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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली चतुर्थ अध्याय भाग १

06-07-2018, 10:21 AM
श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली चतुर्थ अध्याय भाग १

३०१-ॐ ह्रीं अर्हं महाशोकध्वजाय नमः -का बड़ा भारी अशोकवृक्ष चिन्ह होने से,

३०२-ॐ ह्रीं अर्हं अशोकाय नमः -शोक रहित होने से,

३०३-ॐ ह्रीं अर्हं काय नमः -सबको सुख दाता होने से,

३०४-ॐ ह्रीं अर्हं सृष्टे नमः -स्वर्ग एवं मोक्षमार्ग की सृष्टि कर्त्ता होने से,

३०५-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मविष्टराय नमः -कमलाकर आसान पर विराजमान होने से,

३०६-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मेशाय नमः -पद्मा अर्थात लक्ष्मी (मोक्ष) के स्वामी होने से,

३०७-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मसम्भूतये नमः - विहार के समय देवतागण द्वारा उनके चरणों के नीचे स्वर्ण कमलों की रचना करने से,

३०८-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मनाभाय नमः -नाभी -कमलाकर होने से,

३०९-ॐ ह्रीं अर्हं अनुत्तराय नमः -से श्रेष्ठतमहोने से,

३१०-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मयोनये नमः - शरीर माता के पद्माकर गर्भाशय में उत्पन्न होने से,

३११-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्योनये नमः -धर्म रूप जगत के उत्पत्ति में कारण होने से,
३१२-ॐ ह्रीं अर्हं इत्याय नमः -को भव्य जीव तपश्चरण द्वारा प्राप्त करने से '

३१३-ॐ ह्रीं अर्हं स्तुत्याय नमः - इन्द्रों द्वारा स्तुति करने योग्य होने से,

३१४-ॐ ह्रीं अर्हं स्तुतिश्वराय नमः -स्तुतियों के स्वामी होने से ,

३१५-ॐ ह्रीं अर्हं स्तवनार्हाय नमः - स्तवन किये जाने योग्य होने से ,

३१६-ॐ ह्रीं अर्हं ह्रृषीके शाय नमः -इन्द्रियों को वश में कर उनके स्वामी होने से,

३१७-ॐ ह्रीं अर्हं जितजेयाय नमः -समस्त मोहनीय आदि कर्म शत्रुओं पर विजयी होने से,

३१८-ॐ ह्रीं अर्हं कृ तक्रियाय नमः -समस्त करने योग्य क्रियाएँ को कर चुकने से,

३१९- ॐ ह्रीं अर्हं गणाधिपाय नमः - १२ सभाओंरूप गण के स्वामी होने से,

३२०-ॐ ह्रीं अर्हं गणज्येष्ठाय नमः -समस्त गणों के ज्येष्ठ होने से,

३२१-ॐ ह्रीं अर्हं गण्याय नमः -त्रिलोक में गणना करने योग्य होने से,

३२२-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्याय नमः -पवित्र होने से,

३२३-ॐ ह्रीं अर्हं गणाग्रण्यै नमः -सभा में उपस्थित सभी प्राणियों को कल्याण मार्ग पर लगाने वालेहोने से,

३२४-ॐ ह्रीं अर्हं गुणाकारय नमः -गुणो की खान होने से,

३२५-ॐ ह्रीं अर्हं गुणोम्भोधये नमः -गुणों के समूह होने से ,

३२६-ॐ ह्रीं अर्हं गुणज्ञाय नमः -गुणों के ज्ञाता होने से,

३२७-ॐ ह्रीं अर्हं गुणनायकाय नमः -गुणों के स्वामी होने से,

३२८-ॐ ह्रीं अर्हं गुणादरिणे नमः -गुणों का आदर करने से ,

३२९-ॐ ह्रीं अर्हं गुणोच्छेदिने नमः -विभावीक गुणों का क्षय करने से,

३३०-ॐ ह्रीं अर्हं निर्गुणाय नमः -वैभविक भावो से रहित होने से,
३३१-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यगिरे नमः -पवित्र वाणी के धारक होने से ,

३३२-ॐ ह्रीं अर्हं गुणाय नमः -गुणों से युक्त होने से,

३३३- ॐ ह्रीं अर्हं शरण्याय नमः -जीवों के रक्षक होने से,

३३४-ॐ ह्रीं अर्हं पूतवाचे नमः -वचन पवित्र होने से ,

३३५-ॐ ह्रीं अर्हं पूताय नमः -पवित्र होने से,

३३६-ॐ ह्रीं अर्हं वरेण्याय नमः -श्रेष्ट होने से,

३३७-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यनायकाय नमः -पुण्य के अधिपति होने से,

३३८-ॐ ह्रीं अर्हं अगण्याय नमः - गणनारहित होने से ,

३३९-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यधीये नमः -पवित्र बुद्धि धारक होने से,

३४०-ॐ ह्रीं अर्हं गुण्याय नमः -गुणों सहित होने से,

३४१-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यकृ ते नमः - पुण्य करने वाले होने से,

३४२-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यशासनाय नमः - शाशन पवित्र,पुण्यरूप होने से,

३४३-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मारामाय नमः -धर्म के उपवन स्वरुप होने से,

३४४- ॐ ह्रीं अर्हं गुणग्रामाय नमः - अनेक गुणों के समूह होने से,

३४५-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यापुण्यनिरोधकाय नमः -शुद्धोपयोग में लीन ,पाप और पुण्य दोनों का निरोध करने से ,

३४६-ॐ ह्रीं अर्हं पापापेताय नमः -हिंसादि पापों रहित होने से,

३४७-ॐ ह्रीं अर्हं विपापात्मने नमः -आत्मा से समस्त पापो के विगत होने से

३४८-ॐ ह्रीं अर्हं विपाप्मने नमः -समस्त पापों को नष्ट करने से ,

३४९ ॐ ह्रीं अर्हं वीतकल्मषाय नमः - के समस्त कल्मष अर्थात रागद्वेष रूपी भावकर्म रुपी मल नष्ट होने से,

३५०-ॐ ह्रीं अर्हं निर्द्वन्द्वाय नमः -परिग्रह रहित होने से,,


(This post was last modified: 06-23-2018, 10:11 AM by scjain
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