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र्तहचन्द—अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूाँर्ा।

यह कहते हुए र्तहचन्द कमरे से बाहर ननकले और बडे इतमीनान से


घर चले। आज उन्ह़ें सच्ची ववजय की प्रसन्नता का अनभ
ु व हुआ। उन्ह़ें ऐसी
खश
ु ी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीतन की पहली जीत थी।

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अलग्योझा

भो
ला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने बाद दस
ू री सर्ाई की, तो उसके
लडके रग्घू के मलए बरु े ददन आ र्ए। रग्घू की उम्र उस समय
केवल दस वषा की थी। चैने से र् वॉँ म़ें र्ल्
ु ली-डंडा खेलता क्रर्रता था। म ॉँ के
आते ही चक्की म़ें जत
ु ना पडा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और र्वा म़ें
चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई काम न करती। र्ोबर
ॉँ
रग्घू ननकालता, बैलों को सानी रग्घू दे ता। रग्घू ही जूठे बरतन म जता। भोला
ॉँ
की ऑ ंख़ें कुछ ऐसी क्रर्रीं क्रक उसे रग्घू म़ें सब बरु ाइय -ही-बरु ाइय ॉँ नजर
आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मयाादानस
ु ार ऑ ंख़ें बंद करके मान
लेता था। रग्घू की मशकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ क्रक
रग्घू ने मशकायत करना ही छोड ददया। क्रकसके सामने रोए? बाप ही नहीं,
सारा र् वॉँ उसका दश्ु मन था। बडा जजद्दी लडका है, पन्ना को तो कुद समझता
ही नहीं: बेचारी उसका दल
ु ार करती है, खखलाती-वपलाती हैं यह उसी का र्ल
है । दस
ू री औरत होती, तो ननबाह न होता। वह तो कहा, पन्ना इतनी सीधी-
सादी है क्रक ननबाह होता जाता है । सबल की मशकायत़ें सब सन
ु ते हैं, ननबाल
ु ता! रग्घू का हृदय म ॉँ की ओर से ददन-ददन
की र्ररयाद भी कोई नहीं सन
र्टता जाता था। यहां तक क्रक आठ साठ र्ुजर र्ए और एक ददन भोला के
नाम भी मत्ृ यु का सन्दे श आ पहुाँचा।
पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड खचा और
कमानेवाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पछ
ू ने लर्ा? यह मानी हुई बात
थी। अपनी स्त्री लाएर्ा और अलर् रहे र्ा। स्त्री आकर और भी आर्
लर्ाएर्ी। पन्ना को चारों ओर अंधेरा ही ददखाई दे ता था: पर कुछ भी हो,
वह रग्घू की आसरै त बनकर घर म़ें रहे र्ी। जजस घर म़ें उसने राज क्रकया,
उसम़ें अब लौंडी न बनेर्ी। जजस लौंडे को अपना र्ुलाम समझा, उसका मंह

न ताकेर्ी। वह सन्
ु दर थीं, अवस्त्था अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी
अपनी परू ी बहार पर थी। क्या वह कोई दस
ू रा घर नहीं कर सकती? यहीं न
होर्ा, लोर् हाँ सर्
़ें े। बला से! उसकी त्रबरादरी म़ें क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण,
ठाकुर थोडी ही थी क्रक नाक कट जायर्ी। यह तो उन्ही ऊाँची जातों म़ें होता

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है क्रक घर म़ें चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे । वह तो संसार को
ददखाकर दस
ू रा घर कर सकती है, क्रर्र वह रग्घू क्रक दबैल बनकर क्यों रहे ?
भोला को मरे एक महीना र्ज
ु र चक
ु ा था। संध्या हो र्ई थी। पन्ना
इसी धचन्ता म़ें पड हुई थी क्रक सहसा उसे ख्याल आया, लडके घर म़ें नहीं हैं।
यह बैलों के लौटने की बेला है , कहीं कोई लडका उनके नीचे न आ जाए।
अब द्वार पर कौन है , जो उनकी दे खभाल करे र्ा? रग्घू को मेरे लडके र्ूटी
ऑ ंखों नहीं भाते। कभी हाँ सकर नहीं बोलता। घर से बाहर ननकली, तो दे खा,
रग्घू सामने झोपडे म़ें बैठा ऊख की र्ाँडरे रया बना रहा है, लडके उसे घेरे खडे
हैं और छोटी लडकी उसकी र्दा न म़ें हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की
चेष्ट्टा कर रही है । पन्ना को अपनी ऑ ंखों पर ववश्वास न आया। आज तो
यह नई बात है । शायद दनु नया को ददखाता है क्रक मैं अपने भाइयों को
क्रकतना चाहता हूाँ और मन म़ें छुरी रखी हुई है । घात ममले तो जान ही ले
ले! काला स पॉँ है, काला स प!
ॉँ कठोर स्त्वर म़ें बोली-तुम सबके सब वह ॉँ क्या
ॉँ की बेला है, र्ोरु आते होंर्े।
करते हो? घर म़ें आओ, स झ
रग्घू ने ववनीत नेरों से दे खकर कहा—मैं तो हूं ही काकी, डर क्रकस बात
का है?
बडा लडका केदार बोला-काकी, रग्घू दादा ने हमारे मलए दो र्ाडडयााँ
बना दी हैं। यह दे ख, एक पर हम और खुन्नू बैठ़ेंर्े, दस
ू री पर लछमन और
झनु नय ।ॉँ दादा दोनों र्ाडडय ॉँ खींच़ेंर्े।
यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी र्ाडडय ॉँ ननकाल लाया।
चार-चार पदहए लर्े थे। बैठने के मलए तख्ते और रोक के मलए दोनों तरर्
बाजू थे।
ू ा-ये र्ाडडय ॉँ क्रकसने बनाई?
पन्ना ने आश्चया से पछ
केदार ने धचढ़कर कहा-रग्घू दादा ने बनाई हैं, और क्रकसने! भर्त के
घर से बसल ॉँ लाए और चटपट बना दीं। खूब दौडती हैं
ू ा और रुखानी म र्
काकी! बैठ खुन्नू मैं खींचाँ ।ू
खन्
ु नू र्ाडी म़ें बैठ र्या। केदार खींचने लर्ा। चर-चर शोर हुआ मानो
र्ाडी भी इस खेल म़ें लडकों के साथ शरीक है।
लछमन ने दस
ू री र्ाडी म़ें बैठकर कहा-दादा, खींचो।

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रग्घू ने झनु नय ॉँ को भी र्ाडी म़ें त्रबठा ददया और र्ाडी खींचता हुआ
दौडा। तीनों लडके तामलय ॉँ बजाने लर्े। पन्ना चक्रकत नेरों से यह दृश्य दे ख
रही थी और सोच रही थी क्रक य वही रग्घू है या कोई और।
थोडी दे र के बाद दोनों र्ाडडय ॉँ लौटीं: लडके घर म़ें जाकर इस
यानयारा के अनभ
ु व बयान करने लर्े। क्रकतने खुश थे सब, मानों हवाई
जहाज पर बैठ आये हों।
खुन्नू ने कहा-काकी सब पेड दौड रहे थे।
लछमन-और बनछय ॉँ कैसी भार्ीं, सबकी सब दौडीं!
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों र्ाडडय ॉँ एक साथ खींच ले जाते हैं।
झनु नय ॉँ सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शजक्त उछल-कूद और नेरों
तक पररममत थी-तामलय ॉँ बजा-बजाकर नाच रही थी।
खन्
ु न-ू अब हमारे घर र्ाय भी आ जाएर्ी काकी! रग्घू दादा ने धर्रधारी
से कहा है क्रक हम़ें एक र्ाय ला दो। धर्रधारी बोला, कल लाऊाँर्ा।
केदार-तीन सेर दध
ू दे ती है काकी! खूब दध
ू पीऍर्ें ।
इतने म़ें रग्घू भी अंदर आ र्या। पन्ना ने अवहे लना की दृजष्ट्ट से
दे खकर पछ ॉँ है?
ू ा-क्यों रग्घू तुमने धर्रधारी से कोई र्ाय म र्ी
रग्घू ने क्षमा-प्राथाना के भाव से कहा-ह ,ॉँ म र्ी
ॉँ तो है, कल लाएर्ा।
पन्ना-रुपये क्रकसके घर से आऍर्ें , यह भी सोचा है ?
रग्घ-ू सब सोच मलया है काकी! मेरी यह मह
ु र नहीं है । इसके पच्चीस
ॉँ रुपये बनछया के मज
रुपये ममल रहे हैं, प च ु ा दे दाँ र्
ू ा! बस, र्ाय अपनी हो
जाएर्ी।
पन्ना सन्नाटे म़ें आ र्ई। अब उसका अववश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम
और सज्जनता को अस्त्वीकार न कर सका। बोली-मह
ु र को क्यों बेचे दे ते हो?
र्ाय की अभी कौन जल्दी है ? हाथ म़ें पैसे हो जाऍ,ं तो ले लेना। सन
ू ा-सन
ू ा
र्ला अच्छा न लर्ेर्ा। इतने ददनों र्ाय नहीं रही, तो क्या लडके नहीं जजए?
रग्घू दाशाननक भाव से बोला-बच्चों के खाने-पीने के यही ददन हैं काकी!
इस उम्र म़ें न खाया, तो क्रर्र क्या खाऍर्ें । मह
ु र पहनना मझ
ु े अच्छा भी नही
मालम
ू होता। लोर् समझते होंर्े क्रक बाप तो र्या। इसे मह
ु र पहनने की
सझ
ू ी है ।
भोला महतो र्ाय की धचंता ही म़ें चल बसे। न रुपये आए और न
र्ाय ममली। मजबरू थे। रग्घू ने यह समस्त्या क्रकतनी सर्
ु मता से हल कर

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दी। आज जीवन म़ें पहली बार पन्ना को रग्घू पर ववश्वास आया, बोली-जब
र्हना ही बेचना है , तो अपनी मह
ु र क्यों बेचोर्े? मेरी हाँ सल
ु ी ले लेना।
रग्घ-ू नहीं काकी! वह तम् ु हारे र्ले म़ें बहुत अच्छी लर्ती है । मदो को
क्या, मह
ु र पहऩें या न पहऩें।
पन्ना-चल, मैं बढ़
ू ी हुई। अब हाँ सल
ु ी पहनकर क्या करना है । तू अभी
लडका है, तेरा र्ला अच्छा न लर्ेर्ा?
रग्घू मस्त् ू ी हो र्ई? र् वॉँ म़ें है कौन
ु कराकर बोला—तुम अभी से कैसे बढ़
तुम्हारे बराबर?
रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लजज्जत कर ददया। उसके रुखे-
मरु छाए मख
ु पर प्रसन्नता की लाली दौड र्ई।

पााँ
च साल र्ज
ु र र्ए। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी
ू रा क्रकसान र् वॉँ म़ें न था। पन्ना की इच्छा के त्रबना कोई काम न
दस
करता। उसकी उम्र अब 23 साल की हो र्ई थी। पन्ना बार-बार कहती,
भइया, बहू को त्रबदा करा लाओ। कब तक नैह म़ें पडी रहे र्ी? सब लोर् मझ
ु ी
को बदनाम करते हैं क्रक यही बहू को नहीं आने दे ती: मर्र रग्घू टाल दे ता
था। कहता क्रक अभी जल्दी क्या है ? उसे अपनी स्त्री के रं र्-ढं र् का कुछ
पररचय दस
ू रों से ममल चक
ु ा था। ऐसी औरत को घर म़ें लाकर वह अपनी
ॉँ म़ें बाधा नहीं डालना चाहता था।
श नत
आखखर एक ददन पन्ना ने जजद करके कहा-तो तम
ु न लाओर्े?
‘कह ददया क्रक अभी कोई जल्दी नहीं।’
‘तुम्हारे मलए जल्दी न होर्ी, मेरे मलए तो जल्दी है । मैं आज आदमी
भेजती हूाँ।’
‘पछताओर्ी काकी, उसका ममजाज अच्छा नहीं है।’
‘तुम्हारी बला से। जब मैं उससे बोलाँ र्
ू ी ही नहीं, तो क्या हवा से
लडेर्ी? रोदटय ॉँ तो बना लेर्ी। मझ
ु से भीतर-बाहर का सारा काम नहीं होता, मैं
आज बल
ु ाए लेती हूाँ।’
‘बल
ु ाना चाहती हो, बल
ु ा लो: मर्र क्रर्र यह न कहना क्रक यह मेहररया
को ठीक नहीं करता, उसका र्ल
ु ाम हो र्या।’
‘न कहूाँर्ी, जाकर दो साडडयााँ और ममठाई ले आ।’
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तीसरे ददन ममु लया मैके से आ र्ई। दरवाजे पर नर्ाडे बजे, शहनाइयों
की मधरु ध्वनन आकाश म़ें र्ाँज
ू ने लर्ी। माँह
ु -ददखावे की रस्त्म अदा हुई। वह
इस मरुभमू म म़ें ननमाल जलधारा थी। र्ेहुऑ ं रं र् था, बडी-बडी नोकीली पलक़ें,
कपोलों पर हल्की सख
ु ी, ऑ ंखों म़ें प्रबल आकषाण। रग्घू उसे दे खते ही
मंरमग्ु ध हो र्या।
प्रात:काल पानी का घडा लेकर चलती, तब उसका र्ेहुऑ ं रं र् प्रभात की
सन
ु हरी क्रकरणों से कुन्दन हो जाता, मानों उषा अपनी सारी सर् ु ंध, सारा
ववकास और उन्माद मलये मस्त्
ु कराती चली जाती हो।

मु मलया मैके से ही जली-भन


ु ी आयी थी। मेरा शौहर छाती र्ाडकर काम
करे , और पन्ना रानी बनी बैठी रहे , उसके लडे रईसजादे बने घम
ू ़ें ।
ममु लया से यह बरदाश्त न होर्ा। वह क्रकसी की र्ल
ु ामी न करे र्ी। अपने
लडके तो अपने होते ही नहीं, भाई क्रकसके होते हैं? जब तक पर नहीं ननकते
हैं, रग्घू को घेरे हुए हैं। ज्यों ही जरा सयाने हुए, पर झाडकर ननकल जाऍर्ें ,
बात भी न पछ ू ़ें र्े।
एक ददन उसने रग्घू से कहा—तुम्ह़ें इस तरह र्ुलामी करनी हो, तो
करो, मझ
ु से न होर्ी।
रग्घ—
ू तो क्रर्र क्या करुाँ , तू ही बता? लडके तो अभी घर का काम
करने लायक भी नहीं हैं।
ममु लया—लडके रावत के हैं, कुछ तम्
ु हारे नहीं हैं। यही पन्ना है , जो
तम्
ु ह़ें दाने-दाने को तरसाती थी। सब सन ु चक
ु ी हूं। मैं लौंडी बनकर न रहूाँर्ी।
रुपये-पैसे का मझ ु े दहसाब नहीं ममलता। न जाने तुम क्या लाते हो और वह
क्या करती है । तुम समझते हो, रुपये घर ही म़ें तो हैं: मर्र दे ख लेना, तुम्ह़ें
जो एक र्ूटी कौडी भी ममले।
रग्घ—
ू रुपये-पैसे तेरे हाथ म़ें दे ने लर्ाँू तो दनु नया कया कहे र्ी, यह तो
सोच।
ममु लया—दनु नया जो चाहे , कहे । दनु नया के हाथों त्रबकी नहीं हूाँ। दे ख
लेना, भ डॉँ लीपकर हाथ काला ही रहे र्ा। क्रर्र तम
ु अपने भाइयों के मलए
मरो, मै। क्यों मरुाँ ?

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रग्घ—
ू ने कुछ जवाब न ददया। उसे जजस बात का भय था, वह इतनी
जल्द मसर आ पडी। अब अर्र उसने बहुत तत्थो-थंभो क्रकया, तो साल-
छ:महीने और काम चलेर्ा। बस, आर्े यह डोंर्ा चलता नजर नहीं आता।
बकरे की म ॉँ कब तक खैर मनाएर्ी?
एक ददन पन्ना ने महुए का सख ु ावन डाला। बरसाल शरु ु हो र्ई थी।
बखार म़ें अनाज र्ीला हो रहा था। ममु लया से बोली-बहू, जरा दे खती रहना, मैं
तालाब से नहा आऊाँ?
ममु लया ने लापरवाही से कहा-मझ
ु े नींद आ रही है, तुम बैठकर दे खो।
एक ददन न नहाओर्ी तो क्या होर्ा?
पन्ना ने साडी उतारकर रख दी, नहाने न र्यी। ममु लया का वार खाली
र्या।
कई ददन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर लौटी, अाँधेरा हो
र्या था। ददन-भर की भख
ू ी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होर्ी: मर्र
दे खा तो यह ॉँ चल्
ू हा ठं डा पडा हुआ था, और बच्चे मारे भखू के तडप रहे थे।
ममु लया से आदहस्त्ता से पछ ू ा-आज अभी चल्
ू हा नहीं जला?
केदार ने कहा—आज दोपहर को भी चल्
ू हा नहीं जला काकी! भाभी ने
कुछ बनाया ही नहीं।
पन्ना—तो तुम लोर्ों ने खाया क्या?
केदार—कुछ नहीं, रात की रोदटय ॉँ थीं, खन्
ु नू और लछमन ने खायीं।
मैंने सत्तू खा मलया।
पन्ना—और बहू?
केदार—वह पडी सो रह है , कुछ नहीं खाया।
पन्ना ने उसी वक्त चल्
ू हा जलाया और खाना बनाने बैठ र्ई। आटा
र्ाँध
ू ती थी और रोती थी। क्या नसीब है? ददन-भर खेत म़ें जली, घर आई तो
चल्
ू हे के सामने जलना पडा।
केदार का चौदहव ॉँ साल था। भाभी के रं र्-ढं र् दे खकर सारी जस्त्थत
समझ ् रहा था। बोला—काकी, भाभी अब तम्
ु हारे साथ रहना नहीं चाहती।
पन्ना ने चौंककर पछ
ू ा—क्या कुछ कहती थी?
केदार—कहती कुछ नहीं थी: मर्र है उसके मन म़ें यही बात। क्रर्र
तुम क्यों नहीं उसे छोड दे तीं? जैसे चाहे रहे , हमारा भी भर्वान ् है ?

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ॉँ
पन्ना ने द तों से जीभ दबाकर कहा—चप
ु , मरे सामने ऐसी बात
भल
ू कर भी न कहना। रग्घू तम्
ु हारा भाई नहीं, तम्
ु हारा बाप है । ममु लया से
कभी बोलोर्े तो समझ लेना, जहर खा लाँ र्
ू ी।

द शहरे का त्यौहार आया। इस र् वॉँ से कोस-भर एक परु वे म़ें मेला लर्ता


था। र् वॉँ के सब लडके मेला दे खने चले। पन्ना भी लडकों के साथ
चलने को तैयार हुई: मर्र पैसे कह ॉँ से आऍ?ं कंु जी तो ममु लया के पास थी।
रग्घू ने आकर ममु लया से कहा—लडके मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो
पैसे दे दो।
ममु लया ने त्योररय ॉँ चढ़ाकर कहा—पैसे घर म़ें नहीं हैं।
रग्घ—
ू अभी तो तेलहन त्रबका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ र्ए?
ममु लया—ह ,ॉँ उठ र्ए?
ू कह ॉँ उठ र्ए? जरा सन
रग्घ— ु ाँ,ू आज त्योहार के ददन लडके मेला दे खने
न जाऍर्ें ?
ममु लया—अपनी काकी से कहो, पैसे ननकाल़ें, र्ाडकर क्या कऱें र्ी?
खूाँटी पर कंु जी हाथ पकड मलया और बोली—कंु जी मझ
ु े दे दो, नहीं तो
ठीक न होर्ा। खाने-पहने को भी चादहए, कार्ज-क्रकताब को भी चादहए, उस
पर मेला दे खने को भी चादहए। हमारी कमाई इसमलए नहीं है क्रक दस
ू रे खाऍ ं
और माँछ
ू ों पर ताव द़ें ।
पन्ना ने रग्घू से कहा—भइया, पैसे क्या होंर्े! लडके मेला दे खने न
जाऍर्ें ।
रग्घू ने खझडककर कहा—मेला दे खने क्यों न जाऍर्ें ? सारा र् वॉँ जा
रहा है । हमारे ही लडके न जाऍर्ें ?
यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुडा मलया और पैसे ननकालकर लडकों
को दे ददये: मर्र कंु जी जब ममु लया को दे ने लर्ा, तब उसने उसे आंर्न म़ें
ऱ्ेंक ददया और माँह
ु लपेटकर लेट र्ई! लडके मेला दे खने न र्ए।
इसके बाद दो ददन र्ुजर र्ए। ममु लया ने कुछ नहीं खाया और पन्ना
भी भख
ू ी रही रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे:पर न यह उठती, न वह।
आखखर रग्घू ने है रान होकर ममु लया से पछ
ू ा—कुछ माँह
ु से तो कह, चाहती
क्या है?
744
ममु लया ने धरती को सम्बोधधत करके कहा—मैं कुछ नहीं चाहती, मझ
ु े
मेरे घर पहुाँचा दो।
रग्घ—ू अच्छा उठ, बना-खा। पहुाँचा दाँ र्
ू ा।
ममु लया ने रग्घू की ओर ऑ ंख़ें उठाई। रग्घू उसकी सरू त दे खकर डर
र्या। वह माधय ॉँ ननकल
ु ,ा वह मोहकता, वह लावण्य र्ायब हो र्या था। द त
आए थे, ऑ ंख़ें र्ट र्ई थीं और नथन
ु े र्डक रहे थे। अंर्ारे की-सी लाल
ऑ ंखों से दे खकर बोली—अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है , यह मंर पढ़ाया
है ? तो यह ॉँ ऐसी कच्चे नहीं हूाँ। तुम दोनों की छाती पर माँर्
ू दलाँ र्
ू ी। हो क्रकस
र्ेर म़ें ?
रग्घ—
ू अच्छा, तो माँर्
ू ही दल लेना। कुछ खा-पी लेर्ी, तभी तो माँर्

दल सकेर्ी।
ममु लया—अब तो तभी माँह
ु म़ें पानी डालाँ र्
ू ी, जब घर अलर् हो जाएर्ा।
बहुत झेल चकु ी, अब नहीं झेला जाता।
रग्घू सन्नाटे म़ें आ र्या। एक ददन तक उसके माँह
ु से आवाज ही न
ननकली। अलर् होने की उसने स्त्वप्न म़ें भी कल्पना न की थी। उसने र् वॉँ
म़ें दो-चार पररवारों को अलर् होते दे खा था। वह खूब जानता था, रोटी के
साथ लोर्ों के हृदय भी अलर् हो जाते हैं। अपने हमेशा के मलए र्ैर हो
जाते हैं। क्रर्र उनम़ें वही नाता रह जाता है , जो र् वॉँ के आदममयों म़ें । रग्घू
ने मन म़ें ठान मलया था क्रक इस ववपजत्त को घर म़ें न आने दाँ र्
ू ा: मर्र
होनहार के सामने उसकी एक न चली। आह! मेरे माँह
ु म़ें कामलख लर्ेर्ी,
दनु नया यही कहे र्ी क्रक बाप के मर जाने पर दस साल भी एक म़ें ननबाह न
हो सका। क्रर्र क्रकससे अलर् हो जाऊाँ? जजनको र्ोद म़ें खखलाया, जजनको
बच्चों की तरह पाला, जजनके मलए तरह-तरह के कष्ट्ठ झेल,े उन्हीं से अलर्
हो जाऊाँ? अपने प्यारों को घर से ननकाल बाहर करुाँ ? उसका र्ला र्ाँस र्या।
ॉँ
क पते हुए स्त्वर म़ें बोला—तू क्या चाहती है क्रक मैं अपने भाइयों से अलर्
हो जाऊाँ? भला सोच तो, कहीं माँहु ददखाने लायक रहूाँर्ा?
ममु लया—तो मेरा इन लोर्ों के साथ ननबाह न होर्ा।
रग्घ—
ू तो तू अलर् हो जा। मझ
ु े अपने साथ क्यों घसीटती है ?
ममु लया—तो मझ
ु े क्या तम्
ु हारे घर म़ें ममठाई ममलती है? मेरे मलए क्या
संसार म़ें जर्ह नहीं है ?

745
ू तेरी जैसी मजी, जह ॉँ चाहे रह। मैं अपने घर वालों से अलर्
रग्घ—
नहीं हो सकता। जजस ददन इस घर म़ें दो चल्
ू ह़ें जल़ेंर्े, उस ददन मेरे कलेजे
के दो टुकडे हो जाऍर्ें । मैं यह चोट नहीं सह सकता। तझ
ु े जो तकलीर् हो,
वह मैं दरू कर सकता हूाँ। माल-असबाब की मालक्रकन तू है ही: अनाज-पानी
तेरे ही हाथ है , अब रह क्या र्या है ? अर्र कुछ काम-धंधा करना नहीं
चाहती, मत कर। भर्वान ने मझ
ु े समाई दी होती, तो मैं तझ
ु े नतनका तक
उठाने न दे ता। तेरे यह सक
ु ु मार हाथ-पांव मेहनत-मजदरू ी करने के मलए
बनाए ही नहीं र्ए हैं: मर्र क्या करुाँ अपना कुछ बस ही नहीं है । क्रर्र भी
तेरा जी कोई काम करने को न चाहे , मत कर: मर्र मझ
ु से अलर् होने को
न कह, तेरे पैरों पडता हूाँ।
ममु लया ने मसर से अंचल खखसकाया और जरा समीप आकर बोली—मैं
काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हूाँ: मर्र मझ
ु से क्रकसी
की धौंस नहीं सही जाती। तुम्हारी ही काकी घर का काम-काज करती हैं, तो
अपने मलए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के मलए करती हैं। मझ
ु पर कुछ
एहसान नहीं करतीं, क्रर्र मझ
ु पर धौंस क्यों जमाती हैं? उन्ह़ें अपने बच्चे
प्यारे होंर्े, मझ
ु े तो तुम्हारा आसरा है । मैं अपनी ऑ ंखों से यह नहीं दे ख
सकती क्रक सारा घर तो चैन करे , जरा-जरा-से बच्चे तो दध
ू पीऍ,ं और जजसके
बल-बतू े पर र्ह
ृ स्त्थी बनी हुई है, वह मठा े को तरसे। कोई उसका पछ
ू नेवाला न
हो। जरा अपना मंह ु तो दे खो, कैसी सरू त ननकल आई है। औरों के तो चार
बरस म़ें अपने पठा े तैयार हो जाऍर्ें । तम
ु तो दस साल म़ें खाट पर पड
जाओर्े। बैठ जाओ, खडे क्यों हो? क्या मारकर भार्ोर्े? मैं तुम्ह़ें जबरदस्त्ती न
बध ॉँ लाँ र्
ू ी, या मालक्रकन का हुक्म नहीं है? सच कहूाँ, तुम बडे कठ-कलेजी हो।
मैं जानती, ऐसे ननमोदहए से पाला पडेर्ा, तो इस घर म़ें भल ू से न आती।
आती भी तो मन न लर्ाती, मर्र अब तो मन तुमसे लर् र्या। घर भी
जाऊाँ, तो मन यह ॉँ ही रहे र्ा और तुम जो हो, मेरी बात नहीं पछ
ू ते।
ममु लया की ये रसीली बात़ें रग्घू पर कोई असर न डाल सकीं। वह उसी
रुखाई से बोला—ममु लया, मझ
ु से यह न होर्ा। अलर् होने का ध्यान करते ही
मेरा मन न जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मझ
ु से न सही जाएर्ी।
ममु लया ने पररहास करके कहा—तो चडू डय ॉँ पहनकर अन्दर बैठो न!
लाओ मैं माँछ
ू ़ें लर्ा लं।ू मैं तो समझती थी क्रक तुमम़ें भी कुछ कल-बल है ।
अब दे खती हूाँ, तो ननरे ममट्टी के लौंदे हो।

746
पन्ना दालान म़ें खडी दोनों की बातचीत सन
ु नहीं थी। अब उससे न
रहा र्या। सामने आकर रग्घू से बोली—जब वह अलर् होने पर तल ु ी हुई है,
क्रर्र तम
ु क्यों उसे जबरदस्त्ती ममलाए रखना चाहते हो? तम
ु उसे लेकर रहो,
हमारे भर्वान ् ने ननबाह ददया, तो अब क्या डर? अब तो भर्वान ् की दया से
तीनों लडके सयाने हो र्ए हैं, अब कोई धचन्ता नहीं।
रग्घू ने ऑ ंस-ू भरी ऑ ंखों से पन्ना को दे खकर कहा—काकी, तू भी
पार्ल हो र्ई है क्या? जानती नहीं, दो रोदटय ॉँ होते ही दो मन हो जाते हैं।
पन्ना—जब वह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोर्े? भर्वान ् की
मरजी होर्ी, तो कोई क्या करे र्ा? परालब्ध म़ें जजतने ददन एक साथ रहना
मलखा था, उतने ददन रहे । अब उसकी यही मरजी है , तो यही सही। तुमने मेरे
बाल-बच्चों के मलए जो कुछ क्रकया, वह भल
ू नहीं सकती। तम
ु ने इनके मसर
हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या र्नत होती: न जाने क्रकसके
ॉँ
द्वार पर ठोकऱें खात़ें होते, न जाने कह -कह ॉँ भीख म र्ते
ॉँ क्रर्रते। तुम्हारा
जस मरते दम तक र्ाऊाँर्ी। अर्र मेरी खाल तुम्हारे जत
ू े बनाने के काम
आते, तो खुशी से दे दाँ ।ू चाहे तुमसे अलर् हो जाऊाँ, पर जजस घडी पक
ु ारोर्े,
कुत्ते की तरह दौडी आऊाँर्ी। यह भल
ू कर भी न सोचना क्रक तुमसे अलर्
होकर मैं तुम्हारा बरु ा चेताँर्
ू ी। जजस ददन तुम्हारा अनभल मेरे मन म़ें
आएर्ा, उसी ददन ववष खाकर मर जाऊाँर्ी। भर्वान ् करे , तुम दध
ू ों नहाओं,
पत
ू ों र्लों! मरते दम तक यही असीस मेरे रोऍ-रोऍ
ं ं से ननकलती रहे र्ी और
अर्र लडके भी अपने बाप के हैं। तो मरते दम तक तम्
ु हारा पोस माऩेंर्े।
यह कहकर पन्ना रोती हुई वह ॉँ से चली र्ई। रग्घू वहीं मनू ता की तरह
बैठा रहा। आसमान की ओर टकटकी लर्ी थी और ऑ ंखों से ऑ ंसू बह रहे
थे।

प न्ना की बात़ें सन
ु कर ममु लया समझ र्ई क्रक अपने पौबारह हैं। चटपट
उठी, घर म़ें झाडू लर्ाई, चल्
उसकी टे क परू ी हो र्ई थी।
ू हा जलाया और कुऍ ं से पानी लाने चली।

र् वॉँ म़ें जस्त्रयों के दो दल होते हैं—एक बहुओं का, दस ू रा सासों का!


बहुऍ ं सलाह और सहानभ ु नू त के मलए अपने दल म़ें जाती हैं, सास़ें अपने म़ें।

747
दोनों की पंचायत़ें अलर् होती हैं। ममु लया को कुऍ ं पर दो-तीन बहुऍ ं ममल
र्ई। एक से पछू ा—आज तो तम् ु हारी बदु ढ़या बहुत रो-धो रही थी।
ममु लया ने ववजय के र्वा से कहा—इतने ददनों से घर की मालक्रकन
बनी हुई है, राज-पाट छोडते क्रकसे अच्छा लर्ता है ? बहन, मैं उनका बरु ा नहीं
चाहती: लेक्रकन एक आदमी की कमाई म़ें कह ॉँ तक बरकत होर्ी। मेरे भी तो
यही खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के ददन हैं। अभी उनके पीछे मरो, क्रर्र बाल-
बच्चे हो जाऍ,ं उनके पीछे मरो। सारी जजन्दर्ी रोते ही कट जाएर्ी।
एक बहू-बदु ढ़या यही चाहती है क्रक यह सब जन्म-भर लौंडी बनी रह़ें ।
मोटा-झोटा खाएं और पडी रह़ें ।
दस
ू री बहू—क्रकस भरोसे पर कोई मरे —अपने लडके तो बात नहीं पछ ू ़ें
पराए लडकों का क्या भरोसा? कल इनके हाथ-पैर हो जाय़ेंर्े, क्रर्र कौन
पछ
ू ता है ! अपनी-अपनी मेहररयों का मंह
ु दे ख़ेंर्े। पहले ही से र्टकार दे ना
अच्छा है, क्रर्र तो कोई कलक न होर्ा।
ममु लया पानी लेकर र्यी, खाना बनाया और रग्घू से बोली—जाओं, नहा
आओ, रोटी तैयार है ।
रग्घू ने मानों सन
ु ा ही नहीं। मसर पर हाथ रखकर द्वार की तरर्
ताकता रहा।
ममु लया—क्या कहती हूाँ, कुछ सन
ु ाई दे ता है , रोटी तैयार है , जाओं नहा
आओ।
रग्घ—
ू सन
ु तो रहा हूाँ, क्या बहरा हूाँ? रोटी तैयार है तो जाकर खा ले।
मझ
ु े भख
ू नहीं है ।
ममु लया ने क्रर्र नहीं कहा। जाकर चल् ु ा ददया, रोदटय ॉँ उठाकर
ू हा बझ
छींके पर रख दीं और माँह ॉँ
ु ढ ककर लेट रही।
जरा दे र म़ें पन्ना आकर बोली—खाना तैयार है, नहा-धोकर खा लो! बहू
भी भख
ू ी होर्ी।
रग्घू ने झाँझ
ु लाकर कहा—काकी तू घर म़ें रहने दे र्ी क्रक माँह
ु म़ें
कामलख लर्ाकर कहीं ननकल जाऊाँ? खाना तो खाना ही है , आज न खाऊाँर्ा,
कल खाऊाँर्ा, लेक्रकन अभी मझ
ु से न खाया जाएर्ा। केदार क्या अभी मदरसे
से नहीं आया?
पन्ना—अभी तो नीं आया, आता ही होर्ा।

748
पन्ना समझ र्ई क्रक जब तक वह खाना बनाकर लडकों को न
खखलाएर्ी और खद
ु न खाएर्ी रग्घू न खाएर्ा। इतना ही नहीं, उसे रग्घू से
लडाई करनी पडेर्ी, उसे जली-कटी सन
ु ानी पडेर्ी। उसे यह ददखाना पडेर्ा क्रक
मैं ही उससे अलर् होना चाहती हूाँ नहीं तो वह इसी धचन्ता म़ें घल
ु -घल
ु कर
प्राण दे दे र्ा। यह सोचकर उसने अलर् चल् ू हा जलाया और खाना बनाने
लर्ी। इतने म़ें केदार और खुन्नू मदरसे से आ र्ए। पन्ना ने कहा—आओ
बेटा, खा लो, रोटी तैयार है ।
केदार ने पछ
ू ा—भइया को भी बल
ु ा लाँ ू न?
पन्ना—तुम आकर खा लो। उसकी रोटी बहू ने अलर् बनाई है।
खुन्न—
ू जाकर भइया से पछ
ू न आऊाँ?
पन्ना—जब उनका जी चाहे र्ा, खाऍर्ें । तू बैठकर खा: तझ
ु े इन बातों
से क्या मतलब? जजसका जी चाहे र्ा खाएर्ा, जजसका जी न चाहे र्ा, न
खाएर्ा। जब वह और उसकी बीवी अलर् रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाए?
केदार—तो क्यों अम्माजी, क्या हम अलर् घर म़ें रह़ें र्े?
पन्ना—उनका जी चाहे , एक घर म़ें रह़ें , जी चाहे ऑ ंर्न म़ें दीवार डाल
ल़ें।
ॉँ
खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झ का, सामने र्ूस की झोंपडी थी, वहीं
खाट पर पडा रग्घू नाररयल पी रहा था।
खन्
ु न—
ू भइया तो अभी नाररयल मलये बैठे हैं।
पन्ना—जब जी चाहे र्ा, खाऍर्ें ।
ॉँ नहीं?
केदार—भइया ने भाभी को ड टा
ममु लया अपनी कोठरी म़ें पडी सन
ु रही थी। बाहर आकर बोली—भइया
ॉँ अब तुम आकर ड टों।
ने तो नहीं ड टा ॉँ
केदार के चेहरे पर रं र् उड र्या। क्रर्र जबान न खोली। तीनों लडकों
ने खाना खाया और बाहर ननकले। लू चलने लर्ी थी। आम के बार् म़ें र् वॉँ
के लडके-लडक्रकय ॉँ हवा से धर्रे हुए आम चनु रहे थे। केदार ने कहा—आज
हम भी आम चन ु ने चल़ें, खब
ू आम धर्र रहे हैं।
खन्
ु न—
ू दादा जो बैठे हैं?
लछमन—मैं न जाऊाँर्ा, दादा घड
ु क़ेंर्े।
केदार—वह तो अब अलर् हो र्ए।
लक्षमन—तो अब हमको कोई मारे र्ा, तब भी दादा न बोल़ेंर्े?

749
केदार—वाह, तब क्यों न बोल़ेंर्े?
रग्घू ने तीनों लडकों को दरवाजे पर खडे दे खा: पर कुछ बोला नहीं।
पहले तो वह घर के बाहर ननकलते ही उन्ह़ें ड टॉँ बैठता था: पर आज वह
मनू ता के समान ननश्चल बैठा रहा। अब लडकों को कुछ साहस हुआ। कुछ दरू
और आर्े बढ़े । रग्घू अब भी न बोला, कैसे बोले? वह सोच रहा था, काकी ने
लडकों को खखला-वपला ददया, मझ
ु से पछ
ू ा तक नहीं। क्या उसकी ऑ ंखों पर
भी परदा पड र्या है: अर्र मैंने लडकों को पक
ु ारा और वह न आय़ें तो? मैं
उनकों मार-पीट तो न सकाँू र्ा। लू म़ें सब मारे -मारे क्रर्ऱें र्े। कहीं बीमार न
पड जाऍ।ं उसका ददल मसोसकर रह जाता था, लेक्रकन माँह
ु से कुछ कह न
सकता था। लडकों ने दे खा क्रक यह त्रबलकुल नहीं बोलते, तो ननभाय होकर
चल पडे।
सहसा ममु लया ने आकर कहा—अब तो उठोर्े क्रक अब भी नहीं? जजनके
नाम पर र्ाका कर रहे हो, उन्होंने मजे से लडकों को खखलाया और आप
खाया, अब आराम से सो रही है । ‘मोर वपया बात न पछ
ू ़ें , मोर सह
ु ाधर्न
ॉँ
न व।’ एक बार भी तो माँह
ु से न र्ूटा क्रक चलो भइया, खा लो।
रग्घू को इस समय ममाान्तक पीडा हो रह थी। ममु लया के इन कठोर
शब्दों ने घाव पर नमक नछडक ददया। द:ु खखत नेरों से दे खकर बोला—तेरी
जो मजी थी, वही तो हुआ। अब जा, ढोल बजा!
ममु लया—नहीं, तम्
ु हारे मलए थाली परोसे बैठी है ।
रग्घ—
ू मझ
ु े धचढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम हो रहा हूाँ। जब तू
क्रकसी की होकर नहीं रहना चाहती, तो दस ू रे को क्या र्रज है, जो मेरी
खुशामद करे ? जाकर काकी से पछ
ू , लडके आम चन
ु ने र्ए हैं, उन्ह़ें पकड
लाऊाँ?
ममु लया अाँर्ूठा ददखाकर बोली—यह जाता है । तुम्ह़ें सौ बार र्रज हो,
जाकर पछ
ू ो।
इतने म़ें पन्ना भी भीतर से ननकल आयी। रग्घू ने पछ
ू ा—लडके बर्ीचे
म़ें चले र्ए काकी, लू चल रही है ।
पन्ना—अब उनका कौन पछ
ु त्तर है? बर्ीचे म़ें जाऍ,ं पेड पर चढ़़ें , पानी
म़ें डूब़ें। मैं अकेली क्या-क्या करुाँ ?
रग्घ—
ू जाकर पकड लाऊाँ?

750
पन्ना—जब तुम्ह़ें अपने मन से नहीं जाना है, तो क्रर्र मैं जाने को
क्यों कहूाँ? तम्
ु ह़ें रोकना होता , तो रोक न दे ते? तम्
ु हारे सामने ही तो र्ए
होंर्े?
पन्ना की बात परू ी भी न हुई थी क्रक रग्घू ने नाररयल कोने म़ें रख
ददया और बार् की तरर् चला।

र ग्घू लडकों को लेकर बार् से लौटा, तो दे खा ममु लया अभी तक झोंपडे म़ें
खडी है । बोला—तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मझ
ु े तो इस बेला भख

नहीं है।
ममु लया ऐंठकर बोली—ह ,ॉँ भख
ू क्यों लर्ेर्ी! भाइयों ने खाया, वह
तम्
ु हारे पेट म़ें पहुाँच ही र्या होर्ा।
रग्घू ने द त ॉँ पीसकर कहा—मझ ु े जला मत ममु लया, नहीं अच्छा न
होर्ा। खाना कहीं भार्ा नहीं जाता। एक बेला न खाऊाँर्ा, तो मर न जाउाँ र्ा!
क्या तू समझती हैं, घर म़ें आज कोई बात हो र्ई हैं? तूने घर म़ें चल्
ू हा नहीं
जलाया, मेरे कलेजे म़ें आर् लर्ाई है । मझ
ु े घमंड था क्रक और चाहे कुछ हो
जाए, पर मेरे घर म़ें र्ूट का रोर् न आने पाएर्ा, पर तूने घमंड चरू कर
ददया। परालब्ध की बात है ।
ममु लया नतनककर बोली—सारा मोह-छोह तुम्हीं को है क्रक और क्रकसी
को है? मैं तो क्रकसी को तुम्हारी तरह त्रबसरू ते नहीं दे खती।
ॉँ खींचकर कहा—ममु लया, घाव पर नोन न नछडक। तेरे
रग्घू ने ठं डी स स
ही कारन मेरी पीठ म़ें धल
ू लर् रही है। मझ
ु े इस र्ह
ृ स्त्थी का मोह न होर्ा,
तो क्रकसे होर्ा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोडा। जजनको र्ोद म़ें खेलाया, वहीं
ॉँ
अब मेरे पट्टीदार होंर्े। जजन बच्चों को मैं ड टता था, उन्ह़ें आज कडी ऑ ंखों
से भी नहीं दे ख सकता। मैं उनके भले के मलए भी कोई बात करुाँ , तो दनु नया
यही कहे र्ी क्रक यह अपने भाइयों को लट
ू े लेता है । जा मझ
ु े छोड दे , अभी
मझ
ु से कुछ न खाया जाएर्ा।
ममु लया—मैं कसम रखा दाँ र्
ू ी, नहीं चप
ु के से चले चलो।
रग्घ—
ू दे ख, अब भी कुछ नहीं त्रबर्डा है। अपना हठ छोड दे ।
ममु लया—हमारा ही लहू वपए, जो खाने न उठे ।

751
रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा—यह तूने क्या क्रकया ममु लया? मैं
तो उठ ही रहा था। चल खा लाँ ।ू नहाने-धोने कौन जाए, लेक्रकन इतनी कहे
दे ता हूाँ क्रक चाहे चार की जर्ह छ: रोदटय ॉँ खा जाऊाँ, चाहे तू मझ
ु े घी के
मटके ही म़ें डुबा दे : पर यह दार् मेरे ददल से न ममटे र्ा।
ममु लया—दार्-सार् सब ममट जाएर्ा। पहले सबको ऐसा ही लर्ता है ।
दे खते नहीं हो, उधर कैसी चैन की वंशी बज रही है , वह तो मना ही रही थीं
ॉँ तो नहीं
क्रक क्रकसी तरह यह सब अलर् हो जाऍ।ं अब वह पहले की-सी च दी
है क्रक जो कुछ घर म़ें आवे, सब र्ायब! अब क्यों हमारे साथ रहने लर्ीं?
रग्घू ने आहत स्त्वर म़ें कहा—इसी बात का तो मझ
ु े र्म है । काकी ने
मझ
ु े ऐसी आशा न थी।
रग्घू खाने बैठा, तो कौर ववष के घाँट
ू -सा लर्ता था। जान पडता था,
रोदटय ॉँ भस
ू ी की हैं। दाल पानी-सी लर्ती। पानी कंठ के नीचे न उतरता था,
दध
ू की तरर् दे खा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे क्रकसी
वप्रयजन के श्राि का भोजन हो।
रात का भोजन भी उसने इसी तरह क्रकया। भोजन क्या क्रकया, कसम
परू ी की। रात-भर उसका धचत्त उद्ववग्न रहा। एक अज्ञात शंका उसके मन
पर छाई हुई थी, जेसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार
चौंककर उठा। ऐसा जान पडा, भोला उसकी ओर नतरस्त्कार की आाँखों से दे ख
रहा है ।
वह दोनों जन
ू भोजन करता था: पर जैसे शरु के घर। भोला की
शोकमग्न मनू ता ऑ ंखों से न उतरती थी। रात को उसे नींद न आती। वह
र् वॉँ म़ें ननकलता, तो इस तरह माँह
ु चरु ाए, मसर झक
ु ाए मानो र्ो-हत्या की हो।

पााँ
च साल र्ज
ु र र्ए। रग्घू अब दो लडकों का बाप था। आाँर्न म़ें दीवार
ॉँ मलये
खखंच र्ई थी, खेतों म़ें मेड़ें डाल दी र्ई थीं और बैल-बनछए ब ध
र्ए थे। केदार की उम्र अब उन्नीस की हो र्ई थी। उसने पढ़ना छोड ददया
था और खेती का काम करता था। खन्
ु नू र्ाय चराता था। केवल लछमन
अब तक मदरसे जाता था। पन्ना और ममु लया दोनों एक-दस
ू रे की सरू त से
जलती थीं। ममु लया के दोनों लडके बहुधा पन्ना ही के पास रहते। वहीं उन्ह़ें

752
उबटन मलती, वही काजल लर्ाती, वही र्ोद म़ें मलये क्रर्रती: मर्र ममु लया
के मंह
ु से अनग्र
ु ह का एक शब्द भी न ननकलता। न पन्ना ही इसकी इच्छुक
थी। वह जो कुछ करती ननव्यााज भाव से करती थी। उसके दो-दो लडके अब
कमाऊ हो र्ए थे। लडकी खाना पका लेती थी। वह खद
ु ऊपर का काम-काज
कर लेती। इसके ववरुि रग्घू अपने घर का अकेला था, वह भी दब
ु ल
ा , अशक्त
और जवानी म़ें बढ़
ू ा। अभी आयु तीस वषा से अधधक न थी, लेक्रकन बाल
खखचडी हो र्ए थे। कमर भी झक ॉँ ने जीणा कर रखा था।
ु चली थी। ख सी
दे खकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्त्तु है। खेती की जैसी सेवा
होनी चादहए, वह उससे न हो पाती। क्रर्र अच्छी र्सल कह ॉँ से आती? कुछ
ऋण भी हो र्या था। वह धचंता और भी मारे डालती थी। चादहए तो यह था
क्रक अब उसे कुछ आराम ममलता। इतने ददनों के ननरन्तर पररश्रम के बाद
मसर का बोझ कुछ हल्का होता, लेक्रकन ममु लया की स्त्वाथापरता और
अदरू दमशाता ने लहराती हुई खेती उजाड दी। अर्र सब एक साथ रहते, तो
वह अब तक पेन्शन पा जाता, मजे म़ें द्वार पर बैठा हुआ नाररयल पीता।
भाई काम करते, वह सलाह दे ता। महतो बना क्रर्रता। कहीं क्रकसी के झर्डे
चक
ु ाता, कहीं साध-ु संतों की सेवा करता: वह अवसर हाथ से ननकल र्या।
अब तो धचंता-भार ददन-ददन बढ़ता जाता था।
आखखर उसे धीमा-धीमा ज्वर रहने लर्ा। हृदय-शल
ू , धचंता, कडा पररश्रम
और अभाव का यही परु स्त्कार है । पहले कुछ परवाह न की। समझा आप ही
आप अच्छा हो जाएर्ा: मर्र कमजोरी बढ़ने लर्ी, तो दवा की क्रर्क्र हुई।
जजसने जो बता ददया, खा मलया, डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की
सामथ्या कह ?ॉँ और सामथ्या भी होती, तो रुपये खचा कर दे ने के मसवा और
नतीजा ही क्या था? जीणा ज्वर की औषधध आराम और पजु ष्ट्टकारक भोजन
है । न वह बसंत-मालती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर
बलबधाक भोजन कर सकता था। कमजोरी बढ़ती ही र्ई।
पन्ना को अवसर ममलता, तो वह आकर उसे तसल्ली दे ती: लेक्रकन
उसके लडके अब रग्घू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करत़ें ,
उसका और मजाक उडाते। भैया समझते थे क्रक हम लोर्ों से अलर् होकर
सोने और ईट रख ल़ेंर्े। भाभी भी समझती थीं, सोने से लद जाऊाँर्ी। अब
दे ख़ें कौन पछ
ू ता है? मससक-मससककर न मऱें तो कह दे ना। बहुत ‘हाय!

753
हाय!’ भी अच्छी नहीं होती। आदमी उतना काम करे , जजतना हो सके। यह
नहीं क्रक रुपये के मलए जान दे दे ।
पन्ना कहती—रग्घू बेचारे का कौन दोष है?
केदार कहता—चल, मैं खब
ू समझता हूाँ। भैया की जर्ह मैं होता, तो
डंडे से बात करता। मजाक थी क्रक औरत यों जजद करती। यह सब भैया की
चाल थी। सब सधी-बधी बात थी।
आखखर एक ददन रग्घू का दटमदटमाता हुआ जीवन-दीपक बझ
ु र्या।
मौत ने सारी धचन्ताओं का अंत कर ददया।
अंत समय उसने केदार को बल
ु ाया था: पर केदार को ऊख म़ें पानी
दे ना था। डरा, कहीं दवा के मलए न भेज द़ें । बहाना बना ददया।

मु मलया का जीवन अंधकारमय हो र्या। जजस भमू म पर उसने मनसब


दीवार खडी की थी, वह नीचे से खखसक र्ई थी। जजस खाँट
ू ों की
ू ़ें के बल पर
ॉँ
वह उछल रही थी, वह उखड र्या था। र् ववालों ने कहना शरु
ु क्रकया, ईश्वर
ने कैसा तत्काल दं ड ददया। बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को मलये
रोया करती। र् वॉँ म़ें क्रकसी को माँह
ु ददखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी
ू होता था—‘मारे घमण्ड के धरती पर प वॉँ न
उससे यह कहता हुआ मालम
रखती थी: आखखर सजा ममल र्ई क्रक नहीं !’ अब इस घर म़ें कैसे ननवााह
होर्ा? वह क्रकसके सहारे रहे र्ी? क्रकसके बल पर खेती होर्ी? बेचारा रग्घू बीमार
था। दब
ु ल
ा था, पर जब तक जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी
के कभी-कभी मसर पकडकर बैठ जाता और जरा दम लेकर क्रर्र हाथ चलाने
लर्ता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी, उसे कौन संभालेर्ा? अनाज की
ड ठ़ेंॉँ खमलहान म़ें पडी थीं, ऊख अलर् सख
ू रही थी। वह अकेली क्या-क्या
करे र्ी? क्रर्र मसंचाई अकेले आदमी का तो काम नहीं। तीन-तीन मजदरू ों को
कह ॉँ से लाए! र् वॉँ म़ें मजदरू थे ही क्रकतने। आदममयों के मलए खींचा-तानी
हो रही थी। क्या कऱें , क्या न करे ।
इस तरह तेरह ददन बीत र्ए। क्रक्रया-कमा से छुट्टी ममली। दस
ू रे ही ददन
ॉँ
सवेरे ममु लया ने दोनों बालकों को र्ोद म़ें उठाया और अनाज म डने चली।
खमलहान म़ें पहुंचकर उसने एक को तो पेड के नीचे घास के नमा त्रबस्त्तर पर
सल
ु ा ददया और दस ॉँ
ू रे को वहीं बैठाकर अनाज म डने ॉँ
लर्ी। बैलों को ह कती

754
थी और रोती थी। क्या इसीमलए भर्वान ् ने उसको जन्म ददया था? दे खते-
ॉँ र्या
दे खते क्या वे क्या हो र्या? इन्हीं ददनों वपछले साल भी अनाज म डा
था। वह रग्घू के मलए लोटे म़ें शरबत और मटर की घाँघ
ु ी लेकर आई थी।
आज कोई उसके आर्े है , न पीछे : लेक्रकन क्रकसी की लौंडी तो नहीं हूाँ! उसे
अलर् होने का अब भी पछतावा न था।
एकाएक छोटे बच्चे का रोना सन
ु कर उसने उधर ताका, तो बडा लडका
उसे चम
ु कारकर कह रहा था—बैया तुप रहो, तुप रहो। धीरे -धीरे उसके मंह
ु पर
हाथ र्ेरता था और चप
ु कराने के मलए ववकल था। जब बच्चा क्रकसी तरह न
चपु न हुआ तो वह खुद उसके पास लेट र्या और उसे छाती से लर्ाकर
प्यार करने लर्ा: मर्र जब यह प्रयत्न भी सर्ल न हुआ, तो वह रोने लर्ा।
उसी समय पन्ना दौडी आयी और छोटे बालक को र्ोद म़ें उठाकर
प्यार करती हुई बोली—लडकों को मझ ु े क्यों न दे आयी बहू? हाय! हाय!
बेचारा धरती पर पडा लोट रहा है । जब मैं मर जाऊाँ तो जो चाहे करना, अभी
तो जीती हूाँ, अलर् हो जाने से बच्चे तो नहीं अलर् हो र्ए।
ममु लया ने कहा—तुम्ह़ें भी तो छुट्टी नहीं थी अम्म ,ॉँ क्या करती?
पन्ना—तो तुझे यह ॉँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी? ड ठ
ॉँ म डॉँ न जाती।
ॉँ
तीन-तीन लडके तो हैं, और क्रकसी ददन काम आऍर्ें ? केदार तो कल ही म डने
को कह रहा था: पर मैंने कहा, पहले ऊख म़ें पानी दे लो, क्रर्र आज म डना,
माँडाई तो दस ददन बाद भ हो सकती है, ऊख की मसंचाई न हुई तो सख ू
जाएर्ी। कल से पानी चढ़ा हुआ है, परसों तक खेत परु जाएर्ा। तब माँडाई
हो जाएर्ी। तुझे ववश्वास न आएर्ा, जब से भैया मरे हैं, केदार को बडी धचंता
हो र्ई है । ददन म़ें सौ-सौ बार पछ
ू ता है, भाभी बहुत रोती तो नहीं हैं? दे ख,
लडके भखू े तो नहीं हैं। कोई लडका रोता है, तो दौडा आता है , दे ख अम्म ,ॉँ
क्या हुआ, बच्चा क्यों रोता है ? कल रोकर बोला—अम्म ,ॉँ मैं जानता क्रक भैया
इतनी जल्दी चले जाऍर्ें , तो उनकी कुछ सेवा कर लेता। कह ॉँ जर्ाए-जर्ाए
उठता था, अब दे खती हो, पहर रात से उठकर काम म़ें लर् जाता है । खुन्नू
कल जरा-सा बोला, पहले हम अपनी ऊख म़ें पानी दे ल़ेंर्े, तब भैया की ऊख
ॉँ क्रक खन्
म़ें द़ें र्े। इस पर केदार ने ऐसा ड टा ु नू के माँह
ु से क्रर्र बात न
ननकली। बोला, कैसी तम्
ु हारी और कैसी हमारी ऊख? भैया ने जजला न मलया
ॉँ
होता, तो आज या तो मर र्ए होते या कहीं भीख म र्ते होते। आज तुम बडे
ऊखवाले बने हो! यह उन्हीं का पन
ु -परताप है क्रक आज भले आदमी बने बैठे

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हो। परसों रोटी खाने को बल
ु ाने र्ई, तो माँडय
ै ा म़ें बैठा रो रहा था। पछ
ू ा,
क्यों रोता है ? तो बोला, अम्म ,ॉँ भैया इसी ‘अलग्योझ’ के दख
ु से मर र्ए, नहीं
अभी उनकी उममर ही क्या थी! यह उस वक्त न सझ
ू ा, नहीं उनसे क्यों
त्रबर्ाड करते?
यह कहकर पन्ना ने ममु लया की ओर संकेतपण
ू ा दृजष्ट्ट से दे खकर
कहा—तुम्ह़ें वह अलर् न रहने दे र्ा बहू, कहता है, भैया हमारे मलए मर र्ए
तो हम भी उनके बाल-बच्चों के मलए मर जाऍर्ें ।
ममु लया की आंखों से ऑ ंसू जारी थे। पन्ना की बातों म़ें आज सच्ची
वेदना, सच्ची सान्त्वना, सच्ची धचन्ता भरी हुई थी। ममु लया का मन कभी
उसकी ओर इतना आकवषात न हुआ था। जजनसे उसे व्यंग्य और प्रनतकार का
भय था, वे इतने दयाल,ु इतने शभ
ु ेच्छु हो र्ए थे।
आज पहली बार उसे अपनी स्त्वाथापरता पर लज्जा आई। पहली बार
आत्मा ने अलग्योझे पर धधक्कारा।
9

इ ॉँ साल र्ज
स घटना को हुए प च ु र र्ए। पन्ना आज बढ़
ू ी हो र्ई है ।
केदार घर का मामलक है । ममु लया घर की मालक्रकन है । खन्
ु नू और
लछमन के वववाह हो चक ॉँ है। कहता हैं— मैं
ु े हैं: मर्र केदार अभी तक क्व रा
वववाह न करुाँ र्ा। कई जर्हों से बातचीत हुई, कई सर्ाइय ॉँ आयीं: पर उसे
हामी न भरी। पन्ना ने कम्पे लर्ाए, जाल र्ैलाए, पर व न र्ाँसा। कहता—
औरतों से कौन सख
ु ? मेहररया घर म़ें आयी और आदमी का ममजाज बदला।
ॉँ
क्रर्र जो कुछ है, वह मेहररया है। म -बाप, भाई-बन्धु सब पराए हैं। जब भैया
जैसे आदमी का ममजाज बदल र्या, तो क्रर्र दस
ू रों की क्या धर्नती? दो
लडके भर्वान ् के ददये हैं और क्या चादहए। त्रबना ब्याह क्रकए दो बेटे ममल
र्ए, इससे बढ़कर और क्या होर्ा? जजसे अपना समझो, व अपना है: जजसे
र्ैर समझो, वह र्ैर है।
एक ददन पन्ना ने कहा—तेरा वंश कैसे चलेर्ा?
केदार—मेरा वंश तो चल रहा है । दोनों लडकों को अपना ही समझता
हूं।
पन्ना—समझने ही पर है , तो तू ममु लया को भी अपनी मेहररया
समझता होर्ा?

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केदार ने झ़ेंपते हुए कहा—तुम तो र्ाली दे ती हो अम्म !ॉँ
पन्ना—र्ाली कैसी, तेरी भाभी ही तो है !
केदार—मेरे जेसे लठा -र्ाँवार को वह क्यों पछ
ू ने लर्ी!
पन्ना—तू करने को कह, तो मैं उससे पछ
ू ू ाँ ?
केदार—नहीं मेरी अम्म ,ॉँ कहीं रोने-र्ाने न लर्े।
पन्ना—तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों म़ें उसके मन की थाह लाँ ?ू
केदार—मैं नहीं जानता, जो चाहे कर।
पन्ना केदार के मन की बात समझ र्ई। लडके का ददल ममु लया पर
आया हुआ है: पर संकोच और भय के मारे कुछ नहीं कहता।
उसी ददन उसने ममु लया से कहा—क्या करुाँ बहू, मन की लालसा मन
म़ें ही रह जाती है । केदार का घर भी बस जाता, तो मैं ननजश्चन्त हो जाती।
ममु लया—वह तो करने को ही नहीं कहते।
पन्ना—कहता है, ऐसी औरत ममले, जो घर म़ें मेल से रहे , तो कर लाँ ।ू
ममु लया—ऐसी औरत कह ॉँ ममलेर्ी? कहीं ढूाँढ़ो।
पन्ना—मैंने तो ढूाँढ़ मलया है ।
ममु लया—सच, क्रकस र् वॉँ की है?
पन्ना—अभी न बताऊाँर्ी, मद
ु ा यह जानती हूाँ क्रक उससे केदार की
सर्ाई हो जाए, तो घर बन जाए और केदार की जजन्दर्ी भी सर्
ु ल हो जाए।
न जाने लडकी मानेर्ी क्रक नहीं।
ममु लया—मानेर्ी क्यों नहीं अम्म ,ॉँ ऐसा सन्
ु दर कमाऊ, सश
ु ील वर और
कह ॉँ ममला जाता है? उस जनम का कोई साध-ु महात्मा है, नहीं तो लडाई-
झर्डे के डर से कौन त्रबन ब्याहा रहता है । कह ॉँ रहती है, मैं जाकर उसे मना
लाऊाँर्ी।
पन्ना—तू चाहे , तो उसे मना ले। तेरे ही ऊपर है ।
ममु लया—मैं आज ही चली जाऊाँर्ी, अम्मा, उसके पैरों पडकर मना
लाऊाँर्ी।
पन्ना—बता दाँ ,ू वह तू ही है!
ममु लया लजाकर बोली—तम ॉँ र्ाली दे ती हो।
ु तो अम्म जी,
पन्ना—र्ाली कैसी, दे वर ही तो है !
ममु लया—मझ
ु जैसी बदु ढ़या को वह क्यों पछ
ू ़ें र्े?

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