, जीवन को सहजता
दान करने वाले... एकदम अका ।
जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी िनकल ही आती है। म कण से परािजत और घायल
होने के बाद अपमान और पीड़ा क अि से झुलस रहा था, तभी अजुन मुझे देखने आये
थे। मने स य को समझे िबना ही उ ह बुरा-भला कहा और यहाँ तक भी कह दया था
क गांडीव कसी और को दे दो। इस पर ित ा के कारण अजुन मेरा वध करने को
त पर हो गया था। तब ीकृ ण ने मेरी र ा क और अजुन ने ये ाता का अपमान
कर अपनी ित ा का मान रखा। कहते ह क ये का अपमान भी उनक ह या के ही
बराबर ही होता है; िजसके िलए मने उसे मा तो कर दया, मगर ये घटना मुझे भीतर
तक कचोटती रही। या म भी धमाथ इतना सब करते ए भी मानवीय कमजो रय से
िसत रहा? इसका उ र कु छ और मृितय म खोजना पड़ा।
ौपदी को हारने के बाद जो आ, उससे आहत भीम, अि से मेरे हाथ जलाने क
बात करता है और म मौन होकर सुनता ;ँ परं तु जब म वयं तािड़त और अपमािनत
होता ,ँ तो मेरा भी ोध जाग उठता है। शायद म ये िव मृत कर गया क म भी मनु य
ही ,ँ मेरे भीतर भी मानवीय कमजो रयाँ हो सकत ह। फर भी िजतना धमाचरण हो
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सकता था, मने कया।
िपतामह चाहते थे क म राजा बनकर जा क सेवा करता र ,ँ य क उनक नजर
म, म न वाथ था और न मह वाकां ी; भोग-िवलास तो ब त दूर क बात थी। उनका
ऐसा सोचना जा के िहत म था। मने ये उ रदािय व वीकार कर िलया। महाराज
धृतरा चाहते थे क म ूत खेलूँ। मने उनक इ छा म छल-कपट के थान पर राजा ा
म ही अपना धम खोज िलया था। हािन-लाभ तो ापा रय को शोभा देता है; मुझम
तो याग और िवरि थी, इसीिलए मेरा धम ही मेरे िलए कमजोर ार बनकर, दूसर
को उसे तोड़ने के िलए े रत कर रह था।
शकु िन का छल और दुय धन क वाथ से प रपूण मह वाकां ा, हम सदैव ठगते ही
रहे और म उ ह मा करता रहा; परं तु इसका प रणाम सभी ने िनद ष होते ए भी
भोगा। मने तो सभी के सुख क कामना कसी भी मू य पर क थी, िजसे मने चुकाया
भी... मने ही य , हम सभी ने चुकाया। आपसी ेम ही हमारी साम य थी, जो हम
हमारी मानवीय किमय से उबरने म हमारा संबल बनती रही।
हम सभी ने कु छ न कु छ मानवीय कमजो रय को िजया है; कतनी... ये तो प रणाम
ही तय करते रहे ह। फर भी वैचा रक उ कृ ता और साि वक कम ही मेरे कम को
िनयंि त करते रहे।
स य-भाषण और शा ोिचत कम को करते ए मेरा जीवन अब अंितम याण पर
था। मेरे अनुज के साथ ौपदी और एक कु ा भी साथ हो गया। साथ भी तो, कये गये
कम और वहार क प रणित ही होते ह और हमारी गित के आधार तंभ भी।
महा याण के समय आगे बढ़ते ए सबसे पहले ौपदी लड़खड़ाकर िगरी थी और फर
उठी ही नह । तब भीम ने मुझसे पूछा था,
‘‘ ौपदी, ना रय म े , सेवा और धमाचरण करने वाली थी, फर ये य इस तरह
मृ यु को ा ई?’’ भीम का सुनकर मने उससे कहा,
‘‘ ौपदी के मन म सदैव अजुन के िलये प पात रहा था, इसीिलये ौपदी को ये गित
ा ई है और स कम के कारण अ ु ण सौभा य क वािमनी रही है।’’
‘‘आपने पूव म तो इसक चचा कभी नह क और न कभी हम ऐसा महसूस होने
दया; मुझे तो पांचाली के वहार सभी के ित समभाव िलये ही लगते रहे थे... अगर
उसे बल क ज रत होगी तो मुझे और ान क बात होगी तो आपको ही बुलायेगी,
फर प पात कै सा?’’
‘‘भीम, आचरण कृ ि म भी हो सकते है... कु छ बात वहार से परे भी होती ह और
कु छ िनतांत िनजी, िज ह के वल महसूस कया जाता है।’’ सुनकर भीम मौन हो गये थे,
मगर भीम का दय और बुि ये मानने को तैयार ही नह थे; परं तु जब ये ने कहा है
तो बात िवचारणीय तो है ही। भीम कु छ सोचकर बुदबुदाने लगे थे।
‘‘ ये ! ौपदी तो अजुन क ही थी; उसी ने उसे वयंवर म जीता था, बीच म तो
हम ही आ गये; कारण चाहे धम हो या कु छ और.. उसके दय म ेम के बीज तो अजुन
ने ही बोये ह गे, हम तो धम िनभाने को पित बने थे; फर भी ौपदी ने ब त िनभाया,
उसके इस यागपूण कृ य पर लांछन मत लगाइए।’’ उसने इतने धीमे वर म कहा क
युिधि र सुन ही नह पाये। वे वयं भी कु छ िवचार कर रहे थे।
‘‘धम क ा या ब त महीन होती है, भीम शायद ही ये समझ पाये; अब इन सब
बात का समय भी नह है।’’ सोचकर युिधि र भी मौन ही रहे, मगर अब भी उनके
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िवचार का म वह से जुड़ा था।
‘‘मने वही कहा जो मुझे स य लगा; भीम ने ये सोचा होगा क ाता के मन म इस
बात क टीस रही होगी और ये भी क ौपदी को वयंवर म अजुन ने जीता था,
इसीिलए अजुन के ित उसका ेम वाभािवक और ि योिचत भी था।’’
फर नकु ल, त प ात सहदेव भी िगरकर मृ यु को ा हो गए तो भीम ने फर पूछा
था,
‘‘ ये ! नकु ल और सहदेव ने सदैव धमानुसार आचरण कया और सदैव ही अपने
ये का अनुसरण और आ ा पालन कया; तब भी इनक ये गित ई।’’ सुनकर
युिधि र मु कराये, त प ात कहने लगे,
‘‘सुनो भीम, ये मानवीय वभावगत प और गुण के अहं के कारण मृ यु को ा
ए ह।’’ उनके पूछने पर युिधि र ने भीम से यही कहा।
‘‘और इनके पु य कम काम नह आये?’’ भीम ने पुनः पूछा।
‘‘पु य कम संिचत ह तो सदैव भिव य को सुखद बनाते ह, परं तु ये भी याद रखना
चािहए क िवष क एक बूँद भी ब त सारे दूध को ाणहंता पेय म बदल सकती है;
मनु य कभी भी कमफल भोगे िबना नह छू टता है... सुख हो या दुःख, उसे वयं ही
भोगने पड़ते ह।
भीम, अजुन और युिधि र कु छ और आगे बढ़े क लड़खड़ाकर अजुन भी िगर पड़े, जो
अब तक मौन होकर चल रहे थे और फर उठे ही नह । तब भीम ने कहा।
‘‘ ये ! अजुन भी?’’
‘‘हाँ भीम; सव े होने के अहं के कारण अजुन मृ यु को ा हो गये ह।’’ युिधि र ने
भीम से कहा। कु छ समय आगे बढ़ाने के प ात भीम भी उसी गित को ा हो गए। तब
भूिम पर पड़े भीम ने युिधि र से पूछा,
‘‘और ये म!?’’
‘‘भीम, तुम भी अजुन क तरह ही बल और े ता के अहंकार के िशकार ए थे।’’
कहकर युिधि र मु कराये। भीम, अंितम णाम कर शांत हो गए।
िजनके साथ उ तीत क थी, वे एक-एक कर साथ छोड़ रहे थे... उनक देह के
र त से जुड़ी हर चीज भी वतः समा होती जा रही थी। और म वयं युिधि र, देह
के आवरण उतारता आ िनरं तर आगे बढ़ता जा रहा था। वह कु ा अब भी मेरे साथ
सतत् धम-तु य हो आगे बढ़ रहा था। मेरा धमयु आ मबल मुझे आसि और
िनराशा से उबारकर िनरं तर गितमान बनाये ए था। ये जीवन के अंितम ल य के
िलये मेरी अंितम या ा थी, िजसका माग वयं मेरा धम श त कर रहा था।
दूसरी ओर एक नये युग का ारं भ हो रहा था...।

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