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वर्ष दो अंक क्रमांक 37
वर्ष दो अंक क्रमांक 37
साप्ताहिक
} वर्ष-2 } अंक-37 विक्रम सम्वत: २०80, अधिकमास श्रावण शुक्ल पक्ष अष्टमी तदानुसार गुरुवार 24 अगस्त २०२3 }पृष्ठ-8 }मूल्य-10 ~
फाईल फोटो
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चन्द्रयान -३ के सफलतापूर्वक चन्द्रमा की सतह पर पहुँचने पर ISRO के
वैज्ञानिकों को शुभकामनाएँ देते हुए श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी
निश्चलानन्द सरस्वती जी। विदित रहे इसरो के वैज्ञानिक एवं डायरेक्टर समय-समय
पर गोवर्धन मठ पुरी आकर गुरुदेव से मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त करते रहते हैं।
गतांक से आगे...
वैदिक ही सिद्धान्त है जो
दर्शन, विज्ञान और व्यवहार तीनों
में सामंजस्य साध सकता है
भोजन के तीन फल हैं- भूख की विनियोग नहीं होता। अब तक मैंने क्या
निवृत्ति, तुष्टि की प्राप्ति, तृप्ति की संकेत किया? इस रॉकेट, कम्प्यूटर,
अनुभूति। लेकिन उस भुन हुए एटम और मोबाईल के युग अनुवादक और सम्पादक
बीज को जिसको में भी गीतोक्त श्री गोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्य
सच्ची बात तो ये है कि स्वामी निश्चलानंदसरस्वती
जो परमात्म का पक्षधर हम बीज भी नहीं सिद्धान्त की गतांक से आगे
होता है, उसका व्यवहार कह सकते, भुना उपयोगिता क्यों
भी सबके सुखद हुआ चना आदि जो पहले बीज था, है, बार-बार सुनिए, फिर से सुनिए, नीति नीधि
होता है। पंचदशीकार उसको ऋतुकाल में, अनुकूल पृथ्वी, घर में मनन भी कीजिए। दर्शन, विज्ञान सुखमय जीवनके लिए यह
विद्यारण्य स्वामी जी ने, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश, दिक्, और व्यवहार, तीनों धरातल पर वैदिक आवश्यक है कि जिज्ञासु
शंकरानन्दस्वामी जी ने, काल का संयोग भी प्राप्त हो जाये, तो भी सिद्धान्त की उपयोगिता हैं विश्व में कोई श्रीमद्भागवत - एकादशस्कन्ध में
विचित्र तथ्य उद्भाषित भुन हुए भुने हुए बीज से या भुना हुआ ऐसा वाद, तन्त्र, मत नहीं है, सिद्धान्त अध्याय सात से नौ तक सन्निहित
किया मुक्तिकोपनिषद्' बीज से अंकुर आदि की उत्पत्ति नहीं हो नहीं है, जो दर्शन, विज्ञान और व्यवहार अवधूतोपाख्यानके अनुसार
में वह तथ्य प्रकारान्तर सकती। ऐसे जीवनमुक्तों का जो चित्त तीनों में सामंजस्य साध सके। बार-बार अवधूत शिरोमणि लोकस्पर्शविहीन
है सावधान। चना, जौ होता है, कैसे होता है? भुने हुए बीज के चिंतन करने योग्य यह तथ्य है । फिर केवलात्मस्वरूपानन्द निमग्न
मटर आदि के जो बीज समान जहां अक्षम होने पर भी उस चित्त से सुनिए । श्रीदत्तात्रेयजीकी शैली में अपने
होते हैं ना उनको भून का अतिक्रमण और पुनर्भव में उपयोग पूर्वजों, सगे सम्बन्धियों तथा
दिया जाये तो स्वादिष्ट { शेष अगले अंक में..
स्थावर जङ्ग विविध प्राणियों एवम्
होता है या नहीं? या पृथिव्यादि विविध पदार्थोंसे ग्राह्य
होते हैं। सौंधापन इनमें गतिविधियोंका 'मुझे ऐसा करना
बढ़ जाता है। भूख की चाहिए' इस प्रकार विधिमुखसे
निवृत्ति हो जाती है, शिक्षा ग्रहण करे तथा अग्राह्य
तुष्टि की प्राप्ति गतिविधियोंका 'मुझे ऐसा नहीं करना
हो जाती है तृप्ति चाहिए' इस प्रकार निषेधमुखसे
का अनुभव भी होने शिक्षा ग्रहण करे। अन्यथा अपकर्ष,
लगता है। अधोगति तथा विनाश सुनिश्चित है।
{ शेष अगले अंक में..
धर्म अध्यात्म
और संसार
वर्ष-2 अंक-37 गुरुवार, 24 अगस्त 2023 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 2
व्याकुलता और प्रेम
नारायण। वर्तमान दशा का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि भोगों
की ओर गतिशील होने पर क्षणिक सुख का भास अथवा निराशा का ही दर्शन होता
है और भोगों से अतीत की ओर गतिशील होने पर व्याकुलता, जीवन तथा प्रेम की
उपलब्धि होती है। व्याकुलता ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थाई होती जाती है, त्यों-त्यों सभी गतांक से आगे
दोष निर्दोषता में और सभी अभिमान निराभिमानता में तथा भेद और दूरी अभिन्नता
एवं अत्यन्त निकटता में स्वतः बदलती जाती है। अथवा इसे आप यों कह लें कि
आवश्यक शक्ति का विकास अपने आप होने लगता है। इस दृष्टि से " व्याकुलता "
बड़े ही महत्त्व की वस्तु है। व्याकुलता की जागृति और उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए
पुष्ट और स्वस्थ तन-मन
{ इन्हीं कारणों से "जूलियन ट्रेजर ऑफ साउंड बिजनेस
यह अनिवार्य है हो जाता है कि हम अपने लक्ष्य को वर्तमान जीवन की ही वस्तु मानें " ने पक्षियों की आवाजों से भरा "स्टडी” नामक
और उससे कभी निराश न हों; अपितु उसके लिए नित-नव आशा का संचार होता रहे। एप विकसित किया है, जिसे बजाने पर ऊबाऊ और
लक्ष्य वही हो सकता है, जिससे जातीय एकता, आत्मीयता एवं नित्य-सम्बन्ध हो। तभी विपरीत स्थितियों में लोगों की शारीरिक क्षमता और
हमारा लक्ष्य हमारे वर्तमान जीवन की वस्तु बन सकता है और उसी के लिए नित-नव उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है।
आशा का संचार तथा व्याकुलता जागृत् हो सकती है। अतः लक्ष्य से निराश होने के
लिए जीवन में कोई स्थान ही नहीं है। इसे नियम जानें। लक्ष्य का निर्णय व्याकुलता की कल-कल बहता जल,
जागृति में हेतु है और व्याकुलता की जागृति निर्दोष बनाकर जीवन प्रदान करने में पूर्ण करता है, तन-मन का मंगल
समर्थ है तथा निर्दोष जीवन में ही प्रेम निहित है ; कारण, कि नित्य-जीवन तथा प्रेम { झील या नदी के किनारे चुपचाप बैठिए और ध्यानपूर्वक
का विभाजन कदापि नहीं हो सकता और अनित्य-जीवन में प्रेम की प्राप्ति सम्भव नहीं बहते जल की आवाज सुनिए ।
है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि लक्ष्य का निर्णय कैसे हो ! यह सभी को मान्य होगा { बहते जल की आवाज हमारे तन और मन को
कि भोग का आरम्भ-काल भले ही सुखद प्रतीत हो, पर अन्त में तो भयङ्कर दुःख ही अत्यधिक शिथिलता (रिलेक्सेशन) और शान्ति
प्राप्त होता है। इस अनुभूति का आदर ज्यों-ज्यों स्थाई होता जाता है, त्यों-त्यों लक्ष्य प्रदान करती है, एकाग्रता देती है ।
के निर्णय की सामर्थ्य साधक में स्वतः आने लगती है और लक्ष्य का निर्णय होते ही { तनाव, एंग्जायटी, निराशा, अवसाद और अनिद्रा को
साधन का निर्माण होने लगता है, अथवा यों कह लें कि साधक का समस्त जीवन कम करती है ।
अपने आप साधन बन जाता है। यह अनुभव सिद्ध है। भोग के आरम्भ-काल के सुख { Sit comfortably & calmly near the River,
on suitable mate, close your eyes if it
का भास और परिणाम भयङ्कर दुःख, भोग की वास्तविकता का ज्ञान तथा भोग में is safe, listen attentively the songs of
निराश करने में हेतु है, भोग को जीवन बनाने में नहीं। नारायण। यह जान लें कि यह running water, also songs of birds, and
निर्विवाद सिद्ध है कि भोग से योग की ओर गतिशील होने के लिए ही साधन-निर्माण sounds of flowing air touching your body
की अपेक्षा है। विभिन्न साधकोँ के साध्य में एकता हो सकती है, साधन में नहीं ; कारण, parts, try to meditate on these events.
कि साधन का जन्म साधकों में-से होता है, साध्य में-से नहीं। यह सभी को मान्य होगा { And there is flood of good hormones
कि सर्वांश में दो साधक भी समान योग्यता के नहीं होते। इस कारण साधन का भेद in your body which start healing your
स्वाभाविक है, पर साध्य का नहीं। नारायण। साधन निर्माण करने के लिए हमें यह body, mind and soul. It's a pure scientific
भली-भाँति जानना होगा कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। नियम phenomenon.
यह है कि जो नहीं करना चाहिए, उसके न करने से, जो करना चाहिए, वह स्वतः होने पवित्र वृक्षों के नीचे बैठिए या परिक्रमा कीजिए,
लगता है। अब विचार किजीए कि क्या नहीं करना चाहिए ! तो कहना होगा कि राग-
द्वेष तथा स्वार्थ-भाव का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ;क्योंकि ये तीनों नकारात्मकता से मुक्ति पाइए
अविवेकसिद्ध हैं। नियम यह है कि जो न करना चाहिए,उसे न करना सभी के लिए { भारत सरकार के एटॉमिक इनर्जी विभाग के सेवानिवृत्त
सहज, सुगम और अनायास है। यही नहीं,उसके लिए किसी अन्य की अपेक्षा भी नहीं वैज्ञानिक डॉ. मेन्हेम मूर्ति ने युनिवर्सल स्कैनर नामक
होती। अतः जो नहीं करना चाहिए, उसके न करने में सभी स्वाधीन हैं। इस दृष्टि से एक यन्त्र बनाया है, जिससे वे विभिन्न वस्तुओं की
सभी साधक राग-द्वेष तथा स्वार्थभाव से रहित हो सकते हैं। स्वार्थभाव के अन्त होते इनर्जी (आभामण्डल औरा) को मापते हैं।
ही सर्वहितकारी भावनाएँ स्वतः उत्पन्न होती है,जो वास्तविक सेवा है। सेवा स्वार्थ को { उनके अनुसार तुलसी के पौधे का आभामण्डल
खाकर सेवक के हृदय को करुणा से भर देता है। नारायण। जो हृदय करुणा-रस से 6.11 मीटर होता है, वटवृक्ष का 10 मीटर, कदम्ब
भर जाता है, उससे राग-द्वेष स्वतःमिट जाते हैं। राग-द्वेष के मिटते ही त्याग और प्रेम का 8.40 मीटर, बेल और आंवला लगभग 4.50
अपने-आप दौड़कर आ जाते हैं। त्याग से चिर-शान्ति तथा नित्य-जीवन की उपलब्धि मीटर, भगवान शिव के प्रिय पुष्प श्वेत आंकड़े का
होती है और प्रेम अगाध अनन्त रस उत्पन्न करने में समर्थ है। नारायण। प्रेम एक ऐसा आभामण्डल सर्वाधिक अर्थात् 15 मीटर है, चम्पा
अलौकिक, दिव्य, चिन्मय तत्त्व है कि जो कभी घटता नहीं, मिटता नहीं और न कभी का 7.2 मीटर, कमल का 6.8 मीटर और गुलाब एवं
उसकी पूर्ति ही होती है, अपितु नित-नूतन ही रहता है। इसी कारण उसकी आवश्यकता गुड़हल का साढ़े पांच मीटर।
सर्वदा समस्त विश्व को रहती है। नारायण। इतना ही नहीं, समस्त विश्व जिसके किसी {डॉ. मनोहर भंडारी
एक अंश में है, उस अनन्त से भी जो अभिन्न करने में प्रेम ही समर्थ है ; क्योंकि प्रेम एम.बी.बी.एस., एम.डी.(फिजियोलॉजी)
किसी प्रकार की दूरी तथा भेद रहने नहीं देता। इस दृष्टि से केवल प्रेम ही प्राप्त करने राष्ट्रीय समन्वयक-चिकित्सा शिक्षा प्रकोष्ठ
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली
योग्य तत्त्व है। इति शम्। ^नारायण स्मृतिः { शेष अगले अंक में
समाचार पत्र की प्रिंट प्रति के लिए वार्षिक सदस्यता शुल्क 480/- रुपए + उज्जैन (म.प्र.) एवं प्रयागराज (उ.प्र.) से बाहर के पाठकों हेतु डाक शुल्क अतिरिक्त (480/-) = 960/-
प्रतिवर्ष के भुगतान के साथ अपना पत्राचार का पूर्ण पता मय मोबाइल नं. के ईमेल dsansarnews@gmail.com या मोबाईल नं. 9303968612 पर व्हाट्सअप करे।
वर्ष-2 अंक-37 गुरुवार, 24 अगस्त 2023 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 3
प्रयाग संस्करण
कार्यकारी संपादक : आदेश भूषण पांडे | मोबाईल नंबर 91409 98956
गुरदासपुर। यतिचक्र चूड़ामणि सर्वभूत ह्रदय धर्मसम्राट स्वामी श्री करपात्री जी महाराज जी के 116 वें प्राकट्य-महोत्सव के उपलक्ष्य में पीठ परिषद
अंतर्गत आदित्य वाहिनी और आनन्द वाहिनी गुरदासपुर द्वारा सत्संग, गोष्ठी, गौसेवा श्रमदान एवं गौ माता को हरा चारा अर्पित किया गया।
गणितदर्शन
133 -------------
------------------------------- 387
170 363
152 ------------
------------------------------- 244 रचयिता-श्री गोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-
180 242 श्रीमज्जगद्गुरु-शंकराचार्यस्वामी
171 ------------ निश्चलानंदसरस्वती
------------------------------- 24 गतांक से आगे
90 उत्तर = 6320 24/121
76 (सूत्र एकाधिकेन पूर्वेण ) शून्य की अड्ढमूलता-सूत्र -
------------------------------- उदाहरण (10) वर्ग करें (7654321) न भावाज्जायते भावो भावोऽभावान्न जायते ।
140 2 प्रचलित पद्धति से बहुत कठिन है।
133 नाभावाज्जायतेऽभावोऽभावो भावान्न जायते ।।
वैदिक गणित के द्वन्द्वयोग से (बौद्धधर्मदर्शन पृ. ५४८)
------------------------------- 49, 4, 6, 6, 5, 4, 4, 6, 5, 0, 041
70 =58 5 8 86 299 7 1 041 नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
57 उदाहरण (11) घन करें ( 9988) उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।
------------------------------- (श्रीमद्भगवद्गीता २.१६)
वैदिक गणित के सूत्र निखिलं नवतः
130 चरमं दशतः से (9988)=9988- नास्त्यसद्धेतुकमत्सदसद्धेतुकं तथा।
114 24/3x(-12)/(-12)- सच्चसद्धेतुकं नास्ति सद्धेतुकमसत्कुतः ।।
------------------------------- 996404318272 (माण्डूक्यकारिका ४.४०)
160 =9964/0432/1728 सूत्रार्थ:
152 उदाहरण (12) भाग दें (2x + - 3x1 "भावपदार्थकी उत्पत्ति भावसे या अभावसे सम्भव नहीं।
------------------------------- - 3x - 1 x-2)+(x²+1) अभावकी उत्पत्ति भी भाव या अभावसे सम्भव नहीं ।।
80 क्रिया x2 +0x+1 ""असत्का तात्त्विक भाव (अस्तित्व) और
76 21-3x +-Ox सत्का वास्तव विनाश भी सम्भव नहीं।
------------------------------- - 3x-2-3-2 तत्त्वदर्शियोंसे उक्त रहस्य गुप्त नहीं ।।
40
38 0-1 ""असत्का कारण असत् नहीं
------------------------------- 2-3+0 तथा सत्का कारण असत् नहीं।
མཱ།སིཾ20 02 सत्का कारण सत् नहीं और
19 0+3 असत्का कारण सत् नहीं ।।'
------------------------------- 0+2
1 2-3 { शेष अगले अंक में... शेष अगले अंक में...
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वर्ष-2 अंक-37 गुरुवार, 24 अगस्त 2023 राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र 6
धर्म-कर्म-रहस्य
श्री रामचरितमानस : बालकांड क्रमशः....
राम नाम सिव सुमिरन लागे।
जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा।
सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥ गतांक से आगे
भावार्थ:-शिवजी रामनाम श्री पंडित भवानी शंकर जी के सदा यत्न- पूर्वक आगे कहे दशविध धर्मों का
का स्मरण करने लगे, तब इंजी.बी.ई.पं. (सिविल), हर्ष शुक्ला सेवन करना चाहिए । सन्तोष, क्षमा, सन-
सतीजी ने जाना कि अब पी.जी.डी. (मानवाधिकार) साघनसंग्रह के धर्म-कर्म प्रकरण के निग्रह, अन्याय से प्रथवा स्वेच्छा बिना किसी
जगत के स्वामी (शिवजी)
सामाजिक कार्यकर्ता
एवं सलाहकार आधार पर संकलित- की वस्तु न लेना, पवित्रता, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि-
जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में परहित लागि तजे जो देही । विचक्षयता (शास्त्रादि के तत्त्व का ज्ञान), विद्या
प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए संतत संत प्रसंसहि तेही ॥ (श्रात्मबोध), सत्य, क्रोध न करना, ये दश धर्म
सामने आसन दिया॥2॥ परहित वस जिनके मन माहीं । के लक्षण हैं। जो द्विजाति दशविध धर्मों को जानते
लगे कहन हरि कथा रसाला। तिन कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥ हैं. और जानकर उनका अनुष्ठान करते हैं वे
क्षमासील जे पर उपकारी। परमगति को प्राप्त होते हैं।
दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥ धृति : मनु के दश साधारण धर्म में पहला
देखा बिधि बिचारि सब लायक। ते द्विज प्रिय मोहि जथा खरारी॥
बड़े सनेह लघुन पर करहीं । धर्म धृति है जिसका अर्थ धैर्य और सन्तोष है ।
दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥ कष्ट की दशा में पड़ने पर भी उससे लुभित न
भावार्थ:-शिवजी गिरि निज सिरन सदा तृन धरहीं ॥
अगाध मौलि वह फेनू । होना और विना चिन्तित और शोकित हुए उसको
भगवान हरि की सह लेना धैर्व्य है और ऐसी दशा में भी प्रसन्न
रसमयी कथाएँ कहने संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण ही रहना सन्ताप है । सुख दुःख दोनों नाशवान्
लगे। उसी समय दक्ष मनसा कर्मणा वाचा चक्षुषा च समाचरेत् । हैं और उनका आता कर्मानुसार होने के कारण
प्रजापति हुए। ब्रह्माजी श्रेया लोकस्य चरतो न द्वेष्टि न च अवश्यम्भावी है । उनका आना किसी प्रकार
ने सब प्रकार से योग्य लिप्यते ॥२४॥ साधारण लोगों से रुक नहीं सकता
देख-समझकर दक्ष को वाल्मीकीय रा., उत्तर का., अ. ७१ है। और न उनके भोग के नियत
प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥ आलोच्य सर्व्वशास्त्राणि समय के बीतने के पूर्व वे
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। विचार्य च पुनः पुनः । टल सकते हैं, अतएव
अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥ पुण्यं परोपकाराय धैर्य का अवलम्वन
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। पापाय परपीडनम् ॥ आवश्यक है । दुष्ट
प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥ मन, कर्म, वचन प्रारब्ध कर्म के फल
भावार्थ:-जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार और नेत्र से लोगों का दुःख रूप में कर्त्ता के
पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान कल्याण करे । ऐसा पास आते हैं, जिनको
आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, आचरण करनेवाला न धैर्व्य से भोगने से वह
किसी से द्वेष करता और छुटकारा पा जाता है,
जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥4॥ अतएव दुःख की अवस्था में
दोहा : न कलुषित होता है। सव
शास्त्रों को बार बार पढ़ने और पड़ने पर धैर्य रखना आवश्यक
दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग। है । संसार के विषयों की जितनी प्राप्ति
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥ विचारने से यही सिद्धान्त निकलता है
कि परोपकार करना पुण्य है और दूसरे को दुःख होती है उतनी ही विशेष • उनके पाने की इच्छा
भावार्थ:-दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया बढ़ती है और जब तक इच्छारूपी कृष्णा बनी
और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का देना पाप है । जैसा दूसरे की भलाई करना परम
धर्म है वैसा ही प्राणिमात्र को किसी प्रकार की रहती है तब तक शान्ति नहीं मिलती। लाभ लाभ
भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित हानि पहुँचाना महान धर्म है । प्रारब्ध- कर्मानुसार जान यथालाभ में सन्तुष्ट रह
निमन्त्रित किया॥60॥ मनु के १० साधारण धर्म सन्तोष का धारण अवश्य करना चाहिए। सन्तोष
चौपाई : मनु ने अध्याय ६ में दश प्रकार के साधारण के प्रभाव के कारण ही किसी अप्राप्त वस्तु के
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। धर्म का विधान किया है जो नीचे उद्धृत है और लिये लोभ की उत्पत्ति होती है जिसके कारण
बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥ उसमें भी दूसरा धर्म " क्षमा" अहिंसा ही का उच्च असत्य, स्तेय, अन्याय आदि अधर्म किये जाते
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। आकार है- हैं । अतएव असन्तोष पाप का और सन्तोष धर्म
चले सकल सुर जान बनाई॥1॥ चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिद्विजैः। का मूल । सन्तोष नहीं रहने से चित्त चञ्चल
भावार्थ:-(दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः ॥९१॥ और उद्विग्न रहता है और चश्चल और उद्विग्न
नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी- धृतिः क्षमा दमो ऽस्तेयं शैौचमिन्द्रियनिग्रहः। मन अशान्ति का कारण है और ईश्वरमुख हो नहीं
अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और धीविद्या सत्यमक्रोध दशकं धर्मलक्षणम् ।।९२।। तृष्णा को त्यागकर सन्तोष का अवलम्बन करने
महादेवजी को छोड़कर सभी देवता अपना- दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्राः समधीयते। से आनन्द की प्राप्ति होती है ।
शेष अगले अंक में...
अपना विमान सजाकर चले॥1॥ अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम् ॥९३॥
इन ब्रह्मचारी आदि चारों आश्रमी द्विजों को ^द्वारा महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा,
{ शेष अगले अंक में... वाईस चांसलर, इलाबाद यूनिवर्सिटी
समाचार पत्र की प्रिंट प्रति के लिए वार्षिक सदस्यता शुल्क 480/- रुपए + उज्जैन (म.प्र.) एवं प्रयागराज (उ.प्र.) से बाहर के पाठकों हेतु डाक शुल्क अतिरिक्त (480/-) = 960/- प्रतिवर्ष
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उज्जैन। धर्म
सर्वभूतहृदय धर्मसम्राट् स्वामिश्री आध्यात्मिक और
करपात्री जी महाराज के ११६वें संसार राष्ट्रीय
प्राकट्य महोत्सव के अवसर पर साप्ताहिक समाचार
पत्र के कार्यालय में
पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरीपीठ में धर्म सम्राट करपात्री
समायोजित महोत्सव में पूजन करते जी महाराज के
हुए जगद्गुरु शड़्कराचार्य स्वामी अवतरण दिवस पर
श्रीनिश्चलानंद सरस्वती जी महाराज विशेष कार्यक्रम
आयोजित किया गया।
पी ठपरिषद् आदित्यवाहिनी आनंदवाहिनी शाखा खानपुर मनवाल द्वारा सीनियर स्कालर स्कूल पठानकोट में धर्मसम्राट श्री स्वामी करपात्री जी महाराज
जी का 116वां प्राक्टय दिवस मनाया गया।इसमें प्रिंसिपल दिनेश शर्मा जी मुख्य अतिथि थे।श्री सतीश सैनी जी एस.ई. नगर निगम पठानकोट विषेष
अतिथि श्री अश्वनी शर्मा जी चेयरमैन सीनियर स्कालर स्कूल सभापति। कार्यक्रम में सनातन मानबिन्दुओं पर भाषण प्रतियोगिता करवाई गयी।संस्था द्वारा उच्च
शिक्षा ले रही गोद ली गई बच्चियों को 50,000/-रुपये छात्रवृत्तियां दी गई। स्कूल में हर्बल प्लांट भी लगाए गये।इस अवसर पर श्रीमती सुधा शर्मा राष्ट्रीय
उपाअध्यक्ष आनंदवाहिनी जी ने धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज जी के जीवन चरित्र और शाखा के प्रक्लपों की जानकारी दी गई।श्री अजय शर्मा जी प्रभारी
पंजाब प्रांत ने धर्मसम्राट श्री स्वामी करपात्री जी महाराज जी के धर्म,राष्र्ट,गोमाता एवं संस्कृति की रक्षा के लिए किये गये योगदान के बारे बताया।इस अवसर
पर श्री रमेश शर्मा ,सूबेदार रामदास शर्मा, सुरिन्द्र सैनी ,मधु शर्मा,प्रोमिला शर्मा ,श्रीमति रितु सैनी एवं छात्र छात्राएं उपस्थित थे।