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भा० टी०-- वजी कहते हैँ--हे दे वि!

उजै ननगरी में एक नाई रहता था, वह अपने कर्म से भ्रष्ट था ओर


सदा खेती का काम किया करता था॥ १॥

भा० टी०--हे महादेवि ! उसकी स्त्री सदा परपुरुष से रमण करती थी, वह कर्क शाथी। उसका नाम दुर्दरा
था॥ २॥

भा० टी०--हे देवि ! एक दिन एक धनाय वैश्य करोड़ों रुपयों के सुवर्ण को ले कर उसके पास आया

भा० टी०-हे देवि! तब उस नाई ने धन से युक्त उस वैश्य को अर्द्ध रात्रि के समय तलवार से मार दिया ॥
४॥

भा० टी०-फिर संपूर्णं द्रव्य को ग्रहण कर उस पुरी को त्याग कर संपूर्णं सुवर्ण को खर्च कर दिया ओर
कुछ भी दान नहीं किया ॥ ५॥

भा० टी०--हे देवि । एक बार उस नाई ने स्त्री सहित माघ महीने में प्रयागजी में निरंतर ॥ ६॥

! फिर गोदान किया ओर स्वर्णं से विभूषित


वेशि
भा० टी०-- प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान किया। हे सदा वे
किये बेल का दान किया॥ ७॥

! पचात् त्
भा० टी०-हे सुरेवरिरि
श्व ‌उस नाई कौ मृत्यु मार्ग में कहीं निर्जल स्थान में एक पत्थर पर हो गयी
श्चा
॥ ८॥

भा० टी०--हे महादेवि ! तदनन्तर धर्मराज के दूतौ ने यम कौ आज्ञा से साठ हजार वर्षो तक उसे नरक
मेँ रखा॥ ९॥

भा० टी०-हे देवि! नरक से निकरल कर वह व्याघ्र कौ योनि में पचात् त्


‌भसे की योनि फिर मनुष्य योनि को
श्चा
प्राप्त हुआ॥ १०॥

भा० टी०--हे देवि ! पुनर्वसुनक्षत्रके तीसरे चरण में जन्म लेने वाला यह प्रातःकाल स्नान के फल
से राजकुल में उत्पन्न हुआ हे ॥ ११॥

भा० टी०--हे वरारोहे! मध्यदेश में सरयू नदी के उत्तर तट पर वह धन-वैभव से युक्त है ओर चौरो का
कर्म करने वाला हे ॥ १२॥

भा० टी०-उसको स्त्री वंध्या है अथवा उसको संतान नहीं जीती है, या कन्या ही जन्मती हे, वह कफ रोग से
युक्त है ओर ज्वर से पीडित है ॥ १२३॥

भा० टी०--इसने जो पूर्वजन्म में (नाई को योनि मेँ) मित्र का वध किया, उस कर्म-फल से यह महारोग
से पीडित है ॥ १४॥

भा० टी०-हे देवि! पुत्र भी जन्मा था, किन्तु उसको मृत्यु हो गई । अब उसकी शांति कहता हूं हे देवि!
संक्षेप से सुनो ॥ १५॥

भा० टी०-जब गायत्री मूल मंत्र से पांच लाख तक जप कराये जाये, तब पूर्वजन्म का पाप नष्ट हौ जाता हे
॥ १६॥
भा० टी०--हरिवंश को सुने दुर्गापाठ करायें विधि से शिवजी का पूजन कराये, हे देवि! एेसा करने से
संपूर्णं पाप नष्ट होते हे ॥ १७॥

भा० टी०-- पचात् त्


‌जपो कौ द शा&श
श्चा संख्या से चौकोर कुंड में तिलधान्य आदि से होम करें ॥ १८ ॥

भा० टी०--हे देवि! प्रयत्रपूर्वक पच्चीस पल कौ सुवर्णं कौ वैश्य कौ मूर्ति बनायें ॥ १९॥

भा० टी०- तदनन्तर उत्तम तांबे के पात्र मेँ उस मूर्तिको स्थापित कर पचात् त्
‌गंध, अक्षत आदि से
श्चा
इस मंत्र से पूजन करं ॥ २०॥

भा० टी०-उॐ हे देवदेवेश! हे शंखचक्रगदाधर ! अज्ञान से अथवा प्रमाद से मैने पूर्वजन्म में
पाप किये ॥ २१॥

तत्सर्व क्षम्यतां देव शरणागतवत्सल ।

ॐ चक्रधराय नमः ॐ गोविन्दाय नमः।

ॐ दामोदराय नमः ॐ कृष्णाय नमः।

ॐ हंसाय नमः ॐ परमहंसाय नमः।

यनमःशा
ॐ अच्युताय नमः ॐ हषीके यनमः ॥

तैः
ॐ चक्रादिनामभिचैतैः श्चैसर्वदिक्षु प्रपूजयेत्‌।

भा० टी०--हे शरणागतवत्सल ! उस संपूर्ण को क्षमा करो, मन्त्र-- ॐ चक्रधराय

नमः १, ॐ गोविंदायः २, ॐ दामोदराय नमः ३, ॐ कृष्णाय नमः ४, ॐ हंसाय नमः ५, ॐ परमहंसाय नमः ६, ॐ
अच्युताय नमः ७, ॐ हषीके ययशानमः ८-एेसे इन चक्रधर के नामों से संपूर्ण दि ओंओंशा
मे पूजें ।
प्रतिमा का पूजन करके ब्राह्मण को दान दे॥२२॥
भा० टी०-- तदनन्तर कृष्ण वर्णं कौ पोच गौओं का दान किसी कुटुंबी ब्राह्मण को दं॥ २२॥

भा० टी०--हे देवि ! यथासंख्य, शक्ति के अनुसार ब्राह्यणो को भोजन करायें । हे वरारोहे! एेसा करने
से शीघ्र ही पुत्र होता है ॥ २४॥

भा० टी०- शीघ्र ही वंध्यापन दूर होता है ओर संपूर्णं रोग नष्ट होते है ॥

त्
तकथनं
इति श्रीकर्मवियाक० युनर्वयुनक्षत्रस्य तृतीयचरणप्रायचित्तकथनं श्चि ऽध्या
नाम त्रिंनोऽध्यायःयःश्नो
॥ ३०॥

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